Category: अमरकान्त
अमरकान्त जी पर प्रतुल जोशी का संस्मरण
विगत 17 फरवरी को प्रख्यात कथाकार और हम सब के दादा अमरकान्त जी नहीं रहे. यह हम सब के लिए एक गहरी क्षति थी. प्रतुल जोशी ने अपने संस्मरण में अमरकान्त जी के साथ बिठाये गए पलों को ताजा किया है. आईए पढ़ते हैं प्रतुल जोशी का यह संस्मरण
हमारे ताऊ जी “अमरकांत जी”: स्मृति शेष
प्रतुल जोशी
सोमवार 17 फरवरी की सुबह लगभग 11 बजे, मैं आकाशवाणी शिलांग में आफिस का कुछ काम निपटा रहा था कि मोबाइल पर आये मैसेज पर निगाह पड़ते ही लगा मानो पांवों के नीचे से ज़मीन खिसक गयी है। इलाहाबाद के एक साथी का मैसेज था “अमरकान्त जी नहीं रहे“। कुछ पलों के लिए मैं संज्ञाशून्य हो गया। समझ में नहीं आया कि शिलांग में अपना दुख किससे साझा करूँ। आकाशवाणी शिलांग में कुछ ही दिन पहले लखनऊ से स्थानान्तरित होकर आया हूँ। अभी कुछ ही लोगों से परिचय हुआ है। यहाँ किसी को बता नहीं सकता था कि यह खबर मुझे कितना दुख देने वाली खबर थी। एक बड़ा दुख यह हो रहा था कि अमरकान्त जी के अन्तिम समय में उनके पास नहीं पहुँच पा रहा हूँ।
अमरकांत जी और पापा (श्री शेखर जोशी) का लगभग 60 वर्षों का साथ था। पचास के दशक में पापा ई0एम0ई0 (भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय का एक प्रतिष्ठान) में नौकरी करने इलाहाबाद आये थे और फिर इलाहाबाद में ही लगभग 56 वर्ष रहे। हमारी माता जी स्वर्गीय चन्द्रकला जोशी के निधन के पश्चात् सन 2012 में इलाहाबाद शहर हमारे परिवार के लिए छूट गया सा है। इलाहाबाद में पापा के सबसे निकटस्थ अमरकांत जी ही थे। सन 1956 से 60 के दौरान पापा और अमरकांत जी एक साथ करेलाबाग लेबर कालोनी में रहे। बाद में पापा, करेलाबाग कॉलोनी छोड़ कर लूकरगंज आ गये थे लेकिन अमरकान्त जी लम्बे समय तक करेलाबाग काॅलोनी में ही रहे। सन् 1965 से अमरकांत जी ने माया प्रेस, इलाहाबाद में नौकरी की और वहां से निकलने वाली पत्रिका “मनोरमा“ में एक लम्बे समय तक सम्पादक रहे। पापा से उम्र में लगभग 7 वर्ष बड़े होने के कारण हम बच्चे अमरकान्त जी को “ताऊ जी“ कह कर बुलाते थे। करेलाबाग कॉलोनी से लूकरगंज की दूरी लगभग 4 किमी0 की होगी। प्रायः अमरकान्त जी हमारे घर आ जाते और जब वह नहीं आते तो हम लोग उनके घर करेलाबाग कॉलोनी पहुँच जाते। यह सिलसिला सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों तक चला। इसके बाद अमरकान्त जी ने बहुत से मकान बदले। कभी करेली तो कभी दरियाबाद फिर महदौरी कॉलोनी। आखिर में अशोक नगर में छोटा सा अपार्टमेन्ट खरीदा। वह जहां भी रहे, हम लोगों का आना-जाना उनके घर नियमित रूप से लगा रहा।
पचास के दशक में हिन्दी साहित्य में जिस ‘नयी कहानी’ आन्दोलन की शुरूआत हुई, उसके अग्रणी लेखकों में अमरकान्त जी का नाम लिया जाता रहा है। ‘नयी कहानी’ आन्दोलन के अन्य चर्चित लेखक थे राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, मार्कण्डेय, भीष्म साहनी आदि। उस दौर के बहुत से लेखकों ने जहां अपने को स्थापित करने के लिए काफी मेहनत की और बड़े-बड़े संस्थानों से जुड़े, अमरकान्त जी बिना किसी महत्वाकांक्षा के इलाहाबाद में करेलाबाग कॉलोनी के एक छोटे से मकान में रहते हुए कहानियाँ लिखते रहे। “दोपहर का भोजन“, “जिन्दगी और जोंक“, “डिप्टी कलक्टरी“, “हत्यारे“ जैसी दर्जनों कहानियाँ अमरकान्त जी ने एक बहुत छोटे से मकान में बैठ कर लिखी जो आज हिन्दी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुई हैं।
मैंने अपने जीवन में अमरकान्त जी जैसा विनम्र, प्रतिबद्ध, धैर्यवान और शान्त लेखक कोई दूसरा नहीं देखा। सन् 1984 में अमरकान्त जी को सोवियतलैन्ड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस पुरस्कार के तहत उनको रूस की यात्रा का निमंत्रण मिला था। अमरकान्त जी रूस के कई शहरों की यात्रा कर जब इलाहाबाद लौटे तो हम लोगों के लिए एक सुन्दर घड़ी ले कर आये थे। घड़ी में लकड़ी का छोटा सा पेंडुलम दायें बायें चलता था और एक चिडि़या दो छोटे-छोटे दरवाजे खोलकर हर घण्टे बाहर निकलती थी। कुछ दिन वह चिडि़या बाहर आती रही। बाद में पेंडुलम का चलना बन्द हो गया और चिडि़या का बाहर निकलना भी। लेकिन घड़ी बहुत दिनों तक हमारे घर के ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाती रही। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि उनको रूस में क्या अच्छा लगा? अमरकान्त जी ने बड़े ही सहज भाव से उत्तर दिया कि रूस में उन्हें सबसे अच्छा लगा कि वहां लेखकों का बड़ा सम्मान है। हर शहर में लेखकों की मूर्तियाँ शहर के कई चौराहों पर लगी दिखती हैं। लेखकों के घरों को उनकी मृत्यु के सौ वर्षों के पश्चात् भी पूरे सम्मान के साथ सुरक्षित रखा गया था। अमरकान्त जी कुछ प्रसिद्ध रूसी लेखकों के घर देख कर भी आये थे।
अमरकान्त जी जीवन भर प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे। प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजनों और बैठकों की तैयारी के समय वह अत्यन्त उत्साह में होते थे। उनके व्यक्तित्व के जिस पक्ष से मैं सबसे ज्यादा प्रभावित था, वह था कि मैंने उनके मुंह से कभी किसी के लिए अपशब्द या बुराई नहीं सुनी। यहाँ तक की जिन व्यक्तियों ने उनको कभी धोखा दिया, उनके बारे में भी वह कटुता नहीं रखते थे। हर एक के बारे में वह बड़े आदर से बात करते। अपने घरेलू जीवन में उन्होंने अत्यन्त आर्थिक दुश्वारियों का सामना किया, किन्तु विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी वह अत्यन्त शांत रहते और अपना धैर्य नहीं खोते थे। कोई भी बड़े से बड़ा सम्मान या प्रसिद्धि, उनके लिए अत्यन्त सामान्य बात थी। सतत् रचनाशील रहना उनकी जीवन शैली बन गया था।
अमरकान्त जी जब भी हमारे घर आते, तो पापा उन्हें छोड़ने खुल्दाबाद तक जरूर जाते। खुल्दाबाद हमारे घर से लगभग 1 किमी0 दूर है। खुल्दाबाद, एक छोटा सा बाजार है जहां सड़क के दोनों तरफ दुकानें हैं। खुल्दाबाद के मोड़ पर खड़े हो, दोनों काफी लम्बे समय तक बातें किया करते। इस बातचीत में साहित्य की स्थिति, किस लेखक ने क्या नया लिखा, कौन सी नई साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित हुई जैसे साहित्य से जुड़े तमाम विषय शामिल होते।
सत्तर के दशक में अमरकान्त जी सिगरेट खूब पीते थे। उनका मुंह से धुँए के गोल-गोल छल्ले निकालना मुझे बेहद पसन्द आता था। यद्यपि बाद में उन्होने सिगरेट छोड़ दी थी। अमरकान्त जी शतरंज भी बहुत अच्छा खेलते थे। एक बार हम बच्चों को शतरंज खेलने का जुनून चढ़ा। दिन-रात हम लोग शतरंज में डूबे रहते। उसी दौरान अमरकान्त जी घर आ गये। मैंने उनसे कई बाजि़यां खेलीं और हर बार हारा। वह समझाते की देखो शतरंज में प्रतिद्वंद्वी के मोहरों को तुरत खत्म करने की बजाये, बेहतर है कि एक सुलझी हुई रणनीति से मात दी जाए। औसत कद के, गौरवर्ण अमरकान्त जी हमेशा बहुत शान्ति से बात करते।
सन 1988 में मैंने इलाहाबाद छोड़ दिया था। आकाशवाणी में अपनी नौकरी के चलते कानपुर, लखनऊ, ईंटानगर रहता रहा। लेकिन जब भी मैं इलाहाबाद जाता, पूरी कोशिश करता की एक बार अमरकान्त जी से मिलूं, उनके दर्शन करूँ। लगभग 6 माह पूर्व, पिछले वर्ष सितम्बर के महीने में आखिरी बार उनसे मुलाकात हुई। उन वक्त मुझे लगा कि शायद उन्हें विस्मृति की बीमारी हो रही है। मुझे पहचानने में उन्हें कुछ दिक्कत हो रही थी। अमरकान्त जी के कनिष्ठ पुत्र अरविन्द बिन्दु ने उन्हें कहा “प्रतुल आये हैं“। सुनकर ताऊ जी थोड़ी देर तक मुझे पहचानने की कोशिश करते रहे। फिर लगा कि उन्होंने मुझे पहचान लिया है। वह हमेशा की तरह गर्मजोशी से बोले “और क्या हाल-चाल हैं? कैसे हो?“ मैं अन्दर ही अन्दर जैसे कराह उठा। मैंने मन ही मन कहा “ओह ताऊ जी, जीवन भी कितना कठोर है। बचपन से मैं आपकी गोद में ही पला-बढ़ा। और आज उम्र के इस पड़ाव पर आ कर आप कितने मजबूर हो गयें हैं। अब मुझको पहचानने में भी आपको इतना वक्त लग रहा है।“
ताऊ जी से मिलने के बाद पहली बार मुझे बेहद अफसोस हो रहा था। उनकी स्मृति के खत्म हो जाने का अंदेशा मुझको भीतर ही भीतर कहीं गहरे तक लग रहा था। यह सोच कर और दुख हो रहा था कि जिस व्यक्ति ने अपनी गम्भीर बीमारी के बावजूद कई कहानियों और उपन्यासों की रचना की थी, वह अंततः अपनी उम्र से हारता सा दिख रहा था। हड्डियों की बीमारी ऑस्टियोपोरोसिस से वह लगभग 17 वर्षों तक जूझते रहे। अपनी इस गम्भीर बीमारी के बावजूद उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास “इन्हीं हथियारों से” लिखा। इस उपन्यास के लिए उन्हें साहित्य अकादमी और व्यास सम्मान भी प्राप्त हुये।
अमरकान्त जी से मिलने के बाद लगातार मैं उनके हालचाल अपने मित्रों, परिचितों से लेता रहा। जिससे भी बात करता, वह कहता कि वह बिल्कुल ठीक हैं। जानकर बेहद खुशी होती। लेकिन अचानक 17 फरवरी की सुबह जब अमरकान्त जी के निधन की खबर मिली तो लगा कि यह क्या हो गया। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके घर फोन कर बात की तो पता चला कि एक दिन पहले तक वह पूर्णतया स्वस्थ थे। चार-पांच लोगों की एक टीम उनके यहां आयी थी और उन्होंने एक इण्टरव्यू भी दिया था। लेकिन दूसरे ही दिन हृदय गति रूकने से उनका देहावसान हो गया। अमरकान्त जी पर एक फिल्म मेरे छोटे भाई और फिल्मकार संजय जोशी ने साहित्य अकादमी के सहयोग से बनाई है।
अब अमरकान्त जी हम लोगों के बीच नहीं हैं लेकिन उनकी रचनायें अभी कई पीढि़यों को सुसंस्कारित करती रहेंगी। निम्न मध्यम वर्ग की पीड़ा को उन्होंने जिस कलात्मकता के साथ अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है, वैसा हिन्दी साहित्य में कम ही लेखकों ने लिखा है। उनका इस दुनिया से जाना, एक विलक्षण प्रतिभा का संसार से चले जाना है। न केवल उनकी रचनाओं वरन् उनके जीवन से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अमरकान्त जी अपनी रचनाओं के माध्यम से अमर रहेंगे।
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अमरकान्त जी से धनञ्जय चोपड़ा की एक बातचीत
आज के कथा लेखकों और उनकी रचनाओं को आप किस रूप में पाते हैं?
अमरकान्त ; कुछ यादें और कुछ बातें
अमरकान्त जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में नगरा कसबे के पास स्थित भगमलपुर नामक गाँव में 01 जुलाई 1925 को हुआ था. इनका वास्तविक नाम श्रीराम वर्मा था. इनके पिता सीताराम वर्मा वकील थे. इनकी माता अनंती देवी एक गृहिणी थी. 1941 में गवर्नमेंट हाई स्कूल, बलिया से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण किये। तदुपरान्त कुछ समय तक गोरखपुर और इलाहाबाद में इंटरमीडिएट की पढ़ाई की, जो 1942 के भारत छोडो आन्दोलन में शामिल होने से अधूरी रह गई. अंतत: 1946 में बलिया के सतीशचंद्र कालेज से इंटरमीडिएट किया। 1947 में अमरकान्त जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया. इसके पश्चात वे आगरा चले गए जहाँ से इन्होने अपने लेखन और पत्रकार जीवन की शुरुआत किया. इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका ‘मनोरमा’ के सम्पादन से अमरकान्त जी एक अरसे तक जुड़े रहे. विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में लगभग चालीस वर्षों तक लेखन और सम्पादन करने के पश्चात अमरकान्त जी इन दिनों स्वतन्त्र रूप से लेखन कर रहे थे और ‘बहाव’ नामक पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे.
‘जिन्दगी और जोंक’, ‘देश के लोग’, ‘मौत का नगर’, ‘मित्र मिलन और अन्य कहानियाँ’, ‘कुहासा’, ‘तूफ़ान’, ‘कलाप्रेमी’, ‘एक धनी व्यक्ति का बयान’, ‘सुख और दुःख का साथ’, ‘जाँच और बच्चे’ इनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं. इसके अतिरिक्त इनकी ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ और ‘सम्पूर्ण कहानियों’ का भी प्रकाशन हो चुका है. ‘कुछ यादें और बातें’ एवं ‘दोस्ती’ इनके प्रख्यात संस्मरण पुस्तकें हैं. अमरकान्त जी ने उपन्यास भी लिखे जिसमें ‘सूखा पत्ता’, ‘कंटीली राह के फूल’, ‘सुखजीवी’, ‘काले-उजले दिन’, ‘ग्रामसेविका’, ‘बीच की दीवार’, ‘सुन्नर पांडे की पतोह’, ‘आकाशपक्षी’, ‘इन्हीं हथियारों से’, ‘लहरें’, ‘बिदा की रात’ प्रमुख हैं. ‘इन्हीं हथियारों से’ उपन्यास पर अमरकान्त जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया जबकि इनके समग्र लेखन पर ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया.
अमरकान्त जी ने कुछ महत्वपूर्ण बाल साहित्य की भी रचना की जिसमें ‘नेउर भाई’, ‘बानर सेना’, ‘खूंटा में दाल है’, ‘सुग्गी चाची का गाँव’, ‘झगरू लाल का फैसला’, ‘एक स्त्री का सफ़र’, ‘मंगरी’, ‘बाबू का फैसला’, और ‘दो हिम्मती बच्चे’ प्रमुख हैं.
मार्कंडेय और शेखर जी के साथ अमरकांत जी ने इलाहाबाद में रहते हुए नयी कहानी आन्दोलन की वास्तविक त्रयी बनायी.
अमरकान्त जी के निधन से हम सब स्तब्ध हैं. इलाहाबाद का एक स्तम्भ धराशायी हो गया.
अमरकांत जी को नमन और श्रद्धांजलि.
अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी हैं। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी ले कर गट-गट चढ़ा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह हाय राम कह कर वहीं जमीन पर लेट गई।
आधे घंटे तक वहीं उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई, आँखों को मल-मल कर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले पर सोए अपने छह वर्षीय लड़के प्रमोद पर जम गई।
लड़का नंग-धड़ंग पड़ा था। उसके गले तथा छाती की हड्डियाँ साफ दिखाई देती थीं। उसके हाथ-पैर बासी ककड़ियों की तरह सूखे तथा बेजान पड़े थे और उसका पेट हंडिया की तरह फूला हुआ था। उसका मुख खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियाँ उड़ रही थीं।
वह उठी, बच्चे के मुँह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और एक-आध मिनट सुन्न खड़ी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जा कर किवाड़ की आड़ से गली निहारने लगी। बारह बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर जाते।
दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खड़ी रही, फिर उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कड़ी धूप की ओर चिंता से देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड़ से काफी आगे बढ़ा कर गली के छोर की तरफ निहारा, तो उसका बड़ा लड़का रामचंद्र धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर आया।
उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके में जा कर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने लगी। वहाँ पीढ़ा रख कर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा।
रामचंद्र आ कर धम-से चौकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका मुँह लाल तथा चढ़ा हुआ था, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।
सिद्धेश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत हिरनी की भाँति सिर उचका-घुमा कर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किंतु, लगभग दस मिनट बीतने के पश्चात भी जब रामचंद्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास जा कर पुकारा – बड़कू, बड़कू! लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लड़के की नाक के पास हाथ रख दिया। साँस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रख कर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आँखें खोलीं। पहले उसने माँ की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यंत्र की तरह चौकी पर आ कर बैठ गया।
सिध्देश्वर ने डरते-डरते पूछा, ‘खाना तैयार है। यहीं लगाऊँ क्या?’
रामचंद्र ने उठते हुए प्रश्न किया, ‘बाबू जी खा चुके?’
सिद्धेश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया, ‘आते ही होंगे।’
रामचंद्र पीढ़े पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें तथा होठों पर झुर्रियाँ।
वह एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से प्रूफरीडरी का काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया था।
सिद्धेश्वरी ने खाने की थाली सामने ला कर रख दी और पास ही बैठ कर पंखा करने लगी। रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भाँति देखा। कुल दो रोटियाँ, भर-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली तरकारी।
रामचंद्र ने रोटी के प्रथम टुकड़े को निगलते हुए पूछा, ‘मोहन कहाँ हैं? बड़ी कड़ी धूप हो रही है।’
मोहन सिद्धेश्वरी का मँझला लड़का था। उम्र अठ्ठारह वर्ष थी और वह इस साल हाईस्कूल का प्राइवेट इम्तहान देने की तैयारी कर रहा था। वह न मालूम कब से घर से गायब था और सिद्धेश्वरी को स्वयं पता नहीं था कि वह कहाँ गया है।
किंतु सच बोलने की उसकी तबीयत नहीं हुई और झूठ-मूठ उसने कहा, ‘किसी लड़के के यहाँ पढ़ने गया है, आता ही होगा। दिमाग उसका बड़ा तेज है और उसकी तबीयत चौबीस घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है। हमेशा उसी की बात करता रहता है।’
रामचंद्र ने कुछ नहीं कहा। एक टुकड़ा मुँह में रख कर भरा गिलास पानी पी गया, फिर खाने लग गया। वह काफी छोटे-छोटे टुकड़े तोड़ कर उन्हें धीरे-धीरे चबा रहा था।
सिद्धेश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा, ‘वहाँ कुछ हुआ क्या?’
रामचंद्र ने अपनी बड़ी-बड़ी भावहीन आँखों से अपनी माँ को देखा, फिर नीचा सिर करके कुछ रुखाई से बोला, ‘समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।’
सिद्धेश्वरी चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आँगन के ऊपर आसमान में बादल में एक-दो टुकड़े पाल की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गली से गुजरते हुए एक खड़खड़िया इक्के की आवाज आ रही थी। और खटोले पर सोए बालक की साँस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था।
रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा, ‘प्रमोद खा चुका?’
सिद्धेश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर दिया, ‘हाँ, खा चुका।’
‘रोया तो नहीं था?’
सिद्धेश्वरी फिर झूठ बोल गई, ‘आज तो सचमुच नहीं रोया। वह बड़ा ही होशियार हो गया है। कहता था, बड़का भैया के यहाँ जाऊँगा। ऐसा लड़का..’
पर वह आगे कुछ न बोल सकी, जैसे उसके गले में कुछ अटक गया। कल प्रमोद ने रेवड़ी खाने की जिद पकड़ ली थी और उसके लिए डेढ़ घंटे तक रोने के बाद सोया था।
रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ अपनी माँ की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके कुछ तेजी से खाने लगा।
थाली में जब रोटी का केवल एक टुकड़ा शेष रह गया, तो सिद्धेश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न किया, ‘एक रोटी और लाती हूँ?’
रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हडबड़ा कर बोल पड़ा, ‘नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। मेरा पेट पहले ही भर चुका है। मैं तो यह भी छोडनेवाला हूँ। बस, अब नहीं।’
सिद्धेश्वरी ने जिद की, ‘अच्छा आधी ही सही।’
रामचंद्र बिगड़ उठा, ‘अधिक खिला कर बीमार कर डालने की तबीयत है क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता?’
सिद्धेश्वरी जहाँ-की-तहाँ बैठी ही रह गई। रामचंद्र ने थाली में बचे टुकड़े से हाथ खींच लिया और लोटे की ओर देखते हुए कहा, ‘पानी लाओ।’
सिद्धेश्वरी लोटा ले कर पानी लेने चली गई। रामचंद्र ने कटोरे को उँगलियों से बजाया, फिर हाथ को थाली में रख दिया। एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकड़े को धीरे-से हाथ से उठा कर आँख से निहारा और अंत में इधर-उधर देखने के बाद टुकड़े को मुँह में इस सरलता से रख लिया, जैसे वह भोजन का ग्रास न हो कर पान का बीड़ा हो।
मँझला लड़का मोहन आते ही हाथ-पैर धो कर पीढ़े पर बैठ गया। वह कुछ साँवला था और उसकी आँखें छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई ही की तरह दुबला-पतला था, किंतु उतना लंबा न था। वह उम्र की अपेक्षा कहीं अधिक गंभीर और उदास दिखाई पड़ रहा था।
सिद्धेश्वरी ने उसके सामने थाली रखते हुए प्रश्न किया, ‘कहाँ रह गए थे बेटा? भैया पूछ रहा था।’
मोहन ने रोटी के एक बड़े ग्रास को निगलने की कोशिश करते हुए अस्वाभाविक मोटे स्वर में जवाब दिया, ‘कहीं तो नहीं गया था। यहीं पर था।’
सिद्धेश्वरी वहीं बैठ कर पंखा डुलाती हुई इस तरह बोली, जैसे स्वप्न में बड़बड़ा रही हो, ‘बड़का तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहा था। कह रहा था, मोहन बड़ा दिमागी होगा, उसकी तबीयत चौबीसों घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है।’ यह कह कर उसने अपने मँझले लड़के की ओर इस तरह देखा, जैसे उसने कोई चोरी की हो।
मोहन अपनी माँ की ओर देख कर फीकी हँसी हँस पड़ा और फिर खाने में जुट गया। वह परोसी गई दो रोटियों में से एक रोटी कटोरे की तीन-चौथाई दाल तथा अधिकांश तरकारी साफ कर चुका था।
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। इन दोनों लड़कों से उसे बहुत डर लगता था। अचानक उसकी आँखें भर आईं। वह दूसरी ओर देखने लगी।
थोड़ी देर बाद उसने मोहन की ओर मुँह फेरा, तो लड़का लगभग खाना समाप्त कर चुका था।
सिद्धेश्वरी ने चौंकते हुए पूछा, ‘एक रोटी देती हूँ?’
मोहन ने रसोई की ओर रहस्यमय नेत्रों से देखा, फिर सुस्त स्वर में बोला, ‘नहीं।’
सिद्धेश्वरी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘नहीं बेटा, मेरी कसम, थोड़ी ही ले लो। तुम्हारे भैया ने एक रोटी ली थी।’
मोहन ने अपनी माँ को गौर से देखा, फिर धीरे-धीरे इस तरह उत्तर दिया, जैसे कोई शिक्षक अपने शिष्य को समझाता है, ‘नहीं रे, बस, अव्वल तो अब भूख नहीं। फिर रोटियाँ तूने ऐसी बनाई हैं कि खाई नहीं जातीं। न मालूम कैसी लग रही हैं। खैर, अगर तू चाहती ही है, तो कटोरे में थोड़ी दाल दे दे। दाल बड़ी अच्छी बनी है।’
सिद्धेश्वरी से कुछ कहते न बना और उसने कटोरे को दाल से भर दिया।
मोहन कटोरे को मुँह लगा कर सुड़-सुड़ पी रहा था कि मुंशी चंद्रिका प्रसाद जूतों को खस-खस घसीटते हुए आए और राम का नाम ले कर चौकी पर बैठ गए। सिद्धेश्वरी ने माथे पर साड़ी को कुछ नीचे खिसका लिया और मोहन दाल को एक साँस में पी कर तथा पानी के लोटे को हाथ में ले कर तेजी से बाहर चला गया।
दो रोटियाँ, कटोरा-भर दाल, चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिका प्रसाद पीढ़े पर पालथी मार कर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा रहे थे, जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किंतु पचास-पचपन के लगते थे। शरीर का चमड़ा झूलने लगा था, गंजी खोपड़ी आईने की भाँति चमक रही थी। गंदी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियान तार-तार लटक रही थी।
मुंशी जी ने कटोरे को हाथ में ले कर दाल को थोडा सुड़कते हुए पूछा, ‘बड़का दिखाई नहीं दे रहा?’
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके दिल में क्या हो गया है – जैसे कुछ काट रहा हो। पंखे को जरा और जोर से घुमाती हुई बोली, ‘अभी-अभी खा कर काम पर गया है। कह रहा था, कुछ दिनों में नौकरी लग जाएगी। हमेशा, बाबू जी, बाबू जी किए रहता है। बोला, बाबू जी देवता के समान हैं।’
मुंशी जी के चेहरे पर कुछ चमक आई। शरमाते हुए पूछा, ‘ऐं, क्या कहता था कि बाबू जी देवता के समान हैं? बड़ा पागल है।’
सिद्धेश्वरी पर जैसे नशा चढ़ गया था। उन्माद की रोगिणी की भाँति बड़बड़ाने लगी, ‘पागल नहीं है, बड़ा होशियार है। उस जमाने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज कह रहा था कि भैया की शहर में बड़ी इज्जत होती हैं, पढ़ने-लिखनेवालों में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे भाइयों पर जान देता हैं। दुनिया में वह सब कुछ सह सकता है, पर यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।’
मुंशी जी दाल-लगे हाथ को चाट रहे थे। उन्होंने सामने की ताक की ओर देखते हुए हँस कर कहा, ‘बड़का का दिमाग तो खैर काफी तेज है, वैसे लड़कपन में नटखट भी था। हमेशा खेल-कूद में लगा रहता था, लेकिन यह भी बात थी कि जो सबक मैं उसे याद करने को देता था, उसे बर्राक रखता था। असल तो यह कि तीनों लड़के काफी होशियार हैं। प्रमोद को कम समझती हो?’ यह कह कर वह अचानक जोर से हँस पड़े।
मुंशी जी डेढ़ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युद्ध कर रहे थे। कठिनाई होने पर एक गिलास पानी चढ़ा गए। फिर खर-खर खाँस कर खाने लगे।
फिर चुप्पी छा गई। दूर से किसी आटे की चक्की की पुक-पुक आवाज सुनाई दे रही थी और पास की नीम के पेड़ पर बैठा कोई पंडूक लगातार बोल रहा था।
सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे। वह चाहती थी कि सभी चीजें ठीक से पूछ ले। सभी चीजें ठीक से जान ले और दुनिया की हर चीज पर पहले की तरह धड़ल्ले से बात करे। पर उसकी हिम्मत नहीं होती थी। उसके दिल में जाने कैसा भय समाया हुआ था।
अब मुंशी जी इस तरह चुपचाप दुबके हुए खा रहे थे, जैसे पिछले दो दिनों से मौन-व्रत धारण कर रखा हो और उसको कहीं जा कर आज शाम को तोड़ने वाले हों।
सिद्धेश्वरी से जैसे नहीं रहा गया। बोली, ‘मालूम होता है, अब बारिश नहीं होगी।’
मुंशी जी ने एक क्षण के लिए इधर-उधर देखा, फिर निर्विकार स्वर में राय दी, ‘मक्खियाँ बहुत हो गई हैं।’
सिद्धेश्वरी ने उत्सुकता प्रकट की, ‘फूफा जी बीमार हैं, कोई समाचार नहीं आया।
मुंशी जी ने चने के दानों की ओर इस दिलचस्पी से दृष्टिपात किया, जैसे उनसे बातचीत करनेवाले हों। फिर सूचना दी, ‘गंगाशरण बाबू की लड़की की शादी तय हो गई। लड़का एम.ए. पास है।’
सिद्धेश्वरी हठात चुप हो गई। मुंशी जी भी आगे कुछ नहीं बोले। उनका खाना समाप्त हो गया था और वे थाली में बचे-खुचे दानों को बंदर की तरह बीन रहे थे।
सिद्धेश्वरी ने पूछा, ‘बड़का की कसम, एक रोटी देती हूँ। अभी बहुत-सी हैं।’
मुंशी जी ने पत्नी की ओर अपराधी के समान तथा रसोई की ओर कनखी से देखा, तत्पश्चात किसी छँटे उस्ताद की भाँति बोले, ‘रोटी? रहने दो, पेट काफी भर चुका है। अन्न और नमकीन चीजों से तबीयत ऊब भी गई है। तुमने व्यर्थ में कसम धरा दी। खैर, कसम रखने के लिए ले रहा हूँ। गुड़ होगा क्या?’
सिद्धेश्वरी ने बताया कि हंडिया में थोडा सा गुड़ है।
मुंशी जी ने उत्साह के साथ कहा, ‘तो थोडे गुड़ का ठंडा रस बनाओ, पीऊँगा। तुम्हारी कसम भी रह जाएगी, जायका भी बदल जाएगा, साथ-ही-साथ हाजमा भी दुरूस्त होगा। हाँ, रोटी खाते-खाते नाक में दम आ गया है।’ यह कह कर वे ठहाका मार कर हँस पड़े।
मुंशी जी के निबटने के पश्चात सिद्धेश्वरी उनकी जूठी थाली ले कर चौके की जमीन पर बैठ गई। बटलोई की दाल को कटोरे में उड़ेल दिया, पर वह पूरा भरा नहीं। छिपुली में थोड़ी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया। उसमें केवल एक रोटी बची थी। मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लड़के को कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकड़ों में विभाजित कर दिया। एक टुकड़े को तो अलग रख दिया और दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी थाली में रख लिया। तदुपरांत एक लोटा पानी ले कर खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुँह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे।
सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था। आँगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी टँगी थी, जिसमें पैबंद लगे हुए थे। दोनों बड़े लड़कों का कहीं पता नहीं था। बाहर की कोठरी में मुंशी जी औंधे मुँह हो कर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे, जेसे डेढ़ महीने पूर्व मकान-किराया-नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छँटनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो।
अमरकान्त जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार
नामवर सिंह, शेखर जोशी, ज्ञानपीठ के आजीवन ट्रस्टी आलोक जैन, ज्ञानपीठ के निदेशक रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, विश्वनाथ त्रिपाठी, दूधनाथ सिंह, रविभूषण, अखिलेश, राजेन्द्र कुमार, भारत भारत भारद्वाज, हरीश चन्द्र पाण्डेय, सूर्यनारायण, प्रणय कृष्ण, वाचस्पति, सन्तोष भदौरिया, अनिता गोपेश, नीलम शंकर, सन्ध्या निवेदिता, अंशुल त्रिपाठी, सुबोध शुक्ल, कुमार अनुपम समेत हिन्दी साहित्य की कई पीढ़ियां इस यादगार पल की साक्षी बनी।
इसी दिन शाम को दैनिक जागरण की ओर से जब राजेन्द्र्र राव जी द्वारा पुनर्नवा के लिए अमरकान्त जी पर एक आलेख तुरन्त लिख कर भेजने का निर्देश मिला तब मैं ना नहीं कर सका। हॉ इसके लिए मैंने राव साहब से एक दिन की मोहलत जरूर मॉग लिया। अखबारी सीमाओं और पाठकों को ध्यान में रखते हुए मैंने एक आलेख लिखा जो दैनिक जागरण के 19 मार्च 2012 के पुनर्नवा पृष्ठ पर कुछ सम्पादन के साथ प्रकाशित हुआ है। पहली बार के पाठकों के समक्ष मैं पूरी विनम्रता के साथ मूल आलेख को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हॅू।
नई कहानी के आदि शिल्पी अमरकान्त
सन्तोष कुमार चतुर्वेदी
प्रख्यात आलोचक रविभूषण जी ने दिसम्बर 1997 ई0 में शेखर जोशी को पहल सम्मान दिये जाने के अवसर पर अपने एक महत्वपूर्ण व्याख्यान में कहा था कि शेखर जोशी, अमरकान्त और मार्कण्डेय की त्रयी ही नयी कहानी की वास्तविक त्रयी है। अब इस बात की सच्चाई में कोई संशय नहीं रह गया है। 13 मार्च 2010 को इलाहाबाद संग्रहालय के खचाखच भरे ब्रजमोहन व्यास सभागार में अमरकान्त जी को जब वर्ष 2009 का ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा रहा था तो एक तरह से ज्ञानपीठ न केवल खुद को ही सम्मानित कर रहा था अपितु रविभूषण जी की उस बात को पुष्ट भी कर रहा था। ज्ञानपीठ के निदेशक रवीन्द्र कालिया ने जब इसी अवसर पर विश्व के उत्कृष्ट कहानीकारों की सूची में चेखव, ओ हेनरी, सआदत हसन मण्टो के साथ अमरकान्त जी का नाम लिया तो किसी के चेहरे पर आपत्ति का कोई भी भाव नहीं दिखा। यही अमरकान्त जी के साहित्य और उनके लेखन की ताकत है जिसका लोहा उनके प्रबल विरोधी भी मानते हैं।
अमरकान्त जी का नाम एक ऐसा नाम है जिनके बिना साहित्य की महत्वपूर्ण विधा कहानी की कोई भी बात पूरी नहीं होती। निम्नमध्यवर्गीय जीवन के अप्रतिम कथाकार अमरकान्त जी सीधी सरल भाषा में अपने कथानक को इस प्रकार गढते हैं कि सहसा यह विश्वास ही नहीं होता कि हम गल्प की दुनिया में विचरण कर रहे हैं बल्कि शब्द-दर-शब्द यही अहसास होता है कि हम खुद यथार्थ के सागर में गोते लगा रहे हैं। इनकी कहानी पढते हुए अक्सर यह लगता है अरे यह तो हमारी अपनी ही कहानी है या फिर लगता है कि यह हमारा खुद का ऑखों देखा कोई सच है जिसे किसी ने अत्यन्त सरल-सहज शब्दों में बयॉ कर दिया है। अमरकान्त को कहानी का सूत्र खोजना नहीं पड़ता बल्कि वह तो उन्हें आम आदमी के रोजमर्रा के जीवन की छोटी छोटी घटनाओं में ही मिल जाता है। इन घटनाओं में रची-पगी कहानी कुछ ऐसी सधी हुई होती है कि कभी एक पल के लिए भी ऐसा महसूस नहीं होता कि किसी भी पात्र को बढा-चढा कर या बिना वजह प्रस्तुत किया गया है। रोंगटे खड़े कर देने वाले कथ्य को भी तटस्थ भाव से प्रस्तुत करने में तो जैसे अमरकान्त जी का कोई सानी नहीं है।