सुधीर सक्सेना के संग्रह पर उमाशंकर सिंह परमार की समीक्षा “धूसर में बिलासपुर : गुमशुदा मूल्यों की तलाश।“


उमाशंकर सिंह परमार

कवियों के लिए लम्बी कविता लिखना हमेशा चुनौती भरा होता है। न केवल विषय एवं कथ्य के स्तर पर बल्कि शिल्प और प्रवहमानता के स्तर पर भी। ‘गद्य’ में हाथ आजमाने की तरह ही लम्बी कविता लिखना भी कवि के लिए उसका निकष होता है। सुपरिचित कवि सुधीर सक्सेना ने अभी हाल ही में ‘धूसर में बिलासपुर’ नामक एक लम्बी कविता लिखी है। इस कविता पर एक समीक्षा लिखी है युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने। तो आइए पढ़ते हैं यह समीक्षा “धूसर में बिलासपुर : गुमशुदा मूल्यों की तलाश।“        
धूसर में बिलासपुर ‘गुमशुदा मूल्यों की तलाश’   
उमाशंकर सिंह परमार
लम्बी कविता जीवन के समग्र सन्दर्भों की जटिल अभिव्यक्ति होती है छोटी कविता की अपेक्षा ये अपनी समकालीनता को अधिक सज़गता से संजोती हैयुगबोध की गहन अर्थवत्ता अपने गहरे मानवीय और सामाजिक द्वंदों व त्रासदियों को व्यापक स्तर व्यंजित करती चली जाती हैछोटी कविता जीवन के खंडित अनुभवों से बनती है वह व्यक्ति की सम्पूर्ण मनोसंरचना की संवाहक नहीं बन सकती है, क्योंकि कवियों का चिंतन-मनन रचनात्मक सरोकार लघु कविता के सीमित दायरे में नहीं अटता हैइसके विपरीत लम्बी कविता कवि द्वारा भोगी गयी आत्मपीडन की सृजनात्मक अभिव्यक्ति होती है जिसमे कवि का युग, जीवन,  समाज, भविष्य की चिंता निरंतर द्वंदात्मकता के साथ कविता में अंतर्ग्रथित हो जाती है लम्बी कविता में सबसे बड़ा खतरा विन्यास का होता है शिल्प यदि कविता की उद्दातता को वेग और तीव्रता के साथ नही प्रेषित कर पाता तो कविता लम्बी कविता किसी भी कवि के लिए चुनौती बन सकती हैलम्बी कविता का अपना एक खास शिल्प होता है जो उसे महाकाव्यात्मक गौरव और व्यक्तित्व से युक्त करता हैशिल्प और युग-बोध की समग्रता ही कविता को लम्बी कविता बनाती है निराला की “राम की शक्ति पूजा” अपने अर्थगौरव के कारण मुक्तिबोध की ‘अँधेरे में’ अस्मिता की खोज के कारण ही महाकाव्य कहलाती हैं लम्बी कविताओं का इतिहास देखा जाय तो दो चार कवि ही सफल रेखांकित किये जा सकते है इसका मूल कारण है कि शिल्प की मौलिकता व युगबोध को आलोचना के दायरे से काट कर लम्बी कविता का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है बहुत सी कविताएँ युग की विसंगतियों की अभिव्यक्ति में चूक जाती है और उनका ध्वनित अर्थ लम्बी कविता के लिए लाजिमी सूक्ष्म अर्थ की परतों को कट देता है और कविता केवल कवि का एकान्तिक आत्मालाप बन कर रह जाती है नरेश मेहता की ‘संशय की एक रात’ इस बात का उदहारण हैइस कविता की  मिथकीय साझेदारी वर्गीय दृष्टि के अभाव में मिथकीय मीमांसा बन कर रह जाती है दृष्टि और विज़न यदि जनपक्षीय नहीं है तो कोई भी रचना कमजोर हो सकती है या अपनी उपयोगिता नष्ट कर सकती है निराला, मुक्तिबोध, विजेन्द्र के बाद दृष्टि और सृजनात्मक मूल्यों से युक्त बेहतरीन कविता मैंने पढ़ी है तो वह है “धूसर में विलासपुर” ये कविता लोकदृष्टि संपन्न वरिष्ठ कवि/ पत्रकार सुधीर सक्सेना की नवीन रचना है सुधीर सक्सेना नवीन युगबोध और नवीन संवेदन के यथार्थवादी कवि है संयम, सुरुचि, साहस और खरापन उनकी कविताओं को समकालीन कवियों की लम्बी कतार से अलग कर देता है उनकी कविताएँ  परिवेश के साथ कहीं भी समझौतापरक दृष्टि नहीं रखती इस मायने में वो कहीं कहीं धूमिल के निकट पहुँच जाते हैं बेलौस सपाटबयानी, आक्रोश, अनास्था उन्हें तनाव और झटपटाहट का कवि बना देती है सुधीर हिन्दुस्तान के जाने-माने पत्रकार हैं उन्होंने हिन्दुतान की राजनैतिक और व्यवस्थागत परिवर्तनों का दौर देखा है जनतांत्रिक और जनविरोधी मूल्यों की उनको समझ है यही कारण है उनकी कविताओं में हिन्दुस्तान का परिवेश मूर्तमान हो गया है और भाषा आम हिन्दुतानी की रोजमर्रा की सक्रियताओं को समाहित करती है भाषा और दृष्टि का यह अद्भुत सामूहन बहुत कम कवियों में देखने को मिलता है“धूसर में बिलासपुर” का प्रकाशन अभी 2015 में हुआ है। यह एकदम नई रचना है इस कविता की भूमिका में सुधीर सक्सेना जी ने एक बड़ी बात कह दी है जिससे कविता के अंत:सूत्रों को भलीभाँति समझा जा सकता है उन्होंने कहा है “हर व्यक्ति का अपना बिलासपुर होता है बिलासपुर होना अपनेपन का होना है आत्मीयता और अंतरंगता का होना है कुछ शहर बरसों गुजार कर भी अपने नही होते” (पृष्ठ 5) बिलासपुर शहर है उनका अपना शहर है उनकी यादों में रचा बसा शहर है यह शहर कवि को ऊब और संत्रास की उदासी में भी मनुष्य होने का बोध देता है इसलिए यह कविता सुधीर के शब्दों में “धूसर में बिलासपुर” में बिलासपुर की याद है बिलासपुर के अक्स हैं सपने हैं चहरे हैं मोहरे हैं मोहल्ले हैं” (पृष्ठ 5)
‘धूसर में बिलासपुर’ एक नगर का आख्यान है। इसका नायक परम्परागत नायकत्व से पृथक एक भू-क्षेत्र है। भूमि या अंचल को नायक बनाने की कलात्मक प्रक्रिया कथासाहित्य मे खूब मिलती है। परन्तु कविता में किसी भूमि का चारित्रिक संस्कार बहुत कम मिलता है। इसका मूल कारण है कि जैविक चरित्र में अनुभव व सम्वेदनाओं की नाटकीयतापूर्ण अर्थछवियों की संस्थापना सहज होती है। और कविता मे भी बेवजह अमूर्तन व संकेतात्मक विवरणों की कमी आती है। नायकत्व के मामले मे सक्सेना जी ने बहुत बडा जोखिम लिया है। अंचल या नगर मे व्यक्तित्व का आरोपण किसी भी लेखक या कवि के लिए दुष्कर कार्य है। ‘धूसर में बिलासपुर’ में बिलासपुर के प्रति कवि का सम्मोहन जमीनी है। वह बिलासपुर को देखता भर नहीं है। अपने अन्दर बिलासपुर को जीता भी है। यह बिलासपुर एक मित्र या सुह्रद बान्धवों जैसा है। उसके हर एक पहलू में कवि की रचनात्मक अनुरक्तिपूर्ण आवाजाही है। बिलासपुर का वह पक्ष जो कवि की स्मृतियों का सूत्र है बिलासपुर और कवि के अन्तर्ग्रथित सम्बन्धों का प्रतिफलन है। हर इंसान देखता है। सामान्य तौर पर देखने और कविता के नजरिए से देखने में फर्क होता है। सामान्य वस्तुएँ या घटनाएँ व्यक्ति पर प्रभाव तो डालती हैं पर आम आदमी इससे चरित्र नही गढ पाता, क्योंकि घटना एक अस्थायी बिम्ब के रूप मे प्रकट होती है और अदृश्य हो जाती है। घटना और वस्तु स्मृति के अंग तभी बनते हैं जब दृष्टा आत्मपरक स्वनुभूत तथ्य के रूप मे ग्रहण करे। सक्सेना जी में बिलासपुर का वैविध्यपूर्ण पक्ष आत्मचिन्तन की अवस्था को प्राप्त हो रहा है। कवि बिलासपुर से कहीं भी पृथक नहीं है। कवि की उपस्थिति शब्द और अर्थवत है। यही कारण है कि वह धूसरपनको चिन्हित कर लेता है। कविता की बिनाईकोई विशिष्ट नजरिया नहीं है यही आत्मचिन्तन की दशा है। जिसमें वैयक्तिक पीडाएं, त्रासदी, संघर्ष, टकराव, मूल्य, अस्मिता, सब कुछ वस्तु मे समाहित हो जाता है। जैसे सक्सेना जी की समस्त वैचारिक अवस्थितियां बिलासपुर मे समाहित हो गयीं हैं। बिलासपुर को देखना ही कविता का पाठ है वो कहते हैं
पुतलियों के लिए आसां नहीं धूसर की शिनाख्त 
आँखों से नहीं
अलबत्ता कविता की बिनाई से सब कुछ साफ़-साफ़ नजर आता है
कविता की आँख से देखने में अचेतन अमूर्त भी चेतन हो उठता है जब तक व्यक्ति अचेतन को खुद से पृथक करके देखता है। तब तक वह सम्पूर्णता व सत्यता का अवलोकन नहीं करता। सारी अवस्थितियाँ तभी साफ-साफ समझ में आती है जब नजरिया कविता का हो अर्थात आत्मासक्ति की दशा हो।
बिलासपुर का व्यक्तित्व तय करने में सक्सेना जी ने पुराणों, इतिहास, भूगोल, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र सबका सहारा लिया है। जब वो अतीत में उतरते हैं तो कविता का कलात्मक सौन्दर्य देखते बनता है। इतिहास और मिथक का खूबसूरत आमेलन जब भावपरकता के साथ व्यक्त होता है तो कविता की व्यंजना और बढ जाती है। देखिए अतीत का एक कलात्मक बिम्ब जिसमे बिलासपुर एक जीता जागता नागरिक जैसा मूर्त हो जाता है। एक प्रकार से यहां मानवीयकरण होगा जब भौतिक सत्ता पर चेतन सत्ता को अभिरोपित करते है़ या अचेतन मे व्यक्ति को रोपित करते है़ तो प्रकृति का मानवीयकरण हो जाता है।
अलबत्ता बसा था शुरू में देह पृथुल
रेल पांत और नदी की धार के दरम्यान
ललाट चमकीला
कटि क्षीण नहीं
जाल आबनूसी अलक (पृष्ठ 15)
ये किसी व्यक्ति का चित्र नहीं है। बिलासपुर का चित्र है एक ऐसे बिलासपुर का चित्र जो कवि का आत्मीय है जिसमे कवि का व्यक्तित्व समाया है। जहां कवि समूचा हिन्दुस्तान देखता है। यहीं श्रीकान्त वर्मा, प्रमोद वर्मा, सत्यदेव दुबे जैसे कवि मित्रों को देखता है। इन्द्र प्रोविजनल स्टोर की दुकान भी देखता है जहां इन्दर बाबू तमाम किस्से कथा सुनाया करते थे। कवि भूगोल देखता है इतिहास मे उतर कर तमाम सामन्ती वैभव व हिन्दुस्तान का अतीत देखता है। मुगल काल के संघर्ष और आजादी की लडाई मे बिलासपुर का बलिदान स्मरण करता है। कवि को माखनलाल चतुर्वेदी की कविता चाह नही सुरबाला कीभी याद आती है। पानी की बहुतायत मात्रा जिससे पूरे शहर की आत्मा तक तृप्त हो जाती थी। कवि की आत्मीयतापूर्ण स्मृति से बची नहीं है। आरपा का पानी बिलासपुर का जीवन है जिसकी बढी मात्रा बिलासपुर की शान शौकत का प्रतीक बन कर उभर गया है। आरपा का पतन उसके पानी का घटना बिलासपुर का पतन बन गया है। यहां आरपा का पानी वही अर्थ रखता है जो आम लोक-जीवन में पानी की अर्थव्यंजना रखती है। मतलब शान और ईमान। जी हां, शान और ईमान की ध्वन्यात्मक अभिव्यंजना करता हुआ आरपा का पानी बिलासपुर को विशिष्ट व्यक्तित्व बना देता है। बिलासपुर के इतिहास का विवेचन करते समय सक्सेना जी परिवेशगत यातनाओं, घुटन, त्रासदियों का भी बोध साथ ही देते चलते हैं यह एक नयी बात है अधिकांश कवि जब अतीत मे उतरते हैं तो भावुक रौमैन्टिसिज्म का शिकार हो जाते हैं। फलतः पराजय – इतिहास को आधुनिकता से पृथक कर के जय, पाप-पुण्य – की इकहरी मान्यताओं का ककहरा बना डालते हैं। अक्सर ऐसा तभी होता है जब हम इतिहास को घटनापरक मान कर वर्गीय दृष्टि की उपेक्षा करते हैं। अयथार्थ और सपाट मूल्य इतिहास-दृष्टि नहीं है। 
आज के मनुष्य का आसन्न संकट इतिहास की गौरवजीविता नही है। सबसे बडा संकट भूमंडलीकरण द्वारा किए गए बदलावों के समानान्तर खडे जीवन स्रोतो की भयावह स्थितियां हैं, जिसे कवि बखूबी समझ रहा है। यही कारण है वो इतिहास और मिथकों से मनुष्यता के कटु परिवर्तनों की नींव मजबूत करते हैं। सुधीर सक्सेना युग सन्दर्भित बदलावों मे खो गये अपने बिलासपुर की बेहद जमीनी पीठिका तय करते हैं
युग बदला
बदलीं मान्यताएँ
आया नया बहुत सारा
नयी हवा नयी सोच
मगर उतरा तो उतरता ही गया
आरपा का पानी (पृष्ठ – 33)
यहां युग के साथ आरपा का पानी उतरना बडी घटना है। पानी का अर्थ इस कविता में मनुष्यता के सन्दर्भ में है। पानी का घटना जैसे बिलासपुर का मान घटना है। आज का बिलासपुर अब कवि के लिए अपना नहीं रह गया है। वह भूमंडलीकरण के खेल मे उलझ कर पूंजीवादी शोषकों के हाथ मे निजी सम्पत्ति बन चुका है। असली बिलासपुर जिससे कवि की आत्मीयता थी, वह शहर से पलायन कर चुका है।
हम पाते हैं
कि विलासपुर चला गया है
जम्मू के ईंट-भट्ठों में
पंजाब के खेतों में
असम के चाय बागानों में
 (पृष्ठ – 40)
यह स्थिति समूचे हिन्दुस्तान की है। श्रमिक जनता का पलायन व दूर जा कर रोजी रोटी कमाना भूमंडलीकृत, उदारीकृत लोकतन्त्र का बडा संकट है। श्रमिकों के पलायन को कवि बिलासपुर का पलायन कहता है। इसका आशय है कि सुधीर सक्सेना आम जन में ही बिलासपुर देखते हैं। उन्हें बिलासपुर के अभिजात्य शोषक श्रेष्ठि जन से कोई संवेदना नहीं है। यही सच्चे लोकधर्मी कवि की पहचान है जो आम जन मे हिन्दुस्तान का आरोपण कर दे। श्रमिकों, मजदूरों का रोजगार छिन गया है। परम्परागत उत्पादन व रोजगार के साधनों, संसाधनों पर पूँजीवादी शक्तियों का अधिकार हो चुका है। इसलिए आजीविका की तलाश मे बिलासपुर पलायन कर चुका है। इस शोषण और एकाधिकार की चर्चा भी सक्सेना जी ने की है। लोक के सन्दर्भ में आद्यौगीकरण एक बदलावपूर्ण सांस्कृतिक प्रतिफलन है। इससे गांव के जंगल और पहाड व व्यक्ति की सांस्कृतिक अस्मिता बडी तेजी से लुप्त हो रही हैं। भूमि और जंगल के विनाश ने आम आदमी के लिए रोजगार का बडा संकट खडा दिया है। पलायन, आत्महत्या, बन्धुवागिरी इसके अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष उपलक्षण बन चुके हैं। भारतीय गांव अपने मूलस्वरूप में अहस्तक्षेपकी नीति पर काम करते थे वो अपने उत्पादन और वितरण, बाजार के स्तर पर आत्मनिर्भर रहते थे शहर की जरूरत कम होती थी। पर गांव के छोटे-छोटे उत्पादन उपक्रम बर्बाद हो जाने के कारण यह आत्मनिर्भरता पूंजीवादी परनिर्भरता मे बदल गयी है। गाँव का पलायन शहर की ओर बढा है। यही हाल छोटे शहरों का भी रहा यहाँ पर भी परनिर्भरता एक अकाट्य तर्क बन कर उभरी है। जब कोई बेरोजगार बड़े शहर की ओर पलायन करता है तो वह अकेले पलायन नही करता अपने रिश्तों की मजबूत डोरी तोड कर समूची संस्कृति से अलगाव की घोषणा करता है। सुधीर इस अवस्थिति से परिचित हैं। वो बदलावों के व्यापक असर को देख रहे हैं यही कारण है उन्हें बिलासपुर धूसर दीखता है अनुपस्थित दीखता है ये स्थिति हिन्दुस्तानी गांवो से लेकर छोटे शहरों तक आम है आजकल जंगल भी इस दंश को भुगत रहे हैं। भूमंडलीकरण की आग मे जल रहे मानवीय रिश्ते आज का कटु सत्य बन गये हैं स्वाभाविक है सक्सेना जी जैसा संवेदनशील कवि इस स्थिति को अनदेखा नहीं कर सकता है बिलासपुर का समय कवि का समय है। बिलासपुर का वर्तमान आज अभी का वर्तमान है। श्रेष्ठिजन भले ही पुरातन शब्द हो पर कवि ने इसे मांज धो कर एकदम नया कर दिया है। अब यह पूंजीपतिया ‘अभिजन’ का अर्थ दे रहा है जो सत्ता और शक्ति के साथ-साथ सम्पत्ति का बडा हिस्सा जिसके स्वामित्व में है। इस वर्ग की सक्सेना जी तीखी आलोचना करते हुए अपनी जनपक्षधरता का प्रमाण दे देते है। इस वर्ग ने बाजार के चमत्कार का सबसे ज्यादा फायदा उठाया है। सार्वजनिक सम्पत्ति पर इनका कब्जा है।
श्रेष्ठिजन लगाते हैं बोलियां
/ वे जानते हैं सार्वजनिक सम्पत्ति को  /
निजी सम्पत्ति में बदलने के गुर ।( पृष्ठ 38 )
 
इतना ही नहीं इस वर्ग का प्रमाण उसके लूट संसाधनों की व्यूह व्यवस्था से भी देते हैं।
वो लिखते हैं
 
श्रेष्ठिजन अर्थ की तलाश में बिछाते हैं जाल 
कम्प्यूटर, पामटाप, सेलफोन, आनलाईन ट्रेडिंग 
ई-बिडिंग
ये समूचा विकास बिलासपुर के लिए खतरा है क्योंकि इससे शोषण की भयावहता बढ़ी है और बिलासपुर का वह वर्ग जिससे बिलासपुर आत्मीय था पलायन कर चुका है। सुधीर सक्सेना अपनी लम्बी कविता के माध्यम से विकास के पीछे छिपी पूंजीवादी मन्तव्यों की पोल परत दर परत खोल कर रख देते हैं। भूमंडलीकरण का सर्वाधिक प्रभाव नगरों के स्थापत्य पर पड़ा है। अपने मूल से रहित हो कर नगर और गांव शोषण और बाजार की छोटी सी ईकाई बन कर रह गए हैं। खेत फैक्ट्रियों में, घर शापिंग माल मे तब्दील होते जा रहे हैं। बिलासपुर के पलायन का यह भी एक कारण है कि उसे उसकी परम्परागत सम्पत्ति और आजीविका से रातों रात बेदखल कर दिया गया है।
शहर है कि अजगैब है /रातों रात ढहते हैं पुराने मकानात  /
रातों रात उन्ही से उगते है़ माल और मल्टी 
धर्मशालाएं और टाकीजें दम तोडती हैं 
उभरते हैं रातों-रात पब, बार और रेस्तरां (पृष्ठ-42)
यही है बाजारवाद का काला सच जिसमे आदमी की चेतना को उसके वजूद से अलग कर बाजार के हवाले कर दिया जाता है। आदमी का रोजगार और घर छीन कर बाजार बना दिया जाता है।
बाजारवाद सांस्कृतिक क्षेत्र में मध्यमवर्गीय कुंठाओं और अश्लीलता का पोषक है तो राजनीति में जातीय संघर्षों और फासिज्म का मुख्य सूत्राधार है। क्योंकि बगैर सत्ता के पूँजीवादी मंसूबों को कामयाबी नहीं प्राप्त होती है। सत्ता के निर्बाध भोग हेतु इस बाजारवाद ने हिन्दुस्तान का चरित्र बदल दिया है। सहजता, आत्मीयता, बन्धुत्व जैसे शब्द अब अतीत की डायरी में सडे हुए पन्ने की तरह हो चुके हैं। बिलासपुर की सियासत की चर्चा करते समय कवि ने बाजार के इस खतरनाक पहलू को उकेरने में कोई चूक नहीं किया है।
सियासत शगल है शहर का  
शहर की तासीर में घुली है सियासत
(पृष्ठ – 17)
जिस शहर की सामाजिक परिस्थितियां सियासत से जुडी हों जहां एक से बढ कर एक जननेता रहनुमा उत्पन्न हुए हों, जहां छेदीलाल का जनपक्षीय प्रतिरोध हुआ हो, जो शहर बडे-बडे जनान्दोलनों मे आगे बढ कर रहा हो, वहां सियासत की गरिमा समझी जा सकती है। लेकिन भूमंडलीकरण ने इस सियासत का मानवतापूर्ण तत्व निगल लिया है। अब जाति और सम्प्रदाय के बगैर आदमी की पहचान खो चुकी है। लोग जाति देख कर ही राजनैतिक पक्षधरता का अनुमान करते है। 
मगर अब वक्त लगता है 
बताना पडता है
कुल गोत्र / गांव ठाँव का नाम दक्षिण या वाम ।( पृष्ठ 41 )
इसके आगे वो कहते हैं कि 
कारिंदे इतने सयाने हैं
कि बूझ लेते हैं
कि सत्ता के केन्द्र से कौन सा कोण बनाता है
आपका वजूद (पृष्ठ-42)
ये स्थिति भारतीय राजनीति का कटुतम सच है। व्यक्ति की जाति और धर्म का राजनैतिक नारों और पक्षधरता में तब्दील हो जाना जनचेतना के क्षरण का सबसे बडा कारण है। आदमी के रक्त सम्बन्धों से सियासत के बदलाव तय हो जाना संवैधानिक मूल्यों का पतन है। इस नजरिए से सुधीर सक्सेना की लम्बी कविता धूसर में बिलासपुरको केवल बिलासपुर का चरित्र न समझा जाय। इसे हिन्दुस्तान का भूमंडलीकृत लोकतन्त्र समझा जाय।
आज की कविता में सबसे गंभीर आक्षेप लगाया जाता है की वो लोक से अलगाव का शिकार है। सुधीर सक्सेना की ये लम्बी कविता इस आलोचकीय मिथक को तोडती है। ‘धूसर में बिलासपुर’ केवल लोक का विषयपरक आख्यान ही नहीं प्रस्तुत करती अपितु लोक से अपनी ऊर्जा उपार्जित करते हुए लोक की सामयिक त्रासदियो का मुकम्मल विवेचन भी करती है। लेखक की स्मृतियों का बार-बार अतीत में जाना अतीत के अवशेषों की पड़ताल करना उन्हें पूंजीवादी बाजारवादी परिवेश के बरक्स चिन्हित करना कवि के अंतरतम में उपस्थित बिलासपुर के सूक्ष्म आक्रोश की प्रतिक्रया है। बिलासपुर के प्रति अभिव्यंजित नास्टेल्जिया यथार्थ की अभिव्यक्ति को धारदार बना रहा है। भूमंडलीकरण द्वारा किये गए अमानवीय अलगावों, बदलावों के बीच मनुष्यता की जमीन तलाशते हुए कवि ने बिलासपुर में युग के समूचे तेवरों को समाहित कर दिया है। बाज़ार के दौर में सक्सेना जिस मूल्य की खोज कर रहे हैं, मूल्य को समूचा हिंदुस्तान खोज रहा है। ‘धूसर में बिलासपुर’ का अभिकथन हिन्दुस्तानी आवाम का अभिकथन है।
उमाशंकर सिंह परमार
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कवि सुधीर सक्सेना पर नित्यानानद गायेन का आलेख ‘कवि सुधीर सक्सेना. प्रेम के कवि, जो ईश्वर तो नहीं’


ईश्वर को आधार बना कर जिन कुछ कवियों ने महत्वपूर्ण कवितायें लिखीं हैं उनमें सुधीर सक्सेना का नाम प्रमुख है. इन कविताओं में वे ईश्वर से जैसे बातें करते हुए उसकी वास्तविकता को हमारे सामने रख देते हैं. उनकी कविताओं में प्रेम भरा पड़ा है. प्रेम जो मानवीय रिश्तों और संबंधों की बुनियाद है कवि के यहाँ बार-बार दिखाई पड़ता है. शायद इसीलिए नित्यानन्द ने इस आलेख का शीर्षक ही दिया है ‘कवि सुधीर सक्सेना. प्रेम के कवि, जो ईश्वर तो नहीं‘ कवि सुधीर सक्सेना के तीन संग्रहों को आधार बना कर युवा कवि नित्यानन्द गायेन ने यह आलेख लिखा है. इसे हम आप के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. 
कवि सुधीर सक्सेना. प्रेम के कवि, जो ईश्वर तो नहीं ….
साहित्य का एक तरुण विद्यार्थी हूँ मैं. मैंने अनेक रचनाकारों की रचनाएँ पढ़ी हैं. जिनमें साहित्य के दिग्गज और वरिष्ठ रचनाकारों के साथ समकालीन कवि भी शामिल हैं. समकालीन कवियों में अनेक हैं जिनकी रचनाएँ सदा मुझे आकर्षित करती हैं . जिनमें से एक हैं अग्रज कवि / लेखक/ अनुवादक सुधीर सक्सेना जी. और उन्हें पढ़ते हुए मैं उनके बहुत करीब आ गया हूँ. और वरिष्ठ कवि / सम्पादक आग्नेय जी से बहुत कुछ जान पाया हूँ सुधीर जी के बारे में विशेषकर उनके अनुवाद कर्म के बारे में, पत्रकारिता के बारे, इनके संघर्ष के बारे में.

मैंने अब तक इस कवि के तीन संग्रहों को पढ़ा है. कोई भी संग्रह किसी से कमतर नहीं. किन्तु सबका रस–रंग भिन्न हैं. इनका पहला संग्रह ‘रात जब चन्द्रमा बजाता है बांसुरी’ मुझे वर्ष २०१२ में मिला. इस संग्रह की कविताओं को पढ़ा. बार–बार पढ़ा, और तब–तब पढ़ा जब मन बहुत विचलित होता रहा. इस संग्रह की कविताएँ पढ़ कर मैंने जाना प्रेम का अनुभव और उसकी अभिव्यक्ति की कला /शैली. सिर्फ़ चंद शब्द और विराट अभिव्यक्ति? यही कारण है कि वे इतने शालीन और बाकियों से अलग हैं. कहते हैं न कि जो बड़े होते हैं वे अपना ढोल नही पीटते. यही बात सुधीर जी में भी हैं. आज जब ज्यादातर रचनाकार हर माध्यम का सहारा लेकर आत्म प्रचार में व्यस्त हैं, वहीँ कविवर सुधीर निरंतर चुपचाप अपनी रचनाशीलता में लगे हुए हैं. वर्ष २०१२ में सुधीर जी हैदराबाद आये थे. और यहाँ पहुंचकर उन्होंने मुझे फोन किया और मिलने की इच्छा जाहिर की. यह इस कवि का बड़प्पन था कि वे एक एकदम नये साहित्य के विद्यार्थी से मिलना चाहते थे. बड़ो के यही गुण ही शायद उन्हें सच में बड़ा बनाते हैं. नहीं तो मेरे कुछ ऐसे अनुभव भी हैं कि जब मैंने अपने कुछ समकालीन रचनाकारों से मिलने की इच्छा जतायी तो उन्होंने मुझ जैसे कच्चे और नवीन रचनाकार से मिलना पसंद नही किया. क्योंकि वे खुद को बहुत ऊँचा और अलग मानते हैं.
  

मध्य प्रदेश के एक टीवी चैनेल पर एक साल पहले मैंने सुधीर जी का एक साक्षात्कार देखा था. जिसमें सुधीर जी ने कहा था –‘मैं लिखता हूँ, लिखने ज्यादा मैं पढ़ता हूँ.’ उनका यह वाक्य मेरे दिमाग में घर कर गया. और उनके प्रति मेरा आदर भी बढ़ गया. सूरज को आईने की जरुरत नही होती. सूरज को आईना दिखाना मुर्खता है. वैसे तो कवि सुधीर सक्सेना की कविताओं पर बहुत वरिष्ठ कवि /लेखक /आलोचकों ने बहुत कुछ लिखा है. केवल देश में नही देश के बाहर भी. पर यहाँ मैं भी कुछ कहने की जुर्रत कर रहा हूँ आज. 
  

‘रात जब चन्द्रमा बजाता है बांसुरी’ संग्रह में प्रेम कविताएँ हैं. प्रेम क्या है? उसकी अनुभूति कैसे होती है? प्रेम का दायरा क्या है, ये सभी कुछ इस संग्रह की रचनाओं को पढ़ते हुए हम महसूस कर सकते हैं. इस संग्रह की कविताओं में मिलन का सूख भी है तो विरह के उदास गीत भी है. 

“मैंने तुम्हें चाहा /तुम धरती हो गयीं

तुमने मुझे चाहा /मैं आकाश हो गया

और फिर

हम कभी नहीं मिले,

वसुंधरा |” (पृष्ठ -१५) | क्या बात है. प्रेम से जब कोई किसी को चाहता है तो कोई धरती जो जाती है तो कोई आकाश. मतलब प्रेम की चाहत मात्र से हम विराट बन जाते हैं. और कभी –कभी इतने विराट कि धरती और आकाश हो जाते हैं. जो एक –दूजे को चाहते तो हैं, किन्तु उनका मिलन नही हो पाता. और इस तरह चाहत अमर हो जाती है.

प्रेम का पहला पाठ मनुष्य प्रकृति से सीखता है. और फिर वह उसे विस्तार देता है. तभी तो कवि लिखता है –
           “तुम / समुद्र से नहा कर निकलीं

           और पहाड़ को तकिया बनाकर /लेट गयीं

           घास के बिछौने पर /अम्लान|” (पृ.१६, वही) 
जिस प्रकृति ने हमें प्रेम का पहला पाठ पढ़ाया, हमें पहले उससे प्रेम करना होगा. कवि की दृष्टि देखिये, वह यही तो कह रहे हैं यहाँ|

चित्रकार नीलम अहलावत की पेंटिंग देखकर कवि अपने जज़्बात रोक नही पाते, और लिखते हैं –

“समुद्र से

दौड़ता हुआ निकला घोड़ा

ढेर सारी ऊर्जा,

तनिक विस्मय,

तनिक भय,

उसे स्तेपी की तलाश थी

उसकी देह से चिपका हुआ था ढेर सारा नमक|” (पृ.19, वही). समन्दर में दौड़ना आसान नही, पर घोड़ा दौड़ता है, कवि उसकी आँखों में पढ़ता है, उसकी उर्जा, उसका भय और उसकी चिंता. यह नज़र और अनुभव की बात है. आम जन इसे पढ़ नही पाता कभी भी.
 
हम साधारण मनुष्य हैं, कई बार तो हममें साधारण मानव के गुण भी नही मिल पाते, किन्तु कभी –कभी कुछ ऐसा भी हो जाता है अनाश्य कि साधारण मनुष्य भी देवत्व पा लेता है अपने किसी प्रिय के नजरों में. गर्मी में झुलझते हुए प्रियसी ने वर्षा की इच्छा की. प्रेमी ने काल्पनिक मन्त्र बुबुदाये यह जानते हुए भी कि यह उसके वश में नही, किन्तु तभी कुछ अनोखा होता है मानो मेघों ने सुन ली हो उस प्रेमी की प्रार्थना और उन काल्पनिक मंत्रोच्चार से खुश होकर वे बरस पड़ें. प्रेमी अपनी प्रेमिका की नज़रों में देवत्व पा लेता है. (कविता-अचानक देवत्व, पृष्ठ -४६) 

बारिस कविता में कवि कहता है –

“इस साल भी

बारिश आएगी

बरसेंगे मेघ

चाहता हूँ इस साल

तुम मेरी उँगलियों से

और मैं तुम्हारी उँगलियों से

छुऊँ बारिश की बूंद ……..देखो

चमक रही है बिजली

सुनो , गरज रहे हैं मेघ 

औचक किसी भी पल झर सकती हैं बूंदें|” इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मुह से निकल जाती है – ‘वाह’| जब सच्चा प्रेमी मन ही मन प्रकृति से किसी चीज की इच्छा प्रकट करते हैं, तब वह खोल देता है अपना दामन किसी दानवीर कर्ण की तरह. जरुरी नही कि सच में मेघ बरसे आकाश से किन्तु मन में फैले विशाल निर्मल आकाश जरुर बरसने लगता है. क्यों कि कवि जानता है कि चुम्बकत्व केवल लोहे में नही होता. 
               
               “तुमसे मिलने के बाद /जाना

               कि

               सिर्फ़ लोहे में /नहीं होता है

               चुम्बकत्व |” (पृष्ठ -५०) 

कितनी गहराई में जाकर अनुभव किया है कवि ने प्रेम को यह इस संग्रह की रचनाओं को पढ़कर आप  समझ जाएंगे. वर्ना कैसे कहता कवि 
“आज तुम्हारे सीने में नहीं / तुम्हारी हथेली में / धड़का

तुम्हारा दिल

और अपनी हथेली में दुबकाये / उसे ले आया मैं

अपने साथ |” (पृष्ठ -५१). 
इस संग्रह की भूमिका में वरिष्ठ कवयित्री अनामिका जी ने लिखा है –“सुधीर सक्सेना की ये प्रेम कविताएँ नन्हीं –नन्हीं सांसों की तरह आप में आती –जाती हैं|” बिलकुल ठीक कहा है उन्होंने. इन कविताओं को पढ़ते हुए आप ऐसा ही महसूस करेंगे. 
“आपने प्रेम किया

तो भी मरेंगे

और नही किया

तो भी मरेंगे एक रोज़ ….

प्रेम से नहीं बदलती मौत की तारीख

अलबत्ता प्रेम से बदल जाती है ज़िंदगी

आमूलचूल |” (पृष्ठ -६९). 

सुधीर जी का दूसरा संग्रह जो मैंने पढ़ा, वह है “किरच –किरच यकीन”. इस संग्रह की कविताएँ सुधीर जी ने अपने मित्रों को समर्प्रित किया है. और इस संग्रह की भूमिका में वरिष्ठ कविवर आदरणीय नरेश सक्सेना जी ने लिखीं हैं. नरेश जी ने लिखा है –“घृणा से भरे इस समय में, हमारे बीच एक कवि ऐसा भी है, जो मित्रों का नाम लेकर हमें अपने प्रेम और आत्मीयता से आश्वस्त करता दिखता है| वर्ना इन दिनों लोग अपने मित्रों का नाम लेने से भी बचते हुए दिखाई देते हैं |”  बिलकुल सटीक लिखा है नरेश जी ने. यही हकीकत भी है| कवि सुधीर सक्सेना के पास वह दृष्टि है जो एक सजग कवि के पास होनी चाहिए. वे जानते हैं इतिहास का विश्लेषण और पड़ताल करना. अब देखिये न कि कवि ने क्या लिखा है, ऐसा लगता है कि बहुत साधारण सी बात है यह, किन्तु इस साधारण सी लगने वाली बात में कितनी गहराई है और कितनी सच्चाई है यह भी महसूस होना चाहिए.

“अ से न अनार

न अज,

अ अमरुद

अ से अमेरिका

ब से न बकरी

न बटन

न बतख

ब से बुश |” 
क्या यह हकीकत नही है? कवि की नज़र बहुत पैनी हैं. यहाँ इस कविता में उन्होंने हमें चेताया है, यह बताया है कि प्रकार पूरी दुनिया में अमेरिका की तानाशाही पूंजीवादी नीति का कहर है. और अब बच्चों को अ से अनार नही अ से अमेरिका पढ़ाया जायेगा.
आज दुनिया के तमाम राष्ट्रों को यदि किसी से खतरा है तो उसके राजनेताओं से. यह बात कवि बहुत अच्छी तरह जानते हैं. कवि जो बतौर पत्रकार भी देश दुनिया की राजनैतिक गतिविधियों को बहुत बारीकी से देखते रहे हैं. तभी तो वे कहते हैं –

“आपदा का समय बीत गया 
अब हम राष्ट्रों की रक्षा करेंगे 
राष्ट्राध्यक्षों से 
सूबे की रक्षा सूबेदारों से 
और गांवों की रक्षा पटवारियों से |” 

इन लोगों को चुनौती देते हुए कवि याद करते हैं कबीर को. 

“मैं जानता हूँ

कि वे तय नही कर पाएंगे

कि मुझे दफनायें

या जलाएं

लिहाज़ा मैंने मुल्तवी की

एक बार फिर

अपनी मौत |” 
यहाँ इस कविता को पढ़ते हुए मुझे विद्रोही कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की ‘जनगणमनकविता याद आती है –

मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जनगणमन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़ेबड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूंआराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़ेबड़े लोगों को मारकर तब मरा |

सुधीर जी की कविताओं में प्रेम है, जीवन दर्शन भी है तो अन्याय के विरुद्ध विद्रोह भी हैं.

अब मैं कहना चाहता हूँ सुधीर जी के एकदम नये संग्रह की कविताओं के बारे में. इस संग्रह की कविता एकदम अलग और एक ही विषय पर केन्द्रित है. विषय है ईश्वर. 
‘ईश्वर  हाँ, नहीं …तो’ संग्रह के शीर्षक से आपको पहली नज़र में लगेगा कि शायद यह कोई धर्म ग्रन्थ हो. किन्तु जैसे ही इसे खोलकर पहली कविता पढेंगे तो …आप हैरान हो जाएंगे. इसकी भूमिका लिखी हैं ज्योतिष जोशी जी ने. और बहुत शानदार लिखा है.

मनुष्य सबसे पहले शायद बादलों की गरज और बिजली की चमक और फिर अँधेरी रात से डरा होगा. फिर शायद समुद्री तूफान या बाढ़ से. वह डरा होगा सांप से जब कोई मरा होगा उसके डसने से. तो धीरे – धीरे उसने शुरू की प्रार्थना /पूजा इनकी अपनी रहम और अपनी रक्षा में. फिर समाज का निर्माण किया और गढ़ा उसने ईश्वर को जो कहीं घर कर गया था उसके भय के कारण उसकी कल्पनाओं में. किन्तु आज इतने हजार साल बाद भी उसे बचा नही पाता कोई ईश्वर मृत्यु से, पीड़ा से, रोग से, अपराध से. तो कहाँ है ईश्वर? बाबा नागार्जुन ने लिखा था “कल्पना के पुत्र हे भगवान |” 

कवि सुधीर जी ने पूछा है – 

“ईश्वर 
यदि सिर्फ देवभाषा जानता है 
और इतनी दूर हैं हमसे 
उस तक पहुँच नही सकती हमारी आवाज़ 
भला कैसे हो संवाद ..


यदि हमने भेजा उसे 
अपने दुखों का खरीता , 
तो वह उसे पढ़ नही सकेगा 
उसके अजनबी लिपि में होने से 
…….ईश्वर के लिए 
ईश्वर होने के वास्ते 
कितना जरुरी हो गया है 
बहुभाषी होना|” (पृष्ठ -१७). 

इस श्रृंखला की तीन में कवि कहते हैं – 

“अरबों वर्षों बाद भी 

यदि अभी भी बची हैं

ईश्वर में संवेदनाएं

तो वह दु:खी होगा धरती की दशा से

मनुष्य की दिशा से …..” (पृष्ठ -19) . 

बिलकुल ठीक ही तो लिखा है सुधीर जी ने. आज का समाज जा कहाँ रहा है और कहाँ जा रहे हैं मनुष्य? 
त्वचा डरती है दाग से,

वनस्पति फफूंद से

तट चक्रवात से …….मगर, सबसे ज्यादा लोग डरते हैं तुमसे

महाबाहो | आखिर तुममे और विकार में

कोई तो रिश्ता होगा

परस्पर / हे ईश्वर”

क्या सटीक बात कही है कवि ने. हमारी फ़ेहरिस्त में सबसे अव्वल है तुम्हारा नाम, सूची छोटी हो या बड़ी / कहो कहाँ है तुम्हारी सूची ईश्वर /कहाँ है हमारा नाम?क्या यह प्रश्न बाजिव नही? हमें नही पता कि कौन सी भाषा आती है ईश्वर को इसलिए कवि ने सबसे आसान भाषा का प्रयोग किया है अपने सवालों को उठाते हुए.

इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे बार –बार बाबा नागार्जुन की वही कविता याद आती है ‘कल्पना के पुत्र हे भगवान’. और ऐसा पहली बार हुआ है. कि बाबा के बाद किसी कवि ने इस तरह की कविता की पूरी श्रृंखला लिख डाली हो.
लाखों वर्षों से ईश्वर ने जो इतने लोगों को गर्म सलाखों से दागा है. कैसे माफ़ होंगे उसके पाप? तभी तो सुधीर जी ने कहा – 

मान जाओ

हे परम पिता

परमात्मा

‘ईश्वर के लिए

ईश्वर से डरो

हे ईश्वर |……

सुधीर जी पढ़ते हुए सदा सुखद महसूस किया है मैंने. उनकी हर कविता एकदम नई होती है. और लम्बे समय तक याद रहती है. हाँ इस बात का अभी इल्म है कि मैंने इस अग्रज कवि का सबसे चर्चित संग्रह ‘समरकन्द में बाबर’ अब तक नही पढ़ा है. किन्तु जल्द ही उसे भी खोज कर पढूंगा.

समकालीन हिंदी कविता में सुधीर सक्सेना एक महत्वपूर्ण सजग और संवेदनशील कवि हैं. शोरगुल से दूर वे सदा अपनी रचनाओं में लगे हुए हैं. हम सब यही कामना करते हैं कि इसी तरह सृजन करते रहें और हिंदी कविता को और –और समृद्ध कर हमें प्रेरणा देते रहें.
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सम्पर्क-

नित्यानन्द गायेन

मोबाईल- 09999142633