सौरभ राय

युवा कवि सौरभ राय की इस लम्बी कविता सर्वहारा में उस वर्ग की बात की गयी है जो इस दुनिया के बनने में एक बड़ी भूमिका तो निभाता है लेकिन जो हर जगह अपने को हारा और पराजित हुआ पाता है. बेइंतहा शोषण के बावजूद अपने काम में मुस्तैद सर्वहारा वर्ग ने दुनिया की किस्मत तो बदल देता है लेकिन अपनी बारी आने पर ठगा सा महसूस करता है.  लेकिन अब ये  सर्वहारा  जग  उठा  है  और  अपना हक़ पाने के लिए खड़ा हो गया है. कल दस सितम्बर को  सौरभ राय का  जन्म दिन है.  इस विशेष अवसर पर आप सबके लिए खासतौर पर प्रस्तुत है यह लम्बी कविता    

सर्वहारा

दुनिया के किसी भी मकान में
दुकान में
होटल में
महल में
सबसे पहले
हम बसते हैं

जब आपके सपनों का अपार्टमेंट
मलबा भर होता है
आपके बेडरूम में
लालटेन लटका
हम नींद का सपना देख
अपनी किस्मत पर हँसते हैं
बीवी बाथरूम में
रोटी सेंकती है
हमारे नंगे बच्चे
भविष्य के मज़दूर
बालू में लोट रहे होते हैं
हम बिल्डिंगों के इश्तेहार लपेट
स्वीमिंग पूल में सोते हैं

दुनिया के किसी भी
फाइव स्टार होटल
महल में
सबसे पहले हम बसते हैं
समंदर
सबसे पहले हम
पार करते हैं
हर कुएं का पानी
सबसे पहले हम पीते हैं
हर पर्वत पर
सर एडमंड के एडवेंचर में
हमारी परछाई
तेनज़िंग कुली सी
साथ चलती है
हमीं कोहिनूर ढूंढ कर लाते हैं
शाहजहाँ की रूमानियत का
ताजमहल बनाते हैं
गोल घूमती धरती को
किसी भी कोण से देखो
सबसे पहले हम नज़र आते हैं !

आश्चर्य
जब आप स्वाद की बात करते हैं
हम भूख में
छटपटाते हैं
ऐसा क्यूँ है ?
जब आप हॉर्रेर
थ्रिलर देख
रोमांचित होते हैं
हम आलू टमाटर बरबट्टी देख
घबराते हैं
आप जुलूस निकलते हैं
कॉफ़ी हाउस में बतियाते हैं
हम हर रात
आत्मीय बलात्कारों के जोखिम उठा
ईटा ढ़ोने जाते हैं
आप दीवार पर फड़फड़ाता नक्शा देख
छुट्टियों की बात करते हैं
हम अपनी प्रतिबद्धता 
अपनी सीमाओं से
डर जाते हैं

जिस मॉल की
चिकनी फर्श पर चलते
नहीं फिसलते हुए
आप उड़ने जैसा महसूस करते हैं
उस पर हमारी
खुरदरी एड़ियों का
ख़ून बिछा होता है!

ऐसा क्यूँ है
कि हम सबसे सुन्दर होकर भी
लीद नज़र आते हैं
सबसे आगे हो कर भी
सबसे पीछे
लंगड़ाते हैं ?

 – – –

हम सफ़ेद अन्धकार हैं
कवि अनपढ़
योद्धा लाचार हैं
न कलम पकड़ने की तमीज
न तलवार उठाने का साहस
हम जीभ और दांत के बीच की लार हैं
व्यवस्था की डकार
तीन अपंग बंदरों की लाश पर रेंगते
हम चीटियों की कतार हैं
नेहरु के ग़ुलाब के कर्ज़दार हैं
हम बिना अनार के
एक सौ बीस करोड़ बीमार हैं!

जब आपके शैम्पू में
हमारे खाने से अधिक
प्रोटीन मिला होता है
भूख में
सबसे ज़्यादा
गुस्सा आता है!
हम क्या करें?
सस्ती शराब के दीये जलाएं?
आपकी दीवार में खोखली ईंटें भर दें?
पालतू कुत्तों से
गुरिल्ले बन जाएँ?

आप ही कहिये मालिक
हम कहाँ जाएँ?
जंगले में लगे आग की तरह
फ़ैल जाएँ?
पर उन गिद्धों का क्या करें
जो जंगल को पिकनिक बतला
हमारे चारों तरफ मंडरातें हैं ?
उन बुद्धिजीवियों का क्या करें
जो हमारी चिता पर
कबाब सेंकते हैं
जो हर बात पर
बकते हैं – ‘चलो दिल्ली’
पर नहीं जानते
सेकिंड क्लास कम्पार्टमेंट में
दिल्ली का भाड़ा कितना ?
उस व्यवस्था का क्या करें
जो गालियों का जवाब
गोलियों से देती है
जो गरीबी मिटाओ योजना के तहत
गरीबों को मिटा देती है
जो सड़कों पर
बिना हेलमेट पैदल चलने पर
सज़ा ए मौत करार देती है ?

अँधेरे से अँधेरे तक के सफ़र में
हम काले कलूटे अक्षर हैं
हमारा अनपढ़ रहना भी
खेत के ख़िलाफ़
एक साज़िश है
जब आप कहते हैं
देश खतरे में है
हम अपने खेत
अपने बच्चों की तरफ भागते हैं
जो आपके किसी आर्थिक सुधार के धर्म गुरु
मौन संतों के नए काढ़े में
घोल दिए जाते हैं
प्रतिशोध से भर
हर पांच साल में एक बार
हम वोट देने पहुँचते हैं
पर हमारी स्मृति कमज़ोर है
विचार
इश्तेहार
रंगदार का नहीं
हम बाज़ार का बटन दबाते हैं
और इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन
सेंसर की हुई गाली की तरह
‘बीप’ बजती है
मशीन से बिजली कौंध
हमारी नसों को झकझोर देती है
हमारा ज़रा सा छटपटाना
हमें देशद्रोही बना देता है
बिना हिले छटपटाते हैं
हम बिना मुंह खोले
चिल्लाते
आँखों को जोर से मींच
आंसू बहाते हैं |

हम दबे स्वर में
कहना चाहते हैं –
‘हर गाँव का आदमी
माओ का आदमी नहीं होता’
हम तो दांव के
आदमी हैं
कारखानों मिलों खेतों में
हमीं फेटे जाते हैं
हमारे घरों के नीचे
न्यूक्लियर बुद्ध मुस्कुराते हैं
खदान में नंगे
धकेल दिए जाते हैं
हमारा गाँव खोद
आप बाँध बनाते हैं
हम हमेशा भागते
बिलबिलाते नज़र आते हैं
फिल्म पोस्टर पर हगते कुत्तों से
हम शहर में
अनवांछित कहलाते हैं
आप चिल्लाते –
‘शहर में कर्फ्यू
अपने घरों में रहे’
हम सड़कों पर
अधबनी इमारातों में
जगह जगह
दुबक जाते हैं
आँखों से आंसू गैस पीते
पीठ से लाठी खाते
अपने बीवी बच्चों को बचाते हैं
बेवकूफों की फेहरिस्त में अव्वल आते
अंत में
किसी जनवादी अखब़ार में
हम फिल्म इश्तेहारों के नीचे
नंबर की सूरत में
पाए जाते हैं |

  – – –

रद्दी वाला
अखबार मोड़ता
नेता खिलाड़ी
हीरोइन बलात्कारी
सबको बराबर बराबर बाँध
माचिस निकाल बीड़ी पीता है
हमपर हँसता
फब्तियां कसता
हम चिल्लाते –
‘रद्दी ही लोकतंत्र !’
हमारी लाश
किसी ठोंगे में बरामद होती है
आपकी जीत
किसी कागज़ी नाव में
बह रही होती है …
कि अचानक
हमारे सपनों में
बारिश
तेज़ हो जाती है !
हम खोद डालते हैं
अपने समंदर
अपनी मुर्दा जलाने की लकड़ी
ख़ुद ही काट लाते हैं
टूटते तारों को छोड़
हम तलाशने लगते हैं
ऐसे तारे
जहाँ जीवन मिलने की
हलकी सम्भावना है …

अचानक
हमारे सपनों में
चीखें
तेज़ हो जाती हैं
मरे चूजों के
उड़ते पंखों की तरह
हम होते हैं
और नहीं भी
आपकी दागी गोली
हमारे आर पार निकल जाती है
आप हमें देख
‘भूत ! भूत !’ चिल्लाते हैं
हम आपके चारों तरफ
खेत जोतते
मलबा उठाते
हर दुकान में
‘आईये आईये’ चिल्लाते
हर कारखाने में
चमकते नज़र आते हैं |
हमारे अन्दर
पूरा का पूरा
जंगल पलता है
बाढ़ उमड़ता
बाँध टूटता है
इमारतें ढहती हैं
चुप्पी सवालों में
गाँव मशालों में
बदल जाती हैं
आपके गुनाहों के सबूत
अपनी अंतड़ियों से हम
आपको जकड़ लेते हैं
और आपकी हर दलील के जवाब में
हम एक साथ चिल्ला उठते हैं –
‘रोटी !’

अचानक हमारे सपनों में
रोशनी
तेज़ हो जाती है
सूरज दन दन
घूमने लगता है
धरती सहसा उठ
घंटों भीगती कुतिया सी
ख़ुदको झटक लेती है
एक अप्रिय गूँज
मस्तिष्क को झन्ना देती है

सदियों से सोये
सब कुछ हारने के बाद
अचानक
हम
जाग उठते हैं !!

संपर्क-
मोबाईल -09742876892