अमरकान्त जी पर शिवानन्द मिश्र का संस्मरण ‘आज भी लोग इलाहाबाद का ही मुँह देखते हैं!’




अमरकान्त जी हमारे लिए सिर्फ लेखक ही नहीं बल्कि हम सब के अभिभावक भी थे। हम सब उन्हें सम्मान और आत्मीयता से दादा कहते थे। वे हमसे उसी अधिकार से बातें भी करते थे जैसे घर का बुजुर्ग किया करता है। जब भी उनसे भेंट होती वे हमसे बलिया के बारे में जरुर पूछते। वे उस घर के बारे में भी जरुर पूछते जिसमें बैठ कर उन्होंने हिन्दी साहित्य ही नहीं अपितु विश्व साहित्य की उत्कृष्ट कहानियाँ लिखीं। उनकी बातों में उनका बलिया, नगरा और भगमलपुर जरुर आता। फिर वे कविता-कहानी की बात करते कथाकार रवीन्द्र कालिया विश्व के जिन चार उत्कृष्ट कथाकारों का जिक्र करते हैं उनमें चेखव, अर्नेस्ट हेमिग्वे और मंटो के साथ अमरकान्त का नाम शामिल है। अमरकान्त जी आज हमारे बीच नहीं हैं। पिछली फरवरी हम सब के लिए क़यामत ले कर आई और दादा सत्रह विगत फरवरी को हमें अकेले छोड़ कर उस सफ़र पर निकल गए जिससे आज तक कोई भी वापस नहीं लौटा। आज उनके नवासीवें (89वें) जन्मदिन पर हम उन्हें याद करते हुए प्रस्तुत कर रहे हैं युवा कथाकार शिवानन्द मिश्र का यह संस्मरण 
            
‘आज भी लोग इलाहाबाद का ही मुँह देखते हैं!
शिवानन्द मिश्र

                अमरकांत जी का हमारे बीच से जाना मुझे उस दिन की याद दिला गया जब मैं उनसे पहली बार मिला था। मैंने उनके प्रति लिखी कुछ पंक्तियाँ एक पन्ने पर नोट कर ली थीं। मैंने वो पन्ना अमरकांत जी को पढ़ने को दिया। उसमें लिखा था,
                वट वृक्ष सा अवलम्ब दें, हम लता सम लग बढ़ चलें।
                पारस सदृश सानिध्य से बिन ज्ञान भी प्रतिमान हम कुछ गढ़ चलें।।
                प्रतिक्रिया थी, अच्छा! ………. आपने लिखी है? देखें। एक बाल सुलभ निश्छल मुस्कान के साथ पढ़ते रहे। कहा, अच्छी है। अवलम्ब मत लीजिए, खुद आगे बढ़िए। फिर वही निश्छल मुस्कान। पंक्तियाँ अच्छी हैं मेरे लिए तो यही टिप्पणी बहुत थी। मुझे गुरूमंत्र मिल गया था। मैं खुश था। मैं बोला, लेकिन आपके स्नेह का सदा आकांक्षी रहूँगा। इस बार हंसे।
                फिर तो अमरकांत जी के नेह छॉव में जुड़ाने का अवसर सहज ही सुलभ होता रहा। मैं उनके यहाँ जब भी जाता, मुझ जैसे साधारण व्यक्ति से भी उसी आत्मीयता से मिलते, जैसे कोई अपने परिजनों से मिलता है। उनसे मिल कर मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मैं हिंदी साहित्य के इतने बड़े हस्ताक्षर से मिल रहा हूँ जिसके सामने मेरी कोई हैंसियत नहीं। उनकी सबसे बड़ी खासियत थी कि वे हर छोटे-बड़े के साथ बड़ी ही आत्मीयता के साथ मिलते थे। बड़े ही सहृदय व्यक्ति थे अमरकांत जी। सच पूछिए तो आज के दौर में ऐसे लोगों का मिलना मुश्किल है जिन्हें घमंड छू तक न गया हो।
                ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं उनके यहाँ गया होऊँ और उनसे बिना मिले वापस आना हुआ हो। इस बात के लिए उनके कनिष्ठ पुत्र अरविन्द विंदु और उनकी पुत्रवधू रीता जी का सदा ऋणी रहूँगा। अमरकांत जी को जैसे ही इस बात की भनक लगती कि मैं उनके यहाँ पहुँचा हूँ, वे खुद ही अंदर से तखत और कुर्सियों का टेक लेते हुए धीरे-धीरे बैठक वाले कमरे में आ जाते। पूछते, और बताइए, क्या हाल है बलिया का? बात कुछ इस तरह से शुरू होती और फिर मेरे अंदर का पाठक, लेखक अमरकांत की रचनाओं की चर्चा करने का मोह त्याग नहीं कर पाता। मैं किसी रचना से एक दृश्य चुनता, उसके शिल्प और उसकी रचना प्रक्रिया के बारे में अपनी उत्सुकता जाहिर करता। फिर वही बाल-सुलभ निश्छल मुस्कान हृदय उपवन से ताजगी लिए आती और चेहरे पर स्पष्ट छा जाती। अब अमरकांत जी वाचक और हम स्रोता की स्थिति में होते। आँखें उनको बोलते हुए देख कर अघातीं और कान सुन कर तृप्त होते रहते। अमरकांत जी के पास स्मृतियों की अकूत सम्पदा थी। और जबर्दस्त याददास्त के मालिक थे अमरकांत जी। एक-एक घटना पूरी तफ्सील से बयान करते। इसके पीछे उनका हर छोटी-बड़ी घटना का सूक्ष्मावलोकन छिपा है। यूँ ही बात-बात में एक दिन अमरकांत जी जयदत्त पंत जी के साथ बिताए दिनों को याद कर रहे थे। जयदत्त पंत जी इलाहाबाद में ही पहाड़ी लोगों के एक लॉज में रहा करते थे और कुछ महीने अमरकांत जी ने वहाँ उनके साथ बिताए थे। वहीं एक पहाड़ी रहा करते थे खेमानन्द जोशी। उन्हीं दिनों उनकी पत्नी पहले-पहल पहाड़ से आयी थीं। वो जब चलती थीं तो उनका पैर हमेशा थोड़ा ऊपर उठ जाता था। अमरकांत जी ने इसे गौर किया और जब ये बात उन्होंने पंत जी ओर जोशी जी से बताई तो वे लोग हॅसने लगे। उन्होंने बताया कि पहाड़ों पर ऊँचे-नीचे रास्ते होते हैं और चलते समय हमेशा चढ़ना-उतरना पड़ता है, ऐसे में उनकी पत्नी को भी थोड़ा पैर उठा कर चलने की आदत पड़ गई है और अब मैदान में भी चलती हैं तो पैर थोड़ा उठ जाता है। सच्चाई चाहे जो रही हो, एक बात जरूर थी कि अमरकांत जी का अपने आसपास होने वाली हर छोटी-बड़ी बात पर बड़ा ही ‘क्लोज ऑब्जर्वेशन होता था और वे अपने लेखन में उन्हें बड़ी ही खूबसूरती के साथ पिरोते थे। अमरकांत जी ने अपनी कहानी कलाप्रेमी में सुमेर की मालती रंजन से पहली मुलाकात में मालती रंजन को प्रभावित करने की सुमेर की चेष्टाओं का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है- पहली ही मुलाकात में उसने बीमा कंपनी के एजेंट, कमजोर शिष्य, अंग्रेजी के प्रोफेसर और सियार के गुणों का अद्भुत मिला-जुला प्रदर्शन किया। ऐसा वर्णन वही कर सकता है जिसने ऐसी मुलाकातों में मिलने वालों के हाव-भाव को गहराई से पढ़ा हो।
                हर चीज को सूक्ष्मता से देखने और उसका विस्तार से आद्योपांत वर्णन अमरकांत की खासियत थी। नामवर सिंह कहते हैं मैं हमेशा से मानता आया हूँ कि कोई भी कला ब्यौरे में, डिटेल्स में होती है। अमरकांत भी उसी विस्तार में जाते हैं इनकी कहानियॉं पूरे शरीर में होती हैं।अमरकांत ने जब भी लिखा उसमें पूर्णता रखी। कुछ छूटने न पाये, इस भाव से। मजे ले-ले कर। जैसे, किसी रचना का पात्र उपवन में खड़ा है तो उपवन की खुशबू पाठक तक भी पहुँचे, इस भाव से। पात्र को कोई कांटा चुभता है तो उसकी चुभन पाठक तक भी पहुँचे। इस विस्तार में वो पात्र के मनोभावों तक पहुँचते हैं और पाठक से उसे एकाकार कराते हैं। जो पात्र सोच रहा है, पाठक सोचे, वहॉं तक पहुँचे। याद करिए ग्रामसेविका के लखना को । पॉंच साल का, बिन मॉं का बच्चा शरारत करता है और अपने पिता की मार से बचने के लिए गॉंव से दूर, तालाब किनारे छिप जाता है। फिर उसका अकेले तालाब में तैरना, पीपल की डाल पर बैठ कर बेवजह पैर हिला-हिला कर खुशी प्रकट करना। लेखक पूरे तफ्सील में जा कर पात्रों की हर छोटी-बड़ी गतिविधियों के माध्यम से पात्र की सोच और मनोदशा से पाठक को एकाकार कराता है।
                ऐसी कितनी ही अनौपचारिक मुलाकातों में मुझे अमरकांत जी से बहुत कुछ सीखने को मिला है। मसलन, एक बार मैंने अमरकांत जी के उपन्यासों पर कुछ लिखा था और जब उन्हें पढ़ने को दिया तो उन्होंने हंसते हुए कहा, आपने तो इसमें मेरे लिये बहुत अच्छा-अच्छा लिख दिया है। मैंने कहा, ये जो कुछ भी लिखा है, श्रद्धावश है और मैं आलोचनात्मक नहीं हो पाया हूँ। बड़ी ही बेबाकी से उन्होंने कहा,  कोई भी चीज श्रद्धा या घृणा से नहीं लिखी जा सकती। उसके लिए निष्पक्ष होना पड़ता है। ये सारे सूत्रवाक्य मैंने आज भी गाँठ बांध कर रखे हैं। एक बार उन्होंने पूछा था मुझसे कि कब लिखते हो? मैंने कहा जब मूड होता है तभी लिखता हूँ। डाँटते हुए उन्होंने कहा था, मूड का क्या है? मूड तो बनाने से बनता है। मैंने जिंदगी और ज़ोंक और डिप्टी कलक्टरी’ जैसी  कहानियाँ बलिया में अपने बैठक के कमरे में खिड़की के पास चारपाई पर बैठे-बैठे लिखी है। खिड़कीबाहर बरामदे में खुलती थी जहाँ मेरे पिता जी मुवक्किलों से बात करते थे। बाहर शोर-शराबा होता रहता था और मैं अंदर बैठ कर लिखता था। जब शोर ज्यादा होने लगता था तो मैं खिड़की अंदर से बंद कर लेता था। इतनी विपरीत परिस्थिति तो नहीं ही रहती होंगी? रोज लिखा करो। इससे प्रवाह बना रहता है। अच्छे-अच्छे शब्द सहज रूप से आते हैं। अमरकांत जी नये शब्दों के गढ़न को लेकर भी जागरूक किया करते थे। उनका कहना था कि नये शब्दों का गढ़न भी साहित्यकार की जिम्मेदारी बनती है। याद करिये –‘ जिंदगी और जोंक में मरणासन्न रजुआ के प्रति भीड़ की अकर्मण्य सहानुभूति। यहाँ ‘अकर्मण्य सहानुभूति भीड़ का चरित्र स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। एक शब्द’ और पूरी मनोदशा, सोच और वातावरण का चित्र पाठक के समक्ष साकार, ये अमरकान्त ही कर सकते हैं।
                और वैसे भी अमरकांत जी ने जो कर दिखाया वो अमरकांत ही कर सकते थे। नामवर सिंह जी के शब्दों में कहें तो वह ऐतिहासिक घटना थी जब ज्ञानपीठ पहली बार पुरस्कार देने के लिए खुद दिल्ली के तख्त से उतर कर इलाहाबाद आया। कुंआ खुद चल कर प्यासे के पास आया।
                13 मार्च 2012 की शाम मैं नहीं भूल सकता। इलाहाबाद संग्रहालय के सभागार में तिल रखने की जगह नहीं थी। अवसर वर्ष 2009 के ज्ञानपीठ सम्मान से अमरकांत जी को सम्मानित किए जाने का था। सभागार हिन्दी के नामचीन रचनाकारों, आलोचकों, साहित्य प्रेमियों और मीडियाकर्मियों से खचाखच भरा हुआ था। ज्यादातर लोगों को बैठने की जगह तक नहीं मिली थी लेकिन इसका मलाल किसी के चेहरे पर नहीं था। लोगों में खुशी इस बात की थी कि वे अपने प्रिय लेखक को सम्मानित होता हुआ देख रहे थे। इस अवसर पर उनकी कही बातें कई मायनों में आने वाली पीढ़ियों को सीख दे गई जैसे, पुरस्कार लेखक के लिए चुनौती है। संतोष की मंजिल नहीं है वो। बल्कि उस चुनौती को स्वीकार करते हुए अगले कदम बढ़ाने जरूरी होते हैं। पुरस्कार का यही मतलब हो सकता है एक लेखक के लिए।
                अमरकांत जी उस दिन काफी लय में थे। उन्होंने कहा कि जब मैंने लिखना शुरू किया तो अंग्रेजी का जमाना था। सारी पाठ्य पुस्तकें अंग्रेजी में थी और हिन्दी को कोई पूछने वाला नहीं था। जो हिंदी पढ़ाते थे वे भी संस्कृत पढ़ाने वाले थे और संस्कृत के ही तरीके से हिंदी पढ़ाते थे। हम लोगों ने जब लिखना शुरू किया था तो स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ हिंदी थी।
                उसी रौ में अमरकांत जी बोलते रहे, हिंदी को बड़ी हीनता की दृष्टि से देखा जाता है यहाँ पर। आप देख लीजिए अंग्रेजी के जितने अखबार हैं, इस ज्ञानपीठ पुरस्कार के बारे में कहीं चर्चा ही नहीं है। आज भी देख लीजिए शासन से लेकर हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला है और हिंदी की उपेक्षा हो रही है। क्या हिन्दी में सोचा नहीं सोचा जाता या लिखा नहीं जाता या किताबें नहीं लिखी जाती या सिर्फ नकल ही की जाती है अंग्रेजी की? यहाँ मौलिक लेखन भी हो रहा है, मौलिक रूप से हिंदी में सोचा भी जा रहा है। बहुत तरह की किताबें भी लिखी जा रही हैं। इस दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए।
                ऐसी ही बेबाकी से अपनी बात रखते थे अमरकांत जी। अभी पिछले साल, दिसम्बर माह में कवि निलय उपाध्याय जी का इलाहाबाद आना हुआ था। निलय जी के साथ कवि हरिश्चन्द्र पाण्डे और मैं, तीनों अमरकांत जी से मिलने उनके आवास पर पहुँचे। बातों-बातों में निलम जी ने अमरकांत जी से पूछा कि, अब तो लगभग सभी साहित्यकार या तो दिल्ली चले गये या फिर इधर-उधर। एक समय था जब इलाहाबाद दिग्गज साहित्यकारों से भरा था। आप अब के इलाहाबाद को कैसे देखते है? अमरकांत जी का ठसक भरा जवाब था,  वे आज भी यहीं (इलाहाबाद) का मुँह देखते हैं!
                आज अमरकांत जी हमारे बीच नहीं है लेकिन वे अपने पीछे जीता-जागता विशाल रचना संसार छोड़ गये हैं हमें राह दिखाने को। 
सम्पर्क-
मोबाईल  8004905851

अमरकान्त जी पर प्रतुल जोशी का संस्मरण


विगत 17 फरवरी को प्रख्यात कथाकार और हम सब के दादा अमरकान्त जी नहीं रहे. यह हम  सब के लिए एक गहरी क्षति थी. प्रतुल जोशी ने अपने संस्मरण में अमरकान्त जी के साथ बिठाये गए पलों को ताजा किया है. आईए पढ़ते हैं प्रतुल जोशी का यह संस्मरण  


हमारे ताऊ जी “अमरकांत जी”: स्मृति शेष  

प्रतुल जोशी 

सोमवार 17 फरवरी की सुबह लगभग 11 बजे, मैं आकाशवाणी शिलांग में आफिस का कुछ काम निपटा रहा था कि मोबाइल पर आये मैसेज पर निगाह पड़ते ही लगा मानो पांवों के नीचे से ज़मीन खिसक गयी है। इलाहाबाद के एक साथी का मैसेज था “अमरकान्त जी नहीं रहे“। कुछ पलों के लिए मैं संज्ञाशून्य हो गया। समझ में नहीं आया कि शिलांग में अपना दुख किससे साझा करूँ। आकाशवाणी शिलांग में कुछ ही दिन पहले लखनऊ से स्थानान्तरित होकर आया हूँ। अभी कुछ ही लोगों से परिचय हुआ है। यहाँ किसी को बता नहीं सकता था कि यह खबर मुझे कितना दुख देने वाली खबर थी। एक बड़ा दुख यह हो रहा था कि अमरकान्त जी के अन्तिम समय में उनके पास नहीं पहुँच पा रहा हूँ।

अमरकांत जी और पापा (श्री शेखर जोशी) का लगभग 60 वर्षों का साथ था। पचास के दशक में पापा ई0एम0ई0 (भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय का एक प्रतिष्ठान) में नौकरी करने इलाहाबाद आये थे और फिर इलाहाबाद में ही लगभग 56 वर्ष रहे। हमारी माता जी स्वर्गीय चन्द्रकला जोशी के निधन के पश्चात् सन 2012 में इलाहाबाद शहर हमारे परिवार के लिए छूट गया सा है। इलाहाबाद में पापा के सबसे निकटस्थ अमरकांत जी ही थे। सन 1956 से 60 के दौरान पापा और अमरकांत जी एक साथ करेलाबाग लेबर कालोनी में रहे। बाद में पापा, करेलाबाग कॉलोनी छोड़ कर लूकरगंज आ गये थे लेकिन अमरकान्त जी लम्बे समय तक करेलाबाग काॅलोनी में ही रहे। सन् 1965 से अमरकांत जी ने माया प्रेस, इलाहाबाद में नौकरी की और वहां से निकलने वाली पत्रिका “मनोरमा“ में एक लम्बे समय तक सम्पादक रहे। पापा से उम्र में लगभग 7 वर्ष बड़े होने के कारण हम बच्चे अमरकान्त जी को “ताऊ जी“ कह कर बुलाते थे। करेलाबाग कॉलोनी से लूकरगंज की दूरी लगभग 4 किमी0 की होगी। प्रायः अमरकान्त जी हमारे घर आ जाते और जब वह नहीं आते तो हम लोग उनके घर करेलाबाग कॉलोनी पहुँच जाते। यह सिलसिला सत्तर के दशक के आखिरी वर्षों तक चला। इसके बाद अमरकान्त जी ने बहुत से मकान बदले। कभी करेली तो कभी दरियाबाद फिर महदौरी कॉलोनी। आखिर में अशोक नगर में छोटा सा अपार्टमेन्ट खरीदा। वह जहां भी रहे, हम लोगों का आना-जाना उनके घर नियमित रूप से लगा रहा। 

पचास के दशक में हिन्दी साहित्य में जिस ‘नयी कहानी’ आन्दोलन की शुरूआत हुई, उसके अग्रणी लेखकों में अमरकान्त जी का नाम लिया जाता रहा है। ‘नयी कहानी’ आन्दोलन के अन्य चर्चित लेखक थे राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, मार्कण्डेय, भीष्म साहनी आदि। उस दौर के बहुत से लेखकों ने जहां अपने को स्थापित करने के लिए काफी मेहनत की और बड़े-बड़े संस्थानों से जुड़े, अमरकान्त जी बिना किसी महत्वाकांक्षा के इलाहाबाद में करेलाबाग कॉलोनी के एक छोटे से मकान में रहते हुए कहानियाँ लिखते रहे। “दोपहर का भोजन“, “जिन्दगी और जोंक“, “डिप्टी कलक्टरी“, “हत्यारे“ जैसी दर्जनों कहानियाँ अमरकान्त जी ने एक बहुत छोटे से मकान में बैठ कर लिखी जो आज हिन्दी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुई हैं।

मैंने अपने जीवन में अमरकान्त जी जैसा विनम्र, प्रतिबद्ध, धैर्यवान और शान्त लेखक कोई दूसरा नहीं देखा। सन् 1984 में अमरकान्त जी को सोवियतलैन्ड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस पुरस्कार के तहत उनको रूस की यात्रा का निमंत्रण मिला था। अमरकान्त जी रूस के कई शहरों की यात्रा कर जब इलाहाबाद लौटे तो हम लोगों के लिए एक सुन्दर घड़ी ले कर आये थे। घड़ी में लकड़ी का छोटा सा पेंडुलम दायें बायें चलता था और एक चिडि़या दो छोटे-छोटे दरवाजे खोलकर हर घण्टे बाहर निकलती थी। कुछ दिन वह चिडि़या बाहर आती रही। बाद में पेंडुलम का चलना बन्द हो गया और चिडि़या का बाहर निकलना भी। लेकिन घड़ी बहुत दिनों तक हमारे घर के ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ाती रही। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि उनको रूस में क्या अच्छा लगा? अमरकान्त जी ने बड़े ही सहज भाव से उत्तर दिया कि रूस में उन्हें सबसे अच्छा लगा कि वहां लेखकों का बड़ा सम्मान है। हर शहर में लेखकों की मूर्तियाँ शहर के कई चौराहों पर लगी दिखती हैं। लेखकों के घरों को उनकी मृत्यु के सौ वर्षों के पश्चात् भी पूरे सम्मान के साथ सुरक्षित रखा गया था। अमरकान्त जी कुछ प्रसिद्ध रूसी लेखकों के घर देख कर भी आये थे। 

अमरकान्त जी जीवन भर प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे। प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजनों और बैठकों की तैयारी के समय वह अत्यन्त उत्साह में होते थे। उनके व्यक्तित्व के जिस पक्ष से मैं सबसे ज्यादा प्रभावित था, वह था कि मैंने उनके मुंह से कभी किसी के लिए अपशब्द या बुराई नहीं सुनी। यहाँ तक की जिन व्यक्तियों ने उनको कभी धोखा दिया, उनके बारे में भी वह कटुता नहीं रखते थे। हर एक के बारे में वह बड़े आदर से बात करते। अपने घरेलू जीवन में उन्होंने अत्यन्त आर्थिक दुश्वारियों का सामना किया, किन्तु विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी वह अत्यन्त शांत रहते और अपना धैर्य नहीं खोते थे। कोई भी बड़े से बड़ा सम्मान या प्रसिद्धि, उनके लिए अत्यन्त सामान्य बात थी। सतत् रचनाशील रहना उनकी जीवन शैली बन गया था। 

अमरकान्त जी जब भी हमारे घर आते, तो पापा उन्हें छोड़ने खुल्दाबाद तक जरूर जाते। खुल्दाबाद हमारे घर से लगभग 1 किमी0 दूर है। खुल्दाबाद, एक छोटा सा बाजार है जहां सड़क के दोनों तरफ दुकानें हैं। खुल्दाबाद के मोड़ पर खड़े हो, दोनों काफी लम्बे समय तक बातें किया करते। इस बातचीत में साहित्य की स्थिति, किस लेखक ने क्या नया लिखा, कौन सी नई साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित हुई जैसे साहित्य से जुड़े तमाम विषय शामिल होते। 

सत्तर के दशक में अमरकान्त जी सिगरेट खूब पीते थे। उनका मुंह से धुँए के गोल-गोल छल्ले निकालना मुझे बेहद पसन्द आता था। यद्यपि बाद में उन्होने सिगरेट छोड़ दी थी। अमरकान्त जी शतरंज भी बहुत अच्छा खेलते थे। एक बार हम बच्चों को शतरंज खेलने का जुनून चढ़ा। दिन-रात हम लोग शतरंज में डूबे रहते। उसी दौरान अमरकान्त जी घर आ गये। मैंने उनसे कई बाजि़यां खेलीं और हर बार हारा। वह समझाते की देखो शतरंज में प्रतिद्वंद्वी के मोहरों को तुरत खत्म करने की बजाये, बेहतर है कि एक सुलझी हुई रणनीति से मात दी जाए। औसत कद के, गौरवर्ण अमरकान्त जी हमेशा बहुत शान्ति से बात करते। 

सन 1988 में मैंने इलाहाबाद छोड़ दिया था। आकाशवाणी में अपनी नौकरी के चलते कानपुर, लखनऊ, ईंटानगर रहता रहा। लेकिन जब भी मैं इलाहाबाद जाता, पूरी कोशिश करता की एक बार अमरकान्त जी से मिलूं, उनके दर्शन करूँ। लगभग 6 माह पूर्व, पिछले वर्ष सितम्बर के महीने में आखिरी बार उनसे मुलाकात हुई। उन वक्त मुझे लगा कि शायद उन्हें विस्मृति की बीमारी हो रही है। मुझे पहचानने में उन्हें कुछ दिक्कत हो रही थी। अमरकान्त जी के कनिष्ठ पुत्र अरविन्द बिन्दु ने उन्हें कहा “प्रतुल आये हैं“। सुनकर ताऊ जी थोड़ी देर तक मुझे पहचानने की कोशिश करते रहे। फिर लगा कि उन्होंने मुझे पहचान लिया है। वह हमेशा की तरह गर्मजोशी से बोले “और क्या हाल-चाल हैं? कैसे हो?“ मैं अन्दर ही अन्दर जैसे कराह उठा। मैंने मन ही मन कहा “ओह ताऊ जी, जीवन भी कितना कठोर है। बचपन से मैं आपकी गोद में ही पला-बढ़ा। और आज उम्र के इस पड़ाव पर आ कर आप कितने मजबूर हो गयें हैं। अब मुझको पहचानने में भी आपको इतना वक्त लग रहा है।“

ताऊ जी से मिलने के बाद पहली बार मुझे बेहद अफसोस हो रहा था। उनकी स्मृति के खत्म हो जाने का अंदेशा मुझको भीतर ही भीतर कहीं गहरे तक लग रहा था। यह सोच कर और दुख हो रहा था कि जिस व्यक्ति ने अपनी गम्भीर बीमारी के बावजूद कई कहानियों और उपन्यासों की रचना की थी, वह अंततः अपनी उम्र से हारता सा दिख रहा था। हड्डियों की बीमारी ऑस्टियोपोरोसिस से वह लगभग 17 वर्षों तक जूझते रहे। अपनी इस गम्भीर बीमारी के बावजूद उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास “इन्हीं हथियारों से” लिखा। इस उपन्यास के लिए उन्हें साहित्य अकादमी और व्यास सम्मान भी प्राप्त हुये। 

अमरकान्त जी से मिलने के बाद लगातार मैं उनके हालचाल अपने मित्रों, परिचितों से लेता रहा। जिससे भी बात करता, वह कहता कि वह बिल्कुल ठीक हैं। जानकर बेहद खुशी होती। लेकिन अचानक 17 फरवरी की सुबह जब अमरकान्त जी के निधन की खबर मिली तो लगा कि यह क्या हो गया। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके घर फोन कर बात की तो पता चला कि एक दिन पहले तक वह पूर्णतया स्वस्थ थे। चार-पांच लोगों की एक टीम उनके यहां आयी थी और उन्होंने एक इण्टरव्यू भी दिया था। लेकिन दूसरे ही दिन हृदय गति रूकने से उनका देहावसान हो गया। अमरकान्त जी पर एक फिल्म मेरे छोटे भाई और फिल्मकार संजय जोशी ने साहित्य अकादमी के सहयोग से बनाई है।

अब अमरकान्त जी हम लोगों के बीच नहीं हैं लेकिन उनकी रचनायें अभी कई पीढि़यों को सुसंस्कारित करती रहेंगी। निम्न मध्यम वर्ग की पीड़ा को उन्होंने जिस कलात्मकता के साथ अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है, वैसा हिन्दी साहित्य में कम ही लेखकों ने लिखा है। उनका इस दुनिया से जाना, एक विलक्षण प्रतिभा का संसार से चले जाना है। न केवल उनकी रचनाओं वरन् उनके जीवन से भी बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अमरकान्त जी अपनी रचनाओं के माध्यम से अमर रहेंगे।   




सम्पर्क-

कार्यक्रम अधिशासी 
आकाशवाणी 
शिलांग 
मोबाईल – 09452739500

अमरकान्त जी से धनञ्जय चोपड़ा की एक बातचीत

अमरकान्त : …..वे जो  हमेशा अपने समय का सच रचते रहे 
17 फरवरी 2014 को प्रख्यात कथाकार अमरकान्त जी नहीं रहे. यह हम सबके लिए एक बड़ा आघात है. उनके न रहने से हम इलाहाबादवासियों ने अपना अभिभावक खो दिया. एक ऐसा अभिभावक जो महान होते हुए भी इतना सरल और सहज था कि उससे हम अपने सारे दुःख-दर्द बाँट सकते थे. एक ऐसा अभिभावक जो हमें बेतकल्लुफी से डांट सकता था और जो बातों में हमें दुनिया जहान के तमाम कोनों की सैर कराता था. श्रद्धांजलिस्वरुप हम प्रस्तुत कर रहे हैं      कथाकार अमरकांत से धनंजय चोपड़ा की बातचीत 
वे अपने समय को बखूबी जीते थे, उसमें रम जाते थे, उसकी मिठास, कड़ुवाहट, उठा-पटक, उहापोह और जीवन संघर्ष का अनुभव लेते थे और फिर डिप्टी कलक्टरी, जिन्दगी और जोंक, बस्ती, हत्यारे, मौत के नगर, दोपहर का भोजन, सुन्नर पाण्डे की पतोहू, आंधी, इन्हीं हथियारों से जैसी सैकड़ों कालजयी कृतियां रच डालते थे। वे अपने जीवन संघर्षों से जूझते हुए मिलते थे, लेकिन चेहरे पर शिकन नहीं आती थी। वे जोश के साथ मुलाकात करते थे और लोगों को आत्मविश्वास भेंट कर देते थे। वे उम्र के कई अस्सी पड़ाव पार कर चुके थे, लेकिन किसी युवा रचनाकार से अधिक रचनाकर्म करते थे। यह सिर्फ इसलिए कि वे अमरकांत थे। वरिष्ठï कथाकार-पत्रकार अमरकांत!

प्रेमचन्द के बाद अगर किसी कहानीकार पर निगाह ठहराने का मन करता है तो वे अमरकांत हैं। आजादी की लड़ाई केदिनों से ही उन्होंने जिस बेबाकपन को अपनाया वह किसी भी दौर में लिखते हुए भी उनकी पहचान बना रहा। नई कहानी के दौर से गुजरते हुए ही अमरकांत ने अद्ïभुत कलात्मक रचनायें देना शुरू कर दिया था। बस्तीकहानी अगर देश के भविष्य पर बेबाक टिप्पणी करती है तोहत्यारेअपने समय के नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने और पीढिय़ों में आयी हताशा से साक्षात्कार कराती है। डिप्टी कलक्टरी अपने समय के एक बड़े सच को उजागर करती है तो गगनबिहारी और छिपकली, बौरइया कोदों जैसी कहानियां ढोंग और अवसरवादिता-काईंयापन पर चोट करती मिलती हैं।

अमरकांत अपनी रचनाओं में  इस बात से बखूबी परिचित मिलते हैं कि इस नंगे-भूखे देश में सबकुछ आशा और निराशा केबीच पेण्डुलम की तरह झूलता ही रहेगा। वे व्यंग्यको हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे और उसकी मार को दवा की तरह। भले ही अमरकांत सामाजिक-राजनीतिक उठापटक से अपने को तटस्थ रखते हों, लेकिन उनकी रचनाएं ऐसा नहीं कर पातीं और हर एक विद्रूपता के खिलाफ चीखती, ‘इन्हीं हथियारों सेवार करती और सबकुछ ठीक हो जाने की उम्मीद जगाती मिलती हैं। अनगिनत कालजयी कृतियों देने वाले अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान, सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार सहित देश के कई बड़े सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। साहित्यकारों के पुरस्कार दिये जाने पर वे टिप्पणी करते हुए सहज भाव से कहते हैं कि कोई लेखक पुरस्कार पाने के लिए थोड़े ही लिखता है। यह भी जान लीजिये कि कोई भी सम्मान या पुरस्कार किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाते। प्रेमचन्द, रेणु, निराला बिना किसी पुरस्कार के ही अमर हैं। हां, यह अवश्य है कि पुरस्कार या सम्मान पाने वाले लेखक की अपने समाज और पाठकों के प्रति जिम्मेदारी बढ़ जाती है।

कथाकार अमरकांत से यह बातचीत उस लम्बी बातचीत का एक हिस्सा है, जिसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर ऑफ मीडिया स्टडीज की मीडिया रिसर्च सेल में धरोहर के रूप में सहेजने के लिए किया गया था।  हमें पता था कि अमरकांत जी से बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता है तो थमने का नाम ही नहीं लेता। उनके पास आजादी के संघर्ष का आंखों देखा और भोगा इतिहास है तो हिन्दी पत्रकारिता के मंजावट वाले दिनों का अनुभव भी है। वे साहित्य की रचना ही नहीं करते रहे हैं, बल्कि रचनाकारों की कई-कई पीढिय़ां तैयार करने का दायित्व भी उन्होंने निभाया है। यही वजह थे कि हम वीडयिो कैमरा लगाकर बैठ गए और वे बोलते रहे …. अपने समय का इतिहास और  तैयार होते रहे आने वाली कई पीढिय़ों के लिए कई -कई अध्याय। प्रस्तुत हैं उनसे हुई इसी लम्बी बातचीत के कुछ अंश: 
पहली कहानी कब लिखी?
प्रश्न सुनते ही मुस्कराते हैं अमरकांत जी। कुछ याद करते हुए कहते हैं- पढ़ाई के दिनों में शरतचन्द को पढक़र कुछ रोमांटिक कहानियां लिखी थीं, लेकिन वे सब कहीं छपी नहीं। वह समय 1940 के आस-पास का रहा होगा। छपने वाली पहली कहानी बाबूथी, जो आगरा से निकलने वाले समाचार पत्र सैनिकके विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। शायद 1949-50 में (कुछ याद करते हुए)। दुखद यह रहा कि इस कहानी की न तो मेरे पास स्क्रिप्ट ही बची और न ही इसका प्रकाशित रूप। गुम गई ये कहानी। यही वजह है कि मैं हमेशा अपनी पहली कहानी इंटरव्यूको कहता हूं, जो पहले प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में मैंने पढ़ी और बाद में 1953 में कल्पनामें प्रकाशित हुई। इसी कहानी के बाद मैं सम्मानित लेखकों की श्रेणी में शामिल हो गया। फिर तो सिलसिला चल पड़ा, जो आज तक जारी है।  

आज के कथा लेखकों और उनकी रचनाओं को आप किस रूप में पाते हैं
 

नए लेखकों के सामने उनका समय और उसकी सच्चाईयाँ हैं। इन दिनों नई परिवर्तित परिस्थितियां हैं, जो हमारे शुरुआती दिनों से एकदम भिन्न हैं। ऐसा नहीं है कि नए लेखक जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे हैं। नई-नई समस्याओं पर लगातार लिखा जा रहा है। कई लेखक तो अपने समय से जूझ कर बेहतर कृतियां देने में सफल भी हो रहे हैं। हां, यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि बहुत से नए लेखक हड़बड़ी में हैं। मेरा मानना है कि मेहनत के बिना अच्छी रचना नहीं लिखी जा सकती है। शैली और भाषा में नए प्रयोग की अपार संभावनाएं हैं, लेकिन ऐसा कम ही लेखक कर रहे हैं। एक बात और, अब हमारे समय जैसा सहज और सरल समय नहीं रहा और यही वजह है कि नई पर्स्थितियों में रचनाकर्म कठिन होता जा रहा है।

और आलोचकों की परफार्मेंस पर आपकी क्या राय है?

साहित्य में आलोचना के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। आलोचना का मतलब सिर्फ आलोचना करना ही नहीं होता, जैसा कि प्राय: देखने-पढऩे को मिलता है। पहले के टीकाकार जो काम करते थे, वही आलोचकों करना चाहिये। अब देखिये, कपिल मुनि के सांख्य दर्शन की मूल प्रति है ही नहीं। उसकी टीका लिखी गयी। वही मिलती है। उसी से इस दर्शन को समझा जाता है। आलोचकों को चाहिये कि वे बेहतर कृतियों को खोजकर उनकी व्याख्या करें, टीका लिखें। मैं यह बात टुटपुंजिए आलोचकों के लिए नहीं कह रहा हूं। गम्भीर रूप से आलोचना कर्म में जुटे लोगों को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। कुछ युवा आलोचकों ने उम्मीद जगा रखी है।
  

निष्क्रिय पड़ते जा रहे लेखकीय संगठनों को आप क्या सलाह देंगे?

मैं यह नहीं कहूंगा कि वे निष्क्रिय हो गये हैं। वे सब अपनी नई मान्यताओं के अनुरूप काम कर रहे हैं। देखिए, हमारे समय में ये संगठन बहुत अधिक सक्रिय हुआ करते थे। मैं प्रगतिशील विचारधारा का नहीं था, लेकिन ये प्रगतिशीलियों की सक्रियता ही थी कि वे मुझे अपनी ओर ले गये। मैंने अपनी पहली कहानी आगरा में प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक में ही सुनाई। आगरा के बाद जब इलाहाबाद आया तो यहां भी इस संगठन के लोगों ने मुझे अपने से जोड़ लिया। यहां उन दिनों परिमल संगठन भी बहुत सक्रिय था। दोनों ही संगठनों के बीच लेखन में आगे निकल जाने की होड़ मची रहती थी। स्वस्थ्य विमर्श होते थे। मेरा मानना है कि मतभेद होना गलत नहीं है। लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है। इसी से नये रास्त निकलते हैं। संगठनों में होने वाले विमर्श नई पीढ़ी को तैयार हेने का मंच और अवसर उपलब्ध कराते हैं। संगठनों को चाहिये कि मतैक्य न होते हुए भी एक दूसरे का सम्मान करते हुए नई पीढ़ी के रचनाकारों को आगे बढ़ाने के लिए काम करें। 

आपने लगभग चालीस वर्ष पत्रकारिता की है। तब और अब की पत्रकारिता में क्या फर्क महसूस करते हैं

बहुत फर्क आया है। वेतन के मामले में कई अखबारों व पत्रिकाओं ने सार्थक पहल की है। हमारा समय वेतन के मामले में इतना बेहतर नहीं था। हमने आपातकाल भोगा है और उन दिनों पत्रकारों के समक्ष आने वाले संकट को भी। फिलहाल अब  पत्रिकाओं और अखबारों की प्रस्तुतियों और कंटेंट के वैविध्य में तो ऐसे बदलाव देखने को मिल रहे हैं,जिनकी कल्पना भर हम अपने समय में करते थे। पत्रकारों के समक्ष चुनौतियां बढ़ी हैं। ठीक उसी तरह की चुनौतियां हैं, जैसी लेखकों के सामने हैं। (अमरकांत जी टीवी पत्रकारिता पर कुछ नहीं कहते, शायद कहना नहीं चाहते।)  
 

आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहने वाले अमरकांत से आज के हालात पर टिप्पणी मांगी जाये तो क्या होगी?

इस प्रश्न पर कुछ देर संयत रहने के बाद अमरकांत जी हंसते हुए कहते हैं-अब भ्रष्टाचार और घोटालों वाले इन हालातों पर क्या टिप्पणी की जाये। हाल के आंदोलन अपने समय को परिभाषित करने के लिए काफी हैं। बदली परिस्थितियों में राजनीति और उसके मानक बदल गये हैं। लोगों की आकांक्षायें बढ़ी हैं और जागरूकता भी। हमारे देश की व्यवस्था जनतंत्र को संतुष्ट कर पाने में विफल सी हो रही है। गांव के लोगों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ गयी है तो शहरी लोगों में राजनीति के प्रति ऊबाहट बढ़ी है। हम ऐसे समय में आ गये हैं जब लोकतंत्र में जनता के अधिकारों की गारंटी की लड़ाई जरूरी हो गई है। ऐसे में मुझे लगता है कि देश में एक सशक्त लोकपाल की नियुक्ति अब बहुत जरूरी हो गई है। एक बात और जिस देश में प्रगतिशील जनतंत्र नहीं होता वह कमजोर  पड़ता जाता है। 

एक लेखक के रूप में आप सरकार से क्या अपेक्षा करते हैं?

हां, यह सवाल बहुत जरूरी है। मैं जब सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार लेने रूस गया था तो मुझे वहां टालस्टाय और चेखव के घर देखने का मौका मिला। वहां की सरकार ने दोनों ही लेखकों के घर, उनकी चीजों, उनकी किताबों और उन पर लिखी गयी किताबों को धरोहर के रूप में सम्भालने की जिम्मेदारी उठी रखी है। हमारे देश में यह किसी से छिपा नहीं है कि महादेवी, पंत और निराला के घरों और उनकी चीजों का क्या हश्र हुआ है। सरकार ने कभी इस ओर ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी है। अरे भाई, किसी लेखक को पुरस्कार या सम्मान दे देने भर से कुछ नहीं होता। पुरस्कार या सम्मान तो लेखन के लिए होता है। सरकार को चाहिये कि बेघर लेखक को घर देने, प्रकाशकों से समय पर उचित रायल्टी दिलाने और उन्हें आर्थिक तंगी से उबारने  की दिशा में भी कदम उठाने की पहल करे और ठोस नीतियां बनाये। सुना है कि बंगाल में ऐसी कोई नीति बनी है, लेकिन पता नहीं यह कितना सच है। हिन्दी लेखकों के लिए तो इस तरह की अब तक कोई पहल नहीं हुई है। सरकार को नए लेखकों और शोधार्थियों पर विशेष ध्यान देना चाहिये। पढऩे और लिखने की प्रवृत्तियों को जितना प्रत्साहन मिलेगा उतना ही बेहतर समाज और देश हम बना पायेंगे। 
  

आजकल आप क्या लिख रहे हैं?

नियमित लेखन नहीं हो पा रहा है। एक थी गौराउपन्यास को पुरा करने में जुटा हूं। एक वर्ष में पूरा कर लेने की योजना है। पत्रकारिता पर भी एक उपन्यास लिखने की योजना बनी है। खबरों का सूरजनाम के इस उपन्यास में मैं सैनिक’, ‘उजाला’, ‘भारतअमृत पत्रिकाआदि दैनिक व साप्ताहिक पत्रों व मित्र प्रकाशन की मनोरमापत्रिका में काम करते हुए मिले अनुभवों को पाठकों के साथ बाटूंगा। यह उपन्यास पत्रकारों के संघर्ष और संघर्ष के दौरान यूनियन के नेताओं से मिले धोखे पर आधारित होगा।
 

एक लम्बी बातचीत के बाद भी उनका चेहरा एक स्फूर्तिभरी दमक लिए हुए दिख रहा था। वे बात करते वक्त यह अहसास ही नहीं होने देते हैं कि हम एक बड़े लेखक के साथ हैं, जिसे देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है और अनगिनत शोधकर्मी जिनपर शोध कर रहे हैं। वे जिस अंदाज में बात करते हैं, वह अपने आप में एक अलग शैली का निर्माण करता है। जीवन की विषमताओं पर लिखते समय या फिर जीवन संघर्ष को चुनौती के रूप में लेते समय, हर बार यही लगता है कि वे अपने यूवा दिनों का स्वतंत्रता आंदोलनकारी रूप को अभी तक भूल नहीं पाये हैं। दूसरों के दुखों, कष्टों, संघर्षों, दुविधाओं को नितांत निजी मानकर रचना कर देने वाले अमरकांत चलते-चलते अपने समय के सच से मुठभेड़ करने की सीख देना नहीं भूलते।
 (धनंजय चोपड़ा इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेन्टर ऑफ मीडिया स्टडीज के पाठ्यक्रम समन्वयक हैं।)
मोबाईल – 09415232113

ई-मेल: c.dhananjai@gmail.com

अमरकान्त ; कुछ यादें और कुछ बातें

प्रख्यात कहानीकार अमरकान्त जी का आज 17 फरवरी 2014 को प्रातः 9.45 पर निधन हो गया. वे वर्ष 1989 से आस्टियोपोरोसिस नामक रोग से पीड़ित थे. इसके बावजूद अंतिम समय तक लगातार रचनाशील रहे. 

अमरकान्त जी का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में नगरा कसबे के पास स्थित भगमलपुर नामक गाँव में 01 जुलाई 1925 को हुआ था. इनका वास्तविक नाम श्रीराम वर्मा था. इनके पिता सीताराम वर्मा वकील थे. इनकी माता अनंती देवी एक गृहिणी थी.
1941 में गवर्नमेंट हाई स्कूल, बलिया से हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण किये। तदुपरान्त कुछ समय तक गोरखपुर और इलाहाबाद में इंटरमीडिएट की पढ़ाई की, जो 1942 के भारत छोडो आन्दोलन में शामिल होने से अधूरी रह गई. अंतत: 1946 में बलिया के सतीशचंद्र कालेज से इंटरमीडिएट किया। 1947 में अमरकान्त जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. किया. इसके पश्चात वे आगरा चले गए जहाँ से इन्होने अपने लेखन और पत्रकार जीवन की शुरुआत किया. इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका ‘मनोरमा’ के सम्पादन से अमरकान्त जी एक अरसे तक जुड़े रहे. विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में लगभग चालीस वर्षों तक लेखन और सम्पादन करने के पश्चात अमरकान्त जी इन दिनों स्वतन्त्र रूप से लेखन कर रहे थे और ‘बहाव’ नामक पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे. 

‘जिन्दगी और जोंक’, ‘देश के लोग’, ‘मौत का नगर’, ‘मित्र मिलन और अन्य कहानियाँ’, ‘कुहासा’, ‘तूफ़ान’, ‘कलाप्रेमी’, ‘एक धनी व्यक्ति का बयान’, ‘सुख और दुःख का साथ’, ‘जाँच और बच्चे’ इनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं. इसके अतिरिक्त इनकी ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ और ‘सम्पूर्ण कहानियों’ का भी प्रकाशन हो चुका है. ‘कुछ यादें और बातें’ एवं ‘दोस्ती’ इनके प्रख्यात संस्मरण पुस्तकें हैं. अमरकान्त जी ने उपन्यास भी लिखे जिसमें ‘सूखा पत्ता’, ‘कंटीली राह के फूल’, ‘सुखजीवी’, ‘काले-उजले दिन’, ‘ग्रामसेविका’, ‘बीच की दीवार’, ‘सुन्नर पांडे की पतोह’, ‘आकाशपक्षी’, ‘इन्हीं हथियारों से’, ‘लहरें’, ‘बिदा की रात’ प्रमुख हैं. ‘इन्हीं हथियारों से’ उपन्यास पर अमरकान्त जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया जबकि इनके समग्र लेखन पर ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया. 

अमरकान्त जी ने कुछ महत्वपूर्ण बाल साहित्य की भी रचना की जिसमें ‘नेउर भाई’, ‘बानर सेना’, ‘खूंटा में दाल है’, ‘सुग्गी चाची का गाँव’, ‘झगरू लाल का फैसला’, ‘एक स्त्री का सफ़र’, ‘मंगरी’, ‘बाबू का फैसला’, और ‘दो हिम्मती बच्चे’ प्रमुख हैं.
अमरकान्त जी को उनके लेखन के लिए कई पुरस्कारों से नवाजा गया. इनमें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त राष्‍ट्रीय पुरस्कार, यशपाल पुरस्कार, साहित्य अकादमी सम्मान, व्यास सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रमुख हैं. 

मार्कंडेय और शेखर जी के साथ अमरकांत जी ने इलाहाबाद में रहते हुए नयी कहानी आन्दोलन की वास्तविक त्रयी बनायी. 

अमरकान्त जी के निधन से हम सब स्तब्ध हैं. इलाहाबाद का एक स्तम्भ धराशायी हो गया.

अमरकांत जी को नमन और श्रद्धांजलि. 
इस क्रम में हम पहले प्रस्तुत कर रहे हैं अमरकान्त जी पर उनके समकालीन शेखर जोशी का एक आत्मीय संस्मरण 
शेखर जोशी 
दुबारा नाराजगी दूर करने का मौका नहीं दिया
‘मार्कंडेय, अमरकान्त, शेखर’  तीनों नाम एक साथ लिए जाते थे… पहले मार्कंडेय और अब अमरकान्त… सिर्फ शेखर बचा रह गया… अधूरा सा. अमरकान्त के अधूरे उपन्यासों की तरह. अभी तीन दिन पहले तक तो मैं इलाहाबाद में ही था. जनवादी लेखक संघ के अधिवेशन के लिए गया था. व्यस्तता ज्यादा थी तो चाहकर भी अमरकान्त से मिलने नहीं जा पाया. हालांकि सोच रहा था कि उनके बेटे बिन्दु को बुलाऊं और उसके स्कूटर पर बैठ कर उनसे मिलने चला जाऊं. मगर मुझे समय नहीं मिला और पता भी नहीं था कि बिन्दु पापा की तबीयत को ले कर परेशान है. इससे पहले भी मैं एक बार इलाहाबाद जा कर अमरकान्त से मिले बिना वापस आ गया था तो वह बहुत नाराज हुए थे. इसकी भरपाई करने के लिए मैंने फिर वहाँ जाने का कार्यक्रम बनाया था और उनकी नाराजगी दूर की थी. इलाहाबाद में रहते हुए अमरकान्त से न मिलने की यह गलती मैंने दोबारा की और इस बार उन्होंने मुझे अपनी नाराजगी दूर करने का मौक़ा भी नहीं दिया.
1956 से हमारा साथ था. वह मुझसे उम्र में तो सात साल बड़े थे, लेकिन दोनों का लेखन लगभग साथ शुरू हुआ था. फिर एक मोहल्ले में रहने भी लगे और एक परिवार जैसा बन गया था. इलाहाबाद में तो अमरकान्त और शेखर जोशी की जोड़ी ‘जय-वीरू’ की तरह मशहूर थी. मैंने ही पीछे पड कर उन्हें लखनऊ से इलाहाबाद बुला लिया था. ताकि दोनों साथ रह सकें. उनके न रहने पर जो बात सबसे ज्यादा याद आ रही है, वह ये कि अमर थे बड़े जिन्दादिल व्यक्ति. वे बेहद संघर्षशील भी थे. बड़ी बीमारियाँ झेलने के बावजूद चेहरे पर कभी शिकन तक नहीं आने दी. उनकी कहानियों में झलकता था कि वह मध्यम वर्ग को किस तरह और कितने करीब से समझते थे. उनकी कहानी ‘डिप्टी कलक्टरी’ के प्रकाशित होने के बाद उनका जितना नाम हुआ था, उसी से अन्दाजा लग गया था कि वह आम लोगों के लेखक थे. 
तकरीबन दो महीने पहले उनसे मेरी आखिरी मुलाक़ात हुई थी. वह गुसलखाने में गिर पड़े थे. और सर में काफी चोट आई थी. मगर फिर भी वे यही कहते रहे कि तुम लोग बेवजह परेशान हो जाते हो. कुछ भी तो नहीं हुआ. कुछ दिनों से उन्हें थोड़ी विस्मृति भी होने लगी थी. मगर वे यह बात मानने के लिए तैयार नहीं होते थे. जब भी कोई उनसे कहता था कि तुम भूल रहे हो तो कहते थे कि मैं नहीं तुम भूल रहे हो. काफी बीमार होने के बावजूद वे दो उपन्यास लिख रहे थे जो अब हमेशा अधूरे ही रहेंगे.
             
आज हम अमरकान्त जी की एक बहुचर्चित कहानी ‘दोपहर का भोजन’ आप सब के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. 
 
सिद्धेश्वरी ने खाना बनाने के बाद चूल्हे को बुझा दिया और दोनों घुटनों के बीच सिर रख कर शायद पैर की उँगलियाँ या जमीन पर चलते चीटें-चीटियों को देखने लगी। 

अचानक उसे मालूम हुआ कि बहुत देर से उसे प्यास नहीं लगी हैं। वह मतवाले की तरह उठी ओर गगरे से लोटा-भर पानी ले कर गट-गट चढ़ा गई। खाली पानी उसके कलेजे में लग गया और वह हाय राम कह कर वहीं जमीन पर लेट गई। 

आधे घंटे तक वहीं उसी तरह पड़ी रहने के बाद उसके जी में जी आया। वह बैठ गई, आँखों को मल-मल कर इधर-उधर देखा और फिर उसकी दृष्टि ओसारे में अध-टूटे खटोले पर सोए अपने छह वर्षीय लड़के प्रमोद पर जम गई। 

लड़का नंग-धड़ंग पड़ा था। उसके गले तथा छाती की हड्डियाँ साफ दिखाई देती थीं। उसके हाथ-पैर बासी ककड़ियों की तरह सूखे तथा बेजान पड़े थे और उसका पेट हंडिया की तरह फूला हुआ था। उसका मुख खुला हुआ था और उस पर अनगिनत मक्खियाँ उड़ रही थीं।
वह उठी, बच्चे के मुँह पर अपना एक फटा, गंदा ब्लाउज डाल दिया और एक-आध मिनट सुन्न खड़ी रहने के बाद बाहर दरवाजे पर जा कर किवाड़ की आड़ से गली निहारने लगी। बारह बज चुके थे। धूप अत्यंत तेज थी और कभी एक-दो व्यक्ति सिर पर तौलिया या गमछा रखे हुए या मजबूती से छाता ताने हुए फुर्ती के साथ लपकते हुए-से गुजर जाते। 

दस-पंद्रह मिनट तक वह उसी तरह खड़ी रही, फिर उसके चेहरे पर व्यग्रता फैल गई और उसने आसमान तथा कड़ी धूप की ओर चिंता से देखा। एक-दो क्षण बाद उसने सिर को किवाड़ से काफी आगे बढ़ा कर गली के छोर की तरफ निहारा, तो उसका बड़ा लड़का रामचंद्र धीरे-धीरे घर की ओर सरकता नजर आया।
उसने फुर्ती से एक लोटा पानी ओसारे की चौकी के पास नीचे रख दिया और चौके में जा कर खाने के स्थान को जल्दी-जल्दी पानी से लीपने-पोतने लगी। वहाँ पीढ़ा रख कर उसने सिर को दरवाजे की ओर घुमाया ही था कि रामचंद्र ने अंदर कदम रखा। 

रामचंद्र आ कर धम-से चौकी पर बैठ गया और फिर वहीं बेजान-सा लेट गया। उसका मुँह लाल तथा चढ़ा हुआ था, उसके बाल अस्त-व्यस्त थे और उसके फटे-पुराने जूतों पर गर्द जमी हुई थी।
सिद्धेश्वरी की पहले हिम्मत नहीं हुई कि उसके पास आए और वहीं से वह भयभीत हिरनी की भाँति सिर उचका-घुमा कर बेटे को व्यग्रता से निहारती रही। किंतु, लगभग दस मिनट बीतने के पश्चात भी जब रामचंद्र नहीं उठा, तो वह घबरा गई। पास जा कर पुकारा – बड़कू, बड़कू! लेकिन उसके कुछ उत्तर न देने पर डर गई और लड़के की नाक के पास हाथ रख दिया। साँस ठीक से चल रही थी। फिर सिर पर हाथ रख कर देखा, बुखार नहीं था। हाथ के स्पर्श से रामचंद्र ने आँखें खोलीं। पहले उसने माँ की ओर सुस्त नजरों से देखा, फिर झट-से उठ बैठा। जूते निकालने और नीचे रखे लोटे के जल से हाथ-पैर धोने के बाद वह यंत्र की तरह चौकी पर आ कर बैठ गया। 

सिध्देश्वर ने डरते-डरते पूछा, ‘खाना तैयार है। यहीं लगाऊँ क्या?’
रामचंद्र ने उठते हुए प्रश्न किया, ‘बाबू जी खा चुके?’
सिद्धेश्वरी ने चौके की ओर भागते हुए उत्तर दिया, ‘आते ही होंगे।’ 

रामचंद्र पीढ़े पर बैठ गया। उसकी उम्र लगभग इक्कीस वर्ष की थी। लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखें तथा होठों पर झुर्रियाँ। 

वह एक स्थानीय दैनिक समाचार पत्र के दफ्तर में अपनी तबीयत से प्रूफरीडरी का काम सीखता था। पिछले साल ही उसने इंटर पास किया था। 

सिद्धेश्वरी ने खाने की थाली सामने ला कर रख दी और पास ही बैठ कर पंखा करने लगी। रामचंद्र ने खाने की ओर दार्शनिक की भाँति देखा। कुल दो रोटियाँ, भर-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली तरकारी।
रामचंद्र ने रोटी के प्रथम टुकड़े को निगलते हुए पूछा, ‘मोहन कहाँ हैं? बड़ी कड़ी धूप हो रही है।’
मोहन सिद्धेश्वरी का मँझला लड़का था। उम्र अठ्ठारह वर्ष थी और वह इस साल हाईस्कूल का प्राइवेट इम्तहान देने की तैयारी कर रहा था। वह न मालूम कब से घर से गायब था और सिद्धेश्वरी को स्वयं पता नहीं था कि वह कहाँ गया है। 

किंतु सच बोलने की उसकी तबीयत नहीं हुई और झूठ-मूठ उसने कहा, ‘किसी लड़के के यहाँ पढ़ने गया है, आता ही होगा। दिमाग उसका बड़ा तेज है और उसकी तबीयत चौबीस घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है। हमेशा उसी की बात करता रहता है।’ 

रामचंद्र ने कुछ नहीं कहा। एक टुकड़ा मुँह में रख कर भरा गिलास पानी पी गया, फिर खाने लग गया। वह काफी छोटे-छोटे टुकड़े तोड़ कर उन्हें धीरे-धीरे चबा रहा था। 

सिद्धेश्वरी भय तथा आतंक से अपने बेटे को एकटक निहार रही थी। कुछ क्षण बीतने के बाद डरते-डरते उसने पूछा, ‘वहाँ कुछ हुआ क्या?’
रामचंद्र ने अपनी बड़ी-बड़ी भावहीन आँखों से अपनी माँ को देखा, फिर नीचा सिर करके कुछ रुखाई से बोला, ‘समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।’ 

सिद्धेश्वरी चुप रही। धूप और तेज होती जा रही थी। छोटे आँगन के ऊपर आसमान में बादल में एक-दो टुकड़े पाल की नावों की तरह तैर रहे थे। बाहर की गली से गुजरते हुए एक खड़खड़िया इक्के की आवाज आ रही थी। और खटोले पर सोए बालक की साँस का खर-खर शब्द सुनाई दे रहा था। 

रामचंद्र ने अचानक चुप्पी को भंग करते हुए पूछा, ‘प्रमोद खा चुका?’
सिद्धेश्वरी ने प्रमोद की ओर देखते हुए उदास स्वर में उत्तर दिया, ‘हाँ, खा चुका।’
‘रोया तो नहीं था?’
सिद्धेश्वरी फिर झूठ बोल गई, ‘आज तो सचमुच नहीं रोया। वह बड़ा ही होशियार हो गया है। कहता था, बड़का भैया के यहाँ जाऊँगा। ऐसा लड़का..’
पर वह आगे कुछ न बोल सकी, जैसे उसके गले में कुछ अटक गया। कल प्रमोद ने रेवड़ी खाने की जिद पकड़ ली थी और उसके लिए डेढ़ घंटे तक रोने के बाद सोया था। 

रामचंद्र ने कुछ आश्चर्य के साथ अपनी माँ की ओर देखा और फिर सिर नीचा करके कुछ तेजी से खाने लगा।
थाली में जब रोटी का केवल एक टुकड़ा शेष रह गया, तो सिद्धेश्वरी ने उठने का उपक्रम करते हुए प्रश्न किया, ‘एक रोटी और लाती हूँ?’ 

रामचंद्र हाथ से मना करते हुए हडबड़ा कर बोल पड़ा, ‘नहीं-नहीं, जरा भी नहीं। मेरा पेट पहले ही भर चुका है। मैं तो यह भी छोडनेवाला हूँ। बस, अब नहीं।’
सिद्धेश्वरी ने जिद की, ‘अच्छा आधी ही सही।’ 

रामचंद्र बिगड़ उठा, ‘अधिक खिला कर बीमार कर डालने की तबीयत है क्या? तुम लोग जरा भी नहीं सोचती हो। बस, अपनी जिद। भूख रहती तो क्या ले नहीं लेता?’
सिद्धेश्वरी जहाँ-की-तहाँ बैठी ही रह गई। रामचंद्र ने थाली में बचे टुकड़े से हाथ खींच लिया और लोटे की ओर देखते हुए कहा, ‘पानी लाओ।’ 

सिद्धेश्वरी लोटा ले कर पानी लेने चली गई। रामचंद्र ने कटोरे को उँगलियों से बजाया, फिर हाथ को थाली में रख दिया। एक-दो क्षण बाद रोटी के टुकड़े को धीरे-से हाथ से उठा कर आँख से निहारा और अंत में इधर-उधर देखने के बाद टुकड़े को मुँह में इस सरलता से रख लिया, जैसे वह भोजन का ग्रास न हो कर पान का बीड़ा हो।
मँझला लड़का मोहन आते ही हाथ-पैर धो कर पीढ़े पर बैठ गया। वह कुछ साँवला था और उसकी आँखें छोटी थीं। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। वह अपने भाई ही की तरह दुबला-पतला था, किंतु उतना लंबा न था। वह उम्र की अपेक्षा कहीं अधिक गंभीर और उदास दिखाई पड़ रहा था। 

सिद्धेश्वरी ने उसके सामने थाली रखते हुए प्रश्न किया, ‘कहाँ रह गए थे बेटा? भैया पूछ रहा था।’
मोहन ने रोटी के एक बड़े ग्रास को निगलने की कोशिश करते हुए अस्वाभाविक मोटे स्वर में जवाब दिया, ‘कहीं तो नहीं गया था। यहीं पर था।’ 

सिद्धेश्वरी वहीं बैठ कर पंखा डुलाती हुई इस तरह बोली, जैसे स्वप्न में बड़बड़ा रही हो, ‘बड़का तुम्हारी बड़ी तारीफ कर रहा था। कह रहा था, मोहन बड़ा दिमागी होगा, उसकी तबीयत चौबीसों घंटे पढ़ने में ही लगी रहती है।’ यह कह कर उसने अपने मँझले लड़के की ओर इस तरह देखा, जैसे उसने कोई चोरी की हो।
मोहन अपनी माँ की ओर देख कर फीकी हँसी हँस पड़ा और फिर खाने में जुट गया। वह परोसी गई दो रोटियों में से एक रोटी कटोरे की तीन-चौथाई दाल तथा अधिकांश तरकारी साफ कर चुका था। 

सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। इन दोनों लड़कों से उसे बहुत डर लगता था। अचानक उसकी आँखें भर आईं। वह दूसरी ओर देखने लगी।
थोड़ी देर बाद उसने मोहन की ओर मुँह फेरा, तो लड़का लगभग खाना समाप्त कर चुका था।
सिद्धेश्वरी ने चौंकते हुए पूछा, ‘एक रोटी देती हूँ?’
मोहन ने रसोई की ओर रहस्यमय नेत्रों से देखा, फिर सुस्त स्वर में बोला, ‘नहीं।’ 

सिद्धेश्वरी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा, ‘नहीं बेटा, मेरी कसम, थोड़ी ही ले लो। तुम्हारे भैया ने एक रोटी ली थी।’
मोहन ने अपनी माँ को गौर से देखा, फिर धीरे-धीरे इस तरह उत्तर दिया, जैसे कोई शिक्षक अपने शिष्य को समझाता है, ‘नहीं रे, बस, अव्वल तो अब भूख नहीं। फिर रोटियाँ तूने ऐसी बनाई हैं कि खाई नहीं जातीं। न मालूम कैसी लग रही हैं। खैर, अगर तू चाहती ही है, तो कटोरे में थोड़ी दाल दे दे। दाल बड़ी अच्छी बनी है।’
सिद्धेश्वरी से कुछ कहते न बना और उसने कटोरे को दाल से भर दिया। 

मोहन कटोरे को मुँह लगा कर सुड़-सुड़ पी रहा था कि मुंशी चंद्रिका प्रसाद जूतों को खस-खस घसीटते हुए आए और राम का नाम ले कर चौकी पर बैठ गए। सिद्धेश्वरी ने माथे पर साड़ी को कुछ नीचे खिसका लिया और मोहन दाल को एक साँस में पी कर तथा पानी के लोटे को हाथ में ले कर तेजी से बाहर चला गया।

दो रोटियाँ, कटोरा-भर दाल, चने की तली तरकारी। मुंशी चंद्रिका प्रसाद पीढ़े पर पालथी मार कर बैठे रोटी के एक-एक ग्रास को इस तरह चुभला-चबा रहे थे, जैसे बूढ़ी गाय जुगाली करती है। उनकी उम्र पैंतालीस वर्ष के लगभग थी, किंतु पचास-पचपन के लगते थे। शरीर का चमड़ा झूलने लगा था, गंजी खोपड़ी आईने की भाँति चमक रही थी। गंदी धोती के ऊपर अपेक्षाकृत कुछ साफ बनियान तार-तार लटक रही थी।
मुंशी जी ने कटोरे को हाथ में ले कर दाल को थोडा सुड़कते हुए पूछा, ‘बड़का दिखाई नहीं दे रहा?’ 

सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके दिल में क्या हो गया है – जैसे कुछ काट रहा हो। पंखे को जरा और जोर से घुमाती हुई बोली, ‘अभी-अभी खा कर काम पर गया है। कह रहा था, कुछ दिनों में नौकरी लग जाएगी। हमेशा, बाबू जी, बाबू जी किए रहता है। बोला, बाबू जी देवता के समान हैं।’ 

मुंशी जी के चेहरे पर कुछ चमक आई। शरमाते हुए पूछा, ‘ऐं, क्या कहता था कि बाबू जी देवता के समान हैं? बड़ा पागल है।’ 

सिद्धेश्वरी पर जैसे नशा चढ़ गया था। उन्माद की रोगिणी की भाँति बड़बड़ाने लगी, ‘पागल नहीं है, बड़ा होशियार है। उस जमाने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज कह रहा था कि भैया की शहर में बड़ी इज्जत होती हैं, पढ़ने-लिखनेवालों में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे भाइयों पर जान देता हैं। दुनिया में वह सब कुछ सह सकता है, पर यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।’
मुंशी जी दाल-लगे हाथ को चाट रहे थे। उन्होंने सामने की ताक की ओर देखते हुए हँस कर कहा, ‘बड़का का दिमाग तो खैर काफी तेज है, वैसे लड़कपन में नटखट भी था। हमेशा खेल-कूद में लगा रहता था, लेकिन यह भी बात थी कि जो सबक मैं उसे याद करने को देता था, उसे बर्राक रखता था। असल तो यह कि तीनों लड़के काफी होशियार हैं। प्रमोद को कम समझती हो?’ यह कह कर वह अचानक जोर से हँस पड़े।

मुंशी जी डेढ़ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युद्ध कर रहे थे। कठिनाई होने पर एक गिलास पानी चढ़ा गए। फिर खर-खर खाँस कर खाने लगे। 

फिर चुप्पी छा गई। दूर से किसी आटे की चक्की की पुक-पुक आवाज सुनाई दे रही थी और पास की नीम के पेड़ पर बैठा कोई पंडूक लगातार बोल रहा था। 

सिद्धेश्वरी की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे। वह चाहती थी कि सभी चीजें ठीक से पूछ ले। सभी चीजें ठीक से जान ले और दुनिया की हर चीज पर पहले की तरह धड़ल्ले से बात करे। पर उसकी हिम्मत नहीं होती थी। उसके दिल में जाने कैसा भय समाया हुआ था। 

अब मुंशी जी इस तरह चुपचाप दुबके हुए खा रहे थे, जैसे पिछले दो दिनों से मौन-व्रत धारण कर रखा हो और उसको कहीं जा कर आज शाम को तोड़ने वाले हों। 

सिद्धेश्वरी से जैसे नहीं रहा गया। बोली, ‘मालूम होता है, अब बारिश नहीं होगी।’
मुंशी जी ने एक क्षण के लिए इधर-उधर देखा, फिर निर्विकार स्वर में राय दी, ‘मक्खियाँ बहुत हो गई हैं।’
सिद्धेश्वरी ने उत्सुकता प्रकट की, ‘फूफा जी बीमार हैं, कोई समाचार नहीं आया।
मुंशी जी ने चने के दानों की ओर इस दिलचस्पी से दृष्टिपात किया, जैसे उनसे बातचीत करनेवाले हों। फिर सूचना दी, ‘गंगाशरण बाबू की लड़की की शादी तय हो गई। लड़का एम.ए. पास है।’
सिद्धेश्वरी हठात चुप हो गई। मुंशी जी भी आगे कुछ नहीं बोले। उनका खाना समाप्त हो गया था और वे थाली में बचे-खुचे दानों को बंदर की तरह बीन रहे थे।
सिद्धेश्वरी ने पूछा, ‘बड़का की कसम, एक रोटी देती हूँ। अभी बहुत-सी हैं।’ 

मुंशी जी ने पत्नी की ओर अपराधी के समान तथा रसोई की ओर कनखी से देखा, तत्पश्चात किसी छँटे उस्ताद की भाँति बोले, ‘रोटी? रहने दो, पेट काफी भर चुका है। अन्न और नमकीन चीजों से तबीयत ऊब भी गई है। तुमने व्यर्थ में कसम धरा दी। खैर, कसम रखने के लिए ले रहा हूँ। गुड़ होगा क्या?’
सिद्धेश्वरी ने बताया कि हंडिया में थोडा सा गुड़ है। 

मुंशी जी ने उत्साह के साथ कहा, ‘तो थोडे गुड़ का ठंडा रस बनाओ, पीऊँगा। तुम्हारी कसम भी रह जाएगी, जायका भी बदल जाएगा, साथ-ही-साथ हाजमा भी दुरूस्त होगा। हाँ, रोटी खाते-खाते नाक में दम आ गया है।’ यह कह कर वे ठहाका मार कर हँस पड़े। 

मुंशी जी के निबटने के पश्चात सिद्धेश्वरी उनकी जूठी थाली ले कर चौके की जमीन पर बैठ गई। बटलोई की दाल को कटोरे में उड़ेल दिया, पर वह पूरा भरा नहीं। छिपुली में थोड़ी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया। रोटियों की थाली को भी उसने पास खींच लिया। उसमें केवल एक रोटी बची थी। मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा रही थी कि अचानक उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद की ओर आकर्षित हो गया। उसने लड़के को कुछ देर तक एकटक देखा, फिर रोटी को दो बराबर टुकड़ों में विभाजित कर दिया। एक टुकड़े को तो अलग रख दिया और दूसरे टुकड़े को अपनी जूठी थाली में रख लिया। तदुपरांत एक लोटा पानी ले कर खाने बैठ गई। उसने पहला ग्रास मुँह में रखा और तब न मालूम कहाँ से उसकी आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे। 

सारा घर मक्खियों से भनभन कर रहा था। आँगन की अलगनी पर एक गंदी साड़ी टँगी थी, जिसमें पैबंद लगे हुए थे। दोनों बड़े लड़कों का कहीं पता नहीं था। बाहर की कोठरी में मुंशी जी औंधे मुँह हो कर निश्चिंतता के साथ सो रहे थे, जेसे डेढ़ महीने पूर्व मकान-किराया-नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छँटनी न हुई हो और शाम को उनको काम की तलाश में कहीं जाना न हो।

अमरकान्त जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार

13 मार्च 2012 का दिन इलाहाबाद के साहित्यिक इतिहास में एक अविस्मरणीय दिन के रूप में याद किया जायेगा। इसी दिन ज्ञानपीठ दिल्ली छोड़कर लेखक के शहर इलाहाबाद आया और वर्ष 2009 का ज्ञानपीठ पुरस्कार वरिष्ठ कहानीकार और हम सबके दादा अमरकान्त जी को दिया गया। इलाहाबाद संग्रहालय का ब्रजमोहन व्यास सभागार पूरी तरह खचाखच भरा हुआ था। जितने लोग सभागार में अन्दर बैठे या खड़े थे उससे कुछ ज्यादा ही लोग बाहर खड़े थे। हिन्दी साहित्य की विभूतियॉ इस यादगार पल की गवाह बनी।


नामवर सिंह, शेखर जोशी, ज्ञानपीठ के आजीवन ट्रस्टी आलोक जैन, ज्ञानपीठ के निदेशक रवीन्द्र कालिया, ममता कालिया, विश्वनाथ त्रिपाठी, दूधनाथ सिंह, रविभूषण, अखिलेश, राजेन्द्र कुमार, भारत भारत भारद्वाज, हरीश चन्द्र पाण्डेय, सूर्यनारायण, प्रणय कृष्ण, वाचस्पति, सन्तोष भदौरिया, अनिता गोपेश, नीलम शंकर, सन्ध्या निवेदिता, अंशुल त्रिपाठी, सुबोध शुक्ल, कुमार अनुपम समेत हिन्दी साहित्य की कई पीढ़ियां इस यादगार पल की साक्षी बनी।


इसी दिन शाम को दैनिक जागरण की ओर से जब राजेन्द्र्र राव जी द्वारा पुनर्नवा के लिए अमरकान्त जी पर एक आलेख तुरन्त लिख कर भेजने का निर्देश मिला तब मैं ना नहीं कर सका। हॉ इसके लिए मैंने राव साहब से एक दिन की मोहलत जरूर मॉग लिया। अखबारी सीमाओं और पाठकों को ध्यान में रखते हुए मैंने एक आलेख लिखा जो दैनिक जागरण के 19 मार्च 2012 के पुनर्नवा पृष्ठ पर कुछ सम्पादन के साथ प्रकाशित हुआ है। पहली बार के पाठकों के समक्ष मैं पूरी विनम्रता के साथ मूल आलेख को ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हॅू।

 

नई कहानी के आदि शिल्पी अमरकान्त

सन्तोष कुमार चतुर्वेदी

प्रख्यात आलोचक रविभूषण जी ने दिसम्बर 1997 ई0 में शेखर जोशी को पहल सम्मान दिये जाने के अवसर पर अपने एक महत्वपूर्ण व्याख्यान में कहा था कि शेखर जोशी, अमरकान्त और मार्कण्डेय की त्रयी ही नयी कहानी की वास्तविक त्रयी है। अब इस बात की सच्चाई में कोई संशय नहीं रह गया है। 13 मार्च 2010 को इलाहाबाद संग्रहालय के खचाखच भरे ब्रजमोहन व्यास सभागार में अमरकान्त जी को जब वर्ष 2009 का ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा रहा था तो एक तरह से ज्ञानपीठ न केवल खुद को ही सम्मानित कर रहा था अपितु रविभूषण जी की उस बात को पुष्ट भी कर रहा था। ज्ञानपीठ के निदेशक रवीन्द्र कालिया ने जब इसी अवसर पर विश्व के उत्कृष्ट कहानीकारों की सूची में चेखव, ओ हेनरी, सआदत हसन मण्टो के साथ अमरकान्त जी का नाम लिया तो किसी के चेहरे पर आपत्ति का कोई भी भाव नहीं दिखा। यही अमरकान्त जी के साहित्य और उनके लेखन की ताकत है जिसका लोहा उनके प्रबल विरोधी भी मानते हैं।

अमरकान्त जी का नाम एक ऐसा नाम है जिनके बिना साहित्य की महत्वपूर्ण विधा कहानी की कोई भी बात पूरी नहीं होती। निम्नमध्यवर्गीय जीवन के अप्रतिम कथाकार अमरकान्त जी सीधी सरल भाषा में अपने कथानक को इस प्रकार गढते हैं कि सहसा यह  विश्वास ही नहीं होता कि हम गल्प की दुनिया में विचरण कर रहे हैं बल्कि शब्द-दर-शब्द यही अहसास होता है कि हम खुद यथार्थ के सागर में गोते लगा रहे हैं। इनकी कहानी पढते हुए अक्सर यह लगता है अरे यह तो हमारी अपनी ही कहानी है या फिर लगता है कि यह हमारा खुद का ऑखों देखा कोई सच है जिसे किसी ने अत्यन्त सरल-सहज ब्दों में बयॉ कर दिया है। अमरकान्त को कहानी का सूत्र खोजना नहीं पड़ता बल्कि वह तो उन्हें आम आदमी के रोजमर्रा के जीवन की छोटी छोटी घटनाओं में ही मिल जाता है। इन घटनाओं में रची-पगी कहानी कुछ ऐसी सधी हुई होती है कि कभी एक पल के लिए भी ऐसा महसूस नहीं होता कि किसी भी पात्र को बढा-चढा कर या बिना वजह प्रस्तुत किया गया है। रोंगटे खड़े कर देने वाले कथ्य को भी तटस्थ भाव से प्रस्तुत करने में तो जैसे अमरकान्त जी का कोई सानी नहीं है।

इस यशस्वी कथाकार का वास्तविक नाम श्रीराम वर्मा है जिनका जन्म एक जुलाई 1925 ई को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के भगमलपुर, नगरा गॉव में हुआ था। इण्टर की पढाई के ही दौरान छिड़े भारत छोड़ो आन्दोलन में अमरकान्त शामिल हो गये। फिर एक अन्तराल के पश्चात उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद आए और विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद रोजगार के सिलसिले में आगरा गये जहॉ पर ये ‘सैनिक’ नामक समाचार पत्र से जुड़ गये। साहित्य के प्रारंभिक बीज यहीं पड़े जब अमरकान्त जी प्रगतिशील लेखक संघ की साहित्यिक गोष्ठियों में  शामिल होने लगे। यहीं पर इन्होंने अपनी पहली कहानी ‘इण्टरव्यू’ लिखी। तदनन्तर इलाहाबाद आकर मित्र प्रकाशन की पत्रिका ‘मनोरमा’ से जुड़ गए और यहीं पर लम्बे अरसे तक काम करते रहे। इलाहाबाद में अमरकान्त के लेखन को तब एक नया मोड़ मिला जब भैरव प्रसाद गुप्त जी की ‘कहानी’ पत्रिका के ये पसन्दीदा कहानीकार बन गये। किसी नवोदित लेखक के लिए इस समय यह एक बड़ा सम्मान था। फिर अमरकान्त जी की लेखनी जो एक बार चल पड़ी तब कभी थकी-थमी नहीं। पहले कहानी संग्रह ‘जिन्दगी और जोंक’ से शुरू हुआ सफर ‘देश के लोग’, ‘मौत का नगर’, ‘मित्र मिलन तथा अन्य कहानियॉ’, ‘कुहासा’, ‘तूफान’, ‘कलाप्रेमी’, ‘एक धनी व्यक्ति का बयान’ से होते हुए ‘सुख दुख के साथ’ तक पहुॅच चुका है। कहानी के समानान्तर इनके उपन्यास लेखन का क्र्रम भी अनवरत चलता रहा। इनके ग्यारह उपन्यासों में ‘सूखा पत्ता’, ‘काले उजले दिन’, ‘बीच की दीवार’, ‘आकाशपक्षी’, ‘बिदा की रात’, और ‘इन्हीं हथियारों से’ प्रमुख है। आम तौर पर उपेक्षित समझे जाने बाल साहित्य में भी अमरकान्त ने अपने हाथ सफलतापूर्वक आजमाए। ‘नेउर भाई’, ‘बानर सेना’, ‘खूंटा में दाल है’, ‘सुग्गी चाची का गॉव’, ‘मॅगरी’, ‘झगरू लाल का फैसला’ आदि अमरकान्त जी के बेहतरीन बाल साहित्य ग्रन्थ हैं। भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के अतिरिक्त फ्रेन्च, जर्मन, रसियन, हंगेरियन, जैपेनीज आदि विश्व भाषाओं में इनकी रचनाएॅ अनुदित हो चुकी हैं। अमरकान्त जी को अब तक सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार, महात्मा गॉधी सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान का साहित्य पुरस्कार, यशपाल पुरस्कार, जन संस्कृति सम्मान, मध्य प्रदेश का कीर्ति सम्मान मिल चुका है। बलिया के 1942 के स्वतन्त्रता आन्दोलन को आधार बना कर लिखे गये इनके उपन्यास ‘इन्हीं हथियारों से’ को वर्ष 2007 का प्रतिष्ठित ‘साहित्य अकादमी सम्मान’ और ‘व्यास सम्मान’ प्रदान किया गया।
अमरकान्त जी उन चुनिन्दा कहानीकारों में से एक हैं जिनके पास एक साथ एक से बढ कर एक कई बेहतरीन कहानियॉ हैं। ‘दोपहर का भोजन’, ‘डिप्टी कलक्टरी’, ‘हत्यारे’, ‘जिन्दगी और जोंक’, ‘बहादुर’, ‘फर्क’, ‘कबड्डी’, ‘मूस’, ‘छिपकली’, ‘मौत का नगर’, ‘पलाश के फूल’, से लेकर ‘बउरैया कोदो’ तक बेहतरीन कहानियों की एक असमाप्त और लम्बी फेहरिस्त है। भूख से जूझते एक परिवार की त्रासद कहानी ‘दोपहर का भोजन’ प्रकारान्तर से भारतीय निम्नमध्यमवर्गीय परिवारों की समवेत कहानी बन जाती है। ‘डिप्टी कलक्टरी’ की तैयारी करते बबुआ में पूरे घर की उम्मीदें परवान चढती है और असफलता हाथ लगने पर निराश बबुआ जो चारपाई पर चित्त लेटा हुआ है, की सांस को नियमित रूप से चलते पा कर पिता सकलदीप बाबू की खुशी का ठिकाना न रहने का प्रसंग इस तरह के परिवारों के बिडम्बना बोध को बखूबी दर्शाता है। इनकी सभी कहानियों का वर्ण्य विषय कुछ ऐसा है जो एक अरसा बीतने के बाद भी प्रासंगिक बना हुआ है। सबमें मिट्टी की एक सोंधी गन्ध मिलती है जो पाठक को सहज ही अपनी ओर खींच लेती है। लगभग सभी कहानियों में जिजीविषा की एक अदम्य लालसा मिलती है जो जीवन को सातत्यता प्रदान करने के साथ-साथ उनके जीवट को भी दर्शाती है। रोजमर्रा के जीवन के सुख, दुख, उदासी, हॅसी-मजाक को किस्सागोई के अद्भुत अन्दाज में अमरकान्त इस प्रकार पेश करते हैं कि इनकी कहानी पढते समय कहीं कोई उबन नहीं होती। बकौल नामवर सिंह ‘गॉव की विनोद वृत्ति का जितना बेहतरतीन चित्रण अमरकान्त ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। दरअसल उनके पास शानदार भाषा और किस्सागोई है। अमरकान्त जी के कहानी कहने के अन्दाज में हास परिहास का बोध और आख्यान की अद्भुत कला है।’ दरअसल यही कला अमरकान्त को विशिष्ट कहानीकार बनाती है। 
आमतौर पर छियासी वर्ष की उम्र में जब कोई भी लेखक आराम को ही अपना मुख्य काम समझते हुए लेखन को प्रायः अलविदा कह देता है, अमरकान्त लेखन के मोर्चे पर आज भी निरन्तर सक्रिय बने हुए हैं। ‘लहरें’ और ‘बिदा की रात’ के साथ-साथ पत्रकार जीवन पर आधारित एक उपन्यास लिखने की योजना में वे लगातार मशगूल हैं। यही नहीं ‘बहाव’ नामक पत्रिका के सम्पादन कार्य से भी उन्होने खुद को जोड़ रखा हैं। पत्र-पत्रिकाओं में आज भी उनकी कोई नयी नवेली कहानी पढने को मिल ही जाती है। पुरस्कार को संतोष की मंजिल नहीं अपितु चुनौती मान कर चलने वाले अमरकान्त सचमुच हिन्दी साहित्य के एक जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं जिनसे नवोदित लेखक बहुत कुछ सबक ले सकते हैं और हताशा भरे युग में आशा का संचार कर सकते हैं।
सम्पर्क:
3/1 बी, बी. के. बनर्जी मार्ग
नया कटरा, इलाहाबाद, उ0प्र0
पिनकोड- 211002
मोबाइल-09450614857