संदीप मील के कहानी संग्रह ‘दूजी मीरा’ पर अजीत प्रियदर्शी की समीक्षा


संदीप मील

आज के समय में कहानी लेखन के क्षेत्र में काम कर रहे कहानीकारों में युवा कहानीकार संदीप मील एक उम्मीद भरा नाम है। उनकी कहानियों में किस्सागोई के साथ-साथ जीवन की महीन बुनावटों को उद्घाटित करने का सफल प्रयास मिलता है। ये ऐसी बुनावटें हैं जो निरंतर हमारे इर्द-गिर्द चलती रहती हैं, और हम उन्हें भांप नहीं पाते। संदीप कल्पना की उड़ान भरते हुए भी अपने अनुभवों की जमीन पर निरंतर पाँव जमाये रहते हैं। इससे उनकी कहानियों का वितान बड़ा दिखाई पड़ता है। संदीप मील का हाल ही में एक कहानी संग्रह दूजी मीरा ज्योति-पर्व प्रकाशन, गाज़ियाबाद से प्रकशित हुआ है। इस संग्रह की एक समीक्षा लिखी है युवा आलोचक अजीत प्रियदर्शी ने। आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा ‘अन्तर्विरोधों को उद्घाटित करती क़िस्सागोई’।  
अन्तर्विरोधों को उद्घाटित करती क़िस्सागोई
अजीत प्रियदर्शी 
पिछले चार-पांच वर्षों में राजस्थान की युवा कथाकार पीढ़ी में जिन कथाकारों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है, उनमें संदीप मील प्रमुख हैं। उनकी पच्चीस कहानियों का संग्रह- दूजी मीरा’- ज्योति-पर्व प्रकाशन, गाज़ियाबाद से आया है। इस संग्रह की एक-मात्र लम्बी कहानी शीर्षक कहानी दूजी मीराहै, शेष कहानियाँ छोटी आकार की हैं। संग्रह में तीन लघु कथाएँ हैं। संदीप मील की ये कहानियां जीवन-पथार्थ के साथ आत्मीय रिश्ता कायम करते हुए कहानी कहने की पुरानी शैली-किस्सागोई शैली का बेहतरीन उदाहरण पेश करती हैं। शिल्प की कलाबाजियां और भाषाई कीमियागिरी से बचते हुए कहानी की पठनीयता को बचाये रखने का हुनर इन कहानियों की खासियत है।
  
संदीप मील अपनी कहानियों में अपनी ज़मीन और आम-जन की बात करते हैं। आमजन के संघर्ष और जीवट की बात करते हुए उसे व्यापक जन समुदाय से जोड़ कर वे अपनी कहानियों का खूबसूरत ताना-बाना बुनते हैं। वे गायब होती जा रही क़िस्सागोईके अंदाज़ में अपनी राजस्थानी बोली से भरी-पूरी कहानी रचते हैं। कथा-तत्त्व की मजबूत रीढ़ उनकी कहानियों की जान होती है और लोक जीवन के जीवन्त संवादों से कहानियों में अलग तरह की चमक आ जाती है। इस संग्रह की पहली कहानी खोटमें कथाकार अपने अज़ीज़ दोस्त मुनीन्द्र की शादी के प्रसंग को दिलचस्प किस्सागोई के अंदाज़ में पेश करता है और गाँव के लोगों द्वारा अनजानी लड़की में तरह-तरह से खोटनिकालने की घटिया प्रवृत्ति पर करारा व्यंग्य करता है। कथाकार या नैरेटर स्वयं कहानी का एक महत्वपूर्ण पात्र है। इस कारण वह कहानी के पात्रों तथा उस लड़की में खोट निकालने के लिए कही जाने वाली उनकी हास्यास्पद बातों का बड़ा ही दिलचस्प और विश्वसनीय वर्णन करता है। वह दूसरों पर असरदार व्यंग्य कर पाता है क्योंकि अपनी भी खिल्ली उड़ाने से परहेज नहीं करता।
संदीप मील की कहानियों में राजस्थान का भौगोलिक, सामाजिक परिवेश, बोली-बानी के साथ ही वहाँ के समुदाय की विसंगतियां व अन्तविरोध भी मौजूद हैं। बाकी मसलेकहानी में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बीच की सियासी रंजिशों के चलते बार्डर पर मौजूद सैनिकों व आम लोगों की ज़िन्दगी में गहराते ज़ख्मों की तरफ मार्मिक इशारा किया गया है। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की ज़मीं को बाँटने वाली सरहद पर मौजूद नरम दिल सैनिकों-रणजीत सिंह और आफ़ाक-के बीच वॉच-टावरों की लोहे की दीवारों पर चॉक से पहले गालियों, फिर सूचनात्मक संवादों और अन्ततः आत्मीय वार्तालाप के द्वारा कहानी अपने मार्मिक अन्त की तरफ बढ़ती है। अन्त में कहानीकार यह मार्मिक मानवीय संदेश देता है कि बंदूक की नोक पर सरहदों के मसले हल नहीं होते।इस कहानी में सरहद पर तैनात सैनिकों के ऊपर मौजूद मनोवैज्ञानिक दबावों तथा देश-काल-वातावरण का सजीव चित्रण हुआ है।
संदीप मील की ये कहानियाँ लोक जीवन के व्यापक भाव-क्षेत्र से नाभिनालबद्ध हैं। उनकी कहानियों में राजस्थान के लोक जीवन व जन-समुदाय के अन्तर्विरोध, जातिवादी सामाजिक बनावट, सामंती तथा पुरूषवादी मानसिकता आदि रूपों में मौजूद आज के सामाजिक यथार्थ से हम रूबरू होते हैं। इस संग्रह की शीर्षक कहानी दूजी मीराराजस्थान के सामंती, जातिवादी, पुरूषवादी जकड़बंदी में कैद स्त्री को आजादी की राह दिखाती है। यह कहानी राजस्थान में जाति और जेंडर के आपसी तालमेल को समझने के लिए एक आवश्यक और दिलचस्प पाठ है। इस कहानी में हमें राजस्थान के सामंती, जातिवादी, पुरूषवादी समाज के समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र का व्यवहारिक पाठ मिलता है। कहानी में कथाकार ने समाज में उठने वाली ध्वनियों, जातिवादी पूर्वग्रहों व पुरूषवादी मानसिकता को गहराई से उकेरा है। कथाकार ने मीरा को आधुनिक, तर्कशील और स्वाधीन स्त्री के रूप में चित्रित किया है। वह विद्रोहिणी है और पुरूषवादी तथा जातिवादी सामाजिक बंधनों के खिलाफ़ है। कहानी में इस मीरा के साथ उस मीरा का संदर्भ भी आता है, जिसने आध्यात्मिक आवरण में राणा और सामंती घुटन से आज़ादी के लिए संघर्ष किया था। कहानी में यह कड़वा सच भी सामने आता है कि कुल-कलंक मानने के कारण अब भी राजस्थान के राजपूत जातियों में लड़कियों का नाम मीरानहीं रखा जाता। एक जैसी सामंती मानसिकता में जी रहे राजपूतों व जाटों के बीच वर्चस्व के लिए संघर्ष को भी यहाँ देखा जा सकता है। मीरा की आज़ाद ज़िन्दगी के साथ कहानी का अंत स्त्री-स्वाधीनता के इस लोक स्वर के साथ होता है:
‘‘साँझी सजना प्रीत है।/तू ना थाणेदार।।’’
 
संदीप मील की कहानियों में जिज्ञासा व कुतूहल की आदिम वृत्तियों का सृजनात्मक उपयोग होता है। किश्तों की मौतकहानी में राजस्थान के एक गांव में विधवा स्त्री रूकमाके बेटों द्वारा उसके जीते-जी उसकी मूर्ति बनवाकर उसके सामने रख देने और पति की मौत की तारीख को ही उसके मौत की तारीख लिख कर खेत में उसके नाम का खाली चबूतरा छोड़ देने की जानकारी होने पर कथाकार को उसकी जिन्दगी में दिलचस्पी पैदा होती है। निरन्तर जिज्ञासा और कुतूहल जगाती यह कहानी एक विधवा स्त्री के रोज़ किश्तों में मरती जिन्दगी की कहानी का मार्मिक बयान है। यह कहानी वृद्धावस्था में बिल्कुल उपेक्षित विधवाओं की जिन्दगी का भयावह सच सामने लाती है। यहाँ कहानीकार ने बिल्कुल कम शब्दों में रूकमा के आन्तरिक चित्कार और मानसिक हलचलों को उकेरने में सफलता पायी है। नया धंधाकहानी में नेताओं द्वारा रोबोटो को संबोधित करना आज की विडम्बनापूर्ण स्थिति पर करारा व्यंग्य है। राजस्थान के मारबाड़ी बनिया के अहंग्रस्त इस कथन द्वारा कथाकार आज चुनावों में धन के बढ़ते प्रभाव पर करारा व्यंग्य करता है: ‘‘एक पार्टी बना कर इस रोबॉटों को चुनाव लड़वाऊंगा। पैसों की कमी नहीं है और बनिया आदमी हूँ, सरकार बना लूँगा। रोबॉट संसद में रहेंगे और रिमोट मेरी जेब में।’’ 
लोक-जीवन के जीवन्त, चुस्त और तीखे प्रश्नोत्तर शैली के संवाद उनकी कहानियों को दिलचस्प बना देते हैं। एक प्रजाति हुआ करती थी-जाटकहानी दिलचस्प, तीखे प्रश्नोत्तर शैली के संवादों के रूप में है। यहाँ जाटों और उनकी खाप पंचायतों के तुगलकी फरमानों की जम कर खिल्ली उड़ाई गई है। प्रेम, प्रेम-विवाह और अन्तर्जातीय विवाह पर प्रतिबंध लगाने पर अमादा उन खाप पंचायतों की सबसे बड़ी चिन्ता है कि ‘‘कुछ भी करो, हमारी जात पवित्र रहनी चाहिए।’’ बड़े नाटकीय और तीखे संवादों के जरिए इस कहानी में जाट बिरादरी के अन्तर्विरोधों व आन्तरिक संकटों की पहचान की गई है। यह कहानी पूर्णतः नाटकीय संवादों में रची गई है। मुरारी कहूँ कि शकीलकहानी में कथाकार ने पूँजीपतियों, नव सामंतों, सवर्ण हिन्दुओं के हाथ में कैद मीडिया की पोल खोली है। अखबार से सच्ची खबर को गायब कर देने के लिए धक्के मार कर निकाले गए और अब विक्षिप्त हो चुके पत्रकार के मार्फ़त कहानीकार ने अखबार को पूँजीपतियों का दलाल साबित किया है, जो सच है। दलाल मीडिया की पोलपट्टी खोलती यह कहानी आम लोगों की तकलीफों को मार्मिक ढंग से उकेरती है।
संदीप मील की कहानियों में आज का जटिल यथार्थ मौजूद रहता है। किन्तु उसे व्यक्त करने के लिए कथाकार ने जो कथा रूप या शिल्प अपनाया है, वह अपेक्षाकृत सहज, सरल है। जुस्तजूकहानी भारत में फैलते नव साम्राज्यवाद, भाषाई साम्राज्यवाद, बाजार-केन्द्रित समाज को तथा उर्दू भाषा को मज़हबी रंग देने वाली साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को बड़े मार्मिक व दिलचस्प ढंग से सामने लाती है। अंग्रेजी-परस्त भूमण्डलीकरण के दौर में ग्राहक द्वारा उर्दू शब्दकोश माँगने पर दुकानदार का यह जवाब कि ‘पचास साल बाद हिन्दी शब्द कोश भी नहीं मिलेगा’ देशी भाषाओं के क्रमशः मरते जाने के भयावह सच की तरफ मार्मिक इशारा है। अंत में कहानी का केन्द्रीय पात्र हिम्मत, जो हिन्दू है, उर्दू शब्दकोश और उर्दू बोलचाल के कारण हिन्दू दंगाइयों के हाथों मारा जाता है। यह वृतान्त एक हिन्दुस्तानी ज़बान (उर्दू) को क्रमशः मज़हबी करार दिए जाने की साज़िश की तरफ इशारा करती है। यह अत्यन्त दुखद स्थिति है। सार्थक उर्फ संतूकहानी जातिवादी, वर्णाश्रमी सोच रखने वाले प्राथमिक शिक्षकों को बेनकाब करती है। वर्णाश्रमी सोच वाला एक पण्डित शिक्षक होने के बावजूद अपनी मानसिकता नहीं बदल पाता और भेदकारी मानसिकता से सार्थक रजक का नाम बदल कर संतुकर देता है। थूकहानी सवर्णों की सामंती मानसिकता के विरूद्ध एक दलित स्त्री के स्वाभिमानपूर्ण प्रतिकार की कहानी है। पण्डित नानकचंद की घूरती निगाहों से निडर दलित स्त्री द्वारा उसकी आँखों में सूजे भोंक देना वस्तुतः उस सामंती मानसिकता का प्रतिकार है जो यह सोचती है कि दलित स्त्री की इज्जत के साथ बेफिक्र हो कर खेला जा सकता है। 
सामाजिक यथार्थ, तंत्र या व्यवस्था और सामंती मानसिकता की विसंगति, विडम्बना और अन्तर्विरोधों को उघाड़ने के लिए कथाकार ने व्यंग्य का भरपूर इस्तेमाल किया है। लेकिन व्यंग्य प्रायः तकलीफ़देह विसंगतियों से ही उपजता दिखाई देता है और अन्ततः करूणा उपजाता है। सिस्टमकहानी में शहर के कॉलेज में पढ़ने वाला पोता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रह चुके अपने दादा से सिस्टम के ख़राब होने की बात करता है और दादा ठण्डे दिमाग से अपने पोते की बात सुनता रहता है। लेकिन पोते की बेमेल शादी से व्यथित हो कर वह अपने ही बेटे के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने पहुँच जाता है। कहानीकार दिलचस्प ढंग से यह संदेश देने में सफल होता है कि सिस्टम तभी सफल हो सकता है जब हम अपने नुकसान की फिक्र न करें। नुक्ताकहानी में जातिवाद, ब्राह्मणवाद के साथ-साथ आज के राजनेताओं के चारित्रिक व नैतिक पतन को दिलचस्प ढंग से उठाया गया है। एक का तीनकहानी में धर्म के धंधेबाजों और आम जनता के अन्दर छिपे लालच पर करारा व्यंग्य किया गया है। कथाकार दिलचस्प ढंग से इस सच्चाई को दिखाता है कि धर्म के नाम पर पैसे ऐठने वालो का धंधा वस्तुतः आम आदमी के अन्दर छिपे लालच के कारण ही फल-फूल रहा है। क़िस्सागोई के शिल्प में इस कहानी में यह उजागर होता है कि एक का तीनके चक्कर में गाँव वाले अपना सब कुछ गवां देते हैं।
इस संग्रह में तीन-चार कमजोर और अधबनी कहानियाँ भी हैं। लेकिन इन कहानियों में भी कथाकार की संवेदनशीलता, सरोकार और दिलचस्प कल्पनाशीलता का पता चलता है। उनकी कहानियों में बारीक पर्यवेक्षण और विश्वसनीय ब्यौरों से युक्त दिलचस्प और सहज वृतान्त अन्ततः विडम्बना की चमक के साथ प्रायः अपना कथा-मर्म उपस्थित करता है। कई कहानियों में सरपट भागती घटनात्मकता के कारण मार्मिक क्षण में भी कथाकार खास दिलचस्पी लेता नहीं दिखता। तब वह वृत्तान्त कथा-मर्म को उद्घाटित करने से चूक जाता है। कथाकार अक्सर आकस्मिक या नाटकीय अंत को कथायुक्ति के तौर पर इस्तेमाल करता है और पाठक के ऊपर स्पष्ट छाप छोड़ पाता है। संदीप मील की कहानियों में बहुत से नए-पुराने, खूबसूरत कथा-तत्त्व मौजूद हैं जो उसकी कहानियों को जीवन्तता प्रदान करते हैं। मुझें उम्मीद है कि इस कथाकार की लेखनी से कहानी की खूबसूरती और मार्मिकता भविष्य में और भी फलित होगी।

सम्पर्क – 

असिस्टेण्ट प्रोफ़ेसर

हिन्दी विभाग,

डी. ए. वी. पी. जी कालेज,

लखनऊ

मोबाईल – 8687916800

संदीप मील की कहानी ‘बाकी मसले’

संदीप मील


जिस राजनीति का काम जनता की सेवा करना था वह राजनीति जनता को मूर्ख बना कर अपना स्वार्थ साधने का काम करने लगी। जनता का ध्यान बंटाने के लिए ही हमारे राजनीतिज्ञ सीमा पार के खतरे की बात प्रायः ही किया करते हैं। सीमा पर हम दोनों मुल्कों के सैकड़ों सैनिक प्रति वर्ष केवल ठण्ड और प्रतिकूल मौसम की वजह से मर जाते हैं। हकीकत तो यही है कि युद्ध का वितंडा हमारे इन राजनीतिज्ञों ने ही खड़ा कर रखा है। दोनों देशों की जनता और सैनिक वस्तुतः शांति चाहते हैं लेकिन राजनीति की वजह से वे युद्ध के भय और माहौल में जीने के लिए जैसे अभिशप्त हैं। पाकिस्तान विरोध की घुट्टी हमें शुरू से ही पिलाई जाने लगती है। ठीक वैसे ही जैसे भारत के खिलाफ पाकिस्तानी मानस में शुरू से ही नफरत का जहर भरने का काम किया जाता है। कहानीकार संदीप मिल ने अपनी कहानी ‘बाकी मसले’ के माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया है कि सीमा पर तैनात सैनिकों के अन्दर भी संवेदनाएँ हैं और मूलतः वे भी शान्ति के ही समर्थक हैं। कहानी की अन्तिम पंक्तियाँ तो जैसे एकबारगी सब कुछ स्पष्ट कर देती हैं जब हवलदार मान सिंह

दहाड़ते  हुए रणजीत सिंह से कहता है – ‘‘तुम भी गोली चलाओ।’’ तब  अपने  सूखे गले और कांपते  होठों ने रणजीत सिंह बस इतना ही कहता है – ‘‘हवलदार साब, बंदूक की नोक पर सरहदों के मसले हल नहीं होते।’’ तो आइए पढ़ते हैं संदीप मील की कहानी ‘बाकी मसले’  

बाकी मसले
संदीप मील 
हवाओं के झोंके उधर से इधर आते और चंद पलों में ही धोरों की शक्लें बदल जाती। न जाने विभाजन के बाद कितने रेत के कण, परिंदे, इंसानी जज्बात और दुआएं सरहद को बेमानी करती हुई उधर से इधर और इधर से उधर आती-जाती रही हैं और सियासी रंजिशों को अंगुठा दिखाती रही हैं। ऐसे में अफसोस यही है कि दोनों मुल्कों की हुकूमतें छाती ठोंककर दावा करती हैं कि उनकी मर्जी के बिना पता भी नहीं हिल सकता है। हुकूमतें जाने अपने दावे रणजीत सिंह को तो यह भी पता नहीं था कि यह पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के बीच लफड़ा क्या है
 
क्रिकेट मैच के दौरान जिक्र आता कि पाकिस्तान नाम के मुल्क को हराना हिंदुस्तान की नाक का सवाल है और भला वह नाक भी किसने देखी थी। शायद नाकमुल्कों के जिस्म के किसी गुप्त हिस्से में होती है, अतः वह हुक्मरानों को ही दिखती है, अवाम को नहीं। वैसे भी अवाम मुल्क की नाक से नहीं अपनी नाक से सांस ले रहा था जिसे हुक्म के हथौड़ों से चपटा किया जा रहा था।

बहरहाल, क्रिकेट मैच के दौरान रणजीत सिंह के गांव में जिनके घरों में टीवी थे, वहां देखने वालों का मजमा लग जाता। इत्फाक से बिजली गुल हो जाती तो देखने वाले बिजली विभाग की मां-बहन करते हुए तुरंत रेडियो के पास मोर्चा संभाल लेते। हर कोई अपने-अपने ढ़ंग से पाकिस्तान के हारने की भविष्यवाणी करता। फिर हिन्दुस्तान जिंदाबाद से शुरू हुए नारे वाया पाकिस्तान मुर्दाबाद होते हुए मुसलमान मुर्दाबाद पहुंच जाते।

बस, वह पाकिस्तान को इतना ही जानता था।

हिंदुस्तान दुनिया के किसी भी देश की नौसीखिया टीम से क्रिकेट मैच की हार बर्दास्त कर सकता है पर पाकिस्तान से नहीं। शायद उधर भी यही हाल हो।

गजसिंहपुर से दस-पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर कांटों की सरहद थी जो जमीं को बांटती थी दिलों को नहीं। उसी कांटों की सरहद से सौ फिट आगे जमीं के सीने पर खंजर की तरह भौंके हुए जीरो लाइन बयां करने वाले पत्थर थे। उससे उतनी ही दूरी पर पाकिस्तानी निगरानी टावर थे और वैसे ही टावर इधर भी खड़े थे। बस, इधर टावर और बाड़ के बीच एक सड़क थी। सड़क के किनारे भारी भरकम सर्च लाईटें जो रात के अंधरे को दिन जैसे उजाले में तब्दील कर देती। दोनों तरफ बने इन टावरों पर बैठकर सैनिक एक-दूसरे की हरकतों पर नजर रखते हैं। दोनों ओर के टावरों के बीच की दूरी इतनी थी कि संवाद नामुमकिन-सा था।

उस सरहद पर कुछ सुनता था तो-

‘‘हिंदुस्तान जिंदाबाद, पाकिस्तान मुर्दाबाद।’’

‘‘पाकिस्तान जिंदाबाद, हिंदुस्तान मुर्दाबाद।’’

रणजीत सिंह जिंदाबाद-मुर्दाबाद की वजह जाने बगैर नारों को गगन की बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए ऐडी-चोटी एक कर देता।

उसे मोर्चे पर आये हुए तीन महीने हुए हैं। एक सीधा-साधा नौजवान था जिसे प्रशिक्षण के दौर से ही नफरत के जहर के इंजेक्शनों से पोरा गया मगर शुक्र है कि वह अभी तक फटने वाला बम नहीं बना था। 

रात की ड्यूटी के दौरान कभी-कभार तीसरे पहर उसका ठंडा पड़ा हुआ प्रेम शीत लहर से गर्म मिजाज हो जाता। चुनांचे वह किसी हिंदी फिल्म का गीत गाना शुरू कर देता। मगरमच्छ की तरह लेटे हुए रेगिस्तान में हवा की सन्नसनाहट साज का काम कर जाती। गला ठीक होने की वजह से गीत के बोल धोरों में गूंजते कि हवलदार मानसिंह दहाड़ उठता-

‘‘ऐ छोरे, बड़ा भूरसिंह बण गया है रे तू।’’

हवलदार की आवाज सुनकर रणजीत सिंह रुक जाता और सोचता कि यह भूरसिंह कौन था? उसके जहन में ऐसा कोई नाम व चेहरा न होने की वजह से एक दिन पूछ ही लिया-

‘‘हवलदार साब, यह भूरसिंह कौन था?’’

मानसिंह जो एक खेजड़ी के सहारे पीठ टिकाए आराम कर रहा था, खिलखिलाकर हंसते हुए बोला-

‘‘तेरे जैसा गायक था, मेरे ही गांव का। तेरी तरह पौं-पौं करके मर गया।’’

यह व्यंग्य सुनकर रणजीत सिंह के खून की गर्मी बढ़ गई और वह तमतमा कर बोला-

‘‘मेरे गाने से आपको क्या तकलीफ?’’

‘‘तेरी………। हिंदुस्तानी गाणें पाकिस्तानियों को नहीं सुणाये जाते।’’ हवलदार खड़ा हो गया।

रणजीत सिंह को इस बाबत ज्यादा जानकारी नहीं थी, अतः शांत होकर पूछा-

‘‘तो फिर उन्हें क्या सुनायें?’’

 हवलदार ने ऊंची आवाज में कहा-

‘‘पाकिस्तान की मां………..।’’

‘‘हिंदुस्तान की बहन………..।’’ जवाब देने के लिए उधर जैसे कोई तैयार ही बैठा हो।

फिर काफी देर तक हिंदुस्तान-पाकिस्तान की मां-बहनों को मोटी-मोटी गालियां दी गई। यह सुनने के बाद पता नहीं क्यों उसका दिल उचट गया और वह चुपचाप टावर पर बैठा सीमा ताकता रहा। उसे समझ में नहीं आया कि दोनों मुल्कों की मां-बहनों ने सीमा का क्या बिगाड़ा है?

लेकिन धीरे-धीरे यह बात थोड़ी बहुत उसके समझ में आने लगी, जब सुबह से लेकर शाम तक उसकी टुकड़ी बेखौफ हिंदुस्तानी औरतों को भी गालियां देती। उसने तय कर लिया कि औरत का कोई मुल्क नहीं होता, उसे हिंदुस्तानी भी गाली देते हैं और पाकिस्तानी भी। वे सुबह मुंह भी गालियों से धोते हैं और रात का बिस्तर भी गालियां। जब कोई बड़ा अफसर टुकड़ी को संभाल कर जाता तो मुश्किल से दस कदम दूर पहुंचता कि सिपाही उसे दो-चार मोटी-मोटी गालियां दे मारते। अगर कान सही हैं तो यह उसे भी सुन जाती पर वह मुड़ कर नहीं देखता। इस प्रकार ये सेना के अलिखित नियमों में शुमार हो गईं हैं।
जून का महीना था। कानों पर पड़ते लूके थपेड़े जैसे कि पाकिस्तानी सैनिक लबलबियों में कारतूसों की जगह लूका इस्तेमाल करते हों। टावर पर बैठ कर दुरबीन से सरहद निहारना रणजीत सिंह का रोज का काम था। लौहे से बने हुए टावर पर तीन ही चीजें आमतौर पर देखी जाती- भूरे रंग का रेडियो, पानी की बोतल और खुद रणजीत सिंह। लबलबी और दुरबीन की पहचान रणजीत सिंह से ही जुड़ी हुई थी। 

वैसे तो हवलदार मानसिंह सरहद से जुड़े हजारों किस्से सुनाता था जिनके सिर-पैर खोजने निकल जाओ तो उम्र बसर हो जायेगी। ऐसी कोई जिंदा या मुर्दा चीज नहीं थी जो सरहद दिखे और हवलदार साहब उस पर कोई किस्सा न जड़ दें। हवलदार का किस्सा सुनाने का अंदाज भी था- एकदम सांप के बदन जैसा चिकना।

रेडियों के बारे में उनका वह मशहूर किस्सा तो आपने सुना ही होगा-

एक बार गांव में एक फौजी रेड़ियो ले कर आया। सारा गांव उसे देखने आया। बहुत गजब का गाता था। फौजी सुबह घर से बाहर गया हुआ था कि उसके पिताजी ने रेड़ियो ऑन किया लेकिन रेडियो बजा नहीं। काफी मिन्नत-खुशामद करने के बाद भी नहीं बजा तो उन्हें गुस्सा आ गया और जोर से रेड़ियो को जमीन पर दे मारा। रेड़ियो टूट कर बिखर गया और उसमें से एक मरी हुई चुहिया निकली। फौजी के पिताजी ने घर वालों को समझाया-

‘‘जब गायक ही मर गया तो गीत कौन गाता।’’

जो भी हो, हवलदार साहब के किस्सों से टाइम पास जरूर हो जाता।

रणजीत सिंह के सामने वाले टावर पर एक नौजवान आया था। उसका हमउम्र, काली दाड़ी और बड़ी-बड़ी आंखें। शायद उसका आज पहला ही दिन था। ज्यों ही दोनों की दुरबीन एक-दूसरे के चेहरे पर पड़ी तो उनकी आंखें अंगारे बरसा रही थी। वे एक-दूसरे को कच्चा चबा देना चाहते थे लेकिन दूरी इतनी थी कि यह काम मुमकिन नहीं था। मन ही मन में गालियां देकर रह गये। शाम तक यही हाल रहा। तंग आकर रणजीत सिंह ने रेड़ियो ऑन किया। यह वही रेड़ियो था जिसका जिक्र आते ही हवलदार साहब उस फौजी वाला किस्सा जड़ देते थे। 

रेड़ियो पर समाचार आ रहे थे-

‘‘भारत ने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि अगर वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया तो करारा जवाब मिलेगा।’’

‘‘आज भारत ने मिसाइल विनाश 405का सफल परिक्षण कर दक्षिण एशिया में ठोस दबदबा बना लिया है।’’

‘‘हट! साला कोई हिंदी फिल्म का गाना ही लगा देते, समाचारों से तो ठीक ही था। मन हल्का हो जाता पर यहां तो गोला-बारुद के अलावा कुछ नजर नहीं आता।’’

‘‘छोरे, फौजी होकर गोले-बारुद से डरता है। तेरी उम्र में हम तो आग से खेल जाते थे।’’

‘‘सुना है हवलदार साब आप तो हमेशा ऐसे ही थे, क्या आप कभी जवान भी थे?’’

यह सुनकर हवलदार साहब को गुस्सा आ गया और उन्होंने एक पत्थर पाकिस्तान की तरफ इस अंदाज में फैंका जैसे बम दाग रहे हों। वे कोई किस्सा सुनाना चाहते थे पर अब गाली पाठ शुरु कर दिया। रणजीत सिंह उनका स्वभाव जानता था, कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

दूसरे दिन भी उधर वही नौजवान था। वैसे ही दोनों में तकरारें हुई और फिर रणजीत सिंह ने रेड़ियो ऑन किया। अंग्रेजी में समाचार आ रहे थे।

‘‘मादर……..। या तो गोला-बारुद देंगे या अंग्रेजी में समाचार। गधों को समझ नहीं आता कि सीमा पर तुम्हारा बाप अंग्रेजी जानता है।’’

हवलदार साहब टुटी-फुटी अंग्रेजी में बड़बड़ा कर जताने की कोशिश की कि वह अंग्रेजी जानता है पर रणजीत सिंह ने जब इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया तो मजबूरन उसे चुप होना पड़ा।

उस तरफ का सैनिक भी रेड़ियो ऑन करके झलाना शुरु कर देता, शायद उसका भी वही हाल हो।

एक दिन दोनों सैनिकों ने उकताकर कुछ मजाक करने के लहजे में इशारे किए। रणजीत सिंह ने हाथ ऐसे हिलाया जैसे कि पाकिस्तान पर हमला बोल देगा, सामने वाले ने भी हिंदुस्तान को तबाह करने के अंदाज में जवाब दिया। वे कई दिनों तक ऐसी ही उट-पटांग हरकतें करते रहे, लेकिन हाथों के इशारों की भी अपनी सीमाएं होती हैं। अतः में एक दिन तंग आकर रणजीत सिंह एक चॉक का टुकड़ा ले आया और टावर की लौहे की दिवार पर कुछ देशी गालियां लिख डाली। सामने वाला सैनिक गालियां समझ गया क्योंकि विभाजन के वक्त गालियां नहीं बांटी गई थी क्योंकि हुकूमतों के पास ये पर्याप्त मात्रा में थी और इन्हें इजाद करने वाली सामाजिक मानसिकता भी थी। सामने वाले ने भी उससे ढाई सेर भारी गाली लिख डाली। यह सिलसिला चलता रहा और उन्हें पता भी नहीं चला कि वे कब गालियों से हटकर अपनी-अपनी दुनिया की बातें करने लगे।

सुबह आते ही दोनों की दुरबीनें एक-दूसरे के टावरों पर टिक जाती। एक दिन रणजीत सिंह को हवलदार साहब ने देख लिया। फिर क्या था, उन्होंने एक किस्सा सुना मारा जिसका लब्बोलुबाब यह था कि दुश्मन से दोस्ती और तलवार से शादी कभी भी गला कटा सकती है।

मगर आप तो जानते ही हैं कि रणजीत सिंह हवलदार साहब के किस्सों को क्या तव्वजो देता था।

आफाक नाम था उस तरफ के टावर वाले सैनिक का। यह बात भी रणजीत सिंह को चॉक ने ही बताई। जब पहली बार उसने यह नाम सुना तो इतना अच्छा लगा कि अपने होने वाले बच्चे का यही नाम रखने का इरादा बना लिया। लेकिन समस्या यह थी कि नाम मुस्लिम था और हिंदुस्तान में मुसलमानों की हालत से वह वाकिफ भी था। अतः भविष्य की समस्याओं को ध्यान में रखकर उसने समाधान निकाला कि बच्चे को घर में आफाककहा जायेगा और बाहर का कोई अन्य नाम होगा। 

उन दोनों के बीच होने वाले इस वार्तालाप की भनक दोनों हुकूमतों को नहीं थी वरना कम से कम दो आयोग तो बैठा ही दिये जाते और मुमकिन है कि सैनिकों के साथ चॉक को भी कुछ न कुछ सजा मिलती। इन वार्तालापों के माध्यम से वे एक-दूसरे की कई चीजों के बारे में जानने लगे, मसलन खाने-पीने से लेकर फिल्मी गीतों तक। एक बात का अंश कुछ इस प्रकार है-

‘‘यार, आज बहुत खुश नजर आ रहे हो ?’’

‘‘जनाब, खबर ही ऐसी है’’

‘‘तो अब खबर सुनने के लिए रेडियो ऑन करुं क्या, बता दो ना ?’’

‘‘मेरी आपा का निकाह तय हो गया है।’’

‘‘ओये, फातू की शादी है और हमको बुला भी नहीं रहे हो।’’

‘‘यार तू भी कैसी बातें करता है, भला दोस्तों को भी दावत की जरूरत होती है। तेरी निकाह में हम 20 दिन पहले बिन बुलाए टपक जायेंगे।’’

इतने में दोनों की नजरें कांटों की बाड़ पर पड़ी और दुरबीन टावरों से हट गई।

रणजीत सिंह के दिमाग में यही घूम रहा था- फातू, शादी, दावत, कांटों की बाड़, सरहद……………। रात भर वह नींद को आंखों से हजारों कोस दूर पाया। अगले दिन आते ही उसने टावर पर अपनी पूरी कल्पना और यथार्थ को मिला कर एक फूल बनाया। जब आफाक ने फूल देखा तो पूछा-

‘‘ भाईजान, इस उजड़े हुए चमन में यह गुल किसके वास्ते खिला है?’’

‘‘यार, गिफ्ट है।’’

‘‘तो फिर यह तोहफा किसके लिए?’’

‘‘आपकी बहन की शादी है ना, मेरी तरफ से उन्हें दे देना।’’

इस बात पर आफाक का गला भर आया। टावर पर रोमन में शुक्रियालिखते वक्त उसके हाथ कांप रहे थे।

कई दिनों से मोर्चे पर हलचल नहीं हो रही थी। आफाक बहन की शादी में गया हुआ था, उसकी जगह किसी काले-से सिपाही ने ले ली। रणजीत सिंह मायूस रहने लगा।

अचानक पता नहीं क्या हुआ कि जंग छिड़ गई। छुट्टी पर गये हुए सैनिकों को वापस बुला लिया गया। आफाक भी आ गया। चिड़ियों की चहचाहट की जगह तोपों के धमाके सुनाई दे रहे थे। सैनिकों में दुश्मिनी परवान पर थी। 

रणजीत सिंह कुछ समझ नहीं पा रहा था कि गोली चलाने का हुक्म दे दिया गया। गोलियों की गड़गड़ाहट से आसमान गूंजने लगा। गोलियां कहीं रेत में तो कहीं सैनिकों के जिस्म में घुस रही थीं। रणजीत सिंह और आफाक आमने-सामने थे। टावरों पर चॉक से लिखी हुई वे तमाम इबारतें इनकी स्मृतियों में रील की तरह चल रही थी। बीच में रेड़ियो के समाचार और आपसी रंजिश के दृश्य भी आ रहे थे। 

‘‘तुम भी गोली चलाओ।’’ हवलदार मानसिंह दहाड़ा।

रणजीत सिंह के हाथ बर्फ हो चुके थे। उसकेे सूखे हुए गले और कांपते हुए होठों ने बस इतना ही कहा-

‘‘हवलदार साब, बंदूक की नोक पर सरहदों के मसले हल नहीं होते।’’ 
सम्पर्क-

संदीप मील

गाँव- पोसाणी ए वाया- कूदन

जिला . सीकर, राजस्थान
पिन नंबर – 332031

मोबाईल- 9636036561

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)