समकालीन सृजन का समवेत स्वर
कैलाश बनवासी |
यह उपन्यास गौरी और उस जैसी अनेकों लड़कियों के इसी विवश और हारे हुए निर्णय के पीछे की उस सामाजिक और धार्मिक संरचना को बेपर्द करता है जिसे परम्परा और संस्कार के नाम पर वैध ठहराया जाता है। गौरी, जिस समाज में रह रही है उस समाज में लड़की एक बोझ की तरह होती है। माँ-बाप के लिए एक ऐसा बोझ जिससे मुक्ति जितनी जल्दी हो ब्याह में ही होती है। सत्रह साल की अपनी छोटी सी उम्र में ही गौरी ने दुख और संत्रास का जैसे पूरा जीवन भोग लिया हो। पढने-लिखने, बात-व्यवहार सबमें जहीन और सलीके वाली लड़की को 8वीं पास करने के बाद और आगे पढने से मना कर दिया जाता है। ऐसे समाज में ‘‘लडकी का ज्यादा पढना-लिखना अच्छी बात नहीं मानी जाती। ज्यादा पढ़-लिख लेने से लड़कियाँ बिगड़ जाती हैं।… बाबा यानी दादा का तो एकदम साफ़ कहना था कि, ‘और ज्यादा पढ़ कर क्या करेगी? लडकी जात कितना ही पढ़-लिख ले उसको तो आखिर चूल्हा ही फूंकना है।’ इधर माँ, काकी का कहना था, ‘ बेटियों को तो सयानी होते ही घर के काम-काज में चंट हो जाना चाहिए नहीं तो ससुराल में जाने पर मायके वालों की नाक कटेगी?” (p. 17-18). हमारे समाजों ने यह ‘नाक’ बनी रहे बची रहे इसी की संरचना तैयार की है। गौरी अब सयानी हो गयी है सोलह की उसकी उम्र हो गयी है। अब उसे साड़ी ही पहननी चाहिए सलवार-सूट की उसकी उम्र चली गयी। साड़ी पहनने के लिए सबसे अधिक दबाव माँ का ही है। वह तर्क देती है, प्रतिवाद करती है पर नहीं। ‘जब आपका चीजों पर बस नहीं चलता तो आप चुपचाप अपनी हार मान लेते हैं।’ (p.22). अब वह माँ-बाप के लिए चिंता का कारण है। उसकी शादी अब जितनी जल्दी हो जाय अच्छा होगा । घर मोहल्ले सब जगह गौरी की शादी की चिंता। घर तो घर सयानी लड़कियों की शादी की चिंता जैसे मोहल्ले वालों की साझा जिम्मेदारी हो। शादी के लिए वर की तलाश शुरू हो जाती है। लडकी देखने के लिए ‘सगा’ (लडकी देखने आने वाले लोग) लोगों का घर पर आना शुरू हो जाता है। यह क्रम न जाने कितनी बार चलता है। अंततः रायपुर से भी आगे बिरतेरा गाँव के एक नवयुवक राज कुमार चौधरी से उसकी शादी पक्की कर दी जाती है। गौरी, का मन ही मन में कमल के प्रति जो प्यार अँखुआ रहा था वह सामजिक भय के भयानक दबाव के चलते सिर ही नहीं उठा सका। ‘सबकी हाँ में उसकी भी हाँ मान ली जाती है।’ खुद राजेश और उर्मिला एक दूसरे से प्यार करते हैं। उर्मिला दूसरी लड़कियों से भिन्न है। पूरे मोहल्ले में जिसे लड़के उसकी तेजतर्रार स्वभाव और तेवर के चलते लड़का-टाईप लड़की कहते हैं, क्या घर-परिवार के विरुद्ध जा कर, घर से भाग कर अपनी मर्जी की शादी कर पाती है? राजेश खुद ही नहीं इसके लिए तैयार है। पर, इस तरह की इक्का-दुक्का शुरुआत होने लगी है। अब लड़के-लडकियाँ घर से भागकर शादी कर रहे हैं। समय में बदलाव के संकेत मिलने लगते हैं। यह आठवें-नवें दशक का समय है जब सिनेमा धीरे- धीरे इस वर्ग में भी अपनी जगह बना रहा था और इस वर्ग के लड़के-लडकियां केवल बाहर ही नहीं बल्कि भीतर भी बदलाव महसूस कर रहे थे। फिल्म के परदे पर नायक-नायिका भाग रहे थे और इधर लड़के-लड़कियां भागने के मंसूबे बना रहे थे। इन दिनों हर किशोर लड़का-लडकी किसी न किसी के साथ भागने की तैयारी कर रहा था। “वे प्रेमी जोड़ों के अपने घरों से भागने के दिन थे। उनके भागने का आदर्श मौसम। इसमें सबसे ज्यादा उनकी मदद कर रहा था हमारे मनोरंजन का सबसे सस्ता और महान साधन सिनेमा। … प्रेमियों के प्रेम को परवान चढ़ा रहा था सिनेमा। पाकेट बुक्स के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशन नंदा के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘अजनबी’ के हीरो-हीरो इन राजेश खन्ना और जीनत अमान परदे घर से भागते हुए गा रहे थे – ‘हम दोनों दो प्रेमी दुनिया छोड़ चले, जीवन की हम सारी रस्में तोड़ चले।’ गुलशन नंदा के ही उपन्यास पर बनी यश चोपड़ा की फिल्म ‘दाग’ में राजेश खन्ना शर्मीला टैगोर का हाथ पकड़ कर गा रहे थे –‘अब चाहे माँ रूठे या बाबा यारा मैंने तो हाँ कर ली।’ इन्हीं दिनों भारतीय फिल्म उद्योग के सबसे बड़े शो-मैन राजकपूर की किशोर प्रेम पर आधारित फिल्म ‘बॅाबी’ सुपर हिट हो चुकी थी।… फिल्म में किशोर ऋषि कपूर कमसिन डिम्पल कपाडिया को मोटर-सायकिल पर बिठा के भगा ले जाता है ।” (p. 53)
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कैलाश बनवासी |
‘बस के खेल और चार्ली चैप्लिन’
कैलाश बनवासी
मैं अभी-अभी बस में चढ़ा हूँ, और चढ़ने के साथ ही एक झटका-सा लगता है, पल भर में मानो दुनिया बदल जाती है। एकाएक। मैं हतप्रभ रह जाता हूँ!
यों यह रोज हो रहा है,खासकर इन दिनों…। बस में चढ़ते ही, दुनिया सहसा बदल जाती है…।
जब कि, अभी कुछ देर पहले तक,गाँव के सरकारी स्कूल से-जहाँ मैं पढ़ाता हूँ- छुट्टी के बाद साइकिल से लौटते हुए, मन ही मन में कितना खुश था! बहुत ही खुश! जैसे अनायास और अकारण ही। कि जैसे आज का काम पूरा हुआ-इसकी खुशी! और इस समय, गाँव से दुर्ग शहर के अपने घर लौटते हुए मैं अक्सर ही खुश रहता हूँ। मेरे सामने होते हैं गाँव के लीपे-बुहारे साफ-सुथरे घर, घर के सामने बने चैरा में बहुत फुरसत से बैठे और गप्प हाँकते बूढ़े-बूढि़याँ, वहीं गली या मैदान में खेलते-कूदते हुए बच्चे…आपस में हँसते, चिढ़ाते और शोर मचाते। गली में बोरिंग से पानी भरती किशारियां, स्त्रियां…। मेरा मन रम जाता है उनके घरों में, उनके गाय-बैलों में, जो अपने गीले काले नथुनों से सूँ-सूँ करके सांस लेते हैं, जो पुआल खाने में जुटे हैं, जिनके गले में बंधी घंटियां गरदन के हिलने की लय में टुनटुनाती हैं, आसपास की हवा एक अजीब, उष्णीय गंध से भर गई है जो गाय-बैलों, गोबर और पुआल से मानो एक साथ फूट रही है। देखता हूँ कि अपने बियारा में धान की मिंजाई करते वे कितने आनंदित हैं, घर के छोटे बच्चे बैलगाड़ी में बैठे हुए हैं एक-दूसरे से सटे। और झगड़ते।… और गुजरते हुए देखता हूँ यहाँ के खेत, मैदान, तालाब, पेड़, तरह-तरह के पंछी, और शाम का आकाश जिसमें धीरे-धीरे लाली भर रही है… देखता हूँ किसानों को जो अपने खेतों से पिछले चार महीने की मेहनत की कमाई-धान- बैलगाड़ी में लादे लौट रहे हैं, पैदल, मंथर गति से। उन्हें किसी किस्म की कोई जल्दी नहीं है, बल्कि श्रम से थके उनके सांवले चेहरों पर काम के पूरे हो जाने का गहरा सुकून है। मैं इनमें खो-सा जाता हूँ। और दिसम्बर की सांझ के नर्म सिंदूरी आलोक में यह सब देखते हुए मैं जैसे किसी अनाम सुख से भर जाताहूँ! इसे ठीक-ठीक व्यक्त कर पाना कठिन है मेरे लिए। जैसे कि यह सब देखना ही मानो धीरे-धीरे मेरे भीतर कोई सुख सिरजते जाते हैं…अपने-आप।
मुझे इस समय घर लौटने की कतई जल्दी नहीं रहती। यहाँ के माहौल और आबो-हवा का मुझ पर कुछ ऐसा असर होता है कि यहाँ की लाल-भूरी कच्ची सड़क पर मेरी साइकिल भी इनकी बैलगाड़ी के मानिंद चलने लगती है, धीरे-धीरे। ऐसा लगता है, जितनी देर इन सब के संग रहलो,उतना ही अच्छा! हालांकि रोज ही रहता हूँ।
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कैलाश बनवासी |
जाति-धर्म के ठेकेदारों के लिए हमेशा अपने हित ही सर्वोपरि होते हैं। अपने हितों के लिए ये ठेकेदार जाति और धरम को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करते हैं। दुर्भाग्यवश सत्ता भी आज यही काम करने लगी है। ऐसा ही एक नया टर्म इन दिनों सामने आया है ‘लव जिहाद’। उत्तेजक कहानियाँ गढ़ कर लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन करना ही इसका प्रमुख उद्देश्य है। आज सत्ताधीशों और रसूखदारों की प्रशस्तियाँ गा रहे मीडिया ने भी इसे बढ़-चढ़ कर प्रचारित-प्रसारित किया है। ऐसी विकट परिस्थिति में साहित्य ने ‘लव जिहाद’ के मंतव्य को स्पष्ट कर के अपना काम किया है। कैलाश वनवासी हमारे समय के चर्चित कथाकारों में से हैं। कैलाश जी की इस कहानी का विषय ही ‘लव जिहाद है। तो आइए पढ़ते हैं कैलाश वनवासी की यह नयी कहानी ‘लव जिहाद लाईव’।
‘लव-जिहाद’ लाइव
कैलाश बनवासी
उस दोपहर खाना खाने के बाद हम माँ-बेटी बिलकुल पड़ोस के तारा काकी के घर में बैठे थे। यों ही गप मारते। वैसे भी आज इतवार था। स्कूल की छुट्टी का दिन।
अभी याद नहीं कि हम किस बारे में बात कर रहे थे…। शायद माँ और काकी आँगन में बैठे-बैठे मनरेगा’ में हो चुके काम के अब तक नहीं हुए मजदूरी के भुगतान बारे में बात कर रहे थे, कि सरपंच और सचिव दोनों मिल कर कैसे बंटाधार कर रहे हैं गाँव का…। या, धान की इधर शुरू ही हुए लुवाई के बारे में…या खेत में गेहूँ के संग अरहर-लाखड़ी बोने के बारे में। या शायद भुनेसर दाऊ के यहाँ गुरूवार से आरम्भ होने वाले भागवत कथा के बारे में बात कर रहे थे, जिसमें कथा बांचने मथुरा के प्रसिद्ध कथा-वाचक पं. अखिलेश्वर महाराज आ रहे हैं, जिसके निमंत्रण पत्र आस-पास के सारे गाँवों में बांटे जा चुके हैं…। …या शायद माँ काकी को अगले इतवार को अपने मायके सांकरा जाने की बात बता रही थी जहाँ उसके भतीजी से रिश्ता पक्का करने ‘पैसा पकड़ाने’ के लिए लड़़के वाले आ रहे हैं…। और मैं अपने साथ कक्षा 10 में पढ़ने वाली तारा बुआ की बेटी रेखा के संग उसके कमरे में शायद स्कूल में नयी-नयी आयी लिली मैडम के नयी डिजाइन के कपडे, उसके फैशन और स्टाइल के बारे में हँस-हँस के बात कर रही थी।या हम अपने साथ पढ़ने वाले लड़कों के बारे में बात कर रहे थे….। या शायद…..
और सच पूछा जाय तो अब मुझे या माँ को कुछ भी याद नहीं। सब भूल गए। मानो कोई भारी बवंडर सहसा उन्हें उड़ा ले गया कहीं…। याद है तो बस यही कि मेरा छोटा भाई अज्जू आया था, औैर उसने सिर्फ इतना बताया था कि कुछ लोग आए हैं,बाहर से, और पापा को पूछ रहे हैं…।
हमें सब कुछ भुला देने के लिए इन दिनों इतना ही बहुत है!
जैसे ही सुनते हैं कि कोई आया है और हम लोगों को पूछ रहा है, हम सब कुछ एकदम भूल जाते हैं । कुछ भी याद नहीं रहता, सिवाय लगातार एक भीतरी थरथराहट के, जिसमें सहसा हम सूखे पत्ते की तरह कांपने लगते हैं। न जाने कितनी शंका-कुशंका एक साथ हमारे दिल-दिमाग में आषाढ़ के बादलों जैसे घुमड़ने लगती है, बहुत तेजी से । और तन-बदन में तारी उस थरथराहट से बच सकने का हमारे पास कोई उपाय नहीं। हम एकदम जान जाते हैं कि ये बाहरी लोग उसी के बारे में पूछने आए होंगे। हाँ, उसी के बारे में…।
उसी के बारे में, जिसकी चर्चा हम-यानी घर के सभी लोग- खुद अपने-आप से करने से बचना चाहते हैं।
हम लोगों में इतना भी साहस नहीं बचा था कि अज्जू से उन आने वालों के बारे में कुछ और पूछ-ताछ कर सकें।
और हमारा अनुमान गलत नहीं था। इस बार भी !
वे तीन लोग थे।एक बड़ी,चमचमाती बोलेरो हमारे घर के बांयीं ओर के शिव मंदिर वाले चबूतरे के पास खड़ी थी, नीम की छाया में।वे सभी शहरी, बहुत पढ़े-लिखे लोग थे। तीस से लेकर चालीस की उमर के। दो की आँखों में धूप का काला चश्मा था।
हमारे वहाँ पहँचते ही उनमें से एक ने, जो लम्बा और दुबला था, आगे बढ़ कर माँ से पूछा, ‘‘आप जया की माँ हैं?’’
माँ ने बस सर हिला दिया था।
यह नाम जैसे अब हम सुनना ही नहीं चाहते! जितना संभव हो दूर रखना चाहते हैं। लेकिन नहीं चाहते हुए भी यह नाम हम लोगों के सामने बार-बार आ ही जाता है…. कुछ वैसे ही जैसे पैर के अंगूठे में कहीं चोट लगी हो और बचते-बचाते हुए भी अंगूठा बार-बार किसी चीज से टकरा जाता है और घाव फिर टीसने लगता है…।
‘‘पूरन लाल जी कहाँ हैं?’’ उसने पूछा
‘‘ कहीं गए हैं अपने दोस्त के साथ।’’
‘‘कहीं बाहर गए हैं?’’ दूसरे ने पूछा, जिसके हाथ में कैमरा था।
‘नहीं-नहीं,’’ मैने बताया, ‘‘यहीं गाँव में हैं। किसी काम से गए हैं।’’
‘‘आप जया की छोटी बहन हो?’’ तीसरे सांवले और नाटे-ने मुझसे पूछा।
मैंने सिर हिलाया। चश्मा पहने पहले व्यक्ति ने- जो टीम का मुखिया जान पड़ता था- कहा, ‘‘अपने पापा को जरा बुला दोगी…। हमको उनसे मिलना है। हम लोग प्रेस से हैं, रायपुर से आए हैं। दिल्ली के एक पेपर के लिए काम करते हैं। उनसे पूछना है कुछ…। अच्छा, हम ही बात कर लेते हैं, उनका मोबाइल नम्बर बताओ जरा..।’’
मैं उनको पापा का मोबाइल नम्बर बताने लगी। माँ तब तक भीतर चली गई।
उसने पापा का नंबर लगाया, ‘‘हाँ, हैलो…। पूरन लाल जी बोल रहे हैं? नमस्कार पूरनलाल जी! मैं अखिलेश बोल रहा हूँ, दिल्ली’ के न्यूज-पेपर ‘जन-धर्म’ का संवाददाता। हम लोग इधर एक मिशन के तहत आए हैं। इस क्षेत्र से लड़कियाँ गायब हो रही हैं, गलत लोग उन्हें बहला-फुसला कर, अच्छी नौकरियों का लालच दे कर अपने जाल में फंसा रहे हैं। आप की बेटी भी गायब है साल भर से… । आप से थोड़ी बात करनी थी….जी, आप की बेटी जया के संबंध में…जी, हम लोग थाने गए थे, वहीं से आपका एड्रेस लेकर आपसे मिलने पहुँचे हैं…। मैं इस समय आप के घर के सामने खड़ा हूँ । जी मिलना जरूरी है…। कृपा करके आइये…। जी आइये…प्लीज, हम इंतजार कर रहे हैं…।’’
आ रहे हैं! संवाददाता ने खुश हो कर अपने सहकर्मियों को बताया।
इस बीच, जैसा कि गाँव में होता है, किसी अजनबी, वो भी गाड़ी-घोड़ा वाले, को आया देख आस-पास के लोग, क्या लइका क्या सियान, सब टोह लेने वहाँ सकला गए थे, और अपनी तरफ से भरसक मदद करने को तत्पर। पड़ोस के दुखहरन बबा इसमें अव्वल हैं। वो नंगे बदन, धोती पहने इन लोगों से पूछताछ करने लगे … कौन हो, कहाँ से आए हो…।
अचानक संवाददाता की नजर हमारे घर के ओसारे में लाल रंग के नये ट्रेक्टर पर चली गई।
‘‘ये ट्रेक्टर आप लोगों का है?’’ उसने मुझसे पूछा।
‘‘नहीं-नहीं। ये तो दाऊ का है। पापा ड्राइवर हैं खाली।’’ मैं बोली।
बात को दुखहरन बबा ने लपक लिया और पोपले मुँह से बताने लगे, ‘‘अरे साहब, पूरन तो डरेवर है भुनेसर दाऊ का। बीसों साल से डरेवरी कर रहा है वो… छोकरा था तभ्भे-से! वो कहाँ से लेगा, साहब? दो एकड़ की खेती है, भला उसमें कितनी कमाई होगी…? खाने-पीने भर का हो जाता है.. मुस्कुल से।’’
घर के दुआरी में ट्रेक्टर खडा हो तो सबको धोखा होता है कि ट्रेक्टर हमारा ही है। खासकर सर्वे के बखत तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। वो कहते हैं, जब तुम्हारे दरवाजे पर खड़ा है तो तुम्हारा ही होगा! कई बार हम लोगों को भी ऐसा ही लगने लगता है। छोटे थे तब तो इतरा-इतरा के सबको बताते थे- हमर टेक्टर हमर टेक्टर!… पर हमारे भाग में कहाँ? भुनेसर दाऊ के घर में जगह नहीं है इस लिए बाबू यहीं खड़ी कर देते हैं। अब चाहे जो हो, घर के दुआरी में ट्रेक्टर खड़े होने का रौब तो पड़ता ही है। पापा को सब डरेवर ही बोलते हैं। डरेवर पूरन लाल!
मैं समझ गयी थी, ये किस लिए आए हैं। फिर से पूछताछ…वही सब! पिछले सवा साल से यही चल रहा है। शुरू-शुरू में लोग ज्यादा आते थे…कभी पत्रकार, तो कभी पुलिस वाले…या कभी एन.जी.ओ.वाले। पर मुझे समझ नहीं आया, ये लोग, अचानक, इतने दिनों बाद… ?
मैं घर में चली आई। रसोई में माँ के पास। माँ फिर चुप-चुप हो गई थी और किसी काम में लग गई थी, यों ही, मन को लगाने, खुद को जया की याद से बचाने। दीदी…जया दीदी की याद! जितना ही भुलाना चाहो, उतना ही और बढ़ता जाता है …आज साल भर से ऊपर हो गए…। पिछले जून से गई है ….और आज नवम्बर…।
और इन महीनों में जो हमारा हाल हुआ है? बारा महीनो में जैसे बारा हाल! जैसे हमारी पूरी दुनिया बदल गई! अचानक! एक ही घटना से! एक घटना ही मानो आपका जीवन बदल देती है! ..सब याद है कुछ भी तो नहीं भूला। एक-एक बात। मेरी आंखों के आगे सब कुछ फिल्म की रील की तरह तेजी से गुजर जाता है …एकदम फास्ट!
इसके पहले हम कैसा जीवन जी रहे थे। एकदम अलग।
माँ कैसी थी? उसको अब हँसते देखे बहुत समय हो गया। हमेशा हँसने खिलखिलाने वाली माँ, सबको सहयोग करने वाली माँ। माँ शहर जा कर घूम-घूम के साग-भाजी बेचती है। गाँव की कुछ और महिलाएं भी जाती हैं। उनका संग-साथ कितना जीवंत था। ये एकदम सुबह चार बजे उठ जाते। बाड़ी की साग-भाजी होती, या फिर गाँव के कोचिया से खरीद कर ले जाते। बड़े से झौंहा में साग-भाजी सर में बोहे…शहर की गलियों में फेरी लगाती, आवाज लगाती माँ- ‘ले करेला कोंहड़ा तरोई बरबट्टी धनिया पताल वोऽऽऽ!’ बचपन से देख रही हूँ, इसमें कभी नागा नहीं हुआ, केवल त्योहार-बार को छोड़ के। हम दोनों बहन भी बहुत बार माँ के संग जाते, अक्सर त्योहारों में, जब बोझा ज्यादा हो जाता। ऐसे माँ हम लोगों को कम ही ले कर जाती। पापा को पसंद नहीं हमारा यों बोझा ढोते-ढोते घूमना। वो कहते,पढ़-लिख के नौकरी लायक बनना। इसीलिए तो पढ़ा रहे हैं। पर जब हम शहर जाते तो वह हमारे लिए यादगार दिन हो जाता।
पिछले साल के गरमी दिनों की बात है। मैं हाई-स्कूल पहुँच गई थी-नव्वी में। मेरे लिए स्कूल बैग लेना था। माँ के साथ गई थी। बाजार में एक सिंधी की दुकान में गए थे। मैंने एक बढि़या-सा बैग, गहरे हरे रंग का पसंद किया था। दुकानदार ने जब कीमत बतायी- दो सौ पैंतालिस! तो मैंने मान लिया था कि इतना महंगा हम नहीं ले सकेंगे। पर माँ ने दुकानदार से उसे एक सौ पच्चीस में मांगा। मेरे को बहुत शरम आए। इतना बड़ा दुकान, जहाँ जाने क्या-क्या चीजों के ढेर लगे हैं, उसके सेठ से माँ इतने कम का भाव करती है! लगा, सेठ हमको दुकान से भगा देगा- भगो, देहाती कहीं के! बड़े आए खरीदने! दुकानदार इतने कम में देने से मना करता था- अरे कोई तुम्हारा साग-भाजी है जो इतना कम होगा! पर माँ अड़ी थी। दुकानदार पहले दो सौ पच्चीस बोला, फिर दो सौ, फिर एक सौ पचहत्तर। मुझको लगता था, दुकानदार अब इससे नीचे नहीं उतरेगा, और माँ को मैं मना करती, माँ के अडि़यलपने को मैं देहातीपन समझ रही थी, इस लिए खीज कर उसको कोहनियाती थी कि नहीं, चलो, अब बस, बहुत हुआ। पर माँ को बाजार के खेल मालूम थे, इसलिए उसने हार नहीं मानी। कोई आधे घंटे की झिक-झिक के बाद आखिर वो हार मान गया और दिया एक सौ पच्चीस में ही। जब वह मान गया तभी मुझे ठीक लगा। नहीं तो मैंने मन ही मन तय कर लिया था, आगे से कभी इस देहातन के साथ कभी बाजार नहीं आउंगी अपनी नाक कटवाने!
पर नाक तो आखिर कट ही गई। घर की। हम सब की।
जया एक लड़के के साथ भाग गई। वो लड़का हमारे पास के गाँव में तीन साल पहले खुले दूध फैक्ट्री में काम करने आया था।उसी गाँव में किराये से रहता था। …उत्तर प्रदेश का रहने वाला था। दिखने में अच्छा था। बातचीत और बर्ताव भी अच्छा था। फिर दीदी भी तो कम सुंदर नहीं थी! और होशियार भी कितनी थी! हर साल अच्छे नम्बरों से पास होती थी, स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हमेशा आगे रहती थी, नाटकों में भाग लेती थी। कितने तो ईनाम मिलते थे उसको। वो जब बारहवीं पढ़ रही थी, तभी वो उसके संपर्क में आयी। फिर हमारा स्कूल भी तो उसी गाँव में है जहाँ दूध-फैक्ट्री है। मुझको पता चल गया था, दीदी उसको पसंद करती है। ऐसी बात भला छुपती कब है? पर ये नहीं सोचा था कि दीदी उसके साथ एक दिन…। घर के लोगों को भी ये अंदेशा कहीं से नहीं था। जब कहीं से खबर पापा तक पहुँची थी तो उन्होंने दीदी को धमकाया था- दूर रहो किसी भी लड़के-फड़के से! पर, बारहवीं का रिजल्ट निकलने के बाद-जैसे वो इसी का इंतजार कर रही थी- कि एक दिन हम सबको छोड़ कर उसके साथ भाग गई। न जाने कहाँ।
घर से जया कुछ नहीं ले गई। केवल अपने स्कूली सर्टिफिकेट्स। और अपने कुछ कपडे।
जिसे भागना होता है वो तो अपनी मरजी से भाग जाती है। उसके भागने की सजा घर के लोगों को भुगतनी पड़ती है-तिल-तिल! गाँव भर में हल्ला हो गया। थू-थू होने लगी। पहले थाने में रिपोर्ट करो। वहाँ उनके तरह-तरह के ऊल-जलूल सवाल…और घुमा-फिरा कर लानत-मलामत हमारी! ‘आप लोग अपने बच्चों को संभाल कर नहीं रख सकते? संभाल कर नहीं रख सकते तो पैदा क्यों करते हो? लड़की को जवानी चढ़ रही थी और तुमको खबर नहीं? कहीं दहेज-उहेज से बचने के चक्कर में तुम्हीं लोगों ने तो नहीं भगा दिया उसे? और वो भागी भी तो किसके साथ? मुसल्ले लौंडे के! और कोई नहीं मिला उसे इतने बड़े गाँव में? जवानी का जोश ऐसा ही चढ़ा था तो हिन्दू लड़कों की कोई कमी थी? भाग जाती किसी के भी साथ। अरे, जात गयी तो गयी, धरम तो बच जाता?
हाँ। वह लड़का मुसलमान है। जुबेर नाम है।
वह तो चली गयी, कलंक और बदनामी हमारे मत्थे मढ़ गयी। अब मुसीबत तो हमारी है! सब तरफ उसे लेकर पचासों तरह की बातें!
पापा जब भी इस बाबत थाना जाते, या थाने वाले पूछताछ की आड़ में घर आते तो पाँच सौ का नोट उनकी भेंट चढ़ता। बदले में, केवल नोट की चमक देख कर वे आश्वासन देते,.. ‘हम लोग ढूँढ रहे हैं, पता लगवा रहे हैं। जाएगा कहाँ साला हमसे बच के।’
गाँव की न्याय-पंचायती अलग! पंचायत बैठका में गाँव भर के लोगों, लइका-पिचका के सामने माँ और पापा सिर झुकाए बैठे हैं। हताश,उदास। नीचे जमीन को ताकते। और जमीन में ही गड़ जाने की इच्छा। पंचायत अपना फैसला सुना रहा है, बेटी भागी है, सो भी नान जात हो के, इसकी पूरी जिम्मेवारी घर वाले की ही है। इस लिए, जैसा कि नियम है, सामाजिक रूप से इनको बहिष्कृत किया जाता है। अगर इससे बचना है तो आर्थिक दंड देना होगा। पापा ने पंचायत को जुर्माना भरा है- दस हजार! लड़का अगर हिन्दू होता, और जाति-कुल अच्छा होता तो पांच हजार ही देना पड़ता। कुजात हुई है इसलिए दस हजार!
कलंक तो लग ही गया। वो तो मिटने से रहा।
माँ बार-बार कह रही है, इस बदजात लड़की ने तो हमको कहीं का नहीं छोड़ा। कोख में ही थी तभी काहे नहीं मर गयी करमफुटही!
पापा अब पहले से ज्यादा पीने लगे हैं। पी कर अक्सर दीदी को जी भ रके भला-बुरा कहते हैं। कहते हैं,कभी दिख भर जाय वो लड़की, मैं ट्रेक्टर का चक्का चढ़ा दूँगा हरामजादी पर! माँ सुन कर चुपचाप रोती है। उसका तो मन है, कैसे भी हो, मेरी बेटी एक बार घर आ जाए। माँ को पूरा विश्वास है उसके घर आने के बाद सब ठीक हो जाएगा। लेकिन मुझको नहीं। वह घर आएगी तो दूसरी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी…।
और एक सबसे राज की बात! घर में सिर्फ मुझको ही मालूम है वो कहाँ है!
मेरी सबसे खास सहेली का नम्बर उसके पास था। उसने उसी के नंबर पर मुझे और किसी को भी न बताने की शर्त पर बताया था कि वो वहाँ जुबेर के साथ खुश है। कि उसकी कैसी भी चिंता करने की बिलकुल भी जरूरत नहीं। कि वह बाद में फोन करेगी। पल भर तो मुझे बिलकुल भी समझ नहीं आया था कि खुश होऊँ कि रोऊँ! किंतु मैंने फोन पर कोई खुशी नहीं जताई। बल्कि, मैं तो हमें छोड़ कर जाने और माँ-पापा की ऐसी हालत के कारण बेहद नफरत करती हूँ। गुस्से से चिढ़ी हुई थी, इसलिए भी कोई और पूछताछ नहीं की। तू जिए कि मरे, अब हमसे मतलब? मर तो हम लोग गए न!
इस बात को मैंने अब तक अपने तक ही रखा है। मन के सबसे भीतरी कोने में। सौ ताले में बंद कर के।
अपने होंठ एकदम सी कर के। फिर भी डरती रहती हूँ कि कभी भूल से भी मुझसे या सहेली के मुँह से यह बात न निकल जाए। बहुत डर लगता है,पता नहीं बताने पर और न जाने क्या-क्या हो। घर को मालूम नहीं इस समय जया कहाँ है? वे देवी-देवता से बस यही मनाते रहते हैं कि हे भगवान, वो जहाँ भी रहे, खुश रहे! …लेकिन तरह-तरह के समाचार जो आजकल टी वी और अखबार में आते रहते हैं, हमको और-और डराते हैं। हरदम…।
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माँ ने मुझको इन लोगों के लिए चाय चढ़ा देने को कहा। मैंने छोटी गंजी मांज कर स्टोव जला कर चाय चढ़ा दी। मुझे लग रहा था,फिर पिछली बार की तरह वही सब होगा.. .दीदी की फोटो मांगेगे। हमारी फोटो खींचेंगे, और आश्वासन देंगे, बिलकुल झूठे…।
पापा आ गए। मैंने खिड़की से झाँक कर देखा, मोहन चाचा संग में हैं। जान गई, दोनों पी कर आए हैं।
नमस्कार पूरन लाल जी!
नमस्कार। जी कहिए।
‘‘जी कहते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा है, क्योंकि ये आपके लिए, घर के लिए तो बहुत दुख की बात है। मैं समझ सकता हूँ आपका दुख। लेकिन आप विश्वास कीजिए, हमारा अखबार इसको मेन इश्यू बनाकर चल रहा है, और हम दोषी को छोड़ने वाले नहीं हैं। हमारी पूरी कोशिश होगी कि आपकी बेटी आपको मिल जाए। शायद आपको मालूम नहीं है, इस क्षेत्र के विधायक ने विधान सभा में क्वेश्चन उठाया है कि इस इलाके की लड़कियाँ बड़ी संख्या में गायब हो रही हैं। निश्चित ही इसके पीछे किसी ताकतवर मानव-तस्कर गिरोह का हाथ है जिसकी पकड़ सत्ता के गलियारों तक है। हम उन्हें बेनकाब करना चाहते हैं। अभी हम पास के कुछ गाँवों से आ रहे हैं। वहाँ भी एक-दो लड़कियाँ गायब हैं। प्लीज,थोडा़ बताएंगे…क्या हुआ…कैसे हुआ…।’’
‘‘मैं क्या बताऊँ, सब बात तो पुलिस को बता चुके हैं, नया कुछ नहीं है।’’
‘‘फिर भी, आपको क्या लगता है कहाँ जा सकती है वो…। क्योंकि इस क्षेत्र में निरंतर लड़कियों को बहला-फुसला कर या अपहरण करके ले जाने की खबर मिल रही है। …थोड़ा बताइये…। और उसकी फोटो…।
पापा ने इस बार भी वही सब किया। धूप तेज नहीं थी, इस लिए आँगन में पड़ी खटिया मुनगा झाड़ के नीचे डाल कर ,उस पर कथरी बिछा कर पत्रकार लोगों को बिठाया, और अपनी राम कहानी बताते रहे। गाँव में हुई बदनामी, पुलिस का रवैया और शोषण…। लड़की के चले जाने का जहाँ उनको गुस्सा था वहीं दुख भी था। पापा जया दीदी को बहुत चाहते थे! घर की पहली संतान थी वो। बताते-बताते पापा रो पड़े। उनके साथ के कैमरामैन ने तुरंत पापा की फोटो खींच ली। मैं उन्हें चाय देने गयी तो उसने मेरी भी फोटो खींच ली। हमारे घर की भी फोटो खींची। उस दौरान मैंने नोट किया, कि जैसे ही पापा ने उनको बताया कि वो एक मुसलमान लड़के के साथ भागी है, सहसा उनके चेहरे में जैसे कोई चमक आ गयी थी, लगा, जिस चीज की तलाश वो कर रहे थे, एकदम-से वो उनको मिल गई हो! वह संवाददाता जुबेर के बारे में काफी-कुछ पूछता रहा। उसने जब मुझ से पूछा तो मैंने कुछ भी जानने से इन्कार कर दिया। बल्कि पापा के समान मैंने भी गुस्से में कह दिया, वो हम लोगों के लिए मर चुकी है। एक साल हो गए उसे गए हुए, अब तो हम उसे भूलने लगे हैं।
कोई आधा-पौन घंटा हमारे घर में बिताने के बाद वो उठ गए।
जब वे जाने लगे, कमरे में माँ जया को याद करके रो रही थी, बहुत चुपचाप, भीतर ही भीतर। अच्छा हुआ जो उनका ध्यान इस ओर नहीं गया, नहीं तो इसकी भी फोटो ले लेते। वे पापा को धन्यवाद देते अपनी गाड़ी की ओर बढ़ चले।
उनके पीछे-पीछे मैं आँगन का कपाट बंद करने आयी थी। कपाट बंद करते-करते मैंने सुना, उनमें से एक बोला था, ‘‘अरे यार! ये लड़की तो स्साली थी ही एकदम भगाने लायक!’’
‘‘इसी लिए तो भगा ले गया वो!’’ हँस कर दूसरे ने कहा।
‘‘ऐश कर रहा होगा कटुआ…।’’ बहुत गहरी नफरत से पहले ने माँ की गाली दी थी।
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खबर को उस पत्रकार ने बहुत विस्तार से अपने अखबार में इस टाइटिल से छापा था- ‘सावधान! आप के इलाके में सक्रिय हैं ‘लव-जिहादी’!’
इसके आगे मुझे यह बताना भर शेष रह जाता है कि खबर पर इलाके भर में जबरदस्त तीखी प्रतिक्रिया हुई है। आज टी वी के एक लोकल न्यूज चैनल में मैं देख रही थी, लाइव, ‘लव जिहाद’ के खिलाफ ब्लॉक मुख्यालय में सैकड़ों की उग्र भीड़ ने अपने झंडे-डंडों, नारों-बैनर सहित लम्बा जुलूस निकाला है,चक्का जाम कर दिया है, और थाने का घेराव किया है…।
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मोबाईल – 09827993920
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
कैलाश बनवासी अपनी कहानियों के लिए हिन्दी में पहले से ही ख्यात रहे हैं. अभी हाल ही में कैलाश ने अपना एक महत्वपूर्ण उपन्यास पूरा किया है. ध्यातव्य है कि कैलाश बनवासी का यह पहला उपन्यास है. ‘लौटना नहीं है’ नामक यह उपन्यास सामयिक प्रकाशन से छप कर आने ही वाला है. प्रस्तुत है इसी उपन्यास का एक अंश आपके लिए.
जात न पूछो फूलों की
कैलाश बनवासी
इस संस्था को लेकर सभी के मन में तरह-तरह की शंकाएं थीं। प्रायः आए हुए लोगों में कोई भी इसके बारे में ठीक-ठाक जानता नहीं थी, इसलिए संदेह भी थे, इसकी विश्वसनीयता को लेकर। खासतौर से हम जो इतनी दूर से आए हैं।
इस समय हम इसी पर बात कर रहे थे आपस में।
-ये साली है किस टाइप की? इतनी आलीशान बिल्डिंग! देख के कोई कहेगा ये अनाथ आश्रम है?
-क्या इनको गौरमेंट से सहायता मिलती है?
-लेकिन अपनी गौरमेंट तो खुद अनाथ आश्रम चलाती है! बहुत फटीचर टाइप की! हमेशा फंड की किल्लत रहती है। कभी-कभी तो बच्चों को खाने के लाले पड़ जाते हैं, बाकी सुविधा तो छोड़ो!
-ये तो कोई और ही चीज लगती है भाई! बाहर से पैसा आता है, तभी तो!
-अपने ही देश में कितनी जगह तो इनकी शाखाएं हैं….बैंगलोर, गौहाटी, मनाली, विशाखापट्टनम, भोपाल…।
-देश तो देश, विदेश में भी काम करती है इनकी संस्था। देखे नहीं, वहाँ फोटो टंगे हैं …जर्मनी, फ्रांस, नेपाल, केनिया… और पता नहीं कहाँ-कहाँ!
-साली कोई लफड़े वाली जगह तो नहीं? लड़की की सुरक्षा का सवाल है!
-देखने से तो ऐसा कुछ नहीं दिखता। सब ठीक-ठाक ही दिखता है। बिना परमीशन के कोई आदमी घुस नहीं सकता।
-गार्ड अपनी ड्यूटी में कितना चुस्त है!
यहाँ की बस छिटपुट बातें ही हमको मालूम थीं। मसलन,अनाथ बच्चों को ये बिल्कुल घर जैसा पालते हैं। उनकी पढ़ाई लिखाई की बेहतरीन व्यवस्था है- संस्था के ही स्टैण्टर्ड इंग्लिश मीडियम स्कूल्स। ऐसी व्यवस्था पाने के लिए तो लोग तरसते हैं,और इनको फ्री आफ कास्ट।
यहाँ काम में लगी लड़कियों को देख कर भरोसा होता था। चुस्त चपल चालाक। व्यावहारिक। हँसमुख और स्वतंत्र। लड़कियों को इतने खुले दिमाग और एडवांस देख कर निश्चय ही हम जैसे लोग अभिभूत थे। और दंग! लेकिन फिर भी कुछ हमारे भीतर रह जाता था। हम जो छोटे शहरों के थे, जहाँ अभी भी लड़कियों की दोस्त सहेलियाँ ही होती हैं, उन्हीं के साथ उनका घूमना-फिरना और मिलना-जुलना। लड़कियों को ऐसे केवल सिनेमा में देखने के आदी थे, इसलिए इतनी सहजता से उन्हें लड़कों से बात करते देख अजीब लगता था, भीतर घर कर चुके कस्बाई संस्कार उभर आते थे, और नहीं चाहते हुए भी उनकी नैतिकता पर मन में सवाल उठने लगते थे। शायद यह महानगरीय युवा संस्कृति थी जिसका अभी छोटे शहरों में आना बचा था। हमारे जैसे लोग सचमुच थोड़े उलझन में थे।
हमारे भीतर कुछ टकरा रहा था, कुछ टूट रहा था, कुछ बन रहा था। बनने में अभी समय लगना था। नये वातावरण में ढलने में। नयी सोच को ग्रहण करने में।
गुप्ता ने अपने कंधे से लटकते थैले से मिठाई का डिब्बा निकाला। उसमें समोसे थे। अब तक हमारा अपना एम.पी.वाला ग्रुप बन चुका था। गुप्ता,चैरे और निषाद को मैं अंकल संबोधित करने लगा था और वे मुझे मेरे नाम से।
(चित्र : उपन्यासकार कैलाश बनवासी)
गुप्ता जी इस बीच इंटरव्यू शुरु हुआ कि नहीं इसका पता लगा के आ चुके थे। बोर्ड के दूसरे मेम्बर अभी भी नहीं पहुँचे थे। और वह बताने लगे, संस्था के बारे में मैंने गेट में खड़े उन संतरियों से पता किया, क्या है भई यहाँ का वास्तविक हालचाल?… क्योंकि अगर किसी जगह की असलियत मालूम करनी हो तो सबसे पहले वहाँ के छोटे कर्मचारी को पकड़ो। वो बताएंगे सच। तो उन लागों ने बताया, यहाँ बाहर का एक भी आदमी बिना परमीशन के प्रवेश नहीं कर सकता। इसके लिए बहुत सख्ती है! अगर मान लो आपकी रिश्तेदार यहाँ है तो भी पहले पूरी बात कनफर्म की जाती है। यहाँ जो भी काम करते हैं वो दो रिश्तेदारों से अधिक का नाम नहीं दे सकते जो यहाँ उससे मिलने आएंगे। ना ही यहाँ महिलाओं को यों ही बाहर जाने दिया जाता है। हास्टल की तरह उन्हें हर हफ्ते तीन घण्टे की परमीशन मिलती है। इसलिए सुरक्षा के बारे में आप निश्चिंत रहिए।
‘‘ऐसा?’’
यह हमारी बगल में बैठे एक अधिकारी-से दिख रहे व्यक्ति ने कहा था, जो गुप्ता की बातें ध्यान से सुन रहा था। उनके साथ कंधे तक कटे बालों वाली एक लम्बी लड़की थी, वह भी कोट पहने थी। पता चला वे हरियाणा के करनाल से आए हैं। वह स्कूल में लेक्चरर हैं। ठीक-इाक आर्थिक स्थिति वाले दिखते थे।
‘‘आपने क्यों भर दिया?’’ इस बार चैरे ने पूछा, ‘‘ये तो विधवा या पति द्वारा छोड़ी गई महिलाओं को प्राथमिकता देंगे?
लड़की ने कहा, ‘‘हमने तो ऐसे ही भर दिया था।’’
उसके पिता ने कहा, ‘‘हम तो वास्तव में देखना भर चाहते थे कि क्या है। भई ये लोग कैंडिडेट को आने-जाने का फेअर आलरेडी दे रहे हैं, तो हमने सोचा, चलो हो आते हैं। इसका भी एक एक्सपीरिएंस हो जाएगा।’’
‘‘बिल्कुल ठीक किया आपने। बच्चे ऐसे ही तो सीखते हैं। हमने भी अपनी भतीजी को इसी लिए लाया है। हम जबलपुर से आए हैं।’’ गुप्ता अपने बोलने का कोई मौका नहीं चूकता।
‘‘काफी दूर से आए हैं आप लोग।’’ उसने कहा।
लॉन में भीड़ बढ़ती जा रही थी। वे जिनकी ट्रेन या बस लेट थी, पहुँच रहे थे। जिस ‘मदर’ पोस्ट को हम यूँ ही समझे थे उसके इंटरव्यू के लिए अच्छे-अच्छे लोग पहुँचे हैं, यह देख कर एक खुशी-सी हुई। या,वाकई बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि लोग जहाँ जगह मिले पहले वहीं सेट हो जाना चाहते हैं, बाकी चीजें बाद में सोचेंगे। इस कलंक को कैसे भी, पहले, अपने से परे कर देना चाहते हैं!
इधर पहले से इंतजार कर रहे लोग बार-बार रिसेप्शन में जाकर पूछ आते थे। और पूछ आने के बहाने उस सुंदर नेपाली बाला को देख आते, जो स्वयं भी मुस्कुरा कर लोगों को जरा ‘एंटरटेन’ कर रही थी, अपनी ‘ड्यूटी’ ठीक तरह से निभाती हुई।
‘‘सब आ चुके हैं…बस डायरेक्टर सर रह गए हैं…।….अब्भी फोन किया था उन्होंने। निकल गए हैं। एक अरजेंट मीटिंग में थे जर्मनी एम्बेसी में। … बस आधा घंटा और …प्लीज…!’’ वह मुस्कुरा रही है,लोगों की अधीरता पर मरहम लगाती।
एक घंटे से भी अधिक समय बीत चुका था वहाँ बैठे-बैठे। अब थोड़ी उकताहट हो रही थी। और धूप भी तेज होकर चुभने लगी थी। तभी वह नेपाली बाला लॉन में आती दिखाई दी। चटख लाल ब्लेजर में हल्के भूरे रंग का कोट पहने। नीली मिडि घुटने तक थी, जिसके नीचे उसके एकदम गोरे-सफेद पैर थे, चिकने…धूप में चमकते। साथ में सफेद वर्दी वाला एक अटेंडेंट। सबको लगा, अब इंटरव्यू शुरु होने वाला है। सब पूछने लगे, डायरेक्टर साब आ गए? कब शुरु होगा?
वह लॉन में कुछ आगे आ कर खड़ी हो गई। लोग उसके गिर्द आ गए।
‘‘सुनिए! प्लीज!’’ वह ऊँची आवाज में सबको बताने लगी- देखिए, डायरेक्टर सर अभी पहुँच जाएंगे थोड़ी देर में। उन्होंने कहा है, आए हुए लोगों को मदर्स क्वार्टर्ज दिखा लाइये। आप लोग देख भी सकते हैं और उनसे जो पूछना चाहें, पूछ भी सकते हैं! ये जयपाल हैं, ये आपको घुमाएंगे। तो आप लोग इनके साथ चले जाइये!’’
ओ.के. मैडम।
जयपाल, जिसकी वर्दी खासी सफेद थी,धूप में चमक रही थी। उसकी मूँछें भी गहरी काली चमकीली थीं। वहाँ उपस्थित हमारे ग्रुप सहित तीस-चालीस लोग उसके साथ हो लिए। एक छोटे-मोटे जुलूस की शक्ल में हम उसके पीछे-पीछे चलने लगे।
‘‘ये अच्छा हुआ। इनके बारे में सीधे यहाँ काम करने वालों से पूछ सकेंगे।’’ मैंने साथ चल रहे चैरे से कहा।
‘‘हाँ, यहाँ की सब बात हमको पता होना चाहिए।’’
साथ चल रहे लोगों में एक साहबनुमा व्यक्ति था, ग्रे कलर का कोट और सुनहरी कमानी का चश्मा पहने। वह बार-बार अपनी अँग्रेजी जताते हुए अटेंडेंट से पूछ लेता था, तुम कब से काम कर रहे हो…पेमेंट कितनी मिलती है…कितने का स्टाफ है वगैरह।, जब गुप्ता ने अपने को एम.पी. वाला बताया तो वह खासे गर्व से बताने लगा हम ग्वालियर से हैं….और यहाँ अपनी कार से आए हैं, मय अपनी बेटी और ड्राइवर के। उसका लहजा और व्यवहार बड़ा वी.आई.पी. किस्म का था। और सबका लीडर बनने की ख्वाहिश में सबसे ज्यादा बोलता-पूछता हुआ।
लॉन के सामने, कुछ दूर पर सिंगल स्टोरी क्वार्टर का सिलसिला था। अटेंडेंट हमें किसी कुशल गाइड के समान बता रहा था, ये सबसे बड़ा सेंटर है साब हमारा…यहाँ चालीस मदर्स क्वार्टर हैं…पीछे अभी तीस और बन रहे हैं…गर्मी तक कम्पलीट हो जाएंगे…।
ये बड़े आकर्षक फ्लैट थे, कतार से, एक से बने हुए। सामने की दीवारों पर कलात्मक रफ पत्थर लगाए गए थे। ये महज अपने आर्किटेक्ट में ही आधुनिक नहीं थे, बल्कि रंगाई-पुताई और साज-सज्जा में भी। उन शानदार मजबूत फ्लैट्स के आगे बच्चों के खेलने के लिए खूबसूरत लॉन और उनमें बच्चों के लिए रंग-बिरंगे झूले,फिसलपट्टियाँ,सी-सा…।
कंचन जंघा, माउंट एवरेस्ट, सतपुड़ा, अरावली…ये यहाँ के फ्लैट्स-ग्रुप के नाम थे।
दूसरों का तो पता नहीं लेकिन मेरे और गौरी के लिए यह एकदम नया और अनोखा था। अनाथ बच्चों के लिए इतना कुछ होगा हमें जरा भी अनुमान नहीं था! कितना अच्छा है ये! काश! गौरी का यहाँ हो जाए तो गौरी कितना खुश रहेगी! उस क्षण मन में सिर्फ यही कामना जागी थी। कितना अच्छा होगा! कैसे भी तो हो जाए!! बहुत रोमांचित था मैं। जाने क्यों, अब और ज्यादा कुछ देखने-सुनने की इच्छा नहीं थी। हम जैसे अभिभूत थे! यह सब हमारे उम्मीद से कई गुना अच्छा था। ऐसा कभी सोचा भी नहीं था! लगा, चयन हो जाने पर गौरी यहाँ गुजार लेगी अपना जीवन! हमारे घर के जीवन से भी कहीं बेहतर जीवन!
मैं यहाँ गौरी के जीवन की कल्पना करके ही खुश हो रहा था! यह एक सुख था, जिसमें देर तक डूबे हुए रहा जा सकता था। न जाने कितनी देर तक!
और गौरी! वह तो मुझसे भी कहीं ज्यादा इसकी आशा से भरी हुई थी, जिसे उसके चेहरे पर मुग्धता के खिले हुए मुस्कान से समझा जा सकता था।
सामने के एक फ्लैट में अटेंडेंट हमें ले गया।
घर देख कर हम चकित थे। किसी मध्यवर्गीय घर के जैसा सुसज्जित ड्राइंग रूम! मनोरंजन और जरूरत की सारी सुविधाएं- टी वी, वी.सी.आर.,फ्रिज, सोफा, दीवान….सब। अनाथ आश्रम तो किसी नजर से नहीं!!
आइये जी आइये! सोफे पर बैठी एक अधेड़ पंजाबी महिला ने मुस्कुरा कर हमारा स्वागत किया, बैठिए!
बैठे सिर्फ चंद लोग। ग्वालियर वाले सज्जन आगे थे यहाँ भी।
-अच्छा तो आप यहाँ की मदर हैं?
-जी हाँ!
-कब से हैं आप यहाँ?
-जी,मुझको तो पंद्रह-सत्रह साल हो गए इधर।
-कितने बच्चे हैं आपके पास?
-सात हैं जी। दो तो पढ़-लिख कर बाहर नौकरी कर रहे हैं। मुस्कुराई हैं वे।
-अच्छा! वेरी गुड!…संस्था की तरफ से आपको क्या मिलता है?
-पेमेंट है न हमारी।महंगाई भत्ते सहित।
-और इन बच्चों के लिए?
-इनके लिए हर महीने बच्चे के हिसाब से उनका खर्चा दिया जाता है…उनके कपड़े-लत्ते, खाने वगैरह के लिए।
-अच्छा, इतने सब लोगों की देखभाल का काम आपका होता है?
-हान्जी। मैं माँ हूँ इनकी तो देखभाल तो मुझे ही करनी होगी न! फिर मुस्कुरायीं वह।
-बहुत अच्छा जी। बहुत अच्छा। अच्छा ये बताइये, ये टीवी,वी सी आर या टेप रिकार्ड जो आपके यहाँ हैं, …ये सब क्या संस्था ने दिए हैं?
-नई जी, ये तो हमने अपने पेमेंट से,और बच्चों के खर्च से बचा कर खरीदे है!
-तो संस्था आपको इसके लिए कुछ नहीं देती?
-नई जी इसके लिए नइ देती। देखो,ये आपका घर है जहाँ आपने और आपके परिवार ने रहना है। अब ये आपके ऊपर है कि आप इसका कैसा इस्तेमाल करते हो! चाहे तो बचाइये…चाहे तो…! वे हँसने लगीं।
-आंटी जी, देखने से तो बिल्कुल नहीं लगता कि ये कोई अनाथ आश्रम है…कि यहाँ अनाथ बच्चे रहते हैं!
-बिल्कुल जी! संस्था का उद्देश्य भी यही है, कि बच्चों को उनका हक… एक माँ का प्यार मिले! वे यहाँ अपने माँ के साथ घर की तरह रहें। बिल्कुल घर के जैसा! उनको ये अहसास ही न हो कि हम अनाथ हैं…कि हमको प्यार करने वाला कोई नहीं, …कि हमारे वास्तविक माँ-बाप कोई और हैं! इसी लिए तो उनको अपना एक घर दिया गया है…घर जैसी ऐसी सुविधाएं दी जा रही है! देखिए बच्चे बड़े होने पर तो सब जान ही जाते हैं, फिर भी, इस बात को उनसे जितना दूर हम रख सकें, उतना ही अच्छा!
-यहाँ बच्चे आपको मम्मी बुलाते हैं?
-हान्जी। यही बुलाते हैं। मैंने बताया न, इनमें और बाहर के बचों में हम कोई अंतर नहीं रखना चाहते। अंतर बस इतना ही है कि वे बाहर खुले में रहते हैं और हम यहाँ। बाकी कोई फरक नइ।
-वैसे, आप हैं कहाँ की रहने वाली?
-जी, मैं तो भटिंडा पंजाब से हूँ।
-वहाँ जाती हो आप? छुट्टियों में…या शादी-ब्याह में? छुट्टी मिलती है इधर घर जाने की?
-छुट्टी मिलती है। साल में एक बार आपको घर जाने की मिलती है। पहले ज्यादा जाना होता था,पर यहाँ भी तो आपका घर है…इनको भी तो आपने देखना है जी। रिश्ते-परिवार में शादी-ब्याह तो लगे ही रहते हैं …लेकिन हम औरों की तरह हर शादी-ब्याह में तो नहीं जा सकते न! घर वाले तो बुलाते ही रहते हैं। वे भी आते हैं मिलने के लिए। पर घर वालों का ज्यादा आना-जाना ठीक नहीं है ऐसे घर के लिए।
-अच्छा, और आप के बेटे कहाँ सर्विस कर रहे हैं?
-एक बेटा तो डिफेंस में इंजीनियर है जी…कम्पयूटर इंजीनियर…शिलाँग में। दूसरा बैंगलोर में बैंक में काम करता है।
-उनकी शादी हो गई?
-हान्जी, एक की हुई है। पिछले ही साल। वे इस बात पर खुश हो गयीं जैसे माँ एं अपने बेटों के लिए हुआ करती हैं।
-लड़की किसने पसंद किया?
वे हँस पड़ी इस सवाल पर। कहा, हम दोनों ने। मैं तो कहती थी तुमको जिससे करनी है बता दे पुत्तर,मैं राजी हूँ। शादी में लड़के-लड़की की पसंद होनी चाहिए। जिंदगी साथ तुमको गुजारनी है। पर बोला नइ, आप पसंद करो।
-वे लोग पैसा भेजते हैं आपको?
-हाँ-हाँ, क्यों नहीं? माँ जो हूँ उनकी! वो तो कहते हैं, मम्मी जी, आप यहाँ आ के रहो, हमारे साथ! मैं बोलती हूँ, नहीं बेटे, तुम लोग अपना कमाओ, खुश रहो। मैं इसी में खुश हूँ। यहाँ तुम्हारे छोटे-भाई-बहन हैं। मैं वहाँ आ जाऊँगी तो इनकी देखभाल कौन करेगा? वैसे मैं जाके हफ्ता दिन दोनों के यहाँ रह आई हूँ। अरे,बहुत रुकने को बोलते थे। पर क्या करोगे? अपना काम ही कुछ ऐसा है! ये बच्चे भी साथ गए थे मेरे।
– ये बताइये,संस्था को क्या आप अपनी मर्जी से छोड़ सकती हैं?
-वैसे तो रिटायरमेंट की सुविधा है साठ साल में। बीच में चाहे कोई तो छोड़ सकता है, उसकी मरजी। पर ये संस्था के लिए अच्छी बात नहीं है।
– क्यों भला?
-दरअसल बात ये है कि बार-बार उनकी माँ बदलती रहे तो इनको गिल्टी फील होती है। ये महसूस करने लगते हैं हम अनाथ हैं, और ये लोग तो बस अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। बार-बार माँ बदलने से उनको मानसिक परेशानी होती है। एक माँ के साथ जो रिश्ता बन जाता है वह माँ बदलने से टूट जाता है। इनके कोमल मन को ठेस लग जाती है। फिर ये किसी को भी वैसा प्यार नहीं कर पाते। दिल में हमेशा के लिए शक बैठ जाता है कि ये भी कल को हमको छोड़ के चली जाएगी। इसलिए इनको बीच में छोड़ के जाना ठीक नहीं।
-आपके रिटायरमेंट के बाद ये बच्चे आप के ही रहेंगे?
-बिल्कुल जी। भला माँ-बच्चों का रिश्ता कभी टूटता है?
-ये बच्चे तो अलग-अलग जाति धर्म के होते हैं। इनको इनका धर्म बताया जाता है या आपका धर्म ही..?
-अजी बच्चों का क्या धरम और क्या जात? ये तो पानी के जैसे हैं जी, जिसमें मिला लो उसी रंग के हो जाएंगे। जब मैं इनकी मम्मी हूँ तो मेरा धरम ही इनका धरम। मैं सिक्ख धरम को मानती हूँ तो मेरे बच्चे इसी को मानते हैं। जैसे मेरे बाजू के क्वार्टर में साउथ इंडियन महिला हैं…रेड्डी कर के…तो उनके बच्चे उनका धरम मानते हैं। वैसे एक बात यहाँ बहुत ही अच्छी है, त्यौहार किसी भी धरम के हों, मनाते सब मिल-जुल कर हैं। एक साथ! यहीं मैदान में। क्या दीवाली…क्या ईद…क्रिसमस…होली…सब!
हम आश्चर्य से उन्हें ऐसे देख रहे थे जैसे वह किसी दूसरे लोक की प्राणी हो!
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सम्पर्क –
कैलाश बनवासी
41,मुखर्जी नगर,
सिकोलाभाठा, दुर्ग (छ.ग.)
मो.- 09827993920
ई-मेल: kailashbanwasi@gmail.com
(उपन्यास अंश में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
जन्म- 10 मार्च 1965, दुर्ग
शिक्षा- बी0एस-सी0(गणित),एम0ए0(अँग्रेजी साहित्य)
1984 के आसपास लिखना शुरू किया। आरंभ में बच्चों और किशोरों के लिए लेखन।
कृतियाँ-
सत्तर से भी अधिक कहानियाँ देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। बहुतेरी कहानियाँ चर्चित,किंतु कहानी ‘बाजार में रामधन’ सर्वाधिक चर्चित।
अब तक तीन कहानी संग्रह प्रकाशित-‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’(1993),‘बाजार में रामधन’(2004) तथा ‘पीले कागज की उजली इबारत’(2008)
कहानियाँ गुजराती,पंजाबी,मराठी,बांग्ला तथा अँग्रेजी में अनूदित।
पहला उपन्यास ‘लौटना नहीं है’ शीघ्र प्रकाश्य।
सम-सामयिक घटनाओं तथा सिनेमा पर भी जब-तब लेखन।
पुरस्कार- कहानी ‘कुकरा-कथा’ को पत्रिका ‘कहानियाँ मासिक चयन’(संपादक-सत्येन कुमार) द्वारा 1987 का सर्वश्रेष्ठ युवा लेखन पुरस्कार। कहानी संग्रह ‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’ को 1997 में श्याम व्यास पुरस्कार। दैनिक भास्कर द्वारा आयोजित कथा प्रतियोगिता ‘रचना पर्व’ में कहानी ‘एक गाँव फूलझर’ को तृतीय पुरस्कार। संग्रह‘पीले कागज की उजली इबारत’ के लिए 2010 में प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान।
संप्रति- अध्यापन।
कैलाश बनवासी की वाक् के नए अंक में एक कहानी ‘जादू टूटता है’ प्रकाशित हुई है। एक अरसे बाद किसी कहानी ने मुझे इतनी शिद्दत से प्रभावित किया। इस कहानी को पढ़ कर मैंने तुरंत ही कैलाश जी को फोन लगाया और कहानी को पहलीबार के पाठकों के लिए उपलब्ध कराने का आग्रह किया जिसे कैलाश जी ने विनम्रता से स्वीकार कर लिया। बिना किसी टिप्पणी के मैं आपको इस महत्वपूर्ण कहानी से रूबरू कराता हूँ। तो लीजिये प्रस्तुत है यह कहानी जिसके जादू में आप खुद-ब-खुद बंधते चले जायेंगे।
जादू टूटता है
‘‘सर,क्या मैं अंदर आ सकता हूँ ?’’
प्रिंसिपल ने स्कूल के फंड से पैसे बैंक जाकर निकलवाने के लिए मुझे अपने कक्ष में बुलवाया था।प्राचार्य चेक साइन कर चूके थे।तभी कमरे का परदा जरा-सा हटाकर भीतर आने की इजाजत चाहता वह खड़ा था।
प्राचार्य ने इशारे से उसे आने की अनुमति दी।वह भीतर आ गया, आभर में केवल मुस्कुराते ही नहीं, हाथ जोड़े हुए।
‘‘ हाँ,कहो…?’’
मैं भी समझ रहा था,शायद अनाथ आश्रम के लिए चंदा मांगने आया हो। स्कूल में अक्सर ऐसे लोग आते रहते हैं सहयोग मांगने।सबूत के तौर पर अपने पास किसी अधिकारी द्वारा प्रमाणित पत्र को जिलेटिन कवर में रखे हुए। और प्रिंसिपल आर. के सिंह जो बहुत होशियार प्रिंसिपल माने जाते हैं, ऐसे लोगों को तुरंत चलता कर देते है,‘अरे, जाओ यार किसी सेठ-साहूकार को पकड़ो!ये सरकारी संस्था है कोई धर्मार्थ संस्था नहीं!’पर ये ऐसे ढीठ होते हैं कि उनका दो टूक जवाब सुनकर भी वे चिरौरी करना नहीं छोड़ते और रेल्वे स्टेशन के भिखारियों की तरह एकदम पीछे पड़ जाते हैं।पर उनके सामने दाल आखिर तक नहीं गलती। मैं माने बैठा था, इसका भी यही हाल होगा। बैरंग वापस।
‘‘सर..मैं स्कूल-स्कूल जाकर अपना खेल दिखाता हूँ।’’ ऐसे मौके पर शायद सबसे कठिन होता है पहला वाक्य कहना और उसने अपने अभ्यास के चलते इस बाड़ को पार कर लिया था।‘‘सर, इससे बच्चों का मनोरंजन हो जाता है। सर, मैं पिछले कई साल से ये कर रहा हूँ। आपके स्कूल में भी बच्चों को दिखाना चाहता हूँ।सर,कृपा करके मुझे अनुमति दीजिए…।’’ वह अब तक हाथ जोड़े खड़ा था,उसी तरह याचक भाव से मुस्कुराते।
वह एक निहायत दुबला-पतला आदमी था।पिचके हुए गाल में कटोरे जैसे गड्ढे थे।रंग कभी गोरा रहा होगा पर अब तो उसका हल्का आभास ही बाकी है।वह कब का रंग छोड़ चुका एक ढीला शर्ट पहने था। कंधे पर एक थैला लटकाए। उमर पैंतीस-चालीस के बीच रही होगी लेकिन दिखता अड़तालिस-पचास का था।गरीबी और अभाव समय से पहले आदमी को कैसे बूढ़ा कर देता है,वह इसका जीता-जागता नमूना था।देश के लाखों अभावग्रस्त लोगों की मानिंद।
मुझे तो बिलकुल उम्मीद नहीं थी,पर प्रिंसिपल को न जाने क्या सूझा कि आगे पूछ दिया,‘‘अच्छा, क्या-क्या करतब दिखाते हो?’’
‘‘अरे,बहुत कुछ सर।’’ वह सर की सहमति से एकदम बच्चों की तरह उत्साहित हुआ और अपने थैले से निकालकर एक पुरानी-सी फाइल दिखाने लगा,जिसमें अखबारों की कतरनें चिपकायी गयी थीं।प्राचार्य के साथ मैं भी उसकी फाइल देखने लगा। उसी से मालूम हुआ उसका नाम लक्ष्मण सिंह है,पिथौरा निवासी।फाइल में ज्यादातर स्कूलों से उसे मिले प्रशस्ति पत्र थे।कुछ प्रशस्तिपत्र विधायकों और मंत्रियों के भी थे।प्रायः सभी में उसके करतबों को अच्छा, मनोरंजक और आकर्षक बताते हुए उसके उज्जवल भविष्य की कामना की गई थी।
‘‘आज कौन-सा दिन है…?’’प्रिंसिपल ने मुझसे यों ही पूछने के लिए पूछा।यह तो वे अपने सामने रखे टेबल कैलेण्डर देख के भी जान सकते थे,किंतु जब आपका कोई अधीनस्थ साथ हो तो काम ऐसे भी किया जाता है।
‘‘सर, शुक्रवार।’’ मैने बताया।
‘‘यानी कल शनिवार है। तो आप कल दोपहर बारह बजे के आसपास आ जाइये।पर एक बात है, तुम अपने करतब की आड़ में कोई चीज तो नहीं बेचोंगे?…ताबीज या और कुछ…?’’
‘‘नहीं सर। बिल्कुल नहीं।’’ उसने एकदम यकीन दिलाया,‘‘अपना ऐसा कोई धंधा नहीं है, सर।अपन खाली अपना सरकस दिखाते है।’’
प्रिंसिपल ने उसे अनुमति दे दी।
लक्ष्मण सिंह कृतज्ञता से एकदम झुक-झुक गया,‘‘बहुत-बहुत धन्यवाद सर!…बहुत बहुत धन्यवाद! मैं कल टाइम पे आ जाऊँगा, सर…।’’
वह हाथ जोड़े-जोड़े कमरे से चला गया।
मैं बाद में देर तक इस बारे में सोचता रहा-लक्ष्मण सिंह आखिर इतना दीन-हीन क्यों रहा हमारे सामने?वह अपना खेल दिखाएगा,बच्चों का मनोरंजन करेगा,इसके बदले में कुछ पैसे बच्चों से या देखनेवालों से पा जाएगा।प्रिंसिपल की सहमति जरूरी है। पर इस छोटी-सी बात के लिए इतनी कृतज्ञता?जैसे इसी हाँ पर उसका भविष्य टिका हो! वह भी एक कलाकार होकर! या फिर उसकी कला में कहीं कोई कमी है जिसे वह कृतज्ञता से ढँकने की कोशिश कर रहा है? लेकिन लगा कि मैं कितना गलत और एकांगी सोच रहा हूँ!लगा,वह इस सिस्टम को मुझसे कहीं ज्यादा बेहतर जानता है जहाँ बैठा हुआ हर अधिकारी अपने ‘इगो’ को लेकर बीमार की हद तक ग्रसित रहता है और उन्हें कुछ ऐसी ही तरकीबों से खुश किया जा सकता है,क्योंकि बदले में आप उसको कुछ पैकेज या गिफ्ट तो नहीं दे रहे हो जो आज काम करवाने का नियम ही बन चुका है। उनके इगो को संतुष्ट करके ही आप उनसे काम ले सकते हैं। स्कूल-स्कूल घूमने के बाद लक्ष्मण सिंह को यही अनुभव हुआ हो और उन अनुभवों ने ही उसे नाजुक डाली के समान नचीला बना दिया हो।लेकिन एक मन कहता था कि नहीं,वह कलाकार है और उसे अपनी और अपने कला की गरिमा बना के रखना चाहिए,जितना भी हो सके।वह कोई सड़कछाप भिखारी नहीं है।वह अपनी कला दिखलाकर बदले में कुछ पाता है।पर उसका सलूक मैं पचा नहीं रहा था जो मुझे रेल डिब्बों में झाड़ू लेकर फर्श बुहारने वाले अधनंगे भिखारी लड़कों की तरह का लगा था,जिनके चेहरे,हाव-भाव सब में एक स्थायी दयनीयता चस्पां होती है,जो हर मुसाफिर के पास घिसटते हुए पहुँचते हैं-रूपए-दो रूपए के लिए हाथ फैलाते।
पर मैं बेवकूफ भूल बैठा था कि वह इस दुनिया में अकेला नहीं है,कि उसका परिवार है जिनके पेट भरने की रोज की जिम्मेदारी उसके सर पर है, और महज कला जान भर लेने से पेट नहीं भर जाता। उस कला को सबके सामने लाने का और उससे कमा लेने का हुनर भी चाहिए होता है। और जरूरी नहीं कि हर कलाकार को यह हुनर आता ही हो।
दूसरे दिन वह समय पर आ गया था।अपने परिवार के साथ।पत्नी और तीन बच्चे, जो उसकी खेल दिखानेवाली टीम के सदस्य भी हैं।और एक पुरानी साइकिल जिसमें उसके खेल के सामान बंधे थे।
यह जुलाई के आखिरी दिन थे, इसके बावजूद आज बारिश के आसार नहीं थे,हालांकि आकाश में सलेटी बादल छाए हुए थे और दिन कबूतर के पंख की तरह सुरमई और कोमल था । मौसम का यह रूप हमारे स्कूल के लिए बहुत अच्छा था।इसलिए कि यह छोटे-से गाँव का एक छोटा स्कूल है,जहाँ छठवीं से दसवीं तक की कक्षाएँ लगती है।गिने-चुने कमरे हैं।बच्चों के बैठने के लिए अलग से कोई हाॅल नहीं है। स्कूल के सारे कार्यक्रम लाल बजरीवाले खुले प्रांगण में ही होते हैं।बरसात होने पर कार्यक्रम रद्द।
भगवान का शुक्र था कि बरसात के दिन होने के बावजूद मौसम खुला था।
स्कूल के बच्चे और स्टाॅफ प्रतीक्षा कर हे थे कार्यक्रम शुरू होने की। बच्चे इसलिए खुश थे कि आज पढ़ाई नहीं होगी और खेल देखने को मिलेगा,वहीं स्टाॅफ इसलिए कि आज पढ़ाना नहीं पड़ेगा। और अधिकांश शिक्षक ऐसे हैं जिनके लिए नहीं पढ़ाना इस पेशे का सबसे बड़ा सुख है।
स्टाॅफ-रूम में लक्ष्मण सिंह हमसे मिलने वहाँ आया। आते ही उसने सभी शिक्षकों को प्रणाम किया।उसके साथ पाँचेक बरस का एक नन्हा और सुंदर बच्चा था,जिसकी आँखों में काजल की मोटी रेखा थी,गालों में रूज की लाली के दो गोले और माथे पे लाल टीका।
‘‘अरे,सर-मैडम लोगों को नमस्ते करो!’’उसने बच्चे से कहा।
बच्चे ने नमस्ते में हाथ जोड़ लिए।
मैने उसे अपने पास बुलाया,पूछा,‘‘क्या नाम है तुम्हारा ?’’
‘‘रामू जोकर।’’उसने सपाट भाव से कहा।
सुन कर मुझे एक धक्का लगा। पाँच-छह बरस की नन्हीं उम्र। नाम रामू जोकर।जोकर। जैसे अभी से उसका भाग्य तय हो गया हो आगे क्या बनना है।वह इतनी छोटी उम्र में अपने पिता के साथ काम कर रहा हैं।अभी शायद उसे काम शब्द का मतलब भी नहीं मालूम।उसके लिए अभी काम भी बस एक खेल है। वह खेल की तरह यह काम कर लेता होगा।उसके चेहरे पर कातरता नहीं,अपनी उप्र की स्वाभाविक मासूमियत थी और यही बात गनीमत लगी मुझे।पर जैसे-जैसे वह दुनिया को जानने लगेगा,सीखने लगेगा जीने के एक जरूरी गुण के रूप में।कला के साथ-साथ इस ‘गुण’ का विरासत में मिलना उसके प्रति एक घोर अन्याय लगा था मुझे। साथ ही यह भी लगा िकइस अपराध में लक्ष्मण सिंह के साथ हमस ब शामिल हैं उसके बालपन की हत्या कर के उसे सिर्फ एक पालतू और उपयोगी जानवर बनाने में। वह कल इसका अभ्यस्त हो जाएगा और इसी निरीहता के साथ जीता रहेगा,यह जाने बगैर कि उसके भी कुछ अधिकार हैं,कि दुनिया के करोड़ों लोग इन अधिकारों के साथ जीते हैं।
मुझे गुस्सा आया था लक्ष्मण सिंह पर।लेकिन अंततः मैं कर ही क्या सकता था? मेरे सोचने भर से क्या होता है?घर-परिवार चलाने का भार लक्ष्मण सिंह को ही ढोना है।कैसे?यह उसे ही तय करना है।मेरे भावनात्मक रूप से यो पसीजने का कोई अर्थ नहीं था।
बीच मैदान में लक्ष्मण सिंह ने अपना डेरा जमाया। उनके चारों ओर बच्चे जमा हो गए। एक अपेक्षाकृत छाँवदार जगह में प्रिसिपल और शिक्षक-शिक्षिकाएँ कुर्सियों पर।
उसकी सूखी मरियल देह वाली पत्नी ढोलक बजाती थी और जोर-जोर से कुछ गाती जाती थी। अपनी किसी भाषा में जो हम सबकी समझ से परे थी।पता नहीं वह उडि़या गाती थी कि तेलुगु या फिर असमिया।कभी लगता यह मराठी है तो कभी लगता कन्नड़।शायद यह संथाली थी या शायद गोंडी या हल्बी या ऐसी ही कोई आदिवासी भाषा जो इस दुनिया से बहुत जल्द खो जाने वाली है।ढोलक की थाप के साथ उसके रूखे भूरे बाल बार-बार सामने आ जाते थे। पता नहीं वह क्या तो गा रही थी पर लगता था जैसे अपनी आत्मा को झिंझोड़ कर गाते हुए वह लगातार हमसे कुछ कहने की कोशिश कर रही है, किंतु हम जो उसकी भाषा से सर्वथा अनजान थे, कुछ नहीं समझ पा रहे थे सिवा उसकी ढोलक के चीखते-से धपड़-धपड़ के।बीच-बीच में उसकी आठ साल की बेटी अपनी पतली आवाज में कुछ अजीब लय में औ ओऽ ओऽ ओऽऽअ करके अपनी माँ के सुर में सुर मिलाती थी मानो उसके कहे का समर्थन करती हो।इस दौरान नन्हा रामू जोकर जमीन पर बार-बार गुलाटियाँ खाता रहा और बच्चे हँसते रहे।सबको नमस्कार करके लक्ष्मण सिंह ने अपना खेल आरंभ किया। उसने अपनी ढीली कमीज उतार कर वहीं गड़ाए डंडे पर लटका दिया। बनियान मे वह दुबला-पतला जरूर नजर आ रहा था लेकिन कमजोर या कातर कतई नहीं। ।बल्कि कमीज के उतारते ही एक गजब की चुस्ती और फूर्ति न जाने कहाँ से उसकी देह में आ गई थी,जैसे कमीज ने जाने किन कारणों से उसकी क्षमता को अब तक दबा के रक्खा हो। अब वह हमारी आँखों के सामने एक के बाद एक करतब-दर-करतब दिखलाता जा रहा था। सबसे पहले एक रस्सी में उसने कुछ गठान लगाए और दूसरों से उसे खोलने को कहा,जब हममें से कोई उसे नहीं खोल सका तब उसने उसे पलक झपकते खोल दिया।उसके पास एक काठ की चिडि़या थी जिसे वह बांस की एक कमची में फंसाकर जैसा चाहे वैसा उड़ा सकता था। उसके हाथ में आते ही हम काठ की चिडि़या को सचमुच की चिडि़या की तरह अपने सामने उड़ता देख रहे थे और उसके पंखों की फड़फड़ाहट हमारे कानांे में गूँज रही थी।यहाँ तक कि उसकी चिंव-चिंव की मीठी आवाज भी हम सुन सकते थे। बच्चों ने एकदम खुश होकर तालियाँ बजायीं। लक्ष्मण सिंह ने इसके बाद अपनी छाती पर एक साथ चार ट्यूब लाइट्स फोडे़।उसकी छाती जैसे बिल्कुल पत्थर की थीजिससे टकराने के बाद जोर-से फटाक् की आवाज के साथ ट्यूब के गैस और काँच के चूरे बिखर गए।बच्चों ने फिर ताली बजाई।इसके बाद उसने अपने दस साल के दुबले बेटे को जमीन पर लिटा दिया और उसकी छाती पर एक के बाद एक तीन बोल्डर अपने सब्बल से फोड़ता चला गया। उसका बेटा करतब के बाद एक झटके से यों उठ खड़ा हुआ मानो अपनी नींद से अभी-अभी जागा हो। फिर जोरदार तालियाँ बजीं। इसके बाद लक्ष्मण सिंह ने अपने सीने पर रखकर दीवाली वाला एक बड़ा एटम बम फोड़ा। धमाके से पूरा स्कूल गूँज उठा और चारों तरफ धुआँ ही धुआँ भर गया। धुआँ छँटने के दौरान लोगों ने देखा लक्ष्मण सिंह अपनी देह की धूल-मिट्टी झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ है और उसे एक मामूली खरोंच तक नहीं आयी है। बच्चों ने इस बार भी ताली बजायी। उसे सचमुच कुछ नहीं हुआ था और अब सबको यकीन हो गया था कि लक्ष्मण सिंह को कुछ नहीं हो सकता,भले ही उसके शरीर पर घावों के जाने कितने ही निशान थे जो उसे इन खेलों के दौरान ही मिले हैं।घावों के ये काले नीले निशान सबको काफी दूर से भी साफ नजर आते थे।इसके बाद लक्ष्मण सिंह ने अपना एक और ‘पेशल’ आयटम पेश किया। उसने 10 उउ की एक बड़ी छड़ हमको देकर इसे मोड़ने को कहा।यह हम सबके बूते से बाहर की बात थी।मैडम लोग तो शरमाके हँसने लगी थीं। सबने उसे छूकर,उलट-पलटकर देखा कि कहीं किसी जगह से बेण्ड तो नहीं या कोई और चालाकी की बात तो नहीं।लेकिन हम उस राड में कुछ भी खराबी नहीं ढूँढ सके।वह लोहे एक सीधी-सपाट और किसी आदिम चट्टान की तरह सख्त मजबूत छड़ थी। लक्ष्मण सिंह ने जब इस मजबूत राड-जिसे हम चार लोग मिलकर भी जरा-सा नहीं मोड़ पाते-को केवल अपने गले की हड्डी के बल पर मोड़ देने का असंभव-सा दावा पेश किया, तो उसके बहुत शक्तिशाली लगने के बावजूद हमने उसके इस हैरतनाक दावे पर भरोसा नही किया। राड का एक सिरा उसने जमीन में थोड़ा गड्ढा करके गड़ाया और उसके दूसरे सिरे को रखा अपने गले पर।चोट न लगे इस एहतियात से उसने गले के सामने कुछ मोड़ तहाकर अपना रूमाल रखा।उसने अपने शरीर से जोर लगाना शुरू किया।पैर के पंजों को बेहद सख्ती से जमीन पर गाड़ लिया।इस अत्यधिक बल से उसकी देह की तमाम नसें एकबारगी यों फूल ईं जैसे अभी-अभी किसी ने उनमें हवा भर दी हो।खासतौर पर उसके गले, भुजाओं और माथे की उभरीं नीली नसों के जाल को हम साफ-साफ देख पा रहे थे। और वह अपने गले की हड्डी से,पैरों से जोर पे जोर लगाता जाता था। एक पल को लगा, राॅड उसके गले को भेदकर पार निकल जाएगा। लक्ष्मण सिंह अपनी देह की समूची ताकत से जूझ रहा था।वह जैसे अपने सामने के किसी पहाड़ को ठेल रहा हो।देह से पसीने की धार छूट रही थी। उसकी मटमैली बनियान कब की पसीने से बिल्कुल तर हो चली थी।और अचानक ही,जाने कैसे इस बमुश्किल पाँच फुट हाइट वाले आदमी का कद हमारे सामने बढ़ता ही जा रहा था और अब उसकी ऊँचाई स्कूल के छज्जे को छू रही थी। उसके गले के उस हिस्से में, जहाँ राड धंसा था, पहले लाल चकते पड़े फिर ये निशान गहरे हुए, फिर खून की कुछ बूँदें सब लोगों ने छलछलाती देखीं।लक्ष्मण सिंह मानो अपनी जिंदगी दाँव पे लगाकर पूरी ताकत झाोंके हुए था, इधर उसकी पत्नी द्वारा बजाए जा रहे ढोलक पर थाप की गति एकदम बढ़ गई थी और इसी के साथ उसके गाने की लय भी तेज हो गई थी जिसे समझ पाने में हम अब भी सर्वथा असमर्थ थे।…और फिर कुछ देर तक सांस रोक देने वाले भय,रोमांच तनाव और सन्नाटे के बाद सबने देखा कि राॅड मुड़ रहा है…बीच से… धीरे-धीरे..,फिर वह क्रमशः मुड़ता चला गया, और इसी के साथ बच्चों की तालियों का शोर बढ़ता गया। फिर कुछ ही पल बाद बाद हमने देखा कि राॅड बीच से मुड़कर अँग्रेजी के ‘व्ही’ आकार का हो गया है! भले ही लक्ष्मण सिंह के गले में खून छलछला आया था, लेकिन हमने पाया स्कूल का पूरा आकाश उस के इस अचंभित विजय पर तालियों की गड़गड़ाहट और खुशी के शोर से भर उठा है!और बहुत देर तक गूँज रहा है!
खेल खतम!
जादू टूटता है।
अब जो हो रहा है वह कोई करतब या कमाल नहीं है।
रामू जोकर के हाथ में एक खंजड़ी है जिसे उसने उल्टा पकड़ा हुआ है- दिए जाने वाले पैसों के लिए कटोरा बनाकर। उसके संग उसका बड़ा भाई भी धूम रहा है।गाँव के बच्चों और एकत्रित लागों से दान मांगा जा रहा है।गाँव के सरकारी स्कूल में गरीबों के ही बच्चे पढ़ते हैं। बहुत से माँ-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजते ही इसलिए हैं क्योंकि यहाँ मध्यान्ह भेजन मिलता है,जिससे उनके एक समय का भोजन बच जाता है।फिर भी जिससे जो बन पड़ा वे दे रहे थे खुशी-खुशी।
स्कूल की आज की छुट्टी हो गई थी।बच्चे अपना बस्ता लिए घर लौटने लगे।प्रिंसिपल सहित हम सभी टीचर्स स्टाफ-रूम में थे।सभी टीचर्स यहाँ शहर से आते हैं जो गाँव से पच्चीस किलोमीटर दूर है। सो सबको घर जाने की जल्दी थी।
लक्ष्मण सिंह स्टाफ-रूम में हाथ जोड़े-जोड़े मुस्कुराते हुए आया।सबसे दान या सहयोग जो कह लें माँगने।एक पल के लिए वह आज मुझे बिलकुल नया आदमी जान पड़ा था, अभी-अभी खतम हुए उसके खेल के कारएा। पर जरा- सी देर में जान गया कि अ बवह फिर कल वाला लक्ष्मण सिंह है,कृतज्ञता से भरा और इसी के बोझ से मुस्कुराता।प्राचार्य आर. के सिंह ने उसे जब बीस रूपये दिए तो वह दबे स्वर में लगभग गिड़गिड़ाने लगा,‘सर बच्चों से भी यहाँ कुछ खास नहीं मिला,कम से कम आप तो…।सर पचास रूपया कर दीजिए…।प्रिंसिपल ने उससे कहा, ‘अरे, हमने तुमको तुम्हारा खेल करने दिया यही बहुत है।बलिक तुमको स्कूल को ही कुछ दे के जाना चाहिए…जैसे दूसरे लोग दे के जाते हैं।खैर। मैं अभी इससे ज्यादा नहीं दे सकता।’’ प्राचार्य सिंह ठीक ही कह रहे थे,इसलिए कि अभी-अभी उनका काफी खर्चा हो गया है मकान बनवाने में,यही कोई बीस लाख। उन्होंने कुछ दिन पहले ही हमको ये बताया था। कि बिल्डंग मटेरियल्स के रेट आसमान छू रहे हैं।तिस पर करप्शन! थ्क दस हजार तो उनको खाली मकान का नक्शा पास करवाने निगम के इंजीनियर को देना पड़ा था।फिर अभी भवन पूर्णता प्रमाण पत्र के लिए पाँच हजार की डिमांड है…।पर लक्ष्मण सिंह उनसे बहुत आग्रह कर रहा था,‘सर आप इतने बड़े आदमी हैं,कम से कम पचास तो…?’ लेकिन प्रिंसिपल आर. के. सिंह बहुत होशियार प्रिंसिपल यों ही नहीं माने जाते। वे टस से मस नहीं हुए।
लक्ष्मण सिंह अब मैडमों की तरफ बढ़ा।मैडम लोगों के लिए यह जैसे एक संकट की घड़ी थी।यहाँ चार मैडम हैं।उन्होंने मिलकर उसे बीस रूपये दिये।अब यह कहने की कोई बात ही नहीं है कि सबकी आमदनी अच्छी है और पति-पत्नी दोनों कमा रहे हैं। पर कोई क्या करे जब सब चीजों का खर्चा इतना बढ़ गया है।बच्चों के पब्लिक स्कूलों की पढ़ाई-लिखाई, सब्जेक्टवाइज ट्यूशन्स या डांस क्लासेज..कितने तो खर्चे हैं। लक्ष्मण सिंह को निपटाकर वे अपनी-अपनी स्कूटी से निकल लीं।
लक्ष्मण सिंह मेरे पास आया तो मैंने उसकी मुट्ठी में तीस रूपये रख दिए।उसने मुस्कुराकर धन्यवाद दिया और बाहर निकल गया।
अब वहाँ पिंसिपल और मैं ही रह गए थे।
अभी हम कुछ बात कर पाते इससे पहले लक्ष्मण सिंह का बड़ा लड़का अपने छोटे भाई रामू जोकर के साथ अंदर आ गया। बड़े भाई ने शायद धंधे की कुछ चालाकी सीख ली है। उसने प्रिंसिपल के पैर पकड़ लिए एकदम…,‘सर, हम आपके पैर पड़ते हैं, दस रूपया तो और दे दीजिए सर…।हम माँ बच्चों के कुछ खाने के लिए दे दीजिए, सर…।’ वह सर के पैर से जोंक की तरह चिपट गया।उसने अपने छोटे भाई से भी साहब के पैर पकड़ने को बोला। नन्हा रामू जोकर भी टेबल के नीचे से कैसे भी तो घुस कर उनके दूसरे पैर से वैसे ही चिपक गया। अब कमरे में विचित्र दृश्य था, दोनों लड़के प्रिंसिपल के पैर पकड़े गिड़गिड़ा रहे हैं…सर…सर…।
प्राचार्य उनको झिड़क रहे हैं,‘अरे छोड़ो…!ये क्या लगा रक्खा है? अबे छोड़ो!
इधर ये दोनों थे कि उनके पैर छोड़ ही नहीं रहे थे-‘‘बहुत भूख लग रही है,सर… भजिया खाने को दस रूपया दे दो!’’ इधर प्राचार्य ने भी जैसे ठान लिया था कि इनको एक नया पैसा नहीं देना है। दोनों भाइयों ने जब कुछ नहीं मिलता देखा तो बोलने लगे…सर,पाँच रूपया ही दे दो…!सर,पाँच रूपया…!सर…! छानों बच्चे अब बिल्कुल ऐसे भिखारी बन चुके थे जिनकों देखने से पहले तो मन में अजीब-सी ग्लानि भर जाती है, फिर तीव्र घृणा।
प्रिंसिपल ने उन्हें काफी गुस्से से देह में चढ़ आए किसी कीड़े के समान झटक दिया-‘चलो हटो साले! पीछे ही पड़ गए हैं!’ और वे तेजी से कुर्सी से उठ खड़े हुए।मुझसे कहते हुए निकल गए कि स्कूल बंद करवा देना।मैं जा रहा हूँ। और वे बाहर खड़ी अपनी कार स्टार्ट करके उसी तेजी से निकल गए।
हमारे स्कूल में चपरासी नियुक्त नहीं है,इसकी विवशता में बच्चों से ही दरवाजे-खिड़कियाँ बंद करवा के ताला लगवाना होता है। मैं बाहर आया तो लक्ष्मण सिंह और उसकी पत्नी अपना माल-असबाब बहुत धीरे-धीरे समेट रहे थे।तीनों बच्चे भी वहीं बैठे थे। वे सभी बहुत थके हुए लग रहे थे।
मैंने कहा,लक्ष्मण सिंह,तुम सब अंदर स्टाफरूम में बैठो।मैं तुम लोगों के लिए नाश्ता बुलवा रहा हूँ।
स्कूल के वे दो-चार बच्चे जो स्कूल बंद करते हैं,रूके हुए थे। उनको नाश्ता लाने मैंने होटल भेज दिया।
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