रविशंकर उपाध्याय के कविता संग्रह ‘उम्मीद अब भी बाकी है’ की समीक्षा

                  

रविशंकर उपाध्याय

आज का हमारा समय भयावह द्वैधाताओं का समय है। राजनीति को रौशनी दिखाने वाले साहित्य की स्थिति भी कुछ ठीक नहीं। ग़ालिब के शब्दों में कहें तो ‘आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना।’ आज की सबसे बड़ी दिक्कत आदमी बनने की ही है। ऐसे समय में एक युवा कवि ‘था’ जो सबसे पहले आदमी था और फिर उसकी आदमियत में भीगीं हुई कविताएँ थीं। ‘था’ इसलिए कि रविशंकर उपाध्याय जो हमारा अनुज था, दुर्भाग्यवश इस दुनिया में नहीं है। बेहद संकोची रवि अपनी तारीफ़ सुन कर हमेशा सकुचा जाता था, शायद इसीलिए अपने संग्रह पर कुछ सुनने से पहले ही हम सबसे रुखसत कर गया। रवि को श्रद्धांजलि देने के उद्देश्य से कुछ मित्रों ने उसकी कविताओं का एक संकलन ‘उम्मीद अब भी बाकी है’ नाम से प्रकाशित कराया है जो राधाकृष्ण प्रकाशन से छपा है। हाल ही में उसके जन्मदिन (12 जनवरी के अवसर) पर इस संग्रह का विमोचन उसकी कर्मभूमि बी एच यू में हुआ। भाई रामजी तिवारी इस अवसर के गवाह थे। रामजी तिवारी ने रवि के कविता संग्रह पर एक समीक्षा पहली बार के लिए लिख भेजी है। रविशंकर की स्मृति को याद करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं रामजी तिवारी की यह समीक्षा        

‘जो लिखा, वही जिया’

रामजी तिवारी 
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राधाकृष्णन सभागार में गत 12 जनवरी को रविशंकर उपाध्याय के कविता-संग्रह ‘उम्मीद अब भी बाकी है’ का लोकार्पण हुआ उसी रविशंकर उपाध्याय के कविता संग्रह का, जो पिछले साल 19 मई को इस दुनिया को सदा-सदा के लिए अलविदा कह गए थेसनद रहे कि 12 जनवरी को उनका जन्मदिन था, इसलिए उनके शुभेच्छुओं ने उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए इस कविता-संग्रह को प्रकाशित करने का तरीका चुना इस मौके पर दूर-दराज से आये उनके दोस्त-मित्रों ने उनकी याद को साझा करने के साथ-साथ उनकी कविताओं पर भी बातचीत की, जिसका लब्बोलुआब यह था कि उनसे मिलने वाले लोग तो उनके जीवन को हमेशा याद रखेंगे ही, यह कविता-संग्रह उन्हें बहुत सारे अनजाने-अदेखे-अपरिचित लोगों तक भी पहुंचाएगा
बनारस से बलिया लौटते समय ट्रेन में मैं उनका कविता संग्रह पढ़ गयाऔर एक-दो दिन ठहर कर एक बार फिर से कह सकता हूँ, कि जब से यह कविता-संग्रह सामने से गुजरा है, मन में उसी दिन से इस पर लिखने की इच्छा भी कुलांचे मार रही है लेकिन दिक्कत यह है कि जब भी लिखने के लिए कुछ सोचता हूँ, तो उनका जीवन सामने आ कर खड़ा हो जाता है वह जीवन, जो बेशक महान और बड़ा जीवन नहीं था, लेकिन आदमियत से इतना ओत-प्रोत था, कि साधारण होते हुए भी प्रत्येक दौर के लिए अनुकरणीय बन गया यह इसलिए भी कह रहा हूँ, क्योंकि इस दौर में साधारण आदमी बनना भी कोई साधारण काम नहीं रह गया हैहुआ तो यह है कि लोग-बाग़ आदमी होने तक की आवश्यक शर्तों को भी भूलने लगे हैं यदि ‘रविशंकर’ के जीवन में ईर्ष्या, द्वेष, लोभ और लालच का हिस्सा रहा होगा, तो उतना ही गौड़ रूप से रहा होगा, जितना रहने में एक आदमी को आदमी कहा जा सके बाकि उनके जीवन में मुख्य जगह प्रेम, दया, क्षमा, बंधुत्व और कर्तव्यनिष्ठा जैसे भावों की ही अधिक थी
इसलिए यह अनायास नहीं है, कि हम जब भी उनकी कविताओं पर लिखने के लिए बैठते हैं, तो उनका जीवन उन्हें छेंक कर खड़ा हो जाता है और यह इसलिए नहीं है कि उनकी कविताएँ मानीखेज नहीं हैं, या कि उनमें गहराई नहीं है वरन इसलिए कि उन कविताओं से बनने वाला जीवन इतना बड़ा और मानीखेज है, कि उसके आगे सब कुछ धुंधला दिखाई देता हैजिस दौर में चर्चित और नामी-गिरामी रचनाकारों पर लिखते समय उनके जीवन को परे धकेलना पड़ता हो, उनके जीवन के भीतर प्रवेश करते समय उनकी कविताओं का रंग उड़ने लगता हो, वे हलकी और हास्यास्पद दिखाई देनें लगती हों, उस दौर में ‘रविशंकर’ उस पूरी प्रक्रिया को सकारात्मक तरीके से पलटते हैंजिस दौर में पाठकों को आमतौर पर समकालीन कविता से यह शिकायत होती हो, कि उसमें लेखन और जीवन के बीच का अंतर काफी बड़ा होता चला गया है, कि अपनी कविताओं में बड़ी-बड़ी बाते करने वाले कवि लोग, अपने जीवन में अत्यंत बौने होते चले गए हैं, उस दौर में ‘रविशंकर’ अपनी कविताई को अपने जीवन से जोड़ कर पाठकों का भरोसा भी जोड़ने का काम करते हैं
  
इस संग्रह को पढ़ते समय सबसे पहले तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह संग्रह ‘रविशंकर’ की योजना के हिसाब से नहीं आया है बल्कि कहें तो उनके पहले और अधूरे ड्राफ्ट की कविताओं के सहारे आया है उन्होंने जो लगभग चालीस कवितायें लिखी थीं, उन कविताओं से वे खुद कितना संतुष्ट थे, और यदि संग्रह के रूप में उन्हें लाना होता, तो इनमें से किसे रखते, किसे छाँटते, किसे काटते और किसे संशोधित-परिवर्धित करते, कहना कठिन है उनके मित्र बता रहे थे कि अभी उनके मन में कविता-संग्रह लाने की कोई योजना नहीं थी तो जाहिर है, यह उनके मन का संग्रह नहीं है लेकिन उनके असमय चले जाने के बाद अब जो भी हो सकता है, यही हो सकता है यह सोच कर कि इन कविताओं के सहारे ‘रवि’ हमें साहित्य की किस उर्वर जमीन पर लेकर जाना चाहते होंगे, इस संग्रह को देखा और पढ़ा जाना चाहिए
इस संग्रह में कुल मिला कर चालीस कवितायें हैं, जो 90 से जरा कम पृष्ठों में ही सिमटी हुई हैं जैसे कि उनके जीवन ने इस दुनिया में, मात्रा के हिसाब से बहुत कम जगह छेंका, और अन्यों के लिए बाकी ढेर सारा छोड़ दिया, उसी तरह उनकी कविताओं ने भी मात्रा के हिसाब से, समकालीन कविता में बहुत अधिक जगह छेंकने को कोशिश नहीं की है लेकिन मुझे यह कहने की इजाजत दीजिए कि जैसे उनका यह अधूरा और संक्षिप्त जीवन हमें इतनी सारी प्रेरणाएं देता है, हमारे सामने मानवीय संबंधों के इतने सारे दरवाजे खोलता है, वह गुणात्मक रूप से इतना बड़ा दिखाई देता है, वैसे ही उनका यह अधूरा और संक्षिप्त संग्रह भी युवा-कविताके बहुत सारे आयाम निर्धारित करता है, बहुत सारी राहें खोलता है यह संग्रह उनके जीवन से पूरी तरह से मेल खाता है, क्योंकि इसमें भी हर तरह की कुलीनता और महानता से दूर रहते हुए, आदमीबनने की सक्रिय तलाश है इन चालीस कविताओं में ईमानदारी और प्रतिबद्धता एक करेंट की तरह से बहती है, जहाँ से उनका लोक, प्रेम की उद्दात्त भावना, समय-समाज की नब्ज और मृत्यु से दो-दो हाथ करने वाली कविताएँ मुखरित होती हैं
प्रत्येक महत्वपूर्ण रचनाकार की तरह ‘रविशंकर’ की कवितायें भी अपने परिवेश से जुड़ कर ही आकार लेती हैं, और उसी के सहारे देश-दुनिया से तादात्म्य स्थापित करती हैं ध्यान रहे कि यहाँ बरगद, कछार, गोलंबर, स्टेशन और गाँव की मिट्टी, किसी अतीतजीविता के कारण नहीं आती, वरन वे इसे अपने परिवेश से गहरे जुड़े होने के कारण परखने और आलोचित करने के लिए ले आते हैं उस फैशन से दूर, जो कि आज के दौर में अपने देश-जवार से कट गए अधिकाँश कवियों की कविताओं में दिखाई देता है कि जो अपनी जड़ों से उखड़ कर किसी महानगरीय हवा में तैर रहे होते हैं, और अपनी जमीन की बात आते ही विभोर होते दिखने की कोशिश करने लगते हैं इन कविताओं में गाँव के बरगद में कई ‘बरोहों’ को झूलते देखने की उम्मीद है, तो उसी गाँव से पागल हुई निकली वह औरत भी है, जो आज किसी नगर में भटक रही होती है जिसे गाँव ने यह पागलपन रसीद किया है, कि वह नौजवान शराबी लफंगों के लिए ‘अपने जिस्म की दान-दात्री’ बन जाएइस देखने के प्रयास में गाँव की ओर ले जाने वाला मुगलसराय रेलवे स्टेशन भी आता है, और उस मिट्टी की सोंधी सुगंध भी, जिसके बारे में वे कहते हैं कि
हे ईश्वर ….!
मेरी इन पथराई आँखों में इतना पानी भर दो
कि मैं इस मिट्टी को भिगो सकूं
और उससे उठती सोंधी सुगंध को
अपने रोम-रोम में सहेज लूं
रविशंकर गाँव से निकल कर शहर के गोलंबर तक पहुँच गयी उन कतारों को भी देखते हैं, जिनकी आँखों में साफ़ कपड़े वालो को देख कर एक चमक सी उठ जाती है जो अपने जांगर के पसीने को बेचने के लिए रोज-रोज उस शहराती और कस्बाई गोलंबर पर बिकने के लिए खड़े होते हैंरविशंकर अपनी कविता में कहते हैं ….
हर आने वाले बाबुओं पर होती हैं
उनकी कातर निगाहें
जो लिए-लिए फिरते हैं
उनकी आकांक्षाओं की पोटली
जिनमें बंधी होती है
नन्हीं-नन्हीं पुतलियों की चमक
और बटलोई में खदकते चावल का स्वाद

 

कहते हैं, किसी भी व्यक्ति को परखने का एक तरीका यह भी होता है कि उसके प्रेम को परखा जाए कि वह उसमें कितना डूब सकता है और कितनी गहराई तक जा सकता है ‘रविशंकर’ की कविताओं में इसकी खूब आहट सुनाई देती है‘तुम्हारा आना’, ‘सुनना’, ‘कविता में तुम’, ‘उदास ही चला गया बसंत’, ‘अँखुआने लगे नए अर्थ’ और ‘समुद्र मैं और तुम’ जैसी कविताओं से यह पता चलता है, जो वह किन संवेदनाओं से संपृक्त आदमी थे कुछ बानगी देखिए …
तुम्हारा आना ठीक उसी तरह है
जैसे रेंड़ा के बाद फूटते हैं धान
और समा जाती है एक गंध मेरे भीतर   …..(तुम्हारा आना)
और यह भी
समुद्र का मन भर जाता है
जब मिलती हैं नदियाँ
नदियों की भी मिट जाती है प्यास
जब वे समा जाती हैं समुद्र में   ………….. (समुद्र मैं और तुम)
और फिर रविशंकर की कवितायें उस मुकाम पर पहुंचती हैं, जहाँ से उनके भीतर का सामाजिक आदमी आकार लेता है संग्रह की पहली कविता ’21 वीं सदी का महाकाव्य’ में उनका तेवर और इरादा स्पष्ट हो जाता है, जिसमें वे कूड़ा बीनने वाले 12 साल के बच्चे को देख कर कहते हैं कि
क़स्बे की नालियाँ और कूड़ाघर ही
बन चुके हैं उसके कर्मक्षेत्र
जहाँ वह दिन भर तलाशता है
अपनी खोई हुयी रोटी
और नन्हीं-नन्हीं उँगलियों से
सड़क की पटरियों पर लिखता है
21 वीं सदी का महाकाव्य
इन कविताओं में रविशंकर की सोच ही नहीं, वरन उनका जीवन भी साफ़ तौर पर उभर कर सामने आता है मुक्ति’, आदमी और मच्छर’, ‘रोटी’, ‘उम्मीद अब भी बाकी है’, ‘यह समय’, ‘मूर्तियाँ’, ‘शान्ति रथ’ और ‘विकास रथ के घोड़े’ जैसी कविताएँ यह बताती हैं कि बाहर से ऐसा दिखने वाला वह आदमी, भीतर से किन विचारों से बना हुआ था, या कि बन रहा था अपने समय और समाज पर पक्ष चुनने का उनका विवेक तो साफ़ है ही, उन्हें जांचने और परखने की दृष्टि भी साफ़ और पैनी है वे, जो इतना साधारण जीवन जीने का हुनर रखते हैं, तो इसलिए कि वे हर तरह की भव्यता को ठोकर मारने की हिम्मत भी रखते हैं
भव्यता ने मुझे हर बार आशंकित किया है
इतना कि मैं अब आशंकाओं से प्यार करने लगा हूँ
………………………………………………………..
हर क्षण जिलाए रखना चाहता हूँ
अपने प्रेम को
जहाँ सदैव खड़ी हों आशंकाएँ
हर भव्यता के विरुद्ध
और जैसे कि हर बड़े रचनाकार की तरह रविशंकर के पास प्रेम की उदात्त भावनाएं हैं, अपने परिवेश को समझने की ताकत है, अपने समय-समाज को व्याख्यायित कर पक्ष चुनने का विवेक भी, तो उसी तरह मृत्यु से दो-दो हाथ करने का हौसला भी उनकी कविताओं में साफ़-साफ़ दिखाई देता है
ठीक इसी वक्त
ऊपर से एक तारा टूट कर गिर रहा था
इसी समय गिर रही थी
चाँदनी, ओस की बूँदें और पेड़ से पत्ते
इन सबको गिरते हुए देख कर
मैं उस मिट्टी के गिरने को
देखना चाह रहा था
जो अब भी अँटकी थी मेरे भीतर
 
रविशंकर उपाध्याय के इस कविता संग्रह उम्मीद अब भी बाकी है का महत्व इसी बात में है, वह ऐसे कवि द्वारा लिखी गयी कविताओं से बनता है, जिसके जीवन और लेखन में, नहीं के बराबर का अंतर है जिस दौर में जीवन और लेखन दो विपरीत दिशा में जाने वाले रास्ते बनते जा रहे हैं, उस दौर में यह बात अत्यंत प्रासंगिक और प्रेरणास्पद है जीवन से जुडी इन बेहद महत्वपूर्ण कविताओं को पढने के बाद जैसे तुरत इच्छा होती है कि रविशंकर को फोन मिलाएं और बधाई दें मगर अफ़सोस ……! कि जो अपनी प्रशंसा सुनने से जीवन भर बचता रहा, जो दस कार्य करने के बाद एक शाबासी लेने से भी कतराता रहा, वह इन शानदार कविताओं के लिए बधाई लेने से भी अपने आपको बचा ले गया कि उसने हमारी बात को दिल में ही जज्ब करने के लिए मजबूर कर दिया इस कविता-संग्रह को पढने के बाद लगता है कि उसके साथ इस दुनिया से सिर्फ बेटा, भाई, मित्र और शिष्य ही नहीं गया, वरन युवा कविता का एक अर्थवान और महत्वपूर्ण संसार भी चला गया
              अलविदा रविशंकर ….. तुम हम सबके दिलों में बसते हो …
    
‘उम्मीद अब भी बाकी है’
(कविता-संग्रह)
लेखक – रविशंकर उपाध्याय
प्रकाशक – राधाकृष्ण प्रकाशन
नयी दिल्ली
मूल्य – 200 रुपये
रामजी तिवारी

समीक्षक –

रामजी तिवारी
बलिया, उत्तर-प्रदेश
मो.न. 09450546312

रविशंकर उपाध्याय के लिए श्रद्धांजलिस्वरूप अच्युतानन्द मिश्र की दो कविताएँ

युवा कवि साथी रविशंकर हमारे बीच नहीं हैं, (हमारे लिए सबसे पहले हमारे अनुज.) ये मानने को आज भी मन नहीं कर रहा. ऐसा लग रहा है कि हमेशा की तरह रविशंकर की विनम्र आवाज मेरे मोबाईल पर सुनाई पड़ेगी. वह आवाज जो आज लगातार दुर्लभ होती जा रही है. लेकिन मानने-न मानने का नियति से कोई सम्बन्ध नहीं. हकीकत तो यही है कि हमारा यह अनुज जिसने अपनी मौत से दो दिन पहले अपना शोध-प्रबंध जमा किया था और एक दिन पहले मुझे आश्वस्त किया था ‘पहली बार’ के लिए कविताएँ भेजने के लिए, हमसे बहुत दूर चला गया है. उस दूरी पर जिसे हम पार नहीं कर सकते. आज भी मन बोझिल है. हम यहाँ श्रद्धांजलिस्वरुप भाई अच्युतानन्द मिश्र की हालिया लिखित कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ जो रविशंकर उपाध्याय को ही समर्पित हैं.      
अच्युतानन्द मिश्र
यह दिल्लगी का वक्त नहीं

(रविशंकर की स्मृति के लिए)

तुम्हारी चुप्पी

मेरे भीतर के पत्थर को

पिघला रही है ऐसी भी क्या निराशा

कि चुप्पी के भीतर की चुप्पी

अख्तियार कर ली जाये 

अभी तो दिल्ली का मौसम बदलना है

अभी तो खिलने हैं उन टहनियों पर भी फूल

जिनके कांटे देख कर

बिफर गये थे तुम

और शब्दों के सौदागरों की

मरम्मत का वह रोचक

किस्सा भी सुनाना था तुम्हें

कमबख्त मिस- काल मिस -काल ही

खेलते रह गये तुम

मैं जनता हूँ अभी बजेगी

मेरे फोन की घंटी

फोन के चेहरे पर उभरेगा

एक लम्बा नाम

और मेरे हलो कहते ही तुम कहोगे

और बताइये भैय्या

क्या चल रहा है दिल्ली में 

जानते हो एक दिन मैं

कहने वाला था तुम्हें

क्या मैं कोई खबरनवीस हूँ

या दरबारीलाल कि देता रहूँ

तुम्हे सूचना

लेकिन भाई

यह कहा तो नहीं था मैंने तुमसे

और बगैर कहे तुम नाराज़ हो गये

सुनो,

कुछ योजनायें है

मेरे दिमाग में चक्कर लगाती हुई 

यह जो दिल्ली है

यह उतनी दुश्वार भी नही

और तुम जानते ही हो

बार बार बसती और उजडती रही है

तुम आओ फिर बनायेंगे

अपनी दिल्ली

हाँ! वह वादा भी करना है पूरा

अगले बनारस के आयोजन के लिए

इधर कई दिनों से बज नही रही है

मेरे फोन की घंटी

कई आशंकाओं ने

घेर लिया है मुझे

वैसे तुम नही भी आओगे

तो कुछ नहीं होगा

किस कमबख्त के रुकने से

रूकती है दुनिया

जाने क्यों पिछले दिनों

मैं गुनगुनाता रहा

उसी बनारसी की पंक्तियाँ

“हम न मरिहै

मरिहै सब संसारा”

लेकिन अब तुम्हे लौट आना चाहिए

यह समय ठीक नहीं है और

न ही यह दिल्लगी का वक्त है .


दिमाग को रखना काबू में

प्रिय भाई, रविशंकर

इधर कई दिनों से बात नही हुई 

बेवजह ही उचटा रहा मन

मौसम भी किस कदर

बदल गया है इन दिनों

पहले तो दिल्ली की ही हवा खिलाफ थी

लेकिन इधर तो बनारस की मार भी बहुत है

भाई होशियारी से रहना

कई बार मुश्किल हो जाता है

मौसम की मार से बचना

सर्दी जुकाम से बचे रहना

और दिमाग को रखना काबू में

इन दिनों अक्सर

वही धोखा दे जाता है

सम्पर्क-

मोबाईल- 09213166256


रविशंकर उपाध्याय


जन्म-१२ जनवरी १९८५, बिहार के कैमूर जिले में,
शिक्षा  – काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से, स्नातक और परास्नातक (हिंदी), वर्तमान समय में यहीं से कुंवर  नारायण की कविताओं पर शोधरत… 
परिचय, युवा संवाद, जनपथ, संवदिया, दैनिक जागरण आदि  पत्र पत्रिकाओं में कवितायें एवं आलेख प्रकाशित…
हिंदी विभाग की पत्रिका “संभावना” के आरंभिक तीन  अंको का सम्पादन ….
कृष्णा सोबती ने कहा है कि ‘कोई भी कलम मूल्यों के लिए लिखती है, मूल्यों के दावेदारों के लिए नहीं.’ दरअसल ये मूल्य हमारे समय के होते हैं. और जब इस समय को कोई कवि अपनी रचनाओं में खुद जीने लगता है तो वह पूरी दम-ख़म के साथ हमारे सामने आता है. कवि की कविता ही उसके सरोकारों को स्पष्ट रूप से बता देती है. और वही उसकी थाती होती है. इसमें कोई संशय नहीं कि हमारे समय की कविता विकेन्द्रीकृत हो कर कुछ अधिक जनोन्मुखी और लोकोन्मुखी हुई है. रविशंकर उपाध्याय ऐसे ही युवा कवि हैं जिन्होंने तामझाम से इतर, चुपचाप और साफगोई से कविता से अपने सरोकारों को जोड़ा है. उनकी कविता अपने ‘हकों के प्रति सन्नद्ध’ है. वे जब गाँव जाते हैं तो उनकी नजर बरगद से मिलती है जो बुजुर्गियाना अन्दाज में न केवल स्वागत करता है अपितु किसी अपने जैसा ही हाल-चाल की खबर लेता है. वही बरगद जिसके साथ हमारी कई पीढीयों का रिश्ता है. और यह रिश्ता हमारा यह कवि भी बचाए हुए है. एक ऐसे समय जब हम अपनी भौतिक सुख-सुविधाओं के लिए पेड़ों को अंधाधुंध काट रहे हैं, जंगलों का सफ़ाया कर रहे हैं, एक युवा कवि बरगद से रिश्ता जोड़कर यह साफ़-साफ़ बता देता है की उसकी पालिटिक्स क्या है. तो आईए आज पढ़ते हैं रविशंकर की कुछ ऐसी ही मिज़ाज की कविताएँ.    
 

हमें भी तो हक है

हमारे होठों के खुलने और बंद होने पर
तुम्हारी नज़र रही
हमारे पाँवों के बढ़ने और ठहर जाने पर
तुम्हारी नज़र रही
हमारे शरीर में हो रहे हर परिवर्तन पर
लगाई तुमने गहरी नज़र
मगर तुम्हारे ही सामने जब
किया जाने लगा हमें अनावृत्त
क्यों तुम्हारी नजरें झुक गयीं?
हमारे देह के इतर नहीं बना
कभी हमारा केाई भूगोल
इतिहास के हर पन्ने पर
लिखी गई युद्ध की विभीषिका के लिए
हमें ही ठहराया गया जिम्मेदार
नैतिकता की हर परिभाषा को
गढ़ने के लिए बनाया गया हमें
आधार
मगर हम कभी नहीं बन पाये खुद आधार
तुम्हारी ही कठपुतलियाँ बन नाचते रहे!
नाचते रहे! नाचते रहे!
लेकिन जब खुद चाहा नाचना और घूमना तो
बना दी गयीं तवायफ़, व्यभिचारी
और बाज़ारू
मगर अब हम नाचेगें
और खुद उसकी व्याख्या
भी हम ही करेंगे
भले ही यह व्याख्या
तुम्हारे धर्मग्रन्थों के खिलाफ हो
अब जब भी मुझे किया जायेगा
अनावृत्त
तुम्हारी नजरों के झुकने का
इंतजार नहीं करेंगे
अब हमें नहीं है जरूरत
किसी ईश्वर के प्रार्थना की
हमारे होठों, कदमों और हमारे
भूगोल को
नहीं है चाहत तुम्हारी
किसी व्याख्या की।
सबसे तेज
हम सभी मित्र बहस में डूबे हुए थे
कि
बाहर से आते ही एक मित्र ने कहा
कि सबसे तेज चलती है खोपड़ी
दूसरे मित्र ने छूटते ही कहा कि
नहीं, खोपड़ी में बैठा सबसे तेज चलता है मस्तिष्क
कुछ लोगों को लगता है यही मुनासिब कि
क्यों न उड़ा दिया जाए मस्तिष्क
क्यों न कूच डाली जाए खोपड़ी
मगर इसी बहस में शामिल एक तीसरे मित्र
ने कहा कि
अरे क्या कर पायेगा कोई खोपड़ी को कूच कर
इन खोपड़ियों की सभी तंत्रिकाएँ तो कैद हो
चुकी हैं
सुदूर बैठी कुछ खास खोपड़ियों में
जो झनझनाती तो है मगर कभी टकराती नहीं
हाँ! यदि कभी पड़ ही गयी जरूरत तो बस चूम लेती
हैं एक  दूसरे को।
  
बरगद
मेरे गाँव के बीचों-बीच
खड़ा है एक बरगद
निर्भीक निश्च्छल और निश्चित।
उसी के नीचे बांटते है सुख-दुःख
गांव के पुरनिया
बच्चे डोला-पाती खेलते हैं
सावन में उठती है
कजरी की गूँजे
मदारी का डमरू और किसी घुमक्कड़ बाबा
की
धुनी भी
रमती है, उसी के नीचे।
लेकिन कब उपजा
यह बरगद
मुझे पता नहीं।
मैं जब भी गांव जाता हूँ पहले उसी से नजर
मिलती है
लगता है
दादा और परदादा की आंखें
उसी पर टंगी हैं
और वे मुझे ही
टुकुर-टुकुर ताकती हैं।
उसके पास पहुँचते ही
लगता है
कि इसके एक-एक रेशे में
समाया है पूरा गांव
मेरी पूरी दुनिया
आज उससे कई बरोह झूल रहे हैं
और वे धरती को चूम रहे हैं
जैसे नन्हा सा बच्चा
अपनी मां को चूमता है।
आवाज़
धूसर काली स्लेट पर
खड़िया से अंकित थी एक आवाज़
जिसे हमारे पूर्वजों ने संजो रखा था
गोड़ाने की खेत में
आज वहाँ शिलान्यास का उत्सव था
और चरनी पर बुलडोजर चलने की बारी
एक घुँघराले बालों वाला महामानव
फैला रहा था अपनी बांहें
घने होने लगे थे काले बादल
मैं उस आवाज को पकड़ना चाहता हूँ
जो अब मुझसे दूर जा रही है।
(इस पोस्ट की सारी पेंटिंग्स गूगल से साभार ली गयी हैं.)
संपर्क-
रविशंकर उपाध्याय 
शोध छात्र, हिन्दी विभाग,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी
मोबाईल- 09415571570

रविशंकर उपाध्याय

रविशंकर उपाध्याय का जन्म १२ जनवरी १९८५ को बिहार के भभुआ जिले के कैमूर में हुआ. इस समय बनारस हिन्दू  विश्वविद्यालय से हिंदी में पी- एच. डी. कर रहे हैं. रविशंकर की कविताएँ  जनपथ, परिचय, युवा संवाद  जैसी पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित हुई हैं. 
रविशंकर हिंदी कविता के प्रदेश में ऐसे नवोदित कवि हैं जिनकी नजरें अपने समय की नब्ज पर हैं. वे यह जानते हैं कि हमारा यह समय लटकने वाला समय है. यानि विचारो की अस्पष्टता का भयावह समय है आज का समय. अपनी सुविधा से किसी समय कोई राह चुनी जा सकती है. ऐसा कविता के क्षेत्र में भी है. लेकिन उम्मीद की बात यह है कि अंततः वह आदमी ही एक समय अपनी बुलंद आवाज के साथ खड़ा हो जाता है. कहीं न कहीं आदमी को अपनी पक्षधरता स्पष्ट करनी ही होती है. मुक्तिबोध स्पष्ट रूप से पूछते है- ‘तुम्हारी पालिटिक्स क्या है पार्टनर’ यह सवाल आज के समय में उतना ही मौजू है जितना कभी मुक्तिबोध के समय रहा होगा. रविशंकर यह बात जानते हैं कि भय और विश्वास के बीच जीतता सदैव आदमी ही है. जीने की हमारी आदिम आकांक्षाएं पृथ्वी के साथ नाभिनालबद्ध हैं. इस कवि के पास ‘उम्मीद अब भी बाकी है’ यह हमारे लिए बड़े सूकून की बात है.

संपर्क- रविशंकर उपाध्याय, शोध छात्र, हिंदी विभाग, बी एच यू, वाराणसी

मोबाइल-  09415571570

ई- मेल- ravishankarbhu@gmail.com         

यह  समय

न अपनी  जमीन का एहसास है
और न ही अपने   छत का अधिकार
विश्वामित्र के अहंकार
और देवताओं के नकार के बीच
दन्त कथाओं में आज भी लटक रहा है त्रिशंकु
जिसके लार से बह रही है कर्मनाशा  
आज हर कोई लटक रहा है
निर्वात में !
अब तो विचार भी लटक रहे हैं.

यह विचारधारा से मुक्ति का समय है

यह परंपरा और आधुनिकता के बीच
लटकने का समय है 
यह बंधन और मुक्ति के बीच 
लटकने का समय है 
यह गाँव  और शहर के बीच 
लटकने का समय है 
अब  तो ईश्वर  भी लटक रहा है 
कभी पकड़ने और कभी छोड़ देने के बीच 
यह समय अपने लिए
अपनों को भूल जाने का समय है
इसी समय में एक आदमी 
माउस और की-बोर्ड से 
खोलता है दरवाजा 
और प्रवेश कर जाता  है 
एक दूसरी दुनिया में 
वह लगाता है चक्कर गोल-गोल 
तभी अचानक याद आती है 
की अरे  वह लाटरी तो निकल चुकी होगी
अरे अब तो बाजार गर्म हो चुका होगा
वह उछलने लगता है सेंसेक्स  की तरह  
वह उछलता है तो कभी गिरता भी 
गिरने को देख 
पाने की भूख से बेचैन  आदमी 
खोने के भय में डूब जाता है

और जो खो चुका है सब कुछ

वह भय मुक्त हो 
खडा  हो जाता है अपनी बुलंद आवाज  के साथ
मौसम  में गर्मी बढ़ने लगती है 
और पहाड़ के हर चट्टान  का 
पिघलना शुरू हो जाता है.
   
पथिक 
तुम्हारे कम्पन में प्रवेश करना ही
मेंरा  धर्म है
तुम्हारी रुग्णता  में पसर जाना 
मेरा  कर्म 
वर्षों  तक यात्रा पर निकले 
पथिक की साधना
तुम्हारे सिहरन  की एक बूंद हो 
टपक जाना है 
उम्मीद अब भी बाकी है
जब धुंधली होने लगती है
उम्मीद की किरण
जब टूटने लगता है आशा और विश्वास 
तभी 
प्रकृति की अनंत दुनिया में से 
आती है आश्वासन की एक आवाज 
जो धीरे-धीरे भर देती है 
एक ललक जीवन के उद्दाम आकांक्षाओं की. 
भय और विश्वास के बीच 
जीतता सदैव विश्वास ही है 
भले ही सीता को हर ले जाये रावण 
भले ही भिक्षा में मांग ले जाये इन्द्र कवच कुंडल 
भले ही कारागार  में डाल दिए जाय देवकी और वासुदेव
भले ही अनसुनी  कर दी जाय
नागासाकी और हिरोशिमा  से उठती कराह….
भले ही मिट्टी में मिला दी जाये 
करुणा और शांति की आदमकद प्रतिमाएं 
भले ही बार-बार प्रहार करें 
मनुष्यता  के दुश्मन बनारस और लाहौर पर 
भले ही न बख्सा जाये 
घंटे की ध्वनि  और अजान  की आवाज 
भले ही न बख्सी  जाये 
गंगा और जमुना की अजस्र धारा 
भले ही न छोड़ी जाय 
कोयल की कोकिल कंठी तान  से मुलायम  हो रही डाल 
भले ही उजाड़ दिए जाय 
चिड़ियों के घोंसले. 
अपने वजूद और अपनी मिट्टी से 
जुडे  लोगो को 
उनकी आदिम आकांक्षाएं 
उन्हें बचा ही लेंगी  
जब  तक बची रहेगी 
पृथ्वी.