उमा शंकर सिंह परमार का आलेख "अँधेरे समय में उजली उम्मीदों का कवि”


वीरेन डंगवाल


विगत 28 सितम्बर को हम सबके प्यारे कवि वीरेन डंगवाल नहीं रहे। पांच अगस्त 1947 को शुरू हुआ उनके जीवन का सफर 28 सितम्बर को सुबह 4 बजे समाप्त हो गया वीरेन दा न केवल एक बेहतर कवि थे बल्कि एक उम्दा इंसान भी थे उनसे मिलने वाला कोई भी व्यक्ति सहज ही उनका मुरीद हो जाता था जीवन में अटूट विश्वास रखने वाला हम सबका प्यारा यह कवि पिछले कुछ समय से कैंसर से जूझ रहा था पहली बार परिवार की तरफ से वीरेन डंगवाल को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उमाशंकर सिंह परमार का एक श्रद्धांजलि आलेख साथ में वीरेन डंगवाल की कुछ चर्चित कविताएँ भी दी जा रही हैं इनका चयन उमाशंकर ने ही किया है         

“अँधेरे समय में उजली उम्मीदों का कवि”
उमाशंकर सिंह परमार 

दिनांक २८-०९- २०१५ की सुबह पांच बजे मेरे फोन की घंटी बजी मैंने देखा तो निलय उपाध्याय का फोन था। जैसे फोन उठाया निलय जी ने कहा की वीरेन दा नहीं रहे। तुरत मित्रों को फोन किया। इस दुखद खबर की पुष्टि की। पता चला की आज सुबह चार बजे हमारे प्रिय कवि वीरेन डंगवाल अपनी बीमारी से जूझते हुए अंतत: मृत्यु के हाथों पराजित हो गए। आखिर कार मौत पर किसका जोर चल सकता है। दुःख इस बात का रहा की वीरेन दा अभी और जी सकते थे। बीमारी से टूट जाने के बाद भी उनमे रचनात्मक ऊर्जा अभी बहुत शेष थी। विचारों और प्रतिबद्धता को उन्होंने हमेशा जिया और इन्हीं मूल्यों को उन्होंने अपनी कविताओं में उकेरा। वीरेन दा हिन्दी के उन कवियों में थे जिन्होने कविता के साथ साथ अपने व्यक्तित्व को भी जनसाधारण के लिए समर्पित रखा। आज जब अधिकांश लोग बहुत थोडे से लालच में अपनी प्रतिबद्धता और काव्य-सरोकारों के प्रतिपक्ष में खडे हो जाते हैं, ऐसे समय अपने व्यक्तित्व को  अन्धेरोंके खिलाफ रखना एवं अपने चाहने वालों को उजाले का खुशनुमा अहसासपूर्ण स्वप्न देना वीरेन दा ही कर सकते थे। वीरेन दा पेशे से शिक्षक थे। शिक्षक के गुणों ने उनके व्यक्तित्व को कर्मठ बनाया वो बड़े पत्रकार थे| ‘अमर उजाला’ जैसे बडे कारपोरेट पत्र का सम्पादन करने के बाद भी उनके विचारों और उनके सरोकारों पर अमर उजालाका प्रभाव नही पडा। जब वीरेन दा अमर उजाला कानपुर के सम्पादक थे उस समय वो रात दिन मेहनत करते थे। अमर उजाला की पाठक संख्या मे भारी बढोत्तरी हुई थी। वीरेन दा के बाद आने वाले सम्पादकों के लिए वह पाठक संख्या कई वर्षों तक  चुनौती बनी रही। अमर उजाला के व्यापक प्रचार प्रसार में वीरेन दा के योगदान कोई भी इंकार नहीं कर सकता। वीरन डंगवाल का जन्म ५ अगस्त १९४७ को उत्तराखंड के टिहरी गढवाल जिले में कीर्तिनगर स्थान में हुआ था लेकिन पिता श्री रघुनन्दन प्रसाद डंगवाल की नौकरी यू पी में थी। उस समय तक उत्तराखंड और यूपी दोनो एक थे। वीरेन जी की रुचि  बचपन से ही कविता में थी। कहते हैं कि पहली कविता उन्होने बाईस वर्ष की उम्र मे लिखी जो उस समय किसी लघु पत्रिका में प्रकाशित भी हुई थी। तब से लेकर वो मृत्युपर्यन्त लिखते रहे और विभिन्न पत्रिकाओं में छपते भी रहे।
नैनीताल, कानपुर, बरेली आदि शहरो में पढ़ते हुए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त की और वर्ष १९७१ से बरेली कालेज मे हिन्दी का प्राध्यापन शुरू कर दिया। उनकी पत्नी रीता भी बरेली मे ही शिक्षक थी इसलिए वो स्थाई रूप से बरेली मे ही रहने लगे। लिखते बहुत कम थे। बाईस वर्ष से लिखते-लिखते उनका पहला कविता संग्रह  १९९२ मे आया था इसी दुनियाँनाम से। इस संग्रह में उनकी अब तक की लिखी समस्त चर्चित कविताएं संग्रहीत थी। स्तरीय और लघु पत्रिकाओं में अनवरत छपते रहने से संग्रह आने के पूर्व ही उनकी पहचान बडे कवि के रुप हो गयी थी। इस संग्रह पर उन्हें  रघुवीर सहाय सम्मान, और श्रीकान्त वर्मा सम्मान जैसे सम्मान भी मिले। दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कविता संग्रह “दुष्चक्र मे सृष्टा” रहा जो वर्ष २००२ मे छप कर आया। इसी संग्रह पर उन्हे साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। मौलिक कविताओं के अतिरिक्त उन्होने विश्व के जनपक्षधर कवियों के अनुवाद भी किए। उनके जैसे भावपूर्ण और भाषा की व्यंजना  शक्ति से युक्त मौलिक अनुवाद देखने मे कम आते हैं। वीरेन दा के अनुवाद विशेषकर जो उन्होने पाब्लो नेरुदा, ब्रेख्त, नाजिम हिकमत की कविताओं के किए वे आज भी अनुवाद के लिए स्थापित मानक की तरह हैं। जनपद और लोक के कवि वीरेन दा जनकवि थे। उत्तराखंड के काव्य प्रेमी उन्हे इंसानियत के लिए लडने वाले योद्धा की तरह मानते हैं। जैसे गिर्दा के जनगीत वहां की जनता मे लोकप्रिय रहे ठीक वैसे ही वीरेन दा की कविताएं उनके पाठकों के बीच लोकप्रिय हैं। वीरेन डंगवाल की कविताओ मे लोकतत्व, जनपक्षीय चेतना, मोहभंग, बेचैनी सब कुछ मौजूद है। समय के प्रति सजग दृष्टि ने उनकी कविता को कभी काल और देश की सीमाओं में नहीं बांधा| किसी एक जमीन व समुदाय की विशिष्ट अवस्थिति पर हम उनकी कविताओं का संकुचन नहीं कर सकते। उनकी कविताओं की व्यापक विषय भूमि व व्यापक जन दृष्टि ने उनकी कविता को हिन्दुस्तान का समय चित्र बना दिया है। सत्तर के दशक का मोहभंग और आज के भूमंडलीकृत लोकतन्त्र के प्रति बेचैनीपूर्ण  अनास्था उनकी कविताओं में देखी जा सकती है। वीरेन दा की कविताएं अपेक्षाकृत छोटी होती थीं। छोटी कविताएं अपने कलेवर और ख़ास गुम्फन के कारण बडी कविताओं की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली और मारक होती हैं। वीरेन दा की छोटी कविताएँ जीवन के संघर्षरत क्षणों का तिक्त अनुभव हैं। छोटी-छोटी लडाईयां, छोटे-छोटे पराजय, छोटे-छोटे रचनात्मक व्यूह उनकी सामान्य से विषयों की कविताओं में अपनी समग्रता के साथ उभर आए हैं। इन्ही छोटी-छोटी संरचनाओं से वे बडे परिवर्तन का स्वप्न सिरजते हैं। 
वीरेन दा की बेचैनी समूचे हिन्दुस्तान की बेचैनी है। उनके पहले संग्रह मे ही इस बेचैनी को परखा जा सकता है। इस बेचैनी के कारणों की खोज मे वो  व्यवस्था की तह में चले जाते हैं। और अपनी जनपक्षीय मनोदृष्टि से वैज्ञानिक तरीके से द्वन्दात्मक अवस्थितियों का परीक्षण करते हैं। जब वो खतरों के मूल में पहुंचते हैं तो वर्गीय विभेदों और पूंजीकृत विसंगतियों पर उनका ध्यान केन्द्रित हो जाता है ‘जिएँ कैसे ज़िंदगीकविता में उन्होने कहा है हवा तो खैर भरी ही है, कुलीन केशों की गन्ध से यह भारतीय समाज का मौलिक सच है। कुलीनता की गन्ध हवा में भरने का मतलब है। चतुर्दिक अभिजात्य का प्रभाव है। सत्ता, उत्पादन, वितरण, स्वामित्व, सब कुलीनता की गन्ध से युक्त हैं। उनकी इस जनदृष्टि का सबसे बेहतरीन उदाहरण लम्बी कविता “रामसिंह” है। रामसिंह वीरेन दा की सर्वाधिक चर्चित कविताओं मे है। इस कविता के द्वारा कविताओं के सहारे कैसे चरित्र स्थापित किए जाते है इस बात को उनहोंने समझा दिया है। अपनी बुनावट व गम्भीरता के लिहाज से यह कविता महाकाव्यात्मक है और यथार्थ द्वारा विनिर्मित बेचैनी का जितना सफल चारित्रिक पहलू इस कविता मे उपलब्ध है वह बहुत कम दिखता है। इस कविता का मूल प्रतिपाद्य मनुष्यता है जो फौजियों के सहारे एक जनपक्षीय अभियान की तरह बुना गया है। एक आम आदमी की चिन्तन प्रक्रिया कितना बडा परिवर्तन कर सकती है उस परिवर्तन की व्यापक सम्भावनाओं की कविता है। रामसिंह की ये  पंक्तियां व्यवस्था के कारणों पर सवाल उठाती हुई एक टीस पैदा कर देती हैं।
कौन है वे कौन हैं / जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूंढते रहते है़। सैनिक का लडना अपने लिए और अपनो के लिए लडना नहीं है मजलूम शोषित जनता की लडाई नही है यह लडाई, यह सैन्यीकरण, यह युद्धोन्माद सब विश्व की वर्चस्ववादी शक्तियों का अपने विस्तारण द्वारा रचा गया खेल है। इसी दृष्टि से वो थोथे राष्टवाद, दंगे और फसाद को भी देखते हैं। युद्ध से केवल जनता मरती है जनता की नजर में ये युद्ध मनुष्यता विरोधी साजिश है| वीरेन जी के व्यक्तित्व और काव्य सरोकारों को उनकी कविता कवि एक, और कवि दो से भली भांति समझा जा सकता है। कवि अपने व्यक्तित्व का रेखांकन व सामाजिक उत्तरदायित्व को किस सहज अन्दाज से सन्तुलित करता है ये कविताएं इस बात का बेहतरीन उदाहरण हैं जब तक कविता से कवि की पसंद नापसंद, खान-पान, रहन-सहन का पता न चले तो कविता में विचारों को ठूसने से भर से काम नहीं चलता है। एक श्रेष्ठ लोकधर्मी कवि की पहचान उसकी कविता में अन्तर्निहित उसके निजी व्यक्तित्व से भी होती है वीरेन दा का मनमौजीपन, फक्कडपन उनकी कविताओं मे उतर आया है विशेषकर छोटी-छोटी कविताओं में जहां जीवन के सम्पर्क में आने वाली हर एक जरूरी गैर जरूरी चीजों से कविता रची गयी है। हजार जुल्मों से सताए गए मेरे लोगो /मैं तुम्हारी बददुआ हूं / सघन अन्धेरे में तनिक दूर पर झिल मिलाती /तुम्हारी लालसा / (कवि दो) कविता का यह अंश कविता के प्रति कवि की प्रतिबद्धता का प्रभावशाली रेखांकन है। सघन अन्धेरा बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि मुक्तिबोध मे है इस सघन अन्धेरे को उनकी रामसिंह कविता से जोडकर पढा जाय तो अन्धेरे की व्यापकता उजागर हो जाती है। मुक्तिबोध के अन्धेरे में उभरने वाले चरित्रों को वीरेन दा भी देखते हैं राम सिंह कविता में खडा किया गया सवाल और अन्धेरें में कविता का रात्रिकालीन जुलूस एक की तथ्य की अभिव्यंजना करते है़। पर वीरेन दा की कविताओं में जहां भी अन्धेरा आता है, वह भले ही कठिन हो सघन हो वहां पर एक उजाले की क्षीण किरण का उल्लेख जरूर होता है। इसलिए उन्हे उजाले के स्वप्न का कवि कहा जाता है। उनकी एक कविता ‘आयेंगे उजले दिन जरुर आयेंगे’  अन्धकार के विरुद्ध उजाले की जबरदस्त सम्भावनाओं की कविता है। सब कुछ स्याह होने के बाद समाजिक निर्माण की वैज्ञानिक प्रक्रिया में विश्वास रखते हुए बदलाव का स्वप्न देखना आशावादी जज्बे का प्रमाण है। संकट बडा है और घना संकट है घातक परिस्थितियां मौजूद है इन परिस्थितियों से भयाक्रान्त होकर बैठ जाना बदलाव की उम्मीदों पर पानी फेर देता है। संकटों में इतनी शक्ति नहीं है कि आम आदमी की चेतना को नष्ट कर सकें  पर डरो नहीं चूहे आखिर चूहे ही हैं / जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएंगे”। चूहों से अभय रहने की हिदायत भी निराधार नहीं है वह भी सतर्क प्रमाणिकता के साथ है| क्योंकि अभी समर शेष है अभी जनयुद्ध शेष है उसे होना है होगा वह समर अभी होगा कुछ और बार / तब कहीं ये मेघ छिन्न भिन्न हो पाएंगे। यह तसल्ली मिथ्या नहीं है क्योंकि हर सपने के मूल में सच्चाई होती है मैं नही तसल्ली झूठ मूठ की देता हूं / हर सपने के पीछे सच्चाई होती है /हर दौर कभी तो खत्म हुआ ही करता है /हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है। यह एक वैज्ञानिक तर्क है जिस व्यक्ति को इतिहास का संवादी ज्ञान है वह इस तर्क से और वीरेन दा के स्वप्न से इंकार नहीं कर सकता है। चीजें और परिवेश परिवर्तन शील है़ जगत का मूलभूत चरित्र बदलाव है। हर समय एक सा नही रहता कभी न कभी परिवर्तन होता ही है। इसलिए जो भी आज है वह भी बदलेगा। मनुष्यता अपने मूल संस्कारों को जरूर पाएगी पूंजीवादी शक्तियों द्वारा तयशुदा जडता एक दिन खत्म होगीजीवन के प्रति उम्मीदों का समय अवश्य आएगा यह कविता उनकी क्रान्तिचेतस समझ और  वैचारिक मनोस्थिति से भली भांति परिचित करा देती  है।
 
वीरेन दा का युग हिन्दी कविता के दो अतिवादी ध्रुवों मे विभक्त था एक ओर प्रयोगवादी वैयक्तिक कु़ंठाओं और यौन बिम्बों से मोहजाल में बँधी कविता थी दूसरी ओर नक्सलवादी आन्दोलन से प्रभावित जुमलेबाजी थी। इन दोनो धाराओं को लगभग अस्वीकार करते हुए उन्होने हाशिए पर पडे लोगों की वस्तुस्थिति और परिवेशगत विकृतियों को अपना विषय बनाया। वैचारिक पुष्टता, तर्क, लोकभाषा, लोकसौन्दर्य की नयी दृष्टि लेकर तत्कालीन हिन्दी कविता में जनवादी लोकतान्त्रिक परम्परा को बरकारार रखा। वैचारिकता के कारण ही उनकी कविता में यथार्थ का वास्तविक बोध उत्पन्न हो रहा है यह वैचारिक प्रतिबद्धता उनकी अब तक की कविताओं मे भी देखी जा सकती है। यह सच है उनके विषय अनुभूत थे पर अनुभवों की अपने समय के साथ प्रमाणिकता स्थापित करने मे विचारों का ही योग है। उनकी कई कविताओं में देखा जा सकता है जहां परिवेश अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है वहां उनकी भाषा विद्रोह की भंगिमा अख्तियार कर लेती है। जहां परिवेश से संघर्षरत आम आदमी टूटता है पराजित होता है वहां पर वो स्वप्नों की नयी ऊर्जा लेकर वैज्ञानिक तर्क से नियति का परीक्षण करते हैं और बदलाव की उम्मीदों से कविता को भर देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वो आदमी की मनोस्थिति पढ रहे हैं। जैसे पढते हैं वैसे कविता रचते हैं।
वीरेन डंगवाल के काव्य में संवेदना और समय का जो गठबन्धन दिखाई देता है वह भाषा के स्तर में भी है। बहुत से ऐसे शब्द हैं जिनको उन्होने नये सन्दर्भ देकर नवीन अर्थवत्ता का संधान किया है। एक बडे कवि की पहचान होती है कि वह अपने प्रयोगों से शब्दकोष मे वृद्धि करता है कि नही इस दिशा मे त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार और विजेन्द्र जैसे ही वीरेन डंगवाल ने भी बहुत से लोकशब्दों को काव्यभाषा का स्वरूप दिया अपने इस गुण के कारण वो आज की समस्याओं को सही अभिव्यक्ति दे सके है़। वीरेन दा भाषा के स्तर पर भी संवेदनशील थे शिल्प के स्तर पर जो लयात्मक विधान मिलता है वह भाषा के स्तर पर संवेदनात्मक विधान में बदल जाता है। यही संवेदना वैचारिक सूत्रता में बँधकर एक मुकम्मल कविता का रूप धारण करती है। वीरेन दा की कविताओं पर बहुत लिखा पढा गया लेकिन उनकी रचना प्रक्रिया की पहचान और उनकी  सामयिक सार्थकता को पहचानने के लिए उनकी कोई भी रचना कोई भी एक कविता पढी जा सकती है लगभग हर कविता में उनका अलहदा स्वर अपनी अलहदा बुनावट के साथ उपलब्ध है। आज जब कि कविता में यथार्थ और विद्रोह के बहाने राजनैतिक नारेबाजी और रटे रटे रटाए जुमलों की भरमार हो रही है वहां वीरेन दा की कविता अपने समय के साथियों और समय के बाद के साथियों के बीच आसानी से पहचानी जा सकती है, जो अपने सधे अन्दाज में भविष्य मे भी भ्रमित जीवन दृष्टि को सही दिशा देती रहेगी उनकी प्रतिनिधि कविताएं रामसिंह‘ , कवि एक, कवि दो, उजले दिन, और बांदा मे लिखी एक कविता जिनका मैने उल्लेख किया है आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। इन कविताओं के माध्यम से मैं वीरेन दा के अवदानो का स्मरण करता करता हूं। अपनी रचनात्मक सेवाओं से हिन्दी साहित्य की जो उन्होंने सेवा की हिंदी कविता की जनवादी धरा की पहचान स्थापित करने में जो मदद की उसकी भरपाई निकट भविष्य में असंभव है जिस सहज ढंग से वो जीवन को जीते रहे, जिस सहज ढंग से जीवन को देखते रहे उसी सहज ढंग से मौत से लड़ते हुए  चले जाने वाले प्रतिबद्ध, और संवेदनशील कवि को नमन करता हूं। उनके इस दुखन  निधन पर श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ
कवि – १
मैं ग्रीष्म की तेजस्विता हूँ
और गुठली जैसा
छिपा शरद का ऊष्म ताप
मैं हूँ वसन्त का सुखद अकेलापन
जेब में गहरी पड़ी मूँगफली को छाँट कर
चबाता फुरसत से
मैं चेकदार कपड़े की कमीज़ हूँ
उमड़ते हुए बादल जब रगड़ खाते हैं
तब मैं उनका मुखर गुस्सा हूँ
इच्छाएँ आती हैं तरह.तरह के बाने धरे
उनके पास मेरी हर ज़रूरत दर्ज़ है
एक फेहरिस्त में मेरी हर कमज़ोरी
उन्हें यह तक मालूम है
कि कब मैं चुप होकर गरदन लटका लूँगा
मगर फिर भी मैं जाता ही रहूँगा
हर बार
भाषा को रस्से की तरह थामे
साथियों के रास्ते पर
एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा
कवि – २
मैं हूँ रेत की अस्फुट फुसफुसाहट
बनती हुई इमारत से आती ईंटों की खरी आवाज़
मैं पपीते का बीज हूँ
अपने से भी कई गुना मोटे पपीतों को
अपने भीतर छुपाए
नाजुक ख़याल की तरह
हज़ार जुल्मों से सताए मेरे लोगो!
मैं तुम्हारी बददुआ हूँ
सघन अंधेरे में तनिक दूर पर झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा
गूदड़ कपड़ों का ढेर हूँ मैं
मुझे छाँटो
तुम्हें भी प्यारा लगने लगूँगा मैं एक दिन
उस लालटेन की तरह
जिसकी रोशनी में
मन लगा कर पढ़ रहा है
तुम्हारा बेटा।
आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे
आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती
होगा वह समर अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न-भिन्न हो पाएँगे
तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चींए चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे
पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे
यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते पर
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है
सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे पार उसे कर जाएँगे
मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है
आए हैं जब चलकर हम इतने लाख बरस
तब इसके आगे भी चलकर जायेंगे
आयेंगे,
उजले दिन जरुर आएँगे
बाँदा 
मै रात, मै चाँद, मै मोटे काँच का गिलास
मै लहर खुद पर टूटती हुई
मै नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल।
मै नींद, मै अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में
फैलता अपना अकेलापन
मै चांदनी में चुपचाप रोती एक
बूढी ठठरी भैंस
मै इस रेस्टहाउस के खाली
पुरानेपन की बास।
मै खपडैल, मै खपडैल।
मै जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मै केदार, मै केदार, मै कम बूढा केदार।
रामसिंह
(1970 में इलाहाबाद में लिखी गई कविता)
दो रात और तीन दिन का सफ़र तय करके
छुट्टी पर अपने घर जा रहा है रामसिंह
रामसिंह अपना वार्निश की महक मारता ट्रंक खोलो
अपनी गन्दी जर्सी उतार कर कलफ़दार वर्दी पहन लो
रम की बोतलों को हिफ़ाज़त से रख लो रामसिंह, वक़्त ख़राब है
खुश होओ, तनो, बस, घर में बैठो, घर चलो।
तुम्हारी याददाश्त बढ़िया है रामसिंह
पहाड़ होते थे अच्छे मौक़े के मुताबिक
कत्थई-सफ़ेद-हरे में बदले हुए
पानी की तरह साफ़
ख़ुशी होती थी
तुम कनटोप पहन कर चाय पीते थे पीतल के चमकदार गिलास में
घड़े में, गड़ी हई दौलत की तरह रक्खा गुड़ होता था
हवा में मशक्कत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे फ़ौजियों की तरह
नींद में सुबकते घरों पर गिरा करती थी चट्टानें
तुम्हारा बाप
मरा करता था लाम पर अँगरेज़ बहादुर की ख़िदमत करता
माँ सारी रात-रात रोती घूमती थी
भोर में जाती चार मील पानी भरने
घरों के भीतर तक घुस आया करता था बाघ
भूत होते थे
सीले हुए कमरों में
बिल्ली की तरह कलपती हई माँ होती थीए बिल्ली की तरह
पिता लाम पर कटा करते थे
ख़िदमत करते चीड़ के पेड़ पसीजते थे सिपाहियों की तरह
सड़क होती थी अपरिचित जगहों के कौतुक तुम तक लाती हई
मोटर में बैठ कर घर से भागा करते थे रामसिंह
बीहड़ प्रदेश की तरफ़।
तुम किसकी चौकसी करते हो रामसिंह
तुम बन्दूक के घोड़े पर रखी किसकी उँगली हो
किसका उठा हुआ हाथ
किसके हाथों में पहना हुआ काले चमड़े का नफ़ीस दस्ताना
ज़िन्दा चीज़ में उतरती हुई किसके चाकू की धार
कौन हैं वे, कौन
जो हर समय आदमी का एक नया इलाज ढूँढते रहते हैं
जो रोज़ रक्तपात करते हैं और मृतकों के लिए शोकगीत गाते हैं
जो कपड़ों से प्यार करते हैं और आदमी से डरते हैं
वो माहिर लोग हैं रामसिंह
वे हत्या को भी कला में बदल देते हैं।
पहले वे तुम्हें कायदे से बन्दूक पकड़ना सिखाते हैं
फिर एक पुतले के सामने खड़ा करते हैं
यह पुतला है रामसिंह, बदमाश पुतला
इसे गोली मार दो, इसे संगीन भोंक दो
उसके बाद वे तुम्हें आदमी के सामने खड़ा करते हैं
ये पुतले हैं रामसिंह बदमाश पुतले
इन्हें गोली मार दो,  इन्हें संगीन भोंक दोए इन्हें.. इन्हें इन्हें
वे तुम पर खुश होते हैं .. तुम्हें बख़्शीश देते हैं
तुम्हारे सीने पर कपड़े के रंगीन फूल बाँधते हैं
तुम्हें तीन जोड़ा वर्दी, चमकदार जूते
और उन्हें चमकाने की पॉलिश देते हैं
खेलने के लिए बन्दूक और नंगीं तस्वीरें
खाने के लिए भरपेट खाना, सस्ती शराब
वे तुम्हें गौरव देते हैं और इसके बदले
तुमसे तुम्हारे निर्दोष हाथ और घास काटती हई
लडकियों से बचपन में सीखे गए गीत ले लेते हैं
सचमुच वे बहुत माहिर हैं रामसिंह
और तुम्हारी याददाश्त वाकई बहुत बढ़िया है
बहुत घुमावदार है आगे का रास्ता
इस पर तुम्हें चक्कर आएँगे रामसिंह मगर तुम्हें चलना ही है
क्योंकि ऐन इस पहाड़ की पसली पर
अटका है तुम्हारा गाँव
इसलिए चलो, अब ज़रा अपने बूटों के तस्में तो कस लो
कन्धे से लटका ट्राँजिस्टर बुझा दो तो खबरें आने से पहले
हाँ, अब चलो गाड़ी में बैठ जाओ डरो नहीं
गुस्सा नहीं करो, तनो
ठीक है अब ज़रा ऑंखें बन्द करो रामसिंह
और अपनी पत्थर की छत से
ओस के टपकने की आवाज़ को याद करो
सूर्य के पत्ते की तरह काँपना
हवा में आसमान का फड़फड़ाना
गायों का रंभाते हुए भागना
बर्फ़ के ख़िलाफ़ लोगों और पेड़ों का इकठ्ठा होना
अच्छी ख़बर की तरह वसन्त का आना
आदमी का हर पल, हर पल मौसम और पहाड़ों से लड़ना
कभी न भरने वाले ज़ख़्म की तरह पेट
देवदार पर लगे ख़ुशबूदार शहद के छत्ते
पहला वर्णाक्षर लिख लेने का रोमाँच
और अपनी माँ की कल्पना याद करो
याद करो कि वह किसका ख़ून होता है
जो उतर आता है तुम्हारी आँखों में
गोली चलने से पहले हर बार
कहाँ की होती है वह मिटटी
जो हर रोज़ साफ़ करने के बावजूद
तुम्हारे बूटों के तलवों में चिपक जाती है
कौन होते हैं वे लोग जो जब मरते हैं
तो उस वक्त भी नफ़रत से आँख उठाकर तुम्हें देखते हैं
आँखे मूँदने से पहले याद करो रामसिंह और चलो ।

उमाशंकर सिंह परमार

सम्पर्क-

उमाशंकर सिंह परमार 
मोबाईल – 09838610776

पंकज पराशर का आलेख ‘गोया एक फ़रियाद है अज़ान-सी’

वीरेन डंगवाल
वीरेन डंगवाल हमारे समय के अनूठे और अलग मिजाज के कवि हैं। उनका यह मिजाज आप सहज ही उनकी कविताओं में देख सकते हैं भाषा का खिलंदडापन देखना हो तो आपको वीरेन की कविताओं के पास जाना होगा। आभिजात्य शब्दों को तो जैसे वे मुँह चिढाते हुए जन-सामान्य के बीच प्रचलित उन शब्दों को अपनी कविताओं में प्रयुक्त करते हैं जो बिल्कुल आत्मीय लगते हैं व्यंग्य भी इतने करीने से जैसे मन-मस्तिष्क झंकृत हो जाए। इस तरह के अलहदा कवि पर आलेख लिखा है हमारे कवि-आलोचक मित्र पंकज पराशर ने 
     
गोया एक फ़रियाद है अज़ान-सी
पंकज पराशर
वैश्वीकरण भाषाओं, संस्कृतियों और कविता का शत्रु है। उसका स्वप्न एक ऐसी मनुष्यता है जो उसी के गांव में बसती है, उसी तरह रहती-सोचती-पहनती, हाव-भाव रचती और खाती-पीती है। एक रसायनिक संस्कृति बोध से लैस इस मनुष्यता का आदर्श भी अंतरराष्ट्रीयवाद है मगर अपने मूल मानवीय अर्थ के बिल्कुल उल्टे अर्थ में। वह वैश्विक मनुष्य तो पारंपरिक संस्कृतियों और ज्ञान को नष्ट करने वाला और अधिनायकवादी है जो केवल बाज़ार और उपभोग को मान्यता देता है।
-वीरेन डंगवाल (फरवरी, 2005 में साहित्य अकादेमी सम्मान समारोह में दिये गये वक्तव्य से)
जैसे समय का बाहर नहीं होता, वैसे ही भाषा का भी। वह ख़ुद निरपेक्ष होती है, मगर भाषा के बरतने वाले अपनी-अपनी हैसियत और नज़रिये के अनुसार उसे नियंत्रित करने की कोशिश करते ही रहते हैं।
-वही
कविता की भाषा और जीवन की भाषा को अलग-अलग नहीं होना चाहिए।
-नाज़िम हिकमत
कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जहाँ भी मनुष्यता संकट में होती है, वहां कविता में उस संकट की ईमानदार और प्रामाणिक अभिव्यक्ति होती है।
-कार्ल मार्क्स
आमजन की निष्कलुष प्रसन्नता और करुणा, मनुष्यता के भीतर से निकली गहरी आकुल पुकार और हिंदी काव्य परंपरा के साथ आत्मीय/जीवंत संवाद करती वीरेन डंगवाल की कविता मनुष्यता की खांटी मातृभाषा में संभव होती है। जिसमें शब्द और कर्म के बीच न कोई द्वैध नज़र आता है, न दो अर्थों का भय। शब्दार्थ तभी अस्पष्ट और उलझाऊ होते हैं, जब दृष्टि और नीयत स्पष्ट न हो। ऐसे में भाषा और अभिव्यक्ति में चाहे जितनी सहजता लाने का प्रयास किया जाये, कविता की संबद्धता और कवि की प्रतिबद्धता दोनों अवसर और व्याख्या के अनुसार परिवर्तनशील प्रतीत होते हैं। किंतु-परंतु और दुविधा की भाषा में भविष्य की सुरक्षा और लाभ की आकांक्षा का जो समीकरण सन्निहित होता है, उसका पर्यवसान वस्तुतः संतन के सीकरी से संबंध जोड़ने से होता है, सनेह के सूधो मारग से नहीं। कहना न होगा कि सनेह और प्रेम का घर खाला का घर नहीं होता, जहां सीस उतार कर भुंई पर धर देना आवश्यक न हो। प्रेम के घर में तमाम जाल-जंजाल, गर्व-अहंकार, गुणा-गणित को परे हटा कर रख देना पड़ता है। जहां सुखिया संसार तो खा कर सो जाता है, लेकिन सुखियों के संसार में कबीरों की नियति है दुखिया दास की तोहमत झेलते हुए रातरात भर जागना और रोना! क्यों कि जिन चीज़ों को आम आँख वाले लोग नहीं देख पाते, वह कवि को सहज ही दिखाई दे जाता है। संसार के नक्कारख़ाने में तूती की जो आवाज़ अनुसुनी-सी रह जाती है, वह एक कवि के कान में पड़ने के बाद अनसुनी नहीं रहती। 
चूंकि कवि हाशिये के लोगों, दमितों-वंचितों और परेशान-हाल लोगों का अनिवार्य सहचर होता है, इसलिए जिस पर किसी की नज़र सहजता से नहीं जाती वह कवि से अलक्षित नहीं रहता। तभी तो कीचड़ में लेटी हुई मादा सूअर भी मादर-ए-हिंद की बेटी कहलाती है, नेवला जैसा जीव बेहद ख़ास हो जाता है और तोता डियर तोताराम में रूपांतरित हो जाता है। वीरेन डंगवाल की कान में जब रद्दी पेपर की आवाज़ आती है, तो उन्हें एक बच्चा कबाड़ी की आवाज़ अज़ान-सी फ़रियाद लगती है-
      सुन पड़ती है सड़क से
किसी बच्चा कबाड़ी की संगीतमय पुकार
गोया एक फ़रियाद है अज़ान-सी
एक फ़रियाद है फ़रियाद
कुछ थोड़ा और भरती मुझे
अवसाद और अकेलेपन से।
-वीरेन डंगवाल, कवि ने कहा, पृ.111
बच्चा कबाड़ी की लयात्मक आवाज़ एक कवि के कानों में ही अज़ान-सी पवित्र आवाज़ लग सकती है, जिसमें रोज़ी-रोटी कमाने की उम्मीद फ़रियाद के रूप में रूपांतरित हुई-सी लगती है। यह आवाज़ और किसी के दिल में भले कोई विशेष भाव पैदा न करती हो, लेकिन कवि को अवसाद और अकेलेपन से भर देती है। वैशाख की प्रचंड दोपहरी में अशोक के सजीले पेड़ कुम्हला गए हैं, गर्मी अपने चरम पर है, लेकिन चार पैसे कमाने के लिए घर से निकला एक बच्चा कबाड़ी रद्दी पेपर ख़रीदने के लिए आवाज़ें लगाता हुआ शहर में भटक रहा हैइसलिए उस बच्चा कबाड़ी की आवाज़ कवि को गहरे अवसाद और अकेलेपन से भर देती है। कवि-हृदय में प्रसूत यह करुणा जब कविता में अभिव्यक्त होती है, तो व्यापक समाज के हृदय में करुणा और सहानुभूति पैदा कर पाने में सफल होती है। इसलिए यह अकारण नहीं है कि उस बच्चा कबाड़ी की आवाज़ कवि को अज़ान-सी फ़रियाद लगती है। जिसकी पुकार के पीछे है रोटी के लिए संघर्ष करते एक परिवार की कथा, उसकी उम्मीद और आकांक्षाएं, जहां तक किसी और की नज़र नहीं जा पाती है।  
हाशिये के लोगों की व्यथा अन्य लोगों से अलक्षित रह जाती हैं, लेकिन कवि इस लिए देखने में सक्षम होता है, क्योंकि बकौल निराला मैं कवि हूं पाया है प्रकाश। इस प्रकाश के कारण कवि पूँजी और सत्ता के गठजोड़, दुरभिसंधियों आदि को अपनी बारीक और मानवीय दृष्टि से देख लेता है। जनता जिन चीज़ों को, जिन दुरभिसंधियों को अपनी भोली और सहज दृष्टि नहीं देख पाती है, उसे कवि कई बार घटित होने से भी पहले देखने में सक्षम होता है। चिनुआ अचेबे इस बात के उदाहरण हैं, जिन्होंने अपनी कथा-कृति द थिंग्स फाल अपार्ट में जिस तरह से घटनाओं का चित्रण किया, बाद में सारी घटनाएं उसी तरह नाईजीरिया में घटित हुई। वीरेन डंगवाल की काव्य-दृष्टि की यह विशेषता लक्षित की जानी चाहिए कि उनकी भाषा में व्यंग्य की तुर्शी के साथ-साथ उन फेनिल आवरणों को अनावृत्त करने वाला ताप है। हमारा समाज में कहते हैं- 
किसने आख़िर ऐसा समाज रच डाला है
जिसमें बस वही दमकता है, जो काला है?’
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ.15
हमारे समाज में जो काली ताकतें सजी-बजी हैं, चमक-दमक रही हैं, उसने जिस चतुराई से कालेपन के साम्राज्य का प्रसार और विस्तार किया है, कवि के लिए वह चिंता की वज़ह है। आर्थिक उदारीकरण के बाद समाज में जिस तरह धन का माहात्म्य बढ़ा है, उसने लोगों को येन-केन-प्रकारेण धन-संग्रह और अनंत भोग-विलास के लिए उत्प्रेरित किया है। आलम यह है कि आज चीजों से अधिक उसकी ब्रांड की महिमा अधिक है, जिसे पाने के लिए अधिकांश लोग एक अंधी दौड़ में शामिल हैं। काली कमाई से पैदा होने वाला काला धन आज देश की अर्थव्यवस्था के समानांतर चलने वाली दूसरी अर्थव्यवस्था का शक्ल अख्तियार कर चुका है और उद्योगों में अपनी घुसपैठ से छोटी पूँजी निगल चुका है। इस काला-धन ने समाज की मानसिकता में जबर्दस्त परिवर्तन किया है। नतीजतन अब लोग धनिकों का धन देखते हैं, धनागम का स्रोत देखने और उसके उचित-अनुचित होने को ले कर जिरह नहीं करते। लेकिन कवि न केवल इन ताकतों को अनावृत्त करता है, बल्कि उसकी दुरभिसंधियों की ओर इशारा करते हुए आमजन से इन शक्तियों के विरोध का आह्वान भी करता है-
कालेपन की वे संतानें
हैं बिछा रही जिन काली इच्छाओं की बिसात
वे अपने कालेपन से हमको घेर रहीं
अपना काला जादू हैं हम पर फेर रहीं
बोलो तो, कुछ करना भी है
या काला शरबत पीते-पीते मरना है?’
वही
सज्जनता, ईमानदारी, नैतिकता, वफादारी इत्यादि जैसे मूल्यों के प्रति वर्तमान समाज की आग्रहशीलता में कमी में आई है और बेईमानों, हत्यारों, आवारा और अनैतिक पूँजी के अलंबरदारों का दबाव और प्रभाव समाज में बढ़ा है। तो क्या कवि भी इन चीजों के प्रति आग्रहशीलता में नरमी ले आए? कवि, जो कि इन ताकतों का अनिवार्य प्रतिपक्षी होता है, वह भी जब इन ताकतों के प्रसारित किये हुए भ्रम का शिकार हो जाएगा तो जनता को भला रोशनी कौन दिखाएगा? इस बाजारोन्मुख राजनीतिक व्यवस्था में मसला मनुष्य का है, जो मसले जाने के लिए नहीं बना है। वीरेन डंगवाल कहते हैं-
      बेईमान सजे-बजे हैं
तो क्या हम मान लें कि
बेईमानी भी एक सजावट है?
क़ातिल मज़े में है
तो क्या हम मान लें कि क़त्ल करना मज़ेदार काम है?
मसला मनुष्य का है
इसलिए हम तो हरगिज़ नहीं मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही
बना है मनुष्य।
-वीरेन डंगवाल, कवि ने कहा, पृ.125
सत्य का मुख म्लान है, झूठ का प्रफुल्लित, तो इसका मतलब क्या यह है कि सचाई का प्रतिदान है मलिनता और झूठ का प्रतिफल है प्रफुल्लता? लेकिन समाज में आमजन को दिखता है कि बेईमान सजे-बजे हैं और क़ातिल में बेहद मज़े में हैं, तो इसका यह मतलब कतई नहीं है कि उनके कर्म नैतिक, न्यायोचित और अनुकरणीय हैं! इस लिए कवि बल देकर कहता है कि मसला मनुष्य का है जो इन ताकतों के आगे झुकने और मसले जाने के लिए नहीं बना है और न इसका मतलब यह है कि इन ताकतों की कारकर्दगी ठीक है। इसलिए वीरेन डंगवाल दमकने वाले चेहरे की हकीकत को अनावृत्त करते हैं, पर हमने यह कैसा समाज रच डाला है / इसमें जो दमक रहा, शर्तिया काला है।  
समकालीन राजनीतिक और सामाजिक चिंताओं में साहित्य की चिंता भले प्रमुखता से शामिल न हो, लेकिन सार्थक साहित्य का चिंतन इन्हीं चिंताओं से शुरू होता है और सत्ता के प्रतिपक्ष में खड़े होकर अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करता है। अनुभवहीनता और जीवन की अल्प समझ के कारण जो साहित्य कृत्रिम कलात्मक उपादानों के जरिये अपनी महत्ता और अर्थवत्ता सिद्ध करने की कोशिश करता है, वह समय के साथ अप्रासंगिक होकर इतिहास के गर्त में खो जाता है। लेकिन जिस रचना की बुनियाद में जनता के प्रश्नों, आकुलताओं, आकांक्षाओं और स्वप्नों को जगह मिलती है, वह रचना नयो-नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिये की तरह हमेशा अपनी अर्थवत्ता और महत्ता बनाये रखती है। ऐसी रचनाएं ही मनुष्यता की सच्ची आवाज बन कर जन-सरोकारों से आबद्ध रहती है। वीरेन डंगवाल हाशिये के उन आवाज़ों से शक्ति और प्रेरणा ग्रहण करते हैं, जो भय, अवसरवादिता और लाभ-लोभ की संक्रामक मानसिकता के भयानक प्रसार के बावजूद अपने आदर्शों को मजबूती से थामे रहती हैं, 
      कई लोग हैं अभी भी
जो भूले नहीं करना
साफ़ और मज़बूत
इनकार
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ.15
यह साफ और मज़बूत इनकार जहां कवि के भीतर आशा का संचार करता है, वहीं मनुष्यता के प्रति सच्ची आस्था भी पैदा करता है। भौतिकतावादी संस्कृति के चमक-दमक में साफ़ और मज़बूत इनकार करने वाले लोगों की संख्या भले कम हुई हो, लेकिन उनकी उपस्थिति और मजबूती कवि के भीतर उत्साह और आशा का संचार करती है। वीरेन की कविता में अनुभव और संवेदना के अनेक स्तर हैं। उनके काव्य-संसार में मनुष्य से ले कर मनुष्येतर प्राणी तक सहज उपस्थिति देखी जा सकती है। स्रष्टा भले दुश्चक्र में फँसा हो, लेकिन उसकी दृष्टि, ग्राह्य क्षमता, चीज़ों की समझ प्रकृति ठप कारोबार से शुरू हो कर मनुष्य के बर्बर कारोबारों को अनावृत्त करती है- 
      नहीं निकली नदी कोई पिछले चार-पाँच सौ साल से
जहां तक मैं जानता हूं
न बना कोई पहाड़ अथवा समुद्र
एकाध ज्वालामुखी ज़रूर फूटते दिखाई दे जाते हैं
कभी-कभार।  
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 24
धरती की संरचना और विकास से परिचिति रखने वाले लोग जानते हैं कि भौगोलिक विकास की प्रक्रिया वाकई पिछले चार-पांच सौ सालों में ठहरी हुई-सी है। इस कविता में यह बात तथ्यात्मक रूप से सच है, इसलिए इस कविता का यह अंश प्रथम प्रभाव में चमत्कृत और बाद में चिंतित करता है। लेकिन यह कविता जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे व्यंजना शब्द-शक्ति की मारकता बढ़ती चली जाती है। बाद के काव्यांश में प्राकृतिक बदलावों के ठहर जाने की चिंता प्राकृतिक आपदाओं और मनुष्य-निर्मित समस्याओं/अत्याचारों की चिंता के साथ मिल कर एक विराट् मानवीय चिंतन में रूपांतरित हो जाता है-
      बाढ़ें तो आयीं खैर भरपूर, काफी भूकंप, तूफान
ख़ून से लबालब हत्याकांड अलबत्ता हुए ख़ूब
ख़ूब अकाल, युद्ध एक से एक तकनीकी चमत्कार
रह गयी सिर्फ एक सी भूख, लगभग एक सी वर्दियां जैसे
मनुष्य मात्र की एकता प्रमाणित करने के लिए
एक जैसी हुंकार, हाहाकार।
-वही
पिछले चार-पांच सौ सालों में धरती पर कोई नई नदी नहीं निकली, न कोई नया पहाड़ बना, लेकिन विनाश और विध्वंस में क्रमशः बढ़ोतरी होती जा रही है-कहीं ज्वालामुखी फूटती है, बाढ़ आती है, भूकंप आता है, चट्टानें खिसकती हैं, सूनामी और समुद्री तूफान आता है, मगर कोई नई नदी नहीं निकलती, नया पहाड़ नहीं बनता! इसलिए कवि ईश्वर से यह सवाल पूछता है (जिस ईश्वर में उनकी कोई आस्था नहीं है, लेकिन वे सवाल उस अधिसंख्य जनता की ओर से पूछते हैं जिसकी ईश्वर में आस्था है) कि क्या कुछ नया रचने का काम अब पूरा हो गया भगवान? क्या अब सिर्फ विनाश और विध्वंस ही होगा? हर चीज़ को स्याह और सफेद में समझने के आदी सादा-दिमाग लोगों को वीरेन का यह काव्य-प्रश्न थोड़ा प्रश्नाकुल कर सकता है कि एक प्रतिबद्ध वामपंथी कवि किस ईश्वर से संवाद करने की कोशिश कर रहा, जिसमें न उसकी कोई आस्था है, न कोई कोई विश्वास? इस प्रश्न के झन्नाटेदार उत्तर के साथ कवि इसी कविता के अंत में उपस्थित होता है, जब वे दुश्चक्रों के स्रष्टा ईश्वर को अबे-तबे करके अपने भीतर की उस वास्तविक तस्वीर को उजागर करता है, जो वाकई कवि के भीतर है-
      अपना कारखाना बंद कर के
किस घोंसले में जा छिपे हो भगवान?
कौन-सा है आखिर, वह सातवां आसमान?
हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!!
वही, पृ.25
वीरेन कहते हैं कि भाषा कवि का बसेरा है और नाज़िम हिक़मत का विचार है कि कविता की भाषा और जीवन की भाषा को अलग-अलग नहीं होना चाहिए। इसलिए महज कुछ शब्दों हे, अरे, अबे, ओ करुणानिधान!! के संबोधन से वे ईश्वर की वास्तविकता के बारे में अपने विचारों को प्रकट कर देते हैं। वीरेन विशेष रूप से धर्म उस संस्थागत स्वरूप और उससे जुड़े पाखंड को अपना निशाना बनाते हैं, जिसके प्रति संवेदनशीलता का ग्राफ समाज में निरंतर गिरता जा रहा है। अपने योगक्षेम, स्वर्गाकांक्षा, मुक्ति आदि के लिए जिस पवित्र नदी गंगा की आराधना की जाती है, वह गंगा आज विश्व की सर्वाधिक गंदी नदियों में शुमार हो गई है। लोगों के पाप धोने की क्षमता कब की खो चुकी यह नदी महोत्सवों, धार्मिक उत्सवों में तो पूजी जाती है, लेकिन पूजकों के दिल में वह स्थान नहीं अक्षुण्ण रख पाती कि अपनी मरणासन्न हालत से उबर सके। चार्ली चैप्लिन के शब्दों में कहें तो चूंकि व्यंग्य का जन्म ही घोर करुणा की कोख से होता है, इसलिए वीरेन डंगवाल की व्यंग्य की मारकता में उपहास नहीं, घोर करुणा सन्निहित होती है। परंपरागत शब्दावली स्तवन का प्रयोग करते हुए वीरेन गंगा स्तवन में लोगों के दमन-उत्पीड़न और प्रताड़ना से आहत-प्रतिहत गंगा को बेटी के रूप में संबोधित करते हुए कहते हैं-
      जा बेटी, जा वहीं अब तेरा घर होना है
मरने तक
चमड़े का रस मिले उसको भी पी लेना
गाद-कीच-तेल-तेज़ाबी रंग सभी पी लेना
ढो लेना जो लाशें मिलें सड़ती हुईं
देखना वे ढोंग के महोत्सव
सरल मन जिन्हें आबाद करते हैं अपने प्यार से।
– कवि ने कहा, पृ.140
ढोंग के महोत्सवों में गंगा की पूजा और महिमा का गायन अवश्य किया जाता है, उसकी सेवा और महात्म्य के लिए भक्ति-भाव का प्रदर्शन अवश्य किया जाता है, लेकिन उसी में तमाम चीज़ें उत्सर्जित भी की जाती हैं। नदियां मैली हो चुकी हैं, शहरों के साथ-साथ देहातों में भी पानी की किल्लत होने लगी है। पानी की कमी की भयावहता को बताने के लिए अक्सर यह कहा जाता है कि अब तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए ही होगा, लेकिन हमारी आस्था और अक्लमंदी का आलम यह है कि जिस नदी को हम धार्मिक रूप से भी जीवनदायिनी मानते हैं, उसे बचाने और संरक्षित रखने के लिए हमारे दिल में कोई भाव, कोई दर्द नहीं बचा है। महोत्सवों और पूजा-पाठों को ले कर समाज की प्रदर्शनप्रियता ने प्रकृति के हर वरदान को अभिशाप में तब्दील कर दिया है। संस्कृत साहित्य के क्लैसिक्स में पर्यावरण को लेकर जो सजगता, सौंदर्यप्रियता और संवेदनशीलता दिखती है, यहां तक कि छायावाद और प्रगतिवाद के दौर में भी जैसी सुंदर और मार्मिक कविताएं प्रकृति को लेकर लिखी गई हैं, वह समकालीन कविता में सिरे से नदारद दिखती है। 
वीरेन डंगवाल धार्मिक और मिथकीय चरित्रों के बहाने भी जब कोई कविता संभव करते हैं तो उसके मूल में यथार्थ की चिंताएं ही कारुणिक रूप में प्रकट होती हैं। देश को बांटने वाली और ग़रीबों-मज़लूमों का शोषण करने वाली सत्ता के विरोध में अपनी आवाज़ को ईमानदारी से बुलंद रखने की कोशिशों में मुब्तिला कवि अपनी भूमिका के प्रति हमेशा साकांक्ष दिखाई देता है- एक कवि और कर ही क्या सकता है/ सही बने रहने की कोशिश के सिवा। वीरेन के भीतर का कवि सही बने रहने के लिए निरंतर आत्मसंघर्ष करता रहता है। इंद्र शीर्षक कविता में वे जिस प्रकार इंद्र की शक्ति के बहाने समकालीन यथार्थ को अनावृत्त करते हैं वह बेहद मानीख़ेज है-
      वह समुद्रों को बजाता है सितार की तरह
मंद्र गर्जन से भरा वह दिगंतव्यापी स्वर
उफ़, वहां पानी है
सातों समुद्रों और निखिल नदियों का पानी है वहां
और यहां हमारे कंठ स्वरहीन और सूखे हैं।
-वही, पृ.47
कवि कंठ पानी के अभाव में सूखे ही नहीं, स्वरहीन भी हैं- जिसकी पुकार धार्मिक सत्ता अनसुनी कर देती है। पिछले दशकों से देश में धार्मिक कार्यक्रमों, टेलीविजन चैनलों, प्रवचनी बाबाओं और उत्सवों की भरमार हो गई है। आम लोगों को इन बाबाओं से अपने जीवन की समस्याओं का कितना निदान मिलता है यह शायद ही किसी को मालूम हो, लेकिन लोगों से इन बाबाओं पर्याप्त धन मिल जाता है। उत्सप्रियता और धर्मभीरुता की वज़ह से लोगों का कल्याण होता हो या न होता हो, लेकिन देश की नदियों, विशेष रूप से गंगा का लगातार अकल्याण होता रहता है। जिस अनुपात में देश में छोटी-छोटी नदियां मरती जा रही हैं, उसी अनुपात में समाज में उत्सवप्रियता और धर्मभीरुता बढ़ती जा रही है। फ़ैजाबाद-अयोध्या की घटनाओं ने सामासिक संस्कृति को दोफाड़ कर दिया है, लेकिन पंडों और मंगतों का कारोबार और फैला है। आर्थिक उदारीकरण के बाद से आए धार्मिक टी.वी. चैनलों और मनोरंजन चैनलों के धारावाहिकों ने समाज में धार्मिकता को धर्मांधता में तब्दील करने में एक बड़ी भूमिका है। फ़ैजाबाद-अयोध्या के दृश्यों को अंकित करते हुए वीरेन कहते हैं-
      घाटों पर तख़्त ही तख़्त
कंघी, जूते और झंडे सरयू का पानी
देह को दबाता हल्की रजाई का सुखद बोझ
चारों ओर स्नानार्थी मंगते और पंडे।
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ.32
वीरेन डंगवाल भारतीय काव्यशास्त्र और हिंदी काव्य-परंपरा से जीवंत संवाद करने वाले कवि हैं, इसलिए उनकी कविता से गुजरते हुए अनेक प्रसिद्ध और लोकप्रिय पुरानी कविताओं, पुराने लोकप्रिय छंदों की याद आती है। निश्छलता, मासूमियत और सरलता उनके भीतर के कवि का स्थायी भाव है। लेकिन दुर्भाग्य से यह चीज़ वीरेन के समकालीन अधिकांश दूसरे कवियों के यहां कम दृष्टिगोचर होती है। उनके अधिकांश समकालीन कवियों की कविता में भाषिक चमत्कार, अनुभूति की गहराई, पॉलिश्ड शिल्प और प्रस्तुति की नवता तो लक्षित की जा सकती है, लेकिन किसी तरह का कोई लोकेल, काव्य-परंपरा से संवाद आदि की कोशिशें कम दिखाई पड़ती है। इसके उलट वीरेन के यहां ये सारी चीज़ें स्पष्ट और सशक्त रूप से नज़र आती हैं। मसलन वीरेन की कविता पत्रकार महोदय पढ़ते हुए अनायास ही रघुवीर सहाय याद आते हैं, जिन्होंने ख़बर की भाषा में कविताएं रच कर एक अलग ख़बरधर्मी सौंदर्यशास्त्र की रचना की है। इस कविता में वीरेन कहते हैं-
      इतने मरे
      यह थी सबसे आम, ख़ास ख़बर
      छापी भी जाती थी
      सबसे चाव से
      जितना ख़ून सोखता था
      उतना ही भारी होता था
      अख़बार।
-कवि ने कहा, पृ. 98
हर बड़ा कवि अपने पूर्ववर्ती महान कवियों की कविता और प्रतिभा के प्रति नमनीय होता है। तुलसीदास कहते हैं- जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने।। तो मिर्ज़ा ग़ालिब भी अपने अग्रज कवि को नहीं भूलते- रेख़्ते के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब/ कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था। बतर्ज़ तुलसीदास और ग़ालिब, वीरेन डंगवाल अपनी कविताओं में अनेक पूर्ववर्ती कवियों को याद करते हैं, उन्हें अपनी कविता समर्पित करते हैं। शमशेर को शमशेर की ही भाषा और अंदाज़ में याद करते हुए वीरेन अपनी शमशेर शीर्षक कविता में कहते हैं- मैंने प्रेम किया/ इसलिए भोगने पड़े/ मुझे इतने प्रतिशोध वहीं बांदा कविता के अख़ीर में सहज ही उन्हें प्रमुख प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल याद आते हैं- मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार/ मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार। 
शमशेर और केदार को याद करने वाले कवि वीरेन, निराला को याद न करें यह असंभव है। इसलिए जब वे अयोध्या-फैजाबाद पर लिखते हैं, तो उन्हें इस कविता के बेहद मार्मिक अंत के साथ ही महाकवि याद आते हैं, इसीलिए रौंदी जाकर भी/ मरी नहीं हमारी अयोध्या/ इसलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूं मैं इस/ अंधेरे में/ तेरे पगचिह्न। कवियों के साथ-साथ वीरेन ने अनेक शहरों पर भी कविताएं लिखी हैं। शहरों की विशेषता, गतिशीलता और ऐतिहासिकता को अपना काव्य-विषय बनाया है। मार्च की एक शाम में आई आई टी कानपुर में वे देखते हैं- मृत्यु का अभेद्य प्रसार/ इस उजाड़ झुटपुटे में कोई नहीं/ रास्ता बताने वाला क्योंकि कानपूरमें आदमी से ज्यादा बेकाम नहीं यहां कुछ/ऩ उससे ज्यादा काम का। उधो, मोहि ब्रज में जब वे इलाहाबाद के वर्तमान को देखते हैं, तो बेहद निराश होते हैं- अब बगुले हैं या पंडे हैं या कउए हैं या हैं वकील/ या नर्सिंग होम, नए युग की बेहूदा पर मुश्किल दलील।
 
भाषिक चमत्कार और कवि-कौशल का नमूना दिखाने के लिए कभी निराला ने यह कविता लिखी थी, ताक कमसिनवारि/ ताक कम सिनवारि/ ताक कम सिन वारी/ सिनवारी सिनवारी इस कविता में ध्वन्यात्मकता और शब्द-चातुर्य का अद्भुत प्रदर्शन है। वीरेन ने डीज़ल इंजन पर कविता लिखते हुए भारतीय रेल के अलग-अलग क्षेत्रों के संक्षिप्तीकृत रूप को लेकर इस कविता में अद्भुत प्रभाव पैदा किया है-
आओ, आओ चोखे लाल
आओ, आओ चिकने बाल
आओ, आओ दुलकी चाल
पीली पट्टी, लाल रुमाल
आओ रे, अरे, उपूरे, परे, दरे, पूरे, दपूरे
के रे, केरे?’
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 63
डीज़ल इंजन शीर्षक कविता जर्मनी के गायक यान्नी के लिए लिखी गई है, जो भारत में ताज़महल के साये में एक बार अपनी अपनी प्रस्तुति दे चुके हैं। वीरेन ने रेलवे के अनेक प्रकार के इंजनों को अपनी कविता का विषय बनाया है। रेलगाड़ी, डीज़ल इंजन, भाप इंजन, रेल का विकट खेल, रात-गाड़ी इत्यादि को लेकर वीरेन के भीतर बाल/ कवि सुलभ जिज्ञासा देखते ही बनती है! भाप इंजन को लेकर वे कहते हैं-
बहुत दिनों में दीखे भाई
कहां गए थे?पेरांबूर?
शनैः शनैः होती जाती है अब जीवन से दूर
आशिक जैसी बिकट उसांसें वह सीटी भरपूर।
-कवि ने कहा, पृ. 31
 
कवि भाप इंजन से इस तरह संवाद कर रहा है, जैसे वह परिचित से आगे कुछ हो-दोस्त या सखा-जैसा कुछ। इस कविता के अंत की दो पंक्तियों में जीवन से दूर शब्द-युग्म भाप इंजन की जीवन से शनैः शनैः बढ़ती दूरी का यथार्थ जहां पाठक के भीतर एक उदासी को रचने में कामयाब होता है, वहीं अंतिम पंक्ति में सीटी भरपूर की तुक इसे स्मृति का स्थायी हिस्सा बनाते हुए अतीत की अनेक अविस्मरणीय स्मृतियों से भी जोड़ता है। वीरेन डंगवाल को यदि उनके समकालीन कवियों के साथ रख कर पढ़ें तो उनकी कविता की एक प्रवृत्ति विशेष रूप से रेखांकित की जानी चाहिए कि उनकी अनेक कविताओं में भाषा, शिल्प और अंदाज़-ए-बयां के स्तर पर जो खिलंदड़ापन मिलता है, संवाद और अंदाज़ दोनों में जैसी अनौपचारिकता दिखाई देती है; वह उनके अन्य समकालीनों के यहां बमुश्किल दिखाई देता है। भाषा में जितनी अनेकरूपता, स्थानीयता और मनमौजीपने का वे मस्त-मलंग की तरह इस्तेमाल करते हैं, उससे उनकी कविता की ख़ासियत ही नहीं, ख़ास कहन और नये ढब को भी देखा जा सकता है। ब्रज, अवधी, पहाड़ी, खड़ी बोली आदि तमाम भाषाओं शब्द उनके यहां जिस सहजता से आते हैं, उससे उनकी भाषिक क्षमता और जन संवाद-क्षमता का भी पता चलता है। गप्प-सबद में वे कहते हैं-
 
      देस बिराना हुआ मगर इसमें ही रहना है
कहीं न छोड़ के जाना है इसे वापस भी पाना है
बस न तू आँधी में उड़ियो। मती ना आँधी में उड़ियो।
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 109
नव पूँजीवादी व्यवस्था में सत्ता और पूँजी के गठजोड़ के कारण जिस तरह आम आदमी बिल्कुल हाशिये पर चला गया है उसके कारण यह अकारण नहीं है कि अपना ही देस उसे अब बिराना लगने लगा है। लेकिन इस वज़ह से उदास और निराश होकर कवि पलायन की बात करते हुए संधा-भाषा में कविता रचते हुए किसी रहस्यलोक की ओर नहीं जाता। बल्कि दृढ़ता के साथ यह कहता है कि बिराने देस से पलायन करके कहीं नहीं जाना है, बल्कि इसे वापस भी पाना है- जिसके लिए आवश्यक है कि आदमी स्थिर-चित्त रहे, समय और परिस्थितयों की आंधी में मति उड़े नहीं। कुछ नयी कसमें जब वीरेन डंगवाल खाते हैं; तो उनके खिलंदड़ और मस्तमौला अंदाज़ में छिपे व्यंग्य-बाण की तुर्शी देखते ही बनती है-
      हल्दीराम भुजिया की कसम
रिलायंस के तेल की कसम
प्रमोद महाजन की कसम
आज दिन काँच के गिलास की तरह बिल्कुल साफ़ है और मेरी आत्मा निष्पाप।
मैंने घर में झाड़ू भी लगायी है खुशी-खुशी।
                                                               -वही, पृ.110     
सुप्रसिद्ध कथाकार और हिंदी के सफलतम सोप ओपेरा लेखक मनोहर श्याम जोशी ने एक स्थान पर लिखा है कि कई लोग बहुत गंभीरता से बहुत फूहड़ और हास्यास्पद बात करते हैं, जबकि कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो सहज और अनौपचारिक तरीके से से काफी गंभीर बातें कह जाते हैं। जिसके कारण गंभीर बातों की ग्राह्यता आसान हो जाती है। ऐसे लोग महानता और गंभीरता को अपने व्यक्तित्व पर ओढ़ने-बिछाने की चीज़ नहीं समझते, सहजता से जीवन जीने में यकीन करते हैं। वीरेन की पूरी काव्य-यात्रा इस बात की ताईद करती है कि मनुष्य की स्वभावगत सहजता, अनौपचारिकता और खिलंदड़पने को उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कविता दोनों पर हावी नहीं होने दिया। जबकि उनके अनेक समकालीन कवि इस चीज़ से स्वयं को नहीं बचा पाए। उनकी निराली फ़रमाइशें तो देखिये कि हर जानवर से उसका स्वभावगत गुण अपने लिए चाहते हैं, लेकिन सियार से उसका स्वभावगत गुण कवि को नहीं चाहिए। आख़िर शायरी इश्क से मुमकिन होती है, अक्ल से नहीं, सो कवि सियार को दूर से ही नमस्कार करके कहता है कि अपनी अक्ल अपने पास ही रखो, मुझे बख़्शो-
कुत्ते मुझे थोड़ा-सा अपना स्नेह दे
गाय ममता भालू मुझे दे दे यार,
शहद के लिए थोड़ा अपना मर्दाना प्यार
भैंस दे थोड़ा बैरागीपन बंदर फुर्ती
अपनी अक्ल से मुझे बख़्शे रखना यार सियार।
-दुष्चक्र में स्रष्टा, पृ. 85 
कार्ल मार्क्स ने कविता की संजीदगी और संवेदना को लेकर कहा था कि जहां भी मनुष्यता संकट में होती है, वहां कविता में उस संकट की ईमानदार और प्रामाणिक अभिव्यक्ति होती है। मार्क्स के इस प्रतिमान पर देखें तो वीरेन की कविता मनुष्यता के संकट की ईमानदार और प्रामाणिक अभिव्यक्ति को संभव बनाने वाली कविताओं का सफल उदाहरण कही जा सकती हैं। जहां आम जन की तकलीफों, दुश्वारियों, सत्ता की दुरभिसंधियों, धर्म की अमानवीय कार्य-शैली के साथ-साथ रागात्मक अनुभूतियों की सहज अभिव्यक्ति पूरी सफलता से अभिव्यक्त हुई है। दुःख के बारे में वीरेन कहते हैं-
      अंधेरे में भी पहचानी जा सकती है
दुखी आदमी की आवाज़
नकली दुखी आदमी की आवाज़ में
टीन का पत्तर बजता है
मसलन मारे गए लोगों पर
राजपुरुष का रुंधा हुआ गला।
-कवि ने कहा, पृ. 28
भाषा कवि का बसेरा होती है, जिसकी विविधवर्णी छवि, पूरी शक्ति और सौंदर्य का दोहन करते हुए वीरेन डंगवाल ने जैसी कविता संभव की है उससे गुज़रते हुए स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि उनके शब्द और कर्म के बीच कोई फांक नहीं है। उनकी सहजता, अनौपचारिकता और अकुंठ भाषा उनकी बड़ी विशिष्टता के रूप में सामने आती है, जबकि उनके अनेक समकालीनों के यहां काव्य-भाषा, अंदाज़-ए-बयां आदि के स्तर पर एक अज़ीब-सी संश्लिष्टता, असहज गंभीरता दिखती है। इस वज़ह से कविता की ग्राह्यता और अभिव्यक्ति की सहजता दोनों प्रभावित होती है। किसी भी रचना की संवाद-क्षमता उसकी सहज अभिव्यक्ति से संभव होती है और संवाद क्षमता से रहित रचना और चाहे जो दावे कर ले, पठनीयता के मामले में पिछड़ जाती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि रचना की पठनीयता उसकी उत्कृष्टता की कुंजी है, बल्कि यह है कि उत्कृष्ट रचना यदि अपने आगोश में पाठकों को बांध भी न सके तो उसकी प्राथमिक गुणवत्ता ही संदिग्ध होने लगती है। वीरेन डंगवाल ने अपने आत्मसंघर्ष से इस मोर्चे पर फ़तह हासिल की है। उन्होंने अपने लिए ऐसी भाषा चुनी है, जिससे गुजरते हुए पाठकों को अपनेपन के साथ-साथ सहज संवादप्रियता का भी अहसास होता है। दूसरी ओर उनकी जन-आबद्धता का आलम यह है कि जहां भी मनुष्यता संकटग्रस्त दिखी है, वहां उनकी कविता ने सार्थक और कारगर हस्तक्षेप किया है। 
(बनास जन से साभार)
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पंकज पराशर

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