नीलाभ का आलेख ‘अब्दुल करीम खां साहब और किराना घराना’।

नीलाभ

अदम्य जिजीविषा के धनी नीलाभ का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे जितने अच्छे कवि थे उतने ही अच्छे आलोचक भी थे। नीलाभ द्वारा किये गए अनुवाद भी उत्कृष्ट कोटि के माने जाते हैं। हिन्दी, उर्दू, पंजाबी के साथ-साथ नीलाभ का अंग्रेजी और स्पेनिश पर भी अच्छा अधिकार था। अरुन्धती राय के चर्चित उपन्यास ‘गाड ऑफ़ स्माल थिंग्स’ का उनका अनुवाद ‘मामूली चीजों का देवता’ को आज भी याद किया जाता है।
16 अगस्त 1945 को मुम्बई में जन्मे नीलाभ की मशहूर काव्य-कृतियाँ हैं – ‘अपने आप से लम्बी बातचीत’, ‘जंगल खामोश है’, ‘उत्तराधिकार’, ‘चीजें उपस्थित हैं’, ‘शब्दों से नाता अटूट है’, ‘खतरा अगले मोड़ के उस तरफ है’, ‘शोक का सुख’ और ईश्वर को मोक्ष’। 1980 में बी. बी. सी. की विदेश प्रसारण सेवा की हिन्दी सेवा बतौर प्रोड्यूसर लन्दन चले गए और वहाँ उन्होंने 4 वर्षों तक काम किया। नीलाभ ने लेर्मोंतोव के उपन्यास का ‘हमारे युग का एक नायक’ नाम से और शेक्सपियर के उपन्यास ‘किंग लियर’ का अनुवाद ‘पगला राजा’ नाम से किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने जीवनानन्द दास, सुकान्त भट्टाचार्य, एजरा पाउंड, ब्रेख्त, तादयुश, रोज्श्विच, नाज़िम हिकमत, अरनेस्तो कादेनाल, निकानोल पार्रा और नेरुदा की कविताओं का भी अनुवाद किया। ‘हिन्दी साहित्य का मौखिक इतिहास’ उनका एक यादगार काम हाल ही में सम्पन्न हुआ जिसकी सराहना व्यापक स्तर पर हुई। इलाहाबाद में रहने के दौरान नीलाभ का ‘नीलाभ प्रकाशन’ साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र निरन्तर बना रहा। बीते दिनों इब्ने सफ़ी के चुनिन्दा उपन्यासों का उन्होंने सम्पादन कर इब्ने सफ़ी के रचना संसार को रेखांकित करने का महत्वपूर्ण प्रयास किया। आजकल वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका ‘रंग-प्रसंग’ का सम्पादन कर रहे थे। साथ ही वे अपने ब्लॉग ‘नीलाभ का मोर्चा’ नियमित रूप से लिख रहे थे। लम्बी बीमारी के बाद कल 23 जुलाई को दिल्ली में नीलाभ का निधन हो गया।
नीलाभ ने ‘अनहद’ के पिछले अंक से यह वादा किया था कि वे उसके हर अंक में संगीत पर जरुर लिखेंगे। उसी क्रम में उन्होंने ‘सरगम’ कालम के अंतर्गत यह आलेख लिखा था। नीलाभ को पहली बार की तरफ से श्रद्धांजलि देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं यह आलेख ‘अब्दुल करीम खां साहब और किराना घराना’।    

अब्दुल करीम ख़ां साहब और किराना घराना
नीलाभ
बया उरीद गर ईं जा बुवद ज़बाँदाने
ग़रीबे-शहर सुख़नहा-ए-गुफ़्तनी दारद
((ज़बानें जानता हो जो बुला के लाओ उसे
शहर में एक परदेसी बताना चाहे बहुत कुछ))
                   ग़ालिब
दोस्तो,
जैसेजैसे हम साठेतोपाठे की मसल पर पाठे होने के बाद बाइबल के तीन कोड़ी और दस बरस की तरफ़ बढ़ते गये हैं, हम देख रहे हैं कि दिमाग़ का ख़लल और दिल का जुनून उसी रफ़्तार से बढ़ता गया है उम्र कम होती देख कर ग़ैब ने भी, हमारे साईं ने जैसे कहा था, ख़यालों में मज़ामीन भेजने की कुछ ज़ियादा ही ठान ली है मगर ऐसा तो हमारे साईं के साथ भी हुआ था (हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले) बहरहाल, चूंकि आजकल रात बहुत देर हो जाती है, ज़िन्दगी कुछ ठीक नहीं चल रही, चुनांचे सुबह कुछ अजीबग़रीब ख़याल आते हैं
आज ग़ैब ही से आया एक नाम उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां साहब हमने यूट्यूब खोला और अपनी पसन्दीदा दो रचनाएं सुनींएक भैरवी और एक मराठी जिसके दो रूप मिले फिर जाने क्या सूझी साहेबो, हमने विकीपीडिया पर उस्ताद साहब का पेज खोला पढ़ने से पहले दायीं तरफ़ नज़र डाली देखा जन्म और मौत की तारीख़ों के नीचे औलाद के नाम पर लिखा था सुरेशबाबू माने हम एकबारगी चकरा गये ख़ान साहब की ज़िन्दगी के बारे में पढ़ा पैदाइश सन 1872 में कैराना, मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश एक क़दीमी मूसिकारों के ख़ानदान में तालीम अपने वालिद उस्ताद काले ख़ां साहब से और चचा अब्दुल्ला ख़ां से और कुछ रहनुमाई एक और चचा नन्हे ख़ां से पहले सारंगी में शुरुआत, फिर वीणा, तबला और सितार को आज़माने के बाद गायन का फ़ैसला अपने भाई अब्दुल हक़ के साथ गाने की शुरुआत और जगहजगह राहपैमाई आख़िर पहुंचे बड़ौदा जहां दोनों को दरबारी संगीतकार का दर्जा मिला
यहीं से क़िस्मत ने अपना खेल दिखाना शुरू किया राजमाता के भाई थे मराठा गोमान्तक सरदार मारुति राव माने, जिनकी बेटी तारा बाई को सिखातेसिखाते कब दोनों इतने क़रीब गये कि पता भी चला और दोनों शादी की ठान बैठे ख़ूब बावेला मचा मगर सरदार सरदार थे तो तारा बाई दुख़्तरेसरदार देश निकाला मिला उस्ताद को भी, उनकी नयी ब्याही बीवी को भी और भाई को भी अब्दुल करीम ख़ां साहब बम्बई चले आये और वहां बस गये 1902-1922 के बीच पांच बच्चे हुएअब्दुल रहमान, कृष्ना, चम्पा कली, गुलाब और सक़ीना 1922 में ताराबाई ने पति से अलग होने का फ़ैसला किया और बच्चों का फिर से नामकरण किया और अब्दुल रहमान, कृष्ना, चम्पा कली, गुलाब और सक़ीना बन गये (रुकिये और दिल थाम कर बैठिये, क्योंकि यहीं से इस क़िस्से का सबसे बड़ा मोड़ आने वाला है) सुरेशबाबू माने, हीरा बाई बड़ोदकर, कृष्ण राव माने, कमला बाई बड़ोदकर और सरस्वती राणे जी, वही हीरा बाई बड़ोदकर जिन्हें सरोजिनी नायडू ने गान कोकिला कहा था और वही सरस्वती राणे जिन्होंने अपने पार्श्व गायन से धूम मचा दी थी
इसके बाद उस्ताद का गाना भी बदल गया, उसमें ज़्यादा अवसाद आया, गहराई आयी वे और दक्षिण उतरे और संगीतकारों की स्वाभाविक जन्मभूमि कोल्हापुर, धारवाड़ और मैसूर आनेजाने के क्रम में मिरज में बस गये इससे पहले वे 1913 में पूना में आर्य संगीत विद्यालय खोल चुके थे जहां वे अन्य उस्तादों के उलट सबको तालीम देते थे यही सिलसिला आगे चल कर मिरज में भी चलता रहा जब उन्होंने अपने चचेरे भाई उस्ताद वहीद ख़ां के साथ किराना घराना की शाख़ वहां जमायी और करनाटकी शैली के मेल से एक क्रान्ति पैदा कर दी
आर्य संगीत विद्यालय में 1920 में उस्ताद साहब से संगीत की तालीम हासिल करने के लिए आयी 1905 में गोआ में जन्मी सरस्वतीबाई मिरजकर नाम की शिष्या भी थी ख़ान साहब और ताराबाई के सम्बन्धविच्छेद के बाद उस्ताद साहब ने सरस्वतीबाई से शादी कर ली जिन्होंने अपना नाम बानूबाई लत्कर रख लिया और दोनों मिरज जा कर बस गये और मद्रास और मिरज में समय गुज़ारने लगे बानूबाई के पहलेपहले रिकार्ड 1937 में रिलीज़ हुए, ख़ान साहब के गुज़रने के बाद मिरज में ख़ान साहब की दुनियावी विरासत उन्हीं को मिली और वे मिरज ही में रहीं धीरेधीरे उन्होंने अपने को संगीत की दुनिया से पीछे खींच लिया और एक नितान्त निजी ज़िन्दगी जीती रहीं 1970 में मिरज में उनका इन्तेक़ाल हुआ और वहीं उस्ताद साहेब की क़ब्र के बग़ल में उन्हें दफ़्नाया गया
लेकिन हज़रात और ख़वातीन, हमारा मक़सद सिर्फ़ उस्ताद साहब की ज़िन्दगी का बयान करना ही नहीं था. यह तो असली तरंगग़ैब की भूमिका थी. हमारी दिलचस्पी का सबब यह था कि वो कौनसी बात थी जिससे ताराबाई लगभग पच्चीस साल की शादीशुदा ज़िन्दगी को छोड़ कर अलग हो गयीं और उन्होंने बच्चों के दोबारा नामकरण भी कर डाले. ख़याल रहे कि अलहदगी के समय बड़े बेटे की उमर थी बीस और सबसे छोटी की नौ. क्या सरस्वतीबाई मिरजकर का भी कोई दख़ल इसमें था?
चूंकि इस प्रसंग का हमारी ज़ाती ज़िन्दगी से भी कुछ कांटा भिड़ता है, चुनांचे: हमें इसमें एक बड़े उपन्यास की सम्भावना नज़र आयी मज़े की बात यह है कि बेटे को तालीम बाप ने दी और बड़ी बेटी को उसके चचा उस्ताद वहीद ख़ां साह्ब ने उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां के सबसे बड़े शिष्य थे सवाई गन्धर्व और शिष्या सुरश्री केसर बाई केरकर यह वही किराना घराना था जो सवाई गन्धर्व, रोशन आरा बेगम और केसरबाई केरकर से होते हुए बेगम अख़्तर, हीराबाई बड़ोदकर, वसवराज राजगुरु, गंगूबाई हंगल, भीमसेन जोशी और मुहम्मद रफ़ी जैसे गायकों और राम नारायण जैसे सारंगियों तक चला आया
याद रहे यह वो ज़माना था, जब सामने बैठ कर सुनने की सहूलत ही थी, छोटी महफ़िलों से ले कर बड़ेमझोले सम्मेलनों तक फिर आया गिरामोफ़ोन का युग पहलेपहले 78 RPM (revolutions per minute) रिकार्ड बने मीयाद 3-3.30 मिनट अब सोचिये, पक्के राग जो रातरात भर गाये जाते थे, 3-3.30 मिनट में पेश करने पड़े यहीं उस्ताद अब्दुल करीम ख़ान साहब की प्रतिभा के दर्शन होते हैं यही गुण बहुत बाद में चल कर हमें रवि शंकर और विलायत ख़ां और अमीर ख़ां साहब में नज़र आता है
इसी मुक़ाम पर पहुंच कर इस कहानी में गौहर जान की कहानी भी जोड़ी जा सकती है जो अब्दुल करीम ख़ान साहब से एक साल बाद 1873 में पैदा हुईं और उस्ताद साहब से सात साल पहले 1930 में गुज़र गयीं गौहर जान का जन्म पटना में ऐन्जेलीना येओवर्ड के रूप में हुआ था पिता विलियम राबर्ट येओवर्ड आर्मीनियाई यहूदी थे जो आज़मगढ़ में बर्फ़ फैक्टरी में इन्जीनियर थे जिन्होंने 1870 में एक आर्मीनियाई यहूदी लड़की ऐलन विक्टोरिया हेमिंग से शादी की थीविक्टोरिया का जन्म और लालनपालन हिन्दुस्तान में हुआ था और उन्हें संगीत और नृत्य की तालीम मिली थी  दुर्भाग्य से, 1879 में यह शादी नाकाम साबित हुई और मांबेटी पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा विक्टोरिया अपनी बेटी को ले कर 1881 में एक मुस्लिम सामन्त ख़ुर्शीद के साथ, जो विक्टोरिया के संगीत को उनके पति की बनिस्बत ज़्यादा सराहते थे, बनारस चली आयीं आगे चल कर विक्टोरिया ने इस्लाम अपना लिया और अपना नाम मलिका जान और बेटी का नाम गौहर जान रख दिया
1902 में हिन्दुस्तानी संगीत के इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना हुई इसी सालग्रामोफ़ोन कम्पनीने गौहर जान को आमन्त्रित किया कि वो कम्पनी के लिए गानों की एक श्रृंखला रिकार्ड कर दें ये रिकार्ड बरसों तक कम्पनी की शान बने रहे गौहर जान को हर रिकार्ड के लिए 3000 रु. दिये गये थे जो उस समय के हिसाब से एक शाहाना रक़म थी 1902-1920  तक गौहर जान ने दस भाषाओं में  600 से ज़्यादा गाने रिकार्ड कराये वे हिन्दुस्तान की पहलीरिकार्डिंग सिताराबनीं, जिन्होंने बहुत जल्द ही रिकार्डों की अहमियत समझ ली थी इसे भी दर्ज किया जाना चाहिये कि गौहर जान ही ने शास्त्रीय टुकड़ों को 3-3.30 मिनट में पेश करने की हिकमत विकसित की थी, क्योंकि 78 RPM वाले तवों की बन्दिश के चलतेग्रामोफ़ोन कम्पनीने इस पाबन्दी पर ज़ोर दिया था और यह मानदण्ड तब तक क़ायम रहा जब तक कि कई दशकों बाद एक्स्टेण्डेड प्ले और लौंग प्ले रिकार्ड नहीं बनने लगे
चूंकि अब्दुल करीम ख़ान साहब ख़ुद ग्रामोफ़ोन तवों की अहमियत से वाक़िफ़ थे और 78 RPM के रिकार्डों की बन्दिश के अन्दरअन्दर शास्त्रीय राग पेश करने का एक मेआर क़ायम कर रहे थे, चुनांचे वे गौहर जान से नावाक़िफ़ तो नहीं ही होंगे
कौन लिखेगा यह कहानी जो खां साहब के माध्यम से किराना घराने और जयपुर अतरौली घरानों को जा कर जोड़ती है धारवाड़कोल्हापुरमिरज में? जिससे सवाई गन्धर्व, केसरबाई केरकर और आगे चल कर वसवराज राजगुरु, गंगूबाई हंगल, भीमसेन जोशी, हीराबाई बड़ोदकर, बेगम अख़्तर और मुहम्मद रफ़ी जैसे गायक और रामनारायण जैसे सारंगी वादक निकले कौन लिखेगा ख़ां साहब की अपनी व्यथा और तारा बाई की और बच्चों की. और गौहर जान और उनके योगदान की आह ! साहबो, हमें तो उमर ने इस लायक़ नहीं रखा कि बिना अच्छी तरह पड़ताल और जानकारी के ये क़िस्सा लिख सकें वरना क़सम अपनी देवी सरस्वती की, पच्चीस का सिन होता तो जाते, पांच बरस पता लगाने में लगाते और पांच लिखने में मगर तब तक क्या हमारी ज़िन्दगी मे वो ज़लज़ला चुका होता जो खां साहब की ज़िन्दगी में पचास बरस और हमारी ज़िन्दगी में इक्यावन बरस की उमर में आया जिसने हमें इस क़िस्से की कुछ बारीक़ियां समझने की सलाहियत दी? है कोई मर्दमैदां, कोई जीवट वाली ख़ातून जो इस काम को ख़ुशअसलूबी से करे वैसे, जब हम ये सब लिख चुके थे तो हमें इत्तफ़ाक़ से  जानकी बाखले की किताब Two Men And Music: Nationalism In The Making Of An Indian Classical Tradition का पता चला जो थोड़ाबहुत अंश फ़्लिपकार्ट वालों ने बतौर झलक दिखाया उससे अन्दाज़ा हुआ कि इस घराने की काफ़ी कुछ जानकारी वहां से मिल सकती है उस्ताद अब्दुल करीम ख़ां और ताराबाई वाला प्रसंग भी प्रसंगवश उसमें आया है मगर बहुत कुछ ऐसा है जिसके लिए कैराना, बड़ोदा, बम्बई, पूना, कोल्हापुर, धारवाड़, मिरज, मैसूर और मद्रास की यात्रा करने, संगीत के प्रति दिलचस्पी होने, संगीत सीखनेसिखाने और रियाज़ करने की  और उस ज़माने की रिकौर्डिंग तकनीक और माहौल की जानकारी हासिल करने और थोड़ासा उस ज़माने के इतिहास को जानने की दरकार पड़ेगी काम मुश्किल ज़रूर है, पर नामुमकिन नहीं और यह तो हमारा उस महान साझी हिन्दुस्तानी परम्परा को हमारा ख़िराजअक़ीदत होगा, बशर्ते कि हम इस महान परम्परा और उसके वुजूद को तस्लीम करें आज तो हालात ने हमें बहुत मजबूर कर दिया है, पर अगर हमारे पास ज़राएहोते तो आज के हिसाब से हम दो लाख रुपये इस काम के लिए वक़्फ़ कर देते कल अगर हालात ने पलटा खाया और हम इस क़ाबिल हुए तो हम ये रक़म देने में उज्र करेंगे पैसे का ज़िक्र हमने इसलिए किया कि जज़्बे और मेहनत और लगन का कोई मोल नहीं  दिया जा सकता, वह अनमोल है, पर जो यात्राएं हमने तजवीज़ की हैं, उनमें पैसा लगता है, मय किरायेभाड़े के, अगर सेकेण्ड क्लास भी जाया जाये कुछ किताबें जुगाड़नी पड़ेंगी एक सफ़री टेप रिकौर्डर और कैसेट लेने होंगे और भी कुछ अख़राजात हो सकते हैं. हम महात्मा गान्धी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के लिए कुछ इसी क़िस्म का काम कर चुके हैं, चुनांचे तजरुबे से बोल रहे हैं एहतियात रहे कि अगर इस पर उपन्यास भी बन पड़े, तो कमअज़कम एक बेहतरीन क़िस्से का मज़ा ज़ुरूर रहे, जिसका मेआर जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी ने अपने तवील क़िस्सेकई चांद थे सरेआस्मांमें क़ायम कर दिया है.  है कोई मर्दमैदां, कोई जीवट वाली ख़ातून?
(तमामशुद)   
नोट :
तीन भैरवियां और एक शुद्ध कल्याण पिता उस्ताद अब्दुल करीम ख़ान साहब और उनके बेटेसुरेशबाबू माने और बेटियांहीराबाई बड़ोदकर और सरस्वती राणे
Ustad Abdul Kareem Khan bhairavi jamuna ke teer
Sureshbabu Mane – son of Ustad Abdul karim Khan – singing Bhairavi
Hirabai Barodekar Thumri Bhairavi
Mondar baju – rag shuddha kalyan – khan sahiba Abdul karim khan
MONDAR BAJU RE….”-Raga Shuddha Kalyan from Hindi film: BHUMIKA
Raag Dvesh Ko Chod Ke Manwa – Saraswati Rane – MAHARISHI VALMIKI – Prithviraj Kapoor, Shanta Apte
ugich ka kanta different version