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शिरोमणि महतो |
जीवन-वृत
नाम – शिरोमणि महतो
जन्म – 29 जुलाई 1973
शिक्षा – एम. ए. (हिन्दी) प्रथम वर्ष
सम्प्रति – अध्यापन एवं ‘‘महुआ‘‘ पत्रिका का सम्पादन
प्रकाशन – ‘कथादेश’, ‘हंस’, ‘कादम्बिनी’, ‘पाखी’, ‘वागर्थ’, ‘परिकथा’, ‘कथन’, ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘समावर्तन’, ‘द पब्लिक एजेन्डा’, ‘सर्वनाम’, ‘जनपथ’, ‘युद्धरत आम आदमी’, ‘शब्दयोग’, ‘लमही’, ‘नई धारा’, ‘पाठ’, ‘पांडुलिपि’, ‘अंतिम जन’, ‘कौशिकी’, ‘दैनिक जागरण’, ‘पुनर्नवा‘ विशेषांक, ‘दैनिक हिन्दुस्तान’, ‘जनसत्ता विशेषांक’, ‘छपते-छपते विशेषांक’, ‘राँची एक्सप्रेस’, ‘प्रभात खबर’ एवं अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।
रचनाएँ – ‘उपेक्षिता’ (उपन्यास) 2000; ‘कभी अकेले नहीं’ (कविता संग्रह) 2007; ‘संकेत-3’ (कविताओं पर केन्द्रित पत्रिका) 2009; ‘भात का भूगोल’ (कविता संग्रह) 2012 प्रकाशित।
करमजला (उपन्यास) अप्रकाशित।
सम्मान – कुछ संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
डॉ रामबली परवाना स्मृति सम्मान
अबुआ कथा कविता पुरस्कार
नागार्जुन स्मृति सम्मान
यह दुनिया आज जो इतनी खूबसूरत दिख रही है उसमें तमाम ऐसे लोगों की भूमिका है जो परदे के पीछे रह कर काम करने के आदी रहे हैं। ऐसे लोग विरक्ति की हद तक अपने नाम को उजागर करने से बचते हैं। प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत की तमाम उम्दा कलाकृतियाँ इस की गवाह हैं जिस पर कहीं भी इसको बनाने वाले का नाम नहीं मिलता। ‘अनुवादक’ की भूमिका भी कुछ इसी तरह की होती है। हालांकि किसी भी रचना का अनुवाद अपने आप में एक बड़ा रचनात्मक कार्य है इसके बावजूद रचना के अनुदित होने पर जो चर्चा कृतिकार की होती है वह चर्चा अनुवादक की प्रायः नहीं हो पाती। कवि शिरोमणि महतो की नजर ऐसे लोगों पर जाती रहती है और वे इन्हें अपनी कविता का विषय बनाते रहे हैं। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं कवि शिरोमणि महतो की कविताएँ।
शिरोमणि महतो की कविताएँ
चाँद का कटोरा
बचपन में
भाइयों के साथ
मिल कर गाता था-
चाँद का गीत
उस गीत में
चंदा को मामा कहते
गुड के पुआ पकाते
अपने खाते थाली में
चंदा को परोसते कटोरे में
कटोरा जाता टूट
चंदा जाता रूठ।
उन दिनों
मेरी एक आदत थी-
मैं अक्सर अपने आंगन में
एक कटोरा पानी ला कर
कटोरे के पानी में
-चाँद को देखता
बडा सुखद लगता –
कटोरे के पानी में
चाँद को देखना
मुझे पता हीं नहीं चला
कि चंदा कब मामा से
कटोरा में बदल गया……?
तब कटोरे के पानी में
चाँद को देखता था
अब चाँद के कटोरा में
पानी देखना चाहता हूँ ….!
अनुवादक
मूल लेखक के
भावों के अतल में
संवेदना के सागर में
गोते लगाते हुए
अर्थ और आशय को
पकडने की कोशिश
करता है – अनुवादक
कहीं किसी शब्द को
खरोंच न लग जाये
या किसी अनुच्छेद का
रस न निचुड़ जाये
इतना सतर्क और सचेत
रहता है हरदम – अनुवादक
तब जा के सफल होता
अनुवादक का श्रम
श्रेष्ठ सिद्ध होता अनुवाद
अब अनुदित कृति पर
हो रहे खूब चर्चे
मानो मूल लेखक के
उग आये हों पंख
छू रहा आसमान।
मंच पर बैठा मूल लेखक
गर्व से मुस्करा रहा
फूले न समा रहा –
पाकर मान-सम्मान
और दर्शक-दीर्घा में बैठा:
अनुवादक तालियाँ बजा रहा…!
चापलूस
वे हर बात को ऐसे कहते जैसे –
लार के शहद से शब्द घुले हों
और उनकी बातों से टपकता मधु
चापलूस के चेहरे पर चमकती है चपलता
जैसे समस्त सृष्टि की ऊर्जा उनमें हो
वे कहीं भी झुक जाते हैं ऐसे –
फलों से लदी डार हर हाल में झुकती है:
और कही भी बिछ जाती है मखमल-सी उनकी आत्मा!
चपलूसों ने हर असंभव को संभव कर दिखया है
उनकी जिह्वा में होता है मंत्र- ‘खुल जा सिम-सिम‘
और उनके लिए खुलने लगते हैं- हर दरवाजे
अंगारों से फूटने लगती है- बर्फ की शीतलता
चापलूस गढें हैं- नई भाषा नये शब्द
जरूरत के हिसाब से रचते हैं- वाक्जाल
जाल में फंसी हुई मछली भले ही छूट जाये
उनके जाल से डायनासोर भी नहीं निकल सकता
उनके बोलने में, चलने में, हँसने में, रोने में
महीन कला की बारीकियाँ होती हैं
पतले-पतले रेशे से गँढता है- रस्सा
कि कोई बंध कर भी बंधा हुआ नहीं महसूसता
चापलूस बात-बात में रचते हैं- ऐसा तिलिस्म
कि बातों की हवा से फूलने लगता है गुब्बारा
फिर तो मुश्किल है डोर को पकडे रख पाना
और तमक कर खडे हो उठते है निति-नियंता
यदि इस धरती में चापलूस न होते
तो दुनिया में दम्भ का साम्राज्य न पसरता!
रिहर्सल
दुनिया के रंगमंच पर
जीवन का नाटक होता है
जो कभी दुखांत होता
तो कभी सुखांत भी होता है …
किन्तु, इस नाटक में
कैसा अभिनय करना है?
कौन सा संवाद बोलना है?
कौन-सा गीत गाना है?
कितना हँसना है?
कितना रोना है?
कुछ भी पता नहीं होता…
कल क्या होगा?
आज क्या होगा?
पल भर बाद क्या होगा?
कुछ भी पता नहीं होता
सब कुछ – अनिश्चित-अज्ञात
जीवन जीने का रिहर्सल नहीं होता
और न ही रि-टेक होता है …
सौ साल का जीवन भी आदमी
बिना रिहर्सल के जीता है!
दरिद्र
भला मैं तुम्हें क्या दे सकता
मैं दरिद्र कुछ भी तो नहीं मेरे पास
हाथ बिल्कुल खाली कुछ दोषयुक्त रेखाएँ
जो भविष्य की भी आस बंधाता
माथे में असंख्य बाल मगर बेकार
ऐसे में दिन हमारे कटेंगे कैसे साथ
पेट भरने को रोज कितना लहू पानी बनाता
और खोदता चुँआ तो कंठ भिगोता
गालों के कोटर में पसीने की बास
थोडा भी मांस नहीं-अस्थियों का आवरण
गले भी लगाऊँ तुम्हे तो होगे हतास
दुःखेंगे बदन के पोर-पोर
अब तुम्हीं करो निर्णय क्या करना है
गले की हड्डी उगलना है या निगलना!
हिजड़े
न नर है न मादा बीच का आदमी
उसने जीवन में कभी नहीं जाना-
सहवास के अंतिम क्षणों का तनाव
न गर्भ-धारण के बाद की प्रसव-पीड़ा
अक्सर लोकल ट्रेन में वे मिल जाते
दोनों हथेलियों को पीटते- चौके छक्के लगाते
शायद इसीलिए लोग उन्हें कहते भी हैं –“छक्के”
लोगों को रिझाने के लिए उनसे पैसे निकलवाने को
अजीब-अजीब हरकतें करते – भाव भंगिमा दिखाते
कभी साडी उठा युवाओं को ढँकने लगते
तो कभी सलवार-समीज खोलने का ड्रामा
बांकी चितवन चमकाते -छाती के उभारो को मटकाते
कुछ लोग रिझते दस-बीस रूपये दे भी देते
कुछ खीझते और दो-चार गालियाँ भी देते
वे भी प्रत्युत्तर देना भली-भाँति जानते
खुश हुए तो ‘सारा-वारा-न्यौरा’ कर देते
वरना मुँह बिचका कर भाव-भंगिमाओं से मजाक उड़ाते
कौन जाने उनकी नियति ऐसी क्यों हुई
किसी देवता का श्राप या पूर्वजों का पाप
जिसका वे ज्यादातर समय करते परिहास
जो भी हो इसके लिए वे तो दोषी नहीं
शायद इसीलिए वे करते रहते हैं- मनुष्यता का उपहास!
डेढ बजे रात
अभी डेढ बजे रात
मैं जगा हुआ
और बल्ब जला हुआ है
मैं खाट पर लेटा-लेटा
देख रहा हूँ –
चूहे किस कदर
भूख से बिलबिला रहे हैं…..
आज करवा-चौथ की रात
कार्तिक का महीना
मेरी पत्नी और बेटी सोई हुई
और मैं घंटा भर से देख रहा
चूहे किस कदर बिलबिला रहे हैं….
चूहे भूखे कभी इधर-उधर दौडते
कभी खाली डब्बों का टटोलतें
कभी कागज को कुतरते-खाते
मुँह में बन जाता – झाग
मन कसेला कर देता स्वाद
यह वो समय है-
जब बीटे झडे दडाम खाली
घर में अनाज बिल्कुल नहीं
वैसे अधिकतर घरों में नहीं होता
लोग खरीद-खरीद कर खाते हैं…
जिसे डब्बों टिनों में बन्द रखते है
अभाव में भाव समझ में आता है!
आजकल चूहे ज्यादा मर रहे हैं
शायद भूख से मर रहे है….
खेतों में धान रस भर रहे हैं
अभी दाने भरने में समय लगेगा
तब तक इसी कदर
चूहों को बिलबिलाना होगा
माटी कागज साबुन खा कर जीना होगा…!
स्कूटी चलाती हुई पत्नी
स्कूटी चलाती हुई पत्नी
किसी मछली-सी लगती है
जो आगे बढ रही है-
समुन्दर को चीरती हुई
और मेरे अंदर
एक समुन्दर हिलोरने लगा है
स्कूटी चलाती हुई पत्नी
जब स्कूल जाती है
लोग उसे देखते हैं-
आँखे फाड़-फाड़ कर
गाँव की औरते ताने कसती हैं-
‘मैडम, स्कूटी चलाती है,
भला कहाँ की ‘जैनी’ स्कूटी चलाती है?’
स्कूटी चलाती हुई
मेरी पत्नी को देख कर
औरतों की छाती में सांप
मर्दो के ह्रदयमे हिचकौले….
स्कूटी चलाती हुई पत्नी
जब स्कूल जाती है
मेरी माँ बेचैन रहती है-
देखती रहती- उसका रास्ता
कि- कब लौटेगी वह
कहीं कुछ हो न जाये!
मेरी पत्नी ने बहुत मेहनत से
सीखा है- स्कूटी चलाना
उसने कभी साईकिल नहीं चलाई
उसके लिए स्कूटी चलाना कठिन था
और उससे भी ज्यादा कठिन था
अपने भीतर के डर को भगाना-
जो सदियो से पालथी मारे बैठा था!
अब तो
मेरी पत्नी के हौसले बुलंद हैं
माप लेने को-देस दुनिया
पंख उग आये-उसके पावों में
पत्नी स्कूटी चलाती है-
अपने मन की गति से
अब मैं उस के पीछे बैठ कर
देख सकता हूँ-देस-दुनिया!
इस जंगल में
पलाश के फूलों से
लहलाहाते इस जंगल में
महुए के रस से सराबोर
इस जंगल में
कोई आ कर देखे-
कैसे जीते है-जीवन
आदिमानव-आदिवासी!
जिनके लिए जीवन
केवल संघर्ष नहीं
संघर्ष के साज पर
संगीत का सरगम है
और कला का सौन्दर्य
उनके बच्चे खेलते कित-कित
गुल्ली डंडा दुबिया रस-रस
और चुनते लकड़ियाँ
तोड़ते पत्ते-दतुवन
जिसे बाजार में बेच कर
वे लाते-नमक प्याज और स्वाद
अब जब पूरा विश्व
एक ग्राम में बदल रहा है
इस जंगल की फिजाओ में
बारूद की गंध भर रही है
कोरइया के फूल खिलते
वन प्रांत इंजोर हो जाता है
चाँदनी उतर आती है- प्रांतर में
सहसा भर जाता-धमाकों का धुआँ
दम धुटने लगता- इस जंगल में
खिलते हुए पलाश के फूल-से
जंगल में आग लहक उठती है
महुए के फूल से चू रहा-
घायल पंडुक का रक्त
मांदर की थाप पर
थ्री नॉट थ्री की फायरिंग
सिहर उठता समुचा जंगल
खदबद करते पशु-पक्षी
कोयल की कूक, पंडुक की घू-घू चू
सुग्गे की रपु-रपु, पैरवे की गुटरगू
बंदर की खे-खे, सियारो का हुआँ-हुआँ
सात सुरों व स्वरो को घोट रही
छर्रो की सांय-सांय, गोलियों की धांय-धांय
शहर वाले कहते हैं-
जंगल में मंगल होता है
फिर इस जंगल में क्यो
फूट रहा मंगल का प्रकोप!
इसके लिए दोषी है कौन
पूछ रहे सखुए शीशम के पेड
सरकार है मौन-संसद भी मौन!
पिता की मूँछें
पिता के फोटो में
कडप-कडप मूंछे हैं
पिता की मूंछे
ऊपर की ओर उठी हुई हैं….
शुरू से ही पिता
कडप-कडप मूंछे रखते थे
जिसकी नकल कई लोग किया करते थे
पिता बीमार पडते
उनका शरीर लत हो जाता
पीठ पेट की ओर झुक जाती
लेकिन उनकी मूंछे उपर की ओर उठी-हुई
उनकी मूछों की नकल कर
लोग मुझे चिढाते
मैं खीझ कर रोता
और सोचता-
पिता मूंछे कटवा क्यो नहीं देते?
उनके लिए
क्या थीं- मूंछे?
कोई नहीं जानता
मेरी माँ भी नहीं
शायद पिता भी नहीं….!
मैंने उन से कभी नहीं कहा-
मूंछे कटवाने को
मालूम नहीं
कभी माँ ने कहा भी या नहीं
कभी-कभी देखता-
पिता मूंछों को सोटते हुए
उन्हे ऐंठते हुए
बडे निर्विकार-निर्लिप्त लगते
एक बार मेले में
पिता के साथियों की
कुछ लोगों से लड़ाई हुई
पिता लाठी ठोकते हुए
मूंछों पर ताव देने लगे
लडाई करने वाले
दुम दबाके खिसक गये
यह कहते हुए कि-बाप रे बाप
कडप-कडप मूंछ वाला मानुष!
फिर क्या –
पूरे इलाके में
पिता की मूछों की धाक जम गई
पिता को मूछों से
कभी कोई शिकायत नहीं रही
उन्होंने चालीस साल
मुंछो को सोटते हुए काटे….
दुखों को चिढाते हुए….
पिता नौकरी से निवृत्त हुए
और गुमसुम-गुमसुम रहने लगे
दूर क्षितिज को ताकते
घण्टों मूछों को सहलाते-चुपचाप
और एक दिन
बिना कुछ बोले
पिता ने मूंछें कटवा लीं…..
अब मैं रोज ढूँढता हूँ-
पिता के चेहरे पर-पिता की मूंछे!
बंदरिया
अपने मालिक के इशारे पर
नाचती है बंदरिया
करती- उसके इशारों का अनुगमन
जैसे कोई स्त्री करती है –
अपने पुरुष के आदेशों का पालन।
बंदरिया के गले में लगा सीकड़
खींचता बंदरिया वाला
हांथ में डंडा लिए उसे नचाता
उछल-उछल नाचती बंदरिया
जैसे वह समझती है- सब कुछ
अपने मालिक की बातों को इशारों को
डंडे की मार खाने से बचती:
और वह नाचती…..
बंदरिया वाला गाता-
‘‘असना पातेक दोसना
कोरठया पातेक दोना।
दोने-दोने मोद पीये
हिले कानेक सोना।।“
बंदरिया मोद पीने का अभिनय करती
अपने कानों को पकडती
जैसे सचमुच उसके कानों में हो
-सोने की बाली।
बंदरिया वाले के डंडे के इशारे पर
वह नाचती रूठती रोने का स्वांग करती
जिसे देख कर- सभी खुश हो रहे –
बच्चे, बूढे, जवान और औरतें
औरतें तो ज्यादा खुश:
वे खिलखिला कर हँसती हैं-
देख कर अपने ही- दुःख का स्वांग!
पानी
पानी खीरे में होता है
पानी तरबूजे में होता है
पानी आदमी के शरीर में होता है
धरती के तीन हिस्से में पानी ही तो है…..
हम पानी के लिए
अरबों-खरबों खरच रहे
धरती-आकाश एक कर रहे
हम तरस रहे-
अंतरिक्ष में बूंद भर पानी के लिए
शायद कहीं अटका हो- बूंद भर पानी
किसी ग्रह की कोख में
किसी नक्षत्र के नस में
या आकाश के कंठ में
पारे-सा चमक रहा हो- पानी!
पानी जरूरी है
चाँद पर घर बनाने के लिए
चाँद पर सब्जी उगाने के लिए
चाँद पर जीवन बसाने के लिए
जिस दिन मिलेगा-
बूंद भर पानी
मानो हमने पा लिया –
आकाश-मंथन से – अमृत!
सम्पर्क
नावाडीह, बोकारो,
झारखण्ड – 829144
मोबाईल – 09931552982
(इस पोस्ट में वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की पेंटिंग्स प्रयुक्त की गयी हैं.)