नीलाम्बुज सिंह की गज़लें


नीलाम्बुज सिंह


· मेरा नाम नीलाम्बुज है. बचपन में पहला उपन्यास ही चित्रलेखा पढ़ा और कविता पढ़ी कुकुरमुत्ता . यहीं  से साहित्य के कीटाणु लग गए

·  डी. यू. से नजीर अकबराबादी की कविताओं  पर एम फिल कर चुकने के बाद  जे. एन. यू. के भारतीय भाषा केंद्र सेसामासिक संस्कृति और आज़ादी के बाद की हिंदी कवितापर  पी. एच. डी. कर रहा हूँ.
आजीविका के लिए अध्यापन करता हूँ.
फ़िलहाल केन्द्रीय विद्यालय, नंबर एक , कांचरापाड़ा , 24 परगना (उत्तर) , पश्चिम बंगाल में हिंदी प्रवक्ता.
कुछ फुटकर रचनाएँ (शोध-लेख, आलोचनाकवितायेँ, समीक्षाएं और रिपोर्ताजप्रकाशित.
युवा कवि नीलाम्बुज की कविताएँ आप पहले ही ‘पहली बार’ पर पढ़ चुके हैं. इस बार हम प्रस्तुत कर रहे हैं नीलाम्बुज की कुछ नयी गज़लें. तो आइए पढ़ते हैं इन ग़ज़लों को.  

नीलाम्बुज सिंह की गज़लें 

1
लिखीं लोरियाँ, उन्हें छपाया, ख़ूब कमाया
हमने माँ की ममता का भी दाम लगाया
 जब से देखा गुण के बदले रूप बिके है
हमने भी अब नीम को छोड़ा, आम लगाया
 ख़ूब पढ़ी थी हमने भी कविता पुस्तक में
जब आए बाज़ार में कुछ भी काम न आया
अब तो पिज़्ज़ाबर्गरको लाभले लगे हैं
माँ के हाथों की रोटी में स्वाद न आया
आज अमीनाके हाथों को जलते देखा
मेरे मन में फिर भी क्यों हामिदना आया
 तुम बच्चोंसाहस देते हो, रो देते हो
नीलअभी दुनियादारी का ढंग न आया
2
 
पेट की आग को आँसू से बुझाया न करो
ये क़तरे ख़ून के हैं, इनको यूँ ज़ाया न करो
अगर होता है ज़ुल्मज़ोर तो लड़ना सीखो
सिर कटाया न करो गरचे झुकाया न करो
फ़िज़ा यहाँ की सुना है बड़ी बारुदी है
बातोंबातों में अग्नि बान चलाया न करो
 गिरे आँसू तो कई राज़ छलक जाएंगे
अपनी आँखों को सरेआम भिगाया न करो
 लोग कहने लगे कि आप तो गऊ हैं मियाँ
करो वादे मगर इतने भी निभाया न करो
 एक बस्ती है जहाँ पर सभी फ़रिश्ते हैं
तुम हो इंसान देखो उस तरफ़ जाया न करो
 3 
ख़त मोहब्बत के जो खूनअश्क से लिखते रहे
वो उसी पर ज्यामिति अल्ज़ब्र हल करते रहे

देख कर काली घटायें हम ग़ज़ल कहते रहे
और वो– “बस होगी बारिश आजकलकहते रहे

नाम सीने पर लिखा उनको दिखाया जब गया
मुह फिर कर वो तो इट इज होर्रिबलकहते रहे

ले गए जब बोतलों मे अपने अश्कों को हुजूर
प्रश्नवाचक में वो कोई केमिकल?” कहते रहे

इस मोहब्बत की सियासत के वो आली हैं जनाब
हम तो बस देखा कि वो दलबदल करते रहे

हम भी आख़िर आदमी हैं कोई बेजा बुत नहीं
छलछला जायेंगे गर वो यूं ही छल करते रहे

4
लिखा तो हमने भी लेकिन कलम में धार नहीं
हुनर तो है मगर वो पेट की पुकार नहीं

विसालहिज्र की बातें उन्हें सुनते हैं
जिन्हें रोटी के सिवा कोई सरोकार नहीं

उन्हीं के दम से महकती है ये दुनिया सारी
उन्हीं को चैन से जीने का अख्तियार नहीं

उनकी सिसकी तो चीर देती है कलेजे को
मेरे अशआर मगर उतने धारदार नहीं

मगर वो आज भी हँसते हैं मुस्कुराते हैं

ये उनकी जीत है यारों ये उनकी हार नहीं
5
हमारे सफ़र का तो कोई हमसफ़र भी नहीं
हमारे रास्तों का कोई रहगुजर भी नहीं 
हमें तो फ़िक्र है जनाब कल की रोटी की
वो रात हादसे में क्या हुआ खबर भी नहीं
न कभी धर्म रहे और न कभी जात रहे
वजह यही कि दुआओ में वो असर भी नहीं 
भला बाज़ारों के दस्तूर कैसे सीखें हम
हमारे गाँव के नजदीक तो शहर भी नहीं
अब हमें धोबी का कुत्ता कहें, गरीब कहें 
घाट तो है नहीं, अपना तो कोई घर भी नहीं
6
खूब दिलकश है ये अंदाज़ बहुत
खामुशी कह रही है राज़ बहुत
उनको भी सूमैकदा देखा
कभी बनते थे पाकबाज़ बहुत
अपनी खामोशी को ज़ुबां दे दो
दूर तक जायेगी आवाज़ बहुत
अश्क, उम्मीद, बेवफाई, प्यार
हैं अभी ज़िन्दगी के साज़ बहुत
कुछ अभी मर तो नहीं जायेंगे
गो तबियत से हैं नासाज़बहुत
जहाँ में जाविदाँ रखते हैं रकीब 
दोस्तों पर न करो नाज़ बहुत
परिंदों और इंतज़ार करो
अभी छोटी है ये परवाज़ बहुत
7
 
वो चंद आंसू जो आँखों में सूख जाते हैं
बन के अल्फाज़ अब ग़ज़लों में शक्ल पाते हैं
मिले जब भूख से, बेकारी से, तो खुद से कहा
अदब कुछ सीख लें नाहक अभी फरमाते हैं
तू तो इंसान है तुझको मिलेगी मौत फ़क़त
यहाँ ईनाम फरिश्तों को दिए जाते हैं
एक हम हैं कि जिनका नींद से टूटा रिश्ता
एक वो हैं कि उन्हें ख्वाब रोज़ आते हैं
कुछ उनकी तंज़निगाही ने हुनर बख्शा है
वरना अशआर कहने हमको कहाँ आते हैं
8
कल उसकी दुनिया में ऐलान हुआ
सस्ता अब क़त्ल का सामान हुआ

हजारों क़त्ल कर के वो बोला
वक़्त मेरा बहुत जिया न हुआ

दे के रिश्वत वो झट से छूट गयी
ईमानदारी का जब चालान हुआ

कल मिला मुझको कचरापेटी में
इतना गन्दा मेरा ईमान हुआ

फिर एक दरख़्त गिर के टूट गया
मानो विदर्भ का किसान हुआ

हम तो अशआर  यूँ सुनाते हैं
गोया ये मीर का दीवान हुआ

9
गए दिनों की यादें थीं
बिन बादल बरसातें थीं

सूनासूना आंगन था
गीली गीली ऑंखें थीं 

एक मेरा दिल तनहा था
तरह तरह की बातें थीं

कभी कभी गठबंधन था
कभी कभी सरकारें थीं

पेट मेरा जब फुलफिलथा
चारो  ओर  बहारें  थीं 

पाखंडों का बिल्डर था
मखमल की दीवारें थीं

तेरे पास ज़माना था
मेरे पास किताबें थीं

          

10

अकबरसी धुन लायें कहाँ
नासिरसा फन पायें कहाँ

दर्द नहीं है, इश्क नहीं
इल्म को लेकर जाएँ कहाँ

आम के कितने पेड़ कटे
कोयल पूछे गायें कहाँ ?

हंसती हुई इस दुनिया में
दिल को कहो रुलाएं कहाँ

अपना तो बस इक चेहरा
अय्यारीफन पायें कहाँ

खुसरो,  मीर, कबीर, नज़ीर!
अपना दर्द जगाएं कहाँ

दिल की बातें करनी है
बस ये कहो सुनाएँ कहाँ

11  
उंगलियाँ बन गयीं जुबां अब तो ,
बेकली हो चली रवां अब तो 
ये बहारें भी जिनसे रश्क करें 
ऐसी आयी है ये खिज़ां अब तो 
सच कहीं दू……रजा के बैठ गया 
इतने हैं झूठ दर्मयाँ  अब तो 
हाल किससे कहा करे कोई 
पत्ता, बूटा  न गुलिस्ताँ अब तो 
तुम तो जज़्बात ले के बैठ गए 
वक़्त होगा हीरायगाँ अब तो
बात कुछ कायदे की, की जाए 
कर चुके उनको परेशां अब तो 

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नीलाम्बुज सिंह की कविताएँ


नीलाम्बुज सिंह
बचपन में ही पहला उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पढ़ा और कविता पढ़ी ‘कुकुरमुत्ता’. यहीं से साहित्य के कीटाणु लग गए. डी. यू. से नजीर अकबराबादी की कविताओं  पर एम फिल कर चुकने के बाद जे. एन. यू. के भारतीय भाषा केंद्र सेसामासिक संस्कृति और आज़ादी के बाद की हिंदी कवितापर पीएच. डी. कर रहा हूँ.

आजीविका के लिए अध्यापन करता हूँ. 
   
कुछ फुटकर रचनाएँ (शोध लेख, आलोचना, कवितायेँ, समीक्षाएं और रिपोर्ताज) प्रकाशित 
कविता क्या है? यह सवाल अक्सर कवियों को मथता रहा है. आज भी जब कोई युवा कवि कविता की दुनिया में प्रवेश करता है तो इस सवाल से टकराने की कोशिश करता है. कविता की दुनिया में नए युवा कवि नीलाम्बुज भी इसी क्रम में ‘कविता आखिर कविता है दोस्त’ शीर्षक से कविता लिखते हैं जिसमें वे बेबाकी से कहते हैं कि कविता और अनुशासन नहीं तो वह स्वच्छन्दता भी नहीं है. इसी क्रम में वे आगे लिखते हैं – 

‘आज़ादी है करुणा की!/ कविता विराग नहीं/ अनुराग है/मनुष्य का मनुष्यता से/ जीव का जीवन से/ यह हार नहीं, विजय है/ विकृति पर संस्कृति की/ कविता, आखिर कविता है दोस्त!’
नीलाम्बुज कवि-दायित्व का निर्वहन उसी सजगता से करते हैं जिसकी हम हम किसी कवि से अपेक्षा करते हैं. इसी क्रम में वे ‘नीडोतनिया’ जैसी कविता लिखते हैं. और उस मुद्दे को रेखांकित करने का प्रयास करते हैं जिसे हम कुछ ही दिनों में भूल बैठते हैं. वे पाते हैं कि अरुणाचल के जिस लड़के नीड़ो तानियम को उसके प्रादेशिक पहचान की वजह से दिल्ली में मार डाला गया, उसका चेहरा उनके किसी पड़ोसी, भाई या फिर देश के किसान के काफी मिलता जुलता है. आज की विकट परिस्थितियों में आम आदमी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा है. वह हर जगह अपने को ठगा हुआ पा रहा है. कुछ इसी तरह की गहन संवेदनाओं वाले कवि की कविताओं के साथ आज हम आपसे रूबरू हैं. आइए पढ़ते हैं युवा कवि नीलाम्बुज की कविताएँ.
नीलाम्बुज सिंह
नीडोतनिया
मेरे मरहूम दोस्त 
तुम्हारे बालों का क्या रंग था?
तुम्हारी बोलती सी आँखें मुझे सोने नहीं दे रहीं 
तुम्हारा चेहरा मिलता है मेरे किसी भाई से 
किसी पड़ोसी से 
मेरे किसी दोस्त से 
मेरे देश के किसी मेहनती किसान से 
किसी निरीह मजदूर से
मेरे देश के किसी भावी खिलाड़ी से
तुम्हें मार दिया गया! देश साउथ एक्स में भी है
देश लाजपत नगर में भी है
देश लिट्रेचर फेस्टिवल और सिने शो में भी है थोड़ा थोड़ा
देश तो तवांग में भी होगा
देश तो होगा कछार में भी
देश तो त्रिपुरा के सिलाचरी बॉर्डर पर भी है
देश मस्त है, देश शर्मिंदा है, देश डरा हुआ है, देश क्षुब्ध है
कितना अलग है तुम्हारा और मेरा देश नीडो? मेरे ज़िंदा दोस्त!
तुम्हारे बालों का रंग कैसा भी था
तुम्हारे लहू का रंग तो लाल है न!
मेरे भी लहू का रंग लाल ही है।
देश का क्या रंग है?
शर्मिंदगी का क्या रंग होता होगा? 
तुम्हारे सपने जब 2000 किलोमीटर से भी ज्यादा
दूरी तय करके गए थे राजधानी में
तो उनको पंख तक ठीक से न लग पाये थे
और तुम्हें बेदर्दी से मार दिया गया। 
धरने थे, रैलियाँ थीं, नारे थे
रिपोर्ट थी, एन जी ओ थे, थाने थे
नहीं थी तो इंसानियत
नहीं था तो वो जज़्बा
जो रंग को नहीं आत्मा को देख लेता है
मैं तुमको नहीं जानता दोस्त
लेकिन तुमको बहुत सारा जान गया हूँ अब
तुम्हारे बहाने थोड़ा सा जान गया हूँ खुद को
थोड़ा सा राजधानी को
थोड़ा सा रंग को
थोड़ा सा ख़ून को।  
 
(नीड़ो तानियम या तानिया अरुणाचल का वह लड़का था जिसे उसके बालों के रंग और नार्थ ईस्ट की पहचान की वजह से दिल्ली में भीड़ के हमले में मार दिया गया था।)  
परिवर्तन

  
जब पहली बार

बैठा था वो 

पिज्जा हटमें 

तो उसे याद आई थी 

चूल्हे की अधजली रोटी,

याद आई थी उसे 

अपनी टपकती हुई झोपडी

जब लिफ्ट से उसने 

पच्चीसवें माले पर कदम रखा था,

बूढ़े बॉस के चेहरे की 

लालिमा की तुलना

उसने जवान भाई के

मुरझाये हुए चेहरे से की थी,

शहर की चमचमाती सड़कों में 

उसे रह-रह कर 

गाँव की गड्ढे वाली कच्ची सड़क

याद आई थी,

उसे जब पहली बार मिला 

कॉर्पोरेट कंपनी से

पेमेंटका चेक

तब उसे कुछ याद नहीं रहा

अब वो खुश है !

कविता लिखना आसान है

समझाना उससे ज़रा ज्यादा मुश्किल
और जीना?
बहुत कठिन है साथी
कविता को जीना बहुत कठिन है!

रेसिपी

मित्रों (नहीं नहीं फ्रेंड्स!)
आज हम बनायेंगे
बेहद लजीज़
हर दिल अजीज़ (खासकर दिलग़रीब)
रोटी जली
चाहिए कुछ चीजें भली
भूख पहले.
ऐसी
कि जिससे दिल दहले.
खाना ये बन रहा है चार का
आटा बेहतर हो गाय दिहो उधार का
अब जलाइए
पेट नहीं, बल्कि आग.
गरम कीजिये तवे को,
न कि दिमाग
थोड़ी सीशर्मसे गार्निश कीजिये
और फिर
टुकुर टुकुर देखती आँखों
और व्याकुल आशाओं को सर्व करें
अपनी इस रेसिपी पर गर्व करें!

वो शोख तितली है

वो शोख तितली है

कि गहरा सागर है

वो हवा है कि चट्टान?

उसे समझना न मुश्किल है न आसान।

फिर भी मैं कभीकभी करता हूँ कोशिश

और पाता हूँ कि

वह पानी है!

यह पानी उसकी आत्मा से ले कर

उसकी आँखों तक फैला हुआ है

जिसे वह अक्सर अपनी हँसी से

छिपा लेती है। 
 
कविता, आखिर कविता है दोस्त!

कविता 
कोई दस्तावेज़ नहीं
जिसे आप टाइप कर दें
पाठक के ह्रदय पर.
यह स्फूर्त है संवेदनाओं से.
कोई अस्त्र नहीं जिससे लड़ा जाये
किन्तु आत्म बल का प्रकाश है
संवेगों की उत्प्रेरक है
निश्चय है
बाधाओं को पार कर जाने का.
कविता अनुशासन नहीं
स्वच्छंदता भी नहीं है
पर
स्वतंत्रता है प्रेम की
आज़ादी है करुणा की!
कविता विराग नहीं
अनुराग है
मनुष्य का मनुष्यता से
जीव का जीवन से
यह हार नहीं, विजय है
विकृति पर संस्कृति की
कविता, आखिर कविता है दोस्त!


संपर्क- 
केन्द्रीय विद्यालय, नंबर एक, 
कांचरापाड़ा, 24 परगना (उत्तर), 
पश्चिम बंगाल में हिंदी प्रवक्ता
मोबाईल- 08100938431, 07044178071

ई-मेल : thenilambuj@gmail.com

ब्लॉग : http://nilambujciljnu.blogspot.com

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)