िया से ही अमरकान्त जी ने हाईस्कूल की परीक्षा पास किया. 1942 में भारत छोडो आन्दोलन शुरू हो जाने पर अपनी इण्टरमीडिएट की पढाई छोड़ कर ये आन्दोलन में कूद पड़े. अमरकान्त जी ने फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी. ए. किया. और उसके पश्चात आगरा से अपने लेखन और पत्रकार जीवन की शुरुआत किये. इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका ‘मनोरमा‘ के सम्पादन से अमरकान्त जी एक अरसे तक जुड़े रहे. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग चालीस वर्षों तक लेखन और सम्पादन करने के पश्चात अमरकान्त जी इन दिनों स्वतन्त्र रूप से लेखन कर रहे थे और ‘बहाव‘ नामक पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे. ‘जिन्दगी और जोंक‘, ‘देश के लोग‘, ‘मौत का नगर‘, ‘मित्र मिलन और अन्य कहानियाँ‘, ‘कुहासा‘, ‘तूफ़ान‘, ‘कलाप्रेमी‘, ‘एक धनी व्यक्ति का बयान‘, ‘सुख और दुःख का साथ‘, ‘जाँच और बच्चे‘ इनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं. इसके अतिरिक्त इनकी ‘प्रतिनिधि कहानियाँ‘ और ‘सम्पूर्ण कहानियों‘ का भी प्रकाशन हो चुका है. ‘कुछ यादें और बातें‘ एवं ‘दोस्ती‘ इनके प्रख्यात संस्मरण पुस्तकें हैं. अमरकान्त जी ने उपन्यास भी लिखे जिसमें ‘सूखा पत्ता‘, ‘कंटीली राह के फूल‘, ‘सुखजीवी‘, ‘काले-उजले दिन‘, ‘ग्रामसेविका‘, ‘बीच की दीवार‘, ‘सुन्नर पांडे की पतोह‘, ‘आकाशपक्षी‘, ‘इन्हीं हथियारों से‘, ‘लहरें‘, ‘बिदा की रात‘ प्रमुख हैं. ‘इन्हीं हथियारों से‘ उपन्यास पर अमरकान्त जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया जबकि इनके समग्र लेखन पर ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया. अमरकान्त जी ने कुछ महत्वपूर्ण बाल साहित्य की भी रचना की जिसमें ‘नेउर भाई‘, ‘बानर सेना‘, ‘खूंटा में दाल है‘, ‘सुग्गी चाची का गाँव‘, ‘झगरू लाल का फैसला‘, ‘एक स्त्री का सफ़र‘, ‘मंगरी‘, ‘बाबू का फैसला‘, और ‘दो हिम्मती बच्चे‘ प्रमुख हैं. मार्कंडेय और शेखर जी के साथ अमरकांत जी ने इलाहाबाद में रहते हुए नयी कहानी आन्दोलन की वास्तविक त्रयी बनायी. 17 फरवरी 2014 को अमरकान्त जी का इलाहाबाद में निधन हो गया.
प्रख्यात कथाकार शेखर जोशी अमरकांत के अनन्य मित्रों में से रहे हैं. शेखर जी ने हमारे अनुरोध पर अनहद के एक अंक के लिए अमरकांत पर एक संस्मरण लिखा था. आँखों की दिक्कत की वजह से शेखर जी ने यह संस्मरण हमारे मित्र अनुराग शर्मा को लिखवाया था. आज अमरकांत की पुण्य-तिथि पर पहली बार हम प्रस्तुत कर रहे हैं यह संस्मरण.
सेल्यूलाइड पर अंकित अमरकांत का स्मृति-शेष
शेखर जोशी
मैं सितंबर 1955 में अपनी पहली नियुक्ति पर इलाहाबाद पहुंचा था। तब अमरकांत वहाँ नहीं थे। न जाने कैसे मेरा परिचय कहानीकार ज्ञान प्रकाश जी से हो गया। अमरकांत से तब मैं परिचित नहीं था- न उनके व्यक्तित्व से न उनके लेखन से। उम्र में वह मुझ से सात साल बडे़ थे, लेकिन हम लोगों का लेखन करीब-करीब साथ-साथ हुआ। और भैरव प्रसाद गुप्त के संपादन में निकलने वाली ‘कहानी’ पत्रिका के माध्यम से, अश्क द्वारा संपादित साहित्य संकलन ‘संकेत’ के माध्यम से और अमृतराय तथा बाल कृष्ण राव द्वारा संचयित हंस के साप्ताहिक संकलन से साहित्य जगत में हम लोगों की पहचान बनी थी।
आदमी कब और कहाँ मिलता है, शायद उसका भी अपना असर होता हो। अमरकांत से मेरी पहली मुलाकात ज्ञान प्रकाश जी के डेरे पर गुड़ की मंडी चौक इलाहाबाद में हुई थी और वो मिठास आज तक बनी रही। फिर हम लोग वर्षों से करेला बाग कालोनी में पड़ोसी बन कर रहे। तब वह ‘कहानी’ पत्रिका में भैरव जी के सह-संपादक के रूप में काम करने लगे थे। मैं शटल ट्रेन से प्राय: सोलह-सत्रह किलोमीटर दूर अपने औद्योगिक प्रतिष्ठान में आता-जाता था। शाम को स्टेशन में गाड़ी से उतरने के बाद मैं सिविल लाइन चला जाता और भैरव जी, अमरकांत और मैं, प्राय: रोज ही मार्कण्डेय भी वहाँ पहुंच जाते।
इलाहाबाद के प्रारंभिक दिनों का एक रोचक प्रसंग जिस में अन्यत्र विस्तार से लिख चुका हूँ, वह अमरकांत की कविवार सुमित्रा नंदन पन्त से पहली मुलाकात का है।
पहली बार इलाहाबाद पहुंचने पर पत्रकार जयदत्त पन्त जी के समकक्ष सुमित्रा नन्दन पन्त जी से मिलने की अपनी इच्छा प्रकट की थी। जयदत्त जी मुझे उनसे मिलाने ले गए थे और धर्मयुग कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त मेरी कहानी का सन्दर्भ देते हुए मेरा परिचय दिया था। मैंने अपने गांव की कौसानी से भौगालिक निकटता को रेखांकित करने का भी प्रयत्न किया था। जिसे पन्तजी ने बहुत महत्व नहीं दिया। लेकिन अजमेर में हमारे रिश्तेदार एक पर्वतीय परिवार के बारे में बहुत आत्मीयता से उन्होंने बातें की थीं। मैं आश्वस्त था कि पन्तजी से मेरा आत्मीय परिचय हो गया है। हमें विदा करते हुए उन्होंने फिर आने के लिए भी कहा था।
अमरकांत जब बीमारी के बाद इलाहाबाद आए और श्रीराम वर्मा की जगह उनका ‘डिप्टी कलेक्टरी’ के कारण अमरकांत के रूप में अवतार हुआ तो जयदत्त जी से सुमित्रा नंदन पन्त जी से मिलने की अपनी इच्छा प्रकट की। मैंने जोर देकर कहा, ‘अरे, आप को मैं ले जाऊंगा। पन्त जी से मेरा अच्छा परिचय है।’ फिर एक दिन हम दोनों पन्त जी से मिलने उनके घर पहुँचे। मैंने अमरकांत जी का परिचय देते हुए ‘कहानी’ पत्रिका द्वारा उनकी कहानी ‘डिप्टी कलेक्टरी’ का सन्दर्भ देते हुए उनका परिचय दिया। पन्तजी ने बताया कि श्रीपत जी उन्हें फोन किया था और कहानी विशेषांक भेजने का आश्वासन दिया था। वह पत्रिका की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे। फिर कुछ इधर-उधर की बातें हुईं और अन्त में अमरकांत से मेरा परिचय जानने की अपनी इच्छा प्रकट की। मेरी अजीब स्थिति थी। लौटते हुए मैं बुझा-बुझा सा चल रहा था। अमरकांत ने मेरी पीठ पर धौल जमाते हुए टिप्पणी की, ‘तो तुम्हारे रिश्तेदार पन्त जी ने आज तुम्हें नहीं पहचाना।’
’कहानी’ की साहित्यिक पत्रकारिता से पहले अमरकांत ‘सैनिक’ तथा ‘अमृत’ पत्रिका, शायद ‘भारत’ समाचार पत्रों में काम कर चुके थे। लेकिन एक साहित्यिक पत्रिका में काम करने का जो सुख मिलता था, उसे वह कभी-कभी हम लोगों से भी बाँट लेते थे। जैसे, एक शाम उनसे भेंट होते ही उनके मुंह से निकला- ‘छुटकी भौजी बेंगन को टेंगन क्यों कहेंगी।’ वह प्रतिमा लाल नाम की नई कहानी लेखिका की प्रकाशनार्थ आई कहानी का पहला वाक्य था। इस वाक्य में आकर्षण के साथ ही कहानी के प्रति पाठक की जिज्ञासा बढ़ती गई। युवोचित उत्साह में कहानी पढ़ कर मैंने प्रतिमाजी को पत्र लिखा था। और शायद चुपके-चुपके अमरकांत ने भी उन्हें प्रशंसा पत्र भेजा था। प्रतिमा जी ने मेरे पत्र का उत्तर तो नागार्जुन जी के हाथ भेज दिया, लेकिन अमरकांत का पत्र अनुत्तरित रहा। ऐसा बहुत दिनों बाद उन्होंने रहस्य खोला।
ज्ञान प्रकाश हम दोनों के साझा मित्र थे। उन्होंने मुझे इलाहाबाद के सब छुटभैया लेखकों से मिलवाया, लेकिन स्थापित लेखकों के प्रति उनके मन में न जाने क्या एक दुर्वासा भाव रहता था।
‘अमृत’ पत्रिका में संपादन काल में ही अमरकांत के अभिन्न मित्र जय दत्त पन्त 23 क्लाइव रोड के एक पुराने बंगले में, जिसकी खपरैल की छत थी और जिस में बिजली नहीं थी, रहा करते थे। बीमारी के बाद लौटने पर श्रीराम वर्मा अमरकांत बनने से पूर्व पन्त जी के साथ रहने लगे थे। मैं अपने सहपाठियों के साथ जो दिल्ली से साथ आए थे, मधुवापुर में डिप्टी साहब के बंगले के एक खंड में मैस में रहता था। लेकिन शनिवार की शाम मैं भी क्लाइव रोड चला आता। यहीं मैंने अमरकांत से सद्य: लिखित उपन्यास ‘सूखा पत्ता’ को सुनाने का आग्रह किया था। ‘सूखा पत्ता’ सुनने की यह घटना बड़ी रोचक और कष्टमयी रही। हुआ यूं था कि एक दिन जयदत्त पन्तजी ने बताया कि वह घर के बाहर मैदान में चारपाई डालकर सोए हुए थे। बंगले के सामने र्इसाईयों का लंबा कब्रिस्तान फैला हुआ था, जिसकी आखिरी सीमा मिंटो रोड तक पहुंचती थी। कब्रिस्तान के एक कोने पर घर के सामने पीपल का एक बहुत बड़ा पेड़ था। पन्त जी ने बताया कि लोग कहते थे कि उस पीपल में भूतों का डेरा रहता है। उस रात जब वह सोए हुए थे तो उनकी नींद उचट गई। उन्हें लगा कि सिर के नीचे तकिये में हड्डियां खड़खड़ा रही हैं। वह उठे, उन्होंने बिस्तर को झाड़-झूड़ कर सोने का यत्न किया। लेकिन ज्यों ही उन्हें झपकी आई, तकिये में फिर वही खड़खड़ाहट शुरू हुई। अन्त में हार कर वह चारपायी उठाकर अन्दर आ गए और सो गए। दिन में यह किस्सा सुना कर पन्त जी अखबार की नाइट ड्यूटी पर चले गए थे। शनिवार की रात थी। मैं और अमरकांत अगल-बगल सोए थे। जब अमरकांत बाते करते-करते सो गए तो मुझे पन्त जी की कही हुई बात याद आई और पीपल के भूतों का ध्यान आने लगा। मैंने अमरकांत को जगा कर पूछा कि आपकी ‘सूखा पत्ता’ की पांडुलिपि कहाँ है। अपने पहले उपन्यास के लिए एक उत्सुक श्रोता पा कर उनकी भी नींद दूर हो गई। तब तक शायद उन्हें कोई श्रोता नहीं मिला था। उन्होंने उत्सुकता से पूछा, ‘सुनोगे।’ मेरे द्वारा हामी भरे जाने पर उन्होंने फटाफट लैंप जलाया और संदुकची से पांडुलिपि निकाल कर पढ़ने लगे। वह सुनाते और मैं हुंकारी भरता। एक अध्याय पूरा हुआ, दूसरा अध्याय पूरा हुआ। अमरकांत सुनाने में तल्लीन थे। तीसरा अध्याय शुरू होते-होते मुझे नींद ने आ घेरा, लेकिन अमरकांत सुनाए चले जा रहे थे। जब उन्हें आभास हुआ कि वह स्वयं अपने पाठ के एकाकी श्रोता रह गए हैं, तो उन्होंने खीज कर मुझे झिकझौड़ कर पूछा, ‘तुम सो गए।’ यह किस्सा दूसरे दिन मैंने पन्त जी को सुनाया तो वह खूब हँसे और अमरकांत का गुस्सा देखने लायक था।
इसी क्लाइव रोड में अमरकांत के रहते हुए मोहन उप्रेती, अल्मोड़ा से अपने ‘लोक कलाकार संघ’ का दल लेकर प्रदर्शन के लिए इलाहाबाद आए थे। दल के सदस्यों में मोहन उप्रेती के अतिरिक्त उनकी बहन हेमा, नईमा खान तथा एक-दो कलाकार कन्याएं, सुरेन मेहता तथा दो-तीन अन्य कलाकार शामिल थे। अल्मोड़ा में जय दत्त पन्त जी और उप्रेती जी परिवार आसपास रहते थे। इस कारण एक घरेलूपन था। सब लोग उसी बडे़ हाल में टिके थे और खाना-पीना साथ-साथ होता था। साथ ही कार्यक्रम की रिहर्सल भी चालू रहता। लड़कियों का एक कोरस जिसे वह बहुत सुमधुर कंठ से लय गाती थीं, हमें बहुत आकर्षित करता था। कोरस के बोल थे-
लयाओ लयाओ चैलियो
कुकडी का फूल, मकुडी का फूल
फूल नाहती तो पाती तोड़ लायो
लयाओ लयाओ चैलियो…
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अमरकांत का कंठ स्वर बहुत सुरीला था। वह भी कोरस में अपना स्वर जोड़ देते थे और वह गीत उन्हें कंठस्थ हो गया था।
लड़कियों ने आग्रह किया कि वर्मा जी आप भी कोई भोजपुरी गीत सुनाओ। उन्होंने अनमेल विवाह का गीत सुनाया, जिसमें एक विकसित युवती अपने बालक पति के साथ ओसारे में सोई हुई है। इसमें उसकी वेदना व्यक्त होती है। गीत के बोल हैं-
सबका के देहलन शिव जी अन्न धन्न सोनवा
हमका के लरिका भतार…बनवारी हो
लरिका भतार लेके सुतनी ओसरवा
चढ़ी गई ले अग्नि से कपार … बनवारी हो
चुप रहे चुप रहे लरिका नादान
मकई में बोले ला हुंडार…बनवारी हो….
अमरकांत की गायन की मस्ती का आनंद होली के मौके पर सुनने को मिलता था। तब गले में ढोलक डाल कर हम लोग रंगे-पुते चेहरों के साथ पहले मिंटो रोड पहुंचते, जहाँ वरिष्ठ पत्रकार श्रीकृष्ण दास, अमरकांत जी के सहयोगी पत्रकार बाबू लाल जी, मार्कण्डेय, अमृतराय और ओंकार शरद रहते थे। वहाँ से वह जुलूस स्टेनली रोड के बंगलों की तरफ लौटता, जहाँ कविवर सुमित्रा नंदन पन्त को अबीर का टीका लगा कर संगीतकार पंचानन पाठक के घर से होते हुए हम लोग भारद्वाज आश्रम में कुमाऊंनी होलियारों दल में शामिल होते। वहाँ खड़ी होली गाई जाती, आलू के गुटके, मिठाई और चाय द्वारा जगाती जी के आथित्य के बाद एक-दूसरे पर अबीर-गुलाल लगाते हुए हो हो हो लकरे के होली की समाप्ति का उद्घोष करते हुए हम लोग घर लौटते।
मैं बाद में लूकरगंज आ कर रहने लगा था। अमरकांत लूकरगंज आते तो मैं उन्हें छोड़ने गुरुद्वारे के पास चौराहे तक जाता। विश्वकर्मा पूजा के दिन संगीत का अनुराग उन्हें घंटे लौहारों की बस्ती में उठ रहे भोजपुरी गायन कीर्तन के स्वरों से बांधे रखता। ढोलक की गमक के साथ लौहे की गुल्लियों की धमक एक अद्भुत स्वर का वितान बुनती- ‘जय हो माता अंजनी के बारे हो ललनवॉ, दुलरे हो ललनवॉ, प्यारे हो दुलरवॉ…’ तथा अन्य भक्तिपूर्ण गीत हमें बांधे रहते।
अमरकांत के कंठ में एक अनोखा माधुर्य था। किसी अन्य गायक के सन्दर्भ में रेणुजी ने ऐसे स्वर को सुनेहरी किनारी वाला स्वर कहा था। याद आता है, अमरकांत का कथन कि आगरा प्रवास के दिनों में वह जब काली अचकन पहन कर पत्रकार विश्वनाथ भटेले के साथ प्रगतिशील लेखक मंच की बैठक में जाते थे, तो एकाध बार गजल सुना देने पर लोग उन्हें कोई साहित्य प्रेमी टेलर मास्टर किस्म का आदमी समझते थे और हर बार मीटिंग की समाप्ति पर उनसे गाना सुनाने का आग्रह किया जाता। एक दिन जब उन्होंने स्व-रचित कहानी पाठ का प्रस्ताव रखा और ‘इंटरव्यू’ कहानी सुनाई तो उनका कहानीकार व्यक्तित्व उद्घाटित हुआ।
कथाकार कामता नाथ को जब लखनऊ में ‘पहल’ सम्मान से सम्मानित किया गया तो इलाहाबाद से हम दोनों भी वहाँ पहुँचे थे। जिस भव्य इमारत में हमें टिकाया गया, उसकी ऊंची गुम्बदनुमा छत के कारण कमरे में आवाज गूँजती थी। अमरकांत कुछ गुनगुना रहे थे। सोने से पहले मैंने उनसे कुछ गा कर सुनाने का यह कह कर आग्रह किया कि इस कमरे में न जाने कितने प्रसिद्ध गायकों की वाणी गूंजी होगी, आप भी कुछ सुनाओ। उन्होंने अपनी एक पसंदीदा गजल-
यह घटा ऊदी-ऊदी
यह मौसम सुहाना
इलाही अब ऐसे में
तौबा बचाना… सुनाई थी।
आज भी उस कमरे में गूंजती आवाज की स्मृति मन को रोमांच से भर देती है।
मेरी बड़ी इच्छा थी, कभी अमरकांत को अपने गांव ले जा कर वन-खंडों में गूँजती चरवाहों के गीतों के स्वर सुनाऊं, लेकिन स्वास्थ के कारण से यात्रा भीरू अमरकांत का उन पहाड़ी दुर्गम स्थलों तक जाना संभव न था।
करेलाबाग कालोनी में हम लोगों के साथ-साथ संस्कृत के विद्वान लेखक वाचस्पति गैराला, रमेश वर्मा, शुभा वर्मा और मेरे साथी जगदीश भाटिया का अच्छा सत्संग रहता था। जब तक मैं सदगृहस्थ नहीं हो गया, आगरा से कलकत्ता आते-जाते राजेंद्र यादव के लिए भी मेरा क्वार्टर सुविधाजनक आश्रयस्थल रहता था। और वह दो-तीन दिन इलाहाबादी लेखकों से मिलने के बाद अपने गंतव्य की ओर आगे बढ़ते। मन्नू जी के साथ विवाह हो जाने के बाद यह दंपति एक बार करेलाबाग में अमरकांत के घर भोजन के लिए आमंत्रित हुए थे। राजेंद्र के साथ अमरकांत का आगरा से दोस्ताना व्यवहार रहा था। श्रीमती अमरकांत ने उस दिन बैंगन की कलौंजी के प्रति मन्नू जी की अरुचि देख कर उनसे जो हास-परिहास किया था, अविस्मरणीय था। भाभी कभी-कभी बहुत खुल कर भदेस मजाक कर लेती थीं। और इतने मन से बनाई हुई कलौंजी के प्रति मन्नू जी की अरुचि न उन्हें यह मौक दे दिया था।
घर में खर्च के सिलसिले में उनका हाथ हमेशा तंग रहता था, लेकिन इससे घर की रौनक में कोई फर्क नहीं पड़ता था। चाय के साथ भाभी पकौडि़यां जरूर बनातीं। उनका बनाया हुआ सादा भोजन- दाल, सब्जी, चावल, रोटी भी इनता स्वादिष्ट होता था कि कुछ कहा नहीं जा सकता। और उनकी बातों में तो अद्भुत मिठास होती थी। मेरा ख्याल है- अमरकांत की अनेकों कहानियों का आधार भाभी के स्मृति-कोश से निकले हुए घटना प्रसंगों पर टिका होगा।
एक घटना याद आती है- दिवाली से पहले घर की पुताई का उनका आग्रह रहता था। उस बार अमरकांत जी ने तंगदस्ती के कारण स्वयं ही कमरे की पुताई का बीड़ा उठा लिया। इस काम का पहले कभी अनुभव न होने के कारण खड़ी कुंची से रिश्ता हुआ, चूना उनके हाथों को भिगोता रहा। और परिणाम यह हुआ कि पुताई तो जैसे-तैसे पूरी हुई, उनके हाथ बहुत दिनों तक जख्मी रहे और कलम पकड़ना भी दुश्वार हो गया।
इलाहाबाद के दशहरे की झांकियां बहुत सज-धज के साथ निकलती हैं। देर रात से शुरू हो कर भोर तक रामदल की झाकियां चौक में घुमाई जातीं। जब तक भाभी चलने-फिरने योग्य रहीं, वह सुबह की झांकी देखने और फूल चढ़ाने के कार्यक्रम को निभाती रहीं। बाद में उनका बच्चों से आग्रह रहता कि आशीष के फूल अवश्य ले आएँ।
हमारे तीनों घरों अमरकांत जी का, मेरा और जगदीश भाटिया जी बहुत प्रगाढ़ता थी। भाटिया दम्पत्ति बहुत ही स्नेही और पति-पत्नी दोनों हम लोगों से छोटे थे। भाभी अकसर अपने मुंहबोले देवरों की खूब खिंचाई करती थीं। एक दिन की बात है। शायद शनिवार की शाम रही होगी। मैं और अमरकांत अपनी काफी हाउस की बैठकी से लौटे नहीं थे। मैं और जगदीश तब तक अविवाहित थे और साथ-साथ रहते थे। घर के सामने एक छोटा पार्क था। चांदनी रात में भाभी वहाँ टहल रही थीं। उन्हें देख कर भाटिया जी वहाँ से निकल आए और बतियाने लगे।
दूसरे दिन जब हम सब साथ-साथ बैठे थे, भाभी ने चुटकी ली, ‘अरे भई, कल हम खाना बना इन के इंतजार में पार्क में घूम रहे थे, तो भाटिया जी आ गए। तो हमने बताया कि वह अभी नहीं आए हैं। आ जाएं तो फिर खाना खाया जाए। तो भाटिया जी बडे़ उदास स्वर में बोले, ‘ये भी अभी नहीं आएं हैं।’ बेचारे जगदीश भाटिया झेंप से गए।
याद आता है- गोविंदपुर मोहल्ले में भाभी की मृत्यु का समाचार पा कर हम तत्काल वहाँ पहुँचे और अमरकांत खोए-खोए से एकलाप कर रहे थे- ‘मकान, मकान, मकान। यही एक रट लगी रही हमेशा।’ तब तक अशोक नगर वाले निजी मकान की व्यवस्था नहीं हो पाई थी। और बार-बार मकान बदलने की परेशानी की बात और भाभी की मकान की चाहत उनके मरणोपरांत उनके मन में घूम रही थी।
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अपनी कहानियों से ले कर अमरकांत कभी-कभी विचित्र स्थिति में पड़ जाते थे। वह एक पारिवारिक वैवाहिक समारोह में सपरिवार किसी दूसरे शहर में पहुँचे थे। वह परिवार आर्थिक रूप से अधिक संपन्न था और घर आए महमानों को अपने स्तर के अनुकूल व्यवहार करने का दिशा-निर्देश देती कन्याओं की गतिविधियों ने अमरकांत के मन में एक कहानी के बीज रोप दिए थे। कहानी में इस विडंबनापूर्ण स्थिति का बहुत रोचक और व्यंग्यात्मक वर्णन हुआ था। रिश्तेदारों के बीच कहानी प्रकाशित होने के बाद चर्चा रही होगी।
अमरकांत बताते थे कि बाद में कई मौकों पर उन्हें सुनने को मिला था- ‘हम तो पढ़े नहीं। लरका लोग बता रहे थे, बड़का बाबू बहुत अच्छी कहानियां लिखते हैं। इनका एक ढो कहानी ‘उनका आना और जाना’ की वे लोग चर्चा करते रहे।’
अमरकांत अपने कथानकों में जो विवरण देते थे, उसके प्रति पहले स्वयं आश्वस्त हो लेते थे। संभवत: आगरा में रहते हुए वह एक दिन के लिए बहुत पहले नैनीताल गए थे। लेकिन उस यात्रा के अनुभव उनकी याददाश्त से बाहर हो गए थे। अपने उपन्यास में उन्हें भुवाली या किसी अन्य हिल स्टेशन का चित्रण करना था। इस सिलसिले में उन्होंने कवि हरीश चन्द्र पांडे और मुझसे बीसियों जानकारी लीं और तब जा कर उस अध्याय का लेखन प्रारंभ हुआ।
इसी तरह मुस्लिम परिवेश पर आधारित उपन्यास ‘विदा की रात’ को उन्होंने प्रकाशन के लिए तभी भेजा, जब एक दिन विशेष रूप से आमंत्रित डॉक्टर अकील रिजवी, डॉक्टर फातिमी और असरार गांधी को पूरा उपन्यास सुना कर उसकी भाषा और आचार-व्यवहार के बारे में पूरी तरह आश्वस्त न हो लिए।
यों अमरकांत बहुत पारिवारिक व्यक्ति थे। हमारे बडे़ बेटे प्रतुल के जन्म के पश्चात गांव से परिवार के आ जाने के कारण नामकरण संस्कार पूरे विधि-विधान से संपन्न हुआ था। मेरे पिता जी अपने पौत्र के आगमन पर बहुत खुश थे। उनकी प्रसन्नता को द्विगुणित करने के लिए अमरकांत जाने कहाँ से एक शहनाई वादक को पकड़ ले आए थे। और उसकी मंगल ध्वनि इस समारोह को और भी गरिमा दे गई थी।
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इलाहाबाद शहर में एक बार एक बहुत ही अनुशासनप्रिय पुलिस कप्तान की नियुक्ति हुई थी। श्री बेदी रात में दस बजे के बाद अपनी जीप से शहर की गश्त लगाते। आवारागर्दी करते लोगों पर उनकी विशेष दृष्टि रहती। अमरकांत आफिस के बाद कभी-कभी सीधे लूकरगंज आ जाते थे। और में जब देर रात में उन्हें छोड़ने घर से प्राय: एक किलोमीटर दूर नरूला रोड के चौराहे तक उनके साथ आता तो हम दुनिया-जहाँ की बाते करते रहते। बातों का सिलसिला खत्म होने को नहीं आता था। चौराहे पर पान की दुकान के सामने खडे़ हो कर अब फिर देर तक बतियाते रहते थे। ऐसी स्थिति में एक दिन सड़क के उस पार पुलिस चौकी पर तैनात दरोगा की नजर हम पर लगी रही। उसके साहब के दौरे का टाइम हो रहा था। उसने एक सिपाही को हमारी ओर भेजा। सिपाही सामने आ कर कुछ देर हमें देखता रहा। फिर बोला, ‘वैसे आप लोग शरीफ आदमी लगते हैं। दरोगा जी देर से आप को देख रहे हैं। साहब के आने का टाइम हो रहा है। अब आप चलें।’ हम लोगों के चेहरे पर शराफत उसे दिखाई दे गई, हमने इसका मन-ही-मन एहसान माना और एक-दूसरे से विदा ली।
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भाषणकर्ताओं के रूप में मार्कण्डेय, अमरकांत और मैं तीनों ही विश्वविद्यालय के अनुभवी प्राध्यापकों की तुलना में कमजोर पड़ते थे। मार्कण्डेय अपने भाषण के बीच-बीच में ‘तो मेरे कहने का आशय यह था कि’ टेक लगाते रहते। और अमरकांत आपनी हस्त मुद्राओं से अपनी बात को असरदरार बनाने की कोशिश करते। गोष्ठियों-सम्मेलनों के बाद अमरकांत जरूर टिप्पणी करते, ‘भई मार्कण्डेय, तुम्हारा आज का भाषण निम्न कोटि की बौद्धिकता का श्रेष्ठ उदाहरण था।’ या ‘शेखर का स्फुलिंग भाषण आज की गोष्ठी की महान उपलब्धि रही।’
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अमरकांत के साथ की गई यात्राओं में से दो यात्राएं विशेष रूप से अविस्मरणीय रहीं। बेटी संध्या के विवाह के सिलसिले में वर देखने हम लोग नासिक पहुँचे थे। हम लोग एक होटल में खाना खाने बैठे। मैंने मराठी उपन्यासों में वहाँ के प्रिय भोज्य पदार्थ श्रीखंड की बहुत प्रशंसा पढ़ी थी। कभी उसका स्वाद लेने का मौक नहीं मिला था। मैंने अमरकांत से कहा कि मैं आज आपको यहां की विशेष डिस खिलाता हूँ।
भोजन के बाद बैरा को दो प्याली श्रीखंड लाने का आर्डर दे दिया। अमरकांत ने उत्सुकता के साथ एक चम्मच श्रीखंड मुंह में डाला, जिसका खट्टा-मीठा स्वाद उन्हें पसंद नहीं आया। प्याली मेरी ओर सरका कर उन्होंने कहा कि अपनी विशेष डिस तुम ही खाओ। मैं कैसे मना करता, जबकि मैंने श्रीखंड की इतनी तारीफ कर रखी थी। हालांकि मुझे भी वह रुचिकर नहीं लगा था। लेकिन मजबूरन मुझे दोनों प्यालियां निपटाना पड़ीं। हो सकता है, उस होटल में उस पदार्थ की वह गुणवत्ता न रही हो, लेकिन घर लौट कर अमरकांत ने मेरी स्पेशल डिस की खूब चर्चा की।
दूसरी यात्रा मुगलसराय से आगे जमनिया नामक कस्बे की इसी सिलसिले में रही। भावी दामाद के पिता से बातचीत कर हम लोग रात में इलाहाबाद लौटने के लिए स्टेशन पहुँचे तो गाड़ी आ चुकी थी। प्लेटफार्म और सड़क के बीच रेल लाइनों का चौड़ा जाल बिछा हुआ था। हम लोग रिक्शा से उतर कर अंधेरे में लाइन पार करते हुए प्लेटफार्म पहुँचे तो रेल के सभी डिब्बों के दरवाजे बंद थे। हम हर डिब्बे का दरवाजा पीट कर खुलवाने की कोशिश की। लेकिन डिब्बे के अन्दर बैठे यात्रियों ने हर बार हमारी अनसुनी कर दी। गाड़ी छुटने का टाइम हो रहा था। बड़ी मुश्किल से एक डिब्बे का दरवाजा खुल पाया और हम अन्दर घुसे ही थे कि गाड़़ी चल पड़ी।
कुछ समय पूर्व झेली गर्इ्र दिल की बीमारी के कारण अमरकांत इस तरह हड़बड़ी में रेल लाइनें कूद-फांद कर प्लेटफार्म तक पहुँचे और रेल छूट जाने की आशंका के बावजूद यात्रियों द्वारा दरवाजा न खोलने की विकट परिस्थिति में पड़ने की स्थिति में नहीं थे। इसलिए हमारे लिए यह यात्रा एक दुस्वप्न सी बनी थी।
एक बार हम उनके गृह-नगर बलिया भी साथ-साथ गए थे। शहर की संरचना में सिविलि लाइन वाला इलाका बहुत आधुनिक ढंग का बना हुआ था। चौक का वह स्थल भी अमरकांत ने दिखाया, जहाँ 1942 में तिरंगा फहराते हुए लोग पुलिस की गोलियों का शिकार हुए थे। वहीं स्टील की पेटियों की एक दुकान में स्थानीय स्वयंभू संगीत सम्राट देबकी चाचा से हमें मिलाना भी अमरकांत न भूले। जिनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह हर वर्ष अपने नाम के आगे एक नई उपाधि स्वयं ही जोड़ लेते थे। समयाभाव के कारण हम उनके संगीत का आनंद नहीं ले सके।
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श्री रवींद्र कालिया ने इलाहाबाद में अपना प्रेस खोलने के बाद प्रति वर्ष किसी साहित्यकार पर ‘वर्ष’ नाम की पुस्तकाकार पत्रिका निकालने का निश्चय किया था। वर्ष-1 अमरकांत पर केंद्रित रहा। वर्ष-2 संभवत: नागार्जुन पर प्रकाशित होना था, जो किन्हीं कारणों से फिर संभव नहीं हुआ। वर्ष-1 के लिए भैरवप्रसाद गुप्त और मार्कण्डेय को भी अमरकांत पर लिखने के लिए रवींद्र कालिया ने आमंत्रित किया था, लेकिन उनका सहयोग नहीं मिल पाया। मेरे संस्मरण ‘जरी गई ले ऐरी से कपार’ की व्याख्या मित्रवत विश्वनाथ त्रिपाठी ने लोगों की अमरकांत के प्रति ईर्ष्या भावना को लक्षित करने से की थी, जो सही नहीं था। रवींद्र कालिया बहुत अग्रसिव ढंग से अमरकांत को पैरोकार बनने की मुद्रा में रहते थे अन्यथा अमरकांत के प्रति भैरव जी व मार्कण्डेय सदा सहायक और आत्मीय रहे।
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दिसंबर 1960 में कानपुर में चंद्रकला जी से मेरा विवाह संपन्न हुआ था। विवाह उत्सव में शामिल होने के लिए इलाहाबाद से भैरव जी, मार्कण्डेय, अमरकांत, वाचस्पति गैरोला तथा जगदीश भाटिया पहुँचे थे। बारात में अमरकांत को अच्छे वस्त्रों में सजा कर ले जाने की सद्इच्छा से स्नेही जगदीश भाटिया ने अपना एक जोड़ा गरम कोट-पेंट अमरकांत को पहना दिया था। अब आलम यह था कि भोजन करते या नाश्ता करने अन्न एक दाना भी उन कपड़ों पर गिरता तो जगदीश भाटिया तत्काल हाथ से झाड़ कर सफाई करने का उद्धत रहते। विवाह के बाद इलाहाबाद लौटने पर अमरकांत जी ने कोट-पेंट उतार कर उन्हें सौंपते हुए बहुत धन्यवाद दे कर कहा, ‘लो भई, अपना सूट संभालो। मैंने ज्यादा गंदा नहीं किया है।’
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अपने छह (या सात) भाइयों में अमरकांत ज्येष्ठ थे। दूसरे नंबर पर राधेश्याम वर्मा उर्फ केदार बाबू की तुलना यदि मैं प्रसिद्ध चित्रकार वान गोग के भाई थियो से करूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। केदार बाबू उनकी प्रतिभा को पहचानते और उसकी कद्र करते थे। वह स्वयं बौद्धिक व्यक्ति थे और बडे़ अधिकारी थे। लेकिन अपने भाई के प्रति ही नहीं, उनके मित्रों के प्रति भी वह इतनी आत्मीयता और आदर-भाव प्रदर्शित करते थे कि कभी-कभी संकोच होने लगता था। अमरकांत अपनी रचनाओं पर उनकी सम्मति का बहुत महत्व देते थे।
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भाभी कभी घरेलू परिस्थितियों के कारण अपने मायके या बलिया न जा पाने पर दुख प्रकट करतीं। एक दिन ऐसी ही बातें हो रही थीं कि मेरी पत्नी ने उनसे आग्रह किया कि वह कुछ दिन के लिए घर हो आएं। वर्मा जी की चिंता न करें। वह हमारे साथ कुछ दिनों लुकरगंज में रहेंगे।
अमरकांत के लूकरगंज प्रवास के दौरान मैंने उन्हें कन्टोमेंट क्षेत्र के मैकफर्सन लेक की ओर घुमा लाने का प्रस्ताव किया। अमरकांत सहमत हो गए। और मैं अपनी मोपेड पर बैठा कर उन्हें प्राय: पांच किलोमीटर दूर उस रमणीक स्थल की ओर ले गया। घर लौटने पर उन्होंने अपनी कमीज उठा कर नंगी पीठ दिखाते हुए मुझ से पूछा कि उनकी रीढ़ की हड्डी में मुझे कोई खराबी तो नहीं दिख रही है। मैं देख कर दंग रह गया। रीढ़ की हड्डी की एक गुरिया किंचित खिसकी सी मुझे लगी। डॉक्टर को दिखाया गया और उनको पूरी तरह आराम करने की डॉक्टर ने हिदायत दी। निश्चय ही मोपेड में चलते हुए झटकों से उन्हें मैकफर्सन लेक जाते हुए भी पीड़ा हुई होगी, लेकिन मेरे उत्साह को देखते हुए वह तब कुछ नहीं बोले थे। और घर लौटने पर ही अपनी परेशानी व्यक्त की।
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जिंदगी में हम लोगों का 56 वर्ष का साथ रहा। न जाने कितनी खट्टी-मीठी स्मृतियां इस काल खंड से जुड़ीं। जब मैं 2012 में चंद्रकला जी के देहांत के बाद बच्चों के साथ लखनऊ में आ कर रहने लगा, तो जब भी इलाहाबाद जाता तो उनसे मिलने होता था। घंटों बात करने के बाद भी मैं जब लौटने की तैयारी करता तो वह आग्रह करते, ‘अरे, अभी थोड़ी देर और रुको।’
जब संजय अमरकांत पर डाक्यूमेंटरी बना रहे थे, तब इनके इरादे भांपते हुए मैंने आग्रह किया था कि अमरकांत को नाव पर मत चढ़ाना, क्योंकि तुम्हारे अति उत्साह से कहीं दुर्घटना न हो जाए। लेकिन संजय कहाँ मानने वाले थे और अमरकांत जी का उत्साह भी कम न रहा होगा कि वह बकायदा संगम में नाव की सवारी कर इंटरव्यू देते रहे और एक गाना भी गाया। अब सेल्यूलाइड पर उनकी यही स्मृति शेष रह गई है।
शेखर जोशी |