रोहिणी अग्रवाल का आलेख ‘झोपड़पट्टी में धड़कती ज़िन्दगी और उलझती समस्याएं’


महानगरीय सभ्यता ने मानव सभ्यता के इतिहास में एक नयी अमानवीय संस्कृति को जन्म दिया जिसे हम ‘झोपड़पट्टी संस्कृति’ नाम से जानते हैं. रोजी-रोटी की तलाश में महानगर आए निम्नवर्गीय (आर्थिक) पृष्ठभूमि वाले लोगों का शरणगाह बनी ये झोपड़पट्टीयाँ आंसू, अभाव और हाड़तोड़ मेहनत के बावजूद दो समय की रोटी के लिए उनकी जिल्लत भरी जिन्दगी का गवाह होती हैं. एक बेहतर जिन्दगी की आस में यहाँ के बाशिन्दे मुड़ते हैं उस अंधी गली की तरफ जो अपराध और माफियागिरी के लिए उर्वर जमीन बन जाती है. इस जिन्दगी पर साहित्यकारों ने सूक्ष्म दृष्टि डाली है और हिन्दी साहित्य को बेहतरीन रचनाएँ दी हैं. इसी क्रम में आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने जगदम्बा प्रसाद दीक्षित की बहुचर्चित कृति ‘मुर्दाघर’, मंजुल भगत की कृति ‘बसन्ती’ जगदीश चंद्र की कृति नरककुंड में बासऔर मधु कांकरिया की कृति ‘पत्ताखोर’ का एक तुलनात्मक आलोचकीय अध्ययन किया है. तो आइए पढ़ते हैं रोहिणी अग्रवाल का आलेख ‘झोपड़पट्टी में धड़कती ज़िन्दगी और उलझती समस्याएं’
           
झोपड़पट्टी में धड़कती ज़िन्दगी और उलझती समस्याएं
(मुर्दाघर’, ’बसंती’, ’नरककुंड में बासतथा पत्ताखोरका संदर्भ)
रोहिणी अग्रवाल
’’ … एक रात वह ए. पी. सी. रोड से शुरु हुई सियालदह और मौलाली के फुटपाथों से गुजर रहा था कि उसने देखा – बस्तियां ही बस्तियां! खुली, गंधाती, बजबजाती भरी-भरी गृहस्थियां! कुछ ईंट, दो बांस, उपयोग की हुई बैटरी और पोलिथिन के सहारे फुटपाथों पर ही बनी खुली भूरी काली गृहस्थियां – मोबाइल और फोल्डिंग गृहस्थियां! …सामान के नाम पर अल्युमिनियम के बर्तन, एकाध बाल्टी। प्लास्टिक की पानी की बोतलें। एकाध पोटलियां। कई जगह चटाई और मैला सा कंबल। एकाध टीन का बक्सा या कार्टन! …सिलबट्टा भी। वहीं सड़क पर ही दो-दो ईंट को जोड़ कर … चूल्हा …हवा के साथ आते बदबू के भभके …बहुत तीखी, तेजाबी गंध। पसीना, पेशाब और सड़े हुए कचरे की मिली-जुली गंध।’’ (मधु कांकरिया, पत्ताखोर, पृ0 149)
’’कचरे के ढेर पर घूम-घूम कर अब भी ढूंढ रहा है पागल – एक दुनिया …जिसको ढूंढते हो गया पागल़ …नहीं मिली अब तक! दुनिया …जिसने कचरा बना कर फेंक दिया कचरे के ढेर पर। फटे हुए कपड़े। जमे हुए मैल की परतें …और परतें। चिपके हुए बाल! एक पागल जिस्म। …पंख फड़फड़ाती मुर्गियां! दुम हिलाते हुए कुत्ते। गंदे सूअर! एक कुतिया …खुजली के जख्म चाटती हुई। डिब्बियां…पन्नियां …जली हुई सिगरेटें। जूठन और गंदगी। थूक और बलगम। ढूंढता रहेगा कचरे के ढेर पर …क्योंकि न ढूंढना नाउम्मीदी …हार।’’ 
                                      (जगदम्बा प्रसाद दीक्षित, मुर्दाघर, पृ0 86)
’’गुजरे हुए दिन डरा नहीं पाते …लेकिन डरा रहे हैं आने वाले। रात के अंधेरे के बदले जो चला आ रहा है …सुबह का उजाला नहीं…एक और गहरी रात का अंधेरा है।’’ (मुर्दाघर, पृ0 81)
गगनचुंबी अट्टालिकाओं के परिपार्श्व में औंधे मुंह पड़ी हैं झोंपड़पट्टियां! वक्त की घिनौनी हकीकत! लेकिन इतनी स्थूल और सतही नहीं कि अंतरराष्ट्रीय शर्म मिटाने के लिए बुलडोजर चला कर नेस्तनाबूद कर दी जाएं। देश की समाजार्थिक परिस्थितियों में बहुत गहरे धंस कर जिन खदबदाते ज्वालामुखी सवालों को उठाती हैं ये झोंपड़पट्टियां, वहां दोषारोपण या जस्टीफिकेशन की बगलें झांकती कोशिशें वक्त की आंख में धूल झोंकने का जुर्म बन जाया करती हैं। बेशक वक्त विनीत, विनम्र खामोश हमसफर है मनुष्य का, लेकिन फरेबों और मक्कारियों से भरी फौलादी ताकतों को धूल चटाने में देरी भी नहीं करता। वक्त चाहता है सवालों के जवाब – ईमानदार और पारदर्शी! वक्त चाहता है मनुष्यता को लीलती अ-मानवीय शक्तियों की पड़ताल और उन्मूलन। वक्त चाहता है समूची सभ्यता, संस्कृति और समाज के साथ एक सुसम्बद्ध इकाई के रूप में व्यक्ति के सम्बन्धों की सतत जांच! एक सहअस्तित्ववादी समन्वयवादी संवेदनशील समाज की संरचना का स्वप्न!
न! वसुधैव कुटुम्बकम् नहीं। कुटुम्ब तो उत्पीड़न और शोषण का धारदार प्राचीनतम सांस्कृतिक अस्त्रा है – मखमली म्यान में लिपटा जिसकी दिलकश बुनावट कला के सम्मोहक तिलिस्मों में ले जा कर मारकाट की रक्तरंजित क्रूर सच्चाइयों पर परदा डालने लगती है। न!! उत्पीड़ित वक्त तो तमाम सांस्कृतिक प्रपंचों और छलनाओं, मिथकों और सुरक्षा कवचों से किनारा कर खामोश सवाल को जान की सांसत बना डालना चाहता है कि औंधे मुह पड़ी ये झोंपड़पट्टियां किस पर लज्जित हैं – अपनी पारदर्शी सार्वजनिक नंगई पर या भव्य इमारतों की लहलहाती हृदयहीन सर्वभक्षी बेहयाई पर? कि ये मानवाधिकारों का हनन हैं या परिणाम? कि औद्योगिक क्रांति का दुष्परिणाम हैं या विकास की अवधारणा को नए सिरे से परिभाषित करने की अनिवार्यता का नाम? कि जिंदगी की लड़ाई में हारे योद्धाओं का करुण शोकगीत हैं या सामाजिक संरचनाओं के वर्चस्ववादी तेवरों का फूहड़ प्रत्यक्षीकरण? कि पेट की जरूरत ने इन्हें बिलबिलाता रेंगता कीड़ा बनाया है या समृद्धि की अंतहीन भूख ने? जिंदगी के भरे-पूरे उत्साह को रौरव नरक की भट्टी में झोंक देना – क्या यही है सर्वाइवल ऑव द फिटेस्ट का सार-तत्व? क्रूरता, बदहाली और दरिंदगी के साए में जीवन की रागात्मक रचनात्मकता और आस्था को उन्नततर करने का स्वप्न? मृगमरीचिकाएं जीवन-दर्शन बन जाएं तो जीवन को तार-तार होने में देर नहीं लगती। जीवन समग्रता, संतुलन और संवाद का नाम है जहां दो ध्रुवों में बंट-कट कर जीवन के उल्लास को जिया नहीं जा सकता। झोंपड़पट्टियां विभाजन को प्रश्रय देती ताकतों के खिलाफ मोर्चाबंदी संभाले मानवीय आस्थाएं हैं जो तमाम भौतिक रिक्तता और पस्ती के बावजूद सिर पर कफन बांधे हैं।
वाजिब हैं समाजशास्त्रिायों-अर्थशास्त्रिायों की चिंताएं कि दिन-रात, नर-नारी, पाप-पुण्य, स्याह-सफेद द्वित्वों की तरह द्वित्व में विभाजित रही अट्टालिका-झोंपड़पट्टी, तो एक गहरी अर्थगर्भित स्वीकृति के साथ सब कुछ पूर्ववत् चलता रहेगा। यथास्थितिवाद का पोषण और पुनरुत्पादन! झोंपड़पट्टी (स्लम्स) पर बात करने का अर्थ महानगरीय परिदृश्य में बेघरों-बदहालों की दिन ब दिन बढ़ती संख्या के आंकड़े गिना देना नहीं है (हालांकि आंकड़े न देने का लोभ संवरण कर पाना भी कठिन है कि यू. एन. हैबीटैट की ताजा रिपोर्ट के अनुसार कॉमनवैल्थ राष्ट्रों में 327 मिलियन लोग झोंपड़पट्टियों में रहते हैं या यूं कहें कि हर छठा कॉमनवैल्थ नागरिक झोंपड़पट्टी में रहने को अभिशप्त है; कि 2001 की भारतीय जनगणना के अनुसार मुम्बई की कुल जनसंख्या का 54 प्रतिशत यानी 6.25 मिलियन लोग और दिल्ली की कुल जनसंख्या का 45 प्रतिशत यानी 2.6 मिलियन लोग झोंपड़पट्टियों में रह रहे हैं)। झोंपड़पट्टी पर बात करने का अर्थ आवासीय सुविधाओं एवं पर्यावरण सुरक्षा के अभाव पर चिंता करना भर नहीं है (हालांकि काबिलेगौर है कि मुंबई में चार-पांच सदस्यों का एक औसत परिवार दस वर्ग मीटर से भी कम जमीन पर बने मकान में रहता है। यहां पेय जल के नाम पर एक सार्वजनिक नल, शौचालय के नाम पर एक सार्वजनिक शौचालय, रेल की पटरियां या नदी/समंदर के साथ का विस्तृत वीरान भू-प्रदेश है। प्राइमरी स्कूल और प्राइमरी हैल्थ सेंटर की कौन कहे, बिजली-सड़क भी नहीं।) झोंपड़पट्टी पर बात करने का एक उद्देश्य यह जरूर हो सकता है कि अमरीका और ब्रिटेन में लगभग खत्म हो रही झोंपड़पट्टियों की स्थिति के बरक्स हम अपनी राष्ट्र-स्तरीय तैयारी की ठोस रूपरेखा बनाएं। आर्थिक मामलों के विश्लेषक हरि सूद के अनुसार स्लम्स को खत्म करने के लिए ब्रिटेन ने औद्योगिक क्रांति के जरिए 1825 से 1900 की समयावधि के बीच जी. डी. पी. में आठ गुणा तथा अमरीका ने 1900 से 1940 के दौरान अपनी अर्थव्यवस्था में चार गुणा वृद्धि की। अतः यदि हम अपनी वर्तमान जी. डी. पी. दर आठ प्रतिशत को बनाए रखें और जनसंख्या वृद्धि की औसत दर को डेढ़-दो प्रतिशत से अधिक न बढ़ने दें तो वर्ष 2025 तक प्रति व्यक्ति जी. डी. पी. दर को दो हजार डॉलर तक ला सकेंगे। इससे न केवल रोजगार बढ़ेगा बल्कि उसी अनुपात में लोगों का जीवन स्तर भी उन्नत होगा। फलतः अपवादस्वरूप कुछ परिस्थितियों को छोड़ कर झोंपड़पट्टियां स्वतः ही विलुप्त होने लगेंगी। दिवास्वप्न नहीं, चुनौती! पूरा किया जा सकने वाला एक लक्ष्य! लेकिन इसके लिए जरूरी है उन सभी समस्याओं पर विचार करना जो जनसंख्या विस्फोट ऑैर सिकुड़ती कृषि भूमि पर बढ़ते दबाव की वजह से रोजगार की तलाश में महानगरों की ओर विकल्पहीन पलायन, महानगरों में अनिवार्यतः घटती आवासीय जमीन की अनुपलब्धता, अतिक्रमण और अवैध बस्तियों की स्थापना की बाध्यता, भू माफिया की गतिविधियों और राजनीतिक पार्टियों की ढुलमुल अवसरवादी नीतियों के रूप में सतह पर आती हैं। विडंबना है कि झोंपड़पट्टियों के समाजार्थिक स्तर को समुन्नत करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर अब तक एक भी सघन (इंटिग्रेटेड) योजना नहीं बनी है। सिर्फ पुनर्वास के लिए जब-तब फेंके गए हड्डी के कुछ टुकड़े – पानी, बिजली और शोचालय की सुविधा में जरा सी बढ़ोतरी; प्राइमरी स्कूलों की स्थापना, पुनर्वास योजना के तहत सरकारी झोंपड़पट्टियों का निर्माण-आवंटन, एक विशेष समयावधि तक (मुंबई के संदर्भ में यह अवधि अनेक बार बढ़ा कर वर्ष 1990से 1995 और फिर 2005 तक कर दी गई है) अवैध रूप से स्थापित झोंपड़पट्टियों को वैध कर देने का निर्णय आदि। दरअसल समस्या न स्लम्स हैं, न इनके बाशिंदे। समस्या हैं सामंतवादी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संरचनाओं के पूर्वग्रह जो अतिरिक्त उत्साह, (दुष्) प्रचार और मगरमच्छी आंसुओं के साथ झोंपड़पट्टियेां को तमाम बुराइयों का ढूह साबित कर रहे हैं। इसलिए जरूरी है तिरस्कार और वितृष्णा के बंजर भावों से उबर कर सम-वेदनापूर्वक झोंपड़पट्टी के भीतर निचुड़ती-दरकती मानवीय नियति के संग संवाद जो अपनी तमाम विद्रूप विकरालता के बावजूद जीने के मासूम सपने के साथ छलछला रही है। बेशक व्यभिचार और अपराध के अड्डे दीखते हैं ये स्लम्स, लेकिन अंधेरों में पलती इन छुटभैया अपराधी हस्तियों को कठपुतली सा नचाने वाली शख्सियतें क्या रोशनी और समृद्धि, ताकत और दर्प की इलीटदुनिया की प्रतिष्ठित इकाइयां नहीं?
समाजशास्त्रीय सर्वेक्षण-अध्ययन समस्याओं को नंगी आंख से देखने का नैतिक साहस जरूर देते हैं किंतु अपनी ठोस (ठस्स) तथ्यपरकता के कारण समस्या को थ्री डाइमेंशन में देख-विश्लेषित नहीं कर पाते। इस तीसरे आयाम का अभाव (जो गहरी आत्मपरक संवेदना की न्यूनता के कारण समस्या के मर्म को मनुष्य मात्रा के अंतर में आंदोलित नहीं कर पाता) व्यक्ति और व्यवस्था, पूंजी और श्रम, सरकार और जनता, माफिया और यूटोपिया की निजता और पारस्परिकता को चेहराविहीन मशीनी आकृतियों में रिड्यूस कर देता है। फलस्वरूप हमऔर वेये दो वर्ग शाश्वत दूरी के साथ यथावत बने रहते हैं और प्रचुर संसाधनों की गोद में पले संभ्रंत अभिजनके लिए झोंपड़पट्टियां रेड लाइट एरियाकी तरह घृणित, तिरस्करणीय, संदेहास्पद और अमानवीय बनी रहती हैं। साहित्य अ-परिचय और अ-संवाद की इस शिला पर घन-प्रहार करता है। हमऔर वेकी निष्प्राणता को मनुष्यकी भास्वर निजता के साथ स्पंदित करते हुए, जहां सांझा करने की नैसर्गिक मानवीय वृत्ति तादात्मीकरण करते-करते तदाकार हो जाती है। (तू तू करता तू भया, मुझमें रही न मैं) चार्ल्स डिकेन्स के पात्र डेविड कॉपरफील्ड, ऑलिवर ट्विस्ट या पिप अपनी लौकिक अकिंचनता के बावजूद इसीलिए तो इतने विराट और गरिमामय हो जाते हैं कि उनके भीतरी सौन्दर्य के संस्पर्श से हमारा अपना सौन्दर्य सकारात्मक उठान के साथ ठाठें मारने लगता है।
झोंपड़पट्टियां और सौन्दर्य!!! विलोम का महानुष्ठान! लेकिन साहित्य ही तो है जो सौन्दर्य को सत्य और शिव के साथ अनुस्यूत कर हर विकार, विनाश, विद्रूप, विसंगति के भीतर छिपी सर्जनात्मक मानवीय आकुलता को ढूंढ निकालता है। जीवन के मूलभूत राग का निनाद! स्लम्स को लेकर बेशक हिंदी साहित्य में अधिक चिंतन नहीं हुआ और डिकेंस की ऊँचाई और घनत्व के मुकाबले तो बिल्कुल नहीं, लेकिन अपनी सीमाओं में बंध कर भी झोंपड़पट्टियेां में धड़कते जीवन और सौन्दर्य, अभिशाप और संघर्ष को उन्होंने छुआ, परखा और निखारा है।
जगदम्बा प्रसाद दीक्षित
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’’रोशनी …एक वहम! सिर्फ अंधेरा …कई रंगों, कई रूपों में। जाता नहीं …बहाना करता है। वहीं है वेश बदल-बदल कर’’
यह ठीक है कि भारत में स्लम्स की शरुआत 1850 के आसपास कोलकाता से हुई लेकिन एक सामाजिक समस्या के रूप में इनकी शिनाख्त 1950 के बाद ही हुई। डॉमनिक लापियर सिटी ऑव ज्वायमें स्लम्स के रूप में पृथ्वी पर पसरे जिस रौरव नरक का चित्राण करते हैं, ’मुर्दाघर’ (जगदंबा प्रसाद दीक्षित, 1974) उसी की कराहती गूंज है। अलबत्ता व्यंग्य की टीस इतनी मारक है कि आनंदनगरकी अपेक्षा जिस मुर्दाघरकी हकीकत वे बयान कर रहे हैं, वहां मुरदों को नहीं, ’जीवित लाशोंको मर-मर कर जीने का असह्य दंड दिया गया है। ये जीवित लाशेंअपने लिए बेशक एक वक्त का खाना भी न जुटा पाएं, अपने श्रम और स्व-रोजगार से देश की अर्थव्यवस्था में योगदान जरूर देती हैं। टूटे-फूटे बर्तन-भांडों और सपनों के साथ बार-बार उजड़ने और बसने की विवश अनिवार्यता ने भले ही इनके पैरों तले जमीन नहीं दी, लेकिन इनके वजूदने औद्योगिक मशीनों को चलाने के लिए हाथऔर संभ्रंत अभिजनोंके सोशल स्टेटस को बढ़ाने के लिए मुंडू, बाई, ड्राइवर सरीखे कामचोरजरूर दिए हैं। दिन-रात की हाड़-तोड़ मुस्तैद मेहनत और बदले में पोर-पोर पिराता दर्द, दो जून की सूखी रोटी की बेफिक्री और अगले दिन सुबह-सवेरे उठ कर काम-धंधे पर जाने की फिक्र! पैसा और सुविधाएं – सड़क के उस पार अट्टालिकाओं का मुंह कर लेती हैं हमेशा। पोपट क्यों करे हमाली? मजूरी? जब-जब अपने को जानवर सा झोंका है काम में, क्या पाया? ’’पांच रुपिया। दो खरच हो गया खाने में।  …भोत हड्डी तोड़ना पड़ता। तब मिलता ये पांच रुपिया। …क्या होता ये पाँच रुपिया में। तेरा-मेरा पेट भी भरने वाला नईं।’’ (मुर्दाघर, पृ0 108) नुकीली सच्चाइयों के बीच रह कर वह समाज के जंगली तंत्र को जान गया है। मेहनत-मजूरी यानी आदर्शवाद का हश्र है पगला जाना। अपनी ही झोंपड़पट्टी के पागल आदमी की तरह कचरे के ढेर में नाक घुसा कर पेट पालने की विवशता और मैल-दुर्गंध से चीकट हो जाने पर अरसे बाद बदन के कपड़ों को धो डालने की इंसानी इच्छा के वशीभूत रात के निर्जन अंधेरे में बदन की नंगई छुपा कर कपड़े धोने की विकल्पहीनता। या फिर अंडरवर्ल्ड की ओर खुलते शॉर्ट कट्सका सहारा लेकर ऊपर उठने का अंतिम अस्त्र। मौत और जोखिम दोनों तरफ है, लेकिन दूसरी तरफ जगर-मगर रोशनियों और सामाजिक प्रतिष्ठा का आश्चर्य लोक भी है। हाजी मस्तान की तरह। आदर्श को धता बता कर प्राथमिकताएं न बदलें तो आश्चर्य! इसलिए पोपट को सिर्फ एक ही चानसकी तलाश है – ’’हमाली करेंगा तो क्या मिलेंगा …कुछ नईं। आक्खा जिंदगानी इधरिच सड़ना पड़ेंगा। मजूरी करके आज तलक कोन खोली लिया है और कोन मकान बांधा है? कोई नईं। फिर मैं किधर से क्या करुंगा। …किधर से लाऊँगा खोली और घर! ये झूट बात है मैना। …जो लोक कल तलक कंगाल था, …आज लाखोपती बन गया। …हाजी उमर को जानती ना तू? …मेरा साथ हवालात में था एक टैम। पहला दारू का धंदा किया। जभी पइसा कमाया थोड़ा …तो रंडी का होटल चालू किया। थोड़ा और पइसा कमाया। पीछू दानचोरी का काम चालू किया …इस्मगलिंग। पांच साल का अंदर बन गया लाखोपती। बड़ा-बड़ा बिल्डिंग है उसका। पोलिस का सब बड़ा साब लोक कू पार्टी देता …बड़ा-बड़ा मिनिस्टर लोक उसकू अपना घर कू बुलाता।’’ (पृ0 17) प्रलोभन नहीं, मूलभूत आवश्यकता के रूप में उभरा विकल्प! पतनशीलता की रपटीली ढलान पर रपटने की व्यग्रता नहीं, पैरों तले पुख्ता जमीन महसूसने के बाद वहीं जम कर पड़ाव डालने का अरमान! जुआ, मटका, स्मगलिंग – पेट की भूख के साथ जुड़ जाएं तो अनैतिक कहां?
जुर्म की जो दुनिया अभाव की कोख से उपजती है, वह समृद्ध वर्ग की लीलती लालसाओं और तृष्णाओं की सुसंगठित शक्ति और तिकड़मी कार्य प्रणाली के मुकाबले बेहद कमजोर, उथली और असंगठित है। दरअसल भूख से नाचती मजबूरी के चलते उन्हें भान ही नहीं होता कि वे अपनी छुटपुट मासूम आपराधिक हरकत में अकेले नहीं, पूरे सिस्टम का पुर्जा बन गए हैं। अपने लिए निष्कृति और बेहतरी, समृद्धि और सम्मान के तमाम रास्तों पर ताला लगा कर एक बदतर गलीज जिंदगी की मृगमरीचिका में भटकने को विवश। पोपट हो या जब्बार – रोजगार के रूप में मिले इस व्यवसायसे अंततः क्या पाया उन्होंने? मौत और जेल। न, कामचोरी या आलस्य बिल्कुल नहीं। मेहनतकश लोग मेहनत करना चाहते हैं, मीठे सपने की खातिर। पोपट को विश्वास है अपने सपनों पर। सपने में दीखे साधु बाबा और उनकी भविष्यवाणी पर कि ’’अब बदलेंगा तेरा टैम। नया काम चालू कर हाजी मलंग बाबा का नाम लेके। फायदा होंगा।’’ (पृ0 120) और वो मर्दकाम है – ’’इधर गाड़ी सुलो हुआ …उतर जाने का। दुसरा गाड़ी सुलो हुआ …उसकू पकड़ने का। फिर सुलो हुआ …छोड़ने का। फिर पकड़ने का लोकल। जभी लोकल सुलो हुआ …माल फेंकने का और कूद जाने का। पीछू माल उठाने का और घर कू आने का।’’ (पृ0 124) पुलिस के बेरहम डंडों से खौफजदा है पोपट। किस्तय्या की तरह पुलिस का हफ्ता बांधने की कुव्वत होती तो वह भी ठाठ से दारु बेचने का अवैध धंधा करके पैसा उगाता। चोरी? न! जब्बार की तरह दुरदुराया कुत्ता बनने की कल्पना से रूह कांपती है उसकी। कभी तड़ीपार तो कभी जेल। जेल में अमानुषिक यातनाएं। बेशक नत्थू जैसे शातिर मुजरिम हमदर्दी बांटते हुए हमपेशा-हमनसीबों को मार की पीड़ा से बचने के आसानमार्ग सुझाते हैं कि ’’तू भी वैसाइच कर जैसा ये सब लोक करता है …मैं भी किया था एक बार। …अपना पिसाब होता है न …अपना खुद का पिसाब़ … दुसरे का नईं …भला क्या! उसमें चारमीनार का तमाखू …नईं तो बीड़ी का तमाखू डालने का …और पी जाने का सारा पिसाब। कितनाई मारो फिर …अपने कू कुछ पता नईं चलता।’’ (पृ0 131) और सुलेमान जैसे पक्के चोर पुलिस कस्टडी में खून थूक-थूक कर मर जाते हैं, लेकिन जब्बार की किंकर्त्तव्यविमूढ़ता में द्वंद्व नहीं, द्वंद्वहीन संकल्प है – ’’पन मैं करुं तो भी क्या। दुसरा रास्ता नईं मेरे कू। …कुछ नईं मिला मेरे कू। सच्ची बोलता मैं …कुछ भी मिलता तो अईसा नईं होता। अब अइसाच होगा …दुसरा कुछ नईं होंगा।’’ (पृ0 114)       एक और सपना! एक और चोरी! एक और हताशा! कड़ी से कड़ी मार और सजा के बीच थरथराती जिंदगी। और एक बार फिर मौत की आंख में धूल झोंक कर अपनोंके संग जीने की लालसा! आखिरी चांस’!
      यही है जब्बार! पोपट!
      सपनों से झिलमिलाती आंखें!
एक सपना जब्बार का। पत्नी हसीना और बेटे अमजद को ’’ले जाना नई दुनिया में। फिर पुरानी दुनिया छूट जाएगी पीछे। दीवार के उस पार सफेद रोशनी …तैर कर आ जाएगी पास। …चले जाएंगे उस पार। पोटलियां बगल में। शुरु कर देंगे नई जिंदगी …नया वक्त। कभी लौट कर नहीं देखेंगे उस तरफ …जहां कभी था पुराना वक्त …सड़ा हुआ लिबलिबा मिकदार। जा रहे हैं पोटलियां दाबे …जहां एक सुबह है़ …उजाला है …जहां चमकती है खूबसूरत धरती़ …कपड़े गंदे हैं। कोई बात नहीं। आने वाली सफेद रोशनी में धुल कर हो जाएंगे साफ।’’ (पृ0 124)
एक सपना पोपट का। सिर्फ एक चानसताकि पत्नी मैना को रख सके ऐसा कि जइसा हाजी शेख का अउरत भी क्या रहेंगा।’’ (पृ0 64)
स्वप्न की परिणति स्वप्न भंग। शोक धुन की तरह दीर्घ और कर्कश! पुलिस से घिरे जब्बार की हसीना को एक ही हिदायत – खोखली और सारहीन कि पेट को पानी से पोस कर इंतजार करे उसका, रंडी बन कर नरक की लपटों में स्वाहा न करे खुद को। वह आएगा और संवार लेगा सब कुछ। आशा का मंद्र आलाप! लेकिन पोपट? उसके सपने में तो अनिष्ट की छाया तक न थी। फिर कहां से क्योंकर गुजरी बगल से धड़धड़ाती लोकल जब स्लोट्रेन से उन्हीं पटरियों पर कूद रहा था वह? प्यास और पीड़ा से आधा घंटा तड़फड़ाता पोपट बे-शिनाख्त लाश बनने से पहले स्वप्न एवं विश्वास भंग की किरचों को पोर-पोर में महसूस करते हुए एक और मौत नहीं मरा होगा कि मैना को रंडीपने से मुक्ति दिलाने के बदले रंडीपना उसके नसीब में लिख कर जा रहा है वह?
      तो क्या स्लम्स माने खंडित स्वप्नों का अखंड सिलसिला???
      या जुर्म की दुनिया में उतरे पोपट और जब्बार, सुलेमान और नत्थू ही हैं असली चेहरा?
      न्ना!!
एक कतरा सच हैं वे। इस अखंड सच के अन्य पूरक कतरे हैं नरककुंड में बास’ (जगदीश चंद्र, 1994) के कुछ पात्र जैसे काली, किशना, माँझा, छिब्बू, कालू, बरकत। जिस हाड़तोड़ मेहनत से घबरा कर अपनी ही ऐषणाओं के हाथों परास्त हुए हैं पोपट-जब्बार आदि, उसी का सटीक पर्याय बन कर काली आदि ने अपनी जिंदगी गला-घुला दी है – कभी जानवर की जगह रेढ़े में जुत कर और कभी मुर्दा जानवरों की खाल खींचन-धोने के जानलेवा व्यवसाय में लग कर। दोनों उपन्यासों की रचना में बीस बरस का अंतर है और साथ ही परिलक्षित होता है झोंपड़पट्टियों को लेकर आम आदमी की अवधारणा में अंतर भी। बीसवीं सदी के नौवें-दसवें दशक में झोंपड़पट्टियों के फैलाव ने इन्हें वर्जित-घृणित प्रदेश न बना कर महानगरीय संस्कृति के अभिन्न अंग का दर्जा दे दिया है। झोंपड़पट्टियां सभ्यता-समृद्धि के उज्ज्वल चेहरे पर बदनुमा दाग सही, लेकिन चेहरे को उज्ज्वल दमकता बनाने के लिए अपरिहार्य भी हैं। इसलिए झोंपड़पट्टियों की मूलभूत अवस्था में सुधार के साथ-साथ इनके बाशिंदों की मानवीय इयत्ता को स्वीकारने का भाव क्रमशः उदित होने लगा है सम्भ्रान्त अभिजनसमाज में जिसकी आहटें 1980 में रचित भीष्म साहनी के उपन्यास बसंतीमें भी सुनी जा सकती हैं।
 

मंजुल भगत

नरककुंड में बासउपन्यास अमरीकी लेखक अप्टन सिंक्लेयर के उपन्यास द जंगलकी याद ताजा करते हुए मानवीय शोषण और नियति की उस हौलनाक तस्वीर को चित्रित करता है जहां का हर मुहाना एक और डैड एंडहै और इसी डैड एंड को अपना कर्मक्षेत्र मान कर जूझने की बाध्यता दुर्धुर्ष योद्धाओं की किस्मत में सतत पराजय लिखती रहती है। अकाल, भूख, गरीबी की मार से निढाल ग्रामीणों के लिए शहर चमकती आशा और दमकते भविष्य के प्रकाश-पुंज हैं, लेकिन शहर आ कर वे शहर के हृदयहीन आत्मकेन्द्रित चरित्रा से परिचित होते हैं। यहां आत्मीयता और आश्रय की तरह रोजगार भी नदारद है। काम की किल्लत नहीं लेकिन काम के लिए बढ़े हाथों की इतनी बहुतायत है कि ’’झोटे-बैल के स्थान पर आदमी रेढ़ा खींचने के लिए तैयार है।’’ (’नरककुंड में बासपृ0 60) गांव से नया-नया आया काली रेढ़ा खींचने का अस्थायी काम पाकर खुश है कि दो वक्त की रोटी की निश्चिंतता तो हुई, लेकिन बरसों से रेढ़ा खींचते साथी मजदूरों-पल्लेदारों की अवस्था देख कर अवसन्न भी है कि इनमें से अधिकांश के ’’पांव टेढ़े हो गए थे, पिंडलियां पकी हुई लौकी की तरह दिखाई दे रही थीं और घुटने अंदर को पिचक गए थे। टांगों की नसें फूल कर हल्के नीले रंग की बेल सी बन गईं थीं। …कई लोगों की टांगें तो इतनी टेढ़ी हो गईं थीं कि उसमें छोटी ढोलक को आसानी से फंसाया जा सके।’’ (पृ0 98) बदले में मजूरी – सिर्फ आठ आने, दो आने रेढ़ी का किराया कटने के बाद। 2005 तक आते-आते पत्ताखोर’ (मधु कांकरिया) के हथ-रिक्शाचालकों की मजूरी और भाड़ा दोनों में बेशक इजाफा हो गया है, लेकिन मूलभूत दशा ठीक वही – ढाक के तीन पात। सहदेव के अनुभव हों – सवारी को हम उनके ठिकाने पहुंचा आए …गोड़ पिराने लगे। छाती दुखने लगी। फिर भी हम शांत थे। छह रुपए हमारे पास थे।  …पर जब भैया ने बताया कि दिन की शिफ्ट का भाड़ा ही दस रुपिया है ई गाड़ी का तो हम रो पड़े …हाड़तोड़ मिहनत करके भी चार रुपिया टेंट से देने पड़ गए …ई का नगरी़ …’’ या इतवारी के – ’’पूरे दिन की कमाई  …गाढ़ी खटनी …छिला बदन, घुटने की चोट और टेंट से लगे आठ रुपए’’ – अपने व्यवसाय एवं श्रम के प्रति हिकारत का भाव कभी नहीं पनपा इनमें। रिक्शा को अन्न देवता का पर्याय मान अपने श्रम से उसे पूजते रहे। यही है उनके संघर्षों और जिजीविषा का सार। यही है नरककुंड में बासके काली सहित अनेक मजदूरों की आस्था जो उन्हें टैनरीके अमानवीय माहौल में काम करने को प्रेरित किए हुए है। चेचक-हैजे जैसे संक्रामक रोगों से मरे जानवरों की सड़ी, बदबूदार मक्खियों के जत्थे से ढकी और चर्बी के टुकड़ों से अटी कच्ची खालों को धोना-सुखाना – काली को लगता है गंदी बदबूदार नाली में कीड़ा बन कररहना पड़ेगा उसे ताजिंदगी। मन है कि बार-बार विद्रोह करने को उतारु – ’’नर्क के भोगी भी ऐसे गंदे काम नहीं करते होंगे’’। मितलियों का लंबा दौर। भूख क्या इतनी आक्रामक होती है कि भीतर की मनुष्यता और संस्कार दोनों को निगल कर अपने हाथ का झुनझुना बना ले इंसान को? काली की मितलियां वितृष्णा की अभिव्यक्ति नहीं, भीतर के सौन्दर्य बोध से उपजा विद्रोह हैं। लेकिन भूख अंतिम और भयावह सच है। ’’काम गंदा है तो पैसे भी तो ज्यादा मिलते हैं’’ – मन ही मन हिसाब लगा कर फूला नहीं समा रहा काली कि अब उसे दो रुपए दिहाड़ी मिलेगी जबकि इससे पहले दिन भर रेढ़ा खींचने के बावजूद वह दस-बारह आने से ज्यादा नहीं कमा पाता था। क्या यही है नसीब का खुलना? काली जानता है कि खुजली-खारिश, पां जैसी जानलेवा बीमारियां जल्द ही उसे ग्रस लेंगी लेकिन मेहनत का ऐसा ही पुरस्कारहर पेशे में है।
आगत का डर नहीं। डर है भूख से। भूख सोई रहे पेट में तो सारा जहान अपना। बदन की टीसें झुठलानेको सौ-सौ उपाय – शराब, अफीम, टेबलेट। नशाखोरी झोंपड़पट्टी की प्रकृति नहीं, मजबूरी है – दुगुनी स्फूर्ति अर्जित करने का अचूक अस्त्र। तभी तो बुजुर्ग पल्लेदार अफीम की डबल गोली लेकर बैल की तरह ’’दिन ढले तक पानी-पेशाब पिए-किए बिना बोरियां ढो’’ (पृ0 99 नरककुंड में बास’) पाता है और किशना दवाई (शराब) पी लेने के बाद ’’पंख वाले घोड़े पर सवारी करता है। सोने के पलंग पर बेफिक्र हो सोता है। न मक्खी सताती है और न मच्छर ही काटता है। न खुजली का पता चलता है। बस, यही दो-चार घड़ियां ही अपने ऐश-आराम की होती हैं।’’ (पृ0 195)
यकीनन इन लोगों की मेहनत को मीठे इनाम की दरकार है। समाजवादी व्यवस्था को सपना नहीं, वास्तविकता बनाने की जरूरत। वही होगा अच्छाई और सच्चाई के संवर्धन का मानवीय प्रयास!
लेकिन झोंपड़पट्टी के बाशिंदों में किशना का भाई कल्लू (नरककुंड में बास’), नंदलाल (अनारो, मंजुल भगत, 1977) और दीनू-चौधरी (बसंती) भी हैं – अपने मूल चरित्र में घीसू-माधो के अवतार। दिवास्वप्नों में मस्त। मुफ्त की रोटियां तोड़ते और घर की औरतों पर मर्दाना रोब गालिब करते। कभी काम में नुक्स, कभी काम से जुड़े चीकट भविष्य में – भा जी, उस्ताद दो-तीन साल तो काम सिखाने में लगा देते हैं। तब तक पल्ले से रोटी-पानी खाओ और उस्ताद की टहल-सेवा अलग से करो। काम सीख भी जाओ तो मालिक पूरी मजदूरी नहीं देता। कभी कच्चे काम का बहाना और कभी मंदे की शिकायत। ये रोना-पीटना लगा ही रहता है।’’ (नरककुंड में बास, पृ0 208) फिर भविष्य? निठल्ले को रोटी तो परमात्मा भी नहीं देता। ’’मैं भी वलैत जाना चाहता हूं’’ – भविष्य न सही, भविष्य का रोमानी सपना तो है बेनूरी आंखों में। वलैत माने कल्पतरु। हिलाया कि झर-झर पैसा झरने लगा। वलैत’ (अमरीका भी) आज की ग्लोबल दुनिया में नगरीय प्राणी के लिए ठीक वही आशा-पुंज जो पचास से नब्बे के दशक तक गांव वालों के लिए नगर हुआ करता था। कौन समझाए इस दिग्भ्रमित नई पीढ़ी को कि मृगतृष्णाएं दूर ले जाकर मारती ही हैं, पोसती नहीं; कि जीवन का राग और राज़ दोनों व्यक्ति के अपने भीतर हैं। बस, लेखक स्तब्ध है और व्यग्र भी कि जमींदार के गेहूं के ढेर से भी ऊँचे पैसों के ढेर लगा देने का सपना देखने वाले अहमकों को कैसे उनकी जड़ों से जोड़ा जाए? कैसे उन्हें आस्था से सींचा जाए? वह भी तब जब ऐसी ही मृगतृष्णाओं के शिकार उनके माँ-बाप कर्जा ले कर उनके लिए टिकट और एजेंट का इंतजाम कर रहे हैं? कबूतरबाजी के संगीन जुर्म को बढ़ावा देती ये मासूम लिप्साएं पहली ही उडारी पर अपने पंख कतरवा डालती हैं। शुतुरमुर्ग न होती मानवीय प्रवृत्ति तो शायद अपनी ही बिरादरी की गलतियों को बार-बार दुहरा कर बार-बार मर्माहत न होती रहती।
तो क्या झोंपड़पट्टी उस अनिवार्य नियति का नाम है जहां बेहतरी के लिए उठाया गया हर कदम/स्वप्न बदतरी का आगाज करता है? एक विकट दलदल!
2
’’कई बार बह निकले थे आंसू। अब भी बह निकलेंगे। कौन देखेगा?’’
दीनू और चौधरी (बसंती) दलदल से किनारा कर लहरें गिनने का कितना ही ऐयाशकाम क्यों न करें, अपनी नियति और परिवार के कुशल माँझी नहीं बन पाते। ज्यादा से ज्यादा परिवार की स्त्रियों की कमाई पर निर्लज्ज निर्भरता! या बेटियों को बेच कर रुपया-दारु जुगाड़ने की अमानुषिकता। चौधरी प्रतिनिधि है इस जमात का जो नाबालिग बेटियों को ही नहीं बेचता, उनके अवैध गर्भ का भी संभावित वर से सौदा कर डालता है – ’’तीन सौ पिछले और दो सौ पेट के बच्चे के। तुम्हें बसी-बसाई गिरस्ती मिल रही है। इसके लिए क्या दो सौ ज्यादा हैं?’’ (पृ0 118)
पेट की आग हो या परिवार (पिता/पति) की मार, खटती चलती हैं स्त्रियां। महरी बन कर (अनारो, बसंती), उठाईगीर या रंडी (मुर्दाघर) बन कर। घरों में बर्तन-सफाई, कपड़ा-चौका – एक नई दुनिया खुलती है उनके सामने। सुविधाओं और सपनों से भरी। मैंऔर वहके भेद को तीक्ष्ण करती हुई। टी. वी. के जरिए जागृति के कतरे भी चस्पां हो जाते हैं वजूद पर। और तीव्रतर हो जाता हे गोद में खेलते बच्चे की शिक्षा की जरूरत का अहसास। सफल हो जाती है अनारो अपने बेटे छोटू को पढ़-लिखा कर दफ्तर का चपरासी बना कर। लेकिन रोती-झींकती रह जाती है चित्रा मुद्गल की कहानी त्रिशंकुकी माँ, कि बेटा पढ़ाई छोड़ जुर्म की दुनिया में चला गया है। बिल्कुल अलग है दूध पीते बच्चे की नाबालिग माँ बसंती। उसके भीतर का मातृत्व मध्यवर्गीय माँ की तरह अपने आंख के तारे की परवरिश करना चाहता है – तमन्नाओं का गुलाबी संसार जहां है बोतल से दूध पिलाते बच्चे के गले में बंधा नैपकिन; खिलौनों और घंटियों से सजा पालना; पाउडर से महकते बच्चे के तन पर साटिन का कुर्त्ता और फुंदने वाली टोपी, जूते-मोजे। सीमित साधनों में पूरी हो जाएं तमन्नाएं तो ठीक, वरना दूसरे रास्ते – ’’जो कुछ तो मैं अपने पप्पू के लिए करती हूं ना, उसे तो मैं चोरी मानती ही नहीं। अपने लिए कुछ उठाऊँ तो बेशक मुझे चोर कह लो।’’( पृ0 161)
अनारो ( मंजुल भगत, 1977) का विस्तार बन कर बसंती कर्मठता, उत्साह, उद्दाम आशा के साथ कड़े संघर्ष की आभा से प्रदीप्त है। हर प्रतिकूलता और विभीषिका को सीना तान कर झेल जाने वाली। निर्द्वंद्व, बेखौफ। दीनू के साथ भाग निकली तो कलका कोई विचार नहीं, दीनू की ब्याहता पत्नी का समाचार जाना तो पल भर को निस्पंद लेकिन फिर ऊर्जा और ऊष्मा कर अनवरत प्रवाह! समाधानों का अंबार – ’’तू उसे यहां ले आ। हम सब मिल कर रहेंगे। तेरी जात में दूसरा ब्याह कर सकते हैं ना! …मैं सब काम कर लूंगी। उसे सब कुछ सिखा दूंगी।’’ जन्म से ही बस्ती को बार-बार उजड़ते-बसते देख कर असुरक्षा और अस्थायी भाव इतने गहरे घर कर गया है उसमें कि नजर सिर्फ आजपर। क्षण का भीषण सत्य उसकी बचत और भविष्य – दोनों पर भारी पड़ता रहा है। क्या चाह कर भी वह अपनी कोठरी की पिछली दीवार में एक ढीली ईंट को निकाल कर उसके पीछे रखी अपनी कुल जमा पूंजी यानी कांच की चार चूड़ियां, बालों में लगाने वाले दो रंगीन क्लिप और पीतल की अंगूठी  निकाल पाई? बसंती की लोचशीलता विकट परिस्थितियों में जीवट का परिचय देती इंसानी लोचशीलता का प्रतीक है। दरअसल क्षणवाद और भोगवाद बढ़ते उपभोक्तावाद की विकृतियां भर नहीं, घोर गरीबी की मजबूरियां भी हैं जहां जीवन तीन कालखंडों के साथ अंतर्गुम्फित एक अखंड इकाई बन कर नहीं आता, टुकड़े-टुकड़े मे बंट कर अपने भीतर की विराटता को विकरालता में तब्दील करता चलता है। बसंती का स्वभाव स्लम्स की इसी मानसिकता का परिचायक है – ’’यही होगा, ऐसे ही चलेगा …ज्यादा दूर तक तो वह देख ही नहीं पाती थी …उस जैसे लोगों के लिए एक दिन दूसरे से जुड़ा नहीं होता। प्रत्येक दिन अलग-अलग इकाई सा होता है। वह आज के दिन को आने वाले दिन के साथ जोड़ कर नहीं देख सकती थी। आज काम है तो है, कल काम नहीं है तो नहीं होगा। एक दिन दूसरे दिन से तब जुड़ता है जब काम को पक्का रख पाना अपने बस की बात हो। जहां किसी दिन किसी घड़ी भी काम छूट सकता हो, घर वाला भाग सकता हो, बसी बसाई बस्ती मलबे का ढेर बन सकती हो, वहां कोई दिनों और महीनों और सालों की योजना कैसे बना सकता है? जो दिन बीत जाए, बीत जाए। अगला दिन आएगा तो देख लेंगे।… आज जिंदगी ऐसे ही चलने लगी है, ऐसे ही चलेगी जब तक इसे चलना है।’’ (बसंती,पृ0 152)
अनारो की पेटजाई गंजी (मंजुल भगत, 1995) अठारह बरस के अंतराल को जी कर बसंती की तरह सपने भर नहीं बुनती, उन्हें साकार करने की ठोस योजनाएं भी बनाती है – बिगड़ैल पति के संबल से अलग अपने ही प्रयासों से एक संस्था बनते हुए। वह झोपड़पट्टी के अंधेरों को चीरती रोशनी की प्रतीक है – समृद्धि और सामाजिक प्रतिष्ठा जैसी इंसानी चाहतों का रुख स्लम्स की ओर मोड़ने वाली कारक शक्ति। उजली-स्याह सच्चाइयों के साथ वक्त तेजी से बदल रहा है। बेशक। लेकिन फिर भी मुर्दाघरकी मुर्दनियां अपनी पूरी विभीषिका के साथ वहां मौजूद हैं। रोजगार के नाम पर धंधाकरने को विवश रंडियां – मैना, बशीरन, जमीला, पारबती, मरियम …। इनमें से कोई भी तो खुशी से इस पेशे में नहीं आई। घर से भागने की मूर्खता, धोखेबाज प्रेमी, पीढ़ियों से बस्ती के माहौल में रहने के कारण उसी मशीनी माहौल में ढल जाने की यांत्रिकता, चोरी-चकारी का सहूलियतभरा पेशा, पुलिस रेड पड़ने पर हवालात से होमभेजे जाने और किसी भाईद्वारा जमानत पर छुड़वा कर अपने गिरोहमें मिला लेने की कृपा’ – हर दरवाजा देह के विक्रय तक जाता है। जगदंबाप्रसाद दीक्षित की विशेषता यह है कि वे पात्रों के भीतर उतर कर उनकी व्यथा के जरिए झोपड़पट्टी के दुर्भाग्य को उकेरते हैं। खांसी के बाद सड़क पर फेंका गया बलगम’ – उनके स्त्री पात्रों के लिए दिया गया विशेषण पूरी बस्ती के वर्तमान और भविष्य को एक साथ बयान कर जाता है। अपने मरद को कोसती मैना – ’’कभी भला नईं होंगा। मरेंगा तो पानी भी नईं मिलेगा …क्या बोला था तू – धंदा करेंगा और पेट भरेंगा मेरा। अब धंदा करती मैं और पेट भरती तेरा’’; नवजात शिशु की मौत की कामना करती मरियम – ’’अभी तू जाएंगा …हो जाएंगा अल्ला कू प्यारा …क्या बोलेगा उसकू …कि तेरी अम्म भोत खराब है …नईं क्या? अइसाच बोलेंगा तू? …अइसा मत बोलना अल्ला कू। तेरी अम्मा कू  …दुसरा कुछ रस्ताच नईं। क्या समझा? कुछ रस्ता नईं। सच्ची बोलती मैं। अल्ला कू मालूम। …मेरे कू नईं मालूम क्या करूं मैं? किधर जाऊँ। …हां रे! अपनी अम्मां कू भी ले चल अपने साथ। मैं चलूंगी तेरे साथ। सुना क्या? अरे! तू हंसा क्या? सच्ची! हंसता! हच्छाला! हच्छाला! हंछता बदमाछ! मेरी बात छुनके हंछता। हच्छाला!’’ (पृ0 118);
भिखारिन को उसके धंधे के लिए रोजाना दो रुपए किराए पर अपने बच्चे छोटू को बेचती माँ (चित्रा मुद्गल की चर्चित कहानियां, भूख, पृ0 46); तथा चोरियां करके गुजर-बसर करती काली लड़की – ’’अपुन क्या बड़ी चोरी करेंगा़ .कोई का शर्ट़ लैंगा़ …धोती …बनियान …बाहर किधर भी सूखता होंगा …मोक्का मिलेंगा तो अपुन उठा लेंगा। ले जाके दे देंगा बाबू भाई को। भाई जो ठीक समझेंगा वो पइसा दे देंगा अपुन कू। एक टैम का खाना भी मिला तो भोत। जास्ती क्या करने का।’’. (मुर्दाघर, पृ0 66) – नैतिकता के प्रश्न बेमानी हो जाते हैं यहां। बल्कि एक नया सवाल उठाते हैं कि नैतिकता की संरचनाएं और परिभाषाएं क्या अघाए लोगों का खेल नहीं? खोखला लेकिन वर्चस्व से परिपूर्ण। वरना दूसरों के मुंह से रोटी छीन कर अपनी तिजोरियां भरती अनैतिकतामें संलिप्त होकर नैतिकता पर बात करना क्या ज़रा भी मानवीय है?
चित्रा मुद्गल
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’’रेंगते हुए कीड़े रेंगते जाते हैं …रेंगते-रेंगते मर जाते हैं’’
इस संभ्रांत अनैतिकता को मुँहतोड़ जवाब देने की कोशिश में अपने ही बच्चे की मौत की कामना करती मरियम असल में उस हौलनाक भविष्य को नष्ट कर देना चाहती है जो कुत्तों और कौवों के संग कचरे की पेटी में से जूठन निकाल कर पेट भरता है; स्कूल जाने की बजाय दो-दो बीड़ी का जुआ खेलता है; आते-जाते बाबू साहब के सामने हाथ फैला कर अनजाने ही भीख माँगने का अभ्यास करता चलता है; लोकल ट्रेन में कंघा-शीशा-रुमाल बेचते-बेचते अपराध की दुनिया के उलझे महीन तारों से जुड़ता चलता है। भविष्य के नाम पर कालिख पुते स्याह वर्तमान का विस्तार। काली रोशनी का काला सितारा। ममता जन्म देने में नहीं, भविष्य बनाने में सार्थकता पाना चाहती है। लेकिन सीधी गलियां अक्सर मंजिल से दूर होती चली जाती हैं। मैना नहीं चाहती कि बेटा राजू कोढ़ियों की पंगत में बैठ कर भीख में मिला कीमा-पाव खाए। लेकिन राजू की कुलबुलाती आंतें उसमें और कोढ़ियों में कोई फर्क ही नहीं देख पातीं। उसका एक ही सपना है एक ऐसे स्टेशन पर जाना ’’जहां है खूब खाना …पैसा।’’ नहीं है तो सकुशल वापिस लौटने की गारंटी। इसी नई पीढ़ी में रोपे हैं समाज ने दिशाहीन, संस्कारहीन, भाषाहीन अपराधियों के बीज। गहरी सादगी के साथ जगदंबाप्रसाद दीक्षित बच्चों की दुनिया में उतर कर देखते हैं कचरा-पेटी बीनते-बीनते अचानक चमक जाती राजू की आंखें – ’’वो दिन कि नईं …मुरगे की पूरी टांग मिली थी मेरे कू …पूरी टांग …ये इतनाली बड़ी। और बिरियानी भी’’। साथ ही सूंघते है विनाश्याक आशंका कि यह कवायद बड़ा हो जाने पर अपनी भूख मिटाने के लिए क्या उसे पूरी दुनिया को कचरा-पेटी समझने और निर्ममतापूर्वक खंगालने का प्रशिक्षण नहीं देगी? ’’गन्या …मादरचोद पत्ता देख के खेलता क्या? गांडू …ऐसा मारेंगा लात। तू खेल रे महादेव …बिनधास!  …हाय रे! क्या पत्ता खेला है मेरी जान। कुरबान जाऊँ। चल रे मेरे शेर …इसकी मैं माँ की़ …’’ (पृ0 24) इस भाषा में अनास्था और क्रूरता की जो चिंगारियां हैं, वे संभ्रांत वर्ग के खिलाफ तमाम ताकत के साथ फूटने को आकुल हैं एक दिन। ’’भोत मजा आया आज …सच्ची बोलता यार। अइसा मजा तो वो अंधे बुड्ढे कू फत्तर मारने में भी नईं आता। कायकू …अपुन वो दिन वो कुत्ते कू पानी में डुबाके मारा था ना …पन इतना मजा नईं आया’’ (पृ0 45) में है अपराध जगत की ओर खिंचती भीतरी दरिंदगी की उर्वर जमीन। सच, दिशाबोध और आत्मानुशासन न हो तो इंसान मूलतः हैवान ही है। जैसे त्रिशंकु’ (चित्रा मुद्गल) कहानी में बंबइया झोपड़पट्टी का अबोध बंडू माँ की दुर्दशा देख पढ़ाई-लिखाई छोड़ कमाने निकला तो ईजी मनीकी तलाश में वैध धंधों से होता हुआ सिनेमा टिकटों की ब्लैककरने के ऊपजाऊ धंधे से जुड़ गया। फिर वही जेल, होम और माफिया की सुरंगें।
चित्रा मुद्गल अपनी कहानियों में स्लम्स की जिंदगी के रौरव नरक को विविध कोणों से उभारने की कोशिश करती हैं, लेकिन उनका समूचा भावबोध और अंतर्दृष्टि मुर्दाघरका अतिक्रमण नहीं कर पाते। ठीक उसी तरह जैसे भीष्म साहनी बसंती के व्यक्तित्व को अनारो के प्रभाव से मुक्त नहीं कर पाते। अतः अनुत्पादक अनुकृतियां ही। अलबत्ता उदयप्रकाश दिल्ली की दीवार’ (2001) कहानी के साथ नई जमीन तोड़ते जरूर नजर आते हैं। भूमंडलीकृत विश्व की सच्चाइयों में गहरे पैठ कर वे इस बात को नकारते हैं कि ईजी मनी और झोंपड़पट्टी का चोली दामन का साथ है। राजनीतिक परिदृश्य पर बींधती नजर गड़ा वे ईजी मनी से जुड़ी तमाम कारगुजारियों को राजनीति से जोड़ते हैं। सुखराम सरीखे भ्रष्ट मंत्रियों पर सी़ बी़ आई के छापे की खबर को आधार बना कर वे जिस काल्पनिक कथा की रचना करते हैं, वहां दीवार के खोखल में छुपे तेरह करोड़ रुपयों की गड्डियां हैं; झाड़ू की ढीली मूठ बांधने के प्रयास में उस खजाने को अनायास हासिल करता सफाई कर्मचारी रामनिवास है; उस नायाब खजाने की बदौलत घर, प्रेमिका और बस्ती हर जगह ऊँची हैसियत पाने का रस है तो तमाम ऐयाशियों का सुख लूट लेने की आतुरता भी। यह ऐयाशी कल रहे, न रहे। इस अनिश्चितता में पकड़े/मारे जाने की निश्चितआशंका है और अपने भविष्य को पढ़ने की दूरंदेशी भी। रामनिवास मुस्तैद प्रशासन की चतुरता से पकड़ा गया है और तब बेनकाब होता है एक बहुत बड़ा घोटाला। लेकिन यहीं उदयप्रकाश स्लम्स की अंदरूनी सड़ांध और पतनशीलता के बरक्स सभ्य सफेदपोश समाज की स्याह विकृतियों को सतह पर लाते हैं। बरामद माल के नाम पर तेरह करोड़ नहीं, पच्चीस लाख की आधिकारिक घोषणा …अभियुक्त के रूप में मन्त्री जी और उनके बड़े से रैकेट पर उंगली नहीं, एक फर्जी मुठभेड़ में रामनिवास को मार कर कुख्यात अपराधी कुलदीप उर्फ कल्ला और उसके साथियों का सफाया करने का गर्वोन्नत अहं। कौन बहती गंगा में हाथ नहीं धोना चाहेगा? इसलिए आश्चर्य नहीं कि लेखक स्लम्स के विस्तार की पूरी दुनिया के चप्पे-चप्पे तक फैल जाने की कल्पना करता है – ’’…यह सुरंग जमीन के भीतर-भीतर पूरे मुल्क और समुद्र के भीतर-भीतर से गुजरती हुई समूची दुनिया तक फैलती जाती है। यह एक अलग प्रकार का भूमंडलीकरण है जो इतने अदृश्य और गोपनीय तरीके से हो रहा है कि इसके बारे में कोई भी समाजशास्त्री अभी ज्यादा नहीं जानता। जो जानते हैं, वे चुप रहते हैं और आने वाले समय का इंतजार कर रहे हैं।  … …मुमकिन है कि आप अपने फ्लैट या अलग-थलग बने किसी मकान से बाहर निकल कर किसी ऐसे ही ठेले या रेहड़ी के पास के जमघट को गौर से देखें तो हो सकता है कि इस सुरंग का कोई मुहाना आपको भी मिल जाए।’’
तो क्या स्लम्स का अर्थ सिर्फ आवासीय सुविधाओं का अभाव नहीं, मानवीय गरिमा की रक्षा की मूलभूत गारंटी का अभाव भी है? एक ऐसा अभाव जो पहले पंचम जैसे आदिवासी से वन और जल छीनता है, फिर घर-परिवार और अंत में जिंदगी। अपराध? यही कि झुलसती गर्मी में नंगे पांव रिक्शा टानता रहा कोलकाता की सड़कों पर (मधु कांकरिया, पत्ताखोर ,पृ0 86) – उस भूख को मिटाने जो पेट में हल्का सा ईंधन डालने पर बुझती नहीं, और भी भड़क जाती है।
 

मधु कांकरिया

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’’अपना दुख तसल्ली नहीं देता। दूसरों का दुख जरूर साहस पिरो देता है’’ बनाम ’’खंडित जिंदगियों ने ही मुझे एक अखंडित जीवन दर्शन दिया है कि …जिंदगी से हार मानना ठीक नहीं’’
फिर भी धुआं-धुआं होती जिंदगी में राख कुछ भी नहीं हुआ है – न सम्बन्ध, न सम्बन्धों की गरिमा; न मनुष्य और न मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था। शिव का साम्राज्य है यहां – सतत कल्याण, सतत संवेदना का प्रसार। शिव यानी जो सबको अपना ले। बाकी सब शव है। मरद (पत्नीत्व) के लिए तरसती रोजी, बच्चे (मातृत्व) के लिए अकुलाती मुर्दाघरकी तमाम वेश्याएं, पत्नी और बच्चे (घर) के लिए जान जोखिम में डालता जब्बार और तड़ीपार जब्बार को चुगलखोर दुनिया की नजर से बचाने के लिए घिसट-घिसट कर पानी, खाना, माचिस लाती रोजी (मनुष्यता), विधवा लक्ष्मा के रोजगार के लिए यहां-वहां दौड़ती पड़ोसन सावित्री और तमाम अपरिचय के बावजूद काली को अपने अस्थायी बसेरे में शरण देते नरककुंड में बासके बरकत-मनसुख और छिब्बू-माँझा – आत्मीय सम्बन्धों का घेरा परिवार की सीमा पार कर पूरी बिरादरी तक व्याप गया है। एक ऐसी बिरादरी जो रक्त सम्बन्धों से नहीं बनी। बनी है नेह सम्बन्धों से – सुख-दुख की साझी अनुभूति से, अपने भीतर की सौन्दर्यान्वेषक दृष्टि का विस्तार कर जीवन के प्रत्येक कसकते पल को उल्लास में बदलने की धुन से। पूर्व परंपरा से दूर छिटक कर मधु कांकरिया स्लम्स की विभीषिका के पार मनुष्य की गरिमा का संरक्षण करती इस विलक्षण शक्ति का नमन करती हैं। न, नमन तो भावातिरेक में बह जाने की एक तात्कालिक प्रतिक्रिया है, जड़ परिणाम के साथ। वे संभ्रांत समाज के भीतरी खोखलेपन, असहायता, अकिंचनता, आधि-व्याधि, रोग-शोक, पतन और पराजय के हाहाकार को झोपड़पट्टी के बरक्स पढ़ती ही नहीं, परित्राण पाने के उपाय भी सुझाती हैं। यह भी कहा जा सकता है कि मधु कांकरिया ने रोमानी दृष्टि से झोंपड़पट्टी को लेकर पत्ताखोरमें निजी पाठ प्रस्तुत किया है जो मूलतः झोंपड़पट्टी की अवस्था पर संकेन्द्रित न होने और नशाखोरी की समस्या के संदर्भ में विश्लेषित किए जाने के कारण विश्वसनीय एवं प्रामाणिक नहीं। लेकिन गहरा शोध करने के बाद जो लेखिका विषय को अपनी संवेदना और अंतर्दृष्टि का हिस्सा बनाती हो, उसकी निष्ठा और मिशन पर प्रश्नचिन्ह लगाना संभव ही नहीं। बेशक पत्ताखोरमें एक थिरेपी की तरह नशाखोर आदित्य और झोंपड़पट्टी के अंतर्सम्बन्धों को गुना गया है, लेकिन पूरी उपन्यास योजना में लेखिका दो अहम सवाल उठाती हैं। एक, परंपरागत रूढ़ छवियों को लेखकीय/पाठकीय चेतना पर इतना हावी क्यों होने दिया जाए कि बदलते वक्त के अनुरूप उनकी स्थिति/अस्तित्व/महत्व/प्रासंगिकता में आवश्यकतानुसार परिवर्तन न किया जा सके? वैश्वीकरण, उपभोक्तावाद, मीडिया द्वारा जबरन फेंकी गई सूचनाएं, जागृति, गरीबी के बावजूद क्रमशः उन्नत होता जीवन स्तर और एन जी ओ तथा अंततराष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की बढ़ती सक्रियता – ये विविध कारक हैं जिनके संगठित एवं समन्वित प्रयासों ने झोंपड़पट्टी के व्यक्तितव और चरित्र में अंतर तो किया ही है। आज मुर्दाघरका राजू दो-दो बीड़ी का जुआ खेल कर वक्त काटने की बजाय पढ़ लेना चाहता है। बेशक सामान्यीकरण की कोशिशें सच्चाई से मुंह मोड़ने की पलायनवादी कवायदें होती हैं, लेकिन इन्हीं झोंपड़पट्टियों में शिक्षा की बढ़ती सुविधाएं एवं आंकड़े क्या इस तथ्य के गवाह नहीं? इसलिए जब पहली बार मधु कांकरिया कोलकाता के सियालदह और मौलालीं फुटपाथ पर बसाई गई अस्थाई बस्ती की जवान होती बच्चीको लैम्पपोस्ट की धुंधलाती रोशनी में पढ़ते दिखाती हैं तो एक क्षीण सी आशा की ओर इंगित नहीं करतीं, पुख्ता संकल्प को रेखांकित करती हैं कि ’’मैं मदर टेरेसा बनूंगी।’’ (पृ0 152) मदर टेरेसा बनने का संकल्प खामख्याली नहीं, अपने बदतर हालात को समझने-सुधारने और बृहद् मानवीय समाज से जोड़ने की ललक का द्योतक है। हो सकता है यह कल्पना लेखिका का यूटोपिया कह कर नजरअंदाज कर दी जाए, लेकिन उन समाजशास्त्रीय सर्वेक्षणों का क्या किया जाए जो दिल्ली की दो झोपड़पट्टियों – हैदरपुर तथा लाल कुआं में रहने वाले लड़के-लड़कियों के वैचारिक जागृति से परिपूर्ण सामूहिक प्रयासों को दर्ज करते हैं। हैदरपुर बस्ती की बारहवीं कक्षा की छात्रा राजेश्वरी और लाल कुआं बस्ती की साधना, दीप्ति, आरती अपने अन्य साथियों के साथ मिल कर हैदरपुर दर्पणतथा लाल कुआं दर्पणअखबार निकाल रही हैं। हस्तलिखित! तात्कालिक महत्व के मुद्दों से लेकर विचारोत्तेजक संवेदनशील मुद्दों की रिपोर्टिंग और संपादकीय ताकि जे जे बस्ती की बुनियादी जरूरतों की ओर ध्यान आकर्षित कर सके प्रशासन का, चिंतकों-समाजविदों का, संभ्रांत जगत का। वक्त के बीचोंबीच तमाम अमानवीयताओं से पंजा लड़ाने को बढ़ा यह हाथ तो कम से कम यूटोपिया नहीं।
मधु कांकरिया की दूसरी आपत्ति यह है कि यथार्थवादी बनने की धुन में नेतृत्व और आदर्श की प्रतिष्ठा करने की वक्ती जरूरत को नजरअंदाज करने का प्रचलन क्यों? हर युग को मसीहा की जरूरत है और मसीहा कोई अलौकिक अवतारी पुरुष नहीं, अपनी प्रारंभिक अवस्था में उसी मिट्टी-पानी से सिरजा कमजोर पराजित प्राणी होता है। फर्क इतना है कि सबके साथ जुड़ कर वह मिट्टी को फौलाद बना डालने का हौसला भीतर की असमाप्त खदान से खोदता चलता है। इसलिए पत्ताखोरमें नशेड़ी आदित्य का उपचार डिटोक्सीफिकेशन का कृत्रिम उपाय नहीं, मनुष्य का अकृत्रिम संसर्ग ही कर पाता है। आदित्य पाता है कि गंदगी, अभाव और संत्रास के बावजूद झोंपड़पट्टी मिली-जुली संस्कृतियों की पारदर्शी बस्ती है’ – अपनी ही लय-ताल एवं गति में सहजीवन जीते हुए पवित्र और समग्र’’। बेशक यहां के हताश बाशिंदे जीवन के संघर्ष से घबरा कर आत्महत्या कर बैठते हैं, लेकिन आत्महत्या के लिए सन्नद्ध आदित्य यहां जिंदगी के तिलिस्म में बंधता चला जाता है – क्या इसलिए कि ’’ये शुद्ध वर्तमान में जीते हैं जहां जिंदगी की मूलभूत समस्याओं – रोटी और कपड़े का जाल ही इस कदर बिछा रहता है कि इनके यहां मानसिक समस्याओं को घुसने को लिए जगह ही नहीं मिल पाती है? या कि सहजीवन से उपजा सहभाव का जादू इनके भीतर के हर वैक्यूम को भर देता है? (पृ0 165) आदित्य ही नहीं, लेखिका भी चकित हैं कि कर्म और लगन से दिपदिपाती इन झोपड़पट्टियों को जड़ता, आलस्य और नैराश्य का पर्याय क्यों बना दिया जाता है? क्या इसलिए कि इनके पक्ष को निकट से देख-गुन-जी कर प्रस्तुत करने वाला कोई नहीं? सभी बाहरी व्यक्तिकी तरह एकांगी घुसपैठभर कर पाते हैं – अपनी-अपनी दृष्टि एवं लक्ष्य से बंध कर। आदर्शवादी प्रेमचंद की पांत में खड़ी होकर जब वे आदित्य के नेतृत्व में मोहनबागान खटाल के तमाम बाशिंदों के कल्याण के लिए श्रमिक एवं रिक्शाचालक विकास संघकी स्थापना करती हैं तो खटाल के बाहर की समृद्ध दुनिया से खटाल के भीतर झांकने और जुड़ने का आह्वान भी करती हैं। एक नैतिक दायित्व की पूर्ति!
लेकिन मुख्यधारा की रोशनी, समृद्धि, आनंद और विशेषाधिकार को छोड़ कर क्यों हाशिए की फीकी बेनूरी जिंदगी में झांकना चाहेगा कोई? रूढ़ छवियों और पूर्वग्रहों के सहारे भरी-पूरी जिंदगियों को नकार और विकृति का नाम देकर खारिज करना दरअसल अपनी श्रेष्ठता और सुविधा को यथावत बनाए रखना है। इसलिए अस्वाभाविक नहीं कि लेखकीय सनक कह कर जगदंबा प्रसाद दीक्षित से लेकर मधु कांकरिया तक की आवाजों को अनसुना कर दिया जाए। लेकिन जब झोपड़पट्टियां ही अपनी आवाज सुनाने के लिए खुद ब खुद आगे बढ़ आएं? कब्जा कर लें उस समूचे स्पेस पर जो इंटरनेट के जरिए दिग्-दिगंत तक अपनी आवाज पहुंचाने की लोकतांत्रिक आजादी देता है? दोनों हाथों से अगल-बगल दो अलग-अलग शख्सियतों को थाम लम्बी मजबूत मानव श्रृंखला का निर्माण करे जो अपनी अ-सुखद उपस्थिति से बहुतों की नींद हराम कर दे? बिल्कुल अभी प्रकाशित पुस्तक बहुरूपिया शहरझोपड़पट्टी के पंद्रह से पच्चीस वर्षीय युवक-युवतियों का एक ऐसा ही सामूहिक-समन्वित प्रयास है। दिल्ली की हर बड़ी झोपड़पट्टी – एलएनजेपी कॉलोनी, दक्षिणपुरी, नांगला माँची –  के सायबर मोहल्ला लैब से जुड़ कर इन्होंने अपने परिवेश के द्वंद्व को, विस्थापन और पुनर्वास के दंश को, अपनी नामालूम सी हस्ती की धड़कन को बड़ी शिद्दत के साथ महसूसा है। सिर्फ महसूसा नहीं, संवेदन की सघन संश्लिष्टता को रचनात्मक गहराई भी दी है। डायरी, कहानी और संस्मरण – विधागत सीमाएं जरूर गड्डमड्ड हुई हैं, लेकिन जो पक कर आया है वह 1947, 1984 और 2002 के भारत विभाजन, सिख-दमन और गोधरा कांड के कारण हुई तंत्र की अमानुषिकता और व्यक्ति की निरुपाय विवशता, विस्थापन के फैलते कहर और पुनर्वास के सिकुड़ते असर से किसी भी तरह कमतर नहीं। विस्थापन सिर्फ घरों का तोड़ा जाना नहीं है’’ और न ही विस्थापन ’’जिंदगियों को दीवारों, गलियों, खरंजों और दरवाजों से बाहर ले’’ आना है बल्कि ऐसे लगता है जैसे विस्थापन जिन्दगी की किताब से कुछ आवश्यक पन्ने निकाललेने के बाद ढेर से कोरे पन्नेउसमें जोड़ देना है जिनमें कुछ नया लिखना या नया आकार देना जिंदा रहने के लिए जरूरी हो जाता है। लेकिन विकट प्रश्न तो यह है कि ’’इस नए आकार को शहर अपनी किस समझ में दाखिल करेगा?’’ नांगला माँची झोपड़पट्टी से विस्थापित किए जाने के हादसे ने अजरा तबस्सुम, जानू नागर, राकेश खैरालिया, सूरज राय, यशोदा सिंह, नीलोफर, अंकुर कुमार, लव आनंद आदि इन किशोरों के लेखकीय व्यक्तित्व एवं संवेदना को एक अद्भुत तराश दी है। नांगला माँची बेशक कभी दिल्ली नगरपालिका के नक्शे में प्रगति मैदान से नोएडा को जाती सड़क पर एक ओर पड़ी झील जैसी दलदली जमीन का टुकड़ा भर था, लेकिन ये किशोर जानते हैं इनके माँ-बाप ने इस दलदल को पाटने में अपने खून, पसीने, सपने और सामर्थ्य की आखिरी बूंद तक लगा दी है। अब यह जमीन का बेकार टुकड़ानहीं, उनके होने और जीने का सबूत है, 1979 से अगस्त 2006 तक की सत्ताइस बरस की लम्बी जिंदगी की धड़कनों का साक्षी इतिहास। राशन कार्ड, वोटर कार्ड जैसे जरूरी सरकारी पहचान पत्रा पाकर वैधबन चुकी झोपड़पट्टी है नांगला माँची। उसे ही अब तोड़ दिया जाए क्योंकि दिल्ली को 2015 तक सुंदर होनाहै और इस मुहिम में यमुना किनारे की जमीन पर अप्पू घर, प्रगति मैदान जैसे लुभावने पर्यटन-केन्द्र बनाने हैं; क्योंकि यदि ’’अमरीका का बादशाह बीच में खड़ा होकर देखे तो दिल्ली के सात गेट उसे साफ नजर आएं – दिल्ली गेट, अजमेरी गेट, तुर्कमान गेट, मोरी गेट, लाहौरी गेट, कश्मीरी गेट और इंडिया गेट।’’ (पृ0 152) पुर्नवास के लिए दक्षिणपुरी से 75 किलोमीटर दूर नांगलोई की तरफ फैली सावदा-घेवरा की जमीन। कइयों के लिए 12 या 18 गज जगह तो बहुतेरों के लिए इतनी भी नहीं। निरुपाय हो वे क्या करें? किन्हीं अन्य झोपड़पट्टियों में जा कर सिर छुपाएं? यानी प्रशासन की कवायद झोपड़पट्टियों को खत्म करने की है, उनके बाशिंदों की स्थिति सुधारने की नहीं। यानी दिल्ली के नक्शे पर दाग की तरह उभरी कुछ झोपड़पट्टियां मिटाने की सनक, बेशक अन्य झोपड़पट्टियां आकार में फैल जाएं। सावदा-घेवरा सरीखी नई जगह और दूर-दूर तक अपनी ही वीरानगी से थरथराती नंगी नुकीली जमीन! यहां कोर्ट के फैसले की प्रतीक्षा तक अस्थायी निवास बनाने के लिए तंबू की बल्लियां गाड़ते बुजुर्ग कलेजों में बसी पुरानी हूकें भविष्य में बोले जाने वाला संवाद बन कर जी उठी हैं कि 
’’जब हम यहां आ के बसे तो ये जमीन कैसी थी?’’
’’राख थी।’’
’’बंजर थी।’’
’’राख के सिवा कुछ नहीं था’’
’’जब खाना खाते थे तो मुंह में राख आती थी।’’
’’बीस पच्चीस साल अपनी जिंदगी की पूरी कमाई लगा दी इसे बनाने में।’’
’’कमाई ही नहीं, अपने शरीर की मेहनत भी लगा के इसे बनाया है।’’ (पृ0 110)
लेकिन बीते को वहीं छोड़ नई बसावट में अपने को घुला-मिला लेने की अदम्य जिजीविषा भी उतनी ही तीव्रता के साथ ठाठें मार रही है –
’’ऐसा लग ही ना रहा कि तुम कहीं और से आई हो। तुम तो यहीं की लग रही हो।’’
उनकी इस लाइन ने यशोदा और मेरी इस जगह पर पहले दिन की हिचकिचाहट को दूर कर दिया। मुस्करा कर हम उनकी चारपाई के पास बिछी दूसरी चारपाई पर बैठ गए। नूरजहां बाजी लक्ष्मी नगर ठोकर नंबर 8 में चालीस गज मकान खरीद कर पंद्रह साल से रह रहीं थीं। अब वहां से यहां उन्हें 18 गज जमीन दी गई। अभी वो 18 गज बल्ल्यिों के सांचे में नहीं ढला। आसपास ज्यादा लोग नहीं आए। इसलिए नूरजहां बाजी का दिल नहीं लग रहा है। ’’पर उससे क्या, मैं किसी न किसी तरह लोगों के बीच जगह ढूंढ कर रहती हूं यहां।’’ (पृ0 245)
और घनीभूत विषाद के बीच जीवन के राग को जिंदा रखने की उन्मादी आतुरता भी –
’’नांगला से आ कर रावण इस बार जे जे कालोनी सावदा-घेवरा के बी ब्लॉक में मारा जाएगा। टेंट लग गया है। टेंट लगाने वाले बोले, ’’अब तो हमें यहां जीना है। वहां तो हम सरकार की जगह पर खेलते थे, ये तो अब हमारी जगह है। तो क्यों ना खेलें अपनी पुरानी रामलीला।’’ अभी सब कलाकार बिछड़े हुए हैं पर कुछ भी हो, शुरुआत तो हो ही गई है।’’ (पृ0 147)
एक नहीं, अनेक आवाजों का गुंथा हुआ समूह है बहुरूपिया शहर। अपने-अपने ढंग से जहां-तहां आ कर अपनी-अपनी बात कहते किशोर – सपनों की सिहरन और वक्त को रचने की पुलकन के बीच निजी जिंदगी में अभावों और बाधाओं से चौबीसों घंटे दो-दो हाथ करते। कोई कुरियर ब्वाय है तो कोई एस. टी. डी. बूथ में ऑपरेटर, कोई ब्यूटिशियन है तो कोई सिलाई-कढ़ाई के धंधे में व्यस्त, कोई सर्वे कर्मचारी तो कोई बैंक या छोटी-मोटी कंपनियों का एजेंट। साझा बात एक ही सबमें कि हार मानने और फिसल कर गिरने को तैयार कोई नहीं। न, अंधेरे के बाद अंधेरा नहीं आता। फैलता है भोर का उजाला, अगर ऐन उसी वक्त नींद से बोझिल आंख बंद न हो गई हो। ये किशोर मुस्तैदी से अपनी आंखें खुली रखते हैं, इस भीषण सत्य के कारण कि ’’जो चीज रू बरू नहीं होती, वो नाटकीय लगती है। तो क्या विस्थापन भी नाटकीय है? शायद नाटकीय भी है और रू ब रू भी। असीम जिंदगी में यादों की बनावट कुछ इसी तरह की होती है। हम जिंदगी को शुरु से ही कहानी का रूप दिए हुए जीते हैं।’’ (पृ0 100) इसलिए इनकी रचनात्मकता का स्फोट किन्हीं बासी, ऊबाऊ, यांत्रिक सच्चाइयों का पिष्टपेषण नहीं करता, हार्दिकता और अकलुष सम्बन्धों का सिलसिला बनाए रखता है जहां घनघोर क्षणभंगुरता के बीच आत्मीयता और मनुष्यता सनातन सत्य बन कर उभरती है। साझापन इनकी पहचान है, जीने की मजबूरी और जीवनी-शक्ति भी। इसलिए जानू नागर की कहानी सुरमा दिल्ली काहो या लखमी चंद कोहली की तू रहवे कां हैऔर कृपया प्रतीक्षा कीजिए’, शमशेर अली की मार्मिक कहानी लगते सब गुड्डू की नकल हैहो या यशोदा सिंह की वेरिफिकेशन’ – सबमें एक खास तरह की सोधी गंध व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ कर वर्ग, जाति या समूह नहीं बनाती, मुकम्मल इंसान बनाती है – सृष्टि की अनवरतता का आदिम-अनंतिम सूत्रा। यह हाशिए की मुख्यधारा में घुल-मिल जाने की घुसपैठियाकोशिश नहीं, विभाजनों को नकारने की संगठित लड़ाई है। बेशक बहुरूपिया शहरझोपड़पट्टी के सच को झोपड़पट्टी के दिलोदिमाग के जरिए सामने लाकर साहित्य में पसरे एक भारी वैक्यूम की पूर्ति करता है।
बेशक साहित्य के पास जादुई छड़ी नहीं कि घुमाते ही मनचाहा परिवर्तन ला दे स्थितियों में, लेकिन अदृश्य को दृश्यमान करने, अश्रव्य को मुखर करने का नैतिक एवं कलात्मक बल है उसमें। कलात्मक बल उसके अंकन और आह्वान को कालजयी बनाता है और नैतिक बल क्रियान्वयन की ऊर्जा से भर कर स्वप्न को यथार्थ में बदलने की शुरुआत करवाता है। इसलिए अकारण नहीं कि दिल्ली की दीवारमें उदय प्रकाश कोरोनेशन पार्क से निकल कर राजधानी के कोने-कोने में छा जाने वाले कोढ़ियों, अपंगों, विकलांगों और आधे-अधूरे मनुष्यों का चित्राण करते हैं तो हमें घिनौने व्यक्तित्व के नीचे छुपा कोई अपना-सामनुष्य दीखने लगता है; रोजमर्रा के जीवन में कड़क मोलभाव करके रिक्शाचालकों-मजदूरों का हक मार कर अपनी बुद्धिमत्ता (शाइस्तगी?) पर इठलाने वाला हमारा अहं पत्ताखोरऔर नरककुंड में बासके अकिंचन बेहाल पात्रों के आगे शर्म से पानी-पानी होने लगता है और अपराधियों-स्मैकियों-वेश्याओं से सुलगती घृणा करने वाला हमारा नैतिक दंभ उनकी ढहती जिंदगियों में हमारे वर्चस्व और हस्तक्षेप को देख बौखला जाता है। यकीनन स्लम्स का विस्तार पैसे, ताकत और वर्चस्व का अहंवादी विस्तार है जिसे किन्हीं आवासीय परियोजनाओं द्वारा खत्म नहीं किया जा सकता। खत्म करने के लिए अपने भीतर झांकने की दरकार है जहां झोपड़पट्टियों को बनाए रखने की मक्कारियां अनेक चक्रव्यूहों को गुनती-बुनती रहती हैं। चुपचाप!
     
 

रोहिणी अग्रवाल

सम्पर्क-
मोबाईल -09416053847

रोहिणी अग्रवाल की किताब ‘हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग’ की भालचन्द्र जोशी द्वारा की गयी समीक्षा

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल हमारे समय की चर्चित एवं मुखर आलोचक हैं। उनकी आलोचना में स्पष्ट तौर पर एक वैचारिक प्रतिबद्धता देखी जा सकती है। हाल ही में रोहिणी जी की आलोचना की एक महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग’ वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है इस किताब की समीक्षा की है हमारे समय के चर्चित कहानीकार भालचन्द्र जोशी ने। तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षाकहानी और आलोचना: अपेक्षाओं के द्वन्द्व’        
कहानी और आलोचना: अपेक्षाओं के द्वन्द्व
भालचन्द्र जोशी
हिन्दी कहानी की आलोचना में अभी तक प्रायः यही होता आया कि रचना से पहले उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता की पड़ताल की जाती रही है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो पार्टनर, तुम्हारी पालिटिक्स क्या है? फिर इसका इतना प्रचलन बढ़ा कि वह अपने मूल अर्थ को छोड़ कर, वैचारिकता को छोड़ कर विचार के सामान्यीकरण तक बढ़ गया। इस मूढ़ सामान्यीकरण के चलते विचार को इस हद तक केन्द्र में रखा गया कि वह जिद पर जा कर ठहर गया और संवेदना की अदेखी ही नहीं की गई, बल्कि उसकी अनुपस्थिति को गंभीर शून्यता नहीं माना गया, बल्कि प्रतिबद्धता को नारे में तब्दील करने के कौशल को रचना की प्रभावी उपस्थिति’ का स्वीकार प्रदान किया गया।

कविता में इस जिद और आग्रह के कारण जो नुकसान होने थे वे तो हुए ही लेकिन कहानी में यह दुराग्रह आते ही अधिकांश कहानियों से बल्कि अधिकांश महत्वपूर्ण मानवीय मार्मिकता तक पहुँच रखने वाली कहानियों का धैर्य और विश्वास दरकने लगा। कहानी के लिए हाथ में कलम उठाते ही उसके सामने एक भय पहले सामने खड़ा हो जाता था कि कहानी में संभावना नहीं है हालाँकि रचना फिर भी अपनी संवेदनात्मक सम्प्रेषणीयता गुम नहीं होने देगी फिर भी वह उसमें प्रतिबद्धता के लिए जगह खाली कराने के लिए कहानी की कथावस्तु से धक्का-मुक्की करके संवेदना को कम करके रचनाकार वह जगह तैयार करके उसमें प्रतिबद्धता को स्थापित करता था। इस तरह के भक्तिभाव से रचना में प्रतिबद्धता की मूर्ति स्थापनासे वह इस तरह से संतुष्ट हो जाता था कि चलो, रचना में संवेदनात्मक ज्ञान’ चाहे न हो लेकिन ज्ञानात्मक संवेदना’ तो है। यह संतुष्टि कभी सप्रयास हासिल की जाती थी तो कभी स्वतः आ जाती थी। मकान मालिक के निर्मम और धमकी भरी शैली में जरूरी संवेदना की जगह खाली कराकर वह इस उपलब्धि पर अपनी भीतर के लेखक और संगठन को संतुष्ट कर देता था कि मेरी प्राथमिकता में प्रतिबद्धता’ है और एक प्रतिबद्ध लेखक’ का प्रमाण पत्र हासिल करके खुश हो जाता था। वैचारिक दबाव और आग्रह में मुक्तिबोध की जटिलता’ और विचार’ की अनिवार्य उपस्थिति को जंग लगी तलवार की तरह इस्तेमाल करते रहे। ऐसी रचनाओं की पीठ थपथपाने के उत्साह में आलोचना प्रायः इस बात को विस्मृत करती रही या उनकी ज्ञान की परिधि से बाहर रही कि ज्ञान और संवेदना के जिस अंतर्द्वन्द की बात मुक्तिबोध करते थे उसमें संवेदना की मार्मिक उपस्थिति की उपेक्षा नहीं करते थे। मुक्तिबोध ने अपनी कहानियों में भी अनुभव और यथार्थ की अदेखी नहीं कि बावजूद एक जटिल फैंटेसी में रचना की निर्मिति की प्रक्रिया को, वैचारिकता को उसकी मुनासिब, सहज और उसकी तयशुदा जगह पर रख कर। यही कारण है कि ‘‘साहित्य में भी मुक्तिबोध जैसी प्रतिबद्धताएँ आत्मघाती ईमानदारी के साथ फिर कहाँ देखने को मिलीं।‘‘ (आईने प्रतिबिम्बित अक्स से सवाल कि पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ (पृष्ठ-8) रोहिणी अग्रवाल जब इस प्रतिबद्धता और आत्मघाती ईमानदारी’ की बात करती हैं तो वह भी अपने समय की रचनात्मकता के अक्स को उसकी पक्षधरता की अपेक्षा उसकी उपस्थिति की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में देखती हैं।

दरअस्ल संवेदना और ज्ञान रेल की पटरियों पर दौड़ रहे दो समान्तर पहियों की भाँति हैं। यह ऐसा कुछ है रचनात्मकता संवेदना और ज्ञान को सहयात्री की तरह साथ रखकर अपनी यात्रा पूरी करे। इसमें ध्येय से भटकने का खतरा भी नहीं है और किसी एक ही सीट पर आधिपत्य जमाने या धकेल कर सीट सौंपने की संभावना का खतरा भी नहीं है। मार्क्स के चिंतन को अब इस नए सन्दर्भ में भी देखें जो कि किसानों, मजदूरों और प्रतिबद्ध बुद्धिजीवियों की सत्ता में बड़े बदलाव की सकारात्मकता देख रहे थे। जाहिर है कि इसके पीछे उनकी मंशा सामाजिक अन्याय और श्रमिकों के शोषण के समाप्त होने का स्वप्न था। इस स्वप्न से उपजे सन् 1857 के गदर से लेकर राष्ट्रीय एकता के लिए किए जा रहे आज के संघर्षों  तक (जिसमें कि अब काफी बिखराव और भ्रम की गुंजाइश बन गई है) मुक्तिबोध राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में ही सारी चीजों और स्थितियों को देख रहे थे। रोहिणी अग्रवाल मुक्तिबोध की वैचारिकता’, ‘दार्शनिकता’ और रोमानी आदर्शवाद के साथ जीवन के जटिल, गूढ़, गहन, संश्लिष्ट रहस्यों की बेतरह उलझी महीन परतों की सतत् जाँच की हठपूर्ण, अपराजेय संकल्प को देखती है। इसमें रोहिणी जी एक नया पद सम्मुख रखती हैं –रोमानी आदर्शवाद’ दरअस्ल रोमानी आदर्शवाद को मुक्तिबोध ने नेहरू के भविष्य के स्वप्नों में दाखिल हो कर निकाला था और उस पर भरोसा भी था। जाहिर है कि जहाँ नेहरू का स्वप्न भंग हुआ वहीं मुक्तिबोध भी स्तब्ध और अकेले हो गए। वह स्वप्न भंग एक राजनेता का नहीं, समूचे राष्ट्र का स्वप्न भंग था जो नेहरू की आँख से देख रहा था। ठीक इसी समय मुक्तिबोध वैचारिकता से अधिक दार्शनिकता के करीब आए और अभिव्यक्ति के खतरे’ उठा कर वैचारिकता और दार्शनिकता के सघन तल में जटिल और गूढ़ रहस्यों की परतों को सैकड़ों साल पहले डूबे सर्जनात्मकता के पक्ष में किसी जहाज के मलबे को उलट-पलट कर देख रहे थे और समझ रहे थे। यह पड़ताल विचार के बेहद गहरे और अँधेरे जल में थी इसलिए यह एक किस्म की जटिलता को भी स्वतः सामने रखती है।

रोहिणी अग्रवाल अपने लेखन में नए तथ्यों के साथ मुक्तिबोध की रचनात्म्कता के लिए बहुत खूबसूरत विशेषण इस्तेमाल करती हैं जो एक सार्थक सुख भी देता है। जैसे कि – आत्मघाती ईमानदारी’ और वह भी प्रतिबद्धताओं के साथ। यह साहस सिर्फ मुक्तिबोध में ही था जो अचरज है कि अपने समय की गहरी हताशा से उपजा था। वह जटिल समय आज भी स्वस्थ साँसें ले रहा है। यही कारण है कि मुक्तिबोध आज भी उतने ही जरूरी लगते है अपने हर पाठ में क्योंकि वे देख रहे थे कि ‘‘गरीबी आज भी आम आदमी के ललाट पर श्मशान की निर्जनता और भयावहता की लिपि लिख रही थी।” (लेख-वही, पृष्ठ-9) मुक्तिबोध जिस भयावह भविष्य को देख रहे थे आज बाजार ने मुक्तिबोध की आकुल स्वप्नदृष्टि से ज्यादा भयावह और अपराजेय स्थिति में खुद स्थापित कर रहा है।

हिन्दी में ज्ञानरंजन एक मात्र ऐसे लेखक हैं जो भीतर से बेहद उत्तेजित और उदग्र रहने वाले और वैचारिक चिंगारी को लावा में तब्दील कर देने की प्रभावी क्षमता स्पष्ट कर चुके हैं। बहुत जल्दी वे कहानी में अभिव्यक्ति और भाषा की नवीन प्रस्तुति में शिखर पर पहुँच गए। फिर वे वहीं ठहर गए क्योंकि आगे से नीचे जाने का रास्ता शुरु हो जाता है। लिखते रहने के बाद एकाएक उनका लेखन छूट गया लेकिन फिर भी वे अकेले नहीं रहे और न कभी अपने न लिखने के कारण’ गिनाए। उनके पास जितना लिखा हुआ है, उससे ज्यादा अधूरा लेखन उनके पास धरा है। उनके स्वभाव की फक्कड़ता और भीतर की उदग्र उत्तेजना को कोई ठौर नहीं मिलने का लाभ उनके आलस्य ने उठाया। हालाँकि ठीक इसी बात के लिए वे दूसरों को डाँटते फटकारते हैं। खासकर मुझे उनके गुस्से का अधिक शिकार होना पड़ा क्योंकि मेरा आलस्य उनके आलस्य से बड़ा हो रहा था इसलिए हर बार मिलने पर या फोन पर झुँझलाते रहे कि, – ‘‘उपन्यास जल्दी पूरा करो। तुम हिन्दी में दूसरे ज्ञानरंजन मत बन जाना।” यानी वे अपनी रचनात्मकता पर मानसिक उदासी और दैहिक आलस्य को पहचान चुके थे। अब सम्भवतः वे अपने आलस्य को एंजाय करते हैं। कई बार ऐसा होता है कि मन के भीतर बैठी कोई नकारात्मकता या निष्क्रिय ग्रंथि व्यक्ति को खुशी देने लगती है।
रोहिणी अग्रवाल भी कहती हैं कि ‘‘सादगी ज्ञानरंजन की कहानियों की अप्रतिम विशेषता है।”(ठहरे हुए जीवन का विराट चित्र, पृष्ठ-26) दरअस्ल ज्ञानरंजन की सादगी चेखव और प्रेमचंद की सादगी से बेहद भिन्न है। ज्ञानरंजन सादगी को कहानी का अंतिम निर्णायक बिन्दु स्थापित नहीं करते और न प्रेमचंद की भाँति सादगी से किसी आदर्श की अपेक्षा रचते हैं।

ज्ञानरंजन अपनी सादगी में मानवीय गरिमा अपने उस अनुभव संसार के सामने खड़ा करते हैं, जहाँ किसी लिरिकलनेसया बौद्धिक आतंक के नाटकीय रूपान्तरण की जरूरत भी नहीं है और जगह वे बनने भी नहीं देते हैं। ज्ञानरंजन की तो प्रेम कहानियों के नायक भी परम्परागत प्रेमी की तरह व्यवहार नहीं करते, बल्कि हमेशा एक ठण्डी उदासी या फिर हालात को ले कर एक आक्रोश की लपट लेती हुई उद्विग्नता है। यही कारण है कि ऊपर से न लगते हुए भी ज्ञानरंजन की रचनात्मकता मार्मिक मानवीयता की पक्षधरता को कहानी के रचाव का अदृश्य हिस्सा बनाती है। ज्ञानरंजन की कहानियों में निर्मल वर्मा की कहानियों जैसी अकेलेपन की मोहक और ठण्डी उदासी नहीं है, बल्कि निरन्तर जटिल और अपराजेय होते जा रहे समय को लेकर एक क्रूर ठण्डी उदासी है जो विवशता से नहीं बल्कि समूह की निष्क्रियता से पैदा हुई है। इसलिए ज्ञानरंजन की कहानियों में अपने समय की क्रूरता और आक्रामकता के प्रति एक ध्येययुक्त उद्दण्ड अवहेलना भी है। साथ ही हर कहानी की संरचना का रूपायन है। ज्ञानरंजन के साथ दिक्कत यह है कि वे अपनी अपेक्षाओं के लिए जिम्मेदार के पास एक उपेक्षा भाव से जाते हैं। यही वह अंतर्द्वन्द है जो कहानी के मौन में मुखर का रचाव करती है। इसी से उनका विजन साफ नजर आता है। कहानी के साथ ज्ञानरंजन कितनी भी निर्ममता से पेश आए लेकिन कहानी में अपने विजन की उपस्थिति को ले कर वे बेहद सजग बल्कि अति सतर्क लेखक हैं। यही कारण है कि रोहिणी अग्रवाल ज्ञानरंजन की कहानियों में सादगी देखती हैं सपाट बयानगी नहीं। रोहिणी जी स्थितियों के द्वन्द्वात्मक टकराव को भी अस्वीकार करती हैं, लेकिन मुझे लगता है कि ज्ञानरंजन की कहानियों की स्थितियों की द्वन्द्वात्मकता उनकी कहानी के अण्डरटोन में है। उनकी किसी भी कहानी में सीधे-सीधे उग्र और आक्रमकता नहीं है। इसलिए ये कहानियाँ ‘‘गतिहीन शैथिल्य के बीच से गुजर कर देखे हुए जीवन को देखने का नाट्य करती हैं।” (ठहरे हुए जीवन का विराट चित्र, पृष्ठ-26) इसलिए ज्ञानरंजन की कहानियों में भाषा और शिल्प की जगलरी नहीं है, बल्कि रचाव की अनिवार्यता में विजन’ की तीव्रता और उपस्थिति को सार्थक प्रमाणित करके ही दम लेने का साहस और प्रतीज्ञा है। ज्ञानरंजन की आक्रमकता अन्य कहानीकारों की तरह भाषा से पैदा होकर भाषा में नहीं मर जाती, बल्कि एक धीमी गति की कहानी के विजन के रचाव में अपना आक्रोश प्रकट करते हैं।

बहुत पहले शिव प्रसाद सिंह ने निर्मल वर्मा को लेकर कहा था कि ‘‘मुखौटा मार्क्सवादी और चेहरा एक रूमानी आउट साइडर का”  इसके साथ ही उन्होंने लिखा कि ‘‘इसे वस्तुस्थिति का सही अवरोध ही माना जाए लेखक के प्रति उपेक्षा भाव नहीं, क्योंकि मुखौटा के भीतर जो चेहरा है वही सच्चा है, इसलिए प्रीतिकर भी।”

निर्मल वर्मा की कहानियों में अकेलेपन का एक उजाड़ और विखण्डित परिवार की पीड़ा पूरी मार्मिकता से प्रकट होती है लेकिन ज्ञानरंजन के यहाँ सामूहिक परिवार में भी आंतरिक विघटन की पीड़ा एक डरावने आतंक में ज्यादा मार्मिकता से उद्घाटित होती है। ज्ञानरंजन की कहानियों में चीजों और स्थितियों को लेकर उपेक्षा का सीधे-सीधे व्यंग्य में रूपान्तरण नहीं है, बल्कि व्यंग्य को वे एक आक्रोश के उपकरण और नैतिक हस्तक्षेप का हथियार बनाते हैं। ज्ञानरंजन की कहानियाँ कथन की सघनता के बावजूद शिल्प के प्रति सजग रहती हैं और उसकी अनावश्यक जरूरत को कई बार खारिज भी कर देती है क्योंकि धीरे-धीरे कहानी खुद अपना शिल्प तैयार करने लगती है। इसी के भीतर कहानी अपने होने की सार्थकता भी रख देती है। रोहिणी अग्रवाल भी इस बात को रेखांकित करती हैं। जब कहानी में भाई के प्रति कथन दोहराती है कि ‘‘वह आत्महत्या कर ले और बहुत ही घिसटती हुई निर्मम समस्या का समाधान हो जाए।” (ठहरे हुए जीवन का विराट चित्र, पृष्ठ-27) इस वाक्य ही नहीं, इस कहानी में लेखक को अमानवीय, क्रूर, संवेदनहीनता आदि से बचाने के कोई स्पष्ट प्रयास नहीं है, बल्कि कहानी के सहज बहाव में ही व्यवस्था के बर्बर चेहरे का उद्घाटन है। रोहिणी जी इसलिए इस बात को मार्क करती हैं कि घरके नाम से बिदकने वाला नैरेटर का बार-बार दावा करना कि उसे अपने शहर से घातक लगावहै (अनुभव) या आत्महत्या की पैरवी करते नैरेटर (आत्महत्या) का एक सार्थक आत्महत्याकरने का प्रयास ताकि युगों-युगों तक वह अमर रहे। ज्ञानरंजन एक चौकन्नी सादगी के साथ इस युक्तियों को कहानी में धर देते हैं, क्योंकि इन्हीं के जरिए वे सतह पर दिखते-दिखते अर्थ को धकिया कर उसके गहरे व्यंग्यार्थ की निष्पत्ति और आत्मसार्थकता की तलाश की कहानी बन जाती है।’
रोहिणी जी ने ज्ञानरंजन के बारे में एक बात बहुत महत्वपूर्ण कही है कि उनका नायक चहल-कदमी करते हुए इस कहानी से उस कहानी की जमीन पर आराम से चला आता है।‘ (लेख – वही, पृष्ठ-27) लेकिन मुझे लगता है कि इस चहल-कदमी में पिछली कहानी या कहें पिछले रास्तों के मोह का दुहराव नहीं है। ज्ञानरंजन की कहानियाँ क्रूर और संवेदनहीन होते समाज को लेकर एक पारम्परिक और औपचारिक विरोध दर्ज नहीं करती, बल्कि एक उदग्र विवेक के साथ भाषा की संयम सीमा पर जाकर मुठभेड़ का एक मार्मिक और जीवंत दृश्य प्रस्तुत करती हैं।

संजीव एक ऐसे कथाकार हैं जो अनुसंधान के श्रम को कथा-कौशल में तब्दील करने की कोशिश निरन्तर करते रहते हैं। संजीव खुद अपनी रचनात्मकता को लेकर कहते हैं कि ‘‘मेरे लिए साहित्य कोई निष्क्रिय उत्पाद नहीं है। मनुष्य की ऊर्जा को मनुष्य के लिए इस्तेमाल करते हुए उसे मनुष्य बनाए रखना है।” इसके आगे रोहिणी जी जोड़ती हैं कि ‘‘जनधर्मी साहित्य एवं आन्दोलन पर अगाध आस्था के साथ वे अमेरिकी साम्राज्यवाद और बाजारवाद के मायावी दैत्य को पछाड़ देना चाहते हैं, लेकिन कब और कैसे, नहीं जानते।” इसे रोहिणी जी विफलता चाहे न माने लेकिन एक भ्रमित प्रतिबद्धलेखक के लिए यह कोई सुखद सूचना भी नहीं है। कथ्य की जानकारियों से सम्पन्न सूचना-समूह’ रचना में विश्वसनीयता तो पैदा कर देगा लेकिन उस प्रतिबद्धता उसकी मूल्यवत्ता का संघर्ष सूचना समूह’ के दखल से रचनात्मकता में मानवीय मार्मिकता की उपस्थिति के लिए जगह तंग नहीं करेगा?

जिस मूल्यवत्ता और उसकी यथार्थ के साथ अर्थपूर्ण सम्बद्धता को केन्द्र में रख कर नई कहानीकी पीढ़ी ने पूर्ववर्ती पीढ़ी के प्रति नकार भाव पैदा किया जो लगभग पक्ष रखने के लिए भी किसी अन्य लेखक को अवसर और जगह नहीं दी गई। संजीव के पास कहानी के रचाव और फैलाव की गति के संतुलन का अद्भुत कौशल है। जाहिर है कि वे उपलब्ध सूचनाओं को कहानी के रचाव में इस्तेमाल करते हैं। अब कहानी खुद अपने आपको जब संतुष्ट मानेगी जब उन सूचनाओं में संवेदना का एक महीन तार भी जुड़ा हो। किसी भी व्यक्ति या समाज की कितनी भी प्रामाणिक सूचनाएँ, जानकारियाँ जुटा कर एक कथ्य का हिस्सा बना लें लेकिन उसकी प्रभावी कथ्यात्मक उपस्थिति तब बनेगी जब उस व्यक्ति या समाज से आपका जुड़ाव कितनी देर और कितनी दूर तक का था। ऐसी रचनाओं के लिए एक लम्बे और गहरे लगाव के साथ उस समाज का लम्बे समय तक अंतरंग हिस्सा बन कर रहने पर ही उस रचना में उस समाज, उस समय और उसके सुख-दुख सम्पूर्ण संवेदन-आवेग के साथ प्रकट होते हैं। सम्भवतः इसी बात के संकेत दूसरे सन्दर्भ में रोहिणी जी के इस कथन में मिलते हैं कि, – ‘‘जंगली बहू (प्रेरणा स्त्रोत’ कहानी की नायिका) मुझे उबार लेती है। बताती है कि तिलिस्म और कुछ नहीं, अपने ही अज्ञान और रोमान की मानसिक रचना है, कि तिलिस्म तोड़ना कठिन नहीं होता, कठिन होता है तिलिस्म की मायावी दुनिया छोड़कर खुरदरी जमीन पर खड़े होना।” (प्रतिबद्धता का सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-36)

संजीव की कहानियों में यथार्थ नहीं अति-यथार्थ है। वे देश के किसी भी हिस्से, समाज या व्यक्तियों के बीच उनकी जीवन पद्धति को समझने की कोशिश करते हैं। यही कारण है कि उनकी कहानियों में जीवन यथार्थ उतना सतही नहीं लगता है जैसा और लोग किसी दूरस्थ जंगली इलाके या किसी समाज विशेष में पर्यटकों की-सी उत्सुकता और अनुभव का इस्तेमाल करके अपनी शहरी भद्रता को उनसे एक निश्चित दूरी बनाकर उस समाज को रचना का हिस्सा बनाते हैं उसे समूचे भारतीय परिवेश की स्थितियों और व्यक्तियों के सन्दर्भ में कथा का हिस्सा बनाते हैं।

संजीव जानकारी और सूचनाओं को आरोपित नहीं करते हैं, बल्कि अपनी तरफ से पूरी कोशिश करते हैं कि वे सूचना समूह से निथरा हुआ यथार्थ जीवन यथार्थ की छायाप्रति लगे। कई बार उनकी रचना में यह श्रम ही प्रमुख ध्येय हो जाता है।

संजीव के साथ एक और विशेष बात यह है कि उनकी रचनाएँ ज्यादा यथार्थवादी लगती हैं कि वे अदेखे समाज में जा कर, उनकी पीड़ा और सुख-दुख की, उन अनुभूतियों को अपने समाज या परिवेश में देखते-समझते हैं। इसी से उनका जीवन और अपने समय के प्रति अंतरंगता और लगाव-अलगाव यथार्थ की जमीन पर प्रकट होता है। उपन्यासों में सावधान नीचे आग है’ तथा कहानियों में अपराध’ तथा मैं चोर हूँ मुझ पर थूको’ जैसी अनेक रचनाएँ हैं जो अपने कथ्य को प्रस्तुति की सफलता की अंतिम सीढ़ी पर पहुँचाकर दम लेती है। रोहिणी जी खुद लिखती हैं कि ‘‘संजीव पुरुषों की दुनिया में वर्ग-वर्ण की लड़ाई के बीच अपने फुल फार्म में हैं।” रोहिणी जी यह भी मानती हैं कि, ‘‘वास्तविक अपराधियों की शिनाख्त में असफल रह जाने की पीड़ा के जरिए उभरा व्यंग्य, ‘प्रेतमुक्ति’ में तमाम दीनता के बावजूद विद्रोह की चिंगारियाँ ढूँढने की लालसा हो या कदर’ में अपनी खोई अस्मिता और आत्मभिमान पाने का संकल्प –संजीव की बारीक नजर से समस्या का कोई भी कोण और पक्ष नहीं छूटता।” (प्रतिबद्धता का सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-39)

संजीव हमारे समय के बहुत महत्वपूर्ण और संवेदनशील लेखक हैं। इधर उनके भीतर एक अजीब-सी ग्रंथि बढ़ गई है कि सूचनाओं के समूह का यथार्थ ही रचनाओं का यथार्थ होता है। बहुत हद तक यह सच भी है। संजीव को इस कार्य और श्रम मे महारत हासिल है, लेकिन अभ्यास रचना में यथार्थ की अनिवार्य उपस्थिति को विकल्प की भाँति प्रस्तुत करने की लत घातक होती है। रोहिणी जी का मानना है कि ‘‘स्त्री को लेकर दुविधाग्रस्त हैं संजीव। वे उसे स्त्री से इतर मनुष्य रूप में नहीं देख पाते। बेहद संजीदगी के साथ देखना चाहते हैं, लेकिन चेतना पर कुण्डली मार कर बैठे संस्कार आड़े आ जाते हैं।” (प्रतिबद्धता का सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-38) अब इस जगह दिक्कत यह है कि ऐसी रचनाओं में या ऐसे समय में संजीव का पाला रोहिणी अग्रवाल जैसी स्त्री स्वतन्त्रता की घनघोर पक्षधर आलोचक से पड़ गया है। रोहिणी अग्रवाल स्त्री स्वतन्त्रता को लेकर इतनी सजग, सतर्क और बेहद आक्रामक आलोचक हैं कि पति-पत्नी या महिला-पुरुष की गाढ़ी दोस्ती के बीच स्त्री को लेकर सामान्य से परिहास से भी इतनी आहत और उत्तेजित हो जाती हैं कि उनकी स्त्री-पक्षधरता जिद से आगे जा कर असहमति बल्कि उससे भी आगे जाकर भर्त्सना भाव पर ठहरती है। 

रोहिणी जी ‘मानपत्र’ कहानी के सन्दर्भ में लिखती हैं कि, – ‘‘बाहरी स्थिति में हेर-फेर भले ही दिखाई दे, नियति में फर्क नहीं आता। रो-रो कर तिल-तिल मरती इस पत्नी के प्रति सबकी मुखर सहानुभूति है क्योंकि उसके आँसुओं में रिरियाहट नहीं है, परिवर्तन की ज्वाला नहीं है। कहानी में वह पति दीपंकर को उसकी ज्यादतियों का चित्र उकेर कर मानपत्रदे रही है। विडम्बना! यथास्थितिवाद के पोषण का स्त्री-पक्ष”(प्रतिबद्धता का सर्जनात्मक गान, पृष्ठ-38-39)

संजीव की कहानियों में मध्य वर्ग की स्त्री पात्र प्रमुख या केन्द्र में होते हुए भी वह उस जटिल संरचना से स्त्री की मुक्ति की राह नहीं खोज पाते या उसकी गढ़ी गई नियति पर ऊँगली उठाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि संजीव की कहानियों में स्त्री पात्र कोई विशेष मंशा से ऐसी स्थिति में बरामद होती है जो आत्मकेन्द्रित हो एक अर्थहीन गर्व से भरी हों। संजीव कथ्य के यथार्थ-रचाव में इतने संलग्न हो जाते हैं कि उस भ्रम की निष्ठा में एक अबोध चूक हो जाती है कि वे न चाहते हुए भी स्त्री मात्र या एक स्त्री की समूची दुनिया के दुख-दर्द की ओर पीठ करके बैठ जाते हैं। यही कारण है संजीव की कहानियाँ विशेषकर महिला केन्द्रित कहानियों में अंतर्वस्तु के समान्तर विस्तार का एक मासूम अभाव नजर आता है। संभवतः इसी कारण मनुष्यता के प्रबल पक्षधरता के बावजूद उनकी कहानियों में स्त्री-संसार इतना व्यापक और विस्तारित नहीं है। संजीव के पास मनुष्यता के लिए बहुत समर्पित, सजग और बहुत अर्थपूर्ण बनावट एवं बुनावट की कहानियाँ हैं, लेकिन श्रम से हासिल अपनी सूचनाओं के कथ्यात्मक रूपान्तरण में वे इतने तल्लीन हो जाते हैं कि स्त्री की उपस्थिति अजान, अदेखी रह जाती है। कई बार तो वह परम्परा से हासिल नैतिकता और दार्शनिकता के साथ स्त्री सन्दर्भ में किसी पक्षधरता के अन्तद्र्वन्द्व में भी नहीं पड़ते हैं। संजीव के यहाँ चीजें या तो हैं या नहीं हैं। यही कारण है कि इस असावधानी या चूक का संकेत रोहिणी अग्रवाल भी करती हैं, -‘‘एकाएक आरोहण’ कहानी की एक पंक्ति मेरी स्मृति में अटक जाती है शैला (भूप की पत्नी और नौ वर्षीय महीप की माँ) को ‘‘जाणे क्या सूझा कि एक दिन हयांई से कूद गई सूपिण (नदी) माँ।” यह वही शैला है जिसके साथ भाई के प्रेम के किस्से बेहद नास्टेल्जिक अंदाज से याद करता है नैरेटर रूप। यह वही शैला है जिसके साथ गृहस्थी करते हुए भूप ने खेतों का घेरा ही नहीं फैलाया, बल्कि उसे सींचने के लिए झरने का मुँह भी मोड़ दिया। प्रेम और श्रम के ताने-बाने से सिरजी शैला जाणे क्या सूझाके पागलपन से रची स्त्री नहीं थी कि नदी में कूद कर आत्महत्या कर लेती। शैला ने आत्महत्या की, यह एक तथ्य है, लेकिन शैला ने आत्महत्या क्यों की? इसकी तहकीकात नहीं करता लेखक। (प्रतिबद्धता का सर्जनात्म्कता का गान, पृष्ठ-39)  रोहिणी जी का प्रिय कथन यहाँ भी है कि ‘‘कहानी (लिखना और पढ़ना दोनों) वक्त काटने के लिए खाली बैठे व्यक्ति का शगल नहीं है। साहित्यिक विधा के रूप में कहानी यथार्थ की कितनी ही अचिन्ही और गूढ़ परतों को खोलते हुए जिस सघन संश्लिष्ट अर्थ की व्यन्जना करती है, वह टी.वी. सीरियलों के जरिए उभरते कथा-संसार का विलोम रचती है।” (जड़ता का गुरुत्वाकर्षण और उड़ान की तैयारी के बीच कहानी तंत्र पर बात, पृष्ठ-47)

रोहिणी जी कथावस्तु की अनिवार्यता को लेकर जितनी सजग है उतनी ही शिल्प की उपयोगिता के प्रति लेखक के स्पष्टीकरण की दरकार रखती हैं, जो कथा का हिस्सा बन कर ही आए। वे इस बात पर जोर देती हैं कि कहानी सिर्फ ब्यौरों का संग्रह भर नहीं होती। मेरे विचार से इस बात से कोई भी असहमत नहीं होगा। उनकी इस बात से भी शायद ही कोई असहमत हो कि ‘‘साहित्यिक विधा कहानी पल और पलायन को जीवन मूल्य बनाए जाने वाली हर ताकत का विरोध करती है ताकि जीवन की निरन्तरता के बीच मनुष्य के अन्तर्मन में पलते शाश्वत सत्यों का साक्षात्कार कर सके जो एक ओर अमूर्त मनोवृत्तियों और मनोवेगों के रूप में अभिव्यक्ति पाते हैं तो दूसरी ओर स्थूल तिकड़मों और उष्म सम्बन्धों के संजाल में अपने को बचाए रखते हैं।” (जड़ता का गुरुत्वाकर्षण और उड़ान की तैयारी के बीच कहानी के तंत्र पर बात, पृष्ठ-45)
दरअस्ल इस कहानी (भालचन्द्र जोशी की कहानी ‘पालवा’) का नायक (रोहिणी जी के कथनानुसार नैरेटर) अपनी अबोध जिज्ञासाओं में ही वर्ग भेद, स्त्री स्वतन्त्रता और मानवीय अस्मिता के सवालों से टकराता है लेकिन वह कहानी में कहीं भी हताश नहीं है। दूसरी बात कि ‘‘अलबत्ता इस छोटी-सी वय में भी इतना जरूर जानता है कि ताकत और दमन में गहरा अन्तर्सम्बन्ध है। साथ ही अपनी भीतर पैदा होती इस लालसा को भी स्वाद ले कर भोग लेना चाहता है कि वह भी बड़ा होकर सभी पर हुक्म चलाएगा।” (लेख – वही, पृष्ठ-51)

रोहिणी जी स्त्री स्वतन्त्रता की बहुत सजग और गहरी समझ से भरी जिद्दी लेखक हैं। उनके भीतर स्त्री-स्वतन्त्रता की पक्षधरता इतने आक्रोश और गहरी आसक्ति के साथ मौजूद है कि कई बार वे कहानी की सहज गति में शामिल यथार्थ को लेखकीय टिप्पणी मान लेती हैं। इस कहानी में बिन्नू का चरित्र और उसकी बड़ों को मुश्किल में डाल देने वाली जिज्ञासाएँ एक अबोध मन का सहज प्रकटन है। वह भी बड़ा होकर हुक्म चलाएगा’ की इच्छा खुद की अवहेलना से पैदा हुई क्षण भर की इच्छा है इसमें किसी लालसा को भी स्वाद लेकर भोग लेना चाहता है’ जैसी कोई स्थायी धारणा या ग्रन्थि नहीं है। वह क्षण का सच है। एक अबोध बच्चे के मन में पैदा हुआ क्षण का सच। वह भविष्य में निर्धारित करता समय का निर्णायक सच नहीं है। एक अबोध मन की सहज प्रतिक्रिया जो अपने बचपन की मासूमियत के चलते, खासकर गाँव के सामंती माहौल में अपने प्रतिकार का हिस्सा है। 

इसी प्रसंग में मैं रोहिणी जी के इस कथन का उल्लेख करना चाहूँगा कि ‘‘समाज में जो हो रहा है उसे यथावत दिखा देना ही क्या साहित्य है?के प्रश्न के जवाब में यही कहा जा सकता है कि दरअस्ल वह यथार्थ का छायाचित्र नहीं, बच्चे की जिज्ञासाओं और इन्हीं के बीच गाँव में शोषण का गहरा शिकार बनी स्त्री का गद्यात्मक रूपान्तरण नहीं है, बल्कि उसे कथा की तीव्र जरूरत और पुरुष की दमनकारी मानसिकता को कथ्यात्मक हिस्सा बनाकर प्रस्तुत करने की अनिवार्यता थी (चाहे तो कौशल भी कह लें) यह अनिवार्यता उस नास्टेल्जिया से जन्मी है जिससे कथ्य और भाषा के अन्तद्र्वन्द्व में शिल्प नास्टेल्जिया से पाठकीय सजगता का नाता भी नहीं टूटने देता है। सम्भवतः यही वजह है कि रोहिणी जी कहती हैं, – ‘‘मैं सोचती हूँ भालचन्द्र जोशी के कहानी संग्रह पालवाके सन्दर्भ में मुझे कहानी के तंत्र की ये तमाम बारीकियाँ क्यों याद आ रही है? क्या इसलिए कि कोई भी समर्थ रचना जिस अनायास भाव से जीवन की संश्लिष्टता का अवगाहन करती हैं, उसी अनायास भाव से और किंचित अधिकार पूर्वक भी, अपने पारम्परिक फाॅर्म में हस्तक्षेप करते हुए उसे समृद्ध भी करती चलती है ? लेकिन फिलहाल मैं पालवाकहानी के रेशे-रेशे में बुने नास्टेल्जिया से अभिभूत हूँ जो मुझे दूर कहीं दृष्टि ओझल होती पगडंडियों में छूटे बचपन की स्मृतियों में ले जा रहा है।” (जड़ता का गुरुत्वाकर्षण और उड़ान की तैयारी के बीच कहानी तंत्र पर बात, पृष्ठ-49)

मैं सोचता हूँ, दरअस्ल ऐसी कहानियों का एक अपना खतरा भी है कि मामूली-सी बहक या पात्रों से निजी मोह इतने जतन से सँवारी और कठिन बुनावट से तैयार कहानी की आंतरिक संरचना, जिस पर कहानी के कहे को छिपाने और अनकहे को उद्घाटित करने की जरूरी जिम्मेदारी है, को खण्डित कर देगा। इसलिए इस कहानी में ऊपर से सब कुछ ढँका हुआ लगता है और भीतर से उघड़ा हुआ। बच्चे बिन्नू की निर्भिकता में उसे अबोध मन की शक्ति का साथ है। रोहिणी जी इसे दूसरी तरह से स्वीकार करती हैं कि, – ‘‘पालवा कहानी की ताकत यही है कि वह विलुप्त होती ईमानदारी और निर्भीकता दोनों को धारदार औजार की तरह इस्तेमाल कर विघटनकारी मौजूदा समाज व्यवस्था की खुर्दबीनी जाँच करने लगती है। न किसी भी तरह का रोमान नहीं। न ही पूर्वग्रह कि पुराना सब अच्छा, नया सब गर्हित। यथार्थ की खुरदरी जमीन पर खड़े होकर वह बिन्नू की मासूमियत से उपजे नोकदार सवालों को हवा में उछाल देती है कि, -‘‘अरे! इनका (बड़ों का) ऐसा करना बुरा है या मेरा पूछना? जब इनकी कोई बात बुरी होगी, तभी तो मेरा पूछना बुरा होगा।” (जड़ता का गुरुत्वाकर्षण और उड़ान की तैयारी के बीच कहानी तंत्र पर बात, पृष्ठ-50)

रोहिणी जी की इस बात से आसान सहमति बनती है कि भालचन्द्र जोशी बिन्नू को नैरेटर बनाते हैं क्योंकि जिस सिस्टम के दोगले और अमानवीय तंत्र को वे कहानी में उद्घाटित करना चाहते हैं, बिन्नू अपनी अबोधता के कारण उस सिस्टम का हिस्सा नहीं है, और इस प्रकार बेहद वस्तुगत ढँग से वह उस पर टिप्पणी करता है। दूसरे बच्चे की आब्जर्वेशन पावर वयस्क के मुकाबले कुछ अधिक प्रखर होती है जो नजरअन्दाज कर देने वाली दैनंदिन सच्चाइयों को पूरी भयावहता और परिप्रेक्ष्य के साथ उजागर करती है।” (लेख-वही, पृष्ठ-50)

इस कहानी की पड़ताल में रोहिणीजी की उस आलोचना दक्षता का बड़ा दृश्य निकल कर आता है जो इस तरह की रचनाओं की अपेक्षा में रहता है। ऊपर से सरल लगने वाले वाक्य भीतर कहीं बहुत गहरे अर्थों की पोटली लिए प्रकट होते हैं। फिर उनकी कहानी की जरूरत में उसकी जगह की नाप कर उसकी व्याख्या करती हैं। जिसमें वह किसी प्रकार का लिहाज नहीं पालती हैं। जब वह कहती हैं कि भालचन्द्र जोशी ज्ञानरंजन की परम्परा के समर्थ कहानीकार जान पड़ते हैं।” (लेख-वही, पृष्ठ-58) मेरे लिए यह एक बड़ा काम्पलिमेंट है। किसी भी लेखक को अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी के महत्वपूर्ण, चर्चित, गम्भीर और बड़े कद के रचनाकार की कड़ी में देखा जाता है तो यह उसके लिए निश्चित रूप से खुशी की बात होगी, क्योंकि रोहिणी जी ऐसा कहती हैं तो यह वाक्य एक गहरे विश्लेषण और दक्ष आलोचना दृष्टि से गुजर कर आया है। फिर वह एक लेकिनकी स्थिति निर्मित करती हैं जो समय के संकट और अन्वेषण के द्वन्द्वको खँगालती है।

इस लेकिन में रोहिणी जी इस बात का उल्लेख करना भूल जाती हैं कि ज्ञानरंजन और भाल चन्द्र जोशी की मनुष्यता के पक्ष में वैचारिकी समान है। दोनों की सर्जनात्मकता में मनुष्यता के प्रति गहरी आस्था है और विचार के प्रति निष्ठा भी एक है। यह बात दीगर है कि भाषा के स्तर पर दोनों जुदा हैं जो कि स्वाभाविक भी है और जरूरी भी। रोहिणी जी जिस स्वस्थ-समग्र जंग की तत्परता के अन्वेषणकी बात करती हैं, उसका प्रकटन प्रत्येक रचनाकार के पास भिन्न रहेगा और होना भी चाहिए। महत्वपूर्ण वह विजन है जिसमें यह संघर्ष एक भिन्न जटिलता के साथ समाहित होता है तो वह दोनों की रचनाओं में मौजूद है। ज्ञानरंजन जी को समझ में आ रहा था कि परिवार या समाज आने वाले समय की टूटन की विभाजन रेखा पर खड़ा है। इसी से उनकी रचनात्मकता उदासी से उद्विगनता तक का सफर तय करती है। यही वजह है कि ज्ञानरंजन की भविष्य की पहचान-दृष्टि की परिणति बाद की पीढ़ी ने देखी और भुगती है। ज्ञानरंजन की पीढ़ी का समय, परिवार और समाज की टूटन इतनी गहरी और पृथक्करण इतना उतावला और जटिल नहीं था। एक ही देश, समाज और समय में कारक तत्व भी अलग थे। आज बाजार समय ने सब कुछ एक सार कर दिया है। एक ही समय, देश और समाज में पीड़ा, दुख और संघर्ष के कारक तत्वों को एक कठोर और जटिल समय-केन्द्रपर खड़ा कर दिया है। इसी समय-केन्द्र’ पर दोनों लेखकों के तेवर और उद्विगनता एक है।

बहरहाल एक अच्छे आलोचक के पास पढ़ने और फिर सुनने का कितना धैर्य है और फिर विश्लेषण के लिए कितनी सतर्कता है यह कोई रोहिणी अग्रवाल की आलोचना पढ़ कर समझ सकता है। बहुत महीन-सी लगभग अलक्षित रह जाने वाली बारीक-सी चीजों को भी वे उसकी पूरी सारगर्भिता में पकड़ती हैं और प्रकट करती हैं। ‘‘बेशक व्यंग्य भालचन्द्र जोशी की कहानियों में आंतरिक लय की तहर मौजूद है और इसका टारगेट अपनी क्षुद्रताओं में लथपथ आम आदमी ही है जो अपनी तमाम अकर्मण्यता के बीच इस भ्रांति का शिकार भी है कि पालवा खोदने की जिम्मेदारी भरा काम वह अकेले अपने दम पर कर रहा है।”(लेख-वही, पृष्ठ-57)

रोहिणी अग्रवाल की आलोचकीय दृष्टि बहुत पैनी और साफ है जिससे रचना की अँतडि़यों को टटोल कर रचना का छिपा आशय बाहर निकाल लेने में दक्ष है। बस, दिक्कत तब आती है जब रचना के भीतर एक से अधिक आशय छिपे या दबे हों तब उनकी दक्षता सशंकित होकर अपनी ताकत पर भरोसे का हाथ छोड़ देती है या फिर जो भी आशय उनके हाथ लगता है, उसे वे आलोचकीय कौशल से कुबूलवा लेती हैं। इस कार्य में वे इसलिए निष्णात नहीं हैं कि वे रचना का अर्थ बदल दें, बल्कि इसलिए निष्णात हैं कि अनेक अर्थों में से एक भी अर्थ हाथ लगा तो उससे वे शेष अर्थों तक पहुँच जाती हैं।

इसलिए किंचित भी अचरज नहीं कि एक पाठक की हैसियत से कि क्षुद्र के भीतर घिरते विराट को न देख सकने की अन्तर्दृष्टिकी बात वे कहानीके सन्दर्भ में कह रही हैं या समग्रता में। पालवा’ से ले कर जंगल’ तक जो धैर्य लेखक के पास है उसकी अदेखी आलोचना में क्यों कर हुई? लेखक का काम लिखना है प्राध्यापक की भूमिका में आने का नहीं। जैसा कि मैंने ऊपर भी लिखा है कि इन कहानियों में जितना उजागर है उससे कहीं ज्यादा छिपा हुआ है जो उस पाठकीय श्रम की माँग करता है। जो कहानी में रसवाद’ की उम्मीद रखकर नहीं पढ़ते हैं। पाठक का कान पकड़ कर उसे रचना का ध्येय बताने की अपेक्षा पाठक पर भरोसा करना ज्यादा उचित है क्योंकि पाठक की समझ पर सन्देह करना यानी रचना की निरर्थक जटिलता या नाकामी से उपजी सपाटगी का पक्षधर होना है। पाठकीय भरोसे की पीठ से टिककर लेखक अपने भीतर के तमाम कथ्यात्मक हिडन विश्लेषण में झाँकने और परखने का आमंत्रण भी देता है। रोहिणी अग्रवाल हमारे समय की सबसे महत्वपूर्ण और आलोचना की निर्भिक समझ से भरी बेहद गम्भीर और गहन ज्ञान से भरी खतरनाक आलोचक हैं। जिनके पास आलोचना के नए उपकरण हैं। वह तार्किक ज्ञान भी है जो सिर्फ अध्ययन से नहीं वरन् आलोचना की नवीन जिज्ञासाओं से भरी होने के कारण उन विश्लेषणों से हासिल किया है जेा श्रम इधर के समय में कम ही लोग कर पा रहे हैं।

रोहिणी जी कंटेंट की अपेक्षा फार्म को तरजीह देने की बात करती हैं। वह इस कारण कि उनका मत है कि ‘‘वह फार्म जो रचयिता के रूप में लेखक की घटनाओं और ब्यौरों के दलदल में लिथड़े पत्रकार से अलगाता है और एक दार्शनिक चिंतक के रूप में उसकी भूमिका और महत्ता को सुनिश्चित करता है।” (वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग, पृष्ठ-59) इस बात से किसी को भी इंकार नहीं होगा कि रोहिणी जी ने आलोचना की पृथक भाषा निर्मित की है। जो शास्त्राभ्यासी आत्ममुग्ध जड़ता और महाविद्यालयीन कथित शोध के प्रश्रय में पलने वाली परम्परागत रूढ़ आलोचना भाषा का प्रतिकार रचती है। साथ ही आलोचना-रचना का तृप्ति सुख भी जुटाती है। रोहिणीजी का आलोचना संस्कार उस जटिलता में प्रकट होता है जो सामान्य पाठक या विद्यार्थी को भयभीत कर सकता है लेकिन रचना की जटिलता को तोड़ने के लिए एक दूसरी जटिलता में दाखिल हो कर ही यह सम्भव है। कई बार इससे उलट भी हो जाता है कि रचना का अतिसरलीकरण को व्याख्यायित करने के लिए आलोचना को इसी भाषा की अनिवार्यता सौंपनी पड़ती है।

इस पुस्तक का उल्लेखनीय पक्ष यही है कि यह कहानी पर ही नहीं, वरन् उस पूरी सर्जनात्मक प्रक्रिया की भी पड़ताल करती है जो परोक्ष में रचना का आधार स्थल है। यही कारण है कि रोहिणी जी इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुँच जाती है कि ‘‘सन्दर्भों से जुड़ते ही क्रन्दन और हताशा अपने-आप जिजीविषा और संघर्ष का रूप ले लेते हैं। हर देश काल का मनुष्य मूलतः एक ही है। वह कष्ट से मुक्ति चाहता है। मुक्तिकामी संघर्ष यदि मुक्ति की ओर खुलता है तो भी भय क्या क्योंकि मृत्यु से अंतरंग सन्निकटता ही जिजीविषा को गहराती है। यही जीवन का राग है – सृजनात्मकता से भरपूर।” (वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग, पृष्ठ-70)

रोहिणी जी के पास फैंटेसी को लेकर कोई भ्रम नहीं है और न भ्रम फैलाने की आलोचकीय चतुराई। ‘‘यथार्थ के घुटन भरे माहौल से मुक्ति पाने का मार्ग है कल्पना, अपनी अतृप्त कामनाओं की पूर्ति का माध्यम। भौतिक जगत में वायुमण्डल के अधीन है कल्पना का व्योम – उसके गुरुत्वाकर्षण से बँधा जहाँ परित्राण की इच्छा में जमीन से ऊपर उठने की लालसा भरी दिलेरी तो है, लेकिन गुरुत्वाकर्षण के नियम और दबाव से मुक्त होने की सामर्थ्य नहीं, लेकिन फैंटेसी सबसे पहले वायुमण्डल को चीर कर किसी दूसरे ही ग्रह में जा निकलती है, जहाँ न नियम वर्जनाएँ हैं, न अब तक के पढ़े-सुने तर्क और कार्य-कारण श्रंखला  के दबाव, न ही अपनी भौतिक इयत्ता में अलग-अलग स्पेस और पहचान के लिए चराचर जगत है।(फैंटेसी कपोल कल्पना नहीं, सृजन का औदात्य है, पृष्ठ-72)

इस पूरी कवायद में प्रश्न बार-बार उठता है कि क्या फैंटैसी कहानी-लेखन की सुविधा गली है? या फिर अंतरिक्ष में, पूरे ब्रह्माण्ड में घूमते-फिरते, यथार्थ और कल्पना का घालमेल करने की स्वतन्त्रत हासिल करने की सुविधाजनक युक्ति।

मुझे इस बात का सुखद अचरज है कि रोहिणी जी ने हिन्दी कहानी में फैंटेसी की न सिर्फ पक्षधरता रखी बल्कि उसे प्रमाणित भी किया। मेरी तो खुद यह मान्यता है कि फैंटेसी दो धारी तलवार पर चलने जैसा काम है क्योंकि रचना में यह एक या दो वाक्यों से रचना को सहारा देना पर्याप्त नहीं है। पूरी रचना का भार आसानी से, धैर्यपूर्वक और उसकी अनिवार्य उपस्थिति को प्रमाणित करते हुए चलती है तो वह रचना को एक संभाव्य-सफलता तक पहुँचाती है, बल्कि उसके अभीष्ट को सुपूर्द करके आती है। यही कारण है कि यह प्रायः लेखकों-आलोचकों के इस भ्रम और जिद को तोड़ती है कि फैंटेसी कहानी रचाव की सुविधा है। ‘‘यह पागलखाने की पागल हरकतों का कोलाज नहीं” (फैंटेसी कपोल कल्पना नहीं, सृजन का औदात्य है, पृष्ठ-72) ‘‘गहराई में यह यथार्थ की अदृश्य कुटिलता का भयावह विस्तार करती है ताकि आतंक और त्रास की सृष्टि करती व्यवस्था को कई-कई कोणों से देख कर वह उसका और उसके साथ अपने अन्तःसम्बन्धों का रेशा-रेशा विश्लेषण कर सके।” (फैंटेसी कपोल कल्पना नहीं, सृजन का औदात्य है, पृष्ठ-72)

हिन्दी कथा आलोचना में कम ही या लगभग ऊँगलियों पर गिने जा सकते वाले ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने फैंटेसी की पक्षधरता में इतनी दृढ़ता से अपना तार्किक बयान लिखित में दिया हो।

दरअस्ल यह पुस्तक सिर्फ कथाकारों, उपन्यासकारों के लिखे को विश्लेषित ही नहीं करती, बल्कि एक आलोचक की सबसे बड़ी कठिनाई को आसान करती है। उसके सुरक्षित आलोचना दुर्ग से बाहर आती है और विश्लेषण को आलोचकीय विचार में भी तब्दील करती है। क्या रक्तरंजित खेल खेलकर ही संस्कृति जनमानस में अपनी जड़ें दूर तक जमा पाती हैं ? यह सवाल ही एक विचार की शक्ल में आया है। सभी को निरुत्तर करने के भरोसे के साथ। फैंटेसी को प्रायः एक जटिल रूपक की तरह देखा जाता है। कहानी को लेकर उसकी जटिलता जो जाहिर है फैंटेसी ने पैदा की है उसकी तह में जा कर अर्थ टटोलने के श्रम की अपेक्षा उसे एक जटिल और अर्थहीनकहन में रिड्यूज किया जाता रहा है। क्या कहानीकार का सारा श्रम एक अर्थहीन की रचना में व्यय किए जाने की नासमझ कोशिश है ? फैंटेसी के रचाव की जटिलता में सार्थकता की तह पर पाठक या आलोचक का हाथ (दृष्टि) नहीं टिक पाता है ? निश्चित रूप से जब एक कहानीकार एक लम्बे धैर्य और श्रम के साथ फैंटेसी को कथारूप के लिए चयन करता है तो वह पृथक से कोई विचार उसमें समाहित नहीं करता है। वह कहानी की आंतरिक संरचना की इसी बनावट की अनिवार्यता की माँग और उसमें रचनात्मक संघर्ष की अभिव्यक्ति के माध्यम का चयन है।

इसी के चलते रोहिणी जी छिन्नमस्ताके सन्दर्भ में ‘‘वक्त के भीतर मानीखेज हस्तक्षेप करने की ताकत रखती हैं, इसलिए एक दूसरे के तालमेल में अपना उल्लू सीधा करते विकास और संस्कृति के मूल मंतव्यों को जानना भी बेहद जरूरी हो जाता है।” के संकेत हो स्पष्ट रूप से पकड़ लेती है। (सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पत्थरों का खेत, पृष्ठ-86)

रोहिणी अग्रवाल की यह पुस्तक इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि इसमें विविधता है। विविधता से मेरा आशय विषय विविधता से नहीं है, बल्कि भिन्न मूड, मिजाज और भाषा-शिल्प के रचनाकारों को उनकी रचनाओं के सन्दर्भ में ही देख कर एक निर्भय पड़ताल की है। मेरे लिए यह बहुत सुखद अनुभव है कि मैत्रेयी पुष्पा जो कहानी या उपन्यास भूमि पर उतरते ही एक गहरे उद्घोष के साथ स्त्री-स्वतन्त्रताका झण्डा गाड़ती हैं। ऐसा नहीं कि यह बुरी बात है लेकिन कुछ समय बाद लेखक अनचाहे भी यह गैरजरूरी उत्साह रचना के रचाव में दुहाराव की स्थिति पैदा कर देता है।
अर्चना वर्मा स्त्री-स्वतन्त्रता की बहुत सजग और स्पष्ट पक्षधर हैं, लेकिन वह अपनी पक्षधरता को कहानी में नारा या परचम नहीं बनाती हैं। उनका कथा-कौशल उनकी निबन्ध-रचनाओं से बिल्कुल भिन्न है वर्ना प्रायः यह होता है कि लेखक की कोई एक पक्षधरता इस हद तक रचना में हस्तक्षेप करती है कि वह कहानी के मूलार्थ को खण्डित करके भिन्न आशय को भी जगह देती है और कहानी प्रायः निबन्धात्मक हो जाती है। ऐसा घालमेल न हो, अर्चना वर्मा इन अर्थों में बेहद सजग लेखिका हैं। अर्चना जी अपने निबन्धों की जटिल भाषा की आक्रमकता (जैसा कि उन पर आरोप लगता रहता है) को कहानी में अपने पात्रों से पहले ही छीन कर अलग धर देती हैं या पात्रों के पास न हो तो अपने पास रचना-सुविधा के लिए सौंपती नहीं हैं। वह कहानी में अपने पात्रों को उनके सहज और वास्तविक माहौल और भाषा के साथ रचना का हिस्सा बनाती है और अपने भीतर बैठे विचारक को चुप्पी का जामा पहना कर कहानी में दाखिल होती हैं जब रोहिणी जी कहती हैं कि ‘‘अर्चना वर्मा की कहानियाँ एक तल्लीन दायित्व-बोध के साथ स्त्री-विमर्श की सैद्धान्तिकी को भारतीय सन्दर्भों में गढ़ती हैं तो दूसरी ओर उतनी ही दृढ़ आतुरता के साथ स्त्री-विमर्श के संग जोड़ दी गई कुछ भ्रामक संरचनाओं को भी निरस्त करती हैं।” (अँधेरे तहखाने में छिपे आलोम वृत्त उर्फ सह सर्जक पाठक संग संलाप, पृष्ठ-96)  इसी कारण अर्चना वर्मा की कहानियों में जो थोड़ी बहुत जटिलता नजर आती है वह कहानीकार की जिद या ललक नहीं है, बल्कि एक जटिल समय की बहुअर्थी और अर्थगर्भित परतों तक पहुँचने का श्रम है, जिसका रास्ता इसी भाषा की जटिलता से जाता है। ऐसे में रोहिणीजी जो खुद भी जिद की हद तक स्त्री स्वतन्त्रता की पक्षधर हैं जो कि कभी-कभी अपनी जिद और भाषा-सामथ्र्य के जरिए असंभाव्य को भी प्रमाणित करने का प्रण ले लेती हैं।

नई पीढ़ी के लेखकों में रोहिणीजी ने अल्पना मिश्र, कैलाश वानखेड़े, सत्यनारायण पटेल, कुणाल सिंह, रवि बुले, चंदन पाण्डेय, तरुण भटनागर, प्रभात रंजन, मोहम्मद आरिफ, वन्दना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, शर्मिला वोहरा आदि की कहानियों की पड़ताल के साथ उनके लिए पीठ थपथपाने की उदारता के बाद वह यह लिखना भी नहीं भूलती हैं कि ‘‘बेहद सजगता के साथ कहानी-दर-कहानी अपने पात्रों के साथ असंलग्नता शायद इसीलिए पुष्ट करता जा रहा है कि – कथाशैली के रूप में कम, अपने बचाव की युक्ति के रूप में अधिक। जब आप किसी के साथ इन्वाल्व ही नहीं तो आप वह’ कैसे हो सकते हैं? आप लेखक हैं, ‘कैरीकेचरबना कर युगीन विकृतियों पर ठठाकर हँसते हुए। शायद यह प्रश्न लेखक को मथता भी हो कि ‘‘कहानी आगे है कि यथार्थ? लेकिन यथार्थ की असंलग्न शिनाख्त करने के बाद कहानी रचने की आत्मपरक तरलता कमोबेश उसमें नहीं (जगमगाहटों में छिपी अँधेरी दुनिया, पृष्ठ-167)

नई पीढ़ी के कहानीकारों में जो सृजन से ज्यादा स्व के प्रकटन की आतुरता का उल्लेख हमेशा होता आया है। मैंसे कहानी को आगे न जाने देने की भूल अंततः कहानी को और फिर लेखक को भुगतनी पड़ती है। रोहिणी जी इसीलिए कहती हैं कि ‘‘अखबार में छपी खबर पढ़ कर अचानक खबर बन गए किसी परिचित की याद आती है उसे और सतह पर डालती घटनाओं के जरिए जिसे कहानी में लगता है, वह जमाने भर की विकृतियों और विडम्बनाओं का लुंजपुंज रूप जरूर होता है, लेकिन अपनी हस्ती को बचाने और पाने के लिए अपनी ही हदों को तोड़ता-बनाता मनुष्य नहीं बन पाता। (लेख-वही, पृष्ठ-163)

नई पीढ़ी के अधिकांश लेखकों के साथ हुआ यह है कि जिस हार्दिक उतावली से उनका (रचनाओं) का स्वागत हुआ, उसी उत्साह से बाद में उनकी समर्थ रचनाएँ सामने नहीं आ पाईं। बाजार की गिरफ्त में उनकी इच्छाओं को निजी लोकप्रियता की गैर जरूरी सर्जनात्मक लालसाओं ने लेखन के अतिरिक्त चर्चा में बने रहनेकी लोभी युक्तियों में फँसा दिया।

अलबत्ता एक बात जरूर रही कि इसी पीढ़ी से या इसके आसपास की पीढ़ी से बहुत सजग, समर्थ और अध्ययन के रास्ते आलोचना-विवेक तक पहुँचे उल्लेखनीय  आलोचक सामने आए।
रोहिणी जी को तमाम विश्लेषणों और प्रशंसा-उपाधियों के साथ यह भी स्मरण रहा कि साहित्य आत्मान्वेषण (एक्सप्लोरेशन) की समुन्नत यात्रा है, अनावरण (एक्सपोज) की क्षणिक मरिचिका नहीं। (लेख-वही, पृष्ठ-162) नई पीढ़ी के लिए यह एक महत्वपूर्ण संकेत-संदेश है, लेकिन प्रायः कुछेक लेखकों के साथ यह हो रहा है कि वे बाजार के खिलाफ लिखने की कोशिश में बाजार की जगमगाहट में दृष्टिचुंधियाने लगती है और कहानी अंततः बाजार की पक्षधर बन जाती है। फिर एक ऐसी किशोर चेतना नजर आती है जो अति उत्साह में रचना को यथार्थ के एक्सप्लोरेशन की अपेक्षा एक्सपोज करने की भ्रामक संतुष्टि हासिल कर लेती है।

रोहिणी जी के पास आलोचना की एक सजग-सतर्क और तीक्ष्ण दृष्टि है तो लेखक की चूक को रेखांकित करने की निर्मम-सी प्रतीत होने वाला विश्लेषण भी है। वे मूल्यांकन और विश्लेषण की महीन-सी विभाजन रेखा पर चहल कदमी करती हैं और सुविधा अनुसार दोनों का लाभ उठाती हैं। आलोच्य रचना के पक्ष-विपक्ष में ईमानदार इस्तेमाल को प्रमाणित भी करती है। यही कारण है कि रोहिणी जी की भाषा फतवा देने की अपेक्षा चुनौती और चेतावनी देती प्रतीत होती है। इसीलिए उनके आलोचना-समीकरण अधिक दूर तक जा कर एक सार्थक आलोचना-भूमि की तलाश में सफल होते हैं जो समीक्षा को न्याय के पक्ष में सर्वमान्य प्रमाणित करती हैं। वे बहुत निर्भय होकर यह भी स्पष्ट करती हैं कि इस बाजार-समय के दमन और शोषण की निर्भिक वाचाल सक्रियता के खिलाफ किसी भी लेखक को खासकर नई पीढ़ी के पास एक स्पष्ट चेतना होनी चाहिए जो आगे जाकर एक निर्भीक प्रतिरोध रचने में सहायक हो तथा बाजार का हिस्सा हो चुके लेखकों की अश्लील स्वीकृति और सहमति के साथ शामिल-उत्सव की एक चुनौतीपूर्ण प्रतिपक्ष रचे।

सबसे उल्लेखनीय इस पुस्तक में मुझे यही बात लगी कि प्रत्येक आलोचना-लेख में एक भिन्न भाषा और पड़ताल की तरीका है। जरूरी होने के बावजूद दुहराव नहीं हैं। वे उस दुहराव की अनिवार्यता के लिए एक भिन्न भाषा में नए मुहावरे के साथ रचना में दाखिल होती हैं। यह एक कठिन कार्य है। जो इस जटिलता को सुलझा लेता है अपनी आलोचना-रचना में पारंगत हो जाता है। महज इसीलिए नहीं कि वह भिन्न रचना के लिए भाषा का भिन्न मुहावरा गढ़ा है, बल्कि साथ ही उस भाषा के भिन्न मुहावरे से परम्परागत प्राध्यापकीय आलोचना से खुद को पृथक भी किया और आलोचना भाषा को समृद्ध भी किया है। 

रोहिणी अग्रवाल की यह पुस्तक आलोचना दुर्गम बीहड़ और उजाड़ में पूरे हासिल की उम्मीद के साथ उतरती है और सर्जनात्मक सार्थकता की खोज के साथ लौटती है। इस पुस्तक में इतिहास-बोध की गम्भीर उपस्थिति और फतवे जारी करने की गैर जरूरी उत्तेजक वाचालता नहीं है। यह पुस्तक एक तरह से आलोचना का भी प्रतिपक्ष रचती है, क्योंकि इसमें परम्परागत आलोचना उपकरणों की अरूचि स्पष्ट दिखाई देती है। इतिहास बोध से जिस आलोचना दृष्टि को विकसित किया है, वह हिन्दी कहानी के विकास के जाने पहचाने रास्ते के अलावा नए रास्तों के खोज की आतुर उम्मीद भी पैदा करती हैं। इसी कारण विरासत से मिली आलोचना दृष्टि को विकसित करने और एक नए आलोचना-व्याकरण के साथ आज की सर्जनात्मकता को देखती-परखती ही नहीं हैं, बल्कि कहानीकारों द्वारा नए शिल्प और भाषा के नाम अलक्षित रखे जा रहे सृजनात्मक प्रमाद को बहुत सहजता से चुनकर अलग कर देती हैं। इसी के सहारे वे नई सर्जनात्मकता की कमियों को उजागर करके उन्हें भविष्य के लिए सचेत भी करती हैं और सप्रयास आ रही लेखकीय चालाकी को पकड़ कर रचना की चालाकी के कपड़े ही नहीं उतारती, बल्कि उसकी देह से उसकी भरमाने वाले चतुराई की त्वचा तक को खींच कर पृथक कर देती हैं। ऐसी निपूर्णता और साहस आज की पीठ थपथपाने वाली आलोचना क्षेत्र में एक बड़ी उम्मीद है।

इस पुस्तक में आलोचना रूचि और चयन की भिन्नता है, लेकिन आलोचना की आस्था असंदिग्ध है।
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समीक्ष्य पुस्तक –
हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग – (लेखक) रोहिणी अग्रवाल
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य – 395/-
 

भालचंद्र जोशी

सम्पर्क –
भालचन्द्र जोशी
एनी‘ 13, एच.आई.जी., ओल्ड हाउसिंग बोर्ड कालोनी
जेतापुर, खरगोन 451001 (म.प्र.)
मोबाइल नम्बर – 08989432087

डॉ0 रोहिणी अग्रवाल का आलेख ‘चुप्पी में पगे शुभाशीष बनाम पचास साल का अंतराल और प्रेम को रौंदती आक्रामकता’

शेखर जोशी

शेखर जोशी के जन्मदिन पर पिछले दिनों आपने उनकी उम्दा कहानी मेंटल पढ़ी। आज हम शेखर जी की कहानियों पर वरिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल का आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। रोहिणी अग्रवाल ने अपने  इस आलेख में शेखर जी की चर्चित कहानी ‘कोसी का घटवार’ का एक तुलनात्मक अध्यययन किया है। इस आलेख को हमने अनहद के शेखर जोशी अंक से साभार लिया है। ज्ञातव्य है कि रोहिणी जी इन दिनों कहानियों के तुलनात्मक अध्ययन के काम में गंभीरता से जुटी हुईं हैं। तो आइए पढ़ते हैं रोहिणी जी का यह आलेख। 

चुप्पी में पगे शुभाशीष बनाम पचास साल का अंतराल और प्रेम को रौंदती आक्रामकता

डॉ0 रोहिणी अग्रवाल
अज्ञेय की कहानीपठार का धीरजसे कुछ दृश्य और संवाद . . .
थोड़ी दूर पर एक स्त्री स्वर बोला, ‘तुम लोग वास्तव से भागना क्यों चाहते हो? कुंवर राजकुमारी को प्यार नहीं करता था।
फिर किसको करता था, हाथी पर सवार होकर रोज राजकुमारी से मिलने आता था तो . . . ”
अपनी छाया को चंद्रोदय होते ही वह कुंड पर आता था, हाथी पर सवार उसकी अपनी छाया कुंड के एक ओर से बढ़ कर दूसरे किनारे नहाती हुई राजकुमारी की जुन्हाई सी देह को घेर लेती थी। उसी लंबी बढ़ने वाली छाया से कुंवर को ऐसा प्रेम था। राजकुमारी तो यूं ही उसकी लपेट में जाती थी।
कुंवर, क्या तुम मुझे ऐसे ही प्यार नहीं कर सकते, . . . उतावली करके उसको नष्ट करना . . ”
धीरज, धीरज! हेमा, मैं तुम्हें चांदनी की तरह नहीं चाहता जो आवे और चली जावे, मैं तुम्हेंमैं तुम्हें . . . अपनी छाया की तरह चाहता हूं, हर समय मेरे साथ, जब भी चांदनी निकले तभी उभर कर मुझे घेर लेने वाली . . . ”
और जब चांदनी हो तक क्या अंधकार मुझे लील लेगा . . . मैं खो जाऊँगी?” राजकुमारी का शरीर सिहर उठा।
तब तुम मुझी में बसी रहोगी राजकुमारी!”
बात का बनना ही उसका सार है, अपरिचित। प्यार में अधैर्य होता है तो वह प्रिय के आसपास एक छायाकृति गढ़ लेता है, और वह छाया ही इतनी उज्ज्वल होती है कि वही प्रेय हो जाती है, और भीतर की वास्तविकता जाने कब उसमें घुल जाती है। तब प्यार भी घुल जाता है। . . . अधैर्य एक प्रकार का चेतना का धुआं है जिससे बोध का एकएक स्तर मिटता जाता है और अंत में हमारी आंखें कड़वा जाती हैं, हमें कुछ दीखता नहीं।
प्रेम विडंबना का दूसरा नाम है।
समर्पण और प्रतिदान के सहारे अपने भीतर की रिक्ति को पूरने के लिए उठी मीठी सी टीस भरी भावहिलोर प्रेम का पर्याय बन सकती थी, लेकिन . . .
. . . यह लेकिन ही तो फसाद की जड़ है।लेकिनएक मामूली शब्द भर नहीं, कितनी ही सत्ताओं के आतंक और दंभ की टंकार है। वर्जना और फरमान बन कर जब यह रागात्मक सम्बन्ध के महीन तंतुओं से बुनी दो अस्मिताओं के बीच जा पसरता है तो हिंसा का नंगा नाच खेलना इसका पहला शौक बन जाता है। उफ! खाप पंचायतों का हैबतनाक खूनी मंजर याद आने लगा है ! और साथ ही उस खूनी मंजर के पक्ष में मूंछों को ताव देने की अड़ियल लंपट मुद्रओं का खौफ भी। बेशक इस समय अपने गृहप्रदेश हरियाणा की खापपंचायतों का आतंक मुझे बौखलाए हुए है, लेकिन जानती हूं जरा सा संयत होते ही मैं अपने देश के कितनेकितने प्रांतों से गुजर कर पाकिस्तान की बर्बर कबीलाई संस्कृति में दफन होती प्रेम कहानियों को सूंघने लगूंगी, और फिर हवा की तरह हल्की हो कर काल की सीमाओं को मिटा दूंगी। हां, मैं जानती हूं स्थूल घटनाएं, अभिनेता और रंगसज्जा बदल देने के बावजूद पात्र और कहानी ठीक वही रहते हैंलैलामजनू को प्रतिस्थापित करते रोमियोजूलियट; हीररांझा के बिखरे सूत्रों को त्रासदी के नए आयाम तक ले जाते यूसुफजुलेखा . . . यह विडंबना नहीं तो क्या है कि हृदयों को आत्मविस्तार की ऊँचाइयों की ओर ले जाने वाला प्रेम अपनी विकासयात्रा के पहले ही पड़ाव पर पुरजापुरजा कट मरता है। तो क्या प्रेम सामाजिक विधिविधानों की अनुमति/सहमति से बनाया जाने वाला एक अनुष्ठान भर है? मनुष्य की सहजात मनोवृत्ति नहीं जो सभी वर्चस्वशाली सत्ताओं को अंगूठा दिखा कर अपना पात्र और समय खुद चुनती है?
लेकिन मैं इन प्रेमकहानियों के हंताओं को देख कर इतना झल्ला क्यों रही हूं? बाहरबाहर देखने में सारी ऊर्जा और एकाग्रता लगाती रही तो रूप बदल कर प्रेम और प्रियपात्र में पर्यवसित होते इन हंताओं को नहीं चीन्ह पाऊँगी।पठार का धीरजकी राजकुमारी हेमा चीन्ह गई बहुत जल्द क्योंकि अमृत रसधार बन कर प्रेम ने उसे आप्लावित किया ही नहीं, अग्निशिखा बन कर लीलने को झटपट पहुंचा। राग और समर्पण की मौन व्यंजनाओं के साथ सहअस्तित्व की मुखर अभिव्यक्ति करने की बजाय राजकुमार वर्चस्व और इच्छा की निरंकुशता से उसके वजूद पर कोड़े बरसाने लगा। ! प्रेम के बदले आक्रांत कर लेने वाले अधिकार को पाकर ठगी सी रह गई है राजकुमारी। शायद प्रेम से बड़ी दूजी कोई छलना नहीं। और प्रेम से बड़ी पाठशाला भी। वह पगलाई सी घूमतीईकोमें अपने दर्द का कोई सिरा पा लेना चाहती है। हर तालपोखर के शांत स्वच्छ ठहरे जल में अपलक अपनी ही छवि निहारते नारसिस को अपनी बाहों में बांध लेने को आतुर ईको . . . लेकिन कैसे तो ध्यानमग्न तपस्वी सा नारसिस अविचलअडोल आत्मलीन है। नारसिस की तल्लीनता से छटपटाती है ईको . . . रात भर बिछोह की पीड़ा में तड़पते नारसिस की व्यथा से कहीं ज्यादा तड़पती है ईको। नादान नारसिस समझता है उसका प्रिय जल में रहता है, और जल प्रकाश की जुगलबंदी के बिना प्रिय से उसकी मुलाकात कराता ही नहीं। नारसिस नहीं जानता अपने से बाहर अपने को पाने की तलाश में मारामारा घूम कर अपने को ही छलनी कर रहा है। नहीं जानता कि अपने ही चारों ओर जिस द्रव को फैला कर रसमग्न घूम रहा है, वह प्रेम नहीं, आत्मप्रवंचना है।
प्रेम में पूरी सृष्टि का विस्तार है और अपनी गहराइयों का आधार भी। लेकिन . . .
फिर वही लेकिन! शेखर जोशी मुझे बरज देते हैंप्रेम हर विडंबना का सहज स्वीकार है। प्रेम है, तभी तो विडंबनाओं के दुर्दांत हस्तक्षेप से अपने को बचाना आसान हो जाता है। प्रेम कोमलता और संवेदना के बहाने मनुष्यता के संरक्षण का पहला और आखिरी नाम है।

मैं यकायक एक गिलास, एक एनेमल का मग और एक अलमुनियम के मैसटिन में बांट कर चाय पीते गुसांई (‘कोसी का घटवार‘), लछमा और उसके पांचछह साल के बेटे को देखने लगती हूं। मिहिल के पेड़ के नीचे पत्तों से छन कर आती छाया में, घट कीखिस्सरखिस्सरध्वनि के बीच, कोसी की छपछप की लयताल में वक्त मानो थम गया है . . . पंद्रह बरस के बाद कैसा तो आकस्मिक मिलन . . . शिकायतें उलाहने . . . वर्तमान और विगत के साथ मानो .स्मृतियां भी दुम दबा कर भाग खड़ी हुई हैं . . . बस, एक प्रगाढ़ रागात्मक सम्बन्ध में बंधे तीन जन . . . अपनीअपनी भूख और परिताप को अपनेअपने ढंग से मिटाते, तृप्त होतेदूसरे को परितृप्त करते वे तीन जन . . . .थमे हुए वक्त में मगर निर्वेद रस की धारासार बरसात हो रही है . . . कितना सुकून और संबल अंकुरा जाता है इस उर्वर जमीन पर . . . और जड़ों का जड़ों से उलझाबिखरा दूर तक फैला महीन पुष्ट तंतु जाल!

एक लम्बे अंतराल के बादचिड़िया ऐसे मरती है‘ (मधु कांकरिया) कहानी के विजय और रेशमा भी मिले हैं। बिछोह का कारण वही सदियों पुरानाजालिम जमाने/परिवार की साजिशों/रंजिशों के चलते प्रिया का ब्याह . . . ससुराल . . .बच्चे . . . प्रिय इस ओर . . . सूनी आंखों से सूना आसमान, सूनी डगर, सूना आगत ताकता . . . परम एकाकी! रेशमा को देखते ही जैसे सूनापन पलक झपकते ही उम्मीद और सपनों के संगसंग झूमते मोहावेश का रूप धर लेता है – ‘चलो दिलदार चलो, चांद के पार चलो विजय के भीतर का लोक अपनी ही ध्वनियों के भीषण कोलाहल से भर गया है जहां हर ध्वनि दूसरी ध्वनि का सिर कलम कर अपनी प्रेमनिष्ठा का सबूत देने के लिए आतुरतापूर्वक रेशमा तक अकेले ही पहुंचना चाहती है। बेहद मुखर है रेशमाप्रिय के परिवारजन की खैरियत की जानकारियां लेते हुए . . . बेहद बेसब्र इंतजार में बौखलाई बड़बड़ाहट के साथ भरा है विजय कि रेशमामां और बहन से निकल कर मुझ तक आए तो मैं उसे बताऊँ कि मेरा प्रेम जैसलमेर के बालू के धोरों सा नहीं, वरन विंध्याचल पर्वत सा है। देख लो, आज भी मैं वहीं और स्मृतियों के उसी घाट पर खड़ा हूं, अकेला। 
प्रेम प्रमाण देने या पाने की प्रतियोगिता नहीं है विजय बाबू”, मैं उस खिन्न, हताश ,कुंठित, पराजित, विद्वेषी आत्महंता युवक के कान में धीमे से फुसफुसा कर अपने पीछे आने का इशारा करती हूं।देखो कोसी का घटवार अब भी मौन तल्लीनता के साथ अर्थगर्भित चुप्पियों को पिए जा रहा है।
 
खंडहर में बसी चुप्प्यिां अपनी निर्जनता और खोखलेपन से घबरा कर परित्राण के लिए दसों दिशाओं में भांयभांय करता शोर गुंजा देती हैं विजय। . . . गुंसाईं को देखो, अपने भीतर मोह और आवेश को मार कर अपनी ही कैद से क्या रिहा हुआ कि वक्त को जीती पूरी सृष्टि उसके भीतर उतर आई। अकेलेपन में आत्मसार्थकता को तलाशना प्रेम की दीक्षा के बिना संभव नहीं।मैं विजय की अविश्वास से भरी आंखों में झांकते बियाबानों में पहाड़ी सोतों की चपलता, कलरव और अमृत रसधारा भर देना चाहती हूं।
गुसांई और विजय प्रेम की दो भिन्नभिन्न परिणतियां मात्र नहीं हैं, दो अलगअलग दृष्टिसम्पन्न लेखकों के व्यक्तित्व का उद्घाटन भी है और एक गहरे दायित्वबो के साथ अपने वक्त को रचने का स्वप्न भी। शेखर जोशी के लिए गहराई, ऊँचाई और व्यापकता के अछोर कोनों से बंधा जीवन महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है एक क्षण, एक टीस, एक पुलक, एक रोमांच, जिसके भीतर गुंथी अनुभूति में जीवन का परम सत्य, निचोड़ और दर्शन अपनी समग्र गहनता के साथ व्यंजित हो उठता है। वे सीधीसरल अनुभूतियों को वाणी देते प्रतीत होते हैं, लेकिन जहां से खड़े हो कर उसे सृष्टि के साथसंवादरतदेखते हैं, वहां वक्त के दरिया से छिटक कर वहअकेलाक्षण जीवन की तमाम संवेदनाओं और सम्बन्धों की संश्लिष्ट जटिलताओं से ओतप्रोत हो जाता है। छोटी सी कहानीसिनारियो‘, ‘उस्ताद‘, ‘बच्चे का सपनाहो यादाज्यू‘, बदबू‘, ‘कविप्रियाऔरतर्पण‘ – ताउम्र अपने साथ रहते हुए भी इंसान कहां अपने को पहचान पाता है? फिर दूसरों को तुरंत एक छोटी सी मुलाकात के बाद समझने का दंभ कैसा? शेखर जोशी की कहानियां संवेदना के सहारे अपनी समझ को विकसित करने की कोशिशें हैं ताकि अपने दायरे से बाहर निकल कर जीवन और मनुष्य के साथ अपनी संगति एक मधुर लयताल के साथ निभाई जा सके। इसलिए सीधी, सरल और स्पष्ट होते हुए भी उनकी कहानियां सतही, इकहरी औरछोटीनहीं होतींजीवन की व्याख्या करतीबड़ीरचनाएं बन जाती हैं।कोसी का घटवारकी ही बात करुं तो एक ही घटना के इर्दगिर्द बुना समय तड़फड़ाताहांफता, गोलगोल घूमता वहीं दम नहीं तोड़ता, अपनी हस्ती का विस्तार कर अतीत के गलियारे में चहकते जीवन के उल्लास का साक्षात्कार कर आता है और फिर उस रुपहले आलोक में अपने बदनुमा अंधेरों को झाड़ने की जुगत में जुट जाता है। नहीं, अंधेरों में घिर कर रोशनियों से रोशन लम्हों का स्यापा नहीं किया जा सकता। आशा, जिजीविषा, उत्साह और उल्लास केकविहैं शेखर जोशी जिन्हें शोर, रोमानियत और दिवास्वप्नों से सख्त परहेज है। वे जानते हैं कठोर यथार्थ आरी की तरह इंसान को चीरता चलता है। यह जीवन की विडंबना नहीं, मनुष्य का सहज प्राप्य है। और यही उसकी संघर्षयात्रा का प्रस्थान बिंदु भी। अपने ही रक्त और आंसुओं से टूटेकुचले वजूद को जोड़ कर उसे अपनी मनुष्यता को बचाए रखना है। गुसांई से शेखर जोशी की अपेक्षाएं बड़ी हैं, इसलिए गुसांई के हौसले और विश्वास भी बड़े हैं। लेकिन पाठक के सामने शेखर जोशी उसेमहामानवकी तरह प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि ठीक उसकी (पाठक) तरह जीवन और नियति के क्रूर झटकों से बिंधे लहूलुहान इंसान के रूप में परिचित कराते हैं जिसके द्वार पर जिंदगी भर साथ देने के लिएसूखी नदी के किनारे का अकेलापनधरना दे कर बैठ गया है। दिग्दिगंत तक फैली भांयभांय करती निर्जनता, ‘रेतीपाथरों के बीचटखनेटखने तक फैला नदी का पानीऔर पहाड़ की उन्नत चोटियों को जेठ के ताप से झुलसाती चिलकती धूपशेखर जोशी वातावरण नहीं बुनते, गुसांई के फटेहाल यथार्थ को बेलाग ढंग से उद्घाटित कर देते हैं, बस। रेतीले मरुस्थल की वीरानगियों में भटकते पहाड़ी आदमी की छटपटाहट . . . यहीं कहीं जीवनदान देती स्मृतियों का एक भरापूरा अतीत है जहां फौजी बन जाने के सपने को पूरा करने की खुरदरी दृढ़ता है और फौजी बन कर उस सपने के इंद्रजाल को जीने की रसनिमग्नता भी। फौजी बनने का सारा संघर्ष मानो लछमा को शान से ब्याह लाने का उपक्रम था। फौजी बन कर (अनाथअनाम होने की तिरस्कारपूर्ण अवहेलना के बरक्स अपनी सुनिश्चित अस्मिता पा कर) गुसांई ने पाई है आत्मविश्वास से लबरेज निश्चिंत लापरवाही। लछमा से क्योंकर ब्याहेंगे लछमा के परिवार वाले? लेकिन नहीं ही ब्याह हो पाया – ”जिसके आगेपीछे भाईबहन नहीं, माईबाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोक पर जान रखने वाले को छोकरी कैसे दे दें हम?” अपने बलबूते अपनी शख्सियत बनाई जा सकती है, लेकिन मुकम्मल पहचान सामाजिक सम्बन्धों और व्यवस्था के मकड़जाल में फंस कर दोदो हाथ करने के बाद ही मिलती है। पंद्रह बरस की फौजी नौकरी के बाद गुसांई बेशक अकेला गांव लौटा है, लेकिन वक्त ने आवेश और आकांक्षाओं के उफान को बांध कर उसे संयमी और विवेकशी बना दिया है। हंसतीखिलखिलाती जीवन के आलोक से भरपूर लछमा के इर्द गिर्द मंगलकामनाओं का रक्षाकवच बुनना उसकी दिनचर्या है और साथ ही गंगनाथ (भगवान) के कोप की आशंका से जूझना भी। वह जानता है गंगनाथज्यू की कसम खाकर लछमा ने उसके लौट आने और किसी अन्य से विवाह करने की प्रतिज्ञा की थी। झूठी कसम खाने का कोप कहर बन कर लछमा पर टूट पड़े . . . वह सर्वांग सिहर जाता है और चाहता है लछमा से एक भेंट कर आग्रह करना कि वहगंगनाथ का जागर लगा कर प्रायश्चित जरूर कर ले। देवीदेवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज करने से क्या लाभ?” अनुभव और सबक के साथ निरंतर वयस्क होती समझ के परिपार्श्व में विगत को गुनताबुनता गुसांई जितेन्द्रिय है, संन्यासी। बस, अपनी सीमाओं को पहचानता है और सामाजिक मर्यादा को भी। हौलेहौले एकएक डग बढ़ाते रहने से भी इंसान दूर तक अलंघ्य दूरियां नाप आता है, गुसांई भले ही जाने, शेखर जोशी खूब जानते हैं, और एक मितभाषी दृढ़ता के साथ पाठक तक अपनी इस समझ को मूल्य बना कर संप्रेषित भी कर देते हैं।
 
और तुम विजय?’ मैंने प्रश्न करती निगाहों से विजय को घूरा, इस विश्वास के साथ कि गुसांई के उदात्त चित्र के बरक्स अपनी लघुता देख पानीपानी हो जाएगा। लेकिन उसकी आंखों में एक अड़ियल अहं भाव था – ‘गुसांई यथार्थ पात्र नहीं है। वह एक रोमानभरी कविकल्पना है जो प्रेम को दर्द और आत्मपीड़न में रिड्यूस कर शहादत का सुख पाना चाहता है।

मैं निर्वाक्! बेशक गुसांई/शेखर जोशी से जमाना अब तक पचास बरस आगे खिसक चुका है, लेकिन इस दौरान मैं भी तो साथसाथ आगे बढ़ी हूं। फिर इस सहयात्रा में विजय जैसी पीढ़ी कब हाथ छुड़ा कर अलग हो गई? या कि नारसिस औरपठार का धीरजके राजकुमार की पीढ़ी एक समानांतर यात्रा तय करती रही और अपनी मान्यताओंमहिमामंडनों को बुननेगुनने की तल्लीनता में हमने उनसे कभी संवाद करने की कोशिश ही नहीं की? और ही जाना कि अकेली, उद्धत, ओवरप्रोटेक्टेड और आत्मकेन्द्रित पीढ़ी संवादहीनता का त्रास झेलतेझेलते संवेदनशून्य हो जाएगी? वैचारिकभावनात्मक टकराहट भले ही कितनी कष्टकर क्यों हो, टूट कर जुड़ने के बाद दूसरे के अहं/वजूद की स्वीकृति केा तो अपने व्यक्तित्व में समा लेती है।

शिल्पगत बारीकियों और संवेदना की व्यंजनाओं के सहारे मैंकोसी का घटवारकहानी की घटनाओं को अध्यापकीय लहजे में उद्घाटित नहीं करना चाहती। स्त्री के प्रति द्वेष रखती विजय (‘चिड़िया ऐसे मरती है‘) की मनोग्रंथि को गुसांई के सहारे खोल लेना चाहती हूं कि दूसरों (स्त्री) का सम्मान करने का बड़प्पन आत्मादर का भाव अर्जित करने के बाद ही पाया जा सकता है।
 गुसांई की तुलना में शहादत का भाव विजय में कूटकूट कर भरा हैअपने को अदृश्य कर देने के जतन में नहीं, अपनी महानता की डोंडी पीटने और प्रतिपक्षी (स्त्री) पर कटाक्ष करने में। यह शहादत कहीं आत्मदया का लिहाफ ओढ़ कर समूची स्त्री-जाति कीव्यावहारिकतापर व्यंग्य करती है – (स्त्रियां) ”अतीत से मुक्त होते ही वर्तमान को साध लेती हैं, इसलिए जिंदगी में हमसे कहीं ज्यादा कामयाब होती हैंतो कहीं एक नैतिक सीख के रूप में अपनी कायरता को ढांपने का जतन करती है – ”मैं आज भी उस रिश्ते को घाटे का सौदा नहीं मानता बल्कि यह मेरे जीवन का वह अनुभव है जिसने मुझे राजा भर्तृहरि की तरह जिंदगी के सत्यअसत्य का अनुभव कराया; जिसने मेरे स्वप्निल मानस, कल्पनाशील आत्मा और इंद्रधनुषी मिजाज पर यथार्थ का गिलाफ चढ़ाया . . . स्वप्न और यथार्थ के थपेड़े खाते वे लम्हे जो मुश्किल से पच्चीस मिनट से भी कम के रहे होंगे, पर जिन्होंने औरत और जिंदगी पर मेरी समझ को पूरी तरह बदल ही डाला था।और फिर अपनीअव्यावहारिकतापर कुर्बान जाती आत्ममुग्धता के साथ प्रेमिका को खारिज करने की उद्दण्डता तो है ही ‘- ”मुझे दुख है कि मैंने उसे खो दिया; पर उससे ज्यादा दुख इस बात का है कि उसने भी अपने आपको खो दिया।एक गहरी आश्वस्ति का भाव कि हमारे बिना तुम्हारी नैया का खेवनहार और कोई कैसे हो सकता था भला!
विजय के लिए प्रेम भीषण गर्मी में कुल्फी का लुत्फ उठाने की ऐयाशी है। बेकारी के दिनों में जब सब कुछ एक ही बिंदु पर ठहर गया है, प्रेम उसे गति का आभास देता है। मारवाड़ी विजय का बंगाली साहित्यानुराग से भर उठना और बंगालन रेशमा का हिंदी साहित्य को कंठस्थ कर डालनादोनों अपनीअपनी जगह प्रेम का कौतुकपूर्ण खेल खेल रहे हैं। लेकिन वक्त की तरह प्रेम भी कभी एक सीध में नहीं चलता। हाथ में अंगारों की लुटिया लिए वह हर कदम पर अग्नि परीक्षा का आयोजन कर डालने को बेताब रहता है। रेशमा की मां कैंसरपीड़ित होती, डॉक्टरों ने उसके जीवन की अधिकतम अवधि छः माह बताई होती, और प्राण त्यागने से पूर्व बेटी के हाथ पीले करने का हठ पाले होती, तो भी प्रेम विजयरेशमा की प्रतिबद्धता जानने के सौसौ अवसर जुटा लेता। फिलहाल वह रेशमा के साथ लाजहया ताक पर धर कर जीने का आधार पा लेना चाहता है।मुझे भगा ले चल” – रेशमा की सोच जितनी स्पष्ट और भविष्योन्मुखी है (रेशमा में पारो की अनुगूंज सुनाई पड़ रही है जो रात के अंधेरे में देवदास के कमरे में आई है और अब उससे अपने पैरों में शरण देने की गुहार लगा रही है), विजय की उतनी ही अस्थिर और पलायनवादी। वह तो आसमान में उड़ती पतंग था, रेशमा के प्रस्ताव ने बिना पेंच लड़ाए उसे काट दिया। औंधे मुंह जमीन पर गिरा तोकमाऊ पूतहोने के बावजूद इतना बड़ा कदम उठाने की हिम्मत जवाब देने लगी। अपनीकापुरुषताको उदारमना पुरुष भी नहीं स्वीकारता। विजय ही क्योंकर स्वीकारे? निम्नमध्यवर्गीय युवक के पास बहानों की कोई कमी तो होती नहीं। विजय चुनचुन कर अपने चारों ओर मजबूरियों की मजबूत दीवार चुन लेने में उस्ताद। मजबूरी नं0 एक, अभाव! ”मैं घर चला आया और देखता रहा अपनी मां और युवा बहन को, वृद्ध होते पिता को। अपने 110 वर्गफीट के सीलन भरे, पलस्तर उखड़ी दीवारों वाले घर को।मजबूरी नं0 दोप्रेयसी को आसमान पर बैठा देने की रोमानियत को ही प्रेम और पुरुषार्थ समझने की हठधर्मिता।तेरे जैसे चांद को इस अंधेरे में कैसे रखूं?” लच्छेदार बातें कभी दूसरे की जमीनी मजबूरियों को नहीं समझ पातीं। मजबूरी नं0 तीनआत्मविश्वास का अभाव।मैं डर गया था, जिंदगी से दूर अपने परिवारजनों के सामने जिंदगी को इतनी जल्दी अपने आगोश में लेने से . . . यदि इस चांद को मैंने धरती पर उतार दिया तो सब कुछ चौपट हो जाएगा।भाग्य कोरी किताब लेकर विजय के सामने उपस्थित है। अपनी तकदीर विजय को खुद लिखनी है, लेकिन वह अपना घोंसला बनाने की कला नहीं जानता। विच्छेद को उसने हाथ पकड़ कर खुद स्वीकारा है। जड़ता और जड़ता! विजय की जड़ सोच देवदास की आत्मघाती रोमानियत में अपने अस्तित्व की सार्थकता देख लेना चाहती है – ”मैं स्वयं अपनी पीड़ा का ईवश्र था, इस कारण नहीं चाहता था कि उसके संसार में मेरे चलते कुछ भी खलबली मचे।देवदास से अलग परदुखकातरता और हितैषी होने के दावे अलबत्ता खूब हैं विजय के पास।
 
गुसांई विस्फारित नेत्रों से विजय को एकटक घूर रहा है – ‘इतना दंभ कि तुमने भाग्य को ठोकर मार दी?’ वह जरा सा उत्तेजित भी हो गया है – ‘या कि तुम रेशमा से प्यार ही नहीं करते थे? रेशमा के बहाने सपनों से खेल रहे थे?’
विजय जवाब देने की कोशिश में हकला कर रह गया।

मातापिता के विरोध की बात दूर, तुमने तो उन्हें सूचित भी नहीं किया।गुसांई का रोमरोम लछमा के पिता की विवाहअस्वीकृति से झनझना गया। , अपमान नहीं, हताशा! किन्हीं नई रणनीतियों को क्रियान्वित करने की आवश्यकता कि वे कन्यादान के लिए राजी हो जाएं। इसके लिए उसे वक्त चाहिए। धीरज और इंतजार  . . . लछमा की तरह गुसांई भी इन दोनों नियामतों की कीमत जानता है। यही वादा ले कर तो वह उस साल छुट्टियां खत्म होने पर पलटन लौटा था। विश्वास की डोर दोनों तरफ मजबूत थी कि परिवार और बिरादरी की सहमति लेकर अपना आशियाना बसा लेंगे वे दोनों।
लछमा की तुलना में रेशमा अधिक साहसी और डाइनेमिक पात्र है, लेकिन उससे कहीं ज्यादा मिजरेबल भी। वह स्त्री की पारंपरिक छविपोटलीहोने की विवशता का प्रतिकार भी है और लछमा की तरह उसका विस्तार भी। आश्चर्य है किकोसी का घटवारपाठविश्लेषण की सर्जनात्मक प्रक्रिया में जहां गुसांई और लछमा दोनों के अंतःराग की कहानी बनी रहती है, वहींचिड़िया ऐसे मरती हैकुंठित विजय को परे धकेल कर हाशिए पर ठिठकी रेशमा को केन्द्र में ले आती है। बेशक दोनों कहानियां आधी सदी के अंतराल को पार कर संवेदना और चिंता के एक ही बिंदु पर जा मिलती हैंपितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था की पड़ताल की जरूरत, गोकि दोनों ही कहानियों में प्रत्यक्षतया इस सवाल को बिल्कुल नहीं उठाया गया है।कोसी का घटवारमें इसलिए किनई कहानीके जमाने मेंमनुष्यकी अस्मिता को प्रकाशितसंवर्धित करने का जज्बा अधिक था, उसे उसके समाज, मनोविज्ञान और भूगोल के केन्द्र में रख कर भीतर तक समझनेविन्यस्त करने की व्याकुलता तब तक नहीं पनपी थी।नई कहानीआदर्श और रोमान का विरोध करने के दावे भले ही करे, तल्ख यथार्थ को उकेरने की छटपटाहट में वह स्टीरियोटाइप्स में अंतर्निहित विडंबनाओं को उलटपलट कर देख जरूर लेती थी, उन्हें झकझोर कर तोड़ने का साहस अपने भीतर नहीं पाती थी। इसलिए स्टीरियोटाइप्स को प्रश्नांकित करने के बावजूद स्टीरियोटाइप्स और अपनाअपना सलीब ढोती विडंबनाएंनई कहानीमें यथावत् बने रहते हैं। इसीलिए ये कहानियां एक मार्मिक हिलोर के साथ पाठक के अंतर्मन को छूती हैं, लड़ने की ऊर्जा से भीतर की आग को लहकाती नहीं हैं।नई कहानीके उलटचिड़िया ऐसे मरती हैमें पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के पुनरीक्षण का सवाल इसलिए नहीं आया है कि मधु कांकरिया अस्मिता विमर्श को बेमानी मानती हैं। प्रचलित सोच के अनुरूप साहित्य को लिंग, धर्म, वर्ग, वर्ण आदि विभाजनों से परे वे एक समग्र बोध का नाम देती हैं जो सारे पाठकों में साधारणीकरण की समान प्रक्रिया उद्बुद्ध कर एक सा आस्वाद कराता है। आज जब शिक्षा एवं जनतांत्रिक चेतना के प्रसार के कारण हाशिए पर खड़ी अस्मिताएं अपने विवेक और दृष्टि से साहित्यिकसामाजिक संरचनाओं को पढ़नेगुनने लगी हैं और परंपरागत दृष्टि सेमनुष्यनाम से सम्बोधित अस्मिता को अपनी शोषक ताकत के रूप में चीन्हने लगी हैं, तब साहित्य को अखंडसमग्र मानने की हठधर्मिता उनके लिएसवर्ण मर्द मानसिकताका पर्याय बन जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि विजय इसी सवर्ण मर्द मानसिकता का प्रतिरूप है। सम्बन्धविच्छेद के लिए अपने पलायन में छुपे नकार को उत्तरदायी मानने की बजाय वहबाजार बनी प्रेमिकापर सौसौ लानतें भेज कर उसे ही कठघरे में खींच लाता है। यह वही शातिर पैंतरेबाजी है जो पहले प्रेम के नाम पर स्त्री काआखेटकरती रही है, और फिर उससे मन भर जाने पर सती बरक्स कुलटा की अवधारणा रच कर उसे गरियाने लगती है।
मैं देख रही हूं, गुसांई ही नहीं, लछमा भी विजय को झिड़क देने के लिए कसमसा रही है। उस बेचारी (रेशमा) का इतना सा कसूर कि रेडीमेड कपड़ों की दुकान परभारी डिस्काउंट का आखिरी दिनकी सूचना पढ़ कर अपने शिशु के लिए कपड़े खरीदने दुकान में घुस गई है; व्यस्त भाव से दुकानदार से मोलभाव कर रही है; और पूरी तरह भूल चुकी है कि दुकान के बाहर उसका भगोड़ा प्रेमी प्रतीक्षा कर रहा है। हो सकता है, भूली हो; उसकी उपस्थिति से बाखबर हो, ठीक वैसे ही जैसे अपने पति के बटुवे की हैसियत से है। चयन का मौका आया तो प्राथमिकता पत्नी धर्म को देकर घरगृहस्थी के खर्चे में कुछ बचत कर लेना चाहती हो। जानती है कि सुघड़ गृहिणी की बचत पूरे परिवार की अतिरिक्त आय बन जाती है। हो सकता है, विगत प्रेमी के चेहरे पर पुती प्रणययाचना उसे लिजलिजी लगी हो – ‘पराए मालपर लार टपकाने की कुत्सित आदिम मनोवृत्ति . . . और अपनी ही हताशा को धोने के लिए वह स्वयं एकांत चाहती हो।
 
विजय प्रतिकार में आगे बढ़ आया है। गर्व से ऐंठी खीझ के साथ उसने हम तीनों को ठोकपीट कर बता दिया है कि अतीत की कोई चांदनी छिटकी हुई थी उसके चेहरे पर और ही वर्षों बाद हुए मिलन की कोई उत्तेजना, लगाव और रोमांच ही था।
लछमा और गुसांई ने एकदूसरे पर भरपूर नजर फेंक कर वितृष्णा से मुंह मोड़ लिया है। क्या कहें इस आत्मकेन्द्रित अड़ियल से? ‘जिंदगी की हकीकतों के सामने इन रोमानी बातों की कोई कीमत नहीं विजय बाबू।अपने पर संयम रख मैं तफसील से विजय को पंद्रह बरस बाद मिले गुसांईलछमा की भेंट के बारे में बताती हूं।
तुम?” जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए।
हां, पिछले साल पलटन से लौट आया था, वक्त काटने के लिए यह घट लगवा लिया।गुसांई ने . . . होंठों पर असफल मुस्कान लाने की कोशिश की।
कुछ क्षण तक दोनों कुछ नहीं बोले। फिर गुसांई ने ही पूछा, ”बालबच्चे ठीक हैं?”
आंखें जमीन पर टिकाए, गरदन हिला कर संकेत से ही उसने बच्चों की कुशलता की सूचना दे दी। जमीन पर गिरे एक दाड़िम के फूल को  हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुड़ियों को एकएक कर निरुद्देश्य तोड़ने लगी और गुसांई पतली सींक लेकर आग को कुरेदता रहा।
 
बातों का क्रम बनाए रखने के लिए गुसांई ने पूछा, ”तू अभी और कितने दिन मायके ठहरने वाली है?”
अब लछमा के लिए अपने को रोकना असंभव हो गया। टपटपटप, वह सर नीचा किए आंसू गिराने लगी। सिसकियों के साथसाथ उसके उठतेगिरते कंधों को गुसांई देखता रहा। उसे यह सूझ नहीं रहा था कि वह किन शब्दों में अपनी सहानुभूति प्रकट करे। इतनी देर बाद सहसा गुसांई का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया। उसके गले में काला चरेऊ (सुहागचिन्ह) नहीं था। हत्प्रभ सा गुसांई उसे देखता रहा। . . . ”
विजय, तुम अपने से अलग रेशमा के वजूद को किसी और के साथ जुड़ा देख ईर्ष्या से फुंक गए . . . और गुसांई . . . लछमा की देह के साथ सट कर बैठे उसके बच्चे को देख कर जैसे उसे लछमा के हिस्से का सारा प्यार उंडेल देने का बहाना मिल गया हो। इसीलिए कहती हूं, प्यार देह की चीज नहीं, हृदय का संवेदन हैलचीला तरल संवेदन। रूप बदल कर कभी वात्सल्य में ढल जाता है, कभी जिम्मेदारी में। मूलतः वह समर्पण ही है।
रेशमा को खुद ही क्रूर जमाने के हवाले कर अब तुम दोनों की दुनिया अलग होने का रोना कैसे रो सकते हो बेटा?’ गुसांई ने स्नेह से विजय को पुचकार दिया, ‘मेरी दुनिया तो समाज ने मिल कर लूट ली थी। फिर भी लछमा मुझसे जुदा कहां हुई?’ लछमा की दीठ में आत्मविश्वास और तृप्ति छलक रही थी।
बेटा, औरत हो या मर्द, किसी के सरोवर का पानी नहीं सूखता। बेमानी है तुम्हारा यह शिकवा किकैसे लहरों के साथ दौड़ने वाली, कविता, स्वप्न और सौन्दर्य में ही विचरण करने वाली एक खरगोश लड़की सिर्फ दालरोटी की ही हो कर रह गई।रेशमा के दर्द में घुली लछमा मानो खुद रेशमा हो गई हो।
 
, अतीत के प्रेत से मुक्ति इतनी आसान नहीं होती बेटा। मर्द हो या औरत, एक सी फितरत लेकर पैदा होता है इंसान। बस, फर्क यह है कि औरत बियाबान में उगे कीकर की तरह आप ही आप अपने सीमित संसाधनों के सहारे जीना सीख लेती है। अतीत की कड़वाहट जहर बन कर उसकी रगों में भी उतर जाना चाहती है, लेकिन अपनी गोद में खेल रहे जीवन को बचाने के लिए वह अतिरिक्त मुस्तैदी से नीलकंठ बन जाती है। अपने ही दर्द का उत्सव मनाने या बदले की झोंक में खून के बवंडर उठा देने की ऐयाशी उसके नसीब में कहां?’ लछमा के आगोश में रेशमा कब दुबक गई, पता ही नहीं चला।
लोभ और हिकारत की नजर से औरत को देखने का संस्कार दिल से निकाल फेंको बेटा। यह तुम जैसों को बहुत छोटा बना देता है।लछमा कुछ ज्यादा ही सख्त हो गई, ‘जान लो कि प्रेम पहलेपहल लोभ का चोला पहन कर ही आता है, लेकिन फिर दृष्टि पाते ही अपना व्यक्तित्व सिरजने आगेआगे बढ़ता रहता है। तुम्हारी तरह उसी बिंदु पर टिक कर खड़ा रहा तो वणिक्बुद्धि से प्रेम और प्रिय के बरक्स अपने लोभ को ही तोलता रहेगा। रेशमा बाजार नहीं बनी बेटा, अलबत्ता तुम बाजार से अलग कभी कुछ हुए ही नहीं।  
मैं बागबाग! लगा यही समय है विजय को बता दूं कि पंद्रह साल के बिछोह के बावजूद लछमा और गुसांई का सरोवर पानी से ही लबालब नहीं भरा, कमलफूलों से भी अटा पड़ा है। कैसा अबूझ संतुलन बैठाया है दोनों ने प्रेम और दायित्च, विगत और वर्तमान में कि अलगअलग जमीन पर खड़े हो कर वे जमीन के नीचे जड़ों के महीन जाल से भी जुड़े हैं और ऊपर आसमान में तैरते शुभाशीषों से भी। एक साथ निःसंग और आप्लावित! कुछ पाने की आकांक्षा नहीं, दे देने की व्याकुलता। दाता होने के बड़प्पनभाव के साथ नहीं, दुखदारिद्र्य दूर कर पाने के एक अनिर्वचनीय संतोष के साथ। लछमा के घर दो दिन से नमकतेल खरीदने के पैसे नहीं हैं, भूख को पेट से बांध कर बेटा उसकी अभावग्रस्तता की डोंडी पीट रहा है और लछमा है कि आर्थिक मदद के लिए पेंशनयाफ्ता गुसांई के बढ़े हाथ को अदब के साथ परे ठेल देती है – ”गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले बेरे दिन निभ ही जाते हैं जी। पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाए। अपनेपराए प्रेम से हंसबोल दें, तो वही बहुत है दिन काटने के लिए।संन्यांसी नहीं है गुसांई। लछमा के नकार ने मानो उसके अस्तित्व और सम्बन्ध दोनों को नकार दिया है। एकदम फालतू और बाहरी हो जाने की प्रतीति! कड़वाहट ने उसकी जबान को कड़ा कर दिया है। अपने हीहोनेपर चाबुक बरसाने लगा है वह – ”दुखतकलीफ के वक्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया तो बेकार है। स्साला! कितना कमाया, कितना फूंका हमने इस जिंदगी में। है कोई हिसाब! पर क्या फायदा! किसी के काम नहीं आया। इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है स्साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी!” तो क्या विजय की तरह खौलतेउबलते वह आत्माभिमान से जगरमगर प्रेयसी को ही गरियाने लगे? विजय की तरह यथार्थ की तीखी लहर ने उसे भी भीतर तक छील दिया है किवर्षों पहले उठे हुए ज्वार और तूफान का वहां (लछमा के चेहरे पर) कोई चिन्ह शेष नहीं था। अब वह सागर जैसे सीमाओं में बंध कर शांत हो चुका था।चौराहा अप्रत्याशित मिलन के अवसर जुटाता है तो बिछोह की पीठिका भी तैयार करता है। हताशा और स्वप्नभंग के बीच गुसांई इस सत्य को जानता है। दोस्ताना भाव से विजय की पीठ पर हाथ रख कर वह उसी के शब्दों में अपने दर्द को साझा कर रहा है कि हां, तुम्हारी तरहभावनाओं का झीनाझीना सा पुल हम दोनों के बीच भी बनने ही लगा था कि तभी (लछमा के प्रतिवाद से) सब कुछ कच्चे कांच सा दरक उठा।लेकिन यह तो निरी एक प्रतिक्रिया है, सरोवर में कंकर फेंकने से उठी एक हिलोर।
तुम क्रियाप्रतिक्रिया को आप्लावनकारी सत्य मान कर पलायन कर गए विजय, मैं उस पल के भीतर डुबकी लगा कर लछमा के द्वीप पर दूर तक तैर आया।
विजय के चेहरे पर आश्चर्य फैल गया। कैसी अनहोनी बात कह रहे हैं गुसांई बाबा। मैं तो वहीं उस पल के ऊपर ठिठका खड़ा रहा और लानतोंमलामतों का कीचड़ फेंकफेंक कर उसे दलदल बनाता गया किक्या यह वहीं रेशमा है जो सारी दुनिया भूल मुझमें डूब जाया करती थी, जो आज इतने वर्षों बाद मिली भी तो क्या मिली।
औरत की दुनिया हम मर्दों की तरह इतनी सीधीसपाट नहीं होती बेटा,’ गुसांई ने आत्मग्लानि से पुते विजय के चेहरे पर स्नेह से उंगलियां फिरा दीं।अपने घेरे से बाहर निकलो तो पाबंदियों में जकड़ी औरतें असीम विश्वास के साथ जीवन को सींचती दीख जाती हैं।
पर बाबा, मैंने रेशमा को बाजार बनते देखा है।प्रतिवाद का हल्का सा स्वर विजय की ओर से।
औरत को इंसान बनने की मोहलत तो हम देते नहीं बेटा, फिर पलपल रूप बदलने की इजाजत कैसे दे देंगे? हां, मायाविनी कह कर हम ही उसे धिक्कारते रहते हैं क्योंकि पलपल उग्रतर होती हमारी लालसाएं उससे क्या कुछ नहीं पा लेना चाहतीं।गुसांई में समंदर का धीरज और अनुभवराशि से अर्जित मनुष्यता का अथाह भंडार!
किसी को दे कर हम खुद को बड़ा या सुखी नहीं करते, पाने वाले को छोटा कर देते हैं। दान ऐसा हो जो किसी को दिखे, बस, हवा और पानी की तरह उसकी जमीन को नम और उर्वर बना दे।
मुझे मानो सवाल का जवाब मिल गया कि क्यों यह कहानीकोसी का घटवारदिल को इतना छूती है। परंपरागत कहानियों सरीखी बिछोह की पीर इसमें नहीं है। होती तो लैलामजनूं आदि के किस्सों की श्रेणी में सूचीबद्ध हो कर स्मृति से उतर जाती लेकिन यह जो कलेजे में इतनी दूर जा कर धंसी है कि अलौकिक सुख बन कर मेरे भीतर कीस्त्रीको पुलकाए जा रही है, वह इसीलिए किदान ऐसा हो जो किसी को दिखे, बस, हवा और पानी की तरह उसकी जमीन को नम और उर्वर बना दे।
, चोरीचोरी बेहद संकोचपूर्वक लछमा के आटे में दोढाई सेर अतिरिक्त आटा मिलाता गुसांई दानवीरता के दावों से बहुत दूर है। अपनी हर कहानी के साथ पात्रों के जरिए पाठक की भावभूमि का उदात्तीकरण करते शेखर जोशी इतने क्षुद्र व्यक्तित्व में गुसांई को विघटित नहीं कर सकते। उनकी नायिका प्रेम के दो बोल पा कर बुरे दिन काटने का हौसला संजोए है तो नायक प्रेम के मर्म को समझ कर जीने का औदात्य। और प्रेम है कि अपनी फितरत से बाज नहीं आता। लम्बे बिछोह के बाद क्षणिक मिलन की घड़ियों में भी अग्निपरीक्षा का सरंजाम! प्रेम के घनत्व के साथसाथ मनुष्यता की गहराई और ऊँचाई मापने के जतन भी। वासना (मांग और रोमानियत, वर्चस्व और भावुकता) को गला कर ही प्रेम दमकता है। विजय प्रणयी याचक की क्षुद्रता से मुक्त नहीं हो पाया है; गुसांई नीर भर बदली बन कर लछमा की दरकी जमीन पर बरस गया है। स्त्री होते हुए भी शेखर जोशी स्त्रीमानस को बखूबी पढ़ लेते हैं। यहां यह कहना बिल्कुल जरूरी नहीं कि स्त्री होने के बावजूद मधु कांकरिया स्त्रीमन के अंदेशों, द्वंद्वों, आशंकाओं और भीतर की सिहरनों को कहानी में कहीं भी व्यक्त नहीं कर पातीं। दरअसल रेशमा को स्त्री/मनुष्य रूप में उन्होंने देखना चाहा ही नहीं। वह कहानी की कल्पना में बाजार यानी एक रिजेक्शन के रूप में उभरी हैस्टीरियोटाइप्स को पुष्ट करती प्रखर सोच के साथ। मितभाषी शेखर जोशी और उनसे भी ज्यादा मितभाषी गुसांई . . . घरघराते कंठ से लछमा को पुकार कर पीठ मोड़ने वाला चुप्पा गुसांई भीतर की हलचल को शब्दों में बांधना जानता है, चेहरे पर पोतना। विजय और मधु कांकरिया दोनों इस कला में सिद्धहस्त हैं। गुसांई प्रेमियों के मनोविज्ञान का अपवाद तो नहीं। मैं विजय के सहारे उसके लछमामिलन के रोमांच को गुनने लगी हूं। शब्द शेखर जोशी के नहीं, मधु कांकरिया के हैं – ”उसकी आवाज में वही प्रेम, वही जादू था और पलक झपकते ही फिर एक आनंद नगरी का निर्माण होने लगा था, जिसमें सिर्फ मैं था और वह थी। उसने कहा, चलिए, कहीं बैठ का चाय पीते हैं। मैं निहाल हो गया। आज बहुत सारा जी लूंगा मैं। थोड़ी देर तक सपनों का एक रंगीन और खुशनुमा टुकड़ा हमारे साथ चलता रहा।
स्त्री के पास कुछ हो हो, छठी इन्द्रिय खूब सक्रिय होती है . . . और वर्जनाओं के बोझ तले उसकी चेतना में सहीगलत का मूल्यांकन करते रहने की चौकसी भी। प्रेमी से मिलने का रोमांच और पतिव्रता होने का दबावतमाम रोमांच भरे आह्लाद के बावजूद संस्कारों की लक्ष्मण रेखा के पार प्रेमीपरपुरुषही रह जाता है। मधु कांकरिया चूंकि रेशमा की ओर से बात नहीं करतीं, मैं लछमा की सिहरन और बढ़ती धड़कन के जरिए विजय की प्रेमातुरता के प्रति रेशमा की रिजर्वेशन को जान जाती हूं। विदा की वेला में गुसांई का स्वर कातर हो आया है। अटकअटक कर वह जिस भावविह्वल स्वर में लछमा का नाम पुकार रहा है, उससे लछमा केमुंह का रंग अचानक फीकाहोने लगा है। गुसांई को चुपचाप अपनी ओर देखते पाकर उसे संकोच होने लगा है। जाने क्या कहना चाहता है‘ – वह मानो अरक्षित हो उठी है। यकीनन भीतर ही भीतर अपने को मजबूत करके प्रेमी की हर ओछी हरकत का प्रतिकार करने का हौसला भी जुटा लिया है उसने।कहीं फिर से प्रणयनिवेदन तो नहीं?’ – खीझ और विरक्ति से सर्वांग कांपा हो तो हैरत की बात नहीं। शर्म से पानीपानी होते हुए गुसांई ने लछमा से निवेदन तो किया ही है – ”कभी चार पैसे जुड़ जाएं तो गंगनाथ का जागर लगा कर भूलचूक की माफी मांग लेना। पूतपरिवार वालों को देवीदेवता के कोप से बचा रहना चाहिए।लछमा ने आश्वस्ति की गहरी सांस ली मानो रिडेम्पशन के इस पल में एक बार फिर गुसांई को पा लिया हो उसने। और गुसांई . . . वह सिहर गया है, प्रायश्चित और वचनभंग की पीड़ा के कारण नहीं, अनावृत्त हो जाने की शर्म से कि जिस प्रेम की अंतरंग स्मृतियों को जीवन का संबल बना कर हृदय की गुह्यतम गहराइयों में छिपा रखा था, वही अब सतह पर सबके सामने प्रकट हो गया है। लेखक ने नहीं बताया कि लाज की आभा से उसका चेहरा सिंदूरी हो गया है, लेकिन यह कोई बताने की बात भी नहीं। सिर्फ समझने की बात है कि गुसांई की लाज में अपने गोपन रहस्य के उघड़ पड़ने से लछमा की लाज भी घुल गई है। समझने की बात तो यह भी है कि इस दोहरी लाज में सम्बन्ध की मिठास और ताजगी बने रहने के आह्लाद की लालिमा भी घुल गई है। कौन कहता है कि दोनों अकेले हैं और रिक्तहस्त रंक भी।
यह सब कुछ ज्यादा ही रोमानी नहीं हो गया?’ विजय मुझे झिंझोड़ देता है।जमाना बहुत तेजी से आगे बढ़ गया है, और आप हैं कि पचास साल पीछे जो गईं तो वहीं जम कर बैठ गईं। आजकल देखिए, फास्ट, सब कुछ फास्टबनाना, तोड़ना, आगे बढ़ना। वी एडोर एक्शन!’
. . . फिर स्पीड़ . . फतवेबाजी. . . हिंसा. . आतंक. . . ”इन्हीं पायदानों पर आगे बढ़ते हो तुम? पीछे लौटना हमेशा पुराना, कमजोर या अप्रासंगिक होना नहीं होता। पीछे बहुत मूल्यवान कुछ छूट जाए तो उसे सहेज कर लाना ही होगाऐसा मूल्यवान जो फिलहाल आचारव्यवहार से गायब हुआ है; पीछे छूटा ही रह गया तो स्मृतियों से भी गायब हो जाएगा। प्रेम के आलोक में अपनी मनुष्यता को बनाए रखने का वरदान।
मैंने देखा, लछमा के कंधे पर सिर रख रेशमा फूटफूट कर रो रही है।मेरे पास दस हाथ हैं मां, बस, एक जोड़ी पांव नहीं। चाहती थी, विजय के पांवों पर खड़ा हो कर दसों हाथों से उसके सिर पर छाए आसमान को चौड़ और चौड़ा कर दूं। पर उसने सुनी ही नहीं मेरी बात! देखी ही नहीं मूझे चीरतीं मजबूरियां! . . . और आज भी . . . ‘
मैं सोच रही थी, जाने किस कुहासे में घिर गए हैं हम। तमाम प्रगतिशीलता और पश्चिमीकरण के बावजूद लड़कियों के पास चलने को लक्ष्योन्मुखी स्वतंत्र पांव नहीं, और दौड़तेफांदते लड़कों के पास मजबूत इरादों से भरे हाथ नहीं। क्या इसलिए कि प्रेम और सम्बन्ध, हृदय और बुद्धि के समन्वयात्मक समंजन को जांचनेसिरजने के लिए शेखर जोशी जैसी आस्थाशील सृजनात्मकता धीरेधीरे चुक रही है? क्या इसीलिएकोसी का घटवारको युवा पीढ़ी की आचार संहिता की प्राथमिक पाठशाला का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए?
सम्पर्क-
डॉ0 रोहिणी अग्रवाल

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग,

महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय,

रोहतक

(आलेख में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

अर्चना वर्मा की कहानी पर रोहिणी अग्रवाल का आलेख


(चित्र: रोहिणी अग्रवाल)
आलोचना उतनी आसान विधा नहीं जितना लोग समझते हैं और तुरत-फुरत लिखने के लिए आसन मार कर बैठ जाते हैं। आलोचना अपने आप में अत्यन्त कठिन कर्म है। रचना के समानान्तर उसका एक प्रति-पाठ तैयार करने की प्रक्रिया होती है आलोचना। आज के दौर में जिन कुछ गिने चुने आलोचकों ने इस कठिन दायित्व का बखूबी निर्वहन किया है उनमें रोहिणी अग्रवाल का नाम अग्रणी है। अपने इस आलेख में रोहिणी जी ने कथाकार अर्चना वर्मा की कहानियों की आलोचकीय पड़ताल किया है। आईए पढ़ते हैं रोहिणी जी का यह आलेख ‘अंधेरे तहखानों में छिपे आलोक वृत्त उर्फ सह-सर्जक पाठक संग संलाप’
     
अंधेरे तहखानों में छिपे आलोक वृत्त उर्फ सह-सर्जक पाठक संग संलाप
रोहिणी अग्रवाल
 
“उसी आवाज में आज भी वही कहती है बार-बार। तलब किसी को नहीं छोड़ती न? हिम्मत नहीं होती न? अपनी ही तलब से जिंदगी भर का डर! अब तो सब देना-पावना चुक गया। अब भी नही तो फिर कब?’  (अर्चना वर्मा, राजपाट तथा अन्य कहानियां, पृ0 56)
          बैठे-बैठै अचानक ख्याल आया कि आचार्य भरत मुनि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ में नाटक और रंगमंच के विविध अंगों-उपांगों पर बात करते हुए दर्शक की भूमिका पर क्यों विचार किया? विचार किया सो ठीक, लेकिन ‘सहृदय’ विशेषण दे कर अच्छी कृति के मूल्यांकन की कसौटियों की तरह अच्छे दर्शक के निर्धारण की कसौटियां क्यों बनाईं? इन कसौटियों को गढ़ने के जुनून में क्या वे भूल गए कि नाटक की सार्थकता मंचन में है और मंचन का अस्तित्व दर्शक की उपस्थिति में? दर्शक सुरुचिपूर्ण लक्ष्मीसम्पन्न संभ्रांत व्यक्ति हो या कुरुचिपूर्ण कदाचारी ऐरा गैरा नत्थू खैरा-टिकट लेकर दोनों जब थिएटर पहुंचते हैं तो अपनी भीतरी-बाहरी असमानताओं के बावजूद दर्शक हैं। चूंकि नाटक दोनों को समान रूप से सम्बोधित है, इसलिए नाट्य कृति की वस्तु और पात्रों के साथ तादात्मीकरण करते हुए दोनों को रसास्वादन की प्रक्रिया को भी समान भाव से जीना है जो आत्मसाक्षात्कार तथा आत्मपरिष्कार के सोपानों से होते हुए औदात्य की भावभूमि तक पहुंचाती है। मैं हठात् यहां थम जाती हूं क्योंकि ठीक इसी स्थल पर मुझे अपने सारे सवाल बेमानी और बचकाने लगने लगे हैं। हां, ठीक कहते हैं भरत मुनि, पैसे और पहुंच के बल पर टिकट (पात्रता) जुटा लेने वाला हर व्यक्ति दर्शक नहीं हो सकता। दर्शक चूंकि रची हुई कृति का पुनर्रचनाकार (भाष्यकार) नहीं है – सृजन कर्म का साझीदार, इसलिए उसे ‘स –हृदय’ (कितनी व्यंजनाए छिपी हैं इस एक विशेषण में! और कितना गहरा दायित्व बोध जो विशेषण को संज्ञा बना कर निरंतर मुस्तैद रखता है!) होना ही होगा। साहित्य-पंरपरा और साहित्य-रूढ़ियों के बुनियादी ज्ञान से ले कर अपनी जड़ताओं (इसे आप व्यक्तिगत पूर्वाग्रह भी कह सकते हैं) का अतिक्रमण कर सकने वाली विवेकशील अंतर्दृष्टि से सम्पन्न होने की अर्हता अर्जित किए बिना वह सृजन कर्म की टेक को उस बिंदु से उठा कर आगे नहीं बढ़ पाएगा जिस बिंदु पर टिका कर रचनाकार स्वयं नेपथ्य में चला गया है। हां, वहीं खड़ा-खड़ा पगुराता रहे तो बात अलग है।

          अविच्छिन्न सी दीखने वाली इस चर्चा को मैं सप्रयोजन विस्तार दे रही हूं। माना जाता है कि हर तरह का पाठक –सुपढ़/ अधपढ़/ कुपढ़/ ऊबा/ अघाया/ सुस्त/ चौकन्ना – वक्त काटने के लिए हाथ आई किसी भी कथा-पुस्तक को पढ़ने और उस पर अपनी आधिकारिक राय देने का अधिकारी है। यह पाठक को प्रौढ़ और परिपक्व मानने की खामख्याली है या कथालोचना के मानदंडों की अनुपस्थिति के कारण उपजी अराजक स्थितिए कहना कठिन है। लेकिन इतना तय है कि गहरी अर्थव्यंजनाओं और यथार्थ की संशिलष्ट परतों के सहारे कितने ही अचीन्हे रहस्यों को खोलता कथा साहित्य संवाद के लिए एक अदद ‘सहृदय’ की बाट जोहता रहता है। खासतौर पर मुख्यधारा से बाहर हाशिए के क्रन्दन और हौसले को ले कर रचा गया साहित्य जो एक ओर अपनी अनूठी (तुर्श?) गूंज के कारण मुख्यधारा के परंपरागत ‘सहृदय’ की संस्कारग्रस्तता और ‘सुरुचि’ को ठेस पहुंचाता है तो दूसरी ओर नसैनी लगा कर किसी अमूर्त आकाश में टंगे अमूर्त औदात्य को छू कर लौट आने की आदत को फटकारता है। इसके बदले वह उसे अंगुल दर अंगुल अपनी शख्सियत को नाप-जांच कर अपने से बाहर निकलना और अपने जैसे अन्यों से जुड़ना सिखाता है। औदात्य किसी अबूझ गुमान में ऊपर उठ कर इठलाना नहीं, सतह पर छिन्न.भिन्न छितराई इकाइयों से जुड़ना और फिर सबके समवेत बल के सहारे एक निर्दिष्ट दिशा की ओर बहेलिए के जाल को उड़ा ले जाना है। इसके लिए चिड़िया होना-न होना जरूरी नहीं, जरूरी है बहेलिए के आतंक से अपने प्राण और अस्मिता को बचाने के प्रयास में तिनका-तिनका जीवन जुटाती चिड़िया की व्यग्रता में छिपी दृढ़ता और जिजीविषा को समझना।
अर्चना वर्मा की कहानियां पढ़ते हुए मैं अनायास उन सारे सवालों (जो वक्त के इतिहास में अब तक आरोपों की तरह दर्ज किए जा चुके है) का जवाब पा चुकी हूं कि क्यों स्त्री विमर्श को गाली और मजाक की तरह ले कर समाज-सृजन के एक गहरे सरोकार को हवा में उड़ा दिया जाता है? मैं आगबबूला होने-होने को होती हूं कि कक्षाओं में पढ़ाई जाने वाली रसिक शिरोमणि श्रृंगारराज विद्यापति-बिहारियों की पंक्तियां स्मृति में कौंध जाती हैं। वाह-वाह करते दरबारियों, और सहपाठिनों के शरीर में टक लगा कर उस ‘कामिनी’ को ढूंढते नई पीढ़ी के होनहारों को देखती हूं तो शर्म, अपमान और क्रोध से ज्वालामुखी के ढेर पर जा बैठती हूं – किसी भी जाहिल औरत की तरह कोसने के लिए कोसती हुई। यह आत्मघाती क्रोध विनाश का कारण हो सकता था, लेकिन मैं इसे संज्ञान का बिंदु बना कर सहेज लेती हूं। अपनी प्रतिक्रियाओं के अक्स में दूसरे को देखने पर समझदारी भरी सकारात्मक दृष्टि जग ही जाया करती है। मैं जान जाती हूं कि संवाद की सबसे ज्यादा जरूरत तो प्रतिपक्षी से ही होती है – सम्प्रेषण को संभव कर सकने वाले सेंसिटाइज़ेशन का पुल बनाने के लिए।
          बेशक यही वह बिंदु है जो मुझे अर्चना वर्मा की कहानियों से जोड़ता है। कभी भाव की एक दुर्निवार लहर पात्र के भीतर जिए जा रहे जीवन का अविभाज्य हिस्सा बनाती है तो कभी भीतर-भीतर रमते हुए भी एक निःसंग दूरी के साथ उन्हें कार्य-कारण श्रृंखला में बूझना सिखाती है। स्वयं रचयिता भी तो भोक्ता और द्रष्टा की परस्पर विरुद्ध भूमिकाओं को वक्त के एक लमहे में जीते हुए वक्त को रचने का संस्कार दिए जा रही हैं – अपने पात्रों कोए अपने ‘सहृदय’ पाठकों को। वे जानती हैं आनंद और कष्ट के ताने-बाने से बुने गए सृजन का दायित्व बहुत बाद की चीज है; और हांक कर चलाने की क्रिया भी नहीं। अनायास प्रस्फुटित हो जाने वाली नैसर्गिकता है। इसलिए सेंसिटाइज़ेशन की प्रक्रिया (क्या इसे नाट्यालोचन की शब्दावली में आस्वाद की प्रक्रिया न माना जाए जहां चेतना के बंद कपाट जब झपाटे से खुलते हैं तो संघर्ष-संकुल पूरी कायनात की गति, ऊर्जा और आशा को अपने में समो लेना चाहते हैं?) को कथा-सृजन का अनिवार्य अंग मानते हुए इसे ही एक दुरुस्त मुस्तैदी के साथ रचती हैं। तब ‘सहृदय’ का अर्थ सह-सर्जक होना ही तो हो जाता है – रचना के बहाने अपने और समाज के अंतर्सम्बन्ध और मनोविज्ञान को नई दृष्टि से देखना – समृद्ध होते हुएए व्याकुल होते हुए।
          अर्चना वर्मा की कहानियां यदि एक तल्लीन दायित्व बोध के साथ स्त्री विमर्श की सैद्धांतिकी को भारतीय संदर्भ में गढ़ती हैं तो दूसरी ओर उतनी ही दृढ़ आतुरता के साथ स्त्री विमर्श के संग जोड़ दी गई कुछ भ्रामक संरचनाओं को भी निरस्त करती हैं। भ्रम के कुहासे में गहरा कर स्त्री विमर्श को गाली का रूप देती इन मिथ्या संरचनाओं में मैं दो – जेंडर सेंसिटाइज़ेशन और देह विमर्श – पर बात करना चाहूंगी। जेंडर सेंसिटाइज़ेशन का अर्थ है स्त्री-पुरुष की जैविक संरचना को लिंगाधारित सामाजिक-सांस्कृतिक अर्थच्छवियों से मुक्त कर एक जेंडर न्यूट्रल समाज की रचना करना जहां स्त्री-पुरुष दोनों की बुनियादी पहचान मनुष्य के रूप में है। इस वांछित समाज की रचना स्त्री-पुरुष दोनों के सहयोग के बिना संभव नहीं क्योंकि दोनों उत्पीड़ित-उत्पीड़क होने के बावजूद लिंगाधारित सामाजिक-सांस्कृतिक अर्थच्छवियों से न केवल परिचालित होते है। बल्कि अपने पूर्वाभ्यास और पारंपरिक माइंड सैट के कारण किसी भी तरह के बदलाव की आशंका मात्र से एक साझी ताकत के साथ प्रतिरोध में तन कर खड़े हो जाते हैं। जेंडर सेंसिटाइज़ेशन चूंकि सोशल कंडीशनिंग के खिलाफ छेड़ी गई वैचारिक मुहिम है, इसलिए मान लिया जाता है कि जेंडर सेंसिटाइज़ेशन जैसी अवधारणा पुरुष को ‘बर्बर’ मानते हुए उसे स्त्री का अपराधी घोषित /स्थापित करने का आंदोलन है।
जेंडर सेंसिटाइज़ेशन की यह भ्रामक व्याख्या द्वेष और घृणा की दीवारें गहरा कर स्त्री-पुरुष को पहले से भी ज्यादा दो ‘विधर्मी’ प्रतिपक्षियों में बांट देती है, किसी से छिपा नहीं है। यह व्याख्या कहीं इस सरलीकृत निष्कर्षात्मकता से निष्पन्न है कि सारे मर्द मूलतः क्रूर और लम्पट हैं, और सारी स्त्रियां अनिवार्यतः त्रस्त और निरीह। यही कारण है कि चुटकलों में ही सही, पति की कुटाई के लिए बेलन का ‘सदुपयोग’ करती स्त्री और ‘औरत औरत की दुश्मन है’ जैसी उक्तियों का प्रसार कर पत्नी-भीत पुरुष की बेचारगी और ‘गधेपन’ के कसीदे काढ़े जाते हैं। जाहिर है ठीक इसी वजह से स्त्री रचित साहित्य में अपनी ‘शैतान’ छवि पा पुरुष-पाठक बौखला कर स्त्री विमर्श को गरियाने लगता है या फिर अपने बाड़े में बंद रोती-धुंआती ‘सती’ स्त्रियों की समर्पित कातरता पर सौ जान निछावर होकर उसे दूनी सहानुभूति से सींचने लगता है। अलबत्ता दूसरी कोटि के इस साहित्य को वह ‘स्त्री-.विमर्श’ के दायरे से बाहर खींच भी ले आता है और सीता-सावित्री की महिमामंडित भारतीय परंपरा में रख ‘सनातन साहित्य’ से भी जोड़ देता है।
उल्लेखनीय है कि अस्मितामूलक साहित्य को ‘खण्डित एवं एकांगी अभिव्यक्ति’ का खिताब दे कर कला और भाव दोनों स्तरों पर सनातन और सम्पूर्ण कहे जाने वाले पारंपरिक साहित्य के औदात्य के क्षरण का दोषी भी माना जाता है। बेशक अर्चना वर्मा मानती हैं कि जेंडर सेंसिटाइज़ेशन का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री की अस्मिता को सम्मान देना, लेकिन इससे पहले वे यह ज्यादा प्रखरता से मानती हैं कि स्त्री को स्वयं अपनी अस्मिता को चीन्हना और आत्मसम्मान के भाव के साथ प्रदीप्त करना होगा क्योंकि “आदत ही धीरे-धीरे खून में जज्ब होती हे और खुद आदमी बन जाती है।“ जाहिर है अर्चना वर्मा के यहां जेंडर सेंसिटाइज़ेशन कोई ‘सरमन’ (धर्मोपदेश) या जुमलेबाजी नहीं है, आत्मोपलब्धि की धीर गंभीर क्रमिक अंतर्यात्रा है जो मन के तहखानों में बसे अंधेरों से जूझती है, और उन्हें बुहार कर परे फेंकते ही पाती है कि एक बड़े से आलोक-वृत्त ने भीतर के समूचे वीराने को जगरमगर कर दिया है। “खुद बंधी बैठी रहेगी तो दूसरे को भी तो चंगुल में रखना ही चाहेगी” – जड़ता में सेडेस्टिक प्लेज़र पाना एक बात है, और सत्ता विमर्श की बारीक रणनीतियों की जड़ता को अपने भीतर देख कर थर्रा जाना दूसरी बात। इसलिए ये कहानियां सबसे पहले आत्मसाक्षात्कार की कहानियां हैं – पुरुष से अलग स्त्री नामक जीव मात्रा के आत्मसाक्षात्कार की नहीं, स्त्री और पुरुष – एक अखंड मनुष्य – के आत्मसाक्षात्कार की कहानियां। कहानियों में बेशक स्त्री ही नैरेटर या केन्द्रीय पात्र के रूप में उभर कर सामने आई है और सम्बन्धों की संरचना की पड़ताल करते हुए वह निःसंग ईमानदारी के साथ सिक्के के दोनों पहलुओं को उलट-पलट कर देखती है, लेकिन अपने को बचाने के लिए कहीं भी मिथ्या अभियोग लगाने की धूर्तता उसमें नहीं है। इसलिए ये कहानियां ज्यादा कन्विन्सिंग हैं और लैंगिक संरचना को बेमानी सिद्ध करते हुए ह्यूमन सेंसिटाइज़ेशन की बात करती हैं। सच में, क्या एक लम्बे दाम्पत्य जीवन के बाद पुरुष ही पत्नी की मनोकांक्षाओं से अपरिचित रहता है? पति की ‘चाकरी’ में जीवन नष्ट कर देने का ‘रोना’ रोती स्त्री क्या सचमुच पति के मन को पढ़ने के लिए एक कदम भी आगे बढ़ पाती है? क्या सच यह नहीं कि ‘ब्याह’ रूपी लड्डू “जो खाय सो पछताय, न खाय सो पछताय” जैसी कहावतों को गिरह-गांठ में बांध कर ‘लड्डू’ खिलाने के ‘अपराधी’ उस दूसरे को पटकनी देने का अखाड़ा बन जाता है दाम्पत्य सम्बन्ध? और अपनी-अपनी घुटन को शहादत का नाम देकर ‘वीरगति’ पाना जीवन का परम सुख?
          अर्चना वर्मा सम्बन्धों के विघटन या यांत्रिकता की कहानियां नहीं लिखतीं; विघटन या यांत्रिकता के लिए उत्तरदायी कारणों की तलाश में मन के समंदर में गहरे उतर जाती हैं। तब उनके संग-संग भीतर की गहराइयों को थहाती सुलभा (शिकायत’) पाती है कि अपनी-अपनी भूमिकाओं को एक शालीन मर्यादा और उदारता के साथ जीने वाले ससुराल के उस प्रांगण में शिकायत की कोई वजह नहीं, लेकिन फिर भी कुछ सुलगता-खौलता सा रहता है भीतर; कि सांसों को अवरुद्ध कर देने वाले गुबार को शांत करने के लिए शिकायतें पालना लाजिमी हो जाता है – कभी सास के विरुद्ध, कभी बहू के विरुद्ध; कि इफरात के बीचोबीच अभावों-असुविधाओं और आंसुओं की दुनिया रच कर वह अपनी अस्मिता को नहीं, खोखले अभिमान को बचाती रही है। सुलभा नहीं जानती, सुलभा की रचयिता जानती है कि जैनेन्द्र और शरद चन्द्र की नायिकाओं का अनुगमन करते हुए हिंदी साहित्य योजनाबद्ध तरीके से आत्मदमन और आत्मपीड़न के सहारे अपने वजूद को कुतर कर आदर्श स्त्री का खिताब पाती स्त्री-छवि को जनमानस में प्रतिष्ठित करता रहा है। इसलिए अपनी अकिंचनता पर अभिमान करती राजलक्ष्मियों-सावित्रियों या सुनीताओं-मृणालों को नहीं, सुलभा और आभा (अब यहां कोई नहीं रहता) को रचती हैं जो सतह पर जी गई जिंदगी के समानांतर भीतर की गहराइयों में धड़कती जिंदगी को भी सदियों की उम्र पा कर जीती हैं और जान जाती हैं कि ‘बरसों का जकड़न का अभ्यास’ स्त्री और पुरुष दोनों को रूढ़ छवियों का निर्जीव सांचा भर बना रहा है; कि अपेक्षाओं और निष्क्रियताओं को पाल कर स्त्री-पुरुष दोनों न अपने को खोलते हैं और न दूसरे को खोलने के लिए “अपनी ओर से हाथ बढ़ाने की हिम्मत” करते हैं। नहीं, करुणा और सहानुभूति दे कर वे जड़ता का सेलिब्रेशन नहीं करेंगी। यदि ऐसा किया तो सर्जक होने का संतोष कैसे अर्जित हो पाएगा? इसलिए आश्चर्य नहीं कि अपने ही सवाल – “ऐसा आखिर क्या था सास जी के पास जो उसके पास नहीं? देह के बावजूद नहीं कि सुधाकर को बांध पाती। मां होने के बावजूद नहीं कि राजू को बांध पाती?” (पृ0 71) के साथ जवाब के तौर पर सुलभा मुक्त-सम्मानित-संतुष्ट सास के सारे रहस्यों को पा लेती है। और स्वयं अतीत की तलहटी में जुगनू की तरह दिपदिपाते उस एक पल की स्मृति को जी लेती है जब सात बरस के वैवाहिक जीवन के बाद पहली बार उसे अपना ‘मनचाहा’ बनाने/ करने का निर्देशपुष्ट अधिकार मिला। मारे खुशी के वह कमरा भर के अल्पना आंकती जरूर है, लेकिन इसके बाद अपने आह्लाद को दिशा और उठान नहीं दे पाती। हां, वह जानती है आह्लाद का कारण! स्पेस पाना उसकी तमन्ना रहा है लेकिन अनंत स्पेस को जीवन के कलरव से भरना वह नहीं जानती। उसके पंखों में मुर्गे जितनी उड़ान भरने की फड़फड़ाहट है, शायद इसीलिए किसी दूसरे को सुदूर आसमान में ऊँची उड़ान भरते देख बौखला जाती है; मारे दुख और ईर्ष्या के उसके पंखों को नोच डालने की फिक्र में दुबलाती चलती है। संज्ञान के इस पल में पाठक सुलभा का अवसाद और पश्चाताप ही नहीं देखता, कहानी दर कहानी संवेदना पगी अंतर्यात्रा करता हुआ जान लेता है कि उड़ान सीख लेने पर डंक मारने की इच्छा से महरूम हो जाता है मनुष्य। ठीक इसी स्थल पर जब स्मृति में अज्ञेय की पंक्ति – सांप, तुम सभ्य तो नहीं हुए – कौंध जाती है तो अनेक अर्थव्यंजनाओं से चमत्कृत और पानी-पानी होता हुआ वह अपने भीतर ‘पंख’ और ‘डंक’ के अनुपात का जायजा लेने लगता है। उदात्तीकरण की ओर ले जाने वाली डगर यहीं कहीं से शुरु होती है।

          कहने की बात नहीं कि जीवन के प्रति कहानी और उपन्यास की एप्रोच और प्रयोजन में बुनियादी फर्क है। पात्रों का जमावड़ा, आकार की पृथुलता, घटनाओं की बहुलता और एक समग्र-गहन दृष्टि से समय-समाज को थहाने की व्याकुलता . कहानी से अलग उपन्यास के स्ट्रक्चर को सिद्ध करने के लिए इन विशेषताओं को गिनाना जरा भी कठिन नहीं। लेकिन कभी-कभी काल की नोक में बंधी घटनाविहीन कहानियां एक अर्थगझिन संश्लिष्टता के साथ देश-काल की जटिलताओं को उजागर भी करने लगती हैं; और सिर्फ उजागर नहीं, एक मंत्रविद्ध बेचैनी के साथ पाठक से संवेदना के सहारे उन्हें रच कर जीने का आग्रह भी करती हैं। अज्ञेय की ‘गैंग्रीन’, यशपाल की ‘करवा का व्रत’ और जैनेन्द्र की ‘पत्नी’ कहानी को मैं ऐसी ही औपन्यासिक कहानियों की कोटि में रखना चाहूंगी जो अपनी घुटी चुप्पियों की जुबान से धर्मशास्त्रों और सांस्कृतिक संरचनाओं पर कशाघात करती पंडिता रमाबाई, ताराबाई शिंदे, अज्ञात हिंदू महिला की फुंफकार को शब्दबद्ध करती हैं तो स्त्री को स्त्री बनाई जाने वाली दीक्षाओं को सीमोन द बउवार के शब्दों में प्रश्नांकित करने लगती हैं। अलग-अलग घटनाओंपात्रों के साथ अलग-अलग कहानियां रचने के बावजूद अमूमन हर रचनाकार संवेदना में लिपटी अपनी बुनियादी व्यग्रताओं को बार-बार हर रचना में दोहराता है – मानो अपने ही सवालों और द्वंद्वों के साथ मुठभेड़ करते हुए अपने को खोजने की जुगत कर रहा हो। अर्चना वर्मा की कहानियों में यह औपन्यासिक तत्व भरपूर है – इतना कि ‘बंध कर बैठी’ सुलभा का अवसाद आभा के संदर्भ में विश्लेषण का एक और कोण पाता है तो बंधन को मूल्य बना कर इठलाती ‘त्यौहार’ और ‘राजपाट’ कहानियों की कुलवधुओं को देख कर सिर धुनने लगता है। लेकिन रपटीली ढलान पर क्या सिर्फ ये दोनों स्त्रियां ही दीखती हैं? उनके संग उसी भदेस भोग में संलिप्त उनके सहचर नहीं? और कि भोग में ‘सुख’ ढूंढने का भ्रम आखिर कितना चलेगा? क्या यौवन का ज्वार उतरते ही आभा और अखिलेश का जीवन-सत्य उनका अपना ‘सच’ नहीं हो जाएगा जहां अखिलेश के लिए घर लौटना यंत्रणा बन जाता है और आभा के लिए घर में उसकी उपस्थिति को सहना? जाहिर है इसीलिए मुझे ‘भरम’, ‘त्यौहार’, ‘अब यहां कोई नहीं रहता’ और ‘शिकायत’ कहानियां एक ही संवेदना के विस्तार की कहानियां लगती हैं जो थ्री डी इफेक्ट के साथ पात्रों, घटनाओं, मानसिकताओं और परिणतियों को एक दूसरे से अलगाने और जोड़ने वाले अंतर्सूत्रों को चाक्षुष हलचलों द्वारा उकेरती हैं। बहुत आसान है स्त्री-पाठक के लिए आभा के साथ तादात्मीकृत करना – एक निरर्थक अनुत्पादक व्यस्तता में अपनी ही परिधि पर अविराम घूमती आभा की यंत्रणा और व्यथा को समझना जो मादाम बावेरी और शालिनी (मृदुला गर्ग की कहानी ‘तुक’ की नायिका) तक एक लम्बा सफर तय करने के बाद भी बरकरार है। जाहिर है जज की कुर्सी पर बैठ कर वह कठघरे में आभा को नहीं, अखिलेश को खड़ा करेगी।
पुरुष-पाठक की पाठ-प्रक्रिया इससे भिन्न हो सकती है। घर में दो घड़ी चैन से न बैठने देने वाली आभा की चिड़चिड़ाहट से संत्रस्त अखिलेश उसे कहीं अपना-सा लग सकता है, पढ़ते-पढ़ते कहीं अहं भाव सहल भी जाता है कि अवसादग्रस्त पत्नी को व्यस्त रहने की रचनात्मक सलाह देकर (यानी कढ़ाई-बुनाई, कुकिंग-पेंटिंग वगैरह या कोई क्लास/ क्रच आदि खोलना) या उसे खुश रखने के प्रयास में तोहफे दे कर वह एक जिम्मेदार पति के फर्ज बखूबी निभा रहा है। यकीनन उसकी अदालत के कठघरे में आभा है। लेकिन जीवन अदालत का खेल तो नहीं। और सम्बन्ध सजा भोगने/ देने का प्लेटफार्म। इसलिए अर्चना वर्मा की कहानियां ऐसे पाठक को सम्बोधित हैं जो अपनी लैंगिक पहचान (जाहिर है इसमें संस्कार और रूढ़ भूमिका प्रदत्त दंभ शामिल हैं) भुला कर परकाया प्रवेश संभव कर सके। तब क्या उसे दोनों की व्यथा और अवसाद का मूल कारण एक ही दिखाई नहीं देगा – एक-दूसरे को फॉर ग्रांटेड/ अ-महत्वपूर्ण समझने का भाव? एक ऐसी आत्मप्रवचंना जो एक-दूसरे को ठगने और उस ‘सच’ को मक्कारी से ढांपने के लिए समर्पित दम्पती के स्वांग का रूप ले लेती है। अखिलेश की आत्मस्वीकृति क्या विवाह संस्था (पति-पत्नी) का सच नहीं? “असल खूबसूरती तो इस दिखावे में थी, ख्याल सचमुच न भी रह पाता हो तो क्या। बल्कि उसके बाद उन्हें लगने तो यही लगा कि जैसे-जैसे उनके ये प्रयत्न ज्यादा नियमित, निष्प्रयास और अभ्यस्त होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे आभा की जगह उनके ख्यालों से कम होती जा रही है। जैसे कोई काम पूरा करके अलग रख देने के बाद छुटकारा सा मिल जाता है।“ (पृ0 37) यह आत्मप्रवंचना एक ऐसा सुरक्षा कवच है जो सम्बन्ध के टिकाऊ बने रहने की निश्चिन्तता तो देता है, लेकिन साथ ही सम्बन्ध को लुब्रीकेट करते रहने के लिए अपने आप को नित नवा बनाने की कला से भी वंचित कर देता है। क्या निष्कवच व्यक्ति अधिक ‘मनुष्य’ नहीं?
            अर्चना वर्मा की खासियत है कि स्त्री के अवसाद के मूल में उसकी निष्क्रियता और विचारशून्यता के सच को उकेरने के बाद वे उसे अंधेरों से निकलने के लिए जूझते हुए दिखाती हैं। छोटे बच्चों और असम्बद्ध व्यस्तताओं से खदबदाते घर से आंख बचा कर दो घड़ी को बाहर निकल कर भागी आभा ने भैरो मंदिर के द्वार पर प्रसाद के रूप में मदिरा पाई है – एक बिल्कुल अप्रत्याशित निर्बंध दुनिया; बिल्कुल अलग जीवन शैली और आचार संहिता के साथ। घर के बंद कपाटों के भीतर वह इस दुनिया की भनक तक नहीं पा सकती थी, लेकिन साक्षात्कार कर लेने के बाद भी क्या खुद इसे स्वीकार कर सकी है? सवाल समाज-भय का नहीं, अपने को मुक्त करने में आड़े आने वाले भीतरी निषेधों से लड़ने का है, क्योंकि बाहर से आकर कोई दूसरा नहीं बांधता। इसलिए अपने ही हाथों से अपने बंधनों को खोलना है और भीतर का रस खुद पीना है; “किसी दूसरे के ओठों के बिना वह कैसे पिया जाएगा, इसका रास्ता खोजना है, बस।“ (पृ0 56)
          विजन और दृढ़ता के बिना आत्मसाक्षात्कार को मुक्ति-पर्व में पर्यवसित नहीं किया जा सकता। ऊपर उठने के लिए गुरुत्वाकर्षण की जकड़ को काटना ही पड़ता है। चूंकि कहानियां स्त्री को केन्द्र में ले कर रची गई हैं, और स्त्री के कोने-अंतरों की पड़ताल कर उसकी बेबसी और छटपटाहट को सतह पर लाया गया है, इसलिए लग सकता है कि जकड़ी हुई सिर्फ स्त्री है; पुरुष कर्त्ता और स्वावलंबी होने के कारण मुक्त है और ग्रंथिहीन भी। ‘त्यौहार’ कहानी में अर्चना वर्मा मुक्ति के रंग-रूप और आकार-प्रकार को भी चीन्ह लेना चाहती हैं। साथ ही इस सवाल को भी कि क्या स्त्री और पुरुष के लिए मुक्ति का अर्थ एक ही है? क्या अवैध सम्बन्धों को जीते लम्पट पति से अलग हो जाना मुक्ति है – इस दर्प के साथ जुड़ी आत्मसार्थकता से दिपदिपाते हुए कि स्वाभिमान को बनाए रखने के लिए अपने बूते जमाने भर की कुटिलताओं से जंग जीती है उसने? या मुक्ति का अर्थ एक ऐसी नई पीढ़ी को रचना है जो अपने से परे दूसरों के संग अपनापा जोड़ने की हार्दिकता अर्जित कर सके? मुक्ति ऐश और आर्थिक आत्मनिर्भरता में अभिव्यक्त होती है? या घर फूंक तमाशा देखने की मनोवृत्ति में? सोलह साल की कच्ची उम्र में कुछ माह के शिशु को गोद में ले कर पतिगृह को अलविदा कह देने वाली नैरेटर यदि सैल्फ मेड होने के दंभ में इतराना चाहे तो कुछ गलत भी नहीं। जवान-अफसर बेटा उसके संघर्ष की जीती-जागती मिसाल है और एक प्राध्यापक के रूप में उसका अपना रुतबा क्या जरा भी कम है? तब सफलता के मद को च्यूइंगम की तरह क्यों न चुभलाए वह? आभा और सुलभा से अलग अपनी एक कोटि बनाती स्त्रियां गिनती में विरल ही होती हैं।

लेकिन अर्चना वर्मा अवसाद की तरह अभिमान को भी ज्यादा देर तक टिकने नहीं देतीं। अचानक रसभंग की स्थिति से उपजा कोई उखड़ा-उजड़ा पल … और चकरघिन्नी की तरह गोल-गोल घूमता-घुमाता वक्त – स्मृतियों के साथ, सपनों के साथ, कभी पीछे लौटाता, कभी फलक छू लेने को उमड़ता। पुरुष (पति) से मुक्त हो कर पुरुष (पुत्र) को अपने जीवनाभिमान और सफलता की कसौटी बनाती नैरेटर! मुक्ति के हिंडोले से कूद कर जेल की सुरक्षित दीवारों में सिमट जाने का उपक्रम नहीं यह? बेटा जगन अंकल का नाम उछाल कर प्यार की भाषा में ब्लैकमेलिंग कर रहा है और बेटे का बेटा अपने अबोध बचपन में पितृसत्तात्मक व्यवस्था के सच को प्रौढ़ भंगिमा में व्यावहारिक रूप दे रहा है कि “आवाज देते-देते गला फट गया, सुनाई नहीं देता, बहरी हो या कानों में रूई घुसेड़ रखी है” (पृ0 85) चाहे तो छाती कूट स्यापा कर सकती है कि संघर्ष का यही सिला मिला उसे कि बेटा मां की शिक्षा-दीक्षा को ‘कवायद परेड’ कह कर परे सरका दे और बेटे का बेटा ‘मर्द’ होने के गुमान में छोटी बहन को अकारण-सकारण टंगड़ी मार कर गिरा दे? चाहे तो आत्मभर्त्सना से अपने को छलनी करते चले जाने का ‘सुख’ पा सकती है कि “उनका बेटा!! यह!!! इत्मीनान के सिवा और किसी मुद्रा में कभी दिखता ही नहीं। तृप्त, संतुष्ट, आत्मलीन। कीचड़ में लोटता सूअर!” (पृ0 77) अपने को विशिष्ट दिखाने के प्रयास में एक हिकारत भरे दंभ के साथ दूसरे को फटकारते-रौंदते हुए भी हम उसे कस कर अपनी मुट्ठी में लिए साथ चलते ही रहते हैं। ऐसे में क्या “रास्ता यहां से अलग होता है” का उद्घोष कर बेटे से अलग भीड़ से छिटकी अपनी दुनिया में प्रविष्ट कर जाना जरा भी अप्रत्याशित नहीं? तो फिर मुक्ति कहां है? जगन के संग एन जी ओ चलाने में और पीड़िता लड़कियों के कल्याण के लिए अपनी सारी जमा-पूंजी लगाने में? नहीं, यह व्यस्तता का सकारात्मक उपक्रम है, और समझने की बात यह है कि घुटन और जकड़न में सर्जनात्मकता भी दम तोड़ देती है। मुक्ति वैचारिक औदार्य, सहिष्णुता, प्रेम, क्षमाशीलता और आत्मविस्तार के रंग-रेशों से बुनी कोई शै है जो दूसरों के भीतर अपने ‘मैं’ को चीन्हना सिखाती है। इसलिए मुक्त होने के प्रयास में नैरेटर पाती है कि वात्सल्य को मोह का नागपाश मान वे अपने को ही छलती रही हैं, वरना रक्षक या सनद रूप में बेटे की उपस्थिति को समय रहते वे चीन्ह न लेतीं? बेटा अंत तक रहा तो स्नेह का पात्र, जिम्मेदारी का पात्र। अलबत्ता मुक्त तो वे उस दिन हुईं जब जगन के साथ सख्य के गहरे रिश्ते में बंध कर उन्होंने अपने भीतर की बंजर जमीन में हरियाली के सोते फूटते देखे; और जाना कि एक के प्रति अपरिमित घृणा पूरी जाति के प्रति नफरत का उबाल नहीं बन सकती; कि एक बार छले जाने का अर्थ जिंदगी भर दूसरों की नेकनीयती पर शक करने का वीजा नहीं है। जगन के जरिए उन्होंने अपने को मुक्त किया है और बदले में दोनों के आसमान को अथाह विस्तार और अनंत ऊँचाई से भर दिया है। “सारी चिंताओं, आशाओं, दुराशाओं की साझीदारी का ऐसा रिश्ता जो क्षण भर को भी उन्हें अपने औरत होने के अहसास के प्रति चौकन्ना, बोझिल या क्षुब्ध नहीं बनाता; उन्हें सहज मन से सिर्फ होने देता है।“ (पृ0 83) अर्चना वर्मा जगन के रूप में स्त्री के चिर काम्य सहचर को रचती हैं। यह सहचर द्रौपदी और कृष्ण के सख्य भाव के स्मरण के साथ-साथ सुभद्राकुमारी चौहान की … … कहानियों की स्मृतिरेखाओं को जहां-तहां आलोकित करने के उपरांत एक निस्तब्ध उसांस के साथ मातबर सिंह (भरम) और शशिकांत (जोकर) को विलोम रूप में भी रच देता है।
          अर्चना वर्मा की कहानियां स्त्री विमर्श के रूढ़ एवं संकुचित अर्थ में नई व्यंजनाएं भर कर उनका अर्थ विस्तार करती हैं। ये कहानियां मूलतः स्त्री (और पुरुष दोनों यानी मनुष्य मात्र) के सम्मान की कहानियां हैं – सम्मान की पात्रता अर्जित करने, बांट कर सम्मान का विस्तार करने, और महिमामंडन के दिखावे से विच्छिन्न कर सम्मान को संवाद और विश्वास के तंतुओं में विन्यस्त करने की कहानियां। दरअसल पाखंड और दोगलापन – दोनों से सख्त चिढ़ है लेखिका को। इसलिए शशिकांत मृत्यु के इतने बरस बाद भी देह पर रेंगते कीड़े की जुगुप्सा भरी स्मृतियों से अधिक कोई और रूप नहीं ले पाता मिसेज शशि कान्त वर्मा की चेतना में। हां, वह जी जान से पति की समाज-कल्याण चिंताओं और उनके सबूत स्वरूप मातृका के दफ्तर को ग्लोरीफाई करने का जतन करती है, लेकिन तय नहीं कर पाती कि बलात्कार का असफल प्रयास करता फोटोग्राफर ज्यादा घिनौना है या ‘सब कुछ’ माफ कर देने के बड़प्पन में बिंध कर उसकी देह की पोर-पोर में फोटोग्राफर के स्पर्श की टोह लेता शशिकांत। पाखंड की जमीन पर आत्मपीड़न और आत्मगोपन के साथ-साथ आत्मानादर और अविश्वास की फसल ही तो लहलहाएगी। तब कैसा संवाद? और कैसा साहचर्य? हादसे सम्बन्धों की प्रगाढ़ता को विरल कर दे तो जान लेना चाहिए कि सम्बन्ध वहां थे ही नहीं। थीं तो ढोंग की मजबूरियां या ढोंग की अभ्यस्त चर्याएं।
          लेखिका जानती हैं कि संश्लिष्ट होने की वजह से उनकी कहानियां बहुपरती और अर्थगर्भित है।। त्वरित पाठ के जरिए उन्हें समझा नहीं जा सकता। वे वैचारिक चौकन्नेपन और एकाग्रता की मांग करती हैं – ठीक मुक्तिबोध की कहानियों की तरह। अपनी मिठास और तरलता को छिपा कर बेहद कठोर और अनाकर्षक रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते जटाजूटधारी नारियल की तरह ये कहानियां भी स्वयं को आकर्षक पैकेकजिंग में बांध कर तुरत-फुरत पाठक की दुलारी-प्यारी होने के लोभ में डगमगाती-फिसलती नहीं। लेखिका जानती हैं कि पाट चौड़ा और गहराई अपेक्षा से कुछ ज्यादा ही हो तो नदी सपाट मैदान में निर्बाध धीर-प्रशांत गति से ही बहती है। इसलिए विलंबित लय में विश्लेषण और मनन के लिए वे पात्रों को भरपूर स्पेस देती हैं – भांय-भांय करते आतंक भरे निर्जन सन्नाटे से बुना एकांत, जहां आकांक्षाओं और दुर्बलताओं में गुंथे अपने अंतर्विरोधों से दो-चार होने की दरकार है तो व्यवस्था के षड्यंत्रों को समझ कर अपनी भागीदारी कबूलने की शर्म भी। घटनाबहुलता अर्चना वर्मा की कहानियों में नहीं, ठीक वैसे ही जैसे तेज गति से दौड़ते वक्त और समाज के बीचोबीच किंचित ठहरी और घटनाविहीन जिंदगी जीता है इंसान – अमूमन हर नए दिन पुरानी दिनचर्या को दोहराते हुए। घटनाविहीनता घटना के न होने की संकेतक नहीं, जिंदगी के साथ रागात्मक सम्बन्ध विकसित न कर पाने की अक्षमता से उत्पन्न ट्रेजेडी है क्योंकि जीवन अवसाद या भोग में डूब कर सड़ता नहीं, सड़ने की क्रमिक प्रक्रिया में अपनी अंतःशक्तियों को बटोर कर मुठभेड़ को जीवन दर्शन बना लेता है। मुठभेड़ बाहर और/ या भीतर शून्य को पछाड़ कर जब अपने और जगत को प्यार करने की ताकत देती है, तब हर पल दायित्व और कर्म की हजार व्यस्तताओं के साथ हलचल भरा एक पूरा जीवन जी लेता है। ‘जोकर’ और ‘नेपथ्य’ की कहानियों का शिल्प इसीलिए तो ‘शिकायत’, ‘अब यहां कोई नहीं रहता’, और किसी सीमा तक ‘त्योहार’ कहानियों के ठहरे गतिहीन शिल्प से भिन्न है। बेशक सृजन के लिए गति और स्फूर्ति जरूरी है, लेकिन उससे पहले मन को थहाने के लिए अकेलेपन को सृजनधर्मी एकांत में तब्दील करने का सकारात्मक विवेक भी। इसलिए जहां ‘त्यौहार’ ‘शिकायत’ और ‘अब यहां कोई नहीं रहता’ की भीतरी परतों तक में धंसा आत्मालोचन इन्हें अकेलेपन, कशमकश और सन्नाटे की घटनाविहीन कहानियां बनाता हैं, वहीं ‘जोकर’ और ‘नेपथ्य’ में नियोजित घटनाबहुलता अतिरिक्त वाचालता के सहारे अतिरिक्त ऊर्जा, अतिरिक्त आक्रोश और अतिरिक्त सृजनधर्मी सक्रियताओं को सतह पर लाती हैं, मानो लक्ष्य निर्धारण कर लेने के बाद अब उसे पा लेने की आखिरी लड़ाई ही शेष बची हो। ‘जोकर’ और ‘नेपथ्य’ बेशक पहले पाठ में मुग्ध कर देने वाली कहानियां हैं, लेकिन मैं इन्हें स्ट्रक्चर्ड कहानियां कहना अधिक पसंद करूंगी। या फिर बड़बोली कहानियां मानो पात्र योजना से ले कर वस्तु, प्रयोजन, दृष्टि और प्रभाव सब पहले से ही तय कर लिए गए हों। बसए एक कुशल रंगनिर्देशक की तरह उन्हें मंच पर अभिनीत करना बाकी हो। बेशक स्त्री विमर्श के सारे सवालों और सरोकारों की पड़ताल यहां खूब हुई है – अस्तित्व-संकट, अस्मिता की लड़ाई से ले कर सशक्तीकरण के हौसलों और निर्णय क्षमता तक। इसके लिए तर्कसंगत वैज्ञानिक पद्धति का जम कर उपयोग हुआ है – ऑब्जर्वेशन (पर्यवेक्षण), परीक्षण (वैरीफिकेशन) तुलनात्मक अध्ययन, रणनीति का निर्माण और क्रियान्वयन। ‘नेपथ्य’ कहानी मन में दबी ऐतिहासिक चेतना और सामंती वृत्तियों का विखंडन करती है; रूढ़ छवियों को पारंपरिक अर्थों और पूर्वाग्रहों से मुक्त कर हर देश-काल में ठहरे एक से राजनीतिक-सांस्कृतिक दबावों को देशकालातीत बनाती है और हाशिए के आर्त्तनाद को अस्मिता की लड़ाई का विचारोत्तेजक रूप देती है। तब कहानी कालिदासीय ‘अभिज्ञानशाकुंतल’ से कन्नी काट कर प्रेम-विरह-मिलन की श्रृंगारिक रचना नहीं रहती, स्त्री का उपयोग कर कूटनीति के सहारे अपने वर्चस्व को बचाती पुरुष व्यवस्था की बानगी बन जाती है।
प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर के शकुंतलाविषयक विश्लेषण का स्मरण कराती यह कहानी स्त्री सशक्तीकरण का आख्यान ही नहीं करती, स्त्री द्वारा इतिहास, वर्तमान और भविष्य स्वयं लिखने की जरूरत को भी उकेरती है। वक्त को ‘नागरिक’ की तरह जीने और वक्त के सच को लिखने की यही मुस्तैदी ‘जोकर’ में भी है जो ‘नेपथ्य’ की तुलना में जटिल है और अर्थव्यंजक भी। यहां स्त्रियां देह के द्वार पर पुरुष द्वारा अनादृत अवश्य हुई हैं, लेकिन पुरुष-संरचनाओं द्वारा पराजित नहीं। घटनाओं का जाल भीतर के संशयों और विचलनों की तरह बेतरह उलझा है; वर्तुलाकार भी जो बार-बार हर दिशा से यात्रा तय करने के बावजूद डैड एंड पर ही जाकर खत्म होता है। स्त्रियां, स्त्री देह पर किया जाने वाला यौन उत्पीड़न, और यंत्रणा की कसक – सब बिल्कुल एक सा – इतिहास की जड़ता और आवृत्ति को जीता हुआ। लेखिका जानती हैं कि घटनाओं का जंगल पाठक के ध्यान को बांध भले ही ले, स्वयं कहानी को वहीं कहीं भटकता छोड़ कर दिशाहीनता में विघटित हो सकता है। जाहिर है कहानी को दिशा देने के लिए एक और घटना की नियोजना व्यर्थ है। इसलिए अर्चना वर्मा कहानी के विन्यास को पूरी तरह पलट देती हैं। बलात्कार की मुख्य कथा गौण बन जाती है, और मुख्य कथा बन जाती है आदिवासी कबीले की डायन सरीखी तंत्र साधिका तुलसा द्वारा की गई तंत्र साधना में नैरेटर की भागीदारी और किसी कल्पित शत्रु के दरवाजे पर आटे का पुतला रख उसे मटियामेट कर देने की भौतिक अभिलाषा। एक-एक लहर मिल कर जिस तरह प्रभाव को सघन करते हुए भंवर में तब्दील होती है और बलात्कार के मनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक संदर्भों को विश्लेषित करते हुए आटे के पुतले यानी कल्पित शत्रु को ‘डर’ और फिर डर को जोकर का रूप देकर उसे अपनी ही कुंदजहनी के दरवाजे पर रखने की तजवीज की जाती है, वह कहानी को स्त्री मुक्ति की अभिलाषा से पहले पाठक से स्त्री के प्रति सम्मान की आदत पाल लेने का आग्रह करती है।
          बेशक बडबोलापन कालजयी साहित्य का लक्षण नहीं माना जाता, लेकिन अस्मिता की लड़ाइयों में हथियार के रूप में उसकी उपयोगिता से इंकार भी नहीं किया जा सकता। अर्चना वर्मा इसे बखूबी जानती हैं और अपने चारों ओर उगे स्त्री द्वेष को भी। दिग्भ्रमित अनैतिक स्त्री (जो असल में ठीक पुरुष जैसा उच्छृंखल जीवन जीने की हिमायती है) को लक्षित कर स्त्री मुक्ति संदर्भों को देह विमर्श का पर्याय बना देने वाली वर्चस्ववादी कूटनीतियों से वे खूब परिचित हैं। सिर्फ पुरुष क्यों, बराबर की दोषी स्त्री भी है जो देह को अंतिम मान कर इसके पार देखने की दृष्टि ही अर्जित नहीं कर पाती। इसलिए वे ‘जोकर’ में चपला बनाम सुगंधा प्रकरण की नियोजना करती हैं। चपला यानी क्षणांश की एक कौंध यानी देह का इस्तेमाल कर दुनियावी बुलंदियों को हासिल करने की महत्वाकांक्षा। सुगंधा यानी सुवास बन कर चेतना और वातावरण में रच-बस जाना यानी प्रतिभा का उपयोग कर प्रतिकूल परिस्थितियों को नियंत्रित करने का अर्जित आत्मविश्वास। देह को अस्वीकारती नहीं अर्चना वर्मा, लेकिन देह को मनुष्य जीवन का अंतिम सत्य मान कर स्त्री की नियति को उसकी देह के खूंटों से भी नहीं बांधतीं। देह चेतना से विच्छिन्न भोज्य सामग्री नहीं, समूचा व्यक्तित्व है। जाहिर है ‘सरे बाजार’ उघाड़ने और भोगने की फूहड़ता लोलुपता की परिचायक हो सकती है, किसी मानवीय अस्मिता की नहीं। फिर जब जेंडर सेंसिटाइज़ेशन को आदत बना कर रोजमर्रा की जिंदगी में उतार ले इंसान, तो क्या ऐसे कुत्सित उघाड़ू-पछाड़ू खेल खेल सकता है वह?
          लेकिन अभी तो बहुत लम्बा सफर तय करना है स्त्री को, पुरुष को – समाज को, मुक्ति के साझे स्वप्न को साकार करने के लिए। डेढ़ सौ साल में कुल एक या दो डग ही तो आगे बढ़ पाए हैं हम। ‘त्यौहार’ कहानी में लेखिका जिस सांकेतिकता के साथ सीता और दुर्गा की प्रतिमाओं को पहले प्रतीकों में और फिर सवाल में व्यंजित करती हैं, वहां हताशा नहीं, एक क्रिटिकल आत्मालोचन की जरूरत है। दुर्गा-गति, ऊर्जा, निर्णय क्षमता, जीवटता और कर्म का पुंजीभूत रूप – की प्रतिमा का विसर्जन और सीता –  अनुगता, समर्पिता, वेदना और मौन हाहाकार का समुच्चय – की आराध्य राम के वामांग स्थित ‘पत्नी’ के रूप में प्रतिष्ठा – दरअसल अब भी स्त्री और पुरुष की स्थिति, तथा पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के प्रति हमारी पारंपरिक निष्ठा के परिचायक हैं। जाहिर है अपनी आंखों को ‘ज्योति’ हमें स्वयं देनी है। अलबत्ता इतना और जोड़ना चाहूंगी कि कथा-पाठक की अर्हताएं कहानी-कलेवर के बाहर भी जस की तस बनी रहती हैं क्योंकि जीवन एक विराट कथा है और स-हृदय जीवन का रक्षक।
सम्पर्क-
मोबाईल- 09416053847
ई-मेल: rohini1959@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)