मुसाफ़िर बैठा की कविताएँ

मुसाफिर बैठा


# कविता, हाइकू, कहानी, लघुकथा, आलेख/निबन्ध, आलोचना, पुस्तक समीक्षा विधाओं में रचनाएं (पत्र पत्रिकाओं में) प्रकाशित।

# दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से कविता, आलेख (वार्ता) एवं कहानी प्रसारित। दूरदर्शन पर बीच बहस में‘ (सीधा प्रसारण) एवं अन्य वैचारिक बहस के कार्यक्रमों में भी शिरकत।

# आद्री एवं दीपयतन नामक संस्थाओं की कार्यशालाओं में भाग लेकर नवसाक्षरों के लिए एवं अन्य विषयों पर पुस्तिका लेखन।

# प्रकाशित काव्य पुस्तक – बीमार मानस का गेह

# डा ए के विश्वास (पूर्व नौकरशाह, ias, vc) की अंग्रेजी पुस्तक अंडरस्टैंडिंग बिहारका हिंदी अनुवाद (प्रकाश्य)

# प्रतियोगिता दर्पण पत्रिका द्वारा आयोजित “21 वीं सदी के सपने” शीर्षक अखिल भारतीय निबन्ध प्रतियोगिता में सन 2001 में एवं कादम्बनी पत्रिका के एक विचार-लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान/पुरस्कार प्राप्त।

# बिहार सरकार के राष्ट्रभाषा परिषद का नवोदित साहित्य सम्मान।
#
भारतीय दलित साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा डा अम्बेडकर फेलोशिप सम्मान।
हाल ही में दलित पैंथर्स पार्टी के महासचिव सुरेश केदारे से मेरी बातचीत हुई. इस बातचीत में सुरेश जी ने यह स्वीकार किया कि हिन्दी के दलित लेखन ने समूचे भारतीय परिप्रेक्ष्य में इधर अपनी एक अलग और सशक्त पहचान बनायी है. कवि मुसाफिर बैठा के लेखन में दलित जीवन के संघर्ष और चिन्तन को स्पष्ट तौर पर रेखांकित किया जा सकता है. वाम आन्दोलन से इस दलित चिंतन की कुछ असहमतियां भी रही हैं जो मुसाफ़िर बैठा के यहाँ भी देखी जा सकती है. इस असहमति को हम अपनी आत्मालोचना के रूप में भी देख सकते हैं. बहरहाल आज प्रस्तुत है मुसाफ़िर बैठा की कुछ नयी कविताएँ.       
मुसाफ़िर बैठा की कविताएँ 

ईश्वर के भरोसे न बैठना हमेशा अच्छा है
व्यवस्था के भरोसे न रहना भी अच्छा
गाहेबगाहे यदा कदा
ईश्वर एवं व्यवस्था पर अविश्वास करो तो ऐसे
कि हाथ हथियार की जगह हथौड़ा चूमे
और, आत्मविश्वास संग हौसला आसमान
कि मौका लगने पर हौसले का वितान
बाइस साल तक भी पसर सके अनथक अनवरत
तन के युव-अवस्था से अधेड़ हो जाने तक
हथौड़ा रहे संग साथ बल्कि
देह के कार्य-अक्षम हो जाने
शिथिल पड़ जाने तक
पर्वत को छोटा कर यदि आप
रास्ता गढ़ सकते हैं तो लाजिमी है
कि आप अपने कद एवं जुनून से
पहाड़ पुरुष बन जाएँ
दशरथ मांझी कहलाएं जाएँ।
जवाबदारी
मैं हारता रहा हूँ जब तब
जीतने के अपने जज्बे को
बिना आराम दिए
हार के पीछे मेरा कोई दम नहीं है न युक्ति
जीत के पीछे हर मुमकिन दम है जबकि
मैं केवल जीतने की जवाबदारी
लेने का पक्षधर हूँ।
हत्या-अभ्यस्त अपराधी सा मुख मेरा
मैं आपको सहज दिख रहा होऊंगा
लग रहा होऊंगा मुस्कुराता हुआ
सन्तुष्ट भाव का परिचय
मेरे चेहरे से पा रहे होंगे आप
शिकवा शिकायत दुःख दर्द क्लेश का
कोई रग-रेशा नहीं मिल पा रहा होगा
मुस्कान मंडित मेरे मुखड़े से आपको
मुझे आप सदा सदा से, युगों युगों से
प्रताड़ना-वंचित सा पा सकते हैं यद्यपि कि
साहेब!
हत्या-अभ्यस्त हत्यारे का केवल चेहरा पढ़
क्या आप उसके द्वारा अंजाम दिए गये
लाखो गुनाहों को लख सकते हैं
नहीं न!
सतत हत्या में रत एवं हत
दोनों आत्यंतिक छोरों का चेहरा
अक्सर नकली होता है!
बड़े भैया की पाटी

लिखने की इक काठ की पाटी 
रखी है अब भी 
गांव पर मेरे पुश्तैनी घर में 
अबके नोटबुक के जमाने से 
पहले स्लेट के समय से भी 
पहले चलन में आया था यह
बड़े भइया ने घर स्कूल दोनों जगह 
इस कालिख पुती कठपाटी पर 
किया था लिखने पढ़ने का गुरु अभ्यास 
क ख ग सीखने से दसवीं कक्षा पर्यंत
सन् उन्नीस सौ पचपन में 
बनी थी यह पाटी 
ऐसा बताते हैं 
नौकरी से रिटायर होने की दहलीज पर 
पहुंचे भैया और जीवन के अंत की 
दहलीज पर पहुंचती पचासी वर्षीया मां 
जबकि जस की तस है अभी भी 
उस पाटी की काया 
पर उस साबुत काया का भी 
अब नहीं रहा कोई पूछनहार
पाटी की अक्षत काया 
और मां की क्षीण काया
दोनों की कार्यऊर्वरता की 
हतगति हो गयी है मानो एक जैसी
बड़े भाईसाहब की यह पाटी 
बन गयी है एक ऐसी थाती 
जो डराती भी है जगाती भी 
कि एक अदना सी वस्तु भी 
बड़ा सिरज सकती है 
जैसे कि भाईसाहब का पढ़ना लिखना 
घर के पहले व्यक्ति और पीढ़ी का 
अक्षरसंपन्न होना था 
इसी पाटी के आधार तले
कि इस मानव काया पर गुमान करना भी 
कोई अच्छी बात नहीं 
समय का चक्र पाटी जैसी 
अक्षत काया को भी 
अनुपयोगी बना सकता है साफ
जो भी हो
मैं बचाए रखना चाहता हूं 
अपनी जिन्दगी भर के लिए 
बड़े भाई साहब की यह पाटी
बतौर एक संस्कारक थाती।
प्रियजन

प्रियजन से इतना अतल तलछटहीन
होता है हमारा राग
कि आपस में हर व्यापार का मान
समलाभ ही आता है
इस व्यापार की हर चीज की तौल
दिल की पासंगहीन जादुई तुले पर 
आंकी गई होती है
जिसके हर पलड़े का भार
हर बटखरे की तौल पर 
हर हमेशा समान ही आता है
यदि हम बदल लें
यकायक अपना पता ठिकाना
तो भी प्रियजन से 
नहीं रहता छुपा रहता अधिक समय तक
हमारा नया घर नया ठिकाना
कारण कि कम से कम इतनी तो नहीं होती
हमारे आपसी संवादों में टूट
कि बात बात में आपसदारी की
कोई नई बात उन्हें न हो सके मालूम
इत्तिफाकन अगर आ धमकना चाहे
हमें बाखबर किए बिना ही हमारे घर
दूरी वश याद आता हमारा कोई आत्मीय
हमारे बीच की याद की बारंबारता को कम करने
तो यकीनन यादों के वर्धमान कोटे में
सेंध लगती जाती है
उस आत्मीय का हमसे रूबरू रहने तक
मगर यह सेंधमारी भी
कोई घाटे का कारक नहीं बल्कि
ज्यों ज्यों बूड़ै स्याम रंग
त्यों त्यों उज्ज्वल होय
की मानिंद 
हमारे लिए मुनाफे का सौदा बन आता है
प्रियजन हमें महज सुख सुकून बांटते हैं
और भरसक हमारा दुख दर्द काढ़ते हैं।
गाली

जब हम किसी को 
दे रहे होते हैं गाली 
तो केवल और केवल 
उसे ही पीड़ा पहुंचाने का 
ध्येय रहता है हमारा
और अपना मन हल्का करने का
जबकि हम अपनी गाली 
बेशक महज लक्षित पर ही 
नहीं रख पाते केन्द्रित
गेहूँ के साथ जैसे 
पिस जाता है घुन 
उसी तरह 
बकी गाली का 
आयास अनायास लक्षित के 
अगल-बगल आस-पड़ोस सगे-संबंधी 
यहां तक कि कहीं अगम अगोचर 
और दूर बहुत दूर तलक भी 
पसर जाता है उसका संक्रामक प्रभाव 
और करता है कोई भरता है कोई 
जबकि औरों ने हमारा 
कुछ नहीं बिगाड़ा होता 
जैसे 
मां-बहन बेटा-बेटी साला-साली रिश्ते-नातों की 
अंतड़ी-छेद गालियां दे कर हम 
कुछ ऐसा ही कर रहे होते हैं
गालिबन 
गालियों का स्वभाव ही है ऐसा 
कि वे उद्दाम उच्छृंखल होती हैं 
अपने प्रभाव की तरह और
अपने को किसी ऊंच-नीच, सही-गलत के 
खांचे में बंध कर देखे जाने में 
नहीं रखतीं वे हरगिज यकीन।
 
भूकम्प और डर

भूकम्प हुआ और कांपी दुनिया
काँप काँप सब जन बाहर निकले
घर से बाहर 
सयाने और अनाड़ी निकले
लोकतंत्र के राजा निकले
राजे के दरबारी निकले
निडर कालाधन अरजते
सेठ, साहूकार औव्यापारी निकले
देवी देवताओं की रहबीरी और रखवारी छोड़ 
जान बचाने खातिर अपनी अपनी
साधुवेशी संत महंथ पंडे और पुजारी निकले
जीवन मरण की झांसा-खेती करते
सगरे धर्मव्यापारी निकले
घर से बाहर
परदे के हिम्मत के हिरावल
जीरो होते हीरो निकले
करोड़ों की बोली पर बिकने वाले
ऊंचे ऊंचे कद के भयभीत खिलाड़ी निकले
घर से बाहर
मरीज निकले
मरीजों के तीमारदार निकले
घर से बाहर वे मरीज तक निकले
जिन्हें कंधे, गोद अथवा किसी 
इतर सहारे की दरकार हुई
ऑपरेशन छोड़ डाक्टर निकले
डाक्टरों के साथी सहयोगी निकले
घर से बाहर
वे भी निकले
जिनके पास कहने को ही घर हैं
जिनके नहीं है घर तक
घर से बाहर वे भी निकले
घर से बाहर
वे भी निकले
जिनके घर किले से हैं
सुरक्षित ठिकानों की तलाश में
घर से बाहर
वे भी निकले
जो थे घर के लगभग बाहर ही।
राजा, जलजला और नवनिर्माण

राजा खड़ा है
कैंची लिए हाथ
उद्घाटन फीता काटने को 
किसी नवनिर्माण की फसल का फीता 
साथ हैं दरबारी फसल व्यापारी
और कुछ दूरी पर खड़े हैं
इस फसल के दीन हीन संभावित उपभोक्ता 
आँखों में स्वप्न लिए हुए 
और इस अवसर के लिए तालियाँ संजोए हुए अपने हाथ
कि ऐन वक्त पर धरती कांपी बरजोर
और औरों समेत राजा ने भी
भाग लिया बदहवास
किसी निर्माण को साधते हुए भी राजा 
इस हद तक डर सकता है
डरकर
कर सकता है सीन से पलायन
और हो सकता है इतना कमजोर हाथ
यह राजनीति में संभव है
लोकतंत्र की राज-नीति में।
 
विभीषण का दुःख 
विभीषण!
कम से कम हर दुर्गापूजा के दिनों
तुम बरबस याद आते हो
रामपूजक परम्परापोषी हिंदुओं ने 
तुम्हें कहीं का न रख छोड़ा
स्वार्थहित में अपने सहोदर रावण का
न दे कर साथ
आक्रमणकारी राम के तूने पुरे बांह
भजते पूजते रहे राम को
अपने अग्रज और सहोदर की इच्छाओं के विरुद्ध
और खोल दिये अपने घर के पूरे राज 
उतर कर राम के पक्ष में
पर भारतीय घरों में तुम्हें
पूजा-प्रशंसा के लायक कतई नहीं समझा गया
बल्कि उलटे तिल तिल मरने की तरह
तुम्हारा किया सतत तिरस्कार
घर का भेदी लंका ढाए-मुहावरे को
कृतघ्न परम्परापोषी रच और
आपने मानस में बसा कर 
अलबत्ता एक रहम की रामपूजकों ने जरूर 
कि रावण और तुम्हारे अन्य भाई बांधवों की तरह 
न बनाया गया तुम्हें
रामभक्ति घोर घृणा का पात्र
जिनके पुतले बनाकर सार्वजानिक दहन का 
आयोजन किया जाता है दुर्गापूजन के मौके पर
बुराइयों के दहन का प्रतीक मान्य होता है यह मौका
जिसके आयोजन में समाज के सारे बुरे तत्व 
सफेदपोश नकाबपोश व बेखौफ विचारने वाले तक
इतनी तन्मयता से लगे होते हैं कि
अपराध का ग्राफ इन दिनों अप्रत्याशित रूप से 
हतगति को प्राप्त शेयर सेंसेक्स की तरह
औंधे मुंह गिरा होता है
विभीषण!
तुम्हे कृतघ्न राम या कि अविवेकी रामभक्तों से 
सवाल करने यह क्यों नहीं आया 
कि भक्त भक्त में यह फर्क तुम हो क्यों कर जाते 
कि पात्रों के लिए भी तुम 
क्यों न्यायबुद्धि नहीं अपनाते
कि वानर हनुमान में था क्या खास 
जिसे तुमने देव ठाठ से हुलस अपनाया
और मेरी राम आसक्ति में रही क्या कमी कसर
जो तुम राम भक्तों ने देव तुल्य न मानकर 
अतिथि देवो भव- के प्रतिदान में कर कृतघ्नता 
मुझे दुत्कार घृणा का ओछा पात्र बनाया!
बाज़ार में क्लीवेज

देह हमारी है
देह के इस्तेमाल से अपनी
कमाई का अधिकार हमारा है
जाहिर है क्लीवेज भी हमारीहै
इसे दिखाना
न दिखाना
कितना दिखाना
कब दिखाना
क्यों दिखाना
किसे दिखाना
हमारा प्रेरोगेटिव है
अगर आप क्लीवेज प्रेमी हैं
तो आपको केवल मौके की तलाश में रहना चाहिए कि
हमारी क्लीवेज का कवरेज कब कब
बाज़ार एवं बाजारू मीडिया के माध्यमों से
आपकी आँखों तक पहुँचता है
आप क्लीवेज पर कुछ मत कहिये
आप पुरुष अपने पिद्दी से पैसे के खर्च से
इस पर कुछ कह लेने का अधिकार नहीं पा सकते
हम फिल्मों में क्लीवेज दिखाते हैं
हम विज्ञापनों के लिए अपनी क्लीवेज का प्रदर्शन करते हैं
वहां हमारे लिए बेशुमार पैसे हैं 
और आपके लिए बहुत थोड़े पैसे के खर्च पर 
इसे देखने का बारम्बार सुख लेने के मौके हैं
अब आप यह मत कहने लगिएगा कि
आपके बूंद बूंद से थोड़े पैसों से जरूर 
हमारी दौलत का घड़ा भर कर उफन आता है
हम खूब समझते हैं कि क्लीवेज का मोल तभी तक है
जब तक वक्ष उभार को उसके अक्ष से वस्त्रहीन कर 
बाजार में बेचने की इजाजत नहीं है
आप पुरुषो! अभी वस्त्र-मुक्त क्लीवेज एवं वक्ष परिधि के
इर्द गिर्द ही नजर ठहरा कर काम चलाइये
आप जब हमारे इंडोर्समेंट के बिना हमारी क्लीवेज पर 
कुछ कहेंगे तब स्त्री अधिकार विरोधी कहे तो जाएँगे ही
दकियानूस और चुप-सुप्त क्लीवेज निहारने के गुनहगार भी
क्लीवेज दिखाना जब हम जरूरी समझते हैं
तो देखना भी थोड़े ही जरूरी हो जाता है
सरकार जब शराब, सिगरेट और तम्बाकू के अन्य वेरिएंट्स
बेचती है तो इसका यह मतलब थोड़े ही है
कि इन्हें आप ख़रीदे ही एवं इनका पान करके ही दम लें
आखिर इन्द्रिय निग्रह भी तो कोई सांस्कृतिक चीज़ है
पुरानी संस्कृतियों की रक्षा करना धर्म है और
नए अधिकारों के तहत नई संस्कृति रचना हमारा कर्तव्य
अब यह न कह बैठिएगा कि क्लीवेज के मामले में
शराब और तम्बाकू की तरह का कोई राइडर 
क्यों न लगवाती हैं क्लीवेज उन्मुक्तता पसंद हम अत्याधुनिकाएं
कि क्लीवेज निहारना स्वस्थ पुरुष के
मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है!
 
 अम्बेडकरवादी हाइकू
(1)
ऋषि शम्बूक
दलित पूर्वज जो
ब्रह्म-शिकार।
(2)
चिंतक वाम
दक्षिण घूमे, सूंघ
शूद्र दखल।
(3)
पंडित कैसा
मरे तो जरे लग
दलित हाथ।
(4)  
 
सहानुभूति
स्वानुभूति से बड़ी
स्वादे पीड़क।
(5)
स्वानुभूति का
तोड़ कहाँ, जो जोर
लगा ले द्विज।
(6)
मार्क्स विदेशी
लूटे दुलार, तोषी
हैं देसी वाम!
(7)
आयातित हो
आया वाम, फिर भी
क्यों जी पूरी हाँ।
(8)
भाई गज़ब
राम की शक्तिपूजा
कविता वाम!
(9)
पंडित बन
तू हगो न वेद जी
नया ज़माना
(10)
नक्सली बस
बना बराबर, ज्यों
राक्षस, क्यों जी?
(11)
नहीं आदमी
रह जाये जी, लगे
जो नक्सली ठप्पा!
(12)
ढोए दोहरा
अभिशाप सा भार
दलित नार।
(13)
आरक्षण ये
टटका अबका छी:
बासी हाँ, क्यों जी?
(14)
जारे रावण
को, जा रे खल भक्त
राम कहा क्या?
(15)
आधा तन ही
बसन लपेटा,था
खेल बड़ा जी!
(16)
बाबा साहेब
जिसका नाम, कर
उसका साथ!
(17)
छूत अछूत
भाव कायम, ख़ाक
नया जमाना?
(18)
मेरिट रट
मत मूत आस्मां पे
बचाओ मुख!
(19)
ढाई आखर
पढ़ कबीर का, ऐ
पंडित तुम
(20)
आरक्षण तो
पुजाई पंडिताई
भी, मानोगे न?
(21)
सौंदर्यशास्त्र
नया गढ़े दलित
तू पुरा तज !
(22)
तिलिस्म टूटा
अब तेरी मेधा का
ओलम्पिक में!
(23)
पंडित, देखो
लिख लोढ़ा पर पत्थर
भी, कहलाये!
(24)
कामचलाऊ
पढ़ भी बन लो
पंडित पंडा
(25)
संसकिरत
बस क ख ग पढ़
पंडित बन!
(26)
धरम खेल
रेलमपेल, चेत
धंधाबाज़ों से।
(27)
शोणित एक
अनेक धर्मफेरे
फेर में फंस !
(28)
मिथ्या कथन
सर्वधर्मसम के
भाव का है जी
(29)
पंचों वक्त क्यूँ
पढ़े नमाज़ कवि
प्रगतिशील!
(30)
हाथ में रक्षा
धाग, ऊँगली नग
आह! दलित!!
(31)
बुद्ध महात्मा
छोड़ गए संदेश
देखा क्या गह?
(32)
राज पाट का
बल वैभव छोड़
गया जो बुद्ध
संपर्क :

मुसाफ़िर बैठा

बसंती निवास, प्रेम भवन के पीछे,

दुर्गा आश्रम गली, शेखपुरा,

पटना (बिहार) – 800014

मोबाइल : 09835045947,

ई-मेल : musafirpatna@gmail.com

  

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)