कैलाश बनवासी की कहानी ‘गुरु-ग्रन्थि’।


कैलाश बनवासी

प्रगतिशीलता का दिखावा करने वाले लोग भी अक्सर रुढ़िवादी और अन्धविश्वासी होते हैं। ऐसे लोग अपनी प्रगतिशीलता की आड़ में अपने पिछड़ेपन को छुपाये रहते हैं। समाज में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं। कहानीकार कैलाश बनवासी ने अपनी इस कहानी ‘गुरु ग्रंथि’ में इसी विषय को आधार बनाया है। कहानी अपनी प्रवहमानता में जैसे सब कुछ कहती जाती है। कहानीकार को अलग से कुछ भी नहीं कहना पड़ता। यही तो कैलाश बनवासी की खासियत भी है। तो आइए आज पढ़ते हैं कैलाश बनवासी की यह कहानी ‘गुरु-ग्रन्थि’।
        
गुरू-ग्रंथि

कैलाश बनवासी
‘‘आइये-आइये गुरू! आपका स्वागत है!’’ कांति भाई ने बहुत हुलस कर गुरू का स्वागत किया था, अपने घर के दरवाजे पर ही।
कांति भाई एकदम खुश हो गए-बिलकुल बच्चों के समान! यह खुश होने की बात ही थी। कितने महीने बाद तो गुरू उनके घर आए हैं!
गुरू कांति भाई के चंद मित्रों में से हैं, और बहुत खास। उनके पारिवारिक और अंतरंग मित्र। कोई तीस साल पुराने साथी। और कांतिभाई जबसे सुभाष चौक वाला अपना घर बेच कर इधर विजयनगर में शिफ्ट हुए हैं तब से पुराने दोस्तों का मिलना-जुलना भी कम ही हो गया है।
सुभाष चौक  में कांति भाई का जो पुश्तैनी घर था, शहर के मुख्य सड़क पर, जो बाजार और रेलवे स्टेशन को जोड़ती है। उनका घर उनके पिता का बनाया हुआ पुराना बाड़ा था। उनके तीन सौतेले भाई थे, जो इसी बाड़े में रहते थे। कांति भाई के हिस्से में सामने से बारह फीट चौड़ा और चालीस फीट लंबा मकान आया था, जिस पर भी भाइयों में विवाद चल रहा था। कांतिभाई ने अपने घर के सामने के कमरे को अपनी चाय दुकान बना लिया था। यही था उनकी रोजी-रोटी का जरिया।
और यही चाय दुकान उनके मित्रों का एक ठियां था- बैठने बात करने का।
अक्सर शाम को जुटने वाली इस मंडली का हिस्सा थे गुरू।
गुरू आज की तारीख में शहर के बहुत रईस तो नहीं, लेकिन एक जम चुके व्यवसायी अवश्य हैं। आकाश नगर में उनका बड़ा-सा दो मंजिला मकान है। शहर से 35 किलोमीटर दूर धमधा में शिवनाथ नदी के किनारे उनका सात एकड़ में फैला हुआ ईंट-भट्ठा है, धंधा चमकने के बाद जिसका आफिस उन्होंने आजकल गंजपारा के मेनरोड में डाल रखा है। और कांति भाई को गुरू की सबसे बड़ी,  और सबसे अच्छी बात जो लगती है, वह है उनका एक अग्रणी समाज-सेवी होना। एक सामाजिक व्यक्ति के रूप में गुरू का नाम है शहर में। अपने अग्रवाल समाज के जिला सचिव हैं ही। अपने समाज के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते हैं।
गुरू कार में आए थे। ड्राइवर साथ था।
गुरू घर में आए।बैठे। कहा, भाभी को बुलाओ।
‘‘नमस्ते भइया!’’ कांतिभाई की पत्नी कमला ने हँस कर कहा।
 ‘‘भाभी, बेटे की शादी है। ये कार्ड। और आप सबको आना है!
  ‘‘अरे वाह! बधाई हो गुरू!’’ कांति भाई कार्ड लेकर देखने लगे।
कमला ने पूछा, ‘‘भइया कब है शादी?’’
 ‘‘भाभी इसी अट्ठाइस को है जैनम पैलेस में। जरूर आइये।’’
कांति भाई पत्नी से बोले,  ‘‘अरे कुछ चाय-पानी तो लाओ गुरू के लिए…इतने दिनों बाद आए हैं!’’
गुरू कहते रहे, अरे नहीं कांतिभाई, और जगह जाना है, लेकिन कांति भाई ने थोड़ी नाराजी जता कर ऐसा इसरार किया कि मना नहीं कर सके।
बातचीत में गुरू बताने लगे कि सबकुछ फटाफट तय हो गया। और लड़की वाले तो कांति भाई, आपसे भी गरीब हैं,एक कमरे का मकान है फाफाडीह रायपुर में। बाप मजदूर है। माँ भी साड़ी के पीकू-फाल कर लेती है। बेटी बस है, इकलौती। बारहवीं तक पढ़ी। वैसे भी अपन को कौन-सा बहू को नौकरी करानी है? हम तो केवल लड़की देख कर शादी कर रहे हैं। और कांति भाई, उनकी तो कोई हैसियत ही नहीं कि भवन या पार्टी वगैरह कर सके। इसलिए हमने उनसे कह दिया है कि भाई, हम तो यहाँ के मैरिज पैलेस में शादी करेंगे। तुम लोग ऐसा करो, अपने परिवार, रिश्तेदारों को लेकर उसी भवन में आ जाओ। दान-दहेज और खर्चे की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। आपको आना है कांति भाई!’’
‘‘अरे गुरू, ये भी कोई कहने की बात है?’’ कांतिभाई गुरू की इस प्रगतिशीलता से प्रभावित हुए। बोले, जरूर आयेंगे!
गुरू ने चाय आने पर उनकी पत्नी से फिर कहा, ‘‘आना है भाभी। हर हाल में। कोई बहाना नहीं चलेगा, है ना?’’
 ‘‘आएंगे न भइया। बिल्कुल आएंगे।’’ कमला हँस कर बोली।
जाते-जाते गुरू कांति भाई के बेटे-बेटी से भी बोले- ‘‘तुम लोगों को भी आना है…पक्का!’’
‘‘जी चाचा जी! आएंगे।’’ राजू और पिंकी हँस कर बोले।
‘‘चलता हूँ यार! सोफे से उठते हुए बोले, ‘‘कितना काम रहता है साला इस शादी-ब्याह में! अभी पद्मनाभपुर निकलना है रिश्तेदारों के यहाँ, फिर महावीर कालोनी, फिर रायपुर..।
‘‘अरे गुरू,जब लड़के की शादी हो रही है तो बाप को तो पसीना बहाना ही पड़ेगा! कांति भाई ने कहा तो गुरू बोले, ‘‘कांति भाई, बाप ने चाहे जितना पसीना बहाया हो पर ब्याह के बाद तो लौंडा बाप को नहीं, खाली डउकी को ही पूछेगा!’’
हँस पड़े कांतिभाई।गुरू ने यह कहा तो उनको मजा आ गया! सोचा, अरे गुरू साला आज भी वैसा ही है! वैसे ही खुले दिल का, जिंदादिल! खुशमिजाज!
गुरू को कांति भाई ने बिदा किया। उसकी कार को वो अगले मोड़ तक जाते देखते रहे, बहुत सुख के भाव से।
कांतिभाई के आगे यादों के बहुत सारे चित्र हैं… गुरू के साथ बीते इतने दिनों के…कोई तीस साल पहले से शुरू।
….सुभाष चौक  की उसी लाइन में जिसमें कांति भाई की चाय दुकान है,गुरू -विनोद अग्रवाल- ने एक छोटे-से कमरे में अपनी शाप डाली है- रेनबो कलर लैब’! गुरू का परिवार भाटपारा से यहाँ आया है। माता-पिता और गुरू सहित तीन भाई। आदर्श नगर में किराये के मकान में रह रहे हैं। धंधे के मामले में बहुत दूरदर्शी हैं गुरू। दूसरों से दस कदम आगे की सोच लेने वाला। इन्हीं दिनों दुर्ग से लगे भिलाई के सिविक सेंटर में उनके किसी रिश्तेदार ने जापान की आटोमेटिक फोटो कलर प्रिंटर मशीन डाली थी। यह इस इलाके में फोटोग्राफी के क्षेत्र में नयी और बड़ी क्रांतिकारी पहलकदमी थी। इस मशीन ने फोटो की प्रिंटिंग एकदम आसान कर दी थी। फोटोकापी निकालने के जैसा। अब स्टुडियो वालों को अपने स्टुडियो के डार्करूम में मगजमारी करने और समय खपाने की जरूरत नहीं थी। फोटो रील को मशीन प्रिंट कर लेती थी। शहर में अपने तरह की यह पहली दुकान थी। प्रतिसाद अच्छा मिलना ही था। गुरू ने पहले घूम-घूम कर शहर के तमाम फोटो स्टूडियोज से फोटो रील लेकर उन्हें प्रिंट कराने का आर्डर लेना शुरू किया। फिर साल भर के भीतर ही आसपास के पूरे इलाके से-क्या डोंगरगढ़, क्या कवर्धा, और क्या  राजहरा, सब जगह से आर्डर मिलने लगे! दुकान में उनका छोटा भाई राजू बैठने लगा। और उन दिनों देखते कि गुरू अपनी लूना से गाँव और शहर के तमाम स्टुडियोज़ छान मार रहे हैं आर्डर लेने। उनका धंधा चल निकला। अब उसकी दुकान में फोटो-स्टुडियो वालों की भीड़ रहने लगी। आगे गुरू ने काम बढ जा़ने पर दूर-दराज के गाँवों में, तहसीलों में अपने एजेंट बना लिए, जो वहाँ के फोटो-स्टुडियो के रीलों का कलेक्शन करके यहाँ प्रिंटिंग के लिये दे जाते,और दूसरे दिन प्रिंट ले जाते।
कोई पाँच साल लग गए इस धंधे को जमने में। गुरू गले में गमछा डाले अपनी लूना में मस्त। दिनभर धूल, धूप में यहाँ-वहाँ की चक्करदारी के बाद शाम को  कांतिभाई की चाय दुकान में बैठते,फुर्सत से। जहाँ इस समय असपास के और भी कारोबारी या दूसरे लोग जमा हो जाते । फिर गप्प ऊपर गप्प! दुनिया जहान की बातें और किस्से! राजनीति, सिनेमा, समाज, धरम, परिवार जो भी चर्चा छि़ड जाए। इस समय तक कांति भाई भी फ्री हो चुके होते और इस मंडली के साथ अपना समय बिताते।
गुरू को गुरूनाम इसी चहकड़ी मंडली का दिया हुआ है। और यह ऐसा पड़ा कि आज भी बहुत से लोग उनके असली नाम से जानते ही नहीं। गुरू असल में बहुत व्यावहारिक आदमी हैं। जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव,धूप-छांव के अनुभवों से भरे। धंधे के सिलसिले में आसपास ही नहीं,दिल्ली, मुंबई,या कलकत्ते तक की खाक छाने हुए। और बतरसिया गुरू की हर मामले में राय हाजिर! तुमको किसी उधारी लेना हो, किसी से उधारी वसूलना हो,  मकान बनवाना हो, इंजीनियर को पटाना हो, कि नया धंधा शुरू करना हो, कि आफिस के बाबू से अपने फाइल पर ओ. के. रिपोर्ट लेना हो, रेलवे में रिजर्वेशन के लिए टी. टी. को पटाना हो, सब काम के लिए उनके पास नुस्खे हाजिर! चाहे बेटी की शादी में उजड्ड बरातियों से निपटना हो या ऐन मौके पर कम पड़ गई दाल के संकट से उबरना हो.., सब पर उनकी राय हाजिर! अपनी पतली, लचकीली आवज में गुरू ज्ञान दे रहे हैं- तुम बरातियों से प्रेम से बोलो कि अभी आ रहा है भाई। उन्हें बातचीत में फुसलाए रखो तब तक बची दाल में पानी मिला कर करछुल चलवा दो… किसको पता चलेगा?’ यहाँ तक कि किसी को अपने परिजन के अस्थि-विसर्जन के लिए राजिम या इलाहाबाद  जाना हो, तो गुरू के वहाँ ऐसे समाजसेवियों से संपर्क हैं जो आपको न केवल कम से कम खर्चे में पंडा उपलब्ध करवा देगा, बल्कि पूजा-पाठ में भी होने वाली लूट से भी बचा देगा। गरज कि गुरू हर तरह की सेवा में हाजिर और माहिर। इसीलिए तो गुरू हैं!
गहरे सांवले रंग के, मंझोले कद और हल्के गदबदे देह के खुशमिजाज गुरू सबके चहेते हैं। सिर के सामने के बाल बहुत पहले से झड़ गए हैं। और गुरू अपने लिए ही नहीं दूसरों के लिए भी कर्मठ हैं। चौक पर ही कांतिभाई की दुकान के ठीक सामने सड़क पार पर रियाज की गद्दा-तकिया सीलने की दुकान है। उस दिन जाने कैसे दिन-दहाड़े उसकी रूई दुकान में आग लग गई। उन दिनों नगर निगम में अग्निशामक गाड़ियां नहीं थीं। भिलाई से बुलाना पड़ता था जिसमें काफी समय लग जाता था। आग लगी तो आसपास के सारे धंधेवाले इसे बुझाने में जुट गए। कांति भाई देख रहे हैं,  अपना धंधा छोड़कर गुरू भी भिड़े हुए हैं ,बाल्टी भर-भर कर कुएं से पानी ला रहे हैं, उनके कपड़े और शरीर पसीने से एकदम तरबतर…सर के बाल भी माथे से पसीने के कारण चिपके हुए हैं,लेकिन गुरू हैं कि भिड़े हुए हैं किसी भूत की तरह…। 
और मजाकिया भी कम नहीं। जहाँ गुरू हैं वहाँ हँसी-मजाक चलता ही रहेगा। कांति भाई को याद है कैसे गुरू के आने के बाद वहाँ कहकहे फूटने लगते थे!
गुरू अपना अनुभव बता रहे हैं, अरे भाई,  इन डौकी लोगों को क्या कहें, शादी हुए साला बीस साल बीत गए लेकिन आज भी रात में उनसे पूछो तो जवाब- नहीं। नहीं। नहीं!अरे यार कभी तो बोलो हाँ! इन लोगों को मानो किसी ने जिंदगी भर के लिए कसम दिला रक्खी है, कि अपनी तरफ से हाँ नहीं बोलना! साला पचीस बार उनकी नहीं सुनके भी हाँके लिए पीछे पड़े रहना पड़ता है! अरे चलो न…अरे चलो न…!
कभी बता रहे हैं, यार,  मुझको तो आज भी खुले में निपटना अच्छा लगता है। मैं तो घूमते ही रहता हूँ। बाहर में प्रेशर बना तो कभी किसी खेत में, या कभी नाले के पास या कभी नदी किनारे..। इस सुख का तो कोई मुकाबला ही नहीं! आह्हाऽऽऽऽ.. कितना चैन मिलता है खुले में बैठने से! बैठे रहो इत्मीनान से…देखते रहो सामने नदी, पेड़, पंछी, आसमान… इस सुख को तो भइया निबटने वाला ही जान सकता है!और तुम लोगों को बताता हूँ, मैं मान लो शहर में आ भी गया होऊँ, तो भी नाला या तालाब खोजता हूँ…।
कोई टोक देता,-अरे क्या फालतू बात करते हो गुरू?
 ‘‘अरे, इसमें फालतू बात क्या है?  तुम प्रकृति के नजदीक जाओ तो ही जीवन का असली सुख है! ये क्या कि साला एक दड़बे में जिंदगी गुजार देना!’’
गुरू का दिमाग तेज चलता है। धंधे के मामले में हमेशा कुछ न कुछ नया ही सोचते हैं। उनकी नजर बराबर इस बात पर रहती है कि मार्केट में नया क्या आया है, जिसकी आगे चलकर डिमांड बढ़ सकती है…।
 
इन्हीं दिनों कंस्ट्रक्शन-मार्केट में परम्परागत कुम्हारों के या चिमनी के बने ईंटों की जगह हालो ब्रिक्स और सीमेंट पोल का चलन शुरू हुआ था। सबसे छोटा भाई पप्पू अभी-अभी ग्रेजुएट हुआ था। और गुरू का विचार है कि लड़का कहीं बहके, इससे पहले ही उसको कोई जिम्मेदारी दे दो। गुरू ने इस उद्योग के लिए भिड़-भिड़ा कर राज्य उद्योग विभाग से मंजूरी ली, और बैंक से लोन फाइनेंस कराया। पास के गांव जेवरा में मेनरोड से लगी एक जगह खरीद कर यह काम शुरू कर दिया। इस नये धंधे को जमाने में,  सरकारी विभागों के अधिकारियों और बाबुओं को प्रभावित करने में उनकी कर्मठता, दक्षता और वाकपटुता ही काम आयी। जल्दी ही बड़े सरकारी आर्डर मिलने लगे। जब देखा कि सब मामला अच्छे से सेटहो गया है तब इसकी जिम्मेदारी पप्पू को सौंप दी। और उसने इसे बखूबी संभाल लिया।
गुरू ने दोनों भाइयों की शादी भी खूब धूमधाम से की। घर में बहुएं आ गईं।
लेकिन डेढ़-दो साल बाद ही गुरू ने जब दुर्ग से पैंतीस किलोमीटर दूर धमधा में शिवनाथ नदी के किनारे पाँच एकड़ का खेत खरीदा तो सभी चौंक गए। यही नहीं, गुरू अपना परिवार-पत्नी और दो बेटे- के साथ अचानक वहीं रहने लगे और खेतीबाड़ी करने लगे,तो सब चकरा गए। शहर में बसा, जमा-जमाया कारोबार छोड़ कर यों कोई गाँव में रहने लगे, सो भी परिवार सहित,  तब लगा गया कि मामला गहरा है, कोई पारिवारिक विवाद ही इसके जड़ में है।
लेकिन गुरू ने कभी खुल कर इसके बारे में नहीं बताया। इतना ही बताया, कांति भाई, अब चार बर्तन जहाँ रहेंगे वहाँ खटपट तो होगी ही। और डउकी लोगों तो जानते ही हो! मेरी बीवी ही अड़ गई- इस घर में अब एक मिनट नहीं रहना है! जबकि बच्चे अभी आठवीं-नवमी पढ़ रह थे।
 
गाँव में अच्छे और बड़े प्राइवेट स्कूल तो थे नहीं, लिहाजा बच्चों को गांव के सरकारी स्कूल में ही भरती करा दिया गया। यह उनके परिवार में विचित्र बात हो गई। जिन भाइयों को उन्होंने पढ़ाया लिखाया, धंधे-पानी से लगाया, उनके बच्चे तो शहर के नामी प्राइवेट इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ रहे थे, और उनके खुद के बच्चे गाँव के सरकारी स्कूल में! लेकिन गुरू का मानना है सब कुछ स्कूल से थोड़े ही तय होता है! आपका भविष्य आपके काबिलियत में है,  न कि किसी स्कूल विशेष में.! यह सिद्धांत उन्होंने शिक्षा के इन घोर व्यावसायीकरण और निजीकरण के दौर में भी बनाये रखा,ये उनके हौसले की ही बात है।
गुरू ने गाँव में रहते हुए कुछ और जमीन खरीद ली। अपना ईंट भट्ठा डाल लिया। उसका एक आफिस शहर में डाल लिया।
  बच्चे पढ़ते गए और बढ़ते गए।
  यहीं अब गुरू के बेटे की कहानी शुरू होती है, जिसके बारे में वह कांति भाई को बीच-बीच में बताते रहे हैं।
दो बरस पहले गुरू एक बार कांति भाई से मिलने आए थे, तब काफी परेशान थे। इतना परेशान कांति भाई ने उन्हें कभी नहीं देखा था। और मानसिक रूप से भी बहुत कमजोर और टूटे हुए लगे थे। उनके चेहरे पर जिंदादिली की वह मुस्कान- जो उनकी खास पहचान है-गायब थी, कि हर समस्या का अपनी तरह से हल बताने वाले गुरू जैसे खुद किसी समस्या में उलझ गए थे।
    समस्या थी- बेटे का प्रेम-विवाह के लिए अड़ जाना!
     स्कूल के जमाने से गाँव में अपने साथ ही पढ़ने वाली एक लड़की से उनका बेटा प्रेम करता था और अब विवाह उसी से करूंगा कि जिद। उन्होंने पता लगा लिया था कि लड़की सुन्दर है और उनके बेटे के साथ जोड़ी अच्छी दिखाई देगी। यहाँ तक तो कोई समस्या नहीं थी । समस्या थी लड़की की जात। वह यादव थी। यही बात उनको पसंद नहीं थी।
   ‘‘यार, साले को लड़की पसंद भी करनी थी तो थोड़ा जात-बिरादरी देखकर करता! तब तो कोई दिक्कत नहीं थी। लड़की गरीब घर की भी होती तो चल जाता। और मैं जो अपने समाज का मुखिया हूँ, अपने ही बेटे की शादी कैसे जात के बाहर कर दूँ ? समाज वाले क्या कहेंगे। देखो भाई, तुम मानते हो या न मानते हो, लेकिन मैं तो मानता हूँ। ये जात-पांत हमारे पुरखों ने बनाई है तो कुछ सोच कर ही बनायी है। और अपने यहाँ तो यही शादियां सफल है। लव-मैरिज वाले कितने ही जोड़ों का हाल मैं खुद देख चुका हूँ। मैंने भी अपनी जिद लड़के को बता दी है कि देख बेटा, तेरे को अगर इस घर में रहना है तो हमारी मर्जी से शादी करनी पड़ेगी। नहीं तो अपना बोरिया बिस्तर समेट और निकल ले!
    लड़का तब तक नहीं माना था। जिद कि शादी उसी लड़की से करूंगा।
   ‘‘यार, तुम लोग आ के समझाओ उसको। घर में ऐसे थोड़े ही चलता है!’’ गुरू ने कहा।
   ‘‘अरे गुरू, हम लोग भला क्या समझाएंगे? वो भी आपके जैसे समझाने वाले के होते?’’ कांति भाई ने टालने की कोशिश की, ‘‘वो जवान लड़का है, अपना भला-बुरा खुद समझने लगा है, हम लोग क्या बोलेंगे?
 ‘‘अरे कांतिभाई, एक बार समझाने में क्या हर्ज है? घर की ही बात है।’’ गुरू ने आग्रह किया।
        कांति भाई का जाने का मन नहीं था। लेकिन लगा, कहीं गुरू इस बात का बुरा मत मान जाए, कि देखो एक काम बोला, वो भी…? इसलिए एक दिन चले गए अपने ग्रुप के ही एक मित्र को साथ लेकर। कांति भाई को जाते हुए कोई खुशफहमी नहीं थी। उल्टे अटपटा ही लग रहा था। और सच में वे हड़बड़ा गए, जब इतने दिनों बाद अब जवान हो चुके एक लड़के से कमरे में कमरे में मिले। कांति भाई ने गुरू के हवाले से उसे अपनी तरह से समझाया- जैसे एक जवान बेटे को समझाया जाता है।
     लेकिन लड़के ने अपना रूख साफ कर दिया कि वह अपने पुराने निर्णय पर कायम है। अब जवान लड़के से ज्यादा कोई क्या बोले?
   वहाँ से लौटते हुए मन में बात पक्की हो गई थी कि ये नहीं मानेगा। और फिर सोचा कि जयगुरू को दिक्कत क्या है? लड़का जहाँ चाहता है, कर दे वहीं शादी। घर में और कोई समस्या तो है नहीं, कि पहले कमा के दिखा,या अपने पांवों पर पहले खड़े हो के दिखा…।
  लेकिन आगे जाने क्या हुआ कि इस बार भी जीत गुरू की ही हुई! गाँव में क्या गुरू ने क्या तिकड़म भिड़ाया यह तो वही जाने, लेकिन लड़का बाप की बात मान गया!
  गुरू मिलने आये तो काफी खुश थे,  ‘‘चलो यार, बला टली! अब लड़के की शादी दिल खोलकर करूंगा! अब लड़की भले ही गरीब घर की हो, मैं सोचूंगा नहीं!’’
अगली बार जब गुरू मिले तो इसी खुशखबरी के साथ। उन्होंने रायपुर में एक लड़की देख ली थी। लड़के को भी लड़की पसंद आ गई है। गुरू ने किंचित गर्व से बताया था, ‘‘बेटे का रिश्ता जहाँ हुआ है कांति भाई, उनका घर तो तुम्हारे घर से भी छोटा है। बिल्कुल एक कमरे का मकान। बाप किसी बर्तन दुकान में काम करता है। एक ही बेटी है। पर अपन ने लड़की की हैसियत बिल्कुल नहीं देखी। अरे यार, जब हमारे जैसे लोग उनका नहीं सोचेंगे तो फिर कौन सोचेगा ? गरीब घर से है तो क्या हुआ, यहाँ आ कर सब सीख जाएगी!’’ कांति भाई ने नोटिस किया, गुरू का सांवला चेहरा चमक रहा है, अपनी मदद से किसी गरीब का उद्धार कर देने वाले किसी दानवीर सेठ के उत्साह से! 
 
कांति भाई को गुरू की यह बात बहुत अच्छी लगी थी कि उन्होंने बेटे का रिश्ता करते हुए हैसियत की ऊँच-नीच नहीं देखी थी। यह एक बड़ी बात थी! उन्होंने खुश हो कर उनको बघाई दी थी!
  बारात निकलने के पहले ही कांतिभाई सपरिवार विवाह-स्थल में पहंच गए थे। भइ, आखिर दोस्त के बेटे की शादी है।
…सारा कुछ अमूमन वैसा ही था जो आमतौर पर ऐसे रिसेप्शन पार्टियों में देखने को मिलता है। बिजली के चमकते रंगबिरंगे झालर, एक ओर खाने-पीने के सजे हुए स्टाल, दूल्हे-दुल्हन के लिए सजे हुए मंडप.., स्टेज…पानी के रंगीन फव्वारे., हल्का-हल्का बजता मन को भाता संगीत..। फिर यहाँ कांति भाई को अपने लगभग सारे पुराने साथी मिल गए,जिससे आनंद दुगुना हो गया! उनमें जम के हंसी-मजाक होने लगे। बढ़िया हँसी-खुशी का वातावरण!
   शादी में सब कुछ नियम और रस्मों के मुताबिक निपट रहा था। कांति भाई लड़के पक्ष की तरफ से गुरू के साथ खड़े थे। गुरू आज ग्रे रंग के चमकीले सूट में चमक रहे थे, सर पे गुलाबी साफा बांधे हुए। वर पक्ष के तमाम रिश्तेदार यही साफा बांधे हुए थे।
  बारात बाज-गाजे, आतिशबाजियों और लड़कों के जम कर नाचते-गाते हुजूम के साथ घूम कर लौटी। अब समय था वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष के लोगों के स्वागत करने का।
 लड़की के पिता, जो सफेद कुरते-पाजामे में थे, गमछे का फेंटा बांधे हुए, अभी वर के तमाम रिश्तेदारों के पैर धोने का नेंग निभा रहे थे। सबसे आगे वहाँ गुरू खड़े थे, जो अपने समधी को उनका परिचय देते हुए पैर धुलवाने एक-एक कर बुलाते जा रहे थे। कांति भाई देख रहे थे, पैर धुलवाने वालों गुरू के नातेदारों की संख्या तीस पार कर चुकी थी। ये इकतीस…ये बत्तीस…. कांति भाई गिनने लगे थे.. .ये उनचालीस…ये चालीस…। और गुरू बताए जा रहे थे, ये लड़के के नरसिंहपुर वाले मामा का बेटा,… ये लड़के के दादा का अंबिकापुर वाला भतीजा…ये..। 
 कांति भाई को यह बात बड़े जोर से खटक गई वहाँ!
   अरे! ये क्या तरीका है? पैर धुलवाए जाते हैं महज नेंग की खातिर। कि किसी जमाने से यह चला आ रहा है तो नाम के लिए इसका पालन करें। दो, चार, आठ दस…अधिक से अधिक पंद्रह ..या बीस..। यहाँ तो गुरू, जिनके भीतर पता नहीं कब से कुंडली मारे बैठे ऐसे पांरपरिक, रूढ़िवादी संस्कार सहसा हावी हो गए थे कि वह एक के बाद एक अपने तमाम रिश्तेदारों को लड़की के पिता से पैर धुलवाने आगे करते जा रहे थे…।
   …हाँ, आप हैं मेरे भाई के काकाससुर.., आप हैं मेरी बहन के डोंगरगढ़ वाले फुफाससुर..,. आप हैं छोटे भई के मौसाससुर …आप हैं हमारे चाचा के ममेरे भाई…आप हैं…।
      सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। गुरू ने करीब-करीब अपने सारे रिश्तेदारों के पैर लड़की के पिता से धुलवाए।संख्या  पचास से कम तो हरगिज नहीं थी…।
   मन खट्टा हो गया कांति भाई का। उदार,जिंदादिल गुरू के इस रूप की कल्पना भी उन्होंने कभी नहीं की थी। सोच रहे थे, ये क्या हो गया है गुरू को? अरे,  भला ऐसा भी क्या स्वागत करवाना?  मान लिया कि नेंग होता है। तो चार-आठ का घुलवा देते? इतने सारे लागों के पैर धुलवा के क्या साबित करना चाहते हैं आप? कि देखो हमारे कितने रिश्तेदार हैं! या यह कि तुम हमारी हैसियत के कहीं से नहीं हो! कि तुम्हारी लड़की को मांग कर हमने तुम पर बहुत बड़ा अहसान किया है! कि तुमको आज से हमारे इस अहसान के तले सदैव दबे रहना है। कि तुम लड़की वाले हो, और लड़की वालों को तो हमेशा उसके ससुराल वालों के आगे झुक कर रहना पड़ता है…।
पता नहीं क्या था गुरू के मन में ये सब करवाने के पीछे ! जो भी हो, यह तो दिखाई पड़ रहा था कांति भाई को, कि ये अपने समाज के अगुआ और आधुनिक सोच-समझ वाले माने जाने के बावजूद,  हैं अंततः दकियानूस, जो ऐसी-ऐसी प्रथाओं को आज भी बढ-चढ़ के महत्व दे रहे हैं! अपने बरसों पुराने साथ पर आज उन्हें बड़ी हैरानी हो रही थी,  कि भला गुरू का यह रूप अब तक वह क्यों नहीं देख सके?
000
  इसके बाद कांति भाई का काफी दिनों तक -शायद साल भर से- गुरू से मिलना नहीं हो पाया। जाने क्यों,  उनका मन ही नहीं हुआ। गुरू का ध्यान आता तो उन्हें वह सब भी ध्यान आ जाता तो उन्हें बिलकुल नहीं जमा था! फिर सोच लिया,  ठीक है, ये गुरू की अपनी सोच है। इसमें भला मैं क्या कर सकता हूँ? और यारी-दोस्ती में ऐसी बहुत-सी बातों को नजर-अंदाज करना ही पड़ता है। व्यावहारिकता के नाते।
  एक दोपहर वह चले गए गुरू के गंजपारा वाले आफिस। अच्छा ही था कि इस समय वे व्यस्त नहीं थे। उनके केबिन के बाहर जो सोफा लगे थे,  गुरू भी वहीं बैठ गए। बातचीत होने लगी। वैसे ही जैसे पुराने मित्रों से मिलने पर हुआ करती है…ज्यादातर अपने ग्रुप के साथियों के वर्तमान हाल-चाल, जिसमें इधर बढ़ती उम्र के साथ सबकी कोई न कोई स्वास्थ्यगत समस्या खड़ी हो रही थी। इसी गपशप में फिर उनके पारिवरिक मामले भी आते चले आए। कांति भाई  भी बेटी-दामाद वाले हैं, तीन साल पहले वे अपने बड़ी बेटी की शादी कर चुके हैं।
  बातचीत के दौरान गुरू बोले, ‘‘देखो कांति भाई, आप इसका बुरा मत मानना, लेकिन ये पक्की बात है कि अधिकांश लोग जो गरीब रहते हैं, उनके दिल-दिमाग भी साले दरिद्र ही रहते हैं!’’
  चौंक गए कांति भाई। उन्हें एकबारगी लगा, कहीं मेरे बारे में ही तो नहीं बोल रहे हैं ? वह बहुत गौर से गुरू का कहना सुनने लगे।
    ‘‘इनको सुधारना भी चाहो तो तुम नहीं सुधर सकते। ये जैसे हैं…अपनी दरिद्री में…कंगले…ये बस वैसे ही रहना चाहते हैं!’’  गुरू का मुँह घृणा से कुछ विकृत हो गया और तेज बोलने के कारण होंठ के किनारे सफेद फुचके जम गए थे।
   ‘‘क्यों? क्या हो गया गुरू?’’  कांति भाई को कुछ समझ नहीं आया, यह कहना क्या चाहता है ? पूछा, ‘‘ये आप किसके बारे में बोल रहे हो?’’
  ‘‘यार,  मैं अपने समधी के बारे में बोल रहा हूँ! समधी के बारे में! वो छतीसगढ़ी में एक ठो गाना है न,… लाखों में एक झन हाबै गा मोर समधी!’’
   गुरूदेव ने जब यों चिढ़ कर,  भीतर से तिलमिला कर अपने समधी को ताना मारा तो कांति भाई को हँसी आ गई। पूछा, ‘‘अच्छा?  भला उन्होंने ऐसा क्या कर दिया जिससे आप उन पे इतना नाराज हो रहे हो?’’
 ‘‘ अरे, नाराजी की तो बात ही है कांति भाई! आप भी एक लड़की के पिता हो। आपकी बेटी भी ससुराल में है। और अगर, आपको उसके ससुराल वाले प्रेम से किसी कार्यक्रम में बुलाते हैं तो क्या आप नहीं जाओगे…?’’
   सोच में पड़ गए कांति भाई। थोड़ा समय ले कर बोले, ‘‘क्यों नहीं जाऊँगा ? मेरे जाने लायक हुआ तो बिल्कुल जाऊँगा!’’
  गुरू ने तत्काल कहा, ‘‘और ये मेरा समधी है साला, लाखों में एक! बुलाओ तो उसके बाद भी नहीं आता।’’
   ‘‘कुछ काम होने से तो आना चाहिये उनको…।’’ कांतिभाई ने अपनी राय दी। फिर पूछा, ‘‘वैसे किस काम के लिए बुला रहे थे?’’
 ‘‘यार,  बहू की सधौरीथी। मैंने खबर दिया था और उससे कहा था आने के लिए। तो वो खुद नहीं आया, अपनी पत्नी और दूसरे रिश्तेदारों को भेज दिया!’’
   ‘‘अरे, तो क्या हो गया? चलो,  उनके घर से लोग आए न?’’
   ‘‘अभी और एक कार्यक्रम था। हमारे एक करीबी रिश्तेदार के बेटी की सगाई थी। खबर मैंने खुद ही दी थी, लेकिन वो हाँ-हाँ करके भी नहीं आया…, अब इसको क्या बोलोगे…?’’
  ‘‘ वैसे करते क्या हैं आपके समधी?’’
  ‘‘अरे बताऊंगा तो तुम भी हंसोगे! ठठेरा है! बर्तन पीटने का काम करता है! घर में इनके और कोई है नहीं। मैं उसको कई बार बोल चुका कि भाई, तुम यहाँ आ जाओ…मेरे भट्ठे में मुनीम का काम देखो। वहाँ कमरा बना है उसमें रहो। पर नहीं!! भले रह लेंगे कुंदरापारा की अपनी आठ बाइ दस की खोली में! मगर मेरे साथ रहने में लाट साहब की नाक कटती है! मैं इसीलिए तो बोल रहा हूँ न कि ये साले दिमाग से भी कंगले होते हैं! एकदम पैदल!’’ गुरू एक बार फिर चोट खाए साँप-सा तिलमिला गये।
  कांति भाई ने पूछा, ‘‘गुरू, आपने कभी जानने की कोशिश की कि क्यों वो आपके साथ नहीं रहना चाहता ?’’
  ‘‘भला इसमें जानने की क्या बात है? अरे,ऐसे लोग न कोई अच्छी बात न सुनना चाहते हैं न समझना!न करना! और क्या?’’

   अब कांति भाई को मामले का सूत्र हाथ लगते जान पड़ा। बोले, ‘‘देखो ऐसा है गुरू, आपकी और उसकी हैसियत में बड़ा भारी अंतर है! आपके सामने तो वो नहीं के बराबर है! हो सकता है, बेटी के घर आने-जाने की जो परम्परा है, उसके चलते उनको दिक्कत होती हो। पुराने लोग तो बेटी के घर का पानी तक नहीं पीते थे। या लेन-देन की जो व्यावहारिकता है उसमें अपनी गरीबी के कारण परेशानी होती हो…। जैसे मैं अपनी ही बात बता रहा हूँ। मेरी बेटी भी एक खाते-पीते घर में गई है, पास ही बिलासपुर में।लेकिन हमको वहाँ जाने के पहले दस बार पहले सोचना पड़ता है! हजार-पाँच सौ तो ऐसे ही उड़ जाते हैं! तो गरीब आदमी के लिए…।’’
गुरू कांति भाई की बात पूरी होने के पहले ही बोल पड़े, ‘‘अरे नहीं भाई, मैंने तो उससे कह के रखा है कि इसे अपना घर समझ के आते-जाते रहो। हमसे संपर्क रखा करो। आखिर मैं तुम्हारा समधी हूँ…लड़के का बाप ! और, एक बात बताओ, तुम्हारी एक ही बेटी है, तो क्या तुम उसके लिए इतना भी नहीं करोगे? फिर कैसे बाप हुए तुम?’’
  ‘‘आपके लिए ऐसा कह देना आसान है गुरू, लेकिन जिसकी स्थिति ठीक नहीं है, उसके लिए तो ये बहुत बड़ी बात है!’’ कांति भाई बोले।
     लेकिन गुरू मानने को तैयार नहीं! उनको ये जिद थी कि लड़की के बाप को लड़की के ससुराल वालों से सम्बंध अच्छे रखने चाहिए। यानी,  उनकी मर्जी के मुताबिक जब-तब हाजरी, सेवा और जी हुजूरी…।
   और यही नहीं चाहता इसका समधी! कांति भाई को लगा ठीक कर रहा है वह। बेटी ब्याह दी इसका ये मतलब तो नहीं कि लड़की वाले तुम्हारे गुलाम हो जाएं? तुम जैसा चाहते हो वैसा ही करें ?
 कांति भाई ने गुरू के इस रूप के बारे में भी कभी नहीं सोचा था।
सम्पर्क –  

41, मुखर्जी नगर,

सिकोलाभाठा, दुर्ग (छ.ग.) पिन-491001

मो. – 098279 93920 
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 

कैलाश बनवासी के उपन्यास ‘लौटना नहीं है’ पर विनोद तिवारी की समीक्षा ‘समाज का बंद घेरा बहुत मजबूत होता है’

कैलाश बनवासी


कैलाश बनवासी का एक महत्वपूर्ण उपन्यास आया है ‘लौटना नहीं है। यह उपन्यास इस मायने में अहम् है कि आज के निम्नमध्यम वर्गीय स्त्री जीवन की पड़ताल करने के साथ-साथ इन स्त्रियों में अपने जीवन के प्रति आयी चेतना को भी बखूबी सामने रखा है। जिस पल उपन्यास की नायिका गौरी यह निश्चय कर लेती है कि उसे अपनी बदहालियों की तरफ नहीं लौटना है भले ही उस पर सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक तोहमतें लगायी जाएँ, उसी पल उसका एक वह चेहरा उभर कर सामने आता है जिसे आम तौर पर स्त्री चरित्र के अनुकूल नहीं समझा जाता। कैलाश की रचनात्मक प्रतिबद्धता यहीं पर दिखायी पड़ती है। और साहित्य भी तो वही होता है जो सामयिक चेतना और बोध को स्पष्ट तौर पर सामने रखने का साहस कर सके। इस उपन्यास के बहाने आलोचक विनोद तिवारी ने हिन्दी उपन्यास की अंतर्यात्रा की पड़ताल करने की एक कोशिश की है। विनोद को हाल ही में आलोचना के लिए पहला बनमाली सम्मान प्रदान किया गया है। उन्हें इस सम्मान की बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी यह समीक्षा। तो आइए पढ़ते हैं विनोद तिवारी की यह समीक्षा ‘समाज का बंद घेरा बहुत मजबूत होता है।’  
      
समाज का बंद घेरा बहुत मजबूत होता है
(‘सेवासदन’ से ‘बालग्राम’ तक हिंदी उपन्यास की अंतर्यात्रा)
विनोद तिवारी
अपनी रचना में लेखक अपना घर बसाता है। जिसका कोई घर नहीं होता
उसके लिए  रचना ही वह जगह है, जहाँ वह जी सके।  -थियोडोर अडोर्नो
कैलाश बनवासी हिंदी कथा की समकालीन पीढ़ी के रचनाकारों में एक चर्चित और भरोसे का नाम है। अपनी कहानियों से कैलाश बनवासी ने इस भरोसे को बरकरार रखा है, उस जमीन को और पुख्ता किया है। ‘बाजार में रामधन’, ‘सुराख’, ‘खतरे के निशान से ऊपर’, ‘दृश्य कथा’ आदि कहानियाँ बतौर उदहारण पेश की जा सकती हैं। निम्नमध्यम-वर्ग के जमीनी यथार्थ और सामाजिक-संरचनाओं की पाखंडी विद्रूपताओं को जिस गहरी स्थानिक संपृक्तता के साथ, हाहाहूती और सर्वग्रासी बाजारवाद की अर्थ-संरचना और मायाजाल को जिस देसीवाद की साफ़ समझ के साथ कैलाश बनवासी अपनी कहानियों में जिस तरह से उद्घाटित करते हैं  वह उनकी रचनात्मक क्षमता का प्रमाण है। ‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’, ‘बाज़ार में रामधन’ और ‘पीले कागज़ की उजली इबारत’ जैसे कहानी संग्रहों के बाद कैलाश बनवासी का उपन्यास ‘लौटना नहीं है’ आया है। यह उनका पहला उपन्यास है। समकालीन कथा साहित्य में इधर एक प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ी है। दो-चार कहानियाँ लिख लेने वाला कहानीकार भी यह कहता हुआ मिल जाएगा कि, वह इन दिनों एक उपन्यास पर काम कर रहा है गोया कहानी लिखना हेठी का काम है। बिना उपन्यास लिखे वह शायद महानता की दौड़ में पिछड़ न जाय। अब कौन कहे? कि, जो अच्छी कहानी नहीं लिख सकता वह ‘कहानियाँ’ कैसे लिख सकता है। उपन्यास एक-वचनात्मक और एकवाची कहानी-रूप नहीं है वरन वह मानवीय-सभ्यता के सामजिक और ऐतिहासिक प्रगति और अंतर्विरोधों का सांस्कृतिक सूत्रीकरण करने वाली सबसे सशक्त और कारगर अनेकवाची विधा है। वह समाज और व्यक्ति के रिश्तों, विरोधों और अंतर्द्वंद्वों को सम्पूर्णता के साथ पकड़ने की कोशिश करता है। मनुष्य के मानसिक और सामाजिक जीवन के विविध व्यापारों को जिस ढंग से उपन्यास में निबद्ध किया जा सकता है, वह इसे अन्य विधाओं की तुलना में एक विशिष्ट आयाम प्रदान करता है।
वस्तुतः उपन्यास अपने समय-समाज की एक सांस्कृतिक अन्तःप्रक्रिया का अनुभवात्मक आत्मवृतान्त होने के साथ-साथ सामूहिकचेतना का (और जड़ता का भी) प्रातिनिधिक बयान  होता है । जहाँ एक ओर अपने समय-यथार्थ को बदल-बदल कर व्यक्त करने का कथारूप है, वहीं दूसरी ओर धर्म, समाज, जाति, व्यवस्था, आदि के शोषण, पाखण्ड, झूठ, स्वांग और मुखौटों वाली सभ्यता-संरचना को वह उजागर करता है, उसका एक प्रत्याख्यान रचता है। ‘लौटना नहीं है’ एक ऐसा ही उपन्यास है जिसमें उपन्यासकार खुद ही राजेश के रूप में नैरेटर की भूमिका का निर्वाह करता है । यह उपन्यास छतीसगढ़ के गरीब, श्रमजीवी, निम्न-मध्यवर्गीय स्त्री-जीवन के सामाजिक-यथार्थ का एक ऐसा अनुभवात्मक आत्म-वृत्तांत है जिसमें एक बहन की पीड़ा को, उसके विवश जीवन को उसी के छोटे भाई द्वारा नैरेट किया गया है।
राजेश (नैरेटर) का एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार है। इस परिवार में माँ, पिता, काकी, काका, बड़ी बहन गौरी, छोटी बहन और खुद राजेश। यह परिवार दुर्ग (छ.ग.) में संतराबाड़ी के बुनकर संघ के पीछे से लगे नाले के पास रहता है। इसी ‘लोकेल’ को, उसकी सामाजिकता को, इस बस्ती में जीवन-यापन कर रहे अति सामान्य और साधारण लोगों के जीवन-यथार्थ को यह उपन्यास अपनी यथार्थवादी रचनात्मकता में प्रस्तुत करता है। उपन्यासकार खुद ही उपन्यास में एक जगह अपने उपन्यास के बारे में लिखता है -“साधारण लोगों की साधारण कहानी और उतना ही साधारण अंत। ऐसी कहानी कोई लेखक नहीं लिखता। अगर लिख भी ले तो छपेगी नहीं। कथा पत्रिकाओं के दिल्ले के नामी-गिरामी  संपादक इसे यह कह कर लौटा देंगे कि इसके पात्र बहुत कमजोर हैं, कहानी में भी दम नहीं है और तो और इसका अंत भी बहुत फुसफुसा है। इसलिए, लेखक गण दमदार लोगों की दमदार कहानी लिखते हैं, जिनके अंत भी दमदार होते हैं जिन्हें पाठक गण भी बहुत पसंद करते हैं, ‘भाई वाह, क्या कहानी है।’ प्रश्न फिर भी बचा रह जाता है –जिनके जीवन में ऐसा कोई धमाका नहीं होता, क्या उनका जीवन इतना ही सतही या निरर्थक होता है जितना हम समझते आ रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिसे हम सच्ची कहानी समझ रहे हैं, वह महज ‘कहानी’ ही है –कहने-सुनने की कहानी? हमारा यथार्थ जीवन नहीं।” (p. 81)
निश्चित ही, उपन्यासकार की यह साफगोई उपन्यास को किसी बड़े दावे और महत्व के दबाव से मुक्त करती है। फिर भी, यह उपन्यास जिस विषय को अपनी रचनात्मक उपलब्धि के साथ सामने ले आता है और उसमें समाज और इतिहास की दृष्टि से जिस तरह अति सामान्य भारतीय स्त्री के जीवन–यथार्थ की उस शाश्वत छवि को प्रश्नांकित करता है, महत्वपूर्ण बन जाता है।  यह प्रश्नांकन ही इस उपन्यास की रचनात्मक सचाई को प्रामाणिक बनाती है। उपन्यास एक ऐसा शिल्प है जिसमें, गल्प-तत्व की, आख्यान-परकता की जरूरत पड़ती है। ‘यथार्थ’ के वास्तविक को रचने के लिए कई बार उस यथार्थ को उसकी परवशता और निराशा के साथ रचना पड़ता है। उसे बिना कल्पनाजन्य किसी घटना और पात्र के वास्तविक परिस्थितियों और घटनात्मकता में अपनी मूल रहन में प्रस्तुत करना पड़ता है। अनुभव की निजता के सहारे कहन को उपन्यासकार ‘फिक्शनल’ रूप और आकार देता है । दरअसल, इसे ही औपन्यासिक कला कहा जाता है। ‘रियलिस्टिक सिचुएशंस’ को ‘फिक्शनल-रियलिटी’ में उपन्यासकार कैसे परिणत कर पाता है, इसी में उसकी सफलता है। गौरी वास्तविक होते हुए भी इसीलिए ‘फिक्शनल’ चरित्र है और उपन्यास में आकर अपनी सामजिक और ऐतिहासिक नियति में वह उस स्त्री-वर्ग  का प्रातिनिधिक चरित्र बन जाती है जिसे तरह-तरह की सामजिक-धार्मिक परम्पराओं, रुढियों, घेरेबंदियों से मुक्ति नहीं। इसी घेरेबंदी को तोड़ने के अपने प्रयासों में वह एक नहीं कई-कई बार टूटती है, हिम्मत कसती है फिर भी यह ढांचा अपनी जड़ों में इतना मजबूत है कि वह हार जाती है। निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों की हालत और उन हालातों में उन घरों की लड़कियों और महिलाओं की अवश, मजबूर जीवन जीते और हारते, पिछड़ते, छोड़ते अपने को होम कर देने की विवश पीड़ा का जीवन-यथार्थ इस उपन्यास का कथ्य है। क्या ‘बालग्राम’ गौरी का स्वैच्छिक चयन है? क्या वहीं रह जाने और वहाँ से न लौटने का निर्णय उसकी खुशी-ख़ुशी का निर्णय है । “निषाद, चौरे, गुप्ता, राजेश सब बालग्राम की असलियत जान लेने के बाद भी एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि क्या वे अपनी लड़कियों, बहनों या भतीजियों को यहाँ छोड़ेंगे। गुप्ता के पूछने पर कि, ‘राजेश तुम क्या अपनी बहन गौरी को यहाँ छोड़ोगे?’ राजेश का उत्तर है, “ हाँ, अगर उसे यहाँ रहना पसंद है तो। आखिर वहाँ भी रहेगी तो उसका जीवन कुछ बदलने वाला नहीं बल्कि ये जगह उसके लिए घर से ठीक है।… कहते हुए मेरे सामने गौरी का चेहरा था।… अपने समाज को तो आप जानते हो। नहीं शायद हम लोग उसे उतने अछे से नहीं जानते जितनी ऐसी लडकियां! वरना क्या कारण है कि, लड़कियां यहाँ ख़ुशी-ख़ुशी रहने को राजी हैं, इतने कष्टों को जानने के बाद भी, ऐसा जेलखाना होने के बाद भी।” (p. 238)  

यह उपन्यास गौरी और उस जैसी अनेकों लड़कियों के इसी विवश और हारे हुए निर्णय के पीछे की उस सामाजिक और धार्मिक संरचना को बेपर्द करता है जिसे परम्परा और संस्कार के नाम पर वैध ठहराया जाता है। गौरी, जिस समाज में रह रही है उस समाज में लड़की एक बोझ की तरह होती है। माँ-बाप के लिए एक ऐसा बोझ जिससे मुक्ति जितनी जल्दी हो ब्याह में ही होती है। सत्रह साल की अपनी छोटी सी उम्र में ही गौरी ने दुख और संत्रास का जैसे पूरा जीवन भोग लिया हो। पढने-लिखने, बात-व्यवहार सबमें जहीन और सलीके वाली लड़की को 8वीं पास करने के बाद और आगे पढने से मना कर दिया जाता है। ऐसे समाज में ‘‘लडकी का ज्यादा पढना-लिखना अच्छी बात नहीं मानी जाती। ज्यादा पढ़-लिख लेने से लड़कियाँ बिगड़ जाती हैं।… बाबा यानी दादा का तो एकदम साफ़ कहना था कि, ‘और ज्यादा पढ़ कर क्या करेगी? लडकी जात कितना ही पढ़-लिख ले उसको तो आखिर चूल्हा ही फूंकना है।’ इधर माँ, काकी का कहना था, ‘ बेटियों को तो सयानी होते ही घर के काम-काज में चंट हो जाना चाहिए नहीं तो ससुराल में जाने पर मायके वालों की नाक कटेगी?” (p. 17-18). हमारे समाजों ने यह ‘नाक’ बनी रहे बची रहे इसी की संरचना तैयार की है। गौरी अब सयानी हो गयी है सोलह की उसकी उम्र हो गयी है। अब उसे साड़ी ही पहननी चाहिए सलवार-सूट की उसकी उम्र चली गयी। साड़ी पहनने के लिए सबसे अधिक दबाव माँ का ही है।  वह तर्क देती है, प्रतिवाद करती है पर नहीं। ‘जब  आपका चीजों पर बस नहीं चलता तो आप चुपचाप अपनी हार मान लेते हैं।’ (p.22). अब वह माँ-बाप के लिए चिंता का कारण है। उसकी शादी अब जितनी जल्दी हो जाय अच्छा होगा । घर मोहल्ले सब जगह गौरी की शादी की चिंता। घर तो घर सयानी लड़कियों की शादी की चिंता जैसे मोहल्ले वालों की साझा जिम्मेदारी हो।  शादी के लिए वर की तलाश शुरू हो जाती है। लडकी देखने के लिए ‘सगा’ (लडकी देखने आने वाले लोग) लोगों का घर पर आना शुरू हो जाता है। यह क्रम न जाने कितनी बार चलता है। अंततः रायपुर से भी आगे बिरतेरा गाँव के एक नवयुवक राज कुमार चौधरी से उसकी शादी पक्की कर दी जाती है। गौरी, का मन ही मन में कमल के प्रति जो प्यार अँखुआ रहा था वह सामजिक भय के भयानक दबाव के चलते सिर ही नहीं उठा सका। ‘सबकी हाँ में उसकी भी हाँ मान ली जाती है।’ खुद राजेश और उर्मिला एक दूसरे से प्यार करते हैं। उर्मिला दूसरी लड़कियों से भिन्न है। पूरे मोहल्ले में जिसे लड़के उसकी तेजतर्रार स्वभाव और तेवर के चलते लड़का-टाईप लड़की कहते हैं, क्या घर-परिवार के विरुद्ध जा कर, घर से भाग कर अपनी मर्जी की शादी कर पाती है? राजेश खुद ही नहीं इसके लिए तैयार है। पर, इस तरह की इक्का-दुक्का शुरुआत होने लगी है। अब लड़के-लडकियाँ घर से भागकर शादी कर रहे हैं। समय में बदलाव के संकेत मिलने लगते हैं। यह आठवें-नवें दशक का समय है जब सिनेमा धीरे- धीरे इस वर्ग में भी अपनी जगह बना रहा था और इस वर्ग के लड़के-लडकियां केवल बाहर ही नहीं बल्कि भीतर भी बदलाव महसूस कर रहे थे। फिल्म के परदे पर नायक-नायिका भाग रहे थे और इधर लड़के-लड़कियां भागने के मंसूबे बना रहे थे। इन दिनों हर किशोर लड़का-लडकी किसी न किसी के साथ भागने की तैयारी कर रहा था। “वे प्रेमी जोड़ों के अपने घरों से भागने के दिन थे। उनके भागने का आदर्श मौसम। इसमें सबसे ज्यादा उनकी मदद कर रहा था हमारे मनोरंजन का सबसे सस्ता और महान साधन सिनेमा। … प्रेमियों के प्रेम को परवान चढ़ा रहा था सिनेमा। पाकेट बुक्स के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशन नंदा के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘अजनबी’ के हीरो-हीरो इन राजेश खन्ना और जीनत अमान परदे घर से भागते हुए गा रहे थे – ‘हम दोनों दो प्रेमी दुनिया छोड़ चले, जीवन की हम सारी रस्में तोड़ चले।’ गुलशन नंदा के ही उपन्यास पर बनी यश चोपड़ा की फिल्म ‘दाग’ में राजेश खन्ना शर्मीला टैगोर का हाथ पकड़ कर गा रहे थे –‘अब चाहे माँ रूठे या बाबा यारा मैंने तो हाँ कर ली।’ इन्हीं दिनों भारतीय फिल्म उद्योग के सबसे बड़े शो-मैन राजकपूर की किशोर प्रेम पर आधारित फिल्म ‘बॅाबी’ सुपर हिट हो चुकी थी।… फिल्म में किशोर ऋषि कपूर कमसिन डिम्पल कपाडिया को मोटर-सायकिल पर बिठा के भगा ले जाता है ।” (p. 53)

परंतु, परदे का यह सिनेमाई सच वास्तविक जीवन का सच नहीं था। गौरी भी और उर्मिला भी ब्याह कर चली जाती हैं । पूरा परिवार यह जानते हुए भी कि गौरी का पति राजकुमार, अव्वल दर्जे का शराबी-कबाबी है, इस भरोसे के साथ और गौरी के भाग्य और नियति के साथ उसे ब्याह दिया जाता है कि, शादी के बाद सभी लड़के सुधर जाते हैं और गौरी जैसी लड़की उसे ठीक कर लेगी। और फिर सरकारी नौकरी में है। सब कुछ धीरे-धीरे ठीक हो जायेगा। सरकारी नौकरी, दरअसल राजकुमार के बारे में उसके घर वाले बताते हैं कि वह फारेस्ट विभाग में फारेस्ट गार्ड की नौकरी करता है। पर, शादी के बाद यह झूठ सबके सामने खुलता है। “गौरी का घर से शादी के बाद विदा होना बेटी का हँसी-ख़ुशी वाला विदा होना नहीं था। वह गहरे संशय से भरी विदाई थी जिसमें भविष्य के नाम पर केवल अँधेरा दीखता था।” (p. 111-12).  इस अँधेरे जीवन का वास्तविक पता तब चलता है जब तीज का त्यौहार आता है। “तीजा! कोई जानना चाहेगा कि छतीसगढ़ का सबसे बड़ा त्यौहार क्या है तो उत्तर होगा –तीजा। भादो के शुक्ल पक्ष की तीज को मनाये जाने वाले इस त्यौहार का महिलायें साल भर इंतज़ार करती हैं। सबसे ज्यादा प्रतीक्षित और मन की खुशी देने वाला। यह त्यौहार सुहागिनें अपने मायके में मानती हैं। बाप या भाई उन्हें लिवाने आते हैं। वह मायके आती हैं – अपने पुराने घर जहाँ उनका बचपन और किशोर दिन बीते।” (p. 120). गौरी की तो यह पहली तीज है उसे लिवाने राजेश और उसके पिता दोनों जाते हैं। वहाँ पहुंच कर घर की हालत और दशा देख कर ‘कहीं से नहीं लगता था यह नौकरीपेशा व्यक्ति की गृहस्थी है। राजेश पेशाब करने के लिए उपयुक्त स्थान खोजने के लिए घर से बहार निकल कर एक दिशा में चल देता है। तभी उसे एहसास होता है कि, एक बुढ़िया औरत मेरे पीछे-पीछे चली आ रही है मुझसे कुछ कहना चाहती है, मैं रुक गया। गौरी की पड़ोस में रहने वाली उस मराठी वृद्धा ने जो सचाई बताई वह कितना भयंकर है – “…बेटा तेरी बहेन भौत सीधी है, अच्छे आदत व्यवहार की है पर तेरा जीजा, वो भौतिच हरामी है बेटा। तुम लोगों ने उसकी शादी कैसे नीच आदमी के साथ कर दी। दुनिया में लड़कों की कोई कमी थी क्या? हे भगवान् इत्ती सुन्दर लडकी । अभी उम्र ही क्या थी। तेरा जीजा तेरी दीदी को भौत तांगता है, रोज दारू पीकर आता है, मारपीट करता है।…वो लडकी सच्ची में भौत बरदास करती है। पर वो हरामी तो एकदम राक्षस! मारता-पीटता है! कहाँ है तेरा दादा? मैं उससे पूछती हूँ, तेरी आँख नई थी क्या? बेटी को ऐसे गलत आदमी के साथ बांध दिए। घर में बेटी भारी पड़ती थी क्या, दो जून रोटी खिलाने में। इसको ले जाओ बेटा इस नरक से। तेरी बहन को इधर कोई सुख नहीं है।” (p.126). राजेश इस विदारक सचाई को सुन कर सुन्न हो जाता है। अन्दर ही अन्दर वह चीख-चीख कर रो रहा था – ‘मेरी दीदी को बचा लो कोई, मेरी दीदी को बचा लो कोई।’
बाप-बेटे गौरी को घर ले आते हैं। गौरी की सचाई से सब अवगत होते हैं। सब सुन लेते हैं। माँ, काकी, फूफू, मौसी सब उसे समझाती हैं, अपनी उम्र और भोगे हुए जीवन-अनुभव का हवाला देकर उसे उपदेशित करती हैं कि, ब्याहता लड़की की ससुराल ही उसका असली घर है। अगर ससुराल में कुछ ऊँच-नीच हो जाए तो बेतितों को सह लेना चाहिए। बेटियों को तो बहुत कुछ सहना पड़ता है। वही सनातन अवश पीड़ा का न खत्म होने वाला ढाढ़स जो एक पीढ़ी की स्त्री अपने से अगली पीढ़ी को देती चली आयी है। उनके द्वारा दिए जाने वाले इस झूठे ढाढ़स को वह भी जानती हैं पर क्या करें? भाग्य, नियति आदि के सहारे जीवन काट दती हैं। अपनी परवशता, दुःख और कष्टों से जूझने का लम्बा और लगातार अनुभव, जिसे कोई किताब नहीं सिर्फ उनका जीवन ही  सिखाता है। इस समझाने की प्रक्रिया में ही सभी स्त्रियाँ एक छोटे से कमरे में एकत्र हैं। इन गरीब, श्रमजीवी, निम्न-मध्यवर्गीय स्त्रियों का जीवन-यथार्थ कैसा होता है इसे कैलाश बनवासी ने जिस चित्रात्मक भाषा में अभिव्यक्त किया है वह उनकी कथाभाषा का बहुत ही वास्तविक और संवेदी पक्ष है। “घर के छोटे से कमरे के एक कोने में चालीस वाट बल्ब की कमजोर, पीली और धुँआई रोशनी के बीच गौरी को घेरे बैठीं वे बूढ़ी साँवली औरतें, जिनका रंग अब तक धरती पर बिताई उनकी उम्र और उसके अनुभव ने काफी गहरा कर दिया है। गुड़ी-मुड़ी गठरी सी, पुरानी बदरंग साड़ियों में सिर तक लिपटी हुई, गहन गंभीर बहुत धीरे-धीरे बात करतीं…मानों जीवन और प्रकृति का कोई अबूझ रहस्य समझाती हुईं। इस दृश्य के पूरे बैकग्राउंड में मटमैला, धूसर और स्याह रंग फैला हुआ था। शायद इन्हीं दिनों या बाद के किसी  दिन में म्युनिसिपल लाईब्रेरी की किसी पत्रिका में अमृता शेरगिल के कुछ चित्र देखे थे। उन्हें देखते हुए बेसाख्ता यही दृश्य याद आया था और लगा था कि ये वही हैं, वैसे ही धुंधले आलोक में गोल घिरी बैठी औरतें… बहुत गम्भीर और बहुत उदास और चुप…अपने अनगिनत दुखों और छायायों से घिरी हुई ।” (p. 135). जीवन के इस धुंधले स्याह रंग को वे पहचानती हैं, इसीलिए वे गौरी को भी वही सिखा रही हैं समझा रही हैं पर, गौरी दृढ़ है कि, “मैं वहाँ नहीं जाऊँगी! किसी हालत में नहीं जाऊँगी। आवाज में निर्णय था। साफ़, ठोस। कोई रिरियाहट, हकलाहट नहीं। सोच-समझ कर लिया गया फैसला।” (p. 131) पर उन स्त्रियों के लिए यह कि, ‘ससुराल से अलग रह कर भी कोई लड़की अपना जीवन जी सकती है’, स्वीकार ही नहीं। राजेश मन ही मन खीझता है ,सोचता है कि, “‘माँ को ऐसा किसने गढ़ दिया। इतना पारम्परिक और इतना धर्मभीरु? इतना जड़ कि नयी बात, नयी सोच कहीं से घुस ही न सके। माँ के भीतर जैसे कई सदियों की स्त्रियाँ जमा थीं जो सिर्फ सहना ही जानती थीं, क्योंकि यही स्त्री का ‘धरम’ था। बोलना, विरोध करना या परंपरा के खिलाफ जाना – धर्म विरुद्ध।…बताया जा रहा था कि, शादी के बाद पति को छोड़ कर  रहना दोष होता है, बहुत बड़ा पाप है, कि इससे समाज बिगड़ता है, जब कि वह कह चुकी थी कि मैं यहाँ तुम लोगों पर बोझ नहीं बनूंगी सिलाई-कढ़ाई करके जिन्दगी चला लूँगी । पर, माँ को यह भी मंजूर नहीं था।… उसकी सहायता के लिए कोई भी नहीं था। सब यही चाहते कि एकबार वह वहाँ जाए। गौरी टूट गयी। सबके अच्छे के लिए वह वहाँ जाने के लिए तैयार हो गयी । बोली, ठीक है इस बार मैं चली जाती हूँ लेकिन अगर कुछ हुआ तो इसके लिए तुम लोग जिम्मेदार रहोगे।” (p. 134-35)
गौरी घर-परिवार, समाज सबकी ख़ातिर एक बार पुनः उसी नरक में लौटने को राजी हो जाती है, ‘जाती है फिर नसीम उसी रहगुज़ार को’। पर, प्रताड़ना और पीड़ा का वह क्रूर सिलसिला भला कहाँ थमने वाला था। जब हद भी हद से बढ़ जाता है तो गौरी अपने मायके एक चिट्ठी भेजती है –
पूज्य बाबू जी,
सादर प्रणाम!
आशा है कि सब वहाँ कुशलता से होंगे। बाबूजी, अब मैं इस आदमी के साथ नहीं रह सकती। आपने जिस आदमी को मेरा हाथ पकड़ाया है वह शराबी तो है ही, रोज-रोज मुझसे मारपीट करता है और जान से मारने के धमकी देता है।  अगर आप लोग मुझे ज़रा भी चाहते हैं तो मुझे इस नरक से निकाल लो, नहीं तो मैं कुछ भी कर लूँगी। मैं आपको विशवास दिलाती हूँ कि बाकी जीवन मैं आपलोगों पर बोझ नहीं बनूंगी। मैं आपसे हाथ जोड़कर अनुरोध करती हूँ कि मुझे इस दलदल से निकाल लीजिये।
घर में सबको यथायोग्य प्रणाम और आशीर्वाद।
आपकी बेटी
     गौरी
गौरी की दुर्दशा को पढ़ कर पूरा घर उसके पति राजकुमार को भला-बुरा कहता है। उसे मायके ले आने के बारे में सब सोच-विचार करते हैं कि किस बहाने से उसे लाया जाय क्योंकि, राजकुमार यूँ ही उसे विदा नहीं करेगा। काका शिवचरण कहते हैं कि,किसी परीक्षा का बहना बनाकर उसे बुलाया जाय। पर सब कहते हैं कि, इस पर उसका पति विश्वास नहीं करेगा। पड़ोस के गोपाल काका ने सुझाव दिया कि, उसको पिछले साल की छात्रवृत्ति का रुका हुआ पैसा मिलने वाला है यह कह कर बुलाया जाय और उसके स्कूल की मैडम उसके दस्तखत पर ही रूपया देंगी’ तो राजकुमार अपने पीने के जुगाड़ में पैसों के लिए तैयार हो जाएगा। यही बात तय होती है । गौरी को दो लोग जा कर ले आते हैं । गौरी वह नरक छोड़ कर चली आयी है। उसने “अपना फैसला कर लिया था। सत्रह साल की गौरी। पता नहीं अभी वह अपने जीवन को कितना आगे तक देख पा रही थी। आगे जीवन की कठिनाईयाँ चाहे जो हों, इस समय वह उस व्यक्ति से मुक्त होना चाहती थी जिससे उसे पति के नाम पर जोड़ दिया गया था।” (p. 150).
पर, क्या इतनी आसानी से मालिक अपनी मिल्कियत छोड़ देगा? कुछ ही दिनों में राजकुमार उसे ले जाने के लिए आता है। शराब के नशे में खूब हो-हल्ला करता है। पर सबकी कल्पना के विपरीत गौरी बड़े ही दृढ़ स्वर में कहती है – “ मैं अब नहीं जाऊंगी आपके साथ। आप यहाँ से चले जाईये। मैं नहीं रह सकती आपके साथ। बस्सऽऽऽ….।” (p. 151). पंचायत बैठती है पर पंचायत भी गौरी के आगे झुक जाते है। यही तय होता है कि, गौरी तभी जायेगे जब उसका पति अपनी आदतों में सुधार कर के दिखाए। फिर, शुरू होता है गौरी का वह जीवन जिसे समाज अच्छा नहीं मानता। पर गौरी बहुत ही धुनी लडकी है। वह किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती। वह सिलाई-कढ़ाई करती है, घर के काम-काज में सबका हाथ बंटाती है और अपने भविष्य के लिए भी सोचती है। उसे पता है कि, उसका अपना घर, गाँव, समाज बहुत दिनों तक उसी समय पर उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करने वाला है। जहाँ से उसकी पढ़ाई छूट गयी थी उसे वह पुनः शुरू करना चाहती है कि कम से कम हाईस्कूल पास कर ले तो कहीं एक छोटी सी नौकरी कर सके। प्राईवेट फार्म भरकर वह हाईस्कूल की परीक्षा पास करती है और नौकरी की तलाश करती है। कवर्धा के प्राईमरी स्कूल में पढ़ाने के लिए आवेदन करती है। अपने किसी परिचय के सहारे राजेश उसे लेकर कवर्धा जाता है, वहाँ के शिक्षाधिकारी से मिल कर सिफारिश कर के आता है कि गौरी को नौकरी की कितनी जरूरत है। जब वे लौट कर घर आते हैं तो दूसरा ही माहौल है। दुःख और गमी का वातावरण। राजेश के बहुत पूछने पर काकी कहती हैं कि, ‘’ गौरी के घर वाले ख़त्म हो गे।… वह रायपुर रेलवे स्टेशन पर किसी ट्रेन में चढ़ रहा था, पता नहीं भीड़ के कारण या नशे के कारण उसका पैर फिसल गया और वह नीचे आ गिरा ट्रेन उसके ऊपर से चली गयी।” (p. 181). पता नहीं गौरी के अन्दर इस खबर ने क्या भाव पैदा किया। पर वह समाज की नजर में अब एक विधवा थी। दुर्भाग्य, हिकारत और दया का पात्र। एक दुखियारी स्त्री। बार-बार गौरी को इस सच का एहसास कराता वह समाज। गौरी जैसे बिलकुल ही बदल गयी थी। वह इस गाँव-घर, समाज से छूट कर कहीं बहुत दूर चली जाना चाहती थी। इसी बीच फरीदाबाद से इंटरव्यू के लिए उसका बुलावा आता है। ‘बालग्राम’ नामक एक एन.जी.ओ. में ‘माँ’ के पोस्ट के लिए इंटरव्यू का बुलावा। राजेश उसे इंटरव्यू दिलाने के लिए ले जाता है। उपन्यास यहीं से शुरू होता है और यहीं से लौटने के साथ ख़त्म होता है। छतीसगढ़ एक्सप्रेस से दिल्ली के लिए दोनों भाई-बहन रवाना होते हैं। राजेश और गौरी दोनों ही अलग-अलग  ख्यालों में गुमसुम हैं। धीरे-धीरे ट्रेन आगे सरकती जाती है और ट्रेन के साधारण डिब्बे के अन्दर की दुनिया भी। साधारण डिब्बे में यात्रा करने वाले लोग वे लोग होते हैं जो सुख-दुःख बाँटने में परस्पर बातचीत करने में विश्वास रखते हैं। राजेश से भी उसके साथ बैठे लोग बातचीत शुरू कर देता हैं। राजेश की नजर उन भोले और सहज ग्रामीण लगों के साजो-सामान पर पड़ती है – “चार प्लास्टिक की खादी वाली सफ़ेद बोरियां, जिनमें दो में चावल हैं, बाकी दो में उनकी गृहस्थी का सामान। गंजी, कड़ाही, थालियाँ, लोटा, गिलास आदि से ले कर एक स्टोव और मिट्टी तेल की एक प्लास्टिक केन। दो पुराने टिन के बक्से हैं जिन पर पेंट किये चटखीले फूल बदरंग हो कर जंग खाए धूसर रंग में घुल-मिल गए हैं। एक बक्से में ताला लगा है जब कि, दूसरे की कुंडी में तार का टुकडा बंधा है। इनमें शायद इनके कपडे-लत्ते होंगे । यही इनकी छोटी, बेपर्द गृहस्थी। मोबाइल गृहस्थी।” (p. 11) यह उनके जीवन और गृहस्थी का बेबस खुलासा है। जिस परिवार से राजेश की बातचीत हो रही थी उसी परिवार की स्त्रियों के साथ गौरी भी घुल-मिल जाती है। बातचीत में ही समय कब गुजर गया किसी को पता नहीं चला। रेल यात्रा में सहयात्रियों से हुए हेल-मेल और बातचीत, और कुछ ही क्षणों में पनपे अपनापन तब सालने लगा जब रेल दिल्ली पहुँच गयी। “बूढ़ी माँ और उसकी दोनों बहुएं बहुत जल्दी दीदी से घुल-मिल गए थे । खुद गौरी भी। वे कह रहे हैं दीदी से बहुत आत्मीयता से, जाथन बेटी! दुरुग आबे त हमरे गाँव आबे! दया-मया धरे रहिबे। … हौ, तुहू मन आहू हमर घर दुरुग में। दीदी भी उनसे हंस कर वैसी ही सरलता से कह रही थी। इस बात को बिलकुल भूले हुए कि अभी कुछ ही देर में ये दुनिया की भीड़ में न जाने कहाँ खो जायेंगे, शायद हमेशा-हमेशा के लिए। कभी न मिलने के लिए, सिर्फ भूले-भटके कभी याद आ जाने के लिए। …अब मुझे लगा कि, छतीसगढ़ हमसे बिछड़ रहा है। छतीसगढ़ एक्सप्रेस से हमारे साथ आया एक गाँव, उसकी सहज-सरल गँवई संस्कृति हमसे बिछड़ रही है, आपनी आत्मीयता से हमें विभोर किये हुए। … मैंने दीदी को देखा, वह उन्हें तब तक देखती रही जब तक वे गेट के बाहर नहीं चले गए। दिली को वह बिलकुल भूल चुकी थी इस समय। …एक पल के लिए सूझा कि उसे याद दिलाऊं कि वह दिल्ली में है, पर लगा दिल्ली की याद दिलाना अभी उसको आहत करना होगा, एक अन्याय होगा। ऐसे समय में दिल्ली को दूर रखना ही ठीक है। दिल्ली को हर समय अपने साथ रखना एक बहुत बड़ी बीमारी है, कई छोटी बड़ी बीमारियों से मिल कर बनी एक बड़ी और खतरनाक बीमारी, जिसका ठीक होना मुश्किल होता है।” (p. 11-12)
सचमुच, गौरी को अब एक ऐसी दुनिया में कदम रखना है जो अपने झूठ और छद्म में और खतरनाक है। उसका इंटरव्यू होता है। वह ‘माँ’ कि पोस्ट के लिए चुन ली जाती है। अनाथ बच्चों के पालन-पोषण के लिए अब ‘माँ’ की नौकरी करेगी गौरी। पर जिस ‘बालग्राम’ के लिए वह चुनी जाती है उसके अन्दर की दुनिया और उसकी असलियत कुछ और ही है। राजेश के साथ और भी दूसरे गार्जियन और लडकियां आस-पास घूम कर, थोड़ी-बहुत तफ्तीश कर के यह जान लेते हैं कि इस दुनिया में तो अँधेरा ही अँधेरा है। अनगिनत बंदिशें हैं। निषाद, चौरे, गुप्ता, राजेश सब बालग्राम की असलियत जान लेने के बाद भी एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि क्या वे अपनी लड़कियों, बहनों या भतीजियों को यहाँ छोड़ेंगे। गुप्ता के पूछने पर कि, ‘राजेश तुम क्या अपनी बहन गौरी को यहाँ छोड़ोगे?’ राजेश का उत्तर है, “हाँ, अगर उसे यहाँ रहना पसंद है तो। आखिर वहाँ भी रहेगी तो उसका जीवन कुछ बदलने वाला नहीं बल्कि ये जगह उसके लिए घर से ठीक है।… कहते हुए मेरे सामने गौरी का चेहरा था।… अपने समाज को तो आप जानते हो। नहीं शायद हमलोग उसे उतने अछे से नहीं जानते जितनी ऐसी लडकियां! वरना क्या कारण है कि, लड़कियां यहाँ ख़ुशी-ख़ुशी रहने को तैयार राजी हैं, इतने कष्टों को जानने के बाद भी, ऐसा जेलखाना होने के बाद भी।” (p. 238) गौरी ‘बालग्राम’ में रुकने का निर्णय लेती है। अब उसे यहं से कहीं नहीं लौटना है। कहीं लौटना नहीं है।  राजेश अकेले अपने गाँव लौट रहा है। ख़ुशी, हताशा, दुःख, आशा, निराशा, पीड़ा या आनंद या और कुछ…। पता नहीं उसे कि वह क्या महसूस कर रहा है। रो रहा है, गा रहा है, गाते-गाते रो रहा है, रोते-रोते गा रहा है– 
‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाऽऽऽईऽऽऽऽऽऽ
तूने काहें को दुनिया बनाईऽऽ…तूने काहें को दुनिया बनाईऽऽ…’
है कहाँ तमन्ना का दूसरा कदम या रब
हमने दस्ते-इम्काँ को एक नक़्शे-पा पाया।
xxxx

विनोद तिवारी

संपर्क :

C-4/604 ऑलिव काउंटी,

सेक्टर-5, वसुंधरा, 
गाज़ियाबाद – 201012,

मोबाईल – 9560236569

ई-मेल – Tiwarivinod4@gmail.com

कैलाश बनवासी की कहानी ‘बस के खेल और चार्ली चैप्लिन’

कैलाश बनवासी

निश्चित रूप से आज के दौर हम तकनीकी रूप से सबसे अधिक समृद्ध हैंसोशल मीडिया पर अत्यन्त सक्रिय भी। लेकिन यह भी एक कड़वी हकीकत है कि हम संवेदना के स्तर पर लगातार पिछड़ते चले जा रहे हैं। मुझे तो इस बात का डर है कि आगे के दिनों में संवेदना महज किताबी शब्द बन कर ही न रह जाए। कैलाश बनवासी ने अपनी इस मार्मिक कहानी ‘बस के खेल और चार्ली चैप्लिन’ के माध्यम से कुछ ऐसे ही इशारे किए हैं जो हमारी लगातार क्षरित होती हुई संवेदनशीलता पर प्रहार करती है। दुखद तो यह है कि इसका शिकार भी वही लोग हैं जिन्हें हम श्रमिक नाम से जानते-पहचानते हैं। दुर्भाग्यवश तकनीक की तरह ही वे सोशल मीडिया से भी दूर हैं। दोनों जगह इनके नाम पर बाजीगरी हो रही है जबकि आज भी मजदूरों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। बहरहाल इसी भावभूमि पर आधारित कहानी – ‘बस के खेल और चार्ली चैप्लिन’ आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैंइस कहानी के कहानीकार हैं युवा एवं सुपरिचित कथाकार कैलाश बनवासी आज की यह पोस्ट हमारे लिए इसलिए भी विशेष है कि पहली बार पर प्रकाशित यह 600वीं पोस्ट है 


बस के खेल और चार्ली चैप्लिन’

कैलाश बनवासी

मैं अभी-अभी बस में चढ़ा हूँ, और चढ़ने के साथ ही एक झटका-सा लगता है, पल भर में मानो दुनिया बदल जाती है। एकाएक। मैं हतप्रभ रह जाता हूँ!

यों यह रोज हो रहा है,खासकर इन दिनों…। बस में चढ़ते ही, दुनिया सहसा बदल जाती है…।


जब कि, अभी कुछ देर पहले तक,गाँव के सरकारी स्कूल से-जहाँ मैं पढ़ाता हूँ- छुट्टी के बाद साइकिल से लौटते हुए, मन ही मन में कितना खुश था! बहुत ही खुश! जैसे अनायास और अकारण ही। कि जैसे आज का काम पूरा हुआ-इसकी खुशी! और इस समय, गाँव से दुर्ग शहर के अपने घर लौटते हुए मैं अक्सर ही खुश रहता हूँ। मेरे सामने होते हैं गाँव के लीपे-बुहारे साफ-सुथरे घर, घर के सामने बने चैरा में बहुत फुरसत से बैठे और गप्प हाँकते बूढ़े-बूढि़याँ, वहीं गली या मैदान में खेलते-कूदते हुए बच्चे…आपस में हँसते, चिढ़ाते और शोर मचाते। गली में बोरिंग से पानी भरती किशारियां, स्त्रियां…। मेरा मन रम जाता है उनके घरों में, उनके गाय-बैलों में, जो अपने गीले काले नथुनों से सूँ-सूँ करके सांस लेते हैं, जो पुआल खाने में जुटे हैं, जिनके गले में बंधी घंटियां गरदन के हिलने की लय में टुनटुनाती हैं, आसपास की हवा एक अजीब, उष्णीय गंध से भर गई है जो गाय-बैलों, गोबर और पुआल से मानो एक साथ फूट रही है। देखता हूँ कि अपने बियारा में धान की मिंजाई करते वे कितने आनंदित हैं, घर के छोटे बच्चे बैलगाड़ी में बैठे हुए हैं एक-दूसरे से सटे। और झगड़ते।… और गुजरते हुए देखता हूँ यहाँ के खेत, मैदान, तालाब, पेड़, तरह-तरह के पंछी, और शाम का आकाश जिसमें धीरे-धीरे लाली भर रही है… देखता हूँ किसानों को जो अपने खेतों से पिछले चार महीने की मेहनत की कमाई-धान- बैलगाड़ी में लादे लौट रहे हैं, पैदल, मंथर गति से। उन्हें किसी किस्म की कोई जल्दी नहीं है, बल्कि श्रम से थके उनके सांवले चेहरों पर काम के पूरे हो जाने का गहरा सुकून है। मैं इनमें खो-सा जाता हूँ। और दिसम्बर की सांझ के नर्म सिंदूरी आलोक में यह सब देखते हुए मैं जैसे किसी अनाम सुख से भर जाताहूँ! इसे ठीक-ठीक व्यक्त कर पाना कठिन है मेरे लिए। जैसे कि यह सब देखना ही मानो धीरे-धीरे मेरे भीतर कोई सुख सिरजते जाते हैं…अपने-आप।

मुझे इस समय घर लौटने की कतई जल्दी नहीं रहती। यहाँ के माहौल और आबो-हवा का मुझ पर कुछ ऐसा असर होता है कि यहाँ की लाल-भूरी कच्ची सड़क पर मेरी साइकिल भी इनकी बैलगाड़ी के मानिंद  चलने लगती है, धीरे-धीरे। ऐसा लगता है, जितनी देर इन सब के संग रहलो,उतना ही अच्छा! हालांकि रोज ही रहता हूँ।


मुझे दुर्ग जाने वाली बस पकड़ने के लिए गाँव से चार किलोमीटर दूर मुख्य सड़क तकपहुँचना होता है। वहाँ लक्ष्मण साइकिल स्टोर में अपनी साइकिल छोड़ कर बस पकड़ता हूँ।
 
 …
बस में भीड़ ऐसी है कि पैर धरने की जगहनहीं। लोग सीटों के अलावा सीटों के बीच की संकरी गैलरी में किसी तरह ठंसे हुए हैं। यहाँ गरमी है, और एक-दूसरे से चिपके खड़े लोगों की देहों से उठती हुई पसीने की खारी और चिपचिपी गंध…। साथ ही भेड़-बकरियों की तरह से भरा गए देहातियों और उनके ढेर सारे बोरों,पोटलियों की गंध है। ये इधर रोज ही अपने माल-असबाब के साथ, जाने कहाँ-कहाँ से निकल कर आ जाते हैं,जैसे मधुमक्खी के छत्ते पर किसी ने ढेला फेंक दिया हो और मधुमक्खियाँ जोरों से भनभनाती हुईं यहाँ-वहाँ तितर-बितर हो रही हों! वे लोग सचमुच अपने माल-असबाब की ही तरह इस बस में किसी तरह ठंसे पड़े हैं। ये स्थिति न तो बस कंडक्टर के लिए कोई नई चीज है न ही रोज के यात्रियों के लिए। हाँ, लेकिन सभ्य-जनों को जरूर लगता होगा- अरे,कहाँ से आ गए ये गंवार? जरा देखो इनको! पूरा घर-गिरस्थी उठाकर चले जा रहे हैं! तरह-तरह के बोरे, टीन-टपरे, संदूक-बक्से! तिस पर अपने इतने सारे बच्चे!

 
ये सारे रेलवे स्टेशन जा रहे हैं। वहाँ से फिर अपने-अपने गंतव्य की ओर जाने के लिए बंट जाएंगे- टाटा, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद, हैदराबाद, श्रीनगर, पठानकोट…।

भीड़ में मैं भी खड़ा हूँ। इन्हीं में से एक यह परिवार है जो ऐन मेरे आगे खड़ा है-सामने से दो सीट पीछे। ये चार लोग हैं-पति, पत्नी और दो बच्चे। पति काले रंग का दुबला-पतला और ठिगना आदमी है, अलबत्ता मेहनत-मजदूरी के कारण देह कसी हुई है। साथ में पत्नी, छोटे कद की सांवली स्त्री। इनके साथ दो छोटे-छोटे बच्चे हैं… एक तीन-साढ़े तीन साल का लड़का… और उससे बमुश्किल एकाध साल बड़ी लड़की। दोनों ही बच्चे निहायत दुबले-पतले। चारों बिलकुल निरीह और दयनीय नजर आ रहे हैं, खासकर इस समय। और बच्चे तो इस भीड़ में ऐसे गुम हैं कि किसी को दिखाई भी नहीं दे रहे। दोनों को दरअसल साथ की सीट से एकदम सटा के ऐसे खड़ा कर दिया गया है कि किसी को दिखाई नहीं पड़ रहे।

   ‘
एला अपन गोदी म बइठा ले मेडम!’’

   
अभी-अभी ही औरत ने बालक के बगल की सीट पर बैठी दो लड़कियों से हँस कर, अनुरोध में कहा है।
 
    ‘‘
नहीं। हमारे पास जगह नहीं है।’’ लड़कियों ने साफ मना कर दिया है।
  
दोनों ही अपना चेहरा स्कार्फ से बांधे हुए हैं, देखने के लिए आँख भर जगह मात्र छोड़ कर। ऐसे स्कार्फ बांधना हमारे छोटे से बड़े होते शहर का जाने कैसे,  इधर की किशोरियों-युवतियों का अपना एक फैशन-सा बन गया है। जान पड़ता है जैसे इन्हें अपनी पहचान किसी कारण से अपने परिचितों से ही छुपानी है! इनमें से एक ने जो कुछ लंबी, गोरी और भरे देह की है, चटख पीले रंग का सूट पहना है, जबकि दूसरी थोड़ी छोटी, दुबली और सांवली है। दोनों में गोरी ही ज्यादा वाचाल नजर आती है सांवली की तुलना में। व्यक्ति के स्वभाव बनने में भी कलर फैक्टरही मुख्य काम करता है जैसे। मुझे ये दोनों लड़कियाँ हाल-फिलहाल नौकरी में आयीं जान पड़ती हैं। मैडम हैं। शायद दोनों एक ही स्कूल में पढ़ाती हैं। साथ ही लौट रही हैं। संभवतः इस बस की नियमित सवारी, जिनके लिए कंडक्टर जगह रोक कर रखता होगा…। ये दोनों ही बाइस-चौबीस की उम्र की हैं।

  
लड़कियाँ बस के हालात से बेखबर इस समय अपनी बातचीत में डूबी हैं।

 
गोरी बता रही है,‘‘मालूम है, बी.एस-सी. फाइनल में प्रेक्टिकल के दिन मेरे साथ क्या हुआ था?’’

   ‘‘
तू बताएगी तभी तो जानूंगी।’’

  ‘‘
अरे, मैं भी ऐसी भुलक्कड़ हूँ न… अपने बायो प्रेक्टिकल एक्जाम की डेट  ही भूल गई थी! और मैं मजे से भाभी के संग सबेरे मार्केट चली गई थी। वहाँ से आयी तो मेरे को स्ट्राइक हुआ… कुछ भूल रही हूँ कर के…। तभी फट् से याद आया, अरेऽऽ..आज तो मेरा प्रेक्टिकल एक्जाम है! दो बजे से! मैंने घड़ी देखी, पौने दो गए थे। मैं तुरंत भागी!  वैसेच! मार्केट गई थी तो हाई हिल की सैंडिल पहने थी, उसी को पहने-पहने काँलेज गई! तू सोच…त्रिवेदी सर ने क्या सोचा होगा मेरी हाई हिल सैंडिल देख के…?’’

 


सांवली ने हँस कर उसे छेड़ा, ‘‘अरे यार, जब सामने इतना सुंदर चेहरा हो तो त्रिवेदी हो कि चतुर्वेदी, भला कोई नीचे क्यों देखेगा? हाँ?’’

 
लगा, गोरी अपनी सुंदरता के लिए उसके इस कमेंट पर मन ही मन बहुत खुश हो थोड़ा शरमा गई है, पर प्रकट में बोली, ‘‘देख-देख…मैं कुछ नहीं बोल रही हूँ, न…? तू ही बोल रही है…अपने मन से।’’

कुछ देर के बाद गोरी ने तंग भाव से कहा, ‘‘छिः रे! इतनी गंदी गाड़ी है न ये। एक तो इतनी  भीड़! उपर से ड्राइवर भी इतने मरियल चाल से चला रहा है।’’
 ‘‘
तो तू अपनी स्कूटी क्यों नहीं ले आती रानी साहिबा?’’ सांवली पूछती है।
  ‘‘
अरे, वो बिगड़ी पड़ी है,इसीलिए तो।पर छतीस किलोमीटर रोज आना-जाना भी तो मुश्किल है। पर वैसे भी मुझे अपनी स्कूटी निकालनी है।’’

 ‘‘
अच्छा! तो चल मेरे को बेच दे न। कितने तक बेचेगी?’’
 ‘‘
यही दस-पंद्रह तक बेचूंगी। हार्डली चारी साल तो हुए हैं खरीदे।’’
 ‘‘
बाप रे, दस-पंद्रह!’’ सांवली ने मुँह फाड़ लिया।
 ‘‘
तो और क्या? तू क्या हजार-पाँच सौ में खरीदेगी?’’
  ‘‘
नई रे, इतना कम थोड़े ही। पर पंद्रह तो महंगा है।’’ 

 ‘‘
महंगा है तो महंगा है। जा मेरे को नई बेचना है। पैंतालिस-पचास का रेट चल रहा है, मैडम! अभी वो चार ही साल चली है…वो भी सिंगल हैंण्डिड! मेरे सिवा  और कोई छूता भी नहीं मेरी गाड़ी को। पापा ने मेरे बर्डे पर गिफ्ट किया था। और पता है, मेरा ड्रीम क्या है?’’

 ‘‘
मेरे को कैसे पता होगा?’’
  ‘‘
मेरा ड्रीम तो कार लेने का है। येस! आय विल बाय अ ब्रेण्ड न्यू कार!’’
   ‘‘
वाऊ!’’
   ‘‘
लेकिन अभी नहीं। कुछ साल बाद।’’

  ‘‘
तब तक सेलेरी भी बढ़ जाएगी। है ना? देख, कार तो मुझे भी खरीदनी है। ऐसा कर पहले तू खरीद ले। पुरानी हो जाएगी तो मेरे को बेच देना।’’

  ‘‘
अरे,  ये तेरा सेकेंड हैण्ड वाला क्या चक्कर है?  पहले मेरी स्कूटी…फिर मेरी कार… फिर कहीं ये तो नहीं बोलेगी कि तेरा हसबेण्ड?  क्यूँ,तेरे को लाइफ में नया कुछ भी नहीं चाहिए?  हर चीज सेकेण्ड हैण्ड?  कहीं हसबेण्ड भी तो नहीं चाहिए सेकेण्ड हैण्ड…।’’

 ‘‘
चुप यार,तू भी न…?’’

‘‘
अरे, मैं अपने से कहाँ कुछ बोल रही हूँ, तू जो बोल रही है, वोई तो मैं बोल रही हूँ। वैसे आइडिया बुरा नहीं है…। दे आर एक्सपिरिएंस होल्डर…नइ…?’’ वह हँसने लगी।

‘‘
अरे चुप। कुछ भी बकवास करती रहती है तू तो।’’
 ‘‘
नइ यार, मैं तो मजाक कर ही थी।’’

 ‘‘
बाइ द वे कौन-सी कार खरीदेगी? आइ टेन?या डिजायर…? या फिर मर्सिडीज…?’’
 ‘‘
अरे नहीं बाबा । मैं तो आरटिगाखरीदूँगी।’’
 ‘‘
वाऊ! मेरे डैड की मारूतिवाली!’’ वह खुशी और ईर्ष्या से चहकी।

    
बस रास्ते के हर गाँव में रूकती है। इस बीच बस की सवारियां और बढ़ चली थी। बस कंडक्टर आने वाली सवारियों को इधर ही भेजता जाता था और लोगों से कहता जाता था-थोड़ा पीछे सरको भाई्! और पीछे! अभी तो और सवारी आ जाएंगे!
सामने खड़ा एक देहाती डोकरा कंडक्टर पर बड़बड़ाया – ‘‘पूरा त भरा गे हे! अउ कतेक ल चढ़ाबे?’’

इधर दोनों लड़कियाँ बातचीत बंद कर अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त हो गई हैं। सांवली लड़की ने बड़ी स्क्रीन वाली अपनी मोबाइल में फेसबुक खोल लिया है, जिसमें आए कमेन्ट और पोस्ट वो तेजी से देख रही हैं।उसकी नेलपालिश से रंगी अंगुलियाँ बहुत तेजी से अपने मोबाइल की स्क्रीन को स्क्राल कर रही है जिसमें कोई भी चित्र कुछ सेकेंड से अधिक नहीं ठहर पाता। इस खोजा-खोजी में कुछ दिलचस्प दिख जाता तो पल भर ठिठक जाती, फिर आगे बढ़ जाती। वहीं इसी तरफ बैठी गोरी लड़की मोबाइल पर कोई गेम खेलने में व्यस्त हो गई है। जैसे अपने ही खालीपन से उकता कर उसने अपना टाइमपास करने यह गेम आन कर लिया। इसमें हेविवेट बाक्सर माइक टाइसन नुमा एक हृष्ट-पुष्ट, ऊँचा-पूरा निग्रो अपने हाथ में मशीन गन लिए सड़कों पर खतरनाक तेजी से भाग रहा है और उसके रास्ते में जो भी आए उन्हें बिलकुल बेधड़क, बहुत बेरहमी से भूनता जा रहा है। वह ऊँची-नीची सड़कों पर तमाम ट्रैफिक नियमों की ऐसी-तैसी करता बेहद हिंसक और  अराजक तरीके से कूदता-फांदता भाग रहा है। वह आकामक हीरोलड़की के हाथों का खिलौना था जिसे उसकी उंगलियां मन माफिक दौड़ा रही थीं…बगैर कुछ सोचे…मजे लेती हुई। स्क्रीन का वह अराजक हीरो इतने खतरनाक तेजी से  कूदता-फांदता था और गोलियां चलाता था कि देखके सिहरन होती थी, एक पल को मन में भय होता था कि यदि कहीं यह जंगली हीरो गेम से बाहर निकल आया तो क्या होगा?

मैडम उसके भागम-भाग और हत्याओं में एकदम निमग्न थी। उसे रत्ती भर भी याद नहीं था कि ठीक उसके दाहिने बगल में ही तीन बरस का एक नन्हा मासूम बहुत देर दबा-दबा छुपा-सा खड़ा है, सहमा हुआ-सा। वह लड़का चुपचाप, एक डरी हुई उत्सुकता से उसके मोबाइल पर चल रहे दृश्यों को देख रहा था। पता नहीं क्या सोच रहा है? या इस समय शायद वह कुछ भी सोच सकने से परे है…।
  
जबकि बच्चे के पिता ने उसे व्यस्त देखा तो वह मेरी ओर देख  कर मुस्कराया, इस भाव से कि चलो,  बच्चे का मन कहीं तो लग गया है, कि वह अपने खड़े रहने की तकलीफ भूल कर इसमें खोया हुआ है…।

मैंने पाया, बस में इस समय ऐसे बहुत-से लोग थे जो अपनी सीट पर बैठे थे और इसी तरह अपने मोबाइलों पर व्यस्त थे- कोई फेसबुक पर या कोई नेट पर, या कोई गाने सुनने में। अपना समय काटते।गाँवों से आए लोग खड़े-खड़े उन्हें चुपचाप बस ताक ही रहे थे, किसी अजूबे की तरह। कुछ पूछने में भी हिचकिचाते। हालांकि उन्हें काफी दूर जाना था। उनमें से किसी ने कंडक्टर से पूछा था, आगे सीट मिल ही के नहीं? कंडक्टर ने तुरंत,बगैर कुछ सोचे जवाब दिया था- मिल जाएगा।

ये लोग सचमुच गंवार है क्या? बस में जहाँ-तहाँ उनके मोटरा, पोटली, टुकना, गंजी या बोरे रखे देख कर एकबारगी मेरे मन में आता है। यहाँ तक कि डाइवर के बोनट पर भी इनका सामान रखा था, जो ये अपने साथ ले के जाएंगे। हर जगह ऐसी ही विकट परेशानी उठाते  हुए, हर जगह साहब-बाबू की नजर में गंवार, उजड्ड कहलाते, उनकी डांट-गालियाँ सहते हुए…। यहाँ तक कि जहाँ काम करने ये जा रहे हैं, वहाँ भी बाबू, ठेकेदार, या मेट अथवा सुपरवाइजर की मार-गाली ही खाएंगे। अपने गाँव-घर से बेघर हो रहे इन लोगों की कुल आकांक्षा बस इतनी ही रहती है कि अपने इन खाली दिनों में काम करके वे कुछ पैसे जोड़ लें, ताकि वह पैसा कल उनके काम आ सके… बेटा-बेटी के ब्याह में… घर की छप्पर-छानी सुधरवाने में, एक-दो कमरा बनवाने में…। और यह सब ये परदेस में अपना पेट काट के,  नून-बासी चटनी  खा कर जोड़ेंगे…। अपने मनोरंजन के लिए इनके पास अपना सस्ता मोबाइल मात्र ही है, जिस पर फुल वाल्यूम में छतीसगढ़ी गाने सुनते हुए ये जैसे किसी तरह अपना  होनाबचाए रखते हैं। उसे सुनते हुए ही ये अपने गाँव, घर या संगी-साथियों को याद कर लेंगे… जितना उनको ऐसे किसी मौके पर याद आ सकता है, उतना ही… घीरे-धीरे फिर वह भी धुंधला होता जाएगा…।

मुझे पता है,स्टेशन के पास वाले चैक में बस के पहुँचते-पहुँचते साँझ का अँधेरा कुछ गहरा चुका होगा, और बस के रूकते ही ये वहाँ उतर जाएंगे, इनके द्वारा धड़ाधड़-धड़ाधड़ अपना सामान उतारने के बावजूद कंडक्टर इनको गरियाता हुआ और जल्दी करने को बरजता रहेगा, बस के शेष यात्री फिर अपने घर पहुँचने में होने वाली देरी के लिए इन देहातियों को कोसने लगेंगे…। फिर कुछ ही देर में ये सारा सामान अपने सिर, कंधों पर लाद कर ये चल देंगे, बगल में बच्चा भी इनकी गोद में लटकता या झूलता रहेगा…कुछ पल के बाद इनकी आकृतियाँ शहर की भीड़ और साँझ के अँधेरे में धीरे-धीरे खो जाएंगे…।

यह दृश्य इन दिनों लगभग रोज ही देख रहा हूँ। मैं इन लोगों के बारे में सोच रहा हूँ, ये परदेस जा रहे हैं,  कमाने-खाने। माई-पिल्ला! अपनी इसी गिरस्थी को ले कर। पीछे इनका गाँव छूट रहा है, जहाँ इनका अब तक का समय बीता है, बचपन, यारी-दोस्ती, खेत-खार, घर-दुआर, गाय-बैल…सब छूट रहा है। इन सबके छूटने के दुख को संग लिए-लिए ये परदेस जा रहे हैं। गाँव से निकलते समय अपने परिजनों से मिल कर रोए होंगे, और रोते-रोते कहे होंगे- अब जावत हन…। दया-मया ल धरे रहिबे संगवारी…।

 
यदि कोई देखना चाहे उनके दुख,तो बस जरा ध्यान से देखते ही एकदम दिखाई पड़ जाएंगे-पानी पर पड़ गए तेल की तरह सतह पर तैरते हुए।

इस समय कंडक्टर पीछे से टिकट काटता आ रहा है- हाँ,  आपका भाईजी? आपका मैडम? टिकट हो गया ? कहाँ का?’ ऐसी भीड़ में भी वह दुबला-पतला कंडक्टर बड़े कौशल से लोगों के बीच जगह बनाता टिकट काट रहा था।उसे इसकी आदत है। बीच मंझधार में नाव खे लेने जैसी दक्षता के साथ।

    ‘‘
इतना काहे को भर रहे हो?’’ जींस-टी-शर्ट और गागल पहने एक लड़के ने-जो खड़ा था- काफी गुस्से से उस पर बमका- ‘‘इतनी भीड़ में तो साला खड़ा होना भी मुश्किल है!

  
कंडक्टर नेउसे अद्भुत अप्रत्याशित शांति से जवाब दिया-‘‘देखो भाई, जब मैं कहूंगा तो आपको बुरा लगेगा। मैं आपको बुलाने तो नहीं गया था? अगर आपको इस बस में नहीं जाना है तो आप टिकट का पैसा वापस लेकर उतर जाओ।’’
 
लड़का निरुत्तर हो गया।

 
कंडक्टर जब हम तक पहुँचा तो मैंने उसे चेताया, ‘‘अरे-अरे,  देख के! यहाँ एक छोटा बच्चा है!’’
 
  
बच्चा? कंडक्टर जैसे होश में आया। उसे तो नीचे देखने की सुध ही नहीं थी। उसे तो जैसे केवल खड़े लोगों की मुंडियों की गिनती करने की आदत है।  वह घबराया, इसलिए कि ऐसे कोंटे में पड़े-पड़े बच्चे को कुछ हो-हवा गया तो? उसने देहाती पर गुस्सा किया-‘‘अरे यार, ये यहाँ-कहाँ पड़ा है? इसको इधर क्यों डाल दिया है?’’

    
उसके कहने से देहाती को भी तैश आ गया, ‘‘अरे,तो यहाँ जगा कहाँ है? जगा रही तभे त बइठाही।’’

   
कंडक्टर ने अपने दोनों हाथों से पकड़ कर उसे कोने से ऐसे बाहर निकाला मानो वह बच्चा नहीं,  दड़बे की एक मुर्गी हो! उसने बच्चे को अपने कंधे के भी ऊपर हवा में उठा लिया, उसके लिए उचित जगह तलाश करते। आश्चर्य कि बच्चा इस बखत भी बिल्कुल ऐसे चुप था गोया ऐसे चुप रहने की उसकी कोई पक्की ट्रेनिंग हुई हो! या कि वह भी यात्रा में बार-बार ऐसे उठा-पटक वाले तमाशे का आदी हो गया हो! बच्चा तो वैसे ही निरीह और कमजोर था, और दयनीय,जैसे जादू या तमाशा दिखाने वालों के बच्चे प्रायः हुआ करते हैं। अंतर इतना था कि इसके कपड़े फटे-पुराने नहीं थे, और देह भी मैली नहीं थी। इसके माता -पिता ने इसे अपेक्षाकृत संवार के रखा था।

  
कंडक्टर बड़बड़ाया, ‘‘अरे यार, तुम लोग  भी न बच्चे को नीचे में कचरे के माफिक डाल दिये हो? कहीं कुछ हो हवा गया तो साली हमारी ही मुसीबत!

  ‘‘
तो कोनो जगा बइठा दे एला!हम मन त कहत-कहत थक गेन!’’ कंडक्टर की भलमनसाहत का लाभ उठाने की गरज से आदमी बोला।

  
अब वह बच्चा कंडक्टर के हाथों में था तो यह जैसे उसकी जिम्मेदारी हो गई थी। उसने बच्चे को बगल में बैठी मैडम के गोद में जबरदस्ती डाल दिया, यह कहते हुए कि थोड़ी देर के लिए इसे बिठा लो, मैडम।

   ‘‘
अरे-अरे!’’ मोबाइल में गेम खेलती मैडम गुस्से से चीखी, ‘‘हटाओ इसको यहाँ से! ये मेरा नहीं है!’’

 
यह कहने पर आसपास के लोग हँस पड़े तो मैडम को अहसास हुआ उसने कुछ गलत कह दिया है।

 
कंडक्टर भला हँसी-मजाक के इस मौके को कब छोड़ने वाला था। बोला, ‘‘मैं कब कह रहा हूँ मैडम बच्चा आपका है। मैं तो ये कह रहा हूँ कि इसको अपनी गोद में थोड़ी देर के लिए बिठा लो।’’

  ‘‘
नइ! मैं किसी को अपने गोद में नहीं बिठाती! किसी दूसरे को दो। हटाओ यहाँ से!’’ मैडम ने बहुत सख्ती से कहा।

  
कंडक्टर ने उसके तेवर देखे तो समझ गया कहना बेकार है। फिर उसने सोचा कि ये तो मेरे रोज की पैसेंजर है, नाराज करना ठीक नहीं होगा। तब उसने दूसरी सीट पर बैठे एक मोटी मूँछ वाले मोटे आदमी को देना चाहा, ‘‘भाई साब, इस बच्चे को गोद में बिठा लो।तो वह भी मानो अपनी नींद से जागा, ‘‘अरे नहीं-नहीं! क्या करते हो? किसी दूसरे को दो!’’

 
मैं देख रहा था, वह बच्चे को लिए-लिए आस-पास घूम रहा है, उसके लिए कोई जगह तलाशते।

  
मुझे सहसा आभास हुआ, कि मैं चार्ली चैप्लिन की कोई फिल्म देख रहा हूँ… बीसवीं सदी के शुरूआती दौर की कोई मूक और श्वेत-श्याम फिल्म, जिसमें चार्ली चैप्लिन उस गँवइ बच्चे को गोद में लिए-लिए बस में घूम रहा है… एक सीट से दूसरी सीट, उसको कहीं बिठाने मात्र के लिए बार-बार अपनी टोपी उतार कर उनसे अनुरोध करता…अपनी आंखों से, होठों से भद्र-जनों से याचना करता, चिरौरी करता। और बस में उस दौर के कुलीन लोग सवारहैं- उद्योगपति, अफसर, व्यवसायी या जमींदार! कोट पहने मोटी-मोटी मूँछ वाले रौबदार लोग! और बहुत कीमती विक्टोरियन रेशमी घरारेदार गाउन पहनी मोटीस्त्रियां! सब उसे बुरी तरह दुत्कार-फटकार रहे हैं, लेकिन कोई भी उसकी मदद  नहीं कर रहा। आखिर में किसी ने भी उसको जगह नहीं दी है…।अब चैप्लिन के मासूम-से मसखरे चेहरे पर अपने हार जाने की एक निरीह हँसी है, लेकिन इस हँसी में चिथड़ा-चिथड़ा हो चुकी उसकी आत्मा की अकथ पीड़ा है, छटपटाहट है, और बहुतगहरी उदासी है… समुद्र जैसी गहरी उदासी…।

    
और मैं पाता हूँ, हार कर कंडक्टर ने बच्चे को वापस उसी कोने में छोड़ दिया है जहाँ से उसने उठाया था। और अपने बाकी काम निपटाने आगे बढ़ गया है…।

    
बगल की सीट वाली लड़की अपने गेम में फिर उसी तरह मगन हो गई है। जैसे आस-पास और कुछ है ही नहीं!

   
बच्चा अपनी भोली आंखों से फिर उसके मोबाइल स्क्रीन पर हो रहे कूद-फांद को देख रहा है।

     
अबकी बच्चे के मजूर पिता ने मुस्कुरा कर अपने बेटे का दिल बहलाने के लिए कहा है- ‘‘अरे,देख तो बेटा…मेडम हा का खेलत हे!’’

      
इस पर बच्चा जरा-सा खुश होकर मुस्कुरा दिया है।

     000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000

                     
सम्पर्क-
कैलाश बनवासी, 
41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा,
दुर्ग (छ.ग.) 

मोबाईल – 98279 93920 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 

कैलाश बनवासी की कहानी – ‘लव-जिहाद’ लाइव’

     

कैलाश बनवासी

 जाति-धर्म के ठेकेदारों के लिए हमेशा अपने हित ही सर्वोपरि होते हैं। अपने हितों के लिए ये ठेकेदार जाति और धरम को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करते हैं।  दुर्भाग्यवश सत्ता भी आज यही काम करने लगी है।  ऐसा ही एक नया टर्म इन दिनों सामने आया है ‘लव जिहाद’। उत्तेजक कहानियाँ गढ़ कर लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन करना ही इसका प्रमुख उद्देश्य है। आज सत्ताधीशों और रसूखदारों की प्रशस्तियाँ गा रहे मीडिया ने भी इसे बढ़-चढ़ कर प्रचारित-प्रसारित किया है। ऐसी विकट परिस्थिति में साहित्य ने ‘लव जिहाद’ के मंतव्य को स्पष्ट कर के अपना काम किया हैकैलाश वनवासी हमारे समय के चर्चित कथाकारों में से हैं। कैलाश जी की इस कहानी का विषय ही ‘लव जिहाद है। तो आइए पढ़ते हैं कैलाश वनवासी की यह नयी कहानी ‘लव जिहाद लाईव’।  

     


‘लव-जिहाद’ लाइव

कैलाश बनवासी
 

उस दोपहर खाना खाने के बाद हम माँ-बेटी बिलकुल पड़ोस के तारा काकी के घर में बैठे थे। यों ही गप मारते। वैसे भी आज इतवार था। स्कूल की छुट्टी का दिन।

अभी याद नहीं कि हम किस बारे में बात कर रहे थे…। शायद  माँ और काकी आँगन में बैठे-बैठे मनरेगा’ में हो चुके काम के अब तक नहीं हुए मजदूरी के भुगतान बारे में बात कर रहे थे, कि सरपंच और सचिव दोनों मिल कर कैसे बंटाधार कर रहे हैं गाँव का…। या, धान की इधर शुरू ही हुए लुवाई के बारे में…या खेत में गेहूँ के संग अरहर-लाखड़ी बोने के बारे में। या शायद भुनेसर दाऊ के यहाँ गुरूवार से आरम्भ होने वाले भागवत कथा के बारे में बात कर रहे थे, जिसमें कथा बांचने मथुरा के प्रसिद्ध कथा-वाचक पं. अखिलेश्वर महाराज आ रहे हैं, जिसके निमंत्रण पत्र आस-पास के सारे गाँवों में बांटे जा चुके हैं…। …या शायद माँ काकी को अगले इतवार को अपने मायके सांकरा जाने की बात बता रही थी जहाँ उसके भतीजी से रिश्ता पक्का करने  ‘पैसा पकड़ाने’  के लिए लड़़के वाले आ रहे हैं…। और मैं अपने साथ कक्षा 10 में पढ़ने  वाली तारा बुआ की बेटी रेखा के संग उसके कमरे में शायद स्कूल में नयी-नयी आयी लिली मैडम के नयी डिजाइन के कपडे, उसके फैशन और स्टाइल के बारे में हँस-हँस के बात कर रही थी।या हम अपने साथ पढ़ने वाले लड़कों के बारे में बात कर रहे थे….। या शायद…..

और सच पूछा जाय तो अब मुझे या माँ को कुछ भी याद नहीं। सब भूल गए। मानो कोई भारी बवंडर सहसा उन्हें उड़ा ले गया कहीं…। याद है तो बस यही कि मेरा छोटा भाई अज्जू आया था, औैर उसने सिर्फ इतना बताया था कि कुछ लोग आए हैं,बाहर से, और पापा को पूछ रहे हैं…।

हमें सब कुछ भुला देने के लिए इन दिनों इतना ही बहुत है!

जैसे ही सुनते हैं कि कोई आया है और हम लोगों को पूछ रहा है, हम सब कुछ एकदम भूल जाते हैं । कुछ भी याद नहीं रहता, सिवाय लगातार एक भीतरी थरथराहट के, जिसमें सहसा हम सूखे पत्ते की तरह कांपने लगते हैं। न जाने कितनी शंका-कुशंका एक साथ हमारे दिल-दिमाग में आषाढ़ के बादलों जैसे घुमड़ने लगती है, बहुत तेजी से । और तन-बदन में तारी उस थरथराहट से बच सकने का हमारे पास कोई उपाय नहीं। हम एकदम जान जाते हैं कि ये बाहरी लोग उसी के बारे में पूछने आए होंगे। हाँ, उसी के बारे में…।


उसी के बारे में, जिसकी चर्चा हम-यानी घर के सभी लोग- खुद अपने-आप से करने से बचना चाहते हैं।


हम लोगों में इतना भी साहस नहीं बचा था कि अज्जू से उन आने वालों के बारे में कुछ और पूछ-ताछ कर सकें। 


और हमारा अनुमान गलत नहीं था। इस बार भी !


वे तीन लोग थे।एक बड़ी,चमचमाती बोलेरो हमारे घर के बांयीं ओर के शिव मंदिर वाले चबूतरे  के पास खड़ी थी, नीम की छाया में।वे सभी शहरी, बहुत पढ़े-लिखे लोग थे। तीस से लेकर चालीस की उमर के। दो की आँखों में धूप का काला चश्मा था।


हमारे वहाँ पहँचते ही उनमें से एक ने, जो लम्बा और दुबला था, आगे बढ़  कर माँ से पूछा, ‘‘आप जया की माँ हैं?’’


माँ ने बस सर हिला दिया था।


यह नाम जैसे अब हम सुनना ही नहीं चाहते! जितना संभव हो दूर रखना चाहते हैं। लेकिन नहीं चाहते हुए भी यह नाम हम लोगों के सामने बार-बार आ ही जाता है…. कुछ वैसे ही जैसे पैर के अंगूठे में कहीं चोट लगी हो और बचते-बचाते हुए भी अंगूठा बार-बार किसी चीज से टकरा जाता है और घाव फिर टीसने लगता है…।


     ‘‘पूरन लाल जी कहाँ हैं?’’ उसने पूछा
     ‘‘ कहीं गए हैं अपने दोस्त के साथ।’’
     ‘‘कहीं बाहर गए हैं?’’ दूसरे ने पूछा, जिसके हाथ में कैमरा था।
     ‘नहीं-नहीं,’’ मैने बताया, ‘‘यहीं गाँव में हैं। किसी काम से गए हैं।’’


     ‘‘आप जया की छोटी बहन हो?’’ तीसरे सांवले और नाटे-ने मुझसे पूछा।

मैंने सिर हिलाया। चश्मा पहने पहले व्यक्ति ने- जो टीम का मुखिया जान पड़ता था- कहा,  ‘‘अपने पापा को जरा बुला दोगी…। हमको उनसे मिलना है। हम लोग प्रेस से हैं, रायपुर से आए हैं। दिल्ली के एक पेपर के लिए काम करते हैं। उनसे पूछना है कुछ…। अच्छा, हम ही बात कर लेते हैं, उनका मोबाइल नम्बर बताओ जरा..।’’
मैं उनको पापा का मोबाइल
नम्बर बताने लगी। माँ तब तक भीतर चली गई।

उसने पापा का नंबर लगाया,  ‘‘हाँ,  हैलो…। पूरन लाल जी बोल रहे हैं? नमस्कार पूरनलाल जी! मैं अखिलेश बोल रहा हूँ, दिल्ली’ के न्यूज-पेपर ‘जन-धर्म’ का संवाददाता। हम लोग इधर एक मिशन के तहत आए हैं। इस क्षेत्र से लड़कियाँ गायब हो रही हैं, गलत लोग उन्हें बहला-फुसला कर, अच्छी नौकरियों का लालच दे कर अपने जाल में फंसा रहे हैं। आप की बेटी भी गायब है साल भर से… । आप से थोड़ी बात करनी थी….जी, आप की बेटी जया के संबंध में…जी, हम लोग थाने गए थे, वहीं से आपका एड्रेस लेकर आपसे मिलने पहुँचे हैं…। मैं इस समय आप के घर के सामने खड़ा हूँ । जी मिलना जरूरी है…। कृपा करके आइये…। जी आइये…प्लीज, हम इंतजार कर रहे हैं…।’’


आ रहे हैं! संवाददाता ने खुश हो कर अपने सहकर्मियों को बताया।


इस बीच, जैसा कि गाँव में होता है, किसी अजनबी, वो भी गाड़ी-घोड़ा वाले, को आया देख आस-पास के लोग, क्या लइका क्या सियान, सब टोह लेने वहाँ सकला गए थे, और अपनी तरफ से भरसक मदद करने को तत्पर। पड़ोस के दुखहरन बबा इसमें अव्वल हैं। वो नंगे बदन, धोती पहने इन लोगों से पूछताछ करने लगे … कौन हो, कहाँ से आए हो…।


     अचानक संवाददाता की नजर हमारे घर के ओसारे में लाल रंग के नये ट्रेक्टर पर चली गई।
     ‘‘ये ट्रेक्टर आप लोगों का है?’’ उसने मुझसे पूछा।


     ‘‘नहीं-नहीं। ये तो दाऊ का है। पापा ड्राइवर हैं खाली।’’  मैं बोली।


बात को दुखहरन बबा ने लपक लिया और पोपले मुँह से बताने लगे, ‘‘अरे साहब, पूरन तो डरेवर है भुनेसर दाऊ का। बीसों साल से डरेवरी कर रहा है वो… छोकरा था तभ्भे-से! वो कहाँ से लेगा, साहब? दो एकड़ की खेती है,  भला उसमें कितनी कमाई होगी…? खाने-पीने भर का हो जाता है..  मुस्कुल से।’’


घर के दुआरी में ट्रेक्टर खडा हो तो सबको धोखा होता है कि ट्रेक्टर हमारा ही है। खासकर सर्वे के बखत तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। वो कहते हैं, जब तुम्हारे दरवाजे पर खड़ा है तो तुम्हारा ही होगा! कई बार हम लोगों को भी ऐसा ही लगने लगता है। छोटे थे तब तो इतरा-इतरा के सबको बताते थे-  हमर टेक्टर हमर टेक्टर!… पर हमारे भाग में कहाँ? भुनेसर दाऊ के घर में जगह नहीं है इस लिए बाबू यहीं खड़ी कर देते हैं। अब चाहे जो हो, घर के दुआरी में ट्रेक्टर खड़े होने का रौब तो पड़ता ही है। पापा को सब डरेवर ही बोलते हैं। डरेवर पूरन लाल!


मैं समझ गयी थी, ये किस लिए आए हैं। फिर से पूछताछ…वही सब! पिछले सवा साल से यही चल रहा है। शुरू-शुरू में लोग ज्यादा आते थे…कभी पत्रकार, तो कभी पुलिस वाले…या कभी एन.जी.ओ.वाले। पर मुझे समझ नहीं आया, ये लोग, अचानक, इतने दिनों बाद… ? 


मैं घर में चली आई। रसोई में माँ के पास।  माँ फिर चुप-चुप हो गई थी और किसी काम में लग गई थी, यों ही, मन को लगाने, खुद को जया की याद से बचाने। दीदी…जया दीदी की याद! जितना ही भुलाना चाहो, उतना ही और बढ़ता जाता है …आज साल भर से ऊपर हो गए…। पिछले जून से गई है ….और आज नवम्बर…।


और इन महीनों में जो हमारा हाल हुआ है? बारा महीनो में जैसे बारा हाल! जैसे हमारी पूरी दुनिया बदल गई! अचानक! एक ही घटना से! एक घटना ही मानो आपका जीवन बदल देती है! ..सब याद है कुछ भी तो नहीं भूला। एक-एक बात। मेरी आंखों के आगे सब कुछ फिल्म की रील की तरह तेजी से गुजर जाता है …एकदम फास्ट!


इसके पहले हम कैसा जीवन जी रहे थे। एकदम अलग।

माँ कैसी थी? उसको अब हँसते देखे बहुत समय हो गया। हमेशा हँसने खिलखिलाने वाली माँ, सबको सहयोग करने वाली माँ। माँ शहर जा कर घूम-घूम के साग-भाजी बेचती है। गाँव की कुछ और महिलाएं भी जाती हैं। उनका संग-साथ कितना जीवंत था। ये एकदम सुबह चार बजे उठ जाते। बाड़ी की साग-भाजी होती, या फिर गाँव के कोचिया से खरीद कर ले जाते। बड़े से झौंहा में साग-भाजी सर में बोहे…शहर की गलियों में फेरी लगाती, आवाज लगाती माँ- ‘ले करेला कोंहड़ा तरोई बरबट्टी धनिया पताल वोऽऽऽ!’  बचपन से देख रही हूँ, इसमें कभी नागा नहीं हुआ, केवल त्योहार-बार को छोड़ के। हम दोनों बहन भी बहुत बार माँ के संग जाते, अक्सर त्योहारों में, जब बोझा ज्यादा हो जाता। ऐसे माँ हम लोगों को कम ही ले कर जाती। पापा को पसंद नहीं हमारा यों बोझा ढोते-ढोते घूमना। वो कहते,पढ़-लिख के नौकरी लायक बनना। इसीलिए तो पढ़ा रहे हैं। पर जब हम शहर जाते तो वह हमारे लिए यादगार दिन हो जाता।

पिछले साल के गरमी दिनों की बात है। मैं हाई-स्कूल पहुँच गई थी-नव्वी में। मेरे लिए स्कूल बैग लेना था। माँ के साथ गई थी। बाजार में एक सिंधी की दुकान में गए थे। मैंने एक बढि़या-सा बैग, गहरे हरे  रंग का पसंद किया था। दुकानदार ने जब कीमत बतायी- दो सौ पैंतालिस! तो मैंने मान लिया था कि इतना महंगा हम नहीं ले सकेंगे। पर माँ ने दुकानदार से उसे एक सौ पच्चीस में मांगा। मेरे को बहुत शरम आए। इतना बड़ा दुकान, जहाँ जाने क्या-क्या चीजों के ढेर लगे हैं, उसके सेठ से माँ इतने कम का भाव करती है! लगा, सेठ हमको दुकान से भगा देगा- भगो, देहाती कहीं के! बड़े आए खरीदने! दुकानदार इतने कम में देने से मना करता था- अरे कोई तुम्हारा साग-भाजी है जो इतना कम होगा! पर माँ अड़ी थी। दुकानदार पहले दो सौ पच्चीस बोला, फिर दो सौ, फिर एक सौ पचहत्तर। मुझको लगता था, दुकानदार अब इससे नीचे नहीं उतरेगा, और माँ को मैं मना करती, माँ के अडि़यलपने को मैं देहातीपन समझ रही थी, इस लिए खीज कर उसको कोहनियाती थी कि नहीं, चलो, अब बस, बहुत हुआ। पर माँ को बाजार के खेल मालूम थे, इसलिए उसने हार नहीं मानी। कोई आधे घंटे की झिक-झिक के बाद आखिर वो हार मान गया और दिया एक सौ पच्चीस में ही। जब वह मान गया तभी मुझे ठीक लगा। नहीं तो मैंने मन ही मन तय कर लिया था, आगे से कभी इस देहातन के साथ कभी बाजार नहीं आउंगी अपनी नाक कटवाने!

पर नाक तो आखिर कट ही गई। घर की। हम सब की।


जया एक लड़के के साथ भाग गई। वो लड़का हमारे पास के गाँव में तीन साल पहले खुले दूध फैक्ट्री में काम करने आया था।उसी गाँव में किराये से रहता था। …उत्तर प्रदेश का रहने  वाला था। दिखने में अच्छा था। बातचीत और बर्ताव भी अच्छा था। फिर दीदी भी तो कम सुंदर नहीं थी! और होशियार भी कितनी थी! हर साल अच्छे नम्बरों से पास होती थी, स्कूल के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हमेशा आगे रहती थी, नाटकों में भाग लेती थी। कितने तो ईनाम मिलते थे उसको। वो जब बारहवीं पढ़ रही थी, तभी वो उसके संपर्क में आयी। फिर हमारा स्कूल भी तो उसी गाँव में है जहाँ दूध-फैक्ट्री है। मुझको पता चल गया था, दीदी उसको पसंद करती है। ऐसी बात भला छुपती कब है? पर ये नहीं सोचा था कि दीदी उसके साथ एक दिन…। घर के लोगों को भी ये अंदेशा कहीं से नहीं था। जब कहीं से खबर पापा तक पहुँची थी तो उन्होंने दीदी को धमकाया था- दूर रहो किसी भी लड़के-फड़के से! पर, बारहवीं का रिजल्ट निकलने के बाद-जैसे वो इसी का इंतजार कर रही थी- कि एक दिन हम सबको छोड़ कर उसके साथ भाग गई। न जाने कहाँ।


घर से जया कुछ नहीं ले गई। केवल अपने स्कूली सर्टिफिकेट्स। और अपने कुछ कपडे। 


जिसे भागना होता है वो तो अपनी मरजी से भाग जाती है। उसके भागने की सजा घर के लोगों को भुगतनी पड़ती है-तिल-तिल! गाँव भर में हल्ला हो गया। थू-थू होने  लगी। पहले थाने में रिपोर्ट करो। वहाँ उनके तरह-तरह के ऊल-जलूल सवाल…और घुमा-फिरा कर लानत-मलामत हमारी! ‘आप लोग अपने बच्चों को संभाल कर नहीं रख सकते? संभाल कर नहीं रख सकते तो पैदा क्यों करते हो? लड़की को जवानी चढ़  रही थी और तुमको खबर नहीं? कहीं दहेज-उहेज से बचने के चक्कर में तुम्हीं लोगों ने तो नहीं भगा दिया उसे? और वो भागी भी तो किसके साथ? मुसल्ले लौंडे के! और कोई नहीं मिला उसे इतने बड़े गाँव में? जवानी का जोश ऐसा ही चढ़ा था तो हिन्दू लड़कों की कोई कमी थी? भाग जाती किसी के भी साथ। अरे, जात गयी तो गयी, धरम तो बच जाता? 


      हाँ। वह लड़का मुसलमान है। जुबेर नाम है। 


       वह तो चली गयी, कलंक और बदनामी हमारे मत्थे मढ़ गयी। अब मुसीबत तो हमारी है! सब तरफ उसे लेकर पचासों तरह की बातें!


      पापा जब भी इस बाबत थाना जाते, या थाने वाले पूछताछ की आड़ में घर आते तो पाँच सौ का नोट उनकी भेंट चढ़ता। बदले में, केवल नोट की चमक देख कर वे आश्वासन देते,.. ‘हम लोग ढूँढ रहे हैं, पता लगवा रहे हैं। जाएगा कहाँ साला हमसे बच के।’


     गाँव की न्याय-पंचायती अलग! पंचायत बैठका में गाँव भर के लोगों, लइका-पिचका के सामने माँ और पापा सिर झुकाए बैठे हैं। हताश,उदास। नीचे जमीन को ताकते। और जमीन में ही गड़ जाने की इच्छा। पंचायत अपना फैसला सुना रहा है, बेटी भागी है, सो भी नान जात हो के,  इसकी पूरी जिम्मेवारी घर वाले की ही है। इस लिए, जैसा कि नियम है, सामाजिक रूप से इनको बहिष्कृत किया जाता है। अगर इससे बचना है तो आर्थिक दंड देना होगा। पापा ने पंचायत को जुर्माना भरा है- दस हजार! लड़का अगर हिन्दू होता, और जाति-कुल अच्छा होता तो पांच हजार ही देना पड़ता। कुजात हुई है इसलिए दस हजार!


      कलंक तो लग ही गया। वो तो मिटने से रहा।


     माँ बार-बार कह रही है, इस बदजात लड़की ने तो हमको कहीं का नहीं छोड़ा। कोख में ही थी तभी काहे नहीं मर गयी करमफुटही!


     पापा अब पहले से ज्यादा पीने लगे हैं। पी कर अक्सर दीदी को जी भ रके भला-बुरा कहते हैं। कहते हैं,कभी दिख भर जाय वो लड़की, मैं ट्रेक्टर का चक्का चढ़ा दूँगा हरामजादी पर! माँ सुन कर चुपचाप रोती है। उसका तो मन है, कैसे भी हो, मेरी बेटी एक बार घर आ जाए।  माँ को पूरा विश्वास है उसके घर आने के बाद सब ठीक हो जाएगा। लेकिन मुझको नहीं। वह घर आएगी तो दूसरी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी…।


    और एक सबसे राज की बात! घर में सिर्फ मुझको ही मालूम है वो कहाँ है!


मेरी सबसे खास सहेली का नम्बर उसके पास था। उसने उसी के नंबर पर मुझे और किसी को भी न बताने की शर्त पर बताया था कि वो वहाँ जुबेर के साथ खुश है। कि उसकी कैसी भी चिंता करने की बिलकुल भी जरूरत नहीं। कि वह बाद में फोन करेगी। पल भर तो मुझे बिलकुल भी समझ नहीं आया था कि खुश होऊँ कि रोऊँ! किंतु मैंने फोन पर कोई खुशी नहीं जताई। बल्कि, मैं तो हमें छोड़ कर जाने और माँ-पापा की ऐसी हालत के कारण बेहद नफरत करती हूँ। गुस्से से चिढ़ी हुई थी, इसलिए भी कोई और पूछताछ नहीं की। तू जिए कि मरे, अब हमसे मतलब? मर तो हम लोग गए न!


   इस बात को मैंने अब तक अपने तक ही रखा है। मन के सबसे भीतरी कोने में। सौ ताले में बंद कर के। 

     

अपने होंठ एकदम सी कर के। फिर भी डरती रहती हूँ कि कभी भूल से भी मुझसे या सहेली के मुँह से यह बात न निकल जाए।  बहुत डर लगता है,पता नहीं बताने पर और न जाने क्या-क्या हो। घर को मालूम नहीं इस समय जया कहाँ है? वे देवी-देवता से बस यही मनाते रहते हैं कि हे भगवान, वो जहाँ भी रहे, खुश रहे! …लेकिन तरह-तरह के समाचार जो आजकल टी वी और अखबार में आते रहते हैं, हमको और-और डराते हैं। हरदम…।

   00000000


   माँ ने मुझको इन लोगों के लिए चाय चढ़ा देने को कहा। मैंने छोटी गंजी मांज कर स्टोव जला कर चाय चढ़ा दी। मुझे लग रहा था,फिर पिछली बार की तरह वही सब होगा.. .दीदी की फोटो मांगेगे
हमारी फोटो खींचेंगे, और आश्वासन देंगे, बिलकुल झूठे…।

   पापा आ गए। मैंने खिड़की से झाँक कर देखा, मोहन चाचा संग में हैं। जान गई,  दोनों पी कर आए हैं।
   नमस्कार पूरन लाल जी!
   नमस्कार। जी कहिए। 


   ‘‘जी कहते हुए अच्छा तो नहीं लग रहा है, क्योंकि ये आपके लिए, घर के लिए तो बहुत दुख की बात है। मैं समझ सकता हूँ आपका दुख। लेकिन आप विश्वास कीजिए, हमारा अखबार इसको मेन इश्यू बनाकर चल रहा है, और हम दोषी को छोड़ने वाले नहीं हैं। हमारी पूरी कोशिश होगी कि आपकी बेटी आपको मिल जाए। शायद आपको मालूम नहीं है, इस क्षेत्र के विधायक ने विधान सभा में क्वेश्चन उठाया है कि इस इलाके की लड़कियाँ बड़ी संख्या में गायब हो रही हैं। निश्चित ही इसके पीछे किसी ताकतवर मानव-तस्कर गिरोह का हाथ है जिसकी पकड़ सत्ता के गलियारों तक है। हम उन्हें बेनकाब करना चाहते हैं। अभी हम पास के कुछ गाँवों से आ रहे हैं। वहाँ भी एक-दो लड़कियाँ गायब हैं। प्लीज,थोडा़ बताएंगे…क्या हुआ…कैसे हुआ…।’’


    ‘‘मैं क्या बताऊँ, सब बात तो पुलिस को बता चुके हैं, नया कुछ नहीं है।’’


    ‘‘फिर भी, आपको क्या लगता है कहाँ जा सकती है वो…। क्योंकि इस क्षेत्र में निरंतर लड़कियों को बहला-फुसला कर या अपहरण करके ले जाने की खबर मिल रही है। …थोड़ा बताइये…। और उसकी  फोटो…।


    पापा ने इस बार भी वही सब किया। धूप तेज नहीं थी, इस लिए आँगन में पड़ी खटिया मुनगा झाड़ के नीचे डाल कर ,उस पर कथरी बिछा कर पत्रकार लोगों को बिठाया, और अपनी राम कहानी बताते रहे। गाँव में हुई बदनामी, पुलिस का रवैया और शोषण…। लड़की के चले जाने का जहाँ उनको गुस्सा था वहीं दुख भी था। पापा जया दीदी को बहुत चाहते थे! घर की पहली संतान थी वो। बताते-बताते पापा रो पड़े। उनके साथ के कैमरामैन ने तुरंत पापा की फोटो खींच ली। मैं उन्हें चाय देने गयी तो उसने मेरी भी फोटो खींच ली। हमारे घर की भी फोटो खींची। उस दौरान मैंने नोट किया, कि जैसे ही पापा ने उनको बताया कि वो एक मुसलमान लड़के के साथ भागी है, सहसा उनके चेहरे में जैसे कोई चमक आ गयी थी, लगा, जिस चीज की तलाश वो कर रहे थे, एकदम-से वो उनको मिल गई हो! वह संवाददाता जुबेर के बारे में काफी-कुछ पूछता रहा। उसने जब मुझ से पूछा तो मैंने कुछ भी जानने से इन्कार कर दिया। बल्कि पापा के समान मैंने भी गुस्से में कह दिया, वो हम लोगों के लिए मर चुकी है। एक साल हो गए उसे गए हुए, अब तो हम उसे भूलने लगे हैं। 


   कोई आधा-पौन घंटा हमारे घर में बिताने के बाद वो उठ गए।


   जब वे जाने लगे, कमरे में माँ जया को याद करके रो रही थी, बहुत चुपचाप, भीतर ही भीतर। अच्छा हुआ जो उनका ध्यान इस ओर नहीं गया, नहीं तो इसकी भी फोटो ले लेते। वे पापा को धन्यवाद देते अपनी गाड़ी की ओर बढ़ चले। 


   उनके पीछे-पीछे मैं आँगन का कपाट बंद करने आयी थी। कपाट बंद करते-करते मैंने सुना, उनमें से एक बोला था, ‘‘अरे यार! ये लड़की तो स्साली थी ही एकदम भगाने लायक!’’


      ‘‘इसी लिए तो भगा ले गया वो!’’ हँस कर दूसरे ने कहा।
      ‘‘ऐश कर रहा होगा कटुआ…।’’ बहुत गहरी नफरत से पहले ने माँ की गाली दी थी।


    0000000000


     खबर को उस पत्रकार ने बहुत विस्तार से अपने अखबार में इस टाइटिल से छापा था-  ‘सावधान! आप के इलाके में सक्रिय हैं ‘लव-जिहादी’!’


    इसके आगे मुझे यह बताना भर शेष रह जाता है कि खबर पर इलाके भर में जबरदस्त तीखी प्रतिक्रिया हुई है। आज टी वी के एक लोकल न्यूज चैनल में मैं देख रही थी, लाइव, ‘लव जिहाद’ के खिलाफ ब्लॉक मुख्यालय में सैकड़ों की उग्र भीड़ ने अपने झंडे-डंडों, नारों-बैनर सहित लम्बा जुलूस निकाला है,चक्का जाम कर दिया है, और थाने का घेराव किया है…।

0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
                                                               

सम्पर्क-
कैलाश बनवासी,
41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा,
 दुर्ग, (छ.ग.) पिन- 491001,
 

मोबाईल – 09827993920 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)
  

सामयिक प्रकाशन से अभी प्रकाशित हो रहे कैलाश बनवासी के उपन्यास ‘लौटना नहीं है’ का एक अंश


कैलाश बनवासी अपनी कहानियों के लिए हिन्दी में पहले से ही ख्यात रहे हैं. अभी हाल ही में कैलाश ने अपना एक महत्वपूर्ण उपन्यास पूरा किया है.  ध्यातव्य है कि कैलाश बनवासी का यह पहला उपन्यास है. ‘लौटना नहीं है’  नामक यह उपन्यास सामयिक प्रकाशन से छप कर आने ही वाला है. प्रस्तुत है इसी उपन्यास का एक अंश आपके लिए. 
 
जात न पूछो फूलों की

 कैलाश बनवासी

   इस संस्था को लेकर सभी के मन में तरह-तरह की शंकाएं थीं। प्रायः आए हुए लोगों में कोई भी इसके बारे में ठीक-ठाक जानता नहीं थी, इसलिए संदेह भी थे, इसकी विश्वसनीयता को लेकर। खासतौर से हम जो इतनी दूर से आए हैं।

   इस समय हम इसी पर बात कर रहे थे आपस में।



   -ये साली है किस टाइप की? इतनी आलीशान बिल्डिंग! देख के कोई कहेगा ये अनाथ आश्रम है?
   -क्या इनको गौरमेंट से सहायता मिलती है?
   -लेकिन अपनी गौरमेंट तो खुद अनाथ आश्रम चलाती है! बहुत फटीचर टाइप की! हमेशा फंड की किल्लत रहती है। कभी-कभी तो बच्चों को खाने के लाले पड़ जाते हैं, बाकी सुविधा तो छोड़ो!


   -ये तो कोई और ही चीज लगती है भाई! बाहर से पैसा आता है, तभी तो!
   -अपने ही देश में कितनी जगह तो इनकी शाखाएं हैं….बैंगलोर, गौहाटी, मनाली, विशाखापट्टनम, भोपाल…।
   -देश तो देश, विदेश में भी काम करती है इनकी संस्था। देखे नहीं, वहाँ फोटो टंगे हैं …जर्मनी, फ्रांस, नेपाल, केनिया… और पता नहीं कहाँ-कहाँ!


   -साली कोई लफड़े वाली जगह तो नहीं? लड़की की सुरक्षा का सवाल है!
  -देखने से तो ऐसा कुछ नहीं दिखता। सब ठीक-ठाक ही दिखता है। बिना परमीशन के कोई आदमी घुस नहीं सकता।
  -गार्ड अपनी ड्यूटी में कितना चुस्त है!


    यहाँ की बस छिटपुट बातें ही हमको मालूम थीं। मसलन,अनाथ बच्चों को ये बिल्कुल घर जैसा पालते हैं। उनकी पढ़ाई लिखाई की बेहतरीन व्यवस्था है- संस्था के ही स्टैण्टर्ड इंग्लिश मीडियम स्कूल्स। ऐसी व्यवस्था पाने के लिए तो लोग तरसते हैं,और इनको फ्री आफ कास्ट।
 
 यहाँ काम में लगी लड़कियों को देख कर भरोसा होता था। चुस्त चपल चालाक। व्यावहारिक। हँसमुख और स्वतंत्र। लड़कियों को इतने खुले दिमाग और एडवांस देख कर निश्चय ही हम जैसे लोग अभिभूत थे। और दंग! लेकिन फिर भी कुछ हमारे भीतर रह जाता था। हम जो छोटे शहरों के थे, जहाँ अभी भी लड़कियों की दोस्त सहेलियाँ ही होती हैं, उन्हीं के साथ उनका घूमना-फिरना और मिलना-जुलना। लड़कियों को ऐसे केवल सिनेमा में देखने के आदी थे, इसलिए इतनी सहजता से उन्हें लड़कों से बात करते देख अजीब लगता था, भीतर घर कर चुके कस्बाई संस्कार उभर आते थे, और नहीं चाहते हुए भी उनकी नैतिकता पर मन में सवाल उठने लगते थे। शायद यह महानगरीय युवा संस्कृति थी जिसका अभी छोटे शहरों में आना बचा था। हमारे जैसे लोग सचमुच थोड़े उलझन में थे।

     हमारे भीतर कुछ टकरा रहा था, कुछ टूट रहा था, कुछ बन रहा था। बनने में अभी समय लगना था। नये वातावरण में ढलने में। नयी सोच को ग्रहण करने में।

      गुप्ता ने अपने कंधे से लटकते थैले से मिठाई का डिब्बा निकाला। उसमें समोसे थे। अब तक हमारा अपना एम.पी.वाला ग्रुप बन चुका था। गुप्ता,चैरे और निषाद को मैं अंकल संबोधित करने लगा था और वे मुझे मेरे नाम से।

                                                   (चित्र : उपन्यासकार कैलाश बनवासी)
     
गुप्ता जी इस बीच इंटरव्यू शुरु हुआ कि नहीं इसका पता लगा के आ चुके थे। बोर्ड के दूसरे मेम्बर अभी भी नहीं पहुँचे थे। और वह बताने लगे, संस्था के बारे में मैंने गेट में खड़े उन संतरियों से पता किया, क्या है भई यहाँ का वास्तविक हालचाल?… क्योंकि अगर किसी जगह की असलियत मालूम करनी हो तो सबसे पहले वहाँ के छोटे कर्मचारी को पकड़ो। वो बताएंगे सच। तो उन लागों ने बताया, यहाँ बाहर का एक भी आदमी बिना परमीशन के प्रवेश नहीं कर सकता। इसके लिए बहुत सख्ती है! अगर मान लो आपकी रिश्तेदार यहाँ है तो भी पहले पूरी बात कनफर्म की जाती है। यहाँ जो भी काम करते हैं वो दो रिश्तेदारों से अधिक का नाम नहीं दे सकते जो यहाँ उससे मिलने आएंगे। ना ही यहाँ महिलाओं को यों ही बाहर जाने दिया जाता है। हास्टल की तरह उन्हें हर हफ्ते तीन घण्टे की परमीशन मिलती है। इसलिए सुरक्षा के बारे में आप निश्चिंत रहिए। 

    ‘‘ऐसा?’’
    यह हमारी बगल में बैठे एक अधिकारी-से दिख रहे व्यक्ति ने कहा था, जो गुप्ता की बातें ध्यान से सुन रहा था। उनके साथ कंधे तक कटे बालों वाली एक लम्बी लड़की थी, वह भी कोट पहने थी। पता चला वे हरियाणा के करनाल से आए हैं। वह स्कूल में लेक्चरर हैं। ठीक-इाक आर्थिक स्थिति वाले दिखते थे।


    ‘‘आपने क्यों भर दिया?’’ इस बार चैरे ने पूछा, ‘‘ये तो विधवा या पति द्वारा छोड़ी गई महिलाओं को प्राथमिकता देंगे?
    लड़की ने कहा, ‘‘हमने तो ऐसे ही भर दिया था।’’
     उसके पिता ने कहा, ‘‘हम तो वास्तव में देखना भर चाहते थे कि क्या है। भई ये लोग कैंडिडेट को आने-जाने का फेअर आलरेडी दे रहे हैं, तो हमने सोचा, चलो हो आते हैं। इसका भी एक एक्सपीरिएंस हो जाएगा।’’


    ‘‘बिल्कुल ठीक किया आपने। बच्चे ऐसे ही तो सीखते हैं। हमने भी अपनी भतीजी को इसी लिए लाया है। हम जबलपुर से आए हैं।’’ गुप्ता अपने बोलने का कोई मौका नहीं चूकता।
     ‘‘काफी दूर से आए हैं आप लोग।’’ उसने कहा।


      लॉन में भीड़ बढ़ती जा रही थी। वे जिनकी ट्रेन या बस लेट थी, पहुँच रहे थे। जिस ‘मदर’ पोस्ट को हम यूँ ही समझे थे उसके इंटरव्यू के लिए अच्छे-अच्छे लोग पहुँचे हैं, यह देख कर एक खुशी-सी हुई। या,वाकई बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि लोग जहाँ जगह मिले पहले वहीं सेट हो जाना चाहते हैं, बाकी चीजें बाद में सोचेंगे। इस कलंक को कैसे भी, पहले, अपने से परे कर देना चाहते हैं!


     इधर पहले से इंतजार कर रहे लोग बार-बार रिसेप्शन में जाकर पूछ आते थे। और पूछ आने के बहाने उस सुंदर नेपाली बाला को देख आते, जो स्वयं भी मुस्कुरा कर लोगों को जरा ‘एंटरटेन’ कर रही थी, अपनी ‘ड्यूटी’ ठीक तरह से निभाती हुई।

   ‘‘सब आ चुके हैं…बस डायरेक्टर सर रह गए हैं…।….अब्भी फोन किया था उन्होंने। निकल गए हैं। एक अरजेंट मीटिंग में थे जर्मनी एम्बेसी में। … बस आधा घंटा और …प्लीज…!’’ वह मुस्कुरा रही है,लोगों की अधीरता पर मरहम लगाती। 




   एक घंटे से भी अधिक समय बीत चुका था वहाँ बैठे-बैठे। अब थोड़ी उकताहट हो रही थी। और धूप भी तेज होकर चुभने लगी थी। तभी वह नेपाली बाला लॉन में आती दिखाई दी। चटख लाल ब्लेजर में हल्के भूरे रंग का कोट पहने। नीली मिडि घुटने तक थी, जिसके नीचे उसके एकदम गोरे-सफेद पैर थे, चिकने…धूप में चमकते। साथ में सफेद वर्दी वाला एक अटेंडेंट। सबको लगा, अब इंटरव्यू शुरु होने वाला है। सब पूछने लगे, डायरेक्टर साब आ गए? कब शुरु होगा?


     वह लॉन में कुछ आगे आ कर खड़ी हो गई। लोग उसके गिर्द आ गए।
     ‘‘सुनिए! प्लीज!’’ वह ऊँची आवाज में सबको बताने लगी- देखिए, डायरेक्टर सर अभी पहुँच जाएंगे थोड़ी देर में। उन्होंने कहा है, आए हुए लोगों को मदर्स क्वार्टर्ज दिखा लाइये। आप लोग देख भी सकते हैं और उनसे जो पूछना चाहें, पूछ भी सकते हैं! ये जयपाल हैं, ये आपको घुमाएंगे। तो आप लोग इनके साथ चले जाइये!’’
      ओ.के. मैडम।


      जयपाल, जिसकी वर्दी खासी सफेद थी,धूप में चमक रही थी। उसकी मूँछें भी गहरी काली चमकीली थीं। वहाँ उपस्थित हमारे ग्रुप सहित तीस-चालीस लोग उसके साथ हो लिए। एक छोटे-मोटे जुलूस की शक्ल में हम उसके पीछे-पीछे चलने लगे।  


    ‘‘ये अच्छा हुआ। इनके बारे में सीधे यहाँ काम करने वालों से पूछ सकेंगे।’’ मैंने साथ चल रहे चैरे से कहा।
    ‘‘हाँ, यहाँ की सब बात हमको पता होना चाहिए।’’


    साथ चल रहे लोगों में एक साहबनुमा व्यक्ति था, ग्रे कलर का कोट और सुनहरी कमानी का चश्मा पहने। वह बार-बार अपनी अँग्रेजी जताते हुए अटेंडेंट से पूछ लेता था, तुम कब से काम कर रहे हो…पेमेंट कितनी मिलती है…कितने का स्टाफ है वगैरह।, जब गुप्ता ने अपने को एम.पी. वाला बताया तो वह खासे गर्व से बताने लगा हम ग्वालियर से हैं….और यहाँ अपनी कार से आए हैं, मय अपनी बेटी और ड्राइवर के। उसका लहजा और व्यवहार बड़ा वी.आई.पी. किस्म का था। और सबका लीडर बनने की ख्वाहिश में सबसे ज्यादा बोलता-पूछता हुआ।

    लॉन के सामने, कुछ दूर पर सिंगल स्टोरी क्वार्टर का सिलसिला था। अटेंडेंट हमें किसी कुशल गाइड के समान बता रहा था, ये सबसे बड़ा सेंटर है साब हमारा…यहाँ चालीस मदर्स क्वार्टर हैं…पीछे अभी तीस और बन रहे हैं…गर्मी तक कम्पलीट हो जाएंगे…।

     ये बड़े आकर्षक फ्लैट थे, कतार से, एक से बने हुए। सामने की दीवारों पर कलात्मक रफ पत्थर लगाए गए थे। ये महज अपने आर्किटेक्ट में ही आधुनिक नहीं थे, बल्कि रंगाई-पुताई और साज-सज्जा में भी। उन शानदार मजबूत फ्लैट्स के आगे बच्चों के खेलने के लिए खूबसूरत लॉन और उनमें बच्चों के लिए रंग-बिरंगे झूले,फिसलपट्टियाँ,सी-सा…।
    कंचन जंघा, माउंट एवरेस्ट, सतपुड़ा, अरावली…ये यहाँ के फ्लैट्स-ग्रुप के नाम थे।


   दूसरों का तो पता नहीं लेकिन मेरे और गौरी के लिए यह एकदम नया और अनोखा था। अनाथ बच्चों के लिए इतना कुछ होगा हमें जरा भी अनुमान नहीं था! कितना अच्छा है ये! काश! गौरी का यहाँ हो जाए तो गौरी कितना खुश रहेगी! उस क्षण मन में सिर्फ यही कामना जागी थी। कितना अच्छा होगा! कैसे भी तो हो जाए!! बहुत रोमांचित था मैं। जाने क्यों, अब और ज्यादा कुछ देखने-सुनने की इच्छा नहीं थी। हम जैसे अभिभूत थे! यह सब हमारे उम्मीद से कई गुना अच्छा था। ऐसा कभी सोचा भी नहीं था! लगा, चयन हो जाने पर गौरी यहाँ गुजार लेगी अपना जीवन! हमारे घर के जीवन से भी कहीं बेहतर जीवन! 


     मैं यहाँ गौरी के जीवन की कल्पना करके ही खुश हो रहा था! यह एक सुख था, जिसमें देर तक डूबे हुए रहा जा सकता था। न जाने कितनी देर तक!
     और गौरी! वह तो मुझसे भी कहीं ज्यादा इसकी आशा से भरी हुई थी, जिसे उसके चेहरे पर मुग्धता के खिले हुए मुस्कान से समझा जा सकता था।
     सामने के एक फ्लैट में अटेंडेंट हमें ले गया।
     घर देख कर हम चकित थे। किसी मध्यवर्गीय घर के जैसा सुसज्जित ड्राइंग रूम! मनोरंजन और जरूरत की सारी सुविधाएं- टी वी, वी.सी.आर.,फ्रिज, सोफा, दीवान….सब। अनाथ आश्रम तो किसी नजर से नहीं!!
     आइये जी आइये! सोफे पर बैठी एक अधेड़ पंजाबी महिला ने मुस्कुरा कर हमारा स्वागत किया, बैठिए!
     बैठे सिर्फ चंद लोग। ग्वालियर वाले सज्जन आगे थे यहाँ भी।



     -अच्छा तो आप यहाँ की मदर हैं?
     -जी हाँ!
   -कब से हैं आप यहाँ?
   -जी,मुझको तो पंद्रह-सत्रह साल हो गए इधर।
   -कितने बच्चे हैं आपके पास?
   -सात हैं जी। दो तो पढ़-लिख कर बाहर नौकरी कर रहे हैं। मुस्कुराई हैं वे।
   -अच्छा! वेरी गुड!…संस्था की तरफ से आपको क्या मिलता है?
    -पेमेंट है न हमारी।महंगाई भत्ते सहित।
   -और इन बच्चों के लिए?
     -इनके लिए हर महीने बच्चे के हिसाब से उनका खर्चा दिया जाता है…उनके कपड़े-लत्ते, खाने वगैरह के लिए।


    -अच्छा, इतने सब लोगों की देखभाल का काम आपका होता है?
   -हान्जी। मैं माँ हूँ इनकी तो देखभाल तो मुझे ही करनी होगी न! फिर मुस्कुरायीं वह।
    -बहुत अच्छा जी। बहुत अच्छा। अच्छा ये बताइये, ये टीवी,वी सी आर या टेप रिकार्ड जो आपके यहाँ हैं, …ये सब क्या संस्था ने दिए हैं?
    -नई जी, ये तो हमने अपने पेमेंट से,और बच्चों के खर्च से बचा कर खरीदे है!
    -तो संस्था आपको इसके लिए कुछ नहीं देती?
   -नई जी इसके लिए नइ देती। देखो,ये आपका घर है जहाँ आपने और आपके परिवार ने रहना है। अब ये आपके ऊपर है कि आप इसका कैसा इस्तेमाल करते हो! चाहे तो बचाइये…चाहे तो…! वे हँसने लगीं।


    -आंटी जी, देखने से तो बिल्कुल नहीं लगता कि ये कोई अनाथ आश्रम है…कि यहाँ अनाथ बच्चे रहते हैं!
   -बिल्कुल जी! संस्था का उद्देश्य भी यही है, कि बच्चों को उनका हक… एक माँ का प्यार मिले! वे यहाँ अपने माँ के साथ घर की तरह रहें। बिल्कुल घर के जैसा! उनको ये अहसास ही न हो कि हम अनाथ हैं…कि हमको प्यार करने वाला कोई नहीं, …कि हमारे वास्तविक माँ-बाप कोई और हैं! इसी लिए तो उनको अपना एक घर दिया गया है…घर जैसी ऐसी सुविधाएं दी जा रही है! देखिए बच्चे बड़े होने पर तो सब जान ही जाते हैं, फिर भी, इस बात को उनसे जितना दूर हम रख सकें, उतना ही अच्छा! 


   -यहाँ बच्चे आपको मम्मी बुलाते हैं?
   -हान्जी। यही बुलाते हैं। मैंने बताया न, इनमें और बाहर के बचों में हम कोई अंतर नहीं रखना चाहते। अंतर बस इतना ही है कि वे बाहर खुले में रहते हैं और हम यहाँ। बाकी कोई फरक नइ।
    -वैसे, आप हैं कहाँ की रहने वाली?
    -जी, मैं तो भटिंडा पंजाब से हूँ।
    -वहाँ जाती हो आप? छुट्टियों में…या शादी-ब्याह में? छुट्टी मिलती है इधर घर जाने की?


    -छुट्टी मिलती है। साल में एक बार आपको घर जाने की मिलती है। पहले ज्यादा जाना होता था,पर यहाँ भी तो आपका घर है…इनको भी तो आपने देखना है जी। रिश्ते-परिवार में शादी-ब्याह तो लगे ही रहते हैं …लेकिन हम औरों की तरह हर शादी-ब्याह में तो नहीं जा सकते न! घर वाले तो बुलाते ही रहते हैं। वे भी आते हैं मिलने के लिए। पर घर वालों का ज्यादा आना-जाना ठीक नहीं है ऐसे घर के लिए।   


   -अच्छा, और आप के बेटे कहाँ सर्विस कर रहे हैं?
   -एक बेटा तो डिफेंस में इंजीनियर है जी…कम्पयूटर इंजीनियर…शिलाँग में। दूसरा बैंगलोर में बैंक में काम करता है।
   -उनकी शादी हो गई?
   -हान्जी, एक की हुई है। पिछले ही साल। वे इस बात पर खुश हो गयीं जैसे माँ एं अपने बेटों के लिए हुआ करती हैं।
   -लड़की किसने पसंद किया?
   वे हँस पड़ी इस सवाल पर। कहा, हम दोनों ने। मैं तो कहती थी तुमको जिससे करनी है बता दे पुत्तर,मैं राजी हूँ। शादी में लड़के-लड़की की पसंद होनी चाहिए। जिंदगी साथ तुमको गुजारनी है। पर बोला नइ, आप पसंद करो।


   -वे लोग पैसा भेजते हैं आपको?
  -हाँ-हाँ, क्यों नहीं? माँ जो हूँ उनकी! वो तो कहते हैं, मम्मी जी, आप यहाँ आ के रहो, हमारे साथ! मैं बोलती हूँ, नहीं बेटे, तुम लोग अपना कमाओ, खुश रहो। मैं इसी में खुश हूँ। यहाँ तुम्हारे छोटे-भाई-बहन हैं। मैं वहाँ आ जाऊँगी तो इनकी देखभाल कौन करेगा? वैसे मैं जाके हफ्ता दिन दोनों के यहाँ रह आई हूँ। अरे,बहुत रुकने को बोलते थे। पर क्या करोगे? अपना काम ही कुछ ऐसा है! ये बच्चे भी साथ गए थे मेरे।


   – ये बताइये,संस्था को क्या आप अपनी मर्जी से छोड़ सकती हैं?
    -वैसे तो रिटायरमेंट की सुविधा है साठ साल में। बीच में चाहे कोई तो छोड़ सकता है, उसकी मरजी। पर ये संस्था के लिए अच्छी बात नहीं है।
   – क्यों भला?


    -दरअसल बात ये है कि बार-बार उनकी माँ बदलती रहे तो इनको गिल्टी फील होती है। ये महसूस करने लगते हैं हम अनाथ हैं, और ये लोग तो बस अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। बार-बार माँ बदलने से उनको मानसिक परेशानी होती है। एक माँ के साथ जो रिश्ता बन जाता है वह माँ बदलने से टूट जाता है। इनके कोमल मन को ठेस लग जाती है। फिर ये किसी को भी वैसा प्यार नहीं कर पाते। दिल में हमेशा के लिए शक बैठ जाता है कि ये भी कल को हमको छोड़ के चली जाएगी। इसलिए इनको बीच में छोड़ के जाना ठीक नहीं।


   -आपके रिटायरमेंट के बाद ये बच्चे आप के ही रहेंगे?
   -बिल्कुल जी। भला माँ-बच्चों का रिश्ता कभी टूटता है?
   -ये बच्चे तो अलग-अलग जाति धर्म के होते हैं। इनको इनका धर्म बताया जाता है या आपका धर्म ही..?


   -अजी बच्चों का क्या धरम और क्या जात? ये तो पानी के जैसे हैं जी, जिसमें मिला लो उसी रंग के हो जाएंगे। जब मैं इनकी मम्मी हूँ तो मेरा धरम ही इनका धरम। मैं सिक्ख धरम को मानती हूँ तो मेरे बच्चे इसी को मानते हैं। जैसे मेरे बाजू के क्वार्टर में साउथ इंडियन महिला हैं…रेड्डी कर के…तो उनके बच्चे उनका धरम मानते हैं। वैसे एक बात यहाँ बहुत ही अच्छी है, त्यौहार किसी भी धरम के हों, मनाते सब मिल-जुल कर हैं। एक साथ! यहीं मैदान में। क्या दीवाली…क्या ईद…क्रिसमस…होली…सब! 


   हम आश्चर्य से उन्हें ऐसे देख रहे थे जैसे वह किसी दूसरे लोक की प्राणी हो!

000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000

सम्पर्क –
                 
कैलाश बनवासी
41,मुखर्जी नगर,
सिकोलाभाठा, दुर्ग (छ.ग.)

मो.- 09827993920
ई-मेल: kailashbanwasi@gmail.com  
                            

(उपन्यास अंश में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)

कैलाश बनवासी


      

 
जन्म- 10 मार्च 1965, दुर्ग

शिक्षा- बी0एस-सी0(गणित),एम0ए0(अँग्रेजी साहित्य)

1984 के आसपास लिखना शुरू किया। आरंभ में बच्चों और किशोरों के लिए लेखन।

कृतियाँ-

सत्तर से भी अधिक कहानियाँ देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। बहुतेरी कहानियाँ चर्चित,किंतु कहानी ‘बाजार में रामधन’ सर्वाधिक चर्चित।

अब तक तीन कहानी संग्रह प्रकाशित-‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’(1993),‘बाजार में रामधन’(2004) तथा ‘पीले कागज की उजली इबारत’(2008)

कहानियाँ गुजराती,पंजाबी,मराठी,बांग्ला तथा अँग्रेजी में अनूदित।

पहला उपन्यास ‘लौटना नहीं है’ शीघ्र प्रकाश्य।

 सम-सामयिक घटनाओं तथा सिनेमा पर भी जब-तब लेखन।

पुरस्कार- कहानी ‘कुकरा-कथा’ को पत्रिका ‘कहानियाँ मासिक चयन’(संपादक-सत्येन कुमार) द्वारा 1987 का सर्वश्रेष्ठ युवा लेखन पुरस्कार। कहानी संग्रह ‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’ को 1997 में श्याम व्यास पुरस्कार। दैनिक भास्कर द्वारा आयोजित कथा प्रतियोगिता ‘रचना पर्व’ में कहानी ‘एक गाँव फूलझर’ को तृतीय पुरस्कार। संग्रह‘पीले कागज की उजली इबारत’ के लिए 2010 में प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान।

संप्रति- अध्यापन। 

कैलाश बनवासी की वाक् के नए अंक में एक कहानी ‘जादू टूटता है’ प्रकाशित हुई है। एक अरसे बाद किसी कहानी ने मुझे इतनी शिद्दत से प्रभावित किया।  इस कहानी को पढ़ कर मैंने तुरंत ही कैलाश जी को फोन लगाया और कहानी को पहलीबार के पाठकों के लिए उपलब्ध कराने का आग्रह किया जिसे कैलाश जी ने विनम्रता से स्वीकार कर लिया। बिना किसी टिप्पणी के मैं आपको इस महत्वपूर्ण कहानी से रूबरू कराता हूँ। तो लीजिये प्रस्तुत है यह कहानी जिसके जादू में आप खुद-ब-खुद बंधते चले जायेंगे।
 
जादू टूटता है                                 
                                                 
 ‘‘सर,क्या मैं अंदर आ सकता हूँ ?’’

 प्रिंसिपल ने स्कूल के फंड से पैसे बैंक जाकर निकलवाने के लिए मुझे अपने कक्ष में बुलवाया था।प्राचार्य चेक साइन कर चूके थे।तभी कमरे का परदा जरा-सा हटाकर भीतर आने की इजाजत चाहता वह खड़ा था।

   प्राचार्य ने इशारे से उसे आने की अनुमति  दी।वह भीतर आ गया, आभर में केवल मुस्कुराते ही नहीं,  हाथ जोड़े हुए।

   ‘‘ हाँ,कहो…?’’

   मैं भी समझ रहा था,शायद अनाथ आश्रम के लिए चंदा मांगने आया हो। स्कूल में अक्सर ऐसे लोग आते रहते हैं सहयोग मांगने।सबूत के तौर पर अपने पास किसी अधिकारी द्वारा प्रमाणित पत्र को जिलेटिन कवर में रखे हुए। और प्रिंसिपल आर. के सिंह जो बहुत होशियार प्रिंसिपल माने जाते हैं, ऐसे लोगों को तुरंत चलता कर देते है,‘अरे, जाओ यार किसी सेठ-साहूकार को पकड़ो!ये सरकारी संस्था है कोई धर्मार्थ संस्था नहीं!’पर ये ऐसे ढीठ होते हैं कि उनका दो टूक जवाब सुनकर भी वे चिरौरी करना नहीं छोड़ते और रेल्वे स्टेशन के भिखारियों की तरह एकदम पीछे पड़ जाते हैं।पर उनके सामने दाल आखिर तक नहीं गलती। मैं माने बैठा था, इसका भी यही हाल होगा। बैरंग वापस।

‘‘सर..मैं स्कूल-स्कूल जाकर अपना खेल दिखाता हूँ।’’ ऐसे मौके पर शायद सबसे कठिन होता है पहला वाक्य कहना और उसने अपने अभ्यास के चलते इस बाड़ को पार कर लिया था।‘‘सर, इससे बच्चों का मनोरंजन हो जाता है। सर, मैं पिछले कई साल से ये कर रहा हूँ। आपके स्कूल में भी बच्चों को दिखाना चाहता हूँ।सर,कृपा करके मुझे अनुमति दीजिए…।’’ वह अब तक हाथ जोड़े खड़ा था,उसी तरह याचक भाव से मुस्कुराते।

   वह एक निहायत दुबला-पतला आदमी था।पिचके हुए गाल में कटोरे जैसे गड्ढे थे।रंग कभी गोरा रहा होगा पर अब तो उसका हल्का आभास ही बाकी है।वह कब का रंग छोड़ चुका एक ढीला शर्ट पहने था।  कंधे पर एक थैला लटकाए। उमर पैंतीस-चालीस के बीच रही होगी लेकिन दिखता अड़तालिस-पचास का था।गरीबी और अभाव समय से पहले आदमी को कैसे बूढ़ा कर देता है,वह इसका जीता-जागता नमूना था।देश के लाखों अभावग्रस्त लोगों की मानिंद।

  मुझे तो बिलकुल उम्मीद नहीं थी,पर प्रिंसिपल को न जाने क्या सूझा कि आगे पूछ दिया,‘‘अच्छा, क्या-क्या करतब दिखाते हो?’’

    ‘‘अरे,बहुत कुछ सर।’’ वह सर की सहमति से एकदम बच्चों की तरह उत्साहित हुआ और अपने थैले से निकालकर एक पुरानी-सी फाइल दिखाने लगा,जिसमें अखबारों की कतरनें चिपकायी गयी थीं।प्राचार्य के साथ मैं भी उसकी फाइल देखने लगा। उसी से मालूम हुआ उसका नाम लक्ष्मण सिंह है,पिथौरा निवासी।फाइल में ज्यादातर स्कूलों से उसे मिले प्रशस्ति पत्र  थे।कुछ प्रशस्तिपत्र विधायकों और मंत्रियों के भी थे।प्रायः सभी में उसके करतबों को अच्छा, मनोरंजक और आकर्षक बताते हुए उसके उज्जवल भविष्य की कामना की गई थी।

   ‘‘आज कौन-सा दिन है…?’’प्रिंसिपल ने मुझसे यों ही पूछने के लिए पूछा।यह तो वे अपने सामने रखे टेबल कैलेण्डर देख के भी जान सकते थे,किंतु जब आपका कोई अधीनस्थ साथ हो तो काम ऐसे भी किया जाता है।  

   ‘‘सर, शुक्रवार।’’ मैने बताया।

      ‘‘यानी कल शनिवार है। तो आप कल दोपहर बारह बजे के आसपास आ जाइये।पर एक बात है, तुम अपने करतब की आड़ में कोई चीज तो नहीं बेचोंगे?…ताबीज या और कुछ…?’’

    ‘‘नहीं सर। बिल्कुल नहीं।’’ उसने एकदम यकीन दिलाया,‘‘अपना ऐसा कोई धंधा नहीं है, सर।अपन खाली अपना सरकस दिखाते है।’’

      प्रिंसिपल ने उसे अनुमति दे दी।

    

लक्ष्मण सिंह कृतज्ञता से एकदम झुक-झुक गया,‘‘बहुत-बहुत धन्यवाद सर!…बहुत बहुत धन्यवाद! मैं कल टाइम पे आ जाऊँगा, सर…।’’

      वह हाथ जोड़े-जोड़े कमरे से चला गया।

      मैं बाद में देर तक इस बारे में सोचता रहा-लक्ष्मण सिंह आखिर इतना दीन-हीन क्यों रहा हमारे सामने?वह अपना खेल दिखाएगा,बच्चों का मनोरंजन करेगा,इसके बदले में कुछ पैसे बच्चों से या देखनेवालों से पा जाएगा।प्रिंसिपल की सहमति जरूरी है। पर इस छोटी-सी बात के लिए इतनी कृतज्ञता?जैसे इसी हाँ पर उसका भविष्य टिका हो! वह भी एक कलाकार होकर! या फिर उसकी कला में कहीं कोई कमी है जिसे वह कृतज्ञता से ढँकने की कोशिश कर रहा है? लेकिन लगा कि मैं कितना गलत और एकांगी सोच रहा हूँ!लगा,वह इस सिस्टम को मुझसे कहीं ज्यादा बेहतर जानता है जहाँ बैठा हुआ हर अधिकारी अपने ‘इगो’ को लेकर बीमार की हद तक ग्रसित रहता है और उन्हें कुछ ऐसी ही तरकीबों से खुश किया जा सकता है,क्योंकि बदले में आप उसको कुछ पैकेज या गिफ्ट तो नहीं दे रहे हो जो आज काम करवाने का नियम ही बन चुका है। उनके इगो को संतुष्ट करके ही आप उनसे काम ले सकते हैं। स्कूल-स्कूल घूमने के बाद लक्ष्मण सिंह को यही अनुभव हुआ हो और उन अनुभवों ने ही उसे नाजुक डाली के समान नचीला बना दिया हो।लेकिन एक मन कहता था कि नहीं,वह कलाकार है और उसे अपनी और अपने कला की गरिमा बना के रखना चाहिए,जितना भी हो सके।वह कोई सड़कछाप भिखारी नहीं है।वह अपनी कला दिखलाकर बदले में कुछ पाता है।पर उसका सलूक मैं पचा नहीं रहा था जो मुझे रेल डिब्बों में झाड़ू लेकर फर्श बुहारने वाले अधनंगे भिखारी लड़कों की तरह का लगा था,जिनके चेहरे,हाव-भाव सब में एक स्थायी दयनीयता चस्पां होती है,जो हर मुसाफिर के पास घिसटते हुए पहुँचते हैं-रूपए-दो रूपए के लिए हाथ फैलाते।

   पर मैं बेवकूफ भूल बैठा था कि वह इस दुनिया में अकेला नहीं है,कि उसका परिवार है जिनके पेट भरने की रोज की जिम्मेदारी उसके सर पर है, और महज कला जान भर लेने से पेट नहीं भर जाता। उस कला को सबके सामने लाने का और उससे कमा लेने का हुनर भी चाहिए होता है। और जरूरी नहीं कि हर कलाकार को यह हुनर आता ही हो।

        दूसरे दिन वह समय पर आ गया था।अपने परिवार के साथ।पत्नी और तीन बच्चे, जो उसकी खेल दिखानेवाली टीम के सदस्य भी हैं।और एक पुरानी साइकिल जिसमें उसके खेल के सामान बंधे थे।

        यह जुलाई के आखिरी दिन थे, इसके बावजूद आज बारिश के आसार नहीं थे,हालांकि आकाश में सलेटी बादल छाए हुए थे और दिन कबूतर के पंख की तरह सुरमई और कोमल था । मौसम का यह रूप हमारे स्कूल के लिए बहुत अच्छा था।इसलिए कि यह छोटे-से गाँव का एक छोटा स्कूल है,जहाँ छठवीं से दसवीं तक की कक्षाएँ लगती है।गिने-चुने कमरे हैं।बच्चों के बैठने के लिए अलग से कोई हाॅल नहीं है। स्कूल के सारे कार्यक्रम लाल बजरीवाले खुले प्रांगण में ही होते हैं।बरसात होने पर कार्यक्रम रद्द।

     भगवान का शुक्र था कि बरसात के दिन होने के बावजूद मौसम खुला था।

स्कूल के बच्चे और स्टाॅफ प्रतीक्षा कर हे थे कार्यक्रम शुरू होने की। बच्चे इसलिए खुश थे कि आज पढ़ाई नहीं होगी और खेल देखने को मिलेगा,वहीं स्टाॅफ इसलिए कि आज पढ़ाना नहीं पड़ेगा। और अधिकांश शिक्षक ऐसे हैं जिनके लिए नहीं पढ़ाना इस पेशे का सबसे बड़ा सुख है। 

        स्टाॅफ-रूम में लक्ष्मण सिंह हमसे मिलने वहाँ आया। आते ही उसने सभी शिक्षकों को प्रणाम किया।उसके साथ पाँचेक बरस का एक नन्हा और सुंदर बच्चा था,जिसकी आँखों में काजल की मोटी रेखा थी,गालों में रूज की लाली के दो गोले और माथे पे लाल टीका।

     ‘‘अरे,सर-मैडम लोगों को नमस्ते करो!’’उसने बच्चे से कहा।

      बच्चे ने नमस्ते में हाथ जोड़ लिए।

      मैने उसे अपने पास बुलाया,पूछा,‘‘क्या नाम है तुम्हारा ?’’

      ‘‘रामू जोकर।’’उसने सपाट भाव से कहा।

   
सुन कर मुझे एक धक्का लगा। पाँच-छह बरस की नन्हीं उम्र। नाम रामू जोकर।जोकर। जैसे अभी से उसका भाग्य तय हो गया हो आगे क्या बनना है।वह इतनी छोटी उम्र में अपने पिता के साथ काम कर रहा हैं।अभी शायद उसे काम शब्द का मतलब भी नहीं मालूम।उसके लिए अभी काम भी बस एक खेल है। वह खेल की तरह यह काम कर लेता होगा।उसके चेहरे पर कातरता नहीं,अपनी उप्र की स्वाभाविक मासूमियत थी और यही बात गनीमत लगी मुझे।पर जैसे-जैसे वह दुनिया को जानने लगेगा,सीखने लगेगा जीने के एक जरूरी गुण के रूप में।कला के साथ-साथ इस ‘गुण’ का विरासत में मिलना उसके प्रति एक घोर अन्याय लगा था मुझे। साथ ही यह भी लगा  िकइस अपराध में लक्ष्मण सिंह के साथ हमस ब शामिल हैं उसके बालपन की हत्या कर के उसे सिर्फ एक पालतू और उपयोगी जानवर बनाने में। वह कल इसका अभ्यस्त हो जाएगा और इसी निरीहता के साथ जीता रहेगा,यह जाने बगैर कि उसके भी कुछ अधिकार हैं,कि दुनिया के करोड़ों लोग इन अधिकारों के साथ जीते हैं।

मुझे गुस्सा आया था लक्ष्मण सिंह पर।लेकिन अंततः मैं कर ही क्या सकता था? मेरे सोचने भर से क्या होता है?घर-परिवार चलाने का भार लक्ष्मण सिंह को ही ढोना है।कैसे?यह उसे ही तय करना है।मेरे भावनात्मक रूप से यो पसीजने का कोई अर्थ नहीं था।

   बीच मैदान में लक्ष्मण सिंह ने अपना डेरा जमाया। उनके चारों ओर बच्चे जमा हो गए। एक अपेक्षाकृत छाँवदार जगह में प्रिसिपल और शिक्षक-शिक्षिकाएँ कुर्सियों पर।

    उसकी सूखी मरियल देह वाली पत्नी ढोलक बजाती थी और जोर-जोर से कुछ गाती जाती थी। अपनी किसी भाषा में जो हम सबकी समझ से परे थी।पता नहीं वह उडि़या गाती थी कि तेलुगु या फिर असमिया।कभी लगता यह मराठी है तो कभी लगता कन्नड़।शायद यह संथाली थी या शायद गोंडी या हल्बी या ऐसी ही कोई आदिवासी भाषा जो इस दुनिया से बहुत जल्द खो जाने वाली है।ढोलक की थाप के साथ उसके रूखे भूरे बाल बार-बार सामने आ जाते थे। पता नहीं वह क्या तो गा रही थी पर लगता था जैसे अपनी आत्मा को झिंझोड़ कर गाते हुए वह लगातार हमसे कुछ कहने की कोशिश कर रही है, किंतु हम जो उसकी भाषा से सर्वथा अनजान थे, कुछ नहीं समझ पा रहे थे सिवा उसकी ढोलक के चीखते-से धपड़-धपड़ के।बीच-बीच में उसकी आठ साल की बेटी अपनी पतली आवाज में कुछ अजीब लय में औ ओऽ ओऽ ओऽऽअ करके अपनी माँ के सुर में सुर मिलाती थी मानो उसके कहे का समर्थन करती हो।इस दौरान नन्हा रामू जोकर जमीन पर बार-बार गुलाटियाँ खाता रहा और बच्चे हँसते रहे।सबको नमस्कार करके लक्ष्मण सिंह ने अपना खेल आरंभ किया। उसने अपनी ढीली कमीज उतार कर वहीं गड़ाए डंडे पर लटका दिया। बनियान मे वह दुबला-पतला जरूर नजर आ रहा था लेकिन कमजोर या कातर कतई नहीं। ।बल्कि कमीज के उतारते ही एक गजब की चुस्ती और फूर्ति न जाने कहाँ से उसकी देह में आ गई थी,जैसे कमीज ने  जाने किन कारणों से उसकी क्षमता को अब तक दबा के रक्खा हो। अब वह हमारी आँखों के सामने एक के बाद एक करतब-दर-करतब दिखलाता जा रहा था। सबसे पहले एक रस्सी में उसने कुछ गठान लगाए और दूसरों से उसे खोलने को कहा,जब हममें से कोई उसे नहीं खोल सका तब उसने उसे पलक झपकते खोल दिया।उसके पास एक काठ की चिडि़या थी जिसे वह बांस की एक कमची में फंसाकर जैसा चाहे वैसा उड़ा सकता था। उसके हाथ में आते ही हम काठ की चिडि़या को सचमुच की चिडि़या की तरह अपने सामने उड़ता देख रहे थे और उसके पंखों की फड़फड़ाहट हमारे कानांे में गूँज रही थी।यहाँ तक कि उसकी चिंव-चिंव की मीठी आवाज भी हम सुन सकते थे। बच्चों ने एकदम खुश होकर तालियाँ बजायीं। लक्ष्मण सिंह ने इसके बाद अपनी छाती पर एक साथ चार ट्यूब लाइट्स फोडे़।उसकी छाती जैसे बिल्कुल पत्थर की थीजिससे टकराने के बाद जोर-से फटाक् की आवाज के साथ ट्यूब के गैस और काँच के चूरे बिखर गए।बच्चों ने फिर ताली बजाई।इसके बाद उसने अपने दस साल के दुबले बेटे को जमीन पर लिटा दिया और उसकी छाती पर एक के बाद एक तीन बोल्डर अपने सब्बल से फोड़ता चला गया। उसका बेटा करतब के बाद एक झटके से यों उठ खड़ा हुआ मानो अपनी नींद से अभी-अभी जागा हो। फिर जोरदार तालियाँ बजीं। इसके बाद लक्ष्मण सिंह ने अपने सीने पर रखकर दीवाली वाला एक बड़ा एटम बम फोड़ा। धमाके से पूरा स्कूल गूँज उठा और चारों तरफ धुआँ ही धुआँ भर गया। धुआँ छँटने के दौरान लोगों ने देखा लक्ष्मण सिंह अपनी देह की धूल-मिट्टी झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ है और उसे एक मामूली खरोंच तक नहीं आयी है। बच्चों ने इस बार भी ताली बजायी। उसे सचमुच कुछ नहीं हुआ था और अब सबको यकीन हो गया था कि लक्ष्मण सिंह को कुछ नहीं हो सकता,भले ही उसके शरीर पर घावों के जाने कितने ही निशान थे जो उसे इन खेलों के दौरान ही मिले हैं।घावों के ये काले नीले निशान सबको काफी दूर से भी साफ नजर आते थे।इसके बाद लक्ष्मण सिंह ने अपना एक और ‘पेशल’ आयटम पेश किया। उसने 10 उउ की एक बड़ी छड़ हमको देकर इसे मोड़ने को कहा।यह हम सबके बूते से बाहर की बात थी।मैडम लोग तो शरमाके हँसने लगी थीं। सबने उसे छूकर,उलट-पलटकर देखा कि कहीं किसी जगह से बेण्ड तो नहीं या कोई और चालाकी की बात तो नहीं।लेकिन हम उस राड में कुछ भी खराबी नहीं ढूँढ सके।वह लोहे एक सीधी-सपाट और किसी आदिम चट्टान की तरह सख्त मजबूत छड़ थी। लक्ष्मण सिंह ने जब इस मजबूत राड-जिसे हम चार लोग मिलकर भी जरा-सा नहीं मोड़ पाते-को केवल अपने गले की हड्डी के बल पर मोड़ देने का असंभव-सा दावा पेश किया, तो उसके बहुत शक्तिशाली लगने के बावजूद हमने उसके इस हैरतनाक दावे पर भरोसा नही किया। राड का एक सिरा उसने जमीन में थोड़ा गड्ढा करके गड़ाया और उसके दूसरे सिरे को रखा अपने गले पर।चोट न लगे इस एहतियात से उसने गले के सामने कुछ मोड़ तहाकर अपना रूमाल रखा।उसने अपने शरीर से जोर लगाना शुरू किया।पैर के पंजों को बेहद सख्ती से जमीन पर गाड़ लिया।इस अत्यधिक बल से उसकी देह की तमाम नसें एकबारगी यों फूल ईं जैसे अभी-अभी किसी ने उनमें हवा भर दी हो।खासतौर पर उसके गले, भुजाओं और माथे की उभरीं नीली नसों के जाल को हम साफ-साफ देख पा रहे थे। और वह अपने गले की हड्डी से,पैरों से जोर पे जोर लगाता जाता था। एक पल को लगा, राॅड उसके गले को भेदकर पार निकल जाएगा। लक्ष्मण सिंह अपनी देह की समूची ताकत से जूझ रहा था।वह जैसे अपने सामने के किसी पहाड़ को ठेल रहा हो।देह से पसीने की धार छूट रही थी। उसकी मटमैली बनियान कब की पसीने से बिल्कुल तर हो चली थी।और अचानक ही,जाने कैसे इस बमुश्किल पाँच फुट हाइट वाले आदमी का कद हमारे सामने बढ़ता ही जा रहा था और अब उसकी ऊँचाई स्कूल के छज्जे को छू रही थी। उसके गले के उस हिस्से में, जहाँ राड धंसा था, पहले लाल चकते पड़े फिर ये निशान गहरे हुए, फिर खून की कुछ बूँदें सब लोगों ने छलछलाती देखीं।लक्ष्मण सिंह मानो अपनी जिंदगी दाँव पे लगाकर पूरी ताकत झाोंके हुए था, इधर उसकी पत्नी द्वारा बजाए जा रहे ढोलक पर थाप की गति एकदम बढ़ गई थी और इसी के साथ उसके गाने की लय भी तेज हो गई थी जिसे समझ पाने में हम अब भी सर्वथा असमर्थ थे।…और फिर कुछ देर तक सांस रोक देने वाले भय,रोमांच तनाव और सन्नाटे के बाद सबने देखा कि राॅड मुड़ रहा है…बीच से… धीरे-धीरे..,फिर वह क्रमशः मुड़ता चला गया, और इसी के साथ बच्चों की तालियों का शोर बढ़ता गया। फिर कुछ ही पल बाद बाद हमने देखा कि राॅड बीच से मुड़कर अँग्रेजी के ‘व्ही’ आकार का हो गया है! भले ही लक्ष्मण सिंह के गले में खून छलछला आया था, लेकिन हमने पाया स्कूल का पूरा आकाश उस के इस अचंभित विजय पर तालियों की गड़गड़ाहट और खुशी के शोर से भर उठा है!और बहुत देर तक गूँज रहा है!


   खेल खतम!

   जादू टूटता है।

   अब जो हो रहा है वह कोई करतब या कमाल नहीं है।

   रामू जोकर के हाथ में एक खंजड़ी है जिसे उसने उल्टा पकड़ा हुआ है- दिए जाने वाले पैसों के लिए कटोरा बनाकर। उसके संग उसका बड़ा भाई भी धूम रहा है।गाँव के बच्चों और एकत्रित लागों से दान मांगा जा रहा है।गाँव के सरकारी स्कूल में गरीबों के ही बच्चे पढ़ते हैं। बहुत से माँ-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजते ही इसलिए हैं क्योंकि यहाँ मध्यान्ह भेजन मिलता है,जिससे उनके एक समय का भोजन बच जाता है।फिर भी जिससे जो बन पड़ा वे दे रहे थे खुशी-खुशी।

  स्कूल की आज की छुट्टी हो गई थी।बच्चे अपना बस्ता लिए घर लौटने लगे।प्रिंसिपल सहित हम सभी टीचर्स स्टाफ-रूम में थे।सभी टीचर्स यहाँ शहर से आते हैं जो गाँव से पच्चीस किलोमीटर दूर है। सो सबको घर जाने की जल्दी थी।

  लक्ष्मण सिंह स्टाफ-रूम में हाथ जोड़े-जोड़े मुस्कुराते हुए आया।सबसे दान या सहयोग जो कह लें माँगने।एक पल के लिए वह आज मुझे बिलकुल नया आदमी जान पड़ा था, अभी-अभी खतम हुए उसके खेल के कारएा। पर जरा- सी देर में जान गया कि अ बवह फिर कल वाला लक्ष्मण सिंह है,कृतज्ञता से भरा और इसी के बोझ से मुस्कुराता।प्राचार्य आर. के सिंह ने उसे जब बीस रूपये दिए तो वह दबे स्वर में लगभग गिड़गिड़ाने लगा,‘सर बच्चों से भी यहाँ  कुछ खास नहीं मिला,कम से कम आप तो…।सर पचास रूपया कर दीजिए…।प्रिंसिपल ने उससे कहा, ‘अरे, हमने तुमको तुम्हारा खेल करने दिया यही बहुत है।बलिक तुमको स्कूल को ही कुछ दे के जाना चाहिए…जैसे दूसरे लोग दे के जाते हैं।खैर। मैं अभी इससे ज्यादा नहीं दे सकता।’’ प्राचार्य सिंह ठीक ही कह रहे थे,इसलिए कि अभी-अभी उनका काफी खर्चा हो गया है मकान बनवाने में,यही कोई बीस लाख। उन्होंने कुछ दिन पहले ही हमको ये बताया था। कि बिल्डंग मटेरियल्स के रेट आसमान छू रहे हैं।तिस पर करप्शन! थ्क दस हजार तो उनको खाली मकान का नक्शा पास करवाने निगम के इंजीनियर को देना पड़ा था।फिर अभी भवन पूर्णता प्रमाण पत्र के लिए पाँच हजार की डिमांड है…।पर लक्ष्मण सिंह उनसे बहुत आग्रह कर रहा था,‘सर आप इतने बड़े आदमी हैं,कम से कम पचास तो…?’ लेकिन प्रिंसिपल आर. के. सिंह बहुत होशियार प्रिंसिपल यों ही नहीं माने जाते। वे टस से मस नहीं हुए।

   लक्ष्मण सिंह अब मैडमों की तरफ बढ़ा।मैडम लोगों के लिए यह जैसे एक संकट की घड़ी थी।यहाँ चार मैडम हैं।उन्होंने मिलकर उसे बीस रूपये दिये।अब यह कहने की कोई बात ही नहीं है कि सबकी आमदनी अच्छी है और पति-पत्नी दोनों कमा रहे हैं। पर कोई क्या करे जब सब चीजों का खर्चा इतना बढ़ गया है।बच्चों के पब्लिक स्कूलों की पढ़ाई-लिखाई, सब्जेक्टवाइज ट्यूशन्स या डांस क्लासेज..कितने तो खर्चे हैं। लक्ष्मण सिंह को निपटाकर वे अपनी-अपनी स्कूटी से निकल लीं।

  लक्ष्मण सिंह मेरे पास आया तो मैंने उसकी मुट्ठी में तीस रूपये रख दिए।उसने मुस्कुराकर धन्यवाद दिया और बाहर निकल गया।

  अब वहाँ पिंसिपल और मैं ही रह गए थे।

  अभी हम कुछ बात कर पाते इससे पहले लक्ष्मण सिंह का बड़ा लड़का अपने छोटे भाई रामू जोकर के साथ अंदर आ गया। बड़े भाई ने शायद धंधे की कुछ चालाकी सीख ली है। उसने प्रिंसिपल के पैर पकड़ लिए एकदम…,‘सर, हम आपके पैर पड़ते हैं, दस रूपया तो और दे दीजिए सर…।हम माँ बच्चों के कुछ खाने के लिए दे दीजिए, सर…।’ वह सर के पैर से जोंक की तरह चिपट गया।उसने अपने छोटे भाई से भी साहब के पैर पकड़ने को बोला। नन्हा रामू जोकर भी टेबल के नीचे से कैसे भी तो घुस कर उनके दूसरे पैर से वैसे ही चिपक गया। अब कमरे में विचित्र दृश्य था, दोनों लड़के प्रिंसिपल के पैर पकड़े गिड़गिड़ा रहे हैं…सर…सर…।

    प्राचार्य उनको झिड़क रहे हैं,‘अरे छोड़ो…!ये क्या लगा रक्खा है? अबे छोड़ो!

    इधर ये दोनों थे कि उनके पैर छोड़ ही नहीं रहे थे-‘‘बहुत भूख लग रही है,सर… भजिया खाने को दस रूपया दे दो!’’ इधर प्राचार्य ने भी जैसे ठान लिया था कि इनको एक नया पैसा नहीं देना है। दोनों भाइयों ने जब कुछ नहीं मिलता देखा तो बोलने लगे…सर,पाँच रूपया ही दे दो…!सर,पाँच रूपया…!सर…! छानों बच्चे अब बिल्कुल ऐसे भिखारी बन चुके थे जिनकों देखने से पहले तो मन में अजीब-सी ग्लानि भर जाती है, फिर तीव्र घृणा।

    प्रिंसिपल ने उन्हें काफी गुस्से से देह में चढ़ आए किसी कीड़े के समान झटक दिया-‘चलो हटो साले! पीछे ही पड़ गए हैं!’ और वे तेजी से कुर्सी से उठ खड़े हुए।मुझसे कहते हुए निकल गए कि स्कूल बंद करवा देना।मैं जा रहा हूँ। और वे बाहर खड़ी अपनी कार स्टार्ट करके उसी तेजी से निकल गए।

    हमारे स्कूल में चपरासी नियुक्त नहीं है,इसकी विवशता में बच्चों से ही दरवाजे-खिड़कियाँ बंद करवा के ताला लगवाना होता है। मैं बाहर आया तो लक्ष्मण सिंह और उसकी पत्नी अपना माल-असबाब बहुत धीरे-धीरे समेट रहे थे।तीनों बच्चे भी वहीं बैठे थे। वे सभी बहुत थके हुए लग रहे थे।

   मैंने कहा,लक्ष्मण सिंह,तुम सब अंदर स्टाफरूम में बैठो।मैं तुम लोगों के लिए नाश्ता बुलवा रहा हूँ।

   स्कूल के वे दो-चार बच्चे जो स्कूल बंद करते हैं,रूके हुए थे। उनको नाश्ता लाने मैंने होटल भेज दिया।

0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000

संपर्क-
41,मुखर्जी नगर,
सिकोला भाठा,
दुर्ग, (छ0ग0)
 491001

मो0-98279 93920