सिंजू पी. वि. का आलेख ‘कहानीकार मार्कण्डेय : किसानों एवं खेतिहर मज़दूरों के तरफदार’

मार्कण्डेय जी



भारत एक कृषि प्रधान देश है। यह जुमला हम बचपन से ही सुनते आए हैं। आज भी यदा-कदा इस जुमले को दोहराया जाता है। यह सच्चाई है कि कृषि में औद्योगीकरण और सेवा क्षेत्र से अधिक लोग आज भी लगे हुए हैं। यह अलग बात है कि किसानों की स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती गयी है। एक आंकड़े के अनुसार प्रति वर्ष लगभग पांच हजार किसान आत्महत्याएँ कर लेते हैं जिसके मूल में मुख्यतः उनका कर्ज के जाल में फंसे होना होता है। आजादी के 69 साल बीतने के बावजूद किसान की बदतर स्थिति और बदतर हुई है। सिंचित क्षेत्र बढाने के प्रयास न के बराबर किये गए। विडम्बना यह है कि आज भी देश का अधिकाँश किसान अपनी खेती के लिए बारिस पर निर्भर है। बारिस न होने की स्थिति में किसानों की खेती चौपट हो जाती है और फिर उसके सामने आत्महत्या के अलावा दूसरा चारा नहीं रह जाता। दुखद स्थित यह है कि आज का भारत बड़ी तेजी से उदारवाद की आंधी में बहा जा रहा है। उदारवाद जो वस्तुतः अपनी प्रकृति में ‘उजाड़वाद’ है। हमारी सरकारें भी अब पूंजीपतियों के हितों के लिए किसानों की भूमि औने-पौने मूल्यों पर अधिग्रहित कर के उन्हें देने के लिए सन्नद्ध है। ऐसे में आज देश का किसान निरुपाय है। वह खेती छोड़ कर रोजी के दूसरे उपाय खोजने लगा है। आजादी के बाद किसानों की दुरावास्थाओं को जिन रचनाकारों ने जोरो-शोर से उठाया उनमें कहानीकार मार्कण्डेय का नाम प्रमुख है। दो मई मार्कण्डेय जी का जन्मदिन है। उन्हें याद करते हुए हमने पहले हिमांगी त्रिपाठी का आलेख प्रस्तुत किया था इसी श्रंखला में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं सिंजू पी. वि. का यह आलेख ‘कहानीकार मार्कण्डेय :  किसानों एवं खेतिहर मज़दूरों के तरफदार’। किसी ब्लॉग पर प्रकशित होने वाली सिंजू की यह पहली रचना है ध्यातव्य है कि सिंजू मलयालीभाषी हैं और हिन्दी में मार्कण्डेय जी की रचनाओं पर शोध कार्य कर रही हैं। तो आइये आज पढ़ते हैं सिंजू का यह आलेख।

                       
कहानीकार मार्कण्डेय :  किसानों एवं खेतिहर मज़दूरों के तरफदार
सिंजु पी.वि.
    
भारत एक कृषिप्रधान देश है। यहाँ की 70 प्रतिशत जनता कृषि और उससे सम्बन्धित व्यवसाय से जुडी हुई हैं। इस तरह भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव कृषि पर आधारित है। इस अर्थव्यवस्था की धुरी है किसान। लेकिन आज उन किसानों की जिन्दगी कठिन संघर्ष से गुज़र रही है। सालों से किसान कड़ी मेहनत करके अन्न उगाता आ रहा है, और प्रकृति के अनुकूल जीवन बिता कर एक नैतिक समाज का पालन करता आ रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव, औद्योगीकरण तथा विज्ञान के प्रचार-प्रसार की वजह से खेती में भी तीव्र परिवर्तन आने लगा। धीरे-धीरे खेती व्यवसाय में तबदील होने लगी। नवउपनिवेशवादी आर्थिक नीतियाँ जैसे उदारीकरण, निजीकरण आदि के तहत अर्थव्यवस्था मुनाफा केंद्रित हो गयी।  पूरी दुनिया भूमंडलीकृत बाज़ार में बदलने लगी। विकास योजनाओं के नाम पर देशी-विदेशी कॉरपरेट कंपनियों के लिए कृषि योग्य ज़मीन का अधिग्रहण होने लगा। इसके फलस्वरूप किसान का अस्तित्व खतरे में पड़ गया। धीरे-धीरे इस वैश्वीकृत दुनिया में कृषि और किसान की अहमियत खतरे में पड़ने लगी। ऐसे माहौल में इस विषय पर गंभीरता से विचार करना लाजिमी है।
जिस समय साहित्य के श्रेत्र में मार्कण्डेय का प्रवेश हुआ, तब अधिकतर कहानीकार शहरी जीवन या कस्बाई जीवन की कहानियाँ लिख रहे थे।  लेकिन मार्कण्डेय ने अपनी कहानियों में गंवाई किसान और खेतिहर मज़दूरों को जगह दिया। आवाम के प्रति अपनी पक्षधरता को रेखांकित किया। खेती-बाड़ी के क्षेत्र में दो वर्ग मौजूद हैं। एक किसान, दूसरा भूमिहीन किसान अर्थात मज़दूर। किसान जो अपनी ज़मीन के छोटे-टुकडे पर अपने परिवार के श्रम के साथ अन्न उगाता है। “खेतिहर मज़दूर, ज़मीन के मालिक तो थे नहीं, बल्कि हलवाही-चरवाही के एवज़ में पाये एकाध बीघा पर पाए खेतों की ही उनकी किसानी थी। उन्हें मज़दूर-धतूर ही माना जाता था।”1 मार्कण्डेय की चर्चित कहानियों में किसान-खेतिहर मज़दूरों की ही तादाद ज्यादा है। ‘कल्यानमन’, ‘भूदान’, ‘दाना-भूसा’, ‘दौने की पतियाँ’, ‘बीच के लोग’, ‘मधुपूर के सिवान के एक कोना’ आदि जैसी कहानियों में मार्कण्डेय इन्हीं की हिमायत करते स्पष्ट नज़र आते हैं। इसलिए मार्कण्डेय को किसान एवं खेतिहर मज़दूरों के तरफदार कहानीकार मानना चाहिए। उनकी कहानियों के ज़रिए स्वातंत्र्योत्तर कृषक जीवन का सही एवं वास्तविक आंकलन हम कर सकते हैं।
किसान के लिए उसकी भूमि ही सब कुछ है। चाहे कितनी बड़ी विपत्ति आ जाये वह अपनी भूमि से दूर होने की बात को स्वीकार नहीं कर सकता।  इसे कोई हड़पना चाहे, यह कैसे संभव है। मार्कण्डेय की ‘भूदान’ कहानी में चेलिक नामक किसान का अपनी ज़मीन के लिए संघर्ष को यों दिखाया है – “सारा गाँव चेलिक को समझा रहा है। काहे को विपत लेते हो सिर पर, काहे लड़ते हो। पर नहीं, तो नहीं! चेलिक पकड़ा गया और उसके चमड़ों में बाँस की खपच्चियाँ, पीठ पर हंटर, कमर पर लकड़ी का कुन्दा। बेहोश हो गया।  मुँह से फेचकुर आने लगा, पर भूँय तो भूँय। धरती है माता, माता को कैसे दें।”2नीलहे साहब और कारिन्दा उसकी भूमि हड़पना चाहते हैं। उसका बेहद शोषण करते हैं। लेकिन चेलिक अपनी ज़मीन के लिए मर मिटने पर तुला है वह पूरी ताकत लगा कर अपनी भूमि को बचाने का प्रयत्न करता है।  आखिरकार अपने प्रयास में वह सफल भी हो जाता है।
किसी भी किसान समस्या को भूमि से अलग रख कर नहीं देखा जा सकता। वास्तव में असंतुलित भू-वितरण ही इन सबकी धुरी है।  स्वातंत्र्योत्तर देश के सत्ता के सूत्र पूंजीवादी ताकतों के हाथ जाने के कारण असमान भूमि-वितरण की समस्या अधिक भयावह बनती गई जिससे किसान की अभावमय जिन्दगी और विकराल बन गई। मार्कण्डेय की ‘कल्यानमन’ और ‘भूदान’ कहानियाँ इस सन्दर्भ में विशेष महत्वपूर्ण हैं। इन कहानियों की रचना उस समय हुई थी जब भूमि सुधार योजना की बात हो रही थी, विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं का सूत्रपात हो चूका था। विनोबा भावे के नेतृत्व में भूदान-आन्दोलन भी अपने जोरों पर था। भूमि-हीन किसान इस आशा में इंतज़ार करने लगे थे कि अब उनके नाम पर भी ज़मीन मिल जाएगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उनकी यह आकांक्षा बहुत जल्द निराशा में बदल गयी। भूमि सुधार के कानून से ज़मीन किसान के नाम सिकमी ज़रूर लग गयी। लेकिन बड़े जमींदारों से तंग हो कर किसानों ने कागज़ पर दस्तखत दे कर अपनी जान बाचना ही मुनासिब समझा। ‘कल्यानमन’ कहानी इस तथ्य की बखूबी उजागर करती है। कल्यानमन सोलह बीघे का एक तालाब है, जिस में लम्बे अर्से से मंगी सिंघाड़े की खेती होती आ रही है। इस तालाब को बड़े ठाकुर ने मंगी को बखरी में पानी भरने के एवज़ में दिया था। मंगी ने जब यह सुना कि जिसकी जोत होगी भूमि उसी को हो जाएगी, तो वह बहुत खुश थी। कल्यानमन तालाब उसके नाम सिकमी भी लग गया। लेकिन उसके बाद यह ख़ुशी दुःख में तब्दील हो गयी। ठाकुर का बेटा, हर हाल में कल्यानमन को हथियाना चाहता है। इस के लिए वह तरह-तरह की चाल चलता है। मंगी प्रतिरोध करती है फिर भी वह चिंतित दिखती है- “अँखियाँ तो फूट गई है सुरजियन की, कि यह अन्हेर भी नहीं देखते खेती चमार करेगा, परताल ठाकुर के नाम से होगी। बीच में पटवारी इधर से भी खाएगा, उधर से भी खायेगा। अब तो बेभूय का किसान खाद हो गया है खाद। बस बह खेत बनाता है।”3मंगी का यह कथन मौजूदा कृषि से जुड़े संबंधों पर तीखी टिप्पणी है। अंत में ठाकुर मंगी के इकलौते बेटे पनारू को अपनी माँ के खिलाफ भड़का कर अपनी तरफ कर लेता है। अपने प्रति बेटे का व्यवहार मंगी को भीतर से तोड़ देता है। वह बेटे को समझाता है कि “जानता नहीं कि ये लोग ज़मीन के लिए, आदमी की गर्दन भी काट सकते हैं। …..भला बची है एक बिस्सा भूय किसी मंजूर-धतूर के पास? सभी तो खेत-जोत रहे थे। कोई मार खा कर इस्तीफा लिख गया, तो किसी को बहका कर सादे कागद पर अंगूठे की टीप ले ली, इन लोगों ने। किसी को सौ-दो-सौ दे कर सादे कागद पर अंगूठे की टीप ले ली, इन लोगों ने। किसी को सौ दो सौ देकर टरकाया। नहीं रह गया, कुछ?”4 मंगी के मुख से मानो देश का शोषित किसान अपनी व्यथा को मुखर करता हुआ दिखायी पड़ता है। प्रस्तुत कहानी से स्पष्ट होता है कि समाज में जिनका कब्ज़ा पहले से बना आ रहा है। वे ही आज भी बिना श्रम किए सारे सुख भोग रहे हैं।
जिनके पास ज़मीन नहीं है उन्हें ज़मीन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से विनोबा भावे के नेतृत्व में बनाई गयी पद्धति है भूदान। असल में इस भूदान पद्धति की परिणति भी वही हुई जो अन्य योजनाओं की हुई थी। ‘भूदान’ कहानी में रामजतन को हलवाही में ठाकुर से एक बीघे ज़मीन मिली थी। अब वह ज़मीन उसके नाम सिकमी लग गयी है। ठाकुर उस ज़मीन को हथियाना चाहता है। वह रामजतन को धमकाता है तथा भूदान पद्धति से भूमि दिलाने के लालच देता है। इस प्रकार वह भूमि हड़प लेता है। ठाकुर अच्छी तरह जानता है कि किसान के पास उनसे मुकदमा लड़ने का सामर्थ्य नहीं है। इसलिए ठाकुर के कहने पर किसान को अपनी ज़मीन छोड़ना पड़ता है। कहानी में रामजतन अपनी हालत का बयान यों करता है – “हाँ दादा, ठाकुर ने दस बिगहा भूँयदान में दिया है। कहने लगे ‘क्यों मुझसे रार मोल लेते हो, आखिर में मुकदमा लड़ा कर परेशान कर दूँगा और तुम्हें मेरे खेत की सिकमी से हाथ खींचना पड़ जाएगा। चुपचाप इस्तीफा दे दो, मैं तुम्हें पाँच बिगहे भूदान से दिला दूँगा।’ मुझे बात अच्छी लगी दादा और जानते हो, मेरे पास उनसे मुक़दमा लड़ने की सामरथ नहीं है।”5 भूदान की ज़मीन के चक्कर में रामजतन अपने नाम पर लगी एक बीघे भूमि ठाकुर को वापस देता है। आख़िरकार रामजतन को भूदान की पाँच बीघे ज़मीन मिल भी जाती है। लेकिन ठाकुर के जिस दान से उसे भूमि मिली थी वह केवल पटवारी के कागज़ पर थी। कहानी केवल भूदान पद्धति के छल को उजागर नहीं करती वरन् यह स्पष्ट करती है कि सामंतों ने इसे अपनी सिकमी के नाम पर चली गयी भूमि को पुनः हासिल कर लेने के लिए एक कारगर हथियार के रूप में इस्तमाल किया है। जहाँ तक मार्कण्डेय की कहानियों का सवाल है “उनकी पैनी निगाहों ने यूँ तो गाँव की धरती को उसकी सारी समस्याओं के साथ प्रस्तुत किया है; किंतु गाँवों के सामंती ढाँचे से सीधी जुडी हुई जो भूमि और भूमि संबंधों की समस्या है, वह उनकी कहानियों में प्रमुख बनकर उभरी है। ये कहानियाँ गहराई पर जा कर इस एक तथ्य को पूरी अहमियत के साथ उभार कर सामने लाती है कि आज़ादी के इतने अर्से बाद भी इस समस्या का कोई कारगर हल नहीं निकला।”6
कृषक संस्कृति में पशु पालन का गहरा महत्व है। किसान की जिंदगी में पशुओं का संबंध उत्पादन के अलावा भावना से भी जुड़ा होता है। उन्हें अपने बैल संतानों की तरह प्यारे होते हैं। मार्कण्डेय की कहानी ‘सवरइया’ बैल और किसानी परिवार के बीच के आत्मीय लगाव को दर्शाती है। जिस दिन सवरइया (बैल) महाराजिन के घर आया था। उसके लिए नए रंग-बिरंग पगहे आदि खरीदे गए थे। गरीबों को भोजन भी दिया गया था। सवरइया के बीमार पड़ने पर कन्नों के पिता सारी रात खूँटा पकडे बैठता रहता है। महाराजिन उसकी पुत्रवत् देखभाल करती है। पति के मरने के बाद पट्टीदार महाराजिन के साथ छल करके उसकी खेती को छीन लेता है। साथ ही सवरइया को भी हडपने की चाल चलता है। पट्टीदार कर्ज उतारने के लिए इस कदर तंग करते हैं कि महाराजिन विवश होकर बैल को उसे देने की बात सोचती है। बैल को बेचने की बात तो वह कदापि नहीं सोच सकती। अंत में वह शीशफूल बेचने का निश्चय करती है। वह सोचती है –“शीशफूल रख दूँ, क्या करुँगी? लेकिन वही तो उनकी निशानी है, तो क्या सवरइया, सवरइया…….?  नहीं, इसे नहीं बेच सकती।”7 बैल के लिए महाराजिन अपने स्वर्गीय पति की आखिरी निशानी शीशफूल गिरवी रखती है। फिर भी सवरइया महाराजिन से छीन लिया जाता है। उसे खो कर महाराजिन जड़वत हो जाती है। उधर सवरइया भी अपनी मालकिन से अलग होकर खाना पीना त्याग देता है। महाजन सभ्यता में शोषण से पशु तक को मुक्ति नहीं है। ‘संवरइया’ प्रेमचंद की ‘दो बैलों की कथा’ शीर्षक कहानी की याद दिलाती है और प्रेमचंद की परंपरा के साथ मार्कण्डेय के रिश्ते को रेखांकित करती है।
किसान की मेहनत पर किसी को कोई संदेह नहीं। खेत में हाड़तोड़ मेहनत करके ही वह अपने जीवन को आगे बढ़ाता है। मेहनत किसानी जीवन की संस्कृति है। मार्कण्डेय की ‘दौने की पत्तियाँ’ कहानी मेहनती किसान की यथार्थ तस्वीर पेश करती है। कहानी में लिखा गया है – “वह मेहनत कर के खाता है। पसीना जला कर मिट्टी से अन्न जुटाता है। फिर उसके लिए दुःख कैसा।”8 किसान अपने खेती-बाड़ी में कड़ी मेहनत करने के बावजूद बेहद खुश रहता है। क्योंकि खेत के साथ उनका आत्मीय लगाव होता है। लेकिन खेत के बाहर उसका मन उतना नहीं जमता। खेत के बाहर काम करने पर वह जल्दी ही थक जाता है। ‘भूदान’ कहानी में ठाकुर के कुचक्र से भोला को हलवाही छोड़ना पड़ती है। वह मज़दूर बन कर नहर की खुदाई में फावड़ा चला रहा है। “….फावड़ा चलाते चलाते उसका शरीर सुख कर काँटा हो गया है।  महीने भर से साँस की बीमारी के कारण वह चारपाई में पड़ा हाँफ रहा है, बार-बार उसकी साँसे बढ़ जाती है। उसका शरीर  काँपने लगता है।”9 किसान का मन खेत से इस कदर जुड़ता है कि मेहनत की थकावट भी वह भूल जाता है।
किसान की ऐसी बदहाली है कि वह कड़ी मेहनत करने के बावजूद साल भर के लिए अन्न जुड़ा नहीं पाता। ऊपर से लगान की कर्ज और सुखा एवं बाढ़ का प्रकोप। जिस से उनका जीवन और अभावग्रस्त बन जाता है।  ‘बादलों का टुकड़ा’ महाजन के कर्ज से दबे एक भूमिहीन किसान के अभावमय जीवन की ओर इशारा करता है। चिलचिलाती धूप, चारों ओर सूखा और घर में कुपोषित की तरह छोटा सर और सपाट पेट वाला बीमार बच्चा कुनाई बिस्तर पर पड़ा है। वह लगातार पतली आवाज़ में रोता रहता है। एक ओर कुनाई भूख के कारण जिन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ रहा है तो दूसरी ओर उसका बाप भूख की आग से पेट में उठनेवाली मरोड़ से हैरान दिखता है। वह भली-भांति जानता है कि यह भूख की आग पानी से नहीं बुझेगी।  फिर भी वह बार-बार पानी पी कर जीवित रहने की कोशिश करता है। बच्ची के लिए थोड़ी दूध देने वाली बकरी को कारिंदा कर्ज की वसूली के रूप में खोल कर ले जाता है। कहानी में एक ओर अकाल और भूख तथा दूसरी ओर लगान की कर्ज से दबे इस किसान परिवार का चित्र पाठक को द्रवित किए बिना नहीं रहता। यह महज एक किसान परिवार की नहीं अपितु ऐसे अनेकों परिवार की कहानी है। अभावग्रस्त जीवन बिताने के लिए वह अभिशप्त है।
मौसमी परिवर्तन की वजह से खेती चौपट होती है और किसान को बहुत नुकसान सहना पड़ता है। प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले किसान की खेती-बाड़ी के नुकसान के लिए सिर्फ प्रकृति को ही दोषी ठहरना सही नहीं है किसान की बदहाली के लिए हमारी शासन व्यवस्था भी जिम्मेदार है।  सिंचाई की उचित प्रबंध करना तथा विकास योजनाओं से किसान को लाभ उठाने का मौका देना चाहिए। लेकिन सरकार किसानों की परेशानियों को नज़रअंदाज़ करती रहती है। ‘बातचीत’ कहानी में सरकार की निष्क्रियता की ओर आवाज़ उठायी गयी है। इस कहानी में गजाधर रामु से कहता है – “जानते हो, जिस देश का राजा पापी होता है, वहीं झुरा पड़ता है, अकाल आता है। भुखमरी होती है। जल्दी-जल्दी गहना-गीठों बेच कर ऊसर-पापर तो लिखा लिया। उसमे धान क्या होगा। ख़ाक! सरकार से कहो, पानी का भी इन्तिजाम करें।”10 अकाल और भुखमरी से पीड़ित किसान सरकार की तरफ से सहायता की प्रतीक्षा में रहता है। लेकिन उनके नसीब में निराशा ही लिखी है।
सरकार की तरफ से सिंचाई की व्यवस्था होती है तो भी वह ठीक तरह से लागू नहीं होती। इस तथ्य की पड़ताल मार्कण्डेय की ‘दौने की पत्तियाँ’ कहानी में की गई है। कहानी में इसका चित्रण है कि पंचवर्षीय पद्धति के अंतर्गत गाँव में नहर आती है। अमीर तिवारी के खेत पर आकर काम रुक जाता है। अपने बारह बिगहा खेत को बचाने के लिए तिवारी इंजीनियर को घूस दे कर तथा मंत्री से सिफारिश करवा कर नहर का रुख बदलवा देता है।  जिस से भोला का पूरा खेत नहर के पेट में समा जाता है, जिसे वह पाँच वर्षों तक आधे पेट खाकर खरीदा था। “योजना विकास के परिप्रेक्षय में भष्टाचार के ऐसे उदहारण अपवाद नहीं है और भोला कोइरी जैसे कोटि-कोटि दीन-हीन जन स्वातंत्र्योत्तर विकास के रथ-चक्रों में पिस गए हैं। उनके पास उत्कोच के लिए धन-दौलत तो क्या अपने लिए दौने की पत्तियाँ भी नहीं रह गई।”11 भारत की राजनीति पर पूँजीपतियों और नौकरशाही की पकड ने विकास योजनाओं को लागू करने में बाधाएँ उत्पन्न कर दी। स्वातंत्र्योत्तर भारत में बनाई गयी ज्यादातर विकास योजनाऐं विफल ही रही हैं।
‘बीच के लोग’ मार्कण्डेय की 1975 में प्रकाशित अंतिम कहानी संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी है। इस कहानी तक आते-आते किसान खेत मज़दूरों का जीवन संघर्ष कुछ बदली हुई परिस्थितियों में दिखाई देता है। कहानी में बीच के लोग के रूप में है फउदी दादा। मनरा पढ़े-लिखे युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। रामबुझावन मनरा का पिता है। वह पिछले आठ बरस से खेत-जोत रहा है। सिकमी कानून के अनुसार तीन साल के बाद ज़मीन जोतेदारों के नाम पर होगा। सामंत हरदयाल उस ज़मीन को हथियाने पर तुले है। मनरा इसका विरोध करता है जिस से गाँव में सामन्तों के प्रति संघर्ष होने वाला है…..। लेकिन बीच में ही फउदी दादा समझौते के लिए टपक पड़ता है।  मनरा सब की चाल समझता है। उसके सामने फउदी दादा को बीच से हटना पड़ता है। मनरा कहता है – “अच्छा हो कि दुनिया को जस की तस बनाए रखने वाले लोग अगर हमारा साथ नहीं दे सकते तो बीच से हट जाएँ, नहीं तो सबसे पहले उन्हीं को हटाना होगा। क्योंकि जिस बदलाव के लिए हम रोपे रोजे हुए हैं, वे उसी को रोके रहना चाहते हैं।”12 मनरा का यह कथन किसानों के बीच उठने वाली वह चेतना है जो जस की तस के स्थान पर परिवर्तनकामी है। प्रस्तुत वक्तव्य पात्र का नहीं लगता, बल्कि खुद मार्कण्डेय का सन्देश प्रतीत होता है।
स्वातंत्र्योत्तर भारत के खेतिहर समाज को जिस गंभीरता से मार्कण्डेय ने  अपनी कहानियों का आधार बनाया है, वह उस समय की अनिवार्यता थी।  आज भी यह खेतिहर समाज तरह–तरह के संकटों से गुज़र रहा है। पिछले कुछ सालों में किसानों से हज़ारों एकड़ ज़मीन राष्ट्र के औद्योगिक विकास के लिए छीनी गई है। विकास के लिए अपने पुरखों की खेती बेच देने से किसानों का अपना कौन सा हित सिद्ध होगा? किसानों के बच्चे ऐसे पढ़-लिख नहीं पाते है कि उन्हें अच्छी नौकरी हासिल होती। कृषि क्षेत्र से विस्थापित जन अमानवीय स्थितियों में काम करने के लिए मज़बूर हैं। कर्ज से दबे किसानों की आत्महत्या की तादाद भी बढ़ गयी है। ऐसे मौके पर आज गलती से भी भारत को कृषि प्रधान देश कहना जायज़ नहीं होगा, जब कि आज भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से की आजीविका कृषि से जुडी है।  किसान महसूस कर रहे हैं कि राष्ट्र उनके साझे खड़ा नहीं है। ऐसे सन्दर्भ में इस हालात के बदलाव के लिए किसान संगठित हो रहे हैं। नंदीग्राम और सिंगूर की घटनाएँ हमें सोचने के लिए मज़बूर करती हैं कि, क्या बिना चीखे चिल्लाए और बिना खून बहाए, इस लोकतांत्रिक राष्ट्र में किसानों को कुछ भी नहीं मिल सकता? विकास योजनाओं के आलोक में भी अँधेरे में रहने के लिए अभिशप्त है किसान एवं खेतिहर मज़दूर। इनकी खोज खबर लेने वाले मार्कण्डेय को किसान-खेतिहर मज़दूरों के तरफदार कहानीकार के अलावा और क्या कहा जा सकता है? मार्कण्डेय की यह किसान चेतना काबिले तारीफ़ है।   
 
संदर्भ
1.     प्रकाश त्रिपाठी (संपादक), मार्कण्डेय, परंपरा और विकास, पृ : 146  
2.     मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, भूदान, पृ : 276
3.     मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, भूदान, पृ : 192
4.     मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, भूदान, पृ : 192
5.     मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, भूदान, पृ : 276
6.     डा. शिव कुमार, दर्शन साहित्य और समाज, पृ : 184
7.     मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, सवरइया, पृ : 25
8.     मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, दौने की पत्तियाँ, पृ : 199-200 
9.     मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, भूदान, पृ : 278
10.   मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, बातचीत, पृ : 206
11.    डॉ. विवेकी राय, स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कथा साहित्य और ग्राम जीवन, पृ : 194
12.     मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, बीच के लोग, पृ : 495

सम्पर्क-
शोध छात्रा
कोच्चिन विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय

कोच्चिन – 22, केरल।

हिमांगी त्रिपाठी का आलेख ‘सेमल के फूल : एक असमाप्त प्रेम कथा’


मार्कण्डेय जी

मार्कण्डेय जी की ख्याति आम तौर पर एक कहानीकार की है लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि उन्होंने हिन्दी साहित्य की अधिकतर विधाओं में अपने हाथ आजमाए और वे इसमें प्रायः सफल भी रहे। अपनी रचनाधर्मिता के शुरुआती दिनों में मार्कण्डेय जी ने एक लम्बी कहानी लिखी ‘सेमल के फूल’। हालांकि बाद में उन्होंने इसे एक उपन्यास का रूप दे दिया और व्यक्तिगत तौर पर वे ख़ुद इसे अपना पहला उपन्यास मानते रहे। ‘सेमल के फूल’ वह रूमानी प्रेम कथा है जो हर समय के युवा दिलों में प्रवहित होती है, बावजूद इसके भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसका समापन प्रायः असफल रहता आया है। परम्परा और रुढियों की बात करने वाला समाज वैसे भी युवा प्रेम को स्वीकार कहाँ कर पाता है। फिर भी युवा पीढियां जमाने के खतरे उठा कर भी प्रेम करती रही हैं और आगे भी करती रहेंगी। प्रेम न कभी समाप्त हुआ है न कभी होगा। जमाने की बंदिशों को तोड़ना इसका शगल है और सौभाग्यवश यह आज भी जारी है। दो मई को हम मार्कण्डेय जी के जन्मदिन के रूप में याद करते हैं। तकनीकी कारणों से हम इस पोस्ट को कुछ विलम्ब से आज दे पा रहे हैं इस विशेष अवसर पर उन्हें नमन करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं हिमांगी त्रिपाठी का आलेख ‘सेमल के फूल : एक असमाप्त प्रेम कथा’।
       
‘सेमल के फूल : एक असमाप्त प्रेम कथा’
हिमांगी त्रिपाठी
 
कथाकार मार्कण्डेय ने आठ कहानी-संग्रह के अतिरिक्त दो महत्त्वपूर्ण उपन्यास भी लिखे। सेमल के फूल1956 ई0 में प्रकाशित मार्कण्डेय का प्रथम उपन्यास है। यह लेखक द्वारा उसके आरम्भिक रचना-काल में लिखा गया अत्यन्त ही छोटा उपन्यास है। जब मार्कण्डेय एम0 ए0 उत्तरार्द्ध के विद्यार्थी थे उस समय यह उपन्यास धर्मयुगनामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ। हालाँकि मार्कण्डेय की कविताएँ और कहानियाँ 1956 तक अनेक पत्रिकाओं में छप चुकी थी किन्तु प्रारम्भ में जो रोमांटिक रुझान उनकी कविताओं में दिखायी पड़ता है वही प्रभाव उनके प्रथम उपन्यास सेमल के फूल’ में भी दिखायी पड़ता है। इस उपन्यास को कुछ लोग लम्बी प्रेम कथा कह कर सम्बोधित करते हैं तो कुछ समीक्षक इसे लघु उपन्यास की संज्ञा देते हैं। इस उपन्यास को एक लम्बी कहानी मानते हुए श्रीप्रकाश मिश्र कहते हैं- सेमल के फूलमें एक ही संवेदना और उसके एक ही परिप्रेक्ष्य को उभारने के लिए सभी बातों को केन्द्रीभूत किया गया है, और दूसरी संवेदनाओं, चरित्रों को उभारने के लिए पर्याप्त अवसर होने के बावजूद उसका उपयोग नहीं किया गया है, जया, अमृता, अमर, नीलिमा का पति आदि का उपयोग गात को उभारने के लिए छोड़ दिया गया है। इसलिए यह लम्बी कहानी ही है।1
बहरहाल अस्सी पृष्ठों का यह लघु उपन्यास मार्कण्डेय की मार्मिक रचना है। नेमिचन्द्र जैन मार्कण्डेय की कहानियाँशीर्षक आलेख में इस उपन्यास के विषय में बताते हुए कहते हैं- सेमल के फूल नीलिमा और सुमंगल की प्रेम कहानी है। सुमंगल किसी बडे़ जमींदार का बेटा है जो राष्ट्रीय आन्दोलन में अपना सब-कुछ त्याग देते हैं। वह स्वयं आदर्शवादी, संवेदनशील, कलात्मक प्रवृत्ति का सुरुचिसम्पन्न व्यक्ति है। नीलिमा भी उसकी भाँति ही एक पुराने घराने की समृद्ध सामन्ती परिवार की माता-पिताविहीन लड़की है। वह भी स्वभाव से बहुत ही अन्तर्मुखी, लजीली और बड़ी सुकुमार प्रवृत्ति वाली है।2
कथ्य एवं समय-संदर्भ
‘सेमल के फूलउपन्यास में नीलिमा और सुमंगल के असफल प्रेम को दर्शाया गया है। इस उपन्यास को असफल प्रेम-कथा इसलिए माना जाता है क्योंकि नीलिमा और सुमंगल एक-दूसरे को बहुत चाहने के बाद भी अपने-अपने प्रेम को व्यक्त नहीं कर पाते। सुमंगल एक सामाजिक कार्यकर्ता है। जमींदार का बेटा होने के बावजूद भी उसके चरित्र में कोई दुर्गुण नहीं दिखायी पड़ता। वह अत्यन्त ही आदर्शवादी और संवेदनशील व्यक्ति है। वह अपने पिता की ही भाँति संसार की सेवा करना चाहता है और राष्ट्रीय आन्दोलन में अपना सब-कुछ त्याग देता है। नीलिमा भी एक समृद्ध सामन्ती परिवार की माता-पिताविहीन लड़की है। जन्म होते ही उसके पिता की मृत्यु हो जाती है और जबवह विवाह करने योग्य हुई तो उसकी माँ भी चल बसी। अपनी व्यथा का वर्णन करते हुए नीलिमा कहती है- मैं जब जन्मी तो पिता गये और जब कन्या परायी धरोहर हो कर घरवालों के गले की फाँस बन जाती है तो माँ भी चुपके से खिसक गयी।3 माँ की मृत्यु के बाद उसके जीवन के बाकी दिन उसकी मौसी के यहाँ गुजरते हैं और वहीं पर उसकी मुलाकात सुमंगल से होती है। दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं किन्तु संकोचवश अपने प्रेम को व्यक्त करने में असमर्थ रहते हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि नीलिमा का विवाह किसी दूसरे व्यक्ति से हो जाता है और दोनों आजीवन एक-दूसरे की यादों को अपने हृदय में सँजोये रहते हैं। नीलिमा के विवाहोपरान्त सुमंगल स्वयं को सामाजिक कार्य में व्यस्त रखता है, और नीलिमा को भूलने का प्रयत्न करता है। नीलिमा भी सुमंगल की यादों को अपने हृदय में बसाये अन्दर ही अन्दर घुटती रहती है जिसके कारण रोगग्रस्त हो जाती है और अन्ततः उसकी मृत्यु हो जाती है।
यद्यपि देखा जाये तो उपन्यास की इतनी ही कथा है जो सुमंगल और नीलिमा के इर्द-गिर्द घूमती है। मार्कण्डेय ने इस सामान्य प्रेमकथा को नयी विचारपद्धति के माध्यम से प्रस्तुत कर इसमें समाज की उस वास्तविकता को उजागर किया है जहाँ प्रेम के नाम पर कुछ ऐसा ही देखने को मिलता है। हमारे समाज में आज भी प्रेम करने वालों को हेय दृष्टि से देखा जाता है और साथ ही उन्हें समाज एवं परिवार की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। यदि इस कथा को एक सामान्य प्रेम -कथा के रूप में प्रस्तुत किया जाता तो इसमें किसी प्रकार की प्रभावशीलता या नयापन न दिखायी पड़ता और यह एक सामान्य-सी रचना बन कर रह जाती। किन्तु मार्कण्डेय ने अपने कथा शिल्प के मौलिक हुनर एवं नवीन विचारों के माध्यम से उपन्यास को एक अलग अन्दाज में प्रस्तुत कर सफलता अर्जित की है। समूची कथा नीलिमा की डायरी से ली गयी है, जिसमें नीलिमा ने स्वयं के जीवन से सम्बन्धित प्रसंगों को डायरी में अंकित किया और मार्कण्डेय ने डायरी में वर्णित नीलिमा की दुःख भरी आपबीती को उपन्यास का रूप दे दिया। नीलिमा ने अपनी कथा में भूत एवं वर्तमान दोनों स्थितियों को उजागर किया है।
नीलिमा की सुमंगल से प्रथम भेंट अपनी मौसी के घर में होती है। पहली भेंट में ही नीलिमा को सुमंगल से कुछ विशेष प्रकार का लगाव हो जाता है और वह पहली भेंट में ही उसे अपना सब कुछ मान लेती है। अपनी डायरी में नीलिमा लिखती है- देखा भी नहीं उस दिन कि तुम कैसे हो! हाँ, तुम्हारी पतली, लम्बी अँगुलियाँ, तुम्हारी साफ और मधुर आवाज इस बात की साक्षी थी कि तुम्हीं मेरे देवता हो। लगा यह तो वही आवाज है, जिसे मैं युग-युग से खोजती भटक रही थी।4 इन पंक्तियों में उस भारतीय नारी का वर्णन किया गया है जो बिना कुछ सोचे समझे अपने मन में ही अपने जीवन साथी का चुनाव कर लेती है और आजीवन उसे ही अपना सब-कुछ मानती है। यदि देखा जाये तो कारुणिक स्थितियों एवं मार्मिक विशेषता रखने वाला यह उपन्यास प्रेम कथा के आलावा और कुछ भी नहीं है, फिर भी भावुकता से भरे इस उपन्यास में कहीं भी शिथिलता नहीं  दिखायी पड़ती है बल्कि इस कथा की सुन्दरता और अधिक बढ़ जाती है क्योंकि सेमल के फूलकी कथावस्तु में जहाँ तक भावावेग या भावुकता का सम्बन्ध है उसमें एक प्रवाह के लगातार दर्शन होते हैं। भावुकता का यह प्रवाह जिसे नीलिमा का विक्षिप्त भावावेगकहा गया है, पाठक को कथ्य के साथ बाँध कर रखता है।5 वस्तुतः पाठक को कथ्य से बाँध रखने का हुनर एवं कथा प्रवाह की सहजता ही मार्कण्डेय की मौलिकता है। यह उपन्यास अपने ही लिखे जाने के कारण विशिष्ट बन गया है क्योंकि नीलिमा की डायरी में वर्णित की गयी कहानी को ही इस छोटे उपन्यास का रूप मार्कण्डेय ने दिया है। अतः इसे डायरी शैली में लिखा गया उपन्यास भी कहा जा सकता है।
मार्कण्डेय ने इस उपन्यास को शहरी एवं ग्रामीण दोनों ही वातावरण से जोड़ कर अपने रचनात्मक कौशल का परिचय दिया है। यद्यपि यह एक प्रेम  कथा है किन्तु कथा में प्रस्तुत पात्रों के द्वन्द्व, उनके मन की स्थितियों और उनकी व्यथा, करुणा आदि को उपन्यासकार ने सजीव रूप में चित्रित किया है। जैसे नीलिमा, जो कथा की प्रमुख पात्र है जन्म से लेकर मरण तक केवल दुःख और पीडा की ही शिकार रहती है। भले ही यह उपन्यास शहरी-वातावरण को अधिक उजागर करता है परन्तु साथ ही गाँव के किसान-मजदूरों की समस्याओं को भी उजागर करता है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि मार्कण्डेय का आत्मीय लगाव गाँव से ही रहा है और इसी कारण किसान-मजदूर के प्रति वह सदैव आत्मीय रहे हैं। सेमल के फूलमें भी वह सुमंगल के माध्यम से किसान-मजदूर के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं- इनकी पूरी ही जिन्दगी बदलनी होगी नीलम। ये ही हमारे समाज की रीढ़ हैं। हिन्दुस्तान में, किसी ऐसे सामाजिक उत्थान की कल्पना ही करनी भयानक भूल होगी, जिसमें किसान-सभ्यता के विकास में, भारतीय कृषक के व्यक्तिगत श्रम को मान्यता दे कर मशीन को केवल सहायक के रूप में रखना होगा।6 ऐसी ही अनेक बातों एवं समस्याओं को इस उपन्यास में उठाते हुए उसका समाधान बताने का भी प्रयास किया है। जिस समय यह प्रेम कहानी लिखी गयी उस समय अनेक युवा कथाकारों ने इस सन्दर्भ से मिलती-जुलती अनेक कथाएँ गढ़ी। धर्मवीर भारती का गुनाहों के देवता’, लक्ष्मी नारायण लाल का छोटी चंपा, बड़ी चंपा’, केशव प्रसाद मिश्र का काली दीवारआदि अनेक उपन्यास इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इन सभी उपन्यासों की विषयवस्तु असफल प्रेम कथा ही है।
पात्रों का चरित्र-चित्रण
सेमल के फूलभले ही एक असफल प्रेम कथा मानी जाती है किन्तु फिर भी यह मार्कण्डेय की उत्कृष्ट कृति है क्योंकि इसमें करुणा और भावुकता भी देखने को मिलती है। इसमें नीलिमा और सुमंगल के अतिरिक्त अमृता, शिबू, मौसी, नीलिमा का पति आदि पात्रों का यत्र-तत्र वर्णन देखने को मिलता है किन्तु समूची कथा का मुख्य पात्र नीलिमा और सुमंगल को ही माना गया है क्योंकि संपूर्ण कथानक एक ही पात्र की अनुभूतियों के सूत्र में ग्रंथित है। अन्य पात्र यत्र-तत्र आवश्यकतानुसार आते और चले जाते हैं।7 सुमंगल और नीलिमा की प्रेमकथा सामान्य धरातल में ही गतिशील हुई है।
नीलिमा उपन्यास की नायिका होने के साथ ही प्रमुख पात्र भी है। वह समृद्ध सामन्ती परिवार की ऐसी लड़की है जिसके माता-पिता नहीं हैं। नीलिमा अत्यन्त ही लज्जाशील, भावुक, अन्तर्मुखी और स्वभाव से कोमल है। बचपन में ही उसके पिता की मृत्यु हो जाती है और युवावस्था में उसकी माँ की भी मुत्यु हो जाती है। तत्पश्चात् उसका जीवन मौसी के यहाँ व्यतीत होता है जहाँ उसकी शामों के साथी थे- बूढा मंटू और सेमल का वृक्ष। अपनी मौसी के यहाँ ही उसकी सुमंगल से भेंट होती है और दोनों परस्पर प्रेम बन्धन में बँध जाते हैं। किन्तु इन दोनों का प्रेम न तो व्यक्त होता है और न ही शारीरिक सम्बन्ध तक पहुँचता है। दोनों आन्तरिक रूप से एक-दूसरे को प्रेम करते हैं किन्तु वैयक्तिक संकोच के कारण कभी व्यक्त नहीं कर पाते हैं। परिणामस्वरूप नीलिमा का विवाह एक अन्य पुरुष से हो जाता है जो पेशे से वकील है। विवाहोपरान्त भी नीलिमा सुमंगल की यादों को संजोये रखती है और अन्दर ही अन्दर घुटने के कारण उसकी मृत्यु हो जाती है।
नीलिमा अपने प्रेम को सुमंगल के समक्ष व्यक्त नहीं कर पाती किन्तु कल्पनाओं में वह सदैव उसी की यादों में खोयी रहती है। सुमंगल के सोने के लिए जब उसकी मौसी नीलिमा से चारपाई, तकिया मँगाती है तो नीलिमा का शरीर पूरी तरह रोमांचित हो उठता है। अपनी डायरी में वह लिखती है-शर्म के मारे मैं गड़ गई थी। मेरी चारपाई पऱ………जैसे मुझे कुछ हो जायेगा। उस बिस्तर को कुछ ऐसा छू जायेगा जो मेरे छुटाये भी कभी नहीं छूटेगा। फिर मैं कैसे सोऊँगी उस पर?”8 अपने प्रेमी की कल्पनाओं मात्र से नीलिमा के रोमांच को बडे सुन्दर रूप में मार्कण्डेय ने व्यक्त किया है। अपने हृदय में सुमंगल की यादों को संजोये जब नीलिमा पति-गृह जाती है तो उसका दुहरा चरित्र हमारे समक्ष उभर कर आता है। एक ओर वह पत्नी का दायित्व निभाती है तो दूसरी ओर प्रेमिका का। किन्तु पत्नी की अपेक्षा प्रेमिका का ही रूप अधिक उभर कर आया है।
मार्कण्डेय ने नीलिमा के माध्यम से उन तमाम ऐसी स्त्रियों का चित्रण किया है जो अपने जीवन में स्वाभाविक रूप से प्रेम तो करती हैं किन्तु उसे व्यक्त नहीं कर पाती या फिर उसे व्यक्त करने में आजीवन संकोच करती हैं और अपने जीवन को एक समझौते के रूप में स्वीकार करती हैं। हमारे समाज में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जहाँ प्रेम की कसमें तो खायी जाती हैं किन्तु उन कसमों को आजीवन निभाना और समाज के सामने उसे व्यक्त करने में उनका पूरा जीवन निकल जाता है और अन्ततः समाज द्वारा आरोपित व्यवस्था को संस्कार के नाम पर स्वीकार करना पड़ता है। और उसे अपने चाहतों की बलि देनी पड़ती है। कथाकार मार्कण्डेय ने समाज में प्रचलित ऐसे ही प्रेम को अपने इस छोटे से उपन्यास का विषय बनाया है।
जैसा कि कहा जा चुका है कि इस उपन्यास में नीलिमा का दूसरा चरित्र देखने को मिलता है, एक पत्नी के रूप में और दूसरा प्रेमिका के रूप में। नीलिमा पत्नी के रूप में भी अपने कर्तव्य का पालन करती है क्योंकि उपन्यास में एक स्थान पर उसके पति का यह वाक्यांश इस बात की पुष्टि करता है कि वह पत्नी-धर्म को भी बखूबी निभा रही है- ऐसी औरत न तो मैंने देखी है, न देखूँगा। जब से मेरे जीवन में आयी, कभी एक मिनट को भी न मालूम हुआ कि मैं उदास हूँ……. रात-दिन जैसे मेरी आत्मा पर उसका स्नेह छाया रहा। मेरी काया का कोई भी रोम ऐसा नहीं दीखता जिस पर उसका संस्पर्श न हो। कोई भी ऐसा काम नहीं, कोई भी ऐसी चीज नहीं, जिसके पीछे उसकी छाया न हो।9 नीलिमा अपने पति की सेवा करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाती है। भले ही उसके मन में सुमंगल की यादें हैं किन्तु वह यह भलीभाँति समझती है कि पति के प्रति उसका क्या धर्म और कर्तव्य है, तभी तो उसके पति के विचार नीलिमा के पक्ष में हैं।
नीलिमा अत्यन्त ही केवल स्त्री है। वह ममता और दया की मूर्ति है। उसके चरित्र की अनेक विशेषताएँ हैं किन्तु अनेक विशेषताओं के साथ प्रत्येक मनुष्य की भाँति उसमें कुछ खामियाँ भी हैं। उसके सबसे बड़ी कमजोरी उसका संकोची स्वभाव है। दरसल मध्यवर्गीय संस्कारों में पली होने के कारण वह सामाजिक मर्यादा और लोक-लाज का पूरा ध्यान रखती है। उसके संस्कार उसे अपना प्रंम जाहिर करने और स्वयं चुने हुए लडके के साथ जीवन बिताने की आज्ञा नहीं देते, और जीवनपर्यन्त उसे अपने प्रंम में तडपना पडता है, और इसी कुंठा के कारण वह अन्दर से खोखली हो जाती है। उसी के शब्दों में-मेरी ही चीखें मेरे कानों में भर गयी थी, जैसे मेरे ही हाथों ने मेरा गला घोट दिया हो। पसीने की बड़ी -बड़ी बूँदें माथे पर काँटों की तरह उग आयी थीं।10 मार्कण्डेय ने मुख्य पात्र के रूप में नीलिमा के चरित्र को बडे ही दयनीय रूप में प्रस्तुत किया है। प्रेम की सजा उसे ताउम्र मिलती है और उसी में घुटते-घुटते वह मर जाती है। समग्रतः कहा जा सकता है कि नीलिमा का चरित्र प्रेम को पूजा मान कर तथा आत्मा में उसे निरंतर बनाए रखने वाली सच्ची प्रेमिका का चरित्र है जो प्रेम कम लिए जीती है और अन्ततः उसी के लिए मर मिटती है। लेखक ने उसके चरित्र को पूरी सहानुभूति के साथ प्रस्तुत किया है।11
नीलिमा की भाँति उसका प्रेमी सुमंगल भी उपव्यास का प्रमुख पात्र है। वह किसी बडे जमींदार का बेटा है जो राष्ट्रीय आन्दोलन में अपना सब-कुछ त्याग देते हैं। वह आदर्शवादी, संवेदनशील एवं गंभीर प्रकृति का व्यक्ति है। जमींदार घराने का होने के बावजूद भी उसके चरित्र में किसी भी प्रकार के अवगुण नहीं दिखायी पड़ते। उसके पिता ने अंग्रेजों की गुलामी कभी नहीं की और देश-प्रेम में वह इतने मशगूल थे कि अपना सब-कुछ राष्ट्रीय आन्दोलन में त्याग देते हैं। सुमंगल अपने पिता के आदर्शों का पालन करते हुए सामाजिक कार्य में अपने को व्यस्त रखता है। नीलिमा के प्रति उसके मन में भी स्नेह है किन्तु वह भी वैयक्तिक संकोच के कारण नीलिमा के समक्ष अपना हाल-ए-दिल बया। नहीं कर पाता। वह अन्य पुरुषों की भाँति स्त्री को भोग्या नहीं मानता अपितु इसके इतर वह नीलिमा को बहुत प्रेम करता है। जिस प्रकार इस उपन्यास में नीलिता के दुहरे चरित्र को दिखया गया है उसी प्रकार सुमंगल का भी दुहरा चरित्र देखने को मिलता है, एक प्रेमी के रूप में और दूसरा सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में। 
एक प्रेमी के रूप में यदि देखें तो सुमंगल अत्यन्त संकोची और विनम्र है। वह नीलिमा से पहली बार उसकी मौसी के यहाँ मिलता है। दोनों में एक-दूसरे के प्रति लगाव बढता है और यह लगाव प्रेम में परिवर्तित हो जाता है, किन्तु उनका यह प्रेम कभी एक-दूजे के समक्ष व्यक्ज नहीं होता। वह नीलिमा के थोडे से कष्ट को भी बर्दाश्त नहीं कर पाता और इसी कारण नीलिमा की बीमारी में वह रात-दिन उसकी सेवा में लगा रहता है। प्रेमी के साथ-साथ वह नीलिमा का पथ-प्रदर्शक भी है। जब नीलिमा के समक्ष अनेक समस्याएँ आती हैं तो सुमंगल नीलिमा को उन समस्याओं से निकालने का भरपूर प्रयास करता है, इसी कारण नीलिमा उस पर बहुत विश्वास करती है। नीलिमा को दुःखी देख कर वह स्वयं दुःखी हो जाता है। अपनी डायरी में बताते हुए नीलिमा कहती है- तुम्हारा भी गला भर आया था, पर जल्दी से रुमाल निकाल तुम मेरी आँखें पोंछने लगे थे। मैं अब भी नहीं जान पायी थी कि तुम कौन थे, पर थे अपने ही…….शायद माँ की अभी-अभी आयी याद तुम्हीं थे।12 सुमंगल स्त्रियों के प्रति सदैव आदर भाव रखता है। वह अपने संकोची स्वभाव के चलते नीलिमा के समक्ष प्रेम व्यक्त नहीं कर पाता और आजीवन उसका प्रेम पाने से वंचित रहता है। जब नीलिमा सुमंगल से कहती है कि वह शादी कर ले तो सुमंगल कहता है- प्यार कोई सौदा नहीं नीलम! सिर्फ वासना तो पशु में होती है, मनुष्य तो उससे आगे कुछ और भी चाहता है, कुछ और है उसके पास-एक चेतन हृदय, एक भक्ति, एक सब-कुछ अर्पित कर देने की क्षमता; जो उसकी अपनी है, और समर्पण भी कभी बार-बारतुम जाने कितनी देर तक बोलते जाते थे -मंथर-मंथर, उदास।13 सुमंगल के मन में नीलिमा के प्रति सच्चा प्रेम है जिसमें वासना की भूख लेशमात्र भी नहीं है। नीलिमा के विवाहोपरान्त भी वह वह उससे उतना ही प्रेम करता है। नीलिमा को पाने में भले ही वह असमर्थ रहता है किन्तु उसके प्रेम को सदैव अपने हृदय में जीवित रख कर वह एक सच्चे प्रेमी    का परिचय देता है। मार्कण्डेय ने इस उपन्यास के माध्यम से समाज के ऐसे यथार्थ को प्रस्तुत किया है जो आज के दौर में एक फैशन बन गया है। आज की युवा पीढी प्रेम  की ओर बहुत तेजी से बढ रही है, जिसमें कुछ तो अपने मन मुताबिक विवाह कर लेते हैं और कुछ अपने प्रेम  का त्याग कर किसी और के साथ जीवन बिताते हैं।
मार्कण्डेय जी  अपनी बड़ी बेटी डॉ. स्वस्ति सिंह के साथ
सुमंगल के चरित्र का दूसरा पहलू सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में दिखायी पड़ता है। सामाजिक कार्य के प्रति वह अत्यन्त ईमानदार है। वह अपने दुःख को भले ही नीलिमा के समक्ष नहीं रखता किन्तु नीलिमा भी उसी की भाँति उसके दुःख को समझती है।जिस प्रकार नीलिमा के प्रति उसका प्रेम निःस्वार्थ भाव से है उसी प्रकार समाज के प्रति भी वह अपने कार्य को बिना किसी स्वार्थ के निभाता है। अध्ययन से अधिक वह समाज सेवा को महत्ता देता है, इसी कारण वह अपनी पढाई छोड़ देता है। किन्तु उसके बाद भी साहित्य और कला के साथ-साथ नृत्य और संगीत में भी एसकी गहरी रुचि रहती है। सुमंगल के भीतर जो एक लेखक का गुण छिपा है उसे नीलिमा पाठक के समक्ष इन वक्तव्यों में प्रस्तुत करती है-अच्छा होता कि इस कहानी को तुम्हीं लिखते, क्योंकि तुम्हारे हाथ में एक ऐसी कलम है, जो अपने पैनेपन के बावजूद दुधमुँहे बच्चे को सुलाने वाली लोरियों से भी मधुर और पवित्र गीत गा सकती है। जो काल कूट भैरव की क्रोधाग्नि को शान्त करने के लिये पार्वती के सुकुमार होठों का सुमधुर सम्भाषण लिख सकती है।14
सुमंगल के हृदय में गरीब शोषितों के पगति गहरी सहानुभूति है। वह ऐसे लोगों की खिलाफत करता है जो गरीब किसान-मजदूर का शोषण करते हैं। वह स्वयं की पीडा को दूर रखकर सामाजिक कार्य में आपने को व्यस्त रखता है। भौतिक पीडा और उलझन से अपने व्यक्तित्व को दूर रख कर दुनिया की समस्याओं पर विचार करना, पुम्हारी अपनी सूझ है, गाँधीवादी दर्शन में।15 इन सबके बावजूद सुमंगल के चरित्र की कुछ सीमाएँ भी हैं। जैसे उसका संकोची स्वभाव, समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ, विनम्रतापूर्ण व्यवहार इत्यादि। उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में नेमिचन्द्र जैन लिखते हैं- उसके व्यक्तित्व की गहराई अधिक नहीं उभरती और एक प्रकार के आदर्श चित्र जैसा सामने आता है।16 इस तरह सुमंगल और नीलिमा के दुहरे चरित्र को दर्शाते हुए अपने विशाल बुद्धि कौशल का परिचय दिया है। नीलिमा के प्रति उसका सेवाभावउसके प्रेम को अप्रत्यक्ष रूप से दर्शाता है क्योंकि नीलिमा की बीमारी में वह रात-दिन उसकी देखभाल करता है-यह तो सुमंगल की कहो कि रात-रात भर बैठा रह गया इसी स्टूल पर। एकटक तुम्हें देखता रहा। मैं थक गयी, तुम्हारे मौसा तो तुम्हारे बकने-झकने से भाग ही जाते थे, पर सुमंगल को जैसे काठ मार गया था, निश्चल यहीं बैठा रहता, न बोलता, न जाता कहीं।17 इस प्रकार नीलिमा से अत्यन्त प्रेम  करने के बावजूद भी वह अपनी सीमाओं को कभी लाँघता नहीं है और इसी कारण नीलिमा से अपना प्रेम व्यक्त न कर वह उसकी याद में ही अपने दिन गुजारने का प्रयत्न करता है। मार्कण्डेय ने सामाजिक बन्धनों को ही प्रेम के सामने व्यक्त करने का प्रयास किया है क्योंकि भले ही समाज का प्रत्येक व्यक्ति कितना ही शिक्षित क्यों न ही जाए किन्तु प्रेम के प्रति उसका दृष्टिकोण जस का तस है। वर्तमान परिदृश्य में चारित्रिक पतन एवं व्यभिचार चरम पर है ऐसे में सुमंगल जैसे युवाओं की जीवन दृष्टि आवश्यक है। इसी विडम्बना को मार्कण्डेय ने बड़ी सौम्यता एवं पीडा के साथ दर्शाया है।
यदि देखा जाए तो सुमंगल का चरित्र सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में प्रेम की अपेक्षा अधिक उभर कर आया है। वह जितना सामाजिक कार्य के प्रति समर्पित है उतना प्रेम के प्रति नहीं। फिर भी नीलिमा के प्रति उसके प्रेम को किसी अर्थ में कम नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार अनेक सामाजिक, वैयक्तिक संकोच आदि के बावजूद भी सुमंगल का अत्यन्त सीधा-सरल चरित्र सबको अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखता है।
नीलिमा और सुमंगल के पश्चात एक और पात्र है जो उभर कर आया है और वह पात्र है- जया। इस उपन्यास में मार्कण्डेय ने जया के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि प्रेम एक ऐसी वस्तु है जो कभी भी किसी से हो सकती है। जया और नीलिमा दोनों की उम्र लगभग एक ही है, इसी कारण दोनों का हृदय सुमंगल के प्रति आकृष्ट है, किन्तु महत्व यह नहीं रखता है कि दोनों सुमंगल से प्रेम करती हैं बल्कि महत्व यह रखता है कि सुमंगल किससे प्रेम करता है। बहरहाल जया को इस उपन्यास में एक असफल प्रेमिका के रूप में चित्रित किया गया है क्योंकि उसका प्रेम एकतरफा है। भले ही नीलिमा और सुमंगल एक-दूसरे से अपना प्रेम व्यक्त नहीं कर पाते किन्तु उनका प्रेम एकतरफा नहीं था क्योंकि दोनों एक-दूसरे को आन्तरिक रूप से प्रेम करते हैं किन्तु जया सुमंगल से प्रेम करती है जबकि सुमंगल नीलिमा से। उपन्यास में जया की भी मुख्य भूमिका दिखायी गयी है। मार्कण्डेय ने नीलिमा के माध्यम से जो जया का चित्रण किया है उससे ज्ञात होता है कि जया भी अत्यन्त सुन्दर है। लेखक के शब्दों में-लडकी तो क्या कहूँ, सयानी थी वह जया- सुन्दर-सी, सजी-बजी। शरीर के एक-एक अंग को चतुर शिल्पी की तरह तराश कर सजा रखा था। सामान की जाँच-पडताल में उसकी व्यस्तता देख कर, मुझे जाने क्यों लगा, यह जरूर कोई मास्टरनी है।18 जया जब नीलिमा की मौसी के घर आयी तो आते ही उसने सुमंगल के बारे में पूँछा था और उसके बाद उसने नीलिमा को पहचानने की चेष्टा व्यक्त की किन्तु असफल रही। बाद में मन्टू के बताने पर उसने नीलिमा को पहचान लिया था।
जया के मन में सुमंगल के लिए जो प्रेम  था उसे नीलिमा पहचान रही थी क्योंकि रात सोने से पहले जया की बातों में तुम्हारा प्रसंग आया-तरह-तरह से, घूम-घूम कर, जैसे बात वहीं टूटती थी।19 सुमंगल का जया की बातों में बार-बार जिक्र आना नीलिमा को कष्ट दे रहा था किन्तु फिर भी नीलिमा के हृदय में जया के प्रति कभी भी जलन की भावना नहीं आयी। नीलिमा और जया दोनों में मित्रता तो थी किन्तु जया का सुमंगल के प्रति झुकाव नीलिमा को रास नहीं आता था। एक दिन सुमंगल के आने की खबर सुनकर जया की खुशी का ठिकाना नहीं था। वह सुमंगल के लिए बहुत अच्छे से तैयार हो गयी। उसने झीने चम्पई रंग की साडी पर गेंहुएँ रंग के कुछ विचित्र-से कट के ब्लाउज़ का ऐसा मेल पहले मैंने कभी नहीं देखा था। कमर और सीने का उतार-चढाव, गुँथे हुए, घुँघरू-से बालों का सानुपातिक वृत्ताकार गोला; ऐसा श्रृंगार कि देखते ही सारी शक्ल चुभ कर रह जाये।20 उसे क्या पता था कि उसका सजना-सँवरना, इंतजार करना सब व्यर्थ जायेगा। सुमंगल के न आने पर जया की हालत बयाँ नहीं की जा सकती। वह बरबार सुमंगल की राह देख रही थी किन्तु सुमंगल के न आने पर मौसी ने बडे स्नेह के साथ कहा-यी कपडे उतार दे, वरना इसी तरह उठते-बैठते चौपट हो जाएँगे। सुमंगल को जानती नहीं क्या? इधर तो वह और भी जिद्दी और फितूरी दिमाग का हो गया है। कुछ पता चलता है उसका।21 नीलिमा जया की तडप को भलीभाँति समझती थी और इसी कारण उसे जया पर तरस आ रहा था। जया कमरे में बिना किसी से कुछ बोले चली जाती है और अन्दर ही अन्दर बहुत दुःखी होती है। उसका तैयार होना, सुमंगल से मिलने के सपने संजोना सब व्यर्थ चला जाता है। जया सुमंगल के मन की बात न समझ पाने कारण इस दुःख से जूझती है और विवाहोपरान्त एक सेना के आदमी के साथ अपनी जिन्दगी बिताती है।
इस प्रकार उपन्यास में जया का इकतरफा प्रेम दिखायी पड़ता है जहाँ उसे कष्ट एवं पीड़ा के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्त नहीं होता। नीलिमा सुमंगल से कुछ कह नहीं पाती और जया के कहने के बावजूद सुमंगल उसके प्रेम को स्वीकार नहीं करता। इस तरह इस उपन्यास में जो जिसे चाहता है वह उसे नहीं मिलता और नीलिमा, जया, सुमंगल तीनों ही एक परिस्थिति से गुजरते हैं।
उपन्यास की कथा में इन तीनों पात्रों के अलावा अमर, अमृता, शिबू, मंटू, राबिन (कुत्ता) आदि पात्रों का भी यत्र-तत्र वर्णन दिखायी पड़ता है। इन सभी पात्रों से नीलिमा कहीं न कहीं जुड़ी हुई है। अमर और अमृता पति-पत्नी रूप में अपने नन्हें बच्चे शिबू के साथ सहज और खुशहाल जीवन व्यतीत करते हैं। पति-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं और महीने की बचत करके कुछ पैसे जमा करते हैं। नीलिमा शिबू को अत्यन्त प्रेम  करती है। नीलिमा पर अमर और अमृता के सहज, सरस जीपन का बहुत प्रभाव पड़ता है किन्तु उसका जीवन उन दोनों के समान अपने स्वाभाविक रूप में आगे नहीं बढ़ पाता और अन्त में एक विडम्बना बन जाता है। मार्कण्डेय ने नीलिमा की विडम्बना को एक मार्मिक रूप में प्रस्तुत कर ऐसे प्रेम की ओर संकेत किया है, जो जीवन को सच्चाई के रूप में देखता है। उपन्यास में नीलिमा द्वारा लिखी गयी डायरी के अन्त में वह कहती है- अमृता तू ही जवाब दे सकती है इनको, शीबू तू ही- तुम्हीं लोग, जो जीवन को उसकी सच्चाइयों में देखते हो……।22 इस प्रकार उपन्यास का प्रत्येक पात्र अपनी अहम भूमिका निभाते हुए दिखायी पड़ते हैं।
मार्कण्डेय ने इस उपन्यास में फ्लैशबैक टैकनीक के प्रयोग के साथ शिल्प पर भी विशेष ध्यान दिया है। यह कथा डायरी शैली के माध्यम से प्रस्तुत की गयी एक ऐसी रचना है जो सामान्य रचना से बाहर निकल कर एक नये रूप में प्रस्तुत की गयी है। नीलिमा द्वारा लिखी गयी डायरी ही पूरी कथा का पाठ्यक्रम बन जाती है और नीलिमा के मृत्योपरान्त सब के समक्ष आती है। केदार नाथ अग्रवाल इसे दुःखान्त प्रेम कथा मानते हुए कहते हैं- यह मर्मव्यथा से भरी कथा है, इसको पढ़ कर मुझे भवभूति याद आ गये और नयन में करुणा के सघन घन छा गये।23 इस उपन्यास के विषय में स्वयं मार्कण्डेय कहते हैं- जिन्होंने मेरे उपन्यास पढ़े हैं उन्होंने सेमल के फूल में गहरी अनुभूतियों की वह गहराई जरूर पायी होगी जिसकी प्रशंशा करते नेमि चन्द्र जैन नहीं थकते और जिस पर अनेक हिन्दी के प्रसिद्ध कवियों ने कविताएँ लिख कर भेंजी जिसमें हरिवंश राय बच्चन और केदारनाथ अग्रवाल का नाम उल्लेखनीय है।24 इस प्रकार सेमल के फूलउपन्यास के माध्यम से मार्कण्डेय ने समाज के ऐसे विषय को प्रस्तुत किया है जो आज भी प्रासंगिक है। प्रेम जैसे विषयों को लेकर मार्कण्डेय ने अनेक कहानियाँ भी रची और उनमें उन्होंने अलग-अलग चरित्रों और कथाओं के माध्यम से उसे बड़ी ही सहजता के साथ प्रस्तुत भी किया है। युवा वर्ग में प्रेम का पनपना एक आम बात है किन्तु वर्तमान समय में यह भी एक फैशन बन गया है, जहाँ प्रेम कोई आन्तरिक अनुभूति न हो कर केवल शारीरिक भूख को मिटाने वाली चीज बन कर रह गया है। ऐसे में सुमंगल और नीलिमा जैसे पात्रों के माध्यम से मार्कण्डेय ने प्रेम की एक ऐसी परिभाषा गढ़ी है जहाँ वासना से परे निश्छल और निःस्वार्थ लगाव है। इस भाव के माध्यम से उन्होंने प्रेम की पवित्रता को उस समाज के सामने प्रस्तुत किया है जो बदलते हुए समय के साथ इसे बड़ी तेजी से भूलता जा रहा है।
सन्दर्भ   
1- संपादक- प्रदीप कुमार, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, हिन्दुस्तानी अंक-3, जुलाई-सितम्बर 2010, श्रीप्रकाश मिश्र-सेमल के फूलः एक दृष्टि, पृष्ठ-103

2- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, भूमिका

3- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-17

4- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-19

5- डॉ. जिभाऊ शामराव मोरे- मार्कण्डेय का कथा-साहित्य और ग्रामीण सरोकार, पृष्ठ-152

6- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-47

7- डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद-मार्कण्डेय का रचना संसार (कथा-साहित्य के विशेष सन्दर्भ में), पृष्ठ-32

8- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-35

9- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-11-12

10- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-80

11- डॉ. सुरेन्द्र प्रसाद- मार्कण्डेय का रचना संसार (कथा-साहित्य के विशेष सन्दर्भ में), पृष्ठ-37

12- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-19

13- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-39

14- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-14

15- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-54

16- नेमि चन्द्र जैन- बदलते परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ-156

17- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-58

18- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-21

19- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-23

20- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-28

21- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-29

22- मार्कण्डेय-सेमल के फूल, पृष्ठ-79-80

23- केदारनाथ अग्रवाल-सेमल के फूल, अन्तिम पृष्ठ

24- उषा बनसोडे- मार्कण्डेय का कथा साहित्यः एक अनुशीलन, पृष्ठ-178
(हिमांगी त्रिपाठी महात्मा गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट सतना (मध्य प्रदेश) से मार्कण्डेय जी की रचनाधर्मिता पर शोध कार्य कर रही हैं।)

सम्पर्क –
द्वारा श्री रजनी कान्त त्रिपाठी 
बस स्टैण्ड, मऊ थाना के सामने 
मऊ, चित्रकूट (उत्तर प्रदेश)

चंचल चौहान का आलेख ‘मार्कण्डेय की कहानी कला’


मार्कण्डेय जी

आज मार्कण्डेय जी के निधन को छः वर्ष पूरे हो गए। एक समय में इलाहाबाद में मार्कण्डेय जी का होना मेरे लिए एक पूरी आश्वस्ति हुआ करता था। ‘कथा’ से मेरे जुड़ने के बाद यह आश्वस्ति धीरे-धीरे ऐसे रिश्ते में तब्दील हो गयी जिसे नाम देने में दुनिया की कोई भी भाषा समर्थ नहीं है। आज भी वे एक आत्मीय की तरह मेरे मानस में बने हुए हैं। मार्कण्डेय जी की पुण्य तिथि पर आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कहानी कला पर प्रख्यात आलोचक चंचल चौहान का आलेख ‘मार्कण्डेय की कहानी कला’।
        
मार्कण्डेय की कहानी कला
चंचल चौहान

मार्कण्डेय जी के निधन की खबर रात में जिस समय मुझे मिली उस समय मैं रेलगाड़ी में था, झारखंड राज्य इकाई के जमशेदपुर में होने वाले सम्मेलन में भाग लेने जा रहा था। जनवादी लेखक संघ के स्थापना वर्ष यानी सन् 1982 से अब तक का हमारा साथ रहा, उसमें आने वाले इस चिर व्यवधान से सदमा तो पहुंचना ही था। हमारी देर तक मुलाक़ातें मुख्य रूप से दिल्ली में ही हुईं, बदकि़स्मती से उनकी दो बीमारियों के इलाज के दौरान ही। साहित्य या संगठन पर जो भी चर्चाएं हुईं, वे संगठन की बैठकों या सेमिनारों में ही। उनके लिखे को पढ़ता रहा, मगर कभी उनके रचनात्मक अवदान पर लिखने का मौक़ा नहीं मिल पाया। जलेस के बनारस सम्मेलन (1984) से ले कर अब तक संगठनात्मक जिम्मेदारियों के निर्वाह में मेरा लेखन कुछ शिथिल तो हुआ ही है, सो यह अफ़सोस रहा कि मार्कण्डेय जी के जीवन काल में उनके कथा-साहित्य पर कुछ नहीं लिख पाया, सिर्फ मौखिक चर्चाएं जरूर होती रहीं, ग़लत व्याख्याओं से जनित उत्तेजक बहसों में ही। इधर उनकी सारी कहानियां एक साथ पढ़ने का समय निकाला, तो उनके भीतर एक सूत्र तलाश किया, जिसे मुक्तिबोध संवेदनात्मक उद्देश्य कहा करते थे। अब मार्कण्डेय जी का रचना व्यक्तित्व हमारे सामने रहेगा, शरीर तो हम सभी का नाशवान है, इसलिए हर कहानी अपने में अब एक टैक्स्ट, एक पाठ है जिसकी व्याख्या के लिए पाठक स्वतंत्र है, अपनी इसी स्वतंत्रता का निर्वाह करते हुए उन्हें अपनी निजी श्रद्धांजलि के रूप में यह लेख प्रस्तुत है। हमारे पाठक भी इस पाठ या कुपाठ से सहमत या असहमत हो सकते हैं, यह जनवादी स्वतंत्रता उन्हें भी है ही।

आज़ादी के बाद के दौर में हिंदी कहानी में जिन रचनाकारों ने नये सामाजिक यथार्थ को अपनी वैचारिक पक्षधरता के साथ चित्रित किया उनमें मार्कण्डेय का नाम भी अग्रणी पंक्ति में माना जाता है । जहां राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, मन्नू भंडारी, भीष्म साहनी आदि ने शहर के निम्न मध्य-वर्ग की मनोचेतना की तस्वीरें पेश कीं, मार्कण्डेय ने अपनी कहानियों मे ज्यादातर भारत के देहाती जीवन की चित्ररचना की। अंग्रेज़ी के रोमानी कवि विलियम ब्लेक ने अपने गीतों की पुस्तक का नाम रखा था, सांग्स आफ़ इन्नोसेंस एंड सांग्स आफ़ एक्सपीरियेंस’, उसका उपशीर्षक दिया, ‘मन की दो परस्परविरोधी दशाए। नयी कहानी के दौर की भी ये दो परस्पर विरोधी मनोदशाएं थीं, शहरी जीवन के यथार्थ में आधुनिकतावादी कथा नायक चालाक, काइयां और अवसरवादी होता था, चाहे वह चीफ़ की दावतमें चित्रित हो, या टूटनामें या जिंदगी और जोंकमें चित्रित मध्यवर्ग। ये सब सांग्स आफ़ एक्सपीरियेंसके कथानायक थे और शहरी कहानी का नारा भी यही था, अनुभूति की प्रामाणिकता और भोगा हुआ यथार्थ। उस दौर के तीन कहानीकार (फणीश्वरनाथरेणु’, शेखर जोशी और मार्कण्डेय) सांग्स आफ़ इन्नोसेंसके रचनाकार हैं, इनकी कहानियों के कथानायकों की मासूमियत या तो छली जाती है, या अपनी अस्मिता खो बैठती है, इनमें मारे गये गुलफामकी केंद्रीय थीम ध्वनित होती रहती है, भारतीय समाज में ऐसे पात्र जो मासूमियत की नुमाइंदगी करते हैं, आज़ादी के बाद के समाज में किस तरह जी पाते हैं या मर जाते हैं, उनके शरीर और मनोचेतना के विश्वसनीय खाके़ इन कहानीकारों ने ही रचे। मार्कण्डेय की कहानियों की केंद्रीय थीम मासूमियत ही है, यहाँ  तक कि शहरी जीवन पर लिखी कहानियो में भी, मसलन प्रिया सैनीजैसी कहानी तक में, जिसे बिना ठीक से समझे, डा. चंद्र भूषण तिवारी मज़ाक का विषय बनाया करते थे, मार्कण्डेय जी को चिढ़ाने के लिए।


मार्कण्डेय जी के सात कहानीसंग्रह प्रकाशित हुए जो बाद में एक जिल्द में मार्कण्डेय की कहानियांशीर्षक से लोकभारती ने छापे।पान फूलउनका पहला कहानी संग्रह था, मार्कण्डेय जी के मुताबिक़ वह पहले पहल 1954 में और फिर 1957 में छपा था, उसकी पहली ही कहानी एक मशहूर कहानी बन गयी थी––‘गुलरा के बाबा जैसा कि मैंने कहा कि उनकी कहानियां सांग्स आफ़ इन्नोसेंसहैं, जिन गीतों के केंद्र में मासूमियत का प्रतीक बच्चाया उसका बिंब रहा था, गुलरा के बाबा के अंदर भी आप उस बच्चे को देख सकते हैं। कहानी के ठीक बीचों बीच उस बच्चे का बिंब आता है : उस समय बाबा बच्चे थे।’ (मार्कण्डेय की कहानियां, लोकभारती, पृ. 5) एक मासूम बच्चे के रूप में एक वेश्या की जिस मासूम लड़की के साथ खेल रहे थे, वह जवान हो कर बाबा के पास प्रणय निवेदन के साथ आती है, तो बाबा बाबा ही बने रहते हैं, निर्विकार, उनकी जगह शहरी मध्य वर्ग का कोई आधुनिक पात्र, भले ही वह हिंदी का प्रोफे़सर ही होता, उस लड़की को खुशी-खुशी उपकृत कर देता। बाबा के साथ जो दो नवयुवक रहते हैं, उन्हें भी बच्चेके बिंब से चित्रित किया गया है जिन के साथ मिल कर उन्होंने उस सिल्ली को चीरने के लिए खड़ा कर दिया जिसेदस आराकस और आठ चरवाहे और लोहार––कुल अठारहलोग भी टस से मस न कर सके। जब लोगों ने बाबा की ताक़त की तारीफ़ की तो बाबा ने कहा कि यह ज़ोर तो उन्हीं दो लड़कों का था। यह सुन कर बच्चे हँस पड़े। लोहार ने कहा, ‘नहीं बाबा, ये सब बच्चे हैं, क्या ज़ोर लगायेंगे।कहानी का अंत जिस घटना से होता है, वह भी मासूमियत का ही उदाहरण है, बाबा अपना परोसा खाना छोड़ कर चैतू की टूटी टांग सेट करने चले जाते हैं, और उसकी टूटी छान देख कर इतने द्रवित हो जाते हैं कि दूसरे ही दिन गुलरा की सरपत कटवाने के लिए पच्चीस मज़दूर लगा देते हैं, किस लिए, ‘चैतुआ की छान्ह टूट गयी है।(मार्कण्डेय की कहानियां, लोकभारती, पृ. 8) यह बालसुलभ मासूमियत तो आज के गांवों में भी अब नहीं मिलती।

उक्त संकलन की ही शीर्षक कहानी, ‘पान फूलको भी आप सांग आफ़ इन्नोसेंसकी तरह पढ़ सकते हैं। यह कहानी तो है ही बच्चों की मासूमियत के बारे में। जानकी की बच्ची नीली, और उसके यहाँ  काम करने वाली पारो की बच्ची रीती, की यह त्रासद कहानी है। इनकी मासूमियत को पूरी कहानी में तरह तरह केफूलोंके बिंबों से सजाया गया है, उनकी मासूमियत को सेलीब्रेटकरने के लिए जब गाँव  के लोग बाउली पर पहुंचते हैं, तो वे दोनों बच्चियां बाउली में डूब चुकी होती हैं, पानी की सतह पर तैरते पान फूल ही लोगों को दिखायी देते हैं, नीली और रीती नहीं। दर असल, आज़ादी के बाद के माहौल में चालाकी, छल, फरेब, बेईमानी और कलह आदि से भरे भवसागर में मासूमियत डूब रही थी, कुछ कहानीकारों ने जिनका जि़क्र मैंने ऊपर किया है, इस मासूमियत को ही रेखांकित करने की रचनात्मक कोशिश की थी, वे इसी लोप होती मासूमियत की ट्रेजिडी रच रहे थे। मार्कण्डेय की कहानियों की तो केंद्रीय थीम ही यह है। हिंदी के कथा आलोचकों ने इस केंद्रीय थीम को पहचाना ही नहीं, इन कहानियों में कोरी भावुकता ही देखी।
 
मार्कण्डेय जी की सारी कहानियों का विवेचन इस छोटे से आलेख मे संभव नहीं, उसके लिए तो एक पूरे शोध ग्रंथ की दरकार होगी, और कोई न कोई शोधार्थी किसी न किसी विश्वविद्यालय में यह काम करेगा ही या शायद कर रहा होगा। मैं कुछ एक कहानियों और ख़ासकर उनके संकलनों की शीर्षक कहानियों की पड़ताल करते हुए उनमे सेलीब्रेटकी गयी मासूमियत को ही रेखांकित करना चाहूँ गा। उनके दूसरे संकलन, महुए का पेड़, की शीर्षक कहानी को इस नज़र से देखा जाये। यह कहानी दुखना नामक एक ग़रीब विधवा के महुए के पेड़ की कहानी है, जिसके फूल क्या होते हैं जैसे मिश्री के दाने। गाँव  के लोग उसे मिसिरहवा कहते हैं।दुखना का इस पेड़ से बड़ा निकट संबंध है।’ ‘दुखना कभी उसे अपना बच्चा समझती थी।अंग्रेजी कवि वर्डसवर्थ ने जब अपने काव्यशास्त्र की रचना की तो उसमे भी मासूमियत के प्रतीक दुखना जैसे पात्रों को चुनने की सलाह दी क्योंकि उनका प्रकृति के साथ निकट का संबंध होता है। इस कहानी में भी बच्चों के बिंब बार-बार आते हैं। दुखना जब तीर्थ यात्रा के लिए कुछ पैसे उधार लेने के लिए अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ  जाती है तो यह अफवाह उड़ जाती है कि दुखना तो कहीं चली गयी और गाँव के ज़मीदार को मौक़ा मिल गया, उसने उसका महुए का पेड़ कटवा दिया जो उसकी झोंपड़ी पर ही गिर पड़ा और जब दुखना लौट कर आयी तो उसने वह विध्वंस देखा। उसकी बेबसी, उसकी करुण दशा का चित्र कहानीकार ने सहज ही खींच दिया है, मासूमियत की प्रतीक दुखना के अवसान की कहानी है महुए का पेड़

मार्कण्डेय जी का तीसरा संकलन, था, ‘हंसा जाई अकेला इस संकलन की शीर्षक कहानी की व्याख्या आधुनिकतावादियों की नज़र से भी की जा सकती है, क्योंकि इसमें हंसा नामक कथानायक का अकेलापन रेणु के हीरामन के अकेलेपन की तरह ही चित्रित किया गया है। लेकिन मैं इसे भी अकेलेपन के बजाय हंसा की मासूमियत की कहानी के रूप में देखता हूँ । रतौंधी का शिकार हंसा रात के वक्त कहीं से गाँव  के ही लोगों के साथ लौट रहा था, रास्ते में एक नौजवान बहू से अंधेरे मे टकरा गया तो उसे गिरने से बचाने के लिए उसने अपनी बांहों में रोक लिया और उसके चीखने पर पास में बैठा एक बुढ्ढा लाठी ले कर उसकी तरफ़ दौड़ा और भागने के इस क्रम में वह कांटों में गिरता पड़ता गाँव  पहुंचा। हंसा की जो तस्वीर रचनाकार ने खींची है, वह भोले भाले ग्रामीण की ही है जिससे बच्चे चिपटते रहते हैं। बच्चों के बिंब यहाँ  भी खूब है । जब हंसा ढोलक लेकर गाँव  में कांग्रेस की सभा मे सुशीला जी के गायन की मुनादी करता घूमता है तो वहाँ , ‘दलकेदल लरिकाबच्चा सब…बोलो, बोलो, गन्हीं बाबा की जय।इसी तरह जब हंसा सुशीला का प्यार पा कर कांग्रेस का कार्यकर्ता बन कर गाँव  में चुनाव प्रचार करता घूमता है तो गाँव  के बच्चे हंसा दादा के पीछे…। जब सुशीला की निमोनिया से मौत हो जाती है तो उसके प्यार का संसार सूना हो जाता है, और वह पागल हो जाता है, तब भी बच्चे उसके साथ घूमते हैं। इस तरह इस मासूमियत की कहानी का अंत ट्रैजिक है।
 
मार्कण्डेय जी का चौथा संकलन पहले माईशीर्षक से छपा था जिसे उन्होंने बाद मे भूदानशीर्षक से प्रकाशित करवाया। राजनीतिक चेतना के दबाव में शायद भूदान के खोखलेपन को उजागर करने के विचार से उन्होंने इस कहानी को केंद्र में लाना उचित समझा होगा। लेंकिन माईके केंद्र में वही मासूमियत है जिसे मैं उनकी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति की धुरी मानता हूँ  और जिसकी वजह से वे अलग कि़स्म के रचनाकार दिखते हैं। मासूमियतभूदानकहानी में भी छली जाती है जिसमें रामजतन जैसे भोले-भाले किसान को ज़मीदार ठग लेता है, और ज़मीन हड़प कर उसे भूदान के माध्यम से ज़मीन दिलवाने का झुनझुना थमा देता है, और इस तरह वह मासूम ग़रीब किसान ठगा जाता है। लेकिन माईतो कहानी ही बच्चों की मासूमियत की है जिनमें से एक मासूम, बीरू, ज्‍यादा संवेदनशील होने की वजह से क्रोधी और तोड़-फोड़ करने वाला और साथ ही बीमार रहने वाला बच्चा बन जाता है, मगर माई उसे अपने स्नेह से वंचित करने को तैयार नहीं। यहाँ माई के लिए सभी बच्चे बराबर हैं, बीरू के प्रति उसका प्यार कम नहीं, जब कि उस उग्रपंथी बच्चे से बाक़ी सभी को शिकायत है। माई जानती है कि जो पढ़ लिख जायेंगे वे तो साहब बन जायेंगे, बीरू का तो उसके अलावा और कोई नहीं होगा। इसलिए माई उसके प्रति अपने मोह में कमी नहीं दिखाती। यहाँ  मासूमियत एक मानवमूल्य के रूप में दिखायी गयी है, माई भी उसी मासूमियत की प्रतीक है।

मार्कण्डेय जी का पाँचवां संकलन, ‘माहीहै जिसमें उनकी मशहूर कहानी, ‘दूध और दवाभी शामिल है। उनकी यह कहानी अपने शिल्प में अलग तरह की कहानी है, इसमें कोई पारंपरिक तरह का प्लाट या चरित्र-चित्रण नहीं है, निम्न मध्य वर्ग का वह यथार्थ है जो उस समय की एक सचाई था, आज तो वह नवधनाढ्य वर्ग में तब्दील हो चुका है। उस समय सचमुच ही उसके लिए अपनी बच्ची के इलाज के लिए पैसे जुटा पाना आसान नहीं था। वह अपनी बेबसी का गुस्सा अपनी पत्नी पर उतारता था, क्योंकि उसकी पत्नी और मजदूर की हालत एक जैसी थी। कहानी में बार-बार एक वाक्य आता है, ‘मैं समझ नहीं पाता कि स्त्रियां और मजदूर मालिकों को क्यों ओढ़े हुए हैं, महज इतनी सी बात के लिए, या मुन्नी की आंखों के मांड़े की दवा या उसके दूध के लिए। यदि गहराई में उतर कर देखें तो यहाँ भी कहानी के वाचक की यह दशा उसकी अपनी मासूमियत ही है, उसके पास वह छल या तिकड़म नहीं है जो उसे एक सफल इंसान बनाने में मदद करती है, वह लेखन से क्या कमाई कर लेगा, वह अपनी बेटी की मासूमियत को भी जिंदा रखना चाहता है, उसका सपना है उसे पेंटर बनाने का, ‘मेरी बेटी, मैं चाहता हूँ, वह पेंटर बने…उन दिनों पेंटिंग का भी आज की तरह बाज़ार नहीं था, कम से कम धनी बनने का साधन तो कला थी ही नहीं। बच्ची की चिंता और उसकी मासूमियत को दर्शाने वाले कथन कहानी में जगह जगह उभारे गये हैं, उसी तरह के बिंब कहानी में पिरोये गये हैं, इसमें कहानीपन कम और कवितापन ज्यादा देखा जा सकता है, निर्मल वर्मा की तरह का नयी कहानीका शिल्प अपने अलग अंदाज़ में अपनी अलग विचारधारात्मक झलक देता हुआ। इस कहानी में मार्कण्डेय जी ने अपनाया जो नये शिल्प पर उनकी पकड़ को भी रेखांकित करता है। इस संकलन की शीर्षक कहानी, ‘माही’, भी अलग कि़स्म की छोटी सी कहानी है, इसमें दो सहेलियां अपनी-अपनी मासूमियत जी रही हैं और एक तरह का अंदरूनी अकेलापन झेल रही हैं। एक रुक्मी जो ब्याहता है और अपने मायके आयी हुई है, यहीं उसकी सहेली माही है जिसके जीवन की एक झलक उस पत्र से मिलती है जिसे रुक्मी पोस्टमैन से लपक लेती है और उसे खोल कर पढ़ लेती है। इन युवतियों की मासूमियत के लिए इस कहानी में भी बच्चेके बिंब पिरोये गये हैं। रुक्मी के मायके आने पर बच्चे उसके आंचल से चिपके रहते हैं…कहानी की की शुरू की ही पंक्तियों में रुक्मी अपनी सहेली माही को सलाह देती है कि वह अपने अकेलेपन को काटने के लिए बच्चों के साथ कोई खेल ही खेल लिया करे। घर में बच्चे हैं।कहानी का बड़ा भाग किसी प्रीतीश को माही के लिए लिखा गया पत्र है जिसमें प्यार से कहीं ज्यादा अलगाव रेखांकित किया गया है, दो अलग अलग वजूद हैं, जिनमें सामंजस्य की संभावना नहीं है। कहानी छिपे तौर पर यह रेखांकित करती है कि माही की मासूमियत प्रीतीश द्वारा छली जा रही है, दूर होने का बहाना तलाश किया जा रहा है, इस छलना को रुक्मी भी पत्र पढ़ने के बाद अपने जीवन में महसूस करने लगती है। इसी संकलन में एक कहानी सूर्याहै जिसमें सूर्या की मासूमियत का विश्लेषण है, सूर्या का लगाव जगजीत से है जिसे उसकी मां ने कभी नौकर के रूप में रखा था, और बाद में सुनील से उसका प्यार हुआ क्यों कि वह बच्चाचाहती थी। मगर जिंदगी के एक मोड़ पर उसे फिर से जगजीत ही मिल जाता है जब वह एक स्कूल में गुरु जीबन कर पहुंचती हैं। सतही तौर पर देखने में यह कहानी एक फि़ल्मी अंदाज़ की अविश्वसनीय कहानी लगती है, लेकिन इसे उसी नज़रिये से देखें तो इसके केंद्र में भी सूर्या और जगजीत की मासूमियत ही है, इसे मासूमियत की कहानी के रूप में ही व्याख्यायित कर सकते हैं। महरी सूर्या को जब उनसे पहले वाली मास्टरनी के बारे में बताती है तो इसी थीम का संकेत देती है: आपके पहले वाली गुरु जी तो इसी क्वार्टर में आठ बरस रह गयीं…यहीं ब्याह किया और यहीं उनके बच्चे भी हुए। उन्हीं ने तो जगजीत को रखा था। घर द्वार का कुछ पता नहीं बेचारे का, बचपन से मारा मारा फिरता था। कुछ दिन शहर में किसी के यहाँ  काम कर चुका था…महरी को यह पता नहीं कि यह जगजीत सूर्या के ही घर पर काम कर चुका था जब वह सत्तरहअठारह बरस की थी और उससे वह गर्भवती भी हुई थी। कहानीकार ने कहानी के टैक्स्टमें एक जगह सूर्या के लिए भोली बच्चा सूर्यापद का इस्तेमाल किया है। इस मासूम को अब सुनील से शादी करने का सपना भयाक्रांत करता हे, उसकी स्वतंत्रता खंडित हो जायेगी और फिर से उसके मन में जगजीत नौकर के लिए एक चाहत पैदा हो जाती है। यह मासूमियत के प्रति मासूमियत का आकर्षण है।

माहीके बाद उनका अगला संकलन, सहज और शुभनाम से आया। इसकी शीर्षक कहानी सहज और शुभमें वाचक अपने बचपन और अपनी चचेरी बहिन सविता के बचपन के दौरान की मासूमियत को अपनी स्मृति में जीता है। वाचक और सविता एक चिडि़या पकड़ते हैं और उसी के बहाने अपनी मासूमियत की अंतर्कथा पेश करते हैं। एक ओर रमोला दादी हैं जो पिंजड़ों में पक्षियों को कैद किये हुए हैं,  दूसरी ओर वहमासूमचिडि़या है जो मासूम सविता के कंधे पर बैठती है और उसकी हो जाती है। रिबन से बंध जाने पर भी वह नीबू की एक टहनी से दूसरी टहनी पर फुदकती रही है। यहाँ  पिंजरा नहीं है, नीबू की टहनी पर ही तो है, अपने जैसे मासूम बच्चों के साथ। वाचक इस चिडि़या के लिए मासूम जानशब्द का इस्तेमाल करता है।

मार्कण्डेय जी का सातवां संकलन था, ‘बीच के लोग वैसे तो बीच के लोग से मध्य वर्ग का अर्थ लिया जाता है। शील जी की एक मशहूर कविता भी इसी शीर्षक से थी जिसे वे ज़रूर सुनाया करते थे,  ‘बीच में लटके बीच के लोग मार्कण्डेय जी की पूरी कहानी मध्य वर्गीय पात्रों की कहानी नहीं है। वह गाँव के वर्गीय अंतर्विरोध उभारती है और सिर्फ कहानी के अंत में एक बयान से कहानी के संवेदनात्मक उद्देश्य को उजागर कर देती है कि ज़रूरत तो ऐसी ही है। अच्छा हो दुनिया को जस जसकीतस बनाये रहने वाले लोग अगर हमारा साथ नहीं दे सकते तो बीच से हट जायें, नहीं तो सबसे पहले उन्हीं को हटाना होगा, क्योंकि जिस बदलाव के लिए हम इस रण को रोपे हुए हैं, वे उसी को रोके रहना चाहते हैं।यह बयान एक भूमिहीन किसान, बुझावन के बेटे मनरा के मुंह से दिलवाया गया है जो लाल झंडा पार्टी की किसान सभा का उत्साही युवा कार्यकर्ता है। ऐसा बयान एक क्रांतिकारी युवा के मुंह से कहलवा कर मार्कण्डेय ने एक ऐसे यथार्थ को रेखांकित कर दिया जो हमारे देश में अविकसित क्रांतिकारी चेतना का परिचायक है। मनरा की चेतना का स्तर यह है कि मध्य वर्ग क्रांति में आड़े आयेगा तो सर्वहारा वर्ग उसे पहले खत्म कर देगा, यह संकीर्णतावादी सोच है, भारतीय क्रांति में मध्य वर्ग की सहभागिता और उसे क्रांति के पक्ष में करने की कठिन प्रक्रिया से बचना या इस तरह का अतिवादी रवैया अख्तियार करना घातक ही हो सकता है, मुक्तिबोध इस कठिन जिम्मेदारी को समझते थे और उन्होंने अपने रचनाकर्म से मध्य वर्ग को सर्वहारा के पक्ष में खड़ा होने के लिए प्रेरित किया, और उन भौतिक परिस्थितियों को भी अपनी रचनाओं में रखा जिनके दवाब में मध्य वर्ग को एक ऐतिहासिक मोड़ पर क्रांतिकारी शक्तियों के साथ आना होगा, अन्यथा समाज का भावी विकास रुक जायेगा। आज पूंजीवाद की विकसनशील क्षमता के बने रहने के दौर में भले ही यह प्रक्रिया मंद या असंभव लगे, मगर मुक्तिबोध के ही शब्दों में, ‘यह भवितव्य अटल है इसको अंधियारे में झोंक न सकतेबीच के लोगकहानी में यह राजनीतिक चेतना का कच्चापन भले ही अंत में झलकता हो, कहानी की बुनावट में उस मासूमियत को बरकरार रखा गया जिसकी चर्चा इस आलेख में हो रही है। गाँव  में जो उत्पादन के रिश्ते हैं, उनमें एक समरसता बनाये रखने में उस मासूमियत का रोल यहाँ भी है, जिसे फउदी बाबा की पोती बुचियाके बिंब से कहानी के केंद्र में रखा गया है, उस बच्ची के लिए गरीब बुझावन उस खेत में बचे खुचे आलू बीन रहा है जिसके सारे आलू ठाकुर ने चोरी से रात में अपने आदमी लगा कर निकलवा लिये थे और उस चोरी की वजह से गाँव में खूनी संघर्ष होने वाला था, मगर गरीब बुझावन जिसका बेटा किसान सभा का कार्यकर्ता है, फउदी दादा की पोती उस बच्ची की मासूमियत और उसके प्रति लगाव के कारण संघर्ष को होने से बचा लेता है। भारतीय गांवों की इस विचित्र संरचना में शोषित और शोषक के बीच के रिश्तों की यह जटिलता है, यहाँ हर जाति धर्म के लोगों में आपस में पारिवारिक रिश्ते ही बने हुए हैं, यहाँ धोबिन चाची या ताई हो जाती है, कुम्हार या नाई सभी इसी तरह के रिश्ते से पुकारे जाते हैं। भारत देश में ही यह संभव है कि सब एक जन नेता गांधी को बापूके नाम से पुकारने लगते हैं, नेहरू को चाचाबना लेते हैं, यह रिश्ते जोड़ने की परंपरा गांवों से ही ली गयी है। इस परंपरा में भी एक मासूमियत ही छिपी हुई है, वरना अपने बापू के अलावा किसी और को बापू बनाना खुद को ही गाली देने जैसा होता।

इसी संकलन में मार्कण्डेय जी की एक और मशहूर कहानी है, ‘प्रिया सैनी। यह कहानी इस संकलन की अंतिम कहानी भी है। नयी कहानी के गैर रोमांटिक तामझाम से बने परिवेश में यह कहानी कई आलोचकों को लिजलिजी भावुकता से भरी हुई कहानी लगती रही। मैंने भी नयी दिल्ली के अपोलो हास्पिटल में उनके दिल के आपरेशन के बाद उनके डाक्टर से मज़ाक में पूछा कि आपरेशन के वक्त कुछ प्रेमिकाओं के फोटो तो दिल में नहीं मिले, यदि मिले हों तो दिखाये जायें, मार्कण्डेय जी मुस्कराये। प्रिया सैनी से अलग होने के बाद जो टीस वाचक झेलता है, उसके बारे में कहानी की शुरुआत में ही कहा गया है, ‘मुझे लगता है कि कलेजे की सीयन ही टूट जायेगी…। और दर्द को बयान करने के लिए कहानी फ्लैशबैक की तकनीक से शुरू होती है। वाचक आज के जीवन में संवेगों की परिवर्तित प्रकृति पर खोजकर रहा है और प्रिया सैनी से मुलाकात, उनसे इस बारे में कुछ जानने के लिए करता है। प्रिया सैनी नृत्य की टीचर है और उसके पिता भी आकाशवाणी में ठेके पर कलाकार हैं। मां नहीं है। पिता के बारे में वह बताती है किपिता पूर्णत: संत हैं।वाचक प्रिया सैनी के लिए भी जिन बिंबों का या उपमाओं का इस्तेमाल करता है उनसे उसकी मासूमियत की ही छवि उभरती है, ‘छोटी सी नदी की तरह स्वच्छ जलधार और मधुर, धीमी ध्वनि का वह संस्कार जिसे सिर्फ प्रिया के चित्र के साथ ही जोड़ा जा सकता है।वाचक की दूसरी मुलाकात तब होती है जब उसे प्रिया सैनी की एक नृत्य नाटिका, ‘इंसान की खोजदेखने के लिए निमंत्रण कार्ड डाक से मिलता है और वहाँ जाने पर उसका स्वागत प्रिया के प्रेमी या भावी पति के रूप में होता है। नृत्य के बाद जब वह उससे मिलता है तो वहाँ  प्रिया की मासूमियत का बिंब रचनाकार ने पिरो दिया है: प्रिया दोनों हथेलियों को परस्पर बांध कर इस तरह मुस्काराने लगी जैसे कोई नन्हीं सी बच्ची हो। और उसके बाद उनका मिलन जुलना बढ़ता ही गया जो वास्तविक प्रेम में बदल गया लेकिन इस मासूम प्रिया के जीवन में एक अन्य घटना भी घटी जिसका मर्म जानने के लिए वाचक लगातार प्रिया पर दवाब डालता रहा। उसके पेट में एक शिशु पल रहा था और वह किसका था, इसका उत्तर न मिल पाने की हालत में वह उसे छोड़ कर गाँव और फिर बंगाल आदि जगहों पर भटकता रहा और जब लौट कर आया तो उसे प्रिया सैनी का एक पत्र मिला जिसमें उस घटना की जानकारी थी जिसमें एक हड़ताली मजदूर उसी तरह उसके कमरे में दाखिल होता है जैसा कि बर्नार्ड शा के नाटक आम्‍स एंड द मैनमें रायना के कमरे में एक घायल सिपाही और उस सिपाही से रायना का इश्क। प्रिया का भी उस मजदूर से इश्क और फिर रतिक्रिया और उसी के फलस्वरूप उसका गर्भधारण। उस पत्र से सारी जानकारी हासिल तो हो गयी लेकिन प्रिया सैनी हमेशा हमेशा के लिए उससे अलविदाकह गयी। यह दंश वाचक को लगातार सालता है।

अंग्रेज़ी के कई कथाकार मासूमियत के प्रतीक पात्रों को ऐसी स्थिति में दिखाते हैं कि उनके लिए यह छल छद्म से भरा संसार जीने लायक नहीं। टामस हार्डी के पात्र इसी तरह चित्रित किये गये थे। टैसनाम उपन्यास में टैस के साथ भी यही होता है। वह भी मासूमियत की प्रतीक है। अंत में जब वह उस प्रेमी की हत्या कर देती है जो उसे झूठ और फरेब से अपनी पत्नी बना लेता है तो उसे फांसी की सज़ा सुनायी जाती है और उपन्यास का वाचक व्यंग्य से लिखता है कि लो न्याय हो गया। उपन्यास के पहले ही पृष्ठ पर शेक्सपीयर की एक पंक्ति छपी थी जिसका अर्थ था मेरा दिल ही तुम्हारे रहने की जगह हैयानी छल फरेब झूठ, अन्याय और मार-धाड़ से लबालब इस संसार में मासूमियत के लिए कोई जगह नहीं, जो मासूम होंगे वे मारे जायेंगे।
 
मेरे विचार से मार्कण्डेय जी ने अपनी कहानियों में इसी मासूमियत को अपनी रचनाशीलता का विषय बनाया और उसकी जरूरत को रेखांकित किया, क्योंकि मुक्तिबोध की तरह वे भी जानते थे कि भोले भाव की करुणा क्रांतिकारी सिद्ध होती है।
(यह आलेख चंचल चौहान के ब्लॉग http://chanchalchauhan.blogspot.in/2010/07/blog-post_27.html से साभार लिया गया है)

मार्कण्डेय जी का आलेख ‘नई कहानी की उपलब्धियाँ’


 

मार्कण्डेय जी

मार्कण्डेय जी अगर आज हम सबके बीच होते तो उम्र का 85 वां वर्ष पूरे कर रहे होते। बहुत कम लोग इस बात से परिचित हैं कि वे एक सशक्त कहानीकार के साथ-साथ एक बेहतर आलोचक भी थे। नयी कहानी की उपलब्धियों के बहाने उन्होंने कहानी और उसकी आलोचना पर अनेक महत्वपूर्ण बातें की हैं। ‘कहानी की बात’ नामक उनकी महत्वपूर्ण किताब से एक आलेख आप सबके लिए प्रस्तुत है
    
नई कहानी की उपलब्धियाँ
मार्कण्डेय
नयी कहानी से स्पष्टत: दो ही अर्थ लगाये जा सकते हैं। एक तो यह कि जो भी कहानियाँ वर्तमान समय में लिखी जा रही हैं सबकी सब नयी हैं क्योंकि वे समसामयिक लेखकों द्वारा वर्तमान समय में लिखी जा रही हैं। इस तरह नयी पीढ़ी के लेखकों के साथ वे सभी कहानीकार भी नयी कहानी लिख रहे हैं जो पिछले दशक से कहानीकार के रूप में स्वीकृति पा चुके हैं तथा वे भी, जो एकदम नए हैं बाल सुलभ जिज्ञासा के कारण कल्पना के सहारे कुछ एक कथानकों की एक सृष्टि कर लेते हैं और वे भी जो कथा साहित्य की विकसित परम्परा एवं नए युग की सामान्य विकसित वास्तविकताओं तथा युग सत्यों से अपरिचित होने के कारण पुरानी, बार-बार की दोहाई भावभूतियों में कुछ एक नए चटक रंग भर कर, कहानीकारों की पाँत में नाम लिखाए, अपनी रचनाओं में नए मूल्यान्वेषण की बात का नारा बुलन्द किया करते हैं। कुल मिला कर सारा का सारा नया लिखित कथा साहित्य इस नए’ के अर्थ बोध का अधिकारी हो सकता है।
लेकिन वास्तविकता यह है कि साहित्य में नया विशेषण नए भाव बोध नयी जीवन शक्ति, नए शिल्प, नवीन सामाजिक दृष्टि आदि का बोधक है इसलिए नई कहानी का यह अर्थ वैशिष्ट्य कहानी की संख्यागत परिसीमा को बहुत लघु बना देता है। कृतिकार की नवीनता की अपेक्षा कृति की नवीनता को महत्व देता है। जैसा कि मैंने अन्यत्र कहा है नयी कहानी से हमारा मतलब है उन कहानियों से जो सच्चे अर्थों में कलात्मक निर्माण है, जो जीवन के उपयोगी अथवा महत्वपूर्ण होने के साथ ही, उसे किसी न किसी नए पहलू पर आधारित हैं या जीवन के नए सत्यों को एकदम नई दृष्टि से दिलाने में समर्थ हैं। इसलिए आसानी से यह कहा जा सकता है कि हर समसामयिक कहानी नयी नहीं है, चाहे लेखक नया ही क्यों न हो, अथवा एक नए लेखक की ही एक कहानी नयी हो सकती हे, दूसरी पुरानी।
यहीं टाल्सटॉय की एक बात याद आती है। ऐमिनोव्य की किसानों की कहानियाँ’ नामक पुस्तक की भूमिका में वह बड़ी सादगी से कहते हैं,मैं किसी कलाकृति में बड़े ध्यानपूर्वक देखता हूँ कि कलाकार जीवन के किस नए पक्ष का उद्घाटन अपनी कृति में करता है वह मनुष्य के लिए कितना उपयोगी और महत्वपूर्ण है लेकिन कलाकृति वही हो सकती है जो जीवन के किसी नए अंग को हमारे सामने खोले और यह नया अंग फिर आने वाले किसी भी युग में पुराना नहीं होता, क्योंकि वह अपने तरह का अकेला ही पैदा होता है और चिर नवीन बना रहता है।
रचना की नवीनता की यहीं शालीन अर्थवत्ता है और प्राप्त होनी चाहिए। अगर इस दृष्टि से विचार किया जाए तो दिवंगत प्रेमचन्द तथा पिछले दशक से मान्यता प्राप्त कहानीकार यशपाल की कहानियाँ भी नयी कहानी की सीमा में आती हैं और अगर हम कथा को एक सामाजिक शक्ति एवं विकासमान वास्तविकता का मुख्य द्योतक मानते हैं तो शायद नये कहानीकारों की कोई विरली कहानी ही उपरोक्त लेखकों की अनेक कहानियों से नयी ठहरेगी ऐसा कहते समय मेरी निगाह में हमारे वर्तमान समाज को बदलती हुई परिस्थितियाँ, नए जीवन सत्य एवं कथानक के नए-नए क्षेत्र, सभी समान रूप से उपस्थित हैं।
आज का नया कहानी लेखक समाज की नयी वास्तविकताओं की उपज है, लेकिन वैचारिक सम्पन्नता में वह किसी कदर अपनी पिछली पीढ़ी के लेखकों से आगे नहीं जाता। समाज की कुरूपताओं के वस्तु तथ्य चित्रण की कला को कभी-कभी वह यथार्थ और बोल्ड की संज्ञा देता है। इसमें संदेह नही कि नए कहानीकारों में वस्तु तथ्य चित्रण का प्रभावोत्पादक रूप देखने को मिलता है शायद इसी कारण नई कहानी ने अपने पाठक भी पैदा कर लिए हैं लेकिन इन पाठकों के लिए मध्यमवर्गीय जीवन की सड़ांध और घुटन का वस्तु-स्थिति-चित्रण एक मृगमरीचि की भांति होगा।
अन्तत: इन कहानियों का प्रतिफलन मनोविश्लेषणवादियों की तरह एक काल्पनिक मायालोक के रूप में हो जाएगा शायद गोर्की ने इस स्थिति को और भी अच्छी तरह देखा है जब वह कहता है इन आर्डर टू डेस्क्राईव वेल ए राइटर मस्ट नाट वन्ली सी वेल, ही मस्ट आल्सो फोर सी वेल’ नए कहानीकार देखते तो अच्छी तरह हैं पर उनमें फोर सी’ करने की शक्ति पैदा नहीं हो पाई है। प्रेमचन्द के बाद हमारी कितनी ही प्रतिभाएँ सामाजिक परिस्थितियों की प्रगति को न देख पाने के कारण पथभ्रष्ट हो गयीं और उनका साहित्य समाज के विकास के साथ-साथ इतिहास की वस्तु बनता जा रहा है। हमारी सम्पूर्ण ऐतिहासिक प्रगति में प्रेमचन्द के बाद यशपाल ने सामाजिक प्रगति को अच्छी तरह पहचाना है और सामाजिक यथार्थ को उन्होंने अपनी रचनाओं में कृत्रिम ढंग से व्यक्त किया है। लेकिन नई कहानियों की वैचारिक उपलब्धियों का विवेचन करते समय उनके शिल्प सम्बन्धी तत्वों को नकार जाना हमें किसी भी प्रकार अभीप्सित नहीं है और इसमें संदेह भी नहीं कि नए कहानी लेखकों ने कथा शिल्प के नए-नए प्रयोग किए हैं और कई मित्र प्रतीक शैली की सफलता की बात काफी प्रमुदित होकर करते हैं। जीवन के विम्ब प्रतिविम्ब की छवि भी कहानी में देखते हैं लेकिन कहानी की शिल्प व्यवस्था में इस विशेष सौन्दर्य की उपयोगिता तभी तक है जब तक वह कथानक को अधिक सहज, बोधगम्य और शक्तिदायक बनाये अन्यथा फ्रांस के सिम्बोलिस्ट आंदोलन के इतिहास से हम सभी का परिचय है। कहानी को प्रतीकों के माध्यम से कह कर रहस्य की सीमा तक पहुँचा देने का समर्थन नहीं किया जा सकता क्योंकि यह प्रवृत्ति कला के लिए मूलत: हानिकारक सिद्ध हो चुकी है। वास्तविकता यह है कि आज के कई मध्यवर्गीय जीवन पर लिखने वाले कथाकार प्रेमचन्दोत्तरकाल की प्रवृत्ति मूलक अव्यवस्थाओं की उपज हैं जिनकी रचनाओं पर मनोविश्लेषण वादियों की मध्यमवर्गीय घुटन और कुण्ठाओं तथा प्रगतिवादी आंदोलन के स्थूल यथार्थ की वैचारिक संक्रान्ति का अव्यक्त भाव रहा है। इन नए लेखकों की चेतना इसी विशिष्ट काल की उपज है स्पष्टत: यह समय सन् ५० के पहले का है जिसमें एक ओर अत्यन्त अन्तर्मुखी भावधारा कार्यरत थी वहीं दूसरी ओर घोर स्थूल की स्थापना में साहित्य प्रचार सामग्री का पर्याय बनता जा रहा था। मोहन राकेश और राजेन्द्र यादव इस संक्रान्ति काल के लेखक हैं, जिनके कहानी संग्रह भी उसी समय प्रकाशित हुए थे और दुविधा की इन्हीं स्थितियों के प्रभाव के कारण इनकी रचनाएँ तत्कालीन पाठक एवं आलोचक समाज का ध्यान अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकते थे जिस प्रकार मनोविश्लेषण वादियों ने उस समय मध्यम वर्ग की बदली हुई वास्तविकताओं को समझने में भूल की थी और वैचारिक कुण्ठाओं के प्रक्षेप में उस जीवन को देखा था- करीब-करीब वही स्थिति आज भी इस वर्ग के लेखकों में वर्तमान है। मूल रूप से इनकी चेतना का संगठन उन्हीं परिस्थितियों का प्रतिफल है।
इसलिए वैचारिक विशेषता का वर्तमान अभाव हमारी नयी कहानी में आकस्मिक नहीं है। वस्तुस्थिति की वर्णन कुशलता का पैâन्टेस्टिक रूप विधान भी इन्होंने मनोविश्लेषणवादियों से ही ग्रहण किया है जिसे आज शिल्प सौन्दर्य तथा प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति आदि का नाम देकर कई लोग वास्तविक नयी कहानी के परिप्रेक्ष्य को धुंधला बनाने की कोशिश करते हैं।
वैचारिक प्रतिक्रिया में यह लेखक उस समय एकदम उघड़ जाते हैं जब ये ग्राम कथाओं के अत्याधुनिक सम्भावनाओं पर उस जीवन की सच्चाइयों को जाने बगैर विचार करते हैं। नये बादल’ और जहाँ लक्ष्मी कैद है’ की भूमिकाओं में इस प्रक्रिया के संकेत स्पष्ट हो उठे हैं। राकेश तो ग्राम कथा पर इस नाम के साथ विचार करने का ही विरोध करते हैं और राजेन्द्र यादव गाँव पर कहानी लिखने वाले को खेत में काम करते देख कर ही संतुष्ट होना चाहते हैं।
वस्तुत: कथा में बार-बार का प्रयुक्त मध्यम वर्ग नयी सामाजिक दृष्टि के अभाव में इतना मोनोटोनस हो उठा है कि इन लेखकों को सेक्स और विट का सहारा ले कर प्रभाव उत्पन्न करना पड़ा है। इस उत्पीड़ित मानसिक आवेग का प्रभाव आज की अधिकांश मध्यवर्गीय नयी कहानियों में से ढूँढ निकालना मुश्किल नहीं होगा।इसलिए वर्तमान समय में मध्यमवर्गीय वस्तु तत्व पर लिखी जाने वाली अधिकांश कहानियों में नयेपन का सर्वथा अभाव है और वे कहानी के नये अभिदान में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं करतीं।
समग्र रूप से देखने पर ग्राम कथा का नया पुनरूत्थान ही इस उत्तर शती के कथा साहित्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है। हो सकता है, हमारे कुछ मित्रों की हमारे कथन से सहमति न हो और वे किन्हीं और कारणों से इस वास्तविकता को झुठलाना चाहें पर वास्तविकता यही है जो किसान और शहरी व्यक्ति अथवा गाँव और शहर की न हो कर नयी वास्तविकता के विकास की है जो उलझे हुए नितान्त विभ्रम मध्य वर्ग में उतनी ताजगी के साथ नहीं दिखाई पड़ती जितनी स्पष्टता से किसान के जीवन में परिलक्षित हो सकती है।
इसी कारण ग्राम कथा के प्रथम अभियान ने ही पाठकों-आलोचकों को अपनी ओर आकर्षित किया और वर्षों का उपेक्षित कहानी साहित्य विचार विमर्श का केन्द्र बन गया। ध्यान पूर्वक देखने पर नयी कहानी संग्रहों का प्रकाशन, जो बहुत ही विरल हो गया था इसी समय शुरू हुआ और पाठकों में नई कहानी के प्रति रुचि जागृत हुई।
ग्राम कथा के सम्बन्ध में अनेक रूढ़ मान्यताएँ कहानी के इस नये अभियान में टूटी हैं और प्रेमचन्द का गाँव अधिक टिपिकल एवं गहन मानवीय आत्मीयता के साथ नयी कहानियों में चित्रित हुआ है। इन कहानियों में चित्रण बहुलता एवं आग्रहपूर्ण स्थानीय रंगत के भी दोष सामने आये हैं। लेकिन इस नवीन प्रवृत्ति के विकास की यह प्रथम सीढ़ी है और इन दोषों की ओर लेखकों का ध्यान भी जा रहा है।
स्थानीय वैशिष्ट्य के इन कथानकों के बाद कथा के शिल्प तत्व में जो नवीनताएं और विचारों के संघर्ष आएं हैं उनकी चेतना इन कहानियों के पीछे विद्यमान है। मनोवैज्ञानिक गुत्थियों की अत्यन्त अंतर्मुखी प्रवृत्ति अथवा पिछले दौर की स्थूल यथार्थवादी विचारधारा की ऊब से निकलकर नए कहानीकार ने बुद्धि एवं हृदय के सांमजस्य का मध्यम मार्ग अपना लिया है जो मेरी समझ में, जीवन की विकसित वास्तविकता का अधिक स्वस्थ रूप है और नए मानव के परिवर्तित मानसिक स्तर के अधिक अनुकूâल है।
कुल मिलाकर नई कहानी सहजतर मानवीय संवेगों एवं सरल अभिव्यक्तियों की ओर उन्मुख है और वही उसकी वास्तविक परम्परागत धारा है। शिल्प विन्यास का उलझाव एवं चमत्कारपूर्ण उक्तियों एवं कथानकों की असफलता से हर सजग, नया कहानीकार परिचित है। इसलिए नये कहानी लेखक की समस्या मूलत: वैचारिक है।
स्वतंत्र भारत की विकसित वास्तविकताओं एवं बदले हुए मूल्यों के प्रति कहानीकार का सजग होना उसकी कृति को अधिक पैना और जीवन्त बना सकता है लेकिन कलात्मक परिवेश में इस नवीनता के लिए लेखकों का वैयक्तिक जीवन परिचय एवं अनुभव संगठन बाधक सिद्ध हो रहा है। फलत: जहाँ एक ओर नयी कहानी नये जीवन के खण्ड चित्र उपस्थित करने की कोशिश कर रही है वहीं उनके यथार्थपरक सामाजिक परिवेश से तादात्म्य स्थापित करने में कथाकार व्यक्तित्व वाचक दिखाई पड़ता है। यह बात उन तमाम कहानियों पर एक ही तरह लागू होती है चाहे वे ग्राम के सम्बन्ध में चाहे कस्बे या शहर के सम्बन्ध में। वस्तुस्थिति के चित्रण के लिए मोह का आधिक्य इसी की उपज है जिसे हम शिल्प की खूबियाँ अथवा शैली विशेषता कह कर निगलने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इस वस्तुतथ्य चित्रण में नवीन यथार्थ के गुण नहीं उभरे हैं, और उन्हें यत्र-तत्र बहुलता से देखा जा सकता है। श्रीलाल शुक्ल की शहीद’, कलमेश्वर की गर्मियों के दिन’ तथा अमरकान्त की दोपहर का भोजन’ आदि कितनी ही अन्य कहानियाँ इस नवीन परिवेश को व्यक्त करती हैं पर कहानी को आत्मिक प्रत्यक्ष अनुभव की सीमाओं तक ही सीमित रखना कहाँ तक उपयोगी है!
नयी ग्रहणशीलता : बोध और दुर्बोध
प्रसन्नता की बात है कि इधर कहानियों पर विचार-विमर्श करते हुए भी वे सारी अन्तर्भूत, कुण्ठित  मनोवृत्तियाँ उभरकर सामने आ रही हैं, जो पिछले दशक में आलोचना को बौद्धिक ईमानदारी से परे साहित्य का एक राजनैतिक माध्यम घोषित करने में सहायक सिद्ध होती रही हैं। स्वयं कहानीकार, पुराने खेमे के कुछ यश-अभिलाषी, निर्जीव कथाकारों की तरह, विदेशी कथाकारों के दाँव-पेंच सीख कर, उनकी-सी गठन उनका-सा व्यंय, उनकी-सी ता़जगी और प्रतीक-भंगी आदि का गुरु-मंत्र पा लेने या देख लेने की घोषणा करते हैं तथा कहानियों को खानों में बाँट कर सुनियोजित ढंग से गाँव की कहानियों को एक-रस और फीकी बताते हैं। उनकी इस सम्मति में दृष्टि न भी हो, तो कोण की कमी नहीं।
सबसे पहले तो यही कि अगर मैं मोपासाँ, ओ हेनरी, सार्त्र,  हेमिंग्वे आदि के अलग-अलग विशिष्ट सृजनात्मक गुणों को समग्र रूप से अकेली तुम्हारी कला में खोज निकालने में समर्थ हो पाया हूँ, तो क्या तुम इतना भी नहीं कर सकते कि सिर्फ  चे़खव की व्यथा वाला गुण, जो असावधानी के कारण तुम्हारी कहानियों में नहीं आ पाया है, वह अब मेरी कहानियों में खोज निकालो। साथ ही दस-बीस नौसिखुओं के नाम साथ में जोड़ कर ऐसे लोग आसानी से सचाइयों को ढँकने के लिए एक छोटा-मोटा कुनबा जोड़ लेते हैं। लेकिन शायद उन्हें यह मालूम नहीं कि हिन्दी का पाठक धीरे-धीरे इन ट्रिकों से परिचित हो चला है, क्योंकि इसके बेमिसाल नमूने प्रयाग के एक गुट्ट के नवयुवक साहित्यिकों की एक टोली ने पहले ही लोगों के सामने रख दिये हैं और अब वे पत्रिकाओं, पुस्तकों से ऊपर उठकर साहित्य-कोषों’ में भी इस प्रकार की आरोपित बुद्धि नीति को सचाइयों का चेहरा पहना कर प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न कर रहे हैं। कहना न होगा कि परस्पर-प्रशंसा के इस नामावली तथा गुणा-वलीवाले नुस्खे को उन लोगों ने आचार्यत्व के साथ उपस्थित किया है। यहाँ तक कि उनके कई ऩकली सिपाही महान योद्धा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिये गये हैं, जो अब भी अपनी काठ की बाँहें सफलतापूर्वक भाँजते जा रहे हैं।
दूसरा कोण अधिक तर्कâ-संगत है। गाँव के कथानकों के साथ एक नयी ता़जगी, सामाजिक विकास की नयी सचाई तथा उसी के अनुरूप भाषा तथा शिल्प की ऐसी प्रबल शक्तियाँ आयीं, जिन्होंने कथा की सारी पुरानी, बसियायी, किताबी, अर्जित भाव-सम्पदा को आच्छादित कर लिया। जिस अंतर्ग्रथित प्रतीक-योजना और भाषा की सांकेतिकता की बात अब उठायी गयी है, वह अधिक मांसलता एवं स्वाभाविकता के साथ किसी पहाड़ी झरने की तरह इन्हीं कथानकों के साथ सबसे पहले आयी। आलोचकों और पाठकों ने अभिभूत हो कर इनकी जो प्रशंसा की, वह भी इन कोणों को इस तरह उभारने में सहायक हुई। 
वस्तु-तथ्यों, सजीव ग्राम-चित्रों की तह में से आने वाले पात्रों, परिस्थितियों तथा घटनाओं से उत्पन्न नयी वास्तविकता तथा उसे ग्रहण करनेवाली चेतना के संवेगात्मक स्तर पर अतीत-उत्साह के कारण सजगता की सहज कमी की ओर कथाकारों का ध्यान कम ही गया। दुर्भाग्य यह रहा कि इन कथाओं पर फैसला देने का काम उन्हीं को करना था, जो कुल मिला कर इन कथाओं के नये वातावरण से ही गाँव को पहचान सके थे। उनके चरित्रों, परिस्थितियों, घटनाओं से उन्हें अब भी झटका लगता है। अपरिचित, असभ्य, अर्धनग्न, अशिक्षित के प्रति यह उनका आत्मभाव है, बच्चों की तरह का और इस तरह के कथाकार आलोचकों की ग्रहणशीलता के सामने एक प्रश्न-चिह्न अपने समाज के विकास को तथा अर्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों को भुला कर कथा पर विचार करना उन लोगों के लिए काफी सरल है, जो एक गाँठ की पूँजी ले कर किताबों के साथ कमरे में बन्द हो जाते हैं।
कला और शिल्प की बारीकियों में डूबे रहना कलाकार के शैशव का सबसे बड़ा मोह होता है। हम सभी इस लोभ के बीच से गु़जरते हैं। कुछ लोग जीवन-भर इसी लोभ में तड़पते रह जाते हैं और कुछ आगे बढ़ जाते हैं। एक प्रौढ़ कलाकार के लिए सौन्दर्य-बोध उसकी रचना-प्रक्रिया का अंतर्निहित तत्व बन जाता है। प्रतीकात्मक व्यक्तीकरण कोई अर्जित वस्तुबोध नहीं, समाज और परिस्थितियों से लेखक के वैयक्तिक भाव-बोध और उसकी अभिव्यक्ति का एक माध्यम-मात्र है। जहाँ सहज अभिव्यक्ति के लिए गुञ्जाइश नहीं है, वहीं बिम्ब उभरते हैं और धीरे-धीरे रहस्य की सीमा छूने लगते हैं। वस्तुत: वास्तविकताओं की गहराइयों में न उतर पाने के कारण, जीवन की सतह पर उठनेवाले बुलबुलों को चित्रित करके संतोष कर लेने  वाले लेखक कथा को प्रतीकों का जामा पहना कर पाठक को एक अस्पष्ट-से वस्तु-सत्य का थरथराता हुआ आभास मात्र दे कर, अपनी वैचारिक संक्रान्ति को ढँकने की चेष्टा करते हैं।
कहना न होगा कि प्रेमचन्द के बाद कल्पनाजीवी लेखकों द्वारा, कथानकों के नाम पर इसी तरह वैयक्तिक शिल्प-चक्र रचे गये थे, जो निस्सन्देह लेखकों की कलात्मक रुचियों के साथ ही उनके व्यक्तित्वों की चिन्तन-प्रणाली के समर्थ प्रतिरूप थे, और हैं। पर जीवन-संस्पर्श की व्यापक कमी और सामाजिक परिस्थितियों के विकास और वास्तविकता की ग्रहणशीलता का अभाव ही इन कहानियों की सबसे बड़ी दुर्बलता थी, जिसने समूचे कहानी-साहित्य को नकली जामों से भर दिया था। निस्संदेह यह-सब थोड़े दिनों में ही ऊब और एकरसता का कारण बन गया और कहानी एक निर्जीव साहित्य-विधा रह गयी।
छायावादी अभिव्यक्ति के साथ ही जैनेन्द्र तथा अज्ञेय की कितनी ही कहानियों के वस्तु-संचयन तथा प्रतीकात्मक अन्तर्गठन में वे सभी गुण वर्तमान हैं जिन्हें कई आलोचक आज नये कहानीकारों की विशेष उपलब्धि बता कर बिम्बों की परख का ताज पहन रहे हैं। नामवर सिंह जी यदि ध्यान से रोज’ का पाठ करें तो उन्हें निस्सन्देह इस कथन की सचाई का ज्ञान हो जायगा। नामवर सिंह का यह आग्रह मौलिक नहीं है। इसके प्रमाण उनके कहानी-सम्बन्धी अन्तर्विरोधी विचारों के तीन लेखों ही में नहीं, कहानी पर नवीन विचारों के नाम से थमाये कुछ लेखकों के लटकों में भी ढूढे जा सकते हैं, जिन्होंने कथा-वस्तु से हट कर शिल्प की ओर से उलझे हुए विचारों का आडम्बर खड़ा किया है। नये ग्राम-कथानकों में आये गहरे जीवन-संस्पर्श से मद्धिम और बासी हो उठने वाले शिल्पवादी कथाकारों ने कथा-वस्तु की ओर से रुख मोड़ने का जो जटिल’ प्रयास किया है, उसी की प्रतिच्छाया में नामवर ने नयी कहानी’ में नये प्रश्न’  खोजे हैं।
वास्तव में कहानी के सामने अभिव्यक्ति अथवा शिल्प की बारीक पैठ के साथ ही मुख्य बात है, जीवन की नयी उभरती हुई वास्तविकताओं को उसके पूरे परिवेश के साथ ग्रहण करने की। प्रेमचन्द और यशपाल के बाद फीकी, उदास और मरणोन्मुख कहानी को इसी नवीन ग्रहणशीलता ने बचाया है और कहना नहीं होगा कि कहानी को सशक्त साहित्य-विधा के रूप में एक बार फिर विचार-विमर्श का केन्द्र बना देने का श्रेय इसी नवीन ग्रहणशीलता के साथ आये ग्राम-कथानकों को है। नये वस्तु-संचयन, रूपगत गठन, प्रतीक-योजना, शब्द-संस्कार, नयी उभरती हुई सचाइयों के साथ जीवन के पूरे परिवेश के साथ कहानी में उतार ले आने का जो काम ग्राम-कथानकों ने किया, उसे पूर्वग्रह-विहीन होने की दशा में, काल्पनिक मसाले पर कहानियाँ रचने वाले पिछलग्गू कथाकारों ने भी मुक्त होकर सराहा था। साथ ही उनके लेखन के वस्तुगत न भी सही, तो शिल्पगत विशेषताओं पर वास्तविकता के अंकन की विधि ही नहीं, कथानकों के ग्रहण करने तथा उसे व्यक्त करने की समूची प्रक्रिया पर भी ग्राम-कथानकों का गहरा प्रभाव पड़ा है। ठहरे और बसियाये यथार्थ में ये लेखक दिग्भ्रम होकर अपना मार्ग खोजने के लिए चेखव की व्यथा और ओ’ हेनरी की गठन आदि की जड़ी-बूटी लेकर परेशान थे। इन्हें अपने ही पास से उठने वाले ग्राम-कथाओं के आलोक ने उजाले में लाने का बहुत बड़ा काम किया है। खोखले बुद्धिवादियों से आक्रांत, सेकन्ड हैन्ड सम्मति रखने वाले आलोचक यह बात तब तक नहीं समझेंगे, जब तक इसके लिए उन्हें बुद्धिवादियों की सहमति न दिखे, ठीक उसी तरह, जैसे बहुत समय तक प्रेमचन्द जैसे महान् कथाकार को इन स्नाब, खोखले, कथित बुद्धिवादियों-द्वारा ‘सतही’ तथा साधारण लेखक’ घोषित किया गया। लेकिन जनमत और पाठकों के बढ़ते हुए दबाव के साथ ही प्रेमचन्द की सामाजिक अन्तर्दृष्टि ने उन्हें प्रतिष्ठित किया और आज वे ही कहते हैं कि सिर्फ वही एक कथा-लेखक हैं, जो संसार के प्रथम श्रेणी के कथाकारों को छूते हैं। लोगों को मालूम ही है कि उस समय भी चेखवों, तुर्ग-नीवों और मोपासाँओं की कमी नहीं थी!
सन् ५१, ५२ के आस-पास की साहित्यिक गतिविधि से परिचित लोगों के आगे यह स्पष्ट है कि तत्कालीन मरियल कहानी के सामने एक ओर जैनेन्द्र, अज्ञेय प्रश्नचिह्न की तरह खड़े थे, तो दूसरी ओर यशपाल के ता़जे, वैचारिक यथार्थ का रेडीमेड मसाला धूम से बा़जार में चल रहा था और युद्धोत्तर भाव-जगत का प्रभाव लिए बेचारे नये कहानी-लेखक भकुओं की तरह कभी इधर, कभी उधर भटक रहे थे और अपने बुजुर्गों के नाम खुली चिट्ठियाँ छपवा कर उनका ध्यान अपनी ओर खींचने का प्रयत्न कर रहे थे। इस स्थिति में ग्राम-कथानकों का आगमन कहानी के नये उत्कर्ष का सूचक सिद्ध हुआ। नयी कहानी के प्रादुर्भाव में यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। गाँवों से आनेवाले खेतिहर किसानों के बौद्धिक तथा कलात्मक उन्मेष ने उद्धोत्तर काल के संकुचित एवं घुटनशील वातावरण को ता़जगी और विस्तार ही नहीं दिया, वरन् नयी सामाजिक एवं राजनैतिक अवस्थाओं, के कारण स्वत: महत्वपूर्ण हो उठा, इतना महत्वपूर्ण कि प्रेमचन्द-जैसे लेखक के ग्राम-कथानकों की महान् प्रसिद्धि, प्रचार और प्रसार के होते हुए भी नयी ग्राम-कथा ने अपनी जगह बना ली, अपनी गहनतर ग्रहणशीलता और ग्राम बोध के कारण ग्राम-कथानकों के पूरे परिवेश को नयी प्रतीक-योजना, नये भाव-बोध, नये बिम्ब-संगठन नवीन सांकेतिकता और शब्द-योजना से जीवन्त बना दिया।
नये शिल्प-संयोजन में जिस जीवनखण्ड को ये लेखक सामने ला रहे थे, उसके आभास का सतही परिचय लोगों को था और अहा ग्राम जीवन भी क्या है’ वाली कृपामयी बौद्धिक सहानुभूति भी उसे नागर जीवन से प्राप्त थी, पर उसके डीटेल में न तो लोगों की पैठ थी, न जानकारी, क्योंकि स्पष्टत: इस-सबसे उनका कोई सम्बन्ध न था। मसलन हल का नाम तो इन्होंने सुना था, पर हल के अन्य हिस्सों, जैसे, परियत, फार, हरिस, गुल्ली, नाधा इत्यादि शब्द इनके लिए दुरूह और कष्टकर प्रतीत होने लगे और लोगों को चौंकने का मसाला मिलने लगा। लेकिन नये-कथाकारों को अपनी अभिव्यक्ति के लिए जो शाब्दिक उपक्रम जुटाने थे, उसकी हिन्दी में कमी थी। अंग्रेजी शब्दों और नामों का उपयोग साहित्यकार के पढ़े-लिखे होने का सबूत बना हुआ था, पर इन लोक भाषा के आवश्यक शब्दों को स्वीकार करने में लोगों को कष्ट होने लगा। निस्सन्देह प्रेमचन्द की तरह वास्तविकताओं के अंकन के चित्रण के तरी़के से यह तरी़का भिन्न था। इस भाषा और शिल्प-संयोजन, दोनों में अधिक गहराई थी, अधिक समीपवर्ती दृष्टि थी। यहाँ तक की कहीं-कहीं यह सबजेक्टिव भी हो उठी है। यद्यपि यह-सब उनकी भाव-संपदा तथा जीवन-संस्र्पा की उफनती हुई शक्ति का परिचय देती है, पर यहीं यह कहे बगैर भी नहीं रहा जा सकता कि वाह्य रूप, गठन और शिल्प के अत्यधिक मोह ने नये ग्राम-कथाकारों को प्रेमचन्द के पात्रों के समान महत्तर मानव को उसकी वास्तविकताओं में चित्रित नहीं होने दिया।
नवीन जीवन सन्दर्भों को कथा से अलग करके देखना एक भूल है। एक तो इसलिए कि जीवन-संदर्भ कथा की आधार-भूमि हैं, वैसे ही, जैसे किसी चित्र के लिए तूलिका, रंग और कनवैस। उनके अभाव में कहीं कथानक में ह्रास’ होने लगता है, तो कहीं रूपायियत’ बढ़ने लगती है। दूसरे यह कि जीवन-संदर्भों के साथ सामाजिक परिस्थितियाँ, सृजनशीलता की अनेक वैचारिक उपलब्धियाँ और वास्तविकताएँ उभर कर सामने आती हैं। ….चेतना के जिस नवीन स्तर पर नये लेखकों ने वास्तविकता को ग्रहण किया है, उसी स्तर के अनुरूप शिल्प…स्ट्रक्चर की बुनावट उन्होंने स्वीकार की है, सिर्फ â….वस्तु ही नहीं, वातावरण, शब्द और संकेत सभी से उसने उस नयी वास्तविकता का अलंकृत किया है। कथा का यह सहज मानवीय रूपान्तर उसे दिनों-दिन जीवन के सहज खंड बना देने की ओर है।
शिल्पगत संस्कारों के अभाव में कई लोग इसे फ्लैट’ समझते हैं और अस्वाभाविक परिश्रम-साध्य बुनावट में गहराई देखते हैं।
निस्सन्देह हिन्दी कहानी में यह नया मोड़ है और जिस लेखक ने जितनी ही सजगता से इसे पकड़ा है, वह उतना ही सफल है।
आर्थिक बोझ से दबे, थके, हारे, शहरी मध्यवर्ग की नयी समस्याओं तथा वास्तविकताओं को समझने में असफल स्वत: नियोजित, नकली चरित्रों, ट्रिकों अथवा संयोगात्मक अन्तों-द्वारा एक ठहरे और मिटे हुए यथार्थ की किस्सागोई के साथ कुछ कथाकार सेक्स’ और फ्रâस्ट्रेशन’ की ओर झुक रहे हैं, जो कि इन परिस्थितियों का स्वाभाविक और अन्तिम सुरक्षित स्थल है। शहरी मध्यमवर्ग के शिल्पवादी बहुसंख्यक लेखक अपने वर्ग-चरित्र और उसकी आर्थिक परिस्थितियों के कारण कुण्ठित होकर इसी आत्महंता वृत्त में निमग्न होते हैं।
इसलिए अधिक कुलबुलाते हुए यथार्थ’ और चरित्रों के राउन्डनेस के लिए कुलटाओं’, नपुंसकों’, द़फ्तर में काम करने वाली मोटी, भद्दी सेक्स-फ्रस्टेटेड लड़कियों’ की कहानियों के लिए अधिक सतर्वâता और परिश्रमपूर्वक अन्तर्निबद्ध प्रतीकों एवं विषयों के संयोजन की आवश्यकता पड़ेगी ओर सम्भव है, ये लेखक सेक्स’ की गहराइयों में उतर कर कुछ अच्छी रचनाएँ प्रस्तुत कर सकें
कथा-भूमि जो हो, नयी ग्रहणशीलता का प्रश्न प्रत्येक स्थिति में मुख्य होगा। मध्यवर्गीय जीवन का पक्ष इतने विभिन्न कोणों से, इतनी गहराई तक देखा-परखा जा चुका है कि नवीनता की संभावनाएँ बहुत बिरल हो गयी हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं कि वहाँ कुछ नया है ही नहीं अथवा लेखक का वैयक्तिक अनुभव तथा राग-बोध नये कथा-सूत्रों का चयन नहीं कर सकता।
कुल मिला कर आज नये कथा-साहित्य के सामने मुख्य प्रश्न किसी विशिष्ट क्षेत्र की सीमाओं से परे, नयी-ग्रहणशीलता का है, जिसके लिए जीवन का कोई भी पक्ष और वास्तविकताओं की कोई भी सतह, समान रूप से स्वीकार्य और महत्वपूर्ण है।

नीलिमा पाण्डेय का आलेख ‘मार्कण्डेय: व्यक्तित्व एवं कृतित्व’

मार्कण्डेय जी

नयी कहानी आन्दोलन के पुरोधाओं में से एक मार्कण्डेय का व्यक्तित्व बहुआयामी था। एक बेहतर कहानीकार होने के साथ-साथ वे एक बेहतर व्यक्तित्व के मालिक भी थे। उनकी विनम्रता के हम सब कायल थे। जो भी उन्हें जानते हैं इस बात से परिचित होंगे कि अंतिम समय तक वे किसी भी आगंतुक की ख़ुद अगवानी करते थे। अपने हाथों से लड्डू, बिस्कुट खिलाते थे और चाय पिलाते थे। किसी अपरिचित से भी वे तुरंत ही कुछ इस तरह घुल-मिल जाते थे जैसे वो उनका बहुत पुराना परिचित हो। इसके बाद  सिलसिलेवार बातों का जो क्रम आरम्भ होता तो खत्म होने का नाम नहीं लेता था। उनके पास बैठने पर समय कैसे बीत जाता था हमें पता ही नहीं चलता था। ऐसे अपने  मार्कण्डेय दादा की पुण्यतिथि के अवसर पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं नीलिमा पाण्डेय का आलेख ‘मार्कण्डेय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व’          

मार्कण्डेय: व्यक्तित्व एवं कृतित्व


नीलिमा पाण्डेय 

मार्कण्डेय का जन्म 2 मई, 1930 ई0 को उत्तर प्रदेश के जनपद जौनपुर के अन्तर्गत केराकत तहसील के एक गाँव बराई में एक सम्पन्न किसान परिवार में हुआ। पिता श्री ताल्लुकेदार सिंह के सबसे बड़े बेटे होने के कारण इनका लालन-पालन भी पूर्ण सजगता और पारिवारिक मर्यादा के अनुरूप हुआ। पिता प्रतापगढ़ में अपने एक सम्बन्धी की छोटी सी रियासत की देखभाल करते थे। माँ के हृदय में परंपरागत हिन्दू नारी की सहृदयता और धर्मभरुता का भाव प्रबल था। पितामह श्री महादेव सिंह गाँव जवार के प्रतिष्ठित देशभक्त और मर्यादित क्षत्रिय थे। कांग्रेस तथा क्रांतिकारियों से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। इन्हीं की छत्रछाया में बालक मार्कण्डेय की शिक्षा-दीक्षा हुई और स्वभावतः पिता की अपेक्षा पितामह के व्यक्तित्व का प्रभाव भी अधिक पड़ा। ठाकुर महादेव सिंह की सहायता से क्षेत्र में सुराजियों की सभाएँ होती रहती थीं, अन्यथा अन्य सम्पन्न ब्राह्मण-क्षत्रिय सुराजियों के विरोधी ही थे। और; बालक मार्कण्डेय पितामह के कन्धों पर बैठ कर सुराजियों की सभा में जाया करते थे।’’1

मार्कण्डेय की माँ बखरी के पीछे झोपड़ी में रहने वाली असहाय गरीब दुखना को स्वयं खाना पहुँचाया करती थीं। माँ की उदारता, बाबा के देशप्रेम और स्त्री जाति के प्रति सहज सम्मानित दृष्टि और प्रेममयी कोमल भावना का प्रभाव इन्हीं चरित्रों की देन है। ध्यातव्य है कि इसी दुखना को आधार बना कर ‘महुए का पेड़’ कहानी की रचना हुई। माँ और दुखना के सामीप्य ने इनमें लोक जीवन, लोकनीति और लोकभाषा की अनुभूति करायी।

मार्कण्डेय की प्रारंभिक शिक्षा गाँव की प्राइमरी पाठशाला में सम्पन्न हुई। पं0 मूलचन्द्र ने विधिवत मंत्र पाठ कर अपनी दीक्षा में स्वीकार किया। चैथी जमात तक की पढ़ाई यहीं सम्पन्न कर पाँचवीं में उर्दू मिडिल करने के लिए अपने पूर्वजों के गाँव बिहड़ा जाने लगे। संयोग से इस विद्यालय के मौलवी साहब स्वाधीनता और देशप्रेम के कट्टर हिमायती थे। अध्ययन के दौरान भावावेश में देशप्रेम की नज़्में सुनाते हुये मौलवी साहब बालक मार्कण्डेय के हृदय में पारिवारिक देशप्रेम के संस्कारों को दृढ़ करते रहे। जब वह खद्दर पहनने की जिद करने लगे तो बाबा ने खद्दर के साथ तिरंगा भी ला कर दे दिया जिसे वह बहुत वर्षों तक पास रखे रहे और सहपाठियों के साथ प्रभात फेरी और जुलूस आदि संगठित करने लगे। धीरे-धीरे उनका झुकाव झंड़ा, खद्दर, चर्खा, गाँधी साहित्य और नेताओं के चित्र एकत्रित करने की ओर बढ़ता गया और देश के प्रति सोचने-समझने का दायरा भी बढ़ने लगा। इसी बीच साठ वर्ष की आयु में एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से जब बाबा की मृत्यु हो गयी; मार्कण्डेय अवाक् रह गये और माँ की गोद में छिप कर फूट-फूटकर रोते रहे। बाबा के साथ एक युग का अंत हो चुका था, एक चरित्र का असमय अवसान हो गया था जो गाँव-जवार के युवकों को कुश्ती-अखाड़े में प्रशिक्षित करता था, दीन- दुखियों की सहायता करता था, भूमिगत क्रांतिकारियों की मदद करता था। इसी रिक्ति ने उनके हृदय में सृजनात्मकता, अन्तर्मुखता और बाहरी संसार में अकेले साक्षात् करने की दृढ़ता पैदा कर दी थी। बात-चीत के क्रम में मार्कण्डेय जी ने कहा था- ‘प्रश्नों से चल कर प्रश्नेतर होना और खुद से उत्तरित होने की प्रक्रिया से ही शायद व्यक्तित्व सृजित होता है।’

मिडिल की परीक्षा पास कर मार्कण्डेय अपने पिता के पास प्रतापगढ़ आ गये और यहीं के प्रतिष्ठित प्रताप बहादुर कालेज में दाखिला मिल गया। यह कालेज राजा अजित प्रताप सिंह का था और रियासत अंग्रेज भक्त थी। अतः इस कालेज में गाँधी, नेहरू का नाम लेना भी दण्डनीय अपराध था। दूसरी ओर इस जनपद की काला काँकर रियासत अंग्रेज विरोधी और कांग्रेस समर्थक थी। यहाँ के राजा अवधेश प्रताप सिंह कांग्रेस के संस्थापक सदस्यों में से थे।

संयोग से कालेज में प्रवेश लेते ही पहले ही दिन एक निर्णायक घटना घटी। पं0 जवाहर लाल नेहरू कालेज से लगी सड़क से किसानों की सभा में भाग लेने कुण्डा जाने वाले थे। कुछ उत्साही छात्रों ने कालेज के मुख्य द्वार पर उनके स्वागत की गुप्त योजना बनायी थी। सहसा छात्रों का एक छोटा सा गुट कक्षाओं का बहिष्कार कर पं0 नेहरू की जय बोलता हुआ सड़क पर आ गया। मार्कण्डेय जी झण्डा ले कर कूद पड़े। प्राचार्य और पुलिस अधिकारी ने दूसरे दिन मार्कण्डेय को तलब कर झण्डे के विषय मे पूछताछ की। उन्होंने निर्भीकता से बताया कि ‘‘झण्डा बाबा का दिया हुआ है।’’ उनकी साफगोई, निडरता और उत्साही राष्ट्रीयता से कालेज के सचिव प्रभावित हुए। इस घटना के बाद यह कालेज कांग्रेस की राजनीति का गढ़ बन गया।’’2

इस कालेज के छः वर्ष तक के अपने अध्ययन काल में मार्कण्डेय को विचार धारात्मक आधार मिला। उन्होंने सामंती संस्कृति को निकट से देखा और सामान्य जन के शोषण का बहुआयामी चित्र भी। कांग्रेस पूँजीपतियों और सामंतों की पार्टी बन गयी थी और सामान्य जन की आकांक्षाओं से भटकने लगी थी। इससे क्षुब्ध हो कर जब आचार्य नरेन्द्र देव ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनायी तो मार्कण्डेय उसमें सक्रिय हो गये और सामाजिक बनावट को समझ कर तथा राजनीति और साहित्य का अध्ययन कर वैचारिक गोष्ठियों, बहसों में हिस्सा लेने लगे। कालेज की ओर से साप्ताहिक शिविर लगाया गया। मार्कण्डेय को इसका संयोजक बनाया गया था। इसमें विचार धाराओं पर अनेक वक्तव्य दिये गये। फैजाबाद के एक आचार्य जो कि आचार्य नरेन्द्र देव के शिष्य थे; मार्क्सवाद पर वक्तव्य दे रहे थे। उनसे प्रभावित हो कर मार्कण्डेय माक्र्सवादी साहित्य का अध्ययन करने लगे और कांग्रेस से मोहभंग हुआ। यशपाल साहित्य का उन पर अधिक प्रभाव पड़ा। कालेज के एक कार्यक्रम के सिलसिले में कालाकाँकर जाकर सुमित्रा नंदन पंत से मिल आये और उनके तत्कालीन मार्क्सवाद प्रभावित साहित्य से भी प्रभावित हुए। ध्यातव्य है कि अज्ञेय, जैनेन्द्र और निराला के साथ समस्य प्रगतिशील साहित्यकारों का अध्ययन कर लेने के बाद मार्कण्डेय ने प्रेमचन्द को पढ़ा।

इसी समय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला ले कर सर गंगानाथ झा छात्रावास में रहने लगे और क्रानिक मलेरिया की चपेट में आ कर अस्वस्थ हो गये तथा दो वर्ष तक प्रायः सबसे कटे रहे। इस समय वह स्नातक कर रहे थे किन्तु भीतर ही भीतर चिन्तन और अनुभूत सत्य की प्रक्रिया चल रही थी। भीतर एक आक्रोश जन्म ले रहा था।

देशी रियासतों के शोषण के वह मात्र दृष्टा नहीं थे। एक घटना से उनकी मानसिक बनावट का अंदाजा लग सकता है। रायबरेली की एक रियासत राजा मऊ के कर्ता-धर्ता उनकी बुआ के बेटे ही थे। मार्कण्डेय गर्मी की छुट्टियों में वहाँ गये हुए थे। रिआया से बेगार व नजराना का दृश्य देखा। बेगार करने से मना करने पर गाँव के एक युवा को बाँध कर इतना पीटा गया था कि वह मरणासन्न हो गया। मार्कण्डेय ने सामंत की दो भांजियों से मिल कर चुपके से युवक को मुक्त कर दिया और रियासत का कोपभाजन बने। वह अपने गाँव लौट आये और फिर कभी राजामऊ नहीं गये।

इसी समय 1949 ई0 में मार्कण्डेय का विवाह बनारस जिले के रजला नामक ग्राम में विद्या जी के साथ कर दिया गया। विद्या जी प्रत्येक परिस्थिति में मार्कण्डेय की सहधर्मिणी रहीं और अब भी हर क्षण उनकी सेवा में तत्पर रहती हैं।

आजादी के बाद साम्प्रदायिक दंगों में जनता त्रस्त थी और कांग्रेसी कोटा- परमिट की राजनीति में उलझे थे। इसी समय मार्कण्डेय ने ‘शहीद की माँ’ नामक कहानी लिखकर ‘आज’ तथा ‘अमृत पत्रिका’ के रविवासरीय अंक में प्रकाशित कराया।

वाराणसी से आयुर्वेदिक चिकित्सा द्वारा स्वस्थ होकर एम0ए0 प्रथम वर्ष के दौरान मार्कण्डेय जी इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश में ताक-झाँक करने लगे। प्रगतिशील लेखक संघ में प्रकाश चन्द्र गुप्त, भैरव प्रसाद गुप्त तथा अमृत राय सक्रिय थे। समय-समय पर भगवत शरण उपाध्याय, केदार नाथ अग्रवाल, नामवर सिंह आदि भी आते रहते थे।

नेमि चंद जैन तथा शमशेर बहादुर सिंह इलाहाबाद में ही रहते थे। मार्कण्डेय, दुष्यन्त कुमार, कमलेश्वर, ओम प्रकाश श्रीवास्तव, जितेन्द्र आदि नये लेखक सब का ध्यान आकर्षित करने लगे थे और इलाहाबाद में आधुनिकतावादियों के नये खेमों के इला चन्द्र जोशी, धर्मवीर भारती, केशव चन्द्र वर्मा, लक्ष्मी कान्त वर्मा तथा डॉ. जगदीश गुप्त आदि से वैचारिक भिड़न्त करने लगे थे।’’3

प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में रचनाओं पर समीक्षा करते हुए मार्कण्डेय के विचार सबसे अलग दिखायी पड़ते क्योंकि वे मान्यताओं की अपेक्षा साहित्य में समकालीन सन्दर्भों और सामाजिक यथार्थ पर आधारित होते। पुराने मार्क्सवादी चिंतक-आलोचक विचार धारा की लीक पर चलने का आग्रह करते थे और नयी सामाजिक स्थितियों तथा जन आकांक्षाओं की उपेक्षा भी।

इसी समय सन् 1953 ई0 में शरद जयंती के अवसर पर मार्कण्डेय ने ‘गुलरा के बाबा’ नामक कहानी का पाठ किया। इसे सभी ने हाथो-हाथ लिया। यह कहानी दूसरे ही महीने ‘कल्पना’ में छपी। यद्यपि यह इनकी पहली रचना नहीं थी। इसके पहले ‘पथ के रोड़े’ नामक कविता अज्ञेय संपादित प्रसिद्ध पत्रिका ‘प्रतीक’ में छप चुकी थी। मार्कण्डेय इसे अपनी प्रथम प्रकाशित रचना मानते हैं।’’4

1954 ई0 में ‘पान-फूल’ नामक इनका प्रथम कहानी संकलन प्रकाशित हुआ जिसमें व्याप्त परिवर्तनशील ग्रामीण यथार्थ ने आलोचकों का ध्यान आकृष्ट किया। प्रकाश चन्द्र गुप्त, भगवत शरण उपाध्याय, श्रीपत राय, भैरव प्रसाद गुप्त, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश और नामवर सिंह आदि ने इस संग्रह पर विस्तृत समीक्षाएँ लिखीं।

भगवत शरण उपाध्याय ने लिखा- ‘‘मार्कण्डेय की कहानियों में बदलती परिस्थितियों के अनुकूल वैविध्य, तारतम्य, घटनाओं का तीखा विकास और भावनाओं का वेगावेग; और इन सब के ऊपर छायी हुई अनुभूति की प्रखरता और आकलन की शक्ति अनेक बार पाठक को जकड़ लेती है।’’ आलोचक प्रकाश चन्द्र गुप्त ने लिखा- ‘मानवीय भावना, आवेग, चरित्र के उन्नत स्वरूप का निदर्शन, भाषा का बल…………।’’

श्रीपत राय तो अभिभूत जान पड़ते हैं- ‘मार्कण्डेय की लेखनी में कहीं-कहीं पर वह जादू अवश्य है, जो आप भूल नहीं पाते।’’

नामवर सिंह ने स्वीकार किया- पहला कहानी संग्रह ‘पान-फूल’ है मार्कण्डेय का, जिसकी तरफ हिन्दी जगत की सहसा दृष्टि गयी। निश्चय ही इस आकर्षण के मूल में वस्तु और शिल्प दोनों में निहित एक नयी सर्जना दृष्टि थी।’’5

      सबसे महत्त्वपूर्ण समीक्षा ‘नयी कहानी’ के पुरोधा भैरव प्रसाद गुप्त की है- ‘सहसा ही कल्पना में लगातार प्रकाशित होने वाली मार्कण्डेय की कहानियों ने पाठकों और साहित्य मर्मज्ञों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया और जब वे कहानियाँ ‘पान-फूल’ संग्रह में शीघ्र ही प्रकाशित हुईं तो उनकी धूम सी मच गयी। यह अजीब बात है कि पात्र को लेकर कहानी बनाने के यत्न ने यशपाल की जो कहानी में कहानी के बजाय शब्द चित्र बन जाने का भय था; उसी से मार्कण्डेय ने यह नयी जमीन तोड़ी थी। ‘पान-फूल’ संग्रह की कहानियाँ शब्दचित्र नुमा ही हैं; किन्तु यहाँ पात्रों को लेकर कहानी बनाने का यत्न नहीं है। यहाँ पात्रों को सीधे उनके जीवन परिवेशों से उठा लिया गया है। यहाँ कोई बात कहने के लिए पात्रों को गढ़कर खड़ा नहीं किया गया है और न उनके इर्द-गिर्द कल्पित घटनाओं का जाल बुना गया है। यहाँ पात्र अपने जिन्दा परिवेश में, ग्रामीण रंग-रूपों की पूर्णता में, स्वयं जीवन का चित्र प्रस्तुत करते हैं और अपने भोगे हुए जीवन को ईमानदारी से व्यक्त करते हैं। इन कहानियों की यह विशेषता और नवीनता थी, जिसने बिल्कुल एक ताजी हवा का अहसास कराया और मरियल कहानी में प्राण फूँके।’’6

मार्कण्डेय के दो अन्य कहानी संग्रह ‘महुए का पेड़’ और ‘हंसा जाई अकेला’ 1957 तक प्रकाशित हो ख्याति अर्जित कर चुके थे। 1957 में प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा साहित्यकारों का संयुक्त और वृहद् राष्ट्रीय सम्मेलन इलाहाबाद में आयोजित किया गया। मार्कण्डेय को इसके संयोजन का उत्तरदायित्व सौंपा गया। यह ऐतिहासिक सम्मेलन अभूतपूर्व था और मार्कण्डेय की संगठन क्षमता का गवाह भी बना।

एम0ए0 उत्तीर्ण कर पिता की आकांक्षा के अनुरूप मार्कण्डेय कानून की पढ़ाई कर उच्च न्यायालय में वकालत करने का मन बना चुके थे किन्तु वैसा हो नहीं सका। पिता के इस स्वप्न की पूर्ति उन्होंने अपने बेटे से करायी। उनके बेटे सौमित्र सिंह हाईकोर्ट के प्रसिद्ध और प्रखर अधिवक्ता हैं और दो पुत्रियाँ डॉ. स्वस्ति सिंह और डॉ. शस्या सिंह हैं।

मार्कण्डेय ‘कबीर में लोक तत्व’ विषय लेकर इलाहाबाद विश्व विद्यालय से डी0फिल्0 करने लगे किन्तु लेखन में अधिक सक्रियता के कारण बीच में ही छोड़ दिया। इन्हीं दिनों पी0सी0 जोशी के सम्पर्क में आये और उनसे बहुत प्रोत्साहित हुए। जब मार्कण्डेय ने माया पत्रिका का ‘भारत 1965’ नामक विशेषांक संपादित किया तो श्री जोशी ने उनकी सहायता की। धर्म, संस्कृति, इतिहास, अर्थशास्त्र और साहित्य पर आधारित यह विशेषांक अभूतपूर्व था। सन् 1964 ई0 में उन्होंने माया का ‘समकालीन कहानी’ अंक भी संपादित किया था।

एकांकी लेखक के रूप में ‘पत्थर और परछाइयाँ’ और कवि रूप में ‘सपने तुम्हारे थे’ के प्रकाशन तो मार्कण्डेय को एक अलग पहचान प्रदान करने में सफल हुए किंतु आलोचक के रूप में इनकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लगा। ‘कल्पना’ में कहानी लेखन के साथ-साथ ‘साहित्य धारा’ पर आलोचनात्मक लेख लिखने लगे जो सन् 1954 ई0 से 1957 तक चलता रहा। इसके बाद भैरव प्रसाद गुप्ता संपादित प्रसिद्ध पत्रिका ‘नयी कहानियाँ’ में, जो लिखा जा रहा है, नामक स्थायी स्तम्भ में समीक्षाएँ लिखने लगे। अज्ञेय, उग्र, अश्क, भैरव प्रसाद गुप्त पर लिखी समीक्षाएँ वाद-विवाद का केन्द्र बनीं। यह कथा-आलोचना की सर्वथा नयी शैली थी जो पारंपरिक और सैद्धान्तिक आलोचना से एकदम भिन्न थी।

अज्ञेय की कहानी ‘शेखूपुर के शरणार्थी’ की आलोचना करते हुए मार्कण्डेय ने उनकी कहानी विषयक दृष्टि पर लिखा- ‘‘न जाने क्यों दिन-पर-दिन अज्ञेय का रचनाकार जीवन और जगत की ओर से उदासीन होता चला जा रहा है और ‘कलाकार की मृत्यु’ तक पहुँचते – पहुँचते उसमें इतनी असमर्थता आ गयी कि वह किंवदंतियों और पौराणिक कथाओं के शिल्प पर उतर आया। आरोपित आग्रह रचनाकार के विचारों का परिचय जरूर देते हैं, पर वे रचना में ही क्यों आयें। उनके लिए भाषण और लेख का माध्यम क्या बुरा है? ……….हैरत की बात है कि अज्ञेय ने जहाँ भी एक राजनीति का विरोध किया है, वहीं एक दूसरी कमजोर राजनीति ने जन्म ले कर उनकी रचना को पंगु और प्रचारात्मक बना दिया है।’’7

इसी प्रकार उग्र की कहानियों की समीक्षा करते हुए पात्रों के चुनाव, चरित्र चित्रण, यथार्थ जीवन की पकड़ तथा दृष्टिगत अभाव की चर्चा करते हैं – ‘उग्र हमेशा बने-बनाये पात्रों की खोज में ही रहे हैं। वे जीवन की भूसी में से दाना चुनने का तकलीफ देह काम नहीं करना चाहते, क्योंकि इससे दृष्टि को भी काम में लाने आवश्यकता पड़ती है, इसलिए मात्र संस्कारों के सहारे वे पात्रों की चुटिया पकड़ते फिरते हैं। ………….अद्भुत बात है कि प्रेमचन्द ने हमेशा आदमी को उसके काम के बीच में से उठाकर पात्र बनाया और इसी कारण यथार्थ के प्रारंभिक प्रतिभास से उनका सम्पर्क उस समय भी बना रहा, जब वे निहायत कमजोर, आदर्शवादी समस्याओं को लेकर कहानियाँ लिखते थे। ……….पर वह देखते जरूर रहे, आँखें कभी नहीं मूँदी,  फलतः जीवन ने उन्हें अपनी ओर खींचा। उग्र के लिए जीवन का यह अमृत घट हमेशा छूछा ही रहा। ऐसा लगा कि उनमें जीवन को गहराई से समझने की क्षमता ही नहीं है।’’8

मार्कण्डेय वर्तमान जीवन के जीते-जागते पात्रों को लेकर वास्तविक जीवन की कहानी लिखने पर बल देते हैं और अपनी कहानियों की जमीन भी वही रखते हैं। नयी कहानी आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में पुराने कथाकारों की जीवन-दृष्टि पर उन्होंने बड़ा निर्मम प्रहार किया। खासकर जैनेन्द्र और अश्क पर लिखी समीक्षाएँ आक्रामक हैं। जैनेन्द्र पर लिखा- ‘जैन दर्शन के जिस संशयवाद में उनका निर्माण हुआ है, वह स्वयं अपने ही तर्कों की काट नहीं सह पाता। अगर कोई पदार्थ हो, तो वह नहीं कैसे हो सकता? ………. जैनेन्द्र की मरीचिका का मृग यही चिन्तन प्रणाली है और फिर मंत्र फूँक कर उसे हथेली पर ला रखने वाले मदारी की तरह उन्हें पाठकों की एक भीड़ में ला खड़ा किया है। वैसे हथेली पर रखे पैसे की बात तो दूर रही, उन्हें स्वयं अपनी हथेली पर भी संदेह है कि वह है या नहीं है। ………….जीवन की सहज सच्चाईयों को कहानी की वस्तु बनाने का मतलब है, किन्हीं सुनिश्चित नतीजों पर पहँुचना किन्तु जो संशय मात्र को रचना का परम उद्देश्य मानता है………………। जैनेन्द्र पहले लेखक होंगे, जिन्होंने अपनी मान्यताओं के लिए कल्पना की एक नयी दुनिया खड़ी की और उसमें रक्त-मांसहीन पात्रों की परछाइयाँ दिखा कर कथानक का धोखा खड़ा किया और कथ्य को उसके भीतर से उभारने की चेष्टा की। बात मात्र जीवन के साथ गहरे तादात्म्य की है। ………जितना ही जीवनानुभव कम होगा, कल्पना उतनी ही निरंकुश होगी।………… ‘काका’ की कहानियों में गहरी समझ और जीवन की सहज सच्चाइयों के प्रति महान आस्था का लोहा मानना पड़ता है।’’9

वह उपेन्द्रनाथ अश्क पर भी हमला बोलते हैं और आरोपित मनोविज्ञान की कलई भी खोलते हैं और एक कहानी ‘ठहराव’ में लिखे शक्को के पत्र का उत्तर देते हैं- ‘हर स्थिति में सफलता की खोज को ही आप कला में भी चरम लक्ष्य बना लेते हैं, इसलिए प्रेम का कोई अव्यवस्थित प्रसंग मिलते ही आप झट उसमें बिचवई करने के लिए पक्षधर बन कर पत्र लिख देने की सीमा तक पहुँच जाते हैं। …………लेकिन सच्चाई के नजदीक वही पहुँचते हैं, जिनके पास चरित्र, उसके पूरे परिवेश की समझ और उसकी रचना के लिए शिल्पगत कुशलता होती है………… सेक्स के साथ आवेग एक आवश्यक तत्व है और बिना सेक्स के प्रेम की बात करना तो मानवीय राग के प्रवेश द्वार की अभिज्ञता ही प्रकट करेगा………….। बहरहाल मेरी राय तो यह है कि इन चरित्रों को आप कुछ दिन असली शिलाजीत के सेवन की सलाह दें।’’10

मार्कण्डेय का विचारधारात्मक विकास कांग्रेस से चल कर समाजवादी दल से होते हुए मार्क्सवादी साम्यवाद तक पहुँचता है और वह प्रगतिशील लेखक संगठन के सक्रिय सदस्य बनते हैं किन्तु अधिक जड़ और खोखली होती जाती विचारधारा से अधिक जनोन्मुखी विचारधारा का आग्रह करने वाले विचारकों का अलगाव होता गया और जब ‘जनवादी लेखक संघ’ का जन्म हुआ; मार्कण्डेय उसके संस्थापक सदस्यों में से एक रहे। ध्यातव्य है कि प्रगतिशील लेखकों के सिरमौर यशपाल और भैरव प्रसाद गुप्त तक को मार्कण्डेय ने अपनी आलोचना से हतप्रभ कर दिया था। उन्होंने इनकी कहानियों में आरोपित विचारधारा का विरोध कर इसे नयी कहानी के विकास मार्ग में बाधा सिद्ध किया और यथार्थ जीवन तथा परिवर्तित जीवन के यथार्थ को चित्रित न करने पर आड़े हाथों लिया। यशपाल की कहानियों पर जैसी बेबाक और कटु आलोचना मार्कण्डेय ने लिखी; उनके किसी समकालीन ने नहीं लिखी। आश्चर्य है कि स्वयं यशपाल ने अपनी आलोचना पढ़कर कहा कि यह अब तक उनकी कहानियों पर लिखी गयी सर्वाधिक प्रामाणित और मौलिक समीक्षा है।

मार्कण्डेय ने लिखा – ‘यशपाल जीवन के प्रति नहीं, उन बाधाओं के प्रति प्रतिश्रुत हैं, जो जीवन के विकास के मार्ग में (रूढ़ परंपरा, अंध विश्वास, अज्ञान, कुंठा) आ पड़ी है। फलतः यशपाल ने जाहिरा तौर पर जीवन की जिन समस्याओं का चुनाव किया, वे प्रगतिशील तो थीं, लेकिन उनसे कहानी की मूल प्रकृति पर कोई अन्तर नहीं आया। कल्पना की देह पर जहाँ आदर्शों की सफेद टोपी थी, वहीं अब लाल कर दी गयी। नतीजा यह हुआ कि कहानी न घर की रही न घाट की। चरित्र नकली हो उठे। ………….विचारों का बोझ ढोने के लिए ऐसे ही आत्म निर्मित चरित्रों की जरूरत पड़ती है; ………..यशपाल जीवन की वास्तविकताओं के बुद्धिवादी व्याख्याता हैं, इसलिए उनके चरित्र कठपुतलियों की तरह लगते हैं। ………….कथोपकथन, भाषा, प्रासंगिक वर्णनों में किसी यथार्थगत भिन्नता की बात स्वभावतः समाप्त हो जाती है। …….कहानी वह स्वयं कहते हैं……….। वह आदमी की काल्पनिक कहानियाँ कहकर सामान्य यथार्थ जीवन के मनोविज्ञान के प्रति अपनी उदासीनता प्रकट करते हैं। ……….काश वे जीवन को लेकर आये होते ………….। लेकिन जीवन आता कहाँ है, वह तो बुलाता है, और रचनाकार के लिए निकष बन जाता है।’’11

भैरव प्रसाद गुप्त की समीक्षा में भी आरोपित दृष्टि-प्रक्षेप और सच्चाइयों के प्रति आँख में पट्टी बाँधने का आरोप करते हुए मार्कण्डेय उनकी कहानियों को आँखों देखा विवरण कहते हैं, जोकि भावुकता और भ्रम की सृष्टि भर है।’’12

मोहन राकेश, राम कुमार, कृष्णा सोबती, राजेन्द्र यादव, शेखर जोशी, अमरकांत, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी की कहानियों की समीक्षा करते हुए मार्कण्डेय कहानी की रचना प्रक्रिया के तमाम सवाल उठाते हैं। ‘नई कहानी की पृष्ठभूमि ही आदर्श और रोमान की रही है’- कह कर पूरे आन्दोलन को पारिभाषित करते हैं। समकालीन नयी कहानीकारों पर उनकी कुछ टिप्पणियों के आधार पर नयी कहानी के विषय में मार्कण्डेय की धारणा को समझा जा सकता है। निर्मल वर्मा के लिए लिखा- ‘लेखक जीवन की वास्तविकतओं से दूर है।’ शेखर जोशी के लिए ‘विछोह या विरक्ति की कथा’ कहकर ‘शुद्ध रोमानी’, ‘मध्यवर्गीय संस्कार ग्रस्त व परदेशी’ तक कह जाते हैं। अमरकांत से भी उन्हें शिकायत है कि ‘‘आलोचनात्मक यथार्थ की कुशल दृष्टि रखने वाले लेखक के भीतर रूमानियत का यह कोना क्यों शेष रह गया। चेतना में खालीपन आना शुरू हो गया है। जीवन के सम्बन्ध में एक अपरिवर्तनशील दृष्टि का आभास अमरकांत के एकरूपी कथानकों में है जो ठहरा हुआ यथार्थबोध सा लगने लगा है। ………..आज नयी कहानी नाम से प्रचारित अधिकांश रचनाएँ भावबोध के स्तर पर नवीनता से कोसों दूर हैं और लेखक कहीं का रोड़ा और कहीं का पत्थर मिलाकर ऐसा घाल-मेल कर रहे हैं जो भ्रमपूर्ण मनोविज्ञान की सृष्टि कर रहे हैं। समय नये सवालों के उठाने का है, न कि उन सवालों के नये उत्तर देने का जो आज की जिन्दगी से पीछे छूट गये हैं।’’13

राजेन्द्र यादव के लिए- ‘सूचनाधर्मी परिवेश में वास्तविकताओं की बुझौवल’ शीर्षक में लिखा- ‘सदियों की समाज व्यवस्था टूट रही है और जो बन रहा है उसे पहचानने के लिए नयी भौतिक दृष्टि की जरूरत है और आज का भौतिक जीवनबोध परंपरागत मान्यताओं के लिए चुनौती हो उठा है। जिसे स्वीकार करने का मतलब है बाजार से उपेक्षा, इनामी समितियों और सरकारी साहित्यकारों से तिरस्कार और पूँजीशाहों से दुश्मनी। जो दामन बचा कर निकल रहें हैं वे भ्रम की सृष्टि कर रहे हैं और भ्रम पूँजीवादी बाजार का सबसे तेज बिकने वाला सौदा है। वस्तुतः आज का संघर्ष शांति और युद्ध में नहीं वरन् दो शक्तियों में ही है। कहना न होगा इनमें से एक शक्ति भ्रम है, दूसरी वास्तविकता! और अनजाने राजेन्द्र यादव जैसा कथाकार इधर की कहानियों में भ्रम के साथ हो गया है। ………….वस्तुतः मानवीय संवेदना और अनुभूतियों का सचेत परित्याग ही व्यावसायिक लेखन की सबसे बड़ी पहचान है। …………वे बड़े ठंडे दिल से निहायत बनावटी कहानी का सृजन करते हैं……………. वह इस महाजनी युग की मूलवृत्ति के प्रभाव में नयी कहानियों की वस्तुवादी, जीवनोन्मुख धारा से किनारा कर चुके हैं।’’14

राजेन्द्र यादव और उन जैसे मध्यमवर्गीय जीवन पर रोमानी कहानियाँ लिखने वाली समूची पीढ़ी पर इससे सटीक टिप्पणी कोई दूसरी नहीं हो सकती थी। कृष्णा सोबती के लिए ‘अनोखी रीति इस देह तन की’ शीर्षक के अन्तर्गत लिखा- ‘मार्ग में टिके रहने का अश्लील दुराग्रह कर रही हैं। यह मात्र आत्म-प्रक्षेपण की नकली
कहानी की तरह विकृतियों में चटखारे लेने के सिवा और क्या है? ‘मित्रो’ में समसामयिक स्त्री के शील का औसत प्रतिभास नहीं है और विपरीत मनोविचार की सृष्टि करती है। ……..वे यथार्थ के आभास की लेखिका है और इससे तनिक और नीचे उतरने पर नुस्खों का रचनाकार बनते देर नहीं लगती।’’15

रामकुमार के सन्दर्भ में मार्कण्डेय काफ्का और कामू की कहानियों की तारीफ करते हैं। भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ के चारित्रिक विकास पर आपत्ति करते हैं और ‘परम्परागत बोध के पठार से आगे बढ़ कर बोधहीनता की नयी सच्चाई को भी देखने’ की सलाह देते हैं – ‘‘भीष्म साहनी की कहानियाँ पढ़ते हुए बार-बार हवा में उड़ते हुये उस दामन की याद आती है जो एक नन्हें से काँटे में फँस गया है। न वह खुलकर उड़ ही पाता है, न बदन में चिपक कर रह पाता है।’’16

ध्यातव्य है कि इस समीक्षात्मक दौर में मार्कण्डेय का रचनात्मक लेखन अत्यल्प रह गया। सन् 1960 में जब कहानी संग्रह ‘माही’ का प्रकाशन हुआ तो उसकी रागात्मक बोध की कहानियों को पढ़कर लोगों ने कटु आलोचना की। उन्होंने लिखा- ‘उभरती हुई नयी सच्चाइयों के रागात्मक सम्बन्धों का रूप इसमें चित्रित है।’’17 डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल ने लिखा- ‘पान-फूल’ और ‘महुए का पेड’ के सशक्त और जागरूक कहानीकार की उस संघर्षमयी सार्थक सामाजिक चेतना को क्या हुआ? कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘कामू’ और ‘सात्र्र’ की किताबों द्वारा प्राप्त आधुनिकता के मोह ने तो उसे नहीं डँसा? या लोक ग्राम जीवन की यथार्थ सामाजिकता की संघर्षमयी चेतना में जीना उसे हेय  लगा।’’18

मार्कण्डेय पर इन प्रतिकूल आलोचनाओं का प्रभाव पड़ा और जल्दी ही उन्होंने भूल सुधार कर ली। डॉ. विवेकी राय लिखते हैं- ‘वही 59-60 तक नगर बोध ओढ़ कर सो रहते हैं। कथा साहित्य के इतिहास में यह एक चिंता का अध्याय है। अपने छठवें कहानी संग्रह ‘सहज और शुभ’ (1964) में पुनः उलझाव छोड़कर मार्कण्डेय ग्राम जीवन की ओर लौटते हैं। शायद ‘माही’ पर आयी प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं का यह प्रभाव रहा।’’19

      सन् 1960 में भारत सरकार द्वारा बुलाकर दी गयी रेडियो की नौकरी मार्कण्डेय ने केवल दो माह में छोड़ दी और पुनः पारिवारिक चिंता और उलझाव में रम गये। वह अक्सर कहते हैं- ‘अब तो कान्ह मर गयी है।’’20 इसके बाद लगभग सन् 1975 ई0 तक मार्कण्डेय पारिवारिक उलझनों में घिरे रहे किंतु हारे नहीं। ‘प्रिया सैनी’ और ‘बीच के लोग’ नामक कहानियों के प्रकाशन से एक बार फिर चर्चा में आये। सन् 1980 में प्रकाशित ‘अग्निबीज’ नामक उपन्यास ने उन्हें राजनैतिक जीवन की मजबूत पकड़ रखने वाले कथाकारों की कोटि में पहुँचा दिया। इस पर तमाम पत्र-पत्रिकाओं में व्यापक विचार-विमर्श हुआ।

राजेन्द्र वर्मा ने लिखा- ‘अग्निबीज’ आजादी के बाद के भारतीय ग्राम की तस्वीर है।’’21

प्रकाश मिश्र ने लिखा है – ‘मार्कण्डेय एक प्रतिबद्ध रचनाकार है। ‘अग्निबीज’ में समूचा ग्रामीण समाज अपने पूरे स्वाभाविक रूप में उभरा है। इस सच्चाई को उजागर किया है कि यह आजादी वास्तविक आजादी नहीं है। लेखक का वास्तविक लक्ष्य ग्रामीण समाज की सारी विकृतियों के बीच से फूटने वाली उस चेतना को रेखांकित करना रहा है जो अंततः सारी विसंगतियों को भस्मीभूत कर सार्थक व्यवस्था की वाहिका सिद्ध होगी। ……….लेखक की आस्था गाँव की मिट्टी में अंकुरित होने वाले चारों अग्निबीजों पर केन्द्रित है। प्रेमचन्द परम्परा की एक सशक्त कड़ी है ‘अग्निबीज’।’’22

एक अन्य समीक्षा में ‘अग्निबीज’ को भारत के सम्पूर्ण ग्रामीण समाज की कथा स्वीकार किया गया है।’’23

    डॉ.  आनन्द प्रकाश इसे ‘नयी लेखकीय चुनौती का स्वीकार’ शीर्षक से विश्लेषित करते हैं।’’24 आकाशवाणी में पठित अपनी समीक्षा में आचोचक डॉ. सत्य प्रकाश मिश्र ने इसे मानवीय और सामाजिक रिश्तों के बदलते सन्दर्भों और स्थितियों के दबाव से टूटते रिश्तों की सशक्त कथा स्वीकार किया।’’25 अरुण माहेश्वरी ने इसे ‘युवा संकल्पों के निर्माण का प्रभावशाली उपन्यास’ सिद्ध किया है।’’26 डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव ने इसे ‘राजनीतिक उपन्यास के बहाने हिन्दी की जातीय धारा का महत्त्वपूर्ण उपन्यास कहा।’’27 डॉ. शिव कुमार मिश्र ने भी ‘सही इतिहास दृष्टि की पहचान’ शीर्षक से लम्बी समीक्षा लिखी। उनके उपन्यास कहानियों पर अन्य अनेक समीक्षाएँ भी प्रकाशित हुई हैं।

मार्कण्डेय मिलनसार और ‘अतिथि देवो भव’ की भारतीय संस्कृति के प्रबल पक्षधर हैं। उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए किंतु उन्होंने उन्हें अत्यन्त सहजता से स्वीकार किया। उनकी तीन संतानें-एक बेटा और दो बेटियाँ हैं। तीनों अब व्यवस्थित हो चुके हैं। पत्नी विद्या जी परम धर्मनिष्ठ, विनम्र, सरल और ममतामयी सद्गृहिणी हैं। मार्कण्डेय जी जनवादी लेखक संघ के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्याख्याता और नीतिनियंता हैं। पूरे देश में उनके मित्रों, सहयोगियों और अनुयायियों, प्रशंसकों की लम्बी फेहरिस्त है। छोटे से छोटा रचनाकार या विद्यार्थी भी मार्कण्डेय के अथाह स्नेह और सम्मान से अभिभूत रहा करता है। उनकी संगठन शक्ति, वक्तृत्व शैली, साफगोई, हँसमुख व्यक्तित्व और हल्की मुसकराहट के बीच व्यंग्य की मीठी- गुदगुदाती शैली सामने बैठे मित्रों, सहयोगियों को आनंदित करती है। उनका व्यक्तित्व मानों एक दर्पण है जो उनकी रचनाओं में भी बार-बार दीप्त होता रहता है।’’28

मार्कण्डेय राजनीतिक संघर्षों में साहित्य के नेतृत्व की भूमिका स्वीकार करने वाले लेखक नहीं हैं; बल्कि सामाजिक यथार्थ की समझ और क्रान्तिकारी चेतना के निर्माण तक की यात्रा को ही सृजन की यात्रा मानने के पक्षधर हैं। वे सत्य और शिव के साथ सौन्दर्य के समर्थक हैं।’’29 ‘कथा’ नामक अनियतकालीन प्रतिष्ठित पत्रिका के संपादक रूप में भी इनका व्यक्तित्व साकार हुआ है।
 

मार्कण्डेय बाद में कई बीमारियों के चपेट में आ गए। पहले 1997 में उन्हें दिल का दौरा पड़ा। दिल्ली में इलाज करा कर इलाहाबाद वापस लौट कर मार्कण्डेय उसी जिजीविषा से काम करने लगे।  लेकिन एक बार फिर 2008 में मार्कण्डेय ने अपने गले में कुछ गड़बड़ पाया। जांच कराये जाने पर यह गले का कैंसर निकला। पहली बार तो वे इलाज से स्वस्थ हो गए लेकिन दूसरी बार 2010 में यह कैंसर फेफड़े तक पहुँच गया। दिल्ली के रोहिणी में राजीव गांधी कैंसर संस्थान में  मार्कण्डेय का समुचित इलाज कराया गया। एकबारगी यह लगा कि अब वे स्वस्थ हो गए हैं और वापस जिस दिन बेटी के साथ आजमगढ़ जाना था उसी दिन 18 मार्च को सायं पाँच बजे उनका निधन हो गया।  मार्कण्डेय इलाहाबाद लौटना चाहते थे लेकिन लौटे पार्थिव हो कर। 19 मार्च 2010 को इलाहाबा में रसूलाबाद घात पर उनकी अंत्येष्टि कर दी गयी।

मार्कण्डेय का कृतित्व:
मार्कण्डेय ने कहानी, उपन्यास, एकांकी, कविता और आलोचना साहित्य को समृद्ध किया है और सफल संपादक के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं। उनकी कृतियों का संक्षिप्त विवरण अपेक्षित है।

कहानी संग्रह

पान-फूल:

मार्कण्डेय का यह प्रथम कहानी संग्रह सन् 1954 ई0 में बद्री विशाल पित्ती की प्रेरणा से नवहिन्द पब्लिकेशन्स हैदराबाद से छपा। बाद में सन् 1957 ई0 में इसे स्वयं मार्कण्डेय ने अपने प्रकाशन ‘नया साहित्य प्रकाशन’ 2-डी, मिन्टो रोड, इलाहाबाद से छापा। इसमें कुल बारह कहानियाँ हैं। अनेक आलोचक इसे नयी कहानी आंदोलन का प्रथम कहानी संग्रह मानते हैं।’’30 कहानियाँ हैं:- गुलरा के बाबा, बासवी का माँ, नीम की टहनी, सवरइया, पान-फूल, घूरा, रेखाएँ, रामलाल, संगीत आंसू और इन्सान, मुंशी जी, सात बच्चों की माँ, कहानी के लिए नारी पात्र चाहिए।

महुए का पेड़:

मार्कण्डेय का दूसरा कहानी संग्रह सन् 1955 ई0 में ‘नया साहित्य प्रकाशन’, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। ‘इसमें ‘पान-फूल’ के बाद की दस चुनी हुई कहानियाँ संगृहीत हैं।’’31 जूते, एक दिन की डायरी, नौ सौ रूपये और एक ऊँट दाना, साबुन, मिस शांता, महुए का पेड़, मन के मोड़, हरामी के बच्चे, मिट्टी का घोड़ा, अगली कहानी।

हंसा जाई अकेला:

मार्कण्डेय का तीसरा कहानी संग्रह सन् 1957 ई0 में ‘नया साहित्य प्रकाशन’, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ। ‘इसमें न ‘पान-फूल’ की कोमल संवेदनाएँ और लुभावनी भाषा है, न ‘महुए के पेड़’ की झुंझलाहट और आक्रोश से भरी तीखी सामाजिक दृष्टि। बेहद सहज शैली में कही गयी इन कहानियों में मैंने गाँव का नया धरातल छूने का प्रयास किया है। ………जनता का जीवन ही वह धरातल है जहाँ लेखक अपने अनुभव संगठित करता है। कथानक की नवीनता इसमें है कि साधारण मानवीय जीवन में वह कौन सा विशेष नयापन है जो हमारी सामाजिक परिस्थितियों के परिवर्तन के कारण पैदा हो गया है या बिना किसी परिवर्तन के भी जीवन का कौन सा ऐसा पहलू है, जो साहित्य में अब तक अछूता है। उदाहरण के लिए प्रेमचन्द (पूस की रात) ने जीवन के परिवर्तित होने वाले पहलू को देखा और यशपाल (फूलों का कुर्ता) ने केवल एक अनदेखे जीवन चित्र पर से परदा हटा दिया है। ………गाँव के जीवन में नयी दृष्टि का समावेश करना तथा वहाँ के जीवन की परिवर्तित दिशा को देख पाना ही नयी कहानी के सृजन में सहायक हो सकता है। गाँव-शहर का विभाजन उचित नहीं। हमारा नया संवेद्य जनतंत्र का गरीब जन है।’’32

इस संग्रह में कुल सात कहानियाँ हैं – कल्यानमन, सोहगइला, दौने की पत्तियाँ, बातचीत, हंसा जाई अकेला, चाँद का टुकड़ा तथा प्रलय और मनुष्य।

भूदान:

मार्कण्डेय का चैथा कहानी संग्रह सन् 1958 ई0 में उन्हीं के प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। मार्कण्डेय ने इसकी विस्तृत भूमिका में नयी-पुरानी कहानियों के पार्थक्य पर विचार करते हुए नयी कहानी के अधकचरे कथाकारों पर भी निशाना साधा है और नयी ग्रहणशीलता पर बल दिया है। नयी कहानी आंदोलन की शक्ति, सीमा और प्रासंगिकता से लेकर शिल्प, वस्तु, प्रतीक विधान आदि पर नये ढंग से प्रकाश डाला है।’’33

इस संग्रह में आठ कहानियाँ हैं:- माई, आदर्श कुक्कुट गृह, धूल का घर, भूदान, बिन्दी, शव साधना, उत्तराधिकार और दाना-भूसा।

माही:

मार्कण्डेय का पाँचवा कहानी संग्रह सन् 1960 ई0 में उनके ही प्रकाशन ‘नया साहित्य प्रकाशन’ से प्रकाशित हुआ। ‘भूदान के बाद लिखी गयी कहानियों में से कुछ कहानियाँ………..। उभरती हुई नयी सच्चाइयों के संदर्भ में रागात्मक सम्बन्धों का जो रूप इन कहानियों में चित्रित है…………….बदलते हुए जीवन के यथार्थ के प्रति लोगों को सजग करके……।’’34

इसके प्रकाशन पर काफी आक्रामक प्रतिक्रियाएँ हुई थीं और उन पर ग्राम्य जीवन की समस्याओं से पलायन करने के आरोप लगे थे।

इस संग्रह में आठ कहानियाँ हैं:- दूध और दवा, सतह की बातें, माही, सूर्या, तारों का गुच्छा, आदर्शों का नायक, पक्षाघात और आवाज।

नारी पात्र चाहिए:

यह पाकेट बुक्स संस्करण ‘पान-फूल’ संग्रह के आधार पर तैयार कर मार्च 1961 में मार्कण्डेय के ही प्रकाशन से छापा गया था।’’35

तारों का गुच्छा:

सन् 1961 में प्रकाशित यह संग्रह ‘माही’ का पाकेट संस्करण है, जिसे लेखक ने पाठकों की माँग पर काफी सस्ते मूल्य 75 नये पैसे में छापा है।’’36

सहज और शुभ:

मार्कण्डेय की कहानियों का छठा संग्रह नवम्बर 1964 को उन्हीं के प्रकाशन से छपा। मूल्य था तीन रूपये पचास पैसे। उन्होंने लिखा- ‘‘मेरे लिए सच्ची रचना वहीं कहीं छिपी है, जहाँ जीवन बदल रहा है।’’37

इस संग्रह में सात कहानियाँ हैं:- घुन, आदमी की दुम, आँखें, मधुपुर के सिवान का एक कोना, सहज और शुभ, कानी घोड़ी और एक काला दायरा।

बीच के लोग:

मार्कण्डेय का सातवाँ कहानी संग्रह लगभग इक्कीस वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद 1985 ई0 में प्रकाशित हुआ। उन्होंने छोटी सी भूमिका में स्वीकार किया- ‘यह सातवाँ संकलन एक अरसे बाद तब प्रकाशित हो रहा है जब आत्मानुभूति पर आधारित भाववादी अनुरक्ति का दबाव कहानी को यथार्थवादी मार्ग से विचलित कर रहा है।’’38 इसमें लँगड़ा दरवाजा, बादलों का टुकड़ा, बीच के लोग, बयान, गनेसी और प्रिया सैनी नामक छः कहानियाँ संकलित हैं।

मार्कण्डेय की कहानियाँ:

इस नाम का प्रथम भाग मार्कण्डेय ने नया साहित्य प्रकाशन से 1986 ई0 में प्रकाशित किया था। इसमें पूर्व संग्रहों में से दस कहानियाँ चयनित हैं किन्तु अन्य भाग प्रकाशित नहीं किये गये।

बाद में 2002 ई0 में इसी नाम से अब तक कुल प्रकाशित सातों संग्रहों की कुल 58 कहानियों का एक संकलन लोक भारती प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है, जिसका मूल्य है पाँच सौ रूपये। इस समय तक मार्कण्डेय मिन्टो रोड स्थित अपना किराये का मकान छोड़कर निजी नये मकान ए0डी0 2, एकांकी कुंज, 24, म्योर रोड, इलाहाबाद में आ गये थे।

उपन्यास

सेमल के फूल:

यह माह दिसम्बर, 1956 ई0 में प्रकाशित मार्कण्डेय का प्रथम उपन्यास है जो मानव के शाश्वत रागबोध पर आधारित एक प्रेमाख्यानक उपन्यास है। वस्तुतः इसके पूर्व ‘धर्मयुग’ में इसका धारावाहिक प्रकाशन हो चुका था। नेमि चंद जैन ने इसे ‘कथाकार व्यक्तित्व का एक नया स्तर’ स्वीकार किया है।’’39 कवि केदारनाथ अग्रवाल ने 18 फरवरी, 1957 ई0 को लिखे पत्र में इसे खूब सराहा है।’’40

ऐसा लगता है कि इसे नीलिमा और सुमंगल की प्रेम कहानी कहना बहुत तर्कपूर्ण नहीं होगा। दरअसल यह सुमंगल नाम के एक युवा सर्वोदयी नेता की कहानी है, जो जनसेवा की सनक में अपने वैयक्तिक जीवन को नष्ट और सारहीन कर, अपने निर्मल समर्पित प्रेम तथा प्रेमिका की बलि दे देता है।

अग्निबीज:

यह बहुचर्चित उपन्यास सन् 1981 ई0 में ‘नया साहित्य प्रकाशन’ इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ; और इस संकल्प के साथ-साथ ‘अग्निबीज’ स्वतन्त्रता के बाद, 53, 54 के आस-पास के ग्रामीण संदर्भों में उभरते पात्रों की सामाजिक, राजनैतिक चेतना की विकास यात्रा को रेखांकित करने वाले कथानक का पहला उपन्यास है।’’41 इसके अन्य भाग भी लेखक की योजना के अंग थे पर लिखे नहीं जा सके। 

कविता-संग्रह

सपने तुम्हारे थे:

यह सन् 1961 ई0 में प्रकाशित मार्कण्डेय का एक मात्र कविता संग्रह है; जिसमें कहीं हृदय की नितांत कोमल भावनाओं का संस्पर्श है तो कहीं जीवन और युग की विडंबनाओं के चित्र।

एकांकी संकलन

पत्थर और परछाईयाँ:

सन् 1960 ई0 में प्रकाशित मार्कण्डेय के एकांकियों का एक मात्र संकलन है।

आलोचना

कहानी की बात:

सन् 1984 ई0 में लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित यह ग्रंथ कथा आलोचना का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। इसमें छठे दशक में ‘माया’ तथा ‘नयी कहानी’ में लिखे गये लेखों का संकलन किया गया है। कहानीकारों पर लिखे गये मार्कण्डेय के पन्द्रह समीक्षात्मक लेख इसमें संकलित हैं।

सम्पादन

कथा:

अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका ‘कथा’ का सम्पादन मार्कण्डेय के कुशल रचनात्मक व्यक्तित्व का दर्पण है। इसका पहला अंक जनवरी 1970 में, दूसरा अंक जून 1970 में, तीसरा अंक मई 1971 में प्रकाशित हुआ। अंक 4 अगस्त 1974 तथा अंक 5 नवम्बर 1975 में प्रकाशित हुआ। इसका ताजा अंक 11 दिसम्बर 2006 में प्रकाशित हो चुका है। कथा और आलोचना को केन्द्र में रखकर मार्कण्डेय समसामायिक साहित्य पर विचार विमर्श करने पर बल देते हैं।

बाल साहित्य:

मार्कण्डेय ने नया साहित्य प्रकाशन से कालिदास, बाणभट्ट, भवभूति, बाल हितोपदेश, बाल पंचतंत्र और प्रेमचन्द आदि बाल साहित्य की पुस्तकों का भी सम्पादन किया।

इसके अतिरिक्त मार्कण्डेय के अनेक लेख, वक्तव्य, वार्ताएँ, समीक्षाएँ, कविताएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। उनसे लिए गये एक लम्बे साक्षात्कार के आधार पर डॉ. बाल कृष्ण पाण्डेय ने उनके व्यक्तित्व पर एक परिचयात्मक लेख तैयार किया है जो शीघ्र ही प्रकाशित भी हो रहा है।

नयी कहानी आन्दोलन में परिवर्तनशील ग्रामीण यथार्थ को आधार बनाकर वस्तु परक जीवन संदर्भों की कथा लिखने वाले मार्कण्डेय नयी कहानी आंदोलन में सबसे अलग राह बनाने वाले किन्तु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं चर्चित रचनाकार के रूप में स्थापित हैं। सच्चे अर्थों में मार्कण्डेय एक अग्निबीज हैं।






सम्पर्क-

मोबाइल- 09450945041

मार्कण्डेय जी के कुछ दुर्लभ फोटोग्राफ्स

आज मार्कण्डेय जी की पांचवीं पुण्यतिथि है. इस अवसर पर प्रस्तुत है एक फोटो फीचर. मार्कण्डेय जी के जीवन के विभिन्न पलों को इन फोटोग्राफ्स में समेटने का यत्न किया गया है. इन बहुमूल्य और दुर्लभ चित्रों को हमें उपलब्ध कराया डॉ. स्वस्ति ठाकुर ने, जो मार्कण्डेय जी की बड़ी पुत्री हैं.    

 

जयपाल सिंह प्रजापति का आलेख ‘एक ‘अग्निबीज़’ इनमें भी है’

 

मार्कण्डेय जी

आम आदमी खासकर एक गरीब आदमी की पीड़ा और उसकी जलालत भरी जिन्दगी मार्कण्डेय जी की रचनाओं में हमें सहज ही दिख जाती है। इन सबके दिलों में एक गहरा आक्रोश और असंतुष्टि है। मार्कण्डेय की रचनाओं के इस पहलू पर नजर डाली है जयपाल प्रजापति ने। कल 18 मार्च को मार्कण्डेय जी की पुण्य-तिथि है तो आइए पढ़ते हैं। इस अवसर पर मार्कण्डेय जी को याद करते हुए प्रस्तुत है यह आलेख ‘एक अग्निबीज़इनमें भी है। 
  
एक अग्निबीज़इनमें भी है
जयपाल सिंह प्रजापति
रचनाकार किसी वस्तु को किस तरह ¼Angle½ से देखता है और कितनी मात्रा में अनुभूत करता है यह प्रश्न उतना अधिक महत्व का नहीं जितना कि यह कि वह उस वस्तु को उसी सजीवता, संजीदगी, पूर्णता और यथार्थ रूप में पाठक के समक्ष कितने सफल तरीके से प्रस्तुत कर पाया है जो उस वस्तु में है – जिसे उसने देखा और समझा है। हाँ, देखने का उसका नज़रिया आधारहीन न हो। एक सजग रचनाकार का हो भी नहीं सकता। यह इसलिए भी जरूरी है क्यों कि पाठक उसके लिखे शब्दों में उस वस्तु का प्रतिबिंब देखने और अनुभव करने की कोशिश करता है। और तो और वह अपने ज्ञान और बुद्धि से उसकी सच्चाई भी परखना चाहता है इसलिए पाठक प्रारंभ में कल्पनालोक में तो कदापि नहीं होता। यह तो रचना के ऊपर निर्भर है कि वह पाठक को कितना आकर्षित कर पायी है। हालाँकि पाठक वस्तु की वास्तविकता से दूर अवश्य होता है फिर भी पाठक और रचनाकार द्वारा अनुभूति की मात्रा का अंतर जितना कम होगा उतना ही अधिक रचनाकार की लेखकीय के बिंदु तय करने में उसे सहायता मिल सकेगी। यदि रचनाकार की अनुभूति से पाठक तारतम्य बिठा ले तो समझे रचनाकार के लिए सफलता का बिंदु विकसित हो चला।
कथाकार मार्कण्डेय के लेखन में वह सामर्थ्य है जो पाठकों को आकर्षित करने में सफल हुआ है। उनकी रचनाएँ पाठकों को केवल आकर्षित इसलिए नहीं करती हैं  कि उन रचनाओं में सिर्फ मनोरंजन के लिए सामग्री उपलब्ध है बल्कि इसलिए कि उसमें जो सामग्री है वह पाठक को मनोरंजन से ज्यादा समाज के बारे में सोचने पर मजबूर करती हैं, जिंदगी की सच्चाई के वे कडवे घूट पीने के लिए विवश करती है जिसे आमतौर पर कोई भी पीना नहीं चाहेगा। ठीक वैसी ही स्थिति जैसे-भूखे पेट में घुन खाए दाने निगले नहीं जाते लेकिन निगलने पड़ें। यह कदापि अनुभूति की बलात स्वीकृति नहीं कही जानी चाहिए क्योंकि वस्तुतः यह लेखक की अनुभूति को अभिव्यक्ति के लिए विवशता नहीं बल्कि इसमें जो स्वर निकल रहें हैं उसमें उस वर्ग की किलकार से ले कर चीत्कार तक की अनूगूँज-गाँव की पगडंडियों से लेकर कस्बे, शहरों, नगरों और महानगरों की उन सकरी गलियों में भी गूँजती रही है जिसे उसने गढ़ा है; बनाया है-अपने को तपा कर, गला कर, लुटा कर। जहाँ अब उनके लिए कोई जगह नहीं- आधार बनाने वाला अधिकारहीन! क्या यह मेहनतकश सृष्टि को सुन्दरतम बनाने वाले कलाकार से कम है? और वह कलाकार है तो फिर वह हाँशिए पर क्यों रखा जाता रहा है? यह ठीक वैसा ही लगता है जैसे कि भैरव प्रसाद गुप्त जी ने अपनी कहानी इंसान और मक्खियाँ में लिखा ‘‘रोटी की माँग करना शांति में खलल डालना है और भूखे चुपचाप मक्खियों की तरह मर जाना शांति की राह!’’ माकण्डेय जी भी कदाचित् उस बिंदु की तलाश में रहे हैं जहाँ इस वर्ग के लिए कोई सार्थक पहल की जा सके।
इस वर्गीय अंतर्विरोध को पकड़ पाना आसान नहीं। समाज में व्याप्त इस अंतर्विरोध को अभिव्यक्त करने के लिए माकण्डेय की लेखनी कितनी कसमसायी होगी इसकी महज कल्पना ही की जा सकती है। वे जब अपने आसपास, समाज की विषय-वस्तु लेकर कथा गढ़ते हैं, तब पात्रों के माध्यम से एक सामान्य जनकी सादी जिंदगी को पूर्णता में उभारने का एक साहस भरा बड़ा जिम्मा रहा होगा। इसके साथ ही इस वर्ग के विविध रूप भी रहे हैं जो उनके रचना-कर्म में  बिखरे किन्तु अपने स्थायित्व की तलाश में लगातार संघर्षरत् कहानी, उपन्यास, काव्य, एकांकी, आलोचना में समानान्तर चलता रहा है। इसलिए उनके कहानी पात्रों में एक ओर जहाँ संघर्ष करता कहानी भूदानका किसान रामजतनमिल जाता है तो दूसरी ओर क्रांति का आह्वान करता मनराजैसा दूसरा पात्र, एक ओर आदर्श कुक्कुट-गृह के शासकीय योजनाओं का पुलिंदा, अधिकारियों के लिए धन की बारिश की तरह है तो दूसरी ओर पात्र रमजानकी वही हालत जो सदियों से रही है, वह उसी स्थिति में आज भी है – मूकदर्शक बना निर्वाक, अधिकारहीन। एक और कहानी दौने की पत्तियाँकी वह स्त्री गुलाबोजो अपनी परंपरा और संस्कार की लक्ष्मण रेखा को अपने स्त्रीत्व और अधिकारों की सीमा समझती है जिसे समाज ने कभी बना दिया था, तो दूसरी ओर सन्नो’, ‘प्रिया’,‘सैनीजैसी ओ युवतियाँ हैं जो अपने अस्तित्व को समाज में ढूंढ़ रही है या अपने अनुरूप समाज को गढ़ना चाह रही हैं; अपने वजूद को स्वीकार करवाना चाहती हैं लेकिन समाज के गठन में जिन बिंदुओं को मिलाया गया है, उनमें वे केवल तन्तु है, बिन्दुओं का मिलान समाज करता रहा है- अपनों के बीच अपने होने की तलाश। ठीक मार्कण्डेय की इन पंक्तियों की तरह-
क्या यह आदमी था?
जो हमारे साथ यों बौठा हुआ चुपचाप,
बेबश ऊँघता-सा, तप रहा था,
और बे अंजाम,
अपनी जाति ही की खा रहा था लात’’
प्रश्न है आखिर यह वर्ग करे क्या? क्या अपने अस्तित्व को समाप्त होने से बचाए रखना भर ही उसकी अजीब-सी पहचान है? क्या उसके हाथ में बस यही शेष है या अपने अधिकारों की माँग के लिए उग्र हो कर कभी वह आगे आ पाएगा? संभवतः इसका अभी कोई भी जवाब देना जल्दबाजी होगी अभी फिलहाल वह कह सकता है- केवल अस्तित्व को बचाए रखने में ही ऊर्जा लग जा रही है आगे के लिए शक्ति-सामर्थता शेष नहीं, कम-से-कम अभी तो नहीं। मार्कण्डेय की कहानी दाना-भूसा का पात्र बसनयही कर रहा है- ‘‘वह धीरे-धीरे चल कर बकरी के पास पुहँचा और आम की एक पतली डाल उठा कर एक कउची को तोड़ा तो चट की आवाज निकली- यह सूखी है। उसने दूसरी कउची उठायी, उसे तोड़ा और मूँह में ले कर कूँचने लगा।’’
साम्राज्यवादी, पूँजीवादी शक्तियाँ इस मेहनतकश को केन्द्र में रख कर जिस तरह अपनी मायावी सौंदर्य भरी भूमिका और आभामयी आवरण फैलाए हुए हैं इसमें यह मेहनतकश दूरगामी बिंदुओं को देख पाने में असफल हो रहा है और आज वह स्थिति में पहुँच गया है कि स्वयं अपने को देख नहीं पा रहा है -उसका अस्तित्व खतरे में है।
आज तेजी से पूँजीवादी समाज बाजार के रूप में विकसित हुआ है उसमें भी वर्गीय स्थिति का एक अंतर्संबध और अव्यक्त द्वंद्व है। जो एक दूसरे पर आश्रित है। चूकि केन्द्र में पूँजी है इसलिए अधिकार भी उसी पूँजीवादियों के हाथों में है-श्रम और अधिकारों में समानता ¼Equal½ कहना बैमानी है। मार्कण्डेय की सोच इस ओर लगी रही है जिसमें इस मेहनतकश के अधिकरों को सुरक्षित रख समाजवाद की उस बुनियाद को पोषण देना उद्देश्य रहा है जो समान अधिकार की बात करता है। उन्होंने संदर्भ, पात्र-चरित्र चाहे गाँव के ही क्यों न लिए हों लेकिन उनमें भी वर्गीय स्थिति को बेवाकी से अभियव्यक्त किया है। भले उन्हें आदर्शवादी गुलरा के बाबाचैतू को यह कह कर मना करे कि ‘‘लेकिन तुम क्या कर रहे हो? चैतू बोले- ‘‘सरपत काट रहे हैं, बाबा बोले! अच्छा कल से मत काटना! लेकिन इधर चैतू का वह सुसुप्त अग्निबीज जल उठे और उसे कहने को विवश कर दे कि – ‘‘ऐसे ही काटूँगा और चैतु लटक कर हँसिया चलाने लगा।’’
मार्कण्डेय के रचनाकर्म में भी अग्निबीजएक उपन्यास नहीं मेहनतकश पात्रों के हृदय और उनके अंतस से निकलती वही चिंगारी का वही बीज-बिंदु है जो नियंत्रित रही तो दीपका मनाहोरी प्रकाश असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमयऔर अनियंत्रित हुई तो ज्वाला बन जाती है
जयपाल सिंह प्रजापति
डॉ जयपाल सिंह प्रजापति
साहित्य एवं भाषा अध्ययनशाला,  
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यलय,  
रायपुर (छ.ग.)-492010
लगातार लेखन कार्य,  
अध्ययन-अध्यापन, कबीर से आज के कवि 
आलोचनात्मक पुस्तकीय कार्य प्रगति पर।

सम्पर्क-
ई-मेल : singh.jaipal82@gmail.com
मोबाईल- 09229703055

मार्कण्डेय जी की कहानियों में बाल-मनोविज्ञान पर हिमांगी त्रिपाठी का आलेख



मार्कण्डेय जी की पुण्यतिथि 18 मार्च के अवसर पर विशेष प्रस्तुति के क्रम में हमने वरिष्ठ आलोचक अमीर चंद वैश्य का समीक्षा-आलेख प्रस्तुत किया था. इसी प्रस्तुति के दूसरे क्रम में पेश है हिमांगी त्रिपाठी का आलेख ‘मार्कण्डेय जी की कहानियों में बाल-मनोविज्ञान एवं समय सन्दर्भ’
मार्कण्डेय की कहानियों में बाल-मनोविज्ञान एवं समय सन्दर्भ
 
हिमांगी त्रिपाठी
मार्कण्डेय का जीवन : एक संक्षिप्त परिचय 
 
प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी कथा-साहित्य के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले मार्कण्डेय का जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के बराई नामक गाँव में 2 मई सन् 1930 में एक सामान्य किसान परिवार में हुआ था। परिवार में सबसे बडे़ पौत्र होने के कारण उन्हें बहुत लाड़-प्यार मिला। उनके पितामह श्री महादेव सिंह का व्यक्तित्व अत्यन्त विशाल एवं व्यापक था। वे संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और धार्मिक अंधविश्वासों के प्रबल विरोधी थे। मार्कण्डेय के पिता का नाम तालुकदार सिंह था और माता का नाम मोहरा देवी था। इनकी माता अत्यन्त सहृदय और धर्मभीरू स्त्री थीं। गाँव में गरीब, निसहाय लोगों की मदद करने के लिये वह सदैव तत्पर रहती थीं। उनके इसी स्वभाव का परिचय देते हुए बालकृष्ण पाण्डेय लिखते हैं- ‘जब वह दुल्हन बन कर आयी थीं और घर की चौखट नहीं लाँघ सकती थी, अपनी बखरी के पिछवाडे़ एक झोपड़ी में रहने वाली असहाय स्त्री दुखना को रात चुपके से खाना पहुँचा आती थीं। बाद में इसी दुखना को आधार बना कर मार्कण्डेय ने महुए का पेड़’ लिखी।1 मार्कण्डेय के हृदय में गरीबों के प्रति जो लगाव, अपनापन था वह उनकी दयालु माँ के कारण ही था। गरीबों के प्रति उनकी माँ का व्यवहार उपर्युक्त कथन में हमें दिखायी पड़ता है।

कहानीकार मार्कण्डेय के पिता तालुकदार सिंह अपने सम्बन्धी की एक छोटी-सी रियासत की देखभाल किया करते थे। अपने बाबा के प्रति मार्कण्डेय के हृदय में अपार स्नेह था। मार्कण्डेय की माध्यमिक शिक्षा पूरी होने के पहले ही उनको दिल का दौरा पड़ा और वे पंचतत्व में विलीन हो गये। इस घटना के बाद उनके जीवन को गहरा आघात लगा। बाबा की मृत्यु के बाद मार्कण्डेय के जीवन में एक गहरी गम्भीरता आयी। मन आन्दोलित हो उठा और ऐसी मनः स्थितियों में किस्मत ने उन्हें अवध की सड़ी-गली ताल्लुकेदारी के बीच ला खड़ा कर दिया जहाँ उन्होंने जनता पर हाने वाले अत्याचारों और अन्यायों को देखा। लगान की वसूली के लिये उनके साथ होने वाले पशुओं से भी बद्तर सलूक को देखा जिन्होंने उनके संस्कारों को और भी बढावा दिया जो विरासत के रूप में उन्हें अपने बाबा से मिले थे।2 बाबा की मृत्यु के पश्चात वह अपनी आगे की पढ़ाई के लिये अपने पिता के साथ प्रतापगढ़ आये थे। उन्हीं के शब्दों में-आठ-दस साल का वह कालखण्ड जब मैं एक सामान्य किसान के घर से निकल कर प्रतापगढ़ अपनी एक रियासतदार रिश्तेदार के यहाँ आगे पढ़ने क लिये चला गया था। इस रियासत का प्रबन्ध मेरे पिता देखते थे।3 मार्कण्डेय के दिल में जो स्वतन्त्र भारत का सपना था उसका बीज बाबा ने ही बोया था। शोषितो के प्रति जो उनके मन में सहानुभूति थी वह उनके बाबा और उनकी माँ के संस्कारों द्वारा ही थी।

उच्च शिक्षा को प्राप्त करने के लिये मार्कण्डेय इलाहाबाद आये और यहीं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपनी पढ़ाई को जारी रखा। जब मार्कण्डेय इलाहाबाद आये थे उस समय यह शहर भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में विख्यात था। यहीं पर उनकी मुलाकात निराला, पन्त, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा आदि अनेक साहित्यकारों से हुई। इसके चलते मार्कण्डेय ने अमरकान्त और शेखर जोशी के साथ मिलकर नयी कहानी आन्दोलन को नयी दिशा देने वाली इस मित्रता को एक नयी त्रयी के रूप में निर्मित किया। इलाहाबाद में मार्कण्डैय प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में भाग लेने लगे जिसमें अनेक प्रकार की साहित्यिक चर्चाएँ होती थी। मार्कण्डेय ने शरद जयन्ती के उपलक्ष्य में अपनी पहली कहानी गुलरा के बाबा’  का पाठ किया तो वहाँ पर उपस्थित लेखक, साहित्यकारों ने उनकी खूब प्रशंसा की। अगले महीने उनकी यही कहानी कल्पना’  नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई और बहुत चर्चित हुई। इसके पश्चात एक-एक करके उनके आठ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए जिनमें उन्होंने ग्रामीण परिवेश की समस्याओं पर अधिक लिखा है। इन्होंने प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कथा- साहित्य को एक नवीन जीवन प्रदान किया।

आठ कहानी संग्रहों पानफूल’,  महुए का पेड़’,हंसा जाई अकेला’,भूदान’,माही’,  सहज और शुभ’, बीच के लोग’, और हलयोग’  के अलावा उन्होंने दो उपन्यास सेमल के फूल’  और अग्निबीज’  लिखे। सेमल के फूल’  में जहाँ उन्होंने नीलिमा और सुमंगल के असफल प्रेम को दर्शाया है वहीं अग्निबीज’ में गाँव के यथार्थ को प्रस्तुत करते हुए अनेक प्रकार की समस्याओं को रेखांकित किया है। हर रचनाकार पहले एक कवि होता है उक्ति को सही साबित करने के लिये मार्कण्डेय ने कविताएँ भी लिखीं। इनके कविता संग्रह हैं-सपने तुम्हारे थे’  और यह धरती तुम्हें देता हूँ’। मार्कण्डेय जी ने पत्थर और परछाइयां’  नाम से एक एकांकी संग्रह भी लिखा। आलोचना की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक भी कहानी की बात’  नाम से .लिखी। अपने बाल हृदय का परिचय देते हुए उन्होंने  कालिदास’,बाणभट्ट’,भवभूति’,बाल पंचतन्त्र’,  एवं हितोपदेश’  जैसे बाल-साहित्य की भी रचना की। इसके अलावा मार्कण्डेय ने 19690 में कथा’  नामक अनियतकालिक पत्रिका का सम्पादन प्रारम्भ किया। उनके सम्पादन में कथा’  के कुल 14 अंक निकले। ग्रामीण कथाकार मार्कण्डेय डेढ़ दशक तक कैंसर और हृदयाघात जैसी बीमारियों से जूझते रहे। अन्ततः 18 मार्च 2010 को नई दिल्ली के रोहिणी के ‘राजीव गाँधी कैंसर इन्स्टीट्यूट’  में उनका निधन हो गया। उनके पार्थिव शरीर को अगले दिन इलाहाबाद लाया गया जहाँ गंगा घाट पर 19 मार्च 2010 को उनकी अंत्येष्टि कर दी गयी।   

हिन्दी कहानी- साहित्य में मार्कण्डेय को आमतौर पर एक ग्रामीण -कथाकार के रूप में स्मरण किया जाता है। कथा सम्राट प्रेमचन्द के पश्चात मार्कण्डेय ने हिन्दी कथा-जगत को एक नवीन दृष्टि से देखा। इसी क्रम में उन्होने ग्रामीण-परिवेश, स्त्रियों की दशा, कृषकों की दयनीय स्थिति, बाल-मनोविज्ञान, आदि को अपनी कहानियों का विषय बना कर अपनी एक अलग पहचान बनायी है। यद्यपि मार्कण्डेय के अतिरिक्त शेखर जोशी, अमरकान्त, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव आदि ने भी इसी दौर में कहानियाँ लिखी किन्तु ग्रामीण जीवन के यथार्थ तक जितनी गहराई में मार्कण्डेय पहुँच सके हैं वह उनकी विशिष्टता बन गयी है। इनकी कहानियों में भले ही ग्रामीण-परिवेश और किसानों की दयनीय स्थिति की कितनी अधिकता क्यों न हो किन्तु उनका कोमल हृदय बच्चों की मासूमियत को अपनी कहानियों में शरीक करना नहीं भूलता। और इसी कारण उनकी अनेक कहानियाँ बाल-मनोविज्ञान को लेकर लिखी गयी हैं।

          

मार्कण्डेय ने अपने कहानी-संग्रहों में स्वतन्त्रता के प्रति उपजे मोहभंग से लेकर ग्रामीण वातावरण में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आदि अनेक प्रकार की समस्याओं को अपनी कहानी के माध्यम से प्रस्तुत किया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी निम्न- वर्ग किस प्रकार उच्च-वर्ग के पैरों तले रौंदे जाते हैं और किस प्रकार उनके घर की बहू-बेटियाँ उच्च-वर्ग के पुरुषों के शोषण का शिकार बनती हैं, यह उनकी कहानियाँ स्पष्ट तौर पर बयान करती हैं। यद्यपि मार्कण्डेय ग्रामीण कथाकार के रूप में ख्यात थे किन्तु उनकी सूक्ष्म दृष्टि, कथा-शिल्पी मन एवं व्यापक चिन्तनशीलता अपने समय व समाज के कोने-कोने तक विस्तीर्ण थी। उनकी कहानियों में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, स्थितियो का यथातथ्य चित्रण हैं। 

मार्कण्डेय के कहानी-संग्रहों की कहानियों को पढने,  गुनने व अनुशीलन के पश्चात् मेरे मन मस्तिष्क में उनकी कहानियों के नये-नये आयाम खुलते हैं। अलग-अलग भावभूमि दिखायी देती है। समय-सन्दर्भ के तमाम क्षितिज फैेलते हैं। कथाकार के समकालीन सन्दर्भो का कैनवास बहुरंगी घटनाओं को उद्घाटित करता है। मार्कण्डेय की उस रचनाधर्मिता की बहुआयामी दृष्टि से प्रेरित होकर मैंने बाल-मनोविज्ञान और आज के समय-सन्दर्भ’  विषय को विश्लेषित करने के लिये चयन किया है। मेरा मानना है कि मार्कण्डेय जी के ग्राम्य- संवेदना, सामाजिक चेतना आदि के परिप्रेक्ष्य में उनकी कहानियों की चर्चा व विवेचना तो बहुत हुई है किन्तु उनकी कहानियों में समय-सन्दर्भ को चरितार्थ करते बाल-मनोविज्ञान विषयक कथावस्तु, पात्रों व घटनाओं की चर्चा या संवाद नगण्य ही हैं। यहाँ मेरा उद्देश्य इनकी कहानियों में बाल-मन की सहजता, स्वाभाविकता, बाल-संस्कार व बाल-चरित्र के द्वारा तत्कालीन समाज की मूल्य-मान्यताओं को उद्घाटित करने के साथ ही बच्चों के संस्कार, रहन-सहन, परम्परा, ग्राम्य संस्कृति आदि को उजागर करना है। आज के उपभाक्तावादी संस्कृति के दौर एवं सूचना क्रान्ति के संजाल में इक्कीसवीं सदी की नई पीढी व बाल मन किस तरह से बालोचित कोमल संस्कार-आत्मीयता-मैत्री-वात्सल्य से सायास-अनायास पीछे छूटता जा रहा है। समय से पहले ही मूल्य- मान्यताओं को लांघ महत्वाकांक्षाओं की बुलन्दियों पर पहुँचना चाहता है। ऐसे समय में बाल मन के चितेरे कहानीकार मार्कण्डेय की उन कहानियों का मूल्यांकन प्रासंगिक है जो बाल-मनोविज्ञान की पीठिका पर रचित हैं। निःसन्देह किसी भी रचनाकार की रचनाधर्मी प्रासंगिकता ही उसे कालजयी बनाती है।

           

मार्कण्डेय का प्रथम संकलन पानफूल’ है जिसमें संग्रहित पानफूल’ शीर्षक कहानी में दो मासूम बच्चियों की मित्रता को रेखांकित किया गया है। छोटी बच्ची नीली जहाँ उच्च-वर्ग से सम्बन्धित है वहीं छोटी बच्ची रीती निम्नवर्गीय नौकरानी की लडकी है। नीली की मित्रता रीती और पूसी कुतिया से होती है। भले ही नीली और रीती के रहन-सहन में बहुत फर्क है किन्तु फिर भी दोनों की मित्रता और पूसी कुतिया का दोनों के प्रति लगाव एक आत्मीयता को दर्शाता है जिसमें ऊँच-नीच, स्पृश्य-अस्पृश्यता और मनुष्यत्व-पशुत्व के भेद के लिये कोई स्थान नहीं है। तीनों ही एक-दूसरे की भावनाओं को समझने में सक्षम हैं। नीली के मन में पूसी कुतिया और रीती दोनों के प्रति गहरी सहानुभूति दिखायी पडती है। कहानीकार ने इन तीनों की मित्रता को कहानी में इस प्रकार दर्शाया है- ‘नीली,रितिया और पूसी अब हमेशा साथ रहती।  कभी गुडिया का ब्याह रचाया जाता, तो कभी बडे सवेरे मुँह-अँधेरे ही नीली और रीती फुलवारी वाले पारिजात के फूल बटोरने पहुँच जाती। वहाँ कोई तितली देखतीं, तो उसके पीछे मचल पडती। फिर पूसी ही क्यों पीछे रहती, उछल-उछल कर ,मुँह बना कर इधर-उधर दौडती।4 कहानी में जहाँ एक ओर पूसी कुतिया के प्रति पशु प्रेम को दर्शाया गया है वहीं दूसरी ओर बाल-प्रेम और उनकी समझ की भी मार्मिक अभिव्यक्ति की गयी है।

नीली, रीती और पूसी कुतिया तीनों में इतना भावात्मक सम्बन्ध है कि एक-दूसरे को बचाने की कोशिश में तीनों बाउली में कूद जाती हैं और अन्ततः तीनों उसी बाउली में अपनी अन्तिम साँस लेती हैं। इस कहानी को पढ कर मन में एक अजीब-सी कशमकश होती है कि किस प्रकार एक-दूसरे के प्रति जुडाव, लगाव, और आत्मीयता के कारण वे तीनों मौत के मुँह में छलाँग लगा देती हैं?

अमीरी-गरीबी के भेद को भुलाते हुए नीली,रीती और पूसी कुतिया तीनों के बीच घनिष्ठ मित्रता हो जाती है। आलोचक मधुरेश  ने इस कहानी के सन्दर्भ में अपने विचार को इन शब्दों में व्यक्त किया है-पान-फूल अलग-अलग वर्गों की दो लडकियों रितिया और नीली को केन्द्र में रख कर सामाजिक ऊँच-नीच के कृत्रिम विभाजन के विरोध की एक बनावटी, आदर्शवादी और भावुकतापूर्ण कहानी है।’5 इस कहानी में मार्कण्डेय ने बच्चों के सहज मनोभावों, उनके बाल-हृदय में उपजे प्रेम को दर्शाया है जिसमें भावुकता, लगाव, स्नेह, उनके संस्कार, उनकी परम्परा और रहन-सहन को दर्शाया है। बाल-मनोविज्ञान पर लिखी गयी यह कहानी पूर्णरूपेण बच्चों की चंचलता और उनकी मासूमियत पर आधारित अत्यन्त ही रोचक व मार्मिक कहानी है जिसमें मार्कण्डेय के बाल-हृदय को देखा जा सकता है। इस कहानी में मानवीय रागात्मक सम्बन्धों को लेखक ने बडी सूक्ष्मता के साथ उद्घाटित किया है।

बाल-मनोविज्ञान पर आधारित मार्कण्डेय ने अनेकों कहानियाँ लिखीं, जिसमें बालकों के मन में उठ रहे द्वन्द्व और मासूमियत से भरे उनके हृदय को देखा जा सकता है। चाहे स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व का समय हो चाहे पश्चात् का किन्तु बच्चों का बाल-हृदय पहले भी मासूम था और आज भी। इसी कारण बच्चों का रहन-सहन उच्च हो या निम्न किन्तु उन्हें इससे कोई लेना- देना नहीं है। वह निम्न या उच्च रहन-सहन देख कर मित्रता नहीं करते अपितु अपनी इच्छानुसार मित्र बनाते हैं फिर चाहे वह कोई पशु ही क्यों न हो। ऐसी मित्रता को दर्शाती पानफूल’  कहानी देखी जा सकती है जिसमें न तो ऊँच-नीच, समानता-असमानता का बन्धन है न ही मनुष्यत्व और पशुत्व का।

एक बहुत ही छोटे कथा-सूत्र में ग्रन्थित जूते’ कहानी में भी बालक हृदय की झाँकी को प्रस्तुत किया गया है। कहानी में ग्रामीण वातावरण में पला मनोहर नाम का बालक ठाकुर के यहाँ चाकरी करता है, और मानसिक द्वन्द्व में उलझा रहता है। उसके इस द्वन्द्व का कारण एक छोटी-सी वस्तु है और वह है जूता। शहर से आयी बहू जी के कहने पर जब वह कमरे में जूते लेने जाता है तो जूते को लाल रंग का खिलौना समझ कर वह वापस आ जाता है। कहानी में अन्त तक वह इसी उधेडबुन में रहता है कि आखिर इन मखमली जूतों को पहना कैसे जाता है और इसी कौतूहल के कारण वह लगातार बच्ची के पास ही मंडराता रहता है। वह हर बार बहू जी को जूते पहनाते हुए देखना चाहता है किन्तु बार-बार वह इस दृश्य को देखने में असफल रहता है। कहानीकार के शब्दों में-मैं आज बहू जी का साथ नही छोडूँगा, देखें कब बच्ची को जूते पहनाती हैं! फिर उसके जी में आया कह दे बच्ची को तैयार कर दीजिये, मैं लेकर चलूँ।6 इन वाक्यों में मनोहर के बचपने के साथ ही जूतों केा पहनते देखने की लालसा को बखूबी देखा जा सकता है। उसके मन में उठ रहे सवालों का जवाब उसे तभी मिलता जब वह उन जूतों को पैर में पहनते हुए देख सकता।

जूते पहनते देखने की लालसा के कारण मनोहर ठाकुर-ठकुराइन के उन अत्याचारों को भी  कुछ समय के लिये भूल जाता है जो वे मनोहर को देते थे। बहू जी मनोहर के प्रति सदैव विनम्रता से पेश आती हैं किन्तु मनोहर को उनकी इस विनम्रता पर यकीन नहीं होता क्योंकि ठाकुर-ठकुराइन की मार ने उसके मन में भय उत्पन्न कर दिया है जिसके कारण उसे स्नेह पर भी संदेह होता है। उसका बाल मन सदैव भय से ग्रसित रहता है जो कहानी में भी देखा जा सकता है। बहू जी जब गाँव से पुनः  दिल्ली वापस जाती हैं तो तो मनोहर उन्हें स्टेशन तक छोडने जाता है और वहीं पर बहू जी उसे उपहारस्वरूप् जूते प्रदान करती हैं, जिन्हें पैरों में पहनने के बजाय वह बगल में दबा कर कंकड व धूल भरी राह में नंगे पैर चलता है-पर लौटते समय पलास की पत्तियाँ, आग की तरह जलती धूप और जेठ की दुपहरिया, जैसे कुछ नहीं थी, क्योकि रास्ते पर धूल थी, कंकड थे और मनाहर की बगल में एक कागज का डब्बा दबा था, जिसमें उसके लिये लाल-लाल जूते थे।‘7

प्रस्तुत कहानी में लेखक ने आर्थिक विषमता रूपी सामाजिक विडम्बना पर प्रहार किया है। बाल-मनोविज्ञान के परिचय के साथ-साथ इस कहानी में एक गरीब बालक की दयनीय स्थिति को भी दर्शाया गया है। कहानीकार ने इस कहानी में बाल सरित्रों के माध्यम से ग्राम्य -जीवन की आर्थिक विषमता को भी उद्घाटित किया है। ग्रामीण परिवेश में पले बच्चे शहरी वातावरण से किस प्रकार अनभिज्ञ रहते हैं यह दर्शाया गया है। कथाकार एक मासूम बच्चे को प्रश्नों के ऐसे जाल में फँसा देता है जिससे वह कहानी के अन्त तक नहीं निकल पाता। इसी कारण वह बहू जी द्वारा दिये जूते को एक आकर्षक वस्तु समझ कर बगल में दबा कर धूल व कंकड़ भरे रास्ते में नंगं पैर चलता है। बालसुलभ जिज्ञासा, कौतूहल, आकर्षण, अन्तर्द्वन्द्व को प्रस्तुत करती हुई यह अत्यन्त मार्मिक कहानी है। इसमें मनोहर के मन में जूते को लेकर जो द्वन्द्व है वह उसकी गरीबी  और रहन-सहन के कारण है क्योंकि गरीबी में जीने वाला और गाँव में पला बच्चा मनोहर ने न तो कभी जूते देखे थे और न ही उनकी कल्पना की थी। इसी कारण वह आकर्षक खिलौने के अलावा उन जूतों को और कुछ नहीं समझता है। इस प्रकार बाल-मनोविज्ञान पर लिखी गयी मार्कण्डेय की यह कहानी नवीन और रोचक जान पडती है।

वर्ग-विषमता को सामने लाने वाली कहानी ‘मिट्टी का  घोड़ा’  में भी एक निर्धन बच्चे की विसंगतियों को दर्शाया गया है जिसमें अमीर और गरीब दोनों बच्चों का विवरण है। कहानी में गरीब बच्चा और अमीर बच्चा दोनों सफर कर रहे होते हैं। दोनों ही बच्चों के पास घोड़ा है किन्तु फर्क यह है कि गरीब बच्चे के पास मिट्टी का ऐसा  घोड़ा है जिसकी तीन टांगें टूटी हुई है जबकि अमीर बच्चे के पास रुई का मुलायम मखमली घोड़ा है। अमीर बच्चा अपने मखमली घोड़े को छोड़ कर जब मिट्टी के घोड़े को लालसा के वशीभूत होकर छूता है तो उसकी माँ उसे डाँटते हुए कहती है-आखिर उसे छू ही लिया। मना कर रही थी, माना नहीं! डर्टी, बदतमीज।‘8 मिट्टी के घोड़े के प्रति बच्चे की लालसा को देखकर वह अमीर महिला उस घोड़े को ट्रेन से बाहर फेंककर अपने अहंकारी स्वभाव का परिचय देती है। उसे यह एक बार भी नहीं लगा कि वह गरीब बच्चा दूसरा खिलौना कहाँ से खरीदेगा? प्रस्तुत कहानी में अमीर और गारीब के बीच ऐसे अलगाव को दिखाया गया है जो हमारे समय और समाज की सच्चाई है।

कहानीकार ने इस कहानी के माध्यम से यह भी दिखाने का प्रयत्न किया है कि सारी सुख-सुविधाएँ होने के बावजूद भी अमीर बच्चा वह मिट्टी का घोड़ा पाना चाहता है जबकि गरीब बालक सहनशील होने के कारण न सिर्फ अपना खिलौना दे देता है बल्कि सदैव के लिये अपने उस टूटे खिलौने को गवां देता है। बच्चों में ऊँच-नीच, समानता-असमानता, आदि का भाव नहीं होता। यह अन्तर बडे ही बच्चों को सिखाते हैं। यह भेदभाव उस महिला के व्यवहार  में स्पष्टतया देखा जा सकता है जो कि गरीब बच्चे के प्रति सहानुभूति के बजाय कठोरता प्रदर्शित करती है और अमीरी के घमण्ड में उस खिलौने को ट्रेन से बाहर फेंकती है जिसकी उसके नजर में कोई अहमिसत नहीं थी जबकि उसी टूटे खिलौने की अहमियत उस बच्चे के लिये बहुत थी जिसका खेलने का एकमात्र सहारा वह टूटा घोड़ा था। डॉ0 शामराव मोरे के अनुसार –इस कहानी में चित्रित मिट्टी का घोड़ा गरीबी का प्रतीक है और नरम रुई का घोड़ा अमीरी का। वैसे ही कहानी में दो तरह की मानसिकता का भी प्रतीकात्मक चित्रण हुआ है- अमीरी  और गरीबी की मानसिकता। एक नफरत को दर्शाती है और दूसरी बेबसी को।‘9  कहानी में गरीब बच्चे की बेबसी अत्यन्त ही मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया गया है।

स्वतन्त्रता के पश्चात् भी आज के समय में भी हमारे समाज में ऐसे बहुत से धनी लोग हैं जो गरीब बच्चों पर, उनके परिवार पर अत्याचार करना नहीं भूलते। शिक्षा के प्रति जागरुक होने के पश्चात् भी हमारे समाज में लोगों की सोच सदैव तुच्छ रही है। मार्कण्डेय ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् की स्थितियों, समय एवं सन्दर्भ को अपनी कहानियों में उकेरा है। और इसी कारण उनकी कहानियों को कथा सम्राट प्रेमचन्द की कहानियों से साम्यता दी जाती है। इस प्रकार इस कहानी में ऊँच-नीच की वास्तविकता को कथाकार ने बड़ी ही सुगमता के साथ दर्शाया है और इसके साथ-साथ निम्नवर्ग के प्रति उच्च वर्ग की मानसिकता को भी उद्घाटित किया है।

शाश्वत वात्सल्य और अपार ममता को कतिपय प्रसंगों के माध्यम से रेखांकित करती कहानी माई’ में भी बच्चों की चंचलता, नटखटपना, संस्कार, मासूमियत आदि को चित्रित किया गया है। यद्यपि कहानी में कोई नयापन नहीं है किन्तु फिर भी यह कहानी पाठक को अपनी ओर आकृष्ट अवश्य करती है। इस कहानी में माई के चार बेटे हैं- कूनी, रज्जू, बीरू, और रवी। माई के सभी पुत्र पढे-लिखे हैं किन्तु बीमारी के कारण बीरू का पढाई में कदाचित् मन नहीं लगता। बीमार रहने के कारण माई का लाड़-प्यार बीरू के प्रति तीनों की अपेक्षा थोड़ा अधिक है। इसी कारण वह अत्यन्त शरारती है और हमेशा पड़ोस के बच्चों को तंग करके बेवजह झगड़ा मोल लेता है। इसी कारण गाँव में वह बदनाम भी है। यद्यपि माई सभी को एक समान स्नेह करती है किन्तु बीरू की बीमारी माई की ऐसी कमजोरी है जिससे वह निकल नहीं पाती और बीरू की ओर थोड़ा अधिक ध्यान देती है, जिसका गलत फायदा उठा कर बीरू जुआ, बीड़ी, शराब जैसी गलत आदतों का शिकार हो जाता है। उसकी इन हरकतों से माई सदैव उसके भविष्य को लेकर चिन्तित रहती है क्योंकि उसक तीनों बेटे पढ-लिखकर पैसा कमा लेंगे किन्तु बीरू के अन्दर न तो इतनी क्षमता है न ही समझ। बीरू के प्रति माई की चिन्ता इन वाक्यों में देखी जा सकती है-जो पढ-लिख लेगा, साहब-सूबा हो जाएगा उसे तो सब लोग पूँछेंगे, लेकिन जो रोगी है, बुरा है उसके लिये तो मैं ही हूँ न। कोई किसी को कुछ दे नहीं देगा। लोग अपनी पढाई-लिखाई लेकर घर बैठे, आज से मुझसे किसी से कोई मतलब नहीं। मैं मरूँगी उसे लेकर मैं देश-देश छानूँगी उसकी दवा के लिये।10 इन्हीं परिस्थितियोंवश उसका झुकाव अपने छोटे पुत्र की ओर अधिक है जो उपर्युक्त वाक्यों में देखा जा सकता है।

माई का उपर्युक्त कथन आज के समय की एक कड़वी सच्चाई है। हमारे समाज में निर्बल, रोगी, असहाय, नसेड़ी की मदद करने वाला कोई नहीं है जबकि जो धनी और उच्च पद में है उसकी मदद करने के लिये हर कोई आगे आता है। जबकि उच्चवर्ग के लोगों की मदद के बजाय गरीब, असहायों की मदद करना अधिक उपयुक्त है। भले ही समाज में कितनी ही शिक्षा क्यों न हो जाए किन्तु आज भी लोगों की अमीर-गरीब के प्रति अलग-अलग सोच हमारी रुग्ण मनोदशा को दर्शाती है। कथाकार मार्कण्डेय ने कहानी में ग्रामीण परिवेश को दर्शाते हुए एक माँ का अपने पुत्र के प्रति स्नेह और ममता को भी  रेखांकित किया है। युवा आलोचक बलभद्र लिखते हैं-माई में संयुक्त परिवार की टूटन, उसकी सक्रियता-निष्क्रियता, आदि का वर्णन है। परिवार के भीतर स्त्री, युवा, बच्चे और बूढों की स्थितियों के अपने-अपने यंग भी इस कहानी में है।‘11 यहाँ माई अपने बेटे बीरू को अधिक स्नेह इसी कारण करती है क्योंकि उसे ऐसा प्रतीत होता है कि उसके सिवा बीरू का कोई नहीं है।

यह कहानी अन्य कहानियों की भाँति मासूमियत को ही दर्शाती है। बच्चों को जरूरत से लाड़-प्यार देना भी उनके बिगड़ने का कारण बनता है, क्योंकि ज्यादा स्नेह करने पर भी बच्चे शरारती हो जाते हैं जैसा कि इस कहानी में हुआ। भले ही माई ने बीरू की बीमारी के चलते उस पर लाड़ बरसाया किन्तु बीरू ने उसका गलत फायदा उठाया। तत्पश्चात् माई उसे उसकी गलत आदतों के साथ भी स्वीकार करती है। इस कहानी में मासूमियत एक मानवमूल्य के रूप में दिखाई गयी है माई भी उसी मासूमियत की प्रतीक है।12 इसके साथ ही मार्कण्डेय का अंतिम कहानी संग्रह हलयोग’  है जो 2012 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में भी बाल-मनोविज्ञान को दर्शाती कुछ कहानियाँ प्रस्तुत की गई हैं। वैसे तो यह संग्रह दलित जीवन से सम्बन्धित स्थितियों को उजागर करता है, लिसमें स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी निम्न वर्ग के लोगो की दयनीय स्थिति को रेखांकित किया है। मार्कण्डेय अपनी कहानियों में वही यथार्थ उठाते हैं जो आस-पास की दुनिया में घटित होता है। इस संग्रह में किसान, मजदूर, दलित आदि की स्थिति को दर्शाते हुए बालसुलभ रचनाएँ भी प्रस्तुत की। मार्कण्डेय जी की अन्तिम कहानी हलयोग’- इसी प्रकार की कहानी है, जिसे हिन्दी की दलित-जीवन से सम्बन्धित कहानियों में एक महत्वपूर्ण स्थान का हकदार माना जायेगा।13 चूँकि यहाँ मरे शोध पत्र में बाल-मनोविज्ञान से सम्बन्धित कहानियों का जिक्र हुआ है। इस कारण हलयोग’  संग्रह में वर्णित कहानी  माँ जी का मोती’  कैसे पीछे रह सकती है। यह कहानी भी बाल-चित्रण पर आधारित है। इस कहानी में मोती नाम के बालक की सोंच और समझदारी का चित्रण कर कहानी में नया रंग भर दिया है।

माँ जी का मोती’  में एक गरीब, दुखियारी माँ की व्यथा को उसका बेटा मोती भलीभाँति समझता है और इसी कारण वह उम्र से पहले ही समझदार हो जाता है। छोटी सी उम्र में भी स्वयं काम करता हुआ वह अपने दाकनो भाइयों को पढाता है। दोनों भाई स्कूल में पढने जाते हैं जबकि मोती कपनी माँ का हाथ बंटाता है। एक दिन मोती को बीमार बछिया मिल जाती है जिसकी सेवा कर वह उसे बिल्कुल ठीक कर देता है। उसकी लगन और मेहनत को देखकर मोती की माँ कहती है- मोती की बातों को सुन कर माँ जी की आँखों में आँसू आ गये। हं भगवान! यह लड़का क्या होकर पैदा हुआ है। उसने मन ही मन कहा और आग जला कर पानी गरम करने लगी।‘14 मोती की माँ जो दूसरों के घर काम करने जाती है तो मोती को बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता क्योंकि वह अपनी माँ को औरों की माँ की तरह घर में देखना चाहता है-वह बड़ा होकर माँ को दर-दर भटकने वाले इस काम से छुट्टी दिला देगा। आस-पास के बच्चों की माँएँ तो घर में रहती हैं, फिर मेरी माँ?15 मोती की यह सोच उसकी चिन्तनशीलता को दर्शाते हुए अपनी माँ के प्रति आदर भाव को भी व्यक्त करती है। समझदारी के साथ-साथ मोती में परिवार के प्रति जिम्मेदारी भी दिखाई पड़ती है।

एक दिन मोती अपनी बछिया को ले कर एक मील की दूरी पर स्टेशन के पास पहुँचा। वह अपने काम इतना खो गया कि उसे यह भी न ख्याल हुआ कि उसकी बछिया पटरी पार कर गई। अचानक दृष्टि पड़ी तो वह भागता हुआ गया। स्टेशन की सीढियों पर उसे नोट से भरा पर्स मिला किन्तु उस पर्स को देख कर भी उसके मन में लंशमात्र भी लालच नहीं उपजी। वह चिल्ला कर उस पर्स के मालिक को बताने का प्रयत्न कर रहा था कि यह पर्स जिस किसी का भी हो वह आकर ले जाए। गरीबी से लबालब होने के बावजूद भी उसने अपनी ईमानदारी का परिचय दिया, जिसका फल उसे यह मिला कि एक सिपाही ने उसं इतना मारा कि वह बेहोश हो गया-बहुत बड़ा जेबकट है। आप क्या-क्या समझेंगे! हम लोग तो रात-दिन यही देखते रहते है……’  और वह मोती को बेतहाशा पीटने लगा। मोती बेहोश होकर गिर पड़ा तो उसे कई लातें मारीं और घसीटकर प्लेटफॉर्म के अन्दर ले गया।16 उस मासूम बच्चे मोती के साथ पुलिस का यह बर्बर व्यवहार अत्यन्त अमानवीय है। जो अपने घर की जिम्मेदारी उठा रहा था उसी को निरपराधी होते हुए भी पुजिस ने सलाखों के पीछे डाल कर उसकी माँ को पंगु बना दिया था। मोती ने वह नोंटो से भरा पर्स पुलिस को नहीं दिया जिसके कारण उसे यह दण्ड मिला।

कहानीकार मार्कण्डेय ने इस कहानी में एक गरीब मासूम बच्चे की व्यथा को व्यक्त करने के साथ पुलिस प्रशासन की अमानवीयता पर कठोर व्यंग्य किया है। गरीब बच्चे की गरीबी का मजाक उड़ा कर पुलिस प्रशासन उसे निर्दोष होते हुए भी दोषी ठहरा देता है। यह व्यवस्था जो हमें अँग्रेजी शासन से विरासत में मिली है वह हमारे देश की कड़वी सच्चाई है। इस कहानी में मोती की मासूमियत छली जाती है, और उसका गरीब होना ही उसे अपराधी बनाता है। माँ जी का मोती में निर्दोष को अपराधी बनाने की पुलिस की निर्दयी प्रवृत्ति वर्णित है।17 निर्दोष और मासूम मोती के प्रति पुलिस की अमानवीयता को दर्शातं हुए लेखक ने आज के समय की ऐसी सच्चाई को कहानी के माध्यम से प्रस्तुत किया है जो पूर्णत वास्तविकता को उजागर करती है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि बाल-मनोविज्ञान की जितनी भी कहानियाँ मार्कण्डेय ने लिखीं उसमे उन्होंने अपने समय एवं सन्दर्भ को पूरी वास्तविकता के साथ प्रस्तुत किया है। जो हमारे समय में भी प्रासंगिक है। बाल-मनोविज्ञान पर आधारित मार्कण्डेय ने उपर्युक्त कहानियो के अतिरिक्त नीम की टहनी , सोहगइला’,  घी के दिये’,गरीबों की बस्ती,  बरकत’, आदि कहानियाँ लिख कर अपने कोमल और बाल-हृदय की झाँकी को प्रस्तुत किया है। इन्होंने कहीं पर नीली और रीती कह मित्रता को दिखाकर ऊँच-नीच में साम्यता दिखने का प्रयत्न किया है तो कहीं ग्रामीण वातावरण में पले बच्चे मनोहर के मन में उठ रहे द्वन्द्व को व्यक्त किया है। कहीं पर गरीब बच्चे की विसंगतियों को दर्शाया है, तो कहीं उम्र से पहले ही बच्चे में समझदारी दिखायी है। इस तरह मार्कण्डेय ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् अपनी कहानियों को आज के समय एवं सन्दर्भ से जोड़कर कुछ विशिष्ट बना दिया है। वह जिन स्थितियों को अपनी आँखों से देखते थे उन्हीं वास्तविकताओं को उजागर करते हुए कहानियों में नयी जान डाल दी है। अनेक कहानियों के साथ-साथ अपने उपन्यास अग्निबीज’  में तो मार्कण्डेय ने बच्चों की पूरी टोली ही तैयार की है। जैसा कि बलभद्र लिखते हैं- अपने उपन्यास अग्निबीज’  में तो इन्होंने कम उम्र बच्चों की पूरी एक टीम को नायक के रूप में खड़ा किया है। कम उम्र स्कूली बच्चों को,जो एक गाँधीवादी आश्रम से भी जुड़े हुए हैं और जाति और इस तरह की अन्य संकीर्णताओं से बाहर कदम रख रहे हैं और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व सांस्कृतिक जटिलताओं को देखने समझने की तरफ भी, मार्कण्डेय ने भविष्य के अग्निबीज के रूप में प्रस्तुत किया है।18 इस तरह कहानियों के साथ-साथ मार्कण्डेय ने अग्निबीज उपन्यास में बाल-चित्रण को प्रस्तुत किया है। इनकी कहानियों में बाल-चित्रण अत्यन्त वास्तविक ढंग से प्रस्तुत किया है, जिसतें पाठक को कुछ नया जानने, समझने और करने को मिलता है।

  

हिन्दी के साथ-साथ अँग्रेजी कथाकार जैसे टॉमस हार्डी, शेक्सपियर जैसे रचनाकारों ने भी अपनी रचनाओं में मासूमियत दर्शायी है। इन लोगों ने यह बताने का प्रयत्न किया है कि आज के समय में छल, फरेब, झूठ, अन्याय से भरे इस संसार में मासूमियत पहले भी छली गयी है और आज भी। फिर चाहे वह कोई मासूम बच्चा हो, चाहे नौजवान या फिर वृद्ध। मार्कण्डेय ने बाल-मनोविज्ञान पर लिखी कहानियों में बच्चों की सहनशीलता, द्वन्द्व, प्रेम, लगाव, ईमानदारी, आदि को चित्रित किया है। इस प्रकार मार्कण्डेय ने बाल-सुलभ रचनाएँ लिखकर हिन्दी कथा साहित्य में एक नया प्रतिमान स्थापित किया है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-

१. कथा-15, संपादक-सस्या, मार्च-2010,इलाहाबाद, पृष्ठ-170

2.     डॉ0 सुरेन्द्र प्रसाद, मार्कण्डेय का रचना संसार, उद्धृत मधुरेश,प्रकाशक,   कानपुर,वर्ष,-2001, पृष्ठ-13

3.     उषा बनसोडे, मार्कण्डेय का कथा साहित्यः एक अनुशीलन, अप्रकाशित शोध प्रबन्ध, पृष्ठ,12

4.      मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2010, पृष्ठ-30

5-       डॉ0 सुरेन्द्र प्रसाद, मार्कण्डेय का रचना संसार, उद्धृत मधुरेश,प्रकाशक, कानपुर,वर्ष,-2001, पृष्ठ-78

6-       मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, पृष्ठ-94

7-       मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ- पृष्ठ-95

8-       मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ- पृष्ठ-171

9-       डॉ0 जिभाऊ शामराव मोरे, मार्कण्डेय का कथा साहित्य और ग्रामीण सरोकार, प्रकाशक, विकास प्रकाशन, कानपुर, वर्ष-2010, पृष्ठ-73

10-    मार्कण्डेय, मार्कण्डेय की कहानियाँ, पृष्ठ-262

11-    अनहद-1, संपादक-संतोष कुमार चतुर्वेदी, जनवरी-2011,इलाहाबाद, पृष्ठ-12-13

12-    कथा-15, संपादक-सस्या, मार्च-2010,इलाहाबाद, पृष्ठ-255

13-    अनहद-3, संपादक-संतोष कुमार चतुर्वेदी, जनवरी-2011,इलाहाबाद, पृष्ठ-231

14-    मार्कण्डेय, हलयोग, पृष्ठ-109

15-    मार्कण्डेय, हलयोग, पृष्ठ-109

16-    मार्कण्डेय, हलयोग, पृष्ठ-111

17-    अनहद-3, संपादक-संतोष कुमार चतुर्वेदी, जनवरी-2011,इलाहाबाद, पृष्ठ-235

18-    अनहद-1, संपादक-संतोष कुमार चतुर्वेदी, जनवरी-2011,इलाहाबाद, पृष्ठ-14

 

 सम्पर्क-
द्वारा श्री रजनीकान्त त्रिपाठी 
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चित्रकूट 
उत्तर प्रदेश  
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मार्कण्डेय जी के कविता संग्रह ‘यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ’ की समीक्षा



मार्कण्डेय न केवल एक कहानीकार थे बल्कि एक सक्षम कवि भी थे. अभी पिछले ही वर्ष मार्कण्डेय जी का एक कविता संकलन यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ आया है. इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है वरिष्ठ आलोचक अमीर चंद वैश्य ने. मार्कण्डेय जी की पुण्यतिथि (18 मार्च) के अवसर पर हम यह विशेष प्रस्तुति आपके लिए प्रकाशित कर रहे हैं. 
   
आजाद कलम की कविताएँ
(सन्दर्भः- यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ’ : मार्कण्डेय)
                                                                                                                                                                अमीर चन्द वैश्य
सन् 2013 में प्रकाशित काव्य-संकलन यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ अभी-अभी पढ़ कर समाप्त किया है। समकालीन हिन्दी कविताओें से इस संकलन की कविताएँ भिन्न हैं। आजकल के युवा कवियों की अधिकतर कविताएँ लय-विहीन होती हैं। उनमें सघन भाव-बोध एवं विचार-बोध का चारू सम्मिलन नहीं होता है। अधिकतर कवि लम्बे-लम्बे गद्यात्मक वाक्यों से अपने पाठकों की संख्या कम कर रहे हैं। किन्तु समीक्ष्य संकलन ऐसे दुर्गुणों से मुक्त है। संकलन के सम्पादक हैं श्रीयुत् दुर्गा प्रसाद सिंह और भूमिका-लेखक हैं डॉ0 राजेन्द्र कुमार। संकलित कविताओं के स्रष्टा हैं प्रख्यात कहानीकार मार्कण्डेय। उन्होंने अपना सम्पूर्ण कर्मठ जीवन लोकमंगलकारी साहित्य-सृष्टि के लिए समर्पित कर दिया था। अपने समय की नई रचनाशीलता को कथा के माध्यम से प्रकाशित किया था। अपने विवेक से युगीन उत्कृष्ट रचनाओं की ओर पाठकों का ध्यान भी आकृष्ट किया था।
                इन पंक्तियों के लेखक ने मार्कण्डेय को पहली बार नए कहानीकार के रूप में ही जाना था। प्रो0 मधुरेश के व्याख्यान से। व्याख्यान में उनकी दो कहानियों-हंसा जाई अकेला’ और गुलरा के बाबा की विशेष चर्चा की गई थी। उनके पहले कहानी-संकलन पान-फूल की समीक्षा विवेक के रंग’ में पढ़ी थी। समीक्षक धर्मवीर भारती ने इस संकलन को रागात्मक यथार्थ’  का उद्घाटन घोषित किया था। कालान्तर में मार्कण्डेय की कहानियाँ भी खरीदी थीं। लेकिन प्रमादवश सभी कहानियाँ नहीं पढ़ सका। हाँ, उनकी कविताएँ सभी पढ़ी हैं। अवधानपूर्वक। उनके कवि रूप से परिचित करवाया कथा’  के मार्कण्डेय स्मृति अंक ने। (मार्च 2011) युवा कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय ने लिखा है कि मार्कण्डेय के अन्दर पसरा हुआ था कविता का एक अनचरा मैदान। वे घनघोर काव्य-प्रेमी थे। (मार्कण्डेय स्मृति अंक, पृ0 203)
                यह भी सुखद संयोग है कि तीनों इलाहाबादी नए कहानीकार मार्कण्डेय, अमरकान्त और शेखर जोशी कविता-प्रेमी हैं। अमरकान्त गोष्ठियों में गज़लें सुनाया करते थे। कालान्तर में कहानियाँ रचने लगे।
                उन्होंने कहानीकार के रूप में अपनी खास पहचान भी बनाई। इसी प्रकार मार्कण्डेय और शेखर जोशी ने भी। लेकिन ये दोनों कविताएँ भी रचते थे। दोनों की कविताएँ पढ़ कर इन की कहानियाँ भी अच्छे ढंग से समझी जा सकती हैं। दोनों साथियों की कविताएँ प्रगतिशील एवं लोकधर्मी काव्य-धारा से अनुप्राणित हैं।
                सहृदय कवि मार्कण्डेय स्वयं को नदी का द्वीप नहीं मानते हैं। वह जन-गण की जीवन-धारा में अवगाहन करके कहते हैं-
मैं उनके लिए लिखूँगा

जो भटक रहे हैं गलियों में

अन्धी-वीरान

रोशनी तलाशते

चीखते-चिल्लाते

उग्रह करो आने दो!!/

वर्ना हम मशाल जलाते हैं। (यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ’  पृ0 21)
                इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि मार्कण्डेय जनपक्षधर कवि और लेखक हैं। समाज के श्रमशील उत्पादक वर्गों के प्रति उनकी संवेदना अकृत्रिम है। यह धरती किसकी है। यह ज्वलंत प्रश्न है। मार्क्सवादी कवि केदारनाथ अग्रवाल घोषणा करते हैं कि यह धरती नहीं राम की, नही कृष्ण की। यह तो उस किसान की है जो इसे जोतता है। इसमें बिजाई करता है, सींचता है। खरपतवार निराता है। धूप में तपता है। जाडे़ में शीत का प्रकोप झेलता है। लेकिन हिम्मत नहीं हारता है। वही अन्नदाता है और अन्न ही ब्रह्म है। नागार्जुन भी ऐसा ही मानते हैं। वह पकी फसल में किसान के पसीने की आभा देखते हैं। मार्कण्डेय भी इसी सुर में सुर मिला कर आत्मीय भाव से कहते हैं-
खड़े क्या हो इस तरह हाथ बाँधे

जाओ, ले जाओं

यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ

सब कुछ है यहाँ

हवा, पानी, मिटटी और आकाश

मृत्यु, जन्म, प्यार और अहंकार

तुम जो चाहोगे

माँगो जो कुछ

तुम्हें वह देगी

अपर्णा है, प्रेयसी पयश्वनी है

भगिनी है

पुत्री मनस्वी है

जाओ, ले जाओं

अपने अंतर का आलोक तुम्हें देता हूँ। (वही, पृ0 3)
                सन् 1987 में रचित इस सम्पूर्ण कविता का संदेश क्या है। प्रश्न ज्वलंत है। भारत में जब तक भूमि का समान वितरण नहीं होगा, तब तक किसानों की दुर्दशा यथावत् रहेगी। आजकल सबसे बड़ा संकट किसानों के सामने है। विकास के नाम पर सरकार उनकी भूमि का अधिग्रहण कर लेती है। उन्हें पूरा मूल्य नहीं दिया जाता है। सरकार अधिक मूल्य पर बेचकर मुनाफा कमाती है। किसान कर्ज में डूब कर आत्महत्या कर लेता है।
                मार्कण्डेय अपने समय और समाज को वर्गीय दृष्टि से देखते और परखते हैं। अतः उनकी कविताओं में शोषक सत्ताधारियों के दुराचरण की तीखी आलोचना है और शोषितों – वंचितों के प्रति हार्दिक सहानुभूति। चले चलो कविता में इतिहास का संदर्भ है। मुहम्मद तुगलक का आदेश कि दिल्ली से दौलताबाद चलो। कवि व्यंग्य के लहजे में कहता हैं –
मुखौटा लगा लो

मिटा लो पहचान और भाषा

बोलो कुछ ऐसा

जो भाए आलीजाह को

प्रश्नों में साजिश की गंध है

ऐसी जो ब्रूटस

की साँस से निकलती थी

संशय के मंत्र का

अनवरत जाप करो

मित्रों की गरदन पर

तेज करो छुरियाँ

कतल करो अपनों का

वे भी इस आदमखोर

संस्कृति की संतति(आत्मज) हैं

वही करो, वही सुनो

कहता जो ढिंढोरची है

शेष सब अर्थहीन मिथ्या है

$$$ चलो, दौलताबाद चलो

चले चलो।‘ (वही, पृ0 8,9)
                इस कविता में इतिहास की घटना को वर्तमान समय के लोकतंत्र से जोड़ा गया है। दौलताबाद’  शासन का केन्द्र है। वहीं से शासन चलाया जाता है। सत्ताधारियों के हित के लिए। उनके हितैषियों के लिए। मिथ्या विज्ञापन प्रसारित किए जाते हैं। जन-गण-मन को भ्रमाने के लिए। चुनाव से पूर्व बड़े-बड़े स्वार्थी नेता मुखौटा लगाकर उपस्थित होते हैं जनसभा में। उनकी पार्टियों के लोग जनता से कहते हैं – चलो, चलो, चलो। देश को बचाने के लिए। हिन्दुत्व को बचाने के लिए। इस्लाम को खतरे से बचाने के लिए और जन-गण प्रायः वैसा ही करते हैं, जैसा उन्हें समझाया जाता है। लेकिन मार्कण्डेय ऐसी कूटनीति की आलोचना करके जन-गण का विवेक जागरित करना चाहते हैं। इसलिए वह कहते हैं लड़ना ही है हासिल जीवन। वह धरती पुत्रों का जगाते हुए कहते हैं कि
उसे (धरती को) दुःख है कि हम सो रहे हैं और वे कर रहे हैं नरसंहार

अपने लोगों का लहू हो रहा है बेकार

सूख रहा माटी में अजन्मा हो कर

धरती की अन्तर प्रतिज्ञा

मैं जानता हूँ

वह माँ है ऐसी जो

………लड़कों को

छाती से लगाती है

स्तन पिलाती है

कहती है जागो

और युद्धरत हो जाओे

लड़ना ही है हासिल जीवन का।‘ (वही, पृ0 10, 11)
                घनघोर विषमताग्रस्त विश्व में वर्ग-संर्घष जारी रहा है। जारी है और भविष्य में भी जारी रहेगा। रोटी-कपड़ा-मकान के लिए वंचितों का संघर्ष बदस्तूर चल रहा है। इतिहास-विधाता का विधान निरन्तर बदलता रहता है। यह बदलाव कभी सकारात्मक होता है। कभी नकारात्मक। वर्तमान समय में दुनिया विश्व के विकसित राष्ट्रों के अधीन हो रही है। ऐसे राष्ट्रों में अमरीकी साम्राज्य अग्रणी है। आज के भारतीय लोकतंत्र में अमरीकी दखल स्पष्टतः दिखाई पड़ रहा है। कांग्रेस और भाजपा दोनों अमरीका परस्त हैं। हिन्दुस्तान का इंडिया खुले आम अमरीका भक्त है। इस भक्ति ने भारत के मध्यम वर्ग एवं उच्च वर्ग को भारतीय भाषाओं और उनकी संस्कृतियों से काट दिया है। यही कारण है कि भारत में सर्वत्र सांस्कृतिक प्रदूषण परिव्याप्त है। नेता भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हुए हैं। अब जन-गण उन पर भरोसा करनें में संकोच करते हैं। जैसे साँपनाथ हैं वैसे ही नागनाथ। मानवीय मूल्यों का इतना ह्रास हो गया है कि ‘चोर’  को साहूकार’  कहा जाता है। बेईमान’  कोईमानदार’। खलनायक’  को महानायक’। खाए-अघाए अभिजन इतने भोगवादी हो गये हैं कि वे लगातार वमन करते रहते हैं। दूसरी ओर कोटि-कोटि निरन्न-निर्वस्त्र जन एकता के अभाव के कारण अभिशप्त जीवन जी रहे हैं। मार्कण्डेय अपने समय-समाज की वास्तविकता अच्छी तरह समझते थे। इसीलिए उनकी कविताओं में शोषक वर्ग की कटु आलोचना है। नेता के नगर आने पर’  वह ठीक कहते हैं- 

उनके आते ही

सारा शहर बस्साने लगता है

नावदानों के फब्बारें हवा में उछल उछल कर

अपने रंग उगलने लगते हैं

दीवारें रंगीन छिपकलियों सी

तखतियों से अट जाती हैं

नारों का झूठ बिलबिलाने लगता है

मैला ढोते गुबरैलों की तरह

चिढ़ाने लगता है मूँह

गृहस्थी का भार ढोते

बेबस लाचार नागरिकों का

एक अनचाहा आतंक रिसने लगता है

धीमे-धीमें जहर की तरह। (वही, पृ0 33)
                इस कविता ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मार्कण्डेय के मानस में घृणा की असंख्य लहरें आन्दोलित हो रही हैं और दूसरी ओर निरीह जनों के प्रति हार्दिक संवेदना। प्रेमचन्द ने बहुत पहले घृणा का सामाजिक महत्व समझाया था। यहाँ मार्कण्डेय प्रेमचन्द के विचार-बोध का अनुसरण कर रहे हैं। विरोधी भावों की अभिव्यक्ति ने कविता को उत्कृष्टता प्रदान की है। मार्कण्डेय अपनी वर्गीय जीवन-दृष्टि से दुनिया को समझते हैं। दुनिया के दुश्मनों-दोस्तों को पहचानते हैं। वह अपने दोस्तों के पक्ष में झंडा उठाते हैं और चोर को चोर कहना’  औचित्यपूर्ण समझते हैं, क्योंकि
श्रेष्ठ जन चोर को चोर

हुंकार कर तब कहते हैं

जब उस चोर का सरदार

देश का अलमबरदार हो

चाहे उसके हाथ में मोटा डण्डा हो

चाहे फाँसी का मोटा फंदा। (वही, पृ0 36)
                यह काव्यांश कवि का सत्साहन और निर्भीकता व्यक्त कर रहा है।

                मार्कण्डेय जीवन के प्रति निराशवादी नहीं अपितु आशावादी हैं। वह अँधेरा भगाने के लिए रोशनी की तलाश में संलग्न रहते हैं। अँधेरे में चीर की तरह दिखाई पड़ने वाली रोशनी को देख कर वह उल्लासपूर्वक कहते हैं –
मिल गया, मैंने कहा

मिल गया रत्न

जो काट देगा, अन्धे पहाड़ को

और मैं उस दरार मैं घुस जाऊँगा

पहले मनाऊँगा

यदि नहीं माना तो

बाँह पकड़कर

खींच लाऊँगा सूरज को। (वही, पृ0 39)
                सूरज’  सामूहिक श्रम के प्रकाश का प्रतीक है। धरती की व्यथा-कथा का समापन -दिव्य शक्ति’  नहीं कर सकती है। उसे तो ‘जनशक्ति’  ही सुख में बदल सकती है।
                समकालीन हिन्दी काव्य संसार में ऐसे अनेक सत्तामुखी कवि हैं, जो अपनी कविता को राजनीति की कीचड से दूर रखना नहीं चाहते हैं। सत्ता एसे कवियों को पुरस्कृत-सम्मानित भी करती हैं। लेकिन मार्कण्डेय न राजनीति-निरपेक्ष लेखक हैं और न ही कवि। उन्हें मालूम है कि जो कवि अपने देश-काल की जन-विरोधी राजनीति की आलोचना करता है, उसे जीवन में भयानक प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है। हिन्दी में महाकवि निराला के अलावा केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, विजेन्द्र ऐसे ही कवि हैं। विश्व कविता में ऐसे कवियों का अभाव नहीं है। मार्कण्डेय ने यही तथ्य दृष्टिगत रखते हुए सूली पर कवि’  में बेंजामिन का प्रेरक स्मरण किया है-
जब कोई बेंजामिन

जनता का प्रेम गीत गाता है

लोगों को नींद से जगाता है

बताता है प्रेयसी से

धरती की गन्ध

रूप-रंग माटी का

$$$ तब कविता, कविता नहीं रहती

वह फसल बन जाती है

गीत गाये नहीं जाते

लोगों की साँसों में

चुपके से उतर जाते हैं

वे समझ नहीं पाते

घबराते हैं

पसीने-पसीने हो जाते हैं

और चढ़ा देते हैं

कवि को सूली पर।‘ (वही, पृ0 14,15)
                वे’ सर्वनाम पद से आशय है शोषक सत्ताधारी, जो स्वयं को आलोचना से परे मानते हैं। वे तानाशाह होते हैं। परन्तु सच्चा जपनक्षधर कवि उनका प्रतिरोध प्रखर ढंग से करता है।
                अन्यायी और शोषक व्यवस्था का मूलोच्छेदन करने के लिए संघर्ष निस्तर अनिवार्य है। शक्तिशाली एवं साम्राज्यवादी राष्ट्र, यथा-अमरीका, अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए युद्ध का भयंकर उद्घोष कर देता है। ऐसे युद्धों से निरीह मानवता की अपूरणीय क्षति होती है। अतएव मार्कण्डेय युद्ध’ के उज्ज्वल पक्ष का समर्थन करते हैं –
युद्ध सिर्फ लड़ाई नहीं है

क्योंकि युद्ध न्याय के लिए

अस्मिता की रक्षा के लिए

समानता और स्वाधिकार के लिए

शोषकों, जालिमों, हत्यारों के

विरूद्ध

लड़ी जाने वाली लड़ाई का नाम है।

$$$$$$ युद्ध के गीत हैं

मोलाइस, निराला

नजरूल, नेरूदा और नाजिम हिकमत

युद्ध का वैभव हैं

 $$$$ युद्ध का कोई धर्म नहीं होता

जात-पाँत देश भाषा कुछ भी नहीं

युद्ध आग के समान पवित्र है

जो लोहे को सिझाता है, करता है

अपनी ही तरह लाल और गर्म

सिर्फ जय में ही नहीं

पराजय में भी!(वही, पृ0 12,13)
वर्तमान काल में युद्ध विश्व मानवता के लिए घातक अभिशाप माना जाता है। लेकिन शोषितों-वंचितों के अधिकार के लिए युद्ध अभिशाप नहीं अपितु वरदान है। यह कविता वक्तव्य प्रधान है, लेकिन इसकी रचना-प्रक्रिया के मूल में करूणामूलक सात्विक क्रोध है। इसलिए यह उत्कृष्ट कविता है।

मार्कण्डेय की चौकन्नी दृष्टि से हिमालय और घूर’  दोनों को देखते-परखते हैं। दोनों में समानता तलाशते हैं। अपना ध्यान गाँव-गाँव में घुरों पर विशेष रूप से केन्द्रित करते हैं। क्या कारण है कि गाँव आज तक स्वच्छ और सुन्दर क्यों नहीं पाए हैं। वह ठीक चित्र अंकित करते हैं –
घूर तो बेचारा है

पड़ा हुआ, अतिमन्द

बच्चों की छी-छी, पीव, मवाद की पट्टियाँ

राख, कूड़ा, ऊपर से कुत्ते और बिल्लियों के मूत्र से सिंचित

गोबर और गोबर

लेकिन यह भी ठोस

स्थिर और काम्य

रूपाकार में हिमालय जैसा साम्य है

निःसंग, निरावृत्त

टिका है जन मानस में

वैसे ही

जैसे टिका है हिमालय। (वही, पृ0 65)
इन पंक्तियों में भारतीय गाँव का चित्र अंकित किया गया है। यथार्थवादी दृष्टि से। मूत्र से सिंचित’ पदबंध अज्ञेय का स्मरण करा रहा है। ‘मूत्र-सिंचित मृत्तिका के वृत्त में।, खास बात यह है कि मार्कण्डेय ने अपनी अन्तर्दृष्टि से हिमालय और घूर में समानता तलाश की है। उस के बारे में बताया है –
टिका है जन-मानस में

वैसे ही

जैसे टिका है हिमालय।
मार्कण्डेय यह भी जानते हैं कि राजधानीके अनेक स्वनामधन्य एवं तथाकथित बड़े कवियों ने अपनी लेखनी को सत्ता के लिए समर्पित कर दिया है। युवा कवि भी उन्हीं का अनुकरण करते हैं और कर रहे हैं। कविता’  में यही कटु वास्तविकता व्यक्त की गई है। यह रचना संवाद शैली में है। वह अपनी रोजी-रोटी के लिए सत्ता के सामने घुटने टेक कर कहता है –
नौकरी के लिए हुजूर

जैसी भी हो

जहाँ हो, फौरन चला जाऊँगा

हुक्म बाजा लाऊँगा’

फिर कविता का

क्या होगा।‘

उस ने पूछा

कविता का…

कविता का क्या होना है

रहेगी वह

राजी-खुशी रहेगी

गुह-मूत करेगी

दुख दर्द सहेगी

कुछ नहीं कहेगी।(वही, पृ0 66)
                यह है समकालीन कविता का कुरूप, जो राग दरबारी गाया करता है। दिल्ली दरबार को रिझाता है। छुटभैये कवि नामवर जनों की चरण-वन्दना करके एवं पुरस्कार हासिल करके स्वयं को मौलिक कवि समझने लगते हैं। ऐसे कवियों की कविता नखदन्त विहीन हो जाती है। अन्ततोगत्वा ऐसे कवि इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए जाते हैं। इतिहास साक्षी है पंत जी की तुलना में निराला को क्यों महान कवि माना जाता है। अथवा रघुवीर सहाय और श्रीकान्त वर्मा की तुलना में केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन महत्त्वपूर्ण क्यों हैं। इसी प्रकार अज्ञेय की अपेक्षा मुक्तिबोध क्यों महान हैं। आप स्वयं निर्णय कीजिए।
                मार्कण्डेय उन कवियों की आलोचना करते हैं, जो स्वयं देश की राजधानी देहली को पार करके अन्दर जाना चाहते हैं। किसी वरिष्ठ मंत्री’  के समक्ष। वह मंत्री अपनी गोपनीय डायरी में लिखता है –
जब अस्तित्व का बोध खो जाता है

मैं और उसके साथी उसी में जी रहे हैं।

कभी गिरते हुए

कभी चढ़ते हुए

सच तो यह है कि

हम सब कहीं उस एक से अनुभव में हिस्सा बँटा रहे हैं

एक सन्नाहट में जी रहे हैं

वे जो चोटी पर है

वे भी जो चोटी के नीचे खड़े ताकते हैं

चोटी को टुकुर-टुकुर।(वही, पृ0 32)
                आशय यह है कि राजनीति में कुछ भी सुनिश्चित नहीं है। जो चोटी पर खड़े हैं, वे भी आशंकित हैं और जो नीचे खड़े हैं, वे भी उस चोटी के लिए लालायित रहते हैं। ऐसे अनिश्चित माहौल में सत्तामुखी कवि क्या जनपक्षधर हो सकता है। नहीं। श्रीकांत वर्मा का मोहभंग इस का प्रमाण है।
                उपर्युक्त भाव-भूमि पर रचित एक और कविता कवि-सभा’  भी उल्लेखनीय है। इस सभा में नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय, सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, अरूणकमल, राजेश, मनमोहन, विकल, डबराल, सोमदत्त, देवताले, केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण, अपनी-अपनी भाव-भंगिमा से विराजमान हैं और खड़े हैं। मुक्तिबोध सीमान्त पर खड़े हैं। बाबा अपने ढंग से ढोल की पाल खोल रहे हैं।
तभी सहसा फाड़ कर

आँखों के पर्दे

धूमिल किसी मानव शरीर को

(जिसे कह सकते हैं राजकमल)

कंधे पर उठाए

आ धमका बीच में

कहने लगा-

नामवर स्वायत्ता की

ढोल के पोल में घुस गए हैं

गाहे-बगाहे, तुक-ताल देख कर

दल की चमड़ी, उठाते हैं

अब कविता को एक नए वकील की जरूरत है

पीछे की अदालत में

उस पर मुकदमा है

दावा है उसमें कि

वह व्यवस्था की दलाल वेश्याओं के दरवाजे पर ताक-झाँक करती है

इनाम-इकराम के लिए

अवसर की तलाश में

छिनाल होती जा रही है

हाव-भाव दिखाती है

नखरे पाटती है।(वही, पृ0 29,30)
                नामवरी स्वायत्तता की ऐसी तीखी आलोचना कविता में और अन्य कवि ने की है? शायद नहीं। विगत वर्षों में कई साहित्यकारों ने छिनाल’  विशेषण का प्रयोग अपने अहम् की संतुष्टि के लिए किया था। लेकिन इस प्रयोग से पहले सन् 1987 में, चाटुकारी एवं सत्तामुखी कविता को छिनाल मार्कण्डेय ने ही कहा था। उन का कथन आज भी खरा है, क्योंकि ऐसी छिनाल’  कविता का अभाव नहीं है। आज कविता की आलोचना के लिए लोकधर्मी दृष्टि की आवश्यकता है। स्वायत्तता’  की नहीं। स्वायत्तता’  तो कविता को लोक से अलग करके उसकी निरर्थक आलोचना करती है। ऐसी आलोचना बहुत खतरनाक है, क्योंकि वह कविता के जीवन-स्रोतों की उपेक्षा करती है। मार्कण्डेय ने स्वायत्तता’  का प्रयोग करके नामवरी आलोचना पुस्तक कविता के नए प्रतिमान’  की भी आलोचना की है। उसे नकार दिया है। धूमिल के द्वारा। है न मजे़दार बात।
                संकलन के पहले भाग में सन् 1980 के दशक की कविताएँ संकलित हैं। लगभग बयालीस कविताएँ। अब तक जिन कविताओं की चर्चा-विवेचना की गई है, वे इसी दशक की हैं। दो-तीन कविताएँ ऐसी भी हैं, जिन के अर्थ-बोध के लिए मानसिक व्यायाम करना पड़ता है। यथा-
तुम कुछ वैसी हो कविता। और काल चक्र। प्रूफ की भयंकर भूलों के कारण अर्थ-बोध में बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं।
                बया और कौवा पढ़ कर लघु कहानी का आभास होता है और बया की लाचारी का भी। नया वर्ष, गया वर्ष, मेरे गुलाब, बीते कितने वसन्त, इस देश-काल में, कहाँ गयी धार, घर इस तरह बना, हल्ला उठाओ, काल-बोध, समय, किरण और दृष्टि, बात बस इतनी सी, काल-चक्र, पहला पत्थर शीर्षक कविताएँ भाव एवं विचार वोध से समन्वित हैं। इनमें आत्मीयता भी है और कहीं-कहीं तीखा व्यंग्य भी। अपने समय की राजनीति पर। पेड़ पर घर’  कविता अज्ञेय के उस घर का स्मरण करा रही है, तो पेड़ पर बनवाया गया था। कविता-पाठ के लिए। लेकिन अज्ञेय की अभिलाषा पूरी नहीं हो सकी थी शायद। इस कविता के अन्त में मार्कण्डेय सर्तक भाव से पूछते है-
‘तुम तो महत्तर थे

कवि, शब्द शिल्पी

पेड़ तो बन्धु है धरती के नाते से

फिर उस के कन्धे पर घर क्यों? (वही, पृ0 61)
पिता कविता ज्ञाररंजन की कहानी पिता की याद जगाती है और पिता का हत्यारा’  आत्म-ग्लानि।
उपर्युक्त कालावधि में रचित लघु कविता पहला पत्थर’  मार्कण्डेय के सहृदय कवि की संवेदन शीलता का उत्तम प्रमाण है और नत्थू गवैया और हरिहर नचनियाँ’  आत्मीयता और स्थानीयता का सबूत है।
संकलन के दूसरे भाग में सन् 1952 से 54 के बीच की असंकलित कविताएँ हैं। इक्कीस कविताओं में अन्तर्वस्तु और काव्य-रूप एवं भाषाई रचाव की दृष्टि से प्रशंसनीय विविधता है। गीत भी है और मुक्त छन्द में रचित लयात्मक कविताएँ भी। प्रेम भाव के साथ-साथ मानवीय करूणा भी।
उस दिन जब तुम गई

प्यार की बातें कितनी हुई

 में दाम्पत्य प्रेम की सहज सुन्दर अभिव्यक्ति है। खलिहान’  में किसान की सम्पन्नता और विपन्नता का द्वन्द्व है, जिसके मूल में मानवीय करूणा है और उसकी आत्म-ग्लानि भी। कलम’ शीर्षक गीत में आत्म-समीक्षा के साथ-साथ श्रमशील लोक से जुड़ने का संकल्प है। मैं जो इंसान हूँमैं इंसानी दुनिया बसाने का सुनिश्चय है। ‘कलम का ईमान’  में कवि-लेखक के लोकपरायण होने का उल्लेख है। कवि-लेखक कलम के सिपाही’  हैं। इसलिए कविता के अन्त में कहा गया है
‘यह लड़ेगी

और लड़ती रहेगी

जब तक इस धरती पर

उमड़ता हुआ इंसान

उस का सहारा चाहता है

वह धरती की पुकार है

आसमान की उड़ान नहीं

यह जिन्दगी की पैरोकार है

बेजान की तलवार नहीं। (वही, पृ0 103)
एक होगा सारा संसार में कवि ने अपनी वैश्विक जीवन-दृष्टि से सारे संसार को देखा है। ‘मंजिल’ में गतिशीलता का संदेश है। ‘सजन घर आये’  गीत लोक गीत से अनुप्राणित है। ‘मुझे उबारो’ में खिन्नमना दीन-दलित को करूण पुकार है। कविता वाचक दीनता – भरे सुर में कहता है –
‘मुझे उबारो

मैं कीचड़ के बीच फँसा हूँ

मेरी साँसें

मेरा जीवन

मेरा तन मन

सब भारी है

जैसे काई गन्दा और

घिनौना कीचड़

इन सब की तह तह में

कसकर ठूँस उठा है

मुझे सँभारो

अपनी कोमल गरम गदोरी से

छूलो ये पंकिल बाँहें

शायद पावनता में

कोई छूत हो

जो मेरे जीवन को

प्राण दे सके

जो मेरी पापी काया को

त्राण दे सके।(वही, पृ0 118)
वाचक का यह अनुनय-विनय पाठक के मानस में करूणा जगाता है। यह कविता दलित जीवन’  से साक्षात्कार कराती है। निराला की पंक्तियाँ याद आ रही हैं-
दलित जन पर करो करूणा

दीनता पर उतर आये

प्रभु! तुम्हारी शक्ति अरूणा।
मार्कण्डेय प्रभु से प्रार्थना न करके इतिहास-विधाता के काल-चक्र’  की गति देखते-परखते हैं और दलित जनों को समझाते हैं कि
‘मैं ही बताऊँगा वह सब

जो कहीं नहीं लिखा है

काले अक्षरों की स्याह दरिया में

जो झूठ के सफेद बुलबुले

दिखते हैं, वे बस दिखते हैं

हैं फफोले/जो फूट जाएँगे

$$$$ ज्यादा कुछ ऐसा ही है

जो छाया है संस्कृति रूपी

घटाटोप बादलों की तरह

तुम्हें बहलाने के लिए, लोरियों से लेकर

मृत्युगीतों तक बेपनाह

विस्तार में तुम्हें पहचानना होगा

अपना गीत। (वही, पृ0 79,80)
दलित-शोषित जन भी अपने अनुभवों से जीवन की वास्तविकता स्वयं समझ जाते हैं।
रूसी माँ का शान्ति-सन्देश’  में मार्कण्डेय का अन्तरराष्ट्रीय सद्भाव व्यक्त हुआ है, जो शान्ति के लिए परम अनिवार्य है। रूसी माँ विगत युद्ध की महाअग्नि के होम में समिधा बने अपने बेटों को याद करके कहती है –
जब तुम वापस जाना

भारत की ललनाओं से कहना

मेरा यह सन्देश

धरती की छाती पर धरती के बेटों का

खून न बहने पाये

सारी मानव जाति एक है

युद्ध न होने पाए। (पृ0 93)
संकलन के तीसरे भाग में मार्कण्डेय के पहले काव्य-संकलन सपने तुम्हारे थे’  (सन् 1956) की कविताएँ संकलित हैं। इन का रचना-काल 1952 से 1956 तक है। इन कविताओं में युवा मार्कण्डेय की प्रेमल भावनाएँ व्यक्त हुई हैं। अन्य भाव भी व्यक्त हुए हैं, जो कवि के सर्जनशील व्यक्तित्व को समष्टि से जोड़ते हैं। युवा मार्कण्डेय को महसूस होता है कि
बालू से माटी की छाती

सचमुच बहुत कड़ी है।(पृ0 125)
और ‘जीवन’ धरती माँ का वरदान है। लेकिन अभी सभी पूतों का जीवन
‘दुख से पूर

तमसावृत निशा में

एक धूमित (धूमिल) आग-जिज्ञासा लिये नतशीश है।
लेकिन कवि को आशा है कि
‘व्यवधान टूटेगा, छटेगा मोह

फिर स्रोतस्विनी – सी बह चलेगी

मानवी संसृति

जननि! जीवन जीव का तात्पर्य होगा

अभी तो धूरियों में घूमता रथ-चक्र है।(पृ0 127)

जीवन’  जीव का तात्पर्य हो जाएगा। क्या आशय है इसका। कवि ऐसे समाज का सपना देख रहा है कि भावी समाज ऐसा हो, जहाँ जीव मात्र भय-मुक्त हो। निर्द्वन्द्व हो। स्वतंत्र हो।
यह सपना साकार करने के लिए संघर्ष निरन्तर करना होगा। पथ के रोड़े’ सँवारने होगें, क्योंकि
ये पथ के रोड़़े हैं

इन की बातें बहुत बड़ी हैं

ऊपर से चिकने

पर इन की छाती बहुत कड़ी है

कितनों को मंजिल से रोका

कभी नहीं पछताये

फिर भी अपनी आदत से

अब तक ये बाज न आये

इनकी साँसें तोड़ न देना

ये पत्थर के टुकड़े

इन पर टाँकी मारो

खून पसीना आँसू दे कर

इन्हें सँवारो। (पृ0 133)
यह कविता पढ़कर एक सवाल सामने खड़ा हो रहा है कि रोड़ो को सँवारने की बात क्यों कही गई है। वस्तुतः रोड़े’  पद श्रमशीलजनों का प्रतीक है। महत्वाकांक्षी व्यक्ति को अपने गन्तव्य तक पहुँचाने के लिए पथ के रोड़ो का सामना करना पड़ता है। वह उन्हें हटाना चाहता है। लेकिन वे हठीले होते हैं। सभ्यता-संस्कृति की रचना में श्रमशील जनों की भूमिका सर्वोपरि होती है। अतः उन्हें सँवारना अर्थात् सचेत करना अनिवार्य है। उनकी संगठित शक्ति ही समाज को बदल सकती है। चिकने रोड़े शत्रु पर प्रहार भी कर सकते हैं और परास्त भी। इन्हें सँवारने का काम मध्यम वर्ग कर सकता है। अपने व्यक्तित्व का रूपान्तरण करके।
याद का सरसिज’  उत्कृष्ट प्रेम कविता है,  जो युवा कवि की भावनाओं से साक्षात्कार कराती है। लेकिन याद का सरसिज कभी-कभी नहीं खिलता है। इसलिए कवि कहता है-
अब हवा है सर्द
पानी की सतह
जम कर हुई है वर्फ
ऊसर भूमि पर
जैसे जयी हो चाँदनी की पर्त
सूना है सरोवर
सलिल की कोख है सूनी
याद का सरसिज खिले क्यों
जब तुम्हीं हो
और अपनी याद है।(पृ0 128, 129)
यह है कवि का सात्विक अनुराग, जो अज्ञेय की प्रेम-भावना से अलग है। मार्कण्डेय के प्रेम में उद्दाम मनोकामना की उत्तप्त व्याकुल पुकार नहीं है। तुम कहाँ हो नारि’। अपितु स्वयं को परिष्कारने की अभिलाषा है। उनका प्रेम उन्हें संघर्ष के लिए दृढ़ संकल्पी बनाता है। यथा –
मुझे तुमने सीपियों मे देखा है
सतरंगी लघु किरणों में
$$$ नहीं देखा तुम ने किन्तु
टूटी चट्टानों की
शोख शमित धारों को
$$$ पैना मुझे कर दिया
इसलिए जागृत हूँ
टूटा हूँ
लेकिन समाहत हूँ
आऊँगा
तट का अभिलाषी मुक्त नागरिक हूँ। (पृ0139)
जीवन की उत्ताल तरंगों से संघर्ष करता हुआ मुक्त नागरिक’  प्रेम के तट पर पहुँचना चाहता है। उल्लेखनीय है कि मार्कण्डेय ने स्वाधीन एवं स्वतंत्र जीवन जिया था। अपनी शर्तों पर। उनकी संघर्ष मूलक उदात्त भावना तुम्हारी याद में’ भी व्यक्त हुई है-
वंचना का दुर्ग यह, गतिरोध की दीवार,
प्राण मेरे छीन कर, सकती न मुझको भार।
मैं रहूँगा विश्व के तम में जलन के साथ,
मैं उठूँगा एक दिन विश्वास धर कर माथ।।‘ (पृ0 144)
               
कहने की आवश्यकता नहीं है कि वंचना का दुर्ग’  अज्ञेय का स्मरण करा रहा है। सन् 1950 के दशक में हिन्दी के नए कवि अज्ञेय का अनुसरण कर रहे थे। उस समय प्रयोगवाद की धूम थी। परिमलवादियों का शोर था। प्रगतिशील शक्तियों का प्रतिरोध था। उस समय मार्कण्डेय प्रेमचन्द और निराला की भावधारा एवं विचारधारा में अवगाहन करके उन्हें अग्रसर कर रहे थे। उन्होंने एक कविता चींटी, ततैया और इंसान’  में लघु बोध-कथा का कलात्मक निबन्धन किया है। प्रतिरोध की भावना से प्रेरित होकर। कविता का अन्तिम अंश पढ़िए –
‘क्षुब्ध चींटी
ततैया संतप्त
दोनो कर रही थीं बात’
क्या यह आदमी था?
जो हमारे साथ यों बैठा हुआ चुपचाप, बेबस ऊँघता-सा तप रहा था
और बेअंजाम
अपनी जाति ही की खा रहा था लात
मैं तो काट लेती
मैं तो वीन्ह लेती।  (पृ0 142
)
मौन’  शीर्षक कविता पढ़कर घनानन्द अनायास आते हैं। विरही विचारन की मौन मैं पुकार है।‘ मार्कण्डेय भी कहते हैं – ‘आह! तेरे छोह की/ऐसी कथा है/और मेरे मौन की/तैसी व्यथा है।(पृ0 148)
                संकलन के तीसरे भाग में प्रायः लघु कविताएँ हैं, लेकिन एक अनतिदीर्घ कविता भी है। कल्पना का लिखित यक्ष। कालिदास के मेघदूत’  की स्मारिका। इस में जीवन की व्यथा-कथा अधिक है। समष्टि के जीवन की कथा। यह कविता अभिनव भाव-भंगिमा से प्रारम्भ होती है और जीवन-प्रसंगों की दुखद घटनाओं से परिचित कराती है। पाठकों से अनुरोध है कि वे स्वयं यह कविता पढें।
                सम्पूर्ण संकलन पढ़ने के उपरान्त कुछ निष्कर्ष उल्लेखनीय हैं। सन् 1950 के दशक में अज्ञेय-पंथी अधिक सक्रिय थे। उनकी अधिकतर अबूझ कविताओं की तुलना में मार्कण्डेय की कविताएँ अधिक सम्प्रेषणीय हैं। संकलित कविताओं में कुछ छान्दस हैं। कुछ गीतात्मक हैं। कुछ मुक्त छन्द में हैं। परम्परागत हरिगीतिका छन्द को मुक्त छन्द’  के रूप में अपनाया गया है। मुक्तिबोध के समान। भाषाई रचाव में तत्समता, तद्भवता ओर बोल-चाल की उर्दू शब्दावली का औचित्यपूर्ण सम्मिलन है। भाषिक, संरचना में यदि पंत जी की कोमलकान्त पदावली है तो निराला का ओजगुण भी है और भदेसपन भी। नागार्जुन जैसी सादगी के साथ-साथ व्यंग्य की तीखी धार भी है और त्रिलोचन की स्थनीयता भी। केदारनाथ अग्रवाल के समान श्रमशीलता का समादर है। सारांश यह है कि काव्य-भाषा में लयात्मकता और वक्तव्यता के साथ-साथ अलंकृति का सहज समावेश है। परम्परा से जुड़ाव भी है और समागम की अग्रगामी सोच का समावेश भी।
                यह संकलन पढ़ कर आज के बौने कवि अच्छी कविता रचना सीख सकते हैं। यह भी कि वे कितने गहरे पानी में हैं। स्वतंत्र हैं अथवा परतंत्र? दब्बू हैं अथवा दबंग।
                लेकिन प्रूफ की असंख्य भयंकर भूलों ने कविताओं का भाषाई सौन्दर्य विकृत कर दिया है। इस से गुड़ गोबर हो गया है। यदि सभी भूलों का उल्लेख किया जाए तो एक पृष्ठ तो भर जाएगा। यहाँ केवल एक कविता की भूलों की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है। कविता है कवि सभा’। (पृ0  26 से 30 तक)
ऐसी असंख्य भूलों के लिए सम्पादक और प्रकाशक दोनो जिम्मेदार हैं। इससे हिन्दी का गौरव घटेगा। इस पुस्तक का अगला संस्करण निकालते समय सम्पादक महोदय को इस तरफ सतर्कतापूर्वक ध्यान देना होना। 

सम्पर्क-

मोबाईल-  08533968269      

मार्कण्डेय

किसी भी रचनाकार के लिए अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बात करना बहुत आसान नहीं होता. समय का एक-एक रेशा चुपके से किसी भी लेखक के लेखकीय व्यक्तित्व की निर्मित्ति में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता चला जाता है. और इसी धरातल पर वह वितान निर्मित होता है जिसे हम रचनाकार के नाम से जानते हैं. इस प्रकार किसी भी लेखक के लेखन में उसके देखन की अहम भूमिका होती है. नयी कहानी आंदोलन के प्रणेताओं में से एक मार्कन्डेय जी खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनके लेखन में कल्पना की जगह अनुभव यानी देखन का हमेशा प्रमुख स्थान रहा. यही इस नयी कहानी आंदोलन की खासियत भी थी. एक अरसा पहले इलाहाबाद के महत्त्वपूर्ण दैनिक पत्र अमृत प्रभात में हमारे प्रिय कहानीकार मार्कन्डेय जी ने सारगर्भित लेख मेरी कथा यात्रा के माध्यम से अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में विस्तृत प्रकाश डाला था. किसी भी नए-पुराने रचनाकार के लिए यह आलेख एक धरोहर की तरह है. २ मई को उनके जन्मदिन के अवसर पर हम तीन कड़ियों में उन पर सामग्री प्रस्तुत करेंगे. इसी क्रम में पहली कड़ी के अंतर्गत प्रस्तुत है खुद मार्कन्डेय जी की ज़ुबानी उनकी रचना प्रक्रिया की कहानी.   

मेरी कथा यात्रा

जितने लोग कहानी पढते हैं, वे सब कहानी नहीं लिखते. लिखते वही हैं जिनके भीतर कुछ कहने की तीव्र आकांक्षा होती है.  इस आकांक्षा के स्रोत मूलतः दो ही हैं. एक जीवन प्रवाह में प्राप्त मानवीय अनुभवों की नवीनता और एकान्तिकता, दूसरा व्यक्ति और समाज के संबंधों में उपस्थित होने वाले अंतर्विरोध जो अनुभव की विचित्रता और नवीनता से आगे बढ़ कर लेखक के जीवन को वास्तविकताओं की दिशाओं में मोते हैं. और मन में कदम कदम पर प्रश्नों की संरचना करते हैं. निश्चय ही अनुभव का आधार यहाँ भी होता है पर मात्र अनुभव का नहीं.  इसीलिए जब ऐसे लोग व्यक्तिगत जीवन में उत्पन्न प्रश्नों का उत्तर खोजते हैं तो उपर्युक्त अंतर्विरोध को सुलझाने की प्रक्रिया में समकालीन सामाजिक सन्दर्भों और ऐतिहासिक विकास से जुड़े बिना नहीं रह सकते.

रचनाकार में इन दोनों दृष्टियों की उपज का कारण शायद उसका सामाजिक संदर्भ ही होता है.  मैं पैदा हुआ एक साधारण किसान के घर, लेकिन प्राइमरी पास करने के बाद ही मुझे प्रतापगढ़ एक रिश्तेदार के यहाँ जाना पड़ा जहां मेरे पिता उनकी तालुकेदारी के प्रबंधक थे .

यहाँ मेरे जीवन की सारी मान्यताओं को भारी धक्का लगा और मुझे दो वर्गों के अंतर्विरोध का साक्षात् दर्शन हुआ. गरीब लोगों पर बेइंतिहा अत्याचार और अन्याय की लोमहर्षक घटनाएँ मुझे रात-रात भर सोने नहीं देती थीं. मनुष्य-मनुष्य के बीच अंतर की ऐसी निर्मम स्थिति से अवगत हो कर मेरी जीवन संबंधी पूर्व मान्यताएं खंड-खंड हो गयीं.

मेरे लिए कहानी लिखने की बात यहीं से उठी.  मात्र अनुभवों की अंधी गली में मेरा मन कभी रमा ही नहीं और हर बार, हर नए जीवनानुभव के साथ एक नया प्रश्न उठने लगा. मान्यताओं और आडंबरों से उबकर यथास्थिति के विरूद्ध कुछ कहने की अकुलाहट ही शायद मेरे लिखने का कारण बनी.

उन दिनों मैं गाँव में था. और वहाँ एक बूढी स्त्री की दुर्दशा देख कर बहुत परेशान होता था. उसका अकेला जवान लड़का सन १९४२ के आंदोलन में मारा जा चुका था. सन १९४९ की गर्मी की छुट्टियों में मैं जब कालेज से घर गया तो उस बूढी स्त्री से फिर मुलाक़ात हुई.  देश स्वतंत्र हो गया था और देशी शासक कोटा-परमिट की राजनीति में आकंठ डूब चुके थे, चारों ओर घोर असंतोष छाया हुआ था. आदर्शवाद को सूली पर चढाया जा रहा था. मृत्यु की उस थरथराहट और दुःख को आज भी मैं भूल नहीं पाया हूँ. उसी तनाव में मैंने एक कहानी लिखी- ‘शहीद की माँ’ और उसे उसी समय ‘आज’  नामक दैनिक अखबार के साप्ताहिक विशेषांक में प्रकाशनार्थ भेज दिया. मुझे आश्चर्य तब हुआ जब दूसरे ही सप्ताह वह कहानी छप गयी और छ्पने के साथ मेरा लिखने का उत्साह ही जैसे मर गया.

मेरी उदासीनता दिन पर दिन गहराती ही गयी और मैं निरंतर अंतर्मुखी होता गया. एक धुंध भरा, अर्थविहीन सामाजिक सन्दर्भ मुझे देर तक घेरे रहा और मैं चुपचाप पढ़ने में डूबा रहा.  यहाँ तक कि अगले दो-तीन वर्षों तक मुझे कभी यह ख्याल ही नहीं हुआ कि मैं कुछ लिख भी सकता हूँ.

मुझे अच्छी तरह याद है कि इन्हीं दिनों मैंने जैनेन्द्र, शरत, यशपाल और प्रेमचंद को ठीक इसी क्रम में पढ़ा. जिन दिनों यशपाल को पढ़ रहा था मेरे एक मित्र ने एन्गिल्स की ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्त्पत्ति नामक पुस्तक मेरे जन्मदिन पर मुझे भेंट में दी. उसे पढ़ कर जैसे मैं काल-कोठरी से बाहर निकल आया. यशपाल की रचनाओं ने मेरे मनो-संसार में जो हलचल पैदा की थी उसे एक स्पष्ट आधार मिल गया. संयोग से मैं इन्हीं दिनों प्रेमचंद को पढ़ रहा था. जैसे-जैसे प्रेमचंद को पढता गया वैसे वैसे मुझे अपने लिए कार्य शुरू करने का स्थान मिलता गया. मेरे भाव जगत में तुलसी, निराला, पन्त की रचनाएँ बसीं हुई थीं. मैं आज निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि इस सारी परम्परा के भीतर से ही मेरे मन में लिखने की आकांक्षा पैदा हुई. और मैंने १९५१ की गर्मियों में कम से कम चार कहानियां लिखीं- ‘गूलरा के बाबा’, ‘घूरा’, ‘पान-फूल’, और ‘नीम की टहनी’ इन कहानियों को मैंने इतनी सहजता से लिखा था कि जब ये पूरी हुईं तो मुझे कोई खास अनुभूति नहीं हुई लेकिन यह आभास जरूर हुआ कि मैंने जो कुछ लिखा है, वह महत्त्वपूर्ण है.

इस तरह अगर सच्चे अर्थों में देखें तो मेरे लेखन की यह वास्तविक शुरूआत थी. मुझे याद है कि छुट्टियों के बाद मैं चारों कहानियां लेकर इलाहाबाद लौटा और न जाने क्यों और कैसे (शायद मित्रों को मैंने कहानियां सुनाईं हों) शरत जयन्ती के अवसर पर आयोजित एक बहुत बड़ी गोष्ठी में मुझे कहानी पढ़ने के लिए कहा गया. इलाचंद्र जोशी गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे थे. इलाहाबाद या यों कहें कि हिन्दी के अनेक शीर्षस्थ लेखकों की उपस्थिति में जब मैंने ‘गुलरा के बाबा’ नामक कहानी का पाठ किया तो प्रशंसा और स्नेह की झड़ी लग गई. मैं समझ ही नहीं पाया कि आखिर इस कहानी में ऐसा क्या है जो लोग इस तरह अभिभूत हो रहे हैं. लेकिन जब मैंने उसे ‘कल्पना’ में प्रकाशनार्थ भेजा और दूसरे महीने कहानी उस अंक की प्रमुख रचना के रूप में प्रकाशित हो गयी तो मुझे ऐसा लगा कि कहानी में जरूर कुछ ऐसा है जो सर्वथा नया और अन्य कहानियों से भिन्न है. ज्ञातव्य है कि उसी अंक में अज्ञेय और विष्णु प्रभाकर की कहानियां दूसरे और तीसरे नंबर पर प्रकाशित हुईं थीं.

‘गुलरा के बाबा’ के प्रकाशन के बाद मैंने अपने को अनायास हिन्दी के प्रमुख लेखकों में पाया. कहना न होगा कि वे एक-एक घटनाएँ जिम्मेदार हैं जो मेरी पहली ही कहानी के साथ घटती चली गयी. ‘कल्पना’ का अंक निकलते ही मेरे पास चिट्ठियाँ आने लगीं. हिन्दी के अनेक बड़े लेखकों के अतिरिक्त संघर्षशील और मझोले लेखकों के पत्रों ने मुझे इस बात का गहरा आभास करा दिया कि उनसे मेरा कोई संघर्ष ही नहीं है. मेरे सामने तो सिर्फ यशपाल और अज्ञेय थे.

अपने लेखकीय जीवन के निर्माण में मुझे कभी किसी से समर्थन अथवा सहायता की आवश्यकता ही नहीं पडी. ‘कल्पना’ में मेरी कहानियाँ लगातार छपने लगीं और पत्रों के माध्यम से ही ‘कल्पना’ के संपादक श्री बदरी विशाल पित्ती से मेरी घनिष्ट मित्रता हो गयी जो हमेशा कायम रही और उनका स्नेह सहयोग मुझे उसी तरह प्राप्त रहा.  मिले तो हम काफी दिनों बाद- १९५४ के शुरू के महीनों में और तभी मेरी कहानियों का पहला संकलन ‘पान-फूल’  छापने का निश्चय हो गया.  उसी साल यानी १९५४ के अगस्त में उन्होंने अपनी प्रकाशन संस्था जय हिंद पब्लिकेशन से इसे प्रकाशित करा दिया.

इलाहाबाद में उन दिनों प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियां हुआ करतीं थीं और हिन्दी उर्दू के लेखक साथ-साथ बैठते थे. हर बाहर से आने वाले लेखक की उपस्थिति किसी न किसी गोष्ठी में जरूर हो जाया करती थी. प्रकाशचंद्र गुप्त इन गोष्ठियों के प्राण थे और भैरव प्रसाद गुप्त, शमशेर बहादुर सिंह, डाक्टर भगवतशरण उपाध्याय, अमृत राय इन गोष्ठियों में सदा उपस्थित रहते थे.

इन गोष्ठियों में हमें परिवर्तित जीवन सन्दर्भों और प्रगतिशील रचनात्मक दृष्टि को ले कर तीव्र संघर्ष चलाना पड़ा. मेरी वैचारिक स्थिति एकदम भिन्न थी और मैं लगातार समकालीन परिस्थितियों और 

जीवन सन्दर्भों में वास्तविकताओं की व्याख्या की मांग करता था. इस कारण मुझे कई बार कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ता था, लेकिन एक व्यापक सहमति का आधार सदा बना रहा और आपसी स्नेह-सौहार्द बढता ही गया. नतीजा यह हुआ कि सृजनशीलता का एक नया वातावरण पैदा हुआ और राजनीतिक प्रस्तावों के मसौदों से उत्पन्न नारों के आधार पर लिखी जाने वाली कहानियाँ और कवितायें धीरे धीरे गौड़ होने लगीं.

बाहर से देखने में लगता है कि रोमानी यथार्थवाद और आदर्शवाद में बड़ा अंतर है और प्रायः इस काल विशेष में सारा लेखक समुदाय इन्हीं दो खेमों बंटा रहा. और एक दूसरे पर तीखे प्रहार भी करता रहा. लेकिन अगर रचना प्रक्रिया के विश्लेषण द्वारा देखा जाय तो इन दोनों की रचनात्मक ग्रहणशीलता में अद्भुत साम्य है दोनों के आदर्श रचना से बाहर हैं और दोनों रचना की देह का सृजन कल्पना द्वारा इस तरह करना चाहते हैं कि वह उनकी बाह्य मान्यताओं की मांग पूरी कर सके. सामाजिक सन्दर्भों से उत्पन्न वास्तविकता और रचनाकार की उससे सम्पृक्ति का सवाल मैंने इन गोष्ठियों में बार-बार उठाया और उस समय के क्रान्तिवादियों तथा व्यक्तिवादियों की रचना प्रक्रिया के मूल को उद्घाटित कर दोनों में निहित गहरी समानता को लोगों के सामने रखने की बार-बार कोशिश की. इस पूरे संघर्ष में प्रकाश चंद्र गुप्त, भैरव प्रसाद गुप्त, भगवत शरण उपाध्याय और शमशेर बहादुर सिंह ने नयी रचनात्मक समझ का खुल कर समर्थन किया.

‘पान-फूल’ के प्रकाशित होते ही एक बड़ी गोष्ठी हुई.  भगवत शरण उपाध्याय की अध्यक्षता में प्रकाश चंद्र गुप्त ने अपनी विस्तृत समीक्षा पढ़ी. बाद में श्रीपत राय, धर्मवीर भारती तथा प्रकाशचंद्र गुप्त की तीन समीक्षाएँ ‘कल्पना’ में एक साथ प्रकाशित हुईं.  तत्कालीन नए पुराने समीक्षकों में शायद ही कोई बचा हो जिसने ‘पान-फूल’ पर नहीं लिखा. नामवर सिंह ने आकाशवाणी से और मोहन राकेश ने ‘आलोचना’ में ‘पान-फूल’ की समीक्षा की. यहीं यह कह देना मैं अनुचित नहीं समझता कि यद्यपि प्रशंसा की यह बात रचनाकार की हैसियत से मुझे भाती थी, पर मेरी समीक्षा दृष्टि को इससे कभी संतोष प्राप्त नहीं हुआ. जहां तक मुझे याद है, कुछ दिनों बाद ‘कल्पना’ से जब रघुवीर सहाय संबद्ध हुए, तब नेमिचंद्र जैन का एक लेख ‘मार्कण्डेय की कहानियां’ प्रकाशित हुआ. जिसमें रचनात्मक दृष्टि और रचना प्रक्रिया से सम्बंधित कुछ गंभीर बातें उठाईं गयीं. यद्यपि यह लेख मेरी कहानियों की कड़ी समीक्षा करता था फिर भी यह मुझे इस लिए अच्छा लगा कि कथा समीक्षा के क्षेत्र में प्रवेश की चेष्टा इस लेख में लक्षित की जा सकती थी.

जैसा मैं पहले कह चुका हूँ कि मैं बहुत ही विनीत और सहज भाव से इस नए संसार की देहरी पर आया था और वह भी एक गाँव से. मेरे पास रचनाकारों से सम्पृक्ति की कोई व्यक्तिगत परम्परा भी नहीं थी. हाँ इतना जरूर है कि मैंने लेखन शुरू करने से पहले हिन्दी साहित्य का गंभीर अध्ययन कर लिया था. और यह धारणा भी मेरे मन में बन गयी थी कि सारे साहित्य में वह क्या है जिससे मैं जुड सकता हूँ. इस आधार भूमि के साथ पहले कहानी संग्रह ‘पान-फूल’ के छपने तक मेरी दृष्टि अत्यंत वस्तुपरक हो गयी थी. सारी स्नेह भरी प्रशंसाओं और स्वीकृतियों के भीतर से जो उदासीनता, अकुलाहट और तलाश मेरे मन में तब जगी थी, वह आज भी जैसी की तैसी बनी हुई है. यदि बिना किसी बनावट के कहूँ तो मेरा मन कहीं नहीं लगता और उसकी अन्यान्य व्याख्याएं भी लोग करते हैं. लेकिन सच्चाई यह है कि मैं मात्र वही और उतना करता हूँ जो मुझे करना है.

अब तक मेरी कहानियों के ७ संकलन प्रकाशित हो चुके हैं. इनमें से श्रेष्ठतम कहानी का चुनाव करना मेरे लिए संभव कभी नहीं हो पाया. और शायद किसी रचनाकार के लिए आसान काम नहीं है. मेरी कहानियों का आकार शुरू में बहुत छोटा था. मुझे पूर्ववर्ती कथा लेखकों को पढते हुए प्रायः ऐसा लगता था कि वे कहानी में काल की सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं. कई बार एक कहानी कई जन्मों को आवेष्ठित कर लेती थी और अंतराल और मध्यान्तरों के कारण इनका शिल्पगत बिखराव बेहद खटकने लगता है. प्रेमचंद की कहानियों में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं. वैसे भी हिंदी कथा साहित्य में शिल्पगत कुशलता का भारी अभाव है और अत्यंत सफल कृतियाँ भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं. ‘गोदान’ से लेकर ‘अमृत और विष’ तक अनेक उपन्यासों के लेखकों ने ऐसे अनुच्छेद असंपादित छोड़ दिए हैं, जिसके कारण शिथिलता अनायास ही उजागर होती है.

कहानी के कथाक्रम को लेकर शुरू से ही मेरे मन में अंतर्द्वंद हुआ और मैंने निश्चय किया कि कहानी की काल सीमा बहुत ही छोटी होनी चाहिए. विस्तृत कथ्य को अनुमानित रूप से लेखकीय कथनों द्वारा पूरा करने अथवा फ्लैशबैक के सहारे पिछली कथा-श्रृंखला को उद्घाटित करने की प्रक्रिया को मैंने इसी कारण अपनाया कि कि मुझे कहानी में काल बिन्दु को सुनिश्चित रखने में ही कहानी का सफल और सहज रूपाकार मिला था. इसीलिए शुरू की कहानियों में मैंने धडल्ले से इसका प्रयोग किया. फ्लैशबैक में अपने सोचने की प्रक्रिया को परिवेश की वास्तविकता से सदा जोड़े रखा. यह नहीं कि एक आदमी घर में परिवार के लोगों के बीच घंटों सोचने के लिए आजाद छोड़ दिया गया हो.  मैंने इसे खंडित कर परिवेश की बाधाओं से इसका निगमन किया. फिर भी, कथा-वस्तु की नयी मांगों से टकराने के कारण शिल्प संबंधी मेरी यह धारणा बदल गयी. कथा माध्यम पर काम करते हुए शिल्प संबंधी धारणाओं में बंधना मुझे मान्य नहीं रहा और मैंने पूर्णतः सुदृढ़ हो कर अनेक प्रयोग किये. यहाँ तक कि कहानी को पूर्णतः निबंध के रूपाकार में बाँध कर मैंने कई कहानियां लिखीं. ‘दूध और दवा’ और ‘लंगड़ा दरवाजा’ ऐसी ही कहानियां हैं.  कहानी का कथागत विकास मेरी कहानियों में स्पष्ट लक्षित किया जा सकता है. कथावस्तु की मांग के आधार पर कहानी के रूप-शिल्प का ध्यान मैंने सदा रखा है. कथा का आतंरिक रूपाकार मेरे अध्ययन का प्रिय विषय है और इस दृष्टि से मैं ‘चेखव’ को आदर्श कथाकार मानता हूँ.  दुःख इस बात का है कि हिंदी कथा-आलोचना की कोई परम्परा नहीं बन पा रही है. जो आलोचक इस दिशा में कदम बढाता है वह या तो अभाववादिता का शिकार हो जाता है या बिना किसी प्रयास या अध्ययन के मूर्खतापूर्ण अहमन्यता की दीवारों में अपने को कैद कर लेता है. यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि प्रेमचंद अथवा हिन्दी उपन्यासों के इतिहास पर कोई ऐसी आलोचना पुस्तक आज तक नहीं लिखी जा सकी जिसका नाम हम निःसंकोच किसी उच्चस्तरीय अध्येता के सामने ले सकें.

प्रेमचंद और यशपाल का मिलाजुला प्रभाव मेरे मन पर उस समय जरूर था जब मैंने कहानी लिखना शुरू किया. जीवन दृष्टि की जो प्रखरता यशपाल में थी वह अनायास ही दृष्टान्तों की तरह मेरे किशोर मन पर छा जाती थी. ‘पिंजरे की उड़ान’ में तो नहीं पर ‘ज्ञान दान’ तक आते-आते यह दृष्टान्त पानी पर उतराते हुए तेल की तरह स्पष्ट लक्षित होने लगे थे और ‘पूष की रात’ अथवा ‘कफ़न’ की वास्तविकता जीवन सन्दर्भों में सन्निहित होने के कारण सामाजिक जीवन के कटु यथार्थ को स्पष्ट करने लगी थी. वरन सच्चाइयों को उजागर करने के लिए उन्होंने आडम्बरों और रूढियों के नमूने जो चुने और जिस कुशलता से उसे कथा-देह दी, वह पाठकों को परिस्थितियों के प्रति जागरूक करने में अधिक प्रभावकारी साबित हुई.

इन कथाकारों के अलावा ‘चेखव’ की कहानियाँ मुझे बहुत प्रिय हैं. चेखव को तो मैं संसार का सर्वश्रेष्ठ कहानीकार मानता हूँ.

आलोचनात्मक यथार्थ की जिन अवधारणाओं के कारण मैंने लेखन शुरू किया था सामाजिक सन्दर्भों में उसे विकसित करते रहने के लिए मैंने अपनी निजी जीवन परिस्थितियों को सदा उसके अनुकूल बनाये रखा. यह मार्ग खासतौर पर उन लोगों के लिए कष्ट साध्य है जिनके कृतित्व पर शुरू में ही बड़ों की नजर पड जाती है. व्यवस्था के वस्त्रों पर ऐसी चमकदार पन्नियाँ धुंधला कर अपना रंग खोने का खासा आदर पाती हैं. इसलिए जो लोग वैचारिक संघर्ष बनाए रखना चाहते हैं वे जीवन संघर्ष के रहस्यों को समझे बगैर ऐसा नहीं कर सकते. मैंने अपने लेखन के शुरू में ही इस सत्य को समझ लिया था और इसे स्पष्ट वैचारिक आधार देने के लिए अनुकूल अध्ययन करता रहा. इसलिए यदि मेरी कहानियों के पहले संकलन ‘पान-फूल’ को ही देखें तो उदार भाववादी कल्पनाशीलता वाली कहानियों का स्थान ठोस यथार्थ जीवन दृष्टि वाली कहानियों ने ले लिया था. ‘पान-फूल’ में संकलित ‘सवरइया’, ‘मुंशी जी’ और ‘राम लाल’ ऐसी ही कहानियां हैं.

कथा में वास्तविकताओं के चित्रणों की यह सर्वथा नयी यात्रा थी जिसका अभिप्राय वर्ग-संघर्ष की जन-चेतना तक पहुँचना था. ऐसे सोये हुए आडम्बरों और रूढिग्रस्त समाज में जहां हीनता, अपमान और यातना को मनुष्य की नियति बना दिया गया हो, वास्तविकतावादी कथाकार की सबसे पहली मुठभेड़ इस दैवी सामाजिक ढाँचे से ही होती है. अर्थवाद और स्वभाववाद का खतरा तो बाद में आता है. मैंने बहुत गहराई से अपने सामाजिक सन्दर्भों की छान-बीन की और सामाजिक रूढियों को समझने का प्रयत्न किया. मेरे सामने समस्या थी कि अपने कथा सन्दर्भों को मैं किस तरफ से शुरू करूँ. कहाँ से शुरू करूँ कि भीतर के यथास्थितिवाद और बाहर के रोमान से बच कर वास्तविकताओं तक पहुँच सकूं. शुरू के सारे प्रयत्नों के बाद मैंने पाया कि मुझे इन सन्दर्भों तक पहुचने के लिए दोनों रास्ते अपनाने चाहिए क्योंकि बिना इसके मैं तत्कालीन साहित्यिक गतिविधियों में सीधा एक-न-एक से जुड जाऊंगा. गनीमत यह थी कि कथा में ‘कल्पना’ की मुख्य भूमिका को मैं अस्वीकार कर चुका था जिससे मुझे अपने विशेष सामाजिक सन्दर्भों में वास्तविकताओं तक पहुँचने में सहायता मिली. ‘कल्याणमन’, ‘महुए का पेड़’, ‘नौ सौ रुपया और एक ऊँट दाना’ तथा ‘जूते’ जैसी कहानियों द्वारा मैंने स्थितियों की वास्तविकता को प्रत्यक्ष करने के लिए चरित्रों के मर्म और वास्तविक जीवन सन्दर्भों को उद्घाटित करने का प्रयत्न किया. तब से सामाजिक सन्दर्भों से लेकर भूमि की समस्या तक मेरी कहानियों के विषय बने रहे हैं. शोषण और सामाजिक अन्याय के चित्रण का आधार इसलिए भी गहरा होता चला गया कि इस काल में समीक्षक इन कहानियों को पढ़ कर अभिभूत होने लगे थे. आलोचनात्मक यथार्थ पर दृष्टि रखने वाले रचनाकार के लिए यह खतरे का संकेत है. निश्चित ही उसकी रचना सामाजिक विश्लेषण और वर्तमान व्यवस्था के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि पैदा करने में कहीं चूक रही है. इसीलिए मैंने ‘दाना-भूसा’, ‘घुन’, और ‘हरामी के बच्चे’ जैसी अनेक कहानियाँ इस दौर में लिखीं.

१९६२-६३ में गया की एक कथा-गोष्ठी में मैंने कहा था कि नया लेखक अपरिभाषित सन्दर्भों का लेखक है.   इसे लेकर कई नए लेखक मुझसे नाराज हुए थे. अर्थ यह लगाया गया कि तत्कालीन राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था का चित्र पूर्णतः उद्घाटित नहीं है, लेकिन मेरे ऐसा कहने का अभिप्राय ही कुछ और था, जिसे व्याख्यायित करने के लिए मैंने ‘माया’ के ऐतिहासिक ‘भारत १९६५ विशेषांक’ का संपादन किया.

सामान्य जन की वास्तविक जिंदगी को रेखांकित करने से लेकर उस औसत आदमी की खोज, जिसे ‘सही आदमी की तलाश’ कहा गया था, का अभिप्राय ही नयी पीढ़ी के लिए सामाजिक सन्दर्भों की सामाजिक परिभाषा प्रस्तुत करना था. सामाजिक परिस्थितियों का ऐसा व्यापक और विस्तृत विश्लेषण जिसके द्वारा भारतीय जनतंत्र के उद्देश्यों और सांस्थानिक परिवर्तनों में बाधाओं के साथ इतिहास परम्परा और धर्म के प्रभावों को स्पष्ट रेखांकित किया गया. सामाजिक स्थितियों पर दृष्टि-निक्षेप की विधि से ले कर उसके वास्तविक स्वरुप के उदघाटन से कोई लाभ नहीं हुआ, यह मैं मानने को तैयार नहीं हूँ. हिंदी के बुद्धिवादी स्रोतों का उल्लेख नहीं करते, यह हीनता की प्रकृति है, लेकिन तब से मैंने अपने इन प्रयत्नों का व्यापक प्रयोग लोगों द्वारा लक्षित किया. यद्यपि उनमें से कई लोग विश्लेषण और अभिप्राय की दृष्टि से इसे सदा गलत प्रसंगों में प्रयुक्त करते रहे हैं, लेकिन दृष्टिगत स्पष्टता बढ़ी और सच्चाइयों के इर्द-गिर्द प्रतिनिधि रचनात्मकता का विकास होने लगा. नारों को मात्र ध्वनि से पकड़ कर भी बहुत से लोग जुलूस में चल पड़ते हैं. सही आदमी की तलाश शीर्षक पर कहानियाँ तक लिखीं गयीं और बिना यह सोचे कि उस समय सामान्य आदमी या औसत आदमी की चर्चा को केंद्र में क्यों लाया गया था, लोग आज भी उसे दुहरा रहे हैं. कहीं ऐसा तो नहीं है कि आज जब वह ‘नंगा’ हो कर सामने खडा है, उससे आँखें न मिला कर या हो सकता है कि उसी से डर कर लोग आँख बंद किये उसके भूत का नाम जप रहे हैं.

यह सारा कुछ करते समय मेरे सामने उपर्युक्त मुख्य उद्देश्य के अलावा नेहरू युग हर युग का भ्रम पैदा करने वाले रोमान और अस्तित्ववादी छौंक के साथ प्रस्तुत निर्मल वर्मा की तरह गतिमान कहानियाँ और भाई नामवर सिंह की उनकी व्याख्याएं भी थीं जो नयी पीढ़ी की अगली पंक्ति की नयी पीढ़ी के लेखकों को सुहानी लग रहीं थीं. राकेश में तो वैचारिक शक्ति का बेहद अभाव था. नयी पीढ़ी के लिए नए प्रत्ययों की निर्मिति उनके बूते की चीज नहीं थी इसीलिए कैरियरिस्टो के लिए अपने समय में वे आदर्श बने. मुझे विचार करने पर ऐसा लगा कि ‘पोलिमिक्स’ अथवा ‘आलोचना’ द्वारा इस परंपरागत, आत्मकेंद्रित, अर्द्धबौद्धिक समुदाय को प्रभावित और संतुष्ट नहीं किया जा सकता जब तक कि स्वयं को बीच से हटाकर वर्तमान समाज व्यस्था और उसमें शोषितों की स्थिति की स्पष्ट व्यवस्था प्रस्तुत न की जाय. ‘गया’ की कथा-गोष्ठी के बाद ही मेरे मन में यह बात घर कर गयी थी कि विश्लेषित सत्यों के मात्र कथन द्वारा वास्तविकताओं का साक्ष्य प्रस्तुत करना बात को लोगों के सिर के ऊपर से गुजार देना होगा. यह सच है कि भारतीय समाज की कोई रचना का कोई भी जानकार सहसा समाजवादी यथार्थ की मांग नए लेखक से नहीं कर सकता. ऐसा करना ऐतिहासिक विकास की समझदारी को नकारना होगा.

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मार्कण्डेय जी

मार्कण्डेय जी की ख्याति आमतौर पर एक कहानीकार की रही है लेकिन उनके कवि रूप से लोग कम ही परिचित हैं। ‘सपने तुम्हारे थे’ और ‘यह धरती तुम्हें देता हॅू’ जैसे काव्य संग्रह उनके कवि रूप के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। कविताओं की उनकी बेहतर समझ ‘कथा’ के सम्पादन में स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ती थी। उनकी द्वितीय पुण्य तिथि 18 मार्च के अवसर पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी ही एक पसन्दीदा कविता जिसे वे प्रायः सुनाया करते थे।

चोर को चोर कहना

चोर को चोर कब नहीं कहना चाहिए
कभी मैंने पूछा था चाचा से
तब वे चुप रह गए थे
कल एकाएक अपनी धॅसी ऑखें
मुलमुलाते हुए बोले-
चोर को उस समय चोर नहीं कहना चाहिए
जब वह उॅची मेंड़ पर खड़ा हो
और उसके हाथ में लाठी हो
जब वह भाग रहा हो और सामने
ठाकुर की बखरी की अॅधेरी कोली हो,
जब गॉव का मुखिया उसे
अपना मौसेरा भाई कहता हो
जब वह राजा का मित्र या साला हो
अथवा अफसर अदना या आला हो
या गॉव का नाई हो
जिससे तुम्हें छिलवानी हो खोपड़ी
बाप के शुद्धक में
अथवा उसे भी जिससे कहीं
दबती हो तुम्हारी नस
उस प्रोफेसर को तो कतई नहीं
जो तुम्हारा परीक्षक भी हो,
उस औरत को भूल कर नहीं
जो गुण्डों अथवा डाकुओं की रखैल हो,
तस्कर अथवा शराब के व्यापारी को तो
सपने में भी नहीं,
किसी थानेदार को चोर कहना
सिर पर है आफत का लेना,

बस समझ गया चाचा
अब बताइए कि
चोर को कब चोर कहना चाहिए
तो सुनो बेटा
इस दोपाये आदमी की
मोटा मोटी दो ही कोटियां हैं
अगर वह हीन है
तो उस चोर को वह उछल कर मारेगा चाटा
जो लाचार और बेचारा हो
और दुखों में बुरी तरह कल्हारा हो

लेकिन श्रेष्ठ जन चोर को चोर
हुॅकार कर तब कहते हैं
जब उस चोर का सरदार
देश का अलमबरदार हो
चाहें उसके हाथ में मोटा डण्डा हो
चाहें फॉसी का मोटा फन्दा