सीमा आज़ाद की कहानी ‘लखन कहां का रहने वाला है’

सीमा आज़ाद

हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या है – साम्प्रदायिकता। यह समस्या अचानक ही उठ खड़ी नहीं हुई। इसका अपना एक इतिहास है। एक भयावह अतीत है। अतीत में हम इसका दंश भी विभाजन के रूप में भुगत चुके हैं। वास्तव में साम्प्रदायिकता की भावना  हमारे मन मस्तिष्क में कुछ इस तरह भर दी जाती है कि हम अच्छाई -बुराई में फर्क करने का विवेक खो देते हैं। उन्माद में सब कुछ जाति, धर्म और वर्ग की रक्षा के नाम पर सुनियोजित ढंग से इस तरह किया-कराया जाता है कि आम लोग उसके पीछे की कुत्सित मानसिकता को समझ नहीं पाते। सीमा आज़ाद ने इन्हीं मनोभावनाओं को अपनी इस कहानी के माध्यम से समझने की एक उम्दा कोशिश की है। हो सकता है कि शिल्प के स्तर पर यह सपाटबयानी जैसा लगे लेकिन इसके अभिप्राय स्पष्ट हैं। तो आइए पढ़ते हैं सीमा आज़ाद की यह कहानी ‘लखन कहां का रहने वाला है?’         

लखन कहां का रहने वाला है?

सीमा आज़ाद

जैसा कि आप जानते हैं मेरा नाम लखन है, मैं दिल्ली में रहता हूं और सब्जी का ठेला लगाता हूं। मैं अपने बारे में सब कुछ बता सकता हूं, सिवाय इसके कि मैं कहां का रहने वाला हूं क्योंकि वो जगह जहां का मैं रहने वाला हूं, इस धरती से गायब हो चुकी है, उसका नामो-निशान मिट चुका है। यह जगह जब धरती पर थी तो इसके एक-एक कोने को मैं वैसे ही जानता था जैसे मांए अपने बच्चे की एक-एक धमनी को पहचानती हैं। मैं ही क्या हम सारे दोस्त बचपन से ही इसके चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे। आम की बगिया में खड़े पेड़ों में बने मिट्ठुओं के कोटर, खेत में बने तीतर-बटेरों के ठिकाने, धान के खेतों में जमा रह गया पानी और उसमें पल रही किसिम-किसिम की मछलियां, और बांस के झुरमुट में सांपों के अड्डे भी। हम यानि-मैं, बलिराम, मोहन, सलीम, सन्तोष, दिलीप, जुम्मन, सरला, अंजुम, वाहिद और उसकी बहन नाहिद। हम ग्यारह जने जिधर निकल जाते क्या मजाल की उधर का कोई भी रहस्य हमसे बचा रहता। जैसे हम जैसे ही कोई बिल देखते उपलब्धतानुसार उसमें तब तक पानी या लकड़ी डालते रहते, जब तक कि उसमें रहने वाला जीव, जो कभी-कभी सांप भी हो सकता था, बाहर न आ जाता। पेड़ की किस डाल पर किस चिड़िया ने घोसला बनाया है, अण्डा दिया है, बच्चे बाहर आ गये हैं और उड़ना सीख रहे हैं, किस कोटर में तोते रहते है किसमें कठफोड़वा, सब की जानकारी हमें रहती थी। अलग-अलग तरह के काम में अलग-अलग लोगों की विशेषज्ञता थी, जैसे सांप का बिल खोजने में बलिरमवा माहिर था, मछलियों के बारे में सरला और अंजुमवा सबसे ज्यादा जानती थीं और चिड़ियों के घोंसलों पर नजर मेरी और वाहिद की होती थी। वाहिद की बहन होने के नाते नाहिद भी हमारे साथ होती थी और पेड़ के नीचे खड़ी हो कर आने वाले हर तरह के खतरों के लिए हमें आगाह करती थी जिसके कारण हम हमेशा घर वालों की मार से बच जाया करते थे। नाहिद को याद करता हूं तो आज भी उस पर प्यार आने लगता है। छोटी सी दुबली-पतली, गेहुंआ रंग और गोल-गोल आंखे। दुपट्टे से घिरा होने के नाते उसका चेहरा ज्यादा ही गोल लगता। हर समय कोई न कोई दूध का दांत टूटा ही रहता था। हंसती तो उसकी गोल आंखे सिकुड़ कर छोटी सी हो जाती और टूटे हुऐ दांत वाला मंसूड़ा दिखने लगता। वाहिद का जिगरी दोस्त होने के नाते वो मुझे भी भाईजान ही कहती थी बाकी सबको उसके नाम से ही बुलाती, सबसे छोटी होने के बावजूद। हम सबमें सबसे बड़ा बलिरमवा था, इस कारण वो हमेशा हम सब से आगे-आगे ही बड़ा होता रहा और बड़ों के सारे रहस्य भी जानता गया। उसी ने एक बार नाहिद से यह कह दिया-

‘तू सबका तो नाम लेती है पर लखनवा को भाईजान काहे बुलाती है उसे तू भाईजान नहीं, सिर्फ ‘जान’ बुलाया कर।’’ सुन कर सब हँस -हँस कर दोहरे हो गए, नाहिद खुद भी, और उसने  हँसते- हँसते ही ये बात अपनी अम्मी से बता दी। बस उसी दिन से उसका हम सब के साथ घूमना बन्द हो गया। अब मैं उसे सिर्फ तभी देख पाता जब वाहिद को लेने उसके घर जाता। कुछ समय बाद तो वो भी बन्द हो गया, क्योंकि उसने सामने आना बन्द कर दिया, हमेशा के लिए कुट्टी हो गयी हो जैसे। हमारे साथ रहने के समय, एक बार जब वो पेड़ के नीचे खड़ी निगरानी कर रही थी, मैं और वाहिद पेड़ पर चढ़े चिड़िये के घोसले में बच्चे देख रहे थे, मैंने उसके ऊपर वहीं से सांप का केंचुल फेंक दिया था। वह बुरी तरह डर गयी और रोने लगी, पर हम हंसे जा रहे थे। इस पर वो और रोई, फिर मुझसे कुट्टी हो गयी। जब दो दिन तक वह मुझसे नहीं बोली, तो मैने उसके सर से दुपट्टा खींच लिया। मैं यह कहता हुआ दुपट्टा लेकर भागता रहा कि जब तक वो मुझसे मिल्ली नहीं कर लेती मैं दुपट्टा नहीं दूंगा। वो मेरे पीछे-पीछे दुपट्टे के लिए भागती रही, कान के पीछे बंधी दो कसी-कसी चोटियां उसके कंधे पर उठती गिरती रहीं, आखिरकार जब वो बुरी तरह थक गयी और हांफने लगी तब वह मुझसे मिल्ली करने के लिए तैयार हुई। नाहिद के हमारे साथ घूमने पर पाबंदी लगने के बाद धीरे-धीरे अंजुम और सरला ने भी हमारे साथ आना बन्द कर दिया उनके घर से भी मनाही हो गयी। अब हमारे मित्र समूह में सिर्फ लड़के ही लड़के रह गये। कुछ दिन तो इन लड़कियों की कमी हमें खली क्योंकि अब मछली खोजने में हमें परेशानी होने लगी, पर बाद में हम उन्हें भूल गये और लड़कों वाले अपने नये-नये खेलों में व्यस्त हो गये जैसे अब हम कभी-कभी घर वालों से छिपा कर गांव के किनारे पर बहती नदी में जा कर दिन भर तैरते और मछली पकड़ते।

    हमारे गांव में हर जाति और धर्म के टोले अलग-अलग थे। गांव के एक कोने पर मियां टोला था, इसके एक ओर था अहिरान और दूसरी ओर कोइरान था। वाहिद, जुम्मन सलीम अंजुम मिया टोले में रहते थे, मैं और सन्तोष कोइरान टोले में और बलिराम, मोहन और दिलीप अहिरान टोले में रहते थे। और टोले भी थे पर वे थोड़ा दूर थे और वहां के लड़कों से हमारी दोस्ती नहीं थी। हम सारे साथी मिल कर मियां टोला, अहिरान और कोइरान एक किये रहते थे। हम लोगों की दोस्ती से हमारे घर वालों को भी बड़ा आराम रहता था, जैसे जब हमारे घर सब्जी लादने के लिए ठेलिया या टेम्पो आती तो हम सब मिल कर फटाफट सब्जी लादा करते। हमारे लिए कम जगह में ज्यादा गोभी या बैंगन लगाना भी एक खेल होता था। वाहिद के अब्बू की खेती तो थी, साथ में बाजार में टेलरिंग की एक दुकान भी थी। कई बार वे अपने ऐसे ग्राहकों के कपड़े जिनके घर शादी या काज-परोज पड़ा रहता, सिल कर हमसे ही भिजवा दिया करते थे। जिसके घर हम कपड़े पहुँचाने जाते वहां हमें कुछ न कुछ खिलाया जरूर जाता और हमारे लिए यह अच्छा खेल होता, कि हम इसका अनुमान लगाते हुए जाते कि फलां के घर खाने को क्या मिलेगा। बलिराम और जुम्मन के घर जब धान कटने लगता, तो बोझा ढोने के काम में हम सब लग जाते। किसने कितने गट्ठर ढोये इसका हिसाब कर हम अपनी बहादुरी पर घण्टों झगड़ते।

हमारी यह यारी दोस्ती तब तक ऐसे ही चलती रही, जब हमारी मूंछे आने लगी। उस समय तो हम बदलते हुए समय को नही पहचान सके पर अब दूऽऽऽर से देखने पर बहुत सारी बातें साफ-साफ समझ में आ रही हैं कि कैसे हमारा गांव बदल रहा था और साथ में हम सब भी।

हम सब की पढ़ाई एक-एक कर छूटती जा रही थी और किसी को भी इसका अफसोस भी नहीं था हम सब अपने पुश्तैनी कामों में ज्यादा से ज्यादा लगते जा रहे थे। उस वक्त, जब हम अपनी निकलती मूंछों को ले कर तरह-तरह के हंसी मजाक किया करते थे बलिराम पूरी तरह दाढ़ी मूछों वाला हो चुका था और उसकी दोस्ती कुछ ऐसे लड़कों से हो गयी थी जिन्हें हम नहीं जानते थे, इनमें से कुछ तो हमारे गांव के ही बभनान और ठकुरान के थे और बहुत से गांव के बाहर के भी थे। बलिराम इन्हें शाखा के दोस्त कहता था। अब वो हमारे बीच कम ही रहता था और उन्हीं लोगों के साथ ज्यादा व्यस्त रहता। लेकिन इस व्यस्तता के बारे में वह कुछ भी नहीं बताता। बल्कि हम सब को साथ में देख कन्नी काट कर निकल जाता, ऐसा लगता जैसे उसे हमसे मिलने से किसी ने मना किया हो। जैसे नाहिद की अम्मी ने जब उसे हमारे साथ घूमने से मना कर दिया तो वो हमें देख कर ऐसे ही किनारे से निकल जाती थी। एक दिन बलिराम ने मुझे अकेले पाकर मुझसे कहा-

‘‘तू मेरी व्यस्तता के बारे में पूछ रहा था न, कल सुबह शाखा में आ जाना, पर वाहिद को न लाना।’’

मैंने उससे पूछा ‘‘क्यों?’’ तो उसने कहा-
‘‘यह हिन्दुओं का संगठन है, मुसलमान इसमें नहीं आ सकते।’’
‘‘काहे, हम एक ही गांव के तो हैं?’’ मैंने पूछा।
‘‘पर है तो वो मुसलमान और उनका देश तो पाकिस्तान है हम केवल भारत के लोगों को बुलाते हैं।’’ बलिराम ने बताया।

‘‘पर वाहिद ने तो मुझे कभी नहीं बताया कि उसका देश पाकिस्तान है ’’मैंने आश्चर्य से कहा तो उसने कहा-
‘‘तो आज ही जा कर उससे पूछ ले न कि वो हमारे देश में क्यों रहते हैं।’’

उसने झुंझला कर कहा और पलट कर चल दिया। मुझे याद आया कि इस बीच बलिरामवा वाहिद, जुम्मन और सलीम से ज्यादा ही कटने लगा था और इनके रहने पर हमसे भी मिलने से बचने लगा था। इस बार तो वह ईद में भी हमारे साथ नहीं था, जबकि वाहिद और सलीम के अब्बू उसे पूछ भी रहे थे। हमने सोचा कहीं व्यस्त होगा। पर लग रहा है कि मामला कुछ और है। यही सब सोचते हुए मैं सलीम के घर की ओर बढ़ रहा था कि रास्ते में मोहन मिल गया। उसने मिलते ही लगभग फुसफुसा कर मुझसे पूछा-

‘‘कल सुबह शाखा में आएगा?’’
‘‘क्या तुझे भी बलिराम ने बुलाया है?’’ मैंने सवाल के जवाब में सवाल किया।
‘‘हां चलेगा तू’’
‘‘वाहिद, जुम्मन और सलीम को लाने को मना भी किया है?’’ मैने फिर जवाब में सवाल ही किया।
‘‘हां वो मुसलमान हैं न’’ मोहन ने अफसोस जताने वाले अन्दाज में जवाब दिया, तो मैंने कहा
‘‘तो क्या हुआ हम सब दोस्त तो हैं’’

‘‘दोस्त हैं तो क्या, हम हिन्दू हैं और वो मुसलमान, वो वहां क्यों आयेंगे।’’ मोहन ने तो न आने का जिम्मा उन्हीं पर डालते हुए जवाब दिया।

‘‘तू जायेगा क्या’’ मैंने थोड़ी देर सोच कर पूछा।
‘‘हां मै तो हिन्दू हूं काहे ना जाऊंगा’’ मोहन ने गर्व से कहा।

मैं सलीम के घर के ओर बढ़ गया वाहिद भी वहीं था, दोनों कैरम खेल रहे थे, मुझे देखते ही खुश हो गये। मैंने बैठते ही पूछा –
‘‘बलिराम मिला था तुम लोगों को?’’
नहीं, वो तो अब हम लोगों से बात नहीं करता, क्या हुआ?’’ वाहिद ने जवाब दिया और पूछा।
‘‘कुछ नहीं ऐसे ही बहुत दिन हुआ न।’’
मैं थोड़ी देर चुप रहा और वो दोनों कैरम की गोटी पर ध्यान लगाये निशाना साधते रहे। वाहिद हार रहा था। उसने कहा-

‘‘अरे लखनवा जरा एकाध गोटी पिला दे ’’ 
सलीम चिल्लाने लगा ‘‘नहीं-नहीं अपने से पिला’’

और थोड़ी ही देर में वाहिद हार गया, खेल खत्म हो गया। हम तीनों उठ कर आम के बाग की ओर चल पड़े, अचानक मैंने पूछ लिया-

‘‘क्या तुम लोगों का देश पाकिस्तान है, तुम्हारा कोई रहता है वहां?’’

सलीम और वाहिद दोनों इस सवाल को सुन कर चौंक गये, सलीम मेरे आगे आकर खड़ा हो गया-
‘‘बात बता, बात क्या है, बलिरमवा तुझे मिला था न, उसने ही तुझसे ये बात कही है न?’’

मैंने ‘‘हां’’ कहा तो सलीम गुस्से में आ गया और बताने लगा रात में उसके घर पर टोले के कई बुजुर्ग लोग इकट्ठा हुए थे और वो बता रहे थे कि शाखा वाले हमारे गांव का माहौल खराब कर रहे हैं, वे घूम-घूम कर सबसे कह रहे हैं कि हमारा देश पाकिस्तान है और हमें वहीं भगा देना चाहिए। सलीम थोड़ी देर रूक कर फिर बोला-
‘‘चच्चा बता रहे थे कि हमारे गांव के बहुत सारे लड़के शाखा वालों के साथ हैं जिसमें बलिरमवा भी है। उनकी बात सुन कर मैंने पहले ही सोचा था कि मैं बलिरमवा से पूछुंगा, उसके रंग-ढंग मुझे भी ठीक नहीं लग रहे हैं, मैं टाल रहा था पर अब बर्दाश्त के बाहर हो गया है। और क्या कह रहा था?’’
सलीम ने गुस्से से पूछा।

‘‘कुछ नही मुझे शाखा में बुलाया है।’’मैंने कहा तो सलीम और भी भड़क गया-
‘‘हां जा-जा तू भी उसके साथ हाफपैण्टिया हो जा’’ कह कर सलीम तेजी से आगे बढ़ने लगा।
‘‘अरे मैं कौन सा जा ही रहा हूं, वैसे भी कल तो मुझे बाबू के साथ सब्जी लेकर शहर जाना है, तुम लोग चलोगे क्या?’’

इसका जवाब देने की बजाय वाहिद ने कहा
‘‘कल मैंने मोहन को भी शाखा में जाते देखा था।’’

मैं चुप रहा, उस वक्त तो मैं समझ नहीं पाया, पर अब समझ में आता है कि यही वह वक्त था, जब हम सारे दोस्त हिन्दू और मुसलमान दोस्त में बंटने लगे थे, पक्के दोस्त के रूप में पहचाने जाने वाले मैं और वाहिद भी। हालांकि वाहिद से मेरी दोस्ती बनी रही, पर हम सबके अन्दर हिन्दू और मुसलमान होने की भावना बढ़ती गयी, हमारे बीच होने वाली बातों में फर्क आ गया, जब हम  केवल हिन्दू दोस्त साथ रहते तो मुसलमान दोस्तों के बारे में बहुत सी ऐसी बातें करते जिनसे यह साबित होता कि उनका पूरा रहन-सहन ही हमसे अलग और संदिग्ध है। मैं अपनी ओर से कहता तो कुछ नहीं था पर उन बातों को भी चुपचाप सुनता था, जिनके पीछे की बात मुझे अच्छे से पता रहती। जैसे मोहन एक दिन बता रहा था-

‘‘सलीम का वतन तो पक्का पाकिस्तान ही है। एक दिन उसके अब्बू ने पी सी ओ से पाकिस्तान फोन लगाया था, मैंने खुद नम्बर मिलाया था। मैं तो इस बात को भूल भी गया था, जब बलिराम ने इन लोगों के पाकिस्तानी होने की बात बताई तो मुझे ये बात याद आ गयी।’’

मुझे याद आया सलीम के एक नजदीकी रिश्तेदार, बंटवारे के समय पाकिस्तान चले गये थे। उनके घर के किसी लड़के से सलीम की दीदी की शादी की बात चल रही थी, पर बहुत सोच-विचार के बाद उसके अब्बू ने यह कह कर मना कर दिया कि वे उतनी दूर अपनी लड़की की शादी नहीं करेंगे। उसी दौरान उसके अब्बू ने कई बार पाकिस्तान फोन किया था। सलीम ने यह बात हम सबको वाह-वाही में बताई भी थी कि ‘उसके अब्बू ने फोन से पाकिस्तान बात की।’ मुझे यह बात पता थी और मैं इसे बताना भी चाहता था, पर चुप इसलिए रहा कि मुझे डर था कि अगर मैं बोलूंगा तो सब मेरा मजाक बनायेंगे कि ‘बड़ा आया मुसलमानों की तरफदारी करने वाला।’ मुझे भी गोल से अलग कर दिया जायेगा। मोहन इस चुप्पी का भरपूर फायदा उठाता।

एक दिन जब मोहन हम सब के बीच आकर बैठा तो उसने कहा-

‘‘हमारे घरों की रसोइयों में तो छोटा चाकू होता है पर मियवन की रसोइयों में बड़ा चाकू होता है, जरूरत के समय ये उनका हथियार बन जाता है।’’

मैं जानता था ये चाकू वो लोग मांस काटने के लिए रखते हैं, पर मैं चुप रहा, मैं फिर डर गया क्योंकि एक दिन ऐसी ही किसी बातचीत में सन्तोष ने मुसलमानों की ओर से कुछ बोल दिया तो मोहन ने उसके कोइरी होने का मजाक उड़ाते हुए कहा जा-जा बस सब्जी बेचने पर अपना ध्यान लगा बुद्धि की बातें न कर।’’ सुन कर सब  हँस दिये, यहां तक कि मैं भी।

ऐसे ही एक दिन जब मोहन ने कहा कि मांस ज्यादा खाने के कारण इन सबका दिमाग हिंसक हो जाता है, रामाधार उसे डांटते हुए कहा-

‘‘फालतू की बकवास न कर पहले तो मांस खाने के लिए मियां टोले में ही मंडराता रहता था, अब चला है पण्डिताई दिखाने, मिल जाये तो अब भी टूट ही पड़ेगा।’’
मोहनवा एकदम तमतमा गया, आंख तरेर कर बोला-
‘‘साले मोटी भैंस का दूध पी-पी कर तेरी बुद्धि भी मोटी हो गयी है क्या, भैंस के अलावा कुछ जानता भी है? वे ज्यादा अच्छे लगते हैं तो जाकर मियां टोले में ही बस जा न साले।’’

रामाधार को भी गुस्सा आ गया और लोगों ने बीच-बचाव न किया होता तो दोनों में मार-पीट हो ही गयी होती। मुझे लगता है मेरे अलावा कुछ और लोग भी इसी कारण चुप रहते थे, हम सब अपना मान बचाये रखना चाहते थे और सबके सामने अपमानित होने से डरते थे। हमारे पास मोहन और बलिराम जितना हौसला भी नहीं था कि अपनी बात को हम उनकी तरह ही कह सकें। जो थोड़ा बहुत था भी वो रामाधार और सन्तोष जैसे लोगों का हाल देख दुबकता जा रहा था। उल्टे हम मोहन और बलिराम की उल्टी बातों को सीधा करने वालों का अपमान होते देख खुद भी खींसे निपोरते थे, ताकि हम अपमानित व्यक्ति के नहीं बल्कि अपमान करने वाले श्रेष्ठ लोगों के साथ दिख सकें। इन्हीं कारणों से उनकी बे-सिर पैर की बातें फैलती जा रहीं थीं और समझदार और सच्ची बातें डर का ओढ़ना ओढ़कर बैठ गयी थीं। 

    अब ऐसा कम ही होता कि हम बचपन के सारे हिन्दू मुसलमान दोस्त साथ बैठते। जब कभी इत्तेफाकन ऐसा हो जाता तो सब एक-एक कर खिसकने लगते। मैं खुद वाहिद से मिलता तो था, पर पर उन बातों का जिक्र उससे कतई न करता जो मैं अपने हिन्दू दोस्तों के साथ किया करता था। बल्कि मैं उससे यह जानने में लगा रहता कि वे सलीम और जुम्मन इकट्ठा होतें हैं तो हमारे बारे में क्या बात करते हैं, क्योंकि मैंने सुना था कि अकेले में वे हमें ‘काफिर’ कह कर गाली देते हैं। लेकिन वाहिद भी मुझे मेरी तरह ही कुछ भी नहीं बताता था। धीरे-धीरे हमारे बीच का अबोला बढ़ता गया। वैसे भी अब वह अपने अब्बू के साथ टेलरिंग की दुकान और जुम्मन अपनी शामियाना की दुकान पर बैठने लगा था। उनके पास दोस्ती निभाने का समय भी नहीं था पर यह हमारे बीच की दोस्ती खतम होने का आधार नही था। अहिरान और कोइरान से मियां टोले के बीच की दूरी जो हमारे लिए कभी थी ही नही, अब काफी बढ़ गयी थी। बलिराम अब हम सबके बीच का छोटा-मोटा नेता हो गया था। हालांकि वह गांव में कम दिखता था, पर जब कभी भी वह हमारे बीच आता, हमेशा यही बताता कि मियां टोले के कारण हम सबका विकास नहीं हो पा रहा है क्योंकि वे लोग आबादी बढ़ा रहे हैं। एक दिन पता नहीं किस धुन में बलिराम की ऐसी ही बात के बीच मैंने अचानक पूछ लिया-


‘‘अच्छा बलिराम भाई, तुम लोग सात भाई-बहिनी हो कि आठ?’’

बलिराम मेरे सवाल पर झल्ला गया और बीच में टोक देने के लिए मुझे डांट दिया। ऐसी ही बैठक में एक दिन उसने सबको फुसफुसा कर बताया कि ‘उनकी’ आबादी इतना बढ़ गयी है, कि अब वे रहने के लिए गांव सभा की जमीन की ओर खिसकते जा रहे हैं और उस पर कब्जा करने वाले हैं वहां उनका मदरसा बनेगा।
यह एक ऐसी बात थी और इस तरह से बताई गयी थी कि पूरे गांव में कानाफूसी शुरू हो गयी और यह बात तेजी से फैल गयी कि ‘गांव समाज की जमीन पर कब्जा होने वाला है।’ इस चर्चा में कई और बातें तेजी से फैलती चली गयी। जैसे यह कि ‘हिन्दू टोले’ (यह नाम गांव में पहली बार सुनाई दे रहा था, इसके पहले तो यह ‘हिन्दू टोला’ अहिरान, कोइरान, बभनान, ठकुरान या कयथान नाम से ही जाना जाता था पहली बार इन सारे टोलों को एक करके बात हो रही थी), पर हमले के लिए मियां टोले के लोग बाहरी लोगों को बुला रहे हैं। इस बीच मोहन की सक्रियता और ज्यादा बढ़ गयी थी और बलिराम का गांव शहर का चक्कर भी।

कुछ ही दिनों में बात चर्चा से भी आगे बढ़ गयी। मोहन और बलिराम हमले से बचने के लिए घर-घर में तलवार, त्रिशूल, बर्छी और देशी कट्टा भी बांटने लगे। मेरे हाथ में भी मोहन ने एक देशी कट्टा पकड़ा दिया। जब मैं घर में इसे छिपा रहा था तो बाबू जी ने देख लिया था, पर आश्चर्य तो तब हुआ जब इसे देखने के बाद भी उन्होंने कुछ भी नही कहा, बल्कि चिन्तातुर हो कर बोले ‘ठीक किया हमला होने वाला है।’

और एक दिन रात में जब हम सब खा-पी कर अपनी-अपनी खाट पकड़ने जा रहे थे, हल्ला हुआ कि ग्राम समाज की जमीन पर कब्जा शुरू हो गया है मियां टोले के लोग छुरा लेकर वहां पहुंच गये हैं। घर के सारे पुरूष अपनी-अपनी खाट से उठ कर लाठी-डण्डा, लुकारा, तलवार बर्छी त्रिशूल कट्टा, जिसके पास जो भी हथियार था लेकर दौड़ पड़ा। मैं भी अपना कट्टा लेकर सबके पीछे भागा। मुझे आश्चर्य हुआ कि लोग भागते-भागते ग्राम समाज की जमीन से आगे निकल कर मियां टोले में घुस गये। किसी ने सबसे आगे के चार घरों में आग लगा दी थी और बाकी घरों में घुसे हुए थे। घर धूं-धूं कर जल रहे थे। मैं घबरा गया मुझे वाहिद, सलीम, और जुम्मन के साथ-साथ अंजुम, सलमा, और नाहिद भी याद आ गयीं। मुझे पसीना छूटने लगा आगे बढ़ने की बजाय मैं वहीं खड़ा रहा और हमलावर भीड़ की हुंकार और हमला झेलते लोगों की चीत्कार सुनता रहा। थोड़ी देर बाद मियां टोले से एक रेला निकलता हुआ उसी तरह बाहर की ओर भागने लगा, जैसे चींटे के बिल में पानी डालने पर चींटे बिलबिला कर भागते हैं। घरों में इस वक्त जो जैसी स्थिति में था, पूरे या आधे कपड़े में, वैसे ही वह भागा जा रहा था। इसी में मैंने शायद नाहिद को भी देखा था जो सिर पर बिना दुपट्टे के बदहवाश भागी जा रही थी। मैंने चाहा कि आगे बढ़कर उसे बचा लूं पर न जाने कौन सी बेहया-बेरहम ताकत थी जिसने मुझे ऐसा करने से रोक रखा था। यह रेला खेत की ओर भागा जा रहा था और इनके पीछे तलवार बर्छी लिए लोगों का हुजूम था। मैंने इसमें मोहन को भी देखा, उसकी तलवार खून से सनी हुई थी। खेत में रोज हुआं-हुआं कर आतंक मचाने वाले सियार न जाने कहां छिप गये थे, उसकी जगह खेत औरतों और बच्चियों की चीत्कार से भर गया था। मैंने अपने घर के लोगों और कई परिचित लोगों को मियां टोले की औरतों पर लोटते देखा था। खून-मांस आग के साथ यह दृश्य देख कर मुझे घिन आने लगी, मुझे उल्टी का मन होने लगा और मैं जहां था वहीं बैठ गया। यह सब रात भर चलता रहा और सुबह होने पर सब अपने-अपने घर आ गये, सिवाय मुस्लिम टोले के लोगों के। उनके घर जलाये जा चुके थे बहुत से मारे जा चुके थे और औरतों की इज्जत खराब हो चुकी थी। इसे खराब करने वाले लोग घरों में आ कर अपने घर की औरतों से रात भर की कहानी सुना रहे थे और अपनी बहादुरी बता रहे थे कि कैसे उन्होंने मुल्लाओं के जमीन कब्जे के मंसूबों को ही नही, बल्कि पूरी बस्ती को ही साफ डाला है। घर की औरतें डरी हुई सी अपने घर के पुरूषों से ये बातें चुपचाप सुनती, पर आपस में बस्ती की औरतों पर होने वाली जोर जबरदस्ती की बातें फुसफुसा कर करती। अपने घर के मर्दाे का यह नया रूप उनके सामने पहली बार खुला था। लेकिन हर रूप की तरह उन्होंने मर्दों के इस रूप को भी स्वीकार कर लिया, क्योंकि यह मर्दों की औरतों पर जोर-जबरदस्ती से ज्यादा हिन्दू-मुसलमान का मामला था। इस मामले में मैं गांव की दूसरी औरतों का तो क्या, खुद अपनी अम्मा का मन भी नहीं समझ सका कि अपने पति की करतूत सुन कर वे खुश हैं या दुखी। हां, मुझे दो तीन दिन तक एकदम चुप देख कर उन्होंने धीरे से ये जरूर पूछा था –

‘‘वाहिद का कुछ पता चला’’

‘‘मुझे क्या लेना-देना उससे, कहीं मर-मुरा गया होगा वो भी’’ कह कर मैं उठ कर बाहर निकल गया। मुझे तो अपने ऊपर भी आश्चर्य होता था, मैं मन से तो उनके प्रति सहानुभूति रखता था, पर पहले की चुप्पी अब खतम हो गयी अब मैं उनके खिलाफ बात व्यवहार भी करता था और जब मियां टोले के प्रति मेरी उग्र बातों से लोग खुश होते तो मेरा सहानुभूति वाला कोना सिकुड़ कर और छोटा होता जाता। जब तक मेरे अन्दर से यह कोना पूरी तरह समाप्त नहीं हो गया तब तक लोगों के बीच रहने पर मुझे लगता कि लोग मेरे इस कोने को ही तलाश रहे हैं और इसे छिपाने के लिए मैं वाहिद सलीम और जुम्मन के खिलाफ बढ़-चढ़कर बोलता फिर अपनी कही हुई बात को सही मानने लगता। इस तरह मेरे अन्दर उनके लिए बचा सहानुभूति का कोना अपने आप ही समाप्त हो गया।

हमारा गांव पूरे एक हफ्ते तक जलता रहा और वे मुसलमान जो मारे नहीं गये थे, गांव छोड़ कर भाग गये। महीनों तक अखबार वाले फोटू खींचने, नेता लोग आंसू बहाने और संगठन वाले सर्वे करने हमारे गांव आते रहे। गांव के सभी हिन्दू जाति के टोलों में इस वक्त इतनी एकजुटता हो गयी थी कि किसी ने भी इनके सामने मुंह नही खोला, बल्कि एक सुर में कहा-‘‘यह बाहर वालों का काम है।’’

इसमें थोड़ी सच्चाई भी थी क्योंकि बलिरमवा के दोस्त जिन्होंने इसकी शुरूआत की, वे बाहर वाले ही थे और इन बाहरी लोगों का पता देना असंभव था।

लगभग छः सात महीनों तक चली चर्चा के बाद इस घटना की उड़ती धूल पर पानी का छिड़काव करके जमीन में दबा दिया गया और अब एक नया खेल गांव में शुरू हुआ- गांव छोड़ कर भागे हुए मुसलमानों की जमीन पर कब्जे और खरीद बिक्री का। मियां टोले के ज्यादातर लोग तो अपना जला हुआ घर देखने भी वापस नहीं आये बेंचने की बात तो बहुत दूर की है। कुछ लोग जिन्होंने थोड़ी हिम्मत दिखाई वे किसी और के माध्यम से महीनों बाद गांव आये और औने-पौने दाम में अपना खेत-बाग-घर बेंच कर चले गये। हिन्दू टोले में तो जैसे लूट मच गयी। वाहिद के अब्बू की टेलरिंग की दुकान बाबू जी ने बेहद कम रूपयों में खरीद ली और उसमें अपनी सब्जी का स्टोर और दुकान बना लिया। ज्यादा जमीन बलिराम ने लूटी। जिसे भी मियां टोले की जमीन कम रेट या किसी काम के बदले में लेनी होती, वो बलिराम के पास जाता। एक समय में बलिराम को हर समय कोसने वाले उसके बाबू जी अब उसे लायक बेटा बताते नहीं थकते-

‘‘भगवान बेटवा दे तो बलिरमवा जैसा, घर का भी कितना ध्यान रखता है और गांव का भी।’’ गांव भर के हर टोले में बलिराम की धाक जम गयी। जबकि 25-26 साल के लड़के को गांव के बुजुर्ग भाव नहीं देते हैं। जब वो शहर नहीं गया होता तो उसके घर पर लोगों का मजमा लगा रहता, जिसमें बलिराम अब सबको समझाता-
‘‘देश का विकास मियां लोगों ने रोक रखा है, देखो हमारे गांव से उनके जाते ही यहां का कैसा विकास हो गया, सबके पास जमीन घर-दुआर सब कुछ हो गया, इ ससुरे इतने पिछड़े हैं कि पूरी दुनिया में इनके कारण हमारी नाक भी कट रही है। इतने दिन तक भारत में राज करके इन्होंने देस को बर्बाद कर दिया।’’

‘‘हां भइया सही कहौ, अंग्रेजन तो हमका कमै लूटे होइहें इन लोगन ने हमें ज्यादा लूट लिया।’’

कुबेर चाचा के मन में दरअसल ये सवाल आ गया कि ‘अंग्रेजो ने हमें ज्यादा लूटा या मुसलमानों ने?’ लेकिन उन्होंने बलिराम के डर से अपनी बात को दूसरी तरीके से कही। बलिराम इसे भांप गया। उसने इस तुलना को दूसरों के दिमाग में जाने से रोकने के लिए जोर से कहा-

‘‘हां और क्या, अच्छा बताओ इस दफा परधान किसे बना रहे हो?’’
‘‘तुम्हारे अलावा और कौन हो सकता है, तुम तो मानो अबही से परधान हो, इसमें चुनने की कौन सी बात है।’’ सन्तोष के बाबू जी ने कहा तो सबने उनकी हां में हां मिलाई।

बलिराम धूमधाम से ग्राम प्रधान बन गया फिर पंचायत अध्यक्ष और फिर विधायक भी। एक-एक कर उसके घर पर दो-दो चार पहिया गाड़ियां आ गयी। अब वो गांव में कम शहर में ज्यादा रहा करता था। उसका परिवार भी बच्चों की पढ़ाई के लिए शहर में जाकर बस गया। उसके छः भाई और दो बहनोई को कमाई वाली नौकरी मिल गयी। कुछ समय बाद बलिराम ने पास वाला शहर भी छोड़ दिया और विधायक बन कर राजधानी में रहने लगा। उसके बाद मोहन गांव का प्रधान बन गया और उसने भी अपना एक घर शहर में बनवा लिया और उसके बच्चे भी वहीं पढ़ने लगे। अपने बाद मोहन ने अपने भाई को प्रधान बना कर इस पद पर अपना कब्जा बरकरार रखा। शहर जाने वाले लोग बताते कि मोहन को बलिराम की पार्टी ने आगे का टिकट नहीं दिया, इसलिए दोनों में अब उतनी नहीं पटती। बाद में मोहन दूसरी पार्टी में शामिल हो गया। उसके बड़े भाई इस समय गांव के प्रधान थे और यहां उसकी बड़ी खेती भी थी, इस कारण उसका गांव आना-जाना लगा रहता था।
दूसरी ओर मैं अपने बाबू जी की तरह ही सब्जी उगाने और बेंचने वाला बना रहा। इस बीच मेरे सब दोस्तों की और मेरी भी शादी हो गयी और बच्चे भी। हमारे बच्चे वैसे ही गांव मे पढ़ते रहे जैसे हम पढ़ा करते थे। अपने बच्चों का बचपना देख कर मुझे अपने बचपन की याद आती और फिर वाहिद और नाहिद भी याद आते। पर उन्हें याद कर मेरा दिल दुखता हो, ऐसा नहीं था। पूरा गांव ही उस घटना को भूल चुका था। सभी लोग मियां टोले की हड़पी हुई जमीन और सम्पत्ति का खुशी-खुशी उपभोग कर रहे थे और इस तरह गांव के लगभग 20 साल बीत गये। इस दौरान मेरे बाबू के अलावा कइयों के मां-बाबू गुजर गये।

एक दिन जब मैं सुबह के समय सब्जियां टाली पर लादे शहर जा रहा था, उसी समय मोहन अपनी चारपहिया गाड़ी से गांव की ओर जाता दिखा। मैं दस बजे तक जब गांव पहुँचा तो पूरे गांव में यह चर्चा तैर रही थी कि शाम को मोहन बाबू के घर बैठक है सबको आना है बलिराम बाबू भी आने वाले हैं। वे गांव के लोगों से कुछ बातचीत करेंगे। घर पहुंचने से पहले ही मोहन का खास आदमी दिलीप मिल गया, मैंने उससे इस बैठक के बारे में पूछा तो उसने कहा-

‘‘जानते नहीं सरकार प्रदेश का विकास करना चाहती है, उसी सम्बन्ध में कुछ बात होगी और का।’’
‘‘बलिराम बाबू आ रहे हैं तो जरूरै कुछ बात होगी’’ कह कर मैंने और टोह ली तो वह थोड़ा और खुला-
‘‘हां सुन तो हम भी रहे हैं गांव में कोई फैक्ट्री लगेगी, चलो शाम को सुनते हैं कि का बात है’’ कहते हुए वह चलता बना।

 ‘‘ठीक है मिलेंगे’’
घर पहुंचा तो पत्नी ने भी खबर सुनाई-
‘‘सुना कुछ, गांव में फैक्ट्री लगने जा रही है, बलिराम बाबू तो आपके साथ खेले हैं, उनसे अपनी बात पहले ही कर लीजियेगा।’’
‘‘मैं फैक्ट्री -वैक्ट्री में काम नहीं करूंगा, खेती कौन देखेगा, बच्चे भी तो नहीं हुए खेती देखने लायक’’ मैंने चिढ़कर जवाब दिया।
‘‘अरे तो कौन सा अभी लग रही है फैक्ट्री, चार पांच साल तो लगेंगे ही, तब तक तो संजय भी तैयार हो जायेगा, चाहे तो उसी को रखने की बात कान में डाल दीजियेगा।’’

यह बात मुझे जंच गयी। रात को जब मैं मोहन के दलान की ओर बढ़ रहा था तो देखा खेत में चारों ओर कई टार्च की रोशनी भी उसी दिशा में खिसकती दिख रही थीं। मोहन के दलान में जब मैं पहुंचा तो लगभग 70-80 लोग इकट्ठा थे और आते ही जा रहे थे। लाल सफेद प्लास्टिक की कुर्सिया सबके लिए लगाई गयी थी जिस पर आगे की कतारों में बभनान, ठकुरान, कयथान और अहिरान के लोग थे फिर कोइरान के लोग इनके पीछे अन्य लोग। इन सबके एक ओर किनारे दरी बिछाई गयी थी जिस पर पसियान और दुसाध टोले के लोग थे बच्चे भी इस पर लोट रहे थे। 8-10 पेट्रोमेक्स जलाये जा रहे थे, जिसमें लोगों के उत्सुक चेहरों को साफ-साफ देखा जा सकता था। दलान के बाहर की ओर सात गाड़ियां खड़ी थीं और कई पुलिसिया वर्दी वाले लोग टहल रहे थे। इससे इस बात का संकेत मिल गया कि बलिराम बाबू पधार चुके हैं। बच्चों का हुजूम इन गाड़ियों के आसपास मंडरा रहा था, पर पुलिस वालों के डर से पास नहीं जा रहे थे। कुछ बच्चे इनकी नजर बचा कर गाड़ी के अन्दर का नजारा लेने के लिए अपने चेहरे गाड़ी के शीशों पर अपनी नाक चपटी होने की हद तक जोड़ देते। जरा सी आहट होते ही वे भागने लगते। मैं बैठक में आये लोगों से दुआ सलाम करता हुआ माहौल को समझने का प्रयास कर ही रहा था कि मोहन के बैठके से एक थुलथुल आदमी निकलता हुआ दिखा, उसके पीछे मोहन था। थुलथुल आदमी का चेहरा एकदम चिकना चमकदार और बहुत पहचाना हुआ था। मैं सोच ही रहा था कि उसने अपने दोनों हाथ सर के ऊपर करके कहा

‘‘राम-राम भाइयों’’ आवाज से मैंने पहचाना कि ये तो बलिरमवा है, एकदम चिकनाय गया है। संभवतः ऐसी ही प्रतिक्रिया सबकी ओर से हुई इसलिए उसके आने पर बैठक में जो खामोशी छायी थी, वो खुसुर-फुसुर में बदल गयी। इस बीच बलिराम सामने लगी चौकी पर, जिस पर गद्दा और सफेद चादर बिछी थी, आ कर बैठ गया, दो कमाण्डो दौड़ कर उसके पीछे आ कर खड़े हो गये, मोहन बलिराम के बगल में रखी कुर्सी पर आ कर बैठ गया। बलिराम के बगल में बैठने का गर्व उसके चेहरे पर साफ-साफ दिख रहा था। इसके अलावा चार-पांच सफेद कुर्ता पजामा वाले अन्य लोग थे जिन्हें हम नहीं जानते थे।

दुआ बन्दगी के बाद मोहन ने पहले बात शुरू की-

‘‘ तो भइया चाचा लोग, ये सभा इसलिए बुलाई गयी है कि हमारे अपने बलिराम भाई जो सत्ता में पहुंच कर हमारे गांव का नाम रोशन कर रहे हैं, हमारे बीच खुद चल कर आये हैं। मैं आज भले ही दूसरी पार्टी में हूं पर एक ही गांव और एक जैसी सामाजिक सोच के कारण हमारे बीच पुरानी दोस्ती कायम है। वे हमारे क्षेत्र के विकास के लिए लगातार चिन्तित रहते हैं और उनकी चिन्ता को देखते हुए ही मुख्यमंत्री जी ने एक योजना इस क्षेत्र के लिए भी तैयार की है। इसके बारे में ही वे आपसे बात करने के लिए यहां पधारे हैं। मैं बलिराम जी और आप लोगों के बीच ज्यादा बाधा न बनते हुए उन्हें आमन्त्रित कर रहा हूं कि वे आयें और आपके बीच अपनी बात रखें।’’

मोहन की बात सुन कर लोगों ने जोरदार तालियां बजायी। मुझे पत्नी की बात याद आयी ‘उसे पक्की खबर थी कि गांव में फैक्ट्री लगने वाली है, भाषण खत्म होते ही मैं बलिराम जी से मिल लूंगा। पता नहीं मुझे पहचानेंगे भी या नहीं’ मैं सोच ही रहा था कि बलिराम चौकी से उतर कर खड़ा हो गया। हाथ पीछे बांधा और गला साफ कर बोलना शुरू किया-

‘‘मेरे गांव के सभी चाचा, ताऊ, बाबा लोगों को मेरा प्रणाम। आप लोगों को याद होगा कि जब मैं आप लोगों के बीच था तभी से इस क्षेत्र के विकास की बात मेरे दिमाग में थी। इस गांव को मैं कैसे भूल सकता हूं जहां से सीढ़ियां चढ़ता हुआ आज मैं विधान सभा में पहुंचा हूं आप सबका आशीर्वाद रहा तो आगे भी जाऊंगा। माननीय मुख्यमंत्री जी से मैं अपने क्षेत्र के विकास की हमेशा चर्चा करता हूं। इसी का नतीजा है कि उन्होंने इस क्षेत्र में, बल्कि इस गांव में फैक्ट्री लगाने की योजना बनाई। इस फैक्ट्री से देश का विकास तो होगा ही साथ ही गांव के लोगों को रोजगार भी मिलेगा। मैं जानता हूं कि अब खेती से घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है, इसलिए अब आप नौकरी करके अपना जीवन अच्छा बना सकते हैं। फैक्ट्री लगने की यह योजना एक साल के अन्दर शुरू हो जायेगी। यानी अब खुशहाली आने में ज्यादा दिन नहीं बचे हैं। मैं मुख्यमंत्री जी को आश्वासन देकर आया हूं कि हमारे गांव की जनता से आपको हर तरह का सहयोग मिलेगा।’’

यह कह कर बलिराम ने अपनी मोटी गर्दन हिला कर पूछा-
‘‘बताइये मैंने सही कहा न?’’
‘‘हां-हां सहयोग रहेगा’’ भीड़ ने हाथ उठा कर जवाब दिया। साथ ही किसी ने यह भी पूछा कि फैक्ट्री में क्या बनेगा।

‘‘इसकी जानकारी आपको महीने भर के भीतर मिल जायेगी, अभी इसलिए नहीं कि हमें प्रदेश भर में कुल छः फैक्ट्रियां लगानी हैं, कौन सी कहां लगेगी यह तय करना अभी बाकी है’’ यह कहकर बलिराम बाबू चौकी पर बैठ गये। मोहन ने बलिराम के जयकारे लगवाये और गांव में मीठा बंटवाया। मीठा बंटने के बीच ही बलिराम बाबू गाड़ी में सवार हो कर शहर निकल गये। मेरे साथ बहुतों की उनसे कुछ कहने की साध मन में ही रह गयी, लेकिन चूंकि हम सबका बलिराम से पहले का कुछ न कुछ रिश्ता रहा ही है, इसलिए सब ये मान बैठे कि उसकी बात तो बलिराम सुनेगा ही।



अगले दिन से ही गांव में, गांव के बाजार में जगह-जगह लगी चौपालों में यही चर्चा होने लगी कि फैक्ट्री किस चीज की लगेगी और साथ ही यह भी कि यह कहां लगेगी। दूसरा सवाल पहले किसी के मन में नहीं आया था पर अब पहली चर्चा से थकने के बाद लोगों के दिमाग में यह बात भी आने लगी। एक दिन की चौपाल में दिलीप ने हिसाब लगाया कि ग्राम समाज की जमीन के साथ हरिराम, दुलारे और लखन की जमीन जायेगी। सुनते ही मैं बमक गया-

‘‘ मेरी जमीन काहे जाऐगी इतनी हरी-भरी जमीन फैक्ट्री बनाने के लिए है, मैं सब्जी कहां उगाऊंगा?’’
दुलारे तो इस चौपाल में नहीं था, हरिराम भी बोल पड़ा-
‘‘हां और क्या, हम अपनी जमीन थोड़े ही देंगे, फैक्ट्री जहां लगनी हो लगे।’’
‘‘तो फैक्ट्री का तुम्हारे छत पर लगेगी, उसके लिए जमीन तो चाहिए ना, किसी ना किसी को तो देनी ही होगी’’ दिलीप ने यह बात हाथ नचा कर कही तो हरिराम और भी उखड़ गये।

‘‘तो तुम अपनी जमीन दे देना, लगवा लेना अपनी जमीन और छत पर फैक्ट्री, हम तो ना देंगे अपनी जमीन।’’
दिलीप भी थोड़ा उखड़ कर बोला-

‘‘हां हम दे देंगे, वैसे भी खेती में अब क्या रखा है जमीन देकर मुआवजा तो मिलेगा ही उससे अपना कुछ काम शुरू कर देंगे, फैक्ट्री में नौकरी भी मिल ही जाऐगी फिर ठाठ से रहेंगे।’’ कह कर दिलीप ने अपनी मूंछो पर हाथ फेरा और मुस्कुराया तो बाकी सब भी हँसने लगे।

लगभग इसी तरह की चर्चा पूरे गांव में हो रही थी, फैक्ट्री की उम्मीद, रोजगार की आशा, जमीन जाने का डर और मुआवजे की दर यह सब हर दिन की चर्चा का हिस्सा हो गये थे। मोहन के दलान में इन चर्चाओं में नयी बातें जुड़ती जाती थीं। मोहन या कोई पंचायत सदस्य इस दलान में रहे या न रहे, चर्चा लगभग हर रोज होती थी। जब मोहन इसमें शामिल होता तो चर्चा में जान आ जाती। वह ज्यादातर मुआवजे की चर्चा करता कि ‘इसकी दर क्या होनी चाहिए।’ 20 साल पहले मियां टोले वाली घटना में बलिराम की तरह उसने भी काफी जमीन झटकी थी, जिस पर खेती कराना अब उसके लिए मुश्किल होता जा रहा था क्योंकि वह ज्यादातर तो शहर में ही रहता, जहां यह चिन्ता उसे खाये जाती कि बटाईदार उसकी फसल झटक न दे। इसलिए अब उसे इस जमीन से पैसा कमाने का मौका मिल गया था। बलिराम वाली बैठक के करीब डेढ़ महीने बाद अखबार से सबको यह जानकारी मिली-

‘बिजली की समस्या हल करने के लिए जिले के रतनपुर गांव यानि हमारे गांव में एक थर्मल पावर प्लांट लगाया जायेगा, जिसके लिए पूरे गांव का अधिग्रहण कर उसे खाली कराया जायेगा। किसानों और गांववासियों को उनका उचित मुआवजा दिया जायेगा और उनका पुनर्वास भी किया जायेगा।’

यह खबर पढ़ते ही गांव वालों के होश उड़ गये। पहले सबने सोचा था कि मुश्किल से 10-15 लोगों की जमीन पर फैक्ट्री लग जाएगी और ये 10-15 लोग हम नहीं बल्कि दूसरा कोई ही होगा। पर यहां तो पूरा गांव ही खाली करने की बात है और नौकरी चाकरी के बारे में तो अखबार में कुछ लिखा ही नही है। दिन भर अखबार ले कर पढ़ने पढ़वाने और इधर उधर की चर्चा के बाद शाम को गांव के लोग पंचायत के कई लोगों के साथ मोहन के घर पर अपने आप ही इकट्ठा हो गये। मोहन भी घर पर ही था । उसके बाहर आते ही लोगों ने पूछा-

‘‘अखबार पढ़े मोहन भइया’’
‘‘हां पढ़े’’
‘‘तो इ सब का है? बलिराम भइया तो कहे रहे कि फैक्ट्री हमारे विकास के लिए लग रही, जब पूरा गांवै उजड़ जायेगा तो कैसा विकास फिर हम रोजगार लेकर भी क्या करेंगे?’’
‘‘अरे तो सबको दूसरी जगह बसाने के लिए भी तो कहे हैं’’ मोहन ने इस चिन्ता का महत्व कम करने के लिए कहा।

‘‘हमें नहीं बसना है दूसरी जगह, हम अपना गांव नहीं छोड़ेगे, पूरा बसा हुआ गांव उजाड़ कर फैक्ट्री लगाना ये कैसा विकास है।’’ दुलारे ने जोर से कहा तो मैंने भी पीछे से हुंकारी भरी-
‘‘हां अपने पुरनियों की जमीन हम नहीं छोड़ेंगे हमें फैक्ट्री नहीं चाहिए, बलिराम से कह दो कहीं और जा कर ऐसा विकास करें।’’

बाकी लोगों ने भी हां-हां कर समर्थन जताया। पर बातचीत किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंची। बस सबने मोहन को अपना फैसला सुना दिया कि वे अपना गांव नहीं छोड़ेंगे और कह दिया कि सबका फैसला वे बलिराम तक पहुंचा दें। मोहन ने भी सबका मिजाज भांप कर आज चुप रहना ही बेहतर समझा।

    इसके बाद का चार महीना इसी डर और चर्चा में बीता कि सरकार ने यहां बिजली घर लगाने का फैसला टाला या नहीं। आस-पास के गांव के लोग भी इस बिजली घर के खिलाफ हो गये, क्योंकि क्योंकि बिजलीघर की राख से उनकी फसलों को भी नुकसान पहुंचना था। यह खबर बार-बार आ-आ कर लोगों को डराती रही कि पावर प्लांट वाले लोग गांव का गुपचुप मुआइना करके चले गये। चार महीने बाद मुआवजा लेकर गांव खाली करने का फरमान भी आ गया। हमें बसाने के लिए कहा गया कि ‘जो जमीन का मुआवजा लेगा उसे बसने के लिए जमीन नहीं दी जायेगी और जो मुआवजा नहीं लेगा उसे उसी कीमत की जमीन बसने के लिए उपलब्ध कराई जाऐगी।’ नौकरी के बारे में कहा गया कि ‘योग्यतानुसार काम दिया जायेगा।’ यानि हर हाल में हमें गांव छोड़ना ही था। हम सब का गुस्सा बढ़ रहा था। हमने मोहन से कहा कि वो अपनी पार्टी से इस प्लांट का निर्माण रूकवाने के लिए कहे लेकिन मोहन ने कहा कि इस प्लांट का लगना हम लोगों के लिए नुकसानदेह हो सकता है पर ‘देश के विकास के लिए जरूरी है’ इसलिए उसकी पार्टी भी इसके बनने के पक्ष में है। थक-हार कर दुलारे ने और लोगों के साथ मिल कर घूम-घूम कर गांव के लोगों और आस-पास के गांवों से भी सम्पर्क किया, बातचीत की और आन्दोलन का ऐलान किया। अपनी ताकत दिखाने के लिए हम सबने एक सभा की। यह सभा इतनी बड़ी थी कि अखबार और टीवी वाले हमारे गांव का चक्कर काटने लगे। दुलारे हम सब का नेता बन कर उभरा। अखबार टीवी वाले जब भी आते तो बात करने के लिए हम दुलारे को ही आगे कर देते। वह सबका जवाब बहुत ही अच्छे से देता। पर एक दिन एक टीवी वाले ने उससे ऐसा सवाल पूछ दिया कि वो बंगले झांकने लगा। इस पत्रकार ने हमारे गांव के एक पुराने भूत को हमारे सामने खड़ा कर दिया-

‘‘ 20 साल पहले आपके गांव के हिन्दुओं ने मुसलमानों के घर जला कर उनकी हत्या कर उनकी औरतों से बलात्कार कर उन्हें गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया, अब जब सरकार आपको यह गांव छोड़ने के लिए मजबूर कर रही है तो क्या आपको उनकी याद आ रही है।’’

दुलारे जिसकी उम्र उस वक्त 25-26 साल रही होगी, यह कह कर इधर उधर देखने लगा ‘‘ हमें याद नहीं हमारे गांव में हमारी जानकारी में ऐसी कुछ भी नही हुआ था।’’

‘‘तो आप यह कह रहे हैं कि 20 साल पहले आपके गांव में मियां टोला था ही नहीं, उसकी बहुत सी जमीन तो आपके पास भी होगी’’ पत्रकार ने अपना माइक लगभग दुलारे के मुँह में घुसाते हुए पूछा।

‘‘मुझे इस बारे में कुछ याद नहीं है’’ यह कहकर दुलारे तेजी से आगे निकल गया, पर उसके चेहरे पर उड़ती हवाइयों को कैमरे ने साफ-साफ रिकार्ड कर लिया । यह सवाल-जवाब टीवी चैनल पर प्रसारित किया गया साथ ही बीस बरस पहले घटी इस घटना को कहानी की तरह लोगों को दिखाया और बताया गया। पर इस कहानी में आगजनी लूटपाट और पूरी घटना को उकसाने वाले बलिराम, मोहन और उसके संदिग्ध दोस्तों का नाम एक बार भी नहीं लिया गया, जिसके कारण दुलारे सहित बहुत से लोगों ने यह अनुमान लगा लिया कि इस खबर के प्रसारण के पीछे बलिराम का ही हाथ है, ताकि गांव की जमीन आसानी से छीनी जा सके। इस पर चर्चा होने लगी। लेकिन इससे 20 साल पहले जिस धूल को पानी का छींटा मार कर दबा दिया गया था वह फिर से ऊपर उठने लगी। पूरे गांव में फुसुुसाहटों में इस पर चर्चा होने लगी कि किसने किसको मारा था, किसका घर जलाया था, किसने कितने बलात्कार किये थे और किसके पास किसकी कितनी जमीन है, किसने किसकी जमीन दुकान और मकान हड़पा। इसके साथ ही बलिराम और उसके दोस्तों के उकसावों की भी चर्चा शुरू हो गयी। यह इसलिए भी कि इसके माध्यम से हर कोई अपने को निर्दोष साबित कर सकता था। हरिराम और दुलारे भी एक दिन गांव के चार पांच बुजुर्गों के साथ उस दिन को याद कर रहे थे-

‘‘बलिरमवा ने हमारी आंख पर पट्टी बांध दी थी। जब उसने ग्राम समाज की जमीन पर कब्जे की बात फैलाई तो त्रिशूल ले कर सबसे आगे दौड़ने वालों में मैं ही था, जब मैं वहां पहुंचा तो देखा कि छः-सात मियां लोग वहां बैठे ताश खेल रहे थे कब्जा जैसी कोई बात नहीं थी पर तभी बलिराम के दोस्तों ने मुझे लुहकारा और मेरे दिमाग पर भूत सवार हो गया। मैंने आव देखा न ताव ………………’’

यह कह कर हरिराम चुप हो गया। हिम्मत जुटाकर दुलारे ने भी अपनी गलती बयान की-
‘‘ मैं भी लुकारा ले कर तुम्हारे पीछे ही था और बलिराम के ललकारने पर आगे बढ़ कर मैंने ही सबसे पहले मियां टोले में आग लगायी थी। उस वक्त उस घर में सब लोग सो रहे थे मैने ऐसा कैसे किया समझ में नहीं आता।’’

‘‘मैं तो सो गया था मोहन ने मुझे जगा कर कहा कि मिया टोले के लोग हिन्दू टोले में घुस गये हैं और उन्हें मार रहे हैं, मैं इतना बदहवाश हो गया कि बिना सच जाने मोहन के पीछे दौड़ पड़ा, ये भी नहीं सोचा कि जब वो लोग हिन्दू टोले में घुसे हैं तो हम मियां टोले की ओर क्यों जा रहे हैं। मेरा हाथ वही कर रहा था जो मोहन और उसके दोस्त कह रहे थे।’’ दिनेश ने भी अपना अनुभव याद किया तो मैंने भी अपनी गलती मानते हुए कहा-

‘‘यहां से उजड़ कर वे कहां गये और कैसी हालत में रहे हमने तो ये भी जानने की कोशिश नहीं की, नही तो बाद में हमीं उन्हें गांव में वापस ला सकते थे।’’

राम खेलावन काका को इतने साल बाद ये समझ में आया-
‘‘उन्हीं का सराप हमें लगा है जो आज भगवान हमें उजाड़ रहा है।’’

    वास्तव में कोई खुल कर कहे या ना कहे पर रतनपुरा के ज्यादातर लोग 20 साल बाद अपने को अपराधी महसूस कर रहे थे। मैं खुद उस दिन की चर्चा के बाद दो-तीन दिन तक सो नहीं पाया। सोते वक्त मुझे उस रात की घटना याद आ जाती। भागती हुई नाहिद का चेहरा याद आ जाता जिसकी गोल आंखों में उस दिन इतनी दहशत थी, कि याद कर आज भी रोंवा खड़ा हो जाता है। उस दिन न जाने मुझे क्या हो गया था कि मैं उसे भागते और यह सब होते चुपचाप देखता रहा। रामखेलावन ठीक कहता है हमारा गांव से उजाड़ा जाना उनके ही सराप का नतीजा है। बल्कि सच ये है कि यह सब बलिरमवा और मोहन जैसे लोगों की बात आंख मूंद कर सुनने का नतीजा है। उनकी बात मान कर हमने अपने ही गांव के लोगों को मारा और लूटा फिर उनके कहने पर ही वोट दे कर उन्हें सरकार बना दिया, अब उसी का फल हमें मिल रहा है। मोहनवा खुद तो दूसरी पार्टी में चला गया फिर भी गांव हड़पने में बलिरमवा का साथ दे रहा है, सब एकै जैसे हैं।
  
    टीवी पर प्रसारित खबर ने और उसके बाद शुरू हुई चर्चाओं ने हमारी गांव न छोड़ने की बात को मंद कर दिया। दो-तीन बड़ी-बड़ी सभाओ के बाद आन्दोलन में जो जान आयी थी उसकी हवा निकल चुकी थी। अब यह चर्चा भी जोर पकड़ने लगी कि सरकार जांच के लिए आ रही है कि किसकी जमीन अपनी और वाजिब है और किसकी मियां टोले वाली घटना के बाद कब्जाई हुई। इस आदेश के पीछे बलिराम का हाथ था। लोग ठगा सा और बेहद असुरक्षित महसूस कर रहे थे क्योंकि बलिराम तो सबका कच्चा-चिट्ठा जानता था, इसकी खरीद बिक्री के फर्जी कागज तो उसी ने बनवाये थे। आन्दोलन की आवाज कमजोर पड़ने लगी। गांव वाले इस पर चर्चा कर ही रहे थे कि खबर आयी, कि मोहन ने अपनी वैध-अवैध कुल जमीन का मुआवजा ले लिया है और जल्द ही वो पूरी तरह शहर में बसने वाला है। लोगों की आंखे फैल गयी और इस खबर के बाद यह सोच कर लोगों में मुआवजा लेने की हड़बड़ी मच गयी कि पहले ले लेंगे तो कुल जमीन का मुआवजा मिल जाएगा, बाद में जांच बैठ गयी जो शायद जायज पुश्तैनी जमीन का भी मुआवजा न मिले। फटाफट लोगों ने कचहरी जा कर मुआवजे का आवेदन दे दिया। परन्तु बलिराम हमसे ज्यादा शातिर था, आवेदन देने और मुआवजे की रकम मिलने के बीच ही जांच बैठ गयी। जाने किस लिखा-पढ़ी से लोगों की ज्यादातर जमीनें अवैध पायी गयीं। सबकी वैध और पुश्तैनी जमीन कम दिखा कर सबको मुआवजा पकड़ा कर गांव खाली करने का आदेश दे दिया गया। इस पर लोगों का गुस्सा अभी बढ़ ही रहा था कि एक दिन अखबार में आया ‘20 साल पहले मियां टोले की घटना की जांच होगी और दोषियों के खिलाफ कार्यवाही भी की जायेगी।’

सबके गुस्से पर पानी पड़ गया। हम ऐसे बेबस कभी भी नहीं हुए थे। बहुत से लोगों ने आन्दोलन की जगह वैध जमीन के मुआवजे के लिए कोर्ट का रास्ता भी पकड़ा, किन्तु इसमें उनके मुआवजे के रूपयों का ही नुकसान होने लगा। फिर एक दिन गांव में कई ट्रक पी ए सी के जवान उतरे और उन्होंने 15 दिन के अन्दर गांव खाली करा लिया। हमारे गांव के लोग वैसे ही अलग-अलग बिखर गये, जैसे 20 साल पहले मियां टोले के लोग बिखरे होंगे।

उनका दर्द याद करते हुए मैं दो तीन अन्य परिवारों के साथ दिल्ली आ गया। जो थोड़े से पैसे मिले थे उसी से किसी तरह रहने का इन्तजाम किया और सब्जी का ठेला लगाने लगा। अकेले एक परिवार के लिए यह सब करना संभव नहीं था इसलिए तीन परिवारों ने मिल कर एक रहने की जगह बनाई । शुरू में यह जगह हमें बेगद तंग लगती मेरे बच्चे तो बीमार जैसे हो गये। काफी समय के बाद वे इस नयी जिन्दगी के आदी हो पाये। हमारी गांव की आजाद जिन्दगी पूरी तरह खतम हो चुकी है। मैं जो गांव का खाता पीता किसान था दिल्ली में विस्थापित सब्जी वाला बन गया हूं जिन सब्जियों को अपने खेत में हम खुद उगा कर थोक बाजार में बेचा करते थे, अब यहां की सड़ी मुरझायी सब्जियां खरीद कर बेचना पड़ रहा है। दिल्ली में रहते मुझे 10 साल हो गये हैं। अब बेटों को भी सब्जी के धन्धे में लगा लिया है, उनकी शादी के बाद हमारे रहने-सोने की समस्या और बढ़ती जा रही है। मैं ज्यादातर घर के बाहर अपने ठेले पर ही सोता हूं। यह शहर भी हमें धीरे-धीरे धक्के मार रहा है।

बलिराम भी दिल्ली में ही रहता है वह अब दिल्ली सरकार का मंत्री हो गया है। टीवी और अखबारों में अक्सर हमें दिखता है। मोहन भी चुनाव जीत कर विधायक हो गया है। हमारा गांव जिसका नामोनिशान मिट चुका हैं, आज वहां एक बिजली घर बन गया है जिससे शहरों में रोशनी की जा रही है पर हमारा जीवन अंधियारा बन गया है। इस शहर में मेरी बोली भाषा सुन कर कभी कोई पूछ लेता है कि ‘लखन तुम कहां के रहने वाले हो तो कलेजे में एक टीस उठती है। न जाने क्यों इस सवाल पर हमेशा वाहिद, सलीम, जुम्मन, अंजुम, सलमा और नाहिद याद आ जाते हैं।  

सम्पर्क –

मोबाईल- 09506207222

ई-मेल – seemaaazad@gmail.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं)  

सीमा आज़ाद की कहानी ‘बंटवारा’


आजादी के बाद बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना भारतीय इतिहास में एक ऐसे काले अध्याय के रूप में अंकित है जिसने भारत के दो प्रमुख धार्मिक सम्प्रदायों के बीच वह संदेह और अविश्वास पैदा कर दिया, जिसे पाटना मुश्किल था। भारत की गंगा-जमुनी तहजीब में इस हिन्दू-मुस्लिम एका का बड़ा हाथ रहा है। कट्टरवादी दरारें पैदा करने की चाहें कितनी भी जुगत करें लेकिन वे इस तथ्य को झुठला नहीं सकती कि इस्लाम हमारे भारतीय संस्कृति में कुछ इस तरह रच-बस चुका है जिसे अलगाना किसी के बूते की बात नहीं खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा से लेकर बोली-बानी तक में यह एका स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती हैएक तरह से कह सकते हैं कि दोनों सम्प्रदायों के बीच यह सम्बन्ध शरीर और आत्मा जैसा है एक के बिना दूसरा अस्तित्व विहीन साहित्य में इसे आधार बना कर अनेकानेक कहानियाँ और कविताएँ लिखीं गयीं। सीमा आजाद की कहानी इस परम्परा में होते हुए भी इसलिए विशिष्ट है कि इसने मानव मन के उन रेशों को उभारने का सफल प्रयास किया है जो धर्म के किसी भी अवरोध को सख्ती से अस्वीकार करती है। 
आज यानी पाँच अगस्त को सीमा का जन्मदिन है। सीमा को जन्मदिन की बधाईयाँ और शुभकामनाएँ देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी यह नयी कहानी

           
बंटवारा
सीमा आज़ाद
माधुरी जब अपने बचपन का घर-आंगन, सखी सहेलियों को छोड़ कर अरूण के घर यानि ससुराल पहुंची, तो दूसरी लड़कियों के मुकाबले अजनबियत कुछ ज्यादा ही लग रही थी। वजह यह थी कि उसकी ससुराल का घर मुस्लिम मोहल्ले में था। अरूण के घर को ले कर कुल दो मकान हिन्दुओं के, बाकी सब मुसलमानों के। दुल्हन से मिलने वाले नाते रिश्तेदारों के अलावा सभी लोग दूल्हा दुल्हन को दुआ देने वाले थे, न कि आशीर्वाद देने वाले। पड़ोस की रेशमा चच्ची का परिवार तो पूरे समय वहां ऐसे मौजूद रहता जैसे वे घर के ही सदस्य हों। नमस्ते, प्रणाम के बराबर ही सलाम और आदाब सुनते-सुनते उसे ऐसा भ्रम होने लगा जैसे उसकी शादी किसी हिन्दू परिवार में नही, बल्कि मुस्लिम परिवार में हुई है। माधुरी के मायके का घर इसी शहर के जिस मोहल्ले में है वहां दूर-दूर तक एक भी मुस्लिम परिवार नही है। एक बार भले ही वह अपनी चचेरी बहन के साथ उसकी मुस्लिम सहेली के घर कुछ नोट्स वगैरह मांगने गयी थी, जहां ढेरों दाढ़ी और टोपी वाले मर्दों और सलवार कमीज वाली औरतों को उसने देखा था- बस इतना ही ज्ञान था उसे मुसलमानों के बारे में। हां चचेरी बहन की सहेली की खूबसूरती और उसकी मां का प्यार से खाना खा लेने का इसरार करना उसे याद रह गया था। अब यहां ससुराल में उसे ऐसा लग रहा है जैसे वह चचेरी बहन की उस सहेली के घर का ही हिस्सा बन गयी हो। इससे ससुराल की अजनबियत और भी बढ़ गयी थी। रात को उसकी अरूण से जो बात-चीत हुई उसी में उसने डरते हुए पूछा था-
आप लोगों को इस मोहल्ले में बसने की क्या सूझी थी, जो यहां घर बनवा लिया?
अच्छा नही लग रहा तुम्हें? अरूण ने प्यार से पूछा।
नहीं, ऐसा लग रहा है जैसे मेरी शादी किसी मुसलमान से हुई है। माधुरी ने मुस्कुराते हुए धीरे से जवाब दिया तो अरूण हंसते हुए बोला-
अरे यहां रह कर हम मुसलमान ही हो गये हैं, तुम्हें एकदम सच लग रहा है और देखना जल्दी ही तुम भी आधी मियाइन बन जाओगी।
मैं मियाइन नही बनूंगी, आपको वापस हिन्दू बना दूंगी।
बना लोगी तो भी मैं बिरयानी खाना नहीं छोड़ूंगा और तुम्हें रेशमा चच्ची से इसे बनाना भी सीखना होगा, तभी मैं तुम्हारा हिन्दू बनूंगा। अरूण ने माधुरी की ठुड्डी पकड़कर यह सौदा किया तो वह खिलखिलाकर हंस पड़ी।
ठीक है सीख लूंगी।
बाद में कुछ अरूण से और कुछ अम्मा से इस मोहल्ले में बसने की कहानी पता चली। अरूण के बाबू जी, रहीम चच्चा और विजयकान्त चाचा तीनों बहुत अच्छे दोस्त थे, कॉलेज के जमाने के दोस्त। रहीम चच्चा जब अपने लिए इस मोहल्ले में जमीन खरीदने लगे तो अपने साथ उन्होनें इन दोनों को भी वहीं बसा लिया। यह बात सन पचपन की है जब रहीम चच्चा के ज्यादातर रिश्तेदार या तो पाकिस्तान चले गये थे या जाने की प्रक्रिया में थे। पूरे देश का साम्प्रदायिक उन्माद तो बीत चुका था, परन्तु रेल के गुजर जाने के बाद पटरियों का धड़कना अभी भी जारी था। मुस्लिम परिवारों के जाने से बना खालीपन अभी भी बना हुआ था और हिन्दुओं के आने की खबरें अभी भी चर्चा में थीं। रहीम चच्चा शहर से ही सटे गांव के थे। उनके अब्बाजान अपने इकलौते बचे बेटे रहीम चच्चा के जवान होने से पहले ही गुजर गये थे, उनकी छोड़ गयी सम्पत्ति से पढ़ाई पूरी की फिर शहर में ही नौकरी भी मिल गयी। सरकारी नौकरी और इतने अजीज दोस्तों का मोह कुछ रिश्तेदारों से बिछड़ने पर भारी पड़ गया और उन्होंने यहीं बसने का निर्णय ले लिया। नौकरी पर जाने के लिए गांव से शहर के लिए रोज आना-जाना मुश्किल हो रहा था और बच्चों को शहर में पढ़ाने का लालच भी था, जिसके कारण रहीम चच्चा ने गांव की सम्पत्ति बेच कर शहर में जमीन ले ली। अपने बगल के खाली दो प्लाटों को बाबूजी और विजयकान्त चाचा को सस्तें में खरीदवा दिया। बाबू जी को घर बनवाने के लिए कुछ पैसे उधार भी दिया और तीनों की दोस्ती का तीन मकान अगल-बगल बन कर तैयार हो गया। बाबू जी के घर के लोगों और रिश्तेदारों ने इस बस्ती में मकान बनवाने पर विरोध भी किया और नाक-भौ भी सिकोड़ा, पर न बाबू जी ने इसकी परवाह की न विजयकान्त चाचा ने। उन्हें अपनी दोस्ती ज्यादा प्यारी थी। कभी बाबू जी या विजयकान्त चाचा रहीम चच्चा से मुसलमानी मोहल्ले में बसाकर रिश्तेदारों का आना-जाना कम होने का उलाहना देते तो रहीम चच्चा हंसते हुए कहते-
मेरा अपने रिश्तेदारों से साथ छूटा, इसलिए मैंने तुम लोगों का भी छुड़ा दिया, मैं अपनी नौकरी और तुम दोस्तों की वजह से उनके साथ पाकिस्तान नही गया इसलिए नौकरी के साथ तुम लोगों को भी अपनी गांठ में बांध के रखूंगा, क्या समझे?
कुछ दिनों की दूरी के बाद तीनों की पत्नियां भी आपस में सहेलियां हो गयीं। तीनों जोड़ों के ग्यारह बच्चे भी आपस में दिन भर खेलते-कूदते, पढ़ते और एक दूसरे के घर में खाते हुए कब बड़े हो गये पता ही न चला। विजयकान्त चाचा की पत्नी अपने तीन बेटों को बिन ब्याहे ही चल बसीं। जब उनके दो बेटों की शादी हुई तो रिश्तेदारों के आने के पहले का सारा काम दोनों परिवारों ने मुहल्ले के अन्य लोगों की मदद से संभाल लिया। अरूण के बाबू जी भी अपनी तीन बड़ी बेटियों की शादी करके गुजर गये। और अब अरूण की शादी में रहीम चच्चा और विजयकान्त चाचा ही घर के अभिभावक हैं। रेशमा चच्ची भी पीछे कहां रहने वाली। वैसे भी तीन बेटियों के बाद होने वाला अरूण इस घर का ही नही, अपनी शरारतों के कारण पूरे मोहल्ले का दुलारा था। छुपा-छुपाई खेलते समय वह किसी के भी घर में जाकर छिप जाता और बाकी बच्चे उसे खोजते ही रह जाते। रेशमा चच्ची माधुरी को अरूण के बचपन के किस्से सुना-सुनाकर लोट-पोट हो जाती। धीरे-धीरे माधुरी को रेशमा चच्ची अच्छी लगने लगी। अरूण के कहेनुसार उसने उनसे बिरयानी बनाना तो सीखा ही और भी ढेरों घरेलू नुस्खे सीखे। परन्तु मोहल्ले के बाकी लोगों के प्रति उसकी अजनबियत अभी भी बनी ही रही। वैसे भी मोहल्ले के लोगों से ज्यादा बात व्यवहार या तो उसकी सास या फिर अरूण का ही होता। इस अजनबियत में थोड़ी सेंध तब लगी, जब माधुरी के दो बेटे हुए और मोहल्ले के लोग उसे और उसके बेटों को दुआऐं देने आये। माधुरी भी अब इन सबके बीच रमने लगी थी।

यह 6 दिसम्बर 1992 का दिन था, जब माधुरी अपने 5 बरस और 3 बरस के बेटों को अपनी सास के पास छोड़ कर बाजार गयी थी। वहीं उसे पता चला कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी है। दंगे की आंशका में दुकानें फटाफट बन्द होने लगी और सब ओर अफरा-तफरी मच गयी। आधा सामान लेकर ही माधुरी भागते हुए घर पहुंची। अरूण अभी ऑफिस में था, इस बात से माधुरी और उसकी सास दोनों की बेचैनी बढ़ गयी। आधे ही घण्टे बाद अरूण भी घबराया हुआ घर पहुंच गया तो दोनों की जान में जान आयी। अरूण के पास बताने के लिए ढेरों सूचनाऐं थी-
हिन्दू राजनीति करने वाले कई संगठन मुस्लिम मोहल्लों पर हमले की योजना बना रहें हैं और मुस्लिम मोहल्लों के लोग भी जवाबी कार्यवाही की तैयारी कर रहे हैं हमारे मोहल्ले के लड़के भी इस तैयारी में जुटे हैं, जावेद घूम-घूम कर सबको इकट्ठा कर रहा है। अरूण ने ये सारी सूचनाऐं इतनी फुसफुसाकर दी, कि इससे घर में दहशत भर गयी।
हमला कोई भी करे हमें तो दोनों ही स्थितियों में खतरा है” कहती हुई माधुरी उठी और कमरे की खिड़कियों को बन्द कर दिया।
इस बीच अम्मा अरूण से कह रही थीं –
रहीम चच्चा के घर चले चलते हैं, साथ में रहेंगे तो डर भी कुछ कम होगा।
सुनकर माधुरी बिदक कर बोली-
वहां तो और डर है। अगर हिन्दुओं ने हमला किया तो हमें भी मुसलमान समझ कर नहीं छोडे़ंगे। वे तो मारे ही जायेंगे उनके कारण हम भी मारे जायेंगे।
माधुरी के अचानक इतना जोर से बोलने के कारण अरूण और अम्मा दोनों चौंक गये और उसके बोल चुकने के बाद गहरा सन्नाटा छा गया। थोड़ी देर चुप रहने के बाद अरूण ने कहा-
और मुसलमानों ने हमला किया तो?
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बाबू जी को पता नही क्या पड़ी थी मुसलमानों के मोहल्ले में बसने की।“ माधुरी रूआंसी हो कर बोली और उठ कर चली गई। कमरे में दहशत भरा सन्नाटा फिर भर गया। अरूण और अम्मा पर न सिर्फ चिन्ता तारी थी बल्कि वे इस मुहल्ले के लोगों से अपने रिश्ते के बारे में भी सोच रहे थे।
अम्मा को बार-बार ये हूक उठती कि वे एक बार जा कर बीमार पड़े विजयकान्त भइया, रहीम भाई और रेशमा जिज्जी से सलाह कर आयें। वहीं अरूण के मन में यह चल रहा था कि जिन लड़कों के साथ वह बचपन में खेला-कूदा है, क्या वे उसके घर पर सिर्फ इस कारण हमला कर देंगे क्योंकि वह हिन्दू है? वह अपने एक-एक दोस्त का चेहरा याद करके सोच रहा है कि वो हमले में शामिल हो सकता है या नही। उसके दिमाग में दोस्तों के दो खांचे बन गये- हिन्दू दोस्त-मुसलमान दोस्त। फिर मुसलमान दोस्त दो खांचों में बंट गये- फलां-फलां हमला कर सकता है, फलां-फलां नही। यदि जावेद आया, तो उसे बचपन में परीक्षा में अपनी कॉपी से नकल कराने की बात याद दिलाउंगा।
वह इन दिमागी कसरतों से गुजर ही रहा था कि “चाय पीजिये”  सुनकर चौंक गया। माधुरी चाय नाश्ता लेकर आयी, तो अरूण कपड़े बदलने के लिए उठकर अन्दर चला गया, पर उसकी दिमागी कसरत जारी रही। कपड़े बदल कर जब वह हाथ-मुंह धोने लगा, तो उसकी नजर लैटिन के बगल में बने दरवाजे की ओर गयी, जिसे बाबू जी ने इसलिए बनवाया था, ताकि लैटिन धोने के लिए मेहतर को घर के अन्दर घुस कर आने की जरूरत न पड़े, बल्कि वह पीछे से आकर उधर से ही निकल जाये। परन्तु पिछले कई वर्षों से जबसे लैटिन धोने के लिए मेहतर बुलाने की जरूरत खत्म हो गयी, इस पर मोटा ताला जड़ दिया गया था। यह दरवाजा पीछे की गली में खुलता है, जहां से चलते हुए सीधा सड़क पर पहुंचा जा सकता था। हाथ-मुंह धोकर अरूण जैसे ही चाय पीने बैठा सामने सड़क पर लोगों के भागने की आवाज हुई, साथ ही जय श्रीराम का नारा सुनाई दिया। सबकी धड़कन बढ़ गयी। हमले की आशंका में सब एकदम करीब आ गये और अपने कानों से बाहर का माहौल देखने की जद्दोजहद में लग गये। कुछ देर बाद ही दौड़ने की आवाज शान्त हो गयी और सन्नाटा छा गया। अरूण के दिमाग में अचानक रहीम चच्चा के परिवार की सुरक्षा की बात आयी, माधुरी के विरोध के बीच उसने धीरे से दरवाजा खोला। सड़क पर सन्नाटा था उसने झांक कर रहीम चच्चा के घर की ओर देखा। वहां भी उसके घर जैसी ही खामोशी थी, पर सब कुछ ठीक-ठाक लगा। उसकी हिम्मत आगे बढ़ने की हुई, तभी सड़क के एक छोर पर फिर से हल्ले-गुल्ले की आवाज का रेला आता सुनाई दिया, मां ने अरूण का हाथ खींच कर अन्दर कर लिया और माधुरी ने दरवाजा बन्द कर लिया। आवाज का रेला घर के सामने से गुजरता हुआ आगे बढ़ गया और इसके गुजरने बाद ही दरवाजे पर दहशत भरी दस्तक हुई। तीनों चौकन्ना होकर उठ खड़े हुए पर दरवाजा खोलने की बजाय तीनों आहट लेते रहे। दस्तक फिर से हुई। इस बार दस्तक के साथ ही विजयकान्त चाचा के छोटे बेटे अनुराग की घबड़ाहट भरी आवाज भी आई
भइया दरवाजा खोलिए
अरूण ने फुर्ती से उठकर दरवाजा खोला और अनुराग को झट अन्दर खींच लिया। अन्दर आते ही अनुराग ने हड़बड़ाते हुए कहा –
भइया, सतर्क रहियेगा हमारे घर पर कभी भी हमला हो सकता है कहते हुए वह जाने के लिए मुड़ा, पर अरूण ने उसे फिर से खींचते हुए पूछा-
तुझे कैसे पता कि हमला होने वाला है
मैं बाबू जी की दवा लेने निकला था, बन्द पड़ी दुकान के सामने कुछ लोग फुसफुसाकर बात कर रहे थे कि यहां तो दो ही घर हैं, वे हमारे बारे में ही बात कर रहे थे।
जाते-जाते वह यह भी बता गया कि अगर कल कर्फ्यू कुछ देर के लिए हटा तो वह चाचा को ले कर अपनी बुआ के घर चला जायेगा। 
अनुराग के जाने के बाद अरूण ने फिर से बाहर झांक कर देखा तो सन्नाटा ही दिखा इक्का-दुक्का जो दिखा भी, वो अपने गन्तव्य तक पहुंचने की जल्दी में। उसने दरवाजा बन्द कर लिया। मां ने अरूण के साथ अपना डर दूर करते हुए कहा-
कुछ नही होगा बेटा, बस माहौल थोड़ा खराब हो गया है, कल तक सब ठीक हो जायेगा।
माँ यह कह ही रही थी कि सड़क पर फिर से भागने-दौड़ने की आवाज आयी, साथ ही  अल्ला हो अकबर का नारा भी सुनाई दिया। इस बार अरूण और मां दोनों ही ज्यादा डर गये, मां तो अरूण के बिल्कुल पास आ गयीं। माधुरी भी दूसरे कमरे से बच्चे को गोद में लिए आ गयी, उसके चेहरे पर इतनी ज्यादा दहशत थी कि अरूण और भी डर गया। उसे अनुराग का अनुमान एकदम सही लगने लगा। उसका दिमाग एकाएक एकदम सक्रिय हो गया। सबसे पहले उसने दरवाजे पर अन्दर से ताला जड़ दिया। बाहर के कमरे की बत्ती बन्द कर उसने अम्मा और माधुरी को अन्दर के कमरे में बैठने को कहा और होने वाले हमले की तैयारी में जुट गया। उसने लैटिन के बगल वाले दरवाजे का ताला खोल दिया, यह सोचकर कि यदि हमला हुआ तो गली में निकलकर या तो छिप जायेगा या फिर भाग जायेगा। इसके साथ ही आंगन व छत पर पड़ी ईटों को उसने छत पर ही सामने की ओर इकट्ठा कर लिया, ताकि हमलावरों पर छत से ईटें फेकी जा सकें। इस काम में माधुरी ने भी अरूण का सहयोग किया। बच्चों को अम्मा संभाले रहीं और अपने देवी- देवता मनाती रहीं, कि यह रात किसी तरह कट जाय, भगवान रक्षा करे । अरूण के साथ माधुरी ने घर में फालतू पड़ी शीशी बोतल भी हथियार के रूप में छत पर जमा कर दी और डरती हुई मन ही मन प्रार्थना करती रही कि भगवान आज की रात किसी तरह कट जाये फिर कल सुबह वह सबको लेकर मायके चली जायेगी। साथ ही वह अपने अनदेखे ससुर को मन ही मन कोसती रही कि यहां घर क्यों बनवा लिया।

हमले से लड़ने और भागने दोनों की तैयारी पूरी करने के बाद तीनों फिर से एक कमरे में आ कर बैठ गये, इस कमरे की बत्ती भी बुझा दी गयी और जीरो पावर का बल्ब जला दिया गया। जिसकी रोशनी से पूरे घर पर और ज्यादा दहशत छा गयी। इस तरह बैठने पर अरूण को लगा कि युद्ध की तैयारी का समय ही ठीक था, कम से कम उतनी देर तक दहशत तो गायब थी। उसने मां की ओर देखा जो उसके तीन साल के मचलते बेटे को जबरन सुलाने की कोशिश कर रही थी उधर माधुरी पांच साल के भूखे बेटे को ब्रेड दूध खिला कर फुसला रही थी। आज अरूण को पहली बार लग रहा था कि इस मोहल्ले में वह अल्पसंख्यक है, अकेला है। उसके साथ यदि कुछ भी घटित हो जाय तो उसके परिवार को बचाने वाला कोई भी नही है। इतने लोगों के सामने दो घरों के कुल साढ़े पांच लोग क्या कर लेंगे। 
इसके पहले उसके परिवार पर जब भी कोई विपदा पड़ी- उसे कभी इतना अकेलापन नही लगा, पूरा मोहल्ला उसके सहयोग में खड़ा रहा, पर आज वह अपने आप को एकदम असहाय महसूस कर रहा है। इस समय उसे ऐसा लग रहा है जैसे रहीम चच्चा भी उसके साथ नही हैं। वह हमलावरों में न सही पर उसके परिवार को बचाने भी नहीं आयेंगे। अरूण के अन्दर यह हलचल चल ही रही थी, कि बाहर का दरवाजा भड़भड़ाने की आवाज आयी। तीनों एकदम सन्न रह गये। हमले की आशंका को देखते हुए चेहरों की दहशत बढ़ गयी। एक के चेहरे की दहशत बाकी दोनों के चेहरों की दहशत बढ़ाने का काम कर रहे थे। तीनों खड़े रहे। दरवाजा फिर भड़का। अरूण थोड़ा आगे बढ़ा, फिर ठिठक गया। दरवाजा तीसरी बार थोड़ा जोर से भड़का अरूण बाहर वाले कमरे की बजाय सीढ़ियां चढ़ता हुआ छत पर पहुंच गया, ताकि नीचे देख सके कि कौन है और जरूरत पड़े, तो छत पर जमा पत्थर नींचे फेक कर यह दिखा सके कि उसके घर में भी लोग जमा हैं और लड़ने के लिए तैयार हैं। उसके पीछे-पीछे दबे पांव माधुरी पहुंच गयी। छत से नीचे झांका तो अंधेरे में चार-पांच मुण्डियां नजर आयी पर चेहरा पहचान में न आया। अरूण ने यह अनुमान लगा लिया कि परिचित लोग हैं और पत्थर फेंकने की जरूरत अभी नही है। उसने हिम्मत करके उपर से ही पूछा-
कौन है?
सभी मुण्डिया उपर उठी
हम हैं बेटा, दरवाजा खोलो यह अहमद चच्चा थे।
चच्चा जो भी कहना है वहीं से कहिये, हम दरवाजा नही खोलेंगे।
डरो नही बेटा, हम मुहल्ले की हिफाजत के लिए कुछ बात करने आये हैं। अहमद चच्चा ने लगभग फुसफुसा कर कहा।
जो भी कहना है वहीं से कहिये चच्चा
अहमद चच्चा ने थोड़ा सोचकर कहा-
ठीक है बेटा, हम सुबह आयेंगे, खुदा हाफिज और पांचों मुण्डियां रहीम चच्चा के घर की ओर घूम कर चल पड़ीं। उनके जाने के बाद अरूण भाग कर नीचे आया और पीछे के रास्ते से भागने के लिए गली का मुआइना करने के मकसद से लैटिन के बगल का दरवाजा धीरे से खोला। सालों से बन्द रहने के कारण दरवाजा चर र र र र की आवाज करते हुए खुला तो घर की डरावनी शान्ति तो भंग हुई किन्तु इस आवाज ने माहौल में और ज्यादा दहशत भर दी। अरूण ने गली में दो कदम आगे बढ़ाया, पर वहां इतना सन्नाटा और अंधेरा था कि उसकी आगे बढ़ने की हिम्मत न हुई। उसने दरवाजा यह सोच कर बन्दकर दिया कि यदि जरूरत हुई तो उसी वक्त सोचेंगे साथ ही उसने भी यह तय कियी कि यह रात किसी तरह कट जाये, तो वह कल सुबह ही सबको लेकर अपनी ससुराल चला जायेगा। इतने में दरवाजे पर फिर से दस्तक हुई। दहशतजदा गुस्से के कारण उसकी आवाज कुछ जादा ही जोर से निकली-
कौन है?
मैं रहीम चच्चा
अरूण थोड़ा आगे बढ़ा, फिर ठिठक कर खड़ा हो गया। दरवाजे की ओर जाने की बजाय वह फिर से छत पर गया और नीचे झांक कर ध्यान से देखा। इस बार कुल छः मुण्डियां थी।
मैंने कहा न, मैं दरवाजा नही खोलूंगा अरूण ने छत से ही चिल्ला कर कहा।
तुम्हें क्या हो गया है अरूण, दरवाजा खोलो, अपनी और हमारी जान जोखिम में मत डालो।
रहीम चच्चा ने कहा तो अरूण ने नीचे आ कर दरवाजा खोल दिया, पर अन्दर ही अन्दर डरता भी रहा कि अब उसके घर पर हमला हो जायेगा। छहों बुजुर्गों के अन्दर आते ही उसने जल्दी से फिर से दरवाजा बन्द कर दिया। अम्मा और माधुरी भी वहां आ गये। रहीम चच्चा को देख कर अम्मा के अन्दर जैसे जान आ गयी।
देखो बेटा तुम्हारे घर का सन्नाटा देख कर ये लोग परेशान हो उठे थे, इसलिए हाल-खबर लेने आये हैं। मैं तो बुखार में पड़ा हुआ था, तुमने दरवाजा नही खोला तो ये मुझे लेकर आये हैं। डरने की कोई बात नही है। हमारे रहते तुम लोगों को कुछ नहीं हो सकता। रहीम चच्चा ने जब ये दो तीन लाइने कहीं तो पूरे घर ने जैसे राहत की सांस ली। अहमद चच्चा ने बताया-
लड़के बता रहे हैं कि कुछ हिन्दू संगठन के लोग हमारे मुहल्ले पर हमले की योजना बना रहे हैं इस इसलिए मोहल्ले के सारे लड़के और कुछ बुजुर्ग लोग जगह-जगह तैनात हैं। न तो बाहरी लोगों से डरने की जरूरत है न मोहल्ले के लोगों से।
अरूण समझ गया कि अहमद चच्चा क्या कहना चाहते हैं उसने राहत की सांस ली, साथ ही उसे मोहल्ले के लोगों पर शक करने और इनसे लड़ने के लिए की गयी तैयारियों पर शर्मिंदगी भी हुई। छहों बुजुर्गों के जाने के बाद सबके चेहरे चिन्तामुक्त तो हुये पर उनपर दहशत के निशान अभी भी बाकी थे। तीनों ने ब्रेड-दूध खाया और अपने बिस्तरों पर डर और अहमद चच्चा के दिलासे -दोनों के बीच झूलते हुए सो गये।

सुबह घर छोड़ कर माधुरी के मायके चले जाने का विचार किसी के भी मन में नही आया, क्योंकि टी वी से पता चलता रहा कि पूरे शहर का माहौल तनावग्रस्त है। 
तीन दिन बाद मोहल्ले से कर्फ्यू हटा, तो स्थितियां कुछ सामान्य हुई, पर मनःस्थितियां सामान्य नहीं हुई। वह तो अब बदल चुकी थी और चीजों को दूसरी तरीके से देखने लगी थीं। अरूण के आफिस के मित्र और रिश्तेदारी के लोग खासतौर पर अरूण के परिवार का हालचाल जानने के लिए आने लगे थे, क्योंकि वे लोग मुसलमानों के मोहल्ले में रहते है। हालचाल लेने के बाद जाते-जाते वे यह सलाह भी दे जाते कि इस घर को बेच कर हिन्दू मोहल्ले में घर ले लो। सुनते- सुनते माधुरी की तरह अरूण को भी लगने लगा कि इस मोहल्ले में वह बाहरी है, अकेला है। बीमारी और बुढ़ापे की वजह से विजयकान्त चाचा भी ज्यादातर समय अपने बड़े बेटे के पास दूसरे शहर में ही रहते थे, कभी- कभार ही यहां आना होता था। इस मोहल्ले में अरूण की अजनबियत अब हर दिन बढ़ती ही गयी और एक दिन उसने अम्मा को मकान बेंचने के लिए राजी कर ही लिया-
अम्मा अभी इस मोहल्ले में बाबू जी को जानने वाले बुजुर्ग हैं तो हमारे उपर कोई खतरा नही है, पर कल जब ये लोग नहीं रहेंगे, तो नये लड़के हमारे साथ कैसा व्यवहार करेंगे क्या पता?
अम्मा को भी अरूण की बात ठीक लगी और उन्होंने भी मकान बेचने के लिए हामी भर दी। मकान बेचने की बात दिमाग पर ऐसी चढ़ी, कि तीन महीने के भीतर ही उसने घर का खरीददार खोज लिया। यह खरीददार मुस्लिम था, जिसके लिए यह मोहल्ला बहुत दूर था, पर उसे ऑफिस के करीब के हिन्दू मोहल्ले में रहने के लिए किराये का भी कमरा नही मिल रहा था, झल्ला कर लोन लेकर वह यह घर खरीद रहा था। मकान बेचने से मिले पैसे में कुछ पैसे और जोड़ कर अरूण ने शहर के ऐसे हिन्दू इलाके में घर ले लिया, जो रईसों का मुहल्ला कहलाता था। रहीम चच्चा और रेशमा चच्ची ने अरूण और अम्मा को घर बेचने से रोकने का बहुत प्रयास किया, पर वे उनके दिलो-दिमाग में हिन्दू मित्रों और रिश्तेदारों द्वारा भरी गयी बातों और उस मोहल्ले में अल्पसंख्यक होने की दहशत को नही निकाल सके, फलतः दुखी मन से उन लोगो ने भी उनका सामान बांधा। मुहल्ले के अन्य लोग भी मिलने आये और इस मोहल्ले में मिलने आते रहने का इसरार किया। विदा लेते समय अम्मा ने तो अपने उमड़ते मन को बहने दिया, पर अरूण ने इस बहाव को जबरन रोके रखा। मोहल्ला छोड़ने का दुख तो उसे था, पर अपने समुदाय के बीच बसने का सुकून भी। वो भी शहर के उस क्षेत्र में जहां सारे रईस लोग रहते हैं। अम्मा में दुख ज्यादा था और अरूण इन दो अनुभूतियों के बीच झूल रहा था, वहीं माधुरी तीसरे छोर पर थी उसमें सुख की अनुभूति सबसे ज्यादा थी। मुस्लिम मोहल्ले में ससुराल होने के नाते उसके मायके के रिश्तेदार उससे कहते थे-
तुम तो पाकिस्तान में रहती हो कैसे आये तुम्हारे घर। उसे खुशी थी कि अब वह हिन्दुस्तान’  में बसने जा रही है।
तीन तरह की अनुभति बसाये दो बच्चों के साथ ये तीन प्राणी अपने नये घर में बस गये। इन सारी अनुभूतियों में यह अनुभूति सबसे उपर थी, कि अब वे सुरक्षित हैं।
शुरूआती दो महीनों तक तो अरूण और माधुरी नये घर को सेट करने और अपने ढंग से सजाने में ही लगे रहे, रिश्तेदारों और मित्रों का आना-जाना भी बढ़ गया। अम्मा के अकेलेपन की ओर उनका ध्यान तब गया, जब वे बीमार पड़ गयीं। दिन भर मोहल्ले भर की चच्चियों से घिरी रहने वाली अम्मा, दिन भर में कम से कम एक बार रेशमा चच्ची से अपना दुख-सुख बतियाने वाली अम्मा यहां अकेली पड़ गयीं। यहां भी पड़ोस के घरों में लोग रहते ही हैं, बूढ़ी औरतें भी होंगी पर सब अपने-अपने घरों में बन्द। अगल-बगल के घर में क्या दुख या सुख है इससे किसी को कोई मतलब नही है। अम्मा को अब याद आता कि अरूण के बाबू जी जब मुसलमानों के मोहल्ले में बसने जा रहे थे तब अम्मा ने भी विरोध जताया था, पर बाबू जी ने उन्हें भरोसा दिलाते हुए कहा था-
कुछ अलग नही है सब अपने जैसे ही खाने-कमाने वाले लोग ही हैं, तेरा मन लग जायेगा, विजयकान्त का परिवार भी तो बस रहा है।
फिर भी उनके इस वादे के बाद ही अम्मा वहां जाने के लिए राजी हुईं थी कि  अगर उनका मन नही लगा, तो घर बेच कर कहीं और ले लेंगे। पर जल्दी ही वहां अम्मा का ऐसा मन लग गया, कि घर बेंचने या कहीं और बसने के बारे में सोचा भी नहीं। यहां नये घर में अम्मा पहाड़ के उस पेड़ की तरह हो गयीं, जिसे मैदान में लाकर रोप दिया गया हो। बीमारी में उनका अकेलापन और भी बढ़ गया। उन्हें याद आता कि उस मोहल्ले में यदि कोई बीमार पड़ जाय तो पड़ोस की औरतें अपने घरेलू नुस्खों के साथ कम से कम आठ घण्टे तो मौजूद ही रहती और उन्ही में से कोई नुस्खा अपनेपन के साथ मिलकर बीमार को चंगा भी कर देता। यहां इन सबके अभाव में अरूण के लाख इलाज और माधुरी की सेवा के बावजूद वह एक महीने में चल बसी। मरने के दो दिन पहले उन्होंने अरूण से कह कर रेशमा चच्ची और रहीम चच्चा को बुलवाया भी था, पर वे भी बूढ़े हो गये हैं और इतनी दूर आना उनके लिए असम्भव तो नही मुश्किल जरूर था। नये मकान में अरूण और माधुरी पर पड़ा यह पहला संकट था। सहारे और सहयोग के लिए अरूण बदहवास सा गेट पर जा कर खड़ा हो गया, कि कोई पड़ोसी दिखे तो उसे बुलाया जा सके, पर सबके दरवाजे बन्द थे। हर तरफ सिर्फ बन्द दरवाजे खिड़कियां और बाहर खड़ी कारें दिख रही थी। कुछ छतों पर अलगनी पर फैले कपड़ों से ही पता चल रहा था कि यह इंसानों की बस्ती है। अरूण को अजीब किस्म का डर लगने लगा। उसे लगा कि इस पूरी बस्ती में वह एकदम अकेला है। यह डर 6 दिसम्बर वाली रात से भी अधिक गहरा था। हिन्दू या मुसलमान पड़ोसियों की बजाय यहां तो लोग अपने अकेलेपन के साथ रहने के आदी हैं, किसके दरवाजे पर वह जाये? किसी का दरवाजा खटखटाने की उसकी हिम्मत न हुई। उसे अपना पुराना मोहल्ला याद आया जहां अब तक न जाने कितने लोग उसके दुख में शामिल हो चुके होते। अपने रिश्तेदारों को फोन करने के लिए अरूण अन्दर जाने को मुड़ा, तभी उसे सामने से आता एक रिक्शा दिखाई दिया, जिस पर हाथ में छड़ी थामें रहीम चच्चा और सर पर दुपट्टा संभालती रेशमा चच्ची सवार थीं। अरूण रिक्शे की ओर दौड़ा और बुक्का फाड़कर रो पड़ा ‘‘ र…….ही……….म  चच्चा…………….।’’  
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)