कब कहलीं हम : समय पर समय का सच
सुमन कुमार सिंह
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समकालीन सृजन का समवेत स्वर
सुमन कुमार सिंह
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बलभद्र
जितेन्द्र कुमार का काव्य-संग्रह ‘समय का चन्द्रमा’ वर्ष 2009 में ही प्रकाशित हुआ था। यह संग्रह मुझे उसी वर्ष मिला था। कुछ कविताएँ मैंने उसी समय पढ़ ली थीं और अधिकांश तो पहले से पढ़ी अथवा सुनी हुई थीं। कविताएँ विचारपूर्ण हैं। कवि की प्रगतिशील दृष्टि संग्रह की कविताओं में देखी जा सकती है। जितेन्द्र जी की एक काव्य-पुस्तिका भी प्रकाशित है (रात भर रोई होगी धरती), इस संग्रह से पहले, और उस पुस्तिका की कविताएँ भी इस संग्रह में हैं। उस पुस्तिका की कविताओं पर मैं पहले लिख चुका हूँ, सो, इस संग्रह पर कुछ लिखने में विलम्ब हुआ और यह विलम्ब मेरी समझ से स्वाभाविक है। जितेन्द्र जी की कविताओं में जो दिखाई देता है उसे समझना बहुत जरूरी है। ये अपनी कविताओं में ‘जनसंहार’ का जिक्र करते हैं। ‘बाथे’, ‘बथानी टोला’ आता है, ‘मियाँपुर’ आता है। इन सबको समझे बगैर इनकी कविताओं के मर्म को वस्तुगत संदर्भों में नहीं समझा जा सकता है। ‘बथानी टोला’ बिहार के भोजपुर जिला का एक गाँव है। राज्य मशीनरी का संरक्षणप्राप्त सामंतों की निजी सेना ‘रणवीर सेना’ ने इस गाँव के गरीबों, दलितों व अल्पसंख्यक समुदाय के औरतों, बच्चों सहित अनेक लोगों की बेहद निर्ममतापूर्वक हत्या कर डाली थी। लालूराज में बिहार में अनेक जनसंहार हुए जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये। जितेन्द्र जी की कविताएँ इन जनसंहारों की पीड़ा और उसके प्रतिवाद से जुड़ी हुई हैं। ‘मृदंग’ कविता में रातभर धरती इसी पीड़ा में रोती है और सूरज धरती के आँसुओं को पोंछता है। मुझे बार-बार महसूस होता है कि यह जो सूरज है, ऊपर-ऊपर देखने पर तो लगता है कि जो सुबह में उगता है पूरब की दिशा में वह सूरज है, पर वास्तव में वह कवि के भीतर जो एक सूरज बैठा है प्रतिबद्ध विचार का सूरज, वह सूरज है, जो बथानी टोला के दुख-दरद में दुखी है और आक्रोशित भी है, पर असंतुलित नहीं है। कविता की पूरी बुनावट देखने लायक है। प्रकृति के उपादानों और क्रिया-कलापों के वर्णन के साथ कविता नरसंहार से जुड़ जाती है और इसके जुड़ते ही कविता में गजब की तीव्रता आ जाती है, कविता नाद से जुड़ जाती है, संकल्प-नाद से, एक आवाहन की तरफ गतिशील हो उठती है और सत्ता और सामंतों को ललकारने की मुद्रा में आ खड़ी होती है।
जितेन्द्र जी शासकवर्ग के राजनीतिक छल-छन्द को समझते हैं, उसके चिकने-चुपड़े मुहावरों को भी। वे उस जन-समाज को भी जानते-समझते हैं जो गरीब है, हाशिए पर है, अशिक्षित है। पर थका-हारा नहीं है। वह अपनी राजनीतिक पार्टी और दिशा की तलाश करता है और उसके कार्यक्रमों से अपने को जोड़ता है और राजधानी पटना की सड़कों पर अपनी माँगों को बुलन्द करते हुए राज्य- मशीनरी की जनविरोधी नीतियों को उजागर करता है। अपने को विशाल जनसमुदाय से जोड़ता है और खाकी वर्दी के आतंक को धत्ता बताता है। ‘मेरे गाँव की अँगूठा छाप औरतें’ कविता में देखा जा सकता है कि
‘खाकी वर्दी से नहीं डरती अब
हाथ में हँसिया लेकर
विधान सभा का घेराव करने
राजधानी चली जाती हैं।’
ये औरतें अपने पूरेपन में बिल्कुल आम औरतों की तरह हैं। ये ढिबरी जलाती हैं, चूल्हा-चौका करती हैं, रोपनी-सोहनी करती हैं, गीत गाती हैं और विधान सभा का घेराव भी करती हैं। एक साथ अनेक दायित्वों का निर्वाह करती हैं। कवि केवल विधान सभा का घेराव करते दिखलाता तो इन औरतों की विशेषताएँ समग्र रूप में नहीं आ पातीं। कविता का सबसे मजबूत अंश वह है जहाँ कवि उनके चूल्हे जलाने और उनके पाँवो की आहट पर गोशाला के बछड़े के बाँ-बाँ बोलने का वर्णन करता है –
‘चूल्हे के धुएँ से संकेत देती हैं दिन के शुरू होने का
‘आँगन में उनके थिरकते पाँव की पदचाप सुनकर
गोशाला में बछड़ा बोलता है –
बाँ! बाँ!! बाँ!!!’
जितेन्द्र जी जिस जाति अथवा वर्ग से आते हैं, उसके अंतर्विरोधों, उसकी अकड़ की प्रवृत्ति, कामचोरी, ऐय्याशी, बदमाशी सबको भली-भाँति जानते हैं और बहुत नजदीक से उसकी तीखी निंदा करते हैं, अपने निकट के किसी पात्र के इर्द-गिर्द कविता का ताना-बाना बुनते हुए। सामंती संस्कृति की पतनशीलता को उनकी कई कविताएँ अलग-अलग ढंग से दर्शाती हैं।
ये डाक विभाग की नौकरी में थे। कई जगहों पर इन्हें काम करना पड़ा है। ये अनेक जनसंगठनों से जुड़े रहे हैं। झारखण्ड में भी इन्हें रहने का मौका मिला है। इनकी कविता में जो ‘पलाश’ है वह झारखण्ड का पलाश है। नौकरी के आखिरी चरण में इन्हें आरा से पटना प्रतिदिन आना-जाना पड़ा है। इस आने-जाने में उन्हें बहुत कुछ देखने-सुनने को मिला है। अपनी कविताओं में वे इन सारे प्रसंगों और अनुभवों का बहुत रचनात्मक उपयोग करते हैं। इन प्रसंगों और अनुभवों को वे देश-दुनिया के प्रसंगों, बहसों-विमर्शों, स्थितियों से जोड़ते हुए एक नई और महत्वपूर्ण बात कहने की कोशिश करते हैं।
‘जमवट’, ‘हर्षातिरेक’, ‘सनहवा’, भिखारी’, ‘प्रेम के मोती’ कविताएँ मुझे काफी अच्छी लगी हैं। ‘मेरा प्रदेश’ कविता के बारे में पहले ही विस्तार में लिख चुका हूँ। यह कविता पूर्व प्रकाशित पुस्तिका में भी थी। ‘कविता लिखने का वक्त’ भी अच्छी कविता है। यह कविता लोक के जगने की प्रक्रिया के साथ खुद को जोड़ने की कविता है। ‘जमवट’ पुरानी ग्रामीण-संस्कृति के रचनात्मक पक्ष को उजागर करती कविता है। कुएँ की खुदाई के बाद जब उसकी दीवार जोड़ी जाती थी तब जामुन की लकड़ी को कुएँ का आकार देकर उसे बुनियाद में डाला जाता था और उस पर से ईंटों की जोड़ाई शुरू होती थी। इसकी पूरी एक सांस्कृतिक प्रक्रिया थी। उत्सव जैसा माहौल हो जाता था। औरतें गीत-गाती थीं। लकड़ी में हल्दी लगाई जाती थी। जितेन्द्र जी ने इस कविता के जरिए अतीत के उस सांस्कृतिक प्रसंग को प्रकट किया है और ‘जमवट’ के जरिए जो नई बात कही है कि गाँव के मेहनतकश लोग ही किसी देश की बुनियाद होते हैं। वे ही देश की नींव में जमवट की तरह होते हैं। जामुन की वह लकड़ी वर्षों तक पानी में डूबी होकर भी सड़ती नहीं थी। यह एक सांस्कृतिक रागबोध की कविता है।
‘हर्षातिरेक’ में एक नन्हीं-सी बच्ची है और उसकी प्यारी अदाएँ हैं। वह बच्ची कवि की बेटी की बेटी है। दराज की एक-एक चीजें वह निकाल बाहर करती है। कवि उसकी इस बाललीला पर फिदा है और अपने ‘नाना’ होने के गर्व का उद्घोष करता है। यह हर्ष, यह गर्व और यह उद्घोष किसको नहीं भायेगा?
‘सनहवा’ दरअसल एक बाग का नाम है, कवि के गाँव का एक बाग है जो अब नहीं है। वह कवि की स्मृतियों में उभरता है। बाग के साथ कवि का बचपन जुड़ा हुआ है। वह बाग इस वजह से याद आता है कि कवि ने आरा शहर के पकड़ी गाँव के बगल के एक बाग को देखा, उस बाग को देखते हुए उसे समझ में आया कि ‘सनहवा’ की तरह यह बाग भी अब समाप्त हो जायेगा। शहर का विस्तार इसे निगल जायेगा। बचपन की स्मृतियों ने इस कविता को मर्मस्पर्शी बनाया है।
‘प्रेम के मोती’ पढ़ते वक्त मन भीतर से भींग गया। एक वृद्ध-विधुर अपनी पत्नी से बिछड़ने के दुख के साथ है। वे दोनों पति-पत्नी बुढ़ापे में ‘चिड़िया के जोड़े की भाँति’ पास-पास बैठते थे। जाड़े में बोरसी की आग आमने-समने बैठ कर तापते थे। गाँव के निम्न-मध्यवर्गीय परिवेश का यह बिम्ब है। ‘भिखारी’ कविता गरीबी-लाचारी के बावजूद मनुष्योचित व्यवहार की माँग को रेखांकित करती है। अपमानपूर्वक दिये गये ठेकुए को एक भिखारी ठुकरा देता है। उसका यह ठुकराना अच्छा लगता है। ‘इराकी बालक’ कविता पढ़ते हुए फैज की एक कविता ‘मत रो बच्चे’ याद आती है। इस बच्चे के माँ-पिता एक आक्रमण में मारे जाते हैं। जितेन्द्र जी मार्क्सवादी विचारधारा के कवि-कहानीकार हैं। वैश्वीकरण, उदारीकरण, साम्राज्यवाद आदि के माने-मतलब अच्छी तरह जानते हैं। अपनी अनेक कविताओं में वे वैश्वीकरण के निहितार्थों एवं उससे उत्पन्न होने वाले संकटों की तरफ संकेत करते हैं। एक ही साथ वे सामंती संस्कृति, साम्राज्यवादी पैंतरों एवं भारतीय शासक वर्ग के साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ रिश्तों को उजागर करते हैं।
इनकी कविताएँ इनके गहन मानसिक उद्वेलनों, इनके राजनीतिक सरोकारों, आम आदमी के साथ इनके जुड़ावों, एक ऐक्टिविस्ट की सक्रियताओं की उपज हैं। भाषा एकदम सहज है। कविताओं को पढ़ते समय लगता है कि नितांत गद्य की तरह शुरू हुई कविताओं में बीच-बीच में लय, तुक आदि स्वतः मिलते जाते हैं, अपने एक सहज प्रवाह में। व्यंग्य के साथ-साथ करुणा और एक प्रतिवाद भी कविताओं में सहज प्रवाह में उभरता दिखता है। ‘पुरानी हवेली’ कविता में बहुत धीरे से हवेलियों के दिन लद जाने वाली बात उठाई गयी है। हवेलियों के अच्छे दिन किस तरह के थे, कैसे वे अच्छे दिन उत्सव से भरे होते थे और बुरे दिन किस तरह के हैं जो आ गये हैं- के वर्णन में कविता खूब सधी है। ‘हवेली’ पुरानी सामंती संस्कृति की प्रतीक है। कवि साफ शब्दों में कहता है –
‘बहुत खतरनाक हो गया है
पुरानी हवेली में रहना।’
हमारे ‘समय का चन्द्रमा’ आज अनेक संकटों और सवालों से आच्छादित है। उसे पूर्णतः खिलने, स्वतंत्रतापूर्वक अपनी चाँदनी बिखेरने का अवसर ही नहीं मिलता। वह जीवन की स्वाभाविक गति से दूर है। किसान, मजदूर, छात्र, बालक, बूढ़े, औरतें, युवक, युवतियाँ, घर, खेती, फसलें, बाग-बगीचे – सब वर्तमान माहौल में थके, ऊबे, असुरक्षाबोध से भरे हुए हैं। थोड़ी-सी चहल-पहल जो है बची हुई, सो जीवन की अपनी एक स्थिति और गति के चलते है। यह अब कितनी देर बची रहेगी, कहना कठिन है। ‘समय का चन्द्रमा’ इन प्रश्नों, इन संदर्भों, इन स्थितियों के साथ-साथ इनको समझने और इनसे उबरने के प्रयत्नों को रेखांकित करती कविताओं का संग्रह है।
समीक्ष्य कविता संग्रह
समय का चन्द्रमा, जितेन्द्र कुमार,
किताब पब्लिकेशन, हाजीपुर रोड,
मुजफ्फरपुर- 842002, मूल्य- 125 रू0 मात्र।
सम्पर्क –
असिस्टेन्ट प्रोफेसर – हिन्दी,
गिरिडीह कॉलेज, गिरिडीह,
झारखण्ड।
मो0- 09801326311
बलभद्र
आरा में कथाकार मधुकर सिंह के सम्मान में हुआ एक समारोह मधुकर सिंह सम्मान समारोह में कई राज्यों से साहित्यकारों का जुटान हुआ। बिहार के चर्चित कथाकार मधुकर सिंह पिछले करीब पांच साल से पैरालाइसिस के कारण कहीं भी अपने पैरो के बल पर चल कर जाने में असमर्थ हैं, लेकिन उनके लेखनी पर उनके हाथों और दिमाग की पकड़ कतई कमजोर नहीं पड़ी है। भोजपुर जिले के मुख्यालय आरा से बिल्कुल सटे हुए अपने गांव धरहरा में अपने घर में वे अस्वस्थता की स्थिति में भी लिख रहे हैं। सोनभद्र की राधा, सबसे बड़ा छल, सीताराम नमस्कार, जंगली सुअर, मनबोध बाबू, उत्तरगाथा, बदनाम, बेमतलब जिंदगियां, अगिन देवी, धर्मपुर की बहू, अर्जुन जिंदा है, सहदेव राम का इस्तीफा, मेरे गांव के लोग, कथा कहो कुंती माई, समकाल, बाजत अनहद ढोल, बेनीमाधो तिवारी की पतोह, ‘जगदीश कभी नहीं मरते’ समेत मधुकर सिंह के उन्नीस उपन्यास और पूरा सन्नाटा, भाई का जख्म, अगनु कापड़, पहला पाठ, असाढ़ का पहला दिन, हरिजन सेवक, पहली मुक्ति, माइकल जैक्सन की टोपी, पाठशाला समेत दस कहानी संग्रह और प्रतिनिधि कहानियों के कुछ संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। लाखो, सुबह के लिए, बाबू जी का पासबुक, कुतुब बाजार आदि उनके चर्चित नाटक हैं। ‘रुक जा बदरा’ नामक उनका एक गीत संग्रह भी प्रकाशित है। उनकी कई कहानियों के नाट्य मंचन भी हुए हैं। वे जन नाट्य संस्था युवानीति के संस्थापकों में रहे हैं। उन्होंने कुछ कहानी संकलनों का संपादन भी किया है। बच्चों के लिए भी दर्जनों उपन्यास और कहानियां उन्होंने लिखी हैं। उनकी रचनाओं के तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलुगु, मराठी, पंजाबी, उडि़या, बांग्ला, चीनी, जापानी, रूसी और अंग्रेजी में अनुवाद हुए हैं। उन्होंने ‘इस बार’ पत्रिका के अतिरिक्त कुछ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया है।
मधुकर सिंह उस पीढ़ी के साहित्यकार हैं, जिनका जनांदोलनों से अटूट नाता रहा है। सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट आंदोलनों का उनके कथा साहित्य पर गहरा असर रहा है। आज भी उनका यकीन है कि जो लेखक अपनी जनता के लिए लिखेगा, वही इतिहास में बना रहेगा। 22 सितंबर को नागरी प्रचारिणी सभागार में अपने सम्मान में आयोजित समारोह में उन्होंने मजबूती से इस यकीन को जाहिर किया। रांची, भोपाल, दिल्ली, बर्नपुर, बनारस, इलाहाबाद, गोरखपुर, लखनऊ, गिरिडिह, पूर्णिया, पटना, एटा आदि कई शहरों से साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी कथाकार मधुकर सिंह के सम्मान समारोह में शामिल होने के लिए अपने खर्चे पर आरा आए थे। और सबसे बड़ी बात यह कि समाज के हर तबके के लोग सभागार में मौजूद थे। जिन लोगों के जीवन संघर्ष और आंदोलन की कथा मधुकर सिंह ने कही है, उस दलित-वंचित मेहनतकश जनता की भारी तादाद नागरी प्रचारिणी सभागार में मौजूद थी। अपने साथियों के कंधों और बाजुओं का सहारा लेकर जैसे ही मधुकर सिंह मंच पर पहुँचे सभागार में देर तक लोगों की तालियां गूंजती रहीं। जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने जसम राष्ट्रीय परिषद की ओर से उन्हें पच्चीस हजार का चेक, शॉल और मानपत्र प्रदान कर सम्मानित किया। मधुकर सिंह जसम की स्थापना के समय से ही इसके साथ हैं और इसके राष्ट्रीय परिषद और कार्यकारिणी के सदस्य के अलावा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। वे जन नाट्य संस्था ‘युवानीति’ के संस्थापकों में से रहे हैं और आरा शहर की एक मुसहरटोली में उन्हीं की बहुचर्चित कहानी ‘दुश्मन’ के मंचन से युवानीति ने अपने सफर की शुरुआत की थी।
प्रणय कृष्ण ने मानपत्र को पढ़कर सुनाया, जिसमें जसम की राष्ट्रीय परिषद ने मधुकर सिंह का महत्व इस रूप में रेखांकित किया है कि वे प्रगतिशील जनवादी कथा साहित्य के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। वे फणीश्वरनाथ रेणु के बाद हिंदी के उन गिने चुने साहित्यकारों में से हैं, जिन्होंने आजीवन न केवल ग्रामीण समाज को केंद्र बना कर लिखा है, बल्कि वहां चल रहे राजनीतिक-सामाजिक बदलाव के संघर्षों को भी शिद्दत के साथ दर्ज किया है। वे सही मायने में ग्रामीण समाज के जनवादीकरण के संघर्षो के सहचर लेखक हैं। वे साहित्य-संस्कृति की परिवर्तनकारी और प्रतिरोधी भूमिका के आग्रही रहे हैं। उनके साहित्य का बहुलांश मेहनतकश किसानों, खेत मजदूरों, भूमिहीनों, मेहनतकश औरतों और गरीब-दलित-वंचित वर्ग के इसी क्रांतिकारी आंदोलन की आंच से रचा गया है। इस आंदोलन के संस्थापकों में से एक जगदीश मास्टर और उनके साथी उनकी रचनाओं में बार बार नजर आते हैं। जगदीश मास्टर मधुकर सिंह के साथ ही जैन स्कूल में शिक्षक थे और सामंती जुल्म के खिलाफ दलितों-वंचितों के जनतांत्रिक अधिकारों के संघर्ष में शहीद हुए थे। सामंती-वर्णवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति के लिहाज से मधुकर सिंह की रचनाएं बेहद महत्व रखती हैं। सामाजिक मुक्ति के प्रश्न को उन्होंने जमीन के आंदोलन से और स्त्री मुक्ति के सवाल को दलित मुक्ति से अभिन्न रूप से जोड़कर देखा है। वे एक वामपंथी लेखक हैं और वामपंथ से सामंतवाद के अवशेषों, वर्ण-व्यवस्था और पूंजीवाद के नाश की अपेक्षा करते हैं।
सम्मान सत्र में लोगों ने मधुकर सिंह से जुड़ी हुई अपनी यादों को भी साझा किया। शुरुआत उनके बचपन के मित्र और उनकी कई रचनाओं के पात्र कवि श्रीराम तिवारी ने की और उनके आजाद स्वभाव को खासकर चिह्नित किया। युवानीति के पूर्व सचिव रंगकर्मी सुनील सरीन ने कहा कि मधुकर सिंह का सम्मान उस जन सांस्कृतिक पंरपरा का सम्मान है, जिसने कई नौजवान लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को बदलाव का स्वप्न और वैचारिक उर्जा दिया है। वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत ने कहा कि अगर सौ समाज शास्त्रीय अध्ययन एक पलड़े पर रख दिया जाए और दूसरे पलड़े पर मधुकर सिंह की कुछ चुनिंदा कहानियां, तो उनकी कहानियों का पलड़ा भारी पड़ेगा। वे हमेशा नए विचारों और नौजवानों के साथ रहे हैं। बनाफरचंद्र ने उनसे हुई मुलाकातों का जिक्र करते हुए कहा कि साहित्यिक बिरादरी में अपने दोस्ताना मिजाज के कारण मधुकर सिंह एक अलग ही पहचान रखते हैं। दूरदर्शन, पटना के निदेशक कवि कृष्ण कल्पित ने कहा कि भोजपुर का हमारे लेखन और राजनीति में बहुत बड़ा महत्व है। भोजपुर ने एक बुजुर्ग संघर्षशील लेखक का इस तरह सम्मान करके अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है। रेणु नेहरू युग की स्वप्नशीलता के लेखक थे, लेकिन उन्होंने जिस ग्रामीण सौंदर्य को पेश किया है, मधुकर सिंह के गांव वैसे नहीं है। मधुकर सिंह ने हिंदी कहानी को रूमानियत और आभासी यथार्थ से बाहर निकाला। वे एक श्रमजीवी लेखक हैं। प्रेमचंद की परंपरा को लेकर आज खूब विवाद खड़े किए जा रहे हैं, उन पर ऐसे लोग अपनी दावेदारी जता रहे हैं, जो उनकी परंपरा के विरोधी हैं। लेकिन सही मायने में मधुकर सिंह प्रेमचंद की परंपरा के लेखक हैं। वे शरीर से भले लाचार हैं, पर उनका दिमाग अभी भी लाचार नहीं है। कहानीकार अरविंद कुमार ने कहा कि जब चंद्रभूषण तिवारी द्वारा संपादित पत्रिका ‘वाम’ में मधुकर सिंह की कहानी ‘दुश्मन’ छपी, उस दौर में ही वे समांतर कहानी आंदोलन से बाहर आने लगे थे। वहां से उनकी नई शुरुआत होती है। उस कहानी में नेता की धूल उड़ाती जीप और उसके पीछे भागते बच्चों का जो दृश्य है, वह कैमरे की आंख से देखा प्रतीत होता है। उनकी कहानियों में जो नाटकीय तत्व है, वह भी महत्वपूर्ण है।
कथाकार अनंत कुमार सिंह ने कहा कि पूंजीवाद ने जिस सामूहिकता को खत्म किया है, मधुकर सिंह उस सामूहिकता के लिए जीवन और रचना दोनों स्तर पर संघर्ष करने वाले लेखक हैं। कथाकार सुरेश कांटक ने कहा कि मधुकर सिंह का साहित्य जन-जन की आकांक्षा से जुड़ा हुआ साहित्य है। चर्चित रंगकर्मी राजेश कुमार ने कहा कि भोजपुर से अभिजात्य और सामंती संस्कृति के खिलाफ जनता के रंगकर्म की जो धारा फूटी, उसका श्रेय मधुकर सिंह को है। कथाकार मदन मोहन ने चिह्नित किया कि समांतर आंदोलन के साथ होने के बावजूद मधुकर सिंह की जो वैचारिक आकांक्षा थी, वह उस दौर की भी उनकी कहानियों में दिखती है। उस आकांक्षा ने ही उन्हें जन-सांस्कृतिक आंदोलन का हमसफर बनाया। वरिष्ठ कवयित्री उर्मिला कौल ने कहा कि आरा के लोगों के लिए इस सम्मान समारोह की लंबे समय तक मधुर स्मृति रहेगी। मधुकर सिंह की रचनाओं में गांवों के अभावग्रस्त परिवारों की पीड़ा और विवशता नजर आती है।
युवानीति के पूर्व रंगकर्मी और वामपंथी नेता सुदामा प्रसाद ने कहा कि भोजपुर में जो सामंतवाद विरोधी संघर्ष शुरू हुआ, उसने जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया। राष्ट्रीय स्तर पर भी उसका प्रभाव पड़ा। शासकवर्ग की संस्कृति और मेहनतकशों की संस्कृति के बीच फर्क को समझना आसान हुआ। मधुकर सिंह उन रचनाकारों में हैं जिन्होंने इस फर्क को स्पष्ट किया। प्रो. पशुपतिनाथ सिंह ने युवा पीढ़ी के बदलते पाठकीय आस्वाद पर सवाल उठाते हुए कहा कि देश में जिस तरह का संकट है, उसमें उन्हें मधुकर सिंह सरीखे लोगों का साहित्य पढ़ना चाहिए।
वरिष्ठ कवि जगदीश नलिन, रंगकर्मी डा. विंद्येश्वरी, लेखक अरुण नारायण, पत्रकार पुष्पराज ने भी सम्मान सत्र में मधुकर सिंह के महत्व को रेखांकित किया। इस सत्र की अघ्यक्षता सुरेश कांटक, पशुपतिनाथ सिंह और बनाफरचंद्र ने की।
दूसरा सत्र विचार-विमर्श का था, जिसका विषय था- ‘कथाकार मधुकर सिंह: साहित्य में लोकतंत्र की आवाज।’ विमर्श की शुरुआत करते हुए कहानीकार सुभाषचंद्र कुशवाहा ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र में निम्नवर्ग की क्या स्थिति है मधुकर सिंह की कहानियों में इसे देखा जा सकता है। जाति की राजनीति से उत्पीडि़त समुदायों की मुक्ति संभव नहीं है, यह मधुकर सिंह ने अपनी कहानियों में आठवें दशक में ही दिखाया है। जाति का विकास जाति का ही नेता कर सकता है, इस तर्क और धारणा को उन्होंने गलत साबित किया है। वे निम्न वर्ग के शोषण में धर्म की भूमिका को चिह्नित करते हैं। वे सवाल उठाते हैं कि जेलों में बंद लोगों का बहुत बड़ा हिस्सा निम्नवर्ग का क्यों है? क्यों हक मांगने वालों को नक्सलवादी करार दिया जाता है? किस तरह गांधीवाद का इस्तेमाल शोषक वर्ग अपने वर्चस्व बनाए रखने के लिए करता है, इसे भी उन्होंने अपनी कहानियों में दिखाया है।
चर्चित युवा कहानीकार रणेंद्र ने कहा कि मधुकर सिंह वर्णवादी कथाकार नहीं है, उनके साहित्य में वर्ण से उत्पन्न जो पीड़ा है वह वर्ग चेतना तक पहुंचती है। अंबेडकर की गांवों के बारे में जो धारणा थी, वह मधुकर सिंह की कहानियों को पढ़ते हुए सही प्रतीत होती है। वे लोक जीवन में रस नहीं लेते, बल्कि उसे जनतांत्रिक बनाने की चिंता और संघर्ष को अभिव्यक्त करते हैं। वे दिखाते हैं कि किस तरह जो वर्ग अंग्रेजों के समय व्यवस्था का लाभ ले रहा था, वही आजादी के बाद के भारतीय लोकतंत्र का लाभ उठाता रहा। मधुकर सिंह को हिंदी के बड़े आलोचकों ने उपेक्षित किया, पर उनकी 10-15 कहानियां ऐसी हैं, जो मानक हैं। उनका जो देय है, उसका श्रेय उन्हें मिलना चाहिए। आलोचक रवींद्रनाथ राय ने कहा कि मधुकर सिंह के साहित्य में भोजपुर का आंदोलन दर्ज है। सामाजिक मुक्ति और आर्थिक आजादी के लिए गरीब मेहनतकशों का जो संघर्ष है, मधुकर सिंह उसके कथाकार हैं।
वरिष्ठ आलोचक खगेंद्र ठाकुर ने प्रगतिशील लेखक संघ के साथ मधुकर सिंह के जुड़ाव को याद करते हुए कहा कि एक रचनाकार के रूप में वे जीवन और समाज के यथार्थ के प्रति सचेत लेखक हैं। 60 का दशक, जो कि समझ को गड्डमड्ड करने वाला दौर था, उसमें उन्होंने कहानी के सामाजिक यथार्थवादी धारा की परंपरा को आगे बढ़ाया। दलित चेतना एक आंदोलन के रूप में जरा देर से आई, पर मधुकर सिंह ने इस मेहनतकश समाज के संघर्ष को उसी दौर से चित्रित करना शुरू कर दिया था।
गीतकार नचिकेता ने कहा कि चुनावों के जरिए निम्नवर्ग के जीवन को नहीं बदला जा सकता, मधुकर सिंह ने अपनी कहानियों के जरिए दिखाया है। वे जनता के लेखक हैं और जनता के लेखक ऐसे ही सम्मान के हकदार होते हैं। शिवकुमार यादव ने भोजपुर के संघर्ष के साथ साहित्य के गहरे रिश्ते के संदर्भ में मधुकर सिंह की कहानियों को चिह्नित किया।
(चित्र: अपने विचार व्यक्त करते हुए कवि बलभद्र)
कवि चन्द्रेश्वर ने कहा कि मधुकर सिंह की कहानियां भारतीय लोकतंत्र के झूठ का पर्दाफाश करती हैं। कवि बलभद्र ने कहा कि सामाजिक आंदोलनों और किसान संघर्षों की जरूरत को महसूस करते हुए मधुकर सिंह ने लोक साहित्य से भी बहुत कुछ लिया। भोजपुर में मधुकर सिंह, विजेंद्र अनिल और सुरेश कांटक की कथात्रयी ने जो काम किया है, उसका हिंदी साहित्य की जनसंघर्षधर्मी परंपरा में अलग से मूल्यांकन होना चाहिए।
जलेस के राज्य सचिव वरिष्ठ कहानीकार नीरज सिंह ने कहा कि मधुकर सिंह का सम्मान केवल भोजपुर ही नहीं, बल्कि पूरे देश के जनधर्मी, संघर्षधर्मी साहित्य के लिए गौरव की बात है। उत्पीडि़त, दलित-शोषित, वंचित वर्गों के प्रति गहरी पक्षधरता के कारण ही वे सत्ताभोगी चरित्रों पर तीखे प्रहार करते हैं। वे एक यारबाश व्यक्ति रहे हैं और अपने से कम उम्र के लोगों के साथ भी उनके बड़े आत्मीय संबंध रहे हैं।
समकालीन जनमत के संपादक सुधीर सुमन ने कहा कि मधुकर सिंह भोजपुर के आंदोलन में देश के स्वाधीनता आंदोलन की निरंतरता देखते हैं। राष्ट्र और लोकतंत्र के संदर्भ में उनकी धारणाएं भगतसिंह और अंबेडकर से मेल खाती हैं। वे भारत की खोज के नहीं, बल्कि भारत के निर्माण के कथाकार हैं। इस देश में राजनीति, समाज, अर्थनीति और संस्कृति सारे स्तरों पर सच्चे जनतंत्र की आकांक्षा और उसके लिए होने वाले संघर्ष के कथाकार हैं। उनकी कहानियों में गरीब दलित मेहनतकश वर्गीय तौर पर सचेत हैं, वर्ग दुश्मन को वे बहुत जल्दी पहचान लेते हैं। मधुकर सिंह परिवर्तनकारी राजनीति और संस्कृतिकर्म के बीच एकता का स्वप्न देखने वाले साहित्यकार हैं। यह अकारण नहीं है कि उन्होंने बिहार के आदिवासी संघर्ष से जुड़े चरित्रों पर न केवल उपन्यास लिखा, बल्कि नवसाक्षरों और बच्चों के लिए भी कई पुस्तिकाएं लिखी।
वरिष्ठ आलोचक रविभूषण ने कहा कि इस सम्मान समारोह में पांच हिंदी राज्यों और एक अहिंदी प्रांत पश्चिम बंगाल से प्रमुख साहित्यकारों का शामिल होना गहरा अर्थ रखता है। मधुकर सिंह ने एक अस्वस्थ समाज का स्वस्थ साहित्य रचा है। शोषित-दलित समाज के संघर्ष की जो इनकी कहानियां हैं, वे वर्गचेतना संपन्न कहानियां हैं। वे एक मास्टर साहित्यकार की मास्टर कहानियां हैं, जिनमें कुछ तो मास्टर पीस हैं। उनकी कहानियां रात में जलती हुई मोमबत्तियों और कहीं कहीं मशाल की तरह हैं। वे फैंटेसी नहीं, बल्कि यथार्थ के कथाकार हैं। यह संघर्षधर्मी यथार्थवाद ही भोजपुर के कहानीकारों की खासियत है। कथा साहित्य में एक भोजपुर स्कूल है, जिसका असर पूरे देश के कई कहानीकारों पर देखा जा सकता है। इस भोजपुर स्कूल पर वर्तमान के राजनीतिक-सामाजिक संघर्षों का प्रभाव तो है ही, इसके साथ संघर्षों का एक शानदार इतिहास भी जुड़ा हुआ है, जो 1857 से लेकर भोजपुर आंदोलन तक आता है। रविभूषण ने कहा कि साहित्य में लोकतंत्र की आवाज तभी आती है, जब राजनीति में लोकतंत्र की आवाज खत्म होने लगती है। जो नई कहानी की त्रयी है, उनकी कहानियों में लोकतंत्र के संकट की शिनाख्त इस तरह से नहीं है, जिसे मधुकर सिंह अपनी कहानियों में शुरू से ही चिह्नित करते हैं। भोजपुर की जो कथात्रयी है, वह सचमुच लोकतंत्र के संकटों के खिलाफ संघर्ष करती नजर आती है। यह अकारण नहीं है कि मधुकर सिंह की कई कहानियों में रात्रि पाठशालाएं हैं। वे जनता की राजनैतिक चेतना को उन्नत करने की कोशिश करते हैं। नुक्कड़ नाटक जो खुद एक लोकतांत्रिक विधा है, उससे जुड़ते हैं। गीत, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि कई विधाओं में मधुकर सिंह की जो आवाजाही है, उसके पीछे एक स्पष्ट वैचारिक मकसद है। आज जबकि लोकतंत्र भ्रष्टतंत्र, लूटतंत्र और झूठतंत्र में तब्दील हो चुका है, तब उसके खिलाफ प्रतिरोध की आवाजें जिन साहित्यकारों में मिलती हैं, मधुकर सिंह उनमें अग्रणी हैं। विचार-विमर्श सत्र की अघ्यक्षता खगेंद्र ठाकुर, नीरज सिंह और रविभूषण ने की। दोनों सत्रों का संचालन कवि जितेंद्र कुमार ने किया।
अंतिम सत्र में युवानीति ने मधुकर सिंह की मशहूर कहानी ‘दुश्मन’ की नाट्य प्रस्तुति की। रंगकर्मी रोहित के निर्देशन में तैयार इस नाटक में मधुकर सिंह के भोजपुरी गीत का भी इस्तेमाल किया गया था। शासकवर्ग किस तरह दलित-उत्पीडि़त जनता के नेताओं का वर्गीय रूपांतरण कर उन्हें अपनी ही जनता से काट देता है, इस नाटक में दर्शकों ने इसे बखूबी देखा।
पटना की नाट्य संस्था हिरावल ने मधुकर सिंह की कहानी ‘कीर्तन’ पर आधारित नाटक प्रस्तुत किया। इसमें देश में बाबाओं के अंधश्रद्धा के कारोबार तथा सामंती पितृसत्ता और मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के साथ उनके गहरे रिश्ते पर तीखा व्यंग्य था। निर्देशन संतोष झा ने किया था। तीसरा नाटक जसम बेगूसराय की नाट्य संस्था रंगनायक ने किया। दीपक सिन्हा निर्देशित नाटक ‘माइकल जैक्सन की टोपी’ इसी शीर्षक की कहानी पर आधारित था, जिसमें मधुकर सिंह ने ऐसे छद्म प्रगतिशील जनवादी लेखकों पर व्यंग्य किया है, जो शासकवर्ग पर आश्रित होकर लेखन करते हैं और व्यवहार में ग्रामीण इलाकों और आदिवासी अंचलों में चल रहे जनसंघर्षों का विरोध करते हैं। इन तीनों नाट्य प्रस्तुतियों की खासियत यह थी कि ये पात्र बहुल नाटक थे। इतने सारे कलाकारों को एक साथ इन नाटकों में देखना दरअसल रंगकर्म के भविष्य के प्रति भी उम्मीद जगाने वाला था।
चित्रकारों ने भी अपनी कला के साथ इस सम्मान समारोह में शिरकत की। मंच पर ठीक सामने चित्रकार भुवनेश्वर भास्कर द्वारा बनाए गए छह पोस्टर लगाए गए थे, जो उन्होंने मधुकर सिंह के साथ अपनी स्मृतियों की अभिव्यक्ति के बतौर बनाया था। सभागार के बाहर चित्रकार राकेश दिवाकर ने मधुकर सिंह की रचनाओं पर आधारित चित्र लगाए थे। अभिधा प्रकाशन तथा जनपथ पत्रिका की ओर से बुक स्टाल भी लगाया गया था। इस समारोह में रामधारी सिंह दिवाकर, रामनिहाल गुंजन, वाचस्पति, कल्याण भारती, संतोष सहर, अशोक कुमार सिन्हा, राकेश कुमार सिंह, उमाकांत, फराज नजर चांद, हीरा ठाकुर, राजाराम प्रियदर्शी, शिवपूजनलाल विद्यार्थी, केडी सिंह, सुमन कुमार सिंह, अरुण शीतांश, संतोष श्रेयांश, शशांक शेखर, सत्यदेव, अयोध्या प्रसाद उपाध्याय, विजय कुमार सिन्हा, दिव्या गौतम, राजू रंजन, सुनील श्रीवास्तव, आशुतोष कुमार पांडेय, कृष्ण कुमार निर्मोही, राजदेव करथ, ओमप्रकाश सिन्हा, रवींद्र भारती, अरुण प्रसाद, किरण कुमारी, इंदु पांडेय, अजय कुमार, रजनीश, प्रशांत कुमार बंटी, शमशाद प्रेम, संजीव सिन्हा समेत कई साहित्यकार, पत्रकार, रंगकर्मी और चित्रकार मौजूद थे।
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बलभद्र
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सुधीर सुमन
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मार्कण्डेय जी की पुण्यतिथि पर आयोजित विशेष प्रस्तुति के अंतर्गत आज पेश है युवा कवि एवं आलोचक बलभद्र का यह संस्मरण। ध्यातव्य है कि बलभद्र का शोध कार्य मार्कंडेय की रचनाधर्मिता पर ही है। इसी क्रम में बलभद्र मार्कण्डेय के बहुत नजदीक आये. स्वयं मार्कण्डेय जी का मानना था कि उन पर किये गए सारे शोध कार्यों में बलभद्र का काम अलग एवं बेहतर है। पहली बार पर प्रस्तुत है बलभद्र का एक आत्मीय संस्मरण।
बकौल बलभद्र संस्मरण का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा जिसे वे पहली बार के पाठकों के लिए उपलब्ध कराते रहेंगे.
यह तो घर है प्रेम का
कोई रचना कैसे प्रभावित करती है, किस स्तर पर, इसका एक रोचक प्रसंग मार्कण्डेय जी की कहानियों से भी जुड़ा हुआ है। याद है मुझे कि ‘हंसा जाई अकेला’ पढ़ते वक्त मैं मन-ही-मन खूब हँसा था। भीतर से, खूब खिलखिला कर। हंसा को रतौंधी है और अँधेरे में वह एक औरत से टकरा जाता है। मजगवाँ की पहलवानी देख कर वह अपने गाँव के लोगों के साथ लौट रहा है। टकराता है तो वह समझता है कि अपने ही बीच का कोई है। पर, तुरन्त वह समझ जाता है कि अरे, यह तो औरत है। फिर तो मच जाती है भाग-पराह। गाँव के लोग दौड़ा लेते हैं। सब भागे जा रहे हैं, रतौंधी से ग्रस्त हंसा भी। कुछ भी उसे नहीं सूझता। पर भाग रहा है। यह पूरा वर्णन इतना सजीव, गतिशील और गुदगुदाता हुआ है कि पढ़ते वक्त खूब हँसा था, खूब और कहानी पढ़ता गया, पढ़ता गया और मेरी पूरी हँसी धीरे-धीरे गंभीरता में बदलती गई। करुणा से मन भींगता गया। ‘हंसा’ एक ऐसा पात्र है जिसे बीमारी के चलते, महज रतौंधी के चलते रात में नहीं दिखता। हमारे समाज में बहुतेरे ऐसे लोग हैं जो कुपोषण और अज्ञानता के चलते ऐसी सामान्य बीमारियों से आज भी जूझते हैं। बहुतेरे ऐसे हैं जो सब देखते हुए भी नहीं देखते हैं। ‘हंसा’ आदमी के मन को, आदमी के भीतर के आदमी को पहचानने में कोई भूल नहीं करता, और बहुतेरे आँख वाले, सुखी-सम्पन्न ‘हंसा’ जैसों को तिरस्कृत और अपमानित करने में ही अपनी बहादुरी समझते हैं। इस कहानी में वह औरत से दो बार टकराता है। पहली बार मजगँवा की पहलवानी देख कर लौटते वक्त और दूसरी बार खाना बनाने के लिए अंधेरे में सामान टटोलते वक्त पहली बार वह जिस औरत से टकराता है, उसका नाम नहीं है, महज टकरा जाने का उल्लेख है और फिर पिटे जाने के भय से भागने का वर्णन है। दूसरी बार टकराता है जिस औरत से उसका नाम सुशीला है और वह गाँधीवादी है और साथ ही कम उम्र की विधवा भी है। गाँधी जी के विचारों की प्रचारिका है, वोलेंटियर है और एक मीटिंग में आई हुई है। यहाँ का जो ‘टकराना’ है वह पहले वाले ‘टकराने’ से भिन्न है। यहाँ भागना नहीं होता, बल्कि ठहरना होता है। यहाँ का ‘टकराना’ दोनों के लिए महत्वपूर्ण है और वे प्रेम-सूत्र में बँध जाते हैं। और फिर, ‘हंसा’ को इस पवित्र और जरूरी प्रेम के लिए टकराना होता है, कूढ़ मगज कांग्रेसियों से, सामंती मन-मिजाज वालों से और दोनों को इस प्रेम की कीमत भी चुकानी पड़ती है-
‘‘यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे भुइँ धरे तब पैठे घर माहिं।’’
‘तीसरी कसम’ का ‘हिरामन’ तीन कसमें खाता है और यहाँ ‘हंसा’ दो बार टकराता है। पहली बार टकराता है तो वह मन ही मन बहुत कुछ महसूस करता है। दूसरी बार टकराता है तो महसूस होता है कि हमारा समाज अपनी बद्धमूल धारणाओं में इतना जटिल और क्रूर है कि जीवन को उसकी स्वाभाविक गति में समझने और स्वीकार करने को तैयार ही नहीं है। पढ़ते हुए मैं भींग गया था पूरी तरह। इसी तरह ‘बीच के लोग’ पढ़ते वक्त भी हँसा था पूरी तबियत से। कोई एक पात्र है जो की विशेष मुद्रा बनाते हुए हवा छोड़ता है। मानव-मुद्राओं का वर्णन ही कुछ ऐसा है कि मेरा गँवई मन बिन हँसे नहीं रह सका। गाँव का वर्णन, कउड़े का वर्णन, गली का वर्णन, लोगों का बतियाना, गाँव की साँयफुस्स, सब बड़ा जानदार लगा था, सरस और वास्तव में ऐसा ही है। इतनी मानव-मुद्राएँ देखने को मिलती हैं, इतने प्रामाणिक, इतने जाने-पहचाने कि प्रसन्न हुए बिना नहीं रहा जा सकता। ‘प्रलय और मनुष्य’ नामक कहानी पढ़ते वक्त महसूस कर रहा था कि मार्कण्डेय जी ने जल-जीवों और बाढ़ के रूपक के जरिए आजादी के बाद मची लूट-खसोट, राजनीतिक-आर्थिक भ्रष्टाचार और गाँधी जी के इस्तेमाल की वास्तविक तसवीर पेश की है। गाँधी टोपी में बैठे मेढ़क और मेढ़की को देखना बड़ा अच्छा लगता है।
मैं बिहार के भोजपुर जिला का रहने वाला हूँ। भाकपा (माले) का कार्यकर्ता हूँ और भोजपुर के किसान-संघर्ष में बतौर एक कार्यकर्ता शामिल हूँ। ‘बीच के लोग’ में जो एक तनाव है, सामंती भूमि सम्बन्धों को ले कर जो एक बहस है, जमीन जमींदारों से वापस लेने अथवा उनके कब्जे से मुक्त करने का जो एक संकल्प और संघर्ष है, इन समग्र स्थितियों और तनावों को मैं सीधे-सीधे देख रहा था। पूरी कहानी पढ़ गया एक उत्सुकता के साथ, आदि से अंत तक। हँसी और तनाव से गुजरते हुए। ‘हंसा जाई अकेला’ में हँसी और करुणा है, एक जबर्दस्त व्यंग्य भी है। हँसी, तनाव, करुणा और व्यंग्य का सम्मिश्रण है इनमें। ‘बीच के लोग’ का अंत जब आया तो सोचने लगा कि ‘मनरा’ का संकल्प कि पहले बीच के लोगों को रास्ते से हटाना होगा, कुछ जँच-पच नहीं रहा था। बीच के लोग तो हैं पर उन्हें हटाने के लिए अलग से क्या कार्यक्रम लिया जा सकता है? मैं महसूस कर रहा था तब और अब भी कि आन्दोलनों और कार्यक्रमों की निरंतरता में ही इन्हें हटाया जा सकता है, संट किया जा सकता है अथवा पक्ष में। मार्कण्डेय जी से एक बार ऐसे ही गप्प करते वक्त पूछा था यह सब, तो कहा उन्होंने कि ‘तुम ठीक कहते हो।’
वे बहुत मानते थे सुरेश काँटक को। काँटक जी भोजपुर के हैं और वहाँ के किसान संघर्षों की अनुगूँजें हैं इनकी कहानियों में। इनके पात्र लड़ते हुए पात्र हैं। रण की नीति तय करते हुए। इनकी एक कहानी है ‘एक बनिहार का आत्मनिवेदन।’ मार्कण्डेय की कहानियों में भी बनिहार हैं, मजूरे हैं। इस कहानी में भोजपुर के भूमिहीन खेत-मजदूरों की कठिन स्थितियों के साथ-साथ उनकी नई संघर्षशील चेतना, भोर की पहली लाली की तरह प्रस्फुटित होती दिखाई देती है। ‘बीच के लोग’ में मनरा है और ‘एक बनिहार का आत्मनिवेदन’ में ‘गनपत’। मुझे लगता है कि ‘गनपत’ जो है सो ‘मनरा’ का अगला रूप है, दोनों एक ही सूत्र में बँधे हुए हैं। मार्कण्डेय जी और काँटक जी के पात्रों की यह जो स्थिति है, उससे भी हम समझ सकते हैं कि वे काँटक जी को क्यों मानते थे। दरअसल, वे जो चाहते थे वो काँटक में पाते थे। संघर्ष का ताप उन्हें मिल रहा था। दोनों गाँव के कथाकार हैं, यह तो एक कारण है ही, पर बड़ा कारण है कि काँटक जी में वो संघर्ष देख रहे थे, किसान-संघर्ष, बनिहारों का संघर्ष। मार्कण्डेय जी से जब पहली बार मिला 2-डी, मिन्टो रोड वाले घर पर सन् 1992 में, तब भी उन्होंने सुरेश काँटक का नाम लिया था यह जान कर कि मैं भोजपुर का हूँ। तब मैं नहीं जानता था कि काँटक जी को वे इतना मानते हैं। अपनी पत्रिका ‘कथा’ में वे काँटक जी की कहानियाँ बार-बार प्रकाशित करते रहे। अपने आखिरी दिनों में भी उन्होंने कहानी के लिए तगादा करवाया था संतोष कुमार चतुर्वेदी से। ‘कथा’ गवाह है, सन्तोष चतुर्वेदी गवाह हैं और कुछ-कुछ मैं भी। वे चन्द्रभूषण तिवारी की भी चर्चा करते थे।
मैं गाँव में था, पार्टी से जुड़ा। किसानों और खेतिहर मजदूरों और महिलाओं की समस्याओं को समझने-बूझने में लगा था, पार्टी की बैठकों और कार्यक्रमों में शामिल होता था। इस कारण गाँव-जवार के बड़े और बड़ी जाति वाले मुझे पसंद नहीं करते थे। मैं हिन्दी से एम.ए. भी कर रहा था और खेती भी थोड़ी-बहुत सँभाल रहा था। अनेक तरह के प्रश्नों के बीच था। तनावपूर्ण जीवन था। एम.ए. के बाद शोध-कार्य करने के इरादे के साथ आया बी.एच.यू.। मार्कण्डेय की ये कुछ कहानियाँ थीं जो पढ़ी थीं और मन में था कि इन्हीं पर काम करना ठीक रहेगा। लेकिन यह भी आसान नहीं था। मेरा एक छोटा भाई है सन्तोष सहर। ‘सहर’ लिखता है अपने नाम के साथ। उसके हाथ में एक दिन ‘अग्निबीज’ देखा। ताक में था कि वह पहले पढ़ ले तो मैं भी पढूँ। मौका मिला और पढ़ गया। अच्छा लगा। जो सोचा था कि मार्कण्डेय की रचनाओं पर शोध-कार्य करूँगा, उसको और बल मिला। गाँव में रहने के चलते पुस्तकें कायदे से मिल नहीं पा रही थीं। बस, फिर रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया शुरू हुई। मेरे लिए यह भी आसान नहीं था। प्रकाश उदय के साथ प्रो. शुकदेव सिंह से मिला तो उन्होंने ‘चक्रधर’ की चर्चा की और ‘साहित्य-धारा’ के बारे में बताया। ‘चक्रधर’ के बारे में कुछ भी नहीं जानता था इसके पहले। उन्होंने कहा कि मार्कण्डेय की किताब ‘कहानी की बात’ पढ़िये। मैं उनसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुआ।
मुझे याद है कि श्रीकांत (आरा वाले) की कहानी ‘कुत्ते’ पढ़ते वक्त भी खूब हँसा था। वर्णन ही कुछ ऐसा था। रेणु के उपन्यास ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ पढ़ते हुए भी हँसा था। रेणु की बात चली तो मालूम हुआ कि मार्कण्डेय जी ‘मैला आँचल’ की तुलना में ‘परती परिकथा’ को बेहतर मानते हैं। ‘रसप्रिया’ कहानी उन्हें खूब पसंद थी। इस कहानी की, बातचीत के क्रम में उन्होंने कई बार चर्चा की। सन् 2000 के बाद उनसे मेरी बातचीत लगातार होती रही। कभी-कभार उनके यहाँ चला जाता था, कभी-कभार फोन पर बातें होती थीं। उन्हें मालूम हुआ कि मैं पार्टी से जुड़ा से हुआ हूँ तो मुझे यह महसूस हुआ कि उनका प्रेम-स्नेह मेरे प्रति और बढ़ता गया। फोन पर वे घर की हाल-चाल भी पूछा करते थे। महज शोध-कार्य ही उनके प्रेम-स्नेह पाने का कारण नहीं था। वह तो परिचय का एक आधार-मात्र था। प्रणय कृष्ण का नाम लेते तो कहते कि अरे जो तुम लोगों का साथी है, वह बड़ा तेज है, बहुत साफ लिखता है। वे मुझे आलसी भी कहते थे। सन्तोष चतुर्वेदी से कहते कि जरा लगाओ उसको फोन। फिर तो पूछ बैठते कि क्या पढ़ रहे हो? कब आओगे? उनसे किसी विषय पर बात करना बड़ा कठिन था। एक बार सन्तोष से कहा मैंने कि आज उनसे उनकी ही कहानियों पर बात करनी है। सन्तोष मुसकाये। चलिये तो सही। हम लोग गये। चाय पी साथ-साथ। बात हम लोग कुछ कहते, वो कुछ और कहते- दुष्यंत बड़ा बदमाश था, तो कभी अपने बाबा के बारे में। अपनी कहानी पर जल्दी कुछ नहीं कहते। हाँ, हमसे पूछते कभी-कभी कि तुमने कैसे खोजा मेरी कहानियों में ‘बाबा’ को। मार्कण्डेय को मैंने उनकी कहानियों से जाना। कहानियों के चलते उनके करीब गया। कहानियों में पाया कि किसानों और मजदूरों को ले कर, देश की स्थितियों को ले कर वे चिंतित हैं। उनकी चिंताओं को पकड़ते हुए मैं गया उनके पास। गया तो पाया कि यह आदमी अपने बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहता। और जो कहता है तो पता नहीं क्या-क्या कहता है, कहाँ-कहाँ से। जैसा कि अपनी कुछ कहानियों में कहता है। कुछ तो ऐसी कहानियाँ हैं इनकी, जिसमें लगता है कि कथा कहते हुए वे कथा का अगला-सूत्र तलाश रहे हैं, कोई ‘अगली कहानी।’
इतना बड़ा रचनाकार, और उनकी बहुत-सी रचनाएँ अप्रकाशित हैं, बिखरी हुई। ‘चक्रधर’ नाम से लिखा गया उनका ‘साहित्य-धारा’ स्तम्भ यूँ ही ‘कल्पना’ की फाइलों में था। पिछले साल छपा, 2012 में। लोकभारती प्रकाशन से। ‘कल्पना’ की प्रतियाँ भी नहीं रह गई थीं उनके पास। उनके यहाँ आने-जाने वाला तब का एक युवा कवि उनकी सारी प्रतियां उठा ले गया था, उसके बारे में मार्कंडेय जी बराबर कहते कि वो बड़ा चालू है। ‘कथा’ में उस कवि की कविताएँ भी छपी हैं।
मार्कण्डेय जी जैसे किसानों से, खेत-मजदूरों से, पवनी-पंसारियों से प्रेम करते थे, उसी तरह अपने इलाहाबाद से भी। हम सबों से भी। मैं उन्हें बार-बार सलाम करता हूँ यह गुनगुनाते हुए कि ‘यह तो घर है प्रेम का…..।’
बलभद्र युवा कवि एवं आलोचक हैं. उनके सम्पादन
में लोकभारती इलाहाबाद से अभी-अभी एक किताब
‘चक्रधर की साहित्य धारा’ प्रकाशित हुई है. इन
दिनों वे झारखंड के गिरिडीह कालेज गिरिडीह में
हिन्दी के प्राध्यापक हैं एवं हजारीबाग़ से छपने
वाली महत्वपूर्ण लघु पत्रिका प्रसंग के सम्पादन से
जुड़े हुए हैं.
संपर्क-
ई-मेल- balbhadrabhojpur@gmail.com
मोबाईल- 09801326311
गाँव के गाँव सरसों के पियर-पियर फूलन से घेरा गईल बा. हरियर हरियर के ऊपर -ऊपर पियर-पियर. एह दूनो रंग के ई आपसी संजोग दूसर कौनो मौसम में ना मिली. ई हरियर आ पियर ऊपर से नइखे टपकल, बलुक धरती के भीतर से निकलल बा. अपने आप नाहीं.
खाद तरह-तरह के, दवाई तरह-तरह के बीया-बाल. देखे के बात बा की सरसों फुलाइल त बा, बाकिर नइखी स लउकत मधुमाछी. ओहनी के गुनगुन नइखे सुनात. पंडुक महाराज बोल-बोल के थाकी गइल बाड़े. केहू उनका संगे नइखे. चिरइयन के बोली के नक़ल उतारे वाला नइखे. कोइलर के ‘कू’ के संगे लइका पहिले बिना ‘कू’ कइले ना रहत रहले. नन्ही-नन्ही चिरई जवन ढेला-ढमानी आ आर-मेड़ त दुबकल रहत रहीं स, बहुते कम लउकत बाडी स. प्रकृतियो के तरफ से वसंत आज खतरा में बा. हे भाई, गड़बड़ा जाई हमनी के रंग-विवेक, ढंग-विवेक. शर्ट-पैंट आ बाजारू सामान के रंग से कबो नहीं सुतरी वसंत.
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लेवा
ई कवनो पूंजीपति घराना के उत्पाद ना ह कि एकरा खातिर कवनो सरकारी भा गैरसरकारी योजना भा अभियान चली. ई गाँव के गरीब मनई आ हदाहदी बिचिलिका लोग के चीज ह. एकदम आपन. अपना देहे-नेहे तैयार कइल. एकरा खातिर कवनो तरह के अरचार-परचार ना कब्बो भइल बा, ना होई कवनो टी वी भा अखबार में. ई गाँव के मेहरारुन के आपन कलाकारी के देन ह, गिहिथांव के. फाटल पुरान लूगा आ धोती के तह दे के ,कटाव काटि के अइसन सी दिहली कि का कहे के. बिछाई भा ओढीं -घरे- दुवारे, खेते- खरीहाने – कवनो दिकदारी ना.
हमारा होश सम्हारे से पहिले से बा . ओकरो से पहिले से ई लेवा. तब से बा जब सुई डोरा ना रहत रहे घरे-घरे. आ लूगा-फाटा के रहत रहे टान. ई बा, तबे से बा, आ लोग-बाग ओढत बिछावत बा आज ले. बड़ बा तनी, चउकी भा खटिया भर के त लेवा, जनमतुआ के सुते लायक तनी छोट- चुनमुनिया- त लेवनी. कतो ई कटारी कहाला, कतो गेंदरा, त कतो लेढा. कायदा से जदी जो रंग विरंगा डोरा से, किनारी काट के कटावदार सियाला त सुजनी कहाला. तोसक तनी ऊँच चीज हवे, लेवा के हैसियत, बहुते उपयोगी भईला के बादो, तोसक से नीचे बा. तोसक के तार सीधा बाजार से जुड़ल बा आ लेवा के एकदम गाँव से.
जेकरा पाले पईसा आइल, जइसे-तइसे तोसकी आइल. बाकी तबो लेवा के जगह जहंवा रहे तहंवे बा. लेवा तोसक गद्दा भा ए तरह के और कुल्ही चीजन में आदमी के आर्थिक हैसियत लउक जाला.
बहुत बार त देखे में आवेला कि तोसको ऊपर बाटे लेवा भा लेवनी. जनमतुआ कवनो सुतल बा, संभार के सुतावले बिया लेवनी. तोसक भा गद्दा आ एह लेवनी के नीचे बा पालीथीन के कवनो टुकड़ा, आ महतारी बाड़ी निश्चिंत. हगो भा मूतो. दादी सी देहले बाड़ी अनघा. एही बखत खातिर धइले बाड़ी सी-सा के. दादी के इ लेवनी परिवार के भविष्य के, मानव समाज के भविष्य के, ओकर किलकारी के दे रहल बा आकार-संभार. सुई आ धागा के एक -एक टोप समाज के, परिवार के भविष्य के प्रति समर्पित. एक-एक टोप में सोहर के एक-एक कड़ी बा. धोती भा लूगा जवन परि गइल पुरान-धुरान, लेवा-लेवनी के रूप में ले लिहलस नया एगो रूप, धज एगो नया. अतीत होत सन्दर्भ के मिल गइल एगो सार्थक वर्तमान. आ ई वर्तमान बा संभारे में लागल मानव-समाज के निच्छल किलकारी, मनभावन क्रिया व्यापार. तीनो काल के एके जगे कइसे जोड़ जोरिया देल जाला – कइसे एक संगे ओढल-विछावल जाला – एकर अद्भुत उदहारण ह इ लेवा, ई लेवनी. दादी आ माई के तरफ से, मेहरारू समाज के तरफ से सहज एगो भेंट हवे लेवा. जतने फूहड़ ओतने सुन्दर. जतने रुखड़ ओतने चिक्कन. बाकिर सत प्रतिसत मयगर.
शेष अगले अंक में जारी…
कवि एवं आलोचक बलभद्र झारखंड के गिरिडीह कॉलेज में हिंदी विभाग में अस्सिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.