कैलाश बनवासी के उपन्यास ‘लौटना नहीं है’ पर विनोद तिवारी की समीक्षा ‘समाज का बंद घेरा बहुत मजबूत होता है’

कैलाश बनवासी


कैलाश बनवासी का एक महत्वपूर्ण उपन्यास आया है ‘लौटना नहीं है। यह उपन्यास इस मायने में अहम् है कि आज के निम्नमध्यम वर्गीय स्त्री जीवन की पड़ताल करने के साथ-साथ इन स्त्रियों में अपने जीवन के प्रति आयी चेतना को भी बखूबी सामने रखा है। जिस पल उपन्यास की नायिका गौरी यह निश्चय कर लेती है कि उसे अपनी बदहालियों की तरफ नहीं लौटना है भले ही उस पर सामाजिक, धार्मिक या सांस्कृतिक तोहमतें लगायी जाएँ, उसी पल उसका एक वह चेहरा उभर कर सामने आता है जिसे आम तौर पर स्त्री चरित्र के अनुकूल नहीं समझा जाता। कैलाश की रचनात्मक प्रतिबद्धता यहीं पर दिखायी पड़ती है। और साहित्य भी तो वही होता है जो सामयिक चेतना और बोध को स्पष्ट तौर पर सामने रखने का साहस कर सके। इस उपन्यास के बहाने आलोचक विनोद तिवारी ने हिन्दी उपन्यास की अंतर्यात्रा की पड़ताल करने की एक कोशिश की है। विनोद को हाल ही में आलोचना के लिए पहला बनमाली सम्मान प्रदान किया गया है। उन्हें इस सम्मान की बधाई देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी यह समीक्षा। तो आइए पढ़ते हैं विनोद तिवारी की यह समीक्षा ‘समाज का बंद घेरा बहुत मजबूत होता है।’  
      
समाज का बंद घेरा बहुत मजबूत होता है
(‘सेवासदन’ से ‘बालग्राम’ तक हिंदी उपन्यास की अंतर्यात्रा)
विनोद तिवारी
अपनी रचना में लेखक अपना घर बसाता है। जिसका कोई घर नहीं होता
उसके लिए  रचना ही वह जगह है, जहाँ वह जी सके।  -थियोडोर अडोर्नो
कैलाश बनवासी हिंदी कथा की समकालीन पीढ़ी के रचनाकारों में एक चर्चित और भरोसे का नाम है। अपनी कहानियों से कैलाश बनवासी ने इस भरोसे को बरकरार रखा है, उस जमीन को और पुख्ता किया है। ‘बाजार में रामधन’, ‘सुराख’, ‘खतरे के निशान से ऊपर’, ‘दृश्य कथा’ आदि कहानियाँ बतौर उदहारण पेश की जा सकती हैं। निम्नमध्यम-वर्ग के जमीनी यथार्थ और सामाजिक-संरचनाओं की पाखंडी विद्रूपताओं को जिस गहरी स्थानिक संपृक्तता के साथ, हाहाहूती और सर्वग्रासी बाजारवाद की अर्थ-संरचना और मायाजाल को जिस देसीवाद की साफ़ समझ के साथ कैलाश बनवासी अपनी कहानियों में जिस तरह से उद्घाटित करते हैं  वह उनकी रचनात्मक क्षमता का प्रमाण है। ‘लक्ष्य तथा अन्य कहानियाँ’, ‘बाज़ार में रामधन’ और ‘पीले कागज़ की उजली इबारत’ जैसे कहानी संग्रहों के बाद कैलाश बनवासी का उपन्यास ‘लौटना नहीं है’ आया है। यह उनका पहला उपन्यास है। समकालीन कथा साहित्य में इधर एक प्रवृत्ति बहुत तेज़ी से बढ़ी है। दो-चार कहानियाँ लिख लेने वाला कहानीकार भी यह कहता हुआ मिल जाएगा कि, वह इन दिनों एक उपन्यास पर काम कर रहा है गोया कहानी लिखना हेठी का काम है। बिना उपन्यास लिखे वह शायद महानता की दौड़ में पिछड़ न जाय। अब कौन कहे? कि, जो अच्छी कहानी नहीं लिख सकता वह ‘कहानियाँ’ कैसे लिख सकता है। उपन्यास एक-वचनात्मक और एकवाची कहानी-रूप नहीं है वरन वह मानवीय-सभ्यता के सामजिक और ऐतिहासिक प्रगति और अंतर्विरोधों का सांस्कृतिक सूत्रीकरण करने वाली सबसे सशक्त और कारगर अनेकवाची विधा है। वह समाज और व्यक्ति के रिश्तों, विरोधों और अंतर्द्वंद्वों को सम्पूर्णता के साथ पकड़ने की कोशिश करता है। मनुष्य के मानसिक और सामाजिक जीवन के विविध व्यापारों को जिस ढंग से उपन्यास में निबद्ध किया जा सकता है, वह इसे अन्य विधाओं की तुलना में एक विशिष्ट आयाम प्रदान करता है।
वस्तुतः उपन्यास अपने समय-समाज की एक सांस्कृतिक अन्तःप्रक्रिया का अनुभवात्मक आत्मवृतान्त होने के साथ-साथ सामूहिकचेतना का (और जड़ता का भी) प्रातिनिधिक बयान  होता है । जहाँ एक ओर अपने समय-यथार्थ को बदल-बदल कर व्यक्त करने का कथारूप है, वहीं दूसरी ओर धर्म, समाज, जाति, व्यवस्था, आदि के शोषण, पाखण्ड, झूठ, स्वांग और मुखौटों वाली सभ्यता-संरचना को वह उजागर करता है, उसका एक प्रत्याख्यान रचता है। ‘लौटना नहीं है’ एक ऐसा ही उपन्यास है जिसमें उपन्यासकार खुद ही राजेश के रूप में नैरेटर की भूमिका का निर्वाह करता है । यह उपन्यास छतीसगढ़ के गरीब, श्रमजीवी, निम्न-मध्यवर्गीय स्त्री-जीवन के सामाजिक-यथार्थ का एक ऐसा अनुभवात्मक आत्म-वृत्तांत है जिसमें एक बहन की पीड़ा को, उसके विवश जीवन को उसी के छोटे भाई द्वारा नैरेट किया गया है।
राजेश (नैरेटर) का एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार है। इस परिवार में माँ, पिता, काकी, काका, बड़ी बहन गौरी, छोटी बहन और खुद राजेश। यह परिवार दुर्ग (छ.ग.) में संतराबाड़ी के बुनकर संघ के पीछे से लगे नाले के पास रहता है। इसी ‘लोकेल’ को, उसकी सामाजिकता को, इस बस्ती में जीवन-यापन कर रहे अति सामान्य और साधारण लोगों के जीवन-यथार्थ को यह उपन्यास अपनी यथार्थवादी रचनात्मकता में प्रस्तुत करता है। उपन्यासकार खुद ही उपन्यास में एक जगह अपने उपन्यास के बारे में लिखता है -“साधारण लोगों की साधारण कहानी और उतना ही साधारण अंत। ऐसी कहानी कोई लेखक नहीं लिखता। अगर लिख भी ले तो छपेगी नहीं। कथा पत्रिकाओं के दिल्ले के नामी-गिरामी  संपादक इसे यह कह कर लौटा देंगे कि इसके पात्र बहुत कमजोर हैं, कहानी में भी दम नहीं है और तो और इसका अंत भी बहुत फुसफुसा है। इसलिए, लेखक गण दमदार लोगों की दमदार कहानी लिखते हैं, जिनके अंत भी दमदार होते हैं जिन्हें पाठक गण भी बहुत पसंद करते हैं, ‘भाई वाह, क्या कहानी है।’ प्रश्न फिर भी बचा रह जाता है –जिनके जीवन में ऐसा कोई धमाका नहीं होता, क्या उनका जीवन इतना ही सतही या निरर्थक होता है जितना हम समझते आ रहे हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिसे हम सच्ची कहानी समझ रहे हैं, वह महज ‘कहानी’ ही है –कहने-सुनने की कहानी? हमारा यथार्थ जीवन नहीं।” (p. 81)
निश्चित ही, उपन्यासकार की यह साफगोई उपन्यास को किसी बड़े दावे और महत्व के दबाव से मुक्त करती है। फिर भी, यह उपन्यास जिस विषय को अपनी रचनात्मक उपलब्धि के साथ सामने ले आता है और उसमें समाज और इतिहास की दृष्टि से जिस तरह अति सामान्य भारतीय स्त्री के जीवन–यथार्थ की उस शाश्वत छवि को प्रश्नांकित करता है, महत्वपूर्ण बन जाता है।  यह प्रश्नांकन ही इस उपन्यास की रचनात्मक सचाई को प्रामाणिक बनाती है। उपन्यास एक ऐसा शिल्प है जिसमें, गल्प-तत्व की, आख्यान-परकता की जरूरत पड़ती है। ‘यथार्थ’ के वास्तविक को रचने के लिए कई बार उस यथार्थ को उसकी परवशता और निराशा के साथ रचना पड़ता है। उसे बिना कल्पनाजन्य किसी घटना और पात्र के वास्तविक परिस्थितियों और घटनात्मकता में अपनी मूल रहन में प्रस्तुत करना पड़ता है। अनुभव की निजता के सहारे कहन को उपन्यासकार ‘फिक्शनल’ रूप और आकार देता है । दरअसल, इसे ही औपन्यासिक कला कहा जाता है। ‘रियलिस्टिक सिचुएशंस’ को ‘फिक्शनल-रियलिटी’ में उपन्यासकार कैसे परिणत कर पाता है, इसी में उसकी सफलता है। गौरी वास्तविक होते हुए भी इसीलिए ‘फिक्शनल’ चरित्र है और उपन्यास में आकर अपनी सामजिक और ऐतिहासिक नियति में वह उस स्त्री-वर्ग  का प्रातिनिधिक चरित्र बन जाती है जिसे तरह-तरह की सामजिक-धार्मिक परम्पराओं, रुढियों, घेरेबंदियों से मुक्ति नहीं। इसी घेरेबंदी को तोड़ने के अपने प्रयासों में वह एक नहीं कई-कई बार टूटती है, हिम्मत कसती है फिर भी यह ढांचा अपनी जड़ों में इतना मजबूत है कि वह हार जाती है। निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों की हालत और उन हालातों में उन घरों की लड़कियों और महिलाओं की अवश, मजबूर जीवन जीते और हारते, पिछड़ते, छोड़ते अपने को होम कर देने की विवश पीड़ा का जीवन-यथार्थ इस उपन्यास का कथ्य है। क्या ‘बालग्राम’ गौरी का स्वैच्छिक चयन है? क्या वहीं रह जाने और वहाँ से न लौटने का निर्णय उसकी खुशी-ख़ुशी का निर्णय है । “निषाद, चौरे, गुप्ता, राजेश सब बालग्राम की असलियत जान लेने के बाद भी एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि क्या वे अपनी लड़कियों, बहनों या भतीजियों को यहाँ छोड़ेंगे। गुप्ता के पूछने पर कि, ‘राजेश तुम क्या अपनी बहन गौरी को यहाँ छोड़ोगे?’ राजेश का उत्तर है, “ हाँ, अगर उसे यहाँ रहना पसंद है तो। आखिर वहाँ भी रहेगी तो उसका जीवन कुछ बदलने वाला नहीं बल्कि ये जगह उसके लिए घर से ठीक है।… कहते हुए मेरे सामने गौरी का चेहरा था।… अपने समाज को तो आप जानते हो। नहीं शायद हम लोग उसे उतने अछे से नहीं जानते जितनी ऐसी लडकियां! वरना क्या कारण है कि, लड़कियां यहाँ ख़ुशी-ख़ुशी रहने को राजी हैं, इतने कष्टों को जानने के बाद भी, ऐसा जेलखाना होने के बाद भी।” (p. 238)  

यह उपन्यास गौरी और उस जैसी अनेकों लड़कियों के इसी विवश और हारे हुए निर्णय के पीछे की उस सामाजिक और धार्मिक संरचना को बेपर्द करता है जिसे परम्परा और संस्कार के नाम पर वैध ठहराया जाता है। गौरी, जिस समाज में रह रही है उस समाज में लड़की एक बोझ की तरह होती है। माँ-बाप के लिए एक ऐसा बोझ जिससे मुक्ति जितनी जल्दी हो ब्याह में ही होती है। सत्रह साल की अपनी छोटी सी उम्र में ही गौरी ने दुख और संत्रास का जैसे पूरा जीवन भोग लिया हो। पढने-लिखने, बात-व्यवहार सबमें जहीन और सलीके वाली लड़की को 8वीं पास करने के बाद और आगे पढने से मना कर दिया जाता है। ऐसे समाज में ‘‘लडकी का ज्यादा पढना-लिखना अच्छी बात नहीं मानी जाती। ज्यादा पढ़-लिख लेने से लड़कियाँ बिगड़ जाती हैं।… बाबा यानी दादा का तो एकदम साफ़ कहना था कि, ‘और ज्यादा पढ़ कर क्या करेगी? लडकी जात कितना ही पढ़-लिख ले उसको तो आखिर चूल्हा ही फूंकना है।’ इधर माँ, काकी का कहना था, ‘ बेटियों को तो सयानी होते ही घर के काम-काज में चंट हो जाना चाहिए नहीं तो ससुराल में जाने पर मायके वालों की नाक कटेगी?” (p. 17-18). हमारे समाजों ने यह ‘नाक’ बनी रहे बची रहे इसी की संरचना तैयार की है। गौरी अब सयानी हो गयी है सोलह की उसकी उम्र हो गयी है। अब उसे साड़ी ही पहननी चाहिए सलवार-सूट की उसकी उम्र चली गयी। साड़ी पहनने के लिए सबसे अधिक दबाव माँ का ही है।  वह तर्क देती है, प्रतिवाद करती है पर नहीं। ‘जब  आपका चीजों पर बस नहीं चलता तो आप चुपचाप अपनी हार मान लेते हैं।’ (p.22). अब वह माँ-बाप के लिए चिंता का कारण है। उसकी शादी अब जितनी जल्दी हो जाय अच्छा होगा । घर मोहल्ले सब जगह गौरी की शादी की चिंता। घर तो घर सयानी लड़कियों की शादी की चिंता जैसे मोहल्ले वालों की साझा जिम्मेदारी हो।  शादी के लिए वर की तलाश शुरू हो जाती है। लडकी देखने के लिए ‘सगा’ (लडकी देखने आने वाले लोग) लोगों का घर पर आना शुरू हो जाता है। यह क्रम न जाने कितनी बार चलता है। अंततः रायपुर से भी आगे बिरतेरा गाँव के एक नवयुवक राज कुमार चौधरी से उसकी शादी पक्की कर दी जाती है। गौरी, का मन ही मन में कमल के प्रति जो प्यार अँखुआ रहा था वह सामजिक भय के भयानक दबाव के चलते सिर ही नहीं उठा सका। ‘सबकी हाँ में उसकी भी हाँ मान ली जाती है।’ खुद राजेश और उर्मिला एक दूसरे से प्यार करते हैं। उर्मिला दूसरी लड़कियों से भिन्न है। पूरे मोहल्ले में जिसे लड़के उसकी तेजतर्रार स्वभाव और तेवर के चलते लड़का-टाईप लड़की कहते हैं, क्या घर-परिवार के विरुद्ध जा कर, घर से भाग कर अपनी मर्जी की शादी कर पाती है? राजेश खुद ही नहीं इसके लिए तैयार है। पर, इस तरह की इक्का-दुक्का शुरुआत होने लगी है। अब लड़के-लडकियाँ घर से भागकर शादी कर रहे हैं। समय में बदलाव के संकेत मिलने लगते हैं। यह आठवें-नवें दशक का समय है जब सिनेमा धीरे- धीरे इस वर्ग में भी अपनी जगह बना रहा था और इस वर्ग के लड़के-लडकियां केवल बाहर ही नहीं बल्कि भीतर भी बदलाव महसूस कर रहे थे। फिल्म के परदे पर नायक-नायिका भाग रहे थे और इधर लड़के-लड़कियां भागने के मंसूबे बना रहे थे। इन दिनों हर किशोर लड़का-लडकी किसी न किसी के साथ भागने की तैयारी कर रहा था। “वे प्रेमी जोड़ों के अपने घरों से भागने के दिन थे। उनके भागने का आदर्श मौसम। इसमें सबसे ज्यादा उनकी मदद कर रहा था हमारे मनोरंजन का सबसे सस्ता और महान साधन सिनेमा। … प्रेमियों के प्रेम को परवान चढ़ा रहा था सिनेमा। पाकेट बुक्स के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशन नंदा के उपन्यास पर आधारित फिल्म ‘अजनबी’ के हीरो-हीरो इन राजेश खन्ना और जीनत अमान परदे घर से भागते हुए गा रहे थे – ‘हम दोनों दो प्रेमी दुनिया छोड़ चले, जीवन की हम सारी रस्में तोड़ चले।’ गुलशन नंदा के ही उपन्यास पर बनी यश चोपड़ा की फिल्म ‘दाग’ में राजेश खन्ना शर्मीला टैगोर का हाथ पकड़ कर गा रहे थे –‘अब चाहे माँ रूठे या बाबा यारा मैंने तो हाँ कर ली।’ इन्हीं दिनों भारतीय फिल्म उद्योग के सबसे बड़े शो-मैन राजकपूर की किशोर प्रेम पर आधारित फिल्म ‘बॅाबी’ सुपर हिट हो चुकी थी।… फिल्म में किशोर ऋषि कपूर कमसिन डिम्पल कपाडिया को मोटर-सायकिल पर बिठा के भगा ले जाता है ।” (p. 53)

परंतु, परदे का यह सिनेमाई सच वास्तविक जीवन का सच नहीं था। गौरी भी और उर्मिला भी ब्याह कर चली जाती हैं । पूरा परिवार यह जानते हुए भी कि गौरी का पति राजकुमार, अव्वल दर्जे का शराबी-कबाबी है, इस भरोसे के साथ और गौरी के भाग्य और नियति के साथ उसे ब्याह दिया जाता है कि, शादी के बाद सभी लड़के सुधर जाते हैं और गौरी जैसी लड़की उसे ठीक कर लेगी। और फिर सरकारी नौकरी में है। सब कुछ धीरे-धीरे ठीक हो जायेगा। सरकारी नौकरी, दरअसल राजकुमार के बारे में उसके घर वाले बताते हैं कि वह फारेस्ट विभाग में फारेस्ट गार्ड की नौकरी करता है। पर, शादी के बाद यह झूठ सबके सामने खुलता है। “गौरी का घर से शादी के बाद विदा होना बेटी का हँसी-ख़ुशी वाला विदा होना नहीं था। वह गहरे संशय से भरी विदाई थी जिसमें भविष्य के नाम पर केवल अँधेरा दीखता था।” (p. 111-12).  इस अँधेरे जीवन का वास्तविक पता तब चलता है जब तीज का त्यौहार आता है। “तीजा! कोई जानना चाहेगा कि छतीसगढ़ का सबसे बड़ा त्यौहार क्या है तो उत्तर होगा –तीजा। भादो के शुक्ल पक्ष की तीज को मनाये जाने वाले इस त्यौहार का महिलायें साल भर इंतज़ार करती हैं। सबसे ज्यादा प्रतीक्षित और मन की खुशी देने वाला। यह त्यौहार सुहागिनें अपने मायके में मानती हैं। बाप या भाई उन्हें लिवाने आते हैं। वह मायके आती हैं – अपने पुराने घर जहाँ उनका बचपन और किशोर दिन बीते।” (p. 120). गौरी की तो यह पहली तीज है उसे लिवाने राजेश और उसके पिता दोनों जाते हैं। वहाँ पहुंच कर घर की हालत और दशा देख कर ‘कहीं से नहीं लगता था यह नौकरीपेशा व्यक्ति की गृहस्थी है। राजेश पेशाब करने के लिए उपयुक्त स्थान खोजने के लिए घर से बहार निकल कर एक दिशा में चल देता है। तभी उसे एहसास होता है कि, एक बुढ़िया औरत मेरे पीछे-पीछे चली आ रही है मुझसे कुछ कहना चाहती है, मैं रुक गया। गौरी की पड़ोस में रहने वाली उस मराठी वृद्धा ने जो सचाई बताई वह कितना भयंकर है – “…बेटा तेरी बहेन भौत सीधी है, अच्छे आदत व्यवहार की है पर तेरा जीजा, वो भौतिच हरामी है बेटा। तुम लोगों ने उसकी शादी कैसे नीच आदमी के साथ कर दी। दुनिया में लड़कों की कोई कमी थी क्या? हे भगवान् इत्ती सुन्दर लडकी । अभी उम्र ही क्या थी। तेरा जीजा तेरी दीदी को भौत तांगता है, रोज दारू पीकर आता है, मारपीट करता है।…वो लडकी सच्ची में भौत बरदास करती है। पर वो हरामी तो एकदम राक्षस! मारता-पीटता है! कहाँ है तेरा दादा? मैं उससे पूछती हूँ, तेरी आँख नई थी क्या? बेटी को ऐसे गलत आदमी के साथ बांध दिए। घर में बेटी भारी पड़ती थी क्या, दो जून रोटी खिलाने में। इसको ले जाओ बेटा इस नरक से। तेरी बहन को इधर कोई सुख नहीं है।” (p.126). राजेश इस विदारक सचाई को सुन कर सुन्न हो जाता है। अन्दर ही अन्दर वह चीख-चीख कर रो रहा था – ‘मेरी दीदी को बचा लो कोई, मेरी दीदी को बचा लो कोई।’
बाप-बेटे गौरी को घर ले आते हैं। गौरी की सचाई से सब अवगत होते हैं। सब सुन लेते हैं। माँ, काकी, फूफू, मौसी सब उसे समझाती हैं, अपनी उम्र और भोगे हुए जीवन-अनुभव का हवाला देकर उसे उपदेशित करती हैं कि, ब्याहता लड़की की ससुराल ही उसका असली घर है। अगर ससुराल में कुछ ऊँच-नीच हो जाए तो बेतितों को सह लेना चाहिए। बेटियों को तो बहुत कुछ सहना पड़ता है। वही सनातन अवश पीड़ा का न खत्म होने वाला ढाढ़स जो एक पीढ़ी की स्त्री अपने से अगली पीढ़ी को देती चली आयी है। उनके द्वारा दिए जाने वाले इस झूठे ढाढ़स को वह भी जानती हैं पर क्या करें? भाग्य, नियति आदि के सहारे जीवन काट दती हैं। अपनी परवशता, दुःख और कष्टों से जूझने का लम्बा और लगातार अनुभव, जिसे कोई किताब नहीं सिर्फ उनका जीवन ही  सिखाता है। इस समझाने की प्रक्रिया में ही सभी स्त्रियाँ एक छोटे से कमरे में एकत्र हैं। इन गरीब, श्रमजीवी, निम्न-मध्यवर्गीय स्त्रियों का जीवन-यथार्थ कैसा होता है इसे कैलाश बनवासी ने जिस चित्रात्मक भाषा में अभिव्यक्त किया है वह उनकी कथाभाषा का बहुत ही वास्तविक और संवेदी पक्ष है। “घर के छोटे से कमरे के एक कोने में चालीस वाट बल्ब की कमजोर, पीली और धुँआई रोशनी के बीच गौरी को घेरे बैठीं वे बूढ़ी साँवली औरतें, जिनका रंग अब तक धरती पर बिताई उनकी उम्र और उसके अनुभव ने काफी गहरा कर दिया है। गुड़ी-मुड़ी गठरी सी, पुरानी बदरंग साड़ियों में सिर तक लिपटी हुई, गहन गंभीर बहुत धीरे-धीरे बात करतीं…मानों जीवन और प्रकृति का कोई अबूझ रहस्य समझाती हुईं। इस दृश्य के पूरे बैकग्राउंड में मटमैला, धूसर और स्याह रंग फैला हुआ था। शायद इन्हीं दिनों या बाद के किसी  दिन में म्युनिसिपल लाईब्रेरी की किसी पत्रिका में अमृता शेरगिल के कुछ चित्र देखे थे। उन्हें देखते हुए बेसाख्ता यही दृश्य याद आया था और लगा था कि ये वही हैं, वैसे ही धुंधले आलोक में गोल घिरी बैठी औरतें… बहुत गम्भीर और बहुत उदास और चुप…अपने अनगिनत दुखों और छायायों से घिरी हुई ।” (p. 135). जीवन के इस धुंधले स्याह रंग को वे पहचानती हैं, इसीलिए वे गौरी को भी वही सिखा रही हैं समझा रही हैं पर, गौरी दृढ़ है कि, “मैं वहाँ नहीं जाऊँगी! किसी हालत में नहीं जाऊँगी। आवाज में निर्णय था। साफ़, ठोस। कोई रिरियाहट, हकलाहट नहीं। सोच-समझ कर लिया गया फैसला।” (p. 131) पर उन स्त्रियों के लिए यह कि, ‘ससुराल से अलग रह कर भी कोई लड़की अपना जीवन जी सकती है’, स्वीकार ही नहीं। राजेश मन ही मन खीझता है ,सोचता है कि, “‘माँ को ऐसा किसने गढ़ दिया। इतना पारम्परिक और इतना धर्मभीरु? इतना जड़ कि नयी बात, नयी सोच कहीं से घुस ही न सके। माँ के भीतर जैसे कई सदियों की स्त्रियाँ जमा थीं जो सिर्फ सहना ही जानती थीं, क्योंकि यही स्त्री का ‘धरम’ था। बोलना, विरोध करना या परंपरा के खिलाफ जाना – धर्म विरुद्ध।…बताया जा रहा था कि, शादी के बाद पति को छोड़ कर  रहना दोष होता है, बहुत बड़ा पाप है, कि इससे समाज बिगड़ता है, जब कि वह कह चुकी थी कि मैं यहाँ तुम लोगों पर बोझ नहीं बनूंगी सिलाई-कढ़ाई करके जिन्दगी चला लूँगी । पर, माँ को यह भी मंजूर नहीं था।… उसकी सहायता के लिए कोई भी नहीं था। सब यही चाहते कि एकबार वह वहाँ जाए। गौरी टूट गयी। सबके अच्छे के लिए वह वहाँ जाने के लिए तैयार हो गयी । बोली, ठीक है इस बार मैं चली जाती हूँ लेकिन अगर कुछ हुआ तो इसके लिए तुम लोग जिम्मेदार रहोगे।” (p. 134-35)
गौरी घर-परिवार, समाज सबकी ख़ातिर एक बार पुनः उसी नरक में लौटने को राजी हो जाती है, ‘जाती है फिर नसीम उसी रहगुज़ार को’। पर, प्रताड़ना और पीड़ा का वह क्रूर सिलसिला भला कहाँ थमने वाला था। जब हद भी हद से बढ़ जाता है तो गौरी अपने मायके एक चिट्ठी भेजती है –
पूज्य बाबू जी,
सादर प्रणाम!
आशा है कि सब वहाँ कुशलता से होंगे। बाबूजी, अब मैं इस आदमी के साथ नहीं रह सकती। आपने जिस आदमी को मेरा हाथ पकड़ाया है वह शराबी तो है ही, रोज-रोज मुझसे मारपीट करता है और जान से मारने के धमकी देता है।  अगर आप लोग मुझे ज़रा भी चाहते हैं तो मुझे इस नरक से निकाल लो, नहीं तो मैं कुछ भी कर लूँगी। मैं आपको विशवास दिलाती हूँ कि बाकी जीवन मैं आपलोगों पर बोझ नहीं बनूंगी। मैं आपसे हाथ जोड़कर अनुरोध करती हूँ कि मुझे इस दलदल से निकाल लीजिये।
घर में सबको यथायोग्य प्रणाम और आशीर्वाद।
आपकी बेटी
     गौरी
गौरी की दुर्दशा को पढ़ कर पूरा घर उसके पति राजकुमार को भला-बुरा कहता है। उसे मायके ले आने के बारे में सब सोच-विचार करते हैं कि किस बहाने से उसे लाया जाय क्योंकि, राजकुमार यूँ ही उसे विदा नहीं करेगा। काका शिवचरण कहते हैं कि,किसी परीक्षा का बहना बनाकर उसे बुलाया जाय। पर सब कहते हैं कि, इस पर उसका पति विश्वास नहीं करेगा। पड़ोस के गोपाल काका ने सुझाव दिया कि, उसको पिछले साल की छात्रवृत्ति का रुका हुआ पैसा मिलने वाला है यह कह कर बुलाया जाय और उसके स्कूल की मैडम उसके दस्तखत पर ही रूपया देंगी’ तो राजकुमार अपने पीने के जुगाड़ में पैसों के लिए तैयार हो जाएगा। यही बात तय होती है । गौरी को दो लोग जा कर ले आते हैं । गौरी वह नरक छोड़ कर चली आयी है। उसने “अपना फैसला कर लिया था। सत्रह साल की गौरी। पता नहीं अभी वह अपने जीवन को कितना आगे तक देख पा रही थी। आगे जीवन की कठिनाईयाँ चाहे जो हों, इस समय वह उस व्यक्ति से मुक्त होना चाहती थी जिससे उसे पति के नाम पर जोड़ दिया गया था।” (p. 150).
पर, क्या इतनी आसानी से मालिक अपनी मिल्कियत छोड़ देगा? कुछ ही दिनों में राजकुमार उसे ले जाने के लिए आता है। शराब के नशे में खूब हो-हल्ला करता है। पर सबकी कल्पना के विपरीत गौरी बड़े ही दृढ़ स्वर में कहती है – “ मैं अब नहीं जाऊंगी आपके साथ। आप यहाँ से चले जाईये। मैं नहीं रह सकती आपके साथ। बस्सऽऽऽ….।” (p. 151). पंचायत बैठती है पर पंचायत भी गौरी के आगे झुक जाते है। यही तय होता है कि, गौरी तभी जायेगे जब उसका पति अपनी आदतों में सुधार कर के दिखाए। फिर, शुरू होता है गौरी का वह जीवन जिसे समाज अच्छा नहीं मानता। पर गौरी बहुत ही धुनी लडकी है। वह किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती। वह सिलाई-कढ़ाई करती है, घर के काम-काज में सबका हाथ बंटाती है और अपने भविष्य के लिए भी सोचती है। उसे पता है कि, उसका अपना घर, गाँव, समाज बहुत दिनों तक उसी समय पर उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करने वाला है। जहाँ से उसकी पढ़ाई छूट गयी थी उसे वह पुनः शुरू करना चाहती है कि कम से कम हाईस्कूल पास कर ले तो कहीं एक छोटी सी नौकरी कर सके। प्राईवेट फार्म भरकर वह हाईस्कूल की परीक्षा पास करती है और नौकरी की तलाश करती है। कवर्धा के प्राईमरी स्कूल में पढ़ाने के लिए आवेदन करती है। अपने किसी परिचय के सहारे राजेश उसे लेकर कवर्धा जाता है, वहाँ के शिक्षाधिकारी से मिल कर सिफारिश कर के आता है कि गौरी को नौकरी की कितनी जरूरत है। जब वे लौट कर घर आते हैं तो दूसरा ही माहौल है। दुःख और गमी का वातावरण। राजेश के बहुत पूछने पर काकी कहती हैं कि, ‘’ गौरी के घर वाले ख़त्म हो गे।… वह रायपुर रेलवे स्टेशन पर किसी ट्रेन में चढ़ रहा था, पता नहीं भीड़ के कारण या नशे के कारण उसका पैर फिसल गया और वह नीचे आ गिरा ट्रेन उसके ऊपर से चली गयी।” (p. 181). पता नहीं गौरी के अन्दर इस खबर ने क्या भाव पैदा किया। पर वह समाज की नजर में अब एक विधवा थी। दुर्भाग्य, हिकारत और दया का पात्र। एक दुखियारी स्त्री। बार-बार गौरी को इस सच का एहसास कराता वह समाज। गौरी जैसे बिलकुल ही बदल गयी थी। वह इस गाँव-घर, समाज से छूट कर कहीं बहुत दूर चली जाना चाहती थी। इसी बीच फरीदाबाद से इंटरव्यू के लिए उसका बुलावा आता है। ‘बालग्राम’ नामक एक एन.जी.ओ. में ‘माँ’ के पोस्ट के लिए इंटरव्यू का बुलावा। राजेश उसे इंटरव्यू दिलाने के लिए ले जाता है। उपन्यास यहीं से शुरू होता है और यहीं से लौटने के साथ ख़त्म होता है। छतीसगढ़ एक्सप्रेस से दिल्ली के लिए दोनों भाई-बहन रवाना होते हैं। राजेश और गौरी दोनों ही अलग-अलग  ख्यालों में गुमसुम हैं। धीरे-धीरे ट्रेन आगे सरकती जाती है और ट्रेन के साधारण डिब्बे के अन्दर की दुनिया भी। साधारण डिब्बे में यात्रा करने वाले लोग वे लोग होते हैं जो सुख-दुःख बाँटने में परस्पर बातचीत करने में विश्वास रखते हैं। राजेश से भी उसके साथ बैठे लोग बातचीत शुरू कर देता हैं। राजेश की नजर उन भोले और सहज ग्रामीण लगों के साजो-सामान पर पड़ती है – “चार प्लास्टिक की खादी वाली सफ़ेद बोरियां, जिनमें दो में चावल हैं, बाकी दो में उनकी गृहस्थी का सामान। गंजी, कड़ाही, थालियाँ, लोटा, गिलास आदि से ले कर एक स्टोव और मिट्टी तेल की एक प्लास्टिक केन। दो पुराने टिन के बक्से हैं जिन पर पेंट किये चटखीले फूल बदरंग हो कर जंग खाए धूसर रंग में घुल-मिल गए हैं। एक बक्से में ताला लगा है जब कि, दूसरे की कुंडी में तार का टुकडा बंधा है। इनमें शायद इनके कपडे-लत्ते होंगे । यही इनकी छोटी, बेपर्द गृहस्थी। मोबाइल गृहस्थी।” (p. 11) यह उनके जीवन और गृहस्थी का बेबस खुलासा है। जिस परिवार से राजेश की बातचीत हो रही थी उसी परिवार की स्त्रियों के साथ गौरी भी घुल-मिल जाती है। बातचीत में ही समय कब गुजर गया किसी को पता नहीं चला। रेल यात्रा में सहयात्रियों से हुए हेल-मेल और बातचीत, और कुछ ही क्षणों में पनपे अपनापन तब सालने लगा जब रेल दिल्ली पहुँच गयी। “बूढ़ी माँ और उसकी दोनों बहुएं बहुत जल्दी दीदी से घुल-मिल गए थे । खुद गौरी भी। वे कह रहे हैं दीदी से बहुत आत्मीयता से, जाथन बेटी! दुरुग आबे त हमरे गाँव आबे! दया-मया धरे रहिबे। … हौ, तुहू मन आहू हमर घर दुरुग में। दीदी भी उनसे हंस कर वैसी ही सरलता से कह रही थी। इस बात को बिलकुल भूले हुए कि अभी कुछ ही देर में ये दुनिया की भीड़ में न जाने कहाँ खो जायेंगे, शायद हमेशा-हमेशा के लिए। कभी न मिलने के लिए, सिर्फ भूले-भटके कभी याद आ जाने के लिए। …अब मुझे लगा कि, छतीसगढ़ हमसे बिछड़ रहा है। छतीसगढ़ एक्सप्रेस से हमारे साथ आया एक गाँव, उसकी सहज-सरल गँवई संस्कृति हमसे बिछड़ रही है, आपनी आत्मीयता से हमें विभोर किये हुए। … मैंने दीदी को देखा, वह उन्हें तब तक देखती रही जब तक वे गेट के बाहर नहीं चले गए। दिली को वह बिलकुल भूल चुकी थी इस समय। …एक पल के लिए सूझा कि उसे याद दिलाऊं कि वह दिल्ली में है, पर लगा दिल्ली की याद दिलाना अभी उसको आहत करना होगा, एक अन्याय होगा। ऐसे समय में दिल्ली को दूर रखना ही ठीक है। दिल्ली को हर समय अपने साथ रखना एक बहुत बड़ी बीमारी है, कई छोटी बड़ी बीमारियों से मिल कर बनी एक बड़ी और खतरनाक बीमारी, जिसका ठीक होना मुश्किल होता है।” (p. 11-12)
सचमुच, गौरी को अब एक ऐसी दुनिया में कदम रखना है जो अपने झूठ और छद्म में और खतरनाक है। उसका इंटरव्यू होता है। वह ‘माँ’ कि पोस्ट के लिए चुन ली जाती है। अनाथ बच्चों के पालन-पोषण के लिए अब ‘माँ’ की नौकरी करेगी गौरी। पर जिस ‘बालग्राम’ के लिए वह चुनी जाती है उसके अन्दर की दुनिया और उसकी असलियत कुछ और ही है। राजेश के साथ और भी दूसरे गार्जियन और लडकियां आस-पास घूम कर, थोड़ी-बहुत तफ्तीश कर के यह जान लेते हैं कि इस दुनिया में तो अँधेरा ही अँधेरा है। अनगिनत बंदिशें हैं। निषाद, चौरे, गुप्ता, राजेश सब बालग्राम की असलियत जान लेने के बाद भी एक दूसरे से पूछ रहे हैं कि क्या वे अपनी लड़कियों, बहनों या भतीजियों को यहाँ छोड़ेंगे। गुप्ता के पूछने पर कि, ‘राजेश तुम क्या अपनी बहन गौरी को यहाँ छोड़ोगे?’ राजेश का उत्तर है, “हाँ, अगर उसे यहाँ रहना पसंद है तो। आखिर वहाँ भी रहेगी तो उसका जीवन कुछ बदलने वाला नहीं बल्कि ये जगह उसके लिए घर से ठीक है।… कहते हुए मेरे सामने गौरी का चेहरा था।… अपने समाज को तो आप जानते हो। नहीं शायद हमलोग उसे उतने अछे से नहीं जानते जितनी ऐसी लडकियां! वरना क्या कारण है कि, लड़कियां यहाँ ख़ुशी-ख़ुशी रहने को तैयार राजी हैं, इतने कष्टों को जानने के बाद भी, ऐसा जेलखाना होने के बाद भी।” (p. 238) गौरी ‘बालग्राम’ में रुकने का निर्णय लेती है। अब उसे यहं से कहीं नहीं लौटना है। कहीं लौटना नहीं है।  राजेश अकेले अपने गाँव लौट रहा है। ख़ुशी, हताशा, दुःख, आशा, निराशा, पीड़ा या आनंद या और कुछ…। पता नहीं उसे कि वह क्या महसूस कर रहा है। रो रहा है, गा रहा है, गाते-गाते रो रहा है, रोते-रोते गा रहा है– 
‘दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाऽऽऽईऽऽऽऽऽऽ
तूने काहें को दुनिया बनाईऽऽ…तूने काहें को दुनिया बनाईऽऽ…’
है कहाँ तमन्ना का दूसरा कदम या रब
हमने दस्ते-इम्काँ को एक नक़्शे-पा पाया।
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विनोद तिवारी

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विनोद तिवारी का आलेख ‘आलोचना का समाज क्या है? कहाँ है?’

अशोक वाजपेयी


अशोक वाजपेयी कवि होने के साथ-साथ एक आलोचक भी हैं. युवा आलोचक विनोद तिवारी ने अपने आलेख ‘आलोचना का समाज क्या है? कहाँ है?’ में अशोक जी के आलोचक व्यक्तित्व की पड़ताल करने की कोशिश की है. तो आइए पढ़ते हैं विनोद तिवारी का यह आलेख.    

आलोचना का समाज क्या है ? कहाँ है ?
(अशोक वाजपेयी की आलोचना-दृष्टि)

विनोद तिवारी

“किसी भी समय की महत्वपूर्ण कविता अपने समय का साक्ष्य हो सकती है या फिर अपने समय में सीधे हिस्सा लेती, जूझती उलझती रचना हो सकती है यह भी जरूरी नहीं कि अपने समय का, उसके तनावों-दबाओं और दृष्टियों का कविता सीधे-सीधे खुला बखान करे आलोचना के लिए यह एक बुनियादी समस्या है कि वह कैसे अपनी रूचि को, बिना उसके केन्द्रहीन हुए, इतनी लचीली और समावेशी बनाए कि उससे कई तरह की कविताओं, काव्य-दृष्टियों और मूल्यों का सहानुभूतिपूर्वक लेकिन दृढ़ता से सामना किया जा सके रुचि की कोई भी संकरी दकियानूसी आलोचना का संपर्क रचनाओं की सजीव वास्तविकता से तोड़ कर उसे एक अप्रासंगिक परिपाटी में बदल देती है[1]
       
“हिन्दी में समाज की परिकल्पना बेहद सपाट और इकहरी हो गई है यह प्रश्न उठाने का समय है कि किस तरह के समाज की परिकल्पना साहित्य में सक्रिय है? क्या वह एकमात्र धारणा है? क्या आलोचना जिस तरह का समाज साहित्य में देख परख रही है उससे कहीं अधिक जटिल, अनेक स्तरीय और संभावनापूर्ण समाज सचमुच है, और सिर्फ वस्तुगत सचाई के रूप में ही नहीं बल्कि रचना के केंद्र में भी? समाज संबंधी विभिन्न बौद्धिक धारणाओं और सचमुच के जीते जागते स्पंदित समाज में जो अंतराल है साहित्य उसे अलक्षित नहीं कर सकता : न रचना में न आलोचना में जो आलोचना साहित्य के सामाजिक सत्य या सत्यापन की खोज नहीं करती वह क्या समाज-विमुख आलोचना है? स्वयं आलोचना का समाज क्या है? क्या वह हिन्दी में आज साहित्य के लिए एक समझदार, संवेदनशील और संस्कारवान पाठक समाज के निर्माण में सहायक है? रचना के तो आलोचकों और लेखकों के अलावा निश्चय ही कुछ न कुछ पाठक हैं पर क्या आलोचना के दूसरे आलोचकों और लेखकों के अलावा कोई पाठक है? क्या वह मात्र विशेषज्ञों का दूसरे विशेषज्ञों के प्रति संबोधन है? जिस तरह के समाज में आज हम हैं वह अगर साहित्य-विमुख समाज नहीं है तो क्या वह आलोचना से उदासीन और अप्रभावित समाज है? क्या इस समाज को उसके जनतंत्र को आलोचना की जरूरत है?”[2]
   
 आलोचना का काम सिर्फ पहले की या उसके समकालीन रचनाओं का विश्लेषण, मूल्यांकन, प्रवृत्ति-निर्धारण ही नहीं है उससे कहीं आगे जा कर उसकी जिम्मेदारी है समकालीन समाज में रचना के लिए जगह बनाना उसकी स्वतंत्रता, उसकी स्वायत्तता के लिए सम्भावना बनायेउन शक्तियों से लोहा लेना भी जो साहित्य का शोषण करती हैं या करना चाहती हैं चूँकि, आलोचना एक वैचारिक प्रक्रिया भी है, उसके जिम्मेदारी साहित्य और विचारों के बीच सम्बन्ध खोजना और स्थापित करना है – साहित्यिक-विचार या साहित्य-सिद्धांतों को सिद्धांत-जगत में उचित स्थान और मान्यता दिलाना भी है सबसे बढ़ कर साहित्य को वैचारिक संवाद में अवस्थित करना और उसे वहां लगातार बनाये रखना है[3]
ये तीनों ही उद्धरण अशोक वाजपेयी के हैं तीन समयों के हैं तीन माध्यमों के हैं एक उनकी बहुचर्चित आलोचना पुस्तक ‘फिलहाल’ (1970) से, दूसरा उनके सम्पादन में निकलने वाली आलोचना पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ (1987) से और तीसरा 1990 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में निराला व्याख्यानमाला के तहत दिए गए भाषण ‘आलोचना का देश’ से हैलेखक, सम्पादक और वक्ता–आलोचक अशोक वाजपेयी के इन उद्धरणों में लगभग दो दशकों का एक सामयिक अंतराल भी है अशोक वाजपेयी अथक रूप से निरंतर ‘कविता का पुनर्वास’, ‘कविता का लोकतंत्र’, ‘कविता का समाज’ ‘कविता का देश’ की बात करते रहे हैं, करते हैं अपनी इसी चिंता की जमीन पर वे ‘आलोचना के भी एक देश’ का निर्माण करने की कोशिश करते हैं इस ‘देश’ रचना में स्वाभाविक है कि एक साथ कई तरह से लगना-भिड़ना पड़ता है लेखन, सम्पादन, आयोजनों, भाषणों और टिप्पणियों के साथ समेकित रूप से एक कवि, आलोचक और संस्कृति-कर्मी के रूप में  लगातार अभी भी अपनी निष्कंप आवाज के साथ वे इस कर्म में संलग्न हैं, सक्रिय हैं हालांकि, उन्होंने के इस देश में एक आलोचक की नागरिकता पाने की अर्जी कभी नहीं लगाई पर इस देश में उनकी नागरिकता है तो है सबसे महत्वपूर्ण है कि वे अपने अटल पूर्वग्रहों के साथ एक सक्रिय लोकतान्त्रिक प्रतिपक्ष के रूप में इस ‘हिन्दी समय’ में उपस्थित हैं यह मुंहदेखी बात नहीं चरितार्थता का प्रकट स्वीकार है
कविता संबंधी अशोक वाजपेयी की आलोचनात्मक समझ का परिसर अत्यंत ही विस्तृत और व्यापक है उसमें साहित्य का, संगीत का अन्य दूसरी कलाओं का ललित गुणात्मक बलाघात है इसी बलाघात की हिमायत करते हुए अशोक वाजपेयी ‘आलोचना के जनतंत्र’ का सवाल उठाते हैं, आलोचना में एक ‘समावेशी परिसर’ बनाने की वकालत करते हैं वास्तव में, यह ललित गुणात्मक बलाघात ही उन्हें एक साथ ‘रूप’ के स्तर पर रूपवादी और कलावादी बनाता है और ‘वस्तु’ के स्तर पर आधुनिक और उत्तर-आधुनिक एक ऐसा उत्तर-आधुनिक ‘जिसे यह समय भी चाहिए पर इसी के पड़ोस में अपना अतीत भी चाहिए’ अशोक वाजपेयी के लिए ‘वर्तमान’ और ‘अतीत’ का यह द्वैत ही ‘समकालीनता’ को समझने और पकड़ने का माध्यम है इसी को साही ‘नितांत समसामयिकता’ वाले अपने लेख में ‘सामान अतीत’ और ‘सामान वर्तमान’ के रूप में परिभाषित करते हुए ‘यथार्थ से सीधा साक्षात्कार’ कहते हैंसाही लिखते हैं– “…समसामयिकता से आमना-सामना मुख्यतः हमें बेचैन और तिलमिलाया हुआ छोड़ जाता है यथार्थ से हमारा सीधा साक्षात्कार होता है जीवन की गहरी वास्तविकताओं के बीच, परस्पर विरोधी भावनाओं के बीच, सीमित परिस्थितियों के बीच मानव-मूल्यों का प्रश्न (बलाघात मेरा) पूरी विराटता के साथ हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है अर्जुन की भांति हम डर कर आँखें मूँद लेते हैं – नहीं नहीं, हमें सत्य का वही चतुर्भुज सौम्य रूप ही चाहिएसमसामयिकता एक असुविधाजनक चुनौती है जो हमें ठोस, सार्थक शब्दों में सोचने को बाध्य करती है, आदर्श और यथार्थ के बीच उग्र सार्थकता का सम्बन्ध स्थापित करने की माँग रखती है और हमारी निर्लिप्त आत्मतुष्टि की नींव को हिला देती हैनैतिकता और मानव-मूल्य (बलाघात मेरा) निर्जीव सुभाषित वाक्य मात्र नहीं रह जाते बल्कि वे जीवंत प्रश्न बन जाते हैं[4]इसी लेख में ‘वर्तमान’ और ‘अतीत’ के संदर्भ से साही पं. नेहरू के ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के सम्बन्ध में लिखते हैं – “पण्डित नेहरू चले तो भारत की खोज करने, लेकिन पहुंचे मानवता की सार्वभौम संस्कृति के पास – जिसका सम्बन्ध समसामयिकता से अधिक है परंपरा से कम[5]आश्चर्य क्यों हो जब अशोक वाजपेयी ‘फिलहाल’ के अपने ‘दृश्यालेख’ में इसी ‘नितांत समसामयिकता के नैतिक दायित्व’ से  “समकालीन कविता को समझने-बूझने और इस समझ को हमारे समय के मनुष्य की हालत (बलाघात मेरा) के बारे में अपने अहसास को प्रासंगिक और गहरा करने की कोशिश”[6]करते हैं | 

2.
 
अशोक वाजपेयी एक ऐसे आलोचक हैं जिनके आलोचनात्मक-लेखन से आप असहमत तो हो सकते हैं पर एक उपेक्षणीय अनिवार्य दूरी नहीं बना सकते उनकी आलोचना आपको एक ग्रंथिहीन-संवाद के लिए लगातार पास बुलाती हुई आलोचना है निरंतर वार्तालाप में मशगूल आलोचना अशोक वाजपेयी सैद्धांतिक ज्ञान-विज्ञान से नहीं वरन रचना के व्यवहारिक राग-विराग से, उसे आयत्त करने वाले विचार से अपने आलोचनात्मक आग्रह-विग्रह बनाते हैं उनकी आलोचना में जो ‘कुछ पूर्वग्रह’ हैं वे जरूर सैद्धांतिक-वैचारिक सहमतियों-असहमतियों के पूर्वग्रह हैं और जो सबके होते हैं | वे अपने सर्वोत्तम में एक व्यावहारिक आलोचक हैं इस दृष्टि से ‘फिलहाल’ उनका पहला और आखिरी शिखर है
‘फिलहाल’ लगभग दो दशकों (छठवाँ दशक और सातवाँ दशक) की हिंदी कविता के काव्यात्मक मुहावरे, विचार और संवेदना के बदलने और बनने का एक जरूरी आलोचनात्मक पाठ है साठोत्तरी कविता का एक अनिवार्य पाठ व्यावहारिक-आलोचना का एक बेहतर उदहारण अशोक वाजपेयी ने इस पुस्तक में आलोचना को रचनात्मक-अन्वेषण की तरह बरता है कवि आलोचना लिखे तो यह मानी हुई बात है कि वह ‘कवि-आलोचक’ होगा उसने आलोचना को ‘आपदधर्म’ के रूप में स्वीकार किया होगा परन्तु, अन्य कवियों की तरह अशोक वाजपेयी ने आलोचना को किसी ‘आपदधर्म’ के रूप में नहीं वरन आलोचनात्मक परिवेश और परिदृश्य में उसे एक जरूरी हस्तक्षेप की तरह लिया है “मैं कोई बाकायदा आलोचक या चिन्तक तो हूँ नहीं मेरे वक्तव्य या सूक्तियाँ-कटूक्तियाँ अक्सर किसी अवसर विशेष पर हस्तक्षेप रहे हैं मेरी तो लगभग सारी आलोचना इस अर्थ में हस्तक्षेपकारी आलोचना है मैं विजन-वन में बैठ कर साहित्य का चिंतन नहीं कर रहा हूँ हालांकि ऐसा कर पाना चाहिए मैं तो दृश्य में धंसे हुए सोचता विचरता हूँ अगर कुछ महत्वपूर्ण परिदृश्य या विमर्श से बाहर हो रहा है या किसी को जरूरत से अधिक महत्व दिया जा रहा है तो मैं दूसरा पक्ष सामने लाकर कुछ हस्तक्षेप करने की चेष्टा करता हूँ[7]‘फिलहाल’ इसी ‘दृश्य’ में धंसे हुए एक कवि का अपने समकालीनों पर सोचा विचारा एक जरूरी दृश्यालेख है इस ‘दृश्यालेख’ के लिए अशोक वाजपेयी जो अवलोकन-बिंदु (फोकल-प्वाईंट) निर्धारित करते हैं इतिहास का जो प्रस्थान बिंदु (टेक-ऑफ) लेते हैं वह कविता संबंधी उनकी आलोचनात्मक-दृष्टि और  समझ का निशित ही एक आश्वस्तिकारक प्रमाण है इस सम्बन्ध में उनके इस हलफनामे को देखना चाहिए -“हम याद करें कि, सन् साठ के आसपास हिन्दी कविता का संसार नयी कविता के रोमान विरोध से फिसल कर एक नयी रुमानियत की गिरफ्त में जा रहा था बिम्बों और प्रतीकों का अहेतुक घटाटोप एक नया रीतिवाद बनकर दृश्य पर छा-सा गया था युवतर कवि उससे मुक्ति के रास्ते तलाश रहे थे और यौन और स्त्री पर केन्द्रित विरुमानीकरण का मार्ग अपना रहे थे राजनीति में नेहरु युग का एश्वर्य समापन की ओर जा रहा था और भारत पर चीनी आक्रमण से समाज और राजनीति में एक नया मोहभंग आया था और एक नयी वस्तुपरकता और यथार्थबोध की तलाश शुरू हुई थी[8]अपने पूरे रचनात्मक-कर्म में अशोक वाजपेयी ‘कविता’ को भले ही उपलब्धि की तरह पाते रहे हों पर आलोचना उनके लिए ‘उपलब्धि नहीं वरन प्रयत्न’[9]है एक ऐसा प्रयत्न जिसमें ‘समय-साहित्य-समाज-व्यक्ति’ अपने गहरे अहसासों और वृहत्तर संवेदनों के  बहुलतावादी प्रत्ययों में उपस्थित है अशोक वाजपेयी के इस आलोचनात्मक प्रयास को रेखांकित करते हुए सत्यप्रकाश मिश्र लिखते हैं – “आलोचना का कार्य समकालीन परिदृश्य में हस्तक्षेप ही नहीं बल्कि प्रत्ययन की प्रक्रिया में छूटे हुए या होने के कर्म में अनछुए की पहचान भी है अच्छे आलोचक के रूप में अशोक उस छूटे हुए, अविज्ञात, अनाघ्रात की ओर न केवल संकेत करते हैं बल्कि जैसा कि उनकी आलोचना का चरित्र है, उसे रेखांकित भी करते हैं[10]
अशोक वाजपेयी ने जिस ढंग से अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय, धूमिल, श्रीकांत वर्मा, कमलेश, प्रभाकर माचवे, केदार नाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल और अकवितावादियों–सौमित्र मोहन, लीलाधर जगूड़ी, चंद्रकांत देवताले, गंगा प्रसाद विमल, जगदीश चतुर्वेदी, राजकमल चौधरी, श्याम परमार, कैलाश वाजपेयी आदि का आलोचनात्मक-मूल्यांकन किया है वह कुछ असहमतियों के बावजूद सार्थक और विश्वसनीय है स्वाभाविक है कि, यह किसी तरह के ‘काव्यशास्त्र’ का निर्माण करने वाली आलोचना नहीं है पर कई बार व्यावहारिक समीक्षा समकालीन यथार्थ, अनुभूति और  विचार की अनिवार्यता को जिस ढंग से आयत्त करती है, काव्य-मुहावरे का जो नया दृष्टि-बिंदु निर्धारित करती है वह सैद्धांतिक आलोचना की अपर्याप्तता की परख और कई मायनों में नए काव्यशास्त्र के निर्माण का प्रस्थान बन जाता है अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, विनोद कुमार शुक्ल आदि के मूल्यांकन इस सार्थकता के प्रमाण हैं | इसके लिए उद्धरणों की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए समकालीनों में ही कैसे एक के काव्य-रहन को दूसरे के काव्य-रहन से तुलनात्मक ढंग से अशोक वाजपेयी पहचानते हैं और बेबाकी से दर्ज करते हैं वह आलोचना की बेहद ईमानदार कोशिश है जैसे अपने पहले ही लेख ‘तलाश के दो मुहावरे’ में अबके कमलेश और तबके धूमिल की जो तुलना करते हैं वह देखने लायक है-
“उनकी (कमलेश की) कविता में अहसास तो है, समझ नहीं अपने समय के भारतीय मनुष्य को, उसके अन्तःसंघर्ष और जूझ को परिभाषित करने की चेष्टा कविता के प्रासंगिक और वयस्क होने के लिए जरूरी है लेकिन ऐसी चेष्टा मनुष्य के हालत के अहसास भर से कारगर नहीं हो सकती, उसके लिए जरूरी है कि, उसकी समझ भी कविता के संगठन में जरूरी हो अपनी संवेदनात्मक एन्द्रिकता में कमलेश इतना जकड़े हुए हैं (जिससे आज भी वे मुक्त नहीं हो पाए) कि उन्होंने विचारों और उनके टकरावों को, समझ को, अपने काव्य-संसार से देश-निकाला सा दे दिया है उनके कवि-व्यक्तित्व में संवेदना और ज्ञान के बीच एक गहरी खाई जान पड़ती है[11](बलाघात मेरा)
X                          X                          X                          X      
         
“धूमिल में बौद्धिक समझ भी है जो एहसास को संयमित करती है और गहरा बनाती है यहीं कमलेश जैसे दूसरे युवा कवियों से धूमिल की विशिष्टता भी स्पष्ट होती है : धूमिल मात्र अनुभूति के नहीं विचार के भी कवि हैं उनके यहाँ अनुभूतिपरकता और विचारशीलता, अहसास और समझ एक दूसरे से मिले हुए हैं, और उनकी कविता मात्र भावात्मक स्तर पर नहीं बल्कि, बौद्धिक स्तर पर भी संयोजित और सक्रिय होती है[12]जो है उसका नकार और जो नहीं है उसका स्वीकार (और मांग भी) अशोक वाजपेयी की आलोचना-मुद्रा नहींझटकार करके बेहद बेबाकी से वे कह सकते हैं कि, “माचवे का काव्य-संसार कुछ-कुछ गोदाम जैसा है जहाँ जाने क्या-कुछ भरा लदा पड़ा है[13]
दरअसल, यह प्रभाकर माचवे के काव्य-संसार के बारे में सरलीकृत टिप्पणी भर नहीं है बल्कि यांत्रिक और सतही ब्यौरों से रचे गए काव्य-रहन की सटीक पहचान है इसी तरह वे बड़ी ही बेबाक साहसिकता से नितांत समसामयिक ‘अकविता’ को वयस्क-विचारशीलता बनाम नाबालिग समझ’ के मुहावरे में देखते हैं और मानते हैं कि “अकवितावादियों में भयानक नैतिक संवेदनहीनता है[14]अशोक वाजपेयी कविता के भाषिक-विधान और रचना की चरितार्थता के ठोस कारणों को बहुत बारीकी से समझने परखने वाले आलोचक हैं कविता के चालू मुहावरों, सामान्य आग्रहों, अवयस्क-उद्दाम-असहनीय इच्छाओं, रूमानी-विकलाताओं, ‘पैगम्बराना और शहीदाना भंगिमाओं’ आदि के सन्दर्भों से वे ‘अकविता’ के परिदृश्य को मूल्यांकित करते हैं अज्ञेय संबंधी उनके दोनों ही लेख ‘अकेलेपन का वैभव’ और ‘बूढा गिद्ध क्यों पंख फैलाए’ अज्ञेय की कविता के ‘सांस्कृतिक-कुल और शील’ का बहुत ही तटस्थ किन्तु गहरे धँस कर किया हुआ विश्लेषण है अज्ञेय की प्रेम कविताओं में ‘प्रेम’ के लिए स्त्री के प्रति अज्ञेय की दृष्टि का जो मूल्यांकन अशोक वाजपेयी करते हैं और शमशेर की प्रेम-कविताओं में उपस्थित शमशेर की ‘स्त्री-दृष्टि’ से जो तुलना करते हैं, वैसी सटीक समझ कविता संबंधी उनकी आलोचनात्मक संलग्नता और अंतर्दृष्टि को जाहिर करता है वे लिखते हैं – “एक दिलचस्प बात अज्ञेय की कविताओं में यह है कि स्त्री के प्रति अज्ञेय की दृष्टि संरक्षक और दाता की है स्त्री, भले ही वह प्रेमिका ही क्यों न हो, पुरुष से हमेशा वह कुछ नीचे है, कभी समान स्तर पर नहीं (शमशेर बहादुर सिंह के यहाँ, यह याद रखने की बात है, स्त्री हमेशा पुरुष से ऊपर है) …प्रेमी के रूप में अज्ञेय की मुख्य मुद्रा डाटा के हैं, और अक्सर लगता है प्रेम कृपा है जो वे ‘दूसरे’ पर कर रहे हैं – उन्ही के शब्दों में कहें तो, उनके यहाँ प्रेम एक ‘उदार उद्यम’ है[15]वास्तव में यह आधुनिकता का नहीं आधुनिक- बौद्धिक का एक ऐसा कवच है जिसको वह चाहकर भी तोड़ता नहीं, टूटा की ‘निजता’ का ‘वैयक्तिकता’ का ‘निजी स्वतंत्रता’ का बुर्जुवा ‘अहं’ टूट जाएगा | ‘अकेलेपन का वैभव’ नष्ट हो जाएगा | अज्ञेय अपने ‘अकेलेपन की पवित्रतता को अक्ष्क्षुण’[16]बचाए रखने में ही आधुनिक होना मानते रहे | संभवतः उनके आत्मकेंद्रित मौन का भी यही कारण हो ‘आधुनिक-काव्यबोध’ की दृष्टि से रामस्वरूप चतुर्वेदी[17]अज्ञेय को शमशेर की तुलना में भले ही बीस मानते हों पर इस बिंदु (प्रेम संबंधी) पर शमशेर का ‘भाव-बोध’ अधिक आधुनिक और पूर्णतर है बहरहाल, प्रसंगतः बात इतनी लम्बी हो गयी ‘फिलहाल’ में  अशोक वाजपेयी द्वारा अज्ञेय के अलावा शमशेर, मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, आदि का मूल्यांकन और भी महत्वपूर्ण और प्रस्थानिक है कारण कि, अज्ञेय पर तो उस समय खूब लिखा जा रहा था पक्ष-प्रतिपक्ष दोनों ही के मोर्चे खुले हुए थे पर अशोक वाजपेयी ने शमशेर, मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, विनोद कुमार शुक्ल को अपने विश्लेषण में जिस ढंग से प्रस्तुत किया वह प्रासंगिक और संदर्भवान, प्रामाणिक और विशिष्ट बना
‘फिलहाल’ में अशोक वाजपेयी की ‘आलोचना-मुद्रा’ के साथ जो बात अत्यंत ही महत्वपूर्ण और स्वीकार्य है वह है उनकी आलोचना की भाषा उनकी आलोचनात्मक भाषा हिन्दी कविता-आलोचना के लिए एक सर्वथा नयी तरह की ‘भाषा-मुद्रा’ का निर्माण करती है ठोस सैद्धांतिकी का मोह इसके पहले आलोचना-भाषा को ठस बनाये हुए था साही, लक्ष्मीकांत वर्मा, खुद मुक्तिबोध आदि की आलोचना भाषा का साक्ष्य हमारे सामने है निश्चित ही साठोत्तरी हिंदी कविता की आलोचना-भाषा को अशोक वाजपेयी का यह अवदान महत्वकारी है साक्ष्य के रूप में ये दो उद्धरण काफी हैं संदर्भ मुक्तिबोध हैं
“हो सकता है कि राजनितिक कर्म से अलग रहना जरूरी हो, पर मानव नियति को जो शक्तियां नियंत्रित कर रही हैं, उनकी गहरे समझ पाने के लिए यह उतना ही जरूरी है कि कवि राजनीतिक विचारों और उथल-पुथल की जानकारी रखे और कवि-कर्म में इस जानकारी और समझ का इस्तेमाल करे अगर कवि ने अपने को विचारों से, खासकर राजनीतिक विचारों से जो आज की दुनिया में इतने प्रभावशील हैं, अपने को काट लिया या अलग रखा तो फिर नए कवि का यह दावा, कि वह समकालीन सचाई का साक्षात्कार करने की कोशिश कर रहा है, व्यर्थ हो जाएगा राजनीति को दरकिनार रखकर समकालीन सचाई का कोई साक्षात्कार सार्थक और प्रासंगिक नहीं हो सकता[18]
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 “मुक्तिबोध एक ऐसे कवि हैं जो अपने समय में अपने पूरे दिल और दिमाग के साथ, अपनी पूरी मनुष्यता के साथ रहते हैं वे अपने ऐसी निजी प्रतीक-व्यवस्था विकसित करते हैं जिसके माध्यम से सार्वजनिक घटनाओं की दुनिया और कवि की निजी दुनिया एक सार्थक और अटूट संयोग में प्रकट हो सकेराजनीतिक दृश्य से गहरा लगाव और मार्क्सवादी विचारधारा से प्रतिबद्ध होने के बावजूद मुक्तिबोध कभी भी प्रचारवादी नहीं बनते एक तो वे राजनीतिक दुनिया से अपने लगाव को मानवीय आस्था और अंतर्जगत में उतने ही गहरे लगाव के साथ जोड़ते चलते हैं और दूसरे एक सच्चे कवि की तरह वे सरलीकरणों से इंकार करते हैं वे विचार या अनुभव से आतंकित नहीं होते वे यथार्थ को जैसा पाते हैं वैसा उसे समझने और उसका विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं और उनकी कविता का एक बड़ा हिस्सा अनुभव की अनथक व्याख्या और पड़ताल का उत्तेजक साक्ष्य है[19](बलाघात मेरा)

अशोक वाजपेयी
3.
पर, दुर्भाग्य से आगे चल कर यह ‘भाषा-मुद्रा’ अशोक वाजपेयी की आलोचना से नदारद हो जाती है फिर तो, वह ‘कुछ पूर्वग्रहों’ की भंगिमा और मुद्रा मात्र हो जाती है जिसमें केवल ‘न होने’ को पुनर्वसित करने की आकुल चिंता तो है पर ‘जो है’ उसके ‘होने’ के पक्ष में कोई विकल हरकत नहीं है ‘फिलहाल’ वाली ‘तेज़-तर्रार पोर-पोर आधुनिक और प्रखर क्षुब्ध भाषा पता नहीं कहाँ बिला जाती है नवें दशक और उसके बाद अशोक वाजपेयी की ‘आलोचना-मुद्रा और भाषा’ दोनों में ही आश्चर्यजनक किन्तु अपेक्षित बदलाव आता है कुछ लोगों ने उस पहले वाली ‘मुद्रा’ को युवा मन की ‘भावात्मक उत्तेजना’ कह कर और इस ‘बाद’ वाले को प्रतिपक्ष का ‘नैतिक दायित्व’ कहकर वैधता प्रदान करने की कोशिश की है पर, इस बदलाव से अशोक वाजपेयी के ‘आलोचनात्मक-विवेक’ पर संदेह नहीं होता किन्तु ‘वास्तविकता में एक गहरी खाई’ जरूर पैदा होती है अचानक उनकी नयी आलोचना कई नए नारों और नई मांगों – ‘नयी स्वायत्तता’; ‘नयी समकालीनता’; ‘नयी प्रगतिशीलता’; – को  लेकर एक तरह का मुहिम शुरु करती है ‘मिशन’ पर निकलती है फिर, तो उनके सम्पादकीयों, टिप्पणियों, भाषणों और अन्य दूसरी सक्रियताओं के केंद्र में ‘कविता की वापसी’; ‘कविता का व्योम’; ‘कविता का भूगोल’; ‘कविता और राजनीति’; ‘भाषा के अवमूल्यन’; जातीय स्मृति का  लोप’; ‘बहुलता की अवधारणा’; ‘आलोचना का लोकतंत्र’; ‘आलोचना का देश’; ‘साहित्य और कलाओं का प्रीतिकर संवादी सन्निवेशन’; ‘आलोचना का समावेशी परिसर’ जैसे रचित विचार और प्राण-प्रण से उसे जीवित और प्रासंगिक बनाए रखने की कोशिश में ही वे मशगूल होते चले गए ‘तीसरा साक्ष्य’; ‘कुछ पूर्वग्रह’; ‘कविता का गल्प’; इत्यादि पुस्तकें इसी का साक्ष्य हैं
दरअसल, अशोक वाजपेयी के यहाँ कविता के सम्बन्ध में विचार बनाम विचारधारा की जो बहस है वह जितनी ‘रूप’ और ‘वस्तु’ की बहस नहीं है उससे अधिक ‘आयत्त’ और ‘स्वायत्त’ की बहस है वह भी अगर कविता अपने लिए विचार किसी खास विचारधारा से ‘आयत्त’ करती है तो वह ‘स्वायत्त’ नहीं हो सकती पर, यह तो अशोक वाजपेयी खुद मानते हैं कि, कविता विचारों के बिना संभव नहीं है ‘विचारों से विदाई’ के प्रति चिंता भी उन्होंने ही जाहिर की थी कविता क्या कोई भी कला-रूप विचारों के बिना संभव नहीं, विचार-शून्य कला-रूपों की कल्पना ही कैसे संभव है यह भी उतना ही सत्य है कि, कविता अगर किसी विचारधारा के अंतर्गत घटा दी जाय ‘रिड्यूस’ कर दी जाय तो यह उसकी सीमा है पर दुर्भाग्य से कविता ही नहीं कोई भी कला नित-नूतन विचार नहीं सिरजती (अगर वह सिरजती होती तो कितना अच्छा होता) उसमें किसी न किसी विचार (धारा), दर्शन अथा सिद्धांत का पूर्वग्रह होता ही है रही बात कलाओं के सामंजस्य और सन्निवेशन अथवा समावेशन की तो कला अपनी प्रकृति से ही समावेशी होती है “कला अपनी प्रकृति से ही सामंजस्यपूर्ण होती है और मनुष्य भी जाने-अनजाने सदा ही जीवन के सामंजस्यपूर्ण गठन के लिए, सौन्दर्य के नियमों के अनुसार सृजन के लिए लालायित रहा है समाज में जीवन की एक लाक्षणिक विशेषता यह है कि सामंजस्य तथा सौन्दर्य की शाश्वत पिपासा और सामाजिक-विकास की विद्रूप परिस्थितियों के बीच विरोध विद्यमान है कलात्मक सृजन में इस विरोध को अनूठे ढंग से हल किया गया है और किया जाता है इसी तनावपूर्ण-अर्थ में कला मनुष्य के मुक्त (चाहें तो स्वायत्त कह सकते हैं – बलाघात मेरा) क्रियाकलाप का मॉडल बनी सामजिक और दार्शनिक चिंतन के इतिहास में इसी प्रक्रिया को विभिन्न सैद्धांतिक स्थापनाओं और विचारधाराओं में व्यक्त किया गया है[20]इसलिए किसी भी विचार की स्वायत्त इयत्ता का आधार केवल कोई निस्संग विचार मात्र नहीं हो सकताप्रत्येक विचार का कोई न कोई सैद्धांतिक/दार्शनिक आधार होगा ही और अपने उत्स में विचार पहले विचार होता है किन्तु जब वह एक स्वीकृत धारणा बनने की प्रक्रिया में स्थायित्व ग्रहण करता है तो वह सिद्धांत या दर्शन या विचारधारा का स्वरूप अख्तियार कर लेता है अशोक वाजपेयी को इस बात से कोई एतराज नहीं होना चाहिए रही बात कि, हम किस विचार को पसंद करते  और किस विचार को नहीं तो यह हमारे विवेक का चुनाव है आधुनिक लोकतांत्रिकता में इस ‘विवेक’ का स्थान  सर्वोपरि होता है – व्यक्ति की गरिमा के लिए भी और सांस्कृतिक-बहुलता के लिए भी अगर ‘स्वायत्तता’ का अर्थ यह है तो भला इसमें अस्वीकार कहाँ वैसे भी सम्पूर्ण पूर्ण न तो कोई विचार होता है न दर्शन और न ही विचारधारा सामजिक-विकास की प्रक्रिया में सम्पूर्ण-पूर्णता के लिए संघर्ष और प्रगति ही लक्ष्य है जबकि, व्यक्तिगत आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए ‘शमन’ और ‘समर्पण’ को एकान्तिक लक्ष्य बनाया जा सकता है कार्ल मार्क्स भी इस सम्पूर्ण पूर्णता की बात करता है – “सभी सामाजिक संबंधों की समष्टि ही मनुष्य का सार है[21]महत्वपूर्ण है ‘सामाजिक-सम्बन्धों’ की संरचना को समझना अगर अशोक वाजपेयी मार्क्सवादी विचारधारा को नहीं पसंद करते तो इसका अर्थ यह नहीं है कि, मार्क्स का दर्शन और विचार कलाओं के लिए बेमानी है जब वे कहते हैं कि, “जिन्दगी में हिस्सेदार कविता और कलात्मक दृष्टि से संपन्न कविता दो अलग चीजें हैं, ऐसा हम प्रायः मानते और दुर्भाग्य से पाते भी रहे हैं[22] तो साफ़ जाहिर होता है कि, ‘जीवन-संघर्षों की साझेदारी वाली कविता’ और ‘कलात्मक दृष्टि से संपन्न कविता’ से उनका तात्पर्य क्या है गोया, ये दोनों दो ध्रुवांत हैं, ‘जीवन-दृष्टि’ वाला कवि ‘कलात्मक-दृष्टि’ से विपन्न होता है बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है अशोक वाजपेयी के ही प्रिय कवियों मुक्तिबोध और शमशेर को ही इस सम्बन्ध में देखना प्रीतिकर होगा –
मेरा ख्याल है कि, साहित्य-चिंता और जीवन चिंता में जीवन चिंता का स्थान प्रथम है और साहित्य चिंता का स्थान द्वितीय है ‘जीवन-चिंता’ में जीवन-जगत आ गया जो लेखक तत्व के विकास और परिष्कार की चिंता नहीं करता वस्तुतः वह प्रति- क्रिया के हाथों में खेलता है यही नहीं, वह यह सोचता है कि, उसकी अपने संवेदना, जो अभिव्यक्ति  चाहती है, अभिव्यक्ति की आतुरता मात्र के कारण बहुत सिग्नीफिकेंट है, मार्मिक है उसका औचित्य वह आपनी आतुर उद्विग्नता में खोजता है निःसंदेह अभिव्यक्ति-कार्य के औचित्य का यह आत्मपक्ष है किन्तु उसका एक वस्तु-पक्ष भी है, और वह यह कि कहाँ तक हमारी व्यंजना व्यापक अभिप्राय रखती है और कहाँ तक वह मानव जीवन के मार्मिक पक्षों का उदघाटन और चित्रण करती है … वह सिग्नीफिकेंट यानी मार्मिक तभी होगी, जब वह इस व्यापक मानव जीवन की मार्मिक वास्तविकताओं को ग्रहण करेगी, और मार्मिक रूप से उसका चित्रण करेगी अपने व्यक्तित्व की पूरी शक्ति, ह्रदय का पूरा ओज, बुद्धि की पूरी विश्लेषण-प्रतिभा और कल्पना समूर्ण दीप्त आलोक, एकत्र समन्वित और केंद्रीभूत होकर जब उस तत्व का चित्रण करने लगेगा तभी वह तत्व अपने सम्पूर्ण निखार में, सम्पूर्ण तेजस्विता के साथ प्रकट होगा यह सीधी- सादी बात कुछ लोग भूल जाया करते हैं[23]
 
                   X                 X                 X                 X
“जिसे हम टेक्निक या कला की अभिव्यक्ति का ढंग, ताल, छंद, टोल, विन्यास का हिसाब रखना कहते हैं – वह सिर्फ जीवन की गुंजलक अनुभूतियों की गति का परतौ, उनकी परछाई, उनका आभास मात्र है वह स्वयं अपने अन्दर कोई अंतिम नियम नहीं है वह सिर्फ मोटे-मोटे इशारे हैं, मोटे तौर से अनुभूतियों के प्रवाह को समझने के लिए – उन्हें अपने ह्रदय में, अपनी समझ के प्रवाह में मिलाने के लिए वह खुद अपने आप में कुछ नहीं अपने आप में जीवन ही है, अगर कुछ है तो[24]
इस सम्बन्ध में अगर पक्ष और समर्थन के लिए आलोचनात्मक उद्धरणों की गवाही बेमानी लगे तो इसे जाने दें, छोड़ दें विनोद कुमार शुक्ल की एक कविता को ही देखें, जिसे स्वयं अशोक वाजपेयी ने उसे इसी सन्दर्भ में उल्लेखित किया है –
यह जमीन पर गिरे
दो किलो चावल के एक-एक दाने को बीन कर
मुहल्ले के लोगों के द्वारा
इकट्ठा करने का
इस तरह पेट से ज्यादा
समूह की ताकत बढाने का हिसाब है
                             
एक-एक कर जिसको जब भी मौका मिले
अकेले से अच्छा
किसी को साथ लाना है
                               
डंक मारने वाले विचारों को फैलाना है
जरूरी काम है
अशोक वाजपेयी बराबर इस बात को दोहराते हैं, सचाई के पार भी एक सचाई है हालाँकि, इस पार की सचाई और उस पार की सचाई के आर-पार भी एक सचाई होती है जिसमें कोई आग्रह या पूर्वग्रह नहीं होता जिसमें कोई पक्ष या प्रतिपक्ष नहीं होता पर ऐसी निरपेक्ष सचाई का हम करें क्या? वह हमारे किस काम की साहित्य में ‘आत्मवादी’ और ‘अध्यात्मवादी’ (यों) भाववादियों के लिए इस निरपेक्ष सचाई का कोई महत्व हो तो हो पर, जहाँ तक मैं अशोक वाजपेयी की आलोचनात्मक-टेक और  निष्पत्ति को समझ पाया हूँ उन्हें भी इस ‘निरपेक्ष सचाई’ से कुछ लेना देना नहीं है वह तो साहित्य में राजनीति को उसके ठेठ अर्थों में स्वीकारने के हिमायती हैं जब हर चीज की राजनीति हो सकती है तो साहित्य की राजनीति क्यों नहीं हो सकती है संघर्ष यह है कि इस राजनीति का ‘साहित्यिक-लोकतंत्र’ कैसा होगा अशोक वाजपेयी ने मुक्तिबोध के लिए यह लिखा है कि, “उन्होंने राजनीति के लिए कविता का नहीं कविता के लिए राजनीति का इस्तेमाल किया है[25]अपने मूल-अर्थापन में जिस तरह से यह कथन मुक्तिबोध शत-प्रतिशत लागू होता है अर्थ-विपर्यय और अन्यथाकरण के तर्क से अशोक वाजपेयी पर भी वह शत-प्रतिशत लागू होता है इसे किसी दोष या आरोप की तरह ग्रहण न किया जाय दूसरे अगर यह राजनीति करते हैं तो अशोक वाजपेयी क्यों नहीं वैसे भी प्रतिभा सामान्यीकृत सरलीकरणों का पिछ्लग्गू नहीं होतीअशोक वाजपेयी ने अपने समूचे साहित्यिक-सांस्कृतिक कर्म में सदा ही अटल तन्मयता के साथ किसी ख़ास धर्म, सम्प्रदाय, विचार, राजनीति के एकाधिकारवादी तानाशाही को नकारा है उनका मानना है कि, “साहित्य को बहुलता के लिए एक असमाप्य सत्याग्रह होना चाहिए सौभाग्य से वह रहा भी है यदि हमारे राजनीतिक सामजिक जीवन में इस बहुलता को खंडित करने वाली कई साम्प्रदायिक  शक्तियां सक्रिय हैं और मध्यवर्ग में उनका प्रभाव बढ़ रहा है तो हम उसका मुकाबला किसी एक विचारधारा से नहीं कर सकते : एक तानाशाही के बजाय दूसरी तानाशाही इसलिए स्वीकार्य नहीं हो सकती कि वह अधिक उदार और मानवीय मूल्यों से परिचालित है मूल्यों के नाम पर बीसवीं शताब्दी में कई तानाशाहियों ने करोड़ों को मौत के घाट उतारा, असंख्य को बेघर और जलावतन होने पर विवश किया और स्वयं साहित्य और कलाओं की मुक्त (बलाघात मेरा) और प्रश्नकारी रचना को वर्जित किया है[26]
अपने तमाम पूर्वग्रहों के बावजूद वे एक ऐसे लोकतान्त्रिक साहित्यिक हैं जो एक व्यापक साहित्यिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक दृष्टि विकसित किये जाने की मांग रखते हैं जिसमें प्रगतिशीलता का भी नया और अधिक समावेशी परिसर बन सके विकसित हो सके दरअसल, अशोक वाजपेयी प्रयोगवाद और नयी कविता के जमाने की साहित्य संबंधी ‘मान’ और मूल्य’ वाला रूपवादी/कलावादी आग्रह और ‘साहित्य की सामाजिक जिम्मेदारी’ वाली निरा क्रांतिकारी सोच और समझ दोनों को देखा है परखा है वे जहाँ इनके अंतर्विरोध को जानते हैं वहीँ अपने अंतर्विरोध को भी पहचानते हैं इसलिए अशोक वाजपेयी अपनी ‘पहचान’ को लेकर ‘प्रपंच’ तो रच सकते हैं, रचते हैं पर ‘पाखंड’ वे नहीं कर सकते ‘स्वायत्तता’ आदि का प्रश्न उनके उसी ‘प्रपंच’ का सार्वजनकि दखल है अन्यथा वह भी ‘सत्य’ की इस ट्रैजिक व्यंजना को जानते हैं
बेवकूफ बनने के खातिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ;
और यह देख देख बड़ा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ…
ह्रदय में मेरे ही,
प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है
हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है,
कि जगत…स्वायत्त हुआ जाता है
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[1] फिलहाल – अशोक वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-1970 पृष्ठ-10 .
[2] पूर्वग्रह (संपा.) – अशोक वाजपेयी, भारत भवन, भोपाल, अंक 78-79 (जन.-अप्रैल : 1987), पृष्ठ-12  .
[3] अशोक वाजपेयी : पाठ कुपाठ (संपा.) – सुधीश पचौरी, प्रवीण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-1999, पृष्ठ- 403 .
[4] छठवाँ दशक – विजयदेव नारायण साही, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहबाद, पहला संस्करण-1987, पृष्ठ-140 .
[5] वही, पृष्ठ-143 .
[6] फिलहाल – अशोक वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-1970 पृष्ठ-9  .
[7] पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज – अशोक वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-2003, पृष्ठ-150  .
[8] कुछ पूर्वग्रह – अशोक वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण- 2003, पृष्ठ- 44  .
[9] पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज – अशोक वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-2003, पृष्ठ-97  .
[10] कृति-विकृति-संस्कृति – सत्यप्रकाश मिश्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पहला संस्करण-2010 पृष्ठ-200   .
[11] फिलहाल – अशोक वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-1970 पृष्ठ-23 .
[12] वही, पृष्ठ- 24  .                
[13] वही, पृष्ठ- 69  .                
[14] वही, पृष्ठ-138  .
[15] वही, पृष्ठ-79  .
[16] सर्जना पथ के सहयात्री – निर्मल वर्मा, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-2006,पृष्ठ-50 .
मुश्किल तब आती है जब अज्ञेय स्वयं अपने इस ‘अकेलेपन’ के प्रति जरूरत से ज्यादा सजग हो जाते हैं, उसे एक विवशता न मानकर, आभूषण समझने लगते हैं, मानों वह दुनिया को दिखाकर बार-बार यह कहना चाहते हों, देखो मैं तुम सब से कितना अलग-थलग रह सकता हूँ | इससे संकोच और खीझ दोनों होती है | यह नहीं, कि अज्ञेय की अकेलेपन की सचाई पर संदेह होता है, वह सिर्फ थोडा अवमूल्यित हो जाता है | अवमूल्यित सिर्फ इसलिए नहीं होता कि लेखक स्वयं उसे दर्शाता है – बल्कि एक गहरे मूल बुनियादी अर्थ में भी – जब हम पाते हैं कि अज्ञेय ने अपने इस अकेलेपन की पवित्रता को को अक्ष्क्षुण रखने के लिए किसी भी सरकारी पुरस्कार, ओहदे, बड़ी अखबारी नौकरी को अस्वीकार नहीं किया | राजमार्ग ने उन्हें न चुना हो, स्वयं उन्होंने राजमार्ग पर चलने में – जब कभी उन्हें ऐसा अवसर मिला हो – कोई अनिक्षा या नैतिक आपत्ति दिखाई हो, ऐसा उनके जीवन कर्म में देखने को नहीं मिलता – कहीं ऐसा नहीं दीखता कि उनके अकेलेपन ने उन्हें दुनिया के प्रलोभनों से अलग – स्वयं अपने लेखन से संयुष्ट होना सिखाया हो | वह दूसरों की यशलिप्सा
की खिल्ली उड़ा सकते हैं (देखिये भारती जी के पद्मश्री मिलने पर उनका व्यंग्यात्मक मुक्तक) स्वयं अपने महत्वाकांक्षाओं के खोखलेपन पर नहीं हँस सकते |
[17] ‘आधुनिक काव्यबोध : अज्ञेय और शमशेर रामस्वरूप चतुर्वेदी, कादम्बिनी, अंक-6 अप्रैल-1961, पृष्ठ-105  .
[18] फिलहाल – अशोक वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-1970 पृष्ठ– 108  .
[19] वही, पृष्ठ-109  .
[20] कला के वैचारिक और सौन्दर्यात्मक पहलू – आव्नेर ज़ीस, रादुगा प्रकाशन, मास्को, संस्करण-1985 पृष्ठ-21  .
[21] कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एंगेल्स, संकलित रचनाएं, खंड-3, रादुगा प्रकाशन, मास्को पृष्ठ-3  .
[22] कुछ पूर्वग्रह – अशोक वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, दूसरा संस्करण-2003 पृष्ठ-27  .
[23] मुक्तिबोध रचनावली, खंड-5 – (संपा.) नेमिचंद्र जैन, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला पेपर बैक संस्करण- 1985 पृष्ठ-116  .
[24] कुछ और गद्य रचनाएं – शमशेर बहादुर सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-1992 पृष्ठ-165-66 .
[25] फिलहाल – अशोक वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-1970 पृष्ठ– 127  .

[26] पाव भर जीरे में ब्रह्मभोज – अशोक वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, पहला संस्करण-2003, पृष्ठ-102

 (यह लेख ‘जगह’ नामक पुस्तक में प्रकाशित है) 
युवा आलोचक23 मार्च 1973 को उत्तर प्रदेश के एक जिले देवरिया में एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार में जन्म प्रारंभिक शिक्षा देवरिया में इलाहाबाद विश्वविद्यालयइलाहाबाद से बी.ए.एम.ए. और डी. फिल. एम.ए. में सर्वोच्च अंक एम.ए. पूरा होते-होते विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से शोध करने के लिए शोध-अध्येतावृत्तिरामायण और महाभारत से सम्बद्ध हिंदी उपन्यासों का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर शोध इलाहाबाद विश्वविद्यालयइलाहाबाद; महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा; बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयवाराणसी में अध्यापन कार्य अभी दिल्ली विश्वविद्यालयदिल्ली के हिंदी विभाग (उत्तरी परिसर) में अध्यापन दो वर्षों के लगभग अंकारा विश्वविद्यालयअंकारा अध्यापन(तुर्की) में विजिटिंग
विनोद तिवारी

 प्रोफ़ेसर  सात वर्षों से बहुचर्चित और हिन्दी के ‘जन-क्षेत्र’ में स्वीकृत ‘पक्षधर’ पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे हैं देश भर में हिन्दी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में लगातार अपनी उपस्थिति बनाये रहते हैं अब तक,  ‘परम्परासर्जन और उपन्यास,’ ‘नयी सदी की दहलीज पर’, ‘विजयदेव नारायण साही (साहित्य एकेडेमी के लिए मोनोग्राफ)’, ‘निबंध : विचार-रचना’ और ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के श्रेष्ठ निबंध’ जैसे पुस्तकों का लेखन और सम्पादन कर चुके हैं साहित्य एकेडेमीदिल्ली की परियोजना “स्वाधीनता के बाद हिंदी साहित्य का इतिहास” में ‘आत्मकथा खंड’ का लेखनबहुवचन’ (महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा की आलोचना पत्रिका)के दो अंकों का सम्पादन इन दिनों ‘उपनिवेश और उपन्यास’ नाम से एक आलोचनात्मक किताब पर काम कर रहे हैं

 
लेखन की शुरुआत आलोचना से ही पंद्रह-बीस वर्षों से आलोचनात्मक लेखन पहला आलोचनात्मक लेख ‘फिलहाल’ नामक पत्रिका में प्रकाशित बी.ए. के दौरान हिंदी के साथ प्राचीन-इतिहास और संस्कृति एवं दर्शन की पढ़ाई बाद के दिनों में आपके आलोचनात्मक-अनुशासन को व्यापक बनाने में बहुत मददगार साबित हुई विनोद तिवारी आलोचना को एक गंभीर और जवाबदेह जिम्मेदारी और परिश्रम का कर्म मानते हैं उनके आलोचनात्मक लेखन की तैयारी और विवेचन-विश्लेषण की उनकी तार्किक-दृष्टि से यह बात साबित होती है अगर एक आलोचक अपने चुने हुए कर्म को पूरी ईमानदारी से अपने समय के साहित्य और संस्कृति की निर्मितियों और संभावनाओं को लगातार समझने और उससे संवाद बनाए रखते हुए बरतता है तो आलोचना के प्रति उसकी चिंता और सजगता के साथ उसके आलोचनात्मक-दायित्वबोध को समझा जा सकता है विनोद तिवारी के आलोचना-कर्म में साहित्य को निर्मित करने वाली जीवन-चिंता के प्रति एक अप्रतिहत बेचैन संलग्नता दिखती है नए अर्थ और रूप धारण करती दुनिया पर एक सजग दृष्टि और समझ से निर्मित ‘समकालीनता’ की समझ उनके गंभीर आलोचनात्मक लेखों में दिखाई देती है विनोद तिवारी मानते हैं किआलोचना कर्म सदैव एक सचेततर्कशील और कठिन किन्तु चुना हुआ बौद्धिक दायित्व है यह दायित्व-बोध ही एक तरह से वह आलोचना-दृष्टि प्रदान करता है जिससे अपने समयसमाज और संस्कृति के गत्यात्मक गुण-धर्म के परिवर्तनों के साथ साहित्य के परवर्तित स्वभाव और लक्षणों को सही विकास क्रम में पहचाना जा सके उनकी नज़र में , इसीलिए बने-बनाए मानों-प्रतिमानों से आगे बढ़कर बदलते युग-सन्दर्भों के साथ रचनात्मक मूल्यों का परीक्षण और मूल्यांकन एक आलोचक का सरोकार बन जाता है अपनी इन्ही सजग चिंताओं और सरोकारों के साथ आलोचनात्मक लेखन में सक्रिय हैं आलोचना के लिए वर्ष 2013 के ‘देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान’ से सम्मानित
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