बलभद्र की किताब पर सुमन कुमार सिंह की समीक्षा ‘कब कहलीं हम : समय पर समय का सच’

                  

कवि एवं आलोचक बलभद्र का भोजपुरी में एक नया कविता संग्रह आया है ‘कब कहलीं हम’। हिन्दी में लिखने के बावजूद बलभद्र को ऊर्जा उनकी अपनी बोली-बानी भोजपुरी से मिलती है बलभद्र मूलतः गंवई संवेदना या और स्पष्ट कहें तो किसान संवेदना के कवि हैं गंवई संवेदना जिसमें सहकारिता है। जहाँ पर मन में सबके लिए सम्मान है। जहां अन्याय का सीधा प्रतिकार कर सकने का साहस है। तमाम खामियों के बावजूद जिसमें आत्मीयता बची हुई है। लेकिन बदलते समय, शहरीकरण और भूमंडलीकरण ने गाँवों को भी बहुत गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। अब गाँव नवहों से खाली होने लगे हैं। अब गाँवों के किसानों के खेत पूंजीपतियों के हाथ में बिकते जा रहे हैं। बलभद्र में गंवई रोमान नहीं है बल्कि खांटीपन है, जो अन्यत्र बहुत दुर्लभ हैप्रकाश उदय सरीखे भोजपुरी के कवियों ने इस खांटीपन को बचाए रखा है। बलभद्र के इस संग्रह पर सुमन कुमार सिंह ने एक समीक्षा लिखी है, जो खुद भी भोजपुरी क्षेत्र के मर्म को बखूबी जानते-बूझते है तो आ आज पढ़ते हैं सुमन कुमार सिंह की यह समीक्षा ‘कब कहलीं हम : समय पर समय का सच’         

कब कहलीं हम : समय पर समय का सच

सुमन कुमार सिंह 
 

नवें दशक से शुरू हो कर निरंतर रचनारत व अध्ययनरत रहे कवि-आलोचक बलभद्र अपनी गम्भीर वैचारिक पक्षधरता के लिए जाने जाते रहे हैं इन्होंने हिन्दी और भोजपुरी दोनों भाषाओं में अपनी कविताओं, निबंधों व आलोचनाओं से पाठकों को प्रभावित किया है, अपनी विशेष पहचान बनाई है।
   
‘कब कहलीं हम’ के रूप में बलभद्र का पहला भोजपुरी काव्य-संग्रह प्रकाश में आया है। तुक व छंदों में उलझी भोजपुरी कविता की दुनिया में यह संग्रह दृष्टि व शिल्प के नए प्रतिमान स्थापित करता है। लोक गीतों के दबाव से मुक्त ये कविताएँ लोक विमर्श को नया आयाम देती हैं। यहाँ तेजी से बदलते परिवेश, टूटती–बिखरती संवेदनाओं और इन सब के बीच के आत्मीय परिवेश को ढूँढने–बचाने की जिद्द दर्ज है। संग्रह में शामिल कविता ‘सफर के खूँट में’ के सहारे कवि ने अपनी भाव-संपदा के संबंध में स्पष्ट लिखा है कि –
“सूरूज के, चनरमा के
तरई-तरेगन आ बुनी-बतास के
मिलन के आधार हम धरती- आकाश के
मिलन के एह सब मोहान पर
मिलल हमार भाव कुल्हि
झूठि हो गइल इन्द्रधनुष
एहिजे से शुरू भइल सफर हमरा गीतन के।”
तो ऐसी भाव-संपदा से पूर्ण इस संग्रह के आरम्भ में कुल आठ गीत प्रस्तुत किये गए हैं। इन गीतों के सहारे कई मार्मिक यथार्थ व्यक्त किए गए हैं। ये गीत रूढ़ सामंती समाज व्यवस्था की जड़ों को कुरेदने वाले हैं। संग्रह का पहला गीत जिसमें सामाजिक अलगाव में जा कर भी कवि सामंती परिवेश को तोड़ने की बात कहता है, काफी प्रासंगिक है –
“भलहीं जे रहबो कुजतिया, ना ढोअले-ढोआला इजतिया
बड़े-बड़े लोगवा से नेवता-हकारी
बड़का कहाए के बड़की बेमारी
जतिये भइल जहमतिया
न ढोवले-ढोवाले इजतिया।”
इसके अलावे ‘रावल मुनिया’ तथा ‘गम काथी के बा’ शीर्षक गीतों में भी कवि की यह चेतना देखी जा सकती है। बलभद्र के इन गीतों में वह पारम्परिक पुरुषवादी समाज भी है जिसके झूठे मान-मर्याद के भीतर शोषित-दमित स्त्री पारिवारिक संतुलन के नाम पर छली जा रही है। ‘कवने गुमाने’, ‘घरी छने आवे जे बिजुरिया’ एवं ‘ख़त अगिला में शेष’ जैसे गीतों का वैविध्य जितना मनोरम है उतना हीं मारक भी। यह भी कि ये गीत भारतीय कृषि-संस्कृति का स्याह-सच भी लय-वद्ध करते हैं। ‘ख़त अगिला में शेष’ भोजपुरी के पाठकों के बीच पहले से हीं प्रशंसा पा चुका है। संग्रह के ये गीत एक स्वतंत्र चर्चा की माँग करते हैं।
गीतों के अलावे संग्रह की कविताएँ भी आधुनिक विमर्शों को आगे बढ़ाने में सक्षम दिखती हैं। इन कविताओं में श्रमशील समाज की विविध चिंताओं व उद्यमों की नैसर्गिक उपस्थिति है। नाम मात्र को भी अतिरेक नज़र नहीं आता। कवि की दृष्टि में कहीं रोजी-रोजगार के लिए उम्मीदपूर्वक दिल्ली जाता नौजवान है तो कहीं अपनी हलवाही के सहारे सूरज को लजवा देने वाला हलवाहा है। इन कविताओं में आदिम समाज व्यवस्था के बरक्श इस प्रकार के अविजित संघर्षों की कई गाथाएँ दर्ज हैं। ‘लजा गइलें’ की पंक्तियों में यह यूँ है-
“हर खाड़ क के
पेशाब ऊ कइलें
सरेह में दउरवलें आपन नज़र
माथ के गमछा से पोछ के पसीना
खइनी बनवलें
खइनी जमाके
माथ प बान्ह के फेरु से गमछा
बैलन के टिटकरलें फेरु से जसहीं
माथ प आग उगलत सूरूज
लजा गइलें।” 

बलभद्र
आज जब मनुष्य स्मृतिजीवी हो कर भी स्मृतियों को सँभालने-सहेजने में अक्षम साबित हो रहा है वहीं बलभद्र अपनी स्मृति गाथाओं को नई भावभूमि पर रूपाकार करते हैं। इनकी कविताओं में घर-परिवार, गाँव-समाज, खेती-बाड़ी, पशु-पक्षी सब के सब उपस्थित हैं। यह उपस्थिति एक समृद्ध लोक की उपस्थिति है। भोजपुरी कविताओं में ऐसी समृद्धि, ऐसी पूर्णता बहुत कम देखने को मिल रही है। हमारी कृषि संस्कृति और किसान–मजदूरों के ऊपर नित नए अनचाहे संकट घिरते जा रहे हैं। कर्ज-अभावों से त्रस्त किसान एक ओर जहाँ आजीविका हेतु पलायन कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आत्म-हत्या तक को विवश हैं। यह संकट जितना किसानों का है उतना हीं उनकी धरती का भी होते जा रहा है/ प्रकृति और पर्यावरण का भी होते जा रहा है। धरती लगातार अनुर्वर होते जा रही है। कवि चिंतित है। ‘कब कहलीं हम’ शीर्षक कविता में यहीं चिंता दिखती है-
“गाँव जइसे खाली होत जा रहल बा नवहन से
खाली होत जा रहल बा खेतो-बधार
एह जिया-जन्तुवन से
हमनी के चहला,न चहला के
नइखे रह गइल कवनो माने-मतलब
कवना तरह के विकास के दौर में आ फँसलीं जा
कि सरसों के फूल से डेराये लगली स तितली
कि जनेरा के बालियन से गायब होखे लागल दाना
केकर हउए ई सराप
कि हमनी के खेतन के तोपले जा रहल बा बेहिसाब
मल्टीनेशनल घास।”
कविता के अंत में कवि कहता है कि –
“कब कहली हम
कि आवअ, आवअ ए मल्टीनेशनल घास!
ए अमरीकी खर-पतवार!
आवअ, हमरा खेतन के तोपअ, पसरअ
पछाड़अ हमरा फसलन के
हमरा घासन के पछाड़अ
आवअ आ हमरा मुलुक के छाती प जमअ
जमअ आ राज करअ
कब कहली हम
कब कहली।”
ऐसे अवांछित संकटों के बावजूद भी ‘फेनु डटइहें’ का भूमिहीन किसान रामकिसुन दस कट्ठे खेत के लिए भी उतना हीं समर्पित दिखता है, जितना दस बिगहा वाले जंगी बाबू। कवि रामकिसुन की इस जीवटता को रेखांकित करता है।
संग्रह की कविताओं का एक पक्ष स्त्रियों से जुड़ता है। यहाँ कई कविताओं में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनकी उपस्थिति है। कहीं माँ, कहीं इया, कहीं पत्नी तो कहीं बहन के रूप में। ये स्त्रियाँ वर्जनाओं की व्यूह में खुद ढाल बनी दिखती हैं। इनका ममत्व, इनका त्याग व समर्पण किसी करुण कथा से कम नहीं। इसके लिए उन्हें किसी से कोई शिकायत भी नहीं। हद बाड़ी स, मधुर राग में, माई के नावे, शिवपतो से जैसी कविताएँ हमारी कृषि संस्कृति के अनकहे को भी कह देने में सक्षम हैं। कवि को किसान-मजदूरों, बेरोजगारों, स्त्रियों आदि की जो पीड़ा परेशान करती है, उसके लिए वह किसी एक को दोषी नहीं मानता। वह इसे व्यवस्थागत दोष मानता है और इसीलिए वर्तमान व्यवस्था को बदलने की बात करता है। ‘कब ले सउनइब’ में वह स्पष्ट कहता है-
“एह लोकतंत्र में
कहंवा बा कवनो सिस्टमसलूकत
साबुत एगो आदमी के हक़ में
कहअ भाई सीताराम
उठअ भाई राजाराम
कबले सउनाएके एह घोर माठा में
बोलअ भाई गंगाराम
बिना बोलले-बतियवले कतना कठिन बा जिनिगी
दीन-दुनिया।”
कवि इस सिस्टम पर सवाल हीं नहीं उठाता बल्कि उससे लड़ने का आग्रह भी करता है। कवि इन्ही चिंतावों की भाव-भूमि पर पला-बढ़ा है। इसलिए अपनी जड़ों से जुड़ा नज़र आता है। संग्रह का महत्त्व इसलिए भी है कि इसकी कविताएँ इस समय की सतरंगी चकाचौंध से भिन्न मौलिक चुनौतियों को चिह्नित करती हैं। उम्मीद है यह संग्रह अपनी विशिष्ट पहचान बनाएगा।
         
                                ============
समीक्ष्य काव्य संकलन : कब कहलीं हम (भोजपुरी)
कवि : बलभद्र
प्रकाशक : लोकायत प्रकाशन,
सत्येन्द्र कुमार गुप्त नगर, लंका, वाराणसी (उ. प्र.)        
मूल्य : 100 रू. 

सुमन कुमार सिंह

सम्पर्क – 

सुमन कुमार सिंह
द्वारा, प्रो. टी. एन. चौधरी,
फ्रेंड्स कॉलोनी, बजाज  शोरूम की गली में,
कतीरा, आरा – 802301, बिहार। 

        

जितेन्द्र कुमार के काव्य-संग्रह ‘समय का चन्द्रमा’ के बारे में

जितेन्द्र कुमार का काव्य-संग्रह ‘समय का चन्द्रमा’ वर्ष 2009 में ही प्रकाशित हुआ था। लेकिन इस  महत्वपूर्ण संग्रह पर कोई बातचीत नहीं हो पायी थी।इस संग्रह  पर एक समीक्षा लिखी है हमारे कवि-आलोचक मित्र बलभद्र ने। तो आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा  

बलभद्र
    
 जितेन्द्र कुमार का काव्य-संग्रह ‘समय का चन्द्रमा’ वर्ष 2009 में ही प्रकाशित हुआ था। यह संग्रह मुझे उसी वर्ष मिला था। कुछ कविताएँ मैंने उसी समय पढ़ ली थीं और अधिकांश तो पहले से पढ़ी अथवा सुनी हुई थीं। कविताएँ विचारपूर्ण हैं। कवि की प्रगतिशील दृष्टि संग्रह की कविताओं में देखी जा सकती है। जितेन्द्र जी की एक काव्य-पुस्तिका भी प्रकाशित है (रात भर रोई होगी धरती), इस संग्रह से पहले, और उस पुस्तिका की कविताएँ भी इस संग्रह में हैं। उस पुस्तिका की कविताओं पर मैं पहले लिख चुका हूँ, सो, इस संग्रह पर कुछ लिखने में विलम्ब हुआ और यह विलम्ब मेरी समझ से स्वाभाविक है। जितेन्द्र जी की कविताओं में जो दिखाई देता है उसे समझना बहुत जरूरी है। ये अपनी कविताओं में ‘जनसंहार’ का जिक्र करते हैं। ‘बाथे’, ‘बथानी टोला’ आता है, ‘मियाँपुर’ आता है। इन सबको समझे बगैर इनकी कविताओं के मर्म को वस्तुगत संदर्भों में नहीं समझा जा सकता है। ‘बथानी टोला’ बिहार के भोजपुर जिला का एक गाँव है। राज्य मशीनरी का संरक्षणप्राप्त सामंतों की निजी सेना ‘रणवीर सेना’ ने इस गाँव के गरीबों, दलितों व अल्पसंख्यक समुदाय के औरतों, बच्चों सहित अनेक लोगों की बेहद निर्ममतापूर्वक हत्या कर डाली थी। लालूराज में बिहार में अनेक जनसंहार हुए जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये। जितेन्द्र जी की कविताएँ इन जनसंहारों की पीड़ा और उसके प्रतिवाद से जुड़ी हुई हैं। ‘मृदंग’ कविता में रातभर धरती इसी पीड़ा में रोती है और सूरज धरती के आँसुओं को पोंछता है। मुझे बार-बार महसूस होता है कि यह जो सूरज है, ऊपर-ऊपर देखने पर तो लगता है कि जो सुबह में उगता है पूरब की दिशा में वह सूरज है, पर वास्तव में वह कवि के भीतर जो एक सूरज बैठा है प्रतिबद्ध विचार का सूरज, वह सूरज है, जो बथानी टोला के दुख-दरद में दुखी है और आक्रोशित भी है, पर असंतुलित नहीं है। कविता की पूरी बुनावट देखने लायक है। प्रकृति के उपादानों और क्रिया-कलापों के वर्णन के साथ कविता नरसंहार से जुड़ जाती है और इसके जुड़ते ही कविता में गजब की तीव्रता आ जाती है, कविता नाद से जुड़ जाती है, संकल्प-नाद से, एक आवाहन की तरफ गतिशील हो उठती है और सत्ता और सामंतों को ललकारने की मुद्रा में आ खड़ी होती है।

    जितेन्द्र जी शासकवर्ग के राजनीतिक छल-छन्द को समझते हैं, उसके चिकने-चुपड़े मुहावरों को भी। वे उस जन-समाज को भी जानते-समझते हैं जो गरीब है, हाशिए पर है, अशिक्षित है। पर थका-हारा नहीं है। वह अपनी राजनीतिक पार्टी और दिशा की तलाश करता है और उसके कार्यक्रमों से अपने को जोड़ता है और राजधानी पटना की सड़कों पर अपनी माँगों को बुलन्द करते हुए राज्य- मशीनरी की जनविरोधी नीतियों को उजागर करता है। अपने को विशाल जनसमुदाय से जोड़ता है और खाकी वर्दी के आतंक को धत्ता बताता है। ‘मेरे गाँव की अँगूठा छाप औरतें’ कविता में देखा जा सकता है कि

‘खाकी वर्दी से नहीं डरती अब
हाथ में हँसिया लेकर
विधान सभा का घेराव करने
राजधानी चली जाती हैं।’ 

ये औरतें अपने पूरेपन में बिल्कुल आम औरतों की तरह हैं। ये ढिबरी जलाती हैं, चूल्हा-चौका करती हैं, रोपनी-सोहनी करती हैं, गीत गाती हैं और विधान सभा का घेराव भी करती हैं। एक साथ अनेक दायित्वों का निर्वाह करती हैं। कवि केवल विधान सभा का घेराव करते दिखलाता तो इन औरतों की विशेषताएँ समग्र रूप में नहीं आ पातीं। कविता का सबसे मजबूत अंश वह है जहाँ कवि उनके चूल्हे जलाने और उनके पाँवो की आहट पर गोशाला के बछड़े के बाँ-बाँ बोलने का वर्णन करता है –

‘चूल्हे के धुएँ से संकेत देती हैं दिन के शुरू होने का
‘आँगन में उनके थिरकते पाँव की पदचाप सुनकर
गोशाला में बछड़ा बोलता है –
बाँ! बाँ!! बाँ!!!’


    जितेन्द्र जी जिस जाति अथवा वर्ग से आते हैं, उसके अंतर्विरोधों, उसकी अकड़ की प्रवृत्ति, कामचोरी, ऐय्याशी, बदमाशी सबको भली-भाँति जानते हैं और बहुत नजदीक से उसकी तीखी निंदा करते हैं, अपने निकट के किसी पात्र के इर्द-गिर्द कविता का ताना-बाना बुनते हुए। सामंती संस्कृति की पतनशीलता को उनकी कई कविताएँ अलग-अलग ढंग से दर्शाती हैं।


    ये डाक विभाग की नौकरी में थे। कई जगहों पर इन्हें काम करना पड़ा है। ये अनेक जनसंगठनों से जुड़े रहे हैं। झारखण्ड में भी इन्हें रहने का मौका मिला है। इनकी कविता में जो ‘पलाश’ है वह झारखण्ड का पलाश है। नौकरी के आखिरी चरण में इन्हें आरा से पटना प्रतिदिन आना-जाना पड़ा है। इस आने-जाने में उन्हें बहुत कुछ देखने-सुनने को मिला है। अपनी कविताओं में वे इन सारे प्रसंगों और अनुभवों का बहुत रचनात्मक उपयोग करते हैं। इन प्रसंगों और अनुभवों को वे देश-दुनिया के प्रसंगों, बहसों-विमर्शों, स्थितियों से जोड़ते हुए एक नई और महत्वपूर्ण बात कहने की कोशिश करते हैं।


    ‘जमवट’, ‘हर्षातिरेक’, ‘सनहवा’, भिखारी’, ‘प्रेम के मोती’ कविताएँ मुझे काफी अच्छी लगी हैं। ‘मेरा प्रदेश’ कविता के बारे में पहले ही विस्तार में लिख चुका हूँ। यह कविता पूर्व प्रकाशित पुस्तिका में भी थी। ‘कविता लिखने का वक्त’ भी अच्छी कविता है। यह कविता लोक के जगने की प्रक्रिया के साथ खुद को जोड़ने की कविता है। ‘जमवट’ पुरानी ग्रामीण-संस्कृति के रचनात्मक पक्ष को उजागर करती कविता है। कुएँ की खुदाई के बाद जब उसकी दीवार जोड़ी जाती थी तब जामुन की लकड़ी को कुएँ का आकार देकर उसे बुनियाद में डाला जाता था और उस पर से ईंटों की जोड़ाई शुरू होती थी। इसकी पूरी एक सांस्कृतिक प्रक्रिया थी। उत्सव जैसा माहौल हो जाता था। औरतें गीत-गाती थीं। लकड़ी में हल्दी लगाई जाती थी। जितेन्द्र जी ने इस कविता के जरिए अतीत के उस सांस्कृतिक प्रसंग को प्रकट किया है और ‘जमवट’ के जरिए जो नई बात कही है कि गाँव के मेहनतकश लोग ही किसी देश की बुनियाद होते हैं। वे ही देश की नींव में जमवट की तरह होते हैं। जामुन की वह लकड़ी वर्षों तक पानी में डूबी होकर भी सड़ती नहीं थी। यह एक सांस्कृतिक रागबोध की कविता है।


    ‘हर्षातिरेक’ में एक नन्हीं-सी बच्ची है और उसकी प्यारी अदाएँ हैं। वह बच्ची कवि की बेटी की बेटी है। दराज की एक-एक चीजें वह निकाल बाहर करती है। कवि उसकी इस बाललीला पर फिदा है और अपने ‘नाना’ होने के गर्व का उद्घोष करता है। यह हर्ष, यह गर्व और यह उद्घोष किसको नहीं भायेगा?


    ‘सनहवा’ दरअसल एक बाग का नाम है, कवि के गाँव का एक बाग है जो अब नहीं है। वह कवि की स्मृतियों में उभरता है। बाग के साथ कवि का बचपन जुड़ा हुआ है। वह बाग इस वजह से याद आता है कि कवि ने आरा शहर के पकड़ी गाँव के बगल के एक बाग को देखा, उस बाग को देखते हुए उसे समझ में आया कि ‘सनहवा’ की तरह यह बाग भी अब समाप्त हो जायेगा। शहर का विस्तार इसे निगल जायेगा। बचपन की स्मृतियों ने इस कविता को मर्मस्पर्शी बनाया है।


    ‘प्रेम के मोती’ पढ़ते वक्त मन भीतर से भींग गया। एक वृद्ध-विधुर अपनी पत्नी से बिछड़ने के दुख के साथ है। वे दोनों पति-पत्नी बुढ़ापे में ‘चिड़िया के जोड़े की भाँति’ पास-पास बैठते थे। जाड़े में बोरसी की आग आमने-समने बैठ कर तापते थे। गाँव के निम्न-मध्यवर्गीय परिवेश का यह बिम्ब है। ‘भिखारी’ कविता गरीबी-लाचारी के बावजूद मनुष्योचित व्यवहार की माँग को रेखांकित करती है। अपमानपूर्वक दिये गये ठेकुए को एक भिखारी ठुकरा देता है। उसका यह ठुकराना अच्छा लगता है। ‘इराकी बालक’ कविता पढ़ते हुए फैज की एक कविता ‘मत रो बच्चे’ याद आती है। इस बच्चे के माँ-पिता एक आक्रमण में मारे जाते हैं। जितेन्द्र जी मार्क्सवादी विचारधारा के कवि-कहानीकार हैं। वैश्वीकरण, उदारीकरण, साम्राज्यवाद आदि के माने-मतलब  अच्छी तरह जानते हैं। अपनी अनेक कविताओं में वे वैश्वीकरण के निहितार्थों एवं उससे उत्पन्न होने वाले संकटों की तरफ संकेत करते हैं। एक ही साथ वे सामंती संस्कृति, साम्राज्यवादी पैंतरों एवं भारतीय शासक वर्ग के साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ रिश्तों को उजागर करते हैं।


    इनकी कविताएँ इनके गहन मानसिक उद्वेलनों, इनके राजनीतिक सरोकारों, आम आदमी के साथ इनके जुड़ावों, एक ऐक्टिविस्ट की सक्रियताओं की उपज हैं। भाषा एकदम सहज है। कविताओं को पढ़ते समय लगता है कि नितांत गद्य की तरह शुरू हुई कविताओं में बीच-बीच में लय, तुक आदि स्वतः मिलते जाते हैं, अपने एक सहज प्रवाह में। व्यंग्य के साथ-साथ करुणा और एक प्रतिवाद भी कविताओं में सहज प्रवाह में उभरता दिखता है। ‘पुरानी हवेली’ कविता में बहुत धीरे से हवेलियों के दिन लद जाने वाली बात उठाई गयी है। हवेलियों के अच्छे दिन किस तरह के थे, कैसे वे अच्छे दिन उत्सव से भरे होते थे और बुरे दिन किस तरह के हैं जो आ गये हैं- के वर्णन में कविता खूब सधी है। ‘हवेली’ पुरानी सामंती संस्कृति की प्रतीक है। कवि साफ शब्दों में कहता है –

‘बहुत खतरनाक हो गया है
पुरानी हवेली में रहना।’

    हमारे ‘समय का चन्द्रमा’ आज अनेक संकटों और सवालों से आच्छादित है। उसे पूर्णतः खिलने, स्वतंत्रतापूर्वक अपनी चाँदनी बिखेरने का अवसर ही नहीं मिलता। वह जीवन की स्वाभाविक गति से दूर है। किसान, मजदूर, छात्र, बालक, बूढ़े, औरतें, युवक, युवतियाँ, घर, खेती, फसलें, बाग-बगीचे – सब वर्तमान माहौल में थके, ऊबे, असुरक्षाबोध से भरे हुए हैं। थोड़ी-सी चहल-पहल जो है बची हुई, सो जीवन की अपनी एक स्थिति और गति के चलते है। यह अब कितनी देर बची रहेगी, कहना कठिन है। ‘समय का चन्द्रमा’ इन प्रश्नों, इन संदर्भों, इन स्थितियों के साथ-साथ इनको समझने और इनसे उबरने के प्रयत्नों को रेखांकित करती कविताओं का संग्रह है।

समीक्ष्य कविता संग्रह
 
समय का चन्द्रमा, जितेन्द्र कुमार, 
किताब पब्लिकेशन, हाजीपुर रोड, 
मुजफ्फरपुर-  842002, मूल्य- 125 रू0 मात्र।

सम्पर्क – 
असिस्टेन्ट प्रोफेसर – हिन्दी, 
गिरिडीह कॉलेज, गिरिडीह, 
झारखण्ड। 
मो0- 09801326311

बलभद्र


ग्लोबल गाँव के देवतारणेन्द्र का चर्चित उपन्यास है। कवि-आलोचक बलभद्र ने इन दिनों अपने अध्ययन के क्रम में इस उपन्यास को पढ़ते हुए इस पर स्वतःस्फूर्त ढंग से अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया लिख डाली है। तो आईये पढ़ते हैं बलभद्र की इस प्रतिक्रिया को जो एक अलग नजरिये से इस उपन्यास की पड़ताल है 
  
असुरों की जय-पराजय: वैदिक काल से ग्लोबल काल तक
रणेन्द्र का उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवताझारखण्ड के आदिवासी-समाज, उसमें भी खासकर असुरसमुदाय को केन्द्र कर लिखा गया एक ऐसा उपन्यास है, जो असुरजनजाति के सदियों पुराने इतिहास को, इस जनजाति से जुड़ी दंतकथाओं और मिथकों को और इनसे बनी इस जनजाति के बारे में लोकप्रचलित धारणाओं को न केवल खण्डित करता है, बल्कि इस और इसके साथ-साथ समूचे आदिवासी समाज के प्रति नये सिरे से सोचने-विचारने को बाध्य करता है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए देवासुर संग्राम के साथ-साथ हनुमान चालीसाकी यह पंक्ति भी जेहन में बार-बार उचरने लगी कि भीम रूप धरि असुर संहारे……। वृत्रासुर, बकासुर, नरकासुर, बाणासुर, महिषासुर और न जाने कितने असुरों और दानवों और दैत्यों के बारे में बनी हुई अब तक की धारणाएँ खण्ड-खण्ड होने लगीं। ये शत-प्रतिशत आदमी थे, प्रकृति-पूजक, निश्छल और इसकी कीमत इन्हें अनेक बार चुकानी पड़ी है। इनके साथ भारी अन्याय हुआ है। तथाकथित देव-संस्कृति ने दंतकथाओं, मिथकों, लोकगीतों एवं अपने शास्त्रों में इनकी जो छवियाँ निर्मित की हैं और इन्हें अपनी जमीन के साथ-साथ इतिहास से बेदखल किया है, वह इनके साथ किया गया भारी छल है, अक्षम्य अपराध है। श्रेष्ठताबोध के अहंकार के उद्घोष हैं- देवसंस्कृति के मिथक, प्रतीक, मुहावरे, दंतकथाएँ आदि। यह उपन्यास असुरों को, बिरहोरों को और इस तरह के अन्य आदिवासी समुदायों को, उनकी सांस्कृतिक विशिष्टताओं और मानवीय संघर्षों और सरोकारों को, तमाम तरह के दुःखों, तकलीफों एवं उत्पीड़न-उपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए हमारे समक्ष उपस्थित करता है।

असुरों को तथाकथित देवताओं ने प्रताड़ित किया। उन्हें लगातार और लगातार अपनी जमीन से विस्थापित किया और विस्थापन की यह त्रासदी उन्हें आज भी झेलनी पड़ रही है। आज ग्लोबल गाँव के देवतापूरी तैयारी के साथ उन्हें उनकी जमीन से खदेड़ने की तैयारी में हैं। इन देवताओं की यह वैश्विक तैयारी है। इन असुरों को, आदिवासियों को पहले भी खदेड़ा गया और इनके खिलाफ और अपने पक्ष में विजयी समुदाय ने मिथक, प्रतीक एवं शास्त्र गढ़े और ऐसा ही कुछ, बल्कि इससे भी बड़ी तैयारी के साथ और इसके भी घातक एवं क्रूर इरादों के मिथक, प्रतीक एवं शास्त्र रचने की तैयारी में हैं। लेकिन यह असुर एवं आदिवासी समाज पहले भी संघर्ष में था और आज भी है, पराजय के हर दंश को झेलते हुए। यह उपन्यास तब से अब तक की इसी संघर्षगाथा को केन्द्रित कर लिखा गया है। इन पराजित और संघर्षरत जनसमुदायों की सिसकियों को वैश्विक पटल पर प्रस्तुत करने की यह एक स्वागतयोग्य कोशिश है। यह उपन्यास इस मायने में काफी महत्व का है कि असुरोंपर केन्द्रित होते हुए भी इसमें झारखण्ड सहित अन्य राज्यों और कई देशों के आदिवासियों के अतीत और वर्तमान की त्रासदियाँ पाठकों के समक्ष आती हैं और पाठक आदिवासियों के आँसुओं की पगडण्डीपर नम और उद्वेलित हुए चलने को बाध्य हैं। 
इस उपन्यास की जो कथा है, वह विस्तृत नहीं है, लेकिन पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि यह कथा तथाकथित देवताओं और असुरों के संघर्षों से लेकर आज के वैश्विक देवताओं और जनसमुदायों के संघर्षों तक फैली हुई है। तब से अब तक के संघर्षों को जोड़ने वाली कोई एक कथा भी नहीं है, फिर भी लगता है कि एक जुड़ाव है। कथा एक राज्य के एक छोटे से क्षेत्र की है और राज्यों और देशों की सीमाओं को अतिक्रमित भी करती है। कथा वर्तमान में है, पर चुपके से अतीत से जुड़ जाती है। अतीत से वर्तमान, वर्तमान से अतीत, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, असम, मध्यप्रदेश, मणिपुर, केरल, महाराष्ट्र, प्राचीन अमेरिका के वर्जिनिया प्रान्त, लोककथाओं, मिथकों, लोकगीतों से कथा के सूत्र कुछ ऐसे जुड़े हुए हैं कि हर घटना, हर प्रसंग, हर गीत, अतीत, वर्तमान, रुमझुम, लालचन, गन्दूर, एतवारी, बुधनी, ललिता, डॉक्टर साहब, पोकाहांतस, मैटाकोम, कनारी का नवयुवक संघ, सत्यभामा, सऊरा, इरोम शर्मिला, सी.के. जानू, सुरेखा दलबी- सबके सब कथा के अनिवार्य अंग लगने लगते हैं। इनमें से किसी एक को घटा दिया जाय, तो उपन्यास घटजायेगा। और हाँ, ऐसे ही कुछ पात्र, कुछ प्रसंग, कुछ घटनाएँ, जोड़ दिये जाएँ, ठीक इसी तरह, तो सम्भव है कि यह उपन्यास कुछ और बढ़ जाए, सम्पन्न हो जाए। 
उपन्यास के पात्र, जो ग्लोबल देवताओं के दुष्चक्र के शिकार हैं और उनसे रण रोपे हुए हैं (सदियों से रोपे हुए हैं) और सत्यभामा, शऊरा, इरोम शर्मिला, सी.के. जानू और सुरेखा दलबी ये वर्तमान के ऐसे कुछ नाम हैं, जो जनविरोधी नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध के मिसाल हैं। इनकी आपसी संगति में ही उपन्यास का महत्व सिद्ध है। इस उपन्यास में कई चीजें संकेतों में भी आई हुई हैं। कोई चाहे तो कह सकता है कि संकेत तो कविता के इंस्ट्रूमेन्ट्सहैं, उपन्यास के नहीं। लेकिन, अगर इन इंस्ट्रूमेन्ट्सका उपयोग यदि कोई उपन्यास में करता है और कायदे से करता है और अर्थ और प्रभाव में इनसे सघनता और विस्तार मिलते हैं, तो इन्हें अनुचित कैसे कहा जा सकता है? उपन्यास में जो संकेत हैं, वे पाठकों में अन्तर्क्रियात्मक रूप में विस्तार-सृजन में, अर्थ और प्रभाव को सघन बनाने में कामयाब हैं। इन्हें एक सूत्र में पिरोकर देखने से, बेशक, एक राजनीतिक-सांस्कृतिक इतिहास के अध्ययन जैसा लगने लगता है।

फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास मैला आँचलका प्रशान्त डॉक्टरी की शिक्षा पूरी कर पूर्णिया के पिछड़े हुए अंचल को अपना कार्यक्षेत्र चुनता है। पर, इस उपन्यास का युवा शिक्षक लम्बी बेरोजगारी, बदहाली, उपेक्षा, अपमान की गाढ़ी काली रात के बादपाई शिक्षक की नौकरी निभाने की मजबूरियों के साथ एक आदिवासी बहुल इलाके में पहाड़ और जंगलों के बीच जाता है। उस स्कूल की भौगोलिक और आस-पास की सामाजिक व अन्य स्थितियों को देखते हुए वह वहाँ से अपना ट्रांसफर करवाने की कोशिश करता है। इस कोशिश में उसे सफलता नहीं मिलती। वह थक-हार कर वहाँ काम शुरु करता है और एक प्रक्रिया में वह वहाँ के कुछ लोगों के करीब जाता है। परिचय मित्रता में बदलता है। असुर समुदाय के लोगों से परिचित होता है और इस समुदाय के बारे में उसकी जो धारणा थी कि खूब लम्बे-चौड़े, काले-कलूटे, भयानक, दाँत-वाँत निकले हुए माथे पर सींग-वींग लगे हुए लोग होंगे’ (पृ0 11), वो धारणा उलट-पुलट होने लगी। लालचन, रुमझुम, ललिता, बुधनी, एतवारी, गन्दूर से निकटता के बाद वह वहाँ की पूरी बदहाली से परिचित होता है और आदिवासियों से जुड़कर वह उनके संघर्षों का साथी बन जाता है। रुमझुम जैसे शिक्षित और इतिहास के जानकार युवक से मित्रता के चलते वह असुरों और आदिवासियों के इतिहास और संस्कृति का अध्ययन करता है। वहाँ के भूगोल, इतिहास, राजनीति, शोषण, समस्याओं व खनन कम्पनियों एवं माफियाओं की मनमानियों से अवगत होता है। बेहिसाब गरीबी, अशिक्षा और सरकारी उपेक्षाओं ने मूलवासियों को बदहाली में जीने को बाध्य किया है। बॉक्साइट के खनन से प्रदूषण और स्वास्थ्य की समस्याएँ इन्हें झेलनी पड़ती हैं। डॉक्टर रामकुमार और बुधनी की देसी केबिनसे भी उसे बहुत कुछ जानने को मिलता है। एतवारी से उसका सम्बन्ध कायम होता है, शारीरिक सम्बन्ध और फिर ललिता के आगमन के बाद उससे दोस्ती जोड़ता है। संघर्ष में शामिल वह युवा शिक्षक अब इस अंचल विशेष का हो जाता है। इस युवक के मन नहीं लगनेऔर मन लगनेके बीच पूरा कथानक घटित होता है। कथावाचक युवा शिक्षक को भी इसका बोध है- ‘‘घर से इतनी दूर, जंगल-पहाड़ों के बीच इस पाट पर इतना मन लग जायेगा, ऐसा सोचा न था’’ (पृ0 46)। उसे एक दृश्य-अदृश्य जामुनी रोशनीभिगोये रहती और एकरंगाहोने के बाद लाभ-हानि का हिसाब-किताब भूल गया (पृ0 47)। सब कुछ यहाँ संकेतों में है। बात बहुत ढँक कर कही गई है और इस ढँकने की कला में भाषा-भंगिमा बदल-सी गई है। एक खास तरह की तीव्रता आ जाती है। यह प्रणय-दृश्य है। युवा शिक्षक यहाँ प्रेम और संघर्ष के बन्धन में फँस जाता है। 
प्रेम का एक रूप ललिता के साथ दिखाई देता है। वह ललिता से सहियाजोड़ता है। सहिया यानी दोस्ती। इसकी एक देशज प्रक्रिया है, जिसको दोनों पूरा करते हैं। जामुनी रंग यानी एतवारी से शारीरिक सम्बन्ध का आदती वह युवा शिक्षक प्रेम की एक नई परिभाषा गढ़ता हुआ एवं उसकी व्याख्या प्रस्तुत करता हुआ दिखाई देता है। यह प्रेम संघर्ष की पृष्ठभूमि पर रचा जाता है। यह संघर्ष ग्लोबल गाँव के देवतासे है। आदिवासी जनसमुदाय की मुक्ति की भावना से भरा हुआ। इस युवक में, इस सन्दर्भ में जो एक बात देखी जा सकती है, वह यह कि वह आदर्शवाद का प्रवक्ता न होकर जीवन के ठोस बुनियादी व व्यावहारिक पहलुओं को अपनाता हुआ युवक है। वह महसूस करता है कि हम दोनों में से कोई भी भी एक-दूसरे को कुछ और नहीं दे पा रहा है। कुछ भी नया जुड़ता नहीं दिखता’ (पृ0 63)। यह एतवारी के सन्दर्भ में है, जो शादीशुदा है। वह देह से आगे बढ़कर कुछ और पाने की कोशिश में, कुछ नया और मन लायक पाने की कोशिश में ललिता से जुड़ता है। वह ललिता को देखता है, तो उसे पोकाहांतसकी याद आती है।

ललितान आती, तो पोकाहांतसका प्रसंग न आता और कथा के विस्तार और संवेदनशीलता का यह रूप नहीं सृजित हो पाता। ललिता की उपस्थिति रुमझुम की उपस्थिति को सार्थक बनाती है। साथ ही, उपन्यास के अन्त में आए सुनील असुर को भी। आदिवासी समुदाय के भीतर की यह नई पीढ़ी है, जो शिक्षित है और संघर्षशील है। यह देखने लायक है कि रुमझुम ने बड़े मनोयोग से ललिता को दसवीं-ग्यारहवीं कक्षाओं में पढ़ाया है। कथा के अन्त में लैंड माइंसविस्फोट में ललिता मारी जाती है और संघर्ष को आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी लेने सुनील असुर आता है। हालाँकि उसका आना सूचनात्मक रूप में है। वह कथा के हिस्से के रूप में आता हुआ नहीं दिखाई देता है। वह कथा के अभिन्न अंग के रूप में आता तो बात ज्यादा अच्छी होती। और वह आता है, तो यह प्रश्न बार-बार उठता है कि जो मौजूदा स्थिति है, उसमें उसे भी शहीद ही होना है अथवा, किन्हीं वजहों से संघर्ष-पथ से विचलित होने पर मजबूर भी होना पड़ सकता है। इस पूरे तथ्य को समझने के लिये पोकाहांतसवाले प्रसंग को देखना-समझना ज्यादा उचित होगा और सच है कि यह प्रसंग इसी त्रासदी को उजागर करने हेतु लाया गया है। 
इसी उपन्यास में अमेरिकी मूल निवासियों के विनाश का भी प्रसंग है, जो मैसाच्यूट के राजा मैटाकोम और अन्य निवासियों से जुड़ा है। अंग्रेजों ने मैटाकोम का सिर काटा और उनके पत्नी-बच्चों को देश के बाहर किया और अन्य निवासियों को भी मार डाला। रुमझुम द्वारा दी गई किताब टेल ऑव टियर्स’ (आँसुओं की पगडण्डी) से बहुत कुछ खुलते हैं आदिवासियों के विनाश और उनके खदेड़े जाने वाले प्रसंग। पोकाहांतसप्राचीन अमेरिका के रेड इण्डियन राजा पोतवान की बेटी थी, जो अंग्रेजों की साजिश की शिकार हुई थी और अंग्रेजों ने राजा की मृत्यु के बाद उसकी जनजाति के लोगों को भी मार डाला था। यह प्रसंग इस नाते काफी अर्थपूर्ण है कि इसके जरिये कथाकार ने ललिता और उसकी जाति की त्रासद आशंका की ओर संकेत किया है और यह आशंका बेवजह नहीं है। अन्त में ललिता और उसके समुदाय के अनेक लोग मारे जाते हैं। यह प्रसंग साम्राज्यवादी शक्तियों के दमन, लूट, हत्या, धोखाधड़ी के चरित्र को ऐतिहासिक निरन्तरता में उजागर करने में भी समर्थ है। इस प्रसंग से गुजरते हुए अनायास रेणु की कहानी तीसरी कसमकी महुआ घटवारिनकी याद आती है।

यह उपन्यास आदिवासियों के राजनीतिकरण की प्रक्रिया को भी प्रकट करता है। ग्लोबल गाँव के देवताओं के साथ-साथ उनके देशी आधारों के चरित्र को समझने एवं उनसे संघर्ष की रणनीतिक तैयारियों का ताना-बाना भी इसमें दिखाई देता है। जमींदारों की भूमि-लोलुपता, नौकरशाहों के मनमाने रवैयों, शिवदास बाबा का कंठी-आन्दोलन और स्त्रियों और लड़कियों का यौन-शोषण- यह सब इस उपन्यास के अनिवार्य हिस्से के रूप में हैं। शिवदास बाबा और गोनू सिंह और किशन कन्हैया पाण्डेय- ये ऐसे चरित्र हैं, जो आदिवासियों की जमीन-जायदाद और उनकी औरतों पर अपना हक जमाने की हर कोशिश करते हैं। भूमण्डलीकरण और बाजारवाद ने पाण्डेय और शिवदास बाबा जैसे चरित्रों को फूलने-फलने के अवसर दिये हैं। पाण्डेय तो ग्लोबल देवताओं का ठेठ देशी भक्त है, जो लड़कियाँ सप्लाई करता है, उनकी सेवा में। उपन्यास में बहुत ही ढंग से, विस्तार में न जाकर संकेतों में ही, इस तथ्य को प्रकट किया गया है कि भूमण्डलीकरण के इस दौर में उद्योगपतियों-पूँजीपतियों को अपनी पूँजी के विस्तार की भरपूर आजादी है और इस दौर में गरीबों, आदिवासियों और उनकी औरतों और बेटियों को निरन्तर तबाह होते जाना है। इस दौर में गरीब औरतों को माल की तरह खरीदे-बेचे जाने की घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है। शिवदास बाबा जैसे अनेक बाबा संत और समाज-कल्याण के नाम पर ठगी और अपनी यौन-कुण्ठाओं की तृप्ति में रमे हुए हैं। उनकी पहुँच दूर-दूर तक है लेकिन एक दूसरा पक्ष भी है, जो जन-आन्दोलनों का है और ऐसे जमींदारों, बाबाओं, नौकरशाहों, खनन उद्योगपतियों और बिचौलियों और ग्लोबल देवताओं को इन आन्दोलनों से चुनौतियाँ मिलने लगी हैं। ये आन्दोलन स्थानीय और छोटे स्तरों पर होते हुए भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं। 
वैदिक काल में भी देवताओं को चुनौतियाँ मिली थीं और आज भी मिल रही हैं। ग्लोबल देवताओं के माथे पर शिकन देखी जा सकती है और उनके षड्यंत्र भी। इस उपन्यास को पढ़ते हुए मनमोहन पाठक के उपन्यास गगन घटा घहरानीकी भी याद आती है। पाठक जी का यह उपन्यास 1991 में प्रकाशित हुआ था। सोवियत रूस के विखण्डन और भारत में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आने के मार्ग प्रशस्त होने का वह प्रथम चरण था। तब आज के प्रधानमंत्री तत्कालीन भारत सरकार में वित्त मंत्री हुआ करते थे। रणेंद्र का यह उपन्यास 2009 में छपता है। दोनों के बीच के इस कालखण्ड में बहुत कुछ बदला है। बावजूद इसके दोनों में एक बात समान रूप से आती है कि जमींदारों, नौकरशाहों, माफियाओं और सरकारों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से लड़ने के लिये आदिवासियों और गैर-आदिवासी गरीबों, किसानों व मजदूरों को एकजुट होना पड़ेगा। ग्लोबल गाँव के देवतामें छिटपुट अलग-अलग जगहों की लड़ाइयों में एका कायम करने की चिन्ता है और यह गगन घटा घहरानीमें भी है। पाठक जी तो इस एका की तलाश में भोजपुर के क्रान्तिकारी किसान संघर्षों से सम्बन्ध जोड़ते हैं। रणेंद्र भी सदानों, उराँओं, मुंडाओं, असुरों को एकजुट करते हुए प्रतिरोध का ताना-बाना बुनते हैं।

यह एक ऐसा उपन्यास है, जिसमें स्थानीय गीतों एवं जीवन-शैलियों एवं परम्परागत विश्वासों के भी वर्णन हैं। ऐसे अनेक शब्द हैं, जो क्षेत्र-विशेष की जनता में प्रचलित हैं और उपन्यासकार ने ऐसे शब्दों का खूब इस्तेमाल किया है। ऐसे शब्द रेणु और नागार्जुन के कथा-साहित्य में भी खूब आए हैं। जनभाषा और जन-संस्कृति के बीच के ये शब्द हैं, लेकिन ऐसे प्रयोग अर्थबोध के स्तर पर संकट भी उत्पन्न करते हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि रचनाकारों ने इस संकट को समझते हुए इसका समाधान भी बहुत रचनात्मक तरीके से ढूँढ़ा है। रणेंद्र के समक्ष भी ये सवाल हैं और समाधान भी उन्होंने अपने तरीके से ढूँढ़ा है और ऐसे ही समाधान रेणु और नागार्जुन के भी पास हैं। रणेंद्र टाँड़और दोनशब्द का प्रयोग करते हैं और स्वयं अर्थ बतलाते चलते हैं- पानी से वंचित भाग टाँड़कहलाता था और नीचे का पानी सुलभ हिस्सा दोन। इसी तरह सहियाका प्रयोग करते हैं और संवादों में इसका अर्थ भी बता देते हैं। इसी तरह लिखते हैं- बुधनी का आदमी बौध था, मन्दबुद्धि’ (पृ0 29)। नागार्जुन अपने उपन्यास बलचनमामें भरिया’, ‘गोपीऔर बोहियानाका अर्थ खुद बतलाते चलते हैं। तीसरी कसममें रेणु ने हीरामन के मुँह से पटपटाँगशब्द का प्रयोग कराया है और उसी से अर्थ भी स्पष्ट कराया है। पटपटाँगमाने सब मर गये। इस उपन्यास को पढ़ते हुए महसूस हुआ कि ऐसे उपन्यासों की यह अपनी एक देशज भाषा ठाट है और रणेंद्र ने भी रेणु और नागार्जुन की इस परम्परा को न केवल समृद्ध किया है, बल्कि उसकी अनिवार्य स्वाभाविकता और औचित्य को पुनः प्रमाणित किया है।

इस उपन्यास में आदिवासियों के प्रतिरोध और उसके दमन की सदियों पुरानी गाथा को प्रकाशित किया गया है। ये मूलवासी अपने मूल स्वरूप और संवेदना में पूरे समाज और इतिहास से संवाद करने की बेचैनी और तत्परता में हैं। अनेक उत्पीड़नों और गोलीकाण्डों और विस्फोटों के बावजूद यह हिस्सा अभी भी संघर्षशील है। बहुत कुछ तो स्पष्ट नहीं है कि आगे क्या होगा? लेकिन संघर्षशील और जागृत समाज, समुदाय और राष्ट्र की मुक्ति असम्भव तो कत्तई नहीं है। इस उपन्यास के एक पात्र रुमझुम असुर का मानना है- ‘‘हम वैदिक काल से सप्तसिंधु के इलाके से लगातार पीछे हटते हुए आजमगढ़, शाहाबाद, आरा, गया, राजगीर से होते इस वन-प्रान्तर कीकट, पौण्ड्रिक, कोकराह या चुटिया नागपुर पहुँचें। हजारों सालों में कितने इन्द्रों, कितने पाण्डवों, कितने सिंगबोंगा ने कितनी-कितनी बार हमारा विनाश किया, कितने गढ़ ध्वस्त किये, उसकी कोई गणना किसी इतिहास में दर्ज नहीं है। केवल लोककथाओं और मिथकों में हम जिन्दा हैं’’ (पृ0 43)। कथाकार ने इस उपन्यास को रचते हुए अनेक ऐतिहासिक तथ्यों की खोज की है। यह उनके धैर्य, खोज, साहस, तथ्यपरक विश्लेषणात्मक दृष्टि और आदिवासियों के प्रति मानवीय सहानुभूति एवं सहकर्म का परिणाम है। जिनका कोई इतिहास नहीं, वे इतिहास रचने की भूमिका में हैं।
ग्लोबल गाँव के देवता (उपन्यास), रणेन्द्र, भारतीय ज्ञानपीठ, वर्ष 2010, मूल्य 140
संपर्क:
असिस्टेंट प्रोफेसर-हिन्दी,  
गिरिडीह कॉलेज,  
गिरिडीह-815302, झारखण्ड

मोबाईल – 09801326311

जो जनता के लिए लिखेगा, वही इतिहास में बना रहेगा

 (चित्र: मधुकर सिंह को जन संस्कृति मंच की तरफ से सम्मानित करते प्रणय कृष्ण)

बलभद्र

आरा में कथाकार मधुकर सिंह के सम्मान में हुआ एक समारोह मधुकर सिंह सम्मान समारोह में कई राज्यों से साहित्यकारों का जुटान हुआ। बिहार के चर्चित कथाकार मधुकर सिंह पिछले करीब पांच साल से पैरालाइसिस के कारण कहीं भी अपने पैरो के बल पर चल कर जाने में असमर्थ हैं, लेकिन उनके लेखनी पर उनके हाथों और दिमाग की पकड़ कतई कमजोर नहीं पड़ी है। भोजपुर जिले के मुख्यालय आरा से बिल्कुल सटे हुए अपने गांव धरहरा में अपने घर में वे अस्वस्थता की स्थिति में भी लिख रहे हैं। सोनभद्र की राधा, सबसे बड़ा छल, सीताराम नमस्कार, जंगली सुअर, मनबोध बाबू, उत्तरगाथा, बदनाम, बेमतलब जिंदगियां, अगिन देवी, धर्मपुर की बहू, अर्जुन जिंदा है, सहदेव राम का इस्तीफा, मेरे गांव के लोग, कथा कहो कुंती माई, समकाल, बाजत अनहद ढोल, बेनीमाधो तिवारी की पतोह, ‘जगदीश कभी नहीं मरते’ समेत मधुकर सिंह के उन्नीस उपन्यास और पूरा सन्नाटा, भाई का जख्म, अगनु कापड़, पहला पाठ, असाढ़ का पहला दिन, हरिजन सेवक, पहली मुक्ति, माइकल जैक्सन की टोपी, पाठशाला समेत दस कहानी संग्रह और प्रतिनिधि कहानियों के कुछ संग्रह अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। लाखो, सुबह के लिए, बाबू जी का पासबुक, कुतुब बाजार आदि उनके चर्चित नाटक हैं। ‘रुक जा बदरा’ नामक उनका एक गीत संग्रह भी प्रकाशित है। उनकी कई कहानियों के नाट्य मंचन भी हुए हैं। वे जन नाट्य संस्था युवानीति के संस्थापकों में रहे हैं। उन्होंने कुछ कहानी संकलनों का संपादन भी किया है। बच्चों के लिए भी दर्जनों उपन्यास और कहानियां उन्होंने लिखी हैं। उनकी रचनाओं के तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलुगु, मराठी, पंजाबी, उडि़या, बांग्ला, चीनी, जापानी, रूसी और अंग्रेजी में अनुवाद हुए हैं। उन्होंने ‘इस बार’ पत्रिका के अतिरिक्त कुछ पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया है।

मधुकर सिंह उस पीढ़ी के साहित्यकार हैं, जिनका जनांदोलनों से अटूट नाता रहा है। सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट आंदोलनों का उनके कथा साहित्य पर गहरा असर रहा है। आज भी उनका यकीन है कि जो लेखक अपनी जनता के लिए लिखेगा, वही इतिहास में बना रहेगा। 22 सितंबर को नागरी प्रचारिणी सभागार में अपने सम्मान में आयोजित समारोह में उन्होंने मजबूती से इस यकीन को जाहिर किया। रांची, भोपाल, दिल्ली, बर्नपुर, बनारस, इलाहाबाद, गोरखपुर, लखनऊ, गिरिडिह, पूर्णिया, पटना, एटा आदि कई शहरों से साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी कथाकार मधुकर सिंह के सम्मान समारोह में शामिल होने के लिए अपने खर्चे पर आरा आए थे। और सबसे बड़ी बात यह कि समाज के हर तबके के लोग सभागार में मौजूद थे। जिन लोगों के जीवन संघर्ष और आंदोलन की कथा मधुकर सिंह ने कही है, उस दलित-वंचित मेहनतकश जनता की भारी तादाद नागरी प्रचारिणी सभागार में मौजूद थी। अपने साथियों के कंधों और बाजुओं का सहारा लेकर जैसे ही मधुकर सिंह मंच पर पहुँचे सभागार में देर तक लोगों की तालियां गूंजती रहीं। जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने जसम राष्ट्रीय परिषद की ओर से उन्हें पच्चीस हजार का चेक, शॉल और मानपत्र प्रदान कर सम्मानित किया। मधुकर सिंह जसम की स्थापना के समय से ही इसके साथ हैं और इसके राष्ट्रीय परिषद और कार्यकारिणी के सदस्य के अलावा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रह चुके हैं। वे जन नाट्य संस्था ‘युवानीति’ के संस्थापकों में से रहे हैं और आरा शहर की एक मुसहरटोली में उन्हीं की बहुचर्चित कहानी ‘दुश्मन’ के मंचन से युवानीति ने अपने सफर की शुरुआत की थी।

(चित्र: गोष्ठी को संबोधित करते हुए मधुकर सिंह)

प्रणय कृष्ण ने मानपत्र को पढ़कर सुनाया, जिसमें जसम की राष्ट्रीय परिषद ने मधुकर सिंह का महत्व इस रूप में रेखांकित किया है कि वे प्रगतिशील जनवादी कथा साहित्य के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। वे फणीश्वरनाथ रेणु के बाद हिंदी के उन गिने चुने साहित्यकारों में से हैं, जिन्होंने आजीवन न केवल ग्रामीण समाज को केंद्र बना कर लिखा है, बल्कि वहां चल रहे राजनीतिक-सामाजिक बदलाव के संघर्षों को भी शिद्दत के साथ दर्ज किया है। वे सही मायने में ग्रामीण समाज के जनवादीकरण के संघर्षो के सहचर लेखक हैं। वे साहित्य-संस्कृति की परिवर्तनकारी और प्रतिरोधी भूमिका के आग्रही रहे हैं। उनके साहित्य का बहुलांश मेहनतकश किसानों, खेत मजदूरों, भूमिहीनों, मेहनतकश औरतों और गरीब-दलित-वंचित वर्ग के इसी क्रांतिकारी आंदोलन की आंच से रचा गया है। इस आंदोलन के संस्थापकों में से एक जगदीश मास्टर और उनके साथी उनकी रचनाओं में बार बार नजर आते हैं। जगदीश मास्टर मधुकर सिंह के साथ ही जैन स्कूल में शिक्षक थे और सामंती जुल्म के खिलाफ दलितों-वंचितों के जनतांत्रिक अधिकारों के संघर्ष में शहीद हुए थे। सामंती-वर्णवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्ति के लिहाज से मधुकर सिंह की रचनाएं बेहद महत्व रखती हैं। सामाजिक मुक्ति के प्रश्न को उन्होंने जमीन के आंदोलन से और स्त्री मुक्ति के सवाल को दलित मुक्ति से अभिन्न रूप से जोड़कर देखा है। वे एक वामपंथी लेखक हैं और वामपंथ से सामंतवाद के अवशेषों, वर्ण-व्यवस्था और पूंजीवाद के नाश की अपेक्षा करते हैं।

(चित्र: अपने विचार व्यक्त करते हुए युवा आलोचक प्रणय कृष्ण)

सम्मान सत्र में लोगों ने मधुकर सिंह से जुड़ी हुई अपनी यादों को भी साझा किया। शुरुआत उनके बचपन के मित्र और उनकी कई रचनाओं के पात्र कवि श्रीराम तिवारी ने की और उनके आजाद स्वभाव को खासकर चिह्नित किया। युवानीति के पूर्व सचिव रंगकर्मी सुनील सरीन ने कहा कि मधुकर सिंह का सम्मान उस जन सांस्कृतिक पंरपरा का सम्मान है, जिसने कई नौजवान लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को बदलाव का स्वप्न और वैचारिक उर्जा दिया है। वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत ने कहा कि अगर सौ समाज शास्त्रीय अध्ययन एक पलड़े पर रख दिया जाए और दूसरे पलड़े पर मधुकर सिंह की कुछ चुनिंदा कहानियां, तो उनकी कहानियों का पलड़ा भारी पड़ेगा। वे हमेशा नए विचारों और नौजवानों के साथ रहे हैं। बनाफरचंद्र ने उनसे हुई मुलाकातों का जिक्र करते हुए कहा कि साहित्यिक बिरादरी में अपने दोस्ताना मिजाज के कारण मधुकर सिंह एक अलग ही पहचान रखते हैं। दूरदर्शन, पटना के निदेशक कवि कृष्ण कल्पित ने कहा कि भोजपुर का हमारे लेखन और राजनीति में बहुत बड़ा महत्व है। भोजपुर ने एक बुजुर्ग संघर्षशील लेखक का इस तरह सम्मान करके अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है। रेणु नेहरू युग की स्वप्नशीलता के लेखक थे, लेकिन उन्होंने जिस ग्रामीण सौंदर्य को पेश किया है, मधुकर सिंह के गांव वैसे नहीं है। मधुकर सिंह ने हिंदी कहानी को रूमानियत और आभासी यथार्थ से बाहर निकाला। वे एक श्रमजीवी लेखक हैं। प्रेमचंद की परंपरा को लेकर आज खूब विवाद खड़े किए जा रहे हैं, उन पर ऐसे लोग अपनी दावेदारी जता रहे हैं, जो उनकी परंपरा के विरोधी हैं। लेकिन सही मायने में मधुकर सिंह प्रेमचंद की परंपरा के लेखक हैं। वे शरीर से भले लाचार हैं, पर उनका दिमाग अभी भी लाचार नहीं है। कहानीकार अरविंद कुमार ने कहा कि जब चंद्रभूषण तिवारी द्वारा संपादित पत्रिका ‘वाम’ में मधुकर सिंह की कहानी ‘दुश्मन’ छपी, उस दौर में ही वे समांतर कहानी आंदोलन से बाहर आने लगे थे। वहां से उनकी नई शुरुआत होती है। उस कहानी में नेता की धूल उड़ाती जीप और उसके पीछे भागते बच्चों का जो दृश्य है, वह कैमरे की आंख से देखा प्रतीत होता है। उनकी कहानियों में जो नाटकीय तत्व है, वह भी महत्वपूर्ण है।

कथाकार अनंत कुमार सिंह ने कहा कि पूंजीवाद ने जिस सामूहिकता को खत्म किया है, मधुकर सिंह उस सामूहिकता के लिए जीवन और रचना दोनों स्तर पर संघर्ष करने वाले लेखक हैं। कथाकार सुरेश कांटक ने कहा कि मधुकर सिंह का साहित्य जन-जन की आकांक्षा से जुड़ा हुआ साहित्य है। चर्चित रंगकर्मी राजेश कुमार ने कहा कि भोजपुर से अभिजात्य और सामंती संस्कृति के खिलाफ जनता के रंगकर्म की जो धारा फूटी, उसका श्रेय मधुकर सिंह को है। कथाकार मदन मोहन ने चिह्नित किया कि समांतर आंदोलन के साथ होने के बावजूद मधुकर सिंह की जो वैचारिक आकांक्षा थी, वह उस दौर की भी उनकी कहानियों में दिखती है। उस आकांक्षा ने ही उन्हें जन-सांस्कृतिक आंदोलन का हमसफर बनाया। वरिष्ठ कवयित्री उर्मिला कौल ने कहा कि आरा के लोगों के लिए इस सम्मान समारोह की लंबे समय तक मधुर स्मृति रहेगी। मधुकर सिंह की रचनाओं में गांवों के अभावग्रस्त परिवारों की पीड़ा और विवशता नजर आती है।

युवानीति के पूर्व रंगकर्मी और वामपंथी नेता सुदामा प्रसाद ने कहा कि भोजपुर में जो सामंतवाद विरोधी संघर्ष शुरू हुआ, उसने जीवन के हर क्षेत्र को प्रभावित किया। राष्ट्रीय स्तर पर भी उसका प्रभाव पड़ा। शासकवर्ग की संस्कृति और मेहनतकशों की संस्कृति के बीच फर्क को समझना आसान हुआ। मधुकर सिंह उन रचनाकारों में हैं जिन्होंने इस फर्क को स्पष्ट किया। प्रो. पशुपतिनाथ सिंह ने युवा पीढ़ी के बदलते पाठकीय आस्वाद पर सवाल उठाते हुए कहा कि देश में जिस तरह का संकट है, उसमें उन्हें मधुकर सिंह सरीखे लोगों का साहित्य पढ़ना चाहिए।

वरिष्ठ कवि जगदीश नलिन, रंगकर्मी डा. विंद्येश्वरी, लेखक अरुण नारायण, पत्रकार पुष्पराज ने भी सम्मान सत्र में मधुकर सिंह के महत्व को रेखांकित किया। इस सत्र की अघ्यक्षता सुरेश कांटक, पशुपतिनाथ सिंह और बनाफरचंद्र ने की।

दूसरा सत्र विचार-विमर्श का था, जिसका विषय था- ‘कथाकार मधुकर सिंह: साहित्य में लोकतंत्र की आवाज।’ विमर्श की शुरुआत करते हुए कहानीकार सुभाषचंद्र कुशवाहा ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र में निम्नवर्ग की क्या स्थिति है मधुकर सिंह की कहानियों में इसे देखा जा सकता है। जाति की राजनीति से उत्पीडि़त समुदायों की मुक्ति संभव नहीं है, यह मधुकर सिंह ने अपनी कहानियों में आठवें दशक में ही दिखाया है। जाति का विकास जाति का ही नेता कर सकता है, इस तर्क और धारणा को उन्होंने गलत साबित किया है। वे निम्न वर्ग के शोषण में धर्म की भूमिका को चिह्नित करते हैं। वे सवाल उठाते हैं कि जेलों में बंद लोगों का बहुत बड़ा हिस्सा निम्नवर्ग का क्यों है? क्यों हक मांगने वालों को नक्सलवादी करार दिया जाता है? किस तरह गांधीवाद का इस्तेमाल शोषक वर्ग अपने वर्चस्व बनाए रखने के लिए करता है, इसे भी उन्होंने अपनी कहानियों में दिखाया है।

चर्चित युवा कहानीकार रणेंद्र ने कहा कि मधुकर सिंह वर्णवादी कथाकार नहीं है, उनके साहित्य में वर्ण से उत्पन्न जो पीड़ा है वह वर्ग चेतना तक पहुंचती है। अंबेडकर की गांवों के बारे में जो धारणा थी, वह मधुकर सिंह की कहानियों को पढ़ते हुए सही प्रतीत होती है। वे लोक जीवन में रस नहीं लेते, बल्कि उसे जनतांत्रिक बनाने की चिंता और संघर्ष को अभिव्यक्त करते हैं। वे दिखाते हैं कि किस तरह जो वर्ग अंग्रेजों के समय व्यवस्था का लाभ ले रहा था, वही आजादी के बाद के भारतीय लोकतंत्र का लाभ उठाता रहा। मधुकर सिंह को हिंदी के बड़े आलोचकों ने उपेक्षित किया, पर उनकी 10-15 कहानियां ऐसी हैं, जो मानक हैं। उनका जो देय है, उसका श्रेय उन्हें मिलना चाहिए। आलोचक रवींद्रनाथ राय ने कहा कि मधुकर सिंह के साहित्य में भोजपुर का आंदोलन दर्ज है। सामाजिक मुक्ति और आर्थिक आजादी के लिए गरीब मेहनतकशों का जो संघर्ष है, मधुकर सिंह उसके कथाकार हैं।

(चित्र: अपने विचार व्यक्त करते हुए वरिष्ठ आलोचक खगेन्द्र ठाकुर) 

वरिष्ठ आलोचक खगेंद्र ठाकुर ने प्रगतिशील लेखक संघ के साथ मधुकर सिंह के जुड़ाव को याद करते हुए कहा कि एक रचनाकार के रूप में वे जीवन और समाज के यथार्थ के प्रति सचेत लेखक हैं। 60 का दशक, जो कि समझ को गड्डमड्ड करने वाला दौर था, उसमें उन्होंने कहानी के सामाजिक यथार्थवादी धारा की परंपरा को आगे बढ़ाया। दलित चेतना एक आंदोलन के रूप में जरा देर से आई, पर मधुकर सिंह ने इस मेहनतकश समाज के संघर्ष को उसी दौर से चित्रित करना शुरू कर दिया था।

गीतकार नचिकेता ने कहा कि चुनावों के जरिए निम्नवर्ग के जीवन को नहीं बदला जा सकता, मधुकर सिंह ने अपनी कहानियों के जरिए दिखाया है। वे जनता के लेखक हैं और जनता के लेखक ऐसे ही सम्मान के हकदार होते हैं। शिवकुमार यादव ने भोजपुर के संघर्ष के साथ साहित्य के गहरे रिश्ते के संदर्भ में मधुकर सिंह की कहानियों को चिह्नित किया।

                                                                  (चित्र: अपने विचार व्यक्त करते हुए कवि बलभद्र)

कवि चन्द्रेश्वर ने कहा कि मधुकर सिंह की कहानियां भारतीय लोकतंत्र के झूठ का पर्दाफाश करती हैं। कवि बलभद्र ने कहा कि सामाजिक आंदोलनों और किसान संघर्षों की जरूरत को महसूस करते हुए मधुकर सिंह ने लोक साहित्य से भी बहुत कुछ लिया। भोजपुर में मधुकर सिंह, विजेंद्र अनिल और सुरेश कांटक की कथात्रयी ने जो काम किया है, उसका हिंदी साहित्य की जनसंघर्षधर्मी परंपरा में अलग से मूल्यांकन होना चाहिए।

जलेस के राज्य सचिव वरिष्ठ कहानीकार नीरज सिंह ने कहा कि मधुकर सिंह का सम्मान केवल भोजपुर ही नहीं, बल्कि पूरे देश के जनधर्मी, संघर्षधर्मी साहित्य के लिए गौरव की बात है। उत्पीडि़त, दलित-शोषित, वंचित वर्गों के प्रति गहरी पक्षधरता के कारण ही वे सत्ताभोगी चरित्रों पर तीखे प्रहार करते हैं। वे एक यारबाश व्यक्ति रहे हैं और अपने से कम उम्र के लोगों के साथ भी उनके बड़े आत्मीय संबंध रहे हैं।

समकालीन जनमत के संपादक सुधीर सुमन ने कहा कि मधुकर सिंह भोजपुर के आंदोलन में देश के स्वाधीनता आंदोलन की निरंतरता देखते हैं। राष्ट्र और लोकतंत्र के संदर्भ में उनकी धारणाएं भगतसिंह और अंबेडकर से मेल खाती हैं। वे भारत की खोज के नहीं, बल्कि भारत के निर्माण के कथाकार हैं। इस देश में राजनीति, समाज, अर्थनीति और संस्कृति सारे स्तरों पर सच्चे जनतंत्र की आकांक्षा और उसके लिए होने वाले संघर्ष के कथाकार हैं। उनकी कहानियों में गरीब दलित मेहनतकश वर्गीय तौर पर सचेत हैं, वर्ग दुश्मन को वे बहुत जल्दी पहचान लेते हैं। मधुकर सिंह परिवर्तनकारी राजनीति और संस्कृतिकर्म के बीच एकता का स्वप्न देखने वाले साहित्यकार हैं। यह अकारण नहीं है कि उन्होंने बिहार के आदिवासी संघर्ष से जुड़े चरित्रों पर न केवल उपन्यास लिखा, बल्कि नवसाक्षरों और बच्चों के लिए भी कई पुस्तिकाएं लिखी।

वरिष्ठ आलोचक रविभूषण ने कहा कि इस सम्मान समारोह में पांच हिंदी राज्यों और एक अहिंदी प्रांत पश्चिम बंगाल से प्रमुख साहित्यकारों का शामिल होना गहरा अर्थ रखता है। मधुकर सिंह ने एक अस्वस्थ समाज का स्वस्थ साहित्य रचा है। शोषित-दलित समाज के संघर्ष की जो इनकी कहानियां हैं, वे वर्गचेतना संपन्न कहानियां हैं। वे एक मास्टर साहित्यकार की मास्टर कहानियां हैं, जिनमें कुछ तो मास्टर पीस हैं। उनकी कहानियां रात में जलती हुई मोमबत्तियों और कहीं कहीं मशाल की तरह हैं। वे फैंटेसी नहीं, बल्कि यथार्थ के कथाकार हैं। यह संघर्षधर्मी यथार्थवाद ही भोजपुर के कहानीकारों की खासियत है। कथा साहित्य में एक भोजपुर स्कूल है, जिसका असर पूरे देश के कई कहानीकारों पर देखा जा सकता है। इस भोजपुर स्कूल पर वर्तमान के राजनीतिक-सामाजिक संघर्षों का प्रभाव तो है ही, इसके साथ संघर्षों का एक शानदार इतिहास भी जुड़ा हुआ है, जो 1857 से लेकर भोजपुर आंदोलन तक आता है। रविभूषण ने कहा कि साहित्य में लोकतंत्र की आवाज तभी आती है, जब राजनीति में लोकतंत्र की आवाज खत्म होने लगती है। जो नई कहानी की त्रयी है, उनकी कहानियों  में लोकतंत्र के संकट की शिनाख्त इस तरह से नहीं है, जिसे मधुकर सिंह अपनी कहानियों में शुरू से ही चिह्नित करते हैं। भोजपुर की जो कथात्रयी है, वह सचमुच लोकतंत्र के संकटों के खिलाफ संघर्ष करती नजर आती है। यह अकारण नहीं है कि मधुकर सिंह की कई कहानियों में रात्रि पाठशालाएं हैं। वे जनता की राजनैतिक चेतना को उन्नत करने की कोशिश करते हैं। नुक्कड़ नाटक जो खुद एक लोकतांत्रिक विधा है, उससे जुड़ते हैं। गीत, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि कई विधाओं में मधुकर सिंह की जो आवाजाही है, उसके पीछे एक स्पष्ट वैचारिक मकसद है। आज जबकि लोकतंत्र भ्रष्टतंत्र, लूटतंत्र और झूठतंत्र में तब्दील हो चुका है, तब उसके खिलाफ प्रतिरोध की आवाजें जिन साहित्यकारों में मिलती हैं, मधुकर सिंह उनमें अग्रणी हैं। विचार-विमर्श सत्र की अघ्यक्षता खगेंद्र ठाकुर, नीरज सिंह और रविभूषण ने की। दोनों सत्रों का संचालन कवि जितेंद्र कुमार ने किया।

 (चित्र: मधुकर सिंह की मशहूर कहानी ‘दुश्मन’ की नाट्य प्रस्तुति)

अंतिम सत्र में युवानीति ने मधुकर सिंह की मशहूर कहानी ‘दुश्मन’ की नाट्य प्रस्तुति की। रंगकर्मी रोहित के निर्देशन में तैयार इस नाटक में मधुकर सिंह के भोजपुरी गीत का भी इस्तेमाल किया गया था। शासकवर्ग किस तरह दलित-उत्पीडि़त जनता के नेताओं का वर्गीय रूपांतरण कर उन्हें अपनी ही जनता से काट देता है, इस नाटक में दर्शकों ने इसे बखूबी देखा।

 (चित्र: हिरावल द्वारा प्रस्तुत मधुकर सिंह की कहानी ‘कीर्तन’ पर आधारित नाटक)

पटना की नाट्य संस्था हिरावल ने मधुकर सिंह की कहानी ‘कीर्तन’ पर आधारित नाटक प्रस्तुत किया। इसमें देश में बाबाओं के अंधश्रद्धा के कारोबार तथा सामंती पितृसत्ता और मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था के साथ उनके गहरे रिश्ते पर तीखा व्यंग्य था। निर्देशन संतोष झा ने किया था। तीसरा नाटक जसम बेगूसराय की नाट्य संस्था रंगनायक ने किया। दीपक सिन्हा निर्देशित नाटक ‘माइकल जैक्सन की टोपी’ इसी शीर्षक की कहानी पर आधारित था, जिसमें मधुकर सिंह ने ऐसे छद्म प्रगतिशील जनवादी लेखकों पर व्यंग्य किया है, जो शासकवर्ग पर आश्रित होकर लेखन करते हैं और व्यवहार में ग्रामीण इलाकों और आदिवासी अंचलों में चल रहे जनसंघर्षों का विरोध करते हैं। इन तीनों नाट्य प्रस्तुतियों की खासियत यह थी कि ये पात्र बहुल नाटक थे। इतने सारे कलाकारों को एक साथ इन नाटकों में देखना दरअसल रंगकर्म के भविष्य के प्रति भी उम्मीद जगाने वाला था।

चित्रकारों ने भी अपनी कला के साथ इस सम्मान समारोह में शिरकत की। मंच पर ठीक सामने चित्रकार भुवनेश्वर भास्कर द्वारा बनाए गए छह पोस्टर लगाए गए थे, जो उन्होंने मधुकर सिंह के साथ अपनी स्मृतियों की अभिव्यक्ति के बतौर बनाया था। सभागार के बाहर चित्रकार राकेश दिवाकर ने मधुकर सिंह की रचनाओं पर आधारित चित्र लगाए थे। अभिधा प्रकाशन तथा जनपथ पत्रिका की ओर से बुक स्टाल भी लगाया गया था। इस समारोह में रामधारी सिंह दिवाकर, रामनिहाल गुंजन, वाचस्पति, कल्याण भारती, संतोष सहर, अशोक कुमार सिन्हा, राकेश कुमार सिंह, उमाकांत, फराज नजर चांद, हीरा ठाकुर, राजाराम प्रियदर्शी, शिवपूजनलाल विद्यार्थी, केडी सिंह, सुमन कुमार सिंह, अरुण शीतांश, संतोष श्रेयांश, शशांक शेखर, सत्यदेव, अयोध्या प्रसाद उपाध्याय, विजय कुमार सिन्हा, दिव्या गौतम, राजू रंजन, सुनील श्रीवास्तव, आशुतोष कुमार पांडेय, कृष्ण कुमार निर्मोही, राजदेव करथ, ओमप्रकाश सिन्हा, रवींद्र भारती, अरुण प्रसाद, किरण कुमारी, इंदु पांडेय, अजय कुमार, रजनीश, प्रशांत कुमार बंटी, शमशाद प्रेम, संजीव सिन्हा समेत कई साहित्यकार, पत्रकार, रंगकर्मी और चित्रकार मौजूद थे।

सम्पर्क 
बलभद्र
ई-मेल: balbhadra1964@gmail.com
मोबाईल- 09801326311

सुधीर सुमन  
मोबाईल- 09868990959

बलभद्र

मार्कण्डेय जी की पुण्यतिथि पर आयोजित विशेष प्रस्तुति के अंतर्गत आज पेश है युवा कवि एवं आलोचक बलभद्र का यह संस्मरण। ध्यातव्य है कि बलभद्र का शोध कार्य मार्कंडेय की रचनाधर्मिता पर ही है। इसी क्रम में बलभद्र मार्कण्डेय के बहुत नजदीक आये. स्वयं मार्कण्डेय जी का मानना था कि उन पर किये गए सारे शोध कार्यों में बलभद्र का काम अलग एवं बेहतर है। पहली बार पर प्रस्तुत है बलभद्र का एक आत्मीय संस्मरण। 
बकौल बलभद्र संस्मरण का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा जिसे वे पहली बार के पाठकों के लिए उपलब्ध कराते रहेंगे.
 

यह तो घर है प्रेम का

कोई रचना कैसे प्रभावित करती है, किस स्तर पर, इसका एक रोचक प्रसंग मार्कण्डेय जी की कहानियों से भी जुड़ा हुआ है। याद है मुझे कि ‘हंसा जाई अकेला’ पढ़ते वक्त मैं मन-ही-मन खूब हँसा था। भीतर से, खूब खिलखिला कर। हंसा को रतौंधी है और अँधेरे में वह एक औरत से टकरा जाता है। मजगवाँ की पहलवानी देख कर वह अपने गाँव के लोगों के साथ लौट रहा है। टकराता है तो वह समझता है कि अपने ही बीच का कोई है। पर, तुरन्त वह समझ जाता है कि अरे, यह तो औरत है। फिर तो मच जाती है भाग-पराह। गाँव के लोग दौड़ा लेते हैं। सब भागे जा रहे हैं, रतौंधी से ग्रस्त हंसा भी। कुछ भी उसे नहीं सूझता। पर भाग रहा है। यह पूरा वर्णन इतना सजीव,  गतिशील और गुदगुदाता हुआ है कि पढ़ते वक्त खूब हँसा था, खूब और कहानी पढ़ता गया, पढ़ता गया और मेरी पूरी हँसी धीरे-धीरे गंभीरता में बदलती गई। करुणा से मन भींगता गया। ‘हंसा’ एक ऐसा पात्र है जिसे बीमारी के चलते, महज रतौंधी के चलते रात में नहीं दिखता। हमारे समाज में बहुतेरे ऐसे लोग हैं जो कुपोषण और अज्ञानता के चलते ऐसी सामान्य बीमारियों से आज भी जूझते हैं। बहुतेरे ऐसे हैं जो सब देखते हुए भी नहीं देखते हैं। ‘हंसा’ आदमी के मन को,  आदमी के भीतर के आदमी को पहचानने में कोई भूल नहीं करता, और बहुतेरे आँख वाले, सुखी-सम्पन्न ‘हंसा’ जैसों को तिरस्कृत और अपमानित करने में ही अपनी बहादुरी समझते हैं। इस कहानी में वह औरत से दो बार टकराता है। पहली बार मजगँवा की पहलवानी देख कर लौटते वक्त और दूसरी बार खाना बनाने के लिए अंधेरे में सामान टटोलते वक्त पहली बार वह जिस औरत से टकराता है, उसका नाम नहीं है, महज टकरा जाने का उल्लेख है और फिर पिटे जाने के भय से भागने का वर्णन है। दूसरी बार टकराता है जिस औरत से उसका नाम सुशीला है और वह गाँधीवादी है और साथ ही कम उम्र की विधवा भी है। गाँधी जी के विचारों की प्रचारिका है, वोलेंटियर है और एक मीटिंग में आई हुई है। यहाँ का जो ‘टकराना’ है वह पहले वाले ‘टकराने’ से भिन्न है। यहाँ भागना नहीं होता, बल्कि ठहरना होता है। यहाँ का ‘टकराना’ दोनों के लिए महत्वपूर्ण है और वे प्रेम-सूत्र में बँध जाते हैं। और फिर, ‘हंसा’ को इस पवित्र और जरूरी प्रेम के लिए टकराना होता है, कूढ़ मगज कांग्रेसियों से, सामंती मन-मिजाज वालों से और दोनों को इस प्रेम की कीमत भी चुकानी पड़ती है-

‘‘यह तो घर है प्रेम का खाला का घर नाहिं।
सीस उतारे भुइँ धरे तब पैठे घर माहिं।’

‘तीसरी कसम’ का ‘हिरामन’ तीन कसमें खाता है और यहाँ ‘हंसा’ दो बार टकराता है। पहली बार टकराता है तो वह मन ही मन बहुत कुछ महसूस करता है। दूसरी बार टकराता है तो महसूस होता है कि हमारा समाज अपनी बद्धमूल धारणाओं में इतना जटिल और क्रूर है कि जीवन को उसकी स्वाभाविक गति में समझने और स्वीकार करने को तैयार ही नहीं है। पढ़ते हुए मैं भींग गया था पूरी तरह। इसी तरह ‘बीच के लोग’ पढ़ते वक्त भी हँसा था पूरी तबियत से। कोई एक पात्र है जो की विशेष मुद्रा बनाते हुए हवा छोड़ता है। मानव-मुद्राओं का वर्णन ही कुछ ऐसा है कि मेरा गँवई मन बिन हँसे नहीं रह सका। गाँव का वर्णन, कउड़े का वर्णन, गली का वर्णन, लोगों का बतियाना, गाँव की साँयफुस्स, सब बड़ा जानदार लगा था, सरस और वास्तव में ऐसा ही है। इतनी मानव-मुद्राएँ देखने को मिलती हैं, इतने प्रामाणिक, इतने जाने-पहचाने कि प्रसन्न हुए बिना नहीं रहा जा सकता। ‘प्रलय और मनुष्य’ नामक कहानी पढ़ते वक्त महसूस कर रहा था कि मार्कण्डेय जी ने जल-जीवों और बाढ़ के रूपक के जरिए आजादी के बाद मची लूट-खसोट, राजनीतिक-आर्थिक भ्रष्टाचार और गाँधी जी के इस्तेमाल की वास्तविक तसवीर पेश की है। गाँधी टोपी में बैठे मेढ़क और मेढ़की को देखना बड़ा अच्छा लगता है। 

मैं बिहार के भोजपुर जिला का रहने वाला हूँ। भाकपा (माले) का कार्यकर्ता हूँ और भोजपुर के किसान-संघर्ष में बतौर एक कार्यकर्ता शामिल हूँ। ‘बीच के लोग’ में जो एक तनाव है, सामंती भूमि सम्बन्धों को ले कर जो एक बहस है, जमीन जमींदारों से वापस लेने अथवा उनके कब्जे से मुक्त करने का जो एक संकल्प और संघर्ष है, इन समग्र स्थितियों और तनावों को मैं सीधे-सीधे देख रहा था। पूरी कहानी पढ़ गया एक उत्सुकता के साथ, आदि से अंत तक। हँसी और तनाव से गुजरते हुए। ‘हंसा जाई अकेला’ में हँसी और करुणा है, एक जबर्दस्त व्यंग्य भी है। हँसी, तनाव, करुणा और व्यंग्य का सम्मिश्रण है इनमें। ‘बीच के लोग’ का अंत जब आया तो सोचने लगा कि ‘मनरा’ का संकल्प कि पहले बीच के लोगों को रास्ते से हटाना होगा, कुछ जँच-पच नहीं रहा था। बीच के लोग तो हैं पर उन्हें हटाने के लिए अलग से क्या कार्यक्रम लिया जा सकता है? मैं महसूस कर रहा था तब और अब भी कि आन्दोलनों और कार्यक्रमों की निरंतरता में ही इन्हें हटाया जा सकता है, संट किया जा सकता है अथवा पक्ष में। मार्कण्डेय जी से एक बार ऐसे ही गप्प करते वक्त पूछा था यह सब, तो कहा उन्होंने कि ‘तुम ठीक कहते हो।’

वे बहुत मानते थे सुरेश काँटक को। काँटक जी भोजपुर के हैं और वहाँ के किसान संघर्षों की अनुगूँजें हैं इनकी कहानियों में। इनके पात्र लड़ते हुए पात्र हैं। रण की नीति तय करते हुए। इनकी एक कहानी है ‘एक बनिहार का आत्मनिवेदन।’ मार्कण्डेय की कहानियों में भी बनिहार हैं, मजूरे हैं। इस कहानी में भोजपुर के भूमिहीन खेत-मजदूरों की कठिन स्थितियों के साथ-साथ उनकी नई संघर्षशील चेतना, भोर की पहली लाली की तरह प्रस्फुटित होती दिखाई देती है। ‘बीच के लोग’ में मनरा है और ‘एक बनिहार का आत्मनिवेदन’ में ‘गनपत’। मुझे लगता है कि ‘गनपत’ जो है सो ‘मनरा’ का अगला रूप है, दोनों एक ही सूत्र में बँधे हुए हैं। मार्कण्डेय जी और काँटक जी के पात्रों की यह जो स्थिति है, उससे भी हम समझ सकते हैं कि वे काँटक जी को क्यों मानते थे। दरअसल, वे जो चाहते थे वो काँटक में पाते थे। संघर्ष का ताप उन्हें मिल रहा था। दोनों गाँव के कथाकार हैं, यह तो एक कारण है ही, पर बड़ा कारण है कि काँटक जी में वो संघर्ष देख रहे थे, किसान-संघर्ष, बनिहारों का संघर्ष। मार्कण्डेय जी से जब पहली बार मिला 2-डी, मिन्टो रोड वाले घर पर सन् 1992 में, तब भी उन्होंने सुरेश काँटक का नाम लिया था यह जान कर कि मैं भोजपुर का हूँ। तब मैं नहीं जानता था कि काँटक जी को वे इतना मानते हैं। अपनी पत्रिका ‘कथा’ में वे काँटक जी की कहानियाँ बार-बार प्रकाशित करते रहे। अपने आखिरी दिनों में भी उन्होंने कहानी के लिए तगादा करवाया था संतोष कुमार चतुर्वेदी से। ‘कथा’ गवाह है, सन्तोष चतुर्वेदी गवाह हैं और कुछ-कुछ मैं भी। वे चन्द्रभूषण तिवारी की भी चर्चा करते थे।

मैं गाँव में था, पार्टी से जुड़ा। किसानों और खेतिहर मजदूरों और महिलाओं की समस्याओं को समझने-बूझने में लगा था, पार्टी की बैठकों और कार्यक्रमों में शामिल होता था। इस कारण गाँव-जवार के बड़े और बड़ी जाति वाले मुझे पसंद नहीं करते थे। मैं हिन्दी से एम.ए. भी कर रहा था और खेती भी थोड़ी-बहुत सँभाल रहा था। अनेक तरह के प्रश्नों के बीच था। तनावपूर्ण जीवन था। एम.ए. के बाद शोध-कार्य करने के इरादे के साथ आया बी.एच.यू.। मार्कण्डेय की ये कुछ कहानियाँ थीं जो पढ़ी थीं और मन में था कि इन्हीं पर काम करना ठीक रहेगा। लेकिन यह भी आसान नहीं था। मेरा एक छोटा भाई है सन्तोष सहर। ‘सहर’ लिखता है अपने नाम के साथ। उसके हाथ में एक दिन ‘अग्निबीज’ देखा। ताक में था कि वह पहले पढ़ ले तो मैं भी पढूँ। मौका मिला और पढ़ गया। अच्छा लगा। जो सोचा था कि मार्कण्डेय की रचनाओं पर शोध-कार्य करूँगा, उसको और बल मिला। गाँव में रहने के चलते पुस्तकें कायदे से मिल नहीं पा रही थीं। बस, फिर रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया शुरू हुई। मेरे लिए यह भी आसान नहीं था। प्रकाश उदय के साथ प्रो. शुकदेव सिंह से मिला तो उन्होंने ‘चक्रधर’ की चर्चा की और ‘साहित्य-धारा’ के बारे में बताया। ‘चक्रधर’ के बारे में कुछ भी नहीं जानता था इसके पहले। उन्होंने कहा कि मार्कण्डेय की किताब ‘कहानी की बात’ पढ़िये। मैं उनसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुआ।
मुझे याद है कि श्रीकांत (आरा वाले) की कहानी ‘कुत्ते’ पढ़ते वक्त भी खूब हँसा था। वर्णन ही कुछ ऐसा था। रेणु के उपन्यास ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ पढ़ते हुए भी हँसा था। रेणु की बात चली तो मालूम हुआ कि मार्कण्डेय जी ‘मैला आँचल’ की तुलना में ‘परती परिकथा’ को बेहतर मानते हैं। ‘रसप्रिया’ कहानी उन्हें खूब पसंद थी। इस कहानी की, बातचीत के क्रम में उन्होंने कई बार चर्चा की। सन् 2000 के बाद उनसे मेरी बातचीत लगातार होती रही। कभी-कभार उनके यहाँ चला जाता था, कभी-कभार फोन पर बातें होती थीं। उन्हें मालूम हुआ कि मैं पार्टी से जुड़ा से हुआ हूँ तो मुझे यह महसूस हुआ कि उनका प्रेम-स्नेह मेरे प्रति और बढ़ता गया। फोन पर वे घर की हाल-चाल भी पूछा करते थे। महज शोध-कार्य ही उनके प्रेम-स्नेह पाने का कारण नहीं था। वह तो परिचय का एक आधार-मात्र था। प्रणय कृष्ण का नाम लेते तो कहते कि अरे जो तुम लोगों का साथी है, वह बड़ा तेज है, बहुत साफ लिखता है। वे मुझे आलसी भी कहते थे। सन्तोष चतुर्वेदी से कहते कि जरा लगाओ उसको फोन। फिर तो पूछ बैठते कि क्या पढ़ रहे हो? कब आओगे? उनसे किसी विषय पर बात करना बड़ा कठिन था। एक बार सन्तोष से कहा मैंने कि आज उनसे उनकी ही कहानियों पर बात करनी है। सन्तोष मुसकाये। चलिये तो सही। हम लोग गये। चाय पी साथ-साथ। बात हम लोग कुछ कहते, वो कुछ और कहते- दुष्यंत बड़ा बदमाश था, तो कभी अपने बाबा के बारे में। अपनी कहानी पर जल्दी कुछ नहीं कहते। हाँ, हमसे पूछते कभी-कभी कि तुमने कैसे खोजा मेरी कहानियों में ‘बाबा’ को। मार्कण्डेय को मैंने उनकी कहानियों से जाना। कहानियों के चलते उनके करीब गया। कहानियों में पाया कि किसानों और मजदूरों को ले कर, देश की स्थितियों को ले कर वे चिंतित हैं। उनकी चिंताओं को पकड़ते हुए मैं गया उनके पास। गया तो पाया कि यह आदमी अपने बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहता। और जो कहता है तो पता नहीं क्या-क्या कहता है, कहाँ-कहाँ से। जैसा कि अपनी कुछ कहानियों में कहता है। कुछ तो ऐसी कहानियाँ हैं इनकी, जिसमें लगता है कि कथा कहते हुए वे कथा का अगला-सूत्र तलाश रहे हैं, कोई ‘अगली कहानी।’

इतना बड़ा रचनाकार, और उनकी बहुत-सी रचनाएँ अप्रकाशित हैं, बिखरी हुई। ‘चक्रधर’ नाम से लिखा गया उनका ‘साहित्य-धारा’ स्तम्भ यूँ ही ‘कल्पना’ की फाइलों में था। पिछले साल छपा, 2012 में। लोकभारती प्रकाशन से। ‘कल्पना’ की प्रतियाँ भी नहीं रह गई थीं उनके पास। उनके यहाँ आने-जाने वाला तब का एक युवा कवि उनकी सारी प्रतियां उठा ले गया था, उसके बारे में मार्कंडेय जी बराबर कहते कि वो बड़ा चालू है। ‘कथा’ में उस कवि की कविताएँ भी छपी हैं।

मार्कण्डेय जी जैसे किसानों से, खेत-मजदूरों से, पवनी-पंसारियों से प्रेम करते थे, उसी तरह अपने इलाहाबाद से भी। हम सबों से भी। मैं उन्हें बार-बार सलाम करता हूँ यह गुनगुनाते हुए कि ‘यह तो घर है प्रेम का…..।’

संपर्क:
गिरिडीह कॉलेज, गिरिडीह, झारखंड।
मो0 9801326311

बलभद्र युवा कवि एवं आलोचक हैं. उनके सम्पादन 
में लोकभारती इलाहाबाद से अभी-अभी एक किताब
‘चक्रधर की साहित्य धारा’ प्रकाशित हुई है. इन 
दिनों वे झारखंड के गिरिडीह कालेज गिरिडीह में 
हिन्दी के प्राध्यापक हैं एवं हजारीबाग़ से छपने 
वाली महत्वपूर्ण लघु पत्रिका प्रसंग के सम्पादन से
 जुड़े हुए हैं.

संपर्क-
ई-मेल- balbhadrabhojpur@gmail.com
मोबाईल-
  09801326311

बलभद्र

अंटका  में पड़ल वसंत

गाँव के गाँव  सरसों  के पियर-पियर फूलन से घेरा गईल बा. हरियर हरियर के  ऊपर -ऊपर पियर-पियर. एह दूनो  रंग के ई आपसी   संजोग दूसर कौनो मौसम में  ना मिली. ई हरियर आ पियर   ऊपर से नइखे टपकल, बलुक धरती के भीतर  से  निकलल बा. अपने आप नाहीं. 

कुछे दिन पहिले  त धेला धमानी  रहे . एक रंग माटी के रंग. आ आज अनेक रंग, आ अनेक के ऊपर सरसों के रंगीनी. माटी  में आदमी आपन परान बो के साकार करेला अइसन रंग. कवनो खेत में  गेहूँ, कवनो में  जौव  , कवनो में तीसी, बूंट, मटर, कवनो-कवनो में. आ सब में  सरसों टपका-टपका. कवनो-कवनो में खाली सरसों. तब जा के पसरल बा सगरो  सउसे बधार में अइसन रंगीनी. कवनो  रंगरेज धरती के चुनरी रंग देले बा एह  रंग में. गावन के  घेर- घुरवेट देले बा. कुल आफत बिपत रहो बाहरे बाहर. धरती  हुलस रहल बिया. अपना अनेक रंग में हुलास बाँट रहल बिया.
                                   (चित्र:  गूगल के सौजन्य से) 
कतने गेहूँ जौव  में बाल निकल आइल बा.  माथ ऊच  कइले सोझ खड़ा कतने-कतने में बाल झांक रहल बा अबही. कतने-कतने थानन में भीतरे भीतर शुरू बा बाल के सिरजना. बाकी सरसों फुला चलल बा. हवा डोल रहल बा गवें-गवें. डोल रहल बा सरसों. गेहूँ आ  जौ डोल रहल बा. डोल रहल बा तीसी.  छोट -छोट  थान नील बरन फूल. नजदीक जाई  तनी.  मन मोह ली. नजर गडाई तनी. सुरुज के जोत में बिछिल जाई नजर. कुछ त अइसन बा एह जगत में की  बे  नगीच गइले ना लऊकी…. झूम रहल बा  खेत बधार. बड़ा लहरदार बा ई झूम, बड़ा लयदार. गेहूँ जौ के  टूंड कांच कोमल, आकाश ओर  उठल. धरती   के सिरजन के मधुर मोहक विस्फोट के गीतात्मक अभिव्यक्ति. हवा  में पाहि के पाहि हिलत. धरती  के  चूमें  के  कोशिश’ फेरु आकाश देने  मुंह.
सरसों   के थान गेहूँ-जौ से बड़-बड़. कवनो-कवनो बरोबर. एकर फूल हरियरी के चुमत-छुवत. हरियर  के बीच पियर, माथ  प पियरी. बेटा-बेटी के बियाह में  लोग पियरी  पेन्हेला . बेटा-बेटी के जनम प नइहर से पियरी आवेला– ‘कहवा से आवेला पियरिया…’  गावल  जाला एगो गीत. ‘छिटिया पहिर गोरी बिटिया त  बनि गइली. पियरी पहिन लरकोर…’  खेत बधार के ई रंग- गंठजोड़ के रंग  ह, सिरिजन के आ  उमंग-उल्लास के रंग ह. 
बाकी काहे  दू अतना रंगीनी के बादो मौसम कुछ फीका फीका लागत बा. बधार  अतना रंगीन, बाकिर   मन उदास. केकर नजर लागी गइल बा एह  मौसम पर की सब बेमजा हो रहल बा. मनोज तिवारी फेकर रहल बाडन जेने तेने कैसेट के जरिये. बाकिर आदमी के मन थिरकत नइखे, थिर होत जा रहल बा रोज-ब-रोज. गाँव  में चहक, चहल-पहल नइखे लऊकत. सहजनो में फूल  लऊके लागल. आम में मोजर. बाकिर  गाँव गली उदास, बइठका  सुनसान. साँझ खा ललटेन झंपात,  ढीबरी धुवात. अजबे किसिम के अंतर विरोध. अइसना में सरसों कतना दिन  ले आपन  रंग आ झूम बचा पाई.प्रकृति के   तरफ से जवन बसंत बा तवन लाख हेर फेर के बादो आ  गइल, अबकियो अपना समय पर. ऊ निर्बाध बा. प्रकृति  काम क रहल बिया आपन आ हमनी के बसंत रोज-रोज परत जा रहल बा अंटका में. ओकरा राहि में काँटे-काँट बिछत जा   रहल बा. के  हटाई एह काँट के. बसंत   के सामने के बाधा के  हटाई. ‘ ‘केई निकाली मोरा अंगूरी के कांटवा, केई मोरा हरिहे दरदिया हो रामा….’   
पहिले बधार में आदमी  के रहब रहत रहे. बोअनी, जोतनी, कटनी, पिटनी के अलावे  लोग  सौख  से लोग  खेत घूमत  रहे. एह गाँव से ओह गाँव तक चल जात रहे. आर-डडार पर बइठ बोल  बतिया ले रहे. हितो-नाता के लोग ले जात रहे खेते बधारे.  अब त ई साइते कतो मिली. बोअनी के सीजन में, खा कर के रब्बी के सीजन  में ‘हरियर  हरियर बधार महादेव’ के गूँज सांझ बेरा बेसुनइले ना रहत रहे. आज  त बधार हरियर पियर जरूर बा. बाकिर ए हरीयरी आ पियरी पर बेरोजगारी, महगाई आ  भ्रष्टाचार  के जबरदस्त  मार परि रहल बा. खेती में कवनो  मजा आ भविष्य नइखे रहि गइल.                

खाद तरह-तरह के,  दवाई तरह-तरह के बीया-बाल.  देखे के बात बा की सरसों फुलाइल त बा, बाकिर नइखी स लउकत मधुमाछी.  ओहनी के गुनगुन नइखे सुनात.  पंडुक महाराज बोल-बोल के थाकी गइल बाड़े. केहू उनका संगे नइखे. चिरइयन के बोली के नक़ल उतारे वाला नइखे. कोइलर के ‘कू’ के संगे लइका पहिले बिना ‘कू’ कइले ना रहत रहले. नन्ही-नन्ही चिरई जवन ढेला-ढमानी आ आर-मेड़ त दुबकल रहत रहीं स, बहुते कम लउकत बाडी स. प्रकृतियो के तरफ से वसंत आज खतरा में बा.  हे भाई, गड़बड़ा जाई हमनी के रंग-विवेक,  ढंग-विवेक. शर्ट-पैंट आ बाजारू सामान के रंग से कबो नहीं सुतरी वसंत.         

सँउसे बधार में सीजन पर एगो नाहीं लउकी हर बैल.  नाद- चरन गायब बा. भूसा-भुसहुल सब गायबे के कगार पर बा. ट्रेक्टर दउर रहल बा खेत में. बाबा हमार कहत रहलें की जवना खेत के कोन नइखे कोड़ात ऊ खेती ना कर सके. पकिया किसान कोन में कुदारी जरूर चलाई. हर फार ना पहुच पावे कोना में. ट्रेक्टरों ना. आज बहुते खेतन के कोना परती रहत बा. कुदारी नइखे चलत. बीया नइखे पंहुचत. महेंदर शास्त्री लिखले बाडन  – ‘कोना ना लागल बा हरवा हो/तनि दिह कुदार’   अइसहीं जिनगी में आ समाज में कतने कुलही कोना अंतरा रहेला, जहवा नजर फेरल जरूरी होला. ऊ सब आजू छुटत जा रहल बा. माल कल्चर पसर रहल बा. एकर मार सगरो पसरि रहल बा. ई कल्चर हमनीं के जिनिगी के कोना अंतरा में, समाज के कोना अंतरा में अन्हार हो रहल बा. मस्ती के नांव पर आत्महीनता बा. खोखलापन.

                                                         (चित्र:  गूगल के सौजन्य से) 
वसंत अब टी वी चैनलन के जरिये उतारल जा रहल बा. घर-घर पहुँचावल जा रहल बा. फूहड़ बसंत, भडुवा वसंत, दलाल- कमीशनखोर वसंत. ‘नकबेसर कागा ले भागा/ सइयाँ अभागा ना जागा.‘ वाला सहजता समाप्त. मान मनुहार समाप्त. अब ‘नकबेसर कागा ले भागा’  पर कवनो शिकवा शिकायत ना. सइयाँ से जागे के उमेद मिटा देवे के पूरा तैयारी. लइकी-मेहरारू के लाँगट-उघार सरेराह करे वाला वसंत नेवतल जा रहल बा. ई थैलीशाहन के वसंत ह. हमनी के ना. एकर काट जरूरी बा. हमनी के वसंत गोलबंदी  के गूँज वाला वसंत ह. मेहनत के रंग वाला. तीसी के, सरसों के, बूँट-मटर-मसुरी के नेह नाता के. एकरा पीछे बा संघर्ष के एगो लमहर पृष्ठभूमि.  ई एगो निष्कर्ष के साथे -साथ पूरा एगो प्रक्रिया ह. झंउसा देबे वाली गरमी, धारदार बरसात आ कंपा देबे वाला जाड़.  तीनो के समिलात उछाह ह वसंत. एकरा के रचे आ पावे के तरफ बढ़ल जरूरी बा. राह एकर निर्बाध कइल बहुत जरूरी बा. प्रकृति के वसंत के साथे हमनी के वसंत तबे एकमेक हो पाई. एके रंग में रंगाए के निश्छल एगो अभिव्यक्ति  ह वसंत.  ‘ए रंगरेजवा बलमू के इयारावा/ एके रंगे रंग दे/  हमरी चुनरिया आ पीया के पगरिया/ एके रंगे रंग दे.’   एह मौसम में खेत खरिहान गाँव-बिरिछ अतना रंगीन, आ आदमी के मन अतना ग़मगीन. आदमी के मुश्किल जब ले हल ना होई, वसंत ओकर संभव आ साकार ना होई. प्रकृति आ आदमी के वसंत तबे एकमेक हो पाई. एगो सम्पूर्ण आ सार्थक बसंत तबे धरती पर उतर पाई.
(युवा कवि एवं आलोचक बलभद्र झारखण्ड के गिरिडीह कालेज गिरिडीह में हिंदी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.)

.    

      

बलभद्र

दूसरी किश्त

बलभद्र
लेवा

… … बाकी अब त बतिये कुल्हि बदलत जात रहल बा. पुरान साड़ी आ दू-अढाई सै रुपिया ले के शहर-बाजार में, लेवा त ना, बाकिर लेवे अइसन चीज सिये के कारोबार शुरू बा. बस एह में फोम रहेला पतराह, एकदम बिच में. सीआई, फराई, काट-डिज़ाइन एकदम लेवा अस. अब त नयो-नयो कपड़ा के बनि रहल बा. बड़े-बड़े सेठ लोग बेच-बनवा रहल बा. गाँव आ गरीब के कला अपना के पइसा पिट रहल बा लोग, अ आपन साज-समाज कुल्हि गाँव में भेजि रहल बा लोग. अब सुतरी आ बाधी के खटिया उडसल जा रहल बा. बैल उड़सलें, गाय उड़सली, नाद उडसल, हर, जूआठि, हेंगा उडसल, खरिहान गइल, अइसही एक दिन लेउवो चली जाई. जे अभि ले एकरा के डासत- उड़ासत बा, मने बिछावत-बटोरत बा, ओह किसान-मजूरा के सरकार आ सरकारी लोग उदबास लगावे पर तुलल बा. ई लोगवे उड़स जाई त लेउवो उडस जाई. लेवा बनेला सूती लूगा-धोती से नीमन- नीमन. आ सूती गरीब-गुरबा लोग के बेवत से बहरी के चीज हो गइल बा. आ अमीर लोग खातिर इ लेवा बा ना. अमीर लोग बहुते चिंता में बा हमनी खातिर…. हमनी के ह़ाथ के कउशलवे ऊ लोग कीन लेता, छीन लेता.
         ई लेवा कतना काम के बा. कायदा से हमरा तब बूझाइल जब अपना लइका- फइका के ले के बाहर रहे के परल. ऊ शुरू के दिन. चाचा माने बाबू के रिटायर भइला के बाद, लइकन के पढावे खातिर बिहिया से शुरू भइल बाहर रहे के सिलसिला. तोसक त रहे बाकिर काम भर से कम. आ जवन रहलो रहे तवन पातर-पातर. एतना पातर कि जाड़ा में काम ना चलि पाइत. त माई कइलस का कि कुछ लेवा भेज देहलस. चउकी आ पलंग पर जवन तोसक रहे ओकरा तरे ए एगो भा दू गो लेवा बिछ गइल. अब तोसक तोसक लेखा लागे लागल. केकरा बले त लेवा के. खलिहा जवन रहे चउकी तौनू पर बिछ गइल. तोसक के ऊपर बेड-शीट. बेड शीट से तोपाइल मोटाई के राज के जानि पावे? एह मोटाई के तह में बाड़े स लेवा. एह मोटाई के देखि के कुछ लोग भरम खा गइल. बाबू के कमाई से हउवे ई मोटाई लोग समझे. असली राज त इ कि ई बाबू के कमाई तरे माई के मेंहनत, कला आ दुलार के मोटाई रहे. अउर केहू इ राज जाने चाहे ना जाने बाकिर सुरेश कांटक आ प्रकाश उदय एह राज के जरूर जानेलन. बिहिया से आरा होत एह लेवा, आ चाचा के तोसक संगे हमनी के आ गइलीं जा बनारस. ई लेवा आजो बा बिछल. बनारस से गिरिडीह आ गइल इ लेवा आ चाचा के तोसक. पीठ तर बाड़े स इ दूनो. हमारा सांस तर, कविता तर, बात- विचार तर, सुई डोरा के हर टोप में बाटे ममता. ई बोलाई लेवेला, सुताई लेवेला, ठोक-ठाक के. ई हमार आचार-विचार ह. एगो आधार ह. विवेक एगो, चीजन के समझे के.
ई हमार सकेती ह, फैलाव ह, एकरा पासे बाटे अनगिनत सपना. पुश्तैनी आग. हमार बीतल काल्हु आ कांपत -कुलाचत आजु.
        सात रंग के सात डोरा से सियाइल ह इ लेवा. ई सातो रंग बाजार के ना ह. माई के मन के रंग ह. ओकरा इन्द्रधनुषी कल्पना के रंग ह. आ माई त एगो- एक अकेल होली न. कतने बाड़ी कतने लोग के. ई हर काल में बाड़ी. एगो में कतने बाड़ी. इनका हाथ में अउर कतने चीजन के साथ सुईयो डोरा रहेला. सुई चलत जाले आगे-आगे, सपना जुडल जाला पीछे-पीछे. संजोग बनत जाला. धोती बाबा के, लूगा ईया के,लुंगी भइया के. बन गइल लेवा.
        एक दिन मन में एगो विचार आइल कि कि देखीं कवन हवे सबसे पुरान लेवा. बस ओही दिन से हम मिलावे लगलीं. कवन बा अइसन जवन बाबा के धोती से बनल बा. बाकिर उ आजु ले हमारा ना लउकल. बाबा के मुवला कतने साल भइल. ऊ लेवा का धइले होई.  माई के बिआह के बेर के रजाई बा अब ले, फाटले होखे त का. ब़ाकिर बा.  त का ऊ लेउवा ना होई?  जरुर होई.  हो सकेला कि ओकरा के फाटत देख के माई साट देले होखे कवनो साटन. आ ओ के चलते ऊ चिन्हाते ना होई. हम ओह लेवा पर एक बार फेनु लोटल चाहत बानी. अपना लइका-लइकिन के, माई के, भवहि के, बहिन-बहनोंई के, मेहरारू के सब के ओह पर उठावल-बइठावल-सूतावल चाहत बानी. ऊ लेवा आशिरवाद ह. जनमतुआ के जइसे सबसे पुरनिया के चादर भा गमछा में लपेटल जाला, ओहि तरे हम सबके लपेटल चाहत बानी. जरुर होई ऊ लेवा आ ओपर लइका-फइका लोढीयात होईहें.
          सुई के छेद में डोरा डाल पावे में आँख अब नइखे देत पहिले अस साथ. अगल-बगल जे बइठल बा, बोलत बतियावत, ओकरा देने बढ़ा देहली सुई आ धागा. आ चारो खूँट घूम-घूम, टोप पर टोप दनादन. एगो लेवा में लूगा के एक तह.. दू तह, तीन तह.. कतने तह. काया तबो खनहना. दूपहरिये में बइठली सिये अपना जाने खाली समय में. खाली समय के अइसन रचना सात पुहुत से चलल चलि आवत बा. ओरियानी तर बोलेला पंडुक आ सुई एने बढ़त जाले बढ़त जाले. जीवन के छंद रचत जाले.  मान मनुहार के, प्रेम के, दुलार के.  बूझउवल एगो बुझीं त- ‘हती चुकी गंगा मइया हतवत पोंछ, भागल जाली गंगा मइया धर लइका पोंछ.’

***        ***      ***

कवि एवं आलोचक बलभद्र झारखंड के गिरिडीह कालेज में हिंदी के असिसटेंट प्रोफ़ेसर हैं.

बलभद्र

लेवा

कवनो पूंजीपति घराना के उत्पाद ना ह कि एकरा खातिर कवनो सरकारी भा गैरसरकारी योजना भा अभियान चली. ई  गाँव  के गरीब मनई आ हदाहदी बिचिलिका लोग के चीज ह. एकदम आपन. अपना देहे-नेहे तैयार कइल. एकरा खातिर कवनो तरह के अरचार-परचार ना कब्बो भइल बा, ना होई कवनो टी वी भा अखबार में. ई गाँव के मेहरारुन के आपन कलाकारी के देन ह, गिहिथां के. फाटल पुरान लूगा आ धोती के तह दे के ,कटाव काटि के अइसन सी दिहली कि का कहे के. बिछाई भा ओढीं -घरे- दुवारे, खेते- खरीहाने – कवनो दिकदारी ना.

हमारा होश सम्हारे से पहिले से बा . ओकरो से पहिले से ई लेवा. तब से बा जब सुई डोरा ना रहत रहे घरे-घरे. आ लूगा-फाटा के रहत रहे टान. ई बा, तबे से बा, आ लोग-बाग ओढत बिछावत बा आज ले. बड़  बा तनी, चउकी भा खटिया भर के त लेवा, जनमतुआ के सुते लायक तनी छोट- चुनमुनिया- त लेवनी. कतो ई कटारी कहाला, कतो गेंदरा, त कतो लेढा. कायदा से जदी जो रंग विरंगा डोरा से, किनारी काट के कटावदार सियाला त सुजनी कहाला. तोसक तनी ऊँच चीज हवे, लेवा के हैसियत, बहुते उपयोगी भईला के बादो, तोसक से नीचे बा. तोसक के तार सीधा बाजार से जुड़ल बा आ लेवा के एकदम गाँव से.
जेकरा पाले पईसा आइल, जइसे-तइसे तोसकी आइल. बाकी तबो लेवा के जगह जहंवा रहे तहंवे बा. लेवा तोसक गद्दा भा ए तरह के और कुल्ही चीजन में आदमी के आर्थिक हैसियत लउक जाला.

बहुत बार त देखे में आवेला कि  तोसको ऊपर बाटे लेवा भा लेवनी. जनमतुआ कवनो सुतल बा, संभार के सुतावले बिया लेवनी. तोसक भा गद्दा आ एह लेवनी के नीचे बा पालीथीन के कवनो टुकड़ा, आ महतारी बाड़ी निश्चिंत. हगो भा मूतो. दादी सी देहले बाड़ी अनघा. एही बखत खातिर धइले बाड़ी सी-सा के. दादी के इ लेवनी परिवार के भविष्य के, मानव समाज के भविष्य के, ओकर किलकारी के दे रहल बा आकार-संभार. सुई आ धागा के एक -एक टोप समाज के, परिवार के भविष्य के प्रति  समर्पित. एक-एक टोप में सोहर के एक-एक कड़ी बा. धोती भा लूगा जवन परि गइल पुरान-धुरान, लेवा-लेवनी के रूप में ले लिहलस नया एगो रूप, धज एगो नया. अतीत होत सन्दर्भ के मिल गइल एगो सार्थक वर्तमान. आ ई वर्तमान बा संभारे में लागल मानव-समाज के निच्छल किलकारी, मनभावन क्रिया व्यापार. तीनो काल के एके जगे कइसे जोड़ जोरिया देल जाला – कइसे एक संगे ओढल-विछावल जाला – एकर अद्भुत उदहारण ह इ लेवा, ई लेवनी. दादी आ माई के तरफ से, मेहरारू समाज के तरफ से सहज एगो भेंट हवे लेवा. जतने फूहड़ ओतने सुन्दर. जतने रुखड़ ओतने चिक्कन. बाकिर सत प्रतिसत मयगर.

शेष अगले अंक में जारी…

कवि एवं आलोचक बलभद्र झारखंड के गिरिडीह कॉलेज में हिंदी विभाग में अस्सिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.