कवि का गाँव : राहुल देव


हमने हाल ही में एक कॉलम शुरू किया था : “कवि का गाँव”. पिछले महीने मैं जब लखनऊ गया था तो वहाँ युवा कवि राहुल देव अपने नवप्रकाशित कविता संग्रह के साथ मिले। राहुल देव ने कवि का गाँव कॉलम के लिए अपने गाँव की कुछ तस्वीरें और गाँव के बारे में एक छोटी सी जानकारी लिख भेजी है. इसी क्रम में राहुल ने गाँव से जुडी अपनी कुछ कवितायें भी भेजी हैं. हम इसे आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.  

मेरा गाँव- मेरा देश
राहुल देव
मेरा गाँव इमिलिया मानपुर उत्तर प्रदेश के सीतापुर जनपद के महमूदाबाद अवध क्षेत्रान्तर्गत आता है जो कि राजधानी लखनऊ से लगभग 70 किमी उत्तर की दूरी पर स्थित है |
यह मेरा पैतृक गाँव है जहाँ हम अक्सर समय मिलने पर घूमने जाते हैं | मैं एक कायस्थ जमींदार परिवार से ताल्लुक रखता हूँ | आज से लगभग 45-50 साल पहले मेरे बाबा अपनी नौकरी के कारण सपरिवार महमूदाबाद में आ कर बस गए थे | गाँव में हमारी जमीनें हैं, पुराना मकान, पेड़-पौधे, कुँवें और फुलवारियां है | वहां के लोगों से हमारा रिश्ता आज भी वैसे ही कायम है  |
इस गाँव की जनसँख्या 2000 के लगभग है और इसका क्षेत्रफल भी बहुत बड़ा नहीं है | यह गाँव एक प्राचीन महत्त्व का स्थल भी है | यहाँ के कई घरों में उसके प्रतीक देखने को मिल जायेंगे | कई पुरानी धरोहरें/ पांडुलिपियाँ यहाँ के परिवारों ने अपने पास सहेज कर रखीं हैं | यहाँ कई फिल्मों की शूटिंग भी हुई है |
गाँव के 75% लोग कृषक हैं जो कि मुख्यरूप से गन्ने, गेहूं, धान, पिपरमिंट, दालें, ज्वार, बाजरा, केला आदि की खेती करते हैं | जिनके पास खेत नहीं हैं वे या तो मजदूरी करते हैं या बटाई पर खेत ले कर उस पर खेती करते हैं | यहाँ की क्षेत्रीय बोलचाल की भाषा अवधी है | गाँव का समाजार्थिक स्तर अभी बहुत अच्छा नहीं है फिर भी कह सकते हैं कि लोगों में चेतना फ़ैल रही है | झोपड़ी व कच्चे मकानों के बीच इक्का-दुक्का पक्के मकान भी बन गये हैं |
यहाँ की हरियाली, चक रोडें, ट्यूबवेल के पानी के हौज में नहाना, यहाँ के सीधे-सादे लोग और यहाँ का वातावरण मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं | मैं आज भी समय निकाल कर अक्सर वहां जाता रहता हूँ | गाँव के पास से प्रसिद्ध इंदिरा गाँधी नहर की शारदा सहायक शाखा गुज़रती है | गाँव धीरे-धीरे प्रगतिपथ पर अग्रसर हो रहा है |
यहाँ पहुँचने के लिए बस या ट्रेन द्वारा महमूदाबाद (अवध) आना होगा | वहां से ऑटो या फिर तांगा करके गाँव तक पहुंचा जा सकता है, जब भी मौका मिले एक बार जरूर आइयेगा |
आपका,
राहुल देव
मेरी 4 कवितायेँ जिनमें मेरा गाँव की झलक मिलती है-
राहुल देव
गाँव से शहर तक
मद्धिम-मद्धिम रौशनी के बीच
टिमटिमाता गाँव !
जलते अलाव
जिन्हें घेर कर
ग्रामीण जन बतियाते रहते…
सर्द हवाओं में भी गाँव बना रहा,
तपती दुपहरी की हवाएं भी
उसको बदल न सकीं
और गर्द उड़ाती
पगडंडियों में धूल से सने बच्चे
जाने-पहचाने से ही हैं
लहलहाते खेत भी वहीं के वहीं रहे
अब मैं अपने गाँव लौटना चाहता हूँ,
कुछ सालों बाद-
गाँव जगमगाता रहता है उसी तरह ही
मगर कुप्पियों की जगह
बल्बों ने ले ली है
लोग अपने हाथ सेंकते हैं
अपने घरों में ही
क्योंकि अब लोगों के पास हीटर हो गये हैं;
अब लोग बतियाते तो हैं
मगर बहुत कम कभी-कभार ही
चमचमाती सड़कों पर राह चलते ही
इतिश्री कर लेते हैं अपने कर्तव्यों की,
सर्द हवाएं अब भी हैं
मगर उनके बीच से
मिट्टी की सोंधी खुश्बू गायब है
अब वहां के लोग
कुछ-कुछ बदलने लगे हैं
झोपड़ियाँ भी अब
पक्के आशियाने हो गये हैं,
चौंकिएगा नहीं
क्योंकि यह तो लाजिमी है
समय का चक्र है
अब तो रोना बंद कर दीजिये
और खुश हो जाइये
क्योंकि अब गाँव शहर हो गया है
मगर में शहर की जगह
अपने गाँव से दूर होता जा रहा हूँ !

द्वारा उचित माध्यम
शहर से बहुत दूर किसी गाँव में
बुड्ढे चारपायी पर पड़े कराह रहे हैं
चूल्हे पर खाना बनाती औरतें
और उनके रोते बच्चे
राष्ट्र का अन्नदाता थक कर
बीड़ी फूंक रहा है…
इधर हमारे यहाँ-
वक़्त-बेवक्त उठती चीखें
घर की खिड़कियों से बाहर झांकते आदमी
अपने दिन भर के काम-काज की
अंतर्समिक्षा कर रहे हैं
स्त्रियाँ टीवी देख रहीं हैं
और ऊपर आसमान में
तारे अपना गम ग़लत कर रहे हैं
बादलों की चादर ओढ़कर
आसमान भी शायद थक कर सो गया है…
वहाँ से डेढ़-दो सौ किलोमीटर दूर-
राजधानी के एक स्टेडियम में
बड़ी भारी भीड़ जमा है
शायद कोई महासम्मेलन चल रहा है
जहाँ सो कॉल्ड बुद्धिजीवी मंच पर
अपना गला फाड़ रहे हैं
एक ओर देश
एक ओर धर्म
दूसरी ओर हम…
उनकी हर बात पर
लोग कैसे तालियाँ पीट रहे हैं !
हरामजादे पिछलग्गुओं को
अपनी थाती पर गर्व नहीं शर्म आती है
हिंदी की खाने वाले तथाकथित मठाधीश
अपने हर इंटरव्यू में
इंग्लिश-इंग्लिश-इंग्लिश
भकाभक बोल रहे हैं
कैसी विडंबना है
भाषा की कक्षा में बेचारे अमेरिकी
क ख ग सीख रहे हैं !
टारगेट, माल, शौपिंग, ड्राइव
मोबाइल जिंदगी का सक्सेस मंत्रा हैं
गुलामी अब अभिशाप नहीं आकाश है
जहाँ आज़ादी हफ्ते का अवकाश है,
आज का ताज़ा सच है
नियम बनाये भी इसलिए जाते हैं
ताकि उन्हें तोड़ा जा सके
कित्ती सीधी सी बात है
पर टेढ़े लोगों को सीधी बातें समझ में नहीं आतीं
क्या आप भी न !
लगता है आपने आज सुबह का अखबार नहीं पढ़ा
जिसमें लिखा था-
कार्यक्रम कार्यान्वयन जबरदस्त हो रहा है…
पारदर्शी परदे के पीछे
गरीबों की कतार है
अब ये न कहना
इसकी जिम्मेदार खांग्रेसी सरकार है;
नीति-नियंता सो रहे हैं
सोने दो
जो हो रहा है
होने दो
कृपया डिस्टर्ब न करें
ऑफिस क्लोज हो चुका है
अब आप कल आयें !!

मेरी ज़िद है !
सपनों का टूट जाना
और सपनों का मर जाना
एक बात नहीं होती
तुममें, तुम हो वहां
जहाँ तुम्हारे सपने सजते हैं
मीठी चीजों का दर्दनाक होना भी एक सच है
तुम्हारा वजूद इस कठिन समय में
तुममे गुम गया है शायद…
अधनंगे बच्चे
चमचमाते कपड़े पहने हुए पुतलों को ताक रहे हैं
जिस समय शहर के किसी क्लब में
स्त्रीविमर्श पर चर्चाएँ शुरू होती है
उस समय मेरे गाँव की औरतें
बूढ़े बरगद के चारों ओर धागे लपेटती हैं
लोगों की याददाश्त कमज़ोर होती है
हर ओर आदमी जुगाली कर रहे हैं
मैं जो कहना चाहता हूँ
मैं जो सुनना चाहता हूँ…
आप समझदार हो
आप खुदय बताव
सभ्यता कहाँ से शुरू होती है
क्या गरीबी और अमीरी के बीच
पैसे के अलावा कोई और शब्द भी एक्सजिस्ट करता है
अगर हाँ तो ये सिस्टम अँधा, बहरा, गूंगा क्यों है
अगर नहीं तो आप बड़े बने रहिये
अपनी इस दुनिया में खुश रहिये
हाँ मगर तब,
कविता लिखना मेरी ज़िद होगी
और तुममें से कोई मुझे रोक नहीं सकेगा !

मैं भूलना चाहता था…
मैं भूलना चाहता था दुःख
याद रखना चाहता था
थोड़ी मिली हुई खुशियाँ (?)
लेकिन ऐसा नहीं कर पाया
यह मुमकिन ही नहीं हुआ
दिन भर कहकहे लगाने के बाद
रात को सोने से ठीक पहले
याद आया मुझे अपना गाँव
और गाँव के लोग
याद आये पिताजी
याद आई माँ और बहन…
मेरे ऑफिस के बाहर घूमने वाला
एक मैला-कुचैला व्यक्ति
जो हर बार मुझे देखते ही पैसे मांगता था
और मैं नहीं देता था…
याद आया बारिश में टपकता घर
जब भी मैंने
अपने ऊपर पैसे खर्च करने चाहे
याद आये घर के बाहर खड़े
तगादा करने वाले कुछ लोग !
अलगनी पर टंगे नए-नवेले कपड़ों को
जब भी पहनना चाहता
याद आतीं पैबंद लगी नेकरें
फटी हुई कमीजें…
मंदिर के सामने से निकलते हुए
जब झुका सिर अपने आप ही
याद करने की कोशिश की
कि यह सिर इससे पहले कब झुका था
क्या इसे मालूम था
सिर कहाँ झुकाया जा सकता है?
धुआँ छोड़ते वाहन
शहर की व्यस्त सड़कों पर जब-जब चला
याद आयी गाँव के पीपल की छाँव
पार्क में झूला झूलते बच्चे
और जामुन के पेड़ पर झूला झूलते, पींगे मारते
अपना बचपन याद आ गया…
जब भी गया पार्टियों में
और खाने के लिए पेपर नैपकिन से प्लेट पोंछी
याद आये गाँव के चौधरी
जिनकी लड़की की शादी में
पूरे गाँव ने पंगत में बैठकर
एक साथ खाना खाया…
मेरे किराये के कमरे के आस-पास
अन्जाने-अजनबी लोगों को जब देखा
याद आयी गाँव के नुक्कड़ की वो दूकान
रेडियो, बीड़ी, पान…
गोल-मटोल बच्चों को जब चश्मा पहने देखा
तो याद आये दुबले-पतले कुछ बच्चे
अपनी पीठ पर बस्ता टांगे
अपनी धुन में चलते
गाँव की चक रोडों पर हँसते, बतियाते…
इसके अलावा और भी बहुत कुछ याद आया
और आता भी क्यों न
शायद शहर में रहकर भी मैं
शहर में नहीं रह रहा था
मैं अपने अन्दर अपने गाँव को जो जी रहा था !
 
संपर्क-
9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, 
महमूदाबाद (अवध),
सीतापुर (उ.प्र.) 261203

ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com