सीमा आज़ाद की कहानी ‘सरोगेट कंट्री’

सीमा आज़ाद


पूँजीवाद अपने साथ कई तरह की विकृतियाँ ले कर आता है। जितना ऊपरी चमक दमक इसमें दिखता है अन्दर से उतना ही खोखला होता है। इसमें मानवीय संवेदनाओं के लिए कोई जगह नहीं होती। शोषण इसकी  एकमात्र  प्रवृत्ति होती है। आजकल हमारे प्रधान मंत्री ‘मेक इन इण्डिया’ का जोरोशोर से नारा देते हुए दुनिया भर के पूँजी निवेशकों को भारत आमंत्रित कर रहे हैं। भूमि अध्यादेश क़ानून इन्हीं पूँजी निवेशकों खातिर पारित कराने का प्रयास किया जा रहा हैसीमा आज़ाद ने अपनी इस कहानी के जरिए पूँजीवाद की इसी खतरनाक और संकीर्ण प्रवृत्ति को उजागर करने का प्रयास किया है जिसमें अन्ततः आम आदमी अपने को ठगा हुआ पाता है। तो आइए पढ़ते हैं सीमा आज़ाद की यह कहानी
      
सरोगेट कंट्री

सीमा आज़ाद

खिड़की पर बैठी मंजू ने सुभाष को आता देख लिया, उसके लड़खड़ाते कदमों को देखकर मंजू के कल्पना की तैरती गागर, अचानक पानी में गुड़ुप-गुड़ुप कर बैठ गयी।

‘आज फिर चढ़ा ली, ऐसे में क्या बात होगी।’ गुस्से से भरी मंजू पास ही सोये 4 साल के बेटे राहुल के पास लेट गयी और आंखे बंद कर ली। जो बात वह आज सुभाष से करना चाहती थी, वह उसके दिमाग से कपूर की तरह उड़ गयी और वह सुभाष के बारे में ही सोचने लगी।


पिछले कुछ दिनों से सुभाष अक्सर नशे में धुत्त हो कर घर पहुंचता है। उस दिन तो मंजू चुप लगा जाती है, अगले दिन उसकी फटकार सुन कर सुभाष तीन-चार रोज तो ठीक रहता है, लेकिन फिर वही। घर से तो वह हर रोज यूनियन की मीटिंग के नाम पर निकलता है।
 

‘क्या मीटिंग में अब यही सब होने लगा है, यूनियन के लोगों से पूछना पड़ेगा।’ मंजू ने मन ही मन सोचा।
इतने में सुभाष दरवाजे पर आ गया, उसने मंजू को खिड़की से आवाज देने की बजाय दरवाजा पीटा। दरवाजा पीटने की ताल से भी स्पष्ट हो रहा था कि पीटने वाले का सन्तुलन बिगड़ा हुआ है। जब भी सुभाष पी कर आता है मंजू को आवाज देने की बजाय दरवाजा पीटता है। वह पूरी कोशिश करता है कि उसके मुंह की बदबू बाहर न आने पाये ताकि मंजू को उसके शराब पीने का पता न चले। मंजू अक्सर सुभाष से कहती है कि ‘‘आप अपनी गलती छिपाने का कबूतरी और शुतुरमुर्गी प्रयास करते हैं।’’
 

दरवाजा न खोलने का अपना इरादा बदलते हुए मंजू ने एक ही भड़भड़ाहट में दरवाजा खोल दिया, ताकि राहुल की नींद न टूटने पाये। दरवाजा खोल कर वह वापस राहुल के पास आकर लेट गयी और सुभाष सीधा अन्दर के कमरे में जाकर बिस्तर पर गिर कर सो गया। राहुल के पास लेटी मंजू के दिमाग में बिना किसी प्रयास के उसकी जि़न्दगी के कई दृश्य एक के बाद एक आते जा रहे थे। 

सुभाष के फैक्ट्री में काम करने के दौरान उनके जीवन में सुख ही सुख और प्रेम ही प्रेम था,
फैक्ट्री के बन्द होने की बात पता चलने के बाद तक भी। जब मंजू बन्दी को लेकर चिन्तित होती, तो सुभाष उससे कहता-
‘‘ अरे तू काहें को चिन्ता करती है, यूनियन ने बन्दी के फैसले के खिलाफ लड़ने की पूरी तैयारी कर ली है।’’
‘‘कैसे लड़ेगा यूनियन’’ एक बार मंजू ने संशय से पूछा, तो सुभाष ने मुट्ठी बांध कर हवा में लहराना शुरू कर दिया


‘‘तालाबंदी नहीं चलेगी,
फैक्ट्री प्रशासन मुर्दाबाद, मजदूर एकता जि़न्दाबाद, मंजू जी जि़न्दाबाद, मंजू के पति सुभाष जी जि़न्दाबाद’’ 

यहां आकर इस नारेबाजी में मंजू भी शामिल हो गयी और दोनों खिलखिला पड़े। उसके बाद तो इसे बार-बार हर दो-चार दिन पर दोहराया जाने लगा। राहुल भी अपनी तोतली बोली में ‘दिन्दाबाद-दिन्दाबाद’ ‘मुद्दाबाद-मुद्दाबाद’ बोलने लगा था। 

शुरू में सुभाष ने मंजू को पूरी तरह आश्वस्त कर दिया था कि यूनियन फैक्ट्री को बन्द नहीं होने देगी। लेकिन कुछ समय बाद उसने कहना शुरू किया-

‘‘और बन्द हो भी गयी तो हमें इतना मुआवजा मिलेगा कि हम उससे कुछ दूसरा काम शुरू कर सकेंगे।’’


सुभाष ने अपनी बात में जब इस वाक्य को जोड़ना शुरू कर दिया तभी मंजू समझ गयी कि ऊपर से निश्चिंत दिखने वाला उसका पति भी इसी चिन्ता में डूब-उतरा रहा है कि आगे क्या होगा। इसलिए उसकी चिन्ता और बढ़ गयी पर अब उसने इसे बार-बार जताना कम कर दिया। 


बंदी की शुरूआत मजदूरों की छंटनी से हुई। कभी 10 तो कभी 15 तो कभी 5 मजदूरों को किसी न किसी बहाने से कुछ-कुछ दिन पर निकाला जाता रहा। यूनियन लगातार इन मजदूरों को काम पर वापस लेने की लड़ाई लड़ता रहा और इसी बीच अचानक एक दिन सबको नोटिस दे दी गयी कि तीन महीने के अन्दर सारे कर्मचारी अपना दूसरा इन्तजाम कर लें, क्योंकि इसके बाद
फैक्ट्री में तालाबंदी हो जायेगी। यूनियन की लड़ाई में शामिल होने वालों की संख्या बढ़ने लगी थी, क्योंकि इस वक्त मजदूरों की एकमात्र उम्मीद इसी से बची थी। लेकिन उम्मीद, उम्मीद ही रही। 

तीन महीने बाद तालाबन्दी हो भी गयी।
फैक्ट्री प्रशासन ने गेट पर ताले के साथ यह नोटिस भी चस्पा कर दिया था, कि मजदूरों का बकाया वेतन व अन्य देय जल्द ही उनके खाते में डाल दिया जायेगा। मुआवजे की तो कोई बात ही नहीं कही गयी थी। सुभाष सहित सारे मजदूर ठगा सा महसूस कर रहे थे। इस फैक्ट्री में नौकरी लगने पर सबने अपनी जि़न्दगी सुकून से चलने का सपना देखा था। उन्हें यह बताने में गर्व महसूस होता था कि वे अमुक मोबाइल कम्पनी में काम करते हैं। वास्तव में किसी को विश्वास ही नहीं था कि फैक्ट्री उनकी जिन्दगी के साथ अचानक यह विश्वासघात करेगी। मंजू को याद आया, सुभाष जब यूनियन से नहीं जुड़ा था तो बन्दी की बात सुनते ही गुस्सा हो जाता-

‘‘अफवाहों पर ज्यादा ध्यान न दिया करो, मैं कोई ऐरी-गैरी
फैक्ट्री में काम नहीं करता हूं कि वो अपने कर्मचारियों के साथ ऐसी धोखा-धड़ी करेगी। ऐसा हुआ भी तो वो हमें कहीं और लगायेगी, समझी, इसलिए तू इन सब बातों पर ध्यान देने की बजाय सिर्फ मेरी बात पर ध्यान दिया कर।’’

मंजू का विश्वास तो वास्तव में सुभाष से ही बनता बिगड़ता था, उसे भी सुभाष की बात तार्किक लगी। लेकिन ये सारे तर्क एक-एक कर
फैक्ट्री प्रशासन ने कुतर्क साबित कर दिये। मजदूरों की छंटनी शुरू होने के कुछ ही दिनों बाद सुभाष न सिर्फ यूनियन में शामिल हो गया, बल्कि इसकी ज्यादा से ज्यादा कार्यवाहियों में शामिल होने लगा। लेकिन मजदूरों को काम पर वापस लेने की बजाय फैक्ट्री प्रशासन ने तालाबन्दी की घोषणा कर दी। 

तालाबन्दी के बाद यूनियन ने कुछ दिन तक
फैक्ट्री गेट पर धरना दिया फिर कानूनी लड़ाई में चली गयी। और ढाई साल होने को है, अभी तक कोर्ट ने इस सम्बन्ध में कोई निर्णय नही सुनाया है। इस कानूनी लड़ाई को लड़ने में सुभाष और अन्य मजदूरों ने अपना न जाने कितना पैसा लगा दिया है, इस उम्मीद में कि केस जीतने के बाद फैक्ट्री से उन्हें मुआवजा मिलेगा या हो सकता है मुआवजे के झंझट की बजाय वह सबको कहीं समायोजित ही कर दे। लेकिन इस इन्तज़ार में घर खर्च चलाना मुश्किल हो गया है। वो तो कहो कि मंजू इण्टर तक पढ़ी है, वरना गृहस्थी अब तक डीरेल हो चुकी होती। उसने घर पर ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया है। सुभाष ने मोबाइल रिपेयरिंग का काम शुरू कर दिया है, दोनों का थोड़ा-थोड़ा मिला कर किसी तरह घर चल रहा है। इस साल राहुल भी स्कूल जाने लगा है, जिससे तंगी बढ़ गयी है। 

राहुल जब पैदा हुआ था, तो दोनों ने उसे ले कर कितने सपने देखे थे। सुभाष उसे गोद में उठा कर कहता-
‘‘मिलिये, भविष्य के डी एम से मिलिये, बाद में इनके पास समय नहीं होगा, इसलिए समय मत गंवाइये, आइये इनकी सेवा कीजिये।’’


जब मंजू हँसने लगती तो जाने क्या सोच कर राहुल भी खिलखिलाने लगता। अब, जब राहुल को अच्छे स्कूूल में पढ़ाने का समय आया तो घर की स्थिति ऐसी हो गयी कि छोटे से स्कूल की फीस भरना भी मुश्किल हो गया है। इन्हीं तीन-चार महीनों में सुभाष ने पीना और देर रात लौटना भी शुरू कर दिया है। 


लगभग एक सप्ताह पहले मंजू को यह नया प्रस्ताव मिला है, जिसके बारे में वह सुभाष से बात करना चाहती है। इस काम के लिए ख़ुद उसका मन भी हिचक रहा है पर बेटे की अच्छी परवरिश के लिए और घर के हालात में सुधार के लिए वह इस काम को करना चाहती है। कई दिनों की उहा-पोह के बाद उसने खुद को तैयार किया, लेकिन सुभाष को तैयार करना बहुत मुश्किल है। आज दोपहर से ही वह हिम्मत जुटा रही थी, कि आज रात सुभाष से इस सम्बन्ध में न सिर्फ बात ही करेगी बल्कि उसे मना भी लेगी। लेकिन सुभाष को लड़खड़ाती हालत में देख उसका इरादा बदल गया। राहुल के ऊपर हाथ धरे लेटे-लेटे वह फिर से इस बारे में सोचने लगी थी। नींद उसकी आंख से गायब है। राहुल निश्चिंत सो रहा है। सुभाष भी दारू के नशे में धुत्त बिस्तर पर पड़ा है।


सुबह 10 बजे जब सुभाष सो कर उठा तो राहुल स्कूल जा चुका था। मंजू घर के काम निपटाने में लगी थी। रात में न सोने की वजह से उसकी आंखे सूजी हुई थीं और लाल भी, चेहरा अस्वस्थ दिख रहा था। सुभाष को लगा मंजू उससे नाराज है। वह बिस्तर पर लेटा-लेटा उसे देखता रहा फिर सीधा उठ कर उसके पास गया और पीछे से उसके गले में हाथ डालते हुए बोला-


‘‘कल आखिरी बार था, अब और नहीं’’
‘‘ये बात आप आखिरी बार कह रहे हैं या पचासवीं बार’’ मंजू ने सुभाष की ओर पलट कर मुस्कुराते हुए कहा तो सुभाष ने झेंप कर अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया

‘‘आखिरी बार’’

रात भर जागने से मंजू वैसे ही थकान महसूस कर रही थी, फिर उसे आज सुभाष से जरूरी बात भी करनी थी, इसलिए वह ‘मान गयी’।
‘‘अच्छा जल्दी से नहा-धो लीजिये, पता नहीं कहां-कहां लोट-पोट के आ रहे हैं, फिर मुझे आपसे कुछ जरूरी बात भी करनी है।’’
‘‘तो अभी कर लो न’’ सुभाष ने झेंप कर उसे लपेटते हुए कहा।
‘‘अभी नहीं, पहले आप नहा कर दारू की बदबू को दूर भगाइये’’ मंजू ने सुभाष को बाथरूम में ढकेल दिया।


खाना खाने  के बाद मंजू ने सुभाष के पास बैठ कर बातचीत शुरू की
‘‘आपको याद है राहुल के होने के समय मुझे अस्पताल में एक औरत मिली थी?’’
‘‘कौन?…….. वो जो दूसरे का बच्चा पैदा कर रही थी’’ सुभाष ने थोड़ा मुस्कुरा कर कहा।
‘‘हां जिसने अपनी कोख किराये पर दी थी, डेढ़ लाख रूपये में’’
‘‘तो उसे पैसा मिला या नहीं’’ सुभाष ने करवट उसकी ओर करते हुए उत्सुकता से पूछा।
‘‘हाँ,  मिला ही होगा, मैं उससे फिर नहीं मिली, एक दूसरी औरत से मिली, जिसने उसे ये काम दिलाया था………….हफ्ते भर पहले…..जब मैं डाॅक्टर के पास गयी थी…।’’ 

बोलने के बाद मंजू थोड़ी देर चुप रही तो सुभाष ने पूछा-
‘‘क्या वो भी अपनी कोख किराये पर दे रही है’’
‘‘नहीं, वो मुझसे ऐसा करने को कह रही है’’ मंजू ने सुभाष की आंखों में सीधे देखते हुए कहा।
‘‘तो’’ सुभाष उसकी आंखों को पढ़ कर हैरान हो गया।
‘‘तो……………..क्या मैं उसे हाँ कर दूं?’’ मंजू ने धीरे से कहा
‘‘तुम पागल हो गयी हो क्या’’ सुभाष तेजी से उठ कर बैठ गया।


‘‘मैंने इस पर काफी सोचा…. और इसमें कुछ भी गलत नहीं लग रहा है… आपको तो मैंने बताया था इस प्रक्रिया के बारे में। मुझे दो लाख रूपये मिलेंगे…… उससे हम कुछ नया काम शुरू कर सकते हैं।’’
मंजू ने अपनी बात रूक-रूक कर लेकिन स्पष्टता के साथ रखी, तो सुभाष और भी आश्चर्य में पड़ गया।
‘‘मंजू तुम अपने दूसरे बच्चे के लिए तो तैयार नहीं होती, और दूसरे का बच्चा पैदा करने की बात कह रही हो, तुम सचमुच पागल हो गयी हो।’’

लेकिन मंजू तो इन सब बातों के लिए पहले से तैयार थी। उसने अपना तर्क रखना जारी रखा
‘‘अपना बच्चा पैदा करने और सरागेसी से दूसरे का बच्चा पैदा करने में फर्क है। ढाई साल से हम कितना परेशान हैं, इसमें एक बच्चा और हो गया तो हम उसे कैसे पालेंगे, लेकिन इस बच्चे की जिम्मेदारी मेरी नहीं होगी…..यहाँ तक कि उसके गर्भ की जिम्मेदारी भी मेरी नहीं होगी। उसमें जो कुछ लगेगा वह दूसरे का होगा। मुझे केवल थोड़ी शारीरिक तकलीफ होगी….. और उसके लिए हमें दो लाख रूपये मिलेंगे, उससे हम कोई नया काम शुरू करेंगे। जीवन पटरी पर आने के बाद हम अपना दूसरा बच्चा पैदा करेंगे, सिर्फ 9- 10 महीने की तकलीफ के बाद हमारा जीवन पटरी पर आ सकता है…..और नहीं तो यह ऐसे ही चलता रहेगा….घिसटता हुआ…….अब तो आपकी आदतें भी बिगड़ने लगी हैं, जब घर मुझे ही चलाना है तो मुझे इसमें कोई दिक्कत नहीं लगती।’’


मंजू एक सांस में पूरी बात कह गयी। सुभाष चुप रहा तो मंजू ने फिर कहा-
‘‘मैं आपको बता चुकी हूं कि इसमें कुछ भी गलत नहीं होगा, दूसरा मर्द मुझे छुएगा भी नहीं, मुझे लैब में पहले से तैयार भ्रूण अपने गर्भ में पालना होगा बस, यहाँ तक कि गर्भ में उसे पालने का खर्च भी वे ही उठाऐंगे। हमें कुछ भी नहीं करना है इसमें क्या गलत है?’’ 


मंजू की बात में उसका निर्णय और उसे मनवा लेने की उसकी उसकी व्यग्रता दोनों साफ दिख रही थी। सुभाष को कुछ सूझ नहीं रहा था, यह सच है कि उसे शराब की लत लगती जा रही है, जिसके कारण पूरा घर मंजू के भरोसे ही चल रहा था। सुभाष लज्जित महसूस कर रहा था और उसे फिर से दिलासा दिलाना चाहता था कि वह शराब छोड़ देगा और कोई नया काम शुरू करेगा। लेकिन यह वादा वह मंजू से इतनी बार करके तोड़ चुका है कि आज उससे फिर से यह कहने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी, नशा इन्सान को कितना कमजोर बना देता है।
सुभाष ने समाज का हवाला देकर उसे रोकना चाहा-


‘‘और लोग, बाद में उनको क्या बताओगी कि पेट का बच्चा कहाँ गया?’’


‘‘उनको बताने की जरूरत ही नहीं होगी, उसने बताया है कि पेट में भ्रूण डालने के बाद से घर से दूर डाॅक्टरी देख-रेख में रखा जाता है, और बच्चा पैदा होने के बाद ही घर जाने दिया जाता है। यह अच्छा ही है। यहाँ लोगों से कह कर जाउंगी कि माँ के घर जा रही हूँ।’’ 


मंजू यह सब यूं कहती जा रही थी, जैसे कि बस सुभाष के हाँ कहने भर की देर है और सब काम चुटकियों में हो जायेगा।


‘‘और राहुल’’ सुभाष ने आखिरी अस्त्र फेंका।
‘‘हां राहुल का ही तय करना है’’ मंजू की आवाज ठहर सी गयी और गम्भीर हो गयी-
‘‘अगर आप उसे 9 महीने किसी तरह देख लें, तो किसी को बताना भी नहीं पड़ेगा और उसका स्कूल भी नहीं छूटेगा’’


मैं……मैं….. मैं कैसे देखूँगा  …..इतने दिन तक?’’ सुभाष अचानक अपने ऊपर बच्चे की जिम्मेदारी आते देख हड़बड़ा गया। साथ ही उसे लगा कि मंजू को मना करने का ये अच्छा कारण है। लेकिन मंजू तो सब पहले से सोच कर तैयार बैठी थी। उसने झट से कहा-


‘‘ठीक है मैं अम्मा से बात करूंगी।’’
वह तो निश्चिंत सी हो गयी और सुभाष को लगा जैसे उसे ठग लिया गया हो, जैसे वह सहमति के फंदे में फंस गया हो। बात राहुल की देखभाल तक पहुंचने का मतलब है कि उसने सहमति दे दी है, वह व्यग्र हो उठा, चुप रहा और उठ कर पानी पीने लगा। पानी पी कर उसने फिर से बात शुरू की।


‘‘मुझे यह सब ठीक नहीं लग रहा, पैसों के लिए अपनी कोख में दूसरे का बच्चा पालना, तुम कैसे तैयार हो सकती हो इसके लिए। और कुछ नहीं तो अपने स्वास्थ्य के बारे में तो सोचो।’’


‘‘मैंने सोचा, स्वास्थ्य के बारे में भी मैंने पूछताछ कर ली है, क्योंकि उन्हें स्वस्थ बच्चा चाहिए, इसलिए वे मेरी पूरी देखभाल करेंगे……..
थोड़ी देर चुप रहने के बाद मंजू ने थोड़ा खीझ कर कहा


‘‘मैं नहीं करूंगी, तो कोई दूसरी औरत करेगी, यह भी आजकल एक काम है, कोई न कोई तो अपनी कोख किराये पर देगा ही, तो मैं क्यों नहीं, अगर इससे हमारी जि़न्दगी पटरी पर आ सकती है?’’
उसकी आंख पनीली हो गयी, उसने घड़ी की ओर एक नजर डाली और राहुल को स्कूल से लेने जाने के लिए उठ गयी। 


सुभाष चुप रहा, उसे कुछ समझ में नही आ रहा था, मंजू दरवाजा भिड़ा कर बाहर निकल गयी। सुभाष लेट-लेटे अपने को कोसने लगा।


‘यह सब मेरी ही वजह से हुआ है। पिछले सात-आठ महीने से तो वह घर से भागता ही रहा है। राहुल की कितनी फरमाइशें वो पूरी नहीं कर पाता, उससे घर की हालत देखी नहीं जाती।यह सब झेलते-झेलते मंजू कितनी झटक गयी है।, सुभाष को लग रहा था कि मंजू के इस निर्णय के पीछे उसकी नाराजगी ही होगी।
‘‘ये सब अपनी कमजोरी ही है, जो मैं मंजू को रोक नहीं पा रहा हूं, वरना ये काम करना तो दूर, उसे मुझसे कहने की भी हिम्मत नहीं होती। सुभाष एकदम पस्त हो गया। क्या सोच कर वह शहर में नौकरी करने आया था, और क्या होता जा रहा है। 


मोबाइल फोन की यह
फैक्ट्री जब यहाँ लगी थी, तो वह देश में सबसे आगे चल रही थी। नौकरी मिलने के बाद सुभाष अक्सर मंजू को सबका फोन दिखाते हुए धीरे से कहता-
‘‘देखो मैंने बनाया है ’’
 मंजू हंसते हुए कहती-
‘‘नाम तो किसी और का लिखा है?’’
‘‘अरे वो तो दिखावे का नाम है’’ सुभाष पीछे न हटता।


पापा से सुन-सुन कर राहुल उससे भी आगे निकल गया। जब वह थोड़ा-थोड़ा बोलना सीख गया, तो खिलौने वाला फोन हाथ में ले कर कहता –


‘‘मेले पापा ने बनाया’’
कुछ ही साल में जाने कैसे जोड़-घटा कर फैक्ट्री मैनेजमेंट ने यह कहना शुरू किया कि यह घाटे में जा रही है। अब तो यह भी चर्चा  है कि
फैक्ट्री किसी बड़े बिजनेस घराने के साथ मिल कर दूसरा कारोबार शुरू कर रही है, जहां उसे ज्यादा मुनाफा होगा। कम्पनी तो अपना फायदा ही देखेगी पर आगे उसके साथ क्या होने वाला है ये सोच कर सुभाष परेशान हो रहा था। यूनियन ने उसे पक्का यकीन दिलाया है कि वे मुकदमा जीत जायेंगे और उन्हें मुआवजा मिलेगा ही। उसी मुआवजे को लेकर वह दिन-रात सपना देखता रहता है कि ‘उसका ये करेंगे….उसका वो करेंगे।’ 

‘लेकिन यूनियन ने ही उसे ये यकीन भी दिलाया था कि उन्हें कहीं और समायोजित किये बगैर फैक्ट्री बन्द नहीं हो सकती, पर ऐसा हो गया। फिर क्यों वह फिर से ऐसा पक्का मान बैठा है कि ऐसा होगा ही, मुकदमें में यूनियन की जीत होगी ही। शायद ऐसा मानते रहने में ही सुकून है, वरना जीना मुश्किल हो जाये। दारू भी इसीलिए पी लेता हूँ, लेकिन सच ये है कि मुझे ऐसे ही जीने की आदत पड़ गयी है।’ 


सुभाष लेटे-लेटे सोच रहा था। अपने बारे में सोचते हुए उसका ध्यान मंजू पर गया कि उसने कभी ध्यान ही नही दिया कि मंजू इस स्थिति की आदी नहीं हुई है, न ही वो दारू पी कर स्थितियों से दूर भागने का शौक पाल सकती है। सुभाष इन सारी चिन्ताओं में डूब उतरा रहा था, तभी मंजू राहुल को लेकर वापस आ गयी। राहुल हमेशा की तरह चहक रहा था, मंजू से वह अपने स्कूल की बातें बता रहा था-


‘‘आज मैंने क्लास में पोयम सुनाई और मैम ने मुझे वेरी गुड कहा’’
‘‘अच्छा कौन सी पोयम सुनाई’’ मंजू ने उसका जूता उतारते हुए पूछा।
‘‘चिडि़या रानी वाली और जाॅनी-जाॅनी यस पापा’’


मंजू ने उसे चूम लिया और उसके कपड़े उतारने लगी, उसे नहला कर वह खाना लेने चली गयी और राहुल दौड़कर बिस्तर पर लेटे पापा के ऊपर चढ़ गया। 

‘‘चल मेरे घोड़े टिक-टिक टिक’’ सुभाष बिस्तर पर घोड़ा बन कर चलने लगा। थोड़ी देर चलने के बाद घोड़े ने सवार को पटक दिया, राहुल खिलखिला कर हँस पड़ा, मम्मी-पापा के तनाव से भरे चेहरों पर भी हँसी खिल गयी। खाना खिलाने के बाद मंजू राहुल को सुलाने के लिए उसके साथ लेट गयी। रात उसे नींद नहीं आयी थी, उसके साथ वह खुद भी सो गयी। सुभाष का दिमाग अभी भी अपनी जि़न्दगी में उलझा हुआ था।

जब उसे मोबाइल फैक्ट्री में नौकरी मिली, वह मंजू को ले कर शहर आ गया। उस वक्त उनकी शादी का एक साल भी पूरा नहीं हुआ था, मंजू अभी दुल्हन ही लगती थी। कम होते रोजगार के दौर में इस
फैक्ट्री में नौकरी मिलना, उसके लिए फख्र की बात थी। सुभाष ने अपने एक दोस्त के कहने पर इण्टर पास करके इलेक्ट्राॅनिक डिप्लोमा में प्रवेश ले लिया था और जिस साल उसने प्रवेश लिया, उसी साल शहर में इस बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने अपनी फैक्ट्री लगायी। सुभाष को तो लगा जैसे भगवान ने यह सब उसी के लिए किया है। गाँव में तो उसी दिन से उसकी नौकरी पक्की मान ली गयी थी और सचमुच पढ़ाई पूरी करते ही उसे फैक्ट्री में नौकरी मिल गयी। उसे अपने काम और फैक्ट्री से इतना लगाव था कि शुरू में तो मंजू फैक्ट्री को सौतन कहती थी। 

मंजू शहर में पली-बढ़ी थी, अभी उसने इण्टर ही पास किया था कि सुभाष में रोजगार की पक्की संभावना देखते हुए उसके पिता जी ने उसकी शादी कर दी। मंजू को कोई शिकायत नहीं थी। शादी के बाद दोनों खुश थे। साल भर के अन्दर ही नौकरी मिलने के बाद तो और भी। सुभाष की तनख्वाह बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन घर आराम से चल रहा था। आगे तरक्की की भी उम्मीद थी। लेकिन उस वक्त क्या मालूम था, कि रोजगार दे कर जीवन सुखी बनाने का छलावा करने वाली यह नौकरी उसे इस हाल में ला देगी। यूनियन भी क्या करे, दरअसल विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनी होने के नाते इसके नियम कानून इतने कड़े थे कि उसमें यूनियन और श्रम विभाग की ज्यादा चलती ही नहीं थी, श्रम विभाग की तो बिल्कुल भी नहीं। यूनियन भी मजदूरों की लड़ाई से ज्यादा अपना अस्तित्व बचाने में लगा रहता था। 

एक बार समूह में दारू पीते समय यूनियन के नेता जोशी जी ने कहा था-
‘‘दरअसल यहाँ यूनियन है ही नही, केवल उसका भूत ही कर्मचारियों को यूनियन का भ्रम देता रहता है, लेकिन मैनेजमेंट तो यह जानता है मेरे भाई।’’ 


वास्तव में दारू के नशे में ही यूनियन के लोग ऐसी निराशा की बात करते हैं। होश में रहने पर तो वे केवल टूट रहे मजदूरों की उम्मीद जिलाये रखने का काम करते हैं। दारू के नशे में पता चलता है कि यूनियन के नेता खुद अन्दर से कितना टूटे हुए है और नयी स्थिति को स्वीकार भी कर चुके हैं।


सुभाष को याद आया, ऐसी ही एक बैठकी में जोशी जी ने बताया था
‘‘कम्पनी के कानून में तो बन्दी के समय मुआवजे की कोई बात है ही नहीं।’’ 


नशे की बात नशा उतरते ही गायब हो जाती है लेकिन जोशी जी की यह बात उसे याद रह गयी। उसने अगले दिन उनसे इस सम्बन्ध में पूछा-


‘‘अगर कम्पनी के कानून में मुआवजे की बात लिखी ही नहीं है तो इतना पैसा खर्च कर हम मुकदमा किस बात के लिए लड़ रहे हैं?’’


जोशी जी को रात में कही गयी अपनी बात पर शर्मिंदगी हुई और उन्होंने कहा-


‘‘कम्पनी के कानून में नहीं लिखा है लेकिन भारतीय श्रम की कानूनों में तो मुआवजे और पुनर्वास की बात लिखी है न, अब मुकदमा इसी बात पर चल रहा है कि भले ही यह विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनी है पर यह भारत में लगी है तो इस पर भारत का श्रम कानून लागू होना चाहिए या नहीं?’’


सुभाष को भी यह बात एकदम तार्किक लगती है। ‘मुकदमें में जीत तो यूनियन की ही होनी चाहिए, आखिर उन्होंने हमारे देश की धरती पर फै
क्ट्री लगाई है, तो कानून तो हमारा ही मानना होगा।’

सुभाष ही नही, फै
क्ट्री के सभी मजदूर मुआवजा मिलने की उम्मीद में कानूनी लड़ाई लड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहते। अब दूसरी जगह नौकरी भी तो मुश्किल है। मुआवजे की उम्मीद में सभी कोई छोटा-मोटा काम करके समय काट रहे हैं। सुभाष का मोबाइल रिपेयरिंग का काम नियमित नहीं है, काम आने पर दुकानदार फोन करके उसे बुलाते हैं, अन्यथा घर पर ही बैठे रहना होता है। सुभाष का यह छः साल का जीवन उसके दिमाग में बिना तरतीब के चलचित्र की तरह चल रहा था, तभी दरवाजे पर दस्तक हुई।

‘ट्यूशन वाले बच्चे आ गये’ कहते हुए उसने दरवाजा खोला, मंजू कुनमुनाती हुई बेमन से उठी, मुँह धोया, साड़ी ठीक की, बाल ठीक किये और पढ़ाने बैठ गयी।


मंजू दिन भर कितना काम करती है, इसका एहसास आज सुभाष को पहली बार हो रहा था। वह धीरे से उठा और दो कप चाय बनायी। एक कप चाय वह धीरे से मंजू के पास रख आया। मंजू ने आश्चर्य से उसे देखा तो वह झेंप गया। अन्दर आ कर वह चुपके से झांक कर देख रहा था कि चाय मंजू को कैसी लगी, एक सिप लेने के बाद मंजू का चेहरा नहीं बिगड़ा, तो उसने अनुमान लगा लिया कि चाय ठीक ही बनी होगी। खुद चाय पी कर वह बाहर निकल गया। उसे जाता देख मंजू ने सोचा ‘आज फिर पीकर लौटेंगे’ और सचमुच वह पी कर लौटा। अगले चार दिन तक दोनों के बीच अबोला रहा फिर मंजू ने ही पहल करते हुए सुभाष को बताया कि उसकी माँ राहुल को अपने पास रखने के लिए तैयार हो गयी हैं।


‘‘तुमने उन्हें क्या बताया’’ सुभाष ने आश्चर्य से पूछा।
‘‘मैंने कह दिया कि कुछ समय के लिए एक काम मिल गया है जिसके लिए दिन भर बाहर रहना पड़ेगा।’’
सुभाष ने कुछ नहीं कहा, कमरा भी खामोश रहा थोड़ी देर बाद इस खामोशी को तोड़ते हुए मंजू ने पूछा
‘‘राहुल को छोड़ने आप जायेंगे?’’


‘‘ मैं ?…….मुझसे ये नहीं होगा’’ सुभाष ने हाथ खड़े कर कहा।


‘‘मैंने राहुल को समझा दिया है वह रोयेगा नहीं’’ मंजू ने कहा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद सुभाष ने कहा-
‘‘मैं अकेले नहीं जाऊँगा, तुम्हें भी साथ चलना होगा।’’ 


मंजू मुस्कुराने लगी। वह समझ गयी कि अम्मा द्वारा पूछे जाने वाले सवालों से वह घबरा रहा है। लेकिन इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि मंजू के सरोगेट मदर बनने पर उसका विरोध नहीं है। 


15 दिन बाद मंजू को जल्द से जल्द अस्पताल आने की सूचना मिलते ही दोनों राहुल को उसकी नानी के पास छोड़ आये। ये पहला मौका है कि राहुल उन दोनों से अलग हुआ था। मंजू से तो वह कभी अलग हुआ ही नहीं था। वापस लौटते समय मंजू बेहद दुखी थी, रास्ते भर वह अपने आंसू पोंछ रही थी और छिपा भी रही थी। पर यह उसका अपना निर्णय था, इसलिए कुछ कह भी नहीं सकती थी। घर आने के दूसरे दिन ही वह अस्पताल चली गयी, डाक्टर से समय पहले ही तय था। उस दिन उसकी कुछ जाँच हुई और कुछ आगे भी। उसके बाद उसके गर्भ में किसी विदेशी दम्पत्ति का भ्रूण प्रत्यारोपित कर दिया गया। यह बात उसे बाद में पता चली जब उसे वैसे ही माहौल में आगे के नौ महीने रहना पड़ा। उसे दो लाख रूपये देने का लिखित वादा किया गया और साथ ही उससे कई तरह की शर्तों पर दस्तखत कराये गये। जैसे बच्चे पर उसका कोई दावा नहीं होगा, उसे डाॅक्टरी देख-रेख में एक अलग जगह पर रहना होगा, ताकि पेट में पलने वाला बच्चा किसी दूसरे के घर के माहौल में नहीं बल्कि अपने जैसे घर के माहौल में भ्रूण से बच्चे में बदले। उसे वही सब खाना था, जो उसे खाने को दिया जाय। इन महीनों में वह अपने पति के संसर्ग में नहीं रह सकती, महीने में एक बार आधे घण्टे के लिए वह पति से मिल सकती थी, लेकिन शारीरिक संपर्क से दूर रहना था। हाँ, फोन पर वह किसी से भी बात कर सकती थी। हर समय आस-पास बना रहने वाला विदेशी माहौल उसे और भी परेशान करता। उसके कमरे में हर तरफ विदेशी बच्चे की तस्वीरें टांग दी गयीं, जिसमें वह अपने राहुल को खोजती और झल्लाती रहती थी। उसे पढ़ने के लिए अंग्रेजी की विदेशी किताबें पत्रिकाएँ दी गयी, जिन्हें वह पढ़ नहीं पाती, उससे कहा गया कि वह उनमें बने चित्र ही देखा करे। जेल जैसे इस माहौल में मंजू के शुरूआती चार महीने बहुत ही मुश्किल से गुजरे। अपने को समझाने के लिए मंजू सुभाष के नौकरी पर जाने के शुरूआती दिन याद करती, जब सुभाष को
फैक्ट्री के माहौल से घबराहट होती थी। अंगूठा दरवाजे पर लगा कर अन्दर जाना तीन स्कैन मशीनों से गुजरना, सी.सी. टी.वी. की निगरानी में काम करना और फिर दरवाजे पर अंगूठा टिका कर बाहर निकलना। यहां तक कि टाॅयलेट के दरवाजे पर भी कैमरा लगा था, ताकि यह देखा जा सके कि किसी व्यक्ति ने कितना समय बाथ रूम में बिताया। लेकिन धीरे-धीरे सुभाष को इसकी आदत हो गयी और वो गर्व से बताने लगा कि ‘सभी हाई-फाई कम्पनियों में ऐसा ही होता है।’ इसे याद कर इस माहौल के लिए तो वह खुद को समझा लेती पर उसे राहुल की बेइन्तेहां याद आती। फोन पर वह उससे पूछता। 

‘‘मम्मी मुझे लेने कब आओगी।’’
‘‘बहुत जल्दी बेटा, तेरे लिए खिलौने तो खरीद लूँ, अच्छा स्पाइडरमैन या डोरेमान?’’
‘‘डोरेमान’’ 


राहुल जल्दी ही मम्मी से आने की बात छोड़ कर खिलौने की बात करने लगता। वो तो बच्चा था, उसे फुसलाया जा सकता था। सुभाष के लिए वह ज्यादा चिन्तित रहती थी। इस बीच वह ज्यादा पीने भी लगा था। जब वह उससे मिलने आता तो कांच की दीवारों वाली ऐसी जगह पर उनकी मुलाकात कराई जाती कि सुभाष उसका हाथ भी नहीं पकड़ सकता था। वह हमेशा ही झल्ला कर समय पूरा होने के पहले ही चला जाता। मंजू को इस हाल में देख उसे अच्छा भी नहीं लगता। पिछली मुलाकात के बाद से तो वो आया ही नहीं।


‘‘अब मैं मिलने नहीं आऊँगा, तुम अपना किराये का मकान खाली करके खुद ही आना।’’सुभाष कह कर चला गया और सचमुच वह नहीं आया। फोन पर भी ‘हाँ-हूँ’ में ही बात करता। उसके मुकदमे के फैसले की तारीख नजदीक आ रही थी। अब हर तारीख पर यूनियन से जुड़ा हर व्यक्ति जाता था। इसमें अब पैसे भी ज्यादा लगने लगे थे। जिसके लिए सुभाष खोज-खोज कर मोबाइल रिपेयरिंग का काम लेता था। अपने तनाव से भागने के लिए दिन भर वह काम में लगा रहता रात में दारू पीता। उसके बाकी साथी पिये या न पिये पर वह रोज पीने लगा। 


एक दिन मोबाइल रिपेयर करने वह किसी दुकान पर था, जब दुकान वाले ने उसे बताया कि उसकी मोबाइल
फैक्ट्री की खाली जमीन पर वाटर पार्क और माॅल बनने वाला है। दुकान वाले ने उसे वह अखबार भी दिखाया, जिसमें यह खबर छपी थी। सुभाष को ऐसा लगा जैसे  अब उसे पूरी तरह घर से बेदखल कर दिया गया हो। उसे याद आया फैक्ट्री लगाने के लिए किसानों से उनकी जमीनें दिलवाने में भारत सरकार ने आगे आकर मदद की थी। सरकार का कहना था कि इससे देश की बेरोजगारी दूर होगी और क्षेत्र का विकास होगा। सुभाष के एक फूफा के गाँव की कुछ जमीन भी इसमें गयी थी। उन्होंने एक बार सुभाष से बात करते हुए बताया था-

‘‘बेटवा फैक्टरिया से तोहइं तो रोजगार मिली ग, बकि हमरे गाँव के किसानन और मजदूरवन के काम छिनि ग। ओन्हन के जौन मुऔजा मिला रहा उहौ खतम होइग। ओन्हन त बरबाद होई गयेन इ फैक्टरिया से।’’
रात में उसने रोज से ज्यादा दारू पी और सबसे लड़खड़ाती और लरजती आवाज में कहने लगा


‘‘हम जिस जगह पर फोन बनाते थे, पैसा कमाते थे, वहाँ बाढ़ आने वाली है’’


‘‘बाढ? किसने बताया’’ रजनीश ने पूछा


‘‘हाँ बाढ़, मगर ये ऐसी बाढ़ है जो आने के पहले ही सबको डुबा देती है… देखो हम सब डूबे हुए यहाँ बैठे हैं।’’ सुभाष ने कहा तो रजनीश ये सोचकर हँसने लगा कि सुभाष शराब की बात कर रहा है, लेकिन तभी महेन्द्र ने उसकी बात समझते हुए कहा 


‘‘हाँ, मैंने भी पढ़ा है कि
फैक्ट्री की जमीन पर वाटर पार्क और माॅल बनने वाला है।’’

‘‘पहले खेत उजाड़ कर
फैक्ट्री लगाई फिर फैक्ट्री उजाड़ कर वाटर पार्क लगाया’’ सुभाष ने टेबल पर हाथ ठोंकते हुए कहा और उठकर सबसे पूछने लगा-
‘‘ये वाटर पार्क किसके लिए बन रहा है बताओ’’
‘‘बच्चों के लिए’’ रजनीश ने जवाब दिया।
‘‘किसके बच्चों के लिए।’’
 इस बार जोशी ने जवाब दिया-
‘‘अमीरों के बच्चों के लिए’’
सुभाष हँसने लगा


‘‘तुममे से कोई नहीं बता सकता किसके लिए, सिर्फ मैं जानता हूँ, पर बताउंगा नहीं……. केवल मैं जानता हूँ  पर नहीं बताउंगा।’’

 

वह लड़खड़ाते हुए घर की ओर बढ़ने लगा, कुछ दूर जाने के बाद वह रूक कर जोर-जोर से हँसते हुए बोलने लगा-

‘‘केवल मैं जानता हूँ कि वाटर पार्क किसके लिए बन रहा है…… अबे मंजू के विदेशी बच्चे के लिए। वो उसमें खेलेगा।’’ पीछे के वाक्य में उसने उसने अपनी आवाज नीची कर ली। बोलने के बाद पहले वह हल्का सा हँसा फिर चुप हो गया और पैर फैला कर सड़क पर बैठ गया। 


सुबह जब वह सो कर उठा तो अपने घर के बिस्तर पर था। वह समझ गया उसे उसके दोस्तों ने ही घर पहुँचाया होगा। उसे शर्मिंदगी महसूस हुई
।  

‘‘रात में नशे में जाने क्या-क्या बोल दिया था।’’


एक बार उसने फिर तय किया कि अब वह दारू नहीं पियेगा। अगर पूरी तरह नहीं भी छोड़ पाया तो भी कम तो वह कर ही लेगा। उसका सिर भारी हो रहा था, वह लेटा रहा और मंजू और राहुल को याद करने लगा।


गर्भ के पीछे के चार महीनों में जब पेट के बच्चे ने हरकत शुरू कर दी तब मंजू में मकान मालिक की बजाय माँ का भाव जागने लगा और उसका अकेलापन खालीपन कुछ कम होने लगा। उसे जैसे काम मिल गया हो, वह उसकी एक-एक हरकत पर ध्यान देती और खुश होती। तटस्थता की बजाय उसे बच्चे पर प्यार आने लगा, जिस पर चाह कर भी वह लगाम नहीं लगा पाती, अपने पेट पर हाथ रख कर वह घण्टों अजन्मे बच्चे से बतियाती, उसके लिए गाना गाती और उसे प्यार करती। एक दिन फोन पर उसने सुभाष को भी बताया-
‘‘ये राहुल की तरह ही चुलबुला है, बहुत हाथ-पैर चलाता है’’


‘‘लेकिन वो राहुल का भाई या बहन नहीं है’’ सुभाष ने ठण्डेपन से जवाब दिया और फोन काट दिया। 


मंजू का मन रोने का होने लगा। रोने के लिए इस समय वह सुभाष का साथ चाहती थी। उसे राहुल के जन्म का समय याद आया, जब सुभाष उसके पेट पर हाथ रख कर बच्चे से बातें करता था और मंजू को ऐसा लगता जैसे सुभाष की बात का जवाब देने के लिए राहुल तेजी से हाथ पैर मारने लगता था। 


इन मनःस्थितियों से गुजरते हुए मंजू ने जैसे ही साढ़े आठ महीने का समय पूरा किया डाॅक्टर ने बताया कि बच्चे को आॅपरेशन करके निकाला जायेगा। मंजू ने लाख कहा कि अभी तो नौ महीने पूरे भी नहीं हुए है कुछ दिन इन्तजार किया जा सकता है, हो सकता है आॅपरेशन की नौबत ही न आये, पर डाॅक्टरों ने उसकी नहीं सुनी। उसे अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में भरती कर दिया गया। 


आॅपरेशन के बाद जब मंजू को होश आया तो पैदा हुआ बच्चा अंडाणु और शुक्राणु के साथ उसके गर्भ पर पैसा लगाने वाले माँ -बाप के पास जा चुका था। उसे ये तक नहीं पता चला कि शिशु बेटा था या बेटी। जन्म की पीड़ा से गुजरने के बाद माँ को उसका बच्चा न दिखे तो उसकी पीड़ा को समझना मुश्किल नहीं है। मंजू बिस्तर पर पड़ी थी। दवा का असर खतम होते ही टांकों वाली जगह पर दर्द शुरू हो चुका था। बच्चा तो नहीं ही था, उसे ढांढस बंधाने वाला कोई अपना भी नहीं था। नर्स ही थोड़ी-थोड़ी देर पर उसका बीपी लेने और ड्रिप देखने के लिए आती और चली जाती। जान-बूझ कर उसने सुभाष को फोन नहीं किया था। वह अपने आप को खुद सांत्वना दे रही थी कि जो बच्चा उसका था ही नहीं उसके लिए दुखी क्यों होना। लेकिन उसका मन यह मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहा था कि जो बच्चा उसके अपने शरीर में था, जिससे उसकी इतनी बातें हुई हैं, जिसके लिए उतने इतने गीत गुनगुनाये हैं वो उसका था ही नहीं।


‘कम से कम उसे एक बार मेरा दूध तो पी लेने देते, भूखा ही उठा ले गये उसे।’ 


मंजू की आंखों से आंसू बहने लगे। उसे सुभाष फिर याद आने लगा, उसे वह दिन याद आया जब फैक्ट्री प्रशासन गेट पर ताला लगा। सुभाष भी उस दिन ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। उस दिन को याद करते हुए उसे सरोगेसी के लिए मिलने वाले रूपयों की याद आयी। 


‘कहीं ऐसा तो नहीं, बिना मूल्य चुकता किये बच्चा लेकर भाग गये हों। क्या भरोसा, अगर ऐसा हुआ तो सुभाष के पास मैं क्या मुँह ले कर जाऊंगी’। मंजू का दिमाग आशंकाओं से घिरने लगा। बच्चा होने के बाद डाॅक्टर अभी तक उसे देखने भी नहीं आया। नर्स इस बार जैसे ही आयी उसने तुरन्त उससे पूछा,


‘‘सिस्टर वो लोग चेक दे गये हैं न
’’
‘‘मैं नहीं जानती’’ नर्स ने जवाब दिया तो मंजू का दिल बैठने लगा, उसने फिर हिम्मत करके पूछा

‘‘कौन बतायेगा?’’
‘‘डाॅक्टर साहब या बड़े साहब’’ नर्स ने जवाब दिया।
‘‘प्लीज उन्हें बुला दीजिये सिस्टर’’ मंजू ने एकदम कातर हो कर कहा


‘‘वो कल सुबह ही मिलेंगे।’’ सिस्टर ने कहा और बाहर निकल गयी। मंजू बेचैन हो गयी, उसने अपना फोन उठाया और उस महिला को फोन मिलाया जिसने उसे यह कान्ट्रेक्ट दिलाया था। उसने फोन पर आश्वासन दिया कि डिस्चार्ज होते समय उसे चेक मिल जायेगा, मंजू को राहत मिली, पर वह पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो सकी।


एक हफ्ते बाद टांका कटा और उसे घर जाने के लिए आज़ाद कर दिया गया। उसने सुभाष को फोन कर सुबह ही बुला लिया था। चलने के पहले उसे सचमुच चेक मिल गया। वह तो चेक देखकर ही आश्वस्त हो गयी कि उसे ठगा नहीं गया है, पर सुभाष की निगाह उस पर लिखे शब्द पर भी गयी, जिस पर लिखा था- ‘1 लाख 90 हजार’।


पूछने पर काउंटर से पता चला कि 10 हजार रूपये आॅपरेशन के बाद हुए उसके इलाज और प्राइवेट वार्ड के किराये के काट लिये गये हैं। मंजू ने इस पर आपत्ति करनी चाही पर सुनने वाला तो कोई था ही नहीं, सब एक-दूसरे पर टालते हुए कहते-


‘‘मैं जिम्मेदार नहीं हूँ, फलाने व्यक्ति से बात कीजिये।’


हार कर मंजू वापस लौट रही थी। उसके दिमाग में डाॅक्टर साहब की बातों का रिकाॅर्ड बज रहा था। 


‘‘बच्चा पैदा होने के बाद सरोगेट मदर के साथ जो कुछ भी हो उसकी जिम्मेदारी असली माँ-बाप की नहीं होती, यह तो शर्त के कागज में ही लिखा है।’’ 


मंजू एक तो बच्चे को एक बार भी दुलार न पाने के दुख से ग्रस्त थी ऊपर से उसके 10 हजार रूपयों की सीधे डकैती डाल ली गयी। वह बहुत आहत थी। घर पहुँच कर वह सुभाष से लिपट कर देर तक रोती रही। वह इस बीच काफी दुबला हो गया था उसकी आंखें गड्ढे में धंस गयी थीं। मंजू का रोना इस कारण भी बढ़ गया था। सुभाष मंजू के दुख का एहसास तो कर रहा था, पर आज वह खुद अपने में खोया हुआ था, वह बाहर कम अपने अन्दर ज्यादा था। आज कोर्ट का फैसला आना था। इसलिए यूनियन के सभी लोगों को 12 बजे तक कोर्ट पहुँचने को कहा गया था। यथासंभव मंजू को संभाल कर, खाने का कुछ इन्तजाम कर वह कोर्ट के लिए निकल गया। मंजू घर में अकेली रह गयी। एक लाख नब्बे हजार रूपये उसे सुकून नहीं दे रहे थे, जिसकी उसने कल्पना की थी। वह दिन भर अपने अन्दर भर गये खालीपन से लड़ती रही। वह अपने नवजात बच्चे को दूध पिलाने के लिए तड़प रही थी। 


शाम 5 बजे सुभाष वापस आ गया। उसकी आँखें और भी धंसी हुई लग रही थीं, चेहरा काला पड़ गया था और वह सुबह से भी ज्यादा दुबला दिख रहा था।


‘‘हम मुकदमा हार गये
’’

उसने घर की एकमात्र साबुत बची कुर्सी पर बैठते हुए कहा। कमरे में पहले से ही दुख था, सन्नाटा और गहरा हो गया। दोनों बहुत देर तक शान्त बैठे रहे। सुभाष ने कुर्सी पर बैठे-बैठे और मंजू ने बिस्तर पर टिके-टिके आंखें बन्द कर ली थीं। दोनों न एक-दूसरे को दिलासा देने की स्थिति में थे न दोनों एक-दूसरे को दुख से भरा देखना चाहते थे। पर यह संभव कहाँ था, बन्द आंखों से दोनों एक-दूसरे को ही देख रहे थे। यह स्थिति दोनों के अन्दर घुटन पैदा कर रही थी। सुभाष ने उठ कर पानी पीया और देखा कि खाना जस का तस ढका है, मंजू ने कुछ नहीं खाया था। परन्तु चाहते हुए भी उसने मंजू से कुछ नहीं कहा, वह फिर से कुर्सी पर बैठ गया और थोड़ी देर बाद उठ कर बाहर भी चला गया। मंजू फिर से घर में अकेली रह गयी दुख ने उसे तटस्थ और निर्विकार बना दिया था। कुछ समय बाद उसे घबराहट होने लगी तो उसने टीवी चला लिया पर वह उसे देख नहीं रही थी टीवी केवल उसे किसी और के होने का एहसास भर दे रही थी। वह वैसी ही बैठी अपलक जाने क्या और कहाँ देखती रही। रात 10 बजे सुभाष लड़खड़ाते कदम से दरवाजे के अन्दर दाखिल हुआ और मंजू के बगल में आ कर बैठ गया। दोनों एक-दूसरे को देखते रहे। मंजू को उम्मीद थी कि हमेशा की तरह सुभाष आज भी बिस्तर पर गिर कर सो जायेगा, पर ऐसा नहीं हुआ। सुभाष आज पीकर मुखर हो गया है अब वह अन्दर कम और बाहर ज्यादा हो गया है। शराब की बदबू मंजू तक पहुंचने ही परवाह किये बगैर उसने मंजू से लड़खड़ाती आवाज में पूछा-
‘‘अभी तक दुखी हो?’’


मंजू उसे देखती रही, कहा कुछ नहीं। सुभाष हाथ हिला-हिला कर बोलने लगा


‘‘साली फिरंगी कम्पनी होती ही ऐसी है उसने हम दोनों को ठग लिया…….थोड़ा सा पैसा लगाया….ज्यादा कमाया और चलती बनी…… तू पगली है… सोचती थी उन्हें मुनाफा कराके तेरा क्या बिगड़ेगा, अपना मेहनताना तो मिलेगा ही….. गलत सोचती थी…….. वे सब कुछ ले गये न…….. मेरी कमाई ले गये …….तेरा बच्चा ले गये…… किराया दे गये। अरे हमने…. हमने …….हम मजदूरों ने ही तो कम्पनी को मुनाफा दिया था जिसे वे लेकर भाग गये……. तेरा और मेरा दुख एक सा है मंजू…..
’’

सुभाष की बात गड्ड-मड्ड हो रही थी। 


सुभाष मंजू के पास खिसक आया और उसकी ठुड्डी उठा कर बोला
। 

‘‘लेकिन मंजू तू मेरी वाली गलती मत करना, तू खुद को पहुँचे दिमागी नुकसान का मुआवजा मत मांगना …..मुआवजा मांगने के लिए मुकदमा मत लड़ना, नहीं तो तेरी कमाई के 1लाख 90 हजार रूपये भी वे उड़ा ले जायेंगे।’’ सुभाष जोर-जोर से हँसने लगा और शराब की बदबू मंजू के मुँह में भी घुसने लगी। उसने सुभाष को हल्का सा धक्का दिया तो वह पीछे हो गया और बिस्तर के सिरहाने पर टिक गया।


खुली हुई टीवी पर नये-नये प्रधानमंत्री का भाषण चल रहा था, जिसमें वे दुनिया भर के पूँजीपतियों को भारत में आकर निवेश करने का यानि यहाँ
फैक्ट्री लगाने का न्यौता दे रहे थे- ‘कम, मेक इन इण्डिया’।
बिस्तर पर लुढ़का सुभाष हँसने लगा-


‘‘तेरी कोख और देश एक जैसा है मंजू, जिसमें पूँजीपति पैसा लगा सकते हैं और मुनाफा कमा सकते हैं
……बच्चा ले गये घायल कोख छोड़ गये, ….मुनाफा ले गये घायल देश छोड़ गये।’’ 

सुभाष और जोर-जोर से हँसते हुए बिस्तर पर गिर कर लेट गया। वह नींद की आगोश में जाते हुए भी बड़बड़ा रहा था-


‘‘ किराये की कोख, किराये का देश।’’

सम्पर्क-

मोबाईल- 09506207222


ई-मेल –
seemaaazad@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)                   

सीमा आजाद की कहानी ‘मुआवजा’

सीमा आजाद
सीमा आजाद न केवल एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता और ‘दस्तक’ पत्रिका की सम्पादक  हैं, बल्कि उन्होंने हिन्दी कहानी के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप करने की कोशिश भी की है। इसी क्रम में भोपाल गैस त्रासदी पर सीमा ने एक महत्वपूर्ण कहानी लिखी है ‘मुआवजा’। यह कहानी जनवरी 2014 के ‘हंस’ में छपी थी। संयोगवश सीमा की कहीं भी प्रकाशित यह पहली कहानी है  लेकिन इस कहानी की त्रासदी यह है कि समीक्षकों तक ने इसे ध्यान से पढ़ने की जहमत नहीं उठायी। कहानी को उसके कथानक, शिल्प और ट्रीटमेंट के आधार पर खारिज करना एक तार्किक बात हो सकती है लेकिन बिना पढ़े ही उसकी बे सिर-पैर की समीक्षा कर देने को कहीं से भी उचित नहीं ठहराया जा सकता।  अपने एक मेल में सीमा ने अपने दर्द को बयाँ किया है।  तुरत-फुरत और इफरात में लिखने वाले समीक्षकों को इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए। सीमा आजाद के वक्तव्य के साथ हम उनकी कहानी भी ‘पहली बार’ के पाठकों के लिए यहाँ पर प्रस्तुत कर रहे हैं।      

मेरी कहानी मुआवजाहंस के 2014 के अंक में प्रकाशित हुई थी, इस कहानी को मैंने 2010 में जेल प्रवास के दौरान लिखा था, जब भोपाल गैस काण्ड से जुड़े  मुकदमें का फैसला आया था। मैंने जेल से ही इस कहानी को प्रकाशन के लिए  भेजना भी चाहा था पर जेल प्रशासन ने नहीं भेजा। जाहिर है कहानी का विषय भोपाल गैस काण्ड है। लेकिन लमही के ताजा अंक जनवरी 2015 में ओम प्रकाश मिश्र ने साल भर की स्त्री लेखिकाओं की कहानियों मूल्यांकन करते हुए अपने लेख में लिखा है- ‘‘बेमेल विवाह के कारण असंतुष्ट चाची की अपने भतीजे से कामतृप्ति का बखान करती सीमा आजाद की कहानी मुआवजा……..पाठक को केवल काम-कुंठाओं की दुनिया की सैर कराती है।’’ यानि विषय में जमीन-आसमान का फर्क। जब मैंने उनसे इस सन्दर्भ में फोन पर बात की तो उन्होंने हंस का वह  अंक निकाल कर मेरी कहानी ‘मुआवजा’ पढ़ी और काफी शर्मिंदा होते हुए वापस फोन कर माफी मांगी। लमही में भी लिखित माफी मांगने की बात कही, ‘लमही’ के ऑनलाइन संस्करण पर माफी आयी भी। पर इसे पढ़  कर साफ लगता है कि यह माफी कम, भूल सुधार ज्यादा है, ताकि लोग इस भूल के कारण उनकी आलोचनात्मक विद्वता पर उंगली न पाये, बस। ‘लमही’ के सम्पादक विजय राय जी इस गलती के साझीदार हैं। उन्होंने अपने सम्पादकीय में ओमप्रकाश जी की उक्त बात को जस का तस शामिल कर लिया है। जब मैंने उनसे इस सम्बन्ध में बातचीत की तो उन्होंने बताया कि उन्होंने ‘मुआवजा’ पढ़ी नहीं है और ओम प्रकाश जी की बात को बिना जांचे अपने सम्पादकीय में लगा दिया। उनसे बात करके तो मुझे असंतुष्टि भी हुई क्योंकि उन्होंने इस गलती को कैजुअली लेते हुए कहा कि ठीक है आप लमही में एक पत्र भेज दीजिये अगली बार हम प्रकाशित कर देंगे।थोड़ी देर बाद मैंने एस.एम.एस. कर के ओमप्रकाश जी की तरह ही अपनी आलोचना लिखने को कहा। दोनों लोगों ने ‘लमही’ के ऑनलाइन संस्करण पर माफीनामा डाल भी दिया है, पर यह आलोचकों पर एक सवाल है कि कैसे वे कहानी को बिना पढ़े उस पर अपनी राय न सिर्फ बना लेते हैं बल्कि उसे प्रकाशित भी कर देते हैं।– सीमा आजाद 
मुआवजा
सीमा आजाद 

शराब का तीसरा पैग खत्म करने के बाद मि. शर्मा पर २६ साल पहले घटी वह घटना कुछ ज्यादा ही सर चढने लगी थी। उनकी मित्र मंडली शराब से भरा गिलास थामे मि. शर्मा की इस रोमांचक दास्तान को सुन रही थी। मि. शर्मा की कम्पनी ने एक बड़ी सफ़लता मिलने की खुशी मे यह शराब पार्टी अरेंज की थी और आज इस पार्टी में ही मि. शर्मा को पहली बार शराब चखने का किस्सा याद आ गया, जब वे १०वीं में थे। उन दिनों वे भोपाल में थे, जी हां उसी भोपाल में जहाँ जहरीली गैस का रिसाव हुआ था। मि. शर्मा अपने मित्रों को बता रहे थे कि कैसे उनके मित्रों ने रोहित के यहाँ पढने के बहाने इकठ्ठा हो कर शराब को चखने और उसके नशे को जानने की योजना बनायी थी।
     रोहित का घर पुराने भोपाल मे था। बस यूनियन कार्बाइड फ़ैक्ट्री के पास वाली मज़दूर बस्ती और उससे थोड़ी ही दूरी पर बने अपार्टमेन्ट्‍स मे रोहित रहता था जहां मि. शर्मा को नये भोपाल के पाश इलाके से उनके पिता की कार छोड़ कर गयी थी।
रोहित के मां-बाप किसी शादी मे शामिल होने के लिये दो दिन के लिये घर से बाहर गये हुए थे, रोहित पढ़ाई का बहाना करके रूक गया था।” यह बता कर मि. शर्मा जोर-जोर से हँसने लगे, जिससे उनकी शराब से भरी गिलास छलक गयी और इस पर उनकी पूरी मित्र मंडली ठहाका लगा कर हँस पड़ी।
स्साला रोहित… अपने पड़ोसियों को तो हैण्डिल कर नही पाता था अब शेयर मार्केट मैनेज कर रहा है।” मि. शर्मा ने हँसी से निकले आंसुओं को पोछते हुए बोलना जारी रखा। “हमने शराब तो किसी तरह अरेंज कर ली थी, पूरी तैयारी कर ली, तभी स्साला रोहित के घर के सामने बुड्‍ढा उसका हाल-चाल लेने आ गया। किसी तरह हमने जल्दी-जल्दी बोतलें हटाईं और कमरा ठीक किया।” मि. शर्मा की मित्र मंडली फ़िर हँस पड़ी। कुछ के गिलास खाली हो गये तो उन्होने फ़िर से भर लिया। “स्साला बुड्‍ढा बैठ गया और धर्म-कर्म को लेकर जो लेक्चर देना शुरु किया तो चुप होने का नाम ही ना ले। वो तो स्साला वहीं सोने की तैयारी कर के आया था। हमने काफ़ी बहानेबाजी करके उसे वापस उसके घर जाने के लिये तैयार किया, पर तब तक हमारा आधा मज़ा तो स्साले ने खराब ही कर दिया था।”
फ़िर तुम लोगो ने पी या नहीं”। मि. गुप्ता ने हो हो कर के हँसते हुए पूछा।
उसके जाने तक रात के १२ बज गये थे, तब जा कर हमारी योजना पूरी हो सकी। जल्दी-जल्दी हमने मेज सजाई, गिलास भरा और गटक गये। उफ़ कितना कड़वा स्वाद था।” मि. शर्मा ने मुंह सिकोड़ कर कहा तो मित्र मंडली फ़िर ठहाका मार कर हँसने लगी।
अब कैसा लगता है स्वाद?” मि. गुप्ता ने पूछा तो सब फ़िर से हंसने लगे, पर मि. शर्मा नही हँसे, वे सबके चेहरे देखते रहे, इतनी देर तक कि सब थोड़ा परेशान हो गये। बगल मे बैठे गुप्ता जी ने जब उन्हें झकझोरा तभी उनके मुँह से अगला वाक्य निकला – “यार मेरा शराब का पहला अनुभव बड़ा भयानक था, क्योंकि यह साधारण रात नही थी।”
तो क्या यह फ़्राईडे द थर्टीन कि रात थी?” मि. भल्ला ने एक खास अन्दाज मे पूछा तो माहौल मे हँसी थोड़ी देर को तैर कर स्थिर हो गयी।
“नहीं, यह भोपाल की २ से ३ दिसम्बर वाली जहरीली रात थी।”
क्या? और तू तो यूनियन कार्बाइड के पास के एरिया में था तो बच कैसे गया।” मि. भल्ला ने फ़िर मजा लिया। “शराब ने ही बचा लिया होगा” मि गुप्ता ने हँसते हुए कहा।
मि. अहलूवालिया ने इस मजाकिया माहौल में सीरियस होते हुए पूछा – “तू बता यार फ़िर क्या हुआ, तू कैसे बचा?”
मित्र मंडली पर शराब का नशा भले ही सर चढ़ कर बोलने लगा था, पर मि. शर्मा के सर से नशा अब उतरने लगा था। उनके चेहरे और आवाज से लग रहा था कि मानों वे वापस भोपाल की २ से ३ दिसम्बर वाली रात मे वापस पहुंच गये हों। मानों अब वे ‘डाव केमिकल्स’ के मैनेजिंग टीम के सदस्य नहीं, बल्की २६ साल पीछे वाले १६ वर्षीय रमन शर्मा हों। मानों वे ‘डाव केमिकल्स’ द्वारा दी जाने वाली दारू पार्टी मे नहीं बल्कि अपने हाईस्कूल के दोस्तों के बीच बैठे शराब पी रहे हों, जब एक-एक दो-दो घूंट लगाते ही सबकी आंखों मे जलन शुरू गयी थी। रोहित सबसे पहले उठ कर किचन की ओर भागा कि कहीं कुछ जल न रहा हो। वहाँ कुछ न पाकर वापस कमरे में आकर उसने शराब सूंघी कि कही उसके असर से तो यह नहीं हो रहा।
यह सुनते ही मि. शर्मा की मित्र मंडली फ़िर से हँस पड़ी। फ़िर भी मि. शर्मा बोलते गये-
तभी अपार्ट्मेन्ट के अगल बगल वाले घरों से खिड़की-दरवाजे खुलने की आवाज आने लगी और रोहित ने घबराहट मे सबकी गिलास और शराब की बोतल टांयलेट मे ले जा कर उड़ेल दी और फ़्लश चला दिया।”
फ़िर हँसी का ठहाका गूंज गया। पर शर्मा नशे मे बोलते गये बगैर हँसी की परवाह किये – “इन सबके बीच आंख मे जलन और बेचैनी इतनी बढ़ने लगी कि मुदित ने उठ कर दरवाजा खोल दिया, हम सब बाहर निकल गये। वहाँ का दृश्य देख कर हम और घबरा गये। रोहित के सभी पड़ोसी सड़क पर उतर कर भागे जा रहे थे, हम भी सीढ़ी उतर कर सड़क पर आ गये।” यह बताते-बताते मि. शर्मा हांफ़ने लगे। जैसा २६ साल पहले गैस के असर से बचने के लिये वे भागते-भागते हांफ़ने लगे थे। तब से अब भी वे कभी-कभी वैसा ही हांफ़ने लगते हैं। अबकी बार सबने उन्हे सीरियसली लिया। सबने उन्हे चुप रहने के लिये कहा। मित्र मंडली को लग रहा था कि यह शराब ज्यादा पीने और ज्यादा नशा चढ़ जाने के कारण हो रहा है। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मि. गुप्ता ने मजा लेने के लिये फ़िर से पूछ लिया – “फ़िर आप मर गये या बच गये?”
इस डर से कि कहीं इस बात से मि. शर्मा भड़क न जाय मित्र मंडली ने सिर्फ़ व्यंग्य भरी हँसी से काम चला लिया, ठहाका नही लगाया। मि. शर्मा को इससे सचमुच राहत मिली और उन्होने फ़िर से बताना शुरु कर दिया – “मैं सड़क पर उतर कर तब तक दूसरों को धकियाता, गिराता हुआ दौड़ता रहा, जब तक कि मैं बेहोश नहीं हो गया।”
फ़िर क्या हुआ” मि. गुप्ता ने बेहद नशीली आंखो से देखते हुए पूछा।
फ़िल्मों मे जैसा हीरो के साथ होता है, वैसा ही मेरे साथ भी हुआ। जब मुझे होश आया तो मैं घर मे था। मेरे मम्मी डैडी और दो-दो डाक्टर मुझे घेर कर खड़े थे।”
ऐसा कैसे हुआ शर्मा जी।” इस बार मि. भल्ला ने टेक दी। “क्योंकि मैं यूनियन कार्बाइड के मैनेजिंग टीम के सदस्य का बेटा था इसलिये ऐसा सम्भव हुआ यार, वरना मैं तो सचमुच तुम लोगों के बीच आज नहीं बैठा होता।” इस बात पर सब च्च.. च्च.. की आवाज निकाल उठे तो मि. शर्मा ने बिना रुके बात आगे बढ़ाई –
पिता जी को गैस रिसाव के बारे मे तुरन्त पता चल गया था, माँ ने उन्हें बताया कि मैं रोहित के घर हूँ तो उन्होंने तुरन्त मेरे लिये गाड़ी भेज दी और ड्राइवर ने किसी तरह मुझे ढूढ़ निकाला, भले ही सुबह होते होते ड्राइवर की मौत हो गयी क्योकि दोनो डाक्टरों को मुझसे फ़ुर्सत ही नही मिली।”
और बाकी दोस्तों का क्या हुआ” किसी ने पूछा – “मुझे नहीं पता क्योंकि अगले ही दिन मेरे मम्मी डैडी मुझे ले कर एरोप्लेन से दिल्ली आ गये और वहीं बस गये। सिर्फ़ रोहित से कुछ दिन पहले इन्टरनेट पर सम्पर्क हुआ तो बस इतना पता चला कि वो शेयर बाजार के काम में है।”
पता कर यार हो सकता है तेरे दोस्त भी मुआवजा मांगने वालों की लाइन में खड़े हों और वे भी नारे लगा रहे हों – मुआवजा दो, मुआवजा दो, भोपाल गैस काण्ड के दोषियों को सजा दो, सजा दो।” मि. भल्ला ने जब हाथ ऊपर उठा कर नारे लगाने वाले अंदाज मे ही यह बात कही तो सब के सब हो-हो-हो करते हुए दोहरे हो गये। जब हँसी का यह दौर कुछ ठण्डा पड़ने लगा तो मि. अहलूवालिया ने इसे यह कह कर फिर से तेज कर दिया कि “उन्हें क्या पता कि भोपाल गैस काण्ड के एक दोषी का लड़का अपने पिता की तरह डाव केमिकल्स कम्पनीकी मैनेजिंग टीम का मेम्बर बन कर इण्डिया लौट आया है, उनके जख्मों पर प्यार से नमक छिड़कने के लिये।”
सही बात है यार तेरे पुराने भोपाल के दोस्तों को मुआवजा मिला हो या नहीं पर तुझे तो भरपूर मुआवजा मिला साले गैस पीड़ित..” गुप्ता ने यह बात मि. शर्मा के पेट पर हाथ फ़ेरते हुए कही और फ़िर आवाज भारी कर इसमे जोड़ा – “दिल्ली से १०+२ करने के बाद लंदन, लंदन मे पांच साल की हायर एजुकेशन के बाद अमेरिका, अमेरिका मे १० साल तक कंपनी चलाने के दांव-पेंच सीखने के बाद दुनिया के मोस्ट वांटेड पूंजीपती एण्डरसन की मौसेरी जहरीली कम्पनी मे मैनेजिंग टीम के मेम्बर और कुछ दिन बाद वांटेड एम डी।” हंसी का ठहाका गूंजता रहा, शराब का दौर जारी रहा। सामने रखी टी.वी. पर खबर चलती रही – भोपाल गैस काण्ड के दोषियों को मात्र दो-दो वर्ष कैद की सजा और १-१ लाख रूपये का जुर्माना। दोषियों को सजा सुनाने के बाद ही २५-२५ हज़ार के निजी मुचलके पर छोड़ दिया गया‘, ‘भोपाल काण्ड पीड़ितों ने अदालत के फ़ैसले का विरोध फ़िर से सड़क पर उतर कर किया, पूरे देश से एण्डरसन को फ़ांसी देने की मांग तेज़ होने लगी है..।‘ ‘एण्डरसन को सुरक्षित देश से बाहर निकालने के मामले में सरकार कटघरे में..‘, ‘भाजपा ने कांग्रेस के इस कृत्य को गलत ठहराया‘, ‘भाजपा द्वारा ‘डाव केमिकल्स’ जो कि यूनियन कार्बाइड की सहयोगी कम्पनी है, से चंदा लेने के मामले ने तूल पकड़ा….
थोड़ी देर टी.वी. पर चलती इन खबरों को हो-हो करते हुए सुनने के बाद मि. भल्ला ने लड़खड़ाती जुबान से कहा – “स्साले बड़ा चंदा पेट में पचा भी नही सकते, बदबू फ़ैला ही दी..”। अहलूवालिया ने बीच में ही बोलते हुए कहा, छोड़ यार इन सब बातों को अभी… “पर यार शर्मा, एण्डरसन ने और सरकार ने तेरे पिता को उनकी वफ़ादारी का बदला अच्छी तरह चुका दिया, तुझे तो उसने अपनी मौसेरी कम्पनी में हायर पोजिशन दे ही दी, तेरे पिता को भी मात्र १ लाख २५ हजार मे छुड़वा लिया, अब तुझे भी अपनी वफ़ादारी दिखानी है।”
यानी फ़िर से यदि कुछ जहरीला रिस जाय तो अपने मालिक को सबसे पहले बचाना है फ़िर ऊपर वाला मालिक तेरा बचाव आप ही कर देगा। २५-३० साल तक मुकदमा चलेगा, थोड़ी-मोड़ी सजा हुई भी तो मालिक‘ (मि. गुप्ता ने अपने दोनो हाथों से कोट्स बनाते हुए कहा) हमे छुड़ा ही लेगा। हमारी तो ऐश ही ऐश, इसी खुशी में तो हम आज यहां बैठे हैं।”
मि. भल्ला ने वाक्य को खूब खींच कर बोलते हुए कहा “न भोपाल में गैस लीक करती, न इतने लोग मरते, न कम्पनी पर मुकदमा होता, न हमारी जीत होती तो आज हमें ये दारू पार्टी भला कौन देता सालो…” इतना सुनते ही मि. गुप्ता हँसते-हँसते सोफ़े पर लोट-पोट हो गये, बाकी सभी का भी यही हाल था। जब हँसी का गुबार थोड़ा थमने लगा तब मि. शर्मा ने चहकते हुए कहा –
आगे से ऐसी दुर्घटना हो भी गयी तो मुकदमें-उकदमें का झंझट ही नही होगा यारों.. भारत सरकार ने अब हमारे लिये ऐसी सुविधा बना दी है कि दुर्घटना करो थोड़ा सा मुआवजा दो.. और बस.. यानी आगे से मुकदमे की जीत की खुशी में मिलने वाली दारू पार्टी का कोई चांस नही, हा, हा, हा।”
मि. भल्ला ने दुखी सा मुँह बनाते हुए कहा – “हाँ यार, वो क्या नाम है उसका – न्यूक्लियर लाइबेलिटी बिलइसने इस तरह की दारू पार्टियों का स्कोप खत्म कर दिया समझो।”
पर दूसरी तरह की दारू पार्टियों का स्कोप तो बनाये रखा है। ये बिल मि. शर्मा के पिता की तरह हमें इधर-उधर भागने से बचा लेगा, बिचारे मि. शर्मा बचपन मे फ़िर दूसरी दारू पार्टी नहीं कर सके होंगे, सीधे जवानी मे ही पिया होगा…[हँसी का ठहाका].. पर ये बिल ऐसा नही होने देगा, हम सब को बचा लेगा। थोड़ा सा मुआवजा दो और ऐश करो, चीयर्स।”
मि. अहलूवालिया ने शराब का गिलास यह कहते हुए उठाया तो सबने मिल कर चीयर्स किया और मि. भल्ला ने इसमे जोड़ दिया –
यानी मि. शर्मा के बचपन की दारू पार्टी का मजा भले ही किरकिरा हो गया है इनके बेटे का हरगिज नही होगा। जय हो, जय हो, चीयर्स।”
सबने ठहाका लगाकर चीयर्स किया, दारू पार्टी चलती रही। बैकग्राउण्ड मे टी.वी. पर भोपाल गैस त्रासदी की कई दर्दनाक खबरें, स्टोरीस तस्वीरों के साथ चलती रही। भोपाल मे वर्षों से अदालत से न्याय मिलने की आस मे बैठे लोग फिर से सड़क पर उतर रहे थे।
सम्पर्क-
मोबाईल- 09506207222
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है)

सीमा आज़ाद


जन्म- ५-८-१९७५
शिक्षा- एम. ए मनोविज्ञान इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद
कार्य-  दस्तक नये समय की, हिन्दी द्वैमासिक पत्रिका का सम्पादन
मानवाधिकार संगठन पी. यु. सी. एल की संगठन सचिव
निवास- इलाहाबाद

किसान और मजदूर आज भी भारत के सर्वाधिक उपेक्षित वर्ग हैं। ये ही वे वर्ग हैं जिनके हाथों से भारत के विकास की लकीरें खींची गयी हैं। खदान मजदूर ऐसे ही वर्ग हैं जो आजीविका की तलाश में एक बार जब इस धंधे में लगते हैं तो फिर एक अमानवीय त्रासदी का उनका अंतहीन दौर शुरू हो जाता है। सीमा आजाद ने इनकी जिंदगी को बिलकुल करीब से देखने का प्रयास किया है। साथ ही खनन माफिया के दुष्चक्रों का भी उद्घाटन किया है इलाहाबाद के पास स्थित शंकरगढ़ के खदान मजदूरों के जीवन पर आधारित यह आलेख आपके लिए प्रस्तुत है। 
    
खदान मजदूर: पैरों में पड़ी आर्थिक बेडि़यां

इलाहाबाद शहर को देखकर यह अन्दाजा लगाना मुश्किल है कि इसके मात्र पचास किमी की दूरी पर एक ऐसा क्षेत्र है , जो इसका हिस्सा है पर जहां विकास की पहली किरन भी आज तक नही पहुंची है। कोल आदिवासी बहुल यह इलाका पत्थर खदानों से भरा हुआ है। यही इनकी आजीविका का साधन है साथ ही समस्याओं का कारण भी। जीने के लिए भोजन के साथ ये खदानें इन्हें मरने के लिए सिलीकोसिस और मलेरिया जैसी बीमारियां भी देती हैं । ये खदानें ही दूर दूर के आदिवासी मजदूरों को रोजगार के लिए आकर्षित भी करती हैं, साथ ही बंधुवागिरी की अदृश्य डोर में इन्हें बांध भी लेती हैं। इसी कारण एक बार यहां आ जाने के बाद इनका यहां से जाना असंभव सा हो जाता है। सच्चाई यह भी है कि वर्षों से इसी काम में लगे रहने के कारण ये दूसरे कामों के बारे में सोचते भी नही हैं। वर्षों से बहुमूल्य पत्थर खोदने और तोड़ने वाले ये लोग इतनी सारी समस्याओं से इसलिए घिरे हैं, क्योंकि वे इन खदानों के मालिक नही हैं बल्कि ठेकेदार के कर्ज में बंधे गुलाम हैं।

    आमतौर पर शहर की खबरों में जगह न बना पाने वाला यह शंकरगढ़ इन दिनों इलाहाबाद के अखबारों में प्रमुखता से स्थान पा रहा है। मुद्दा है इलाके में अवैध और अवैज्ञानिक खनन, जिसके कारण पृथ्वी का सन्तुलन बिगड़ रहा है, उसे पर्यावरणीय क्षति पहुंच रही है। हाईकोर्ट ने  फिलहाल खनन पर रोक लगा दी है। इससे खदान मालिको और ठेकेदारों की करनी का फल उनसे ज्यादा इन कोल आदिवासियों को ही भुगतना पड़ रहा है जिनकी रोजी रोटी इन खदानों में पत्थर तोड़कर चलती है। इनमें से अधिकतर मजदूर कहीं और कमाने नही जा सकते क्योंकि इनके उपर ठेकेदार का कर्ज भी है जिसकी अदृश्य डोर में ये बंधे हुए हैं। ऐसा नही है कि इलाहाबाद के प्रशासनिक अधिकारियों से होती हुई यह बहस पहली बार अखबार तक पहुंची हैं, बल्कि अवैध और असन्तुलित  खनन की चर्चा तो यहां बार-बार उठती रही है पर इसमें खनन करने वाले आदिवासी मजदूरों के वर्तमान और भविष्य की चर्चा हर बार गायब रहती है। सरकार विभिन्न सरकारी योजनाओं और कानून के माध्यम से बंधुआ मजदूरी समाप्त करने और इनकी स्थिति में सुधार करने के दावे बार बार करती है पर वे हमेशा ही पहले झूठे वादे फिर झूठे दावे बन जाते हैं।

    इलाहाबाद जिले के अन्दर आने वाला सिलिका सैण्ड, गिट्टी, पत्थर व मोरंग से भरा यह इलाका शंकरगढ़ कहलाता है। पर यह इतना छोटा इलाका नही है,बल्कि यह एक बड़े भूभाग का छोटा सा हिस्सा है। भौगोलिक दृष्टि से यह उत्तर प्रदेश के नौ कृषि पर्यावरणीय क्षेत्र के विंध्य क्षेत्र में आता है जिसका विस्तार 10 हजार 350 वर्ग किमी का है और पूरा इलाका 19 विकास खण्ड में बंटा हुआ है। इसमें इलाहाबाद जिले का शंकरगढ़ ,कोरांव मेजा, मांडा और जसरा का एक हिस्सा आता है। इसके अलावा मिर्जापुर जिले का 4 ब्लाक, और चंदौली जिले का 2 ब्लाक आता है। इस पूरे क्षेत्र का एक तिहाई हिस्सा आरक्षित वन क्षेत्र है और तीन चैथाई हिस्सा पठारी भाग है। इतने बड़े क्षेत्र को देखते हुए इसकी आबादी विरल है क्योंकि यह क्षेत्र जीवन यापन के लिए कठिन है। 2001 की जनगणना के अनुसार इसकी कुल आबादी 38 लाख थी, जिसमें 3 लाख कोल जनजाति हैं। इनमें से ही 1 लाख लोग खनन के काम में लगे हैं। वैसे इस क्षेत्र में इस आबादी की सही गणना करना संभव नही है क्योंकि इस क्षेत्र को सरकारी स्तर पर भले ही बांट दिया गया हो पर कोलों के लिए उनके क्षेत्र का विस्तार मध्य प्रदेश तक है। दोनों प्रदेशों में फैले उनके रिहाइशी क्षेत्र में उन्हें जहां भी काम मिला वे वही बस जाते हैं, उनके लिए राज्य की सीमा का कोई मतलब नही है। बड़ी संख्या में शंकरगढ़ में बसे कोल आदिवासी मूल रूप से मध्य प्रदेश के निवासी है। मध्य प्रदेश में कम मजदूरी के कारण वहां से बड़ी संख्या में कोल आदिवासी शंकरगढ़ की खदानों में काम के लिए आते हैं और यहां ये ठेकेदार के शोषण का शिकार होते हैं । प्रवासित होने के कारण सरकारों के लिए भी यह सुविधा होती है कि वे इन्हें आसानी से अपनी योजनाओं से बेदखल कर सकती हैं। इतना  ही नही इसी कारण कानून भी इनके पक्ष में खड़ा नही होता, बल्कि कानूनी लड़ाई के हकदार ही ये नही बन पाते, बावजूद इसके कि सालों से ये लोग यहां की खदानों में मजदूरी करते हुए यहीं रह रहे हैं। ठेकेदार इन आदिवासियांे को मजदूरी के लिए जिस तरह से नियुक्त करते हैं उसी में इनके बन्धन में बंधने और शोषण  का कारण छिपा होता है। पहले से आये जत्थे को देखकर दूसरा जत्था जब इस क्षेत्र में मजदूरी के लिए आता है तो घात लगाये ठेकेदार उन्हें मजदूरी का एडवांस भुगतान करते हैं फलतः मजदूर उनके चंगुल में आसानी से फंस जाते हैं। नये क्षेत्र में बसने के लिए इन्हे शुरूआती समय में कुछ पैसों की जरूरत भी होती है और यह जरूरत इन्हें शुरू से ही ठेकेदार के चंगुल में फंसा देती है। इसके पीछे वजह ये भी है कि  ठेकेदार यहां मजदूरी का भुगतान दैनिक भुगतान के रूप में न करके तयशुदा काम के बदले में करता है, जिसे ठेकेदार पहले से ही उन्हें दे कर फंसा लेता है। जैसे गिट्टी तोड़ने के काम में मजदूरी का माप प्रति ट्क गिट्टी से तय किया जाता है । एक ट्क गिट्टी की मजदूरी 1200 से 1500 रूपये के बीच होती है ,जिसे ठेकेदार 6000 से 8000 रूपये तक में बेचता है । इसमें राजस्व व रवन्ना निकाल कर उसका शु़द्ध मुनाफा 3000 से 5000 रूपये तक होता है। ठेकेदार राजस्व की चोरी करके अक्सर इस मुनाफे को और अधिक बढ़ा लेता है। दूसरी ओर 4 से 12 सदस्यों वाले परिवार का झूमर ख् पत्थर तोड़ने वाला बहुत ही भारी हथौड़ा, लगातार एक हफ्ते या 10 दिन तक पत्थरों पर गिरता है तब जाकर एक मजदूर परिवार को 1200 से 1500 रूपये का मेहनताना मिलता है। उसमें भी यदि उस मजदूर परिवार ने कर्ज लिया है तो इसमें भी कटौती हो जाती है,मजबूरी में इसके बदले उसे अगले टक की गिट्टी का एडवांस लेना पड़ता है। इसी कारण वह एक ही ठेकेदार से बंधा रहता है,उसके पास दूसरी जगह जाने का विकल्प नही होता इस तरह हर ठेकेदार अपने गुलाम बढ़ाता जाता है। वैसे तो ठेकेदारो की यह कूटनीति होती है कि वे एडवांस रकम देकर मजदूरों को बांधे रखते हैं पर इसके अलावा इन मजदूरों को कर्ज लेने की जरूरत अन्य कामों के लिए भी पड़ती है खासतौर पर अपने इलाज के लिए । अधिकतर ऐसे रोग के इलाज के लिए जो उन्हें इस रोजगार ने ही दिया है। पत्थर तोड़ने से उठती गर्द मजदूरों की श्वास नली से होकर फेफड़ों में पहुंचती रहती है और खतरनाक सिलिकोसिस रोग का कारण बनती है, जिसमें मौत निश्चित ही होती है। इस क्षेत्र के मजबूत मांसपेशियों वाले हट्टे कट्टे मजदूर ज्यादातर इसी रोग से मर जाते हैं ,वो भी कम उम्र में। मजदूरों को मास्क व हेलमेट उपलब्ध कराने से लेकर इलाज तक हर जिम्मेदारी मुनाफा कमाने वाले ठेकेदार की न होकर मजदूर की ही है। खदान में विस्फोट के समय भी अक्सर दुर्घटनाएं होती हैं और मजदूर मारे जाते हैं क्योंकि ठेकेदार इस काम के समय न ही मजदूरों को हेलमेट उपलब्ध कराते है ना ही सुरक्षा के अन्य उपाय करते हैं। उलटे ठेकेदार उनकी इस स्थिति का इस्तेमाल  उन पर कर्ज का बोझ और लादने के लिए करते हैं। इसके अलावा मलेरिया भी इस क्षेत्र की प्रमुख बीमारी है जो ज्यादातर बरसात के महीने में महामारी बन जाती है, क्योंकि खदानों में बारिश का पानी भर जाता है। इस क्षेत्र में सक्रिय बहुत सारे स्वयं सेवी संगठन सिलीकोसिस बीमारी से बचने के लिए मास्क उपलब्ध कराने , विस्फोट के समय सुरक्षा उपाय करने और मलेरिया की दवा बांटने की मांग करते रहते हैं फिर भी लोग विंस्फोट और इन बीमारियों से मर भी रहे हैं और इसके इलाज के लिए कर्ज के बोझ तले दबते भी जा रहे हैं।
 समस्या इतनी भर नही है।

सभ्यता की शुरूआत से ही दुनिया भर में तमाम बसावट किसी विशेष क्षेत्र में इसलिए हुई है क्योंकि वहां पानी की उपतब्धता थी। परन्तु इस पठारी क्षेत्र में पानी की जर्बदस्त कमी के बावजूद इस कारण बसावट हुई, क्योंकि यह पथरीला क्षेत्र उन्हे रोजगार देता है । इस पूरे क्षेत्र में पानी पत्थरों से रिस कर  आता है,जो कि वैसे ही दूषित रहता है। निवासियों ने इस रिसते हुए पानी को अलग-अलग खांचों में बांट कर इसका प्रदूषण कम करने का उपाय किया है। पत्थर से सीधा आता पानी पीने के लिए है। उससे आगे बढ़ता पानी नहाने व कपड़े धोने के लिए। उससे आगे बहा पानी शौच और जानवरो के पीने के लिए । कहीं कहीं पर कुएं भी हैं जिसका पानी एकदम मटमैला है और काफी नीचे भी । कुछ सरकारी हैण्डपम्प भी हैं जो कि गांव के दबंगों के दालान में हैं जहां से ये मजदूर पानी नही भर सकते। यानि इनके लिए पत्थरों से रिसता पानी ही उपलब्ध है। उसे भी सिलिका सैण्ड के ठेकेदार अक्सर वाशिंग प्लांट के तौर पर इस्तेमाल करते हैं, जिससे यह पानी भी दूषित हो रहा है। ऐसे में तपते पत्थरों के बीच ये लोग पानी की कमी के साथ कैसे रहते होंगे इसकी कल्पना करना मुश्किल नही है। इस स्थिति में कुछ स्वयंसेवी संगठन काम के नाम पर ऐसा काम करते जो बेतुके के साथ साथ हास्यास्पद भी होता है। कुछ वर्ष पहले एक संगठन ने पानी की कमी वाले इस इलाके में शौचालय बनवा कर गांव वालों को सभ्य बनाने का दावा किया। किंन्तु पानी के अभाव में ये पहले गन्दे, बाद में बेकार हो गये। वस्तुतः इस क्षेत्र में आदिवासियों की स्थिति सुधारने के नाम पर ढेर सारे एन. जी. ओ. अस्तित्व में हैं सभी यहां काम करने के नाम पर विदेशों से मोटा फण्ड बटोरने में लगे हैं। स्वयं सहायता समूहो की तो यहां बाढ़ सी है परन्तु कोई भी एन. जी. ओ. इन मजदूरों की स्थिति में मूलभूत परिवर्तन की बात नही करता ,इसी कारण इतने सालों से इतने सारे संगठनों की उपस्थिति के बावजूद इन मजदूरों की स्थिति में न तो सरकार ही कोई परिवर्तन ला सकी और ना ही ये एन. जी. ओ.।

इनमें से कुछ क्षेत्रों का जीवन इतना पीछे है कि यहां के कई गांवों में अब भी  खरीदारी के लिए वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलन में है। खाने में आलू चावल और खुद्दी दाल के अलावा कुछ भी नही है। डाक्टर और अस्पताल के अभाव में जले कटे का इलाज भी आलू से ही होता है। शिक्षा के बारे में तो सोचा भी नही जा सकता। हथौड़ा संभाल सकने लायक होते ही बच्चे पत्थर तोड़ने में जुट जाते है और परिवार के लिए कमाउ हो जाते है। बाल श्रम उन्मूलन और अनिवार्य शिक्षा यहां खूबसूरत शब्द मात्र हैं। यहां बसे गांवों की ग्राम पंचायतों में इनका प्रतिनिधित्व नही के बराबर है क्योंकि इनकी बड़ी आबादी बाहरी कहलाती है इसलिए इसका सवाल भी नही उठता है। सरकार भले ही मनरेगा की उपलब्धि गिनाते हुए  इसके माध्यम से देश से बंधुआ मजदूरी समाप्त करने का ढिंढोरा पीट रही है पर वास्तविकता यह है कि इन तक यह योजना पहुंची ही नही, बंधुआपन से मुक्त होना तो दूर की बात है । यह इलाका इस सरकारी विज्ञापन के झूठ को उजागर कर देता है, बल्कि यह इलाका इस सरकारी दावे के साथ साथ सरकारी विकास के दावे की भी हंसी उड़ाता है। आश्चर्य कि यह क्षेत्र इलाहाबाद से मात्र 50 किमी की दूरी पर स्थित है।

बिना मालिकाना के बंधुआ मजदूरी नही समाप्त हो सकती

इलाहाबाद स्थित गोविन्दवल्लभ पंत संस्थान में एसोसिएट प्रोफेसर डा0 सुनीत सिंह, जो शंकरगढ़ व कोरांव के क्षेत्र में लगभग 15 वर्षों से अध्ययन कर रहे हैं, का कहना है कि खदान मजदूरों को खदान का मालिकाना हक दिये बिना उनकी स्थिति को बदलना असंभव है। कोई भी योजना इन मजदूरों की स्थिति को नही बदल सकती। उनका कहना है  सरकार का मनरेगा के माध्यम से बंधुआ मजदूरी समाप्त करने का दावा पूरी तरह आंख में धूल झोंकने वाला है जिसका उदाहरण शंकरगढ़ के खदान मजदूर हैं जो अब भी ठेकेदार के कर्ज जाल में फंसे हुए हैं। डा0 सुनीत ने कानूनी परिभाषा के हिसाब से इसे स्पष्ट किया कि बंधुआ मजदूर वह है जो

1.    कही  जाने के लिए स्वतंत्र नही है।
2.    जिसे न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी मिलती है।
3.    जो अपने उत्पाद का मूल्य खुद तय नही कर पा रहा है।
4.    जिसे किसी एडवांस या कर्ज के चलते जबरन काम करना पड़ रहा है।

अब इस परिभाषा के अनुसार देखे तो शंकरगढ़ क्षेत्र में काम करने वाले खदान मजदूर  बंधुआ की श्रेणी में ही आते हैं । दरअसल  ठेकेदारों द्वारा मजदूरी की भर्ती का तरीका इन्हें बंधुआ बनाता है। यदि ठेकेदार इन्हें न्यूनतम मजदूरी की दर से प्रतिदिन भुगतान करें तो भी ये बंधुआ की स्थिति से बाहर आ जायेंगे। परन्तु ठेकेदार इन्हें डेलीवेज मजदूर न रख कर जान-बूझ कर एडवांस भुगतान करके उन्हें बंधुआ बना लेते हैं । मजदूरों की अपनी समस्या भी उन्हें कर्ज लेने के लिए मजबूर कर देती है। जिसके कारण उन्हें जबरन उसी ठेकेदार के यहां काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इस कारण वह कहीं आने जाने के लिए स्वतंत्र नही होता हैं । अपने उत्पाद यानि गिट्टी का मूल्य वह खुद नही तय करता है।

    डा0 सुनीत का कहना है कि शंकरगढ़ के खदान मजदूरों को बंधुआपन से तब तक मुक्ति नही मिल सकती जब तक कि खदान का पट्टा मजदूरों को ही नही दिया जाता। यानि कि जब तक वे खुद इसके मालिक नही बन जाते। वे इसके लिए ‘उत्तरदायित्वपूर्ण साझा प्रबन्धन की बात करते हैं जिसमें खनन  किसी ठेकेदार की नही, बल्कि  मजदूरों की साझा जिम्मेदारी हो। डा0 सुनीत ने इसके लिए एक स्वयंसेवी संगठन के माध्यम से  मजदूरों का समूह बनाने की शरूआत की है। इसके अलावा वे इन कोल आदिवासियों को समाज से जोड़ने के लिए सामाजिक ताने बाने को बदलने की जरूरत बताते हैं। तभी ये लोग बंधुआपन से मुक्त भी होंगे, इनका जीवन भी सुधरेगा, राजस्व की चोरी रूकेगी और पर्यावरण सन्तुलन भी बना रहेगा।

शंकरगढ़ की रानी की कहानी

जैसा कि नाम से भी पता चलता है शंकरगढ़़ में कोई राज परिवार भी होगा और राजा रानी भी। यहां राज परिवार न सिर्फ उपस्थित है बल्कि खनन के कारोबार में भी लगा हुआ है। यहां के कुल 46 गांवों के खनन का पट्टा इस परिवार की रानी राजेन्द्र कुमारी बा के पास है। बाकी ठेकेदारो के पट्टे भले ही बदलते या रद्द होते रहें, पर रानी साहिबा का पट्टा हमेशा से उनके ही पास रहा है। क्योंकि यह राजपरिवार को मिली दैवीय सम्पत्ति मानी जाती है, जिसे कोई छीन नही सकता। सरकार भी नही। तभी तो इस परिवार से मात्र 4000रूपये सालाना टैक्स के बावजूद सरकार के आदेश पर जिला प्रशासन उनके पट्टे को यथावत चला रहा है। जबकि यहां भी दूसरी जगहों की तरह न तो श्रम कानूनों का पालन किया जाता है ना ही सुरक्षा मानको का और ना ही पर्यावरण मानकों का। हाल ही में इलाहाबाद कमिश्नर की पहल पर इसी परिवार का लाखों टन का अवैध सिलिका सैण्ड पकड़ा गया। जिसके बाद हाईकोर्ट ने यहां खनन पर रोक लगा दी। इतने बड़े पैमाने पर अवैध सिलिका सैण्ड की छापेमारी के बाद उक्त कमिश्नर का तबादला भी इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है। कानूनी रोक के बाद इन गांवो में खनन का काम बन्द हो चुका है जिससे इसमें लगे मजदूरों स्थिति और भी खराब हो गयी है।यहां वर्षों से काम कर रहे मजदूर अब रानी का खनन पट्टा रद्द कर, उस पर एफ आई आर दर्ज करने और खनन का पट्टा खुद को दिये जाने की मांग कर रहे हैं। मजदूरों का कहना है कि इससे अवैध खनन तो रूकेगा ही, सरकार को टैक्स के अलावा राजस्व भी मिलेगा जिससे शंकरगढ़ का विकास किया जा सकेगा।

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