konstantin kavafi |
हाल ही में ‘दुनिया इन दिनों’ पत्रिका की साहित्य वार्षिकी दो खण्डों में प्रकाशित हुई थी. इसके पहले खण्ड में अनिल जनविजय द्वारा अनुदित कुछ विदेशी कवियों की महत्वपूर्ण कविताएँ प्रकाशित हुईं थीं. हमने इन कविताओं के महत्व को देखते हुए इसे ‘पहली बार’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का निश्चय किया. इसी क्रम में आज प्रस्तुत है यूनानी कवि कन्स्तान्तिन कवाफी, जर्मन कवयित्री माशा कालेको, पीटर रोजेग्ग और रोजा आउसलेंडर की अनुदित कविताएँ.
1.
सितम्बर 1903 / कंस्तांतिन कवाफ़ीअब मुझे ख़ुद को धोखा देने दो कम-अज़-कम
भ्रमित मैं महसूस कर सकूँ जीवन का ख़ालीपन
जब इतनी पास आया हूँ मैं इतनी बार
कमज़ोर और कायर हुआ हूँ कितनी बार
तो अब भला होंठ क्यों बन्द रखूँ मैं
जब मेरे भीतर रुदन किया है जीवन ने
औ‘ पहन लिए हैं शोकवस्त्र मेरे मन ने? इतनी बार इतना पास आने के लिए
उन संवेदी आँखों, उन होठों को और
उस जिस्म की नाज़ुकता को पाने के लिए
सपना देखा करता था, करता था आशा
प्यार करता था उसे मैं बेतहाशा
उसी प्यार में डूब जाने के लिए
2.
दिसम्बर 1903 / कंस्तांतिन कवाफ़ीजब मैं बात नहीं कर पाता अपने उस गहरे प्यार की
तेरे बालों की, तेरे होंठों की, आँखों की, दिलदार की
तेरा चेहरा बसा रहता है मेरे दिल के भीतर तब भी
तेरी आवाज़ गूँजा करती है, जानम, मेरे मन में अब भी सितम्बर के वे दिन सुनहले, दिखाई देते हैं सपनों में
मेरी ज़ुबान तो ओ प्रिया, बस गीत तेरे ही गाती है
रंग-बिरंगा रंग देती है तू मेरी सब रातों को अपनों में
कहना चाहूँ जब कोई बात, बस, याद तू ही तू आती है
3.
अलसाया पड़ा रहता था मैं उनके बिस्तर पर / कंस्तांतिन कवाफ़ी सुख देने वाले उस घर में जब भी घुसता था मैंनहीं रुकता था ठीक सामने वाले उन कमरों में
जहाँ निभाया जाता है कुछ प्रेम का शिष्टाचार
और किया जाता है सबसे बड़ा नम्र व्यवहार गुप्त कमरों में जा घुसता था तब मैं अक्सर
अलसाया पड़ा रहता था मैं उनके बिस्तर पर
जिन पर निपटाती थीं वे ग्राहकों को अक्सर
4.
गंदी तस्वीर / कंस्तांतिन कवाफ़ीवहाँ सड़क पर पड़ी हुई, उस बेहद गंदी तस्वीर में
पुलिस की निगाह से छिपाकर बेची जा रही थी जो
बेचैन हुआ था तब बड़ा, यह जानने को अधीर मै
आई कहाँ से हसीना, कितनी दिलकश दिख रही है वो कौन जानता है ओ सुन्दरी कैसा तुमने जीवन जिया
कितना मुश्किल, कितना गंदा, गरल कैसा तुमने पिया
किस हालत में, क्योंकर तुमने, यह गंदी तस्वीर खिंचाई
इतने ख़ूबसूरत तन में क्योंकर वह घटिया रूह समाई लेकिन इतना होने पर भी स्वप्न-सुन्दरी तू बन गई मेरी
तेरी सुन्दरता, तेरी उज्ज्वलता, करते मेरे मन की फेरी
याद तुझे कर-कर हरजाई, सुख पाता हूँ मैं यूनानी
पता नहीं कैसे बोलेगी, तुझसे मेरी कविता दीवानी
उन बदनाम सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था जब
तभी पल भर को झलक देखी थी तेरी
दो अनजान चेहरों ने एक-दूजे को देखा था तब
फिर मुड़ गया था मैं शक़्ल छुप गई थी मेरी बड़ी तेज़ी से गुज़री थी तू छिपाकर चेहरा
घुसी थीं उस घर में जो बदनाम था बड़ा
जहाँ पा नहीं सकती थी तू सुख वह बहुतेरा
जो पाता था मैं वहाँ, उस घर में खड़ा-खड़ा मैंने दिया प्रेम तुझे वैसा, जैसा तूने चाहा
थकी हुई आँखों से तूने भी मुझ पर प्रेम लुटाया
बदन हमारे जल रहे थे, एक-दूजे को दाहा
पर घबराए हम पड़े हुए थे, कोई न कुछ कर पाया अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय
Mascha Kaléko |
माशा कालेको (1907-1975) की तीन कविताएँ
1. पिही / माशा कालेको
एक बार मैंने पढ़ा था पिही के बारे में
चीन का एक पौराणिक पक्षी
सिर्फ़ एक पंख वाला
और जोड़े में रहता है जो
दूर क्षितिज पर उड़ता
पिही का झुण्ड दिखाई देता है
पिही का हमेशा
जोड़ा ही उड़ सकता है
अकेला पिही ज़मीन से चिपक जाता है
पिही की तरह
मैं भी घोंसले से बँध जाऊँगी
ओ मेरी आत्मा !
तू मुझे छोड़ देगी जब
2. आदमी की ज़रूरत / माशा कालेको
सिर्फ़ द्वीप की
और वह समुद्र में खो जाता है किसी को ज़रूरत होती है
एक आदमी की
और वह बहुत ज़रूरी हो जाता है
सब डरों के डर को।
इन कुछ सालों के लिए
काफ़ी रहेगी रोटी
और आलमारी में कपड़े मत कहो — यह मेरा है
तुम्हें भी सब दूसरों ने दिया है।
समय के इस दौर में रहो और देखो
तुम्हें कितना कम चाहिए।
यहाँ पर रहो
और तैयार रखो सूटकेस। वे जो कहते हैं, सच है —
जो आने वाला होगा, आ जाएगा।
दुख से गले मिलने न बढ़ो
जब दुख आएगा
शान्ति से उसके चेहरे को देखो
वह सुख की तरह गुज़र जाएगा। उम्मीद नहीं करो किसी चीज़ की
चिन्ता करो बस अपने रहस्य की
भाई भी धोखा देगा
जब उसे चुनना होगा ख़ुद को या तुझ को
बस अपनी छाया को ही साथ लो
सुदूर यात्रा में। अच्छी तरह साफ़ करो अपना घर
पड़ोसियों से मिलो-जुलो
बाड़ ठीक करो हँसी-ख़ुशी
गेट पर लगा दो घण्टियाँ
अपने घाव को भूल नहीं जाओ
अस्थाई शरणस्थली में। अपनी योजनाएँ फाड़ दो, दिमाग़ से काम लो
किसी चमत्कार की उम्मीद रखो
बड़ी योजना में शामिल है जो
लम्बे समय से अपने डर को भगाओ
सब डरों के डर को।
अनुवाद : अनिल जनविजय
गिर रही हैं पत्तियाँ बलूत की
गर्मियाँ बीत चुकी हैं
चुम्बनों की प्रतीक्षा में होंठ हैं
गर्मियाँ रीत चुकी हैं रोएँ चारों ओर उड़ रहे हैं
उल्लुओं के कोटरों में शोर है
होंठ चाहते हैं फिर चुम्बन
जो मई में चूमाचाटी कर विभोर हैं सूखे हुए औ’ फटे हुए हैं होंठ
रंग गुलाबी उनका फीका पड़ चुका है
चाहते हैं वे प्रेम का लम्बा चुम्बन
पर मई का महीना अब गुज़र चुका है हे ईश्वर ! प्रेम कितना है ज़्यादा
लेकिन समय नहीं बचा है आधा
अनन्त है ये प्रेममार्ग अनन्त है
प्रेम अमर है, प्रेम का न कोई अन्त है
दुनिया में कहीं नहीं देखीं
इतनी सुन्दर आँखें,
ज्यों देख रहा हूँ पहली बार
जीवन उनमें से झाँके । ये स्वर्ग-प्रकाश के तारे हैं,
जिन्हें अपनी आत्मा से देखूँ
सुबह भोर की ओस से गीली,
स्वर्ण धूप किरण-सा लेखूँ । आँखें हैं या फूल वसन्ती,
यह मैं समझ न पाऊँ
इन आल्प-झीलों की गहराई में
मैं काँपूँ और डूब जाऊँ।
ऐ लड़की, जब मिन्नत करता हूँ तुमसे
तुम सुनती हो ?
ऐ लड़की, जब आँख झुकाती हो तुम
क्या मुझे देखती हो ?
ऐ लड़की, मैं चला जाऊँगा, मर जाऊँगा
क्या यही चाहती हो ?
ऐ लड़की, मैं भी चाहता हूँ कुछ
क्या महसूस करती हो?
शुभरात्रि ! दोस्तो शुभरात्रि !
मैं ख़ुश हूँ — मैं जी रहा हूँ
ख़ूबसूरत है दुनिया मेरे चारों ओर
ईश्वर ! तेरा धन्यवाद
दुनिया यह सुन्दर मुझे भा रही है
लेकिन है बेहद दुख की बात
मुझे नींद आ रही है ओह, मैं देखना चाहता हूँ
यह मेरा प्यारा देश
चमके चमकीली धूप में
बदल जाए सब भेष
बाँहों के घेरे में
मैं लेना चाहूँ आकाश
पर हो रहा है मुझे
गहरी नींद का भास जैसे हर शाम बच्चे
बिस्तर पर जाते हैं
मैं वैसे ही चुपचाप
क़ब्र में लुढ़क रहा हूँ
जीने की इच्छा है
पर माननी पड़ेगी यह बात
ईश्वर बुला रहा सोने को
हो गई जीवन की रात
चिड़िया पर नाराज़ न हो, जब वह गाती है
कोयले पे भला, कौन नाराज़ होगा, जब वह जलता है
और घण्टे से कौन कहेगा — वह क्यों बजता है ? जब खमीर उठे शराब में तो कौन दुखी होता है
या आँधी चले जब तो कौन कुपित होता है
जब शर्म आए किसी को तो गुस्सा करके क्या होगा
जब प्यार आए किसी पर तो कौन होगा नाराज़
ऐसा होना चाहिए, ऐसा ही होना चाहिए
हमेशा ऐसा ही होना चाहिए।
अनुवाद : अनिल जनविजय
Rose Ausländer |
कितने सारे शब्द खो देते हैं हम। जब तक मेरी नज़र उन पर पड़े
वे इतने कम हो जाते हैं
इतने कम शब्द
साँस लेते हैं मेरे साथ। मुझे याद आते हैं
कुछ शब्द —
’हम’
’पहले से ही’
’साथ-साथ’ मैं बाँटना चाहती हूँ
उन्हें
तुम्हारे साथ।
2.
डेविड गोल्डफ़ील्ड की याद में/ रोज़ा आउसलेण्डर(डेविड गोल्डफ़ील्ड (1904-1942) एक जर्मन यहूदी कवि थे जो उसी बुकोविन इलाके रहने वाले थे, जहाँ रोज़ा आउसलेण्डर का जन्म हुआ था। डेविड गोल्डफ़ील्ड ने अपनी किशोरावस्था में प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया था। लेकिन 1942 में वे एक जर्मन नाज़ी शिविर में मारे गए।) कवि खाँस रहा है
यहूदी बस्ती में
और सुना रहा है अपनी दुख भरी कथा — मेरी माँ मर रही है
सब सगे बन गए हैं अजनबी
हम भुखमरी में रह रहे हैं अस्पताल के रास्ते में
एक हिमदूत
तैरता हुआ गुज़र गया मेरे ऊपर से मैंने हँस कर कहा अपने सहयोगी से
घबराओ मत
सब ठीक होगा जल्दी ही
विश्वास करो मेरा उसने विश्वास किया
मेरी बात पर
और मर गया।
कुछ लोग भाग निकले
और बच गए रात में
वे हाथ थे
लाल ईंटों की तरह
लाल रक्त में डूबे बहुत शोर भरा था यह नाटक
आग के रंगीन चित्र जैसा
अग्नि-संगीत के साथ फिर मौत थी मौन
चुप और निस्तब्ध! सन्नाटा चीख़ रहा था वहाँ
हँस रहे थे सितारे
टहनियों के बीच से भागे हुए लोग
इन्तज़ार कर रहे थे बन्दरगाह पर
और पानी पर झूल रहे थे पोत
पालने की तरह
माँओं और बच्चों के बिना।
अनुवाद : अनिल जनविजय
अनिल जनविजय |
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