सुन्दर ‘सृजक’

वास्तविक नाम- सुन्दर साव
25 मई 1978 को पश्चिम बंगाल के उत्तर चौबीस परगना के नैहाटी(ऋषि बंकिम चन्द्र के जन्मस्थली) क्षेत्र में जन्म कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1997 स्नातक (जीव विज्ञान); 2002 स्नातकोत्तर(हिन्दी में), अंग्रेजी में भी स्नातक की विशेष डिग्री तथा इग्नू से अनुवाद में पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा
साहित्य,अनुवाद, संगीत व फ़िल्म में रुचि जून,2011 से ब्लॉग व फेसबुक पर ‘सुन्दर सृजक’ के नाम से सक्रिय लेखन
* जनवरी,2012 में बोधि प्रकाशन के स्त्री विषयक कविता संग्रह “स्त्री होकर सवाल करती है!” में रचनाएँ प्रकाशित, कोलकाता से निकालने वाली त्रैमासिक पत्रिका ‘पैरोकार’ में दो कविताएं प्रकाशित
* प्रवर्तन निदेशालय,भारत सरकार के कार्यालय द्वारा प्रकाशित वार्षिक गृह-पत्रिका ‘हिन्दी-विवेक’ का सम्पादन  
वर्तमान में प्रवर्तन निदेशालय,भारत सरकार के कार्यालय में वरिष्ठ हिन्दी अनुवादक, के पद पर सेवारत

एक बेहतर रचनाकार वही होता है जो अपने समय को समझे बूझे और अपनी रचनाओं में उतारे। हमारा युग तमाम पेचीदगियों से भरा पड़ा है। यह सुखद है कि हमारे युवा साथी इन पेचीदगियों को समझते हैं और उसे अपनी रचना का विषय बनाते हैं। सुन्दर सृजन ऐसे ही युवा कवि हैं जिनकी कविताओं में कठिनतम समय को महसूस किया जा सकता है। सुन्दर की कविताओं में स्त्रियों के प्रति समानता का भाव भी स्पष्ट है। जिसमें वे यह बेहिचक स्वीकार करते हैं कि घर को चलाने में स्त्री की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। पहली बार पर प्रस्तुत है नवोदित कवि सुन्दर सृजन की कविताएॅ  

 लिफ़्ट और कंधे सीढ़ियों से आसान 

पहुंचूंगा, इक दिन वहीं 
पर न होगी
रक्त के छींटें
आत्माओं की लाशें
अतीत की सड़ांध
मुमकिन न हुआ पहुँचना,
लौट आऊँगा
उन्हीं पायदानों के सहारे
सहज ही
कविता की विश्वसनीय व्याख्या लिए 
इन सीढ़ियों के मानिंद

(तुम क्या करोगे?)
क़ब्ज

कष्ट नहीं मिटता 
आसानी से
आदमी दिखता है स्वस्थ,
ठीकठाक
तमाम परहेज औ’ हिदायत के बावजूद
नहीं छोड़ पाता
खाने की आदत;
भाने लगती है जुलाब की राहत

नहीं पहचानता
पाचन-तंत्र की भूमिका
ढूँढ़ता नहीं, सही निदान
नहीं समझ पाता –
तंत्र की गड़बड़ी से
सड़ते कुविचार, बड़ी आंत में
गोली नहीं आख़री इलाज़

चाय की दुकान पर

चाय की दुकान पर

पाँच साल का बच्चा
फोड़ रहा था कोयला
मैं, पी रहा था, चुस्की ले लेकर
मेरे मिज़ाज से अलग
बहुत मीठा चाय
चार रुपए में एक भाड़ (कुल्हड़)
छ सौ रुपए के पगाढ़ में
वह भर लाता
रास्ते के म्युनिसिपल नल से पानी
दे आता दूकानदारों को चाय
गिलास भी धोता
बर्तन भी साफ करता
अकेला नहीं भाई!
उसके साथ एक पैसठ.सत्तर साल का बूढ़ा भी था
उसकी मदद को
चार सौ रुपए महीने पर 
चाय वाला सोचता है
वह जलाता है उस बच्चे  के घर में चूल्हा
वह बच्चा जैसे चूल्हे में माचिस की तीली
चाय वाला सोचता है
वही जीला रहा है उस बूढ़े को इस उम्र में भी
 
उलझने लगता हूँ
जह्न में आने लगती है उत्तेजक नारे,
आसमान में लहराते झंडों के रंग
‘सही हक’ दिलाने वाली पटकथाओं जैसी लम्बे लम्बे भाषण
ब्रिगेड के विशाल समावेशों में भीड़ बहरे
पुरस्कृत कविताएं, अख़बार के कटिंग में गुस्से से लाल.पीले चेहरे
अचानक खलने लगा.-
चायपत्ती का खराब ज़ायका,
दूध में मिलावटीपन,
चीनी का मीठा जहर
अचानक फैलने लगा.
जीभ पर कड़वापन घुलने लगा
चाय के गर्माहट के साथ
तीली के बारूद का तीखा गंध

क़स्बे में पेड़ 
 
 चलो मेरे क़स्बे में
 तुम एक पेड़ लगाना
 एक किताब लिखने से  बड़ा काम होगा
 मेरे कस्बे में एक पेड़ लगाना

 मेरे क़स्बे के श्मशान में
 कर्मकांड पूरी होने  से पहले
 बजबजाने लगती है
 जेठ की कड़ी धूप में  कतारों में रखी लाशें 
 छायादार पेड़ो के अभाव में

 पेड़ के सूखे पत्तों, छालों से
 तुम कागज़ बना लेना
 सूखी टहनियाँ लाश  जलाने के काम आ जाएगी;
 फल? (अगर हुआ तो….)
 मंदिर में देवताओं  को भोग लगाकर व्रतधारी
 औरतें उपवास तोड़ लेंगी  ;
 बच्चे निचुड़ सकेंगे  उनके लटकती छाती से  दूध की कुछ बुँदे

वैसे वे जानती है हरी  पत्तियों और मुलायम टहनियों  की
स्वादिष्ट सब्जियाँ बनाना भी

सुना है किसी सरकारी नीतियों  के तहत ही
कटवा दिये गए थे सारे पेड़ 
हमारे क़स्बे के
कि हर सुबह किसी न किसी पेड़ पर
मिल जाता कोई लटकता हुआ  आम आदमी
जूट नहीं, प्लास्टिक के फंदे से

चलो मेरे क़स्बे में,एक पेड़ लगाने
चलो मेरे क़स्बे में लिखने पेड़ों की कविता

 

अभिसार

अचानक मोबाइल पर सुनी
जानी पहचानी आवाज
दो साल पहले की
हाॅ, यह उसी की थी
मिले अब की हम रेलवे स्टेशन पर
सहयात्री बन कर दो साल बाद

‘तुम सुखी तो हो?’ पूछा मैंने
वह समझ गई
मैं अब भी बेरोज़गार हूँ
वो आई थी मानो प्रायश्चित्त करने
चेहरे पे अपराधबोध की परछाई लिए ख़ामोशी ही सबसे उपयुक्त भाषा थी हमारे बीच


मंगलसूत्र दिख नहीं रहा
माथे पे सिंदूर रहा छिपा 
उसने देख लिया था
‘मैं जिंदा हूँ’
मैं नजरे नहीं मिला पाया

उसके पास समय नहीं था
और मेरा समय ख़त्म हो चुका था
जाते-जाते उसने दी खुद का ख्याल रखने की नसीहत

हमने कर ली एक दूसरे के बिछड्ने की भरपाई!
मैं खड़ा रहा, ट्रेन गुजर चुकी,
मैं कहना चाहता था –‘तुम सुंदर हो गई हो?’

 खुशखबरी 

मेरे क़स्बे का चायवाला, धोबी,
रिक्शा वाला,नाई, सब्ज़ीवाला, दूधवाला
किराने वाला,मोची और पंडित-पुजारी
जब भी मिले
सभी ने दी बधाइयाँ, बारी बारी
मुझे नौकरी मिलने की ख़ुशी में

मैंने खरीदे-
पहला महीना:
           एक नई हीरो रेंजर साइकिल
दूसरे महीने:
          बजाज़ कंपनी का ईलेक्ट्रानिक आयरन

तीसरे महीने:
         जूते की दुकान से चेरी ब्रांड का शू पॉलिश और ब्रश
         इंपोर्टेड रेजर, डेनिम शेभिंग क्रीम,आफ़तर शेभिंग लोशन

चौथे महीने :
         दैनिक पूजा की किताब, दूध,चीनी, कॉफी,मैगी,पास्ता 
         नमकीन बिस्कुट और जोश भरने वाली चायपत्ती

पांचवे महीने :
        लिक्विड सर्फ, रिवाईव और एक औटोमेटिक वाशिंग मशीन

        सब्जी और किराने वगैरह की मार्केटिंग
        दफ़तर से लौटते समय श्टेशन पर ही कर लिया करता हूँ
        इस तरह पाँच महीने रोकी अपनी फ़िजूलखर्ची
        बचत के पैसों से लिए जीवन बीमा

        काश! मेरा कवि ऐसा नहीं करता….. 

कठिन समय

यह
इस दौर का सबसे कठिन समय है
बिहसते मासूमों के  
ललाटों पर भी 
पढ़ी जा रही है  
विचारों की रेखाएँ ….. 

यह  
इस दौर का सबसे कठिन समय है  
झंडे के रंगो से रंगे जा रहे है इंसान  
शिनाख़्त की जा रही है  
दंगों की लाशें …..  

यह  
इस दौर का सबसे कठिन समय है  
नरसंहार की घटनाओं पर  
छापे जा रहे है  
सीमा-सुरक्षा पर विश्लेषण रिपोर्टें   

यह  
इस दौर का सबसे कठिन समय है  
झुके पीठ पर लदे अनाज़ की बोरियों पर  
लिखी जा रही है  
भूख की कविताएं……

    भविष्य की बचत योजना ….. 

    जब वह सुनाती है  
    कम पैसों में घर चलाने के गुन  
    मानो 
    उसकी आँखें सीखला रही होती है  
    मुझे, लिखना  
    कम शब्दों में  
    एक सुंदर कविता! 
    इस तरह हम दोनो बनाते है  
    भविष्य की बचत योजना … 

       शून्य   

        तुम्हारे-मेरे बीच की भाषा
        जैसे कंप्यूटर की
        ‘शून्य और एक की भाषा’;
        कभी आँखों की खामोशी
        कभी होंठो पे खनकते शब्द
        प्रेम में पगी
        सहज व्याकरण की भाषा
        स्त्रीलिंग-पुलिंग की
        दुविधा से रहित
        समानता की भाषा
        अंधेरे और उजाले की भाषा

        ***     ***     ****   ***

        (इस पोस्ट में प्रयुक्त समस्त पेंटिंग्स सल्वाडोर डाॅली की हैं, जिन्हें हमने गूगल से साभार लिया है।)

        सम्पर्क  :295,ऋषि बंकिम चन्द्र रोड,
               उत्तर चौबीस परगना,नैहाटी
               पिन-743166,प.बंगाल

        मोबाईल नं-9831025876
        ईमेल-
        sundar.shaw@yahoo.com