पल्लव की किताब ‘कहानी का लोकतन्त्र’ पर रेणु व्यास की समीक्षा


आमतौर पर हिन्दी कहानी के क्षेत्र में आलोचना की स्थिति बेहतर नहीं रही है। यह सुखद है कि इन दिनों कुछ युवा आलोचक इस क्षेत्र में तन्मयता से अपना काम कर रहे हैं। इन युवा आलोचकों में पल्लव का नाम महत्वपूर्ण हैकहानी आलोचना पर पल्लव की एक किताब हाल ही में प्रकाशित हुई है- ‘कहानी का लोकतन्त्र’ नाम से। इस किताब की एक समीक्षा पहली बार के लिखा है रेणु व्यास ने। तो आइये पढ़ते हैं यह समीक्षा।       
कहानी का लोकतंत्र’ रचती आलोचकीय दृष्टि
रेणु व्यास
                                                                                          
वर्तमान युग की प्रतिनिधि साहित्यिक विधा निर्विवाद रूप से कहानी है। आज की अधिकांश साहित्यिक पत्रिकाओं के केन्द्र में कहानी है। कहानीकारों की संख्या तो किसी भी संभव अनुमान से भी कहीं ज़्यादा है। फिर भी कहानी की आलोचना पर नई पुस्तक आना अपने आप में एक बड़ी घटना है।
काव्य और नाटक की आलोचना की हमारे यहाँ समृद्ध परम्परा रही है। किंतु काव्य’ को साहित्य का पर्याय मानने वाली भारतीय परंपरा से हमें कथा-विधा की आलोचना के मानदण्ड प्राप्त नहीं होते। यह एक प्रमुख कारण है कि हिन्दी के साहित्यिक जगत् में कथा-साहित्य का रचना और प्रकाशन के स्तर पर बहुसंख्यक होने के बावज़ूद कथा-विधा की आलोचना के क्षेत्र में नई कहानी’ के दौर के बाद कोई बड़ी आलोचना की पुस्तक नहीं आई। कथा-साहित्य में भी उपन्यास की आलोचना के मानक काफी हद तक स्थापित हो चुके हैं, मगर कहानी’ की आलोचना की स्थिति आज भी अराजकता की ही है। इसके लिए काफी हद तक इस विधा की प्रकृति भी जिम्मेदार है। कहानी-विधा की यह विशेषता है कि इसे अनगिनत तरीके से कहा/रचा जा सकता है। मानव-मन गूढ़ वृत्तियों से लेकर विश्व युद्धों जैसे व्यापक मानवता को छूने वाले विषय भी कहानी का कथ्य बन सकते हैं। हिन्दी की प्रारंभिक कहानियाँ निबंध का रूप लिए थीं। फिर घटना-प्रधान कहानियों का दौर आया। इसके बाद कथानक और घटनाओं की न्यूनता वाली कहानियों का दौर आया। कहानी ने इतिवृत्तात्मकता से लेकर पत्र, डायरी, संस्मरण, रिपोर्ताज़, यहां तक कि कविता का भी चोला अंगीकार किया, किंतु इन सारे बाहरी परिवर्तनों के बाद भी वह रही कहानीही। सैंकड़ों कहानीकार! हरेक की अपनी निजी विशेषताएँ! साथ ही हर कहानीकार द्वारा रची गई सैंकड़ों कहानियाँ, जो कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से विविधता लिए होती हैं और प्रत्येक कहानी अपने मूल्यांकन के लिए नवीन कसौटी की माँग करती है। कथ्य की विविधता के साथ-साथ रचना-शैली और शिल्प की यही विविधता जिस स्पेस’ का सृजन करती है, वही कहानी का लोकतंत्र’ है।
नवोदित आलोचक पल्लव की पहली आलोचना पुस्तक का शीर्षक ही कहानी का लोकतंत्र’ है। जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से स्पष्ट है, इसमें आज के हिन्दी कहानी-जगत् को अपनी संपूर्ण विविधता में एवं ब्योरों की व्यापकता में एक पुस्तक में समेटने का प्रयास है। इस पुस्तक में तीन खंडों में बँटे बीस आलोचनात्मक लेख हैं, जो हिन्दी कहानी के विभिन्न पहलुओं को स्पर्श करते हैं। मूलतः ये सभी लेख कथा-साहित्य की व्यावहारिक आलोचना के उदाहरण हैं, किंतु इनकी यह भी विशेषता है कि आलोचक इन विविध कहानियों के उदाहरणों के बीच से भी आगमनात्मक विधि से छोटी-छोटी सैद्धांतिक स्थापनाएँ भी देते चलते हैं।
सैकड़ों ही नहीं हज़ारों कहानियों के डिटेल्स इस पुस्तक में दिए गए हैं। लेकिन आलोचक इन ब्योरों का वर्णन करके ही अपने कर्तव्य की इति श्री नहीं मान लेते। इन डिटेल्स के भीतर से सूक्ष्म और सारभूत सिद्धांतों का अंकुरण भी करते हैं। कथालोचक पल्लव मानते हैं कि कहानी सबसे पहले कहानी होनी चाहिए। पठनीयता और रोचकता कहानीपन की सबसे प्राथमिक शर्त है। पाठकीय भागीदारी का आह्वान करती कहानीलेख में ये लिखते हैं – “आस्वादन कहानी की जरूरी शर्त है, अरोचक कहानी कोई क्यों पढ़ेगा?  एवं इसी लेख में वे आगे लिखते हैं –अब यह समय नहीं कि कोई पाठक कुछ ब्यौरे जानने के लिए या समस्या को समझने के लिए ही कहानी पढ़ने बैठ जाए, इसके लिए उसके पास कहानी से बेहतर माध्यम मौज़ूद हैं।“ कहानी की बनावट को जरूरी मानते हुए उन्होंने लिखा है- कथ्य की विदूपता को कहानी की बनावट में यदि रोचक तरीके से ना कहा गया तो कहानी निबन्ध या कोरा गप्प होकर भी रह सकती है।
इस पुस्तक में लेखक की सबसे बड़ी विशेषता है – आलोचना में कहानी के कथ्य और शिल्प दोनों को बराबर का महत्त्व देना। पुस्तक के हर लेख में आप इन दोनों क्षेत्रों का आनुपातिक सामंजस्य देख सकते हैं। कलावादी माने जाने वाले कृष्ण बलदेव वैद की प्रतिनिधि कहानी मेरा दुश्मन’ के संबंध में पल्लव लिखते हैं -दरअसल वैद मनुष्य के भीतर खुद ही गढ़ लिए गए उस द्वीप से लड रहे हैं जो मनुष्य को जीवन की सच्चाई से दूर ले जाता है। यह द्वीप मनुष्य अपने लोभ, कामना, वासना, और विलास के कारणों से बनाता जाता है। जब उसका सामना इनसे होता है तो वह बेचैन होकर इनसे पीछा छुड़ाने की हरसंभव कोशिश भी करता हैं। आलोचक की नज़र में कहानी सबसे पहले कहानी हो, यह कहानी की प्राथमिक शर्त तो है, किंतु यही इसकी एकमात्र सीमा नहीं। कथ्य और शिल्प दोनों को अपनी निगाह में रखते हुए भी आलोचक की प्रगतिशील दृष्टि इस पुस्तक में सदैव अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। कहानियों के साथ-साथ उनके ताने-बाने से झांकती वर्ग-विषमता, दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श हो या पूंजीवादी भूमंडलीकरण और बढ़ता हुआ बाज़ारवाद या उपभोक्तावाद कुछ भी आलोचक की दृष्टि से ओझल नहीं हुआ है। तय था हत्या होगी’ लेख में पल्लव लिखते हैं – “यह पूंजीवादी भूमंडलीकरण की नीतियों का ही परिणाम है कि हमारे यहाँ किसानी पर सबसे ज़्यादा मार पड़ी है और देश के सबसे सम्पन्न इलाकों के किसानों ने सबसे ज़्यादा आत्महत्या की।“
दरअसल इस पुस्तक में संकलित लेखों में जिन कहानियों को संदर्भित किया गया है, उनके चयन के पीछे भी आलोचक की यही प्रगतिशील दृष्टि कार्य कर रही है। अकारण नहीं कि नये कहानीकारों की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं – वस्तुतः किसी भी रचनाशीलता का विकास अपनी परम्परा से टकराकर और यथार्थ के नये स्वरूप को खोज कर ही हो सकता है। यह चुनौती इन कहानीकारों के समक्ष है। 
अब एक नज़र पुस्तक की भाषा पर भी! पुस्तक की भाषा मानक हिन्दी होते हुए भी एक नई रव़ानी लिए हुए है। लिखने की भाषा से भी ज़्यादा यह बातचीत या बोलचाल की भाषा के करीब है। बीच-बीच में पल्लव मुहावरों ओर कहावतों का भी उचित प्रयोग अपने लेखों में करते हैं – “भारत खेती -किसानी करने वालों का देश है, यहीं उत्तम खेती मध्यम बान, नीच नौकरी भीख निदान’ जैसी कहावत प्रचलित हो सकती थी।
आलोचना के शाब्दिक इन्द्रजाल से कोसों दूर इस पुस्तक की भाषा कहानी और पाठक के बीच एक सहृदय मध्यस्थ दोस्त की भाषा है। एक और मज़ेदार बात यह है कि कहना न होगा कि’ यह वाक्यांश जिस बहुलता के साथ नामवर जी के आलोचना साहित्य में आता है, उसकी एक झलक इस पुस्तक में पल्लव की भाषा में भी देखी जा सकती है।
इस पुस्तक के जरिए पल्लव कहानी को और उसकी आलोचना की दुनिया को उसकी विविधताओं और विशिष्टताओं के उद्घाटन के साथ और अधिक लोकतांत्रिक बनाने में सफल हुए हैं।
कहानी का लोकतंत्र : पल्लव
आधार प्रकाशन, पचकूला (हरियाणा)
मूल्य- रु 250/-
सम्पर्क- 

29, छतरी वाली खान, सेंती,  
चित्तौड़गढ़
312001(राजस्थान)

मो. – 09461392200

राजेश जोशी की पुस्तकं ‘किस्सा कोताह’ की पल्लव द्वारा समीक्षा

राजेश जोशी जितने उम्दा कवि हैं उतने ही उम्दा गद्यकार. उनकी गपोड़ी की डायरी से तो आप सब परिचित ही होंगे. राजेश जी की ये सारी गप्पें (जो विशुद्ध गप्प भी नहीं है) अब एक किताब ‘किस्सा कोताह’ के रूप में आ गयी है, इस किताब की एक समीक्षा लिखी है युवा आलोचक पल्लव ने. तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा.       
एक बनारस ही नहीं इस कायनात में
उर्फ़ एक भोपाली का बर्रूकाट गद्य

पल्लव

अगर काशी का अस्सी, बना रहे बनारस और बहती गंगा जैसी किताबें न होतीं तो क्या हम बनारस को जान पाते? हम यानी वह पाठक समाज जो बनारस नहीं गया है, बनारस में नहीं रहता। कवि राजेश जोशी ने अभी एक किताब लिखी है – ‘किस्सा कोताह’, और यहाँ भोपाल जिस तरह किताब में आया है उसे देख.पढ़ कर आपको भोपाल में बसने का मन करने लगे …हाय हम भोपाल में क्यों नहीं हुए। इसका मतलब यह है कि उस स्थान के बारे में लेखक ने जिस तरह लिखा है वह सचमुच अनूठा और मर्मस्पर्शी है। राजेश जोशी की यह किताब उनके बचपन से जवानी के बीच आये स्थानों पर लिखी गई है और यह न शहरनामा है न आत्मकथा। संस्मरण और रिपोर्ताज बिल्कुल भी नहीं। किताब के पहले ही पेज पर वे स्वयं साफ़ करते हैं -‘यह उपन्यास नहीं है। आत्मकथा नहीं है। शहरगाथा नहीं है और कोरी गप्प भी नहीं है। लेकिन यह इन्हीं तमाम चीज़ों की गपड़तान से बनी एक किताब है।’ यहाँ जोशी अपने लिए एक प्रविधि का चयन करते हैं ठीक कुरु कुरु स्वाहा वाले जोशी जी की तरह। यहाँ एक मैं यानी वाचक यानी राजेश जोशी हैं और दूसरा है गप्पी। ये दोनों मिल कर पाठकों से बातें करते हैं और बातों बातों  में डेढ़ सौ से ज्यादा पृष्ठ बीत जाते हैं तब आप चौंक जाते हैं अरे किताब कैसे खत्म हो गई? लेकिन यह खाली बीत जाना नहीं है हाथ में बहुत कुछ रह जाता है जिसे आप अपनी स्थायी पूंजी समझिये।

किताब की शुरुआत में राजेश जोशी ने क़िस्सों के बारे में एक भरतवाक्य लिखा है – ‘क़िस्सों का नगर क़िस्सों ने रचा है, उसमें आना है तो तथ्यों को ढूँढने की जिद छोड़ कर आओ।’ ऐसा ही इस किताब की शुरुआत गप्पी के बचपन से हुई है। नरसिंहगढ़ से, जो गप्पी की ननिहाल था। यहाँ किला है, राजा-रानी हैं और लोग बाग़ भी। अनेक बातें-किस्से आते हैं लेकिन आप इनकी तारीखें नहीं ढूंढ सकते। तारीखों में अगर इनको ढूँढा जा सकता होता तो भला इन्हें आने के लिए गप्पी की शरण ही क्यों लेनी होती? गप्पी की आदत है कि वे गप्पें मारते मारते अचानक बीच में ऐसी बातें कह देंगे कि आप सोचते रह जाएँ। देखिए तो  . ‘सबको अपना बचपन याद आता है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ तो और भी ज्यादा। उनको भी जिनके बचपन में सुख के क्षण नहीं थे या बहुत कम थे। समय बीत जाने के बाद सबसे बुरे दिनों का अनुभव हर व्यक्ति के सबसे मजेदार किस्से की तरह सुनाता है।’  गप्पी के बचपन का ऐसा वर्णन है कि आपका भी मन नरसिंहगढ़ में जा बसने का होता है। फिर जब गप्पी की माँ पीहर से अपने ससुराल भोपाल आईं तब गप्पी को भोपाल देखने का अवसर मिला और यह वह शहर था जिसे गप्पी का शहर होना था। अपने ख़ास रंग वाला भोपाल, अपने ख़ास ढंग वाला भोपाल।

गप्पी इस भोपाल की सैर कराते हैं, यहाँ की असली विभूतियों से आपकी भेंट करवाते हैं और आपको समझ में आने लगता है कि क्यों एक बनारस ही नहीं इस कायनात में। कुछ वाक्य देखिये-

‘सड़कें नवाबों के लिए छोड़ दी हैं लेकिन गलियों के नाम में नवाबों और बेगमों को घुसने की इजाज़त नहीं।’

‘गप्प जब तक अविश्वसनीय न हो तब तक भोपालियों को मजा नहीं आता।’
‘भोपाल की चार चीज़ें मशहूर थीं .ज़र्दाएगर्दाए पर्दा और नामर्दा।’ 

राजेश जोशी

ऐसे ही भोपाल की भाषा पर खासा विवेचन है . ‘भोपाल की भाषा में कई तरह की मिलावट थी। उसमें बुन्देली, मालवी, उर्दू और गालियाँ सबकी जगह पहले से ही तय थी। यहाँ की उर्दू थोड़ी अलग थी। भोपालियों का मानना था कि लखनऊ की उर्दू जनानी उर्दू है और भोपाल की मरदाना उर्दू। …कई शब्द भोपाली के अपने थे और उन्हें बोलने के अंदाज भी उसके अपने थे। शब्द के बीच में आने वाले (ह) का यहाँ लोप हो जाता था। भोपाल का मामला बिहार से एकदम उलटा था। पहले या पाहिले बोलना हो तो बोला जाएगा पेले। ऐ और औ की मात्रा बोलना भोपालियों के खाते में नहीं आया था। मात्राएँ लगाने और बोलने में  हम काफ़ी किफ़ायती थे। पैसे को ‘पेसे’ और कैसे को ‘केसे’ बोला जाता।’ भोपाल की यह भाषा भाषा विज्ञान की दृष्टि से कुछ महत्त्वपूर्ण हो न हो इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण है कि यह भोपालियों की आजाद खयाली और अपने ढंग से जीने-बोलने के अंदाज का परिचय देती है। कहना न होगा कि इस भूमंडलीकरण द्वारा बनाए जा रहे विश्व गाँव से भोपाल और बनारस जैसी जगहों का रिश्ता कैसा हो सकता है? इसे स्थानिकता का प्रतिरोध समझना चाहिए जो अपने ढंग का होने की जिद में अड़ा रहने की हिम्मत रखता है। मजे की बात देखिये कि किताब भी ठीक इसी जगह भोपाल के अनूठे शायर ढेंढ़स भोपाली का जिक्र करती है। उनका एक फड़कता हुआ शेर-

शाहने सलफ़ करते थे बरतरफ़ी बहाली
तखफ़ीफ़ यह किस भोसड़ीवाले ने निकाली।

हुआ यूं था कि नवाब साहब के जमाने में शाइर साहब को एक नौकरी दी गई थी जिसमें उन्हें महीने में केवल एक दिन जाना होता था तनख्वाह लेने। कोई नया अधिकारी आया और उनकी बर्खास्तगी का आदेश निकल गया तो ढेंढ़स भोपाली साहब ने आदेश के ठीक पीछे यह शेर लिख कर कागज लौटा दिया। कागज़ होते-होते नवाब साहब तक पहुंचा और ढेंढ़स भोपाली साहब फिर बहाल हो गए।

तो क्या बनारस और भोपाल जैसे हमारे शहर असल में निकम्मों-नालायकों के कारण बर्बाद हुए? हमारा देश (अगर वह देश था) मध्यकाल और उसके बाद ऐसे ही अकर्मण्य लोगों के कारण यूरोप से मार खा गया और हम गुलाम हुए? शायद नहीं, सामंती युग में मनोरंजन के साधनों के अभाव में समाज में ऐसे चरित्रों के होने-रहने की गुंजाइश थी। ‘किस्सा कोताह’  इस शहर के अनूठेपन के चित्र ही नहीं बताती अपितु अपने ढंग की देशज आधुनिकता भी यहाँ विद्यमान है और यह अंग्रेजों के आगमन से ही नहीं आई है बल्कि ठेठ इसे देखा-खोजा जा सकता है। भोपाल जिन दिनों आजादी के बाद विलीनीकरण आन्दोलन से गुजर रहा था और वहां पहली विधानसभा बनी, तब एक किसान खुशाल कीर ने नई विधानसभा का दृश्य देखकर दोहा कहा –

पाँच पंच कुर्सी पर बैठे, फट्टन पर पच्चीस
राज करन को एक कमीश्नर झक मारन को तीस
(फट्टन=टाट पट्टी)
बताइये।

किस्सों के बीच बीच में गप्पी ने कई दिलचस्प चरित्रों से मिलवाया है। खुद गप्पी के दादा जी को ही देख लीजिये, जिन्हें घर में बा साहब कहा जाता था। ये ऐसे बा साहब हैं जो ‘खाना खाने से पहले हर पूरी को तौल-तौल कर देखते’ क्योंकि किसी हकीम ने बता दिया था कि आप बराबर वजन की रोटियाँ या पूरियाँ खाया करो। अनोखी बात यह होती है कि इन्हें एकाएक भान हो जाता है कि प्रेमनारायण जी नहीं रहे …और घंटे भर में सचमुच तार भी मिल जाता है। यह गप्पी की उड़ान है या जादुई  यथार्थ। जो भी है, पाठक किताब मे रम जाता है। यह पाठकों को बहलाने का नुस्खा नहीं है अपितु जीवन के ठेठ बीहड से आई सचाई है। एक जगह प्रसंगवश आया है –  ‘उड़ना गप्पी का प्रिय शब्द था। उसे उड़ने वाली हर चीज़ पसंद थी। परिंदे हों, पतंग हों या उड़ने वाले गुब्बारे या कोई मजेदार सी अफवाह।’ असल में एक बन्द समाज में ही उड़ने के मार्ग खोजे जाते हैं। इस बन्द और तंग समाज का यह चित्र भी देखिये- ‘इतना परदा था कि गप्पी की माँ ने अपने ही घर का बरामदा अठारह, उन्नीस बरस बाद तब देखा था जब बाबा का निधन हो गया। गप्पी की माँ जब नरसिंहगढ़ से भोपाल आतीं तो हाथ भर का घूंघट किये रहतीं, उस पर एक चादर और ओढ़ना होती थी। जो ताँगा बस स्टेंड से उन्हें लेने जाता उसमें चारों तरफ परदे लगे रहते। जब ताँगा घर के दरवाजे पर आता तो दो नौकर ताँगे से घर के दरवाजे तक दोनों तरफ चादर का परदा तान कर खड़े होते। माँ उसमें से निकल कर ऊपर चली जातीं।’ यह है जीवन। आप जिसमें इतना रस ले रहे थे उस सुंदर के भीतर क यह असुंदर राजेश जोशी छिपाते नहीं । और तभी जाने क्यों ऐसे अंश पढते हुए आपको मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘कसप’ याद आ सकता है। शायद इसका कारण भाषा हो। शायद किस्सागोई हो। शायद जीवन में इतना रस लेने की शक्ति दोनों को यादगार बनाती हो। शायद वर्णन की अद्भुत क्षमता ऐसा करती हो। पता नहीं …या सारी ही बातें सच हों शायद।

कोई शहर हो जिसमें तरह तरह से जीवन खिलता दीख रहा हो और ऐसा कि पाठक का मन करे कि मैं यहीं क्यों न हुआ?  अगर वहां पागल न हो तो वह शहर शहर नहीं हो सकता। यहाँ भी एक से एक प्यारे पागल हैं, उनकी सनकें हैं और उनकी चिढावनियां भी हैं। इन पागलों से आपको मिलवाने के बाद राजेश जोशी लिखते हैं- ‘बाजार के पागलपन ने असल पागलों की सारी जगहों को हथिया लिया है। यह पागलपन उस पागलपन से ज्यादा खतरनाक है … …सामान्य लोग इतने यांत्रिक नहीं हुए थे कि पागलों को शहर से बाहर निकालने की मांग करने लगें। पागल, लोगों की फुर्सत के पलों का मनोरंजन थे। इस मनोरंजन से पागलों और शहर के बीच एक रिश्ता बना रहता था। मजे लेने में थोड़ी हिंसा थी, पर जैसे ही इस हिंसा का प्रतिशत गड़बड़ाता तो लोगों के मन में एक अपराधबोध कुलबुलाने लगता और वह पागलों के लिए कुछ न कुछ करने को दौड़ पड़ते। भोपाल में भोला बाबा जैसे पागल हैं तो मामा भिंड़ी, दादा तामलोट, दादा खैरियत, अंडे चोर और नेहरू जी की अम्मा, पागलपन व्यावहारिकता का प्रत्याख्यान है।’

किताब में राजेश जोशी आपको बार-बार हंसाते हैं, गुदगुदाते हैं और फ़िर छोड देते हैं और आप सोचते रह जाते हैं कि ये चाहते क्या हैं भला? देखिये तो-  

‘निक्कर के नीचे चड्डी पहनने का चौंचला तब नहीं था। मुझे रोना आ रहा था और मैं रो नहीं सकता था।’

‘कोष्ठक को भाषा का कान मान लें तो मैं उस कहावत को कान में सुना सकता हूँ। दद्दा मियाँ का लौ…, चाँद मियाँ की गाँ… और पुनिया नाइन का भो…।’

क्यों कहना पडा भाई कान में? जब भोपाली सबके सामने कहते हैं, बनारसी सबके सामने हर हर महादेव का  असल जयकारा लगाते ही हैं तब हम हिन्दी के पाठक क्यों कोष्ठकों में बंद हैं? यह किताब और और कारणों के साथ इस लिहाज से भी यादगार है कि यह आपको कोष्ठकों के बाहर निकालती है। काश हमारे देश के कोनों-कोनों में फ़ैले ऐसे शहरों कस्बों पर ऐसी दिलचस्प किताबें आ सकें ताकि हम कोष्ठकों में कैद ही न रह जायें।

 


सम्पर्क- 

पल्लव
फ्लेट न.- 393 डी. डी. ए.
ब्लाक सी एंड डी
कनिष्क अपार्टमेन्ट,  शालीमार बाग़
नई दिल्ली.110088
मोबाईल-  8130072004

(युवा आलोचक पल्लव इस समय की एक बेहतरीन पत्रिका बनास जन के सम्पादक हैं. साथ ही ये दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में प्राध्यापक हैं)