सपना सिंह की कहानी ‘जायेगी कहाँ ….?’


सपना सिंह

परिचय


जन्म तिथि – 21 जून 1969, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा – एम.ए. (इतिहास, हिन्दी), बी.एड.
प्रकाशित कृतियॉँ – धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान के किशोर कालमों से लेखन की शुरूआत, पहली कहानी 1993 के सिम्बर हंस में प्रकाशित … 
लम्बे गैप के बाद पुनः लेखन की शुरूआत,  अब तक – ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘परिकथा’, ‘कथाक्रम’, ‘सखी जागरण’, ‘समर लोक’ इत्यादि पत्रिकाओं में दर्जन भर से अधिक कहानियॉँ प्रकाशित।
ज्योतिपर्वप्रकाशन से उपन्यासतपते जेठ में गुलमोहर जैसासद्यः प्रकाशित। 

आज इक्कीसवीं सदी में जाने के बाद भी स्त्रियों के प्रति पुरुष मानसिकता में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। स्त्रियों के प्रति हिंसा और दुर्व्यवहार में कहीं कोई कमी नहीं आयी है। अखबारों के पन्ने रोजाना इन दुर्व्यवहारों से भरे रहते हैं। स्त्री जैसे सह्त्राब्दियों से दोयम जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। सपना सिंह ने अपनी कहानी ‘जायेगी कहाँ….?’ में इन्हीं अनुभूतियों को उकेरने की सफल कोशिश की है। सीधी सरल भाषा में लिखी गयी कहानी ऐसा लगता है जैसे हमारे आस-पास या कह लें घर-परिवार में ही घटित हो रही हो। तो आइए आज पढ़ते हैं सपना सिंह की यह कहानी ‘जायेगी कहाँ….?’ 
       
‘‘जायेगी कहाँ ………..?’’
सपना सिंह
इस बात को ले कर गहरे… बहुत गहरे तक वह आश्वस्त था। इतना कि,  इस बाबत कुछ सोचने,  पूछने,  जानने या समझने की उसने कभी कोई जरूरत नहीं महसूस की।
पत्नी की जैनेन्द्रकुमारीय परिभाषा की की तरह ही वह है। उसके घर में इधर-उधर डोलती  मन बेमन से अपना रूटीन निबटाती, घर के कभी न खत्म होने वाले………. बेशुमार और ज्यादातर बेमतलब कामों में से कुछ को को करते… कुछ को छोड़ते हुए। घर की जरूरत से संबंधित समानों की फेहरिश्त उस तक बता कर पहुंचाते हुए। वह हमेशा की तरह सुन कर हुंडह कर देगा। कुछ याद रहा, तो ले भी आता ….. नहीं ला पाने पर कौन सा पहाड़ टूट जाना था……. बड़े आराम से उसे घुड़का जा सकता था………. सौ काम रहते हैं मुझे… पचास बार कहा, लिस्ट बना कर दिया करो …।
उसे बहुत अच्छी तरह पता है, वह उसके हर कहने के सुनने भर के फासले पर बैठी सब्जी काट रही होगी या चावल दाल बिन धो रही होगी सूखे हुए कपड़ों को तहा रही होगी… या गंदे कपड़ों को धुलने की तैयारी में होगी। कभी स्टोर के डिब्बों टंकियों के समान निकाल कर उन्हें… धूप दिखा रही होगी……… या धूप में पड़े गर्म कपड़ों को वापस ट्रंक में भर रही होगी…. कभी ड्राइंगरूम के कुशन कवर बदल रही होगी… कभी बेडरूम की चद्दरें। कभी अचार, बड़िया बना रही होगी…… तो कभी बच्चों के होमवर्क, उनकी परिक्षाओं को ले कर उनसे जूझ रही होगी। कभी अचानक आ गई पड़ोसन …. तो कभी दूध वाले के हिसाब में व्यस्त होगी। वह पुकारेगा, अपने जूतों के लिये …. अपने मोजों के लिये। कभी रूमाल, कभी मोबाइल के लिये। कभी पैर दबाने को कभी पीठ और कमर सहलाने को……। कभी हाथ भर के फासले पर पड़े अखबार को उठा कर देने को…… कभी ठंडा पानी पिला देने को… वह हाजिर रहेगी उसकी हर कही गई बात को पूरी करने के लिये।
वह जब चाहे उस पर बरस सकता है…….. कभी अपने न मिलने वाले किसी कागज के लिये, कभी कमीज़ की टूटी बटन के लिये,  कभी पर्स से गायब हुए पैसों के लिये,  तो कभी उसकी कुछ घरेलू समानों से सबंधित फरमाइशों के लिये। वह घर से संबंधित उन कार्यो जिनको उसने स्वेच्छा से अपने ऊपर लिया था मसलन,  बैंक,  पोस्ट ऑफिस,  बच्चों की फीस,  बिजली का बिल,  गैस की व्यवस्था,  बाजार का.. काम! से कुछ भी भूल जाने पर वह अपनी भूल के लिये भी उसे ही दोषी बना सकता था। उसकी धुड़की और झिड़की सुनना… सुनते रहना.. उसकी दिनचर्या के जरूरी तिरसे थे…… जैसे सुबह कौवे की कांव…. कांव या फिर घरेलू कुत्ते की वेवक्त की भौक या फिर कुकर की सीटी या दूध वाले का भोपूं . या फिर पड़ोस के छोटे बच्चे का रोना……।
वह जब चाहे उसे एहसास करा सकता है कि वह बेवकूफ.. कमअक्ल और बेशउर है। तुम पागल हो, तुम बेवकूफ हो,  ऐसे विशेषण अपने लिये सुनते रहने की उसे आदत सी हो चली है। वह जब चाहे अपने बाहरी,  भीतरी भड़ासो को उस पर उडेल सकता है। बिना इस बात की परवा किये, कि उसकी इन बातों से उसका दिल भी दुखता होगा….. कि उसे भी कुछ बुरा लग सकता होगा . कि उसकी भी आंखे असुंआ आती होंगी। ये सब हो सकता है… होता है…. उसे पता है। पर, क्या फर्क पड़ता है……? कुछ देर बाद दुःख संभल जायेगा…… आंखे सूख जायेगी।
यही हमेशा होता है…..  होता रहेगा! उसकी नाराजगी उसका अबोला टिक कहां पाता…….. है? वह जानता है, एक दो दिन वह मुंह फेरकर सोयेगी आंखों पर हाथ धरे अपने आंसुओं से तकिये को भिगोते। सुबह उसकी सूजी आंखे और उतरा चेहरा देख उसका पुरूष अहं और तन जायेगा क्योंकि,  उसे बखूबी पता है कि दो रात बाद ही वह रात के किसी प्रहर बीच में सोये बेटे को फंलाग उसकी तरफ आ जायेगी… उसके सीने में दुबक जाने को……..। वह उसे अपने मजबूत बाहुपाश में जकड़ लेगा इस पुख्ता एहसास के साथ कि आखिर जायेगी कहां?
वह उसके सीने में दुबकी अपनी अंसुआई आंखो के भीतर किसी रिबाइड किये फिल्म की तरह बहुत से पुरानों पल को याद करती रहेगी उसे याद आयेगा उस वर्ष के दशहरे का त्यौहार,  हमेशा की तरह सभी, गांव में इक्कट्ठे हुए थे। उसने बेटे को किसी बात पर चपत लगा दी थी। सास का पोता मोह उमड़ पड़ा था…… उसने सास को समझाने की कोशिश की थी,  कि बेटे ने गलती पर मार खाई है…. पर सास को उसका कहना…. उसका जबान लड़ाना लगा था…… उन्होंने तुरंत बेटे को ललकारा था। उनका बेटा, जो उसका पति भी था…. उस क्षण खालिस पुत्र की भूमिका में उतर आया था चोप्प… नहीं तो अभी जूता निकाल कर यहीं दस जूता लगाऊगा…….. ’’ चचेरे,  सगे,  देवर,  जेठ, ससुर,  जिठानी,  देवरानी,  नन्दे……. भतीजे,  भतीजियों से भरा घर……. और सबके बीच उस…………. आदमी की गूंजती आवाज .. कोई जमीन नहीं फटी थी। अपमान के उन क्षणों के गुजरते न गुजरते सब कुछ समान्य हो गया था वह भी। पर, भीतर कहीं कुछ टूटा था…. फिर तो टूटने का ये सिलसिला उसकी जिदंगी में बेहद आम होते गये थे…. इतने कि बहुत सी बाते अब उसे याद भी नहीं रहती… सुबह किस बात पर वो बरसा था…. या उसकी किस बात पर उसका दिल दुखा था शाम होते न होते…. वह भूल चुकी  होती है … उसके घर में दाखिल होते ही वह उसके हर कहे को सुन कर पूरा कर देने के लिये वैसी ही तत्पर दिखाई देने लगती है।
पहले……. बहुत बहुत पहले, शादी के एकदम शुरूआती वर्षो में उसके बेवजह के आरोप और शिकायतों से उसे बड़ी उलइान होती थी। वह प्रतिकार करती,  तनती पर यह सब उराके गुस्से को और बढ़ा देता। वह चीखता,  चिल्लाता,  भद्दी-भद्दी गलियों से उसे ओर उसके घर बालों को नवाज़ता मेज पर हाथ पटकता……. तोड़ फोड़ पर उतारू हो जाता है। घर के सामान और उसकी देह भी इस तोड़ के शिकार होते। घर के टूटे फूटे समानों को तो वह बुहार समेट कर साफ सुधरा कर लेती…. पर शरीर, चेहरे और मन के टूट-फूट को कैसे सुथरा करती। वह तो हफ्तों बने…….. रहते  अपने भद्दे निशानों के साथ। और हल्के पड़ जाने……. मिट जाने के बाद भी कभी………. कभार चिलक उठते… और ये चिलक यूं होती मानो सूखते हुए घाव की चिंदा पपड़ी कोई बेदर्दी से उकेल दे।
पर अब ….? गयी तो वह अब भी कहीं नहीं है वहीं है……. उसी तरह…… इस कमरे से उस कमरे तक आती जाती। कुछ उठाती, धरती,  फैलाती बटोरती। फिर पता नहीं कब किस वर्ष के, कौन से महीने की, कौन सी तारीख से उसने उसकी धुड़कियों, के जवाब में चुप्पी की चादर तान ली। हूँ हाँ की ठंडी प्रतिक्रिया क साथ वह उबी हुई सी, रोजाना के जाने पहचाने कामों के में से किसी एक के साथ व्यस्त हो जाती। उसके बक-झक जवाब की अनुपस्थिति में जल्द ही भोथरा जाते।
उसकी इन चुप्पियों… उसकी इन निर्विकार तटस्थता को बूझने की उसने कभी चेष्ठा नहीं की। वह उम्र के उस पड़ाव पर था जब तमाम तरह की मरूफियतें उसे चारों ओर से घेरे थीं। उस उम्र में अपनी पत्नी पर…. पत्नी के जज्बातों पर ध्यान देने और महसूसने की न उसे न फुरसत थी……… और न इस फुरसत के न होने के पछतावे जिंदगी हर रोज आगे बढ़ रही थी। उम्र के निशान… शरीर और जेहन पर अपने अपने हिसाब से पड़ ही रहे थे। बच्चे पिछली कक्षाओं से अगली कक्षाओं में बखूबी पहुंच रहे थे… पत्नी हमेशा की तरह घर में घर के तयशुदा दिनचर्या में डोलती उसे दिखाई पड़ती ही थी। उसे क्या जरूरत थी कि वह इस  बात पर ध्यान दे कि अब उसकी पत्नी की सहेलियों में सिर्फ घरेलू औरते ही नहीं…… कुछ प्रबुद्ध महिलायें भी जगह ले रही है……. कि अब वह किटी पार्टी जाना छोड़ चुकी है…. और एक समाजसेवी संगठन से जुड़ गयी है। उसने इस पर भी ध्यान देने की जरूरत नहीं महसूस की कि, कहॉ किस दिन उसकी पत्नी ने रिमोट से उसके देख रहे चैनल को बदल देने पर उससे बिना कोई बहस किये पत्रिका उठा कर आंखों के आगे कर लिया था, उसने इस पर भी ध्यान नहीं दिया कि अब उसके घर में घुसते ही पत्नी किसी सास-बहू के सीरियल में उलझी नहीं मिलती…. बल्कि कभी आवेकिंग विद ब्रम्हाकुमारी या फिर श्री श्री रविशंकर को देख सुन रही होती है। उसका ध्यान इस बात पर भी नहीं गया कि अब वह बेड पर दोनों के दरम्यान के फासले को स्वयं फलांग कर……. उसके सीने में पहले की तरह नहीं दुबकती। उसने इस पर भी ध्यान नहीं दिया कि उसकी झिंडकियां अब उसकी आंखों में आंसू की जगह सूना पन ले आती है।
इन्हीं एक पर एक गुजरते जाते हुए दिनों में से फिर यकायक दिन बिल्कुल खाली हो गये। सारी मसरूफियतें हवा हो गयीं। अब अचानक से घर बहुत बड़ा… और खाली लगने लगा था.. बहुत शान्त भी। बच्चे पढ़ाई और नौकरी के सिलसिले में बाहर जा चुके थे। उनके होने से होने वाली चिल्ल -पों, विखरापन…… और पत्नी की बड़बड़ाहट…. झल्लाहट के अभ्यस्त उसके कानों को ये शान्ति अजीब लग रही थी।
हां,  वो अब भी थी .. बिल्कुल पहले की तरह उसके हर कहने के सुनने भर के फासले पर….. उसी तरह उसकी एक पुकार पर उसकी चाही हुई वस्तु के साथ हाजिर। उसी तरह,  उसके कमरे में…. उसके बिस्तर पर…. उसके पार्श्व में…बस्स उसका हाथ पकड़ कर अपने पास खींच लेने भर के फासले पर मौजूद। पर पता नहीं क्यों,  उसे वह बेहद जानी पहचानी औरत, जिस पर वह जब चाहे लाड़ उड़ेलता था….. जब चाहे, अपनी सारी कुंठाये। जो उसके इशारे पर उठती, बैठती,  चलती थी। जिसके दिमाग से ले कर पैरों तक की चाल के प्रति वह आश्वस्त था, आखिर जायेगी कहां……?  फिर आज ये बिल्कुल बगल में तकिये को गोड़ कर उस पर सिर टिकाये, आंखों पर चश्मा चढ़ाये किसी किताब में डूबी हुई ये औरत बिल्कुल अपहचानी,  बिल्कुल अजनबी…. कहीं दूर जाती हुई…….. या शायद जा चुकी सी क्यों लग रही है…….?
सम्पर्क –

सपना सिंह

द्वारा प्रो. संजय सिंह परिहार

म नं. 10/1279, आलाप के बगल में,

अरूण नगर, रीवा (म.प्र.) 486001 

मोबाईल – 09425833407
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)