बसंत त्रिपाठी

                                                                  (बसंत त्रिपाठी)

बसंत त्रिपाठी
जन्म- २५ मार्च १९७२

सम्मान- सूत्र सम्मान २००७, लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान २०११,

भाषा और राजनीति का अंतर्संबंध (छतीसगढ राज्य के सन्दर्भ में) विषय पर शोध के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा फेलोशिप.

कविता संग्रह –

‘मौजूदा हालात को देखते हुए’, ‘सहसा कुछ नहीं होता.’,‘उत्सव की समाप्ति के बाद.’


सम्प्रति- श्रीमती बिन्झाडी महिला महाविद्यालय नागपुर, महाराष्ट्र में हिन्दी के प्राध्यापक.

पहली बार पर हमने एक नए कॉलम की शुरूआत की है जिसके अंतर्गत हमारे समय के किसी युवा कवि की कवितायें दूसरे कवि की टिप्पणी के साथ प्रस्तुत की जा रही है. इस क्रम में पहले आप पढ़ चुके हैं केशव तिवारी की कवितायें महेश चन्द्र पुनेठा की टिप्पणी के साथ. आज प्रस्तुत हैं कवि बसंत त्रिपाठी की कवितायें केशव तिवारी की टिप्पणी के साथ. यहाँ प्रस्तुत बसंत त्रिपाठी की कविताओं का चयन केशव तिवारी ने ही किया है.   

कवि आलोचक बसंत त्रिपाठी का तीसरा कविता संग्रह शिल्पायन से आया है संकलन का नाम है- ‘उत्सव की समाप्ति के बाद’ बसंत त्रिपाठी समकालीन कविता में अपने ही चाल के कवि है। नरेन्द्र जैन के शब्दो में कहे तो ‘उनकी कविता अनिश्चय और धुंध की पृष्ठ भूमि में बेशक किसी पाठक या रचनाकार का सम्बल बनती है‘ इन कविताओं का खास महत्व इसमें है कि कवि बाजार से निकला हूं खरीददार नही हूं वाली निःसंगता नही अपनाता है वह बाजार में है उसके चरित्र से वाकिफ है और चरित्र को खोलता भी है। यह कवि बिना उक्ति वैचित्र्य और गर्म मुहावरों के भी अपनी बात कह जाता है और बदलते समय में अपनी उपस्थिति पूरे शिद्दत से दर्ज कराता है. बसंत की कविताओं में अपने समय का मोह भंग और उसके सामने डटे रहने का उपक्रम साफ देखा जा सकता है. वह देखते हुये सिर्फ इशारा करके नही चले जाते है उस पर ठहर कर प्रतिक्रिया जाहिर करते है। मनुष्य के मन में झांकते है उसमें पल रही आशंकाओं-निराशाओं को ही नही उसमें छिपी प्रतिरोध की शक्ति को भी पहचानते है। प्रेम बसंत के यहां ठहरा हुआ नही आता न अतीत में विचरता या रिरियाता बल्कि यह उनके यहां यह लडता-हारता-जीतता-जूझता हुआ आता है. अगर समकालीन कविता पर विचार कथन की सबसे ज्यादा मार पडी है तो बसंत की कविता विचार से किस तरह दृष्टि ग्रहण कर अपने सफर पर चल देती है यह देखने लायक है. बसंत के यहां उम्मीदे बची हैं तो उसके पाने की ललक भी जिंदा है. जिंदगी है तो जीने की जिजीविषा के साथ।

बानगी के लिये बसंत त्रिपाठी की कुछ कविताये दी जा रही है।

-केशव तिवारी

एक आवाज

एक आवाज से चौकता हूँ
एक आवाज से खिलता हूँ
एक आवाज से रिरियाता हूँ
एक आवाज से तमतमाता हूँ


एक आवाज अभिसार की इच्छा जगाती है
एक आवाज नदी के तल में डुबोती है।
एक आवाज धरती पर पटकती है।
एक आवाज भूख बढाती है।


एक आवाज से जेब टटोलता हूँ
एक आवाज से पानी खरीदता हूँ
उत्सवों की चकाचौंध में
एक आवाज पर बिछ जाता हूँ


एक आवाज से टीन टप्पर करता हूँ
एक आवाज से हल लेकर निकल जाता हूँ
एक आवाज से खेतो में गीत गुनगुनाता हूँ
एक आवाज से फसल उनके नाम कर देता हूँ


एक मेरी अपनी भी आवाज है।
जिसे हलक में लिये
मै सब काम किये जाता हूँ
कि चुपचाप जिये जाता हूँ

यात्रा

उस यात्रा को
जिसे पूरी करके लौटा मै
वह मेरी अपनी नहीं थी
किन्हीं और कदमो के नाम लिखी थी वह यात्रा
किन्हीं और पैरो को चलना था उस राह


उस राह की न तो मंजिल जानता था
और न ही नक्शा मेरे पास था


चलो, यू भी एक यात्रा
दरअसल साहसिक यात्राओं के नक्शे नही होते।

लौटना

लौटने के लिये
असंख्य रास्ते थे


नही थे तो सिर्फ पांव


मै धूल में
पैरो के निशान छोड़े बिना
लौट रहा हूँ

क्या तुम मेरी पीठ पहचानते हो

पिता

पिता अंतिम समय में एक लपट भर थे
जिनके कंधे पर बैठ
हमने दुनिया देखी
उन्हे कंधो पर उठा फूंक आये नदी के किनारे


उसी लपट की रोशनी में आज बचपन खुल रहा है।


बहुत पहले अपनी चौबीस इंची साइकिल पर
थके हारे जब लौटते थे पिता
तब खाली टिफिन के खड़-खड़ से ही जान जाते थे।
हम उनका लौटना


उनका लौटना एकाकी नही होता था
पतलून में आईल और ग्रीस के धब्बे के साथ
कारखाना भी लौटता था घर
जिन्हे अंधेरी रातों में मल-मल कर साफ करती हुयी मां
थक कर चूर हो जाती
कारखाना फिर भी बचा ही रह जाता था।


कभी-कभी वे बड़े से झोले में ढेरो सब्जियां लाते
जिसे घर के भीतर उलट कर हम ढूंढते थे अपने मतलब की चीजें
अक्सर मटर, गाजर, बेर या मूंगफली

हम अंधेरी बरसाती रातों में उनसे चिपट कर सोते
वे अंधेरी शामों मे हमें पहाड़े या प्रार्थनाएँ रटवाते थे

फिर धीरे-धीरे बचपन बीता
बच्चे अपनी अपनी जिंदगियों में
जीतने-हारने थपेडे खाने के लिये निकल पडे।


वे कभी लौट आने की आस में
टूट हुये गये अपने गंतव्यों की ओर
अजनबी शहरो ने उन्हे लील लिया
जैसे लील लिया था बहुत पहले पिता को
हमारे बचपन बीतने के बहुत बाद तक पिता जीवित रहे
लेकिन बच्चों के भीतर
इंतजार की लपटे मद्धिम पडने लगी थी
हम बच्चे अब अपने बच्चों की प्रतीक्षा के केन्द्र में रहने लगे थे


पिता हमारे साथ
और हमसे अलग रहते हुये
लगातार बूढे होते रहे
लेकिन अजब और दुर्दान्त घुम्मक्क्ड़


हालांकि समय के साथ हमारे कंधे मजबूत होते गये थे
लेकिन उनमे पिता की घुम्मक्कड़ी को थामने की ताकत नहीं थी
वे रिक्शों, बसों और रेलों के धचके खा-खा
अपना बुढापा ठेल कर पहुचते रहे हमारे पास


उनके तलुओं में यात्राओं की असंख्य जिन्दा लकीरें थी
यात्रायें हमेशा उनके भीतर सांस लेती रहतीं


और उनके सामान कभी भी पूरा खुल कर घर मे अपनी जगह नही पाता था
उम्र के छियतरवें साल तक भी वे
भरपूर सामानों के साथ
हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर
पहुचते रहे अपने बच्चों के पास
और मनमुताबिक ठहरते रहे उनके घरो के मसरूफ कोनो में
केवल पीछे, केवल पीछे

वे जिन व्यवस्थाओं की बात करते थे
खुद उनसे कई बार सुकूनदेह तरीके से बाहर रह जाते थे
श्रम और नियति के खींचतान से निर्मित थे उनके जीवन के सूत्र
जिनके बीच वे अनिर्णीत ही उलझे रहे
न ईश्वर छूटा उनसे
न तर्क ने ही उनके भीतर अपनी विश्वसनीय गरिमा पाई


हमारी मसरूफ दुनिया में
वे अक्सर अपनी किसानी सभ्यता के साथ दखल देते थे
और कई बार कर्मकाण्डी कायदों के साथ
उनकी धोती कभी उतनी उजली नही हुई
जितना कि टेलीविजन दावा करता है।
वे अक्सर चना बूट मूंगफली और साग के साथ
घर में प्रवेश करते थे
फिर अचानक एक क्रूर फैसले के तहत
अपनी पीडा यातना और दर्द के घोड़े पर सवार हो
वे हमेशा के लिये चले गये


मेरे लिये पिता आईल और ग्रीस की गंध थे
कारखानों का कसैला धुआं
सब्जियां छाटते हुये, स्वाद की पहचान तलाशते हु
खूब जल्दी सोते और मुह अंधेरे उठ कर
सुबह की हवा फांक आते आदमी
संशय और विश्वास और प्रेम और धर्म और ईश्वरीय प्रताप की
अविश्वसनीय घटनाओं से घिरे एक अबोध नागरिक
कर्मकाण्डों के पुरोहिती प्रताप के पीछे
अपनी आय में लगातार कुछ जोडते हुए


लेकिन मरने के बाद
कर्मकाण्ड के लिये वे सिर्फ प्रेत थे
अपने समस्त जैविक क्रियाकलापों और स्मृतियों से बाहर खदेडे़ हुए
जिनसे मुक्ति क्रूरतम घिनौना कृत्य
मैने अपनी नंगी आंखो से देखा।

रिक्शे की पिछली सीट पर

रिक्शे की पिछली सीट पर बैठे हु
जब मैंने अपनी प्रेमिका से कहना चाहा कि
जीवन एक स्वप्न है
जिसमे सौन्दर्य की नदी अपने नीले जल के साथ बहती है।
धरती की ऋतुयें गाती है दुनिया के सबसे सुंदर गीत
और पहाड़ पिघलने लगते है।


मैने कहना चाहा उसकी आंखो में झांकते हुए
कि जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है कि तभी
शब्द पोले लगने लगे
कोई बुजुर्ग चेहरा जैसे दंतविहीन
मेरी आंखो के सामने उस मनुष्य के पुट्ठे उछल रहे थे
जो हमे खींच रहा था उस वक्त


वह कहां खीचे ले जा रहा था हमें
अनंत में एक रहस्यवादी ने कहा
और आत्मा का कोई पुराना राग छेने लगा
शिव कुमार शर्मा जैसे बजाते है संतूर
अथवा रविशंकर सितार


हिलती हुई मोटी गर्दनो के बीच
उस रहस्यवादी ने कहा कि
आदमी का इस तरह आदमी को खींचना
मनुष्यता का एक महान क्षण है।
फिर उसने देवों और स्त्रियों की बातें कीं
और देर तक अपने ही मुहावरे पर मुग्ध रहा
मैने नोट किया कि वह आदमी
जो रिक्शे के पैडल पर अपने थरथराते पैरों को
जमाये हुये था किसी तरह
और गुरूत्वाकर्षण शक्ति उसके पैरों की मदद
नहीं कर रही थी।
अचानक कांपने लगा उस रहस्यवादी को सुन कर
क्या उसे अनंत तक खींचना होगा
इसी तरह रिक्शा?


क्या ईश्वर कहलाने वाले तत्व
रहस्यवादियों के पक्ष मतदान कर
अंतर्ध्यान हो जायेंगे घरो के पिछवाड़े


दरअसल यह घटना
ठीक-ठाक कुछ इस तरह थी कि
रिक्शे की पिछली सीट के अभिजात्य प्रेम के
ठीक सामने
वह आदमी अपने पुट्ठे उछाल रहा था।

उत्सव की समाप्ति के बाद

कल तक खूब चमक-दमक थी यहाँ
क-भ
सुंदर परिधानों में घूम रहे थे नर बालायें
कि झूम रहे थे
पारंपरिक से लेकर आधुनिक जींस टी शर्ट पहने हु


बिजली की रोशनी में उन्मत्त
चीख उठती थी उनकी आंखे
नशा नृत्य का, रोशनी का, उन्माद का
डिस्को, डांडिया के मार्फत
भारतीयता को सिद्ध करने की आक्रामक बेहोशी
रोशनी इतनी कि चांद को भी कोफ्त हो


शुक्ल पक्ष की नवमी का चमकता चांद
चांदनी जिसकी इस मैदान पर पैर नही जमा पायी थी
और अभी सब कुछ खामोशी में डूबा है
किसी को फुरसत नही कि मु कर देखे क्षण भर उस ओर
शामियाना समेटने वाले मजदूर
चढी धूप में धीरे-धीरे उतार रहे शामियाना
बांस बल्ली खोल रहे हैं
आपस में बतिया रहे हैं


हंसीठट्ठा, कोंचा-कोंची
कितनी-कितनी चीजें बिखरी हैंहाँ
जो चमक-दमक के मृत सबूत
कान का एक फैशनेबुल टॉप
ब्लाउज का हुक
डोरी की फुंदनी, बेल्ट का बक्कल
बिंदी, सेंडिल की हील
चिप्स, चाकलेट के टुकडे, पापकार्न


टैंट समेटने वाले
इन्हे छूते हु करते है भद्दे मजाक
मानो छू रहे हो सचमुच की चमकती देह
उनकी हिम्मत नहीं थी इस ओर आने की
एक खामोश व्यवस्थित नाकेबंदी थी
जो अब हटा ली गयी है
दिहाड़ी मजदूर लौट आये है काम पर


फसल कटने के बाद
बिखरे दानों को चुगते चिड़ियों की तरह
वे फैल गये है मैदान में
अपने मटमैले कपड़ों के साथ
वे झटकार रहे चमचमाते झालर
मेटाडोर में भर रहे है


वे पोंछ रहे हैं
धरती के जिस्म में उभर आये घाव
कल तक धरती
जो तड़पती थी
आज खुश है
अपने बच्चों की पदचाप चूमते हुए ।

वजह – बेवजह

क्या हुआ
गर लोग घूम रहे सड़को पर बेवजह
चौराहे पर खड़े गप्पे हांकते


वजह की मारी शफ्फाक दुनिया में
कुछ तो बेवजह हो


शुक्रिया, खाली लोगों!

संपर्क –



६२, वैभव नगर,
दिघोडी, उमरेड रोड,
नागपुर, महाराष्ट्र

(केशव तिवारी हिन्दी के जाने-माने युवा कवि हैं.)