नित्यानंद गायेन की सात कविताएँ

नित्यानंद गायेन
युवा कवि नित्यानंद गायेन की कविता ‘धूप पिघल रही है’ पढ़ते हुए मुझे वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल की एक कविता है ‘कवि’ की ये पंक्तियाँ याद आयीं – ‘इच्छाएँ आती हैं तरह-तरह के बाने धरे/ उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज है/ एक फ़ेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी/ उन्हें यह तक मालूम है/ कि कब मैं चुप हो कर गरदन लटका लूँगा/ मगर फिर भी मैं जाता रहूँगा ही/ हर बार भाषा को रस्से की तरह थामे/ साथियों के रास्ते पर/ एक कवि और कर ही क्या सकता है/ सही बने रहने की कोशिश के सिवा।’ कवि आज जो भी कुछ घटित हो रहा है उसे देखने के लिए अभिशप्त है। लेकिन विचलन के इस समय में सही बने रहने की कोशिश भी कम अहम नहीं है। फासिस्ट शक्तियां आज अपने देश में वह सब कुछ कर रही हैं जो उनकी स्वाभाविक प्रकृति होती है इसी क्रम में वे प्रोपेगंडा फैलाने का काम भी करती हैं लेकिन कवि नित्यानन्द इस बात को ले कर आश्वस्त हैं कि ‘झूठ की उम्र लम्बी नहीं होती’। आइए आज पढ़ते हैं आक्रोश के स्वर के कवि नित्यानन्द की कुछ नयी कविताएँ
       
नित्यानंद गायेन की सात कविताएँ 
झूठ की उम्र लम्बी नहीं होती

 
मुल्क टूटा,
घर टूटा, 
टूटे रिश्ते-नाते,

तुम रूठे,
मैं रूठा,
यूँ ही बिखर गये

उम्मीद की झूठी तसल्ली पर
खड़ा हूँ !
झूठ की उम्र लम्बी नहीं होती.
जानता हूँ  

धूप पिघल रही है

 
धूप पिघल रही है 
और आदमी सूख रहा है जल कर …
राजा लूट रहा 
मंत्री कर रहे तांडव नृत्य
वकील जाग रहे हैं 
विपक्ष व्यस्त है नाटक में
सड़क पर कुत्ते भौंक रहे हैं
मैं ” नासमझ दर्शक की तरह 
सब कुछ खामोश देख रहा हूं!!
जब प्रेम सबसे बड़ा अपराध घोषित हो चुका है

यह हमारे दौर का 
सबसे खूंखार समय है
हत्या बहुत मामूली घटना है इन दिनों
ऐसे समय में
जब प्रेम सबसे बड़ा अपराध घोषित हो चुका है
मैं बेखौफ़ हो कर 
लिख रहा हूँ 
प्रेम कविताएँ 
तुम्हारे लिए
मुझे शिकायत तुमसे नहीं 
हाँ, मैं बदनाम होना चाहता हूँ 
बहुत ज्यादा,जितना अब तक हूँ 
उससे भी ज्यादा, 
उन गलियों से भी जियादा 
जहाँ गुजार देते हैं कई -कई रात 
सभ्य समाज के सभी ठेकेदार
जिनकी आधी रात बीतती हैं 
उन्हीं बदनाम गलियों में

और हाँ सुनो – 
मुझे शिकायत तुमसे नहीं 
खुद से है !
हम प्रतिबद्ध हैं 
हम बड़े नहीं हैं
लौटाने को नहीं है हमारे पास 
कोई पुरस्कार,
हमारे पास शब्द हैं 
और हम प्रतिबद्ध हैं 
अपने शब्दों से करेंगे हम
हर अन्याय का प्रतिरोध!
डरता हूँ कि टूट जाएगा ये ख्वाब सुबह के साथ
आँखे भर आती हैं मेरी 
जब कभी मैं ख़्वाबों में करता हूँ तुमसे प्यार 
सोचता हूँ तुम्हें …
शब्द कम पड़ते हैं 
रात की गहराई के साथ होता जाता हूँ अकेला 
बहुत अकेला 
और तब याद आती हैं तुम्हारी बातें 
चेहरा तुम्हारा 
फिर डरता हूँ कि टूट जाएगा ये ख्वाब सुबह के साथ
हर सुबह के साथ 
मैं हो जाता हूँ अनाथ 
जिसके लिए नहीं बना कोई 

अनाथालय

उम्मीद ही तोड़ती है आदमी को हर बार
मिटा दिया जाऊंगा एक दिन 
तुम्हारी डायरी के उस पन्ने से
जिस पर लिखा था कभी 
तुमने मेरा नाम

इतिहास के किसी अध्याय में जिक्र भी नहीं होगा मेरा
यह जानते हुए भी 
कि सभी अपने छोड़ जाएंगे एक दिन 
जब मुझे सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होगी उनकी 
वे बंद कर लेंगे अपने द्वार 
फिर भी 
मैं उम्मीद भरी नज़रों से ताकता रहता हूँ 
तुम्हारे द्वार की ओर

उम्मीदों की सीमा कहाँ होती है
उम्मीद ही तोड़ती है आदमी को हर बार
सम्पर्क-
मोबाईल- 08860297071
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है) 

कवि सुधीर सक्सेना पर नित्यानानद गायेन का आलेख ‘कवि सुधीर सक्सेना. प्रेम के कवि, जो ईश्वर तो नहीं’


ईश्वर को आधार बना कर जिन कुछ कवियों ने महत्वपूर्ण कवितायें लिखीं हैं उनमें सुधीर सक्सेना का नाम प्रमुख है. इन कविताओं में वे ईश्वर से जैसे बातें करते हुए उसकी वास्तविकता को हमारे सामने रख देते हैं. उनकी कविताओं में प्रेम भरा पड़ा है. प्रेम जो मानवीय रिश्तों और संबंधों की बुनियाद है कवि के यहाँ बार-बार दिखाई पड़ता है. शायद इसीलिए नित्यानन्द ने इस आलेख का शीर्षक ही दिया है ‘कवि सुधीर सक्सेना. प्रेम के कवि, जो ईश्वर तो नहीं‘ कवि सुधीर सक्सेना के तीन संग्रहों को आधार बना कर युवा कवि नित्यानन्द गायेन ने यह आलेख लिखा है. इसे हम आप के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. 
कवि सुधीर सक्सेना. प्रेम के कवि, जो ईश्वर तो नहीं ….
साहित्य का एक तरुण विद्यार्थी हूँ मैं. मैंने अनेक रचनाकारों की रचनाएँ पढ़ी हैं. जिनमें साहित्य के दिग्गज और वरिष्ठ रचनाकारों के साथ समकालीन कवि भी शामिल हैं. समकालीन कवियों में अनेक हैं जिनकी रचनाएँ सदा मुझे आकर्षित करती हैं . जिनमें से एक हैं अग्रज कवि / लेखक/ अनुवादक सुधीर सक्सेना जी. और उन्हें पढ़ते हुए मैं उनके बहुत करीब आ गया हूँ. और वरिष्ठ कवि / सम्पादक आग्नेय जी से बहुत कुछ जान पाया हूँ सुधीर जी के बारे में विशेषकर उनके अनुवाद कर्म के बारे में, पत्रकारिता के बारे, इनके संघर्ष के बारे में.

मैंने अब तक इस कवि के तीन संग्रहों को पढ़ा है. कोई भी संग्रह किसी से कमतर नहीं. किन्तु सबका रस–रंग भिन्न हैं. इनका पहला संग्रह ‘रात जब चन्द्रमा बजाता है बांसुरी’ मुझे वर्ष २०१२ में मिला. इस संग्रह की कविताओं को पढ़ा. बार–बार पढ़ा, और तब–तब पढ़ा जब मन बहुत विचलित होता रहा. इस संग्रह की कविताएँ पढ़ कर मैंने जाना प्रेम का अनुभव और उसकी अभिव्यक्ति की कला /शैली. सिर्फ़ चंद शब्द और विराट अभिव्यक्ति? यही कारण है कि वे इतने शालीन और बाकियों से अलग हैं. कहते हैं न कि जो बड़े होते हैं वे अपना ढोल नही पीटते. यही बात सुधीर जी में भी हैं. आज जब ज्यादातर रचनाकार हर माध्यम का सहारा लेकर आत्म प्रचार में व्यस्त हैं, वहीँ कविवर सुधीर निरंतर चुपचाप अपनी रचनाशीलता में लगे हुए हैं. वर्ष २०१२ में सुधीर जी हैदराबाद आये थे. और यहाँ पहुंचकर उन्होंने मुझे फोन किया और मिलने की इच्छा जाहिर की. यह इस कवि का बड़प्पन था कि वे एक एकदम नये साहित्य के विद्यार्थी से मिलना चाहते थे. बड़ो के यही गुण ही शायद उन्हें सच में बड़ा बनाते हैं. नहीं तो मेरे कुछ ऐसे अनुभव भी हैं कि जब मैंने अपने कुछ समकालीन रचनाकारों से मिलने की इच्छा जतायी तो उन्होंने मुझ जैसे कच्चे और नवीन रचनाकार से मिलना पसंद नही किया. क्योंकि वे खुद को बहुत ऊँचा और अलग मानते हैं.
  

मध्य प्रदेश के एक टीवी चैनेल पर एक साल पहले मैंने सुधीर जी का एक साक्षात्कार देखा था. जिसमें सुधीर जी ने कहा था –‘मैं लिखता हूँ, लिखने ज्यादा मैं पढ़ता हूँ.’ उनका यह वाक्य मेरे दिमाग में घर कर गया. और उनके प्रति मेरा आदर भी बढ़ गया. सूरज को आईने की जरुरत नही होती. सूरज को आईना दिखाना मुर्खता है. वैसे तो कवि सुधीर सक्सेना की कविताओं पर बहुत वरिष्ठ कवि /लेखक /आलोचकों ने बहुत कुछ लिखा है. केवल देश में नही देश के बाहर भी. पर यहाँ मैं भी कुछ कहने की जुर्रत कर रहा हूँ आज. 
  

‘रात जब चन्द्रमा बजाता है बांसुरी’ संग्रह में प्रेम कविताएँ हैं. प्रेम क्या है? उसकी अनुभूति कैसे होती है? प्रेम का दायरा क्या है, ये सभी कुछ इस संग्रह की रचनाओं को पढ़ते हुए हम महसूस कर सकते हैं. इस संग्रह की कविताओं में मिलन का सूख भी है तो विरह के उदास गीत भी है. 

“मैंने तुम्हें चाहा /तुम धरती हो गयीं

तुमने मुझे चाहा /मैं आकाश हो गया

और फिर

हम कभी नहीं मिले,

वसुंधरा |” (पृष्ठ -१५) | क्या बात है. प्रेम से जब कोई किसी को चाहता है तो कोई धरती जो जाती है तो कोई आकाश. मतलब प्रेम की चाहत मात्र से हम विराट बन जाते हैं. और कभी –कभी इतने विराट कि धरती और आकाश हो जाते हैं. जो एक –दूजे को चाहते तो हैं, किन्तु उनका मिलन नही हो पाता. और इस तरह चाहत अमर हो जाती है.

प्रेम का पहला पाठ मनुष्य प्रकृति से सीखता है. और फिर वह उसे विस्तार देता है. तभी तो कवि लिखता है –
           “तुम / समुद्र से नहा कर निकलीं

           और पहाड़ को तकिया बनाकर /लेट गयीं

           घास के बिछौने पर /अम्लान|” (पृ.१६, वही) 
जिस प्रकृति ने हमें प्रेम का पहला पाठ पढ़ाया, हमें पहले उससे प्रेम करना होगा. कवि की दृष्टि देखिये, वह यही तो कह रहे हैं यहाँ|

चित्रकार नीलम अहलावत की पेंटिंग देखकर कवि अपने जज़्बात रोक नही पाते, और लिखते हैं –

“समुद्र से

दौड़ता हुआ निकला घोड़ा

ढेर सारी ऊर्जा,

तनिक विस्मय,

तनिक भय,

उसे स्तेपी की तलाश थी

उसकी देह से चिपका हुआ था ढेर सारा नमक|” (पृ.19, वही). समन्दर में दौड़ना आसान नही, पर घोड़ा दौड़ता है, कवि उसकी आँखों में पढ़ता है, उसकी उर्जा, उसका भय और उसकी चिंता. यह नज़र और अनुभव की बात है. आम जन इसे पढ़ नही पाता कभी भी.
 
हम साधारण मनुष्य हैं, कई बार तो हममें साधारण मानव के गुण भी नही मिल पाते, किन्तु कभी –कभी कुछ ऐसा भी हो जाता है अनाश्य कि साधारण मनुष्य भी देवत्व पा लेता है अपने किसी प्रिय के नजरों में. गर्मी में झुलझते हुए प्रियसी ने वर्षा की इच्छा की. प्रेमी ने काल्पनिक मन्त्र बुबुदाये यह जानते हुए भी कि यह उसके वश में नही, किन्तु तभी कुछ अनोखा होता है मानो मेघों ने सुन ली हो उस प्रेमी की प्रार्थना और उन काल्पनिक मंत्रोच्चार से खुश होकर वे बरस पड़ें. प्रेमी अपनी प्रेमिका की नज़रों में देवत्व पा लेता है. (कविता-अचानक देवत्व, पृष्ठ -४६) 

बारिस कविता में कवि कहता है –

“इस साल भी

बारिश आएगी

बरसेंगे मेघ

चाहता हूँ इस साल

तुम मेरी उँगलियों से

और मैं तुम्हारी उँगलियों से

छुऊँ बारिश की बूंद ……..देखो

चमक रही है बिजली

सुनो , गरज रहे हैं मेघ 

औचक किसी भी पल झर सकती हैं बूंदें|” इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मुह से निकल जाती है – ‘वाह’| जब सच्चा प्रेमी मन ही मन प्रकृति से किसी चीज की इच्छा प्रकट करते हैं, तब वह खोल देता है अपना दामन किसी दानवीर कर्ण की तरह. जरुरी नही कि सच में मेघ बरसे आकाश से किन्तु मन में फैले विशाल निर्मल आकाश जरुर बरसने लगता है. क्यों कि कवि जानता है कि चुम्बकत्व केवल लोहे में नही होता. 
               
               “तुमसे मिलने के बाद /जाना

               कि

               सिर्फ़ लोहे में /नहीं होता है

               चुम्बकत्व |” (पृष्ठ -५०) 

कितनी गहराई में जाकर अनुभव किया है कवि ने प्रेम को यह इस संग्रह की रचनाओं को पढ़कर आप  समझ जाएंगे. वर्ना कैसे कहता कवि 
“आज तुम्हारे सीने में नहीं / तुम्हारी हथेली में / धड़का

तुम्हारा दिल

और अपनी हथेली में दुबकाये / उसे ले आया मैं

अपने साथ |” (पृष्ठ -५१). 
इस संग्रह की भूमिका में वरिष्ठ कवयित्री अनामिका जी ने लिखा है –“सुधीर सक्सेना की ये प्रेम कविताएँ नन्हीं –नन्हीं सांसों की तरह आप में आती –जाती हैं|” बिलकुल ठीक कहा है उन्होंने. इन कविताओं को पढ़ते हुए आप ऐसा ही महसूस करेंगे. 
“आपने प्रेम किया

तो भी मरेंगे

और नही किया

तो भी मरेंगे एक रोज़ ….

प्रेम से नहीं बदलती मौत की तारीख

अलबत्ता प्रेम से बदल जाती है ज़िंदगी

आमूलचूल |” (पृष्ठ -६९). 

सुधीर जी का दूसरा संग्रह जो मैंने पढ़ा, वह है “किरच –किरच यकीन”. इस संग्रह की कविताएँ सुधीर जी ने अपने मित्रों को समर्प्रित किया है. और इस संग्रह की भूमिका में वरिष्ठ कविवर आदरणीय नरेश सक्सेना जी ने लिखीं हैं. नरेश जी ने लिखा है –“घृणा से भरे इस समय में, हमारे बीच एक कवि ऐसा भी है, जो मित्रों का नाम लेकर हमें अपने प्रेम और आत्मीयता से आश्वस्त करता दिखता है| वर्ना इन दिनों लोग अपने मित्रों का नाम लेने से भी बचते हुए दिखाई देते हैं |”  बिलकुल सटीक लिखा है नरेश जी ने. यही हकीकत भी है| कवि सुधीर सक्सेना के पास वह दृष्टि है जो एक सजग कवि के पास होनी चाहिए. वे जानते हैं इतिहास का विश्लेषण और पड़ताल करना. अब देखिये न कि कवि ने क्या लिखा है, ऐसा लगता है कि बहुत साधारण सी बात है यह, किन्तु इस साधारण सी लगने वाली बात में कितनी गहराई है और कितनी सच्चाई है यह भी महसूस होना चाहिए.

“अ से न अनार

न अज,

अ अमरुद

अ से अमेरिका

ब से न बकरी

न बटन

न बतख

ब से बुश |” 
क्या यह हकीकत नही है? कवि की नज़र बहुत पैनी हैं. यहाँ इस कविता में उन्होंने हमें चेताया है, यह बताया है कि प्रकार पूरी दुनिया में अमेरिका की तानाशाही पूंजीवादी नीति का कहर है. और अब बच्चों को अ से अनार नही अ से अमेरिका पढ़ाया जायेगा.
आज दुनिया के तमाम राष्ट्रों को यदि किसी से खतरा है तो उसके राजनेताओं से. यह बात कवि बहुत अच्छी तरह जानते हैं. कवि जो बतौर पत्रकार भी देश दुनिया की राजनैतिक गतिविधियों को बहुत बारीकी से देखते रहे हैं. तभी तो वे कहते हैं –

“आपदा का समय बीत गया 
अब हम राष्ट्रों की रक्षा करेंगे 
राष्ट्राध्यक्षों से 
सूबे की रक्षा सूबेदारों से 
और गांवों की रक्षा पटवारियों से |” 

इन लोगों को चुनौती देते हुए कवि याद करते हैं कबीर को. 

“मैं जानता हूँ

कि वे तय नही कर पाएंगे

कि मुझे दफनायें

या जलाएं

लिहाज़ा मैंने मुल्तवी की

एक बार फिर

अपनी मौत |” 
यहाँ इस कविता को पढ़ते हुए मुझे विद्रोही कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की ‘जनगणमनकविता याद आती है –

मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जनगणमन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़ेबड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूंआराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़ेबड़े लोगों को मारकर तब मरा |

सुधीर जी की कविताओं में प्रेम है, जीवन दर्शन भी है तो अन्याय के विरुद्ध विद्रोह भी हैं.

अब मैं कहना चाहता हूँ सुधीर जी के एकदम नये संग्रह की कविताओं के बारे में. इस संग्रह की कविता एकदम अलग और एक ही विषय पर केन्द्रित है. विषय है ईश्वर. 
‘ईश्वर  हाँ, नहीं …तो’ संग्रह के शीर्षक से आपको पहली नज़र में लगेगा कि शायद यह कोई धर्म ग्रन्थ हो. किन्तु जैसे ही इसे खोलकर पहली कविता पढेंगे तो …आप हैरान हो जाएंगे. इसकी भूमिका लिखी हैं ज्योतिष जोशी जी ने. और बहुत शानदार लिखा है.

मनुष्य सबसे पहले शायद बादलों की गरज और बिजली की चमक और फिर अँधेरी रात से डरा होगा. फिर शायद समुद्री तूफान या बाढ़ से. वह डरा होगा सांप से जब कोई मरा होगा उसके डसने से. तो धीरे – धीरे उसने शुरू की प्रार्थना /पूजा इनकी अपनी रहम और अपनी रक्षा में. फिर समाज का निर्माण किया और गढ़ा उसने ईश्वर को जो कहीं घर कर गया था उसके भय के कारण उसकी कल्पनाओं में. किन्तु आज इतने हजार साल बाद भी उसे बचा नही पाता कोई ईश्वर मृत्यु से, पीड़ा से, रोग से, अपराध से. तो कहाँ है ईश्वर? बाबा नागार्जुन ने लिखा था “कल्पना के पुत्र हे भगवान |” 

कवि सुधीर जी ने पूछा है – 

“ईश्वर 
यदि सिर्फ देवभाषा जानता है 
और इतनी दूर हैं हमसे 
उस तक पहुँच नही सकती हमारी आवाज़ 
भला कैसे हो संवाद ..


यदि हमने भेजा उसे 
अपने दुखों का खरीता , 
तो वह उसे पढ़ नही सकेगा 
उसके अजनबी लिपि में होने से 
…….ईश्वर के लिए 
ईश्वर होने के वास्ते 
कितना जरुरी हो गया है 
बहुभाषी होना|” (पृष्ठ -१७). 

इस श्रृंखला की तीन में कवि कहते हैं – 

“अरबों वर्षों बाद भी 

यदि अभी भी बची हैं

ईश्वर में संवेदनाएं

तो वह दु:खी होगा धरती की दशा से

मनुष्य की दिशा से …..” (पृष्ठ -19) . 

बिलकुल ठीक ही तो लिखा है सुधीर जी ने. आज का समाज जा कहाँ रहा है और कहाँ जा रहे हैं मनुष्य? 
त्वचा डरती है दाग से,

वनस्पति फफूंद से

तट चक्रवात से …….मगर, सबसे ज्यादा लोग डरते हैं तुमसे

महाबाहो | आखिर तुममे और विकार में

कोई तो रिश्ता होगा

परस्पर / हे ईश्वर”

क्या सटीक बात कही है कवि ने. हमारी फ़ेहरिस्त में सबसे अव्वल है तुम्हारा नाम, सूची छोटी हो या बड़ी / कहो कहाँ है तुम्हारी सूची ईश्वर /कहाँ है हमारा नाम?क्या यह प्रश्न बाजिव नही? हमें नही पता कि कौन सी भाषा आती है ईश्वर को इसलिए कवि ने सबसे आसान भाषा का प्रयोग किया है अपने सवालों को उठाते हुए.

इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे बार –बार बाबा नागार्जुन की वही कविता याद आती है ‘कल्पना के पुत्र हे भगवान’. और ऐसा पहली बार हुआ है. कि बाबा के बाद किसी कवि ने इस तरह की कविता की पूरी श्रृंखला लिख डाली हो.
लाखों वर्षों से ईश्वर ने जो इतने लोगों को गर्म सलाखों से दागा है. कैसे माफ़ होंगे उसके पाप? तभी तो सुधीर जी ने कहा – 

मान जाओ

हे परम पिता

परमात्मा

‘ईश्वर के लिए

ईश्वर से डरो

हे ईश्वर |……

सुधीर जी पढ़ते हुए सदा सुखद महसूस किया है मैंने. उनकी हर कविता एकदम नई होती है. और लम्बे समय तक याद रहती है. हाँ इस बात का अभी इल्म है कि मैंने इस अग्रज कवि का सबसे चर्चित संग्रह ‘समरकन्द में बाबर’ अब तक नही पढ़ा है. किन्तु जल्द ही उसे भी खोज कर पढूंगा.

समकालीन हिंदी कविता में सुधीर सक्सेना एक महत्वपूर्ण सजग और संवेदनशील कवि हैं. शोरगुल से दूर वे सदा अपनी रचनाओं में लगे हुए हैं. हम सब यही कामना करते हैं कि इसी तरह सृजन करते रहें और हिंदी कविता को और –और समृद्ध कर हमें प्रेरणा देते रहें.
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सम्पर्क-

नित्यानन्द गायेन

मोबाईल- 09999142633

अशोक तिवारी के कविता संग्रह ‘दस्तख़त’ पर नित्यानंद गायेन की समीक्षा


कवि अशोक तिवारी का हाल ही में एक महत्वपूर्ण संग्रह आया है ‘दस्तखत’ नाम से. अशोक तिवारी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं. वे एक कवि होने के साथ-साथ रंगकर्मी भी हैं. देश-विदेश में जा कर इन्होने नुक्कड़ नाटक किये हैं. उनके पास अपनी वह प्रतिबद्धता भी है, जो किसी भी कवि के लिए जरुरी होती है. युवा कवि नित्यानन्द गायेन ने अशोक के संग्रह पर यह समीक्षा पहली बार के लिए लिख भेजी है. आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा.   
अन्याय और पीड़ा के विरुद्ध एक कवि का दस्तख़
नित्यानंद गायेन
कवि जब कविता लिखता है तो अपने अनुभव और मनोभावों को व्यक्त करता है. जिन कविताओं को पढ़ते हुए हम अपने समाज, काल और आम लोगों को महसूस करते हैं, उनका दर्द, ख़ुशी और संघर्ष को महसूस करते हैं – वे ही सच्ची कविता हैं. कविता व्यक्तिगत हो कर भी व्यक्तिगत नहीं हो पाती, क्योंकि एक व्यक्ति का अनुभव, दर्द, ख़ुशी ज्यादा दिन तक व्यक्तिगत नहीं रह पाते.
हाल ही में कवि – लेखक, रंगकर्मी अशोक तिवारी का कविता संग्रह दस्तख़त पढ़ने को मिला. कवि ने संग्रह की कविताओं में अपने जीवन के अब तक के अनुभवों का खुलासा किया है. पहली कविता “सब खुश” में वर्तमान समय के राजनैतिक और सामाजिक सच को व्यक्त किया है.
“इन दिनों एक बाज़ 

मेरे घर के इर्द–गिर्द

मँडराता है सुबह –शाम

लहराता हुआ डैने बेखौफ़

बैठ जाता है मुंडेर पर

और ताकने लगता है मुझे

ऐसे जैसे मैंने

छिपा लिया हो

उसका कोई शिकार

वह स्कैन करता है मेरी नज़र

मेरी काया

और नोट करता है मेरा पता.”
क्या है ये बाज़? क्या हम नहीं जानते हैं? बाज़ की प्रवृत्ति से हम सब वाकिफ़ हैं. वह हमेशा रहता है शिकार की तलाश में और मौका मिलते ही झपट पड़ता है. किन्तु यदि कोई बचा लेता है किसी निर्बल जीव को उसके हमले से, तो वही बाज़ पूरी ताकत से करता है पीछा बचाने वाले का. कवि ने हमारे समाज के उन षड्यंत्रकारी ताकतों को बहुत करीब से देखा और अनुभव किया है. उसी का विवरण है उक्त पंक्तियों में. कवि का यह समाजिक दायित्व भी है कि वह ऐसे क्रूर षड्यंत्रकारी शक्तियों का पर्दाफ़ाश करे. खतरे की चेतावनी देकर लोगों को होशियार करे. अपने इस दायित्व का निर्वाहन किया है कवि ने यहाँ ईमानदारी से.
एक गाँव की पहचान उसके नीम से हो सकती है तो उस गाँव के प्रत्येक व्यक्ति को दुनिया उसी पहचान से बुलाती है. “नीम गाँव वाली” कविता पढ़कर हम यह महसूस करते हैं :-
“उस औरत का चेहरा

कैसा था आख़िर

लम्बा–सा

सुता हुआ

पिचके हुए गाल

लंबी जीभ

पीले दांतों के बीच

बुदबुदाती हुई

उसके अंदर की एक और औरत

देती हुई

दुनिया के बच्चों को

आशीष, गाली या

मिला-जुला सा कुछ..”
कविता लम्बी है. यहाँ एक औरत को पहचानने के लिए बहुत कुछ है जैसे उसका पिचका चेहरा, पीले दाँत या फिर उसकी लम्बी जीभ ….किन्तु कवि इस औरत को माँ के रूप में पहचानता है, जो दुनिया के बच्चों को कुछ न कुछ देती है. फिर भी कविता का शीर्षक है –“नीम गाँव वाली”. मनुष्य अपनी भूमि से कभी अलग नही हो पाता, उसकी खुशबू सदा उसके साथ रहती है. क्योंकि धरती भी माँ ही है और एक औरत भी माँ होती है.
इस संग्रह की कविताएँ पढ़ते हुए लगता है कभी हम एक चलचित्र देख रहे हैं तो कभी लगता है कि वही बातें हैं जो रोज –रोज घटती हैं हमारे समाज में, हमारे साथ. एकदम सरल भाषा. कवि बहुत भावुक हो कर पहचानने की कोशिश करता है… जाड़े की गुनगुनी धूप में नल के नीचे बैठे एड़ी रगड़ती जीजी को. जीजी की पहचान क्या है? उनकी पहचान हैं उनके हाथों का स्पर्श. हाथ जो काम के बोझ से हो चुके हैं खुरदुरे. किन्तु कम नही हुई उन हाथों की ममता और अब भी कोमल है उनका स्पर्श. मनुष्य से ले कर मवेशी तक सभी चाहते हैं उन खुरदरी हाथों का कोमल स्नेह. कवि यह भलीभांति जानता है कि हाथों के खुरदरे होने से नहीं होता कम प्यार. ममता एवं स्त्रीतत्व कभी नहीं मरता एक औरत में.
 (कवि: अशोक तिवारी)
जो भी पुरुष, चाहे साधारण व्यक्ति हो या कवि या फिर कोई और, जब तक वह एक स्त्री के दर्द को महसूस नहीं कर पाता, वह और उसका समाज अधूरा और अविकसित रहता है. किन्तु अशोक जी ने जाना है, महसूस किया है एक स्त्री के दर्द को – चाहे जीजी के रूप में हो या नीम गाँव वाली की उस औरत में या फिर उस काम वाली औरत में. वह उस स्त्री को जो आपके घर की सफाई करती हैं, जो करती है आपकी सेवा, पर आपने उसे पुकारा किस नाम से? कैसे संबोधित किया है उसे? आपके घर पर जो अपना श्रम दान करती है, उसकी पहचान है कि वह काम वाली औरत है? हमारा समाज उसे नौकरानी क्यों कहता है? आपके घर की सफाई करने वाली, बर्तन मांजने वाली या आपके लिए भोजन बनाने वाली एक स्त्री की पहचान काम वाली बनकर रह जाती है? यहाँ कवि ने बहुत संवेदनशील मुद्दे को उठाया है.
“क्या नाम है उसका

काम करती है जो तुम्हारे घर आ कर

हर रोज़

सुबह से लेकर शाम तक

छोटे से लेकर बड़े काम

मोटे से लेकर पतले काम

क्या है उसका नाम

-काम वाली”….(पृष्ठ -51)
बहुत ही अहम् प्रश्न है यह …इस पर कीजिये विचार, तब दीजिये स्त्रीमुक्ति पर भाषण, तब कीजिये समानता की बात, तब जाइये मोमबत्ती ले कर किसी राजपथ या इण्डिया गेट पर. आपके घर पर श्रम करने से नही खो सकती कोई औरत अपनी पहचान अपना नाम.
अशोक जी कवि भी हैं, नाटककार और शिक्षक भी. वे जानते हैं समाज की विसंगतियों को गहराई से. मानव जीवन में दासता और विस्थापन से बड़ी और दूसरी पीड़ा हो नही सकती. चाहे वह महाभारत काल हो या आज का समय. अपनी ज़मीन से बेदखल होना मतलब अपनी जड़ों से कट जाना होता है. यह पीड़ा असहनीय होती है. चाहे कश्मीर हो या फिलिस्तीन, पीड़ा सबकी एक सी है. अग्रज कवि अग्निशेखर ने अपनी कविता ‘पुल पर गाय’ में विस्थापन की पीड़ा को बहुत मार्मिकता से प्रदर्शित किया है.
“एक राह – भटकी गाय

पुल से देख रही है

खून की नदी

रंभाकर करती है

आकाश में सूराख  

छींकती है जब मेरी माँ

यहाँ विस्थापन में

उसे याद कर रही होती है गाय” (कवि अग्निशेखर, स्वर-एकादश, पृष्ठ 14)
विस्थापन की यही पीड़ा फिलिस्तीन के लोगों की भी है, जिसे कवि अशोक तिवारी ने महसूस किया है और उसे यहाँ व्यक्त किया है.
“आसमान में चीलों की तरह

डैने फैलाये

मिसाइलों का ये शोर

कहाँ का है मेरे भाई…..(पृष्ठ. 22, वही)
कवि ने फिर लिखी एक पेड़ की व्यथा कथा.
“मैं एक पेड़ हूँ

सालों साल से खड़ा हूँ यहाँ

ज़मीन में गहरी धंसी हैं मेरी जड़ें

विस्थापित होने के डर से अभिशप्त

मैं एक पेड़ हूँ …

इंसानियत का ओढ़े हुए खोल

उन्होंने किया भरपूर हमला

मेरी खुशहाली पर

मेरी फलती –फूलती शाखों को

करते रहे कुल्हाड़ी के हवाले ….” (पृष्ठ -129, वही)
यहाँ कहानी सिर्फ एक पेड़ की नही, मानव समाज की है, यह कहानी है उन निर्दोष लोगों की जिन्हें उखाड़ा गया है उनकी ज़मीन से, और उखाड़ा है कुछ ऐसे लोगों ने जिन्होंने ओढ़ रखी है इंसानी खाल.
कवि अशोक तिवारी एक संवेदनशील कवि हैं, क्योंकि वे एक निर्मल हृदय के मालिक हैं, उन्हें मालूम है जीवन की पीड़ा और भूख. उनकी कविताओं में मार्क्सवाद का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है.
कुछ कविताएँ एकदम सपाट सी लगती हैं. किन्तु सच्ची बात कहने के लिए न तो शिल्प की आवश्यकता होती है न किसी अलंकार की. क्योंकि सच खुद में एक सौन्दर्य है. उसकी सीधी अभिव्यक्ति, जो किसी को भी अपनी बात लगे, अपने आपमें एक कविता है. हाँ, कुछ कविताएँ जो कम शब्दों में कहीं जा सकती थीं, उन्हें जबरन लम्बाई दी गई हैं.
हम उम्मीद करते हैं कि समाज के हर अन्याय के विरुद्ध कवि / कामरेड अशोक तिवारी का सदा हस्तक्षेप होगा. हम ऐसे सभी स्थान पर उनका दस्तख़त देखेंगे.
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संग्रह – दस्तख़त, प्रकाशक – उद्भावना प्रकाशन, गाजियाबाद. मूल्य – सौ रुपये मात्र, पेज-150
सम्पर्क-
नित्यानंद गायेन

 मोबाईल 09030895116
 ई-मेल-nityanand.gayen@gmail.com

भरत प्रसाद के काव्य संग्रह ‘एक पेड़ की आत्म कथा की समीक्षा : नित्यानन्द गायेन

कवि एवं आलोचक भरत प्रसाद का एक कविता संग्रह ‘एक पेड़ की आत्मकथा’ नाम से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की समीक्षा की है युवा कवि नित्यानन्द गायेन ने। आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा-
   
‘पेड़ के बहाने, मनुष्य की आत्मकथा’

पिछले दिनों कवि भरत प्रसाद जी का काव्य संग्रह ‘एक पेड़ की आत्मकथा’ पढ़ने का सुअवसर मिला। संग्रह की भूमिका वरिष्ठ कवि भगवत रावत ने लिखी है। कवि के बारे में उन्होंने लिखा है –“सन २००० के बाद, यानी इक्कीसवीं सदी के साथ जो युवा कवि हिंदी में सामने आ रहें हैं , भरत प्रसाद उन सबमें कई अर्थों में अलग और विशिष्ट हैं। सबसे पहले तो यही कि वे गैर राजनीतिक ढुलमुल दृष्टि वाले नहीं बल्कि एक बेहद सशक्त राजनीतिक दृष्टि संपन्न ऐसे कवि हैं जिसका पक्ष –विपक्ष बिलकुल स्पष्ट है। समाज को देखने –समझने की उनकी गहरी संवेदनशीलता पूरी तरह सतर्क और ज्ञानात्मक है।”
रावत जी ने इस कवि के बारे में यहाँ जो कुछ लिखा है उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं हैं। यह बात हम भरत प्रसाद की कविताओं से गुजर कर आसानी से समझ सकते हैं। उदाहरणस्वरुप इन पंक्तियों को देखिये :

“वह कलम किस काम की
जो दूसरों के भावों को
सार्थक शब्द न दे सके ,
जो असफल हो जाय
जीवन से हार खाए हुए को
थोड़ी सी उम्मीद देने में ,..”

‘कलम’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ हमें कवि के पक्ष को समझने में सहायता करती हैं। संग्रह का शीर्षक ‘एक पेड़ की आत्मकथा’ मतलब जीवन संघर्ष की कहानी। जिस तरह एक वृक्ष अपने जीवन काल में तमाम आंधी–तूफान बाढ़ –सूखा सब कुछ झेलते हुए अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है ठीक वैसा जैसा नागार्जुन का ‘बाबा बटेसरनाथ’ की कहानी है। पेड़ की आत्मकथा उन सब की आत्मकथा है जो आज भी पीड़ित और शोषित है। यह आत्मकथा हर संघर्षरत व्यक्ति की आत्मकथा है।

इस संग्रह की पहली कविता है – ‘प्रकृति की ओर’ छोटी सी कविता किन्तु गहरी।

“सुना है –
ममता के स्वभाववश
माता की छाती से
झर –झर दूध छलकता है
मैं तो अल्हड़ बचपन से
झुकी हुई सावंली घटनाओं में
धारासार दूध बरसता हुआ
देखता चला आ रहा हूँ |”

कवि भावविभोर हो कर खुद को प्रकृति से जोड़ता है और उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है। 
अपनी मातृभूमि के प्रति हमारा प्रेम ही हमें अपनी जड़ों से जोड़कर रखती है। प्रत्येक नागरिक को अपने देश की धरती के प्रति ऋणी होना चाहिए। जो अपनी धरती से खुद को अलग कर लेने का प्रयास करता है और विश्व पूरे विश्व को समझने का प्रयास करता है वह सही नही हों सकता क्यों कि अपनी जड़ों से अलग कर हम दुनिया को कभी समझ ही नही सकते। क्यों कि मनुष्य पहले अपने परिवार फिर गांव –समाज से होकर ही बाकी दुनिया तक पहुँचता है। द्विविजेंद्र लाला राय ने –“लिखा धोनो –धान्यो पुष्पे भोरा आमादेर एई बोसुन्धोरा ..।” ठीक इसी तरह कवि भरत प्रसाद ने अपनी मातृभूमि को याद किया है –

“ओ मेरी विशाल और
महान मातृभूमि
मैं आज
तुम्हारी ममतामयी धूल और मिटटी को
साष्टांग प्रणाम करता हूँ
सदा हरी –भरी तुम्हारी गोद
प्रसन्न फूलों से पूर्ण
तुम्हारे पानी , फल और अन्न
हमें बहुत शक्ति देते हैं ” (वही,पृ.-२४ )
 

बहुत सही लिखा है कवि ने यहाँ हमारी धरती ही हमें शक्ति प्रदान करती हैं , अपनी धरती से बेदखल मनुष्य बहुत कमजोर हों जाता है। जिस तरह वृक्ष कभी धरती से अलग होकर जीवित नही रह सकता ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी धरती से अलग होकर बहुत कमजोर हो जाता है।

‘वह पुराना आदमी’ कविता में कवि ने आधुनिक मानवीय स्वाभाव पर कटाक्ष करते हुए उसे यहाँ बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है

–“उस रात के जब डूबने तक
हर कोई बस सो रहा था –
वह पुराना आदमी कब से
अचानक टूट करके –
बालकों सा रो रहा था
….
सुबह हुई सभी उठे
गए वहाँ खास लोग
रेडीमेड शब्दों में
करुणा की बारिश कर
खुद को कुछ कामों में व्यस्त कह ,
वापस घर –आकर
तीन –पांच धंधों में
जबरदस्त मस्त रहे”

यहाँ कवि ने मनुष्य के बदले हुए स्वाभाव को उजागर किया है। आज सहानुभूति के शब्द भी रेडीमेड हैं। ये शब्द दिल ने नही निकलते हैं। आज हमें अपने साथी मनुष्यों के प्रति /उसकी पीड़ा के प्रति कोई सहानुभूति नही रहीं, हमें मतलब है तो केवल अपने काम से।

(कवि: भरत प्रसाद)

जनकवि बाबा नागार्जुन के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए कवि भरत प्रसाद ने कविता लिखी है –“बाबा नागार्जुन” –

‘बदलती हुई शताब्दी के,
ठीक –ठीक पहले ही
ढेरों जनता की
एक कलम टूट गयी’

एकदम सटीक बात लिखी हैं कवि ने हमारे /जनता के प्रिय कवि नागार्जुन के लिए। नागार्जुन वे कलम थे जो लाखों जनों का प्रतिनिधित्व करते थे | आज बाबा जैसे कवि को खोज पाना दुर्लभ हों गया है।

“पक्की निगाह से
परख लिया राजनीति
देख लिया सत्ता के
शक्तिमान साजिश को,
सधे चोर संसद के
बहुत अच्छे भाषण में
कुर्सी की बदबू थी;
वादे थे बड़े –बड़े
खाली और खतरनाक
हरे –भरे घावों से
भरी हुई जनता पर
महजब का नमक डाल
जन सेवा करते थे।” (वही, पृ .३०)

भरत जी ने अपनी उच्च शिक्षा दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से प्राप्त किया है। जे.एन. यू. आज भी पूरे देश मेंकम्युनिस्ट विचारधारा का गढ़ माना जाता है। कौन भूल सकता है गोरख पाण्डेय को?  यहीं से देश को कई बड़े वामपंथी नेता मिले। इसी तरह एक छात्र नेता हुए थे कामरेड चन्द्रशेखर। अपने साथियों के अलावे जेएनयू में सभी छात्रों में खासे लोकप्रिय थे। वे अपने मित्रों के प्रिय चंदू थे। थे तो वे एक छात्र नेता पर केन्द्रीय सत्ता को भी भय लगता था इनसे। और सत्ता को जिससे भय लगता है वह उसे अपने मार्ग से हटा देता है। यही हुआ था चंदू के साथ भी। जेएनयू छात्र संघ के भूतपूर्व अध्यक्ष की बिहार के सिवान जिले में एक रैली को संबोधित करते वक्त सिवान का गुंडा और लालू यादव का खास शाह्बुददीन के इशारे पर उनकी हत्या कर दी गई थी। जिसके बाद सरकार को जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा और कोई महीनों तक छात्रों ने दिल्ली में सरकार के विरोध में आन्दोलन किया , जेल भरे गए ….देश के इस वीर सपूत के शहादत ने आज़ादी के दशकों बाद भगत सिंह की याद ताज़ा कर दिया था। अपने इस साथी को याद करते हुए कवि ने एक कविता लिखी हैं – ‘तुम रहोगे चंद्रशेखर’ यह सही भी है ऐसे लोग कभी मरते नही, वे सदा जीवित रहतें हैं हमारे भीतर, हमारी स्मृतियों में।

“चंद्रशेखर –तुम जा नही सकते
क्यों कि तुम –तुम नही ‘सब’ बन गये हों।
सपने जो बनाये , क्या मिट गये सभी ?
नही चंदू नहीं
वो तो आत्मा में बस गये हैं
।” (वही, पृ .४१)

बिलकुल ऐसे साथी कभी मरते नही , वे सदा जीवित रहते हैं हमारे भीतर अपने विचारों से। और एक सच्चे साथी का यह फ़र्ज है कि हम उनकी विचारधारा को आगे तक ले जाएँ। यही काम भरत जी यहाँ करते हुए दीखते हैं। यही इस कवि की प्रतिबद्धता का प्रमाण भी है। इसके लिए मैं कवि के प्रति अपना आदर प्रकट करता हूँ। उन्हें लाल सलाम देता हूँ।

इस संग्रह की एक और बेहतरीन कविता है –‘बामियान के बुद्ध’ कुछ समय पहले तालिबान आतंकवादियों ने अफगानिस्तान के बामियान की बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़ –फोड़ दिया था।| विश्व समुदाय ने इस घटना की कड़ी निंदा की थी। बुद्ध जिन्होंने सदियों पहले विश्व शांति के लिए अपना सब कुछ त्याग कर वनवास अपना लिया था और अंगुलीमल जैसे क्रूर हत्यारा उनके प्रभाव में आकर एक महान संत बन गये थे। इस बुद्ध के विचारों के प्रभाव से सम्राट अशोक का ह्रदय परिवर्तन हुआ था। आज भय से उनकी प्रतिमाओं को खंडित करने में लगे हैं। इससे बुद्ध और भी प्रासंगिक हों जाते हैं कि केवल उनकी मूर्तियों की मौजूदगी से आतंकी खौफ़ में हैं । कवि ने इन अबूझ दहशतगर्दों के लिए लिखा है –

“वह मूर्ति नहीं, वह धर्म नही
वह अमर रहेगा, राज करेगा दिल में
जब तक मानव में
यह ह्रदय रहेगा।
अपनी सोचो, कहाँ खड़े हों?
नई शती या मध्यकाल में,
विश्व बढ़ रहा है आगे –आगे
तुम हो वैसे पीछे जाते
महजब की बंजर धरती पर,
कट्टरता के अंधकार में
जानबूझ कर ठोकर खाते ….(वही, पृ .४३)

‘पेड़ की आत्मकथा’ इस संग्रह में दरअसल मनुष्य की आत्मकथा निहित हैं। इस संग्रह में कवि ने आज के समय की विसंगतियों का चित्र उकेरा है। कवि भरत प्रसाद के इस संग्रह में डाकू से सांसद बनी फूलन देवी पर भी एक कविता हैं। जो हमारी राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक ढांचे पर एक सवाल खड़ा करती है। प्रकृति पर भी कुछ बेहतरीन रचनाएँ हैं जो महान कवि विललियम वोर्सवर्थ की याद ताज़ा कर देती हैं। कुछ कवितायेँ जो लंबी हैं उन्हें कम शब्दों में भी लिखी जा सकती थीं पर शायद कवि के पास शब्द और अनुभव अधिक रहें हों। इस संग्रह में ४९ कवितायेँ हैं कुल मिलाकर यह एक बेहतरीन संग्रह है इन कविताओं को पढ़कर पाठक न केवल कवि के मनोभावों को समझ पाएंगे बल्कि वे अपने समाज और उसकी विसंगतियों से भी रु –ब रु होंगे। किन्तु संग्रह का मूल्य कुछ अधिक ही गया रखा है। आम पाठक इसे खरीदने में हिचकिचाएंगे।

पुस्तक –एक पेड़ की आत्मकथा
लेखक –भरत प्रसाद
प्रकाशक –अनामिका प्रकाशन,

५२, तुलारामबाग ,इलाहाबाद
मूल्य -२७५/-रु

समीक्षक – नित्यानन्द गायेन
हैदराबाद , मो -०९०३०८९५११६

आस्कर के बहाने : साम्राज्यवादी साजिशों का पर्दाफाश

पिछले वर्ष रामजी तिवारी की आस्कर पुरस्कारों की राजनीति पर एक महत्वपूर्ण किताब आई है ‘आस्कर अवार्ड्स: यह कठपुतली कौन नचावै।’ इस किताब पर हम जबरीमल्ल पारख की एक समीक्षा आप पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं। इसी किताब पर प्रस्तुत है दूसरी समीक्षा जिसे हमारे लिए लिखा है हमारे युवा कवि मित्र नित्यानंद गायेन ने। तो आईये पढ़ते हैं यह समीक्षा।    

नित्यानंद गायेन

वर्ष २०१३ में प्रकाशित पुस्तकों में चर्चित पुस्तकों में से एक पुस्तक है कवि –लेखक रामजी तिवारी जी की पुस्तक “आस्कर अवार्ड्स –यह कठपुतली कौन नचावे।” लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से विश्व सिनेमा और आस्कर पुरस्कारों के इतिहास के जरिये जनमानस के समक्ष नवसाम्राज्यवादी शक्तियों की साजिशों का पर्दाफाश किया है। लेखक का शोध और उनकी मेहनत इस किताब को पढ़ते हुए हम आसानी से महसूस कर सकते हैं।
६४ पृष्ठों की इस किताब में कुल १२ अध्याय है। देखने में बहुत पतली और सामान्य सी दिखने वाली इस पुस्तक में विश्व सिनेमा और आस्कर पुरस्कारों का अनोखा इतिहास छुपा हुआ है। आम दर्शक जब सिनेमा देखता है तो वह यह नही जानता कि वह सिनेमा क्यों देख रहा है? इसी बात पर लेखक ने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है कि –“वह कौनसी चीज है जो आपको सिनेमा घरों तक खींच कर ले जाती है?” क्या यह मात्र मनोरंजन तक सीमित है? या फिर इनके बनाने में इस्तेमाल की गई तकनीक का आकर्षण आपको खींचता रहता है? वह अभिनय या पटकथा, गीत है या संगीत,छायांकन है या अभिनेता /अभिनेत्री हैं या खलनायक जिसे देखने के लिए आपका मन कुलबुलाता रहता है?” (पृ.१३, अध्याय -२) यह एक अहम सवाल है जिसे लेखक ने यहाँ पूछा है। और इसका जबाव है कि हममे से अधिकतर दर्शक कभी इन प्रश्नों तक पहुँच ही नही पाते कि हम सिनेमा क्यों देखते है। आम दर्शक तो अपने–अपने पसंदीदा अभिनेता और अभिनेत्रियों के लिए या निर्देशकों के लिए फिल्म देखने जाते हैं। फिल्म निर्माण के तकनीक तक बहुत कम दर्शक ही सोच पाते हैं। आज सिनेमा के प्रोमोशन के इस हाईटेक युग में दर्शकों का एक बड़ा हिस्सा तो फिल्म का टेलर देखकर ही सिनेमा हाल पहुँच जाते हैं।

अध्याय -२ “दिल क्यों पागल है?” में लेखक रामजी तिवारी ने लिखा है –“सिनेमा का एक दूसरा माडल तानाशाहों का भी रहा है। इसमें व्यक्ति, जाति, धर्म और नस्ल को महामंडित किया गया है और ऐसा करने में तमाम प्रतिभाशाली लोगों का उपयोग किया गया है।” अपने इस व्यक्तव्य के समर्थन में रामजी तिवारी ने विश्व के दो तानाशाहों का बहुत ठोस उदाहरण दिया है ‘हिटलर और मुसोलिनी।’ “मुसोलिनी ही वह पहला व्यक्ति था, जिसने फिल्मोत्सवों की विधिवत शुरुआत की थी।” (पृ.१३) यहीं पर लेखक ने मुसोलिनी के उद्देश्य का भी अनुमान लगाया है, उन्होंने लिखा है –“शायद मुसोलिनी ने सोचा था कि इसके जरिये उसे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में माना जायेगा जिसने सिनेमा को बेहतर ढंग से समझा और उसका उपयोग किया। लेकिन हम सब जानते हैं कि उसने क्या किया।”(पृ.१३ ,वही) इसी अध्याय में तिवारी जी ने सिनेमा के तीसरे माडल का भी उल्लेख किया है। यह माडल है वाणिज्यिक और कारपोरेट संस्थाओं द्वारा स्थापित माडल। जिसका सिर्फ और सिर्फ एक ही लक्ष्य है अधिक से अधिक पूंजी कमाना।

आस्कर का भ्रम और बाज़ार। पुस्तक के पहले अध्याय में लेखक ने फ़िल्मी बाजारवाद के एक अति महत्वपूर्ण पक्ष को उजागर किया है –“आस्कर की व्याप्ति का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अगली बार जब आप किसी सी.डी. लाइब्रेरी में जायेंगे,तो दुकानदार आपको उस सी.डी. रैपर के ऊपर लिखा आस्कर नामांकन का ‘लोगो’ अवश्य दिखायेगा और मजे की बात यह है कि आप उसे देखना भी चाहेंगे। यही नहीं, वरन भविष्य की सिने किताबों में भी इन फिल्मों के लिए पन्ने सुरक्षित हो जायेंगे, और पत्र –पत्रिकाओं में इन फिल्मों का परिचय कराने के लिए इसे एक तरीके के रूप में इस्तेमाल भी किया जायेगा।” (पृ.९ ,वही) यह बाजारवाद के विस्तार का एक अटल सत्य है जिसे हम सबने महसूस तो किया पर शायद कभी इस पर गंभीरता से विचार नही कर पाये हैं जैसे लेखक ने किया है। उनकी यही दृष्टि लेखक हम आम सिने दर्शकों से खुद को अलग करता है। इसी अध्याय में लेखक ने आगे लिखा है –“भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आस्कर पुरस्कारों के प्रति ऐसा ही मोह और भ्रम पाया जाता है जबकि हकीकत यह है कि ये पुरस्कार अमेरिकी फिल्म इंड्रस्टी ‘हालीवुड’ के पुरस्कार हैं, जिसे ‘अकेडमी आफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइंसेज’ द्वारा हर साल प्रदान किया जाता है।”(पृ.१०,वही) पुस्तक के पहले अध्याय में आस्कर पुरस्कारों के इतिहास पर रामजी तिवारी जी ने विस्तार से लिखा है।

पुस्तक का तीसरा अध्याय भी बहुत रोचक है ठीक उसी तरह है चौथा अध्याय भी जिसका शीर्षक है ‘दुनिया जब जल रही थी’ पुस्तक के इस पाठ में लेखक ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद किस तरह अमेरिका ने फिल्मों के जरिये अपनी छवि को दुनिया के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश की और हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम गिरा कर भी खुद को बेकसूर साबित करने की चेष्टा की साथ ही यूरोप के वे सभी देश जो दूसरे महायुद्ध के लिए जिम्मेदार थे अपनी साफ –सुथरी छवि प्रस्तुत की है यहाँ ऐसी फिल्मों की एक लंबी सूची है।

अध्याय पांच ‘वियतनाम युद्ध और हालीवुड मायोपिया’ में वियतनाम युद्ध का इतिहास और अमेरिका की भूमिका का संक्षिप्त किन्तु सटीक तथ्यों को पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। किस तरह फिल्मों के जरिये अमेरिका ने खुद को दोष मुक्त करने का प्रयास किया है यहाँ उसका विवरण दिया गया है। ऐसी फिल्मों की सूची इस पाठ में मौजूद है।

कुल मिला कर इस पुस्तक में फिल्म और आस्कर पुरस्कारों के माध्यम से किस प्रकार अमेरिका और यूरोपीय देशों ने अपने वर्चस्व और साम्राज्यवादी सोच का विस्तार किया है यह हम इस पुस्तक को पढ़ कर ही समझ सकते हैं। किस तरह से एशिया और तीसरी दुनिया के देशों की फिल्म और मनोरंजन उद्योग और बाज़ारों पर कब्ज़ा करने की साजिश रची गई है इसका खुलासा किया गया है। किस प्रकार फिल्मों के जरिये एक्शन और सेक्स के माध्यम से युवाओं को भटकाकर आकर्षित करने का प्रयास किया जा रहा है उस रणनीति का खुलासा है यह पुस्तक। आस्कर के नाम पर भेदभाव और तथ्यों को नकारा गया और दुनिया भर में आस्कर के प्रति लालच फैलाया गया है इसे लेखक ने इस छोटी सी पुस्तक में बखूबी प्रस्तुत किया है साथ ही भारत जैसे देशों के फिल्मकारों के आस्कर के लिए झुकाव पर भी लेखक ने प्रश्न खड़ा किया है। कुल मिला कर २०१३ में आयी यह पुस्तक सर्वाधिक सार्थक और चर्चित पुस्तकों में से एक है और सदा बनी रहेगी इसकी पहचान। पुस्तक के अंत में विश्व के श्रेष्ठ फिल्मकारों की एक सूची उनकी संक्षिप्त जीवनी और महत्वपूर्ण फिल्मों के साथ प्रस्तुत है।

पुस्तक में उल्लेख बहुत सारी घटनाएँ और तथ्य इंटरनेट पर भी उपलब्ध है किन्तु उन्हें पढ़ कर और सही तरीके से प्रस्तुत करना कठिन कार्य है जिसे लेखक ने बहुत शानदार तरीके से किया है और आज की तारीख में इंटरनेट से जानकारी हासिल करना जरुरी भी है। सूचनाएं केवल इंटरनेट से ही नहीं ली गयी हैं बल्कि इसके लिए लेखक ने विश्व इतिहास और फिल्म इतिहास का गहन अध्ययन भी किया है। उनकी मेहनत को इस पुस्तक को पढ़े बिना समझना संभव नही है।

मैं इस पुस्तक को जब-जब पढ़ा मुझे हर बार मुझे एक नई समझ मिली। और मुझे इस पुस्तक में कोई कमी या त्रुटि नज़र नहीं आई है। केवल एक कमी है कि पुस्तक में लेखक से संपर्क करने का कोई माध्यम नही दिया गया है।

मैं इस पुस्तक के लिए लेखक और प्रकाशक को बधाई देता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि इसका दूसरा संस्करण भी पाठकों सामने जल्द आएगा।
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पुस्तक –आस्कर अवार्ड्स –‘यह कठपुतली कौन नचावे’
लेखक –रामजी तिवारी
प्रकाशक –द ग्रुप, जन संस्कृति मंच, गाज़ियाबाद
मूल्य -४०/ रू मात्र


समीक्षक –नित्यानंद गायेन
4-38/2/B, R.P.Dubey colony ,
Lingampally, Hyderabad -500019.
Mob-09642249030

नित्यानन्द गायेन

बोधि प्रकाशन जयपुर से कवि राज्यवर्द्धन के सम्पादन में ग्यारह कवियों की कविताओं का एक संकलन ‘स्वर एकादश’ नाम से आया है। इस संग्रह पर युवा कवि नित्यानन्द गायेन ने एक समीक्षा लिखी है जो पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।

एक रंग ग्यारह सुर

‘स्वर-एकादश’  में  ग्यारह कवियों की कविताएँ एक साथ, कुछ नए और कुछ चर्चित नाम। अग्निशेखर, केशव तिवारी, महेशचन्द्र पुनेठा, संतोष चतुर्वेदी, शहंशाह आलम, राजकिशोर राजन, सुरेश सेन निशांत, भरत प्रसाद जैसे चर्चित कविओं के साथ हैं राज्यवर्धन, ऋषिकेशराय और कमलजीत चौधरी जैसे युवा कवि।

इस संग्रह में सबसे पहले हैं अग्निशेखर की कविताएँ, इनकी कविताओं को पढ़ते हुए कवि के मन में पल रही विस्थापन की पीड़ा को आसानी से महसूस किया जा सकता है।.साथ ही मातृभूमि के लिए उनके प्रेम को भी। पहली कविता ‘पुल पर गाय’ में कवि लिखते हैं-

सब तरफ बर्फ है खामोश
जले हुए हमारे घरों से ऊँचे हैं
निपते पेड़
एक राह-भटकी गाय
पुल से देख रही है
खून की नदी
रंभाकर करती है
आकाश में सुराख़
छींकती है जब भी मेरी माँ
यहाँ विस्थापन में
उसे याद कर रही होती है गाय

इस कविता में कवि विस्थापित हुए लाखों माँओं की पीड़ा को व्यक्त करते हैं। माँ आज भी असहाय है एक गाय की तरह ..जो पीड़ा होने पर केवल रंभाती है। माँ की वेदना का वर्णन बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है कवि ने यहाँ। माँ सहमी हुई है खून की नदी देख कर। अपने ही देश में विस्थापितों की तरह रहना कितना कष्टकर है और शासन द्वारा उनके साथ किस तरह का सुलूक किया जाता है इसका वर्णन कवि अपनी दूसरी कविता में किया है।

“भाड़ा न देने के इल्जाम में
इन  दिनों पुश्किन जेल में है”

विरसे में गांव’ एक और मार्मिक रचना है। ठीक इसी तरह की एक रचना है ‘मेरी डायरियां’ संग्रह की श्रेष्ठ रचनाओं में इनकी गणना होनी चाहिए। ‘विरसे में गांव’ में कवि कहता है-

पिता मैं साँस –साँस जी रहा हूँ 
गांव अपना 
तुम स्वीकार करो मेरा तर्पण”

कवि मातृभूमि को न भूलने का पिता को दिया हुआ वचन निभा रहा है। एक शानदार रचना है यह। कवि अपनी सभी रचनाओं में अपने नाम के अनुरूप ही प्रस्तुत हुए हैं।

इस संग्रह में सर्वाधिक प्रभावित करने वाले कवियों में हैं – हिमाचल के कवि सुरेश सेन निशांत। इनकी केवल चार कविताएँ हैं इस संकलन में। चारों रचनाओं में ‘गुजरात’ बहुत ही मजबूत रचना है। गुजरात दंगो के बाद से पूरे देश की तरह कवि भी सहमा हुआ है। वह पहाड़ी राज्य हिमाचल से गुजरात के हालातों का विश्लेषण करते हैं क्योंकि कवि अपने पुत्र को गुजरात भेज रहा है और उसकी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं जैसे कई और माँ-बाप होते हैं। किन्तु कवि को उम्मीद है कि गुजरात की उर्वर मिट्टी उनके पुत्र का ख्याल रखेगी। कवि अपने पुत्र को खाली हाथ नही भेज रहे हैं वे उसके साथ भेज रहे हैं पहाड़ की तमाम वस्तुएं।

“गुजरात
मैं अपने बेटे को
इन पहाड़ों से दूर, इन दुखों से दूर
इन जर्जर पुलों और
इन उबड़खाबड़ रास्तों से दूर
तुम्हारे पास भेज रहा हूँ
तुम इसका ख्याल रखना”

इन पंक्तियों में कवि ने साफ़ संकेत दिया कि कवि सुख से अपने बेटे को अपने से अलग नही कर रहे हैं।

“गुजरात, मैं इसे यहाँ से कभी नही भेजता
अगर सेब के ये पौधे
किसी बीमारी से सूखने न लगते
मैं इसे यहाँ रखता
अगर नदियों का जल स्तर
अपनी जगह रहता स्थिर 
हमारे कुछ अपने लोग
हमारे सपने कर रहे हैं
तहस-नहस”

कवि किस तरह विचलित हैं पहाड़ के वर्तमान हालात से इन पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है।

“गुजरात
मैं इन पहाड़ों से
भेज रहा हूँ
सुगन्धित फूलों के कुछ बीज
मैं भेज रहा हूँ
पहाड़ से हर –हराती एक नदी
मैं उस नदी के सीने में भेज रहा हूँ
हजारों स्वपनिली रंगीन मछलियाँ”

भाषा और शिल्प की दृष्टि से बहुत ही मजबूत रचनाओं में से एक और निसंदेह संकलन की सबसे चर्चित कविताओं में से भी एक रचना है गुजरात। ‘पिता की छड़ी’ और बाकी रचनाओं में भी कवि की यह खूबी पाठक बखूबी देख सकते हैं।

संकलन के सबसे चर्चित कविओं में हैं केशव तिवारी। कवि केशव तिवारी समकालीन कविता जगत में ‘लोक’ के लिए जाने जाते हैं। और अपनी इस पहचान को वे बखूबी बनाएँ रखते हैं अपनी रचनाओं में। यहाँ उनकी कुल चार कविताएँ हैं। कवि अपनी मिट्टी की गंध, उसके दर्द से खुद को अलग नही कर पाता। उसे चिंता है हमारे समाज में हो रहे परिवर्तन की। उसे चिंता है एक दिहाड़ी मजदूर की। कवि उसके दर्द से आहत है। ‘बिसेसर’ उनकी सबसे लंबी रचना है इस संकलन में। यह एक गंभीर रचना है।  इस रचना में हम नागार्जुन की शैली को देख सकते हैं। ठीक इसी तरह की एक रचना है ‘रातों में कभी –कभी रोती थी मरचिरैया’

कल रात कविता में कवि एक मजदूर की व्यथा को बहुत ही मार्मिक रूप में प्रस्तुत करते हैं।

“शराब के नशे में शिथिल 
उदास आँखों को इस तरह रोते मैंने 
देखा पहली बार।

यह एक सम्वेदनशील कवि की ऑंखें ही है जो एक मजदूर के आंसूओं की भाषा पढ़ लेती हैं। ‘दिल्ली में एक दिल्ली यह भी’ कविता में कवि जहाँ पूंजीवादी इस दौर में स्वार्थी रिश्तों का खुलासा करते हैं वहीं एक बूढ़े कवि की उदारता को भी बहुत सम्वेदनशीलता के साथ बयान करते हैं-

“यह जानते हुए कि दिल्ली से बोल रहा हूँ
बदल गई कुछ आवाजें
कुछ ने कहला दिया दिल्ली से बाहर हैं
कुछ ने गिनाई दूरी
कुछ ने कल शाम को
बुलाया चाय पर
यह जानते हुए भी कि
शाम की ट्रेन से जाना है वापस”

कहते हैं न सच्चे मित्रों की पहचान कठिन समय पर ही होती है यही हुआ कवि के साथ भी।

वहीं एक बूढ़ा कवि जब यह सुनता है कि एक कवि उनके ही शहर में हैं और होटल में ठहरे हुए हैं तो वे नाराज हो जाते हैं और कवि को अपने घर पर आने का स्नेहपूर्ण आदेश देते हैं। अकेला वृद्ध कवि एक युवा कवि के लिए भोजन के साथ के लिए इंतजार करते हैं। उस बूढ़े कवि में इस युवा कवि को एक देवदूत दिखाई पड़ता है। मानवीय सम्बंधों का एक नायाब उदाहरण है यह रचना।

इस संकलन में हमारे समय के एक और चर्चित कवि हैं महेश चन्द्र पुनेठा। इनकी आठ रचनाएँ हैं इस संग्रह में। महेश जी की पहचान एक लोकधर्मी कवि की है। संग्रह की अपनी पहली रचना में ही वे अपनी उपस्थिति दर्ज करा देते हैं। बहुत ही छोटी रचना है ‘प्रार्थना’

‘विपत्तियों से घिरे आदमी का
जब
नही रहा होगा नियंत्रण
परिस्थितियों पर
फूटी होगी /उसके कंठ से पहली प्रार्थना
विपत्तियों से उसे
बचा पायी हो या नही प्रार्थना
पर विपत्तियों ने
अवश्य बचा लिया प्रार्थना को। 

कितनी सटीक प्रस्तुति है। कविता छोटी होते हुए भी सार्थक है यही एक सामर्थ कवि की खूबी भी है। ठीक इसी तरह उनकी बाकी रचनाएँ भी हैं। ‘कैसा अदभुत समय है’ भी एक शानदार कविता है महेश जी की।

“कैसा अदभुत समय है 
हत्यारा बाँट रहा है पुरस्कार 
उन्हें हत्या के खिलाफ़ हैं जो
शर्म होनी चाहिए थी जहाँ 
गर्व झलक रहा है वहाँ।”

समाज और राजनीति में हो रहे बदलाव पर कवि की पैनी नजर है और यही कवि का कर्तव्य भी है।

युवा कवि और आलोचक संतोष चतुर्वेदी की कविताएँ हैं ‘स्वर-एकादश’ में। संतोष मूलतः लंबी कविताएँ लिखते हैं। उनकी कुल पांच कविताएँ हैं इन संकलन में। पांच इसलिए शायद कि उनकी कविताएँ लंबी हैं। मैं यहाँ सिर्फ उनकी एक कविता का उल्लेख करूँगा।

“पानी का रंग” संकलन की सबसे अलग कृति है . वैसे तो पानी पर अनेकों कविताएँ लिखी /रची गई हैं किन्तु पानी का रंग सच में एक अनूठे रंग की कविता है इस पानी में जीवन का रंग है
पाठक इस कविता को बार पढ़ना चाहेगा –

गौर से देखा एक दिन
तो पाया कि
पानी का भी एक रंग हुआ करता है
अलग बात है यह कि
नही मिल पाया इस रंग को आज तक
कोई मुनासिब नाम

एक और छंद देखिये :-

‘अनोखा रंग है पानी का
सुख में सुख की तरह उल्लसित होते हुए
दुख में दुख के विषाद से गुजरते हुए
कहीं कोई अलगा नहीं पाता
पानी से रंग को
रंग से पानी को
कोई छननी छान नहीं पाती
कोई सूप फटक नहीं पाता
और अगर ओसाने की कोशिश की किसी ने
तो खुद ही भीग गया आपादमस्तक…..’


बहुत कठिन है पानी में छिपे रंग को परिभाषित कर पाना
इसलिए तो कवि लिखते हैं –


अपनी बेनामी में भी जैसे जी लेते हैं तमाम लोग
आँखों से ओझल रह कर भी अपने मौसम में
जैसे खिल उठते हैं तमाम फूल
गुमनाम रह कर भी
जैसे अपना बजूद बनाये रखते हैं तमाम जीव
पानी भी अपने समस्त तरल गुणों के साथ
बहता आ रहा है अलमस्त
निरंतर इस दुनिया में
हरियाली की जोत जलाते हुए
जीवन के फुलवारी में लुकाछिपी खेलते हुए

अनोखा रंग है पानी का
सुख में सुख की तरह उल्लसित होते हुए
दुःख में दुःख के विषाद से गुजरते हुए
कहीं कोई अलग नही पाता …….

 संग्रह में एक और कवि हैं डा. भरत प्रसाद, जो इन दिनों पूर्वोत्तर के मेघालय राज्य में रहते हैं। भरत जी अच्छे कवि के साथ –साथ उभरते हुए आलोचक एवं स्तंभ लेखक भी हैं। उनकी कविता ‘सर उठाओ बन्धु’ एक क्रांतिकारी रचना है। अपनी इस रचना में वे किसान, मजदूर, शोषित–पीड़ित आम जन को अन्याय के विरुद्ध सर उठाने का आह्वान करते हैं। कवि वांछित लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागृत करते हैं –

“मौके पर सटीक उत्तर न देने की चालाकी
हाथ–पैर, जुबान से ही नही
दिलोदिमाग से भी तुम्हें नपुंसक बना देती है।”

कवि मरे हुए चेतना पर आघात करते हैं ताकि समय रहते हम जाग जायें।

इस संग्रह के बारे में जैसा कि आदरणीय गणेश पाण्डेय जी ने लिखा है “कवि की उम्र का कविता के अच्छे होने या यादगार होने का कोई संबंध नहीं है। मुझे अच्छा यह लगा कि हिंदी की पारंपरिक शिक्षा न लेने वाले कई कवि जिन्होंने इतर विषयों में डिग्री ली है, उनकी कविताएँ पानी की तरह तरल, सहज और सरल हैं। इतनी पारदर्शी और इतनी कोमल कि पूछिए मत। सीधे हृदय को छू जाती है।” मैं गणेश जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ।

अब बात करते हैं संकलन के सम्पादक  राज्यवर्धन जी के बारे में। इस संकलन में इनकी भी छह कविताएँ हैं। कविताओं की भाषा सरल है और यही राज्यवर्धन की खासियत भी है। हिंदी कविता के क्षेत्र में राज्यवर्धन एक तेजी से उभरता हुआ नाम भी हैं। किन्तु इस संकलन में उनकी पहली कविता ‘कबीर अब रात में नही रोता’ से मैं निराश हूँ। “कबीर” की क्या छवि है हिंदी साहित्य में वे किस बात के प्रतीक हैं? क्या कवि इस बात से परिचित नही हैं? कबीर चेतना के प्रतीक हैं और वे किसी भी युग में जहाँ अज्ञान, पाखंड, शोषण मौजूद हैं वहाँ उन्हें नींद कभी आ ही नही सकती। हालाँकि कवि शायद आज के कुछ कवियों पर चुटकी ले रहे हों अपनी इस रचना के माध्यम से तो भी कबीर को प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करना मुझे व्यक्तिगत तौर पर उचित नही लगा। संग्रह में शहंशाह आलम, राज किशोर राजन, ऋषिकेश राय के साथ-साथ कमलजीत चौधरी जैसे युवतर कवि  की भी कवितायें शामिल हैं, जो काफी कुछ उम्मीद जगाती हैं।
 
अब बात इस किताब के चयनकर्ता वरिष्ठ कवि –लेखक प्रभात पाण्डेय जी के बारे में। इस पुस्तक में उनका क्या योगदान है? यदि उन्होंने कवि और कविताओं का चयन किया है तो फिर सम्पादक ने क्या किया? जिन्होंने कविताओं का चयन किया सम्पादन का काम भी उन्हें ही दिया जाना चाहिए था क्योंकि सम्पादक खुद बतौर कवि इस संकलन में हैं। क्या सम्पादक ने उन्हें काबिल नही पाया? इस संकलन में प्रभात पाण्डेय के नाम का बस उपयोग भर किया गया है। सम्पादक ने ‘प्रस्तावना’ में संकलन को अखिल भारतीय स्वरूप देने की जो बात लिखी है वह सही नही है क्योंकि  इस संकलन में दो कवि जम्मू-कश्मीर से हैं, दो कवि कोलकाता से, एक कवि मेघालय से, दो कवि बिहार से और दो कवि उत्तर प्रदेश से और एक–एक कवि हिमाचल और उत्तराखण्ड से हैं। इस संकलन में न तो कोई मध्य प्रदेश से हैं न महाराष्ट्र से न दक्षिण भारत से। जब सम्पादक मध्य भारत की सीमा तक को पार नहीं कर पाया तब वह इस संग्रह को अखिल भारतीय स्वरुप वाला कैसे कह सकता है? इस सीमा के बावजूद हमारे समय के कवियों का यह एक महत्वपूर्ण संकलन बन पडा है इसमें कोई दो-राय नहीं।  

पुस्तक- ‘स्वर-एकादश’, बोधि प्रकाशन, जयपुर, मूल्य -७०/-रूपये

संपर्क –
नित्यानंद गायेन
4-38/2/बी., आर. पी, दुबे कालोनी, 

लिंगमपल्ली, 
हैदराबाद -500019
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