अमीर चन्द वैश्य

लांग नाईंटीजजैसे नवगढ़ित टर्म पर हो रहे हो-हल्ले के बीच पहली बारपर हमने विजेंद्र जी के आलेख के साथ कविता पर बहस की एक शुरुआत की थी. उसी कड़ी में आज प्रस्तुत है वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य का यह आलेख, जिसमें अमीर जी ने कविता की लोकधर्मी परम्परा पर शिद्दत से विचार किया है. इस कड़ी में आगे भी कुछ और आलेख प्रस्तुत किये जाने की योजना है. साथियों से एक विनम्र आग्रह कि आलेख के मद्देनजर ही अपनी टिप्पणियाँ करें,जिससे कि बहस की इस स्वस्थ परम्परा को हम आगे बढ़ा सकें. 
लोकधर्मी कविता पर पुनः विचार क्यों?
(सन् 1970 से आज तक)
कविता -केन्द्रित लघु पत्रिका कृति ओरके अंक 62 में प्रधान सम्पादक विजेन्द्र ने पूर्वकथनके अन्त में लिखा है पिछले दिनों हमारे कुछ साहित्यिक मित्रों ने हम को लोक का जापकरने वाला कह कर जो गौरव प्रदान किया है, उसके लिए हम बड़ी विनम्रता से उनके आभारी हैं। भले ही बहुत देर से कहा। पर दुरूस्त कहा। कैसा सुखद संयोग है कि कुछ दिनों पहले संसद से गाँव की पगडंडियों तक जनता लोक तथा जन का ही जाप करती रही। हमें लगा अब ये दोनों शब्द एक भौतिक शक्ति का रूप ले रहे हैं। (पृ0 19)
विगत वर्षों में जो जन-आन्दोलन हुए हैं, वे उपरोक्त कथन का प्रमाण है। यद्यपि वे आन्दोलन सम्पूर्ण सामाजिक बदलाव की रणनीति और नेतृत्व से दूर रहे। लेकिन लोक विक्षुब्ध हैं, इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है। आजादी के बाद हिन्दी कविता सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक आन्दोलनों से प्रभावित रही है। ऐसे हलचल-भरे समय में वागर्थपत्रिका ने दिसम्बर 2012 का अंक हिन्दी कविताः 80 के बाद‘ (लांग नाइन्टीज़) पर केन्द्रित किया है।

      पत्रिका के सम्पादक एकान्त श्रीवास्तव ने अपने आलेख गाँव के माथे पर काँस का फूलमें 
यह तथ्य रेखांकित किया है कि कविता एक बार फिर ग्राम-केन्द्रित होने लगी- भारत माता ग्राम-वासिनी।जो बात विजेन्द्र कहा करते हैं कि कविता लोकोन्मुखी होनी चाहिए, वही बात अब कवि एकान्त श्रीवास्तव कह रहे हैं। वह भी विजेन्द्र के समान लोक को गाँव से कस्बे, कस्बे से नगर और नगर से महानगर तक व्याप्त मानते हैं। लोक जनपदों में निवास करता है। अतः लोकधर्मी कवि की कविता में उसका जनपद अपने सम्पूर्ण परिवेश और वैशिष्ट्य के साथ बोलता है। यदि सूर-काव्य में ब्रज जनपद की अभिव्यक्ति है तो जायसी और तुलसी के काव्य में अवध जनपद की। मीरा के काव्य में राजस्थानी जनपद की। इनका काव्य पढ़ कर-समझ कर हम ब्रज, अवधी और राजस्थानी लोक-जीवन और संस्कृति से परिचित हो सकते हैं और प्रत्येक जनपद के भाषा-वैशिष्ट्य से भी।

इसी प्रकार आधुनिक हिन्दी कविता के अग्रणी कवियों – निराला, केदार नाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन का काव्य हमें बैसवाड़े,  बुन्देलखण्ड,  मिथिला और अवध के जन-जीवन और लोक-संघर्ष से परिचित कराता है।
      सन् सत्तर के दशक में यदि केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन कविता के केन्द्र में आते हैं तो नई पीढ़ी के कवियों में आलोकधन्वा,  कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह विजेन्द्र और कुमार विकल आदि कवि लोकधर्मी कविता की धारा का पाट चौड़ा करके जनशक्तिके प्रति अपनी अटूट आस्था व्यक्त करते हैं और अपने जनपद के सम्पूर्ण वैशिष्ट्य के साथ अपनी – अपनी कविता में उजागर करते हैं। आलोक धन्वा का प्रारम्भ-स्वर भले ही आक्रोशपूर्ण हो, लेकिन उसने अपनी प्रखरता से अकविता से दरकिनार कर दिया था और कुमारेन्द्र और विजेन्द्र ने अपने-अपने निजी वैशिष्ट्य से 1857 की अधूरी क्रान्ति और अपूर्ण मुक्ति-संग्राम को अग्रसर किया।
कहने की आवश्यकता नहीं है कि आठवें दशक में एकान्त श्रीवास्तव और उनके अनेकानेक पथ के साथी कवियों पर सन् सत्तर के दशक के लोकधर्मी कवियों का प्रभाव परिलक्षित होता है। लेकिन लीलाधर मंडलोई को यह बात स्वीकार नहीं है। उनका कथन है कि याद करना प्रासंगिक होगा कि लोक तो त्रिलोचन,  केदारनाथ अग्रवाल,  श्रीकांत वर्मा,  विजेन्द्र, केदारनाथ सिंह और उसके पूर्व निरालाकी छायावादी पीढ़ी में भी था, लेकिन शरद का लोक भिन्न था। यह लोक जब आगे नवल, देवी,  बद्री,  एकांत,  निलय,  नीलेश में आता है, तो वह अपने धूसर यथार्थ के साथ आता है, जिसमें जनजातीय मिथक नया अर्थ ग्रहण करते हैं।(वागर्थ, वही अंक, पृ0 16)
      मंडलोई जी के वक्तव्य में श्रीकांत वर्मा और केदारनाथ सिंह के नाम उलझन में डालने वाले हैं। यह दोनों कवि आधुनिकतावादी हैं। श्रीकांत वर्मा सत्ता-समर्थक रहे हैं और कविता में भदेस एवं व्यर्थ-वक्रता का समावेश भी। इसी प्रकार केदारनाथ सिंह भी सरल भाषा में चमत्कार की सृष्टि करते रहे हैं। डा0 जीवन सिंह ने इन दोनों कवियों की असलियत अपने आलेखों में उजागर कर दिया है। आजादी के बाद की कविता पर जितना प्रचुर प्रभाव निराला का लक्षित होता है, उतना अन्य किसी कवि का नहीं।
निराला की प्रतिभा से प्रभावित और प्रेरित होकर प्रगतिशील कवियों – केदार,  नागार्जुन,  त्रिलोचन, शिवमंगल सिंह सुमन,  राम विलास शर्मा के अलावा विजेन्द्र ने जितना स्वयं को समृद्ध किया है, उतना एकान्त श्रीवास्तव और उनके हमउम्र कवियों ने नहीं। एकान्त तो अपनी कविता में लय साध कर स्थानीयता का रंग भर देते हैं, लेकिन उनके अन्य पथ-सहचर ऐसा करने में असमर्थ हैं। उदाहरण के लिए बद्रीनारायण अपने ढंग से लोक का चित्रण करते हैं। प्रतिरोध भी करते हैं। लेकिन उनकी भाषा में ठंठापन हैं। वह अपनी कविता को लयात्मक बनाने का प्रयास प्रायः नहीं करते हैं। उनकी एक कविता प्रेम-पत्रप्रसिद्ध है। यह कविता समाज की आलोचना भी करती है। लेकिन दुलारी धियामें वह स्वयं ही बोलते रहते हैं। यदि दुलारी धियाको बोलने का अवसर देते तो सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति प्रभावपूर्ण ढंग से होती। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र ने ऐसी अनेक लम्बी कविताओं की रचना की है, जिनमें पात्र -नारी एवं पुरूष दोनो -स्वयं बोल कर सामाजिक विसंगतियों का उद्घाटन करते हैं। वर्तमान समय और समाज इतना क्रूर है कि उसका वर्णन छोटी कविता के रूप में सम्भव नहीं है।
वर्तमान समाज में श्रमशील लोक हैं तो भद्रलोक भी है,  जो श्रम का फल भोगता है। वह पूँजी से सब कुछ खरीद सकता है। पूँजी के वर्चस्व की समाप्ति कविता में रूपायित होनी चाहिए। इसके लिए श्रमशील वर्गो -श्रमिकों-कृषकों की एकता अनिवार्य है। साथ-ही-साथ मध्यम वर्ग का व्यक्तित्वान्तरण भी। जैसा कि मुक्तिबोध के काव्य में व्यक्त हुआ है। लेकिन बद्रीनारायण जैसे प्रबुद्ध कवि एक ऐसे पात्र की कल्पना करते हैं, जो मदन गोपाल सर्वहाराहै। वह इतना स्वामी-भक्त है कि उसकी उसकी चिता में कूद कर प्राण त्याग देता है। ऐसा सम्भव है? आजकल। कदापि नहीं। कविता के अन्त में  बद्रीनारायण कहते हैं – 
अगर कहीं मिल जाएँ मुझे कार्ल मार्क्स
तो उन से पूछूँ कि अगर अब भी कहीं बची हो 
सर्वहारा की कोटि 
तो मदन गोपाल को सर्वहारा की किस कोटि में रखा जाए।
(खुदाई में हिंसा, पृ0 75)
सर्वहारा के प्रति ऐसी अनास्था क्या यथास्थिति को समाप्त कर सकती है। इसके विपरीत वरिष्ठ कवि विजेन्द्र आज भी संघर्षशील लोक के प्रति आस्थावान् हैं-
रोटी और समर का रिश्ता अटूट है
वही रहेगा केन्द्र में कविता के
कथ्य से उगता है रूप सदा
बीज से ही लेता है वृक्ष अपनी दिशा
क्या मुझे दिखाओगे वे वृक्ष
वे मनुष्य, मेरी लड़ती हुई जनता
यदि खोऊँ भरोसा उस में
सब से बड़ी पराजय है कवि की। 
(मधुमती, अक्टू0, 2012, पृ0 88)
वागर्थदिसम्बर 2012 के मुख पृष्ठ पर जितने नए कवियों के नाम छपे हैं, उनकी काव्य-भाषा में ठंठापन अधिक है। एक-दो को छोड़ कर। कात्यायनी की कविता में आवेग के कारण ओज गुण अनायास आया है। मदन कश्यप में भी भावात्मक आवेग है। मुख पृष्ठ पर अष्टभुजा शुक्ल का नाम अंकित नहीं है। लेकिन वह ऐसे अलग कवि हैं, जो पद-कुपदके साथ-साथआवेगपूर्ण मुक्त छन्द का प्रयोग करके निराला की परम्परा को अग्रसर कर रहे हैं। मुम्बई निवासी बोधिसत्व अपना गाँव भिखारी रामपुरयाद तो करते है, लेकिन उसे सम्पूर्ण परिवेश के साथ कविता में रचते नहीं हैं। उनकी कविता पढ़कर प्राणों की ऊष्मा का अहसास नहीं होता है। कविता के अन्त में कहते हैं
हर साल मिटते हैं कुछ नाम
कुछ नए रखे जाते हैं
ऐसे ही चल रहा भिखारी रामपुर
सब बताते हैं।
 (दुःख तंत्र, पृ0 37)
इसके विपरीत जयपुर-निवासी विजेन्द्र ने अपनी जन्म-भूमि ग्राम धरमपुर के परिवेश और वहाँ के विशेष व्यक्तियों को अपनी कविता में अमर कर दिया है। साथ-ही-साथ भरतपुर के घना पक्षी विहार को भी कविता में रच दिया है। सन् अस्सी के बाद ऐसे अनेक कवि हैं, जिनके काव्य में जनपदीय, वैशिष्ट्य परिलक्षित होता है। एकान्त श्रीवास्तव,  रजत कृष्ण,  सुरेश निशान निशान्त, महेश चन्द्र पुनेठा आदि कुछ कवियों यह वैशिष्ट्य स्थानीय परिवेश के साथ व्यक्त हुआ है। लेकिन लाल्टू, सत्यपाल सहगल,  राजीव समरवाल,  प्रगति सक्सेना,  मोहन कुमार डहेरिया आदि के काव्य में जनपदीयता की उपेक्षा की गई हैं। ध्यान रहे कि जनपदीयता के समावेश से कवि की अपनी निजी पहचान निर्मित होती है।
      इस बात पर विचार विमर्श अनिवार्य है कि हिन्दी कविताः 80 के बाद‘ ‘लांग नाइन्टीज़जोड़ने की क्या अनिवार्यता है।
एकान्त श्रीवास्तव ने तो लोकके अन्तर्गत ग्राम लोकएवं नागर लोकदोनों को शामिल किया है, किन्तु जाने-माने प्रबुद्ध आलोचक डा0 अजय तिवारी पूछते हैं कि लोक में ग्रामीण जीवन आया, यह तो ठीक है पर नागरजीवन कब से लोकका अंग बन गया।“ (वही अंक, पृ0 46) तात्पर्य यह है कि महानगर के प्रबुद्ध कवि के नागर लोकका वर्णन-चित्रण करना चाहिए। डा0 अजय तिवारी यह तो जानते होंगे कि भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र की रचना लोक के लिए की थी। नारियों एवं अन्य साधारण जनों के लिए वेदों का अध्ययन वर्जित कर दिया गया था, लेकिन नाटक का मंचन सभी वर्णों के लिए किया जाता था। यह परम्परा आज भी जीवित है। विजेन्द्र ने और स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि आचार्य भरत ने भद्रलोक (एलीट) से अलग तीन तरह के लोग शामिल किए हैं – दुःखार्तानां अर्थात् अभावो से दुखी,  श्रमार्तानां अर्थात् कठोर श्रम से थके-हारे लोग, शोकार्तानां अर्थात् जीवन के अघातों से शोकग्रस्त जन। यह लोक जीविका के लिए रात- दिन पसीना वहाते हैं। संघर्ष करते हैं। इतिहास साक्षी है कि साधनहीन लोक ने अपने अस्तित्व के लिए सदैव संघर्ष करता है। इस का ज्वलंत रूप सन् अठारह सौ सत्तावन क्रान्ति में परिलक्षित होता है। इस स्वाधीनता संघर्ष में वंचित किसानों ने बढ़-चढ़ कर सक्रिय भाग लिया था। इस प्रकार संघर्षशील लोक इतिहास का ज्वलंत सत्य है। डा0 अजय तिवारी लोक-चेतना में प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी दोनो का अस्तित्व स्वीकारते हैं। लेकिन वास्तविकता इससे भिन्न हैं। राम-लीला और कृष्ण लीला में रावण और कंस का वध होने पर क्या प्रतिक्रियावादी लोग प्रसन्न होते हैं। नहीं। गोदानमें लोक का सहानुभूति किसके प्रति होती है। शोषितों के प्रति या शोषकों के प्रति। अर्नेस्ट जोन्स की प्रसिद्ध कविता हिन्दुस्तान की बगावतमें किस के पक्ष में भाव व्यक्त किए गए हैं। ब्रिटिश शासकों के प्रति अथवा बागी हिन्दुस्तानियों के प्रति। जोन्स ने सपना देखा था कि एक दिन ऐसा आएगा, जब दुनिया के सभी पीड़ित-प्रताड़ित मनुष्य सर उठा कर खड़े होंगे।
      यह है सच्ची लोकधर्मी कविता। क्या ऐसी कविता नवें दशक के युवा कवियों ने की है।
हिन्दी कविताः 80 के बादशीर्षक पर्याप्त है। इस के अन्तर्गत केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन बड़े कवियों के साथ-साथ कुमारेन्द्र,  विजेन्द्र,  विष्णु चन्द्र शर्मा,  कुमार विकल,  आलोकधन्वा,  अरूण कमल,  राजेश जोशी,  उदय प्रकाश,  मान बहादुर सिंह,  ज्ञानेन्द्रपति,  भगवत रावत,  चन्द्रकान्त देवताले, ऋतुराज आदि के साथ-साथ नवें दशक के सभी नए कवियों का विवेचन,  बदले हुए परिप्रेक्ष्य को सामने रख कर, कर सकते हैं। प्रस्तावित शीर्षक के अन्तर्गत जो प्रश्न उठाए गए हैं, उनके उत्तरों में वरिष्ठ प्रतिष्ठित कवियों को उपेक्षित किया गया है। मदन कश्यप ने अपने आलेख नवें दशक की कविता जन-संवेदना का विस्तार हैमें इसी बात की ओर संकेत किया है।
      कवि बोधिसत्व भी नवें दशक की कविता में लोक को स्वीकार करते हैं, लेकिन अधिसंख्य कवियों के काव्य में लोक का संघर्ष और उसके प्राकृतिक परिवेश की अभिव्यक्ति प्रचुर नहीं है। एकान्त श्रीवास्तव के काव्य में ऐसी अभिव्यक्ति पाठक का ध्यान आकृष्ट करती है। अपने परिवेश से एकान्त का आत्मीय सम्बन्ध व्यक्त हुआ है।
वास्तविकता तो यह है कि डा0 अजय तिवारी अंध लोकवादका समर्थन करके ज्वलंत लोकधर्मी कविता की उपेक्षा कर रहे हैं। क्या राजधानी दिल्ली में श्रमशील लोक का अभाव हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में उत्पादक वर्गों अर्थात् कृषको-श्रमिकों की उपेक्षा घातक है। ये वही वर्ग है,  जो उत्पादन बढ़ाने के लिए अपना खून पसीना एक करते हैं। अजय तिवारी को यह चिन्ता सता रही है कि गाँव, कस्बा,  दलित,  आदिवासी,  गरीब,  मजदूर,  किसान -इनकी तरफ देखने की फुरसत न महाकवियों को है, महामहिमों को।“ (वही, पृ0 47) तिवारी जी किन्हें महाकवि मानते हैं, यह तो मुझे नहीं मालूम है। लेकिन यदि वह विजेन्द्र का काव्य ध्यान से पढ़े तो उन की चिन्ता दूर हो जाएगी। वैसे उन्हें युवा कवियों से बहुत उम्मीद है। ऐसा आभास होता है कि अजय जी विजेन्द्र को कवि ही नहीं मानते हैं। ये बेरूखी वेसबब नहीं गालिब।
एक बात और। जब हम सन् 1980 के बाद की कविता पर विचार कर रहे हैं, तब लोकान्मुखी गीतों और गजलों, दोहों, पदों आदि की उपेक्षा कर सकते हैं? आजकल अनेक कवि अपनी लोक-भाषा में लोकधर्मी रचनाएँ रच रहे हैं। सतबीर श्रमिकहरियाणवी भाषा की रागिनीपरम्परा को अग्रसर कर रहे हैं। उनके एक गीत की पंक्ति पढ़िए–
भारत कोन्या बणया भगत सिंह जिस तनै चाहया था
पड़ग्या डाका आजादी पै तमनै खून बहाया था। 
(अलाव, सित.-अक्टू., 2012, पृ0 76)
 
अदम गोंडवी ने डंके की चोट पर लिखा है –
काजू भुने प्लेट में, विह्स्की ग्लास में
उतरा है राम राज विधायक निवास में।
दुष्यंत के बाद अदम गोंडवी ने ग़ज़ल को धारदार बनाने का सार्थक प्रयास किया है। उनका बेबाक कथन है – 
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है
दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आजाद है।
कोठियों से मुल्क के मेयार को मत आँकिए
असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।
      मुक्तिबोध अपनी महत्वपूर्ण लम्बी रचनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं। आजादी के बाद भारतीय पूँजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था के घनघोर अँधेरे को व्यक्त करके उन्होंने यथा-स्थिति को ध्वस्त करने के लिए प्रकाश की अगणित किरणें विकीर्ण की हैं। उनकी सफलता से प्रभावित होकर मन्द बुद्धि वाले कवियों ने यश-प्राप्ति के लिए लम्बी कविताओं की ऐसी रचना की है, जिन्हें आद्यंत पढ़ना और समझना हिमालय की चोटी पर चढ़ना हैं। नवें दशक के चर्चित कवियों में देवी प्रसाद मिश्र ऐसी ही लम्बी कविताओं के रचयिता हैं। पहल90 में प्रकाशित उन की लम्बी कविता वह कोई एक दिन तो जरूर था आदि से अन्त तक अपठनीय और उबाऊ है। डायरी शैली में रचित इस तथाकथित कविता पर रघुवीर सहाय की पत्रकारिता का प्रभाव लक्षित होता है। न तो इस कविता में कोई केन्द्रीय चरित्र है, न ही विचारों की द्वन्दात्मकता। न पूर्वापर सम्बन्ध। लोक-जीवन की तो झलक भी नहीं है। मालूम नहीं कि ज्ञान रंजन जैसे विवेकशील सम्पादक ने इसे क्यों प्रकाशित किया। इसके विपरीत इसी अंक में प्रकाशित अष्टभुजा शुक्ल की लम्बी कविता पुरोहित की गायसार्थक और प्रवाहपूर्ण रचना है, जिसे पुनः पढ़ने की आवश्यकता महसूस होती है। मिश्र जी की एक और लम्बी कविता निजामुद्दीनभी है, जो तद्भव25 में उत्कृष्ट रचना के रूप में संकलित है। इस रचना में भी न तो पूर्वापर सम्बन्ध का निर्वाह है। न ही किसी व्यक्ति विशेष का चरित्रांकन है। और न ही प्रभाव की अन्विति। इन दोनों कविताओं में यथार्थ का मात्र झलक है। शेष तो व्यर्थता का कोष है। दूसरी कविता में एक वाक्य अनायास आया है –
अब आप से क्या छिपाना
मार्क्सवाद से मैं भी निजात पा लेना चाहता हूँ। 
(तद्भव, 25, पृ0 515)
उपरोक्त कथन की व्यंजना स्पष्ट है कि मिश्र जी भी अपने अन्य पथ-सहचरों के समान मार्क्सवादसे छुटकारा पाना चाहते हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद। अब मार्क्सवाद अपना कर दिल्ली में पद, प्रतिष्ठा और सम्मान पाना सम्भव नहीं हैं। यह अवसरवाद है, जिससे नामवर लेखक भी अछूते नहीं हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि वर्तमान दौर के पूँजी वर्चस्व को मार्क्सवाद ही समाप्त कर सकता है। संकट इतना गहरा और मारक है कि शोषित लोक को लामबन्द होना पड़ेगा। हिन्दी के कविता-संसार में वरिष्ठ कवि विजेन्द्र मार्क्सवादी विचारधारा के ज्योतिस्तम्भ हैं, जो निरन्तर साधना-संलग्न रहकर पूँजी के वर्चस्व की प्रखर आलोचना कर रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने अमरीकी लोकधर्मी कवि वाल ह्विटमैन पर आलेख लिख कर कहा है – Leaves of grass में कवि अपने भविष्य का काव्य-मंथन किया है। स्वतंत्रता का क्या रूप हो सकता है। एक ऐसा समाज जहाँ मनुष्य मनुष्य में किसी तरह का विभेद न हो। एक शोषण-मुक्त समाज।(देखिए ‘पहली बार’ ब्लॉग, विश्व के लोक धर्मी कवियों की श्रृंखला)

यह समाजवादी निर्धन कवि हिन्दी के निराला, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, कुमारेन्द्र,
कुमार विकल, विजेन्द्र की काव्य-चेतना का स्मरण कराता है।

नवें दशक और उसके बाद के बारह वर्षों में ऐसे कितने युवा कवि है, जो सीकरी से सम्बन्ध तोड़कर श्रमशील लोक से अपना आत्मीय सम्बन्ध जोड़कर कवि-कर्म कर रहे हैं। कितने कवि हैं जो खेती किसानी से जुड़े हुए हैं। अष्टभुजा शुक्ल को छोड़ कर। ध्यान रहे कि भारत का भव्य भविष्य कृषकों एवं श्रमिकों की समृद्धि पर निर्भर है। अतः कविता के केन्द्र मे इन वर्गों के नायक उपस्थित होने चाहिए। अब सपने में एक औरत से बातचीत  करने से अभिष्ट कार्य सिद्ध नहीं होगा, अपितु औरत को स्वयं उठना होगा अपने हक के लिए, इसीलिए निर्मला गर्ग कहती हैं – 
एक औरत उठती है
उठती है और चल पडती है
बार-बार कपड़े नहीं झाड़ती वह
सैकड़ों औरतें देखती हैं
देखती हैं और सोचती हैं।“ (यह हरा गलीचा, पृ0 74)
    कात्यायनी, अनामिका, गगन की कविताओं से निर्मला गर्ग की कविताएँ अधिक प्रभावपूर्ण लगती हैं। निर्मला गर्ग ने नारी को केन्द्र में उपस्थापित करके श्रेष्ठ कविताएँ रची हैं और कुछ कविताओं में अपनी मातृभाषा का सर्जनात्मक प्रयोग किया है। दस हजार साड़ीमें ऐसी भाषा का अच्छा उदाहरण है। (कबाड़ी का तराजू, 93) इस कविता में जय ललिता पर तीखा व्यंग्य किया गया है।
      नवें दशक के युवा कवियों ने और साथ-ही-साथ उन से पूर्व के कवियों -राजेश-अरूण कमल -उदय प्रकाश ने निराला के समान परम्परागत छन्दों का प्रयोग मुक्त छन्द के रूप में न करके पाठकों को कविता से दूर कर दिया है। क्या कारण है कि उर्दू शायरी आज भी सुनी जाती है। सराही जाती है। लेकिन हिन्दी कविता कम सुनी जाती है। सराही तो बहुत कम जाती है। निराला के समान केदार-नागार्जुन -त्रिलोचन ने मुक्त छन्द का सधा प्रयोग किया है और परम्परागत छन्दों का भी। केदारनाथ अग्रवाल की प्रसिद्ध कविता हवा हूँ, हवा हूँ, वसंती हवा हूँ का आधार मानसके उत्तर काण्ड का शिव स्त्रोत्र है। संस्कृत में है – नमामीशईशान निवार्ण रूपंचन्द्रगहना वाली कविता का आधार तुलसी का प्रिय छन्द हरिगीतिका है, जिसका सर्वाधिक प्रयोग गुप्त जी ने किया है। यह छन्द ध्यान में रखकर अधोलिखित पंक्तियाँ लय से पढ़िए –
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिंगना चना
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का
सज कर खड़ा है।“ (फूल नहीं, पृ0 02)
तुलसी और गुप्त जी के प्रिय छन्द हरिगीतिका का मुक्तप्रयोग अज्ञेय ने नदी के द्वीपऔर मुक्तिबोध ने ब्रहम राक्षसमें सफलतापूर्वक किया है। अंधेरे मेंधनाक्षरी की लय का निर्वाह किया गया है। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र भी परम्परागत छन्दों के साथ-साथ मुक्त लयात्मकता का सार्थक प्रयोग करते हैं। ऐसी कविताएँ पढ़ते समय पाठक ऊब महसूस नहीं करता है। लेकिन नवें दशक के लगभग सभी कवि अष्टभुजा शुक्ल के अलावा, गद्यात्मक वाक्य-विन्यास ही पसंद करते हैं, जो पाठक को रूचिकर नहीं लगतें हैं। लेकिन कुछ कवि ऐसे भी हैं, जो लघु-लघु वाक्यों से अपने कथ्य को लयात्मक बनाने का सफल प्रयास करते हैं। प्रमाण के लिए एक लघु कविता उद्घृत हैं-
उसकी रक्तहीन
उदास देह से
झर राह है दर्द
झर रही है दुख की
धूल
सूखती नदी
अपने कम होते
जल के शोर में
सुना रही है जैसे
पहाड़ भर की व्यथा।“ (सुरेश सेन निशान्त, आकण्ठ, अक्टू0 2011, पृ0 18)
प्रसंगवश, यहाँ फिर उल्लेखनीय है कि एकान्त श्रीवास्तव ऐसे समर्थ कवि हैं, जो अपनी कविता को लयात्मकता से अन्वित करने का प्रयास निरन्तर करते हैं। कुमार अम्बुज और बद्रीनरायण आदि तो गद्यात्मक अधिक हैं। विष्णु खरे की तरह।
      अन्त में इतना कहना ही पर्याप्त है कि आजादी के बाद की हिन्दी कविता का लोकधर्मी वैशिष्ट्य समझने के लिए सन् सत्तर के दशक से प्रारम्भ करके आज तक की हिन्दी कविता की निष्पक्ष एवं वस्तुनिष्ठ आलोचना करके उसका सम्बन्ध कविता की मुख्य धारा से जोड़ा जाए। ऐसे अध्ययन से सच्चे लोकधर्मी कवि सामने आयेंगे और नकली कवि हासिये पर पहुँच जायेंगे। सोवियत संघ के विघटन के बाद जिन कवियों ने छद्म वामपंथी रूप धारण किया है, उनकी भी असलियत उजागर हो जाएगी।
(लेखक वरिष्ठ आलोचक हैं.)
(आलेख में प्रयुक्त सभी पेंटिंग्स मकबूल फ़िदा हुसैन की हैं, जिन्हें गूगल से साभार लिया गया है.)
संपर्क-
अमीर चन्द वैश्य
चूना मण्डी, बदायूँ
243601
09897482597

अमीर चंद्र वैश्य

अपने गाँव धरमपुर में कवि विजेंद्र

समकालीन हिन्दी कविता में लोकधर्मी कवियों में विजेंद्र का नाम अग्रगण्य है. अब तक उनके १८ काव्य संकलनों, २ काव्य नाटकों के अलावा २ चिंतन प्रधान पुस्तकें एवं ३ डायरियां प्रकाश में आ चुकी है. आज भी अपने सर्जनात्मक कर्म में वह लीन हैं. ऐसे कवि से मेरा साक्षात्कार उनकी पहली लंबी कविता ‘जन शक्ति’ ने कराया था.

जो जनभाषा प्रकाशन, जोधपुर से १९७४ में प्रकाशित हुई थी और कवि मोहदत्त शर्मा साथी के सौजन्य से प्राप्त हुई थी.

बात ९० के दशक की है. उन दिनों मैं त्रिलोचन के सोनेट काव्य का अध्ययन कर रहा था और विजेंद्र ‘ओर’ पत्रिका का संपादन कर रहे थे. पता चला कि ‘ओर’ में निराला जी की एक कविता ‘हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र’ पर त्रिलोचन का व्यंग-आलेख छपा है. अभीष्ट अंक पढ़ने के लिए मैंने मनीऑर्डर भेज दिया, लेकिन अंक नहीं मिला. लंबे इंतजार के बाद मैंने विजेंद्र को एक कटु पत्र लिख कर भेज दिया.

उनका पत्रोत्तर पढ़ कर मैं ग्लानि से ग्रस्त हो गया. विजेंद्र ने अपने १२-१२-१९९२ के पत्र में लिखा था.

प्रिय भाई,


आपका आक्रोश भरा पत्र पा कर भी मुझे आपके स्नेह का अनुभव हुआ. मुझे पता नहीं कब आपने पत्र लिखा, मैं बाहर रहा और अस्त-व्यस्त, दर असल ‘ओर’ की अव्यवस्था के लिए मैं ही दोषी हूँ. इलाहाबाद से छपता है. वहीँ से वितरित होता है. मैं पूरी व्यस्था देख नहीं पाता.


आप ऐसा आदेश न दें कि पत्रिका को बंद कर दिया जाय. प्रयत्न रहेगा कि हम इसकी व्यवस्था को बेहतर बनायें.


अगला अंक जयपुर से ही निकलेगा. यहीं से वितरित होगा. आप किंचित धैर्य रखें. हमें सहयोग करें.


आप मेरे जिले के निवासी हैं. मेरी प्रारंभिक शिक्षा उझियानी में हुई. मेरा गाँव सहसवान में है. आपके १० रूपये वापस भेजवाऊंगा. आगे से आप कोई आर्थिक सहयोग हमें न करें. प्रसन्न होंगे.


सस्नेह,


विजेन्द्र


पुनश्च: हाँ, निंदा तो आप भले ही करें, उससे मैं सीखूंगा और प्रत्येक रचनात्मक कर्म के विषय में ज्ञान होगा. वि.

उनके उपर्युक्त पत्र से मैंने यह सीखा कि विनम्रता मत भूलो. और इसके बाद जो पत्र संवाद शुरू हुआ, उसने मुझे पहले ‘ओर’ और फिर ‘कृति ओर’ से जोड़ दिया. उनके प्रोत्साहन से पत्रिका के लिए लेख लिखे. उनके सभी काव्य संकलन मंगाए, पढ़े, उन पर कुछ लिखा भी. उनकी गद्य कृतियाँ भी खरीद कर पढीं. प्रसंगवश उनके २३-१२-१९९२ के पत्र का अंश इसलिए उद्धृत कर रहा हूँ जिस से उनकी विनम्रता व्यक्त हो रही है.

प्रिय भाई,


आपने मुझे क्षमा किया, मैं आभारी हूँ… … …


आपने हमारे लिए इतना कष्ट सहा, मैं आभारी हूँ. ‘ओर’ के लिए सहयोग और स्नेह बराबर प्रदान करें. बदायूं- उझियानी मेरी मनस-चेतना के अंग हैं. आप उस भूमि में कार्यरत हैं, जहां मेरा बचपन गुजरा है. मुझे आप प्रिय हैं. यदि आप कुछ लिखते हों तो रचनात्मक सहयोग दें. तथा आप ‘ओर’ के लिए सुदृढ़ जमीन तैयार करें.


सस्नेह,


विजेंद्र

ऐसा पत्र पढ़ कर कौन हैं जो प्रसन्न और सक्रिय नहीं होगा. मैंने त्रिलोचन के ‘शब्द’ संकलन से एक संस्कृतनिष्ठ सोनेट की व्याख्या लिख कर भेजी, जो ‘ओर’ में छपी थी. विजेंद्र अपने अपने पत्रों में अक्सर लिखते थे कि जयपुर में आपकी रिश्तेदारी है. एक बार आइये और मिलिए. लेकिन ऐसा संयोग नहीं बन सका. अपनी कविता में अपने जनपद को रचने वाले विजेंद्र जी की प्रेरणा से मैं, इस वर्ष २०१२ में, होली मनाने के बाद १२ मार्च को उनके गाँव धरमपुर के लिए चल पड़ा. उनकी कविताओं का चित्रात्मक संकलन ‘आधी रात के रंग’ की प्रति अपने साथ ले गया.

बदायूं से दिल्ली जाने वाली बस ने मुझे दहगँवा पहुंचाया. दहगँवा से धरमपुर जाने के लिए मैं ताँगे का इन्तजार करने लगा. विजेंद्र ने मुझे अपने ३ भतीजों अशोक सिंह, नरेश सिंह और उमेश सिंह का नाम बता कर कहा था कि वहाँ पहुँच कर कहना कि मैं विजेंद्र पाल सिंह का गाँव देखने आया हूँ. आस-पास के दुकानदारों से जब पूछ ही रहा था कि संयोगवश अशोक सिंह वहाँ आ गए और मेरे आने का प्रयोजन पूछने लगे. मैंने नाम-पता बता कर कहा कि मैं विजेंद्र जी का गाँव देखने आया हूँ. अपने चाचा का नाम सुनते ही उन्होंने मुझे बाईक पर बिठाया और शिकायत के लहजे में कहा कि जब से चाचा जी ने गाँव छोड़ा है, तब से वह वापस नहीं आये हैं. वे हमारे खानदान के सबसे बड़े बुजुर्ग हैं.

उस दिन हवा में ठंडक थी. लगभग ५२ वर्षीय अशोक सिंह हाफ स्वेटर पहने हुए थे.

अपना अनिवार्य काम करने के बाद वह दहगँवा से धरमपुर लगभग ११.३० बजे पहुंचे.

पक्के-कच्चे रास्ते पर बाईक दौडाते हुए. रास्ते के दोनों ओर गेहूं की हरी-भरी फसल हवा से आंदोलित हो रही थी. जगह-जगह ईंख भी खडी थी शुगर मिल पहुँचने की प्रतीक्षा में. फसल को पानी पिलाया जा रहा था पम्पिंग सेट द्वारा.

अशोक सिंह ने अपने बड़े भाई नरेश सिंह के द्वार पर बाईक रोकी. उनकी बैठक में, जो दुकान के रूप में थी, मुझे बिठाया, मेरे बारे में बताया. अपने चाचा का नाम सुन कर नरेश सिंह प्रसन्न हो कर भरतपुर यात्रा के संस्मरण सुनाने लगे. घर की महिलायें भी खुश दिखाई पड़ने लगीं. विजेंद्र की पत्नी उषा जी की भतीजी सुधा सिंह ने अपनी बुआ से धरमपुर आने का आग्रह किया कई बार. उन्होंने ‘आधी रात के रंग’ के चित्र स्वयं देखे और घर की महिलाओं को दिखाए. सभी ने विजेंद्र के चित्रों की तारीफ़ की.

बैठक से बाहर निकल कर मैंने विजेंद्र के पिता स्व लाखन सिंह की उस शानदार हवेली का ध्वस्त रूप भी देखा, जो ऊँचे और ढालू रूप में दिखाई पड रही थी. वहाँ अनगिनत कंडे सूख रहे थे. इसके बाद अशोक ने अपनी बाईक पर बिठा कर मुझे पूरा गाँव दिखाया. रास्ते के दोनों ओर गेहूं की बालियाँ इतनी ऊँची-लंबी थीं कि आवाजाही का रास्ता नहीं दिखाई पड़ रहा था. अशोक ने पहले मुझे उन तीन बूढों से मिलवाया जिन्होंने लाखन सिंह को देखा था. ये तीन बूढ़े थे- सियाराम (उम्र लगभग सौ वर्ष), झंडू सिंह (उम्र लगभग ८२-८३ वर्ष) और पोशाकी लाल (उम्र लगभग अस्सी वर्ष). पोशाकी लाल से विजेंद्र ने फोन पर बात भी की. विजेंद्र के तीसरे भतीजे उमेश सिंह से उनके खेत में ही बातें हुईं. तब वे स्वयं अपने खेत में पानी पहुंचा रहे थे.

धरमपुर के जो दृश्य मैंने अपने कैमरे में कैद किये थे, वे ई-मेल द्वारा विजेंद्र के पास भेज दिए. जैसा कि विजेंद्र ने बताया उन चित्रों को देख कर वे उस रात सो नहीं पाए थे. उन्होंने अपने पुत्र नीलमणि के अनुरोध पर धरमपुर पहुचने का संकल्प ले लिया. नीलमणि नोयडा में रहते हुए दिल्ली में अपनी कंपनी चलाता है.

‘ऊधौ, मोंही ब्रज बिसरत नाहीं’ के समान विजेंद्र मन ही मन कहते हैं- ‘मोही धरमपुर बिसरत नाहीं’ उनकी कर्मभूमि राजस्थान के कई नगर रहे हैं, विशेष रूप से भरतपुर. इसलिए उनके काव्य में वहाँ के जन-जीवन और परिवेश की अभिव्यक्ति अधिक हुई है. लेकिन उन्होंने अपनी जन्मभूमि और बोली का विस्मरण नहीं किया है. ‘मैग्मा’ शीर्षक लंबी कविता में गंगा-यमुना के उर्वर प्रदेश का जिक्र किया गया है. (जनशक्ति, पृ. ११५)और ‘वसंत के पार’ संकलन में अपनी जन्मभूमि का आत्मीय स्मरण इस प्रकार किया गया है-

ओ मेरी जन्म भूमि
एक तरफ महावा
और दूसरी तरफ गंगा आलिंगित
फलवान (पेड़ों), आमों, जामुनों, अमरूदों से
छाये मार्ग
मैंने तुझे जब छोड़ा
आँखें डबडबायीं
तुम से दूर जाने की कसक
अब वो सब यादों का घना वन
अंदर से जगाता है.’

(जनशक्ति, पृ. ११३)

विगत २४ मार्च २०१२ को जब विजेंद्र अपनी पत्नी, पुत्र, पुत्रबधू और पौत्री के साथ अपने गाँव धरमपुर पहुंचे, तब कार से उतरते ही अशोक सिंह से पूछा- ‘वहाँ सामने नीम के दो पेड़ थे, दिखाई नहीं पड़ रहे. क्या वे कट गए? हाँ, बाग नहीं दिखाई पड़े. मालूम हुआ वे बाग अब खेतों में बदल गए हैं. आजकल वहाँ फसल खडी है. अपनी हवेली का ध्वंसावशेष देख कर वे पुरानी यादों में खो गए. उस समय उनके मानस में ‘दिन का राजा’ की पंक्तियाँ मुखरित होने लगीं.

पिता कहा करते अक्सर
बेटा जन्म लिया है
ऐसे कुल में
ध्यान रहे
चल-विचल न होना
न लगे पुरखों को बट्टा
वंश चला करता है अच्छे कामों से
मैंने छोड़ा तुमको
सब कुछ
ये हाथी, घोड़े, रथ, रब्बे
बड़ी हवेली, हाट, बाजार
उम्दा नागौडी बैलों की जोडी
सीर मौरूसी धरती कंचन
ठाट बात बैसवाडे का./


… … … …


अपनी राह बनाना
चाहें चलना पड़े अकेले बिलकुल


… … …


एक दिन सोच दिन का राजा
कहाँ गए सब गढ़ी हवेली
रथ-रब्बे हाथी घोड़े
रहा नहीं वहाँ कुछ
सिवाय एक नीम करुवा के
टंगा हुआ छप्पर उस पर

(ऋतु का पहला फूल, पृ. १९२-१९३)

बैसवाडे के ठाकुर खानदान के चिराग विजेंद्र पाल सिंह ने स्वयं को कवि विजेंद्र के रूप में रूपान्तरित कर अपनी अलग पहचान निर्मित की. और नयी राह बनाई. काल-चक्र ने अनायास ही उनका सम्बन्ध राजस्थान से जोड़ दिया. १९५८ में बी एच यू से अंगरेजी साहित्य से एम ए करने के तत्काल बाद ही शारदा सदन महाविद्यालय मुकुंदगढ़ में अंगरेजी के प्राध्यापक नियुक्त हो गए. और राजस्थान की विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन के उपरान्त १९९३ में प्राचार्य पद से सेवा निवृत्त हुए.

२०१२ में कवि विजेंद्र ५५ बरस बाद अपने गाँव धरमपुर आये और सभी परिजनों और ग्रामवासियों से आत्मीयता से मिले. खुद मुझे गले लगा कर कहा- ‘तुमसे मिलने की मेरी इच्छा आज पूरी हुई.’ और फिर अपने परिजनों से कहा- ‘यह हमारे आत्मीय मित्र तभी से है, जब इन्होंने हमें सख्त पत्र लिखा था.’ मैं मौन ही रहा.

अशोक सिंह के साथ मैं विजेंद्र की अगवानी के लिए दहगंवा से लिंक रोड की ओर जा रहा था कि सिल्वरी कार आती हुई दिखाई दी. हमारे संकेत पर कार रूकी, जिसमे से पहले राहुल नीलमणि फिर विजेंद्र बाहर निकले. लंबा कद- लगभग ५ फूट ६ इंच, सिर पर सफ़ेद विरल बाल, चौड़ा माथा, आँखों पर मोटे फ्रेम का चश्मा, कान्तिमान ताम्बई रंग, पैंट-शर्ट पहने, क्लीन शेव्ड चेहरा जो निर्मलता का द्योतन कर रहा था अशोक और मैंने विजेंद्र जी को झुक कर प्रणाम किया. मन ही मन मैंने अनुमान लगाया कि युवावस्था में विजेंद्र जी और आकर्षक रहे होंगे. उन्होंने राहुल से हमारा परिचय कराया फिर हम धरमपुर की ओर बढ़ चले.

स्वागत सत्कार के बाद विजेंद्र जी अशोक और उमेश के साथ अपना गाँव देखने पहले कुंडा (जल-कुंड) पहुंचे. जलकुंड में पानी कम था जिसके किनारे पर कुछ लोग बैठे हुए थे. फिर सुधा के कच्चे घर में चारों ओर देख कर विजेंद्र ने कहा कि यहाँ मीठे अमरुदों के पेड़ थे. जिन्हें तोड़ कर मैं खाया करता था. अपनी पौत्री अनन्या की चंचलता और स्वच्छंदता देख कर वे मुदित हो रहे थे. अब विजेंद्र हमारे साथ विजयगढी का वह स्थान देखने गए जहां बाजार लगा करता है और पहले भी लगा करता था. विजेंद्र ने इसे देख कर कहा ‘पहले से बहुत अधिक बदल गया है लेकिन पेड़ वहीं हैं जिन्हें मैंने देखा था.’

विजेंद्र अपनी एक कविता में धरमपुर के परिवेश और पेड़ों का वर्णन करते हुए लिखते हैं-

याद आती है अपने गाँव की
पीर जाती नहीं
इस ठांव की
फिर याद आया टूटा किनारा
कच्चे आँगन का
लिपता तिवारा
आम जामुन नीबुओं का बाग
मिटे खंडहर
रह गया
पहचान को
बस तिकोना दाग
और हैं
आडू, लीची, फालसे, अमरूद
मिट्ठा
कटहल, चकोतरे, खिरनिया रसदार
और खट मीठे लुकाट
विरदावली गा कर
जी रहे हैं भांट

(पियाबांस, ऋतु का पहला फूल, पृ. ६८)

कविता में ‘चरित्र सृष्टि’ विजेंद्र की प्रमुख विशेषता है. अपने जनपद बदायूं के गाँव धरमपुर के अल्लादी शिल्पी, साबिर, रामदयाल जैसे जनों का वैशिट्य अंकित कर उन्हों ने अपने जन्म स्थान को अमर कर दिया है.

मेरे पुरखों के आस-पास
रहते थे बाबा
नाम भला सा रामदिल्ला
जात के धोबी
लेकिन ठकुराइस में
उन्हें पुकारा जाता था रमदिल्ला
कौन कहे
नाम की महिमा जुडी हुई है
सिंहासन से
मौज-मौज में छेडखानियाँ करते बाबा
कहते – जा माया के तीन नाम
परसा, परसी, परसराम
हम पर ठाकुराइस होती
तो हम होते खूब सिंह
अब तो गुलाम है रमदिल्ला
फिर माता में आँख गयी
तो रह गए कनैटू

(धरती कामधेनु से प्यारी, पृ. ८८-१००, पृ ११५)

अल्लादी यदि लुटार है तो साबिर घोड़े ताँगे वाला. ये कवितायें विजेंद्र के कवि व्यक्तित्व के रूपांतरण का प्रमाण हैं. बचपन में पिता के मना करने पर भी वे निम्न जाति के लड़कों के साथ खेलते थे.

अशोक सिंह के कच्चे मकान में बैठकी जमी. पुत्र राहुल के पूछने पर अतीत में लौटते हुए विजेंद्र बताने लगे. मेरी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई. उर्दू-फारसी के विद्वान मौलवी रफीक अहमद ने पढ़ाया था. वे कुरआन शरीफ लय से पढ़ा करते थे. फिर मुझे गाँव के पास ही टाट पट्टी वाले स्कूल में भेजा गया. दहगंवा से चौथा दर्जा पास किया. मेरे लिए एक घोड़ी थी जिस पर बैठ कर मैं दहगँवा जाता था. उन दिनों महावा पानी से भरी रहती थी. गाँव से आवाजाही होती थी. उझीयानी के नीदर सोल स्कूल से सातवीं कक्षा जबकि खुर्जा से १९५२ में हाईस्कूल पास किया. वहीं मार्क्सवाद से पहला परिचय हुआ जो बनारस की उर्वर भूमि में और प्रगाढ़ हुआ. बी. एच. यू. के विधि स्नातक भूपगिरि जी ने मुझे अंगरेजी पढाई. उन्हीं की संगत में मार्क्सवाद से परिचित हुआ. और बनारस जाने का संकल्प लिया. वहाँ छः वर्षों तक अध्ययन किया. इसी बीच जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में था तभी विवाह हो गया.

विजेन्द्र ने आगे बताना शुरू किया –‘शराब से नफ़रत होने के कारण एक बार मैंने शराब की कलसिया फोड़ दी थी.’ तभी बीच में ही मैंने टोका- लेकिन आजकल तो कोई भी साहित्य सृजन मद्य पान के बिन अधूरा रहता है. क्या साहित्य सृजन के लिए मद्य पान अनिवार्य है? विजेंद्र ने तत्काल कहा- ‘जब मुफ्त की शराब मिलती है तब खूब पी जाती है. नामवर सिंह को शराब न मिले तो उन्हें बेचैनी होती है.’

विजेंद्र ने मेरी बात का समर्थन किया कि उर्दू शायर जब मुक्त छंद में लंबी कविता रचते हैं तो उसे सुन कर लयात्मकता का एहसास होता है. जबकि हिन्दी कवियों की अधिकाँश कवितायें लयात्मक नहीं होतीं. आज के कवियों को छंदों का ज्ञान ही नहीं है. उनका कहना था कि उर्दू शायर गजल विधा के कारण अपनी नज्म को लयात्मक रूप में रचते हैं. उन्हें मीर, ग़ालिब, जौक की शायरी पसंद है. इन शायरों को वे बार-बार पढते हैं.

मुक्तिबोध के काव्य और आलोचना पर चर्चा के क्रम में विजेंद्र ने कहा कि उनमें आत्मग्रस्तता और दुरूहता है. आप उनके पत्र पढ़िए, जो नेमिचन्द्र जैन को लिखे गए हैं. वे विवाह पर दुःख व्यक्त करते हैं. यदि ऐसा था तो उन्होंने विवाह क्यों किया था.

ये सारी बातें मैंने डायरी में लिखी है.

बात जब निकलेगी, तब दूर तलक जायेगी. नामवर सिंह पर चर्चा होने लगी. विजेंद्र कहने लगे कि इस वर्ष पुस्तक मेले में नामवर सिंह ने हिन्दुत्ववादी भाजपाई सांसद तरुण विजय की पुस्तक ‘मन का तुलसीचौरा’ का लोकार्पण किया. लोगो के यह पूछने पर कि क्या नामवर जी बदल गए हैं? मैंने कहा कि वे तो ‘कविता के नए प्रतिमान’ लिख कर ही बदल गए थे. वास्तविकता यह है कि नामवर जी साहित्य अकेडमी का पुरस्कार पाना चाहते थे. इसलिए उन्होंने अमरीकी नई समीक्षा की मान्यताएं मान कर ऐसी विवादास्पद पुस्तक लिखी जिसे पढ़ कर मार्क्सवाद के विरोधी तो प्रसन्न होंगे ही, और मार्क्सवादी लेखक भी इसे जरूर पढेंगे विरोध के लिए. मैंने ‘कृति ओर’ के माध्यम से ‘नए प्रतिमानों’ का विरोध करने के लिए जीवन सिंह को तैयार किया. उनके आलेखों से दिल्ली का सिंहासन हिलने लगा. मुझे धमकियां मिलने लगी. लेकिन प्रोफेसर चंद्रबली सिंह, शिवकुमार मिश्र ने उत्साह बढाते हुए कहा कि ऐसा तो हम भी सोचते थे लेकिन कहने और छापने का साहस आपने दिखाया. तभी से आलोचक जीवन सिंह का कद बढ़ गया. लोग समझने लगे कि कोई ‘सिंह’ तो है, जो ‘महाबली सिंह’ को चुनौती दे रहा है.

‘कविता के नए प्रतिमान’ के सन्दर्भ में विजेंद्र ने मुझे समझाया कि जब कवि अपनी कृति रचना के लिए स्वतंत्र है कि वह सामाजिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को सामने रखे. १९७२ की एक कविता में उन्होंने कहा है- ‘तुम अपने प्रतिमान बदलो’… …

‘इतने सारे लोगों के बीच ही कथ्य बनाता है
भाषा की पहचान, इसीलिए मैंने कहा
तुम अपने प्रतिमान बदलो.’

(बुझे स्तंभों की छाया, पृ ४७-४८).

इस कथन से स्पष्ट होता है कि कवि विजेंद्र ‘नयी समीक्षा’ के प्रतिमानों को खारिज कर लोकधर्मी कविता के प्रतिमानों की सृष्टि अपनी सर्जना द्वारा करते हैं. इसी सन्दर्भ में उन्होंने कहा है कि मैंने साहित्य के सामंतों का हमेशा विरोध किया है.

प्रभावपूर्ण लंबी कविताओं के स्रष्टा विजेंद्र ने केदारनाथ सिंह की लंबी कविता ‘बाघ’ को अर्थ-बोध के स्तर पर पहेली बताते हुए कहा कि उनकी प्रारंभिक कवितायें तो अच्छी हैं, लेकिन अधिकतर कवितायें पहेली ही मालूम होती हैं. महानगर दिल्ली पहुँच कर उन्होंने अपने जनपद को विस्मृत कर दिया. दूसरी बात यह है कि उन पर पश्चिम के पतनशील कवियों रिल्के आदि का प्रभाव अधिक है. वस्तुतः कृति में जनपदीय जीवन के समावेश से कवि की अपनी पहचान बनती है. कवि का जनपदीय वैशिष्ट्य वैश्विक भी होता है. सर्जनशील चित्त सार्वदेशिक और सार्वकालिक होता है. तभी तो हमें शेक्सपियर आकर्षित करता है. और जर्मन कवि गेटे को ‘अभिज्ञान शाकुंतलम.’

मैं मानता हूँ कि वर्तमान समय के अनेक स्तरीय यथार्थ को गजल या गीत के माध्यम से नहीं व्यक्त किया जा सकता है. उसकी अभिव्यक्ति के लिए लंबी कविता का रूप अनिवार्य है. निराला अपने गीतों के कारण महान नहीं हैं. वे तो अपनी प्रदीर्घ कविताओं और यथार्थवादी चरित्र-सृष्टि के कारण बड़े कवि हैं. काव्य-भाषा के अनेक रूप भी उन्हें बड़ा कवि बनाते हैं. मैंने अपने काव्य नाटकों ‘क्रौंच-वध’ और ‘अग्नि-पुरुष’ की सृष्टि रंगमंच की दृष्टि से नहीं, संवाद-सौष्ठव की दृष्टि से की है.

नाट्य-काव्य का सन्दर्भ आते ही विजेंद्र कहने लगे मैं धरमवीर भारती की तरह ‘युग’ को ‘अंधा’ नहीं मानता. न तो आज का युग अंधा है न ही महाभारत का युग ‘अंधा’ था.

गीत? हाँ मैंने गीत लिखे हैं लेकिन सभी रचनाएं अभी तक प्रकाश में नहीं आयीं हैं. उम्मीद है उनका प्रकाशन भविष्य में संभव होगा.

संगीत? मुझे शास्त्रीय संगीत अच्छा लगता है, विशेष रूप से कुमार गन्धर्व का गायन, जो लोक से संबद्ध है. उनका गायन सुनकर मैंने एक लंबी कविता ‘अन्धकार को चीर आयी कौंध अकेली’ लिखी जो ‘ऋतु का पहला फूल’ में संकलित है. इस कविता में विजेंद्र ने स्वर साधना को लोक से जोड़ कर लिखा है

सांस-सांस का
प्रतिरोध बना है
तिनका नब कर
खडा हुआ है
धारा के विरोध में
यह नबना स्वर है
रचना का.

(पृ १६७)

बाहरी जगत और भीतरी जगत का सम्बन्ध समझाते हुए विजेंद्र ने अपनी बात समझाई कि सर्जना से पहले मूर्त वस्तु को भाव के स्तर पर अमूर्त बनाना पडता है. बाद में संवेदन ज्ञान को बुद्धिगत बताकर पुनर्गठित करना पडता है. उसे फिर मूर्त रूप देने की छूट है. यह स्तर पहले स्तर से जुड़ा हो कर भी गुणात्मक रूप से बहुत भिन्न और अगला स्तर है. अब यहाँ सिर्फ मूर्तन नहीं है. यह समूर्तन स्तर है. यह समूर्तन बिम्ब का ही रूप है. बिम्ब, प्रतिबिम्ब सिद्धांत के अनुसार वस्तु-सत्ता का संवेदनात्मक संज्ञान है, जो भाव-संवेग-संवलित है. यहाँ कला का ठाठ बुना रहता है.

हाँ, मैं यह मानता हूँ कि लोकधर्मी कविता के सम्प्रेषण के लिए उसका लयात्मक होना जरूरी है. मैंने अपनी कविताओं को विभिन्न लयों का आश्रय लेकर रचा है.

सम्प्रेषण का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए विजेंद्र ने अपने प्रतिनिधि संकलन ‘कवि ने कहा ’ से दो छोटी-छोटी कविताओं ‘मेरे जनपद का कृषक’ और ‘महाशक्ति का राग’

का पाठ मंथर गति से किया, जिसे सुनकर परिजनों ने अनायास ही समझ लिया.

अपने पुत्र का प्रश्न सुनकर विजेंद्र ने कहा कि मैंने गाँव इसलिए छोड़ा कि मेरी नियुक्ति मुकुंद्गढ़ के महाविद्यालय में अंगरेजी प्रवक्ता पद पर हो गयी थी. दूसरी बात यह कि उस समय सामंती प्रभाव क्षीण पड़ने लगा था. निम्न वर्ग के लोग कांग्रेस का झंडा लेकर निकलते थे. हमारी रंजिश बढ़ गयी थी. इसी क्रम में मेरे एक कजिन की ह्त्या कर दी गयी. इन सब परिस्थितियों में मैं अपने गाँव से दूर चला गया था लेकिन भरतपुर में रह कर किसानों के जीवन से सदा जुड़ा रहा.

अपने गाँव धरमपुर को देख कर और सबसे मिल कर विजेंद्र ने सपरिवार भोजन किया. जब चलने को हुए तो सभी परिजनों ने उनसे रूकने का आग्रह किया. सबके आग्रह का सम्मान करते हुए विजेंद्र ने अपना वापस जाना अनिवार्य बताया. विदा होने से पहले उन्होंने कहा- ‘देहाती और शहराती जीवन में कितना अंतर है?’

थोड़ी देर बाद उनकी कार पक्की सड़क पर दौडने लगी. विजेन्द्र को प्रणाम कर मैं बदायूं की ओर यात्रा के लिए मुखातिब हुआ. छोडने से पहले विजेन्द्र ने मुझे गले से लगा लिया. ‘धरमपुर आ कर मैं स्वयं को उर्जावान महसूस कर रहा हूँ.’ उनका यह वाक्य मेरे कानों में गूँज रहा है. मुंदी आँखे देख रही हैं- विजेंद्र कार से बाहर निकल कर अपनी जन्मभूमि को ममता भरी निगाह से निरख रहे हैं. प्रसन्न हो रहे हैं. यहाँ नीम के दो पेड़ थे; यहाँ हाथीखाना था; यहाँ गलियारा था जो हवेली की ओर जाता था’, अब तो मिटटी का टीला दिखाई पड़ रहा है. विजेंद्र अपने गाँव में घूमते हुए पुरानी बातों को याद कर रहे हैं. गाँव के दो मुस्लिम भाईयों से अपनेपन की भावना

से बतिया रहे हैं. एक वयोवृद्ध महिला को चरणस्पर्श कर प्रणाम कर रहे हैं. अपने बचपन की सब्जा घोड़ी के बारे में बता रहे हैं. अपने गाँव के समीप बहने वाली महावा नदी को याद कर रहे हैं.; उस नाव के बारे में बता रहे हैं, जिसमें बैठ कर लोग आवाजाही किया करते थे. दौडते थे लोग गाँव की ओर; अब तो महावा का वह रूप ही बिलुप्त हो गया है. बचपन में लटटूमार खेल खेलता था. पिता के साथ सहसवान जाया करता था. पिताजी मेरे लिए सबसे बढ़िया कपड़ा खरीदकर सिलवाया करते थे… … … और अचानक बस रूकी … … … और मेरी आँखे खुल गयीं. देखा सवारियां चढ-उतर रहीं हैं.

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१८, चूना मंडी
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