राजेश जोशी की पुस्तकं ‘किस्सा कोताह’ की पल्लव द्वारा समीक्षा

राजेश जोशी जितने उम्दा कवि हैं उतने ही उम्दा गद्यकार. उनकी गपोड़ी की डायरी से तो आप सब परिचित ही होंगे. राजेश जी की ये सारी गप्पें (जो विशुद्ध गप्प भी नहीं है) अब एक किताब ‘किस्सा कोताह’ के रूप में आ गयी है, इस किताब की एक समीक्षा लिखी है युवा आलोचक पल्लव ने. तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा.       
एक बनारस ही नहीं इस कायनात में
उर्फ़ एक भोपाली का बर्रूकाट गद्य

पल्लव

अगर काशी का अस्सी, बना रहे बनारस और बहती गंगा जैसी किताबें न होतीं तो क्या हम बनारस को जान पाते? हम यानी वह पाठक समाज जो बनारस नहीं गया है, बनारस में नहीं रहता। कवि राजेश जोशी ने अभी एक किताब लिखी है – ‘किस्सा कोताह’, और यहाँ भोपाल जिस तरह किताब में आया है उसे देख.पढ़ कर आपको भोपाल में बसने का मन करने लगे …हाय हम भोपाल में क्यों नहीं हुए। इसका मतलब यह है कि उस स्थान के बारे में लेखक ने जिस तरह लिखा है वह सचमुच अनूठा और मर्मस्पर्शी है। राजेश जोशी की यह किताब उनके बचपन से जवानी के बीच आये स्थानों पर लिखी गई है और यह न शहरनामा है न आत्मकथा। संस्मरण और रिपोर्ताज बिल्कुल भी नहीं। किताब के पहले ही पेज पर वे स्वयं साफ़ करते हैं -‘यह उपन्यास नहीं है। आत्मकथा नहीं है। शहरगाथा नहीं है और कोरी गप्प भी नहीं है। लेकिन यह इन्हीं तमाम चीज़ों की गपड़तान से बनी एक किताब है।’ यहाँ जोशी अपने लिए एक प्रविधि का चयन करते हैं ठीक कुरु कुरु स्वाहा वाले जोशी जी की तरह। यहाँ एक मैं यानी वाचक यानी राजेश जोशी हैं और दूसरा है गप्पी। ये दोनों मिल कर पाठकों से बातें करते हैं और बातों बातों  में डेढ़ सौ से ज्यादा पृष्ठ बीत जाते हैं तब आप चौंक जाते हैं अरे किताब कैसे खत्म हो गई? लेकिन यह खाली बीत जाना नहीं है हाथ में बहुत कुछ रह जाता है जिसे आप अपनी स्थायी पूंजी समझिये।

किताब की शुरुआत में राजेश जोशी ने क़िस्सों के बारे में एक भरतवाक्य लिखा है – ‘क़िस्सों का नगर क़िस्सों ने रचा है, उसमें आना है तो तथ्यों को ढूँढने की जिद छोड़ कर आओ।’ ऐसा ही इस किताब की शुरुआत गप्पी के बचपन से हुई है। नरसिंहगढ़ से, जो गप्पी की ननिहाल था। यहाँ किला है, राजा-रानी हैं और लोग बाग़ भी। अनेक बातें-किस्से आते हैं लेकिन आप इनकी तारीखें नहीं ढूंढ सकते। तारीखों में अगर इनको ढूँढा जा सकता होता तो भला इन्हें आने के लिए गप्पी की शरण ही क्यों लेनी होती? गप्पी की आदत है कि वे गप्पें मारते मारते अचानक बीच में ऐसी बातें कह देंगे कि आप सोचते रह जाएँ। देखिए तो  . ‘सबको अपना बचपन याद आता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ तो और भी ज्यादा। उनको भी जिनके बचपन में सुख के क्षण नहीं थे या बहुत कम थे। समय बीत जाने के बाद सबसे बुरे दिनों का अनुभव हर व्यक्ति के सबसे मजेदार किस्से की तरह सुनाता है।’  गप्पी के बचपन का ऐसा वर्णन है कि आपका भी मन नरसिंहगढ़ में जा बसने का होता है। फिर जब गप्पी की माँ पीहर से अपने ससुराल भोपाल आईं तब गप्पी को भोपाल देखने का अवसर मिला और यह वह शहर था जिसे गप्पी का शहर होना था। अपने ख़ास रंग वाला भोपाल, अपने ख़ास ढंग वाला भोपाल।

गप्पी इस भोपाल की सैर कराते हैं, यहाँ की असली विभूतियों से आपकी भेंट करवाते हैं और आपको समझ में आने लगता है कि क्यों एक बनारस ही नहीं इस कायनात में। कुछ वाक्य देखिये-

‘सड़कें नवाबों के लिए छोड़ दी हैं लेकिन गलियों के नाम में नवाबों और बेगमों को घुसने की इजाज़त नहीं।’

‘गप्प जब तक अविश्वसनीय न हो तब तक भोपालियों को मजा नहीं आता।’
‘भोपाल की चार चीज़ें मशहूर थीं .ज़र्दाएगर्दाए पर्दा और नामर्दा।’ 

राजेश जोशी

ऐसे ही भोपाल की भाषा पर खासा विवेचन है . ‘भोपाल की भाषा में कई तरह की मिलावट थी। उसमें बुन्देली, मालवी, उर्दू और गालियाँ सबकी जगह पहले से ही तय थी। यहाँ की उर्दू थोड़ी अलग थी। भोपालियों का मानना था कि लखनऊ की उर्दू जनानी उर्दू है और भोपाल की मरदाना उर्दू। …कई शब्द भोपाली के अपने थे और उन्हें बोलने के अंदाज भी उसके अपने थे। शब्द के बीच में आने वाले (ह) का यहाँ लोप हो जाता था। भोपाल का मामला बिहार से एकदम उलटा था। पहले या पाहिले बोलना हो तो बोला जाएगा पेले। ऐ और औ की मात्रा बोलना भोपालियों के खाते में नहीं आया था। मात्राएँ लगाने और बोलने में  हम काफ़ी किफ़ायती थे। पैसे को ‘पेसे’ और कैसे को ‘केसे’ बोला जाता।’ भोपाल की यह भाषा भाषा विज्ञान की दृष्टि से कुछ महत्त्वपूर्ण हो न हो इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण है कि यह भोपालियों की आजाद खयाली और अपने ढंग से जीने-बोलने के अंदाज का परिचय देती है। कहना न होगा कि इस भूमंडलीकरण द्वारा बनाए जा रहे विश्व गाँव से भोपाल और बनारस जैसी जगहों का रिश्ता कैसा हो सकता है? इसे स्थानिकता का प्रतिरोध समझना चाहिए जो अपने ढंग का होने की जिद में अड़ा रहने की हिम्मत रखता है। मजे की बात देखिये कि किताब भी ठीक इसी जगह भोपाल के अनूठे शायर ढेंढ़स भोपाली का जिक्र करती है। उनका एक फड़कता हुआ शेर-

शाहने सलफ़ करते थे बरतरफ़ी बहाली
तखफ़ीफ़ यह किस भोसड़ीवाले ने निकाली।

हुआ यूं था कि नवाब साहब के जमाने में शाइर साहब को एक नौकरी दी गई थी जिसमें उन्हें महीने में केवल एक दिन जाना होता था तनख्वाह लेने। कोई नया अधिकारी आया और उनकी बर्खास्तगी का आदेश निकल गया तो ढेंढ़स भोपाली साहब ने आदेश के ठीक पीछे यह शेर लिख कर कागज लौटा दिया। कागज़ होते-होते नवाब साहब तक पहुंचा और ढेंढ़स भोपाली साहब फिर बहाल हो गए।

तो क्या बनारस और भोपाल जैसे हमारे शहर असल में निकम्मों-नालायकों के कारण बर्बाद हुए? हमारा देश (अगर वह देश था) मध्यकाल और उसके बाद ऐसे ही अकर्मण्य लोगों के कारण यूरोप से मार खा गया और हम गुलाम हुए? शायद नहीं, सामंती युग में मनोरंजन के साधनों के अभाव में समाज में ऐसे चरित्रों के होने-रहने की गुंजाइश थी। ‘किस्सा कोताह’  इस शहर के अनूठेपन के चित्र ही नहीं बताती अपितु अपने ढंग की देशज आधुनिकता भी यहाँ विद्यमान है और यह अंग्रेजों के आगमन से ही नहीं आई है बल्कि ठेठ इसे देखा-खोजा जा सकता है। भोपाल जिन दिनों आजादी के बाद विलीनीकरण आन्दोलन से गुजर रहा था और वहां पहली विधानसभा बनी, तब एक किसान खुशाल कीर ने नई विधानसभा का दृश्य देखकर दोहा कहा –

पाँच पंच कुर्सी पर बैठे, फट्टन पर पच्चीस
राज करन को एक कमीश्नर झक मारन को तीस
(फट्टन=टाट पट्टी)
बताइये।

किस्सों के बीच बीच में गप्पी ने कई दिलचस्प चरित्रों से मिलवाया है। खुद गप्पी के दादा जी को ही देख लीजिये, जिन्हें घर में बा साहब कहा जाता था। ये ऐसे बा साहब हैं जो ‘खाना खाने से पहले हर पूरी को तौल-तौल कर देखते’ क्योंकि किसी हकीम ने बता दिया था कि आप बराबर वजन की रोटियाँ या पूरियाँ खाया करो। अनोखी बात यह होती है कि इन्हें एकाएक भान हो जाता है कि प्रेमनारायण जी नहीं रहे …और घंटे भर में सचमुच तार भी मिल जाता है। यह गप्पी की उड़ान है या जादुई  यथार्थ। जो भी है, पाठक किताब मे रम जाता है। यह पाठकों को बहलाने का नुस्खा नहीं है अपितु जीवन के ठेठ बीहड से आई सचाई है। एक जगह प्रसंगवश आया है –  ‘उड़ना गप्पी का प्रिय शब्द था। उसे उड़ने वाली हर चीज़ पसंद थी। परिंदे हों, पतंग हों या उड़ने वाले गुब्बारे या कोई मजेदार सी अफवाह।’ असल में एक बन्द समाज में ही उड़ने के मार्ग खोजे जाते हैं। इस बन्द और तंग समाज का यह चित्र भी देखिये- ‘इतना परदा था कि गप्पी की माँ ने अपने ही घर का बरामदा अठारह, उन्नीस बरस बाद तब देखा था जब बाबा का निधन हो गया। गप्पी की माँ जब नरसिंहगढ़ से भोपाल आतीं तो हाथ भर का घूंघट किये रहतीं, उस पर एक चादर और ओढ़ना होती थी। जो ताँगा बस स्टेंड से उन्हें लेने जाता उसमें चारों तरफ परदे लगे रहते। जब ताँगा घर के दरवाजे पर आता तो दो नौकर ताँगे से घर के दरवाजे तक दोनों तरफ चादर का परदा तान कर खड़े होते। माँ उसमें से निकल कर ऊपर चली जातीं।’ यह है जीवन। आप जिसमें इतना रस ले रहे थे उस सुंदर के भीतर क यह असुंदर राजेश जोशी छिपाते नहीं । और तभी जाने क्यों ऐसे अंश पढते हुए आपको मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘कसप’ याद आ सकता है। शायद इसका कारण भाषा हो। शायद किस्सागोई हो। शायद जीवन में इतना रस लेने की शक्ति दोनों को यादगार बनाती हो। शायद वर्णन की अद्भुत क्षमता ऐसा करती हो। पता नहीं …या सारी ही बातें सच हों शायद।

कोई शहर हो जिसमें तरह तरह से जीवन खिलता दीख रहा हो और ऐसा कि पाठक का मन करे कि मैं यहीं क्यों न हुआ?  अगर वहां पागल न हो तो वह शहर शहर नहीं हो सकता। यहाँ भी एक से एक प्यारे पागल हैं, उनकी सनकें हैं और उनकी चिढावनियां भी हैं। इन पागलों से आपको मिलवाने के बाद राजेश जोशी लिखते हैं- ‘बाजार के पागलपन ने असल पागलों की सारी जगहों को हथिया लिया है। यह पागलपन उस पागलपन से ज्यादा खतरनाक है … …सामान्य लोग इतने यांत्रिक नहीं हुए थे कि पागलों को शहर से बाहर निकालने की मांग करने लगें। पागल, लोगों की फुर्सत के पलों का मनोरंजन थे। इस मनोरंजन से पागलों और शहर के बीच एक रिश्ता बना रहता था। मजे लेने में थोड़ी हिंसा थी, पर जैसे ही इस हिंसा का प्रतिशत गड़बड़ाता तो लोगों के मन में एक अपराधबोध कुलबुलाने लगता और वह पागलों के लिए कुछ न कुछ करने को दौड़ पड़ते। भोपाल में भोला बाबा जैसे पागल हैं तो मामा भिंड़ी, दादा तामलोट, दादा खैरियत, अंडे चोर और नेहरू जी की अम्मा, पागलपन व्यावहारिकता का प्रत्याख्यान है।’

किताब में राजेश जोशी आपको बार-बार हंसाते हैं, गुदगुदाते हैं और फ़िर छोड देते हैं और आप सोचते रह जाते हैं कि ये चाहते क्या हैं भला? देखिये तो-  

‘निक्कर के नीचे चड्डी पहनने का चौंचला तब नहीं था। मुझे रोना आ रहा था और मैं रो नहीं सकता था।’

‘कोष्ठक को भाषा का कान मान लें तो मैं उस कहावत को कान में सुना सकता हूँ। दद्दा मियाँ का लौ…, चाँद मियाँ की गाँ… और पुनिया नाइन का भो…।’

क्यों कहना पडा भाई कान में? जब भोपाली सबके सामने कहते हैं, बनारसी सबके सामने हर हर महादेव का  असल जयकारा लगाते ही हैं तब हम हिन्दी के पाठक क्यों कोष्ठकों में बंद हैं? यह किताब और और कारणों के साथ इस लिहाज से भी यादगार है कि यह आपको कोष्ठकों के बाहर निकालती है। काश हमारे देश के कोनों-कोनों में फ़ैले ऐसे शहरों कस्बों पर ऐसी दिलचस्प किताबें आ सकें ताकि हम कोष्ठकों में कैद ही न रह जायें।

 


सम्पर्क- 

पल्लव
फ्लेट न.- 393 डी. डी. ए.
ब्लाक सी एंड डी
कनिष्क अपार्टमेन्ट,  शालीमार बाग़
नई दिल्ली.110088
मोबाईल-  8130072004

(युवा आलोचक पल्लव इस समय की एक बेहतरीन पत्रिका बनास जन के सम्पादक हैं. साथ ही ये दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में प्राध्यापक हैं)

 

राजेश जोशी

नाम में क्या धरा है

चेहरे याद रहते हैं
और आजकल लोगों के नाम मैं अक्सर भूल जाता हूँ

वह जो कुछ देर पहले ही मिला बहुत तपाक से
और बातें करता रहा देर तक
पच जाता है दिमाग पर उसका नाम याद नहीं आता
मन ही मन अपने को समझाता हूँ कि इसमें कुछ भी अजीब नहीं
दुनिया के लगभग सारे कवि भुलक्कड़ होते हैं

कवि का काम है सृष्टि की अनाम रह गयी चीजों को नाम देना
पहले ही रख दिये गये नामों को याद रखना मेरा काम नहीं
कवि तो कभी भी अपनी एक रहस्यमयी भाषा में
पेड़ों परिन्दों और मछलियों से
जब चाहे बतिया सकता है
वह हवा की दीवार पर दस्तक देकर पत्थरों से कह सकता है
कि दरवाजा खोलो और मुझे अंदर आने दो
वह मक्खी की उदासी को पढ़ सकता है
और लौट कर जाती हुई चीटिंयों की कतार से
उनके घर का रास्ता पूछ सकता है

लगभग तीस बरस बाद मेरे घर आया बचपन का एक दोस्त
दरवाजे पर खड़ा है और रट लगाये हुए है
कि पहले मेरा नाम बता तभी मैं आऊँगा घर के भीतर
मैं बताता हूँ उसे बचपन की दर्जनों बाते
कि हम स्कूल में साथ साथ पढ़ते
कि तूने गणित की कापी का पन्ना फाड़ कर हवाई जहाज बना दिया था
कि तेरी उस दिन बहुत पिटाई हुई थी
कितनी बातें याद आती हैं पर उसका नाम याद नहीं आता
मैं एक दार्शनिक जलेबी बना कर उसे बहलाने की कोशिश करता हूँ
कि नाम क्या है , एक चेहरे का अमूर्तन ही तो है
इस समय जब तू मेरे सामने है
तो मैं मूर्त चेहरे से उसके अमूर्तन को क्यों याद करूँ
जब तू यहाँ नहीं होगा मतलब मेरे सामने
और मुझे तेरी याद आयेगी
तब तेरे नाम से मैं तेरे चेहरे को याद करूँगा
वह मुस्कुराता है कहता है
तुम कवि हो न , बातें बनाना सीख गये हो !

अपने इस भुलक्कड़पन के कारण कितनी बार
मैं कहाँ कहाँ अपमानित होता हूँ
पर सोचता हूँ कि भूल जाना कितनी बड़ी नियामत है
इतने दुख इतने अपमान जो जीवन में सहने ही होते हैं सब को
याद रख कर कोई कैसे जी सकता है भला

हो सकता है मैं थोड़ा ज्यादा ही भुलक्कड़ हूँ
मैं एक अदना सा कवि हूँ
जो बड़े कवियों की आदत की आड़ में
छिपने कोशिश कर रहा हूँ

मुझे माफ करो
मुझे माफ करो
मुझे माफ करो
तुम्हारी शक़्लें मुझे याद रहीं और तुम्हारे नाम मैं भूल गया
मेरे प्यारे दोस्तो मुझे माफ करो
आदि काल से कवियों को माफ करता आया है यह समाज

दुनिया के एक महान कवि ने कभी कहा था
नाम में क्या धरा है ?

सिर छिपाने की जगह

न उन्होंने कुण्डी खड़काई न दरवाजे पर लगी घंटी बजाई
अचानक घर के अंदर तक चले आये वे लोग
उनके सिर और कपड़े कुछ भीगे हुए थे
मैं उनसे कुछ पूछ पाता इससे पहले ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया
कि शायद तुमने हमें पहचाना नहीं
हाँ….पहचानोगे भी कैसे
बहुत बरस हो गये मिले हुए
तुम्हारे चेहरे को , तुम्हारी उम्र ने काफी बदल दिया है
लेकिन हमें देखो हम तो आज भी बिल्कुल वैसे ही हैं
हमारे रंग ज़़रूर कुछ फीके पड़ गये हैं
लेकिन क्या तुम सचमुच इन रंगों को नहीं पहचान सकते
क्या तुम अपने बचपन के सारे रंगों को भूल चुके हो
भूल चुके हो अपने हाथों से खींची गयी सारी रेखाओं को
तुम्हारी स्मृति में क्या हम कहीं नहीं हैं ?
याद करो यह उन दिनों की बात है जब तुम स्कूल में पढ़ते थे
आठवीं क्लास में तुमने अपनी ड्राइंग कापी में एक तस्वीर बनायी थी
और उसमें तिरछी और तीखी बौछारों वाली बारिश थी
जिसमें कुछ लोग भीगते हुए भाग रहे थे
वह बारिश अचानक ही आगयी थी शायद तुम्हारे चित्र में
चित्र पूरा करने की हड़बड़ी में तुम सिर छिपाने की जगहेें बनाना भूल गये थे
हम तब से ही भीग रहे थे और तुम्हारा पता तलाश कर रहे थे

बड़े शहरों की बनावट अब लगभग ऐसी ही हो गयी है
जिनमें सड़कें हैं या दुकानें ही दुकानें हैं
लेकिन दूर दूर तक उनमें कहीं सिर छिपाने की जगह नहीं
शक करने की आदत इतनी बढ़ चुकी है कि तुम्हें भीगता हुआ देख कर भी
कोई अपने औसारे से सिर निकाल कर आवाज़ नहीं देता
कि आओ यहाँ सिर छिपा लो और बारिश रूकने का इंतज़ार कर लो
घने पेड़ भी दूर दूर तक नहीं कि कोई कुछ देर ही सही
उनके नीचे खड़े हो कर बचने का भरम पाल सके
इन शहरों के वास्तुशिल्पियों ने सोचा ही नहीं होगा कभी
कि कुछ पैदल चलते लोग भी इन रास्तों से गुजरेंगे
एक पल को भी उन्हें नहीं आया होगा खयाल
कि बरसात के अचानक आ जाने पर कहीं सिर भी छिपाना होगा उन्हें
सबको पता है कि बरसात कई बार अचानक ही आ जाती है
सबके साथ कभी न कभी हो चुका होता है ऐसा वाकिया
लेकिन इसके बाद भी हम हमेशा छाता लेकर तो नहीं निकलते
फिर अचानक उनमें से किसी ने पूछा
कि तुम्हारे चित्र में होती बारिश क्या कभी रूकती नहीं
तुम्हारे चित्र की बारिश में भीगते लोगों को तो
तुम्हारे ही चित्र में ढूंढनी होगी कहीं
अपने सिर छिपाने की जगह

उन्होंने कहा कि हम बहुत भीग चुके हैं जल्दी करो और बताओ
कि क्या तुमने ऐसा कोई चित्र बनाया है
जिसमें कहीं सिर छिपाने की जगह भी हो ?

हाथ और सिक्के

मेरे हाथ और मेरी जेब में रखे सिक्के
छिपने और ढूंढे जाने का खेल खेलते रहते रहे हैं ।

बरसों से इसी तरह मुसलसल जारी है यह खेल
कभी कभी किसी सिक्केे को मेरी उंगलियाँ ढूंढ लेती है
लेकिन जैसे ही उसे दबोच कर बाहर निकालता है मेरा हाथ
बाजार किसी दुष्ट लड़के की तरह अचानक आता है
और सिक्के को छीन कर भाग जाता है ।

फिर उसी खेल में लग जाते हैं मेरे हाथ
हाथ ढूंढते रहते हैं
और वो नहीं मिलते
कभी कभी जेब से बाहर निकल कर
वह कहीं और छिप जाते हैं
मैं चिल्ला कर कहता हूँ
यह खेल के नियम के विरूद्ध है !
सिक्के खिलखिलाते हैं चिढ़ाते हुए कहते हैं
खेल के नियम बनाना तुम्हारा काम नहीं
यह हमारा काम है , अपने खेल के नियम हम खुद बनाते हैं
खेलना हो तो खेलो वरना खेल से बाहर कर दिये जाओगे
हमेशा के लिये !

मेरी कविता का चाँद

गेलीलिओ ने जब चाँद के बारे में बोलना शुरू किया
तो मैं चाँद से नीचे गिर गया ।

मैं तो मजे मजे में चाँद पर टहल रहा था
कि मेरी कविता का चाँद वह चाँद नहीं
गेलीलिओ जिस पर अपनी दूरबीन से
ताकझांक करता रहता है

मैं चाँद से नीचे गिरा
तो मेरी आँख में रखा सपना गिरकर
शक्कर से बने खिलौने की तरह टूट गया
बादल मेरी नींद को लेकर चम्पत हो गये
जैसे वह भूत की लंगोटी हो
उड़ गये मेरी कविता के कागज़ जाने कहाँ कहाँँ
मेरे टाइपराइटर की की-बोर्ड के अक्षर
बिखर गये आकाशगंगा में ।

मैंने चिल्ला कर कहा गेलीलिओ से
तुम्हें अगर चाँद के बारे में बोलना है
तो तुम अपना खुद का चाँद ढूंढ लो
मेरी कविता के चाँद पर तुम्हारा उत्पात
नहीं चलेगा !

नसरगट्टे

कई बार तुमने उन बच्चों को देखा होगा
वो कभी स्कूल नहीं गए
गए भी तो दो चार दिन में ही भाग आए
कि उन स्कूलों में मास्टर बहुत मरखने थे
और उसके बाद किताबों में कभी उनका मन नहीं लगा

उनके पिताओं ने उन्हें चाय की गुमटियों , ढाबों
या हैसियतदारों के घरों में काम पर लगा दिया
वो समय से काम पर जाने के लिये पीटे गये
और छोटी मोटी गल्तियाँ करने पर उनके मालिकों ने उन्हें पीटा
वो हर कभी, हर जगह पीटे गये
वो जहाँ भी पीटे गये वहाँ से भाग खड़े हुए

अपनी छोटी मोटी ज़रूरतों के लिये उन्होंने
चोेरियाँ करना सीखा
पकड़ में आने पर लोगों द्वारा पीटे गये
और थानों में ले जाये गये
तो पुलिस वालों ने उनकी धुनाई की

वो इतने पिट चुके हैं कि रोना भूल गये है
उन्हें नसरगट्टा कहा जाता है
मार का जिस पर कोई असर नहीं होता
दुख जैसा कोई शब्द उनके पास नहीं
इस क्रूरता के बीच भी लेकिन कमाल की शरारतें
हमेशा उनके दिमागों से उपजती रहती हैं
कभी कभी जब ऊब एक थकी हुई दोपहर को
अपने आगोश में समेट लेती है
उनकी शरारतें उनके दिमागों से बाहर निकलती हैं
चाकूबाज किस्म के गुण्डे और क्रूर हो चुके पुलिस वाले भी
तब हँस हँस कर दोहरे हो जाते हैं
कम से कम उन पलों में कुछ देर को ही सही
सबसे क्रूर लोग भी मनुष्य की तरह नज़र आते हैं
बहुत धीमी ही सही लेकिन उस समय
चट्टानों के पीछे से पानी की आवाज़ आती है ।

इन बच्चों को इस तरह की शरारत करते तुमने
कई बार अपने आसपास के ढाबों या चाय की गुमटियों पर देखा होगा ।