श्रीराम त्रिपाठी का श्रद्धांजलि लेख ‘वह ज्योति अचानक सदा को खो गयी’

समय कितनी तेजी से बीत जाता है, इसका हम अंदाजा नहीं लगा सकते। पिछले इक्कीस जून को  मनहूश  खबर मिली थी कि प्रख्यात आलोचक शिव कुमार मिश्र नहीं रहे। हमारे लिए यह खबर बज्रपात की तरह थी। इस दुखद घटना को अब एक वर्ष होने जा रहे हैं इस अवसर पर शिव कुमार जी को नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्रीराम त्रिपाठी का श्रद्धांजलि लेख ‘वह ज्योति अचानक सदा को खो गयी’   

वह ज्योति अचानक सदा को सो गई

श्रीराम त्रिपाठी

अहिन्दी भाषी प्रदेश गुजरात को अपना कर्मक्षेत्र बनाने वाले हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक शिवकुमार मिश्र जी अब हमारे बीच नहीं रहे। 21 जून 2013 की सुबह उन्होंने इस दुनिया को सदा के लिए अलविदा कह दिया। यह गुजरात के हिन्दी साहित्यिकों और साहित्य प्रेमियों को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत के हिन्दी साहित्यिकों एवं साहित्य प्रेमियों के लिए अत्यंत दुखद है। उन्होंने उत्तर प्रदेश की माटी को गुजरात की माटी से गुण कर जो वृक्ष उगाया वह पूरे भारत तक विस्तृत हुआ। हिन्दी साहित्य का प्रगतिवाद और उसके तुरंत बाद का दौर अत्यंत उर्वर रहा है। उसने साहित्य की हर विधाओं में महत्तम रचनाकारों को विकसित किया। आज के साहित्य का नेतृत्व करने वाले आलोचक भी उसी दौर के हैं। उन्हीं में शिवकुमार मिश्र जी भी थे, जिनसे युवा सर्जक और आलोचक प्रेरित होते थे। यहाँ जिसे हैहोना चाहिए था, उसे थेलिखना पड़ रहा है। युवा और नई पीढ़ी, दोनों उनसे मार्गदर्शन ग्रहण करते थे। तभी तो उनके चाहक संपूर्ण भारत में मिल जाते हैं। हमारी आलोचना आज भी इन्हीं लोगों पर निर्भर है। युवा पीढ़ी ने अगर स्वावलंबी होने की कोशिश की होती तो एक तो इन बुजुर्गों का बोझ कम हुआ होता, दूसरे आलोचना का विकास अबाध गति से चलता। ऐसे में होता यह कि यह पीढ़ी नई पीढ़ी के काम पर नज़र रखती, उनकी ख़ामियों पर टोकती, और आलोचना के भविष्य के प्रति आश्वस्त होती चैन की नींद सोती। परंतु हमारी पीढ़ी ने ऐसा कुछ किया ही नहीं, जिससे कि उनको चैन मिले। हमारे जैसे सर्जक-आलोचक ख़ुद को किंकर्तव्य विमूढ़ पा रहे हैं। मिश्र जी का जाना होरी जैसा हुआ। अभी तो कह रहे थे कि तीन-चार किताबें लिखनी बाक़ी हैं, फिर जाना होगा। घुटने की तकलीफ़ के कारण नहीं कर पा रहा।तीस मई को बिटिया की शादी करके अहमदाबाद लौटा और पहली जून को फ़ोन मिलाया तो माताजी से पता चला कि वे तो दस-पंद्रह दिनों से अस्पताल में भरती हैं। कारण पूछने पर बताया कि साँस की तकलीफ़ थी। आई.सी.यू में हैं। बिटिया की शादी की ख़ुशी तत्क्षण काफ़ूर हो गई और गहरे अवषाद में गर्क हो गया। दूसरे दिन दस बजे उनके घर वल्लभ विद्यानगर पहुँच गया। पता चला कि रात को तबीअत और बिगड़ जाने के कारण अहमदाबाद के किसी अस्पताल में भरती किया गया है। दोनों बेटियाँ साथ में हैं। मगर अस्पताल का पता नहीं मिला, जो माताजी को ख़ुद भी मालूम नहीं था। मिश्र जी का मोबाइल फ़ोन उनकी बड़ी बेटी के पास था, जिनसे उनका हाल जान लिया करता था। अस्पताल का पता गुप्त ही रहा, जिससे वहाँ जाना न हो सका। वैसे भी देखना तो हो नहीं पाता। और नहीं तो तीमारदारी करने वालों की दिक़्क़तें बढ़तीं। कुछ दिनों बाद पता चला कि डॉ. ने उन्हें व्हील चेयर पर बिठा कर घुमाया है। दो दिन बाद अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी। अत्यंत प्रसन्नता हुई। मगर यह ख़ुशी ज़ियादा दिन न टिकी। बताया गया कि कुछ दिन और अस्पताल में ही रहना होगा। बीस जून शाम को फ़ोन किया तो पता चला कि तबीअत बहुत ख़राब हो गई है। कुछ भी कहा नहीं जा सकता। दवाओं का असर नहीं हो रहा। कि इक्कीस जून दस बजे के आस पास मोबाइल की रिंग बजी और स्क्रीन पर डॉ. शिवप्रसाद शुक्ल नाम दिखा तो जी खटक गया। वह जिसे सुनने को तैयार न था वही सुनना पड़ा।      

            यूँ तो मैं मिश्र जी का विधिवत विद्यार्थी नहीं रहा, परंतु उन्होंने हमेशा मुझे सबसे प्रिय विद्यार्थी का ही स्नेह दिया। तभी तो मैं साल में एक-दो बार उनसे मिलने वल्लभ विद्यानगर जरूर जाता था। मेरे जाने पर उनका वह पूरा दिन मेरे हवाले होता था। कुछ नया लिखे होता, तो उसकी चर्चा फ़ोन पर हो चुकने के बावजूद उन्हें पढ़कर सुनाता था। मुक्तिबोध की कविता ब्रह्मराक्षसकी व्याख्या, जो मुझे अत्यंत उत्साहित किये थी, को सुनाने उनके घर जा पहुँचा। आलेख सुनाने से पहले किसी बात पर मेरे मुँह से निकल गया कि आप मुझे ब्रह्मराक्षस लगते हैं। उनका चेहरा देखने ही लायक था। अन्य आलोचकों की तरह वे भी ब्रह्मराक्षस को मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी का प्रतीक ही मानते थे। इस तरह मैं उन्हीं के घर पर उनका अपमान कर रहा था। मैं ताड़ गया और तुरंत स्पष्टता की कि आप तो मूलत: शोधक हैं, परंतु मेरे जैसे लोगों ने आपको ब्रह्मराक्षस समझ लिया। इसमें दोष आपका है, या हमारे जैसे लोगों का? देखिए, उस कविता में कवि उस शोधक का सजल उर शिष्य बनना चाहता है, जिसे तत्कालीन समाज ने ब्रह्मराक्षस कहकर त्याग दिया था। उस शोधक को, जो समाज की ख़ुशहाली की शोध में ख़ुद को कितनी तकलीफ़ में डाले था। यह शोधक की कम और हमारे समाज की विडंबना ज़ियादा है। आख़िर सुकरात, ईसा मसीह, कॉपरनिकस के साथ किया गया तत्कालीन समाज का व्यवहार क्या दर्शाता है? मैंने कहा कि आप ही बतलाइए कि अब आपसे मिलने कितने साहित्यिक (प्रोफ़ेसर) जन आते हैं? अगर शोधक समझते तो ज़रूर आते। मेरे लिए तो आप शोधक हैं, तभी तो अहमदाबाद से मिलने आता हूँ। आपसे मुझे बहुत कुछ सीखना है। परंतु आस-पास के लोगों के लिए आप ब्रह्मराक्षस हैं, तभी तो वे आपसे कन्नी काटते हैं। पूँजीवाद से प्रभावित वे आपको ब्रह्मराक्षस ही समझते हैं,क्योंकि उनकी पूँजीवादिता पर आप न केवल सवाल उठाते रहे होंगे, बल्कि रोकते-टोकते भी रहे होंगे। जो उन्हें नागवार लगता था। सो आपको ही ब्रह्मराक्षस क़रार देकर न केवल त्याग दिया, बल्कि दूसरों को भी आपके निकट आने से रोका। इसके बाद वे तकिये के सहारे लेट गये और लेख पढ़ने को बोले। लेख लम्बा था। आँखें बन्द किये सुनते रहे। लेख की समाप्ति पर आँख खोले और बोले, “त्रिपाठी जी, इस कविता के बारे में मेरे अपने विचार हैं। वे आसानी से नहीं जाएँगे, परंतु इतना तो है कि आपके लेख ने मुझे फिर से सोचने को मजबूर कर दिया है। किसी भी लेखक की यही सफलता है।फिर वे मुक्तिबोध से जुड़े कुछ अपने तथा कुछ दूसरों के संस्मरण सुनाने लगे।

            मिश्र जी हद दरजे के ज़िद्दी थे। ज़िद के बिना कोई न श्रेष्ठ साहित्यकार बन सकता है, न श्रेष्ठ मनुष्य। ज़िद का दूसरा नाम टेक भी है। सिद्धांतवादी ऐसे ही लोग होते हैं। मिश्रजी ने बतलाया था कि उन्होंने कभी किसी सरकार या संस्था से पुरस्कार नहीं लिया। केवल आचार्य रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार लिया था। शाल, प्रशस्ति पत्र और स्मृति चिह्न को ही स्वीकार किया और पुरस्कार राशि उसी संस्था को दान कर दिया। मिश्र जी को पेंशन बहुत कम मिलती थी। गुजरात सरकार ने सागर विश्वविद्यालय की उनकी सर्विस को गिनने से इनकार कर दिया था। वे कम पेंशन पाने का ज़िक्र अकसर किया करते थे, जिसमें अर्थ के प्रति रोना न होकर अन्याय के प्रति टीस हुआ करती थी। एक बार उन्होंने बतलाया था कि गुजरात के राज्यपाल उदयप्रकाश के रिश्तेदार हैं। उनसे भी कहलवाया था। परंतु कुछ नहीं हुआ। दो-तीन साल पहले गुजरात हिन्दी अकादमी ने हिन्दी साहित्य में विशिष्ट योगदान के लिए स्वर्गीय प्रोफ़ेसर भोलाभाई पटेल, प्रोफ़ेसर रघुवीर चौधरी और मिश्र जी को एक-एक लाख रुपए से पुरस्कृत करने का निर्णय लिया था। मिश्र जी से जब संस्तुति माँगी गई तो उन्होंने यह कह कर पुरस्कार लेने से मना कर दिया कि मैंने आज तक कोई पुरस्कार स्वीकार नहीं किया, इसलिए इस पुरस्कार को स्वीकार करने में खुद को असमर्थ पा रहा हूँ।

            मिश्र जी का ज़ियादा समय तो गुजरात से बाहर ही बीतता था। घर में अकेली माता जी ही रहती थीं। हड्डी की ठठरी, परंतु ऊष्मा और स्नेह से भरपूर। मैं उन्हें माता जी ही कहता हूँ। मेरी कॉलेज में आयोजित सेमिनार के सिलसिले में मिश्रजी का संतरामपुर (मेरा कर्मस्थल) आना हुआ। सेमिनार पहली-दूसरी जनवरी को था। वे इकत्तीस दिसम्बर की शाम को ही आ गये और मेरे घर पर ही ठहरे। रात के बारह बजते ही बोले कि त्रिपाठी जी, ज़रा घर पर फ़ोन लगाइए। मैंने फ़ोन लगाया, तो वे माताजी को नये वर्ष की शुभकामनाएँ दे रहे थे। दोनों लोग तकरीबन पाँच मिनट बतियाये, फिर बोले कि लो त्रिपाठी जी को भी नये वर्ष की शुकामनाएँ दे दो। उस सेमिनार में कमलाप्रसाद जी भी आये थे। लम्बे समय बाद दोनों बुजुर्ग मिले थे। इस समय मुझे उनके कोई संवाद याद नहीं आ रहे। केवल वह ऊष्मिल स्नेहिल चित्र मुझे भावविभोर कर रहा है। दोनों आज हमारे बीच न होते हुए भी हमारे भीतर हैं। जैसा कि तेइस तारीख़ को मिलने पर माता जी ने कहा कि त्रिपाठीजी, सर कहीं नहीं गए। हमारे आपके भीतर ज़िन्दा हैं। आप आते रहना मैं यहीं मिलूँगी। कहीं नहीं जाऊँगी।…

            मिश्र जी दाय के रूप में जो छोड़ गये हैं, उसे हमें ही सँवारना और विकसित करना है। आलोचक का एक काम रचनाओं की संभावनाओं की तलाश करना भी होता है। हमें मिश्र जी की रचनाओं की संभावनाओं की तलाश करते हुए उन्हें सुधारना, विकसित करना भी है। शायद सार्थक श्रद्धांजलि यही होगी। वैसे मिश्र जी ऐसी ही श्रद्धांजलि के क़ायल थे। वे कहा करते थे कि किसी भी रचनाकार की ख़ामी-ख़ूबी, दोनों को उजागर किया जाना चाहिए, न कि पूजा की जानी चाहिए। रचनाकार भी तो आख़िर में मनुष्य ही होता है।

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(समयांतर में प्रकाशित)
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शिवकुमार मिश्र



  

प्रख्यात आलोचक एवं संगठनकर्ता शिवकुमार मिश्र का २०-२१ जून २०१३ की रात को अहमदाबाद के अस्पताल में निधन हो गया. शिवकुमार जी का जाना हम सबके लिए एक अपूरणीय क्षति है. शिवकुमार जी अपने अंतिम समय तक लगातार रचनाशील रहे. सुन्दर हस्तलिपि में लिखे गए उनके लेख इस बात के प्रमाण हैं. हम यहाँ श्रद्धांजलिस्वरूप शिवकुमार जी का केदार नाथ अग्रवाल पर लिखा गया एक आलेख ‘अभी मैं बहुत साल जियूँगा’ प्रस्तुत कर रहे हैं जो हमें प्रोफ़ेसर संतोष भदौरिया के सौजन्य से प्राप्त हुआ. शिवकुमार जी अब शारीरिक तौर पर भले ही हमारे साथ न हो वे हमारी स्मृतियों में अभी बहुत साल तक जिएंगे’ इसमें कोई संशय नहीं. आलेख के साथ शिवकुमार जी के जीवन एवं व्यक्तित्व पर संतोष जी संतोष भदौरिया की एक टिप्पणी भी पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है.


यह जानते हुए कि जाना,हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया है.
(शीर्षक केदार नाथ सिंह की काव्य पंक्ति से साभार )
संतोष भदौरिया 
यह संयोग ही था कि इलाहाबाद के लेखक संगठन, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी हिन्दी के प्रखर मार्क्सवादी चिन्तक और संगठनकर्ता शिवकुमार मिश्र को अपने स्मृतिपटल पर अंकित शब्दचित्रों के माध्यम से याद करने के लिए जब एकत्र हुए तो उसमें हिन्दी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह भी उपस्थित थे. बकौल केदार जी वे अपनी पूर्वनिर्धारित यात्रा पर हैं और आज से ठीक पांच दिन बाद उन्हें शिवकुमार मिश्र जी से मिलना था, इसके पहले ही वे अपनी काया से मुक्त हो गए. उनके लिए शिवकुमारजी का जाना हिन्दी की सबसे खौफनाक क्रिया का चरितार्थ होना है. ध्यातव्य है कि २०-२१ जून २०१३ की रात को अहमदाबाद के अस्पताल में शिवकुमार जी ने अंतिम सांस ली.
शिवकुमार मिश्र का जिससे भी नाता रहा है, उनकी प्रथम छवि एक सहज और पारदर्शी मनुष्य की रही है. अपनी तमाम बौद्धिकता और विचारक की भूमिका से परे वे सहजमना थे. उनमें अद्भुत किस्सागोई थी. असहमति का साहस और भरपूर विवेक था. कई पीढी के रचनाकारों से शिवकुमार जी का याराना और अबाधित संवाद था. अनवरत समकालीन बने रहना उनके मिजाज में था. 
उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के धुर गाँव महोली में २ फरवरी १९३१ को जन्मे शिवकुमार मिश्र की आरंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई. उच्च शिक्षा के लिए गाँव के समीपवर्ती शहर कानपुर आये और यहीं से उन्होंने एम. ए. और एल-एल. बी. किया. साहित्य में रुचि और रूझान के चलते सागर विश्वविद्यालय में नामचीन आलोचक आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के निर्देशन में अपना शोध कार्य करने सागर आ बसे. तदुपरांत उन्होंने यहीं से डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त की. शिवकुमार जी ने १९५९ से १९७७ तक सागर विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पर काम किया. यही वह दौर था जब उनके आलोचक और संगठनकर्ता व्यक्तित्व का निर्माण हुआ. अनातः १९७७ में सागर छूटा और फिर लम्बी प्राध्यापकीय पाली खेलने वे गुजरात के वल्लभविद्यानगर आ गए. इसी शहर से उन्होंने साहित्य और संगठन को सर्वोत्तम दिया. १९७७ से १९९१ तक वे सरदार पटेल विश्वविद्यालय वल्लभविद्या नगर गुजरात के हिन्दी विभाग में प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष रहे. १९९१ में सेवानिवृत्त हो कर शिवकुमार जी और अधिक ऊर्जा के साथ लेखन और संगठन में सक्रिय हो गए. 
शिवकुमार जी ने आलोचना की १५ किताबें लिखीं एवं १० से ज्यादा किताबों का सम्पादन किया. इसके अलावा स्वाधीनता संग्राम के विलुप्त साहित्य के प्रकाशन का महत्वपूर्ण काम भी किया. नया हिंदी काव्य’, आधुनिक हिंदी कविता और युग सन्दर्भ’, ‘मार्क्सवादी साहित्य चिंतन’, ‘इतिहास तथा सिद्धान्त’, ‘प्रेमचंद: विरासत का सवाल’, ‘दर्शन साहित्य और समाज’, ‘भक्ति काव्य और लोक जीवन’, ‘आलोचना के प्रगतिशील आयाम’, ‘साहित्य और सामाजिक सन्दर्भ’, उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं. मार्क्सवादी साहित्य चिंतनपुस्तक पर शिवकुमार जी को १९७५ में सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार प्रदान किया गया.
हिन्दी और हिन्दी से इतर तमाम पाठकों को मार्क्सवादी विचार और समझ पैदा करने में उनकी पुस्तक ‘मार्क्सवादी साहित्य चिंतन’ की विशेष भूमिका रही. भक्ति साहित्य के प्रगतिशील मूल्यों को सामने लाने में उनकी पुस्तक ‘भक्ति काव्य और लोक जीवन’ और ‘भक्ति आन्दोलन और भक्त कवि’ विशेष उल्लेखनीय है. उन्होंने प्रेमचंद पर भी हिन्दी और अंग्रेजी में स्वतंत्र पुस्तकें लिखी. प्रगतिवाद, साहित्य और सामाजिक सन्दर्भ, ‘आलोचना के प्रगतिशील आयाम’, प्रेमचंद की विरासत और गोदान, ‘इतिहास तथा सिद्धान्त’, समेत उनकी अनेक पुस्तकों एवं लेखों ने कई पीढ़ियों को प्रगतिशील और परिवर्तनकामी चेतना की ओर उन्मुख किया.

शिवकुमार जी जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्य थे एवं १९९२ के जयपुर सम्मलेन में महासचिव और २००३ के पटना सम्मलेन में जलेस के अध्यक्ष चुने गए. और तब से अब तक इस पद पर अपनी नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहे थे. कमला प्रसाद और चन्द्रबली सिंह के बाद हमने एक और विरल संगठनकर्ता और आन्दोलनधर्मी व्यक्तित्व को खो दिया है, जिसका स्वप्न और संघर्ष से आजीवन रिश्ता रहा. जिन्होंने आपातकाल के दौर में अपनी पूरी ऊर्जा लेखकों को एकजुट करने में लगाई और गुजरात के सामूहिक नरसंहार के समय साम्प्रदायिक ताकतों के खिलाफ तन कर खड़े हो गए. आज जब हमारा समय अविश्वसनीयता और सांगठनिक एकता की चुनौतियों से जूझ रहा है तब एक और मजबूत कड़ी का टूट जाना हमारे लिए गम का सबब तो है ही. किन्तु उनके स्वप्नदर्शी और संघर्षपूर्ण व्यक्तित्व से सबक लेना ज्यादा मानीखेज होगा.
 

अभी मैं बहुत साल जियूंगा
शिवकुमार मिश्र
पचास के पार, साठ की ओर पहुंच रहा हूं मैं,
रक्त की चाप छोड कर पीछे,
आग और आलोक को लिए आगे, अंधकार को ललकारते,
बहुत धूप खाई है मैंने,
जैसे और लोग खाते हैं, मलाई की बर्फ,
न सही मेरे पास मकान, रुपया कमाने की दुकान, सही,
मेरे दोस्त, अभी मैं बहुत साल जियूंगा,
और मरा भी, तो तुम्हारी उम्र में जियूंगा,
पीढी-दर-पीढी इसी हिन्दुस्तान में रहूंगा॥
उम्र के पांचवे दशक के आखिरी दौर में लिखी गई ये केदारनाथ अग्रवाल की एक कविता की पंक्तियां हैं। सचमुच, केदारनाथ अग्रवाल उस आयुष्य को उसकी आखिरी कडी तक जिए जो प्रकृति ने आदमी को दिया है। नवासी-नब्बे वर्षों का जीवन-काल कम नहीं होता जो केदारनाथ अग्रवाल को जीने के लिए मिला। बडी बात यह है कि केदार ने उसे ठीक से जिया, एक संतुष्ट मनुष्य की तरह, अन्तिम समय में भी, बिना किसी पछतावे के जिया। सिर्फ जिया ही नहीं, अपने जीने को अर्थवत्ता दी। वैयक्तिक जीवन के सुख-दु:ख से आगे उसे वृहत्तर जीवन-सन्दर्भों से मनुष्य की बडी चिन्ताओं से जोडा। बांदा जैसे कस्बे में, जिसे अपनी एक कविता में उन्होंने आढतियों और सूदखोरों की बस्ती के रूप में याद किया है, वे अपने भीतर के आदमी को अक्षत बनाए और बचाए रख सके, अपनी आदमीयत को सहेजे रहे अपनी सर्जनशील वृत्ति को जिलाए और सक्रिय रख सके, यह और भी बडी बात है।
ऐसा नहीं है कि उनके जीवन में जब-तब ऐसे क्षण न आए हो जिन्होंने उनकी जिजीविषा को झकझोरा न हो, उन्हें भीतर से तोडने की कोशिश न की हो, किन्तु केदार ने अपनी मनोभूमि में उन्हें स्थायी नहीं होने दिया, अपने मनोबल से उन्हें खारिज़ किया। ख्यात प्रगतिशील आलोचक श्री प्रकाश चन्द्र गुप्त का आकस्मिक निधन उनके जीवन में आया ऐसा ही एक क्षण था। 28-12-1970 के अपने एक पत्र में उन्होंने मुझे लिखा- श्री प्रकाश चन्द्र गुप्त का निधन सबको आकस्मिक लगा और सबके मन को तोड गया। बडे ही अच्छे, सुहृदय, शिष्ट और विद्वान मित्र थे। मुझे तो काठ मार गया पर कर ही क्या सकता हूं। अब तो शायद मेरे भी दिन करीब हैं। वैसे मैं जीवन पर भरपूर विश्वास किए हूं और न मरने की कसम खाए बैठा हूं। पर शरीर तो शिथिल हो ही रहा है।
जीवन पर केदार की आस्था और उनके मनोबल ने न केवल उन्हें इस मनोभूमि से उबारा आगे के दसियों साल वे मौत को अंगूठा दिखाते हुए जीते रहे। मरना तो एक दिन सबको है, पर जीवन पर ऐसी आस्था भी तो किसी की हो। आरम्भ में उद्धृत उनकी नव्य-पंक्तियां उनकी इसी आस्था का साक्ष्य है। केदार आजीवन स्वाभिमान से जिए। इस लोक या परलोक की किसी भी सत्ता के समक्ष नतशिर नहीं हुए। वन-विरोधी-प्रतिक्रियावादी तत्त्वों से सीधी आंख मिलाते, उन्हें चुनौती देते हुए जिए। मन की पूरी उमंग और ऊर्जा के साथ जिए।
केदार ऐसा जीवन जी सके, बांदा जैसे छोटे कस्बे में रहते हुए अपने को आदमी की बडी चिन्ताओं से जोड सके, इसके पीछे था- अपनी धरती और उसके श्रमशील, साधारण जनों के कर्मठ जीवन तथा जीवन-संघर्षों से उनका लगाव, उनके सुख-दु:ख में उनकी सहभागिता, अपनी धरती की बहुरूपा प्रकृति, उसके नदी-नालों-पहाडों से उनकी नैसर्गिक आत्मीयता, उसके दिए हर्षोल्लास और ताप-त्रास के प्रति उनका समभाव, बुन्देलखण्ड के जीवन के कोमल-कठोर पहलुओं में रचा-पगा उनका व्यक्तित्त्व और कवि-स्वभाव-विरूद्धों की इस संहिति के साथ जीते रहने का माद्दा, इनके अलावा, उम्र की पहली उठान के साथ अर्थात् युवावस्था की दहलीज पर आते ही मार्क्सवादी विचार-दर्शन के प्रति उनका झुकाव, जो आगे किताबों के अलावा उनके अपने जीवनानुभवों के बरक्स तथा डॉ. रामविलास शर्मा जैसे मित्रों के साहचर्य में निरन्तर पुष्ट और गाढा होते हुए अन्तत: उनके जमीर का हिस्सा बन गया। अपनी कविताओं और इतर लेखन में केदार ने अपनी शक्ति तथा प्रेरणा के इन स्रोतों को अपने आदमी तथा आदमीयत को जिलाए रखने वाले इन आधारों को बार-बार और बराबर पूरी कृतज्ञता से याद किया है। याद किया है उन्होंने अपनी परिणीता, अपनी धर्मपत्नी को जो साक्षात् प्यार बन कर उनके जीवन में आई, प्रेमिका, प्रिया, सखी, शिक्षिका नाना रूपों में, आलोक पुंज की तरह उनकी मनोभूमि में कौंधती रही उनके कर्मठ जीवन के हर पहलू में उनकी सहभागिनी बन कर। मात्र मनोभूमि में ही नहीं, ‘नींद के बादलसे ले कर आगे की कविताओं में भी जो केदार की उमंग और ऊर्जा बनकर अक्षत विद्यमान रही है। केदार के प्रिय श्री अशोक त्रिपाठी नेजमुन-जल तुमशीर्षक से केदार की प्रणय-कविताओं को एक स्वतंत्र संकलन में तो संकलित किया ही है, ‘हे मेरी तुमशीर्षक से एक पूरा संकलन केदार की ओर से अपनी इस प्रिया-पत्नी के प्रति निवेदित-सम्बोधित है, जिसकी हर कविता हे मेरी तुमसम्बोधन से ही आरम्भ होती है। स्वकीया के प्रति केदार का यह वह सात्त्वि राग है जो शरीर से लेकर मन और आत्मा की गहराइयों तक गया है अकुण्ठ, जितना प्रगाढ उतना ही प्रशान्त।
                (शिवकुमार जी युवा साथी शिवप्रिय के साथ. चित्र सौजन्य: शिवप्रिय)
डॉ. अशोक त्रिपाठी ने ही संकलित-सम्पादित किया है, लगभग छ: दशकों तक अबाध चलने वाले केदारनाथ अग्रवाल और डॉ. रामविलास शर्मा के बीच के पत्राचार को- मित्र-संवादशीर्षक से। यह संवाद साक्षी है, इन दो मित्रों की अटूट मैत्री का आपाधापी, व्यक्तिगत लाभ लोभ और घोर अहंमन्यता वाले आज के समय में जिसे विरल ही कहा जाएगा। यह पत्राचार इस बात का भी जीवंत साक्ष्य है कि केदार के कवि के निर्माण में अनेक काव्य-बोध और विश्वबोध को प्रशस्त और समृद्ध करने में डॉ. रामविलास शर्मा जैसे मित्र की कितनी अहम भूमिका है। इस संवाद में केदार के कवि-कर्म के साथ सामान्यत: कविता और कवि-कर्म पर भी बेहद गम्भीर चर्चा है, जिसे देश-विदेश के मान्य कवियों की कविताओं तथा कवि-कर्म का हवाला देते हुए पुष्ट किया गया है। अपनी कविताई पर डॉ. रामविलास शर्मा की टिप्पणियों को केदार ने अपनी स्कूलिंगमानना, उनके सरल-सहज मन का वह भाव है, आज के समय में जिसे अपवाद ही कहा जाएगा। डॉ. रामविलास शर्मा ने कहा है कि उनके लिए केदार से उनकी मैत्री महत्त्वपूर्ण है और इन पत्रों के माध्यम से वे केदार के गद्य की ताकत को सामने लाना चाहते थे।
केदार के अपने कवि स्वभाव में, उनकी मनोभूमि में, बुन्देलखण्ड के जीवन के कोमल-कठोर पहलुओं की वैसी ही विलक्षण संहिति है जैसी अवध बैसवारा के निराला के कवि-स्वभाव में। कोमल-कठोर की विलक्षण संहिति वाले केदार के कवि-स्वभाव को अपने बांदा-प्रवास से लौटकर केदार और उनके बांदा पर लिखी गई अपनी एक ख्यात कविता, तन-मन के सजग चितेरेमें नागार्जुन ने इस तरह सजीव किया है
केन-कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो,
कालिंजर का चौत्रडा सीना, वह भी तुम हो,
ग्राम-वधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो,
कुपित कृषक की टेढी भौहें, वह भी तुम हो,
पकी, सुनहली फसलों की छवि-छटा निराली, वह भी तुम हो,
लाठी ले कर काल रात्रि में करता जो उनकी रखवाली, वह भी तुम हो।”…….
अपनी कविताई के बारे में केदार ने खुद एक जगह लिखा है कि कविताई न मैंने पाई, चुराई। किसान की तरह जीवन जोतकर मैंने उसे बोया और काटा है। वह मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारी है।देखा जाय तो केदार बुनियादी तौर पर किसान-संवेदना के कवि है। प्यार-मनुहार के कोमल-मसृण या रूप-सौन्दर्य की वैसी ही मृदु-मांसल तरंगें, आदमी और प्रकृति के रूप-स्वरूप तथा रूपासक्त मन की रस-राग-रंजित अभिव्यक्ति, या इनके विपरीत पौरुष और ओज की उमंग-तरंगित ललकार सबमें उनके किसान-मन को ही पढा जा सकता है। इस जमीन पर केदार, तुलसीदास और निराला की परम्परा के कवि हैं, निराला के अधिक करीबी, जिनके कवि-स्वभाव में भी कोमल-कठोर का विलक्षण, केदार जैसा ही संश्लेष है। निराला जितने भावमग्न और तन्मय हो कर नरेतर बाह्य-प्रकृति या फिर मनुष्य के सौन्दर्य-प्रणय के मादक-मधुर-मांसल गीतों तथा कविताओं को रचते हैं- उनकी वैसी ही तन्मयता तथा रसमग्नता उन कविताओं तथा गीतों में दिखाई पडती है- जिनमें वे पौरुष और ओज के उदान्त स्वरों में बादल-रागगाते हैं या जागो, फिर एक बारजैसे उद्बोधन को राष्ट्रीय-जीवन की वृहत्तर चिन्ताओं से जोडते हुए सजीव करते हैं। इन्हीं मनोभूमियों में केदार भी यदि एक ओर प्रकृति और मनुष्य के सौन्दर्य और प्रेम-भाव से रागरंजित मन को माझी न बजाओ बंशी, मेरा मन डोलता‘, ‘धीरे उठाओ पालकी, मैं हूं सुहागिन गोपाल की‘, ‘धीरे से पाँव धरा, धरती पर किरणों ने जैसे गीतों में, या फिर बसंती हवाकी मस्ती तथा फसलों के स्वयंवर में प्रकृति की राग-रंजित अभिव्यक्तियों में शब्द और रूप देते हैं, तो दूसरी ओर जन गरजे, घन गरजे‘, ‘यह जन मारे नहीं-मरेगा‘, ‘यह धरती है उस किसान की‘, ‘तेज धार का कर्मठ पानी‘, ‘जिसने पत्थर को तोडा, लोहा मोडा है‘, ‘मैंने उसको जब-जब देखा, लोहा देखा‘, ‘गेंहूं‘, ‘कोयले‘, ‘गर्रा नालाजैसी कविताओं में पौरुष और ओज के, वैसे ही उदात्त स्वरों को साधते हैं निराला जिनके लिए ख्यात हैं। मेरा अपना मानना है, विरोधी भावों की ऐसी संहिति वाला, पौरुष और ओज का केदार जैसा कवि समकालीन कविता में, निराला के उपरान्त और कोई नहीं है। अनुभूति और संवेदनाओं में ही नहीं, अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति-भंगिमाओं में भी, ठेठ जमीन से उपजी भाषा के प्रयोग में भी केदार बार-बार हमें निराला का स्मरण कराते हैं। लोक और शिष्ट का अद्भुत समन्वय है केदार की रचनाधर्मिता में। भाषा और कथन-भंगिमाओं की बत्रडी बहुरंगी दुनिया है केदार की रचनाशीलता में। जहां तक किसानों-भ्रमणशील जनता के जीवन-सन्दर्भों का प्रश्न है, केदार की किसान-संवेदना अपने बेहद प्रशस्त रूप में सामने आती है- कटुई का गीत हो, ओसाई का गीत हो या फिर उनके क्लेशमय जीवन-सन्दर्भों या जीवन-संघर्षों के चित्र हों। उनके हर्षोल्लास और उनके ताप-त्रास दोनों पर केदार ने निहायत संवेदनशील मन से लिखा है, उनके जीवट और स्वाभिमान को खुले मन से सराहा है- एक हथौडे वाला घर में और हुआ यही नहीं, उनकी रूढि-प्रियता, अंध आचारों-विश्वासों पर उतने ही खुले मन से खीझे भी हैं- चित्रकूट के बौडम यात्री जैसी कविताओं में ग्राम्य-जीवन के रंग-बदरंग दोनों तरह कि चित्र उनके यहाँ हैं।
बहुत व्यापक और विशद है, केदार की रचनाधर्मिता का पाट। उनकी रचनाधर्मिता में तरल भी है, और ठोस भी। सबसे अहम बात यह है कि केदार अपने समूचे रचना-काल में निरन्तर ग्रोकरते रहे हैं, विशद और सघन होते गए हैं। इतने लम्बे रचनाकाल में कवि प्राय: अपने को दुहराने लगते हैं, उनकी रचनाधर्मी संवेदना सीमित होने लगती है। केदार ने न केवल अपने को दुहराया नहीं, भाषा और विचार की, अनुभूति और रचना-शिल्प की नई जमीनों तक पहुंचे हैं, हमें ले गए हैं। हर कदम उन्होंने नए रास्ते तलाशे हैं। बांदा-जैसी छोटी जगह में भी वे अपने मनोजगत को निरन्तर जाग्रत किए रहे, उसे मानवीय चिन्ता के वैश्विक सन्दर्भों तक ले गए, यह मामूली बात नहीं है। वे श्रम और उससे जुडे सौन्दर्य के, संघर्ष और मनुष्य के बेहतर जीवन के पक्ष में उसकी फलश्रुति के कवि है। उनकी खरी अभिव्यक्तियां- (कहें केदार खरी-खरी) प्रगतिशील हिन्दी कविता की ही रही, हिन्दी कविता की उपलब्धि हैं। जन्मशती वर्ष पर वीरांगनाशीर्षक से लिखी गई उनकी कविता को, उनकी अपनी रचनाधर्मिता के सन्दर्भ में याद करता हुआ, मैं उन्हें प्रणाम करता हूं_
मैंने उसको जब-जब देखा,  
लोहा देखा लोहे जैसा तपते देखा,  
गलते देखा 
मैंने उसको गोली-जैसा चलते देखा।

(संतोष भदौरिया महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं।)
 
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