भावना मिश्रा की कविताओं पर के रवींद्र के पोस्टर

परिचय लिखना अपने होने को अंडरलाइन करने जैसा ही होगा. हालाँकि मैं अपने अस्तित्व को अंडरलाइन करने लायक तवज्जो शायद न देना चाहूँ. प्रयास के बावजूद भी यह होना ज़रा मुश्किल ही होता है कि आप सबके साथ जीते-खाते-रहते हुए भी यूँ रह सकें कि कोई निग़ाह किसी जिज्ञासावश आपनी ओर न उठे. इसके लिए लम्बे समय तक मौन रहकर खूब सारी धूल को जमने देना होता है अपने होनेपर. समय बीतने की गति से कई गुना ज्यादा गति के साथ पुराना होना पड़ता है और फिर अदृश्य भी. लेकिन किसी दिन ऐसे ही परिचय के माध्यम से अंडरलाइन होने की गुस्ताखी आपके उस लम्बे के समय सारे प्रयासों को निरर्थक सिद्ध कर देती है.

 इसलिए मेरा परिचय लगभग वही है जो मेरे जैसी तमाम औरतों का है. जो अपना परिचय देने में इसलिए भी संकोच करेंगीं कि वो शायद बहुत प्रभावी न लगे सुनने में, शायद कुछ विरोधाभास भी हो उसमें, शायद उसमें मायूसी और असंतोष के शब्द छिटके पड़े मिल जाएँ, शायद वो कुछ सवाल पैदा कर दे सामने वाले के मन में, जैसे गणित और अर्थशास्त्र पढ़ने वाली ये लड़की अगर कविता के चक्कर में पड़ी ती इसके पीछे क्या दिलचस्प किस्सा हो सकता है, कि क्यों किसी अंग्रेज़ी कंपनी की नौकरी के बाद भी इसे लगता है कि यहाँ इसके होने और पनपने के लिए उपयुक्त खाद-पानी मिलेगा, कि क्यों इसे लगता है जो बेनाम अधूरापन है वो दरअसल अपने आत्म की तलाश है, क्यों इसे लगता है कि जो विज्ञान के तमाम समीकरण नहीं समझा पाते उसे कविता आत्मा पर अंकित कर देती है कुछ ही शब्दों में..

बात सिर्फ़ इतनी सी है कि मैं वैसी ही हूँ जैसी मेरे मोहल्ले में कतारों में सजे घरों में रहने वाली कई औरतें हैं. सुबह से रात तक जो गृहस्थी में उलझी होती हैं और बीच बीचे में छोटे अंतराल निकालकर झाँक लेती हैं अपने अन्दर, टटोलती रहती हैं मन को, कि वो क्या है जो इसे बेचैन करता है जबकि सब काम अपने समय और गति के अनुसार होते चले जा रहे हैं. ऐसे ही खाली समय में वो निहारती हैं अपनी हथेलियों को और उनकी आँखों से झांकते हैं मूक प्रश्न, वो तलाशती हैं जवाब रेखाओं के उस अंतरजाल में जिसकी न लिपि जानती हैं न व्याकरण…                                    

भारतीय परम्परा में हथेलियों की रेखाओं को जीवन से जोड़ कर देखा जाता रहा है. यह बात और है कि इसी जमीन पर ऐसे तमाम लोग हुए जिन्होंने इन रेखाओं को झुठलाते हुए इनके समानान्तर अपने परिश्रम से जिस रेखा को खींचा वह उनके जिजीविषा का अप्रतिम उदाहरण बन गयीं. विज्ञान के विकास ने भी इस भारतीय मिथ को मिथ्या साबित किया है. स्त्रियाँ जो किसी भी संस्कृति में आमतौर पर परम्परा की वाहक होती हैं, भी इन रेखाओं के रहस्य को जानने-समझने लगीं हैं और इन्हें झुठलाने का माद्दा जुटाने लगीं हैं. भावना मिश्रा ऐसी ही कवियित्री हैं जिन्होंने रेखाओं को लेकर एक श्रृंखला में कई कविताएँ लिखीं हैं. 

कविता और कला का एक दूसरे से अनन्य सम्बन्ध जगजाहिर है. कवि-चित्रकार के. रवीन्द्र ने इन कविताओं पर बेहतरीन पोस्टर बनाए हैं. इन पोस्टर्स से आप यहाँ कविता और कला के अंतर्संबंधों को स्पष्ट तौर पर परख सकते हैं. तो आइए पढ़ते हैं शब्द भावना मिश्रा के और रंग के. रवीन्द्र के.     

 

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