कमलजीत चौधरी के कविता संग्रह पर रश्मि भारद्वाज की समीक्षा ‘‘भूख और कलम अब भी मेरे पास है’ : भाषा का सौम्य औज़ार लिए अपने समय से जूझती कविताएँ।

रश्मि भारद्वाज


अपनी प्रारम्भिक कविताओं से ही ध्यान आकर्षित करने वाले युवा कवि कमलजीत चौधरी का पहला कविता संग्रह दखल प्रकाशन से छप कर आया है – ‘हिन्दी का नमक।’ इधर के छपे कविता संग्रहों में यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि कमलजीत ने अपने इस पहले संग्रह में ही अपनी भाषा और शिल्प को परम्परागत प्रतिमानों से अलग रखते हुए बेहतर कविताएँ हिन्दी साहित्य समाज को देने की कोशिश की हैं। इस कवि के बिम्ब भी बिल्कुल अपने हैं – ताजगी का अहसास कराने वाले। इसीलिए कमलजीत की कविताओं से गुजरते हुए वह टटकापन महसूस होता है जो हमें सहज ही आकर्षित करता है। वह प्रकृति से तो जुड़ा ही है लेकिन आज की समस्याओं पर भी उसकी पैनी नजर है कमलजीत के इस नए संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है कवयित्री रश्मि भारद्वाज ने। तो आइए पढ़ते हैं रश्मि भारद्वाज की यह समीक्षा ‘भूख और कलम अब भी मेरे पास है : भाषा का सौम्य औज़ार लिए अपने समय से जूझती कविताएँ।  
     
भूख और कलम अब भी मेरे पास है

भाषा का सौम्य औज़ार लिए अपने समय से जूझती कविताएँ
रश्मि भारद्वाज
कवि ने कहा

बची रहे घास

एक आस

घास ने कहा

बची रहे कविता

सब बचा रहेगा

छब्बीस की उम्र में अपनी पहली कविता रचने वाला कवि जब यह कहता है कि सिर्फ़ कविता के बचे रहने से सब कुछ बचा रहेगा तो उसके पीछे जीवन का सघन अनुभव, लंबे संघर्ष और हर तरह की परिस्थियों से गुजरने के बाद पायी गयी सघन अंतर्दृष्टि और परिपक्व संवेदनशीलता होती है जो जानती है कि कविता की तरलता ही हमारे आस पास की शुष्क होती जा रही मानवता को सहेज सकती है। कविता अधिक कुछ नहीं कर सकती बस इंसान को इंसान बनाए रखने का प्रयत्न करती है जो पृथ्वी के पृथ्वी बने रहने के लिए जरूरी है। 2016 के अनुनाद सम्मान से सम्मानित संग्रह हिन्दी का नमक में युवा कवि कमलजीत चौधरी ने अपनी  संवेदनशील लेखनी द्वारा उसी पृथ्वी को सहजेने के सपने बुने हैं। यहाँ हमारे समय का सशक्त चित्रण मिलता है तो उसकी विसंगतियों पर करारा प्रहार भी लेकिन उस प्रहार में भी एक सजग चिंता है, एक दूरदृष्टि है और है आकर्षक, तरल भाषा जो अपने प्रवाह में हमें दूर तक ले जाती है और कविताओं से गुजरने के बाद उसका प्रभाव हृदय पर बना रहता है।  एक सार्थक कविता का उद्देश्य भी यही है कि वह दिलोदिमाग को छूए और अपने आस पास के वातावरण को देखने-परखने के लिए एक सम्यक, संतुलित दृष्टि दे। सिर्फ़ भाषाई चमत्कार में नहीं उलझाए बल्कि जीवन के ठोस धरातल पर मजबूती से खड़ी हो और मानवता के पक्ष में अपनी आवाज़ बुलंद करे, एक कर्णकटु चीख की तरह नहीं बल्कि निरंतर किए गए सौम्य और दृढ़ प्रतिकार के रूप में। कमलजीत की कविताओं का स्वर और उद्देश्य उसी परिवर्तन के आगाज़ के लिए प्रतिबद्ध है।

कवि कमलजीत चौधरी

  

हम एक लहूलुहान समय में जी रहे हैं, जहां हर मानवीय भावना पर बाज़ार हावी है, विकास की अंध दौड़ में जो कदमताल नहीं कर पाते, बुरी तरह कुचल दिये जाते हैं और दुनिया एक छोटा गाँव तो हो गयी है लेकिन दिलों की दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं, ऐसे में एक कवि ही यह कह सकता है:

तुम रखती हो हाथ पर हाथ

नदी पर पुल बन जाता है….

मेरा विश्वास है

एक सुबह तुम्हारी पीठ पीछे से सूर्य निकलेगा

तुम पाँव रखोगी मेरे भीतर

और मैं दुनिया का राशिफल बदल दूंगा। (कविता के लिए)।

यह कविताएँ सपने देखती हैं, यहाँ उम्मीदों की उड़ानें हैं लेकिन अपने कठोर,खुरदुरे यथार्थ की सतह को कभी नहीं छोडने का संकल्प भी है। यहाँ लोक की सुगंध है, अपनी मिट्टी, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति के लिए गहन लगाव है और उसके लिए कुछ कर गुजरने का उत्साह और अदम्य इच्छा है। यही भाषा और संस्कृति के लिए प्रेम लार्ड मैकाले तेरा मुंह काला हो जैसी कविताओं में परिलक्षित होता है जहां कवि इस बदलते दौर से चिंतित भी नज़र आता है जब उसका बच्चा अपनी बारहखड़ी की शुरुआत अपनी मातृभाषा में नहीं करके एक उधार की भाषा में करता है लेकिन उसे अपनी जड़ों और अपनी संस्कृति पर भरोसा है:

बच्चे! रो क्यों रहे हो

तुम आश्वस्त रहो

मैं दौर और दौड़ के फ़र्क को जानता हूँ

फिलहाल तुम कछुआ औए खरगोश की कहानी सुनो और सो जाओ

सामूहिक सुबह तक जाने के लिए जो पुल बन रहा है

उसमें तुम्हारे हिस्से की ईंटें मैं और मेरे दोस्त लगा रहे हैं…

रसूल हमज़ातोव मेरा दागिस्तान में लिखते हैं विचार वह पानी नहीं है, जो शोर मचाता हुआ पत्थरों पर दौड़ लगाता है, छींटें उड़ाता है, बल्कि वह पानी है जो अदृश्य रूप से मिट्टी को नाम करता है और पेड़ पौधों की जड़ों को सींचता है। कविताएँ भी ऐसी ही होनी चाहिए। यहाँ शब्दों के भीतर बड़ी ही सफाई और कलाकारी से विचारों को बुनना पड़ता है ताकि वहाँ कविता का एक आवश्यक बहाव उपस्थित रहे। कमलजीत अपनी कविताओं में यह काम बहुत दक्षता से करते हैं। विचार यहाँ नमक की तरह हैं, बिलकुल अपनी सही मात्रा में सूझ बूझ से डाला गया। मसलन यह कविता देखिए:

जीवन में एक न एक बार हर आदमी को खिड़की से ज़रूर देखना चाहिए

खिड़की से देखना होता है अलग तरह का देखना

चौकोना देखना

थोड़ा देखना

मगर साफ़ देखना

 

एक ईमानदार कवि प्रकृति के विभिन्न तत्वों के साथ अपने अस्तित्व को एकाकार करता है क्योंकि वह यह भलीभांति जानता है कि प्रकृति के साथ संतुलन बनाने और उसकी अस्मिता के सम्मान से ही पृथ्वी पर जीवन का सामान्य रह पाना संभव है। इन कविताओं से गुजरते आपको क़दम क़दम पर बोलते चिनार, तितली और मधुमक्खी की व्यथाएँ, ओस में भीगा सुच्चा सच्चा लाल एक फूल, पहाड़, नदी, पेड़, मछली जैसे प्रतीक मिलते हैं जिनकी ख़ुशबू से मन एकाएक तरोताज़ा हो उठता है, वहीं एक आशंका भी मन में आकार लेने लगती है, जब कवि चेतावनी देते हुए कहता है: 

पक्षी, मछली और सांप को भून कर

घोंसले, सीपी और बाम्बी पर तुम अत्याधुनिक घर बना रहे हो

पेड़ नदी और पत्थर से तुमने युद्ध छेड़ दिया है

पाताल, धरती और अंबर से

तुम्हारा यह अश्वमेधी घोडा पानी कहाँ पीएगा

कमलजीत बहुत रूमानी प्रेम कविताएँ नहीं लिखते। यह कहा जा सकता है कि प्रेम यहाँ अंडरटोन लिए है लेकिन वह अपनी पूरी शिद्दत के साथ मौज़ूद भी है। प्रेम यहाँ विश्वास है, वह आश्वस्ति है जो हर विपरीत परिस्थिति में भी आपके साथ अविचल खड़ा रहता है, आपकी उँगलियाँ थामे दुरूह रास्तों पर भी हँसते-हँसते गुजर जाता है। कवि आश्चर्य करता है कि

वे कहते हैं,

प्रेम कविताएँ लिखने के लिए प्रेम कविताएँ पढ़ो

वे यह नहीं कहते प्रेम करो। 

कवि का प्रेम तो कुछ ऐसा है जो आगे बढ़ते जाने के लिए संबल देता है, जो मैं–तुम का फ़र्क भूलकर सर्वस्व समर्पण की बात करता है, जो दर्द को समझता है और उसको अभिव्यक्त कर सकने की हिम्मत देता है:

मैं घाव था तुमने सहलाया भाषा हो गया

मैं क्या था क्या हो गया

मैं मैं था तुमको सोचा, तुम हो गया

स्त्री मन की अद्भुत समझ है कवि के पास। स्त्री हृदय की, उसके अबूझ संसार की बहुत ही संवेदनशील झलक इन कविताओं में मिलती है और उनसे गुजरते जहां एक ओर मन कहीं कराह भी उठता है तो कहीं एक दर्द भरी वाह भी होंठों से अनायास ही निकलती है। हालांकि कवि ने पारंपरिक स्त्री की उस सदियों से गढ़ी गयी छवि को तोड़ने की कोई उत्सुकता नहीं दिखाई है और ना ही आधुनिक नारी का प्रतिबिंब यहाँ मिलता है लेकिन इन्हें पढ़ते हुये यह जरूर आभास होता है कि ये शब्द लिखने वाला कवि कहीं मन से ख़ुद स्त्री हो उठा होगा, तभी लिख पाया होगा ऐसा:

औरत के रास्ते को कोई खींचकर लंबा कर देता है

सीधे साधे रास्ते का सिर पकड़ उसे तीखे मोड़ देता है

जिसे वह उंगली थमाती है, वह बांह थम लेता है

जिसे वह पूरा सौंपती है, वह उंगली छोड़ देता है

औरत की चप्पल की तनी अक्सर बीच रास्ते में टूटती है

मरम्मत के बाद उसी के पाँव तले कील छुटती है

वह चप्पल नहीं बदल पाती, पाँव बदल लेती है…..

इरेज़र से डरती पर ब्लेड से प्रेम करती है औरत ….

आज़ के इस भागते हुए समय में जो कुछ भी हाशिये पर  छूट रहा, जिसकी आवाज़ तकनीकी और विकास के तेज़ शोर में दब गयी है, ये कविताएँ उनकी आवाज़ बन जाने के लिए बेचैन दिखती हैं। उनके दर्द यहाँ पंक्तियों के बीच से कराह उठते हैं, उनका भय यहाँ मुखर हो उठता है। हमारे समय की यह विडम्बना है कि हम आँखें बंद किए बस आगे भागते जाना चाहते हैं और हमारी इस दौड़ में किनका हाथ हमारे हाथों से छूटा जा रहा, कौन हमारे साथ भाग नहीं सकने के कारण घिसट कर गिर पड़ा है, कौन हमारे महत्वाकांक्षी पैरों के नीचे कुचला जा रहा, हमें इसकी जरा भी सुध नहीं। यूं कहें कि इस आत्मकेंद्रित समय में जो कुछ भी हमारी स्वार्थ लिप्सा की राह में आ रहा, हम उसे मिटा देने को कटिबद्ध हैं। आते हुये लोग,डिस्कित आंगमो, राजा नामग्याल, लद्दाख, पहाड़ के पाँव, सीमा जैसी कविताओं में उन्हीं छूट रही उँगलियों को मज़बूती से थामे रखने की कामना है, उनके अनसुने दर्द को दुनिया के सामने लाने का संकल्प है। यह इच्छा है कि अब भी बचे रह पाएँ, किताब, डायरियाँ और कलम’, पिता के उगाये आम के पेड़, माँ के कंधे और दादी का मिट्टी का घड़ा। और कवि के अंदर यह संकल्पशक्ति, यह जिजीविषा बची है तो वह इसलिए कि उसकी जीभ किसी मिठास के व्यापारी का उपनिवेश नहीं, वह हिन्दी का नमक चाटती है


(साभार-बाखली)
सम्पर्क –

ई-मेल : mail.rashmi11@gmail.com 

रश्मि भारद्वाज की रपट ‘मन के घेराव से निकल कर ही संभव है रचना-कर्म!’

महेश चन्द्र पुनेठा


पिछले वर्ष पिथौरागढ़ में ‘लोकविमर्श शिविर-1’ का आयोजन कवि महेश चन्द्र पुनेठा के आतिथ्य में देवलथल गाँव में सम्पन्न हुआ था। आज महेश चन्द्र पुनेठा का जन्मदिन है। वे न सिर्फ एक उम्दा कवि और आलोचक हैं बल्कि एक बेहतर इंसान भी हैं। जो भी इस ‘लोकविमर्श शिविर’ में शामिल हुआ वह महेश के आतिथ्य का मुरीद बन गया। महेश पुनेठा को जन्मदिन की बधाईयाँ देते हुए रश्मि भारद्वाज की लोकविमर्श शिविर-1 की वह रपट प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे महेश के इस स्वरुप के बारे में पता चलता है। तो आइए पढ़ते हैं रश्मि भारद्वाज की यह रपट।
         
मन के घेराव से निकल कर ही संभव है रचना-कर्म!
रश्मि भारद्वाज
(जून-2016 में लोकविमर्श-2 होना तय हुआ है। ऐसे में लोक-विमर्श-1 और उससे जुड़े व्यक्तियों की यादें ताज़ा हो गयीं। एक संस्मरण आप सब के लिए)
यात्राएं मुझे उत्साहित तो करती हैं लेकिन हर यात्रा से पहले मन कई दुविधाओं और प्रश्नों से भी भरा रहता हैं। मुझे करीब से जानने वाले मेरे मित्र होमसिक भी कहते हैं। अब सोचती हूँ तो लगता है कि यह घर की चारदीवारियों के लिए लगाव कम और अपने अंदर का घेराव तोड़ पाने की अक्षमता अधिक है। पिथौरागढ़ और देवलथल में आयोजित होने वाले लोक विमर्श शिविर के लिए मैने हामी तो भर दी थी लेकिन अंत तक मेरे मन में एक हिचक थी। पहाड़ी गाँव का इतना लंबा प्रवास, जिन सुविधाओं के हम आदी हो चुके हैं, उनकी अनुपलब्धता और छोटी बेटी के साथ होने के कारण उसे होने वाली संभावित परेशानियों के कारण मैं बहुत आशंकित थी; क्योंकि मुझे सूचना दे दी गयी थी कि देवलथल ग्राम में स्थित एक सरकारी स्कूल में हमारे रहने की व्यवस्था की गयी है। 8 जून 2015 को 4 बजे हमें निकलना था और मैं 11 बजे दोपहर तक अपनी अनिश्चितता से बाहर नहीं आ पायी थी। मृदुला शुक्ला जी ने स्नेहपूर्ण अधिकार के साथ डांट लगाई, बस तैयार रहो, मैं चार बजे तुम्हें लेने आ रही हूँ। अब बहाने बनाने की कोई संभावना नहीं बची देख, मैंने कुछ कपड़े और जरूरी सामान पैक किए और निकल पड़ी एक अनजानी यात्रा पर धड़कता दिल लिए नन्ही बिटिया की अंगुली थामे।
अकेले यात्रा करना मेरे लिए कोई नयी बात नहीं लेकिन पहली बार इतने लंबे प्रवास के लिए अकेले जा रही थी (हालांकि मृदुला जी का स्नेहिल परिवार साथ था) जिसका सारा उत्तरदायित्व मुझ पर था, साथ ही बेटी की ज़िम्मेदारी भी। 
गाते, गुनगुनाते, बच्चों की चटपटी बातों के बीच रात को हम हल्द्वानी पहुंचे और वहाँ राजेश्वर त्रिपाठी (मृदुला जी के पति) जी के मित्र विजय गुप्ता के शानदार आतिथ्य में रात को रुकना हुआ। सुबह  बांदा निवासी सुप्रसिद्ध कवि केशव तिवारी, उनकी पत्नी मंजु भाभी, कवि प्रेम नन्दन और प्रद्युम्न कुमार (पी. के.) भी हमारे यात्रा दल में शामिल हो गए और हम एक लोकल गाड़ी और ड्राईवर के साथ पिथौरागढ़ की यात्रा पर निकल पड़े। 

इतनी लंबी यात्रा, पहाड़ी घुमावदार रास्ते और भयानक गर्मी (गाड़ी नॉन ए. सी. थी)। मौसम भी हम पर कुछ खास मेहरबान नहीं था। रास्ते भर माही उल्टियाँ करती रही और मैं सोचती रही कि क्या मैंने सही निर्णय लिया है! पिथौरागढ़ पहुँचते शाम हो गयी। एक अच्छा खासा विकसित शहर है पिथौरागढ। थोड़ी निराशा सी हुई कि भीमताल, अल्मोड़ा जैसे सुंदर स्थलों को छोड कर इस पहाड़ी शहर की भीड़ में ही आना था तो अपनी दिल्ली ही कौन सी बुरी थी! मौसम में ठंडक भी कुछ ख़ास नहीं थी। वहाँ से एक दूसरी टॅक्सी कर हमें देवलथल जाना था। घर से निकले 24 घंटे से अधिक हो गए थे। घर वालों के चिंतित फोन कॉल, बच्चों के थके, उदास चेहरे और हमारे क्लांत शरीर, कुल मिला कर अब तक कुछ भी ऐसा नहीं था जो इस यात्रा और लंबे प्रवास के लिए मन में उत्साह भर पाता। खैर, हमारा यात्रा दल देवलथल के लिए निकल पड़ा। 
रास्ते ज्यों–ज्यों सँकरे होते जा रहे थे, आस पास का दृश्य भी बदल रहा था। चारों तरफ सघन हरियाली, ऊंचे –ऊंचे पहाड़ और बेहद ख़राब, पथरीला रास्ता। मोबाइल का नेटवर्क दगा दे चुका था। शाम घिर रही थी और मन में डर लेकिन जैसे–जैसे हम देवलथल के करीब पहुँच रहे थे, डर और आशंकाओं की जगह एक अवर्णनीय सुकून ने ले ली। हमारी आँखें ऐसे दृश्यों को निहार रही थी जो सैलानियों के पदघातों से दूषित नहीं हुए थे इसलिए निष्कलंक, बेदाग और अपने अनगढ़ सौंदर्य के साथ हमारे सामने थे और हम उस अनिर्वचनीय शांति और सौंदर्य में डूब –डूब जा रहे थे, कुछ ऐसे कि दिल चाह रहा था कभी नहीं उबरें। अङ्ग्रेज़ी में जिसे वर्जिन लैंड कहते हैं, वह बाहें पसारे हमारे स्वागत के लिए खड़ा था और हमें उसके सुखद साहचर्य में पूरे दो दिनों तक रहना था, यह कल्पना ही रोमांच से भर देती थी। उस हवा, उस माहौल में एक अद्भुत शीतलता और शांति थी जो महानगर की भीड़ और शोर से थके हमारे दिलोदिमाग और अन्य इंद्रियों को कुछ यूं सहला रहा थी जैसे बुखार से गरम तपते माथे पर माँ के ठंडे हाथों का स्पर्श लगता है।

देवलथल के जिस स्कूल में हमारे ठहरने की व्यवस्था थी, हम वहीं उतरे और चाय की चुस्कियों के बीच सभी से औपचारिक परिचय हुआ। इनमें से कई ऐसे चेहरे थे जो फेसबुक पर मित्र थे लेकिन कभी कोई संवाद नहीं हुआ था। सुदूर राजस्थान से हमसे भी ज़्यादा लंबी और कठिन यात्रा करके आए प्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह जी, कवि नवनीत सिंह जी, युवा कथाकार संदीप मील, रायपुर से प्रख्यात चित्रकार और कवि कुँवर रवीन्द्र जी और उनकी पत्नी, चंडीगढ़ से आए वरिष्ठ कथाकार राज कुमार राकेश, मुंबई से युवा कहानीकार शिवेंद्र, हमीरपुर से कवि अनिल अविश्रांत, बांदा से आलोचक और कवि उमा शंकर परमार, प्रेम नन्दन, पी. के. और नारायण दास गुप्त। देश के विभिन्न हिस्सों से आए इतने सारे रचनाकार जो अपने साथ अपनी मिट्टी, अपनी बोली-बानी के टुकड़े भी लाये थे और उनसे मिलते हुए कहीं न कहीं हम उनके लोक, उनकी संस्कृति का हिस्सा बन रहे थे। यह अनुभव सुखदायी था।
इस कार्यक्रम के मुख्य संयोजक और हमारे होस्ट महेश पुनेठा जी ने हम महिलाओं की साफ-सफाई को ले कर रहते आग्रह का सोच कर हमारे रहने की व्यवस्था स्कूल के ही एक और शिक्षक रमेश चन्द्र भट्ट जी के यहाँ की थी। रमेश चन्द्र और महेश पुनेठा को इस कार्यक्रम का सिर्फ होस्ट या संयोजक कहना काफ़ी नहीं। भट्ट जी ने अपना पूरा घर हमारे आतिथ्य के लिए खोल दिया और नहाने के गरम पानी से लेकर चाय तक हर छोटी चीज़ का पूरा ख़याल रखा। वही महेश जी यह भूल बैठे कि वह ख़ुद भी एक रचनाकार हैं और इस शिविर में आयोजित विभिन्न सत्रों में उनको भी अपनी रचनात्मकता और बौद्धिकता का प्रदर्शन करना चाहिए। हर क्षण वह कभी हम सबों के लिए चाय, तो कभी भोजन,कभी सोने की तो कभी किसी और व्यवस्था के लिए भागते नज़र आए,वह भी चेहरे पर बिना किसी शिकन के। शिविर की दूसरी रात पानी की सप्लाई बाधित हो गयी थी। उस रात पुनेठा और भट्ट जी रात के बारह बजे तक और तड़के सुबह पाँच बजे से इसी प्रयास में लगे रहे कि हमें कोई समस्या नहीं हो। इतना समर्पण, इतनी लगन और ऐसा आतिथ्य, जब भी याद आता है मन नतमस्तक हो उठता है। इन व्यक्तित्वों की सहृदयता ने सिखाया कि सिर्फ कागजों के पन्नों पर जीवन को उकेरना ही पर्याप्त नहीं बल्कि अपने मैं’, अपने स्व को सामूहिक हितों के लिए समर्पित करने वाला ही सही अर्थों में रचनाकार होता है और अपने घेरे से परे हट कर लोकधर्मी साहित्य रच सकता है। जीवन यहाँ कागजों से उठ कर व्यवहार में उतरा दिखा।

हम शिविर आरंभ होने के एक दिन बाद पहुंचे थे इसलिए पिथौरागढ़ के बाखली होटल में आयोजित कुँवर रवीन्द्र की चित्र प्रदर्शनी और परिचर्चा में भाग नहीं ले सके। 
दूसरे दिन ‘दीवार’ पत्रिका से जुड़े बच्चों से बातचीत और पत्रिका के अवलोकन से दिन की शुरुआत हुई। महेश पुनेठा जी के सरंक्षण में देवलथल के बच्चों द्वारा आरंभ किया गया यह सृजनात्मक प्रयास अब एक व्यापक अभियान का रूप ले चुका है और देश भर के कई स्कूलों सहित अब विदेशों में अपनाया जा रहा। बच्चों में मौलिक और रचनात्मक चिंतन विकसित करने का यह अभियान न सिर्फ उन्हें साहित्य से जोड़ रहा बल्कि उनकी शैक्षणिक प्रदर्शन को भी बहुत सुधार रहा। 
अगले दो दिनों में आयोजित कविता, कहानी, आलोचना के विभिन्न सत्र बहुत ही जीवंत रहे। संतुलित और निरपेक्ष परिचर्चा के द्वारा हम सब एक दूसरे के लेखन कर्म को समझ सके और वैचारिक रूप से काफी समृद्ध हुए। लोक के बहाने उन सभी पहलुओं पर चर्चा हुई जो हमारे लेखन, हमारे विचारों के दायरे में होने चाहिए लेकिन साहित्य में जाने-अंजाने उसकी अनदेखी हो रही। सुप्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक डॉ जीवन सिंह द्वारा कही गयी कुछ बातें साथ चली आई जो हमारी लेखनी को हमेशा सकारात्मक गति देती रहेंगी। उन्होने कहा कि लोक का आडंबर नहीं रचना है, सिर्फ कहने और लिखने के लिए लोक नहीं। लोक को जीना होगा। उसका हिस्सा बन कर ही उसकी लय को कविता में उतारा जा सकता है। वह लोक नहीं जो मनोरंजन करता है,बल्कि लोक के संघर्षों, उसकी व्यथा को कागज पर उतारना एक लेखक का दायित्व भी है, और चुनौती भी। अपने मध्यवर्गीय आडंबर, सुविधाभोगी मन और स्वहित के दायरे से निकलकर ही लोक को समझा जा सकता है। 
रश्मि भारद्वाज

सम्पर्क –

ई-मेल : mail.rashmi11@gmail.com

(इस पोस्ट की समस्त तस्वीरें रश्मि के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं.)

विजेन्द्र जी की किताब ‘आधी रात के रंग’ पर रश्मि भारद्वाज की समीक्षा

विजेन्द्र जी

पाब्लो पिकासो ने कभी कहा था कि ‘कुछ पेंटर सूरज को एक पीले धब्बे में बदल देते हैं जबकि अन्य पेंटर एक पीले धब्बे को सूरज में।’ यानी कला जितनी आसान दिखती है वह अपने में उतनी ही मुश्किल होती है। लेकिन कवि जो वस्तुतः एक कलाकार ही होता है इस मर्म को भलीभांति जानता-समझता है। और वह हुनर जानता है जिसके द्वारा वह पीले धब्बे को भी सूरज में ढाल देता है। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी उम्दा कवि होने के साथ-साथ एक चित्रकार भी हैं। उनकी पेंटिंग में रेखाओं और रंगों का अद्भुत संयोजन जैसे दर्शक को अपने में डूबने के लिए विवश कर देता है। सारी पेंटिंग्स अपने आप में जैसे एक स्वतन्त्र कविता लगती हैं। विजेन्द्र जी की एक अनूठी कृति है ‘आधी रात के रंग।’ आधी रात में रंग के चितेरे ने इसमें पेंटिंग्स के साथ-साथ कविताओं के रंग भी बिखेरे हैं। कविताएँ हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी हैं जिसे स्वयं विजेन्द्र जी ने ही अनुवादित किया है। कवयित्री रश्मि भारद्वाज ने इस कृति की एक समीक्षा लिखी है जो वागर्थ (अगस्त 2015) के विजेन्द्र पर केन्द्रित हालिया अंक में प्रकाशित हुई है। आज रश्मि का जन्मदिन भी है। रश्मि को जन्मदिन की बधाईयाँ देते हुए हम प्रस्तुत कर हैं उनकी लिखी यह समीक्षा।  
            
आधी रात के रंग लेकर कैनवास पर लिखा जाता समय : कवि विजेंद्र का रंग संसार
रश्मि भारद्वाज
  
आधी रात जब दुनिया नींद की ख़ुमारी में डूबी सुख-स्वप्नों में खोयी रहती है, कोई साधक कहीं जाग रहा होता है। वह गहन तिमिर में भी रंगों की एक दुनिया देखता है। वह उस अनिर्वचनीय शांति के पलों में हमारे जीवन में व्याप्त विसंगतियों के तम को चीर कर उजास बुनना चाहता है। वह अपने मन की उद्विग्नता तथा परिवेश की विषमताओं से व्यथित होने के बाद भी परिवर्तन के लिए आशान्वित है और कुछ ऐसी ही धुन,कुछ ऐसी ही साधना के साथ उपजती है,एक अद्भुत रंगों की दुनिया जिसे *मिडनाइट कलर्स का नाम दिया जाना बहुत सार्थक लगता है। कवि विजेंद्र जी की एक दुनिया वह रेखाएँ, वह रंगों का अपरिमित प्रवाह है, जिनमें जितना डूबा जाए, एक नया अर्थ,जीवन की एक नयी दृष्टि से साक्षात्कार होता है। ज्यों जीवन कई रंगों की परतों में स्पंदित हो और हर परत अपने समय को,अपने परिवेश और मानव मन की गहन जटिलताओं को सूक्ष्मता से कैनवास पर बयां कर रही हो।

कविता जिनके जीवन में कुछ ऐसी रही हो,ज्यों कि साँसें लेना होता है,जैसे कि हृदय का स्पंदन होता है। वह एक स्थिति है जिसके हम इतने अभ्यस्त होते हैं कि उसे अलग से याद नहीं करना पड़ता है। एक ऐसा सत्य जीवन का, जो नहीं हो तो जीवन ही नहीं रहे। कविता को अपने जीवन का कुछ ऐसा पर्याय मान बैठे यह कवि जब रंगों की ओर मुड़ते हैं तो वहाँ कागजों पर धड़कती है कविता। वहाँ काले अक्षर विभिन्न रंगों का आकार ले एक समानान्तर दुनिया रचने लगते हैं। लियोनार्डो दा विंची ने कहा है “चित्र कविता है जो महसूस करने से ज्यादा देखने की वस्तु है और कविता वह चित्र है जो देखने से ज्यादा महसूस की जाती है।
  
विजेंद्र जी के रंग संसार में रंगों और शब्दों का यही तारतम्य देखने को मिलता है। जहां शब्द चुप होते हैं,वहाँ से रंग बोलने लगते है और जो अनकहा रह उठता है,शब्द उसके पूरक बन जाते हैं। उनकी अपने आप में अनूठी पुस्तक मिडनाइट कलर्स में यह संयोजन,रंगों और शब्दों का यह विलक्षण साहचर्य हर पन्ने पर स्पंदित है। अनूठी किताब इसलिए कि चित्रों का साथ देते यहाँ जीवंत शब्द भी हैं और साथ ही हिन्दी नहीं जानने वाले कलाप्रेमियों के लिए उन कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद भी।
विजेंद्र ख़ुद कहते हैं “चित्रकर्म मेरे लिए कविता का पूरक है। कविता में शब्द–बिम्ब और रूपक बनते हैं। चित्र में रंग,रेखाएँ, टेक्स्चर और स्थापत्य मिलकर बिंबों और रूपकों को रचते हैं। मेरे लिए वही चित्र आकर्षित करता है जो मुझे एक बौद्धिक चुनौती के रूप में सोचने को प्रेरित करे। मेरे सरल सामान्य भावों को औदात्य देकर मेरे मन को नया विस्तार दे। चित्र मुझे वही नहीं बताता जो मेरे सामने घटित हुआ है। बल्कि वह भी जो बार बार घटित हो सकता है। यानि होने से होने की संभावना जगा पाना किसी भी रचना की बड़ी सार्थकता है।“
फेसबुक पर जब पहली बार विजेंद्र जी के चित्रों को देखा तो जिस चीज़ ने सबसे ज्यादा आकर्षित किया,वह था उनका अद्भुत रंग संयोजन। रंगों का प्रवाह और उन पर बेधड़क चले ब्रश स्ट्रोक्स जो चित्रों की गहन समझ नहीं रखने वालों को अनियंत्रित भी लग सकते हैं और अगर भावों की गहनता नहीं या विचारशून्यता है तो एक अबूझ पहेली से। वस्तुतः ये चित्र उन चित्रों की श्रेणी में नहीं रखे जा सकते जो आँखों के जरिए मन में स्थान बनाते हैं। इसके विपरीत ये चित्र एक चुनौती की तरह विचारों को आलोड़ित करते हैं और रंगों के पीछे छिपी उद्दात संवेदनाओं तक पहुँचने का आह्वान करते से प्रतीत होते हैं। बिना इनमें डूबे, इसके अर्थ तक पहुँच पाना नामुमकिन। साथ ही यह भी कहना लाज़िमी होगा कि जो अर्थ किसी एक मस्तिष्क ने ग्रहण किए हों,वह अंतिम और अकाट्य सत्य की तरह प्रस्तुत नहीं किए जा सकते। मेरी दृष्टि में विजेंद्र जी के चित्रों का सबसे सक्षम और सकारात्मक पहलू यही है कि हर व्यक्ति यहाँ अपनी समझ और परिस्थिति के अनुसार अर्थ ग्रहण करने के लिए स्वतंत्र है। सार्थक कला उसे ही माना जाना चाहिए जो अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को कुछ उत्प्रेरक देकर अपना संदेश, अपना समाधान खोजने के लिए प्रेरित करे। विज्ञान की तरह कला चीज़ों और परिस्थितियों को किसी परिभाषा या किसी दायरे में नहीं बांधती बल्कि जीवन की तरह एक बहाव,एक लय देकर छोड़ देती है ताकि आगे का सफ़र ख़ुद तय किया जा सके। यह चित्र भी हमारे विचारों, हमारी भावनाओं,हमारी संवेदनाओं को सोच की एक दिशा,एक प्रवाह देते हैं और यही वजह है कि हरेक चित्र अपने आप में कई अर्थ और कई परिभाषाएँ समाहित किए हुए हैं। 20 वीं सदी के मशहूर फ्रेंच चित्रकार और मूर्तिकार जार्ज ब्रेक की बात इन चित्रों के संदर्भ में पूरी तरह लागू होती लगती है कि कला वही उल्लेखनीय है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। अगर उनमे कोई रहस्य नहीं,तो उनमें कोई कला, कोई कविता भी नहीं और इस एक तत्व को कला में मैं सबसे ज्यादा महत्व देता हूँ।“
विजेंद्र के चित्र मूलतः एब्स्ट्रैक्ट शैली के हैं जहां अमूर्त आकारों और रेखाओं द्वारा अपनी बात कही जाती है लेकिन ब्रश स्ट्रोक्स की महीन और दक्ष कारीगरी और रोशनी को उसके विभिन्न आयामों द्वारा मुख्यता से प्रस्तुत करना इन्हें कहीं–कहीं 19वीं सदी के फ्रेंच इंप्रेशनिस्ट शैली के करीब भी ला खड़ा करता है। गहन अमूर्तन होने की उपरांत भी इन चित्रों पर कलाकार के अपने लोक,अपने वातावरण का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। लोकधर्मी कवि विजेंद्र तमाम विषम परिस्थितियों में भी आशा और उत्साह का दामन नहीं छोडते। यह मात्र संयोग नहीं कि इनके अधिकांश चित्र भूरे रंगों के विविध शेड्स,धूसर और स्याह रंगों की बहुलता लिए होते हैं। यह उस साधारण जन और उसके जीवन की विषमताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं जो हर क्षण इस विसंगतियों से भरे जीवन में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्षरत हैं। यह उस पूंजीवादी शक्ति का प्रतीक है जो जीवन की हरीतिमा को लीलता जा रहा है। यह विज्ञान और तकनीक के उस स्याह पक्ष की ओर भी संकेत करता है जिसने दुनिया को परमाणु युद्ध की आशंकाओं में हमेशा के लिए असुरक्षित छोड़ दिया है। कई बार रंगों से बुनी गयी यह स्याह दुनिया डराती हैं लेकिन यह बस हम सबके अंदर बैठा वह डर, वह असुरक्षा मात्र है जो हमारे समय की सबसे वीभत्स देन है और जिसे कलाकार ने बहुत ही संवेदनशीलता से जीवंत कर दिया है।
लेकिन रंगों से कविता की संगति देने का अनुरोध करते कवि इनसे “आत्मा का आरोह–अवरोह” सुनते रह सकने की स्वायत्तता भी चाहते हैं। जो व्यक्ति अपनी आत्मा से संवाद करते रहने के लिए प्रयासरत होगा,कठिन से कठिन हालातों में भी वह उम्मीद की एक लौ रौशन पाएगा। यही उम्मीद की लौ उनके रंग बिंबों में बार उभर-उभर आती है। कहीं भूरे रंग की चट्टान के अतल से एक जलधारा फूटती सी प्रतीत होती है तो कहीं स्याह रंगों के बीच खिले फूल सृजन की उर्वरता,अवसाद के बीच भी जिजीविषा की रौशनी को दर्शाते नज़र आते हैं। कहीं अमूर्त मानवाकृतियाँ समय और परिवेश के आघातों से उबरने के लिए संघर्षरत दिखती हैं तो कहीं स्वयं प्रकृति इंसानों द्वारा रची जा रही आपदा से ख़ुद को बचाने के लिए आतुर नज़र आती है। संघर्ष, उत्साह,जिजीविषा और विषाक्त होते समय में अपने हृदय में बहती अविरल स्नेह जलधारा को बचा लेने का प्रयत्न इन चित्रों का मूल स्वर है। यह चित्र उस समय को रच रहे जो घटित हो रहा है और जो भविष्य के गर्भ में हैं। यह चित्र मानवीय संभावनाओं को एक अपरिमित कैनवास देते हैं जहां रंगों और संवेदनाओं के मेल से से एक नयी दुनिया सृजित कर सकने का आश्वासन है। यहाँ यह उम्मीद जीवित दिखती है कि जीवन ही है सतत चढ़ना और पृथ्वी के गर्भ में पिघलती चट्टानें और जल प्रवाहित धाराएँ भी हैं।


·        आधी रात के रंग (मिडनाइट कलर्स) विजेंद्र जी का का 2006 में आया चित्रों और कविताओं का ऐसा संकलन है जिसमें चित्रों और कविताओं का सुंदर समन्वय है। अहिंदी भाषियों के लिए कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद भी कवि ने स्वयं कर के किताब में संकलित किया है। यहाँ उद्धृत कविताओं की सभी पंक्तियाँ इसी किताब से ली गयी हैं।
रश्मि भारद्वाज

पता: 
129, 2nd फ्लोर,  
ज्ञानखंड-3, इंदिरापुरम
गाजियाबाद
उत्तरप्रदेश-201014

ईमेल: mail.rashmi11@gmail.com

वेब मैगज़ीनwww.merakipatrika.comका संपादन

ब्लॉग: जाणा जोगी दे नाल (www.rashmibhardwaj.blogspot.in)

(इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

रश्मि भारद्वाज की कविताएँ

रश्मि भारद्वाज


जन्मस्थानमुजफ्फरपुर, बिहार

शिक्षा अँग्रेजी साहित्य से एम.फिल

पत्रकारिता में डिप्लोमा

वर्तमान में पी-एच.डी. शोध (अँग्रेजी साहित्य)

दैनिक जागरण, आज आदि प्रमुख समाचार पत्रों में रिपोर्टर और सब-एडिटर के तौर पर कार्य का चार वर्षों का अनुभव, वर्तमान में अध्यापन और स्वतंत्र लेखन। (उत्तर प्रदेश टेक्निकल यूनिवर्सिटी द्वारा अधीनस्थ विश्वेश्वरया कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत)

अनेक पत्र पत्रिकाओं में विविध विषयों पर आलेख एवं कविताएँ प्रकाशित। मुजफ्फरपुर दूरदर्शन से जुड़ाव। 

बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा प्रकाशित और वरिष्ठ कवि विजेंद्र द्वारा संपादित 100  कवियों के संकलन “शतदल” में रचनाएँ चयनित।

हिन्दी युग्म द्वारा प्रकाशित “तुहिन” में कुछ कविताएँ प्रकाशित 

कविता के लिए मुख्य रूप से एक दृष्टि की जरूरत होती है. शायद इसी के मद्देनजर कभी रसूल हमजातोव ने कहा था कि ‘ यह मत कहो कि मुझे विषय दो, यह कहो कि मुझे आँखें दो.’ यह हिंदी कविता का सौभाग्य है कि उसकी नयी पीढ़ी में यह दृष्टि है. युवा कवयित्री रश्मि भारद्वाज ने अपने अनुभवों को जिस शिद्दत से अपनी कविताओं में ढाला है वह हमें उस पीड़ा का दीदार कराता है जिसे एक लड़की जिन्दगी भर झेलने के लिए अभिशप्त होती है. जैसे उस लड़की की अपनी कोई आवाज नहीं, उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं. रश्मि अपनी एक कविता में लिखती हैं –  ‘नोच कर फेंक दिये जाने के बाद भी उस आँगन से/ जहां से जुड़ी होती हैं नाभि नाल से/

हर उस हवा, हर उस राहगीर और हर उस बोली को निहारती हैं/ जो छू कर आती हैं उनका देश, उनके लोग और उनका आँगन/ हौले से गुनगुनाती यह गीत/ अगले जनम मुझे बिटिया ना कीजो’ यह कैसी विडम्बना है कि त्रासदी इतनी हो कि उसे यह कहना पड़े कि ऐसा जनम कभी भी न आए. दुःख का सिलसिला अबाध और अनन्त है. इसीलिए तो दुनिया के सबसे खूबसूरत रिश्ते को सहेजने वाली ‘माँ से कभी नहीं छूटता है घर/ घर हमेशा ही छोड़ देता है माँ को.’ तो आइए पढ़ते हैं कुछ इसी भावभूमि की रश्मि की कुछ नयी कविताएं.  

रश्मि भारद्वाज की कविताएँ 

1.सपने नहीं जानते उगना अकेले
जुटाते रहना एक भीड़ अपने आस-पास
जोड़ता नहीं हमें किसी से
बहाना है यह बस
कि मानते आए हैं हम
ठंडी पड़ जाने से पहले
जरुरी है संभाले रखना जिंदगी की नरमाई
अपनी हथेलियों में

सपने नहीं जानते उगना अकेले
वह ढल जाना चाहते हैं
लेकर किसी और की आँखों का रंग
अंत से ज्यादा डराता है हमें
सपनों का सिमट जाना
बस खुद की आँखों तक
जबकि जानते हैं कि
उनके टूटने पर रोना होगा अकेले ही
खारापन बनने लगता है
हमारी जीभ का स्थायी स्वाद
मिठास बटोरने की बुरी
लत के बाद भी

हर शाम,
यह दुनिया हमारे हाथों से फिसल कर
डूब जाती है नमक के समन्दर में
हर सुबह,
हम मिटाते हैं हथेलियों से निशान
एक और ख़ुदकुशी के


2. आईने सिर्फ सच ही नहीं बताते
आईने में झांकती बेचैन आँखें
खोजती हैं अपनी पहचान,
अतीत के रौंदे हुए सपने
उलझे हुए आज़ की लकीरें
और डरावने कल को परे हटा
खोज लाते हैं हम हर बार
एक अज़नबी चेहरा
आईने सिर्फ सच ही नहीं बताते
रखते हैं हिसाब
एक पूरी उम्र का
सिखाते हैं सुकून से ताउम्र
ख़ुद से भाग सकने का हुनर


3.स्मृतियाँ बीज नहीं होती
स्मृतियाँ बीज नहीं होती
कि उगाया जा सके उनसे
यादों का एक घना वृक्ष
तपती धूप में
दो घड़ी की छाया के लिए
वह तो मौजूद रहती हैं आस पास हर घड़ी हवा सी,
याद नहीं किए जाने पर भी
कहीं नहीं जाती
देती रहती हैं सांसें
आगे चलते जाने के लिए
वह हैं उस पानी सी
जो आँखों से बहे तो नमकीन
और होठों पर तैरे
तो मीठी हो जाती हैं
तय करती रहती हैं एक सफ़र चुपचाप
शिराओं से लेकर धमनियों तक का
बिखरी होती हैं यह जिए गए रास्तों पर
समेटते हैं इसके अवशेष हम
जोड़ना चाहते हैं
अधूरी जिग सॉ पजल ज़िंदगी की
गुम कर आए बेपरवाही में
जिसके कई टुकड़े

4.सात फेरों से आगे
सात फेरों में हमारे दो जोड़े पैर
जाने कितने कदम चले थे
आज़ फिर कुछ कदम साथ चलते हैं,
साक्षी इस बार अग्नि नहीं
होंगे धूप, हवा, पेड़ और पहाड़।
हम साथ चलेंगे
कोई संकल्प नहीं
मंत्र नहीं
बस उतने ही पल
जब तक चल सकें हम बिन थके
और जिस क्षण मेरे अंगूठे को अपनी उँगलियों से उठा तुम
किसी पत्थर पर टिकाओगे,
मुक्त हो जाएगा मेरा शरीर
और तुम्हारी आत्मा,
मैं नहीं रहूँगी
तुम भी नहीं
वह पत्थर शिव हो जाएगा


5.थोड़ा और!
अपनी शाख से बिछड़ा
सूखे पत्ते सा मँडराता एक और दिन
अपनी आवारगी के साथ
ले आता है यह याद भी
कि बहुत कुछ है
जिसे दरकार है थोड़ी सी नमी की
थोड़ा और सहेजे जाने की
बहुत कुछ है, जो जरूरी है
बचाया जाना
इस जलती–सुलगती फिज़ा में
जैसे कुछ टुकड़े हँसी की हरियाली
कुछ अधखिली भोलेपन की फसलें
बहते मीठे पानी सी कुछ यादें
और बसंत
हमारे –तुम्हारे मन का


 
6. माँ से कभी नहीं छूटता है घर
माँ हमेशा कहती है
जब नहीं रहूँगी मैं
तब भी रहूँगी इस घर में
यहाँ की हवा में
अधखिले फूलों में
पत्तों पर टपके ओस में
बेतरतीब हो गए सामानों में
पूजा घर में ठिठकी लोबान की खुशबू में
तुलसी के पास रखे उदास संझबाती के दिये में
या मेरे चले जाने के बाद अनदेखे कर दिये गए
मकड़ी के जालों में
पौधों पर नन्ही कोई गिलहरी दिखे
तो समझना मैं हूँ
कोई नन्ही चिड़िया
तुम्हें बहुत देर से निहारे
तो समझना मैं ही हूँ।
हर शाम अकेली बैठी माँ
जपा करती है कुछ मंत्र
और पास के एक बंद पड़े मकान की खिड़की पर आ बैठता है एक बड़ी आँखों वाला उल्लू
बस चुपचाप देखा करता है, जाने क्या गुना करता है मन ही मन
माँ उससे बतियाती है, वह भी सर हिलाता है कि जैसे सब समझ पा रहा हो
छुट्टियों में आए अपने बच्चों को उससे मिलवाती, कहती है माँ
ऐसे ही चुपके से मैं आ बैठूँगी रोज़
देखूँगी इस घर को
याद करूंगी तुम सब को
तुम सब आओगे यहाँ कभी न कभी
माँ से कभी नहीं छूटता है घर
घर हमेशा ही छोड़ देता है माँ को


7. एक भरोसा
मुझे बनना था ठोस
दायरे में घिरा हुआ
खाँचों में बंद किए जा सकने योग्य
मैंने चुना पानी हो जाना
जब बहना था मुझे
पानी की ही तरह
बहा देना था सारा ताप
मैंने चुना आग हो जाना
जब मान लेना था मुझे
हृदय होता है
शरीर में रक्त और ऑक्सिजन
पहुंचाने का एक अंग मात्र
मैंने चुना इसका दिल होना
जहां चुपके से रख दिया जाता है
एक भरोसा


8.और सब ठीक है!
जगमगाती रोशनियों वाले
इन सोते हुए से घरों में
जागती होंगी जाने कितनी अनकही कहानियाँ
किसी एक रोशनी के पार
एक बेरोजगार ने खाने में मिला दिया होगा थोड़ा सा जहर
और चैन की नींद सो रहा होगा पूरा परिवार,
इन्ही किन्ही खिड़कियों के पीछे
करवटें बदलती एक औरत
कभी-कभी घूरती होगी पंखे को,
इसी रोशनी के साये में
जुड़े होंगे कुछ हाथ बेचैन प्रार्थना में
दिन भर से बाहर गयी लड़की की
अब तक नहीं आई कोई ख़बर
और आंसुओं से भरी आँखों को
धुंधला नज़र आता होगा सोते हुए बच्चे का चेहरा
शायद यहीं कुछ अंखुयाए सपने
खोज रहे होंगे ब्लेड
टूटे सपनों को
उम्र भर की हकीकत मानते
आधी रात
चीखता है चौकीदार-जागते रहो
और कुछ जोड़ी आँखें
फिर कभी नहीं सो पाती होंगी
जगमगाती रोशनियों के पार


9.वह नहीं देखती आसमां के बदलते रंग
कुछ लड़कियाँ
छुपा कर रखती हैं वह पन्ने
जो कर आते हैं उनके उजालों की चुगली स्याह रातों से
पर लाख छुपाए जाने पर भी 
वह लौट आते हैं हर बार नयी सतरंगी जिल्द के साथ
ढिठाई से सेंकते हैं धूप घरों की मुंडेरों पर
ताकि हवा के पहले झोंके के साथ ही
गुनगुना आए हर कान में कुछ किस्से
जिसे समेट कर रखा गया था दुपट्टे की तहों में
या कि बड़े ही जतन से खोंसा गया था
दिल की धड़कनों के करीब, कपड़ों की सिलवटों के बीच कहीं
 कि उन पर भूले से वह लिख बैठी होती हैं प्रेम और जीवन  
अजीब होती हैं कुछ लड़कियाँ
आसमां के बदलते रंगों से अनजान
धरती को नज़रों से निगलती हैं
कि जैसे नज़र हटते ही लड़खड़ा जाएंगी 
सीने से चिपकाए रखती हैं सवा दो मीटर लंबी आबरू 
लेकिन फिर भी भर जाती हैं अपराध बोध से
एक्स रे लगी नज़रों को खुद के आर पार उतरते महसूस कर
घबरायी हिरनी सी भागती हैं एक सुरक्षित ठौर की तलाश में
शायद जानते हुए भी कहीं अंदर यह बात
कि ऐसी कोई जगह नहीं कहीं जहां घात पर ना हो कुछ नुकीले पंजे
इनके सपनों में  बहुत जल्दी ही डाल दिये जाते हैं
सफ़ेद घोड़ों पर सवार सजीले राजकुमार 
घरोंदों के खेल और गुड़ियों का ब्याह रचाते
काढ़ने लगती हैं तकियों पर गुडनाइट, स्वीट ड्रीम्स
सहेजती हैं अपना दहेज भी
सहेजे जा रहे कौमार्य के साथ
अर्पण करने को सब कुछ एक अंजान देवता के नाम
जो अक्सर नहीं जानते अपना देवत्व संभालें कैसे  
सच, बड़ी अजीब हैं यह लड़कियां
जब कि जानती हैं उनके आने पर घुटनों तक लटक गए थे जो चेहरे
पड़ी रहती हैं उनके ही प्रेम में ताउम्र
नोच कर फेंक दिये जाने के बाद भी उस आँगन से
जहां से जुड़ी होती हैं नाभि नाल से
हर उस हवा, हर उस राहगीर और हर उस बोली को निहारती हैं
जो छू कर आती हैं उनका देश, उनके लोग और उनका आँगन
हौले से गुनगुनाती यह गीत
अगले जनम मुझे बिटिया ना कीजो
दरअसल इस किस्म की लड़कियाँ जन्म नहीं लेती
उन्हें तो ढाला जाता है एक टकसाल में
ताकि वह खरीद सकें खुद को बेच कर
कुछ सपने
और थोड़ी सी ज़िंदगी


10. वह कुछ नहीं कहेगी   
हथेलियों की लाल हरी चूड़ियाँ खिसका कर
वह टाँकती है कुछ अक्षर
और दुपट्टे के कोने से पोंछ लेती है
अपनी हदें तोड़ते बेशर्म काजल को   
माँ के नाम रोज़ ही लिखती है वह चिट्ठियाँ
और दफन कर देती है उसकी सिसकियों को
सन्दूक के अँधेरों में दम तोड़ने के लिए  
वही सन्दूक जिसे माँ ने
उम्मीदों के सतरंगी रंगों से भरा था
और साथ ही भरी थीं कई दुआएं
बिटिया के खुशहाल जीवन की   
माँ को अलबत्ता भेजी जाती हैं
कुछ खिलखिलाहटें अक्सर ही
जिसे सुन कर थोड़ा सा और
जी लेती हैं वह   
मर ही जाएंगी वह गर जानेंगी कि
उनकी बिटिया के माथे पर चिपकी गोल बिंदी से
सहमा सूरज  सदा के लिए भूल गया है
देना अपनी रोशनी
और उसके घर अब चारों पहर
बसता हैं सिर्फ अंधेरा   
कैसे जी पाएँगी वह
गर जान जाएंगी कि
उसकी मांग में सजी सिंदूर की  सुर्ख लाल रेखा
बंटी हुई है कई और रेखाओं में
और झक्क सफ़ेद शर्ट पर
रेंगती आ जाती हैं
उसके बिस्तर तक भी   
कैसे सुन पाएँगी वह
कि पिछली गर्मियों जिन नीले निशानों पर
लगाया करती थी वह ढेर सारा क्न्सीलर
वह किसी के प्रेम की निशानी नहीं थे   
नहीं, वह कुछ नहीं कहेगी
और शायद कभी खुद भी
दफन कर दी जाएगी
किसी सन्दूक में
हमेशा के लिए


  

पता: 
129, 2nd फ्लोर,  
ज्ञानखंड-3, इंदिरापुरम
 गाजियाबाद
 उत्तरप्रदेश-201014

ईमेल: mail.rashmi11@gmail.com

वेब मैगज़ीनwww.merakipatrika.comका संपादन

ब्लॉग: जाणा जोगी दे नाल (www.rashmibhardwaj.blogspot.in)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)