अल्पना मिश्र से कल्पना पन्त की एक बातचीत


अल्पना मिश्र युवा आलोचक कल्पना पन्त के साथ

अल्पना मिश्र से कल्पना पन्त की एक बातचीत
अल्पना मिश्र का उपन्यास ‘अन्हियारे तलछट में चमका’  इन दिनों काफी चर्चा में है। इस उपन्यास पर अल्पना को वर्ष 2014का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान भी प्रदान किया गया है। इस उपन्यास को भाषा के अलग अनूठे अंदाज और नये शिल्पगत प्रयोग के साथ साथ बदलते समय के प्रभावों के बीच निम्न मध्यवर्गीय जीवन की बहुत गहरी अन्तरकथा के लिए सराहा जा रहा है। इस उपन्यास के शिल्प और कला के साथ-साथ पात्रों के बहाने स्त्री जीवन के महत्वपूर्ण पक्षों पर अल्पना मिश्र से एक बातचीत किया है कल्पना पंत ने। तो आइए रु-ब-रु होते हैं इस बातचीत से।
   
कल्पना पंत – ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ उपन्यास का शिल्प अपने में नवीनता लिए हुए है। उपन्यास को कई उपशीर्षकों में बांटने की जरुरत आपको क्यों महसूस हुई?
अल्पना मिश्र – बस, मेरी कोशिश इतनी थी कि जो बात कहना चाहती हॅू, उसे खूब अच्छी तरह कह पाऊँ। टेकनीक नई थी तो शायद इसी से शिल्प भी बदलता चला गया। कहानी कहने के लिए आत्मकथा की टेकनीक को भी इसमें मिला दिया। तमाम प्रविधियॉ घुल-मिल कर इसे एक नई प्रविधि की तरफ लेती गईं। यह भी अनायास ही हुआ। बस, कहने के तरीके की खोज में यह तरीका बनता गया। दूसरे उपशीर्षक भी इसी तरह बने।
कल्पना पंत – उपन्यास में बिट्टो, सुमन, ननकी, बिट्टो की माँ और मौसी जैसी स्त्री पात्रों के चरित्र की सूक्ष्म पड़ताल दिखाई पड़ती है। वास्तव में क्या ये स्त्री पात्र आपके जीवनानुभवों का हिस्सा रहे हैं?
अल्पना मिश्र – कोई रचना लेखक के अनुभव, विचार और कल्पना से मिल कर ही बनती है। कई बार देखी सुनी जानी बात भी बहुत गहराई से व्यंजित होती है। ये पात्र तो हमारी इसी दुनिया के पात्र हैं। मैंने बहुत निकट से गॉवों, कस्बों और नए बनते शहरों को जाना है। इसलिए कह सकती हॅू कि इन पात्रों को मैंने बहुत निकट से समझा है। ननकी जैसे ही एक पात्र की मृत्यु मैंने अपने बचपन में देखा था, तब से अब तक न जाने कितनी ननकी की हत्याएं सुनी, जानी तो हर बार उस बचपन में देखे दृश्य की याद आई। वही प्रश्न बार बार उठे, जो बचपन में उठे थे। अब जाकर उसे थोड़ा सा लिख पाई हूँ। इन हत्याओं का सही रहस्य कोई नहीं कहता। इसीलिए यह उपन्यास में भी बहुत धीरे से कहा गया है। मुझे इस बात का बहुत सुकून है कि ये पात्र पाठकों को परिचित लग रहे हैं।
कल्पना पंत – बिट्टो का पति शचीन्द्र अपनी यौन अक्षमता को स्वीकार नहीं करता है और अपने पुरुषार्थ को साबित करने के लिए लगातार बिट्टो को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है। बिट्टो शचीन्द्र से अलग होने का निर्णय लेती तो है लेकिन काफी देर से। आज के आधुनिक समय में भी पढ़ी-लिखी और आत्मनिर्भर स्त्री द्वारा निर्णय लेने में आने वाली कठिनाइयों के पीछे आखिर कौन से मानदण्ड काम करते हैं?
अल्पना मिश्र – बिट्टो का थोड़ी देर से निर्णय ले पाना यह बताता है कि खाली नारेबाजी जीवन नहीं है। नारेबाजी को तो स्त्री की ईमानदार अभिव्यक्तियों के खिलाफ जानबूझ कर स्थापित किया गया और उसे ही स्त्री लेखन का पैमाना बना दिया गया। जो देह विमर्श की पूरी राजनीति, पितृसत्तात्मक रणनीति के साथ की गई थी, उसने बहुत सी लेखिकाओं को भ्रमित किया। बहुत से लोग, जो गंभीर काम कर सकते थे, इसी की भेंट चढ़ गए। अपनी देह पर निर्णय का अधिकार एक बड़ा मुद्दा है, इसे इतना हल्का नहीं बनाया जा सकता। देह पर निर्णय का अधिकार आसानी से नहीं मिलता। बिना शिक्षा, बिना आर्थिक आत्मनिर्भरता के यह कितना संभव हो सकेगा! निर्णय की स्थिति तक आने में आत्मसंघर्ष से भी गुजरना होता है। प्रेम में जिम्मेदारी भी होती है और मनुष्य अपने प्रियजनों को इतनी जल्दी नहीं छोड़ना चाहता है। जल्दी हारना भी नहीं चाहता। सबसे पहले मनुष्य अपनी परिस्थिति को ठीक करना चाहता है। जब लगता है कि इसे ठीक नहीं किया जा सकता तभी दूसरे रास्ते की तरफ बढ़ता है। स्त्री भी इन्हीं स्थितियों से गुजरती है। मुख्य बात यह है कि इन स्थितियों से उसे कितनी देर जूझना चाहिए, तो जाहिर है कि अधिक देर नहीं करनी चाहिए। बिट्टो भी अधिक देर नहीं करती है। दूसरा रास्ता लेने की तरफ बढ़ती है। पढ़ी लिखी स्त्री का विवेक है यह। पिछली पीढ़ियों की तरह पूरा जीवन इसकी भेंट नहीं चढ़ाया जा सकता है। बिट्टो की मॉ को देखिए, जीवन के आखिरी दौर में जा कर कहीं वह अपनी बेटी के साथ खड़े होने की हिम्मत जुटा पाती है। इसलिए मैंने इस विषय को गंभीरता से लिया है।
कल्पना पंत – वर्तमान समय में भी जीवन-साथी के चुनाव के सन्दर्भ में स्त्री की कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती है। इन्ही प्रेम संबंध की दुखांत परिणति को ही दर्शाती है ‘ननकी की कहानी’। अधिकांशतः विद्रोह न कर पाने वाली स्त्रियाँ ननकी की तरह ही आत्महत्या का मार्ग चुन लेती हैं। आखिर समाज की इस प्रेम-विरोधी मानसिकता को किस प्रकार बदला जा सकता है?
अल्पना मिश्र – आज भी हालात बहुत नहीं बदले हैं। बहुत कम लड़कियॉ अपने जीवन साथी के चुनाव का फैसला कर पाने की स्थिति में पहुंची हैं। लेकिन लड़कियॉ लगातार प्रतिरोध की तरफ बढ़ती हुई दिख रही हैं। पढ़ लिख कर आत्मनिर्भर होना और उसके साथ चेतना-सम्पन्न भी होना होगा, तभी निर्णय लेने का पूरा अधिकार मिल सकेगा। ननकी की स्थिति अलग है। वह एक आम लड़की है। उसका चुनाव भले ही गलत साबित होता है पर उसने निर्णय तो लिया ही है और जब चेतना का पक्ष और मजबूत होता है तब वह फिर अपना अलग फैसला लेने की तरफ आती है। उसका फैसला हमारी सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था को मंजूर नहीं हो सकता। वह आत्महत्या नहीं करती है बल्कि उसकी सुनियोजित हत्या का संकेत उपन्यास में आया है, जिसमें पितृसत्ता के मानसिक अनुकूलन का शिकार उसकी मॉ का मौन भी शामिल है। असल में प्रेम का स्वरूप ही व्यवस्था-विरोधी है। व्यवस्था उसे अनुकूलित कर के ही अपने साथ आने देती है। प्रेम व्यवस्था में कहीं भी फिट नहीं बैठता। आप खुद ही देखिए हमारी व्यवस्था में प्रेम करने की आजादी स्त्री को कितनी है? प्रेम के जितने भी पूज्य रूप मिलते हैं, पुरूष सत्ता द्वारा अपनी कल्पना से बनाये गए हैं और जितने उदाहरण मिलते हैं, सब में दंड दिया गया है – सोहनी-महिवाल, लैला-मजनू आदि को याद करिए। अभी हाल फिलहाल दिल्ली के वेंकटेश्वर कॉलेज में पढ़ने वाली लड़की के अन्तरजातीय विवाह करने पर घर वालों द्वारा की गई हत्या को देखिए। यह पढ़े लिखे समाज में भी हो रहा है। दिल्ली जैसे महानगरों में हो रहा है। स्त्री पर हिंसा लगातार बढ़ रही है। उस पर नियन्त्रण के तरीके बारीक और क्रूर हुए हैं। यह सब हमारे चारों तरफ चल रहा है। इस तरह की हत्याएं लगातार बढ़ रही हैं। यह दंड बताता है कि प्रेम व्यवस्था का प्रतिपक्ष है। इसे कहना तो पड़ेगा।
कल्पना पंत – सुमन और बिट्टो दोनों ही अंततः पितृसत्ता द्वारा स्त्री के लिए निर्धारित रूढ़ नैतिक मानदंडों को ठेंगा दिखाती हुई घर से निकल पड़ती हैं। इन दोनों द्वारा अपनी-अपनी कैद से मुक्त होने का निर्णय लेना क्या सम्पूर्ण स्त्री जाति के प्रति सकारात्मक ऊर्जा और संकेत का पर्याय है? इस सन्दर्भ में आप क्या कहेंगी?
अल्पना मिश्र – निश्चित ही सुमन और बिट्टो दोनों अपनी अलग राह बनाने निकल पड़ी हैं। इनकी तरह तमाम लड़कियॉ आज अपनी अपनी राह खोज रही हैं। दोनों ने ही पितृसत्ता के नैतिक मानदंडों को नकार दिया है। तुम देखोगी कि दोनों ही प्रेम करती हैं और प्रेम के नाम पर सामंती रूपों की जकड़बंदी को दोनों ही ठुकरा देती हैं। प्रेम दरअसल व्यवस्था का बड़ा प्रतिरोध भी है। हमारी पूरी व्यवस्था में प्रेम के लिए कोई जगह ही नहीं है। वह प्रतिपक्ष है। ये दोनों पात्र प्रेम की तरफ जाते हैं, इसका मतलब ही है कि प्रतिरोध की तरफ जाते हैं।
कल्पना पंत – वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के पतनोन्मुख स्वरुप को भी उपन्यास में बखूबी उजागर किया गया है। आखिर शिक्षा व्यवस्था में आई इस गिरावट का मूल कारण आप क्या मानती हैं?
अल्पना मिश्र – हॉ, यह दिखाना जरूरी लगा। अगर सही शिक्षा नहीं मिलती है तो चेतना का विकास विस्तार संभव नहीं बन पाता है। आम आदमी के लिए जैसी शिक्षा उपलब्ध है, उसकी व्यवस्था कैसी है? कई तरह की शिक्षा हमारे देश में है। गरीबों के लिए अलग है, अमीरों के लिए अलग है, सरकारी अलग, प्राइवेट कांवेंट अलग। हर राज्य का अपना अलग अलग पाठ्यक्रम है। तो इन सब में देखने की बात है कि आम लोगों के हिस्से क्या आ रहा है? नकल है, भ्रष्टाचार है, पैसा ले कर कॉपी लिखी जा रही है, ऐसी शिक्षा प्राप्त लोगों से आप किस तरह की चेतना, किस तरह के व्यवहार की उम्मीद करेंगे? इसमें बुद्धिमान और प्रतिभासम्पन्न युवक क्या मुन्ना जी और कान्हा तिवारी वाला रास्ता पकड़ लेने की तरफ नहीं चले जाते? क्या यह त्रासद नहीं है? नए बनते समय में भी शिक्षा की ऐसी दशा, बेरोजगारी, दिशाहीनता…… फिर अपराध के रास्ते…. मैं यही सब दिखाना चाहती थी।
कल्पना पंत – नवजागरण के दौर से ही स्त्री शिक्षा की पुरजोर वकालत की जाती रही है किन्तु व्यवहारिक स्तर आज भी पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ घर के भीतर चूल्हे-चौके तक ही सीमित रह जाती हैं। यदि आत्मनिर्भर होती भी हैं तो उनकी कमाई पर पहला हक़ उनके परिवार या पुरुष का होता है। जैसे बिट्टो की माँ। शिक्षित होने के बावजूद परनिर्भरता और आर्थिक परतंत्रता की बेड़ियों में लिपटी ये स्त्रियाँ, बिट्टो की माँ अपनी बेटियों को पढ़ाना नहीं चाहती है। इसके पीछे पितृसत्ता किस रूप में काम करती है?
अल्पना मिश्र – नवजागरण का समय स्त्री समस्याओं पर केन्द्रित था। क्योंकि यह स्त्री ही थी जो भव्य भारतीय संस्कृति के धवल माथे पर काले धब्बे की तरह थी, इसी जगह, ब्रिटिश सभ्यता के आगे करारी शिकस्त थी। इसीलिए अपनी अनपढ़, गंवार, असभ्य, स्त्रियों और इनके साथ जुड़ी भयानक क्रूरताओं पर बात करना जरूरी हो गया। सती-प्रथा, विधवा-जीवन, बाल-विवाह आदि के कारण अंग्रेजों के सामने सिर उठाना मुश्किल हो गया था। आप किस भारतीय संस्कृति पर गर्व की बात करेंगे, जहॉ स्त्रियों के लिए ऐसी यंत्रणादायक नारकीय जीवन की व्यवस्था थी! इसलिए इन अनपढ़ स्त्रियों को शिक्षित करना जरूरी हुआ। लेकिन पितृसत्ता अपने नियन्त्रण को जरा भी ठीला करने को तैयार न थी। समस्या यहीं थी, इसलिए स्त्री-शिक्षा को ले कर बड़ी भारी चिंताएं भी थीं। शुरू में पाठ्यक्रम भी ऐसा बनाया गया था, जिसमें होम साइंस अनिवार्य था। नैतिक शिक्षा, आदर्श स्त्री-धर्म आदि अनिवार्य थे। धीरे-धीरे सेवा क्षेत्र उनके लिए खोले गए। तकनीकी क्षेत्र, ज्ञान विज्ञान के अन्य क्षेत्र तो बहुत बाद में स्त्रियों के लिए खुले। लेकिन शिक्षा ऐसा हथियार है जिसे पकड़ाने के बाद आप उनके दिमाग को कब तक अनुकूलित किए रह सकते हैं, नतीजा प्रश्न उठने शुरू हुए। जीवन और समाज की समालोचना शुरू हुई। महादेवी वर्मा ने बहुत पहले ही इसे पहचाना था। जहॉ तक बिट्टो की मॉ जैसी स्त्रियों का प्रश्न है तो वे पितृसत्तात्मक जकड़बंदी में अपने सारे प्रयासों को व्यर्थ पाती हैं और अपने सारे विरोध को भी। यह व्यर्थता बोध ही उन्हें इस तरह सोचने की तरफ ले जाता है। लेकिन आशा की एक चिंगारी भी उन्हें सोये से जगा सा देती है। और यही मुख्य बात है। बिट्टो पर मॉ का बढ़ा हुआ भरोसा न केवल बिट्टो के लिए बल्कि मॉ के लिए भी नया पथ बनाता है। मुक्तिकामी पथ की दिशा । अपने लिए सही जीवन की तलाश आखिर दोनों की ही है। संगठित हो कर कहीं अधिक मजबूत हो सकते हैं। 
कल्पना पंत – उपन्यास में एक मुकम्मल शब्द ‘विकल्प’ प्रयुक्त हुआ है। सुमन सोचती है कि ‘नरक’ में चुपचाप सड़ते चले जाना कौन सी बहादुरी है? ‘विकल्प’ अच्छा शब्द है, ढूँढना होगा हमें भी? इस सन्दर्भ में आप क्या कहेंगी?
अल्पना मिश्र – विकल्प’ बड़ा शब्द है और जरूरी भी। सुमन, बिट्टो, ननकी जैसी तमाम लड़कियों को अपने जीवन के लिए विकल्प की तलाश है। यहॉ तक कि बिट्टो की मॉ और मौसी जैसी स्त्रियों को भी विकल्प की तलाश है। नरक में चुपचाप सड़ते चले जाने की बजाय विकल्प की पहचान करनी चाहिए, अपना रास्ता तभी ढ़ूढ सकेंगे और तभी उस नए रास्ते पर चलने की कोशिश की जा सकेगी। कभी-कभी जिसे व्यक्ति अपने लिए सही चुनाव मान कर चलता है, कुछ ही दूरी पर वह गलत चुनाव साबित हो जाता है, जैसा कि ननकी के साथ हुआ या जैसा कि बिट्टो के साथ हुआ। तब मैं कहूंगी कि फिर से विकल्प खोजो, जीवन कभी नहीं रूकता। कभी उसे खत्म नहीं मानना चाहिए। इसीलिए बिट्टो भी फिर से नई राह चुनने की दिशा लेती है और सुमन, जिसने कि प्रेम विवाह किया था, वह भी फिर से जीवन के लिए नए रास्ते की तलाश में निकलती है। स्त्रियों ने तो कदम बढ़ाएं हैं पर अच्छा होता कि पुरूष उनके इतने ही हमसफर बनते। कुछ पुरूषों ने अपने पितृसत्तात्मक अनुकूलन को पहचान कर उनसे मुक्त होने की कोशिश की है, उनके ऐसे प्रयास और अधिक हों, ऐसी कामना है।
कल्पना पंत – प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई। पिछली बार पूछा था तब आप इस उपन्यास को पूरा कर रही थीं, आजकल आप क्या लिख रही हैं?
अल्पना मिश्र – धन्यवाद कल्पना। जिस तरह पाठकों ने अन्हियारे तलछट में चमका’ का स्वागत किया है, उससे मेरा उत्साह बढ़ा है। अब मैं अधिक व्यवस्थित तौर पर एक नए उपन्यास पर काम कर रही हॅू। इसकी टेकनीक पहले से अलग होगी। जैसे इस पहले उपन्यास में, मैंने नई टेकनीक का प्रयोग किया, वैसे ही कुछ एकदम अलग। बिलकुल नई होगी। मीरा पर जो लिख रही थी, वह भी पूरा होने की तरफ है। एक ब्लॉग शुरू कर रही हूँ और फील्ड वर्क को भी अधिक बढ़ाना है।
————————————————-
सम्पर्क-
अल्पना मिश्र
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7
मो.- 09911378341
ई मेल- alpana.mishra@yahoo.co.in  
कल्पना पन्त
हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद
आन्ध्र प्रदेश

अल्पना मिश्र के उपन्यास “अन्हियारे तलछट में चमका” का एक अंश


चर्चित युवा लेखिका अल्पना मिश्र को उनके प्रकाशित उपन्यास अन्हियारे तलछट में चमका” के लिए वर्ष 2014 का प्रेमचंद सम्मान देने की घोषणा की गयी है। 2006 से प्रतिवर्ष दिए जा रहे इस सम्मान का यह सातवाँ वर्ष है इस वर्ष इस सम्मान के निर्णायक मंडल में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, कथाकार शिवमूर्ति और डॉ चन्द्रकला त्रिपाठी शामिल थीं
  
निर्णायकों के अनुसार यह उपन्यास निम्नमध्यवर्गीय जीवन का महाख्यान है जो स्त्री-लेखन को एक बड़ा विस्तार देता है और स्त्री-संसार की एकायामिता को तोड़ता हैकहन के अनूठे अंदाज़ और भाषा-विकल्पन के गहरे नए रूपों से समृद्ध यह हिन्दी उपन्यास क्षेत्र में अब तक के प्रचलित सभी खांचों को तोड़ कर सृजनात्मकता के नए शिखर निर्मित करता है
 
अल्पना का यह पहला उपन्यास है। इसके बावजूद अपने अलग तरह के कथ्य और शिल्प की वजह से पाठकों में यह उपन्यास ख़ासा चर्चित रहा है। इस उपन्यास का एक अंश आप पहले ही पहली बार पर पढ़ चुके हैं। अल्पना जी को सम्मान की बधाईयाँ देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उपन्यास का एक और अंश।        
(उपन्यास अन्हियारे तलछट में चमका”  का अंश)
अल्पना मिश्र
खामोशी थी, आवाज का किरदार था
(आत्मकथा – 2)
मॉ को फॉलो करना मुश्किल काम था। पिता जी को फॉलो करना आसान था। पिता जी फक्कड़ई करते थे। शुरू में वे किसी दफ्तर में क्लर्क थे, लोग यह भूल चुके थे। उनके घर का मुकदमा कई पीढ़ियों से चल रहा था। जिनके साथ मुकदमा चल रहा था, उनसे कभी आमना सामना होने पर लड़ाई भी होती रहती थी। वे सुलह समझौते की बजाय लड़ने के विकल्प की तरफ चले जाते थे। झगड़ा फौजदारी तक चला जाता था। पुलिस, दरोगा से ले कर कोर्ट कचहरी सब होता रहता था। इस सब में पिता जी अपनी नौकरी कई बार खो चुके थे। किसी के लिए भी यह याद रखने लायक बात नहीं थी कि वे अब तक कितनी बार नौकरी का खोना-पाना कर चुके थे। हर बार एक नई नौकरी के साथ जीवन शुरू करते। संकल्प धरते कि सब एकदम ठीक चलायेंगे, लेकिन अधराह में ही कुछ न कुछ गड़बड़ा जाता। बार-बार नौकरी खोने और दुबारा पाने के बीच का अंतराल कैसा होता था, इसे मॉ जानती रही होंगी। शायद इसीलिए घर के बजट में बहुत ज्यादा कटौती करती रहतीं। सब्जी में इतना पानी डालतीं कि दोनों वक्त पानी से रोटी खाई जा सके। सब्जी का पानी पौष्टिक पानी था, यह मॉ ने सब बच्चों को समझा दिया था। बचत की भावना इस हद तक कूट कूट कर भरी थी कि अगर रूटीन से हट कर कहीं खर्च हो जाता तो बड़ी गिल्ट महसूस होती। एक बार मैंने हाईस्कूल की परीक्षा देने के बाद कुछ सहेलियों के साथ एक ग्रुप फोटो खिंचवाया था। फोटो की एक एक कॉपी सबने ली थी। मेरा भी बड़ा मन था। मैंने भी एक कॉपी ले ली। इस एक कॉपी लेने के पैसे लगे थे। मॉ ने तब पैसे जिस भाव से निकाल कर दिए थे, वह कांटेदार अहसास आज तक मुझे चुभता था। लेकिन अब वे पैसे लौटा देना बेकार था। लौटाने से उनके रूक जाने या मॉ के खजाने को बढ़ा देने की गुंजाइश अब नहीं रह गयी थी। बहुत संभव था कि वे तुरंत खर्च हो जाते। तिस पर बड़ी बात यह थी कि उन्हें इसकी याद भी नहीं थी कि उन्होंने कोई गिल्ट हमारे भीतर डाल दिया था, जिससे मुक्ति का मार्ग हम तलाश रहे थे। 
          लड़कियों की पढ़ाई पर मॉ का कोई विश्वास नहीं रह गया था। वे पढ़ी लिखी थीं और यह उनके अपने जीवन अनुभव से निकल कर आया विचार था। पढ़ाई के नाम पर वे बड़े धैर्य के साथ कहतीं-पढ़ कर क्या होगा? मैं पढ़ कर क्या कर रही हूँ? और बेहतर बरतन मॉजोगी? और बेहतर घर ठीक करोगी? सिलाई बुनाई कर लोगी? सोडा सर्फ का अंतर जान जाओगी? इतने के लिए उॅची पढ़ाई की क्या जरूरत? मन करता है कि अपनी डिग्री चूल्हे में जला दूं। किसी काम की नहीं।
यह मॉ का सोचना था।
हमारा सोचना नहीं था।
उनका मन फटा हुआ था। यह हम उनके बार बार कहने से जान गए थे। वे अपने गॉव की पहली ग्रेजुएट लड़की थीं। गॉव में इस बात का अभी भी नाम था। लेकिन इस नाम का उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ था। हर बात पर पिता जी कह देते थे-क्या फायदा पढ़ी लिखी लड़की से शादी करने का?
 
पिता जी पढ़ी लिखी लड़की से शादी का पूरा फायदा लेना चाहते थे। इसलिए उन्हें नौकरी पकड़ लेने पर जोर देते थे। मॉ ने सोचा होगा कि इनका कौन भरोसा? कब न नौकरी छोड़ बैठें! इसलिए उन्हें अपनी इन्हीं डिग्रियों का कुछ फायदा ले लेना चाहिए। लेकिन उनके हिस्से कोई बड़ी और ताकतवर नौकरी नहीं आ पाई। सरकारी प्राइमरी पाठशाला की नौकरी मिली। वे पढ़ाई के साथ कुछ बड़ा जोड़ कर देखती थीं। खासकर अपनी पढ़ाई के साथ। क्योंकि वे अपने गॉव की पहली ग्रेजुएट थीं और पता नहीं कोई उनसे यह अपेक्षा रखता था कि नहीं, पर वे अपने आप से, समाज में खास तरह के पोजीशन की अपेक्षा रखती थीं। मगर अपने गॉव की पहली ग्रेजुएट होने के बावजूद उन्हें यह पोजीशन वाला पद नहीं मिला था। इसलिए इस मिल गयी नौकरी में उनका मन नहीं लगता था। यह उन्हें अपनी पढ़ाई के लिहाज से तुच्छ लगती थी। उपर से इस नौकरी के मिल जाने के बाद भी घर में उनकी हैसियत एकदम से बढ़ती हुई नहीं दिख रही थी। पैसा भी उनके हाथ में नहीं रह पाता था। हरदम हिसाब देने की तलवार लटका करती थी। अपने ही पैसे छिपा लेने का उन्हें गहरा क्षोभ होता रहता था। छिपा कर पचास सौ रूपये मौसी को भेज देने का क्षोभ भी गहरा था। कमा कर लाने पर भी घर का खर्च ठीक से न चल पाने का भी क्षोभ गहरा था। वे इस गहराई में तैरती अपनी पढ़ाई और नौकरी दोनों से क्षुब्ध बनी रहती थीं।
अब उन्हें यह कौन समझाये कि उनका वक्त था तो उन्हें आसानी से उनके ग्रेजुएट होने का फायदा मिल गया था। एक अदद सरकारी नौकरी मिली थी। आज वह भी कितना मुश्किल हुआ था। अव्वल तो खाली ग्रेजुएट को कोई किसी लायक समझता ही न था। पढ़ाने लायक तो बिल्कुल नहीं। चाहे प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाना हो! इसी नौकरी के लिए लोग रूपये पैसे ले कर खड़े थे, तब भी उन्हें किसी ताकतवर सोर्स की दरकार बनी हुई थी। इसी नौकरी के लिए मेरी बड़ी बहन हाथ पॉव मार रही थीं। मैं इसी को पा लेने को विकल थी। और मेरी मॉ थीं कि इसे ही हेय दृष्टि से देख रही थीं। अपने लिए देख रही थीं, हमारे लिए नहीं। हमारे लिए यह उपयुक्त ही थी। हम अपने शहर के पहले ग्रेजुएट नहीं थे। फिर भी वे नौकरी किए जा रही थीं।
नौकरी नापसंदगी के चलते नहीं छोड़ी जा सकती थी।
इस गहन जरूरत के बावजूद उन्हें अनिवार्य रूप से अपनी तनख़ाह ला कर हर महीने पिता जी के सामने स्टूल पर रखनी पड़ती थी। शायद पहले, जब हम कुछ छोटे थे, तब उन्हें तनखा़ह रख कर चरण भी छूना पड़ता था। बाद में हम बहनों के बार बार टोकने पर मॉ ने चरण छू कर आशीर्वाद लेना बंद कर दिया। इससे भी पहले उन्हें दादी के चरण के पास रूपया रख कर पॉवलगी कर के आशीर्वाद लेना पड़ता था। दादी उन्हें पुत्रवती’  होने को अशीषतीं, लेकिन आशीर्वाद लगता नहीं। आशीर्वाद लगने की प्रतीक्षा जरूर होती। इस प्रतीक्षा में लड़कियों के पैदा होने की सूची लम्बी होती चली गयी। पॉच लड़कियॉ पैदा हो गयीं। छठीं हो कर मर गयी। पर आशीर्वाद लगने की प्रतीक्षा न दादी के लिए धूमिल हुई न पिता जी के लिए। मॉ के लिए जरूर यह व्यर्थ हो गयी।
जब दादी के चरणों पर रूपया चढ़ा दिया जाता और आशीर्वाद की रस्म पूरी हो जाती, तब दादी पुकारतीं- बबुआ! पिता जी इतने में समझ जाते। आ कर रूपये ले जाते। दादी के नहीं रहने पर पूरी तरह यह जिम्मेदारी उन्हीं पर आ गयी। पहले की तरह ही अगले दिन वे चार रूपये मॉ को देते-रिक्शे का किराया रोज मॉग लेना!
मॉ चार रूपये नहीं लेतीं। तमतमा कर चल देतीं। जा कर रसोई में बरतन उठाने पटकने लगतीं। पिता जी डॉट कर कहते-किसी और से मॉगने जाओगी रूपया? जाओ! चमड़ी उतार के रूपया देगा।
दूसरे का रूपया तो नहीं मॉगती? अपना ही मॉगती हूँ तो नहीं देते। कौन सा अपना पेट भर लूंगी? एक टेबुल खरीदनी है। कोई घर आ जाए तो अच्छा नहीं लगता।  मॉ बड़बड़ाती जातीं और बरतन घिसती जातीं। पिता जी मॉ का बड़बड़ाना सुन कर टालते जाते। बाहर अपने मित्रों से कहते-  कमाने भेजो, तो औरत हाथ से निकलने लगती है। रात दिन चिक चिक मचाती है। साला, रूपया न लाई, जेवरात लाई है ! घर की जरूरत न होती तो कौन भेजता?
पिता जी गुस्सैल थे। गुस्सा भी कैसा? न्याय अन्याय पर जमाने भर से लड़ जाते थे, अपनी नौकरी तक की भी परवाह नहीं करते थे। मॉ बड़बड़ातीं तो वे टालते थे, पर जब बहुत ज्यादा बड़बड़ातीं तो कभी कभी आपा खो देते थे और चार छः झापड़ आसानी से मार देते थे। तरह तरह की धमकियॉ देते। मॉ युद्ध में भाग लेने की बजाय रोने लगतीं। यह हमें अच्छा नहीं लगता। एक आदमी मारे और दूसरा पिटते हुए रोये, चिल्लाए, यह एक सही दृश्य नहीं था। यह हमारा आदर्श दृश्य नहीं हो सकता था। इसी का परिणाम था कि जब शादी के कुछ समय बाद ही मेरी बड़ी बहन पर उनके पति ने हाथ उठाया तो वे एकदम आपा खो बैठीं। उस मारने वाले हाथ को वे तोड़ कर, मोड़ कर फेंक देना चाहने लगीं। लेकिन तोड़ कर रह गयीं, फेंक नहीं पायीं। इसका अफसोस उन्हें आज तक था। मॉ को दूसरा अफसोस आज तक था कि वे युद्ध का बिगुल बजा कर अपनी ससुराल से भाग आयी थीं, लड़ कर शहीद नहीं हुई थीं। जब कि बड़ी बहन इसका उलट सोचती थीं। वे कहती थीं कि वे आयीं अपना पक्ष मजबूत करने। अपने लोगों का समर्थन पाने और अपनी सेना तैयार करने के लिए। यहीं वे चूक गयी थीं। उनके लोग, उनके युद्ध में शामिल होने से कतरा गए थे। मॉ से उम्मीद वैसे भी नहीं की जा सकती थी। वे अपने ही युद्ध में हारी हुई थीं। युद्ध में जीत गयी लड़कियों के बारे में हमें बिल्कुल पता नहीं था। वे कहॉ रहती थीं? क्या खाती थीं? किससे पूछा जाए? आस पास तो बस हारने हारने को होती लड़ाइयॉ थीं और कुछ डरावनी कहानियॉ थीं।
तो पिता की दबंगई हमें बहुत अच्छी लगती थी। उनकी मस्ती भी उतनी ही अच्छी लगती थी। मैं मन ही मन अपने लिए पिता वाला व्यवहार चुनना चाहती थी। पर मॉ ऐसा करने के बीच जबरदस्त तरीके से आड़े आती थीं। वे नहीं चाहती थीं कि हम पिता जैसे बन जाएं। हम नहीं चाहते थे कि हम मॉ जैसे बन जाएं।
यही द्वंद्व था।
इसी के बीच हम थे।
कभी दबंगई कर के लड़ जाते थे, कभी धैर्य रख कर सह जाते थे।
मैं ससुराल से भाग आयी थी। हॅलाकि मुझसे पहले मेरी बड़ी बहन अपने ससुराल से भाग कर आ चुकी थीं। मैं उन्हीं की तरह मॉ के जीवन को दुहराना नहीं चाहती थी। मैं अपने शहर की पहली ग्रेजुएट लड़की भी नहीं थी। मैं तो सिर्फ इंटरमीडिएट पास थी। लौट कर मैं पिता जी से लड़ पड़ी थी। लड़ी थी आगे पढ़ने के लिए। लेकिन पिता को लगा था कि मेरी लड़की में खोट है। झगड़ालू है। इसलिए भगा दी गयी है। लड़की खुद ही भाग आए, यह पिता जी ने बड़ी बहन के संदर्भ में भी स्वीकार नहीं किया था। इसलिए उन्होंने उम्मीद से भर कर कहा-पढ़ो आगे। नौकरी ही कहीं लग गयी तो उन लोगों को फायदे का कुछ लालच हो जाएगा।
पिता जी ने एकदम दूसरी तरह सोचा था। पर मैंने इसमें से पढ़ो आगे को ही पकड़ा और जिद कर के पास के इस शहर चली आयी थी।
कमा रही थी तो अपना पैसा ले कर भाग क्यों न गयी? मैंने गुस्सा कर मॉ से कहा था।
भाग कर आदमी कहॉ तक जा सकता है? मॉ ने निराशा से कहा था।
निकलने से कहीं तक तो जाएगा।”  मैंने और गुस्सा कर कहा।
इस पर मॉ के आगे भय का पूरा संसार खुल गया। वे लगीं बताने-भागने से लड़कियॉ कहॉ कहॉ पहॅुच जाती हैं। बिसेसरगंज की गलियों में जो लड़कियॉ गुम हो गयी थीं, वे भी कहॉ पहॅुचीं? जिंदगी नरक है। बाहर के नरक से अंदर का नरक ठीक है। अंदर के नरक में एक की मार है, बाहर के नरक में मार ही मार है।…..
मैं इस बात से डरने की बजाय उब गयी। उब कर मैंने कहा- कमाता हुआ आदमी भागे तो बात कुछ और होगी।
मॉ की व्याख्यानमाला इस पर रूकने की बजाय और तेज हो गयी –कमाओ या न कमाओ, पैसा तो वही लोग रख लेंगे, जिसके कब्जे में पहॅुच जाओ। धन पर औरत का अधिकार कहॉ रहने देते हैं? कमाने वाले का पैसा भी निकलवा लेंगे और देह भी। तुम्हें क्या पता बिट्टो!  ये दुनिया किस कदर जालिम है। अभी तुमने देखा ही क्या है? मौज से पढ़ रही हो।
इस पर मैं भड़क गयी। मैं कोई मौज से नहीं पढ़ रही थी।
पहले भागो, तब व्याख्यान दो, तभी कोई भरोसा करेगा। मैंने सोचा था कि यह जहरबुझा तीर उन्हें कुछ निरूत्तर करेगा। लेकिन वे बस एक मिनट के लिए चुप हुईं, फिर अपनी बात मोड़ कर मेरा तीर मुझे लौटाते हुए बोलीं- तुम भाग कर कहॉ गयी बिट्टो? यहीं तो आयी। कहॉ जाती? लड़कियों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारे जमाने में तो यह भी मयस्सर नहीं था।
मैं कमाउंगी तो यहॉ नहीं रहूंगी। भाग कर कहीं और चली जाउंगी। तब देखना। मैंने तन कर कहा।
देखूंगी, देखूंगी। मरूंगी नहीं तब तक। बेहद खामोशी के भीतर से मॉ की यह आवाज आयी थी। इसने मुझे चौंका दिया था। इस निराशा के भीतर उम्मीद छिपी थी कि शायद ऐसा दिन आ ही जाए, जब मैं कमाने लगूं और कमाते हुए कहीं भाग जाउं, जिससे मेरे खाने पहनने की चिंता मॉ को न रह जाए और यह भी न रहे कि कोई मारता पीटता होगा, भूखे पेट सोना पड़ता होगा, ताने उलाहने होंगे, सास का पॉव चापते चापते गिर जाना होता होगा….. ऐसा कुछ भी न रहे।
बहुत सारी चीजों से निष्कृति का स्वप्न जैसा था।
स्वप्न ही था।
यथार्थ में नौकरी मिल जाएगी, इसका कोई भरोसा नहीं था।
—————————————————
सम्पर्क-
अल्पना मिश्र
55, कादम्बरी अपार्टमेंट
सेक्टर – 9रोहिणी, दिल्ली – 85
मो. 09911378341
e mail – alpana.mishra@yahoo.co.in
 

अल्पना मिश्र

  
हिन्दी कहानी के क्षेत्र में अल्पना मिश्र ने थोड़े ही समय में अपनी एक मुकम्मल पहचान बना ली है। अभी-अभी अल्पना ने अपना पहला उपन्यास लिख कर पूरा किया है। इस उपन्यास में इन्होंने उस समस्या को बड़ी खूबसूरती से उठाया है जो हमारे समय का सच तो है लेकिन जिस पर बात करना आम तौर पर वर्जित माना जाता है। अल्पना ने इस उपन्यास के माध्यम से यह दुस्साहस किया है और अपने तरीके से बखूबी किया है. कहीं पर भी लाउड हुए बिना अपनी बातें कह देना अल्पना की खूबी रही है, जिसका निर्वहन इस उपन्यास में भी इन्होने बखूबी किया है। शिल्प की छटा जो अल्पना की खूबी है वह तो आप इस उपन्यास में देखेंगे ही 

तो आइए पढ़ते हैं आधार प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य अल्पना मिश्र के उपन्यास – ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ का एक अंश। 

मनसेधू , तोरा नगर बासंती…..
(आत्मकथा -3)

  
एक बसंती पीला, खिलने खिलने को होता गुलाब मेरे हाथ में था। ओस कण की केवल एक झिलमिलाती बूंद उसकी हेम काया पर थिरक रही थी। जरा सा असावधान हुई कि यह खो जाएगी। मैं इस कण के खो जाने की संभावना को बचा ले जाना चाहती हूँ। कम से कम अभी या कम से कम जब तक मैं बचा पाती।
हथेली जैसे एक आँगन थी। मिट्टी की किनारे बनी क्यारियों में जैसे यह पीला फूल खिलने को आया था। इसे प्यार दुलार के जल से नहलाना था। हवा, मिट्टी के साथ थोड़ी उष्मा जीवन की, इसमें डालनी थी। फिर यह फूलता, निखरता। जीवन का खिलना ऐसा, कोई देखता!
मैंने बहुत आहिस्ता से, बहुत संभाल कर पूरा आँगन उसके सामने रख दिया।
‘‘सौंदर्य की वस्तुगत सत्ता को तुम नहीं समझती! पढ़ो, वह किताब। जो पिछले दिनों तुम्हें दिया था।’’ उसने हॅस कर कहा था।


‘‘कोई कोई अहसास बचाने का मन होता है। तुम इसे समझते ही नहीं। कुछ बहुत कोमल, कुछ बहुत महीन बुना होता है, उसे उतनी ही कोमलता से बरतना होता है। टूट न जाए, इसका ख्याल रखना होता है।’’
यह मैंने सोचा। कहा नहीं। अचानक ही कहना व्यर्थ लगने लगा। कभी अचानक ही हम कितनी चीजों से छूट जाते हैं। बिना किसी प्रयास के, बिना किसी हिम्मत की कोशिश के। ऐसे ही अकस्मात मैं छूट निकली हॅू और अपने शब्दों को बहा देना चाहती हूँ अनन्त की ओर। कहते हैं कि शब्द नहीं मरते। तो ये भी नहीं मरेंगे। कहीं पॅहुच जायेंगे। किसी जगह, किसी छोर तक। वहाँ,  कोई इन्हें जान ले शायद। कोई इन्हें समझ ले। शायद। समझ ही ले।


‘‘तुमने पढ़ा ही नहीं होगा। अब कहोगी अंग्रेजी में है। तो अभ्यास करो अंग्रेजी में पढ़ने का। और ये क्या बचपना है?’’ वह हॅसा। वही अपनी गंभीर सी हॅसी।
मेरे आँगन में खिला फूल उसने किनारे रख दिया।    
बचपने का बहुत कुछ किनारे रख दिया!
किनारे रख दिया कि उसे, उसकी जल, मिट्टी, वायु और उष्मा से किनारे कर दिया!


ओस-कण की बूंद – एकमात्र ठिठकी सी बूंद जाने कब हिली और लुढ़क कर विलीन हो गई। कहाँ विलीन हुई होगी? एक दूसरी वस्तुसत्ता में! फूल की वस्तुगत सत्ता थी। एक वस्तु और क्या ? बस, वस्तु-भर! वस्तु की सत्ता भी वस्तुभर है या उपयोग भर? उससे बहस कर के क्या होगा,? वह अंत तक हार नहीं मानेगा। हार जाने के बाद भी नहीं ! मैं यह नहीं देखना चाहती। अपने प्रिय को हारता और हार कर, हार न मानता हुआ देख कर कौन खुश होगा?
लेकिन करेक्शन तो लगाना ही होगा।
करेक्शन जरूरी सच है। इसे भी वह समझ पायेगा ?


मैंने किताब अब तक नहीं पढ़ी थी। किताब से वह छांट छांट कर उद्धहरण दे सकता था। मैं किताब की बात टाल रही थी। असल में किताब बोरिंग थी। बहुत उबाऊ। जीवन उसमें था ही नहीं। रंगों छंदों में बिखरा जीवन। यह बात भी मैं उससे कई तरह से कहना चाहती थी। पर वह अपनी रौ से बाहर ही नहीं आता था। जीनियस रौ। जीनियस झक।
‘‘मैं अपनी झक को बहुत प्यार करता हॅू।’’ वह गर्व के साथ ऐलान कर सकता था।
मैं नहीं कर सकती थी। मैं इस पर ठहर कर विचार करने लगती थी। मेरी झक है क्या? और अगर है भी तो मैं उसे कितना प्यार करती हॅू? करती भी हॅू या कि नहीं कर पाती? या कि अपनी झक से डरती हॅू कि इसी डर से पार जाने की कोशिश है सारी।
यह भी कि अगर दुनिया का हर आदमी अपनी अपनी झक से प्यार करे, सबसे ज्यादा, तो कैसी अनोखी बन जाएगी यह दुनिया?
‘‘हम अब बच्चे नहीं रहे। तुम भी कुछ बड़ी हो जाओ।’’


हॅसी तुम्हारी मुझे चीरती हुई निकलती चली गई। क्या सचमुच मुझे बड़ा हो जाना चाहिए? जीवन की यह खूबसूरती क्या बचपना भर है? या कि बचपना ही है जो समेटे हुए है अब तक थोड़ी सी कोमलता, थोड़ा सा प्यार, थोड़ा सा भरोसा, थोड़ी सी निश्छल हॅसी…. आदमी हर पल एक गंभीर मुद्रा ओढ़े रहे तो जीवन कितना बोझिल होने लगे।
 ‘‘मेरे पास मेरा फूल हो तो मुझे दूसरे फूलों का क्या?’’ कुछ सोचते हुए तुमने कहा था। हो सकता है कि तुम्हें लगा हो कि मुझे हर्ट कर चुके हो या शायद अब कुछ मेरी निकटता की इच्छा हो आई हो ? क्या पता? फिर तुमने अपने परिचित से अंदाज में मुझे अपनी तरफ खींच लिया। मैं खिंच आई।


मेरा आँगन छूट गया। हथेली चली आई।
फूल छूट गया। खुशबू नहीं छूटी।
क्या था इस खिंच आने में? अब तक सोचती हॅू। मेरी अपनी झक तो नहीं थी! या कि मैं कुछ खोज रही थी, जिसकी कोई गंध तुम्हारे भीतर से उठने की संभावना लगती थी। लगती रहती थी, यह मैं जानने लगी थी। इस संभावना को पकड़ लेना चाहती थी।


तुम हॅसे हो। जीनियस हो, हॅस सकते हो। जीनियस दुनिया पर हॅस सकता है। ऐसा मानते हैं। जो मानते हैं, उनसे मैं कभी मिल नहीं पाई। कुछ मर भी गए होंगे। काल कवलित कहना चाहिए था। एक बहुत ब्लंट भाषा आ जाती है बार बार। चाहने न चाहने की बात नहीं है, जीवन की खरोंचे भाषा भी बदलती ही हैं। तो जीनियस दुनिया से उपर उठ कर दुनिया को देखता है और उसे छोटा, बहुत छोटा, एक गोलाकार भर मान सकता है! गोले को अपने पैर के नाखून से ठेल देने की बात भी कह सकता है! इसी गोले को उधाड़ उधाड़ कर उसके वस्तुगत यथार्थ को खोल भी सकता है! जिगरा है भई, उसी का-!- ?


मैं तो इसी ग्लोब के भीतर, इसी में लुढ़कती हुई, अपने को स्थिर करने के लिए कितना बल लगाती हॅू। दम साधे, जी जान से जुटी हूँ कि कोई हिला दे तो न हिलने की हिम्मत में रहॅू, पैर न डिगें, मन के झील की हिलोरें फेन उगलती सिंधु की प्रलयंकारी लहरों की तरह पछाड़ खा खा कर गिरने को न हो जायें! मेरी संभाल से बाहर। मेरी मुट्ठी से फिसलती हुई।

‘‘शचीन्द्र। शचीन्द्र। ओह शचीन्द्र।’’
मैंने कैसे बार बार तुम्हारी छाती के भीतर तक मुँह गड़ा कर कहा है। किस गहरे समंदर से उफन कर यह स्वर उपर उठ आया है।
कितने पहले की बात है ये। लगता नहीं! लगता है बस, अभी सब होता हुआ गुजरा है। एकदम अभी।
तुम्हारे साथ का यह थोड़ा सा वक्त, बस, खत्म हो जाने के लिए था। घड़ी की सुई मेरे लिए नहीं रूक सकती थी।
‘‘बिट्टो! बिट्टो, तुम हो ही ऐसी। मक्खन की तरह।’’
यह क्या! किसी खाने की चीज से तुलना? कोई और वक्त होता तो मैं बहुत धक्का खा जाती। मुझे यह हद दर्जे नापसंद है। लेकिन अभी जब तुमने कहा, ऐसे सघन क्षण में कहा, तो इसे मैंने कुछ और तरह से पढ़ लिया। मानो यह सिर्फ मिठास का, मन की अतल गहराइयों में खो जाने का पर्याय भर हो। इसका कोई दूसरा अर्थ हो ही नहीं सकता।
‘‘मुझे किसी रजिस्ट्रेशन की जरूरत नहीं है।’’
तुमने कह दिया था।
मैंने मान लिया था।
इससे ज्यादा और क्या कहा जाता!
इससे ज्यादा और क्या सुनने को बेचैन हुआ जाता!
‘‘जो सुनना है, बोलो, मैं कह दूं।’’ तुमने पूरा का पूरा ढक दिया था। मैं अलग से कुछ रह ही नहीं गई। तुम भी नहीं रह गए होगे। कम से कम उस क्षण तो बिल्कुल नहीं। अपनी सारी तर्क शक्ति के बावजूद उस क्षण तो बिल्कुल नहीं।


तुम्हें तो ध्यान भी नहीं होगा। कैसे मैं तुम्हें अपलक रात भर देखती रहती हॅू! तुम आँख बंद कर लेते हो। सोने लगते हो। मैं नहीं सो पाती। जाने कौन से अचरज से मेरी आँखें खुली रहती हैं। तुम्हें ताकती, निहारती, तुम्हें छूती। आँखों की इस छुअन को तुम जान पाते होगे ? जैसे लगता है कि जान कर ही अचानक अपनी बाँह उठा कर मुझे लपेट लेते हो। मुड़ते हो जरा सा और मुझे एकदम सीने में चिपका लेते हो। जान जाते होगे तभी तो बीच में कह देते हो -‘‘ सोओ। सो जाओ।’’ मैं फिर भी नहीं सो पाती। ऐसा पल सो जाने के लिए नहीं है। सो कर बिता देने के लिए नहीं है। ऐसा पल जीती जागती आँखों में भर लेने के लिए, रोम रोम में समा लेने के लिए है। पता नहीं किस जन्म में मिलेगा ऐसा पल। और तुम हो कि सो रहे हो आँख बंद किए। 


‘‘आज न सोओ।’’ मन करता है कि तुम्हें कह दूँ। जगा दूँ। एक रात न सोओ। एक रात अपनी नींद की रातों में से कम कर दो। एक रात कम कर देने से तमाम तुम्हारी नींद की रातों का ऐसा क्या घाटा हो जाएगा?
‘‘आज की रात न सोओ।’’ नहीं कह पाती।
तुम्हें जगाने के लिए उठा हाथ तुम्हें थपकने लगता है, सहलाने लगता है।
दुलरा कर चूम चूम लेती हॅू तुम्हें।
चूमती हॅू इतने धीरे से कि तुम्हारी नींद को पता भी न चले।
तुम्हें छू लूं और तुम जागने भी न पाओ।
नींद से किसी को जगाना पाप है, ऐसा सुना था। पता नहीं किससे? ऐसी सुंदर सी नींद आती ही किसे होगी ! ऐसे जमाने में ऐसी नींद। सचमुच पाप ही लग जाए जो ऐसी नींद वाले को जगा दे कोई। नहीं, नहीं जगाउंगी। तुम्हें सोते हुए देखूंगी। ‘आज मत सोओ।’ यह कहना बचा लूंगी। किसी और रात के लिए सजो लूंगी। तब कहूँगी। इस आस में कहॅूगी कि तुम मान लोगे मेरी बात। कौन से प्रेमी ने अपनी प्रेमिका की ऐसी बात नहीं मानी, बताओ। इतिहास उठा कर दिखाओ। 


चलो छोड़ो! ये दुनीयाबी बातें! यही कहोगे न! यही कह कर हॅसोगे न! अभी तो सो लो। और ऐसे सोता है कोई, मुस्कराते हुए। स्वर्ग का राज मिल गया हो जैसे। कोई गड़ा खजाना हाथ आ गया हो। ऐसे, इस अभिमान से मुस्करा रहे हो। आँखें बंद हैं और चेहरा प्रसन्नता से भरा है। तुम्हारे इन मुस्कराते होंठों को चूमने का दिल कर आता है। बार बार। नींद में डॅूबे किसी आदमी की मुस्कराहट को ऐसे चाहना में छलक कर चूमा है कभी किसी ने! मैंने कहीं नहीं पढ़ा। सुना भी नहीं।
मैं तुम्हारे सीने में लिपटी हुई अपनी चाहना में छलक पड़ी हॅू।
थोड़ा सा हिल कर इतनी जगह बना लेती हॅू कि एकदम से इस क्षण को पकड़ लूँ। तुम्हारी मुस्कान को भर लूँ अपनी सासों में, धमनियों में, रक्त में……
छलकती हुई मैं तुम्हारे होंठों पर बिखर गई हूँ।
आखिर छलका हुआ जल कहीं तो गिरेगा।
कोई तो उसकी इच्छित भूमि होगी।
मेरी यही है। तुम्हारी जगर मगर करती मुस्कराहट…..
सोते हुए तुम कुनमुना कर जग गए हो। अपनी विशाल देह की एक चादर ओढा दी है मुझे। मैं छिप गयी हॅू इसमें। समा गयी हॅू इसमें। एकाकार हो गयी हॅू इसमें। कुछ दूसरा बचा ही नहीं है। न अलग, न थलग। कुछ भी नहीं। 


ऐसे जब तुम छिपा लेते हो मुझे, तो मैं खुद को कितना कितना सुरक्षित महसूस करती हॅू। तुम्हारा हाथ, हथेलियाँ – बड़ी, चौड़ी, मेरा हाथ, हथेलियाँ- छोटी, पतली, तुम्हारी हथेलियों में समा जाती हैं। जैसे मेरी छोटी सी देह तुम्हारी देह में छिप जाती है।
प्रेम की अगर सचमुच कोई अलग सी भाषा होती होगी तो वह ऐसी ही होगी – तुम्हारी मुस्कराहट जैसी। कोई रंग होता होगा तो ऐसा ही होगा – इस समय तुम्हारे चेहरे पर पसरा है जो…..
‘‘तुम्हारी छाती पर चढ़ कर कहा रहा हॅू आई लव यू। कभी किसी ने कहा है ऐसे – दुनिया में किसी को? बताओ।’’ तुम दुलरा कर कहते हो।


पता नहीं कौन कौन से फूलों के पराग महक उठते हैं। पता नहीं कौन कौन से रंग खिल उठते हैं।
तुमने कह दिया था। मैंने मान लिया था।
इतना ही सच था।
इसके आर पार मैं नहीं गई।
कोशिश भी नहीं किया।
तुमने कह दिया, इतना जो कह दिया तो भला कौन सी मुझे ही परवाह रह गई इस दुनिया के नियमों, बंधनों की। मैं तो बिल्कुल नहीं जाना चाहती थी रीति रिवाजों के क्रूर संसार में। जहाँ सजा धजा कर औरत को बलिबेदी पर बैठा दिया जाता है। मैं झेल चुकी थी यह सब। मेरी झोली में ऐसे अनुभव अपनी पूरी तीव्रता का अहसास कराते ठूंसे पड़े थे। पूरी सदी भर अनुभव। 


पता नहीं वह कौन सा क्षण होता है जहाँ मैं रूक जाती हूँ और कुछ और ही तरह से देखने लगती हॅू। शंका करने लगती हॅू। कुछ और हो जाती हूँ। तुम्हें नहीं बता पाती। हर बार जब तुम तक आती हॅू तो अपने साथ एक भारी भरकम पिटारा लिए आती हूँ। वही, मेरी अनुभवों की झोली, दुख, अपमान, तिरस्कार, पीड़ा या और जो भी शब्द दिए गए हों इसके लिए, वे सब के सब इसमें भरे पड़े हैं। उपर तक ठूंसे। हर बार सोचती हॅू कि तुम्हारे आगे खोल दूंगी इसे। हर बार रह जाता है। वापस, वैसा ही। जानते हो इतनी भारी भरकम गठरी ढो कर लाने और फिर ढो कर वापस ले जाने में मैं कितना थक जाती हूँ। बड़ी भारी थकान है यह। एक सदी से भी भारी। युग कल्प से भी भारी। अब तुम्हें क्या बताउं कि हर बार की तरह इस बार भी तुम इसे अगली बार सुनने को कह दोगे। फिर ऐसी अलमस्त नींद तुम्हारी। यह बोझ वाला पिटारा खलल ही तो होगा।
छोड़ो, सचमुच फिर कभी।
फिर ले जाती हॅू वापस।


तो जो मैं नहीं कह पायी, पर तुम्हीं से जो कहने को आकुल व्याकुल होती रही, वही मैं आज अपने आप से कहती हॅू कि अगर कोई दिन और रात में गिनती करने बैठे तो कह सकता है कि मैं कोई डेढ़ साल रही उस संसार में, जिसे शादी शुदा जिंदगी कहते हैं। मैं इसे डेढ़ साल में अटा नहीं पाती हॅू। मुझे यह बड़ा लगता है। बहुत बड़ा। जिंदगी की सारी गिनतियों से बड़ा। सौ, हजार, लाख, करोड़, शंख, महाशंख……..  मतलब कुल मिला कर तब तक, जब तक कि वहाँ मैं रहती चली गई। तब तक, जब तक कि इस हद तक मुझमें भय नहीं भर गया कि अब नहीं भागी तो आगे नहीं बच पाउंगी! जीने की इच्छा से फूटी आखिरी हद पार कर जाने वाली हिम्मत भी इसे कहा जा सकता है। 


मैं कोई पहली लड़की तो थी नहीं, जो ससुराल से भाग आई थी। मुझसे पहले जो लड़कियाँ भागी थीं, उनका कोई उपलब्ध रिकार्ड भी मेरे पास नहीं था। पर एक नाम मेरे पास था। अपनी ही बड़ी बहन का। दीदी। हाँ, दीदी मुझसे पहले भाग आई थीं। मुझसे पहले वे लड़ कर, भिड़ कर, चीख कर देख चुकी थीं। मुझसे पहले उन्होंने मायके वाले परिवार को अपना परिवार कहने की जुर्रत कर डाली थी। मुझसे पहले उन्हें मायके के लोग बेगाने दिखाई पड़े थे। मुझसे पहले वे माँ की तरफ उम्मीद भरी नजरों  से देख चुकी थीं। मुझसे पहले वे माँ की समझाइश की सारी चालाकियाँ, सारे ताने और अवमानना के सारे दंश तहा तहा कर रख चुकी थीं। मुझसे पहले वे माँ पर सामंती मानसिकता की पुतली होने का आरोप लगा चुकी थीं। मुझसे पहले माँ से उनकी ठन चुकी थी। दुनिया से भी। मेरे सामने वे हार रही थीं। मेरे सामने उनके हथियार भोथरे हो रहे थे। मेरा काम उनके अजमाये तरीके से नहीं चल सकता था। ‘वित्त विहीन आदमी हार जाता है’ यह पाठ मेरे आगे खुल रहा था। रोज ऐसे अनुभवों का कुएं भर जल आता और मेरे आगे पसर कर नदी की तरह रास्ता बना लेने की जिद करने लगता। मैं रोज इसे पढ़ती, बाँचती, गुनती। मैं रोज निर्णय करती कि उन दिशाओं को जानना है, जिधर से वित्त आता है। उसी तरफ जाना है। लेकिन समस्या सम्मानित वित्त की थी। माने क्वालिटी धन। इसके लिए पढ़ना और नौकरी करना ही सूझा था। मैं दीदी की तरह नहीं लड़ सकती थी। मैं कुछ और तरह से लड़ना चाहती थी। इस लड़ाई की पूरी सामरिकी स्पष्ट नहीं हो पाती थी तो बड़ी बेचैनी होती थी। तमाम किताबों की तरफ इसीलिए जाती थी, चाहे वे कितनी ही बोरिंग हों, मैं पूरी कोशिश करती थी। तमाम लोगों से, जो दूसरों के हक की बात करते थे, इसलिए मिलने को उतावली हो उठती थी। इसी क्रम में लोगों के हक की बात करने वाले शचीन्द्र से भी मिली थी। शचीन्द्र से मिल कर बहुत राहत मिली थी। उसकी बातें मुझे सारे दिन याद रहतीं। सारी रात मैं उन पर सोचती। तमाम प्रश्न उठते तो मैं उन्हें तब तक संभाले रखती, जब तक कि शचीन्द्र से दुबारा मुलाकात न हो जाए। शचीन्द्र मेरे तहाए प्रश्नों को बड़ी गंभीरता से उठा लेता, फिर भारतीय पारिवारिक ढाँचे को समझाता, बेहद सैद्धान्तिक तरीके से। व्यावहारिक अनुभव से वह नहीं बोलता था। सिद्धांतों को कभी परखता भी नहीं था। यह भी मैंने कितने बाद में जाना। सिद्धांतों पर अंधविश्वास करना, अंध श्रद्धा ही उसके लिए पहली और आखिरी शर्त थी। मैं चकित सी उसका मुँह  देखती। देखती इस तरह कि उसका मुँह देखते देखते बहुत प्यारा लगने लगता। मैं भूल जाती कि वह जो कह रहा है, वह किस विषय पर है? पता चलता कि उसका प्रवचन था शिक्षा व्यवस्था पर और मैं बता बैठी कुछ और। वह नाराज हो जाता।
‘‘तुममें लगन तो है। पर ध्यान भटकाती रहती हो। ये लो दो किताबें। ध्यान से पढ़ना।’’


किताबें मैं ले लेती। मैं भी समझना चाहती थी कि आखिर यह सब परिवार, समाज, वर्ग, जाति, लिंग और अंततः इन सब में स्त्री की स्थिति क्या है? लेकिन प्रवचन रूक जाता। शचीन्द्र का भाषण देता चेहरा दूसरी तरफ मुड़ जाता। वह उठ खड़ा होता। यह मुझे अच्छा नहीं लगता। लेकिन यह भी ठीक न लगता कि मैं उसे बोलते रहने के लिए रोक लूं। फिर सब दोस्त मित्र इधर उधर घूमते। इधर उधर घूमते जोर जोर से बतियाते, बहसते, चाय पीते। किसी के पास कुछ पैसे होते तो पकौड़े खा लेते। और ज्यादा होते तो दारू पी लेते। मैं इससे बाहर हो जाती। अॅधेरा होते मुझे लौटना होता। इसके लिए तुम्हीं सब मुझे डरपोक, कायर, स्वतंत्रता के हसीन सपनें देखने वाली शेखचिल्ली आदि आदि कहते और यह भी कि ‘ऐसे दुनिया नहीं बदलती ’ जैसे जुमले सुना का टांट कसते। दुखी करते। पहले मुझे लगता था कि मैं बेहद कमजोर और डरपोक हॅू। थी ही। लेकिन मुझे तुम सबका यह तरीका, इससे भी दुनिया बदल जाएगी, यकीन करने लायक न लगता। पर मैं यकीन करती। बाकी कोई तो इतना भी नहीं बोल रहा था। यहाँ इतना तो था। लड़कियाँ इनके गोल में बोल बतिया पाती थीं। ढाबे पर चाय पी लेती थीं। थोड़ा हॅस भी लेती ही थीं। इससे ज्यादा नहीं। पर इतना तो था ही। 
‘‘अपने हक की लड़ाई को ऐसे सबके हक की लड़ाई में बदल कर लड़ना, बड़ा लड़ना है।’’
शचीन्द्र ने यही कहा था। पहली ही मुलाकात में। बात एकदम पते की थी। किसे इंकार हो सकता था भला! मैंने भी इसे ही पकड़ा था। अपनी तरफ से एक बड़ी लड़ाई की तरफ जाने की कोशिश भी की थी।


‘‘शचीन्द्र , आज मैंने एक फासला तय कर लिया। नौकरी। नौकरी मिल गई आखिरकार।’’ मैंने सबसे पहले शचीन्द्र को ही यह खबर दी थी। हाथ में कागज पकड़े दौड़ी चली आई थी। सोचा ही नहीं था कि जरा थिर हो लूं। बस, दौड़ पड़ी। कागज आगे कर दिया। मन हुआ आज पहली बार कि शचीन्द्र के गले लग कर रो पड़ूं। बस, डर से गले नहीं लगी और रोई भी नहीं। कहीं हॅस न पड़े, मजाक न उड़ा दे, यही सोच कर रूक गई।
‘‘वाह! वाह! यह तो गजब की खबर है। अरे मेरी बिट्टो! बिट्टो।’’
फिर कुछ और बल दे कर कहा-‘‘ बिट्टो रे, जीत की तरफ है तू तो। गुड, वेरीगुड।’’ और न जाने किस पल में उसने मुझे गले से लगा लिया। उसी आवेश में भींच लिया।
मैं खड़ी रह गयी। अपने को भूली हुई। रोना, हॅसना सब इस अपनेपन में बहने लगा।
‘‘तुझे नौकरी मिल गयी तो जैसे मुझे मिल गयी। मैं बहुत खुश हूँ। बहुत। बहुत। सच में।’’ यह उद्गार हृदय से ऐसे फूटे थे, जैसे कहीं कोई झरना गड़ा था, जिसका पता किसी को नहीं था। पर जो था ही। वही, आज उमग कर बह निकला था। वह मुझे थामे कितने चक्कर मुड़ मुड़ कर कहता रहा। न जाने क्या क्या कहता रहा। मैं चकित खिचीं उसी के बहाव में बहती रही।


‘‘आज निश्चिंत हो गया मैं। खर्चा तो अब चल ही जायेगा हमारा। दोनों में से एक के पास खर्चा उठाने का रास्ता होना चाहिए। लो अब हो गया। हो गया न। बोलो। बोलो।’’ वह मुझे हिला हिला कर कहता रहा।
‘‘मैं यौन शुचिता को नहीं मानता। तू पवित्र है मेरे लिए। उतनी ही पवित्र जितनी हमेशा से थी।’’ उसने मुझे कंधे से पकड़ कर धीरे से कहा।
‘‘क्या कह रहे हो? कहने की क्या जरूरत है? मैं जानती हॅू तभी तो तुम पर भरोसा कर रही हॅू। और मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं कहीं से अपवित्र भी हो सकती हॅू? मैं हमेशा से पवित्र हॅू। बोलो। है न?’’ मैंने आवाज में बहुत भरोसा भर कर कहा। मानो उसके इस उद्गार में जो कुछ ऐसा था, जो कुछ मुझे ठीक सा नहीं लगा था, उसे भरोसे के इस जल से धो कर निर्मल कर दूंगी।
वह मेरे कंधे पर झुक आया। कितनी ही रात तक हम बैठे रहे। सरिता का सैकत कूल हमारा गवाह रहा। नदी का तट हमें दुलराता रहा। नदी का जल हमें शीतल करता रहा। नदी तट के पल्लव – पाखी हमारे लिए मंगल गान गाते रहे। मंद सुगंधित हवाएं श्रृंगार करती टहलती रही।
वह कहता रहा। मैं न जाने क्या सुनती रही! न जाने किस रस में भीगती रही! न जाने कौन से समंदर की अतल गहराई में तैरने लगी! मैं कुछ भी न समझने की तरह सिर हिलाती रही! भूली, भूली, ठहरी ठहरी, चुपचाप! जब तक कि शचीन्द्र ने मेरा पूरा चेहरा अपने हाथों में भर न लिया। मैं थोड़ा सा कुनमुनाई थी। मुझे याद है। तुमने थपका था। कोई मीटी, गुलगुले सी लोरी थी जैसे, मैं बेहोश सी थी। किसी जादू के वशीभूत। जादू ही था।
‘‘बोल कि लव आजाद हैं तेरे, बोल कि जुबाँ अब तक तेरी है……..’’
किस बात का कौल भरवा रहा था वह मुझसे ? मैं तो कब की थकी, आज उसी की बाहों में लम्बा आराम पाना चाहती थी। 


मैंने आँखें बंद कर लीं। अपना सिर तुम्हारे कंधे पर टिका दिया। तुम्हारी हथेलियों में अपनी हथेली रख दी।
‘‘हाँ। तुम्हीं हो। तुम्हीं रहोगे। और कोई नहीं।’’ मैंने कहा था। पूरे मन, वचन, कर्म से।
इससे अधिक भी क्या कहा जाता!
इससे अधिक सुनने को भी क्या होना था!
हमारी गवाह नदी थी। पेड़ पल्लव थे। पाखी के मंगल गान थे। हवाएं भी थीं ही।
तुमने माना था। प्रकृति को साक्षी रख कर। मैंने माना था। बाकी सब आडम्बर था। 
‘‘तो चलो, सालाना चंदा भरो पहले।’’ तुमने हॅस कर मुझे खींचा था।
मैं भी हॅसी थी। ऐसे समय ऐसी बात! तुम्हें सूझ सकती थी! तुम हो ही ऐसे!
छात्र हित के लिए चंदा मांग सकते हो, कभी भी!
‘‘चंदा। हाँ, हाँ, क्यों नहीं।’’ मैंने एक दूसरी दुनिया से निकल कर कहा।


मुझे थोड़ा वक्त लगा था। मैं चेत गई थी। लजा उठी थी। यह क्या कर रही थी। इतने खुले आम। तुम मेरे लजा जाने पर हॅसे थे। हॅस कर मुझे खींचा था। मैं खिंच आई थी। तुम्हारे माथे की सलवटें कितनी सुंदर, मनोहर, भव्य, रमणीय…. या जो भी शब्द सटीक बैठता हो, बस, वैसी लग रही थीं। तुम्हें देख कर मुझे यकीन होने लगता था कि यह दुनिया बदल जाएगी एक दिन जरूर। एक दिन औरतें खुली हवा में सांस लेने लगेंगी। एक दिन मेरी माँ भी डरना भूल जाएगी। बहुत डरती है मेरी माँ, मैं तुम्हें एक दिन कहूंगी। डरती है इसलिए लड़कियों को और भी ज्यादा कड़ाई से चारदीवारी के अंदर रखना चाहती है। वह सबको खुश देखना चाहती है। सबको, मतलब जो घर में ताकतवर हैं, उन सबको। बाकी सब खुश रहने के दायरे से बहुत पीछे हैं, बहुत पीछे। हाशिए के कोर पर लटके हुए। उसके पास सहानुभूति से नहीं जाया जा सकता। वह इसे सहानुभति की बजाय अपना काम कुछ पूरा हुआ सा मान कर कब्जे की स्थिति को और बढ़ा देती है। हे प्रभु! सचमुच यह दुनिया बदले और सारी माएं भय मुक्त हो जाएं। मैं दुआ करती हॅू। किसी ईश्वर को नहीं जानती मैं। बस, दुआ जानती हूँ।


मैं तुमसे अपना सब सपना सांझा करना चाहती हॅू।
मैं तुम्हारे साथ मिल कर अपनी पुरानी, वही सदियों पुरानी लड़ाई में मजबूत होना चाहती हॅू।
दुनिया की मरम्मत करना चाहती हॅू।
चाहती हॅू कि मेरा यह सब तुम जान लो।
मेरा वह सब, जो अतीत से टूट टूट कर वर्तमान में भर भर आता है, वह सब।
कोई सुंदर शब्द आएं और छलछला कर तुम्हारे आगे बिखर जाएं। तुम उन्हें समेटो, सहेजो, रख लो अपने अन्तरमन की संदूकची में।
मैं कुछ न कहॅूं। सीधे शब्दों में कहना जितना मुश्किल है, यह बताना भी उतना ही। अब ऐसा क्या रह गया कि शब्दों की एक अलग छतरी तानी जाएं, तब कहीं हम भावनाओं के ताप, शीत और बरसात से बच जाएं।  अंधड़ हमें बहा न ले जाएं, इसके जतन में लगे रहें? अरे नहीं, मैं हाथ तुम्हारी तरफ बढ़ाउं तो सब बढ़ आएगा तुम्हारी ही ओर। पूरा का पूरा जीवन।
 


‘‘चाय।’’ तुमने धीरे से चाय का कुल्हड़ मुझे थमाया है।
कब ले आए मुझे इस ढाबे तक?
देखो, कैसे नींद में चली जा रही हॅू !
बादलों में तैरती सतरंगी पंखों वाली परी हो गयी हूँ!
‘‘संभालो अपने को। माथे का टेंशन पोंछो। नौकरी की खुशी में चाय का तो पेमेंट करो।’’
मैं शर्मिन्दा हो उठी। सचमुच कैसे भूल बैठी हूँ जग – अग सब!
तुम्हारा हाथ थामें चली आई हॅू निणर्य की इस डगर पर।
एक भविष्य भरा- पूरा, मेरे आगे आगे चल रहा है।


तुम्हारा पैनापन पानी की तरह बह रहा है। तुम्हारे तर्क चमचमाते हुए खिल रहे हैं। सूरज का ताप जैसे शीतल हो उठा है। मैं हूँ  तुम्हारे अहसास के समंदर में बिछलती और तुम हो अपनी बलिष्ठ देह में चमचमाते सुनहरे। अपने स्पर्श से दुलराते, सहलाते, झुकते, चूमते, छाते हुए…….
फिर, फिर, यह क्या ? इतने परेशान हो उठे हो? इतना संघर्ष कर रहे हो अपने आप से! अपने छोटे से अंग को इतना रगड़ रहे हो, पर वह है कि अपनी सुप्तावस्था से बाहर ही नहीं आता। भय से सिकुड़ कर बैठे किसी केचुए सा…. या शायद छिपकली के छू जाने से पैदा हुए अहसास जैसा…. या शायद….. मुझे सूझ नहीं रहा कि क्या कहूँ? कि क्या करूं?


सारा आलोड़न विलोड़न रूक गया है!
सारा शोर थम गया है!
तुम अपनी असमर्थता में काँप रहे हो!
अपनी जान भर जूझ रहे हो। आखिरकार थक कर गिर गए हो। हारे हुए भी और पस्त भी।
मैं न हारी, न थकी। फिर क्यो लग रहा है कि जैसे ढह गयी हॅू!
कोई रेत का टीला अभी अभी भरभरा कर गिर गया है!
कितनी ही देर तक कोई शब्द नहीं आया। आ ही नहीं पाया!
कुछ कहने को होती तो कहना रह जाता।
कैसे कहा जाए? यही संकट था।
कैसे सुना जाएगा? यही चिंता थी।


‘‘कब से?’’ बड़ी मुश्किल से मेरे मुंह से निकला है।
‘‘कुछ दिन से, कुछ महीनों से…. पता नहीं…..’’ तुम कह नहीं पा रहे हो। शब्द किसी अज्ञात लोक से चल कर आए लग रहे हैं। थके, परेशान, बेचारे शब्द।
‘‘तुमने बताया क्यों नहीं? अपना नहीं माना मुझे?’’ मैं इतनी कमजोर सी आवाज में कह रही हॅू जैसे दूर किसी खाई में खड़ी हॅू। जहाँ से बोलूंगी तो आवाज गूंज कर कई टुकड़ों में बिखर जाएगी। पता नहीं उस तक पहुँचेगी   भी कि नहीं, जिसे सुनाना था?


तुम्हारे कंधे पर सिर रख कर सो रही हॅू। सो रही हॅू या केवल सोने का अभिनय कर रही हॅू। तुम भी, शायद तुम भी सोने का अभिनय कर रहे हो। मुझे ऐसा ही लग रहा है। पता नहीं किस सागर तट पर तूफान तट बंध तोड़ आया था, पता नहीं किस नदी ने करवट ली थी कि सारा जल उमड़ा चला आ रहा था। इधर, इधर, मेरी आॅखों की खाली पड़ी जगह में। तुम्हारी आँखों की खाली पड़ी जगह में।
‘‘रो क्यो रही हो?’’ तुमने कहा नहीं था। बस, मैंने जान लिया था।
‘‘सब ठीक हो जाएगा।’’ यह भी नहीं कहा गया था।


कहीं हमारा आप, दूसरे में इस तरह मिल जाता है कि बहुत अनकहा भी कहा हो जाता है। बहुत कुछ हम जान लेते हैं। बिना किसी प्रयत्न के हम तक कितना कुछ पॅहुच जाता है। तुम तक भी पॅहुचता होगा?
तुमने मुझे खींच कर अपनी तरफ कर लिया है। अपने सीने में दुबका लिया है। सारी दुनिया से अलग कर के छिपा लिया है। तुम्हारे नयनों के नीर को मैंने स्नेह से पोंछा है। तुम्हें दुलराया है। यह कोई इतनी बड़ी बात नहीं है। देह के छोटे से सुख के लिए आदमी का इतना बड़ा प्रेम ठुकराया नहीं जा सकता।
मैंने उस रात, जितनी जितनी गहराई से तुम्हें प्यार कर सकती थी, किया था।


पूरी नदी कल कल छल छल बह रही थी और तुम किनारे खड़े थे।
मैं दया से, सहानुभूति से भर उठी हूँ।
‘‘ठीक हो जाएगा। आजकल इतना तो इलाज है। दुनिया भर के तेल और दवाएं….’’ यह भी मैंने मुश्किल से कहा था। डरते हुए कि कहीं तुम्हें हर्ट न कर दूँ।
‘‘तुम्हें कैसे पता?’’ अचानक तुम नींद से जागे थे। चकित से, हैरान से!
‘‘पढ़ा था कहीं?’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘शायद किसी अखबार में।’’
‘‘ये सब पढ़ने की क्या जरूरत है?’’


यह मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। इसमें इतना क्या चौंकना! रोज अखबार ऐसे विज्ञापनों से भरे रहते हैं। कोई भी पढ़ सकता है। मुझे कभी नहीं लगा कि इस पर नजर जाए तो नजर बचा ली जाए। जीवन की असलियत से तो नजर मिलाना होता है। बचाना नहीं। यही जानती थी। यही जीवन ने सिखाया था। सो पढ़ा हुआ जब तब का, अभी याद आ गया था और कह दिया गया था। शायद तुम्हें अच्छा नहीं लगा था। शायद तुम यह सुनना नहीं चाहते थे कि कोई लड़की यह सब भी पढ़ लेती है और पढ़ ही ली है, तो इस पर ज्ञान बघारे, यह तो अशोभन है, यही सोचा होगा। एकदम मेरी माँ की तरह। 
मैंने करवट कर लिया।
‘‘ऐसे ही कह दिया था।’’
तुमने समझ लिया कि कुछ है जो मुझे नहीं भाया है।
पर इतने बुझे हुए! तुम्हारी चहक! मैं उसे वापस पाना चाहती हॅू।

———————————–
 


   
स्वर्णमृग और झील मन की हलचल
(आत्मकथा – 4)  

(आधार प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य अल्पना मिश्र के उपन्यास – ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ का एक अंश)
       
 
शचीन्द्र! हर दिन तुम लौटते हो। तुम नहीं लौटते! तुम्हारा साया लौटता है। तुम्हारा हमशक्ल कोई! तुम्हारी तरह मुस्काराने की कोशिश करता। तुम्हारी तरह बहस करने का मूड बनाता। पर तुम्हारी तरह नहीं, कुछ छूटा हुआ, कुछ रूका हुआ, कुछ बीता हुआ सा…. उस साये से कुछ छूटा हुआ ……! मैं इंतजार में रूकी, इंतजार में ही रह जाती हॅू। मेरा इंतजार नहीं टूटता, खत्म ही नहीं होता!

तुम लौटते हो। थके हुए से! लौटते ही मुझ पर टूट पड़ते हो। अपने को अजमाते, अपने से संघर्ष करते। अपने से निराश होते। अपने से खीजते। अशक्त और कमजोर। पहले से ज्यादा। किसी भी तर्क से अलग। अपना तर्क गढ़ते। अपने बचाव का तर्क गढ़ते।
‘‘कमजोर हो गया हॅू। शायद इसी से। अब से फल फूल, दूध दही नियम से खाउंगा तो देखना सब ठीक हो जाएगा।’’

तुम्हारा ध्यान अपने पुरूषार्थ पर केन्द्रित हो कर रह गया है! तुम कुछ और सोच ही नहीं पाते। जब मन करता है, रहते हो, जब मन करता है, कहीं के लिए निकल पड़ते हो। कहाँ के लिए? कोई बता नहीं सकता। ठीक ठीक दोस्त मित्र भी नहीं बता पाते!
मैं ‘‘हाँ। ठीक है।‘‘ कहती हॅू और फल फूल के इंतजाम के लिए बैंक से पैसे निकालने लगती हॅू।
‘‘फिर भी एक बार डॉक्टर के पास चले जाते। मैं भी चलूंगी तुम्हारे साथ।‘‘ मैं सोचती हॅू कि तुम झिझक रहे होगे। मुझे भी साथ चलना चाहिए।
‘‘अच्छा, चला जाऊँगा।’’ तुम टालते हुए कहते हो।
‘‘कब? क्यों टाल रहे हो?’’ मैं सचमुच पीछे पड़ती हॅू।

‘‘क्यों मेरी जान खा रही हो! खा तो रहा हूँ फल, सब्जियाँ। थोड़ी कमजोरी है, कह तो दिया। थोड़ा इंतजार नहीं कर सकती।’’ तुमने झल्ला कर कहा है। और भी बहुत कुछ कहा है। मुझे सेक्स के लिए तड़पती औरत की तरह व्याख्यायित कर दिया है। मुझे किस हद तक हर्ट करना चाहते हो? समझ में नहीं आता। जानती हॅू, तुम नाराज हो। मुझसे नाराज हो। अपने आप से नाराज हो।
हाँ, मुझमें भी अतृप्ति की सागरिकाएं हिलोरे लेती हैं। देह जगती है मेरी भी। तुम्हारा छूना, सहलाना, चूमना बेचैन बनाता है मुझे भी। हाड़ मांस की बनी हॅू मैं भी। प्रेम के नाम पर कुर्बान होती हॅू। सहती हॅू। तुम्हें भी सहती हॅू। तुम यह जानते ही कहाँ  हो! तुम इसे जानना चाहते ही कहाँ हो?

एक दिन और लौटते हो तुम। हाथ में थैला लिए। इससे पहले कभी कुछ लाए नहीं। कुछ तुम अपने लिए ही लाए होगे। थैला मेरी ओर फेंक कर मुँह हाथ धोने चले गए हो। थैला मेरी ओर आया है तो मैं उसे खोल देती हॅू। बीयर कैन! नमकीन!
हैरानी मेरी आँखों में उतर आती है! हो सकता है दोस्तों के लिए हो।
‘‘क्या पार्टी का इरादा है?’’ हैरानी मेरे शब्दों से झर रही है।

‘‘कुछ बना सकोगी? पकौड़े या और कुछ तल लेती, जो आसानी से बन जाए।’’ मेरी बात पर तुम्हारा ध्यान नहीं है। तुम मॅुह हाथ धो कर निकल आए हो।
‘‘कोई आएगा? मतलब कुछ मित्रगण?’’
‘‘नहीं बाबा, ये मेरे और तुम्हारे लिए। आज हमारा दिन होगा।’’ तुम दुलरा कर कहते हो। खुश दिखने की कोशिश कर रहे हो। जल्दी जल्दी बिस्तर की चादर ठीक कर रहे हो।
‘‘तुम्हारी यह कंचन काया! किसी जादूगरनी की तरह बांधती है! उफ! मैं इसे पूरा…..’’
‘‘बहुत रोमांटिक हो रहे हो। इस सबसे कुछ नहीं होता। यह ठीक तरीका नहीं है। अपने को भूल कर अपने को पाने का यह तरीका ठीक नहीं लग रहा है।’’

‘‘तुम भी! हर समय बहस करती हो। लेकिन बहस करती हो तो भी कितनी अच्छी लगती हो। छोटी सी फुदकती, चंचल सी, हिरनी सी। कौन इस मर न मिटेगा मेरी जान!’’ तुम्हारा ध्यान मेरी बातों पर नहीं है। 
‘‘लेकिन मैं तो नहीं पीती हॅू। तुम जानते हो।’’ मैं अब तक हैरान हॅू। अब तक परेशान हॅू। अब तक समझ में ठीक ठीक नहीं आ रहा कि क्या होने होने को है?
‘‘तो आज पी लेना। मेरे साथ।’’ तुम हतोत्साहित नहीं हो रहे हो।
‘‘आज क्यो? जब मैंने कहा कि….’’
‘‘हर बात का बतंगड़ बनाना जरूरी है? अपने तर्क बाद में देना। अभी तो इधर आओ। आज तुम्हें सजा कर यहाँ बैठाऊँगा। मैं करूंगा सब कुछ आज। समझी मेरी सोने की हिरनी।’’
तुमने तकिए किनारे रख दिए हैं। एक अखबार बीच में रखा है। अपने हाथ से दो स्टील की गिलास उठा लाए हो। शीशे की होती तो शीशे की लाते। जो है, उससे काम चला रहे हो। 
‘‘तुम अकेले ही करो यह सब। प्लीज मुझे छोड़ दो।’’ मैं डर गयी हॅू। डर गयी हॅू कि अब आगे न जाने क्या झेलना पड़े?

‘‘तुम्हारे नखरे से मैं तंग आ गया हॅू। हर बात में तमाशा करती हो।’’ तुम गुस्सा गए हो।
‘‘किसी ने बताया है कि ड्रिंक करने से एकदम असर पड़ता है। आज देखना तुम।’’ तुम मेरे पास आ कर खड़े हो। तुम नहीं कहते यह, शैतान की आवाज आती है! कहीं और से! दूर से! मुझसे कोसों दूर! 
‘‘नहीं।’’ मैं डर जाती हॅू। कितने हिंसक होते जा रहे हो तुम! और अब यह ड्रिंक कर के तो न जाने कितने पाशविक हो उठोगे? मैं यह नहीं झेल सकती। मेरी देह पर उभरी नीली चित्रकारी मुझे भय से हिला रही है।
‘‘चलो आओ।’’ तुम मुझे बांहों से घेर कर ले जाना चाहते हो। उधर, जिधर तुमने अपना कामना महल सजाया है।

तुम्हारा बाँहों से घेरना अच्छा लगता है। हर बार इसी भूल में चली जाती हॅू तुम्हारे लाक्षा गृह में। वहाँ से जली हुई मेरी लाश निकलती है। न जाने कितने दिन तक काँपती मैं काम धाम कर पाने में असमर्थ अपने आप पर रोती हॅू और तुम अपने आप में त्रस्त- पस्त। मुझसे नजरें बचाते, छिपते, जाने कहाँ के लिए निकल पड़ते हो।
‘नहीं, मृगतृष्णा है। मैं इससे अधिक में नहीं जा सकती। प्रयोगों के लिए मेरी देह नहीं बनी है। मैं अपने आप में कितनी छोटी होती जा रही हॅू।’

‘‘क्या सोचने लगी? आज तुम्हें निराश नहीं करूंगा।’’ तुम खींच रहे हो। मैं हिल भी नहीं रही।
‘‘नहीं। रहने दो। मेरा मन नहीं है। इतना तो समझो।’’ मैं अपने को छुड़ाने की कोशिश करती हॅू। 
‘‘नहीं क्या? एक मौका इसके लिए भी सही। तुम सपोर्ट नहीं करती, यही दिक्कत है।’’
तुम बहुत दयनीय हो उठे हो। इस दयनीयता के बावजूद मुझे कह रहे हो कि मैं सपोर्ट नहीं करती। मरती हॅू हर रात एक अलग मौत, जीने की किसी उम्मीद में ही तो।
‘‘तुम्हारे अनुभवों का लाभ नहीं ले पा रहा हॅू। आज बताओ? कैसा था पहलेवाला? बोलो? ’’    तुमने मुझे धक्का दे कर गिरा दिया है।
‘‘तुम बैठोगी यहाँ तब तक, जब तक कि मैं पीउंगा। समझी।’’

तुम किसी पाषाण से भी ज्यादा मिर्मम हो उठे हो। इस क्षण, तुम वो हो ही नहीं, जिसे मैंने चाहा था। तुम कुछ और हो। मेरे पिछले अनुभवों को जानने की भयानक इच्छा रखने वाले। यह तुम्हारा मनोरंजन हो सकता है! यह तुम्हें उकसा सकता है! पर क्या सचमुच ही तुम जानना चाहते हो कि कैसा था मेरा पति? कब से मैं तुम्हें बताना चाहती थी, पर अब इसलिए, बिल्कुल नहीं। मेरा दुख इस काम आए, मैं मर ही न जाउं, इससे पहले। मेरा प्रिय यह कह दे कि…… तो जीते जी मर जाउं मैं! हे प्रभु! मैं यह दिन देखने के लिए बची ही क्यों रह गयी? इसीलिए इतना जोखिम उठा कर भाग आई थी? इसीलिए एक नई जिंदगी जीने का साहस कर रही थी?
नहीं, मेरी आँखों से एक भी मोती नहीं टपकेगा! नहीं रोउंगी मैं! नहीं। जीऊँगी मैं। नहीं करूंगी, जो मैं नहीं चाहती। मैं उठ कर बैठ गयी हूँ। 

 ‘‘मुझसे नहीं हो सकेगा।’’ मैंने अपनी तरह की निरीहता में कहा है। आखिरी प्रार्थना की तरह।
‘‘मैं तुम्हें जिबह तो करने जा नहीं रहा। ऐसे कह रही हो।’’ तुम मुझे खींच कर अपनी जाँघों पर लिटाना चाहते हो।
तुम्हारी गोद, जिसमें चैन से सोने का सपना मेरा, बस, सपना ही है। इसे अब मैं पूरा नहीं करना चाहती।
‘‘उठो, गुड गर्ल। लो, नमकीन लो। मूड ठीक करो।’’
नमकीन की प्लेट उठा कर तुम मेरी तरफ करते हो। तुम्हारा इस तरह बीयर पीना मुझे बड़ा बेशर्म सा लगता है। इससे पहले कभी जब तुम्हें दोस्तों के साथ पीते देखा तो ऐसा खराब नहीं लगा था।
‘‘अच्छा, छोड़ो तो। लाती हॅू।’’ बचने का कोई उपाय सोचते हुए मैं कहती हॅू।

मैं छूटती हॅू तुमसे। कुछ लाने के लिए रसोई तक जाती हॅू। कोई डिब्बा उठा कर खोलती रखती हॅू।  कुछ सोचती हॅू पल भर। फिर एकाएक अपना पर्स उठाती हॅू और निकल जाती हॅू घर से, पता नहीं कहाँ के लिए!
तुम मुझे ढूंढ लोगे, मुझे पता था। लेने आ जाओगे, मुझे पता था। वही हुआ। वही किया तुमने। मेरी सहेली सुरभि के घर चले आए। रात के दो बजे, बदहवास से जैसे तुम्हारा कोई जिगर का टुकड़ा खो गया हो। आँखों से गंगा जमुना उमड़ी चली आ रही हैं। सुरभि की आँखों में तुम नहीं, मैं दोषी बन गयी हॅू। निष्ठुर, निर्मम। तुम भावुक प्रेमी के प्रतीक हो! तुम हो ही ऐसे! सारे सिक्के अपने हक में भुनाने की कला वाले।
‘‘तुम शचीन्द्र को समझने की कोशिश करो बिट्टो। भागने से समस्या हल नहीं होती।’’ सुरभि मुझे समझा रही है। मैंने सोचा था वह शचीन्द्र को समझायेगी!

‘‘तुम उसके साथ जाओ, उसे प्यार दो। मेरा पति अगर भूल कर भी मेरे लिए एक आॅसू टपका देता तो समझो मैं तो बिना मोल बिक जाती। मगर कमबख्त, उसने आज तक प्यार का इजहार तक न किया। तुम तो भाग्य शाली हो। ऐसा प्यार करने वाला मिला है।’’ सुरभि मुझ पर नाराज हो रही है। मुझे शचीन्द्र के साथ जाने के लिए समझा रही है।
‘‘अगर मुझसे परेशान हो तो मुझे छोड़ क्यों नहीं देते।’’ मैं दुखी हो कर कहती हॅू।

तुम तड़प उठे हो। तुम्हारी आँखें कह रही हैं। मैं इसके आगे हारती हॅू हर बार। तुम्हें मनाती हूँ। सोचती थी कि तुम मनाओगे। पर अब सोचती हॅू कि यह मनाना भी एक कोशिश ही थी। जीवन के मरम्मत की। मनाती हूँ और जैसे -तैसे प्रयत्नपूर्वक डॉक्टर के पास ले जाती हॅू। देखो, मैंने खुद को ही कैसे एक और खर्चे में झोंक दिया है! प्रेम के नाम पर। जीने की इच्छा के नाम पर।

मैं तुम्हें वापस जीवन में देखना चाहती हॅू। इसीलिए बार बार कोशिश करती हॅू। प्यार से तुम्हारे कंधे पर टिक कर कहती हॅू कि ‘‘ जीवन भर भागते रहे हो, दौड़ते रहे हो, लड़ते की कोशिश में लगे रहे हो, पर लड़ाई वैसी नहीं बनी, जैसा कि तुम चाहते थे। है न!’’

तुम आकाश को देख रहे हो। मुझसे इतने अलग होते हुए। दूर होते हुए। देखो कि मैं फिर कोशिश करती हूँ।
कहना जहाँ छोड़ा था, वहीं से पकड़ती हॅू-‘‘ तुम सोचते हो कि आज तक जो भी कोशिश तुमने किया, उसका कुछ भी हासिल नहीं। छात्र राजनीति के साथ जुड़े तो वहाँ भी बहुत कुछ कर पाना संभव आज नहीं रह गया। लेकिन जीवन को ऐसे देखना ठीक तो नहीं है। जो सही काम होते हैं, उनका असर कहीं न कहीं तक जाता है। वह एकदम खत्म नहीं होता। आज जरूर देश में ऐसे हालात बन गए हैं कि बड़ी लड़ाइयाँ नहीं बन पा रही हैं पर लगातार चलती छोटी लड़ाइयाँ भी बड़ी लड़ाई की संभावना को बचाए रखती हैं। और तुम, सुनो, उस अपने छात्र हित वाले काम से क्यों विरत हो रहे हो? वहीं तो तुम हो! कुछ बदलने, कुछ ठीक ठाक कर पाने की कोशिश के साथ हो! तुम उससे अलग नहीं हो सकते। तुम फिर जाओ! फिर से ठीक करो। फिर से शुरू करो। फिर से संगठित करो। यही एक तरीका है हमारे पास, तुम्हारे पास…..’’

मेरी आवाज, मेरी सब ध्वनियाँ किसी बंद दरवाजे से टकरा कर लौट रही हैं।
‘‘हो गया उपदेश! परेशान कर के रख दिया है। चैन से दो घड़ी बैठ भी नहीं सकता!’’
तुमने मुझे जोर का धक्का दिया। मैं गिरते गिरते बची।

‘‘क्या समझ रही हो अपने को? हाँ! पैसा कमा रही हो तो जो मर्जी बोलोगी? हाँ ! मैं कुछ नहीं हॅू न! यही साबित करना चाहती हो!’’ तुम तैश में खुद को भूल गए हो। एक साथ मुझे हिलाते हुए, न जाने कितने झापड़, घूसे, लात जमा रहे हो। मैं बैठी हुई, गिरती हुई, रोकती हुई, रोती हुई……
तुम गुस्से में चले गए हो। कहीं, उस जगह की तलाश में शायद, जहाँ सुकून हो!
मुझे इसका भरोसा नहीं है। सुकून का भरोसा!
सचमुच मैं यह कहाँ आ पहुँची हॅू! नरक क्या यही है?
नरक! जिसके लिए मेरी माँ हर वक्त चेताती रहती थी! जिसका एक हिस्सा झेल कर मैं भाग आई थी। जिसका दूसरा हिस्सा झेलती मैं यहाँ बैठी हॅू! जिसका कोई तीसरा, चौथा हिस्सा भी होगा!

मैं भय से काँप रही हॅू।
मैं चोट से काँप रही हॅू।
धीरे धीरे उठती हॅू और कभी एक हाथ से अपना बाल ठीक करते, कभी एक हाथ से अपना पेट, बाँह, छाती सहलाते, डॉक्टर के पास चली गयी हॅू।
डॉक्टर से कहूंगी कि सीढि़यों से फिर आज गिर गयी हॅू।
…………………
.
शचीन्द्र! तुम लौटते हो। फल खाते हो। अपनी दवा समयानुसार लेते हो। तमाम चेकअप कराते हो। फिर प्रयोग करते हो।
डॉक्टर, दवा, प्रयोग…. यही रह गया है तुम्हारे जीवन का केन्द्र!
मित्रता का हल्का सा तंतु भी नहीं बचा!
यह क्या, मशीन बनते जा रहे हो तुम!
यही, इतना भर तो जीवन नहीं होता। तुम्हें समझा नहीं पाती हॅू।
ठीक है मैंने कहा था कि तुम मुझे संपूर्णता में चाहिए। पर यही इतना भर छूट जाए तो ….. देह के पार भी चाह लेती तुम्हें। पर तुम! तुम हो कि इस देह से पार जाना ही नहीं चाहते! यहीं अटक गए हो! यहीं साबित करना है तुम्हें अपने आप को!

मैं सुखी हॅू कि दुखी हूँ? बीमार हॅू कि आराम में हॅू? मेरे पास पैसा है कि नहीं है? एक छोटी सी स्टेनो की नौकरी में पैसा होता ही कितना है? मैं अपने लिए कपड़े, किताबें खरीद पाती हॅू कि नहीं? मैं फल फूल, दूध, दही खाती हॅू कि नहीं?
मैं तुम्हारे मायने के किसी दायरे में हॅू भी ?

एक बार फिर मेरी लड़ाई मेरी माँ से ठन गई है। उनसे कहूंगी तो हॅसेंगी, मजाक उड़ायेंगी।
‘‘गई थी न मनमानी करने, अब भोगो।’’ ऐसा कुछ कह सकती थीं। पर भीतर से कहीं कराह उठेंगी। आखिर जो वे नहीं चाहती थीं, वही हुआ। उन्होंने ही कहा था कि औरत कमाए तो क्या? पैसा तो उसी के अधिकार में चला जाता है, जिसके कब्जे में औरत होती है। तो क्या मैं….?
नहीं, कब्जा नहीं, मैं वश में नहीं हूँ किसी के।
अरे, मैं मान क्यों नहीं रही कि मैं वश में हो गयी हॅू।
शचीन्द्र के वश में! – ?
? ? ? ? ?
————————–
(सभी पेंटिंग्स गूगल के सौजन्य से।)

संपर्क-
55, कादम्बरी अपार्टमेंट
सेक्टर – 9 रोहिणी, दिल्ली – 85

ई-मेल : alpana.mishra@yahoo.co.in

अल्पना मिश्र

अल्पना मिश्रा ने अपने शिल्प और भाषा के बल पर हिन्दी कहानी में एक अलग पहचान बनायी हैं। लमही के नए अंक में अल्पना जी की यह कहानी प्रकाशित हुई है जिसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।

स्याही में सुरखाब के पंख

सोनपती बहन जी माचिस लिए रहती हैं

सोनपती बहनजी को भूला नहीं जा सकता था। वे शिक्षा के सबसे जरूरी पाठ की तरह याद रखने के लिए थीं। वे बहुत पहले निकली थीं नौकरी करने, जब औरतें  किन्हीं मजबूरियों में निकलती थीं। वे भी मजबूरी में निकली थीं, ऐसी जनश्रुति थी। जनश्रुति यह भी थी कि उनके पति की मृत्यु के बाद चार लड़कियों की जिम्मेदारी और रिश्तेदारों की हृदयहीनता ने उन्हें नौकरी करने के लिए प्रेरित किया था। यह आम भारतीय जीवन का सच जैसा था और इसी रूप में स्वीकृत सच की तरह भी था। जोर शोर से चलाये जा रहे स्त्री शिक्षा के अभियान के चक्कर में उन्हें घर से पकड़ कर एक रोज स्कूल में बैठा दिया गया था। स्कूल एक सेठ और उनकी पत्नी ने शुरू किया था। इस कन्या पाठशाला के लिए हर हाल में लड़कियाँ चाहिए थीं। वे लोग यानी कि सेठ और सेठानी खुद चल कर उन घरों में गए थे, जहाँ  लड़कियाँ  शिक्षा के उजाले से दूर अॅधेरे कोने में खड़ी अपने से छोटे बच्चों की नाक पोंछ रही थीं, टट्टी धो रही थीं, बरतन माॅज रही थीं, रोटी थाप रही थीं। कहीं कहीं घास काटने गई थीं, कहीं गोबर पाथ रही थीं। ऐसे में उन्होंने समझाया कि शिक्षा के उजाले से कैसे घास और गोबर की गंहाती दुनिया से निकल कर बल्ब की धवल रोशनी में आया जा सकता है? सोनपती, जो आगे चल कर बहन जी बनीं, स्कूल नहीं जाना चाहती थीं। वहाँ  की हर क्षण रखी जाने वाली नजर से बड़ी कोफ्त होती थी, लेकिन उन्हे पकड़ कर ले जाया गया और बोरे पर बैठा दिया गया। पहाड़े रटवाये जाने लगे। खडि़या और तख्ती एक अदद उनकी अपनी हो गई। एक अदद टाट बोरा भी उनका हुआ। इस तरह अधिकार क्षेत्र बढ़ता जायेगा, ऐसी उम्मीद उनमें जग गई। इसी उम्मीद पर रट रट कर पाये गए प्रमाणपत्र सचमुच उनके काम आए, ऐसा उन्होंने सोचा न था। लेकिन रिश्तेदारियों ने उन्हें इस सच का सामना करने के लिए उकसाया। तभी इन प्रमाणपत्रों के असली उपयोग पर उनका ध्यान गया। कुछ इस तरह वे अपने कठिन समय को लाॅघने के प्रयास में प्राइमरी पाठशाला की नौकरी पर लग गईं।
वे अक्सर नीले सफेद प्रिंट की साड़ी पहनतीं। हाथ में एक छोटा झोला होता, जिसमें उनका बटुआ खूब अंदर धंसा कर रखा रहता। उसी में एक माचिस की डिबिया पन्नी में लपेट कर धरी होती। गाहे बगाहे काम आ जाने की उम्मीद इस डिबिया में छिपी होती।
आग का अपने पास होना किसी सुकून की तरह था।
एक लम्बा काला छाता रहता, जो कई वक्तों पर कई तरह से काम आता। मख्खी भगाने, पंखा झलने, रास्ता बनाने, रास्ता दिखाने, मेज थपथपाने, किसी विद्यार्थी को प्वाइंट करने, ठेले वाले को बुलाने, चपरासी को डाॅटने आदि आदि स ेले कर दुर्वासा की छड़ी के रूप तक यह छाता डटा रहता। इसतरह हाथ का छाता अपने से कुछ गज आगे बढ़ाती, कंधे पर झोला टांगे, बाजार हाट निपटाती, ग्वाले से दूध लिए सोनपती बहन जी घर पॅहुचतीं। घर में हिलती डुलती लड़कियाॅ सावधान में खड़ी हो जातीं। लड़कियाॅ छोटी थीं, पर होशियार थीं, घर का काम काज बड़े अच्छे से संभालती थीं, सोनपती बहन जी को रोज रात में लोहे की कढ़ाई में दूध औटा कर पीने को देती थीं, ऐसा मेरी माँ  मानती थीं। लड़कियाँ  छोटी थीं, पर बेचारी थीं, ऐसा हम बहनें मानते थे। इस तरह का वैचारिक मतभेद हमारे बीच तना हुआ था।
सोनपती बहन जी को बीच बीच में बेसिक शिक्षा अधिकारी के दफ्तर जाना पड़ता। पहले नहीं जाना पड़ता था लेकिन जब से बस अड्डे वाले स्कूल की हेडमास्टरी मिली थी, तब से अक्सर वहाँ  भी हाजिरी लगवानी पड़ती थी। बेसिक शिक्षा अधिकारी बार बार कहते कि ‘बहनजी, अपनी सहूलियत पहले देखिए।’ जिसका व्यंग्यार्थ होता कि ‘मेरी भी कुछ सहूलियत देखिए।’ सोनपती बहनजी उसका अन्यार्थ यूं निकालतीं कि उनकी कर्मठता पर शक किया जा रहा है। इसतरह स्कूल के हिसाब किताब को हजार बारहां जाँचतीं। बच्चों की संचयिता की किताब यानी पासबुक को अच्छी तरह देखतीं। राई रत्ती का हिसाब गड़बड़ाने न पाये, फिर भी बी. एस. ए. साहब प्रसन्न नहीं होते। वे हैरान होतीं और दूने जोश के साथ परिश्रम करतीं। एक बार बी.एस.ए. ने कहा कि ‘बहनजी, चपरासी का तो ख्याल रखा करिए। बेचारा इसी नौकरी के भरोसे है। कुछ खिला पिला दिया करिए।’’ इस पर उन्होंने तुरंत अपने झोले के अंदर से टिफिन निकाला और चपरासी को दे दिया। चपरासी ने हाथ में पकड़ा टिफिन साहब की मेज पर पटक कर रखा और बाहर चला गया। सोनपती बहनजी भी अपना काम पूरा हुआ मान कर ‘अच्छा साहब चलते हैं’ कहते हुए बाहर निकल आईं। उसी किसी समय के बीच, जब वे बाहर निकल रही थीं, उनके कान में आवाज गिरी-‘‘ ये औरतें! अकल नहीं है लेकिन नौकरी करने चली आयेंगी। अपनी तो अपनी, दूसरों की कमाई की भी पहरेदार बनी फिरती हैं।’’ सुनानेवाले ने आगे थोड़ा और छौंक मारी-‘‘ देखा नहीं, अभी पुराने बस अड्डेवाले स्कूल की सोनपती बहनजी आई थीं। चपरासी को कुछ खिलाने की बात पर अपना टिफिन निकाल कर देने लगीं। मूढ़ औरत!’’
सोनपती बहनजी को रहस्य कुछ कुछ समझ में आया। वे तेजी से मुड़ीं और साहब के कमरे में बिना पूछे घुस कर अपना टिफिन उठा लीं। टिफिन उठा कर वे एक मिनट को रूकीं फिर तेज कदमों से बाहर आ गयीं। साहब के चेहरे की हॅसी देखने के लिए नहीं रूकीं। बाहर निकलते हुए वे मन ही मन ठान रही थीं कि अब नौकरी के ये दाॅव पेंच समझने ही पड़ेंगे और वे दौड़ दौड़ कर बी.एस.ए. साहब के आॅफिस पॅहुच आने की अपनी मजबूरी भी त्याग देंगी। इसके बाद वे कानों में जहर घोलती आवाजें लिए घर लौट रही थीं। सब्जी खरीद रही थीं। ग्वाले से दूध ले रही थीं। डाॅक्टर को अपनी घुटने की तकलीफ दिखा रही थीं। मेडिकल स्टोर से दवा खरीद रही थीं। इसतरह थकी परेशान घर लौट रही थीं। लड़कियाॅ इस थकान और परेशानी से बेखबर होतीं। घर में हिलती हुई डोलती फिरतीं। तब सोनपती बहनजी को छाते को छड़ी में बदलना पड़ता। लड़कियाॅ अनुशासित थीं। तुरत फुरत लाइन लगा कर खड़ी हो जातीं। सोनपती बहनजी सट्ट सट्ट पीटती जातीं और बताती जातीं कि किसे क्या क्या नहीं आता है? किसी को दाल में नमक ठीक से डालने नहीं आता था, कोई उनके घर आने पर तुरंत पानी ले कर नहीं आया था, कोई अब तक चाय ठीक नहीं बना पाता था, किसी से आलू एकदम वैसा नहीं कटता था, जैसा कटना चाहिए था। इस तरह बहुत कमियाॅ थीं, जिनकी सजा एक दिन तय थी।
तो सोनपती बहनजी एक जरूरी पाठ थीं। हमें हर दूसरे तीसरे रोज उन्हें याद करना पड़ता था। वे लड़कियों को कितनी अच्छी तरह नियन्त्रित करती थीं, यह आदर्श मेरी माॅ पर छाया रहता था। वह हमें डाॅटते डपटते याद दिलाती रहती थीं कि अगर हम बातों से नहीं माने तो उन्हें लातों का इस्तेमाल सोनपती बहनजी की तरह करना पड़ जायेगा। वे यह भी याद दिलाती रहतीं कि वह कितनी महान हैं, क्योकि वे सोनपती बहनजी की तरह छाते को छड़ी में नहीं बदलतीं। यह भी  िकवे सोनपती बहनजी से एक दर्जा आगे तक पढ़ी हैं, इसलिए हमें आदर्श लड़की बना देने के मामले में भी वे एक दर्जा पीछे नहीं होना चाहती थीं।
वे सोनपती बहनजी की कुछ कुछ सहेली थीं। ‘कुछ कुछ’ इसलिए कि उनके प्रभाव से घिरे घिरे अचानक किसी क्षण उसमें से बाहर आ कर उनकी बेरहमी का मजाक बनाने लगतीं और ऐसे किस्से सुनातीं कि हमारे रोंगटे खड़े हो जाते। इसी मजाक उड़ाने और दिल दहला देने वाले क्षण में हमने जान लिया कि सोनपती बहनजी की लड़कियाॅ किसी लड़के को खिड़की से देख रही थीं, कि उनकी लड़कियाॅ खिलखिला कर बड़ी जोर से हॅसी थीं, कि बड़ी लड़की का दुपट्टा किसी बड़े बुजुर्ग के सामने खिसक कर नीचे गिर गया था…… ऐसे ही किसी घोर अपराध पर सोनपती बहनजी ने अपने झोले से माचिस की डिबिया निकाली थी और लड़कियों के पैरों पर छुआ छुआ कर उसका महत्व असंदिग्ध किया था। इस कहानी के पीछे की कहानी यह थी कि हमसे सीनियर, हमारे स्कूल की वैशाली सारस्वत उसी रोज भाग गयी थीं। भागने के बाद वे चड्ढा हो गयी थीं। नगर के, घर के घर अपनी लड़कियों को ले कर सतर्क हो उठे थे। कोई लड़का कहीं था, जिसके साथ भागने की संभावना छिपी हुई थी। कई और तरह के लोग इस संभावना का लाभ अपनी अपनी तरह उठा लेना चाहते थे। लोग इससे और भी डर रहे थे। क्या पता मेरी माॅ भी अब अपने झोले में माचिस की डिबिया रखें!
मोहब्बत है, पैथालाॅजी सेंटर है
    यह चर्चा बड़ी जोर की उठी थी कि सोनपती बहनजी की लड़की का ब्याह किसी फौजी सिपाही से तय हो रहा है। उस कस्बेनुमा शहर में फौजी साक्षात नहीं थे। अगर कोई जानता भी था तो किसी के दूर दराज के रिश्तेदार के रूप में। हम भी फौजी सिपाही के बारे में, उस दुनिया के बारे में बिल्कुल नहीं जानते थे। ‘बिल्कुल नहीं’ कहना ठीक नहीं है। थोड़ा जानते थे, जितना कोई भी समाचारों से गुजर कर जान जाता है। युद्धों की कहानी अधिकांश लोगों ने कक्षा सात तक आते आते पढ़ ली थी। वीर अब्दुल हमीद की कहानी किसी किसी को याद थी। यह सब कुछ इतना महान लगता था कि उसमें सिर्फ इस देश का नागरिक होने भर से अपने को जोड़ कर देखना, एक अद्भुत भाव बन जाता था। एक कहानी जरूर थी सबकी स्मृति में, पर वह किंवदंती के रूप में ज्यादा प्रचलित थी, कोई उसका गवाह होने की बात कबूल नहीं करता था। पर सुनाने वाले सब किसी गवाह के होने की बात करते थे। पैथालाॅजी सेंटर वाले डाॅक्टर सुनयनधीर सारस्वत के घर की कहानी। उनकी बेटी वैशाली सारस्वत की शादी एक फौजी अफसर से तय हुई थी। सगाई की अॅगूठी पहना दी गयी थी। पर शादी नहीं हो पाई। कोई कहता कि फौजी आया ही नहीं, कोई कहता कि आता कैसे? उसके आने से पहले ही वैशाली सारस्वत भाग गयी थीं।
डाॅक्टर सुनयनधीर सारस्वत पैथालाॅजी लैब अपने घर के बाहरी बारामदे में खुलने वाले कमरे में चलाते थे। उसी के आगे लोहे की नीले रंग से रंगी पट्टिका पर उनका नाम सफेद रंग के पेंट से अंग्रेजी में लिखा रहता। पढ़ने वाले लोग डॉक्टर एस. डी. सारस्वत तो पढ़ लेते थे लेकिन नीचे लिखी डिग्रियों और उनके संस्थानों को नहीं पढ़ते थे। अगर डॉक्टर साहब का इंतजार करते करते पढ़ भी जाते तो भी उनमें कोई भाव न जगता था कि कहाॅ, कैसा, कौन सा संस्थान, कितना बड़ा, कितना छोटा? इससे उन्हें मतलब न था। यह कमरा इस शहर का एकमात्र पैथालाॅजी लैब था। लोग मल मूत्र की जाॅच के लिए यहाॅ आते रहते थे। भीड़ जैसी नहीं लगती थी। कम लोग आते। किसी गंभीर बीमारी में कभी कभी ही मौका पड़ता था। छोटी बीमारियों में लोग डाॅक्टर के कहने के बावजूद कई दफे टाल जाते, जब तक कि डाॅक्टर कोई ऐसी बात कह कर उन्हें डरा न देता, ऐसी बात, जो उनके पल्ले न पड़ती। तो, जो आता, उसे आध एक घंटा इंतजार करना पड़ता। इसलिए नहीं कि डाॅक्टर साहब किसी काम में व्यस्त होते। बल्कि जब कोई आता तो डाॅक्टर साहब तैयार होने लगते। नहाते, दाढ़ी बनाते, साफ कपड़े पहन कर, कुछ इत्र, फुलेल मल कर गमकते हुए निकलते। इस सब में कभी एक घंटा लग जाता, कभी एक आध काम कम होने से आधा घंटा ही लगता। बाहर बारामदे में बैठा आदमी पसीने से तर बतर हो रहा होता। माचिस की डिबिया में मल लिए या छोटी सी शीशी में मूत्र पकड़े परेशान सा बार बार बारामदे में लगी घड़ी देख रहा होता। यह घड़ी डाॅक्टर साहब को किसी मरीज ने उपहार में दिया था और अनुरोध किया था कि इसे बाहर बारामदे में लगा दें, मरीजों को कुछ सुविधा हो जायेगी। घड़ी बारामदे में लग गयी थी। उसके बगल में एक कलेंडर भी लगा था। कलेंडर पिछले साल का था। कोई दुकान वाला दे गया था। इस साल दुकान वाले को काम नहीं पड़ा था। कलेंडर भी नहीं आया था। कलेंडर पर गणेश जी डिजायनर तरीके से बने थे। पता नहीं चलता था कि कोई मिठाई है या गणेश जी हैं। अंदाजे से लोग उसके साथ व्यवहार कर लेते। कोई शीश नवा लेता, कोई मिठाई समझ कर मंत्रमुग्ध आॅखभर खा लेता। तभी डाॅक्टर सारस्वत निकलते। उनके निकलने के पहले खुशबू का झोंका आता। इंतजार करता आदमी बिना उन्हें देखे ही उठ कर खड़ा हो जाता। डाॅक्टर सारस्वत आ कर दरवाजा खोलते, अपने टेबल, जिस पर शीशे का कवच उन्होंने लगा रखा था, उसके पीछे की कुर्सी पर बैठ जाते। बिना उनके बोले ही बारामदे का उठ कर खड़ा हुआ आदमी अंदर चला आता और आ कर उनके पास रखे स्टील के स्टूल पर बैठते हुए माचिस की डिबिया या शीशी, जो भी वह ले कर बैठने को था, बैठने की क्रिया के बीच में ही डाॅक्टर साहब की तरफ बढ़ा देता। डाॅक्टर उसे टेबल पर पड़ने के पहले ही थाम लेते। डाॅक्टर के हाथ में दस्ताने नहीं होते। वे नंगे हाथों से ही उस शीशी या डिबिया को थामते। कम्पाउंडर भी उनके पास नहीं होता। उस छोटे कमरे में वे इधर उधर दो चार कदम चल कर अपने उस यंत्र तक पॅहुचते, जिस पर यह सब कुछ जाॅचा जाना था। वे एक पतली सी सींक जैसी सलाई से डिबिया के भीतर की चीज को छुआते, एकदम नाममात्र का और अपने यंत्र को खोल कर एक शीशे की प्लेट पर उसे रख देते। डिबिया बंद कर के वे उसे वापस कर देते। स्टील के स्टूल पर बैटा हुआ आदमी डिबिया वापस पा जाता। डिबिया फेंक देने की कोई जगह डाॅक्टर के कमरे में नहीे थी। तब आदमी डिबिया थामे घर तक आता या डिबिया झोले में रख कर घर तक लाता। दोनों ही स्थिति में वह अपनी डिबिया अपने साथ लाता। कोइ्र कोई इसमें भी चालाकी बरतता और डाॅक्टर के लैब से निकलने के बाद सड़क पर कहीं या बाजार की भीड़ के बीच कहीं या जरा सा जहाॅ सन्नाटा मिलें, डिबिया चुपके से गिरा देता। लोग इसे जान न पाते। या न जानने का भ्रम बनाये रखते। कचरा बीनने वाले बच्चे उसे कई बार अपने बोरे में भर कर उठा ले जाते।
उन्हीं डाॅक्टर सारस्वत के घर का किस्सा चर्चा में था। उनकी लड़की वैशाली सगाई की अॅगूठी पहने पहने चली गयी थीं। फौजी का आना रूक गया था। उन्हीं डाॅक्टर सारस्वत के घर में एक उनका लड़का था। लड़का सींक सलाई जैसा था। नाक लम्बी थी। कद भी लम्बा था। कोई कोई छः फीट का अंदाजा भी लगाता था। लड़के का नाम किसे याद रहता! डाॅक्टर सारस्वत का लड़का है, इसी से सब उसे पहचानते थे। जबकि उसका नाम बड़े विचार के साथ सूरज के किसी पर्यायवाची को ले कर रखा गया था। दिनकर, दिवाकर, प्रभाकर, या शायद इससे अलग आदित्य। तो सूरज की पर्यायवाची के नाम वाला लड़का राजकीय कन्या इंटर काॅलेज के गेट के बाॅयीं ओर खड़ा दिखता। जनश्रुति इस मामले में यह थी कि वह हमारी सीनियर निरूपमा दी को प्रेमपत्र भेजता है। रोज। स्कूल के इसी पते पर। रोज क्लास टीचर निरूपमा दी को बुलाती हैं। रोज एक स्पेशल लेक्चर उनके लिए होता है। रोज ही छुट्टी के वक्त डाॅक्टर सारस्वत का लड़का गेट के बायीं ओर खड़ा दिखता। वह शायद बगल के राजकीय बालक उच्च्तर माध्यमिक विद्यालय से आ जाता था। उसका खड़ा होना जनश्रुतियों की कल्पना में चार चाॅद लगा देता। लोग और बातें भी सोचते। जैसे कि वह निरूपमा दी के साथ पिक्चर देखते रंगे हाथों पकड़ा गया था। फिर दानों की बड़ी धुनाई हुई थी। कितनी धुनाई हुई थी, किसने पकड़ा था, क्या कर रहे थे उस वक्त दोनों? केवल हाथ पकड़े थे या कुछ और भी….. सबकी कल्पना का रंग अपने अपने ढंग का होता। कोई ज्यादा धुनाई करवा देता, कोई उतनी नहीं करवाता, कोई कहता कि महाशय चार दिन खटिया से नहीं उठ पाये थे, कोई इसे एक ही दिन कहता। मुंडे मुंडे च मतिरभिन्नाः।
निरूपमा दी बैडमिंटन का रैकेट काॅख में दबाए, एक कंधे पर स्कूल का बस्ता धरे, छुट्टी के समय, गेट से निकल कर, बाॅयीं तरफ के ठेले के पास खड़ी होतीं। ठेले से कभी मूंगफली खरादतीं, कभी बबलगम खरीदतीं, कभी कुछ नहीं खरीदतीं तो खरीदने का अभिनय करती खड़ी रहतीं। भीड़ धीरे धीरे छंट जाती। तब व ेचल कर सूरज कुमार ; अब बस भी करिए ‘डाॅक्टर सारस्वत का लड़का’ कहना। सूरज कुमार कहिए, चलेगा। द्ध के पास तक पॅहुचतीं। फिर चुपचाप दोनों पैदल चलने लगते। इसी साथ चलने के दृश्य को आॅखभर पीने के लिए लड़कियाॅ छुट्टी में रिक्शा कर के घर नहीं जातीं। गेट से निकल कर इधर उधर छितरा जातीं। कुछ लोग पैदल चल कर आगे की किसी दुकान तक आते और वहीं रूक कर इंतजार करते। हम बहनें भी रूके और उस अद्भुत दृश्य का इंतजार करने लगे। देखते क्या हैं कि सामने उस पार की दुकान पर सोनपती बहनजी की लड़कियाॅ भी खड़ी स्कूल के गेट की ओर देखे जा रही थीं। ‘ये भी रूकी हैं, आज इनका क्या होगा?’ हमलोगों ने मन ही मन सोचा। ‘हम भी रूके हैं, आज हमारा क्या होगा?’ यह नहीं सोचा। बस रूक गए।
सामने सड़क पर चलते, बतियाते सूरज कुमार और निरूपमा दी आ रहे थे। निरूपमा दी की घेर वाली आसमानी रंग की स्कर्ट हवा से हिल रही थी। सूरज कुमार कंधे पर एक बैग लादे थे। कभी उसे कंधे पर टांगते, कभी बाॅह में लटका लेते। उनके लिए दुकानों पर खड़े, सड़क पर चलते लोग अनुपस्थित से थे। वे केवल एक दूसरे की बात सुनते थे, एक दूसरे की तरफ देखते थे। निरूपमा दी बात बात में अपनी पोनीटेल हिलाती थीं। काॅख में दबा रैकेट बतियाते हुए सामने हाथ में ले कर कुछ कहतीं। लगता वे लोग गा रहे हैं। हम गीत की तन्मयता में डूबे थे। दोनों चलते हुए कुम्हार की दुकान पर रूक गए और छोटा बड़ा गमला झुक कर देखने लगे। उनके गमले खरीदने के उपक्रम ने हमारी तन्मयता भंग कर दी। तमाम लड़कियाॅ निराश हो गयीं। उनकी कल्पना में यह दृश्य चुभने लगा कि सूरज कुमार निरूपमा दी के साथ मिल कर मिट्टी के गमलों का मोल भाव करें! जब उन्होंने एक रिक्शा रोका और उस पर गमले रखवाने लगे तो हमने भी एक रिक्शा रोकने की कोशिश की। ठीक इसी क्षण सामने की लड़कियों ने भी रिक्शा रोकने की कोशिश की। रिक्शा रोकते हुए हम गमलों को देख रहे थे। गमलों से होते हुए हम सूरज कुमार और निरूपमा दी को देख रहे थे। तभी सामने के रिक्शे पर बैठते बैठते सोनपती बहनजी की बड़ी लड़की गिर गयी। गिरते हुए उसने अपने को संभाला, फिर भी पैर में कुछ चोट आ गयी। उसकी छोटी बहन ने उसका सलवार हल्का सा उठा कर चोट देखने की कोशिश की। पैर पर कई जगह माचिस की तीली के निशान थे। बहन ने चोट देखने का प्रयास छोड़ दिया और रिक्शे पर बैठ गयी। इसी बीच आगे वाले रिक्शे से एक मोटर साइकिल आ कर टकरा गयी। उस पर निरूपमा दी पाॅच गमले रखे बैठी थीं। निरूपमा दी तो बच गयी, पर गमले ढमलाते हुए गिर गए और खंड खंड हो गए। मोटर साइकिल सवार उतर गया और प्रार्थना के स्वर में कहने लगा-‘‘ माफ कर दो जी। अभी दूसरे खरीद देता हॅू।’’ रिक्शे वाले को मुड़ने का इशारा कर के वह पीछे छूट गयी गमलों की दुकान की ओर भागा। इतने में पीछे से सूरज कुमार दौड़े और गमलों के टूटे हुए टुकड़े उठा कर कुछ कहने लगे। निरूपमा दी ने उन्हें हाथ के इशारे से कहा-‘सब ठीक है।’ इसतरह अचानक गमलों के बीच एक खलनायक के आ जाने से रोचकता बढ़ गयी थी और उस एक क्षण सबने चाहा था कि उनका उनका रिक्शा आगे न बढ़े, वहीं रूक जाए। सूरज कुमार के पीछे। यह भी कि सब लोग अपने रिक्शे पर पाॅच पाॅच गमले लदवा कर ले चलें। काश! सूरज कुमार से निकल कर कई सूरज कुमार बन जाते और सबके रिक्शे पर गमलों का मोल भाव कर के गमले रखवा देते।
नगर के चैक पर नाटक का रिहर्सल –
‘गोरकी पतरकी रे……मारे गुललवा कि जियरा उडि़ उडि़ जाय…….’ फिल्म का यह गीत परम प्रसिद्धि पर चल रहा था। महिला डिग्री काॅलेज से लड़कियाॅ निकलतीं तो कोई न कोई, कहीं न कहीं से यही गाता और उसकी कंठ ध्वनि से निकला यह गीत लड़कियों के कान से जरूर टकराता। निरूपमा दी के पीछे चलते हुए कई लड़के ये गीत गाते। आपको यहाॅ यह बताते चलूं कि सूरज कुमार को बहला फुसला कर दिल्ली पढ़ने भेज दिया गया था, लेकिन निरूपमा दी के लिए महिला डिग्री काॅलेज ही एक मात्र विकल्प था। वे इसके अलावा और कहीं नहीं हो सकती थीं। उनकी प्रसिद्धि सूरज कुमार के साथ जुड़ चुकी थी। इसलिए कई मनचले उनके पीछे मद्धिम स्वर में यह भी कहते-‘ चमक रहा है तेज तुम्हारा बन कर लाल सूर्य मंडल’ या फिर ‘सजनी हमहूं राजकुमार’ या फिर ‘इक नजर तेरी मेरे मसीहा काफी है उम्र भर के लिए… ’ आदि आदि। निरूपमा दी सिर झुकाये तेज चलतीं। लड़के भी तेज चलते। वे दौड़ने लगतीं। लड़के भी दौड़ने लगते। तब वे एक दुकान की सीढ़ी पर बैठ कर सुस्ताने लगतीं। लड़के दुकान के आस पास खड़े हो कर कोई और गाना गाने लगते। कोई कोई एकदम पास चला आता। एक दिन लड़कों ने गाना गाते हुए उन्हें दुकान के पास घेर लिया। उस दिन निरूपमा दी ने अपना रैकेट काॅख से निकाल कर तान दिया। लड़के इससे और हुलस उठे। वे बढ़ चढ़ कर गाते और और चारों ओर घूमते। निरूपमा दी भी रैकेट ताने ताने घूमतीं। एक ने घूमते हुए उनका रैकेट खींच लिया। एक ने उनकी बाॅह पकड़ ली। निरूपमा दी हाथ झअकती, चिल्लाती, न जाने क्या कहे जा रही थीं। दुकान वाला दुकान से उधर ही देख रहा था। वह डर कर पास नहीं आया। तभी उस नामुराद वक्त में निरूपमा दी का बड़ा भाई उधर से गुजरा। उसने दौड़ कर एक लडत्रके को खींचा। किसी की काॅलर पकड़ी, किसी को थप्पड़ मारा। लड़के भी बेल्ट, जूता, बैग… जो मिला ले कर युद्ध में उतर गए। निरूपमा दी को थोड़ा सा मौका मिला तो वे अपना तोड़ कर गिरा दिया गया रैकेट ले कर भाई की तरफ से भांजने लगंीं। तभी उनमें से किसी लड़के ने सड़क पर पड़ा ईटे का अद्धा उठा कर निरूपमा दी के भाई पर उछाल दिया। अद्धा उछल कर उसके कपाल के बीचोंबीच लगा। निरूपमा दी का भाई बिना चक्कर खाये एकदम धड़ाम से नाचे गिर गया। अद्धा छिटक कर बगल में गिरा। लड़के चिल्लाते हर्षनिनाद करते भागे। दुकान वाला पास आ कर ‘हाय हाय’ मचाने लगा। ‘कानून का पचड़ा पड़ गया’ जैसी आवाज निरूपमा दी के कान में गिरी। वे दौड़ का दुकान में घुसीं और फोन लगाने लगीं। 100 नंबंर पर पुलिस वाले फोन नहीं उठा रहे थे। तब उन्होंने चिल्ला कर कहा-‘‘ कोई अस्पताल ले चलो रे!’’
‘‘ऐ, हटो हटो, जाओ सामने वाली दुकान से पुलिस को बुलाओ! मुझे पुलिस के चक्कर में न फॅसाओ!’’ दुकान वाले ने निरूपमा दी को फोन पर से हटाते हुए कहा।
अस्पताल से कोई गाड़ी या ऐम्बुलेंस बुला लेने की कोई व्यवस्था उस शहर में नहीं थी। नतीजा निरूपमा दी सड़क पर आ कर आने जाने वालों से विनती करने लगीं-‘‘ कोई मेरी मदद करो।’’ तभी पुलिस का एक हवलदार, मोटरसाइकिल का हार्न लगातार बजाता, शायद कुछ गुनगुनाता हुआ गुजरा। सड़क पर हल्ला गुल्ला देख कर रूक गया।
‘‘ऐ, हे, इधर आ! क्या हुआ बे?’’ उसने मोटरसाइकिल पर बैठे बैठे दुकानवाले को बुलाया। दुकानदार से पहले निरूपमा दी दौड़ीं। सारी बात जान कर हवलदार ने मोटरसाइकिल पर बैठे बैठे दुकानदार से कहा-‘‘ चल बे, इसे उठा कर मेरे पीछे बैठ। अस्पताल ले चलते हैं। थामे रहियो। कहीं रास्ते में मर मरा न जाए।’’ यह ‘मर मरा न जाए’ वाली बात निरूपमा दी को चुभी लेकिन वक्त ऐसा नहीं था कि कुछ कहा जाए। वे चुपचाप हवलदार की बात मानने लगीं। दुकानदार ‘मरता क्या न करता’ की स्थिति में मोटरसाइकिल पर निरूपमा दी के भाइ्र को पकड़ कर किसी तरह बैठा। निरूपमा दी के भाई को चक्कर आते, बेहोशी घेरती, वह कभी इधर लुढ़कने को होता, कभी उधर। दुकानदार भरसक सीधा रखने की कोशिश करता, तब हवलदार गरजता-‘‘मुझे मारने पे तुला है क्या रे? अभी उतर कर तेरा भुर्ता बनाता हॅू।’’
    हवलदार सरकारी अस्पताल में बैठ कर कागजी कार्यवाही पूरी कर रहा था, तब निरूपमा दी अपनी माॅ और छोटी बहन को साथ लिए पॅहुचीं। पिता गोरखपुर स ेअब तक नहीं आए थे। अस्पताल में दोपहर के उस वक्त कोई डाॅक्टर भी नहीं था। सब खाना खाने अपने अपने घर गए हुए थे। बार्ड ब्वाॅय जैसा लगने वाला एक लड़का हवाई चप्पल पहने इधर उधर घूम रहा था। जब हवलदार ने उसे आवाज दिया तब वह दौड़ा। लेकिन घायल को ले जाने वाला स्ट््रेचर उसके पास नहीं था।
‘‘टांग क ेले जाओगे क्या?’’
‘‘साहब गाड़ी में जगह जगह छेद हो गया है। टूट टाट के सड़ गयी है। बरसात में बाहर पड़ी रही न।’’
‘‘ठीक है, ठीक है।’’ हवलदार ने दुकानदार को इशारा किया। दुकानदार बहुत मजबूर हो कर उस बार्ड ब्वाॅय के साथ मिलकर निरूपमा दी के थाई को टांगते हुए अंदर ले आया। बार्ड ब्वाॅय मरहम पट्टी में जुट गया।
‘‘डाॅक्टर कब तक आयेंगे?’’ निरूपमा दी ने पूछा।

‘‘पता नहीं जी।’’ बार्ड ब्वाॅय निर्लिपत रहा।
‘‘आप ठीक तो कर रहे हैं? मतलब आपको पता है? नही ंतो गोरखपुर लेते जाते।’’
‘‘सबका हमीं तो करते हैं, तब आप देखने आती हैं? हम न करें तो आधे लोग यहीं मर जायें। ऐसे ही ले जाओगी तो ले जाओ। गोरखपुर तक जाते जाते मर जायेगा। समझी। अब जाओ, अपनी अम्मां को संभालो।’’ बार्ड ब्वाॅय ने गुस्सा कर कहा।

निरूपमा दी को ‘यहीं मर जाने’ और ‘गोरखपुर तक ले जाते ले जाते मर जाने’ वाली बात फिर चुभी। कैसे ये लोग मरने की बात इतनी निर्लिप्तता से कर रहे थे!
‘‘सिर पर चोट लगी है, इसीलिए चिंता है।’’ निरूपमा दी ने नरम पड़ कर कहा। ‘डाॅक्टर आयेंगे तो उन्हें जरूर एक बार दिखा देंगी, जरूरत लगी तो ले कर गोरखपुर चली जायेंगी’ ऐसा सोचते हुए निरूपमा दी अपनी माॅ के पास पॅहुची और बिना बोले उनका हाथ थपक थपक कर ढाढस बॅधाने लगीं कि सब्र करो, सब ठीक हो जायेगा। फिर डाॅक्टर का इंतजार करते हुए वहीं जमीन पर बैठ कर हल्का हल्का रोने लगीं।
    यही वह समय था, जब हवलदार ने सारे मनचले लड़कों को पकड़ कर थाने में पीटने का अभियान चला दिया। पुलिस की गाड़ी, पुलिस की ट््रक धड़धड़ाते हुए सड़कों पर घूमने लगी। जिसकी भी मोटरसाइकिल दुकानों के आगे खड़ी मिली, लाद ली गयी, स्कूटर उठा ली गयी। लाठी भांजते पुलिस वाले पान की दुकानों, एस. अी. डी. बूथों, मोबाइल फोन की दुकानों पर से लड़कों को उठा उठा कर ट्र्क में ठूंसा जाने लगा। इसी क्रम में अद्धा फेंक कर मारने वाले लड़के भी पकड़े गए। वे बड़े इत्मीनान से पान की दुकान पर खड़े पान मसाला चबा रहे थे और किसी ब्लू फिल्म की कहानी पर बहस छेड़े थे। वे लड़के भी ट्र्क में ठूंस कर थाने लाए गए।
इसी के बाद पर्दा गिर गया।

पर्दे के पीछे नगरपालिका के चेयरमैन ठाकुर बलवान सिंह बेचैन हो उठे। उन्होंने घोषणा की कि ‘‘ नगर के इसी चैराहे पर सबके सामने हवलदार को अपने हाथों से न पीटा तो मेरा नाम भी बलवान सिंह नहीं। हमारे लड़के छूने की हिम्मत किया है!’’

अॅधेरा घिरने घिरने को होने लगा। नगर के चोराहे पर थाने के बाहर जितनी भीड़ थी, उससे ज्यादा भीड़ उमड़ने लगी। लड़के थाने में छटपटाने लगे। कुद कह रहे थे कि जिसका कसूर है भइ, उसे सजा दो, सबको क्यों बंधक बना कर रखा है? कुछ कह रहे थे अच्छा जेल बना दिया है शहर को! कुछ का मानना था कि टेरर बना के कुछ लाभ कमाना होगा, ऐंठने होंगे पैसे किसी से, तो पूरा शहर निशाने पर आयेगा ही। पढ़ने वाले कुछ लड़के थे जो बिना कसूर जेल यात्रा का ठप्पा लग जाने से व्यथित हो कर रो रहे थे। अभिभावक थाने के आगे इकट्ठा हो कर तरह तरह की बातें कर रहे थे।

    अॅधेरा गहरा काला हो जाए, इससे पहले लोगों ने देखा कि नगर के मुख्य चैराहे की तरफ पुलिस की जीप चली आ रही है। पीछे दो कार हैं। जीप के रूकते ही उसके पीछे कार भी रूकी और झपाके से उनमें से उतर कर कई लोग बंदूक, कट्टा, लाठी, हाॅकी, बल्लम ले कर खड़े हो गए। तब पुलिस की जीप खुली। उसमें से खींच कर हवलदार को उतारा गया। उसी जीप से सबसे आखिर में ठाकुर बलवान सिंह उतरे। उतर कर खड़े हो गए। तब नाटक शुरू हुआ। हथियार बंद लोग कूद कूद कर, उछल उछल कर हवलदार को तरह तरह से पीटने लगे। जब हवलदार जमीन पर पूरा चित्त गिर कर तड़पने लगा, तब चेयरमैन ठाकुर बलवान सिंह ने अपनी तोंद पर हाथ फेर कर अपनी बेल्ट उतारी और हॅस कर कहा-‘‘ हमारे लल्ला को छूने चले थे। तेरा क्या बिगाड़ रहा था बे? चलो, अब हम तोहंे नाटक का रिहर्सल करा देते हैं।’’ इसके बाद सटासट आठ दस बेल्अ मारा और मुड़ कर गाड़ी में आ कर बैठते हुए चिल्लाए-‘‘ उठाओ साले को। थाने छोड़ आओ। बोल देना सबेरे चार बजे से पहले नगर छोड़ के चला जावे। दिन में इसका मुॅह न दिखाई पड़े।’’

हवलदार को लहूलुहान हालत में पुलिस की जीप में लादा गया और थाने के बारामदे में उतार कर लिटा दिया गया। थाने का लाॅकअप खोल कर लोग अपना अपना लड़का ले कर अपने अपने ठिकानों की तरफ जाने लगे। बचे हुए लड़के जिनके बाप नहीं आये थे, पैदल चल कर या रिक्शा कर के अपने घर की ओर चले। थाने में पुलिसवालों ने हवलदार को फिर से उसी जीप में डाला और ले कर उसी सरकारी अस्पताल में पॅहुचे, जिसमें दोपहर के वक्त निरूपमा दी का भाई लाया गया था।

    निरूपमा दी अस्पताल के बारामदे में बैठी हल्का हल्का रो रही थीं। उसी समय हवलदार को लादे फांदे पुलिस वाले आवाजें करते, हड़बड़ाते हुए घुसे। हवलदार को इस हालत में देख कर वहाॅ के सभी लोग भौंचक खड़े हो गए।

‘‘क्या हुआ साहब को?’’ निरूपमा दी की माॅ ने घबड़ा कर पूछा।
‘‘अपनी हिरोइन से पूछो। इश्क ये करे और लात हम खायें। चलो, निकलो यहाॅ से। नही ंतो गुस्सा आ जायेगा हमें।’’ पुलिसवाले ने गुस्सा कर कहा और बार्ड ब्वाॅय को स्ट्र्ेचर लाने को कहने लगा।
‘‘अच्छा तो यही है!’’ दूसरे पुलिस वाले ने निरूपमा दी की तरफ देख कर कहा।
‘‘साहब गाड़ी नहीं है। सड़ गयी है। बाहर बरसात में पड़ी रहती है।’’ बार्ड ब्वाॅय ने अपना वही पहले वाला जवाब दिया। पुलिस वाले का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। उसने बार्ड ब्वाॅय का लाल रंग का टी शर्ट पकड़ कर खींचा और गरियाते हुए लतियाने लगा।

‘‘साहब, हमारी गलती नहीं है। उसमें छेद हो गया है। खराब हो गयाी है।’’ लेकिन उसकी एक न सुनी गयी।
‘‘अब तू भी आॅख दिखायेगा!हाॅ!’’ कह कर पुलिस वाले ने उस बहुत पिट चुके को वहीं छोड़ दिया और हवलदार को टांग कर अंदर ले जाने लगे। तब डाॅक्टर जाने किस खोह से निकल कर आए। डाॅक्टर ने निरूपमा दी को इशारे से बुलाया और पुलिस वालों के साथ चलने लगे।
डाॅक्टर ने निरूपमा दी को एक पर्ची दी और एक खून भरी शीशी और कहा कि डाॅक्टर सारस्वत के पैथालाॅजी लैब से ब्लड टेस्ट करवा कर लाओ। तुरंत जाओ। देर करने से डाॅक्टर साहब सो जायेंगे। निरूपमा दी तुरंत अपनी छोटी बहन के साथ रिक्शे पर शीशी और पर्ची ले कर बैठ गयीं। रिक्शे के पास आ कर उनकी माॅ ने कुछ रूपये उनके हाथ में पकड़ाये। रूपये हाथ में पकड़े पकड़े वे पैथालाॅजी सेंटर पॅहुचीं। दरवाजे की घंटी बजा कर बारामदे में लगी घड़ी देखते हुए इंतजार करने लगीं। आधे घंटे से पहले ही डाॅक्टर सारस्वत बाहर आ गए। उनके आने के पहले सुगंध का झोंका नहीं आया या आया भी होगा तो निरूपमा दी अपने आप में इतनी परेशान थीं कि जान नहीं पाईं और उनके आने के पहले उठ कर खड़ी नहीं हुईं।

‘‘ऐ लड़की, क्या है?’’ डाॅक्टर ने टेंशन में पूछा।

‘‘डाॅक्टर साहब, ब्लड टेस्ट करवाना था। बहुत जरूरी है।’’ निरूपमा दी घूम कर डाॅक्टर के सामने खड़ी हुयीं। अब डाॅक्टर ने उन्हें साफ साफ देखा। अचानक ही उन्हें सूरज कुमार की बड़ी बड़ी सपनीली आॅखें याद आयीं।
‘‘तो तुम हो? तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहाॅ आने की? हैं, भागो यहाॅ से! पूरे शहर में हंगामा खड़ा कर दिया है तुमने! किस किस से इश्क लड़ाती फिर रही है तू लड़की? मेरे लड़के की मोटर साइकिल आज तेरे चक्कर में पुलिस वाले उठा कर ले गए। वो तो कहो लड़का पकड़ में नहीं आया। जिसको जहाॅ पाया, वहीं मारा है। कुछ लड़कों की तो पसली तक टूट गयी है। भगवान बचा लिए। लेकिन मोटर साइकिल तो फॅस गयी न! एक झमेला! सुबह कौन जाएगा लाने? हैं, तू खड़ी है यहाॅ? चल, भाग!’’ डाॅक्टर सारस्वत ने दरवाजा बंद कर लिया। निरूपमा दी कुछ देर तक दरवाजा खटखटाती रहीं, गिड़गिड़ाती रहीं। फिर हताश हो कर बहन को ले कर मुड़ींे और बारामदे की सीढि़याॅ उतरते हुए गेट की तरफ आने लगीं। तभी डाॅक्टर सारस्वत ने दरवाजा खोल दिया।

‘‘ऐ लड़की! इधर आ! क्या बोल रही थी?’’
निरूपमा दी दौड़ कर आयीं-‘‘जी, ब्लड टेस्ट, बहुत जरूरी है।’’  उन्होंने आॅसू पोंछ पोंछ कर सब बात कही।
‘‘लाओ!’’ डाॅक्टर सारस्वत अपनी कुर्सी पर बैठ गए।
‘‘एक शर्त है मेरी। मानोगी?’’ उन्होंने फुसफुसा कर निरूपमा दी के कान में कुछ कहा।
‘‘ जी, मैं शहर छोड़ दूंगी। बस, मेरा भाई ठीक हो जाए।’’ निरूपमा दी ने फिर से आॅसू पोंछा और सिर हिलाया। फिर डाॅक्टर सारस्वत अपनी कुर्सी से शीशी लिए उठे और दो चार कदम चल कर अपने यंत्र की तरफ चले गए।

समय था, जो आग से आपूरित होता हुआ था, लगता नहीं था –

    वैशाली सारस्वत, वैशाली चड्ढा बन कर अदृश्य हो गयी थीं। शहर में जहाॅ देखो, तहाॅ चर्चा थी। स्कूल में लड़कियों को अलग अलग अध्यापिकाओं ने अलग अलग तरह से खबरदार किया था। अदृश्य चड्ढाओं से होने वाले नुकसान एकदम दृश्य हो उठे थे। किसी को ठीक पता नहीं था कि वैशाली को चड्ढा लड़के से क्या नुकसान हुआ था ? लेकिन सबके पास अलग तरह की कथाएं थीं। लोगों ने मान लिया था कि नुकसान तय था। इसमें देर सबेर हो सकती थी। लड़कियाॅ हैरान परेशान थीं। वे वैशाली चड़ढा की तरफ भी उतना ही होना चाहती थीं, जितना अपने परिवार की तरफ। इसी में डोलती वे इधर और उधर आ जा रही थीं। सोनपती बहनजी ने उस रोज माचिस की तीली से अपनी चारों लड़कियों के पैर पर बिंदी लगाई थी और कसम रखवाई थी कि कोई कितना भी दिलकश नौजवान आ कर उन्हें कैसा भी झांसा दे, उन्हें इस चक्कर में नहीं आना है। लड़कियों ने हामी भरी थी। इसके अलावा पैर पर बिंदी लगवाने से बचने का कोई उपाय भी नहीं था। उस दिन के बाद से जो सुबह आई थी, वह सोनपती बहनजी की चिंता में लड़कियों की शादी की जल्दी ले कर आई थी। सबको अचानक चारों तरफ युवा लड़के चालाक और बहलाने, फुसलाने वाले बहेलिए लगने लगे थे। लड़कियाॅ किसी लड़के के साथ भागने की फिराक में रहने वाली दुश्चरित्राएं बन कर डराने लगी थीं। जिनके घरों में लड़के थे, वे सतर्क हो कर अपने अपने लड़कों को वैशालियों के दोष गिना गिना कर आजिज किए हुए थे। इस तरह लड़का और लड़की दोनों ही अचानक कसूरवार की तरह दिखने लगे थे।

    इसी माहौल में वह खत खून से लिखा गया, जिसे लिखने के लिए निरूपमा दी ने अपनी तर्जनी अॅगुली में सूई चुभो चुभो कर खून निकाला था और उसे पेंसिल की निब पर रख रख कर अक्षर बनाए थे। खत में खूद को वैशाली की जगह रखने की और सूरज कुमार को चड्ढा की जगह रखने की इच्छा जताई गयी थी। रामचरित मानस में जैसे सीता ने हनुमान से राम के आने की महीने भर की तिथि निर्धारित की थी, उसी प्रकार खत में महीने भर का समय निर्धारित किया गया था। उधर सोनपती बहनजी भी मास दिवस निर्धारित कर रही थीं। जुलाई के महीने में पहली लगन पर निबटा देंगी बड़ी को। कुछ तैयारियाॅ भी शुरू हुई थीं। कुछ साडि़यों पर फाॅल लगाने का काम हमारे घर भी आया था। कुछ बेल बूटे काढ़े जाने लगे थे। किसके घर एोलक मिलेगी? खोज होने लगी थी। सोनपती बहनजी स्कूल के संगीत कक्ष का हारमोनियम उठा लाई थीं। असल में संगीत कक्ष जैसा कुछ था नहीं। कभी काल्पनिक संगीत कक्ष के नाम पर हारमोनियम और ढोलक मॅगाया गया था। ढोलक बी.एस.ए. के घर पर रह गयी थी। हारमोनियम स्कूल के एक कोने में पड़ा उॅघता रहता था। उस पर मिट्टी की कई परत जम गयी थी। उसी हारमोनियम को उठा कर लाया गया था। उसे गीले कपड़े से पोंछ पोछ कर चमकाया गया था। फिर उनकी किसी लड़की ने गिटर पिटर कर के उसे छेड़ा। बड़ी अजीब सी ‘चें…चें…में….में….’ की धुन निकली। तब फलाने मास्टर की लड़की को बुलाया गया। लड़की ने संगीत की कुछ पढ़ाई की थी। लड़की ने स…रे…ग…म…. बजा कर दिखाया। कोई भी गीत चलता, वह स….रे….ग…म… बजाती रहती। हारमोनियम के इस सदुपयोग पर सब लोग खुश हुए। सोनपती बहनजी चहकीं और अपनी बड़ी लड़की के सिर पर पहली बार प्यार से हाथ फेरने लगीं। बड़ी लड़की इस अचानक के दुलार से चकरा गयी और जड़वत खड़ी रही। लड़की के सिर पर हाथ फेरते फेरते सोनपती बहनजी रो पड़ीं। लड़की तब भी जड़वत खड़ी रही। तब उन्हें अपनी भारी भूल का अहसास हुआ। उन्होंने आॅसू पोंछ कर कहा-‘‘ अंदर जाओ!’’ लड़की ने राहत की सांस ली और अंदर चली गयी। अंदर उसे एक गंदा सा सलवार कुर्ता पहनने को कहा गया। फिर हल्दी लगाने की रस्म शुरू हुई। हल्दी लगाते समय एक दिन गहरी सांस ले कर बड़ी लड़की ने अपनी दोस्त से कहा, जो उसके पैरों में हल्दी पोतते हुए हॅस रही थी।

‘‘ऐसे लड़के मिलते कहाॅ हैं?’’
‘‘कैसे?’’ दोस्त ने हल्दी लगाना और हॅसना रोक कर पूछा।
‘‘वैशाली के चड्ढा जैसे।’’ बड़ी लड़की ने धीरे से कहा।
‘‘पता नहीं।’’
दोस्त एकदम निर्लिप्त सी लगने लगी। लेकिन अगले ही क्षण वह उठी और अपने घर चली गयी। बड़ी लड़की इससे जरा भी हैरान नहीं हुई।

    फिर शादी का दिन आया। खूब धूमधाम मच गयी। लोग आने लगे। यहाॅ तक कि वे रिश्तेदार भी आए, जो वर्षों पहले बेगाने हो चुके थे। सोनपती बहनजी ने उन्हें ढूंढ ढूंढ कर चिट्ठी लिखी थी और खास बुलावा भेजा था। वे दिखाना चाहती थीं कि उनकी मदद के बिना भी वे कहाॅ तक पॅहुच गयी हैं! लड़की की शादी कर ले रही हैं! रिश्तेदार आए थे और लाख जलन के बावजूद अपनी खुशी प्रदर्शित कर रहे थे। वे न्यौता सौंपने के बाद पूरे अधिकार भाव से अपनी जिम्मेदारी समझ कर काम धाम में जुट गए थे। लगता ही नहीं था कि वे वर्षों बाद मिल रहे हैं। बल्कि आज के उनके अवतार को देख कर कोई यकीन भी नहीं कर सकता था कि इन्हीं लोगों ने सोनपती बहनजी की कभी बड़ी दुदर्शा की थी। मीन मेख निकालने वाले भी दो एक थे,पर बाकी लोग मामला संभाल लेेते थे। एक रिश्तेदार शामियाने में एक तरफ कुर्सी खींच कर बैठ गए थे। वे न्यौता का हिसाब लिख रहे थे। उनके पास एक पतली सी काॅपी थी, जिस पर वे न्यौते की रकम नोट करते जाते थे और अपने बगल के झोले में रूपये का लिफाफा रखते जाते थे। कुछ लोग आ कर सीधे अपना न्यौता सोनपती बहनजी को सौंप चुके थे। धीरे धीरे लोगों को यह व्यवस्था पता चली। तब वे सोनपती बहनजी को छोड़ कर न्यौता लिखने वाले आदमी के पास अपना अपना न्यौता लिखवाने दौड़े। जो लोग पहले ही अपना न्यौता सोनपती बहनजी को सौंप चुके थे, वे भी काॅपी में अपना नाम लिखवाने दौड़े। लिखवा देना एक पक्का सबूत था। लोग दिए न्यौते का सबूत रखना चाहते थे। वे लोग लिखने वाले आदमी से कहते -‘‘ इक्यावन रूपये के बगल में लिख दो, सोनपती बहनजी को दिए।’ लिखने वाला लिख देता। लोग निश्चिंत हो कर बारात के आने का इंतजार करने लगते।
    ‘बारात बस आ ही रही है’ यही सुनने को मिल रहा था। कोइ्र कहता गाॅव से निकल चुकी है। घंटा भर लगेगा। कोई कहता सीवान तक पॅहुच गयी है। कोई यह भी कह देता कि कितनी दूर है ही, चलती तो पॅहुच न गयी होती अब तक? जरा फोन लगा के पूछो तो, क्या खबर है? इस तरह सोनपती बहनजी लगातार फोन लगा कर पूछने की कोशिश करतीं। मगर नेटवर्क हल्का सा पकड़ में आता कि चला जाता। ‘गाॅव में वहाॅ थोड़ा नेटवर्क की दिक्कत है’ वे परिचितों और रिश्तेदारों से कहतीं। इस तरह जब रात के ग्यारह बज गए तब सोनपती बहनजी का धैर्य टूट गया। वे चिंता में अपने रिश्तेदारों से कहने लगी कि दो लोग दूल्हे के गाॅव की तरफ निकल जाएं, बारात रास्ते में कहीं पॅहुची होगी तो भी पता लग जायेगा या कि कोई दिक्कत होगी तो वह भी। लेकिन रिश्तेदार कह रहे थे कि इसमें रात और मुहूर्त दोनों निकल जाएगा। न्यौता लिखने वाला आदमी हल्का हल्का मुस्करा रहा था और बार बार काॅफी मॅगवा कर पी रहा था। सोनपती बहनजी मोबाइल घुमाए जा रही थीं। लगातार प्रयास में लगी थीं। मगर फोन लगता ही नहीं था। बेकार गया आज फोन का होना। उधर से कुछ खबर नहीं आ रही थी। कहाॅ तो लगा था कि मोबाइल से हर पल की खबर मिलती रहेगी ! जहाॅ पॅहुचेंगे अपने खेमे के भीतर, तुरंत एक आदमी मिठाई, कोल्ड ड्र्ंिक ले कर दौड़ जाएगा। कहाॅ कुछ अंदाजा ही नहीं हो रहा ? जितने मॅुह, उतनी बातें शुरू हो गयी। किसी ने यह भी पूछ लिया कि सब ठीक से तय तो किया था? मामला पैसों पर तो नहीे अटका है? तभी दूल्हे के घर से चार लोग पॅहुच आए। खबर मिलते सोनपती बहनजी दौड़ कर आयीं। वे लोग हाथ जोड़ कर बड़े दुख के साथ कहने लगे-‘‘ बहनजी, आप तो जानती ही हैं कि लड़का फौज में है। पाकिस्तान सीमा पर है। ऐन वक्त पर अफसरों ने उसकी छुट्टी कैंसल कर दी। उधर से निकल ही नहीं पाया। उधर कुछ आतंकवादी घुस आए हैं, लड़ाई चल रही है। हमें, आपको क्या पता कि वहाॅ जब तब लड़ाई छिड़ी रह रही है। सीमा पर यही तो आफत है। हम लोग भी राह देखते देखते थक गए। वहाॅ फोन भी नहीं लगता। हम कर नहीं सकते। उसके लिए भी मुश्किल है। नही ंतो कब का पता चल गया होता। सीमा का मामला है। हमलोग भी इसमें कुछ नहीं कर सकते। जैसे खबर मिली है, दौड़े चले आ रहे हैं। रास्ते भर फोन लगाते रहै, आपका फोन कभी व्यस्त आवें तो कभी पॅहुच से बाहर। अब जाड़े तक इंतजार करना पड़ेगा। घबड़ाइए मत। हमलोग शादी से पीछे नहीं हटेंगे। यहीं होगी, अपने चार रिश्तेदारों की गवाही में हमसे कौल भरवा लीजिए।’’

सोनपती बहनजी जड़वत बैठी रह गयीं। यह कैसा वज्रपात हुआ ? पूरा मंडप सजा है। रिश्तेदार वर्षों बाद पधारे हैं। उनके आगे कुछ सिर उॅचा हुआ था उनका। अब वही सिर झुक गया है। आज एक बड़ा काम निबट जाने को था। यह भगवान ने उनके साथ कैसा सुलूक किया? अब वे क्या मुॅह दिखायेंगी? किस मुॅह से कहेंगी कि अपने बलबूते सब साध लिया था उन्होंने ? लड़की के दुर्भाग्य का क्या कहें? उन्हीं के साथ होना था ऐसा? कहाॅ तो लोग जल रहे थे कितना बढि़या नौकरी वाला लड़का खोज लिया बहनजी ने? कहाॅ आज यह दिन? दुनिया भर की बदनामी। किस का मुॅह तो नहीं रोक सकते। कौन समझेगा कि फौज में ऐसे अचानक छुट्टी कैंसल भी हो जाती है। मुझे ही कौन सा यकीन था कि सच में ऐसा हो जाएगा? सुनती थी पर यकीन नहीं करती थी। लोग भी क्यों यकीन करेंगे? पता नहीं कौन क्या कह दे?….’’

जड़वत बैठी सोनपती बहनजी में स्पंदन हुआ और वे हल्हा सी हिलीं फिर उनकी आॅखों से आॅसुओं की बूंदें रह रह कर टपकने लगीं। पास बैठे उनके रिश्तेदार समझाने लगे-‘‘ भाग्य से आगे तो कोई नहीं निकल सकता? आपौ नाहीं निकल सकतीं। अच्छे लोग हैं लड़के वाले, देखो, खुद भी वे लोग परेशान हैं। उनहूं के यहाॅ तो सब तैयारी रही। सब धरी रह गयी कि ना। अब दूल्हा के बिना तो बिआह नाहीं हो सकता है। तो जरा धैर्य रखौ। शादी तो तय बनी हुई है ना। ये लोग पीछे नहीं हट रहे। इस पर ध्यान दो।’’ फिर वे दूल्हे के घर से आए लोगों से मुखातिब हो गए-‘‘ देखिए, वहाॅ, जहाॅ दूल्हा न पॅहुच पावे, तो तलवार रख कर या उसकी फोटू रख कर शादी कर देते हैं। वह चलन तो हमारे यहाॅ है नहीं। नही ंतो इसका तोड़ तो है ही। लोगों ने ऐसी ही परेशानियों में बनाया होगा। ’’ यह कह कर वे रिश्तेदार थोड़ा सा हॅसे। फिर हॅसना रोक कर आगे कहने लगे-‘‘ फौजी आदमी की छुट्टी का कोई भरोसा है। इस पर तो पहले थोड़ा सोचना चाहिए था। देश की रक्षा भी जरूरी है भई। क्या करें? फौजी अपना सुख छोड़ देता है, नेता नहीं छोड़ते। किसी नेता को पता है कि फौजी को ऐसी स्थिति से भी गुजरना होता है? हाॅ, बोलो भाइ, बताइए आपलोग, समझाइए बहनजी कोर्।।’’ वे आखिरी बात तक आते आते थोड़ा तल्ख होने लगे। तब एक दूसरे रिश्तेदार ने बात की डोर को उस दिशा से खींच कर वापस पटरी पर किया।

‘‘देश का मामला ऐसा ही है। उसे छोडि़ए, अभी की बात करिए। अगर देश बीच में न होता और किसी बारात रूक जाये ंतो अब तक क्या से क्या नौबत आ जाती। बल्लम भाला चल जाता। लाठियाॅ निकल जातीं। ऐसे छोड़ते हमलोग।’’

सोनपती बहनजी इस बात से डर गयी।। बात कहाॅ की कहाॅ जा रही थी। बारात जरूर नहीं आ पाई थी। दूल्हा जरूर ड्यूटी पर से निकल नहीं पाया था। पर देश की बात आ जाने से कहीं न कहीं मन में वे गर्व महसूस कर रही थीं और किसी भी हालत में इस रिश्ते को अपनी गांठ से सरकने नहीं देना चाहती थीं। दूसरे उन्हें दर था कि रिश्तेदार म नही मन उनसे जल रहे होंगे, उपर से भले बन रहे हैं! कहीं इस मौके की आड़ में शादी ही न काट दें? रूलाई उन्होंने तुरंत रोकी और घबड़ा कर कहने लगीं-‘‘ कैसी बात कह रहे हैं भइया? ये गाॅव थोड़े है कि बात बात में लाठी बल्लम निकल जाये। हमलोग समझते हैं एक दूसरे की मजबूरियाॅ। कोई देश के लिए सीमा पर लडत्र रहा है तो उसे कुछ कैसे कह सकते हैं? कोसना हो तो जाओ नेताओं को कोसो, जो राज सीमा पर लड़ाई लगवाए रहते हैं। पता नहीं इन सबों को अपने लोगों का सुख चैन छीन कर कौन सा खजाना मिल जाता है? हम इंतजार कर लेंगे। हम भी पीछे नहीं हटेंगे। अब दुख दुख सब सांझा हो गया है हमारा। क्यों भाईसाहब?’’ उन्होंने दूल्हे के घर से आए ताउजी को संबोधित कर के कहा। दूल्हे के घर से आए लोगों को उनकी इस बात से बड़ी राहत मिली।

बात बिजली के करंट की तरह फैल गयी थी। अेोरतें झांक झांक कर दूल्हे के घर से आए लोगों को देख लेना चाहती थीं। आदमी बिना काम उधर से गुजर कर देख ले रहे थे। कुछ लोग वहीं आस पास खड़े हो गए थे। इस तरह दूल्हे को न देख पाने का संतोष घर वालों को देख कर पा रहे थे। बातें भी बनने लगी थीं। बड़ी लड़की ने अपनी पीली साड़ी उतार कर फेंक दी थी और पुराना सलवार कुर्ता पहन लिया था। मेहमानों को विदा कर के सोनपती बहनजी उठीं और अपने एक रिश्तेदार को बुला कर बिना किसी भाव के बोलीं-‘‘ सबको खाना ख्लिवा दों बाॅट दो भइया। अब खतम करो आज का कार्यक्रम।’’ उनके इतना कहते ही, वे तमाम लोग, जो बारात का इंतजार करते करते थक कर और भोजन के इंतजार से निराश हो कर उॅघने लगे थे, एकदम जग पड़े। जग कर खाने के पंडाल की तरफ दौड़े और खाने पर झपट पड़े। औरतें और बच्चे आवाजें करते हुए निकले ओर खाने के पंडाल की तरफ दौड़े। लोग आपस में बतियाने लगे। कोहड़े की सब्जी क्या सिझा सिझा कर बनाया है, खटाई डाल कर। खाना इतना स्वादिस्ट की अॅगुलियाॅ चाटते रह जाओ। साग कितना बढि़या बना है। कोई कोफ्ते पर फिदा है। रायता अलग बड़ा स्वादिस्ट है। कोई कह रहा है भई, हलवाई कहाॅ से बुलाया? तो कोई हलवाई से अपनी पहचान प्रमाणित करने में जुटा है। किसी के पास ऐसे बढि़या हलवाइयों की पूरी फेहरिस्त है। मिठाइयाॅ वैसे तो सिर्फ बारातियों के लिए थीं। लेकिन अब स्थिति ऐसी नहीं रही तो कुछ उठा कर कमरे में रखवा दी गयीं। रिश्तेदार जाते समय ले जाते। बाकी बाॅट दी गयी। उस पर भी लूट मची। पान का बीड़ा थाली में सजा कर रखा था। खास मगही पान था। वैसे ही पड़ा सूख रहा था। किसी ने याद दिलाया। लोग खाना खाने के बाद पान का बीड़ा उठाने लगे। थोड़ी ही देर में थाली खाली हो गयी। किसी को मिला किसी को नहीं मिल पाया। बच्चों में इसके लिए झगड़ा भी मचा। पान वाले ने समय की नजाकत भाॅप कर थाली भर पान लगाने के बाद पान लगाना बंद कर दिया था। जब लोग खाने वाले पंडाल की तरफ दौड़े थे, तब वह भी खाने वाली मंडली में मिल गया था। इसलिए लोगों को वह मिला ही नहीं कि उससे और पान लगवा लेते। कोई कोई इससे भी आगे गया। उसने पान वाले को खोज लिया लेकिन वह भी पान वाले को खाने से विरत कर पान लगवा लेने में असफल हुआ। ‘बस, अभी आया जी’ पान वाला कहता रहता। पर आता नहीं। उसके इंतजार में रूके लोग इंतजार करते करते उब जाते और अंत में इधर उधर चले जाते। उसने अपना एक बंडल पान का पत्ता बचा लिया था।

    उधर एक महीने की अवधि बीत गयी थी। निरूपमा दी के भाई कुछ ठीक हो रहे थे। हॅलाकि उन्हें कभी कभी चक्कर आ जाता था। लोग इसे कमजोरी से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे। तब निरूपमा दी घर से निकलीं और जा कर डाॅक्टर सारस्वत के घर के गेट के पास खड़ी हो कर इंतजार करने लगीं। घर का गेट जिस दीवार में अटका था, उस की एक तरफ एक कागज चिपका था। कागज पर  खून से इबारतें लिखी थीं। खून सूख कर कड़ा हो गया था। उस पर जमाने भर की गर्द चिपक गयी थी। निरूपमा दी गेट के एकदम पास चली गयीं और कागज को पढ़ने लगीं। यह उन्हीं का खत था। वे एक क्षण को हतबुद्धि सी खड़ी रह गयीं। यह क्या देख रही थीं वे? उनका मन हुआ कि तुरंत फाड़ कर फेक दें, लेकिन तुरंत ही उन्हें यह भी ध्यान आया कि यह बात सप्रमाण सूरज कुमार को जयर बतानी चाहिए। उनका हाथ रूक गया। वे गेट के पास टहलने लगीं। गेट के दीवार के अन्तिम छोर के कुछ पास पान की एक गुमटी थी। गुमटी का अपना प्राचीन इतिहास था। उसे बार बार यहाॅ से हटा देने का प्रयास हुआ था। लेकिन गुमटी टस से मस नहीं हुई थी। शहर के कुछ खास लोग भी चाहते थे कि गुमटी यहाॅ रहे। असल में गुमटी डाॅक्टर सारस्वत की सफेद रंग की पुरानी कोठी के सामने एक धब्बे की तरह दिखती थी। इससे कुछ लोगों के दिल को बड़ा सुकून था। इसी सुकून को बनाए रखने के लिए गुमटी को बनाए रखा गया था। उसी गुमटी में से पान वाला झांक झांक कर देख रहा था। वह मुस्करा रहा था और रेडियो बजा रहा था। जब आधा घंटा बीत गया और सूरज कुमार गेट से निकलते हुए नहीं दिखे, तब निरूपमा दी पान वाले की गुमटी के पास आईं।
‘‘भइया, जरा अपना मोबाइल दो, एक ठो काॅल करना है। पैसा ले लेना।’’ निरूपमा दी सोचते हुए बोलीं। पानवाला उछाह से भर गया।
‘‘बोलिए, नम्बर बोलिए। अभीहै लगा देते हैं।’’
इससे पहले कि निरूपमा दी नम्बर बोलतीं, पानवाले को सूरज कुमार बारामदे से उतर कर गेट की तरफ पॅहुचते दिख गए।

‘‘क्या नम्बर लगवा रही हैं? वो देखिए, भइया जी साक्षात चले आ रहे हैं।’’ पानवाले ने रस में डूब कर कहा।
‘‘आपको कैसे पता कि मैं उन्हें फोन लगा रही थी?’’निरूपमा दी ने चिढ़ कर कहा। पानवाला इस पर कुछ बोला नहीं, भावों से भर कर मुस्कराया। उस मुस्कराहट से ध्वनित हुआ ‘हमें सब पता है जी!’’ निरूपमा दी समझ गयीं और नाराज भाव से मुड़ गयीं। उन्होंने भरी सड़क पर हाथ पकड़ कर सूरज कुमार को खून से लिखे खत के सामने खड़ा कर दिया -‘‘ देखो, अपनी आॅख से देखो। कैसे आया यह यहाॅ?’’ सूरज कुमार भी हतप्रभ हुए। कुछ देर को समझ में न आया कि क्या कहें? फिर गुस्सा कर उन्होंने खत फाड़ कर फेक दिया।
‘‘न रहेगा बाॅस न बजेगी बाॅसुरी।’’ हल्की आवाज में वे बुदबुदाए।
‘‘ क्या कह रहे हो? कैसे देख रहे हो? यही है तुम्हारे आराम में खलल?’’

इस पर सूरज कुमार ने कहा-‘‘ तुम कुछ नहीं समझती? कल्पना में रहती हो! परसों यह पापा के हाथ जाने कहाॅ से लग गया! बस, फिर क्या, खूब हंगामा कटा! उठा कर उन्होंने इसे गेट के बाहर फेक दिया। कौन जाने किसने उठा कर इसे दीवार पर चिपकाया है? तुम्हारे तो सब दुश्मन हैं ? सब तुम्हारे खिलाफ काम करते हैं? है न? क्या पता इसी पान वाले ने लगा दिया हो?’’ इस पर निरूपमा दी का गुस्सा भी आग पकड़ने लगा। सूरज कुमार की लम्बी चुप्पी को वे सहन कर गयी थीं। लेकिन यह मुखरता बर्दाश्त के बाहर थी। वे तो सिर्फ वैशाली के आदर्श वाले अपने प्रस्ताव पर सूरज कुमार का विचार जानना चाहती थीं। उन्होंने सोचा नहीं था कि यह प्रस्ताव इतना छोटा नहीं है, जिस पर झट से ‘हाॅ’ या ‘नहीं’ कर दिया जाए। यह प्रस्ताव तो सदी का सबसे भीषण प्रस्ताव था, यह आज उन्हें समझ में आ रहा है। वे गुस्से में बोलीं तो सूरज कुमार उससे बढ़ कर गुस्से में बोले। गुस्से में वे वह सब कहने लगे, जो कहने स ेअब तक अपने को रोके हुए थे। वे जाति बिरादरी से होते हुए, पिता की तबियत स ेले कर अंत में यहाॅ तक पॅहुचे कि जो गलती वैशाली ने की, वही गलती वे नहीं दुहराना चाहते! निरूपमा दी ने तेज आवाज में कहा कि ‘‘अच्छा तो अब वैशाली का आदर्श गलती में बदल गया है! यह मैंने नहीं सोचा था। मैं समझती थी तुम्हीं हो इस दुनिया में, जो वैशाली की तरफ है। वैशाली को अकेला कर दिया तुमने? अपनी बहन को? जाति बिरादरी में चले गए तुम! धन दौलत गिनने लगे? अच्छा हुआ कि बात इतनी साफ हो गई।’’

सूरज कुमार ने इस तरह नहीं सोचा था। वे नहीं जान पाए थे कि वे बहन को अकेला कर रहे हैं। यह बात उन्हें चुभ गई। अचानक उनका स्वर कमजोर पड़ गया। कमजोर स्वर के बावजूद वे अपनी टेक नहीं छोड़ पाए। कहने लगे- ‘‘जो समझना चाहो, समझो! मैं अब माता पिता को और मुसीबत में नहीं डाल सकता। इसका जो भी अर्थ लगाना है, लगाओ। नौटंकी जा कर कहीं और करो जाओ, यहाॅ से!’’

    झगड़ा जैसे जैसे बढ़ता था, पानवाला गुमटी से रेडियो की आवाज कभी तेज तो कभी एकदम धीमा कर देता था।  इस बीच एक दो लोग तम्बाकू का पाउच माॅगने आ गए। उसे लगा  िकवे उसके आनन्द संसार को भंग कर देना चाहते हैं। वह अपने आनन्द संसार को बचाना चाहता था। इसलिए आॅखों ही आॅखों में उन्हें कुछ देर रूकने का प्रस्ताव भेजता था। कोई रूक जाता था। रूकते हुए बगल के दृश्य में डूबने को होने लगता था।
‘‘क्यों बे! नौटंकी चालू है?’’ किसी ने हॅस कर कहा।

‘‘लेटरवा आप पढ़े कि नहीं?’’ पानवाला बड़े धीरे से पूछता।
‘‘नहीं भई, कौन सा?’’ आगंतुक चैंक कर कहता।
‘‘वही, खूनवाला।’’
‘‘खूनवाला! कल कुछ लोग कह तो रहे थे। सच में था क्या?’’ आगंतुक अपनी उत्सुकता दबाते हुए पूछता।
‘‘और नही ंतो क्या? अभी अभी फाड़ के फेके हैं महाराज!’’
‘‘फाड़े काहे को?’’
‘‘आपके इंतजार में बैठे रहते? डाॅक्टर साहब निकल कर देखते तो कुल गेटवा ढहा देते,, समझे!’’ पान वाला फुसफुसा कर रहस्य उद्घाटित करता।

इधर रोने की एक तेज आवाज के साथ निरूपमा दी मुड़ीं और चिल्लाईं-‘‘ ऐ, बंद करो अपना रेडियो!’’ पानवाले ने रेडियो बंद नहीं किया। हॅस कर आगंतुकों से बोला-‘‘ ये लीजिए आपका तम्बाकू नम्बर 300 लगा दिए हैं।’’
निरूपमा दी मुड़ीं और तेज कदमों से अपने घर की ओर लौटने लगीं। सूरज कुमार ने गेट को बंद होने के लिए जोर से ठेला और अंदर चले गए। उन्होंने यह भी नहीं देखा कि गेट बंद नहीं हुआ था, और खुल गया था।
    निरूपमा दी चलती जाती थीं, सोचती जाती थीं। सोचती थीं तो आॅख भर आती थी। फिर सिर झटक कर अपने को उन विचारों से मुक्त करने की कोशिश करती थीं। क्या सोच कर निकली थीं और क्या हो गया था ? सूरज कुमार इतने महीनों से बात करना टाल रहे थे। जब भी उनके मोबाइल पर फोन लगाओ, ‘अभी थोड़ी देर में बात करता हॅू’ कह कर काट देते थे। एक तो फोन करना इतना मुश्किल था। घर में बमुश्किल एक फोन था, जिस पर सबका अधिकार था, पर वह रहता था हरदम बड़े भाई के पास। आज कल बड़े भाई कुछ ठीक हो रहे थे, इसलिए फिर से उसमें रीचार्ज वगैरह करा कर अपने पास रखने लगे थे। यह तो कोई समझता नहीं! यही कि फोन कर ले जाना भी एक आसान काम नहीं है। चलो, यह भी अच्छा हुआ कि आज सूरज कुमार की पोल पट्टी खुल गयी। कितनी ही बार उन्होंने सूरज कुमार के यह कहने पर भरोसा किया था कि ‘समझा करो’ या ‘सही समय आने दो’ या ‘थोड़ा इंतजार नहीं कर सकती।’ वे निरूत्तर होती रहती थीं। इंतजार करतीं, पर कब तक? अब उन्हें ठान ही लेना था कि बात साफ हो जानी चाहिए। इसी इरादे से उन्होंने कहा था कि बाहर आओ, घर से निकलो और बात साफ कर दो। इंतजार का कोई भविष्य हो तो इंतजार किया जाए ?सूरज कुमार तो आज भी टाल मटोल पर थे। कह रहे थे अब तुम लखनउ आ जाओ किसी बहाने, तब बात करेंगे। अब मेरे लिए यह कहाॅ संभव है कि अकेले लखनउ चली जाउं? या क्या पता मुझे लखनउ निकल जाना चाहिए था? लेकिन आज जो कुछ सुना, उससे तो लखनउ जाना एक बेवकूफी के सिवाय कुछ न होता! उन्हें बहला कर रखना चाहते थे क्या? न छोड़ना चाहते थे, न अपनाना चाहते थे। यह बीच का मामला तो बड़ा मुश्किल है। आखिरकार आज मन की सब बात ज़बान पर आ ही गयी। सब पोल खुल गयी। जाति आज तक नहीं थी, न जाने कहाॅ से बीच में आ गयी? दोस्ती भी तब तो जाति देख कर करनी चाहिए। उसी घर में वैशाली के आगे जाति नहीं आई थी! उसको गए भी कितना अर्सा हो गया। इन लोगों की इसी सोच के कारण उसे सबको छोड़ कर जाना पड़ा। नही ंतो कौन जाना चाहेगा अपनो से दूर? अब देखो, आज माॅ बाप का मान सम्मान भी बीच में आ गया। पता नहीं सम्मान को ठेस क्यों पॅहुचेगी? समझाया तो जा सकता है? लेकिन नहीं, जब खुद ही आदमी ऐसा सोचे, तो दूसरों को क्या बताएगा? वैशाली के बीच भी तो आये होंगे! वह इस दुनिया की प्राणी नहीं थी क्या? यही सब मन में उमड़ घुमड़ रहा था। सूरज कुमार को भी क्या दोष दें? सब लड़कों में हिम्मत कहाॅ है? सहूलियत भर दोस्ती चाहिए। सहूलियत भर प्यार चाहिए। जिम्मेदारी भर नहीं चाहिए।

    वे अपने में मगन चली जा रही थीं कि अचानक ही हल्ला मचाती लड़कों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया। वे अपने विचार में अटकी थीं। कौन थे ये लोग और क्यों आ गए थे? क्या चाहते थे? वे पूछ भी नहीं पायीं। हतप्रभ सी देखती रहीं कि दो लड़कों ने लपक कर उनका हाथ कंधे पर से पकड़ लिया। तब राजकुमार की तरह चेयरमैन साहब के लड़के सामने आए। उनके हाथ में सिंदूर की एक बड़ी सी सिंघौरा जैसी  डिबिया थी। उससे चुटकी भर सिंदूर निकाल कर चेयरमैन साहब के लड़के ने निरूपमा दी की माॅग में भर दिया। लड़के हल्ला मचा कर हॅसे।
‘‘अब से तुम हमारी हुई।’’ उन्होंने सगर्व ऐलान किया।

‘‘हमारी भी।’’ सिंदूर की डिबिया से सिंदूर निकाल कर दूसरे लड़के ने भी माॅग में डाल दिया।

‘‘ले बे तू भी बहती गंगा में हाथ धो!’’ इस तरह माॅग में सिंदूर डालने का का उत्सव शुरू हो गया। लड़के हाथ, पैर, नाक, मुॅह छू छू कर देखने लगे। छूने के इस क्रम में खींचतान होने लगी। कपड़े जगह जगह से फटने लगे। निरूपमा दी जकड़े हुए हाथों को छुड़ाने की कोशिश करतीं, पैर चलातीं, गालियाॅ देतीं, चीखतीं। लेकिन उनकी आवाज कहीं नहीं पॅहुचती। उनका दुपट्टा किसी ने खींच कर दो टुकड़े कर दिए, फिर दो लोगों ने उसे अपने अपने सिर पर बाॅध लिया। जब कपड़े फट गए। कुर्ते के अंदर से ब्रा झाॅकने लगी। फिर ब्रा के अंदर से शरीर झाॅकने लगा। सलवार का नाड़ा खींच लिया गया। तब चेयरमैन के लड़के ने कहा-‘‘ बस, बस, उत्सव बंद करो!’’

सलवार को दोनों हाथों से पकड़े, रोती बिलखती निरूपमा दी की तरफ मुड़ कर चेयरमैन के लड़के ने कहा-‘‘ ऐसे रो रही है जैसे रेप हुआ हो! अभी तो हमने कुछ किया ही नहीं। जा, पुलिस बुला ले! चलो भई साथियों!’’ और सब हल्ला मचाते हॅसी ठट्ठा करते आगे बढ़ गए।

निरूपमा दी बची रह गयीं। जमीन पर बैठ कर हिलक हिलक कर रोतीं। रोते रोते बेहोश होने जैसी हालत होने लगी। कुछ देर बाद वहीं जमीन पर वे गिर गयीं।

कुछ देर में उधर से सफेद रंग की अम्बेसडर गाड़ी गुजरी। यह गाड़ी शहर के सरकारी अस्पताल के डाॅक्टर सुरेश के नाम से पहचानी जाती थी। डाॅक्टर सुरेश सोनपती बहनजी के घर के पास, कुछ एक किलोमीटर की दूरी पर रहते थे। सोनपती बहन जी परेशान सी उसी गाड़ी में बैठी थीं। वे बार बार सड़क की ओर ऐसे देख रही थीं, जैसे गाड़ी की गति की सीमा को अपनी आॅखों के देखने से पार कर जायेंगी। गाड़ी डाॅक्टर सुरेश चला रहे थे और गाड़ी से जलने की तेज दुर्गंध आ रही थी। गाड़ी निरूपमा दी के पास से गुजरी तो सोनपती बहन जी ने भर्राये गले से डाॅक्टर साहब से कहा-‘‘ डाॅक्टर साहब, जनौ कोई लड़की गिरी पड़ी है।’’

 डाॅक्टर साहब ने गाड़ी रोक दी। उतर कर देखा तो हैरान रह गयीं-‘‘ अरे, जे के का भया? न जाने कौन दुखिया है?’’ डाॅक्टर साहब ने बहनजी की मदद से निरूपमा को उठाया और गाड़ी में पीछे उसी जगह लाद दिया, जहाॅ पटरा रख कर चार जली हुई लड़कियोॅ को लिटाया गया था। डाॅक्टर सुरेश गाड़ी चलाते चलाते हिदायत देते जाते। सोनपती बहनजी आॅसू पोंछती जातीं और अपने को कोसती जातीं-‘‘ डाॅक्टर साहब, हमें पता ही न चला कि चारों ने कब कैसे अपने को आग लगा ली? न जाने कहाॅ चूक रह गयी हमसे? जब देखा कि मेरे झोले में माचिस की डिबिया नहीं है, तभी दिमाग खटका था। लेकिन डिबिया निकालने की हिम्मत तो कोई कर ही नहीं सकता था। कब इन सबों ने यह हिम्मत की? यही हिम्मत करना था इन सबों को! इससे तो अच्छा था भाग जातीं। मेरा तो सब संसार ही लुट गया।’’ वे रोती जातीं, अस्पताल नजदीक आता जाता।
‘‘हैरानी की बात है कि चारों ने एक साथ ऐसा किया! इसका केस तो बनेगा ही बहनजी। इस बच्ची का भी केस बनेगा।’’ डाॅक्टर ने चिंता से कहा।

अस्पताल में बाकायदा कार्यवाहियाॅ पूरी करके चारों लड़कियों को मृत घोषित कर दिया गया। निरूपमा दी अस्पताल में भर्ती कर ली गयीं। तमाम प्रेस फोटोग्राफर दौड़े। पुलिस ड्यूटी पर आयी। फोटो लिए गए। पहले जली हुई चार लड़कियों के, फिर चिंदी चिंदी हुई एक लड़की का। पुलिस बयान लेने लगी। सोनपती बहनजी रो रो कर, जो देखा था, सब बताने लगीं। कैसे घर में से जले की दुर्गंध से पड़ोसी इकट्ठा हुए, जब वे आयीं तो सबसे पहले भीड़ दिखी। तेज चिरायंध आ रही थी। वे सोच ही नहीं पायीं कि उनके यहाॅ से आ रही है? फिर दौड़ कर कैसे डाॅक्टर साहब को उनके घर से बुलाया। संयोग से डाॅक्टर साहब घर पर थे। उन्हीं की गाड़ी से आए। निरूपमा दी की तरफ से बताने वाला कोई नहीं था। सोनपती बहनजी ने ही उनकी तरफ से भी बताया। बच्ची का यह हाल किसने किया? इस पर सोनपती बहनजी कुछ नहीं बोल पायीं। डाॅक्टर सुरेश भी कुछ नहीं बोले। वे अस्पताल में उस वक्त की ड्यूटी पर थे। लेकिन वे घर पर पाए गए थे।

‘‘भई, घर खाना खाने गया था। सभी जाते हैं। कुछ काम था तो थोड़ी देर और हो गयी। बस, आने ही वाला था कि यह सब हो गया।’’ उन्होंने पुलिस की बार बार की पूछ का उत्तर दिया।
‘‘नप सकते हो डाॅक्टर!’’ पुलिस वाले ने मुस्करा कर कहा। तब डाॅक्टर ने धीरे से सौ सौ रूपये के कुछ नोट उसकी पाॅकेट में डाल दिया। तुरंत उस घटना से उनका नाम काट दिया गया और उसकी जगह एक अज्ञात शख्स की मदद की बात लिख दी गयी। डाॅक्टर साहब निश्चिंत हुए। सुबह अखबार में चेयरमैन के लड़के का नाम बदल कर छपा और शीर्षक बना-‘‘ सिंदूर की होली बीच सड़क पर’। किसी ने लिखा-‘तार तार हुई मर्यादा।’ बड़े हृदयविदारक शीर्षक बने। पुलिसवालों ने किसी अज्ञात के नाम पर एफ आई आर दर्ज की। सब काम पूरा हुआ। सब लोग चले गए। सोनपती बहनजी जमीन पर दीवार का सहारा लिए बैठी थीं, जब उनके पड़ोसी आए और उठा कर उन्हें ले जाने लगे। वे चारों लाश के पीछे पीछे न जाने कौन लोगों का सहारा लिए चली जा रही थीं। जब होश में आतीं तो सिर्फ इतना उचारतीं-‘हम जान नहीं पाए।’ फिर वे सिर पटक पटक कर, रो रो कर चार आत्माओं की शान्ति के लिए पाठ करने लगीं……।

एक ही ख़्वाब, जो बार बार देखा गया
बड़ा सुंदर मौसम था। हवा लहरा लहरा कर चल रही थी। आॅधी ऐसे मौसम में आने की संभावना जगाती थी। उसके पीछे पीछे कभी बारिश भी चली आती थी। इसी मौसम में मैं अपनी बहनों के साथ रेलवे स्टेशन की तरफ चली जा रही थी। देखती हॅू कि आगे आगे, न जाने कहाॅ से निकल कर निरूपमा दी चली आई हैं और हमसे दूनी रफ्तार से रेलवे स्टेशन की तरफ जा रही हैं। हम उन्हीं के पीछे ऐसे चलने लगे जैसे उन्हीं के कहे पर जा रहे हों। जबकि उनसे हमारी कोई बात नहीं हो पाई थी। स्टेशन के पास पॅहुच कर निरूपमा दी एक बेंच के पास रूक कर हाॅफने लगीं। वे हमसे तेज चल कर आई थीं। हम उनके पीछे पॅहुचे और उनके पीछे वाली बेंच के पास रूक कर हाॅफने लगे। वे हाॅफते हुए आगे बढ़ीं और स्टेशन पर उस जगह रूक गयीं, जहाॅ लिखा था ‘पीने का पानी’। नल खोलते ही पानी ऐसे गिरने लगा जैसे पहाड़ पर से झरना गिर रहा हो। निरूपमा दी ने अॅजलि बना कर झरने भर जल लिया और पी गयीं। झरने भर जल पी कर वे वापस उसी बेंच पर बैठ गयीं ।तब उनकी नजर हम पर पड़ी। उनकी आॅखों में खुशी की चमक कौंधी। उन्होंने हाथ के इशारे से हमें ‘पीने का पानी’ वाली जगह बताई। हम सब उधर गए और अॅजुरी में झरना भरने लगे। झरने में खेलने लगे। हाथ, मुॅह, पाॅव सब झरना हो गया। झरने भर कर हम लौटे और उसी पीछे वाली बेंच पर बैठ गए। निरूपमा दी एकदम शांत बैठी थीं। उनके पास का झरना शांत था। हमारे पास का चंचल। हम बतियाने को अकुला रहे थे। तभी कुछ और लड़कियाॅ आयीं और निरूपमा दी की बेंच पर बैठ गयीं। वे भी हाॅफ रही थीं। लगता था लम्बा चल कर आई थीं। निरूपमा दी ने उन्हें भी हाथ से इशारा किया कि झरना वहाॅ है। वे भी झरने में भीग आयीं। इसके बाद कुछ और लड़कियाॅ आयीं और हमारी बेंच पर बैठने लगीं। हम खुद ही पाॅच जने थे। बैठने की जगह भर गयी थी। वे अगल बगल में खड़ी हो गयीं। हमें बतियाने में संकोच होने लगा। हम उनसे कभी नहीं मिले थे। लेकिन वे हमारी तरह ही हाॅफ रही थीं। फिर लड़कियों के आने का तांता लग गया। लड़कियाॅ आती जातीं और बेंचों के आस पास खड़ी होती जातीं। हमने अब तक जाना ही नहीं था कि हमारे शहर में इतनी लड़कियाॅ हैं! आज हम सब एक दूसरे को देख कर हैरान थे। इतनी लड़कियाॅ एक साथ बोल दें तो स्टेशन हिल सकता था! लड़कियाॅ कुछ असमंजस में थीं। तब निरूपमा दी ने ही चुप्पी तोड़ी-‘‘ तुम सब कहाॅ थी अब तक?’’
इस पर लड़कियाॅ तरह तरह की बातें बताने लगीं। बातें इतनी ज्यादा थीं कि आपस में गड्डमड्ड हो जाती थीं। अबोले का इतना बोलना अजीब सी रंगत लिए था। तब निरूपमा दी ने सबको सुलझाने की कोशिश में कहा-‘‘ हमारी मंजिल तक कौन सी ट््रेन जाएगी? कोई इनमें से जाएगी भी?’’ इस पर पहले खुसर पुसर, फिर कुछ तेज और अंत में खुल कर बात होने लगी। कहाॅ जाएं? कैसे जाएं? किधर जाएं? की चर्चाएं। जितने मुॅह उतनी बात। इस दुनिया की वह कौन सी जगह थी, जहाॅ सब जाना चाहते थे? किसी ने कहा कि वह अभी बनी ही नहीं है। किसी ने कहा कि मौका आया है, सब लोग आज मिल भी गए हैं तो चलो कोशिश कर के देखें।

एक ट््रेन पीछे के प्लेटफार्म पर खड़ी थी। एक अभी अभी आगे वाले पर आ कर रूकी। उनके चलने की घोषणा हो रही थी। हमारा कुछ तय नहीं हो पा रहा था। उसी समय पीछे से हाथों में लाठियाॅ लिए, शोर मचाते आदमियों का एक रेला रेलवे स्टेशन में घुसता दिखा। निरूपमा दी सारी बातचीत में उदास होती जाती थीं। अचानक उन्होंने सामने से दौड़ कर आते अपने भाई को देखा। भाई ने हाथ के इशारे से बड़ी हड़बड़ी में संकेत किया, जिसका अर्थ था ‘‘जल्दी निकलो!’’ हम अभी भी परेशान थे। भाई ने कहा-‘‘समझते क्यों नहीं? युद्ध के लिए तैयार हो कर आए हो क्या? ’’

हम में से कोई युद्ध के लिए तैयार हो कर नहीं आया था। तब हमें अपनी गलती समझ में आयी।
’ ‘हम एक दूसरे को जानते ही कहाॅ थे?’’ किसी ने चिल्ला कर कहा।
‘‘अब जान गए न!’’ भाई ने भी चिल्ला कर कहा।
‘‘तो अब तो समय नहीं है।’’
‘‘हम ऐसा युद्ध चाहते भी नहीं।’’ किसी ने जोर दे कर कहा।
‘‘समय गवाॅ देने की बात में अभी मत पड़ो।’’ भाई ने सबका झोला उठा कर ट््रेन में चढा़ना शुरू कर दिया। निरूपमा दी अपनी उदासी में से हड़बडा़ कर निकलीं और ‘ट्र्ेन में चढ़ लो’ वाले अंदाज में हाथ से सबको इशारा करती सामने की ट्र्ेन में घुस गयीं। जिसके सामने जो बोगी पड़ी, वह उसी में घुस गया। कुछ इधर के ट्र्ेन में चढ़ गयीं, कुछ उधर की ट्र्ेन में। हम पाॅचों जन घबड़ा कर अलग अलग बोगियों में घुस गए। स्टेशन पर बिखरा हमारा सारा सारा सामान ट््रेन में डाल देने तक ट््रेन चल पड़ी। पीछे की आवाजें नजदीक आने लगीं। भाई स्टेशन पर छूटने लगा। तब निरूपमा दी ने बहुत दुलरा कर कहा-‘‘ चलो, तुम भी।’’ भाई जैसे इसी एक बात को सुन लेना चाहता था। उसने तुरंत हाथ बढ़ा दिया। निरूपमा दी ने थोड़ा सा झुक कर उसका हाथ पकड़ कर उपर ट््रेन में खींच लिया।

नजदीक आती आवाजें पीछे छूटने लगीं। तभी मुझे लगा कि किसी ने ट्र्ेन खींच दी है। ‘कौन?कौन?किसने? किसने?’ के स्वर गूंजने लगे। निरूपमा दी और उनके भाई ने एक साथ चिल्ला कर कहा-‘‘ सावधान! भेदिया, भेदिया !’’

अभी अभी हम इतने सारे लोग थे और अभी अभी छिटक कर अकेले हो गए थे। यही ख्वाब बार बार आता था कि हम किसी एक जगह पर मिलने वाले हैं।
——————————-

संपर्क
55, कादम्बरी अपार्टमेंट

सेक्टर -9 रोहिणी, दिल्ली-85
मोबाइल- 9911378341
e mail – alpana.mishra@yahoo.co.in

   
     

अल्पना मिश्र

हिन्दी के नए कहानीकारों में अल्पना मिश्रा ने अपने कहन के ढंग, छोटी छोटी चीजें जिस पर आम तौर पर हमारा ध्यान नहीं जाता के सूक्ष्म वर्णन और किस्सागोई के द्वारा हमारा ध्यान सहज ही आकृष्ट किया है. अल्पना को कहानी लिखने के लिए अतीत की खोह में नहीं जाना पडता बल्कि वे हमारे समय की घटनाओं को ही लेकर इस अंदाज में कहानी की बुनावट करती हैं कि हमें यह एहसास ही नहीं होता कि हम कहानी के बीच से गुजर रहे हैं या हकीकत से. अल्पना के यहाँ यह एहसास हकीकत में बदल जाता है. ऐसा लगता है जैसे हम स्वयं ही पात्र हों कहानी के. या जैसे बिलकुल आस-पास ही कोई घटना घटित हो रही हो. बीच-बीच में कुछ पंक्तियाँ हमें उनके कवि मन का दर्शन करातीं हैं. सूक्तियों सी लाईनें आती हैं. लेकिन कुछ भी अटपटा नहीं लगता. ‘उनकी व्यस्तता’ एक ऐसी ही कहानी है जिसमें लडकी के जन्म को लेकर तमाम आग्रह पालने वाला पिता पहले तो अपनी बेटी के साहस पर मुग्ध होता है. उसे बढ़ावा देता है. फिर शादी के बाद उसके ‘एडजस्ट’ न कर पाने पर मानसिक रूप से परेशान होता है. यह हमारा सामाजिक चेहरा है- विकृत सामाजिक चेहरा, जिससे शायद ही कोई इनकार कर सके. पति के घर में तमाम उत्पीडनों को सहते हुए उफ़ तक न करने की सलाह देते हम स्वयं नहीं थकते. क्योंकि आखिरकार पति का घर ही एक लडकी का अंतिम उद्देश्य होता है. लेकिन क्या यही सच है?

उनकी व्यस्तता

वे फिर बैठे ही रह गए। सुबह तक। वे यानी सुदामा प्रसाद। सुदामा प्रसाद यानी सरकारी कर्मचारी। वे ऐसा ही कहते हैं अपने बारे में। यह नहीं कहते कि सरकारी कर्मचारी में कौन सा, किस तरह का सरकारी कर्मचारी? कौन सा ओहदा, कौन सा दफ्तर वगैरह। पूछने वाले को इसके लिए लाख बार कुरेदना पड़ेगा। तब जाकर वे किसी बात के बीच में कह देंगे कि उन्हें रोज रोज डांगरी पहन कर जाना बड़ा खराब लगता है। खराब मतलब फैशन वाला खराब नहीं, खराब से उनका मतलब असुविधा से है और इसे वे समझा कर दम लेते हैं कि असुविधा क्यों और किस तरह की है? फिर अपनी परेशान करने वाली अतिसार की बीमारी के बारे में बताने लगते हैं। कितना मुश्किल है कि आप हर जगह ‘फिरने’ की चिंता में रहें और दिन में छः सात बार डांगरी के भीतर से निकल कर दफ्तर के ट्वायलेट के सामने खड़े रहें। अब तो वे अपने साथ पानी की बोतल भी लिए रहते हैं। पीने के लिए नहीं भई, समझा करिए! इसी बीच में वे डांगरी और ग्रीस के अन्योन्याश्रित संबंध को भी बताते हैं और बताते बताते यह भी अफसोस जताते हैं कि डांगरी पहनने के साथ इंजीनियर साहब का बुलावा आता रहता है और यह भी कि इतना सीनियर हो जाने पर भी इंजीनियर साहब उन्हें सीनियर होने का लाभ नहीं लेने देते। इतने से अगर आप कुछ अंदाज लगा सकते हों तो लगा लीजिए। आगे वे फिर कभी कुछ बतायेंगे तो उसको भी इसी में मिला कर एक मुकम्मल तस्वीर बनाई जा सकती है, वरना तस्वीर अधूरी।




इसी दिन जब वे, यानी सुदामा प्रसाद, दफ्तर से थके हुए, देर शाम को घर में घुसे थे, तब पत्नी टी वी पर कोई ‘सास बहू’ जैसा सीरियल देख रही थीं। उन्हें अच्छा नहीं लगा। वे इतना ओवर टाइम कर के आए हैं और यहॉ मजे किए जा रहे हैं! यही सब देख कर औरतों का दिमाग खराब हो गया है। मन ही मन बोले -‘मूढ़मती, भइ मूढ़मती।’ लेकिन जोर से बोले तो गुस्से में बोले -‘ न्यूज लगाओ!’’




पत्नी हड़बड़ा कर उठीं और रिमोट वहीं ‘धप्प’ से रख कर चली गयीं। अचानक ही उन्हें लगा कि पत्नी को रसाघात हुआ है। ये कैसी बात उनके दिमाग में आयी? उन्हें खुद पर हॅसी आयी तो उन्होंने धीरे से कह दिया – ‘‘बाद में देख लेना। दसों बार तो दुहराता है।’’ उनकी इस उदारता को पत्नी ने नहीं सुना। वे रसोई में थीं। थोड़ी देर में वे झपक कर आयीं और चाय रख कर चली गयीं।


खबर में दिल्ली के किसी घर का दरवाजा बार बार दिखाया जा रहा था। खबर थी कि इस घर के लोगों ने अपनी बहू को एक कमरे में सात साल तक कैद कर के रखा। दरवाजे के बाद बहू को दिखाया जाने लगा। बहू, जो कंकाल भर रह गयी थी और बेहोशी की सी हालत में थी। उसके परिजन बता रहे थे कि ससुराल वालों से बार बार पूछते रहने पर भी उन्हें कुछ पता नहीं चल पाया। बात बहुत रहस्यमय तरीके से खुली थी, वरना कोई जान भी नहीं पाता कि इस घर में, इस दरवाजे के भीतर, सात साल से एक औरत ने सुबह का सूरज नहीं देखा है। उसे खिड़की के रास्ते कभी कभी रोटी और पानी फेंक कर दिया गया था और उसके ससुराल वाले उसकी सहज मौत की प्रतीक्षा कर रहे थे। सुनिए, दरिंदगी की दिल दहला देने वाली दास्तान…..





न्यूज चैनल पर कोई खूबसूरत रिपोर्टर पूरे जोश में बता रहा था।
 ‘‘इतने साल कहॉ रहे उसके मॉ बाप? …..’’ रिपोर्टर बीच बीच में कुछ सवाल भी उठाता और फिर भीड़ में से किसी किसी का इंटरव्यू लेने लगता।


वे विचलित हो उठे? ऐसा कैसे हो सकता है कि उसके मायके वालों को इतने साल पता न चले? ये कैसी व्यवस्था है हमारे समाज की, कि लड़की को ससुराल में छोड़ कर निश्चिंत हो लो?


दिल्ली, गुड़गॉव, नोएडा, बरेली…..बहुत सारे शहरों के नाम उनके दिमाग में आए। उन्हें सारे शहर एक जैसे लगने लगे। सबमें, कितने कितने घरों में, दिखाया जाता ऐसा ही एक दरवाजा था, जिसके पीछे कंकाल बन गयी, मौत को मात देती औरतें बेहोशी की हालत में कैद थीं।


‘‘अरे, सुनती हो!’’ वे बुलाने लगे।


पर जिसे बुला रहे थे, उसने झल्ला कर कहा- ‘‘बस, खाना लगा रही हूँ । चाय तो पीये हैं अभी अभी।’’


उन्हें समझ नहीं आया कि जो वे कहना बताना चाहते हैं, उसे अपने ही घर में कोई समझता क्यों नहीं?


दफ्तर की बात तो वे वैसे भी घर में नहीं बताते।


घर और दफ्तर को अलग अलग रखना चाहिए, ऐसा वे मानते हैं। इसीलिए पत्नी उनके ओवरसीयर या इंजीनियर साहब के बारे में नहीं जानतीं। न ही उनके डांगरी को नापसंद करने के सही सही कारण को। उनका काम बस उस डांगरी को धोते रहना था, ग्रीस छुड़ाते रहना था। बिना बोले, बिना पूछे।


तो इसी रात, वे अच्छी गहरी नींद में सो रहे थे लेकिन तीसरे पहर ही उनकी नींद उचट गयी थी। उसके बाद से लाख लाख कोशिश कर के भी ऑख नहीं लगी। न जाने कहॉ कहॉ से चिंताएं आ आ कर इकट्ठी हो गयीं। इन्हीं चिंताओं के बीच शरारती बिटिया शैलजा की याद भी चली आई। करीब पॉच साल हो गए उसकी शादी को भी। अभी तक एडजस्ट नहीं हो पायी है। ऐसा लोग कहते हैं। वे मान नहीं पाते। कितने आत्मविश्वास वाली लड़की है! सभी लड़कियॉ एडजस्ट करती हैं तो भला वह क्यों नहीं कर लेगी? शैलजा सामने होती तो कितने गद्गद हो जाते थे वे। हृष्ट पुष्ट खूब। कद काठी भी अच्छी। इसीलिए उसका नाम भी रखा था उन्होंने शैलजा। पर्वत पुत्री की तरह बहादुर। उसे देख देख कर उन्हें लगता कि इसे लड़का होना था। यह बात वे जाने कितनी बार पत्नी को कह- जता चुके थे। लड़का ही चाहिए था उन्हें, पर ईश्वर की कृपा होते होते रह गयी थी। ईश्वर की कृपा होते होते रह जाने के माने है कि लड़की, जो आ गयी थी, बस, लड़का बनते बनते रह गयी थी। जो ईश्वर जरा सा चूका न होता तो लड़का ही होना था उसे। अब लीजिए, कोई गुण तो लड़कियों जैसा हो उसमें! न लजाना, न डरना, न कोमलता, न गहने श्रृंगार का चाव, न कढ़ाई, बुनाई से कोई मतलब। खाना बनाना सीखने में कोई दिलचस्पी नहीं। मॉ का हाथ बटाने के नाम से ही दूर भागना। अब यही देखिए कि जब उसकी उम्र की लड़कियॉ तरह तरह के पकवान बनाना सीख रही थीं, तरह तरह के फैशन, मेकअप, कपड़ों, बालों की स्टाइल जैसी बातों में उलझी थीं, वह सबका मजाक उड़ाती मैदान में क्रिकेट मैच खेला करती थी। मैच की दीवानगी ऐसी कि नाम सुना नहीं कि रात दिन के लिए टी वी से चिपक गयीं। अगर आस पड़ोस ने टोक टोक कर और उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिल कर जोर दबाव डाल कर उसका मैदान में जाना बंद न कराया होता तो शायद आज भी वह क्रिकेट खेल रही होती। पर खैर, इसका उन्हें जरा भी अफसोस नहीं है। अब बड़ी हो गयी थी। ठीक नहीं लगता था। यही, मैदान में दौड़ दौड़ कर, उछल कूद कर, हल्ला गुल्ला करते हुए खेलना।





बचपन में खेलती थी तो वे खुश होते थे। बचपन में खेलती थी तो वे ईश्वर के जरा सा चूक जाने पर मुस्करा कर रह जाते थे। एक बार की बात है कि किसी बच्चे ने उसकी छुटकी बहन को झगड़े के बीच ‘मोटी, गधी’ कह दिया। छुटकी इससे आहत हो कर रोते हुए सरकारी स्कूल के उस मैदान में पॅहुची, जहॉ शैलजा क्रिकेट खेल रही थी। छुटकी ने रो रो कर अपना दुख बयां किया। बस, शैलजा ने वहीं क्रिकेट का बल्ला उठाया और दुश्मन को मार गिराने का संकल्प ले कर निकल पड़ी। छुटकी इससे दहशत खा गयी। पर बाजी उसके हाथ से निकल चुकी थी। वह पीछे पीछे रोते हुए चलती जाती। तभी रास्ते में सुदामा प्रसाद आ टकराये। बल्ला उठाए, वीर मुद्रा में चलती बेटी को देख कर उनके पसीने छूट गए। उन्होंने दोनों से पहले घर चलने के कई कई बहाने बनाए।


‘‘नहीं पापा। मेरे होते ये अन्याय नहीं होगा।’’


बल्ला हवा में लहरा कर, फिल्मों की किसी जांबाज नायिका की तरह शैलजा ने कहा।


‘‘ठीक है। अभी तो घर चल। मॉ बीमार है। फिर मैं भी तेरे साथ चलूंगा। चल, छुटकी, तू भी चल।’’शैलजा को झुकाना मुश्किल देख उन्होंने मॉ की बीमारी का अचूक बहाना बनाया। ‘मॉ’ शब्द ने शैलजा को फिलहाल निर्णय टालने पर मजबूर किया। छुटकी को तो जैसे रोने और दहशत से निकलने का मौका मिल गया।


‘‘फिर आप चलेंगे न।’’ शैलजा ने पिता से तसल्ली करवायी।


‘‘हॉ, हॉ, मैं कह रहा हूँ न।’’ पिता ने रूखाई से शैलजा का हाथ पकड़ा और घर की तरफ चल पड़े।


‘‘अगर आप नहीं चले तो समझ लीजिए कितना बुरा होगा।’’ शैलजा ने हुंकार भर कर कहा।


वे मन ही मन मुस्कराए।

तब वे खुश हुए थे और थोड़ा निश्चिंत भी। उन्होंने ईश्वर को चूक जाने के बावजूद भी धन्यवाद दिया था। वे उसकी हर ऐसी, माने लड़कों जैसी हरकत को बढ़ावा देते रहे थे। हवाले से दुनिया। उनकी पत्नी की यह शिकायत उन्हें अब समझ में आ रही है। तब तो वे इस खुशी से फूले न समाते थे कि उनकी लड़की किसी लड़के से कम नहीं। लेकिन दुनिया को नहीं भा रहा था। पास पड़ोस को शिकायत थी। पत्नी को चिंता घेरे रहती। तो बात गड़बड़ तो कुछ जरूर थी। वे सोचते पर पकड़ नहीं पाते। अब पॉच साल से लड़की जो ससुराल में परेशान है, कितना समझायें उसे? बेटा, ढंग से रहना सीखो! सोचा था सीख जायेगी। शादी के बाद सब लड़कियॉ कितनी सयानी हो जाती हैं। यह सोचते ही उन्हें अपनी ही बात पर हैरत हुई ! ज्यादातर लड़के शादी के बाद लम्बे समय तक सयाने नहीं हो पाते तो अगर एक लड़की सयानी नहीं हो पायी तो क्या बुरा हो गया? लेकिन वे कुछ और महसूस कर रहे थे। कुछ बुरा बुरा।

जब वे दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहे थे तो अचानक ही उन्हें यह ख्याल आया कि आज क्यों न चने की मीठी दाल बनाई जाए? उन्होंने सीधे जा कर पत्नी से कहा कि ‘ वे आज चने की मीठी दाल बनायेंगे। मसाला वसाला तैयार कर लें।’’ अरसे बाद वे एक बार फिर अपनी पाक कला का प्रदर्शन करना चाहते थे। पत्नी उनके उत्साह से उत्साहित नहीं हुईं। बर्तन मॉज रही थीं। मॉजते मॉजते सामान्य ढंग से बोलीं- ‘‘ कुछ चीजों के लिए थोड़ा पहले से सोचना पड़ता है।’’


वे हतोत्साहित हो गए। इतने पहले से वे कैसे सोच सकते थे कि उन्हें आज चने की दाल बनानी है या लड़की की शादी के बाद ऐसा होगा?


सोच तो सकते थे!


वे चने की दाल के बारे में सोचना भूलने के लिए कुछ और करने लगे। फिर अचानक ही पत्नी के पास आए और पूछने लगे-‘‘ हमारी बेटियॉ झगड़ालू हैं?’’


पत्नी ने मुंह बगल कर के अपने ब्लाउज में पोंछा। पसीना आ रहा था लेकिन कहा कुछ नहीं तो वे खुद ही धीरे से बोले-‘‘ लोग शायद ऐसा कहते हैं।’’


‘‘कौन लोग?’’


पत्नी ने भी धीरे से ही कहा।


इस पर वे भी कुछ नहीं बोले। अपने को इधर उधर के फालतू कामों में उलझाए रहे और आखिरकार थक गए। थक गए तो फिर तैयार हो कर दफ्तर चले गए।


वे एक बार फिर खुद से चौंक गए। एक ऐसा दृश्य उनके साने से गुजरा कि उनकी दफ्तरी रफ्तार थम गयी। आजकल वे ज्यादा सोचने लगे थे। बल्कि कहना चाहिए कि शैलजा की शादी के बाद, बेटी के चले जाने जैसी भावुकता के साथ उनके इस तरह सोचने में वृद्धि हो गयी थी।


उनकी स्कूटर की बगल से एक मोटर साइकिल निकली, जिस पर दो लड़के बैठे थे। हाँलाकि दोनों लड़कों की उम्र का वे एकदम सही अंदाजा नहीं लगा सकते थे, फिर भी उनके अनुमान से एक तेरह चौदह साल का लगता था और बिना हेलमेट के चला रहा था। जबकि इन दिनों दुपहिया वाहन वालों के लिए हेलमेट पहनना जरूरी हो गया था। उसके पीछे मुश्किल से आठ साल का लगने वाला नाजुक और भावुक चेहरे वाला लड़का बैठा था। ठीक उनके दूसरे बगल से दूसरी मोटरसाइकिल निकली, जिस पर तीन ऐसे लड़के बैठे थे, जिनकी उम्र के बारे में वे सिर्फ इतना कह सकते थे कि वे जवान थे। बीच की मॉग काढ़ कर कंधे तक लम्बे बाल लटकाए हुए थे। आगे वाले ने काला चश्मा पहना था, बाकियों को वे ध्यान से नहीं देख पाए। बल्कि यह सब भी वे अंदाजे से कह रहे हैं क्योंकि बहुत विस्तार से मुआयना करने का उन्हें बिल्कुल समय नहीं मिला। यहॉ तक कि हड़बड़ाहट में वे दोनों में से किसी भी मोटरसाइकिल की नम्बर प्लेट नहीं देख पाये। असल में ऐसा नहीं भी होता, पर वे दोनों छोटे लड़कों को बैठा देख, थोड़ी देर को ईश्वर की जरा सी चूक पर दुखी हुए थे और उन्हें लगा था कि लड़का हुआ होता तो कुछ दुख दूर हुए होते। ऐसे ही मोटरसाइकिल चलाता। न सही मोटरसाइकिल चलाता, पर इस तरह से, जैसे कि वे आज व्यथित हो रहे हैं, ऐसा तो न होता। पर इसी क्षण उन्हें यह विचार भी कौंधा कि अगर शैलजा को दिया जाता तो शायद इस लड़के से, जो डगमगाते हुए मोटरसाइकिल चला रहा था, अधिक बेहतर तरीके से चला लेती, बल्कि शायद मोटरसाइकिल को पूरा का पूरा अपने वश में कर लेती। बस, वे भी जरा सा चूके और दूसरी तरफ के जवान लड़कों की मोटरसाइकिल को बचाने में ऐसे लगे कि मोटरसाइकिल उनके स्कूटर के अगले चक्के को छूती हुई निकल गयी। वे सामने देखते हुए गिरे ओर दोनों मोटरसाइकिलों की नम्बर प्लेट नहीं देख पाए। सामने जा कर दोनों मोटरसाइकिल इतने पास हो गयीं थी कि उनका दिल अपनी चोट से ज्यादा आगे की घटना के लिए ‘धक्’ से कर के रह गया। छोटे लड़के की मोटरसाइकिल के पिछले चक्के से बड़े लड़कों की मोटरसाइकिल का अगला चक्का हल्का सा छू गया। छोटा लड़का डर गया। वह गिरती हुई अपनी मोटरसाइकिल पर से कूद सा पड़ा। पीछे वाला लड़का भी उतर गया। मोटरसाइकिल संभाल ली गयी।


‘‘अबे, रूक बे ! समझ क्या रखा है?’’


बड़े लड़के गाली दे कर चिल्लाये। छोटा लड़का एक क्षण को सहम कर सचमुच रूक गया। लेकिन तुरन्त ही उसे अपनी गलती का अहसास हुआ क्योंकि दूसरे लड़के उस पर झपटने जा रहे थे। वे अपने भीतर समाया हथियार जैसा कुछ निकाल रहे थे। मोटरसाइकिल चूंकि स्टार्ट थी, इसलिए छोटा लड़का, अपने पीछे उससे भी छोटे लड़के को बैठा कर भागा। तेज। दूसरी मोटरसाइकिल के लड़के भी अपना हाथ और हथियार लहराते उसके पीछे भागे। तेज।


कहॉ तक गए होंगे लड़के?


वे खुद ही उठ गए। अपनी धूल झाड़ते। गुजर चुकी दोनों माटरसाइकिल में से किसी का भी ध्यान उनकी तरफ नही। था। अलबत्ता कोई दूसरा स्कूटर उनके पास आ कर रूकते रूकते चला गया। खुद ही उन्होंने अपनी स्कूटर उठायी और चल पड़े।


वे इन चीजों को डायरी में दर्ज करना चाहते थे। रोजमर्रा के ये दृश्य। नहीं कर पाते थे। रात तक वे इतना थक चुके होते थे कि बस सोच सकते थे। वह भी कभी कभी और थोड़ी देर। अधिक सोचने से पूरी नींद उखड़ जाती थी और उनके जैसे आदमी के लिए यह बिल्कुल ठीक नहीं था। छोटी सी खटाउ नौकरी थी। उस पर से अतिसार की बीमारी थी। सुबह उठते ही आपाधापी में शामिल होना होता था। सुबह उठते ही कड़वी आयुर्वेद की दवाई पीनी पड़ती थी। अजीबोगरीब चूरन चाटना पड़ता था, जिसका स्वाद दिन भर बना रहता। उपर से इतना सीनियर हो जाने का कोई लाभ उन्हें इंजीनियर साहब नहीं लेने देते थे। जब देखो, बुला कर कोई काम सौंप दिया, वह भी किस चतुराई से।


‘‘ आप सबसे ज्यादा अनुभवी हैं। ये काम आपकी निगरानी में होगा।’’ बस हो गया बंटाधार।


या फिर मुस्करा कर कहते – ‘‘ अरे, सुदामा प्रसाद, मुझे चिंता से मुक्त करिए।’’ लो, हो गया बंटाधार। उन्हें लगना पड़ता। उनके अनुभव की, उनके काम की गुणवत्ता का सवाल हो जाता। उनकी बीमारी के बारे में कौन सुने? इस तरह बाकियों की तरह वे कभी खाली बैठ कर ताश खेल लेने या देर से दफ्तर पॅहुचने जैसे सीनियर होने के लाभ से वंचित रह जाते।


दफ्तर से वे लौटे। रोज की तरह। घर के बाहरी बरामदे में चढ़ते ही उन्हें, उनसे पहले अंदर जाती शैलजा की सहेली रूबीना दिखी। वे अपने ही घर में रूबीना के पीछे पीछे घुसे। रूबीना ने अचानक पलट कर उन्हें‘नमस्ते’ किया और पत्नी समेत बाकी लड़कियो से कुछ कहने पूछने लगी। उन्हें लगा कि उनके घर में ‘रूबीना आ गयी’ ऐसी कुछ खुशी भर गयी है। उन्होंने ‘नमस्ते’ के जवाब मे हल्का सा सिर हिलाया था, जिसे किसी ने नहीं देखा। पत्नी उन्हें देखते ही रसोई की तरफ चली गयीं। वे कमरे में। रूबीना को देखते ही उन्हें शैलजा की याद आयी थी। कब से उससे मिलने नहीं जा पाए थे। शैलजा से छोटी वाली की शादी तलाशने में सारी छुट्टियॉ स्वाहा हो रही थीं। एक को निपटा दिया, अब दूसरी के लिए लगे थे। वे डटे हुए थे। हाँलाकि बात कुछ बन नहीं पा रही थी। उधर शैलजा भी मरने जीने की हालत में ससुराल में पड़ी थी और वे थे कि उससे मिल कर, देख कर, समझा कर और लिवा लाने की कोशिश कर के चले आते थे। ससुराल वाले उसे भेजने को राजी नहीं होते थे। पर असल में वे खुद ही ऐसे वैसे झगड़े टंटे से बच रहे थे। बचना उन्हें जरूरी लग रहा था। जब तक बाकी बेटियों को निपटा नहीं देते। तब तक। केवल तभी तक।


वे चाय आने पर चौंके। एक मन हुआ कि पत्नी को रोक कर सब कह दें। पर चुप रह गए। एक दूसरे से बतियाने की आदत ही नहीं थी। उल्टा उनके मन में आया कि पत्नी रूबीना से बतियाने को अकुला रही होंगी, जैसा कि उन्होंने औरतों के स्वभाव के बारे में सुना था। किससे सुना था? पता नहीं! ठीक ठीक नहीं बता सकते।


चाय पी कर निकलने पर वे फिर चौंक उठे, जब उन्होंने पत्नी को रसोई में एक छोटे से स्टूल पर बैठ कर कुछ सोचते पाया। रूबीना शादी के बाद आयी है। पड़ोस की लड़की है। शैलजा की सहेली है। उसका हाल चाल लेना चाहिए था कि यहॉ बैठ कर……क्या वे भी शैलजा के बारे में सोच रही हैं?

 रूबीना भीतर के बारामदे में बैठी उनकी तीनों लड़कियों को कुछ कहानियॉ सुना रही है। जाहिर है कि ससुराल की तरफ की होंगी। उनके कान में ‘मेरी सास’, ‘मेरा देवर’ जैसे कुछ शब्द गिरे। वे सतर्क हुए। अचानक मुड़ कर रूबीना के पास पॅहुचे और अप्रत्याशित पूछ पड़े- ‘‘ वहॉ सब ठीक तो है?’’


हाँलाकि यह उन्हें सबसे पहले पूछना था। तब, जब वे दरवाजे पर ही रूबीना से मिले थे। उन्हें थोड़ी शर्मिंदगी भी लगी।


‘‘जी।’’ रूबीना ने अपनी सारी बात रोक दी।


‘‘अरे, करो करो तुम लोग बात।’’


लेकिन उनके कहने से क्या? बात रूकी ही रही। उन्हें अटपटा लगने लगा। बच्चे अकबकाये से कभी सिर झुका लेते तो कभी उनकी तरफ देखते। अंततः वे वहॉ से हट गए।


रूबीना चटक हरे रंग का चमकदार सलवार कुर्ता पहने थी। झालरों वाला दुपट्टा बार बार सिर पर खींच लेती थी। उसने हॅस कर बताया कि ऐसा करने की अब उसकी आदत पड़ गयी है।

वे अंदर चले आए थे। उनसे बैठते नहीं बन रहा था। देखो तो, रूबीना की शादी अब हुयी। शैलजा की शादी उन्होंने कितनी जल्दी कर दी। बी ए की पढ़ाई छुड़ा कर। हाँलाकि वे ऐसा नहीं करना चाहते थे, पर रिश्ता अच्छा मिल गया था। वे मजबूर हो गए थे। आखिर वे ये सब किस अज्ञात शक्ति के दबाव में किए जा रहे थे?




तब तो, अंधेरी शाम में स्कूल के बैडमिंटन हॉल में बैडमिंटन प्रैक्टिस करने की इजाजत दी थी उन्होंने शैलजा को। पत्नी के मना करने पर भी खुद पॅहुचा कर आते थे। तब शैलजा द्वारा बैडमिंटन कोच को बद्तमीज़ी के जवाब में थप्पड़ मारने पर वही थे कि खुश हुए थे। अब वही, वर्षों से कह रहे हैं कि सब सह लो। अन्याय, अत्याचार करने पर किसे मारो और किसे न मारो, इतनी बारीक रेखा है कि आदमी कैसे अलगाए? इतनी मोटी सी बात कि तुमसे जो बद्तमीजी करे, उसे कस कर, करारा जवाब दो, कैसे कहें? यही इतना, पॉच साल से चाह कर भी नहीं कह पा रहे थे। या कह कह कर बदल रहे थे।


अचानक उन्होंने अपने को रूबीना के सामने वही सवाल करते पाया – ‘‘वहॉ सब ठीक तो है?’’


इस बार रूबीना ने सिर हिला कर अपनी लज्जा जाहिर की और बेटियों ने मुंह के हाव भाव से अपना गुस्सा। इससे वे आहत हुए।


‘‘करो, करो, तुम लोग बात।’’ उन्होंने फिर कहा।


उनके कहने पर भी कोई बात शुरू नहीं हो सकी। वे लौट पड़े। सचमुच शर्मिंदा।


पिछले पॉच सालों में वे अपनी बाकी लड़कियों के प्रति अगाध दया भाव से भर आए थे और दुनिया भर की लड़कियों के लिए उनमें अचानक चिंता भाव पैदा हो गया था। अतः वे रूबीना के लिए अनजाने ही चिंतित हो गए। उन्हें अखबार की तमाम तमाम खबरें याद आयीं। भारतीय विवाह अधिनियम, क्रिमिनल लॉ, हिंदू और मुस्लिम पर्सनल लॉ…… जैसी तमाम बातें भी दिमाग में घूम गयीं, जिनके बारे में उन्हें मामूली जानकारी तक नहीं थी। इसी क्रम में उन्हें इमराना बलात्कार कांड की याद आयी। अपने ही ससुर के बलात्कार की शिकार और इस बात की शिकायत पर नगर भर ढिंढोरा। हुआ क्या? कुछ पता नहीं। सारी कहानी पूरी कहॉ बताते हैं अखबार वाले!




कम से कम किसी अखबार या किसी न्यूज चैनल की किसी खबर से वे इससे पहले तक इस तरह विचलित नहीं हुए थे। ज्यादा से ज्यादा ‘दुनिया बहुत बुरी हो गयी है’ या ‘रसातल में जा रहा है संसार’ …… जैसा कुछ कह कर रह जाते थे।




वे अचानक दुनिया बदलना चाहने लगे थे। दरअसल यह अचानक नहीं था। वे बहुत सालों से ऐसा चाहते थे। लेकिन तब वे अपनी इस चाहने वाली बात पर गौर करना जरूरी नहीं समझते थे। अब लगता था कि ऐसा नहीं हुआ तो कैसे चलेगा? अब तो निहायत छोटी और जिन्हें वे रोजमर्रा की बात कहते थे, ने उन्हें भीतर तक बेचैन कर दिया था।




एक बार शैलजा की शादी के कुछ महीने बाद जब वे उसे कुछ दिनों के लिए ले कर आए थे, उसने तभी सारे परिवार के सामने अन्याय के विरूद्ध अपनी जंग की कहानी सुनाई थी। तब उन्हें हल्की सी उम्मीद हुई थी कि शैलजा सब संभाल ले जायेगी। बल्कि ससुराल में खाना बंद किए जाने के खिलाफ शैलजा ने जब रात में उठ कर रसोई के सारे बर्तन पटके तो यह सुन कर वे हल्के से खुश भी हुए थे। यह उम्मीद और खुशी उनके मन में थी। इसे उन्होंने जाहिर नहीं किया। पत्नी और सारे परिवार ने मिलकर अलबत्ता उसे डराया था कि सह लेना चाहिए था, पलट कर ऐसा नहीं करना चाहिए और यह भी कि शैलजा को अब बचपना छोड़ कर एक समझदार औरत की तरह व्यवहार करना चाहिए। इतना सब नहीं सहन करेगी तो परिवार कैसे चलेगा? बहनें हैं आगे शादी को। भाग कर, कहीं से कहीं शरण ले लेना कोई उपाय नहीं है। शरण वाली बात इसलिए विशेष रूप से समझाई गयी थी कि शैलजा ने यह कह दिया था कि ‘ वह ऐसे स्वर्ग में नहीं जाना चाहती’। तो उसे दी जाने वाली ये दलीलें इतनी भावनात्मकता के साथ रखी गयी थीं कि शैलजा हिल गयी और रोने लगी। पछताने लगी कि बर्तन पटक कर उसने भयंकर भूल की थी और अब उसे ससुराल में इसके लिए कभी माफी नहीं मिलेगी। वे चुप थे। इस तरह सहमत थे। इस तरह पति पत्नी, बहनों और पड़ोसियों ने उसे और अधिक विनम्र बना कर वापस भेजा था।




अचानक एक बार फिर उन्होंने अपने को रूबीना के सामने कुछ पूछते पाया। अब पत्नी उठ कर उन तक चली आयीं। पर वे पूछते रहे।


‘‘क्या शैलजा झगड़ालू है?’’


‘‘नहीं तो।’’


वे पत्नी की तरफ देखने लगे।


‘‘तुम तो कहती थी। झगड़ती हैं सब, कहीं रह न पायेंगी।’’


‘‘मैंने ये कब कहा? क्या करूं सहना सिखाना पड़ता है।’’ पत्नी ने कुछ नाराजगी ओर गुस्से से कहा।


क्या सहना?


अन्याय, अत्याचार…..?


वे देर तक पत्नी को नहीं देख सके। लौट पड़े। और बेचैन। इस सबके बीच वे भूल ही गए कि उनकी एक बॉह में हल्का सा दर्द है और स्कूटर से कुछ देर पहले ही वे गिर कर बचे हैं।


‘‘बस, बहुत हुआ।’’ उन्होंने अपने आप से कहा और पत्नी को आवाज लगा दी।


पत्नी के आते ही वे कहना चाहते थे कि ‘ बस, बहुत हुआ’ जैसा कि उन्होंने बस, चंद मिनट पहले ही सोचा था। इसके आगे वे यह भी कहना चाहते थे कि वे बस आज ही शैलजा को लेने निकल जायेंगे। उनका बैग लगा दें। बस, आज ही। कोई भी बस पकड़ लेंगे। लेकिन पत्नी के आते ही वे कुछ और कहने लगे। जैसे – ‘‘देखो, सबकी कैसी कैसी किस्मत होती है। लड़कियॉ भी अपना भाग्य खुद ले कर आती हैं। रूबीना को देखो, इतनी देर में शादी हुई और खुशी से…….’’




‘‘भाग्य क्या होता है? सोचने समझने की जरूरत होती है।’’ पत्नी ने बहुत धीरे से कहा। वे अवाक् रह गए। पत्नी अपना एक विचार भी रखती थीं और उनकी बात के एकदम उलट भी कह सकती थीं!


वे हड़बड़ा कर बोले-‘‘ भाग्य तो तुम्हें मानना ही होगा शैलजा की अम्मां। ऐसा सोचती थीं तो पहले क्यों नहीं बोली ?’’


‘‘जब जब बोली, आप व्यस्त रहे।’’


क्या वे सचमुच व्यस्त थे? इतने सालों से! पत्नी पर उनका ध्यान ही नहीं गया! बातचीत का कोई मौका ही नहीं आया? ये कैसी दूरी रह गयी उनके रिश्ते में? कैसी दुनिया में रह रहे हैं वे लोग? कैसे चलाए जा रहे हैं? क्यों चलाए जा रहे हैं? बदलना होगा यह सब…..




इसी बीच, जब वे विचारों के तेज प्रवाह में थे, उनसे मिलने गुप्ता जी आ गए। गुप्ता जी उनके पुराने परिचित थे। उनके आने की बात सुनते ही वे गुप्ता जी की तरफ दौड़े। इससे पहले कि वे अपनी आज की मनःस्थिति और निर्णय गुप्ता जी को सुनाते, गुप्ता जी बोल पड़े- ‘‘जल्दी में हूँ सुदामा। सब काम छोड़ छाड़ कर आया हूँ समझो। एक ठो बढ़िया रिश्ता मिल रहा है। चलो, देख आओ। लड़का नौकरी वाला है। कब से घर आया था लेकिन हमें ही देर से पता चला। अब तो उसके जाने का बखत आ गया। चलो, तैयार हो कर आओ। मौका हाथ से न निकल जाए। समझो कि वहॉ अपना दबाव भी बन सकता है। ऑटो रिक्शा रूकवाए हुए हैं।…….’’




वे कृतज्ञ हो उठे। अंदर आ कर जल्दी जल्दी पैंट शर्ट पहन कर तैयार हुए। झोले में धोती गमछा रखा और चलते चलते अजीब सी आवाज में पत्नी से कहने लगे-‘‘कल किसी से दफ्तर में खबर करवा देना। अब गुप्ता जी समय निकाल कर आए हैं तो हो आते हैं। उन्हीं के साथ लगे हाथ आगे जा कर दूसरा वाला रिश्ता भी देख आएंगे। गुप्ता जी बातचीत में निपुण आदमी हैं। संभाल लेंगे।’’




झोला उठा कर चलते हुए वे एक पल को ठहरे। एक पल को ही उन्हें लगा कि पत्नी कुछ कहना चाह रही थीं, पर अगले ही क्षण वे गुप्ता जी के साथ ऑटो रिक्शा में बैठ गए।


ठीक इसी समय न्यूज ब्रेक हो गया। ब्रेकिंग न्यूज के सामने पत्नी खड़ी रह गयीं। –




‘एक लड़की दिल्ली की सड़कों पर सिर्फ पैंटी और ब्रा में भागी जा रही थी। ससुराल से छूटी लड़की पुलिस थाना खोज रही थी। उसे पकड़ लिया गया है। पूछे जाने पर लड़की ने ससुराल के अत्याचार की भयानक कहानी सुनायी है।’


इसके बाद रिपोर्टर ने और जोश में कहना शुरू किया-‘‘ देखिए, भारतीय सभ्यता, संस्कृति पर कितना, कितना बड़ा तमाचा है यह। लड़कियॉ शर्म लाज छोड़ कर अब ऐसा कदम उठा रही हैं! उदाहरण है ये भले घर की बहू, जो अर्धनग्न अवस्था में दिल्ली की सड़कों पर भागती हुई पायी गयी। और ये देखिए, उसकी पीठ, बॉह पर कटे फटे के निशान। निशान गवाह हैं उसकी दर्दनाक दास्तां के। निशान गवाह हैं कि उसकी कहानी झूठी नहीं है। निशान चीख चीख कर कह रहे हैं उसके दुखों की दास्तां……’’ इसके बाद रिपोर्टर कुछ लोगों के विचार लेने लगता है। पुलिस, आम आदमी, नेता……कई तरह के लोग, कई तरह की बातें कर रहे हैं। फिर वही, बार बार वही दृश्य, चौबीस घंटों के लिए वही दृश्य….। एहतियातन लड़की की तस्वीर को पीठ की तरफ से, धुंधला कर के दिखाया जा रहा है। साफ साफ दिखाना जनता की कामोत्तेजना को भड़काना होगा। पत्रकारों, चैनलों, व्यवस्थापकों…… ने इसका ख्याल रखा है।






ऐसी, कटी फटी, नीली पीली देह वाली लड़की


ऐसी, कैद से छूट पड़ी लड़की


ऐसी, दिल्ली की सड़कों पर, कपड़ों की परवाह किए बिना भागती लड़की


ऐसी, कितने शहरों के, कितनी सड़कों पर, नंगी भागती पूरे हिंदुस्तान की लड़कियॉ कामोत्तेजना का केंद्र हो सकती हैं?


बलात्कार की शिकार -!


ऐसी कितनी ही लड़कियॉ, नंगे होने को देख लिए जाने के डर से कैद से नहीं भाग पाईं।


ये भाग आई।


इसने रास्ता खोल दिया।




पत्नी चुपचाप भीतर आईं और अपने पुराने बक्से से अब तक जोड़ी पूंजी निकाल कर उस सड़क की तरफ भागीं, जिधर से दिल्ली जाने वाली बस मिलती।

—————————————————–

संपर्क- 

55 कादम्बरी अपार्टमेंट
प्लॉट नं. 19 सेक्टर – 9
रोहिणी , दिल्ली – 85