दिनेश कर्नाटक की कहानी ‘अब तुम ठीक हो बेटा ?’

दिनेश कर्नाटक


आज की शिक्षा व्यवस्था को केंद्र में रख कर लिखी गयी इस कहानी में दिनेश कर्नाटक ने कई मुद्दों को सूत्रों में उठाने और उन पर बात करने की कोशिश की है. दिनेश स्वयं भी एक शिक्षक हैं और खुद इस तरह की समस्याओं से दो-चार होते होंगे। इस कहानी में दिनेश का अपना वह अनुभव भी है जो  की थाती होता है. आइए  दिनेश कर्नाटक की यह कहानी  ‘अब तुम ठीक हो बेटा ?’
 
अब तुम ठीक हो बेटा ?

दिनेश कर्नाटक
   
लड़कों को अस्पताल गए हुए काफी देर हो चुकी थी। वे अभी तक लौट कर नहीं आए थे।

आशंकाओं के बादल उनके मन-मस्तिष्क में मंडराने लगे थे। वे विवादों से दूर रहने वाले लोगों में से थे। उलझना उनकी फितरत में नहीं था। अपने अब तक के अनुभव से वे जान चुके थे कि उलझने से ही व्यक्ति मुसीबत में फंसता है। उन्हें शान्ति पसंद थी। वे उसकी ही तलाश में रहते थे। शायद इसलिए कि वह उन्हें कहीं भी नजर नहीं आती थी।

आज ही उस लड़के पर उनका डंडा चलाना और आज ही उसका घायल होना। आसार कुछ अच्छे नहीं लग रहे थे। तिल का ताड़ बनने में आजकल वक्त नहीं लग रहा था। आए दिन बच्चों से मारपीट के मामले अखबारों में आते रहते थे, जिनमें शिक्षकों की खूब फजीहत होती थी। पहले जैसा समय नहीं रहा। अब तो मौका मिलना चाहिए। लोग बवाल खड़ा करने की प्रतीक्षा में लगे रहते थे। जैसे सभी पदों और पेशों की इज्जत घटी थी, वही हाल अब शिक्षकों का भी था। अब वह ‘गोविन्द’ के बराबर में खड़ा नहीं था, बल्कि अपने तथा अपने परिवार की आजीविका के लिए काम करने वाला एक ‘पुर्जा’ मात्र बन कर रह गया था। बच्चे और अभिभावक अब उसे अपने ठेंगे पर रखने लगे थे। उसे यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे कि उनकी मेहरबानी से उसकी दाल-रोटी चल रही है। वह जमाना गया, जब शिक्षक के मारने-पीटने को परसाद समझा जाता था और पता चलने पर कि साहबजादे स्कूल से पिटकर आए हैं घर में और सिकाई होती थी। अब तो बच्चे को डांटना तक मां-बाप को गंवारा नहीं !

अध्यापकों ने कक्षाएं छोड़कर ‘स्टाफ रूम’ की ओर जाना शुरू कर दिया था। उनका इस तरह घंटी बजने से पहले जाना छुट्टी होने का संकेत होता था। बच्चे शिक्षक के कमरे से बाहर निकलते हीं अपनी किताबें समेटते हुए, आपस में जोर-जोर से बातें करने लगे थे। शोर की वजह से अपनी बात सुनाने के लिए उन्हें और जोर से बोलना पड़ रहा था जिससे पूरे विद्यालय में शोरगुल मच चुका था। छोटी कक्षाओं के बच्चे डेस्क में बिखरी हुई किताब-कापियों को जल्दी-जल्दी बस्ते में डालने लगे थे ताकि विद्यालय से निकलने में अपने साथियों से पिछड़ न जाएं। इस अफरातफरी से तेज कोलाहल होने लगा था। लेकिन छुट्टी की खुशी के कारण किसी का इस की ओर ध्यान नहीं था। बच्चों को भूख लग चुकी थी और वे जल्दी-जल्दी घर पहुंच कर खाने पर टूट पड़ने को बेताब हो रहे थे।

अध्यापकों का हाल भी इससे कुछ अलग नहीं था। उन्हें भी वर्षों से घड़ी की सुई के हिसाब से आने-जाने की आदत पड़ चुकी थी। वे इसके इतने आदी हो चुके थे कि समय-सारणी में होने वाला मामूली सा हेर-फेर उन्हें काफी परेशान कर देता था।

रावत जी भी इसी बात से परेशान थे। बारहवीं के एक लड़के के जांघों के बीच में चोट लग गई थी। उन्होंने उसे कुछ और लड़कों के साथ पास के अस्पताल भेज दिया था। छुट्टी हो चुकी थी, मगर अब तक उन लोगों का कहीं कोई पता नहीं था। बगैर उसका हाल-चाल जाने वे जा नहीं सकते थे। मगर विद्यालय में रुकने का भी अब कोई मतलब नहीं था। कर्मचारी तेजी से कमरों में ताला लगाने लगे थे। वे भी दूसरे अध्यापकों के साथ गेट की ओर बढ़ चले। तभी उन्हें दो लड़के गेट से अंदर की ओर आते हुए दिखे। उन्होंने बड़ी राहत महसूस की। पास आते ही उन्होंने बेसब्री से उनसे पूछा-‘सब ठीक-ठाक तो है ना !’
‘सर, आपको अस्पताल में बुला रहे हैं !’ लड़के ने उनकी बात को नजरअंदाज कर उनसे कहा।

‘बुला रहे हैं ! क्या बात है ?’ उन्हें झटका सा लगा था।
‘सर, वो अजय रो रहा है। अस्पताल वालों ने आपको ले कर आने को कहा है !’ लड़के ने फिर से अपनी बात दोहराई।
‘अच्छा तुम चलो ! मैं आता हूं !’ उन्होंने संयत आवाज में कहा।

अनहोनी की आशंका से उनका दिल जोर से धड़कने लगा और हाथ-पांव फूलने लगे। ‘कहीं आज मैं भी किसी मुसीबत में तो नहीं फंसने वाला हूं !’ वे मन ही मन सोच रहे थे और भारी कदमों से गेट से बाहर निकले। रास्ते में उन्हें प्रधानाचार्य दिखे, जिन्हें वे पहले ही मामले से अवगत करा चुके थे। उन्हें देखते ही उन्हें बड़ी राहत मिली थी। उन्होंने उनसे अस्पताल से आये बुलावे का जिक्र कर साथ चलने को कहा।
‘आप हो आईये मेरी जरूरत पड़े तो बुला लेना !’ उन्होंने टका सा जवाब दे दिया।

कुछ देर तक तो उनकी समझ में कुछ भी नहीं आया। प्रधानाचार्य से उन्हें ऐसी उम्मीद नहीं थी। उन्हें एक बार और अपने दिल की धड़कनों के बढ़ने का एहसास हुआ। उनका चेहरा तपने लगा था। वे अपने को अकेला तथा असहाय महसूस करने लगे थे। प्रधानाचार्य से तो वे संस्था प्रमुख के नाते साथ चलने को कह सकते थे, मगर साथ के शिक्षकों से किस मुंह से यह बात कहें ? सोचेंगे अपने मामले में हमें उलझा रहे हैं। घर पहुंचने में देर होगी सो अलग। वे यह सब सोचते हुए उसी तरह उदास कदमों से चलते रहे।

उनकी हालत को समझते हुए साथ चल रहे पाण्डे जी ने कहा-‘हम हैं तो सही आपके साथ……आप बिल्कुल चिन्ता न करें !’
उनकी बात से उन्हें बड़ा बल मिला। मगर उनके संकोची मन को उन्हें साथ ले जाना गंवारा नहीं था। ‘आप रहने दो सर, आपको काफी दूर जाना होता है। जो होगा मैं देख लूंगा !’

‘अरे क्या बात करते हैं सर ! एक दिन थोड़ा देर हो गई तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। हम चल रहे हैं आपके साथ ! अरे, आदमी ही तो आदमी के काम आता है !’ पांडे जी के बगल में चल रहे मिश्रा जी ने उनकी बात का समर्थन करते हुए कहा।

वे तीनों अस्पताल की ओर चल पड़े। जबकि उनकी बात सुन चुके कुछ शिक्षक कुछ न जानने का अभिनय करते हुए तेजी से अपने घर की ओर चले गये।
रावत जी को बिल्कुल भी अंदेषा नहीं था कि बात इतनी आगे बढ़ जायेगी और उन्हें खुद अस्पताल जाना पड़ेगा। वे सोच थे, ‘जब मैंने कुछ गलत किया ही नहीं तो मैं क्यों परेशान होऊं ?’ यह सोचते हुए उनके मन में एक तरह की दृढ़ता आ रही थी, जो चेहरे पर तनाव के रूप में दिखाई दे रही थी।

    अस्पताल में अच्छी-खासी भीड़ मौजूद थी। छुट्टी से पहले ही भाग जाने वाले कई लड़के आज अस्पताल में नजर आ रहे थे। उनको तो तमाशा चाहिए था, फिर वह साथ के किसी लड़के के घायल होने का मौका क्यों न हो ! रावत जी मन ही मन सोच रहे थे कि आज न जाने क्या होने वाला है ? भीड़ में विद्यालय के बच्चों, मरीजों के अलावा पास की बाजार के कुछ दुकानदार, अगल-बगल के कुछ लोग थे। उनके पहुंचते ही भीड़ उनके इर्द-गिर्द इकट्ठा हो गई। वे तेजी से अस्पताल के अंदर की ओर गये। उनका दिल बैठता जा रहा था। लड़का एक बैंच पर लेटा था। उसके आस-पास कई लोग घेरा बना कर खड़े थे। उनके पहुंचते ही अस्पताल की नर्सों ने उन्हें अजीब नजरों से घूरते हुए कहना शुरू कर दिया-‘बच्चों को मारने से पहले ये लोग सोचते भी नहीं कि कहां पर मारना चाहिए और कहां पर नहीं ! कुछ हो जाता तो ! क्या अपने बच्चों को भी ये ऐसे ही मारते होंगे !’



    वे सीधे लड़के के पास गये-‘कैसा है बेटा ?’
    ‘जी दर्द हो रहा है !’ कराहते हुए उसने कहा था।
    ‘डॉक्टर साहब क्या कह रहे हैं ?’ उन्होंने सामने खड़े लड़कों से पूछा।
    किसी ने कोई जवाब नहीं दिया।

वे डाक्टर साहब के कमरे की ओर मुड़ ही रहे थे कि एक नर्स उनके सामने आ कर खड़ी हो गयी-‘आपने तो हद कर दी गुरु जी, बच्चों को इस तरह पीटा जाता है क्या ? आपके भी तो बच्चे होंगे। कुछ हो जाता तो इसके मां-बाप पर क्या गुजरती ? लोग अपने बच्चों को आपके पास मार खाने के लिए थोड़ा भेजते हैं !’

उसके ऐसा कहते ही दूसरी नर्सें भी उनकी ओर देखते हुए मुह बिचका कर ‘हाय-हाय’ करने लगी। वे अचानक हुए इस हमले से अचकचा गए।
‘ये क्लास के बाहर घूम रहा था। मैंने इसे अंदर जाने को कहा। डंडा मैंने इसके पीछे की तरफ मारा था, जो इसे लगने के बजाय दरवाजे से टकराया। ये अंदर जा कर बैठ गया था। खाली पीरियड था। बच्चे आपस में झगड़ा करके दूसरी क्लासों को डिस्टर्ब न करें यह सोच कर मैं इन्हें पढ़ाने लगा। उस दौरान तो इसे कुछ भी नहीं हुआ। ये आराम से बैठ कर काम कर रहा था। मेरे जाने के बाद लड़कों ने आ कर मुझसे कहा कि ये रो रहा है। मैंने इसे अस्पताल भिजवा दिया। लड़के बता रहे थे कि इसे मेज से टकराने की वजह से चोट लगी है।’ सफाई देते हुए उन्होंने अपने अगल-बगल खड़े लड़कों की ओर समर्थन की उम्मीद से देखा मगर वे उनकी कक्षा के नहीं थे।

नर्स को उनकी बात पर यकीन नहीं हुआ-‘बच्चा खुद कह रहा है कि आपने उसे मारा !’
अब इस महिला को कैसे समझाएं सोच कर उन्होंने बैंच पर लेटे हुए अजय की ओर देखा। मगर वह खिड़की से बाहर की ओर देख कर कराह रहा था।
‘मुझे अपने बच्चों की कसम, मैंने इसे नहीं मारा !’ वे भावुक हो गये थे।
‘अरे आप क्या कोई पुलिस वाली हैं…..जो आरोप तय किये दे रही हैं…..कल को लोग कह दें कि आप के अस्पताल में आया मरीज बीमारी से नहीं आप के लगाए इंजैक्शन से मरा है तो उसकी बात मान ली जाएगी क्या ? अजीब बात करती हैं ! मामले को सुलझाने के बजाय उलझाने में लगी है !’ साथ में आये मिश्रा जी ने बीच में हस्तक्षेप किया।

‘अरे छोडि़ए इनको क्या सफाई दे रहे हैं…..डॉक्टर साब से पता करते हैं….बच्चे की हालत कैसी है….. इन्हें तो तमाशा चाहिए !’ पीछे खड़े पांडे जी उन्हें कंधे से खींचते हुए डॉक्टर के कमरे की ओर ले गये।
नर्सें अभी भी उनकी बातों से आश्ववस्त नहीं थी और ‘हाय-हाय’ की मुद्रा बनाए हुए थी।

‘चोट तो लगी है…..सूजन भी है……पेन किलर और सूजन कम करने की दवा लिख दी है !’ पर्चा  बढ़ाते हुए डॉक्टर ने कहा था।
‘डॉक्टर साहब कोई सीरियस बात तो नहीं है !’ उन्होंने कुर्सी से उठते हुए पूछा।
‘देखिए ये जगह ही ऐसी है कि यहां लगने पर काफी दर्द होता है।‘
‘जी, ठीक कह रहे हैं डॉक साहब !’ मिश्रा जी ने हाथ जोड़ते हुए कहा।
‘आप लोग बाहर जाईये मैं दवा लेकर आता हूं !’ पांडे जी ने उनसे कहा।

‘बच्चे को कुछ देर आराम कर लेने देते हैं ! हटो बच्चो उसे हवा आने दो !’ पांडे जी ने लड़के को घेर कर खड़े विद्यार्थियों से कहा और रावत जी के कंधे पर हाथ डाल कर उन्हें बाहर की ओर ले जाते हुए कहने लगे ‘यह सारा बखेड़ा इन नर्सों ने खड़ा किया है। अपना काम करने के बजाय तमाशा बनाने में लगी हैं। ऐसी करुणा अपने मरीजों को दिखाती तो सरकारी अस्पतालों के ऐसे हाल नहीं होते ! आप ने सही जवाब दिया अब सब से इसी बात को कहिएगा !’
‘पांडे जी, आप भी मुझे ही गलत समझ रहे हैं ? जो हुआ मैं वही बता रहा हूं…..मैं कोई कहानी नहीं बना रहा !‘

‘अरे साहब, सांच को क्या आंच !’ मिश्रा जी ने उनकी बात में जोड़ा।
लोगों की बढ़ती हुई सरगर्मी देख कर पाण्डे जी ने नजदीक आकर धीरे से उनसे कहा-‘हमें कालेज चले जाना चाहिए ! यहां रूकना सही नहीं होगा…..भीड़ का कोई भरोसा नहीं ! भावुकता में लोग सही-गलत नहीं समझते !’
‘मैंने कौन सा गलत काम किया है…..जो डरूं……मेरी वजह से आप लोगों को भी देर हो गयी है….आप लोग चलिए मैं आता हूं…..!’ रावत जी ने दृढ़ता से दोनों की ओर मुखातिब होकर कहा।
‘क्या बात कर रहे हैं रावत जी, आप को अकेला छोड़ कर थोड़ा चले जायेंगे !’ मिश्रा जी ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा।

सच तो यह है कि मार-पिटाई पर उनको भी यकीन नहीं था। वे अपने बीस साल के शिक्षण अनुभव से समझ चुके थे कि मार कर न तो आप किसी को सीखा सकते हैं और न ही बदल सकते हैं। इससे आया परिणाम केवल दिखावटी होता है, जो बच्चे के भविष्य के लिए और भी बुरा होता है। बच्चा अपना प्रतिरोध दर्ज करने के लिए आपके द्वारा बतायी बातों के विरूद्ध कार्य करने लगता है। उनका मानना था कि यदि शिक्षक अपने विषय को पढ़ाने में आनन्द लेता हो, पाठ सामग्री को बच्चों को संप्रेषित करना चाहता हो तो बच्चे उसकी ओर ध्यान देते हैं। यदि उसने पढ़ाने के लिए कोई योजना नहीं बनाई है तो बच्चे बहुत जल्दी ऊबने लगते हैं और पूरी कक्षा में अराजकता फैल जाती है। ऐसे में कक्षा को शान्त करने के लिए शिक्षक पहले तो चिल्लाता है। जब इससे भी काम नहीं बनता है तो भय का उपयोग करते हुए एक-दो विद्यार्थियों को पीट देता है। कक्षा शान्त प्रतीत होती है। मगर यह शान्ति बनावटी होती है, जो उनकी छोटी-मोटी खुराफातों से प्रकट होती रहती है। पाठ-योजना न होने के कारण शिक्षक व्यर्थ की बातें करने लगता है, जिससे बच्चों की बेचैनी और बढ़ते जाती है।

उनका मानना था कि बच्चों से दूरी बना कर नहीं बल्कि आत्मीयता का रिश्ता बना कर ही उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। वे इसी पद्धति को अपनाते भी थे। मगर यह तो आदर्श स्थिति है। बच्चों से उनकी मर्जी के साथ तमाम काम करवा लेना आसान बात नहीं है। कक्षा में कुछ लड़के होते हैं, जो शिक्षक की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करते जाते हैं। जबकि बहुत से कक्षा में तो सहयोग करते हैं लेकिन उन कार्यों को नजरअंदाज कर देते हैं जिन्हें उन्हें घर से कर के लाना होता है। ऐसे बच्चों को वे तमाम तरीकों से प्रेरित करते थे। जब उन्हें लगता कि किसी भी तरह से बात नहीं बन पा रही है और दिया गया कार्य न करने का विद्यार्थियों के तथा उनके परीक्षा परिणाम पर असर पड़ना तय है तो उन्हें मजबूरी में डंडे का सहारा लेना पड़ता था। लेकिन ऐसा करते हुए भी उन्हें लगातार यह एहसास घेरे रहता था कि उन्हें और भी विकल्पों को आजमाना चाहिए था। बच्चों को पीटना चुनौती से निपटने का आसान प्रतीत होता हुआ गलत उपाय है।

जब वे पढ़ते थे, तब शिक्षकों की पिटाई को परसाद माना जाता था और तब के शिक्षक जब-तब आशीर्वाद की तरह उसे बांटा करते थे। उस समय के शिक्षकों का काम बड़ा आसान था। जिसने प्रश्नों के उत्तर रट कर उगल दिए वह होशियार और जो ऐसा नहीं कर सका वह बुद्धू! उन्हें याद है पिटाई ने उन्हें नहीं बदला। बल्कि इसने उनके अंदर विद्यालय तथा शिक्षा के प्रति गुस्सा ही पैदा किया। तब होने वाली पिटाई के पीछे कोई ठोस वजह नहीं होती थी, बल्कि शिक्षक उन्हें भयभीत करके कक्षा में शान्ति बनाने के लिए ऐसा करते थे।

 तब के श्रीवास्तव सर की उन्हें आज भी याद है जो कक्षा में पूरी तैयारी के साथ आते थे और पूरी तन्मयता से अपना पाठ पढ़ा कर चले जाते थे। उनका पढ़ाना सभी को बहुत अच्छा लगता था। शायद ही कभी वे डंडा लेकर आये हों। शायद ही कभी उन्होंने किसी को पीटा हो। लड़के उनके पीरियड में जरूर उपस्थित रहते थे। लेकिन इतना सब होते हुए भी उन्हें उनकी एक बात खलती थी। उनकी बच्चों के साथ अंतरंगता नहीं थी। वे बच्चों के प्रति उदासीन रहते थे। शायद ही वे किसी का नाम जानते थे ! शायद ही उन्होंने कभी किसी से कुछ पूछा हो ? अपना काम ईमानदारी से करते, उसके अलावा किसी से कोई मतलब नहीं ! इसकी भी परवाह नहीं करते थे कि लड़कों ने उनके पढ़ाये पाठों के अभ्यास पक्की कापी में किये भी हैं या नहीं। वे कभी किसी से कापी दिखाने तक को नहीं कहते थे। जिसने दिखायी साइन कर दिये। जिसने नहीं दिखायी उससे कोई सवाल-जवाब नहीं ? बाद में खुद रावत जी ने उनके द्वारा दिये जाने वाले अभ्यास काम को करना छोड़ दिया था। उनसे अपने काम को पूरी निष्ठा से करने की प्रेरणा तो मिलती थी मगर बात इतने से ही तो नहीं बनती !

रावतजी का डंडा शुरू में खूब चला करता था, मगर जब उन्हें यह बोध हुआ कि डंडा हमारी असफलता का प्रतीक है तो उसका प्रयोग काफी कम होता चला गया। मगर वह छूटा इसलिए नहीं क्योंकि उन्हें लगता था कि बहुत से बच्चों को भाषा के साथ-साथ डंडे की भी जरूरत होती है। वे पिटाई का औचित्य स्पष्ट कर उसका प्रयोग करते थे। मगर साथ-साथ वे इसे अपनी कमजोरी भी मान कर चलते थे। उन्हें विश्वास था कि वे इतनी कुशलता से पिटाई का प्रयोग कर सकते हैं कि कभी किसी को नुकसान नहीं होगा। उन्होंने बच्चों के पिछवाड़े को डंडे के उपयोग के लिए सबसे उपयुक्त स्थान के रूप में चिह्नित किया था। यह असर भी करता था और इसमें कभी कोई बवाल होने का भी खतरा नहीं था। बच्चों की पिटाई के खिलाफ कानून बना कर सरकार ने इसे अपराध की श्रेणी में डाल दिया था। अब जब भी वे किसी लड़के को पीटते थे तो इस विश्वास के साथ कि यह वे उसकी भलाई के लिए कर रहे हैं, लेकिन उतनी ही तीव्रता के साथ उन्हें यह भी एहसास होता था कि उन्होंने अपराध किया है। अब वे एक अपराधबोध के साथ जीते थे। अखबार में इस तरह की घटनाओं को पढ़ते हुए उन्हें भय सताता रहता था कि न जाने किस दिन उनके साथ कोई बवाल खड़ा हो जाए। वे इस लत से मुक्त होना चाहते थे। मगर हो नहीं पाते थे।

क्या आज वे भी उन तमाम अध्यापकों की तरह फंस चुके थे जिनके बारे में अखबारों में आया करता था ?
तभी मैली जींस और मैली टी शर्ट तथा गले में सोने की चैन पहने एक युवक जिसका पेट बड़ी बेशर्मी से आगे को निकला हुआ था अपनी पल्सर मोटर साईकिल में तेजी से अस्पताल परिसर के भीतर आया। उसने उतनी ही तेजी से उतरते हुए एक झटके से मोटरसाइकिल को स्टैंड पर खड़ा किया और भीड़ से पूछने लगा-‘कौन है ये रावत………बच्चों पर जोर दिखाने वाला……!’
भीड़ ने कोने में खड़े शिक्षकों की ओर इशारा किया।

वह तीर की तरह उनकी ओर बढ़ा। उसके हाव-भाव ऐसे थे कि गोया सामना होते ही टूट पड़ेगा। उसके टूटते ही सारी भीड़ भी उन पर टूट पड़ेगी। उन्हें याद आया यह युवक दो-तीन बार कुछ लड़कों के एडमिशन के लिए उनके पास आ चुका था। तब वह उन्हें देखते ही कमर झुका कर नमस्कार किया करता था। अभी वह उन्हें पहचानते हुए भी नहीं पहचान रहा था।

‘मैं हूं रावत……ये चोट मेरे मारने से नहीं लगी है…….चोट उसे खुद ही लगी है………अपनी कक्षा का विद्यार्थी होने के कारण मैंने उसे अस्पताल भिजवाया!’ किसी अनजानी शक्ति ने उन्हें उसके सामने धकेल दिया।
तेजी से उन लोगों की ओर बढ़ता युवक उनके इस तरह सामने आने से सहम गया।

‘ये कोई तरीका है बच्चों पर हाथ उठाने का…………..आप जहां चाहे, वहां मार देंगे…..बच्चे को कुछ हो गया तो !’ उनके करीब आकर उसने तैश में कहा।
‘अपने बच्चों से बढ़ कर तो कुछ नहीं होता……अपने बच्चों की कसम खा कर कहता हूं, मैंने उस जगह पर नहीं मारा……मैंने उसे क्लास के बाहर घूमते हुए देख कर डांटा था……क्या अब टीचर बच्चों की गलत हरकत पर भी कुछ नहीं कह सकता………..मैंने उसे डराने के लिए दरवाजे पर डंडा मारा था, जो वहां से स्लिप होकर उसकी जांघ पर लग गया था। उसके बाद तो ये आराम से कक्षा में बैठ गया था। मैंने क्लास भी ली। तब तो इसको कुछ नहीं हुआ ? एक घंटे बाद पता चला ये रो रहा है। इसके साथ के लड़कों ने बताया कि भागते हुए मेज से टकराने की वजह से इसकी जांघों के बीच में लगी। हम तो उसकी चिन्ता कर रहे हैं और आप हमें ही दोषी बता रहे हैं। क्या अब भलाई का जमाना नहीं रहा ?’

‘आपका मतलब लड़का झूठ बोल रहा है ? वो अपने गुरू जी के साथ ऐसा क्यों करेगा ?’ वह कुछ ढीला पड़ा था।
‘ये तो आप उसी से जा कर पूछो !’ रावत जी ने कहा।
‘देखिये भाई साहब, फिजूल में बात ज्यादा बढ़ाने से कोई फायदा नहीं। आप पहले बच्चे को देख आओ…..उससे पूछताछ कर लो…….फिर कालेज में आ जाओ………वहां शान्ति से बात कर लेंगे !’ मिश्रा जी ने अपनी मीठी आवाज में उसे समझाया।
साथ आए लोगों के समझाने पर वह अस्पताल के अंदर की ओर चला गया।

तभी तीन-चार लोगों के साथ चीखता-चिल्लाता हुआ एक व्यक्ति गेट से अंदर आता हुआ दिखा। वह लड़के का बाप था। उसके चेहरे पर पीड़ा तथा गुस्से के मिले-जुले भाव नजर आ रहे थे। ‘अभी पुलिस में रिपोर्ट करवाता हूं। इन्होंने समझ क्या रखा है ? बच्चों पर हाथ उठाते हुए इन्हें दया नहीं आती………ये मास्टर हैं या कसाई ! हम अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भिजवाते हैं या मार खाने के लिए ! जेल में चक्की न पिसवाई तो मेरा नाम भी उमेद सिंह नहीं……!’


रावत जी उसे अच्छी तरह से जानते थे। अस्पताल आने से पहले वह ठर्रा चढ़ा कर आया था। वह इतना सीधा आदमी था कि कभी विद्यालय आने पर उसके मुंह से आवाज तक नहीं निकलती थी। उसने गेट से अंदर आते ही उन लोगों को देख लिया था, पर पास आने का साहस नहीं जुटा पाया।
हालात बिगड़ते जा रहे थे। साथ में आये दोनों शिक्षकों की बेचैनी बढ़ती जा रही थी।

‘मेरे ख्याल से यहां रुकना अब हम लोगों के लिए ठीक नहीं होगा। हमें विद्यालय की ओर को चले जाना चाहिए।’ पांडे जी ने एक बार फिर से अपनी बात दोहरायी।
‘आप लोग घर जाईये। मेरी चिन्ता मत करिये। मैं अब मामले को निपटा कर ही जाऊंगा !’
‘रावत जी भीड़ का कोई भरोसा नहीं…….आप जानते हैं………भीड़ सही-गलत कुछ नहीं जानती !’  मिश्रा जी ने अपना अनुभव सामने रखा।
‘मैं ये भी जानता हूं कि इस जगह पर लगी चोट जितना दर्द देती है, उतने ही जल्दी ठीक भी हो जाती है !’ उन्होंने पूरे आत्मविश्वास से कहा था।
‘ठीक है हम भी आपके साथ ही जायेंगे !’ पांडे जी ने हारकर कहा।

लड़के का पिता कुछ लोगों के साथ बातचीत में मशगूल था। रावत जी सीधे उसके पास गये और उसकी ओर मुखातिब होकर कहने लगे- ‘ठाकुर साहब मैं आपके बच्चे का कक्षा अध्यापक हूं। घबराने की बात नहीं है। बच्चों को चोट-चपट लगती रहती है। उसे थोड़ा चोट लगी है। वो सही हो जायेगा !’
उसने मुंह उठा कर उनकी ओर देखा। वह गुस्से में था।
‘सही हो जायेगा ! आपको कैसे पता वो सही हो जायेगा ?’
‘मैंने उसे पेशाब करने को कहा था। इसका मतलब चोट इतनी गंभीर नहीं है ! फिर हमने उसको सही समय में अस्पताल पहुंचवा दिया था !’


‘आप ने ही पीटा था उसे ?’
‘मैंने नहीं पीटा…………उसे मेज से लगी थी !’
‘फोन पर तो मुझे बताया गया था कि मास्साब के मारने से चोट लगी है !’
‘आपकी हालत मैं समझ सकता हूं………. आप बच्चे से जा कर पता कर लो………आपकी जगह हम होते तो हम भी ऐसा ही कहते……हम भी बच्चे वाले हैं !’ पांडे जी ने उससे कहा।
‘अपना समझते हो तभी तो ऐसे मारते हो !’ साथ में आये व्यक्ति ने साथ आने का फर्ज निभाते हुए कहा।
‘मैं कुछ नहीं जानता…………मेरे लड़के को कुछ नहीं होना चाहिए……….उसे कुछ हुआ तो मैं सब को देख लूंगा !’


‘वो आपका ही नहीं हमारा भी बच्चा है………..पहले आप उसे देख आओ !’ रावत जी ने कहा।
तभी विद्यालय के कुछ लड़के आ गये।
‘सर, उसे तो मेज से लगी है। हमने खुद देखा था।’ एक ने कहा।
‘तुम लोग अभी तक कहां थे…….अंदर जा कर उसके पिता को बताओ……..!’ पांडे जी ने उनसे कहा।
‘अब सब ठीक हो जायेगा……चलिए अब कालेज को चलें !’ मिश्रा जी किसी तरह की मुसीबत में नहीं पड़ना चाहते थे।

इस बार रावत जी ने उनकी बात से सहमति जतायी और वे लोग कालेज की ओर को चल पड़े। अब वे काफी राहत महसूस कर रहे थे। अब तक वे भावावेश में थे, लेकिन अब उनकी सांस सम में लौट आयी थी।

कालेज को जाते हुए मिश्रा जी पुराने दिनों को याद कर रहे थे-‘एक हमारा समय था। लोग अध्यापकों से आकर कहा करते थे कि अगर हमारा बच्चा कुछ गड़बड़ करे तो जम कर ठुकाई कीजिएगा। पिटाई करने वाले शिक्षक तब सब से अच्छे माने जाते थे। विद्यार्थी उनकी पिटाई को परसाद के रूप में लेते थे। बड़े होने पर एक-दूसरे से जिक्र करते थे कि फलां मास्साब की पिटाई की वजह से मेरी जिन्दगी बनी है। देखते ही कदमों में गिर जाते थे कि सर आप की वजह से हमारी जिन्दगी बन पाई। अब, हालत यह है कि घर वाले लड़ने को तैयार हैं। देख लेने की धमकी देने लगे हैं।’

‘शिक्षक को मारने का कोई शौक थोड़ा होता है। बच्चों की भलाई चाहता है तभी उन पर हाथ उठाता है। कुम्हार मिट्टी के बर्तनों को भट्टी में न झोंके तो क्या कभी वो काम के लायक हो पायेंगे। तुलसीदास जी भी तो कह गये हैं, ‘भय बिनु होत न प्रीति’। क्या वो सब लोग बेवकूफ थे ?’ मिश्रा जी बोले।
रावत जी उनकी बात पर ‘हां-हूं’ करते रहे।
अचानक पांडे जी ने उनका हाथ पकड़ कर उन्हें रोक दिया। तीनों ठिठक गये। कुछ ही दूरी पर वह मोटा युवक, लड़के का पिता तथा एक अन्य व्यक्ति सड़क के किनारे खड़े थे। उनका इस तरह से आगे जा कर खड़ा होना उन्हें समझ में नहीं आया। कुछ देर के लिए वे वहीं पर खड़े हो गये। रावत जी आगे बढ़ने लगे तो पांडे जी ने उन्हें रोक दिया-‘आगे जाना सही नहीं होगा !’

‘आप मेरे पीछे-पीछे आईये !’ कह कर रावत जी आगे को बढ़ चले।
दोनों उनसे अच्छा खासा फासला बना कर चल रहे थे।
‘बच्चा कैसा है अब ?’ उन्होंने आगे बढ़ कर लड़के के पिता से पूछा।
‘ठीक है मास्साब………..घर भेज दिया !‘ उसने सहजता से उत्तर दिया।
‘थोड़ा गरम पानी से सेक कर लीजिएगा…..ठीक हो जाएगा !’ आश्वस्त होते हुए उन्होंने कहा।

‘गलतफहमी हो गई थी सर……लड़का खुद ही कह रहा था कि उसे मेज से लगी। साथ वालों ने उसकी बात गलत समझी और हमें बता दी। आपकी तो वो तारीफ कर रहा था। कह रहा था सर बायलौजी बहुत अच्छी पढ़ाते हैं। बुरा मत मानियेगा सर…….आपको तकलीफ उठानी पड़ी।‘ मोटे पेट वाले लड़के ने कहा।
‘ऐसी कोई बात नहीं है………हो जाता है !’ रावत जी ने राहत की सांस लेते हुए कहा।

‘देखिये अगर हम लोग बच्चों की बातों पर एकदम यकीन कर लें तो कितनी गड़बड़ हो सकती है। फिर बच्चों की बातों पर अगर आप उनका पक्ष लेने लगेंगे तो वे बड़ों की इज्जत करना बन्द कर देंगे। कभी भी कोई कदम उठाने से पहले सच्चाई का पता लगा लेना चाहिए।‘ पांडे जी ने मौका लगते ही उनकी क्लास ले ली थी।

‘आप बुरा मत मानियेगा गुरूदेव…….लड़के को आप से ही पढ़ना है…….भूल-चूक माफ करियेगा !’ हाथ जोड़ कर लड़के के पिता ने कहा।
‘अरे, आप निश्चिन्त रहिये………वो हमारा बच्चा है !’ रावत जी ने उसके कंधे पर हाथ रख कर उसे आश्वस्त किया।
‘सर, आप लोगों को घर छोड़ दूं !’ मोटा युवक बोला।
‘नहीं, हम चले जाएंगे………..आप लोग जाओ !’

अगले दिन जब कालेज के अन्य शिक्षकों को पूरी बात का पता चला तो वे सब आक्रोशित हो उठे।
‘मैं तो कहता हूं बिगड़ने दीजिये इन बच्चों को……….करने दीजिये जो करते हैं………..पता है किसी को हम इन बच्चों के ऊपर कितनी माथापच्चीसी करते हैं……..हम पर सवाल उठाने वाले जरा इन मिट्टी के लालों को पास करवाकर दिखा दें ………तब हम जानें………अरे, शिक्षक का कोई सम्मान ही नहीं रहा। हमारे भी बच्चे स्कूल में पढ़ते हैं। कभी शिकायत करते हैं कि फलां मैडम ने पिटाई की तो छूटते ही कहते हैं ; बेटा, जरूर तुमने कोई गलती की होगी। ऐसे तो कोई किसी को नहीं मारता ! यहां बगैर जाने-समझे सीधे जेल पहुंचाने की तैयारी हो जाती है। अजीब मजाक है !’ हमेशा गुस्सा हो जाने वाले पंत जी ने कहा।

‘पंत जी, मैं कल से एक बात सोच रहा था। मुझे रात को देर तक नींद भी नहीं आई। समय बदल गया है, अब हमें भी बदल जाना चाहिए। हमें बच्चों को उनकी गलती का एहसास कराने के लिए दूसरे तरीके खोजने चाहिए !’ रावत जी ने सहजता से कहा।
‘दूसरा तरीका क्या हो सकता है ? आप रोज उनसे किताब लाने को कहें………होम वर्क करके लाने को कहें और वो बगैर किताब-कापी के आते रहें तो आप क्या उनकी आरती उतारेंगे !’ पंत जी उसी रौ में बोले।
‘मगर वे खेल के मैदान में जा कर खेल तो नहीं भूलते………..कपड़े पहनना………..भोजन करना तो नहीं भूलते………..भाषा नहीं भूलते !’ रावत जी ने मुस्कराते हुए कहा।
‘आप कहना क्या चाहते हैं ?’ पंत जी ने उत्तेजना में उनसे पूछा।

‘शायद बच्चे हम से पूछना चाहते हैं कि सर, हम जानना चाहते हैं। लेकिन सर, पढ़ाई इतनी बोझिल और उबाऊ क्यों है ? शायद वे हम से पूछना चाहते हैं कि पढ़ाई खेल की तरह आनंद देने वाली और अपनी ओर आकर्षित करने वाली क्यों नहीं है ? इसमें हमारी भागीदारी क्यों नहीं है ? हमें घर में और स्कूल में नासमझ और गैरजिम्मेदार क्यों समझा जाता है ? शिक्षा में लोकतंत्र क्यों नहीं है ?’ रावत जी ने शान्ति से कहा।

‘लोकतंत्र है कहां रावत जी………सारे खूबसूरत शब्द अब अपना अर्थ खो चुके हैं……..लोकतंत्र होता तो क्या लोगों के सामने इतनी बाधाएं होती ?’ पंत जी ने कहा।
‘यही तो सवाल है……इस पर फिर कभी चर्चा करेंगे……..फिलहाल तो मुझे पीरियड में जाना है !’ कह कर रावत जी अपनी क्लास की ओर चले गये।
उनके क्लास में पहुंचते ही सभी लड़के खड़े हो गये। उनकी निगाहें लड़के को खोज रही थी। तभी उन्हें वह नजर आया-‘अब तुम ठीक हो बेटा ?’ उन्होंने उससे पूछा।
‘जी, बिल्कुल ठीक !……..सारी सर, आपको मेरी वजह से परेशान होना पड़ा !’ उसने कहा।
‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, बेटा !’ कहकर उन्होंने एक गहरी सांस ली और ब्लैक बोर्ड की ओर लपके।

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सम्पर्क –
दिनेश कर्नाटक
ग्राम/पो.आ.-रानीबाग,
जिला-नैनीताल
(उत्तराखंड) पिन-26 31 26
फोनः 05946 244149 

 
मोबाइल- 94117 93190
ई-मेल –  dineshkarnatak12@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)  

दिनेश कर्नाटक


                               
जन्म -13 जुलाई 1972, रानीबाग (नैनीताल)                        
विधाएं -कहानी, आलोचना, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत आदि।
मुख्य कृतियां:  कहानी-संग्रह: काली कुमाऊं का शेरदा तथा अन्य कहानियां

उपन्यास: फिर वही सवाल
सम्मान –  प्रताप नारायण मिश्र स्मृति युवा साहित्यकार सम्मान’ 2010 से सम्मानित।
उपन्यास ‘फिर वही सवाल’ भारतीय ज्ञानपीठ की नवलेखन प्रतियोगिता-2009 में अनुशंसित

            

दिनेश कर्नाटक हमारे समय के चर्चित युवा कहानीकार हैं। मैकाले का जिन्न’ दिनेश की ऐसी ही कहानी है जिसमें उन्होंने हमारी शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त खामियों और बेसिर पैर की सरकारी योजनाओं-घोषनाओं का पर्दाफ़ाश किया है। तमाम सरकारी योजनायें कागजों पर तो सफल बतायी जाती हैं जबकि हकीकत कुछ और होती है।  तो आईये आज पढ़ते हैं दिनेश कर्नाटक की यह कहानी. 


दिनेश  कर्नाटक


                                                                (लार्ड मैकाले)

मैकाले का जिन्न
   
 
  ‘सरकार के प्रयास, समाज के उन उच्च वर्गों में शिक्षा का प्रसार करने तक सीमित रहने चाहिए, जिनके पास अध्ययन के लिए अवकाश है और जिनकी संस्कृति छन-छनकर जनसाधारण तक पहुंचेगी।’

(मैकाले के ‘फिल्टरेशन सिद्धांत’ को सरकारी नीति घोषित करते हुए तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड ऑकलैंड, 24 नव0 1839)

    ‘सरकार को राजकीय विद्यालयों की स्थापना की गति को शनै-शनैः मंद करके, इन विद्यालयों के प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व से पृथक हो जाना चाहिए।’
                                    -हर्टांग समिति, 1929

    ‘अपवंचित तथा कमजोर वर्ग के बच्चों को भी निजी विद्यालयों की प्रथम कक्षा में 25 प्रवेश पाने का अधिकार। इसका भुगतान सरकार बाउचर प्रणाली के जरिए करेगी।

                                     -शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009

वे एक-दो नहीं पूरे छह थे। अब्बास, विलाल, अमर, मोहन, नक्षे, पान सिंह ! पढ़ाई-लिखाई को छोड़ कर बाकी सब कामों में उस्ताद ! कक्षा में भूले-भटके ही नजर आते थे। होशियार इतने कि लगातार दस दिन की अनुपस्थिति से पहले कक्षा में नजर आ जाते थे ताकि नाम कटने से बच जाए। इसके बाद किसी दिन कक्षा में दर्शन दे दिये तो हाफ टाइम के बाद मौका लगते ही चम्पत हो जाया करते थे। वे उनकी अनुपस्थिति और अनियमितता को दूर करने के लिए कई तरह के प्रयास कर चुके थे, मगर उनका ढर्रा जस का तस बना हुआ था। समझाने तथा कहने का उन पर कोई असर नहीं होता था। वजह साफ थी, उन्हें अपने घरों का समर्थन प्राप्त था। किसी दिन मां-बाप को उनकी जरूरत होती तो अपने साथ ले लेते। बाकी  दिन उनकी मर्जी चलती!
वे सब कक्षा में अलग-अलग लड़कों के साथ बैठते थे। कॉपी चेक कराने, पाठ पढ़ाने और पूछताछ के समय या तो गायब हो जाते या ऐसे भोले भंडारी बने रहते कि पकड़ में नहीं आ पाते थे। लेकिन कब तक बचते ? पहली मासिक परीक्षा ने कक्षा की पूरी तस्वीर उनके सामने स्पष्ट कर दी। कॉपियों में प्रश्नों के उत्तर लिखने के बजाय प्रश्नों को ही अजीब, टेड़ी-मेड़ी लकीरों के रूप में उतारने के अलावा, उन्होंने कुछ नहीं किया था। कक्षा छह में पहुंच जाने के बावजूद, उन्हें अभी तक लिखना नहीं आ पाया था। उन्हें तुरंत अपने पास बुला कर जब उनसे पढ़ने को कहा गया तो यह भी उनके लिए दुष्कर कार्य हो गया था।

ऐसा भी नहीं था कि कक्षा में सभी बच्चे उनके ही जैसे थे। तीस बच्चों की कक्षा में समीर, संतोष, रऊफ, हर्षित, महमूद जैसे लड़के भी थे जो उत्साह से दिया गया काम करते और जैसे ही किया हुआ काम दिखाने को कहा जाता तो उनमें होड़ सी लग जाती थी। उनके घरों के हालात भी उन लड़कों के घरों से बेहतर नहीं थे। ये बच्चे न तो आए दिन कक्षा में अनुपस्थित रहते थे और न कभी स्कूल से भागते थे। इन बच्चों का पठन-पाठन के प्रति उत्साह देखकर नरेन्द्र सर को भी पढ़ाने में आनन्द आता था। इनके मां-बाप अपनी तमाम मुसीबतों के बावजूद इनसे पढ़ाई के अलावा और कुछ नहीं चाहते थे।

कक्षा के तमाम बच्चों में सब से अलग था, पान सिंह ! अपने उजाड़ चेहरे,  बिखरे हुए बालों, कटे-फटे, मैले और बास मारते कपड़ों के कारण वह कक्षा में सब से अलग नजर आता था। वह आए दिन बहुत ही मार्मिक ढंग से रोते हुए किसी लड़के की शिकायत लेकर उनके सामने खड़ा हो जाता था। ऐसा लगता था, जैसे वह एक तरफ है और कक्षा के सारे लड़के दूसरी ओर ! जिसे देखो वह उसी को परेशान करने में लगा है। उनकी समझ में नहीं आता था कि छोटी-छोटी बातों में होने वाले झगड़ों में उसकी आंखों में इतना पानी कहां से आ जाता है। वे उसे अपने पास बुलाते तो वह अपने दांये हाथ से गंगा-जमुना की तरह बह रहे आंसुओं को पोछता जाता और लम्बी-लम्बी सांसें भरते हुए लड़कों की करतूत भी बताता जाता। उसका रोना दूसरे बच्चों जैसा नहीं होता था। वह रोना ऐसा था, जैसा सब कुछ गंवा देने या सब कुछ खत्म होने के बाद पैदा होता है। हृदय को भेद देने वाला………! वे जानते थे, उसको रूलाने में बच्चों की शैतानियां ही नहीं उसका अपना जीवन भी सम्मिलित है।
शुरू-शुरू में तो वे उसका रूदन सुन कर घबरा जाते थे। बगैर देर किए उसके रोने को उसके पीडि़त होने का सबूत मान लेते थे और उसके द्वारा दोषी  कहे गए बच्चे को सजा मुकर्रर कर दिया करते थे। पढ़ाने के बीच में भी वह कोई समस्या ले कर आता तो उसको सुलझाने में लग जाते थे। पर जब उसकी समस्याएं खत्म होने के बजाए तेजी से बढ़ने लगी तो उनका माथा ठनका।

‘जरा अपनी काॅपियां लाकर दिखा तो………देखते हैं………..तू रोने और शिकायत करने के अलावा भी कुछ करता है कि नहीं !’ एक दिन उन्होंने उससे कहा।

कॉपी देखी तो उन्होंने अपना सिर पकड़ लिया। अब तक कितना सारा काम करवा दिया गया था जबकि उसने शुरू के कुछ पेजों में दो-तीन लाइनों में किसी अज्ञात लिपि में कुछ लिखने भर की कोशिश की थी………कुछ में चित्र बनाने की कोशिश की गयी थी…….फिर यह सब भी छोड़ दिया था।
   
    कभी उन्होंने भी ऐसे ही एक सरकारी स्कूल में पढ़ा था। तब स्थिति दूसरी थी। पढ़ाई के लिए ले-देकर सरकारी तथा सहायता प्राप्त स्कूल ही होते थे। मध्य वर्ग के अधिकांश बच्चे इन्हीं स्कूलों में पढ़ते थे। पब्लिक स्कूल तब समाज के सर्वोच्च तबकों के लिए थे। बीच के पन्द्रह-बीस वर्षों में अचानक पूरी तस्वीर बदल गयी। अब हर आदमी की हैसियत का स्कूल मौजूद है। जैसे शिक्षा न होकर दुकानदारी हो गई। हिन्दी माध्यम के स्कूल पिछड़ेपन की निशानी बन गए। हर वह आदमी जो पैसा खर्च कर सकता है, अपने बच्चों को पब्लिक स्कूलों में डाल देता है। और वह क्यों न ऐसा करे ? शासक वर्ग भी तो अब तक यही करता आया है ! आम आदमी इतना बेवकूफ थोड़ा है कि उसकी चालाकियों को न समझ सके।

‘यह भेड़ चाल हम सब को, कहां लेकर जाएगी, इसका किसी को अंदाज भी है ? जो काम अंग्रेज नहीं कर सके अब उसे खुद हम से करवाया जा रहा है।’ वे प्रायः सोचते थे। उन्हें इन हालातों से निराशा होती थी। वे सोचते थे, अगर समाज के सभी वर्गों के बच्चे एक साथ पढ़ते तो न सिर्फ परस्पर सीखने-सिखाने में प्रेरणा मिलती, बल्कि समाज में सामाजिक सद्भाव, समरसता तथा संवेदनशीलता उत्पन्न होती। विद्यालय लोकतंत्र का निर्माण करने में सहायक होते। अगर ऐसी ही बंटी हुई शिक्षा देनी थी, ऐसा ही भेदभाव से भरा समाज बनाना था तो आजादी और लोकतंत्र का क्या मतलब है ?

     औरों से क्या कहें, खुद उनके बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं। उन्होंने खुद इस भेदभाव को तोड़ने की कोशिश की, पर कामयाब न हो सके। जब समाज में दो तरह की शिक्षा है तो उन्हें अपनी हैसियत वाली शिक्षा की ओर जाना ही होगा। रोज दो घंटा उनकी श्रीमती बच्चों की पढ़ाई को देती हैं। हालत यह है कि स्कूल डायरी में लिखे एक-एक निर्देश का पालन होता है। उनका बच्चा अभी पहली में पढ़ता है, लेकिन दोनों भाषाएं लिखने और पढ़ने लगा है। हिन्दी में लिखे को हल्का-फुल्का समझ जाया करता था, लेकिन अंग्रेजी में वह सारा काम रट कर चलाता था। उसे रटते हुए देख कर उन्हें भारी कष्ट होता था, मगर वे कुछ करने की स्थिति में नहीं थे। इधर अपने विद्यालय की हालत यह थी कि कक्षा छह में आने वाले कई बच्चों को वे उस एक में पढ़ने वाले बच्चे के बराबर लिखना-पढ़ना तक नहीं सीखा पा रहे थे।

    ‘शर्मा जी इस बार तो एक-दो नहीं पूरे छह बच्चे ऐसे हैं जिन्हें पढ़ना-लिखना तक नहीं आता !’ उन्होंने स्टाफ रूम में आ कर अपनी समस्या साथी शिक्षक के सामने रखी।
    ‘क्या बताएं……..आपकी क्या सभी कक्षाओं में हैं ऐसे बच्चे………..मूड खराब हो जाता है……….दूसरे बच्चों को पढ़ाएं कि इन्हें क ख ग सिखाएं……..अरे आप, इनके लिए कुछ करके देख लो…………..इनके दिमाग में कुछ घुसता ही नहीं !’ वे जैसे फट पड़े।
    ‘अब मूड खराब करके तो होगा क्या……..सवाल ये है……..इन बच्चों को पढ़ाया कैसे जाए ?’ उन्होंने प्रश्न  किया।

    ‘ये तो साब, उन प्रायमरी वालों से पूछा जाना चाहिए, जिन्होंने पांच साल तक इन बच्चों के साथ जाने क्या किया ?’ उन्होंने पल्ला छाड़ने के अंदाज में कहा।

 
 ‘शर्मा जी, अगर हम अपना काम जिम्मेदारी से कर रहे हैं तो ऐसे कैसे हो सकता है कि उन लोगों ने अपना काम नहीं किया होगा ? बच्चों की पढ़ाई के लिए विद्यालय तथा शिक्षक के अलावा उसके मां-बाप और समाज की भी तो भूमिका होती है। अब पुराना समय तो है नहीं कि डंडे और भय के बल पर बच्चों को रटा दिया और हो गया आपका काम। रटाना ही होता तो यह काम वे भी करवा चुके होते…………आए दिन ट्रेनिंगों में सिखाया जा रहा है कि बच्चों को बस्ते के बोझ, रटन्तु शिक्षा और भय मुक्त माहौल में शिक्षित करना है।’
    ‘इन लोगों ने नए-नए प्रयोग करके शिक्षा का भट्टा बैठा दिया है……..बच्चों को पूरी छूट दे दी है………हमको- आपको अब वो क्या समझते हैं………कोई भय, कोई डर है उनके अंदर !’ वे आक्रोश में थे।
    ‘यही तो वास्तविक चुनौती है, अब शिक्षक को डराने-धमकाने के बजाय……..अपने धैर्य, ज्ञान, कला और करूणा से विद्यार्थी को सीखने को प्रेरित करना है……वरना बच्चों की हंसी का पात्र बनेगा………इसमें गलत क्या है…..?’
    ‘तो तैयार हो जाईए…….फिर से आ गई दस दिन की ट्रेनिंग………आप यहां सोच रहो हो बच्चों को कैसे पढ़ाऊं……….उनका आदेश  है पढ़ाना-लिखाना छोड़कर ट्रेनिंग करो !’ वे हंसते हुए बोले।
    ‘मगर ट्रेनिंग को तो गर्मिंयों की छुट्टी में करवाने की बात हुई थी……….सत्र के बीच में करवाने से पढ़ाई का नुकसान होता है। बदले में उपार्जित अवकाश देने की बात तय हुई थी।’ उन्होंने अधीरता से कहा था।
    ‘सरकार उपार्जित अवकाश नहीं देना चाहती। वह इस वित्तीय बोझ को झेलने को तैयार नहीं है।’
    ‘अफसोस तो ये ही है कि सरकार के लिए शिक्षा देना तक बोझ है। शिक्षा को वह लाभ-हानि के तराजू पर तोलती है। मगर हथियारों के लिए उसका खजाना खुला हुआ है !’ वे खिन्न हो गये थे।

    लेकिन वे छह बच्चे जिन्हें अभी तक पढ़ना-लिखना नहीं आ रहा था, हर वक्त उनके दिमाग में घूमते हुए, उन्हें परेशान किए हुए थे। वे दूसरे लोगों की तरह डाक्टर,  इंजीनियर न बन सकने के बाद मजबूरी में शिक्षक नहीं बने थे। उनका पहला और आखिरी सपना शिक्षक होना ही था। बच्चों के बीच होना और पढ़ाना, उनके लिए काम के बजाय जीवन जीने के जैसा था। वे उनसे बातें करते। उन्हें हंसाते। जब बच्चे लय में होते तो पढ़ाई की ओर लौट आते थे। बच्चे खुशी-खुशी पढ़ भी लेते और सब काम कर के ले आते थे। पर कुछ चीजें मायूस किए रहती थी। वहां आने वाले बच्चों के साथ जुड़ने वाली आगे की दो कडि़यां गायब थी। बच्चे स्कूल से निकल कर गंदगी और अभाव के ढेरों, गालियों वाली गलियों, शराब के चौराहों, लालच की दुकानों और झगड़े के खेतों के बीच से होते हुए घर पहुंचते तो कोई उनसे पूछने वाला नहीं होता कि स्कूल में क्या पढ़ा ? कल के लिए कौन सी किताब बस्ते में रखनी है ? कौन सी कॉपी में काम कर के ले जाना है ? उल्टे वही गंदगी, अभाव, झगड़े और गालियां, उनके पीछे-पीछे घर में भी पहुंच जाते। अगले दिन सुबह बाप ने काम में साथ चलने को कहा तो ठीक वरना बुझे-बुझे, बास मारते कपड़ों के साथ कक्षा में  पहुँच जाते। रास्ते में ज्यों-ज्यों साथ के लड़के मिलते जाते……..घर पीछे छूटता चला जाता………..सब कुछ भूलकर……..मस्त होते जाते। नरेन्द्र सर बच्चों के साथ एक शानदार संवाद की उम्मीद के साथ कक्षा में आते  मगर काफी समय उनका मुंह-हाथ धुलवाने, कपड़ों को ठीक करवाने, डेस्क के नीचे जमा गंदगी को साफ करने में बीत जाता। यह सब कर के अभी पाठ को पढ़ने से पहले उसकी चर्चा कर रहे होते कि घंटी बज जाती।
    अपने विचार मंथन से निकल कर उस दिन वे एक-दूसरे के साथ बातों में मशगूल बच्चों की ओर देखने लगे थे।

    ‘तुम में से कुछ बच्चों को अभी तक ठीक से लिखना तक नहीं आता, वह भी उस भाषा  में जो तुम आराम से बोलते हो। इसी तरह बार-बार अभ्यास करवाने के बावजूद कुछ बच्चों को अभी तक अंग्रेजी में दिनों और महीनों के नाम तक लिखने नहीं आ पा रहे हैं ! क्या प्रायमरी में तुम्हारी मैडम ने तुम लोगों को कुछ नहीं सिखाया ?’ उन्होंने बच्चों से पूछा।
    ‘सिखाया सर, मैडम काफी मेहनत करती थी। ये लोग भाग जाया करते थे। मैडम का दिया काम कर के नहीं लाते थे।’ हमेशा  की तरह समीर ने उन लड़कों की ओर इशारा करते हुए बताया।

 मासिक परीक्षाओं से पहले वे काफी उत्साह के साथ अपना कोर्स पढ़ाने में लगे हुए थे। अब यह सोच कर कि कक्षा के कुछ बच्चों के लिए इस पढ़ाई का कोई मतलब नहीं है, उन्हें काफी अजीब लग रहा था। फिर उन्होंने तय किया कि इस विषय में ज्यादा सोच-विचार करने के बजाय कुछ करना आरंभ कर दिया जाना चाहिए। आगे का रास्ता खुद ही निकलता चला जाएगा। उन सब से एक अतिरिक्त कॉपी  लाने को कह कर, उन्होंने अगले ही दिन से उन्हें अक्षर, शब्द तथा वर्तनी को सिखाने का काम शुरू कर दिया।

    जब तक अलग से व्यवस्था नहीं होती वे बच्चों के लिए अलग-अलग पाठ-योजना बना कर कक्षा में जाते। उन्होंने पान सिंह सहित पीछे की कतार के लड़कों को कक्षा के अपेक्षाकृत बेहतर बच्चों के साथ बैठा दिया था, तथा उनकी सहायता और निगरानी का काम भी उन्हीं लड़कों को सौंप दिया था। वे लगातार उनकी काॅपियों  पर नजर रख रहे थे। परिणामस्वरूप कुछ दिनों से स्कूल आ रहे पान सिंह ने स्कूल आना छोड़ दिया। लड़कों ने पूछने पर बताया, वह घर से स्कूल तो आता है, लेकिन बीच से गायब हो जाता है। बड़े लड़कों के साथ घूमता है, बीड़ी पीता है और ताश खेलता है। उन्हें तुरंत एहसास हो गया कि गलती पान सिंह की नहीं, उनकी है। उन्हें उसे पांच साल का छूटा हुआ कुछ ही दिनों में सिखाने की कोशिश  नहीं करनी चाहिए थी।

उस दिन उन्होंने पूरी कक्षा के बच्चों की कापियों को साथ-साथ देखने और उनसे उनकी प्रगति पर बातचीत करने की योजना बनाई थी। लेकिन सुबह-सुबह प्रार्थना के समय ही मंडल स्तर के एक अधिकारी अपने लाव-लश्कर के साथ विद्यालय में आ गए और शिक्षकों की कतार में हाथ बांध कर खड़े हो गए। एक-एक कर प्रार्थना, शपथ तथा राष्ट्रगान आदि सब निपट गया। प्रधानाचार्य उनके आगे नतमस्तक थे। मानो पूछ रहे हों, ‘सर आगे क्या आदेश है?’

    अधिकारी महोदय ने न सिर्फ मंच संभाल लिया, बल्कि विद्यालय की कमान भी अपने हाथों में ले ली थी। बच्चों से बोले, ‘वे उनके सामने कुछ बातें रखना चाहते हैं, क्या वे उन्हें सुनना चाहेंगे ?’ बच्चों ने जोर से ‘यस सर’ कहा। इससे खुश हो कर उन्होंने बच्चों से पूछा कि वे कितनी देर तक उन्हें सुन सकते हैं, आधा घंटा या एक घंटा ! बच्चों को उनकी यह बात कुछ समझ में नहीं आयी। वे उजबक की तरह उनकी ओर देखते रह गए।

    नरेन्द्र सर को झुंझलाहट हो रही थी। उन्हें लग रहा था, अधिकारी महोदय को शिक्षकों से भी पूछना चाहिए था, कि क्या वे बच्चों को संबोधित कर सकते हैं, आज उनकी कोई खास योजना तो नहीं है जो इससे प्रभावित हो सकती है ! लेकिन जिस तरह से वे प्रधानाचार्य तथा शिक्षकों को तवज्जो दिए बगैर अपना काम करते जा रहे थे, उससे लग रहा था, वे प्रधानाचार्य तथा शिक्षकों को इस लायक ही नहीं समझते कि उनसे कुछ पूछा जाए।

    अधिकारी महोदय ने कुछ विदेशी  तथा भारतीय  राष्ट्रपतियों की जीवन गाथा बच्चों को सुनायी। उन्हें बताया कि कैसे अथक परिश्रम करने तथा मन में ठान लेने की वजह से गरीब घर में पैदा होते हुए भी एक दिन वे उस सर्वोच्च पद पर पहुंच गए। तरक्की करने तथा आगे बढ़ने में न तो गरीबी और न साधारण स्कूलों की पढ़ाई उनके मार्ग की बाधा बनी। आप सब भी एक दिन बड़े आदमी बन सकते हो, जरूरत है जुट जाने की। मेहनत करने की। भाषण के दौरान वे अपने हाव-भावों तथा मंच से ही मातहतों को अपने आदेषों के जरिए बच्चों को यह भी संकेत दे रहे थे कि वे जिन बड़े आदमियों का जिक्र कर रहे हैं, वे भी उन्हीं  में से एक हैं।
    अपना भाषण समाप्त कर वे प्रधानाचार्य से बोले, ‘देखिये, बोर्ड परीक्षाओं में अधिकांश  बच्चे गणित, विज्ञान, अंग्रेजी जैसे विषयों में फेल होते हैं……….इन पर पूरा ध्यान दीजिए !’
    प्रधानाचार्य ने खिलौने की तरह हर बार हिलने वाले अपने सिर को फिर से हिला दिया।
    बड़े साहब आफिस की ओर को चले गये।

    नरेन्द्र सर के भीतर कुछ कुलबुलाने लगा था। वे सोचेन लगे, आखिरकार शिक्षा का उद्देष्य बच्चों को किस तरह का ‘बड़ा’ आदमी बनाना है ? क्या आदमी बड़ा तभी होता है जब वह बड़े पद और हैसियत को प्राप्त कर लेता है ? क्या बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए गणित, विज्ञान और अंग्रेजी पर ही जोर दिया जाना चाहिए ? क्या शारीरिक शिक्षा, कला, संगीत तथा भाषा-साहित्य विद्यालयों के मूलभूत विषय नहीं हैं ?

जिन लोगों के ऊपर शिक्षा को संवारने का दायित्व है, अगर उन्हीं की उस के बारे में  भ्रान्तिपूर्ण समझ होगी तो शिक्षा का क्या हश्र होगा ? विद्यालय में षिक्षकों के पांच पद वर्शों से रिक्त हैं। उनकी व्यवस्था कौन करवायेगा ? ध्वस्त होने के कगार पर पहुंच चुके स्कूल भवन के जीर्णोद्धार की चिन्ता कौन करेगा ? सर्व शिक्षा अभियान, माध्यमिक शिक्षा अभियान, एनएसएस, एनसीसी, चुनाव प्रक्रिया, पल्स पोलियो की रैलियों और राज्य तथा केन्द्र सरकारों के आकस्मिक कार्यक्रमों के बीच शिक्षण का कार्य कब और कैसे होगा ? विद्यार्थियों तथा शिक्षकों की समस्याओं पर चर्चा कौन करेगा ? यह सब करने के बजाय वे बच्चों को क्या सिखाना चाह रहे थे ?

नरेन्द्र सर ने तय किया कि जब वे कक्षाओं की ओर आएंगे तो उनसे जरूर पूछेंगे कि आजादी की लड़ाई में कई अनाम लोगों ने देश  के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया ! कोई उनका नाम तक नहीं जानता ! कई लोग बड़े कार्यों में संलग्न होते हैं, लेकिन सफल नहीं हो पाते, ऐसे लोगों को वे क्या मानेंगे ? कई लोग आज भी विज्ञापन और प्रदर्शन के बगैर लोगों के जीवन की बेहतरी के लिए कार्य कर रहे हैं। क्या उनका जीवन असफल माना जाएगा ?

    वे अभी बच्चों की उपस्थिति ले कर लौटे ही थे कि पता चला अधिकारी महोदय आफिस के सामने की कक्षाओं की ओर एक चक्कर मार कर चलते बने। क्या उन्हें शिक्षकों से मिलना नहीं चाहिए था ? मगर ये लोग अब असुविधाजनक स्थितियों में नहीं पड़ना चाहते। अगर वे शिक्षकों के बीच जाते तो वे अपने पेशे और विभाग की निजी समस्याओं को उनके सामने रखते……..जिसका उनके पास कोई जवाब नहीं होता। इससे अच्छा तो यही है कि निकल लो चुपचाप पतली गली से…….हो गया निरीक्षण!

यह सब भूलकर नरेन्द्र सर ने अभी कक्षा में जाकर चार बच्चों की कापियां भी अच्छे से नहीं देखी थी कि पीरियड खत्म हो गया। उनका सिर चकरा गया। अभी तो घंटी बजी ही थी।
प्रधानाचार्य बोले ‘आज पढ़ाई ऐसे ही होगी…….साहब पीरियड छोटे करने को कह गये हैं……….साहब का कोई भरोसा नहीं……कई बार लौट कर देखने भी आ जाते हैं……!’

    बच्चों के और मूल्यांकन के बाद नरेन्द्र सर को उन छह के अलावा पांच और ऐसे बच्चे मिल चुके थे, जिन पर अलग से ध्यान देने की जरूरत थी। उन्होंने सोचा हो सकता है, वरिष्ठ तथा अनुभवी होने के नाते प्रधानाचार्य के पास कोई बेहतर समाधान हो, कोई सही राय दे दें ! उन्होंने समस्या बता कर उनका निर्देशन चाहा।
    ‘देखिए नरेन्द्र जी, सरकार ने कक्षा एक से पांच तक किसी को फेल न करने का आदेश  दे दिया है। ऐसे में अच्छे बच्चों के साथ बहुत सा कूड़ा-करकट तो आएगा ही। हमारे जमाने में ऐसी समस्या नहीं थी। छंटाई नीचे से ही शुरू हो जाती थी। आगे की कक्षाओं में अच्छे बच्चे ही आ पाते थे।’

    ‘ये काम तो प्राइवेट स्कूल वाले आज भी कर रहे हैं। प्रवेश  परीक्षा और दूसरे तरीकों से समाज के क्रीम बच्चों को अपने वहां ले लेते हैं, फिर हमारे अधिकारी, सरकार और मीडिया उनके साथ हमारी तुलना करने लगता है।’  नरेन्द्र सर ने कहा।
    ‘देखो भाई, कुछ समय और धैर्य बना लो ! सुनने में आ रहा है, अब आठ तक किसी को फेल नहीं किया जाएगा। कोशिश  करते रहो ! ध्यान रखना, ज्यादा बच्चे फेल नहीं होने चाहिए ! वरना हम लोगों पर सवाल उठने लगेंगे ?’

    ‘सर आप जानते हैं, कापी में कुछ न लिखने वाले बच्चे को आगे बढ़ाना मैं उसके साथ अन्याय समझता हूं। पिछली बार पच्चीस प्रतिशत लड़के फेल हो गए थे। आपने कईयों को पास कर देने को कहा। इस बार जो हालत है उसमें तो तीस से चालीस फीसदी बच्चे यहीं रूक जायेंगे। इसके लिए क्यों न अभी से कुछ कर लिया जाए !’

    ‘मुझे बताइये क्या कर सकते हैं आप ! अपना कोर्स पढ़ायेंगे…..या उन्हें अ आ क ख ग सिखायेंगे ! अभिभावकों से कहिए, वे अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में ध्यान दें। अपने साथियों से बात कीजिए, उनसे पूछिए वे क्या करते हैं ? परेशान मत होइये। पढ़ाई से ज्यादा सरकार को उनके भोजन और वजीफे की चिन्ता है। आप के पास मध्याह्न भोजन की जिम्मेदारी है, इस बात का ध्यान रखिए कि बच्चों को खाना समय से मिल जाए।’

    ‘लेकिन सर मेरा पहला काम पढ़ाना है। रोज मेरे तीन-चार पीरियड सब्जी, दाल-मसाले की व्यवस्था देखने में लग जाते हैं। शिक्षकों को इस काम में नहीं उलझाया जाना चाहिए ! मुझे भाषा जैसा बुनियादी विषय पढ़ाना होता है। अगर इतना समय बच जाए तो मैं इन बच्चों को और अधिक समय दे पाऊंगा !’

    ‘नरेन्द्रजी भाशा…… ? आप भी……….!’ प्रधानाचार्य हंसने लगे। ‘भाषा से क्या फर्क पड़ता है ? धीरे-धीरे सब सीख जाते हैं। हां, अंग्रेजी में कोई कसर मत छोडि़ए ! ज्यादातर बच्चे उसी में फेल होते हैं। आप चिन्ता मत किया करो। अपने साथियों से बात कर….उनके अनुभव का लाभ उठाइए !’ उन्होंने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा।
    ‘अरे हां……….बीएलओ और जनगणना की ड्यूटी के लिए तहसीलदार साहब ने मेहनती शिक्षकों के नाम मांगे गये थे। मैंने आपका नाम भेज दिया है।’ उन्होंने उन्हें सूचना दी।
    ‘मगर मेरे पास तो पहले से ही कई काम हैं ! फिर पढ़ाई का क्या होगा…….बच्चों की विशेष कक्षाओं का क्या होगा ?’ नरेन्द्र सर ने परेशान मुद्रा में कहा।

    ‘अरे कौन सा कल से शुरू हो रहा है……..जब होगा देखा जाएगा……..सरकारी राज काज है…….आपको ड्यूटी करनी है………चाहे यहां करो या कहीं और……..आपका मीटर तो घूम ही रहा है !’ प्रधानाचार्य हंसते हुए बोले।
    ‘लेकिन…….हमारा काम तो विद्यालय में है……….केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय और पब्लिक स्कूलों के शिक्षकों को तो इन कार्यों में नहीं लगाया जाता……….आखिरकार हमारे विद्यालयों के बारे में सरकार का नजरिया क्या है……….क्या ये विद्यालय शिक्षा का दिखावा करने को खोले गये हैं……….क्या षिक्षा पूर्ण कालिक कार्य नहीं है………..क्या सरकारी स्कूलों का शिक्षक बहुउद्देशीय कर्मचारी है ?’ वे तिलमिला गये थे।   
    नरेन्द्र सर और भी बहुत कुछ कहना चाह रहे थे। लेकिन वे जानते थे, प्रधानाचार्य के लिए उनकी बातों का कोई अर्थ नहीं है। गये तो थे, विद्यार्थियों की समस्या का जिक्र करने बदले में उन्होंने उनके सिर पर और भी नयी जिम्मेदारियां डाल दी।

साथ के अध्यापकों से इस समस्या पर चर्चा की। उपाध्याय जी कहने लगे ‘ये समस्या सभी के सामने आती है। लोग अपनी तरह से कोशिश भी करते हैं। लेकिन जब उस कोशिश का बच्चों की ओर से……उनके मां-बाप की ओर से जवाब नहीं आता है तो निराश हो जाते हैं। इस कोषिष में कई बार झुंझलाहट में उनका हाथ उठ जाता है…….बच्चे को गंभीर चोट लगने पर लेने के देने पड़ जाते हैं। आप ने देखा होगा ऐसे मामले अखबारों में किस तरह से आते हैं !’

    ‘कोई इस पर विचार नहीं करता कि शिक्षक अपना आपा क्यों खो बैठता है ? वह ऐसा करने को क्यों मजबूर हो जाता है ? उल्टे उसे खलनायक और अपराधी बना कर जनता के सामने खड़ा कर दिया जाता है। विश्लेषण करने वाले भी, संकट के मूल स्रोत को चिह्नित नहीं कर पाते !’ नरेन्द्र सर ने गंभीरता से कहा।
‘इसलिए अब लोग सिर-दर्द मोल लेने के बजाय चुपचाप अपना कोर्स पूरा करने में लगे रहते हैं !’
    ‘लेकिन ऐसा कोर्स पूरा करने का क्या फायदा जहां बच्चों को पढ़ना-लिखना ही नहीं आता !’ लम्बा निःश्वास छोड़ते हुए नरेन्द्र सर ने कहा।

    ‘बताइए और क्या किया जा सकता है ?’ उपाध्याय जी ने उत्सुकता से उनकी ओर देखते हुए कहा।
    ‘ऐसे बच्चों के लिए सरकार को अलग से पाठ्यक्रम बनाना चाहिए। नवोदय जैसे स्कूल हमारे वहां से होशियार बच्चों को चुनकर ले जाने के बजाय इन विशिष्ट  बच्चों को पढ़ाने के लिए होने चाहिए। वो तो कब होगा पता नहीं, लेकिन मैं सोच रहा हूं……..इन बच्चों को अलग से पढ़ाऊं…….स्कूल के बाद !’

    ‘आप सोच तो ठीक रहे हो……..ये बच्चे अतिरिक्त ध्यान देने की मांग करते हैं……….लेकिन क्या वे पढ़ने आएंगें……क्या उनके मां-बाप उन्हें पढ़ने भेजेंगे………सबसे बड़ी बात आपकी इस भलमनसाहत को कहीं पैसा कमाने के रूप में तो नहीं देखा जाएगा ?’

    ‘जिसे जो समझना है समझे………मुझे जो ठीक लग रहा है…….मैं तो वही करूंगा !’

    एक योजना बनाकर वे फिर से प्रधानाचार्य जी के पास पहुंच गए।
    ‘सर मुझे शाम के समय छह से सात बजे तक एक कक्षा कक्ष चाहिए, वहां में उन बच्चों को पढ़ाऊंगा, जिनके बारे में आप से बात हुई थी।’ उन्होंने बगैर कोई भूमिका बनाए प्रधानाचार्य से कहा।
    प्रधानाचार्य ने गौर से उनकी ओर देखा, फिर बोले-‘आप बच्चों से बात करिए……….उनके अभिभावकों से उनको भेजने को तैयार करिए……….हम बड़े बाबू से पूछते हैं कि आप को कमरा दिया जा सकता है कि नहीं !’

    नरेन्द्र सर की समझ में नहीं आया कि प्रधानाचार्य उनके ऊपर व्यंग्य कर रहे हैं या उनका हौंसला बढ़ा रहे हैं। कमरे के लिए बड़े बाबू से पूछने की बात उनकी समझ में नहीं आयी।
    ‘नरेन्द्र जी इतनी मेहनत आपने अपने लिए की होती तो आज आप कहीं पर डी.एम. या  एस.डी.एम. होते !’ उन्हें सोच में पड़ा हुआ देख कर प्रधानाचार्य ने कहा।

    ‘सर, मैं इस तरह से नहीं सोचता। मैं मानता हूं जो काम आदमी खुशी  से अपना समझ कर करता है, उसके लिए वही बड़ा काम है। मैं तो शिक्षक होने को ही अपने लिए उपलब्धि समझता रहा हूं। बच्चों से भी यही कहता हूं कि जो काम उन्हें सब से अच्छा लगता है, वही काम सब से महान और बड़ा है !’ उन्होंने विनम्रता से कहा।
    ‘आपकी उमर में हम भी बच्चों को पढ़ाने और सिखाने के लिए काफी चिन्तित रहते थे। एक उम्र होती है, जब बहुत कुछ करने का मन करता है। आप जैसे उत्साही लोगों को देख कर अच्छा लगता है !’ प्रधानाचार्य ने कहा।

  
उनके बार-बार बुलाने पर भी अधिकांश  बच्चों के माता-पिता स्कूल में नहीं आये। कारण वे जानते थे। वे सब दिहाड़ी में काम करने वाले मिस्त्री, कारपेंटर, मजदूर, ठेला लगाने वाले दुकानदार या छोटी-मोटी नौकरी करने वाले लोग थे। उनके लिए अपना काम छोड़ कर स्कूल आने का मतलब था, एक दिन की दिहाड़ी से हाथ धोना। जो आए थे, उनमें से एक को छोड़ कर बाकी  ने अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजने से मना कर दिया था, उनका कहना था उस समय वे बच्चों को अपने साथ काम में लगाते हैं।

अब नरेन्द्र सर बाकी  बचे बच्चों के घर वालों से मिलने जा रहे थे। साथ के लिए उन्होंने कक्षा के दो लड़कों को बुला लिया था। दोनों लड़के उन्हें कस्बे के अंत में बस्ती और गांव को जाती सड़क के पास मिल गए थे। उन लोगों को देखते ही कुछ आवारा कुत्ते और कुछ नंग-धड़ंग बच्चे तेजी से उनकी ओर लपके। कुत्तों ने उन लोगों को सूंघना शुरू कर दिया, जबकि बच्चे उनके बारे में अनुमान लगाने लगे। बस्ती के अंदर कच्ची सड़क के दोनों ओर घरों के इर्द-गिर्द गंदगी बिखरी पड़ी थी। लोगों ने दरवाजे पर आ कर उनकी ओर झांकना शुरू कर दिया था।
‘हम क्या कर सकै हैं, साहब ! जे तो सरकार ने स्कूल खोल दियौ है इसलिए पढ़ने भेज देवे हैं…..वरना हमें तो दो समय की रोटी कमाणें के लिए औलाद चाहिए………अभी से काम नहीं सीखेगा तो आगे जा कर क्या करेगा ?’
‘करना आप ने नहीं है………मैं करूंगा…….शाम को चार से छह बजे तक इसको पढ़ाऊंगा……आप ने इसको  भिजवा भर देना है !’
‘पढ़ने-लिखने से कुछ न होवे है। आदमी निकम्मा हो जावे है। काम से जी चुराड़ लगे है। नौकरी का इंतजार करे है। किसी काम का न रह जावै है।’ उसने मुंह बिचकाते हुए कहा।
‘आप ठीक कह रहे हो। आज के बच्चे थोड़ा बहुत पढ़-लिखने के बाद काम करने में शर्म महसूस करने लगते हैं। उन्हें समझाने की जरूरत है कि काम करना शर्म का नहीं गर्व का विषय है। फिर पढ़ना नौकरी के लिए ही नहीं होता है। यह ज्ञान का युग है। मामूली से मामूली काम के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी हो गया है। जो पढ़ा-लिखा होगा वो अच्छे से अपना काम कर सकेगा !’
वह अविश्वास से उनकी ओर देखता रह गया।

‘पण मास्टर साहब, अब तो तुम लोग भी अपने बच्चों को अपने स्कूलों में न पराण लाग र्यो हो….फेर हमारे बच्चों की एतनी चिन्ता काहे कर रहे हो ?’
‘हम भी पढ़ाते…….मंत्री, सांसद, डीएम, सब के बच्चे एक साथ पढ़ते…….आजाद देश में होना तो यही चाहिए था……….मगर ऐसा है नहीं……….फिलहाल तो जो है, उसी से काम चला लिया जाए !’
‘समझ गया मास्टर साहब, पण मैं आपको पढ़ाने की फीस नी दे पाऊंगा !’ उसने विचित्र नजरों से उनकी ओर देखते हुए कहा।
‘आप को कभी भी……….न तो इस बारे में सोचना है और न ही कुछ देना है…………सरकार हमें देती है !’
आखिरकार इस पूरी मेहनत का परिणाम यह निकला कि नरेन्द्र सर को सात बच्चे पढ़ाने को मिले। प्रधानाचार्य  जी ने कमरे के बारे में कोई जवाब नहीं दिया था। वैसे भी अब बड़े कमरे की जरूरत नहीं थी। उन्होंने तय किया कि, इन बच्चों को वे अपने घर में ही पढ़ा लेंगे।
विचार से पत्नी को अवगत कराया तो वह नाराज हो गयी। ‘अपने बच्चों पर ध्यान देने के बजाय आप ये क्या आफत मोल ले रहे हो……..स्कूल में पढ़ाते तो हो…….इतना समय अपने बच्चों को पढ़ा देते तो वे क्लास में और अच्छी पोजीशन में आ जाते !’

‘हमारे बच्चे पढ़ाई में ठीक हैं…..इन बच्चों को बुनियादी बातें भी नहीं आती। उन बच्चों की जिम्मेदारी भी हमारी ही है……उनके घरों में हमारी-तुम्हारी तरह कोई पढ़ा-लिखा नहीं है जो उन्हें पढ़ा सके।’
‘आपके अलावा और कौन-कौन है जो बच्चों को पढ़ा रहा है !’ पत्नी ने फिर से प्रश्न किया।
‘मुझे समझ में आ रहा है। मैं पढ़ा रहा हूं। औरों से क्या मतलब है ?’
‘आजकल सब अपने फायदे की जुगत में लगे रहते हैं। मैं किसी काम के लिए कहूंगी, तुरंत मना कर दोगे। आपके पास ऐसे कामों के लिए ही समय है ?’
‘तुम जो समझो !’ कहकर नरेन्द्र सर घूमने निकल गए। कहां तो उन्होंने सोचा था, यह काम करते हुए उन्हें अपने पेशे के प्रति सार्थकता का एहसास होगा। लोग सराहना करेंगे, पर यहां तो जिसे देखो वो टांग खिंचाई  में लगा है।

पान सिंह को स्कूल नहीं आते हुए एक महीना बीत चुका था। उन्होंने उसके घर कई जवाब भिजवाए, पर कोई नहीं आया। आखिरकार उन्हें मजबूर होकर उसका नाम काटना पड़ा। नाम कटने के एक हफ्ते बाद उसकी मां उस को अपने साथ ले कर आई।
‘इतने जवाब भिजवाने के बाद अब आने से क्या फायदा…..अब तो इसका नाम कट चुका है !’ उन्होंने नाराजगी से कहा।

‘क्या बताऊं मास्साब, ये बहुत बिगड़ चुका है। अपने से बड़े लड़कों से दोस्ती कर ली है। उनके साथ आवारा घूमता रहता है। कितना मार दिया, उल्टा तक लटका दिया, पर इस पर कोई असर नहीं पड़ता है !’ उसने कहा।
‘मारने से कुछ नहीं होता…….उससे तो ये और भी बिगड़ जाएगा ! इसके पिता जी कहां हैं ?’ उन्होंने पूछा।
‘दो साल पहले घर से चले गए थे तब से उनका कुछ पता नहीं है !’ उसकी आंखों में आंसू भर आए थे।
‘मैं समझ गया। ऐसे में आप इसको देखोगी या रोजी-रोटी की व्यवस्था करोगी !’

‘मास्साब, मुझे भी रोज काम नहीं मिल पाता। मेरी इच्छा तो थी ये भी कहीं काम में लग जाता तो……आसरा हो जाता……….आपकी कहीं जान-पहचान हो तो देखिएगा ?’
पान सिंह की मां की बात सुनकर चौंक गये थे नरेन्द्र सर !
‘इतनी उम्र में ये कहां काम करेगा……..इसी वजह से तो सरकार वजीफा देती है……..!’
‘सात-आठ सौ में क्या होता है मास्साब ?’
‘सरकार उसका खर्च उठा रही है………पूरे घर का नहीं ! दिन का खाना……..किताबें……….ताकि वह आगे जा कर अपने लिए और घर के लिए अच्छा कर सके ! अभी क्या होगा…….कहीं बर्तन मांजने में लग जायेगा……….जिन्दगी गर्क हो जाएगी ! ऐसा मत सोचो इसे स्कूल भेजो………..इसका जो भी खर्च होगा मैं देख लूंगा !’ 
‘ठीक है, मास्साब !’ आश्वस्त सी होते हुए उसकी मां ने कहा था।

फिर वे पान सिंह की ओर मुखातिब हुए थे। ‘कल से स्कूल आ जाना……तुझ से कॉपी  दिखाने के लिए नहीं कहूंगा………सवाल भी नहीं पूछूंगा……..तेरा मन हो तो खुद ही कॉपी दिखा देना………..खुद ही सवालों के उत्तर बता देना……….कोई तुझ को परेशान करेगा तो मुझे बताना ! तेरी मम्मी भी अब तुझे नहीं मारेगी……..ठीक है………..अब आएगा ना स्कूल !’
‘जी आऊंगा !’ उसने कहा।

तब से पान सिंह रोज स्कूल आता है। अब वह उनके पास कोई शिकायत लेकर भी नहीं आता है। वह डेस्क में काॅपी-किताब रख कर उनके ऊपर झुका रहता है। अपने वादे के अनुसार उन्होंने कभी उस से न कुछ दिखाने को कहा और न कुछ पूछा। ‘स्कूल आता रहेगा तो लड़कों की संगत में कुछ न कुछ सीखता रहेगा। वे सोच रहे थे।

मगर यह बहुत दिनों तक नहीं चल सका।
पान सिंह ने फिर से स्कूल में आना बंद कर दिया। रोज सुबह नरेन्द्र सर जब बयालीस रोल नंबर पर पहुंचते तो उन्हें लगता अभी पान सिंह ‘यस सर’ कहकर अपनी सीट से उठता हुआ दिखायी देगा। लेकिन दिन बीतते चले गए और ऐसा पल कभी नहीं आया।
हर समय पान सिंह का जिक्र करने के कारण अब स्टाफ के कई लोग इस नाम से परिचित हो चुके थे।
साथी शिक्षक कई बार उनसे पूछ लेते थे- ‘और आपके पान सिंह की पढ़ाई कैसी चल रही है ?’
यह उन्हें उनका मजाक नहीं………संवेदनशीलता लगती थी।
लेकिन शिक्षक ही नहीं अब तो कक्षा के बच्चे भी उन्हें पान सिंह की खबरें देने लगे थे।

‘सर, पान सिंह गुप्ता समोसे वाले के वहां काम करने लगा है ! कह रहा था………अब स्कूल नहीं पढ़ेगा !’
‘देखो नरेन्द्र सर, ये हालत है, इन बच्चों की………आपने कितना ध्यान रखा था उसका…….शायद फीस भी जमा की थी……..मगर उसे तो नोट कमाने का चस्का लगा हुआ है…….पढ़ेगा कहां से !’
न जाने कितने लोगों ने कितनी बार उन्हें पान सिंह के गुप्ता समोसे वाले के वहां काम करने की बात बता दी थी। मगर वे प्रतिक्रिया में कुछ नहीं कहते थे।

दो महीनों तक उन्होंने उपस्थिति रजिस्टर में पान सिंह की जगह को बनाए रखा। अर्द्धवार्षिक परीक्षा के बाद उस जगह को बाद वाले रोल नंबर से भर दिया। अब पान सिंह ‘ड्राप आउट’ हो चुका था।
नरेन्द्र सर अब पहले से बदल गये थे। वे खिन्न से रहने लगे थे। किसी भी बात पर एकदम नाराज हो जाते थे और तपाक से उत्तर दे देते थे। यह सोचे बगैर कि इसका सामने वाले पर क्या असर पड़ेगा ! ऐसा नहीं है कि अपनी यह बेचैनी और खिन्नता खुद उन्हें नजर नहीं आ रही थी। मगर वे विवश थे।

उस दिन सुकून से बैठे प्रधानाचार्य जी ने उन्हें अपने पास बुलवाया।
‘आइए भाई, नरेन्द्र जी कैसे हैं ? क्या चल रहा है इन दिनों !’ उन्होंने मुस्कराते हुए उनकी ओर देखकर पूछा था।
नरेन्द्र सर को उनकी मुस्कान खुद को चिढ़ाती प्रतीत हुई थी।
‘जी, ठीक हूं !’
‘आपके पान सिंह का क्या हाल है ? सुना उसके लिए आप काफी चिन्तित रहते हैं !’
‘सर, मेरी चिन्ता से न तो उसके घर के हालात बदल सकते हैं और न उसकी पढ़ाई चल सकती है ! सुना, इन दिनों गुप्ता समोसे वाले के वहां काम कर रहा है !’

‘सरकार कुछ कर ले इन्होंने पढ़ना-लिखना थोड़ा है………अच्छा, आप कुछ बच्चों को पढ़ाने की बात कर रहे थे ! क्या हुआ………..बच्चों के मां-बाप से बात हुई ?
‘बात हो गई है सर ! पढ़ाना भी शुरू कर दिया है !’
‘आप तो क्लास के लिए कह रहे थे !’
‘आपने कहा बड़े बाबू से पूछना पड़ेगा तो मैंने सोचा जब बच्चों को पढ़ाने के लिए बड़े बाबू से पूछना पड़ रहा है तो आपको कष्ट  देने के बजाय कोई और व्यवस्था क्यों न कर ली जाए !’ उन्होंने अपनी कड़ुवाहट को उगल दिया था।

‘नरेन्द्र जी, आप नाराज हो गए !’
‘सर, मैं नाराज क्यों होने लगा !’
कितने बच्चे आने को तैयार हुए ?’
‘सात !’
‘सिर्फ सात…..आप तो कह रहे थे…..दस-बारह बच्चे हैं !’
‘जी हां…..बच्चे तो इतने ही थे…….लेकिन सर, विडंबना यह है कि बच्चों के हालात उन्हें पढ़ने नहीं देते……..हमारे योजनाकार………उनको हर हाल में पढ़ाना चाहते हैं। मगर उनके घरों के हालात नहीं बदलना चाहते। हम सब उनके लिए बनी हुई योजनाओं को लागू करने में लगे रहते हैं………..मुझे ऐसा लगने लगा है सर कि हम सब लोग शिक्षा के इस नाटक में अभिनय कर रहे हैं !’ नरेन्द्र सर ने कई दिनों से परेशान कर रही बातों को कह दिया था।
‘नरेन्द्र जी, अब आप सच्चाई को समझे……….हमेशा से ऐसा ही चलता रहा है………आगे भी ऐसे ही चलता रहेगा……….! ’ प्रधानाचार्य जी दिव्य ज्ञान देने के अंदाज में बोले ।
‘नहीं सर, आगे भी ऐसा ही नहीं चलता रहना चाहिए !’ कह कर नरेन्द्र सर खड़े हो गए।
‘अरे बैठो भई, कहां की जल्दी में हो…………..सब हो जाएगा !’ प्रधानाचार्य ने कहा।
‘सर, मध्याह्न भोजन का दायित्व मेरे पास ही है………………भोजन का समय हो रहा है। जरा नजर मार आऊं !’ कह कर नरेन्द्र सर चले गए और प्रधानाचार्य जी उनको जाते हुए देखते रह गए।

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(कहानी में प्रयुक्त सभी पेंटिंग्स गूगल से साभार ली गयी हैं.)

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