‘लांग नाईंटीज‘ जैसे नवगढ़ित टर्म पर हो रहे हो-हल्ले के बीच ‘पहली बार‘ पर हमने विजेंद्र जी के आलेख के साथ कविता पर बहस की एक शुरुआत की थी. उसी कड़ी में आज प्रस्तुत है वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य का यह आलेख, जिसमें अमीर जी ने कविता की लोकधर्मी परम्परा पर शिद्दत से विचार किया है. इस कड़ी में आगे भी कुछ और आलेख प्रस्तुत किये जाने की योजना है. साथियों से एक विनम्र आग्रह कि आलेख के मद्देनजर ही अपनी टिप्पणियाँ करें,जिससे कि बहस की इस स्वस्थ परम्परा को हम आगे बढ़ा सकें.
लोकधर्मी कविता पर पुनः विचार क्यों?
(सन् 1970 से आज तक)
कविता -केन्द्रित लघु पत्रिका ‘कृति ओर‘ के अंक 62 में प्रधान सम्पादक विजेन्द्र ने ‘पूर्वकथन‘ के अन्त में लिखा है “पिछले दिनों हमारे कुछ साहित्यिक मित्रों ने हम को ‘लोक का जाप‘ करने वाला कह कर जो गौरव प्रदान किया है, उसके लिए हम बड़ी विनम्रता से उनके आभारी हैं। भले ही बहुत देर से कहा। पर दुरूस्त कहा। कैसा सुखद संयोग है कि कुछ दिनों पहले संसद से गाँव की पगडंडियों तक जनता लोक तथा जन का ही जाप करती रही। हमें लगा अब ये दोनों शब्द एक भौतिक शक्ति का रूप ले रहे हैं। (पृ0 19)
विगत वर्षों में जो जन-आन्दोलन हुए हैं, वे उपरोक्त कथन का प्रमाण है। यद्यपि वे आन्दोलन सम्पूर्ण सामाजिक बदलाव की रणनीति और नेतृत्व से दूर रहे। लेकिन लोक विक्षुब्ध हैं, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है। आजादी के बाद हिन्दी कविता सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक आन्दोलनों से प्रभावित रही है। ऐसे हलचल-भरे समय में ‘वागर्थ‘ पत्रिका ने दिसम्बर 2012 का अंक ‘हिन्दी कविताः ‘80 के बाद‘ (लांग नाइन्टीज़) पर केन्द्रित किया है।
पत्रिका के सम्पादक एकान्त श्रीवास्तव ने अपने आलेख ‘गाँव के माथे पर काँस का फूल‘ में
यह तथ्य रेखांकित किया है कि “कविता एक बार फिर ग्राम-केन्द्रित होने लगी- ‘भारत माता ग्राम-वासिनी।“ जो बात विजेन्द्र कहा करते हैं कि कविता लोकोन्मुखी होनी चाहिए, वही बात अब कवि एकान्त श्रीवास्तव कह रहे हैं। वह भी विजेन्द्र के समान लोक को गाँव से कस्बे, कस्बे से नगर और नगर से महानगर तक व्याप्त मानते हैं। लोक जनपदों में निवास करता है। अतः लोकधर्मी कवि की कविता में उसका जनपद अपने सम्पूर्ण परिवेश और वैशिष्ट्य के साथ बोलता है। यदि सूर-काव्य में ब्रज जनपद की अभिव्यक्ति है तो जायसी और तुलसी के काव्य में अवध जनपद की। मीरा के काव्य में राजस्थानी जनपद की। इनका काव्य पढ़ कर-समझ कर हम ब्रज, अवधी और राजस्थानी लोक-जीवन और संस्कृति से परिचित हो सकते हैं और प्रत्येक जनपद के भाषा-वैशिष्ट्य से भी।
इसी प्रकार आधुनिक हिन्दी कविता के अग्रणी कवियों – निराला, केदार नाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन का काव्य हमें बैसवाड़े, बुन्देलखण्ड, मिथिला और अवध के जन-जीवन और लोक-संघर्ष से परिचित कराता है।
सन् सत्तर के दशक में यदि केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन कविता के केन्द्र में आते हैं तो नई पीढ़ी के कवियों में आलोकधन्वा, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह विजेन्द्र और कुमार विकल आदि कवि लोकधर्मी कविता की धारा का पाट चौड़ा करके ‘जनशक्ति‘ के प्रति अपनी अटूट आस्था व्यक्त करते हैं और अपने जनपद के सम्पूर्ण वैशिष्ट्य के साथ अपनी – अपनी कविता में उजागर करते हैं। आलोक धन्वा का प्रारम्भ-स्वर भले ही आक्रोशपूर्ण हो, लेकिन उसने अपनी प्रखरता से अकविता से दरकिनार कर दिया था और कुमारेन्द्र और विजेन्द्र ने अपने-अपने निजी वैशिष्ट्य से 1857 की अधूरी क्रान्ति और अपूर्ण मुक्ति-संग्राम को अग्रसर किया।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि आठवें दशक में एकान्त श्रीवास्तव और उनके अनेकानेक पथ के साथी कवियों पर सन् सत्तर के दशक के लोकधर्मी कवियों का प्रभाव परिलक्षित होता है। लेकिन लीलाधर मंडलोई को यह बात स्वीकार नहीं है। उनका कथन है कि “याद करना प्रासंगिक होगा कि लोक तो त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, श्रीकांत वर्मा, विजेन्द्र, केदारनाथ सिंह और उसके पूर्व ‘निराला‘ की छायावादी पीढ़ी में भी था, लेकिन शरद का लोक भिन्न था। यह लोक जब आगे नवल, देवी, बद्री, एकांत, निलय, नीलेश में आता है, तो वह अपने धूसर यथार्थ के साथ आता है, जिसमें जनजातीय मिथक नया अर्थ ग्रहण करते हैं।(वागर्थ, वही अंक, पृ0 16)
मंडलोई जी के वक्तव्य में श्रीकांत वर्मा और केदारनाथ सिंह के नाम उलझन में डालने वाले हैं। यह दोनों कवि आधुनिकतावादी हैं। श्रीकांत वर्मा सत्ता-समर्थक रहे हैं और कविता में भदेस एवं व्यर्थ-वक्रता का समावेश भी। इसी प्रकार केदारनाथ सिंह भी सरल भाषा में चमत्कार की सृष्टि करते रहे हैं। डा0 जीवन सिंह ने इन दोनों कवियों की असलियत अपने आलेखों में उजागर कर दिया है। आजादी के बाद की कविता पर जितना प्रचुर प्रभाव निराला का लक्षित होता है, उतना अन्य किसी कवि का नहीं।
निराला की प्रतिभा से प्रभावित और प्रेरित होकर प्रगतिशील कवियों – केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन, शिवमंगल सिंह सुमन, राम विलास शर्मा के अलावा विजेन्द्र ने जितना स्वयं को समृद्ध किया है, उतना एकान्त श्रीवास्तव और उनके हमउम्र कवियों ने नहीं। एकान्त तो अपनी कविता में लय साध कर स्थानीयता का रंग भर देते हैं, लेकिन उनके अन्य पथ-सहचर ऐसा करने में असमर्थ हैं। उदाहरण के लिए बद्रीनारायण अपने ढंग से लोक का चित्रण करते हैं। प्रतिरोध भी करते हैं। लेकिन उनकी भाषा में ठंठापन हैं। वह अपनी कविता को लयात्मक बनाने का प्रयास प्रायः नहीं करते हैं। उनकी एक कविता ‘प्रेम-पत्र‘ प्रसिद्ध है। यह कविता समाज की आलोचना भी करती है। लेकिन ‘दुलारी धिया‘ में वह स्वयं ही बोलते रहते हैं। यदि ‘दुलारी धिया‘ को बोलने का अवसर देते तो सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति प्रभावपूर्ण ढंग से होती। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र ने ऐसी अनेक लम्बी कविताओं की रचना की है, जिनमें पात्र -नारी एवं पुरूष दोनो -स्वयं बोल कर सामाजिक विसंगतियों का उद्घाटन करते हैं। वर्तमान समय और समाज इतना क्रूर है कि उसका वर्णन छोटी कविता के रूप में सम्भव नहीं है।
वर्तमान समाज में श्रमशील लोक हैं तो भद्रलोक भी है, जो श्रम का फल भोगता है। वह पूँजी से सब कुछ खरीद सकता है। पूँजी के वर्चस्व की समाप्ति कविता में रूपायित होनी चाहिए। इसके लिए श्रमशील वर्गो -श्रमिकों-कृषकों की एकता अनिवार्य है। साथ-ही-साथ मध्यम वर्ग का व्यक्तित्वान्तरण भी। जैसा कि मुक्तिबोध के काव्य में व्यक्त हुआ है। लेकिन बद्रीनारायण जैसे प्रबुद्ध कवि एक ऐसे पात्र की कल्पना करते हैं, जो ‘मदन गोपाल सर्वहारा‘ है। वह इतना स्वामी-भक्त है कि उसकी उसकी चिता में कूद कर प्राण त्याग देता है। ऐसा सम्भव है? आजकल। कदापि नहीं। कविता के अन्त में बद्रीनारायण कहते हैं –
“अगर कहीं मिल जाएँ मुझे कार्ल मार्क्स
तो उन से पूछूँ कि अगर अब भी कहीं बची हो
सर्वहारा की कोटि
तो मदन गोपाल को सर्वहारा की किस कोटि में रखा जाए।“
(खुदाई में हिंसा, पृ0 75)
सर्वहारा के प्रति ऐसी अनास्था क्या यथास्थिति को समाप्त कर सकती है। इसके विपरीत वरिष्ठ कवि विजेन्द्र आज भी संघर्षशील लोक के प्रति आस्थावान् हैं-
“रोटी और समर का रिश्ता अटूट है
वही रहेगा केन्द्र में कविता के
कथ्य से उगता है रूप सदा
बीज से ही लेता है वृक्ष अपनी दिशा
क्या मुझे दिखाओगे वे वृक्ष
वे मनुष्य, मेरी लड़ती हुई जनता
यदि खोऊँ भरोसा उस में
सब से बड़ी पराजय है कवि की।“
(मधुमती, अक्टू0, 2012, पृ0 88)
‘वागर्थ‘ दिसम्बर 2012 के मुख पृष्ठ पर जितने नए कवियों के नाम छपे हैं, उनकी काव्य-भाषा में ठंठापन अधिक है। एक-दो को छोड़ कर। कात्यायनी की कविता में आवेग के कारण ओज गुण अनायास आया है। मदन कश्यप में भी भावात्मक आवेग है। मुख पृष्ठ पर अष्टभुजा शुक्ल का नाम अंकित नहीं है। लेकिन वह ऐसे अलग कवि हैं, जो ‘पद-कुपद‘ के ‘साथ-साथ‘ आवेगपूर्ण मुक्त छन्द का प्रयोग करके निराला की परम्परा को अग्रसर कर रहे हैं। मुम्बई निवासी बोधिसत्व अपना गाँव ‘भिखारी रामपुर‘ याद तो करते है, लेकिन उसे सम्पूर्ण परिवेश के साथ कविता में रचते नहीं हैं। उनकी कविता पढ़कर प्राणों की ऊष्मा का अहसास नहीं होता है। कविता के अन्त में कहते हैं
“हर साल मिटते हैं कुछ नाम
कुछ नए रखे जाते हैं
ऐसे ही चल रहा भिखारी रामपुर
सब बताते हैं।“
(दुःख तंत्र, पृ0 37)
इसके विपरीत जयपुर-निवासी विजेन्द्र ने अपनी जन्म-भूमि ग्राम धरमपुर के परिवेश और वहाँ के विशेष व्यक्तियों को अपनी कविता में अमर कर दिया है। साथ-ही-साथ भरतपुर के घना पक्षी विहार को भी कविता में रच दिया है। सन् अस्सी के बाद ऐसे अनेक कवि हैं, जिनके काव्य में जनपदीय, वैशिष्ट्य परिलक्षित होता है। एकान्त श्रीवास्तव, रजत कृष्ण, सुरेश निशान निशान्त, महेश चन्द्र पुनेठा आदि कुछ कवियों यह वैशिष्ट्य स्थानीय परिवेश के साथ व्यक्त हुआ है। लेकिन लाल्टू, सत्यपाल सहगल, राजीव समरवाल, प्रगति सक्सेना, मोहन कुमार डहेरिया आदि के काव्य में जनपदीयता की उपेक्षा की गई हैं। ध्यान रहे कि जनपदीयता के समावेश से कवि की अपनी निजी पहचान निर्मित होती है।
इस बात पर विचार विमर्श अनिवार्य है कि ‘हिन्दी कविताः ‘80 के बाद‘ ‘लांग नाइन्टीज़‘ जोड़ने की क्या अनिवार्यता है।
एकान्त श्रीवास्तव ने तो ‘लोक‘ के अन्तर्गत ‘ग्राम लोक‘ एवं ‘नागर लोक‘ दोनों को शामिल किया है, किन्तु जाने-माने प्रबुद्ध आलोचक डा0 अजय तिवारी पूछते हैं कि “लोक में ग्रामीण जीवन आया, यह तो ठीक है पर ‘नागर‘ जीवन कब से ‘लोक‘ का अंग बन गया।“ (वही अंक, पृ0 46) तात्पर्य यह है कि महानगर के प्रबुद्ध कवि के ‘नागर लोक‘ का वर्णन-चित्रण करना चाहिए। डा0 अजय तिवारी यह तो जानते होंगे कि भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र की रचना लोक के लिए की थी। नारियों एवं अन्य साधारण जनों के लिए वेदों का अध्ययन वर्जित कर दिया गया था, लेकिन नाटक का मंचन सभी वर्णों के लिए किया जाता था। यह परम्परा आज भी जीवित है। विजेन्द्र ने और स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि आचार्य भरत ने भद्रलोक (एलीट) से अलग तीन तरह के लोग शामिल किए हैं – दुःखार्तानां– अर्थात् अभावो से दुखी, श्रमार्तानां– अर्थात् कठोर श्रम से थके-हारे लोग, शोकार्तानां– अर्थात् जीवन के अघातों से शोकग्रस्त जन। यह लोक जीविका के लिए रात- दिन पसीना वहाते हैं। संघर्ष करते हैं। इतिहास साक्षी है कि साधनहीन लोक ने अपने अस्तित्व के लिए सदैव संघर्ष करता है। इस का ज्वलंत रूप सन् अठारह सौ सत्तावन क्रान्ति में परिलक्षित होता है। इस स्वाधीनता संघर्ष में वंचित किसानों ने बढ़-चढ़ कर सक्रिय भाग लिया था। इस प्रकार संघर्षशील लोक इतिहास का ज्वलंत सत्य है। डा0 अजय तिवारी लोक-चेतना में प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी दोनो का अस्तित्व स्वीकारते हैं। लेकिन वास्तविकता इससे भिन्न हैं। राम-लीला और कृष्ण लीला में ‘रावण और कंस का वध होने पर क्या प्रतिक्रियावादी लोग प्रसन्न होते हैं। नहीं। ‘गोदान‘ में लोक का सहानुभूति किसके प्रति होती है। शोषितों के प्रति या शोषकों के प्रति। अर्नेस्ट जोन्स की प्रसिद्ध कविता ‘हिन्दुस्तान की बगावत‘ में किस के पक्ष में भाव व्यक्त किए गए हैं। ब्रिटिश शासकों के प्रति अथवा बागी हिन्दुस्तानियों के प्रति। जोन्स ने सपना देखा था कि एक दिन ऐसा आएगा, जब दुनिया के सभी पीड़ित-प्रताड़ित मनुष्य सर उठा कर खड़े होंगे।
यह है सच्ची लोकधर्मी कविता। क्या ऐसी कविता नवें दशक के युवा कवियों ने की है।
‘हिन्दी कविताः ‘80 के बाद‘ शीर्षक पर्याप्त है। इस के अन्तर्गत केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन बड़े कवियों के साथ-साथ कुमारेन्द्र, विजेन्द्र, विष्णु चन्द्र शर्मा, कुमार विकल, आलोकधन्वा, अरूण कमल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, मान बहादुर सिंह, ज्ञानेन्द्रपति, भगवत रावत, चन्द्रकान्त देवताले, ऋतुराज आदि के साथ-साथ नवें दशक के सभी नए कवियों का विवेचन, बदले हुए परिप्रेक्ष्य को सामने रख कर, कर सकते हैं। प्रस्तावित शीर्षक के अन्तर्गत जो प्रश्न उठाए गए हैं, उनके उत्तरों में वरिष्ठ प्रतिष्ठित कवियों को उपेक्षित किया गया है। मदन कश्यप ने अपने आलेख ‘नवें दशक की कविता जन-संवेदना का विस्तार है‘ में इसी बात की ओर संकेत किया है।
कवि बोधिसत्व भी नवें दशक की कविता में लोक को स्वीकार करते हैं, लेकिन अधिसंख्य कवियों के काव्य में लोक का संघर्ष और उसके प्राकृतिक परिवेश की अभिव्यक्ति प्रचुर नहीं है। एकान्त श्रीवास्तव के काव्य में ऐसी अभिव्यक्ति पाठक का ध्यान आकृष्ट करती है। अपने परिवेश से एकान्त का आत्मीय सम्बन्ध व्यक्त हुआ है।
वास्तविकता तो यह है कि डा0 अजय तिवारी “अंध लोकवाद“ का समर्थन करके ज्वलंत लोकधर्मी कविता की उपेक्षा कर रहे हैं। क्या राजधानी दिल्ली में श्रमशील लोक का अभाव हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में उत्पादक वर्गों अर्थात् कृषको-श्रमिकों की उपेक्षा घातक है। ये वही वर्ग है, जो उत्पादन बढ़ाने के लिए अपना खून पसीना एक करते हैं। अजय तिवारी को यह चिन्ता सता रही है कि “गाँव, कस्बा, दलित, आदिवासी, गरीब, मजदूर, किसान -इनकी तरफ देखने की फुरसत न ‘महा‘ कवियों को है, न ‘महा‘ महिमों को।“ (वही, पृ0 47) तिवारी जी किन्हें महाकवि मानते हैं, यह तो मुझे नहीं मालूम है। लेकिन यदि वह विजेन्द्र का काव्य ध्यान से पढ़े तो उन की चिन्ता दूर हो जाएगी। वैसे उन्हें युवा कवियों से बहुत उम्मीद है। ऐसा आभास होता है कि अजय जी विजेन्द्र को कवि ही नहीं मानते हैं। ये बेरूखी वेसबब नहीं गालिब।
एक बात और। जब हम सन् 1980 के बाद की कविता पर विचार कर रहे हैं, तब लोकान्मुखी गीतों और गजलों, दोहों, पदों आदि की उपेक्षा कर सकते हैं? आजकल अनेक कवि अपनी लोक-भाषा में लोकधर्मी रचनाएँ रच रहे हैं। सतबीर ‘श्रमिक‘ हरियाणवी भाषा की ‘रागिनी‘ परम्परा को अग्रसर कर रहे हैं। उनके एक गीत की पंक्ति पढ़िए–
“भारत कोन्या बणया भगत सिंह जिस तनै चाहया था
पड़ग्या डाका आजादी पै तमनै खून बहाया था।
(अलाव, सित.-अक्टू., 2012, पृ0 76)
अदम गोंडवी ने डंके की चोट पर लिखा है –
“काजू भुने प्लेट में, विह्स्की ग्लास में
उतरा है राम राज विधायक निवास में।“
दुष्यंत के बाद अदम गोंडवी ने ग़ज़ल को धारदार बनाने का सार्थक प्रयास किया है। उनका बेबाक कथन है –
“सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है
दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आजाद है।“
कोठियों से मुल्क के मेयार को मत आँकिए
असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।“
मुक्तिबोध अपनी महत्वपूर्ण लम्बी रचनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। आजादी के बाद भारतीय पूँजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था के घनघोर अँधेरे को व्यक्त करके उन्होंने यथा-स्थिति को ध्वस्त करने के लिए प्रकाश की अगणित किरणें विकीर्ण की हैं। उनकी सफलता से प्रभावित होकर मन्द बुद्धि वाले कवियों ने यश-प्राप्ति के लिए लम्बी कविताओं की ऐसी रचना की है, जिन्हें आद्यंत पढ़ना और समझना हिमालय की चोटी पर चढ़ना हैं। नवें दशक के चर्चित कवियों में देवी प्रसाद मिश्र ऐसी ही लम्बी कविताओं के रचयिता हैं। ‘पहल‘ 90 में प्रकाशित उन की लम्बी कविता ‘वह कोई एक दिन तो जरूर था‘ आदि से अन्त तक अपठनीय और उबाऊ है। डायरी शैली में रचित इस तथाकथित कविता पर रघुवीर सहाय की पत्रकारिता का प्रभाव लक्षित होता है। न तो इस कविता में कोई केन्द्रीय चरित्र है, न ही विचारों की द्वन्दात्मकता। न पूर्वापर सम्बन्ध। लोक-जीवन की तो झलक भी नहीं है। मालूम नहीं कि ज्ञान रंजन जैसे विवेकशील सम्पादक ने इसे क्यों प्रकाशित किया। इसके विपरीत इसी अंक में प्रकाशित अष्टभुजा शुक्ल की लम्बी कविता ‘पुरोहित की गाय‘ सार्थक और प्रवाहपूर्ण रचना है, जिसे पुनः पढ़ने की आवश्यकता महसूस होती है। मिश्र जी की एक और लम्बी कविता ‘निजामुद्दीन‘ भी है, जो ‘तद्भव‘ 25 में उत्कृष्ट रचना के रूप में संकलित है। इस रचना में भी न तो पूर्वापर सम्बन्ध का निर्वाह है। न ही किसी व्यक्ति विशेष का चरित्रांकन है। और न ही प्रभाव की अन्विति। इन दोनों कविताओं में यथार्थ का मात्र झलक है। शेष तो व्यर्थता का कोष है। दूसरी कविता में एक वाक्य अनायास आया है –
“अब आप से क्या छिपाना
मार्क्सवाद से मैं भी निजात पा लेना चाहता हूँ।
(तद्भव, 25, पृ0 515)
उपरोक्त कथन की व्यंजना स्पष्ट है कि मिश्र जी भी अपने अन्य पथ-सहचरों के समान ‘मार्क्सवाद‘ से छुटकारा पाना चाहते हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद। अब मार्क्सवाद अपना कर दिल्ली में पद, प्रतिष्ठा और सम्मान पाना सम्भव नहीं हैं। यह अवसरवाद है, जिससे नामवर लेखक भी अछूते नहीं हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि वर्तमान दौर के पूँजी वर्चस्व को मार्क्सवाद ही समाप्त कर सकता है। संकट इतना गहरा और मारक है कि शोषित लोक को लामबन्द होना पड़ेगा। हिन्दी के कविता-संसार में वरिष्ठ कवि विजेन्द्र मार्क्सवादी विचारधारा के ज्योतिस्तम्भ हैं, जो निरन्तर साधना-संलग्न रहकर पूँजी के वर्चस्व की प्रखर आलोचना कर रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने अमरीकी लोकधर्मी कवि वाल ह्विटमैन पर आलेख लिख कर कहा है – Leaves of grass में कवि अपने भविष्य का काव्य-मंथन किया है। स्वतंत्रता का क्या रूप हो सकता है। एक ऐसा समाज जहाँ मनुष्य मनुष्य में किसी तरह का विभेद न हो। एक शोषण-मुक्त समाज।“ (देखिए ‘पहली बार’ ब्लॉग, विश्व के लोक धर्मी कवियों की श्रृंखला)
यह समाजवादी निर्धन कवि हिन्दी के निराला, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, कुमारेन्द्र,
कुमार विकल, विजेन्द्र की काव्य-चेतना का स्मरण कराता है।
नवें दशक और उसके बाद के बारह वर्षों में ऐसे कितने युवा कवि है, जो सीकरी से सम्बन्ध तोड़कर श्रमशील लोक से अपना आत्मीय सम्बन्ध जोड़कर कवि-कर्म कर रहे हैं। कितने कवि हैं जो खेती किसानी से जुड़े हुए हैं। अष्टभुजा शुक्ल को छोड़ कर। ध्यान रहे कि भारत का भव्य भविष्य कृषकों एवं श्रमिकों की समृद्धि पर निर्भर है। अतः कविता के केन्द्र मे इन वर्गों के नायक उपस्थित होने चाहिए। अब ‘सपने में एक औरत से बातचीत‘ करने से अभिष्ट कार्य सिद्ध नहीं होगा, अपितु औरत को स्वयं उठना होगा अपने हक के लिए, इसीलिए निर्मला गर्ग कहती हैं –
“एक औरत उठती है
उठती है और चल पडती है
बार-बार कपड़े नहीं झाड़ती वह
सैकड़ों औरतें देखती हैं
देखती हैं और सोचती हैं।“ (यह हरा गलीचा, पृ0 74)
कात्यायनी, अनामिका, गगन की कविताओं से निर्मला गर्ग की कविताएँ अधिक प्रभावपूर्ण लगती हैं। निर्मला गर्ग ने नारी को केन्द्र में उपस्थापित करके श्रेष्ठ कविताएँ रची हैं और कुछ कविताओं में अपनी मातृभाषा का सर्जनात्मक प्रयोग किया है। ‘दस हजार साड़ी‘ में ऐसी भाषा का अच्छा उदाहरण है। (कबाड़ी का तराजू, 93) इस कविता में जय ललिता पर तीखा व्यंग्य किया गया है।
नवें दशक के युवा कवियों ने और साथ-ही-साथ उन से पूर्व के कवियों -राजेश-अरूण कमल -उदय प्रकाश ने निराला के समान परम्परागत छन्दों का प्रयोग मुक्त छन्द के रूप में न करके पाठकों को कविता से दूर कर दिया है। क्या कारण है कि उर्दू शायरी आज भी सुनी जाती है। सराही जाती है। लेकिन हिन्दी कविता कम सुनी जाती है। सराही तो बहुत कम जाती है। निराला के समान केदार-नागार्जुन -त्रिलोचन ने मुक्त छन्द का सधा प्रयोग किया है और परम्परागत छन्दों का भी। केदारनाथ अग्रवाल की प्रसिद्ध कविता ‘हवा हूँ, ‘हवा हूँ, वसंती हवा हूँ‘ का आधार ‘मानस‘ के उत्तर काण्ड का शिव स्त्रोत्र है। संस्कृत में है – ‘नमामीशईशान निवार्ण रूपं‘। चन्द्रगहना वाली कविता का आधार तुलसी का प्रिय छन्द हरिगीतिका है, जिसका सर्वाधिक प्रयोग गुप्त जी ने किया है। यह छन्द ध्यान में रखकर अधोलिखित पंक्तियाँ लय से पढ़िए –
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिंगना चना
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का
सज कर खड़ा है।“ (फूल नहीं, पृ0 02)
तुलसी और गुप्त जी के प्रिय छन्द हरिगीतिका का ‘मुक्त‘ प्रयोग अज्ञेय ने ‘नदी के द्वीप‘ और मुक्तिबोध ने ‘ब्रहम राक्षस‘ में सफलतापूर्वक किया है। ‘अंधेरे में‘ धनाक्षरी की लय का निर्वाह किया गया है। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र भी परम्परागत छन्दों के साथ-साथ मुक्त लयात्मकता का सार्थक प्रयोग करते हैं। ऐसी कविताएँ पढ़ते समय पाठक ऊब महसूस नहीं करता है। लेकिन नवें दशक के लगभग सभी कवि अष्टभुजा शुक्ल के अलावा, गद्यात्मक वाक्य-विन्यास ही पसंद करते हैं, जो पाठक को रूचिकर नहीं लगतें हैं। लेकिन कुछ कवि ऐसे भी हैं, जो लघु-लघु वाक्यों से अपने कथ्य को लयात्मक बनाने का सफल प्रयास करते हैं। प्रमाण के लिए एक लघु कविता उद्घृत हैं-
“उसकी रक्तहीन
उदास देह से
झर राह है दर्द
झर रही है दुख की
धूल
सूखती नदी
अपने कम होते
जल के शोर में
सुना रही है जैसे
पहाड़ भर की व्यथा।“ (सुरेश सेन निशान्त, आकण्ठ, अक्टू0 2011, पृ0 18)
प्रसंगवश, यहाँ फिर उल्लेखनीय है कि एकान्त श्रीवास्तव ऐसे समर्थ कवि हैं, जो अपनी कविता को लयात्मकता से अन्वित करने का प्रयास निरन्तर करते हैं। कुमार अम्बुज और बद्रीनरायण आदि तो गद्यात्मक अधिक हैं। विष्णु खरे की तरह।
अन्त में इतना कहना ही पर्याप्त है कि आजादी के बाद की हिन्दी कविता का लोकधर्मी वैशिष्ट्य समझने के लिए सन् सत्तर के दशक से प्रारम्भ करके आज तक की हिन्दी कविता की निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ आलोचना करके उसका सम्बन्ध कविता की मुख्य धारा से जोड़ा जाए। ऐसे अध्ययन से सच्चे लोकधर्मी कवि सामने आयेंगे और नकली कवि हासिये पर पहुँच जायेंगे। सोवियत संघ के विघटन के बाद जिन कवियों ने छद्म वामपंथी रूप धारण किया है, उनकी भी असलियत उजागर हो जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ आलोचक हैं.)
(आलेख में प्रयुक्त सभी पेंटिंग्स मकबूल फ़िदा हुसैन की हैं, जिन्हें गूगल से साभार लिया गया है.)
संपर्क-
अमीर चन्द वैश्य
चूना मण्डी, बदायूँ
243601
09897482597