कवि नरेश सक्सेना पर युवा आलोचक नलिन रंजन सिंह का आलेख ‘सुनो चारुशीला: जैसे कविता को लय मिल गई हो’

 

नरेश सक्सेना

नरेश सक्सेना हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। विज्ञान या कह लें कि अभियांत्रिकी से जुड़े होने का प्रभाव उनकी कविता में स्पष्ट परिलक्षित होता है लेकिन यह प्रभाव कोई कृत्रिमता नहीं पैदा करता अपितु प्रकृति के साथ जुडाव को और पुख्ता ही करता है। नरेश सक्सेना के कविता संग्रह ‘सुनो चारुशीला’ के बहाने से उनके कवि और कवि कर्म की एक पड़ताल कर रहे हैं युवा आलोचक नलिन रंजन सिंह। तो आइए पढ़ते हैं नलिन रंजन सिंह का यह आलेख ‘सुनो चारुशीला: जैसे कविता को लय मिल गई हो’
   
‘सुनो चारुशीला: जैसे कविता को लय मिल गई हो’
नलिन रंजन सिंह
                         

सुनो चारुशीला’ नरेश सक्सेना का दूसरा कविता संग्रह है। पहला संग्रह समुद्र पर हो रही है बारिश’पाठकों और आलोचकों द्वारा पहले ही सराहना प्राप्त कर चुका है। नरेश सक्सेना पिछले छः दशकों से कविता लेखन की दुनिया में सक्रिय हैं, फिर भी उनके मात्र दो कविता संग्रहों का छपना उनके प्रशंसक पाठकों को आश्चर्यचकित करता है। दरअसल नरेश जी की कविता की ताकत भी यही है -कम लिखना, ज्यादा पढ़ा जाना और पाठकों को याद रहना। नरेश जी हमारे समय के कुछेक कवियों में से हैं जो कम लिखते हैं लेकिन जो लिखते हैं वह यादगार लिखते हैं। आज जबकि लोगों को कविताएँ याद नहीं रहतीं, लोग कविताओं को नहीं, कवियों को याद रखते हैं- तब नरेश जी को लोग उनकी कविताओं से जानते हैं, पहचानते हैं। पहचानने का संदर्भ इसलिए कि नरेश जी की कविताएँ उनसे सुनने का आनंद ही कुछ और है। नरेश सक्सेना की कविताओं में बोध और संरचना के स्तरों पर अलग ताजगी मिलती है। बोध के स्तर पर वे समाज के अंतिम आदमी की संवेदना से जुड़ते हैं, प्रकृति से जुड़ते हैं और समय की चेतना से जुड़ते हैं तो संरचना के स्तर पर वे अपनी कविताएँ छंद और लय के मेल से बुनते हैं।

सुनो चारुशीला’ में नरेश जी की कुल 49 कविताएँ शामिल हैं। ज़्यादातर कविताएँ सन् 2000 के बाद की लिखी गई हैं। कुछ कविताएँ 1960-62 के आस-पास की हैं जिनमें एक घायल दृश्य’  कविता उल्लेखनीय है जो 1962 या 1964 की कल्पना’ में मुक्तिबोध की कविता चम्बल घाटी’ के साथ ही छपी थी। इन्हें पहले संग्रह में ही होना चाहिए था किन्तु ये कविताएँ अगर दूसरे संग्रह में हैं और पुरानी हैं तो भी न ही उनका महत्व कम हुआ है और न ही वे कहीं से पुरानी लगती ही हैं। नरेश जी की कविताओं को पढ़ने-सुनने से ऐसा लगता है कि इनमें से अधिकतर कविताएँ छंदबद्ध हैं और नरेश जी पुरानी परम्परा के वाहक कवि हैं। किन्तु वे ऐसा नहीं मानते। सुनो चारुशीला’ के पूर्वकथन में वे लिखते हैं- कुछ लोगों की धारणा है कि मैं पहले गीत लिखता था, बाद में गद्य शैली में लिखने लगा। यह सच नहीं है। छंद में तो आज भी लिखता हूँ। शिशु’ और घास’ कविताएँ छंद में हैं और इधर की ही लिखी हुई हैं, किन्तु आज की कविता के साथ छंद या लय का निर्वाह सहज संभव नहीं है। ……. मैंने मुख्यतः गद्य शैली में ही कविताएँ लिखी हैं। किन्तु 1962 में एक खास वजह से कुछ गीत लिखे, जिन्हें धर्मयुग ने पूरे रंगीन पृष्ठ पर बड़ी प्रमुखता से छापा। …….शायद इसी कारण लोगों का ध्यान मेरे गीतों की ओर आकर्षित हुआ होगा। ……..कल्पना’ में, उन दिनों तीन बार में मेरी कुल आठ कविताएँ छपी थीं जिनमें से सात गद्य में थीं, सिर्फ एक छंद में।”
 
फिर भी संगीत और कविता में एक आंतरिक संगति मानने के कारण वे अपनी कविताओं में स्वर लहरियों का सृजन करते हैं। याद कीजिए नवगीत आंदोलन और फिर पाठ करिए नरेश जी की कविता ज़िला भिंड, गोहद तहसील’ का। स्पष्ट हो जाता है कि नव गीत के सारे तत्व यहाँ मौजूद हैं-
चिल्ला कर उड़ी एक चील
ठोस हुए जाते सन्नाटे में ठोकती गयी जैसे कील
सुन्न पड़ीं आवाज़ें
शोरों को सूँघ गये साँप
दम साधे पड़े हुए,
पत्तों पर हवा के प्रलाप
चली गयी दोपहरी, दृश्यों के
दफ़्तर में लिख कर तातील
हवा ज़रा चली कि फिर रोएगी
ढूहों पर बैठकर चुड़ैल
नदी बेसली के आरे-पारे
उग आएगी भुतही गैल
भरी पड़ी रहेगी सबेरे तक
ज़िला भिंड गोहद तहसील।
नरेश जी की पहली रचना मुक्तक के रूप में 1958 में छपी थी। लेकिन एक कवि के रूप में वे आज भी उतने ही तरोताजा हैं। कविता को लेकर नरेश सक्सेना की दृष्टि साफ है। वे मानते हैं कि  मनोरंजन या विलास का साधन कविता नहीं होती। सभी कलाओं और विज्ञान की तरह आनन्द से अपने अटूट रिश्ते के बावजूद वह पाठक से गम्भीर पाठ’ की माँग करती है।”
     “फूलों पर लिखी गयी कोई कविता भयानक विस्फोट का माध्यम भी बन सकती है। जैसे फोड़े में चीरा लगाने की क्रिया। कविता ऐसी जो पाठक को विचलित करे, भावबोध का परिष्कार करे और दृष्टि को बदल दे: मनुष्यता का ऐसा दस्तावेज जो अपने समय के अन्याय और क्रूरता को चुनौती देता हो। कविता ऐसी जो बुरे वक्त में काम आये, जो हिंसा को समझ और संवेदना में बदल दे। ऐसी कविता जो हमें बच्चों जैसा सरल और निश्छल बना दे, कौतूहल और प्रेम से भर दे।” फिर भी नरेश जी को परसाई जी की बात’ नहीं भूलती है-
आज से ठीक चौवन बरस पहले
जबलपुर में,
परसाई जी के पीछे लगभग भागते हुए
मैंने उन्हें सुनायी अपनी कविता
और पूछा क्या इस पर इनाम मिल सकता है?’
अच्छी कविता पर सज़ा भी मिल सकती है’
सुनकर मैं सन्न रह गया
क्योंकि उसी शाम, विद्यार्थियों की कविता प्रतियोगिता में
मैं हिस्सा लेना चाहता था
और परसाई जी उसकी अध्यक्षता करने वाले थे।
. . . . . . . . . . . . . . .
आज, जब सुन रहा हूँ, वाह, वाह
मित्र लोग ले रहे हैं हाथों हाथ
सज़ा कैसी कोई सख़्त, बात तक नहीं कहता
तो शक़ होने लगता है,
परसाईजी की बात पर, नहीं-
अपनी कविताओं पर।
     नरेश जी का अपनी कविताओं पर शक़ करना दरअसल कविता और कवि के संकट की ओर संकेत करता है। नंदकिशोर नवल अपनी पुस्तक कविता: पहचान का संकट’ में लिखते हैं- कवित्त एक गतिशील वस्तु तो है ही, दुर्ग्राह्य भी है..।प्रश्न उठता है, कविता दुर्ग्राह्य कब होती है? दुर्ग्राह्यता का यह प्रश्न रूपवाद की ओर ले जाता है। सौन्दर्य निरूपण जब-जब अतिशय आलंकारिक हुआ है, कविता कठिन हुई है और सुरसरि सम सब कहँ हित होई’ का भाव जाता रहा है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कठिन काव्य के प्रेत हृदयहीन कवि’ भी मिलते हैं। ऐसा जब-जब हुआ है, कविता ने धारा बदली है।
     दरअस्ल कविता की गतिशीलता ही उसकी ताकत है। जो गतिशील होगा उसमें परिवर्तन भी होगा। कविता में जब-जब यह परिवर्तन ध्वनित हुआ है तब-तब नए-पुराने के द्वन्द्व में कविता पर शक किया गया है। कभी कवित्त को खेल’ मान लिया गया और सुकवियों के रीझने को कविताई।‘ ‘कभी उपमान मैले हुए’ और तमाम प्रतीकों के देवता कूच कर गए’। कभी कविता का शव लादकर’ कविता के मरने की घोषणा की गई। कविता, अकविता हो गई, लेकिन उसके एक दशक बाद ही 1980 को कविता की वापसी का वर्ष कहा गया। इन तमाम किन्तु-परन्तु और परिवर्तनों के बाद भी नरेश सक्सेना की कविता सुरसरि सम बहती रही। वे कविताएँ लिखते रहे, सुनाते रहे और पढ़ने-सुनने वाले उन्हें पढ़ते-सुनते रहे।
नरेश जी के कविता लेखन की एक अलग शैली है। मुझे लगता है कि इसे अगर निर्झर शैली कहा जाय तो बिल्कुल ठीक होगा। कभी भोर में हरसिंगार के पेड़ के नीचे खड़े होइए- आप गहरी खुशबू से भर जाएँगे और यह क्या आप तो फूलों से नहा उठे! खुशबू ही नहीं फूल भी झरते हैं वहाँ। नरेश जी की कविता भी ऐसी ही हैं झरते हुए शब्दों में एक भीनी सी सुगंध लिए हुए। गिरना’ कविता की पाठ प्रक्रिया से गुजरते हुए हमें कुछ ऐसा ही आभास होता है-
गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह
रीते पात्र में पानी की तरह गिरो
उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए
गिरो आँसू की एक बूँद की तरह
किसी के दुख में
गेंद की तरह गिरो
खेलते बच्चों के बीच
गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह
एक कोंपल के लिए जगह ख़ाली करते हुए
गाते हुए ऋतुओं का गीत
कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं
वहाँ वसन्त नहीं आता
गिरो पहली ईंट की तरह नींव में
किसी का घर बनाते हुए।
आज कविता पर यह आरोप है कि लोग कवियों को जानते हैं, कविताओं को नहीं। यद्यपि यह बात पूरी तरह सच्ची नहीं है। अच्छी कविताएँ लोग जरूर याद रखते हैं, जैसे नरेश जी की कविताएँ। फिर भी मौजूदा दौर में ऐसा लगता है कि कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।‘ इससे कविता को ले कर शक होना लाजिमी है। कविता के इस संदेहवाद में बाज़ारवाद और शिल्पगत एकरसता आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। हाल के वर्षों में देखें तो बाज़ार में जगह पा लेने के लिए सतही संवेदना के सहारे तमाम कविताएँ लिखी गयीं। नरेश जी को शायद इसीलिए यह पीड़ा सालती है, वे कहते हैं –
देखना जो ऐसा ही रहा तो, एक दिन
पेड़ नहीं होंगे
घोंसले नहीं होंगे
चिड़ियाँ ज़रूर होंगी, लेकिन पिंजरों में
नदियाँ नहीं होंगी
झीलें नहीं होंगी
मछलियाँ ज़रूर होंगी लेकिन टोकरियों में
जंगल नहीं होंगे
झाड़ियाँ नहीं होंगी
खरगोश और हिरन ज़रूर होंगे
लेकिन सर्कस में साइकिल चलाते हुए
. . . . . . . . . . . . . . .
बस्तियाँ नहीं होंगी,
मनुष्य नहीं होंगे,
सिर्फ़ बाज़ार होंगे, जहाँ होंगी कविताएँ
पेड़ों, नदियों, चिड़ियों, मछलियों और खरगोशों का
विज्ञापन करती हुई।
     यह परिवेश कविता के सामने कुहासा बुनता है। आज के दौर में कविता को कहानी ने पीछे छोड़ दिया है। उपन्यास, आत्मकथा और अन्य विधाएँ भी आगे निकल रही हैं। यद्यपि कविता लिखी सबसे अधिक जा रही है। लगभग हर साहित्यिक पत्र-पत्रिका में कविताएँ छप रही हैं, नये-नये संग्रह आ रहे हैं, उन पर समीक्षाएँ लिखी जा रही हैं लेकिन आज की कविता सामान्य जन से नहीं जुड़ पा रही है, इसीलिए कम पढ़ी जा रही है। यह चिन्ताजनक अवश्य है किन्तु निराशाजनक नहीं क्योंकि कविता का सबसे अधिक लिखा जाना उम्मीद जगाता है। कविता इसी रास्ते फिर वापसी करेगी क्योंकि जो रचेगा वह बचेगा। वैसे भी कविता वर्तमान समय की सबसे अधिक अव्यावसायिक विधा है और सब कुछ के बावजूद संवेदनशील कविता की पहचान का संकट संभव नहीं है क्योंकि विरेचन की संभावना कविता में ही सर्वाधिक होती है, उसका स्थान कोई नहीं ले सकता।
नलिन रंजन सिंह कवि नरेश सक्सेना

     जहाँ तक शिल्पगत एकरसता का सवाल है उसके जवाब में ढेरों उदाहरण दिए जा सकते हैं। एकरसता टिकाऊ नहीं होती है, उससे विविधता और निरंतरता दोनों बाधित होते हैं। इससे उबरने का उपाय डॉ. नामवर सिंह बताते हैं- कविता में जब कवियों को नया मार्ग नहीं सूझता, नई दिशाएँ मेघाच्छन्न दिखाई पड़ती हैं और पुरानी चहारदीवारी से निकलने का उपाय नहीं सूझता तो लोकशक्ति ही मशाल लेकर आगे बढ़ती है . . . .  अंधकार को चीरती है, कुहरे को छाँटती है, मार्ग को प्रशस्त करती है और दम घुटते कवियों की संज्ञा में प्राण-वायु का संचार करती है।
     नामवर जी के इस उपाय को लेकर नरेश जी ने कविता में लोक-संस्कृति और जातीय पहचान को विशेष महत्व दिया है। लोक-संस्कृति के शब्द लेकर लोक-संवेदना से जुड़कर नरेश जी अपनी अलग पहचान बनाते हैं। नरेश जी का मानना है कि कविता को लोकगीत की तरह सरल और आत्मीय होना चाहिए।” वे इसका निर्वाह अपनी कविताओं में करते भी हैं। इस बारिश में’,नीम की पत्तियाँ, पत्तियाँ यह चीड़ की’ जैसी कविताएँ इस दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं।
आसान लिखना कठिन होता है। सहज भाषा में अपनी संवेदना को रखते हुए कविता को देखना हो तो नरेश जी की धूप’ कविता देखिए –
सर्दियों की सुबह, उठ कर देखता हूँ
धूप गोया शहर के सारे घरों को
जोड़ देती है
ग़ौर से देखें अगरचे
धूप ऊँचे घरों के साये तले
उत्तर दिशा में बसे कुछ छोटे घरों को
छोड़ देती है।
पूछ ले कोई
कि किनकी छतों पर भोजन पकाती
गर्म करती लॉन,
बिजली जलाती धूप आखि़र
नदी नालों के किनारे बसे इतने ग़रीबों से क्यों भला
मुँह मोड़ लेती है।
     समकालीन कविता के पहचान को लेकर हो-हल्ला मचाने वाले कविता की संरचना में उस तुक या कटाव पर बार-बार सवाल खड़ा करते हैं जो कविता को गद्य से अलग करता है। यह प्रश्न भी कमजोर कविताओं को लेकर अधिक है। कोई यूँ ही महत्वपूर्ण नहीं होता। नरेश सक्सेना यूँ ही महत्वपूर्ण कवि नहीं हैं। विनोद कुमार शुक्ल के शब्दों में कहें तो- नरेश के स्वभाव में सरलता है। यही इनकी कविता का स्वभाव भी।…. गीत न होने के बाद भी नरेश की कविताओं के शब्द ऑर्केस्ट्रा के लोग लगते हैं। पढ़ते हैं तो अर्थों का वाद्य सुनायी देता है। उनसे कविता को सुनना, जीवन के कार्यक्रम को सुनना है।
दरअसल नरेश सक्सेना एक नाटककार भी हैं। इन्होंने बुन्देली नाटक और नुक्कड़ नाटक समेत कुल पाँच नाटक लिखे हैं। फ़िल्म और संगीत से इनका गहरा नाता रहा है। नरेश जी संगीत और कविता की आंतरिक संगति को जानते हैं। इसीलिए उनके शिल्प में पाठ’ की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। सस्यूर’ के भाषा चिंतन और संरचनावादी सार्वभौमिकता एवं पूर्णता के दर्शन उनकी छंदबद्ध रचनाओं में भरपूर होते हैं। वे सामान्यतः बोल कर लिखते हैं, इसलिए बोली की लय अनायास ही उसमें आ जाती है। कविता को लय कैसे दी जाती है, इसे नरेश जी की कविताओं का पाठ करके समझा जा सकता है। इस संग्रह की घास’,  एक घायल दृश्य’, जिला भिंड, गोहद तहसील’, शिशु’ आदि कविताएँ महत्वपूर्ण है। राजेश जोशी के शब्दो में कहें तो ये कविताएँ लय की कुदाल’ से उत्खनित हैं।
     आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- प्रच्छन्नता का उद्घाटन कवि-कर्म का मुख्य अंग है। ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी त्यों-त्यों कवियों के लिए यह काम बढ़ता जाएगा। मनुष्य के हृदय की वृत्तियों से सीधा संबंध रखने वाले रूपों और व्यापारों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से पर्दों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।
     इस पूरे संदर्भ में अगर अन्तिम वाक्य पर ध्यान दें तो कविता की आवश्यकता और कवि-कर्म की कठिनता पर शुक्ल जी आज भी प्रासंगिक लगते हैं। कविता करना भाषा की सायास या अनायास कोशिश नहीं है। दोनों के मिश्रण की क्रीड़ा भी नहीं है। बिना संवेदना के कविता अधूरी है। संवेदनहीन होते जा रहे वर्तमान समाज में संवेदनशील कविता की आवश्यकता बढ़ती जा रही है, ऐसे में संवेदन शून्य सायास रचनाकारों के बस की बात नहीं है कि वे इस आवश्यकता को पूरा कर सकें। स्पष्ट है कि सभ्यता के मौजूदा दबाव में कवि-कर्म कठिन हो चला है। फिर भी जहाँ संवेदना है वहाँ कविता पूरी ताकत से खड़ी है। करती होगी कहानी छोटे मुँह बड़ी बात, पर जो असर छोटे मुँह कविता करती है, वह कोई विधा नहीं कर सकती। नरेश जी की एक अत्यन्त छोटी कविता देखिए। शीर्षक है-
“सीढ़ियाँ कभी खत्म नहीं होतीं”।
सीढ़ियाँ चढ़ते हुए
जो उतरना भूल जाते हैं
वे घर नहीं लौट पाते।
     कवि एवं समालोचक अशोक वाजपेयी कहते हैं- अगर कवि ने अपने को विचारों से, ख़ासकर राजनीतिक विचारों से, जो आज की दुनिया में इतने प्रभावशाली हैं, अपने को काट लिया है या अलग रखा है तो फिर नये कवि का यह दावा कि समकालीन सच्चाई का साक्षात्कार करने की कोशिश कर रहा है, व्यर्थ हो जाएगा। राजनीति को दरकिनार रखकर समकालीन सच्चाई का कोई साक्षात्कार और प्रासंगिक नहीं हो सकता।‘ इस दृष्टिकोण से देखें तो नरेश जी राजनैतिक चेतना से लैस कवि हैं। वे अपने आस-पास के समाज और उसमें घटने वाली हर महत्वपूर्ण घटना से प्रभावित हैं।
नरेश सक्सेना
दरअसल नरेश सक्सेना अपने समय के सजग कवि हैं। वे बाज़ारवाद साम्प्रदायिकता और ऊँच-नीच की खाई को ठीक से पहचानते हैं। इन सारे संदर्भों में उनकी प्रगतिशील पक्ष धरता देखी जा सकती है। ईश्वर’, गुजरात-1’, गुजरात-2’, ईश्वर की औकात’, देखना जो ऐसा ही रहा’, धूप’, ईंट-2’ आदि कविताएँ इसी दायरे में आती हैं। गुजरात-2’ कविता में सपाट संवादों के सहारे वे सब कुछ सीधे-सीधे कह देते हैं और अपना निर्भीक पक्ष प्रस्तुत करते हैं-
कैसे हैं अज़ीज़ भाई’, फोन पर मैंने पूछा
खैरियत से हूँ और आप?
मज़े में…’ मुँह से निकलते ही घड़ों पानी पड़ गया
अच्छा ज़रा होश्यार रहिएगा’
किससे?
हिन्दुओं से’, कहते-कहते रोक लिया ख़ुद को
हकलाते हुए बोला-
बस, ऐसे ही एहतियातन कह दिया’।
रख दिया फोन
सोचते हुए
कि उन्हें तो पता ही है
कि किससे। 
यह पक्षधरता उन्हें समाज के हाशिए पर स्थित लोगों के पास ले जाती है। उनकी तमाम कविताएँ वंचितों के पक्ष में खड़ी होकर बोलती हैं। उन्हें धूप’, घास’, चीटियाँ’ और नीम की पत्तियाँ’ इसीलिए प्रिय हैं। नीम की पत्तियाँ’ तो इतनी कि उसकी सुन्दरता बताने में वे कविता को असमर्थ समझते हैं। उनके सौन्दर्य बोध में घुला हुआ यथार्थबोध धूमिल की कविता लोहे का स्वाद…..’ की स्मृति को ताजा कर देता है –
कितनी सुन्दर होती हैं पत्तियाँ नीम की 
ये कोई कविता क्या बताएगी
जो उन्हें मीठे दूध में बदल देती है
उस बकरी से पूछो
पूछो उस माँ से
जिसने अपने शिशु को किया है निरोग उन पत्तियों से
जिसके छप्पर पर उनका धुआँ
ध्वजा की तरह लहराता है
और जिसके आँगन में पत्तियाँ
आशीषों की तरह झरती हैं।
दरअसल विचारधारा और नियमों को लेकर मतैक्य नहीं है। आज विधाओं में तोड़-फोड़ का सिलसिला चल पड़ा है। काशीनाथ सिंह का संतों, असंतों और घोंघा बसन्तों का अस्सी’ जब कथादेश में छपा तो एक संत वाणी से उसकी शुरूआत हुई थी, नियम विज्ञान के होते हैं, जिन्दगी के नहीं।’ यह नियम भंग का अनिवार्य हिस्सा है। यही उसकी निराला’ शैली है। मुक्ति, सारे बंधनों से मुक्ति। एक नियम नरेश सक्सेना भी बताते हैं-
चीजों के गिरने के नियम होते हैं!
मनुष्यों के गिरने के
कोई नियम नहीं होते।‘
और फिर नरेश जी गिरना’ कविता के माध्यम से कविता विधा को ऊँचा उठा देते हैं। नरेश जी का शिल्प छंदबद्ध रचनाओं में भले ही संरचनावाद की याद दिलाता हो लेकिन उनकी रचनाओं की वस्तु उत्तर संरचनावादी विमर्श से पूरी तरह जुड़ती है। इससे उनके लम्बे रचनाकाल के विकास को समझा जा सकता है। दरअसल नरेश जी की काव्य संवेदना में समाज का अंतिम आदमी मौजूद है। वे उस अंतिम आदमी के हक़ में खड़े हैं। इसीलिए ईश्वर की औकात’ बताते हैं और चींटियों’ और घास’ पर भी कविता लिखते हैं। नरेश जी की कविताओं में शिशु हैं, बच्चे हैं और औरतें भी हैं- वह भी फेंटा कसे और दराती लिए हुए।
  
नरेश सक्सेना की कविता में प्रकृति का रूप भी विलक्षण है। वे जिस तरह से बारिश, फूल, पत्तियाँ, पेड़, घोंसले, धूप, सूर्य, पहाड़, बर्फ, पानी, घास, चाँद, पक्षी, मिट्टी और आकाश को देखते हैं वह उनके सौन्दर्य बोध की अलग दुनिया है। आकाश, धरती, बारिश और रंगों से मिलकर रंग’ जैसी कविता भी हो सकती है, सहसा विश्वास नहीं होता –
सुबह उठ कर देखा तो आकाश

लाल, पीले, सिन्दूरी और गेरुए रंगों से रंग गया था

मजा आ गया आकाश हिन्दू हो गया है’

पड़ोसी ने चिल्ला कर कहा

अभी तो और मज़ा आएगा’ मैंने कहा

बारिश आने दीजिए

सारी धरती मुसलमान हो जाएगी।
 
नरेश सक्सेना की ऐसी कविता पढ़ने के बाद यह विश्वास करना बेहद कठिन है कि पढ़ाई में दसवीं के बाद हिन्दी भाषा उनका विषय नहीं रहा। उन्होंने एम.ई. तक इंजीनियरिंग पढ़ी और पैंतालीस वर्ष तक इंजीनियरिंग ही की। ईंट, गिट्टी, सीमेण्ट, लोहा, नदी, पुल- उनकी रोज़ी-रोटी के साधन रहे और उनकी सोच के केन्द्र में भी। इसीलिए ये सब उनकी कविता में शामिल हैं। नरेश जी के पहले किसी कवि की कविता में ये शब्द नहीं मिलते। विज्ञान का विद्यार्थी होने के कारण उसकी सैद्धान्तिकी को आधार बनाकर जिस तरह की कविताएँ नरेश जी ने लिखी हैं उस तरह की कविताएँ हिन्दी में मिलना मुश्किल हैं। गिरना’,  सेतु’,  पानी क्या कर रहा है’, प्रवासी पक्षी’, अंतरिक्ष से देखने पर’ आदि कविताएँ एकदम अलग भाव-बोध की कविताएँ हैं। लेकिन कवि का हुनर ऐसा है कि वह विज्ञान और संवेदना के मेल से इन कविताओं को विशिष्ट बना देता है। प्रवासी पक्षी’ कविता की अंतिम पंक्तियाँ कुछ ऐसी ही हैं –
पर्वतों, जंगलों और रेगिस्तानों को पार करती हुई
वे जहाँ जा रही हैं, ऊष्मा की तालाश में
वहाँ पिंजरे और छुरियाँ लिये
बहेलिये उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
सुनो चारुशीला’ कविता दिवंगत पत्नी विजय को समर्पित है। उन्हीं को श्रद्धांजलि स्वरूप कविता संग्रह का नाम भी सुनो चारुशीला’ रखा है। कविता में एक ओर दाम्पत्य प्रेम का रस उद्वेलित है तो दूसरी ओर उस प्रेम को खोने का आभ्यांतरिक विलाप भी है। चींटियाँकविता में भी विजय जी का जिक्र है। दाम्पत्य प्रेम का यह दर्शन उन्हें प्रकृति के करीब ले जाता है। उनके यहाँ पत्तियाँ हैं, फूल हैं, ऋतुएँ हैं, बारिश है, मिट्टी है, पहाड़ है, बर्फ है, पानी है, पेड़ हैं, पक्षी हैं। इन्सान इन जगहों से जुड़ा है- अपने अलग-अलग रूपों में।
संग्रह में विनोद कुमार शुक्ल के लिए लिखी गई कविता दरवाजा’ भी शामिल है। हालाँकि नरेश सक्सेना ने दीवारें’,  क़िले में बच्चे’ और घड़ियाँ’ जैसी कविताएँ भी संग्रह में शामिल की हैं लेकिन कुछ और कविताएँ भी हैं जिनकी अलग से चर्चा की जा सकती है। इनमें मछलियाँ’,दाग़ धब्बे’, ‘तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो’,एक घायल दृश्य’,फूल कुछ नहीं बताएँगें’, इतिहास’, कविता की तासीर’,  घड़ियाँ’,संख्याएँ’,आधा चाँद माँगता है पूरी रात’,पहले बच्चे के जन्म से पहले’, सीढ़ियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं’,मुर्दे’,पीछे छूटी हुई चीजें’, ‘अजीब बात’,प्रेम मुक्ति’,मुझे मेरे भीतर छुपी रोशनी दिखाओ’ और एक चेहरा समूचा’ महत्वपूर्ण हैं। 
नरेश सक्सेना की कविताओं की सबसे बड़ी खूबी यह है कि ये कविताएँ पाठकों और श्रोताओं से अपना बार-बार पाठ कराती हैं फिर भी आकर्षण नहीं खोतीं। स्पष्ट है कि नरेश जी की भाषा की ताकत कविताओं के पाठ में निहित है। इस पाठ की अंतर्ध्वनियाँ नरेश जी के काव्य पाठ की भंगिमा से मिलकर लय लहरियाँ उठाती हैं। कुल मिलाकर इस संग्रह की सभी 49 कविताएँ बेहद पठनीय हैं। इसीलिए यह संग्रह अत्यन्त संग्रहणीय है। सेतु’ कविता के अंतिम हिस्से का पाठ नरेश सक्सेना की प्रतिभा को नमन करने के लिए किया जा सकता है-
लय से उन्मत्त
सेतु की काया करती है नृत्त
लेफ़्ट राइट, लेफ़्ट राइट, ऊपर नीचे, ऊपर नीचे
अचानक सतह पर उभरती है हल्की-सी रेख
और वह भी शुरू करती है मार्च
लगातार होती हुई गहरी और केन्द्रोन्मुख
रेत नहीं रेत। लोहा, लोहा अब नहीं
और चूना और मिट्टी हो रहे मुक्त
शिल्प और तकनीकी के बन्धन से
पंचतत्त्व लौट रहे घर अपने
धम्म… धम्म… धम्म… धम्म… धम्… धड़ाम
लय की इस ताक़त को मेरे शत-शत प्रणाम।
* सुनो चारुशीला: नरेश सक्सेना, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली, पहला संस्करण: 2012, पृष्ठ-82, मूल्य- रु. 100/-
नलिन रंजन सिंह
सम्पर्क – 
7, स्टाफ कालोनी,  
जयनारायण पी. जी. कालेज
स्टेशन रोड, लखनऊ-226001
मोबाईल-  09415576163
ई-मेल: drnrsingh5@gmail.com

नरेश सक्सेना

नरेश सक्सेना उन कुछ विरल कवियों में से एक हैं जिन्होंने कम लिख कर भी बहुत ख्याति पायी है. वे कभी भी हडबडी में नहीं दिखते. लेकिन जब भी लिखते हैं वह चर्चा का विषय बन जाता है. इनकी कविता में कहीं भी एक अतिरिक्त शब्द या पंक्ति नहीं मिलेगी. अपनी बनक में ये कवितायेँ  कुछ ऐसी होती है कि देर तक और दूर तक हमारी स्मृतियों में टंकी रहती है. कवि की नजर जहां एक ओर दाग-धब्बों तक जाती है जो सर्वहारा के जीवन से नाभिनालबद्ध है तो दूसरी तरफ उनकी नजर नीम और चीड़ की पत्तियों पर भी जाती है जो अत्यंत छोटी होते हुए भी कवि दृष्टि में महत्त्वपूर्ण बन जाती हैं. नरेश जी के यहाँ कविता केवल कविता के रूप में नहीं बल्कि यह जीवनानुभवों के रूप में आती है और यही इनकी कविताओं की मूल ताकत है. इन जीवनानुभवों में ही है एक लयात्मकता जो जीवन की तरह ही अपना लय खुद सिरजती हैं और इस क्रम में अपनी तरफ हमें सहज ही आकृष्ट करती है. प्रस्तुत है यहाँ पर नरेश जी के नवीनतम और कुल मिला कर दूसरे काव्य संग्रह ‘सुनो चारूशीला’ की कुछ चुनिन्दा कविताएँ जो भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है.   



सीढीयाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं
सीढीयाँ चढते हुए
जो उतरना भूल जाते हैं
वे घर नहीं लौट पाते
दाग-धब्बे
दाग-धब्बे
साफ़-सुथरी जगहों पर आना चाहते हैं
जहां कहीं भी कुछ होने को होता है
भले ही हत्या होनी हो किसी की
दाग-धब्बे प्रकट होने को आतुर हो उठते हैं
और जब कोई नहीं आता आगे
हत्यारों के खिलाफ, गवाही देने
दाग-धब्बे ही आते हैं
त्वचा तक सीमित नहीं होता उनका आना
वे स्मृतियों और आत्मा तक आते हैं
हादसे की तरह
और हमारे सबसे प्रिय चेहरे, बस्तियां और शहर
धब्बों में बदल जाते हैं
जहां जहां होता है जीवन
हवा, पानी, मिट्टी और आग जहां होते हैं
धब्बे और दाग
जरूर वहां होते हैं
वे जीवन की हलचल में हिस्सा बंटाना चाहते हैं
वे बच्चों को देते हैं चुनौती
कि हमारे बिना ज़रा खेल कर दिखाओ
(बच्चे तो अच्छी तरह जानते हैं
कि जिनके हाथों, किताबों और कपड़ों पर
लग जाते हैं स्याही के दाग
वे जरूर पास हो जाते हैं)
जीवन से जूझते जवान हों
या बूढ़े और बीमार
दाग-धब्बे किसी को नहीं बख्शते
महापुरूषों की जीवनियों में
उनके होने का होता है बखान
कौन से बचपन पर
यौवन पर या जीवन पर वे नहीं होते
हाँ कफ़न पर नहीं होना चाहते
दाग-धब्बे, मुर्दों से बचते हैं
गन्दी-गन्दी जगहों पर कौन रहना चाहता है
दाग-धब्बे भी साफ-सुथरी जगहों पर
आना चाहते हैं.   
अजीब बात
जगहें ख़त्म हो जाती हैं
जब हमारी वहां जाने की इच्छाएं
ख़त्म हो जाती हैं
लेकिन जिनकी इच्छाएं ख़त्म हो जाती हैं
वे ऐसी जगहों में बदल जाते हैं
जहाँ कोई आना नहीं चाहता
कहते हैं रास्ता भी एक जगह होता है
जिस पर जिंदगी गुजार देते हैं लोग
और रास्ते पांवों से ही निकलते हैं
पाँव शायद इसीलिए पूजे जाते हैं
हाथों को पूजने की कोई परंपरा नहीं
हमारी संस्कृति में
ये कितनी अजीब बात है 
नीम की पत्तियाँ
कितनी सुन्दर होती हैं पत्तियाँ नीम की
ये कोई कविता क्या बतायेगी
जो उन्हें मीठे दूध में बदल देती हैं
उस बकरी से पूछो
पूछो उस माँ से
जिसने अपने शिशु को किया है निरोग उन पत्तियाँ से
जिसके छप्पर पर उसका धुआं
ध्वजा की तरह लहराता है
और जिसके आँगन में पत्तियाँ आशीषों की तरह झरती हैं
कभी नीम के सफ़ेद नन्हें फूलों की गंध अपने सीने में भरी?
कभी उसके छाल को घिस कर अपने घावों पर लगाया ?
कभी भादों के झकोरों में उन हरी कटारों के झौरों को
झूमते हुए देखा?
नहीं!
तब तो यह कविता मेरा नाम ही धरायेगी
जिसकी कोई पंक्ति एक हरी पत्ती भर छाया भी न दे पायेगी
वो क्या बताएगी
कि कितनी सुन्दर होती हैं पत्तियाँ नीम की.
 पत्तियाँ यह चीड़ की
सींक जैसी सरल और साधारण पत्तियाँ
यदि न होतीं चीड की
तो चीड कभी इतने सुन्दर नहीं होते
नीम या पीपल जैसी आकर्षक
होतीं यदि पत्तियाँ चीड की
तो चीड
आकाश में तने हुए भालों से उर्जस्वित
और तपस्वियों से स्थितिप्रज्ञ न होते
सूखी और झाड़ी हुई पत्तियाँ चीड की
शीशम या महुए की पत्तियों सी
पैरों तले दबने पर
चुर्र-मुर्र नहीं होतीं
बल्कि पैरों तले दबने पर
आपको पटकनी दे सकती हैं
खून बहा सकती हैं
प्राण तक ले सकती हैं
पहाडी ढलानों पर
साधारण, सरल और सुन्दर यह पत्तियाँ चीड की
मुर्दे
मरने के बाद शुरू होता है
मुर्दों का अमर जीवन
दोस्त आये या दुश्मन
वे ठन्डे पड़े रहते हैं
लेकिन अगर आपने देर कर दी
तो फिर
उन्हें अकडने से कोई रोक नहीं सकता
मजे ही मजे होते हैं मुर्दों के
बस इसके लिए एक बार
मरना पड़ता है.   
शिशु
शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है
समझता है सबकी मुस्कान
सभी की अल्ले-ले-ले-ले
तुम्हारे वेद पुराण कुरआन
अभी वह व्यर्थ समझता है
अभी वह अर्थ समझता है
समझने में उसको, तुम हो
कितने असमर्थ, समझता है
बाद में सीखेगा भाषा
उसी से है, जो है आशा 
मिट्टी
नफ़रत पैदा करती है नफ़रत
और प्रेम से जनमता है प्रेम
इंसान तो इंसान, धर्मग्रंथों का यह ज्ञान
तो मिट्टी तक के सामने ठिठक कर रह जाता है
मिट्टी के इतिहास में मिट्टी के खिलौने हैं
खिलौनों के इतिहास में हैं बच्चे
और बच्चों के इतिहास में बहुत से स्वप्न हैं
जिन्हें अभी पूरी तरह समझा जाना शेष है
नौ बरस की टीकू तक जानती है ये बात
कि मिट्टी से फूल पैदा होते हैं
फूलों से शहद पैदा होता है
और शहद से पैदा होती है बाकी कायनात
मिट्टी से मिट्टी पैदा नहीं होती  
संपर्क-
विवेक खंड, २/५ गोमती नगर
लखनऊ -२२६०१०
मोबाइल- 
08090222200
09450390241
 
      

नरेश सक्सेना से उमाकांत की बातचीत

  मुक्तिबोध ने हिंदी कविता की संरचना और विचार  को तोड दिया था

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में 12 मई 2012 को शोधार्थी उमाकांत ने अभी हाल ही में कवि नरेश सक्सेना से एक साक्षात्कार लिया था. यह साक्षात्कार बहुवचन के संयुक्तांक ३३-३४ में प्रकाशित हुआ है. इसे हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.               
उमाकांत– नरेश जी, आप पिछले पांच दशक से कविता लिख रहे हैं, आपकी पहली कविता 1958 में छपी थी, पर कविता लिखने का प्रारंभ कैसे हुआ, उसकी पृष्ठभूमि क्या थी?
नरेश सक्सेना- मैं ग्वालियर में पैदा हुआ. उस समय ग्वालियर में वीरेंद्र मिश्र, आनंद मिश्र,  चंचल’, मुकुट बिहारी सरोज और हिंदी के उस समय के तमाम प्रतिष्ठित गीतकार थे. शिव मंगल सिंह सुमन भी ग्वालियर के थे. ग्वालियर गीतों का और मंच का एक बहुत बडा शहर था. बडे प्रभावशाली ढंग से ये  अपनी कविताओं का पाठ करते थे. मैं हाईस्कूल में था, 1953-54 में. मैं नीचे बैठ कर कवितायें सुना करता था. मेरी हिंदी अच्छी थी. मैं इन कवियों पर बडा मोहित था और इनकी कविताओं के गहरे प्रभाव में था. मैने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि मैं मंच पर खुद काव्य पाठ करूंगा. एक दिन मैं ग्वालियर की सेंट्रल लाइब्रेरी में ज्ञानोदय पढ रहा था.उसमें बहुत छोटे-छोटे 4 मुक्तक रमा सिंह के छपे थे. छोटे- छोटे  4 मुक्तक और नीचे रमा सिंह लिखा था. वो इतने सरल थे कि मुझे लगा कि इतनी सरल पंक्तियां तो मैं भी लिख सकता हूं.  कैसा लगेगा जब ऐसे 4 मुक्तक छपे हों और नीचे मेरा नाम लिखा हो.वो पंक्तियां थीं- एक पल में उठ रहीं लहरें कई/एक पल में दिख रहीं खण्डित हुई/ एक ऐसी भी लहर इनमें उठी/ रेत पर तस्वीर बन कर रह गयी. मुझे लगा कि ये तो मैं भी कर सकता हूँ. बस मैं आया और मैंने तीन चार दिन तक बैठ कर सिर्फ मुक्तक लिखे. और ग्यारह मुक्तक लिख कर मैंने ज्ञानोदय को ही ये लिख कर भेज दिया कि आप इनमें से कोई भी चार चुन सकते हैं. मेरी उम्र भी कम थी 16-17 साल. अगले हफ्ते ज्ञानोदय से पत्र आ गया. उस समय ज्ञानोदय कलकत्ता से छपता था. उसमें लिखा था कि मेरा पहला,दूसरा,चौथा और सातवां मुक्तक स्वीकार कर लिया गया है और यथा समय प्रकाशित होगा. मैं चिठ्ठी को ले कर पूरे ग्वालियर में घूमा,जिन-जिन को भी मैं जानता था, उन सभी को ये पत्र दिखाया.उस समय तक ग्वालियर के उन कवियों में से ज्ञानोदय में कोई नहीं छपा था. ज्ञानोदयकल्पना उस समय की बडी प्रतिष्ठित पत्रिकाएं थीं. तो लोग भी चकित थे कि इसकी स्वीकृति ज्ञानोदय से आ गयी है. खैर एक वर्ष बाद जब शरद देवडा उसके संपादक थे, तो वे चार मुक्तक उसमें छपे. पहले यदि आप कल्पना, ज्ञानोदय या धर्मयुग में छप गये तो पूरे भारत के पाठक, साहित्यकार आपको पढ लेते और जान लेते थे कि ये कोई रचनाकार है. बाद में जब मै बंबई गया तो वहां जिन- जिन साहित्यकारों से मुझे मिलाया गया, उन सभी ने कहा कि हां इनके मुक्तक ज्ञानोदय में मैंने पढे थे, तो मै चकित था कि सभी ने मेरे मुक्तक पढे हैं. वो समय ऐसा था कि एक पत्रिका में छपने पर आपको पूरा देश जान सकता था, पर आज 10 किताबें छपने पर भी निश्चिंत नहीं हो सकते कि किसी ने आपको पढा भी है. 1958 में इंजीनियरिंग कॉलेज जबलपुर में मेरा दाखिला हुआ था. मेरा इंजीनियरिंग का पहला साल था. जबलपुर जाते ही हरिशंकर परसाई से मेरी भेंट हुई. विनोद कुमार शुक्ल से मुलाकात हुई. परसाई जी के पास मुक्तिबोध आते थे, मुक्तिबोध से मेरी मुलाकत हुई. नामवर सिंह व्याख्यान के लिये आये थे. ये सब परसाई जी के पास ठहरते थे. हमारा रोज शाम को परसाई जी के घर  जाना होता था.उसका कारण था कि उनके घर हमको सारी पत्रिकायें मिल जाती थीं. इसी लालच में हम जाते थे. उन्हीं ने विनोद कुमार शुक्ल से हमारा परिचय कराया. फिर सोमप्रसाद आये, ज्ञानरंजन आये और मलय भी वहां थे .एक महत्वपूर्ण बात, 1958 के समय की कवितायें या संग्रह देखें तो उनमें छायावादी शब्दावली छाई थी,चाहें केदार नाथ सिंह हो, कुंवर नारायण या श्रीकांत वर्मा हों,वह छायावाद का समय था. उससे मुक्ति नहीं थी.तीसरा सप्तक आया नहीं था,दूसरा कुछ पहले आया था.उसकी कविताओं की भाषा देख सकते हैं.लेकिन उन दिनों जबलपुर में जो कविता लिखी गयी वो 20 साल आगे की कविता थी. मैं बहुत भाग्यशाली था कि उस समय मैं ग्वालियर से जबलपुर आ गया. उसकी भाषा, उसका तेवर बिल्कुल अलग है. आप इस पर शोध करा सकते हैं. आज केदार नाथ सिंह और कुंवरनारायण के अलावा किसी भी महत्वपूर्ण कवि का नाम लें जैसे- अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, भगवत रावत, चंद्रकांत देवताले, विनोद कुमार शुक्ल, सोमदत्त. ये सब कहां के हैं, मध्य प्रदेश के. ऐसा कैसे हुआ? इस पीढी में और कोई नाम नहीं है. कभी ऐसे होता है कि कवियों की एक पूरी पीढी में उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान का कोई कवि ही नही हो. इसका कारण क्या है?
उमाकांत- यह तो शोध का विषय है?     
नरेश सक्सेना- हाँ, इस पर शोध की आवश्यकता है. 195758 की पत्रिकायें कवितायें खंगाल कर देखने पर पता चलता है कि अमूमन लोग मध्य प्रदेश के थे. इस समय जबलपुर में मलय लिख रहे थे, विनोद कुमार शुक्ल लिख रहे थे, नरेश सक्सेना लिख रहे थे.
सोमदत्त भी लिख रहे थे. इस पर चार लाईन की टिप्पणी भी हिंदी आलोचना में नहीं मिलती. उस समय मुक्तिबोध आगे चलने वाले थे, उन्होंने सारी कविता की धारा बदल दी थी. हालांकि मुक्तिबोध कि शब्दाबली भी स्थिर नहीं थी. बन रही थी. जबलपुर में मुक्तिबोध के जो काव्य पाठ हुए उसका विनोद कुमार शुक्ल पर अलग असर पडा, मुझ पर अलग पडा. अब मलय की 1958 कि एक कविता देखिये- 

दौडती हुई सडक नदी में गिर पडी 
गति ने उसे उस पार किया
और वह फिर दौडने लगी. 

उसी दौर की एक अन्य कविता देखिये– 

एक दूसरे का हाथ पकड कर
मकानों की एक लंबी कतार
कि जैसे लडने के लिये फौज तैयार खडी हो
तो जरूर ये मकान मजदूरों के होंगे.  

ये 1958 में विनोद कुमार शुक्ल की कविता है. अब जरा उनकी भाषा देखिये जो हमसे सीनियर थे. विजय देव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कुंवर नारायण की कविताओं की भाषा आप देखेंगे तो पता चलेगा कि ये अजीबोगरीब काम हिंदी कविता में कैसे हुआ.

उमाकांत – उस समय जबलपुर से वसुधा पत्रिका निकल रही थी, और अन्य पत्रिकायें भी थी.   
नरेश सक्सेना – हां, उसमें विनोद कुमार शुक्ल छपे भी थे. मेरी एक कविता थी- ‘अंधेराउसे देखिये  

कौन सी किस रौशनी के नहीं होने का अंधेरा
मुझे दिखता है अंधेरे में अंधेरा 

अंधेरे से अलग होता है अंधेरा
कौन सी किस रौशनी के नहीं होने का अंधेरा.

ये थी 1958 की कविता जो अंधेरे को अंधेरे से अलग कर रही थी. मोमबत्ती के न होने का अंधेरा ट्यूबलाईट के न होने के अंधेरे से अलग होता है. लालटेन की रोशनी के न होने का अंधेरा मोमबती की रोशनी के न होने के अंधेरे से अलग होता है. 10-15 साल भी इस तेवर की कवितायें नहीं आयीं. एक दूसरे से सटे मकान बंगले नहीं होते, बंगलों का आर्किटेक्चर अलग होता है एक सी तो सेना की वर्दी ही होती है. जो सटे हुए होते थे एक दूसरे से, वो तो मजदूरों के ही मकान हो सकते थे. तो भाषा की ये चेतना, ये बारीकियां भाषा का ये प्रयोग कहीं नहीं मिलेगा. इसका कारण वहां दो व्यक्तियों का होना था. हरिशंकर परसाई जो ग़द्य लिख रहे थे और मुक्तिबोध जो कवितायें लिख रहे थे. उनकी कविताओं के सीधे संपर्क में सिवाय मध्यप्रदेश के अन्य लोग नहीं आये थे. किताब तो उनके मरने के बाद छपी थी. उस समय मेरी कवितायें मुक्तिबोध के साथ छप रहीं थीं. कल्पना देखिये 1962 या 1964 की, उसमें उनकी चंबलघाटी कविता के साथ मेरी कविता एक घायल दृश्य चारों तरफ उडता है छपी थी. उससे पहले नवलेखन में भी मेरी और मुक्तिबोध की कवितायें छपी थीं. मुझ जैसे नौसिखिये कवि की हैसीयत ही क्या थी. लेकिन ये मुक्तिबोध और हरिशंकर परसाई के संस्पर्श और विनोदकुमार शुक्ल एवं ज्ञानरंजन की संगत का असर था. मुक्तिबोध के होने ने भविष्य की एक पूरी पीढी को तैयार कर दिया, जो हिंदी कविता में आज भी मौजूद है. 1954 साल बाद तक भी ये पीढी सक्रिय है. पहले मुक्तिबोध उज्जैन में थे फिर वे राजनांदगांव आ गये. चंद्रकांत देवताले उज्जैन मे थे. विनोद कुमार शुक्ल राजनांदगांव में थे. मुक्तिबोध जबलपुर आते थे, तो जबलपुर में मैं, सोमदत्त और मलय थे. फिर भोपाल आते जाते थे. राजेश जोशी, कुमार अंबुज, एकांत श्रीवास्तव सब मध्य प्रदेश से ही क्यों आते हैं? ये परंपरा मुक्तिबोध ने पैदा की. मुक्तिबोध के एक दो काव्य पाठ ने हमारी सारी सेंसिबिलिटी ही बदल दी थी. कुछ कविताओं का कोई जोड नहीं मिलेगा.—

वो सिर्फ सूरज ही होता है
जो मारा जाता है हर शाम
और फिर रौशनी के कटे हुए सिर
टांग दिये जाते हैं खंबों से.

कटा हुआ सिर आपको हिंदी कविता में नहीं मिलेगा. वो आपको मिलेगा आल्हा में. ये 
मेरी कविता है. तो ये रेखांकन कटा हुआ सिर का बिंब कहां है, वो छायावाद में है?
प्रयोगवाद मे है? आल्हा के बाद कटा सिर नरेश सक्सेना के पास मिलेगा. विनोद कुमार शुक्ल की कविता है-  

मैं अठन्नी के सिक्के पर  देखता हूँ  
एक कटा हुआ सिर  
तो दूसरी अठन्नी पर उसका धड होना चाहिये 
रुपया तो तभी बनेगा.

इसके स्रोत  मुक्तिबोध में मिलेंगे. मुक्तिबोध की कविता में एक अजीब तरह का उजाड सन्नाटा और भयानकता है, जिसने आगे की पीढियों को हमेशा के लिये बदल दिया. सारे कवि अलग तरीके के हैं पर सबके विकास पर मुक्तिबोध ने ऐसा दूरगामी प्रभाव डाला कि ये एकदम से बदल गये और नई ऊर्जा से अपने व्यक्तित्व को और अपनी कविता को बदला.

उमाकांत- तो इसे हम मुक्तिबोध स्कूल ऑफ पोएट्री कह सकते हैं?
नरेश सक्सेना- मुक्तिबोध स्कूल इसलिये नहीं कह सकते कि मुक्तिबोध को कोई फ़ॉलो नहीं कर रहा है. पर प्रभावित तो किया है. मुक्तिबोध  की नकल करते कोई नहीं मिलेगा. बहुत बारीक मुद्दे हैं, पर मै मुक्तिबोध की छाया सिद्ध कर सकता हूं. शायद और कोई न कर पाये क्योंकि मैने बारीकी से देखा है. मुक्तिबोध ने उस समय की कविता की संरचना और विचार तोड दिये. हमारे भी टूट गये भरभरा कर, अब हमें नयी तरह से कविता की संरचना करनी थी. हम कवियों की पृष्ठभूमि और व्यक्तित्व अलग अलग था. मैं इंजीनियरिंग पढ रहा था. कोई एग्रीकल्चर पढ रहा था. सोमदत्त वेटरनिरी साइंस पढ रहे थे, मलय हिंदी साहित्य पढा रहे थे. चार लोग चार अलग क्षेत्रों में हैं अपनी युवा स्थिति में. उनका विकास अलग अलग होगा. पर छायावादोत्तर नहीं होगा क्योंकि ये निराला और प्रयोगवादी कवियों से प्रभावित पीढी नहीं है. ये अपने आप में मौलिक ढंग से विकसित पीढी है जिसके समक्ष मुक्तिबोध ने कविता के पूर्व-निर्मित ढांचो को तोड दिया था. अत: इसका मौलिक विकास हुआ है.विष्णु खरे की एक कविता है- चिडियों तुम मरने के लिये कहां जाती हो. ये चिडियों के मरने की बात कहां से आ रही है. धर्मयुग में मेरी एक कविता छपती है– 

मुझे याद आता है बचपन में घर के सामने लटका  
एक मरे हुए पक्षी का काला शरीर.

मरे हुए पक्षी की बात कविता में कहाँ से आ गयी? इस प्रकार जबलपुर, उज्जैन, भोपाल और मध्य प्रदेश के दूसरे शहरों में एक नयी तरह की कविता आयी. सभी ने मुक्तिबोध को व्यक्तिगत रूप से सुना था. क्योंकि उस समय दूसरा कोई जरिया नहीं था.

उमाकांत-  प्रभात त्रिपाठी, रामेश्वर प्रसाद दुबे भी कविता लिखते हैं. वो भी मध्य प्रदेश के है. श्रीकांत वर्मा भी थे.
नरेश सक्सेना- एक घटना बताता हूँ. एक बार मैंने परसाई जी से कहा कि कोई कविता संग्रह दे दीजिये. उस समय 1958 में परसाई जी को एक युवा कवि को देने के लिये कोई कविता संग्रह नहीं मिल रहा था. तो उन्होंने मुझे भटका मेघ श्रीकांत वर्मा का दिया.लेकिन देने के 15 मिनट बाद वापस ले लिया, उसमें भी वही छायावादी शब्दावली थी. फिर उन्होंने मुझे जबलपुर के एक स्थानीय कवि श्री बालपाण्डे का संग्रह आस्था की कगारें दिया. उसकी एक कविता बताता हूं— हमारे पांव पांव, तुम्हारे पांव चरण / क्यों भईया शिव चरण. उनको लगा कि कविता का ये तेवर मेरे लिये ठीक है. मेरा पहला कविता संग्रह मेरे छपना प्रारंभ होने के 45 वर्ष बाद ही आया. बिना किसी संग्रह के भी मुझे पहल और हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग का पुरस्कार मिला.मुझे वो सब मिला जो किसी को किसी किताब के साथ ही मिलता है. कोई ऐसा समारोह कविता का नहीं था, जिसमें मैं नहीं था. जिस समय मैंने मुक्तिबोध सृजन पीठ में प्रवेश किया, मेरी आंखों में आंसू थे. वहा हरिशंकर परसाई रह चुके थे. मैं उस देहरी को बार बार छू रहा था. मैं भीतर नही जा रहा था. हमारे पास हरिशंकर परसाई जैसा उद्दात्त व्यक्तित्व कोई दूसरा नहीं है. वो सिर्फ लेखन से गुजारा करते थे. मैंने उन्हें कभी किसी के सामने झुकते नहीं देखा. मुझे लघुकथा फिल्म संबंध के लिये 1991 में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. उस वर्ष ये अवार्ड लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन, गोविंद निहलानी को मिला. पर किसी ने मेरी फिल्म ही नही देखी. मैंने कोई प्रदर्शन नहीं किया. मैं विमोचन भी नही करता अपनी किताबों का. मैंने गिरिराज किशोर के मशहूर उपन्यास पर फीचर फिल्म भी बनायी. इसको बनाना मुश्किल था. पुराने दौर को जीवित करना था. भोपाल दूरदर्शन के लिये एक सीरियल पत्थर और पानी बनाया  था.
उमाकांत- पक्षधर के नये अंक में विनोद कुमार शुक्ल का साक्षात्कार छपा है. उन्होंने कहा है कि मैं और नरेश सक्सेना साईकिल हाथ में लिये चलते हुए सारी सारी रात कविता के बारे में बात करते हुए बिता देते थे.
नरेश सक्सेना- हाँ वो सही कह रहे हैं. हम हिंदी कविता पर लगातार बातचीत करते थे, उसपर बहस करते थे. आप देख सकते हैं कि कविता कैसे बन रही थी या बदल रही थी. जिस समारोह में महादेवी वर्मा और शिवमंगल सिंह सुमन काव्यपाठ करते थे उसमे भी मैं कविता पढ चुका हूँ. अशोक वाजपेयी ने एक सीडी तैयार कराया, जिसमें उन्होंने 32 कवियों को शामिल किया, उसमें मैं भी था. बाद में मेरी कविता समुद्र पर हो रही है बारिश पर विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा. उन्होंने प्रारंभ में मेरी 4 पंक्तियां कोट की—

लाशों को हमसे ज्यादा हवा चाहिए
लाशों को  हमसे ज्यादा पानी चाहिए
उन्हें हमसे ज्यादा आग चाहिए  
उन्हें हमसे ज्यादा बर्फ चाहिए 
लाशों को सब कुछ हमसे ज्यादा चाहिए
उन्हें चाहिए इतिहास में हमसे ज्यादा जगह

उन्होंने लिखा कि ये जर्मन भाषा के महान कवि ब्रेख्त की पंक्तियां नहीं हैं बल्कि हिंदी के मौलिक कवि नरेश सक्सेना की हैं. ये कॉंम्प्लीमेण्ट उन्होंने मुझे दिया. इस प्रकार एक कविता पर लिखा. ये लेख सहारा में छपा. इस पर एकांत श्रीवास्तव ने लिखा, जो वागर्थ में छपा. अभी तद्भव का अखिलेश ने जो चयन छापा है उसमें भी यह कविता है. दूसरा संग्रह ज्ञानपीठ को दे दिया है. तीसरा भी तैयार है. कुछ गीत भी लिखे हैं. चंद्रदेव सिंह की पांच जोड बांसुरी में केदार नाथ सिंह के साथ मेरे भी गीत हैं. मेरी कविता

सुना  हमारी और तुम्हारी  बात पर
आंगन की तुलसी को हरसिंगार ने 
सुना सुना कर ताने मारे रात भर 

काफी मशहूर रही है. धर्मयुग में मेरे गीत छपते थे. लोगों को ये भ्रम है कि मैं पहले गीत लिखता था फिर कविता में आया, जबकि मैं पहले कविता ही लिखता था, गीत बाद में लिखा. आज भी कभी-कभी मैं छंद में लिखता हूं. मैं कविता में छंदों का प्रयोग करता हूं. मेरी कविता का गद्य अलग किस्म का होता है. साधारण गद्य में कविता नहीं लिखी जाती. कविता का गद्य अलग होता ही है. कविता मे शब्द की अद्वितीयता होती है. अगर आप बहुत थोडे से शब्दों में ज्यादा बडी बात नहीं कहते या आप छोटी कविता में बडा अर्थ नहीं दे रहे हैं तो यह कविता ही नही है. कविता का जो अर्थ है, काव्य-पंक्ति का जो अर्थ है वो पंक्ति से बहुत बडा होता है. अगर आप बहुत सारी पंक्तियों मे बहुत थोडा सा अर्थ दे रहे हैं तो वो कविता नहीं होगी, कोई सजावटी चीज हो सकती है. वो शारीरिक स्तर पर, स्थूल स्तर पर आनंद देने वाली भी हो सकती है पर सूक्ष्म स्तर पर कोई बडा संदेश देने वाली कविता वो नहीं होगी. लोग साधारण सूचना देने वाले गद्य मे छोटी- बडी पंक्तियां लिख कर सोच रहे हैं कि कविता लिख रहे हैं. ये भ्रम भी न हो कि कविता सिर्फ लय से होती है, ध्वन्यात्मकता से होती है, बिंब से होती है. इन सभी से मिल कर कविता बनती है. अगर आपके हाथ में पत्थर है तो पत्थर को छोड कर हीरा उठायेंगे. अगर हीरे को छोडेंगे तो कोई महत्वपूर्ण चीज़ आपके सामने पाने के लिए होनी चाहिये. इसी आधार पर देखें तो पाते हैं कि लोग अगर छंद, लय और ध्वनि को छोड रहे हैं तो इसके बदले क्या दे रहे हैं? वो क्या है – बडी दृष्टि, बडा तर्क, बडा बिंब, नई संवेदना जिसके लिए कविता के बुनियादी तत्वों को छोडा जा रहा है. कविता अगर ये मानती है कि वह विज्ञान से आगे है तो देखें कि जिस तरह वैज्ञानिक के पास फालतू शब्दावली नहीं होती, उसके पास सजावटी शब्द नहीं होते, उसी तरह कविता के पास भी फालतू और अधिक शब्दों के लिये जगह नहीं होती, सूक्ष्मता और स्पष्टता  बहुत जरूरी है. यह कविता की भाषा का पैमाना है. विज्ञान का काम व्यक्ति के जीवन से निरपेक्ष होता है. वह पदार्थ के रहस्यों की, प्रकृति के रहस्यों की खोज कर रहा होता है. आइंस्टीन ने कहा कि यदि मुझे पता होता कि अणु बम, परमाणु बम इतनी विभीषिका फैलायेंगे तो मैं इसे कभी न बनाता. आइंस्टीन जर्मनी से भागे हुए यहूदी थे. उन्होंने ही तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपतिको लिख कर इस बम को बनाने को कहा था क्योंकि वे हिटलर से बेहद भयभीत थे. पर कवि, कलाकार की खोज मनुष्य के जीवन से निरपेक्ष होकर नहीं होती . उसकी चिंता के केंद्र में मनुष्य का जीवन होता है. मनुष्य के जीवन को बदलने के लिये भावना की जरूरत होती है. भौतिक चीजों से जीवन नही बदलता है, जीवन बदलता है संवेदना से. संवेदना से जो ज्ञान प्राप्त होता है जिसे संवेदनात्मक ज्ञान कहते हैं, जो मनुष्यता प्रप्त होती है वो काम कलाओं का है. वो आपको आह्लादित करेगी, या दुखी करेगी अगर नही करेगी तो फिर वो कविता नही होगी. कोई बडा रहस्योद्घाटन जीवन का करे या आपको आह्लादित करे कि वाह क्या बात कही है . कविता की भाषा की अद्वीतियता  का ऐसा  प्रभाव है कि लोग इसे बार बार सुनना चाहते हैं, कहानी के साथ ऐसा नहीं होता. कहानी में लोग आगे की बात सुनना चाहते हैं.

उमाकांत- आपकी रूचि साहित्य के साथ अन्य कलाओं जैसे फिल्म, संगीत आदि में है. इन माध्यमों ने आपकी कविता और इसकी भाषा को कैसे प्रभावित किया?
नरेश सक्सेना– भाषा का सबसे सुंदर व सृजनात्मक रूप कविता में आता है. अब भाषा की सृजनात्मकता व सुंदर रूप के लिये तत्व अन्य कलाओं से लाये जाते है. संगीत, लय, चित्रकला, अभिनय भाषा से पहले आये हैं. मानव खतरे कैसे बताता होगा, जाहिर सी बात है अभिनय करके. नृत्य रिदम ताल पहले आया है. जो चीज बाद में आती है वो पुरानी चीजों का इस्तेमाल करती है. भाषा बाद में आई इसलिए इनका इस्तेमाल करती है. आप मुझे वो कविता या कहानी बता दीजिए जिसके बिम्ब आपके जेहन में नहीं रह गए हों. कोई फिल्म हो जिसके फ्रेम के बिम्ब नहीं याद हों. विचारों के बिंब नहीं बनते. विचारों के बिम्ब बहुत जटिल होते है, दरअसल होते ही नहीं है. एनर्जी का बिंब कैसा होगा? मेरी कविताओं में विज्ञान की भाषा आती है. बचपन के 10 साल तक तो नदी, खरगोश, पेड, चीतल, चट्टानें और जंगल ही मेरे बिंब थे. मेरा बचपन बीहड इलाके में बीता. जिस कोठी में मैं रहता था, बाद में उसी कोठी में जयप्रकाश नारायण ने सैकडों डाकुओं से समर्पण कराया था. 10 साल के बाद लोगों ने कहा कि ये बच्चा तो स्कूल ही नही जाता. लेकिन मेरे पिता मुझे घर पर ही गणित पढाते थे, लिहाजा मुरैना में मुझे सीधे 5वें दर्जे मे भर्ती किया. इण्टर में मैं बनारस के सेंट्रल कॉलेज में भर्ती हुआ. वहां की पढाई बहुत कठिन थी. मेरा प्रैक्टीकल बिगड गया था, तो मैंने वहां की परीक्षा को छोड दिया. फिर इण्टर ग्वालियर से किया और इंजीनियरिंग कॉलेज जबलपुर में पहुंच गया. वहां हर चीज को गहराई से जानने की मेरी रूचि उत्पन्न हुई. पर चूंकि मेरी शिक्षा दीक्षा हिंदी में हुई थी, तो कई बार अंग्रेजी में दी गई बातों को समझने में दिक्कत का सामना करना पडता था. उस समय ज्यादा से ज्यादा बातों को जानने में जब मैं शिक्षकों से मदद मांगता था तो वे भी टाल कर सिर्फ कोर्स तक ही सीमित रहने की बात कहते थे. इंजीनियरिंग के क्षेत्र की ही बात करें तो टाइम्स में छपी रिपोर्ट ने खुद इसका खुलासा किया है कि आज भी हिंदुस्तान में विश्वविद्यालयों या आई.आई.टी जैसे संस्थानों में भी 75% छात्रों को विषय की बेसिक समझ नहीं होती है. हमारे यहां ज्ञान को गहराई से समझने की जगह सिर्फ कोर्स या पाठ्यक्रम पूरा करने पर ही जोर दिया जाता है, जिससे बडी से बडी डिग्री लेने के बाद भी लोगों का बेसिक ज्ञान बहुत कमजोर होता है. साथ ही हिंदी माध्यमों के बच्चों के साथ भी बडी दिक्कत होती है. अमूमन आठवीं या दसवीं में प्रादेशिक स्तर पर योग्यता सूची में अपना स्थान बनाने वाले बच्चे कई बार अंग्रेजी ज्ञान या कई बार गरीबी के चलते मेडीकल, इंजीनियरिंग या कि सिविल आदि में आने से वंचित रह जाते हैं. मेरे कई मित्र थे जो आठवीं दसवीं में गणित विज्ञान जैसे विषयों में माहिर थे. पर उचित अवसर के अभाव में वो अपनी मंजिल को न पा सके. उसमें तो एक का मानसिक संतुलन भी खो गया था. ये बच्चों के साथ क्या हो रहा है? हम लोग भारत के बेहद क्रूर व दलाल किस्म के वर्ग से संबंध रखते हैं. इस देश पर अंग्रेजी शासन कर रही है. उसी के हाथ में सत्ता व संपत्ति है, बाकि बच्चे भूखे व कुपोषित हैं, उन्हीं 10-15 हजार साधन सम्पन्न बच्चों में से आई.आई.टी., आई.आई.एम., मेडीकल, सिविल में बैठने वाले बच्चे होते हैं, जिनके पिताओं के पास धन होता है.
उमाकांत- हिंदी की वर्तमान स्थिति और भविष्य के बारे में क्या सोचते हैं?
नरेश सक्सेना- बहुत तरह के भ्रम फैले हुए हैं कि हिंदी बहुत फैल रही है, जब कि वास्तविकता अलग है. हिंदी बाजार की भाषा है तो बाजार फैलेगा तो हिंदी भी फैलेगी पर हिंदी कभी भी सत्ता या संपत्ति की भाषा नहीं बन पाई. इसीलिये सत्ता पर भी वही लोग काबिज हैं जो अंग्रेजी के जानकार हैं. चाहें वो मनमोहन सिंह हों या पी. चिदम्बरम हों. सिनेमा को ही लें तो देखतें हैं कि हिंदी में काम करने वाले सारे के सारे कलाकार हिंदी संवादों को रोमन में लिखवाते हैं. उन्हें ठीक से हिंदी पढना ही नहीं आता. मेरा नाटक प्रेत पुणे महोत्सव में खेला गया था. वह जब मुंबई के एन.सी.पी.ए. में प्रस्तुत किया जा रहा था, तो मैंने नाटक की स्क्रिप्ट मांगी. देख कर मैं हैरान था कि एक भी स्क्रिप्ट हिंदी में नहीं थी, सारी की सारी रोमन लिपि में ही लिखी हुई थीं. अंग्रेजी के पब्लिक स्कूलों में तो बच्चों को हिंदी लिखने पर ही पाबंदी है. उन्हें सारे विषय अंग्रेजी में ही पढाये जाते है. हिंदी बोलने पर स्कूल वाले बच्चों को सज़ा देते हैं. धीरे-धीरे बच्चों के भीतर हिंदी को लेकर एक हीन भावना आ जाती है. उन्हें लगता है कि अंग्रेजी के अलावा हिंदी का कोई भविष्य अब इस देश में नहीं है. हिंदी न इस देश की भाषा कभी बन पाई न बन पाएगी. 65 साल बाद भी कोई नही कहता कि हिंदी में विज्ञान पढाया जाए या अन्य विषय हिंदी माध्यम में आयें. 100 साल बाद कोई नही कहेगा कि विज्ञान या कला के विषयों को हिंदी मे पढाइए. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम या कहें कि दुनिया भर के सारे वैज्ञानिक इस बात पर एकमत हैं कि बच्चे को ज्ञान उसकी मातृभाषा में ही देनी चाहिये, जिससे उसका सर्वांगीण विकास हो. पर लोग इसे लागू नहीं करेंगे क्योंकि अगर ऐसा हो गया तो देशी अँग्रेज तो क्या बल्कि विदेशी अँग्रेजों का वर्चस्व हमारे ऊपर से खत्म हो जायेगा. अँग्रेजी के रहने से हम हमेशा पिछडे रहेंगे. उनकी टूटी फूटी भाषा बोलेंगे और हमेशा वही लोग प्रभुत्व में रहेंगे, जो हमारी नदियों, पहाडों, जंगलों को औने पौने दामों में बेच डालेंगे और हमारे आदिवासियों को भूमिहीन बना देंगे. नक्सलवाद के नाम पर आदिवासियों के हाथों में बंदूकें आयेंगी क्योंकि भूखे रहने से अच्छा है कि मार कर ही मरें. उनके साथ गुण्डे, बदमाश भी शामिल हो जाते हैं,जो फिरौती मांगते हैं और विदेशों से उन्हें सहायता मिलती है, वो चाहे चीन हो, पाकिस्तान हो, बांग्लादेश हो या अन्य. इसीलिये वे देश में सत्ता बनाये हैं. आज सैंकडों की संख्या में जिले नक्सलवाद से प्रभावित हैं. आखिर ये कौन लोग हैं? आखिर हैं तो हमारे देश वासी ही न और अगर लोग इस गलतफहमी का शिकार हैं कि हिंदी हमारी राज्यभाषा है,तो ऐसा न है न होगा. 10-12 साल में वो दिन भी आएगा कि लोग कहेंगे कि हमारी भाषा भोजपुरी है,अवधी है, बुंदेलखण्डी है. आगे लोकसभा ये प्रस्ताव पास करा सकती है कि गलती से खडी बोली हिंदी को राजभाषा का दर्जा दे दिया गया है. ये तो अल्पसंख्यकों की भाषा है.तो फिर कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता. अतः अँग्रेजी को ही राजभाषा बना दिया जाये. अफ्रीका के तमाम देशों में ऐसा हुआ है, जहाँ उनकी अपनी मातृभाषायें खत्म हो गयी हैं. जो टूटी फूटी भाषा में अपना काम चलाते हैं वो पिछडे हैं और हमेशा पिछडे ही रहेंगे.
उमाकांत- आपके बचपन की स्मृतियाँ आपकी रचनाओं में किस तरह आती हैं.
नरेश सक्सेना- मेरे पिता सिंचाई विभाग में थे. नहरो, नदियों, पानी के स्त्रोतों में ही मेरा बचपन बीता. मैं बना भी पानी का इंजीनियर. ये मेरा अपना चुनाव था. पानी मेरी कविताओं में कई रूपों में आता है. मेरे नये संग्रह में एक कविता पानी क्या कर रहा है शीर्षक से है. एक अन्य कविता है जिसमें एक नदी का पानी मुझे कई नदियों को पार करा के एक प्यासे शहर ले जाना है. पानी मेरी रोजी रही है, मेरी चिंता में भी रहा है. बचपन की स्मृतियों में नदियां ,चट्टानें, झरने रहे हैं. मेरी एक कविता में नदियों के नाम आते हैं जो कि लडकियों के नाम हैं. उसके शब्द हैंगंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, गोमती, अलकनंदा, नर्मदा, सरयू, ये लडकियों के नाम हैं. चंबल किसी लडकी का नाम नहीं . इसे सुनाते समय मेरा गला रूंध जाता है. स्त्री, नदियां ,पानी कैसे एक दूसरे से मिल जाते हैं, ये मैं देखता था.
उमाकांत- बचपन की कोई घटना,जिसने आपको सर्वाधिक प्रभावित किया हो?                        
नरेश सक्सेना- बचपन की बात करें तो एक घटना ने मेरे भीतर जबर्दस्त साहस और मजबूती प्रदान की. मेरे बचपन में एक मावसिया नाम का आदमी था, जो घर में पानी लाने का काम करता था. एक बार जब वो पानी लेने कुएं पर गया जो कि जंगल के थोडा भीतर था, तो वहां उसका सामना शेर से हो गया. उसने शेर से बचने के लिये कुएं के पत्थर और बाल्टी का सहारा लिया. शेर से बचने के लिये मावसिया कुएं में कूद गया. शेर भी कुएं में गिर गया. कुएं में मावसिया की कमर तक पानी था, जबकि शेर पानी में डूबा जा रहा था. मावसिया की उंगलियां शेर के मुंह में फँसी थीं. उसने बहादुरी दिखाते हुए दूसरे हाथ से शेर को डुबो दिया. जब लोग ढूंढने निकले, तो कुएं में शेर और मावसिया को एक साथ पाया. मावसिया को बाहर निकालने में उसकी उंगलियां शेर के जबडे में ही फँस कर कट गयीं. इस पूरी घटना ने मेरे बालपन पर बहुत गहरा प्रभाव डाला. उसकी कटी उंगलियां शेर से भिड कर जीतने का प्रतीक थीं. मैने महसूस् किया कि जब आप संघर्ष करने का दृढ निश्चय कर लेते हैं, तो हर चीज़ आपका साथ देने को तत्पर हो जाती है. फिर चाहे वो कुएं का पत्थर हो या बाल्टी. ये संघर्ष मेरी कविताओं में आता है. इसी के साथ मैंने पानी के जमने की प्रक्रिया को भी लिया है. पानी जब जमता है तो मछलियां मर जाती हैं. पानी हमेशा अपनी सतह को जमाता है, भीतर अपना तापमान उतना ही रखता है, जिसमें मछलियां आराम से रह सकें. चाहें तापमान 3 डिग्री हो या उससे कम पर पानी हमेशा अपना भीतरी तापमान 4 डिग्री रखता है, जो कि मछलियों के जिंदा रहने के लिये आवश्यक है. पानी का प्रकृति के साथ एक उल्टा संबंध है. ये संबंध मेरी कविताओं में आता है. मेरी इंजीनियरिंग की पढाई के दौरान प्राप्त किया गया तमाम ज्ञान रेत, बालू, सीमेंण्ट, दीवार की दरारें, दीवार के तनाव से उनका संबंध‌‌ ‌‌-‌-‌सभी मेरी कविताओं के हिस्से बने हैं. इसी से वो कविता कि पानी क्या कर रहा है में है-

पानी कैसे शीत कटिबंधो मे, बर्फ बन कर के
मछलियों का कवच बन गया है 
और मछलियां जीवन का आनंद मना रही हैं
और पानी ने मछलियों को बचाने के लिए 
बर्फ का रुप धारण किया हुआ है.

उस समय का सारा अनुभव बहुत सरल और स्वाभाविक रुप मे मनुष्य के जीवन का संदर्भ लेकर कविता में आता है, पदार्थ का संदर्भ ले कर नहीं आता है. इसी तरह दीवारों मे दरार के संबंध मे एक कविता है-  

खत्म हुआ ईंटों के जोडों का तनाव
पलस्तर पर उभर आई हल्की सी मुस्कान
दौडी दौडी चिडिया ले आई अपना अन्न जल 
फूट्ने लगे अंकुर जहां था तनाव
और होने लगा उत्सव…………. 
हंसते हंसते दोहरी हुई जाती है दीवार.     

एक और कविता है कंक्रीटजो रेत, बालू और सीमेंट को मिलाने के अनुपात के बहाने रिश्तों में दूसरों के लिये स्पेस की बात करती है.                                        

उमाकांत- विजय जी से आपकी शादी बहुत रोचक ढंग से हुई थी. बल्कि कहें तो हिंदी की सर्वाधिक दिलचस्प शादी रही है.
नरेश सक्सेना– मेरी पत्नी जबलपुर से थीं. उनकी मां बेनीकुंवर बाई मशहूर शास्त्रीय गायिका और तवायफ थीं. बेनीबाई का कोठा जबलपुर के गुरंडी नाम के इलाके में था. वहीं मेरी पत्नी विजय रहती थीं. मेरा विवाह वहीं हुआ, वहीं बारात भी गयी. उनका कहना था कि यहां से तमाम लडकियां शादी के नाम पर जाती हैं पर उनके साथ क्या होता है किसी को पता नहीं, इसलिये अगर शादी हो रही है तो बारात यहीं आयेगी. मेरी शादी में ज्ञानरंजन, विनोद कुमार शुक्ल, रवींद्र कालिया, सोमदत्त और हरिशंकर परसाई आदि शामिल थे. यहां तक कि मेरे निमंत्रण पत्र के उत्तरापेक्षी में तीन लोगों का नाम गया था, जिनमें हरिशंकर परसाई, भवानी प्रसाद तिवारी जो उस समय जबलपुर के मेयर थे और नर्मदा प्रसाद खरे जो काफी मशहूर पत्रकार थे, शामिल थे. मेरी सास को मुझ पर बडा संदेह था. उनका जीवन बहुत संघर्षमय था. अतः यह स्वाभाविक था. उन्होंने शहर के मेयर भवानी प्रसाद तिवारी जो सोशलिस्ट पार्टी के एम.पी. भी थे, से मेरे बारे में पूछा. उन्होंने मेरी काफी प्रशंसा की. इस पर मेरी सास को लगा कि शायद उनकी बेटी के आग्रह पर तिवारी जी झूठ बोल रहे हैं. जब उन्हें भरोसा नहीं हुआ तो उन्होंने परसाई जी को बुलवा कर मेरे बारे में पूछ्ताछ की. परसाई जी के भी सकारात्मक उत्तर से भी उन्हें संतोष न हुआ. इस पर परसाई जी ने कहा कि बेनी बाई, अगर तुम शादी के लिये तैयार नहीं होगी, तो ये खुद शादी कर लेंगे, नहीं तो मैं करा दूँगा. तब वे बोलीं कि ठीक है, आपको इस शादी की जिम्मेदारी लेनी होगी. शादी का कार्ड आप लोगों की तरफ से जायेगा. इस पर परसाई जी राजी हो गये. उसी समय नर्मदा जी भी आये हुए थे. उन्होंने भी इस कार्ड में अपना नाम डलवाने की इच्छा व्यक्त की. इस प्रकार मेरी पत्नी विजय की तरफ से शादी के कार्ड में इन तीनों का नाम गया था. विजय को गायन का बहुत शौक था. उन्होंने आकाशवाणी व दूरदर्शन के लिये भी गाया था. उनका संगीत का ज्ञान बहुत बेहतर था. उन्हीं की बदौलत मेरी संगीत की समझ काफी बेहतर हुई. बांसुरी मैं काफी पहले से बजाता था. इन सभी ने मेरी कविताओं को सम्पन्न किया.
उमाकांत- विजय जी ने फिल्मों का निर्देशन भी किया है. इसकी ट्रेनिंग उन्हें कहाँ से मिली?
नरेश सक्सेना- शादी के बाद मैंने अपनी पत्नी को 1970 में फिल्म डायरेक्शन में डिप्लोमा के लिये  फिल्म इंस्टीट्यूट पूना भेजा. ये वो दौर था जब महिलाओं को फिल्म डायरेक्शन में दाखिला नहीं दिया जाता था. ये दौर डॉक्यूमेंण्ट्री का था. उसकी काफी महत्ता होती थी. विजय के साक्षात्कार में ऋत्विक घटक और मृणाल सेन उपस्थित थे. उन्होंने कहा कि कैमरा लेकर नदी नाले, पहाड, गढ्ढों, रात, दिन कभी भी जाना होता है. तुम महिला हो कर ये सब कैसे कर पाओगी? पर मेरी पत्नी डटीं रही और अंत में उन्हें प्रवेश मिला. इस प्रकार मेरी पत्नी फिल्म इंस्टीट्यूट पूना में फिल्म डायरेक्शन की पहली महिला विद्यार्थी थीं. घर में संगीत का भी माहौल था. कविता से इतर मेरी सांस्कृतिक सम्पन्नता में मेरी पत्नी की एक बेहद अहम भूमिका थी.
उमाकांत- विजय जी के कारण आपका संवाद उस दौर के महत्वपूर्ण कलाकारों से भी रहा होगा. कला की बडी दुनिया के दरवाजे आपके लिये खुल गये होंगे.
नरेश सक्सेना- जया भादुडी इनसे एक साल सीनियर थीं. शबाना आज़मी, मिथुन चक्रवर्ती उनके बैच के थे. कुमार शाहनी उनसे सीनियर थे. 1973-74 में उन्होंने अपना फिल्म डायरेक्शन डिप्लोमा का तीन वर्ष का कोर्स पूरा किया, अपने कोर्स में अकेली महिला विद्यार्थी के रूप में. उन्होंने विनोद कुमार शुक्ल की कविता पर एक फिल्म भी बनायी थी. वो कविता थी-

समता की होड में देखता हूँ 
औरतों के मूछें 
कि उनके हाथ मूंछे 
पांव मूछें , सीना मूंछें. 

विनोद कुमार शुक्ल अजीब ढंग से मौलिक कवि हैं.  मैं उनकी मौलिकता को छू भी नहीं पाता.

उमाकांत- विजय जी ने क्या और भी फिल्में बनाई थीं?
नरेश सक्सेना- जॉनसार बाबर एक फिल्म बनायी थी. लाखा मंडल जब पहुंचे हम लोग तो लोगों ने कहा कि आप पहली महिला हैं, जो मैदान से दुर्गम पहाडों पर यमुना पार कर के आयी हैं. उस समय पुल भी टूटा था. पहाडी नदियों को पार करना अपने आप में एक संकट होता है. विजय ने और भी कई फिल्में बनायी थी,पर बची नहीं. उनकी कई फिल्मों की स्क्रिप्ट मैंने ही लिखी थी. संबंध फिल्म मैंने ही बनायी थी.उसकी स्क्रिप्ट मेरी थी और प्रस्तावित विजय ने किया था,पर जब तक फिल्म बनाने का स्वीकृति पत्र आया, तब तक वो सूरीनाम चली गयीं थीं. फिल्म बनाने के लिये कोई नहीं मिल रहा था क्योंकि बजट बहुत कम था. फण्ड लैप्स होने की भी बात आ रही थी. तब मैं इस फिल्म को बनाने के लिये तैयार हुआ. उस समय तक मैंने कोई फिल्म नहीं बनायी थी न ही इसकी कोई औपचारिक ट्रेनिंग मैंने ली थी. इकॉलॉजी डिपार्टमेण्ट के डायरेक्टर मुझे सेक्रेटरी जी. गणेश के पास ले गया.वहाँ पर मुझसे पूछा गया कि बिना अनुभव और औपचारिक ट्रेनिंग के फिल्म कैसे बनेगी. मैंने उसी समय उन्हीं के फोन से कैमरे के लिये सिनेमैटोग्राफर के. के. पम्मी से बात की और फिल्म के लिये वी. प्रभाकर जो कि मराठी फिल्मों के बडे एडीटर थे, को फोन रा स्टाक के लिये लगाया. दोनों तरफ से दो दिन में शूटिंग के लिये स्वीकृति मिल गयी. मेरे आत्मविश्वास को देख कर मुझे ये फिल्म बनाने की इजाज़त दे दी गयी. जब मैं इस फिल्म पर काम कर रहा था उस समय मेरे पास पूरी स्क्रिप्ट नहीं थी, सिर्फ सिनोप्सिस भर थी. पर एक एक दृश्य मेरे मन में बेहद स्पष्ट था. फिल्म बनने के बाद उसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था. ज्यूरी मेंबर के भाषण में खासतौर पर इस फिल्म का जिक्र किया गया और इसके व्याकरण की बेहद प्रशंसा की गयी.
उमाकांत– कविता की भाषा के बारे में आप क्या सोचते हैं?
नरेश सक्सेना- भाषा से हम इस दुनिया को जानने की कोशिश करते हैं, पर भाषा किन चीज़ों से बनी है उसे ही भूल जाते हैं, भाषा तो बिंबों से बनी है, ध्वन्यात्मकता से बनी है,लय से बनी है, उन पर हमें ध्यान देना चाहिये. और जब वह कला में परिवर्तित होती है तो सूक्ष्मता की, सौंदर्य की और संवेदना की मांग करती है. स्थूल सौंदर्य की रचना तो इनसे हो जाती है जिसमे तुक हैं, लय हैं, ध्वनियां हैं पर कविता में आत्मा पडती है उसकी संवेदना से. कविता अपना काम श्रोता के पास करती है. मैं कविता लिखता बाद में हूं, पहले मैं कविता कहता हूँ.
उमाकांत-  ये तो उर्दू की परंपरा है, शेर लिखने से पहले कहना.
नरेश सक्सेना– हां मैं तभी लिखता हूं जब मेरी कविता मुझे मोहती है
उमाकांत- आरंभ पत्रिका की शुरुआत कैसे हुई?
नरेश सक्सेना- 1964 में मेरा पहला अपोइंट्मेंण्ट लखनऊ के कंस्ट्रक्शन डिपार्ट्मेण्ट में असि. इंजीनियर के रूप में हुआ था. पर वास्तव में मेरा मन साहित्य के लिए छटपटता था. इंजीनियरिंग में मन नहीं लगता था. पर बचने का कोई उपाय नहीं था. इस काम में आप ज़रा भी लापरवाह नहीं हो सकते. इंजीनियरिंग के कामकाज की आपाधापी में जब भी मुझे समय मिलता था, मैं लखनऊ कॉफी हाउस की तरफ भागता था. वहां मुझे यशपाल, अमृत लाल नागर, भगवती चरण वर्मा और डॉ राम मनोहर लोहिया जैसे तमाम साहित्यकार, राजनीतिज्ञ, पेण्टर और पत्रकार आदि मिलते थे. वहां से हमने एक पत्रिका आरंभ की शुरुआत की. इसके बारे में लोग कम जानते हैं. मैने कई पत्रिकायें संपादित की हैं, जिसमें रचना समय का कविता विशेषांक है. उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी की छायानट का संपादन किया. रवींद्र कालिया और ममता कालिया के साथ अमरकांत की रचनाओं पर वर्षनाम की पुस्तक संपादित की और उससे पहले आरंभ. आरंभ में जो भी लोग थे, उनमें कोई भी हिंदी साहित्य का नहीं था. मै इंजीनियरिंग के क्षेत्र से था. जयकिशन पेण्टर थे, सरोज पाल गोगी कला कि छात्र थीं, यशपाल के भतीजे अनंत, विनोद भारद्वाज हिंदी साहित्य के विद्यार्थी नहीं थे. पर फिर भी इस टीम ने अपने समय के बडे रचनाकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, भवानी प्रसाद मिश्र, श्रीकांत वर्मा जैसे कवियों की कमजोर रचनाओं को विनम्रतापूर्वक लौटा दिया और कहा कि ये वो कवितायें नहीं हैं जिन्हें हम आपकी प्रतिनिधि कविताएं कह सकें. हम ऐसे युवा रचनाकारों की रचनाओं को सामने लाना चाहते थे, जो आज भले ही बडी रचनायें न लग रही हों पर अपने समय की प्रतिनिधि रचनाओं को सामने लाती हों. आज मैं बहुत आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूं कि आरंभ ने धूमिल और विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं को सबसे पहले प्रकाशित किया था. वो पत्रिका आरंभ थी, जिसने दोनों को महत्वपूर्ण कवियों के रूप में रेखांकित किया. विनोद कुमार शुक्ल पर पहली टिप्पणी मैंने आरंभ में ही लिखी थी. इनमें उनकी वह कविता प्रकाशित थी, जो आज तक कहीं भी प्रकाशित नहीं है. 

मुझमें जडें हैं 
जडों से निकली जडे 
और उनसे भी निकली हुई सिर्फ जडें ही हैं”.

तब एलेक्स हालेय की किताब Roots का प्रकाशन नहीं हुआ था.उसके वर्षों बाद Roots का प्रकाशन हुआ. हिंदी साहित्य में भी जडों की बात अभी शुरू नहीं हुई थी. इसी कविता से हिंदी में जडों की बात इस ताकतवर बिंब के साथ शुरू हुई. आरंभ में हमने खासतौर पर प्रशंसा से भरे हुए एक भी पत्र नहीं छापा. अब जाकर विनोद भारद्वाज ने उन पत्रों को आरम्भ की दुनिया नाम से छपाया है.

उमाकांत- क्या जबलपुर से भी आरंभ का कोई अंक निकला था? इसकी योजना कैसे बनी ?
नरेश सक्सेना– अंक तो जबलपुर से नहीं निकला था.पर आरंभ की आरंभिक बातचीत जबलपुर में ही हुई. दरसल परसाई जी ने विनोद कुमार शुक्ल से कवितायें मांगी और उनकी 5 कविताएं छापी. मुझसे कुछ कवितायें माँगी तो मैंने अपनी 2 कविताएं दी वसुधा के लिए. पर वसुधा का वो अंक निकला ही नही, आर्थिक कारणों से पत्रिका बंद हो गयी. मुझे खास तौर से बहुत दुख हुआ. फिर एक दिन मैं, ज्ञानरंजन और विनोद कुमार शुक्ल बैठे और हमनें एक पत्रिका निकालने की योजना बनायी. वहीं हमने उसका नाम आरंभ तय किया. ज्ञानरंजन ने कहा कि उनके एक मित्र हैं कन्हैया लाल नंदन, जो कि एक चित्रकार हैं. आरंभ का लोगो उन्हीं से बनवाने पर हमारी सहमति बनी.फिर मैं पास हो कर ग्वालियर आ गया. वहां से मेरी नियुक्ति लखनऊ में असिस्टेंट इंजीनियर के पद पर हो गयी. इस प्रकार आंरभ नाम मेरे साथ जबलपुर से लखनऊ आ गया. जब मैं ये पत्रिका प्रारंभ करने के बारे में सोच रहा था, तभी मेरी नजर एक पत्रिका पर पडी. उसका नाम उन्मेष था,जिसे विनोद भारद्वाज संपादित कर रहे थे. उस पत्रिका में मुझे कुछ भी बहुत स्तरीय नहीं लगा. अलबत्ता उसके आखिरी अंक में दो महत्वपूर्ण चीजें थीं, जिसमें एक राजकमल चौधरी की कविता और दूसरी जय कृष्ण के बनाये हुए रेखाचित्र थे. विनोद से मैंने कहा कि तुम अपने समय और श्रम की बर्बादी क्यों कर रहे हो? इसे बंद करो और हम एक नयी पत्रिका निकालते हैं जिसका नाम आरंभ रखेंगे. इस प्रकार ये पत्रिका प्रारंभ हुई. विनोद ने इसके पहले अंक में संपादक के रूप में मेरा नाम जाने का आग्रह किया पर इस पत्रिका में मैंने अपना नाम आगे कभी नहीं दिया. इसका एक कारण था, मेरी नई नई नौकरी थी, विभाग में मुझे कई सारे काम करने को मिले थे. उन कामों को करने में तमाम तरह की दिक्कतें आ रहीं थीं. लगातार अनेक मुद्दों पर मैं लोगों से उलझ जाता था. विभाग में मेरा झगडा शुरू हो गया था. मेरे क्रांतिकारी विचारों से लोग बडे परेशान थे. मुझे लगा कि यदि ये लोग मेरे विचारों को पत्रिका में देखेंगे तो पक्का मेरा तबादला करा दिया जायेगा और ये पत्रिका आगे नहीं निकल पायेगी. अतः एक रणनीति के तहत मैने अपना नाम इस पत्रिका में प्रमुख रूप से नहीं दिया. पत्रिका के पीछे मेरा नाम छपता था, या फिर मेरी रचनाओं पर मेरा नाम होता था.
उमाकांत- क्या आरंभ में विज्ञापन छपते थे? किस तरह के विज्ञापन होते थे?
नरेश सक्सेना- हमारी पत्रिका ने दो अंकों के बाद तय किया कि हम किसी तरह का कोई विज्ञापन अपनी पत्रिका में नहीं छापेंगे. ये भी एक रोचक घटना है. मैं इस पत्रिका में जाने वाली अमूमन सारी सामग्री को देखता था. बस विज्ञापन छपने की जिम्मेदारी मैंने विनोद पर छोडी हुई थी. दूसरा अंक जब छप कर आया तो देखा कि उसमें शराब का विज्ञापन छपा है, तो मैं विनोद पर नाराज़ हुआ.मैंने कहा कि हम पत्रिका का एक चरित्र बनाने का प्रयास कर रहे हैं, उसमें इस तरह की बातें या विज्ञापन इसकी छवि को धूमिल करेंगे. उस समय मैंने कहा कि हम कोई विज्ञापन नहीं लेंगे. इसका जो भी खर्च आयेगा, मैं वहन करूंगा. उस समय मेरी पहली तनख्वाह 407 रूपये 50 पैसे थी. लखनऊ में मैं अपनी दीदी के पास रहता था. मेरा अपना कोई खर्चा भी नहीं था.सबसे बडी बात वो समय बहुत सस्ता था. प्रेस का बिल  70 रू. तक आता था. इसलिये इसका खर्च वहन करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई.
उमाकांत- आप मध्य प्रदेश से लखनऊ गये. मध्य प्रदेश के साहित्यिक वातावरण का आपने जिक्र किया है.लखनऊ का साहित्यिक माहौल कैसा था?
नरेश सक्सेना- जब मै लखनऊ गया तो वहाँ पर कुँवर नारायण अकेले थे. रघुवीर सहाय जा चुके थे. उनकी पत्रिका युगचेतना बंद हो चुकी थी. मनोहरश्याम जोशी भी अब वहाँ नहीं थे. कविता में वहाँ लगभग सन्नाटा फैला हुआ था.पत्रिकाएं कई निकल रही थीं. उत्कर्ष गोपाल उपाध्याय  निकालते थे, अर्थ नामक एक छोटी पत्रिका शरद नामक युवक निकालता था. आरंभ हम लोग निकालते थे, ठाकुर प्रसाद सिंह उत्तरप्रदेश संदेश मे कुछ रचनाए देते रहते थे. तब लखनऊ में कविता से ज्यादा कथा साहित्य का ज़ोर था. अमृत लाल नागर, यशपाल, भगवती चरण वर्मा, श्रीलाल शुक्ल सभी कथाकार थे. केवल कुंवर नारायण कवि थे. कुंवर नारायण का भी कहानी संग्रह आकारों के आस-पास छप चुका था. उन दिनों धूमिल बनारस में रहते थे. उनके आखिरी गीत का संपादन मैंने किया था. धूमिल से जुडा एक रोचक वाकया है. धूमिल कविता बहुत अच्छी लिखते थे पर उनकी रूचि गीतों में भी थी. मैने उनसे कहा कि कहाँ गीतों के चक्कर में पडे हो, कविता अच्छी लिखते हो, कविता ही लिखो. एक बार धूमिल के एक गीत में से मैंने दो पद काट दिये थे, जिससे धूमिल बहुत नाराज़ हुए. उन्होंने आपत्ति की तो मैंने कहा कि आपकी शिकायत और अपनी तरफ से क्षमा याचना मैं पत्रिका के अगले अंक में अवश्य छापूंगा पर उसके साथ आपके काटे हुए पद मुख पृष्ठ पर छपेंगे.इसके बाद धूमिल कुछ ठण्डे हुए.          
उमाकांत– साठ के बाद की युवा-कविता का परिदृश्य कैसा था? कविता को लेकर आलोचना में क्या बहस चल रही थी?                                                                            
नरेश सक्सेना- उस समय नामवरसिंह और धर्मवीर भारती महत्वपूर्ण साहित्यिक चिंतक थे, ये लोग कविता के नाम पर अकविता के कवियों पर बहस कर रहे थे. उन्हीं को युवा पीढी के नाम पर प्रतिष्ठा दिला रहे थे. जो सबसे अयोग्य, सबसे उपेक्षणीय लोग थे, उन्हें प्रतिष्ठा दिला रहे थे, बहस कर के. उस समय गुस्से में भर कर मैंने कुछ नाम लिये और सवाल खडे किये कि ये कौन सी अलक्षित, अनाम और अमूर्त पीढी है, जिसका नाम नहीं लिया जा रहा है. हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि धूमिल, विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, कमलेश हैं या दिल्ली के वे लडके लडकियाँ जो चालू कवितायें लिख रहे हैं और ये लोग उंन्हें प्रतिष्ठा दिला रहे हैं. तब क्या मेरी इच्छा नहीं होती के ऐसे लोगों के कटे हुए सिर पेडों पर लटके देखूं. ये आरंभ में छपा था. इसका प्रमुख वाक्य था- एक अमूर्त अनाम पीढी जिसका नाम कोई नहीं ले रहा. तो मैंने नाम दिया. मुझे गर्व है कि ये शब्द मैने लिखे. जिन कवियों पर वे बहस कर रहे थे ,वे दो चार साल में भुला दिये गये. ”आरंभ” पहली और अकेली पत्रिका थी जो अकविता का मुखर विरोध कर रही थी. नामवर जी ने शायद आलोचना के एक अंक में ”युवा कविता पर एक बहस” नाम का एक लेख लिखा, जो उनकी पुस्तक वाद विवाद संवाद में शामिल है. उसमें उन्होंने मेरी कही बातों- एक अमूर्त अनाम पीढी जिसका नाम कोई नहीं ले रहा, को बिना मेरा नाम लिये एक युवा कवि के नाम पर लिखा. मेरा नाम केवल नामवर जी के यहां ही गायब नहीं हुआ बल्कि ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ की सभी पत्रिकाओं से गायब हो गया. मैं तब धर्मयुग, सारिका में खूब छपता था. धूमिल और विनोद कुमार शुक्ल की तब तक दो चार कवितायें ही छपीं थी. अब धर्मयुग में मेरी रचनायें छपनीं बंद हो गयीं. मैं तब 27 वर्ष का ही था. सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने दिनमान में टिप्पणी लिखी कि छोटी पत्रिकाओं का दिमाग भी छोटा होता हैं. मैंने आरंभ में ही इसका जवाब दिया कि पब्लिक स्कूलों , अरबपति प्रतिष्ठानों, प्रीवीपर्स और राजे महाराजों को दिए जाने वालो उनके यही तर्क होते हैं अपने बारे मे. कमलेश्वर बहुत नाराज़ हुए.वे सारिका में मेरी फोटो छापते थे, जो कविता की पत्रिका नहीं थी. कविता गोष्ठियों की रिपोर्ट से मेरा नाम गायब करने लगे सर्वेश्वर जी. इस तरह से कविता के परिदृश्य से मुझे गायब करने की कोशिश की जाती रही. पर मैं अपने काम में डटा रहा. इन बातों से मुझे कोई नुकसान महसूस नहीं होता.
उमाकांत- अकविता के कवियों पर एलन गिंसबर्ग का प्रभाव आप किस रूप में देखते हैं.
नरेश सक्सेना- इनमें एलन गिंसबर्ग और राजकमल चौधरी की काव्य संवेदना का स्तर अलग था. जैसे कि तांत्रिक या अघोरपंथी देह को माध्यम बनाकर कुछ सिद्धी प्राप्त करने का प्रयास करते हैं,जो कि वास्तव में उसे मिलती नहीं है.उसी प्रकार यूरोप में एलन गिंसबर्ग और भारत में राजकमल चौधरी ने और उससे पहले तांत्रिकों ने शारीरिकता को केंद्र में रखकर एक अघोर पंथ की स्थापना का प्रयास किया,जिसकी व्यर्थता का बोध उन्हें भी शीघ्र ही हो गया. उनकी भी रचनायें लोगों के जेहन में तब आयीं,जब इन लोगों ने अपने खोल से स्वयं को बाहर कर लिया.
उमाकांत- लोक चेतना, वैज्ञानिक चेतना और काव्य संवेदना के बीच क्या रिश्ता है?
नरेश सक्सेना– कविता को यदि विज्ञान से आगे जाना है तो उसे विज्ञान से ज्यादा नपा-तुला होना पडेगा. अगर हम विलाप की बात करें तो जानेंगे कि विलाप में विलाप ही महत्वपूर्ण होता है, कथन नहीं. उसकी स्मृतियां होती हैं, उससे विलाप घनीभूत होता है. घनीभूत होने की कला कविता को सीखनी चाहिये और ये कला आती है लोक से जुडने और उसे समझने से. दुख की तरह सुख भी घनीभूत होता है. अगर हम किसी शादी का उदाहरण लें तो देखते हैं कि स्त्रियां ढोलक की थाप पर मंगल गीत गाती हैं. बन्ना गाने में वे सारी उन प्रक्रियाओं का ज़िक्र करती हैं, जो दूल्हे के साथ होती हैं जैसे हल्दी लगना, मौर बँधना, सेहरा सजना आदि आदि. इन सब बातों या क्रियाओं को याद करने से सुख घनीभूत होता है, जबकि इसके उलट दुख में किसी व्यक्ति की स्मृतियाँ या बातें दुख को घनीभूत करती हैं. दुख को सघन करना, घनीभूत करना, ये काम कविता करती है. नागार्जुन को देखिये. उनकी कविता- 

धिन धिन धा 
धमक धमक मेघ बजे 
पंक बनी हरि चंदन,मेघ बजे 
हल्का है अभिनंदन, मेघ बजे.

इसमें ये धिन धिन धा क्या है? ये कवि के मन का उल्लास है. वो मन ही मन नाच रहा है. ये लोकगीतों के दोहराव का प्रभाव है, इसे लिरिक कहते हैं. बार बार आने से एक गीतात्मकता प्रस्तुत होती है. पर आजकल अधिकांश कवि इसे भूले हुए हैं. उन्हें लगता है कि सिर्फ कुछ सूचनात्मक वाक्य लिख देने भर से कविता हो जाएगी, आक्रामक  वाक्य लिख देने से कविता हो जाएगी, कुछ विडंबना पैदा करने वाले वाक्य लिखने से कविता हो जाएगी. कभी कहने लगते हैं कि कविता बयान होती है जैसा धुमिल ने कहा. ये लगभग असंभव बात है. वास्तव में इस प्रकार की सोच रखने वाले लोग अपने बचपन से लेकर बडे होने तक लोक संस्कार में रचे बसे या डूबे  नही हैं. लोग आधुनिक हो गए हैं ,उनकी कविता भी वैसी ही हो गई है.

उमाकांत- क्या आपको कविता की आलोचना लिखने में कभी रूचि नहीं रही?
नरेश सक्सेना- मैंने कुछ आलोचनाएं लिखी हैं. कथाक्रम में कविता का कॉलम लिखा था. शायद यह पहली पत्रिका थी, जिसमें जो भी कविता छपती थी, उसमें मेरी टिप्पणी होती थी. मैं इसके माध्यम से अपने चयन का आधार स्पष्ट करता था. उस समय मैंने विष्णु खरे, कात्यायनी, राजेश जोशी सहित तमाम महत्वपूर्ण कवियों को छापा. विष्णु खरे की किसानों की आत्महत्या पर लिखी कविता जिसमे वो कहते हैं कि एक आध को मार कर क्यों नही मरते, मैंने कथाक्रम मे छापा, राजेश जोशी कि मैं झुकता हूँ छापा. कथाक्रम में छपी हुई कविताओं और टिप्पणिओं की एक अलग ही किताब निकल सकती है.
उमाकांत- समकालीन कविता में कोई ऐसा युवा कवि है जो कविताओं से आपकी जो अपेक्षा है,उसे पूरा करता हो?
नरेश सक्सेना- यह एक कठिन प्रश्न है. इस दौर में अच्छी कहानियाँ तो बहुत लिखी जा रही हैं पर अच्छी कविता कम लिखी जा रही है. मुझे लगता है कि कविता लिखना दिन ब दिन कठिन होता जा रहा है. एक अजीब किस्म की उदासीनता फैल रही है. आज हमारी आलोचना ने अच्छे को अच्छा व बुरे को बुरा कहना बंद कर दिया है. क्या साधारण है कोई बताने वाला ही नहीं है.
उमाकांत- क्या लोगों में अच्छी कविता और बुरी कविता के बीच फर्क करने का विवेक खत्म हो रहा है?
नरेश सक्सेना- लोग ठण्डे और उदासीन हो गये हैं. कोई किसी को सलाह भी नहीं दे रहा. लोग सिर्फ अच्छा- अच्छा ही कहते हैं. लोगों की सोच सिर्फ पुरस्कारों और सम्मानों पर ही रह गयी है. दुखद बात तो ये है कि जहाँ एक तो पुरस्कारों की कोई मान्यता नहीं बची है,वहीं पुरस्कार देते समय लोग मेरिट ,योग्यता नहीं बल्कि अपनी दोस्ती दुश्मनी देखने में लग जाते हैं. मेरे व्यक्तिगत अनुभव में कई बार ऐसा हुआ कि पुरस्कार के लिये तय समिति में लोग कहते हैं कि अमुक व्यक्ति को छोडकर किसी को भी पुरस्कार दे दो ,मैं तैयार हूं. उसकी कोई मतलब नहीं होता.
नरेश जी कुछ थके से दिखाई दे रहे थे, रात के 2.30 बज चुके थे.उन्हे नींद भी आने लगी थी.  उन्होंने कहा कि बस ! बाकी बातें मैं बाद में बताऊंगा और इस तरह यह बातचीत सम्पन्न हुई.
                     ………………………………………………………..

बहुवचन (संयुक्तांक ३३-३४) से साभार