विजय गौड

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गणित के एक सवाल को हल करते हुए
न जाने कितने ही
सवालों को कर रहे होते हैं हल,
हाशिये में छुट जा रहे होते हैं
जोड़ घटाव गुणा और भागफल

भागफल का मतलब
भाग्यफल तो होता ही नहीं मेरी बेटी,
बेशक कर्मफल

कर्मफल गीता में भी पढ़ सकती हो,
पर गीता की तरह,
कर्म किये जा फल की चिन्ता न कर
नहीं पढ़ा सकता हूं मैं
और न ही पढ़ना है तुम्हें

तुम्हारी मां का, याकि मेरा
भाग्य नहीं, एक स्वर था
जिसके सहारे रचा हमने जीवन
तुम हो वो

पदार्थ मात्र के यांत्रिक एकीकरण से नहीं
प्रकृति के संश्लेषण से घटा है
रहस्य नहीं, न ही दैवीय चमत्कार
अंश-अंश जीवन, बस ऐसे ही जुटा है

तने की अनुप्रस्थ काट में
दिखती मांस-मज्जा है
कोशिकाओं का छत्ता है
वलयाकार
खाद पानी और उसमें घुली
नाईट्रोजन को सोखकर
हुआ जाता था
चौड़ा और चौड़ा
मोटा और मोटा
गोल-गोल तना
धूप सेंक कर
दुर्गंध खींचती पत्तियों ने भी तो रचा है

देखो कॉंच के पार
अंधेरा नहीं उजाला है

कोशिकाओं के भीतर बैठे
नाभिक के सिर पर
जो खिंचता हुआ धागा है
उन युग्मकों के निषेचन पर ही है
निर्भर जीवन
नर और मादा भी
उसके संतुलन के हैं प्रकार
एक हो विशिष्ट तो दूजे पर फिर क्यों अत्याचार

विज्ञान भाषा से नहीं
भाषा-विज्ञान में भी प्रयोग
और प्राप्त परिणामों से है

लिपियां तो बस माध्यम है बेटी
जीवन के कार्यव्यपार से ही
ध्वनित होता है समय और
शब्द देते हैं अर्थ

आधुनिक तकनीक की बाइनरी भाषा
अनंत काल तक सुरक्षित रख सकती हैं
अपने पास
घटती हुई घटनाओं को,
साख्यिकी, तस्वीर
और टंकित होता
चिट्ठा-चिट्ठा इतिहास

सोवियत संघ के विघटन के कारणों को
जाने ठीक-ठीक
क्यों लगाये कयास

आतंक के देवता से पूछें
क्या सुरक्षित है उसकी सी डी में,
दिखाये हमें

बहस करने की कोई जरुरत नहीं
अब बची ही नहीं है बहस
महान बहसें
भविष्य में चीन के विघटन के कारण की भी
कर सकती हैं पड़ताल

महान रचनाएं भी
जन्म लेतीं हैं बहसों के बाद ही

गिरोहगर्दी के दौर में
संभव ही नहीं एक स्वस्थ बहस
आड़े आ सकती है शास्त्रीयता,
तोड़ने की छूट है तो सिर्फ रचना को
आलोचना को नहीं,

आलोचना का मतलब
सिर्फ रचना के सौन्दर्य की व्याख्या है,
सर्जक के भीतर से उद्वेग बनकर बही है जिसकी सरिता

ये जो तीन पंक्तियां हैं
शुद्धतावदी गायेगें
मैंने तो व्यंग्य में कही है

व्यंग्य पर भी करना है तुम्हें
अपना पाठ तैयार
व्यंग्य का ही स्थायी भाव है हास्य
याकी हास्य का है व्यंग्य
ठीक-ठीक जानने के लिए मुझे भी
सौन्दर्य शास्त्र तो पलटना ही होगा,
तुम खुद ही देख लेना
कितने होते हैं संचारी भाव,
वो भी जान जाओगी

बहस में हिस्सेदार लागों के नाम कैसे कह दूं, बेटी
उनकी तलाश में जुटा अमला
पहचान सकता है तो पहचान ले-

वे हर वक्त मुस्कराते रहते हैं
कई रातों की जाग से
थके होते हैं उनके शरीर
पर जब मिल रहे होते हैं तो तरोताजा
जिंदादिल

वर्षों से बिछुड़े अपने किसी प्रेमी से मिलने के लिए
उन्हें चाहिए ही होती है
एक सुरक्षित और संदेहों से परे आड़

जन के बीच ही
गच्चा खता है उनके दुश्मनों का विजन, वरना
जंगल, पहाड़, नदी, नालों, खालों की
सुरक्षित कही जा सकने वाली
किसी भी जगह पर
बाईनरी भाषा में घूमता ग्लोब चौकीदार है,
धरती से नभ तक
उसकी निगाहों से बच नहीं सकता है कोई

घने जंगल के बीच बहती

नदी को पार करने के लिए डोंगी में बैठकर भी
गहराई का खौफ डरा नहीं सकता उन्हें,
रोमांचक कार्रवाइयों का तमगा लूटने में नहीं
दुश्मन से बच निकलने में ही
डूबे है कई, डोंगी के डोल जाने पर

जनता का इतिहास
दुश्मन से बचने
और बच-बच कर वार करने से ही बनता है

राज्यों के विस्तार की सनक से लड़ने वाले
राजाओं का इतिहास पाठ्य पुस्तकों में जगह पाता
जन श्रुतियों को देखो तो
जान जाओगी सच्चा-झूठा इतिहास

साहित्य को भी कह सकती हो इतिहास
रचनाओं में देखें
हाशिये के लागों का जीवन
आंकड़े भर नहीं, उनका अक्श भी दिख जाएगा

हाशिये पर लिखे को पाओ तो छोड़ देना

रचना प्रक्रिया के दौरान भी
कितनी ही रचनायें और चली आ रही होती हैं,
हाशिये पर इधर-उधर
लिख देने पर जिनको
हाशिये की रचना,
और प्रवृत्ति के चलते
हाशिये का रचनाकार
सिर्फ एक जुमला ही होगा
महाकाय लेखको की
दिल फरेब दुनिया ”
महानता के ऐसे ही न जाने कितने
तराने रचती हैं,
रख देना उनको एक तरफ

हाशिये के लोगों पर लिखने के लिए
जरूरी नहीं हाशिये पर भी लिखा ही जाए

समय को जानने के लिए
रिश्तों को जानना बेहद जरूरी है मेरी बेटी
जिन्हें गढ़ता है अर्थतंत्र

पृथ्वी की सतह पर्पटी
है बेहद पतली
खोद-खोदकर बोते हैं बीज
भूमिजीवी
काले-काले गम बूट
लोहे के टोप वाले मजदूर
उतर जाते हैं गहरी खाईयों में
निकालते हैं लोहा, तॉंबा
सोना अपार
खोद-खोदकर सुरंग
पहुच ही जाओगी तुम उस पार,

पृथ्वी से नभ तक
जितने हैं प्राकृतिक स्रोत,
चौधराहट अपनी दिखा रहा है
अनाधिकृत
फैला रहा है बाजार
फिर देता है रुपया उधार
हॉं, हॉं वही अमेरिका है उस पार

उसके झूठे फेर से बचना मुश्किल है
पर बच के चलना बेहद जरूरी है

कुमंत्रणाओं का लयबद्ध संगीत
निरंकुश राजसत्तओं का
एक मात्र लक्ष्य बनकर
गूंज रहा है चारों ओर
बाहों में बांहे डाले
अठखेलियां करते राजनयिक
नये से नये समझोते कर रहे हैं

कितना तो बचेगा देश
और कितनी बची होगी शेष
उनके भीतर राष्ट्रीय भावना,
पूंजी की चकाचौंध ने उकसाया है जिन्हें उड़ जाने को

कब तो लोटेगें
कब तक करें इंतजार

सिर्फ फैल रहा है व्यापार

देश भी है एक बाजार
अप्रवासी मन के भीतर

आकाश की ऊंचाईयों के पार
दूसरी दुनिया को खोजने की कोशिश
प्रकृति के रहस्य से पर्दा उठाना होगा
पर उसे संभव बनाने के लिए
शिखा, रेहाना और माधुरी को छोड़कर
उड़ जाओ
यह कतई जरूरी नहीं,

खराब महत्वाकांक्षा होगी

धुंए और गर्द का गुबार उड़ाती उड़ान भरकर
बेशक चौंका दोगी अपने मित्रों को
पर बचा नहीं पाओगी स्मृतियों भरा
निकटता का कोई निजी कोना

छुपन-छुपाई, स्टापुल, गिट्टी
उनके संग ही तो सीखा तुमने
गूंथना मिट्टी

मित्रों  के साथ,
मित्रों के लिए
रचना एक खेल, दुनिया के लिए

जानो ठीक ठीक,
सूचना क्रांति का तनता वितान
कैसे रच रहा है खबरों के बंध
इतिहास से उसका क्या है संबंध

भूगोल, विज्ञान और नागरिक शास्त्र
जानो तुम्हारी पढ़ाई के विषय हैं बेटी
उनमें तुम खुद ही ढूंढ सकती हो
अपना पाठ
अध्यापिका ने जो कहा
वो गलत नहीं, पर सम्पूर्ण नहीं

सम्पूर्ण को खोजने के लिए
तुम्हें खुद ही करनी है मेहनत
मूर्त को अमूर्त
और अमूर्त को मूर्त में बदलने की
अपनी क्षमताओं को
तुम्हें खुद ही करना है समृद्ध
मैं या तुम्हारी अध्यापिका
तो होते जा रहे हैं वृद्ध

बस समझ लो सिर्फ इतना और हमशा ध्यान रखो,
कितना टकराते हैं खुद से
लिखते हैं जब एक पुराना राग
मुह में कितना होती है आग

(कथाकार योगेन्द्र आहुजा की कहानी मर्सिया से उधार)

संपर्क-
पीपल रोड, बद्रीपुर (पानी टंकी के पास), पोस्ट- बद्रीपुर, देहरादून २४८००५



फोन- 0135 2665504


मोबाईल- 09411580467


ब्लॉग- http://www.likhoyahanvahan.blogspot.com