अनुज कुमार

मुजफ्फरपुर, बिहार में जन्मे (22 जून 1979) युवा कवि अनुज कुमार ने हैदराबाद विश्वविद्यालय से पीएच.डी की। तदुपरान्त नागालेंड विश्वविद्यालय में हिन्दी अधिकारी के रूप में इनकी नियुक्ति हो गयी। कविता लेखन में रूचि होने के कारण इन्होने दो चिट्ठेनम माटी एवं  कागज का नमक बनाए और इनके माध्यम से अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं।

अनुज सुदूर पूर्व में रहकर कविताएँ लिख रहे हैं। वहां के विकास के मायने कवि बेहतर तरीके से जानता है। विकास के नाम पर पेड़ों के साथ-साथ पहाड़ का भी भयावह दोहन हो रहा है। ये तो कुदरत की वो नियामतें हैं जिसपर आम आदमी का अस्तित्व टिका है. आज पूंजीवाद अपने उन्माद में जब सब कुछ तहस-नहस कर देने पर उतारू है ऐसे में अनुज अपनी कविताओं के माध्यम से वह रहस्य उजागर कर रहे हैं जो अस्तित्व के लिए जरूरी है। तो आईये पहली बार पर करते हैं इस नवागत का स्वागत। 
 

हरे-भरे पहाड़

एक पहाड़ देखा,
पीछे से फिर पहाड़ देखा,
देखा,
ट्रकें रेंग रही थीं,
धीरे-धीरे ले जा रही थीं..
पूरे का पूरा पहाड़.

मैंने अपना घर ढूँढा,
पहाड़ों को चुराने वाले…
घर भी चुरा ले गए.
ऐसे कई घर..
गायब हो चुके हैं…
पहाड़ों के मानचित्र से..
.
मेरी माँ की छाती काट, वर्षों से तुम..
पिलाते रहे हो, अपने घरों में दूध .
तुम्हें लगे 60 साल ..मेरी पहल में..
और महज़ दो मिनट,
टाटा और अम्बानी की टहल में.
सच है-
तस्करी को विकास की चोली पहना
जब पेश करते हो तुम…
तो सब हरा-हरा दिखना ज़रूरी होता है.


पतंग लूट

 सब छितरे पड़े थे,
 बिखरे इधर-उधर,
 कोई अपने घर के पास,
 कोई किसी दूसरी गली में,
 फिर,
 दौड़ पड़े सब एक तरफ ही,
 करीब आठ से दस साल के लड़के,
 अपनी सामानांतर दुनिया में थे.
 भागते रहे
 आसमान तकते रहे
 किसी का दिल धक्…थम गया
 कोई रो उठा
 किसी ने जड़ दिया तमाचा,
कोई साईकल से टकरा गिर पड़ा,
किसी ने कर ली फतेह किले की
माँएं चिल्लाती रही,
बहने बुलाती रही,
बाप मरता रहा
पर अपनी दुनिया में मशगुल
ये दुनिया को ठेंगा दिखाते .
अपनी सनक में जीते रहे.
आँखों को रौनक देते रहे.

 वह शर्मसार है
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जंगली फूल बिखेर रहे हैं धूप,
पहाड़ सुखा रहें हैं, ओस से भींगे पीठ.
पत्तियों, फूलों पर नाचती हवा,
घाटियों में पहुँचा रही,
सुगंधी का संदेस.
हवा की फौज को चीर रहे,
साँय-साँय…
देवदार-चीड़ के पेड़.
बाग़-बगीचे…
रंगों की साजिश में मशगुल.
झाड़-झंकड़ जल्दी-जल्दी में,
बिछा देना चाहते हैं गलीचा.
तालाब ने घोल लिया है आसमान.
 पृथ्वी ने भूला दी है नींद .
करीने से सजा है कुदरत का गुलदस्ता.
अजब नीरव कलरव है,
और मनुष्य मौन.

देखो, बच्चों के लिए,
 चित्रों में भर-भर रहा बसंत.
 बसंत ने कर दिया है,
उसकी नस्ल का अपराध – सरेआम.
वह बहुत शर्मसार है.

यह उनके लिए है…
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 यह उनके लिए है…
 जो अपने जीवन पर सांकल न चढाने के भय से,
अपने घरों के सांकल पर ताला चढ़ा निकल पड़ते हैं,
जिनकी आँखों में हिम्मत और आशा के बीज होते हैं,
और सारा शहर उसे बोने की जगह….
 जिनकी दुआओं में शहद होता है, कन्धों पर बड़-बूढों का हाथ,
जिनकी वेवक्त झुर्रियों में सिमटा उनका लोक होता है.

यह उनके लिए है….
 जिनकी जिंदगी का बिछौना, महीने का राशन होता है,
घर से बहता नाला, घर का आँगन होता है,
जिनके सफेद होते बाल, बेमौसम बादल होते हैं,
और खुरदुरी त्वचा मानों तपा हुआ चमड़ा
जिनके बुजुर्गों की बातों में कहानियों की ताप होती है,
जिनमें सुलगन होती है, उभरते चेहरों का भविष्य होता है.

यह उनके लिए है….
 जिनकी बाहें खिलते फूलों सी खुली-खिली होती हैं,
 जिनके जायकों में उनके मिटटी की खुश्बू घूली होती है,
 जिनकी लड़ाई रोज़मर्रा के मामूल पर आकर सिमट जाती है,
जिनकी आवाजें मंज़िली इमारतों में मिट जाती हैं
 जिनकी शामें थोड़ी दारू, थोड़ा मनोरंजन होता है,
मोबाईल पर फिल्में होती हैं, रेडियो पर गाना होता है.

यह उनके लिए है…
 जो माएँ, बहिन, बहू बन इनके साथ हो लेती हैं,
जिनका आज़ादी के साथ सौतन का रिश्ता होता है,
पर आँखों में आगामी नस्लों का आकाश होता है,
ये थकती नहीं, न ही रूकती हैं,
ये अपनी खटनी से बुनती हैं घर का आराम,
इन्होंने अपनी राते बेची होती हैं, अपना दिन बेचा होता है

और अंत में, यह उनके लिए है
 जो अपने साथ अपना कुनबा, क़स्बा ढोए लाते हैं,
जिन्हें कभी-कभी शहर की बदहजमी डकार जाती है,
और ये अपनी पोटली उठा दुसरे शहरों में खो जाते हैं,
अपना तार्रुफ करवाते हैं, शहर का चेहरा सँवारते हैं,
 अपना सँवारने की कोशिश में जीते-मरते हैं, मरते-जीते हैं.

 पराया घर ?

चार रातों से,
रात-रात भर रोती रही.
किस ने उफ्फ तक न की,
न ही टोही हाल-चाल .

भरा-पूरा परिवार…
और मैं रोती रही,
दर्द घर का घर कर गया.
क्या यही हैं, जिन्होंने गुल को सींचा ?
क्या यही हैं, जिन्होंने बाहों में भींचा ?
कल तक मैं सबकुछ,
कल्पना, मेधा, बेदी सब,
आज उनकी मायूसी का सबब.
कुल जमा चार दिन हुए मुझे ससुराल छोड़े हुए.

बच्चे और शब्द

कहते हैं,
बच्चे के पैदा होते ही,
माँ को मिलती है एक भाषा,
भाषा जो केवल उसकी और
उसके उपज की दाय है.
बच्चा सीखता है बोलना,
माँ मुस्कुरा देती है,
आँखों से, होंठों से,
माँ गुस्सा करती है,
बच्चा सहम जाता है,
आँखों से, केवल आँखों से
मानों “नाल” का कटना
महज़ औपचारिकता हो
बच्चा करता है इजाद,
स्वरों के खिलौनों से एक भाषा,
और माँ निश्चिंत, मानों
कोई पूर्वज्ञान हो.
चाकू,
और बच्चा चाकू, डर और प्याज ले आता है,
प्याज,
और बच्चा आँखें मलने लगता है.
बिल्ली,
और वह उठाने लगता है बिल्ली को,
रोटी,
और उसमें मलाई-चीनी लगी गोल-गोल उसके हाथ में.
कई भावों का गट्ठर लिए होता है,
एक शब्द
बच्चे भाषा नहीं दिल बोलते हैं,
एक आवश्यक संगीत,
जिसकी तारें माँ के गर्भ में,
तैयार होती हैं.
मुलायम गर्दन
को उठा जब तकता है शिशु
अपलक माँ को,
मानों सोख रहा हो एक तरल भाषा
ऐसे गहन-प्रेम की भाषा
जिसकी तालीम का अता-पता नहीं.


प्रेम

प्रेम
एक बिल्ली है
जो बारिश के बाद
अपने ही घावों को चाटती है…
या एक राजकुमारी
जो नमक के एक महल में रहती है
और रो नहीं सकती…
या एक खिला फूल
जिसे महज़ छू लेने भर से
गमले में सजाया नहीं जा सकता….
प्यार हिरन की वे आँखें भी हैं
जो सदा एक अबोध सवाल लिए
संवेदना से लबलब टपकती रहती हैं…
या एक छोटा सा भालू
जो शहद के खत्म हो जाने के बाद भी
छत्ते से खेलना नहीं छोड़ता…
या लकड़ी का एक पहिया
जिसका काश्तकार
अपनी सारी जिंदगी उसकी
चिकनी गोलाई पर न्योछावर
कर देता है….
 
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