विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानी ‘पर्स’

विमल चन्द्र पाण्डेय


युवा कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय की एक कहानी ‘पर्स’ अनहद-5 में प्रकाशित हुई है. इस कहानी की पाठकों के बीच अच्छी-खासी चर्चा हो रही है. हमेशा की तरह विमल ने ऐसे कथ्यों के सहारे कहानी की बुनावट की है जो रोचक होने के साथ-साथ प्रासंगिक और यथार्थ भी है. आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में हमारा चौकन्नापन कुछ इस तरह का है जिसमें बहुत कुछ खोता जा रहा है. ओवर कांससनेस का आलम यह होता है कि हम उस खोने या छूटने का एहसास तक नहीं कर पाते. तो आइए पढ़ते हैं विमल की बिल्कुल नयी कहानी ‘पर्स’.        
      
विमल चन्द्र पाण्डेय

पर्स
(जिस चीज़ का वजन कम हो तो उसकी गति अधिक होती है)
अपनी जानकारी में मैं दुनिया का सबसे चौकन्ना इंसान हूं। आप इस बात की तस्दीक मेरे मुहल्ले या ऑफिस के किसी भी आदमी से कर सकते हैं और मैं यह अच्छी तरह जानता हूं कि कौन सा आदमी मेरे चौकन्नेपन के बारे में बताने के लिये कौन सा उदाहरण देगा। यह भी मेरे चौकन्नेपन का एक नमूना है।
वैसे तो मैं आपको इस बात के दसियों उदाहरण दे कर साबित कर सकता हूं, घर परिवार के, दफ्तर के, सेहत के, जीवन के हर मोड़ पर आपको मेरे चौकन्नेपन का जलवा दिखायी देगा। घर परिवार की बातों पर आप भी ज़रूर अपनी या अपने किसी चहेते की बात उठा लाएंगे या ऑफिस की बात कहने पर कह सकते हैं कि यह चौकन्नापन नहीं चमचागिरी या कुछ और है। मैं एक ऐसे उदाहरण से अपनी बात को सही साबित करुंगा कि आप को फिर कुछ सूझेगा नहीं।
बयालीस साल की उम्र तक दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में नौकरी करते हुये, बाकायदा मुंबई की लोकल और दिल्ली में डीटीसी बसों की यात्रा करते हुये अगर किसी आदमी की जेब कभी न कटी हो तो आप क्या कहेंगे ? खा गये न चक्कर? कभी नहीं मतलब कभी नहीं। नहीं मान्यवर, एक बार भी नहीं। अरे मेरी याद्दाश्त पर शक मत कीजिये, यह आज भी चौबीस की उम्र जैसी है। 
बसों या लोकल ट्रेन में चढ़ते हुये मेरे दिमाग में न ऑफिस होता है न भीड़। मेरी हथेली तुरंत मेरी पिछली जेब पर जाती है और मैं अपना बटुआ निकाल कर जींस के आगे वाली जेब में रख लेता हूं। भीड़ भरी लोकल में खड़ा मैं सोचता रहता हूं कि आज फिर मेरा पर्स नहीं मारा जा सकता। मैं अपने से चार आदमियों के बाद खड़े एक लुक्खा दिखते नवयुवक की ओर देखता हूं तो मुझे लगता है कि यह पॉकेटमार है। जब मैं चढ़ा था तो इसने मेरी पिछली जेब पर हाथ फिराया होगा और पर्स न पाकर अब मुझे गुस्से से घूर रहा है। मैं उसकी ओर देख कर विजयी मुस्कान मुस्कराता हूं। ‘‘मेरा पर्स मारना इतना आसान नहीं बच्चेवाला भाव मेरे चेहरे पर है और मुझे मुस्कराते देख अपनी इज़्ज़त रखने के लिये वह भी मुस्कराया है। वह अपनी भंगिमाओं से मुझे कहता हुआ दिख रहा है, ‘‘अगली बार नहीं बचेगा तुम्हारा पर्स’’। मैं उसकी मुस्कराहट से डर जाता हूं और अनायास ही मेरी हथेली अपनी अगली जेब पर होती है। पर्स सही सलामत है। ‘‘मेरा पर्स मारना बच्चों का खेल नहीं।’’ आज तक एक बार भी मेरी जेब नहीं कटी।
मैं बाइक से कहीं जा रहा होता हूं, मसलन घर से ऑफिस या ऑफिस से किसी काम से स्टेशन तो कभी-कभार एकाध लिफ्ट मांग रहे लोगों को अपनी बाइक की पिछली सीट पर बिठा लेता हूं। मुझे लोगों की मदद करना अच्छा लगता है। लेकिन उसके बैठते ही मुझे याद आता है कि शिट, मेरा पर्स तो पिछली ही जेब में है और अब मैं बाइक रोक कर पर्स निकाल कर अगली जेब में रखूं, यह अच्छा नहीं लगेगा। जब यह बैठा था तो मैं खड़े होने के बाद टेढ़ा होकर फिर बैठा था, उस एक पल के लिये मेरा ध्यान अपनी जेब से हटा था, अगर इसे मारना होगा तो इसने मेरा पर्स मार दिया होगा, होगा क्या, मार ही दिया लगता है। मैं अपने पर्स को महसूस करने के लिये बाइक की सीट पर पीछे की तरफ दाहिनी ओर झुकता हूं। अपना दाहिना नितम्ब सीट पर दबा कर महसूस करता हूं तो लगता है कि पर्स पीछे वाले जेब में सलामत है। लेकिन यह बात मैं सौ प्रतिशत निश्चित होकर नहीं कह सकता। हालांकि अस्सी प्रतिशत संभावना है कि पर्स जेब में ही है लेकिन बीस प्रतिशत इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि उसने बैठते ही पर्स मार लिया हो। शक्ल से स्कूली छात्र लगता है, मुझे अंकल कहा है लेकिन आजकल स्कूली छात्र ही तो सबसे ज़्यादा इन सब कामों में लगे रहते हैं। फैशन और नशे ने युवा पीढ़ी को बरबाद कर रखा है। मैं बहुत कम पीता हूं और अपने जीवन के बयालिस सालों में सिर्फ़ दो मौके ऐसे रहे हैं जब मैं पीकर होश खो बैठा हूं। वह भी कॉलेज टाइम की बात है, उस समय मेरे जीवन में कोई अनुशासन नहीं था। अब तो तीन पेग के बाद कोई दोस्ती की कसम देता देता मर जाये, मैं टस से मस नहीं हो सकता। मेरे विल पॉवर की कसमें खायी जाती हैं भाई साहब। 
‘‘अंकल यहीं रोक दीजिये। थैंक्यू अंकल।’’ कह कर लड़का जाने के लिये पलटा है। इधर लड़का पलटा है और उधर मेरी हथेली मेरी पिछली जेब तक पहुंची है। शिट ! पर्स सही सलामत मौजूद है। मुझे ख़ुद पर इस वक्त लोकल ट्रेन जैसी खुशी नहीं बल्कि शर्म सी महसूस हुयी है। एक अच्छा काम किया, अब उसका भी पुण्य मुझे नहीं मिलने वाला। एक बार शक कर मैंने अच्छे काम पर पानी फेर दिया हैं।
मेरी बगल से कोई भिखारी गुज़र जाये या फिर कोई सेल्समैन रास्ते में मुझसे टाइम पूछ कर आगे निकल जाये, छूटते ही मेरा हाथ जेब पर होता है। अगर आपको तुरंत पता चल जाये तो पॉकेट मारने वाले को आप दौड़ा कर पकड़ सकते हैं। आप हंसेंगे कि आज भी और आज से दस पंद्रह साल पहले भी, भीड़ में मुझे कोई लड़की टक्कर मार जाये तो मेरे दिमाग में तुरंत पिछले दिनों की अख़बार में पढ़ी ख़बर की कटिंग दौड़ जाती है कि आजकल महिला पॉकेटमारों का गिरोह काफी सक्रिय है। पंद्रह साल पहले वाली बात मैंने अपने चरित्र के बारे में बताने के लिये कही। उस उम्र में जब लड़के को लड़की के अलावा कोई और बात नहीं सूझती, मैंने कई लड़कियों से टकराने के बावजूद आज तक अपना पर्स नहीं खोया। मेरा ध्यान हमेशा पर्स पर रहता था। आपको विश्वास नहीं होगा कि मेरी पत्नी भी मेरी इस बात पर मेरा लोहा मानती है कि मेरी जेब में कितने रुपये पड़े हैं, चवन्नी की हद तक मुझे याद रहता है। अरे पचीस रुपये की ली थी मच्छर भगाने वाली अगरबत्ती, पच्चीस रुपये की दही, तीन रुपये का पान खाया था और पांच रुपये का अदरक धनिया खरीदा था, कुल हो गये अठावन रुपये तो जेब में बचे चार सौ बयालिस रुपये। अब श्रीमती जी अपना हुनर दिखाएंगीं तो मैं अगले दिन उनसे पूरे आत्मविश्वास से कहूंगा, ‘‘आपने मेरी जेब से एक सौ बयालिस रुपये निकाल लिये हैं वो वापस करिये।’’ उनके चेहरा देखने लायक होगा। इससे बचने के लिये शुरुआती ऐसे कुछ मौकों के बाद उन्होंने मेरे पर्स में हाथ डालना बंद कर दिया।
मेरी इस खूबी का सभी लोग लोहा मानते हैं लेकिन एक मेरे बचपन का दोस्त रासबिहारी है जो इसके लिये मुझे कोसता है। मैं इसके पीछे का कारण समझता हूं। वह बहुत गरीब परिवार से है। बेचारे के पिताजी एक सरकारी ऑफिस में चपरासी थे और कई भाई बहन होने के कारण इसकी मां और बहनों को पहले लिफाफे बनाने पड़ते थे। अब अपनी मेहनत से रासबिहारी ने बैंक में अच्छी नौकरी पायी है। उसने बहुत गरीबी देखी है और वह जीवन का आनंद लेना चाहता है। मैंने तो जीवन के बहुत आनंद लिये हैं। पत्नी को लेकर शादी के बाद घूमने कश्मीर भी गया था।

रासबिहारी मुझे कंजूस कहता है लेकिन दरअसल बात यह है कि मुझे कभी किसी चीज़ की कमी नहीं रही इसलिये मुझे किसी चीज़ की हाह ने नहीं पीट रखा है। मेरे पिता ने मुझे दसवीं और बारहवीं में नेपाल और भूटान घुमाया था, मैं कश्मीर घूम चुका हूं, अब कितनी जगहें देखेगा आदमी, हर जगह तो वही पहाड़ और नदियां होती हैं। कश्मीर इतनी खूबसूरत जगह है कि यहां घूमने के बाद आदमी इससे खूबसूरत जगह और कहां घूमेगा। श्रीमती जी मेरे इस तर्क पर नाराज़ हो जाती हैं और मुझे कंजूस कहने लगती हैं। वह रासबिहारी का उदाहरण देने लगती हैं जो साल भर इसलिये पैसे जुटाता है कि साल में वह अपने परिवार को एक बार कहीं घुमाने ले जा सके। अभी वह केरल घूम कर लौटा है और मेरी श्रीमती जी हैं कि उनके बेटे के कंप्यूटर पर नारियल के पेड़ों और समुद्र की तस्वीरें जब से देख कर आयी हैं, केरल जाने की जि़द लिये बैठी हैं। मैंने कुल खर्चा जोड़ा है, इतने में हम साल भर आराम से बिजली का बिल भर सकते हैं। इन औरतों को भी न भाई साहब सब कुछ देखा देखी करना होता है। मैं अपनी पत्नी को खुश करना जानता हूं। मैं उसे अपनी लक्ष्मी कहता हूं। जब से वह मेरी जि़ंदगी में आयी है, मेरा बैंक बैलेंस बढ़ता गया है। मैं आपको बता नहीं सकता क्योंकि पता नहीं कब कहां कोई बाहरवाला इस बात को सुन रहा हो। भले ही यह कहानी है और इसके लेखक ने मेरा किरदार तैयार किया है लेकिन सच कहूं भाई साहब मुझे सचमुच इतना डर लगता है कि मैं कहानी में भी नहीं बता सकता कि मेरे कितने बैंक खातों में कितनी रकम है, नहीं फुसफुसा कर भी नहीं। मैं इसे सोचने से भी डरता हूं कि कहीं किसी के पास यह बात टेलीपैथी के ज़रिये न पहुंच जाय।
‘‘तुम मेरी लक्ष्मी हो जान।’’ मैं पत्नी को मनाने का यत्न करता हूं। ‘‘उसकी पत्नी अगर घरबोरन है तो होने दो। उसे नहीं समझ कि भविष्य के लिये बचत करनी चाहिये लेकिन हम तो यह बात समझते हैं। सोचो अभी ईश्वर न करे उनके घर में कोई बीमार पड़ गया तो ? उनके पास इलाज के पैसे तक नहीं होंगे। हम भी घूमेंगे थोड़ी बचत तो कर लें।’’ मेरी पत्नी समझदार है। समझाने पर मान जाती है वरना मेरे कई दोस्तों की बीवियां जब से उनकी जि़ंदगी में आयी हैं, उनकी जि़ंदगी नर्क बन गयी है। रासबिहारी जैसा छुट्टा खर्च करने वाला है, उसकी बीवी भी दो कदम मिलाने वाली मिली है। मुझे अक्सर चिंता होने लगती है कि आखि़र उसकी दोनों संतानों की पढ़ाई लिखाई कैसे होगी ? आजकल की पढ़ाई लिखाई के बारे में तो आप जानते ही हैं, इतनी महंगी है कि आदमी बिक जाय।
इस बार तो रासबिहारी ने हद ही कर दी। अपने जन्मदिन पर सब दोस्तों को घुमाने रिषीकेश ले जायेगा। वह तो पूरे ऑफिस को ले जाने का प्लान बना रहा था लेकिन मणि और दिवाकर के समझाने पर तय रहा कि पुराने दोस्त चलेंगे यानि उनमें मैं भी हूंगा। मैं इस प्रकार की किसी भी बेवकूफी से दूर रहने का पूरा प्रयत्न करता हूं लेकिन ये पट्ठा रासबिहारी भी जि़द का पक्का है। पत्नी ने समझाया कि इतनी जि़द कर रहे हैं, रविवार पड़ भी रहा है उस दिन, घूम आइये, वैसे भी ऐसे तो आप जाने से रहे।’’ खैर, भाईसाहब, मैंने सोचा दोस्त का दिल क्या तोड़ूं, चला चलता हूं। श्रीमती जी ने मेरा बैग तैयार किया और मैंने अपने पैसे अंडरवियर समेत चार जगहों पर अलग अलग रख लिये। इसके बारे में आपकी भी मां ने आपको बताया ही होगा कि एक जगह का पैसा अगर चोरी हो जाय तो कम से कम दूसरी जगह का पैसा मुसीबत में मदद करे।
हम चारों की दिल्ली यात्रा सुखद रही। रास ने कहा था कि सारे बिल वह वहन करेगा इसलिये मैंने सोचा कि उसकी इच्छा पूरी होनी चाहिये, आखिर उसका जन्मदिन है। लेकिन मणि और दिवाकर ने वहां का बाकी का खर्चा ज़बरदस्ती अपने ऊपर ले लिया। अरे यार, उसका जन्मदिन है, वह जि़द कर रहा है तो करने दो खर्चा, मैंने उन दोनों की जि़द से खुद को अलग रखा। वे दोनों हंसने लगे, दिवाकर ने तो बद्तमीज़ी से यह भी कहा कि भाई तेरा तो मैं जोड़ कर चल ही रहा हूं। इस पर तीनों काफी देर तक हंसते रहे। मुझे बुरा नहीं लगा। अपने दोस्त है, यही तो मज़ाक उड़ाएंगे, पैसे की ज़रूरत जब हम चारों के सामने एक साथ आयेगी तो सबको पता चल ही जायेगा कि कौन कितने पानी में है।
अगले दिन घूमने का प्लान था। हम होटल से तय समय से निकल गये। रास्ते में दिवाकर ने गाड़ी रुकवा कर सबको नाश्ता कराया। नाश्ता कर हम पहाड़ों की ओर निकले। वहां रोपवे पर आनंद लेने की योजना बनी। रोपवे पर जाने के लिये टिकट कटवाने के बाद लाइन लगा कर ऊपर की ओर चढ़ना था। वहां थोड़ी भीड़ भी थी। हमने यात्रियों को चढ़ाने वाले भाई साहब से मनुहार किया कि हम चारों दोस्तों को एक ही साथ जाने का मौका दिया जाय। वह भला आदमी था। दो लोगों का नंबर हमसे पहले था, उसने उन्हें रोक कर हम चारों को एक साथ एक ही झूले में जाने का मौका दिया। 
झूला अपनी गति से चल रहा था और नीचे अंनत अथाह दूरी पर दिख रही थी ज़मीन। मैंने नीचे की ओर देखा तो मुझे झांईं सी आने लगी। मैंने नज़रें ऊपर कर लीं। मैं भी पहाड़ों की ओर देखने लगा जहां कि तस्वीरें मणि धड़ाधड़ लिये जा रहा था। मणि बाकायदा खड़े होकर तस्वीरें ले रहा था। वह वाकई बहुत साहसी है। रासबिहारी बैठे-बैठे पहाडों को बडे़ प्यार से देख रहा था। पता नहीं उसे क्या ख़ूबसूरती नज़र आ रही थी। उसके चेहरे से यह भी लग रहा था कि वह बड़ा भावुक हो रहा है। दिवाकर के चेहरे पर भी ऐसे ही भाव थे। मैंने देखा पहाड़ों के ऊपर बादल थे। पहाड़ों के ऊपर बादल ही तो होंगे कोई नदी थोड़ी होगी। पता नहीं रासबिहारी क्या देख रहा था कि अचानक वह उत्तेजना में झूला पकड़ कर खड़ा हो गया, ‘‘वो देख दिवाकर इंद्रधनुष !’’ आवाज़ सुनकर मणि ने भी सिर घुमाया। उसने एक बार कैमरा हटा कर देखा फिर कैमरा आंख पर लगा ही नहीं पाया।
‘‘अद्भुत सुंदर है यार ! और कितना करीब। लगता है हम इसे हाथ से छू सकते हैं।’’ मणि ने मुग्ध भाव से कहा। कैमरा उसने गले में लटका लिया। उसने कैमरे के लेंस का कवर पिछली जेब से निकाला ताकि कैमरे का लेंस बंद कर उसे थोड़ी देर का विराम दे। अचानक पिछली जेब से उसका पर्स उसकी हथेली के साथ सरक कर बाहर आया और गिर गया। मैंने पूरे चौकन्नेपन के साथ खुद को संभाले हुये एक झपट्टा मारा कि गिरते पर्स को पकड़ सकूं लेकिन पर्स की गति मेरी गति से अधिक थी क्योंकि उसका वज़न कम था। किसी भी चीज़ का वजन कम हो तो उसकी गति अधिक होती ही है। मेरे मुंह से चीख निकल गयी। ‘‘ओह तुम्हारा पर्स !’’ मणि चौंक गया। उसने पलट कर नीचे की ओर देखा। उसका पर्स हवा में गोते खाता नीचे की ओर जा रहा था। उसमें से कुछ कागज़ भी निकल कर बाहर उड़ रहे थे। मणि ने दुखी भाव से नज़र ऊपर उठा कर मेरी ओर देखा। उसके चेहरे पर दुख की रेखाएं थीं। उसने जल्दी से अपनी पैण्ट की जेब में हाथ डाला और जब उसका पंजा बाहर आया तो उसकी उंगलियों में कुछ सौ और पांच सौ के नोट फंसे हुये थे। उसने फिर से चेहरे पर दुख लिये एक बार नीचे की ओर देखा जहां उसका पर्स अब नज़रों से ओझल होने वाली सीमा पर था। ‘‘अच्छा हुआ जो ये पैसे मैंने आलसवश पर्स में नहीं डाले थे, भाई इसे तू रखे रह, इस काम के लिये सबसे सही आदमी है तू। मैं बहुत लापरवाह हूं यार।’’ मैंने उसकी अमानत अपने पास सुरक्षित की। यह जि़म्मेदारी मेरे लिये एक तरह से मेरे चौकन्नेपन का सम्मान है। मेरे दोस्त भले मुक्त कंठ से इस बात को स्वीकार न करें लेकिन इसी बात के लिये मेरी कद्र तो करते ही हैं। मैं उसके पैसे अपने पर्स में एक तरफ सुरक्षित कर ही रहा था कि वह फिर से रासबिहारी के पास जाकर इंद्रधनुष देखने लगा। 
‘‘इसका पर्स गिर गया भाइयों नीचे।’’ मैंने रासबिहारी को सुना कर कहा। उसने एक बार मेरी ओर देखा और कहा, ‘‘ओह।’’ और फिर से इंद्रधनुष देखने लगा। ‘‘अबे इसका पर्स गिर गया और तुम लोगों को कोई परवाह ही नहीं है।’’ मैंने थोड़ी ऊंची आवाज़ में कहा तो मणि ने पलट कर संक्षिप्त जवाब दिया और फिर उसी ओर देखने लगा, ‘‘अरे आरटीओ में मेरा परिचित है, डीएल दुबारा बन जायेगा, कार्ड ब्लॉक करा दूंगा, कैश ज़्यादा था नहीं।’’
मुझे आश्चर्य हुआ कि यह पर्स गिर जाने जैसी बड़ी घटना को इतना छोटा करके क्यों देख रहा है। फिर मुझे लगा कि ये लोग मेरा इतना मज़ा लिया करते हैं कि इसी संकोच में वह ज़्यादा चिंता दिखा नहीं सकता, अंदर से तो परेशान होगा ही। मुझे लगा जिस फालतू काम में सब खुद को इतना व्यस्त दिखा रहे हैं उसमें मुझे भी अपना उत्साह दिखाना चाहिये। मैंने दोनों हाथों से झूले को मज़बूती से पकड़ा और दूसरी ओर यानि रासबिहारी की ओर जाने लगा। रासबिहारी ने मुझे रुकने का इशारा किया और खुद मेरी तरफ आ गया ताकि झूले का वज़न बराबर रहे। मैं मणि और दिवाकर के पास जाकर इंद्रधनुष देखने की कोशिश करने लगा।
‘‘कहां हैं इंद्रधनुष?’’ मैंने मणि से पूछा। उसने भौंहों से सामने की ओर इशारा किया और फिर मुग्ध-भाव से उसी ओर देखने लगा। मैंने फिर से देखने की कोशिश की। आसमान साफ था और लगता था जैसे किसी ने सूखी रेत बिखेर दी हो। मुझे कुछ दिखायी नहीं दिया। ‘‘कहां है, मुझे तो नहीं दिख रहा।’’ मैंने हर तरफ गर्दन घुमायी, मुझे सात रंग क्या एक भी रंग दिखायी नहीं दिया। 
मैंने रासबिहारी की ओर देखा और अपना सवाल दोहराया। उसने भी उंगली से जिस ओर इशारा किया उधर कुछ नहीं था। वे सब मेरे लिये चिंतित होने लगे। ये चिंता करने वाले भी कैसी कैसी बातों पर चिंता करने लगते हैं। अरे ठीक है यार, मुझे नहीं दिखायी दे रहा है उधर क्या है। मुझे लग रहा है उधर कुछ नहीं है तो दिक्कत क्या है ? और उधर कुछ होता भी तो क्या हो जाता, इंद्रधनुष ही है न, मैंने कितनी ही बार देखा है।
मुझे लगता है मेरी दृष्टि कमज़ोर हो गयी है। वापस जा कर पहला काम यही करुंगा कि नेत्र विशेषज्ञ डॉ. अनिल से अपनी आंख चेक कराउंगा । परिचित हैं, फीस लेंगे नहीं और दवाइयां पड़ोसी के एमआर से कह दूंगा कि दे जाये।
हर बात को ले कर चौकन्ना रहता हूं भाई साहब। यह मेरे चौकन्नेपन का ही नमूना है कि समस्या आयी नहीं कि मेरे पास उसका निदान मौजूद रहता है।
(अनहद – 5 से साभार) 

(कहानी में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)

विमल चन्द्र पाण्डेय का आलेख ‘मुठ्ठी में तक़दीर और आँखों में उम्मीदों की दिवाली’



ऐसा नहीं है कि हर भारतीय फिल्म को फालतू और खराब ही कह दिया जाए बूट-पालिशएक ऐसी फिल्म है जो एक उत्कृष्ट और यादगार फिल्म है यह फिल्म इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वह उस निराशाजनक माहौल (जो आजादी के बाद चारों तरफ दिखने लगा था) में भी उस आशा की बात की करती है जिससे जीने की एक उम्मीद बची हुई है।‘ कवि-कहानीकार मित्र विमल चन्द्र पाण्डेय ने एक पारखी नजर इस फिल्म पर डाली है और यह आलेख पहली बार के पाठकों के लिए तैयार किया है तो आइए पढ़ते हैं यह आलेख

        

मुठ्ठी में तक़दीर और आँखों में उम्मीदों की दिवाली
विमल चन्द्र पाण्डेय 

देश के १९४७ में आज़ाद होने से पहले माहौल कुछ इस तरह का बन गया था कि आज़ादी मिलते ही देश का कायाकल्प हो जायेगा। भुखमरी, सूखा, बाढ़ और बेरोज़गारी हर समस्या का एक ही इलाज़ नज़र आता था आजादी से उम्मीदें बहुत बढ़ गयी थीं और उनमें से ज़्यादातर झूठी थीं। बेसब्री से आजादी का इंतज़ार करते लोग जब तक ये समझ पाते कि सत्ता गोरे अंग्रेज़ों के हाथ से निकल कर काले अंग्रेज़ों के हाथ में चली गयी है। बहुत देर हो चुकी थी। नेहरु और अन्य सियासतदानों ने आज़ादी के बाद के जो लक्ष्य निर्धारित किये थे, उनकी कलई खुल चुकी थी और सारे वादे और सपने झूठे साबित हुए थे। मगर १९५४ में प्रदर्शित हुई बूट पॉलिशइस निराशाजनक माहौल में भी उस आशा की बात करती है जिससे जीने की एक वजह बची हुई है। दो बच्चों के ज़रिये कही गई इस कहानी में वैसे तो मुंबईया फिल्मों के कई तय संयोगों का प्रभाव ज़रूर है मगर फिर भी कहानी जो आशा और उम्मीद देती है, उसकी वजह से प्रासंगिक हो जाती है।
 
            फिल्म के नायक नायिका दो बच्चे हैं भोला और बेलू जो अपने माता पिता की मौत के बाद एक ऐसी रिश्तेदार के पास भेज दिए जाते हैं जो कर्कशा है। उन्हें बात-बात पर मारती है और भीख मांगने के लिए दबाव डालती है। बच्चों का पड़ोसी जॉन चाचा उन्हें भीख मांगने से मना करता है और कहता है की मर जाओ लेकिन भीख मत मांगो। ये दो हाथ दुनिया का हर काम कर सकते हैं। वह झुग्गी के सभी बच्चों से पूछता है नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या हैतो बच्चे जवाब देते हैं, ‘मुठ्ठी में है तकदीर हमारीमुट्ठी में अपनी तकदीर और आँखों में उम्मीदों की दिवाली लिए ये बच्चे फिर भी भीख मांगने को मजबूर हैं क्योंकि उन्हें उनके बड़ों द्वारा कुछ और नहीं सिखाया जाता। यह कहानी सिर्फ भोला की जिजीविषा की कहानी है जो जॉन चाचा की इस बात को गांठ बांध चुका है कि वह मर जायेगा लेकिन भीख नहीं मांगेगा।
 
भोला का सपना है कि वह भीख मांगना छोड़ कर बूट पॉलिश करे और इसके लिए वह अपनी बहन के साथ भीख मांग कर पैसे जुटाता है ताकि एक लाल पॉलिश, एक काली पॉलिश और ब्रश खरीद सके। एक भींगती शाम भोला एक ज्योतिषी के चंगुल में फंसता है जो दो पैसे में उसका भविष्य बताने को कहता है। दो पैसे का भविष्य बताते हुए ज्योतिषी कहता है कि बच्चा तू आगे बिलकुल नहीं पढ़ेगा। इस पर भोला सवालिया निगाहों से कहता है कि बाबा मैंने तो पीछे भी कुछ नहीं पढ़ा। वह ज्योतिषी से अपने काम के बारे में पूछना चाहता है जिस पर ज्योतिषी झल्ला कर कहता है जा तू जिंदगी भर जूतियाँ रगड़ेगा। भोला की आंखे चमक जाती हैं, जूतियाँ रगड़ना तो उसका सपना है। वह चहक कर ज्योतिषी से पूछता है क्या सचमुच बाबा जी, क्या मैं सचमुच जिंदगी भर जूतियाँ घिसूंगा? ये सपना बूट पॉलिश की जगह किसी भी और सपने से स्थानापन्न किया जा सकता है और भोला उस सपने के लिए हर संभव जतन करता है। कई बार टूट भी जाता है लेकिन हार नहीं मानता। आखिरकार वो अपनी बहन बेलू के साथ जा कर बूट पॉलिश और ब्रश खरीद कर ले आता है। अपनों के नाम पर उनके पास जॉन चाचा हैं और जॉन चाचा के पास वे दोनों बच्चे। वे जॉन चाचा को यह खुशखबरी सुनाने के लिए आते हैं और उसकी आंखे बंद करवाते हैं। जॉन जब आंखे खोलता है तो वह देखता है कि दोनों बच्चों ने अपना सपना पूरा कर लिया है और ईसा मसीह की फोटो के सामने आले पर जूते की पॉलिश और ब्रश रखे हुए हैं। खुद दारू का धंधा करने वाला जॉन मेहनत की कीमत समझता है, उसकी जिंदगी बर्बाद हो चुकी है लेकिन वह चाहता है की देश का भविष्य भीख न मांगे बल्कि मेहनत से पेट भरे। वह ईसा मसीह की तस्वीर को प्रणाम करता है और बच्चों को बूट पॉलिश खरीदने के लिए बधाई ही नहीं देता, भोला को बूट पॉलिश करने का तरीका भी बताता है ताकि वह ग्राहकों के जूते खराब किये बिना पैसे कमा सके।

            बच्चे अपनी तथाकथित चाची से मार खाकर जॉन चाचा के ही पास आते हैं। भूख लगने पर जब जॉन रोती हुई बेलू से पूछता है कि बेटा तुझे भूख लगी है क्या तो बेलू रोती हुई एक दिल दहला देने वाला जवाब देती है, ‘हाँ, चाचा मुझे रोज-रोज भूख लग जाती है। जॉन कहता है की भूख हमारे वतन की सबसे बड़ी बीमारी है। जॉन ये भी कहता है कि इन झुग्गियों में रहने वाले लोग आज जैसी काली रात से भी काली जिंदगी गुजारते हैं। लेकिन उसे उम्मीद है की एक दिन सुबह ज़रूर होगी और बच्चे पढ़ लिख कर एक अच्छा भविष्य पाएंगे। पूरी फिल्म का सार इस सपने में ही है। भले ही फिल्म कोई समाधान नहीं बताती और एक अयथार्थवादी और खुशनुमा अंत के साथ कई सवाल अनसुलझे छोड़ जाती है, फिर भी भोला के सच और मेहनत की कमाई के लिए जद्दोजहद देखने योग्य है। देश की उम्मीदें जब टूट रही हों, ऐसे में यह उम्मीद ही बहुत है एक न एक दिन वह सुबह ज़रूर आयेगी जिसमे सबको खाना मिलेगा और देश के भविष्य को किसी के सामने हाथ फ़ैलाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। भोला के रूप में रत्तन कुमार का सहज अभिनय देखने लायक है जिसने दो बीघा ज़मीनमें बलराज साहनी यानि शम्भू महतो के बेटे कन्हैया की भूमिका में जान डाल दी थी। बेलू की भूमिका में बेबी नाज और जॉन चाचा की भूमिका में डेविड भी सहजता से अपने अपने किरदारों को जीते हैं। फिल्म इटली के नियो-रिअलिज्म आन्दोलन से प्रभावित थी और कांस फिल्म समारोह में भारत की और से अधिकारिक इंट्री के तौर पर भेजी गयी थी। इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला था और इसे राज कपूर की बेहतरीन फिल्मों में गिना जाता है हालाँकि फिल्म के कुछ दृश्य और बच्चों के मुंह से बुलवाए गए कई संवाद नकली से लगते हैं। खासतौर पर राज कपूर को श्री ४२०के गेटअप में, जिसकी उस समय शूटिंग हो रही थी, एक दृश्य में फिल्म में डालना फिल्म के यथार्थवादी माहौल में नाटकीयता उत्पन्न करता है। इसी तरह मंदिर में उसी औरत से और बेर बेचते समय उस आदमी से भोला का मिलना बहुत नकली और फ़िल्मी संयोग लगते हैं जो बेलू को पाल रहे हैं। फिल्म खत्म होने से पहले अपने सुखद और नाटकीय अंत का आभास पहले ही दे देती है और बिना किसी समाधान की ओर इशारा किये मुम्बईया फिल्मों की तरह फील गुड करते हुए खत्म हो जाती है लेकिन इससे जॉन चाचा के उस सपने को कोई फर्क नहीं पड़ता जिसमे वो कहता है कि नयी दुनिया आयेगी नहीं बल्कि ये बच्चे नयी दुनिया बनायेंगे। फिल्म में एक दृश्य में महान गीतकार शैलेन्द्र को देखना एक सुखद अनुभव है। हसरत जयपुरीए शैलेन्द्र और दीपक के लिखे गीत फिल्म में चार चाँद लगाते हैं। खासतौर पर नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या हैऔर रात गयी फिर दिन आता है’, सदाबहार हैं। चली कौन से देश गुजरिया तू सज धज के’, ‘लपक झपक तू आ रे बदरवा’ ‘ठहर ज़रा जानेवालेऔर मैं बहारों की नटखट रानीभी अच्छे गीत हैं। तारा दत्त का छायांकन बहुत अच्छा है और शंकर जयकिशन का संगीत फिल्म की जान है।
 
फिल्म के निर्देशक प्रकाश अरोड़ा की यह एकमात्र फिल्म है। कहते हैं जब राज कपूर के सहायक रहे अरोड़ा ने राज कपूर को फिल्म के रश प्रिंट्स दिखाए तो उन्हें फिल्म पसंद नहीं आयी और उन्होंने इसे री-शूट किया। प्रकाश अरोड़ा की तरह फिल्म के लेखक भानु प्रताप की भी यह एकमात्र फिल्म है।

विमल चन्द्र पाण्डेय
 
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विश्व सिनेमा पर विमल चन्द्र पाण्डेय का आलेख “मैप ऑफ़ द ह्यूमन हार्ट” : अद्भुत संयोगों से भरी अद्भुत प्रेम कहानी

विश्व के विभिन्न देशों में बनी कुछ महत्वपूर्ण फिल्मों पर पैनी नजर डाली है हमारे कवि-कहानीकार मित्र विमल चन्द्र पाण्डेय नेविमल की फिल्मों में भी काफी रूचि और दखल है। इन दिनों वे कुछ अच्छी फ़िल्में बनाने के क्रम में मुम्बई जैसी मायानगरी में संघर्ष कर रहे हैं। वे इस संकल्प के साथ मुम्बई गए हैं कि वहाँ वे साफ़-सुथरा काम करेंगे न कि बेसिर-पैर की फिल्मों और धारावाहिकों पर। पहली प्रस्तुति के क्रम में न्यूजीलैंड के निर्देशक विन्सेंट वार्ड की फिल्म ‘द मैप ऑफ द ह्यूमन हार्टस की चर्चा प्रस्तुत है विश्व सिनेमा पर एक सिलसिलेवार प्रस्तुति पढ़ सकेंगे  
  
विमल चन्द्र पाण्डेय

“मैप ऑफ़ द ह्यूमन हार्ट” : अद्भुत संयोगों से भरी अद्भुत प्रेम कहानी
बचपन में अपनी पाठ्य पुस्तक में एस्किमो बालक नाम का एक चैप्टर पढ़ा था जिसमे पहली और आखिरी बार सील और वौलरस नाम के जीवों की तसवीरें देखीं थीं और इग्लू के बारे में जाना था कुछ तस्वीरों में कई एस्किमो बालक स्लेज की सवारी कर रहे थे स्लेज यानि एक ऐसी गाड़ी जिसे कुत्ते खींचते हैं बहुत अच्छा लगा था लेकिन उस उम्र में यह भी लगा था की यह ज़रूर किसी दूसरी दुनिया की बात है ऐसे लोग ऐसे माहौल में रहते होंगे जो वाकई इंसान होंगे जो हमारी तरह सोचते होंगे और हमारे जैसी भावनाएं रखते होंगे ये मानने को दिल तैयार नहीं था और तब तक नहीं था जब तक न्यूजीलैंड के निर्देशक विन्सेंट वार्ड की फिल्म ‘द मैप ऑफ द ह्यूमन हार्टस’ नहीं देखी थी अपनी कुछ कमियों के बावजूद यह फिल्म सिर्फ इसलिए देखी जानी चाहिए क्योंकि यह अपने शानदार कैमरावर्क के साथ आपको ऐसी दुनिया में ले जाती है जहाँ हिंदी फिल्में हमें बहुत बेईमानी से सिर्फ कुछ देर के लिए ले गयी हैं और वह भी इसलिए कि वहाँ जा कर हमारे नायक नायिका एक दूसरे को बर्फ के गोले बना कर मार सकें और एक मधुर गाने की गुंजाईश निकाली जा सके
       एविक नाम का एस्किमो बालक ट्यूबरकुलोसिस नाम की बीमारी से ग्रसित है और दृश्य १९३१ में कनाडियन उत्तरी ध्रुव का है वह आधा गोरा और आधा एस्किमो है मैपिंग यानि नक़्शे बनाने वाले कुछ लोग वहाँ आये हैं और उनका यह काम एविक को बहुत आकर्षित करता है वाल्टर रसेल नाम का गोरा उसकी बीमारी के बारे में जान कर उसकी दादी को बताता है की इस लड़के को गोरों वाली बीमारी है और उसे गोरों वाली ही दवाई चाहिए एविक की दादी के ये तर्क कि यह कोई पुराना श्राप है, या घर में एविक के अलावा कोई मर्द नहीं है या एविक को एक बड़ा शिकारी बनना है, वाल्टर के सामने नहीं चलते और वह एविक को लेकर उसका इलाज कराने अपने साथ ले जाता है, वहाँ एविक को एक स्कूल में भारती किया जाता है जहाँ एक कड़क टीचर मिलती है जो बताती है कि सबको अच्छा बनना चाहिए और जन्नत में जाना चाहिए नहीं तो बुरे कर्म करने वाले लोग; प्रोटेस्टेंट लोगों कि तरहद्ध नरक में जाते हैं, वह एविक से कहती है, मुझे पता है तुम्हारे पिता गोरे थे इसलिए तुम्हें थोड़ी अंग्रेज़ी ज़रूर आती होगी एविक सहमति में सिर हिलाता है वह पूछती है, ‘हमें बताओ तुम्हें अंग्रेज़ी में क्या आता है, एविक सोच कर धीरे से बोलता है, “चाक…. कलेक्ट…” ये दो शब्द सुनकर टीचर खुश होती है और कहती है, “बहुत अच्छा?… और आगे।“ उत्साहित एविक अपना अंग्रेज़ी का सारा ज्ञान उड़ेल देना चाहता है और मुस्कुराता हुआ बोलता है, ‘होली बॉय, फक यू’ टीचर उसे मारती है और क्लास के सभी बच्चे उसे पोटैटो फेस कह कर चिढ़ाते रहते हैं ‘ओ बॉय’ और ‘होली काऊ’ को मिला कर वह ‘होली बॉय’ कहता है जो पूरी फिल्म में उसकी पहचान के तौर पर प्रयोग हुआ है सबसे अधिक चिढ़ाने वालों में से एक लड़की एल्बर्टीन है जो गोरे और भारतीय माता पिता की संतान है और उसे हाफ ब्रीड के ताने सुनने पड़ते हैं एविक और उस लड़की में एक अनोखा रिश्ता विकसित होता है जिसमे दोनों कभी जानवरों की तरह लड़ने लगते हैं और कभी अचानक पागलों कि तरह हँसने लगते हैं एविक का एल्बर्टीन के कंधे पर बैठ कर अपने घर को देखने की कोशिश करने वाला दृश्य बहुत मार्मिक है जिसमे वह कहती है कि वह अपने पिता का इंतज़ार कर रही है और उसे उम्मीद है की वह उसके लिए एक घोड़ा लेकर आएंगे एविक कहता है कि उसके पिता नहीं आएंगे और इस पर एल्बर्टीन उसे अपने कंधे से नीचे पटक देती है एविक उससे कहता है की वह उसे अपने घर लेकर जायेगा तो वह कहती है कि इंडियन लोग बर्फ में नहीं रह सकते एविक आश्चर्य से पूछता है कि क्या वह इंडियन है? वह कहती हैं हाँ और एविक उस पर टूट पड़ता है क्योंकि एस्किमो लोग इंडियन्स से नफरत करते हैं ऐसे ही छोटी छोटी बातों पर वो लड़ते हैं और फिर अचानक हँसने लगते हैं टीचर को उनकी शैतानियाँ रास नहीं आतीं और वह एल्बर्टीन को अलग कर देती है
 
       फिल्म आगे बढ़ती है और इस बार 1941 के दृश्य में बड़ा एविक दिखाई पड़ता है जिसकी बीमारी ठीक हो गयी है और वह अपने घर वापस आ चुका है उसके दोस्त उसे हवा में उछाल रहे हैं और फिर से एक जहाज़ दिखाई पड़ता है एविक की एक दोस्त कहती भी है कि एविक जब भी हवा में जाता है हवाई जहाज़ लेकर वापस आता है इस बार भी वाल्टर मैपिंग करने आया है  वाल्टर उसे बताता कि युद्ध छिड़ा हुआ है और एविक पूछता है कि हम किस ओर से लड़ रहे हैं? वाल्टर बताता है कि हम इंग्लैंड की ओर से जर्मनी के खिलाफ लड़ रहे हैं एविक जब अगली बार दिखाई देता है तो वह बमबारी करने वालों के साथ एरियल फोटोग्राफर बन चुका होता है यहाँ उसकी मुलाकात फिर से एक बार एल्बर्टीन से होती है और उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता लेकिन उसकी खुशी तब हवा हो जाती है जब उसे पता चलता है की वाल्टर के साथ बंध चुकी है वाल्टर से उसने एल्बर्टीन के लिए उसके सीने का एक्स-रे भेजा था जो देने के बाद दोनों करीब हो गए एल्बर्टीन कहती है कि जब वह एक्स-रे देने वाल्टर आया था तो वह बहुत खूबसूरत लग रहा था लेकिन दरअसल बात यह कि एल्बर्टीन हाफ ब्रीड के ताने सुनकर तंग आ चुकी है और उसे अब किसी हाफ ब्रीड से शादी करके जिंदगी भर के लिए ताने नहीं सुनने वह अपने लिए एक गोरा इंसान चाहती थी इसलिए उसने वाल्टर का साथ स्वीकार कर लिया। 
       युद्ध के दौरान एविक की फोटोग्राफी के दृश्य और इस बहाने शानदार कैमरा वर्क का नूमना फिल्म की जान है फिल्म के अंत में एल्बर्टीन की बेटी अपने पिता को ढूंढती हुई आती है और एविक से मिलती है फिल्म के दो दृश्य फिल्म को एक अलग ऊंचाई प्रदान करते हैं पहला है एक बड़े गुब्बारे के ऊपर एल्बर्टीन और एविक का प्रेम दृश्य ऐसा प्रेमालाप किसी फिल्म में नहीं दिखाया गया और कई मायनों में बहुत सुन्दर बन पड़ा है बचपन में एल्बर्टीन ने एविक को अपने सीने के ऑपरेशन का निशान दिखाया था और इस बार एविक उसके टॉप के बटन खोलते हुए कहता है की हम वहीँ से शुरु करेंगे जहाँ पिछली बार हमें अधूरा छोड़ा था फिल्म का अंतिम दृश्य भी बहुत भावुक कर देने वाला है जहाँ बदहाल एविक बर्फ की एक चट्टान पर गिरा हुआ है और युवा एविक एल्बर्टीन को एक गुब्बारे में ले कर उसी चट्टान के ऊपर से गुजार रहा है दो मोड़ो वाला यह अंत कहानी को एक दार्शनिक स्पर्श देता है यह कोई युद्ध आधारित फिल्म नहीं है और ना ही यह कोई एस्किमो की जिंदगी के बारे में बताने वाली कथाए यह एक ऐसी प्रेम कहानी है जिसमे समझौते की दुनियावी मजबूरियां शामिल हैं एल्बर्टीन को हाफ ब्रीड कहलाये जाने से नफरत है और इसके लिए वह वाल्टर का साथ मंजूर करती है लेकिन प्रेम वह एविक से ही करती है
        एविक अपने स्थान को छोड़ कर कहीं नहीं जाना चाहता उसे लगता है कि वो खराब नसीब वाला है और जहाँ भी जाता है उसकी बदकिस्मती उसके साथ चलती है फिल्म दो घंटे से भी कम अवधि में एक लंबे कालखंड को समेटती है और कहीं कहीं बोझिल भी लगने लगती है कलाकारों का अभिनय बहुत सहज है और कुछ दृश्य बहुत बेहतरीन और भावुक करने वाले हैं कुल मिलाकर यह फिल्म अपने शानदार दृश्यों के कारण यादगार बन गयी है
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विमल चन्द्र पाण्डेय कहानी ‘बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल’

युवा कहानीकार विमल चन्द्र पाण्डेय कहानियाँ गढ़ने में माहिर हैं। उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे यह कहानी तो बिल्कुल अपने आस-पास की या अपने ही मनोभावों और मनोदशाओं वाली है। संघर्ष की डगर के बिम्ब उसे और धार प्रदान करते हैं। प्रस्तुत कहानी एक ऐसे रचनाकार की है जो रचना की दुनिया, रोजी-रोजगार और पारिवारिक जिम्मेदारियों के तिराहे पर खड़ा है। अपनी कहानी का क्लाईमेक्स खोजने के लिए जब रचनाकार नौकरी से छुट्टी ले कर गाँव आता है और अपनी रचना पूरी करने के चक्कर में खोया रहता है तब उसकी मासूम सी बेटी अपने उस जरुरी काम को कराने का आग्रह करती है जो देखने में तो बिल्कुल मामूली सा है लेकिन संवेदनात्मक स्तर पर कहानीकार के लिए दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण काम है। एक बच्चे के चेहरे पर ख़ुशी लाने से बड़ा क्लाईमेक्स और क्या हो सकता है भला? अन्ततः कहानी का क्लाईमेक्स तलाशते-तलाशते वह अपनी जिन्दगी का क्लाईमेक्स तलाश लेता है। कुछ इसी भाव-भूमि पर आधारित है विमल की यह नयी कहानी “बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल”। 
अभी हाल ही में विमल चन्द्र पाण्डेय को वर्ष 2013 का प्रतिष्ठित मीरा स्मृति पुरस्कार प्रदान किया गयाविमल चन्द्र पाण्डेयको बधाईयाँ देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी यह नयी कहानी
  
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल
विमल चन्द्र पाण्डेय
पिछली बार जब चतुर्भुज शास्त्री घर गये थे तो उन्होंने अपनी बेटी के तीसरे जन्मदिन पर उसे तीन पहिये वाली साइकिल भेंट की थी। जन्मदिन धूमधाम से मना और उन्होंने अपनी किताब की उस साल की सारी रॉयल्टी धूमधड़ाके में खर्च कर डाली। बेटी उनकी ज़िंदगी में खुशियों का भण्डार लेकर आयी थी और पिछले तीन सालों में उनकी दो किताबों आ चुकी थीं और वह तीन पुरस्कार झटक चुके थे। दिल्ली से घर रात भर की ट्रेन यात्रा की दूरी पर था और बेटी के आने के बाद उनके घर जाने की आवृत्ति अचानक बढ़ गयी थी। उन्हें महसूस हुआ कि संतान के आकर्षण के सामने पत्नी का आकर्षण कुछ भी नहीं था। वह अपने बचपन को फिर से जीने लगे और उन्हें अचानक ही बोध हुआ कि पुनर्जन्म की अवधारणा किसी दार्शनिक ने पिता बनने के बाद ही दी होगी।
बेटी उनकी जान थी और तीन महीने में एक बार घर जाने वाले चतुर्भुज हर दो हफ्ते पर जाने लगे तब परिवार में सुगबुगाहट शुरू हुई और फिर मोहल्ले से होते हुये पूरे खानदान में फैल गयी कि चतुर्भुज बेटी के मोहपाश में गिरफ्तार हो गये हैं, उनके भीतर का बाप जाग गया है, अब तो तेल लेने गई पी-एच.डी. और तैयारी। दिल्ली से उन्हें वापस बुला लिया जाय या फिर उनकी पत्नी को उनके पास दिल्ली भेज दिया जाय भले मां पिता जी अकेले रह जाएं।

मगर बेटी वाकई गुडलक थी क्यों कि जैसे ही उन पर दबाव बढ़ता, उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय के एक ठलुये कॉलेज में एडहॉक पर पढ़ाने का काम मिल गया। कुछ पैसे मिलने लगे जिसे उस गरीबी की हालत में उन्होंने ठीक-ठाक कहा। उन्हें दिल्ली से बुलाने के लिये आवाज़ उठाने वालों में से दो चचेरे भाई और एक चाचा थे जिन्हें क्रमशः लेवाइस की जींस और सफारी सूट का कपड़ा दे कर सेट किया गया। प्रबंधन के इस दौर में कुछ ही दिनों में चतुर्भुज ने यह फैला दिया कि वह अच्छा माल पीट रहे हैं और इतने आज्ञाकारी बेटे हैं कि मां बाप अकेले न होने देने के लिये जान से प्यारी बेटी का वियोग झेल रहे हैं। चतुर्भुज इसलिये नहीं ले जा पाते थे कि दिल्ली में कमरों का किराया आसमान छू रहा था।
उनकी बेटी बहुत प्यारी और चंचल थी। वह घर आते तो लिखने पढ़ने के सारे काम मुल्तवी हो जाते। वह अक्सर किसी पत्रिका की मांग पर कोई कहानी या कविता लिख रहे होते। बेटी आती और उनके उपर लोटती पोटती, वह निहाल हो जाते। वह उनसे खूब बातें करती। चतुर्भुज बाल मन को अच्छे से समझते थे, बाल कहानियों की उनकी एक किताब अकादमी से पुरस्कृत हो चुकी थी और वह इतनी कम उम्र में इतना सम्मान अर्जित करने वाले कुछेक लेखकों में थे।
पिछली बार जब वह घर आये तो बेटी पड़ोस में एक बच्चे की तिपहिया देख कर ज़िद में पड़ी थी कि उसे साइकिल चाहिए।
पापा पापा दादी ने बोला …..कि पापा आये तो….छाइकिल…..दिला।“ वह इस तरह छोटी छोटी सांसे लेकर बोलती कि वह निहाल हो जाते। तीन दिन बाद जन्मदिन था, वह उसी दिन खरीदने जाने लगे तो पत्नी ने कहा कि जन्मदिन पर उसे गिफ्ट के रूप में ये दीजिये तो उसे याद रहेगा। जन्मदिन के दिन बच्ची अपनी नयी साइकिल पाकर बहुत खुश हुई।
मेली छाइकिल गोलू की छाइकिल छे अच्छी…..।“ बच्ची ने गाड़ी के रंग और उसकी चमक के आधार पर सगर्व घोषणा की।
उस बार चतुर्भुज को सायकिल दिलाने का यह फायदा हुआ कि उन्होंने काफी दिनों से अटकी एक कविता पूरी की क्योंकि बेटी दिन भर पूरे घर में सायकिल चलाती रहती और उसमें लगे बटन को दबा कर संगीत लहरियां गुंजाती रहती। बेटी उन्हें कम परेशान करती तो वह पिछली कुछ अधूरी रचनाओं को कुछ वक़्त दे पाते। साइकिल में घंटी की जगह एक बटन था जिसे दबा देने पर बारी बारी से जॉनी जॉनी यस पापा, जिंगल बेल जिंगल बेल और ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार बजा करता था। एक तरफ से बेटी अपनी लहरियां गुंजाती तो बगल वाले मकान से गोलू उस्ताद भी अपनी गाड़ी को मुकाबले में खड़ा कर देते। चतुर्भुज को बेटी की लीलाएं बहुत अच्छी लगतीं। वह उनसे दोस्त की तरह बातें करती, सवाल पूछती।
 
पापा, आप ये…ये…चछमा क्यों लगाते हैं?
पापा पापा वो….वो….चंदा मामा आज क्यों नहीं निकले?
या फिर दिन भर की बातें बताती।
पापा आज वो…..गोलू बिछतल पर वो….छूछू किया, उछकी मम्मी उछको….उछको… माली। वह भी उसकी बातों में हिस्सा लेते। बेटी के लिये उन्होंने एक लंबी कविता लिखनी शुरू की थी। बेटी के साथ वक्त बिताते हुये उनकी कविता की कोई पंक्ति अचानक ही कहीं से उड़ती हुयी आ जाती।
साइकिल दिलाने यानि जन्मदिन मनाने के दो तीन दिन बाद चतुर्भुज वापस दिल्ली आ गये क्योंकि ज़्यादा दिन की छुट्टी मिलने में समस्या हो रही थी। एक दिन फोन पर उनकी मां ने बताया कि उनकी बेटी के साइकिल की घंटी खराब हो गयी है।
दिन भर सबसे कहती फिरती है कि मेरे पापा आएंगे तो बनवा देंगे। आना तो देख लेना। मां की बात पर उन्हें आश्चर्य होता। मां के लिये कितना ज़रूरी काम है यह। मां पिता की ज़िंदगी किस कदर पोती के इर्दगिर्द घूम रही है, उसे उनसे दूर करेंगे तो वे कैसे रह पाएंगे? उन्हें महसूस हुआ कि अपने माता पिता को खुद माता पिता बनने के बाद ही पूरी तरह समझा जा सकता है।
उनके उपन्यास की घोषणा हो चुकी थी जबकि अभी उसका क्लाइमेक्स बाकी ही था। प्रकाशक ने उनके उपन्यास के बारे में चर्चा करवाना शुरू कर दिया था। उनके लिखने का ग्राफ पाठकों ने देखा था, वे जानते थे कि उनका दूसरा उपन्यास पहले से भी दमदार होगा। प्रकाशक ने विश्व पुस्तक मेले में किताब आने की घोषणा कर दी थी। इसमें कुछ ही दिन बाकी थे लेकिन उन्हें उपन्यास का क्लाइमेक्स मिल ही नहीं रहा था। उन्हें याद आया कि कुछ दिनों पहले एक दुकान पर गोलगप्पे खाते हुये उन्हें संभावित क्लाइमेक्स का खाका मिला था लेकिन वह इस तरह दिमाग से उतर गया है कि याद करने पर पूरे दिन की बातें याद आ जाती हैं, बस वही याद नहीं आता।
प्रकाशक ने उन्हें सुझाया कि अगर दिल्ली में उन्हें क्लाइमेक्स नहीं मिल रहा तो वह कुछ दिनों की छुट्टी ले कर घर चले जाएं और इत्मीनान और फुर्सत से क्लाइमेक्स की समस्या हल करें। चतुर्भुज को विचार अच्छा लगा। उन्होंने अचानक बीमारी का बहाना बनाया और घर निकल गये। बीवी उन्हें देख कर हैरान हुई, बेटी खुश और मां संतुष्ट।
अब वह सुबह उठने के साथ अपने किरदारों को मन में लिये बाहर टहलने निकल जाते। घर वालों को पता चला कि मामला क्या है तो वे भी उनसे ज़्यादा जवाब सवाल नहीं करते। वे हर समय खोये रहते। कभी कोई बात पास ली डायरी में नोट करते। कभी ख़ुद से कुछ बात करते और कभी मुस्करा कर कोई संवाद बोल देते।
अपनी व्यस्तता में उन्होंने बेटी पर अधिक ध्यान नहीं दिया। वह थोड़ी गुमसुम सी थी। उसने एकाध बार पापा के गोद में उनकी दाढ़ी पर हाथ फिराते हुये कहा था, पापा जी मेली गाली मे गाना नीं बज लहा।“ पापा जी ने कुछ सोचते हुये ही जवाब दिया था, हां बेटा जी हम बनवा देंगे।“ ऐसा एकाधिक बार हुआ था और बेटी थोड़ी गुमसुम सी हो गयी थी।

एक रात उनकी पत्नी थकी होने के कारण जल्दी सो गयी। वह चुपचाप लेटे हुये थे। उनके दिमाग में उपन्यास की कहानी चल रही थी और उन्हें नींद नहीं आ रही थी। उन्होंने देखा पत्नी सो गयी है तो उठ कर बत्ती जलायी। पत्नी कुनमुनायी।
इतना कौन सा ज़रूरी काम आ गया?
सबसे ज़रूरी काम है ये… ? वह फुसफुसाते हुये अपना लैपटॉप ऑन करने लगे। पत्नी करवट बदल कर फिर से सो गयी। उन्होंने हल्की रोशनी में देखा बेटी की आंखें खुली हुई हैं।
पापा….।“  बेटी ने धीमी आवाज़ में कहा। चतुर्भुज लैपटॉप पर कुछ टाइप करने लगे थे, उन्होंने एक नज़र बेटी की ओर देखा और उसे सोने का निर्देश दिया। अभी तक सोयी नहीं बेटू, चलो फटाफट सो जाओ।
बच्ची उठ कर उनके पास आ गयी और उनके एक पांव पर सिर रख कर लेट गयी।
आपछे वो…वो…एक बात कहना है।
उन्होंने अब बेटी की ओर ध्यान दिया। बेटी बड़ों जैसे बात कर रही थी। उन्होंने उसे उठा कर गोद में ले लिया और लैपटॉप को थोड़ा बगल में सरका दिया।
हां बेटा जी कहिये।“  उन्होंने बेटी के गाल को चूमते हुये कहा।
वो….वो दादी बोली थीं….पापा आएंगे….तो ….तो वो..साइकिल का घंटी बनवा देंगे। गोलू…..की….वो… .वो…घंटी बजती है पापा…।“ बच्ची अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी समस्या अपने पिता के सामने ले कर बैठी थी जिसका समाधान उसके पिता के अलावा किसी के पास नहीं था।
चतुर्भुज मूर्ति में तब्दील हो गये। उनकी ज़बान तालू से चिपक गयी और गला सूखने लगा। अचानक उन्हें लगा कि उनका जो ज़रूरी काम है, बेटी के ज़रूरी काम के आगे बेहद टुच्चा सा है। उन्हें एक ही पल में कई सालों जितना अपार दुख हुआ। उनकी आंखें भर आयीं। उन्हें लगा कि वह काफी लंबे समय से एक सफ़र पर हैं जिसमें उन्होंने सड़क गलत दिशा की पकड़ ली है। उन्हें लगा उनका अब तक का लिखा पढ़ा सब माटी हो गया है। उन्होंने लपक कर बेटी को अपने कलेजे से चिपका लिया और बोले, कल सबेरे बेटू, कल सबेरे एकदम ठीक करा देंगे शोना, मेरी गुड़िया कल एकदम ठीक करा देंगे। फिल छे मेले बेटू की छीटी गायेगी जॉनी जॉनी यछ पापा। वह बेटी की आवाज़ में गाने लगे।
इटिंग छुगल नो पापा।“  पापा के लहजे से उत्साहित बेटी ने अगली पंक्ति थाम ली।
उन्होंने लैपटॉप को बिना बंद किये उसे धीरे से धकेल कर पैर की तरफ कर दिया। वह ऑटोमेटिक ऑफ वाला नया लैपटॉप था। स्लीप मोड से उसे कुछ देर जगाया न जाये तो अपने आप शट डाउन हो जाता था।

(आउटलुक से साभार)

संपर्क-
ईमेल – vimalpandey1981@gmail.com
फोन – 9820813904
(पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है)

विमल चन्द्र पाण्डेय के उपन्यास ‘भले दिनों की बात थी’ पर सरिता शर्मा की समीक्षा

विमल चन्द्र पाण्डेय हमारे समय के कुछ उन चुनिन्दा रचनाकारों में से एक हैं जिन्होंने कहानी, कविता, संस्मरण जैसी विधाओं में अपना लोहा मनवाया है. अब आधार प्रकाशन से हाल ही में  उनका एक उपन्यास ‘आवारा सपनों के दिन’ प्रकाशित हुआ है. सरिता शर्मा ने इस उपन्यास पर पहली बार के लिए एक समीक्षा लिखी है. आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा     

आवारा सपनों के दिन

सरिता शर्मा

    कवि और कहानीकार विमल चंद्र पाण्डेय को उनके कहानी संग्रह ‘डर’ के लिए ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिल चुका है. उनका संस्मरण ‘ई इलाहबाद है भैय्या’ बहुचर्चित हुआ. उनके  पहले उपन्यास ‘भले दिनों की बात थी’ की शुरुआत फ़राज़ के शेर से होती है जो नोस्टाल्जिक माहौल बना देता है.

’भले दिनों की बात थी

भली सी एक शक्ल थी

ना ये कि हुस्ने ताम हो

ना देखने में आम सी

 ना ये कि वो चले तो कहकशां सी रहगुजर लगे

मगर वो साथ हो तो फिर भला भला सफ़र लगे………..’

 युवा वर्ग के सपने और बेरोजगारी के दौरान समय काटने के बोहेमियन उपाय कुछ हद तक सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास ‘वे दिन’ जैसे हैं. शुक्ला जी की जवान होती बेटियों को ले कर पति पत्नी की चिंता और मोहल्ले के लड़कों की उनमें दिलचस्पी गीत चतुर्वेदी की कहानी ‘सावंत आंटी की लड़कियां’ की याद दिला देती हैं. ‘शुक्लाइन ने अपनी चिंता शुक्ला जी से बांटी और पिछली चिंता साझा चिंता है. चिंताओं के ढेर में घिरे शुक्लाजी के सामने तीन जवान बेटियां, जिनमें एक ज़रूरत से ज़्यादा जवान होती जा रही है (उम्र ढल रही है, ऐसा वह कई लोगों के बोलने के बाद भी नहीं सोच पाते), आकर चिंताग्रस्त चेहरा लिये खड़ी हो जाती हैं.’

        उपन्यास में बनारस की गलियों में किशोरों के सपनों और रूमानियत को बहुत दिलचस्प अंदाज में प्रस्तुत किया गया है. ‘कॉलोनी में लड़कों के कई ग्रुप थे. कुछ तैयारी वाले थे. तैयारी वालों में भी कई ग्रुप थे. जो एसएससी और आईएएस जैसी परीक्षाओं की तैयारी करते थे वह और लड़कों से दूरी बना कर चलते. वे एक बार भी आईएएस का फ़ॉर्म भर देते तो कमोबेश ख़ुद को आईएएस मान के चलते थे भले ही कभी एसएससी हाई स्कूल लेवेल का प्री न निकाल पाये हों.’ रिंकू सविता से प्रेम करता है. उसका कमरा दोस्तों की महफ़िल का अड्डा है.  राजू देवदासनुमा चिर असफल प्रेमी है. वह कविता से प्रेम सम्बन्ध टूटते ही अनु से प्रेम करने लगता है. कमल,  समर गदाई और सुधीर उनके साथ मिलकर परीक्षा की तैयारी करते है, शराब पीते हैं, ब्लू फ़िल्में देखते हैं और लड़कियों की बातें करते हैं. साम्प्रदायिक ताकतें जल्दी से पैसा कमाने का प्रलोभन देकर युवकों में अपने हाथों की कठपुतली बना देती हैं. रिंकू और सविता के भागने की योजना पर पानी फेर देते हैं. सविता बम विस्फोट की चपेट में आ जाती है और रिंकू को पुलिस पिटाई करके छोड़ देती है. अंत में सब दोस्त अपने पुराने भले (बुरे?) दिनों को याद करते हैं. शायद सपने देखने और भविष्य की योजना बनाने को भले दिन कहा गया है.

      इस उपन्यास में दोस्तों की मंडली बहुत जीवंत है. सब दोस्त इतने असली लगते हैं मानो हमारे सामने चल फिर रहे हों. राजू हर छह महीने में किसी नई लड़की से चोट खाकर रोने और ग़म ग़लत करने उसके कमरे पर आ जाता है.  ‘उसका मन हुआ कि वह इस दुनिया पर थूक दे और डरे हुए लोगों की इस जमात को लात मार कर कुछ समझदार लोगों, जो उसे समझदार समझते हैं, के साथ बैठ कर काला घोड़ा पीये. तब तक पीये जब तक सब कुछ भूल न जाय.’ पूरे समूह में सिर्फ रिंकू मुसलमान है मगर उसका धर्म उनकी दोस्ती के आड़े नहीं आता. ‘इसी एक घण्टे में कपड़ा भी धोना है, पीने और बनाने के लिये भी भरना है और राजू की दर्द भी बांटना है. साढ़े सात बजे के आसपास, जब हल्का अंधेरा हो जायेगा, अठाइस साल वाली भी अपनी छत पर आयेगी. उसे लाइन भी मारना है.’ पारस लेखक है जो लिखने और जीने में फर्क का जीता जागता उदाहरण है. पाठक उसके माध्यम से साहित्य के क्षेत्र में उसकी ख्याति और साहित्यिक दुनिया की हलचलों से रूबरू होता है. ‘पारस फोन लगते ही उधर से राजू को डांटने लगा. उसका कहना था कि उसके होते हुए एक मुसलमान लड़का एक ब्राह्मण लड़की को ख़राब करने पर लगा हुआ है और वह खुद ब्राह्मण होने के बावजूद कुछ नहीं कर रहा है’.

    उपन्यास को हास्यबोध और किस्सागोई उसे पठनीय बनाते हैं . ‘शुक्ला जी उदय प्रताप कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता थे और शुक्लाइन से हर पति की तरह बहुत प्रेम करते थे जब तक वह भाजपा के विषय में कुछ न बोलें. वह दुनिया में सिर्फ़ दो चीज़ों में श्रद्धा रखते थे, एक भोलेनाथ शंकर में और दूसरा भाजपा में अलबत्ता वह घृणा कई चीज़ों से करते थे. उनकी सिर्फ़ पांच लड़कियां थीं क्योंकि उसके बाद वह परिवार नियोजन की युक्तियों का प्रयोग करने लगे थे.’ भाषा में खिलंदडापन नजर आता है. ‘बदले में छटांक भर की जुबान की जगह पसेरी भर का सिर हिलाया राजू ने, नकारात्मक मुद्रा में.’ शुक्लाइन द्वारा पति के स्कूटर को पहचान लेने को हास्य के पुट के साथ  व्यक्त किया गया है. ‘जिस तरह कोई चरवाहा हज़ारों भैंसों में से अपनी भैंस की आवाज़ सुन कर पहचान लेता है, शुक्लाइन मोहल्ले की सभी गाड़ियों में से शुक्ला जी की गाड़ी की आवाज़ पहचान लेती थीं और इस बात पर समय निकाल कर गर्व भी करती थीं.’ कॉलेज के माहौल का चित्रण सजीव है. ‘इस कॉलेज का नाम पहले क्षत्रिय कॉलेज था, ऐसा लोग बताते थे. कालान्तर में कॉलेज का नाम बदला पर चरित्र नहीं. यहां चपरासी से लेकर व्याख्याता और क्लर्क से लेकर कूरियर देने वाले तक ठाकुर हुआ करते थे. यहां लड़कियों को लेकर गोली कट्टा हो जाया करता था और जिस लड़की के पीछे यह सब होता था वह मासूमियत भरा चेहरा बना कर अपनी बगल वाली सहेली से पूछती थी, ´´क्या हुआ किरणमयी, ये झगड़ा किस बात को लेकर हो रहा है बाहर लड़कों में?´

     कॉलोनी स्वयं एक सशक्त  पात्र के रूप में उपस्थित है. ‘औरतें हंकड़-हंकड़ कर अपनी ज़बान साफ़ करती थीं और हाथ नचा-नचा कर अपना ब्लड सर्कुलेशन सुचारु करतीं थी और इस प्रकार अगले दिन के लिये तरोताज़ा हो उठती थीं. झगड़े कई प्रकार के होते थे. जो झगड़ा सबसे जल्दी और बगैर मेहनत बिना किसी पूंजी लगाये शुरू होता था वह था अतिक्रमण का.’ ’माता पिता की नजर में शरीफ दिखने की कोशिश करने वाली लड़कियों पर व्यंग्य किया गया है-कॉलोनी की लड़कियां बहुत शरीफ़ थीं और वे कभी किसी पुरुष या लड़के को नज़र उठा कर नहीं देखती थीं. कॉलोनी में जागरण का होना एक नियमित घटना थी और इस जागरण के बहाने यहां कितनी ही कहानियां जन्म लेती थीं.  लोगों के झगडे का फायदा पुलिस उठाती है. ‘जब दारोगा दोनों पार्टियों से पांच-पांच हज़ार लेकर जीप में चढ़ रहा था, उसके इशारे पर दोनों पार्टियां वापस अपने घरों की ओर जा रही थीं. युद्ध विराम की घोषणा हो चुकी थी.’ पुलिस की भूमिका नकारात्मक अधिक नजर आती है. बेगुनाहों को सजा दिलाने और पैसा लेकर मामले को रफा दफा करने के लिए वह सदा तत्पर रहती है. ‘थोड़ी देर तक बहस की गयी कि ये मामला पुलिस में देना चाहिए या नहीं और बहस के बाद बहुमत ये पारित हुआ कि कॉलोनी की बदनामी न हो, इसलिए यह मामला यहीं दफना देना ठीक होगा. इस उपाय को रामबाण बताने के लिए लड़की भागने की पिछली घटना को याद किया गया और बताया गया कि वहां भी सीमा के घरवालों ने पुलिस तक मामला नहीं पहुँचने दिया और कॉलोनी की इज्ज़त बचाई थी.’

    इस उपन्यास में सबसे मौलिक और दिलचस्प बात शुक्लाजी के कुत्ते शेरसिंह का मानवीकरण है. वह मनुष्यों की तरह सोचता है और अपनी श्वान बिरादरी से विचार- विमर्श करता है. ‘नौकरीपेशा लोगों का दुखी चेहरा याद आते ही उन्हें अपनी पशु योनि पर गर्व हुआ और वह सगर्व गेट के पास जाकर दो बार भूंक कर वापस अपनी जगह पर बैठ गए. मालिकों की चिंता देखकर शेरसिंह भी दुखी रहने लगे और मालकिन के हितार्थ कभी-कभी मालकिन को यह कह कर सांत्वना भी देते कि क्या करूं मालकिन अगर मैं कुत्ता नहीं आदमी होता तो ज़रूर आपकी बेटियों में से किसी एक से शादी कर लेता.’

    यह उपन्यास मूल्यों के क्षरण, कैरियरिस्टिक एप्रोच, साम्प्रदायिक माहौल को प्रस्तुत करता  है. यहां युवाओं के स्वप्नों आकांक्षाओं और संस्मृतियों का कोलाज है. इसमें  यथार्थवाद है मगर अमर्यादित भाषा के चलते पाठक उन युवकों की क्षुद्र त्रासदी में शामिल होकर भी उनसे समुचित एकात्मकता कायम नहीं कर पाता है. युवक बंद कमरे में अनौपचारिक बातचीत के दौरान भाषा सब हदें पार कर जाते हैं.. परीक्षा की तैयारी के लिए अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करने के दौरान अंग्रेजी के संवाद खटकते हैं. कई पन्नों तक लगातार हिंदी अंग्रेजी की खिचड़ी भाषा प्रवाह में व्यवधान उत्पन्न करती है. अधिकांश घटनाक्रम कुछ दोस्तों की बातों, शराब पीने और लड़कियों के पीछे भागने के इर्द गिर्द घूमता रहता है. पाठक को लगातार इंतजार रहता है कि उनकी नौकरी का क्या हुआ. अंतिम अध्याय में सब कुछ समेटने की हड़बड़ी दिखाई देती है. आजकल अंग्रेजी में कॉलेज और कैरियर पर अनेक उपन्यास आ रहे हैं . विमल चन्द्र पाण्डेय का यह उपन्यास बिना किसी विमर्श का सहारा लिए आज के समाज और उसमें हमारे सपनों की परिणति का बहुत तीव्र गति के साथ वर्णन करता है जिससे यह बेहद पठनीय हो जाता है.

                                               
उपन्यास : भले दिनों की बात थी; लेखक: विमल चन्द्र पाण्डेय

प्रकाशक: आधार प्रकाशन, पंचकूला, हरियाणा 



 

सम्पर्क-
सरिता शर्मा
1975, सेक्टर-4, अर्बन एस्टेट
 गुडगाँव-122001

विमल चन्द्र पाण्डेय


विमल चन्द्र पाण्डेय हमारे समय के ऐसे युवा रचनाकार हैं जिन्होंने बेहतरीन कहानियों के साथ-साथ कवितायें भी लिखी हैं. अभी हाल ही में विमल ने अपना उपन्यास ‘भले दिनों की बात थी’ पूरा किया है जो आधार प्रकाशन से शीघ्र ही आने वाला है. इसी उपन्यास का एक अंश आप सबके लिए प्रस्तुत है. 
  

शहर में इधर पुलिस की सक्रियता कई मामलों में बढ़ी थी. अपराध पर अंकुश लगाने के प्रयासों में कामयाब न हो पाने की स्थिति में पुलिस ने अपराध को जड़ से मिटा देने की सोची थी. दुर्भाग्य से अपराध को जड़ से ख़त्म करने की कोई सर्वसम्मत विधि नहीं थी इसलिए फिलहाल पुलिस ‘ऊपर’ के ऑर्डर से अपराधियों को जड़ से ख़त्म करने में लगी थी. शहर को अपराध से मुक्त करने की इच्छा जता रही और अपराध ख़त्म करने के मकसद से अपराधियों को ख़त्म करती पुलिस अपनी इच्छा और अपनी हरकतों दोनों से ही जनता में भय का संचार करती थी. पुलिस के आला अधिकारियों का कहना था कि सांस्कृतिक नगरी काशी में जल्दी ही न्याय का राज्य कायम होगा. यह बयान जनता ने कई दशकों से केंद्र और राज्य के नुमाइन्दों से सुन रखा था और ऐसे बयानों पर काफी कम लोग प्रतिक्रिया देते थे. हर रोज़ अख़बारों में एक-दो युवा अपराधियों के मुठभेड़ में मरने जाने की खबर आम होती जा रही थी और अखबार ऐसी ख़बरें लिखते वक़्त अपनी तरफ से यह ज़रूर जोड़ते थे कि लगता है बनारस जल्दी ही अपराध मुक्त हो जायेगा. मुठभेड़ के अगले कुछ दिनों तक एकाध अख़बारों में ऐसी भी ख़बरें निकलतीं कि मुठभेड़ में मारे गए लड़के के परिजनों, दोस्तों और अध्यापकों के अनुसार वह एक सीधा साधा लड़का था जो सिर्फ अपने काम से काम रखता था लेकिन जल्दी ही ऐसी ख़बरें उन अख़बारों से गायब हो जातीं. मुठभेड़ में मारे गए ज़्यादातर लड़कों में कुछ समानताएं होतीं जो अक्सर सरसरी निगाह से खबर पढ़ने पर दिखाई नहीं देती थी. ज़्यादातर मरने वालों के पास से एक ही तरह के कट्टे बरामद होते और उनकी लाश अमूमन एक ही तरह से लेटी रहती थी. जानकर लोगों का कहना था कि ये वित्तीय वर्ष २००५-०६ समाप्त होने का दबाव है. मार्च का महीना आने वाला था और ३१ मार्च से पहले देश की सभी कंपनियों की तरह पुलिस को भी कुछ लक्ष्य हासिल करने थे.

पूरी कॉलोनी तो ऐसी ख़बरों को वीतरागी भाव से पढ़ती थी लेकिन शुक्ला जी का नजरिया अब बदल गया था. उन्हें वह रात याद आ जाती थी जब पुलिस की एक जीप एक लाश को धीरे से रख कर भाग गयी थी और फिर कुछ पलों बाद वे हवा में गोलियाँ चलते हुए आये थे. उसके अगले दिन भी अख़बारों में ऐसी ही खबर छपी थी जिसमें पुलिस टीम गर्व से अपना सीना ताने फोटो में मुस्करा रही थी. ऐसी किसी एक मुठभेड़ के बाद पुलिस को पिछले तीन-चार साल के बीसों केस हल कर देने का श्रेय मिलता था. ऐसे बड़े मामलों में व्यस्त रहने वाली पुलिस के कुछ सिपाही आजकल एक लड़की से एक लड़के के संबंधों के बारे में पता लगाने की कोशिश में थे. वह लड़की सविता थी जिसकी छठी इन्द्रिय प्रेम में पड़ने के बाद खासी तेज़ हो गयी थी और लड़के रिंकू के मालगोदाम के पास मिलने वाले प्रस्ताव को उसने यह कह कर ठुकरा दिया था कि उसे कुछ खतरा महसूस हो रहा है.

सविता के तौर तरीकों में बदलाव आ गया था जिसे अनु के अलावा कोई और नहीं समझ सकता था. वह कोई काम करती-करती अचानक शून्य में देखने लगती और थोड़ी ही देर में उसकी आँखें गीली हो जातीं. वह अक्सर रसोई के काम निपटा कर कोई पुराना एल्बम निकाल कर देखने लगती और किसी ऐसी तस्वीर पर घंटों ठहरी रहती जिसमें वह अपने पिता और माँ की गोद में बैठी होती. किसी तस्वीर को देखने पर उसे अचानक लगता जैसे वह इसे पहली बार देख रही है और वह तस्वीर में घुस कर उस पल को पकड़ने दूर चली जाती. चित्रों में एक खुशगवार दुनिया आबाद थी और पुरानी श्वेत श्याम तस्वीरें यह बताती कि हम इस जालिम दुनिया से दूर किसी दूसरी खूबसूरत दुनिया की पैदाईश हैं. उन तस्वीरों में एक ऐसे ज़माने की याद आबाद थी जहाँ सब कुछ आसान और सहज था, लोग अच्छे और सरल थे, टीवी मासूम था और सविता एक छोटी सी बच्ची के रूप में अपने पड़ोसियों के घर लेमनचूस चूसती घूम रही थी. सविता अचानक ही उठती और कटोरी में तेल गरम कर माँ के पैरों की मालिश करने लगती. माँ के नहाने के दो मिनट बाद बाथरूम में जाती और माँ के छोड़े सारे कपड़े धुल देती. इस बदलाव को शुक्लाईन ने पता नहीं कैसे ग्रहण किया था कि जब एक रात खाना खाने के बाद सविता बिना कहे शुक्लाईन के घुटनों की मालिश करने के लिए सरसों और नूरानी तेल मिला कर लाई तो शुक्लाईन कुछ देर तो उसकी ओर देखती रहीं फिर धीरे से बोलीं, “सुन सवितवा.”

“हाँ अम्मा, कहिये.” सविता ने सामान्य भाव से कहा था.

“तूं भगबे ना न ?”

सविता के मालिश करते हाथ रुक गए थे और उसकी आँखें तुरंत भर आई थीं. उसने छिपाने की कोशिश तो बहुत की लेकिन शुक्लाईन की अनुभवी आँखों ने कुछ पढ़ लिया था. उन्होंने सविता का हाथ पकड़ कर उसे अपने पास खींचा और उसके बालों में हाथ फेरने लगीं. सविता अब अपनी रुलाई नहीं रोक पाई और बरसों बाद माँ के सीने से लग कर फफक पड़ी.

“हमनी के घर के इज्जत अब तोरे हाथ में बा.” शुक्लाईन इतना कह कर चुप हो गयीं और सविता के माथे को दबाने लगीं. हालाँकि सविता को सिरदर्द नहीं था लेकिन माँ के दबाये जाने से उसे इतना आराम मिला कि उसे लगने लगा कि उसे सिर-दर्द था लेकिन उसका ध्यान उस तरफ नहीं गया था. माँ कितनी अपनी होती है जो बिना कहे सारे कष्टों को समझ लेती है, सविता ने सोचा. वह माँ अगर शुरू से सविता के साथ रहती तो वह कभी उनकी मर्ज़ी के खिलाफ कुछ नहीं सोचती लेकिन माँ तो ऐसी इसलिए हुई है क्योंकि सविता इस घर में कुछ ही दिनों की मेहमान है. बाकी बहनों से माँ का रवैया वैसा ही है.

शुक्लाईन ने सविता से इधर उधर की बातें करनी शुरू कीं तो उसे समझ में आ गया कि उसकी माँ उसके इरादों और उसके भीतर आये परिवर्तनों की टोह लेना चाहती हैं. उसने एक समझदार लड़की की तरह शादी की बात छेड़ दी और कहा कि उसे शादी से काफी डर लग रहा है. माँ को लगने लगा कि शादी का सनातन डर ही बेटी को डरा रहा है और उन्होंने एक परंपरागत माँ की तरह बेटी को सीखें देनी शुरू कर दीं जिनसे सविता को ससुराल में जा कर वहां के लोगों का दिल जीतने की कठिन क्रिया साधनी थी. 

लड़कियों की ससुराल पृथ्वी से बाहर कोई दुनिया थी जहाँ के निवासी बहुत कम ख़ुश हुआ करते थे और वे इतने भुक्खड़ हुआ करते थे कि उन्हें कोई स्वादिष्ट व्यंजन खिला कर उनका दिल जीता जा सकता था. लड़की के ससुराल में जो सास हुआ करती थी वह एक अजीब प्राणी हुआ करती थी जिसके बारे में लड़की को मायके में बहुत सारी बातें बता कर डराया और उसका सामना करने को तैयार किया जाता था. सास हमेशा भृकुटी टेढ़ी करके रहने वाली प्रजाति मानी जाती थी जिसका मुख्य काम अपनी बहुओं के कामों में कमी निकालना होता था. सासों के कई प्रकार होते थे. कुछ सासें बहुओं से दोस्ताना व्यवहार बना कर रखती थी और इस बात का रोना रोया करती थीं कि उनकी पूरे मोहल्ले में सबकी बहुएं अपनी सासों से थरथर कांपती हैं और उनकी बहुएं उनकी भलमनसाहत का नाजायज़ फायदा उठाती हैं. बहुएं अपनी सासों का रोना सुन कर आपस में यह कहतीं कि इससे अच्छा तो होता कि अम्मा जी भी और सासों की तरह हम लोगों को डांट लिया करतीं मगर इस तरह कुढ़ती नहीं. कलपने वाली सासों के अलावा डांटने और कमी निकाल कर बहुओं को झिड़कने वाली सासें अधिक मात्रा में थीं और इनकी प्रजाति सबसे सामान्य मानी जाती थी. सास और डांट (पढ़ें ताना) एक दूसरे के पर्यायवाची थे और बहुएं ऐसी सासों का सामना करने के लिए आवश्यक मानसिक तैयारी के साथ ही ससुराल में कदम रखती थीं लेकिन कुछ जटिल प्रकार की सासें जिनके बारे में कम जानकारियां उपलब्ध थीं, अपनी बहुओं के लिए परेशानी का सबब बनती थीं. बहुएं ऐसी सासों के बारे में आवश्यक शोध नहीं कर पाने के कारण उनका सामना करने में परेशानी महसूस करती थीं. कुछ सासें अंग्रेज़ी न जानने के बावजूद अंग्रेजों की मुरीद थीं और फूट डाल कर राज करने की नीति में विश्वास रखती थीं. राज करने वाला साम्राज्य हालाँकि उनका ही हुआ करता था लेकिन उसमे बहुओं के अतिक्रमण से खुद को मानसिक रूप से तैयार न कर सकने वाली ये सासें बड़ी बहू को छोटी के खिलाफ और छोटी को बड़ी के खिलाफ भड़काया करती थीं. समझदार बहुएं आपस में सास के विचारों का आदान-प्रदान कर मजे से ‘एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो’ की नीति पर अमल करती थीं और सास के जाल में फंस चुकी बहुएं आपस में पहले एक दूसरे से जलना शुरू करती थीं और बाद में स्थिति ऐसी हो जाती की वे एक दूसरे को फूटी आंख भी देखना नहीं चाहतीं. कुछ दरियादिल सासें थीं जो बहुओं के ऊपर किसी प्रकार का कोई अंकुश नहीं लगातीं और इस एहसान को हमेशा याद दिलाया करतीं.

“हमारी हिम्मत नहीं थी कि हम इनके साथ बाहर जाने को सोचें भी, अम्मा जी आगबबूला हो जाया करती थीं.” ऐसा कहने के बाद वे अपनी उस बहू की ओर देख कर मुस्कराया करतीं जिसे वह अपने बेटे के साथ बाहर घर के लिए कुछ खरीददारी करने की इजाज़त देकर फूले समा रही होती थीं. लब्बोलुआब यह कि पति के मुख्य  खिलाड़ी होने के बावजूद विरोधी टीम में जिस खिलाड़ी का सामना करने की सबसे अधिक तैयारी लड़कियों को कराई जाती वे सासें ही होती थीं.

सविता में मन में सास की कोई छवि नहीं थी लेकिन अब उसने रिंकू के घर के बारे में सोचना शुरू कर दिया था. रिंकू ने बताया था की उसकी एक बहन है और उसकी माँ बहुत अच्छी है. सविता के मन में काले कपडे और बुर्के में ढकी एक बूढ़ी औरत की छवि आती और वह थोड़ी घबरा जाती. रिंकू ने कहा था कि दिल्ली में शादी करने के बाद उसको उसके एक दोस्त के यहाँ कुछ दिन रुकना पड़ेगा जिसकी शादी भी हो चुकी है और उसकी दो साल की एक छोटी सी बेटी भी है. सविता के मन में आता कि शादी के बाद उसकी जो बेटी होगी, वह उसका नाम क्या रखेगी.

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जोगिन्दर तिवारी को उसके सिपाही ने खबर दे दी थी कि जिस लड़की के बारे में उन्हें पता लगाने को कहा गया था उसकी कॉलोनी के ही किसी लड़के से चक्कर है. लड़के के बारे में अभी पूरी जानकारी नहीं हो पाई है लेकिन कुछ लड़कों पर शक है और संभावित आशिक उन्हीं में से एक होगा. अब तक की सूचना काफी परेशानियों और खर्च के बाद निकली गयी है और अब आगे की जानकारी निकलने के लिए कुछ और पैसों की ज़रुरत पड़ सकती है. तिवारी ने कहा कि हालाँकि गुरूजी से पैसा तो नहीं लेना चाहिए क्योंकि उनकी मदद करना हमारा फ़र्ज़ है लेकिन अब अगर बहुत ज़रुरत पड़ गयी है तो फिर किया ही क्या जा सकता है.

“तुम लोग गुरूजी के घर चले जाओ, हम उनके मोबाइल पर फ़ोन कर देते हैं.” यह आदेश पाते ही एक की जगह तीन खाकी वर्दियां कॉलोनी के लिए निकल पडीं.

शुक्ला जी नहा धो कर पूजा में बैठे ही थे कि मनु ने बताया कि तीन पुलिसवाले दरवाज़े पर खड़े हैं और उनको बुला रहे हैं. शुक्ला जी अपनी याददाश्त में पहली बार पूजा में बैठने के बाद बिना पूजा ख़त्म किये उठे और धड़कते दिल के साथ बाहर निकले. सिन्हा के साथ दो और हवलदार थे.

“जी, बताइए.” शुक्ला जी ने उसी सम्मान से पूछा जो एक आम आदमी को खाकी वर्दी देख कर जगता है और जिसमें दस प्रतिशत सम्मान में नब्बे प्रतिशत डर मिला होता है.

सिन्हा ने बाकायदा झुक कर शुक्ला जी के पांव छुए और उन्हें विस्तार से समझाया कि उनके कहे अनुसार कुछ पुलिस वाले अपना और थाने का सारा कामकाज छोड़-छाड़ कर उन्हीं की समस्या हल करने में लगे हैं. वैसे तो दरोगा जी का सख्त हुक्म था कि आपसे पैसे न लिए जाएँ लेकिन कुछ पैसे खाकी वर्दी की जेब से निकल जाने के बाद हमने सोचा है कि अगर आपको बुरा न लगे तो आपसे कुछ मदद ले ली जाये. शुक्ला जी सोच में पड़ गए, इसलिए नहीं कि पुलिस वाले सामने से पैसे मांग रहे थे तो उनके पास न देने का भी कोई विकल्प था बल्कि उन्हें पुलिसियों की बोली-बानी से न जाने क्यों इस बात का अंदेशा हो रहा था कि उन्होंने यह केस पुलिस में दे कर एक बड़ी गलती कर दी है जिसकी सजा उन्हें भुगतनी पड़ेगी. उन्होंने संकोच के साथ सिन्हा से राशि पूछी और सिन्हा ने उन्हें गुरू जी और जोगिन्दर तिवारी का मित्र होने की छूट देते हुए सिर्फ पांच हज़ार रुपये की छोटी सी राशि बताई जो शुक्ला जी ने भीतर से ला कर उनके हवाले कर दिया. इसके लिए उन्हें शुक्लाईन से घर के खर्चे के रखे दो हज़ार रुपये लेने पड़े.

खरचा पानी ले कर जब पुलिस वाले चले गए तो शुक्ला जी का मन घर में बैठने का नहीं हुआ. दिन रविवार था और आज उनके पास करने को कोई खास काम नहीं था. वह भीतर गए, चुपचाप पूजा की, थोड़ा खाना खाया और कॉलोनी में यूँ ही टहलने चले गए. कॉलोनी में बेमकसद टहलना उन्हें पसंद नहीं था लेकिन उस वक़्त उन्हें वही करने की इच्छा हो रही थी जो उन्हें पसंद नहीं था. जैसे उन्होंने जीआरपी थाने के पास जाकर एक सिगरेट पी और ब्रांड पूछने पर मुस्करा कर दूकानदार से कहा, “कैप्टन तो कैप्टन ही पीता है बस.” गुमटी वाले ने ‘बाह गुरू जी, का बात कहलीं” कह कर उन्हें एक कैप्सटन सिगरेट पिलाई और उनकी बेटियों का हालचाल पूछा. उन्होंने कहा कि उनकी बेटियां हमेशा उनका कहना मानती हैं और वह अपनी ज़िन्दगी से बहुत संतुष्ट हैं. उन्होंने पान वाले के बिना पूछे उसे अपनी जवानी की एक घटना सुनायी कि लगातार बेटियां पैदा होने से जब वह निराश एक दिन दोपहर में अपने गाँव के एक शिव मंदिर में आराम कर रहे थे कि उन्हें एक सपना आया था. भगवान शिव ने डायरेक्ट उनके सपने में आकर उनसे कहा कि उनकी लडकियाँ विभिन्न देवियों का अवतार हैं और तीसरी बेटी सविता अन्नपूर्णा देवी का अवतार है. पान वाले ने हामी भरते हुए कहा कि उनका परिवार वाकई कॉलोनी के कुछ चुनिन्दा सुसंस्कृत परिवारों में से है. शुक्ला जी कॉलोनी की जगह शहर सुनना चाहते थे लेकिन चुप रहे. पान वाला कहता रहा कि कॉलोनी के परिवार अब संस्कारिक नहीं रह गए हैं और पहले के लड़के इतने शरीफ हुआ करते थे कि पान वाले को भी चचा कह कर पुकारते थे. इसके बाद उसने मुस्करा कर ये भी कहा कि उसके पास पूरी कॉलोनी के लड़के लड़कियों की खबर रहती है क्योंकि वह एकदम चौराहे पर यानि ऐसी जगह पर बैठता है जहाँ से वह हर तरफ नज़र रख सकता है. उसने हँसते हुए कहा कि वह चाहे तो बता सकता है कि कॉलोनी के कितने लड़के अपने घर वालों से छिप कर सिगरेट पीते हैं या फिर पान खाते हैं. शुक्ला जी के मन में एक घबराहट सी होने लगी कि कहीं वह सविता के बारे में भी कुछ न जानता हो. जिस दिन से उनके मित्र अमरमणि ने इशारों में बताया था कि सविता कॉलोनी के एक लड़के से कॉलोनी के बाहर खड़ी परिचित अंदाज़ में बातें कर रही थीं, शुक्ला जी कॉलोनी में यूँ ही टहलने निकल जाया करते थे. एक तरफ उन्हें डर भी लगता था कि कोई उनकी बेटी के बारे में कुछ कहे न और दूसरी ओर वह यह भी सोचते थे कि अगर उस बात में सच्चाई हो तो क्या पता उन्हें देख कर कॉलोनी का उनका कोई शुभचिंतक उन्हें कुछ बता सके.

वह सिगरेट पी कर वहां से निकलने ही वाले थे कि सामने से चतुर्वेदी आते दिखाई दिए. चतुर्वेदी की छवि बड़ी उम्र के लोगों और लड़कों में एकदम अलग-अलग थी. बड़ी उम्र के लोग उन्हें एक राजनीतिक पहुँच वाला आदमी मानते थे और लड़के उन्हें लड़कों के पीछे लार टपकाने वाले अधेड़ के रूप में जानते थे. लड़कों ने उनके बहुत सारे नाम रख छोड़े थे जिनमें से कई नाम इस तरह रखे गए थे कि चार लोगों के बीच में भी लिये जा सकें, जैसे ‘पिछलग्गू’, ‘बैकडोर एंट्री’ या फिर ‘खूनी खंजर’ लेकिन लड़कों के बीच उनका ‘गांडू’ नाम ही सर्वसम्मति से पारित हुआ था और पूरे सम्मान से लिया जाता था. 

चतुर्वेदी जी ने पहुंचते ही शुक्ला जी को नमस्कार कहा और एक लड़के के बारे में बताया जिसने पिछले दिनों रेलवे में टिकट चेकर बनने में सफलता पाई थी. रेलवे, पुलिस और इनकम टैक्स जैसे विभागों में नौकरी लगने पर लोग तनख्वाह और नौकरी के प्रकार के बारे में बातें नहीं करते थे बल्कि कुछ और सुविधाएँ चर्चा का केंद्र बनती थीं. चतुर्वेदी ने बताया कि लड़के के साथ-साथ उसकी सात पुश्तों का भविष्य भी सुरक्षित ओ गया है क्योंकि अब वह मुगलसराय रूट पर चला करेगा जहाँ बस माल ही माल है. चतुर्वेदी ने जब बताया की लड़का ब्राह्मण है तो शुक्ला जी के भीतर की ‘बाप-बत्ती’ जल गयी. 

बाप-बत्ती वह बत्ती थी जो जवान बेटियों के बापों के दिमाग में स्वतः-स्फूर्त तरीके से विकसित होती थी और उन्हें कानोंकान खबर भी नहीं होती थी. बाप की जितनी अधिक बेटियां होती थीं बत्ती की पॉवर उतनी तेज़ होती थी और कहीं भी किसी योग्य लड़के की बात सुनते ही यह जल उठती थी. जैसे चालीस चोरों वाली गुफा का पासवर्ड सिमसिम हुआ करता था वैसे ही ऐसे बापों की बाप-बत्ती का पासवर्ड ‘लड़का’ हुआ करता था जिसके कुछ शर्तों कर खरे उतरने के बाद बाप सब काम छोड़ कर दुनिया का सबसे बड़ा माना जाने वाला दान देने की तैयारी में जुट जाना चाहते थे. चतुर्वेदी ने बताया कि लड़के का बड़ा भाई पहले ही बैंक में क्लर्क है और अब पाठक जी का परिवार पूरी तरह सेट हो गया. लड़का ब्राह्मण है, इस तथ्य से शुक्ला जी परिचित हो ही चुके थे, उसका परिवार भी अच्छा है, यह जानते ही उनकी बाप-बत्ती और तेज़ दमकने लगी. उन्होंने धीरे से चतुर्वेदी से पूछा कि क्या पाठक जी सरयूपारीण ब्राह्मण हैं. चतुर्वेदी ने पान वाले को जीवित इंसान मानने से सरासर इनकार करते हुए आसपास सरसरी नज़र से देख कर किसी इंसान के न होने की आश्वस्ति की और शुक्ला जी के चेहरे के पास अपना चेहरा लाते हुए बोले, “अरे नहीं, सकलदीपी हैं साले सब.”

“अच्छा !” शुक्ला जी ने कहा. उनके ‘अच्छा’ में कुछ इस तरह का भाव था जैसे वह परिवार शाक्यद्वीपीय ब्राह्मण न होकर अमेरिका में हुए ९/११ का जिम्मेदार हो और इसी कॉलोनी में पिछले दस साल से रहने के बावजूद शुक्ला जी इस बात से अनभिज्ञ हों. इसमें उनकी गलती नहीं थी क्योंकि ब्राह्मणों के जिस तरह इंसानों में श्रेष्ठ होने का भ्रम था वैसे ही ब्राह्मणों में भी श्रेष्ठता की लड़ाईयां थीं और जिनका बहुमत था या जिनकी शक्तियां अधिक थीं वह श्रेष्ठ था.

पान वाले ने चतुर्वेदी द्वारा अपनी उपेक्षा का बुरा नहीं माना और दो पान लगा कर पहला पान शुक्ला जी की तरफ बढ़ाया. शुक्ला जी ने पान हाथ में लेने के बाद उसे चतुर्वेदी की तरफ बढ़ाया और अपने पक्के बनारसी न होने की पुष्टि की.

“अरे आप लीजिये, हम ले रहे हैं.” चतुर्वेदी की बात में उपहास था कि शुक्ला जी पान और चाय में फ़र्क नहीं समझते. 

उस लड़के के छूट जाने के सांस्कृतिक आघात में शुक्ला जी पता नहीं कितनी देर खड़े रहते अगर चतुर्वेदी ने उन्हें यह न बताया होता कि वह अगले महीने दिल्ली जा रहा है. वह वहां से जाने को उद्यत थे लेकिन बिना मन के ही उन्हें चतुर्वेदी से पूछना पड़ा कि उसका दिल्ली जाने का प्रयोजन क्या है. उसने वही बात बताई जिससे पूरी कॉलोनी परिचित थी. उसने कहा कि वह एक पेंटिंग बना रहा है जो देश के भावी प्रधानमंत्री श्री राहुल गाँधी जी की है. ‘श्री राहुल गाँधी’ कहने के बाद उसने पूरे सम्मान के साथ अपनी उँगलियों से अपने दोनों कानों को स्पर्श किया. कॉलोनी में एक दूसरे की नक़ल करने वाले लोगों की संख्या बहुतायत में थी और एक आदमी की नक़ल करते हुए दूसरा आदमी यह नहीं सोचता था कि यह नक़ल कहाँ और किस संदर्भ में की जानी चाहिए. ‘नक़ल के लिए भी अकल की जरूरत होती है’ वाली कहावत पर यहाँ कोई कान नहीं देता था जिसका दुष्परिणाम यही था कि चतुर्वेदी राहुल गाँधी का ज़िक्र आने पर अपने कान छू रहा था.

“राहुल गाँधी की…?” शुक्ला जी ने उसी तरह पूरी बात स्पष्ट सुनने के बावजूद पूछा जिस तरह कॉलोनी के और लोग सामने वाले की किसी बात पर कोई प्रतिक्रिया न सूझने पर पूछा करते थे.

“हाँ गुरु जी, लगभग बन गयी है, बस हफ्ता दस दिन और लगेगा. उन्हीं को देने जाना है. पिछली बार माता जी की बनाये थे और ले गए थे तो बाबा ने कहा था कि हमारी भी बना दो….”  चतुर्वेदी ने एक पुश्तैनी कांग्रेसी की तरह सोनिया और राहुल को अपने परिवार का अघोषित सदस्य घोषित करते हुए कहा.

शुक्ला जी के भीतर का भाजपाई जाग गया था और वह चाहते थे कि महंगाई बढ़ा रही केंद्र सरकार को कोसते हुए चतुर्वेदी को घेरें लेकिन उनका दिमाग इस मुद्दे पर पूरा उत्साह प्रदर्शित नहीं कर रहा था. वह कभी सविता की तरफ भागता, कभी कॉलोनी के आवारा लड़कों की तरफ और कभी पुलिस थाने की तरफ. उन्हें लगा कि कोई भी चीज़ उन्हें शांति प्रदान नहीं कर सकती और उसी समय उन्हें याद आया कि उन्हें ध्यान लगाये बहुत दिन हो गए हैं.

“चलिए आपको भी दिल्ली घुमा लायें.” चतुर्वेदी ने वही पासा फेंका जो कॉलोनी के लोग यात्रा के दौरान अपना अकेलापन काटने के लिए सामने वाले को बिना उसकी मजबूरी, राजी-ख़ुशी और हाल-खबर जाने फेंका करते थे और अक्सर एक तरह के जवाब प्राप्त करते थे.

“अरे कहाँ समय है इधर…..हो आइये आप आराम से फिर बताइयेगा.” शुक्ला जी वहां से निकलना चाहते थे कि चतुर्वेदी ने एक बार फिर उसी अंदाज़ में उनके पास चेहरा लाकर धीरे से पूछा, “आपके घर पुलिस काहे आयी थी गुरूजी ?”

शुक्ला जी एक पल को सन्न तो हुए लेकिन अब वह पहले जैसे मासूम आम शहरी नहीं रह गए थे, पुलिस के संपर्क में आने पर उनके काईयाँपने में अच्छा खासा इज़ाफा हुआ था. उन्होंने एक पल को सोचा और फिर अचानक पैंतरा बदल एक नए अवतार में आते हुए ऐसी आवाज़ में बोले जिसे उन्होंने अट्टहास में लपेट रखा था, “अच्छा वो, हा हा हा हा, अरे वो साले पुलिस वाले बाद में हैं पहले तो दोस्त हैं. आये थे हमको एक पार्टी के लिए इनवाइट करने.” 

चतुर्वेदी ने इस सवाल को जिस गरम मसाले में लपेट कर पूछा था वह फीका साबित हुआ था. वह चुपचाप अपनी उँगलियाँ पुटकाने लगा और पान वाले के सामने बाकी बचे पैसों के लिए हाथ फैला दिए. पान वाले ने पान के दो रुपये काट कर चतुर्वेदी को आठ की बजाय गलती से नौ रुपये दे दिए.

“कितना हुआ ?” चतुर्वेदी ने पान घुलाते हुए पूछा.

“मालूम नहीं है का आपको, पहिली बार पान खा रहे हैं का हमारा ?”

“अरे कितना लौटाए हो देखो.” चतुर्वेदी की जिरह से पान वाला ऊब रहा था. वह समझ नहीं पा रहा था कि चतुर्वेदी कहना क्या चाहता है. उसने चतुर्वेदी की फैली हथेली, जिस पर फुटकर पैसे रखे थे, की और देखने से कतई इनकार करते हुए पूछा, “का हुआ, कम है का ?” उसे लगा उसने एकाध सिक्के कम दे दिए हैं. तब तक चतुर्वेदी एक रुपये का सिक्का पान वाली चौकी पर रखते हुए मुस्कराया.

“एक रूपया ज्यादा दे दिए हो.” यह कहने के बाद उसने शुक्ला जी की और देखा और घोर बेईमानी के इस ज़माने में उनकी नज़रों में अपने ईमानदार होने की पुष्टि चाही. शुक्ला जी निरापद भाव से इस घटना को देख रहे थे और उन्हें इसमें कुछ भी विशेष नहीं लगा था. चतुर्वेदी उनके चेहरे के भाव पढ़कर निराश हुआ. अपने इस अप्रतिम त्याग को हलके में लिया जाता देख चतुर्वेदी ने एकाध कहानियाँ सुनाईं जिसमें उसकी ऐसी ही ईमानदारियों का ज़िक्र था. पान वाला अपनी गति से पान फेरता रहा जैसे उसे मतलब ही न हो कि गोभी या हॉर्लिक्स खरीदने पर चतुर्वेदी ने वापसी में गलती से दिए गए अधिक पैसे लौटा दिए थे और वह हमेशा ऐसा करता है. कई देसी कहानियाँ सुनाने के बाद वह अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान की गयी ईमानदारी के बारे में बखानने ही वाला था कि पान वाले ने उसे रोक दिया, “अरे ठीक है भईया, एक रुपैया के ईमानदारी दिखा के आप तो अइसा चाह रहे हैं कि आपके लिए जान दे दिया जाए. का गुरू जी ?” पानवाला अपनी बात पर मुहर लगवाने के लिए शुक्ला जी की तरफ मुखातिब हुआ और शुक्ला जी दिल खोल कर हँसे. चतुर्वेदी खिसिया गया और थोड़ी दूरी पर जाकर पान थूकने लगा.

शुक्ला जी विजेता टीम के कप्तान की तरह वहां से विदा हुए. उनके जाने के बाद चतुर्वेदी पान वाले से मुखातिब हुआ और बताने लगा कि पिछले दो सालों में उसने बारह पेंटिंग्स बनाई हैं और जल्दी ही वह इनकी एक प्रदर्शनी लगवाएगा.

“उंहा का होई ?” पान वाले ने अनभिज्ञ अंदाज़ में पूछा.

“लोग पैसा देकर खरीदेंगे रजा और क्या होगा ?”

“लोगो बकचोदै हैं, का करिहें उ सब खरीद के…? पानवाले ने एक जायज़ शंका उठायी. उसने जितनी पेंटिंग्स देखी थीं या चतुर्वेदी से उनके बारे में सुना था, उसे लगने लगा था कि पेंटिंग कोई ऐसी चीज़ होती है जो किसी को बिना खर्चे वाला उपहार देने के लिए बनाई जाती है.
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राजू प्यार करने के मामले में बहुत आज़ादख़याल था और सभी दोस्तों में सबसे ज्यादा किताबी था. ग्रुप के सारे लोग उसे इस बात के लिए कोसते रहते कि वह ज़रा भी प्रेक्टिकल नहीं था. किसी भी लड़की से उसे किसी भी परिस्थिति में प्यार हो सकता था और जब भी वह प्यार में पड़ता था, पूरी शिद्दत में पड़ता था और जीने मरने को उद्यत रहता. नए प्यार में पड़ते ही वह पूरी तरह से पुराने प्यार को भूल जाता और कहता कि इस बार वाला प्यार उसका सच्चा प्यार है. यह वही प्यार है जिसकी उसे कई जन्मों से तलाश थी और और अब वह इसके लिए पूरी दुनिया छोड़ सकता है. उसकी किस्मत खराब थी क्योंकि उसकी ज़िन्दगी में आयी लड़कियां उसका साथ अलग-अलग कारणों से लम्बे समय तक निभा नहीं पाती थीं. लेकिन एक बात तय थी की राजू में सभी दोस्तों की तुलना में सबसे अधिक साहस तो था ही, लड़की या प्यार का मामला होते ही ये साहस बिना समय गंवाए दुस्साहस में बदल जाता था.

अनु से प्यार होने से पहले राजू पागलों की तरह कविता के प्यार में था जिसके घर से उसका पारिवारिक सम्बन्ध था. वह कविता के पिता से समाज की विभिन्न समस्याओं पर अक्सर बहस भी किया करता था और समय मिलते ही कविता के साथ प्यार पर बहस करने लगता. कविता को जब उसने प्रपोज किया तो उसे बहुत ख़ुशी हुई जब कविता ने भी उसे प्यार करने की हामी भरी. जल्दी ही उनका प्यार समय की सीढ़ियों की मदद से परवान चढ़ गया और राजू कविता से शादी के सपने देखने लगा. कविता ने भी कहा कि वह अपनी ज़िन्दगी उस जैसे पति के साथ ही गुज़ारना चाहेगी. गणित और विज्ञान से डरने वाला राजू अपने पिता की मर्ज़ी से गणित पढने को बाध्य था और पिता के बताये अनुसार उसे लगता था कि बी.एससी. करने के बाद वह अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा. स्नातक होने के बाद उसने कविता से शादी की योजना बना रखी थी कि एक दिन उसे पता चला कि कविता की शादी की बात चल रही है. कविता ने दो लगा कर उसे ३७०८२८ पर फोन किया और बताया कि उसकी शादी तय हो रही है. अगर राजू ने कुछ नहीं किया तो वह ज़हर खा कर जान दे देगी. राजू घबरा गया और आपात-स्थिति में सभी सदस्यों की एक बैठक बुला कर रास्ता निकाला गया. सबने कहा कि चूँकि राजू के सम्बन्ध कविता के पिता से बहुत अच्छे हैं, वह उनके घर जा कर उनसे सिर्फ इतनी इल्तिज़ा करे कि कविता की शादी सिर्फ दो साल के लिए रोक दी जाए. दो साल के बाद जब वह अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा तब खुद उनके पास कविता का हाथ मांगने आएगा. ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ ग्रुप के ज़्यादातर सदस्यों की पसंदीदा फिल्मों में से थी और उन्हें लगता था कि अगर उन्हें ये फिल्म इतनी अच्छी लगी है तो लड़कियों के पिताओं को भी थोड़ी तो ठीक लगी ही होगी. समस्या यह थी कि अमरीश पुरी और अनुपम खेर जैसे पिता सिर्फ फिल्मों में थे और वास्तविक जीवन में जैसे पिता थे उनके बारे में असली अंदाज़ा तब लगता था जब मामला लड़की के प्रेम और शादी पर आ कर रुकता था जो बकौल उनके घर की इज्ज़त का मामला हुआ करता था. 

राजू जब कविता के घर पहुंचा था तो कविता के पिता और उसके चाचा को यह खबर लग चुकी थी कि राजू क्या बात करने आया है. कविता ने घर पर अपनी शादी की बात की थी और परंपरा के अनुसार ही माँ की गालियाँ और पिता के झापड़ खा कर घर के किसी अँधेरे कमरे में सुबक रही थी. लेकिन कविता के चाचा ने उसके पिता को समझाया था कि लड़के से ठन्डे दिमाग से बात करनी है, गरम होकर मामला बिगाड़ना नहीं है. कविता की माँ ने कविता को पता नहीं किस तरह समझाया था कि वह उस अँधेरे कमरे में रोती हुई किसी फैसले पर पहुँच रही थी.

राजू ने ग्रुप के समझाने के अनुसार ही एकदम ठन्डे दिमाग से अपने भावी ससुर को ससुर समझ कर ही दुनियादारी की कुछ बातें बताईं जिनमें उसने अपनी कानून की जानकारी होने का भी इशारा किया कि अगर दो बालिग लोग चाहें तो कानूनन वे शादी कर सकते हैं और उन्हें कोई रोक नहीं सकता. कविता के पिता थोड़ी देर तक राजू की बात गंभीर मुद्रा बना कर सुनते रहे जिससे राजू को लगा कि उसकी बात असर कर रही है लेकिन यह एक सबक था जो राजू जैसे नौजवान को पुरानी पीढ़ी दे रही थी कि कैसे अपने मन की बात कहने के लिए सामने वाले को संयत तरीके से घेरा जाता है. राजू की शादी विषयक बातों को अलबत्ता कविता के चाचा ने बीच में कई बार ‘मारेंगे साले होश में आ जाओगे’ और ‘बाप मरे अंधियारे में बेटा क नाव पॉवर हाउस’ जैसी गालियों और गैर-वाजिब कहावतों से काटने की कोशिश की तो उनके बड़े भाई ने चुप रहने का संकेत देकर हवा में हाथ खड़ा किया था. 

राजू ने अपनी बात पूरी कर ली तो कविता के पिता ने उसे कुर्सी पेश की. राजू को लगा कि अमरीश पुरी और अनुपम खेर जैसे पिता सिर्फ भारतीय सिनेमा के परदे पर ही नहीं हैं बल्कि हमारे बीच में भी महापुरुष बन कर बैठे हुए हैं. कुर्सी पर बैठने के बाद उसे लगा कि उसके लिए बिस्कुट और पानी भी मंगाया जाएगा लेकिन कविता के पिता ने सिर्फ इतना ही कहा, “यह सब तो ठीक है बेटा लेकिन अगर वह तुमसे प्यार करती होगी तब न ?”

राजू सन्न रह गया. उसे किसी अनहोनी की गंध आने लगी. तब तक आधुनिक अनुपम खेर ने दरवाज़े की ओट से झांक रही अपनी पत्नी रीमा लागू को इशारा किया जो पायल खनकाती हुई भीतर चली गयी. जब वह कुछ पलों बाद वापस आयी तो उनके साथ डरी-सहमी कविता भी थी जिसकी आँखें सूजी हुई थीं. कविता के पिता ने उससे पूछा, “तुम राजू से प्यार करती हो ?”

कविता ने कातर नज़रों से एक बार राजू की तरफ देखा और एक तरफ अपने पिता की तरफ. उसे लगा कि राजू से शादी करने पर अगर उसकी माँ ज़हर खा कर मर जाती हैं तो यह वाकई बहुत महंगा सौदा होगा और वह कभी अपने आप को माफ़ नहीं कर पायेगी.

“जवाब हाँ या ना में दो.” पिता जी ने कविता के सामने पेश किये गए सवाल के जवाब को वस्तुनिष्ठ बनाते हुए कहा.

“नहीं.” कविता ने विकल्प नंबर दो पर टिक लगाया और चुपचाप भीतर चली गयी.

तूफ़ान आ कर अचानक और एकदम झटके से चला गया. राजू ने एक बार उस दरवाज़े की ओर देखा जिधर से कविता भीतर गयी थी, एक बार उसके पिता जी की तरफ जिनके चेहरे पर ‘गेट आउट’ लिखा था और फिर एक बार आसमान की ओर देख कर अंदाज़ा लगाया कि तापमान कितना होगा.

मौसम विभाग ने गर्मी के अभी और बढ़ने की भविष्यवाणी की थी. 

संपर्क-
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विमल चन्द्र पाण्डेय


युवा कहानीकारों में विमल चन्द्र पाण्डेय ने अपने अलग शिल्प एवं कथ्य से अपनी एक अलग पहचान बनायी है. ‘काली कविता के कारनामे’ भी विमल की ऐसी कहानी है जो सहज शिल्प में कथक्कडी के अंदाज में कही गयी है। यह कहानी हमारे समाज में स्त्रियों की विडंबनाओं के साथ-साथ प्राथमिक शिक्षा में व्याप्त घालमेल को भी उजागर करती है। तो आइए पढ़ते हैं विमल की यह कहानी।

 
काली कविता के कारनामे

वहां कुछ अपने नाम जैसा नहीं लगता था। बादल गीले नहीं थे, ज़मीन पौधे नहीं उगाती थी, बच्चे मासूम नहीं लगते थे, मनोहर बिल्कुल भी मनोहर नहीं था और इस लिहाज़ से देखा जाये तो कविता इस जगह के लिये एकदम उपयुक्त थी क्योंकि कविता में किसी भी तरह की कविता की संभावना किसी माई के लाल नहीं देखी थी। उसके एक चाचा, एक फेरी वाले और दुनिया के सभी मर्दों ने उसमें एक अश्लील कहानी की संभावना कभी न कभी ज़रूर देखी थी।
कविता की जिंदगी में खुशियों मार्का यह नौकरी एक वरदान की तरह थी और खबर आने के सिर्फ़ पांच दिनों के अंदर उसने दुनिया में इतना परिवर्तन देखा था कि उसे लगता ही नहीं था कि यह वही दुनिया है जहां वह पड़ोस में सिर्फ चीनी मांगने चली जाये तो लोग उसे बीस तरह की क्रीम का नाम बता दिया करते थे। सिर्फ़ पांच दिन में उसने अपने लिये इतने सम्मानजनक शब्द सुन लिये थे कि ज़िंदगी भर सुनी गयी अपमानजनक टिप्पणियों पर मरहम सा लगने लगा था। वह एकदम से उस मध्यमवर्गीय मुहल्ले में एक आदर्शनुमा चीज़ बन गयी थी। वह सोचने लगी थी कि एक प्राइमरी टीचर की नौकरी मिल जाने पर ये हाल है तो कहीं वह सच में आईएएस या पीसीएस बन जाती तो क्या होता। उसे लगता कि मुहल्ले के आखिरी मकान में रहने वाला अनोखे लाल, जो दो बार आईएएस मेन्स निकाल चुका है, वह इस तरह के कितने अनोखे अनुभव झेल रहा होगा। यह कहानी कविता की है इसलिये अनोखेलाल के बारे में किसी और कहानी में विस्तृत बात की जायेगी। कविता सबकी आवाज़ें पहचानती थी, मां की सहेलियों की सबसे ज़्यादा क्योंकि वही औरतें उसकी सबसे बड़ी निंदक और इस हिसाब से सबसे बड़ी प्रेरक थीं। उसने जो भी बातें सुनीं उन्हें उन्हीं के पिछले बयानों के बरक्स रखा तो उसने पाया कि वे लोग दलबदलू नेताओं से भी चार कदम आगे थीं। उदाहरण के लिये –
सीमा की मां – (पहले) – कविता से दोस्ती खत्म करो सीमा नहीं तो तुम भी उसके जैसी ही हो जाओगी दब्बू और बेवकूफ। दिन भर घर में बैठे रहने से नहीं बनता कोई कुछ, थोड़ा बहुत बाहर भी निकलना पड़ता है। स्मार्ट बनो, उसकी तरह नहीं।
(अब) – मुझे पहले से पता था कि ये लड़की एक दिन मुहल्ले का नाम रोशन करेगी। घर से बाहर निकलना तो दूर घर में भी टीवी सीवी नहीं देखती। एक तू है करमजली जो हर हफ्ते फिल्म देखने चली जाती है। पढ़ाई कर कुछ बन जा. दिन भर ‘साथ निभाना साथिया’ देखने से काम नहीं चलेगा।
रागिनी की मां – (पहले) – कितनी घमंडी है ये करियट्ठी। मैं सामने से गुज़री और मुझे उसने नमस्ते तक नहीं किया। हुंह…पता नहीं अपने को क्या समझती है। भगवान ने थोड़ा रूप दिया होता तब तो हमारा जीना ही दूभर कर देती।
(अब)- अरे कमाल की लड़की है हमारी कविता। जानती हैं दीदी कल मैं गुज़र रही थी उसके घर के सामने और वो बालकनी में बैठी थी। मैंने आवाज़ लगायी लेकिन उसने देखा तक नहीं, ज़रूर कुछ पढ़ रही थी। जब किताबों में घुस जाती है तो आसपास की दुनिया से एकदम कट जाती है। आजकल की लड़कियों की तरह एकदम नहीं है।
                आजकल की लड़कियों की बरसों से बड़ी घिसी-पिटी अवधारणा थी। जो टीवी बहुत देखती हों, सजने-संवरने में बहुत वक़्त लगाती हों और जिनका बनाव-श्रृंगार देखकर भ्रम होता हो कि वे किसी लड़के से फंसी हैं, वे लड़कियां आज की लड़कियां (आज और आज से तीस साल पहले भी) कही जाती थीं। इनमें से एक भी काम में कम रुचि लेने वाली लड़की को आज की लड़की की परिभाषा से बाहर रखा जाता था। कविता शुरू से आज की लड़कियों वाली श्रेणी से बाहर रहती आयी थी, इतना बाहर कि कई बार तो उसकी मां ही सोचती कि मेरी पगली बेटी कभी बाहर घूमने क्यों नहीं चली जाती। कविता के दिल का रंग उजला था और उसकी त्वचा का रंग सांवला था। दिल का देखा जाना एक कठिन किताब के पढ़े जाने जैसा था जिसकी योग्यता सब में नहीं होती थी। त्वचा के रंग का देखा जाना टीवी के किसी घटिया सीरियल देखने जैसा था जिसकी योग्यता सब में, खासकर मांओं में अनिवार्य रूप से पायी जाती थी।
कविता ने ग्रेज्युएशन के बाद से ही आई. ए. एस. की तैयारी शुरू कर दी थी (हालांकि उसने सिर्फ़ किताबें ही खरीदीं थीं लेकिन किताबें खरीदने या संबंधित कोचिंग में प्रवेश लेने पर यह मान लिये जाने का नियम था कि तैयारी शुरू हो चुकी है) जिसकी अप्रत्यक्ष तैयारी उसके पिता के भाषणों और सपनों की दुहाई के ज़रिये इंटर से ही चल रही थी। उसका सामान्य ज्ञान अच्छा था और इतिहास व पब्लिक ऐड जैसा स्कोरिंग विषय लेते वक्त उसके दिमाग में यही चल रहा था कि कम से कम पिता की एक इच्छा तो उसने पूरी कर दी, आई. ए. एस. बने या न बने, विषय तो उनके कहे अनुसार चुन लिये। वह कभी से भी प्रशासनिक सेवा में नहीं जाना चाहती थी, उसे लगता था कि उसकी ज़िंदगी का लक्ष्य एक अच्छी और पूर्णकालिक मां बनना होना चाहिये ताकि वह अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दे सके। पिता बहुत खुश थे। उन्हें कविता का विषय लेना उसके आईएएस बनने से कम नहीं लगा और इस खुशी में उन्होंने अपने जिगरी दोस्त शर्मा के साथ बैठ कर दो चार पैग मार लिये। कविता उनके घर की नाक थी। कविता के पिता को इस बात का घमंड रहता था कि उनकी बेटी आजकल की लड़कियों से बिल्कुल अलग है। कविता अपने पिता की हर इच्छा को पूरा करने का प्रयत्न करती और बिल्कुल उसी तरह पिता के सामने आती जैसा वह चाहते थे।
                तो ये थी दुनिया को दिखायी देने वाली बात। अब वह बात जो दुनिया तो क्या कविता के मां बाप को भी दिखायी नहीं देती थी। कविता वैसे तो हमेशा बहुत शांत रहती क्योंकि सांवले रंग के लिये बचपन से मिले तानों और मज़ाकों ने उसे गंभीर बना दिया था। जब वह रात को अपने बिस्तर पर आती तो चाह कर भी किताबों से दिल नहीं लगा पाती। वह किताबें खोलती और कुछ पन्नों के सफ़र के बाद उसके जे़हन के अकेले कमरे में कुछ ऐसे लोगों की आमद हो जाती कि उसे घबरा कर किताब बंद करनी पड़ती। उसका पूरा वजूद एक गिजगिजाते अनुभव से भर उठता। उसके चेहरे के सामने उसके चाचा का हांफता हुआ चेहरा आ जाता। वह इस आकृति से दुनिया में सबसे अधिक घृणा करती थी। रातों को उसे नींद में लगता कि किसी के हाथ उसके सीने पर मचल रहे हैं, वह चीख कर उठती तो कहीं कोई नहीं होता और थोड़ी दूरी पर कछुआ छाप मच्छर अगरबत्ती जल रही होती।
कविता के सामने तो कोई नहीं कहता लेकिन उसके पीठ पीछे मोहल्ले की औरतें, जो कविता के लिये चाचियां थीं और जिनकी बेटियां कविता के साथ बचपन से खेली बढ़ी थीं, उसे काली कविता के नाम से संबोधित करती थीं। काली के विशेषण से कविता परिचित थी लेकिन इस बात को कभी ज़ाहिर नहीं होने देती थी ताकि हमेशा उससे छिपा कर इसका प्रयोग किया जाये। उसकी सहेलियां भी यह जानती थीं कि कविता अपने नाम के पहले लगने वाले विशेषण से परिचित है लेकिन वे भी कोई ऐसा मौका नहीं देती थीं कि कविता को इसका शक भी हो। इस लिहाज़ से कविता की अपनी सहेलियों से अच्छी बनती थी और वे एक दूसरे का ख्याल रखती थीं। काली कविता कहने में अनुप्रास की मधुरता के कारण चाह कर भी उसकी सहेलियां और उनकी मांएं बरसों पुराना अभ्यास बदल कर सिर्फ़ कविता नहीं कह पाती थीं।
कविता जिस दौर में प्राइमरी की अध्यापिका हुयी वह दौर हरिशंकर परसाई के नंदलाल मास्टर वाले दौर से बहुत आगे निकल आया था। अध्यापकों की आमदनी, भले वे कितने भी अंदर के गांव में नियुक्त हों, खासी बढ़ गयी थी और डॉक्टर, इंजीनियर और आईएएस के साथ अध्यापकी भी एक सम्मानजनक भविष्य का विकल्प होने लगा था। अध्यापकों को दूर-दराज़ के गांवों में नियुक्त किया जाता था जहां उन्हें बच्चों को स्कूलों में रोक के रखने के उपाय खोजने होते थे। सरकार ने बच्चों को स्कूल जाने के लिये प्रेरित करने के कुछ इंतज़ामात किये थे जिन्हें लागू करके बच्चों को स्कूल आने का लालच देना था। इसके तहत एक स्लोगन बनाया गया था और विज्ञापनों में ढेर सारे गरीब बच्चों को नयी स्कूल यूनीफॉर्म पहने कंधे पर इतनी खुशी से स्कूल की ओर जाता दिखाया जाता था जैसे वे चुनाव जीतने के बाद शपथ ग्रहण करने जा रहे हों। अधिकतर बच्चे सांवले और काले हुआ करते थे गोया काला होना गरीब होने की निशानी हो या गरीब होने के लिये काले रंग की अनिवार्यता हो। सरकार ऐसे बहुत से कामों से प्रकारांतर से अपने मानसिक दिवालियेपन को प्रदर्शित करती रहती थी।
कविता को उसकी सहेलियों के साथ-साथ उसकी मां ने भी बताया कि गांवों के विद्यालयों में पढ़ाने की कोई अनिवार्यता नहीं होती इसलिये ये नौकरी राजा की नौकरी कही जाती है। इसके साथ उसकी मां ने यह भी कहा कि वह अपना काम दिल लगा करे। कविता ने कहा कि कोई नहीं पढ़ाता तो न पढ़ाये, वह अपना फर्ज पूरा करेगी। जब उसने मां को यह बात बतायी तो लगा कि फर्ज़ किसी स्वेटर बुनने जैसा है, वह एक बार सलाइयां उठायेगी और तब तक नहीं रखेगी जब तक फर्ज़ पूरा नहीं हो जाता।
कविता की बातों पर उसकी मां को पूरा विश्वास था क्योंकि कविता ने बचपन से पिता के अधिक करीब होने के बावजूद कुछ खास इरादे अपनी मां के सामने ही ज़ाहिर किये थे। मां को बचपन के उसके कारनामे याद थे। उसका बचपन आम लड़कियों से अलग था। वह जहां भी अपनी सहेलियों के साथ जाती, लोग पूछते कि वह किसकी बेटी है। वह सीधी खड़ी होकर अपने पिता का नाम बताती। इस दौरान उसे माता-पिता की हिदायत याद रहती कि पिता के नाम के आगे श्री लगा कर बताना है, वह कहती- ‘‘श्री रविशंकर कौशिक।’’ उसका जवाब सुन कर जो जवाब या फुसफुसाहटें आतीं उनका अर्थ यही हुआ करता था कि वे तो फेयर हैं, उनकी बिटिया काली कैसे हो गयी। फेयरवह पहला शब्द था जिसका अर्थ कविता ने बाहर से घर में आने के बाद अपनी मां से पूछा था। मां ने मामला समझ लिया था और उसे गोद में भरते हुए बोली थी- ‘‘फेयर का मतलब वे लड़कियां जो सिर्फ़ गोरी हैं और उन्हें कोई सहूर नहीं है।’’
कविता के बचपन का एक ही जुनून था कॉमिक्स और कहानियां। पिंकी, बिल्लू और चाचा चौधरी जैसे पात्र उसे कभी नहीं जमे। उसे बचपन से ही लगता था कि वह इतनी भी बच्ची नहीं है कि इन पात्रों की कहानियां उसे अच्छी लगें। उसका पसंदीदा पात्र था सुपर कमांडो ध्रुव और उसकी वास्तविक सी लगती कहानियां उसे बहुत प्रेरित करती थीं। नागराज की कहानियां पसंद होने के बावजूद उसे उसका अस्तित्व ही बनावटी लगता था। ध्रुव के बाद डोगा कविता को भाता था और वह डोगा के असली रूप सूरज को बहुत पसंद करती थी। उसे सारे हीरोज़ की कॉमिक्स पढ़ते हुए लगता था कि कोई लड़की क्यों नहीं ध्रुव या नागराज जैसी सुपर हीरोइन होती। यह सवाल उसे और उकसाता और वह खुद सुपरहीरोइन होने के बारे में कल्पनाएं करने लगती। उसकी मां ने उसका बचपन कहानियां सुनाते हुए बिताया था जिनमें झांसी की रानी और जीजाबाई जैसे ऐतिहासिक पात्रों से लेकर सीता और दुर्गा जैसे पौराणिक पात्र शामिल थे लेकिन कविता की पसंदीदा कहानी पारस पत्थर वाली थी। इस कहानी में समाज में उपेक्षित एक अपाहिज लड़के को एक पारस पत्थर मिल जाता है जिसे किसी भी लोहे से छुआ देने पर वह सोना बन जाता है। वह लड़का इस पत्थर की मदद से अपने पूरे गांव की मदद करता है और फिर पूरी दुनिया की मदद करता हुआ हर तरफ से गरीबी, भूख और लाचारी को मिटा कर इस दुनिया को खूब सुंदर बना देता है।
‘‘तो फिर दुनिया ऐसी कैसे हो गयी?’’  उस उम्र में भी कविता को ये समझ में आता था कि दुनिया सुन्दर नहीं है। लड़कियों को बहुत छोटी उम्र में ही, जिस उम्र में उनकी मुस्कान छोटी-छोटी कलियों की तरह होती है, इतना तो समझ में आ ही जाता है कि दुनिया सुंदर नहीं है। दुनिया उनके मन में अनेक कारणों से एक गुस्सा भरती है जो ज़्यादातर मामलों में हमेशा अंदर ही रह जाता है। लेकिन जब किसी का गुस्सा फूट कर बाहर आ जाता है तो कयामत आ जाती है।
‘‘क्योंकि जब वह लड़का मरा तो उसके साथ वह पत्थर भी कहीं गुम हो गया और दुनिया में फिर से बदहाली आ गयी।’’ मां अपने तरीके से कविता को सरल शब्दों में समझाती जिसका सारांश यही होता।
‘‘तो क्या वह पारस पत्थर फिर से मिल जाये तो दुनिया को फिर सुंदर बनाया जा सकता है ?’’ कविता जो अपने शब्दों में पूछती, उसका अनुवाद यह होता।
‘‘हां क्यों नहीं?’’ मां कह कर बात खत्म कर देती और कविता सोचती कि वह ज़रूर उस पत्थर को खोजेगी जिससे एक ही बार में दुनिया की समस्याएं खत्म हो जायें। ऐसा वह बड़ी होने के बाद भी सोचती रही भले कभी-कभी उसे अपनी सोच पर हंसी आती थी लेकिन वह मन में हमेशा मानती थी कि किसी भी चीज़ से हार नहीं मानना चाहिये।
कविता की उम्र बढ़ने के साथ उसे समझ में आ गया कि उसके रंग के कारण उसे समाज में हमेशा एक खास मानसिकता से देखा जायेगा। वह हमेशा इस बात के लिये सक्रिय रहने लगी कि कभी कोई ऐसा अनोखा काम करे दे जिससे उसे उसकी त्वचा का रंग भुला कर देखा जाये। इसी बीच एक ऐसी घटना हुई जिसने कविता को पूरे मुहल्ले में प्रसिद्ध कर दिया।
उसके मुहल्ले में एक फेरी लगा कर चादर बेचने वाला अक्सर आया करता था। वह सभी औरतों से बहुत घुला-मिला था और सभी औरतों को वह भाभी कह कर सेमी-अश्लील मज़ाक किया करता था और पतियों की अनुपस्थिति से ऊबी औरतें उन मज़ाकों में समय बिताने की रवायत देख लिया करती थीं। वह किसी के भी एक बड़े बरामदे में बैठ जाता और सारी चादरें खोल कर दिखाने लगता। आस-पास की औरतें भी वहीं आ जातीं और हर हफ्ते दस दिन पर उसकी एकाध चादर तो इस मुहल्ले से निकल ही जाती। एक दिन वह कविता के बरामदे में आकर बैठ गया और उसने कविता को मां को बुलाने को कहा। मां मुहल्ले में किसी के घर गयी थी तो कविता ने घर की लैण्डलाइन से मां को फोन करके बुला लिया। इस बीच उसने कविता से पानी मांगा और पानी देती हुयी कविता का हाथ पकड़ कर उसे गोद में बिठा लिया। कविता उस समय छठवीं कक्षा में गयी थी और उसकी छठवीं इंद्रिय हमेशा सक्रिय रहती थी। फेरी वाले की गोद में बैठे उसके पिछले हिस्से में कुछ चुभ रहा था और वह जितना आज़ाद होने के लिये हिल रही थी, फेरी वाला भी हिल रहा था। कुछ परेशानी होने पर फेरी वाले ने कविता को एक पल के लिये आज़ाद किया और अपनी लुंगी के भीतर हाथ डाल कर कुछ ठीक किया और फिर से कविता को अपनी गोद में खींच लिया। अब तक कविता के भीतर का सुपर कमांडो ध्रुव जाग चुका था। उसने अपने बालों में लगी क्लिप बाहर खींच ली थी जो एक तरफ से काफ़ी नुकीली थी। उसने पागलों की तरह हिल रहे फेरी वाले की तरफ अपना हाथ पीछे करके उसकी लुंगी की ओर बढ़ा दिया।
जब कविता की मां अपने साथ दो-तीन चादर खरीदने की इच्छुक औरतों को लेकर आयीं, फेरी वाला ज़मीन पर पड़ा तड़प रहा था और उसकी लुंगी के भीतर कहीं से खून बह रहा था। जो औरतें पांचवी फेल थीं उनकी भी छठी इंद्रिय तेज़ थी और ज़माना खराब था। उन्होंने कोने में सहमी खड़ी कविता को देखा जो हिम्मत दिखाने की काफी कोशिशों के बावजूद सहमे हुए कबूतर जैसी लग रही थी। फेरी वाले को उसकी हालत देखते हुये मारा नहीं गया और पुलिस बुला कर उसे दे दिया गया जिससे पुलिस को बैठे-बैठे काफी दिनों बाद कुछ कमाने का अतिरिक्त मौका मिला। कविता की मां की सहेलियों ने अब ये बातें बतायीं कि उन्हें पहले से शक था और उन्होंने फेरी वाले को कई बार अपनी नाबालिग बेटियों को छेड़ते देखा था।
खैर, इस घटना के बाद कविता मुहल्ले में एक आदर्शनुमा चीज़ बन गयी और वह जहां जाती उससे उसी घटना के बारे में पूछा जाता। कविता को शर्म तो आती लेकिन वह यथासंभव एडिटिंग करके घटना का वर्णन करती जिसमें वह अपनी तरफ से कई ऐसे तथ्य जोड़ देती कि पूरी घटना बताने के बाद वह एक नायिका की तरह उभरती। औरतों ने कविता के सामने अपनी लड़कियों से कहा कि वे कविता के कारनामे से सबक सीखें और कविता के जाने के बाद कहा कि काली कविता तो बहुत बहादुर है। एक स्थानीय अखबार, जिसका उप-सम्पादक कविता के पिता का मित्र था, ने इस खबर को अपने शहर के पृष्ठ पर कविता की तस्वीर के साथ छापा और ऐसा प्रचारित किया जैसे कविता को इस कारनामे के लिये कम से कम राष्ट्रपति पुरस्कार मिलना चाहिये। कविता को बहुत पछतावा हुआ कि उसके पिता ने उसकी तस्वीर प्रकाशित करने से पहले उसे बताया क्यों नहीं वरना वह यह तस्वीर न देकर दूसरी देती जिसमें वह कम सांवली दिखती थी।
इस घटना के बाद कविता को लगा कि वह मुहल्ले में लोकप्रिय हो गयी तो उसकी इज़्ज़त बढ़ जायेगी और लोग उसे काली कविता जैसे अपमानजनक संबोधन से नहीं पुकारेंगे। उसका सम्मान तो बढ़ा लेकिन विशेषण में कोई अंतर नहीं आया तो उसे दुख हुआ और पता चला कि नाम के आगे पीछे कोई चिप्पी लग जाने के बाद उसे हटाना कितना कठिन होता है। लेकिन इस घटनाक्रम से उसे यह फायदा हुआ था कि उसका आत्मविश्वास काफी बढ़ गया था, बल्कि कभी-कभी तो वह सोचती थी कि एकाध बार उसे ऐसा शौर्य दिखाने का मौका फिर से मिले तो मज़ा आ जाये। इस घटना के तीन साल बाद जब वह नौंवी क्लास में गयी और उसके गांव से उसके छोटे चाचा आये तो ऐसा मौका ईश्वर ने उसे फिर से दिया लेकिन चीज़ें कुछ बदल गयी थीं। एक तो उसका कॉमिक्स पढ़ना काफी कम हो गया था और दूसरे उसके शरीर में लड़कियों वाले कुछ परिवर्तन हो चुके थे और हो रहे थे जिसके कारण वह थोड़ी सहमी सी रहती थी। अकेलापन उसे भाने लगा था और सुबह उठने पर कहीं दूर बजता ओढ़ ली चुनरिया तेरे नाम की…उसकी अंगड़ाई में मुस्कराहट भर देता था। वह उठ जाने के बावजूद देर तक बिस्तर पर पड़ी कुछ सोचती रहती थी और अपनी डायरी में कुछ कविताएं लिखा करती थी जिनकी पंक्तियों के अंत में प्यार, इकरार, इनकार, तकरार, बेकरार या जिंदगी, बंदगी, या फिर दिल, महफिल, कातिल, मंज़िल, साहिल जैसे शब्द आते। वह बड़ी हो रही थी और कवियित्री हो रही थी, उसे एक ऐसे लड़के का ख्याल आता था जो उसकी तरह ही बड़ा हो रहा हो और कविताएं लिखता हो। वह चाहती थी कि लड़के शर्मीले हों, कविताएं लिखें और कभी गालियां न दें। गालियां देने वाले लड़कों से उसे बहुत डर लगता था।

छोटे चाचा गांव पर रह कर खेती करते थे और कभी-कभार शहर आते थे। उस बार वह अपनी कई हफ्तो से खत्म न हो रही खांसी का इलाज कराने आये थे। उनको पहले भी खांसी की शिकायत रहा करती थी लेकिन बुरा हो टीवी का जिस पर उन्होंने देखा कि तीन हफ्तों से ज़्यादा खांसी टीबी हो सकती है। वह भाग कर अपने बड़े भाई के पास चले आये। कविता ने उनके पांव छुये तो उनकी नज़र उसके फ्रॉक के ऊपरी हिस्से पर चली गयी जहां हल्के उभार मौजूद थे जो उन्होंने पिछली बार नहीं देखे थे। उन्होंने अपनी नज़रें वहां से हटाने की कोशिश की लेकिन बार-बार उनका ध्यान वहीं चला जा रहा था। उनकी पत्नी पिछले कई सालों से अलग सोती थी और जितनी बीमारियों से ग्रस्त थी उससे अधिक बीमारियों का वह बहाना बनाया करती थी। चाचा जब डॉक्टर के यहां से आये तो कविता के पिता ऑफिस जा चुके थे और उसकी मां मुहल्ले में किसी के घर बैठकर आजकल लड़कियों के लिये होते जा रहे असुरक्षित माहौल पर चर्चा कर रही थीं। चाचा को खाना खिलाने के बाद चाचा ने चाय पीने की इच्छा प्रकट की। चाय ले कर कविता चाचा के पास पलंग पर ही बैठ गयी और चाय पीने लगी। चाचा ने बहुत कोशिशें की कि वह कविता के फ्रॉक के उपरी हिस्से पर नज़र न डालें लेकिन चाय ख़त्म होते-होते उनका नियंत्रण भी खत्म हो गया। उन्होंने पीछे से कविता को पकड़ लिया और उसे अपनी गोद में खींचने लगे। उनकी हथेलियां फ्रॉक के ऊपर से कविता के उभारों को सहला और मसल रही थीं। कविता अचानक हुए इस हमले से संभल नहीं पायी और घबराहट में उसके मुंह से चीख भी नहीं निकली। चाचा ने एक झटके से उसे पलंग पर पटक दिया और अपने पाजामे और जांघिये को सरका के अपनी कमर के नीचे का हिस्सा उसकी कमर पर रगड़ने लगे। उन्होंने कविता की स्कर्ट ऊपर उठा दी थी और उसकी चड्ढी पर रगड़ कर रहे थे। कविता ने पूरी ताकत से छूटने की कोशिश की लेकिन चाचा की जकड़ मज़बूत थी। साथ ही वह कह भी रहे थे, ‘‘रुक जा बेटा बस थोड़ी देर।’’ कविता घिन के एक सागर में थी और इससे बाहर आने के लिये हाथ पांव मार रही थी। थोड़ी देर में चाचा का हांफना कम हो गया और वह उठ कर चुपचाप अपना पाजामा ठीक करते बाथरुम में चले गये। वह बाहर आये तो कविता बैठी हथेलियों में चेहरा छिपाये रो रही थी। चाचा ने उसके चेहरा उठाया और कहा, ‘‘ये कुछ नहीं था। मैंने कुछ गलत नहीं किया क्योंकि तुम तेरी बेटी की तरह हो। कुछ गलत तब होता जब मैंने तुम्हारी चड्ढी उतारी होती लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया ताकि तुम्हारी ज़िंदगी न खराब हो।’’ अपने महान काम का एहसान जताने और अपनी भलमनसाहत पर संतोष प्रकट करते हुये चाचा ड्राइंग रूम में सोने चले गये और फिर उसी रात की ट्रेन से वापस लौट गये। यह एकमात्र घटना थी जिसमें कविता कुछ नहीं कर पाई नहीं तो इसके बाद उसी साल उसने एक ऑटो वाले को खींच के थप्पड़ मारा था जिसने चेंज देते वक़्त उसकी छातियों को हाथ लगाया था। यूं तो छोटी रगड़ों और जानबूझ कर मारे गये घिनौने धक्कों से तो वह दिन भर दो चार होती थी लेकिन जब अति हो जाती थी तो वह हंगामा खड़ा करने में ही ठीक समझती थी।
पूरे मुहल्ले में एक दिन बीचोंबीच कविता ने मुहल्ले के एक अधेड़ रामनाथ शर्मा को जब अपनी सैंडिल से मारा तो उसकी चर्चा कई मुहल्लों तक हुई। सबने कहा कि काली कविता बहुत बहादुर है और उन सबकी बेटियों को ऐसे ही बहादुर होना चाहिए। कविता ने ऐसे कई छोटे-मोटे कारनामे किये जैसे-कॉलेज में एक टीचर को लड़कियों को प्रेक्टिकल में पास करने के लिये पैसे मांगने पर उसकी पोल खोलना या ब्लैंक कॉल्स कर रहे एक लड़के को पुलिस के हवाले करवाना। इन सबके बावजूद कविता का वह दर्द नहीं मिटा जो एक तरफ उसके चाचा के रास्ते आता था और दूसरा पूरी दुनिया द्वारा काली के विशेषण से आता था। चाचा उसके बाद भी आते रहे और उसके बाद तब तक वही चलता रहा जब तक कविता ने इंटर की परीक्षा नहीं दे दी। इंटर की परीक्षा पास करने वाले साल जब उसने उसकी चड्ढी उतारने की कोशिश कर रहे चाचा को ज़ोर से धक्का दे दिया था, वह जाकर ड्रेसिंग टेबल से टकराये थे और अगले दिन अस्पताल से ड्रेसिंग करा के चुपचाप गांव वापस लौट गये थे। कविता के पिता ने उन से अचानक जाने का कारण पूछा था तो उन्होंने कहा कि गांव में उनकी झोंपड़ी ढह गयी है और उन्हें जा कर उसे तुरंत उठाना है।
कविता जब इंटरमीडिएट की बोर्ड परीक्षाओं के बाद छुट्टियों में अपने नानी के घर गयी तो उसने पाया कि उसकी ममेरी बहन विनीता टायफाइड से ठीक हो कर उठने के बाद बहुत दुबली, पीली और कमज़ोर हो गयी है। इस साल ग्यारहवीं कक्षा में गयी विनीता ही नानी के यहां आने का उसका हर साल का आकर्षण हुआ करती थी और इस बार वह उसके साथ खेलने कूदने की स्थिति में नहीं थी। उसे देख कर आश्चर्य हुआ कि बीमारी से उठने के बाद विनीता को दूध, दही और फल जैसी किसी चीज़ की कोई व्यवस्था नहीं थी और ये सारी चीज़ें घर के स्वस्थ मर्द यानि उसके दोनों मामा और विनीता के बड़े भाई विनीत के लिये सुरक्षित थीं। कविता ने मामी से पूछा कि विनीता को दूध और फल क्यों नहीं दिये जा रहे तो मामी ने पैसों की कमी का रोना रोया। रोना रोने के दौरान उन्होंने खाद की महंगाई के लिये सरकार और बारिश न कराने के लिये इंद्र भगवान को भी कसूरवार ठहराते हुए जम कर कोसा। कविता ने विनीता को समझाया कि वह अपनी मां से कहे कि कम से कम उसे रात में सोते हुए एक गिलास दूध दिया करे। विनीता ने ऐसा कुछ नहीं कहा और अपनी स्थिति में खुश रही। एक दिन कविता रात को विनीत को दूध देने गयी और उसने बातों-बातों में विनीत से पूछा,  ‘‘आगे क्या करने का इरादा है?’’
विनीत ने एक साल छोटी बहन को जवाब दिया, ‘‘देखो बाबू, चाहता हूं इंजीनियरिंग की तैयारी करुं लेकिन घर वाले शायद ही पैसा दें।’’
‘‘गणित अच्छा है तुम्हारा न भइया?’’ कविता ने पूछा।
‘‘हां, मेरा भी अच्छा है और छुटकी का भी। वह भी चाहती है लेकिन…..मैं कोई कोचिंग ज्वाइन कर लेता तो उसे तो मैं ही गाइड कर देता लेकिन….।’’ विनीत कुछ सोचता हुआ बोला।
‘‘लेकिन तैयारी के लिये मानसिक रूप के साथ-साथ शारीरिक रूप से भी स्वस्थ रहना जरूरी है, यह तो आप मानते हैं ना ?’’ कविता ने पासा फेंका।
‘‘हां हां और क्या ?’’ विनीत ने विनीत भाव से कहा।
‘‘तो…………..आखिर क्यों………….फिर ऐसा……….।’’ कविता ने विनीत के सामने ऐसे-ऐसे सवाल रखे जिस पर सोचना उसने कभी ज़रूरी नहीं समझा था। कविता जब सोने के लिये अपने कमरे में जा रही थी तो एक बार उसने विनीता के कमरे में झांका और मुस्करा दी।
अगले दिन से विनीत ने कमर कसी और अपनी बहन के लिये दूध और फल का इंतज़ाम करवाया। मां और घर के पुरुषों के रोने को कि घर में पैसे की कमी हैको उसने यह कह कर काटा कि अगर कमी है तो हम सब अपने में से कटौती करके विनीता के लिये उन सारी चीज़ों का इंतज़ाम करेंगे जो घर के मर्दों के लिये है।
कविता जिस दिन जाने वाली थी और दरवाज़े पर मामा का बुलाया गया रिक्शा खड़ा था, विनीत ने एक बड़ी सी डायरी उसे गिफ्ट की जिस पर लिखा था –ज़िंदगी के बड़े सबक सिखाने वाली छुटकी सी बहन के लिये। कविता की आंखें नम हो गयीं। उसने विनीत से धीमी आवाज़ में कहा, ‘‘भइया, ये सब सिर्फ़ उतने ही दिन तक नहीं चलना चाहिए जब तक विनीता स्वस्थ न हो जाये। ये तो नियम हो जाना चाहिये ना?’’
’’हां पगली। और सिर्फ इसलिए यह नियम नहीं होगा कि मेरी बहन पढ़ने में तेज है। वह चाहे जैसी भी हो लेकिन व्यवस्था घर में एक बराबर होनी चाहिये सबके लिए। तू चिंता मत कर।’’
‘‘चलो कविता।’’ पापा ने रिक्शे पर बैठ कर कविता को पुकारा था और वह मामी-मामाओं के पांव छू कर रिक्शे में बैठ गयी थी।
इस घटना का ज़िक्र कविता की मां ने हर जगह किया। वह बहुत खुश थीं और कविता को दुआएं देते नहीं थक रही थीं। मुहल्ले में जिन लड़कियों ने इन घटनाओं के बारे में सुना, उन्होंने भी अपने घरों में भाइयों के बराबर हक पाने की आवाज़ उठायी और ज़्यादातर मामलों में कामयाब रहीं। कविता का बचपन घटनाओं से परिपूर्ण रहा था और उसे लगता था कि ऐसा इसलिए है कि वह कॉमिक्स पढ़ती है और हर चीज़ पर पैनी नज़र रखती है। उसकी इच्छा थी कि काश उसकी तरह कोई सुपरहीरोइन होती जिसके कारनामों को ले कर कॉमिक्स लिखे जाते और उसमें उसके ढेर सारे ऐसे कारनामों का वर्णन होता जिनमें उसे किसी सुपरहीरो की मदद नहीं लेनी पड़ती। उम्र थोड़ी बढ़ने के बाद उसे कुछ घटनाओं पर दुख होता था कि वह पूरी तरह से प्रतिक्रिया नहीं दे पायी जिसमें चाचा वाली घटना उसका सबसे बड़ा दर्द थी।
                कविता ने आइएएस के दो और विभिन्न राज्यों के पीसीएस के पांच-छह प्रयास किये। एकाध राज्यस्तरीय परीक्षाओं में उसने प्रारंभिक परीक्षा पास तो कर ली लेकिन उसे समझ में आ गया था कि इन परीक्षाओं के लिए जो एकाग्रता और ‘काकचेष्टा बकोध्यानम’ चाहिए वह कहीं खो चुकी है। उसने अध्यापकी के लिये प्रयास किये और एक बार राज्य सरकार ने ट्रक भर के नियुक्तियों की लॉटरी निकाली तो उसमें कविता ने भी टिकट खरीद लिया। आश्चर्यजनक रूप से पहली बार में ही उसका चयन हो गया और उससे एक भी रुपया घूस की मांग नहीं की गयी।
गांव उसके शहर से ढाई-तीन घण्टे की दूरी पर था इसलिए रोज़ अप-डाउन करना अच्छा विकल्प नहीं था। उसे उसी गांव में कमरा लेना पड़ा। उसके पिता और मां उसके साथ गये और उसे कमरा दिलवा, रसोई के, ओढ़ने बिछाने और अन्य ज़रूरी इंतज़ाम कर चले आये। अब कविता थी और उसके अंधेरे उजाले। ज़िंदगी में पहली बार वह इस तरह अकेली हुई थी। 
गांव का नाम हरियालीगंज था लेकिन वहां ज़रा भी हरियाली नहीं थी। उसके स्कूल के हेडमास्टर का नाम मनोहर प्रसाद था और उसमें कुछ भी मनोहर नहीं था। स्कूल में पढ़ाई छोड़ कर बाकी सब कुछ होता था और गांव की प्रधान हो कर भी मनकिया सिर्फ़ गाहे-बगाहे मार खाने वाली आम औरत थी। प्रधान का पद वहां मनकिया का पति मोंटेक सिंह ही संभालता था और महिलाओं के लिये कुछ सीटों  की मजबूरी कर दिये जाने के कारण वे खड़ी हो कर जीत तो जाती थीं लेकिन उनके लिये परेशानियां और बढ़ ही जाती थीं। वे चुनाव में खड़ी होती थीं और अपनी जाति, पति के रसूख के साथ पति के बताये हर पैंतरे का इस्तेमाल करती थीं और जीतने के बाद नेपथ्य में चली जाती थीं। जीतने के बाद मन में जो एकाध उम्मीदें उठती थीं वह पति के व्यंग्य भरे तानों, जिनका एक ही अर्थ हुआ करता था जीत के उड़ने लगी?’ के कारण पहले से भी मुश्किल मनःस्थिति में खाना पकाती थीं जिसके कारण कई बार दाल में अधिक नमक पड़ जाता था और उन्हें बिना मतलब के मार खानी पड़ती थी।
स्कूल में आने वाले लड़कों को सिर्फ़ दोपहर में मिलने वाले खाने का इंतज़ार रहता था और लगभग सभी इस फिराक में रहते थे कि खुद खाने के बाद थोड़ा खाना घर भी ले जाया जाय। बच्चों का मन पढ़ने में बिल्कुल नहीं लगता था और वे हमेशा अपनी उम्र से बड़ी और अश्लील बातें करते थे। खाने के वक्त कई बिना नाम लिखाये बच्चे भी आ कर बैठ जाते थे और अध्यापक कुछ न भी बोलें तो वे आपस में गंदी गालियां देते हुये लड़ाई करते रहते थे। उसका दिमाग भन्ना गया जब उसने देखा कि स्कूल के सड़े-गले बाथरुम में जाते वक्त एक पांचवी क्लास का बच्चा छिप कर उसे देख रहा था। उसे विश्वास नहीं हुआ। उसने बच्चे को बाहर निकल कर पकड़ लिया।
‘‘क्या देख रहे थे?’’ उसने कड़ाई से डांटते हुए पूछा। बच्चे ने कोई जवाब नहीं दिया।
‘‘बताओ क्या देख रहे थे नहीं तो मार खाओगे?’’ कविता ने छड़ी उठा ली।
‘‘पवनवा भोसड़िया वाला कहा था कि करिक्की मैडमवा आग मूतती है तो हम देखने गये थे।’’ बच्चे ने सहमी आवाज़ में कहा। कविता ने इसके पहले भी भद्दे कमेंट सुने थे लेकिन इतने छोटे बच्चे के मुंह से यह सुनना कलियुग के खत्म होने का संकेत था। कोई और ही युग शुरू होने वाला था। उसे बच्चे से ज़्यादा पवन पर गुस्सा आया लेकिन वह कुछ कह नहीं सकती थी। पवन उससे सीनियर टीचर था और पास के जिले से मोटरसायकिल पर आता था। साइन करके एकाध घंटा वहीं बैठ कर सिगरेट पीना और हल्ला मचा कर चले जाना उसका नियम था। बकौल पवन उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था कि वह अध्यापक संघ का चुनाव लड़े और नोट छापे। उसने पवन की एकाध बार बात करने की कोशिशों को नज़रअंदाज़ कर दिया था। उसने उस बच्चे पर गुस्सा आने के बावजूद उसे प्यार से समझाया कि कोई उसके बारे में कुछ बोले तो वह तुरंत आ कर उसे बताये। बच्चे कविता से अच्छा व्यवहार पा कर उसे पसंद करने लगे वरना इसके पहले स्कूल का माहौल कुछ ऐसा था कि सरस्वती पूजा या किसी कार्यक्रम वाले दिन बच्चों से खाना बनवाते वक्त कोई पिछड़ी जाति का बच्चा लोटे या आटे आलू को छू भी देता तो बवाल मच जाता। पवन एकाध बच्चों को पीट भी देता।
‘‘केतने बार कहे हैं कि तू लोग सफाई ओफाई के काम देख सब….चल भाग, भंडारे में मत आ।’’ ज्यादा से ज्यादा यादव या बढ़ईयों के बच्चे बच्चियों को रसोई के कामों में लगाया जाता। पिछड़ी जाति के बच्चे इस भेदभाव को नियति समझ ज़्यादा आश्चर्य न प्रदर्शित करते हुए इसे वाकई अपनी गलती मान लेते और अपने काम में लग जाते।
पवन एक दिन शिक्षामित्र वीरेंद्र से बातें कर रहा था कि कविता उधर से गुज़री। पवन ने उसे बुलाया तो वह इच्छा न होने के बावजूद वहां जा कर बैठ गयी क्योंकि सामने से आते मनोहर ने भी उसे वहां पड़ी एक खाली कुर्सी पर बैठने का इशारा किया था। वीरेंद्र अपनी हर हरकत से शिक्षा का शत्रु साबित होता था लेकिन उसका पद शिक्षामित्र का था। वह प्रधान मोंटू का साला था और उसकी हरकतें साबित करती थीं कि उसके और शिक्षा व्यवस्था के बीच भी जीजा-साले का ही रिश्ता है।
‘‘और सुनाइए कविता जी, कैसा लग रहा है यहां ?’’ मनोहर अक्सर यह सवाल कविता से पूछता था लेकिन कविता समझ जाती थी कि इसका कोई मतलब नहीं है और ये लोग समय काटने के लिये किसी भी मुद्दे पर बात कर सकते हैं। उसने कोई जवाब नहीं दिया, सिर्फ़ मुस्करा भर दी जिसका अर्थ था ठीक ही चल रहा है।
‘‘और सर, टीएलएम कब तक आ रहा है ? गाड़ी की सर्विस नहीं करवायी इस साल।’’ पवन ने थोड़ी दूरी पर खड़ी अपनी खस्ताहाल मोटरसायकिल की ओर देखते हुए पूछा।
‘‘अरे पांच सौ रुपिये के लिये इतना हल्ला मचाये रहते हो तुम लोग….आ ही जायेगा कुछ दिन में।’’ मनोहर ने कहा।
‘‘देखिये न जरा…गरीबों का ध्यान रखिये थोड़ा….।’’ पवन ने फिर से वही खिसियानी हंसी बिखेरी तो कविता को वितृष्णा सी हुयी और वह उठ गयी।
कविता ने पता किया तो सुमन मैडम ने बताया कि हर साल अध्यापकों को चाक, नक्शा और अन्य सामग्रियां (टीचिंग लर्निंग मटेरियल) खरीदने के लिये कुछ 500 रुपये मिलते हैं जो हेडमास्टर और प्रधान के खाते में आता है। उससे लोग अपने रुके हुए काम पूरा करते हैं जैसे सुमन मैडम उससे ढेर सारा ऊन खरीदेंगीं और पूरे घर के लिये स्वेटर बनाएंगीं और पवन अपनी मोटरसायकिल की सर्विसिंग करायेगा। सुमन मैडम ने कविता को बिना मांगे सलाह दी कि इस पैसे से वह अपने लिये कोई हल्के रंग का सूट बनवा ले।
उस दिन जब वह पढ़ा कर स्कूल से निकली तो स्कूल की इमारत पर उसे कुछ फड़फड़ाहट सुनायी दी। उसने पलट कर देखा तो भौंचक रह गयी। दो गिद्ध वहां बैठे नीचे की ओर देख रहे थे जहां बैठ कर बच्चे पढ़ाई कर रहे थे। वह डर गयी लेकिन मन कड़ा करके उसने हो हो हो की आवाज़ करते हुये कुछ पत्थर उठा कर उनकी ओर चलाये। गिद्धों को कोई फर्क़ नहीं पड़ा और वे आराम से इसे अपना अधिकार-क्षेत्र मान कर न जाने आंखों में किस चीज़ का इंतज़ार लिये बैठे रहे। कविता की नज़र उनकी आंखों पर पड़ गयी और उसके रोंगटे उनमें अजीब से बरबादी के भाव देख कर खड़े हो गये। वह तेज़ कदमों से वहां से निकलने लगी। उसके हो हो की आवाज़ सुन कर पवन मनोहर के ऑफिस से निकल कर बाहर आ गया। उसने देखा कि कविता तेज़ कदमों से बाहर जा रही है। वह उसके पीछे आया और गेट के पास आ कर उससे पूछा।
‘‘क्या हुआ मैडम जी ?’’
कविता ने संकोच करते हुए बताया कि उसने स्कूल की इमारत पर दो गिद्ध देखे हैं तो पवन हंसने लगा।
‘‘आप पढ़ी तो हैं सहर से लेकिन आपका जनरल नालेज एकदम्मे गायब है। अरे गिद्ध खतम प्रजाति है, जानती नहीं हैं का आप ?’’ वह हंसने लगा। कविता वहां से तुरंत निकल आयी कि फिर किसी और का सामना न करना पड़े।
उसे लगने लगा कि वह ज़्यादा दिन इस स्कूल में नहीं पढ़ा पायेगी। लेकिन किसी बच्चे में अचानक उसे कोई संभावना दिखायी दे जाती तो उसका डूबता हुआ उत्साह फिर से सतह पर आ कर हाथ-पांव मारने लगता। लेकिन फिर कोई ऐसी घटना हो जाती कि उसका उत्साह उस घटना और आसपास के माहौल की बर्फ़ से ठंडा होने लगता। पूरे स्कूल में एक भी कोई ऐसा नहीं था जिससे कविता अपने मन की बात कर पाती। हालांकि मनोहर ऐसी कोशिशें करता रहता कि कविता उसे अपना हितैषी समझे लेकिन मनोहर की कोशिशें कविता को और झल्ला देतीं। धीरे-धीरे कविता की आंखें एक लड़के पर टिक गयीं। पांचवी कक्षा का माधव नाम का लड़का बहुत जल्दी हर चीज़ याद कर लिया करता था। कविता की पूरी कक्षा जब नौ के पहाड़े से जूझ रही थी माधव ने कविता के सिर्फ़ एक बार रटाने पर उन्नीस का पहाड़ा याद कर लिया था। उसका मन गणित में भी खूब लगता था और वह अपने मन से भी कुछ न कुछ सवाल लगाता रहता। कविता को उस बच्चे की पढ़ाई देख कर राहत मिलने लगी। कविता पाठ्यक्रम की पढ़ाई के अतिरिक्त कुछ अलग चीज़ें भी बच्चों को सिखाती और बताती रहती ताकि उनमें अच्छे गुणों का विकास हो। वह यूं ही अचानक किसी भी विषय पर बच्चों को कुछ भी लिखने के लिये कह देती जिससे उससे बच्चों की सोच का पता चलता। कभी कुछ पहेलियां बूझने को दे देती जिससे बच्चों की कल्पनाशीलता से वह परिचित हो पाती। एक दिन मां द्वारा बचपन में सुनायी गयी एक कहानी को उसने पहेली में बदल कर बच्चों से पूछा। 

‘‘मान लो किसी श्राप की वजह से पूरे गांव के लोगों के हाथ मुड़ना बंद हो जायें और एकदम सीधे हो जायें तो वे खाना कैसे खाएंगे?’’ उसने इस पहेली को पूरी तरह आसान बना कर बच्चों के सामने रख दिया और कहा कि वे रात भर सोच कर कल कक्षा में इसका जवाब बताएं। कुछ अति उत्साही बच्चे उसी समय अपनी कल्पनाशीलता दिखाने लगे। ‘‘पूरा खाना नांद में डालकर गोरू के जइसे मुंह डाल कर खाएंगे सब लोग।’’ कविता ने सभी जवाबों को एक-एक कर वाजिब कारण बताते हुये खारिज़ कर दिया। ‘‘नहीं, ऐसे तो पूरे मुंह पर खाना लग जायेगा, सफाई से खाना है।’’ सब बच्चे आपस में इसी सवाल पर चर्चा करते हुये घर गये। कविता पढ़ाई के ऐसे तरीकों से धीरे-धीरे बच्चों के बीच लोकप्रिय होने लगी थी।
रात के नौ बजे थे और गांव के हिसाब से यह काफी रात थी। उसे बाहर वाला कमरा दिया गया था और घर के मालिक और उनका परिवार हद्दाहद्दी आठ बजे तक सो जाता था। शहर के अपने रूटीन के कारण कविता कितनी भी जल्दी सोये तो ग्यारह तो बज ही जाते थे। अचानक उसे दरवाज़े पर हल्की खटपट सुनायी दी। उसका असुरक्षा बोध फिर निकल कर सामने खड़ा हो गया। वह कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में डरती थी तो एक पल के लिये चाचा का चेहरा ज़रूर आंखों के सामने घूम जाता था। उसने ऐसी स्थिति के लिये अपने सिरहाने रखा हथौड़ा उठाया और दरवाज़े के पास पहुंची।
‘‘के हौ…।’’ उसने ठेठ बोल कर जैसे खुद को हिम्मत दी कि वह इसी गांव की है और किसी के घर आना जाना किसी के लिये आम बात होनी चाहिये। बदले में उत्तर भी ठेठ में आया।
‘‘हम हई बहिन जी, माधो।’’ कविता की जान में जान आयी। उसने दरवाज़ा खोला। माधव ने लपक कर उसके पैर छू लिये। कविता को थोड़ा अटपटा लगा, स्कूल में पांव छुआने की आदत हो गयी थी लेकिन स्कूल के बाहर ये एक अंजानी सी प्रक्रिया थी।
‘‘इतनी रात को…?’’ कविता का आत्मविश्वास वापस लौट आया था और वह मैडम जी ऑन ड्यूटीहो गयी थी।
‘‘सब लोग दो-दो लोगों का झुंड बना लेंगे। हाथ में कौर ले के अपने-अपने जोड़ीदार को खिला देंगे तो किसी का मुंह भी नहीं गंदा होगा और सबका पेट भी भर जायेगा।’’ माधव शायद दौड़ कर आया था इसलिये हल्का हांफ भी रहा था लेकिन पहेली समझ जाने का उत्साह सभी चीज़ों पर हावी था।
‘‘सही है ?’’ उसने शंका से पूछा। कविता के मन में एक साथ विचारों के महाझुण्ड ने आक्रमण कर दिया था। ‘‘हां सही है माधव, एकदम सही, शाबास।’’ उसने अपने भीतर एक आनोखी सी खुशी अनुभव की। ‘‘अब तुम घर जाओ।’’ माधव ने फुर्ती से अपने मैडम के पांव छुए और हिरन की तरह भाग गया। कविता कुछ देर वहीं खड़ी रही। ठंडी हवा शरीर में लग रही थी तो झुरझुरी सी हो रही थी और मन करता था कि कहीं दूर कोई मधुर गीत बजने लगता। कविता दरवाज़े से थोड़ा आगे जा कर टहलने लगी, उसे लगा उसे कुछ ज़्यादा ही डर लगने लगा है और इससे बचने की कोशिश की जानी चाहिए। माधव के जवाब ने उसे एक साथ बहुत सारी चीज़ें बता दी थीं। वह अपने प्रयोग की पहली बड़ी सफलता देख कर प्रफुल्लित थी। वह टहलती हुई आगे गयी तो अचानक बंसवारी के पास कोई चमकती हुयी चीज़ दिखायी दी। उसे थोड़ा डर फिर से लगा लेकिन उसने डर को काबू किया और छोटे कदमों से वहां तक पहुंची। एक पत्थरनुमा चीज़ थी जो चांदनी रात में एक खास कोण पर चांद की रोशनी पड़ने के कारण चमक रही थी। उसने हिचकिचाते हुए पत्थर को हाथ में उठा लिया। पत्थर ख़ासा वज़नी था और उसे देख कर नहीं लगता था कि उसका वज़न इतना अधिक होगा। कविता उसे लिये अपने कमरे में आ गयी। उसकी दिल की धड़कन बहुत तेज़ चल रही थी। बचपन में मां की सुनाई हुयी कहानियां दिमाग में गूंज रही थीं। उसने कांपती उंगलियों से मां को फोन लगा दिया। मां घबरा गयी कि इतनी रात को क्या हो गया। कविता ने सिर्फ यही पूछा कि पारस पत्थर की निशानी क्या होती है। मां ने बताया कि देखने में आम पत्थर जैसा ही होता है लेकिन उसका वज़न थोड़ा अधिक होता है और वह चांदनी रात में बहुत चमकता है। लोहे को उस पत्थर से छुआते ही लोहा सोना नहीं बनता बल्कि उसे काफी देर तक लोहे पर घिसना होता है तब कहीं जाकर सोना मिलता है। मां ने यह पूछने का कारण पूछा तो कविता ने कहा कि वह इस शनिवार घर आयेगी तो बता देगी। 
उसने एक लोहे की अपनी क्लिप निकाली और उसे उस पत्थर से घिसने लगी। पहले घंटे तो कुछ नहीं हुआ लेकिन दूसरे घंटे में जब क्लिप का रंग बदलने लगा तो कविता की धड़कनें बढ़ने लगीं। क्लिप सोने में बदल रही थी। पूरे तीन घंटे घिसने के बाद लोहे की वह साधारण सी क्लिप सोने में बदल कर जगमगा रही थी। कविता ने घड़ी देखी। सुबह के चार बज रहे थे। उसे बड़ी मीठी नींद आ रही थी। क्लिप को उसने अपने हैंडबैग में रखा और सो गयी। उस दिन वृहस्पतिवार था।
अगले दो दिन कविता के लिये बहुत कठिन बीते। उसने मां के कई बार पूछने के बावजूद कुछ नहीं बताया और तीन कलमों और चश्मे के एक फ्रेम को सोने में बदल लिया था। बच्चों को पढ़ाने में उसे एक अलग तरह का उत्साह आने लगा था क्योंकि बच्चे उसकी बातों को समझने लगे थे। उसे लगने लगा था कि अगर छोटे बच्चों की नींव सुधार दी जाये तो आगे जाकर वे किसी भी कॉलेज से पढ़ाई करें या न भी करें तो उस फेरी वाले या उसके चाचा जैसी मानसिकता उनकी नहीं हो सकती। उन्हें मानसिक रूप से स्वस्थ बनाने का सिर्फ एक ही तरीका है कि उनका निर्माण अभी किया जाये जब उनकी मिट्टी कच्ची है। कविता को अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास बहुत शिद्दत से हुआ। उसके साथ वालों और उस जैसे बहुत सारे अध्यापकों का यह मानना था कि नौकरी को नौकरी की तरह करना चाहिए लेकिन कविता ने देखा कि उसे देश के भविष्य में सबसे बड़ा योगदान करने के लिये चुना गया है। वह चाहे तो साल में दो ढाई सौ अच्छे और सभ्य नागरिक तैयार कर सकती है। उसके मन में बी.एड. के दौरान पढ़ी गयी शिक्षा शास्त्र की वह किताबें दौड़ने लगीं जिनमें बताया गया था कि बच्चों के मानस का जितना निर्माण होना होता है, वह किशोरावस्था तक पहुंचने के काफी पहले ही हो चुका होता है।
कविता ने घर पहुंचने पर शाम होने तक का समय बहुत बेसब्री से बिताया। शाम की चाय पर जब वह अपने मां पापा के साथ बैठी तो उसके पापा ने स्कूल में चल रही पढ़ाई के विषय में पूछा। कविता उत्साहित होकर बताने लगी।
‘‘पहले तो बहुत खराब लगता था पापा, मुझे लगता था कि इन बच्चों का कुछ नहीं किया जा सकता। माहौल इतना खराब है कि कोई टीचर वहां पढ़ाना तो दूर, पूरे टाइम तक रुकता भी नहीं स्कूल में। बच्चों में पढ़ने की एकदम रुचि नहीं है पापा….।’’
‘‘बच्चों को क्या पता बेटा, तुम्हारा ही कौन सा मन लगता था पढ़ने में सिर्फ़ कॉमिक्स और कहानियों के अलावा ? फिर टीचरों और हमारी पढ़ाई के सिस्टम ने सभी बच्चों को पढ़ाई से दूर करने का ठेका जो ले लिया है।’’ पापा मुस्कराये।
‘‘लेकिन अब मुझे समझ आ गया है पापा कि बच्चों को कैसे पढ़ाई के लिये प्रेरित करना है। उन्हें वो पुराने तरीके नहीं समझ में आते, मैं उन्हें अपने तरीके से पढ़ा रही हूं और गज़ब की प्रोग्रेस दिख रही है मुझे पापा।’’ कविता का उत्साह देख कर पापा खुश थे। उन्होंने कहा कि बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा से जोड़ने के लिये ज़रूरी है कि कुछ नये तरीकों से उस पढ़ाई में आकर्षण पैदा किया जाये जिससे दूर करना और फिर पास लाने के लिये करोड़ों रुपये योजनाओं में फूंकना सरकारी लक्ष्य है। कविता ने कुछ उदाहरण बताये जिसमें कुछ कहानियों से उसने बच्चों को प्रेरित किया था और बहुत जल्दी उसे सकारात्मक परिणाम दिखायी दिये थे। वह पापा का प्रोत्साहन पाकर बहुत खुश थी। वह पापा की शुक्रगुज़ार थी कि उन्होंने उसे ऐसी शिक्षा दी थी कि वह कुछ नया सोच पायी। उसे अपनी ज़िंदगी का मकसद दिखायी दे रहा था। रात होते ही उसने मां को चुपके से वह पत्थर दिखाया।
‘‘देखो तो, कभी देखा है पारस पत्थर ?’’ मां हाथ में ले कर गौर से उसे देखने लगी। उन्होंने सिर्फ किस्से कहानियों में इसका ज़िक्र सुना था वह भी अपनी दादी से। खुद उन्होंने कोई कहानी नहीं पढ़ी, उन्होंने पांच पास ही किया था कि उनका स्कूल छुड़वा लिया गया था और घर के कामों में झोंक दी गयी थीं। कविता ने सबूत के तौर पर उन्हें सोने की चीज़ें दिखायीं तो उनकी आंखें फटी की फटी रह गयीं। दोनों मां बेटी बैठ कर देर तक बातें करती रहीं।
इस बार जब कविता स्कूल पहुंची तो वह नये जोश के साथ बच्चों को पढ़ाने में लग गयी लेकिन तब तक उसके बारे में कुछ बातें इधर-उधर फैल चुकी थीं। उसकी उपेक्षा से घायल मनोहर ने उसे अपने दड़बेनुमा केबिन में बुलाया।
‘‘पढ़ाई कायदे से करवाइये कविता जी, ये सब क्या होमवर्क देती रहती हैं कि नाव में एक बार में चार लोग कैसे पार होंगे, अरे नैतिक शिक्षा पढ़ाइए, महापुरुषों की जीवनी, जोड़ घटाना गुणा भाग पढ़ाइए, बच्चे साले ऐसे ही पढ़ाई से भागते रहते हैं, आप और मत दूर करिये उनको पढ़ाई से।’’ मनोहर ने उसे डांटने के लिये पूरी पटकथा तैयार कर रखी थी। उसने प्रतिवाद करने की कोशिश की।
‘‘नहीं सर, बच्चे ऐसे तरीकों से पढ़ाई के प्रति आकर्षित….।’’ मनोहर ने उसकी बात काट दी।
‘‘अरे छोड़िए….मैं आपसे पंद्रह साल पहले से पढ़ा रहा हूं आप चली हैं मुझे समझाने….। बुझउअल मत बुझाइए…..पढ़ाइए।’’ इसके बाद वह एक कड़वी सी व्यंग्य भरी मुस्कान मुस्कराया जिसे कविता बर्दाश्त नहीं कर पायी और पैर पटकती बाहर चली गयी। एक दिन उसने सुना कि पवन मनोहर से कुछ बातें कर रहा था। उसने अपना नाम सुना तो उधर से होकर गुज़री। उसे आता देख पवन ने मनोहर को एक शेर सुनाया जो इतनी धीमी आवाज़ में था कि कविता को सुनायी दे जाये।
‘‘मेरे महबूब को न कहो काला
मेरे महबूब को न कहो काला
खुदा तो तिल ही बना रहा था
पर लुढ़क गया रंग का प्याला’’
कविता को आश्चर्य हुआ कि उसे ज़रा भी गुस्सा नहीं आया। जबकि मुहल्ले में एक बार भी किसी की फुसफुसाहट में काला शब्द सुन लेती थी तो घर आकर घंटों तकिये में मुंह छिपाये पड़ी रहती थी और दो-तीन दिन गुमसुम सी रहती थी। इस समय उसे पवन पर गुस्सा नहीं आया बल्कि उसके ऊपर तरस आया। उसे लगा कि इसमें पवन की कोई गलती नहीं है। इस स्कूल के ढेरों मासूम बच्चों में से बड़े हो कर कुछ बच्चे पवन निकलते हैं, कुछ फेरी वाले और कुछ उसके चाचा जी तो इसमें सबसे पहला दोष तो उन्हें पढ़ाने वालों का है। उसे पवन से सुहानुभूति हुई। पवन दुनिया को वही लौटा रहा है जो उसके गुरुजनों ने उसे दिया है। उसे फिर एक बार अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास हुआ।
उसने बच्चों को अपने तरीके से पढ़ाना जारी रखा। बच्चे उससे घुल-मिल गये थे और कई जासूसी प्रवृत्ति के बच्चे तो उसे मनोहर और पवन की बातें भी बताते थे हालांकि ऐसा करने से उसने बच्चों को रोका और कहा कि किसी के पीठ पीछे उसकी शिकायत नहीं करनी चाहिए। स्कूल के बाकी अध्यापकों को कविता में और पढ़ाने किसी में रूचि नहीं थी और वे सारे काम कोरम की तरह पूरा करते थे। सुमन मैडम पूरा दिन स्कूल में हर मौसम में स्वेटर बुनती दिखायी देतीं तो मनमोहन मास्साब कक्षाओं में बैठ कर अखबारों की सारी खबरों को चाटने के बाद चुपचाप उनकी वर्ग पहेलियां हल करते। सिर्फ तनख्वाह मिलने वाले दिन वह एक दूसरे से बात करते थे। उसी दिन वे कविता से हालचाल भी पूछते, ‘‘क्या हाल है ? घर कब जा रही हैं? भई बड़ा मानते हैं बच्चे आपको, क्या राज है?’’ जैसे दो तीन सवालों का आदान-प्रदान कर के वे अपने घरों की ओर चले जाते। अगले दिन उनके चेहरे फिर मनहूस हो चुके होते और उन पर अगली तनख्वाह का इंतज़ार चिपका होता। उसने मनमोहन मास्साब से तो नहीं लेकिन सुमन मैडम से कहा कि उन्हें बच्चों को पढ़ाने में मेहनत करनी चाहिए तो वह फट पड़ीं।
‘‘अरे ये बच्चे हैं कि शैतान की आंत….इनकी हरामजदगियां बढ़ती ही जाती हैं हर दिन। मैं कैसे पढ़ाऊं जब कोई पढ़ना ही नहीं चाहे…।’’ कविता ने उनसे कहा कि बच्चों को फुसला कर पढ़ायें क्योंकि वे पढ़ाई का महत्व कहां जानते हैं।
‘‘अरे मैं क्या यहां बच्चे फुसलाने आयी हूं। देखो कविता जो पढ़ना चाहता है उसे मैं पढ़ाने से कभी पीछे नहीं हटती। मैंने पी-एच. डी. किया हुआ है, मैं कॉलेज या यूनिवर्सिटी में पढ़ाती तो सब मुझसे खुश रहते, ये गंवार बच्चे सिर्फ़ किताबों, ड्रेस और खाने के लालच में आते हैं विद्यालय, इन्हें क्या पढ़ाऊं ?’’ 
कविता समझ गयी कि बचने के बहुत अच्छे तर्क ईज़ाद कर लिये गये हैं। उसे समस्या के बढ़ते जाने का एक कारण तो यही लगा कि अधिकतर अध्यापक उन बच्चों को पढ़ाने की योग्यता से ज़्यादा पढ़े-लिखे हैं और उस पढ़ाई के आभामंडल से निकलना नहीं चाहते। उसने किसी से कुछ नहीं कहा और मन में यह तय कर लिया कि उसे इस पारस पत्थर के ज़रिये इन बच्चों की ज़िंदगी बदलनी है।
‘‘मां, हमें तो किसी चीज़ की कमी है नहीं, मैं उस पत्थर को बच्चों की भलाई के लिये प्रयोग करना चाहती हूं। जब तक वह घिसे उससे पहले मैं कम से कम अपने स्कूल के बच्चों के लिये कुछ-कुछ बना कर दे सकूं तो….।’’
‘‘पगली, तुझे लगता है कि वो घिस रहा है लेकिन वह जितना सोना बनाता जायेगा उसी अनुपात से बढ़ता रहेगा। तू चिंता मत कर वो घिसेगा नहीं बढ़ेगा।’’
मां की स्वीकृति पा कर वह निश्चिंत हो गयी। उसने कक्षा के सबसे संभावनाशील बच्चों पर तेज़ी से और बाकी बच्चों पर एक नियम बना कर काम शुरू कर दिया। उसने माधव के गले में लटका काला धागा ले लिया जिसमें एक लोहे का टुकड़ा गूंथा गया था। उसने उस टुकड़े को सोने में बदल कर माधव के गले में पहना दिया और फिर अन्य बच्चों पर भी ध्यान केन्द्रित किया।
पढ़ाई के उसने बहुत सारे नये तरीके खोजे जिनमें खेल-खेल में गणित के सवाल हल कराने के अलावा और भी बहुत सारे अभ्यास थे। उसने बच्चों को गानों और आरती की धुन पर पहाड़े याद कराये और कुछ ही दिनों में उसकी पूरी क्लास ने बीस तक पहाड़े याद कर लिये। सभी बच्चों को वह अपने गांव, अपने मुखिया, अपने स्कूल और अपने दोस्त जैसे विषयों पर अचानक निबंध लिखने को कहती जिससे उसे बहुत सारी बातें पता चलतीं जिससे उसे आगे की योजना में मदद मिलती। पहेलियां बुझाते हुए और खेल खेल में विज्ञान की बातें बताती चलती और लोककथाओं में पिरो कर भूगोल की गूढ़ताएं आसान कर देती। एक दिन एक पत्रकार वहां आया और उसने मनोहर से बच्चों को दिये जाने वाले दोपहर के भोजन के बारे में पूछा। उसी दौरान उसने कविता से भी कुछ सवाल पूछे और कविता से बातें करके तो वह मंत्रमुग्ध हो गया। उसने कविता के बच्चों को पढ़ाने के अलग तरीके देखे और अगले दिन कविता का साक्षात्कार छापने के साथ यह भी लिख दिया कि जिस दौर में अध्यापकों ने सरकारी स्कूलों को सिर्फ तनख्वाह बांटने वाला केंद्र समझ लिया है वहीं कविता जैसी उच्च शिक्षित और व्यवहारिक अध्यापिका के तरीके बच्चों को बहुत रास आ रहे हैं और वे स्कूलों में सिर्फ़ खाना खाने नहीं आते। 
एक दिन उसे अपने कमरे में बैठे पारस पत्थर से एक बच्चे के लोहे के कड़े को रगड़ते किसी ने देख लिया और पता नहीं कैसे ये बात रातोंरात स्कूल में फैल गयी कि कविता के पास एक ऐसा पत्थर है जिससे रगड़ने से लोहे की चीजें सोने की हो जाती हैं। देखते ही देखते सब कविता से मिलने और बातचीत करने के इच्छुक नज़र आने लगे। मनोहर ने उसे अपने केबिन में बुला कर चाय पिलायी और रुंआसे होकर बताया कि उसकी पत्नी पिछले दस सालों से बीमार है। उसकी सारी कमाई उसकी पत्नी के इलाज़ में चली जाती है और उसने कभी जाना ही नहीं कि दाम्पत्य सुख क्या है। इस भागादौड़ी में वह बहुत चिड़चिड़ा सा हो गया है, इसलिये उसने कविता को कभी कुछ भला-बुरा कह दिया हो तो उसे माफ़ कर दिया जाये। कविता ने उन्हें आश्वस्त किया कि उसके मन में मनोहर के प्रति को दुराग्रह नहीं है। मनोहर ने जाते वक्त उसे कहा कि कभी भी किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो वह उसे सिर्फ़ एक मिस्ड कॉल कर दिया करे। उसने थोड़ी मुस्कान के साथ यह भी कहा कि गांव में टॉवर हमेशा तो नहीं लगता लेकिन जब वह दिल से कॉल करेगी तो ज़रूर लगेगा। उसने यूं ही बातों-बातों में घुमा कर पूछा था कि क्या कविता को कोई चमत्कारी पत्थर मिला है तो कविता ने बात गोल कर दी थी।

पवन ने एक दिन कविता को अपनी लिखी एक कविता सुनायी और कहा कि यह कविता उसने उसी के लिए लिखी है। उसने बताया कि उसका बाप शराबी है और उसका बचपन गालियां सुनते मार खाते बीता है जिसके कारण उसके मुंह से भी गालियां निकल जाती हैं अन्यथा वह दिल से तो शायर है। कविता को उसने अपनी सबसे ताज़ा शायरी सुनायी।
‘‘आपके नेचर ने हम पर इतना इफेक्ट किया
सबको रिजेक्ट कर के हमने आपको सलेक्ट किया।’’
कविता ने बुझे मन और धीमी आवाज़ में वाहकहा तो पवन को लग गया कि उसकी शायरी ने कविता पर वो असर नहीं डाला जो उसने सोचा था। उसने झेंपने का अभिनय करते हुये कहा कि शेरो शायरी में उसे भी अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग पसंद नहीं लेकिन कभी-कभी ज़रूरी हो जाता है। वह झेंपने का अभिनय ही कर सकता था क्योंकि वह जिस पृष्ठभूमि से आता था वहां पुरुष किसी बात पर झेंपते नहीं थे, झेंपने का अवसर होने पर वे दांत निकाल कर बेशर्म हंसियां हंसते थे इसलिये पवन को झेंपने में बहुत मेहनत करनी पड़ी। कविता को समझ में आ गया कि उसकी वजह से पवन को झेंपने का अभिनय करना पड़ रहा है और वह इस दृश्य से ज़बरदस्ती जूझ रहा है। उसने बात को मोड़ दिया।
‘‘कोई बात नहीं, मैं भी मानती हूं कि एक भाषा में दूसरी भाषा के शब्द आने से भाषा समृद्ध होती है।’’ पवन का कठिन दृश्य तुरंत धूमिल हो गया। वह फिर से फॉर्म में आ गया और अपने पसंदीदा शॉट खेलने लगा।
‘‘प्यार आ जाता है आंखों में रोने से पहले
हर ख्वाब टूट जाता है सोने से पहले
इश्क है गुनाह यह समझ तो गये हैं हम
काश कोई रोक ले हमें यह गुनाह होने से पहले’’
कविता ने समझ लिया कि उसने मामला नहीं संभाला तो पवन उसे अपना ट्रक मान कर अपनी सारी शायरियां उसकी पीठ पर लिख देगा। उसने बात को पलटा और पवन से पूछा कि क्या उसे पता है कि बच्चों को सबसे अच्छा विषय कौन सा लगता है और क्यों? पवन ने कहा कि वह गणित और अंग्रेज़ी में बहुत कमज़ोर था और इतिहास की तिथियां उसे याद नहीं होती थीं। भूगोल उसे जटिलता के कारण कभी समझ में नहीं आया। उसे लगता है बच्चों को भी यही विषय डराते होंगे। कविता ने उससे पूछा कि उसे कौन सा विषय पसंद था। पवन ने कहा कि उसे नैतिक शिक्षा सबसे ज़्यादा अच्छी लगती थी और हमारे पूर्वजकिताब के सभी पाठ मुंहज़बानी याद थे। महापुरुषों की जीवनी उसे बहुत प्रेरणा देती थी और आज वह जो कुछ भी है अपने बचपन की उसी प्रेरणा के कारण है। ऐसा कहने के बाद पवन अपने चेहरे पर महापुरुषों के वही भाव ले आया जो उसने किताबों में देखा था। उसी उदास भाव में उसने कहा कि इस क्षेत्र में पिछले कुछ समय में कुछ चमत्कारी चीज़ें और घटनाएं उसे बहुत हैरान कर रही हैं। जैसे पिछले महीने एक गोमाता को दो सिर वाला बछड़ा पैदा हुआ था, शंकर भगवान की मूर्ति की आंख से आंसू निकला था और एक ऐसा पपीता मिला था जिसकी आकृति बिल्कुल गणेश भगवान की तरह थी। ऐसी कुछ और घटनाओं का ज़िक्र करने के बाद उसने गांव के मंदिर के महंत पौराणिक दूबे का नाम लिया और कहा कि जब तक वह हैं तब तक गांव हर मुसीबत से बचा हुआ है। गांव में किसी के साथ कोई अजीब घटना हो या कोई अजीब चीज़ मिले तो तुरंत उन्हें बताया जाना चाहिए। कविता ने भी उसे साथ हामी भरी तो उसने पूछा कि क्या उसे ऐसी कोई चीज़ मिली है। कविता ने ऐसा कुछ भी मिलने से साफ़ इंकार किया। उसने जाते हुए कहा कि अगर उसे गांव में या खास तौर पर वह जहां रह रही हैं वहां कोई भी संदिग्ध वस्तु दिखायी दे तो वह तुरंत उसे बताये वरना बाद में उसकी वजह से उस पर कोई मुसीबत टूट सकती है। संदिग्ध वस्तु के बारे में उसका कहना राज्यों की पुलिस के कहने जैसा था जिसे वह बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर लाउडस्पीकर में बजवाने के बाद इस बात पर चिंतित हुआ करते थे कि आखिर उनके मना करने के बाद ये बम विस्फोट कमबख्त हो कैसे जाते हैं।
पवन के अलावा बाकी दोनों अध्यापकों ने भी, जो स्कूल में सिर्फ़ ये देखने आते थे कि स्कूल की इमारत कल रात की आंधी में उड़ तो नहीं गयी, कविता को आगाह किया कि उसके पास अगर कोई चमत्कारी चीज़ हो तो उसे गांव के तालाब में फेंक दे। वह यहां पढ़ाने आयी है तो जैसे सब लोग पढ़ाते हैं, वह भी पढ़ाए और अपने घर जाये, ज़्यादा परेशानियां मोल न ले वरना लेने के जाने पड़ेंगे। कविता ने सबकी बातें सुनीं और अपने मन की करना जारी रखा। सुमन मैडम ने एक दिन कविता को अपने पास बैठा कर पत्थर के बारे में जानकारी लेनी चाही और कविता के इन्कार करने के बाद खुद को उससे अधिक पढ़ी और अनुभवी दिखाने के लिये उस पर कई बातों का रौब डाला जिनसे कविता अच्छी तरह वाकिफ़ नहीं थी।
‘‘बीएसए से मिली हो कभी ?’’
‘‘बीआरसी गयी हो कभी ?’’
‘‘पता है इस बार बीआरसी की प्रभारी मैं बनने वाली हूं ?’’
‘‘एनपीआरसी के बारे में क्या जानती हो ?’’
कविता जब लगभग सभी सवालों में फेल हो गयी तो सुमन मैडम ने गर्व से अपनी कुर्सी दूसरी ओर घुमा ली और सूरज से आंखें मिलाते हुये धूप सेंकने लगीं। सितंबर का महीना था और मौसम में धूप का स्वागत गान घुला हुआ था।
अध्यापक दिवस पर हर साल की तरह कुछ औपचारिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया था ताकि बच्चों में सद्भावना और एकता की भावना आये। बच्चों में तो अब तक इनके लक्षण नहीं दिखायी पड़े थे लेकिन अध्यापक और उनके वरिष्ठ अधिकारियों में ऐसे अवसरों पर खूब एकता देखी जा सकती थी। लेकिन इस बार बच्चे कुछ दूसरे मूड में थे। उनमें कुछ तो बदलाव हुए थे। आमतौर पर ऐसे दिनों पर सिर्फ़ लड्डू खाने की इच्छा ले कर स्कूल आने वाले बच्चों ने कविता के लिये एक कविता का सामूहिक गान किया और उसे एक उपहार भी दिया। माधव और उसके सहपाठी घीसू ने चौकी से बनाये गये मंच से सर्वपल्ली राधाकृष्णन की तस्वीर के आगे खड़े हो कर कविता को समर्पित कविता पढ़ी जिसमें कक्षा की लड़कियों ने कोरस किया तो बाकी अध्यापकों को सांप सूंघ कर बगल से निकल गया।
‘‘तुमने हमें अंधेरों से निकाला कविता मैडम
भरा हमारे जीवन में उजाला कविता मैडम
अज्ञानी थे मूरख थे हम सारे बच्चे बच्चियां
तुमने ईश्वर की तरह संभाला कविता मैडम’’
घीसू, माधव, सनीचर और सूरदास जैसे बच्चों की ये रचनात्मकता देख कर न सिर्फ़ बाकी अध्यापक बल्कि कविता भी दंग थी। इतने छोटे मासूम बच्चों ने जो कच्ची पक्की तुकबंदी की थी वह पवन की बकवास तुकबंदियों से बहुत अच्छी थी, उनमें भावना और परिश्रम कूट-कूट कर भरा था। कविता की आंखें भर आयीं और उसने जल्दी से पोंछा कि कोई देख कर उसका मज़ाक न बनाये। सभी बच्चों को सिर्फ़ गीत पेश करने की इजाज़त दी गयी थी लेकिन बच्चों ने गीत पेश करने के बाद अपनी पसंदीदा मैडम को स्टेज पर बुलाया और एक उपहार दिया जिसे उन्होंने किसी पुराने अखबार के टुकड़े से गिफ्ट पैक बनाने की कोशिश की थी। वह कक्षा की एक चुपचाप सी रहने वाली लड़की द्वारा बनायी गयी एक ऐसी पेंटिंग थी जिसमें कविता सभी बच्चों को एक पहाड़ पर बिठा कर पढ़ा रही थी और बाकी के अध्यापक नीचे से सिर ऊपर उठाये देख रहे थे। कविता उस चुप्पा लड़की की सोच और उसकी कला देख कर दंग रह गयी।
इस घटना के बाद से पता नहीं क्यों हर व्यक्ति कविता को अपना दुश्मन समझने लगा। एक दिन सूरदास की उंगली में एक सोने की अंगूठी देख कर उसे मनोहर ने अपने केबिन में बुला कर खूब डांटा। उसे डांटने के बाद उसने कविता को भी बुलाया।
‘‘आप यहां बच्चों को पढ़ाने आयीं हैं, जैसे पढ़ाया जाता है, पढ़ाइए चुपचाप। उन्हें गहने पहनाने की ज़रूरत नहीं। वे साले इसकी कद्र नहीं जानते।’’
कविता इसके बाद थोड़ी सजग हो गयी। उसने अपने कामों में थोड़ी गोपनीयता ला दी लेकिन फिर भी उसने गौर किया कि पूरे गांव का माहौल उसके खि़लाफ़ सा हो गया है। किसी दिन वह शाम को मंदिर जाती तो पुजारी न आशीर्वाद देता न प्रसाद, बस दूसरी ओर मुंह फिरा कर रास्ते से जा रही बकरियां गिनने लगता। अपने डेरे के आसपास के लोगों से बातचीत करने की कोशिश करती तो सब कोई न कोई बहाना बना कर उठ जाते। उसके मकान-मालिक और मकान-मालकिन ने भी उससे बात करना कम कर दिया था और कुछ पूछने पर हां हूं में ही जवाब देते। इन सारी बातों ने कविता में और जोश भरा और उसने शाम को गांव में टहलने जाने का नियम अनिवार्य कर दिया। वह अपनी कक्षा के बच्चों के घर जाती और बच्चों के अनपढ़ अभिभावकों को, जो हर समय बच्चे को काम में लगाये रखने के बारे में सोचते रहते थे, विद्या का महत्व समझाने की कोशिश करती। लेकिन अभिभावक थे कि कविता को ही समझाने लगते। उनका कहना था कि पढ़ाई को ज़्यादा दिल से लेकर क्या किया जायेगा क्योंकि आठ तक पढ़ने से कहीं कोई नौकरी मिल नहीं सकती और सरकार सिर्फ आठ तक की ही पढ़ाई मुफ्त करा रही है। ये तो उम्मीदें जगा कर ऐन वक्त पर उम्मीदें तोड़ने जैसी बात है। या तो पूरी पढ़ाई मुफ्त करो जिससे नौकरी मिलने की कुछ उम्मीद हो या फिर जो पढ़ना पढ़वाना चाहें उनको पढ़ाओ, सबको पकड़ कर साक्षर बनाना कौन सा ज़रूरी है। कविता कक्षा के मेधावी बच्चों के पिताओं और माताओं को उनके होनहार बच्चों के गुण के बारे में बताती तो मांए तुनक कर कहतीं, ‘‘अच्छा, मरकिरउनी ऐही खातिर घरवा एक्को कामे नाहीं करत। ए बहिन जी, देखा ढेर मत पढ़ावल करा।’’ बच्चों के अभिभावक कभी-कभी विद्यालय शिकायत करने ज़रूर आते लेकिन सिर्फ़ और सिर्फ़ खाने संबंधी किसी बात को ले कर या फिर ड्रेस या किताबें न मिलने की दुहाई देने। चेकिंग करने वालों का भी सारा ध्यान इस पर होता कि बुधवार को खीर बननी थी तो तहरी क्यों बनायी गयी। साल में एक बार मिलने वाले वज़ीफ़े का आकर्षण इतना था कि जो बच्चा कभी कक्षा में दिखायी नहीं देता, वज़ीफ़े मिलने की ख़बर सुन कर कक्षा में आ कर चुपचाप बैठ जाता। चालीस बच्चों की कक्षा के वजीफे़ के लिये कविता को पता चला कि सौ बच्चों के नाम भेजे जाते हैं और इतने के हिसाब से ही किताबें और सामग्रियां आती हैं। वज़ीफ़ा बांटे जाते समय कविता ने एक ऐसे बच्चे को देखा जो पहली बार कक्षा में आया था।
‘‘क्या नाम है तुम्हारा ?’’
‘‘बावनदास।’’
‘‘आज पहली बार आये हो कक्षा में ?’’
लड़का चुप रहा और अपनी कमीज़ के तीसरे बटन को घूरता रहा। ‘‘बताओ कहां थे अभी तक। पढ़ाई लिखाई करनी नहीं है और वजीफा मिलने का समय आया तो चले आये ? नहीं मिलेगा वजीफा। जाओ बाहर…।’’
लड़का फिर चुप रहा और उसकी आंखों में मोटे आंसू उभर आये। ‘‘किसलिये चाहिए वजीफा? ये पैसा इसलिए मिलता है कि किताबें और ड्रेस तो तुमको सरकार दे रही है, तुम लोग पेंसिल कॉपियां वगैरह खरीद सको। जब तुमको पढ़ना ही नहीं है तो लेकर क्या करोगे? चलो निकलो, नहीं मिलेगा वजीफा।’’
इस पर लड़का अचानक फूट फूट कर रोने लगा। कविता अचानक उसके रोने से घबरा गयी। और कक्षाओं में तो बच्चे मार खा कर रोते ही रहते थे लेकिन कविता की कक्षा में कोई बच्चा पहली बार रो रहा था। वह जल्दी से उसके पास गयी और उसे चुप कराने की कोशिश की। उसे एहसास हुआ कि उसने बच्चे को कुछ अधिक ही डांट दिया है।
‘‘चुप हो जाओ बेटा…। मैंने सिर्फ यही पूछा है कि क्या करोगे पैसे का ?’’ कविता ने आवाज़ में तरलता ला कर पूछा।
‘‘बाबूजी दारू पीहें….कहे हैं कि ले के आव पइसा नाहीं घरे में घुसे न देब।’’ लड़के ने रोते हुए कहा। वह हिल गयी। उसे लगा उसकी लड़ाई बहुत कठिन है। उसका मन भर आया। यह हालत तब है जब वह किसी के लिये कुछ अनोखा नहीं करना चाहती, सिर्फ़ ईमानदारी से अपना काम करना चाहती है। जो लोग दूसरों के लिये अपनी ज़िंदगियां दे देते हैं, उनका जीना कितना कठिन होता होगा जब सिर्फ़ अपने काम को काम मान कर करना इतना दुरूह है।
उसने टीएलएम के पैसे से चॉक और कुछ नक्शे खरीदे। नक्शों को अपनी कक्षा के अलावा और भी कक्षाओं और बरामदे में भी एक टंगवा दिया। नया चॉक फोड़ने के लिये उसे घीसू को बुलाया। घीसू ने ज़मीन पर चॉक पटक कर फोड़ा था कि वहां का फर्श धंस गया। घीसू ने ऊपर अपनी मैडम की ओर इस दृष्टि से देखा कि उसकी कोई गलती नहीं है। कविता ने उसे अपनी जगह बैठने को कहा और पूरी कक्षा लेने के दौरान उसकी नज़र उस टूटे हुये फर्श पर पड़ती रही जो मात्र खड़िया तोड़ने से दरक गया था।
वह अपने कमरे पर पहुंची तो पता चला कि उसके मकान-मालिक की बेटी शहर से आयी जो हॉस्टल में रह कर डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही थी। उसके आने से कविता को बहुत राहत मिली। वह कविता के कमरे में आती और घंटों बैठ कर उससे बातें करती।
‘‘जानती हैं दीदी, ये कमरा मेरा था आपके आने से पहले। मेरी सारी किताबें यहीं थीं।’’ कविता मुस्करा उठती।
‘‘अब भी तुम्हारा ही है सुजाता, जब चाहे आओ, जब चाहे जहां चाहे जो चाहे करो।’’ दोनों में एक बात कॉमन निकल आयी। दोनों कॉमिक्स की बहुत बड़ी दीवानी थीं बल्कि सुजाता में तो यह दीवानापन अब भी बरकरार था।
‘‘जानती हैं, अपने गांव में कॉमिक्स पढ़ने वाली मैं इकलौती थी और बाबा मुझे बहुत डांटते थे लेकिन मेरे नंबर अच्छे आने के कारण ज़्यादा कुछ कर नहीं पाते थे। मैंने उनसे कहा था कि मैं सब कुछ करने वाली यहां पहली ही होउंगी और देखिये आस पास के कई गांव मिला कर एमबीबीएस करने वाली मैं अकेली ही हूं।’’ कविता उसके हंसमुख स्वभाव के कारण बहुत जल्दी घुलमिल गयी। वह छिपाकर कुछ कॉमिक्स भी लायी और कविता को पढ़ने को दिया।
‘‘मां देख लेती है तो अब भी गुस्सा करती है। उसे लगता है मैं अब भी कॉमिक्स पढ़ के बिगड़ जाउंगी। लीजिए इतनी पढ़िए फिर और दूंगी। इत्तेफ़ाक कितना प्यारा है कि हमारी पसंद के सुपरहीरो भी वही-वही हैं।’’
कविता ने एक लंबे अंतराल के बाद अपने पसंदीदा पात्रों की कॉमिक्स पढ़ी थीं लेकिन उसे पहले जैसा मज़ा नहीं आया। एक तो बचपन का उसका गुस्सा अब परिपक्व हो चुका था कि कॉमिक्स में कोई सुपरहीरोइन क्यों नहीं होती और एकाध होती भी हैं तो उन्हें सुपरहीरोज़ की मदद क्यों लेनी पड़ती है? दूसरी बात यह कि उसका पसंदीदा किरदार सुपर कमांडो ध्रुव अब इतना हाइ-टेक हो चुका था कि असल ज़िंदगी, जिसके लिये वह उसे सबसे ज़्यादा पसंद करती थी, से बहुत दूर जा चुका था। वह सभी सुपरहीरोज़ से अलग हुआ करता था जिसकी ताकत उसका दिमाग थी और कविता ख़ुद के भीतर भी यही एकमात्र ताकत महसूस करती थी लेकिन अब वह नाइलॉन की रस्सियों पर झूलता रहता था और कभी भूत तो कभी भविष्य में घूमा करता था। कविता को लगा ज़िंदगी की तरह कॉमिक्सों में भी बहुत कुछ बनावटी होने लगा है।
शाम को उसने सुजाता को पूरी बात बतायी और कहा कि गांव में सभी उसे उपेक्षा की नज़र से देखते हैं।
‘‘वो तो देखेंगे ही दीदी, आज तक जो नहीं हुआ वो आप करने की कोशिश कर रही हैं। उन्होंने कभी ठीक से कपड़े तक नहीं पहने और आप उन्हें गहने पहनाने चली हैं। गहनों को ये लोग अपने शरीर की शोभा मानते रहे हैं और इन्हें डर है कि आपने इन बच्चों को भी गहने पहना दिये तो कल को इनमें और उनमें फ़र्क क्या रहेगा। इसी फ़र्क को कायम रखने में इनकी पीढ़ीयां निकली जा रही हैं।’’
कविता ने कहा कि उसे कभी-कभी डर लगता है कि उससे यह काम नहीं होगा तो सुजाता ने उसे सांत्वना दी। कविता ने कहा कि वह सिर्फ़ अपना काम ईमानदारी से करना चाहती है और इससे जुड़ी तकनीकी बातों की भी उसे बहुत अधिक जानकारी नहीं है। उसने सुमन मैडम की सुनायी गयी बातें सुजाता को बतायी तो वह देर तक हंसती रही। उसने कविता को संक्षेप में प्राथमिक स्कूलों के मोटे-मोटे स्ट्रक्चर के बारे में बताया।
‘‘अरे दीदी बीआरसी ‘ब्लॉक रिर्सोसेज सेण्टर’ होता है जहां साल में एक बार बिल्डिंग मेंटेनेंस, रंगाई पुताई, कुर्सी मेज का पैसा आता है। कमाने के लिये अच्छी जगह है वह इन लोगों के लिये। आमतौर पर नियुक्ति के लिये फॉर्म भी वहीं जमा होते हैं और किसी वरिष्ठ टीचर को बीआरसी प्रभारी बना दिया जाता है और ये खुशी से कूदते चलते हैं।’’
‘‘मुझे तो ये सब पता भी नहीं है ठीक से…..।’’ कविता ने धीमी आवाज़ में कहा।
अरे जिनको पता है वे कौन सा तीर मार रहे हैं। मुझे भी बहुत डीटेलिंग नहीं पता लेकिन खाने पीने के जो अड्डे हैं इनके, उसकी थोड़ी बहुत ख़बर है मुझे। देखिए बीआरसी के अलावा उससे छोटा होता है एनपीआरसी यानि न्याय पंचायत रिर्सोसेज सेंटर। इसके अंडर में मेरे खयाल से 10-12 स्कूल होते हैं और जहां तक मेरी जानकारी है ये बीआरसी और स्कूल के बीच का समन्वयक होता है और बीआरसी से स्कूलों तक किताबें पहुंचाता है।’’
’’बाप रे ! इतनी व्यवस्थाएं हैं…..फिर क्यों इतनी खराब है प्राथमिक शिक्षा की स्थिति ?’’ कविता आश्चर्य में थी। सुजाता ज़ोर से हंसी।
‘‘दीदी आपको एक कहानी सुनाती हूं, सुनेंगीं ?’’ कविता ने हामी भर दी। सुजाता ने गला खंखार कर कहानी सुनानी शुरू की।
‘‘तो सुनिये, एक राजा था जिसे रात को सोते वक्त मलाईदार दूध पीने की आदत थी। उसका नौकर उसे मलाई डाल कर दूध देता था और राजा पी कर आराम से सो जाता था। एक दिन नौकर ने सोचा कि अगर वह आधी मलाई खा ले तो राजा को क्या पता चलेगा। उसने आधी मलाई खुद खा ली और राजा को दूध दे आया। पहले तो राजा ने इसे संयोग समझा लेकिन जब हर रात ऐसा होने लगा तो उसने नौकर के ऊपर एक अधिकारी नियुक्त कर दिया जो राजा को पूरी मलाई मिलना सुनिश्चित करे। राजा को दो-चार दिनों तक पूरी मलाई मिली और वह खुश हुआ लेकिन इधर पुराने नौकर ने आधी मलाई में से आधा उस अधिकारी को देने की बात पर उसे अपने साथ मिला लिया। राजा को फिर से आधी मलाई मिलने लगी और पूछने पर अधिकारी जवाब देता कि सब कुछ सही चल रहा है, गाय दूध ही पतला दे रही है और नौकर का कोई दोष नहीं है। राजा को कुछ गड़बड़ लगी और उसने इन दोनों पर नज़र रखने के लिये एक और बड़ा अधिकारी तैनात कर दिया। इस बार नौकर और पिछले अधिकारी ने मलाई का लालच दे कर उस अधिकारी को भी अपनी ओर मिला लिया और राजा को पहले से भी कम मलाई मिलने लगी। पूछने पर वह उच्चशिक्षा प्राप्त अधिकारी कहता कि नौकर और उसके ऊपर का अधिकारी अपना काम पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं और आजकल गायों के चारे में इतनी मिलावट होने लगी है कि मलाई बहुत कम जम रही है। अब राजा ने एक अलग विभाग बना दिया मलाई विभागऔर तीन लोगों की कमेटी के हाथों में इसे सौंप दिया, उसकी मासूम मांग यही थी कि उसे पूरी मलाई जैसे पहले मिलती थी, मिले। जानती हैं दीदी इसके बाद क्या हुआ?’’ कविता के होंठों पर मुस्कान थी और सुजाता कहानी सुनाते हुए हंस रही थी।
‘‘क्या हुआ?’’ कविता की मुस्कराहट बढ़ गयी थी।
‘‘इसके बाद जो दूध आया उसमें ज़रा भी मलाई नहीं थी। पूछने पर सबकुछ एकदम ठीक बताया गया और गड़बड़ियों के वाजिब कारण गिनाते हुये बारह सौ पृष्ठों की रिपोर्ट भी प्रस्तुत कर दी गयी।’’ सुजाता की मां चाय ले कर आयीं और दोनों को एक-एक कप देकर खुद भी वहीं बैठ गयीं और पीने लगीं।
‘‘प्राथमिक शिक्षा की हालत भी ऐसी ही हो गयी है दीदी।’’ सुजाता की सारी हंसी कहीं गायब हो गयी थी और उसके चेहरे पर अपूर्व गंभीरता थी जिसकी परछाईं कविता के चेहरे को पूरा ढक ले रही थी।
मम्मी के टोकने पर दोनों ने बातचीत का टॉपिक बदला और मां बेटी दोनों ने मिल कर कविता को जोश में लाने के लिये कुछ अच्छी-अच्छी बातें कीं। कविता सामान्य हो गयी थी। सुजाता ने उससे कहा कि चिंता की कोई बात नहीं बस वह कुछ समय और पढ़ा ले फिर वह गांव में आकर प्रेक्टिस करेगी और दोनों का अकेलापन खत्म हो जायेगा। 
हम दोनों जम के अपना-अपना सपना पूरा करेंगे और खाली वक्त में खूब कॉमिक्स पढ़ेंगे।’’ सुजाता ने कहा।
‘‘मैं सोचती हूं हम कॉमिक्स लिखना भी शुरू करें, मेरी स्केचिंग काफी अच्छी रही है।’’ कविता ने मुस्कराते हुए कहा।
‘‘अर्रे वाह क्या बात है दीदी, वी विल रॉक। बस आप डेढ़ साल और पढ़ाइए फिर मैं आ रही हूं आपको ज्वाइन करने। टु मेक आवर विलेज अ बेटर प्लेस टु लिव।’’ सुजाता की मां कुछ कहना चाहती थीं लेकिन सिर्फ़ मुस्कराती रहीं।
लेकिन डेढ़ साल एक लंबा अंतराल होता है। ज़िंदगी जब करवट लेती है तो डेढ़ मिनट भी भूकंप आने के लिये बहुत होते हैं वरना बरसों तक कई चेहरे एक जैसे बने रहते हैं।
कविता को जिस सुबह अपने घर शहर जाना होता था वह स्टेशन जाकर शाम को ही टिकट ले आती थी क्योंकि सुबह काफी भीड़ हो जाया करती थी। उस दिन जब वह स्टेशन से अगले दिन का टिकट लेकर आ रही थी तो अंधेरे में उसे नहर के पास तीन लोगों ने रोक लिया। उनके हाथ में रॉड थी और उन्होंने चेहरे तक कम्बल ओढ़ रखा था।
‘‘बता सोना बनाने वाला पत्थर कहां है ?’’ एक अपरिचित आवाज़ ने रॉड उसके सिर पर तान कर पूछा। 
‘‘मेरे पास नहीं है ऐसा कुछ भी….।’’ कविता ने फंसी हुई आवाज़ में कहा। अगर लोहे की रॉड की जगह कोई हॉकी स्टिक या ऐसी कोई चीज़ होती तो पंगा लेने का उसका मन था लेकिन रॉड देख कर वह ख़ामोश थी। एक भी लग गया सिर पे तो कहानी खत्म। उनमें से एक की आवाज़ पवन की तरह लगी लेकिन उसने सिर्फ़ एक ही बार बोला ही था, ‘‘पर्स छीन उसका।’’ इसके बाद कविता सोचती रह गयी कि वह दुबारा बोले तो वह उसकी आवाज़ पहचान ले लेकिन वह फिर नहीं बोला। कविता का पर्स छीन कर उनमें से एक ने सारी चीज़ें ज़मीन पर गिरा दीं लेकिन पत्थर उसमें था ही नही तो मिलता कैसे।
‘‘बताओ कहां है सोना बनाने वाला पत्थर…?’’ एक ने उसके चेहरे पर एक ज़ोर का तमाचा मारा। कविता को चक्कर आ गया, उसे याद आया आखिरी बार तमाचा उसने स्कूल में तब खाया था जब वह नौवीं कक्षा में थी। इस तमाचे ने उसके भीतर डर नहीं भरा बल्कि गुस्से से उसका शरीर कांप उठा।
‘‘जाहिलों अगर तुम ज़रा भी पढे लिखे होते तो समझ जाते कि ऐसा कोई पत्थर नहीं होता। ये सब कथाओं की बातें हैं।’’ कविता की बात खत्म होने से पहले ही एक ने उसने सिर पर रॉड का प्रहार किया। वह गिर पड़ी। चेतना लुप्त होने से पहले उसने सिर्फ़ कुछ पंक्तियां सुनी।
‘‘चूतिये कहे थे न राड मत चलाना।’’
‘‘साली गरिया रही थी हमारी जर गयी।’’
‘‘चलो अच्छा है न, यहीं पड़ी रहे तब तक इसके घर पर खोज लेते हैं पत्थरवा…।’’
‘‘चल साले चल, देखना आवाज मत होए। चुप्पे से कूद चलेंगे।’’
कविता को होश आया तो उसने देखा कि वह एक टूटे तखत पर लेटी थी और उसके आसपास कुछ बच्चे बैठे हुये एकटक उसे देख रहे थे। उसका हाथ माथे पर गया तो उसे पता चला कि वहां पट्टी बंधी हुई है। उसने उठने की कोशिश की तो निर्मला की मां ने उसे लेटे रहने को कहा।
‘‘आप सुत्तल रहें बहिन जी, कपारे प जोर से लगल हौ आपके, हम साड़ी फार के बांध देले हईं बाकि हरदी चूना गरमावत हई। अब्बे लगा देब त ठीक हो जाई।’’ उसने देखा वह अपनी एक छात्रा निर्मला के घर में थी। घीसू, माधव, सूरदास, सनीचर और कक्षा के अन्य कई बच्चे उसे घेरे बैठे थे। निर्मला की मां ने बताया कि वह नहर के किनारे बेहोश पड़ी थी तो बच्चे उसे रामगोला के ठेले पर लाद के लाये हैं। उसने हल्दी चूना लगवाया, काढ़ा पीया और खाना खाने के इसरार को बहुत मुश्किल से टाल कर अपने डेरे की ओर चली तो निर्मला के बापू और निर्मला उसके साथ उसे छोड़ने आये।
उसके कमरे का ताला टूटा था और सारा सामान अस्त व्यस्त था। उसके कपड़े और किताबें बिखरा दी गयी थीं। वह समझ गयी कि उन तीनों ने कमरे में दाखिल होकर पारस पत्थर ढूंढने की कोशिश की थी और न मिलने पर तोड़फोड़ की थी। कविता की नज़र आलमारी पर गयी, वहां से भगवान की तस्वीरें गिरा दी गयी थीं। इन्हीं तस्वीरों के पीछे ही तो रखा था उसने। वह फुर्ती से आलमारी के पास पहुंची तो जिस चीज़ की तलाश में पूरे कमरे को तहस नहस कर दिया गया था वह उसी तरह शांति से यथास्थान रखा हुआ था। उसे आश्चर्य हुआ। उन्हें यह दिखायी नहीं दिया या फिर उन्होंने इसे पहचाना नहीं ? इतनी बड़ी चीज़ दिखायी न दे, यह तो नामुमकिन है फिर उन्होंने इसे कैसे छोड़ दिया। वह विचारों के भंवर से निकलने की कोशिश करती बिखरी चीज़ों को समेटने लगी।
तंत्र ऐसा था कि जो जैसा चल रहा था वैसा ही चलता था क्योंकि वैसा ही चलता आया था। बरसों से जो चलता आया था वह रिवाज़ बन गया था और अब उसे थोड़ा भी बदलने पर लोग असहज महसूस करते थे। कविता ने देखा कि विद्यालय में इमारतों में प्रयोग होने वाले मटेरियल और ‘मिड डे मील’ की तो खूब जांच होती थी लेकिन बच्चों का विकास कैसा है और वे कुछ सीख भी रहे हैं या नहीं, इसे जांचने का कोई विकसित तंत्र नहीं था। दो-तीन महीने में समन्वयक आकर देख जाता था कि सब कुछ ठीक चल रहा है, बच्चों को मेन्यू के हिसाब से खाना दिया जा रहा है और विद्यालय की इमारत को बनाने का काम मंथर गति से ही सही, चल रहा है। लखनऊ रिपोर्ट भेजना चूंकि उनकी मजबूरी होती थी, वे आ कर कोरम पूरा कर जाते थे। बच्चे कक्षाओं में कितने आ रहे हैं या कक्षाओं में क्या पढ़ाई हो रही है, वे मान कर चलते थे कि उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर की चीज़ है। नियम भी कुछ ऐसे थे कि बच्चों की उपस्थिति ही सबसे बड़ी सफ़लता मानी जाती थी। एक दिन बीडीओ लेवल का खण्ड शिक्षा अधिकारी जांच करने आया। जो भी पैसा निर्माण के नाम पर आता था उसमें बीएसए से लेकर हेडमास्टर और प्रधान तक के खाने के लिये अलिखित नियम बनाये गये थे। पैसे हेडमास्टर और प्रधान के संयुक्त खाते में आते थे इसलिए कई आलसी बीएसए और सुस्त खण्ड शिक्षा अधिकारियों तक इसका त्वरित लाभ नहीं पहुंच पाता था। बीएसएस या उसके नीचे के अधिकारी इसके लिये अपने सामान्य ज्ञान के हिसाब से योजनओं के लिये पैसा आते ही छापे मारने की क्रिया करते रहते थे। इसके लिये कागज़ बाहर बाकायदा सूचना प्रदाता के रूप में एक पद बनाया गया था जो सभी अधिकारियों को ख़बर करता था कि किस खण्ड के किस गांव के किस विद्यालय में कितनी राशि किस मद के लिये आयी है। खण्ड शिक्षा अधिकारी एक बार छापा मार कर सारी बातें तय कर चुके थे लेकिन उनको खबर मिली कि सबको हिस्सा मिल जाने के बावजूद हेडमास्टर साहब पवन नाम के अध्यापक के साथ मिल कर बाकी बचे पैसे में से भी खाने के चक्कर में हैं और कक्षा के लिये बन रहे कमरों के निर्माण में निहायत निम्न कोटि का मटेरियल प्रयोग कर रहे हैं। प्रधान को उन्होंने अपने साथ मिला लिया है और दो से भले तीन हो कर चैन की बीन बजा रहे हैं।
खण्ड शिक्षा अधिकारी श्री रघुराज प्रताप सिंह ज़मींदार के परिवार से थे और चाहते तो ज़मींदारी से भी अपनी ज़िंदगी आराम से चला सकते थे लेकिन उनका कहना था कि वे अपने देश के लिये कुछ करना चाहते थे इसलिये नौकरी में आए। ऐसा माना जाता था कि प्रशासनिक सेवा में न जा पाने पर शिक्षा ही देश के लिये कुछ रचनात्मक किये जाने का माध्यम थी तो उनके जैसे बहुत सारे कर्मठ लोग थे जो उस रास्ते देश की सेवा करने की योग्यता न प्राप्त कर पाने पर इस रास्ते आ गये थे। वे अपने उसूलों के बहुत पक्के माने जाते थे और हर काम के लिये जब एक बार अपना हिस्सा ले लेते थे तो दुबारा उधर आंख उठा कर भी नहीं देखते थे। हर बात के पैमाने बदल गये थे और रिश्वत लेकर एक बार में काम कर देना ईमानदारी कही जाती थी। कई बेइमान थे जो एक ही काम के लिए नाना प्रकार के बहाने बना कर दो-तीन बार पैसे खाना चाहते थे। श्री सिंह इनमें से नहीं थे। वह ठाकुर थे और उनका मानना था कि राजपूत को ज़बान का पक्का होना चाहिये। दो कमरों के निर्माण के लिये आये दो लाख दो हज़ार के चेक को भुना कर आधे से अधिक हिस्सा बांटने में खर्च किया जा चुका था और निर्माण के लिये चार एक के तय मसाले (चार बोरी बालू में एक बोरी सीमेंट) की जगह छह एक का मसाला प्रयोग किया जाना था। जब श्री सिंह वहां औचक पहुंचे तो उनकी पैनी नज़र सबसे पहले मसाले के अनुपात पर ही गयी। छह एक की जगह आठ एक का मसाला लगाया जा रहा था और नींव लगभग पूरी हो चुकी थी। नींव के बाद अब दीवार जोड़ने का काम शुरू हो रहा था। वह तमतमाये हुए हेडमास्टर मनोहर के कमरे में घुस गये।
कविता को जब पता चला कि कोई अधिकारी जांच पर आये हैं तो उसे लगा कि बच्चों की पढ़ाई की भी जांच की जायेगी। जो भी अधिकारी आता था सारी चीज़ों की जांच करके चला जाता था और कविता चाहती थी कि बच्चों की पढ़ाई की भी जांच हो ताकि वह अधिकारी से कह सके कि बाकी कक्षाओं में अध्यापकों को पढ़ाने के लिये कुछ मानक बनाये जायें और उन्हें बच्चों के अध्ययन संबंधी कुछ मासिक या त्रैमासिक लक्ष्य दिये जायें। 
श्री सिंह जब हेडमास्टर के केबिन से निकले तो उनका गुस्सा काफी हद तक शांत हो चुका था और वे खासे आध्यात्मिक नज़र आ रहे थे। कविता ने उनका अभिवादन किया तो उन्होंने उसे पहचान लिया।
‘‘आप कविता हैं न ?’’
‘‘जी सर।’’
‘‘सुना है आपके पास कोई जादुई चीज़ है। कोई पत्थर वत्थर जिससे आप लोहे को सोना बना सकती हैं।’’ ऐसा कह कर वह हंसने लगे। ‘‘फुलिश….ऐसी भी कोई चीज़ होती है क्या ? ये मनोहर भी न…।’’ कविता ने उनकी बातों पर ध्यान दिये बिना उनसे धीरे से कहा कि वह उनसे किसी ज़रूरी मामले में बात करना चाहती है तो वह तुरंत तैयार हो गये। कविता उन्हें ले कर स्टाफ रूम की तरफ बढ़ गयी जहां कक्षाएं चलने के कारण फिलहाल सन्नाटा था।
‘‘सर, यहां बहुत गड़बड़ चल रही है। हालांकि यहां क्या प्रदेश के ज़्यादातर विद्यालयों में यही हाल है लेकिन यहां की तो बात ही निराली है। यहां कोई नियम नहीं है सर, अराजकता चल रही है….।’’ कविता ने अपने दिल की भड़ास निकाली।
‘‘अच्छा तो आपको भी पता है…मैंने देखा सब गड़बड़ है यहां।’’ श्री सिंह ने चिंता व्यक्त की। कविता उत्साहित हो गयी। ‘‘देखा न सर आपने ? बताइए हम अगर नींव ही खराब डालेंगे तो उस पर कभी कोई मज़बूत इमारत खड़ी हो सकती है ?’’ कविता ने चिंतित स्वर में कहा। उसे लगने लगा कि श्री सिंह नज़र के बड़े तेज़ आदमी हैं तभी तो कक्षाओं में एक बार भी गये बिना बच्चों की पढ़ाई के लिए उपलब्ध निराशाजनक माहौल से परिचित हैं।
‘‘कतई नहीं…..नींव तो मज़बूत होनी ही चाहिए। ऊपर कोई कमीबेसी हुयी तो चल सकता है लेकिन नींव में की गयी बेईमानी पूरी इमारत को बेकार कर देती है।’’ कविता को उत्साह मिला। ‘‘सर कुछ कीजिए, आप चाहेंगे तो माहौल सुधर सकता है।’’ श्री सिंह दबाव में आ गये। उन्हें लगा कविता कमरों के लिये आयी राशि में उनके हिस्से के बारे में जानती है। उन्हें मनोहर और प्रधान पर बहुत गुस्सा आया और वह हड़बड़ाने लगे। ‘‘हां-हां कविता मैं करता हूं कुछ। नींव से छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं की जायेगी।’’
कविता उस दिन जब वहां से निकली तो स्कूल की इमारत के बुर्ज पर एक बड़ा सा गिद्ध बैठा दिखायी दिया। उसने गिद्ध की ओर देखा, गिद्ध उसकी ओर आंखों में आंखे डाल कर देख रहा था। उसने एक बार गिद्ध को भगाने के लिये हाथ हिलाया। गिद्ध थोड़ा डरा और उड़ने के लिये पंख फड़फड़ाये लेकिन उड़ा नहीं। कविता को भी थोड़ा डर लगा। उसने फिर दूर से हुश्श्श किया, गिद्ध ने इस बार हल्के से अपने पर फड़फड़ाये लेकिन उड़ने का कोई उपक्रम नहीं किया। कविता घबरा उठी। एक अनजाना भय फिर से उसके भीतर उतरा और वह तेज़ कदमों से अपने डेरे की ओर जाने लगी।
नींव वाली बातपहले हेडमास्टर मनोहर तक पहुंची, फिर प्रधान के पास और जल्दी ही कई ऐसी जगहों पर पहुंच गयी जहां उसे नहीं पहुंचना चाहिए था। अगर ये स्टेट हाइवे का मामला होता तो इस जानकारी भर से कविता की जान को खतरा हो सकता था और अगर नेशनल हाइवे होता तो बहुत संभव था अब तक कविता की किसी सड़क दुर्घटना में मौत हो चुकी होती लेकिन यह एक विद्यालय में कमरे बनाये जाने का मामला था और जिस अधिकारी ने सुना उसने थोड़ी देर बड़बड़ाने के बाद इसे अपनी वरीयता सूची से बाहर निकाल दिया। खाने के बड़े मौके उपलब्ध थे और विद्यालय वगैरह के फण्ड अधिकारियों की संख्या के अनुपात में बहुत छोटी रकम थे। बड़े अधिकारी उस पर उतना ध्यान उसी तरह नहीं देते थे जिस तरह सरकार विद्यालयों पर नहीं देती थी।

प्रधान जी का नाम मंटू सिंह था और नाम से उनकी जो छवि बनती थी वे उससे बिल्कुल अलग थे। वे वैसे तो कागज़ों पर गांव की प्रधान मनकिया के पति थे लेकिन औरत के प्रधान बनने का मतलब उसके पति की ही लॉटरी निकलना होता था। मंटू जी ने इस अगंभीर नाम को बदलने की कालांतर में कोशिश की थी और पता नहीं किसकी बदमाशी से उनका नाम मंटू सिंह से मोंटेक सिंह रख दिया गया था। नाम रखे जाने के शुरू में वह ज़रूर इस नाम से पुकारे जाने पर बुरा मानते होंगे लेकिन अब वह पूरे दिल से इस नाम को अपना चुके थे और मोंटेक जी पुकारे जाने पर तुरंत पलट कर जवाब देते थे। मोंटेक जी का कहना था कि कविता को कुछ पैसे दे दिये जायें ताकि वह अपना मुंह बंद रखे। यह कहने के बाद वह साथ में ये भी जोड़ते थे कि जाने दो साली नहीं ही रखेगी मुंह बंद तो क्या उखाड़ लेगी। यह कहने के बाद वह बहुत ज़ोर से हंसते थे और सामने वाले व्यक्ति के सामने हथेली फैला देते थे जिस पर अपनी हथेली पटक कर उन्हें ताली देता था। माना जाता था कि उन्हें ताली देने वाला व्यक्ति उनके करीब है और कोई फ़र्ज़ी बीपीएल कार्ड और निवास प्रमाण पत्र वगैरह बनवाने के लिये उसी ताली देने वाले व्यक्ति से संपर्क किया जाता था। इस तरह की ताली क्षेत्र के विधायक लालजी शुक्ला, जिन्हें उनके क्षेत्र के लोग प्रेम से लालची शुक्ला कहते थे, भी लेना पसंद करते थे और कुछ लोगों का कहना था कि सांसद राममूरत भी ऐसा तालियां लिया करते हैं। तालियां देना एक उद्योग के तौर पर विकसित हो रहा था और इसके लिये चुस्त और फुर्तीले नौजवानों की ज़रूरत हुआ करती थी। शिक्षा की हालत बुरी होने से इस उद्योग को और फायदा मिला था और ताली देने के लिये नौजवान आपस में लड़ते मरते रहते थे। यह एक तकनीकी क्रिया थी और इसके लिये सूक्ष्म नज़र के साथ अच्छी टाइमिंग की ज़रूरत पड़ती थी। यह ज़रूरी होता था कि ताली देते वक्त हथेली सामने वाली की हथेली के बराबर पड़े और एक ज़ोर की आवाज़ हो। आवाज़ के साथ यह भी ध्यान रखना होता था कि ज़ोर की आवाज़ के चक्कर में सामने वाले की हथेली पर चोट न लगे नही तो वह किसी दूसरे ताली देने वाले को आज़माया जा सकता था। कई ताली देने वाले नौजवानों ने, जिन्होंने तालियां देते-देते अपने लिये मोबाइल, गाड़ी और प्रेमिका का जुगाड़ कर लिया था, चाहते थे कि भविष्य में उनकी औलादें डॉक्टर इंजीनियर न बन कर ताली देने वाली बनें। वह मन ही मन इसके लिये किसी प्रशिक्षण संस्थान की ज़रूरत भी महसूस करते थे। ताली देना धीरे-धीरे पूरे ज़िले से पूरे राज्य से होते हुए पूरे देश में एक सम्मानजनक रोज़गार के रूप में मान्यता पा रहा था और पहले जो माता-पिता इस क्षेत्र में जाने वाले अपने बच्चों को डांटते रहते थे, अब इस रास्ते पर अपने लख्त-ए-जिगर को बढ़ते देख चैन की सांस लेते। इसके लिये कई चरणों की प्रतियोगिता होती थी जिसमें सबसे पहले कनिष्ठ ताली प्रदाता के बाद वरिष्ठ ताली प्रदाता से होते हुये मुख्य व्यक्ति तक पहुंचा जाता था। ताली देने वाले अक्सर कम पढ़े-लिखे होते थे और कविता ने यह निष्कर्ष निकाला कि खराब शिक्षा ही इस उद्योग के पनपने का कारण है। उसे लगता था कि अधिकांशतः ताली देने वाले उस फेरी वाले या फिर उसके चाचा वाली मानसिकता जैसे हो जाते हैं। वह न तो कोई महान विचारक थी और न ही बचपन से उसके भीतर देशभक्ति का जज़्बा फूटता रहता था। वह एक साधारण शिक्षिका थी जिसकी आंखों ने देख लिया था प्राइमरी अध्यापक का यह बेचारा बन चुका पद बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी वाला है। उसके हाथों से देश का वह भविष्य होकर गुज़र रहा है जिसे अभी जिस दिशा में चाहे मोड़ा जा सकता है।

कविता का पढ़ाना देख कर सुमन मैडम के भीतर भी परिवर्तन हो रहे थे। कविता के रूप में उन्हें अपनी युवावस्था के वे दिन याद आ रहे थे जब वे देश के लिये कुछ करना चाहती थीं। वह चाहती थीं कि कुछ ऐसा काम करें जिससे उन्हें याद रखा जाये। कविता की बढ़ती लोकप्रियता देख कर उन्हें लगने लगा था कि अगर वह चाहें तो थोड़ा ही सही, छोटे सर्किल में ही सही, नाम कमा सकती हैं। कविता की अख़बार में छपी फोटो ने उन्हें विचलित कर दिया था। फिर एक दिन कविता ने उन्हें इशारों-इशारों में यह एहसास दिलाया कि यदि वह अपने ज़िले के किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रही होतीं तो मात्र पांच हज़ार रुपयों के लिये उन्हें दिन भर कड़ी मेहनत करनी पड़ती। उस समय तो उन्हें बुरा लगा था लेकिन बाद में उन्हें कविता की बात में कड़वी सच्चाई का स्वाद आया था। उन्होंने कविता के पढ़ाने वाले तरीकों को कॉपी कर थोड़ा बदल कर अपनाना शुरू कर दिया था। कविता ने ऊपर से तो कुछ नहीं कहा लेकिन भीतर ही भीतर अपनी इस सफलता से बहुत खुश हुई।
इसी बीच बगल के किसी गांव में किसी भवन का उद्घाटन करने के लिये मुख्यमंत्री के आगमन की घोषणा हुई। भवन राज्य सरकार की किसी योजना द्वारा बनाया जा रहा था और मुख्यमंत्री को श्रेय लेने की इतनी जल्दी थी कि वह बिना निर्माण कार्य पूरा हुए ही भवन का उद्घाटन करने आ रही थीं। यह महिला मुख्यमंत्री अपने कैरियर की शुरूआत में एक अध्यापिका रह चुकी थीं इसलिए इस बात की पूरी संभावना थी कि वह गांवों के प्राथमिक विद्यालयों में औचक निरीक्षण करें और बच्चों से कुछ सवाल करें। अधिकारियों को यह नहीं पता था कि मुख्यमंत्री क्या-क्या सवाल पूछ सकती हैं इसलिये ज़िले के सबसे खुर्राट आइएएस अफ़सरों को उन सवालों का अंदाज़ा लगाने की ज़िम्मेदारी दी गयी जो बहुत अच्छा अंदाज़ा लगाते थे और आइएएस की परीक्षा पास करने में उनके अंदाज़ा लगाने की योग्यता का बहुत बड़ा हाथ था। इन प्रतिभाशाली अफ़सरान ने अपनी पूरी प्रतिभा का उपयोग किया और एक प्रश्नावली तैयार की गयी। जहां एक ओर पूरा तंत्र मुख्यमंत्री के दौरे के लिये प्रशासनिक तैयारियों में जुटा था वहीं एक त्रिसदस्यीय टीम गांवों के विद्यालयों में जा कर उस प्रश्नावली को रटवा रही थी। लेकिन उन बच्चों को आनन फानन में यह सब रटाना मुश्किल था जिन पर यह कह कर न पढ़ाये जाने का रिवाज़ था कि साले पढ़ना ही नहीं चाहते।
‘‘भारत के प्रधानमंत्री कौन हैं ?’’ काफी रटाये जाने के बाद यह प्रश्न किया जाता।
‘‘साहरूखान।’’
‘‘क्रिकेट टीम का कप्तान कौन है ?’’
‘‘सोनिया गांधी।’’
‘‘रामचरितमानस किसने लिखा था?’’
‘‘बहन मायावती।’’
‘‘ताजमहल किसने बनवाया था?’’
‘‘महेंदर धोनी।’’
‘‘भारत की राजधानी क्या है?’’
‘‘बनारस।’’
‘‘विश्वनाथ मंदिर कहां स्थित है?’’
‘‘नई दिल्ली।’’
‘‘संसार की रचना किसने की?’’
‘‘शाहजहां।’’
‘‘महाभारत किसने लिखा?’’
‘‘ब्रह्मा जी।’’
‘‘कै नवां छत्तीस?’’
‘‘नौ त्रिक्के’’
सभी अधिकारियों के हाथ पांव फूल गये। उन्होंने ईश्वर का स्मरण करके यह प्रश्नावली तैयार की थी और ईश्वर को रिश्वतस्वरूप यह उत्तर भी शामिल किया था कि संसार की रचना ब्रह्मा जी ने की थी। लेकिन बच्चों से मिली प्रतिक्रियाओं से उनके तोते न जाने उड़ कर कहां चले गये थे। यह प्रश्नावली आसपास के सभी विद्यालयों में भेज दी गयी थी और तीन से चार दिनों में सभी अध्यापकों को इसे बच्चों को याद कराने के निर्देश दिये गये थे। पहली बार कविता ने पवन को भी बच्चों को ज़ोर दे कर पढ़ाते हुए देखा। उसे न जाने क्यों हंसी आयी। कविता की कक्षा के बच्चे अब कुछ समय पहले वाले चुपघुन्ने नहीं रह गये थे। उनकी जिज्ञासाओं के द्वार कविता ने खोल दिये थे और वह लड़के लड़कियों के उन सवालों का भी खूब जवाब दिया करती थी जो पाठ्यक्रम से बाहर के थे। कई लड़कियों ने मासिक धर्म संबंधी तो कई लड़कों ने ईश्वर संबंधी जिज्ञासाएं भी अपनी मैडम जी के ज़रिये खूब शांत की थीं। कुल मिला कर उसकी कक्षा एक स्मार्ट कक्षा बन चुकी थी और वह जिस भी कक्षा में जाती थी उन सारी कक्षाओं के बच्चे पहले से अधिक आत्मविश्वास से भरे होते। कविता बहुत बेसब्री से उस दिन का इंतज़ार कर रही थी जब उसके विद्यालय में चेकिंग करने कोई आये। उसने माधव को एक लोहे की कलम को सोने का बना कर दिया था जिससे माधव उन दिनों इतिहास का गृहकार्य लिख रहा था। 
ऐसे में माननीया मुख्यमंत्री के दौरे के ठीक सात दिन पहले एक दिन उसके विद्यालय का भी नंबर आ गया। कविता और सभी अध्यापक सुबह अपनी कक्षाओं से आधा घंटा पहले ही बुलाये गये थे। कविता जब पहुंची तो वहां अभी कोई नहीं आया था और इमारत की मुंडेर पर एक बड़ा गिद्ध पूरे इत्मीनान से बैठा था। कविता इस बार डरी नहीं बल्कि मुंडेर की ओर बढ़ी। धीरे-धीरे दोनों के बीच की दूरी कम होती गयी और जब कविता मुंडेर के काफी पास पहुंच गयी तो गिद्ध थोड़ा घबरा कर अपने पंख हिलाने डुलाने लगा। कविता ने उसकी आंखों में आंखें निर्भीक होकर डाल दीं और खड़ी हो गयी। गिद्ध थोड़ी देर तक हिलता डुलता रहा फिर अचानक पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ गया। कविता इत्मीनान से भीतर सजावट का जायजा लेने चली गयी।
पूरे विद्यालय को साफ सफाई करा कर झंडियों से सजा दिया गया था। जिलाधिकारी साहब की उत्तर प्रदेश सरकार  लिखी सफेद अंबेसडर आ कर रुकी और वह मंडलायुक्त के साथ सीधे कक्षाओं में घुस गये। पीछे से गांव के प्रधान मोंटेक जी और हेडमास्टर मनोहरलाल हाथ जोड़े उनके पीछे-पीछे भाग रहे थे। मंडलायुक्त वरिष्ठ थे और उन्होंने नये जिलाधिकारी महोदय को सतर्क प्रशासन के कुछ मूलभूत सिद्धांत बताये थे जैसे दौरे पर चलते हुए जब कोई कुछ कहे तो उसकी बात आधी अधूरी सुनी जाये और उसके चेहरे की ओर भूल से भी न देखा जाय। दौरा करते हुए गाड़ी से उतरते ही मूड चाहे जितना अच्छा हो, भंगिमा ऐसी होनी चाहिये जैसे बहुत क्रोध में हैं। किसी भी चीज़ पर, चाहे वह जितनी भी अच्छी हो, संतुष्टि ज़ाहिर नहीं करनी है। बुरी चीज़ों पर अंग्रेज़ी में चीखते हुये मौके पर एकाध लोगों को सस्पेंड कर देना है इत्यादि इत्यादि।
जब दोनों अधिकारी कविता की कक्षा में पहुंचे तो कविता ने उनका अभिवादन किया और एक ओर खड़ी हो गयी। जो अध्याय उसे लिखना था वह लिख चुकी थी और अब उसका पाठ होना शेष था। उसकी भूमिका खत्म हो गयी थी और अब विद्यार्थियों को अपनी भूमिका अदा करनी थी। जिलाधिकारी महोदय ने सगर्व घोषणा की कि जो बच्चे उनके पूछे गये सवालों का सही जवाब देंगे उन्हें साथ आये चाचा जी यानि मंडलायुक्त टॉफियां देंगे। दूसरे अध्यापक भी आ कर दरवाजे़ के पास खड़े हो गये थे और मनोहर पवन के साथ कमरे के एक कोने में खड़ा मन ही मन ईश्वर को याद कर रहा था। वीरेंद्र भी अनमने मन से एक ओर खड़ा था। जिलाधिकारी ने कुछ देर बच्चों से इधर उधर की बातें कीं जैसे किसके-किसके घर में गाय हैं, हल हैं और ट्रैक्टर वगैरह हैं। उन्होंने पूरी पढ़ाई कान्वेंट से की थी और गांव को वह हल, बैल और ट्रैक्टर जैसी चीज़ों से ही पहचानते थे। जब सभी बच्चों ने नकारात्मक उत्तर दिये तो वह थोड़े उदास हुए, फिर उन्होंने अपना पहला सवाल पूछा।
‘‘बिटिया तुम बताओ भारत के प्रधानमंत्री कौन हैं?’’ उन्होंने एक लड़की को खड़ा किया।
‘‘डाक्टर मनमोहन सिंघ।’’ लड़की ने आत्मविश्वास से उत्तर दिया। जिलाधिकारी महोदय को भरी गरमी में जैसे ठंडा पानी मिल गया। ‘‘वेरी गुड बेटी, बैठ जाओ।’’ वह दूसरे बच्चे से मुखातिब हुए।
‘‘भारत की राजधानी कहां है?’’
‘‘नई दिल्ली।’’ लड़के ने कहा और जिलाधिकारी महोदय के कहने से पहले ही आराम से बैठ गया जिसे उन्होंने नज़रअंदाज़ कर दिया।
‘‘उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री कौन है बेटा?’’ वह सारे सही उत्तर पा कर प्रसन्न थे और मंडलायुक्त महोदय के साथ आया अर्दली सभी बच्चों के पास जाकर टॉफियां बांट रहा था।
‘‘सुश्री मायावती।’’
‘‘वाह, शाब्बास बेटा।’’ जिलाधिकारी महोदय किलकारी मार उठे। मनोहर और पवन पहली बार कविता के लिये अपने मन में आदर महसूस कर रहे थे और उनके माथे की चिंता की लकीरें काफी हद तक मिट चुकी थीं। उन्हें पता था कि एक बार में अधिकारी लोग एक ही कक्षा चेक करते हैं।
जिलाधिकारी महोदय ने इस बार माधव को खड़ा किया।
‘‘बेटा, भारतीय क्रिकेट टीम का कप्तान कौन है ?’’ वह मुस्करा रहे थे। माधव ने एक पल को सोचा फिर उनकी आंखों में देखता हुआ बोला।
‘‘पता नहीं सर कोई होगा, इसका हमारे पाठ्यक्रम से क्या मतलब है?’’ 
सबके मुस्कराते चेहरे एक पल में भक्क हो गये। मनोहर के चेहरे का रंग उतर गया। कविता चुपचाप एक ओर खड़ी थी शांत, बिल्कुल शांत। आज उसे कोई चिंता नहीं थी। उसने सब कुछ सिखाने के साथ बच्चों को एक और चीज़ सिखाने की कोशिश की थी, सवाल उठाना। वह आज अपनी शिक्षा को सफ़ल होता देख रही थी और बहुत संतुष्ट थी। जिलाधिकारी महोदय को अपने मातहत अधिकारियों तक से प्रश्न सुनने की आदत नहीं थी और एक पांचवी कक्षा के बच्चे ने उनसे ऐसा सवाल पूछा था जिसका जवाब उनके पास नहीं था। वह हंसने लगे, निहायत अश्लील हंसी और हंसते हुए वे मंडलायुक्त महोदय की ओर पलटे ताकि उनकी हंसी को वह अपनी हंसी से सहारा दे दें। उन्होंने मंडलायुक्त की कई नाजु़क मौकों पर मदद की थी और मंडलायुक्त महोदय उन्हें धोखा नहीं दे सकते थे। वे भी हंसे। उनके हंसने से जिलाधिकारी महोदय का हंसना बढ़ गया। मंडलायुक्त और ज़ोर से हंसे। जिलाधिकारी भी और ज़ोर से हंसे और बहुत मज़ाकिया बात की तरह उन्होंने माधव के गाल पर हाथ फेरते हुये प्यार से कहा, ‘‘अरे बेटा ये सामान्य ज्ञान है, सबको जानना चाहिए।’’ माधव वैसे ही खड़ा रहा और बोला, ‘‘सर आप पहले तो नहीं आये जानने कि हमारा सामान्य ज्ञान कैसा है। हमारे पाठ्यक्रम में जो है वह हमें पूरा पढ़ाया ही नहीं जाता तो इस सामान्य ज्ञान से क्या होगा?’ जिलाधिकारी महोदय और ज़ोर से हंसने लगे और उन्होंने फिर से मंडलायुक्त की ओर देखा। मंडलायुक्त महोदय का चेहरा इस बार पत्थर की तरह सख्त था। जिलाधिकारी महोदय सकपका गये और उन्होंने ज़बरदस्ती हंसते हुए अर्दली से माधव को टॉफियां देने का इशारा किया। इसके बाद वह ऐसे आराम से निकले जैसे कुछ हुआ ही न हो।
आप जानना चाहते होंगे कि इसके बाद क्या हुआ। क्या कविता के शिष्यों ने मुख्यमंत्री के दौरे के दौरान उनसे भी कुछ सवाल उठाये? क्या कविता का पारस पत्थर छीनने के लिये उस पर दुबारा हमला हुआ ? क्या सुमन जी भी हमेशा उसी भाव से बच्चों को पढ़ाती रहेंगी जिस भाव से उन्होंने आजकल पढ़ाना शुरू कर दिया है ? मैं क्षमा चाहता हूं कि इनमें से किसी भी सवाल का जवाब नहीं दे सकता। आपने ज़रूर इस कहानी का कोई रोमांचक और दिलदहलाऊ अंत सोच रखा होगा जिसमें कोई बच्चा खड़ा होकर सीधे मुख्यमंत्री से सवाल कर दे कि रक्षा में 18 प्रतिशन और शिक्षा में मात्र 4 प्रतिशत खर्च करने वाले इस देश में उनका क्या भविष्य है ? आठवीं तक की शिक्षा मुफ्त में प्राप्त कर लेने के बाद वह कौन सी तोप चलाने में सक्षम हो जायेंगे जो उन्हें स्कूलों तक लाने में इतनी मेहनत की जा रही है। इतने समय तक वह कहीं जाकर मजदूरी करें तो भी उस उम्र तक एक रिक्शा खरीदने के काबिल हो जाएंगे लेकिन इस शिक्षा का वह क्या करें जो उन्हें न तो साक्षर रहने देती है न निरक्षर? मैं जानता हूं आप कोई ऐसा अंत चाहते थे जिसमें कविता के ऊपर फिर से हमला होता या फिर उसकी हत्या कर दी जाती। कोई सनसनीखेज और रोमांचक अंत….जैसा आजकल की कहानियों में होता रहता है।
देखिये, यह मात्र एक विद्यालय में ईमानदारी से पढ़ाने का मामला है और ये घटना इतनी मामूली है कि इससे कुछ लोगों को खतरा तो महसूस हो तो रहा है मगर इतना नहीं कि वे कोई बड़ा कदम उठायें। मैंने पहले भी आपसे बताया था कि अगर यह स्टेट हाइवे या आयकर विभाग में ईमानदारी करने का मामला होता तो कविता को अब तक इतनी धमकियां मिली होतीं कि कहानी ज़रूर किसी रोमांचक मोड़ तक पहुंच जाती। अगर यह नेशनल हाइवे या लोक निर्माण विभाग का मामला होता तो कविता की अब तक किसी अज्ञात दुर्घटना में मौत हो चुकी होती और पुलिस इसे छानबीन करने के बाद असावधानी से गाड़ी चलाने का मामला बता एकाध लोगों को गिरफ्तार कर केस बंद कर चुकी होती। प्राइमरी अध्यापक संघ के कुछ अध्यापकों ने जस्टिस फॉर कवितानाम से एक संस्था बनायी होती और काम ज़्यादा हो जाने पर वे किसी दिन मन बहलाव के लिये हाथों में मोमबत्तियां ले कर किसी चौक चौराहे पर प्रशासन होश में आओया कविता कौशिक के हत्यारों को गिरफ्तार करोजैसे नारे लगाती हुयी. थोड़ी देर तक सड़क जाम करती फिर घर आकर आराम से आईपीएल के मैच देखती। मगर मैं फिर से आपने क्षमाप्रार्थी हूं कि मैं इस अतिसाधारण पात्रों वाली अतिसाधारण कहानी को ऐसा कोई रोमांचक मोड़ दे सकने में असमर्थ हूं। बस इतना ही कह सकता हूं कि कविता अब भी अपने तरीकों पर डटी हुई है। आप कभी हरियालीगंज जायें तो आप देखेंगे कि इधर गांव में हरियाली भी दिखने लगी है और मनोहर अब काफी मनोहर लगने लगा है। पवन भी आजकल काफी कक्षाएं लेने लगा है और बच्चों के सवालों के जवाब भी देता है, हां अभी जवाब देने में वह जातियों के हिसाब से वरीयता ज़रूर तय किया करता है। कविता अगर मिले तो आप उससे कहिएगा कि उसका यह प्रयास टिटहरी की तरह बालू लाकर समंदर को भरने जैसा है। मैं शर्त लगाकर कह सकता हूं वह ऐसा जवाब देगी कि आप लाजवाब होकर मुस्कराते हुए लौटेंगे।
(कहानी में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स गूगल से साभार ली गयी हैं।) 
 
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विमल चन्द्र पाण्डेय
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ईमेल – vimalpandey1981@gmail.com

विमल चन्द्र पाण्डेय

कुछ नए कहानीकारों जिन्होंने इधर कहानी को फिर से साहित्य की मुख्य विधा के रूप में स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है, उसमें विमल चंद्र पाण्डेय का नाम अग्रणी है. इनके कहानी संग्रह ‘डर’ को ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार मिल चुका है. जीवन के सरोकारों से जुडी हुई विमल की कहानियाँ पढते हुए बराबर यह एहसास होता है कि अरे यह तो हमारी ही कहानी है. किस्सागोई इनकी कहानियों के मूल में होती है, जो पाठक को लगातार अपने से बांधे रहती है. और कहीं क्षण भर के लिए भी उबन पैदा नहीं करती. प्रस्तुत कहानी ‘उत्तर प्रदेश की खिडकी’ भी ऐसी ही कहानी है जो बड़ी बारीकी से हमारी सामाजिक विडंबनाओं के साथ साथ राजनीतिक विडंबनाओं की पडताल करती है. कहानी के अलावा विमल ने कुछ बेहतरीन कवितायें, फिल्मों पर गंभीर आलेख और समीक्षाएँ भी लिखीं हैं. मूलतः पत्रकारिता के पेशे से जुड़े हुए विमल आजकल फिल्मो के निर्माण में व्यस्त हैं.

उत्तर प्रदेश की खिड़की

(प्रिय मित्र सीमा आज़ाद के लिए)

प्रश्न– मेरे घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं है और मेरे पिताजी की नौकरी छूट गयी है। वो चाहते हैं कि मैं घर का खर्च चलाने के लिये कुछ काम करूं लेकिन मैं अपनी पढ़ाई पूरी करना चाहता हूं। मैं अपनी पढ़ाई के साथ-साथ उनकी मदद भी करना चाहता हूं और चाहता हूं कि कोई ऐसा काम कर सकूं कि पढ़ाई भी हो सके और कुछ कमाई भी, मैं क्या करूं ? – मनोज कनौजिया, वाराणसी

उत्तर- आपका पहला फ़र्ज़ है अपने पिताजी की मदद करना लेकिन यह भी सच है कि बिना उचित ज्ञान और डिग्री के कोई अच्छा काम मिलना मुश्किल है। दिक्कत यह भी है कि ऐसा कोई काम कहीं नहीं है जो करके आप पैसे भी कमाएं और साथ में पढ़ाई भी कर सकें। काम चाहे जैसा भी हो, अगर वह आप पैसे कमाने के लिये कर रहे हैं तो वह आपको पूरी तरह चूस लेता है और किसी लायक नहीं छोड़ता।

प्रश्न- मेरी मेरे माता-पिता से नहीं बनती। वे लोग चाहते हैं कि मैं आर्मी में जाने के रोज सुबह दौड़ने का अभ्यास करूं जबकि मैं संगीत सीखना चाहता हूं। मेरा गिटार भी उन लोगों ने तोड़ दिया है। मेरे पिताजी और चाचाजी वगैरह ऐसे लोग हैं जो हर समय पैसे, धंधे और नौकरी की बातें करते रहते हैं, मेरा यहां दम घुटता है। मैं क्या करूं ? –राज मल्होत्रा, मुंबई

उत्तर- माता-पिता को समझाना दुनिया का सबसे टेढ़ा काम है। उन्हें समझाने की कोशिश कीजिये कि न तो दौड़ने का अभ्यास करने से आजकल आर्मी में नौकरी मिलती है और न तैरने का अभ्यास करने से नेवी में। आप अपने मन का काम करना जारी रखिये। जाहिल लोगों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका है चुपचाप अपना काम करना और उन्हें इग्नोर करना।

प्रश्न- मेरे पति अक्सर टूर पर बाहर रहते हैं। हमारी शादी को अभी सिर्फ दो साल हुये हैं और मुझे रात को उनकी बहुत कमी महसूस होती है। मेरा पड़ोसी कुंआरा है और हमेशा मेरी मदद को तैयार रहता है। मैं आजकल उसकी तरफ आकर्षित महसूस कर रही हूं। मैं खुद को बहकने से बचाना चाहती हूं, क्या करूं ? –क ख ग, दिल्ली

उत्तर– आप अपने पति को समझाइये कि वह अपने टूर की संख्या थोड़ी कम करें और आप अकेले में पूजा-पाठ और गायत्री मंत्र का जाप किया करें। अपने आप को संभालें वरना आपका सुखी परिवार देखते-देखते ही उजड़ जायेगा।

प्रश्न- मेरी उम्र 26 साल है और मेरे दो बच्चे हैं। मेरा मन अब सेक्स में नहीं लगता पर मेरे पति हर रात जिद करते हैं। मेरे स्तनों का आकार भी छोटा है जिसके कारण मेरे पति अक्सर मुझ पर झल्लाते रहते हैं। मैं क्या करूं ?  -एक्सवाईजे़ड, अहमदाबाद

उत्तर- पति को प्यार से समझा कर कहिये कि शारीरिक कमी ईश्वर की देन है इसलिये उसके साथ सामंजस्य बनाएं। रात को बिस्तर पर पति को सहयोग करें, अगर सेक्स में मन नहीं लगता तो कुछ रोमांटिक फिल्में देखें और उपन्यास पढ़ें। इस उम्र में शारीरिक संबंधों से विरक्ति अच्छी नहीं।

प्रश्न…..प्रश्न….प्रश्न

उत्तर…उत्तर…उत्तर

चिंता की कोई बात नहीं। इन समस्याओं में से कितनी ठीक हुईं और कितनी नहीं, इसका मुझे कोई हिसाब नहीं रखना पड़ता। जी हां, मैं ही इन सवालों के जवाब देता हूं। मेरा नाम अनहद है, मेरा कद पांच फीट चार इंच है और महिलाओं की इस घरेलू पत्रिका में यह मेरा दूसरा साल शुरू हो रहा है। मेरी शादी अभी नहीं हु है और अगर आप मेरे बारे में और जानना चाहेंगे तो आपको मेरे साथ सुबह पांच बजे उठ कर पानी भरना होगा और मेरे पिताजी का चिल्लाना सुनना होगा। ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ मुझ पर चिल्लाते हैं। चिल्लाना दरअसल उनके लिये रोज़ की सैर की तरह है और वह इस मामले में मेरी मां और मेरे भाई में कोई फर्क नहीं करते। वह एक चीनी मिल में काम करते हैं, `हैं´ क्या थे लेकिन वे अपने लिये `थे´ शब्द का प्रयोग नहीं सुनना चाहते। उनका काम सुपरवाइज़र का है। मैं सुपरवाइज़र का मतलब नहीं जानता था तो यह सोचता था कि मिल पिताजी की है और हम बहुत अमीर हैं। वह बातें भी ऐसे करते थे कि आज उन्होंने दो मजदूरों की आधी तनख़्वाह काट ली है,  आज उन्होंने एक कामचोर मजदूर को दो दिन के लिये काम से निकाल दिया या आज उनका मिल देर से जाने का मन है और वह देर से ही जाएंगे। जिस दिन वह देर से जाने के लिये कहते और देर से जागते तो मां कहती कि अंसारी खा जायेगा तुमको। वह मां को अपनी बांहों में खींच लेते थे और उनके गालों पर अपने गाल रगड़ने लगते थे। मां इस तरह शरमा कर उनकी बांहों से धीरे से छूटने की कोशिश करती कि वह कहीं सच में उन्हें छोड़ न दें। इस समय मां मेरा नाम लेकर पिताजी से धीरे से कुछ ऐसा कहतीं कि मुझे लगता कि मुझे वहां से चले जाना चाहिये। मैं वहां से निकलने लगता तो मुझे पिताजी की आवाज़ सुनायी देती, “मैं राजा हूं वहां का, कोई अंसारी पंसारी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।´´  मैं समझता कि मेरे पिताजी दुनिया के सबसे ताकतवर आदमी हैं। मुझे बहुत अच्छा लगता। पिताजी वाकई किसी से नहीं डरते थे बस बाबा जब हमारे घर आते तभी मुझे पिताजी का सिर थोड़ा विनम्रता से झुका दिखायी देता। बाबा पिताजी के चाचाजी थे जो बकौल पिताजी पूरे खानदान में सबसे ज़्यादा पढ़े लिखे इंसान थे। बाबा पिताजी से बहुत बड़े थे और दुनिया के हर सवाल का जवाब जानते थे। वे हमेशा कहते थे कि हमारा वक़्त आने वाला है और हम दोनों भाई इस बात का मतलब न समझते हुये भी खुश हो जाते थे।

बचपन सबसे तेज़ उड़ने वाली चिड़िया का नाम है

मैं या उदभ्रांत पिताजी को किसी दिन फैक्ट्री देर से जाने के लिये इसरार करते तो वह हमें गोद में उठाते,  हमारे बालों को सहलाते और फिर नीचे उतार कर तेजी से अपनी सायकिल की ओर भागते। जिस दिन पिताजी फैक्ट्री नहीं जाते उस दिन मौसम बहुत अच्छा होता था और लगता था कि बारिश हो जायेगी लेकिन होती नहीं थी। हम चारों लोग कभी-कभी अगले मुहल्ले में पार्क में घूमने जाते और वहां बैठ कर पिताजी देर तक बताते रहते कि वह जल्दी ही शहर के बाहर आधा बिस्सा ज़मीन लेंगे और वहां हमारा घर बनेगा। फिर वह देर तक ज़मीन पर घर का नक्शा बनाते और मां से उसे पास कराने की कोशिश करते। मां कहती कि चार कमरे होंगे और पिताजी का कहना था कि कमरे तीन ही हों लेकिन बड़े होने चाहि। वह तीन और चार कमरों वाले दो नक्शे बना देते और हमसे हमारी राय पूछते। हम दोनों भाई चार कमरे वाले नक्शे को पसंद करते क्योंकि उसमें हमारे लिये अलग-अलग एक-एक कमरा था। मां ख़ुश हो जाती और पिताजी हार मान कर हंसने लगते। पिताजी कहते कि वह हमें किसी दिन फिल्म दिखाने ले जाएंगे जब कोई फिल्म टैक्स फ्री हो जायेगी। मां बतातीं कि वह पिताजी के साथ एक बार फिल्म देखने गयी थी, उस फिल्म का नाम ‘क्रांति’ था और उसमें ‘जिंदगी की ना टूटे लड़ी’ गाना था। पिताजी यह सुनते ही मस्त हो जाते और ‘आज से अपना वादा रहा हम मिलेंगे हर मोड़ पर…’ गाना गाने लगते। उदभ्रांत मुझसे पूछता कि टैक्स फ्री फिल्म कौन सी होती है तो मैं अपने कॉलर पर हाथ रख कर बताता कि जिस फिल्म में बहुत बढ़िया गाने होते हैं उन्हें टैक्स फ्री कहते हैं। हम इंतज़ार करते कि कोई ऐसी फिल्म रिलीज हो जिसमें ख़ूब सारे अच्छे गाने हों। पिताजी हमें हमेशा सपनों में ले जाते थे और हमें सपनों में इतना मज़ा आता कि हम वहां से बाहर ही नहीं निकल पाते। हम सपने में ही स्कूल चले जाते और हमारे दोस्त हमारी नयी कमीज़ें और मेरी नयी सायकिल को देखकर हैरान होते। मेरे दोस्त कहते कि मैं उन्हें अपनी सायकिल पर थोड़ी देर बैठने दूं लेकिन मैं सिर्फ नीलू को ही अपनी सायकिल पर बैठने देता। नीलू बहुत सुंदर थी। दुनिया की किसी भी भाषा में उसकी आंखों का रंग नहीं बताया जा सकता था और दुनिया का कोई भी कवि उसकी चाल पर कविता नहीं लिख सकता था। मैंने लिखने की कोशिश की थी और नाकाम रहा था। इस कोशिश में मैंने कुछ न कुछ लिखना सीख लिया था। इसी गलत आदत ने मुझे गलत दिशा दे दी और बीए करने के बाद मैंने पिताजी की सलाह मान कर बी’ एड. नहीं किया और रात-दिन कागज़ काले करने लगा। लिखने का भूत मुझे पकड़ चुका था। नीलू मेरे देखते ही देखते दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की हो गयी थी,  मेरा मुहल्ला दुनिया का सबसे खूबसूरत मुहल्ला और मैं दुनिया का सबसे डरपोक प्रेमी। मैंने उन रुमानी दिनों में हर तरह की कविताएं पढ़ी जिनमें एक तरफ तो शमशेर और पंत थे तो दूसरी तरफ मुक्तिबोध और धूमिल। हर तरह की कविता मुझे कुछ दे कर जाती थी और मैंने भी कविताई करते हु ढेरों डायरियां भर डालीं।

मेरा लिखा कई जगह छप चुका था और मेरा भ्रम टूटने में थोड़ी ही देर बाकी थी कि मुझे लिखने की वजह से भी कोई नौकरी मिल सकती है। पत्रकारिता करने के लिये किसी पढ़ाई की ज़रूरत होने लगी थी। पत्रकारिता सिखाने के ढेर सारे संस्थान खुल चुके थे और जितने ज़्यादा ये संस्थान बढ़ते जा रहे थे पत्रकारिता ही हालत उतनी ही खराब होती जा रही थी। पता नहीं वहां क्या पढ़ाया जाता था और क्यों पढ़ाया जाता था। पिताजी की मिल (अब हमें उसे पिताजी की ही मिल कहने की आदत पड़ गयी है) के आस-पास की कई मिलें बंद हो चुकी थीं और इस मिल के भी बंद होने के आसार थे। कर्मचारियों को तनख़्वाहें कई महीनों से नहीं दी जा रही थीं और पिताजी ने मुझसे सिर्फ इतना कहा था कि मैं घर की सब्ज़ी और राशन का खर्चा संभाल लूं, वे उदभ्रांत की पढ़ाई के खर्चे का जुगाड़ कैसे भी करके कर लेंगे।

ये उन दिनों के कुछ आगे की बात है जब मैं और उदभ्रांत ज़मीन पर एक लकड़ी के टुकड़े से या पत्थर से एक घर का नक्शा बनाते जिसमें चार कमरे होते। बाबा ने उस मकान का नक्शा हमारे बहुत इसरार करने पर एक कागज़ पर बना कर हमें दे दिया था। हम ज़मीन पर बने नक्शे में अपने-अपने कमरों में जाकर खेलते। उदभ्रांत अक्सर अपने कमरे से मेहमानों वाले कमरे में चला जाता और मैं उसे पिताजी के कमरे में खोज रहा होता। एक बार तो ऐसा हुआ कि खेलते-खेलते मैं मेहमानों वाले कमरे में उदभ्रांत को पुकारता हुआ चला गया और वहां पिताजी अपने एक मित्र के साथ बातें कर रहे थे और उन्होंने मुझे उछल-कूद मचाने के लिये डांटा। उन्होंने मुझे डांटते हुये कहा कि घर में इतना बड़ा बरामदा है और तुम दोनों के अलग-अलग कमरे हैं,  तुम दोनों को वहीं खेलना चाहि, घर में आये मेहमानों को परेशान नहीं करना चाहि। तभी बाबा ने आकर हमारे बड़े से नीले गेट का कुंडा खटकाया और मैंने उदभ्रांत ने कहा कि हमें पिताजी से कह कर अपने घर के गेट पर एक घंटी लगवानी चाहि जिसका बटन दबाने पर अंदर `ओम जय जगदीश हरे´ की आवाज़ आये। बाबा अक्सर हमारे ही कमरे में बैठते थे और हमें दुनिया भर की बातें बताते थे। वे बाहर की दुनिया को देखने की हमारी आंख थे और हमें इस बात पर बहुत फख्र महसूस होता था कि हम दोनों भाइयों के नाम उनके कहने पर ही रखे गये थे वरना मैं `रामप्रवेश सरोज´ होता और मेरा छोटा भाई `रामआधार सरोज´। उनसे और लोग कम ही बात करते थे क्योंकि वे जिस तरह की बातें करते थे वे कोई समझ नहीं पाता। समझ तो हम भी नहीं पाते लेकिन हमें उनकी बातें अच्छी लगती थीं। हम जब छोटे थे तो हमारा काफ़ी वक़्त उनके साथ बीता था। वह कहते थे कि जल्दी ही वो समय आयेगा जब हम सब गाड़ी में पीछे लटकने की बजाय ड्राइविंग सीट पर बैठेंगे। हर जु़ल्म का हिसाब लिया जायेगा और हमारे हक हमें वापस मिलेंगे। हमें उनकी बातें सुन कर बहुत मज़ा आता। मुझे बाद में भी उतना समझ नहीं आता था लेकिन उदभ्रांत धीरे-धीरे बाबा के इतने करीब हो गया था कि उनसे कई बातों पर खूब बहस करता। पिछले चुनाव के बाद जब बाबा भंग की तरंग में नाचते-गाते पूरे मुहल्ले में मिठाई बांट रहे थे तो उदभ्रांत का उनसे इसी बात पर झगड़ा हो गया था कि उसने कह दिया था कि वह कुछ ज़्यादा ही उम्मीदें पाल रहे हैं। बाबा ने बहस कर ली थी कि संविधान बनने के बरसों बाद हम गु़लामों को आज़ादी मिली है और उस पर नज़र नहीं लगानी चाहिये। बाबा जब बहस में उदभ्रांत से जीत नहीं पाते तो उसे थोड़ा इंतज़ार करने की नसीहत देते। ये बहसें अचानक नहीं थीं। जब वह छोटा था तो बाबा से हर मुद्दे पर इतने तर्कों के साथ बहस करता कि मैं उसे देख कर मुग्ध हो जाता। मैं उसकी बड़ी-बड़ी बातों वाली बहसों को देख कर सोचता कि ये ज़रूर अपनी पढ़ाई में नाम रोशन कर हमारे घर के दिन वापस लायेगा। मुझे पिताजी की बात याद आ जाती कि मुझे घर के कुछ खर्चे संभालने हैं ताकि उदभ्रांत अपनी पढ़ाई निर्विघ्न पूरी कर सके और हमारी उम्मीदों को पतंग बना सके।

…तो घर के कुछ छोटे खर्चों को संभालने के लिये मैंने अपनी सारी ऊर्जा झोंक दी थी और कैसी भी एक नौकरी चाहता था।

नीला रंग भगवान का रंग होता है

ऐसे में `घर की रौनक´ नाम की उस पत्रिका में नौकरी लग जाना मेरे लिये मेरी ज़िंदगी में रौनक का लौट आना था। मैं शाम को मिठाई का डिब्बा लेकर नीलू के घर गया था तो वह देर तक हंसती रही थी। आंटी ने कह कि मैं छत पर जाकर नीलू को मिठाई दे आऊं। नीलू शाम को अक्सर छत पर डूबते सूरज को देखा करती थी। उसे आसमान बहुत पसंद था। उसे डूबते सूरज को देखना बहुत पसंद था। मेरे लिये यह बहुत अच्छी बात थी। मैं भी कभी उगा नहीं। मैं हमेशा से डूबता हुआ सूरज था।

“किस बात की मिठाई है साहब..?´´ वह पांचवीं क्लास से ही मुझे साहब कहती थी जब मैंने स्कूल के वार्षिकोत्सव में `साला मैं तो साहब बन गया´ गाने पर हाथ में पेप्सी की बोतल ले कर डांस किया था।

मैंने उसे सकुचाते हु बताया कि मेरी नौकरी लग गयी है और यह नौकरी ऐसी ही है जैसे किसी नये शहर में पहुंचा कोई आदमी एक सस्ते होटल में कोई कमरा ले कर अपने मन लायक कमरा खोजता है। उसने पत्रिका का नाम पूछा। मैंने नाम छिपाते हु कहा कि यह महिलाओं की पत्रिका है जिसमें स्वेटर वगैरह के डिजाइनों के साथ अच्छी कहानियां और लेख भी छपते हैं। उसके बार-बार पूछने पर मुझे बताना ही पड़ा। उसकी हंसी शुरू हु तो लगा कि आसमान छत के करीब आ गया। मैं बहुत खुश हुआ कि मेरी नौकरी देश की किसी अच्छी और बड़ी पत्रिका में नहीं लगी। मुझे नौकरी से ज़्यादा उसकी हंसी की ज़रूरत थी। नौकरी की भी मुझे बहुत ज़रूरत थी। नौकरी देने वाले ये नहीं जानते थे कि नौकरी की मुझे हवा से भी ज़्यादा ज़रूरत थी और नीलू इस बात से अंजान थी कि उसकी हंसी की मुझे नौकरी से भी ज़्यादा ज़रूरत थी।

प्रश्न– मैं अपने पड़ोस में रहने वाली लड़की से बचपन से प्यार करता हूं। हम दोनों दोस्त हैं लेकिन उसे नहीं पता कि मैं उसे प्यार करता हूं। वह दुनिया की सबसे खूबसूरत हंसी हंसती है। उसकी हंसी सुनने के लिये मैं अक्सर जोकरों जैसी हरकतें करता रहता हूं और उसकी हंसी को पीता रहता हूं। मैं चाहता हूं कि मैं ज़िंदगी भर उसके लिये जोकरों जैसी हरकतें करता रहूं और वह हंसती रहे। लेकिन मैं उससे अपने प्यार का इज़हार करने में डरता हूं, कहीं ऐसा न हो कि मैं उसकी दोस्ती भी खो दूं और ज़िंदगी उसकी हंसी सुने बिना बितानी पड़े। मैं क्या करूं ?

मैं अक्सर कई सवालों के जवाब नहीं दे पाता। पत्रिका में छापने लायक जवाब तो कतई नहीं। मैं ऐसे पाठकों को व्यक्तिगत रूप से उत्तर देता हूं और उनसे सुहानुभूति जताता हूं कि मेरे पास हर प्रश्न का कोई न कोई उत्तर ज़रूर है और मैं उनके लिये दुआ करुंगा। मैं यह भी सोचता हूं कि जिन सवालों के जवाब मुझे न समझ में आयें उन्हें लोगों के बीच रख दूं और कोई ऐसा विकल्प सोचूं कि अनुत्तरित सवालों को समाज के सामने उत्तर के लिये रखा जा सके। लेकिन मेरी पत्रिका में ऐसी कोई व्यवस्था सोचनी भी मुश्किल है, मैं जब अपनी पत्रिका निकालूंगा तो ज़रूर एक ऐसा कॉलम शुरू करुंगा।

ऑफिस में मुझे उप-सम्पादक की कुर्सी पर बिठाया गया था और मैं वहां सबसे कम उम्र का कर्मचारी था। पत्रिका के ऑफिस जा कर मुझे पता चला कि जिन लोगों के बाल सफ़ेद होते हैं उनकी हमेशा इज़्ज़त करनी चाहिये क्योंकि वे कभी गलत नहीं होते। कि सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठने वाला आदमी सबसे बुद्धिमान होता है और उससे कभी बहस नहीं की जानी चाहिये। कि नौकरी चाहे किसी पत्रिका में की जाये या किसी किराने की दुकान में,  अंतत: दोनों को करने के लिये नौकर ही होना पड़ता है। पत्रिका में लगभग सारे लोग पुराने थे जिनमें संपादकीय विभाग में काम करने वाले लोगों यानि दीन जी,  दादा,  गोपीचंद जी,  मिस सरीन आदि को मुख्य माना जाता था। मुख्य संपादक कहा जाने वाला आदमी वैसे तो दीन और दादा से कम उम्र का था लेकिन इन दोनों की चमचागिरी उसे बहुत भाती थी और दो लगभग बुज़ुर्गों से मक्खनबाज़ी करवाने में उसे खुद में बड़ा-बड़ा सा महसूस होता था।

कुछ ही समय में मैं इस नौकरी से बहुत तंग आ गया। घर के राशन और सब्ज़ी के ख़र्च वाली बात पिताजी ने मुझसे तब कही थी जब मैं इंटर की पढ़ाई कर रहा था और मेरे लिये नौकरी बहुत दूर की बात थी। इस बात को सात साल हो चुके हैं और अब जा कर पिछले कुछ समय से ही मैं अपना फ़र्ज़ पूरा कर पा रहा हूं और इस बात को लेकर मैं इतना शर्मिंदा हूं कि इस नौकरी को छोड़ कर दूसरी नौकरी खोजने का खतरा नहीं उठा सकता, और ये नौकरी इतना समय कभी नहीं देती कि मैं दूसरी जगह इंटरव्यू देने की सोच भी सकूं।

पत्रिका ने मुझे वैसे तो सब-एडिटर का ओहदा दिया था लेकिन करना मुझे बहुत कुछ पड़ता था। सबसे बुरा और उबाऊ काम था कवि दीनदयाल तिवारी `दीन´ के लिखे लेखों की प्रूफ रीडिंग करना। तिवारी जी ऑफिस में सबसे सीनियर थे और हमेशा ‘आशीर्वाद’ को ‘आर्शीवाद’ और ‘परिस्थिति’ को ‘परिस्थिती’ लिखते थे। ‘दीन’ उनका उपनाम था जिससे वह कविता लिखकर उसे सुनाने की रणनीतियां बनाया करते थे। गो वह मुझसे अपने लेखों की चेकिंग करवाते समय यह कहते थे कि इससे मेरा ज्ञान बढ़ेगा और जो एकाध मिस्प्रिन्तिंग हो गयी है वह ठीक हो जायेगी। जब मैं उनके लेखों को चेक करता रहता तो वह अपनी बेटी के मेधावीपने और उसके पढ़ाई में पाये पुरस्कारों के बखान करते रहते। बातों-बातों में वह मुझसे मेरी शादी के बारे में पूछने लग जाते और मैं अक्सर ऑफिस के बाहर की दीवारों को घूरने लगता। दीवारें नीली थीं। नीलू अक्सर नीले रंग के कपड़े पहनती थी। नीला मेरा पसंदीदा रंग था।

“नीला रंग भगवान का रंग होता है।´´ वह छोटी थी तो अक्सर कहती। उस समय वह नीली फ्रॉक पहने होती थी। मैं उससे पूछता कि उसे यह कैसे पता तो वह अपनी उंगली ऊपर उठा कर आसमान की ओर दिखाती थी।

`´आसमान नीला होता है और समन्दर भी। जो अनंत और सबसे ताक़तवर चीज़ें हैं वह नीली ही हो सकती हैं।´´ मैं उस समय भी उसकी फ्रॉक को देखता रहता था। वह बोलती थी तो उसकी आंखें खूब झपका करती थीं और इसके लिये उसकी मम्मी उसे बहुत डांटती थीं। उनका कहना था कि यह बहुत गंदी आदत है और उसे तुरंत इस आदत को बदल लेना चाहिये।

शुक्र है उसकी यह आदत अब भी थोड़ी बहुत बरक़रार है। और मुझसे बात करते हुये उसकी आंखें आज भी उसी तरह मटकती और झपकती हैं। मैं अक्सर उसकी ओर देखता रहता हूं और उसकी बातें कई बार नहीं सुन पाता। जब वह टोकती है और मैं जैसे नींद से जागता हूं तो वह कहती है, “अच्छा तो साहब का टॉवर चला गया था ?´´ मैं झेंप जाता हूं। वह खिलखिलाती हु पूछती है, “अब नेटवर्क में हो?  अब पूरी करूं अपनी बात?´´ मैं थोड़ा शरमा कर थोड़ा मुस्करा कर फिर से उसकी बात सुनने लगता हूं लेकिन दुबारा उसकी आवाज़ और आंखों में खोने में मुझे ज़्यादा वक़्त नहीं लगता। उसका कहना है कि मैं ऐसे रहता हूं कि मेरा कुछ बहुत क़ीमती खो गया है और किसी भी वक़्त मेरा टॉवर जा सकता है। एक बार जब वह पांचवी क्लास में थी, वह अपनी टीचर के घर से एक खरगोश का बच्चा लायी थी जो पूरी देखभाल के बावजूद सिर्फ चार दिनों में मर गया। नीलू की आंखें रो कर भारी हो गयी थीं। उसके बाद उसके बहुत रोने पर भी उसकी मां ने दुबारा कोई जानवर नहीं पाला,  खरगोश के बारे में तो बात भी करना उसके लिये मना हो गया। खरगोश सफ़ेद था और उस दिन नीले आसमान का एक छोटा सा हिस्सा सफ़ेद हो गया था। नीलू उसे ही देर तक देखती रही थी। नीले रंग का हमारी ज़िंदगी में बहुत महत्व था। मेरी और नीलू की पहली मुलाक़ात मुझे आज भी वैसी की वैसी याद है। मैं तीसरी क्लास में था और नीलू का एडमिशन इसी स्कूल में तीसरी क्लास में हुआ। उसके पिताजी का ट्रांसफर इस शहर में होने के कारण यह परिवार इस शहर में एक किराये के कमरे में आया था जिसे छोड़ कर बाद में वो लोग अपने नये खरीदे मकान में कुछ सालों बाद शिफ्ट हु

तो नीलू ने स्कूल ड्रेस की नीली फ्रॉक पहनी थी और अपनी मम्मी की उंगली पकड़े स्कूल की तरफ आ रही थी। स्कूल में प्रार्थना शुरू हो चुकी थी। मैं अकेला स्कूल जाता था क्योंकि पिताजी सुबह-सुबह फैक्ट्री चले जाते थे। मुझे उस दिन स्कूल को देर हो गयी थी और मैं तेज़ कदमों से जैसे ही स्कूल के गेट पर पहुंचा था मैंने किसी के रोने की आवाज़ सुनी। पीछे पलट कर देखा तो नीलू बार्बी डॉल जैसी नीले ड्रेस में रोती हुयी स्कूल की तरफ आ रही थी। उसकी मम्मी उसे कई बातें कह कर बहला रही थीं जैसे वह उसके साथ अपना भी नाम तीसरी क्लास में लिखा लेंगी और रोने का गंदा काम के.जी. के बच्चे करते हैं और तीसरी क्लास के बच्चों को समझदार होना चाहिये। मैं भूल गया कि मुझे देर हो रही है और मेरे कदम गेट पर ही रुक गये। जब नीलू मम्मी का हाथ पकड़े गेट पर पहुंची तो गेट में घुसने से पहले उसकी नज़र मुझ पर पड़ी जो उसे एकटक देखे जा रहा था। वह अचानक रुक गयी और उसने आगे बढ़ी जा रही अपनी मम्मी को हाथ खींच कर रोका।

“क्या है नीलू ?´´ आंटी ने झल्लाहट भरी आवाज़ में पूछा था।

“उसका ब्लू देखो, मुझे वैसा ब्लू चाहिये। मैं ये वाली फ्रॉक कल से नहीं पहनूंगी।´´ उसने मेरी पैण्ट की और इशारा कर कहा था और फिर से सुबकने लगी थी। उसकी मम्मी ने उससे वादा किया कि वह उसे मेरे वाले नीले रंग की फ्रॉक कल ही बनवा देंगी।

घर आ कर मैंने पहली बार अपनी पैण्ट को इतने ध्यान से देखा और मुझे उस पर बहुत प्यार आया। मैंने उस दिन मम्मी को अपनी पैण्ट नहीं धोने दी और पहली बार अपनी कपड़े ख़ुद धोये। बाद में पता चला कि जब वह छोटी थी और बोलना भी नहीं सीखा था तब से उसे सिर्फ़ नीले रंग से ही फुसलाया जा सकता था। उसे गोद में ले कर बाहर घुमाने जाने वाले को नीली कमीज पहननी पड़ती थी और उसके इस स्वभाव के कारण उसका नाम नीलू रखा गया। बाद में घर वालों ने स्कूल में उसका नाम अर्पिता रखा था लेकिन उसने बिना घर वालों को बताये हाईस्कूल के फॉर्म में नीलू भर दिया था। वो कमाल थी।

जब `घर की रौनक´ बढ़ानी हो

दीन जी के हिस्से का काम भी मुझे सिर्फ़ इसलिये करना पड़ता है कि मेरी उम्र सबसे कम है। उनका काम करने के एवज़ में वह मुझ पर दोहरा अत्याचार करते हुये मुझे अपनी ताज़ा बनायी हु कुछ कविताएं भी सुना डालते हैं। उनकी कविताओं में भूख, भूमंडलीकरण, बाज़ार और किसान शब्द बार-बार आते हैं और इस बिनाह पर वह मुझसे उम्मीद रखते हैं कि मैं उनकी कविताओं को सरोकार वाली कविताएं कहूं। उनकी कविताएं हमारी ही पत्रिका में छपती हैं जिसके बारे में उनका कहना है कि अगर अपने पास पत्रिका है तो फिर दूसरों को क्यों ओब्लाइज किया जाये। उनके पास अपनी कविताओं पर मिले कुछ प्रशंसा पत्र भी हैं जिनकी प्रतिक्रियास्वरूप अब वह एक कहानी लिखने का मन बना रहे हैं जिसका नाम वह ज़रूर `भूखे किसान´ या `भूखा बाज़ार´ रखेंगे।

मुझसे पहले प्रश्न उत्तर वाला कॉलम सम्पादक दिनेश क्रांतिकारी खुद देखता था और उत्तरों को बहुत चलताऊ ढंग से निपटाया जाता था। जब उसने मुझे यह ज़िम्मेदारी दी तो ऑफिस में सब पता नहीं क्यों मंद-मंद मुस्करा रहे थे। मैंने इसे एक बड़ी ज़िम्मेदारी समझ कर लिया था और लोगों की समस्याएं पढ़ते हुये मुझे वाकई उनसे सुहानुभूति होती थी। जल्दी ही मुझे लगने लगा कि मेरा यह मानसिक उलझनें सुलझाने वाला `मैं क्या करूं´ नाम का कॉलम और लोगों के लिये मज़ाक का सबब है। मैंने हर प्रश्न का उत्तर देने में अपनी पूरी ईमानदारी बरती है और कई बार ऐसा हुआ है कि प्रश्न का उत्तर न समझ में आने पर मैंने अपने फोन से किसी सेक्सोलॉजिस्ट या किसी मनोवैज्ञानिक से बात की है और उनके मार्गदर्शन से पाठक की समस्या का समाधान करने की कोशिश की है।

लेकिन अब चीज़ें बहुत हल्की हो गयी हैं। दीन जी के साथ चौहान साहब और दासगुप्ता जी यानि डिजाईनर दादा भी मुझसे मज़े लेने की फि़राक में रहते हैं। अभी कल ही मैं ऑफिस से निकल रहा था कि दादा ने मुझे अपने पास बुला लिया और बोले, “मेरी पत्नी जब भी मायके जाती है, मेरा मन सामने वाली अंजुला बनर्जी की तरफ़ भागता है। दिन तो कट जाता है मगर रात नहीं कटती। मुझे लगता है वो भी मुझे पसंद करती है। मैं क्या करूं ?´´

मुझे झल्लाहट तो बहुत हु और मन आया कि कह दूं कि बुड्ढे अपनी उमर देख लेकिन वह बॉस के सबसे करीबी लोगों में माने जाते हैं इसलिये मैंने मन मार कर कहा कि दादा आप भाभीजी को मायके मत जाने दिया करें। मुझे आश्चर्य होता है कि ऐसे लोग अपने घरों में अपने बच्चों के सामने कैसे सहज रहते होंगे। दादा के साथ दीन जी भी हंसने लगे और अपनी नयी कविता के लिये एकदम उपयुक्त माहौल देख कर दे मारी।

उनके बिना रात काटना वैसा ही है

जैसे रोटी के बिना पेट भरने की कल्पना

जैसे चांद के बिना रात और जैसे सचिन के बिना क्रिकेट

वह आयें तो बहार आये और वह जायें तो बहार चली जाये

मगर हम हार नहीं मानेंगे

कहीं और बहार को खोजेंगे

गर उनके आने में देर हुयी

तो बाहर किसी और को …….

बाद के शब्द और लाइनें सुनाने लायक नहीं थीं। दादा ने कहा कि कुछ शब्द अश्लील हैं तो उनका कहना था कि ज़िंदगी में बहुत कुछ अश्लील है और अगर हम जिस भाषा में बात करते हैं उस भाषा में कविता न लिखें तो वह कविता झूठी है। कविता को नयी और विद्रोही भाषा की ज़रूरत है। मैंने यह कहने की सोची की इस भाषा में सिर्फ़ आप ही बात करते हैं लेकिन कह नहीं पाया। उनके बाल सफे़द थे और उनका अनुभव मुझसे ज़्यादा था जिससे दुनिया में यह मानने का प्रचलन था कि उनमें और मुझमें कोई तुलना होगी तो मैं ही हमेशा गलत होउंगा। सफेद बालों वाले लोग किसी भी बहस में हारने पर अपने सफेद बालों का वास्ता दिया करते थे और यह उम्मीद करते थे कि अब इस अकाट्य तर्क के बाद बहस उनके पक्ष में मुड़कर ख़त्म हो जानी चाहि

मैं जब नीलू के घर पहुंचा तो वहां काफ़ी चहल-पहल थी। मुझे देखते ही आंटी ने मुझसे दौड़ कर थोड़ी और मिठाई लेकर आने को कहा। उन्होंने कहा कि एक ही तरह की मिठाई आई है और उन्हें काजू वाली बर्फी चाहिये। मैं बर्फी लेकर पहुंचा तो पता चला कुछ मेहमान आये थे और सब उनकी खातिरदारी में लगे थे। मैं मिठाई देकर थोड़ी देर खड़ा रहा कि कोई अपने आप मुझे नीलू का पता बता दे। हॉल में टीवी चालू था और उसे कोई नहीं देख रहा था। उस पर एक विज्ञापन आ रहा था जिसे देख कर मेरे होंठों पर मुस्कराहट आ गयी। `जब घर की रौनक बढ़ानी हो, दीवारों का जब सजाना हो, नेरोलक नेरोलक….´। मुझे यह भी याद आया कि हमारे घर में चूना होने का काम पिछले तीन दीवालियों से टलता आ रहा है। शायद अगली दीवाली में मैं और उद्भ्रांत अपने हाथ में कमान लेकर चूना पोतने का काम करें और अपने छोटे से कमरे को सफ़ेद रंग में नील डालकर रंग डालें।

आंटी मेरे पास आकर खड़ी हुईं और इस नज़र से देखा जैसे मिठाई देकर वापस चले जाना ही मेरा फ़र्ज़ था। मैंने नीलू के बारे में पूछा तो उन्होंने छत की ओर इशारा किया और मुझे हिदायत दी कि मैं जल्दी उसे लेकर नीचे आ जाऊं। मैं छत पर पहुंचा तो नीलू अपना पसंदीदा काम कर रही थी। उसका आसमान देखना ऐसा था कि वह किसी से बात कर रही थी।

“आओ साहब। कैसे हो ?´´ उसने सूनी आंखों से पूछा।

“नीचे भीड़ कैसी है ?´´ मैंने उसके बराबर बैठते हुये पूछा।

“कुछ नहीं, मां के मायके से कुछ लोग आये हैं मुझे देखने…..।´´ मेरा दिल धक से बैठ गया। मेरे मन में एक पाठक का सवाल कौंध गया, “मैं जिस लड़की से प्यार करता हूं वह मुझे बचपन से जानती है। मुझे वह अपना सबसे अच्छा दोस्त कहती है लेकिन मैं उसे बचपन से चाहता हूं। मैं उसे इस डर से प्रपोज नहीं करता कि कहीं मैं उसकी दोस्ती खो न दूं। मैं क्या करूं ?´´ मैंने ऐसे कई जवाबों के व्यक्तिगत रूप से देने के बाद कल ही पत्रिका में एक जवाब दिया था। मैंने उसके जवाब में लिखा था कि उसे इतना रिस्क तो लेना ही पडे़गा। लेकिन मैं जानता हूं किसी को कुछ करने के लिये कह देना और खुद उस पर अमल करना दो अलग-अलग बातें हैं। हम दोनों एक दूसरे के हमेशा से सबसे क़रीब रहे हैं और अपन सारी बातें एक दूसरे से बांटते रहे हैं। लेकिन कभी शादी और एक दूसरे के प्रति चाहत का इज़हार…कम से कम मेरे हिम्मत से बाहर की चीज़ है।

“कौन है लड़का..?´´   मेरे गले से मरी सी आवाज़ निकली। उसने बताया कि उसकी मम्मी की बहन की ननद का लड़का है और इंजीनियर है। मुझे अपने उन सभी पाठकों के पत्र याद आ गये जिनकी प्रेम कहानियों के खलनायक इंजीनियर हैं। कितने इंजीनियर होने लगे हैं आजकल ?   सब लोग आ गये हैं और वह कल आयेगा।

“मीनू बता रही थी बहुत लम्बा है लड़का।´´ उसने मेरी ओर देखते हुये कहा। उसकी आंखें बराबर मटक रही थीं और पलकें खूब झपक रही थीं।

“लम्बे लड़कों में ऐसी क्या ख़ास बात होती है ?“ मैंने अपने सवाल की बेवकूफ़ी को काफ़ी नज़दीक से महसूस किया।

“होती है ना, वे जब चाहें हाथ बढ़ा कर आसमान से तारे तोड़ सकते हैं।´´ उसने फिर से नज़रें आसमान की ओर उठा दीं।

“तारे तोड़ने के लिये तो मैं तुम्हें गोद में उठा लूं तो भी तोड़े ही जा सकते हैं। आखिर कितनी हाइट चाहिये इसके लिये…।´´ मैंने कुछ पल थम कर धीरे से कहा। यह वाक्य मेरे आत्मविश्वास को अधिकतम पर ला कर खींचने का नतीजा था।

“तो कब उठाओगे साहब जब आसमान के सारे तारे टूट जायेंगे तब…?´´ उसने पलकें मटकायीं। मुझे न तो अपने कहे पर विश्वास हुआ था और न उसकी बात पर जो मेरे कानों तक ऐसे पहुंची थी मानों मैं किसी सपने में हूं और बहुत दूर निकल चुका हूं। उसकी आवाज़ रेशम सी हो गयी थी और आसमान का रंग काले से नीला हो गया था। मैंने हिम्मत करके उसकी हथेली पर अपनी हथेली रख दी।

“आसमान का रंग बदल रहा है न ?´´ मैंने उससे पूछा।

“हां साहब,  आसमान का रंग फिर से नीला हो रहा है। पता है नीले रंग की चीज़ें जीवन देती हैं।´´ उसने मेरी हथेली पर अपनी दूसरी हथेली रखते हुये कहा। मेरे सामने बहुत सारे दृश्य चल रहे थे। मेरी नयी सायकिल जो कभी खरीदी नहीं गयी और उस पर बैठी हुयी नीलू। नीलू के फ्रॉक में जड़े ढेर सारे सितारे जो धीरे-धीरे बिखर कर आसमान में उड़ रहे हैं। मैं उन्हें फिर से पकड़ कर नीलू की फ्रॉक में टांक देना चाहता हूं। मैं जैसे एक सपने में दूसरा सपना देखने लगा हूं।

“तुम्हारे पास नीली साड़ी है ?´´ मैंने अपनी आवाज़ इतने प्यार से उसे दी कि कहीं टूट न जाये। उसकी आवाज़ भी शीशे जैसी थी जिस पर `हैंडल विद केयर´ लिखा था।

“बी. एड. वाली है न….लेकिन वह बहुत भारी है साहब। तुम मेरे लिये एक सपनों से भी हल्की साड़ी ले आना।´´

“तुम सिर्फ़ नीला रंग पहना करो नीलू।´´

“मैं सिर्फ़ शाम को नीले रंग पहनना चाहती हूं साहब क्योंकि दिन में तुम आते ही नहीं।´´

“मैं कहीं जाउंगा ही नहीं कि मुझे वापस आना पड़े। मुझे कहीं जाने में डर लगता है क्योंकि मुझे लौट कर तुम्हारे पास आना होता है।“ मैंनें उसकी हथेलियां महसूस कीं। मुझे डर लगा कि उसके घर का कोई छत पर आ न जाय।

“मुझे कुछ कहना है तुमसे साहब।“ उसने रेशम सी धीमी आवाज़ में कहा।

“क्या…?´´

“उसके लिये मुझे अपनी आंखें बंद करनी होंगी। मैं आंखें बंद करती हूं, तुम मेरी ओर देखते रहना। मेरी आंखों में देखोगे तो तुम्हारा टॉवर चला न जाये इसलिये…।´´ उसने मुस्करा कर अपनी आंखें बंद कीं और मैंने उसकी हथेलियां थाम लीं। उसका नर्म हाथ थामते हुये मैंने सोचा कि मेरी ज़िंदगी को उसकी हाथ की तरह की कोमल और नर्म होना चाहिये। मैं उसकी हथेलियां थामे बैठा रहा और वह कहती रही। नया साल मेरे लिये दुनिया की सबसे बड़ी ख़ुशी लेकर आया था। मैंने मन में सेाचा कि कल ही वह प्यारा सा कार्ड इसे दे दूंगा जो मैं इस साल उसे देने और अपने दिल की बात कहने के लिये लाया था…साथ ही पिछले सालों के भी अनगिनत कार्ड।

“तुम अगर कभी कोई सायकिल खरीदना तो मुझे उस पर बिठाना और हम दोनों जंगल में खरगोश देखने चलेंगे। जब तुम्हें कुछ लिखने का मन करेगा तो मैं तुम्हारे सामने बैठ जाउंगी और अपनी आंखें बंद कर लूंगी ताकि तुम मुझे देखते हुये टॉवर में रहकर कुछ ऐसा लिखो कि उसके बाद जीने की कमी भी पड़ जाये तो कोई ग़म न हो। तुम जब कोई कविता लिखना तो ऐसा लिखना कि उसे छुआ जा सके और उसे छूने पर या तो बहुत जीने का मन करे या फिर दुनिया को छोड़ देने का….तुम हमेशा नीले रंग में लिखना….।´´

वह बोलती जा रही थी और मुझे पहली बार पता चला कि मैं उसकी आंखों में ही नहीं खोता था। उसके चेहरे से जो नीली मुकद्दस रोशनी मेरी हथेलियों पर गिर रही थी मैं उसमें भी ऐसा खो गया था कि मुझे उसकी आवाज़ किसी सपने से आती लग रही थी। अब मुझे कोई डर नहीं था कि उसके घर से कोई छत पर आ जायेगा। उसके घर में कोई नहीं था। मुहल्ले में कोई नहीं था। पूरी दुनिया में कोई नहीं था।

हम एक नीले सपने में थे और आसमान का रंग रात में भी नीला था।

उत्तर प्रदेश

मुझे बैठने के लिये एक क्यूबिकल जैसा कुछ मिला था जिसे तीन बाई तीन का कमरा भी कहा जा सकता था क्योंकि उसकी बाक़ायदा एक छत थी और एक बड़ी सी खिड़की भी। उसे देख कर लगता था कि इसे बाथरुम बनवाने के लिये बनाया गया होगा और बाद में किसी वास्तुशास्त्री के कहने पर स्टोर रूम में रूप में डेवलप कर दिया गया होगा। कमाल यह था कि बाहर से देखने पर यह सिर्फ़ एक खिड़की दिखायी देती थी और अंदाज़ा भी नहीं हो पाता था कि इस खिड़की के पीछे एक कमरे जैसी भी चीज़ है। इसका दरवा़जा पिछली गली में खुलता था और हमेशा बंद रहता था। ऑफि़स में घुसने के बाद खिड़की ही इसमें घुसने का एक ज़रिया थी और जब मैं उछल कर खिड़की के रास्ते अपने केबिन में दाखिल होता था तो चोर जैसा दिखायी देता था। जब सुबह मैं ऑफिस पहुंचा तो गेट पर ही दीन जी मिले और सिगरेट का धुंआ छोड़ते हुये उन्होंने मेरी चुटकी ली।

“सर, मेरी उम 56 साल है। मुझे अपने ऑफिस की एक लड़की से इश्क हो गया है जो सिर्फ़ 22-23 साल की है। मैं उसका दीवाना हो रहा हूं और उससे अपने दिल की बात कहना चाहता हूं लेकिन वह मुझे अंकल कहती है। मैं उसे कैसे अपना बनाऊं ?´´ मैंने देखा दीन के चेहरे पर शर्म संकोच के कहीं नामोनिशान तक नहीं थे। क्या इस उम्र के सारे बुड्ढे ऐसे ही होते हैं ? क्या घर पर ये अपनी बेटी को भी इसी नज़र से देखता होगा ? आखिरकार इसने पूरी उम्र किया क्या है जो इसकी उम्र इतनी तेज़ी से निकल गयी है कि इसे अंदाज़ा भी नहीं हुआ। इसी समय इत्तेफ़ाक हुआ कि मिस सरिता सरीन ऑफिस में दाखिल हुईं और दरवाज़े पर हमारा अभिनंदन करके अंदर चली गयीं।

“हैलो अनहद, हैलो अंकल।´´

दीन जी का मेरा मज़ाक उड़ाने का पूरा बना-बनाया मूड चौपट हो गया और वह दूसरी ओर देख कर दूसरी सिगरेट जलाने लगे।

मैं अंदर पहुंचा तो एक और आश्चर्य मेरे इंतज़ार में था। मेरे केबिन कम दड़बे की खिड़की पर पता नहीं कोयले से या किसी मार्कर से मोटे-मोटे हर्फों में लिखा था “उत्तर प्रदेश´´। मैंने उसे मिटाने का कोई उपक्रम नहीं किया और कूद कर अंदर चला गया। मेरी मेज़ पर ढेर सारे प्रश्न पडे़ थे जिनके उत्तर मुझे देने थे। उस दिन के बाद से मेरे केबिन को `उत्तर प्रदेश´ के नाम से जाना जाने लगा बल्कि कहा जाये तो उस खिड़की का नाम `उत्तर प्रदेश´ रख दिया गया था। मुझे सर्कुलेशन और सबक्रिप्शन विभाग से पता चला कि मेरे कॉलम की खूब तारीफ़ें हो रही हैं और इसकी वजह से पत्रिका की बिक्री भी बढ़ रही है लेकिन इस खबर का अपने हक में कैसे उपयोग करना है, मुझे समझ में नहीं आया। हां, यह ज़रूर हुआ कि दीन जी और दादा के अलावा मिस सरीन, गोपीचंद, और एकाध बार तो मेरे संपादक भी (पीने के बाद जोश में आ कर) एकाधिक बार मेरे केबिन में आये और अपने-अपने प्रश्नों के उत्तर जानने चाहे। मिस सरीन ने एक बार पूछा- “सर मेरी समस्या यह है कि मेरे घर वाले मेरी शादी करना चाहते हैं और मैं अभी शादी नहीं करना चाहती। मुझे अपना कैरियर बनाना है और जीवन में बहुत आगे जाना है। मैं शादी जैसी चीज़ में विश्वास नहीं करती। मैं क्या करूं ?´´ मैं थोड़ी देर तक उनकी मुस्कराहट को पढ़ने की कोशिश करता रहा और जब मुझे लगा कि मज़ाक में ही सही, वह इस प्रश्न का उत्तर चाहती हैं तो मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि शादी कोई रुकावट नहीं होती, सारी रुकावटें दिमाग में होती हैं और इन्हें अगर जीत लिया जाये…..। मेरी बात खत्म होने से पहले ही दीन जी और दादा दरवाज़े पर आकर खड़े हो गये और चिल्ला-चिल्ला कर हंसने लगे। मैं झेंप गया और सरीन अपनी कुर्सी पर चली गयीं।

एक रात जब मुझे निकलने में थोड़ी देर हो गयी थी और सम्पादक महोदय के केबिन में तरल-गरल का दौर शुरू हो चुका था कि मेरी खिड़की पर खटखट हुयी। मैंने देखा तो मेरे सम्पादक लड़खड़ाते हुये मेरी खिड़की पर खड़े थे। मैं तुरंत एक फौजी की तरह उठा और मैंने सैल्यूट भर नहीं मारा।

“यार अनहद, मेरी बीवी अक्सर मुझे बिस्तर पर नाकाम होने के लिये ताने मारती है यार। मैंने कई दवाइयां करके देख लीं, मुझे लगता है इसका कोई मनोवैज्ञानिक कारण है, तुम कुछ बता सकते हो ?´´ मैं अभी कुछ सोच ही रहा था कि मेरे आदरणीय सम्पादक महोदय ने अपनी पैण्ट की जिप खोल ली और एक घिनौनी हरकते करते हुये बोले, “देखो तो कोई कमी तो नहीं दिख रही ना, शायद कोई मनोवैज्ञानिक कारण होगा….।´´ मैंने नज़रें चुराते हुये कहा, “हो सकता है सर।´´ वे पूरी रौ में थे, “यार इसको टेस्ट कर लेते हैं, ज़रा कूद के बाहर आओ और मिस सरीन को फोन करके कहो न कि सर ने बुलाया है ज़रूरी काम है….आज इसकी टेस्टिंग उस पर ही कर लेते हैं। साला मेरी बूढ़ी बीवी से सामने सर ही नहीं उठाता और सरीन का नाम लेते ही देखो फन उठाये खड़ा है।´´ अपनी कही गयी इस मनमोहक बात पर उन्हें खुद इतना मज़ा आया कि वह हंसते-हंसते ज़मीन पर ही बैठ गये। उस समय दीन जी मेरे लिये तारणहार बन कर आये और दादा के साथ आ कर उनको उठाया और सीट पर बिठाया। मैं अगले पांच मिनटों में अपना काम समेट कर वहां से निकल गया।

पिताजी का रूटीन हो गया था कि सुबह नहा-धो कर खा-पी कर बंद फैक्ट्री के लिये ऐसे निकलते थे जैसे काम पर ही जा रहे हों। भले ही जा कर फैक्ट्री के बंद फाटक पर धरना ही देना हो, उन्हें देर कतई मंजूर नहीं थी। फैक्ट्री के सभी मज़दूर फाटकों पर धरने पर बैठते और शाम तक किसी चमत्कार का इंतज़ार करते। यह चीनी मिल 90 साल पुरानी थी जिसे नूरी मियां की मिल कहा जाता था। मिल के शुरू होने के कुछ दिन बाद नूरी मियां का इंतकाल हो गया और इसे कुछ दशकों बाद तत्कालीन सरकार ने नूरी मियां के परिवार की रज़ामंदी से अधिगृहित कर लिया था। अच्छी-खासी चलती मिल को पिछली प्रदेश सरकार ने बीमार मिल बता कर इस पर ताला डाल दिया था। सरकारें हर जगह ताला डाल रही थीं और पता नहीं इतने ताले कहां से लाये जाते थे क्योंकि अलीगढ़ में तो तालों का कारोबार कम होता जा रहा था, वहां और कारोबार बढ़ने लगे थे। पिताजी और सभी मज़दूर पिछले सात साल से इस उम्मीद में धरने पर बैठे थे कि कभी तो मिल चालू होगी और कभी तो वे फिर से अपने पुराने दिनों की झलक पा सकेंगे। लेकिन इस सरकार के फरमान से उनकी रही-सही हिम्मत डोलने लगी थी।

एक दिन धरने वाली जगह पर अंसारी पहुंच गया और सभी मज़दूरों ने उसे घेर लिया। सबने उससे अपने दुखड़े रोने शुरू किये तो वह खुद वहीं धम से बैठ गया और रोने लगा। उसने पिताजी के कंधे पर हाथ रखा और सुबकने लगा। पिताजी सहित सभी मज़दूरों ने अपने मालिक का यह रूप पहली बार देखा था। उन्हें नया-नया लगा और वे और क़रीब खिसक आये। अंसारी ने रोते-रोते टूटे-फूटे शब्दों में जो कुछ बताया वह मज़दूरों की समझ में पूरी तरह से नहीं आ सकता था लेकिन पिताजी सुपरवाइज़र थे और उन्हें लगता था कि सुपरवाइज़र होना दुनिया का सबसे बड़ा ज़िम्मेदारी का काम है। उनका मानना था कि सुपरवाइज़र को सब कुछ पता होना चाहिये। पता नहीं वह अंसारी की बातों के कितने टुकड़े समेट पाये थे और हम तक जो टुकड़े उन्होंने पहुंचाये उनमें कितनी सच्चाई थी और कितना उनका अंदाज़ा। मैं उनकी किसी भी बात की सत्यता का दावा नहीं पेश कर रहा लेकिन उनकी बातें बताना इसलिये ज़रूरी है कि उस दिन पिता को पहली बार इतना टूटा हुआ देखा था। अंसारी के टूट जाने ने सभी मज़दूरों की उन झूठी उम्मीदों को तोड़ दिया था जिसकी डोर से बंधे वे रोज़ पिछले सात सालों से बिला नागा मिल की ज़मीन पर मत्था टेकते थे।

“अंसारी साहब की मिल 52 बीघे में फैली है और उसकी कीमत एक अरब रुपये से ऊपर है। सरकार ने पिछले सात सालों से उनकी मिल बंद करा दी है और अब बताओ एक उद्योगपति को यह मिल सिर्फ पांच करोड़ रुपये में बेची जा रही है। दस करोड़ का तो अंसारी साहब पर कर्जा हो गया है। क्या होगा उनका और क्या होगा मज़दूरों का….उनके परिवारों का…।´´ पिताजी बहुत परेशान थे। वे बहुत भोले थे, उन्हें अपने परिवार से ज़्यादा मज़दूरों की चिंता थी। वे इस बात को मान ही नहीं सकते थे कि वे भी एक अदने से मज़दूर हैं। मैंने सोचा कि अगर किसी अच्छे अखबार में नौकरी मिल जाती तो हमारी बहुत सी समस्याएं हल हो सकती थीं लेकिन अच्छे अखबार में नौकरी के लिये किसी अच्छे आदमी से परिचय होना ज़रूरी था और सभी अच्छे आदमी राजनीति में चले गये थे।

उदभ्रांत के लिये देखे गये हमारे सपने भी टूटते दिखायी दे रहे थे। उसने बी.एस सी. करने के बाद हमारी मर्ज़ी के खिलाफ एम.एस सी छोड़कर समाजशास्त्र से एम.ए. करने का विकल्प चुना था और अब जो रास्ते थे मुझसे ही होकर जाते थे। अपना अधिकतर समय वह बाबा के साथ बिताया करता था और बाबा की सोहबत की वजह से उसे अजीब-अजीब किताबें पढ़ने का चस्का लग चुका था। मैंने अपनी कविताई के शुरुआती दिनों में जो किताबें बटोरी थीं उनमें मुक्तिबोध और धूमिल जैसे कवियों की भी किताबें थीं। वह पता नहीं कब मेरी सारी लाइब्रेरी चाट चुका था और आजकल अजीब मोटी-मोटी किताबें पढ़ता था जिनमें से ज़्यादातर को पढ़ने की कोशिश करने पर पिताजी को सिर्फ प्रगति प्रकाशन, मास्को ही समझ में आता था। मैंने कभी उसकी किताबें पढ़ने की कोशिश नहीं की थी। अव्वल तो मेरे पास समय नहीं था और दूसरे मैं पिताजी जितना चिंतित भी नहीं था। आखिर घिसट कर ही सही, घर का ख़र्च जैसे-तैसे चल ही रहा है और फिर जो भी हो, उदभ्रांत का मन आखिर पढ़ाई में ही तो लग रहा है, साइंस न सही आर्ट्स ही सही। एक बार तो उसने मुझे भी कहा कि मैं एम. ए. की पढ़ाई के लिये प्राइवेट ही सही फॉर्म भर दूं। मैंने मुस्करा कर मना कर दिया और उससे कहा कि मेरे जो सपने हैं उससे ही होकर गुज़रते हैं।

नीला रंग बहुत ख़तरनाक है

हमारे पूरे शहर को नीली झंडियों, नीली झालरों और नीले बैनरों से पाटा जा रहा था। हम जिधर जाते उधर मुस्कराता हुआ नीला रंग दिखायी देता। पोस्टरों में नीले रंग की उपलब्धियां गिनायी गयी थीं कि नीले रंग की वजह से कितने लोगों की ज़िंदगियां बन गयीं, नीले रंग की वजह से कितने घरों के चूल्हे जलते हैं और इस महान नीले रंग ने कितने बेघरों को घर और बेसहारों को सहारा दिया है। इस नीले रंग का जन्मदिन आने वाला था और यह एक बहुत शान का मौका था, हालांकि कुछ अच्छे लोगों ने कहा कि यह पैसे की बर्बादी और झूठा दिखावा है।

पिताजी के साथ सात साल से बराबर धरने पर बैठने वाले मज़दूरों को धरने की आदत पड़ गयी थी। उनमें से कुछ जो चतुर थे उन्होंने अपने लिये दूसरी नौकरियां खोज ली थीं लेकिन ज़्यादातर मज़दूर आशावादी थे और उन्हें लगता था कि वे जब किसी सुबह सो कर उठेंगे तो मिल खुल चुकी होगी और उनका पिछले सालों का वेतन जोड़ कर दिया जायेगा। उनके पास एक साथ ढेर सारे पैसे हो जाएंगे और जिं़दगी बहुत आराम से चलने लगेगी। उनका सोचना ऐसा ही था जैसा मैं और उदभ्रांत ज़मीन पर नक्शा बना कर अपने-अपने कमरों की कल्पना करते थे जिसे न बनना था न बना। जिस दौरान पूरा शहर दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था, पिताजी और उनके साथ के मज़दूरों ने एक योजना बनायी। उनका मानना था कि राज्य का जो सबसे बड़ा हाकिम है उसके पास अपना दुखड़ा लेकर जायेंगे और उनसे सवाल पूछेंगे कि आखिर उनके परिवार वालों की भुखमरी का ज़िम्मेदार कौन है। हाकिम को हाथी की सवारी बहुत पसंद थी। उसका हाथी बहुत शांत था और कभी किसी पर सूंढ़ नहीं उठाता था। हाथी के बारे में कोई भी बात जानने से पहले संक्षेप में उसका यह इतिहास जानना ज़रूरी है कि उसे लम्बे समय तक राजाओं ने अपने पंडित पुरोहितों की मदद से ज़बरदस्ती पालतू बना कर रखा था और उस पर खूब सितम ढाये थे। बाद में एक ऐतिहासिक आंदोलन के ज़रिये हाथी को अपने वजूद का एहसास हुआ। उम्मीदें जगीं कि अब इस आंदोलन से जिन्हें पीछे धकेल दिया गया है, उन्हें आगे आने में मदद मिलेगी। सबने हाथी की ओर उम्मीद भरी नज़रों से देखा। जब हाथी को अपनी ताकत का एहसास होना शुरू हुआ और इसने अपने लूट लिये गये वजूद को वापस पाने की कोशिशें शुरू की ही थीं कि हाकिम जैसे लोग इस पर सवार होने लगे और अब हाथी की सारी सजावट और हरकतें हाकिम की कोशिशों का नतीजा थीं। हाथी अब अपनी सजावट के बाहर आने के लिये तड़फड़ाता रहता था और हाकिम की कोशिश यही थी कि हाथी अपने फालतू अतीत को सिर्फ़ तभी याद करे जब उसे लोगों की संवेदनाएं जगा कर उनसे कहीं मुहर लगवानी हो या कोई बटन दबवाना हो। पिताजी जैसे लोगों की सारी उम्मीदें हाथी से जुड़ी थीं लेकिन हाकिमों की वजह से लगता था कि सब बेमानी होता जा रहा है। हाथी के दो दांत बाहर थे और वे काफी ख़ूबसूरत थे। वे पत्थर के दांत थे और किसी जौहरी से पूछा जाता तो वह शर्तिया बताता कि ये इतने महंगे पत्थर थे कि इतने में कई अस्पताल या स्कूल बनवाये जा सकते थे या फिर कई गांवों को कई दिनों तक खाना खिलाया जा सकता था। अंदर के दांतों का प्रयोग खाने के लिये किया जाता था और हाथी को खाने में हर वह चीज़ पसंद थी जो रुपयों से ख़रीदी जा सकती थी। हाथी को उन चीज़ों से कोई मतलब नहीं था जो सीधे-सीधे दिखायी नहीं देती थीं जैसे संवेदनाएं, भावनाएं, मजबूरियां, टूटना और ख़त्म होना आदि आदि। हाथी बहुत ताक़तवर था और उसे यह बात पता थी इसीलिये वह कभी किसी के सामने सूंढ़ नहीं उठाता था। वह विनम्र कहलाया जाना पसंद करता था और उसे अपनी अनुशासनप्रिय छवि की बहुत परवाह थी। हाथी की पीठ पर विकास का हौदा रखा रहता था जो हमेशा ख़ाली रहता था लेकिन हाथी उसके बोझ तले ख़ुद को हमेशा दबा हुआ दिखाना पसंद करता था। हाथी कभी-कभी मज़ाक के मूड में भी रहता था। जब वह अच्छे मूड में होता तो उस दिन महावत को यह चिंता नहीं हुआ करती थी कि हाथी कभी भी उसे नीचे पटक सकता है। हाथी के महावत बदलते रहते थे और महावतों की जान हमेशा पत्ते पर रहती थी क्योंकि वह जानते थे कि हाथी उन्हें सिर्फ़ अच्छे मूड में ही पीठ पर बिठाता है वरना उनमें से किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि वह हाथी की पूंछ भी छू सकें। हाथी को जनता के पैसे से लाया गया था और उसका भोजन और ज़रूरत की अन्य चीज़ें भी जनता के धन से आती थीं लेकिन यह बात हाथी को पता नहीं थी। उसे शायद यह बताया गया था कि इस धन पर उसका और सिर्फ़ उसका ही हक़ है। वह अपने भविष्य के लिये अच्छी बचत कर रहा था और इसके दौरान वह अपनी ख्याति को लेकर भी बहुत चिंतित रहता था। इसके लिये वह कुछ भी करता रहता था और इस दौरान कई बार मज़ाकिया मूड में होने पर वह न्याय के लिये बनायी गयी संस्थाओं का भी उपहास करने से नहीं चूकता था।

मैंने एक अख़बार में चुपके से बात की थी और एक अच्छे अख़बार से मुझे आश्वासन भी मिला था। मैं जब नीलू के घर पहुंचा तो आंटी ने मेरी ओर बहुत टेढ़ी नज़रों से देखा। मैं चुपचाप थके कदमों से ऊपर पहुंचा तो नीलू आसमान की ओर नहीं देख रही थी। उसकी आंखों में ख़ालीपन था और उसकी शलवार कमीज़ नीली थी। मैंने आसमान की ओर नहीं देखा। मैं पता नहीं क्यों कुछ सहमा और ख़ाली सा महसूस कर रहा था, बिल्कुल नीलू की आंखों की तरह। वह ख़ामोशी वहां मौजूद हवा में घुल रही थी और हवा भी उदास हो रही थी। वह छत पर लगे सेट टॉप बॉक्स की ओर एकटक देखे जा रही थी और मुझे याद आया कि मेरे घर में सेट टॉप बॉक्स नहीं है। मेरे घर में न ही फ्रिज है, न ही वाशिंग मशीन और मैं किराये के घर में रहता हूं। मैं जानता हूं इन बातों का इस समय कोई मतलब नहीं है और मुझे तुरंत जाकर नीलू की उदासी का कारण जानने की कोशिश करनी चाहिये लेकिन मेरी हर उदास तुलना तभी होती है जब कोई उदास लम्हा मेरी ज़िंदगी में आ कर इसे और दुश्वार बनाने वाला होता है। मुझे पता नहीं क्यों ये लग रहा है कि जो सवाल मेरे मन में नीलू के घर को देख कर उठ रहे हैं, वे कुछ देर में मेरे सामने आने वाले हैं। नीलू ने मुझे तब तक नहीं देखा जब तक मैं उसके एकदम क़रीब जाकर खड़ा नहीं हो गया।

“अरे साहब….कब आये ?´´ उसकी आवाज़ में जो टूटन थी वह मैंने पिछले कुछ समय में पिताजी की आवाज़ में छोड़ कर दुनिया में और किसी की आवाज़ में नहीं महसूस की थी। उसका साहब कहना मेरे लिये ऐसा था कि मैंने ताजमहल बनाया है और मुझे सबके सामने उसके निर्माता के रूप में पुकारा जा रहा है। मगर उसकी आवाज़ टूटी और बिखरी हुयी थी और उसके टुकड़े इतने नुकीले रूप में बाहर आ रहे थे कि मुझे चुभ रहे थे। एक टुकड़ा तो मेरी आंखों में आ कर ऐसा चुभा कि मेरी आंखों में पानी तक आ गया। मेरी धड़कन धीरे-धीरे डूबती जा रही थी और लग रहा था मैं देर तक खड़ा नहीं रह पाउंगा। उसने मेरी तनख़्वाह पूछी और उदास हो गयी। मैंने आसमान का रंग देखा और उदास हो गया। चांद ने हम दोनों के चेहरे देखे और उदास हो गया।

लड़के ने नीलू को देखकर हां कह दी थी और दो परिवारों के महान मिलन की तैयारियां होने लगी थीं। नीलू ने मेरी तनख़्वाह पूछी थी और भरे गले से मुझसे कहा था कि तुम 2010 में 1990 की तनख्वाह पर कब तक काम करते रहोगे और अपनी उंगलियां बजाने लगी थी। मैंने उससे कहा कि बजाने से उंगलियों की गांठें मोटी हो जाती हैं। उसने कहा कि मैं कुछ भी कोशिश नहीं कर रहा हूं और एक भाग्यवादी इंसान हूं। मैंने उसे बताया कि एक बड़े अखबार में मेरी नौकरी की बात चल रही है और जल्दी ही मुझे पत्रिका के उन अनपढ़ अधेड़ों से छुटकारा मिल जायेगा। में नीलू के बगल में बैठा था और उसने धीरे से मेरी हथेली थाम ली।

“यह सच है ना साहब कि हमारे आने से पहले भी दुनिया इसी तरह चल रही थी।´´ उसकी आवाज़ की अजनबियत को पहचानने की कोशिश में मैंने सहमति में उसकी हथेलियां दबायीं।

“और हमारे जाने के बाद भी सब कुछ ऐसा ही चलता रहेगा ना ?´´ उसने पूछते हुये पहली बार आसमान को देखा। बादल थे या धुंए की चादर कि आसमान का रंग काला दिखायी दे रहा था और लगता था किसी भी पल कहीं भी भूकम्प आ सकता है।

“हां, शायद।´´

“मेरा दिल नहीं मानता साहब।´´

“क्या ?´´

“कि हमने अपने आसपास की दुनिया को इतना ख़ूबसूरत बनाया है, अपने हिस्से के आसमान को, ज़मीन को, हवा को, अपनी छोटी सी दुनिया को और हमारे सब कुछ ऐसे ही छोड़ कर चले जाने पर किसी को कोई फ़र्क ही नहीं पड़ेगा। कितनी स्वार्थी हवा है न हमारे आसपास ?´´

प्रश्न– मैं एक लड़की से प्यार करता हूं, वह लड़की भी मुझसे प्यार करती है लेकिन हमारी हैसियत में बहुत फर्क है। मैं बहुत गरीब घर से हूं और वह अमीर है। मैं उसके बिना नहीं जी सकता लेकिन उसके घर वाले हमारी शादी को कभी राज़ी नहीं होंगे। मैं क्या करुं ?

उत्तर– आप दोनों भले ही एक दूसरे से प्यार करते हों, शादी एक बहुत बड़ा निर्णय होता है। आपको अपने संसाधन देखने होंगे कि क्या आप शादी के बाद अपनी पत्नी के सारे खर्चे आसानी से उठा सकेंगे। आप उसको दुखी नहीं कर सकते जिससे प्रेम करते हों। आपको अपने परिवार के बारे में भी सोचने की ज़रूरत है, सिर्फ़ अपनी खुशी के बारे में सोच कर स्वार्थी नहीं बना जा सकता।

मैं चुप रहा। मेरे पास नीलू से कहने के लिये कुछ नहीं था, कुछ बची हुयी मज़बूत कविताएं और एक बची हुयी कमज़ोर उम्र थी मेरे पास जो उसे मैं नहीं देना चाहता था। वह निश्चित रूप से इससे ज़्यादा की हक़दार थी, बहुत ज़्यादा की। मेरी बांहें बहुत छोटी थीं और तक़दीर बहुत ख़राब, मैं उन्हें जितना भी फैलाऊं, बहुत कम समेट पाता था।

मैंने पूछा कि क्या शादी की तारीख पक्की कर ली गयी है तो उसने कहा कि अगर दुनिया के सारे लोग एक के ऊपर एक खड़े कर दिये जायें तो भी चांद पर नहीं पहुंच सकते। चांद बहुत दूर है। मैंने उससे उसकी तबीयत के बारे में पूछा और उसने मेरे परिवार के बारे में। हमने चार बातें कीं, तीन बार एक दूसरे की हथेलियां सहलायीं, दो बार रोये और एक बार हंसे। उसके थरथराते होंठ मैंने एक बार भी नहीं चूमे, शायद यही वह पाप था जिसके कारण नीचे उतरते ही मेरा बुरा समय शुरू हो गया। मैं चाहता था कि सबकी नज़रें बचा कर निकल जाऊं। अंकल हॉल में अखबार पढ़ रहे थे और आंटी बैठ कर स्वेटर बुन रही थीं। दोनों ही ऐसे काम कर रहे थे जो आमतौर पर रात में नहीं किये जाते और मैं समझ गया था कि आज मुझे नीलू की आंखों के साथ उसके होंठ भी चूमने चाहिये थे। उसके होंठों के आमंत्रण और और आंखों के निमंत्रण को मैंने जान-बूझ कर नज़रअंदाज़ किया था क्योंकि उस वक़्त मैं नीलू को इसके अलावा कोई और नुकसान नहीं पहुंचा सकता था। उसकी उपेक्षा करने का मेरे पास यही तरीका था। मेरे मन में कहीं किसी मतलबी और नीच जानवर ने धीमे से कहा था कि नीलू ने शादी से मना क्यों नहीं किया…गेंद तुम्हारे पाले में क्यों..? क्या तुम्हारी सामाजिक स्थिति उसके लिये भी….?

“हद्दी यहां आना।´´ अंकल के बुलाने के अंदाज़ से ही लग गया कि आवाज़ उनकी थी लेकिन वह जो बात कहने जा रहे थे उसकी भाषा और रणनीति आंटी की थी। मेरे नाम को अंकल और उन जैसे मुहल्ले के कई लोगों ने ख़राब कर दिया था और वे कभी मुझे मेरे असली नाम से नहीं पुकारते थे। क्या फ़ायदा ऐसे नाम रखने का कि हम उस पर दावा भी न दिखा पाएं। मैं तो चुपचाप सुन लेता था लेकिन उदभ्रांत अपना नाम बिगाड़ने वालों से उलझ जाता था।

“देखो बेटा, नीलू की सगाई तय हो गयी है। तुम उसके सबसे क़रीबी दोस्त हो, उसे समझाओ कि शादी के लिये मना न करे, मन बनाये। अरे शादी कोई कैरियर बनाने में बाधा थोड़े ही है। तुम्हारी बात वह समझेगी, उसे समझाओ। उसे तैयार करने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है और हां बाजार से कुछ चीज़ें भी लानी होंगी। तुम तो ऑफिस में रहते हो, कल दिन में उद्दी को भेज देना तुम्हारी आंटी की थोड़ी मदद कर देगा….तुम तो जानते ही हो कि मुझे ऑफिस से छुट्टी मिलना कितना…..।´´ अंकल काफ़ी देर तक बोलते रहे और मैं खड़ा टीवी को देखता रहा। टीवी में बताया जा रहा था कि शहर की सजावट में कितने करोड़ रुपये खर्च हुये हैं और नीला रंग शहर के लिये कितना ज़रुरी है। अंकल की बातें बहुत चुभ रही थीं इसलिये मैंने टीवी की ओर नज़रें कर ली थीं। टीवी पर जो बताया जा रहा था वह भी इतना चुभ रहा था कि मैं उनकी बातें अधूरी छोड़ कर निकल आया।

प्रश्न – मैं एक पिछड़े परिवार से संबंध रखता हूं। मेरे पिताजी एक जगह चपरासी का काम करते हैं और मां घरों के बरतन मांजती है। मेरी पढ़ाई का खर्च वे बड़ी मुश्किल से उठा पा रहे हैं लेकिन आजकल मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता। मेरे मुहल्ले के लोग मेरी उपलब्धियों को भी मेरी जाति से जोड़ कर देखते हैं और कुछ भी करने का मेरा उत्साह एकदम ख़त्म होता जा रहा है। मेरे मुहल्ले के लोग मेरा नाम तक बिगाड़ कर बुलाते हैं। मैं सोचता हूं कोई संगठन ज्वाइन कर लूं। मेरे सामने ही मेरे पिता की बेइज़्ज़ती की जाती है और मैं कुछ नहीं कर पाता, मैं क्या करूं ?

उत्तर – आप चाहें तो किसी संगठन में शामिल हो सकते हैं लेकिन ये आपकी परेशानियों को कम नहीं करेगा। आपके पिताजी का अपमान करने वाले लोग संख्या में बहुत ज़्यादा हैं और किसी संगठन से उनका जवाब देने की आपकी उम्र भी नहीं है। आपके पास एकमात्र हथियार आपकी पढ़ाई है। खूब पढ़िये और किसी अच्छी जगह पर पहुंचिये फिर आपका मज़ाक उड़ाने वाले लोग ही आपसे दोस्ती करने को बेकरार दिखायी देंगे। अपने गुस्से को पालिये और उसे गला कर उसे एक नुकीले हथियार के रूप में ढाल दीजिये।

उदभ्रांत ने मुझसे पूछा कि क्या मैं नीलू को पसंद नहीं करता। मैंने कहा कि नीलू मेरी अच्छी दोस्त है तो वह बहुत ज़ोर से हंसा। उसने मुझसे ऐसी भाषा में बात की जैसे पहले कभी नहीं की थी। उसने मुझसे पूछा कि क्या उसका हाथ मुझे अपने हाथ में लेते हुये कभी लगा कि दुनिया को उसके हाथ की तरह गरम और सुंदर होना चाहिये। मैंने उसे बताया कि ऐसा मुझे हर बार लगा है जब मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लिया है और फिर उसे समझाया कि नीलू मेरी सिर्फ़ और सिर्फ़ और अच्छी दोस्त है और मेरी दिली इच्छा है कि उसकी शादी किसी अच्छे लड़के से हो। उसने कहा कि मुझे फिर से कविताएं लिखना शुरू कर देना चाहिये क्योंकि अगर मरना ही है तो कविताएं लिखते हुये मरने से अच्छा काम कोई नहीं हो सकता। मैंने कहा कि दुनिया की सबसे बड़ी सच्चाई पेट है और उसने कहा कि कुछ सोच कर पेट को दिमाग और दिल के नीचे जगह ही गयी है। मैंने निराश आवाज़ में उससे कहा कि इस दुनिया में हमारे जीने के लिये कुछ नहीं है तो उसने कहा कि हमारे पास धार है तलवार भले ही न हो। मैंने उससे पूछा कि क्या उसे कॉलेज जाने के लिये सायकिल चाहिये। उसने कहा कि न तो उसे कॉलेज जाने के लिये सायकिल की ज़रूरत है और न ही नौकरी पाने के लिये हाथी की। मुझे यह अजीबोग़रीब तुलना समझ में बिल्कुल नहीं आयी और मुझे भी पिताजी की बात पर विश्वास होने लगा कि उदभ्रांत आजकल कोई नशा करने लगा है। मैंने कहा कि सायकिल से हाथी की क्या तुलना, यह तुलना बेकार है। उसने लॉर्ड एक्टन नाम के अपने किसी टीचर का नाम लेते हुये कुछ बातें कीं और कहा कि मैं भोला हूं जो सामने दिखायी दे रही चीज़ पर तात्कालिक फैसला दे रहा हूं जबकि न तो सायकिल और हाथी में कोई फर्क होता है और न ही दुनिया के किसी भी फूल और शरीर के किसी भी अंग में। मुख्य बात तो वह सड़क होती है जिधर से वह सायकिल या हाथी निकलते हैं। सड़क मजेदार हो तो जितना खतरनाक झूमता हुआ हाथी होता है, सायकिल उससे रत्ती भर कम ख़तरनारक नहीं। मैंने उससे कहा कि तुम हाथी के बारे में अपमानजनक टिप्पणी कर रहे हो तुम्हें पता नहीं इसका परिणाम क्या हो सकता है, हो सकता है हाथी इधर ही कहीं टहल रहा हो। वह मुस्कराने लगा। उसने बांयीं आंख दबा कर बताया कि हाथी आजकल शहर में नहीं है, वह खेतों की तरफ निकल गया है। मैंने आश्चर्य व्यक्त किया, “क्यों खेतों की ओर क्यों ?´´

“दरअसल हमें एक ऐसी चीज़ किताबों में पढ़ाई जाती रही है जिसे पढ़ना एकदम अच्छा नहीं लगता। `भारत गांवों का देश है´ या `भारत एक कृषिप्रधान देश है´  जैसी पंक्तियां पढ़ने से हमारे देश की गरीबी और बदहाली का पता चलता है। खेत और किसान बहुत बेकार की चीज़ें हैं और ये हमेशा बहुत गंदे भी रहते हैं जिससे सौंदर्यबोध को धक्का लगता है। इसलिये कुछ ऐसे लोगों ने, जिनके पास पैसे की कोई कमी नहीं और जो देश को ऊंची-ऊंची इमारतों और चमचमाते बाज़ारों से भर कर इसे एकदम चकाचक बना देना चाहते हैं, हाथी से अपने देश की गरीबी दूर करने की प्रार्थना की है। हाथी सजधज कर, अपने दांतों को हीरे पन्नों से सजा कर और इन दयालु लोगों का दिया हुआ मोतियों जड़ा जाजिम पहन कर खेतों की ओर निकल गया है। वह जिन-जिन खेतों से होकर गुज़रेगा, उन खेतों की किस्मत बदल जायेगी। वहां खेती जैसा पिछड़ा हुआ काम रोक कर बड़ी-बड़ी इमारतें, चमचमाती सड़कें बनायी जायेंगीं। जिस पर से होकर बड़े-बड़े दयालु लोगों की बड़ी-बड़ी गाड़ियां गुज़रेंगीं।´´

मैं समझ गया कि उदभ्रांत का दिमाग, जैसा कि पिताजी पिछले काफी समय से कह रहे थे, ज़्यादा किताबें पढ़ने से और ख़राब संगत में रह कर नशा करने से सनक गया है।

“तुम आजकल रहते कहां हो और रात-रात भर गायब रहते हो….किन लोगों के साथ हो और क्या कर रहे हो पढ़ने लिखने की उम्र में ?´´ मैंने उसे ताना देकर उसे वापस सामान्य करना चाहा। वह ज़ोर से हंसने लगा और एक कविता पढ़ने लगा जिसमें किसी की आंखों को वह दर्द का समंदर बता रहा था।

मैंने उससे धीरे से कहा कि उसे इस उम्र में कविताएं नहीं पढ़नी चाहियें, उसने कहा कि इस उम्र में कविताओं का जो नशा है उसके सामने दुनिया को कोई नशा ठहर नहीं सकता। उसने उठते हुये मुझसे कहा कि मुझे नीलू को कोर्ट में ले जाकर शादी कर लेनी चाहिये क्योंकि आसमान तक सीढ़ी लगाने के लिये एक मर्दाना और एक जनाना हाथ की ज़रूरत होती है।

पिताजी बड़े अरमानों से अपने साथ कुछ पढ़े-लिखे और समझदार माने जाने वाले मज़दूरों को लेकर निकले थे और अधिकतर मज़दूरों का मानना था कि राज्य के सबसे बड़े हाकिम के पास जाने से उनकी समस्या तुरंत हल हो जायेगी क्योंकि शायद उनको पता ही न हो कि उनके अपने लोग कितनी मुसीबतों में घिरे हैं। वे लोग अपने हाथों में निवेदन करती हुयी कुछ तख्तियां लिये हुये थे जिसमें चीत्कार करती हुयी पंक्तियां लिखी थीं जो वहां के पढ़े-लिखे मज़दूरों ने बनायी थीं और कुछ तिख्तयों पर तो उदभ्रांत ने कुछ कविताएं भी लिखी थीं। पिताजी लम्बे समय के अंतराल के बाद उदभ्रांत के किसी काम पर ख़ुश हुये थे।

वे लोग जब एक गली से होते हुये मुख्य सड़क पर पहुंचे तो वहां पहले से एक राजनीतिक पार्टी के कुछ लोग तख्तियां लिये हुये नारे लगाते हुये जा रहे थे। उन लोगों ने लाल टोपियां पहन रखी थीं और उन लोगों को रिकॉर्ड करते हुये कुछ टीवी वाले लोग भी थे। जिधर वे टीवी वाले लोग अपना कैमरा घुमाते उधर के लोगों में जोश आ जाता और वे चिल्ला-चिल्ला कर नारे लगाने लगते। पिताजी ने उन लोगों से दूरी बनाये रखी। जब वे लोग मुख्य सड़क पर आये तो वहां पुलिस की तगड़ी व्यवस्था थी। कई मज़दूरों के हाथ-पांव फूल गये और कई मज़दूर जोश में आ गये। पिताजी ने सभी मज़दूरों को समझाया कि कोई अशोभनीय बात और हिंसात्मक हरकत उनकी तरफ से नहीं होनी चाहिये लेकिन एकाध मज़दूरों का कहना था कि आज वे अपने सवाल पूछ कर जायेंगे और किसी से नहीं दबेंगे। पुलिस का एक बड़ा अफ़सर पिताजी के पास आया और उसने बड़ी शराफ़त से पिताजी से पूछा कि उनकी समस्या क्या है। पिताजी ने कहा कि उन्हें कुछ सवाल पूछने हैं। फिर वह अफसर उस पार्टी के प्रमुख के पास गया, उसने भी कहा कि हमें भी कुछ सवाल पूछने हैं। दोनों लोगों से बात करने के बाद अफ़सर थोड़ा पीछे हटा और भाषण देने वाली मुद्रा में हाथ उठा कर दोनों तरफ के लोगों को शांति से अपने-अपने ठिकानों पर लौट जाने की सलाह दी। उसका कहना था कि उनके सवालों के जवाब एक-दो दिन में कूरियर से उनके घर भिजवा दिये जाएंगे या फिर किसी अख़बार में अगले हफ्ते उनके उत्तर छपवा दिये जायेंगे। दोनों तरफ के लोग खड़े रहे। अफ़सर ने फिर अपील की कि सभी लोग यहीं से लौट जायें और उसे लाठीचार्ज करने पर मजबूर न करें। उसके एक मातहत ने आकर उसके कान में धीरे से कहा कि लाठीचार्ज और गोली चलाने जैसी घटना से उन्हें बचाना चाहिये क्योंकि इससे बहुत पैसे खर्च कर साफ करवायी हुयी सड़क पर खू़न के धब्बे लग सकते हैं जो हाथी को कतई पसंद नहीं आयेंगे। अफ़सर मुस्कराया और बोला कि बेवकूफ तू इसीलिये मातहत है और मैं अफ़सर, अगर ये लोग नहीं भागे तो इन पर ऐसी लाठियां बरसायी जायेंगी कि एक बूंद ख़ून भी नहीं गिरेगा और ये कभी उठ नहीं पायेंगे, उसने आगे यह भी जोड़ा कि राजनीतिक पार्टी के इन लोगों पर लाठियां बरसाने से उसे अपनी छवि चमकाने का भी मौका मिलेगा और पदोन्नति की संभावनाएं बढ़ जायेंगीं। पिताजी और उनके साथ के मज़दूर वहीं ज़मीन पर बैठ गये। पिताजी का कहना था कि वे शांतिपूर्ण ढंग से वहां तब तक बैठे रहेंगे जब तक उनके सवालों के जवाब नहीं मिल जाते। इधर उस पार्टी के लोग इस बात को लेकर चिंतित थे कि पुलिस लाठी चलाना शुरू क्यों नहीं कर रही है। आखिरकार एक युवा कार्यकर्ता, जो खासतौर पर लाठी खाने अपने एक फोटोग्राफर दोस्त को लेकर आया था, ने चिंताग्रस्त होकर पुलिस टीम की तरफ एक बड़ा पत्थर उछाल दिया। पत्थर एक हवलदार की आंख पर लगा और उसकी आंख फूट गयी। उसने एक आंख से पार्टी के लोगों की तरफ देखा और उसे अहसास हुआ कि `लाठीचार्ज´ या `फायर´ बोल पाने की ताकत रखना कितनी बड़ी बात होती है। तब तक दूसरा पत्थर आया। ये किसी और चिंतित कार्यकर्ता ने फेंका था। पुलिस टीम के ऊपर एक के बाद चार-पांच पत्थर पड़े तो अफ़सर को लाठीचार्ज का आदेश देना पड़ा।
भगदड़ मच गयी और भागते हुये लोग पिताजी और उनके लोगों के ऊपर गिरने लगे क्योंकि ये लोग बैठे हुये थे। ये जब भी उठने की कोशिश करते, कोई इन्हें धक्का देकर भाग जाता। पुलिस टीम राजनीतिक पार्टी के लोगों को दौड़ाती हुयी पिताजी के पास आयी और जो मिला उस पर लाठियों के करारे प्रहार करने शुरू कर दिये। सड़क पर वाकई एक बूंद भी खून नहीं गिरा और पूरी सजावट ज्यों की त्यों चमकदार बनी रही। पत्रकारों और कैमरा वालों ने हड्डी टूटे हुये लोगों की कुछ तस्वीरें खींचीं और फिर सड़क पर लगी तेज़ नियॉन लाइटों वाली ग्लोसाइन के चित्र लेने लगे जिसमें जल्दी ही एक ख़ास अवसर पर गरीबों के लिये ढेर सारी योजनाओं की घोषणा किये जाने की घोषणा की गयी थी।
पिताजी भी उन तीन गंभीर रूप से घायल लोगों में से थे जिनकी हडि्डयां टूटी थीं और उन्हें तब तक चैन नहीं आया जब तक कि डॉक्टर ने यह कह कर उन्हें निश्चिन्त नहीं कर दिया कि उनके दो साथियों की तरह उनकी भी दो-तीन हडि्डयां टूटी हैं। वह निश्चिन्त हुये कि उन्होंने अपने साथियों से धोखा नहीं किया। पिताजी के कई मित्र अस्पताल में उनका हाल-चाल पूछने आये और अंसारी साहब भी आकर उनका पुरसाहाल कर गये। एक दिन एक पुलिस इंस्पेक्टर भी आया और देर तक पिताजी के पास बैठा कुछ लिखता रहा। उसने पिताजी से उनका अगला-पिछला पूरा रिकॉर्ड पूछा, घर-परिवार, बीवी-बच्चे, खान-पान सबके बारे में पूछा और जाते वक़्त सलाह दी कि उन्हें सरकार का विरोध करने जैसा देशद्रोह वाला काम नहीं करना चाहिये। पिताजी ने नज़रें दूसरी ओर फेर लीं जिस पर उसने कहा कि अगर कुछ गलत हुआ तो ज़िम्मेदार आप होंगे।
`उत्तर प्रदेश´ में सवालों के जवाब नहीं दिये जाते

पिताजी बारह दिनों बाद अस्पताल से डिस्चार्ज होकर घर आ गये थे और प्लास्टर लगवा कर पूरी तरह से बेडरेस्ट में थे। किसी सुबह वह बहुत मूड में दिखायी देते और हम दोनों भाइयों को बुला कर मिल से संबंधित पुरानी कहानियां सुनाते। जब मां खाना बना लेती तो खाना परोसे जाने से पहले मां को भी अपने पास बुलाते और अपनी शादी के दिनों का कोई किस्सा छेड़ देते जिससे हम हंसने लगते और मां थोड़ी शरमा जाती। ऐसे ही एक अच्छे दिन उन्होंने अख़बार पढ़ते हुये हम लोगों को सुनाते हुये कहा कि अगले हफ्ते एक बहुत अच्छी फिल्म आने वाली है उसे दिखाने ले चलेंगे और उसके टैक्स फ्री होने का इंतज़ार नहीं करेंगे। मां ने पूछा कि कैसे मालूम कि फि़ल्म अच्छी है तो उन्होंने कहा कि जिस फिल्म का नाम ही `डांस पे चांस´ हो वो तो अच्छी होगी ही। मां ने कहा कि वे नये अभिनेताओं-अभिनेत्रियों को नहीं पहचानतीं इसलिये उन्हें मज़ा नहीं आयेगा। पिताजी ने कहा कि अगर वे नखरे करेंगी तो वे उन्हें उठा कर ले जायेंगे। ये कहने के बाद पिताजी बेतरह निराश हो गये और अखबार में कोई सरकारी विज्ञापन पढ़ने लगे। जिस दिन वह उदास रहते दिन भर किसी से सीधे मुंह बात नहीं करते। मिल और मज़दूरों को लेकर कुछ बड़बड़ाते रहते और चिंता करते रहते। ऐसे ही एक उदास दिन उन्होंने कहा कि उनके न रहने पर भी इस घर पर कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये क्योंकि उनके दो जवान बेटे सब कुछ अच्छे से संभाल सकते हैं। मां साड़ी का पल्लू मुंह में डाल कर रोने लगीं तो उन्होंने कहा कि मैंने दो शेर पैदा किये हैं और इनके रहते तुम्हें कोई चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, मेरे दोनों बेटे मेरे जैसे ही बहादुर हैं। ये कहने के बाद वह बुरी तरह अवसाद में चले गये और अख़बार में साप्ताहिक राशिफल पढ़ने लगे। मैं अक्सर घर के माहौल से तंग आ जाता था और छुट्टी वाले दिन भी ऑफिस पहुंच जाता था मगर वहां और भी ज़्यादा घुटन थी।
मैं ऑफिस के लोगों की बद्तमीज़ियों से बहुत तंग आ गया था। बॉस के आकर उजड्डई करने के बाद मैं अब शिकायत भी किससे करता। मैं जब उस दिन ऑफिस में घुसा तो एक साथ दादा और दीन जी दोनों ने अपनी बद्तमीज़ियां शुरू कर दीं। दीन जी का सवाल बहुत ही घिनौना था तो दादा का सवाल यह था कि उन्होंने अपनी रिश्ते की एक बहन से सेक्स करने की अपनी इच्छा के बारे में मुझसे सलाह मांगी थी। मेरा दिमाग भन्ना गया। वे मेरे बिना पूछे ही बताने लगे कि दुनिया में इस तरह के संबंधों का प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है और लोग अपनी कुंठाएं बिना झिझक बाहर निकाल रहे हैं। उन्होंने मुझे और दादा को इस तरह के संबंधों पर आश्चर्य व्यक्त करने पर लताड़ा और इस तरह के संबंधों का नाम इनसेस्ट सेक्स बताया और यह भी बताया कि अब यह बहुत तेज़ी से हर जगह फैल रहा है और सहज स्वीकार्य है। दादा इस पर सहमत नहीं हुये और कहा कि परिवार में ऐसे संबंध उचित नहीं हैं, हां आपस में दो परिवार बदल कर ये करें तो चल सकता है। पिताजी के पांव और कोहनी का फ्रैक्चर मुझे अपने ऑफिस में भी अलग-अलग लोगों के अलग-अलग अंगों में दिखायी दे रहा था। उस दिन मैं लंच करने नहीं गया और दादा मुझे दो बार पूछने के बाद हंसते हुये चले गये। जब सभी लोग लंच करने चले गये तो मैंने दादा की दराज से एक मोटा स्केच पेन निकाला।
वापस आने के बाद मेरी उम्मीदों के विपरीत वे लोग हंसने लगे। मुझे सीरियस लेना उन्हें अपमान की तरह लग रहा होगा, इस बात से मैं वाकिफ़ था। दादा अंदर बॉस के केबिन में गये और थोड़ी ही देर में मुझे क्रांतिकारी की तरफ से बुलावा आ गया।

“जी…सर।´´ मैं अंदर जा कर चपरासी वाले भाव से खड़ा हो गया।

“क्या हुआ भई, कोई दिक्कत..?´´ उसने हंसते हुये पूछा। उसके एक तरफ दादा और दूसरी तरह `दीन´ खड़े थे।

“जी….कोई ख़ास नहीं।´´ मैंने बात को समेटने की कोशिश की।

“सुना है तुमने अपनी खिड़की पर लिख दिया है कि `उत्तर प्रदेश में सवालों के जवाब नहीं दिये जाते´ ?´´ उनकी मुस्कराहट बदस्तूर जारी थी।

“जी नहीं…मैंने सिर्फ़ यह लिखा है कि `जवाब नहीं दिये जाते´, उत्तर प्रदेश तो पहले से मौजूद था।´´
इस पर वे तीनों लोग हंसने लगे। उनकी सामूहिक हंसी मेरा सामूहिक मानसिक बलात्कार कर रही थी पर वे अपनी जगह बिल्कुल सही थे क्योंकि वे मुझे तनख्वाह देते थे और इस लिहाज़ से मुझे ज़िंदा रखने के बायस थे।

“भई उत्तर प्रदेश में मत देना सवालों के जवाब, हम तुम्हें यहां बुला लिया करेंगे जब भी हमें उत्तर चाहिये होंगे….क्यों दादा ठीक है न ?´´ दादा ने भी हंसते हुये सहमति जतायी और देखते ही देखते प्रस्ताव 100 प्रतिशत वोटिंग के साथ पारित हो गया।
मैं मन मार कर कूद कर आया और अपनी कुर्सी पर आ कर बैठ गया। मेरा मन काम में कतई नहीं लग रहा था। तभी चपरासी ने खिड़की पर आकर सूचना दी कि कोई लड़की मुझसे मिलने आयी है। मैंने बिना कुछ सोचे समझे बाहर जाने का विकल्प चुना क्योंकि मुझसे किसी लड़की का मिलने आना इस घिनौने ऑफि़स के लिये एक और मसाला होता। मैं यह सोचता हुआ आया कि किसी कंपनी से कोई विज्ञापन वाली लड़की होगी लेकिन बाहर नीलू मिली।
“मेरे साथ थोड़ी देर के लिये बाहर चलोगे साहब ?´´ उसके प्रश्न में आदेश अधिक था सवाल कम। मैंने चपरासी को समझाया कि कोई मेरे बारे में पूछे तो वह कह दे कि खाना खाने गये हैं। पूरे ऑफि़स में चपरासी भग्गू ही मेरा विश्वासी था और ऑफि़स की जोकर पार्टी को कतई नहीं पसंद करता था।
नीलू मुझे ले कर शहर के एक प्रसिद्ध पार्क में पहुंची और वहां पहुंचते ही घास पर लेट गयी। शहर में पार्क और मूर्तियां बहुत थे लेकिन काम और रोटियां बहुत कम। उसने लाल रंग की शलवार कमीज़ पहन रखी थी।

“आजकल घर नहीं आते साहब तुम ?´´ उसने मेरी ओर देखते हुये पूछा।

“तुम्हारी मम्मी ने मना किया है नीलू।´´ मैंने न चाहते हुये भी उसे सच बताया।

“अच्छा…बड़ा कहना मानते हो मेरी मम्मी का।´´ वह मुस्करायी तो मैं दूसरी ओर देखने लगा जहां एक जोड़ा एक दूसरे के साथ अठखेलियां रहा था।

“वह तुम्हारी भलाई चाहती हैं नीलू।´´ मैंने मरे हुये स्वर में कहा।
“मगर मैं अपनी बुराई चाहती हूं।´´ उसने नटखट आवाज़ में कहा। “मुझे ज़िंदगी गणित की तरह नहीं जीनी साहब। मुझे जीना है अपने तरीके से जो बाद में अगर गलत साबित हुआ तो देखा जायेगा। उन्होंने मुझसे भी कहा कि प्यार से पेट नहीं भरता और मैं तुम्हें भूल जाऊं लेकिन आज मुझे लग रहा है कि प्यार से ज़रूर पेट भरता होगा तो लग रहा है बस्स।´´ मैं अपलक उसे देख रहा था। आज वह बहुत बदली सी लग रही थी।

“लाल में तुम थोड़ी ज़्यादा शोख़ लग रही हो…।´´ मैंने उस पर भरपूर नज़र डाल कर कहा।

“तुम्हें क्या लगता है ?´´ उसने पूछा।

“किस बारे में….? लाल रंग भी तुम पर जंचता है लेकिन….।´´

“लाल रंग नहीं, प्यार के बारे में ?  क्या प्यार से पेट भरता होगा ?´´ उसकी आवाज़ में सौ चिड़ियों की चहचहाहट थी और आंखों में हज़ार जुगनुओं की रोशनी।

“पता नहीं, मुझे नहीं लगता नीलू कि प्यार से….।´´ मेरी बात अधूरी रह गयी क्योंकि तब तक नीलू उठ कर मेरे सीने पर आ चुकी थी और उसका चेहरा मेरे चेहरे के बिल्कुल पास था। उसकी सांसे मेरे चेहरे पर टकरायीं और मैं आगे की बात भूल गया।

“पागल हमने अभी प्यार चखा ही कहां है….क्या पता भरता ही हो….दूसरों की बात मानें या ख़ुद कर के देखें साहब जी…।´´ उसकी सांसें मेरे चेहरे पर गर्म नशे की तरह निकल रही थीं और उसकी आंखों में जो था वो मैंने पहली बार देखा था। मेरे मुंह से निकलने वाला था कि ख़ुद करके तब तक उसे होंठ मेरे होंठों से जुड़ चुके थे। पार्क से किसी भी तरह की आवाज़ें आनी बंद हो गयी थीं और मेरे कान में पता नहीं कैसे ट्रेन के इंजन की सीटी सी बजने लगी थी। नीलू ने अपने सीने को मेरे सीने पर दबाया हुआ था और मेरी सांस मेरे भीतर ही कहीं खो गयी थी। जिस ट्रेन की सीटी मेरे कान में बज रही थी मैं उसी की छत पर लेटा हुआ था और हम तेज़ी से कहीं निकलते जा रहे थे। नीलू ने मेरी बांह पकड़ कर अपनी कमर के इर्द-गिर्द लपेट ली। मैंने पहली बार उसकी देह को इतने पास से महसूस किया। मुझे पहली बार ही अहसास हुआ कि मैं उसके बिना नहीं रह सकता। पहली बार ही मुझे अनुभव हुआ कि अगर मेरे सामने वह किसी और की हुयी तो मैं मर जाउंगा। उसने मेरी एक बांह अपनी कमर पर लपेटी थी। मैंने दोनों बांहों से उसे भींच लिया। दूर अठखेलियां करता वह जोड़ा हमें गौर से देख रहा था और कह रहा था कि वो देखो वहां एक जोड़ा अठखेलियां कर रहा है।

थोड़ी देर बाद जब हम नीलू की एक पसंदीदा जगह पर एक नदी के किनारे बैठे थे तो वह मेरी उंगलियां बजाने लगी। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।

“मगर मुझे नये शहर में नौकरी खोजने में कुछ वक़्त लग सकता है।´´ मेरे मन में अब भी संशय थे और उसके होंठों पर अब भी मुस्कराहट थी।

“एक बात बताओ साहब, तुम्हें बीवी की कमाई खाने में कोई प्रॉब्लम तो नहीं है।´´ उसकी आवाज़ की शोखी ने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं भी सारे संशय उतार फेंकूं और उसके रंग में रंग जाऊं। वह जो मुझे नया जन्म दे रही थी, वह जो मुझे जीना सिखा रही थी, वह जो मेरे सारे आवरणों से अलग कर रही थी।

मैंने उसे झटके से दबोचा और उसी के अंदाज़ में बोला, “बीवी की कमाई खाने में मुझे बहुत ख़ुशी होगी।´´ मैंने जब उसके होंठों पर होंठ रखे तो नदी का पानी, जो अपने साथ ढेर सारे नये पत्ते बहा कर ले जा रहा था, थम गया और हमें देखने लगा। नदी के होंठों पर मुस्कराहट थी।

हम यह शहर दो दिन के बाद छोड़ देने वाले थे। मुझे पता नहीं था कि मैं इतना बड़ा बेवकूफ़ हूं और उदभ्रांत इतनी कम उम्र में इतना समझदार। मैंने हिचकते हुये उसे योजना बतायी तो उसने मुझे बाहों में उठा लिया और कहा, “तुम जानते नहीं हो भाई कि आज तुमने ज़िंदगी में पहला सही काम किया है। इसके एवज में जो तुम अपने ऊपर उन जाहिलों को बर्दाश्त करने का अपराध करते हो वह भी माफ़ हो जाना चाहिये। उसने मुझे पूरी तरह आश्वस्त किया कि वह यहां सब कुछ संभाल लेगा। उसने बताया कि उसे एक प्राइवेट कॉलेज में पढ़ाने का काम मिल रहा है और कुछ खर्चा वह अपनी उन चार-पांच ट्यूशन्स से निकाल लेगा जिनकी संख्या जल्दी ही और भी बढ़ने का अनुमान है। मैंने बताया कि नीलू वहां जा कर किसी कॉलेज में पढ़ाने की नौकरी खोजेगी और मैं किसी अख़बार में कोशिश करुंगा। उसने कहा कि उस शहर में उसका एक परिचित दोस्त है जो पेशे से वकील है और सारी औपचारिकताएं पूरी कर देगा। मैंने बहुत लम्बे समय बाद उदभ्रांत से इतनी बातचीत की थी। मैंने उससे कहा कि हम एक दिन अपना घर ज़रूर बनाएंगे। उसने कहा कि उसे ऐसे सपनों में कोई विश्वास नहीं बचा। मैंने कहा कि सपने देखना ही जीना होता है। उसने कहा कि वह किसानों और उनकी ज़मीनों के लिये सपने देख रहा है। पहली बार मुझे उसके सेमिनारों और पोस्टर प्रदर्शनियों की कुछ बातें समझ में आयीं। उसने कहा कि कल वह मेरे ऑफिस आयेगा।

अगली सुबह जब मैं ऑफिस में पहुंचा तो पहुंचते ही `दीन´ जी ने एक गंदा सवाल पूछा, “मैंने आज तक कभी एक साथ दो महिलाओं के साथ सेक्स नहीं किया। मेरी एक महिला मित्र जिससे मैं सेक्स करता हूं वह दो महिलाओं के साथ प्रयोग करने को तैयार है लेकिन मेरी पत्नी तैयार नहीं हो रही। मैं अपनी पत्नी पर सारे तरीके आज़मा कर देख चुका हूं। मै क्या करूं ?´´ सवाल पूछते हुये वे मेरे काफ़ी करीब तक आ गये थे और अपनेपन से मेरा हाथ पकड़ चुके थे। मैंने उनका हाथ झटकते हुये उन्हें परे धकेला और ऊंची आवाज़ में चिल्लाया, “आप अपनी पत्नी को पहले दो मर्दों का आनंद दिलाइये। एक बार उन्हें यह नुस्खा पसंद आ गया तो वह अपने आप मान जाएंगी। फिर आप लोग एक साथ चार, पांच, छह जितने चाहे….।´´ दीन जी मेरी टोन और आवाज़ की ऊंचाई से घबरा से गये और चुपचाप जा कर अपनी सीट पर बैठ गये। वे बेसब्री से बार-बार घड़ी की ओर देख रहे थे। दादा के बिना वे अकेले सिपाही की तरह लग रहे थे। मुझे लगा अभी वह थोड़ी देर में क्रांतिकारी के कमरे में जाकर मेरी चुगली करेंगे लेकिन वह चुपचाप बैठे रहे और कभी घड़ी तो कभी अपनी कंप्यूटर स्क्रीन की ओर देखते रहे। मैं जानता था कि उनका सवाल चाहे जैसा भी हो, मैंने उसका जवाब पूरी ईमानदारी के साथ दिया था लेकिन उन्हें जवाब नहीं चाहिये था।
यूपी में है दम क्योंकि जुर्म यहां है कम
दादा के आने के बाद भी `दीन´ जी की भाव-भंगिमा में कोई परिवर्तन नहीं आया हालांकि दादा अपने साथ एक खुशी ले कर आये थे। हमारी पत्रिका को नीले रंग का एक विज्ञापन मिला था और साथ ही यह वादा कि यह विज्ञापन अगले साल के मार्च तक हमारी पत्रिका को मिलता रहेगा। दादा ने थोड़ी देर तक दीन से कुछ बातें कीं फिर सिगरेट पीने बाहर निकल गये। क्रांतिकारी जब तक नहीं आया होता था तब तक ये लोग अंदर-बाहर होते रहते थे। दादा और `दीन´ जी ने उस दिन शाम तक मुझसे कोई बात नहीं की थी हालांकि ऑफि़स में मिठाइयां लाकर बांटने का काम भग्गू ने क्रांतिकारी के फोन के बाद कर दिया था।
शाम के करीब साढ़े सात बजे, जब दादा और `दीन´ को क्रांतिकारी के कमरे में घुसे एक घंटा हो चुका था, मेरा बुलावा आया। भग्गू ने बताया कि साहब ने बुलाया है और दूसरी ख़बर उसने यह दी कि कोई हट्टा-कट्टा लड़का मुझसे मिलने आया है। मैंने उदभ्रांत को खिड़की से भीतर बुलवा लिया। वह मुस्कराता हुआ मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया लेकिन थोड़ी देर बाद ही मुझे अंदर बुलवा लिया गया था। मैं भारी मन से उठा, मैं चाहता था कि आज क्रांतिकारी मुझे न बुलाये और मेरे हाथों बेइज़्ज़त होने से बच जाये।
“तुमने दीन की बेइज़्ज़ती की ?´´ क्रांतिकारी और उसके दोनों चमचों पर तीसरे पैग की लाली तैर रही थी।
“नहीं। मैंने इनके सवाल का जवाब दिया है बस्स, आप पूछ लीजिये इनसे।´´ मैंने सामान्य रहने की कोशिश की।

“साले मेरे सवाल का जवाब दिया कि मेरा हाथ उमेठ दिया, अब तक दर्द कर रहा है।´´ `दीन´ जी चेहरे पर दर्द की पीड़ा ला कर बोले जिसमें से अपमान की परछाईं दिख रही थी। इतने में क्रांतिकारी उठ कर मेरे पास आ चुका था।

“चल तू इतने सवालों के जवाब देता है तो इसका जवाब भी बता। आज तुझे पता चले कि तू अपनी बाप की सगी औलाद नहीं है और तेरा असली बाप मैं हूं जो तेरी मां से मुंह काला करके चला गया था। मैं अचानक तेरे सामने आकर खड़ा हो गया हूं और अब तुझे अपने साथ ले चलना चाहता हूं तो तू क्या करेगा ?´´ क्रन्तिकारी ने अपने हिसाब से काफ़ी रचनात्मक सवाल पूछा था और अब वह एक इससे भी ज़्यादा रचनात्मक उत्तर चाहता था। आज उसके तेवर एकदम बदले हुये थे और आमतौर पर हर बात का मज़ा लेने का उसका लहज़ा बदला लेने पर उतारू मालिक सा लग रहा था। भग्गू आकर दरवाज़े पर खड़ा हो चुका था और इसी पल उदभ्रांत भीतर घुसा।

“बोल क्या करेगा साले बता मेरे….।´´ क्रांतिकारी की बाकी बात उसके मुंह में ही रह गयी क्योंकि उदभ्रांत की लात उसकी जांघों के बीच लगी थी। “मैं आपके साथ नहीं जाउंगा सर, ऐन वक़्त पर जब आप मेरे काम नहीं आये तो अब क्यों आये हैं। बल्कि मैं तो आपको इस ग़लती की सज़ा दूंगा…।´´ मैंने भी उसके पिछवाड़े पर एक लात मारी और वह मेज़ के पास गिर गया। दादा और `दीन´ के चेहरों से तीन पैग की लाली उतर चुकी थी और वे बाहर जाने का रास्ता खोज रहे थे। उदभ्रांत तब तक क्रांतिकारी को तीन-चार करारे जमा चुका था। उसने उसे मारने के लिये तीसरी बार लात उठाया ही था कि वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगा। मैंने उदभ्रांत को रोक कर क्रांतिकारी की जांघों के बीच में एक लात और मारी, “सर एक और लात मार देता हूं क्या पता आपकी जांघों के बीच में जो शिकायत है वह दूर हो जाये हमेशा के लिये…।´´ उसकी डकारने की आवाज़ हलाल होते सूअर जैसी थी।

रात को मैं घर देर से पहुंचा। रास्ते भर मैं और उदभ्रांत हंसते रहे थे और उदभ्रांत ने पहली बार कहा कि अगर कुछ सालों बाद सब ठीक हो गया तो वह एक छोटा सा घर ज़रूर बनायेगा। सब कुछ ठीक होने का मतलब मैं पूरी तरह नहीं समझा था और इसके बाद हम ख़ामोशी से घर पहुंचे थे।
मौसम बहुत अच्छा था और नीलू के साथ ठंडी हवा में उसका हाथ पकड़ कर कुछ दूर चुपचाप
चलने का मन कर रहा था। मैं ख़ुद को भीतर से हीरो जैसा और अद्भुत आत्मविश्वास से भरा हुआ अनुभव कर रहा था। नीलू का इतनी रात बाहर निकलना संभव नहीं था इसलिये मैं अकेला ही घूमने लगा यह सोचता हुआ कि आज के सिर्फ़ दो दिन बाद मुझे नीलू का हाथ पकड़ कर घूमने के लिये किसी से कोई इजाज़त नहीं लेनी पड़ेगी। यह सोचना अपने आप में इतना सुखद था कि घर पहुंचने के बाद भी मैं इसके बारे में ही पता नहीं कब तक सोचता रहा। बहुत देर से सोने के कारण सुबह आंख काफ़ी देर से खुली। वह भी मां के चिल्लाने और पिताजी के रोने से। मैं झपट कर बिस्तर से उतरा तो सब कुछ लुट चुका था। तीन जीपों में भर कर पुलिस आयी थी और उदभ्रांत को पकड़ कर ले गयी थी। मैं कुछ न समझ पाने की स्थिति में हक्का-बक्का खड़ा था। मैंने हड़बड़ी में उद्भ्रांत के वकील दोस्त को फोन लगाया तो उसने मुझसे कहा कि मैं जल्दी जा कर केस फाइल होने से रोकूं क्योंकि अगर एक बार केस फाइल हो गया तो उसे बचाने में दिक्कतें हो सकती हैं। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ऐसा कौन सा जुर्म उसने कर दिया कि उसे पकड़ने के लिये पुलिस को तीन जीपें लानी पड़ीं। मैं बदहवासी में पुलिस थाने की ओर भागा। वहां जाकर मुझे पता चला कि उसे पुलिस ने नहीं बल्कि एसटीएफ ने पकड़ा है और उससे मिलने के लिये मुझे किसी फलां की इजाज़त लेनी पड़ेगी। मुझे ही पता है कि उस दस मिनट में मैंने किसके और किस तरह पांव जोड़े कि मुझे वहां ले जाया गया जहां उद्भ्रांत को फिलहाल रखा गया था।
“ये इसका भाई है।´´ मुझे ले जाने वाले हवलदार ने बताया। जींस-टीशर्ट पहने एक आदमी कुर्सी पर रोब से पैर फैलाये बैठा था।

“अच्छा तू ही है अनहद।´´ उसकी आवाज़ में कुछ ऐसा था कि मुझे किसी अनिष्ट की आशंका होने लगी।

“जी…।´´ मैं सूखते हलक से इतना ही कह पाया।

“इसे भी अंदर डालो, किताब पर इसका भी नाम लिखा है। थोड़ी देर में कोर्ट ले जाना है, तब तक चाय समोसा बोल दो।´´ उसका इतना कहना था कि मुझे सलाखों के पीछे पहुंचा दिया गया।
मुझे एक किताब दिखायी गयी जिसमें नयी कविता के कुछ कवियों की कविताएं संकलित थीं। मैं कुछ समझ पाता उसके पहले उसमें से धूमिल की कविता `नक्सलबाड़ी´ वाला पृष्ठ खोल दिया गया और किताब मेरे सामने कर दी गयी।
“ये तुम्हारी किताब है न ?´´ सवाल आया।

“हां मगर ये तो कविता है। हिंदी के कोर्स में….।´´ मेरा कमज़ोर सा जवाब गया।

“जितना पूछा जाये उतना बोलो। तुम्हारे और तुम्हारे भाई में से हिंदी किसका सबजेक्ट रहा है या है ?´´ सवाल।
“किसी का नहीं। मगर मुझे कविताएं….।´´ मेरी बात काट दी गयी। “तुम्हारा भाई सरकार विरोधी गतिविधियों में लिप्त है। हमारे पास पुख्ता सबूत हैं। बाकी सबूत जुटाए जा रहे हैं। तुम ऐसी कविताएं पढ़ते हो इसलिये तुम्हें आगाह कर रहा हूं….संभल जाओ। तुम्हारी बाप की उमर का हूं इसलिये प्यार से समझा रहा हूं वरना और कोई होता तो अब तक तुम्हारी गांड़ में डंडा….।´´
मैं समझ नहीं पाया कि मुझे क्यों छोड़ दिया गया। मैं वाकई उद्भ्रांत के कामों के बारे में अच्छी तरह से नहीं जानता कि वह क्या करता था और वह और उसके साथी रात-रात भर क्या पोस्टर बनाते थे और किन चीज़ों का विरोध करते थे, लेकिन मैं यह ज़रूर जानता था कि मेरा भाई एक ऐसी कैद में था जहां से निकलने के सारे रास्ते बंद थे। अगले दिन अख़बारों ने उसकी बड़ी तस्वीरें लगा कर हेडिंग लगायीं थीं `नक्सली गिरफ्तार`, `युवा माओवादी को एसटीएफ ने पकड़ा`, `नक्सल साहित्य के साथ नक्सली धर दबोचा गया´ आदि आदि।

प्रश्न- मैं एक 28 वर्षीय अच्छे घर का युवक हूं। मेरी नौकरी पक्की है और मेरा परिवार भी मुझे बहुत मानता है लेकिन पता नहीं क्यों मुझे अक्सर दुनिया से विरक्ति सी होने लगती है। मुझे सब कुछ छोड़ देने का मन करता है, सारे रिश्ते-नाते खोखले लगने लगते हैं और लगता है जैसे सबसे बड़ा सच है कि मैं दुनिया का सबसे कमज़ोर इंसान हूं। मैं बहुत परेशान हूं क्योंकि यह स्थिति बढ़ती जा रही है, मैं क्या करूं ?

उत्तर– छोड़ दो। मत छोड़ो।

इस कदर कायर हूं कि उत्तर प्रदेश हूं
मैंने उद्भ्रांत के वकील दोस्त की मदद से एक अच्छा वकील पाया जिसने पहली सुनवाई पर ही कुछ अच्छी दलीलें पेश कीं लेकिन पुलिस ने अपने दमदार सबूतों से उसे पंद्रह दिन के पुलिस रिमांड पर ले ही लिया। अगली सुनवाई की तारीख पर रिमांड की अवधि बढ़ा दी गयी। अब यह हर बार होता है। उद्भ्रांत ने मुझसे पहली बार मिलने पर ही कहा था, “भाई मुझे जो अच्छा लगता था, मैंने वही किया। जीने का यही तरीका मुझे ठीक लगा लेकिन घर पर बता देना कि मैं कोई गलत काम नहीं करता था।´´ मैंने सहमते हुये पुलिस की मौजूदगी में उससे धीरे से पूछा था, “क्या तुम वाकई नक्सली हो ?´´ “नहीं, मैं नक्सली नहीं बन पाया हूं अभी।´´ वह मुस्कराने लगा और उसने कहा कि मैं घर और मां पिताजी का ध्यान दूं। मैं हमेशा यही सोचता रहता हूं कि उद्भ्रांत को किसने गिरफ्तार करवाया होगा। इसका ज़िम्मेदार मैं खुद को मानता हूं। शायद दिनेश क्रांतिकारी ने उस रात की घटना के बाद मेरे भाई को फंसवा दिया होगा। फिर लगता है कहीं नीलू के पापा ने तो अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके उसे नहीं पकड़वा दिया ताकि मुझसे बदला ले सकें।
हां, नीलू की शादी की बात तो अधूरी ही छूट गयी। जिस दिन उसकी सगाई होने वाली थी, उस दिन अचानक ऐसी घटना हो गयी कि पूरा मुहल्ला सन्न रह गया। उसके घर में काम करने वाली महरी ने बताया कि रोशनदान से सिर्फ़ पंखे में बंधी रस्सी दिख रही थी और पूरे घर में मातम और हंगामा होने लगा कि नीलू ने आत्महत्या कर ली है। जब पुलिस आयी और उसने दरवाज़ा तोड़ा तो पता चला कि पंखे से एक रस्सी लटक रही है जिसमें एक बड़ी बोरी बंधी है। पुलिस ने बोरी खोली तो उसमें से ढेर सारी नीली शलवार कमीज़ें और एक भारी नीली साड़ी निकली जिसे पहन कर नीलू बी.एड. की क्लास करने जाती थी। मैंने महरी से टोह लेने की बहुत कोशिशें कीं कि वह नीलू के बारे में कुछ और बताये लेकिन उसे कुछ भी पता नहीं था। मैं उस दिन कई बार सोच कर भी उसके घर नहीं जा पाया क्योंकि उस दिन उद्भ्रांत के केस की तारीख थी। पिताजी कहते हैं कि मैं उन्हें भी सुनवाई में ले चलूं। वह अब लकड़ी के सहारे चलने लगे हैं और मैंने उन्हें अगली सुनवाई पर अदालत ले जाने का वादा किया है। वह अजीब-अजीब बातें करते हैं। कभी वह अचानक किसी पुरानी टैक्स फ्री फिल्म का गाना गाने लगते हैं तो कभी अचानक अखबार उठा कर कुछ पढ़ते हुये उसके चीथड़े करने लगते हैं। वह या तो एकदम चुप रहते हैं या फिर बहुत बड़बड़-बड़बड़ बोलते रहते हैं। वह केस की हर तारीख़ पर अदालत जाने की ज़िद करते हैं और मैं हर बार उन्हें अगली बार पर टालता रहता हूं। मां हर तारीख के दिन भगवान को प्रसाद चढ़ाती है और हम लोग जब तक अदालत से लौट नहीं आते, अन्न का एक दाना मुंह में नहीं डालती।
मेरी ज़िंदगी का मकसद सा हो गया है उद्भ्रांत को आज़ाद कराना लेकिन देखता हूं कि मैं तारीख़ पर जाने के सिवा और कुछ कर ही नहीं पा रहा हूं। उद्भ्रांत का केस देख रहा उसका दोस्त मुझे हर बार आशा देता है और मैं धीरे-धीरे जीतने तो क्या जीने की भी उम्मीद खोता जा रहा हूं। मेरे एक दोस्त ने, जो कल ही दिल्ली से लौटा है, बताया कि उसने राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर बिल्कुल नीलू जैसी एक लड़की को देखा है। मैं उससे पूछता हूं कि उसने किस रंग के कपड़े पहने थे तो वह ठीक से याद नहीं कर पा रहा है। बाबा की मौत की ख़बर आयी है और मैंने यह कहलवा दिया है कि अगर उस दिन केस की तारीख नहीं रही तो मैं उनकी तेरहवीं में जाने की कोशिश करुंगा।
मुझे अब नीले रंग से बहुत डर लगता है। मेरे घर से नीले रंग की सारी चीज़ें हटा दी गयीं हैं। मैं बाहर निकलते समय हमेशा काला चश्मा डाल कर निकलता हूं और कभी आसमान की ओर नहीं देखता।
प्रश्न– मुझे आजकल एक सपना बहुत परेशान कर रहा है। इस सपने से जागने के बाद मेरे पूरे शरीर से पसीना निकलता है और मेरी धड़कन बहुत तेज़ चल रही होती है। मैं देखता हूं कि मेरा एक बहुत बड़ा और खूबसूरत सा बगीचा है जिसमें दरख़्तों की डालें सोने की हैं। उन दरख्तों में से एक पर मुझे उल्लू बैठा दिखायी देता है और मैं अपना बगीचा बरबाद होने के डर से उल्लू पर पत्थर मारने और रोने लगता हूं। तभी मुझे सभी डालियों से अजीब आवाज़ें आने लगती हैं और मैं जैसे ही आगे बढ़ता हूं, पाता हूं कि हर डाली पर उल्लू बैठे हुये हैं। इसके बाद भयानक ख़ौफ़ से मेरी नींद खुल जाती है। मैं क्या करूं ?
उत्तर-
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विमल चन्द्र पाण्डेय

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