प्रतुल जोशी का आलेख ‘मृत्यु का अभिवादन’।


यह एक शाश्वत सत्य है कि हर जीवधारी की अन्तिम परिणति मृत्यु है। जीवन की शर्तों में मृत्यु अनिवार्य रूप से शामिल होती है। चुकि इसमें हमेशा हमेशा के लिए बिछड़ने का भाव होता है इसलिए यह दुखद होती है। लेकिन अब जब विज्ञान ने जीवन की अनेकानेक गुत्थियों को सुलझा दिया है कुछ तर्कवादी लोग अब लम्बे समय शोक मनाने, रोने-धोने से इतर इसे भी उत्सवधर्मिता के रूप में मनाना चाहते हैं। इसी क्रम में मृत्यु के बाद लोगों में देह-दान की परम्परा तेजी से बढ़ी है। हाल ही में प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई की पत्नी मृणालिनी साराभाई का निधन पश्चात् एक नया नजारा देखने को मिला। मृणालिनी साराभाई के शव के बगल में उनकी बेटी मल्लिका,अपनी माँ को श्रद्धांजलि एक नृत्य के माध्यम से देती दिख रही थीं। यह परम्परावादी तरीके से निहायत इतर मृत्यु को अपनी तरह से मनाने का एक नवीन उपक्रम था। प्रतुल जोशी ने इसे रेखांकित करते हुए एक आलेख लिखा है ‘मृत्यु का अभिवादन’। प्रतुल जोशी गुवाहाटी से प्रकाशित होने वाले चर्चित हिन्दी समाचार पत्र ‘पूर्वोदय’ के लिए इन दिनों नियमित रूप से एक कॉलम लिख रहे हैं। यह आलेख ‘पूर्वोदय’ से साभार लिया गया है। तो आइए आज ‘पहली बार’ पर पढ़ते हैं प्रतुल जोशी का आलेख ‘मृत्यु का अभिवादन’।   
              
मृत्यु का अभिवादन
 
प्रतुल जोशी
      कुछ समय पहले जब अखबारों और फेसबुक पर एक तस्वीर देखी तो लगा कि मेरे भीतर का प्रवाह दूसरों के द्वारा क्रियान्वित किया जा रहा है। तस्वीर में प्रख्यात नृत्यांगना (वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई की पत्नी) मृणालिनी साराभाई का शव फर्श पर रखा था। उसके बगल में उनकी बेटी मल्लिका,अपनी माँ को श्रद्धांजलि एक नृत्य के माध्यम से देती दिख रही थीं। बहुतों के लिए यह तस्वीर चौंका देने वाली हो सकती है। सामान्यतः अपने किसी परिचित अथवा रिश्तेदार के निधन पर रोने-धोने का माहौल बना रहता है। लोग बड़े गमगीन से मृतक के घर पर पहुँचते हैं। एक शाश्वत प्रश्न पूछा जाता है कैसे हो गया यह सब?” अगर यह प्रश्न पूछते समय,प्रश्नकर्ता का गला भरा हुआ है और आँखों में नमी दिख रही है तो वह अत्यंत निकट का माना जाता है। हिन्दी फिल्मों ने मृत्यु के अवसर पर शोक के दृश्यों का बड़ा ही सफल चित्रण लंबे समय तक किया है। फिल्मों में मृतक के घर पहुँचने वाले अधिकतर दोस्त,रिश्तेदार सफ़ेद कुर्ते पाजामे में दिखाये जाते हैं। मृत्यु पर्व का ड्रेस कोड है सफ़ेद कुर्ता पाजामा और सफ़ेद साड़ी। शांति का प्रतीक चिन्ह।
ऐसे में कोई पुत्री अपनी माँ के शव के समीप नृत्य करती हुई दिखाई पड़े तो यह हमारे समाज और मौजूदा विचारधारा को भीतर तक झकझोर सकता है। लेकिन यहीं समाज और जीवन का एक दूसरा पक्ष उजागर होता है। वह पक्ष यह है कि किसी के निधन पर रोने-धोने की परंपरा को ही क्यूँ स्वीकारा जाए? जब यह तय है कि जो जीव इस दुनिया में जन्म लेगा, एक दिन उसे इस दुनिया से जाना ही है तो विदाई चीख-चीख कर रोते हुये क्यूँ दी जाए?
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
उस्ताद  शायर ग़ालिब साहब बहुत पहले फ़रमा गए हैं। शेक्सपियर से लेकर आनंद फिल्म के नायक राजेश खन्ना कह चुके हैं,“बाबू मोशाय, यह संसार एक स्टेज है। और हम सब इस स्टेज पर कठपुतलियाँ। विश्व रूपी इस स्टेज पर सबको अपना किरदार बहुत थोड़ी देर निभाने की इजाजत है। उसके बाद इस स्टेज पर किसी दूसरे कलाकार की एंट्री होनी है”। इतना शाश्वत ज्ञान स्थापित होने के बाद भी यह बात हम में से अधिकतर लोगों को समझ नहीं आती। लेकिन इसी समाज में कुछ लोग अपवादस्वरूप भी हैं, जिन्होने मृत्यु की अवधारणा को अपने तरीके से परिभाषित किया है।
      दरअसल मृत्यु का प्रश्न बहुत सरल नहीं है। यह सृष्टि के बनने, सृष्टिकर्ता की अवधारणा,आत्मा-परमात्मा के परस्पर संबंधों जैसे बहुत से अवयवों से निर्मित हुआ है। हिन्दू धर्म में ब्राह्मणों ने आत्मा की शुद्धि के लिए तमाम तरह के विधि-विधानों का प्रावधान किया है। इसी तरह अलग-अलग धर्मों और जनजातियों में अपने-अपने तरीकों से विधि-विधान बने हैं। इन सबके पीछे सामान्य अवधारणा यह है कि मृत्यु के बाद आत्मा एक पराभौतिक विश्व में चली जाती है। अगर सही तरीके से विधि-विधान नहीं किए गए तो आत्मा भटकती रहेगी। मृत्यु के बाद सारी चीजें “आत्मा की शांति” के लिए होती है। अंग्रेजी का एक शब्द RIP आजकल बड़ा लोकप्रिय है। RIP माने “Rest in peace” फेसबुक या व्हाट्सेप पर किसी के मृत्यु कि खबर प्रकाशित-प्रसारित होते ही RIP का तांता लग जाता है। लेकिन आत्मा-परमात्मा के इस सिद्धांत से सभी लोग सहमत नहीं हैं। बहुतों का मानना है कि स्वर्ग-नरक कहीं नहीं हैं। जो कुछ है, इसी विश्व में है। न आत्मा कहीं भटकती है, और न ही आत्मा का परमात्मा से मिलन जैसी कोई चीज है।
      इस पंथ के मानने वाले अपने को अनीश्वरवादी कहते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की अवधारणा समाज को दी, उसके बाद तो पूरी दुनिया में ही ईश्वर के अस्तित्व को लेकर बहस छिड़ गई। मार्क्सवाद ईश्वर के अस्तित्व का विरोध करता है। एक सच्चा मार्क्सवादी जीवन और विश्व की उत्पत्ति के पीछे किसी भी ईश्वरीय विधान में विश्वास नहीं रखता। मार्क्सवादी लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि जीवन भर तो वह ईश्वर का विरोध करते हैं लेकिन मरने के बाद किस विधि-विधान से उनकी अंतिम क्रिया हो, इस बारे में कोई नियम मार्क्सवाद उन्हें नहीं बताता। इसके चलते अलग-अलग किस्म के उदाहरण सामने आते हैं।
      अपनी नौकरी के प्रारम्भिक वर्षों में, मैं कानपुर में नियुक्त था। वहाँ मेरी मुलाक़ात कवि शील जी से हुई। शील जी बड़े कट्टर किस्म के मार्क्सवादी थे। उनकी कविताएँ मार्क्सवादी नारों के लिए जानी जाती थी। “देख रहा है, समय सिपाही/दायें अंधेरा, बाँये उजाला” जैसी कविताएँ।

      नब्बे के दशक में कानपुर में ही उनकी मृत्यु हुई। संयोग से उस दिन मैं वहीं था। उस समय उनकी शवयात्रा को लेकर सबके चेहरों पर तनाव साफ दिख रहा था। “राम नाम सत्य है” कहना शील जी के सिद्धांतों के विपरीत था। तभी किसी ने सूचित किया कि शील जी की इच्छा थी कि उनकी शवयात्रा में कविताओं का पाठ किया जाए। बस फिर क्या था, तुरत-फुरत में उनकी कविताओं की एक पुस्तक,उनकी आलमारी से निकाली गई। वह कभी न भूलने वाला दृश्य आज वर्षों बाद भी मेरे हृदय पर अंकित है। शील जी का शव, उनके घर के बाहर मैदान में खुले में रखा था। उनके परिवार की महिलाएँ शव के सामने खड़ी हो रो रही थीं। साथ ही उनकी प्रसिद्ध कविता “देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल। नया संसार बसायेंगे, नया इंसान बनाएँगे” भी लगातार गाती जा रही थीं।
      इसके बाद श्मशान पहुँचने तक रास्ते भर,ट्रक में उनके शव के चारों ओर खड़े-खड़े हम लोगों ने उनकी ढेर सारी कविताओं का पाठ किया। कानपुर के ही एक और कट्टर मार्क्सवादी और कानपुर में किताबों की दुकान (करेंट बुक डिपो, मालरोड) के मालिक खेतान जी एक ऐसी ही शख्सियत थे जिन्होंने अपनी मृत्यु के कुछ दिनों पूर्व एक घोषणा-पत्र छपवाया था। इस घोषणा-पत्र में उन्होंने उन विधि-विधानों का उल्लेख किया था,जिसके अनुसार उनकी मृत्यु के बाद उनके मित्रों और रिश्तेदारों को क्या-क्या करना है और क्या नहीं करना है? एक पर्चे में छपे उनके नीति-निर्देशकों को बड़े पैमाने पर उनके मित्रों-रिश्तेदारों के बीच बांटा गया था। खेतान जी का कहना था कि चूंकि वह जीवन भर कर्मकांडों के विरोधी रहे थे,अतएव उनकी मृत्यु के बाद तेरहवीं जैसा कोई भी आयोजन न किया जाए। साथ ही उन्होने अपने घर वालों से निवेदन करते हुये लिखा कि उनका शव शहर के किसी सार्वजनिक स्थल पर रख दिया जाए। और उनके मित्र-रिश्तेदार वहाँ आ कर उनका अंतिम दर्शन कर लें और फिर अपने कार्य स्थल पर जाएँ। उनकी मृत्यु के संदर्भ में कुछ को छोड़ कर उनके बाक़ी परिचित/रिश्तेदारों को अपने ऑफिस या कार्यस्थल से किसी तरह का अवकाश लेने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा भी कई तरह के नीति-निर्देश खेतान जी ने दिये थे। अपने विचारों को अपनी मृत्यु के बाद भी जीने वाले खेतान जी जैसे बिरले ही मैंने अपने जीवन में देखे।
लेकिन मृत्यु को एक अलग तरह से स्वीकार करने वाले अनीश्वरवादी या मार्क्सवादी ही हों ऐसा नहीं है। बहुत से ऐसे लोग मिल जायेंगे जिन्होंने अपने जीते जी अपनी मृत्यु उपरांत विधि-विधानों को अलग तरह से मनाने का अनुरोध किया था। कभी हिन्दी हास्य के शिखर पुरुष रहे काका हाथरसी भी ऐसा ही एक नाम है। अपनी रचनाओं से काका, जीवन भर पाठकों को हँसाते रहे थे। अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने घोषणा की थी कि उनकी शव-यात्रा में लोग हँसते-हँसते जाएँ। काका हाथरसी के रिश्तेदार और एक अन्य व्यंग्य लेखक एवं कवि डॉ. अशोक चक्रधर ने इस पूरी शव-यात्रा का वर्णन बड़े ही रोचक तरीके से अपने संस्मरण में किया है– “काका ने वसीयत की थी कि ऊंटगाड़ी पर उनकी अंतिम-यात्रा निकाली जाए। उन्होंने यह भी चाहा कि चिता जलते समय भीड़ में कोई व्यक्ति रोए नहींबल्कि वहां हास्य कवि-सम्मेलन हो और लोग ठहाके लगाते हुएनाचते-गाते हुए उनकी शव-यात्रा में शिरकत करें। बहरहालऐसा ही हुआजैसा उन्होंने चाहा। काका के घर से श्मशान की दूरी लगभग एक कि० मी० होगी लेकिन अंतिम यात्रा हाथरस नगर में पूरे चार घंटे बिताने के बाद अपने गंतव्य तक पहुंच पाई। उस पूरे मार्ग में लोगों का हुजूम दूर तक दिखाई देता था। छज्जों परकंगूरों पर, अटारियों पर ढेर सारे बाल-वृद्धमहिलाएं उनकी ऊंटगाड़ी पर पुष्प-वर्षा कर रहे थे। दृश्य बड़ा ही रोमांचकारी हो जाता था कई बार। फूल फेंकने वालों की श्रद्धांजलि और नीचे उल्लास में रसिया गाते हुए लोग सुरपुर सिधार गए हमारे काका। तिलकचंदन लगाए हुए विचित्र वेशभूषा बनाए हुए लोगजिनमें आह्लाद भी ऐसा जिसके मूल में दुःख भरपूर था। मानव-जाति के इतिहास में शायद ही ऐसा कभी हुआ हो कि श्मशान-भूमि पर जिस व्यक्ति का अंतिम संस्कार करने के लिए लोग आए हैंवे अग्निदाह के समय ठहाके लगाएं। पूरे दो घंटे एक हास्य कवि-सम्मेलन चलाजिसमें हास्य-शैली में ही कवियों ने काका को विदाई दी 
मृत्यु से जुड़े धार्मिक विधि-विधानों का प्रश्न, आज भी समाज के कई हिस्सों को मथ रहा है। आजकल देहदान का चलन बड़ी तेजी से हमारे समाज में बढ़ रहा है। संभव है, आगे आने वाले समय में हम ऐसा समाज पायें जहाँ मृत्यु की अवधारणा को जीवन और समाज के व्यापक अर्थों में समझा जाए। लोग,अपने परिचितों और रिश्तेदारों की मृत्यु पर कई-कई दिनों का शोक रखने के बजाए जीवन को एक प्रवाह के रूप में स्वीकारें और बुद्ध के उस चिंतन को आधार बनाएँ जिसके अनुसार हर अगला पल पहले पल से अलग है। जो आज है, वह कल नहीं और जो कल है वह परसों नहीं। 
प्रतुल जोशी
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प्रतुल जोशी का आलेख ‘कुछ जगबीती, कुछ आप बीती : “प्रतिरोध का सिनेमा” के दस वर्ष’


बालीवुड के बौद्धिक दिवालियेपन से निराश लोगों के लिए उम्मीद की किरण है – ‘प्रतिरोध का सिनेमा’। संजय जोशी ने ‘प्रतिरोध के सिनेमा’ की शुरुआत एक सामाजिक-सांस्कृतिक के रूप में की थी जो अब एक आन्दोलन का रूप ले चुकी है। गोरखपुर में सन् 2006 से छोटी सी शुरुआत करने वाले उनके ग्रुप को भी यह अंदाजा नहीं था कि धीरे-धीरे ‘गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल’ राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का हो जायेगा। पिछले वर्षों में ‘गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल’ में देश के नामी-गिरामी फिल्मकारों ने शिरकत की है। आगामी 14-15 मई को गोरखपुर में 11वां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल होने जा रहा है जो प्रतिरोध का सिनेमाआंदोलन का 56वां पड़ाव है। इसके सफलता की कामनाएँ करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रतुल जोशी का एक एक आलेख ‘कुछ जगबीती, कुछ आपबीती’।  
कुछ जगबीती, कुछ आप बीती
प्रतिरोध का सिनेमा” के दस वर्ष
प्रतुल जोशी
     उत्तर प्रदेश के पूर्वी अंचल में एक शहर है गोरखपुर। गोरखपुर शहर का अपना एक अलग मिजाज है। भारत-नेपाल सीमा के पास का एक बड़ा शहर, दो जातीय गुटों के बीच लम्बे समय तक चले गैंगवार के किस्से, बरसात के मौसम में जापानी इन्सेफेलाइटिस से हर वर्ष होने वाली सैकड़ों बच्चों की मौत, गो रक्षा धाम पीठ, सामंती प्रभुत्व के अवशेषों का प्रतिनिधित्व करती प्रखर जातीय चेतना। इस शहर ने अगर उर्दू साहित्य को फिराक गोरखपुरी जैसा बड़ा शायर दिया है तो हिन्दी में रामदेव शुक्ल, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, मदनमोहन, परमानंद श्रीवास्तव, रामचन्द्र शुक्ल जैसे नामचीन साहित्यकार भी इसी शहर की उपज हैं। इसी शहर से वर्ष 2006 में एक अलग शुरुआत हुई। शहर के कुछ संस्कृतिकर्मियों, जागरुक नागरिकों एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने एक अलग किस्म के फिल्म फेस्टिवल का आयोजन किया। इसमें वह फिल्में थीं जो सिंगल स्क्रीन और मल्टीप्लेक्स थियेटरों के पर्दे पर नहीं दिखाई जातीं। इसमें से कई फिल्में विश्व सिनेमा का दस्तावेज भी हैं। लेकिन सीमित जनता तक ही  उनकी पहुंच है। जैसे एक फिल्म है सुरुसुरुएक तुर्की फिल्म है जिसके निर्देशक हैं इलमास गुने। यह फिल्म तुर्की के एक दूरस्थ इलाके में भेड़ चराने वाली जनजातियों के आपसी युद्ध और बदलते विश्व में शहरी समुदायों द्वारा जनजातियों के शोषण पर आधारित है। गजब की फिल्म है सुरु। 
      लेकिन गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के एजेण्डे में जनता को सिर्फ मनोरंजन और कम चर्चित फिल्में दिखाना ही नहीं था। इसकी शुरुआत एक उद्देश्य के साथ हुई। उद्देश्य था ऐसे सिनेमा को प्रोत्साहित करना जो जनता के संघर्षों को कैमरे में कैद करता हो। इसलिए फिल्मों के अलावा डॉक्यूमेन्ट्री, इस फिल्म फेस्टिवल का एक मुख्य अंग है। वर्ष 2006 में भगत सिंह के शहादत दिवस 23 मार्च से शुरु हुआ यह फिल्म आंदोलन अब इतना व्यापक हो चुका है कि देश के 15 शहरों में इसके नियमित आयोजन हो रहे है। गोरखपुर के अलावा यह शहर हैं लखनऊ, इलाहाबाद, आजमगढ़, बनारस, देवरिया, गाजियाबाद, नैनीताल, रामनगर (उत्तराखण्ड)  कोलकाता, चौबीस परगना, हैदराबाद, पटना, उदयपुर चित्तौड़गढ़, जयपुर, सलुम्बर (राजस्थान)। अपने तरह के अनूठे इस फिल्म आंदोलन में लगातार नये-नये शहर जुड़ते जा रहे हैं। इस फिल्म आंदोलन को नाम दिया गया है ’’प्रतिरोध का सिनेमा’’
 
     प्रतिरोध का सिनेमाके आयोजन में कई बार जाने का अवसर मुझे भी मिला। इसका एक बेहद निजी कारण भी था। दरअसल इस पूरे फिल्म आंदोलन की स्थापना से अपन के छोटे भाई संजय जोशी जुड़े रहे हैं। इस समय आंदोलन का राष्ट्रीय संयोजक वही है। गोरखपुर में सन् 2006 से छोटी सी शुरुआत करने वाले उनके ग्रुप को भी यह अंदाजा नहीं था कि धीरे-धीरे गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का हो जायेगा। पिछले वर्षों में गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में देश के नामी-गिरामी फिल्मकारों ने शिरकत की है। आगामी 14-15 मई को गोरखपुर में 11वां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवलहोने जा रहा है जो प्रतिरोध का सिनेमाआंदोलन का 56वां पड़ाव है।
संजय जोशी
 
     एक प्रश्न यह है कि व्यवसायिकता के इस दौर में ज्यादा से ज्यादा लोग क्यूं इस तरह के फिल्म आंदोलन से जुड़ रहे हैं। कारण साफ है। लोग बॉलीवुड के बौद्धिक दिवालियेपन से निराश हैं अधिकांश हिन्दी फिल्मों में समकालीन भारतीय सामाजिक यथार्थ गायब है। अब तो हिन्दी फिल्में ओवर सीज हिन्दी मार्केट को ध्यान में रख कर बनायी जाती है। देश के लाखों गांवों में सूखे की मार, गरीब जनता का गांवों से शहरों की ओर पलायन, शहरों में बेतहाशा जनसंख्या के बढ़ने से मूलभूत नागरिक सुविधाओं की कमी, बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा अंधाधुंध फायदे के लिये गरीबों और आदिवासियों को उनके मूल निवास स्थानों/पेशों से उजाड़ना जैसे विषय अधिकांश व्यवसायिक फिल्मकारों के कैमरे का विषय नहीं बनते। वहीं दूसरी तरफ सर्वसुलभ और सस्ती डिजिटल तकनीक ने युवा फिल्मकरों की एक ऐसी कतार खड़ी कर दी है जो जनता और उनके संघर्षों से जुड़े विषयों को अपनी डॉक्यूमेंटरी का विषय बनाते हैं। प्रतिरोध का सिनेमाऐसी फिल्मों, डॉक्यूमेंटरी और फिल्मकारों को मंच प्रदान करता है  और यह फिल्म आंदोलन बिना किसी सरकारी अनुदान, कॉर्पोरेट और एन जी ओ फंडिंग के पिछले दस वर्षों से लगातार सक्रिय है। हर शहर में इसका एक ही रुप है। शहर के कुछ समर्पित, वैचारिक रुप से प्रखर एवं फिल्मों ओर डॉक्यूमेंटरी में रुचि रखने वाले नागरिकों द्वारा एक फिल्म सोसायटी का गठन। फिर आपस में चंदा करके दो या तीन दिवसीय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन। किसी कॉर्पोरेट घराने, या पूँजीजीपति/भ्रष्ट अधिकारियों से चंदा लेने की सख्त मनाही है। डॉक्यूमेंटरी और फिल्में उन्हें प्रतिरोध का सिनेमाके पदाधिकारियों द्वारा मुहैया की जाती है। पिछले वर्षों में प्रतिरोध का सिनेमा’, सिर्फ एक डॉक्यूमेंटरी और फिल्म उत्सव बन कर ही नहीं रह गया है वरन अब थियेटर, गीत, पेंटिंग, विचार गोष्ठी, कहानी सुनाना जैसे बहुत से अन्य तत्व भी जुड़ गये हैं। प्रतिरोध का सिनेमाआंदोलन ने  छोटे शहरों और बड़े शहरों के मध्य विद्यमान बौद्धिक असमानता को कम करने का काम किया है। अब आपको उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े और सुदूर गांव में ऐसे लोगों का समूह मिल जायेगा जो एम.एस.सथ्यू, सईद मिर्जा और कुंदन शाह की फिल्मों पर बात कर रहा हो या आपको सिनेमा और डॉक्यूमेंटरी का अन्तर समझा रहा हो। जनता के संघर्षों और ताकत को फिल्म के पर्दे पर प्रतिबिम्बित करता प्रतिरोध का सिनेमाका कारवां आने वाले समय में जनता की बढ़ती ताकत के साथ बढ़ता ही जायेगा। 
 

प्रतुल जोशी

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प्रतुल जोशी की कहानी

प्रतुल जोशी

किसी भी समाज के चलने के अपने नियम और अपने कायदा-क़ानून हुआ करते हैं। लेकिन जिन्दगी अलबेली होती है। वह तो अपने ही तरीके से ही चलना पसन्द करती है। प्रतुल जोशी ने ज़िंदगी के इस अलबेले तरीके को जानने-समझने की कोशिश की है इस कहानी में। तो आइए पढ़ते हैं प्रतुल जोशी की यह कहानी ‘दूसरी शादी’।  

दूसरी शादी 

प्रतुल जोशी 

बारात को सुबह आठ बजे तक तैयार हो जाना था। ऐसा एक दिन पहले सब लोगों ने तय कर लिया था। इस के चलते मैंने अपने मोबाइल में सुबह पांच बजे का अलार्म लगा लिया था। रात की व्हिस्की की खुमारी अभी उतरी नहीं थी। मोबाइल के अलार्म की चीख और बारात में सही समय पर पहुॅचने की चेतावनी के बीच मजबूरी में बिस्तर छोड़ना पड़ रहा था। अक्तूबर के आखि़री हफ़्ते में पहाड़ों की तलहटी में बसे इस क़स्बेनुमा शहर में ठंड ने गुलाबी दस्तक दे दी थी।

बाहर अभी अंधेरा ही था। लेकिन अंधेरे के भीतर से वह कालिमा ग़ायब दिख रही थी जिससे अंधेरे की पहचान होती है। थोड़ी देर में बची खुची कालिमा का स्थान लालिमा को लेना था। कमरे का दरवाज़ा खोल कर एक चक्कर गेस्ट हाउस का लगाता हूँ। कहीं कोई हलचल नहीं। सभी दरवाज़े बंद पड़े हुये थे। लगता है गेस्ट हाउस के वेटर और चैकीदार देर रात सोए थे। कमल की काॅकटेल पार्टी ही ग्यारह बजे तक चली थी। कैंटीन के स्टाफ ने उसके बाद खाना बगैरह खाया होगा। इसलिए अभी तक सब गहरी नींद में हैं। ‘‘चाय’’ बार-बार चाय का विचार दिमाग में कौंध रहा है। क्या गेस्ट हाउस के बाहर कहीं चाय मिल सकती है? गेस्ट हाउस की कैंटीन में ताला पड़ा है, वरना चाय तो मैं कैंटीन में ही बना लेता। कुर्ते पाजामे के ऊपर एक हल्का सा स्वेटर डाल कर निकल पड़ता हूँ चाय की खोज में।

देश के दूसरे शहरों की तरह सड़कों पर सुबह-सुबह पौ फटने से पहले बहुत से बुज़ुर्गों को देख रहा हूँ। इन बुज़ुर्गों को जब भी माॅर्निंग वाॅक करते देखता हूँ एक ही बात याद आती है। लगता है सबके दिमाग़ में सेन्चुरी मारने की इच्छा है। कम से कम सौ साल जीने का सपना लिये यह बुजु़र्ग माॅर्निंग वाॅक पर निकलते होंगे। कुछ अकेले हैं तो कुछ दो-तीन के समूह में धीरे-धीरे चल रहे हैं। कुछ रिटायर फ़ौजियों जैसे दिख रहे हैं। उनके चलने में फ़ौजी अनुशासन की झलक दिख रही है। लेफ्ट राइट लेफ्ट जैसी पदचाप। किसी ने मुझे बताया था कि यहाँ बहुत से रिटायर फ़ौजियों ने अपने घर बना रखे है। इन लोगों के पैतृक आवास पहाड़ों में हैं। लेकिन पहाड़ में अब कोई नहीं रखना चाहता। इसलिए इस शहर में पिछले कुछ वर्षों में हज़ारों नये मकान बन गये हैं। सामने से औरतों का एक झुंड भी आता दिखता है। तेज़ तेज़ क़दमों से चलती हुयी औरतें पास से गुज़र जाती है। दो सलवार सूट में हैं तो बाक़ी साडि़यों में। लगता है यह सब गृहणियां हैं। उनमें से कोई स्कूल टीचर नहीं है। अगर स्कूल टीचर होतीं तों दीप्ति की तरह किचन में होतीं और अपने बच्चों और पति का खाना बना रहीं होतीं। अधेड़ से ले कर नई उमर की औरतें इस झुण्ड में दिख जाती हैं। सबके अंदर गज़ब की स्फूर्ति है। उनके पास से गुज़रने पर भी कोई सुगंध हवा में नहीं है। मैं औरतों की देहगन्ध का बेहद शौकीन हूँ। लेकिन सुबह की हल्की ठण्डी हवा में औरतों के झुण्ड के पास से गुज़र जाने के बाद भी कोई गन्ध नहीं मिलती। इनके पति अभी बिस्तर में पड़े होंगे। जैसे सुबह दीप्ती किचन में होती है और मैं बिस्तर पर पड़े-पड़े चाय की प्याली का इंतज़ार करता हूँ।

गेस्ट हाउस से लगभग 2 किमी0 दूर निकल आया हूँ। यह क़स्बेनुमा शहर धीरे-धीरे जाग रहा है। सड़कों के किनारे कूड़े के ढेर अब हर एक फर्लांग पर नज़र आते है। इस सड़कों पर झाडू लगाने वाला कोई नहीं दिख रहा है। एक दुकान के नीचे कुछ मज़दूरनुमा लोग एक समूह में बैठे हैं। इनकी कुल संख्या चार है। ईंटों के चूल्हे पर लगता है भोजन तैयार किया जा रहा है। यह सारे दृश्य वैसे ही हैं जैसे मैं अपने शहर में देखता हूँ।

‘‘यहाँ कहीं चाय मिलेगी।’’
मैं अपने पास से गुज़रते हुये एक अधेड़ उम्र के शख़्स से सवाल करता हूँ। उनके हाथ में छड़ी है लेकिन उसका इस्तेमाल शायद वह कुत्तों से निपटने के लिए करते हैं। क्यूंकि बिना छड़ी का सहारा लिये वह तेज़ी से क़दम बढ़ाते हुये मेरे पास से गुज़र रहे थे।

‘‘थोड़ी दूर पर सिविल हाॅस्पिटल है। लगभग आधा किलोमीटर। आप इसी रास्ते पर सीधे चले जायें। वहां चाय मिल जायेगी।’’ नपे-तुले शब्दों में उत्तर देकर वह आगे बढ़ जाते हैं। शायद उनको निर्धारित समय में एक निश्चित दूरी तय करनी है। इसीलिए वह अपने लक्ष्य में कोई व्यवधान नहीं चाहते। मैं सोच रहा था शायद वह मुझसे पूछते ‘‘इस शहर में नये आये लगते हो। कहां से आये हो? क्या करते हो? किस सिलसिले में आना हुआ?’’ और फिर मैं त़फ्सील से अपने बारे में बताता। ‘‘मैं कौन हूँ, क्या करता हूँ? इस शहर में क्यूं आया हूँ?’’

सुनो! शहर के सभी बाशिन्दो सुनो। मैं तुम्हारे शहर में पहली बार आया हूँ। मैं तुम सबको अपने आने का उद्देश्य बताना चाहता हूूँ। मैं तुम सबको अपने बारे में बताना चाहता हूँ। मैं अल्लसुबह से ही उस हर शख़्स को बताना चाहता हूँ जो मुझे पहली बार मिल रहा है।

लेकिन अंकल जी टाईप के उन महानुभाव ने मेरी सदिच्छा पर पानी फेर दिया था। मैं अकेले ही तेज़ तेज़ क़दमों से सिविल हाॅस्पिटल की तरफ़ चाय पीने के लिये चल पड़ता हूँ। सुबह की चाय के लिये इतनी मेहनत मैंने अपने जीवन में कम ही बार की थी।  
 
यह मेरे जीवन में दूसरी बार था कि मैं किसी की दूसरी शादी में शरीक हो रहा था। एक बार वर्षों पहले गुडि़या दीदी की शादी में दो बार शामिल होना पड़ा था। पहली शादी टूटने के बाद, बड़ी मुश्किल से पड़ोस की गुडि़या दीदी की दुबारा शादी हो पायी थी। आर्य समाज मंदिर में संपन्न उस शादी में मुझे गुडि़या दीदी के भाई की भूमिका निभानी पड़ी थी। लेकिन तब मैं बहुत छोटा था और लड़की वालों की तरफ से था। इस बार दूल्हे के साथी के रूप में बारात में जा रहा था।

पांच साल में कमल की यह दूसरी शादी थी। पांच साल पहले जब शादी हुई थी तो कमल के पिता जी जीवित थे। कमल एक सरकारी इंश्योरेंस कंपनी में सहायक प्रशासनिक अधिकारी बन चुका था। यूं तो उसका ख़्वाब भी अपने हम उम्र दोस्तों की तरह आई0ए0एस0 बनने का था, लेकिन कई इम्तेहान देते देते अततः उसको सहायक प्रशासनिक अधिकारी का पद ही हासिल हो पाया था। पे स्केल बढि़या था। कंपनी की तरफ से अच्छा मकान भी मुहैया कराया गया था। हमारे अंकल जी शिक्षा विभाग में सेक्शन आॅफिसर थे। घर में खुशी का माहौल था। कमल की नौकरी लगने से सभी खुश थे। कमल की शादी के प्रस्ताव भी आने लगे थे। सब कुछ ठीक था। बस एक समस्या थी कि कमल की लंबाई सामान्य से कुछ कम थी। इस बात का कमल को फ्रस्टेशन भी था। अब कमल के लिए कोई भी रिश्ता आता तो सबसे पहले लड़की की लंबाई की जांच होती। इस चक्कर में कई अच्छे रिश्ते हाथ से निकल गये। अंकल आंटी कमल की शादी उससे लम्बी लड़की से करने के पक्ष में राज़ी न थे। हम लोग कहते ‘‘कर ले यार! अपने से लम्बी लड़की से कर ले। खुद हाईहील के जूते पहन लेना। उसको स्लिपर पहना देना।’’ या फिर मज़ाक करते ‘‘अबे तेरी बीबी लम्बी होगी तो बच्चे भी लंबे पैदा होंगे।’’

कमल हम दोस्तों की बातें सह लेता। कभी रिएक्ट न करता। लेकिन अंकल आंटी उससे लम्बी लड़की से उसकी शादी करने को तैयार न थे। बड़ी खोजबीन के बाद कमल के लिए आखि़र एक रिश्ता पक्का हो गया। लड़की ने बी0ए0 किया था और फिर इंटीरियर डिजाइनिंग का कोई कोर्स। बारात कानपुर से आगरा गयी थी। पूरी दो बस भर कर बाराती गये थे। एक मारवाड़ी धर्मशाला में बारात के ठहरने का इंतज़ाम किया गया था। शायद अप्रैल का महीना था। गर्मी अभी पूरी तरह से शुरू नहीं हुयी थी। तीन भाई बहनों में कमल सबसे बड़ा था। फिर बहन थी पिंकी। उससे चार साल छोटी। फिर टुन्नु था। टुन्नू यानी तन्मय। इंजीनियरिंग के थर्ड ईयर का छात्र। बारात के एक किलोमीटर के रास्ते में जमकर डांस हुआ था। कमल के दोस्तों में हम लोगों ने तो डांस किया ही। कमल के पिता जी के सहकर्मियों, चाचाओं और मौसाओं ने भी ख़ूब धमाल मचाया था। मर्द तो मर्द, औरतों ने भी खू़ब ठुमके लगाये थे।

लेकिन पिछले पांच सालों में कमल की जिंदगी में तूफ़ानी परिवर्तन हो गये थे। शादी के कुछ दिनों बाद, अचानक एक दिन अंकल जी हार्ट अटैक के चलते इस दुनिया से विदा हो गये थे। कमल के लिये यह भारी धक्का था। उन दिनों वह राजस्थान के अलवर शहर में पोस्टेड था। पिता जी की अचानक मृत्यु से वह टूटा था, उधर प्रियंका से भी उसकी नहीं बन रही थी। प्रियंका इंटीरियर डिजायनिंग का अपना काम कमर्शियल स्केल पर करना चाहती थी लेकिन कमल इसके लिये राज़ी न था। अंकल की डेथ के बाद कमल ने शराब की शरण ले ली थी। रोज़ घर में झांय झांय होती। नौबत मारपीट तक आ जाती। आखि़र एक दिन प्रियंका कमल को बिना बताए आगरा चली आयी थी। कमल ने बहुत कोशिश की मनाने की पर वह टस से मस न हुई।

अंततः शादी के दो साल के भीतर ही कमल का तलाक हो गया था। पिछले साल कमल ट्रांसफर लेकर हिमालय की पहाडि़यों की तलहटी में बसे क़स्बेनुमा इस शहर में आ गया था। अपने परिचितों और नाते रिश्तेदारों से दूर इस शहर में उसे और उसके अतीत को जानने वाला कोई नहीं था।

कमल की बारात में गिने चुने लोग ही थे। बारात को लगभग दो सौ किलोमीटर दूर एक पहाड़ी क़स्बे में जाना था। लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर का रास्ता प्लेन था और पचास किलोमीटर पहाड़ी रास्ता। अब की बार बसें नहीं थी। दो इनोवा, एक स्काॅर्पियों में कुल पन्द्रह बाराती आ गये थे। दूल्हे के लिये एक अंबेसडर भी कर ली गयी थी। तैयारी करते न करते दस बज गये थे, जब हमारी गाडि़याँ हाईवे पर थीं।’’ कमल की शादी में मैं दुबारा जा रहा हूँ’’ बस यही एक ख़याल मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा था। कितनी शादियों में मैं शामिल हुआ हूँ। लेकिन फिर भी इस संस्था से मेरा विश्वास क्यूं उठता जा रहा है?

मैं रश्मि के बारे में सोचने लगता हूँ। क्या उसकी शादी सफल है?  पिछले साल जब उसका पति पोस्टिंग में कश्मीर में था तो रश्मि ने क्या गुल नहीं खिलाए थे। एक दूर का रिश्तेदार, भाई बन कर उसके घर में हमेशा पड़ा रहता था। दीपक जब भी छुट्टी में घर आता तो वह भैया ग़ायब हो जाता। लेकिन रश्मि की बेटी पुई ने एक दिन अपनी तोतली ज़बान में कह दिया था, ‘पप्पा, दब आप यहां नहीं रहते हो तो पप्पू मामा आते हैं। दब आप आते हो तो वह नहीं आते।’’ पुई के इस रहस्योद्घाटन से तो दीपक के घर में जैसे भूचाल आ गया था। रश्मि और दीपक की ऊँची-ऊँची आवाज़ों को आस-पड़ोस के लोगों ने कई दिनों तक सुना। रश्मि ने साफ कह दिया था कि वह दीपक के माँ-बाप के साथ नहीं रहेगीं और कि पप्पू को वह अपना सगा भाई जैसा मानती है। उन दोनों के बीच में भाई-बहन का रिश्ता है। थोड़े दिन बाद दीपक कश्मीर से वापस लौट आया था। लेकिन रश्मि अब अपने उस भैया के साथ बेधड़क घूमती थी। दीपक हम लोगों से कटा-कटा रहता था। रश्मि के हाव-भाव और पहनावे में भी ज़बर्दस्त परिवर्तन आ चुका था। केवल साड़ी और सलवार कमीज़ पहनने वाली रश्मि अब मिडी और जींस टाॅप में नज़र आती। यूं रश्मि को मैं भी मन ही मन पसंद करता था। लेकिन दीपक से दोस्ती की बदौलत, उससे दोस्ती का ही रिश्ता था। रश्मि के भैया से मुझे जलन होती। कभी शाॅपिंग माॅल या मार्केट में दोनों टकरा जाते तो मैं जल्दी से बच कर निकलने की कोशिश करता। वैसे दीपक में कोई कमी नहीं थी। वह बहुत सौम्य और शिष्ट था। लेकिन उसका रंग थोड़ा ज्यादा ही सांवला था। दूसरे माँ-बाप निपट देहाती थे। वह बहू से पर्दा करने की उम्मीद भी करते थे। कभी-कभी गांव से दीपक के यहां आ जाते तो रश्मि बहुत असहज महसूस करती। रश्मि के पिता सरकारी डाॅक्टर थे और उसकी छोटी बहन लंदन में रहती थी। रश्मि को शादी के कुछ सालों बाद लगने लगा था कि उसके माँ-बाप ने जल्दबाज़ी में शादी कर दी। उसे जैसा पति चाहिए, वह दीपक नहीं है। पता नहीं उसे पप्पू में क्या दिखा था कि वह उसकी दीवानी हो गयी थी। लेकिन एक दिन रश्मि से अचानक मुलाकात ने मेरे सामने दूसरा ही पहलू उपस्थित कर दिया। मैं आॅफिस से लौट रहा था। शहर के सबसे बड़े चैराहे की ट्रैफिक बत्ती हरी होते ही मैंने अपनी मोटर साइकिल चौराहे के पार की तो सड़क के बांयी तरह सवारी का इंतजार करती रश्मि दिख गयी। रश्मि ….. आज अकेले। उसने मुझे देख लिया था। हमेशा रूमानियत से भरपूर रश्मि का चेहरा आज बेहद बुझा-बुझा दिख रहा था।

‘‘अरे रश्मि आप?’’ मैंने जानबूझ कर मोटर साइकिल  उसके क़रीब लगा दी थी। ओह, अच्छा हुआ आप दिख गये। बहुत देर से सवारी का इंतजार कर रही थी लेकिन कोई सवारी नहीं मिल पा रही थी। सब आॅटो भरे हुए आ रहे हैं। ’’ रश्मि ने बड़ी बेतकल्लुफ़ी से अपनी बात रखी थी।

‘‘चलिये, आपको घर तक छोड़ देते हैं।’’ मैं अपनी महिला सहकर्मियों को लिफ्ट देने के लिए आॅफिस में ख़ासा चर्चित था।

रश्मि आराम से मेरी मोटर साइकिल की पिछली सीट पर बैठ गयी थी। भीड़-भाड़ वाला रास्ता पार करने के बाद हम लोग थोड़े कम भीड़-भाड़ वाले रास्ते पर थे कि रश्मि ने पीछे से कहा ‘‘सुनिए। आप कहां मुझे घर तक छोड़ने जायेंगे। बस अगले चौराहे पर उतार दीजिए। मुझे वहां से कोई सवारी मिल जायेगी।’’

रश्मि आज बिना भैया के अकेले टहल रही है, यह बात मुझे पच नहीं रही थी। उसका हल्का सांवला रंग, बड़ी-बड़ी आँखें और पतले होंठ मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे थे। इतनी जल्दी मैं उसे छोड़ना नहीं चाहता था। मोटर साईकिल को थोड़ा किनारे रोक कर मैने प्रस्ताव रखा कि अगर हम लोग किसी रेस्तरां में बैठ कर एक कप चाय पी लेते।

‘‘आपको घर पहुॅचने में देर होगी?’’ रश्मि के इस प्रश्नवाचक वाक्य में मुझे सहमति का स्वर सुनाई पड़ रहा था। ‘‘अरे, अब आपसे रोज़-रोज़ थोड़े ही मुलाकात होती है। चाय पीने में कितना वक्त लगता है।’’ मैंने अपने को अत्यंत सहज बनाते हुये जवाब दिया।

थोड़ी देर बाद हम दोनों एक रेस्तरां में टेबल शेयर कर रहे थे। मेरी वर्षों की अभिलाषा पूरी हो रही थी। वर्षों से मैं यह ख़्वाब संजोए था कि कभी रश्मि से अकेले मिलूंगा और हम लोग किसी होटल या रेस्तरां में बैठेंगे। लेकिन पिछले वर्षों में पप्पू भैया की एन्ट्री और दीप्ति की शिकारी निगाहों से यह संभव होता नहीं दिख रहा था। रश्मि को उसके प्रति मेरे झुकाव की जानकारी थी। फेसबुक में उसके मैसेज बाॅक्स में उसके कपड़ों और प्रोफाइल फोटो की तारीफ मैं यदा-कदा कर देता था। ‘‘आपकी फ़ोटो पिछले दिनों अख़बार में देखी थी।’’ चाय के कप को बड़ी शाइस्तगी के साथ अपने होंठो के करीब ले जाते हुए रश्मि ने बातचीत का सिलसिला शुरू  किया था।

‘‘वह विदेशी लड़कियों के साथ।’’ सांस्कृतिक कार्यक्रमों के कुशल संचालक के रूप में, मैं पिछले वर्षों में शहर में स्थापित हो चुका था। मेरी भारी आवाज़ हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू में धारा प्रवाह बोलने की क्षमता और संचालन के दौरान चुनिंदा शेरों के पढ़ने और उस पर आॅडिएन्स से तालियाँ पिटवा लेने की क्षमता के चलते कार्यक्रम के सफल होने की गारंटी रहती। इस कारण शहर के लगभग हर महत्वपूर्ण कार्यक्रम के संचालन के लिए आयोजकों की पहली पसंद मैं ही हुआ करता था।

    ‘‘अरे, वह उजबेकिस्तान वाला कार्यक्रम।’’ मैने बड़ी लापरवाही से कहा।

    ‘‘उजबेकिस्तान की लड़कियां बहुत सुन्दर होती हैं।’’ रश्मि बात को दूसरी दिशा में ले जा रही थी। मैं उसके वर्तमान प्रेम संबंध के बारे में जानने को उत्सुक था।

    ‘‘हुंह। वाकई। लेकिन सुंदर तो हिन्दुस्तानी लड़कियां भी होती हैं। फिर सुंदरता सिर्फ देह की ही नहीं होती। मन की सुंदरता का भी अपना एक आकर्षण होता है। इसीलिए कई बार कम सुन्दर लड़कियों से बेहद खूबसूरत लड़के प्रेम करते हैं।’’ अपनी बातों में दार्शनिकता का पुट लाते हुये मैं किसी तरह प्रेम के मूल विषय पर आना चाहता था।

रश्मि ने मेरी बात का कोई उत्तर दिये बिना चाय की दूसरी चुस्की ली। मुझे लग रहा था कि हमारी बातचीत यूं ही खत्म हो जाएगी और मेरी जिज्ञासा का समाधान नहीं हो पाएगा। लगातार संवाद बनाए रखने की गरज से मैंने बात की रूख दीपक की तरफ मोड़ दिया।
    ‘‘और दीपक के क्या हाल-चाल हैं?’’
    ‘‘ठीक हैं पिछले एक हफ्ते से बच्चों के साथ गांव गये हैं। अपने मदर-फादर से मिलने।’’
    ‘‘यानी आप अकेली हैं आजकल घर में।’’
    ‘‘जी’’।

रश्मि का संक्षिप्त उत्तर मुझे अत्यंत बेचैन कर रहा था। मुझे लग रहा था कि पप्पू भैया के बारे में मुझे अब पूछ ही लेना चाहिए। नहीं तो मुझे मेरी जिज्ञासा का उत्तर कभी नहीं मिलेगा। ऊपर से अत्यंत सहज दिखते हुए मैंने पूछ ही लिया, ‘‘आपके तो एक ब्रदर भी थे न! क्या नाम था उनका?’’

रश्मि को समझ में आ रहा था कि यह प्रश्न मैं क्यूं कर रहा हूँ। मैंने एक बाज़ी खेली थी और अब उस बाज़ी के परिणाम की प्रतीक्षा थी मुझे।

‘‘पप्पू से अब मेरे कोई रिलेशंस नहीं हैं। उसने शादी कर ली है। और वह भी मुझे बिना बताए। उसके लिये मैंने घर परिवार से कितना झगड़ा किया। पिछले चार साल से हम लोग लगभग हर दिन साथ-साथ रहते थे। साथ-साथ उठते-बैठते, खाते-पीते थे। लेकिन उसने इन सब की कोई परवाह नहीं की।’’

रश्मि का चेहरा हल्के सांवले रंग से लाल रंग में तब्दील हो रहा था। मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया था। मैं भीतर ही भीतर खुश भी हो रहा था कि पप्पू अब रश्मि के जीवन से हट चुका था। मूड को बदलने के लिहाज़ से मैं रश्मि को उसके अतीत में ले जाना चाहता था।

    ‘‘तुम फिर से थियेटर में क्यूं नहीं एक्टिव होती हो। थोड़ा चेंज हो जाएगा।’’ मैं आप से तुम पर उतर आया था।
    ‘‘मैं भी ऐसा ही कुछ सोच रही हूं। आप थोड़ी हेल्प करेंगे तो अच्छा रहेगा।’’
    ‘‘बिल्कुल।’’
    पप्पू भैया के स्थान पर मैं अपने को फिट करने की तैयारी में था कि इसी बीच दीप्ति का नंबर मोबाइल पर लगातार जल-बुझ रहा था।
    ‘‘चलिये। बड़ा अच्छा लगा। आपसे आज बहुत दिनों बाद मुलाकात हुई।’’ मैंने जल्दी-जल्दी बातों को समेटा।

    मुझे ध्यान आया कि शाम को हमें एक शादी में जाना था और दीप्ति से मैंने वायदा किया था कि समय पर घर पहुँच जाऊँगा।

लगातार तीन घंटे तक चलने के बाद हमारी इनोवा हाईवे से उतर कर एक सुसज्जित ढाबे में प्रवेश कर रही थी। जैसे देश के विभिन्न हिस्सों में हाईवे के किनारे तमाम आधुनिक ढाबे पिछले वर्षों में अस्तित्व में आ गये थे, वैसे ही यह ढाबा भी था। नाम तो ‘‘हाईवे ढाबा’’ था लेकिन किसी थ्री स्टार होटल से कम नहीं दिख रहा था।

    ‘‘आप क्या लेंगे दद्दा?’’ टुन्नु ने बार में सजी बोतलों की तरफ इशारा करते हुये पूछा। ‘‘ओनली बियर।’’ मैं प्रायः दिन में शराब नहीं पीता हूँ।
    ‘‘चलिए दद्दा आपके साथ हम भी बीयर ले लेंगे।’’

ना-ना करते हुए भी दो बोतल बीयर मैंने अंदर कर ली थी। बारात में कमल के दोस्तों में मैं ही अकेला था। मैं वीके और सतीश की भी आशा कर रहा था लेकिन आखि़री समय में वह नहीं आये। मेरे अलावा बाक़ी सब कमल के रिश्तेदार थे।

लंच के बाद गाडि़याँ फिर हाईवे पर थीं। यह स्टेट हाईवे था। इसलिए बहुत ट्रैफिक नहीं था। इनोवा की पिछली सीट पर मैंने खिड़की के बगल वाली सीट हथिया ली थी। दो बीयर की बोतलों ने अपुन को उन्नत अवस्था में पहुंचा दिया था। नींद के झोके आ रहे थे। दूसरी शादी। मेरे सामने एक तस्वीर उभरने लगती है।

‘‘छोटी दीदी का सब ठीक ठाक चल रहा है?’’ मुझे कतई यह अंदाज़ा नहीं था कि एक पंक्ति का यह प्रश्न जाॅय से मेरे संबंध हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त कर देगा।

‘‘नहीं। वह अब भी बिल्कुल खुश नहीं हैं। एक रिटायर्ड कर्नल से उनकी दूसरी शादी हुई थी। शादी के बाद से वह कलकत्ते में रह रही हैं। लेकिन इस दूसरे पति से भी उनकी नहीं बनती।’’ सिगरेट को जल्दी-जल्दी पीते हुये जाॅय ने मुझे यह सूचना दी थी।

    ‘‘तुमसे एक रिक्वेस्ट है कि तुम मेरी पत्नी के सामने छोटी दी का जि़क्र कभी भूल कर भी नहीं करना।’’
    जाॅय के शब्दों ने मुझे  भीतर तक हिला दिया था। तो क्या जाॅय ने अपनी पत्नी को छोटी दी के बारे में कुछ नहीं बताया था?

    जाॅय और मैं दोनों बचपन से यूनिवर्सिटी तक साथ पढ़े थे। लगभग चालीस साल पहले जाॅय अपनी मां और दो बहनों के साथ हमारे मुहल्ले के पास वाले मुहल्ले में आ कर रहने लगा था। यह सत्तर के दशक के प्रारम्भिक वर्ष थे। हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। कभी-कभी साथ खेलने के लिए जाॅय हमारे मुहल्ले में मेरे घर आ जाता। बातों-बातों में हमारी माता जी और अड़ोस-पड़ोस की चाचियां भी जाॅय से उसके पिता जी के बारे में जरूर पूछ लेती।

    ‘‘तुम्हारे पापा कहां रहते हैं?’’

    ‘‘आंटी वह मुरादाबाद में रेल में नौकरी करते हैं।’’ जाॅय बड़े भोलेपन से बताता। मुझे अपनी माँ और अड़ोस-पड़ोस की चाचियों का जाॅय से प्रश्न पूछना थोड़ा अटपटा लगता। मैं जाॅय के घर जाता तो जाॅय की मम्मी और दोनों बहनें बड़ी गर्मजोशी से मेरा स्वागत करतीं। लेकिन जाॅय के पापा मुझे कभी उसके घर नहीं मिलते। अपनी माँ के प्रश्न से मुझे एक अलग कि़स्म के संदेह की बू आती।

‘‘आखिर क्यूं हमेशा जाॅय से उसके पापा के बारे में पूछा जाता है?’’ बड़े होने तक यह प्रश्न मेरे दिमाग के किसी कोने में चिपटा पड़ा था। धीरे-धीरे यह बात समझ में आने लगी कि जाॅय की मम्मी, अपने पति को छोड़ कर हमारे मुहल्ले के क़रीब, अपने एक दूर के रिश्ते के भाई के पड़ोस में एक छोटे से किराये के मकान में रहने के लिए आ गयी थी। वह शहर के एक प्रतिष्ठित, लड़कियों के स्कूल में टीचर थीं। लम्बी, चौड़ी, आकर्षक व्यक्तित्व वाली आंटी के तीन बच्चों में जाॅय सबसे छोटा था। अपनी दोनों बहनों के साथ उसका उम्र का फ़ासला भी काफ़ी था। सबसे बड़ी बहन बेहद सुंदर थीं। अपनी माँ की तरह लम्बी, हृष्ट पुष्ट और लंबे घने बालों वाली बड़ी दी मुझे जाॅय की तरह ही प्यार करती। लेकिन छोटी दी को मैं हमेशा भुनभुनाते हुये पाता। उनकी चिढ़ और स्थायी खीज मेरी समझ से बाहर रहती।

उन दिनों तलाक जैसी चीज़ का प्रचलन समाज में न के बराबर था। आंटी के तलाक की ख़बर शायद हमारे मुहल्ले की महिलाओं को लग गयी थी। इसीलिए जब भी जाॅय हमारे घर आता, माँ से लेकर अड़ोस-पड़ोस की महिलाऐं उससे, उसके पिता की स्थिति जानने को उत्सुक रहते।

जाॅय शायद ऐसी भाग्य रेखाऐं लेकर पैदा हुआ था कि उसे ज़िंदगी के हर क़दम पर परेशानियों का सामना करना था। प्राइमरी स्कूल में साथ-साथ पढ़ने के बाद मिडिल स्कूल में भी हम लोगों ने साथ ही पढ़ाई की थी। नवीं कक्षा में हम पहुंचे ही थे कि एक दिन जाॅय ने बताया कि आंटी की तबियत बहुत खराब है। उससे बाज़ार में मुलाक़ात हुई थी। जाॅय के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ती नज़र आ रही थीं। वह अपनी माँ के लिये कुछ दवाईयां खरीदने आया था। दो दिन बाद ही आंटी का देहावसान कैंसर की लम्बी बीमारी के बाद हो गया था।

शायद अपने होश संभालने पर मैंने पहली बार किसी शव को देखा था। आंटी का शव छोटे कमरे के फर्श पर रखा था। दोनों बेटियों ने शव को कस कर पकड़ रखा था। उनकी चीत्कार से पूरा मुहल्ला कांप रहा था। वह अपनी मां का शव किसी को उठाने की इजाज़त नहीं दे रही थीं। आस-पड़ोस की महिलाओं के बहुत समझाने पर भी वह टस से मस नहीं हो रही थीं। बड़ी दी और छोटी दी के भयंकर विलाप ने मुझे मृत्यु की विभीषिका का पहली बार परिचय करवाया था। बड़ी दी की तब तक शादी हो चुकी थी। आंटी की मृत्यु के बाद छोटी दी और जाॅय उस घर में रहते थे।

हम लोग यूनिवर्सिटी में पहुॅच गये थे। जाॅय प्रायः कहा करता था कि मैं एम0 बी0 ए0 करूंगा और फिर एक बड़ी सी कार लेकर अपने मुहल्ले आऊँगा। छोटी दी किसी स्कूल में पढ़ाने लगी थीं। बड़ी दी के पति बैंक मैनेजर थे और शहर की एक पाॅश काॅलोनी में उनका आलीशान मकान भी था।

एक दिन जाॅय की छोटी दी की शादी भी हो गयी। उस शादी में मैने जाॅय की भरपूर सहायता की। छोटी दी के होने वाले पति को देख कर मुझे हल्का सा खटका हुआ। दूल्हा भाई और छोटी दी की जोड़ी कहीं से मैच करती नहीं दिख रही थी। कहाॅ छोटी दी गौरवर्ण, औसत कद की भरे पूरे शरीर वाली। बड़ी दी की तरह उनके भी घने लम्बे बाल थे। साथ ही अंग्रेज़ी साहित्य में एम0 ए0। कहां यह दूल्हा भाई। दुबले-पतले, चेहरे पर कोई आकर्षण नहीं। अंग्रेज़ी साहित्य क्या,किसी भी साहित्य से उनका दूर-दूरी तक का कोई रिश्ता नहीं दिख रहा था। बारात शहर के जिस मुहल्ले से आयी थी, वह मुहल्ला पंडों के मुहल्ले के रूप में विख्यात था। उनके साथ आये बारातियों को देखकर भी आश्चर्य हो रहा था। एक-एक बराती दस-दस पूडि़यां खाने के बाद भी और पूडि़यां मांगने की जि़द कर रहा था। मुझे पूडि़यां बांटते हुये बड़ी कोफ्त हो रही थी। इतने पेटू बाराती, इतनी बड़ी तादाद में मेरे हिस्से कभी  नहीं आये थे। मेरा किशोर मन मुझसे बार-बार एक ही सवाल कर रहा था। ‘‘ क्या छोटी दी की इस घर में निभेगी?’’
  
छोटी दी के चिड़चिड़े स्वभाव से मैं बचपन से वाकिफ़ था। मैंने उनको कभी खुश नहीं पाया था। आंटी की मृत्यु के बाद तो वह और चिड़चिड़ी हो गयी थीं। यह शादी संभवतः उन्हीं मामा जी ने तय करवायी थी जिनके पड़ोस में आ कर आंटी रहने लगी थीं। महीना बीतते न बीतते छोटी दी वापस मुहल्ले के उसी छोटे से क्वार्टर में लौट आयी थीं। उनकी अपने पति से न पटनी थी, न पटी। शादी टूटने के बाद छोटी दी पड़ोस के एक शहर में किसी स्कूल में नौकरी करने लगी थी।

मैंने भी यूनिवर्सिटी की पढ़ाई खत्म होते-होते शहर छोड़ दिया था। दूसरे शहर में एक सरकारी कार्यालय में मुझे नौकरी मिल गई थी। इस बीच जाॅय को बैंक में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी। उसकी पोस्टिंग राज्य के एक सुदूरवर्ती शहर में हुई थी। जाॅय और मेरे बीच संवाद की स्थिति लगभग समाप्त हो चुकी थी। ‘‘वह कहां है, क्या कर रहा है, उसके हाल-चाल कैसे कैसे हैं? लगभग दस साल मैं इससे पूरी तरह अनभिज्ञ था।

मेरा तबादला प्रदेश की राजधानी में हो गया था, और कमोबेश उसी समय मेरी शादी भी हो चुकी थी। शादी के बाद अपनी नवविवाहिता को लेकर मैं अपने पुराने शहर में था। अपना मुहल्ला (जहां मैं पैदा हुआ था और पला-बढ़ा था), प्राइमरी स्कूल, इंटर कालेज, यूनिवर्सिटी सभी कुछ अपनी पत्नी को दिखा रहा था। शायद हर नौजवान शादी के बाद ऐसी हरकतों को अंजाम देता हो। अपने बचपन के एक दोस्त के घर डिनर में हम लोग गये थे कि उसने सूचना दी कि कुछ दिन पहले जाॅय से उसकी मुलाकात राजधानी में हुई थी। आजकल उसकी पोस्टिंग भी राजधानी में ही है। ‘‘जाॅय उसी शहर में है, जहाँ मैं हूँ ‘‘इस विचार ने मुझे रोमांचित कर दिया था। राजधानी पहुंचने के बाद जाॅय को ढूंढ निकालने का काम एक मिशन की तरह मैने ले लिया था। लेकिन मैं भूल गया था कि जाॅय कौन से बैंक में काम कर रहा है। मैं राजधानी के हर बैंक के क्षेत्रीय कार्यलय में जाकर जाॅय के बारे में पता करता। ‘‘आपकी किसी ब्रांच में जाॅय चक्रवर्ती नाम के सज्जन क्लर्क के रूप में पोस्टेड हैं?’’ मेरा एक ही सवाल होता। पर्सनल मैनेजर मुझे ऊपर से नीचे तक देखता। ‘‘हमारी तो बहुत सारी ब्रांचेज़ हैं, बहुत मुश्किल है, ऐसे पता करना।’’ एक सा जवाब शुरू में हर जगह मिलता। काफी अनुनय-विनय के बाद जाॅय चक्रवर्ती नाम के क्लर्क की खोजबीन होती। कई बार उपहास का पात्र बनना पड़ता। कई बार एक दफ़्तर से दूसरे दफ़्तर भेज दिया जाता। लेकिन कई महीनों की मेरी मेहनत रंग लायी और एक दिन मैं जाॅय के दफ्तर में था।

‘‘ओह जाॅय। तुमको साले कितने दिनों से ढूंढ़ रहा हूँ। आज हाथ लगे हो।’’ मिलते ही हम दोनों लिपट गये थे। लगभग दस वर्षों बाद हम लोग मिल रहे थे। मैं उत्सुक था जानने के लिए कि पिछले दस वर्षों में जाॅय के साथ क्या-क्या बीता।

‘‘मैंने शादी कर ली है और एक बच्ची भी है।’’ मैं लगातार उस जाॅय को ढूंढ़ रहा था जो बात-बात पर मुझसे बहस करता था बल्कि मेरी समाजवादी विचारधारा की खिल्लियाँ उड़ाता था। वह जाॅय जिसे एम0बी0ए0 करने के बाद किसी कंपनी का वाइस प्रेसिडेंट बनना था और एक लम्बी कार लेकर अपने मुहल्ले में पहुँचना  था। लेकिन वहां दूसरा जाॅय खड़ा था जिसे दफ़्तर के बाहर चाय पीने के लिए अपने बाॅस से इजाज़त लेनी थी। जिसके व्यक्तित्व से वह उत्फुल्लता और खिलंदड़ापन ग़ायब था जिसकी चपेट में मैं कई बार आ जाता था।

अपने दोस्त को कैसी बीवी मिली है, यह जानने की उत्सुकता मुझको जाॅय के घर खींच ले गयी थी। लेकिन जाॅय के शब्द बार-बार मेरे कानों में गूंज रहे थे।

    ‘‘छोटी दी के बारे में मेरी पत्नी के सामने कोई चर्चा न करना।’’

    जितनी देर मैं जाॅय के घर बैठा रहा, सोचता रहा कि क्या जाॅय ने अपनी पत्नी को अपने अतीत के बारे में सच-सच कुछ नहीं बताया होगा। मेरे प्रश्नों को अनुत्तरित ही रहना था, क्यूंकि जाॅय से वह मेरी अंतिम मुलाक़ात थी। जाॅय ने उस मुलाकात के बाद न कभी मेरे घर आने का प्रयत्न किया और न ही मिलने की कोई इच्छा जतायी। पिछले बीस वर्षों से एक ही शहर में रहते हुए दुबारा हम फिर कभी नहीं मिले।

लम्बे मैदानी रास्तों को पार कर, घुमावदार पहाड़ी रास्ते होते हुए हमारी गाड़ी जनवासे पहुंच चुकी थी। दिन भर की थकान मिटाने के लिए लड़की वालों ने अच्छा इंतजाम किया था। शाम को कमल की बारात एक बार फिर से सजी। यद्यपि इस बार न तो उतने बाराती थे, न ही सबमें पहले जैसा उत्साह। फिर भी अपने को भरसक खुश दिखाने में बारातियों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। कमल का घर एक बार फिर से बस रहा है, इसी की सबको खुशी थी। एक बेसुरे गले वाले गायक के गाने और उसका साथ देते घटिया कि़स्म के बैंड बाजे वालों की संगत में नाचते-गाते हम सभी बाराती, उस छोटे क़स्बे में लड़की वालों के दरवाजे़ पर पहुंच चुके थे। लड़की के पिता की बहुत वर्ष पहले मृत्यु हो चुकी थी। कमल की भावी सास ही दौड़-दौड़ कर सारी व्यवस्थाओं को अंजाम दे रही थीं। कमल की सास के हाव-भाव से मुझे लग रहा था कि उन्होंने किसी को पता नहीं लगने दिया है कि उनकी बेटी के वर की यह दूसरी शादी है। परंपरागत तरीके से द्वाराचार दूल्हे की सालियों द्वारा जूता चुराने की रस्म और कन्यादान सब कुछ पूरी औपचारिकता के साथ सम्पन्न किया जा रहा था।

एक नास्तिक होने के नाते मैं भगवान से कोई प्रार्थना करने की स्थिति में नहीं था लेकिन फिर भी बार-बार दुआ कर रहा था कि कमल का भविष्य का वैवाहिक जीवन सफलतापूर्वक बीते। मुझे और उसके रिश्तेदारों को भी, उसके तीसरे विवाह में आने का कोई अवसर न प्राप्त हो।   

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प्रतुल जोशी की कविताएँ

प्रतुल जोशी
अपनों का साथ हमेशा सुखद होता है लेकिन जीवन तो वही होता है जो गतिमय होता है इंसान भी इस गति को बनाए रख कर अपने को जीवंत बनाये रखता है लेकिन यहाँ भी एक दिक्कत यह आती है कि जैसे ही वह कहीं दूसरी जगह जाता है, अपने को प्रवासी महसूस करने लगता है प्रतुल जोशी ने इन मनोभावों को अपनी कविता में सफलतापूर्वक उकेरा है प्रतुल की एक और अपेक्षाकृत लम्बी कविता दिलदारनगर भी यहाँ प्रस्तुत की जा रही है जिसमें कई जगहों पर चाहते हुए भी न जा पाने की पीड़ा उभर कर सामने आती है तो आइए पढ़ते हैं प्रतुल जोशी की ये कविताएँ 
 
प्रतुल जोशी की कविताएँ 

आधुनिक प्रवासी 
घिरा नहीं हूँ यारों से 
घिरा हुआ हूँ तारों से 
छूटा घर औ छूटे साथी 
दूर देश में हुआ प्रवासी 
भुला दिया है मुझको सबने 
कहने को हैँ यूँ  सब अपने 
सन्नाटा ही एकांत में साथी 
दूर देश में हुआ प्रवासी 
मोबाइल का अब सहारा 
इंटरनेट ने मुझे उबारा 
फेसबुक पर करके चैटिंग
जुड़ता हूँ फिर मैं सबसे 
घर के हर कमरे में तार 
बन गए हैं मेरे वह यार 
पा कर इन यारों का प्यार 
करता मैं सबको नमस्कार 
कभी गया नहीं मैं दिलदारनगर

हाँ, लेकिन गुज़रा हूँ कई बार
उस रास्ते से

पड़ता है जहां दिलदारनगर

मुगलसराय से बस थोडा आगे

बक्सर से कुछ पहले

जमनिया के आस-पास

गाजीपुर
  का एक कस्बा है दिलदारनगर
दिल्ली हावङा रेल लाइन पर

मिल जाता था हर बार

जब भी गया मैं पटना
, आरा
कलकत्ता या फिर गुवाहाटी
रेल के डिब्बे से

जितना दिख पाता

उतना ही देख पाया हूँ

अब तक मैं दिलदारनगर

जब भी गुजरा मैं

दिलदारनगर के रास्ते
हमेशा सोचता रहा
कि क्या बहुत दरियादिल होते
हैं
दिलदारनगर के वासी?
आखिर क्यूँ पड़ा
नाम इसका
दिलदारनगर?
कुछ और भी तो हो सकता था

जैसे होते हैं बहुत से अबूझ
नाम
सेवईत
, हथिगहा, भदरी
या फिर फाफामऊ

कोई तो कारण रहा होगा
जो हुआ यह दिलदारनगर
जीवन के झंझावातों में

भूल गया था मैं दिलदारनगर

फिर एक दिन
कई वर्षों बाद

टकरा गया एक युवक दिलदारनगर
का                                                 

सुनाई उसने कहानियां बहुत सी दिलदारनगर की
एक मित्र ने भी बताया

कि हो आया है वह

हाल ही में दो -चार बार दिलदारनगर
रह रह कर याद आने लगा

फिर से दिलदारनगर

फिर से याद आया
ट्रेन रूट वह
मुगलसराय से बस थोडा आगे
जमनिया से सटा हुआ दिलदारनगर
फिर घुमड़ने लगे
एक दो नहीं सैकड़ो दिलदारनगर
मेरे भीतर

सैकड़ो
, हज़ारों दिलदारनगर
अलग-अलग ट्रेन रूट पर

स्थित हैं जो
                                                 
 (जिन तक कभी पहुंच नहीं पाया मैं ट्रेन की खिड़की से ही देखा जिनको)
मन हुआ कई बार

कि छोड़ अपना गंतव्य

उतर जाऊं ट्रेन से

ऐसे ही किसी

छोटे-मोटे दिलदारनगर पर

कुछ देर घूमूं

मिलूँ लोगों से

किसी पान की दुकान पर बैठ

फूकूँ एक-आध सिगरेट

पूछूं
, कहाँ तक जाता है
दिख रहा है

सामने जो रास्ता

या फिर

क्या भाव है

मछली का

इस कस्बे में
?
लेकिन

आज तक उतरा नहीं कभी ट्रेन से

बैठा रहा बस चुपचाप

अपनी सीट पर

संतोष कर लिया देख कर

खिड़की से ही

जितना दिख गया

दिलदारनगर
सम्पर्क-
मोबाईल- 09452739500
ई-मेल : pratul.air@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

प्रतुल जोशी का आलेख ‘यादें लूकरगंज की’

 (सौ, लूकर गंज के उस घर का एक दृश्य जिसमें शेखर जोशी रहा करते थे) 

इलाहाबाद अपने साहित्यिक परिवेश के लिए ख्यात रहा है इसके तमाम मुहल्लों में एक से बढ़ कर एक नामचीन हस्तियाँ आसानी से देखने को मिल जाती थीं हम खुद रामस्वरुप चतुर्वेदी, लक्ष्मीकान्त वर्मा, केशव चन्द्र वर्मा, रघुवंश, मार्कंडेय, अमरकान्त, शेखर जोशी, सत्यप्रकाश मिश्र, राम कमल राय जैसी नामचीन शख्सियतों से आसानी से मिलते और बात करते थे इनसे मिल कर हमें यह आभास तक नहीं होता था कि हम किसी बड़ी हस्ती से मिल रहे हैं या बात कर रहे हैं लूकरगंज इलाहाबाद का ऐसा ही एक मोहल्ला है जहाँ पहले कभी नरेश मेहता और शेखर जोशी जैसे रचनाकार रहा करते थे ‘थे’ इसलिए कि नरेश जी ने तो बहुत पहले इलाहाबाद छोड़ दिया था इधर ईजा (चन्द्रकला जोशी) के निधन के बाद हम सबके प्रिय कथाकार शेखर जोशी भी इलाहाबाद अब लगभग छोड़ चुके हैं लूकरगंज की स्मृतियों को हम सबसे साझा कर रहे हैं प्रतुल जोशी ध्यातव्य है कि प्रतुल शेखर जोशी के ज्येष्ठ पुत्र हैं और आजकल आकाशवाणी शिलांग में कार्यरत है       

यादें लूकरगंज की
प्रतुल जोशी
ईजा की मृत्यु के पश्चात इलाहाबाद छूट रहा है लगातार. इलाहाबाद यानी अपना लूकरगंज हिन्दी के ढेर सारे लेखकों के लिए एक जाना पहचाना शब्द था – 100 लूकरगंज शायद बहुत आसान सा पता था, इसलिए सबको याद भी हो जाता था 100 लूकरगंज में हमलोग किराए पर रहने आये थे 1963 में एक लम्बे चौड़े अहाते का नाम है 100 लूकरगंज जिसमें 15-16 छोटे-बड़े मकान आज भी हैं आज से 30-35 वर्ष पूर्व इस अहाते में बहुत से निम्न मध्यमवर्गीय परिवार रहा करते थे मकान मालिक टंडन जी के विशालकाय मकान के अलावा अधिकतर दो कमरे वाले मकान ही इस अहाते की शोभा बढाते थे आज 7-8 परिवार ही इस अहाते में रहते हैं बाकी ने अहाता छोड़ दिया है लेकिन अपने-अपने मकान अपने कब्जे में रखे हैं और उन मकानों पर ताले लटक रहे हैं ठीक पचास साल बाद, 100 लूकर गंज में हमारे परिवार के रहने का पटाक्षेप सा होता दिख रहा है ढेर सारी यादें जुड़ी हैं उस तीन कमरे के मकान से पहले हमारा भी मकान दो कमरे का ही था एक आगे वाला ड्राईंग रूम, फिर एक बड़ा बरामदा. इसके आगे खुला हुआ आँगन, (जिसमें धूप और बरसात का आनन्द हम लोग बचपन से ही लेते रहे) उसके बाद रसोई और रसोई से जुड़ा एक छोटा कमरा, (जिसकी खिड़कियाँ पडोसी मिश्रा जी के मकान से जुड़ी थीं) बहुत बाद में ड्राईंग रूम से जुड़े बरामदे में दीवार डाल कर उसे एक कमरे का रूप दे दिया गया था
 

एक चलचित्र की तरह ढेर सारे फ्रेम उभरते हैं लूकरगंज के। हमारा मुहल्ला यानी लूकरगंज पिछली सदी के छठें, सातवें और आठवें दशक में साहित्यकारों से भरा-पूरा था। लूकरगंज के बाहरी हिस्से खुसरो बाग़ रोड में अश्क जी रहते थे तो लूकरगंज में भैरव प्रसाद गुप्त, नरेश मेहता जी और हमारा परिवार था। लूकरगंज के ही एक दूसरे छोर पर ज्ञानरंजन जी का बंगला था। उस बंगले में उनके पिता स्वर्गीय राम नाथ ‘सुमन’ रहते थे। ज्ञानरंजन जी जबलपुर में रहा करते थे। लूकरगंज में साहित्यकारों के रहने की परम्परा का श्रीगणेश संभवतः श्रीधर पाठक ने किया था। उनका आवास ‘पद्मकोट’ नाम से लूकरगंज में बेतरतीब तरीके से कई वर्षों तक बना हुआ था। अब वहां नयी इमारतें खड़ी हो गयी हैं। और ‘पद्मकोट’ अतीत के पन्नों में समाहित हो गया है। यहाँ प्रसंगवश बताता चलूँ कि मोहल्ले का नाम लूकरगंज एक अंग्रेज श्रीमान लूकर के नाम पर पड़ा था। हमारे घर नियमित रूप से आने वालों में होते थे अमरकान्त जी और भैरव जी (भैरव प्रसाद गुप्त जी)। भैरव जी का मकान हमारे घर से थोड़ी दूरी पर ही था, इसलिए वह प्रायः टहलते हुए चले आते थे। अमरकान्त जी करेलाबाग कालोनी में रहते थे, जो लूकरगंज से लगभग चार किलोमीटर दूर है। वह महीने में एक-दो बार जरुर आते। अमरकान्त जी और भैरव जी को हम बच्चे ‘ताऊ जी’ कह कर संबोधित करते थे। ‘ताऊ जी’ का यह संबोधन केवल भैरव जी और अमरकान्त जी के लिए ही था।

अमरकान्त जी जब करेलाबाग लौटने लगते, तो पापा उन्हें छोड़ने खुल्दाबाद तक जरुर जाते। हमारे घर से लगभग एक किलोमीटर दूर खुल्दाबाद, कभी ‘सराय खुल्दाबाद’ के नाम से जाना जाता था। मुग़लों के जमाने में वहाँ कोई सराय थी, जहाँ यात्री टिका करते रहे होंगे। अब वह एक बाजार है। खुल्दाबाद के मोड़ पर खड़े हो अमरकान्त जी और पापा घंटों बातें करते। उनकी बातों में साहित्य की स्थिति, किसने क्या लिखा, किस रचनाकार की कौन सी कविता या कहानी या उपन्यास ने हलचल मचा दी है, जैसी ढेरों बातें शामिल रहतीं। अमरकान्त जी एक समय में खूब सिगरेट पीते थे। मुझे उनका मुंह से धुंए के गोल-गोल छल्ले निकालना बहुत पसन्द आता था। अमरकान्त जी शतरंज भी बहुत अच्छा खेलते थे। एक बार हम बच्चों को शतरंज का जुनून चढ़ा। मोहल्ले के हम दो-तीन बच्चे दिन-रात शतरंज में जुटे रहते। उसी दौरान अमरकान्त जी घर आ गए थे। मैंने उनके साथ कई बाजियाँ खेलीं और हर बार हारा। 

कभी-कभी मार्कंडेय जी भी दर्शन दे देते। वह जब आते तो रिक्शे से आते। जितने समय वह हमारे घर रहते, रिक्शा बाहर खड़ा रहता। फिर वह उसी रिक्शे से वापस लौटते। उनके आने पर दो-चार किस्म की नसीहतें, मेरे हिस्से में जरुर आ जातीं। मेरी पढ़ाई के बारे में, भविष्य की मेरी योजनाओं के बारे में वह जरुर पूछते और साथ ही कई किस्म के सुझाव देते।
(घर के सामने वाला हिस्सा, दरवाजे पर खड़े शेखर जोशी)  
लूकरगंज में नरेश मेहता जी के घर का नंबर 99 लूकरगंज था और हमारा 100 लूकरगंज। यद्यपि दोनों के बीच एक ही नंबर का फर्क था लेकिन दूरी आधा किलोमीटर से ज्यादा थी। नरेश जी हमारे घर साल भर में केवल एक बार ही आते और वह मौक़ा होता होली का। होली के दूसरे या तीसरे दिन नरेश जी झक सफ़ेद धोती और रेशमी कुर्ता पहने महिमा जी के साथ पधारते। फिर साल भर कभी उनके दर्शन न होते। उनका पुत्र ईशान (जिसकी बाद में एक सड़क दुर्घटना में अपनी शादी के एक साल बाद ही मृत्यु हो गयी थी) बाद में मेरा अच्छा मित्र बन गया था। वह फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी था और जब भी मिलता था, खूब गर्मजोशी से मिलता था।

अश्क जी और भैरव जी का मकान लगभग एक फर्लांग की दूरी पर था। लेकिन दोनों के बीच सम्बन्ध इतने खराब थे कि उनका एक-दूसरे के यहाँ आना-जाना नहीं होता था। इसके चलते अश्क जी हमारे यहाँ भी नहीं आते थे। चूकि पापा भैरव जी के बहुत करीब थे, संभवतः इसीलिए अश्क जी का हमारे यहाँ आना बन्द था। बहुत बाद के वर्षों में अश्क जी ने हमारे यहाँ आना शुरू किया। फिर तो हमारे यहाँ लगातार आते रहे। सफ़ेद चूड़ीदार पाजामे और कुर्ते के साथ, एक टोपी उनकी शोभा बढ़ाती। प्रायः सुबह-सुबह घर के बाहर उनकी आवाज ‘शेखर’ हम लोगों को सुनाई पड़ती। अश्क जी अपने साथ कोई ताजा लिखी हुई कविता ले कर उपस्थित होते और पापा उसके प्रथम श्रोता होने का गौरव प्राप्त करते। 

साल-दो साल में एक बार विश्वनाथ त्रिपाठी भी इलाहाबाद पधारते। शायद उनकी ससुराल इलाहाबाद में थी। उनके आने पर घर में जैसे एक खुशी की लहर दौड़ जाती। अपनी छोटी-छोटी आँखों को नचाते हुए विश्वनाथ जी कई किस्से कहानियाँ सुनाते। उनकी उपस्थिति के दौरान रसोई में कडाही चूल्हे पर चढी रहती। त्रिपाठी जी खाने पीने के बहुत शौक़ीन हैं। ईजा की बनायी हुई साबूदाने की पकौड़ियाँ उन्हें बेहद पसंद थी। वे जिद करके पकौड़ियाँ बनवाते। त्रिपाठी जी के आगमन पर हम लोग कई किस्म की पकौड़ियाँ खाते। त्रिपाठी जी भैरव जी का बहुत सम्मान करते। हमारे यहाँ आने के बाद, भैरव जी के यहाँ जरुर जाते। 

लूकरगंज में तीन-तीन पूर्णकालिक लेखकों (भैरव जी, अश्क जी और नरेश जी) के निवास करने की वजह से हर महीने दो-चार लेखकों का दूसरे शहरों से आना लगा रहता। नरेश जी दूसरी धारा के लेखक थे अतएव उनके यहाँ आने वाले हमारे यहाँ कम ही आते। हाँ, लेकिन जो भैरव जी के यहाँ आता, एक चक्कर हमारे यहाँ जरुर लगा लेता। युवा लेखकों से ले कर बुजुर्ग लेखक प्रायः सभी आते। मेरा अधिकाँश समय या तो अपने घर पर गुजरता या भैरव जी के यहाँ। अगर दो-तीन दिन भैरव जी के यहाँ नहीं जाता, तो फिर मेरी खोज शुरू हो जाती। इसमें कई बार कुछ मजेदार स्थितियाँ जन्म ले लेतीं। एक बार भैरव जी के भतीजे प्रेमचंद उनके घर आए थे। जब वह रिक्शे से अपना सामान लेकर उतर रहे थे, तो मैं वहीँ था। भैरव जी के घर वालों ने कहा ‘अरे प्रेमचंद आ गए।’ मुझे लगा कि हिंदी के महान साहित्यकार प्रेमचंद आये हैं। उस समय मेरी उम्र नौ-दस साल की रही होगी। मैं सीधा घर गया और पापा को बताया कि साहित्यकार प्रेमचंद, भैरव जी के घर आये हैं। पापा ने मुस्कुरा कर पूछा कि ‘कैसे आये हैं?’ मैंने उत्साहपूर्वक बताया कि मय सामान आये हैं। एक होल्डाल और एक बक्सा उनके पास दिख रहा है। पापा ने फिर चुटकी ली। उन्होंने कहा ‘अगर प्रेमचंद जी को आना था तो वह भैरव जी के यहाँ क्यों आये अपने बेटे अमृत राय के घर क्यों नहीं गए।’ पापा की बात उस वक्त मेरे समझ में नहीं आई। 

पापा की नौकरी 508 आर्मी बेस वर्कशाप में थी। और इलाहाबाद शहर के बाहर नैनी के पास छिवकी नामक जगह में। वर्कशॉप के कर्मचारियों को ले जाने के लिए एक शटल इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से छूटती थी। शटल के छूटने के समय से हमारे घर की सारी गतिविधियाँ जुडी हुई थीं। प्रातः पौने छः बजे घर के सभी सदस्य जग जाते। ईजा, पापा का टिफिन तैयार करने में जुट जातीं। पापा सात बजे तक नहा-धो कर तैयार हो कर रेलवे स्टेशन के लिए निकल जाते। इलाहाबाद रेलवे स्टेशन हमारे घर से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर है। पापा वहां सायकिल से जाते। प्रायः उनको शटल मिल जाती। कई बार छूट भी जाती। यह शटल शाम को लगभग पाँच बजे छिवकी से इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पहुंचती थी। सुबह जब किसी कारण से देर हो जाती तो घर में शाम को ईजा जरुर पूछतीं ‘आज शटल मिली या नहीं?’

पापा बताते ‘नहीं वह तो छूट गयी, लेकिन जनता (एक्सप्रेस) खड़ी थी। उससे चले गए।’ सुबह की सारी तैयारियाँ, शटल पकड़ने के लक्ष्य को ध्यान में रख कर होतीं थीं। बेस वर्कशॉप और ट्रेन पकड़ने का चित्रण रिटायरमेंट के बाद पापा ने अपनी कहानी ‘आशीर्वचन’ में बेहद आकर्षक तरीके से किया।

शनिवार पापा का हाफ डे होता था। उस दिन शाम ढाई-तीन बजे तक वे घर आ जाते। लेकिन पाँच बजते न बजते, सिविल लाईन्स स्थित कॉफ़ी हाउस जाने की तैयारियाँ शुरू हो जातीं। उस जमाने में इलाहाबाद के साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के लिए शनिवार की शाम को कॉफ़ी हाउस जाना ऐसा होता था, जैसे ईसाई धर्म मानने वालों के लिए रविवार की सुबह चर्च जाना। शहर के लगभग सभी साहित्यकार और बुद्धिजीवी कॉफ़ी हाउस की अलग-अलग टेबलों पर महफिलें जमाये नजर आते। शनिवार को काफी हाउस नियमित आने वालों में लक्ष्मीकान्त वर्मा, विशंभर नाथ ‘मानव’, विजयदेव नारायण साही, डॉ रघुवंश, भैरव जी, अमरकान्त जी, पापा, मार्कंडेय जी, सतीश जमाली, रवीन्द्र कालिया, दूध नाथ सिंह होते। कभी-कभी हम बच्चे (छोटा भाई संजय और बहन कृष्णा) ईजा के साथ काफी हाउस पहुँच जाते। हमारे साथ भैरव जी का परिवार (ताई जी और मुन्नी दी) जरुर होते। हम लोग वहाँ नहीं बैठते थे जहाँ लेखकों-बुद्धिजीवियों का जमावड़ा होता था। बल्कि हम लोग काफ़ी हाउस की दूसरी बिल्डिंग में बैठते (जो परिवार वालों के लिए बनी है)।
(सौ लूकर गंज का एक विहंगम दृश्य)
पापा के इस टाईम-टेबल के चलते, हमारे घर आने वालों का सिलसिला प्रायः रविवार को ही होता था। रविवार को घर आने वालों में लेखकों-साहित्यकारों के अलावा बड़ी तादाद रिश्तेदारों और वर्कशॉप के कर्मचारियों की होती थी। पापा की आर्मी बेस वर्कशॉप में (जो कि ई. एम. ई. के अंतर्गत आती है) सेना के ट्रकों की मरम्मत का काम होता था। इसके चलते वहाँ सभी ट्रेड के कारीगर काम करते थे। कोई ट्रकों की रंगाई करने वाला रंगसाज था, तो कोई फिटर। कोई बढ़ई था तो कोई तो कोई लुहार। इनमें से कोई न कोई कभी न कभी घर आ जाता। चूकि पापा एक लम्बे समय तक फोरमैन थे, तो इन कारीगरों के इंचार्ज थे। वह लोग संभवतः अपने इंचार्ज से मिलने, अपनी समस्याएँ साझा करने के लिए हमारे घर आते। इनमें से कोई जरुर ‘हेड मैसिंजर मंटू’ रहा होगा और कोई ‘नौरंगी।’ पापा प्रायः कहते- ‘देखो मेरी नौकरी कितनी बढ़ियाँ है जहाँ हर तरह के कारीगर काम करते हैं।’

घर में हम तीन बच्चों के अलावा, समय-समय पर बुआ के तीन बच्चों ने भी हमारे घर पर रह कर पढाई की थी। बुआ-फूफा जी रानीखेत में रहते थे और वहाँ उच्च शिक्षा की कोई सुविधा न होने के चलते, इलाहाबाद में उनका एडमिशन करा दिया जाता। पापा की नौकरी से सीमित आय के चलते और घर में पाँच-छः सदस्यों के होने के कारण आर्थिक स्थिति तंगहाली की ही होती। प्रायः महीने के अन्त में अखबारों की रद्दी बेच कर आर्थिक तंगी दूर करने का उपाय किया जाता। बोनस के रूप में कभी किसी पत्रिका या अखबार से मनीआर्डर आ जाता या आकाशवाणी से बुलौवा, तो घर में ख़ुशी की लहर छा जाती। इस सन्दर्भ में एक पोस्टमैन का जिक्र बड़ा रोचक है। चूकि अलग-अलग क्षेत्रों से महीने-दो महीने में एकाध मनीआर्डर आ ही जाता तो वह पोस्टमैन साहब उस मनीआर्डर में से अपना हिस्सा लेने के लिए बड़ी ही सुनियोजित तैयारी के साथ आते। वह मनीआर्डर की राशि इस तरह प्रदान करते कि उसमें उनका हिस्सा मनीआर्डर प्राप्त करने वाले को देना ही होता। जैसे अगर दो सौ रुपये का मनीआर्डर आया होता तो वह सौ-सौ के दो नोट देने के बजाय, सौ रुपये का एक नोट, पच्चास रुपये का एक नोट, दस रुपये के चार नोट और शेष दस रूपये रेजगारी में देते। अब मनीआर्डर प्राप्त करने वाले के लिए ऐसी कोई स्थिति नहीं बचती कि वह कुछ राशि देने से मना कर देता। इस तरह के न जाने कितने प्रसंग थे जो हमारे बचपन से जुड़े थे।

(घर का स्वागत कक्ष; जिसमें अमरकांत जी के पुत्र अरविन्द बिंदु बैठे हुए हैं)


वर्ष 1984 हमारे परिवार के लिए कुछ अजीबोगरीब परिवर्तन ले कर आया। जैसे शांत से जल में कोई एक पत्थर फेंक दे और उस पत्थर के गिरने से उस जल में रहने वाले जीव-जन्तु और जल स्वयं विचलित हो जाए, कुछ ऐसा ही एहसास हमारे परिवार को 1984 में हुआ। बम्बई से आने वाले एक पत्र ने हम सभी की नींदें उड़ा दीं। पत्र नरु मामा का था। उन्होंने लिखा था कि एक डॉक्टरी जांच के बाद उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी दोनों किडनियाँ खराब हो चुकी हैं। उन्हें जीवित रहने के लिए एक किडनी की जरुरत थी। हमारी माताजी का परिवार बड़ा था। वह दस भाई-बहन थीं। माताजी दूसरे नंबर पर थीं। नरु मामा छठें नंबर पर थे। वह बम्बई में एक मल्टीनेशनल कम्पनी में मार्केटिंग मैनेजर थे। सब लोगों की दिल खोल कर सहायता करने वाले। तम्बाकू और शराब से कोसों दूर। उनकी दोनों किडनी खराब होना, सबको स्तब्ध करने जैसा था। पत्र प्राप्त होते ही ईजा-पापा ने नरु मामा से सम्पर्क किया। 

‘क्या करना होगा किडनी देने के लिए?’

‘पहले कुछ टेस्ट कराने होंगे। अगर उन टेस्ट से मैचिंग हो जाती है तो फिर किडनी ट्रांसप्लांट होगा।’ जवाब आया। 

ननिहाल में सभी नौ भाई-बहनों ने अपने टेस्ट करवाए। लेकिन संयोग यह कि ईजा की मैचिंग सौ फीसदी हुई। पूरे ननिहाल में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी। ईजा का कद परिवार में, पहले ही बड़ा था। सौ फीसदी मैचिंग के बाद और बड़ा हो गया। जसलोक हास्पिटल बम्बई में किडनी ट्रांसप्लांट तय हुआ। ईजा तो हमेशा की तरह मस्त और चिन्तामुक्त। लेकिन पिताजी चेहरे पर चिन्ता की लकीरें साफ़ दिखती हुईं। किडनी ट्रांसप्लांट आपरेशन के ठीक कुछ दिन पहले ‘स्टेट्समैन’ अखबार के मुख पृष्ठ पर एक खबर छपी कि अमरीका या यूरोप के किसी देश में किडनी ट्रान्सप्लान्ट के दौरान दाता की मृत्यु हो गयी। इस खबर ने हम सबका तनाव और घनीभूत कर दिया। उस खबर को पापा और मैंने दोनों ने पढ़ा। पर खबर पर बातचीत करने की हिम्मत किसी की न हुई। दोनों ऐसा प्रदर्शित करते रहे मानो खबर पढी ही नहीं। आपरेशन के बाद हम लोग इस पर खूब हँसे। खैर…

किडनी ट्रांसप्लांट के लिए ईजा-पापा बंबई रवाना हो गए और हम तीन भाई-बहनों की देखभाल के लिए बुआ को भेजा गया। उन दिनों आज की तरह टेलीफोन और मोबाईल की सुविधा नहीं थी। इस लिए किसी ट्रांसप्लांट आपरेशन की सफलता-असफलता की सूचना हमें टेलीग्राम से ही मिलनी थी। आपरेशन वाले दिन रात को दरवाजे पर दस्तक हुई- ‘टेलीग्राम।’ धड़कते दिल से मैंने दरवाजा खोला। टेलीग्राम प्राप्त करने से पहले मैंने डाकिये से पूछा- ‘कोई गड़बड़ तो नहीं। जैसे कोई डेथ-वेथ का समाचार।’ 

‘नहीं ऐसा तो कुछ नहीं’ डाकिये ने सहजता से कहा। मैंने अपने को बेहद तनावमुक्त महसूस किया।

टेलीग्राम खोला तो अन्दर लिखा था- ‘आपरेशन सक्सेसफुल। आल वेल।’

किडनी ट्रांसप्लांट के छः साल बाद तक मामा जी जीवित रहे और ईजा ने तो उसके बाद अट्ठाईस साल तक पूर्ण स्वस्थ हो कर जीवन गुजारा। यहाँ इस बात का जिक्र करना मैं आवश्यक समझता हूँ कि किडनी ट्रांसप्लांट (हिन्दी में यकृत प्रत्यारोपण) एक जटिल किन्तु सामान्य चिकित्सकीय प्रक्रिया है और उसमें दाता के स्वास्थ्य पर कोई असर नहीं पड़ता है क्योंकि डाक्टरों का मानना है कि एक किडनी का आठवां हिस्सा ही पूरे शरीर को बचाने के लिए पर्याप्त है। हाँ, जिसको किडनी प्रत्यारोपित की जाती है, उसे आपरेशन के बाद कुछ समय के लिए थोड़े से साईड इफेक्ट्स हो सकते हैं। अब कुछ बहुत अच्छी दवाएँ आ गयी हैं (जिनमें साईक्लोस्फोरिन एक है) जिनके चलते मरीज लम्बे समय तक स्वस्थ रहता है। मामा जी के समय में ऐसी दवाओं की उपलब्धता नहीं थी।

इलाहाबाद में हम लोगों ने अपना बचपन बड़ी सादगी से गुजारा। ननिहाल में मामाओं और मौसी लोगों के परिवार आर्थिक रूप से अत्यन्त समृद्ध होने पर भी हमारे माता पिता को इस बात की कोई हीन भावना नहीं रहती थी कि हम लोग उन लोगों के मुकाबले आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं। चाहे कोई कितना उच्घ अधिकारी रिश्तेदार या दोस्त आ रहा है या कोई गरीब मजदूर, दोनों को समान व्यवहार मिलता। ईजा की कोशिश होती कि गरीबों के बच्चे पढ़ें। कितनी कामवालियों के बच्चों के एडमिशन के लिए, ईजा ने न जाने कितने स्कूलों के चक्कर लगाए। कितने गरीब बच्चों की उच्च शिक्षा के लिए अपने रिश्तेदारों और परिचितों से धन माँग कर उनकी पढाई की व्यवस्था की। मोहल्ले की कोई पड़ोसन अगर अपनी बहू के साथ बदतमीजी कर रही है तो उससे दुश्मनी की हद तक लोहा लिया। घर के दरवाजे हमेशा सब के लिए खुले रहते। हम भाई बहनों के लखनऊ, गाजियाबाद और पूना बस जाने के बाद, जब भी ईजा पापा इलाहाबाद में होते, घर अड़ोस-पड़ोस के बच्चों से भरा होता। जब कभी हम इलाहाबाद पहुँचते तो घर में बच्चों का राज दिखता। ‘दादा-दादी’ चिल्लाते यह बच्चे घर भर में धमाचौकड़ी मचाते रहते। 

समय ने ऐसा पलटा खाया है कि अब लूकरगंज सिर्फ हमारी स्मृतियों में रह गया है। अभी भी घर में बहुत सारा सामान यथावत रखा है। लेकिन दरवाजे पर लटका ताला एक युग के ‘दि एन्ड’ को प्रतिध्वनित करता नजर आता है। 
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ई-मेल- pratul.air@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त तस्वीरें प्रतुल जोशी ने उपलब्ध करायीं हैं)

अमरकान्त जी पर प्रतुल जोशी का संस्मरण


विगत 17 फरवरी को प्रख्यात कथाकार और हम सब के दादा अमरकान्त जी नहीं रहे. यह हम  सब के लिए एक गहरी क्षति थी. प्रतुल जोशी ने अपने संस्मरण में अमरकान्त जी के साथ बिठाये गए पलों को ताजा किया है. आईए पढ़ते हैं प्रतुल जोशी का यह संस्मरण  


हमारे ताऊ जी “अमरकांत जी”: स्मृति शेष  

प्रतुल जोशी 

सोमवार 17 फरवरी की सुबह लगभग 11 बजे, मैं आकाशवाणी शिलांग में आफिस का कुछ काम निपटा रहा था कि मोबाइल पर आये मैसेज पर निगाह पड़ते ही लगा मानो पांवों के नीचे से ज़मीन खिसक गयी है। इलाहाबाद के एक साथी का मैसेज था “अमरकान्त जी नहीं रहे“। कुछ पलों के लिए मैं संज्ञाशून्य हो गया। समझ में नहीं आया कि शिलांग में अपना दुख किससे साझा करूँ। आकाशवाणी शिलांग में कुछ ही दिन पहले लखनऊ से स्थानान्तरित होकर आया हूँ। अभी कुछ ही लोगों से परिचय हुआ है। यहाँ किसी को बता नहीं सकता था कि यह खबर मुझे कितना दुख देने वाली खबर थी। एक बड़ा दुख यह हो रहा था कि अमरकान्त जी के अन्तिम समय में उनके पास नहीं पहुँच पा रहा हूँ।

अमरकांत जी और पापा (श्री शेखर जोशी) का लगभग 60 वर्षों का साथ था। पचास के दशक में पापा ई0एम0ई0 (भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय का एक प्रतिष्ठान) में नौकरी करने इलाहाबाद आये थे और फिर इलाहाबाद में ही लगभग 56 वर्ष रहे। हमारी माता जी स्वर्गीय चन्द्रकला जोशी के निधन के पश्चात् सन 2012 में इलाहाबाद शहर हमारे परिवार के लिए छूट गया सा है। इलाहाबाद में पापा के सबसे निकटस्थ अमरकांत जी ही थे। सन 1956 से 60 के दौरान पापा और अमरकांत जी एक साथ करेलाबाग लेबर कालोनी में रहे। बाद में पापा, करेलाबाग कॉलोनी छोड़ कर लूकरगंज आ गये थे लेकिन अमरकान्त जी लम्बे समय तक करेलाबाग काॅलोनी में ही रहे। सन् 1965 से अमरकांत जी ने माया प्रेस, इलाहाबाद में नौकरी की और वहां से निकलने वाली पत्रिका “मनोरमा“ में एक लम्बे समय तक सम्पादक रहे। पापा से उम्र में लगभग 7 वर्ष बड़े होने के कारण हम बच्चे अमरकान्त जी को “ताऊ जी“ कह कर बुलाते थे। करेलाबाग कॉलोनी से लूकरगंज की दूरी लगभग 4 किमी0 की होगी। प्रायः अमरकान्त जी हमारे घर आ जाते और जब वह नहीं आते तो हम लोग उनके घर करेलाबाग कॉलोनी पहुँच जाते। यह सिलसिला सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों तक चला। इसके बाद अमरकान्त जी ने बहुत से मकान बदले। कभी करेली तो कभी दरियाबाद फिर महदौरी कॉलोनी। आखिर में अशोक नगर में छोटा सा अपार्टमेन्ट खरीदा। वह जहां भी रहे, हम लोगों का आना-जाना उनके घर नियमित रूप से लगा रहा। 

पचास के दशक में हिन्दी साहित्य में जिस ‘नयी कहानी’ आन्दोलन की शुरूआत हुई, उसके अग्रणी लेखकों में अमरकान्त जी का नाम लिया जाता रहा है। ‘नयी कहानी’ आन्दोलन के अन्य चर्चित लेखक थे राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, मार्कण्डेय, भीष्म साहनी आदि। उस दौर के बहुत से लेखकों ने जहां अपने को स्थापित करने के लिए काफी मेहनत की और बड़े-बड़े संस्थानों से जुड़े, अमरकान्त जी बिना किसी महत्वाकांक्षा के इलाहाबाद में करेलाबाग कॉलोनी के एक छोटे से मकान में रहते हुए कहानियाँ लिखते रहे। “दोपहर का भोजन“, “जिन्दगी और जोंक“, “डिप्टी कलक्टरी“, “हत्यारे“ जैसी दर्जनों कहानियाँ अमरकान्त जी ने एक बहुत छोटे से मकान में बैठ कर लिखी जो आज हिन्दी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुई हैं।

मैंने अपने जीवन में अमरकान्त जी जैसा विनम्र, प्रतिबद्ध, धैर्यवान और शान्त लेखक कोई दूसरा नहीं देखा। सन् 1984 में अमरकान्त जी को सोवियतलैन्ड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस पुरस्कार के तहत उनको रूस की यात्रा का निमंत्रण मिला था। अमरकान्त जी रूस के कई शहरों की यात्रा कर जब इलाहाबाद लौटे तो हम लोगों के लिए एक सुन्दर घड़ी ले कर आये थे। घड़ी में लकड़ी का छोटा सा पेंडुलम दायें बायें चलता था और एक चिडि़या दो छोटे-छोटे दरवाजे खोलकर हर घण्टे बाहर निकलती थी। कुछ दिन वह चिडि़या बाहर आती रही। बाद में पेंडुलम का चलना बन्द हो गया और चिडि़या का बाहर निकलना भी। लेकिन घड़ी बहुत दिनों तक हमारे घर के ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाती रही। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि उनको रूस में क्या अच्छा लगा? अमरकान्त जी ने बड़े ही सहज भाव से उत्तर दिया कि रूस में उन्हें सबसे अच्छा लगा कि वहां लेखकों का बड़ा सम्मान है। हर शहर में लेखकों की मूर्तियाँ शहर के कई चौराहों पर लगी दिखती हैं। लेखकों के घरों को उनकी मृत्यु के सौ वर्षों के पश्चात् भी पूरे सम्मान के साथ सुरक्षित रखा गया था। अमरकान्त जी कुछ प्रसिद्ध रूसी लेखकों के घर देख कर भी आये थे। 

अमरकान्त जी जीवन भर प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे। प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजनों और बैठकों की तैयारी के समय वह अत्यन्त उत्साह में होते थे। उनके व्यक्तित्व के जिस पक्ष से मैं सबसे ज्यादा प्रभावित था, वह था कि मैंने उनके मुंह से कभी किसी के लिए अपशब्द या बुराई नहीं सुनी। यहाँ तक की जिन व्यक्तियों ने उनको कभी धोखा दिया, उनके बारे में भी वह कटुता नहीं रखते थे। हर एक के बारे में वह बड़े आदर से बात करते। अपने घरेलू जीवन में उन्होंने अत्यन्त आर्थिक दुश्वारियों का सामना किया, किन्तु विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी वह अत्यन्त शांत रहते और अपना धैर्य नहीं खोते थे। कोई भी बड़े से बड़ा सम्मान या प्रसिद्धि, उनके लिए अत्यन्त सामान्य बात थी। सतत् रचनाशील रहना उनकी जीवन शैली बन गया था। 

अमरकान्त जी जब भी हमारे घर आते, तो पापा उन्हें छोड़ने खुल्दाबाद तक जरूर जाते। खुल्दाबाद हमारे घर से लगभग 1 किमी0 दूर है। खुल्दाबाद, एक छोटा सा बाजार है जहां सड़क के दोनों तरफ दुकानें हैं। खुल्दाबाद के मोड़ पर खड़े हो, दोनों काफी लम्बे समय तक बातें किया करते। इस बातचीत में साहित्य की स्थिति, किस लेखक ने क्या नया लिखा, कौन सी नई साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित हुई जैसे साहित्य से जुड़े तमाम विषय शामिल होते। 

सत्तर के दशक में अमरकान्त जी सिगरेट खूब पीते थे। उनका मुंह से धुँए के गोल-गोल छल्ले निकालना मुझे बेहद पसन्द आता था। यद्यपि बाद में उन्होने सिगरेट छोड़ दी थी। अमरकान्त जी शतरंज भी बहुत अच्छा खेलते थे। एक बार हम बच्चों को शतरंज खेलने का जुनून चढ़ा। दिन-रात हम लोग शतरंज में डूबे रहते। उसी दौरान अमरकान्त जी घर आ गये। मैंने उनसे कई बाजि़यां खेलीं और हर बार हारा। वह समझाते की देखो शतरंज में प्रतिद्वंद्वी के मोहरों को तुरत खत्म करने की बजाये, बेहतर है कि एक सुलझी हुई रणनीति से मात दी जाए। औसत कद के, गौरवर्ण अमरकान्त जी हमेशा बहुत शान्ति से बात करते। 

सन 1988 में मैंने इलाहाबाद छोड़ दिया था। आकाशवाणी में अपनी नौकरी के चलते कानपुर, लखनऊ, ईंटानगर रहता रहा। लेकिन जब भी मैं इलाहाबाद जाता, पूरी कोशिश करता की एक बार अमरकान्त जी से मिलूं, उनके दर्शन करूँ। लगभग 6 माह पूर्व, पिछले वर्ष सितम्बर के महीने में आखिरी बार उनसे मुलाकात हुई। उन वक्त मुझे लगा कि शायद उन्हें विस्मृति की बीमारी हो रही है। मुझे पहचानने में उन्हें कुछ दिक्कत हो रही थी। अमरकान्त जी के कनिष्ठ पुत्र अरविन्द बिन्दु ने उन्हें कहा “प्रतुल आये हैं“। सुनकर ताऊ जी थोड़ी देर तक मुझे पहचानने की कोशिश करते रहे। फिर लगा कि उन्होंने मुझे पहचान लिया है। वह हमेशा की तरह गर्मजोशी से बोले “और क्या हाल-चाल हैं? कैसे हो?“ मैं अन्दर ही अन्दर जैसे कराह उठा। मैंने मन ही मन कहा “ओह ताऊ जी, जीवन भी कितना कठोर है। बचपन से मैं आपकी गोद में ही पला-बढ़ा। और आज उम्र के इस पड़ाव पर आ कर आप कितने मजबूर हो गयें हैं। अब मुझको पहचानने में भी आपको इतना वक्त लग रहा है।“

ताऊ जी से मिलने के बाद पहली बार मुझे बेहद अफसोस हो रहा था। उनकी स्मृति के खत्म हो जाने का अंदेशा मुझको भीतर ही भीतर कहीं गहरे तक लग रहा था। यह सोच कर और दुख हो रहा था कि जिस व्यक्ति ने अपनी गम्भीर बीमारी के बावजूद कई कहानियों और उपन्यासों की रचना की थी, वह अंततः अपनी उम्र से हारता सा दिख रहा था। हड्डियों की बीमारी ऑस्टियोपोरोसिस से वह लगभग 17 वर्षों तक जूझते रहे। अपनी इस गम्भीर बीमारी के बावजूद उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास “इन्हीं हथियारों से” लिखा। इस उपन्यास के लिए उन्हें साहित्य अकादमी और व्यास सम्मान भी प्राप्त हुये। 

अमरकान्त जी से मिलने के बाद लगातार मैं उनके हालचाल अपने मित्रों, परिचितों से लेता रहा। जिससे भी बात करता, वह कहता कि वह बिल्कुल ठीक हैं। जानकर बेहद खुशी होती। लेकिन अचानक 17 फरवरी की सुबह जब अमरकान्त जी के निधन की खबर मिली तो लगा कि यह क्या हो गया। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके घर फोन कर बात की तो पता चला कि एक दिन पहले तक वह पूर्णतया स्वस्थ थे। चार-पांच लोगों की एक टीम उनके यहां आयी थी और उन्होंने एक इण्टरव्यू भी दिया था। लेकिन दूसरे ही दिन हृदय गति रूकने से उनका देहावसान हो गया। अमरकान्त जी पर एक फिल्म मेरे छोटे भाई और फिल्मकार संजय जोशी ने साहित्य अकादमी के सहयोग से बनाई है।

अब अमरकान्त जी हम लोगों के बीच नहीं हैं लेकिन उनकी रचनायें अभी कई पीढि़यों को सुसंस्कारित करती रहेंगी। निम्न मध्यम वर्ग की पीड़ा को उन्होंने जिस कलात्मकता के साथ अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है, वैसा हिन्दी साहित्य में कम ही लेखकों ने लिखा है। उनका इस दुनिया से जाना, एक विलक्षण प्रतिभा का संसार से चले जाना है। न केवल उनकी रचनाओं वरन् उनके जीवन से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अमरकान्त जी अपनी रचनाओं के माध्यम से अमर रहेंगे।   




सम्पर्क-

कार्यक्रम अधिशासी 
आकाशवाणी 
शिलांग 
मोबाईल – 09452739500

प्रतुल जोशी

आज का जमाना बहुत बदल गया है. अभी तक हमारे दिलो-दिमाग में घरों की जो अवधारणा थी अब वह बदल रही है. अब घर का मतलब फ़्लैट से लिया जाने लगा है. पहले टेलीविजन और मोबाईल ने हमें एकाकी बनाया अब फ़्लैट हमें समेटने लगा है, बकौल नरेश सक्सेना, उस अवधारणा में ‘जिसकी कोई जमीन नहीं होती, ना ही जिसका कोई आसमान होता है.’ कवि प्रतुल जोशी ने इस तथ्य को बाल मानसिकता से देखने की कोशिश की है जिसमें उन्हें बहुत कुछ परम्परागत चीजें और तथ्य बताये-समझाये जाते हैं जिसमें घर भी एक है. आखिर बच्चों को बदलते समय के साथ बदलती चीजों के बारे में न बता कर उनके इर्द-गिर्द एक भ्रम का माहौल क्यों बनाया जाता है. इसी क्रम में जब वे बड़े होते हैं, वास्तविकता से साबका पड़ता है, तो उन्हें अब तक का सब पढ़ा-जाना बेमानी लगने लगता है. तो आईये पढ़ते हैं कुछ इसी भाव-भूमि की प्रतुल जोशी की यह कविता    

बच्चों की ड्राइंग-कॉपी के घर

बच्चे आज भी बनाते हैं
अपनी कॉपियों में
वही पुराना घर
जो दो सीधी रेखाओं के ऊपर
एक तिकोन से बनता है।

फिर उस घर के ऊपर
डाल दी जाती हैं एक छत
उसके लिए भी
सीधी रेखाओं का ही इस्तेमाल होता है।

घर के सामने से
निकलता है एक रास्ता
कोई नहीं होता है मौजूद
उस रास्ते पर

घर के पीछे होते हैं बादल
कुछ पेड़
एक बाड़ भी
दिख जाती है कभी-कभी

बच्चों की दुनिया को
यही समझाया जाता है
कि ऐसे ही होते हैं घर

बच्चे
अपना वह घर नहीं बनाते
जिसमें रहते हैं वो
यह घर
झोपड़ी भी हो सकती है
हवेली भी
और हो सकता है कोई एक फ्लैट भी

बच्चों की दुनिया को
रखा जाता है
सीधा और सरल
जीवन की जटिलताओं का
नहीं होता है उसमें प्रवेश

बच्चे जब बडे़ होते हैं
तो उन्हें समझ में आता है
कि उन्होंने जो पढ़ा था अपनी कक्षाओं में
यह दुनिया है
उससे बहुत अलग

अब ऐसे घर
बहुत कम मिलते हैं
जो होते हैं सिर्फ एक मंज़िला
जिनके सामने से
निकलती है एक सड़क
जिनके पीछे होते हैं
कुछ पेड़ और बादल

संपर्क-
प्रतुल जोशी
मो0- 9452739500
ई-मेल: pratul.air@gmail.com

प्रतुल जोशी

पोनुंग पार्टी

अभी सो रही है पोनुंग पार्टी
बेख़बर, अलमस्त,
प्रातः की इस नव बेला में
जब सूरज अपनी ज़िम्मेदारी निभाता
उठ जाता है बहुत सबेरे
यहां देश के इस भू-भाग में
(जिसका नाम
सूर्य के ही एक पर्यायवाची के नाम पर
रख दिया था
किसी ने वर्षों पहले)
रात भर रही होंगी
नृत्य में मशगूल
वर्ष के यह चार दिन
आते हैं
इन सबके हिस्से
जब कोई नहीं कहता
कि उठो,
देखो सूरज चढ़ आया है
बस्ती के ऊपर
और तुम सब
सो रही हो अब तक
अलग-अलग बस्तियों(1) में
सक्रिय हो जाती है पोनुग पार्टी
अलग-अलग रंगों के गाले(2)
ढेर सारी मालाऐं
कमर में उगी(3)
हाथों में कोंगे(4)
किने नानी(5) को याद कर
मिरी(6) के बोलों पर
हाथों में हाथ डाले
शुरू कर देती हैं
सब मिल कर पोनुंग(7)
(घड़ी के पेंडुलम  सी
दांयें से बांयें
बांयें से दांयें हिलती
आगे बढ़ती)
दो लाइनें मिरी की
फिर उन्हीं लाइनों को दुहराती
रात भर
नृत्य करती है
पोनुंग पार्टी
क्या कहता है मिरी
क्या है
उसके अबूझ
बोलों का अर्थ
न जाने कितना समझती हैं
न जाने कितना बूझती हैं
बस नृत्य करती रहती हैं
रात भर
एक सी गति
एक सी लय
एक सा धैर्य
एक सा विचार
मालूम है सबको
आ पहुँचा है सोलुंग त्यौहार
नहीं है
किसी को ध्यान
बीत रहा
कौन सा प्रहर रात्रि का
और
शेष है कितना समय
प्रातः की बेला का
जीवन और दुनिया की
जटिलताओं से दूर
मस्त है
अपने गीतों में
बस्ती की पोनुंग पार्टी
अगले दिन होगा
दावतों का दौर
दिन भर
जायेंगी सब
बस्ती के घरों में
खाऐंगी मिथुन(8)
या फिर गावरी(9)
हो सकता है
मिल जाये मुर्ग़ा भी
यह तो तय हैं
होगा काला अपुंग(10)
शाम ढलते
फिर सक्रिय हो जायेगी
पोनुंग पार्टी
कुछ नये सदस्य जुड़ेंगे
कुछ करेंगे आज आराम
देश के मुख्य भू-भाग से दूर
यहां न सीता है, न राम
चार दिनों तक
नाच कर भी
नहीं थकेगी
पोनुंग पार्टी
नहीं जाना है
इनको दिल्ली
नहीं जाना है विदेश
यह तो
बस मस्त हैं अपने पासीघाट में
यिंगकियोंग में
या फिर आलोंग में
हां देख लेते हैं कभी-कभी
बस
ईटानगर या फिर
डिब्रूगढ़ तक
जाने का सपना भी

यह कविता अरूणाचल प्रदेश के ज़िलों ईस्ट सियांग, वेस्ट सियांग और अपर सियांग में निवास करने वाली आदी जनजाति के प्रमुख त्यौहार सोलुंग में होने वाले नृत्य पोनुंग पर आधारित है। पोनुंग में भाग लेने वाले सदस्यों की टीम को ‘‘पोनुंग पार्टी’’ कहा जाता है।

संकेत

1.  अरूणाचल में गांवों को ‘बस्ती’ से संबोधित किया जाता है।
2.  महिलाओं द्वारा साड़ी के स्थान पर पहने जाने वाला वस्त्र। यह लुंगी की तरह होता है और प्रायः    महिलायें इसे करघे पर स्वयं निर्मित करती है।
3.  करघनी
4.  अलमूनियम या पीतल के आभूषण जो कलाई के ऊपर पहने जाते हैं।
5.  सोलुंग पर्व की देवी
6.  पुजारी जो हाथों में चिमटा जैसे यंत्र को लेकर गीत के बोल प्रारम्भ करता है।
7.  महिलाओं द्वारा किया जाने वाला सामूहिक नृत्य।
8.  बैल और भैस के बीच का जानवर जिसकी अरूणाचल के विभिन्न पर्वो पर बलि दी जाती है।
9.  सुअर
10.  चावल से बनी देसी बीयर ।

मो0- 09452739500

प्रतुल जोशी

 

प्रतुल जोशी का जन्म इलाहाबाद में २२ मार्च १९६२ को हुआ. पिता शेखर जोशी एवम  माँ  
चन्द्रकला जी के सानिध्य में प्रतुल को बचपन से  ही साहित्यिक  परिवेश  मिला.  

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से १९८४ में अर्थशास्त्र से परास्नातक.पिछले २३

वर्षों से आकाशवाणी से जुड़ाव.वर्त्तमान में आकाशवाणी लखनऊ में कार्यकम अधिशाषी.रेडियो के लिए बहुत से नाटकों का लेखन.वहीं बहुत सारे रेडियोफीचर्स का निर्माण.समय समय पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में संस्मरण,व्यंग्य,यात्रा-वृतांत,कविता के रूप में योगदान.

एक यात्रा पोनुंग के नाम

मै पासी घाट (अरुणाचल प्रदेश) जा रहा हूँ. यह कल्पना ही मुझे रोमांचित कर रही है. रोमांच का दूसरा कारण था यह सोचना कि इस बार पासी घाट, ब्रह्मपुत्र को स्टीमर द्वारा पार कर पहुँचा जायेगा. पहले भी दो बार पासी घाट गया हूँ.  लेकिन दोनों बार दो अलग-अलग रास्तों से. २००५ के दिसंबर  महीने में   जब  पहली बार पासी घाट (असम के धेमा जी होकर) जाने का अवसर मिला था तो बस तो जैसे पासी घाट को छुआ था. अचानक पता चला की टूटिंग में पहले  सियांग नदी   उत्सव का आयोजन  है और

अरुणाचल प्रदेश राज्य सरकार के सूचना जनसंपर्क विभाग की गाडी में मेरे लिए भी
एक सीट आरक्षि हो गयी है. अपुन के लिए यह किसी बड़ी खुशी से कम का अवसर नहीं  था.
टूटिंग यानी भारत चीन सीमा पर मैक मोहन लाइन के पास का एक कस्बा. अरुणांचल  प्रदेश  के सुदूर
हिस्सों  को करीब से देखने की इच्छा  ईटानगर में  पहुँचने के बाद से तीव्र  हो गयी थी. ईटानगर में मैं मई 2004 में पहुंचा था. आकाशवाणी ईटानगर में कार्यक्रम अधिशाषी के रूप में स्थानान्तरित हो कर. तो २००५ के दिसंबर में टूटिंग जाते समय पासी  घाट रूका  था.रात्रि विश्राम हेतु.  २००७ की जनवरी में दुबारा पासी घाट गया था. इस बार अरुणाचल के अन्य कस्बे आलोंग पहुंचा था. फिर आलोंग के रास्ते पासी घाट में प्रवेश किया था. मौका था दूसरे सियांग नदी उत्सव  में भाग लेने का. 

जून २००७ में ईटानगर से स्थानान्तरित हो कर मैं लखनऊ आ गया था.
ईटानगर में रहते हुए अरूणाचल की विभिन्न जनजातियों के त्यौहारों में मैं शरीक हुआ था. चाहें प्रतिवर्ष ५ अप्रेल को मनाया जाने वाला ‘गालो’ जनजाति का मोपिन उत्सव हो. 5 जुलाई को मनाया जाने वाला ‘आपातानी’ जनजाति का ‘द्री’ उत्सव हो, २६ फरवरी को मनाया जाने वाला ‘निशी’ जनजाति का न्योकुम उत्सव हो, १४ अप्रैल को मनाया जाने वाला ‘खाम्ती’ जनजाति का सानकेन उत्सव हो या फिर…………… लिस्ट बहुत लम्बी है. क्योकि अरुणाचल में २६ प्रमुख जनजातियां प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों का प्रतिनिधित्व करती है. और इनमें से अधिकांश जनजातियों के उत्सव ईटानगर में भी आयोजित होते है .

लेकिन इन सबसे अलग जिस त्यौहार ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया था वह था अरुणाचल के ईस्ट सियांग और अपर सियांग जिलों में रहने वाली आदी जनजाति के त्यौहार सोलुंग ने. अरुणाचल से जुडी किताबों में पढ़ा था और ईटानगर में अपने मित्रों से सुना भी था कि सोलुंग त्यौहार में आदी जनजाति की महिलायें अपनी बस्तियों में (अरुणाचल में गाँव को बस्ती कहने का रिवाज है ) ४ रात तक लगातार नृत्य करती हैं. यद्यपि ईटानगर में भी सोलुंग त्यौहार को ४ दिनों तक मनाये जाने की परम्परा है लेकिन यहाँ सोलुंग का स्वरूप नागरी है. यहाँ एक मैदान का नाम ही ‘सोलुंग ग्राउन्ड’ है. और महिलायें एवं बच्चे प्रतिवर्ष १ सितम्बर से ४ सितम्बर सुबह से शाम तक बहुत सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम इस मैदान में प्रस्तुत करते हैं..

तो अरुणाचल प्रवास में मन में दबी जिज्ञासा को शांत करने के लिए हमने कमर कस ली कि इस बार सोलुंग का आनंद पासी घाट की किसी बस्ती में जा कर लिया जाएगा. और यह भी देखेंगे कि क्या यहाँ महिलायें ४ दिन तक नृत्य करती हैं? अरुणाचल छोड़े ४ वर्ष का समय बीत चुका है, लेकिन अरुणाचल की लोक संस्कृति की मोहकता ने अब तक ऐसा सिक्का जमा रखा है  कि बार-बार अरुणाचल जाने का मन करता है. २८ अगस्त २०११ को लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन से जब हमने अपनी यात्रा शुरू की तो खुशी, उत्साह और उत्सुकता के मिश्रित भाव हमारे चेहरों पर थे. इस यात्रा में मेरे हमराह थे पत्रकार मित्र सुन्दर अय्यर जो अपने फोटोग्राफी शौक के चलते पत्रकारिता को त्याग कर अब दिन-रात फोटोग्राफी में ही जुटे हैं.

(चित्र 1: ब्रह्म पुत्र नदी में जहाज)

गौहाटी की उमस और गर्मी को झेलते हुए गौहाटी से डिब्रूगढ़ जाने के लिए जब हम कामरूप एक्सप्रेस में बैठे तो एक नए रेल पथ को देखने का उत्साह मन में हिलोरें मार रहा था. गौहाटी से डिब्रूगढ़ जाने का पूरा रास्ता बेहद नयनाभिराम दृश्यों से भरा हुआ था. खेतों में दूर दूर तक खड़ी धान की फसल को देख कर ऐसा लगता जैसे किसी ने धरती को एक लम्बी चौड़ी हरी चादर से ढक दिया हो. इसके साथ ही छोटे-छोटे जलाशयों में ढेर सारा पानी तो कहीं खेतों के पीछे दिखती छोटी-छोटी पर्वत श्रृंखलाएं. मन होता गाड़ी की चेन खींच इन दृश्यों को निहारते रहें. लेकिन हमारी मंजिल तो अभी आगे थी. पहले हमें डिब्रूगढ़ पहुचना था फिर वहां से ब्रह्मपुत्र को पार कर पासी घाट. सुबह ६ बजते बजते हम डिब्रूगढ़ में थे और थोड़ी देर बाद ही ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे. घाट पर स्टीमर यात्रियों को दूसरे छोर पर ले जाने की तैयारी में खडा था. स्टीमर में धीरे धीरे सवारियां भर रहीं थी. यात्रियों के साथ एक जिप्सी और २ मोटर सायकिलें अपनी जगह बना चुकी थीं. भुक-भुक की आवाज के साथ जब स्टीमर ने घाट का किनारा छोड़ा तो मैं एक बार फिर स्मृतियों के प्रांगण में बिचरने लगा.

(चित्र 2: पासी घाट में एक पारंपरिक घर)
पासी घाट यानी अरुणाचल का सबसे पुराना नगर. पासी घाट यानी सियांग के तट पर एक लम्बी चौड़ी घाटी में बसा अरुणाचल के ईस्ट सियांग जिले का मुख्यालय. पासी घाट यानी आदी जनजाति के पदम्, मिन्योंग और पासी लोगों का मूल निवास स्थान. जब अरुणाचल के अन्य हिस्सों में विकास की कोई रोशनी नहीं थी जब अरुणाचल सिर्फ घने बनों से आच्छादित था, उस समय भी पासी घाट में स्कूल कालेज थे. प्रदेश का पहला महाविद्यालय और पहला रेडियो स्टेशन भी पासी घाट में ही खुला. अरुणाचल का एक मात्र हार्टीकल्चर कालेज भी पासी घाट में ही है. अरुणाचल में और ढेर सारी चीजों की शुरूआत पासी घाट से ही हुई. लेकिन पासी घाट में मेरी रुचि यहाँ के संस्थानों को लेकर कदापि नहीं थी. मैं तो सिर्फ और सिर्फ सोलुंग के लिए यहाँ जा रहा था. बल्कि सोलुंग के अवसर पर होने वाले पोनुंग नृत्य को देखने में मेरी रुचि थी. प्रति वर्ष १ से ४ सितम्बर तक सोलुंग त्यौहार पासी घाट और आस-पास के क्षेत्रों में खूब जोश और उत्साह से मनाया जाता है.

१ सितम्बर को हम लोग उस मैदान में थे जहां कुछ देर बाद सोलुंग उत्सव का विधिवत उदघाटन होना था. मुख्य अतिथि के स्वागत के लिए परम्परागत परिधानों में स्थानीय निवासी उपस्थित थे. स्वागत का मुख्य दायित्व स्थानीय सांसद निनोंग एरिंग ने संभाल रखा था. तो मुख्य अतिथि स्थानीय विधायक और राज्य के शिक्षा मंत्री बोसी राम सीराम थे. मुख्य अतिथि के आगमन के साथ ही परम्परागत वेश भुसा में सजी महिलाओं ने सोलुंग गीतों और नृत्य के द्वारा मुख्य अतिथि का स्वागत किया. इसके बाद सोलुंग ध्वज को फहराकर मुख्य अतिथि ने त्यौहार का औपचारिक उदघाटन किया. मुख्य कार्यक्रम सोलुंग मैदान में ही बने एक बड़े हाल में आयोजित किया गया. विभिन्न प्रतियोगिताओं में विजयी बच्चो को पुरस्कृत करने के बाद एवं मुख्य अतिथि एवं वक्ताओं के संबोधन के पश्चात लड़कियों और महिलाओं के विभिन्न गुटों ने आकर्षक नृत्य प्रस्तुत किये. अपने मित्र सुन्दर अय्यर के साथ जब मैं सर्किट हाउस लौटने की तैयारी में था कि तभी हमारे पुराने मित्र और आकाश वाणी पासी घाट में कार्यक्रम अधिशाषी किजीर मिन्दो ने हमें सूचित किया कि हमारा लंच कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के घर पर है. यानी जो थोड़ी देर पहले मेहमान थे अब मेजबान हो गए थे. मिन्दो भाई की कार से हम लोग प्रदेश के शिक्षा मंत्री बोसीराम सीराम के घर पहुचे तो वहां पहले से ही काफी लोग मौजूद थे. परम्परागत रूप से बनाए गए बांस के एक लम्बे-चौड़े हाल में सामने एक छोटे से मंच पर सोलुंग गीतों के साथ ही नेपाली गीतों के साथ नृत्य करती किशोरियां थीं. तो वहीं दूसरी तरफ सिराम साहब बेहद आत्मीयता से आगंतुकों से मिल रहे थे. और सबको भोजन के लिए आमंत्रित कर रहे थे. .

(चित्र 3: मेहमानो का स्वागत करते स्थानीय सांसद)
शाम को हमें उस कार्यक्रम में शरीक होना था जिसके लिये  हम लोगों ने इनी  लम्बी  यात्रा  की  थी. 
टानगर  प्रवास  के दौरान मेरे  मित्रता पासी घाट के ही रहने वाले  सोलुंग तांगु  नाम  के नवयुवक के साथ हो गयी थी. मैं अरुणाचल विश्वविद्यालय  के पत्रकारिता  एवं जनसंचार विभाग में 
विजिटिंग  फैकल्टी था. और सोलुंग वहां एक छात्रधीरे  धीरे  गुरू –शिष्य  से  हम  मित्र बन गए. सोलुंग तांगु दरअसल सोलुंग उत्सव के दिन यानी १ सितम्बर को पैदा हुआ था, इसलिए घर वालों ने उसका नाम सोलुंग रख दिया था. वर्तमान में सोलुंग अरुणांचल के ही अनजाव जिले में केन्द्रीय सरकार के एक कार्यालय में नियुक्त है. छूट्टी नहीं मिलने के कारण वह पासी घाट में नहीं था लेकिन उसने यह व्यवस्था कर दी थी की हम उसके ससुराल में जा कर सोलुंग पर्व का आनंद उठा सकें. पासी घाट से लगभग २० किलो मीटर दूर एक गाँव में हम लोग शाम होते होते पहुँच चुके थे.

(चित्र 4: पोनुंग नृत्य के सदस्य)

गाँव में पोनुंग की तैयारियां चल रहीं थीं. पोनुंग महिलाओं द्वारा किया जाने वाला एक सामूहिक नृत्य है, जिसमे महिलाओं की संख्या निर्धारित नहीं होती. रात्रि ८-९ बजे से शुरू हो कर सुबह ४ बजे तक यह नृत्य चलता है. नृत्य एक गोल घेरे में होता है. गोल घेरे के बीच एक पुरुष गायक (जिसे मिरी कहते हैं.) कुछ पंक्तियाँ गाता है फिर महिलाएँ उन्हीं पंक्तियों को दुहराती हैं. इस दौरान वह अपने दोनों हाथों और पांवो को आगे-पीछे ले जाते हुए दायीं ओर बढ़ती हैं. मिरी द्वारा गाये जा रहे बोलों में सृष्टि के बनने, मनुष्य की उत्पत्ति, मनुष्य की बुराइयों पर जीत, संसार में मनुष्य और उसके सद्गुणों के स्थापित होने का वर्णन जैसी बहुत सी चीजें शामिल होती हैं. वहीं आधुनिक समय में मनोरंजन की दृष्टि से नयी लाइनें भी जोड दी गयी हैं. रात लगभग ९ बजे के आस पास सभी उम्र की महिलाओं का दल बांस के बने एक सामुदायिक हाल में पहुँच गया था. इस सामुदायिक हाल को ‘नामघर’ के नाम से जाना जाता है. जहां ‘नामघर’ के भीतर महिलाओं के अलावा गाँव के बड़े बूढ़े और नौजवान थे वहीं ‘नामघर’ के बाहर गाँव वालो ने बहुत सी दुकाने खोल रखीं थीं. कहीं रिंग फेक कर सामान जीतने वाला स्टाल था,तो कहीं खाने पीने की दूकान, लेकिन सबसे ज्यादा भीड़ तो झंडी मुडा की दुकानों पर थी जहाँ ६ पासे फेक कर पैसा जीतने का खेल था. कुल मिलाकर गाँव के एक मेले का दृश्य वहाँ उपस्थित था.

(चित्र 5: पोनुंग का मिरी)

पोनुंग शुरू हो चुका था. मिरी के बोलो पर महिलाओं ने नृत्य शुरू कर दिया था. एक लम्बे चौड़े आयताकार हाल में बांस की दीवारों के समानांतर, अपने शरीर को हौले-हौले आगे पीछे ले जाती महिलाएँ सोलुंग पर्व की मस्ती में डूबने लगी थी. हाल में लगी सी एफ एल की मदधिम रोशनी नृत्य की मंथर गति में अपना योगदान देती प्रतीत हो रहीं थी. वृद्ध मिरी पूरे जोश के साथ पोनुंग को गति प्रदान करता हुआ लग रहा था. महिलाओं के नृत्य का आकर धीरे-धीरे विस्तार प्राप्त कर रहा था. सभी उम्र की महिलाएँ इस नृत्य में शामिल थी. मै यह सोच कर आश्चर्यचकित था कि कैसे यह सब रात भर नृत्य करेंगी? मिरी के बोलों को दुहराती मंथर गति से अपने स्थान से आगे बढ़ती, पूरे हाल की परिक्रमा करती, एक से वस्त्र पहनी, समूह में अपनी निजता का लोप करतीं यह सब महिलाएँ अपनी संस्कृति ‘आदी संस्कृति’ के उच्च आदर्शों का प्रतिनिधित्व करती नजर आ रहीं थी. पोनुंग के इस कार्यक्रम के दौरान अचानक स्थानीय सांसद निनोंग एरिंग से मुलाकात हो जाती है. सुबह सोलुंग ग्राउंड पर उनसे परिचय हो चुका था. हम लोगो को बस्ती में देख कर वह भी आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहते. बताते हैं कि रात भर उन्हें अलग-अलग बस्तियों में जाना होगा .

(चित्र 6:   पोनुंग नृत्य प्रस्तुत करते हुए आदी युवतियाँ)  

रात के १० बज चुके थे. रात्रि का भोजन कराने के बाद (जिसमे स्थानीय जानवर मिथुन का मांस और चावल की बनी देशी बियर अपुंग शामिल थी) हमारे मेजबान हमें पासी घाट स्थित सर्किट हाउस में छोड़ने के लिए गाड़ी स्टार्ट करते हैं. वापस पासी घाट लौटते समय मेरे मन में उमड़ते हैं बहुत से विचार. पोनुंग की यह परम्परा न जाने कितने वर्षो से इस क्षेत्र में चल रही होगी. जहाँ देश के महानगरों, शहरों, कस्बों में उपभोक्तावाद से प्रभावित् होकर हर कोई बाजार के पीछे दौड़ रहा है, वहीँ देश के इस भू भाग में नागरिक न्यूनतम सुविधाओं में जीते हुए भी जीवन का भरपूर लूत्फ उठा रहे हैं. क्या समाज का यह माडल हम सब के लिए अनुकरणीय नहीं है? जिसमे अपनी लोक संस्कृति को बचाए रखने की तड़प है और जीवन को पूरी मासूमियत के साथ जीने की निर्भीकता भी शामिल है.   

सभी चित्र: प्रतुल जोशी एवं सुन्दर अय्यर   

संपर्क:  कार्यक्रम अधिशाषी, आकाशवाणी, 18, विधान सभा मार्ग, लखनऊ


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