चारुलेखा मिश्रा


विमल चन्द्र पाण्डेय हमारे समय के चर्चित युवा कथाकारों में से हैं। इनकी अभी एक संस्मरण की किताब ‘ई इलाहाबाद है भैया’ फरवरी में दिल्ली पुस्तक मेले में लोकार्पित हुई जिसका प्रकाशन ‘दखल प्रकाशन’ ने किया है। अभी बमुश्किल छः महीने हुए,  किताब का पहला संस्करण ख़त्म हो गया और प्रकाशक को इस किताब का दूसरा संस्करण छापना पड़ा। अपने संस्मरण में भी विमल एक किस्सागोई के साथ प्रवहमान भाषा में दिखते हैं। अपने दोस्तों के साथ इलाहाबाद में बिताये गए दिनों को विमल ने जिस अंदाज में और साफगोई से प्रस्तुत किया है वह काबिले-तारीफ़ तो है ही, हमें एक रचनाकार के व्यक्तिगत जीवन और आम  लोगों जैसे उसके संघर्ष से भी रूबरू कराता है। इसी किताब पर चारुलेखा मिश्रा ने एक समीक्षा लिखी है जो पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत है। 

विमलचंद्र पाण्डेय के संस्मरण

ई इलाहाबाद है भैया

पर एक समीक्षा
   साहित्यिक परिवेश से अप्रभावित विमलचंद्र पाण्डेय का यह संस्मरण स्वप्नों को सच करने के संघर्ष में लगे एक प्रेमी हृदय युवक की किसी शहर से जुड़ी य़ादों की बेतरतीब कहानी लगती है। इलाहाबाद शहर में जिए गए बाहर और अंतर्तम के संसार को लेखक एक तटस्थ मौज़ के साथ याद करता है। जिसमें न कोई कुंठा है, न किसी अन्य लेखक से कोई विरोध, और न ही किसी एक विचार को जबरन प्रतिष्ठापित करने का प्रयास। यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो इस असाहित्यिक कृति में समाज अपने विभिन्न पक्षों के साथ बहुत साफ़ नज़र आता है।
     अक्सर जब कोई साहित्यकार कोई जीवनी या संस्मरण लिखता है तो उसमें साहित्यिक परिवेश हावी सा दिखता है लेखक संस्मरण में साहित्यिक परिवेश से निराश  दिखता है लेखक के शब्दों में अपने मन में असाधारण छवि बना कर मैं कुछेक बड़े लेखकों से मिला वो छवि बहुत बुरी तरह इसलिए टूटी कि वो अपने असल ज़िंदगी में एक इंसान तक नहीं रह गए थे। उनकी रचनाओँ ने उनके आसपास एक ऐसा अल्प पारदर्शी मटमैले रंग का घेरा बना दिया था कि उन्हे अव्वल तो दुनिया दिखाई ही नहीं देती थी और कभी थोड़ी बहुत दिखती थी तो अपने रचनाओँ के रंग की ही।……आत्ममुग्धता एक ऐसी बीमारी थी जिसके लक्षण शुरू शुरू में एकदम पता नहीं चलते और अंतिम चरणों में पता चलने पर इसका कोई इलाज़ दुर्भाग्य से मौजूद नहीं था। शायद इसलिए लेखक के दिल के आस पास की दुनिया साधारण लोगों की ही थी। और वही अपनी पूरी निश्छलता के साथ अभिव्यक्त हुई है। 
     लेखक पर किसी साहित्यक कृति जैसी चीज़ लिखने का दबाव नहीं था शायद इसलिए यह रचना ज़मीनी और जीवन के ज्यादा क़रीब बन पड़ी है। विमल का संस्मरण पढ़ते हुए पाठक से एक याराना सा स्थापित कर लेता है और कंधे पर हाथ रख बतियाते हुए आपको अपने स्मृति संसार का हिस्सा बना लेता है। आप पाते हैं कि यह दुनिया लेखक की नहीं आपके आसपास की दुनिया है बस नाम बदले हुए हैं। यह मात्र खूबसूरत यादों की दास्तान ही नहीं लगती वरन यह उन तमाम लोगों की बेबसी की कहानी भी कहती है जिनके किताबी आदर्श उनके जिंदा रहने की ज़रूरत के आगे लाचार नज़र आते हैं। आदर्श और सिद्धांत सिर्फ बातों में. बातें छद्म महत्वाकांक्षा और फैंटसी में तब्दील होती जाती हैं। एक तरफ पत्रकारिता धार्मिक मठाधीशों से गिफ्ट पाने का हो़ड़ कर रही होती है तो दूसरी तरफ एक पत्रकार किसी जनसंघी नेता की चरण वंदना कर रहा होता है। धर्मनिरपेक्ष सरकारी तंत्र की सांप्रदायिकता की स्थिति यह है कि रचना की मौलिक अभिव्यक्ति सिर धुनती नज़र आती है। संविधान के मौलिक अधिकार भी किसी पुस्तक में दबे दबे शायद अपने लिखे जाने पर अफ़सोस व्यक्त करते होंगे। लेखक हर दृश्य पर चुटकी लेते तो चलता है पर आपके मन मे हास्य के साथ सवाल पैदा करते जाता है। वह बिना किसी शोरगुल के कब आपको सामाजिक विद्रूपता के प्रति अपनी चिंता और अपने सवालों से जोड़ लेता है, आपको पता नहीं चलता। यदि साहित्य समाज का दर्पण है तो इस असाहित्यिक कृति में समाज अपने विभिन्न पक्षों के साथ बहुत साफ़ नज़र आता है। है। एक निम्न मध्यमवर्गीय शहर का संघर्षशील परिवेश, वयक्ति वैचित्र्य, मानव स्वभाव की कमजोरियाँ, कुठा, स्वप्न, फैंटसी, दिखावे के आदर्श, अपने पूरी मासुमियत के साथ दिखाई पड़ते हैं।

सबसे अच्छी बात यह है कि कहीं भी आपको ठहर कर भाषा से जूझना नहीं पड़ता यही वजह है कि पढ़ते समय भाषा गायब सी हो जाती है और बात करते दृश्य रहते हैं। उपन्यास सी लगने वाली इस रचना में अनेक छोटी छोटी कहानियाँ मौजूद है जिसमें प्रेम दोस्ती और ज़िंदगी जीने के उत्साह से भरे पात्र भी हैं। कैलास जी का मनमौजीपन और दिलदारी, अर्बेंद्र की बेखौफ़ पत्रकारिता का जोश, सुशील भैया का उलझा हुआ भ्रम और विवेक की भोली मित्रता एक आशा-भरी गुदीगुदी सी कर जाते हैं। उलझी और उमस से भरी ज़िंदगी में फुहार सी एक प्रेमकहानी, जिसका अंत दुखद है पर एहसास सुखद। 

        आत्मप्रेक्षण और चरित्र हनन भी पारंपरिक संस्करणों की कमज़ोरी रही है। विमल ने जितनी सहजता और स्वाभाविक ईमानदारी से खुद अपनी कमज़ोरियों और बुरी आदतों का ज़िक्र अपनी ही चुटकी लेते हुए किया है वह काबिलेतारीफ़ है। ये पंक्तियाँ देखिए देर से जागने और अनुशासन भंग होने के कारण मेरा मूड बहुत ख़राब था मै बाहर निकला और शोले की दुकान पर चाय पीने के बाद एक सिगरेट और पी, वहीं चेहरा पानी से धोया ताकि पता न चले कि मैं अभी उठ कर आ रहा हूँ। मैं ये सोचता हुआ विवेक के घर की ओर चल पड़ा कि उससे कहूँगा कि मैने आज दो नए आसन शुरू किए हैं जिन्हे उसे सीखना चाहिए था।
        जीवन के तमाम भले-बुरे काले-गोरे पक्षों को निरपेक्ष रह आनंद के साथ महसूस करना, यह वह स्थिति है जब इंसान किसी से बिना किसी अपेक्षा के ज़िंदगी की पथरीली धरती से ही कोई रस का स्रोत खीच लेता है।ऐसा ही कुछ लेखक के साथ भी है असफल प्रेम के बाद ज़िंदगी के सच से रू-ब-रू विमल कहते हैं अपने आसपास जो चींजें ख़राब हैं उन्हे ठीक करने में अपना जितना हो सके योगदान दिया जाए और बिना किसी शिकायत और रुदन के ज़िंदगी का आदर किया जाए।
         इस सस्मरण के लिए ये सवाल उठ सकते हैं कि इसमें इलाहाबाद के बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्तित्व  और घटनाओँ का ज़िक्र नहीं है इसका उत्तर भी लेखक की भूमिका में है मैं जानता हूँ जब मैं अपने खुबसूरत पलों को याद कर रहा हूँ तो उस समय इलाहाबाद और भी महत्वपूर्ण था जो घट रहा था लेकिन मैं यहाँ उन्ही चीज़ो को याद कर रहा हूँ जिन पलों को मैने उनमें शामिल हो कर जिया है।
         विमल अपने संस्मरण को खूबसूरत यादों की दास्तान बताते हैं। यादे हैं तो बेतरतीब तो होंगी ही। फिर एक ईमानदार संस्मरण से क्रमबद्धता की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। सबसे बड़ी बात यह है संस्मरण इस धारणा  को भी ग़लत साबित करता है कि संस्मरण साठ के बाद ही लिखे जाने चाहिए। स्मृतियाँ उम्र और समय की मोहताज़ नहीं होती। हर उम्र की यादें अपने आप में ख़ास होती हैं। संस्मरण में प्रूफ की गलतियाँ कई जगह प्रवाह में बाधा डालती हैं और भ्रम पैदा करती हैं। कुल मिला कर यह संस्मरण कुछेक गलतियों के साथ एक ताजगी भरा एहसास देता है। संस्मरण-विधा में नई संभावनाओं के द्वार भी खोलता है।

(चारुलेखा ने संस्कृत में परास्नातक किया है। एवं यू जी सी नेट परीक्षा उत्तीर्णहैं। चारु की थियेटर में  रुचि है एवं इन्होने कई नाटकों में अभिनय भी किया है। )

                                                
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