वैभव सिंह का आलेख ‘अंधेरे मेः आत्मसंघर्ष के निहितार्थ’


मुक्तिबोध

हिन्दी की कालजयी कविताओं की जब भी बात की जायेगी ‘अँधेरे में’ कविता की चर्चा जरुर की जाएगी। इस कविता का वितान महाकाव्यात्मक है। काफी लम्बी कविता होने के बावजूद जब हम इसमें प्रवेश करते हैं तो प्रायः वही स्थितियां पाते हैं, मुक्तिबोध जिसके भुक्तभोगी थे। हमारे यहाँ आज भी वही दुरभि-संधियाँ होती हैं। देश की सर्वसाधारण जनता ‘अँधेरे में’ जीने-रहने के लिए आज भी अभिशप्त है। अपने को जनता का सेवक कहने वाले नेता और नौकरशाह कैसे उसी सामन्तवादी दृष्टिकोण का परिचय देने लगते हैं यह कहने-बताने की बात नहीं। आज मुक्तिबोध का जन्म-शताब्दी वर्ष है। इस विशेष अवसर पर मुक्तिबोध को नमन करते हुए युवा आलोचक वैभव सिंह का आलेख ‘अँधेरे में : आत्मसंघर्ष के निहितार्थ’ हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं।           

अंधेरे में : आत्मसंघर्ष के निहितार्थ
वैभव सिंह
मुक्तिबोध की लंबी कविता अंधेरे में हिन्दी में क्लासिकल कविता का दर्जा प्राप्त कर चुकी है। विडंबना यह कि इस कविता का प्रकाशन मुक्तिबोध के जीवन काल में नहीं हो सका। इसका प्रकाशन 1964 में उनकी मृत्यु के कुछ समयोपरांत हैदराबाद से बद्री विशाल पित्ती के संपादन में छपने वाली हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘कल्पना’ में हुआ। तब यह आशंका के द्वीपः अंधेरे में नाम से प्रकाशित हुई थी पर बाद में यह अंधेरे में नाम से ही चर्चित हुई। अशोक वाजपेयी के अनुसार इस कविता का सबसे पहले पाठ 16 नवंबर 1959 को सागर में मुक्तिबोध ने किया था और तब अशोक वाजपेयी स्वयं बीए के छात्र थे। 6 सितंबर 1914 के हिंदुस्तान अखबार के अंक में उन्होंने लिखा – हमने ऐसी विचलित करने वाली कविता पहले कभी नहीं सुनी थी, न ही पढी थी। उनमें नियमित छंद नहीं था पर उसकी संरचना में लय के कई रूप थे और वे कई अप्रत्याशित मोड़ों पर आ कर चकित करते थे। हमारे समय का अंधेरा उस दोपहर मानो उस कविता के माध्यम से उस कमरे में छा गया था और कविता हमारे सामने उसे रोशन कर रही थी। हमें तब यह पता तक न था कि हमारे समय का एक क्लैसिक हमारे सामने पढ़ा जा रहा है। बाद में आपात काल के दौरान चित्र श्रृंखलाओं की आधार रचना के रूप में इस कविता का प्रयोग किया गया था।
हिन्दी में तानाशाहों व तानाशाही के खिलाफ सार्थक अभिव्यक्ति को तलाशने के विषय पर अंधेरे में जैसी उदात्त रचना दूसरी नहीं लिखी गई है। आजादी के बाद का ईमानदार बुद्धिजीवी उस संभावित आतंक को भांप रहा था जो उसके खिलाफ कभी दबे-छिपे और कभी खुल कर निर्मित हो रहा था। लोकतांत्रिक राजसत्ता या तो बुद्धिजीवियों को पालतू बना लेने या फिर उनके दमन के फार्मूले पर चलती है। असहिष्णुता का जो विराट तांडव शुरू हुआ है, उसके विकास की अपनी ऐतिहासिक प्रक्रिया है। आज जिस दाहक माहौल से आज का बुद्धिजीवी गुजर रहा है और उसकी जुबान पर ताला जड़ने की तैयारी चल रही है, आजादी के ठीक बाद वैसा ही आतंक मुक्तिबोध के अनुभव जगत का भी हिस्सा बन गया था। मुक्तिबोध नेहरू के प्रशंसक थे और दून घाटी में नेहरू नामक निबंध में उन्होंने नेहरू के आराम और स्वास्थ्य के बारे में अपनी चिंता प्रकट की थी। पर फिर भी वे भारतीय गणतन्त्र में पनपती फासीवादी प्रवृत्तियों के प्रति संवेदनशील हो गए थे। उन्होंने अपने अस्तित्व को ओर लपकती अग्नि-शिखाओं से संघर्ष की नियति को पहचान लिया था और उसे अंधेरे में व्यक्त किया। शमशेर ने इसीलिए इस कविता को दहकता इस्पाती दस्तावेज कहा था। उन्होंने मुक्तिबोध की ताकत को पहचान लिया था। मुक्तिबोध जब मृत्य-शैय्या पर पड़े थे तो शमशेर उनके पहले काव्य संग्रह चांद का मुँह टेढ़ा है की भूमिका में यह बात लिख रहे थे- एकाएक क्यों सन 64 के मध्य में गजानन माधव मुक्तिबोध विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हो उठे। आगे वह लिखते हैं- मुक्तिबोध एकाएक हिन्दी संसार की घटना बन गए। कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से आंख मूंद लेना असंभव था। उनकी एकनिष्ठ तपस्या और संघर्ष, उनकी अटूट सचाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावना के केंद्रीय मंच पर सामने आ गए। और अब हमने उनके कवि और विचारक-रूप को एक नयी आश्चर्य-दृष्टि से देखा।
पूंजीवाद की बढ़ती ताकत के कारण गहरा घना अंधकार फैल रहा है और यही घुटन भरा हत्यारा अंधकार उन की अंधेरे में कविता का मुख्य वातावरण है। रात के पक्षी की चीख है और जंगल से आते सियारों का शोर है जो सूने अंधकार को और आतंककारी बना देता है। इसी अंधकार में कोई उससे बार-बार मिलने आता है तो उसकी खोई हुई परम अभिव्यक्ति है। इस परम अभिव्यक्ति को स्वतन्त्रता के बाद शिक्षित-ईमानदार मध्य वर्ग द्वारा समाज में विचारधारात्मक हस्तक्षेप की बौद्धिक आकांक्षा के रूपक के तौर पर भी देखा जा सकता है। लेकिन ताज्जुब की बात है अंधकार से ज्यादा कविता में प्रकाश के बिंब उभरते हैं। मशाल, मणि तेज, तेजस्क्रिय बिंब, स्वर्णिम लाल चिनगियों, वस्तुओं का निज निज आलोक, जलते जंगल, भड़की आग, दियासलाई की लौ, रेडियोएक्टिव रत्न, नीली गैसलाइट, द्युतिमान मणियां वहां जगमगाती हैं। प्रकाश के बिंब उभारने की तल्लीनता तो ऐसी है कि कहीं बंदूक चलती है तो भी कवि को आलोक पैदा होता दिखता है और मकान के ऊपर गेरुआ प्रकाश सा छा जाता है। वेदना भी दहकती और जलती हुई लगती है। यानी, अंधकार व्यंजित करती कविता में रोशनी के उदाहरणों की अलग से सूची बनाई जा सकती है। न तो यह विरोधाभास है, न असंगति। न ही किसी काव्य-रूढि का पालन करने की कृत्रिम कोशिश जैसा कि पुरानी कविताओं में हमें दिखता था। अंधकार के ऐसे भयावह प्रकोप, जो सामान्य अंधकार नहीं बल्कि विचार व मनुष्यता के अभाव के कारण छाया अंधकार है, को उभारने के लिए प्रकाश-बिंब पैदा किए गए हैं ताकि अंधकार की एकरसता भंग हो और अंधकार अधिक प्राकृतिक लगे। ऐसा न लगे कि कवि अपनी संवेदना को किसी दिखावे के अंधकार के हवाले कर चुका है या वह किसी छटपटाहट की बीमारी की गिरफ्त में है जिसे आत्मसंघर्ष नहीं माना जा सकता है। रोशनी के लक्षण या उदाहरण उसके गहरे आत्मसंघर्ष को व्यक्त करने में सहायक सिद्ध होते हैं। आत्म-संघर्ष की मुख्य विशेषता यह होती है कि वह परस्पर विरोधी मनोदशाओं के मध्य स्वयं को पाता है और अपनी उन मनोदशाओं के बीच नैतिक मूल्य व निर्णय को भी जन्म देता है। सामान्य रूप से व्यक्ति अपने भीतरी विचारों के बारे में उचित-अनुचित, नैतिक-अनैतिक, उत्कृष्ट-निकृष्ट आदि का तेजी से निर्णय नहीं करता है पर आत्म-संघर्ष में यह एक विशेष तीव्रता के साथ घटित होता है। इसी आत्मसंघर्ष में आलोक व अंधकार के विरोधी चित्र साथ आते हैं और उनके सहारे जो नाटकीयता पैदा होती है वह वास्तविकता के तीखेपन को व्यक्त कर देती है। इस आत्मसंघर्ष का एक पक्ष ज्ञान व अनुसंधान की नयी मध्यवर्गीय स्थितियों से भी जुड़ता प्रतीत होता है। भारतेंदु युग से लेकर छायावाद तक निरंतर ज्ञान-अनुसंधान की चेष्टाएं साहित्यिकों के भीतर विकसित होती दिखती है पर स्वतन्त्रता के बाद सहज ही उनका उद्देश्य बदल गया। न्याय, समानता, शांति व मुक्ति के उद्देश्य व्यक्ति की अनुसंधानी वृत्ति का अभिन्न अंग बन गए। अनुसंधानी वृत्ति के सहज बौद्धिक दबाव के कारण वह अपने परिवेश से ठोस मूर्तगत व भौतिक परिचय कायम करने की तरफ तेजी से बढ़ता है। नयी स्थितियों का सामना करने की चेष्टा उसके अहं को सहलाती है तो झकझोरती भी है। मुक्तिबोध की कविताओं की तरह ही उनकी कथाओं में ऐसे पात्र बहुत हैं जो शहर की गलियों, छोटे चायखानों, रेल पटरियों, मजदूर बस्तियों आदि को रहस्यमय भाव से देखते हैं और उनसे जुड़ने की ललक उनमें जाहिर होने लगती है। सड़क पर पैदल चलते या सड़क पर भागते पात्र कई स्थानों पर आते हैं जो अपने शहरों को किसी खोजी निगाहों से निहार रहे हैं। उनकी अंधेरे में नाम से कहानी भी है। वैसे अंधेरा शब्द का प्रयोग कर हिन्दी में ही कई महान रचनाएं लिखी गई हैं। अंधकार शब्द ने आत्मभ्रम से लेकर सत्ता के खिलाफ इंसानी भावभंगिमा तक को उभारने में सहायता की है। भारतेंदु का अंधेर नगरी, मोहन राकेश का ‘अंधेरे बंद कमरे’, निर्मल वर्मा की कहानी ‘अंधेरे में’ आदि ऐसी ही रचनाएं है। दुष्यंत ने गजल में बेपनाह अंधेरे की बात करते हुए कहा –
मैं इन बेपनाह अंधेरों को कैसे सुबह कह दूं

मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।
मुक्तिबोध ने अंधेरे में शीर्षक से कहानी भी लिखी और कविता भी। मुक्तिबोध की अंधेरे में नामक कहानी का पात्र शहर की गलियों और संरचना से सहानुभूति का भाव प्रकट करता चलता है। उनकी अंधेरे में कविता में भी आत्म-विस्तार की बेचैनी दिखती है जीवन-जगत से संबंधों को लेकर वैसा ही दुविधामय संघर्ष। पूरी कविता किसी शहर के ऊपर छाए डर, हादसे व आतंक को व्यक्त करते हुए उस शहर के यथार्थ का अनुसंधान कर रही है और प्रकारांतर में यह कवि मन की दशा है कि वह अपनी आत्मा का सूक्ष्म निरीक्षण करता चल रहा है। अंधेरे में कहानी का युवक पात्र अपने ही मध्यवर्ग के ढीले-ढाले, सुस्त, आत्मसंतोषियों के जीवन के पाप के बारे में चिंतित हो रहा है तो अंधेरे में कविता में भी वही आत्मधिक्कार का भाव जगह-जगह छलकता दिखता है। उससे पैदा होने वाले असहनीय दर्द की लहर पूरी कविता में निरंतर उठती और गिरती रहती है।
क्या कहूं

मस्तक कुंड में जलती

सत्-चित्-वेदना-सचाई व गलती

मस्तक शिराओं में तनाव दिन-रात
यानी अगर उनकी रचना प्रक्रिया को ध्यान से देखें तो उनकी कहानियां और कविताएँ शिल्प में भिन्न हैं लेकिन रचना प्रक्रिया के स्तर पर उनमें समानता है। भीतरी वेदना, बेचैनी, अपराध बोध और संघर्ष को रचनात्मक की दोनों ही ही विधाओं में एक साथ व्यक्त कर रहे थे। कहानियां और कविताएँ विधाओं के बंटवारे को नहीं बल्कि पूरक होने के तथ्य को सिद्ध करती हैं। अंधेरे में कविता का शीर्षक लेखक के साथ-साथ पूरे समाज की मनोदशा और संघर्ष की बेबाक बयानी करने वाला शीर्षक था और कविता का पूरा विन्यास और उसकी अर्थसंकुलता में निजी-सामाजिक, राजनीतिक-घरेलू, भीतरी-बाहरी जैसे समस्त पारंपरिक द्वैत निरर्थक हो गए थे और ऐसा प्रतीत होता है जैसे एक अंधकार हर जगह उतर आया है। उस अंधकार से संघर्ष की व्याकुलता भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है। जीवन की सारी मौज-मस्ती और बेफिक्री कहीं हवा हो चुकी है। बहुत सारी सामाजिक विकृतियों का उपहास उड़ा कर बच निकलने के बजाय उनके सबसे खतरनाक रूपों का सामना करने की मजबूरी दरपेश है। ऐसे जटिल दुष्ट समय में समाज के आततायी वर्गों से संघर्ष का मोर्चा केवल जनांदोलन, क्रांति या सामूहिक संघर्ष के जरिए नहीं बल्कि किसी व्यक्ति के स्तर पर उसकी दुर्लभ ईमानदारी के कारण आत्म-संघर्ष के माध्यम से भी समृद्ध हो रहा है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि मुक्तिबोध के लेखन में आत्मसंघर्ष है पर उनके लेखन को तथा अंधेरे में कविता को केवल आत्म-संघर्ष की कसौटी पर कसना एक सीमा तक हीठीक है क्योंकि उनका लेखन आत्म-संघर्ष के साथ-साथ समाज में जो विभिन्न स्तरों पर उठापठक, स्वार्थसंघर्ष, नेपथ्य में चलते षडयंत्र हैं, उन्हें भी उजागर करता हैं। कई बार तो लगता है कि आत्म-संघर्ष केवल रचनात्मक प्रयोग की तरह है। वह सुचिंतित पद्धति या माध्यम का भी रूप ले लेता है और इस तरह आत्म-संघर्ष समाज के जटिल संघर्षों का आईना बन जाता है।
मुक्तिबोध का एक दुर्लभ चित्र
यह कविता मुख्य रूप से किसी लेखक कीगहरे निजी आवेग में लिखी डायरी की तरह भी लगती है। ऐसी डायरी जिसमें कोई अपनी उलझनों को व्यक्त कर रहा है। उसके भय, आशंकाएं, हौसला और संभावना सब चित्रित हो रहे हैं और गद्य के कई दिलचस्प उदाहरण काव्य-सौंदर्य को भी जन्म दे रहे हैं। कविता का शिल्प निःसंदेह प्रयोगशील है और नामवर सिंह ने नयी समीक्षा की शब्दावली का प्रयोग कर उसका विश्लेषण पहले ही कर दिया है। पर मुख्य बात यह है कि इसमें किन्हीं लंबे प्रसंगों में आए सामान्य कथन बहुअर्थी ध्वनियों के रूप में प्रकट होते हैं और विडंबना की सृष्टि करते हैं। कोई कथन किसी एक अर्थ में समाप्त नहीं होता है बल्कि वह मौलिक अर्थ-संधानों को आमंत्रित करता प्रतीत होता है। जैसे कि कविता में आती है यह पंक्ति-
मेरे ही विक्षोभ-मणियों को लिए वे

मेरे ही विवेक-रत्नों को ले कर

बढ़ रहे लोग अंधेरे में सोत्साह

किंतु मैं अकेला

बौद्धिक जुगाली में अपने से दुकेला।
यहाँ बौद्धिक जुगाली में व्यस्त विद्वान वर्ग के तनाव, विवशता और स्वार्थ के बारे में मुक्तिबोध बार-बार किसी विवेचन की मांग करने लगते हैं। इस में मुक्तिबोध की अपनी दिक्कतें भी शामिल हैं क्योंकि जन की बात करने वाले मुक्तिबोध खुद भी देश के करोड़ों किसानों की संवेदनाओं से कटे हुए थे। फिर भी मुक्तिबोध जानते हैं कि प्रश्न पूछने की कला से भी बड़ी होती है बार-बार अपने लिए सही प्रश्न तलाशने की कला। ‘अंधेरे में’ कविता भी उत्तर से अधिक प्रश्न की साधना करने वाली लंबी कविता है। कविता में छायावादी कविता खासकर निराला ने सरोज स्मृतिराम की शक्तिपूजा लिख कर लंबी कविता की संरचना में आत्मसंघर्ष की संवेदना को व्यक्त करने की जो परंपरा डाली, उसका प्रभाव भी इस पर दिखता है। छायावाद की ये कविताएँ या मुक्तिबोध की लंबी कविताएँ इस दावे को मिथ्या साबित करती थीं कि लंबी कविता का ढांचा प्रायः किसी सामाजिक, मिथकीय या कथात्मक विषयवस्तु के ज्यादा अनुकूल है। पर मुक्तिबोध को खासतौर पर इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने लंबी कविता के शिल्प का इस्तेमाल आत्मसंघर्ष और सामाजिक चेतना के सहसंबंधों को उभारने में किया है, न कि उन्हें परस्पर विरोधी दिखाने के लिए।
आलोचकों को मुक्तिबोध के शिल्प से काफी शिकायत रही हैं। जैसे कि मुक्तिबोध के अयथार्थवादी शिल्प के प्रति नामवर सिंह ने अपना आकर्षण व्यक्त किया। इसके बावजूद नामवर सिंह को लगा था कि मुक्तिबोध के पास गहरी चिंतन शक्ति तथा बड़ा विषय लेने का सामर्थ्य तो है पर उसे वहन करने लायक कलात्मक सामर्थ्य नहीं है। उन्हें यह भी लगा था कि मुक्तिबोध न तो दूसरे प्रयोगशील कवियों की तरह लय में कोई प्रयोग करते हैं और वे बिंबों को भी अनायास ज्यादा खींचते हैं जिससे एकरसता पैदा होती है। विरोधी बिंबों का ज्यादा ही प्रयोग करते हैं और कोमल चित्रों को प्रस्तुत करते हुए अचानक कोई कठोर चित्र रखते हैं जिससे उनकी कविता का पाठक सकपका जाता है और उसकी संवेदना झकझोरने का कवि-उद्देश्य पूरा हो जाता है। उनका मानना था कि यह शिल्प अब पुराना हो गया है। ये सारी शिकायतें एक तरफ। मुख्य बात यह है कि मुक्तिबोध के पास जो गहरी अनुभूति तथा उसे व्यक्त करने की दुर्लभ कशमकश है, वह उनके शिल्प के ऊबड़ खाबड़पन को भी आकर्षक बना देती है। अनुभूतियों की तीव्रता थोड़े मुश्किल, चक्करदार या न तराशे गए शिल्प में भी स्निग्धता भर देती हैं। उनके चिंतन की इंटेनसिटी स्वयं में काव्य-शिल्प का रूप ले लेती है और उस चिंतन की गहनता के सामने कविता के लय संबंधी दोष तथा बिंबों की असंगतता के सवाल जरूरी होते हुए भी बेमानी लगने लगते हैं। विचाराकुल मन का जो स्थापत्य कविता में ढल कर आता है, वह कला के स्थापत्य को अप्रासंगिक बना देता है।
  
मुक्तिबोध को हमेशा लगता था कि व्यक्ति के भीतर सचाई के पक्ष में खड़े होने और साहसपूर्ण अभिव्यक्ति की जो अपार संभावनाएं हैं, उसका उसे उपयोग नहीं करने दिया जाता है। वह बौद्धिकता को अपनी ईमानदारी से अर्जित तो करना चाहता है पर शीघ्र ही उसे अहसास होने लगता है कि वर्तमान समाज का जैसा रूप व गठन है उसमें उस ईमानदार बौद्धिकता के लिए स्वीकृति का अभाव है। इस कारण वह उस बौद्धिकता के बोझ को उठाने से खुद ही इनकार कर देता है। उसका नैतिकता बोध कुछ दूर तक सही राह दिखाता है पर नैतिकता के रास्ते पर चलने के जोखम उसे समाज के दूसरे लोगों जैसा बन जाने के लिए विवश कर देते हैं। वह रोज समाज से अपने संबंधों पर विचार करता है और यह महसूस करता है कि समाज से वैचारिक संबंध के स्थान पर स्वार्थपूर्ण संबंध बनाने की चेष्टा ही ज्यादा हितकर साबित हो सकती है। यथार्थ को पहचानने, उसकी समस्याओं पर विचार करने और उसे बदलने के लिए वह जागरूक होता है तो उस जागरूकता को वह स्वयं ही नष्ट भी कर देता है। लेकिन नष्ट कर देने के बावजूद वह किसी अपराध बोध का शिकार होता चला जाता है। अंधेरे में कविता में पंक्ति आती है-
पाता हूं निज की खोज के भीतर

विलुब्ध नेत्रों से देखता हूं द्युतियां

मणि तेजस्क्रिय हाथों में लेकर

विभोर आंखों से देखता हूं उनको

पाता हूं अकस्मात

दीप्ति से वलयित रत्न वे नहीं हैं

अनुभव, वेदना, विवेक निष्कर्ष

मेरे ही अपने यहाँ पड़े हुए हैं
कविता के इस खंड में बाहरी चेतन मन और अवचेतन के झगड़े का चित्र उभरता है। बाहरी सामाजिक चेतन मन बहुत सारी ईमानदारी व ईमानदारी से जुड़े संकल्प व विचारों को मन के किसी भीतरी कोने में दबा देता है और उसका मुखौटा ही उसका कवच बन जाता है। इस सत्य को वह अपनी कहानी क्लाड ईथरली में भी लिखते हैं। यह कहानी उन्होंने 1959 के आसपास लिखी थी। कथानायक क्लाड ईथरली वह व्यक्ति था जिसने दूसरे महायुद्ध में जापान के हिरोशिमा नगर में ऐटम बम बरसाए थे और, कथावस्तु के अनुसार, वह इस पाप का प्रायश्चित करना चाहता था लेकिन उसे पागलखाने में डाल दिया गया। इस कहानी में पंक्ति आती है- हमारे अपने-अपने मन-ह्रदय-मस्तिष्क में ऐसा ही एक पागलखाना है जहां हम उन उच्च, पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वे खुद बदल कर समझौतावादी पोशाक पहन सभ्य, भद्र हो जाएं, यानी दुरुस्त हो जाएं या उस पागलखाने में पड़े रहें। सहज ही समझा जा सकता है कि काव्य और कथा, दोनों में मुक्तिबोध का आत्मसंघर्ष निरंतर तीव्र होता जा रहा था और वे जितने प्रश्न संसार व समाज से पूछते थे, उतने ही प्रश्न मानव-मन से भी पूछते थे। जितना उन्हें बाहरी बेईमानियां चिंतित करती थीं, उतना ही उन बेईमानियों के साथ सामंजस्य कायम कर लेने की मानव-चेतना की प्रवृत्ति उन्हें परेशान करती थी। उन्हें मनुष्य अंतिम तौर पर पशुवत, मक्कार या धूर्त नहीं लगता था बल्कि ऐसा प्राणी लगता था जिसमें बेहतर होने की हमेशा संभावनाएं हैं और उन संभावनाओं के बारे में मनुष्य को स्मरण कराना जरूरी है। इसीलिए उसके मन के उन कोनों में भी प्रवेश करना होगा जहां उसने अपने ही उदात्त आदर्शों को दबा कर, कैद कर के रखा है। वे कवियों की उस महान परंपरा का ही विस्तार करते हैं जिन्होंने वेदना को गरिमापूर्ण भाव समझा और सार्थक जीवन व रचनात्मकता के लिए संचालक शक्ति के रूप में वेदना के महत्त्व को समझा।
अंधेरे में कविता बहुत सारे सामाजिक, वैश्विक और विचारधारात्मक प्रसंगों को विस्तृत फलक पर उठाती है। यह करते हुए वह सधे हुए व्यंग्य का सहारा लेती है और प्रायः वे जिस कुलीन आभिजात्यता के बारे में जीवन भर लिखते रहे, उसके खिलाफ कई सार्थक वक्तव्य देती है। यह व्यंग्य उस व्यक्ति का नहीं है जो बड़ी सरलता से, तटस्थ हो कर व्यंग्य की चोट कर रहा है बल्कि उसका व्यंग्य है जो घात-प्रतिघात तथा त्रासदियों के बीच है और उसके मुँह से निकले व्यंग्य में पीड़ा के सीधे साक्षात्कार का सच प्रकट हो रहा है। इस स्तर पर उनकी कविता व कहानियों में अदभुत एकता नजर आती है। जैसे कि अंधेरे में वे कई स्थान पर महानगरीय बौद्धिकता पर प्रहार करते हैं और वहां घूमते-टहलते अवसरवादियों पर निशाना कसते हैं। यह तत्कालीन भारत के छोटे शहरों के आदर्शवाद का महानगरों के खिलाफ प्रतिरोध है। उन्हें साहित्यिक, चिंतक, नर्तक, शिल्पकार आदि की चुप्पी खटकती है और अक्सर तो फासीवादी जुलूस में कवियों व आलोचकों का शामिल होना घनघोर आश्चर्य में डाल देता है। आश्चर्य के भाव के सहारे वे यथार्थ को व्यक्त करने की शैली अपनाते हैं और उसमें सफल भी हो जाते हैं। ‘क्लाड ईथरली’ का पात्र कहता है- तुमने लाल ओठ वाली चमकदार, गोरी-सुनहली औरतें नहीं देखीं, उनके कीमती कपड़े नहीं देखे। शानदार मोटरों में घूमने वाले अतिशिक्षित लोग नहीं देखे? नफीस किस्म की वेश्यावृत्ति नहीं देखी? सेमिनार नहीं देखे?’ यह पात्र यह बताना चाहता है कि भारत के भीतर एक अमेरिका बसा हुआ है। अंधेरे में कविता में भी बौद्धिकों और अय्याश उच्चवर्ग की भ्रष्ट हमजोली उन्हें दिखती है। रचनाकारों का वर्ग लोकतन्त्र विरोधी शक्तियों के गुट में शामिल हो गया है और मूल्य-निष्ठाएं किन्हीं वर्गीय निष्ठाओं के आगे दम तोड़ चुकी हैं। वे सब एक साथ एक जुलूस में शामिल होकर किसी खूंखार उद्देश्य को पूरा करने के लिए निकले हैं।
भाई वाह!

उनमें कई प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कवि गण

मंत्री भी, उद्योगपति और विद्धान

यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात

बनता है बलवन

हाय, हाय!!
कुल मिला कर कह सकते हैं कि मुक्तिबोध की कहानियां हों या उनकी कविताएँ, मध्य वर्ग की सच्ची बौद्धिक स्वतन्त्रता की खोज करने वाली रचनाएं हैं। वे हमें इस सचाई से रूबरू कराती हैं कि मध्य वर्ग बौद्धिक आजादी तो चाहता है पर वह बौद्धिक जोखम लेने से बचता है। खुद को बुद्धिजीवी कहलाना पसंद करने वाले लोग अपनी बौद्धिकता का निर्मम परीक्षण करने से बचना चाहते थे। कविता का मकसद उन भ्रमों को तोड़ना भी है जिसके अंतर्गत मान लिया जाता है स्वतन्त्रता को लेकर चिंता करना व्यर्थ है जब वह औपचारिक रूपों में मिली हुई है। पर वही स्वतन्त्रता निरंतर निगरानी, सौदेबाजी, समझौते या कांट-छांट के अधीन रहती है और मुक्तिबोध हमें इसी दिशा में सचेत करना चाहते हैं। यह भी कह सकते हैं कि उनका लेखन वस्तुतः समाज के संघर्षों के केवल असंबद्ध टुकड़े या ध्यानाकर्षक चित्र नहीं निर्मित करता है बल्कि उसे सैद्धांतिक आधार भी प्रदान करता है। लेखन से हमें पूंजीवाद, मध्य वर्ग की बनावट, निम्नवर्ग के रोजाना के संघर्ष, राजनीतिक तानाशाही आदि के बारे में केवल सृजनात्मक विवरण नहीं बल्कि स्पष्ट वैचारिक तथा विचारधारात्मक अंतर्दृष्टि भी प्राप्त होती है। 
वैभव सिंह
 
सम्पर्क –

मोबाईल – 09711312374

वैभव सिंह का आलेख ‘आस्था के अंधकार’



हम भारत के लोग खुद के उदारवादी होने का दावा करते नहीं थकते। लेकिन स्वयं कई तरह की कट्टरताओं और पूर्वाग्रहों से इस कदर आक्रान्त होते हैं कि दूसरों की नजर में हमारा चेहरा विकृत दिखायी पड़ने लगता है। इस से बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि अहिंसा के अस्त्र से देश के स्वाधीनता आन्दोलन की अगुवाई करने वाले महात्मा गाँधी किसी दुश्मन की गोली के नहीं बल्कि एक हिन्दू कट्टरपंथी की गोलियों के ही शिकार हुए। साम्प्रदायिकता आज हमारे देश का स्थायी भाव बन चुका है। विभाजन की त्रासदी से हमने कोई सबक नहीं सीखा और आज भी उसी तरफ बढ़ रहे हैं जो तमाम विभाजनकारी ताकतों को खाद-पानी उपलब्ध कराता है। अपने अतीत की कपोल-कल्पित समृद्धि हमें अत्यधिक आकृष्ट करती है। दुनिया भर की वैज्ञानिक खोजों और आविष्कारों को भी हम निर्लज्जता के साथ धर्म के संकुचित दायरे में समेट देते हैं। धर्म जो वैसे तो नैतिकता और मानवता के प्रसार की बातें करता है लेकिन मौका पाते ही अपनी कमीज उजली होने का दावा करने और अपनी बात मनवाने के लिए खून खराबे करने से भी नहीं चूकता। नास्तिकता उसे इतनी खतरनाक लगती है कि उसे बर्दाश्त कर पाना उसके लिए संभव ही नहीं। इक्कीसवीं सदी की तथाकथित आधुनिकता में हो कर भी हम तब आश्चर्य से भर जाते हैं जब हम छठीं शताब्दी पूर्व बुद्ध के विचारों को पढ़ते हैं या फिर चौदहवीं शताब्दी के क्रांतिकारी सन्त कबीर के दोहों और साखियों से हो कर गुजरते हैं। फिलहाल, आज धर्म और उसकी कट्टरता के बारे में बात करना अपने लिए तमाम तरह के खतरे आमन्त्रित करना है। युवा आलोचक वैभव सिंह ने गाँधी को आधार बना कर कई एक महत्वपूर्ण समस्याओं पर विचार करने की मानीखेज कोशिश की है। हाल ही में आधार प्रकाशन से उनकी किताब प्रकाशित हुई है भारत : एक आत्म-संघर्ष। वैभव को उनकी इस महत्वपूर्ण किताब के प्रकाशन के लिए बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनका यह आलेख। तो आइए आज पहली बारपर पढ़ते हैं – वैभव सिंह की इसी किताब से लिया गया यह आलेख आस्था के अंधकार    

आस्था के अंधकार
वैभव सिंह

भारत  वह देश है जिसे सांप्रदायिकता के सर्वाधिक क्रूर कालखंडों के बीच से गुजरने के बावजूद स्वयं को आश्वस्त करना पड़ा है कि एक दिन वह शांत और हिंसामुक्त देश बन जाएगा। आधुनिकता का उसका स्वप्न सांप्रदायिकता जैसी कुछ असाध्य समस्याओं के कारण बार-बार खंडित हो जाता है। उसे सांप्रदायिकता के रूप में अपने घर में बैठे शत्रु को घर से निकाल पाना कठिन लगता है। देश में फैले इस दीमक ने सारी दवाइयों के विरुद्ध अपनी प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर रखी है। देश की स्वतंत्रता का जन्म ही भयंकर सांप्रदायिक हिंसा के मध्य हुआ था। दुनिया में हालांकि और मुल्क भी विभाजित हुए हैं जैसे जर्मनी, कोरिया, पाकिस्तान (जब बांग्लादेश बना), सोवियत संघ (जब कई राज्य विखंडित हो कर अलग हुए), चीन आदि पर उन्होंने दो धर्मों की सीधी धार्मिक हिंसा को नहीं झेला जिसमें केवल इसलिए लोग मारे जा रहे हों क्योंकि वे किसी अन्य धर्म के हैं। डेढ़ करोड़ लोगों का विस्थापन और करीब पांच लाख लोगों की सीधी सांप्रदायिक हिंसा में मृत्यु। सब से बड़ी आबादी की अदला-बदली का कलंक उस भारत के साथ ही हमेशा के लिए जुड़ा है जो वसुधैव कुटुंबकम का संदेश देने के लिए स्वयं पर गर्वित होता है। इस अर्थ में भारतीय गणराज्य के जन्म की परिस्थितियां बेहद दुर्भाग्यजनक और अमानवीय रही हैं। यह वैसे ही है जैसे कहीं बच्चे के जन्म के समय जारी उत्सव की पृष्ठभूमि में शोक गीत बज रहा हो। आधुनिक राष्ट्रवाद को सांप्रदायिकता के अंधकार से गुजरना पड़ा है। इतिहासकार बताते हैं कि भारत में 1920 से पहले कुछ इलाकों में गोकुशी के कारण, मस्जिद के आगे संगीत बजाने या मोहर्रम के अवसर पर छिटपुट हिंसा के अलावा बड़े पैमाने पर दंगे नहीं होते थे। दंगे होने तब आरंभ हुए जब ये सवाल उठने लगा कि क्षेत्रीय ताकतें नष्ट कर दी जाएंगी और राष्ट्र की ताकत के आगे सब को सिर झुकाना पड़ेगा। यानी, राष्ट्र सबसे बड़ा शक्ति-केंद्र बन कर उभरेगा और जो उस पर वर्चस्व रखेगा, उसी का शासन चलेगा। इस तरह भारतीय समाज का जैसे-जैसे राष्ट्रीयकरण हुआ है, वैसे-वैसे विभिन्न धर्मों व जातियों से जुड़े नेताओं में होड़ की प्रवृत्ति बढी है। इस होड़ में अपने को जिताने के लिए और अपनी शक्ति के विस्तार के लिए अन्य, पराए या भिन्न की अवधारणा को विकसित किया है। उन्होंने राष्ट्र के प्रश्न को किसी जमीन-विवाद या संपत्ति विवाद की तरह देखा है। जिस प्रकार परंपरागत रूप से ऐसे विवाद हथियार एकत्र कर, लोगों में भय पैदा कर और सीधी हिंसा के सहारे हल किए जाते थे, वैसे ही हिंसा के बल पर उन्होंने राष्ट्र पर कब्जा जमाने की लड़ाइयां लड़ी हैं। विद्वता के क्षेत्र में असगर अली अंसारी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उन्होंने महत्वपूर्ण शोध में इस बात को साबित किया है कि कैसे सांप्रदायिकता की शुरुआत तब होती है जब अंग्रेजों की नौकरशाही में हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच पद, प्रोन्नति, आय आदि को लेकर खींचतान बढ़ने लगी थी। बाद में राष्ट्र के सवाल को उठा कर इन विवादों से पैदा होने वाली तनातनी, भय तथा गुस्से को व्यक्त किया जाने लगा। उन्होंने डेविल लेविलेन्ड के द्वारा जुटाए आंकड़ों का उल्लेख करते हुए लिखा है- यद्यपि सरकारी नौकरियों के लिए ये झगड़े बहुत कम अभिजात परिवारों तक सीमित थे लेकिन इन्होंने इसमें पूरे समुदाय को यह कह कर शामिल करना चाहा कि इसने सबको प्रभावित किया था। इस तरह के आंकड़े दर्शाते हैं कि 1867 में उत्तर-पश्चिमी प्रांतों और अवध में 333 मुसलमान 75 रुपये से अधिक कमा रहे थे और 1897 में यह संख्या 466 थी। इन्हीं वर्षों में हिंदुओं की संख्या 692 से बढ कर 1069 हो गई लेकिन यह जरूरी नहीं कि हिंदुओं की संख्या में यह वृद्धि मुसलमानों की कीमत पर ही हुई हो। पंजाब में भी इसी तरह के आंकड़े थे। इन्हीं आंकड़ो के आधार पर इंजीनियर आगे लिखते हैं- डेविड लेविलेल्ड के ये आंकड़े स्पष्ट दर्शाते हैं कि सरकारी नौकरियों की प्रतिस्पर्धा में बहुत कम हिंदू और मुसलमान शामिल थे। फिर भी इन्होंने सांप्रदायिक मुहावरों का प्रयोग कर अपने-अपने समुदायों से पूरा-पूरा समर्थन मांगने के प्रयास किए।
भारत में फैली सांप्रदायिकता के बारे में ये बातें जानना जरूरी है और खासतौर से उस दौर के आंकड़ों के बारे में जब व्यवस्थित तरीके से एक विदेशी सत्ता हिंदुओं और मुस्लिमों के मध्य विभाजन पैदा कर रही थी। यानी सांप्रदायिकता के जन्म के समय की परिस्थितियों को आलोकित कर वर्तमान सांप्रदायिकता के बारे में ज्यादा तर्कपूर्ण ढंग से समझा जा सकता है। सांप्रदायिकता की निरंतर तार्किक व्याख्या करना उसके विरुद्ध अपनाई जाने वाली रणनीति का सबसे अहम अंग हो सकता है। हम यह जान सकते हैं कि सांप्रदायिकता अपने में पूर्णतया स्वतंत्र समस्या नहीं है बल्कि वह सामाजिक व राजनीतिक दशाओं की उत्पत्ति है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अभी भी सांप्रदाय़िकता का मतलब लोग यही लेते हैं कि धार्मिक विश्वासों में मतभेद होने के कारण विभिन्न धर्मों के लोग आपस में लड़ जाते हैं। वे भोलेपन की हद मानते हैं कि किसी सर्वशक्तिमान भगवान को अलग नामों से पुकारने के कारण ही लोगों में झगड़े होते हैं। लाखों ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि अगर हिंदुओं के रास्ते से मुस्लिम हट जाएंगे तो हिंदू धर्म उन्नत सभ्यता-संस्कृति का निर्माण करने में सफल हो जाएगा। ऐसे झूठे विश्वास जिन लोगों के लिए सुनियोजित ढंग से फैलाए जाते हैं, वही लोग यह नहीं मानते कि वे किसी राजनीतिक प्रयासों के चलते अपने भीतर सांप्रदायिकता के जहर को जीने लगे हैं। उनके भीतर का जहर उन्हें जहरीला बना देता है। उनकी जागरूकता इस बारे में कम होती है कि सांप्रदायिकता का धर्म से कोई संबंध नहीं होता है। धर्म एक विश्वास-पद्धति है पर सांप्रदायिकता किसी अन्य धर्मानुयायी के प्रति हिंसक आचरण का नाम है। धर्म अगर जीवन का निजी पक्ष है तो सांप्रदायिकता उसका राजनीतिक पक्ष। धर्म अगर किसी अलौकिक शक्ति से संवाद है तो सांप्रदायिकता विभिन्न समुदायों के बीच मौजूद लौकिक शक्ति-संबंधों की उपज। धर्म मनुष्य को जीवन की नश्वरता के बारे में सचेत करता है तो सांप्रदायिकता भौतिक हितों को ही सर्वोपरि मानने को सोच पैदा करती है। धर्म यह नहीं कहता कि धार्मिक मतभेदों से साथ जिया नहीं जा सकता, जबकि सांप्रदायिकता इसी एक बात को तोते की तरह रटती है कि धार्मिक मतभेदों के बीच शांति नहीं हो सकती और किसी न किसी धर्म को विजेता, उत्पीड़क तथा मुख्य बल की तरह उभरना पड़ता है। धर्म प्रकृति, ईश्वर और जीव के मध्य के नैसर्गिक संतुलन की व्याख्या करता है तो सांप्रदायिकता धर्म के इस दार्शनिक पक्ष की उपेक्षा कर धर्मों के बीच जारी शक्ति-संतुलन के संघर्ष में अपनी रुचि व्यक्त करती है। वह धर्मनिरपेक्ष राज्य में धार्मिक अशांति पैदा करने वाली अपनी भूमिका के जरिए बहुत सारे लोगों को लाभ और बहुत से लोगों को नुकसान पहुंचाती है। उसके सामाजिक कार्यक्रमों में लगातार भारत की विविधता पर परदा डाल कर भारत को केसरिया के एकरंग में रंग देना शामिल है। यह विभिन्न रंग वाले फूलों के बगीचे को उजाड़ कर उसकी जगह किसी एक ही गंधहीन व गुणहीन झाड़ी-झंखाड़ की खेती करने की कोशिश है, हालांकि उसे वहीं सब से अधिक गंभीर बाधा का सामना करना पड़ता है। अमर्त्य सेन ने लिखा है- सांप्रदायिक शक्तियों को भारतीय धर्मनिरपेक्षता को ध्वस्त या समाप्त करने के लिए सिर्फ भारतीय मुसलमानों के अधिकारों और मौजूदगी से नहीं निपटना होगा बल्कि भारत की क्षेत्रीय, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता से भी निपटना होगा। विभिन्नता को सहन करने की शक्ति या स्वभाव को आसानी से नहीं बांधा या बदला जा सकता है।
धर्मनिरपेक्षता को एक चुनौती धर्मों के भीतर मौजूद हिंसा के उकसावे, धर्मविरोधियों से प्रतिशोध लेने की प्रेरणाओं से भी मिलती है। इस्लाम हो या हिंदू धर्म, दोनों के ही धर्मग्रंथ निजी नैतिकता को महत्त्वपूर्ण नहीं मानते हैं। वे धर्म को व्यक्ति से ऊपर मानते हैं। इसीलिए जीवन में दुविधा या असमंजस के क्षणों में व्यक्ति को अंतरात्मा की आवाज सुनने के स्थान पर बाह्य धर्म की आवाज सुनने के लिए बाध्य करना चाहते हैं। वे धर्म को भी निजी विषय नहीं मानते बल्कि संबंधियों, वर्ण-जाति, पुरोहित, कुटुंब, परिवार आदि के संदर्भ में धर्म को समझने के लिए दबाव डालते हैं। इसीलिए भगवदगीता में कृष्ण का अर्जुन को यही उपदेश है कि वह निजी करुणा से विगलित न हो और धर्म के सामाजिक रूप की रक्षा के लिए संहार व हिंसा करने में किसी प्रकार का संकोच न करे। रामायण में भी ज्यादातर प्रसंग युद्ध या युद्ध की संभावना से भरे हुए हैं जहां राम का युद्ध भी धर्म के राजनीतिक व सामाजिक रूप की रक्षा करने से प्रेरित है। इस्लाम में जेहादकी अवधारणा भी धर्मनिरपेक्षता को असंभव आदर्श मान कर हिंसा व युद्ध की जुबान बोलना सिखाती है। अर्थात धर्म का थियोलाजिकल हिस्सा भी धर्मनिरपेक्षता के आगे लगातार मुश्किलें खड़ी करता है और धर्मनिरपेक्षता के लिए चिंतित बुद्धिजीवी धार्मिक कथाओं के हिंसक प्रसंगों की भिन्न प्रकार से व्याख्या कर इनकी चुनौती से निपटने का प्रयास करते हैं पर ये प्रयास भारतीय समाज पर धर्म के विराट असर के आगे बहुत मामूली और तुच्छ प्रतीत होते हैं। अब इन प्रसंगों को न तो मिटाया जा सकता है क्योंकि ये भारतीय समाज के कथा-बोध का अनिवार्य भाग हो चुके हैं। धर्म-ग्रंथों पर प्रतिबंध लगाना भी अव्यवहारिक सुझाव होगा जो शायद किसी बुद्धिमान नास्तिक को भी अटपटा लगे। ऐसे में आखिरी विकल्प यही है कि समाज में धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया में गति लाने के लिए विवेकवादी और तर्कवादी शिक्षा पद्धति को स्कूलों, कालेज या विश्वविद्य़ालयों में बढ़ावा दिया जाए। धर्मनिरपेक्षता को धर्मविरोधी नहीं बल्कि सांप्रदायिकता के विरोधी की तरह प्रस्तुत किया जाए। भारतीय मध्य-वर्ग के बड़े हिस्से में वैज्ञानिकता व आधुनिकता के मूल्यों के प्रति आकर्षण है और धर्मनिरपेक्षता को इन्हीं मूल्यों का सौम्य विस्तार बताना चाहिए। वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति के माध्यम से धर्मनिरपेक्षता को केवल अभिजन विचार मानने के आग्रह को बदला जाए। स्वतंत्रता के बाद नेहरू के नेतृत्व में जो अभिजन धर्मनिरपेक्षता विकसित की गई थी, उसका भारतीय समाज से ज्यादा गहरा संबंध नहीं था। धर्मनिरपेक्षता को अभिजनवादी विचार की तरह न केवल अपनाया गया बल्कि उसे इसी रूप में प्रचारित भी किया गया। वह जीवन में निहित गहरे मूल्य के स्थान पर अमीर लोगों के घरों में टंगी महंगी चित्रकला या विदेशी सिगार की तरह हो गई। शराब, सिगरेट वाली ऊंची पार्टियों में खुद को सेक्युलर मान कर डर्टी कम्युनलिस्ट, रस्टिक, गंवार धार्मिक जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता रहा है। इसीलिए इस धर्मनिरपेक्षता को केवल दक्षिणपंथी राजनीति करने वालों के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा है, बल्कि एक आम नागरिक भी इसे संदेह की निगाह से देखता है और उच्चशिक्षित अभिजनों का विचार मानता है। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता को आम जनता को उसके धर्म से वंचित कर देने वाले षडयंत्र की तरह प्रस्तुत करना ज्यादा दुःसाध्य काम नहीं रह जाता है।
 
सांप्रदायिकता ने मानव-संबंधों के न जाने कितने निश्छल तथा मासूम रूपों को नष्ट किया है। इसने इंसान को दुष्ट, झूठा और हिंसक बनाने का काम किया है। इसने इंसान को तर्कशीलता नहीं बल्कि कुतर्क और अफवाह पर यकीन करने के लिए प्रेरित किया है। आज के समय में, जहां संचार तकनीक ज्यादा विकसित है, वहां धर्म को ले कर अफवाहें फैलाना आसान हो गया है और कहीं दूर-दराज भी कोई घटना होती है तो उसके बारे में फैलती अफवाहों के कारण इंसान की धार्मिक चेतना तेजी से संघनित हो जाती है। सांप्रदायिकता ने बार-बार मीडिया या सियासत के जरिए विधर्मी की उपस्थिति का भय पैदा किया है। मनुष्य अपने सर्वाधिक कोमल आध्यामिक क्षणों में भी अनुपस्थित ईश्वर को साकार नहीं कर पाता है बल्कि किसी साक्षात उपस्थित विधर्मी से जूझने लगता है। पूजा-पाठ, इबादत या अरदास के समय विधर्मी को ले कर भयभीत होने के स्थान पर अपने धर्म को याद करने से वह वंचित होता जाता है। हम यह भी जानते हैं कि उपासना के बाद मनुष्य की तरह सामान्य जीवन जीने की चाह सभी में होती है। मनुष्य एक साथ धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष जीवन जीने के लिए बना है और उसकी इसी क्षमता को सांप्रदायिकता क्षरित करती है। मनुष्य एक साथ कई धार्मिक सांस्कृतियों के बीच शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए प्राकृतिक तौर पर समर्थ है। पर कितने ही प्रेम-संबंधों, मित्र-संबंधों, बाल-मैत्रियों, पड़ोसियों के तालमेल, सांस्कृतिक भागीदारी को विकृत किया है और उन्हें तनावपूर्ण संदेहों में बदला है। व्यक्ति मनोविज्ञान व समाज के मनोविज्ञान को जोड़ कर देखें तो भी कई निष्कर्ष निकलते हैं। जिस तरह व्यक्तित्व की विनम्रता किसी की आत्मा की शक्ति की परिचायक होती है, उसी तरह समाज की सहिष्णुता भी उस समाज की भीतरी सुदृढता और गहनता का परिचय देती है। आक्रामकता और चिड़चिड़ाहट से भरा आचरण व्यक्तित्व की आंतरिक दुर्बलता को व्यक्त कर देता है और इसी तरह तरह-तरह की सामाजिक हिंसाएं समाज की भीतरी बेतरतीबी तथा अव्यवस्था को उजागर करती हैं। सांप्रदायिकता से ग्रसित समाज भी भीतर की टूटन व कमजोरी को व्यक्त करता है। 
भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने भी आग में लगातार घी डाला है और उसने प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकताओं को ही धर्मनिरपेक्षता की तरह परिभाषित कर दिया। सांप्रदायिकता हमेशा ही धर्मगुरुओं की बातों, उनकी छवियों और बातों के बल पर समाज में अपना स्थान बनाती है। दुर्भाग्य यह है कि उन्हीं धर्मगुरुओं को आगे कर, उन्हें मीडिया में ज्यादा से ज्यादा स्थान देकर धर्मनिरपेक्षता पर बहस की जाने लगती है। धर्मनिरपेक्षता के लिए धार्मिक प्रतीकों पर निर्भरता एक तात्कालिक कार्रवाई हो सकती है, पर वह स्थायी रणनीति नहीं हो सकती है। इस छद्म धर्मनिरपेक्षता ने भी सामाजिक जीवन में वैमनस्य और संदेह को मुख्य भाव के रूप में स्थापित किया है। छद्म धर्मनिरपेक्षता केवल वह नहीं होती जिसमें अल्पसंख्यकों के हितों को बढ़-चढ़कर समर्थन दिया जाता है, जैसा कि हिंदू दक्षिणपंथी संगठन बताते हैं। छद्म धर्मनिरपेक्षता वह होती है जिसमें बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक, दोनों ही धर्मों के कथित प्रवक्ताओं, धर्मगुरुओं या धार्मिक नेताओं के हाथों में धर्मनिरपेक्षता का भविष्य सौंप दिया जाता है। वे अपनी सुविधानुसार धर्मनिरपेक्षता के बारे में कुछ व्याख्याएं तय करने लगते हैं। इस छोटे रास्ते के सहारे जो धर्मनिरपेक्षता मिलती है, वह बड़ी क्षणभंगुर होती है और सार्वजनिक जीवन में धर्म की आलोचना करने के मार्ग में अवरोधक बन जाती है। वह नागरिक-चेतना को तार्किक, वैज्ञानिक और आधुनिक बनाने से रोकती है। इस प्रकार छद्म धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता, दोनों ने ही इसने मनुष्य को अपनी मूल समस्याओं से भटकाने के ढेरो बदरंग प्रयास किए हैं। सांप्रदायिकता के भीतर से निकले मूर्खतापूर्ण व झूठे तर्कों को एक साधारण ही नहीं बल्कि उच्चशिक्षित अभिजन मनुष्य भी अपने विवेक का हिस्सा बनाने के लिए बाध्य हो गया है। भारतीय समाज की एकता के लिए जो सबसे खतरनाक बातें हैं, वही अब बगैर खास प्रतिरोध का सामना किए सबसे अधिक प्रचार हासिल कर रही हैं। जो विषाक्त वाक्यों, घृणापूर्ण नारों तथा असंस्कृत आचरण का प्रयोग करने वाले लोग हैं, वे मीडिया में प्रमुख प्रवक्ता या वक्ता की तरह दिखने लगे हैं। उन्होंने बहस के स्थान पर चीख-पुकार और शोर की शैली को अपनाकर विरोधियों की आवाज को दबाना शुरू कर दिया है। बौद्धिक ताकत पर फेफड़ों की ताकत (lung power) भारी पड़ रही है। वैसे भी समाज में घृणा, असहिष्णुता, नफरत और हिंसा को फैलाना काफी आसान काम होती है। खासकर भारतीय समाज में जहां लोग तरह-तरह के अभावों की कठोर गिरफ्त में रहते हैं और ऐसी नकारात्मक ताकतों के हाथ में आसानी से खेलने लगते हैं। जिनके घरों की दीवारें ढह रही हों, वे हल्के से उकसावे पर दूसरों का घर जलाने के लिए निकल सकते हैं। ऐसे समाज में सहिष्णुता और प्रेम की संस्कृति केवल उपदेशों से पैदा होगी, इसपर संदेह रहता है। जब तक लोगों को अपने अभावों का सही कारण नहीं पता होगा और अभावों से लड़ने का सही नेतृत्व उन्हें नहीं उपलब्ध होगा, तब तक वे सहिष्णुता के वास्तविक अर्थ भी नहीं आत्मसात कर सकेंगे। कोई भी छोटी सोच का, चालाक, धूर्त सत्ता लोभी नेता आएगा और उनके बीच सांप्रदायिक मनोवृत्ति के बीज बिखेर कर चला जाएगा। एक समय समाजवाद, साम्यवाद तथा गांधीवाद आदि विचारधाराएं भारतीय सामाजिक जीवन में शक्तिशाली उपस्थिति रखती थीं और निरंतर लोगों को धर्म-संप्रदाय के दलदल में धंसने के स्थान पर भौतिक अभावों से जूझने के लिए प्रेरित करती थीं। अब इन विचारधाराओं के घटते प्रभाव ने भी सांप्रदायिकता के नव-उभार के लिए परिस्थितियां तैयार की हैं। जो हिंदू धर्म की संरचना को इस्लाम या कट्टर ईसाइयत की तरह बनाना चाहते हैं, वे सबसे ज्यादा देसी, भारतीय या जमीन से जुड़ने का दावा कर रहे हैं। दूसरी ओर जो हिंदू धर्म की विविधता, एकेश्वरवाद से उसके मूल विरोध, धर्म में विशेष धार्मिक ग्रंथ की केंद्रीयता के अभाव, धर्मच्युत करने की परंपरा के न होने के आधार पर हिंदू धर्म को देखना चाहते हैं, वे भी धर्म-विरोधियों तथा नास्तिकों की श्रेणी में रख दिए जाते हैं। हिंदू धर्म में किसी को नास्तिक नहीं माना जा सकता। भले ही वह पूजा-पाठ नियमित न करता हो और किसी एक देवस्थल पर किसी खास समय या पर्व पर जा कर ईश्वर का स्मरण न करता हो। हिंदू धर्म को किसी धार्मिक नेता की आवश्यकता नहीं है। पर जो लोग आवश्यकता न होने पर भी इस आवश्यकता को जबरन पैदा कर रहे हैं, वे धर्म नहीं किन्ही धर्मेतर लक्ष्यों के लिए ऐसा कर रहे हैं। पर यह सुख की बात है कि हिंदू धर्म के पक्ष में आज जो वकालत करते हैं, वे खुद काफी बंटे हुए हैं। मान्यताओं के स्तर पर बुरी तरह विभाजित हैं। यह विभाजन हमें आश्वस्त करता है कि हिंदू धर्म की आंतरिक विविधता ही हिंदू धर्म की सांप्रदायिकता पर रोक लगाने का काम करेगी।
मेरे अपने छोटे से, आलसी तथा संतुष्ट शहर उन्नाव में, जो कानपुर से 22 किलोमीटर पश्चिम में बसा है वहां की धार्मिक दुनिया कभी संकीर्ण नहीं रही। धर्म और धार्मिक संकीर्णता के फर्क को किताबों से बाहर समझना हो तो ऐसे ही किसी पारंपरिक पुराने और छोटे शहरों की गलियों में भटकने का वक्त निकालना चाहिए। वहां मौजूद छोटे पंसारियों, सब्जी मंडी या पान की दुकानों के चक्कर लगाने चाहिए। शहर में मस्जिदों की अजान, गुरुद्वारों की वाणियां और मंदिरों के घंटे कभी एक-दूसरे के विरोध में नहीं रहे हैं। शहर के पुराने हनुमान मंदिर के सबसे पुराने पुजारी का आवास मुस्लिम बहुल इलाके में रहा है और उन्हें इसका मलाल नहीं रहा। वह अक्सर साथ रहने वाले मियां रहमान के साथ एक ही रिक्शे पर बैठ कर मंदिर आते थे। दशहरा मनाते समय सबसे पहले मुस्लिम कारीगर बुलाए जाते हैं जो रावण और उसके मिथकीय परिजनों के पुतले बनाने का काम करते हैं। शहर में पटाखे और चूड़ियां बेचने वाले अधिकांश लोग मुस्लिम हैं और मुख्य बाजार में बड़ी दुकानें सरदारों के हाथ में रही हैं। शहर की सबसे बड़ी साड़ी की दुकान, जो मुख्य रूप से हिंदू स्त्रियों के लिए निरंतर आवागमन का केंद्र रही है, उसका नाम सलमा साड़ी सेंटर है। सबसे नफीस दर्जी, सिवइयां बनाने वाले हलवाई और नेकदिल डाक्टर मुस्लिम होते थे। मुस्लिम डाक्टर अपने हिंदू मरीजों से साफ उर्दू में बात करते थे। कथित मुस्लिम बहुल इलाके में कभी ऐसी घटना नहीं सुनने को मिली जिसमें किसी हिंदू लड़की, युवती या महिला के साथ कोई दुराचरण हुआ हो। शहर के सामान्य जीवन में दो संस्कृतियां इतनी करीब रहीं हैं, इतना मिलजुल कर रही हैं कि किसी का इसपर ध्यान भी नहीं जाता था। कुछ इलाके सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील माने जाते रहे हैं। पर शहर के रोजमर्रा के धीमी गति से चलते सामाजिक जीवन में वहां से आने वाली खबरें या अफवाहें खास महत्त्व नहीं रखती थीं। शहर का सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने के पहले संकेत 1990-91 में मिलने लगे जब शहर के मुख्य सभास्थलों पर साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती तथा अशोक सिंघल जैसे लोगों के भाषण आयोजित होने लगे। भारत को पाकिस्तान के बंटवारे के बाद टूटे और आहत भूखंड की तरह बताया जाता है जो फिर से मुसलमानों के हमले का शिकार हो रहा है। यह बार-बार कहा जाता था कि हिंदू अगर भारत में ही सुरक्षित न रहे तो फिर कहां जाएंगे। कश्मीर का हवाला देकर कहा जाता था कि वहां हिंदुओं का अल्पसंख्यक बना दिया गया है और हिंदू लड़कियों की जांघ पर गर्म लोहे की छडों से पाकिस्तान जिंदाबाद लिख दिया जाता है। हर मुसलमान के छह पत्नियां और 30-35 बच्चे होते हैं। यानी, उस समय उन्माद के नए-नए प्रचारक पूरे उत्तर भारत को रौंदने लगे। वे हिंदुओं की वीरता, युद्ध-क्षमता और बदला लेने की शक्ति को क्यो ललकार रहे हैं, तब खास समझ नहीं आता था। ये जरूर लगता था कि वे बड़े लोकप्रिय हैं और लोग उनको बड़ी तादाद में सुनने के लिए जमा होते हैं। कुछ आवारा किस्म के मेरे ही जैसे 19-20 साल की उम्र वाले लड़के उन्हीं दिनों मेरे साथ भी घूमते थे और मुझे भनक लगने लगी थी कि वे रात में मुस्लिम इलाकों में जाकर छूरेबाजी जैसी घटनाएं करना चाहते हैं। वे सांप्रदायिक नेताओं के भाषण सुन कर आते थे और प्रतिशोध लेने के जुनून से भरे रहते थे। हिंसा करने की चाह को अगर किसी झूठे आदर्शवाद का सहारा मिल जाए तो वह और भयावह हो जाती है। उनका मनोविज्ञान अपने युवा जीवन को उदार व सहिष्णुतावादी विचारों के विरुद्ध सक्रिय करने के लिए उकसाता था। उनमें से एक ने मुझे भी रात में नौ बजे मुस्लिम इलाके में चलने के लिए कहा था। शहर से सबसे व्यस्त इलाके वाले चौराहे पर सबको रात साढे आठ बजे एकत्र होना था और वहां से अलग-अलग टोलियों में मुस्लिम इलाके में जाना था। मैं भी दोस्ती निभाने के लिए, जो उस उम्र में बहुत बड़ा मूल्य मानी जाती है, उनके साथ एकजुटता जताने के लिए जा पहुंचा। एक पारंपरिक समाज में निजी विवेक के प्रदर्शन को अच्छा नहीं माना जाता और अगर सामूहिक रूप से आपराधिक निर्णय हो रहे हों तो उनका अनुमोदन करना भी अच्छा माना जाता है। पर माता-पिता के डर, उन लड़कों में से कुछ से स्वाभाविक नफरत तथा हिंसा की आशंका ने मेरे कदम रोक दिए। मैं उनसे छिटक कर एक दुकान के पीछे खड़ा हो गया और उन्हें जाते देखता रहा। उनके पास देसी बंदूके और धारदार हथियार भी रहे होंगे जो उन्होंने अपनी ढीली कमीजों के भीतर छिपा रखे थे। सीने में दिल हथौड़े की तरह ठक-ठक वार कर रहा था। उस रात दोस्तों के साथ धोखा करने और किसी बुरी घटना की संभावना, दोनों से पैदा हुए दुःख ने मुझे सोने नहीं दिया। लगता रहा कि मेरा संपूर्ण अस्तित्व किसी घोर आत्म-लज्जा का शिकार हो चुका है। वह अस्तित्व किसी पश्चाताप की गीली सेज पर सोया हुआ है और भीतर व्यथा के कांटों से लहूलुहान हो रहा है। पर बाद में अखबार में मुस्लिम इलाके में हिंसा की खबरें छपी थीं और वहां शहर के डी एम ने पुलिस तैनात करा दी थी। उसनें मुझे मित्रता के साथ छल, वीरता प्रदर्शन से पलायन और धर्म के काम न आने के पछतावों से बचा लिया। तनाव के समय सांप्रदायिक हिंसा को भी एक नैतिक कर्म मान लिया जाता है। इस हिंसा में लिप्त लोग अपने को गुंडा या अपराधी न मान कर समुदाय-धर्म की रक्षा में तैनात सिपाही की तरह देखने लगते हैं। इस कारण तटस्थ युवाओं का भी एक हिस्सा सांप्रदायिक तनाव के समय गुंडों और अपराधियों के साथ मिल कर आगजनी, हिंसा या बलात्कार जैसे घृणित कर्म करने निकल पड़ता है।
 
यह मायूसी पैदा करता निजी किस्म का आत्मवृत्तांत है। ऐसे आत्मवृत्तांत केवल दूसरों को नहीं बल्कि खुद को स्थिति की भयावहता स्पष्ट करने के काम आते हैं। इनका वर्णन इसलिए जरूरी प्रतीत होता है क्योंकि नब्बे के दशक से ही देश का हर युवा इस विडंबना का शिकार बनाया जा रहा है। देश-दुनिया के बारे में उसकी थोड़ी कच्ची समझ के कारण उसे सांप्रदायिक अभियानों से जोड़ा जा सकता है। वह कभी भी अचानक ही किसी सांप्रदायिक समूह या दल के प्रति आकृष्ट होने के लिए विवश हो सकता है। उसके स्वप्नों को रूमानियत, प्रेम और मस्ती से काटकर हिंसा के किसी भयानक प्रोजेक्ट की तरफ मोड़ा जा सकता है। उसे अपनी उम्र में स्वाभाविक तौर पर पैदा हुई कविता की मनोदशा से अलग कर घृणा के संवाद बोलते नाट्यकथा के पात्रों में बदला जा सकता है। क्रूरता करने और क्रूरता को ही पुरुषत्व का पर्याय मानने के वैचारिक माहौल से बांधकर रखा जा सकता है। उसके मस्तिष्क को हिस्टीरिकल, मनोरोगी, विरूपित किया जा सकता है। हमने अफगानिस्तान, ईराक, पाकिस्तान और नाइजीरिया के कितने ही नौजवानों को मजहब के नाम पर हाथ में बंदूक लिए देखा है और उनकी हालत पर अफसोस जाहिर किया है। क्या भारत भी धर्म के नाम पर छूरे, तलवार और देसी तमंचों से सजे-धजे नौजवानों का घर बन जाएगा जो रातों में कत्ल करने या गो-विरोधियों को ढूंढने निकलेंगे और दिन में पुलिस से जान बचाने के लिए भागते दिखेंगे? क्या ये नौजवान इस बात के लिए बाध्य कर दिए जाएंगे कि वे आधुनिकता के साथसाथ अपने भीतर मध्यकालीन तंगख्याली के ढेरों लक्षणों को जीवित रखें? वे कुछ बुरे प्रोपेगंडा के शिकार होने के कारण तर्कशील मनुष्य की तरह सोचने के सारे अवसरों से वंचित कर दिए जाएंगे? क्या अपने समाज के नौजवानों के भीतर लावा की तरह उबलती कुंठाओं का कोई हल है हमारे पास? क्या उनका यौवन दूसरों के लिए मुसीबतें और खूनखराबा पैदा करने में गर्क कर दिया जाएगा? कुंठित व्यक्ति को यह तो पता होता है कि उसके जीवन में कितने कष्ट हैं पर उसे यह नही पता होता कि उसके जीवन में खुशियां कितनी हैं। वह अपनी खुशियों को अपने जीवन से अर्जित करने के स्थान पर दूसरों के दुःखों के माध्यम से अर्जित करने लगता है और इस प्रक्रिया में अपनी कुंठा से तो मुक्त नहीं होता पर उस कुंठा के कारण अपने ही अस्तित्व से पैदा होने वाली घृणा को जरूर कुछ हलका बनाने में कामयाब हो जाता है।
पर इतनी सांप्रदायिकता आ कहां से रही है? क्यों ऐसा है कि देश की इस सबसे विशाल समस्या के सामने बार-बार अपने को खड़ा पाते हैं?हमने सांप्रदायिकता की जीवित रखने की कोशिश करने वालों के वर्गों की सही व्याख्या की भी है या सांप्रदायिकता को केवल मानवीय समस्या की तरह समझने के कुछ भावुक प्रयास कर रहे हैं? धर्मनिरपेक्षता के साथ सबसे नकारात्मक बात यह है कि धर्मनिरपेक्षता पर तभी बल दिया जाता है जब इसे सांप्रदायिकता की ओर से खुली चुनौती प्राप्त होती है। जबकि सच यह है कि सांप्रदायिक किसी खुली चुनौती, प्रत्यक्ष गतिविधि के बगैर या धर्मनिरपेक्षता को खुले तौर पर ललकारे बगैर भी अपना विस्तार करती रहती है।  सांप्रदायिकता जंगल की उस आग की तरह होती है जो कहीं अनदेखे ढंग से सुलग रही होती है। वह दीमक की तरह होती है जो बेआवाज, शांति से समाज को खोखला करने में दिन-रात लगे रहते हैं। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता को भी निरंतर अपना पक्ष रखने या अपने सिद्धांतो के बारे में प्रशिक्षण प्रदान करने का काम करते रहना चाहिए। उसका काम आग लगने पर फायर ब्रिगेड की भूमिका अदा करना नहीं बल्कि बाग के माली का काम है जो कांटे और झाड़ी को पैदा होने से पहले ही छांट देता है। ज्यादा बुरा है कि इस विज्ञान-तकनीक के युग में भी धार्मिंक शिक्षा को पाठ्यक्रम में शामिल करने की जिदें जन्म ले रही हैं। आई आई टी जैसे संस्थानों पर दबाव है कि वे प्राचीन हिंदू ग्रंथों में विज्ञान की उपस्थिति का पता लगाएं। जब हिंदी को सरकार उसका उचित सम्मान नहीं दिला पा रही है तो भी वह संस्कृत को उसका सम्मान दिलाने का पाखंड कर रही है। प्रमुख अंग्रेजी लेखिका नयनतारा सहगल ने इसी विषय पर 2 मई 2016 के द ट्रिब्यून में लिखा- प्राचीन विज्ञान के अन्वेषण के लिए केवल संस्कृत ग्रंथों पर ही निर्भरता क्यों। तमिल ग्रंथों पर क्या नहीं। या पाली भाषा पर क्यों नहीं ध्यान जाता। कहीं हम पाकिस्तानी शासक जिया उल हक के उस रास्ते की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं जहां उसनें वैज्ञानिक विषयों में शिक्षक बनने के लिए भी कुरान और शरीयत की जानकारी को अनिवार्य बना दिया था।
 
जब विज्ञान-तकनीक के मामले में भारत सचमुच पिछडा हुआ था तब आधुनिक शिक्षा की वकालत की जाती थी। पर अब उलटा हो रहा है। यह बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति को धर्म से अलग करने का उद्देश्य केवल राजनीति के धर्म से अलगाव तक सीमित नहीं रहता। बल्कि जीवन के अन्य पक्षों जैसे शिक्षा, विज्ञान, व्यापार, न्यायालय आदि से भी धर्म को दूर रखने के रूप में धर्मनिरपेक्षता अपने अर्थों को प्राप्त करती है। राजनीति के साथ धर्म की दोस्ती का मतलब है कि जीवन के उपरोक्त सभी पक्षों पर धर्म का स्वतः कब्जा। धर्म राजनीति में इसलिए प्रवेश करता है ताकि धर्म के पंजे से छूट कर बाहर भागने वाले मनुष्यों की देह पर धर्म फिर से अपने दांत गड़ा सके। खुद गांधी ने स्वतंत्रता के बाद कभी यह नहीं स्वीकार किया कि भारत को धार्मिक शिक्षा की आवश्यकता है। शिक्षा में सांप्रदायिकता की समस्या को ले कर गांधी क्या सोचते थे, इस पर उनके द्वारा संपादित पत्र हरिजन की पुरानी फाइलों को काफी खंगाला तो अंत में स्वतंत्रता के कुछ ही दिनों पश्चात शिक्षा के बारे में लिखित उनके एक लेख पर दृष्टि गई। जाकिर हुसैन ने उनके प्रश्न किया था कि आप शिक्षा में धर्म-सांप्रदायिकता के प्रवेश के खतरे के बारे में क्या सोचते हैं। गांधी जैसा धार्मिक व्यक्ति, जिस पर हिंदू भावनाओं के प्रचार का आरोप भी वामपंथियों या नेहरू जैसे समाजवादियों ने लगाया था, उनका उत्तर सचमुच हैरान करने वाला था। उनका दो टूक उत्तर था-
मैं इस बात से बिलकुल सहमत नहीं हूं कि सरकार को धार्मिक शिक्षा देनी चाहिए। अगर कुछ लोग खराब किस्म की धार्मिक शिक्षा देना ही चाहते हैं, तो आप उन्हें नहीं रोक सकते हैं। सरकार ज्यादा से ज्यादा सभी सभी पक्षों की सहमति से सभी धर्मों में निहित साझी नैतिकता व अच्छी बातों की शिक्षा दे सकती है। पर असल बात यह जरूर समझनी चाहिए कि हमारा देश एक धर्मनिरपेक्ष देश है।
 
गांधी की प्रार्थना सभाओं में सबको सन्मति दे भगवान वाली राम धुन बजती थी और इसका खास मतलब था। यह धुन मनुष्य के अंदरूनी विष को खत्म करने का संगीतात्मक प्रयास थी। उसकी आत्मा की बिगड़ी हुई लय को फिर से लय की तरफ लाती थी। यह केवल दिखावे भर की मशीनी प्रार्थना न थी बल्कि हिंसा की संस्कृति में शांति के लिए अटूट आस्था जताने वाली प्रार्थना थी। पर क्या बुद्ध, नानक, गांधी की परंपरा भारत में सचमुच खतरे में नहीं है? सच यह भी है कि हमने खुद को ज्यादा व्यवहारिक पीढ़ी मान लिया है। व्यावहारिकता के प्रति अति विश्वास के कारण हमने गांधी जैसे नेता को भी अव्यावहारिक राजनेता की श्रेणी में रख दिया जिसका महत्त्व 2 अक्टूबर को राजघाट पर फूल चढ़ाने या प्रार्थना करने तक सीमित रह गया है। हम अपने भीतर गांधी को नहीं आने देना चाहते क्योंकि गांधी के बारे में फैली धारणाओं से हम असहमत हैं। पर खुद गांधी के जीवन को ध्यान से देखें तो बहुत प्रतीत होता है कि ईश्वर, सादगी, उपासना आदि के बाहरी आवरण के अंदर गांधी बेहद चतुर तथा व्यवहारिक राजनेता थे। वह नास्तिकों से ज्यादा तर्कशील थे। वह सिद्धांत की कर्कशता से ज्यादा जीवन की सहजता को जी कर ही ज्यादा सार्थक नेतृत्व दे सके। उनकी 1909 की पुस्तक जो पाठक-संपादक की संवाद शैली में रचित है, हिंदू-मुस्लिम एकता की सबसे प्रचंड समर्थक है। इसीलिए कहा जाता है कि सांप्रदायिकता से मुक्त जिस आइडिया आफ इंडिया के लिए हम इतने परेशान रहते हैं, उसकी सबसे अच्छी कल्पनाएं हिंद स्वराजमें मौजूद हैं।
व्यवहारिक स्थितियों के अनुसार फैसले लेने की क्षमता को ले कर गांधी के बारे में कई किस्से प्रचलित हैं। 1946 के आसपास एक कट्टर नास्तिक उनके पास गया था और ईश्वर के बारे में उनके मतों का खंडन करने लगा। वह हाल ही में कलकत्ते से लौटा था जहां 1943 में बंगाल में पड़े भयंकर अकाल के कारण सड़कों पर स्त्रियों-बच्चो-बूढ़ों की मौतें हो जाती थी। वहां उसने देखा था कि किस तरह मिठाई की दुकानों या होटलों के आगे से भूखे लोग गुजर जाते थे पर ईश्वर और धर्म के आतंक के कारण वे इतने सहमे रहते थे कि उन दुकानों की सामग्री के लिए लूटपाट नहीं करते थे। कलकत्ते के इस डरावने हालात ने उसके मन से ईश्वर को हमेशा के लिए निकाल दिया। जब वह गांधी से भी नास्तिक बनने के लिए कहने लगा तो गांधी ने बड़े ध्यान से उसकी बातें सुनीं। फिर यह भी कहा कि मेरे लिए ईश्वर पर विश्वास करने का मतलब है देश के सामान्य जनों की दुःख-तकलीफों को खत्म करने के लिए संघर्ष करना। उन्हीं के शब्दों में- पहले मैं कहता था कि ईश्वर सत्य है। यानी- God is truth. पर बाद में मैंने यह धारणा अंगीकार कर ली कि सत्य ही ईश्वर है। यानी- Truth is God.  इस तरह गांधी खुद ईश्वर या धर्म के बारे में रूढ़ विश्वासों के कायल न थे। बीसवीं सदी के सबसे विश्वसनीय और सच्चे हिंदू समझे जाने वाले गांधी ने धर्म के बारे में यह भी कहा था- To the poor man, God is the loaf of bread.
 
बंगाली लेखक पन्ना लाल दास गुप्ता ने इसी तरह अपनी 1955 में लिखी महत्वपूर्ण पुस्तक रिवोल्यूशनरी गांधी में बताया है कि किस प्रकार गांधी को पास इतना वक्त नहीं रहता था कि वह जटिल सिद्धांतों पर ध्यान दें। इसीलिए वे सिद्धांतों के अच्छे या बुरे होने की कसौटी यह मानते थे कि उनका आम रोजमर्रा के जीवन में कितना इस्तेमाल हो सकता है। उनके इस दृष्टिकोण को लेकर एक किस्सा और मशहूर है। वह इस प्रकार है कि गांधी साबरमती के अपने आश्रम में दवाखाना भी चलाते थे। विदेश से लौटा एक डाक्टर दवाइयों के बारे में ही कुछ बातचीत करने के लिए गांधी से मिलने का समय चाहता था। काफी प्रयास करने के बाद उसे गांधी से पांच मिनट के लिए मिलने का समय मिला। वह आश्रम में गांधी के पास गया और मेडिसिन के क्षेत्र में हो रहे शोध व सिद्धांतों की जटिल बातें करना लगा। पर पांच मिनट के स्थान पर वह तीन मिनट बाद ही गांधी से मिल कर लौट आया। गांधी ने उसकी बातें ध्यान से सुनीं और फिर जल्द ही बीच में रोक कर कहा कि तुम दवाखाने जाओ और वहां जा कर देखों की दवाइयों के मामले में हमारी क्या मदद कर सकते हो। यानी, गांधी के लिए मुश्किल या जटिल सिद्धांतों में लंबी बहस करने से ज्यादा महत्व इस बात का रहा कि उसका मानवता के कल्याण के लिए कितना उपयोग हो सकता है! गांधी ने अपने आश्रम में शोध के मकसद से मेंढको की चीर-फाड़ को भी उचित ठहराया था।
तात्पर्य यह कि गांधी बड़े ही शानदार किस्म व्यवहारिक और क्रांतिकारी संत थे। उऩकी धर्मनिरपेक्षता का आधार भी किसी आदर्शोन्मुख सर्व धर्म समभाव पर नहीं टिका था बल्कि भारत की मूल सांस्कृतिक बनावट को समझ सकने की क्षमता पर टिका था। उन्होंने जोर दे कर कहा था कि मैं जितना अच्छा हिंदू हूं, उतना ही अच्छा मुस्लिम हो सकता हूं या उतना ही अच्छा ईसाई अथवा पारसी भी। देश में ढेरो ऐसे दल या संगठन हैं जो सांप्रदायिकता का पक्ष लेने को ही भारत के बारे में व्यवहारिक ढंग से सोचने का पर्याय मानते हैं और भारत के संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता को अव्यवहारिक मान लेते हैं। वे कहते नहीं थकते कि भारत के बारे में अगर हम धर्मनिरपेक्षता को अपनाएंगे तो वह अव्यवहारिक फैसला होगा। पर गांधी जितना जीवन के दूसरों मामलों में गहरी व्यवहारिक सोच के नेता थे, उसी व्यवहारिकता के कारण वह मानते थे भारत में कट्टरता के लिए स्थान नहीं है और भारत में शासन चलाने के लिए धर्म का उपयोग पूर्णतः एक वाहियात फैसला हो सकता है। 
गांधी को मारने या उन्हें मरने जैसी हालत में रख कर उनकी मौत की प्रतीक्षा करने की बहुत सारी कोशिशें अंग्रेजी हुकूमत ने की थी, पर अंततः हिंदू सांप्रदायिकों के हाथों उनकी जान गई। जीवन के अंतकाल में वह भारत को स्वतंत्रता मिल जाने से प्रसन्न होने के स्थान पर हिंदू-मुस्लिम के बीच बढ़ती नफरत तथा हिंसा के कारण बुरी तरह से टूटे हुए और परेशान प्रतीत होते हैं। वह किसी जश्न में शामिल होने के योग्य स्वयं को नहीं पाते थे। वह अपने को पूरी तरह से एकाकी पाते थे और उन्हें लगता था कि एक समय तो उनके हजारों अनुयायी थे पर अब उनकी वाणी सुनने वाला कोई नहीं है। उन्हें सबसे ज्यादा दुःख उन हिंदुओं की बातें सुन कर होता था जो कहते थे कि भारत में अब एक भी मुसलमान को नहीं रहने देंगे। अपने आखिरी जन्म दिन यानी 2 अक्टूबर 1947 को उनके अठ्ठतरवें जन्मदिन पर उन्हें सैकड़ों लोग शुभकामनाएं देने आए थे और गांधी का कहना था- मेरे अनेक शुभचिंतकों ने मेरे लिए 125 वर्ष जीने की कामना की है। परंतु अब तो मैं 125 वर्ष क्या एक दिन और जीवित नहीं रहना चाहता। मेरे अंदर अब और जीने की चाह नहीं रही। मैं इन शुभकामनाओं को स्वीकार कर पाने में अपने को असमर्थ पा रहा हूं। मैं अपने चारो ओर फैले घृणा और हिंसा के इस माहौल में जीना नहीं चाहता अतः मैं आप सबसे प्रार्थना करता हूं कि यह पागलपन छोड़ दें। भारतीय इतिहास की यह विचित्र विडंबना है कि उसके सबसे सम्मानित स्वतंत्रता सेनानी को स्वतंत्रता के विरोधियों ने नहीं बल्कि उसके ही अपने देश के लोग ने मार दिया। इस हत्या ने सांप्रदायिकता को सबसे ज्यादा बदनाम कर दिया पर डर यह है कि सांप्रदायिकता फिर से कहीं अतीत के अपने घिनौने दागों को धो कर समाज में तेजी से स्वीकृत न हो जाए।

वैभव सिंह

सम्पर्क – 
मोबाईल – 09711312374

वैभव सिंह का आलेख ‘गढ़ाकोला में दिखे उदास निराला’


सूर्यकान्त त्रिपाठी

आज वसंत पंचमी है वसंत पंचमी का दिन महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म दिन भी है। हाल ही में युवा आलोचक वैभव सिंह उनके पैतृक गांव उन्नाव के गढ़ाकोला गए थे। गढ़ाकोला से लौट कर हाँ की दशा-दुर्दशा पर युवा आलोचक वैभव ने एक आलेख लिखा हैवसंतपंचमी की बधाई देते हुए पहली बार के पाठकों के लिए आज हम इसे विशेष तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं

   

गढ़ाकोला में दिखे उदास निराला
वैभव सिंह
ब्रिटेन में एक शहर है  – स्ट्रेटफोर्ड अपान-एवन। यह वह शहर है जहां प्रसिद्ध अंग्रेजी नाटककार शेक्सपियर का जन्म हुआ था। शेक्सपियर के मरणोपरांत कुछ साल बाद उनका पैतृक आवास खंडहर में बदल गया था लेकिन डेढ सौ साल पहले उसका जीर्णोद्धार किया गया और उसे भव्य स्मारक के रूप में विकसित किया गया। इमारत की मरम्मत कर उसे चटख रंगों में सजाया गया ताकि देश-विदेश से आने वाले लोग इस स्थल को देख सकें। एक रिपोर्ट के अनुसार अब साढ़े सात लाख लोग प्रति वर्ष इस जगह को देखने आते हैं। इसी तरह हैंपशायर में जेन आस्टिन के आवास और चार्ल्स डिकेंस के लंदन में स्थित घर में आने वाली सैलानियों की संख्या भी लाखों में है। प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक विक्टर ह्यूगो ने जिस अपार्टमेंट में पहली बार अपनी प्रेमिका को देखा था या दूसरे महायुद्ध में ज्यां पाल सार्त्र अपने दोस्तों के साथ पेरिस के बाहर जिस सराय में छिपे थे, वे जगहें आज भी साहित्य व विचारप्रेमियों द्वारा भावविभोर हो कर याद की जाती हैं। यूरोप में लिटरेरी टूरिज्मको विशेष तौर पर प्रोत्साहित किया जाता है और कई पर्यटन क्षेत्र की कंपनियां अपने टूर पैकेज में इसे प्रमुखता से स्थान देती हैं। पर खुद को विकसित व यूरोप की तरह समृद्ध देश बनाने की आकांक्षा पालने वाला अपना देश यूरोप के साहित्य प्रेम व साहित्यकारों की धरोहर सजोने की परंपरा से कुछ नहीं सीखना चाहता। भारत में कला व लेखन से जुड़े मनीषियों के बारे में जो अजीबोगरीब किस्म की निर्मम उपेक्षा का भाव है, वह विदेशी सैलानियों को भी हैरानी में डाल देता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे हिंदी जगत को अपनी साहित्यिक धरोहर की बिलकुल परवाह नहीं है। इसका संबंध हिंदी क्षेत्र में लंबे समय तक फैली अशिक्षा से है, तो दूसरी ओर लेखकों के प्रति सरकारी उदासीनता से है। एक कारण यह भी है कि लंबे समय तक हिंदी समाज को अपने सांस्कृतिक पुनरुद्धार की चिंता नहीं करनी पड़ी। अतीत की काल्पनिक महानता से उसकी चेतना नियंत्रित होती रही। हिंदी समाज ने इस बात पर कम ध्यान दिखा कि संस्कृति स्थिर या जड़ नहीं बल्कि सचेत रूप से विकसित करने वाली चीज होती है। इसे विकसित करने के लिए नए विचार, दृष्टि, कल्पनाएं व सौंदर्य-बोध को अपनाना जरूरी होता है। अपनी संस्कृति को विकसित करने की चिंता के अभाव ने उसके मन भविष्यदृष्टा लेखकों व चिंतकों के महत्व को समझने के रास्ते में शर्मनाक बाधा खड़ी कर दी। 

हाल ही में हिंदी के महान छायावादी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के पैतृक गांव गढ़ाकोला की यात्रा करने पर लेखकों से जुड़ी स्मृतियों के बारे में हिंदी समाज की उपेक्षा को बड़ा तीखा अहसास हुआ। गढ़ाकोला गांव उत्तर प्रदेश के शहर उन्नाव से लगभग 40 किलोमीटर दूर बीघापुर तहसील में पड़ता है। बीघापुर स्वयं में अच्छा-खासा रेलवे स्टेशन भी है और यह गांव उस स्टेशन से करीब पांच किलोमीटर आगे हैं। निराला पर लिखी अपनी पुस्तक में रामविलास शर्मा ने इस गांव के बारे में लिखा- कानपुर-रायबरेली लाइन पर बीघापुर स्टेशन से लगभग दो कोस पर गढाकोला गांव बसा हुआ है। लोन नदी को पार करने पर गांव के कच्चे घर दिखाई पड़ने लगते हैं। और घरों की तरह चौपाल, छप्पर, दहलीज, आंगन, खमसार और अटारी के नक्शे पर पंडित राम सहाय का मकान भी बना हुआ है।निराला के पिता का नाम राम सहाय त्रिपाठी था जो बंगाल के मेदिनीपुर जिले की रियासत में काम करते थे। वहीं वसंत पंचमी के दिन निराला का जन्म हुआ था जो इकलौते पुत्र थे। पर उन्नाव स्थित अपने पैतृक गांव में निराला लगातार आते-जाते रहे। 

वर्तमान में निराला के गांव जाने तक की पक्की सड़क बनी हुई है। पर निराला के घर पहुंच कर जहां एक ओर भावनात्मक सुकून मिलता है वहीं घर की हालत देख कर मायूसी के सिवाय मन में कोई दूसरा भाव नहीं पैदा होता। गत सदी के सबसे महान हिंदी कवि का टूटा-फूटा घर निराशा पैदा करता है। जहां निराला का घर था, वहां उनकी मूर्ति लगी है। वह मूर्ति परिवेश में बिखरी बेचारगी को मूक भाव से निहारती हुई प्रतीत होती है। मूर्ति की उन खुली हुई आंखों में संत्रास का भाव झांकता लगता है। निराला का उदास चेहरा जैसे कहीं दूर से हमें देख रहा था। उन्हीं की कविता सरोज स्मृतिकी पंक्तियां गूंज रही थीं-
  
दुःख ही जीवन की कथा रही 

क्या कहूं आज जो नहीं कही? ’
  
आसपास खालिस ईंटों वाले गंवई मकान हैं और गांव के स्थानीय जीवन के अनुरूप भैंसे और गायों के तबेले। खाकी स्कूल ड्रेस पहन कर साइकिल पर भागते बच्चे भी दिखा जाते हैं। उस घर में उनके वंशजों के नाम पर राजकुमार त्रिपाठी का परिवार रहता है जो निराला के चचेरे भाई के प्रपौत्र हैं। उनके परिवार से ही जानकारी मिली कि गांव में वसंत पंचमी के दिन यानी निराला जी के जन्म दिन कुछ अधिकारी या साहित्य प्रशंसक आते हैं और वे निराला जी के नाम पर कुछ विशेष स्मारक या भ्रमण योग्य स्थल के निर्माण का वादा करते हैं, पर बाद में कुछ नहीं होता है। निराला जी जिस कमरे में बैठते थे वह या तो बंद रहता है या त्रिपाठी जी की मां का सामान उसमें रखा होने के कारण वह कभी-कभी खुलता है। गांव में निराला जी के नाम पर स्कूल, कालेज और पुस्तकालय हैं पर वे निराला के केवल नाम को ढोते प्रतीत होते हैं। राज कुमार त्रिपाठी के परिवार ने अपने डेढ़ एकड़ जमीन निराला के नाम पर पार्क बनाने के लिए स्वेच्छा से प्रदान की थी पर उन्हें आज अपने इस निर्णय पर थोड़ा पछतावा होता है। कारण यह है कि वह पार्क किसी उजाड़, असमतल मैदान में तब्दील हो गया है। पार्क के चारो ओर लगी लोहे की बाड़ टूटी-फूटी है। घास की हरियाली जगह मिट्टी-धूल का भूरापन चारो ओर फैला है। निराला की कुछ कविताएं पार्क में लगे काले चमकते पत्थरों पर अंकित की गई हैं। उन्हीं में उनकी अमर लंबी कविता राम की शक्तिपूजाकी ये पंक्तियां भी अंकित हैं- 

हे पुरुष सिंह तुम भी करो यह शक्ति धारण
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर। 

विडंबना यह है कि शक्ति की मौलिक कल्पना का आह्वान करने वाले कवि का पैतृक-स्थल बड़ा निस्तेज और शक्तिहीन प्रतीत हो रहा था। एक सुखद बात यह लगी कि निराला की कविताओं के साथ ही निराला के मित्र और उनके ऊपर निराला की साहित्य साधना जैसी चर्चित पुस्तक लिखने वाले रामविलास शर्मा की काव्य पंक्तियां भी पत्थरों पर अंकित हैं। निराला के नाम पर स्थापित पार्क में दिन में सर्दियों की धूप में कुछ जुंआरी एकत्र होते हैं जो ताश के पत्ते फेंटते रहते हैं। जब उनकी फोटो लेने की कोशिश की गई तो वे डर के भागने लगे। कुछ ने तो मुंह पर रुमाल रख लिया। पार्क से सटे निराला वाचनालय की हालत पर तो कुछ लिखना ही बेकार लगता है। टूटे दरवाजे और उखड़े प्लास्तर वाले उस वाचनालय में किताबें वैसे ही गायब है जैसे देश के पढ़े-लिखे लोगों के मन से विवेक। गांव में प्रायः लोग निराला मूर्ति का पता तो बता देते हैं, पर निराला के बारे में उन्हें ज्यादा पता नहीं है। उनके मन में निराला की छवि किसी देवी-देवता जैसी है जिसकी मूर्तियां गढ़ी जा रही हैं और जिसे लोग मालाएं चढ़ाने कभी-कभार आ जाते हैं। गांव में एक युवक से पूछा कि कविकिस कहते हैं तो वह सकपका गया। उसे यह नहीं पता था कि कवि होना क्या होता है। यह उसे शब्दज्ञान की परीक्षा लेने वाला प्रश्न लगा जिसका निराला से कोई संबंध नहीं था। गांव में भारत के सामान्य गांवों जैसी ही स्वाभाविक ढंग की जीवंतता और उतनी ही स्वाभाविक ढंग की पस्तहाली भी। वहां सरकारी कृषि मंडी है और ब्यूटी पार्लर भी। ब्यूटी पार्लर में लड़कियों को फैशन व ब्यूटी के कोर्स कराने के विज्ञापन लगे थे। जाहिर है कि देश में ब्यूटी-पार्लर ईश्वर की तरह अनादि भले न हो पर उन्हीं की तरह सर्वव्यापी हो चुके हैं। गढाकोला से ही करीब तीन किलोमीटर दूर निराला के नाम पर डिग्री कालेज स्थापित हो चुका है। स्थानीय लोगों का मानना है कि निराला के नाम पर अनुदान लेने, स्थानीय लोगों की जमीनें हड़पने या ख्याति बटोरने के लालच से कुछ संस्थान खोले गए हैं जो वास्तव में निराला या उनके लेखन से लोगों के मन में लगाव पैदा करने के स्थान पर उनके नाम का प्रयोग करने वालों की जेबें भरने का काम कर रहे हैं। निराला के पैतृक घर में रहने वाले राज कुमार त्रिपाठी निराला के नाम पर बने डिग्री कालेज में चपरासी की नौकरी करते हैं। उन्हें सात हजार रुपया मिलता है। यह भी किंचित विडंबना बोध पैदा करने वाली खबर थी कि निराला के वंशज निराला के नाम पर स्थापित लाभप्रद व्यवसायों में चपरासी की नौकरी कर रहे हैं। यह यथार्थ का सुररियलिज्म यानी अति यथार्थवाद में बदल जाना है। जैसे अवचेतन में मनुष्य की बहुत सारी गहन भावनाएं परस्पर किसी तर्क से बंधी हुई नहीं होती हैं, वैसे ही यह बाहरी जीवन भी है जिसमें दृश्य, स्वप्न, विचार किसी तार्किक शैली में बंधने से इनकार कर चुके हैं।

इस कालेज के प्रबंधक कमला शंकर अवस्थी ने बताया – सरकार पर हम निराला जी के पैतृक निवास स्थल के लिए विशेष अनुदान जारी कराने में कभी-कभी सफल हो जाते हैं पर वह इतना कम होता है कि उतने पैसे से साल भर के लिए एक सफाईकर्मी या चौकीदार तक नहीं रखा जा सकता है। कुछ साल पहले एक शासकीय आदेश से निराला के कमरों को पक्का कर दिया गया था लेकिन वे पक्के कमरे बस बाहरी दीवार की तरह हैं क्योंकि भौगोलिक रूप से एक देहाती क्षेत्र होने के कारण कमरे या उनकी शैय्या को स्थायी ढंग से दर्शनीय रूप प्रदान करना मुश्किल हो जाता है। निराला जी के घर में रजिस्टर भी रखा है जिसमें हर आगंतुक का नाम, पता तथा फोन नंबर दर्ज किया जाता है। पर निराला के पैतृक आवास की तरह की वह रजिस्टर भी था जिसके पन्ने और कवर जीर्णशीर्ण थे। लगता था जैसे परिवेश से संगति स्थापित करने के लिए उस रजिस्टर को भी थोड़ा दयनीय बना दिया गया था। निराला के गांव से वापस चलते हुए उनकी धर्मपत्नी मनोहरा देवी के नाम पर भी एक कालेज दिखा जिस पर मोटा सा ताला लगा हुआ था।

देश में लेखकों व विचारकों की धरोहरों की उपेक्षा ही यथार्थ नहीं है बल्कि उस उपेक्षा को जारी रखने के लिए गढ़े जाने वाले बहाने भी उतना ही बड़ा यथार्थ हैं। किसी देश के विकास का सूचकांक केवल भौतिक समृद्धि से नहीं निर्धारित होता बल्कि वह अपनी संस्कृति, कला तथा परंपरा के प्रति कितना सचेत है, इससे भी निर्मित होता है। इसलिए अनिवार्य है कि निराला जैसे लेखकों के आवास व जन्मस्थलों से भी हम नई पीढ़ी को परिचित कराएं और इसके लिए उन स्थलों के संरक्षण का प्रयास केवल सरकारी लीपापोती के ढंग से नहीं बल्कि पूरी ईमानदारी से करें।

वैभव सिंह
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