रमेश प्रजापति के कविता संग्रह ‘शून्य काल में बजता झुनझुना’ पर राहुल देव की समीक्षा


पिछले दिनों युवा कवि रमेश प्रजापति का एक नया कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है – ‘शून्य काल में बजता झुनझुना’। लम्बे अंतराल के बाद आया रमेश का यह संग्रह उनकी काव्य-यात्रा के विकास को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करता है। कवि किसी हडबडी में नहीं है। वह अपने समय और समाज को गौर से देखते हुए रचनारत है। इसीलिए उसकी कविताओं में अब एक परिपक्वता दिखायी पड़ रही है। युवा कवि राहुल देव ने इस संग्रह पर एक पारखी नजर डाली है। आज पहली बार प्रस्तुत है रमेश प्रजापति के कविता संग्रह ‘शून्य काल में बजता झुनझुना’ पर राहुल देव की समीक्षा ‘प्राकृतिक संवेदना की कविताएँ’।        
प्राकृतिक संवेदना की कविताएँ
राहुल देव


जिस तरह चाहो,
बजाओ इस सभा में
हम नहीं हैं आदमी,
हम झुनझुने हैं
-दुष्यंत कुमार
रमेश प्रजापति कम लिखने वाले लेकिन जनवादी सरोकारों से सीधा वास्ता रखने वाले कवियों में से हैं। ‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’ उनका दूसरा कविता संग्रह है उनका पहला संग्रह ‘पूरा हँसता चेहरा’ वर्ष 2006 में आया था। नौ वर्षों के एक लम्बे समय के बाद कवि का यह द्वितीय संग्रह बोधि प्रकाशन से वर्ष 2015 में प्रकाशित हो कर आया है। जिसमें पिछले पंद्रह वर्षों के दौरान लिखी गयी उनकी कुल 52 छोटी-बड़ी कविताएँ संकलित हैं। मां को समर्पित पृष्ठ के तुरंत बाद भूख से कुनमुनाता बच्चा, फटा कम्बल और बासी रोटी से बनी कविता कवि की संवेदना का प्रस्थान-बिंदु साबित होता है और इस तरह एक गहरी संवेदना के साथ कवि पाठक को साथ लेकर उम्मीद की रौशनी की खोज़ में निकलता है।
रमेश की कविता का आलंबन समकालीन समय-समाज है। वह प्रकृति के प्रेरणाएं लेते हैं। ‘निगरानी करो चाँद’ शीर्षक को पढ़ते हुए नदी, परिंदे, पवन, पहाड़, बादल, सूरज और चाँद जैसे शब्द आते हैं जोकि इस बात की तस्दीक करते हैं। ‘मेरे शब्द’ शीर्षक कविता में वह लिखते हैं,
“पक रहे हैं मेरे शब्द
झरबेरी में
बाजरे की जड़ों में
धान की बालियों में
चूल्हे की कोख में
बच्चे की आँखों में”
आप देख सकते हैं कि उसकी कविता कहाँ से चल कर आ रही है।
सरल आमफहम भाषा और सधे हुए प्रयोगधर्मी शिल्प का भावपूर्ण प्रयोग इनकी कविता में देखने को मिलते हैं। ‘तू अगर ईश्वर है’ संग्रह की शुरुआती कविताओं में से एक अच्छी कविता है। इसकी अंतिम पंक्तियों में वह संसार में व्याप्त विषमता, अनाचार और अन्याय को देख कर ईश्वर से सीधा प्रश्न करते हैं,
“तू ईश्वर है
तो क्यूँ आराम फरमाता है पूजाघरों में ।”
इनकी कविता में बड़े जीवंत और मार्मिक शब्दचित्र आये हैं जैसे ‘बुरे दिन’ शीर्षक कविता की निम्न पंक्तियाँ,
“फुटपाथ पर बैठा
टांग हिलाता मजदूर
बुरे दिनों को चबा जाता है
मुट्ठी भर चनों-सा”
कवि का एकांत उसकी कविता का उत्स बनता है,
“टूटता है जब मन की अतल गहराई में
बहुत कुछ एक साथ
तब झरते हैं मेरे निर्जन में उदासी के फूल।”
‘अरी! लकड़ी’ शीर्षक कविता में कवि लकड़ी के प्रतीक के माध्यम से मनुष्यता का हितचिंतन करता है। वह सब कुछ बनना चाहता है लेकिन किसी ज़ालिम राजा की कुर्सी बनना उसे कतई पसंद नहीं। तिमिर बढ़ रहा है कोई सही रास्ता सुझाई नहीं देता, वह राजपथ को गूँगा-बहरा कहता है क्योंकि गरीबों की आहें शासकों को सुनाई नहीं देतीं। किसान आत्महत्या कर रहे हैं और लोकतंत्र का चौथा खम्भा मीडिया भी अपनी भूमिका का सही तरह से निर्वहन करने में अक्षम साबित हो रहा है। ‘तिमिर धुंधलके में’ इस कठिन समय का बयान बनती हुई कविता है। बगैर किसी अतिरिक्त आडम्बर के सहज प्राकृतिक सौंदर्यदृष्टि के साथ लिखी गयी ये कविताएँ समकालीन दौर में कविता का एक नया आस्वाद लेकर चलती हैं।
रमेश प्रजापति
संग्रह की ‘चौराहे’ शीर्षक कविता में वह विज्ञापनी संस्कृति और बाज़ार के फैलते शिकंजे को देखते हुए लिखते हैं,
“जीवन के ऐसे चौराहे पर खड़ा हूँ
इसके हर रास्ते पर लुभावने सपने
पकड़ कर बाहें आतुर हैं ले जाने को
अँधेरी कंदराओं में
रोज़ बुना जाता है मेरे ख़िलाफ़
शब्दों का चक्रव्यूह/……./
मैं बाज़ार की चकाचौंध में
पिछड़े खरीदार-सा
हर दिन लौटता हूँ……
विकास की इस अंधी दौड़ में
अक्सर पीछे छूट जाता हूँ दोस्त!
बतियाता रास्ते के पेड़-फूलों से
चौराहे ताकते रहते हैं मेरा मुँह”
तो वहीँ ‘शेष है अभी’ शीर्षक कविता में कवि मनुष्य की मनुष्यता और प्रकृति की सुन्दरता पर अपना अगाध विश्वास प्रकट करता है,
“शेष है अभी
नदी के कंठ में आर्द्रता
वायु में शीतलता
मौसम में उदारता
सच्चाई में दृढ़ता
लुंज-पुंज शरीर में उत्कंठा
धरती की कोख में उम्मीद की हरियाली
जीवन में रंगत और शब्दों में कविता”
इसी तरह ‘सुनो! धान की पुकार’ भी एक बहुत अच्छी कविता है। प्रकृति के संवेदनो को मानवीय संवेदना के जुड़ाव के जरिये कविता में सुनने की कोशिश की गयी है। इस कविता को पढ़ते हुए साफ़ पता चलता है कि भले ही अपनी जीविका के लिए कवि महानगर में आकर बस गया हो लेकिन उसकी जड़ें अभी भी अपने गाँव में ही हैं। उसने दोनों जगहों के संघर्ष को देखा और भोगा है इसलिए उनकी संवेदना शहरी और ग्रामीण लोकधर्मिता का संतुलन बनाती चलती है। इस प्रकार गमकना, दमकना, चमकना जैसे शब्दों को बार-बार पढ़ते हुए आप देख सकते हैं कि इनकी कविताओं में मानवीयता की खुशबू सर्वत्र विद्यमान है।  
‘फूल गयी बारिश में रोटी’ शीर्षक कविता के जरिये जरा इनके बिम्बों पर दृष्टि डालें,
“बहुत दिनों से
समुद्र के किनारे खड़ी
नाव का मन
मूसलाधार बारिश में भीगकर
हो गया है भारी
कुम्हार के कच्चे दिए
चाक के पास ही पड़े
तब्दील हो गये फिर से मिट्टी में…..
कीचड़ में लिपटा पड़ा है शहर
और गाँव बन गया दुर्गम द्वीप
शहर के चौराहे पर
लिजलिजी हो गयी है बारिश में फूल कर
मेहनतकशों की रोटी”
छोटी सी लगने वाली यह कविता अपनी पक्षधरता में देखें तो एक बड़े कैनवास की कविता है। ‘जनतंत्र का ढोल’ शीर्षक कविता में वह इसकी विभीषिका दिखाते हैं,
“अँधेरा इस कदर बढ़ गया है कि
आदमी अपने एक हाथ से दूसरा हाथ काट रहा है”
इतने कठिन समय के बावजूद कवि आशा का दामन नहीं छोड़ता और ‘शब्द और चाकू’ कविता में वह शब्दों के अर्थों से संभावनाओं की कंदील जलाने की बात कहता है इस उम्मीद में कि कभी न कभी ये सूरत बदलेगी, शायद किसी दिन हडबडाकर यह अँधेरे का पहाड़ करवट बदलेगा। ‘बूँद-बूँद रात’ शीर्षक कविता का निम्न बिम्ब भी दृष्टव्य है,
“…किसी नटखट बच्चे की दवात से
बूँद-बूँद टपक रही है रात
आवारा कुत्ते सा सन्नाटा
टहल रहा है गलियों में
कहीं दूर..
विचारों के उजले शब्द-रंगों से
स्याह कैनवस पर
उतर रहीं हैं खूबसूरत कलाकृतियाँ”
संग्रह की शीर्षक कविता ‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’ में व्यक्त शून्यकाल कुछ यूँ है मानो आसमान से धरती के बीच प्रकृति और मनुष्य के मध्य अधिवेशन चल रहा हो। यह संयत आक्रोश की कविता है जिसमें ईश्वर सत्ता के स्थापत्य में उलझा हुआ अपने चमचमाते शीशमहलों के आँख-कान बंद किये हुए बैठा है, जिरह लगातार जारी है। ‘पानी का वैभव’ इस संग्रह की सबसे छोटी लेकिन अपनी अर्थवत्ता में सबसे सशक्त कविता है। वह लिखते हैं,
“यूँ ही अचानक
छेड़ दिया मैंने
बावड़ी का शांत जल
सिर्फ..
मेरे छूने भर से ही
काँप उठा
पानी का वैभव”
संग्रह में प्रेम की भावभूमि के दर्शन भी मिलते हैं जब कवि ‘तुम्हारा आना’ शीर्षक कविता में कह उठता है,
“तुम्हारा आना
अंधेरों में सैकड़ों रास्तों का खुल जाना”
संग्रह की कुछेक कमियों पर भी बात हो जाए तो इनमें कुछ कवितायेँ ऐसी हैं जिनमें एक जैसे कथ्य का दुहराव देखने को मिलता है (पेज 29 व 40) तो कुछ कविताओं में एक अच्छे कथ्य का निर्वाह तत्व कमज़ोर होने से कविता कमज़ोर हुई है (पेज 22 व 29)। दरअसल निराशावादी दृष्टिकोण कवि के शुरुवाती आशावाद की परिणति बनती प्रतीत होती है जिसका पाठक पर उतना सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ पाता। कहीं-कहीं काव्य के रसतत्व और आंतरिक लय की कमी तथा विचारों की अस्पष्टता काव्यात्मक चूक ही कही जायेगी जिस ओर कवि को आगे ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
संग्रह की अंतिम कुछ कविताओं की अगर बात करें तो ‘सीलमपुर की झुग्गियां’ शीर्षक लम्बी कविता पर ध्यान बरबस चला जाता है। इस कविता को पढ़कर आर. चेतनक्रांति की प्रसिद्ध कविता ‘सीलमपुर की लड़कियां’ की याद आ जाना स्वाभाविक है। ठीक उसी भाषा, शिल्प, आकार-प्रकार में रची गयी कविता है यह, संभवतः कवि ने उसे पढ़ कर यह कविता लिखने की प्रेरणा प्राप्त की हो बावजूद इसके कविता अपने कहन में एकदम अलग है। इस कविता की तरह ही अगली कविता ‘सवाल मूंछों का है साधो’ भयानक ख़बर की कविता के रूप में सामने आती है। इन कविताओं के अतिरिक्त इस संग्रह में ‘माँ का चश्मा’, ‘हे श्राद्ध के देवताओं’, ‘बांसों का शोकगीत’, ‘महानगर में मजदूर’, ‘कबीर की कुरती’, ‘रूखे बालों में कनेर का फूल’, ‘आदमी का बनाया पुल’ आदि कई अच्छी और सार्थक कविताएँ हैं।
रमेश प्रजापति अपना सौन्दर्यबोध प्रकृति के बीच से लेकर आते हैं। जल, जंगल और ज़मीन से गहरा लगाव, देश के किसानों की बढ़ती आत्महत्याएं और सर्वहारा की मुक्ति की बेचैनी इनकी कविता का मुख्य स्वर है। इन कविताओं के साथ उनका रचना समय भी दिया गया है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि कवि की काव्ययात्रा उत्तरोत्तर विकसित हुई है। नयी सदी में लिखी गयी उनकी कविताएँ पूर्व में लिखी गयी उनकी कविताओं की अपेक्षा काव्यात्मक कसौटी पर ज्यादा परिपक्व प्रतीत होती हैं। इस संग्रह को कविता प्रेमियों द्वारा पढ़ा और सराहा जाना चाहिए।
शून्यकाल में बजता झुनझुना/ कविता संग्रह/ रमेश प्रजापति/ 2015/ बोधि प्रकाशन, जयपुर/ पृष्ठ 120/ मूल्य 100 रुपये

राहुल देव
संपर्क –
9/48 साहित्य सदन,
कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध),
सीतापुर, उ.प्र. 261203
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हरीश चंद्र पाण्डे के कहानी संग्रह ‘दस चक्र राजा’ पर रमेश प्रजापति की समीक्षा


हरीश चन्द्र पाण्डे की ख्याति आम तौर पर एक कवि की है। इसमें कोई संशय भी नहीं कि हरीश जी हमारे समय के बेहतरीन कवियों में से एक हैं। लेकिन अभी-अभी राजकमल प्रकाशन से हरीश जी का एक कहानी संग्रह आया है दस चक्र राजा’ ऐसा लगता है कि कवि जो बातें अपनी कविताओं में नहीं कह पाया है उसे उसने अपनी कहानियों में कहा है। इस संकलन की एक समीक्षा लिखी है हमारे मित्र कवि रमेश प्प्रजापति ने। तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा     
स्त्री जीवन का यथार्थ
रमेश प्रजापति
सुपरिचित कवि हरीश चंद्र पाण्डे के पहले कहानी संग्रह दस चक्र राजा’ की कहानियाँ मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के जीवन में धटित होने वाली रोज़मर्रा के जीवन की उठा-पटक से ओत-प्रोत है। इनके केंद्र में स्त्रियों के सामाजिक और पारिवारिक संघर्ष निहित हैं। वर्तमान समय की कठोरता से टकराते हुए सामाजिक परिवेश की जटिलताओं को सामने रखने में सक्षम हुई हैं। पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री जीवन के संघर्ष को अभिव्यक्त करती ये कहानियाँ स्त्री-विमर्श को नया आयाम देती हैं। 
इस संग्रह की कहानियों में स्त्री के वैयक्तिक संबंधों की अनुगूँज, पीड़ा, बेचैनी और छटपटाहट स्पष्ट देखी जा सकता है। दायरा’ कहानी में निम्न मध्य वर्ग की स्त्री के भावात्मक स्पंदन और अंतर्मन की ध्वनियाँ सुनायी देती हैं। यह निम्नवर्गीय समाज में स्त्रियों की दयनीय स्थिति और पारिवारिक के साथ-साथ विडम्बना और सामाजिक व्यवस्था की वास्तविकता को बड़ी सहजता से अभिव्यक्त करती है। 
 सन्धि-पत्र’ कहानी में दफ्तर और परिवार के बीच जूझते व्यक्ति की त्रासदी है। इस उत्तर आधुनिक समय में बच्चों को स्कूल भेजने के लिए एक परिवार किस तरह खटता और उसका दबाव महसूस करता है। यह कहानी उसका बखूबी बखान करती है। हरीश चंद्र पाण्डे की ये कहानियाँ वैचारिकता के नए मूल्यों को स्थापित करती है। साथ ही निम्न मध्यवर्गीय समाज के अन्तर्द्वंद्वों को चित्रित करती हुई पाठकों के अंतस में दबी संवेदनाओं की कोमल भूमि को कुरेदती हैं।
उपभोक्तावाद और बाज़ारवाद के इय भयावह दौर में बौद्धिक वैचारिकता से दूर हरीश चंद्र पांडे की कहानियाँ उन सामाजिक वर्गों के जीवन संघर्षों के प्रति अधिक जवाबदेह लगती है जो अपनी आजीविका के लिए संघर्ष करते रहते हैं। संग्रह की दस चक्र राजा’ कहानी जहाँ एक ओर भाग्यवाद को नकारती है वहीं दूसरी ओर खेतिहर मज़दूरों की व्यथा-कथा का खुला चित्रण प्रस्तुत करके नरैण दा और साबुली जैसे किसानों के मज़दूर बनने की प्रक्रिया को बड़ी ही संजीदगी से अभिव्यक्त करती है-साबुली की आँखों में सपने तैरने लगे…एक सपना टूटता है तो दूसरा उगा लेती है। ज़मीन न हुई तो क्या हुआ। साबुली भी एक दिन गाड़ से पत्थर ढोने वाली औरतों की कतार में शामिल हो गई।‘ सामाजिक विसंगतियों के बीच पारिवारिक रिश्तों के ताने-बाने को बुनतीं इन कहानियाँ में संबंधों की कोमलता एवं जीवन की सहजता को अन्तःकरण में पुष्ट करने के लिए ऐसे वातावरण की रचना की गई है जिसमें संवेदनाओं और विचारों की तरंगें उद्वेलित होती रहे। 
हरीश चंद्र पांडे की इन कहानियों में स्त्री-जीवन के संघर्षों और संत्रासों को सजगता से चित्रित किया है। संग्रह की दश चक्र राजा’ कहानी जहाँ एक ओर भाग्यवाद को नकारती है, वहीं दूसरी ओर खेतिहर मज़दूरों की व्यथा-कथा का खुला बखान करती है। यह कहानी नरैण दा और साबुली जैसे किसानों के मज़दूर बनने की प्रक्रिया को संजीदगी से व्यक्त करती है-साबुली की आँखों में सपने तैरने लगे…एक सपना टूटता है,तो दूसरा उगा लेती है। ज़मीन न हुई तो क्या हुआ। साबुली भी एक दिन गाड़ से पत्थर ढोने वाली औरतों की कतार में शामिल हो गई।‘
सामाजिक विसंगतियों के बीच पारिवारिक रिश्तों के ताने-बाने में बुनी इन कहानियों में संबंधों की कोमलता और जीवन की सहजता निहित है। इनमें ऐसे भावप्रवण कथ्य और वातावरण की रचना की गई है जिसमें संवेदना और विचारों की तरंगें उद्वेलित होती रहे।
प्रतीक्षा’ कहानी में कथाकार हरीश चन्द्र पाण्डे ने स्त्री जीवन की सामाजिक विडंबना को चित्रित किया है इस कहानी में ललिता का पति गौरदत्त जीवन की कड़ुवी सच्चाइयों से या विक्षिप्त होने के कारण मुँह छुपाते हुए बार-बार आँखों से औझल हो जाता है। जग पुरुष जीवन की सच्चाई से दूर भागते हैं तो परिवार की जिम्मेदारी को एक स्त्री ही अपने कंधों पर ढोती हुई आगे बढ़ती है। कहानी की पात्रा ललिता ने इस जिम्मेदारी को वहन करके पुरुषसत्तात्मक समाज को यही दिखाने का भरसक प्रयास किया है। कुंता’ कहानी सामाजिक परिप्रेक्ष्य में स्त्री-जीवन के उस यथार्थ को चित्रित करती है, जिनमें स्त्री का जीवन कष्टकारी हो जाता है। इस कहानी की नायिका कुंता की लम्बाई मात्र तीन फुट है। ब्याह-शादी में बिचौलिया पंडित नित्यानंद बड़ी चालाकी से उसकी शादी राधावल्लभ के साथ करा देता है। कुंता का देवर एक दिन उसको मायके छोड़ देता है। कुंता बूढ़ी होने तक ससुराल न जाने की जिद्द ठान लेती है। यह जिद्द उसकी लम्बाई से बहुत बड़ी होती है-तीन फुट की कुंता बौनी और जिद इतनी लम्बी कि जब तक ससुराल से कोई बुलाने नहीं आएगा, वह नहीं जाएगी। कोई का मतलब पति स्वयं।ऐसा होता भी है जब तक राधावल्लभ उसे खुद लेने नहीं आता वह अपनी ससुराल जाती नहीं है। इसी जिद के कारण उसे अपनी यौवनावस्था मायके में ही बितानी पड़ती है।
हरीश चंद्र पांडे ने अपनी कहानियों में प्रतिदिन, जीवन की वास्तविक विद्रूपताओं और जटिलताओं के रूबरू होकर साहसपूर्ण एंग से सामाजिक चुनौतियों का सामना करते दिखाई देते हैं। इन कहानियों में स्त्री विमर्श के साथ-साथ निम्नवर्गीय समाज का टूटा हुआ स्वर भी सुनाई देता है। वह फूल छूना चाहती है कहानी स्त्री सशक्तिकरण को एक नए संदर्भ के साथ पाठकों के सामने रखने में सक्षम हुई है। घरेलू कार्यों में व्यस्त और दिनभर की भाग-दौड़ से त्रस्त, स्त्री की आज़ादी को संबंधों की ऐसी कोमल रस्सी ने जकड़ लिया है, जिसे चाह कर भी वह तोड़ना नहीं चाहती। या कहे उससे मुक्त होना ही नहीं चाहती है। ऐसी स्थिति को स्त्री ने अपनी नियति मान लिया है। ऐसा ही सामाजिक विसंगतियाँ इस कहानी कीयुवती पुष्पा के सामने उपस्थित होती हैं।
बफर स्टेट’ कहानी निम्न मध्यवर्ग के स्त्री जीवन की उन कटु अनुभूतियों को व्यक्त करती है, जिनसे वे सफर करते हुए आए दिन टकराती रहती हैं। सफर चाहे बस का हो या ट्रेन का। इलाहाबाद जंक्शन से रेलगाड़ी में अपने तीन बच्चों के साथ बैठी रूपाली गंतव्य तक पहुँचने में अपनी तेरह-चौदह वर्ष की बड़ी बेटी को आदमी की शक्ल में छिपे ख़ूँख़ार भेड़िओं की नज़रों से बचाती हुई जिस विकट मानसिक पीड़ा से गुजरती है, उसे कथाकार ने बड़ी मार्मिकता से उभारा है।
ढाल’ कहानी की नायिका कुसुम दफ्तर में हैदर बाबू और लम्बू बाबू के अभद्र व्यवहार से पीड़ित होती है। यह कहानी दफ्तर में कार्य करने वाली स्त्रियों की वस्तु-स्थिति से अवगत कराती है। संग्रह की दायरा’,  वापसी’,  क्रमश’,  साथी,  यात्रा’  और गड्ढ़ा’ कहानियाँ भी स्त्ऱी-जीवन के सच्चे यथार्थ को मजबूती के साथ अभिव्यक्त करने में सफल हुई हैं। स्वदेश’  कहानी अंतरराष्ट्रीय गतिविधियों का बहुत ही संजीदगी से जायजा लेती है। सर्दी में ऊनी कपड़ों को़ बेच कर आजीविका के लिए संघर्ष करने वाले तिब्बतियों के प्रवास की स्थिति को यथार्थ के धरातल से उठाती हुई कुछ जरूरी प्रश्न खड़े करती है। 
संग्रह की कहानियों में स्त्री-जीवन के जटिल और मारक यथार्थ की सच्ची तस्वीर है। समाज में तेजी से बदलते सामाजिक और मानवीय मूल्यों के बीच विलुप्त होती संवेदना के बरक्स मनुष्यता के अंकुरों को बचाए रखने की जद्दोजहद इन कहानियों में दिखाई देती है।
कुल मिलाकर हरीश चंद्र पांडे की कहानियों का कथ्य सामाजिक जीवन में घटित होने वाली रोज़मर्रा की घटनाएँ हैं। इस बदलते सामाजिक परिदृश्य में आम आदमी का जीवन बड़ा ही दूभर होता जा रहा है। आम आदमी की इसी पीड़ा और त्रासदी को रचनाकार ने बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से चित्रित करने का प्रयास किया है। इस असंवेदनशील समय में ये कहानियाँ इसलिए भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं कि इनमें समय की नब्ज को मजबूती से पकड़ने का प्रयास किया गया है। इसलिए ये कहानियाँ स्त्री-जीवन के बदलते-बिगड़ते संबंधों के बीच उनके जीवन के सच्चे यथार्थ को अभिव्यक्त करती हैं। साथ ही उन स्थितियों-परिस्थितियों पर भी करारी चोट करती है, जिनके कारण समाज में स्त्रियों की ऐसी दशा हुई है।  इन कहानियों की भाषा में ताज़गी और काव्यात्मकता लेखक के कवि होने का सबूत देती है। 
पुस्तक-दस चक्र राजा (कहानी-संग्रह), लेखक-हरीश चंद्र पांडे, प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन, 1-बी नेता जी सुभाष मार्ग,दरियागंज, नई दिल्ली-110002, संस्करण-प्रथम, 2013, पृष्ठ-120 मूल्य-250 रूपए।
  
 
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रमेश प्रजापति,

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