उमा शंकर चौधरी की कहानी ‘दिल्ली में नींद’



आज हम मानव सभ्यता के जिस तथाकथित शिखर पर खड़े हैं उसमें सचमुच की कितनी जगह मानवता के लिए बची हुई है। ऐसा लगता है जैसे इसमें सामान्य मनुष्य के लिए कोई जगह ही नहीं। आज सब कुछ उनके लिए है जो सामर्थ्यवान है। आम आदमी जैसे घुट-घुट कर मरने के लिए अभिशप्त है। जीना तो वह जैसे जानता ही नहीं इस दुनिया को बेहतर बनाने में हमेशा जिनका बड़ा हाथ रहता है वही अपनी सामान्य जरूरतें तक पूरी कर पाने की स्थिति में नहीं होते। उमाशंकर चौधरी ने इसी विषयवस्तु को अपनी इस कहानी में करीने से उठाया है। कहने की उमाशंकर की अपनी अलग ही शैली है जो उन्हें औरों से अलग करती है। इस कहानी में भी उनके इस कहन को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। आइए पढ़ते हैं उमाशंकर चौधरी की यह नयी कहानी जो ‘पल-प्रतिपल’ के हालिया अंक में प्रकाशित हुई है   
         
दिल्ली में नींद


उमा शंकर चौधरी 


दिल्ली जो एक शहर है और जिसके एक छोर से दूसरे छोर की दूरी इतनी अधिक है कि पैदल लोगों को कई दिन लग जाएं।

आज महीने का दूसरा दिन था इसलिए चारूदत्त सुनानी ने सोचा कि आज वह अपने घर जायेगा। उसने अपने उस कारखाने के चदरे की छत से सिर को बाहर निकाल कर देखा तो लगा कि धूप एकदम से बौरा ही गयी है। लेकिन उसकी पैंट की जेब में उसके महीने की तनख्वाह थी तो उसने अपने भीतर एक फुर्ती महसूस की। उसने आधे दिन की छुट्टी अपने मालिक से यह कह कर ली थी कि उसकी पत्नी की दायीं टांग में एक फोड़ा है जिससे मवाद निकल रहा है और जिसे दिखलाने उसे आज जाना ही होगा। सुनानी ने अपने मालिक से यह झूठ बोला था परन्तु इसके अलावा उसके पास चारा ही क्या था।

सुनानी ने सोच तो लिया था लेकिन धूप इतनी प्रचंड थी कि आंखें एकदम से चुंधिया गईं। उसने ज्यों ही उस टीन के चदरे से अपना सिर बाहर निकाला तो ऐसा लगा कि आग का गोला उसके सिर से टकरा गया हो। उसने छोटे छोटे कदमों से बस स्टैंड की तरफ बढना शुरू किया। उसके कारखाने से बस स्टैंड की दूरी लगभग डेढ किलोमीटर की होगी। लेकिन इस मौसम में और वह भी भरी दोपहर में यह डेढ किलोमीटर बहुत खटक सा रहा था।
 

‘‘कितना अच्छा होता कि सूरज दादा थोड़ी देर के लिए नहाने चले जाते।’’ ऐसा सुनानी ने अपने मन में सूरज दादा की ओर देखते हुए सोचा और फिर अपनी इसी सोच पर उदास हो गया।      

सुनानी की लम्बाई 5 फुट 8 इंच के करीब होगी। उसका सिर थोड़ा बड़ा था और उस सिर पर दोनों ही तरफ से तिकोने स्टाइल में बाल की जगह खाली हो चुकी थी। उसके सिर में छोटे-छोटे घाव थे जो धूप में एकदम से चुनचुनाने लगे थे। उन घावों के मुंह खुले हुए थे और चुनचुनाने के बावजूद उनमें खुजली करने की गुंजाइश नहीं थी। सुनानी को ऐसा लग रहा था कि धूप की तेज तपिश उन घावों के सहारे सिर के भीतर घुस रही है और सिर एकदम से भट्टी की तरह तपने लगा था। बस स्टैंड पर भीड़ थी लेकिन बस स्टैंड नहीं था। चूंकि बस स्टैंड जैसी कोई चीज नहीं थी इसलिए सुनानी की आंखें चुंधियाती रहीं, घाव के सहारे तपिश सिर में धंसती रही और उसका माथा ठनकता रहा। वह जहां खड़ा था वहां दो ठेले वाले और पानी की ट्राॅली वाले थे। दो ठेले में से एक पर ककड़ी और एक पर खीरा बिक रहा था। दोनों ठेले वाले पानी की बूंदों के सहारे उन्हें ताजा रखने की कोशिश कर रहे थे। सुनानी ने न तो खीरा खरीदा और न ही ककड़ी।

नाम चारूदत सुनानी: पृष्ठभूमि जैसा कुछ कुछ
 

चारूदत्त सुनानी मूलतः उड़ीसा का था। लेकिन उड़ीसा अब उसमें नहीं के बराबर ही था। चारूदत्त के पिता का नाम था शाक्यमुनि। यानि शाक्यमुनि सुनानी। भुवनेश्वर से जब आप पुरी की तरफ बढेंगे तब उसी के बीच एक छोटे से गांव में शाक्यमुनि का घर था। शाक्यमुनि बहुत गरीब था लेकिन उसका जीवन किसी तरह चल रहा था। उसके पास वहां एक छोटा सा खपरैल का घर था और थोड़ी सी खेती। उस खेती से घर तो नहीं चलता था लेकिन उसमें दो पपीते के पेड़ थे जिनके पपीते बहुत मीठे थे। उसकी तीन बेटियां थीं और मात्र एक बेटा। उसके पास जो थोड़ा सा खेत था सिर्फ उसके भरोसे जीवन गुजारा नहीं जा सकता था इसलिए उसने अपने रोजगार को विस्तार देने के लिए एक डोंगी खरीदी थी। उस डोंगी से वह समुद्र में मछली पकड़ने जाता था। डोंगी में एक जाल था और एक पतवार। वह उस डोंगी में जाल के सहारे मछली पकड़ता था और फिर उन मछलियों को टोकरी में ले जाकर बाजार में बेचता था। शाक्यमुनि उस डोंगी को ले कर अकेले समुद्र में बहुत दूर चला जाता था दूर इतना कि किनारे बैठ कर देखो तो डोंगी एक शून्य के माफिक दिखायी पड़े। शाक्यमुनि उस छोटी सी खेती और इन मछलियों के सहारे ही अपना और अपने परिवार का जीवन चला रहा था। शाक्यमुनि ने इन्हीं आमदनियों के सहारे ही अपनी तीनों बेटियों का लगन किया था। 

शाक्यमुनि इस समुद्र और इन मछलियों से बहुत प्यार करता था और वह समुद्र के इस जल और इन मछलियों के बिना एक दिन भी नहीं रह पाता था। वह अक्सर कहता था कि समुद्र के पानी से ज्यादा बड़ा साथी कोई नहीं हो सकता। वह कहता आखिर ऐसा क्यों है कि आंसू और समुद्र का पानी दोनों का स्वाद नमकीन होता है। वह इसे मनुष्य की भावना से जोड़ता था। वह उन मछलियों पर अतिशय भरोसा जताता था और कहता कि अगर ये मछलियां न हों तो मेरे जीवन का क्या अर्थ।
 

शाक्यमुनि सामान्यतया नंगे बदन रहता था। सिर्फ बदन पर एक लुंगी। लुंगी का रंग प्रायः उजला होता था लेकिन कभी-कभी हल्की नारंगी लुंगी भी वह पहन लेता था।अपने बेटे चारूदत्त को वह बहुत प्यार करता था। कई बार वह अपने साथ समुद्र पर अपनी डोंगी की सवारी करने अपने बेटे चारू को भी साथ लाता था। बेटा चारूदत्त, जिसका नाम उसके पिता ने इसी समुद्र किनारे लेटे और आसमान को निहारते, चांद को देखते रखा था। चारू यानि चांद जैसी शीतलता। चारू कई बार अपने पिता के साथ समुद्र की इस पाट पर दूर तक जाता था और फिर इतना खुश होता था कि उधर से लौटने में बिना नाव के वह समुद्र की छाती पर बस दौड़ता हुआ चला आता था।

सब ठीक चल रहा था लेकिन शाक्यमुनि का इन मछलियों से कुछ ज्यादा ही प्यार बढने लगा। शाक्यमुनि को पता नहीं क्यों पर अचानक एक दिन ऐसा लगने लगा कि एक दिन ऐसा आयेगा कि समुद्र से सारा पानी खत्म हो जायेगा। और पानी खत्म हो जायेगा तो सारी मछलियां मर जायेंगी। ठीक वह दिन जिस दिन उसके मन में यह ख्याल आया उसके बाद से कभी भी उसके दिमाग से यह डर निकल नहीं पाया। वह पहला दिन था जब वह अपने साथ एक डिब्बे में समुद्र का पानी लेकर घर आया था और अपनी पत्नी से कहा था कि वह इसे सम्भाल कर रख दे क्योंकि समुद्र का पानी जिस दिन खत्म हो जायेगा उस दिन कम से कम इस पानी को देख कर वह समुद्र को महसूस तो कर सकता है। और उस दिन से शाक्यमुनि ने रोज अपने साथ एक डिब्बे में पानी ला कर उस घर में रखना शुरू कर दिया था। ‘‘हम जितना अधिक से अधिक समुद्र को बचा सकें।’’ वह ऐसा कहता था और इस तरह उसका घर धीरे-धीरे पानी के इन डिब्बों से भरता जा रहा था।
 

धीरे-धीरे शाक्यमुनि का यह पागलपन इस कदर बढ़ता चला गया कि वह अक्सर रात में वहीं समुद्र किनारे डोंगी पर सोने लगा और कभी-कभी वह समुद्र के पानी को अपनी बांहों में भर कर घंटों रोता रहता और तब सचमुच समुद्र के पानी में उसके आंसू का नमक मिलता रहता था। और फिर यही पागलपन इतना बढता गया कि एक दिन उसने उस अपने गांव, अपना इलाका, अपनी भाषा और अपना वह प्यारा समुद्र छोड़ कर इस दिल्ली जैसे महानगर में प्रवेश करने का निर्णय ले लिया। उसने तब कहा था कि यह दिल्ली जो कि एक बड़ा शहर है यहां अच्छा है कि कोई समुद्र नहीं है जो कि कभी खत्म हो जाये। और यह जो दिल्ली है वह कभी खत्म हो ही नहीं सकती है। लेकिन यहां पैसे बहुत हैं  जिसे बस समेट लेने की जरूरत है। शाक्यमुनि जब दिल्ली आया तब चारूदत्त सातवीं कक्षा में वहीं सरकारी स्कूल में पढता था। और फिर चारूदत्त दिल्ली में कभी फिर पढाई कर नहीं पाया।

यूं तो मैं शाक्यमुनि के दिल्ली के संघर्ष को भी विस्तार से जानता हूं परन्तु यह कहानी शाक्यमुनि सुनानी की नहीं हो कर उसके इकलौते बेटे चारूदत्त सुनानी की है इसलिए मैं उस विस्तार में यहां नहीं जा रहा हूं। इस कहानी के लिए शाक्यमुनि के लिए संक्षेप में बस इतना ही कि शाक्यमुनि ने दिल्ली आ कर अपने सामने सपनों को टूटते-बिखरते देखा। उसने अपने और अपने परिवार के जीवनयापन के लिए दर-दर की ठोकरें खायीं। तरह-तरह के निकृष्ट स्तर का काम किया और किसी तरह कई वर्षों तक जिंदगी को बस घसीटता रहा। नशे से दूर रहने वाला शाक्यमुनि दिल्ली में नशे का आदी होने लगा। और फिर सब बर्बाद होता चला गया। उसने अपने गांव की जो वह छोटी सी जमीन थी उसे बेच दिया। वह यहां कमाने की कोशिश करता तो ऐसा लगता जैसे वह इस दुनिया का है ही नहीं। उसे लगता कि सब उसे ही घूर रहे हैं। उसे लगता उसे कुछ आता ही नहीं। उसे लगता वह सब कुछ भूल चुका है। उसे लगता है एकदिन वह और भी सब कुछ भूल जायेगा। यहां तक कि अपना नाम, अपनी पहचान, अपनी भाषा और सांस लेना भी। 


अच्छा बस इतना हुआ कि चारूदत्त की शादी उसके पिता ने अपनी जिन्दगी रहते कर दी थी। धीरे-धीरे चारूदत्त के पिता और बाद में मां का निधन हुआ। और फिर इस तरह हम इस कहानी को सीधे ले चलते हैं चारूदत्त सुनानी के जीवन में। यहां से हम चारूदत्त के जीवन की बात करेंगे और उसके नाम के लिए हम सिर्फ सुनानी का प्रयोग करेंगे।


सुनानी: दिल्ली में अगर लाल किला है, कुतुबमीनार है तो वह क्यों नहीं रह सकता


सुनानी को जब उसके पिता दिल्ली ले कर आये थे तब उसकी उम्र लगभग बारह-तेरह साल की थी। और तब से वह लगभग दिल्ली में काम कर ही रहा है। कभी इस गैरेज तो कभी उस गैरेज। कभी रिक्शा तो कभी ठेला। बढ़ती उम्र के साथ जब वह गठीला जवान हुआ तब उसके अंदर जोश भरा हुआ था। अपने पिता को नशे में डूबते और बर्बाद होते देख तो उसे गुस्सा आना चाहिए था, उसे खीझ होनी चाहिए थी परन्तु सुनानी को अपने पिता से कोई शिकायत नहीं थी। वह अपने मन में सोचता था कि समुद्र की उन मछलियों में जरूर कोई चालाक मछली रही होगी जिसने पिता की आंखों में इस दिल्ली के ख्वाब को बुन दिया था। सुनानी अपने पिता की इस तन्हाई को शिद्दत से महसूस करता था। वह जानता था पिता की समुद्र से और उन मछलियों से प्यार की इंतहां को। इसलिए वह इस अलगाव के दुख को भी जानता था। वह अपने पिता को देखता था यहां उनके द्वारा किया जाने वाली और फिर असफल होने वाले कोशिश को भी देखता था और दुखी होता था। सुनानी डोंगी पर बैठ समुद्र में दूर तक निकल जाने वाले पिता का एक संतुष्ट चेहरा याद करता और फिर काम पर निकल जाता था। सुनानी नशे के चंगुल में जकड़ते जा रहे पिता को जानता था परन्तु वह सच यह भी जानता था कि एक हारा हुआ और व्यथित मनुष्य कब तक जिंदा रह सकता है। सुनानी सब कुछ जानते हुए भी पिता को नशे की छूट देता था। 


हां, अब जब मैं उसकी यहां कहानी लिख रहा हूं तब पिछले दस-बारह वर्षों से वह एक कबाड़ जैसी दुकान में काम कर रहा है। या कह लें यह एक ऐसी दुकान है जहां कारों की या तो मरम्मत होती है या फिर उसे पूरी तरह बिगाड़ ही दिया जाता है। 


यह दिल्ली का एक बाहरी इलाका है जहां अभी तक लम्बी दूरी से चल कर आती एक मेट्रो का एक किनारा खत्म हो जाता है। मेट्रो के यहां पहुंचने पर यह घोषित किया जाता है ‘‘यह डैश स्टेशन है। इस मेट्रो की यह यात्रा यहीं समाप्त होती है।’’ इस स्टेशन से भी लगभग आठ किलोमीटर दूर जब बस से जाया जाए तब आती है यह कबाड़ जैसी दुकान। बहुत लम्बी दूरी तक यह सुनसान इलाका है। इस इलाके में ऐसा नहीं है कि इस जैसी कोई एक दुकान है कि कुछ अजीब लगता हो। एक साथ इस तरह चार-पांच बिगाड़ने या मरम्मत करने की दुकानें यहां है। इसलिए जब इस इलाके में कभी आप आयेंगे तो आपको यहां कबाड़ ही कबाड़ दिखेगा। ऐसा जैसे यह जिन्दगी भी एक कबाड़ है। इसे ठीक-ठीक दुकान कहा जाए या फिर गैरेज जैसी कोई चीज, पता नहीं। परन्तु हां यह अवश्य सत्य है कि सुनानी इन दस-बारह वर्षों में इस दुकान-गैरेज की धुरी बन चुका है। यूं तो काम करने वाले वहां और भी हैं परन्तुु सुनानी तो सुनानी है।


वास्तव में गाडि़यां जो एक्सीडेंट में या फिर पुरानी होने पर बिल्कुल थकुचा सी जाती हैं, वे गाडि़यां यहां आती हैं। गाडि़यों में थोड़ी-मोड़ी चोट हो तो वह तो कहीं भी निकल जाये लेकिन गाडि़यों को इतनी चोट लग जाये कि उसके सम्भल जाने की सारी संभावनाएं खत्म हो जाएँ तब वे यहां पहुंचती हैं। यूं समझिये जब रुमाल को मरोड़ दिया जाए और उस पर इस्त्री फिरा कर हम उसे एकदम फ्रेश कर लें। 


‘‘असी ते लांड्री खोल रखी है जी। लांड्री विच मुड़ी तुड़ी गड्डी दे जाओ होर फेर देखो साड्डा कमाल। असी ऐनु नोट वर्गा कड़क बनां दांगे।’’ ऐसा सुनानी के दुकान के मालिक सरदार मोंटी सिंह अपनी दाढी में हाथ फिराते हुए कहते थे। 


‘‘हम तो कहते हैं तुसी बेफिकर हो के गाड़ी चलाओ जी। गाड़ी की गारंटी हमारी। गाड़ी तुम कैसी भी हालत में ले आओ जी हम उसे एवन करके आपको लौटायेंगे। हां अपनी जान की चिंता आप करो। बाकी वाहे गुरू की कृपा।’’ सरदार मोंटी सिंह ऐसे बोलते जैसे लोग गाडि़यों को ठोकते इसलिए नहीं हैं कि उन्हें अपनी जान से ज्यादा अपनी गाड़ी की चिंता रहती है। 


दिल्ली में एक दिल्ली गेट है और दिल्ली गेट के पास है एक खूनी दरवाजा 


सुनानी ने दिल्ली में अपने पैर जमाने के लिए बहुत संघर्ष किया। उसने रिक्शा, ठेला सब चलाया लेकिन अब लगभग ग्याहर-बारह साल से वह इसी गैरेज में था मोंटी सिंह के यहां। एक तरह से कहिए इस गैरेज को बनाने में सुनानी की बड़ी भूमिका थी। 


‘‘तब तो यहां इक्का दुक्का लोग दिखते थे। एकाध गाडि़यां।’’ सुनानी थोड़ा नाॅस्टेल्जिक होता। ‘‘तब तो यहां एक जामुन का पेड़ भी था।’’ 


‘‘यह पहली दुकान है इस तरह की इस एरिया में। फिर देखा देखी कितनी खुलती गईं।’’


जब सुनानी इस गैरेज में काम पर लगा था तब कुछ नहीं पता था उसे इस बारे में। लेकिन तब दादा थे यहां। बंगाली दादा। दादा ने तब सुनानी को अपना शिष्य बनाया। और फिर सुनानी एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह धीरे-धीरे सब सीखता चला गया। 


शुरू में सुनानी गाड़ी के खोले गए हिस्से और चोटिल हिस्से पर जब हथौड़ी मारता तो उससे जख्म और निशान दूर क्या होगा और दूसरा जख्म उभर आता। 


‘‘बाबू मोशाय। मोहब्बत करना सीखो। हम जो चोट यहां देता है वह जख्म भरने के लिए देता है ना कि जख्म देने के लिए।’’ दादा की नसीहत आज भी भूल नहीं पाया सुनानी।


दादा कहते ‘‘हम कलाकार लोग हैं। और कलाकार का काम है जखम को खतम करना। हां, यह अलग बात है कि हमारी कदर किसी को नहीं है।’’ दादा ऐसा कहते और एक अतल गहराई में खो जाते। लेकिन फिर वे वापस लौटते ‘‘लेकिन तुम बोलो कला के बिना बचेगी यह दुनिया।’’ सुनानी को दादा की कितनी बातें समझ में आतीं पता नहीं लेकिन दादा बोलते तो उसे बहुत अच्छा लगता था।


लेकिन दादा वहां बहुत दिन टिक नहीं पाये। दादा की पत्नी वहां बंगाल के गांव में कैंसर से पीडि़त हो गयी और दादा को सुनानी को अकेले कला की इस दुनिया में छोड़ कर जाना पड़ा। सुनानी अकेला हुआ लेकिन उसने अपनी स्मृति से दादा को कभी विस्मृत नहीं होने दिया।


सुनानी अपने मन के भीतर अपने गुरू को बसा कर धीरे-धीरे अपने आप को सम्भालने की कोशिश करने लगा। और फिर वह धीरे धीरे परफैक्ट होता चला गया।


सुनानी ने धीरे-धीरे गाडि़यों के शरीर पर उभरे गहरे जख्म को निकालना सीख लिया। वह प्रायः लोहे की हथौड़ी के साथ लकड़ी के हथौड़े को रखता था और गाडि़यों के उस हिस्से को गाड़ी से अलग कर अपनी गोद में रख आहिस्ते-आहिस्ते उस हथौड़ी से उसके जख्म को निकालता था।


सुनानी गाडि़यों के चोटिल हिस्से को पहले अपने अलग अलग तरह के हथौड़ों से दुरुस्त करता फिर जब वह लगभग समतल हो जाता तब उसे मसाले से भर कर उसे पेंट किया जाता था। लेकिन सुनानी का काम सिर्फ चोटिल हिस्से को दुरुस्त करना था।  


जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि यहां या तो गाडि़यों को दुरुस्त किया जाता था या फिर उसे नष्ट कर दिया जाता था। मोंटी सिंह को गाडि़यों के इस जख्म को निकालना बिल्कुल नहीं आता था। वह इस के लिए अब पूरी तरह से सुनानी पर निर्भर था। ऐसा नहीं है कि उसके यहां काम करने वाला सिर्फ सुनानी ही है। सुनानी के अतिरिक्त उसके यहां चार और कारीगर काम करते थे। लेकिन सुनानी को वह अब बहुत अनुभवी मानता था। हां, लेकिन मोंटी सिंह ने इसमें महारत हासिल कर रखी थी कि गाडि़यों की कंडीशन को देखते हुए ही वह बता देता था कि वह संभलने लायक है या फिर नष्ट करने लायक।


जो गाडि़यां नष्ट करने लायक होती थीं उसे मलबे में तब्दील कर दिया जाता था। जो पार्ट्स नये लगाने पड़ते थे तो उस पुराने जर्जर पार्ट्स को भी मलबे मे फेंक दिया जाता था। मलबा यानि कबाड़। कबाड़ जब बहुत सारा इकट्ठा हो जाता था तब उसे बेचा जाता था। तब तक वह उस गैरेज के पीछे वाले हिस्से में पहाड़ की तरह बनता जाता था। एक पहाड़, दो पहाड़, तीन पहाड़। पहाड़ों के बीच ठक-ठक की आवाज एक कोरस बनाती थी।    


स्त्रियों की चुप्पी में भी एक आवाज होती है
 

सुनानी की पत्नी का नाम था मृगाावती। मृगावती उड़ीसा की ही थी। सुनानी के पिता अपनी मृत्यु से पहले यह एक अच्छा काम कर गए थे। नहीं तो सुनानी सोचता है कि उससे कौन करता शादी। मृगावती की लम्बाई कम थी और वह बहुत गरीब घर की थी। एक तरह से कहिए कि सुनानी के पिता उड़ीसा से मृगावती को लगभग बस ले कर ही आये थे। परन्तु सुनानी ने अपने जीवन में अपनी पत्नी का मान कभी कम नहीं होने दिया। सुनानी ने हमेशा सोचा कि उसकी शादी हो गई यही क्या कम है। मृगावती बहुत सुन्दर तो नहीं थी। उसके चेहरे पर से उसकी गरीबी झांकती थी। लेकिन सुनानी के लिए मृगावती रूपसी थी। जब सुनानी के पिता अपने साथ मृगावती को घर ले आये तब सुनानी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा था।

मृगावती जब इस घर में आयी तो सुनानी के परिवार की हालत एकदम जर्जर थी। लेकिन मृगावती खुद इतने गरीब घर से आयी थी कि उसके लिए यह सब ठीक ही था। परन्तु मृगावती को अपना घर, अपना परिवेश, अपने लोग के छूटने का दुख तो था ही।


जब सुनानी ने मृगावती को पहली बार देखा तो सबसे पहली बार उसकी निगाह उसके बालों पर गयी। मृगावती के बाल घुंघराले थे और सुनहरे थे। सुनानी ने जब उसे पहली बार देखा था तो वह उस घुंघराले बालों पर मोहित सा हो गया था। तब पहली बार में ही सुनानी ने अपने मन में यह ख्वाब बुन लिया था कि वह इन घुंघराले बालों में अपनी उंगलियों को फंसा कर रख छोड़ेगा। एकाध दिन में जब तक थोड़ी रस्म अदा करके मृगावती से उसकी शादी नहीं हो गयी तब तक मृगावती सुनानी की मां के साथ ही सोयी। सुनानी की मां जो रात में बहुत खांसती थी और सोये-सोये बहुत तेज सांसें लेती थी।


शादी की रस्म के बाद जब पहली बार सुनानी अपनी पत्नी के साथ किराये के उस छोटे से कमरे में सोया तब उसके अरमानों को जैसे पंख लग गये थे। जिन घुंघराले बालों के लिए सुनानी उतावला हो रहा था
 हैरानी की बात यह है कि जब सुनानी ने मृगावती को अनावृत किया तो यह देख कर हैरान रह गया कि मृगावती के दोनों स्तनों के अग्रभाग पर एक-एक ठीक वैसा ही घुंघराला बाल था। वैसा ही घुंघराला और वैसा ही सुनहरा। सुनानी को तो लगा जैसे उसके हाथ खजाना लग गया हो। उसने सोचा यह तो बगीचे से निकली दो लताएं हैं। सुनानी पहले उन दोनों बालों को एक-एक कर थोड़ी देर तक निहारता रहा और फिर उन दोनों स्तनों के दोनों बालों को एक-एक करके मुंह में ले लिया और इस बहाने………………….।

‘‘ये दोनों मेरे हैं मेरे। मेरे दो कबूतर। मैं इन्हें बहुत प्यार करूंगा।’’ सुनानी ने धीरे से यह कहा लेकिन उसके मुंह से यह आवाज बहुत स्पष्ट नहीं निकल पायी क्योंकि उसका मुंह तब भरा हुआ था। सुनानी ने जब अंत में उसे कस कर पकड़ लिया तब मृगावती चुप थी और शांत पड़ी हुई थी। एकदम निस्तेज।


सुनानी के जीवन के वे सुनहरे दिन थे। जिन्दगी से उसकी शिकायत खत्म होती जा रही थी। उसने तब यही सोचा ‘जीवन इतना बुरा भी नहीं।’ सुनानी अपने काम पर जाता और आते वक्त अपनी पत्नी के लिए थोड़ा सा उजास ले आता। और फिर घर में मौका पा कर उन लताओं से उलझा रहता। या फिर अपने कबूतरों से खेलता।
लेकिन धीरे धीरे सुनानी ने मृगावती के साथ रहते रहते यह जान लिया था कि वह एक चुप्पा स्त्री है। मृगावती घर में रहती थी और चुप रहती थी। वह प्रायः बस हां और नां से ही काम चलाती थी। वह घर का सारा काम अपने कंधे पर निपटाती लेकिन बोलती कुछ नहीं थी।


‘‘आज सिर में तेज दर्द हो रहा है’’ ऐसा सुनानी बोलता और मृगावती चुप रहती।
‘‘खाना खिला दो। ’’ ऐसा सुनानी कहता और मृगावती उसके सामने खाना परोस देती।
‘‘अब सो जाते हैं हम।’’ ऐसा सुनानी बोलता और मृगावती सचमुच सो जाती।


उस दिन जब मृगावती के उंचे होते पेट को देख कर सुनानी ने जब यह कहा था कि ‘‘तुम्हारे पेट में क्या छोटा सुनानी है?’ मृगावती ने तब भी कुछ खास प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की थी और उस दिन सचममुच सुनानी बहुत हतप्रभ रह गया था। 


लेकिन मृगावती के जीवन में यह भी बहुत ही अजीब था कि वह जो जगे हुए में एक एक शब्द को इतना सोच कर बोलती थी वही मृगावती अक्सर रात को गहरी नींद में धाराप्रवाह बोलती थी। धाराप्रवाह, उलजूलूल पता नहीं क्या क्या। कभी लगभग चीखते हुए कहती कि ‘‘मैं डूब जाउंगी, बचा लो मुझे।’’ फिर कस कर सुनानी को पकड़ लेती। कभी कहती ‘‘मैं कहती थी न कि रस्सी टूट जायेगी। डूब गई न बाल्टी। कभी कहती ‘‘सांस नहीं आ रही है घुट कर मर जाउंगी मैं।’’ कभी कहती ‘‘मुझे छोड़ दो मैं कहीं नहीं जाउंगी। झुनिया तो वहीं छूट गई।’’


सुनानी ने पहले जब ये आवाजें सुनीं तो वह अंदर से डर गया था। उसे लगा पता नहीं क्या यह पागल है। या फिर यह कि क्या वह मरने वाली है। लेकिन धीरे-धीरे समय बीतने के साथ वह उसकी इस आदत का आदी हो गया। मृगावती बोलती और सुनानी उसे जोर से झकझोर देता और फिर वह करवट बदल कर सो जाती।
खैर मृगावती चाहे जैसी भी थी लेकिन सुनानी के जीवन में तीन प्यारे बच्चे उसी ने दिये। और सच में इस घर को घर तो उसी ने बनाया।


‘‘वह नहीं रहती तो घर लौटने का मन ही क्यों करता।’’ ऐसा सुनानी कहता तो उसके चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव आ जाता।

एक दिन सुनानी ने आसमान की अलगनी पर एक पिंजरा टांग दिया था।

वह जो लम्बी दूरी से चली आ रही मेट्रो यहां आकर खत्म होती है और जहां से सुनानी का गैरेज सीधे में लगभग सात-आठ किलोमीटर है उसी मेट्रो के करीब से दक्षिण की तरफ महज आधे किलोमीटर की दूरी पर एक बड़ी सी झोपड़पट्टी है। झोपड़पट्टी यानि एक बड़ी सी जगह में छोटे छोटे दड़बे जैसे ढेर सारे घर। अगर आप कभी ऊंची फलाईओवर से ऐसे घरों को एक साथ देखें तो सारे मकानों की ऊंचाई लगभग बराबर दिखेगी। सभी घरों की छतों पर ईंटों से दबायी गयी काली पलास्टिक या फिर चदरे जैसी कोई चीज। और सबसे बड़ी बात यह कि आपको इसमें कोई गली नहीं दिखेगी। लगेगा जैस दो घरों के बीच कोई भी जगह नहीं है। फिर एक सवाल कि लोग पीछे के घरों में क्या एक घर से हो कर जाते हैं।


इस मेट्रो स्टेशन से दक्षिण की तरफ जाने वाली सड़क के ठीक किनारे ही है यह झोपड़ों का अम्बार। इस मुख्य सड़क से जब इस झोपड़ों की दुनिया में उतरेंगे तब सबसे पहले मुहाने पर दिखेगी एक चाय की दुकान। दो-तीन बेंच। चाय के कुछ गिलास। एक चूल्हा और चाय के बुलबुले। थोड़ा सा आगे जाकर ही जहां नित्य क्रिया करने के लिए लम्बी लम्बी ट्राॅली जैसे टाइलेट रखे हुए हैं उससे दो कदम आगे बढने पर ही है सुनानी का एक छोटा सा घर। वह भी घर क्या छत के ऊपर रहने कीे कोई छोटी सी जगह। यह सुनानी का अपना है। नितांत अपना। इस दिल्ली में सुनानी जिस पर गर्व कर सकता है। जिसे वह अपनी बांहों में समेट सकता है। 


सुनानी के पास इस दिल्ली जैसे महानगर में उसका अपना छोटा सा आशियाना है। नीचे के एक बड़े से कमरे की छत उसकी अपनी है। उसने सिर्फ उस छत को खरीदी थी जिसपर उसने एक छोटा सा कमरा अपने हाथों से बनवाया और उसके आगे दीवार की थोड़ी सी आड़़ जिसमें एक तखत बिछ सके। नीचे वाले कमरे की ऊंचाई बहुत नहीं है इसलिए सुनानी को अपने कमरे में जाने के लिए बहुत सीढि़यों को चढना नहीं पड़ता है। यूं समझें सामान्य घरों की तुलना में कम से कम पांच-सात सीढि़यां कम। लोहे की एक सीढी सुनानी को बाहर से सीधे उठा कर उसकी छत पर पहुंचाती है। उस लोहे की सीढी पर ढलुवा पाट रखे हुए हैं। 


सुनानी के पिता ने अपने जिंदा रहते इस बड़े शहर में एक झोपड़ी तक भी नहीं खरीदी थी। लेकिन पिता के निधन के बहुत दिनों के बाद सुनानी ने इस महानगर में पांव रखने की जगह तलाश ली। जब सुनानी की मां का निधन हुआ तब मरने से ठीक पहले सुनानी की मां ने एक बंद डिब्बे से कुछ हजार रुपये निकाल कर सुनानी के हाथ में रखे थे। सुनानी आश्चर्यचकित था। 


‘‘तुम्हारे पिता इतने बुरे नहीं थे बस उनकी जिन्दगी में प्यार की बहुत अहमियत थी।’’ ऐसा सुनानी की मां ने अपने बेटे को अपनी भाषा में मरने से ठीक पहले कहा था। और यह भरोसा जरूर रखा था कि वह अपने पिता से नफरत न करे।


अब आप इसे सुनानी की समझदारी कहें या फिर दूरदृष्टि कि उसने इन पैसों को लेकर कुछ अच्छा और कुछ ठोस करने का सोचा। ये पैसे पर्याप्त नहीं थे। परन्तु सुनानी ने अपने जीवन में इकट्ठे इतने पैसे भी पहली बार देखे थे। लेकिन तब उसके लिए सबसे बड़े सहारा बन कर आये थे सरदार मोंटी सिंह के पिता सरदार जगताप सिंह। तब वे जीवित थे और दुकान पर आते थे। सुनानी उन पैसों के साथ परेशान था। तब सरदार जगताप सिंह ने उसे कुछ पैसे दिए इस झोपड़पट्टी में अपनी एक ठौर बनाने के लिए। सुनानी नहीं भूलता कभी उन्हें। उसने कई वर्षों में चुकाए थे वे रुपये। सरदार जगताप सिंह गुजर गए लेकिन सुनानी आज भी नहीं भूलता वह बात कि ‘‘यह शहर बहुत अजीब है बेटा। यहां आसमान में भी एक पिंजरा टांगने की जगल मिल जाए तो टांग ले।’’
सुनानी का प्रवेश जब इस घर में हुआ तब उसके माता-पिता गुजर चुके थे और उसकी दो बेटियां हो चुकी थीं। तीसरे बच्चे के रूप में मृगावती ने बेटे को इसी घर में जन्म दिया था। 


सुनानी के इस कमरे में एक खिड़की थी जिससे दिखता था एक छोटा आसमान। दरवाजे पर कपड़े का एक पर्दा टंगा हुआ था। कमरे के भीतर कुछ बर्तन थे और खाना बनाने की थोड़ी सी जगह और कुछ संसााधन। एक कोने में कुछ मूर्तियां थीं। इसमें जगन्नाथ जी की भी मूर्ति थी। मृगावती सुबह सुनानी के जाने के बाद पूजा करती थी और चुपचाप ईश्वर का पाठ किया करती थी। 


इस पूरी झोपड़पट्टी में लगभग सात-साढे सात सौ घर होंगे। और इतने घरों में से शायद पांच या सात ही उच्चकुलीन लोग होंगे जिनके पास नित्य क्रिया से निपटने के लिए कोई नियत बनवाई गई जगह होगी। नहीं तो सबके लिए एमसीडी की तरफ से ट्राॅलीनुमा टाॅयलेट थे। बच्चे सड़क किनारे ही निवृत होते थे। इसलिए इस काॅलोनी में प्रवेश करने के लिए काफी संभल कर चलना पड़ता था।


सुनानी अपने गैरेज से लौटता तो यहां प्रवेश करते ही अजीब सी बदबू उसकी नाक में भर जाती।
इस तरह के घरों में और इस तरह के मोहल्ले में (वैसे इसे मोहल्ला कहना बहुत अजीब है) जो जिन्दगी होती है उससे हम सब वाकिफ हैं इसलिए यहां मैं उस पर कुछ भी कह कर उसे दुहरा नहीं रहा हूं। बस इतना समझा जाए कि यह दिल्ली जो कि एक विशाल शहर है उसमें यह भी जिन्दगी का एक रंग है। जहां हवा है, पानी है, मिट्टी है, भोजन है और जीवन है परन्तु सब बहुत ही कम है। 


लेकिन सुनानी ने जब यह घर खरीदा तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसे पहली बार यह अहसास हुआ कि इस बड़े से शहर में उसके पास भी पैर रखने की एक जगह है। जो उसकी अपनी है। नितांत अपनी। जहां पर वह अपना जूता उतार सकता है। अपनी बुशर्ट उतार सकता है। अपना पसीना सुखा सकता है और जहां पर वह अपने चेहरे को उतार कर रख सकता है रात भर आराम कर लेने के लिए।


सुनानी जब इस घर में आया तब उसकी दो बेटियां थीं। बड़ी बेटी तब पांच-छः साल की थी और छोटी बेटी दो साल की। तब सुनानी की मां जिंदा थी और जिसका निधन बाद के दिनों में इसी घर में हुआ। इस घर ने सुनानी की जिन्दगी को खुशियों से भर दिया था। सुनानी जब अपने गैरेज से लौटता तो उसका मन बहुत आह्लादित रहता। घर पर उसके दोनों बच्चे अपने पिता का इंतजार करते। सुनानी अपनी दोनों बेटियों के साथ उनकी ख्वाबों की दुनिया में उतरता और उनके साथ ढेर सारी मस्तियां करता। उस छोटे से कमरे की उस खिड़की के पास बिस्तर पर लेट कर सुनानी अपने बच्चों को आसमान का टुकड़ा दिखलाता। आसमान में ढेर सारे तारे थे और सुनानी खिड़की से हाथ बढ़ा कर एक मुट्ठी तारा उस कमरे में लाकर बच्चों के सामने रख देता। बच्चे उन तारों के साथ खेलते तो सुनानी को बहुत अच्छा लगता था। छोटी वाली बेटी उन तारों में से कुछ तारों को गुम कर देती तो सुनानी मुस्करा देता था।


यह घर, यह जगह भले ही जितनी तकलीफदेह हो परन्तु सुनानी के लिए यह एक ऐसी जगह थी जहां आकर वह अपने सारे दुखों को भूल जाता था। वह यहां पैर रखता तो ऐसा लगता जैसे उसकी सारी थकान गायब हो गयी है। सुनानी अपने कोबा में कभी एक टुकड़ा उजास, तो कभी एक चुल्लू पानी और कभी एक मुट्ठी मिट्टी भर कर लाता और उस छोटे कमरे के कोने में रख देता था। उसके बच्चे सुनानी का इंतजार करते। सुनानी बच्चों के इंतजार में शामिल था और वह इस इंतजार का बहुत सुख भी लेता था। 


पत्नी इस घर में अपने बच्चों के साथ रम गई थी। उसने बोलना और सोचना शुरू तो नहीं कर दिया था परन्तु नींद में उसके दुख थोड़े कम हो गए थे। वह रात में सोती थी तो सो जाती थी। अगर सुनानी कभी जगने के लिए कहता था तो वह जग भी जाती थी।


सही मायने में कहा जाए तो सुनानी अपने इस छोटे से घर में तमाम कष्टों के बावजूद सुख से रह रहा था।
 

आम आदमी की जिन्दगी में दुख दस्तक देता ही देता है। 

सुनानी की जिंदगी में सब ठीक चल रहा था परन्तु उसका यह दुख तब बढ गया जब उसके घर में तीसरे बच्चे ने जन्म लिया। सुनानी की पत्नी जब तीसरी बार गर्भवती हुई तब सुनानी की मां जिन्दा थी। और इस आस में थी कि एक बेटा पैदा हो। सुनानी की मां की ईश्वर ने सुन तो ली परन्तु……….।


सुनानी की पत्नी मृगावती जब गर्भवती थी तब वह पास की सरकारी डिस्पेन्सरी में एक-दो बार गई थी। उस डिस्पेंसरी में मृगावती को कई बार सुई लगााई गई थी। सुनानी की मां कहती है उसमें से ही कोई सुई ऐसी अवश्य लगायी गयी थी जिसने यह इतना बड़ा अपराध कर दिया था। 


सुनानी का तीसरा बच्चा जो कि एक बेटे के रूप में पैदा हुआ और जिसका नाम बाद में सुनानी ने शुकान्त सुनानी रखा वह वास्तव में एक डरपोक बच्चा था। जब वह पैदा हुआ तब उसके चेहरे पर एक खिंचाव था जिसको समझना बहुत आसान नहीं था। परन्तु सुनानी के मन में एक शंका ठहर गई थी। वह उस बच्चे को देखकर गंभीर हो गया था। सुनानी की पत्नी हमेशा की तरह कुछ नहीं बोली थी।


ज्यों ज्यों शुकान्त बड़ा होता गया उसके चेहरे का खिंचाव बढ़ता गया और उसकी आंखें फटने लगीं। वह किसी भी चीज को आश्चर्य से देखता था और आश्चर्य से उसकी आंखें सामान्य से बहुत बड़ी हो जाती थी। वह हर आवाज और हर खटके से डर जाता था। और जब वह डरता था तब उसके चेहरे का 
खिंचाव और बढ़ जाता था। अगर आवाज बहुत तेज और डरावनी हो तो शुकान्त बहुत असामान्य हो जाता था। उसके चेहरे पर तब एक बहुत ही अजीब तरह की विकृति आ जाती थी और उसकी आंखों की पुतलियां उलट जाती थीं। उसके ओंठ के दोनों कोर लार से भीग जाते थे।

शुकान्त का जब जन्म हुआ तब उसके पिता सुनानी को उसकी इस समस्या को लेकर सिर्फ एक आशंका थी लेकिन ज्यों ज्यों उसकी उम्र में वृद्धि हुई उसका डर बढ़ने लगा। और सुनानी की आशंका सच में बदलने लगी। वह एक बरतन के गिरने से या फिर पानी के चलने मात्र से डर जाता था और रोने लगता था। वह उस झोपड़ी में टंगे उस कैलेण्डर के उड़ने से जब डरने लगा था तब सुनानी ने प्रयास के साथ उस झोपड़ी से हर उस चीज को हटा दिया था या फिर उसमें सुधार ला दिया था जिससे थोड़ी भी आवाज निकल सकती थी। शुकान्त की नींद बहुत पतली थी और वह अपनी नींद में भी इन आवाजों को महसूस कर लेता था।

सुनानी की मां जब तक जिंदा रही वह तमाम झाड़-फूंक वाले बाबाओं का चक्कर लगाती रही परन्तु इससे कोई फर्क आया नहीं। बाबा कहते कि इस पर कोई बुरा साया है और वह इसकी या यह किसी और की जान लेकर ही जायेगा। सुनानी की मां ने सुनानी से एक दिन कहा था कि यह बुरा साया और कोई नहीं है इसकी मां है जो अपने जबरदस्ती खरीद कर लाये जाने का बदला ले रही है। और एक दिन यह इसे खा कर ही मानेगी।


परन्तु सुनानी ने इन बकवासों पर कोई ध्यान नहीं दिया था। वह अपनी पत्नी को प्यार करता था और उसकी पत्नी अपने बच्चों को बहुत प्यार करती है ऐसा वह हमेशा मानता था। सुनानी ने अपनी मां की बातों की तरफ ध्यान नहीं दिया और फिर मां सदमे में एक दिन मर गई।


शुकान्त की दोनों बहनें स्कूल जाती थी और चूंकि वह एक डरपोक बच्चा था इसलिए उसे स्कूल भेजना सुनानी के लिए सम्भव नहीं था। चूंकि शुकान्त की मां एक चुप्पा औरत थी इसलिए जब तक कि दोनो बहनें नहीं आ जाएं घर में एकदम शांति बनी रहती थी। मृगावती चुप रहती थी और शुकान्त डरा हुआ चुप बैठा रहता था। ऐसा अक्सर होता था कि सुबह से लेकर दोनों बहनों के स्कूल से आने तक में दोनों मां बेटा एक शब्द भी नहीं बोलते थे। वे दोनों बैठ कर सिर्फ एक-दूसरे की शक्लें देखते रहते थे।


‘‘तुम्हें इससे कुछ बात करनी चाहिए।’’ ऐसा सुनानी अपनी पत्नी से कई बार कह चुका था। परन्तु मृगावती बस चुप रहती थी। 


ऐसा नहीं है कि मृगावती अपने बेटे को प्यार नहीं करती थी या फिर ऐसा भी नहीं है कि उसने ऐसा करने की कोशिश कभी नहीं की। वास्तव में मृगावती ने कोशिश तो कई बार की कि वह उससे बात करे लेकिन सिर्फ एक-दो शब्द से कुछ नहीं होने वाला था। और बाद के दिनों में ऐसा होने लगा था कि शुकान्त शान्त रहता था और मृगावती एक शब्द भी कभी बोल देती तो वह और डर जाता था। वह अपनी मां से डरने ना लगे इसलिए मृगावती चुप ही रहती थी। परन्तु मृगावती ने अपने पति सुनानी से अपने चुप रहने के पीछे के कारण को कभी बतलाया नहीं था।


सुनानी ने अपने उस छोटे से घर में एक छोटा सा टेलीविजन लगा रखा था। टेलीविजन सामने की दीवार पर था जिसके सामने पर्दा खींच दिया जाए तो टेलीविजन की पिक्चर साफ दिखने लगती थी। मां और बेटा जब घर पर होते थे तब टेलीविजन तो चलता था लेकिन मां अपने बेटे के कारण टेलीविजन की आवाज को खोल नहीं पाती थी। टेलीविजन पर सिर्फ पिक्चर चलती रहती और दोनों मां बेटे सामने चुपचाप बैठे होते।


शुकान्त के लिए उसके पिता सुनानी एक जीवन रेखा की तरह थे। इस दुनिया में शुकान्त अगर किसी भी इंसान का थोड़ा-बहुत भरोसा करता था तो वे उसके पिता थे। उसे लगता था कि बस पिता ही हैं जो उसे बचा सकते हैं। पिता जब गैरेज से आते तब शुकान्त उससे चिपट जाता था। सुनानी अपने साथ उसे बाहर घुमाने ले जाता था। उसके कानों में रुई डालता था और उसके हाथ को अपनी बाहों में जकड़े रहता था। वह शुकान्त को रात में अपने पास ही सुलाता था। रात में सुनानी हल्के हल्के बातें किया करता था और शुकान्त बिल्कुल चुपचाप सुनता रहता था।


‘‘दादा क्या मैं जिंदा नहीं बचूंगा।’’ शुकान्त ने जब पिता के सीने से चिपट कर धीमे से यह सवाल पूछा था तो सुनानी को लगा कि उसका कलेजा कट कर गिर जायेगा। उसने सोचा वह कितना मजबूर पिता हैं। और इस सवाल के समय भी शुकान्त की उम्र बहुत बड़ी नहीं थी। बामुश्किल पांच वर्ष। पांच वर्ष में इतना कठोर सवाल।
 

बेटी को अभी यह पता नहीं था कि उसका शरीर जवान हो रहा था।

सुनानी की दो बेटियां थीं। एक थी सूर्यप्रभा और दूसरी थी चन्द्रप्रभा। बड़ी बेटी सूर्यप्रभा नवीं में पढ़ती थी और उसकी उम्र जब चौदह वर्ष की रही होगी तभी उसके पहले एक पैर में फिर दूसरे पैर में भी गांठें निकल आयीं थीं। गांठें ऐसी कि चलने में ऐसा महसूस हो जैसे किसी ने दोनों ही पैरों में कीलें ठोंक दी हो। सूर्यप्रभा के लिए धीरे धीरे चलना मुश्किल सा हो गया था। उसका स्कूल जाना जब बन्द होने लगा तब पिता के कहने पर उसकी मां उसे सरकारी अस्पताल तक ले गयी। जहां एक कम्पाउन्डर मिला और एक डाॅक्टर। डाॅक्टर लगातार फोन पर बात करने में व्यस्त था। बहुत लम्बी कतार थी। और डाॅक्टर ने सभी मरीजों को लगभग बात करते करते ही देख लिया। जब सूर्यप्रभा की बारी आई तब डाॅक्टर को अचानक कहीं जाने की याद हो आयी। डाॅक्टर ने इसकी पर्ची को देख कर कम्पाउन्डर की तरफ इशारा करते हुए कहा ऐसे जैसे यह सब तो आम रोग है इसे तो तुम भी देख लोगे। कम्पाउन्डर लगभग चालीस साल के करीब का था। जब डाॅक्टर ने उसकी तरफ आश्वस्ति भरी निगाह से देखा तो उसे बहुत गर्व महसूस हुआ। उसने सोचा डाॅक्टर भी मानने लगा है कि वह बहुत कुछ जानता है।


कम्पाउन्डर ने सबसे पहले मृगावती से सूर्यप्रभा की उम्र पूछी। सूर्यप्रभा को लगा कि शायद मां बता पाये या नहीं इसलिए उसने झट से बतला देना चाहा परन्तु मृगावती ने तुरंत कहा ‘‘14 साल।’’
‘‘इसका बर्थ सर्टिफिकेट लेकर आये हो।’’
‘‘तुम्हारे पास बी पी एल कार्ड है।’’
‘‘राशन कार्ड में इस बेटी की सही उम्र लिखी हुई है।’’ कम्पाउन्डर ने ये सब बातें पूछ कर कहना यह चाहा कि ‘‘नहीं तो तुम्हें यहां इलाज के सारे पैसे देने होंगे।’’ कम्पाउन्डर की घनी मूछें थीं और उसमें दो सफेद बाल थे।


मृगावती पैसों के नाम से डर गई। और उसने सोचा वह यहां से चली जायेगी। लेकिन फिर कम्पाउन्डर ने कहा कि ‘‘मैं तुम्हारा बीपीएल वाले में नाम चढ़ा दूंगा क्योंकि मैं इसे देख रहा हूं। मैं बहुत दयालु हूं और मुझसे किसी का दुख देखा नहीं जाता है।’’


‘‘तुम बस अगली बार सिर्फ राशन कार्ड की काॅपी ले आना।’’ 


‘‘कोई और देखता तो तुम्हें सारे पैसे देने पड़ते।’’ कम्पाउन्डर ने हल्की मुस्कान के साथ ऐसा कहा और सुर्यप्रभा से स्टूल पर बैठ जाने को कहा। उसकी मां वहीं खड़ी थी।


कम्पाउन्डर के कहने पर सूर्यप्रभा ने दोनों पैर सामने किए तो उसने सलवार को घुटने तक उठाने के लिए कहा। सूर्यप्रभा थोड़ी हिचकी तो कम्पाउन्डर ने उसकी शक्ल को देखा।


‘‘यह देखना होगा कि इन गांठों की जड़ कहां तक हैं।’’ मृगावती वहीं खड़ी थी और चुप थी।


कम्पाउन्डर ने कहा यह गांठें पेट की गर्मी से बनती है। देखना होगा गर्मी कहां तक चढ गई है। उसने सूर्यप्रभा को दूसरे रूम में जाकर लेट जाने को कहा। उस कमरे का दरवाजा इसी कमरे से जुड़ा हुआ था और उस पर हरे रंग का एक गंदा सा पर्दा लटका हुआ था। हरा रंग का वह पर्दा काफी मोटे कपड़े का था और उस कमरे में बिस्तर पर्दा उठाकर अंदर जाने के बाद बायीं ओर था।


जब सूर्यप्रभा चली गई तो पीछे से कम्पाउन्डर गया। मृगावती साथ चलने को हुई तब कम्पाउन्डर ने उस स्टूल की ओर इशारा किया और कहा तुम यहीं बैठ जाओ अंदर बैठने की जगह नहीं है। कम्पाउन्डर ने जब कमरे के अंदर प्रवेश किया तब अस्पताल के उस बिस्तर पर सूर्यप्रभा सहमी सी बैठी हुई थी। लेकिन कम्पाउन्डर के यह कहने पर वह थोड़ा सहज हो गयी कि ‘‘कोई बात नहीं आराम से लेट जाओ। बस थोड़ा सा चेक कर लूं। सब ठीक हो जायेगा। मैं अभी दवाई लिख दूंगा।’’


सूर्यप्रभा जब उस बिस्तर पर लेट गई तब उसने महसूस किया कि यह बिस्तर दूर से देखने में जितना नरम दिख रहा था उतना है नहीं।


कम्पाउन्डर ने पास आकर सूर्यप्रभा के बिना पूछे झट से उसकी कमीज को ऊपर कर दिया और उसके पेट को देखने लगा। पेट को उसने अपने हाथों से सहलाया और इधर उधर हल्का फुल्का दबाया। फिर उसने सूर्यप्रभा को कहा पेट तो ठीक लग रहा है। सांस लेने में कठिनाई तो नहीं होती। तुम्हारी सांस फूल तो रही है।’’ उसने सूर्यप्रभा के चेहरे को बहुत करीब से देखा।


‘‘कमीज को ऊपर करो। तुम्हारी सांस तो देखनी हो होगी। यह तो ज्यादा ही तेज है।’’


सूर्यप्रभा ने कमीज को पकड़ कर हल्का हल्का ऊपर करना शुरू किया। कम्पाउन्डर ने थोड़ा तीखे आवाज में कहा ‘‘दिखायेगी नहीं तो इलाज क्या अपने आप ही हो जायेगा।’’ फिर उसने उसके हाथ में पकड़ी कमीज को अपने हाथ में ले कर पूरी कमीज को ऊपर गले तक कर दिया। कम्पाउन्डर ने देखा कमीज के नीचे बनियान जैसी कोई चीज ही है।


कम्पाउन्डर का हाथ कांपने लगा। उसकी सांसे तेज हो गयीं लेकिन उसने अपने को संभाला। उसने कहा ‘‘पजामा बहुत टाइट पहने हो थोड़ा ढीला करो। पेट फूल रहा है।’’ सुर्यप्रभा ने पजामा की रस्सी को थोड़ा ढीला किया और कम्पाउन्डर ने बहुत जल्दबाजी में उसे थोड़ा नीचे सरका दिया। उसके सामने सूर्यप्रभा का पूरा शरीर था और फिर वह थोड़ी देर तक यहां वहां हाथ सहलाता रहा। सुर्यप्रभा बहुत अजीब स्थिति में फंसी हुई थी। कम्पाउन्डर का चेहरा खिंचता चला जा रहा था। अचानक उसने अपने एक हाथ को नीचे किया और फिर उसने दूसरे हाथ से सूर्यप्रभा की छाती को कस कर पकड़ लिया। सूर्यप्रभा अचानक उठ कर बैठ गई। कम्पाउन्डर के चेहरे पर पसीने की बूंदे चुहचुहा गयीं। 


सूर्यप्रभा ने अपने कपड़े ठीक किये और वह बाहर आ गई।


बाहर उसकी मां उसी स्टूल पर ज्यों की त्यों बैठी हुई थी। सूर्यप्रभा कुछ बोल नहीं पायी। उसकी मां कम्पाउन्डर के इंतजार में थी। कम्पाउन्डर ने बाहर आने में ज्यादा वक्त नहीं लिया। जब वह बाहर आया तो सूर्यप्रभा ने देखा कि वह काफी संयत था। उसने सूर्यप्रभा की मां को कहा इसके पेट में बहुत गैस है। अगली बार इसके पेट और इसकी छाती की एक्सरे निकालनी होगी। 


‘‘तुम चिंता नहीं करो। यहां मैं कोई पैसा नहीं लगने दूंगा।’’ ऐसा कहते हुए तब कम्पाउन्डर की निगाह सिर्फ उस परची पर थी। उसने पर्ची पर तब तक के लिए एक-दो दवाइयां लिख दी थीं। 


मृगावती वहां से निकली तो वह उस कम्पाउन्डर के एहसान के तले दबी हुई थी। लेकिन सूर्यप्रभा चुप्प थी। जब आगे मृगावती ने सूर्यप्रभा से उस अस्पताल में चलने के लिए कहा तो उसने साफ मना कर दिया। मृगावती ने कुछ नहीं कहा। जब सुनानी ने मृगावती को पूछा तो उसने बस इतना कहा वह नहीं जाना चाहती। बाद में मृगावती उसे अपने साथ एक झोला छाप डाॅक्टर के पास ले गई। झोला छाप डाॅक्टर ने अपने उपचार में उसका आॅपरेशन किया और उन गांठों को गर्म नुकीले औजार से निकाला। उससे हुआ यह कि सूर्यप्रभा के दोनों पैरों में चार-चार, पांच-पांच गड्ढे हो गए।


डाॅक्टर ने दो-तीन पाउडर दे कर सूर्यप्रभा को विस्तार से उपचार बतलाया। उस उपचार में कपड़े की बाती बना कर उसे उस पाउडर के मसाले में भिगो कर आग में जलाना था। और फिर उस अधजले कपडे़ को उन छेदों में अंदर की ओर ठूंसना था। सूर्यप्रभा इस उपचार से तड़प उठती थी। गर्म कपड़े को किसी नुकीली चीज से उस जख्म के अंदर ठूंसना प्राण निकालने वाला था। लेकिन सूर्यप्रभा ने यह भी नियमित रूप से किया। इस उपचार का अंत यह रहा कि जख्म तो धीरे धीरे भर गए लेकिन यह गांठ पूरी तरह कभी ठीक नहीं हो पाये। हर छः-सात महीने पर जब लगता कि अब सब सामान्य होने को है तब यह गांठ फिर से उभर आता। और फिर यही सब प्रक्रिया और इतने ही कष्ट। धीरे धीरे सुर्यप्रभा ने इन गांठों की चिंता करनी छोड़ दी। गांठों की चिंता करना मतलब इलाज की चिंता करना। गांठ होते और बस वह अपना चलना-फिरना बन्द कर देती। उसने अपनी इन गांठों के साथ ही जीना सीख लिया था। 


इस तरह सूर्यप्रभा का स्कूल छूट गया। पढाई छूट गई तो घर में सिर्फ सोना और टीवी देखना ही काम बच गया। इस घर में वह अपनी मां और अपने बड़े होते भाई के साथ दिन भर रहती थी। सूर्यप्रभा दिन भर बस यूं ही लेटी रहती या फिर टेलीविजन देखने की कोशिश करती। पूरी लड़ाई अब इस बात की थी कि टेलीविजन चले तो उसमें आवाज हो या फिर वह बन्द हो। आवाज बन्द न हो इसके लिए सूर्यप्रभा पूरी लड़ाई छेड़ देती। लेकिन आवाज हो तो शुकान्त डर कर रोने लगता था। 

आसमान में टंगा यह पिंजरा वाकई पिंजरा ही हो गया था।

यह झोपड़ी सुनानी के लिए जन्नत की तरह भले ही हो लेकिन एक वक्त आया जब उसे इस घर से दिक्कत शुरू हो गई। बच्चे बड़े होने लगे और यह इलाका इन बच्चों के लिए नासूर होने लगा। सुनानी की सबसे ज्यादा चिंता के केन्द्र में उसकी बड़ी हो रही बेटियां थीं। बेटी बड़ी होने लगी और बेटी का शरीर इस घर, इस झोपड़पट्टी में समाने से बाहर हो गया।


बेटी बड़ी हो रही थी तो साथ में उसका शरीर भी जवान हो रहा था। बड़ी हो रही बेटी का अपनी नित्यक्रिया के लिए बाहर जाना और यूं लाइन में लगना सुनानी के दिल पर बहुत कचोट मारता था। यूं एक औरत होने के नाते उसकी पत्नी ने भी ये सब कष्ट सहे थे या सह रही थी लेकिन बेटी, जिसे वह बहुत प्यार करता था, के हिस्से के इन कष्टों को सहना उसके लिए बहुत मुश्किल था। 


सुनानी जिस घर में रहता था उसके सामने सिर्फ कपड़े का घेरा बना कर नहाने की एक जगह बना दी गई थी। यह स्नान घर न तो उसका अपना ही था और न ही इसका घेरा इतना मजबूत ही था कि उसके भीतर के दृश्य अदेखा रह जाये। स्नान घर जैसी इस जगह में स्त्रियां स्नान करती थीं। लेकिन इस कपड़े का घेरा इतना ऊंचा नहीं था कि स्त्रियां खड़ी हो सकें। स्त्रियां इस स्नान घर में बैठ कर ही स्नान करती थी और बैठ कर ही कपड़े बदल लेती थी। सुनानी अगर चाह भी ले तो इस स्नान घर को कुछ मजबूत नहीं कर सकता। क्योंकि यह जगह उसकी अपनी नहीं थी। सड़क किनारे की इस जमीन पर सिर्फ इन पर्दों के सहारे ही काम चलाया जा सकता था।


सुनानी के भीतर का पुरुष इस स्नान घर को देख कर बहुत दुखी रहता था। वह जानता था कि इस स्नान घर में बेटी की जवान होती देह को ढ़कने के कोई साधन नहीं है। वह किसी से कह नहीं पाता था लेकिन उसने कई बार इस इलाके के लंपट लड़कों को बेटी के स्नान करने जाने का इंतजार करते देखा था।


उस दिन की बात सुनानी कैसे भूल सकता है जब बहुत बुरा हुआ था। सोमवार का दिन था। वह काम पर जाने के लिए निकल रहा था और बाहर मौसम बहुत खराब था। उसके हाथ में एक झोला था जिसमें उसका दोपहर का भोजन था। इस दोपहर के भोजन में तीन सूखी रोटी के साथ आलू के कुछ भुने हुए टुकड़े थे। उसने कुछ लड़कों को ताक झांक करते देखा तो यह समझ लिया कि स्नान घर में बेटी है। वह सीढ़ी से नीचे उतर रहा था तब पानी के गिरने की हल्की आवाज उसके कान में आ रही थी। लेकिन जब वह स्नान घर के समीप से गुजर रहा था तब यह आवाज बन्द होे गयी थी। उसने देखा कि उसके रुकते ही सड़क के सारे लफंगे दूर भाग गये थे। वह कुछ पल हिचका लेकिन उसकी नजर अनायास ही उस स्नान घर की तरफ चली गई। आखिर कितनी जर्जर हालत है इस स्नान घर की।


पानी की आवाज थम चुकी थी। मौसम बहुत खराब था ऐसा लगता था कि अभी बारिश हो जायेगी। सुनानी ने जब नजर को घुमा कर उस तरफ किया तो अचानक लगा कि वह स्नान घर के बहुत करीब है और स्नान घर बिल्कुल ही बेपर्दा हो गया है। सुनानी की निगाह जवान हो रही बेटी पर गई जो अब कपड़ा पहनने की स्थिति में थी। उसने अपनी जवान हो रही बेटी को बहुत दूर तक अनावृत देख लिया था। यह अच्छा था कि उस बेपर्दा वाली जगह से बेटी की निगाह अपने पिता पर नहीं गई थी। 


लेकिन पिता सुनानी! 


सुनानी को अचानक लगा कि उसके पांव कांपने लगे हैं। दोनों पांवों का भार अचानक बहुत बढ़ गया। उसने तुरंत भाग जाना चाहा। परन्तु पैर बहुत तेज नहीं उठ पाये। उसे लगा कि उसके पेट में एक बहुत कठोर गोला बन गया है। एक कठोर गोला जो ऊपर की ओर उठ रहा हो। उसके पेट में बहुत जोर का मरोड़ सा उठा और वह कुछ दूर जाकर सड़क किनारे जमीन पर बैठ गया। 


‘‘इस जिन्दगी को होना ही था तो क्या ऐसा होना था।’’ सुनानी ने शुद्ध उडि़या में अपने मन के भीतर ये शब्द बड़बड़ाये।


यह वह दिन था जब से सुनानी का उस घर में रहना एक सजा की तरह हो गया था। उसे लगने लगा था जैसे उसने अपने जीवन में वह कर दिया है जिससे उसका छुटकारा नहीं है। वह अपने आप से नजरें चुराने लगा था।
लेकिन इसके बाद भी सुनानी सिर्फ अपने जीवन को कोस भर ही सकता था, उसके पास इसका कोई समाधान नहीं था। उसका वेतन महज छः हजार रुपये थे। और छः हजार में दिल्ली में खाने के अलावा सिर्फ सिर दर्द की गोलियां खाई जा सकती थीं। बेटी बड़ी हो रही थी लेकिन सुनानी के यहां पैसों की रफ्तार रुकी हुई थी।
परन्तु इस घर से इतनी समस्याएं होने के बावजूद तब सुनानी के पांव के नीचे की जमीन खिसक गई थी जब यह बात अचानक से उस पूरे इलाके में फैल गई कि यह जमीन, जिस पर कि उनके छोटे-छोटे ख्वाब धंसे पड़े हैं, उस जमीन के भीतर एक अकूत खजाना है। इस अकूत खजाने को हासिल करने के लिए इस जमीन को पहले समतल करना होगा और फिर इसमें चमचमाती रोशनी वाली ढेर सारी दुकानें खोली जायेंगी। ढेर सारे नए ख्वाब पलेंगे। ढेर सारी ख्वाहिशें और ढेर सारे अरमान यहां अपना आकार लेंगे। 


यह कहा गया कि यह अनधिकृत जमीन है इसलिए सरकार इसे कभी भी समाज कल्याण के लिए ले सकती है। 


यह खबर इस इलाके में आग की तरह फैली। 


‘‘यहां लाशें बिछेंगी।’’ कुछ लोगों ने कहा।
‘‘यहां हमारी लाशें बिछेंगी।’’ एक आदमी ने इसे थोड़ा सुधार दिया।
‘‘तो अभी कौन सा जिंदा हो।’’ एक लौण्डे ने मजे लेते हुए कहा।
‘‘अभी कम से कम जिंदा होने का अहसास तो है।’’ एक बुजुर्ग ने बात को सम्भाल लिया।


‘‘हां, सो तो है। एक सिगरेट पी लें जरा।’’ उस लौण्डे ने फिर मजा लिया।


सुनानी ने जब इस खबर को सुना तो सोचा ‘‘इस धरती पर क्या सुई की नोंक भर जगह नहीं बची कहीं हमारे लिये।’’ 


बहुत दिनों के बाद उस रात और उस रात के बाद कई रातों तक सुनानी की पत्नी ने रात में नीद में कुछ कहना चाहा। 


‘‘श्मशान में कुत्ता रो रहा है।’’
‘‘सीढ़ी में मेरा पैर अटक गया है। मैं गिर रही हूं।’’
‘‘ ये सारे घर टूटेगें तो कितने सांप निकलेंगे?’’ आदि आदि।


यह अंदेशा और डर बहुत दिनों तक बना रहा कि आज रात तो कल रात बुल्डोजर आने वाला है। लोग झुण्ड बना कर पहरा देने लगे। लोग कहते जो आयेगा उसे कौन सा हम छोड़ देंगे। उन पर कुत्ता छोड़ देंगे। वहां के लौण्डे लपाटे कहते ‘‘बहन के ल………। सालों को मार-मार कर पूरा शरीर बर्बाद कर देंगे।’’


कई कई रातें ऐसे गुजरीं कि लोग रात रात भर सोये नहीं। कभी मामला ठंडा पड़ जाता तो कभी फिर वही शोर-गुल। 


सुनानी का चेहरा उन दिनों एकदम काला पड़ गया था। उसे रोज अपने गैरेज जाते वक्त ऐसा लगता कि जब वह शाम को लौटेगा तब वह यहां मलबे का ढेर पायेगा। रात को वह सोता तो लगता कि जब वह सुबह उठेगा तो वह किसी और ग्रह पर होगा। कैसे और पता नहीं क्या क्या होगा।


लेेकिन इसे उस झोपड़पट्टी के लौण्डे लपाटों का डर कहिए या फिर वोट बैंक का चक्कर न तो इस इलाके में कोई नोटिस ही आया और न ही कोई पुलिस वाला।


हां, कुछ ही दिनों में यह खबर जरूर आयी कि यह जमीन सरकार लेना तो चाहती है लेकिन वह इसके बदले पक्का मकान देगी। पक्का मकान यानि पक्की छत और पक्की सड़कें और पक्के शौचालय। 


सुनानी ने इसे जब सुना तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। सुनानी के मन में सबसे पहले बड़ी हो रही बेटियों का ख्याल आया। उसे लगा अब बड़ी हो रही बेटियां सुरक्षित हैं।

अब यहां होती है कहानी की असली शुरूआत
 

घर की समस्या के समाधान के उछाह में सुनानी ने यह सोचा ही नहीं कि घर कहां और कितनी दूर मिलेगा।
सरकार को शायद वह जमीन किसी ‘जनकल्याण’ के काम के लिए बहुत जल्द देनी थी। उस पर शायद कुछ ज्यादा ही दबाव था। इससे फायदा यह हुआ कि एक साल के भीतर ही इन लोगों को घर मुहैया करा दिया गया। अभी घर पूरी तरह तैयार भी नहीं थे लेकिन इन्हें वहां स्थानान्तरित कर दिया गया।


इस झोपड़पट्टी में जितने घर थे सभी को घर तो मिल नहीं सकता था क्योंकि इनमें से बहुत से घर ऐसे थे जिनके नाम पर घर था ही नहीं। जिनके नाम सूची में थे उन्हें घर मिले और जिनके नहीं थे उन्हें बस वहां से बेदखल किया गया। 


यह जगह जहां ये घर बनाये गए थे वह दिल्ली का दूसरा किनारा था। एकदम सुनसान। दूर-दूर तक न तो कोई घर और न ही कोई आवाजाही। वहां तो खैर क्या उसके आसपास भी कोई मेट्रो अपना आखिरी पड़ाव नहीं लेती थी। बस इतना समझ लीजिए कि बस उस नये घर से कुछ ही दूर चला जाए कि दिल्ली खत्म। बस उस रास्ते कुछ बसें गुजरती थीं जो अपने अंतिम पड़ाव में दिल्ली को खत्म करने चल देती थी।


यूं समझा जाए कि अभी तक सुनानी जिस झोपड़ी में रह रहा था ये घर उसके ठीक विपरीत दिशा में थे। और ये पुराने घर जितना ही मुख्य इलाके में थे ये नये घर उतने ही सुनसान इलाके में। 


सुनानी को जब घर मिला और उसने उस घर को जा कर देखा तो उसे बहुत खुशी हुई। यह घर छोटा ही सही लेकिन पक्का था। पक्की सी जिन्दगी। उसने अपने परिवार को वहां अच्छी जिन्दगी जीते हुए और बहुत सुरक्षित महसूस किया। सुनानी ने घर को देख कर अपने सिर को ऊपर उठा कर ईश्वर को धन्यवाद दिया और सोचा ‘‘सचमुच यह दिल्ली बहुत अनोखी है। बहुत सारे रंग हैं इसके।’’ 


सुनानी उस घर को देख कर लौटा तब चन्द्रप्रभा ने बहुत उत्साह से पूछा था ‘‘हमारा नया घर कैसा है।’’


सुनानी ने उत्तर देने से पहले सूर्यप्रभा की तरफ देखा था। और फिर उसके चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव आ गया था। फिर उसने जवाब दिया था ‘‘एकदम चकाचक। वहां तुम्हारे खेलने की जगह भी है।’’


सुनानी जिस एक मुद्दे को अभी अपने परिवार के बीच उठाना नहीं चाहता था उसे वह बहुत ही बेहतर तरह से जानता था। वह जानता था कि जिस गैरेज में वह काम कर रहा है उससे उस घर की दूरी इतनी अधिक है कि वहां आना जाना रोज संभव नहीं है।


सुनानी ने अपने मन में पहले दिन ही सब समझ लिया था। अपने गैरेज से निकलो तो पहले बस फिर मेट्रो और फिर एक और बस। उसने आने-जाने का बस का किराया जोड़ लिया था दोनों तरफ के कम से कम हुए अस्सी रुपये। उसने अपने मन में हिसाब लगाया। अस्सी रुपये के हिसाब से पच्चीस दिन के हुए दो हजार। उसने मन में सोचा अब तक बढ कर हुए वेतन के बावजूद क्या वह दो हजार रुपये किराये पर खर्च कर पायेगा। क्या वह बचे हुए साढे चार हजार में घर का खर्च चला पायेगा। आज पहली बार सुनानी को लगा कि दिल्ली कितनी बड़ी है। एक किनारे पर बैठो तो दूसरे को छूना संभव न हो पाये। उसने सोचा दिल्ली सिर्फ दूर नहीं है बल्कि दिल्ली में दूरी भी है। 


सुनानी जब अपने घर को छोड़ रहा था तब उसकी आंखों से आंसू गिर रहे थे। उसे अपनी मां की बहुत याद आ रही थी कि कैसे उसकी मां ने अपनी जमा पूंजी में से इस घर का आधार रखा था। लेेकिन दूसरी तरफ एक सुकून भी था। बेटी और परिवार सुरक्षित था। उनका भविष्य सुरक्षित था।


लेकिन सुनानी की चिंता के केन्द्र में था शुकान्त। शुकान्त जो अपने पिता के बिना एक दिन काटने की सोच भी नहीं सकता, वह कैसे रहेगा। सुनानी ने शुकान्त की तरफ देखा तो रोना छूट गया। शुकान्त अब आठ साल का लगभग होने को था लेकिन कौन कहेगा उसे आठ साल का। आठ साल का घर में चुपचाप दुबक कर बैठे रहने वाला एक बच्चा। सुनानी ने शुकान्त को गले लगा लिया और उसकी आंखों से आंसू निकल आए। शुकान्त भी शायद समझ रहा था, उसके शरीर में एक कंपन थी।


‘‘दादा अगर मेरी नींद में राक्षस आ गया तो मैं क्या करूंगा। वह मुझे मार खायेगा क्या?’’ शुकान्त ने अपने दादा को बस इतना ही कहा और दादा ने सब समझ लिया।

‘‘मैं सारे राक्षसों को यहीं पकड़ कर रख लूंगा। कोई तुम्हारे पास आ ही नहीं पायेगा।’’ सुनानी ने कहा लेकिन उसे अपने कहे पर भरोसा नहीं हुआ।
 

सुनानी अपने बेटे के लिए सब कुछ सोच सकता था। परन्तु उसके पास विकल्प सिर्फ दो ही थे। एक या तो उधर ही कहीं नौकरी ढूंढ ली जाए या फिर अलग रहना ही दूसरा एक मात्र विकल्प था। जहां सुनानी का नया घर था वहां कई किलोमीटर तक दूर-दूर कोई अवसर नहीं था। और अगर कुछ नजदीक करने के लिए कोई और नौकरी करनी भी पड़े तो सुनानी के पास विकल्प ही क्या था। सुनानी को इस कलाकारी के सिवाय आता ही क्या था। और अब वो उम्र भी कहां रही कि वह कुछ नया सीख ले। और नया कुछ करने का रिस्क ले भी तो इतनी तनख्वाह कौन देगा। और तनख्वाह के बिना बच्चों के पेट कैसे पलेंगे। वो तो भला हो उस दादा का जिसने यह हुनर सुनानी के हाथ में दे दिया। सुनानी ने अचानक से सोचा पता नहीं अभी कहां होंगे दादा।
सुनानी ज्यों-ज्यों इस पुराने घर को छोड़ने के करीब जा रहा था उसके अंदर अपने परिवार के छूटने का डर बढ़ता जा रहा था। वह अपने सारे विकल्पों पर सोच लेना चाहता था।


सुनानी के गैरेज का मालिक सरदार मोंटी सिंह एक अच्छा आदमी था। वह सुनानी की समस्या को समझता था। मोंटी सिंह यह कदापि नहीं चाहता था कि सुनानी उसके गैरेज को छोड़ कर जाए लेकिन वह जानता था कि वह एक मजबूर पिता है। सुनानी के उपर मोंटी सिंह के पिता और खुद उसका बहुत एहसान था इसलिए खुद सुनानी भी नहीं चाहता था कि जीते जी उसे ऐसा करना पड़े। परन्तु उसकी मजबूरी उसकी इंसानियत से बड़ी थी। मोंटी सिंह ने उसे इस बात की इजाजत दे दी कि वह कोई काम ऐसा देख ले जहां से वह अपने घर लौट सकता हो। तब मोंटी सिंह ने ठीक अपने पिता की तरह बहुत गहरी बात कह दी थी ‘‘जो शाम को अपने घर नहीं लौट पाता है उसका जीना भी कोई जीना है। शाम को अपने घर तो पंछी-पखेरू भी लौटते हैं। तूं तो जीता जागता बंदा है यारा।’’ सुनानी ने देखा मोंटी सिंह में उसके पिता का अक्स दिख रहा था। मोंटी सिंह ने सुनानी को चार दिनों की छुट्टी दी घर को संजोने और अपनी नौकरी पर विचार करने के लिए।


इन चार दिनों में सुनानी ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया।लेकिन सुनानी इस समय के हाशिये पर फेंका हुआ एक ऐसा आदमी था जिसके लिए इस धरती पर कोई जगह बनाई ही नहीं गई थी। उसने सारे विकल्पों पर विचार कर लिया। लेकिन उसका यह घर इतना सुनसान इलाका में था कि वहां कोई गुंजाइश नहीं थी। आसपास के सारे इलाके जहां से वह अपने घर लौट सकता था वहां कोई ऐसी स्थिति बन नहीं पा रही थी कि वह अपनी बनी बनाई नौकरी छोड़ दे।
 

इन चार दिनों के मोहलत की आखिरी रात सुनानी अपने नए घर में शुकान्त से चिपट कर सोया हुआ था। उसके बगल में मृगावती निश्चिंत सोयी हुई थी। लेकिन सुनानी की आंखों से आंसू झड़ रहे थे। सुनानी उठ कर वहीं बिस्तर पर ही बैठ गया। उसने देखा शुकान्त ने गहरी नींद में भी उसको कस कर पकड़ रखा है। शुकान्त के चेहरे पर डर की एक गहरी छाया थी।

बाहर दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ था। उसे यहां का यह सन्नाटा बहुत सुकून दे रहा था। यह इलाका जहां ये घर बसाये गये थे उसके चारो तरफ छोटे छोटे पहाड़ थे। यह पथरीला इलाका था और उन पत्थरों के बीच उगे हुए छोटे मोटे पौधे। इन घरों के चारों ओर एक घेरा बनाकर इसे सीमित किया गया था। उससे थोड़ा आगे चलकर सड़क थी जिससे बसें जाती थीं और रात में बड़े बड़े ट्रक। अब जब से ये घर बसाये गए हैं वहीं सड़क किनारे बसों के नंबर लिख कर पेड़ पर टांग दिया गया है। यहां बसें रुकने लगी थीं। यह बस स्टाॅप बन गया था। लेकिन ये घर उस सड़क से इतनी दूरी पर थे कि वहां बसों की आवाज नहीं के बराबर ही आ पाती थी। इन घरों के पीछे और अगल-बगल जहां तक नजर जाती थी वहां तक एक सन्नाटा था। पहाड़ के छोटे-छोटे टुकड़े और उनके बीच उगे हुए छोटे-छोटे पौधे।
 

सुनानी उस दिन सुबह-सुबह जब जाने को तैयार हुआ तो वह हारा हुआ सा लग रहा था। अपने साथ उसने एकाध कपड़े रख लिये। और आगे क्या होगा पता नहीं। लेकिन उस दिन अचानक सुनानी ने इस इलाके की खामोशी को देख कर अपने मन में सोचा कि यह जगह जहां आवाज कहीं भी नहीं है उसके बेटे के लिए बहुत सुरक्षित है। कोई आवाज नहीं है इसलिए कोई डर भी नहीं। सुनानी ने सोचा यहां उसके बेटे को कान में रुई डालने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

सुनानी ने जब अपने मालिक सरदार मोंटी सिंह से यह साझा किया कि उसके पास अब इसके अलावा कोई चारा नहीं है। मोंटी सिंह खुश हो गया। सुनानी ने जब यह सोचा था कि वह अपने सोने की व्यवस्था वहीं करेगा तब उसके मन में यह एक डर था कि अगर मालिक ने उसे अपने गैरेज में सोने तक की इजाजत नहीं दी तब वह क्या करेगा। यूं तो गैरेज में इतनी जगह थी कि उसमें एक आदमी पड़ा ही रहेगा तो क्या फर्क पड़ जायेगा। लेकिन मालिक तो मालिक है वह चाहे अपनी जगह का इस्तेमाल करने दे या न दे।लेकिन सरदार मोंटी सिंह ने आगे बढ़ कर साथ देने का वादा किया। और यह कहा कि ‘‘अरे बादशाहों यह गैरेज तुम्हारा है, तुमने सींचा है इसे। इसमें पूछना क्या है!’’


दिल्ली, मनुष्य, कीड़ा और कीड़े जैसी जिन्दगी
 

इस आदत को डालने में सुनानी को वक्त लगा कि अब काम खत्म करने के बाद उसे कहीं जाना नहीं है। हां उसके लिए यह मुश्किल हो गया था कि वह कैसे यह निर्णय ले कि कहां से उसके काम का वक्त शुरू होता है और कहां खत्म। शाम को अब वह प्रायः देर तक ही काम करता था। वैसे भी वह करता क्या।

सुनानी के लिए सबसे मुश्किल था अकेले खाने की व्यवस्था करना। उसने अपने जीवन में कभी भी अपने हाथों से खाना बनाया नहीं था। मां के बाद मृगावती ने अपने हाथों सारी जिम्मेदारी निभाई थी। उसने लकड़ी रख कर थोड़ा बहुत खाना बनाने की व्यवस्था वहां की थी परन्तु प्रायः वह इधर-उधर ही खाता था। इधर-उधर ठेले-साइकिल पर अजीब अजीब सी तली हुई चीजें।


सुनानी का यह गैरेज जिस इलाके में था वह अंधेरा घिरने के बाद काफी सुनसान हो जाता था। एकाध लोग ही इधर-उधर दिख जाए तो दिख जाए। उस गैरेज में सिर्फ एक छोटा सा कमरा था जिसमें काफी सामान भरा हुआ था। उसी में एक कुर्सी और एक टेबुल था जिस पर मोंटी सिंह बैठता था। इस कमरे की चाबी मोंटी सिंह अपने पास रखता था। सुनानी गैरेज में खुले आकाश के नीचे उन कबाड़ के पहाड़ों के बीच सोता था। वहां उसे सोते हुए देखना ऐसा लगता था जैसे वह पहाड़ों के बीच एक घाटी में सोया हुआ है। सुनानी के साथ वहां जो चार और लोग काम करते थे उनमें गिरिजा को उसका दुख समझ में आता था इसलिए वह कभी-कभार कह भी देता था कि दादा आज मैं यहीं रुक जाता हूं। परन्तु सुनानी कहता ‘‘नहीं जो घर जा सकते हैं उन्हें तो घर जाना ही चाहिए।’’ सुनानी शाम को काम खत्म करने के बाद अक्सर सड़क किनारे आ जाता और उधर से गुजरने वाली बसों को देखता। बसों में यात्री अपने अपने घरों को जा रहे हैं सुनानी ऐसा सोचता और उन्हें देख कर वह बहुत खुश होता। वह आसमान में पक्षी के झुंड को भी घर की तरफ लौटते हुए देखता तो उसे बहुत खुशी होती। वह उन पक्षियों को देखता और उन पक्षियों के चेहरे की मुस्कराहट को भी देखता।


सुनानी को देर रात तक नींद नहीं आती। वह उस घाटी में सोते हुए आसमान को देखा करता था। आसमान में एक चांद था और ढेर सारे तारे। उसी आसमान में शुकान्त का चेहरा भी था। शुकान्त का उदास चेहरा। सुनानी आसमान में टंगे अपने बेटे के चेहरे से घंटों बतियाया करता। वह शुकान्त से माफी मांगता और शुकान्त रोने लगता। 


‘‘तुम मेरे लिए अनमोल हो। लेकिन मैं क्या कर सकता हूं। तुम्हें अपने आप जीना सीखना होगा।’’ सुनानी अपने मन में ऐसा सोचा करता था।


सुनानी जब गहरी नींद में होता तो उसे सपने आते। सपने में वह शुकान्त को अपने साथ घुमा रहा होता उसे झूला झुला रहा होता कि बाहर एक जोरदार धमाका होता और शुकान्त वहीं जमीन पर लोटने लगता। उसकी आंखें अजीब सी बाहर आ जातीं और उसकी देह अकड़ जाती। सुनानी अपने सपने से घबरा कर उठता और देखता कि उसके माथे पर पसीने की बूदें हैं। 


सुनानी ने एक बार सपना देखा था कि वह सोया हुआ है और साथ में मृगावती सोयी हुई है। एकदम चुप्प। और सुनानी उन दोनों कबूतरों से खेल रहा है। सुनानी ने महसूस किया कि वे दोनों अब मुरझा से गए हैं। 
लगभग एक वर्ष बीतने को था। इस बीच सुनानी और उसके परिवार का जीवन यूं ही चलता रहा था। जो जहां थे वे उसी हालत में अपनी उम्र में बड़े हो रहे थे। सुनानी यूं ही खाने और सोने के बीच जीवन बिता रहा था। शुरू में दो चार बार तो सुनानी थोड़ी जल्दी जल्दी घर गया लेकिन उसे लगा कि अगर ऐसा वह लगातार करता रहे तो खर्च के हिसाब से बहुत ही मुश्किल में पड़ जायेगा। अब उसने अपने को महीने में एक बार या फिर अधिकतम दो बार तक सीमित कर लिया था।


वह इलाका चूंकि इतना सुनसान था और सारी सुविधाएं चूंकि दूर थीं इसलिए बहुत सारी दिक्कतें थीं। सुनानी की दूसरी बेटी चन्द्रप्रभा जो अब तक स्कूल जा रही थी यहां आकर उसका भी स्कूल बन्द हो गया। अब उस घर में चारों रहते थे और बस रहते थे।


सुनानी ने देखा कि शुकान्त अकेले में एकदम मुरझा गया था।वह शांत हो गया था। जब शुरू में सुनानी एक-दो बार घर गया तो शुकान्त को लगा जैसे सांस मिल गई हो। लेकिन धीरे-धीरे वह अपने पिता से इतना ज्यादा चिढ गया था कि वह बिल्कुल शांत हो गया था। वह अब अपने पिता के आने और जाने पर कोई प्रतिकिया नहीं देता था। सुनानी ने देखा उसका चेहरा और खिंचता जा रहा था। उसकी आंखें धीरे-धीरे और चौड़ी होती जा रही थी। लेकिन वह बस अपने घर में चुपचाप पड़ा हुआ रहता था। यह इलाका बनिस्बत शांत था इसलिए चन्द्रप्रभा कभी-कभी उसे बाहर चलने को कहती भी थी परन्तु वह कहीं नहीं जाता था। धीरे-धीरे सुनानी का घर जाना इतना कम हो गया कि उसे बहुत कुछ पता भी नहीं चल पाता था। हां, मोबाइल पर चन्द्रप्रभा से रोज एक छोटी सी बातचीत हो जाती थी। सुबह काम पर बैठने से पहले सुनानी एक फोन अवश्य करता था और लगभग हर दिन उस फोन पर चन्द्रप्र्र्रभा ही होती थी। वह पापा के करीब थी और स्वस्थ भी। सुनानी का उस फोन पर रोज का एक सवाल जरूर था कि शुकान्त कैसा है। और लगभग रोज ही चन्द्रप्रभा जवाब देती कि ‘‘ठीक नहीं है।’’ सुनानी इस जवाब को पहले से जान रहा होता था लेकिन ऐसा सुन कर वह दुखी होकर फोन रख देता था।
परिवार से इस अलगाव के बाद भी सुनानी का जीवन और यह कहानी सामान्य चल रही होती यदि सुनानी के जीवन में यह तूफान न खड़ा हुआ होता।


उन दिनों सुनानी के चिंता के केन्द्र में उसकी बड़ी बेटी सूर्यप्रभा थी जो शादी के लायक हो गयी थी। परन्तु सुनानी अपनी बेटी के बारे में कुछ सोच पाता उससे पहले ही उसका शरीर एक अजीब सी उलझन में फंस गया। सुनानी बीमार होने लगा था यह तो उसे बाद में पता चला लेकिन इस बीच वह बहुत दिनों तक एक अजीब सी उलझन में फंसा रहा था।


सुनानी अपनी गोद में गाड़ी के दरवाजे वाले हिस्से को ले कर उसे समतल बनाने के अपने हुनर में लगा हुआ था कि उस दिन अचानक उसे लगा जैसे सिर के अन्दर कुछ चल रहा है यहां से वहां और वहां से यहां। पहले कुछ दिनों तक तो उसे ऐसा लगा कि शायद यह कमजोरी है जिसके कारण यह एक तरह की झनझनाहट है। ऐसा होने के बाद कुछ देर वह अपने काम से उठ जाता कुछ घूमता-टहलता और फिर काम पर बैठ जाता। पहले तो ऐसा कभी-कभार होता था परन्तु धीरे-धीरे इसकी रफ्तार बढती चली गई। सुनानी काम पर बैठता, ठक-ठक की आवाज शुरू होती और उसके सिर में यह कुछ चलने की प्रक्रिया शुरू हो जाती। 


सुनानी इसे अपनी शारीरिक कमजोरी मानता रह जाता अगर उसके शरीर में सिर्फ यह झनझनाहट जैसा ही होकर रह जाता। परन्तु सुनानी के लिए आश्चर्य तब हो गया जब अचानक एक दिन वह काम करते-करते झटके से रुक गया। रुक गया मतलब एक पाॅज की तरह। पाॅज ऐसे जैसे किसी वीडियो को चलते चलते अचानक रोक दिया जाए। और फिर उसे थोड़ी देर में फिर प्ले कर दिया जाए। काम करते-करते एकबारगी एक दिन सुनानी को लगा वह सुन्न हो गया। और सही बात तो यह है कि उसे इस बात का अंदाजा भी तब लगा जब वह इस सुन्नपन से बाहर निकला। तब उसे महसूस हुआ कुछ हुआ था। वह तब जिस स्थिति में होता उसी स्थिति में दस-बीस सैकेण्ड के लिए रह जाता। धीरे-धीरे यह समय भी बढने लगा था परन्तु यह कभी भी एक मिनट से ज्यादा नहीं हुआ। सुनानी के साथ एक बार यह हुआ तब यह एक बार भर होकर नहीं रह गया बल्कि इसकी भी प्रक्रिया जैसी शुरू हो गयी।  


सुनानी अपने जीवन में यूं अटकने लगा है इसका पता सामान्यतया लोगों को नहीं लग पाता था परन्तु उसके जीवन में ऐसा दिन भर में एक-दो बार होता जरूर था। सुनानी के साथ में काम करने वाले गिरिजा ने महसूस कर लिया था, उसने एक दिन कहा ‘‘दादा यह क्या हुआ। गाड़ी अटक कैसे गयी।’’ तब सुनानी बिल्कुल झेंप सा गया था। लेकिन सुनानी ने उससे अपने इस दर्द को साझा किया इस विश्वास के साथ कि वह इसे औरों से छुपाये रखने में उसका साथ देगा। उसे यह डर था कि कहीं मोंटी सिंह इसी कारण से उसे नौकरी से निकाल न दे। तब से सुनानी के इस दर्द का एक राज़दार यह गिरिजा हो गया। वह यूं अटकता तो गिरिजा हर संभव कोशिश करता कि वह इस स्थिति से उसे उबार ले। परन्तु सुनानी अपने इस अटकने के इस डर के साये के साथ ही तब से जीने लगा था।


लेकिन सुनानी की मुख्य समस्या जितना उसका यूं अटकना था उससे ज्यादा बड़ी समस्या उसके सिर में होने वाली यह झनझनाहट थी। यह समस्या उसके लिए ज्यादा बड़ी इसलिए थी कि उसकी यह समस्या उसके काम, उसके रोजगार से जुड़ी हुई थी। वास्तव में वह जितना ही हथौड़ा चलाता उसके सिर में यह झनझनाहट उतनी ही बढ़ जाती। धीरे-धीरे उसे ऐसा लगने लगा था जैसे उसके सिर में अचानक से कई नसों में एक साथ एक अजीब सी सनसनी शुरू हो गयी थी। 


सुनानी को जब मस्तिष्क में सनसनी होती तो वह बहुत विचलित होने लगता। उसके साथ दिक्कत यह थी कि वह अपने काम में इस कारण से न तो कोताही कर सकता था और न ही वह एक लम्बी छुट्टी ले सकता था। सुनानी ने तब यह सोचना शुरू किया था ‘‘काश उसके पिता ने उन मछलियों से प्यार करना नहीं छोड़ा होता तो आज उसकी स्थिति यह नहीं होती।’’ ‘‘काश उसके जीवन में यह दिल्ली नहीं आयी होती।’’


 गिरिजा के दबाव डालने पर ही सुनानी इस बात के लिए तैयार हुआ था कि वह अस्पताल जाकर अपनी बीमारी दिखा आये।


यह वहीं के पास का सरकारी अस्पताल था जहां सुनानी को सुबह-सुबह जाना पड़ता था। अस्पताल में लम्बी लाइन थी। उसकी दीवारों पर पान की पीक के निशान थे। वहां के कर्मचारी बहुत कड़क थे और वे बहुत ही कर्कश आवाज में बीमारों के नाम पुकारते थे। जिस पर्ची पर सुनानी का इलाज होना था उसका रंग गुलाबी था। लेकिन डाॅक्टर प्रशान्त अच्छा डाॅक्टर था। जिस डाॅक्टर प्रशान्त ने सुनानी को देखा था वह अभी बहुत अनुभवी नहीं था। और उसके बाल भी अभी सफेद नहीं हुए थे। परन्तु वह अपने काम से बहुत प्यार करता था और यह केस उसके लिए बहुत ही नया और रुचिकर था। उसके लिए अभी तक डाॅक्टरी का पेशा सिर्फ पैसे कमाने का धंधा नहीं बन पाया था। वह पहले तो यह समझ ही नहीं पाया कि ऐसा हो कैसे सकता है। परन्तु उसने केस की तह तक जाना चाहा।


सरकारी अस्पताल में जो कुछ जांच मुफ्त में हो सकती थी सुनानी ने उन्हें अवश्य करवाया। तमाम प्रकार की जांच से जो बातें सामने आयीं उसे देख कर और इस निष्कर्ष पर पहुँच कर हम-आप नहीं डाॅक्टर प्रशान्त भी चक्कर खा गया था। जांच का निष्कर्ष यह था कि सुनानी के सिर में कुछ कीड़े घुस गए थे। डाॅक्टर ने एक्स-रे में जिन कीड़ों को सुनानी को दिखलाया वह निगेटिव की शक्ल में उन कीड़ों की परछाई भर थी। सुनानी ने उस निगेटिव में अपनी खोपड़ी को देखा और उस खोपड़ी में कीड़ों के निशान। उंगली से थोड़े छोटे कीड़े ऐसे लगते जैसे अपनी ढेर सारी टांगों के साथ वे अभी चल पड़ेंगे।सुनानी ने देखा खोपड़ी में कुछ और भी धब्बे थे जो खोपड़ी के अपने हिस्से थे। उसने सोचा इन्हीं हिस्सों के सहारे वह सपना देखता है। सपना जिसमें उसका शुकान्त आता है अपने दुख के साथ। 


सुनानी अपनी इस तकलीफ के बारे में अपने घर में कुछ बतला नहीं सकता था। वह इस बीच एक बार अपने घर गया और उसने वहां काफी सुकून महसूस किया। 


लेकिन सुनानी की तकलीफ यहीं खत्म नहीं हुई। धीरे-धीरे यह बीमारी बढ़ कर उसके पूरे सिर को अपनी गिरफ्त में ले चुकी थी। उसके पूरे सिर में घाव जैसे दाने उभर आये और उसमें अजीब तरह की खुजली होने लगी थी। इन छोटे-छोटे घावों के मुंह खुले हुए थे और भरी गर्मी में सुनानी इन घावों के साथ तड़प उठता था। जब इन घावों के साथ सुनानी अपने घर गया तब उसकी बेटियों ने यह जानना अवश्य चाहा कि ये क्या हैं। मृगावती ने इन घावों की ओर देखा, वह थोड़ा आश्चर्यचकित हुई और फिर चुप हो गयी।


सुनानी ने जितना ही जानना चाहा उतना ही उलझता चला गया कि ये कीड़े उसके मस्तिष्क के भीतर गए कैसे। कैसे जी रहे हैं वे वहां। क्या खाते होंगे वे वहां। सुनानी ने डाॅक्टर से जानना चाहा तो डाॅक्टर प्रशान्त ने समझाने की कोशिश की –


‘‘ सड़क किनारे का खाना बहुत हानिकारक होता है।’’
‘‘सड़ी हुई चीजों को खाने से कीड़े पैदा हो जाते हैं माथे में। जैसे पेट में पैदा होते हैं कीड़े।’’
‘‘खराब पानी भी कारण हो सकता है।’’


लेकिन सुनानी ने धीरे धीरे जान लिया है इसका राज भी। उसने जान लिया है कि ये जो कबाड़ के पहाड़ हैं, जिनके बीच सोता है वह उन्हीं पहाड़ों में से निकलते हैं ये कीड़े। ये रात में निकलते हैं और इस अंधेरी सुरंग में अपना घर बना लेते हैं। 


धीरे-धीरे हालात ये हो गए थे कि सुनानी के जीवन में ये तीनों कष्ट एक साथ चल रहे थे। वह अपने काम में मशगूल होता तो परेशान हो जाता। जब तक वह अन्य काम कर रहा होता जैसे कि गाडि़यों के कुचले हुए पार्ट्स को खोलना या फिर उन्हें लगाना तब तक उसे दिक्कत कम होती। लेकिन जब वह अपने सामने उन हस्सों को रख कर उन पर अपनी हथौड़ी चलाना शुरू करता उसके माथे में शांत बैठे ये कीड़े उत्तेजित हो जाते। वे यहां वहां चलना शुरू कर देते। सुनानी अपने मस्तिष्क के भीतर इन कीड़ों के चलने को बारीकी से महसूस कर पाता था। इन कीड़ों के चलने की कोई आवाज होती हो या नहीं परन्तु सुनानी को लगता जैसे ये कीड़े अपने चलने की एक आवाज भी उसके मस्तिष्क में छोड़ते जाते हैं।   

                                                           
सुनानी जब धूप में इन लोहे के पार्ट्स के साथ काम कर रहे होता तो उस समय उसका माथा एकदम गर्म हो जाता और ऐसा लगता जैसे उसके इन घावोें के रास्ते गर्मी उसके माथे के भीतर घुस रही है।
डाॅक्टर कहता है ‘‘ये जख्म इन्हीं कीड़ों के द्वारा गर्मी पैदा करने से होते हैं।’’
जबकि सुनानी को लगता है यह गर्मी इन्हीं छेदों से अंदर जाती है तब ये कीड़े गर्मी से बेचैन होने लगते हैं।


दिल्ली में नींद
 

दिल्ली में सोना कौन चाहता है। दिल्ली सोने का नहीं जगने और सुख लेने का शहर है।
‘‘दिल्ली में अगर साओगे तो सारी खुशियां छूट जायेंगी।’’ कहता था मेरा अय्याश दोस्त सत्या।
‘‘अंधेरे में ही तो जगमगाती है रोशनी।’’ इसमें जोड़ता था सानू।


‘‘और इसी जगमगाती रोशनी में ही तो चमकती है देह।’’ कहती थी मायरा। तो ऐसा लगता था जैसे कह रहे हों सब ‘‘चार बज गए लेकिन……………….।’’


लेकिन इसी बीच फुटपाथ पर सोया कहता है मजदूर ‘‘अंधेरे में ही छुपाए जाते हैं आंसू।’’
‘‘अंधेरे में ही तो छुपता है कालापन।’’ धीरे धीरे बुदबुदाता हूं मैं।
‘‘नहीं तो क्यों लिखते ‘अंधेरे में’ कविवर मुक्तिबोध।’’ कहती है यह मेरी अंतरात्मा।


लेकिन सुनानी इस दिल्ली में रहकर भी सोना चाहता है। दिल्ली में लोग सोना नहीं चाहते लेकिन उन्हें नींद परेशान करती है। पर सुनानी सोना चाहता है और नींद है कि आती ही नहीं। वह खूब काम करता है, अपने शरीर को खूब थकाना चाहता है, चूर कर देता है कि तब हारकर नींद तो आयेगी। लेकिन नींद है कि आती ही नहीं।


सुनानी दिन भर अपने को संभालते संभालते और काम करते करते इतना अधिक थक जाता कि उसे लगता था कि वह रात में सोयेगा तो बस सारी थकान उतर ही जायेगी। परन्तु वह रात में सोने जाता तो उसके मस्तिष्क के सारे कीड़े जग जाते। वह ज्योंही अपने आप को आरामदेह स्थिति में लाता और उसके सारे स्नायुतंत्र सोने की स्थिति में आते कि वे कीड़े जग जाते। और फिर उसके सिर के भीतर यहां से वहां तक दौड़ लगाने लग जाते। कीड़े दौड़ लगाते तो सुनानी उठ कर बैठ जाता।


एक कीड़े की उम्र एक मनुष्य की उम्र से कम होती है या ज्यादा पता नहीं
 

एक तरह से सुनानी और उसके मस्तिष्क में पल रहे इन कीड़ों के बीच जंग जैसी चल रही थी कि क्या ये संभव है कि ये कीडे़ शांत हों और उसी समय को चुरा कर वह भी सो जाये। ऐसा प्रायः नहीं के बराबर ही हो पाता। और इस तरह दिनों-दिन गुजरने लगे जब सुनानी सो नहीं पाया। सो नहीं पाता इसलिए उसके अंदर एक बेचैनी समाने लगी। उसका चेहरा काला पड़ने लगा और उसकी आंखें धंसने लगीं। उसके बाल बिखरे बिखरे रहते थे और चूंकि चेहरे का रंग बिल्कुल ही उड़ गया था इसलिए वह पागल सा दिखने लगा था।

अब सवाल है कि इसका इलाज क्या है। और सवाल यह भी है कि क्या सुनानी ने यह सवाल अपने डाॅक्टर से नहीं पूछा होगा। सुनानी ने अपने डाॅक्टर से यह सवाल पूछा था और शांत बैठ गया था। डाॅ प्रशांत जो कि उम्रदराज नहीं था और उसके बाल अभी सफेद नहीं हुए थे। वह बहुत अनुभवी भी नहीं था लेकिन वह सीखना चाहता था। इसलिए उसने इस केस पर काफी विचार किया। उसने सीनियर डाॅक्टर से परामर्श भी लिया और कुछ वक्त लेने के बाद वह जिस निष्कर्ष पर पहुंचा उस पर चल पाना सुनानी के वश की बात नहीं थी। 


डाॅक्टर प्रशांत ने कहा इसे सिर्फ आॅपरेशन के द्वारा ही मस्तिष्क से निकाला जा सकता है। और सिर का आॅपरेशन मामूली आॅपरेशन तो है नहीं। डाॅक्टर प्रशांत यह कह कर दो बातों की तरफ इशारा करना चाह रहा था वह यह कि एक तो यह बड़ा आॅपरेशन है और यह किसी बड़े हाॅस्पिटल में ही संभव है। सरकारी अस्पताल में संभव तो है परन्तु वहां भी यह आॅपरेशन एकदम मुफ्त नहीं हो सकता। एकदम मुफ्त क्या ठीक-ठाक पैसा लग जायेगा। फिर कम से कम दो-तीन महीने का आराम।


सुनानी ने सोचा कहां से लायेगा वह इतने सारे पैसे। कैसे करेगा वह तीन महीने तक आराम। कौन कमा कर देगा इन तीन महीनों में घर चलाने लायक पैसे।


डाॅक्टर प्रशांत के द्वारा कही जो दूसरी बात थी वह ज्यादा डरावनी थी। यह मस्तिष्क का आॅपरेशन है सब अच्छा ही होगा। बड़े डाॅक्टर ही करेंगे तो सब अच्छा होना भी चाहिए लेकिन……..। सुनानी इस लेकिन को सुनकर चकरा गया था। डाॅक्टर प्रशांत ने कहा ‘‘एक प्रतिशत डर तो कैजुअल्टी का रहता ही है।’’ ‘‘दिमाग सुन्न भी हो सकता है। पेशेन्ट कोमा में भी जा सकता है।’’ सुनानी कैजुअल्टी को समझ नहीं पाया। डाॅक्टर प्रशांत ने तब खुल कर ‘‘मौत हो तो सकती है। इससे कोई डाॅक्टर कैसे इन्कार कर सकता है।’’ मृत्यु सुन कर सुनानी को लगा जैसा वह अभी ही वहीं मर चुका है। वह वहीं जमीन पर बैठ गया। उसने अपने सिर को दीवार पर टिकाया तो दिमाग के अंदर भी थोड़ी हलचल हुई।


डाॅक्टर प्रशांत ने माहौल को बहुत गंभीर देखा तो उसे थोड़ा हल्का करना चाहा। ‘‘अरे ऐसा कुछ नहीं होगा। डरो मत। यह तो उनका रोज का काम है।’’ ‘‘लेकिन डाॅक्टर को बतलाना तो पड़ता ही है।’’ लेकिन सुनानी के दिमाग में यह ‘मृत्यु’ शब्द जैसे टंग गया था। 


सुनानी सोचता है ‘चलो मैं ना भी डरूं लेकिन मेरा परिवार, क्या होगा उसका।’ कौन जिंदा रखेगा शुकान्त को और कौन करवायेगा शादी इन दोनों बेटियोें की।’


पर सुनानी के सामने अब सवाल यह था कि आगे क्या?


सुनानी काम करता रहा और उसके मस्तिष्क में डाॅक्टर प्रशान्त की बातें घूमती रहीं। होने को तो ठीक हो ही सकता है लेकिन कैजुअल्टी भी हो सकती है। मर भी सकता है आदमी। सुनानी गाडि़यों की बाॅडी पर ढेर सारे जख्म देखता रहा और सोचता रहा। वह हथौड़ी चलाता रहा और सोचता रहा। 


सुनानी को लगा कि जो गाडि़यां उसके पास इस जर्जर हालत में पहुंचती है उनमें और एक मनुष्य की जिन्दगी में कितनी समानता है। सरदार मोंटी सिंह कहता है जो गाडि़यां ठीक नहीं हो सकती उसे नष्ट कर दो। डाॅक्टर प्रशान्त कहता है होने को तो सब ठीक हो जाए परन्तु होने को सब नष्ट भी हो सकता है। सुनानी की गोद में गाड़ी का एक बिल्कुल ही बिगड़ा हुआ भाग पड़ा हुआ है। वह उस पर बहुत ही करीने से हथौड़ी चलाने लगता है। उसने अपने मन में कहा ‘ठीक क्यों नहीं हो सकता है। ठीक तो सब कुछ हो सकता है बस ठीक करने वाला कलाकार अच्छा होना चाहिए।’ अपने आप से जद्दोजहद करते हुए सुनानी कुछ विचार कर लिया अपने मन में। उसने अपने मन में सोचा ‘इस जीवन को नष्ट होना ही है तो हार कर क्यों नष्ट हो।’ इसलिए उसने अपने मन में कुछ निर्णय लिया। 


यह बहुत दिलचस्प है कि सुनानी जब अगली बार डाॅक्टर से मिला तो उसने एक बहुत ही नायाब सा प्रश्न सामने रखा।

‘‘अगर कीड़े हैं तो कीड़ों की कोई उम्र भी तो होती होगी। वे मर भी तो जायेंगे।’’ डाॅक्टर प्रशांत निस्संदेह सुनानी से सहानुभूति रखने लगा था नहीं तो कौन डाॅक्टर इतना वक्त देता एक मरीज को।


डाॅक्टर प्रशांत पहले थोड़ी देर तक तो इस प्रश्न के बाद सोच में पड़ गया था परन्तु उसने सोच कर और अपना पूरी डाॅक्टरी दिमाग इस्तेमाल कर कहा 

‘‘अब इस कीड़े की उम्र क्या है यह तो पता नहीं। परन्तु कीड़े की कोई न कोई उम्र होती तो अवश्य होगी।’’
‘‘तो क्या इंतजार करोगे तुम उनके मर जाने का ?’’


‘‘और अगर तुम मर गए उससे पहले तो?’’डाॅक्टर प्रशांत थोड़ा चिढ सा गया था। क्योंकि उसे लगने लगा था कि सुनानी बस मरने ही वाला है।


सुनानी चुपचाप सुनता रहा लेकिन डर को उसने पीछे छोड़ दिया था। उसने लगभग अतल गहराई में खोते हुए धीमे से कहा ‘‘और मेरे पास उपाय ही क्या है।’’ यह वाक्य सुनानी ने इतने धीमे से कहा था कि डाॅक्टर प्रशांत भी सुन नहीं पाया। प्रशांत के प्रश्नवाचक निगाह से पूछने पर सुनानी ने कहा ‘‘एक मरा हुआ आदमी क्या दुबारा मरेगा सर। एक गरीब जिन्दा है यही क्या कम बड़ा भ्रम है कि उससे जीवित बचे रहने का उपाय पूछा जाए।’’


‘‘सारे कीड़े मिल कर खा लेगें मुझे। कोई बात नहीं। मर जाउंगा। इसमें भी कोई बात नहीं। इतने सारे कीड़े ऐसे भी तो खा ही रहे हैं मुझे।’’ सुनानी बहुत गहराई से बोल रहा था और प्रशांत सिर्फ सुन रहा था। 


‘‘सारे कीड़े खा लेंगे मुझे। मर जाउंगा मैं। मेरा बेटा शुकु भी मर जायेगा।’’ सुनानी ने बिना यह जाने बोला कि डाॅक्टर प्रशांत भला क्यों कर जानने लगे उसके बेटे शुकान्त को।


डाॅक्टर प्रशांत जानता था कि उसके प्रोफेशन में भावुकता का कोई स्थान नहीं है परन्तु वह बहुत भावुक हो गया। उसने अपना हाथ सुनानी के कन्धे पर रख दिया और महसूस किया कि वह कन्धा एक कमजोर कन्धा है। उसने कहा-
‘‘वैसे तो किसी भी बीमारी को रोकना इतना आसान नहीं है परन्तु मैं कुछ दवाइयां दूंगा। यह बीमारी बढ़नी तो नहीं चाहिए।’’


‘‘बस समझ लो अब तुम्हारे और तुम्हारे भीतर बसने वाले इन कीड़ों के बीच जंग जैसी कुछ है। वे जब तक तुम्हारे भीतर हैं वे तुम्हें खाते रहेंगे। अब दौड़ सिर्फ इस बात की है कि पहले तुम हारते हो या कि वे। वे तुम्हें खाते रहेंगे और अगर तुम मर गए तो जीत उसकी। लेकिन वे थक कर एक एक कर अपनी आयु को प्राप्त करते रहे तो तुम्हारी जीत और यह जीवन तुम्हारा।‘‘


‘‘यह तुम्हारी जिन्दगी की रेस है। तुम्हें इसे जीतना ही चाहिए।’’ प्रशांत की आवाज़ में एक जोश था जो वह चाहता था कि सुनानी के दिल में घर कर जाये।
लेकिन डाॅक्टर प्रशान्त ने हिदायतें भी दीं।

‘‘यह ध्यान रहे ऐसी कोई चीज कभी भी मत देखना जिसमें तुमको तुम्हारा ही अक्स दिखे। जैसे शीशा या फिर पानी।’’ कहने का तात्पर्य यह था कि पानी और शीशे में अपने अक्स को देखने से ये कीड़े और ज्यादा उत्तेजित हो जाते थे जबकि उन्हें अब धीरे धीरे सुलाना ही मकसद था।

‘‘हो सके तो कोई मुलायम काम हाथ में ले लो। ज्यादा आवाज और ज्यादा कठिनाई तुम्हारे लिए अब ठीक नहीं।’’ यह एक ऐसी हिदायत थी जिसने सुनानी को उदास कर दिया।


सुनानी जब प्रशांत के पास से गया तो उसके अंदर गजब का जोश भर गया था। उसे जीवित रहने का एक अच्छा रास्ता मिल गया था या फिर कह लें एक नयी चुनौती। उसने डाॅक्टर प्रशांत की हिदायतों को ध्यान में रखा और फिर जुट गया अपनी इस बहुत अजीबोगरीब प्रतियोगिता में। यह प्रतियोगिता जो एक मनुष्य और कीड़ों की प्रजाति के नामालूम कीड़े के बीच थी।


हां, इस बीच सुनानी को ध्यान आया कि पिछले दो-तीन दिनों से न तो उसने चन्द्रप्रभा से बात ही की है और न ही पिछले दो-ढ़ाई महीने से वह घर ही जा पाया है। उसने इसी उत्साह के साथ घर चला जाना सही समझा। चन्द्रप्रभा ने फोन पर बतलाया कि शुकान्त की तबीयत ठीक नहीं है और यह कि वह बिल्कुल शांत होता जा रहा है। सुनानी के लिए शुकान्त की यह खबर कोई नई नहीं थी इसलिए वह इससे विचलित नहीं हुआ।
 

‘आवाज भी एक जगह है’ के बदले ‘आवाज की भी एक जगह है’ (मंगलेश डबराल की कविता की पंक्ति में थोड़ा बदलाव करते हुए)

तमाम दूरी के बावजूद सुनानी को अपना यह नया घर बेहद पसंद था। वह वहां रह नहीं पाता था लेकिन जब कभी वह यहां आता तो यहां की खामोशी उसे बहुत भली लगती थी। अपने काम पर रहते हुए सुनानी को हर घड़ी अपने घर और परिवार की चिंता रहती और सबसे ज्यादा बीमार बेटे शुकान्त की। परन्तु इस इलाके की यह एक खामोशी ही थी जो उसे सुकून देती थी। वह अपने मन में सोचता ‘‘ईश्वर हर बुरे में कुछ अच्छा अवश्य करते हैं।’’


वह खुद भी जब कभी यहां रहता इस खामोशी की खुशियां मनाता। वह इस खामोशी में खामोश रहता और सिर्फ इस खामोशी को बोलने देता।


उस दिन अपनी आधे दिन की छुट्टी के साथ जब सुनानी घर आया तो घर पहुंचते-पहुंचते धूप कम हो गई थी लेकिन बनिस्बत ही क्योंकि अभी धूप खत्म नहीं हुई थी। मौसम में उमस थी। और उसके कान के पीछे से पसीना अभी भी चू रहा था। उसकी बनियान पीठ पर पसीने के कारण चिपकी हुई थी। 


पिछले कई महीनों से परेशान रहने के बाद आज सुनानी बहुत उत्साहित था। आज उसे लग रहा था जैसे उसने रास्ता ढूंढ़ लिया है।उसने पूरे रास्ते सोचा था कि अच्छा सोचने से हमेशा अच्छा होता है। वह आज अपने घर बहुत ही प्रसन्न मन से जा रहा था। पूरे रास्ते की चिल्ल-पों की परेशानी के बावजूद आज वह चिढ़ा हुआ नहीं था क्योंकि उसे मालूम था कि वह बस अभी अभी खामोशी के आगोश में जाने वाला है। वह बहुत खुश था इसलिए उसने सोचा था कि आज वह अपने बच्चों के साथ इस खामोशी में कुछ वक्त गुजारेगा। वह चाहता था कि शुकान्त के मन में जो कड़वाहट भर रही है वह आज उसे दूर करने की कोशिश अवश्य करेगा। उसने अपने मन में हल्के से शुद्ध उडि़या में बुदबुदाया ‘‘प्यारा बच्चा।’’ लेकिन उत्साह में उसने इस बुदबुदाहट को भी इतनी जोर से बुदबुदाया की बगल का आदमी पूछ बैठा ‘‘क्या है?’’ और सुनानी झेंप गया।


बस स्टाॅप पर बस से उतरते ही गर्म हवा के झोंके ने सुनानी का स्वागत किया। सड़क पर अभी भी बहुत शोर था गाडि़यों के सांय सांय निकलने की आवाज थी। जब उसने उस सड़क को छोड़ा और जहां से कि उसे उम्मीद थी कि अचानक से यह आवाज उसका साथ छोड़ने लगेगी और खामोशी की बांहों में धीमे धीमे वह घुसता चला जायेगा वास्तव में सुनानी के साथ वहां बहुत बड़ा धोखा हुआ। उसके ख्वाबों के ठीक उलट वहां आज खामोशी नहीं बल्कि बहुत ही कर्कश आवाज थी। ऐसी कर्कश आवाज कि जैसे कान का पर्दा फट जाये। 


सुनानी अपने घर की तरफ बढ़ रहा था और यह शोर उसकी ओर बढ़ रहा था। अचानक उसे लगा कि वह शोर के एकदम पास आ गया है। या कहें कि वह शोर की गिरफ्त में आ गया है। उसने देखा उसके घर की जो चहारदिवारी थी और जिसके बगल से दोनों तरफ जो छोटे छोटे पहाड़ थे जिनमें छोटे छोटे पौधे उगे हुए थे और जहां गजब की एक खामोशी पसरी हुई रहती थी उस जगह को लोहे के कंटीले तार से घेर दिया गया था। उस घेरे के अंदर दो-तीन क्रेन जैसी गाडि़यां लगी हुई थीं। उन गाडि़यों का काम था उन पत्थरों को तोड़ कर उसे समतल बनाया जाना। उन गाडि़यों में आगे एक नुकीला पेंसिल जैसा लोहे का बना हुआ था। गाड़ी में बैठा ड्राइवर उसको अपने पास से संतुलित कर उन पहाड़ों में धंसाता था और फिर वह पेंसिल जैसी नुकीली चीज उस पत्थर में गर-गर करके धंसती चली जाती थी। आवाज इतनी तेज और इतनी कर्कश की नस फट जाये। वह लोहे की पेन्सिल पहले पत्थर को फाड़ती थी और फिर उसे टुकड़ों में तब्दील करती थी। इस लोहे और पत्थर के बीच का संघर्ष इतना कठिन था कि गाड़ी तक कांप जाये। ड्राइवर बहुत ही मुश्किल से संतुलन बना कर रखे हुए था। 


इस कर्कश आवाज ने सुनानी के मन को एकदम से विचलित कर दिया। उसके मस्तिष्क में घर बना बैठे सारे कीड़े बहुत उत्तेजित हो गए। सुनानी को लगा जैसे उसका सिर फट जायेगा। उसने अपने सिर को पकड़ लिया और वह वहीं बैठ गया। उसके माथे में जो फोडे़ थे उनमें एकदम से जलन उठी। उसने सोचा जैसे उसके सिर में आग लग गई है। 


किसी तरह घर पहुँच कर सुनानी ने जो देखा उसको देख कर उसे लगा जैसे वह पागल हो ही जायेगा। बिस्तर पर शुकान्त जोर-जोर से छटपटा रहा था और उसकी मां और बहनों ने उसके पैर और हाथों को कस कर पकड़ रखा था। ऐसा लग रहा था जैसे शुकान्त कहीं भाग जाना चाह रहा है। वह दांत भींचे हुए था। उसकी आंखों की पुतलियां उलटी हुइ थीं। उसके मुंह में झाग बन रहा था और पूरे मुंह पर झाग फैला हुआ था।


शुकान्त ने अपने पिता को देखा तो उसे लगा जैसे उसे नया जीवन मिल गया हो। सुनानी ने दौड़ कर शुकान्त को अपने में समेट लिया। उसने उसके दोनों कानों को अपने दोनों हाथों से कस कर दबा दिया। सुनानी बिस्तर पर बैठा हुआ था और शुकान्त अधलेटा था। सुनानी ने उसे कस कर पकड़ रखा था। थोड़ा वक्त लगा और फिर शुकान्त को नींद आ गई।


यह किसी को पता नहीं चला कि सुनानी ने शुकान्त को कस कर पकड़ रखा था और तनाव के कारण सुनानी खुद ही अपने दौरे का शिकार हो गया था। वह एक मिनट तक के लिए अटका रहा। लेकिन वहां खड़े उसके परिवार के सदस्य में से कोई भी यह शक नहीं कर पाया कि सुनानी एक मिनट अटक कर वापस भी आ चुका था।


लेकिन शुकान्त को संयत करने के बीच सुनानी भूल गया था कि उसकी क्या हालत है। ज्यों ही शुकान्त को नींद आई सुनानी भी वहीं बिस्तर पर ढ़ेर हो गया।


जब अंधेरा घिरा और मशीन का काम बन्द हुआ तब सुनानी को भी राहत मिली। सूर्यप्रभा और चन्द्रप्रभा की बातों से जो जानकारी मिली वह यह थी कि जब से यहां यह काम शुरू हुआ है शुकान्त पूरे दिन यूं ही तड़पता रहता है। वह पैर पटकता रहता है और बस यहां से कहीं भाग जाना चाहता है। पूरा दिन हमारा यूं ही बीतता है उसे पकड़ कर रखने में। सुनानी ने देखा दोनों बेटियां बड़ी हो रही हैं। सूर्यप्रभा जवान हो गई थी। सुनानी ने देखा कि सुर्यप्रभा अभी भी अपने पैर के गांठों से परेशान थी और वह चल नहीं पा रही थी। वह दिवार के सहारे चल पा रही थी या फिर वह बहुत ही आहिस्ते से वह अपना पांव जमीन पर रख रही थी। सुनानी ने सुर्यप्रभा की तरफ देखा और गहन चिन्ता में खो गया।


सुनानी ने महसूस किया कि यह एक बन्द कमरा है और इसमें रहने वाले चार जन बस धीरे धीरे अपनी उम्र को जी रहे हैं। जी रहे हैं या फिर जीने को मजबूर हैं।  


शुकान्त सोया हुआ था। सुनानी ने देखा ऐसा लग रहा था जैसे कई दिनों के बाद वह चैन की नींद सो पा रहा था। उसने देखा शुकान्त बहुत थका हुआ लग रहा था। उसके शरीर का अब विकास नहीं हो रहा था इसलिए वह अपनी उम्र से काफी छोटा लगने लगा था। उसके हाथ-पांव सूख कर अजीब से होते जा रहे थे। और उसका चेहरा अब डरावना लगने लगा था।


सुनानी जो सोचकर आया था वह यहां एकदम से उलटा हो गया। इसलिए उसने यहां से अचानक भाग जाना चाहा। वह चाहता तो अपनी छुट्टी को एक दिन और बढ़ा कर यहां रुक सकता था। परन्तु आज वह अपने आप को संभाल नहीं पा रहा था। 


उसने सुबह घर से निकलते हुए देखा अभी पत्थर तोड़ने का काम शुरू नहीं हुआ था। अभी वहां सन्नाटा पसरा हुआ था। उसे बहुत अच्छा लगा लेकिन उसने तुरंत वहां से भाग जाना चाहा। वहां एक बोर्ड अवश्य लगा हुआ था जिस पर अंग्रेजी में कुछ लिखा हुआ था। वह जितना समझ पाया, ऐसा लगा जैसे यह जमीन किसी बड़ी कम्पनी को दी जा रही है जो यहां बड़ा कारखाना जैसा खोलेगी शायद। कारखाना या फिर कुछ और, पता नहीं क्या।


राजेश जोशी की एक कविता है ‘रात किसी का घर नहीं’


सुनानी घर से भाग कर आ तो गया लेकिन यहां आकर भी वह बेचैन ही रहा। उसे अब हमेशा ऐसा लगता जैसे उसके बिना उसका बेटा मर जायेगा। 


सुनानी के लिए तनाव लेना बहुत खतरनाक था। डाॅक्टर के अनुसार वह जितना तनाव लेगा उन कीड़ों को खत्म करना उतना ही मुश्किल होगा। सुनानी चाहता था कि तनाव नहीं ले परन्तु बार बार उसके बेटे का चेहरा उसके सामने आ जाता। उसे घर से लौटकर आए हुए एक सप्ताह गुजरने को था परन्तु इस सप्ताह में उसने अपने आपको इतना तनाव में रखा था कि ऐसा लगता था जैसे वह अपने आप को इस चुनौती में क्या रखेगा, उसकी मौत तो ऐसे ही हो जायेगी।


सुनानी के पास जो काम होता था उसमें वह अपने को डुबोये रखने की कोशिश करता था। उसे उस बंगाली दादा की बात हमेशा याद रहती थी कि ‘वह तो एक कलाकार है। और कलाकार का काम तो इस दुनिया को संवारना है।’ सुनानी हमेशा चाहता था कि वह अपने काम में कभी कोताही नहीं करे। 


जब गैरेज में चोटिल गाडि़यां आतीं तो उसकी सबसे बड़ी मुसीबत होती किवह उन पार्टस को खोलने के लिए कैसे जाए क्योंकि गाडि़यों में शीशे लगे होते थे। और वह चाहता था कि जितना कम से कम हो सके वह अपनी शक्ल देखे। वह किसी को बतलाना नहीं चाहता था इसलिए उसकी मुश्किल ज्यादा थी। गिरिजा समझता था तो वह साथ भी देता था। सुनानी के कहने पर गिरिजा गाड़ी के शीशे को पहले कपड़े से ढ़क देता था। फिर सुनानी वहां काम करता था।


सुनानी पानी पीता तो आंख मूँद कर। उसने उसके बाद से कभी अपनी शक्ल किसी शीशे में देखी नहीं थी। पता नहीं था उसे अब उसकी शक्ल कैसी हो गयी है।


अपनी इन ऐहतिहातों से सुनानी को ऐसा लगने लगा था कि एक दिन सारे कीड़े मर जायेंगे और वह बच जायेगा। सुनानी सोचता था कि वह बच जायेगा पर उसका बेटा कैसे बचेगा। वह सोचता ‘‘क्या वाकई ऐसी कोई जगह है जहां कि कोई आवाज नहीं हो।’’


अब चन्द्रप्रभा का रोज खुद ही फोन आता ‘‘पापा अब घर आ जाओ। बचा लो इसे पापा। यह मर जायेगा। अब इसकी तड़प देखी नहीं जाती।’’

सुनानी ने सोचा एक दिन वहां जा कर यह समझने की कोशिश वह जरूर करेगा कि यह आवाज आखिर कब तक के लिए है। सुनानी वहां पहुंचा तो सब वैसे ही था। कष्ट कम इसलिए था क्योंकि सुनानी भी अपने काम को पूरा करके ही गया था। बस थोड़ा ही पहले निकला था। इसलिए जब तक वह वहां पहुंचा अंधेरा घिरने को था और वहां से सारे मजदूर जाने को थे। वहां की कर्कश आवाज बंद हो चुकी थी। हां सारे मशीनें वहीं खड़ी थीं।
मजदूरों के पास जाकर सुनानी ने पूछा ‘‘क्या इस शोर के बिना पत्थर नहीं काटा जा सकता।’’


तब मजदूरों को लगा था कि यह कोई पागल है। ‘‘हां तू रोज रात में छेनी-हथौड़ी से काट लिया कर।’’ मजदूरों ने हंसते हुए कहा था। सुनानी ने देखा उस कटीले तार के अंदर इस तरह की गाडि़यां खड़ी थीं।
‘‘क्या हम अब शोर के बिना कभी नहीं रह पायेंगे।’’ यह आखिरी सवाल था सुनानी का।
मजदूरों में एक थोड़े प्रौढ़ मजदूर ने कहा ‘‘यह दुनिया अब शोर के बिना कुछ नहीं है। शोर के बिना सिर्फ मरा जा सकता है।’’
सुनानी अपने मन में बुदबुदाया ‘‘यह शोर ही तो मृत्यु है।’’


उस दिन जो उसने अपने बेटे की हालत देखी वह पिछली बार से भी बदतर थी। सुबह वह निकलने लगा तो शुकान्त कातर निगाह से उसे देख रहा था। सुनानी की आंखों से आंसू झड़ने लगे थे। और वह झटके से निकल आया था। 


अपने सारे कष्टों के साथ जैसे तैसे सुनानी गैरेज पर दिन तो काट लेता था लेकिन सबसे मुश्किल था रात काटना। यह सोचना भी कितना अजीब लगता है कि सुनानी रात में सो ही नहीं पाता था। उसने कभी पांच-दस मिनट की झपकी ले ली तो ले ली इससे ज्यादा सोना उसके लिए अब संभव नहीं था। 


रोज शाम को जब अंधेरा घिरने लगता तब सुनानी का मन करता कि वह सब कुछ छोड़छाड़ कर घर भाग जाए। लेकिन वह जानता था कि वह मजबूर है।


सुनानी रात में सोता नहीं था और चूंकि सोता नहीं था तो भटकता था। वह पैदल बहुत दूर तक निकल जाया करता था। या फिर जमीन पर लकीरें खींचता था। उसने देखा था कि दिल्ली की रात भी रोशनी भरी होती है। रात में गाडि़यां चलती हैं। रात में नशा होता है। और रात में भी यह शहर अपने पूरे शबाब पर होता है।
तमाम ऐतिहातों के बाद सुनानी कितना ठीक हो पाया यह तो कहा नहीं जा सकता है। और ना ही ठीक-ठीक यह कहा जा सकता है कि कीड़े और उसकी जंग में कौन आगे चल रहा था और कौन पीछे। परन्तु सुनानी को पता नहीं चल रहा था और धीरे धीरे उसकी याद्दाश्त खत्म होने लगी थी। धीरे धीरे उसका सिर ज्यादा चकराने लगा था। धीरे धीरे वह ज्यादा अटकने लगा था।


और बड़ी बात यह थी कि अब सरदार मोंटी सिंह को धीरे धीरे यह पता लगने लगा था कि सुनानी के दिमाग में गड़बड़ी हो गयी है। लेकिन यह गड़बड़ी किस स्तर तक है अभी समझ नहीं आया था।


वह एक भयंकर रात थी। लेकिन मौसम सुहावना था। सुनानी मुख्य सड़क पर भटक रहा था। बेहद गर्मी के बाद शाम में हल्की बारिश हुई थी। यह बारिश के छूटने के बाद का समय था। सड़क पर पानी की चमक अभी बाकी थी। और मिट्टी की सौंधी खुशबू अभी फिजा में घुली हुई थी। सुनानी भटकते हुए दूर निकल आया था उस तरफ जिस तरफ मेट्रो लाइन थी। सड़क के ठीक बीचों बीच पाये के सहारे मेट्रो लाइन को ऊंचा उठा दिया गया था। पाये के ऊपर मेट्रो की चौड़ी पाट थी और उस पाट के ठीक नीचे की जमीन जो कि सड़क के ठीक बीच थी वह थोड़ी ऊंची थी और वह सूखी हुई थी। सुनानी ने महसूस किया कि दिन भर घर घर की आवाज करने वाली यह मेट्रो की पाट अभी शांत लेटी हुई थी। सुनानी उस मेट्रो लाइन के ठीक नीचे वाली पाट जो कि सड़क से थोड़ी ऊंची थी उस पर चढ गया और उस पर चलना शुरू कर दिया। दोनों ओर की सड़कों पर गाडि़यों की आवाज थी।
सुनानी का सिर आज शाम से ही भारी लग रहा था और उसने महसूस किया कि उसे आज रह रह कर चक्कर भी आ रहे थे। इस खुली जगह में मौसम की ठंडक को महसूस करना सुनानी को थोड़ा राहत दे रहा था। उसने देखा उस खुली पटरी पर लोग निश्चिंत सोये हुए थे। आज मौसम में थोड़ी ठंडक थी इसलिए उनकी नींद में एक गहराई थी। सुनानी को उन लोगों को यूं गहरी नींद में सोये देखना अच्छा लग रहा था। वह अपने आप को उन लोगों से टकराने से बचाते हुए चल रहा था। 


वह सीधा आगे बढता रहा और एक जगह आकर रुक गया। उसने देखा एक परिवार था। मां-बाप और उनके तीन बच्चे। जहां वे सोये थे वहीं एक छोटा सा कनात तना हुआ था। लेकिन पूरा परिवार उस कनात से बाहर खुले में सो रहा था। कनात के बगल में जलावन वाला चूल्हा था जिसकी आग बुझ चुकी थी। वहां कुछ जूठे बर्तन रखे हुए थे। 


बेटी सबसे बड़ी थी वह एक किनारे सोयी हुई थी। मां के साथ सबसे छोटा बेटा चिपट कर सोया हुआ था। बाप के साथ बीच वाला बेटा जो पांच-छः साल का होगा बेखबर सोया हुआ था। बाप दूसरे किनारे में था जिसके साथ ही लगा हुआ मेट्रो का एक पिलर था। सुनानी ने इस परिवार को देखा और उसे बहुत अच्छा लगा। वह मेट्रो के उसी पिलर से रगड़ खाते हुए वहीं बैठ गया और एकटक देखने लगा। उसने आसमान की ओर देखा आसमान साफ था। उसने अपनी कमीज की जेब से मोबाइल निकाल कर देखा उसमें एक मिस्ड काॅल था। उसने मोबाइल के अंदर प्रवेश कर देखने की कोशिश की। यह काॅल उसके घर से था। उसने सोचा पता नहीं कैसे छूट गया। उसके मन में एक आशंका तैर गई। उसने मोबाइल में ही समय देखा रात के सवा दो बज रहे थे। उसका मन किया कि वह अभी पलट कर अपने घर फोन कर ले। लेकिन फिर सोचा शुकान्त की नींद खराब होगी और वह घबड़ा जायेगा। और फिर उसने सामने निंश्चिंत सोये उस परिवार को भी देखा। बीच वाले बच्चे ने अब अपनी बांहों में अपने पिता को बहुत ही प्यार से जकड़ लिया था।


सुनानी वहीं बैठा रहा और देखता रहा। सुनानी को अपना बचपन याद हो आया। कैसे वह अपने पिता के साथ समुद्र की लहरों से खेला करता था। कैसे उनके साथ वह डोंगी में दूर तक निकल जाया करता था। और कैसे पिता ने अपने हाथों से उसे मछलियों को सहलाना सिखलाया था।


उसे याद आए अपने बच्चों के साथ बिताये गए पल। कैसे वह अपनी उस झोपड़ी जैसे घर की खिड़की से उन्हें तारे दिखाया करता था। कैसे उसके काम से लौटने तक बेसब्री से इंतजार करते थे बच्चे। फिर शुकान्त का दर्द याद आया और उसकी तड़प भी। उसकी उलट जाती पुतली और झाग से भरा हुआ मुंह। सुबह घर से निकलते वक्त की उसकी कातर आंखें। उस छटपटाती हुई स्थिति में पिता को कस कर पकड़ना सुनानी को अभी याद आया तो उसका मन बेचैन हो गया।


सुनानी के सिर में जोरदार चक्कर आने लगा। उसने अपने सिर को उस पिलर से सटा दिया। पर कुछ फर्क नहीं पड़ा। उसे लगा जैसे उसके सिर में जोर जोर से कोई चक्कर लगा रहा है। और उसी रफ्तार में उसका सिर भी घूम रहा है। ऐसा लग रहा था जैसे उसका सिर अभी खुल जायेगा। उसने वहां से उठ जाना चाहा। वह उठा और उठते हुए पहले पिता के साथ प्यार से सोये उस पांच साल के बच्चे के माथे पर अपना हाथ फेरा। बच्चे ने पिता को अभी भी कस कर पकड़ रखा था। उसकी नींद अभी भी बहुत गहरी थी।


सुनानी को पता नहीं क्या हुआ। उसने वहीं पास पड़ी हुई एक ईंट को उठाया और उसे तोड़ कर उसके टुकड़े कर लिए। फिर उसने उन टुकड़ों से मेट्रो के उस खम्भे पर कुछ लिखना शुरू कर दिया। आंय-बांय। पता नहीं क्या क्या। उसने वहां कुछ चित्र बनाए। बस, गाड़ी, रिक्शा और एक लम्बी सड़क। उसका हाथ जहां तक आराम से पहुँच सकता था उसने वहां तक चित्र बनाये फिर दूसरा खम्भा, फिर तीसरा खम्भा। वह तब तक चित्र बनाता रहा जब तक कि उजाला न हो जाय। और हर चित्र में बस, और सड़क जरूर थे। उसके आखिरी चित्र में एक बच्चा था। बच्चे के छोटे छोटे बाल थे। बच्चे के गाल पिचके हुए थे। और उस बच्चे की आंखें मुंदी हुई थीं।
उजाला होने के बाद और अपने आखिरी चित्र बना लेने के बाद सुनानी हंसने लगा। जोर जोर से नहीं बिल्कुल कुटिल मुस्कान। वह मुस्कराता हुआ अपने गैरेज पहुंच गया। उसने आज कुछ खाया भी नहीं, बस मुस्कराता रहा। वह गिरिजा का इंतजार करता रहा। गिरिजा के आते ही उसने मुस्कराना छोड़ दिया और दौड़ कर गिरिजा के पास चला गया।


सुनानी गिरिजा के पास गया और गिरिजा के बिना संभले ही बोलना शुरू कर दिया। गैरेज में अभी सिर्फ सुनानी के अलावा गिरिजा ही था। वह सुनानी के कारण थोड़ा जल्दी आता था। सुनानी गिरिजा के पास गया और चिल्लाना शुरू कर दिया।


‘‘तुम्हें क्या लगता है घर जाने नहीं दोगे तो क्या मुझे रोक लोगे। तुम उन कबूतरों को रोक पाये घर जाने से। तुम उन चींटियोें को रोक पाये। बड़े आये रोकने वाले।’’


‘‘तुम्हे क्या लगता है कि मैं मर जाऊंगा। इतना आसान नहीं है मरना।’’ सुनानी अपनी रौ में बोल रहा था और गिरिजा को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। 


सुनानी गिरिजा के बहुत पास चला गया। गिरिजा को पहली बार सुनानी से डर लगा और वह छिटक कर दूर चला गया। सुनानी ने अपनी आवाज को धीमे किया
‘‘डर मत। मैं हूं मैं। तू डर क्यूं रहा है। मुझे नहीं पहचानता। मै हूं सुनानी। चारुदत्त सुनानी।’’
‘‘मैंने एक रास्ता निकाला है। बस तू एक कुदाल ले आ।’’गिरिजा बस चुप्प सुन रहा था। गिरिजा चुप था तो सुनानी खीझ भी रहा था। 


वह गिरिजा पर झल्ला उठा ‘‘तू क्या अपने को इस दुनिया का मालिक समझता है। यह धरती तुम्हारी है? यह आसमान तुम्हारा है? यह मिट्टी तुम्हारी है? फिर तो यह कबाड़ भी तुम्हारा ही होगा।’’ सुनानी ने वहां पड़े हुए गाडि़यों के कुछ टुकड़ों को हाथ से उठाया और उसे दम लगा कर दूर फेंक दिया।


‘‘तुम मुझे अपनी सड़क पर नहीं चलने दोेगे तो कोई बात नहीं। मैं अपना एक अलग रास्ता बना लूंगा। बस एक कुदाल ले आ।’’


गिरिजा अभी तक जवाब नहीं दे रहा था। लेकिन वह मौके की गंभीरता को समझ जरूर रहा था।  


लेकिन इस बार गिरिजा ने डरते हुए पूछा ‘‘दादा कुदाल का क्या करोगे?’’ वह सावधान भी था उसे लगा सुनानी उस पर झपट्टा मार देगा। पर सुनानी एकदम शांत होकर उसके करीब आया और फुसफुसाते हुए बोला
‘‘एक सुरंग बनाऊंगा।’’


‘‘सुरंग!’’ गिरिजा ने चैंक कर सुनानी की ओर देखा तो सुनानी और चौकन्ना हो गया।


‘‘हां रोज रात में सुरंग बनाऊंगा। किसी को पता भी नहीं चलेगा। सरदार साहब को भी पता नहीं। बस तू मत बतइयो।’’ सुनानी ने ऐसे कहा जैसे इसे राज़ की तरह रखने की हिदायत दी जा रही हो।


‘‘बस पांच-छः रातों में सुरंग तैयार। फिर मैं रोज घर जाउंगा। रोज। रोज जाकर मैं अपने बेटे के पास सो जाया करूंगा।’’ सुनानी ने कहा और उसकी आंखों से आंसू निकल आये।


‘‘फिर मेरा बेटा कभी नहीं रोयेगा।’’
‘‘पर घर तो बहुत दूर है दादा।’’ गिरिजा ने समझाना चाहा।


सुनानी ने अब गिरिजा पर एकदम झपट्टा मार दिया। उसकी गरदन को पकड़ लिया और कहा ‘‘घर मेरा है तू ज्यादा जानता है। तू मुझे घर जाने देता क्यों नहीं। मेरे बेटे ने तेरा क्या बिगाड़ा है!’’ थोड़ी देर में सुनानी ने गिरजा को छोड़ दिया और फिर वहीं बैठ गया।


‘‘तू क्या चाहता है कि मेरा बेटा मर जाए।’’ सुनानी ने गिरिजा के पैर पकड़ लिए। ऐसा लग रहा था जैसे गिरिजा ही वह व्यक्ति है जो उसे सुरंग बनाने की अनुमति देगा। 


गिरिजा चुपचाप खड़ा था और सुनानी वहीं जमीन पर बेचैनी में लोटपोट हो रहा था।


कहानी खत्म होने पर कुछ यथार्थ और कुछ शुक-सुबहा
 

इसमें न तो आपको और न मुझे कोई शक है कि जब सुनानी सामान्य हुआ होगा तो गिरिजा ने उसे माफ कर दिया होगा। क्योंकि वह जानता है कि दादा बीमार हैं। और यह भी कि दादा अब क्या बचेंगे। और बीमार आदमी का क्या बुरा मानना।

यह शक आपको भी होगा और मुझे भी है कि सुनानी अपनी बीमारी को अब भला और कितने दिनों तक अपने मालिक सरदार मोंटी सिंह से छुपा पायेगा। अब वह घड़ी बहुत नजदीक ही है शायद जब सरदार मोंटी सिंह उसे उस नौकरी से निकाल देगा। और सुनानी का नौकरी से निकलना! फिर आगे क्या क्या होगा मैं और आप दोनों जानते हैं।


यह संदेह आपको भी है और मुझे भी कि सुनानी का लगभग जिंदा लाश बन चुका बेटा पता नहीं कब तक उस कर्कश आवाज को झेल पायेगा। कब तक अपनी छटपटाहट के साथ वह जिंदा रह पायेगा। पता नही क्या होगा उसका।


लेकिन अभी का यथार्थ यह है कि गिरिजा ने सुनानी को कुदाल ला कर दे दी है और सुनानी रात में कुदाल ले कर निकल जाता है। अपने गैरेज के पीछे वाले इलाके में जाकर उसने एक सुरंग खोदना शुरू कर दिया है। वह रोज वहां घण्टों मेहनत करता है। और उजाला होने पर अपने गैरेज, अपने काम पर लौट आता है। वह रोज गिरिजा को बताता है कि अब वह अपनी मंजिल से बस थोड़ी ही दूर है। उधर ज्योंही उसका घर निकल आयेगा वह अपने घर चला जायेगा। सुनानी कहता वह एक दिन उसको भी अपने साथ अपने घर ले जायेगा।
यह शक आपको भी है और मुझे भी कि यह सुरंग कितने दिनों तक इस दुनिया से छिप पाएगी।


लेकिन अभी सच यही है कि अगर रात के घुप्प अंधेरे में आप आयें और दिल्ली के इस इलाके में जायें तो वहां आपको सुनानी सुरंग खोदता हुआ मिल जायेगा। 


बस दो गुजारिश अवश्य हैं आपसे कि आप उसे देखें लेकिन चुपके से। और यह भी कि कोई उसे यह न बतलाये कि उसका घर इस सुरंग से बहूत दूर है। दूर बहुत दूर। सुनानी अभी सुरंग खोद रहा है और हमें इस सुरंग को बचाना तो चाहिए ही। बस इतना ही।

सम्पर्क-

उमा शंकर चौधरी
जे-08 महानदी एक्सटेंशन, इग्नू आवासीय परिसर
इग्नू, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-68 

मो.-9810229111

ई-मेल – umashankarchd@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

उमा शंकर चौधरी की कहानी ‘कहीं कुछ हुआ है, इसकी खबर किसी को न थी’

आज के कहानीकारों में उमा शंकर चौधरी अपने कथक्कड़ी के लिए विशेष तौर पर जाने जाते हैं. हमारे रोजमर्रा के जीवन और घटनाक्रम से कथ्य खोज कर उस के माध्यम से एक नयी कहानी बुन देना उमा शंकर की खासियत है. इस कहानी के माध्यम से भी उमा शंकर ने बाजार और उपभोक्तावाद के हमारे जीवन में विकट हस्तक्षेप के संकट को बारीकी से दर्शाया है. ऐसा लगता है जैसे घटना हमारे सामने घटित हो रही हो. वासुकी बाबू नहीं भुक्तभोगी खुद हमीं हैं. तो आईए पढ़ते हैं उमाशंकर की नयी कहानी ‘कहीं कुछ हुआ है, इसकी खबर किसी को न थी.’

कहीं कुछ हुआ है, इसकी खबर किसी को न थी

उमा शंकर चौधरी

वासुकी बाबू ने पदोन्नति की लिस्ट में अपना नाम देखा तो उनकी बांछें खिल गईं। नौ वर्ष से सरकार पर उधार था अब जाकर चुकता हुआ है। यहां एक छोटे से ब्लॉक में छोटे बाबू हैं। अब वे होंगे बड़े बाबू। लोग इज्ज़त से नाम लेंगे। उन्होंने लिस्ट को हाथ में थामे ही अपने मन में बुदबुदाया ‘बड़े बाबू’ और झेंप से गये। मन किया किसी अपने से बता दूं। लेकिन इस ऑफिस में कौन अपना। फिर लगा अरे कैसे से तो हो गए हैं। जीवन में अपना भी कहीं ढूंढना पड़ता है। परिवार से ज्यादा अपना कौन होगा। ऑफिस में रखे एक मात्र सार्वजनिक टेलीफोन की तरफ दौड़े फिर लगा वे इस उत्तेजक क्षण में यूं सार्वजनिक टेलीफोन पर अपनी पत्नी से बात नहीं कर पायेंगे। उन्हें उस ऑफिस में अचानक से बहुत अधिक कोलाहल और घुटन महसूस हुई। वे अपने टेबल पर खुले रजिस्टर को झपटकर बंद कर ऑफिस से बाहर निकल आये। मोबाइल उनकी शर्ट की जेब में था। मोबाइल में लटकी लुत्ती उनकी जेब से बाहर निकल रही थी। उन्होंने उसी लुत्ती को चुटकी से पकड़ा और मोबाइल को जेब से खींच निकाला।

       लेकिन इसे कहानी का रोमांच कहिए या यथार्थ, घर के फोन की घंटी टुनटुनाती रही और किसी ने उठाया नहीं। उनके दिमाग ने मिनट के सौवें क्षण में सोचा बड़ी बेटी कॉलेज गयी होगी और छोटी बेटी स्कूल। पत्नी के लिए उनके मन में अचानक से यह पंक्ति अंकित हुई ‘‘औरतें जरूरत से ज्यादा गप्पबाज होती हैं।’’

         लेकिन उत्साह अधिक था इसलिए उन्होंने दूसरी बार, तीसरी बार लगातार घंटी बजा दी। तीसरी बार भी जब घंटी बज कर खत्म होने वाली थी तब उधर से उनकी पत्नी की हांफती सी आवाज आयी। लेकिन हांफती सी आवाज में शब्द बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं थे। कोई और होता तो शायद समझ नहीं पाता परन्तु वासुकी बाबू ने उन शब्दों को सही जगह पर बैठाकर समझ लिया। आखिर चौबीस वर्षों का साथ जो है।

‘‘अरे बाहर खाट पर चिप्स पसार रही थी। सुनाई ही नहीं पड़ा।’’

‘‘तीन बार घण्टी बजी है। तुमको सुनाई पड़ती कब है। बाहर गप्प मार रही होगी। कहती है चिप्स सुखा रही थी।’’

‘‘नहीं नहीं सच में बाहर ही थी।’’ पत्नी ने अपनी बात पर बल दिया तो इस बार उनकी सांसें स्थिर हो चुकी थीं।

‘‘ हां तुम्हारा सच तो खैर कितना सच होता है मैं ही जानता हूं।’’ वासुकी बाबू चिढ़ से गए।

फिर अचानक वासुकी बाबू को लगा किस चक्कर में फंस गये कहां तो व्यग्र हुए जा रहे थे और कहां शिकायतों का पिटारा खुल गया।

पत्नी कुछ कह रही थी, अचानक उसको काटकर कहा ‘‘अरे छोड़ो उसको। खुशखबरी यह है कि आपके तो दिन ही फिर गए। अब आप बड़े बाबू की पत्नी कहलायेंगी। एकदम अफसरानी।’’ वासुकी बाबू ने चुहल की।

‘‘झूठ कह रहे हैं आप।’’ पत्नी आनन्दी को अपने पति से ज्यादा सरकार पर भरोसा था शायद इसलिए पति की बात पर विश्वास नहीं हो पा रहा था।

‘‘अरे भाई कुछ बातों पर सीधे भी विश्वास कर लिया करो। प्रमोशन की लिस्ट आज आ गई है। मेरे हाथ में है अभी। देखो।’’ वासुकी बाबू ने उत्साह में अपने हाथ में पकड़ी हुए लिस्ट को दिखाने के अंदाज में ऊपर को उठाया और फिर खुद ही झेंप कर हाथ नीचे कर लिया।

‘‘देखे भगवान ने मेरी सुन ली न। अब जब आरती की शादी का टाइम आया तो देखिये। भगवान ने खुशखबरी दे दी।’’

वासुकी बाबू की पत्नी ने औचक ही आरती का नाम लेकर मन में पाठकों के दिमाग पर इतना भरोसा दिखाया कि बगैर बताये भी पाठक बूझ लेंगे कि आरती सहाय वासुकी नाथ सहाय की बड़ी बेटी है। बड़ी बेटी जो अभी कॉलेज में है और वहां ग्रेजुएशन के दूसरे वर्ष में पढाई कर रही है।

‘‘सब तुम्हारे पूजा-पाठ का ही फल है।’’ वासुकी बाबू के मन में पत्नी के लिए एक आदर सा उत्पन्न हो गया।

‘‘प्रमोशन पीछे से ड्यू है तो एरियर भी मिलेगा। बस यही समझो कि आरती की शादी में  बड़ा सहारा हो जायेगा। सब भगवान की कृपा है।’’ उन्होंने ऐसा कहते हुए फोन लगाए हुए अपने कान सहित गर्दन को ऊपर आसमान की ओर उठा लिया। और मन में ही भगवान को कहा ‘धन्यवाद’।

‘‘लेकिन एक बात बताइये प्रमोशन हुआ है तो तबादला भी तो हुआ होगा।’’ पत्नी ने बहुत ही गंभीर प्रश्न पर उंगली रख दी थी। वासुकी बाबू एकदम से झनझना गए। एकदम से उनके दिमाग में शादी के शुरूआती दिनों में उनके पिता के द्वारा कहा जाने वाला एक वाक्य अंकित हो गया ‘तुमसे ज्यादा होशियार तो दुल्हन है।’

‘‘अरे यह तो देखा ही नहीं।’’ यह कहते हुए वासुकी बाबू ने अपनी गर्दन को झुका कर और कंधे का सहारा लेकर मोबाइल को उसमें दबा लिया। दूसरे हाथ को भी फ्री करते हुए अपने हाथ में पकड़ी हुए लिस्ट में अपने नाम के सामने देखा और चैंक गए। लिखा था- ‘कार्यालय मुख्य विकास अधिकारी कानपुर नगर’।’

          एक छोटे से गांव के छोटे से ब्लॉक में छोटे बाबू के पद से बड़़े शहर के जिला मुख्यालय में ‘हेड क्लर्क’ पर पदोन्नति होने पर वासुकी बाबू खुश हों या दुखी, एकबारगी वे सोच में पड़ गये। जब तक सिर्फ पदोन्नति की खबर थी वासुकी बाबू का खुशी का ठिकाना नहीं था। लेकिन इन छः शब्दों – ‘कार्यालय मुख्य विकास अधिकारी कानपुर नगर’ ने वासुकी बाबू की खुशी और उत्साह को एकदम थाम सा दिया था।

वासुकी बाबू ने पत्नी को फोन पर इतना तो बता ही दिया था कि यह तबादला कहां के लिए है। परन्तु इस एक वाकये से अचानक दोनो गुम भी हो गए थे। दोनों ने तुरंत कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और इस तरह संवाद खत्म हुआ था।

      वासुकी नाथ सहाय की उम्र पैंतालीस से ऊपर और पचास से नीचे थी। अभी तंदुरुस्त थे इसलिए उम्र का अभी बहुत पता नहीं चलता था। शर्ट पैण्ट पहनते थे, शर्ट को पैण्ट के भीतर कभी खोंसते नहीं थे। उनका शर्ट-पैण्ट पहनना उनके कम उम्र के लगने में मदद ही देता था। चेहरे पर मूंछ थी और मूंछ के बाल अभी पूरी तरह सफेद नहीं हुए थे बल्कि अभी खिचड़ी ही थे। सर के बाल अभी भी घने थे। हां कमीज आधी बाजू के पहनते थे।

         वासुकी बाबू अभी जिस गांव में हैं यह एकदम निरा देहात तो नहीं है परन्तु है एक गांव ही। ब्लॉक स्तर का गांव। वासुकी बाबू का पैतृक गांव यह नहीं है परन्तु वे यहां नौकरी के बाद से लगभग बीस वर्षों से यहीं हैं। ऐसा नहीं है कि वासुकी बाबू जिस नौकरी में हैं उसमें तबादला होता ही नहीं है परन्तु इस छोटे से ब्लॉक में कौन आना चाहता है। किसी की नजर थी नहीं तो वासुकी बाबू आराम से यहां पड़े हुए थे। हां यह अलग बात है कि जिस छोटे से गांव-ब्लॉक में कोई आना नहीं चाहता था उसी गांव-ब्लॉक में वासुकी बाबू की आत्मा धंस सी गई थी। उनके लिए एकदम अपना सा हो गया था यह गांव। अब बीस वर्ष कोई कम समय भी तो नहीं होता।

         वासुकी बाबू का परिवार जिस घर में रहता है वह घर खपरैल का है आगे अहाता है और पीछे आंगन। आगे के अहाते में बांस की फट्टी से घेरा बनाया गया है और बांस की फट्टी से ही एक दरवाजा भी। उस अहाते में दो नींबू के पेड़ हैं, एक अमरूद का और एक अनार का। बांस की खींमचे से बंद दरवाजे से एक एकपरिया पतला रास्ता घर से दरवाजे तक जाता है जिसमें ईंट बैठाकर उसे बरसात के लिए वाटरप्रूफ बना दिया गया है। उस एकपरिया रास्ते के दोनों ओर लगभग बराबर ही बागवानी है जिसमें वासुकी बाबू काम भर की सब्जी उगा लेते हैं । बैंगन, फूलगोभी, बथुआ का साग आदि। एकदम दरवाजे से सट कर एक छोटी सी क्यारी है जिसमें पुदीना और धनिया के हरे-हरे कोमल पत्ते।

      वासुकी बाबू जिस घर में रहते हैं उस घर में रहते हैं सिर्फ इन मीन तीन जन, ऐसा नहीं है। दो प्यारी बेटियों के अलावा इस घर में रहते हैं खुद वे और उनकी पत्नी आनन्दी सहाय। वैसे इतने जनों का तो कहानी में अंदाजा पहले भी लगाया जा सकता है, रोमांचक बात यह है कि इस घर में इन चारों के अलावा रहती है सुनहरी। सुनहरी यानि एक प्यारी सी गिलहरी। पहले उनके पास एक बिल्ली थी लेकिन उस बिल्ली की मृत्यु के बाद घर एकदम सुना हो गया। वह बिल्ली क्या गयी दोनों बेटियों ने लगभग खाना-पीना छोड़ दिया। छोड़ दिया हंसना और मुस्कराना भी। लेकिन तभी इसे महज संयोग कहिये कि उनके अमरूद के पेड़ पर एक दिन दिखी यह गिलहरी और फिर दूसरे दिन भी और फिर तीसरे दिन भी। और फिर उस गिलहरी को इस घर से इस घर के लोगों से प्रेम हो गया। इस घर के लोगों को तो उस गिलहरी से बेइंतहा मोहब्बत हो ही गई थी। और इसी मोहब्बत का नतीजा है कि उसका नाम रखा गया सुनहरी। धूम-2 में ऐश्वर्या राय का नाम सुनहरी ही तो था। यह सुनहरी भी उस सुनहरी की तरह एकदम बिल्लौरी आंखों वाली थी और एकदम कोमल।

           इस गांव का नाम क्या है उससे हमें या फिर आपको क्या लेना-देना। लेकिन नाम कुछ अजीब है इसलिए बता ही देता हूं। इस गांव का नाम ही है- भीतरगांव। इसमें कोई शक नहंी है कि कभी जब इस गांव का नाम यह रखा गया होगा तो इसमें यह कारण अवश्य प्रमुख रहा होगा कि यह मुख्य सड़क से कितना कटा हुआ है।

यह गांव मुख्य सड़क से लगभग दो से तीन किलोमीटर दूर है। शहर यानि अपने जिला मुख्यालय के लिए पहले दो से तीन किलोमीटर की पैदल तफरीह। इधर कौन रिक्शे पर रुपये खर्च करता है। रिक्शा पर या तो बीमार चढते हैं, दामाद चढते हैं या फिर इस  गांव में आने वाले नये मुसाफिर। इस चार किलोमीटर के रास्ते को तय करने के बाद लगभग 32-33 किलोमीटर के बस के सफर के बाद छोटा सा शहर आता है जो गांव का जिला भी है। यानि कहने का मतलब सिर्फ यह है कि शहर की हवा को इस गांव तक आने में लगभग 35-36 किलोमीटर का सफर तय करना पड़ता। वह भी 32-33 किलोमीटर खटारा बस में और चार किलोमीटर अगर जेब में पैसे रहे तो रिक्शा में नहीं तो पांव-पैदल।

          वासुकी बाबू नीम अंधेरे टहलने निकलते तो उधर से रोज नीम के ताजे दातून तोड़ लाते। एकदम नीम की हरी पत्तियों के साथ। फिर सूरज की उगती रोशनी में पलट की दुकान पर ढेर सारे अपने संगी-साथियों के साथ चाय की चुस्की। पलट की दुकान नियमित रूप से साढे-छः बजे खुलती, चाहे कड़ाके की ठंड हो या फिर गर्मी की उमस भरी सुबह। पलट के रेडियो पर तब भक्ति के गाने बजते और पलट अपनी भट्टी को धीरे-धीरे सुलगा रहा होता।

चाय धीर-धीरे पकती और धीरे-धीरे महफिल गरम भी होती।

घर पहुंचते तो वासुकी बाबू बाल्टी लेकर चापाकल की तरफ बढ जाते। चापाकल से पानी की मोटी धार गिरती और वासुकी बाबू जोर-जोर से हनुमान चालीसा के साथ लोटे से पानी उड़ेल रहे होते। नहाना होता तो लुंगी का ढेका पीछे बांध लोटे भर पानी का अघ्र्य सूर्य को देते और फिर जनेउ पर उंगलियां फिरा कर उसका पानी निचोड़ कर उसे तेज झटके के साथ झटक देते। उसी जनेउ में उनकी अल्मारी की चाबी होती जहां आकर उनकी उंगलियों की रफ्तार थोड़ी धीमी पड़ जाती। सब नियमित था-नहाने के बाद पत्नी खाने पर इंतजार करती। वासुकी बाबू एक चौड़े पीढे पर पालथी मार कर बैठ जाते। और फिर गिलास से चुल्लू में पानी लेकर उसे गायत्री मंत्र के साथ-साथ बुदबुदा कर थाली के चारों और छींट देते। पत्नी आनन्दी साये की तरह उनकी थाली पर नजर रखती कि कहीं कुछ कम तो नहीं हो गया।

       उस गांव में हटिया दो दिन लगती जिसे उस इलाके में बाजार ही कहा जाता। दो दिन बाजार लगता इसलिए इन दो दिनों में ही सब्जी-मसाले आदि खरीदे जाते। लेकिन वासुकी बाबू की पत्नी को दिक्कत नहीं होती क्योंकि अपने बगीचे में इतनी सब्जियां हो जातीं कि काम चल जाता था।

     शाम को ऑफिस से लौटने के बाद वासुकी बाबू अपनी बेटियों को घर में चहकते हुए देखकर खुश होते। शाम को घण्टों वे अपने बगीचे में अपनी खुरपी के साथ होते। चापाकल से सीधा नाला उस बगीचे तक बना हुआ था। कभी खुद और कभी बेटियों को कहते चापाकल चलाने के लिए तब वासुकी बाबू अपनी खुरपी से उस पानी को रास्ता दे रहे होते। पानी बगीचे के कोने-कोने तक पहुँच जाए इसके लिए वे काफी मशक्कत करते।

         वासुकी बाबू इस बगीचे को बहुत प्यार करते थे। वे बांस की फरट्टी और सींकचों से मचान तैयार करते और सेम की लत्ती को उस पर चढाते। जब सेम खूब फलता तो तोड़कर खुद भी खाते और दोस्तों को भी बांटते। अमरूद का बहुत बड़ा पेड़ था। जब अमरूद का समय होता तो बाल्टी भर कर अमरूद तोड़ते। वासुकी बाबू खुद पेड़ पर चढ जाते और नीचे उनके बच्चे अमरूद को सहेज कर बाल्टी में रख रहे होते। वासुकी बाबू के मित्र मंडली के सभी सदस्य इन अमरूदों के गजब के दीवाने थे। वासुकी बाबू अपने दोस्तों से कहते ‘‘हम तो ऑफिस में रहते हैं तब भी ध्यान इस बगीचे पर ही होता है।’’ वाकई वे इस बगीचे पर एक खरोंच भी बर्दाश्त नहीं कर पाते थे।

           बड़ी बेटी का कॉलेज दूर था। वही रास्ता समझिए रिक्शा वाला और फिर बस से चार-पांच किलोमीटर। गांव की कई लड़कियां साथ थीं तो बहनापा भी हुआ। और इस बहनापे ने रिक्शे की जरूरत को खत्म कर दिया। वे आपस में बतियातीं और रास्ता कट जाता। छोटी बेटी का स्कूल पास में ही था। पास यानि लगभग एक-डेढ़ किलोमीटर। बेटी नवीं में पढती थी और पैदल जाती थी। घर से कुछ ही दूरी पर हटिया की जगह थी जहां सप्ताह में दो दिन सब्जी खरीदने वासुकी बाबू जाते। उन दो दिनों को छोड़ कर वह बच्चों का क्रिकेट मैदान होता। जहां गांव भर के बच्चे क्रिकेट खेलते और अपने हर स्ट्राइक पर धोनी और सहवाग बनने का सपना अपने मन में पालते।

       गांव में बिजली तो थी लेकिन रहती कम ही थी। पंखे लगे थे लेकिन चल कम ही पाते थे। गर्मी के मौसम में लोग बाहर घूमते या फिर बाहर खाट पर बैठ कर हाथ से पंखे झलते। लेकिन टेलीविजन और केबल का कनैक्शन लगभग सारे घरों में आ गए थे। जितनी देर बिजली होती लोग अपने काम कम निपटाते न्यूज चैनल पर देश-दुनिया की खबरें ज्यादा लेते। वासुकी बाबू शाम को घर पर होते और बिजली होती तो एन.डी.टी.वी. पर रवीश कुमार और अभिज्ञान प्रकाश से जरूर मुखातिब होते।

             लेकिन बेटियों को जूम और चैनल वी बहुत पसंद था। नयी फिल्मों और नये-नये गानों को बेटियां अपने टेलीविजन सेट पर एंज्वाय करतीं। बेटियां करीना कपूर और कैटरीना कैफ को उस छोटे से टेलीविजन सेट पर देखतीं और ये नायिकाएं उनका आदर्श बनती जातीं। वे अपनी अपनी सहेलियों के साथ इन नायिकाओं के आदर्श बनते चले जाने का किस्सा बहुत चाव और उत्साह से करतीं। अक्सर नई फिल्में, चैनलों पर आतीं और बच्चे उनके  समय का इंतजार करते। हालांकि ऐसा कम ही हो पाता कि बिजली उनका पूरा-पूरा साथ दे पाए। हां बेटियों ने बाद के दिनों में पिता से जिद करके सीडी प्लेयर खरीदवाया और सीडी की व्यवस्था उन्होंने अपने सहेलियों से की।

           कौन सी फिल्में कहां चल रही हैं अखबार में इसकी खबर आती और बच्चे इसे बहुत उत्सुकता से देखते। इन छोटे-छोटे पोस्टरों को देख कर इन बच्चों के मन में रोमांच जगता और ढेर सारे ख्वाब पलते। बड़े-बड़े सिनेमाहाल, बड़े-बड़े मल्टीप्लैक्स में फिल्में चल रहीं होतीं और इस छोटे से गांव में इन लड़कियों के दिल की धड़कनें तेज हो जातीं। ‘बीड़ी जलैले जिगर से पिया जिगर में बड़ी आग है’ जैसे गानों पर मल्टीप्लैक्स में पॉपकार्न खाते हुए दर्शकों ने जितनी आहें नहीं भरी होंगी उससे ज्यादा गांव की इन जवान हो रही लड़कियों ने उन गानों को यहां देखकर आहें भरी होंगी। 

            इस घर में सबसे प्यारी चीज थी सुनहरी। सुनहरी पिछले छः-सात महीने से साथ थी लेकिन इन छः-सात महीनों में ही वह इस घर की एक अहम सदस्य बन गई थी। वासुकी बाबू ऑफिस से घर आते तो वह दरवाजे पर उनका इंतजार करती। वासुकी बाबू जितनी देर अपने बगीचे में होते सुनहरी उनके साथ इस बगीचे में लगी रहती। चापाकल आंगन में था और बगीचा बाहर। वहां से नाले के सहारे पानी को यहां तक लाया जाता। पानी कब चलाना है और कब बन्द करना है इसकी खबर बार-बार सुनहरी फुदक-फुदक कर दे आती। वासुकी बाबू यहां बगीचे में कहते कि अब नाले का मुंह मोड़ना होगा पानी बन्द करवा दो और सुनहरी आंगन की तरफ दौड़ जाती और फिर अपनी चीं-चीं की आवाज के साथ इशारा कर देती कि अब चापाकल बन्द कर दो।

दरवाजे पर कोई आता तो सबसे पहले सुनहरी ही घर के भीतर खबर देने के लिए दौड़ती।

       खैर यह तो हुई वासुकी बाबू की उस गांव में रहने की दिनचर्या। अब फिर से कहानी में उस दिन पर लौटता हूं जब वासुकी बाबू की पदोन्नति हुई और पदोन्नति के कारण उनका स्थानान्तरण भी कर दिया गया था।

     शाम को जब ऑफिस से वासुकी बाबू घर की तरफ लौटे तो उनके पांव भारी थे और उनके मन पर एक बोझ था। ऑफिस में प्रमोशन की खबर फैल गई थी, लोग बधाई देते परन्तु वासुकी बाबू चुप रहते। लोग आश्चर्य में थे कि जिस प्रमोशन के लिए वे वर्षों से इंतजार कर रहे थे उस प्रोमोशन को पाकर आखिर वासुकी बाबू इतने चुप क्यों हैं?

       ब्लाॅक से लौटते हुए रास्ते में कई लोगों ने वासुकी बाबू को नमस्कार-प्रणाम किया परन्तु वे आज उदास थे। लोगों ने रुक-रुक कर जानना चाहा कि आखिर वे आज क्यों उदास हैं। लोग उनको नमस्कार-प्रणाम करते और उन्हें उदास देख कर उनके पास आकर उनके उदास होने का कारण पूछते और वासुकी बाबू और ज्यादा उदास हो जाते।

          ब्लाॅक से लौटते आज वासुकी बाबू को नियत समय से ज्यादा समय लगा। वे कुछ सोचते हुए चल रहे थे, उलझन उनके दिमाग में तारी हो रही थी। उन्होंने ईंट के खड़ंजे वाली सड़क पर चलते हुए अगल-बगल के पेड़-पौधों को देखा और मन उदास सा हो गया। वे उस पोखर के बगल से आज भी गुजरे जहां रोज उसमें तैरने वाली बत्तखों को देखकर खुश होते थे आज उन्हें सारी बत्तखें शांत लगीं। वासुकी बाबू ने सोचा शहर में ये बत्तख, ये पोखर यह हरियाली कहां मिलेगी। उनके मन में तुरंत यह अंकित हुआ कि ‘‘शहर में तो अब पक्षी के नाम पर एक कौआ तक भी नहीं दिखता।’’

                जहां 20-22 साल गुजारे उस जगह के छूटने का दुख वासुकी बाबू को बहुत था, क्योंकि अपनी पूरी जवानी अपने बच्चों का पूरा बचपना उन्होंने यहीं गुजारा था। परन्तु वासुकी बाबू को इस दुख के साथ साथ शहर के जीवन और वहां की अजनबीयत से भी बहुत घबराहट हो रही थी। वे ठस्स गांव के आदमी थे और अपने जीवन में वे कभी भी शहर में बहुत दिनों तक रहे तक नही थे और रहना तो क्या बहुत ठीक से शहर को देखा तक नहीं था। अब जवान हो रहे बच्चों के साथ कोई साधारण सा शहर नहीं, सीधे कानपुर जैसे महानगर में रहना उनके लिए घोर चिंता का विषय था।

              प्रोमोशन लिस्ट में अपना नाम देखने के बाद पत्नी से जो बात हुई थी और जिसके बाद दोनों अनमने से हो गए थे उसके बाद उनके बीच या घर के किसी सदस्य से कोई बात नहीं हुई थी। आज घर पहुंचने में अपने नियत समय से देर हो रही थी तो उनके दिमाग में यह अंकित हो रहा था कि पत्नी बांस की फरट्टी के दरवाजे को खोल कर उनका इंतजार कर रही होगी और सुनहरी! सुनहरी कूद रही होगी उस बगीचे में। लेकिन घर के अन्य सदस्य यानि बच्चियां उनके इस गांव से शहर के स्थानान्तरण पर क्या महसूस कर रही होंगीं यह वासुकी बाबू के लिए भी एक सवाल था।

          जब वासुकी बाबू घर पहुंचे तो आज थक से गए थे। पत्नी सही में दरवाजे पर इंतजार कर रही थी और सुनहरी वाकई यहां से वहां फुदक रही थी। वासुकी बाबू ने अपने कन्धे पर लटकाए बैग को पत्नी को पकड़ाया जिसमें उनके खाने का बाॅक्स भी था और जिसमें आज उन्होंने पत्नी का दिया हुआ खाना आधा छोड़ दिया था। पत्नी ने देखा पति आज अनमने से हैं। वासुकी बाबू ने घर में घुसते हुए अपने बगीचे पर नजर डाली। सारे पौधे सुस्त और निराश थे। पुदीने के पत्तों की खुशबू खत्म सी हो गई थी।

         लेकिन बच्चियां काफी खुश थीं। वासुकी बाबू ने दरवाजे पर अभी पांव ही रखा था कि भीतर से बच्चियांे के चिल्लपों की आवाज बाहर आई। बड़ी बेटी बड़ी हो गयी थी इसलिए वह थोड़ी शर्मीली हो गई थी परन्तु छोटी बेटी ने पिता के अन्दर प्रवेश पर उनका स्वागत अपनी चिल्लाहट से किया।

       पत्नी चुप थी क्योंकि वासुकी बाबू चुप थे, लेकिन बच्चे खुश थे क्योंकि बच्चों को यह एक रोमांचक बदलाव लग रहा था। वे गांव में रह-रहकर उब चुके थे। उन्होंने शहर को सिर्फ अपने टेलीविजन सेट पर ही देखा था। अब वे शहर में रहेंगे और शहर की जिन्दगी में रंग जायेंगे यह उनके जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव होने वाला था।

                वासुकी बाबू ने जब घर में प्रवेश किया तो उनके मन में तनाव था परन्तु उन्हांेने यहां देखा बच्चियों के बीच जश्न जैसा माहौल था। छोटी बेटी प्रीति ने बड़ी बहन से अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग लेकर एक छोटी सी पार्टी जैसा इंतजाम कर रखा था। वासुकी बाबू ने देखा अपने बगीचे से तोड़े गए फूलों से घर को थोड़ा बहुत सजाने की कोशिश की गई थी। मंदिर के सामने दीप जल रहा था और थोड़े से फूल वहां भी रखे थे। वासुकी बाबू कुछ सोच पाते इससे पहले प्रीतिे एक ट्रे में कोल्ड ड्रिंक्स के ग्लास ले आई। प्रीति ने पापा के सामने ट्रे को आगे बढ़ाते हुए पापा को देखा कि पापा उदास हैं।

‘‘अब तो हंस दो पापा। नहीं, पापा नहीं, बड़े बाबू। अब तो हंस दो बड़े बाबू।’’ प्रीति ने एकदम लाड़ में कहा।

वासुकी बाबू के चेहरे पर हंसी की एक हल्की सी रेखा तो खिंच ही आयी।

कोल्ड ड्रिक के बाद जो प्लेट प्रीति ने सजा रखी थी उसमें हलुवा और चिप्स थे। और साथ में एक-एक टाॅफी। पूरा परिवार इस पार्टी में शरीक था परन्तु वासुकी बाबू की पत्नी चूंकि वासुकी बाबू के डर को जानती थी इसलिए उनके दुख को भी जानती थी। चूंकि वे इस दुख को जानती थीं इसलिए यह अजीब भी लग रहा था कि उन्हें यह बुरा न लग रहा हो। परन्तु पता नहीं ऐसा क्या था कि बच्चों के इस उत्साह को देखकर वासुकी बाबू का सारा डर, सारा संदेह हवा हो गया। दो बातें तो तब वासुकी बाबू को लगने ही लगी थी पहली यह कि बेकार ही इस डर में उन्होंने अपने इस बहुप्रतीक्षित प्रमोशन की खुशी को भुला सा दिया है। और दूसरी यह कि अगर बच्चे खुश हैं तो बच्चों की खुशी में ही तो अपनी भी खुशी है।

        वासुकी बाबू तब उठ कर खड़े हो गए और अपने बच्चों से कहा कि वे अभी मिठाई की दुकान से कुछ मिठाइयां खरीद कर लाने जा रहे हैं।

वासुकी बाबू को कानपुर नगर के विकास भवन में ज्वाइन तो एक-दो दिन में ही करना पड़ा परन्तु  वे अपने परिवार को कम से कम एक महीने बाद ही वहां ले जा पाये। इस बीच उन्होंने अपने लिए घर ढूंढने में खूब मेहनत मशक्कत की।

               घर ढूंढ़ने में वासुकी बाबू ने अच्छा खासा वक्त लिया। चूंकि उनकी बच्चियां बड़ी हो रही थीं, इसलिए वे चाहते थे कि किसी ऐसी जगह घर लिया जाए जो कम से कम रहने लायक हो। लेकिन इस शहर में ऐसी जगह घर लेना जहां चैन से रहा जाए उनके वश में था कहां। वासुकी बाबू ने थोड़ा सा नीचे उतर कर वहां घर देखना शुरू किया जहां मिडिल क्लास के लोग ही रहते हों और जहां सुरक्षित भी रहा जाए। वे घर देखने जाते तो बहुत ही बारीक नजर से उस मोहल्ले को देखते। वे अपने मन में लाना चाहें या नहीं लेकिन उनके मन में यह जरूर होता कि उनकी बेटियों के लिए ये मोहल्ला कितना सुरक्षित है। वे दिन भर ऑफिस में रहेंगे और दिन भर परिवार अकेला रहेगा यह सवाल उनके मस्तिष्क में हमेशा तना रहता। जिस भी मोहल्ले में चार लंपट जैसे लड़के घूमते दिख जाते या फिर बाइक की तेज आवाज उन्हें सुनाई पड़ जाती और वे देख लेते कि दो लड़के तेज रफ्तार में बाइक को उड़ा रहे हैं तो वे तुरंत अपने आप को उस मोहल्ले से समेट लेते।     

               वासुकी बाबू शहर आये तो देखा कि यहां भीड़ बहुत है। ढ़ेर सारे लोग हैं और ढ़ेर सारी गाडि़यां। जितनी जगह है उससे ज्यादा लोग हैं और जितने लोग हैं उससे ज्यादा गाडि़यां हैं। हर तरफ शोर ही शोर। लेकिन इस भीड़ में उन्होंने महसूस किया कि एक गजब का अकेलापन है। भीड़ में लोग चल रहे हैं, गाडि़यां चला रहे हैं, फिल्म देख रहे हैं, शॉपिंग कर रहे हैं लेकिन सब अकेले हैं। वासुकी बाबू इस भीड़ में चलते, टकराते और फिर सहम से जाते। वे उस भीड़ को एक शक की निगाह से देखते।

           वे देखते यहां सड़क किनारे ढेर सारे सामानों का विज्ञापन करते बड़े-बड़े होडिंग्स हैं। ढेर सारी सुन्दर लड़कियां दुनिया की ढेर सारे समानों को बेच डालना चाहती हैं। कोई साबुन, तो कोई वाशिंग मशीन, तो कोई पुरुष के दाढी बनाने का रेजर तो कोई पुरुष का अंडरबीयर बेच रही है। वासुकी बाबू उन विज्ञापनों को देखते और उस विडम्बना पर आश्चर्यचकित होते कि पुरुष के रेजर से आखिर इन सुन्दर लड़कियों का क्या वास्ता। वे उन विज्ञापनों को देखते और चकरा से जाते। कोई एक सुन्दर लड़की कहती यह साबुन बेहतर है तो दूसरी लड़की कहती इससे तो बेहतर यह है। ढेर सारे विशालकाय विज्ञापन वासुकी बाबू को चकराने के लिए काफी था। वासुकी बाबू उन विज्ञापनों का कद देखते, उसके नीचे वे खड़े होते और अपने आप को उसके सामने बौना समझते। उनकी सांसें वहां घुटने लगती और वे वहां से भाग खड़े होते। 

               वासुकी बाबू का नया ऑफिस बड़ा था या नहीं यह तो अलग बात है लेकिन चूंकि वे एक ब्लॉक स्तर के ऑफिस से आये थे इसलिए उनके लिए यह ऑफिस भूलभुलैया की तरह था। इस बड़े से ऑफिस में कुछ जगहों पर एसी लगा हुआ था तो कुछ जगहों पर कूलर। उन्हें यहां भी कोई चैम्बर तो नहीं मिला परन्तु जिस हॉल में उनका टेबल था वह हॉल काफी बड़ा था। उस हॉल को आप आयताकार समझ लें। दोनों लम्बी वाली दीवारों के सहारे टेबल और कुर्सियां लगी हुई थीं उन कुर्सियों पर तरह-तरह के कलर्क। उन कमरे की चैड़ाई वाली दीवार में एक तरफ वासुकी बाबू का कुर्सी और टेबल लगा हुआ था। वासुकी बाबू की टेबल उस कमरे में लगी अन्य टेबलों से आनुपातिक रूप में बड़ी थी। टेबल पर एक कम्प्यूटर था, एक टेलिफोन और टेबल के सामने तीन कुर्सियां। वासुकी बाबू की कुर्सी घूमने वाली थी। जिस पर उन्होंने अपनी ज्र्वाइंनिंग के दूसरे ही दिन अपने पैसों से गुलाबी रंग का एक तौलिया रख दिया था। उस कुर्सी के ठीक ऊपर एक पंखा लगा हुआ था, जिसकी रफ्तार वासुकी बाबू अक्सर कम ही रखते थे। वासुकी बाबू की कुर्सी का मुंह उन टेबल-कुर्सियों की तरफ था जिधर और सारे कुर्सी-टेबल लगे हुए थे। वासुकी बाबू की कुर्सी की बायीं तरफ एक खिड़की थी जिसमें कूलर लगा हुआ था, जिससे गर्मी के मौसम में ठंडी हवा आती थी। ठंड के मौसम में वह कूलर बंद रहता था जिससे वासुकी बाबू को चिढ रहती थी। उन्हें लगता कि अगर यहां कूलर नहीं होता तो खिड़की खुली होती और वे बाहर का दृश्य कुर्सी पर बैठे बैठे ही उस खिड़की से देख सकते थे। उनकी बहुत इच्छा थी कि उस हॉल में भी एसी लग जाए ताकि यह खिड़की खाली हो सके। उस कुर्सी के ठीक बगल में एक डस्टबिन था जिसमें वे रद्दी कागजों को फेंका करते थे।

           वासुकी बाबू के दिमाग में इस शहर को लेकर क्या क्या नहीं चलता था। उन्हें लगता कि एक तरफ उनका अकेला परिवार है और दूसरी तरफ शहर का इतना बड़ा अविश्वास। वासुकी बाबू अपने मन में बुदबुदाते ‘‘यह तो शेर के मुंह में उसके जबड़ों के बीच जीवित बचे रहना जैसा है।’’ वासुकी बाबू अपने ऑफिस से लेकर प्रापर्टी डीलर तक को जब अपने घर की जरूरतें बताते तब उसमें इस बात पर खासा बल देते कि ‘‘सुरक्षित जरूर हो।’’ और सभी लोग उनकी यह सुरक्षा वाली जरूरत पर चैक से जाते। डीलर ‘सुरक्षा’ शब्द को दुबारा से दोहरा कर उनकी ओर देखते तो वासुकी बाबू घबरा से जाते। उन्हें लगने लगता कि उन्हांेने इस शहर से कुछ ज्यादा ही मांग लिया है। अंततः एक दिन एक डीलर ने कह ही दिया। ‘‘साहब इस शहर में ऐसा कोई घर होता तो मैं ही नहीं ले लेता।’’

‘‘सुरक्षा! साहब सुरक्षा भी कोई अब ख्वाब देखने की चीज रह गई है।’’ डीलर ने ऐसा कहा तो वासुकी बाबू के चेहरे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा गईं।

         खैर काफी माथापच्ची के बाद आखिर वासुकी बाबू ने घर को फाइनल किया। यह उनकी किस्मत ही कहिए कि इस शहर में भी उन्हें ऐसा घर मिल गया जो इस महानगर के हिसाब से बहुत ही बढिया था।

            यह तिमंजिला मकान था। जिसमें पहली और दूसरी मंजिल पर भी किरायेदार थे। मकान मालिक वहां नहीं रहते थे। वासुकी बाबू की पहली पसंद ग्राउंड फ्लोर का घर था। गांव में रहने, घूमने की आदत थी इसलिए अभी जमीन का लोभ छूटा नहीं था। नीचे वाले फ्लोर पर एक किनारे से थोड़ा अंदर जाकर ऊपर जाने की सीढी थी। लेकिन वह अंदर जाने का रास्ता दीवार से घिरा हुआ था यानि ग्राउंड फ्लोर अलग-थलग था। एक मुख्य दरवाजा था जिसको बंद करने के बाद पूरा घर बंद हो जाता था।

         मोहल्ला बड़ा था। मोहल्ले में घर भी बड़े-बड़े थे। परन्तु जो घर वासुकी बाबू ने लिया था वह छोटा सा ही था। पीछे आंगन नहीं था लेकिन आगे छोटा सा बरामदा था जहां एक-दो कुर्सियां लग सकती थीं। मोहल्ले के लिए जो सड़क थी उससे दाहिने को अंदर जाने पर एक बार फिर से बांयें मुड़ना पड़ता था और फिर लगभग आधा किलोमीटर सीधा चलने पर फिर बायां मुड़ना पड़ता था। इस अंतिम मुड़ने वाली जगह पर एक पंप घर जैसा कुछ कभी रहा होगा जो अब बंद पड़ा हुआ था। उसकी दीवार खाली थी और उस पर यह नहीं लिखा हुआ था कि स्टीक नो बिल्स। इसलिए उस दीवार पर टयूशन क्लासेस के पम्पलेट से लेकर सिनेमा के पोस्टर तक लगे रहते थे। एक तरह से कहिए वासुकी बाबू के घर की यह पहचान थी।

             जब पूरा परिवार यहां आ गया तब वासुकी बाबू को थोड़ा आराम मिला। यह घर वासुकी बाबू को एक कैदखाने की तरह भले ही लगता हो परन्तु पूरे परिवार को कोई दिक्कत नहीं थी। सबको लगता था कि अब शहर में कोई बड़े घर में रहना संभव तो नहीं है। वासुकी बाबू को यहां अपनी बागवानी और अपने अमरूद के पेड़ की बहुत याद आती थी। यहां चापाकल नहीं था बल्कि नल लगा हुआ था इसलिए उनको नहाने में अब कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती थी। लेकिन उनकी दिनचर्या बहुत अजीब हो गई थी।

    सुबह उठकर वे नियम से टहलने तो यहां भी जाते परन्तु कोई ऐसी जगह नहीं थी जहां बैठकर चाय पी जा सके। धीरे-धीरे दोस्ती तो हुई लेकिन बैठने की कोई जगह नहीं मिल पाई। ऐसा नहीं था कि शहर में कोई पार्क नहीं था लेकिन पार्क इस मोहल्ले से बहुत दूर था और जहां पैदल टहलते हुए तो क्या तेजी से चलकर भी जाना संभव नहीं था। जब टहलने की आदत में लोगों से उनकी दोस्ती हुई तो उन्होंने जाना कि यह दुख सभी को था कि वे पार्क के इतने करीब नहीं रह रहे हैं कि वहां टहलने जाया जा सके। वासुकी बाबू जब अपने ताजा-ताजा छूटे गांव की कहानी सुनाते तो उनके सारे दोस्त नास्टेलजिक हो जाते।

           वासुकी बाबू टहल कर आ जाते तब कुछ देर अपनी सुनहरी के साथ खेलते। सुनहरी के पास यहां फुदकने के लिए बहुत जगह नहीं थी। परन्तु वह बहुत उदास नहीं रहती थी। सुनहरी वासुकी बाबू की गोद में तब चढकर बैठ जाती जब वे अखबार पढ रहे होते। वासुकी बाबू देश-दुनिया की खबरों में अपराध और भ्रष्टाचार की खबरें पढकर दुखी हो रहे होते तो सुनहरी उनके दुख को कम करती। वासुकी बाबू को सबसे मुश्किल लगता शाम के समय को काटना। शाम में घूमने के लिए कोई साथी नहीं था। वे ऑफिस से निकलते तो टैम्पो लेकर घर पहुँचते। वे सब्जी ले कर आना चाहते थे लेकिन जहां टैम्पो वाला उतारता वहां से एक किलोमीटर दूर दक्षिण की दिशा में सब्जी की छोटी सी मण्डी थी। बेशक कभी मन करता तो वहां चले जाते अन्यथा थके होते तो छोड़ देते। दिन की दुपहरिया में ठेला लेकर रामवचन आता तो उनसे पत्नी सब्जी खरीदती एकदम अपने दरवाजे पर। वासुकी बाबू की पत्नी सब्जी खरीदती और उसे घुमा फिरा कर उसकी ताजगी की जांच करती। निराश होती और फिर सब्जी खरीद लेती।

      शहर में परिवार को लाने के बाद वासुकी बाबू को कुछ दिन लगे पूरे परिवार को व्यवस्थित करने में। दोनों बच्चियों को यहां एडमिशन करवाना पड़ा। छोटी बेटी के लिए स्कूल का रिक्शा आता था। बड़ी बेटी का एडमिशन कालेज में हुआ और वह शहर में चलने वाली छोटी-छोटी बसों में सफर करती थी।

          वासुकी बाबू के इस शहर में आने और पदोन्नति को स्वीकार कर लेने के बाद से बहुत सारे फायदे हुए। उनकी तन्ख्वाह बढ गई, उनका ओहदा बढ गया। वे दिन भर व्यस्त रहते। ऑफिस आना-जाना फिर घर की ढेर सारी जिम्मेदारियां। परन्तु वे इस शहर में कभी निश्चिंत नहीं रह पाते। घर से निकलते तो उन्हें पूरे दिन अपने घर की चिंता सताती। कारण था कि जिस मोहल्ले में रहते थे वहां कोई ऐसा नहीं था जिस पर वे भरोसा कर पायें। अगल-बगल के घर हों या फिर ऊपर के दोनों मंजिल के किरायेदार किसी से भी कोई खास बातचीत नहीं। वासुकी बाबू ने मेल-जोल बढाने की कोशिश की थी लेकिन किसी ने बहुत रुचि नहीं दिखायी। कभी घर से बाहर निकल गए तो कोशिश की कि अगल बगल वाले से बात कर लें परन्तु बात हाल-समाचार से आगे नहीं बढ पायी।

            सुबह वासुकी बाबू अखबार के नगर संस्करण में रोज हत्या, छीना-झपटी की खबरें पढते और उनका मन डर जाता। बच्चे स्कूल जाते, कॉलेज जाते तो उनके मन में एक डर बैठा रहता। वे रोज ऑफिस से उनके लौट आने की खबर लेते तब जाकर कहीं उनको शांति मिलती। पत्नी कहती – ‘‘आप नाहक इतने परेशान रहते हैं।’’

बच्चे कहते ‘‘पापा आपको तो इस शहर से जैसे फोबिया हो गया है। शहर में भी तो लोग रहते हैं। आप क्यों इतने चिन्तित रहते हैं।’’

परन्तु वासुकी बाबू पत्नी को कहते – ‘‘आनन्दी ये बच्चे क्या जानें। दुर्घटना होने में बस एक क्षण लगता है और जिन्दगी बरबाद। इस शहर में कोई अपना नहीं होता। सब बस पैसों के पीछे हाय हाय करते हैं।’’

लेकिन इस शहर में बच्चे बहुत खुश थे। वे दो-चार बार पिता की इजाजत से मां के साथ सिनेमा हॉल में पिक्चर देख आये थे। कभी-कभार बाजार भी घूम लिया करते थे ये लोग। लेकिन मॉल में जो मल्टीपलैक्स था उसमें जाने की इजाजत बच्चों की जिद के बावजूद पिता नहीं दे पाये थे। एक सौ पचहत्तर रूपये की टिकट। यानि चार आदमी में छः सौ और फिर आना जाना। और फिर उसमें खाना-पीना हुआ तो। वासुकी बाबू कहते ‘‘उसमें फिल्म नहीं देखोगे तो क्या तुम्हारी जिन्दगी नहीं चलेगी। और देख लोगे तो क्या स्वर्ग चले जाओगे। चुपचाप मन लगा कर अपनी पढाई करो। शहर आ कर उसके रंग में उड़ने मत लगो।’’ फिर थोड़ा रुककर धीमे से उन्होंने कहा ‘‘सुनते हैं उसमें तो मक्के का भूंजा ही मिलता है अस्सी रुपये का। वह भी सौ ग्राम।’’

               घर के आगे जो छोटा सा बरामदा था उसकी जो चहारदिवारी थी वह इतनी ऊंची थी कि अगर आदमी कुर्सी लेकर बैठे तो पूरी गहराई में धंस जाए और राह चलते आदमी को कुछ दिखे नहीं। वासुकी बाबू ने उस चहारदिवारी पर कुछ गमले रख दिये थे। गमले की देख रेख वे करते और यहां भी उन्हें ऐसा करने में सुनहरी उनका साथ देती। वासुकी बाबू कुर्सी पर खड़े हो कर गमले के पौधों की सिंचाई करते उनकी कंटाई-छंटाई करते। सुनहरी तब नीचे खड़ी उनको बस टुकुर-टुकुर देखती रहती। वासुकी बाबू एक दिन बाजार से एक सीनरी खरीद लाये जिसमें चारों तरफ हरियाली थी और उसी बीच में एक घर बना हुआ था और उस सीनरी की दायीं ओर एक बच्ची बैठी थी अकेली और उदास। वासुकी बाबू ने इसे अपने कमरे में लगाया जो उस घर का पहला कमरा था। वासुकी बाबू अक्सर उस तस्वीर को एकटक देखते और फिर उनकी उदासी उस बच्ची की उदासी में घुलने सी लगती।

           पत्नी आनन्दी ने अपने पति की उदासी को देखा और उससे देखा नहीं गया। आनन्दी ने अपने पति से कहा ‘‘आप ज्यादा सोचा मत कीजिए नही तो एक दिन बीमार पड़ जायेंगे।’’

तब वासुकी बाबू ने उदास होकर कहा था ‘‘इस शहर में बहुत अजनबी जैसा हो गया हूं मैं।’’

पत्नी ने कहा ‘‘इतना सोचते हैं क्योंकि आप खाली हैं। अब आरती की शादी के लिए तो तैयारी कीजिए।’’ तब वासुकी बाबू को अचानक लगा कि अवसाद से निकलने का वक्त आ गया है।

           परन्तु इस खबर के बच्चों के पास जाते ही उन्होंनें एक नया झमेला शुरू कर दिया। बच्चों की यह जिद पहले तो उन्हें बहुत अटपटी लगी कि हमारे पास भी एक गाड़ी होनी चाहिए, लेकिन आरती की जिद के आगे उन्हें घुटने टेकना पड़ा। जब वासुकी बाबू के सामने यह बात आयी तो एक बारगी लगा जैसे यह सोचा भी कैसे जा सकता है। ‘‘गाड़ी कोई मामूली चीज है क्या।’’ उन्होंने बच्चों को समझाने की पूरी कोशिश की। ‘‘और अगर ले भी लूं तो उसको मेनटेन करना क्या आसान बात है।’’ बच्चों के पास सारी बातों का जवाब तैयार था। ‘‘हम गाड़ी का कम इस्तेमाल करेंगे। सिर्फ तब जब हम कहीं सपरिवार एक साथ जायेंगे।’’ सवाल पैसे का आया तो उनका जवाब था ‘‘आप भी न पापा! कैसी बातें करते हैं। किस जमाने में रह रहे हैं आप। सब ईएमआई पर आ जाता है। अब कौन गाड़ी कैश में खरीदता है।’’ बच्चों को इतनी जानकारी कहां से मिली थी वासुकी बाबू सुन कर हैरान थे। लेकिन वासुकी बाबू टस से मस नहीं हो रहे थे। न तो वे ईएमआई के चक्कर में पड़ना चाहते थे और न ही गाड़ी खरीदने की ही हैसियत में वे अपने आप को देख रहे थे। उन्हें बार-बार लगता कि यह तो खर्च को सब दिन  के लिए पालने वाली बात है, जबकि उनके माथे पर दो-दो बेटियों को बोझ है।

गाड़ी के सन्दर्भ में सबसे ज्यादा जिद आरती ने की ‘‘अब गाड़ी तो स्टेटस सिंबल है पापा। गाड़ी रहेगी तो रिश्ते भी अच्छे मिलेंगे।’’ यह आरती का ब्रह्मास्त्र था।

वासुकी बाबू यह तो समझते थे कि इस बड़े शहर में गाड़ी का अपना सुख है। लेकिन वे हिम्मत नहीं कर पा रहे थे। अभी जो भी उनके पास या पीएफ वगैरह में जमा पैसा था उसी से वे शादी निपटाना चाहते थे।

अंततः जिस बात पर सहमति बनी वह यह कि गाड़ी खरीदी तो जायेगी लेकिन सेकेण्ड हैण्ड। यह नया विकल्प भी आरती का ही था। वासुकी बाबू को लगा कि बच्चों की जिद के आगे झुकना तो पड़ेगा ही तो कुछ सरल सा रास्ता निकाला जाए। वैसे तो सैकेण्ड हैण्ड गाड़ी के लिए भी वासुकी बाबू पैसे के स्तर पर मन से तैयार नहीं थे परन्तु यहां समझौते का यह निम्नतम स्तर था।

       एक महीने के भीतर एक मारूति ऑल्टो घर के आगे खड़ी हो गई। गाड़ी का कलर सिल्वर था। आगे बोनट पर आनन्दी ने सिन्दूर से स्वास्तिक बनाया और प्रीति ने झट से उसके अन्दर एक टैडी बीयर टांग दिया। एक खिलौना जिसके दोनों पैर अपने आप ही झूलते थे। गाड़ी चलती तो उस खिलौने का मुंह और पैर हिलते रहते।

          गाड़ी चलाने में वासुकी बाबू को ज्यादा दिक्कत नहीं हुई क्योंकि उनके पास अपने गांव में ट्रैक्टर चलाने का अनुभव था। थोड़ा समय लगा लेकिन उनका हाथ जल्द ही साफ हो गया। वासुकी बाबू ने अपनी ड्राइविंग सीट पर एक ओरेंज कलर का तौलिया लाकर रख दिया।

         गाड़ी जब घर पर आयी तो वासुकी बाबू सहित पूरे परिवार का सीना गर्व से फूल गया। वासुकी बाबू जिस घर से आते हैं उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि एक दिन उनकी जिन्दगी में ऐसा भी आयेगा कि उनके पास अपनी एक गाडी होगी। एकदम अपनी। जब पत्नी आनन्दी उस गाड़ी पर स्वास्तिक बना रही थी तब वासुकी बाबू भावुक हो गए थे। उनकी आखों के कोर भींग गए थे। उनके मन में तब अंकित हुआ था ‘‘अच्छे कर्मों का फल शायद अच्छा ही होता है।’’ उन्होंने अपनी पत्नी के करीब जा कर धीरे से बोला था ‘‘सोचा नहीं था कभी जीवन में कि अपनी गाड़ी होगी।’’ तब आनन्दी ने उनकी ओर एक आश्वस्ति भरी निगाह डाली थी। उस निगाह ने जैसे मौन रहकर ही कहा हो- ‘धन्यवाद’।

           जब कभी वासुकी बाबू अपनी गाड़ी से निकलते तो सपरिवार। हाथ साफ होने के बाद पहली बार जब वासुकी बाबू गाड़ी लेकर शहर की तरफ निकले तब उन्होंने अपने परिवार को आइस्क्रीम खिलायी थी। बहुत दिनों तक वासुकी बाबू को गाड़ी को बैक करने में मुश्किल आती रही। वे गाड़ी को जब लेकर आते तो अपने दरवाजे पर दीवार से बहुत सटा कर नहीं लगा पाते। उनके मन के भीतर धुकधुकी होती। गाड़ी दीवार में सटाते हुए उन्हें मन में लगता कि गाड़ी दीवार में अब लगी कि तब। और इस चक्कर में शुरुआत में बहुत दिनों तक गाड़ी उनकी दीवार से थोड़ा हटकर सड़क पर थोड़ा ज्यादा ही खड़ी होती थी।

           इस गाड़ी में पांच लोगों के बैठने की जगह थी। इस घर में सदस्य भी पांच ही थे। परन्तु सुनहरी अपनी जगह पर बैठती ही कहां थी। वह गाड़ी में बैठती कम फुदकती ज्यादा थी। वैसे उसकी सबसे प्यारी जगह थी गाड़ी की पिछली सीट के पीछे की जगह जहां स्पीकर लगा होता है। सुनहरी वहां बैठकर पीछे वाली शीशे से पूरी दुनिया को देखती रहती। दुनिया उसके सामने छूटती जाती तो उसे बहुत रोमांच होता। लेकिन वह कई बार गाड़ी मं फुदकती भी थी। हां लेकिन गाड़ी की आगे वाली जगह पर वह कभी भी नहीं जाती जहां से कि वासुकी बाबू को गाड़ी चलाने में दिक्कत होती।

                आरती के कहे अनुसार गाड़ी के आने से स्टेटस सिबंल में कोई वृद्धि हुई या नहीं परन्तु हां वासुकी बाबू के छः-सात महीने के अथक प्रयास से आरती की शादी जरूर तय हो गई। वासुकी बाबू ने अपनी पूरी कोशिश की थी कि बेटी को अच्छा घर और अच्छा वर मिले इसके लिए उन्होंने जितनी उनकी हैसियत थी उससे आगे जाकर पैसा खर्च करने के बारे में सोचा था।

        लड़का सरकारी दफतर में कलर्क था और शादी दस लाख रुपये में तय हुई थी। इन छः-सात महीनों में वासुकी बाबू लड़का ढूंढने के लिए बहुत भटके। लेकिन बात यही हुई कि बगल में छोरा और शहर में ढिंढोरा। काम आए ऑफिस के श्रीवास्तव साहब। लड़का जिससे बात पक्की हुई थी श्रीवास्तव जी के साले के बेटे थे। अपने हद तक श्रीवास्तव जी ने यह तो कहा कि चूंकि ऑफिस का मामला है तो सस्ते में मामला निपट जाना चाहिए। परन्तु साथ में उन्होंने यह भी कहा कि ‘लेकिन आप तो जानते ही हैं सहाय बाबू कि आजकल पैसों के सामने रिश्ता का कोई माइने नहीं है।’ रात भर हिल हुज्जत के बाद सुबह के नाश्ते पर जाकर बात फाइनल हुई। मांग पंद्रह की थी और साथ में चार पहिया एक गाड़ी। लेकिन इसे श्रीवास्तव जी का ही प्रभाव मानें कि बात दस और एक दोपहिया वाहन पर निपट गई। शादी की तारीख लगभग दो महीने के बाद की रखी गई। यह तय हुआ कि अभी दो-चार दिन में दो लाख देकर लड़के को रोक लिया जाए। और फिर आठ लाख तिलक पर देकर फाइनल कर लिया जाएगा।

             वासुकी बाबू दस लाख रुपये कहां से लायेंगे यह बात उन्हें शादी तय करते वक्त भी महसूस हो रही थी परन्तु उन्होंने सोचा बेटी अच्छे घर जा रही है। आदमी और किसके लिए कमाता है अपने परिवार के लिए ही तो।

                     वासुकी बाबू जब से शहर आये हैं इस बात से दुखी रहने लगे थे कि यहां न चाहते हुए भी खर्च बढ गया है। गांव में जो पैसा आता था उसमें से वे बहुत सा जमा कर लेते थे परन्तु यहां कहां। लेकिन बिटिया की शादी तय होते ही उनके हाथ एकदम से रूक गए। उन्होंने फिर पैसों की फिक्र में भागा-दौड़ी शुरू की। पीएफ के पैसे से लेकर उनके पास जो जहां जमा पूंजी थी सबको उन्होंने अपने हिसाब में ले लिया। तब जा कर कहीं वे पैसा पूरा पाए।

           इस शहर और इस मोहल्ले में आये हुए वासुकी बाबू को लगभग डेढ वर्ष हो गए होंगे। परन्तु चाहते हुए भी यहां बहुत सम्पर्क नहीं बन पाया। इसलिए जब उनके यहां इतनी बड़ी खुशी आ रही थी तब भी वे इस बात को उस मोहल्ले में किसी से साझा करने से बच रहे थे। शादी में कुछ लोग इस मोहल्ले से निमंत्रित होंगे ऐसा वासुकी बाबू जानते थे लेकिन वे सोचते थे कि वे शादी के और नजदीक आने पर ही इसे बाहर खुलासा करेंगे। वासुकी बाबू को एक डर इस शहर से भी था। उन्हें लगता था कि शादी विवाह के घर में तमाम सामान-पैसे होते हैं डरना तो चाहिए ही।

               इस शहर में वे इस तरह अजनबी की तरह रहते थे कि अपने आॅफिस जाने के बाद के लिए उन्होंने अपने परिवार को सख्त निर्देश दे रखा था कि वे मुख्य दरवाजा किसी के लिए भी नहीं खोलें। चूंकि उनका घर ग्राउण्ड फ्लोर पर था इसलिए रोज एक-दो सेल्स मेन जरूर आते थे। कभी वाशिंग पाउडर बेचने तो कभी हेण्ड ग्राइण्डर बेचने। कभी आरओ की मांग को जरूरी बताने वाले आते तो कभी टूथपेस्ट पर आकर्षक आफर। पत्नी दरवाजा खोलती नहीं अपने जाली के दरवाजे से ही इन्कार में अपने चेहरे को ना में घुमाती और कहती ‘‘वे घर में तो हैं नहीं।’’ हद तो तब हो गई जब उस दिन दो औरतें बरतन चमकाने के लिए एक नया स्कीम ले कर आईं और आनन्दी ने उनके स्कीम को बहुत गहराई से विचार किए बिना ही कह दिया कि अभी वे घर में हैं तो नहीं। तब उन दो औरतों ने आनन्दी के मुंह पर ही कह दिया कि तो क्या बरतन वही मांजते हैं।

          आनन्दी ने मजाक में पति के दफ्तर से लौटने के बाद बच्चों के सामने यह चुटकुला कह सुनाया तो वासुकी बाबू को बहुत बुरा लगा। उनके मन में आज फिर बहुत दिनों बाद कुछ अंकित हुआ ‘‘मेरी पत्नी भी अजीब तोतारटंत है।’’ लेकिन उनके पास इसका कोई हल नहीं था। उन्हें इस शहर पर विश्वास करने से बेहतर लगता था अपनी पत्नी की इन बेबकूफियों को झेल लें।

        जब लड़के वाले वासुकी बाबू के घर आए तो उन्हें सचमुच सबसे ज्यादा गर्व अपनी गाड़ी पर ही हुआ था। उन्होंने सुबह सुबह उठकर अपने हाथों से गाड़ी को चमकाया था। गाड़ी दरवाजे पर खड़ी थी तो ऐसा लगता था कि उनके दरवाजे पर हाथी बंधा हुआ है। घर के भीतर घुसते और निकलते वक्त वासुकी बाबू ने अपनी कनखियों से लड़के के पिता के चेहरे को पढने की कोशिश की और पाया कि वहां एक अजीब तरह की खुशी थी, एक तरह का संतोष था। लड़के वाले चले गए तो वासुकी बाबू ने अपनी पत्नी ने कहा ‘‘देखो मेरी बेटी कितनी समझदार है। नब्ज को पहचान गई थी। दरवाजे पर गाड़ी खड़ी थी तो उन लोगों ने खूब भाव दिया।’’ वासुकी बाबू जब लड़के को रोकने के लिए गए थे तो अपनी इसी गाड़ी से गए थे। इसी गाड़ी से वे दो लाख रुपये वहां पहुँचा के आये थे।

               वासुकी बाबू जब से शहर आये थे उनके मन के भीतर चैन नहीं था लेकिन इधर बहुत दिनों के बाद बेटी की शादी तय होने के बाद से उन्हें एक राहत सी मिली थी। अब इसे उनका इस शहर के प्रति अतिरिक्त किस्म का डर कहिये परन्तु वे इस शहर में इस शादी के ठीक ढंग से निपट जाने के लिए भी डरे रहते थे। वे अक्सर अपनी पत्नी से कहते ‘‘कौन है यहां अपना। वक्त पर कोई काम आने वाला नहीं है यहां। सब के सब अपने स्वार्थ में मरे जाने वाले अमानुष।’’

                 शादी का घर था इसलिए आये दिन खरीदारी चल रही थी। सोने की कीमत बढती जा रही थी इसलिए वासुकी बाबू ने सबसे पहले बेटी के लिए गहने बनवाये। कपड़ों की खरीदारी, बर्तन की खरीदारी आदि आदि। शादी के घर में सौ काम होते हैं। वासुकी बाबू ने अपने पीएफ वगैरह से लगभग पैसा इंतजाम कर लिया था। दहेज का सारा पैसा घर में था और उसकी चाबी हर वक्त वासुकी बाबू के पास। आये दिन बाजार से सामान लेकर दोनों आते थे लेकिन एक आदमी पूछने वाला नहीं। वासुकी बाबू कहते ‘‘अभी गांव में होते तो पूरे गांव में डंका बज गया होता।’’ यहां बगल का पड़ोसी भी नहीं पूछता कि आखिर क्यों हो रही है इतनी खरीददारी। पत्नी कहती ‘‘आपको तो अजीब समस्या है पूछता है तो आपको दिक्कत है कि क्यों पूछ रहा है कोई और कारण तो नहीं। और नहीं पूछता है तो पता नहीं यहां के लोग कैसे से तो हो गए हैं। पता नहीं आपको क्या हो गया है।’’ तब कई बार वासुकी बाबू भी सोचते थे कि वे सचमुच अजीब से होते जा रहे हैं। लेकिन उनका मन फिर कहता वे गलत नहीं सोच रहे हैं।

           वह रात भी ऐसी ही कोई अफरा तफरी वाली रात थी। वासुकी बाबू अपनी पत्नी के साथ बाजार से लौटे तो बड़ी बेटी ने खाना बना रखा था। ऑफिस की कच-कच के बाद बाजार की थकावट। वासुकी बाबू बहुत थके हुए थे। खाना खाकर दस बजे के करीब सो गए थे। ऑफिस में अपनी फाइल को अधूरा छोड़ कर पत्नी के साथ बाजार गए थे। सुबह जल्दी जाकर उसे पूरा करना था। वासुकी बाबू बिस्तर पर गए, उस समय आनन्दी बर्तन मांज रही थी।

               कोई आधी रात का समय होगा जब वासुकी बाबू को ऐसा लगा जैसे उनकी गाड़ी को कोई स्टार्ट कर रहा है। वास्तव में वे उस समय इस तरह की गहरी नींद में थे कि उन्हें लगा जैसे यह उनके मन का भ्रम है। लेकिन एक बार मन में खटका हुआ तो नींद उड़ गई। उठ कर बैठे तो पत्नी डर कर उठ कर बैठ गई कि कहीं तबीयत तो खराब नहीं हो गई।

‘‘अपनी गाड़ी की आवाज तुम पहचानती तो हो ना?’’ यह सवाल था। जगने के बाद वासुकी बाबू ने यह पहला वाक्य बोला था, जो सचमुच बहुत अजीब था। जबकि गाड़ी की आवाज अब वहां बिल्कुल भी नहीं थी। आनन्दी को लगा पता नहीं क्या हो गया है उन्हें।

‘‘अभी अपनी गाड़ी की आवाज आ रही थी।’’ इस वाक्य को वासुकी बाबू ने इतने धीमे से बोला जैसे चोर उनके कमरे में घुस आया है।

वे धीमे से पलंग से उतरे। चप्पल नहीं पहनी। रोशनी नहीं जलायी। मोबाइल की धीमी रोशनी में वे धीरे धीरे दरवाजे का ताला खोल कर बाहर आए। मोबाइल की उस धीमी रोशनी में भी उनकी निगाह सुनहरी पर पड़ी और सुनहरी फौरन एक जांबाज सिपाही की तरह उनके साथ हो ली। बाहर स्ट्रीट लाइट से रोशनी थी। बाहर की रोशनी देखकर उनका डर थोड़ा कम हुआ। बाहर सन्नाटा था। दूर कहीं से सिर्फ एक-दो कुत्तों के भौंकने की आवाज आ रही थी। दूर कहीं से एक टैम्पो की आवाज अभी अभी गुजरी थी। वासुकी बाबू ने बाहर की रोशनी में बाहर के लोहे वाले दरवाजे को खोला और वे धक्क से रह गए। गाड़ी वहां नहीं थी। वासुकी बाबू ने देखा कि गाड़ी वहां नहीं थी और गाड़ी की जगह बिल्कुल खाली थी। उन्होंने इस दृश्य को देखा और वहीं धम्म से बैठ गए। उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि बाहर उठ कर आने में पीछे पत्नी भी थी। पत्नी ने भी गाड़ी की खाली जगह को देखा और कुछ कहने की जरूरत नहीं हुई। उन्होंने अपने पति के कंधे पर हाथ रखा तब जाकर कहीं वासुकी बाबू को यह अहसास हुआ कि पीछे पत्नी भी है।

रात के कोई एक बज रहे थे। आनन्दी ने शोर मचाना ठीक नहीं समझा परन्तु उनकी समझ में एकबारगी यह नहीं आया कि वह अपने पति को यहां अकेला छोड़ कर बच्चों को जगाने जाए या यहीं से आवाज लगाये। लेकिन उन्होंने देखा कि दोनों बेटियां खुद ही दौड़ी वहां आ गईं। बेटियों ने हताश यह पूछा कि क्या हुआ। तब आनन्दी ने उन्हें बतलाया कि ‘‘गाड़ी चोरी हो गई।’’ बेटियों को मां की बातों पर अचानक विश्वास नहीं हुआ या यूं ही सामान्य रूप से उन्होंने गाड़ी की जगह को देखा। वहां गाड़ी नहीं थी, गाड़ी की जगह पर उसकी अनुपस्थिति थी। छोटी बेटी के मन में अचानक आया कि उस गाड़ी के साथ उसकी वह बचपन की डाॅल भी चली गयी। उसने अचानक उस डाॅल के रंग को अपने मन में याद करने की कोशिश की।

               बड़ी बेटी और पत्नी ने आंखों ही आंखों में इशारा कर कुछ बातें कीं। दोनों के बीच तब कोई आवाज नहीं थी। और फिर दोनों ने वासुकी बाबू को उठाया और लगभग टांग सा लिया। कमरे की बत्ती जलायी गयी। पलंग पर वासुकी बाबू को लिटाना चाहा परन्तु वे उठ कर बैठ गए। उनकी आंखों में तब एक अजीब सी बेचैनी थी। छोटी बेटी पानी का गिलास ले आई। सुनहरी बहुत बेचैन थी। वह अंदर बाहर कर रही थी ऐसे जैसे घटना स्थल पर कुछ सूंघने की कोशिश कर रही हो। वासुकी बाबू ने प्रीति के हाथ से लेकर पानी का पूरा गिलास गले में उड़ेल लिया लेकिन उनकी बेचैनी कम नहीं हुई। गाड़ी चोरी हो गई इस तथ्य को वहां खड़े सभी लोग जान गए थे। परन्तु आगे क्या करना चाहिए यह कोई समझ नहीं पा रहा था।

            वासुकी बाबू को शायद ज्यादा घुटन महसूस हो रही थी इसलिए वे लेट गए। पत्नी की घबराहट बढ गई, उसने अपने हाथ को वासुकी बाबू के माथे पर जाने दिया। परन्तु वासुकी बाबू अपनी पत्नी के हाथ के वजन को अपने माथे पर सहन नहीं कर पा रहे थे। फिर वे झटके से उठ कर बैठ गए।

‘‘मैं कहता था न इ जंगल है जंगल। सब सांप हैं यहां सांप।’’ वासुकी बाबू ने यह पहला वाक्य मुंह से निकाला। बेटियों को लगा सीधे न कहते हुए भी पिता उनकी ही बातों को काटने की कोशिश कर रहे हैं। बेटियों ने तब कहा था ‘‘शहर इतना भी बुरा नहीं होता है।’’

‘‘करैत सांप।’’ इस बार वासुकी बाबू के मुंह से निकले ये दो शब्द कांप रहे थे। उनकी आंखों के कोर भीग गए और एक-दो बूंद धीरे से चू भी गए।

‘‘सब बर्बाद हो गया आनन्दी। हम में से कोई नहीं बचेगा यहां।’’ आनन्दी सहित बच्चों को भी लगा अब ज्यादा हो रहा है। आनन्दी यह समझ नहीं पा रही थी कि एक गाड़ी का चोरी होना दुखद है लेकिन एक सैकेण्ड हैण्ड गाड़ी, जिसकी कीमत महज एक-सवा लाख है का जाना क्या वाकई इतना दुखद है।

 लेकिन वासुकी बाबू के लिए यह गाड़ी के जाने से ज्यादा उनके डर की पुष्टि होना था। शहर के प्रति जिस अविश्वास की चादर वासुकी बाबू ने ओढ रखी थी आज वह प्रमाणित हो गया था।

‘‘अरे गाड़ी ही तो चोरी हुई जिन्दगी थोड़े ही न चली गई है जो आप इतना तनाव ले रहे हैं। शहर में पुलिस भी काम करती है। आप सुबह पुलिस को कमप्लेन कीजिएगा हमारी गाड़ी हमें जरूर मिल जायेगी। मुझे पूरा विश्वास है।’’ आनन्दी ने अपने पति को सिर्फ ढांढस बंधाने के लिए ऐसी बातें कही थीं।

‘‘पुलिस! पुलिस अगर काम करती तो हमारी गाड़ी चोरी ही क्यों होती।’’ वासुकी बाबू के मुंह से निकले हुए ‘पुलिस’ शब्द में काफी हिकारत का भाव था।

‘‘अब हमारी गाड़ी हमें कभी नहीं मिलेगी। हम अब फिर कभी गाड़ी खरीद नहीं पायेंगे।’’ वासुकी बाबू फफक से गए। उनके मन में तब वे सुहाने सफर जरूर घूम गए होगें जब वह अपने परिवार के साथ बाजार जाते थे। खिड़की से आती हवा के झोंके और सुनहरी का गाड़ी के भीतर यूं फुदकना।

‘‘ईश्वर पर विश्वास कीजिए। कुछ नहीं होगा। सब ठीक हो जायेगा।’’ ऐसा कहकर आनन्दी ने वासुकी बाबू को सुलाने की कोशिश की।

          हालांकि वासुकी बाबू को पुलिस पर तनिक भी विश्वास नहीं था परन्तु यह निर्णय लिया गया कि सुबह बच्चियों के स्कूल-कालेज जाने के बाद वासुकी बाबू थाने में जाकर इसकी रिपोर्ट लिखा आयेंगे।

      वासुकी बाबू के बिस्तर पर लेटने के बाद पत्नी अंधेरा करने लगी तो उन्होंने आपत्ति की परन्तु पत्नी ने कहा नींद अच्छी आयेगी। बिस्तर पर वासुकी बाबू बहुत देर तक इधर-उधर करवट बदलते रहे। नींद नहीं आ रही थी। उनकी आंखें बंद थीं। कमरे में घुप्प अंधेरा था। उन्होंने उस घुप्प अंधेरे में देखा कि ढेर सारी गाडि़यां चल रही हैं हर तरफ चिल्ल पों मची हुई है बहुत सारे लोग जो इधर जा रहे हैं उधर जा रहे हैं। ठीक उसी समय दृश्य में थोड़ा बदलाव होता है। अब दृश्य में एक सात-आठ साल का बिछुड़ा हुआ बच्चा है जो रो रहा है। उस भीड़ में जो कोलाहल है उसमें उस बच्चे के रोने को कोई सुन नहीं पा रहा है। फिर वह बच्चा बदहवास उस सड़क पर अचानक दौड़ने लगता है। इधर से उधर से गाडि़यां आ रही हैं और बच्चा बदहवास दौड़ रहा है।

         वासुकी बाबू की आंखें खुल गईं। उन्होंने महसूस किया कि उनके कान के नीचे से पसीने की बूंदें चूं रही हैं। उनका पूरा शरीर पसीने से लथपथ है। महसूस किया कि पत्नी बगल में सो रही है। उन्होंने पत्नी की तरफ मुँह करके अचानक कहा ‘‘प्रीति जिस रिक्शे से स्कूल जाती है उसका सुबह कोई प्रूफ ले लेना। कहां रहता है कोई खबर तो हो हमारे पास। उसका नंबर तो है ना तुम्हारे पास।’’ पत्नी ने नींद में से ही झांक कर कहा ‘‘हां सुबह सब ले लूंगी।’’

लेकिन वासूकी बाबू चुप नहीं हुए ‘‘सुनहरी बहुत कोमल है उसे कहीं चोट न लग जाए। उसे बाहर मत जाने दिया करो।’’

अब यह सब वासुकी बाबू नींद में कह रहे थे या होश में पता नहीं परन्तु पत्नी नींद में यह महसूस करती रही कि वे बहुत देर तक इस तरह की बातें बड़बड़ाते रहे।

           कई बार बहुत तनाव में थककर नींद भी अच्छी आती है। वासुकी बाबू सोये तो एकदम बेसुध। हर रोज वासुकी बाबू घर में सबसे पहले जगते थे। मुंह हाथ धोकर फ्रेश होकर धूमने जाते थे। घूमकर आते तब तक अखबार आ जाता। उनके आने के बाद छोटी बेटी स्कूल के लिए तैयार होकर निकलती।

                परन्तु आज वासुकी बाबू की नींद देर से खुली। नींद खुली तो रसोई घर में बच्चों के लंच बाक्स की तैयारी चल रही थी। पत्नी के अलावा बड़ी बेटी भी लगी हुई थी। ऐसा लगा सब जल्दी जल्दी कर रहे थे। वासुकी बाबू ने इतना तो समझ लिया कि आज सभी लोग देर से उठे हैं इसलिए यह अफरातफरी है। छोटी बेटी स्कूल के लिए तैयार हो रही थी। वासुकी बाबू कमरे से बाहर आए तो पत्नी को अच्छा लगा। लेकिन सच यह है कि वासुकी बाबू के सर में अभी दर्द था। चूंकि देर हो चुकी थी इसलिए वासुकी बाबू आज फ्रेश होने से पहले अखबार लेने बाहर की ओर चल दिये। अखबार दरवाजे के भीतर फेंका हुआ था। बाहर आकर वासुकी बाबू को इतनी बात समझ में तो आ गई कि सो कर जगने के बाद अभी तक किसी को बाहर निकलने तक का समय नहीं मिला है क्योंकि मुख्य दरवाजे का ताला अभी तक बंद था।

            वासुकी बाबू ने झुक कर अखबार उठाया और चल दिये। लेकिन पता नहीं क्यों एक बार फिर उनको अपनी गाड़ी की अनुपस्थिति को देखने की इच्छा हुई। वे आगे बढकर दरवाजे के पास आए और ताला बन्द दरवाजे से बाहर की ओर झांका और वे चौंक गए। बाहर गाड़ी की अनुपस्थिति नहीं गाड़ी थी। उनकी गाड़ी ठीक उसी जगह पर लगी हुई थी जहां पर लगी होनी चाहिए थी।

              वासुकी बाबू को अपने आप पर अविश्वास हुआ। उन्होंने दरवाजे में थोड़ा ज्यादा ही सटकर गाड़ी को देखा, गाड़ी वाकई वहीं खड़ी थी। अब उनको एकबारगी लगा कि कहीं उन्होंने रात में गाड़ी गुम हो जाने का सपना तो नहीं देख लिया था। अचानक उनके दिमाग में रात की सारी घटनाएं क्रमवार दौड़ गईं। उनको लगा वे पागल हो जायेंगे। यह इस मायावी शहर का कौन सा मजाक है। उन्होंने बगैर अगल बगल की चिंता किए जोर से पत्नी को अवाज लगा दी। पत्नी को रात की घटना याद थी इसलिए वे रसोई घर से बदहवास दौड़ कर आई। पत्नी ने उन्हें स्वस्थ लेकिन अचंभित देखा। वासुकी बाबू ने आनन्दी का हाथ पकड़ा और दरवाजे में सटा कर गाड़ी की जगह पर गाड़ी को दिखाया। आनन्दी को पहले लगा कि पता नहीं क्यों गाड़ी की अनुपस्थिति को वे बार-बार दिखाना चाहते हैं परन्तु वह भी गाड़ी की अनुपस्थिति की जगह पर गाड़ी को देखकर चौंक गई।

              बच्चियों को जब खबर लगी तो एक उत्सव सा माहौल हो गया। बच्चियों ने स्कूल-कालेज जाने का निर्णय छोड़ दिया। वासुकी बाबू ने दरवाजे की चाबी मंगवायी। वे अपनी गाड़ी को अंदर से देखकर उसे छू कर उसे महसूस करना चाहते थे। दरवाजे खुलने के बाद छोटी बेटी ने सबसे पहले अपनी डॉल को देखा,डॉल सुरक्षित थी, उसे राहत महसूस हुई। वासुकी बाबू ने सबसे पहले अपनी गाड़ी को अपनी गोद में भर लिया। फिर दरवाजे में चाबी घुसाकर घुमाया और दरवाजा खुल गया।

                   दरवाजा खुलते ही वासुकी बाबू चौंक गए। ड्राइविंग सीट पर एक रंगीन प्रिंटेड लिफाफा, एक कागज जिसे आप पत्र जैसा कुछ कह लें उसे आधा आधा से दो बार मोड़ कर रखा गया था। कागज दूसरी बार के मोड़ से आधा खुला हुआ था उसी के बीच एक लाल गुलाब का फूल रखा हुआ था। लाल गुलाब के फूल में एक लम्बी डंडी लगी हुई थी। वासुकी बाबू ने सबसे पहले उस गुलाब को उठाया और महसूस किया कि उस डंडी में एक भी कांटा नहीं था यानि उसे करीने से छील कर रखने लायक बनाया गया था। वासुकी बाबू के पीछे उनका पूरा परिवार था जो यह सब देखकर भौंचक था लेकिन वासुकी बाबू इस तरह बाहर कुछ भी अजीब सा करना चाह नहीं रहे थे इसलिए वे उस सीट पर रखे हुए सामान को उठाकर अंदर आ गए। फिर उन्होंने सबसे पहले उस पत्र को जोर जोर से पढा ताकि उनके साथ साथ उनका पूरा परिवार भी सुन सके। पत्र शुद्ध हिन्दी में था और कुछ यूं था-

महोदय,

           सबसे पहले मैं अपनी हिमाकत के लिए आपसे माफी मांगता हूं। मेरे कारण जो आपको परेशानी हुई मै समझ सकता हूं कि उसके लिए माफी की कोई गुंजाइश होनी नहीं चाहिए। और इस बड़े शहर में जहां आज विश्वास सबसे बड़ा सवाल बन गया है वहां इसकी मांग करना तो और भी अजीब है। परन्तु मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप मेरी परेशानी को सुनकर मुझे माफी के योग्य जरूर समझेंगे।

         मैं आपके मोहल्ले या कह लीजिए कि आपके आस-पास का ही रहने वाला हूं। मेरी मां अस्थमा की मरीज है और कल रात के बारह साढे बारह बजे के करीब मेरी मां को अस्थमा का अटैक पड़ा उनकी सांसे लगभग अटक सी गईं। उन्हें सांस लेने में अचानक बहुत दिक्कत हो गई। आप विश्वास कीजिए वह अपने बिस्तर पर एक-एक हाथ उछल रही थी। उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाना बहुत जरूरी था। और मेरे पास कोई साधन नहीं था। और आप तो इस शहर का हाल जानते हैं इस आधी रात को न कोइ टैक्सी न ही कोई टैम्पो। इसलिए मुझे आपकी गाड़ी का इस्तेमाल इस कठिन समय में करना पड़ा।

                   मैं मानता हूं कि नियम और कानून के आधार पर यह गलत है और शायद मैं इसलिए अपनी पहचान छुपा भी रहा हूं। परन्तु इंसानियत के हक से मैं आपसे माफी चाहता हूं। आपकी गाड़ी की बदौलत ही आज मेरी मां जिंदा है और अभी हॉस्पिटल में सुधार की ओर अग्रसर है। अप्रत्यक्ष रूप से ही लेकिन आपका यह मेरे ऊपर किया गया बहुत बड़ा उपकार है। जिसे मैं ताउम्र भूल नहीं सकता हूँ।

           यह गुलाब का फूल अपनी माफी के लिए पेश कर रहा हूं। इस गुलाबी लिफाफे में सिनेमा के चार टिकट हैं। इसे आप मेरी गलतियों के बरक्स उपहार समझें। इसे आप स्वीकार करेंगे तो लगेगा जैसे आपने मुझे माफ कर दिया।

                                – आपका एक भरोसेमंद पड़ोसी

चिट्ठी खत्म करने के बाद वासुकी बाबू ने गुलाब फूल की तरफ तिरछी निगाह डाली और फिर उस गुलाबी लिफाफे में से सिनेमा के टिकट बाहर निकाले। उस लिफाफे में आज की नाइट शो के मल्टीपलैक्स के चार टिकट थे। 9.30 से 12.30 के। बच्चियों ने मल्टीपलैक्स के टिकट को देखा तो उनकी बांछें खिल गईं। जब से वे इस शहर में आये थे तब से उनकी हसरत थी कि इस मल्टीपलैक्स में फिल्म देख आयें परन्तु पिता कभी इस बात के लिए राजी नहीं हुए। ये मल्टीपलैक्स उनकी ख्वाबों में पल रहे थे।

‘‘देखा पापा शहर इतना भी बुरा नहीं होता है जितना आप सोचते हैं।’’ यह आरती थी।

‘‘यहां भी लोग ही रहते हैं। और लोग कहीं भी अच्छे और बुरे हो सकते हैं। ’’ यह भी आरती ही थी और यह उसकी दलील थी।

‘‘ठीक कह रही हो। पता नहीं रात भर में मैंने क्या क्या नहीं सोच लिया। मेरी भी लगता है अब उम्र होती जा रही है।’’ पहली बार वासुकी बाबू ने इस शहर पर एक अच्छी राय व्यक्त की।

‘‘मैं सठियाता जा रहा हूं क्या ?’’ वासुकी बाबू ने पत्नी से सवाल पूछा। और पत्नी ने इसका जवाब हां में दिया।

‘‘चलो सब अच्छा हो गया। हम और हमारी गाड़ी शहर में किसी के काम तो आये। बेचारे ने अफरातफरी में गाड़ी का इस्तेमाल किया तो माफी भी मांगी।’’ वासुकी बाबू का मन इस शहर, यहां की जिन्दगी और यहां के लोगों को लेकर साफ हो रहा था।

‘‘जब माफी मांग ही ली तो नाम और पहचान बता ही देता कम से कम हमें पता तो चल जाता कि माता जी की तबीयत अब कैसी है।’’ आनन्दी ने वासुकी बाबू की तरफ देख कर कहा।

‘‘नहीं देखो डर तो लगता ही होगा कि हम कहीं नाराज न हो जायें। लेकिन हां तुम ठीक ही कह रही हो ध्यान तो लगा ही रहेगा। वैसे पत्र में लिखा तो है कि अब काफी सुधार है।’’ वासुकी बाबू ने उत्तर दिया। और इस उत्तर से आनन्दी को काफी राहत मिली।

इस पूरे घटना क्रम के समय सुनहरी वहीं टेबल पर चुपचाप बैठी थी और सारी बातों को ध्यान लगा कर सुन रही थी। वासुकी बाबू बात को खत्म करते हुए सुनहरी की तरफ मुखातिब हुए ‘‘अब तुम फिर से गाड़ी में खूब धमाचौकड़ी मचाना मेरी सुनहरी दीदी।’’ और फिर सुनहरी यह सुनकर चहकने लगी।

खैर इस प्रकरण का अंत इस निर्णय के साथ हुआ कि शाम को जल्दी खाना बना कर रख दिया जायेगा ताकि जब रात को फिल्म देखकर वापस आयें तो खाना बनाने का झंझट नहीं रहे।

              शाम को जब वासुकी बाबू लौटे तो इस शहर को प्यार करते हुए लौटे। आज उन्होंने अपने झोले से जब पिज्ज़ा का एक पैकेट निकाला तो घर के सारे सदस्य भौंचक रह गए। उस परिवार के लिए यह जीवन का पहला पिज्ज़ा था।

‘‘अरे पता नहीं इसको कैसे खरीदते हैं, उस परचे में कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। मुझे तो बस टोमेटो पता था इसलिए मैंने बस वही ले लिया।’’ उनके चेहरे पर तब एक गजब का भोलापन था जिसे बच्चों ने खूब प्यार किया।

‘‘जाकर देखो कितनी भीड़ होती है ऐसी दुकानों पर, लोग कई-कई पैकेट एक साथ ले जा रहे थे।’’

लेकिन दूसरा आश्चर्य तब हो गया जब वासुकी बाबू ने अपने झोले से एक दो लीटर वाली पेप्सी की बोतल भी निकाल दी। पूरे परिवार के लिए यह एक बेहतरीन और यादगार शाम थी। वासुकी बाबू ने कहा ‘‘यह हमारी प्यारी गाड़ी के वापस मिलने और एक मजबूर आदमी की ईमानदारी के नाम है।’’

       मल्टीप्लैक्स की चमक दमक, वहां की व्यवस्था और बेहतरीन समतल पर्दे देखना उस परिवार के लिए एक सपने के पूरा होने जैसा हो गया। हॉल  में गूंजने वाली आवाज ने बच्चों के मन को सातवें आसमान पर ला खड़ा किया।  

            सिनेमा हॉल के भीतर की चमक और गूंजती आवाज ने यह महसूस नहीं होने दिया परन्तु वासुकी बाबू परिवार सहित जब बाहर आये तब उन्हें लगा कि रात गहरी हो चुकी है और इस इतने बड़े शहर में भी एक सन्नाटा पसर चुका है। रास्ते पर स्ट्रीट लाइट लगी हुई थी इसलिए रोशनी की कमी नहीं थी। हां दुकानें बन्द हो चुकी थीं और गाडि़यों की संख्या और भीड़भाड़ में आश्चर्यजनक रूप से कमी आ गई थी। वासुकी बाबू ने गाड़ी चलाते हुए कहा ‘‘यह सन्नाटा भी अजीब चीज है, जब नहीं होता है तब हम उसे ढूंढते हैं लेकिन जब होता है तब हम उससे डरने लगते हैं।’’ लेकिन उनका पूरा परिवार अभी फिल्म की खुमारी में था इसलिए उन्होंने कोई जबाव नहीं दिया। गाड़ी में चूंकि सुनहरी नहीं थी इसलिए यहां शांति कुछ ज्यादा ही थी। फुदकती हुई सुनहरी घर में थी, घर अकेला नहीं था।

             वासुकी बाबू ने जब मुख्य सड़क को छोड़ कर अपने मोहल्ले में प्रवेश कर लिया तब निरंतर रोशनी में कमी होती चली गई। जब उन्होंने अपनी गली में प्रवेश किया तब लोगों के घरों के बरामदे में जल रही छोटी-मोटी रोशनी के अलावा गाड़ी की हेडलाइट का ही सहारा रह गया। लेकिन गाड़ी की उसी हेडलाइट में वासुकी बाबू को अपने घर तक पहुंचते ही सबसे पहले दिखा मुख्य दरवाजे का टूटा हुआ ताला और वे सन्न से रह गए। गाड़ी को लगभग बीच सड़क पर ही खड़ी कर गाड़ी से उतर कर वे घर की तरफ दौड़ पड़े। अब तक में कुछ गड़बड़ी का अंदेशा पूरे परिवार को हो चुका था इसलिए आगे पीछे वे भी भाग कर घर की तरफ दौड़े।

        वासुकी बाबू ने बाहर बरामदे पर उदास सुनहरी को देखा। सुनहरी जिसे उन्होंने घर के भीतर बन्द किया था के बाहर होने से इतना तो साफ हो गया था कि घर का दरवाजा भी टूट चुका है।

वासुकी बाबू जब तक घर के भीतर पहुंचे तब तक उनका पूरा परिवार भी कमरे में आ चुका था। पूरा घर तहस-नहस था। सुनहरी यहां वहां बचैन सी घूम कर पूरी घटना को बयां करना चाहती थी। वह वहां-वहां जा रही थी जहां जहां से सामान को ढूंढा और लूटा गया था। उसकी बेचैनी उस वक्त देखने लायक थी। ऐसा लगता था जैसे उसके सामने यह सब हुआ और वह कुछ कर नहीं पायी।

          वासुकी बाबू ने चूंकि पूरा माजरा समझ लिया था इसलिए वे बीच कमरे में कुर्सी पर बैठ गए थे। आनन्दी ने यहां वहां चक्कर लगाया। सुनहरी बार बार उनके सोने वाले कमरे के बेड का चक्कर लगाती रही तो आनन्दी ने उसे खोला। सब सामान जस का तस था लेकिन उसमें रखे गए सोने के सारे गहने वहां नहीं थे। सोने के सारे गहने, वे गहने भी जो अभी अभी उन्होंने अपनी बेटी के लिए बनवाये थे। सुनहरी बीच वाली खाली जगह में रखी हुई अल्मारी के चक्कर लगाती रही तो आनन्दी ने देखा कि वहां से सारी मंहगी साडि़यां भी गायब हैं। आनन्दी ने बेटी को देने के लिए कई बनारसी और सिल्क की मंहगी साडियां बहुत शौक से खरीदीं थीं।

                     वासुकी बाबू को जिस बात का डर था और जिस कारण से उनके उठने की हिम्मत नहीं हो रही थी वहां तक पहुंचने में उन्होंने थोड़ा वक्त लिया। उन्होंने बेटी के दहेज के बचे हुए रुपये छः लाख में से पांच लाख रुपये इक्टठा कर के अपने घर में रख रखे थे। थोड़ी देर तक वासुकी बाबू ने अपने मन को समझाया कि उन्होंने अपनी बहुत शातिरपने के साथ उन रुपयों को जहां रखा है वहां तक पहुंचना शायद उनके लिए संभव न हो पाया हो। लेकिन सुनहरी बार-बार उनके कमरे की तरफ बेचैन सी भागा-दौड़ी कर रही थी तो वासुकी बाबू के मन में डर का बैठना लाजिमी था। वासुकी बाबू ने अपने कमरे में इतने रुपये रख रखे हैं यह उनके अलावा घर में कोई  भी नहीं जानता था।

             वासुकी बाबू का कमरा पहला ही कमरा था। उस कमरे में एक किनारे एक बेड था और ठीक उसकी दूसरी ओर एक छोटा सा टेबल। वह टेबल एक तरफ से दीवार से सटी हुई थी और बाकी तीन तरफ से वह तीन कुर्सियों से घिरी हुई थी। बाहर वाली दीवार पर बड़ी सी खिड़की थी जो उनके उस अहाते की तरफ खुलती थी जिधर उन्होंने गमले लाकर रखे थे और जिधर वे कभी कभार शाम को कुर्सी लगाकर बैठा करते थे। उस खिड़की के ठीक सीध में उनका बिस्तर था। गर्मी के समय में वासुकी बाबू उस खिड़की को खोलकर सोते थे जिससे सीधी हवा उनके बेड पर आती थी। उस खिड़की के ठीक विपरीत वाली दीवार पर दीवार में बने हुए खाने थे। ये खाने नीचे जमीन से लेकर ऊपर छत तक थे। नीचे का खाना बड़ा था और फिर छोटे छोटे। ऊपर का खाना भी बिल्कुल खुला हुआ था एकदम छत में सटा हुआ। ऊपर वाले खाने की ऊंचाई आदमी की सामान्य ऊंचाई से ज्यादा थी इसलिए उसमें सामान रखने और निकालने के लिए कुछ ऊंचाई का बंदोबस्त करना पड़ता था। बीच के छोटे छोटे खानों में कुछ किताबें रखी हुई थीं। कुछ धर्म की और कुछ प्राकृतिक चिकित्सा की। इन खानों के सबसे ऊपरी वाला खाना जो ऊपर छत तक खुली हुआ था में ब्रास के पांच गमले रखे हुए थे जिसमें कृत्रिम लेकिन बहुत जीवंत फूल और पौधे लगे हुए थे। फूल की पंखुडि़यों पर पानी की कुछ कृत्रिम बूंदें थीं और कई जगहों पर कृत्रिम भंवरे भी। उन खानों वाली दीवार के ठीक सामने वाली जो खिड़की थी वह जब खुलती थी तब ब्रास के वे गमले और उन गमलों के फूल पर पानी की बूंदें चमकती थीं। वासुकी बाबू ने अपने पीएफ से लोन लेकर और अपनी सभी जमा पूंजी को निकालकर हजार-हजार के नोट की पांच गड्डियां बनवायी थीं जिन्हें उन्होंने इन्हीं गमलों के भीतर फूल और पौधों के नीचे पालीथीन में लपेट कर रख दिया था।

              वासुकी बाबू जब बदहवास अपने उस कमरे में दौड़ कर इन रुपयों की सलामती देखने आये तो उन्होंने देखा कि वे गमले बिल्कुल करीने से जस के तस रखे हुए थे। ऐसा देखकर उन्हें काफी सुकून मिला और अपने शातिरपने पर थोड़ी देर के लिए बहुत गर्व हुआ। लेकिन सुनहरी बहुत बेचैन थी। तब आश्वस्ति के लिए उन्होंने टेबल को खींच कर उस खाने तक पहुंचने की कोशिश की। उनकी पत्नी उनको भौंचक देख रही थी। सुनहरी बार बार उस टेबल पर फांद रही थी। वासुकी बाबू ने एक-एक कर पांचों गमले नीचे उतारे पांचों गमले हल्के थे। उनमें उन कृत्रिम फूलों और पौधों के अलावा अब कुछ भी नहीं था। एक-एक गमले से रुपये निकालकर उन गमलों को करीने से ठीक वहीं पर सजा दिया गया था। 

‘‘गमले के फूलों को क्या देख रहे हैं आप? सोना, साड़ी कुछ भी नहीं छोड़ा। अब कैसे होगी मेरी बेटी की शादी।’’ आनन्दी के इस सवाल में जबाव भी था।

लेकिन वासुकी बाबू चुप रहे।

‘‘क्या हुआ?’’

वासुकी बाबू फिर भी चुप रहे।

‘‘अरे क्या हुआ कुछ तो बोलिए।’’ आनन्दी ने उन्हें झकझोर कर कहा।

‘‘अब नहीं होगी आरती की शादी। इस गमले में फूल नहीं पैसा ढूंढ रहा हूं मैं।’’ वासुकी बाबू एकदम से फक्क थे।

‘‘गमले में पैसे आए कहां से और कितने थे।’’ आनन्दी को आश्चर्य हुआ।

‘‘पांच लाख रुपये। मैंने देने वाले सारे पैसे इक्ट्ठा करके इसी में तो रखे थे।’’

          इतना तो तय था कि जिस हिसाब से सामान ले जाया गया था वह किसी एक आदमी का काम नहीं था। लेकिन चूंकि सारा वही सामान ले जाया गया था जो काफी मंहगा था इसलिए ऐसा लग रहा था कि वे बहुत ही सभ्य तरीके से आये होंगे। सभ्य तरीके यानि अपनी गाड़ी से आये होंगे और अपनी गाड़ी में सारे सामान को भर कर ले गये होंगे।

        वासुकी बाबू अपने वाले कमरे में ही थे जहां से रुपये गायब हुए थे। वहीं से उन्होंने देखा कि जो बीच वाली जगह है उस पर एक कागज का टुकड़ा फड़फड़ा रहा है। यह वही टेबल था जिसकी कुर्सी पर बैठकर उस दिन गाड़ी गुम होने का गम वे मना रहे थे। और यह वह टेबल था जिस पर उन्होंने गुलाबी लिफाफा जिसमें सिनेमा के टिकट थे को रखा था और गुलाब का फूल रखा था। वे वहां से उठकर आए और उस कागज को रोशनी के ठीक नीचे ले गए। उस कागज पर सिर्फ चंद पंक्तियां लिखी हुई थीं।

‘‘आशा है आपने सपिरवार सिनेमा का पूरा लुत्फ उठाया होगा। हां मल्टीप्लैक्स में फिल्म देखने का मजा ही कुछ और है। लेकिन इतना अवश्य समझिये जनाब कि यह चमक-दमक यह भव्यता सब छद्म है। सब धोखा है।’’

यह कहानी यहां खत्म होती है। फिर उस परिवार का क्या हुआ? आरती की शादी हुई या नहीं? अगर हुई तो कैसे? और अगर नहीं हुई तो फिर वासुकी बाबू ने फिर से इतने पैसे कब तक में जुटाए? इस धोखा और फरेब के बाद वासुकी बाबू का परिवार शहर में आगे रह पाया या नहीं? या इस इतने बड़े आघात के बाद वासुकी बाबू अपनी मानसिक स्थिति ठीक भी रख पाये या नहीं। आदि आदि। इन सब सवालों के जवाब यहां नहीं दिये जा सकते हैं। हां अगर कभी इस कहानी की सिक्वल लिखी गई तो इन सवालों के जवाब उसमें दिए जायेंगे, यह तय है।

कहानी में हिदायत के रूप में आती हैं दो बातें — अब इसे कहानी के अतिरिक्त की ही दो बातें कहें। परन्तु वास्तव में ये दो बातें इसी कहानी की दो कमजोर कडि़यां हैं या कहें असावधानी की मिसाल। कहानी पढते हुए इन दो बातों पर आपका भी ध्यान अटका होगा और अटकना भी चाहिए।

               ये दो बातें उस समय की हैं जब वासुकी बाबू की गाड़ी वापस आई और उनका पूरा परिवार अतिउत्साह में आ गया था। हम यह मानकर चलें कि ऐसा करने वाले एक से अधिक थे। तब सवाल उठता है कि वासुकी बाबू अतिउत्साह में इस बात पर ध्यान नहीं दे पाये कि अगर उन लड़कों को अपनी मां को या कहिए बीमार को अस्पताल ले जाने के लिए इतनी जल्दी थी कि वे कोई और सवारी ढूंढ नहीं पाया तब वे इतनी जल्दी इस गाड़ी की चाबी की व्यवस्था कैसे कर पाये।

सवाल दूसरा यह है कि जब वे साढे बारह-एक बजे रात में गाड़ी लेकर गये और सुबह पांच-छः बजे तक गाड़ी वापस कर गये तब आखिर उनके पास इसकी फुर्सत कब और कैसे मिली कि उन्होंने मल्टीप्लैक्स के टिकट खरीद लिए।

        ये दो सवाल इस कहानी के वे कमजोर बिन्दू हैं जिन पर अगर वासुकी बाबू के परिवार ने अतिउत्साह को छोड़कर ध्यान दे दिया होता तो शायद आज यह घटना नहीं घटती।

यूं तो यह कहानी यहां खत्म हो चुकी है परन्तु कल्पना के स्तर पर यह सोचा जा सकता है कि इस इतनी बड़ी घटना के बाद उस घर का क्या हुआ होगा। हां यह अवश्य बता दे रहा हूं कि यह इस कहानी का हिस्सा नहीं है इसे सिर्फ यहां कल्पना के सहारे विस्तार दिया जा रहा है।

          यह उस घटना के बाद वाली सुबह है। वासुकी बाबू के परिवार ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाने के बारे में कुछ भी नहीं सोचा। सुबह जब वासुकी बाबू घर के बाहर निकले तब दिन एकदम सामान्य था। धूप गुनगुनी थी। सूरज पूरब से निकल गया था और और वह लाल गोले की तरह लग रहा था। गली में कई बच्चे तैयार होकर अपने स्कूल रिक्शा के इंतजार में खड़े थे। एक रिक्शा गली के मोड़ पर अंदर आता हुआ दिख रहा था।

             लोगों की गाडि़यां गली में खड़ी थीं जो काफी अलसायी हुई थीं। गाडि़यां इस बात का इंतजार कर रही थीं कि उनको नहलाया जाए तो थोड़ा आलस उतरे। वासुकी बाबू ने देखा कि उनकी गाड़ी भी अलसायी हुई अपनी जगह पर खड़ी थी। उन्होंने भी थोड़ी देर तक अपनी गाड़ी को अलसायी और निराश निगाह से देखा, फिर उनकी आंखें थक गईं। वे अपने हाथ को अपने चेहरे पर ले गये और अपने चेहरे की थकान को उतार देना चाहा। उन्होंने अपने हाथ से अपने चेहरे को लगभग निचोड़ सा दिया। हाथ हटाया आंखें खुलीं तो अचानक ऐसा लगा जैसे गाड़ी फिर से वहां नहीं है। उन्हें लगा कि वहां गाड़ी नहीं फिर से गाड़ी की अनुपस्थिति है। अचानक उनके मन में आया कि अब इस तिजोरी की चाबी किसी और के पास भी है।

उन्होंने वापस होते हुए देखा अगल बगल के सारे घर, सारे लोग सामान्य थे। सबकुछ ऐसा ही चल रहा था जैसा तब तक चल रहा था जब तक यहां कुछ हुआ नहीं था।  ऊपर के दो फ्लोर पर रहने वाले परिवार भी अपनी जिन्दगी में लगे हुए थे। सब जगह शांति थी। कहीं कोई हलचल नहीं थी।

यहां कहीं कुछ हुआ है इसकी खबर किसी को नहीं थी। किसी को भी नहीं।

 (उमा शंकर चौधरी की यह कहानी नया  ज्ञानोदय के दिसम्बर 2013 अंक में प्रकाशित हुई है.)

सम्पर्क –                     
उमा शंकर चौधरी
जे-8, महानदी एक्स. इग्नू रेसिडेंशियल कॉम्प्लेक्स
इग्नू, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-110068

मो.- 9810229111 
ई-मेल : umshankarchd@gmail.com 

(कहानी के बीच प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

उमा शंकर चौधरी

एक मार्च उन्नीस सौ अठहत्तर को खगड़िया बिहार में जन्म। कविता और कहानी लेखन में समान रूप से सक्रिय। पहला कविता संग्रह कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे’(2009) भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। इसी कविता संग्रह कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थेपर साहित्य अकादमी का पहला युवा सम्मान (2012)। इसके अतिरिक्त कविता के लिए अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार’ (2007) और भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार’(2008)। कहानी के लिए रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार’(2008)। पहला कहानी संग्रह अयोध्या बाबू सनक गए हैं(2011) भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित। अपनी कुछ ही कहानियों से युवा पीढ़ी में अपनी एक उत्कृष्ट पहचान। पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित श्रेष्ठ हिन्दी कहानियां(2000-2010) में कहानी संकलित। हापर्स कॉलिन्स की हिन्दी की कालजयी कहानियांसीरिज में कहानी संकलित। कहानी अयोध्या बाबू सनक गए हैंपर प्रसिद्ध रंगकर्मी देवेन्द्र राज अंकुर द्वारा एनएसडी सहित देश की विभिन्न जगहों पर पच्चीस से अधिक नाट्य प्रस्तुति। कुछ कहानियों और कविताओं का मराठी, बंग्ला, पंजाबी और उर्दू में अनुवाद। पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस द्वारा पुस्तक श्रेष्ठ हिन्दी कहानियां(1990-2000) का संपादन। इनके अलावा आलोचना की दो-तीन किताबें प्रकाशित।

पहली बार पर आप पूर्व में उमाशंकर चौधरी की कवितायें पढ़ चुके हैं. उमाशंकर ने कई बेहतरीन कहानियां भी लिखीं हैं. इसी क्रम में इस बार प्रस्तुत है इनकी नयी कहानी जो अभी हाल ही में तद्भव के नए अंक में प्रकाशित हुई है.

कट टू दिल्लीः कहानी में प्रधानमंत्री का प्रवेश

कम से कम इस एक बात से तो हम सब सहमत होंगे कि किसी पात्र का नाम बच्चा बाबू एक  बढ़िया नाम नहीं है। लेकिन जब पात्र का नाम वास्तव में यही हो तो हम आप क्या कर सकते हैं। वैसे बच्चा बाबू का नाम स्कूल के रजिस्टर में या फिर खेत के खतियान में बच्चा सिंह नहीं है बल्कि बिन्देश्वरी सिंह है। लेकिन अब बच्चा बाबू नाम चल निकला तो बस चल निकला। इसलिए हम भी इस कहानी में उनके इसी नाम का इस्तेमाल करेंगे।
बच्चा बाबू का नाम बच्चा बाबू क्यों पड़ा इसको किन्हीं और तर्कों से समझने से बेहतर है कि उनकी अब की कद-काठी को ही एक बार देख लिया जाए। उनको इस उम्र में भी देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे अपनी जवानी के दिनों तक में भी काफी बच्चे लगते रहे होंगे। उनकी लम्बाई काफी छोटी थी और अपने बचपन में वे एकदम से इकहरे बदन के थे। अब तो खैर उनका डीलडौल काफी भरा-पूरा हो गया था। परन्तु इस पचपन-सत्तावन की उम्र में भी उनके चेहरे पर दाढ़ी-मूंछ काफी घनी नहीं थी। उनके बचपने का वह कोई दिन रहा होगा जब उनके शरीर के कारण ही उनको लोगों ने बच्चा-बच्चा पुकारना शुरू कर दिया होगा और फिर बिन्देश्वरी सिंह तो बस कागज का ही नाम बन कर रह गया होगा।
           उनकी लम्बाई छोटी थी और वे गोल-मटोल थे इसलिए सड़क पर चलते हुए दूर से वे एक अंडे की तरह दिखते थे। दूर से आता हुआ अंडा। दूर जाता हुआ अंडा। दातून करता हुआ अंडा। कुएं से पानी खींचता हुआ अंडा। वे धोती कुरता पहनते थे इसलिए उन्हें अंडे की तरह दिखने में धोती का फैलाव मदद ही करता था। उनका रंग गोरा था और उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कराहट रहती थी इसलिए किसी को भी पहली ही नज़र में वे प्यारे लग जाते थे। एक प्यारा अंडा।
                  लेकिन इस एक आदत का जिक्र किए बगैर बच्चा बाबू के पूरे आकार-प्रकार को खींच पाना संभव नहीं है। वे जब भी बोलते थे तो पहले शब्द को बोलने से पहले एक बार वे मुंह में उसे चबाते थे और फिर थूंक घोंट लेते थे। इस मुंह चबाने में एक खास बात और थी कि उनको सबसे पहले जो बोलना था उसी शब्द को वे मुंह में चबाते थे। ऐसे जैसे जिस भी शब्द को उन्हें बोलना हो पहली बार उसे चबाकर उसके वजूद को वे खत्म कर देना चाहते हों। जैसे अगर उनको यह बोलना हो कि आज गर्मी बहुत हैतो वे आजशब्द को पहले मुंह में चबाते थे और फिर थूक को घोंट लेते थे। इस तरह वे आजको दो बार बोलते थे एक बार उसके वजूद को खत्म करने के लिए और दूसरी बार अपनी बात कहने के लिए। जो लोग उनकी इस आदत को जानते थे और गांव के लगभग सारे लोग अब यह जान ही गये थे तो उन्हें उस मुंह चबाने की प्रक्रिया में ही पता चल जाता था कि बच्चा बाबू अभी किस शब्द से अपनी बात की शुरुआत करेंगे। बच्चा बाबू ठेठ गांव के आदमी थे और कंधे पर गमछा रख कर मुंह में पान चबाते थे। उनके पास पान रखने की अपनी पनबट्टी थी। कपड़े में रखे हुए पान के पत्ते वे हर मंगल और शुक्रवार को बगल के गांव में लगने वाले हटिया से खरीदते थे। वे पान खाते थे और उनके कुर्ते पर प्रायःपान के दाग दिखते थे। उनके कुर्ते पर दाग उनकी मासूमियत को और बढ़ाते थे। उनकी पत्नी व्हील और हिपोलीन से कपड़े धोती थीं। सर्फ एक्सल उनके घर में नहीं आता था इसलिए वे पान के उन दागों को देख कर नहीं कह पाती थीं कि दाग अच्छे हैं। 
          परन्तु एकदम शुरुआत में ही इस सवाल से रूबरू हो जाना जरूरी है कि आखिर हम एक भदेस, अंडे जैसे दिखने वाले आदमी की कहानी यहां क्यों लिख रहे हैं। जब उन जैसे आदमी को आज कोई पूछता नहीं है तब मैं उन्हें अपनी कहानी का नायक क्यों बना रहा हूं। तो यहां पहले ही लिखा जा चुका है कि कहानी को सच के ज्यादा नजदीक ले जाने का यह एक प्रयास है। और हम सब जानते हैं कि सच अजीब तो होता ही है। और अजीब अभी कहां हुआ है। अभी तो आगे कहानी में ऐसे ऐसे और पात्र हैं जो इतने अजीब हैं कि आपके लिए विश्वास करना तक मुश्किल हो जायेगा।
            लेकिन इसे भी एकदम शुरुआत में ही कह दिया जा रहा है कि आपको इस कहानी को पढते हुए बहुत सारी बातें आश्चर्यजनक भले ही लगें परन्तु अंत में आप भी मानेंगे मैंने जो कहा सब सच ही था। सच के भी अजीब अजीब रंग होते हैं।
          हमको बच्चा बाबू नाम चाहे जितना भी अजीब लगे या फिर उनका बाहरी व्यक्तित्व जितना भी अटपटा लगे लेकिन बच्चा बाबू इस चिड़ैयाटार गांव की शान थे। आज अगर दूर-दूर तक लोग इस गांव को जानते हैं तो इसलिए नहीं कि इस गांव की हवा बहुत स्वच्छ है या फिर इसलिए भी नहीं कि इस गांव में एक रिक्शा चलाने वाले राजू ने अपने से बड़ी उम्र की रजिया से शादी कर ली थी। दूर दूर तक यह गांव सिर्फ इसलिए याद किया जाता है कि इस गांव में बच्चा बाबू रहते थे। नहीं तो इस छोटे से गांव से लोगों का परिचित होने का कोई उचित कारण समझ में नहीं आता है। इस गांव में बाढ़ और लेखकों को मिलने वाले विषय के सिवा है ही क्या?
                 वास्तव में बच्चा बाबू हड्डी जोड़ने में बड़े माहिर थे। एकदम सिद्धहस्त। उनके पास कोई डॉक्टरी डिग्री तो नहीं थी परन्तु इसे ईश्वरीय देन ही समझ लीजिए। लोग मानते थे कि उनके हृद्य के भीतर साक्षात ईश्वर का बास था। लोग दूर-दूर से बच्चा बाबू के पास हड्डी जुड़वाने आते थे और इतिहास गवाह है कि किसी भी हड्डी को जोड़ने में बच्चा बाबू का हाथ कभी कांपा नहीं। और ऐसी कोई हड्डी किसी के शरीर में बनी नहीं थी जो बच्चा बाबू के हाथ से जुड़ न सकी हो। उनकी ख्याति बहुत दूर-दूर तक थी और उनके हड्डी जोड़ने के अनेक अनोखे किस्से कई जिला-जवार तक फैले हुए थे। जिस बच्चा नाम से बच्चा बाबू कभी खुश नहीं थे वही नाम यहां से वहां तक फैल गया था। और सचमुच यह नाम एक गर्व का विषय बन गया था।
            बच्चा बाबू के भीतर कब इस दैवीय शक्ति का प्रवेश हुआ और ठीक किस दिन से उन्होंने इसे एक रोजगार के रूप में लिया यह तो लोगों को अब ठीक-ठीक याद नहीं है परन्तु लोग इतना जरूर कहते हैं कि जब वे आठवीं कक्षा मंे थे तभी उन्होंने इसकी शुरुआत की थी। हुआ यूं था कि उस समय तीन-चार लड़के एक साथ ही स्कूल जाते थे। चारों दोस्त ही थे। गांव से स्कूल सात कोस दूर था। रास्ता काफी सुनसान था। रास्ते में एक जगह बहुत दूर तक दोनों तरफ बगीचा था और बगीचे में आम के बड़े और घने पेड़ थे। उस बगीचे के बाउंड्री बनाते हुए दोनों रास्तों के बगल-बगल शीशम के लम्बे-लम्बे पेड़ थे। अब आम के यूं घने बगीचे से गुजरते हुए बच्चों का डरना लाजिमी था। वह जेठ की दुपहरिया का कोई दिन था। सूरज तप रहा था, हवा बहुत तेज थी और स्कूल में छुट्टी हो गयी थी। चारांे दोस्त स्कूल से उस दुपहरिया में घर लौट रहे थे। कहते हैं तेज हवा के झोंकों से या फिर भूत-वूत के चक्कर से रास्ते को कतार में तब्दील करने वाले उन शीशम के पेड़ों में से एक पेड़ ठीक इन लड़कों के ऊपर गिरा। तीन लड़कों ने तो उस शीशम के पेड़ को पार कर लिया लेकिन जो एक लड़का फंसा उसके दोनों हाथ उसी पेड़ के नीचे दबे रह गये। पेड़ को तो खैर तीनों दोस्तों ने मिलकर हटा लिया लेकिन दोस्त के दोनों हाथों की कुहनी की हड्डी चमड़ी के भीतर से ही पांच-पांच उंगली बाहर निकल आईं। दोनों हाथ झूल रहे थे। जिस तरह गिरगिट की पूंछ कट जाने पर भी कुछ देर तक तड़पती और कांपती रहती है उसके दोनों हाथ उसी तरह कांप रहे थे। तब उस जेठ की दुपहरिया में रास्ते के दोनों तरफ सिर्फ वीराना ही वीराना था। तब बच्चा सिंह ने आव देखा न ताव दोनों हाथ की कुहनी तुरंत ठीक कर दी। उन्होंने कुहनी तब पहली बार में ही अपने हाथ में पकड़ी और उसको हल्की कर्र के साथ घुमा दिया। और एक टीस के साथ बच्चा सिंह का मित्र वहीं बेहोश हो गया। लेकिन होश में आने पर दोनों हाथ सलामत।
        अब जब नाम हो जाता है तो तमाम तरह की बातें फैलती ही हैं। इसलिए बच्चा बाबू के बारे में भी तमाम तरह की बातें फैली हुई हों तो कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है। अब कहने को तो लोग दबी जुबान में यह कह ही देते हैं कि बच्चा बाबू ने इस सामर्थ्य को पाने के लिए बहुत साधना की है। बहुत जतन। अघोरी थान में अघोरियों के साथ रहकर उन्होंने हड्डियों के पोर-पोर को समझा है। चूंकि अघोरी नदी में बहते हुए लाश को खोल कर खाते थे तब बच्चा बाबू उन हड्डियों के सही जगह को उनके साथ समझते थे। बातें चाहें जैसी भी हों परन्तु इस बात से इन्कार नहीं है कि उनके पास एक हुनर था। बिल्कुल एक चमत्कार की तरह का हुनर। और उनके सामने शरीर की सारी हड्डियां नतमस्तक थीं।
                वैसे सच मानिये तो बच्चा बाबू उस गांव की परिस्थितियों की ऊपज ही थे। सही मायने में वह गांव एक हुट्ठ गांव था। अगर आपने इस देश के किसी भी राज्य के किसी निरा देहात को देखा हो तो इस गांव और इन जैसे गांवों की परिस्थितियों को समझना कोई खास मुश्किल नहीं है। उस गांव में बिजली तो थी लेकिन कितनी थी इसका अंदाजा इस बात से ही लग सकता है कि लोग रंगीन टेलीविजन रखने से परहेज करते थे। ब्लैक एंड व्हाईट टेलीविजन कम से कम बैट्री पर चल तो जाता था न। हां लेकिन केबल टीवी और सीडी-डीवीडी की वहां भी भरमार थी।
           हां वहां की सड़कें बहुत टूटी हुई थीं। अस्पताल नहीं था इसलिए लोग खुद ही बीमार पड़कर ठीक हो जाते थे। स्कूल के लिए बच्चों को कई कोस पैदल चलना पड़ता था। ऐसा नहीं था कि इस गांव या इन जैसे गांवों के लिए कभी कोई ख्वाब संजोया नहीं गया था कभी इन सूबों के हुक्मरानों ने भी यहां की सड़कों को हेमा मालिनी के गाल जैसा चिकना करने का वचन दिया था। लेकिन जब तक में फाइलें घूमकर सही टेबल तक पहुंचतीं हेमा थोड़ी और बूढ़ी हो गईं और फिर ऐश्वर्या और करीना जैसी कई नायिकाओं का दौर आ गया। हुक्मरान कन्फयूज कर गये कि सड़क के लिए हेमा को कष्ट दिया जाए या फिर इन नई सिनेतारिकाओं को। और फिर नायिकाओं की इस प्रतिद्वंद्विता में यहां की सड़कें और चौपट ही होती रहीं।
                    हर गांव की तरह इस गांव में भी लोग खूब मारपीट करते थे। जोरू और जमीन दोनों इस मारपीट के केन्द्र मंे रहते थे। मारपीट भी इतनी कि हड्डियां दरक जाएं। हड्डियों को पोर-पोर टूटने में वक्त ही कितना लगता है। फुस्स-फुस्स बातों पर यहां मारपीट होती थी। पत्नी ने थाली में रोटी गर्म नहीं रखी या फिर यह कि सब्जी में थोड़ा नमक ज्यादा पड़ गया हो फिर पति बन्द कमरे में पत्नी पर हाथ नहीं लात और डंडे चलाता। खेत की आड़ थोड़ी भी तिरछी हो गई और दूसरे की जमीन एक इंच भी इधर या फिर उधर मारी गई, फिर क्या है मारपीट तब तक होती जब तक कि कर्र से हड्डी टूटने की आवाज नहीं आ जाती।
         गांव में जब हड्डियां टूट रही थीं तो उन्हें जोड़ने वाला भी तो कोई न कोई चाहिए ही था। तो बच्चा बाबू ने अपनी जिन्दगी को पूरी तरह झोंक कर इस जिम्मेदारी को संभाल लिया। बच्चा बाबू धीरे-धीरे कैसे मशहूर होते चले गए यह लोगों को क्रमवार याद तो नहीं लेकिन उनके इस पच्चीस-तीस वर्षों के सफर में से कई कहानियां अब किंवदन्ती अवश्य बन चुकी हैं। 
            यह गांव बहुत क्रूर था और प्रेम का घनघोर दुश्मन। यह किसे याद नहीं है कि जब उस दिन अशरफी कोयरी का उन्नीस साल का बेटा अपनी अठारह साल की प्रेमिका के घर रात के घुप्प अंधेरे में पकड़ाया तब हड्डी के टूटने की आवाज एक बार नहीं आयी थी। हड्डी टूटने की आवाज का तब एक क्रम तैयार हो गया था। जब उस प्रेमिका के पिता ने चिल्लाना शुरू किया तब उस भीड़ के डर से अशरफी कोयरी का बेटा अपनी प्रेमिका की खटिया के नीचे छुप गया था। और फिर वही सब इस गांव की रवायत के अनुसार।
               जब अशरफी ने अपने बेटे को खटिया पर लाद कर बच्चा बाबू के दलान पर रख दिया था तब उसके बेहोश बेटे के शरीर का एक भी जोड़ सलामत नहीं था। लाठी से सिर्फ जोड़ों पर मारा गया था और कर्र कर्र करके सारी जोडें अपनी जगह से हिल गई थीं। अशरफी का बेटा बच जाएगा ऐसा तब अशरफी को भी नहीं लग रहा था। आज इतने वर्षों बाद भी अशरफी को पूछो तो कहेगा बच्चा बाबू के हाथ में साक्षात ब्रह्मा हैं उन्होंने नया जीवन दिया है उसे। तब अशरफी के बेटे का कोई अंग शायद ही हो जहां प्लास्टर न हो। बच्चा बाबू तब घंटों अपने बंद कमरे में बैठे रहे थे अकेले। एक-एक हड्डी को तब उन्होंने सबसे पहले सही जगह दी थी। जिस कर्र की आवाज से हड्डी टूटी थी उसी कर्र की आवाज से हड्डी को उस जगह पर लाया भी गया था। बच्चा बाबू पहले बहुत देर तक उस हड्डी की सही जगह की तलाश करते रहे थे और फिर एक हल्का सा घुमाव। फिर एक हल्का स्पर्श और फिर प्लास्टर। एक से दो महीने लगे लेकिन लड़के को सामने लाकर खड़ा कर दिया था बच्चा बाबू ने। पूरा गांव चमत्कृत। तब इस गांव के लोगों को यह अहसास हो गया था कि कम से कम हड्डी तोड़कर अब यहां किसी को मारा नहीं जा सकता है। बच्चा बाबू ने इस संदर्भ में सबको अमृत पिला दिया था।
       बच्चा बाबू हाथ पैर या फिर कहीं की भी हड्डी के लिए माहिर थे। भले ही हड्डी बिल्कुल टूटकर नब्बे डिग्री पर झूल क्यों न गई हो। बस नसीहत उनकी यह होती कि जब हड्डी टूट जाए तो उसे तुरंत जस का तस कपड़े से लपेट लो। कपड़े में बंधी हुई हड्डी सुकून महसूस करती है। यह उनके डॉक्टरी इलाज का कोई हिस्सा नहीं था बल्कि वे कहते कि टूटी हड्डी बहुत देर तक तड़पती और कांपती है और तड़पती हुई हड्डी देखकर उन्हें बहुुत दुख होता है। वे कहते उनका अन्नदाता तो यह हड्डी ही है इसलिए वे उसे तड़पता हुआ नहीं देख सकते हैं। वे बिल्कुल कुचली हुई हड्डी पर भी अपना हाथ बहुत प्यार से चलाते थे। वे कराहते बीमार से ढ़ेर सारी बातें करते, अपने भदेस शिल्प में उन्हें यहां-वहां की बातें सुनाते और इसी बीच धीरे से उसकी हड्डी को सही स्थान दे देते और फिर प्लास्टर के भीतर वह हड्डी आराम कर रही होती।
               बच्चा बाबू की प्रतिष्ठा इस गांव से लेकर आस पास के गांवों और कई जिला जवार तक हो गयी थी तो इसमें उनके हुनर के अलावा उनके चरित्र का भी बड़ा हाथ था। लोगों को यह पक्का विश्वास हो गया था कि बच्चा बाबू ढ़ेका के एकदम पक्के आदमी हैं। बच्चा बाबू धोती पहनते थे और पीछे ढ़ेंका खोसते थे। घर वाले जवान औरतों को भी उनके पास बेधड़क लाते। जवान औरतों की उन जगहों की भी हड्डियों को भी बैठाते हुए बच्चा बाबू का हाथ एक बार भी नहीं फिसलता जिस पर से औरतें अपने स्वस्थ समय में कपड़ा हटने तक नहीं देती थीं। लेकिन हड्डी चाहे कहीं की भी हों और बीमार चाहे कोई भी हो उनके लिए सब एक समान थे। बच्चा बाबू सिर्फ हड्डी देखते थे और मन के भीतर उसे महसूस करते थे।
           लेकिन उस दिन पहली बार लोगों के मन में शक जैसा कुछ पैदा लिया जिस दिन रामसुजान सिंह की बहू की कमर जबरदस्त अकड़ गई और उसे खाट पर लाद कर बच्चा बाबू के दरवाजे पर रखा गया। बीएमपी, बिहार मिलिट्री पुलिस में नौकरी करने वाले रामसुजान सिंह के बेटे की जब शादी हुई तब उसकी पत्नी एकदम छबीली आई। बेटा नौकरी के सिलसिले में बाहर ही रहता और बहू का रूप घर के भीतर रहकर और निखर आया था। वह सिर्फ मन्दिर जाने के लिए रोज सुबह निकलती। बस उसी थोड़े समय के दीदार में रामसुजान सिंह की बहू एक रहस्य की तरह बनी हुई थी। बस उतने ही समय में बड़े-बूढे़ तक लुक-छिप कर उसका एक झलक दीदार कर लेना चाहते थे। उस दिन आंगन के चापाकल पर जब वह मंदिर जाने के लिए लोटे में जल भर रही थी कि चापाकल ने धोखा दे दिया। उसकी किल्ली निकली और  सुन्दरता की प्रतिमूर्ति वह रामसुजान सिंह की बहू वहीं पक्की पर गिरी तो कमर अकड़ गई। कमर अकड़ी ऐसी कि जिस तरह वह गिरी बस उसी तरह रह गई। ना ही उसे बैठाया जा सकता था और ना उसे खड़ा किया जा सकता था और ना ही उसे ठीक से लिटाया ही जा सकता था। और दर्द ऐसा कि उसकी कमर से निकल कर रीढ़ की हड्डी होते हुए उसके मगज पर चढ़ रहा था। उसकी चिल्लाहट सुन कर यह समझना मुश्किल हो गया था कि क्या इसे रोकना वाकई संभव है। जिन लोगों को उसे ज्यों का त्यों उठा कर खाट पर लिटाने के लिए बुलाया गया उन्होंने पहली बार उसको नजदीक से देखा और देखा ही नहीं उसे स्पर्श भी किया था। बिल्कुल नरम, रुई की तरह।
          जब खाट बच्चा बाबू के दरवाजे पर पहुंची तब वे सुबह का नाश्ता करके आराम फरमा रहे थे। अलसाये हुए से वे उठे और रामसुजान की बहु को देखकर चौंक गए। अब वे उसके सौंन्दर्य को देखकर चौंक गए या फिर उसकी चीत्कार सुनकर इसे समझना तो मुश्किल था लेकिन वे भाैंचक जरूर रह गए थे। खाट को पहले घर के भीतर किया गया ताकि भीड़ को थोड़ा काबू किया जा सके। फिर खाट के करीब जाकर उन्होंने पहले इसे समझने की कोशिश की और फिर रामसुजान सिंह को कोने में ले जाकर धीरे से कहा ‘‘ठीक तो हो जायेगी लेकिन जो मैं कहूंगा उसे सौ फीसद मानना पड़ेगा।’’
‘‘सौ फीसद मतलब’’ रामसुजान सिंह चौंक गए थे। मन में जरूर सोच रहे हांेगे कि इस अनमोल चीज को अपने घर में रखना भी कम खतरनाक नहीं।
रामसुजान सिंह के आश्चर्य पर वे थोड़ा भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने पहले मुंह को चबा कर एक शब्द को हजम कर लिया। रामसुजान ंिसंह ने समझ लिया। पहला शब्द कपड़ाहै। बच्चा बाबू ने कहा कपड़ा उतारना होगा
रामसुजान सिंह ने गहरी निगाह बच्चा बाबू के चेहरे पर डालकर उसको पढ़ने की कोशिश की। लेकिन चेहरा एकदम सपाट था उसे पढ़ना संभव नहीं था। वे अपने मन में विकल्प पर विचार करने लगे। यहां से इस हालत में तुरंत शहर ले जाना संभव नहीं है। और शहर में भी क्या है शहर से तो लोग इलाज कराने यहां आते थे। इतनी जल्दी बेटे को बुलाना संभव नहीं है। नहीं तो अपना वह निर्णय लेता। इलाज में देरी ने बाहर खड़े लोगो के भीतर उत्सुकता जगा दी कि और धीरे-धीरे ही सही लोग बच्चा बाबू की इस शर्त को जान गए। और पहली बार लोगों को यह लगा कि बच्चा बाबू बस एक बहाना बना रहे हैं। सबने मान लिया कि आखिर इस संगमरमरी देह को देखकर बच्चा बाबू का ढेका ढीला हो ही गया।
रामसुजान सिंह के पास विकल्प नहीं था और बहू दर्द से बार-बार बेहोश हुए जा रही थी।  
         अंदर वाले कमरे में खाट को रखवाया गया। वहां एक चौकी रखी हुई थी। उस पर कोई बिस्तर नहीं था। बहू को उस चौकी पर डाल दिया गया। बच्चा बाबू अंदर आए। अब उस कमरे में वे उसके साथ अकेले थे। शब्द एकको चबाकर उन्होंने हजम किया। लेकिन बहू यह समझ नहीं पाई कि वे किस शब्द से बोलने की शुरुआत करेंगे क्योंकि उसको बच्चा बाबू को सुनने की आदत नहीं थी। बच्चा बाबू ने कहा और वह एकदम से चौंक गई ‘‘एक-एक करके कपड़ा उतारना होगा। और इस दरवाजे से तुम्हें बाहर फेंकना होगा।’’
लेकिन बच्चा बाबू की अगली पंक्ति ने उसे राहत दी। ंचिंताशब्द को चबाते हुए कहा ‘‘चिंता मत करो। तुम मेरी बहू समान हो कमरे में कोई और नहीं होगा। बस बाहर से जैसा हम कहेंगे वैसा करते जाना है।’’ उनके बोलने में फिर एक पॉज आया और फिर इलाजशब्द को हजम करते हुए ‘‘इलाज तो अपने आपे हो जायेगा।’’
कमरा यह अंदर वाला था और कमरे के बाहर बच्चा बाबू और उनके दो सहयोगी। कमरे में जिधर चौकी रखी हुई थी उधर का दरवाजा बन्द था और दूसरी तरफ का आधा खुला। दरवाजा यूं था कि अंदर से सामान फेंका तो जा सकता है लेकिन बाहर से कुछ दिख नहीं सकता है। कमरे के अंदर पर्याप्त रोशनी थी। बच्चा बाबू ने बाहर से आदेश दिया कि अब एक-एक कपड़ा को खोलकर इस दरवाजे की तरफ फेंकते चलो। शरीर पर एक भी कपड़ा रहना नहीं चाहिए। साड़ी, साया, ब्लॉज के बाद जब थोड़ी रुकावट हुई तब बच्चा बाबू ने फिर से साराशब्द को चबाकर अपने पेट के भीतर कर लिया। और इस शब्द को उन्हें एक बार नहीं दो-तीन बार चबाना पड़ा। तब जाकर कुछ देर में कपड़े का बचा हुआ भाग बाहर आया।
      बच्चा बाबू का फिर यह आदेश था कि अब आहिस्ते से जितना हो सके उस चौकी पर निश्चिंत लेटने की कोशिश करो। बहू निश्चिंत तो खैर क्या लेट सकती थी परन्तु जितना हो सकता था उसने उस चौकी पर अपने शरीर को गिरा दिया। जब वह उस चौकी पर लेट गई और कुछ वक्त गुजर गया तब बच्चा बाबू एक ही बार में झटके से उस दरवाजे को खोलकर भीतर हो गये। बहू एक झटके से उठी और दरवाजे की तरफ भाग जाने को लपकी। उसके दोनों हाथ औचक ही उसके दोनों वक्ष पर पहुंच गए और उसके मुंह से अचानक ही  निकला ‘‘कोड़िया हम सब बूझै छियै तोहर धोती क भीतर आयग लगल छौ।’’ बाहर बच्चा बाबू के दोनों सहयोगियों ने एक बड़ी चादर में उसे समेट लिया। बहू बेहोश हो गई। बच्चा बाबू ने उसके घरवालों को उसे सुपुर्द कर दिया। घरशब्द को हजम करते हुए कहा घर ले जाओ होश में आ जाए तो हल्दी डालकर एक गिलास दूध पिला देना अब इ एकदमे ठीक है।वास्तव में कमरे में प्रवेश करते हुए बच्चा बाबू ने झटके से उठने पर कमर की चढ़ी हुई हड्डी का कर्र से उतरना सुन लिया था।
         बच्चा बाबू ने उसे ठीक तो जरूर कर दिया, इसके कारण उनकी चर्चा भी यहां वहां बहुत हो गई। विशेषतया उनकी इस कला और उनके इस शातिरपने की। लेकिन इस गांव के मन में यह खटका रह ही गया कि सिर्फ रामसुजान की बहू को ही बच्चा बाबू ने पूरा कपड़ा उतारने को क्यों कहा। उनके सामने तो हड्डियों के एक से एक उलझाव आये और बच्चा बाबू ने उसे सुलझाया लेकिन क्या यह केस वाकई इतना क्लिष्ट था। अब बच्चा बाबू के लिए इस केस के लिए वाकई यह आखिरी ब्रहमास्त्र था या फिर वह वाकई रामसुजान सिंह की बहू को निर्वस्त्र देखना चाहते थे यह एक रहस्य ही रह गया। 
                       अगर आप शक करना चाहें तो वाकई बच्चा बाबू के जीवन में यह एक ऐसा दाग है जिस पर शक किया जा सकता है नहीं तो बच्चा बाबू का जीवन विवादों से परे है।
           बच्चा बाबू के पिता ने कितना कमाया और कितना धन अर्जित किया यह तो अब नहीं पता है लेकिन यह जरूर है कि जब बच्चा बाबू ने अपना जीवन शुरू किया तो उनके पास अचल सम्पत्ति के रूप में खपरैल के एक घर और कुछ कट्ठे खेत के अलावा कुछ भी नहीं था। हां घर इतना तंग नहीं था कि उसमें आराम से रहा न जा सके। खेत घर से काफी दूर नहीं था। लेकिन खेती उनका शगल था।
             बच्चा बाबू अपने उन खेतों के साथ पूरी तरह किसान लगते थे। उनको अगर हड्डी जोड़ने के वक्त से अलग करके देखा जाता तो वे पूरी तरह किसान थे। धोती कुरता में जाता हुआ किसान, खेत में मजदूरों के साथ पानी पटाता हुआ किसान, खेत में बीज बोता हुआ किसान और फिर कटाई कराता और दौनी कराता हुआ किसान। वैसे सच कहा जाय तो बच्चा बाबू ने अपनी किसानी और अपनी हड्डी विशेषज्ञता को लगभग मिला सा दिया था। वे डॉक्टर की तरह हड्डी को बैठाते थे लेकिन किसान जैसा दिखने में उन्हें कोई गुरेज नहीं था और खेती करते थे तो उसमें उनकी चिंता बराबर हड्डी को लेकर बनी रहती थी। बच्चा बाबू दाल शब्द को चबाते हुए लोगों से शिकायत करते  ‘‘दाल नहीं खाते हैं लोग। अरे दाल खाओगे नहीं तो सालों इसी तरह हड्डी कमजोर होती चली जायेगी। आजकल तो हाथ पर उरहुल का फूल गिर जाये तो हड्डी खिसक जाती है। एक हमारा समय था हाथ-पैर पर से बैलगाड़ी गुजर जाती थी और मोच भी नहीं आती थी।’’ लोगों को दाल जरूर पर्याप्त मात्रा में खानी चाहिए इस कोशिश में बच्चा बाबू का यह छोटा सा प्रयास था कि वे अपने खेत में महज दाल की ही उपज करते थे। वे प्रयासशब्द को निगल कर कहते थे ‘‘प्रयास तो हर एक को करना ही चाहिए।’’
                     बच्चा बाबू की प्रिय फसल थी अरहर। वे उसे राहर कहते थे। बारिश के मौसम में जब खेत में नमी होती थी तब वे लूंगी पहन कर अपने खेत में पहुंचते थे और अपने हाथों से उसमें बीज छींटते थे। बीज छींटने के बाद फिर से उसमें बैलों से खेत की जुताई करवाते थे। बहुत ही जतन से अपने सामने वे राहर की फसल को बड़ा होते देखते और फिर पौधे बड़े हो जाते तो उसमें वे खो जाते। बच्चा बाबू उन पौधों की टहनियों को तोड़ते और खेत की आड़ पर उन टहनियों के टुकड़ों से अठखेलियां करते। राहर के पौधे की टहनियां कट की आवाज के साथ टूट जातीं और फिर वे बड़े ही जतन से ठीक हड्डी की तरह उसे सहेजने की कोशिश करते। अरहर के पौधे के बड़े होने और उसके कटने तक में लगभग रोज की दिनचर्या जैसी उनकी यही थी। एक तरह से कहा जा सकता था कि वे अरहर की उन टहनियों पर अपनी प्रैक्टिस को अंजाम देते थे। यह खेत एक तरह से उनकी प्रयोगशाला थी।
          चाहे कम ही सही परन्तु जितना भी खेत उनके पास था वह दो टुकड़ों मंे बंटा हुआ था। एक टुकड़ा एक जगह दूसरा टुकड़ा दूसरी जगह। कभी कभार अरहर की खेती से मन बदलना होता तो वे अपनी खेत में गोट पैदा करते थे। गोट के पौधों की टहनियों को भी वे उसी तरह कट की आवाज के साथ तोड़ते थे और फिर जोड़ते थे। दोनों खेतों को बच्चा बाबू समान रूप से प्यार करते थे। बच्चा बाबू समान रूप से दोनों खेतों पर जाते थे और जब वे अपने घर पर होते तो अपने दोनों हाथों से दोनों खेतों को समेट लेते थे। वे अपने बिस्तर पर उन दोनों खेतों के साथ ही सोते थे। वे अपने सपने में अक्सर देखते कि उनके दोनों खेत धुंआ बनकर ऊपर उठ एक दूसरे से मिल गए हैं। बच्चा बाबू अपने सपने में कहते ‘‘तुम दोनों मेरे बेटे हो। दो प्यारे प्यारे बेटे।’’ 
            बच्चा बाबू के दलान पर दो गायें थीं। दोनों गायें पारा-पारी कर दूध देती थीं। एक दूध देती तो दूसरी उन दिनों गाभिन रहती थी। वे दोनों गायें बच्चा बाबू को पहचानती थीं। वे दलान पर से आवाज देती थीं तो वे उनसे मिलने आते थे। जब घर पर वे नहीं होते और लोग उन्हें ढ़ूंढ़ने आते तो वे गायें उन लोगों को जवाब देतीं थीं।  
               शादी के चार वर्ष के भीतर बच्चा बाबू को दो वर्षों के अंतराल में दो बेटियां हुईं। दो बेटियां यानि दो कबूतर। बच्चा बाबू अपनी बेटियों के साथ घर में फुदकते थे। बच्चा बाबू की बेटियां कबूतर थीं इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी से कभी शिकायत नहीं की कि उसने बेटा पैदा क्यों  नहीं किया। या फिर उन्होंने इसके लिए आगे कोई प्रयास नहीं किया कि उनका वारिस पैदा हो जाये। बच्चा बाबू कहते कि जो मेरे पास है वह मैं अपने वारिस को ठीक उसी रूप में दे भी तो नहीं सकता।
                  दोनों बेटियों को बच्चा बाबू ने बहुत ही जतन से पाला। दोनों बेटियां बड़ी हो कर बहुत गुणी हुईं। दोनों अपने पिता को दादा कहती थी और अपनी मां को दीदी। दोनों बेटियों को अपने पिता से ज्यादा प्यार था। और लाड़ में अक्सर वे अपने पिता से खेत पर घूमने जाने की जिद करती थी। पिता उन्हें अपने साथ गोट वाले खेत पर ले जाते थे। बेटियां उन पौधों के बीच चहकती थीं और बच्चा बाबू उस खेत की आड़ पर अपनी टहनियों के साथ इलाज करते थे। पीले-पीले फूलों के बीच तब बच्चा बाबू की बेटियां कबूतर लगती थीं।
बेटियां कबूतर थीं इसलिए एक दिन उन्हें बच्चा बाबू की मुंडेर पर से उड़ जाना भी था।
                     लगभग दो साल के अंतराल में दोनों बेटियां विदा हुईं। लेकिन पिता बच्चा बाबू अतल गहराई में गोते खाने लगे। दुख बेटी के विदा होने का भी था और अपने खेत के छूटने का भी। जिन खेतों को अपनी बांहों में समेट कर अपना जीवन गुजार रहे थे वही खेत उनकी बांहों से निकल कर हवा में उड़ने लगे।
           बच्चा बाबू की दोनों बेटियां बहुत गुणी थीं। एक पिता को इससे ज्यादा क्या चाहिए कि बेटी ने कब जवानी की दहलीज पार कर ली बाप को इसका पता तक नहीं चला। बेटियों को स्कूल के बाद उन्होंने कॉलेज की दहलीज तक भी पहुंचाया। बेटियां खाना बनाना जानती थीं। सिलाई-कढाई और अदब के अलावा उनके पास शर्म और हया भी बाकी थी। बच्चा बाबू अपनी बेटियों को प्यार करते थे और ऐसा कभी सोचते भी नहीं थे कि एक दिन ऐसा भी आयेगा कि उन्हें इन कबूतर जैसी बेटियों की शादी में परेशानी झेलनी पड़ेगी।
                      दोनों बेटियों की शादी में बच्चा बाबू के दोनों खेत सुदभरना पर लग गए। ऐसा लगा जैसे उनके जीवन में सब कुछ पहले से ही नीयत था। उनके पिता ने इतना ही खेत छोड़ा था जो अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो। खेत लगभग बराबर दो टुकड़ों में बंटे थे तो बेटियां भी दो ही हुईं। उस पर तुर्रा यह कि बच्चा बाबू के पास कभी इतना पैसा नहीं हुआ कि वे यह सोच सकें कि दोनों बेटियों की शादी सिर्फ अपने जमा किए हुए पैसों से कर ली जाए। दोनों बेटियों के विवाह में लगभग दो वर्ष का अंतराल रहा इसलिए इसे यूं समझा जाए कि दूसरा खेत का टुकड़ा लगभग दो वर्ष ज्यादा उनके पास रहा।
             बच्चा बाबू की बांहों से उनके खेत का निकल जाना उन्हें कितना सालता था यह सिर्फ वही जानते थे। वे अपने मन में सोचते थे कि अब उनके पास आने वाले क्लिष्ट केस की प्रैक्टिस वे कहां करेंगे।
बच्चा बाबू का घर सूना हो गया। उनका जीवन सूना हो गया। परन्तु वे टूटे नहीं। उन्होंने सोचा कि खेत सुदभरना ही तो लगा है ना कोई बिक तो नहीं गया। पूरे जतन से मेहनत करके इसे छुड़ा लेंगे। अपने मन में कहते-‘‘तुम्हें मैं अपने पास फिर लाउंगा मेरे प्यारे बच्चांे।’’
बच्चा बाबू की पत्नी का नाम था कल्याणी। वह भी बच्चा बाबू की तरह ही मोटी और लम्बाई में छोटी थी। दोनों की जोड़ी बहुत ही अच्छी थी। कल्याणी हर वक्त अपने पति को ताना मारती थी कि आपसे शादी करके मुझे क्या मिला। खेत के चले जाने से कल्याणी भी कम दुखी नहीं थी। बच्चा बाबू आश्वस्त करते। धीरज शब्द को चबा कर अपनी पत्नी को समझाते ‘‘धीरज रखो  बेटी ससुराल में सुखी है तुम्हारे दोनों खेत को भी जल्दिये छुड़ा देंगे।’’ लेकिन उनकी बातों पर पत्नी को विश्वास नहीं होता। कहती ‘‘आपका कितना भी नाम हो जाए इससे हमको क्या।’’ कल्याणी को सबसे बड़ी चिन्ता थी दोनों के बुढापे की। कहती ‘‘जब तक हाथ चल रहे हैं तब तक तो किसी तरह दाल-रोटी चल जायेगी। लेकिन कभी सोचा है कि जिस दिन आपके हाथ से ये हड्डियां अपनी सही जगह लेना छोड़ देंगी उस दिन के बाद अपना जीवन कैसे चलेगा।’’
चाहे कल्याणी बच्चा बाबू को ताना मारती हो लेकिन सच यह जरूर था कि बच्चा बाबू के हाथ से जब से खेत गये थे उस दिन से उनकी अपनी इस प्रैक्टिस से सिर्फ दाल-रोटी ही चलने लगी थी।
         बच्चा बाबू अपनी फीस बढाने की कोशिश करते तो उन गरीब लोगों की इतनी औकात नहीं थी। लेकिन चूंकि उनको अपनी खेत को छुड़ाने की बहुत जल्दी थी इसलिए वे बेचैन थे।
थोड़ी-बहुत उन्होंने अपनी फीस बढाई जरूर। उनकी दो गायों ने उनके इस संकट के समय में बहुत साथ दिया। गायों ने बछड़ों को जन्म दिया। दूध की तादात अच्छी रही।
             बात सिर्फ इतनी है कि कुल मिलाकर बच्चा बाबू ने लगभग दो वर्ष के उपरान्त इतने रुपये इकट्ठा कर लिए कि वे अपना कम से कम एक खेत छुड़ा सके। यह कहने की जरूरत नहीं है कि अपने तमाम प्रयासों के बाद भी बच्चा बाबू के पास उस खेत के लिए पैसे इतनी जल्दी पूरे नहीं हुए होते। इस स्थिति में आने में बच्चा बाबू ने अपने पत्नी का भी सहारा लिया। जिन गहनों को कल्याणी ने अपनी बेटी की शादी तक में नहीं बेचा उन्हें वे गहने अपने उस बेटे जैसे खेत के लिए कुर्बान कर दिए। बच्चा बाबू ने असली शब्द को चबा कर कहा ‘‘असली गहना तो तुमरा खेत है जी।’’ अपने पति से बहुत सारी बातों में असहमत रहने वाली कल्याणी इस एक बात के लिए तैयार हो गई।
कहानी में तनाव की शुरुआत
यह तो सोचा ही जा सकता है कि अगर कहानी इतनी ही सपाट होती तो फिर यह कहानी बनती ही क्यों? बच्चा बाबू के खेत अपनी बेटियों की शादी में सुदभरना लग गए और बच्चा बाबू इस दुख की घड़ी को दो सालों में जैसे तैसे निपटा कर कम से कम आधी खुशी को छुड़ाने चल दिये। खेत के लिए जमा किए गए पैसे दे दिए गए और उन पैसों से खेत छुड़ा लिए गए। और कहानी खतम।
लेकिन नहीं मेरे दोस्त कहानी यहां खत्म नहीं होती है। पिक्चर अभी बहुत बाकी है।  
                   बच्चा बाबू ने जिसके यहां अपनी जमीन सुदभरना लगायी थी उसका नाम था फूल सिंह। मुझे पूरी तरह मालूम नहीं लेकिन ऐसी उम्मीद करता हूं कि सरकारी कागजों पर उनका भी नाम सिर्फ फूल सिंह नहीं होकर फूलचन्द सिंह जरूर रहा होगा। क्योंकि फूल सिंह नाम तो बहुत अजीब लग रहा है। जमींदारी लगभग पुश्तैनी थी। लेकिन जमींदारी अब लगभग छिछोरेापन में बदलती जा रही थी। खाते कम थे और पैसा जमा ज्यादा करते थे। उनका मानना था कि पैसों को जमा करके ही उसको सही इज्ज़त बख्शी जा सकती है। इसलिए वही नहीं उनके पूरे परिवार में लगभग सब दुबले-पतले ही थे। चूंकि फूल सिंह अपनी सेहत तक से समझौता करके पैसा जमा कर सकते थे तब यह समझ में आ जाना स्वाभाविक ही है कि बच्चा बाबू ने गलत हाथों में अपने बेटे जैसे खेतों को सौंप दिया था।
और हुआ भी वही। फूल सिंह ने खेत को वापस करने से साफ मना कर दिया।
‘‘खेत तो जिसके पास हो वह उसी का होता है। पढ़े नहीं हैं का डाक्टर साहेब।’’ फूल सिंह ने ऐसा बोलते हुए मन में सोचा ‘‘साला कौन सा मेरी हड्डी टूटने वाली है जो।’’
लेकिन बच्चा बाबू के मन में था कि एक बार हड्डी टूट कर तो देखे। साले को उलटा जोड़ दूंगा। जायेगा पूरब, पहुंचेगा पश्चिम।
       बच्चा बाबू ने पत्नी के गहने तक बेचकर जितने पैसे जोडे़ थे उनसे उनके खेत तो नहीं मुक्त हो पाये लेकिन वे सारे पैसे इन वर्षों में केस लड़ने में खर्च हो गए। आप विश्वास कीजिए यह केस दर्ज करने और लड़ने की हिम्मत कल्याणी के जोश दिलाने पर ही संभव हो पायी थी।
बच्चा बाबू के जीवन का यह दुख सबसे बड़ा दुख था। दोनों पति-पत्नी इस एक दुख के साथ घुट-घुट कर जी रहे थे और कचहरी का चक्कर लगा रहे थे। लेकिन आप जानते हैं कि फूल सिंह जमींदार जैसा कुछ था तो फैसला होने वाला कहां था। साथ ही उसकी किस्मत भी बलवान थी कि इस बीच उसके परिवार में किसी की हड्डी टूटी तो दूर, खिसकी तक नहीं।
                अब बच्चा बाबू को मन में यह साफ लगने लगा था कि अब उनके पास ये खेत कभी लौट कर नहीं आयेंगे। वे रोज शाम को एक चक्कर उन खेतों की तरफ लगाते। वे देखते खेत उदास चुकु-मुकु बैठे हैं। वे खेतों को दूर से देखते। उनके पास खेत को अपनी शक्ल दिखाने की हिम्मत नहीं थी। खेत में गन्ने के पौधे लगे थे। बच्चा बाबू उधर देखते और मुंह फेर लेते।
लेकिन वो कहते हैं न कि सब के ऊपर ईश्वर है तो बस समझिए बच्चा बाबू के जीवन में ईश्वर ने कृपा कर दी।
कट टू दिल्ली: कहानी में प्रधानमंत्री का प्रवेश
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए वे उदाहरण के दिन थे। सारे कैमरे चौबीसों घण्टों के लिए उस बड़े से हॉस्पीटल के सामने लगा दिए गए थे। दिल्ली का वह एक आलीशान हॉस्पीटल था। एकदम फाइव स्टार होटल की माफिक। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इतिहास को समझने के लिए यह एक बड़ा उदाहरण बनकर उभरेगा कि देश में कई घटनाएं इस कदर बड़ी हो जाती हैं कि चौबीस घंटों के लिए कैमरों को वहां नीयत करना पड़ता है। इस बीच चाहे इस देश में कितने भी चूहे मरते रहें।
                   चौबीस घंटों के लिए कैमरों को उस हॉस्पीटल में नीयत कराने वाली घटना यह थी कि प्रधानमंत्री एक मरीज के रूप में वहां दाखिल थे। देश के प्रधानमंत्री वहां एक मरीज के रूप में दाखिल थे तो इसे सबसे बड़ी खबर बनना भी चाहिए। वास्तव में प्रधानमंत्री की रीढ़ की हड्डी के निचले हिस्से की ठीक बगल वाली हड्डी टूट गई थी या फिर वह ऐसे अकड़ गयी थी कि कमर को मोड़ना संभव नहीं रह गया था। हड्डी टूट गई होती तो शायद जुड़ भी जाती लेकिन वह उलझ गई थी। तब प्रधानमंत्री या तो सिर्फ सो सकते थे या फिर खड़े रह सकते थे। बैठना संभव नहीं। अब प्रधानमंत्री बैठंे नहीं तो यह देश चलेगा कैसे। 
यह हॉस्पीटल दिल्ली की बहुत फर्राटेदार चलने वाली सड़क के ठीक किनारे था। प्रधानमंत्री वहां दाखिल थे और वहां की सड़कें जाम हुई पड़ी थीं। सारे कैमरे हॉस्पीटल की तरफ मुंह बाये खड़ी थीं। आम नागरिक टेलीविजन सेट के सामने आंखें गड़ाये बैठे थे। हॉस्पीटल के साथ के सारे पेड़ पौधों पर देश के सारे पक्षी आकर बैठे हुए थे, उदास।
प्रधानमंत्री दाखिल थे क्यों कि उनकी हड्डी छिटक, अकड़ या उलझ गयी थी। लेकिन यह हुआ कैसे? यह ठीक-ठीक पता करना आम नागरिक के वश में तो नहीं था लेकिन चूंकि वह हड्डी कोई सामान्य हड्डी नहीं एक प्रधानमंत्री की हड्डी थी इसलिए खबरें बाहर भी आयीं। प्रमाण कुछ नहीं है तो उलझन का बचा रहना स्वाभाविक ही है।
खबर यह थी कि प्रधानमंत्री तब एक अहम बैठक में थे। एकदम हाइप्रोफाइल। विदेश के तमाम धन्ना सेठों के साथ उनकी डील चल रही थी। मुद्दा था एक ऐसी फायदेमंद कंपनी के मालिकाना अधिकार को विदेशी धन्ना सेठों के हाथ में दे देने का जिसकी इस देश में अपनी एक अहमियत थी। मीटिंग कई घंटे तक चली थी और स्वभावतः सफलता प्रधानमंत्री के हाथ आयी। डील फाइनल हुई तो प्रधानमंत्री बहुत खुश हुए। खुश इतने कि आई हैव सोल्ड इटकहकर चिल्ला उठे। और उठे तो उठे लेकिन इतने झटके से उठे कि उनकी उस हड्डी में बल पड़ गया। कुर्सी नीचे लुढक गई थी। प्रधानमंत्री खड़े थे और कुर्सी लुढकी हुई थी। विदेशियों के चेहरे पर मुस्कराहट तारी थी। और वे प्रधानमंत्री के अट्टहास को इंज्वाय कर रहे थे। परन्तु वास्तव में प्रधानमंत्री तब दर्द से कराह रहे थे। कहते हैं तब बहुत देर तक वहां बैठे लोग यही समझते रहे थे कि प्रधानमंत्री खुशी में चिल्ला रहे हैं जबकि उस समय प्रधानमंत्री दर्द में चिल्ला रहे थे। उनका दर्द एकदम असह्य था।
खबर यह भी थी कि प्रधानमंत्री निवास के उस बाथरूम में जिसमें प्रधानमंत्री स्नान करते थे और तरोताजा होकर काम पर जाते थे उसमें कम से कम एक महीने से एक नल टपक रहा था। प्रधानमंत्री पिछले एक महीने से उस नल की शिकायत प्रधानमंत्री निवास के व्यवस्थापकों से करते रहे थे लेकिन उस शिकायत को सुनने वाला कोई नहीं था। कभी मिस्त्री छुट्टी पर होता, कभी नल का वॉसर उपलब्ध नहीं होता तो कभी मिस्त्री का काम करने का मूड नहीं होता। एक बार उस नल को ठीक करने की कोशिश की भी गई तो उस नल के अतिरेक को रोकना संभव नहीं हो पाया। कहते हैं नल के लगातार टपकने से वहां कजली सी बैठ गई थी और उस दिन प्रधानमंत्री जब उस महारत्न कंपनी को लगभग बेच कर खुशी-खुशी अपने निवास पर लौटे थे और प्रसन्नता में एक बार फिर नहाने बाथरूम में घुसे थे तब खुशी में वे उस बाथरूम की उस फिसलन का ध्यान नहीं रख पाये थे। और फिर वही सब।
क्या आपने दिल्ली में कभी तितलियों को देखा है?
यह अस्पताल आलीशान बंगले की तरह था। कैम्पस में घुसते ही फूलों का पूरा एक बागीचा था जिसमें तरह-तरह के फूल लगे हुए थे। लॉन में हरी घास की एक चादर बिछी हुई थी। एकदम हरी। घास की इस चादर में सारी घास बराबर कटी हुई थी। न एक बड़ी न एक छोटी। फूलों के बीच तितलियां थीं। दिल्ली में तितलियां। लॉन के बाद मुख्य दरवाजे के ऊपर एक छत तिरछी थी जिस पर पानी आराम से लेटता हुआ नीचे की ओर आता था। तिरछी छत एक ऐसी छत थी जिस पर से पानी ही नहीं पैसों के सिक्के भी रखे जाते तो वे नीचे की ओर लुढक जाते। दरवाजे शीशे के थे। उन दरवाजों पर उस अस्पताल का नाम और उसकी पहचान खुदी हुई थी। आप उस दरवाजे के सामने जाते तो वे दरवाजे अपने आप ही खुल जाते। और उसी के साथ आपके लिए उस अस्पताल के नाम और उसकी पहचान भी खुल जाती। दरवाजे के खुलते ही भीतर ठंडी हवा के झोंके मन को खुश करने की कोशिश करते। फर्श एकदम चिकनी थी। अगर उस पर एक दाग लग जाता था तो उसके लिए आदमी नियत थे, जो उसे तुरंत खत्म कर देते थे। वहां बैठने के बहुत सारे इंतजाम थे। एस के आकार के सोफे थे। जो बहुत गद्देदार थे। सामने रखे टेबल पर पत्थर के टुकड़े थे। पत्थर भी चिकने थे। उस पत्थर को हाथ में लेकर देर तक सहलाने का मन करता था। लेकिन उस पत्थर को सिर्फ चुपके से ही हाथ में लेकर सहलाया जा सकता था क्योंकि उन पत्थर के चिकने टुकड़ों को वहां से उठाने की इजाज़त नहीं थी।
                उसी हॉल के दूसरी ओर कैफेटेरिया जैसी कोई जगह थी जहां लोग 125 रुपये में एक कप चाय और 175 रुपये में आलू की भुजिया खाने में मस्त थे। वहां काफी भीड़-भाड़ थी और लोग काफी खुश थे। वहां उस दिन जब बीमार से मिलने आने वाले रिश्तेदार उस आलू की भुजिया और चाय में मग्न थे तभी अस्पताल को पुलिस ने घेर लिया था। अस्पताल एक छावनी में तब्दील हो गयी थी। पौधों से सारी तितलियां उड़ने लगी थीं। तिरछी छत से गिरने वाला पानी सतर्क हो गया था। तभी प्रधानमंत्री का काफिला उस अस्पताल में दाखिल हुआ था।
                अस्पताल के मुख्य दरवाजे के भीतर गाड़ियों के लिए नीचे की ओर एक रास्ता था जहां गाड़ियां घुसकर गायब हो जाती थीं। गाड़ियां गोलाकार रास्ते पर कुछ देर घूमती हुई एक ऐसी जगह पर पहुंचती थीं जहां से यह सोचना भी बहुत अजीब लगता था कि अब यहां से बाहर निकलना क्या आसान है? लेकिन तभी वहां एक लिफ्ट दिखती और फिर गाड़ी से निकला हुआ आदमी ऊपर सीधे अस्पताल के अंदर दाखिल हो जाता।
            परन्तु प्रधानमंत्री के काफिले के लिए ऊपर ही सुरक्षित पार्किंग थी। जहां गाड़ियां लगायी गयीं थीं वहां किसी को जाने की इजाजत नहीं थी। दिल्ली की तितलियां और देश के पक्षी भी वहां जा नहीं सकते थे।
             प्रधानमंत्री अस्पताल में थे और पूरा देश दुखी था। पूरा देश इस खबर से अटा पड़ा था। कहीं हवन करवाया जा रहा था तो कहीं तरह-तरह की मन्नतें मांगी जा रही थीं। कुछ लोग दुुखी भी थे। अपनी प्रेमिका को अपनी गाड़ी में बैठाकर उस अंगूठी वाली सड़क पर फरार्टेदार गाड़ी दौड़ाने वाला प्रेमी इसलिए दुखी था कि वह सड़क लगभग अब जाम कर दी गयी थी। उस अस्पताल में दाखिल मरीजों के रिश्तेदार इसलिए दुखी थे कि उनके लिए अस्पताल एक जेल की तरह हो गया था। कुछ लोग न्यूज चैनलों पर एक ही खबर को सुन सुन कर ऊबने से दुखी थे।
          लेकिन गांव में बैठे लोग वास्तव में बहुत दुखी थे। वे कहते ‘‘जब हमरा प्रधानमंत्री ही बेमार है तो देशवा का का होगा?’’ दुख इतना था कि गांव के बुजुर्गों ने अपने प्रधानमंत्री के लिए लगभग भोजन छोड़ दिया था। चूंकि गांव के लोग पहले भी कम ही खा पाते थे इसलिए उनके लिए भोजन छोड़ देना कोई बड़ी बात नहीं थी। 
         प्रधानमंत्री बीमार थे और न्यूज चैनल के कैमरे चौबीसांे घंटे के लिए अस्पताल की तरफ मुंह बाये खड़े थे। चैनल पर प्रधानमंत्री की कोई ताजी तस्वीर नहीं थी। क्योंकि वह मिल नहीं सकती थी। अक्सर चैनलों पर प्रधानमंत्री की जो तस्वीर दिखाई जा रही थी उसमें प्रधानमंत्री कहीं बहुत तेजी से चलते हुए दिखाए जा रहे थे। चलना ऐसे जैसे बहुत तेज चलकर बहुत जल्द कहीं पहुँच जाना चाहते हों।
          हां शुरुआत में हर घंटे पर फिर दो घंटे पर अस्पताल की तरफ से प्रधानमंत्री के स्वास्थ्य के संदर्भ में प्रेस विज्ञप्ति जारी की जा रही थी। लोग हर घड़ी अस्पताल की तरफ से जारी की जा रही विज्ञप्ति को बहुत उम्मीद से सुनते थे।
किन्तु प्रधानमंत्री स्वस्थ नहीं हो पा रहे थे। डॉक्टर कैमरों के सामने आते और उदास हो कर चले जाते। डॉक्टर खुद कैमरे के सामने अंग्रेजी में यह कहते कि ‘‘बहुत आश्चर्य है कि एक हड्डी ऐसे कैसे टूट सकती है कि उसे जोड़ना या सही जगह पर बैठाना असंभव सा जान पड़े। और इसे टूटना भी कैसे कहा जाए, चाहें तो आप इसे उलझना कह लें।’’ लोगों ने हड्डी के लिए यह उलझना शब्द पहली दफा सुना था उन्हंे बहुत अजीब लगता था।
               डॉक्टर इशारों से समझाने की कोशिश करते कि कहां की हड्डी किस तरह टूट गई है। और यह भी कि वह जिस जगह की हड्डी है उसे जोड़ना या उसे संतुलित करना क्यों कठिन से कठिनतर होता चला जा रहा है। अपने हर बयान में वे उम्मीद बंधाते कि ‘‘लेकिन फिक्र की कोई बात नहीं है सीनियर डॉक्टर्स का पैनल इस केस को स्टडी कर रहे हैं। हम जल्द ही इस अवसाद पर काबू पा लेंगे।’’
रिपोर्टर पूछता ‘‘केस कॉम्पलीकेटेड हुआ कैसे?’’ और यह भी कि ‘‘अगर इस अस्पताल से यह केस संभल नहीं रहा है तो विदेश से डॉक्टरों की फौज क्यों नहीं बुलायी जा रही है। आखिरकार यह एक देश के प्रधानमंत्री के स्वास्थ्य का सवाल है।’’
दिन बीतते रहे और अंततः यह भी करना पड़ा। अमेरिका से डॉ. फ्रेंकफिन पिट की टीम को बुलवाना पड़ा। और डॉ. पिट प्रधानमंत्री की केस स्टडी करने लगे।
          यह सब तो वे खबरें हैं जिन्हें उस अस्पताल में प्रधानमंत्री के कक्ष से बाहर निकल जाने दिया गया। प्रेस को अंदर जाने की इजाजत थी नहीं और डॉ प्रधानमंत्री के दर्द को बाहर बतलाकर इस देश के इस संकट को और बढाना नहीं चाहते थे। परन्तु सच्चाई यह है कि प्रधानमंत्री का दर्द इतना कठिन था कि वे अपने बिस्तर पर आराम से लेट नहीं सकते थे। प्रधानमंत्री अपने नरम और गद्देदार बिस्तर पर भी सिर्फ इस करवट या उस करवट ही लेट सकते थे। अगर कभी चित्त लेटने की कोशिश करते तो उनकी आत्मा से एक चीत्कार सी निकलती थी। उनका बिस्तर से उठना और बैठना तो खैर असंभव ही था। 
              चूंकि डॉक्टर प्रेस के सामने प्रधानमंत्री की हड्डी को समझाने की कोशिश करते थे इसलिए तमाम न्यूज चैनल वालों ने अपने वाल पर पूरा एक ग्राफ बना लिया था। उस ग्राफ में कल्पनाओं का प्रयोग कर हड्डी की सही जगह और वर्तमान समय में उसकी जगह को दर्शाया गया था। और फिर उसे अपने यहां स्क्रीन पर बड़े आकार में टांग दिया जाता। विशेषज्ञ के रूप में डॉक्टरों को स्टूडियो में बैठाया जाता। डॉक्टर कहते ‘‘प्रधानमंत्री की हड्डी है जुड़ेगी तो जरा शान से।’’
अखबार में कार्टून बनने लगा कि आखिर कैसे एक देश का प्रधानमंत्री सिर्फ लेट कर या खड़ा रहकर एक देश को चला सकता है। बगैर बैठे प्रधानमंत्री कैसे दस्तखत करेंगे इतने कागजातों पर। कौन लालकिले से फहरायेगा झंडा।
           यह अजीब लग सकता है कि आखिर शरीर की कोई भी हड्डी इस तरह टूट, छिटक या उलझ कैसे सकती है कि उसका ठीक होना मुश्किल हो जाये। किन्तु हो तो कुछ भी सकता है।
               आप विश्वास कीजिए कि प्रधानमंत्री बीमार थे और देश के सारे न्यूज चैनल जब उसमें लगे हुए थे तब देश के एक छोटे से गांव में बच्चा बाबू उस खबर के कारण बहुत उदास थे। वे अखबार को बहुत बारीकी से पढते और समझने की कोशिश करते। उस अखबार के मुख्य पृष्ठ पर कभी प्रधानमंत्री की हड्डी का सही ठिकाना छपता तो कभी ढेर सारे विशेषज्ञों की राय। बच्चा बाबू उन तस्वीरों को देखते और विचार शून्य हो जाते। उनके मन के भीतर का डॉक्टर उस हड्डी को सही जगह देने लगता।
          बच्चा बाबू अपने गांव वालों से शामशब्द को चबाकर निगलकर कहते ‘‘शाम इतनी धुंधली क्यों है? चेहरा साफ-साफ दिखता क्यूं नहीं? प्रधानमंत्री एक दिन अवश्य खड़े होंगे।’’ बच्चा बाबू अपने मन के भीतर जानते हैं यह कुर्सी से चिहुक कर उठने का आघात नहीं है। शरीर की कोई हड्डी इतनी नाजुक कभी नहीं होती कि वह जीवन की खुशी को बर्दाश्त नहीं कर सके। बच्चा बाबू जानते हैं कि प्रधानमंत्री के बाथरूम में काई अवश्य है।
                एक छोटे से गांव में बैठे बच्चा बाबू अपनी बातों को प्रधानमंत्री तक पहुंचा नहीं सकते हैं लेकिन अपने मन के भीतर उन्हें एक अफसोस है, उन्हें अगर एक मौका दिया जाता तो वे सफलता हासिल कर सकते थे। परन्तु मौका तो दूर की बात है प्रधानमंत्री तक उनकी बातों को पहुंचायेगा कौन?
लेकिन दिन बीतते जा रहे थे और डॉ पिट केस स्टडी में लगे ही रहे। प्रधानमंत्री दर्द से कराहते ही रहे।
आम आदमी की जिन्दगी में स्वप्न की तरह दस्तक देते हैं प्रधानमंत्री
उस दिन विशेष के लिए बच्चा बाबू के दरवाजे पर पहले से ही हाथ से लिखा हुआ एक नोटिस चिपका दिया गया था कि ‘‘इस महीने की तेइस तारीख दिन बुधवार को बच्चा बाबू सुबह से शाम तक उपस्थित नहीं रहेंगे। इसलिए कृपया उस एक दिन को आप अपनी हड्डियों को आराम दें।’’ नोटिस में सुबह से शामको कलम से मोटा करने की कोशिश की गई थी और उसके नीचे एक लाइन भी खींच दी गई थी।
          वह दिन बच्चा बाबू के लिए एक तनाव भरा दिन था। शहर में वे दिन भर यहां से वहां कचहरी का चक्कर लगाते रहे थे। लेकिन सफलता कुछ भी हासिल नहीं हुई थी। जमीन के केस में बच्चा बाबू कचहरी का चक्कर लगा रहे थे। बच्चा बाबू को कचहरी में यह साबित करना था कि वह जमीन जो कभी बच्चा बाबू के लिए प्रयोगशाला की तरह थी आखिर उनकी कैसे है? और दिनों की तरह ही आज भी कचहरी में वकील आपस में उलझते रहे और बच्चा बाबू तमाशा देखते रहे।
बच्चा बाबू वकील को देखते हैं और अपने मन में सोचते हैं ‘‘यह कैसा सवाल है।’’ ‘‘साले जिस मुंह से तुम इतना बकर-बकर करते हो वह तुम्हारा कैसे है?’’ ‘‘साला यह मुंह तुम्हारा है इससे ज्यादा और क्या प्रमाण चाहिए तुम्हें।’’
लेकिन कचहरी की इस बकवासबाजी की नौबत आने से पहले भी बच्चा बाबू को कचहरी में यहां से वहां तक खूब चक्कर कटवाया गया। फिर इस बकवासबाजी के बाद भी। आखिर अगली तारीख कौन सी है।
             और कोई काम होता तो निश्चित रूप से बच्चा बाबू थक से जाते या ऊब कर हार स्वीकार कर लेते लेकिन यह उनकी जमीन का मामला था। उस जमीन का जिसे वे बहुत प्यार करते थे। प्यार इतना कि उन्हें अपनी बांहों में भरकर सोया करते थे। जबसे यह जमीन गई है बच्चा बाबू पूरी नींद कभी सो कहां पाये हैं।
बच्चा बाबू जब शहर से घर की तरफ लौटे तब थक कर चूर हो चुके थे। और यह थकान कुछ ज्यादा इसलिए भी लग रही थी कि उनकी जमीन की उन तक लौट कर आने की संभावना अब लगभग क्षीण ही होती जा रही थी। हर बार की तरह इस बार भी लौटे तो उनके हाथ में सिर्फ अगली तारीख थी। तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख मी लॉर्ड।
      बच्चा बाबू घर पहंचे तो अंधेरा घिर चुका था। उन्होंने देखा कि दरवाजे के बाहर वह सूचना अब भी गत्ते पर चिपकी हुई थी। उन्होंने घर में प्रवेश करने से पहले उस गत्ते को उखाड़ कर अपने पास रख लिया। अगली तारीख की सूचना के लिए। घर में पत्नी कल्याणी उदास बैठी थी। आंगन में एक लालटेन जल रही थी। लालटेन का शीशा धुएं से थोड़ा काला पड़ गया था इसलिए रोशनी थोड़ी कम हो गयी थी। पत्नी उदास थी लेकिन सच को जानती थी इसलिए उसने अपने पति से इस बाबत कुछ पूछा नहीं। उठकर रसोई में गई और एक लोटा उठाया और चापाकल से पानी लाकर पति को दिया। चापाकल को पहले थोड़ा चलाया गया था ताकि पानी ठंडा आ सके। बच्चा बाबू ने लोटा अपने हाथ में ले लिया परन्तु उस पानी को पीया नहीं बल्कि जूते उतारकर उससे अपने पैर धो लिये। पैर पर पानी से ठंडक महसूस हुई। पैर पर से धूल उतर गई। कल्याणी वहीं खड़ी थीं। उसने फिर से लोटा ले लिया और इस बार बगैर चापाकल को कई बार चलाये सीधे उससे पानी भर लिया।
         इस बार बच्चा बाबू ने उस लोटे के पानी को अपने गले में उड़ेल लिया। शायद सोचा भी हो कि पहले वाला पानी बनिस्पत ज्यादा ठंडा था।
पानी पीने के बाद अंधेरा शब्द को बच्चा बाबू ने चबा कर निगल लिया। पत्नी ने समझ लिया कि यह शब्द अंधेरा है। उसने अनुमान लगाया कि अंधेरा बहुत है ऐसा कुछ कहना चाहते हैं वे।इसलिए वह लालटेन की बत्ती को थोड़ा बढ़ाने के लिए चल दीं। लेकिन बच्चा बाबू ने कहा ‘‘अंधेरगर्दी है चारांे तरफ। कोई सुनने वाला नहीं।’’
कल्याणी जो अब तक लालटेन की ओर बढ़ रही थीं अचानक से मुड़कर रसोई की ओर चल दीं। ऐसे जैसे कुछ सुना ही नहीं हो।
          बच्चा बाबू चूंकि उस दिन बहुत थके और चिढे हुए थे इसलिए वे इतना निराश थे, नहीं तो उनकी उम्मीदें अभी न्यायतंत्र से बिल्कुल खत्म नहीं हुई थी।
         थके हुए बच्चा बाबू वहीं खाट पर लेट गए और फिर धीरे-धीरे नींद के आघोश में चले गए। आसमान में तारे थे। बच्चा बाबू जिस खाट पर लेटे हुए थे ठीक उस जगह पर आसमान में आठ तारे थे। बच्चा बाबू ने सोते सोते इन्हें गिन लिया था।
                नींद बहुत गहरी थी। पत्नी ने जब खाने के लिए बच्चा बाबू को जगाया तो वे अचानक घबरा से गए। उन्हें औचक लगा जैसे खाट के ठीक ऊपर वाले आठों तारे आपस में टकरा कर उनके ऊपर गिर गए हैं। वे घबरा कर उठ बैठे और उनके मुंह से अचानक निकला ‘‘सालो मैं बच्चा बाबू हूं। मुझे क्या तुम सब मिलकर मार डालोगे।’’ घबरा कर अचानक उनके मुंह से निकले इस वाक्य में कोई रुकावट नहीं थी। उन्होंने इसमें कोई शब्द चबाया नहीं था। ऐसा बच्चा बाबू के साथ कभी कभी ही होता था जब वे घबराकर अचानक मुंह से कुछ निकाल देते थे।
        कल्याणी ने घबराहट में निकले वाक्य को सुना लेकिन उनको कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने थाली उनकी खाट पर रख दी और पानी लाने चल दीं। बच्चा बाबू उठकर बैठ गए और खाना शुरू कर दिया। लगभग नींद में ही दो-चार रोटी खाई। फिर खाट पर से ही हाथ को जमीन की तरफ कर लोटे से पानी डाल कर हाथ धो लिया। थाली नीचे कर लेटने को हुए फिर अचानक से उठ बैठे और आंगन के दूसरी छोर की ओर चल दिये। आंगन में दो अमरूद के पेड़ थे, दो नारियल के और सेम की बहुत बड़ी लत्ती थी। एक छोटा सा बगीचा भी था जिसमें बैगन के पौधे लगे थे। हरा बैंगन उसमें फलता था। बच्चा बाबू को बैंगन का तरुवा बहुत अच्छा लगता था।
बच्चा बाबू खाट से उठकर बैंगन के बगीचे तक गए और वहीं बैठकर लघुशंका करने लगे। फिर खाट पर आकर सो गए। बच्चा बाबू ने सोते-सोते देखा उनकी खाट के ऊपर तारे और गझिन हो गए थे शायद दस-पंद्रह। वे गिन नहीं पाये। खाट पर लेटते लेटते उनके मुंह से बुदबुदाहट जैसा निकला ‘‘बहुत मुश्किल है इस दुनिया में रहना।’’ पत्नी घर के भीतर पलंग पर सोई थी।
             बच्चा बाबू गहरी नींद में थे और रात गहरी अंधेरी थी। बच्चा बाबू गहरी नींद में थे और सपना देख रहे थे। उनके सपने में उनके दोनों बच्चे थे। दोनों बच्चे यानि खेत के वे दो टुकड़े। बच्चा बाबू ने अपने सपने में देखा कि वे फूल सिंह से केस लड़ रहे हैं और तारीख पर तारीख चल रही है और इस बीच उनके दोनों खेत फूल सिंह के खूंटे से बंधे पड़े हैं। दोनों की गरदन में दो पट्टे हैं। बच्चा बाबू दौड़ रहे हैं, पस्त हो रहे हैं और फिर एक दिन रात के गहरे अंधेरे में बच्चा बाबू के वे दोनों बेटे फूल सिंह के खूंटे से अपना पट्टा खोल कर भागे चले आए। बच्चा बाबू ने दरवाजा खोला तो उनके दोनों बेटे दरवाजे पर आंसू बहा रहे थे। बच्चा बाबू दरवाजे पर अपने दोनो बच्चों को देखकर वहीं हुलस कर उनसे गले मिले और उनके आंसू पोंछे। और यह भी कहा कि ‘‘आओ मेरे बच्चो अंदर आओ अपने घर में आओ यह घर कब से तुम्हारा इंतजार कर रहा था।’’ बच्चा बाबू सपना क्या देख रहे थे यह तो वहां बैठे किसी भी आदमी के लिए समझना असंभव था परन्तु वहां अगर कोई आदमी चुपचाप बैठकर बच्चा बाबू की बातें सुनता तो वह जरूर समझ सकता था कि बच्चा बाबू वास्तव में अपने सपने में क्या देख रहे हैं। बच्चा बाबू जो देख रहे थे वह तो सपने में था लेकिन जो बोल रहे थे वह हकीकत में था।
          सपने के दूसरे हिस्से में उनके खेत के दोनों टुकड़े आंगन में बैठे थे और बच्चा बाबू उनसे बतिया रहे थे। खेत के दोनों टुकडे़ आंगन में धमाचौकड़ी मचा रहे थे और बच्चा बाबू देख रहे थे। वे यहां से वहां आंगन में दौड़ रहे थे। खेत के दोनों टुकड़े आंगन में हवा में उड़ रहे थे और बच्चा बाबू संतुष्ट भाव से बस उन्हें देख रहे थे।    
               यह रात के लगभग ढाई-तीन बजे का समय होगा कि तभी बच्चा बाबू का दरवाजा वास्तव में खटका। दरवाजा धीरे-धीरे खटकाया जा रहा था। एक रहस्यमयी अंदाज में इसलिए कल्याणी के सुनने का तो सवाल ही नहीं था। बच्चा बाबू भी चूंकि अपने खेत के दोनों टुकड़ों के साथ मस्त थे इसलिए वे भी बहुत देर बाद उस खटखटाने को सुन पाये। लेकिन जब उन्होंने सुना तब वे उठे और आंगन से सीधे गलियारे को पार कर मुख्य दरवाजे की ओर बढ़ गए। उनकी नींद खुल तो गई थी लेकिन बहुत चेतन अवस्था में नहीं थे वे। उनके हाथ में एक टार्च था और उन्हें लगा था कि सच में उनके खेत उनके दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं। उन्होंने दरवाजा खोला और कहना शुरू कर दिया ‘‘आओ मेरे बच्चांे अंदर आओ अपने घर में आओ यह घर कब से तुम्हारा…………’’ बच्चा बाबू अपनी बात पूरी कर रहे थे कि उनकी चेतना थोड़ी सी लौटी और उन्होंने देखा के दरवाजे के ठीक सामने दो हट्टे-कट्टे आदमी खड़े थे। दोनों सफारी सूट पहने थे और दोनों के सफारी सूट में एक-एक पॉकेट थी। बच्चा बाबू कुछ समझ पाते या डर से चिल्ला पाते उससे पहले ही एक सफारी सूट वाले ने अपने रुमाल से उनके मुंह को बन्द कर दिया और दूसरे ने पीछे से उन्हें पकड़ लिया। और फिर दोनों उन्हें उसी आंगन में पकड़ लाये जहां से बच्चा बाबू उठ कर गए थे।
           बच्चा बाबू की नींद अब बिल्कुल खुल चुकी थी। इसलिए जब उन्हें जबरदस्ती ही सही अंदर लाया गया तो वे इतना तो अवश्य समझ चुके थे कि उन्हें किडनैप नहीं किया जा रहा है और यह भी स्पष्ट था कि ये फूल सिंह के गुंडे नहीं थे क्यों कि वे इस तरह सफारी सूट में क्यों आते और वे इतनी कम जबरस्ती क्यों करते। लेकिन वे समझ नहीं पा रहे थे कि तब ये हैं कौन और माजरा क्या है?
              दोनों सफारी सूट वालों ने बच्चा बाबू को बाइज्जत खाट पर बैठा दिया। लेकिन बच्चा बाबू चिल्लाना न शुरू कर दें इसलिए उनके मुंह से अभी रुमाल हटाया नहीं गया था। फिर दोनों ने पूरे माजरे को समझाना चाहा। लेकिन जो बातें वे दोनों बच्चा बाबू को समझाना चाहते थेे वास्तव में वे उससे भी ज्यादा अविश्वसनीय थीं। किसी भी आम आदमी के लिए यह कितना अधिक अविश्वसनीय हो सकता है कि कोई उससे अचानक यह कह दे कि उनके यहां प्रधानमंत्री आये हैं।
………परन्तु सच यही था।
रुमाल से बंद अपने मुंह से बच्चा बाबू ने घों-घों की आवाज के साथ इशारों में यह पूछना चाहा कि आखिर वे कौन हैं और उनसे क्या चाहते हैं?
 ‘‘हमसे डरें नहीं हम सुरक्षाकर्मी हैं’’ सामने बैठे सफारी सूट वाले ने कहा।
‘‘सुरक्षाकर्मी?’’ बच्चा बाबू ने अपने चेहरे के एक्सप्रेशन से ऐसा जानना चाहा।
‘‘हम तो लोगों की जान बचाते हैं।’’
‘‘ऐसे!’’ बच्चा बाबू ने हिकारत की निगाह से उन्हें देखा। अपनी निगाह थोड़ी नीची कर अपनी ओर इशारा किया।
‘‘नहीं, नहीं आप गलत समझ रहे हैं हम प्रधानमंत्री के सुरक्षागार्ड हैं। हमारे साथ खुद प्रधानमंत्री आए हैं।’’
‘‘……………..’’ बच्चा बाबू सुन्न से हो गये।
‘‘आप चिल्लायें नहीं तो हम रुमाल हटा दें आपके मुंह से। फिर हम आपको सारी बातें समझा देंगें।’’
बच्चा बाबू ने अपने मुंह को ऊपर-नीचे करके स्वीकृति दी। बच्चा बाबू के मंुह पर से रुमाल हटा लिया गया। उन्होंने सबसे पहले दो-चार लम्बी-लम्बी सांसें लीं। 
दोनों सफारी सूट वालों ने फिर से उन्हें यह समझाना चाहा कि वे वास्तव में प्रधानमंत्री के सुरक्षा गार्ड हैं। बाहर गाड़ी में प्रधानमंत्री लेटे हैं। उन्होंने बच्चा बाबू को यह सख्त हिदायत दी कि वे शोर न मचायें क्योंकि लोगों को बिल्कुल भी यह पता नहीं चलना चाहिए कि यहां प्रधानमंत्री हैं।
         बच्चा बाबू को बाहर लाया गया। बाहर सिर्फ एक गाड़ी थी। बच्चा बाबू को थोड़ा आश्चर्य हुआ और सबकुछ एक मजाक जैसा लगा कि क्या प्रधानमंत्री एक गाड़ी में किसी के दरवाजे पर आ सकते हैं। परन्तु वह गाड़ी बहुत अजीब तरह की थी। वैसी गाड़ी बच्चा बाबू ने अपनी जिन्दगी में कभी सीधे या टेलीविजन पर देखी नहीं थी। गाड़ी लम्बी थी और उसके शीशे बन्द थे। गाड़ी के पहिये चौड़े थे। गाड़ी दो हिस्सों में बंटी थी। एक जिधर ड्राइवर था उधर कुछ और लोगों के बैठने की व्यवस्था थी। बच्चा बाबू ने अंदाज लगाया कि यह जो दो सफारी सूट वाले सुरक्षाकर्मी हैं वे वहीं बैठे रहे होंगे। गाड़ी के दूसरे हिस्से की लम्बाई ज्यादा थी। सफारी सूट वालों ने उस गाड़ी के लम्बे हिस्से की तरफ का दरवाजा खोला। बच्चा बाबू के चेहरे पर अचानक ठंडी हवा का झोंका आया। अंदर बैठने की जो जगह थी वह बहुत ही गद्देदार थी।
                   गाड़ी में एक बिस्तर लगा हुआ था जिसमें प्रधानमंत्री सो रहे थे। प्रधानमंत्री को पेन किलर और नींद की दवा दी गई थी ताकि उन्हें कोई कष्ट नहीं हो। दोनों सफारी सूट वालों ने टॉर्च की रोशनी प्रधानमंत्री के चेहरे पर नहीं बल्कि गाड़ी की छत की ओर दी ताकि प्रधानमंत्री को कोई तकलीफ भी नहीं हो और चेहरा नजर भी आ जाए।
         बच्चा बाबू ने देखा बिस्तर पर लेटे प्रधानमंत्री के अलावा उस गाड़ी के भीतर दो लोग और थे। एक महिला थीं जो शायद प्रधानमंत्री की पत्नी होंगी ऐसा बच्चा बाबू ने अनुमान लगाया। दोनों उस घुप्प अंधेरे में बिल्कुल चुप बैठे थे। बच्चा बाबू ने प्रधानमंत्री के चेहरे पर अपनी निगाह डाली। एकदम हूबहू वही शक्ल। इस शक्ल को टेलीविजन और अखबार में वे कई बार देख चुके हैं। लेकिन कभी सोचा नहीं था कि एक दिन ऐसा भी आयेगा कि वे प्रधानमंत्री को इतने करीब से देख पायेंगें। बच्चा बाबू ने सोचा यह चेहरा तो वाकई बहुत गोरा है।
टॉर्च की रोशनी बंद कर बच्चा बाबू को वे दोनों सफारी सूट वाले फिर से साथ आंगन में ले आये।
                  वैसे तो प्रधानमंत्री को देखकर बच्चा बाबू ने सब समझ लिया था। लेकिन वे उन सफारी सूट वालों से सब सुनना चाह रहे थे कि आखिर वे उनसे चाहते क्या हैं। अभी वे खाट पर बैठे ही थे कि उनके सामने एक मोटा सा आदमी अचानक से पता नहीं कहां से आकर खड़ा हो गया। वह थोड़ा रौबदार लग रहा था और उसका चेहरा थोड़ा सख्त था। बच्चा बाबू ने देखा कि वह आदमी वह नहीं है जो उस लम्बी गाड़ी में प्रधानमंत्री के साथ था। उन्होंने समझ लिया कि वह मोटा आदमी कोई बड़ा अधिकारी है और निस्संदेह आगे-पीछे और भी गाड़ियां आयी हैं। प्रधानमंत्री के साथ कितनी गाड़ियां आयी हैं बच्चा बाबू यह तो समझ नहीं पाये लेकिन इतना वे अवश्य समझ गए कि अन्य गाड़ियां और अन्य सुरक्षाकर्मी कहीं आसपास अवश्य बिखरे हुए हैं। बच्चा बाबू ने महसूस किया कि उस मोटे आदमी का रंग काला था। वैसे उनके मन में यह भी आया कि क्या पता उसके चेहरे पर रात का कालापन ही ज्यादा हो। वह दक्षिण भारतीय था लेकिन बहुत अच्छी हिन्दी बोल पा रहा था।
टॉर्च को जला कर खाट पर छोड़ दिया गया था जिससे आंगन में हल्की रोशनी वर्तमान थी। इतनी रोशनी जिससे बात हो सके।
‘‘प्रधानमंत्री बीमार हैं।’’ उस अधिकारी ने खाट पर बैठे बच्चा बाबू को ऐसी प्राथमिक जानकारी दी जैसे उस गांव में देश की कोई खबर आ ही नहीं पाती होगी।
‘‘इसी देश में रहता हूं मैं, मुझे सब मालूम है।’’ बच्चा बाबू ने इसको चबा कर थोड़ी बेरुखी से जवाब दिया।
‘‘फिर तो आप यह भी समझ गए हैं कि प्रधानमंत्री यहां क्यों आये हैं। सुना है कि हड्डियां आपके इशारों पर नाचती हैं।’’ फिर रुक कर ‘‘अब अवसर आया है कि आप अपना जौहर दिखा सकें और इस देश के कुछ काम आ सकें।’’ दोनों सफारी सूट वाले बस अब खड़े थे और सारी बातें अब वह अधिकारी ही कर रहा था।
‘‘हमें आपसे बहुत उम्मीदें हैं। हम जानते हैं कि अब सब ठीक हो जायेगा।’’ बच्चा बाबू बस सुन रहे थे।
‘‘बस आपसे इतना आग्रह है कि इस बात की खबर किसी को नहीं हो कि यहां प्रधानमंत्री हैं। आपको इतनी बड़ी खबर को अपने पेट के भीतर गुम कर देना होगा।’’
बच्चा बाबू के मन में एक जो शंका उपजी वह यह थी कि इस गांव में रात के अंधेरे में इस गाड़ी को लाना क्या खतरनाक नहीं था। बच्चा बाबू ने अपने मन की इस शंका को एक सवाल की तरह उस दक्षिण भारतीय अधिकारी के सामने रखा। इस सवाल को सामने रखते हुए बच्चा बाबू सोच रहे थे कि कम से कम इस एक सवाल पर वह अधिकारी चौंक जायेगा अपनी गलती को समझने की कोशिश करेगा। परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ।
‘‘गांव के बूढ़े सोते कम हैं और खांसते ज्यादा हैं तो क्या आपकी गाड़ी का रहस्य सिर्फ मेरे पेट में गुम कर देने भर से गुम हो जायेगा।’’ इस सवाल को बोलते हुए बच्चा बाबू ने गांवशब्द को चबाया और अपने चेहरे पर एक कठोरता रखी।
‘‘आप शायद भूल रहे हैं कि यह प्रधानमंत्री के स्वास्थ्य का सवाल है। यह व्यवस्था उनके लिए है। यह गाड़ी जब चलती है तब ऐसा लगता है जैसे यह सड़क पर चल नहीं रही है बल्कि पानी पर तैर रही है। आप विश्वास करें यह गाड़ी जब चलती है तब बगल में सोये हुआ कुत्ते की नींद पर भी कोई असर नहीं पड़ता है।’’
‘‘हम पूरी तैयारी में हैं।’’ उस अधिकारी ने एक साथ ही सारी शंकाओं का निदान कर दिया।
‘‘प्रधानमंत्री के साथ यहां मात्र दो व्यक्ति रहेंगे जो उनकी देख रेख करेंगे। सुरक्षा की जिम्मेदारी हमारी है हमारे आदमी यहां वहां हर जगह सामान्य लोगों की तरह रहेंगे।’’
वह अधिकारी लगातार बोल रहा था। बच्चा बाबू को एक खीझ सी हुई। परन्तु उन्होंने संतुलित होकर ही जवाब देना उचित समझा।
‘‘आप निश्चिंत रहें प्रधानमंत्री बिल्कुल तंदरुस्त हो जायेंगे। वे फिर से बैठ पायेंगे। और इस देश को सुचारू ढंग से चला पायेंगे।’’ बच्चा बाबू के चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव था।
‘‘आपका बहुत नाम है। बस आप यूं समझ लीजिए कि इस देश को आपसे बहुत उम्मीदें हैं।’’ वह अधिकारीनुमा आदमी यह कहकर चलने को हुआ और फिर लौट आया।
‘‘मैं यह फिर से कह दे रहा हूं कि हमारी ओर से कोई चूक नहीं होगी बस आपको यह हर हाल में ध्यान रखना है कि प्रधानमंत्री यहां हैं यह बात इस चहारदीवारी के बाहर नहीं निकलनी चाहिए।’’ उस अधिकारी ने फिर थोड़ा विराम दिया और फिर कहा-
‘‘प्रधानमंत्री की खबर को बाहर निकालना एक तरह का देशद्रोह है। और हम तो जानते हैं कि आप इस देश को कितना प्रेम करते हैं।’’ यह शायद एक चेतावनी थी।
बच्चा बाबू के चेहरे पर एक खिंचाव आ गया।
सच का कोई अपना अस्तित्व नहीं होता। सच सिर्फ वह होता है जो हमें दिखाया और सुनाया जाता है।
प्रधानमंत्री बीमार थे और पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ था। मीडिया के पास तो खैर खबर महज इतनी ही आती थी कि प्रधानमंत्री की हड्डी जुड़ नहीं पा रही है और विदेश से आये डॉक्टरों का जत्था इस केस के स्टडी में लगा हुआ है और एक दिन ऐसा आयेगा कि वे स्वस्थ हो जायेंगे। लेकिन हालात इतना सामान्य नहीं थे।
           हुआ कुछ यूं था कि डॉ. पिट की टीम ने अपनी स्टडी में बहुत बारीकी से इसे देखकर यह कह दिया था कि हड्डी है तो जुड़ ही जायेगी इसमें तो कोई समस्या है ही नहीं। समस्या सिर्फ इसमें है कि यह हड्डी इस कदर से टूट कर उलझ गई है कि उसको एकदम नियत जगह पर बैठाना बहुत मुश्किल है। हड्डी जुड़ जायेगी लेकिन प्रधानमंत्री उसके बाद भी ठीक उसी तरह बैठ पायेंगे इसमें संदेह है। यूं डॉ. पिट ने इसकी संभावना जताई थी कि हो सकता है कि सब ठीक हो जाये और प्रधानमंत्री पूरी तरह स्वस्थ हो जायें। उन्होंने इसकी इजाज़त मांगी थी कि उन्हें यह ऑपरेशन करने की इजाज़त दी जाए। लेकिन वे इस बात की जिम्मेदारी लेने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे कि वे प्रधानमंत्री को स्वस्थ कर ही देंगें। और जब उन्हें जिम्मेदारी लेने के लिए कहा गया था तब उन्होंने मुंह बनाकर एक ताना जैसा मार दिया था कि ‘‘आप भारतीय बचपन से ही आलसी होते हैं। शरीर को कभी कष्ट देना नहीं है और चाहते हैं कि हड्डी में घोड़ों वाली मजबूती रहे।’’
फिर अधिकारी की तरफ सीधा मुखातिब होकर कहा ‘‘ आपको कितने दिन हो गए पैदल सब्जी लाए हुए।’’ अधिकारी वाकई अपने मन में सोचने लगे। कुछ याद नहीं आया।
‘‘आपने आज दूध पीया है। हरी सब्जी खाई है। फल को हाथ लगाया।’’ यह सब डॉ. पिट अनवरत बोल रहे थे। ‘‘फिर यह उम्मीद क्यों कि हम आपकी हड्डियों को जादू की तरह नियत कर दें।’’
लेकिन यह सब जो हालात चल रहे थे यह अंदरूनी थे। इनमें से कोई भी बात ऐसी नहीं थी कि वह बाहर छन कर भी आ सके। 
एक सप्ताह गुजरने को था और प्रधानमंत्री की हड्डी जस की तस थी। परन्तु सवाल यह था कि ऐसा कब तक चल सकता है। अब और ज्यादा दिनों तक हड्डी को जस की तस छोड़ा जा नहीं सकता था और डॉ. पिट को एक्सपेरिमेण्ट करने की इजाज़त देने में बहुत बड़ा खतरा था। यह बहुत बड़ी दुविधा थी। इस दुविधा की जानकारी महज चन्द लोगों को थी। सिर्फ उनको जो प्रधानमंत्री के कक्ष तक जा सकते थे। प्रधानमंत्री वहां अपने बिस्तर पर लेटे रहते और कातर निगाहों से बस देखते रहते थे।
              लेकिन प्रधानमंत्री निवास का वह माली घोलट सिंह प्रधानमंत्री के लिए एक अदद अवसर लेकर आया था। घोलट सिंह वास्तव में उसी गांव का रहने वाला था जहां बच्चा बाबू अपने जादू से हड्डियों के साथ खेला करते थे। घोलट सिंह को पूरा विश्वास था कि ऐसी कोई हड्डी शरीर में बनी नहीं जो अपने आप को बच्चा बाबू के कौशल के सामने नतमस्क न कर दे। वह अपने प्रधानमंत्री से बहुत प्यार करता था। इसलिए वह चाहता था कि वे जल्द से जल्द स्वस्थ हो जाएं।
             जिस दिन प्रधानमंत्री के साथ ऐसा हुआ घोलट सिंह उस दिन से इस फिराक में था कि उन्हें एक बार बच्चा बाबू को दिखा दिया जाए। उसने अपनी औकात के मुताबिक इस बात को रखा भी परन्तु प्रधानमंत्री का इलाज एक देशी झोला छाप डॉक्टर करेगा इस सोच से भी घबराहट होती थी। घोलट ने बहुत समझाना चाहा था कि आप लोग नहीं जानते हैं उन्हें, वे एक मसीहा की तरह हैं। अपने गांव की कहानियां भी उसने उदाहरण के तौर पर प्रधानमंत्री के घर वालों और इनको-उनको सुनानी चाहीं। कई कहानियां कि कैसे उस गांव में ताड़ के पेड़ पर ताड़ी निकालने चढ़े बुधन की रस्सी ऊपर ही टूट गई थी और कैसे वह वहीं से गिर कर एकदम बेहोश हो गया था। ऊपर से गिरा बुधन तो सीधे टांग के बल। यानि टांग खड़ी की खड़ी और फिर क्या था उसकी दाहिने टांग की हड्डी निकल कर बाहर आ गई थी। घोलट कहता ‘‘आपको विश्वास नहीं होगा साहब जहां बुधना गिरा था उससे दस कदम दूरी पर उसकी टांग की हड्डी पड़ी थी, एकदम से तड़पती हुई। साहब कोई बड़ा डागडर भी ठीक नहीं कर सकता था। कोई सोच भी नहीं सकता था कि बुधना अब कभी उठ पायेगा। लेकिन साहब वे तो मसीहा हैं उन्होंने बुधना को ऐसा कर दिया कि आप उसके पीछे कुत्ते दौड़ा लो।’’
            सही बात तो यह है ही कि घोलट चाहे लाख बकवास कर ले लेकिन उसकी कोई सुन नहीं रहा था। लेकिन इधर कुआं उधर खाई वाली हालत जब आई यानि जब डॉ. पिट ने यह कह दिया कि प्रधानमंत्री बैठने के लायक हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं तब प्रधानमंत्री के करीब के लोगों ने एक बार घोलट की बातों पर भी ध्यान दिया। फिर घोलट को अस्पताल के प्रधानमंत्री कक्ष में बुलाया गया और यह इतना बड़ा निर्णय लिया गया।
               प्रधानमंत्री को एक बार बच्चा बाबू को दिखा दिया जाए इस निर्णय तक पंहुचने के बाद एक राय यह भी आई और आई क्या बहुत ही ठोस रूप में आई कि बच्चा बाबू को यहीं क्यों नहीं बुला लिया जाए। लेकिन घोलट इसके सख्त खिलाफ था।
‘‘साहब वे तो तपस्वी आदमी है उन्हें वहां से उखाड़िये मत। यहां की चमक-दमक में वे अपने दिमाग को कहां स्थिर कर पायेंगे! उनके इलाज की मायने तो तभी हैं जब उनकी कर्मस्थली पर जाया जाए।’’
‘‘उ ठहरे एकदम ठेठ आदमी। कुर्ता धोती पहन के कंधे पर गमछा रखने वाले। अपनी खेती करते हैं, गाय पालते हैं और पान खाकर अपने गांव में शान से घूमने वाले बच्चा बाबू। कब निकले ही अपने गांव से बाहर। दो गो बेटी थी उसको भी 20-25 कोस के भीतरे ब्याह दिया उन्होंने। न कभी तरीके से शहर देखा और न ही देखा रोशनी का यूं बौछार। उ त यहां इ सब देखके बौराइये जायेंगे।’’ घोलट अपनी तरफ से यह साफ करने की कोशिश कर रहा था कि बच्चा बाबू को यहां लाना असंभव जैसा है। 
लेकिन घोलट यह भी जानता था कि प्रधानमंत्री को एक गांव में ले जाकर गांव के एक डॉक्टर से इलाज करवाना साधारण काम नहीं है। इसलिए उसने बगैर रुके अपनी बात को फिर से शुरू कर दिया।
‘‘साहेब हम भी समझते हैं कि यहां से देश के प्रधानमंत्री को एक गांव में एक साधारण डॉक्टर के पास ले जाना बहुत कठिन है। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि प्रधानमंत्री की तबीयत के सामने कौनो कठिनाई क्या वाकई कोई कठिनाई है। उ तपस्वी को यहां लाकर एतना बड़ा रिस्क लेना भी कोई अच्छी बात थोड़े न है। सबसे अहम है साहब का ठीक होना।’’ घोलट सिंह ने यहां अंतिम बार वाला साहबप्रधानमंत्री के लिए बोला था।    
‘‘और साहब इ तो हम भी जानते हैं कि चाह लें तो प्रधानमंत्री के लिए की कुछ नहीं हो सकता है।’’ घोलट सिंह ने इस पंक्ति को थोड़ा धीरे बोला था।
घोलट सिंह की इस बात में वजन था कि प्रधानमंत्री के स्वास्थ्य को लेकर कोई रिस्क नहीं लिया जा सकता है। और अगर रिस्क लेने की नौबत आ ही जाती तो फिर डॉ0 फ्रेंकफिन पिट के रिस्क में क्या बुराई थी।
……..प्रधानमंत्री पूरी तरह ठीक हो जायें इसलिए यह इतना जोखिम भरा कदम भी उठाया गया। 
           परन्तु निर्णय लेने वाले लोग भी इससे घबराये हुए तो अवश्य थे कि प्रधानमंत्री को गुपचुप तरीके से वहां ले जाना और इलाज करवाना आसान नहीं है लेकिन यह खतरा लेने का हिमायती कोई नहीं था कि बच्चा बाबू को उनकी कर्मस्थली से उखाड़कर उनके इलाज के परफेक्शन को कम किया जाए।
                यह सवाल एक बड़ा सवाल तो था ही कि आखिर प्रधानमंत्री का इलाज एक झोला छाप डॉक्टर कैसे कर सकता है। सारे प्रॉटोकॉल को कैसे तोड़ा जा सकता है। दिक्कतें कई थीं। पहली तो यह कि अगर यह खबर बाहर कर दी जाए तो तमाम तरह के सवाल उठने शुरू हो जाएंगे। प्रधानमंत्री की सुरक्षा को लेकर भी चिंता थी। और सबसे बड़ी चिंता उन बड़े अस्पताल के पूंजीपति मालिकों के दबाव की भी थी कि अगर प्रधानमंत्री एक झोला छाप डॉक्टर से इलाज कराने चले जाते हैं और स्वस्थ हो जाते हैं तब इन बड़ी-बड़ी कम्पनियों का क्या होगा। अरबों रुपये के इस कारोबार का क्या होगा? कितनी साख बची रह पायेगी इनकी?
          निर्णय यह लिया गया कि प्रधानमंत्री को इलाज के लिए बच्चा बाबू के पास ले तो जाया जाये लेकिन इसे रहस्य की तरह रखा जाए। बस चंद लोगों को इस रहस्य में शामिल किया जाए।
अस्पताल के चंद ऊपरी मुलाजिमों को अपने पक्ष में लिया गया और सब कुछ नियत कर लिया गया।
        सब कुछ वैसा ही रहा बस अंदर से प्रधानमंत्री को हटा लिया गया। अस्पताल में वैसी ही भीड़ रही। बाहर वैसी ही मीडिया रही। अस्पताल की ओर से जारी की जाने वाली प्रेस बुलेटिन भी वैसी ही रही। बस लोगों को मिलने से सख्त मना किया गया। बाहर यह खबर दी जाती कि प्रधानमंत्री अब स्वस्थ हो रहे हैं।
               यह खबर देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर थी कि डॉ फें्रकफिन पिट नामक कोई जादूगर अमेरिका से  आया है जिसने इस देश की लाज रख ली है।
    इस पूरी प्रक्रिया में यह खास ध्यान रखा गया था कि बच्चा बाबू के इलाज से लेकर पूरी प्रक्रिया में जिस तरह की बातें वहां होती थीं उसी तरह से यहां अस्पताल की प्रेस बुलेटिन में बाहर किया जाता था। मतलब यूं समझ लीजिए कि प्रधानमंत्री का शरीर बच्चा बाबू के सामने रखा था जबकि प्रधानमंत्री की पदवी और कुर्सी यहीं रखी हुई थी। इस बड़े से अस्पताल में, जिसके मुख्य दरवाजे पर शीशे के फाटक थे और जिस पर इस अस्पताल का नाम और उसकी पहचान खुदी हुई थी। और जो दरवाजे खुलने के साथ खुद ही खुल जाते थे। जहां एक तिरछी छत थी और जहां से पानी नीचे की ओर आराम से लेटता हुआ गिरता था।
प्रधानमंत्री के वश में सब कुछ है वे चाहें तो उड़ती हुई तितली को भी पकड़ सकते हैं
         बच्चा बाबू के लिए यह केस कोई अनजाना केस नहीं था क्योंकि वे पिछले कई दिनों से इस केस पर विचार कर रहे थे। और सच पूछा जाए तो उनकी दिली ख्वाहिश भी यह थी कि वे अपने हाथ की करामात से इस हड्डी को सही जगह दे सकें।
‘‘आप सब निश्चिंत रहें, प्रधानमंत्री एकदम सही सलामत हो जायेंगे। एकदम हॉकी खिलाड़ी की तरह।’’ बच्चा बाबू ने अतिउत्साह में यहां तक कह दिया। यह उनका अपने हाथ पर अतिविश्वास जैसा था।
प्रधानमंत्री के करीबी ने सोचा था कि प्रधानमंत्री को तो हॉकी खेलना आता ही नहीं।
बच्चा बाबू के दरवाजे पर हाथ से लिखा हुआ एक नोटिस चिपका दिया गया कि ‘‘अगली सूचना तक बच्चा बाबू उपस्थित नहीं हैं। वे बाहर हैं और उन्हें ढूंढने की कोशिश न की जाए। इसे अभी अनिश्चित ही समझा जाए।’’ उन्हें ढूंढने की कोशिश न की जाए ऐसे जैसे वे कोई मुजरिम हों।
                 बच्चा बाबू ने जब प्रधानमंत्री की पूरी तरह जिम्मेदारी ले ली तब उन्हंे अंदर लाया गया। फिर सारी गाड़ियां हटा लीं र्गइं। प्रधानमंत्री के साथ इस घर पर सिर्फ दो लोग रुके। एक उनकी पत्नी और एक उनका सेवक।
                बच्चा बाबू प्रधानमंत्री के इलाज की स्वीकृति देने के बाद अपनी पत्नी कल्याणी को सारा माजरा समझाने गए। कल्याणी को पहले यह लगा कि बाहर बच्चा बाबू के शरीर पर एक-दो तारे टूट कर गिर गए हैं इसलिए वे बाहर से अंदर की ओर भाग आए हैं। लेकिन बच्चा बाबू बहुत ही मुश्किल से उन्हें सारी बातें समझाने में सफल हो पाये।
               उस घुप्प अंधेरे वाली रात से ही इलाज शुरू कर दिया गया। प्रधानमंत्री को जब अंदर लाया गया तो उस घुप्प अंधेरे को चीर कर रोशनी की गई। अंदर वाले कमरे में प्रधानमंत्री को लिटाया गया। प्रधानमंत्री तब भी नींद में थे।
           प्रधानमंत्री अंदर लेटे थे और बच्चा बाबू बाहर आकर खाट के पास खडे़ हो गए। उन्होंने खाट के ठीक सीध में देखा उन्हें तारे बहुत गड्डमड लगे। वे उन तारों को गिन नहीं पाये। उन्होंने खाट के पास देखा, लोटा वहीं नीचे रखा था। उन्हें याद आया उन्होंने सोने से पहले इसी लोटे से पानी पिया था। फिर उन्हें सब कुछ याद आया। किस तरह उन्होंने पानी पीया था और यह भी कि किस कदर आज वे दिन भर तर-बतर रहे थे। उन्हें दिन के बारे में सोच कर फिर तकलीफ होने लगी। उन्होंने आंगन में लगे नारियल के दो पेड़ों की तरफ देखा। उन्होंने याद किया जब उनके जमीन के दो टुकड़े उड़ रहे थे तब इस नारियल के पेड़ की फुनगी तक वे पहुंच गए थे।
     बच्चा बाबू एकदम शांत थे। लेकिन प्रधानमंत्री के साथ का वह आदमी उस कमरे से बाहर निकलकर आया। उसने बच्चा बाबू को देखा लेकिन कुछ कहा नहीं। बच्चा बाबू की तंद्रा टूट गई। वे अंदर चले गए। अंदर प्रधानमंत्री की पत्नी थीं। बच्चा बाबू ने इशारे में उन्हें बाहर जाने को कहा। फिर कमरे में वे कुर्सी खींचकर वहां बैठ गए जहां प्रधानमंत्री लेटे थे। कुछ देर शांत बैठे रहे और फिर झटके से उठकर वे प्रधानमंत्री की उस हड्डी विशेष का निरीक्षण-परीक्षण करने लगे। उन्होंने उस छिटकी हुई हड्डी को बहुत ध्यान से देखा और फिर बैठ गए। काफी देर तक वे बैठे रहे। एकदम शांत। बिना हिले-डुले। फिर एकदम से उठकर उन्होंने प्रधानमंत्री की हड्डी को सही जगह दे दी। बच्चा बाबू ने प्रधानमंत्री की हड्डी को सही जगह दे दी और अपने मुंह से बुदबुदाया ‘‘इस बीमार देश के प्रधानमंत्री को तो कम से कम स्वस्थ होना ही पड़ेगा।’’
            बच्चा बाबू के सधे हाथों से हड्डी ने सही जगह पायी थी परन्तु एक बार तो तकलीफ बनती है। प्रधानमंत्री नींद में भी एक चीत्कार कर बैठे। फिर सब शांत। फिर बच्चा बाबू ने पट्टे से कमर को लपेट दिया। या यूं कहें पट्टे से उस हड्डी को सहेज दिया।
         जब कमरे से बाहर निकले बच्चा बाबू तो उजाला चढ आया था। वे काम में इतना मशगूल रहे थे कि पता नहीं चला था। उन्हें कमरे से निकलते हुए ऐसी उम्मीद नहीं थी कि सुबह इतनी चढ गयी होगी। लेकिन उजाला पसर चुका था और बैंगन के पौधे में लटका हुआ बैंगन का फल साफ-साफ दिख रहा था।
जब उस दक्षिण भारतीय अधिकारी ने बच्चा बाबू को यह समझाया था कि प्रधानमंत्री का स्वस्थ होना कितना जरूरी है तब बच्चा बाबू के दिमाग में कुछ नहीं था। परन्तु जब कमरे के भीतर बच्चा बाबू उस हड्डी की सही जगह तलाशने की कोशिश कर रहे थे तब उनके मन में एक लोभ जरूर समा गया था।
बच्चा बाबू ने सोचा जब प्रधानमंत्री खुद ही यहां पधारे हैं तब उस अपने जमीन के टुकड़े को अपना होने में कितना वक्त लगेगा। बच्चा बाबू को फूल सिंह का दयनीय चेहरा सामने दिखने लगा। और उन्हें अपनी किस्मत से रंज होने लगा। उन्होंने मन में अपनी पत्नी कल्याणी से संवाद किया ‘‘तुम जिस कला के लिए मुझे कोसती रही वही कला ने तुम्हारे दोनों बच्चों को वापस कराने जा रही है।’’
              प्रधानमंत्री की हड्डी को सही जगह मिल जाने से उनका दर्द अचानक से पूरी तरह गायब हो गया था। लेकिन बिस्तर पर पड़े रहने की उनकी मजबूरी कम से कम दो महीने की थी ताकि प्रधानमंत्री की हड्डी को जो जगह दी गई थी वह अपनी उस जगह पर फिर से अपना स्थान नियत कर ले। बच्चा बाबू ने यहां प्रधानमंत्री को एक सप्ताह रहने की मजबूरी बतलाई ताकि वे अपनी देख-रेख में हड्डी को अपनी जगह पर एक बार बैठ जाने दें।
वैसे तो यह दोहराव होगा लेकिन यहां एक बार फिर से यह बता देना जरूरी होगा कि प्रधानमंत्री यहां एक छोटे से गांव के एक छोटे से घर में अपना इलाज करवा रहे थे और वहां अस्पताल के बाहर मीडिया के कैमरे मुंह बाये खड़े थे। विस्तार से यह भी यहां बताने की जरूरत नहीं है कि यहां जब बच्चा बाबू ने प्रधानमंत्री की हड्डी को सही जगह दे दी थी और अचानक से प्रधानमंत्री का पूरा दर्द जाता रहा था तब अस्पताल के बाहर अस्पताल के द्वारा जारी किए गए बुलेटिन में यह घोषित कर दिया गया था कि प्रधानमंत्री के रोग पर काबू पा लिया गया है। और प्रधानमंत्री अभी स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। फिर एक-दो दिन बाद यह भी कि प्रधानमंत्री को डॉक्टर ने यहां कुछ दिन आराम करने की सलाह दी है।
              मीडिया में खबरें आती थीं और यहां बच्चा बाबू अखबारों में उन खबरों को पढ़ते थे। टेलीविजन पर दिखता था अस्पताल का पूरा दृश्य और मीडिया के सामने बुलेटिन जारी करता डॉक्टर। बच्चा बाबू टेलीविजन की ओर देखते थे और मंद मंद मुस्कराते थे।
          एक आम आदमी के यहां प्रधानमंत्री रह रहे हैं, सच में तो यह अपने आप में ही एक कहानी का विषय है। कि आखिर प्रधानमंत्री खाते क्या होंगे। बिना रोशनी के रहते कैसे होंगे। नहाते कैसे होंगे और न जाने क्या क्या कैसे करते होंगे। इसमें कोई शक नहीं है कि अगर इस पर ही कैमरे को जूम कर दिया जाए तो पूरी एक कहानी है। लेकिन मेरे लिए इस कहानी में इन बातों के लिए कोई जरूरत नहीं है।
                            हम सिर्फ इतना मानें कि चाहे जितना भी आश्चर्यजनक और अचंभा करने वाला हो लेकिन प्रधानमंत्री और उनके साथ और दो लोग वहीं बच्चा बाबू के यहां पूरे सात दिन तक रुके रहे। और बच्चा बाबू दम्पत्ति ने न तो इस खबर की बाहर हवा तक लगने दी बल्कि दोनों ने प्रधानमंत्री को इन सात दिनों में अपनी हैसियत के मुताबिक पलकों पर बैठा कर भी रखा।
       प्रधानमंत्री के लिए बैठना संभव नहीं था तो उनको लेटे-लेटे खाना खिलाया जाता। उनके लिए अभी ज्यादा तरल चीजें बनतीं। बच्चा बाबू की पत्नी कल्याणी के हाथों के हलवे के तो वे दीवाने हो गए थे। शाम को बच्चा बाबू के निर्देश पर उनके बिस्तर को आंगन में ला दिया जाता और फिर वहीं से प्रधानमंत्री खुले आसमान को निहारते। खुला आसमान उन्हें अच्छा लगता। उन्हें तकिये के सहारे उठाया जाता और वे फिर सेम की लत्ती में लटके हुए सेम के फल को देखते। अमरूद के पेड़ पर फले अमरूद के पकने को वे देखना चाहते। और फिर उनके लिए वहीं चाय आती। अंधेरा घिरने पर बच्चा बाबू उन्हें तारों का झुंड दिखलाते। वही तारे जो दिल्ली में भी उगते थे लेकिन प्रधानमंत्री उन्हें देख नहीं पाते थे।
                   परन्तु इस पूरी प्रक्रिया में बच्चा बाबू के मन में जो बात थी वह उनसे कही नहीं जा रही थी। जबकि प्रधानमंत्री से ऐसे उनकी ढेरों बातें हुईं। प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा कि आखिर उन्हें यह हुनर मिला कैसे। यह ईश्वर का चमत्कार ही तो है। प्रधानमंत्री बच्चा बाबू का बहुत सम्मान कर रहे थे।
उन्होंने कहा ‘‘आप हमारे देश के लिए एक एसेट की तरह हैं। जो काम विदेश से आये डॉक्टरों की फौज नहीं कर पाई वह आपने चुटकी बजा कर कर दिया। हमारा पूरा देश आप पर गर्व कर सकता है।’’
यह सुनकर बच्चा बाबू झेंप जाते। लेकिन कोशिश करते कि जब भी ऐसी बात हो तो कल्याणी उनके पास हों।
एक दिन शाम के समय यूं ही प्रधानमंत्री अपने बिस्तर पर लेटे आकाश में जा रहे चिड़ियों के झुंड को देख रहे थे और सभी लोग आसपास ही बैठे थे।
‘‘डॉक्टर साहब, आपका घर आपके इस कौशल से चल जाता है?’’ प्रधानमंत्री ने बच्चा बाबू की तरफ चेहरा करके पूछा।
लेकिन जवाब कल्याणी ने दिया ‘‘घर क्या चलेगा, हम तो बस जिन्दगी खींच रहे हैं।’’
‘‘सुना तो है कि मंहगाई बहुत बढ गई है।’’ यह प्रधानमंत्री कह रहे थे। बच्चा बाबू बस शून्य में ताक रहे थे।
‘‘अखबार मंे पढ़ा था कि सरसों तेल मंहगा हो गया है। गेहूं किस भाव में यहां मिलता है?’’ प्रधानमंत्री के चेहरे पर सही में प्रश्न के ही चिह्न थे।
अभी भी बच्चा बाबू का मुंह बंद ही था। फिर जवाब कल्याणी ने ही दिया ‘‘मंहगाई! मंहगाई के बारे में तो पूछिये ही मत। हम कैसे जिन्दा हैं हमीं जानते हैं।’’
‘‘आप तो खुद ही सरकार हैं आप चाहें तो सब अच्छा हो सकता है।’’ यह दो टूक जवाब कल्याणी का ही था।
‘‘एक दिन सब अच्छा हो जायेगा।’’ एक लम्बी आह के साथ प्रधानमंत्री ने कहा। और फिर कहीं खो गए। 
बच्चा बाबू सिर्फ चुप नहीं थे बल्कि सोच रहे थे। अपने मन में सोच रहे थे कि यही वक्त है कि  वह अपनी जमीन की बात उनसे कह दें। परन्तु जैसे उनका तालू चिपक गया था। उनकी घिग्घी बंध गई थी। उनके गले से आवाज निकल नहीं पा रही थी। उनके मन में चल रहा था कि क्या यह प्रधानमंत्री के हाथ का खेल है? कहीं प्रधानमंत्री ऐसा तो नहीं सोचेंगे कि मैं अपने कौशल के बदले में उनसे उनकी मदद मांग रहा हूं। प्रधानमंत्री के सामने इतनी छोटी बात रखना कोई अच्छी बात है।
लेकिन उन्होंने एक बार फिर से हिम्मत की कि यही अवसर है। लेकिन तब तक में प्रधानमंत्री ने अंदर कमरे में जाने की इच्छा जाहिर कर दी।
                दिन निकलते जा रहे थे और बच्चा बाबू की बेचैनी बढती जा रही थी। फिर बच्चा बाबू ने एक उपाय निकाला। उन्होंने सोचा प्रधानमंत्री के सेवक से पहले पूछ लिया जाए कि यह प्रधानमंत्री से कहने लायक बात है भी या नहीं।
प्रधानमंत्री के सेवक का नाम था अनाम सिंह। बच्चा बाबू ने अगले दिन अनाम सिंह को पकड़ कर पूरा वाकया सुनाया। बच्चा बाबू को अपने पूरे वाकया को सुनाने में सामान्य से कुछ ज्यादा ही समय लगा। अनाम सिंह ने देखा कि अपने पहले के सारे शब्दों को चबा लेता है डॉक्टर। बच्चा बाबू ने अंत में मददशब्द को चबाकर कहा ‘‘मदद कर दो कुछ आप।’’
अनाम सिंह ने कहा ‘‘हमारे प्रधानमंत्री बहुत भोले हैं आप बिल्कुल भी चिंता नहीं करें। और वे तो आपका बहुत सम्मान करते हैं। आपकी समस्या का निदान जरूर वे निकालेंगे।’’
‘‘और प्रधानमंत्री के लिए क्या है। प्रधानमंत्री चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं। वे चाहें तो उड़ती हुई तितली को पकड़ सकते हैं। वे चाहें तो अंधेरे में प्रकाश फैला सकते हैं।’’ एक छोटे से अंतराल के बाद अनाम सिंह ने कहा।
बच्चा बाबू को हिम्मत आ गई। वे अंदर कमरे में गए। प्रधानमंत्री लेटे थे और सामने टेलीविजन चल रहा था। टेलीविजन पर दिखाया जा रहा था कि प्रधानमंत्री बहुत तेजी से स्वस्थ हो रहे हैं। और साथ मंे यह भी कि प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में तत्काल कौन सारे राज-काज देख रहे हैं। किन लोगों की टीम है और किन लोगों के कन्धों पर क्या बोझ है इस वक्त।
बच्चा बाबू प्रधानमंत्री की नजर के ठीक सामने एक स्टूल पर बैठ गए। प्रधानमंत्री टी.वी. छोड़ कर उन्हें देखने लगे।
‘‘हुजूर’’ शब्द को चबा कर निगल लिया बच्चा बाबू ने। प्रधानमंत्री को कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन उन्हें आश्चर्य इसलिए नहीं हुआ क्यों कि वे इतने दिनों में वाकिफ हो गए थे उनकी इस आदत से।
‘‘हुजूर! जमीन के दो टुकड़े थे। बुढ़ापे का एक मात्र सहारा। वे भी छीन लिए इन दुष्टों ने।’’ न जाने क्यांे आज अचानक ही बच्चा बाबू के मुंह से प्रधानमंत्री के लिए हुजूर निकल गया। बच्चा बाबू इतना कहने के बाद कमरे की छत की ओर अपनी निगाह डाली। उस बंद कमरे की छत पर कुछ तारे टिमटिमा रहे थे।
‘‘जिस दिन हाथ थम गए हम बूढ़ा-बूढी खायेंगे क्या? आप ही कुछ मेहरबानी कर दो हुजूर।’’ फिर से उन्होंने जिसशब्द को चबाकर घोंट लिया।
‘‘मुझे हुजूर नहीं कहें प्लीज। आपका मुझ पर बहुत अहसान है। आप तो हमारे देश के एसेट हैं। मेरे मन में कला के प्रति बहुत सम्मान है।’’ प्रधानमंत्री ने कहा।
बच्चा बाबू जो अभी तक प्रधानमंत्री की तरफ देख रहे थे अचानक जमीन की तरफ देखने लगे।
‘‘मेरा तो मानना है कि जिस देश की कला मरने लगे उस देश को मरने में कितना वक्त लगेगा। कला का सम्मान होना ही चाहिए राष्ट्र में।’’
एक विराम के बाद ‘‘आप जानते हैं कि मेरे लिए आपके जमीन के दो टुकड़ों को वापस लाना बहुत सरल है। मैं नहीं कहूं तो भी सच तो यही है कि प्रधानमंत्री चाहे तो क्या कुछ नहीं कर सकता। प्रधानमंत्री चाहे तो उड़ती हुई तितली को पकड़ सकता है। परन्तु आप यह भी जानते हैं कि मैं यहां हूं लेकिन वास्तव में यहां हूं नहीं। मैं यहां रहकर आपकी कोई मदद नहीं कर सकता हूं। कोई भी हरकत सारे भेद को खोल सकती है।’’ बच्चा बाबू ने सोचा प्रधानमंत्री का यही डॉयलाग उनका सेवक अभी अभी बाहर सुना रहा था।
‘‘परन्तु आप निश्चिंत रहें आपके जमीन के दोनों टुकड़े बहुत जल्द आपके दरवाजे पर होंगे। मैं बस दिल्ली पहंुच तो जाऊं।’’ प्रधानमंत्री ने फिर से इस वाक्य को थोड़ा विराम देकर कहा। ऐसे जैसे इतना लम्बा बोलते-बोलते वे थक गए हों।
बच्चा बाबू के चेहरे पर मुस्कराहट तारी हो गई और वे कमरे से बाहर हो गए।
दिल्ली में एक कुर्सी रखी है जिस पर सांप ने एक मणि छोड़ दिया है।
कुल सात दिन रहने के बाद प्रधानमंत्री बच्चा बाबू के घर से विदा हुए। जिस तरह चुपके से वे बच्चा बाबू के घर आये थे उसी चुप्पी के साथ वे फिर दिल्ली पहुंच गए। लेकिन वे दिल्ली पहुंचे तो प्रधानमंत्री निवास नहीं पहंचे बल्कि उन्हें सीधे उस बड़े से अस्पताल के भीतर चुपके से प्रवेश करा दिया गया। वहां प्रधानमंत्री स्वास्थ लाभ के लिए लगभग बीस दिन रहे।
         धीरे-धीरे अस्पताल द्वारा जारी की जाने वाली बुलेटिन की संख्या कम होती चली गई। अस्पताल ने यह घोषित कर दिया था कि वे स्वस्थ हो चुके हैं और यहां अब स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। प्रधानमंत्री के उस अस्पताल में प्रवेश करते ही अमेरिका से आये डॉ. पिट की पूरी टीम को छुट्टी दे दी गई थी। जिस दिन डॉ. पिट भारत से अपने वतन के लिए निकले उस दिन न्यूज चैनल पर उनकी तस्वीरें अटीं पड़ी थीं। अगले दिन के अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर डॉ. पिट के एयरपोर्ट की तस्वीर थी जिसमें वे भारतीयों को हाथ हिला कर विदा कह रहे थे। और उनके हिलते हाथ के इस तरफ अखबार पढते भारतीय भावुक हुए जा रहे थे। अखबार में फिर कई दिनों तक छाया रहा था यह कि डॉ. पिट को भारत का क्या क्या पसंद आया और जिस दिन डॉ. पिट चांदनी चौक घूमने गए तो उस दिन उन्होंने पराठे वाली गली में कितने परांठे खाये। वे कैसे दिल्ली के गोलगप्पे के प्रशंसक हो गए। और यह भी कि डॉ. पिट ने साउथ एक्सटेंशन की रासनामक दुकान से अपनी पत्नी के लिए कुछ साड़ियां खरीदीं। उन्होंने अपनी भाषा में कहा कि लाज और शर्म तो औरतों का गहना है और यह पूरे विश्व को भारत से सीखना चाहिए।
                  प्रधानमंत्री का अस्पताल से निकलना अब औपचारिकता भर था। बीस दिन के बाद प्रधानमंत्री अस्पताल से अपने निवास स्थान पर चले गए। अपने निवास स्थान पर भी उन्होंने लगभग पंद्रह दिन आराम किया। हम सबके लिए यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है कि इन बीस दिनों में देश के विभिन्न चैनल वालों ने और अखबारों ने उस अस्पताल की जन्मकुण्डली छाप दी। कई बाइट लगाई गईं। पूरा का पूरा आंकड़ा छाप दिया गया कि अब इस तरह के अस्पताल खुल जाने से और स्वास्थ सेवाओं में वृद्धि होने से स्वास्थ्य में कितना सुधार हुआ है और यह भी कि किस तरह मृत्यु दर में अचानक गिरावट आई।
            बच्चा बाबू अपने गांव में बैठ करके न्यूज चैनलों पर देख रहे थे और अखबारों में रोज-रोज यह रोचक खबरें पढ़ रहे थे। परन्तु उन्हें बुरा नहीं लग रहा था। बच्चा बाबू सोचते थे कि देश की रक्षा के लिए यह नितांत जरूरी है। उन्हें लगता कि चलो मैं इस देश के कुछ काम तो आ पाया। किन्तु उन्हें सबसे ज्यादा संतुष्टि थी कि प्रधानमंत्री स्वस्थ हो रहे थे। वे अखबार को पत्नी के सामने करते और प्रधानमंत्री के स्वस्थ होने की खुशखबरी उन्हें दिखाते। परन्तु कल्याणी का चेहरा खिंच जाता और वे चुपचाप उठकर चलीं जातीं। बच्चा बाबू की चाहत बस एक थी कि प्रधानमंत्री जल्द से जल्द स्वस्थ होकर अपने काम पर लौटें और उनसे किया गया वायदा निभायें। बच्चा बाबू के कान में हर वक्त बजते हैं यह वाक्य ‘‘परन्तु आप निश्चिंत रहें आपके जमीन के दोनों टुकड़े बहुत जल्द आपके दरवाजे पर होंगे। मैं बस दिल्ली पहंुच तो जाऊं।’’ बच्चा बाबू हर सुबह उठकर हुलस कर दरवाजा खोलते कि उनके जमीन के दोनों टुकड़े दरवाजे पर आ तो नहीं गये। फिर मन को समझाते कि मैं भी कितना स्वार्थी हूं। पहले प्रधानमंत्री स्वस्थ होकर अपने काम पर लौट तो जाएं।
           बच्चा बाबू को बुरा तब भी नहीं लगा जब प्रधानमंत्री अपने घर पर पंद्रह दिन आराम करने के बाद स्वस्थ होकर पहली बार मीडिया के सामने मुखातिब हुए। प्रधानमंत्री ने मीडिया के सामने अपने मुंह से अपने स्वास्थ्य का अपडेट दिया कि वे अब पूरी तरह स्वस्थ हैं। वे अब बैठ पा रहे हैं और बैठने के बाद फिर खड़ा भी हो पा रहे हैं। लेकिन अभी और आराम की जरूरत है और धीरे धीरे ही वे रफ्तार को पकड़ पायेंगे। उन्होंने खुल कर उस बड़े से अस्पताल और अमेरिकी डॉक्टर की तारीफ की। उन्होंने कहा ‘‘लेकिन मेरा खड़ा होना यह सब बिना अमेरिकी सहयोग के संभव नहीं हो पाता। मैं डॉ. पिट का शुक्रगुजार हूं।’’ फिर थोड़ा सा मीडिया से नजरें चुराते हुए ‘‘अभी हमारे यहां चिकित्सा सेवा मंे और सुधार की गुंजाइश है। हम कोशिश करेंगे कि अमेरिका जैसे विकसित देशों से एक समझौता करें और चिकित्सा सेवा के लिए हम मिलकर काम कर सकें। हम एक मसौदा तैयार करेंगे। हमारे यहां बडे़-बडे़ अस्पतालों की अभी और दरकार है। हम आगे यह कोशिश करेंगे कि छोटे-छोटे शहरों में भी हम अस्पताल की हालत को सुधार सकें। हम विकसित देशों का सहारा लेकर अपने देश को तेज रफ्तार देंगे।’’
थोड़ी सी अतल गहराई में खोकर ‘‘मैं यह तो नहीं कहता कि हमारे यहां प्रतिभा या कला की कमी है परन्तु उसे उभारने की जरूरत है। हमें उन्हें अतिआधुनिक विचार और यांत्रिक विकास से जोड़कर उसे उन्नत करना होगा। वे हमसे समृद्ध हैं और हमें उनसे उनके विचार लेने में कोई बुराई नहीं। मैं प्रतिभा और कला का बहुत सम्मान करता हूं. परन्तु कला को एक जगह रोककर जड़ नहीं किया जा सकता है। हमें आधुनिक से आधुनिकतम तकनीकों से जुड़ना पड़ेगा।’’
और अंत में ‘‘मैं आप सभी का शुक्रगुजार हूं जिन्होंने मेरे स्वास्थ्य के लिए इतनी चिंता दिखाई।’’
अंत तक आते आते बच्चा बाबू का मन थोड़ा खट्टा होने लगा था लेकिन उन्होंने मन को समझाया। इतने बड़े देश को चलाने के लिए बहुत से समझौते करने ही पड़ते हैं।
जब किसी की प्रतीक्षा करते हैं तब वक्त बहुत धीमे कटता है।
              धीरे धीरे समय बीतता चला गया। प्रधानमंत्री स्वस्थ भी हो गए और यह देश सुचारू ढंग से चलने भी लगा। (जितना चल सकता था।) बच्चा बाबू इंतजार करते करते थक गए। प्रधानमंत्री ने उनसे किया वायदा पूरा नहीं किया। बच्चा बाबू ने दरवाजे पर जाकर अपनी जमीन को ढूंढने की कोशिश बन्द कर दी। उन्हंे विश्वास हो गया था कि उनके साथ इस लोकतंत्र में एक और राजनीतिक धोखा हुआ है। अब उनका केस भी लगभग खात्मे पर आ गया था। फूल सिंह का जीतना तय था। बस कुछ औपचारिकताएं बचीं रह गयी थीं। सारे लोग बुरे थे और सारे बुरे लोग फूल सिंह के पक्ष में थे। बच्चा बाबू ने अपनी जमीन की ओर जाना छोड़ दिया था उनको यह लगने लगा था कि अब यह जमीन उनकी नहीं रह पायेगी।
               बच्चा बाबू का मन अब बहुत उचाट सा रहने लगा था। वे अक्सर अपने बरामदे पर और शाम में आंगन मंे शून्य की ओर एकटक ताकते मिल जाते। गांव के सारे लोग जान गए थे बच्चा बाबू के दुख के कारण को परन्तु किसी के पास इतनी ताकत नहीं थी कि कोई फूल सिंह के सामने आवाज उठायंे। जो मरीज यहां से ठीक होकर जाते वे बच्चा बाबू के लिए अपने मन में ढेर सारी शुभकामनाएं देकर जाते कि ईश्वर बच्चा बाबू ने इतना भला किया है लोगों का, उनके साथ कभी बुरा मत होने देना। लेकिन ईश्वर की नजर शायद बच्चा बाबू पर नहीं थी क्योंकि इतने लोगों की दुआओं का भी कोई असर नहीं हो पा रहा था। बच्चा बाबू गांव में टहलते और लोग उनको आश्वासन देते ‘‘सब ठीक हो जायेगा।’’ बच्चा बाबू रुंधे गले से बुराईशब्द को चबा कर कहते ‘‘बुराई का कोई अन्त नहीं है। नीचे से ऊपर तक सब बुरे ही बुरे हैं।’’
‘‘इस चांद की रोशनी झूठी है। हमें वोट डालना ही नहीं चाहिए। हमको तो बस सब ठग रहे हैं। हमारी बातें कोई सुनता नहीं है कोई अपना वायदा पूरा करता ही नही है। क्या लगता है प्रधानमंत्री जो टेलीविजन पर आकर बोलते हैं वह सब सच है। सब झूठ है। प्रधानमंत्री जो कहते हैं सच में वह कुछ और ही होता है।’’ इतना लम्बा लेक्चर देकर वास्तव में बच्चा बाबू अपने मन की भड़ास निकालते थे। लोग समझते थे कि बच्चा बाबू का दुख बड़ा है इसलिए आंय बांय बके जा रहे हैं।
                             परन्तु बच्चा बाबू के दुख की इंतहां तो तब हो गई जब एक दिन कड़ाके की सर्दी में बच्चा बाबू ने सुबह सुबह अखबार पर निगाह डाली जिसके मुख्य पृष्ठ पर ही डॉ. फ्रेंकफीन पिट की तस्वीर छपी थी। डॉ. पिट का यह एक मुस्कराता हुआ चेहरा था। शायद उनके अपने घर के बगीचे में ली गई थी क्योंकि उस तस्वीर में डॉ. पिट के पीछे कुछ मुस्कराते हुए फूल दिख रहे थे। फूलों के पीछे उनके घर की दीवार दिख रही थी जिसका रंग लाल था। लाल छोटी-छोटी ईंटों। वास्तव मंे अखबार में यह गणतंत्र दिवस के ठीक पहले घोषित होने वाले पद्म भूषण और पद्म विभूषण की सूची थी। जिसमें डॉ. पिट को प्रधानमंत्री को स्वस्थ करने के लिए और उन्हें दुबारा से खड़ा करने के लिए पद्म विभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया था।
प्रधानमंत्री कार्यालय में जो योजनाएं बनती हैं उन में आंसुओं की कई बूंदें जब्त होती हैं।
काफी सलाह मशविरे के बाद जब प्रधानमंत्री के सामने पद्म भूषण और पद्म विभूषण फाइनल करने की सूची आई तब प्रधानमंत्री उस सूची पर थोड़ी देर को अटके थे। तब प्रधानमंत्री के सामने वह दक्षिण भारतीय सुरक्षा अधिकारी खड़ा था जिसने कभी बच्चा बाबू को धमकी जैसा कुछ दिया था। जिन्होंने प्रधानमंत्री के रहस्य को बाहर निकालने को देशद्रोह तक कहा था। उस दक्षिण भारतीय अधिकारी ने प्रधानमंत्री को एक बार बच्चा बाबू की याद दिलाने की कोशिश की थी।
‘‘सर उस बच्चा सिंह ने एकदम से दर्द पर काबू पा लिया था।’’ अधिकारी ने सहमते हुए बस बातों का एक सिरा फेंका था।
प्रधानमंत्री को अपना दर्द याद आ गया था। और यह भी कि किस तरह बच्चा सिंह का हाथ लगते ही वह दर्द अचानक कहीं गायब हो गया था।
‘‘मैं सब समझता हूं। ऐसा नहीं है कि मैं इंसान नहीं हूं। मेरे अंदर फीलिंग्स नहीं है। लेकिन इस इतने बड़े लोकतंत्र को चलाने के लिए हमें कुर्बानी देनी ही पड़ती है। हमें अपनी भावुकता पर काबू करना ही पड़ता है। मैंने अपनी फीलिंग्स को खत्म कर लिया है। मैं यह नहीं कर सकता हूं। सिर्फ भावुकता से किसी देश को नहीं चलाया जा सकता है।’’
‘‘इस इतने बड़े देश में सारी चीजें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। अगर आप पेड़ काटेंगे तो बारिश भी कम होगी और बारिश कम होगी तो पेड़ भी कम होंगें। एक मुखिया पर कितने तरह के दबाव होते हैं उसे समझना कठिन है। मेरे हाथ-पांव दिखते भर हैं लेकिन सब कटे हुए हैं मैं तो इस कुर्सी पर बैठा एक मांस का लोथड़ा भर हूं।’’
‘‘बड़े हित को साधने के लिए छोटी-मोटी घटनाओं को, छोटे मोटे कीड़े मकोड़े जैसे आम आदमी को भूलना ही पड़ता है।’’
जब प्रधानमंत्री ऐसा बोल रहे थे तब वहां उस दक्षिण भारतीय अधिकारी के अतिरिक्त प्रधानमंत्री का पी.ए. भी था। और सच मानिए यह दोनों के लिए आश्चर्य था कि प्रधानमंत्री उन्हें इतनी सफाई क्यों दे रहे थे। जबकि सच यह था कि प्रधानमंत्री अपने मन को समझा रहे थे।
         जब से प्रधानमंत्री बच्चा बाबू के यहां से लौटे थे तब से लेकर एक लम्बा वक्त गुजर गया था। इस बीच बच्चा बाबू का दुख उनके अंदर भरता जा रहा था। शुरुआत में काफी दिनों तक तो उनकी उम्मीदें बंधी ही रहीं और जब उम्मीदें दरकनी शुरू भी हुईं तो उनके ऊपर बातों को न खोल पाने का दबाव बना रहा। उनके जीवन में एक पत्नी कल्याणी ही थीं जिनसे वे इस संदर्भ मंे खुल कर बात कर सकते थे। लेकिन चूंकि कल्याणी शुरू से ही बच्चा बाबू के विश्वास पर शक करती रही थी इसलिए उन्हें अपने दुख को वहां भी साझा करना अच्छा नहीं लगता था। यही कारण है कि बच्चा बाबू का अवसाद उनके अंदर भरता चला जा रहा था।
         इसे महज संयोग कहंे या फिर कहानी को जायकेदार बनाने की कोशिश कि जिस सुबह के अखबार में डॉ. पिट को सम्मानित करने की खबर छपी थी उससे ठीक एक दिन पहले बच्चा बाबू की जिन्दगी से उनकी जमीन छिन चुकी थी। आप हम सब समझ सकते हैं कि यह बच्चा बाबू की अब तक की जिन्दगी का सबसे बड़ा दुख रहा होगा। बच्चा बाबू उदास थे और कल्याणी से पूछें तो बता सकती हैं कि उन्होंने अपने जीवन में अपने पति को पहली बार रोते देखा। रोते क्या देखा आंसू की धार। तकिया भीग गया। हिचकियां बन्द नहीं हो पा रही थीं। कड़ाके की ठंड मंे भी बच्चा बाबू आंगन में खाट बिछाकर बहुत देर तक आसमान को देखते रहे थे। उधर आसमान में तारे उलझते जा रहे थे और यहां बच्चा बाबू की आंखों से अनवरत आंसू झड़ रहे थे।
              दुख में डूबे हुए बच्चा बाबू के लिए सुबह भी दुख से भरी हुई ही थी। मोटे गोलमटोल से बच्चा बाबू जब सो कर अपने कमरे से बाहर आये और आंगन की धूप में बैठ गए तब धूप सुनहरी थी और ऐसा लग रहा था कि एक अण्डा धूप सेंक रहा है। उन्होंने अखबार के पलटा और वे बर्दाश्त नहीं कर पाये। ऐसा लगा जैसे उनके भीतर बहुत दिनों से कुछ बन्द था। उन्होंने अखबार को देखा और एकदम से चिल्ला कर अखबार के उन पन्नों को चिन्दी चिन्दी कर देना चाहा। उसके साथ ही उन्होंने चिल्ला कर कहा, बगैर किसी रुकावट के, बगैर किसी शब्द को चबाये हुए एकदम धाराप्रवाह। ‘‘चूतिया हैं हम ही जो तुम पर विश्वास करते हैं। साले अमेरिका जाकर वहीं का थूक चाटो बैठकर। मार दो हमको। हमको जिन्दा ही क्यों छोड़े हो।’’ 
          गुस्से में अखबार तो चिन्दी चिन्दी खैर क्या हो पाता परन्तु उनकी चिल्लाहट ने अंदर रसोई में कल्याणी की रूहें कंपा दीं। कल्याणी जब बदहवास दौड़ कर उनके पास आयीं तो अखबार के टुकड़ों के बीच बच्चा बाबू बैठे थे। उनकी सांसें तेज थीं, उनकी आंखें लाल थीं, उनके चेहरे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा रहीं थीं। वे जमीन को पकड़ कर और जमीन की ओर झुक कर बैठे थे ऐसे जैसे वे जमीन को पकड कर ही यहां अब बैठे रह पाये हैं। कल्याणी ने देखा कि बच्चा बाबू के मुंह से लार की धार उस जमीन पर गिर रही थी।
             कल्याणी को अखबार के उन टुकड़ों के बीच डॉ. पिट का मुस्कराता हुआ चेहरा दिख गया। गोरे चेहरे की मुस्कराहट। फिर वे सारा माजरा समझ गयीं। उन्होंने बच्चा बाबू को वहां से उठाकर कमरे में ले जाकर बिस्तर पर लेटाया। और फिर खुद भी वहीं उनके सिरहाने बैठ गईं। उनके माथे को सहलाना शुरू किया। बच्चा बाबू फूट फूट कर रोने लगे। उन्होंने अपने आप को एक बच्चे की तरह कल्याणी की गोद में छिपा लिया। ऐसे जैसे एक बच्चा डरकर अपनी मां की गोद में दुबक गया हो। कल्याणी जानती थीं कि यह बहुत दुख की घड़ी है। यह बहुत भावुक क्षण था।
               जमीन के छिनने और डॉ. पिट को सम्मानित करने जैसी दो बड़ी घटनाओं ने बच्चा बाबू को अंदर से तोड़ कर रख दिया था। उनके अंदर जो एक बड़ा बदलाव आया था वह यह था कि उन्हांेने सोचा कि जब सब कुछ लुट ही चुका है तब इस इतने बड़े रहस्य को दबा कर रखने का क्या फायदा। वे सारे रहस्यों को उगल देना चाहते थे। यह उनका एक तरह का प्रतिशोध था। बच्चा बाबू जानते थे कि इस प्रतिशोध से उनका कुछ भी हित सधने वाला नहीं है लेकिन प्रतिशोध तो प्रतिशोध है।
बच्चा बाबू ने पूरे गांव को यह बतलाना चाहा कि यह प्रधानमंत्री का कितना बड़ा झूठ है। गांव वालांे को वे याद दिलाने की कोशिश करते कि आपको अवश्य याद होगी वह आज तक की मेरी सबसे लम्बी छुट्टी। बाहर लगा वह नोटिस कि बच्चा बाबू इस तारीख से अनिश्चित तारीख तक यहां अनुपस्थित रहेंगे।
                परन्तु बच्चा बाबू का यह प्रतिशोध लेने का पूरा विचार बिल्कुल उलटा पड़ गया। बच्चा बाबू जितना ही यह समझाने की कोशिश करते कि प्रधानमंत्री को उन्हांेने ठीक किया है और यह कि प्रधानमंत्री यहां आये थे और आठ दिन तक इसी घर में रहे थे। इसी घर में खाना खाया था, यहीं नहाये-धोये थे, यहीं सोये थे। और सबसे बड़ा आश्चर्य कि यहां ही नहीं बल्कि पूरे देश को इसकी खबर नहीं थी। लोग इस इतने बड़े सच को सुनते और बच्चा बाबू पर अविश्वास करते। लोग हंसते और बच्चा बाबू और ज्यादा विश्वसनीय तरीके से यह समझाने की कोशिश करते कि आठ दिन तक एक तरह से इस देश के प्रधानमंत्री यहां नजरबंद थे।
लोगों ने बच्चा बाबू को पागल करार दे दिया। 
             बच्चा बाबू, जो कभी सड़क पर चलते थे तो गांव के लोग उन पर फख़्र करते थे वही बच्चा बाबू जब आज गांव में घूमने निकलते तो लोग उनसे या तो कन्नी काट लेते या फिर उनका मजाक उड़ाते। शुरूआत में तो बच्चा बाबू अपने प्रतिशोध को सफल करने के लिए लोगों को पकड़ पकड़ कर यह बताना चाहते थे कि किस तरह प्रधानमंत्री किस तरह यहां छिप कर रहे। किस तरह रात के घुप्प अंधेरे में एक लम्बी अविश्वसनीय सी गाड़ी यहां लग गई थी। किस तरह उनसे इस सारे वाकया को छुपा कर रखने के लिए कहा गया। किस तरह उन दिनों टेलीविजन और अखबार में आने वाली खबरें झूठी थीं। और अब किस तरह उनके हक को मारकर यह इतना बड़ा सम्मान डॉ. पिट को दिया जा रहा है। शुरू में तो लोग भी खूब चटकारे ले लेकर इस मसालेदार कहानी को सुनते थे। परन्तु जब लोगों को यह साफ लग गया कि बच्चा बाबू का दिमाग खराब हो गया है तब वे उनसे डरने लगे।
                बच्चा बाबू रास्ते से जाते तो लोग उनको घेर कर पूछते ‘‘और प्रधानमंत्री ने दिल्ली नहीं बुलाया आपको। देखिये कहीं इस बार आपको स्वास्थ्य मंत्री ही न बना दें। फिर जोड़ते रहियेगा हड्डी वहीं बैठकर।’’
‘‘स्वास्थ्य को लेकर आपकी योजनाएं क्या-क्या हैं? कहीं आप सारे तम्बाकू खाने वाले को जेल में तो नहीं डाल देंगे।’’
‘‘आपका तो हक भी बनता है भाई। जिन्होंने प्रधानमंत्री को ही ठीक कर दिया हो उनको तो कुछ भी बनाओ कम ही है।’’
‘‘तब माता जी को भी साथ में ले जायेंगे या वहां कोई गोरी मेम देखेंगे।’’ बच्चा बाबू चिढ़ते तो उन्हें और चिढ़ाया जाता।
कभी सुबह टहलते दिख गए तो लोग कहते ‘‘क्या आज कहीं अमेरिका से तो फोन नहीं आ गया। कहीं वहीं जाने की तैयारी तो नहीं हो रही है। हमें लगा कि भारत के प्रधानमंत्री को तो ठीक कर ही दिया अब कहीं अमेरिका के राष्ट्रपति ने बुलवा लिया हो।’’
इसमें कोई शक नहीं है कि जब पूरे समाज ने ही उन्हें पागल मान लिया हो तो पागलपन की कुछ निशानियां भी जरूर उनके भीतर घर करने लगी होगीं। कभी तो उन्होंने जरूर अपने पीछे  दौड़ रही भीड़ को ईंट-पत्थर लेकर दौड़ाया होगा। कभी जरूर उन्होंने गुस्से में लोगों को गालियां दीं होंगी। कभी जरूर उन्होंने अपने बाल नोचे होंगे, कभी जरूर उन्होंने रूककर आसमान को चिंतित निगाह से एकटक देखा होगा।
बच्चा बाबू की जिन्दगी में यहां अब उनकी पत्नी के अतिरिक्त कोई नहीं था जो उनकी दिमागी हालत को ठीक मानता हो।
बच्चा बाबू के सामने अब पूरी दुनिया थी जिसे उन्हें उनको पागल मानने से रोकना था। परन्तु भीड़ के सामने किसकी चलती है।
बच्चा बाबू के इस पूरे घटना क्रम में सबसे बुरा यहा हुआ कि उनका रहा सहा रोजगार भी खत्म हो गया। शुरुआत में जब तक बात बहुत फैली नहीं थी तब तक तो दूर दराज के लोग आ जाते थे परन्तु बुरी बातों को फैलने में वक्त ही कितना लगता है।
        जिस तरह से दूर दराज के गांवों तक में बच्चा बाबू की महिमा छाई हुई थी उसी तरह यह बात भी आग की तरह फैल गई कि बच्चा बाबू पागल हो गए हैं और हर वक्त प्रधानमंत्री-प्रधानमंत्री करते रहते हैं। बाहर बातें तरह-तरह की फैलीं। कुछ लोगों ने कहा कि उनकी जमीन फूल सिंह ने धोखा से उनसे छीन ली। जिस दिन वे केस पूरी तरह हार गए वे अपने खेत पर रात पर आंसू बहाते हुए पड़े रहे। वहीं रात में गन्ने के पौधे पर रहने वाले उड़ने वाले सांप ने बच्चा बाबू के मगज में काट लिया। कहते हैं कि तब से ही बच्चा बाबू आंय बांय बके जा रहे हैं। उनका बचना लगभग अब मुश्किल ही है। यह उड़ने वाला सांप विषैला कम होता है बस वह धीरे धीरे दिमाग को खत्म कर देता है। बस उसके बाद सर की नसें फट जाती हैं।
            कुछ लोग कहते कि बच्चा बाबू सुबह सुबह टहलने उठते हैं वहीं रामनरेशवा के कुत्ते ने उन्हें काट लिया। कुछ लोग कहते कि पागल तो वे बचपन से ही थे। नहीं तो कोई सामान्य आदमी थोड़े ही न इस तरह बात करने में एक शब्द चबाने लगता है। साला शब्दों से ही पेट भरता था क्या? यह उनका पागलपन ही था जो अब बढ गया है। अब तो अपने साथ लेकर ही जायेगा।
      जितनी बातें उनके पागलपन को लेकर फैलीं उतनी ही यह भी कि उनके पागलपन का असली पता तो तब चला जब उन्होंने रूद्रपुर गांव के एक छौरे की टांग की हड्डी उलटी जोड़ दी। छौरे ने जब कुछ ही दिनों में स्वस्थ होकर चलना शुरू किया तो लोगों ने देखा कि वह दौड़ने की कोशिश आगे के लिए कर रहा है और जा पीछे रहा है। किसी ने कहा कि बच्चा बाबू ने हाथ की हड्डी जुडवाने आयी हरिया की कनिया को तब चूम लिया जब वह उनके सामने बिस्तर पर कराह रही थी।
                 लोगों ने कहा कि ई बच्चा सिंह को तो पागलपन का दौरा आने लगा है। वह खतरनाक भी होग गए हैं। नहीं विश्वास तो उनके सामने एक बार प्रधानमंत्री बोलकर देख लो साला ढेला लेकर दौड़ जाता है।
            हम सब जानते हैं कि एक बार अगर अफवाह का दौर शुरू हो गया तो वह अनवरत चलता ही रहता है और चलता क्या रहता है वह बढता ही रहता है। अब तो हालत यह हो गई कि लोग उनसे इलाज करवाने क्या आते लोग उन पर आरोप लगाते कि देखो साला कैसा पागल हो गया कि सांस लेने में कार्बनडाइऑक्साइड अन्दर लेता है और ऑक्सीजन बाहर छोड़ता है।
कहानी का समापन         
कहानी का यह आप समापन ही समझिये। प्रधानमंत्री ने अपने हिसाब से डॉ. पिट को सम्मानित करके और बच्चा बाबू की कुर्बानी देकर यह चैप्टर क्लोज कर दिया। यहां बच्चा बाबू प्रधानमंत्री से प्रतिशोध लेने में और अपने गांववालों को समझाने में नाकाम रहे। और नाकाम क्या रहे गांव वालों ने उलटा उन्हें पागल ही घोषित कर दिया। पागल भी क्या एक खूंखार पागल। जो कभी भी पत्थर और डंडे से वार कर सकता था। बच्चा बाबू का रोजगार पूरा चौपट हो गया। चूंकि बच्चा बाबू की सारी जमा पूंजी उस खेत के केस लड़ने में खत्म हो गयी थी और अब उनका रोजगार पूरी तरह ठप्प हो गया तब आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि कल्याणी इस घर को कैसे चला पाती होंगी।
दो बातें यहां बहुत जरूरी हैं। एक तो यह कि कल्याणी अब अकेली एक योद्धा की तरह सारी समस्याओं से लड़ रही हैं। वे अपने मन में उस अंधेरी रात को कोसती हैं जब प्रधानमंत्री की गाड़ियां उनके दरवाजे के सामने लगी थीं। और दूसरी यह कि उनके मन के भीतर यह विश्वास था कि वह दिन जल्द ही आयेगा जब लोग सारी बातों का भुला देंगे और उनका जीवन फिर से सामान्य हो जायेगा। लेकिन अभी तो हालात यह हैं कि घर के हालात और अपने अवसाद और पूरे गांव का माहौल बच्चा बाबू के पागलपन को रोज दिन दुने रात चौगुने रूप से बढ़ा ही रहा है।
परन्तु अब कहानी वहीं कहां खत्म होती है जहां हम चाहते हैं।
यह कहानी खत्म तो यहां भी हो सकती है। परन्तु इस विडम्बना का जिक्र किए बगैर यह कहानी खत्म नहीं हो सकती है। अभी कुछ ही दिन हुए हैं। बस उतने ही दिन जितने दिन मुझे इस कहानी के प्लॉट को संवारने, कहानी लिखने और कहानी को छपवाने में लगे होंगे।
           मैं सीधे सीधे यहां सोशल साइट विकिलिक्स का नाम तो नहीं ले सकता इसलिए यहां बगैर किसी विवाद में पड़े यह लिख रहा हूं कि विकिलिक्स जैसी ही एक महत्वपूर्ण सोशल साइट ने एक बड़ा खुलासा किया है कि भारत के प्रधानमंत्री जब पीछे एक-दो वर्ष पहले यानि 27 सितम्बर 2009 को बीमार हुए थे और उन्हें दिल्ली स्थित उस बड़े से अस्पताल में दाखिल किया गया था तब वास्तव में वे वहां ठीक नहीं हुए थे। उस साइट ने यह खुलासा किया था कि 4 अक्टूबर को प्रधानमंत्री को चुपके से बिहार राज्य के बेगूसराय जिला के चिडै़याटार गांव ले जाया गया था जहां एक बहुत ही प्रसिद्ध वैद्य बिन्देशरी प्रसाद सिंह उर्फ बच्चा बाबू ने उनका स्वस्थ्य ठीक किया था। प्रधानमंत्री अपने लाव लश्कर के बगैर वहां उस बिन्देशरी प्रसाद सिंह के घर पर एक सप्ताह तक रुके थे और फिर वहां से उन्हें सीधे दिल्ली के इस अस्पताल में चुपके से दाखिल कर दिया गया था। प्रधानमंत्री जितने दिनों तक चिडै़याटार गांव मंे रहे मीडिया को यहां झूठी रिपोर्ट दी गई कि प्रधानमंत्री अंदर स्वस्थ हो रहे हैं।
         खुलासा यह भी किया गया था कि डॉ. फ्रेंकफिन पिट जो अमेरिका से आये थे, उनकी पूरी टीम ने प्रधानमंत्री के इलाज से अपना हाथ खींच लिया था। वे हड्डी के इस उलझाव से वास्तव में डर गए थे और उन्होंने इलाज करने या फिर गारंटी देने से साफ इंकार कर दिया था। डॉ. पिट को दिया जाने वाला पद्म विभूषण का सम्मान भी झूठा था जिसके हकदार वास्तव में चिडै़याटार गांव के बिन्देशरी प्रसाद सिंह थे।
                एक बड़ा खुलासा यह भी था कि अमेरिकी चिकित्सा सेवा को बेहतर साबित कर भारत के प्रधानमंत्री ने अमेरिका के साथ एक बड़ी डील पर साइन किए थे जिसका निष्कर्ष यह निकला कि भारत के अस्पतालों में अमेरिकी मल्टीनेशनल कंम्पनियों को निवेश  की इजाजत दी गई। निवेश इसलिए ताकि अस्पतालों की हालत बेहतर हो सके। ताकि देश के लोग स्वस्थ रह सकें। ताकि यह देश स्वस्थ रह सके। दवाइयों को भी अमेरिका से बहुतायत मात्रा में आयात किया गया था।
इस विडम्बना के बाद कहानी का अंत यूं है कि अखबार और टेलीविजन पर यह खबर आम हो गई। गांव वाले खबर सुनकर सन्न रह गए। कल्याणी के चेहरे पर एक संतुष्टि आ गई। चिडै़याटार गांव में रिपोर्टरों और कैमरों के अम्बार लग गए। लेकिन बच्चा बाबू। बच्चा बाबू इस स्थिति में कहां!
        कल्याणी की सारी दुआएं बेकार हो र्गइं। बच्चा बाबू अपने हुनर से हाथ धोकर अपने गांव में अपने खिलाफ यह माहौल देखकर और अपने घर में अपनी गरीबी देखकर सचमुच में पागल हो गए। वे घर में बंद रहते थे और अब सचमुच में आंय बांय बकते रहते थे। वे कभी भी घर से भागने लगते थे, कभी भी किसी पर ढेला फेंक देते थे। कभी भी जोर जोर से रोने लगते। हां और पागलों से भिन्न, हंसते बहुत कम थे। वे पागलपन की अवस्था में चिल्लाते ‘‘तुम सब कुछ जान गए। एक दिन प्रधानमंत्री आएगा और तुम सब को गोली मार देगा।’’
रिपोर्टरों के अनुग्रह पर बच्चा बाबू को सामने लाया गया। कल्याणी खुद भी यह चाहती थीं कि बच्चा बाबू का चेहरा और उनकी यह हालत लोगों के सामने आए इसलिए भी उन्होंने इसकी अनुमति दी। और अनुमति ही नहीं दी, व्यवस्था भी की।
            परन्तु इतने कैमरे और इतने लोगों को देखकर बच्चा बाबू बेकाबू न हो जाएं या फिर प्रधानमंत्री का नाम सुनकर वे मारने के लिए दौड़ न जाएं। उन्हें जब कैमरे के सामने  लाया गया तब वे एक कुर्सी से बंधे हुए थे। दोनों हाथ कुर्सी के दोनों हत्थों से बंधे हुए थे और दोनों टांगें कुर्सी की दोनों टांगों से। कुर्सी खम्भे से बंधी हुई थी।
बच्चा बाबू की जो तस्वीर वहां खीचीं गई और जो पूरे देश के अखबार और टेलीविजन सेट पर दिखाई गई उसमें बच्चा बाबू एकदम दुबले पतले से दिख रहे हैं। एकदम विकराल। कुर्सी पर बंधे हुए बच्चा बाबू एकदम निरीह से अपनी गर्दन झुकाए हुए हैं। और उनके मुंह से लार की धार निकलकर उनके कपड़ांे पर टपक रही है। उनके चेहरे की चमड़ी झूल गई है और उसमें आंसू की कुछ बूंदें उलझी हुई हैं।
बच्चा बाबू की कहानी यहीं खत्म करता हूं लेकिन बच्चा बाबू की कहानी क्या वाकई खत्म हो सकती है, यह निष्कर्ष आप पर छोड़ता हूं। 
              
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संपर्क-
उमा शंकर चौधरी
द्वारा ज्योति चावला, स्कूल ऑफ ट्रांसलेशन स्टडीज एण्ड ट्रेनिंग
15 सी, न्यू एकेडमिक बिल्डिंग, इग्नू,
मैदानगढ़ी,  नई दिल्ली-68मो.-9810229111
E-mail ; umashankarchd@gmail.com

उमा शंकर चौधरी



 

युवा  कवि  उमाशंकर चौधरी को साहित्य  एकेडेमी  का  ‘पहला  युवा  सम्मान २०१२’ भुवनेश्वर में २५ अगस्त २०१२ को एकेडेमी के  अध्यक्ष सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुनील गंगोपाध्याय के हाथों  प्रदान किया  जाएगा. उमाशंकर को इस सम्मान के लिए ‘पहली बार’ की और से बधाई. इस अवसर पर हम उमाशंकर की कुछ ताजातरीन कवितायें प्रस्तुत कर रहे हैं.

 

एक मार्च उन्नीससौ अठहत्तर कोखगड़िया बिहार में जन्म।कविता और कहानीलेखन में समानरूप से सक्रिय।पहला कविता संग्रहकहते हैं तबशहंशाह सो रहेथे’(2009) भारतीय ज्ञानपीठ सेप्रकाशित। इसी कवितासंग्रह पर साहित्यअकादमी का पहलायुवा सम्मान (2012)इसके अतिरिक्त कविताके लिएअंकुरमिश्र स्मृति पुरस्कार’ (2007) औरभारतीय ज्ञानपीठ कानवलेखन पुरस्कार’(2008) कहानीके लिएरमाकांतस्मृति कहानी पुरस्कार’(2008)पहला कहानी संग्रहअयोध्या बाबू सनकगए हैं(2011) भारतीयज्ञानपीठ से प्रकाशित।अपनी कुछ हीकहानियों से युवापीढ़ी में अपनीएक उत्कृष्ट पहचान।पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस द्वाराप्रकाशितश्रेष्ठ हिन्दी कहानियां(2000-2010) में कहानी संकलित।हापर्स कॉलिन्स कीहिन्दीकी कालजयी कहानियांसीरिज में कहानीसंकलित। कहानीअयोध्या बाबूसनक गए हैंपर प्रसिद्ध रंगकर्मीदेवेन्द्र राज अंकुरद्वारा एनएसडी सहित देशकी विभिन्न जगहोंपर पच्चीस सेअधिक नाट्य प्रस्तुति।कुछ कहानियों औरकविताओं का मराठी, बंग्ला, पंजाबी और उर्दूमें अनुवाद। पीपुल्सपब्लिशिंग हाउस द्वारापुस्तकश्रेष्ठ हिन्दी कहानियां(1990-2000) का संपादन। इनकेअलावा आलोचना कीदोतीन किताबेंप्रकाशित।

बुजुर्ग पिता के झुके कन्धे हमें दुख देते हैं

 मेरे सामने पिता कीजो तस्वीर है
उसमें पिता एककुर्ते में हैं
पिता की यहतस्वीर अध्ूरी है

लेकिन बगैर तस्वीरमें आये भीमैं जानता हूंकि
पिता कुर्ते के साथसफेद धोती मेंहैं
पिता ने अपनेजीवन में कुर्ताधोती कोछोड़ कर भी

कुछ पहना होमुझे याद नहींहै
हां मेरी कल्पनामें पिता
कभीकभी कमीजऔर पैंट मेंदिखते हैं
और बहुत अजीबसे लगते हैं

 मेरी मां जबतक जीवित रहीं
पिता ने अपनेकुर्ते और अपनीधोती पर से
कभी कलफ कोहटने नहीं दिया
लेकिन मां कीजबसे मृत्यु हुईहै
पिता अपने कपड़ोंके प्रति उदासीनसे हो गएहैं

खैर उस तस्वीरमें पिता अपनेकुर्तें में हैं
और पिता केकन्धे झूल सेगए हैं
उस तस्वीर मेंपिता की आस्तीन
नीचे की ओरलटक रही हैं
पहली नजर मेंमुझे लगता हैकि पिता केदर्जी ने
उनके कुर्ते का नापगलत लिया है
परन्तु मैं जानताहूं कि यहमेरे मन काभ्रम है
पिता के कन्धेवास्तव में बांसकी करची कीतरह
 नीचे की तरफलटक ही गएहैं

पिता बूढे हो चुकेहैं इस सचको मैं जानताहूं
लेकिन मैं स्वीकारनहीं कर पाताहूं
मैं जिन कुछसचों से घबराताहूं यह उनमेंसे ही एकहै

एक वक्त थाजब हम भाईबहन
एकएक करपिता के इन्हींमजबूत कन्धों पर
मेला घूमा करतेथे
मेले से फिरकीखरीदते थे
और पिता केइन्हीं कन्धों पर बैठकर
उसे हवा केझोंकों से चलानेकी कोशिश करतेथे
तब हम चाहतेथे कि पितातेज चलें ताकि
हमारी फिरकी तेज हवाके झोंकों मेंज्यादा जोर सेनाच सके

हमारे घर सेदो किलोमीटर दूरकी हटिया में
जो दुर्गा मेलालगता था उसमेंहमने
बंदर के खेलसे लेकर मौतका कुंआ तकदेखा था
पिता हमारे लिए भीड़को चीर करहमें एक ऊंचाईदेते थे
ताकि हम यहदेख सकें किकैसे बंदर
अपने मालिक के हुक्मपर रस्सी परदौड़ने लग जाताथा
हमने अपने जीवनमें जितनी भीबार बाइस्कोप देखा
पिता अपने कन्धेपर ही हमेंले गए थे

 हमारा घर तबबहुत कच्चा था
और घर केठीक पिछवाड़े मेंकोसी नदी काबांध था
कोसी नदी मेंजब पानी भरनेलगता था
तब सांप हमारेघर में पनाहलेने दौड़ जातेथे
तब हमारे घरमें ढिबरी जलतीथी
और खाना जलावनपर बनता था
ऐसा अक्सर होता थाकि मां रसोईमें जाती और
करैत सांप कीसांस चलने कीआवाज सुन कर
दूर छिटक करभाग जाती
उस दिन तोहद हो गईथी जब
कड़ाही में छौंकलगाने के बादमां ने
कटी सब्जी के थालको उस कड़ाहीमें उलीचने केलिए उठाया
और उस थालकी ही गोलाईमें करैत सांप
उभर कर सामने गया

हमारे जीवन मेंऐसी स्थितियां तबअक्सर आती थीं
और फिर हमहर बार पिताको
चाय की दुकानपर से ढूंढकर लाते थे
हमारे जीवन मेंतब पिता हीसबसे ताकतवर थे
और सचमुच पितातब ढूंढकर उसकरैत सांप कोमार डालते थे

हमारे आंगन मेंवह जो अमरूदका पेड़ था
पिता हमारे लिए तबउस अमरूद केपेड़ पर
दनदना कर चढजाते थे
और फिर एकएक फुनगीपर लगे अमरूदको
पिता तोड़ लातेथे
हम तब पिताकी फुर्ती कोदेख कर दंगरहते थे
पिता तब हमारेजीवन में एकनायक की तरहथे

मेरे पिता तबमजबूत थे
और हम कभीसोच भी नहींपाते थे कि
एक दिन ऐसाभी आयेगा कि
पिता इतने कमजोरहो जायेंगे
कि अपने बिस्तरपर से उठनेमें भी उन्हें
हमारे सहारे की जरूरतपड़ जायेगी

मेरे पिता जबमेरे हाथ औरमेरे कन्धे कासहारा ले कर
अपने बिस्तर से उठतेहैं तब
मेरे दिल मेंएक हूक सीउठती है और
मेरी देखी हुईउनकी पूरी जवानी
मेरी आंखों के सामनेघूम जाती है

मेरे बुजुर्ग पिता
अब कभी तेजकदमों से चलनहीं पायेंगे
हमें अपने कन्धोंपर उठा नहींपायेंगे
अमरूद के पेड़पर चढ नहींपायेंगे
और अमरूद कापेड़ तो क्या
मैं जानता हूं मेरेपिता अब कभीआराम से
दो सीढी भीचढ नहीं पायेंगे

लेकिन मैं पिताको हर वक्तसहारा देते हुए
यह सोचता हूंकि क्या पिताको अपनी जवानीके वे दिन
याद नहीं आतेहोंगे
जब वे हमेंभरी बस मेंअंदर सीट दिला कर
खुद दरवाजे पर लटककर चले जातेथे
परबत्ता से खगड़ियाशहर
क्या अब पिताको अपने दोस्तोंके साथ
ताश की चौकड़ीजमाना याद नहींआता होगा
क्या पिता अबकभी नहीं हंसपायेंगे अपनी उन्मुक्तहंसी

मेरे पिता कोअब अपनी जवानीकी बाते
याद है यानहीं मुझे पतानहीं
लेकिन मैं सोचताहूं कि
अगर वे यादकर पाते होंगेवे दिन
तो उनके मनमें एक अजीबसी बेचैनी जरूरहोती होगी
कुछ जरूर होगाजो उनके भीतरझन्न से टूटजाता होगा।

मां से पिता क्या बहुत दूर थे

जब मेरी मांपर हाथ उठातेथे मेरे पिता
तब मेरी मांबहुत ही कातरनिगाह से
देखती थी मेरीओर
मैं तब बहुतछोटा था औरयह समझ नहींपाता था कि
मेरी मां तबमेरी ओर इसलिएदेखती थी कि
मैं उन्हें बचा नहींसकता
या इसलिए किउन्हें शर्म आतीथी
यूं अपने बच्चेके सामने पिताके हाथों पिटते
लेकिन मुझे यहयाद अवश्य है
कि मेरी मांकी निगाह तबबारबार मुझपर जातीथी

 मेरे पिता बहुतगुस्सैल थे
और अपने गुस्सेके क्षणों में
अपने आप कोबिल्कुल भी रोकनहीं पाते थे
पिता अपने गुस्सेपर काबू क्यांेनहीं कर पातेथे
यह हम भाईबहन कभीउनसे पूछ नहींपाये

 मैं तब बहुतछोटा था
लेकिन पिता जबभी मेरी मांपर हाथ उठातेथे
तब मुझे बहुतदुख होता था
मुझे बहुत बुराभी लगता था
और दुख कीक्या कहें मुझेअपने पिता परबहुत खीझ होतीथी

पिता से तबमैं नफरत करताथा
और इस नफरतको मैं हीनहीं पिता भीजानते थे

मेरी मां बहुतअच्छी थीं
इसलिए पिता मांपर हाथ क्योंउठाते हैं
यह सोच करऔर भी ज्यादादुख होता था

यह खीझ तबऔर भी बढजाती थी
जब मां पिताके सामान्य क्षणोंमें
पिता का बहुतसम्मान करती थी

मां अपने पड़ोसियोंसे कहती
कि यह तोइसके पापा हीहैं
जो हमारा घरइतना संभला हुआदिखता है
मेरा क्या हैमैं तो अपनेहिस्से की रोशनीकहीं भी रख करभूल जाती हूं

 इसके पिता नेअपनी जिन्दगी में
बहुत दुख देखेहैं
और फिर इसघर को इसतरह संजोया है

मां पिता कीजब तारीफ करतीथी
तब उनके चेहरेपर कभी भीनहीं दिखता था
पिता का क्रुद्धचेहरा
और उस क्रुद्धचेहरे के साथउनके द्वारा उठायागया उन परहाथ

यूं ऐसा नहींथा कि
मेरे पिता मेरीमां को प्यारनहीं करते थे
या फिर ऐसाभी नहीं थाकि मेरे पिताकी जिन्दगी में
किसी और स्त्रीका प्रवेश होगया था
मेरे पिता ऐसेपुरुषवादी भी नहींथे कि वेऔरत को अपनीजूती समझें
बस पिता अपनेगुस्से को रोकनहीं पाते थे

जब पिता कामसे थकहारकर लौटते
तब उनका पारासातवें आसमान पर होताथा
वे तब एकक्षण को भीखानापीना याकिसी और प्रकारके आदेश में
विलम्ब बर्दाश्त नहीं करपाते थे
पिता गुस्साते थे औरपिता का सारागुस्सा
मां पर हीनिकलता था
पिता मां परहाथ उठाते थेऔर मां कातरनिगाह से मुझेदेखती थी
मैं तब बहुतबच्चा था औरमैं बहुत दुखीहोता था

पिता जब गुस्सेमें होते थेतब
उन्हें देख करऐसा लगता थाकि
वे अपनी जिन्दगीमें सबसे ज्यादानफरत मेरी मांसे करते हैं
मुझे हर बारउनको देखकर ऐसाही लगता था
कि क्या वाकईपिता मां सेछुटकारा चाहते हैं

 मेरी मां कीमृत्यु कम उम्रमें हुई
उनकी मृत्यु जब हुईतब वे पचासको भी छूनहीं पाई थीं
जब मां कीमृत्यु हुई तबपिता बहुत रोयेथे
और बहुत रोयेक्या थे पछाड़खा कर गिरपड़े थे
और फिर कईदिनों तक होशमें नहीं आयेथे
तब हमें लगाथा कि पिताका व्यक्तित्व भीअजीब है

लेकिन यह व्यक्तित्वतब और भीअजीब लगा थाजब
पिता ने मांकी मृत्यु केबाद से बोलनाबिल्कुल कम करदिया था
उसके बाद हमनेहंसते हुए भीन्हें कम हीदेखा था
लेकिन सबसे अजीबयह था कि
पिता ने गुस्साकरना बिल्कुल छोड़दिया था

 मां की मृत्युके इतने बरसबाद
पिता को देखकर यह लगताही नहीं हैकि
ये पिता वहीपिता हैं जोकभी गुस्से मेंअपना आपा
इतना खो देतेथे कि मांको कातर निगाहोंसे मुझे देखनापड़ता था
पिता अब एकसौम्य पिता होगये हैं

जब से मांकी मृत्यु हुईपिता ने गुस्सानाछोड़ दिया है
पिता बस जीवनको जिये जारहे हैं
पिता एक बेजानपत्थर से बनगए हैं

मैं इतने बरसबाद
मां और पिताके इस अजीबोगरीबसंबंध पर विचारकरता हूं
तो बहुत मुश्किलमें फंस जाताहूं
कि क्या वाकईपिता मां कोबहुत प्यार करतेथे
कि पिता कभीसमझ ही नहींपाये कि वे
अपने प्रेम से भीउपर पहले औरसबसे पहले एकपुरुष थे
जिसकी उनको खबरभी नहीं थी।

कामुक बातें करता बुजुर्ग

कामुक बातें करताबुजुर्ग
हमें तकलीफ देता है
कामुक बातें करते बुजुर्गके पास बैठ कर
हमें हमेशा ऐसा लगताहै जैसे
हमारे समाज, हमारी संस्कृतिको गंदला करनेमें
सबसे बड़ा हाथइसी का है।

 हम बुजुर्ग के पासबैठते हैं
और बुजुर्ग हमसेस्त्रियों की बातेंकरने लगता है
सहवास के दौरानकी स्त्रियों कीविभिन्न मुद्राओं की बातेंकरना
तो उसका सबसेबड़ा शगल है
और यह भीकि सहवास केदौरान स्त्रियों काकौन सा होताहै
सबसे कम्फर्ट जोन।
हम बुजुर्ग केसामने होते हैंऔर
बुजुर्ग की आंखोंमें शर्म कीकोई महीन रेखातक नहीं दिखतीहै
और हीदिखती है कोईबंदिश
कोई हद
वह अपने कोअनुभवी मान स्त्रियोंके संगसाथके
विभिन्न अनुभवों को हमसेसाझा करता है
और फिर जोरसे ठठा मार करहंस देता है।

वह प्रायः यादकरने लग जाताहै अपनी जवानीके दिन
कि अपनी प्रेमिकाओंके साथ वहकिस तरह
छुपछुप करऔर बहाने बना करकिया करता थाछेड़छाड़
कि बिना एकदूसरे को खबरहुए
अपने आजूबाजूमें कैसे वहरख लेता था
दोतीन प्रेमिकाओंको एक साथ
बताने के क्रममें वह यहभी बता जाताहै
कि कितनी प्रेमिकाओेंके साथ वहचला गया थाकितनी दूर
भले ही कियाहो उसने प्रेमविवाह और उसेनिभाया हो उसनेताउम्र
लेकिन वह बुजुर्गकहता है हमसे
कि स्त्रियां तोप्रेम करने केलिए बनी हीनहीं है
वह कहता हैकि एक प्रेमीकी सबसे बड़ीजीत यह नहींहै
कि वह अपनेजीवन में अपनीप्रेमिका को हासिलकर पाया यानहीं बल्कि यहहै
कि वह अपनीप्रेमिका के साथबहुत दूर तकजा पाया हैया नहीं।

वह बुजुर्ग चाहता हैकि मैं याकि आप
खुल जाएं उसकेसाथ
ताकि बेझिझक वह बातेंकरें हमसे
स्त्रियों के संवेदनशीलहिस्सों के बारेमें
और यह भीकि स्त्रियों केकौन से अंगकब हो जातेहैं अधिक संवेदनशील

उस बुजुर्ग केपास बैठते हुएअक्सर हमें दिखतीहैं महिलाएं
असुरक्षित
हम सोचने लगतेहैं कि कोईस्त्री कैसे खड़ीहो पाती होगी
इस बुजुर्ग केसामने
हम उस बुजुर्गके सामने स्त्रियोंको ले कर
कई कल्पनाएं करनेलगते हैं
हमारी कल्पनाओं में वहबुजुर्ग हमें बहुतबुरा लगता है।

 कामुक बाते करतेबुजुर्ग की हंसीमें एक खुलापनहोता है
एक गर्मजोशी
एक संतुष्टि
और जीवन केप्रति एक लोभ

अपनी जिस उम्रमें बैठ कर
वह बुजुर्ग कियाकरता है कामुकबातें
और जिसके रसमें रहता हैवह सराबोर
उसके पास बचेहैं अब बमुश्किलदोचारपांचवर्ष

अपनी चेहरे कीझुर्रियों के साथजब वह बुजुर्ग
हो जाता हैगंभीर
और छोड़ देताहै करनी यहमजेदार बातें
तब हो जाताहै वह हताश, निराश और परेशान
तब हो जाताहै वह उदास
और तब उसकीआंखों के सामनेझिलमिलाने लगते हैं
जिन्दगी की अंतिमबची हुई चंदघड़ियां।

 वह बुजुर्ग अपनी शारीरिकजरूरत से नहीं
अपनी मौत कीघबराहट से भागकर लौट आताहै फिर सेइस दुनिया में
और फिर करनेलगता है वहवही रंगीन बातें
जिसे देख औरसुन कर हमेंहोती है तकलीफ
और जिससे इससमाज के लिएहमारे मन मेंपैदा होती हैचिंता

कामुक बातें करते उसबुजुर्ग के लिए
स्त्री देह हीवह जगह हैजहां ठहर कर
वह करता हैमौत को अपनीआंखों से ओझल
मौत की दहलीजपर खड़ा वहबुजुर्ग जानता है
मौत का सच
मौत की दहलीजपर खड़े उसबुजुर्ग के लिए
स्त्री की देहही है मौतको ढंकने वालावह पर्दा
जिसके सहारे चाहता हैवह भागना सचसे
कुछ और दिनकुछ और पल।

 गढपुरा स्टेशन पर इंतजार

रात के घुप्पअंधेरे में
गढ़पुरा स्टेशन पर जलरही है ढिबरी
रात के घुप्पअंधेरे में गढ़पुरास्टेशन पर इंतजारकर रहे हैंहम
रेलगाड़ी के अंतिमखेप की
हम यानि मैं, मेरी बहन औरउसका डेढ सालका बच्चा

स्टेशन पर जलरही है ढिबरी
और मुसलाधार बारिशहो रही है
और स्टेशन मास्टरफोन पर लेरहे हैं गाड़ियोंकी खबर
गाड़ियां जो यहांनहीं रुकतीं
गाड़ियां जो वहांनहीं जातीं जहांजाने को खड़ेहैं हम
अभी यहां रुकनेवाली सवारी गाड़ीके आने पर
यही स्टेशन मास्टर काटेंगेटिकस
यही स्टेशन मास्टर दिखायेंगेहरी बत्ती
इसी स्टेशन मास्टर केसामने जल रहीढिबरी
से छन करआने वाली रोशनीमें बैठे हैंहम, हम
यानि मैं, बहनऔर उसका डेढसाल का बच्चा।

चौदह कोस सेतांगे से चलकरआये हम
हमारी शाम वालीगाड़ी छूट गयीथी
और हम इंतजारकर रहे थेरात की आखिरीगाड़ी की
और मुसलाधार बारिशहो रही थी
स्टेशन पर घुप्पअंधेरा था
और दूरदूरतक रोशनी कीकोई चिंगारी तकनहीं थी
हम ढिबरी कीरोशनी में
बारबार स्टेशनमास्टर से पूछरहे थे
कि गाड़ी आयेगीतो सही
मुसलाधार बारिश को चीरकरगाड़ी आयी
और हम गाड़ीमें चढ गए
और इस तरहपैंसठ वर्ष केइस जवान लोकतंत्रमें हमने
एक कठिन सफरतय किया।

 फेरबदल

(1)

हुक्मरान बदल गए
हुक्मरान की ताजपोशीहो गई
हम खुश नहींहुए
हम सच कोजानते थे।

(2)

हम सच कोजानते थे
इसलिए दुख कमहुआ
लेकिन उनका दुखबहुत है
जो सच सेअभी कोसों दूरहैं

(3)

हुक्मरान बदल गए
गार दिए गएउनकी कुर्सी मेंकीलें
बदल दी गईउनकी कुर्सी
क्योंकि बदल गईथी उनकी नीयत
वे सच कासाथ देने लगेथे
वे हवा कोहवा कहने लगेथे
वे भूख कोकहने लगे थेभूख

(4)

जिन्दगी में फेरबदलजरूरी है
ऐसा हमआपसब जानते हैं
सब चाहते हैंकि गतिशील होंजीवन
लेकिन इस फेरबदलका क्या मतलब
जहां सिक्के के दोनोंही ओर
अपनी ही उभरीहुई हड्डियों वालाअक्स दिखे।

सुन्दरता

जहां काम चलताहै
वहां थोड़े दिनोंके लिए हीसही
मजदूर बस जातेहैं
वहां बन जातीहै एक छोटीसी दुनिया

 मजदूरों को बसानेके लिए
और इस दुनियाको सुंदर बनानेके लिए
मजदूरों को कामचाहिए

परछाई बिल्कुल हमारे जैसी

          (1)

सामने रोशनी है
हम बैठे हैं
और हमारे पीछे
हमारी परछाई है
बिल्कुल हमारे जैसी        

         (2)

हम खड़े थे
हमारे पीछे रोशनीथी
और हमने अपनेकैमरे से
अपनी परछाई की तस्वीरखींची
परछाई की उसतस्वीर में भी
लोग हमको पहचानलेते हैं

ठीकउसी तरह

 
संपर्कः
– –

उमा शंकरचौधरी
द्वाराज्योति चावला, स्कूल ऑफ ट्रांसलेशनस्टडीज एण्ड ट्रेनिंग
15
सी, न्यू एकेडमिकबिल्डिंग,
इग्नू
, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-110068  
मो.- 09810229111