महेश चंद्र पुनेठा का आलेख ‘शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध’

मुक्तिबोध

अपने एक वक्तव्य के दौरान एक दफे नामवर सिंह ने कहा था – ‘जो युग जितना ही आत्म-सजग होता है उसके मूल्यांकन का काम उतना ही कठिन हो जाता है।’ इस वक्तव्य में युग की जगह अगर रचनाकार कर दिया जाए तो मुक्तिबोध के मूल्यांकन के संदर्भ में यह एक सर्वथा उपयुक्त वक्तव्य होगा। ध्यातव्य है कि मुक्तिबोध रचनाकार होने के साथ-साथ एक शिक्षक भी थे। इन नाते वे अपनी भूमिकाओं से अच्छी तरह वाकिफ थेवस्तुतः शिक्षा और मनोविज्ञान का रचना के साथ चोली दामन का सम्बन्ध है। स्पष्ट तौर पर कहें तो शिक्षा और मनोविज्ञान की गहरी समझ रखने वाला व्यक्ति ही अपनी रचनाओं के साथ ईमानदारी बरत पाता है। मुक्तिबोध की रचनाओं में अगर यह है तो उसके पीछे उनके शिक्षा के इस समझ की बड़ी भूमिका है। उनकी रचना में ‘ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान’ की बात इन्हीं सन्दर्भों में आती है कवि महेश चन्द्र पुनेठा भी एक सजग शिक्षक हैं और इन दिनों ‘दीवार’ पत्रिका के माध्यम से शैक्षणिक क्षेत्र में विद्यार्थियों की अधिकाधिक भागीदारी के लिए के लिए ईमानदारी से सामूहिक तौर पर प्रयासरत हैं। महेश पुनेठा ने अपने एक आलेख में मुक्तिबोध के शैक्षणिक आयाम को समझने की महत्वपूर्ण कोशिश की है। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं महेश चन्द्र पुनेठा का आलेख ‘शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध’      


शिक्षा और मनोविज्ञान की भी गहरी समझ रखते थे मुक्तिबोध

महेश चंद्र पुनेठा

ज्ञान को ले कर बहुत भ्रम हैं। सामान्यतः सूचना, जानकारी या तथ्यों को ही ज्ञान मान लिया जाता है। इनको याद कर लेना ज्ञानी हो जाना। इस अवधारणा के अनुसार एक ज्ञान प्रदानकर्त्ता है तो दूसरा प्राप्तकर्ता, जिसे पाओले फ्रेरे बैंकिंग प्रणालीकहते हैं। इसमें शिक्षक जमाकर्ता और विद्यार्थी का मस्तिष्क बैंक की भूमिका में होता है। शिक्षक बच्चे के मस्तिष्क रूपी बैंक में सूचना-जानकारी या तथ्य रूपी धन को लगातार जमा करता जाता है। वह इस बात की परवाह नहीं करता है कि उसे लेने के लिए बच्चा तैयार है या नहीं। शिक्षक द्वारा कही बात ही अंतिम मानी जाती है। दरअसल यह ज्ञान की बहुत पुरानी अवधारणा है। यह तब की है जब शिक्षा की मौखिक परंपरा हुआ करती थी। सूचना, जानकारी या तथ्यों को रखने का रटने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता था। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इनके हस्तांतरण का यही एकमात्र उपाय हुआ करता था। जो जितनी अधिक सूचना, जानकारी या तथ्यों को याद रख पाता था वह उतना ही अधिक ज्ञानी माना जाता था। ज्ञान का यह सीमित और आधा अधूरा अर्थ है। वस्तुतः जो लिया या दिया जाता है वह ज्ञान न हो कर केवल सूचना या जानकारी है।

ज्ञान कभी दिया नहीं जा सकता है। ज्ञान का तो निर्माण या सृजन होता है। इसलिए आप दूसरों को सूचना या जानकारी तो दे सकते हैं ज्ञान नहीं। ज्ञान के साथ बोध का गहरा सम्बन्ध है। ज्ञान निर्माण की एक पूरी प्रक्रिया है, जो अवलोकन, प्रयोग-परीक्षण, विष्लेशण से होती हुई निष्कर्ष तक पहुंचती है। ज्ञान द्वंद्व और संश्लेषण से उत्पन्न होता है। अनुभवों और तर्कों की उसमें विशेष भूमिका रहती है। यह माना जाता है कि मनुष्य की सारी अवधारणाएं उनके अपने अनुभवों के आधार पर बनती हैं। शिक्षा में यह ज्ञान की यह अवधारणा रचनात्मकतावाद के नाम से जानी जाती है, जो अपेक्षाकृत नई मानी जाती है। भारतीय शिक्षा में इस अवधारणा की गूंज बीसवीं सदी के अंतिम दशक से सुनाई देना प्रारम्भ होती है। लेकिन मुक्तिबोध ज्ञान को ले कर इस तरह की बातें पांचवे दशक में लिखे अपने निबंधों में कहने लगे थे। ज्ञान, बोध, सृजनशीलता, सीखने जैसी अवधारणाओं को ले कर उनके निबंधों में बहुत सारी बातें मिलती हैं। मुक्तिबोध ज्ञान और जानकारी के बीच के इस अंतर को स्पष्ट करते हैं। भले ही उनकी यह बात सीखने की प्रक्रिया के सन्दर्भ नहीं बल्कि रचना-प्रक्रिया के सन्दर्भ में आती है। लेकिन सीखने की प्रक्रिया के सन्दर्भ में भी वह सटीक बैठती है। 

मुक्तिबोध ज्ञान के विकास के बारे में कहते हैं- ‘‘बुद्धि स्वयं अनुभूत विशिष्टों का सामान्यीकरण करती हुई हमें जो ज्ञान प्रस्तुत करती है,  उस ज्ञान में निबद्ध स्वसे ऊपर उठने, अपने से तटस्थ रहने, जो है उसे अनुमान के आधार पर और भी विस्तृत करने की होती है। ….. ज्ञान व्यवस्था … जीवानुनभवों और तर्कसंगत निष्कर्षों और परिणामों के आधार पर होती है। …..तर्कसंगत (और अनुभव सिद्ध) निष्कर्षों तथा परिणामों के आधार पर, हम अपनी ज्ञान-व्यवस्था, तथा उस ज्ञान-व्यवस्था के आधार पर अपनी भाव-व्यवस्था, विकसित  करते हैं। …..बोध और ज्ञान द्वारा ही ये अनुभव परिमार्जित होते हैं, यानी पूर्व-प्राप्त ज्ञान द्वारा मूल्यांकित और विश्लेषित हो कर, प्रांजल हो कर,  अंतःकरण में व्याख्यात हो कर, व्यवस्था-बद्ध होते जाते हैं।’’ वह पुराने ज्ञान में नवीन ज्ञान को जोड़कर सिद्धान्त व्यवस्था का विकास करने की बात करते हैं। यहीं पर द्वंद्व और संश्लेषण की प्रक्रिया चलती है। उनके लिए ज्ञान का अर्थ केवल वैज्ञानिक उपलब्धियों का बोध नहीं, वरन् उत्थानशील और ह्रासशील शक्तियों का बोध भी है। …..ज्ञान भी एक तरह का अनुभव है, या तो वह हमारा अनुभव है या दूसरों का। इस लिए वे ज्ञान को काल-सापेक्ष और स्थिति-सापेक्ष मानते हैं। उसे जीवन में उतारने की बात कहते हैं- ‘‘ज्ञान-रूपी दांत जिंदगी-रूपी नाशपाती में गड़ना चाहिए, जिस से कि संपूर्ण आत्मा जीवन का रसास्वादन कर सके।’’

आज सब से बड़ी दिक्कत शिक्षा की यही है कि वह न संवेदना को ज्ञान में बदल पा रही है और न ज्ञान से संवेदना पैदा कर पा रही है। फलस्वरूप आज की शिक्षा एक सफल व्यक्ति तो तैयार कर ले रही है लेकिन सार्थक व्यक्ति नहीं। अर्थात ऐसा व्यक्ति जो अपने समाज के प्रति जिम्मेदार और हाशिए पर पड़े लोगों के प्रति संवेदनशील हो, जिस के लिए शिक्षित होना धनोपार्जन करने में सक्षम होना न हो कर समाज की बेहतरी के लिए सोचना हो। ऐसे में यह महत्वपूर्ण बात है कि मुक्तिबोध ज्ञान को संवेदना के साथ जोड़कर देखते हैं। चांद का मुंह टेढ़ा है कविता की ये पंक्तियां इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं- 

ज्वलंत अनुभव ऐसे
ऐसे कि विद्युत धाराएं झकझोर
ज्ञान को वेदन-रूप में लहराएं
ज्ञान की पीड़ा
रूधिर प्रवाहों की गतियों में परिणित हो कर
अंतःकरण को व्याकुल कर दे।

इस लिए वह यह आवश्यकता महसूस करते हैं कि संवेदनात्मक उद्देश्य, अपनी पूर्ति की दिशा में सक्रिय रहते हुए, मनुष्य के बाल्य काल से ही उस जीवन-ज्ञान का विकास करे, जो संवेदनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति करे। संवेदनात्मक उद्देश्यों से उनका आशय स्व से ऊपर उठना, खुद की घेरेबंदी तोड़ कर कल्पना-सज्जित सहानुभूति के द्वारा अन्य के मर्म में प्रवेश करना है। दूसरे के मर्म में प्रवेश कर पाना तभी संभव है, जब शिक्षा दिमाग के साथ-साथ दिल से भी जुड़ी हो,  वह बच्चे की संवेदना का विस्तार करे। इसी कारण ज्ञानात्मक-संवेदना और संवेदनात्मक-ज्ञान की अवधारणा उनकी रचना-प्रक्रिया और आलोचना की आधार रही।
  
मुक्तिबोध अनुभव को, सीखने और रचना के लिए बहुत जरूरी मानते हैं। कोई भी रचना अनुभव-रक्त तालमें डूब कर ही ज्ञान में बदलती है। देखिए भूरी-भूरी खाक धूलकविता की ये पंक्तियां-

नीला पौधा
यह आत्मज
रक्त-सिंचिता हृदय धरित्री का
आत्मा के कोमल आलबाल में
यह जवान हो रहा
कि अनुभव-रक्त ताल में डूबे उसके पदतल
जड़ें ज्ञान-संविधा की पीतीं।’ 

वह अनुभव को पकाने की बात करते हैं। देखा जाय तो शिक्षा एक तरह से अनुभवों को पकाने का ही काम तो करती है। मुक्तिबोध लिखते हैं, ‘‘वास्तविक जीवन जीते समय, संवेदनात्मक अनुभव करना और साथ ही ठीक उसी अनुभव के कल्पना चित्र प्रेक्षित करना- ये दोनों कार्य एक साथ नहीं हो सकते। उस के लिए मुझे घर जा कर अपने में विलीन होना पड़ेगा।’’ वह सिद्धान्त की नजर से दुनिया को देखने की अपेक्षा अनुभव की कसौटी पर सिद्धान्त को कसने तथा विचारों को आचारों में परिणित करने के हिमायती रहे। यही है ज्ञान निर्माण या सृजन की प्रक्रिया। ज्ञान अनुभव से ही शुरू होता है। ज्ञान के सिद्धान्त का भौतिक रूप यही है। जब व्यक्ति अनुभवों से सीखना छोड़ देता है, उस में जड़वाद आ जाता है। कितनी महत्वपूर्ण बात कही है उन्होंने, आज तमाम शिक्षाविद् इसी बात को तो कह रहे हैं ‘‘यह सही है कि प्रयोगों में गलती हो सकती है। भूलें हो सकती हैं। किंतु उसके बिना चारा नहीं है। यह भी सही है कि कुछ लोग अपने प्रयोगों से इतने मोहबद्ध होते हैं कि उसमें हुई भूलों से इंकार करके उन्हीं भूलों को जारी रखना चाहते हैं। वे अपनी भूलों से सीखना नहीं चाहते हैं। अतः वह जड़वादी हो जाते हैं।’’ पर इस का अर्थ यह नहीं समझा जाना चाहिए कि मुक्तिबोध प्रयोग और अनुसंधान के नाम पर अब तक मानव जाति को प्राप्त ज्ञान का अर्थात सिद्धांतों से इंकार करते हों। उनका स्पष्ट मानना था, ‘‘इसका अर्थ यह कि बदली हुई परिस्थिति में परिवर्तित यथार्थ के नए रूपों का, उन के पूरे अंतःसंबंधों के साथ अनुशीलन किया जाए उनको हृदयगंम किया जाए।’’ आज इसे ही सीखने का सही तरीका माना जा रहा है। वास्तविक अर्थों में सीखना इसी तरह होता है। यही सीखना स्थाई होता है। सीखने का मतलब कुछ जानकारियों को रट देना नहीं है। सीखना तो व्यवहार में परिवर्तन का नाम है। ऐसा परिवर्तन जो  चेतना को अधिकाधिक यथार्थ संगत बना दे, जिस के लिए मुक्तिबोध अतिशय संवेदनशील, जिज्ञासु तथा आत्म-निरपेक्ष मन की आवश्यकता पर बल देते हैं। वह अनुभवों से सीखने की ही नहीं बल्कि अनुभव-सत्य को जन तक पहुंचाने की बात भी कहते हैं-

तब हम भी अपने अनुभव
सारांशों को उन तक पहुंचाते हैं जिस में
जिस पहुंचाने के द्वारा हम, सब साथी मिल
दंडक वन में से लंका का पथ खोज निकाल सकें। (‘भूरी-भूरी खाक धूल’)

देखा जाय तो यही शिक्षा का असली उद्देश्य भी है। यदि शिक्षित होने पर हम जनहित में कुछ कर नहीं पाए तो उसकी क्या सार्थकता है?

आज शिक्षण में ‘पीयर लर्निंग’ पर बहुत बल दिया जा रहा है। एन. सी. एफ. 2005 में कहा गया है कि सहभागितापूर्ण सीखना और अध्यापन, पढ़ाई, भावनाएं एवं अनुभव को कक्षा में एक निश्चित और महत्वपूर्ण जगह मिलनी चाहिए। सहभागिता एक सशक्त रणनीति है। यह माना गया है कि समूह में या अपने साथियों से सीखना अधिक अच्छी तरह से होता है। उक्त दस्तावेज इसके पीछे यह तर्क देता है कि जब बच्चे और शिक्षक अपने व्यक्तिगत या सामूहिक अनुभव बांटते हैं,  उन पर चर्चा करते हैं और उन में परखे जाने का भय नहीं होता है,  तो इससे उन्हें उन लोगों के बारे में भी जानने का अवसर मिलता जो उनके सामजिक यथार्थ का हिस्सा नहीं होते। इससे वे विभिन्नताओं से डरने के बजाय उन्हें समझ पाते हैं। कुछ इसी तरह की बात मुक्तिबोध अपने एक निबंध समीक्षा की समस्याएंमें लिखते हैं- ‘‘जहां तक वास्तविक ज्ञान का प्रश्न है- वह ज्ञान स्पर्द्धा त्मक प्रयासों से नहीं, सहकार्यात्मक प्रयासों से प्राप्त और विकसित हो सकता है।’’ यह अच्छी बात है कि मुक्तिबोध प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्द्धा  को नकारते हैं। हो भी क्यों न! यह एक पूँजीवादी मूल्य है और मुक्तिबोध समाजवादी समाज के समर्थक रहे। प्रतिस्पर्द्धा  से कभी भी एक समतामूलक या सहकारी समाज नहीं बन सकता है। सब को साथ लेकर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति ही एक सुंदर समाज का निर्माण कर सकती है।

सीखने के लिए स्वतन्त्रता और भयमुक्त वातावरण का होना बहुत जरूरी है। दबाव या भय में कुछ भी सीखना संभव नहीं है। स्वतन्त्रता बच्चे को चिंतन और उसे सृजन के लिए प्रेरित करती है। बच्चे में सृजनशीलता के विकास के लिए स्वतन्त्रता का होना पहली षर्त है। कुछ इसी तरह की बात मुक्तिबोध भी कहते हैं- ‘‘व्यक्ति-स्वातंत्र्य कला के लिए, दर्शन के लिए, विज्ञान के लिए अत्यधिक आवश्यक और मूलभूत है। कोई भी सृजनशील प्रक्रिया उसके बिना गतिमान नहीं हो सकती।’’ मुक्तिबोध व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रबल समर्थक हैं। उनका मानना है कि भले ही यह एक आदर्श है फिर भी मानव की गरिमा और मानवोचित जीवन प्रदान करने के लिए बहुत जरूरी है। यह जनता के जीवन और उसकी मानवोचित आकाक्षांओं से सीधे-सीधे जुड़ा है। कोई भी सृजनशील प्रक्रिया उसके बिना आगे नहीं बढ़ सकती है। यह सच भी है। हम अपने चारों ओर अतीत से लेकर वर्तमान तक दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि दुनिया में जितने भी बड़े सृजन हुए हैं, वे सभी किसी न किसी स्वातन्त्र-व्यक्तित्व की देन हैं। इन व्यक्तित्वों को यदि सृजन की आजादी नहीं मिली होती तो इतनी बड़ी उपलब्धि उनके खातों में नहीं होती। हर सृजन के मूल में स्वतन्त्रता ही है। मुक्तिबोध इस बात को बहुत गहराई से समझते हैं। 
  
इस प्रकार ज्ञान की बदली अवधारणा और बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से विष्लेशण करें तो हम पाते हैं कि मुक्तिबोध का चिंतन बहुत तर्कसंगत और प्रगतिशील है। इसमें शिक्षा और मनोविज्ञान को ले कर उनकी  गहरी समझ परिलक्षित होती है। एक लोकतान्त्रिक और वैज्ञानिक सोच से लैस समाज बनाने की दिशा में उनका यह चिंतन बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। आज जब ज्ञान को एक खास तरह के खांचे में फिट करने और तैयार माल की तरह हस्तांतरित करने की कोशिश हो रही है मुक्तिबोध के ये विचार अधिक प्रासंगिक हो उठते हैं।

महेश चन्द्र पुनेठा

संपर्क-
महेश चंद्र पुनेठा
शिव कालोनी,
न्यू पियाना,
पो. डिग्री कालेज,
जिला-पिथौरागढ़ 262502

मोबाईल- 9411707470

रश्मि भारद्वाज की रपट ‘मन के घेराव से निकल कर ही संभव है रचना-कर्म!’

महेश चन्द्र पुनेठा


पिछले वर्ष पिथौरागढ़ में ‘लोकविमर्श शिविर-1’ का आयोजन कवि महेश चन्द्र पुनेठा के आतिथ्य में देवलथल गाँव में सम्पन्न हुआ था। आज महेश चन्द्र पुनेठा का जन्मदिन है। वे न सिर्फ एक उम्दा कवि और आलोचक हैं बल्कि एक बेहतर इंसान भी हैं। जो भी इस ‘लोकविमर्श शिविर’ में शामिल हुआ वह महेश के आतिथ्य का मुरीद बन गया। महेश पुनेठा को जन्मदिन की बधाईयाँ देते हुए रश्मि भारद्वाज की लोकविमर्श शिविर-1 की वह रपट प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे महेश के इस स्वरुप के बारे में पता चलता है। तो आइए पढ़ते हैं रश्मि भारद्वाज की यह रपट।
         
मन के घेराव से निकल कर ही संभव है रचना-कर्म!
रश्मि भारद्वाज
(जून-2016 में लोकविमर्श-2 होना तय हुआ है। ऐसे में लोक-विमर्श-1 और उससे जुड़े व्यक्तियों की यादें ताज़ा हो गयीं। एक संस्मरण आप सब के लिए)
यात्राएं मुझे उत्साहित तो करती हैं लेकिन हर यात्रा से पहले मन कई दुविधाओं और प्रश्नों से भी भरा रहता हैं। मुझे करीब से जानने वाले मेरे मित्र होमसिक भी कहते हैं। अब सोचती हूँ तो लगता है कि यह घर की चारदीवारियों के लिए लगाव कम और अपने अंदर का घेराव तोड़ पाने की अक्षमता अधिक है। पिथौरागढ़ और देवलथल में आयोजित होने वाले लोक विमर्श शिविर के लिए मैने हामी तो भर दी थी लेकिन अंत तक मेरे मन में एक हिचक थी। पहाड़ी गाँव का इतना लंबा प्रवास, जिन सुविधाओं के हम आदी हो चुके हैं, उनकी अनुपलब्धता और छोटी बेटी के साथ होने के कारण उसे होने वाली संभावित परेशानियों के कारण मैं बहुत आशंकित थी; क्योंकि मुझे सूचना दे दी गयी थी कि देवलथल ग्राम में स्थित एक सरकारी स्कूल में हमारे रहने की व्यवस्था की गयी है। 8 जून 2015 को 4 बजे हमें निकलना था और मैं 11 बजे दोपहर तक अपनी अनिश्चितता से बाहर नहीं आ पायी थी। मृदुला शुक्ला जी ने स्नेहपूर्ण अधिकार के साथ डांट लगाई, बस तैयार रहो, मैं चार बजे तुम्हें लेने आ रही हूँ। अब बहाने बनाने की कोई संभावना नहीं बची देख, मैंने कुछ कपड़े और जरूरी सामान पैक किए और निकल पड़ी एक अनजानी यात्रा पर धड़कता दिल लिए नन्ही बिटिया की अंगुली थामे।
अकेले यात्रा करना मेरे लिए कोई नयी बात नहीं लेकिन पहली बार इतने लंबे प्रवास के लिए अकेले जा रही थी (हालांकि मृदुला जी का स्नेहिल परिवार साथ था) जिसका सारा उत्तरदायित्व मुझ पर था, साथ ही बेटी की ज़िम्मेदारी भी। 
गाते, गुनगुनाते, बच्चों की चटपटी बातों के बीच रात को हम हल्द्वानी पहुंचे और वहाँ राजेश्वर त्रिपाठी (मृदुला जी के पति) जी के मित्र विजय गुप्ता के शानदार आतिथ्य में रात को रुकना हुआ। सुबह  बांदा निवासी सुप्रसिद्ध कवि केशव तिवारी, उनकी पत्नी मंजु भाभी, कवि प्रेम नन्दन और प्रद्युम्न कुमार (पी. के.) भी हमारे यात्रा दल में शामिल हो गए और हम एक लोकल गाड़ी और ड्राईवर के साथ पिथौरागढ़ की यात्रा पर निकल पड़े। 

इतनी लंबी यात्रा, पहाड़ी घुमावदार रास्ते और भयानक गर्मी (गाड़ी नॉन ए. सी. थी)। मौसम भी हम पर कुछ खास मेहरबान नहीं था। रास्ते भर माही उल्टियाँ करती रही और मैं सोचती रही कि क्या मैंने सही निर्णय लिया है! पिथौरागढ़ पहुँचते शाम हो गयी। एक अच्छा खासा विकसित शहर है पिथौरागढ। थोड़ी निराशा सी हुई कि भीमताल, अल्मोड़ा जैसे सुंदर स्थलों को छोड कर इस पहाड़ी शहर की भीड़ में ही आना था तो अपनी दिल्ली ही कौन सी बुरी थी! मौसम में ठंडक भी कुछ ख़ास नहीं थी। वहाँ से एक दूसरी टॅक्सी कर हमें देवलथल जाना था। घर से निकले 24 घंटे से अधिक हो गए थे। घर वालों के चिंतित फोन कॉल, बच्चों के थके, उदास चेहरे और हमारे क्लांत शरीर, कुल मिला कर अब तक कुछ भी ऐसा नहीं था जो इस यात्रा और लंबे प्रवास के लिए मन में उत्साह भर पाता। खैर, हमारा यात्रा दल देवलथल के लिए निकल पड़ा। 
रास्ते ज्यों–ज्यों सँकरे होते जा रहे थे, आस पास का दृश्य भी बदल रहा था। चारों तरफ सघन हरियाली, ऊंचे –ऊंचे पहाड़ और बेहद ख़राब, पथरीला रास्ता। मोबाइल का नेटवर्क दगा दे चुका था। शाम घिर रही थी और मन में डर लेकिन जैसे–जैसे हम देवलथल के करीब पहुँच रहे थे, डर और आशंकाओं की जगह एक अवर्णनीय सुकून ने ले ली। हमारी आँखें ऐसे दृश्यों को निहार रही थी जो सैलानियों के पदघातों से दूषित नहीं हुए थे इसलिए निष्कलंक, बेदाग और अपने अनगढ़ सौंदर्य के साथ हमारे सामने थे और हम उस अनिर्वचनीय शांति और सौंदर्य में डूब –डूब जा रहे थे, कुछ ऐसे कि दिल चाह रहा था कभी नहीं उबरें। अङ्ग्रेज़ी में जिसे वर्जिन लैंड कहते हैं, वह बाहें पसारे हमारे स्वागत के लिए खड़ा था और हमें उसके सुखद साहचर्य में पूरे दो दिनों तक रहना था, यह कल्पना ही रोमांच से भर देती थी। उस हवा, उस माहौल में एक अद्भुत शीतलता और शांति थी जो महानगर की भीड़ और शोर से थके हमारे दिलोदिमाग और अन्य इंद्रियों को कुछ यूं सहला रहा थी जैसे बुखार से गरम तपते माथे पर माँ के ठंडे हाथों का स्पर्श लगता है।

देवलथल के जिस स्कूल में हमारे ठहरने की व्यवस्था थी, हम वहीं उतरे और चाय की चुस्कियों के बीच सभी से औपचारिक परिचय हुआ। इनमें से कई ऐसे चेहरे थे जो फेसबुक पर मित्र थे लेकिन कभी कोई संवाद नहीं हुआ था। सुदूर राजस्थान से हमसे भी ज़्यादा लंबी और कठिन यात्रा करके आए प्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह जी, कवि नवनीत सिंह जी, युवा कथाकार संदीप मील, रायपुर से प्रख्यात चित्रकार और कवि कुँवर रवीन्द्र जी और उनकी पत्नी, चंडीगढ़ से आए वरिष्ठ कथाकार राज कुमार राकेश, मुंबई से युवा कहानीकार शिवेंद्र, हमीरपुर से कवि अनिल अविश्रांत, बांदा से आलोचक और कवि उमा शंकर परमार, प्रेम नन्दन, पी. के. और नारायण दास गुप्त। देश के विभिन्न हिस्सों से आए इतने सारे रचनाकार जो अपने साथ अपनी मिट्टी, अपनी बोली-बानी के टुकड़े भी लाये थे और उनसे मिलते हुए कहीं न कहीं हम उनके लोक, उनकी संस्कृति का हिस्सा बन रहे थे। यह अनुभव सुखदायी था।
इस कार्यक्रम के मुख्य संयोजक और हमारे होस्ट महेश पुनेठा जी ने हम महिलाओं की साफ-सफाई को ले कर रहते आग्रह का सोच कर हमारे रहने की व्यवस्था स्कूल के ही एक और शिक्षक रमेश चन्द्र भट्ट जी के यहाँ की थी। रमेश चन्द्र और महेश पुनेठा को इस कार्यक्रम का सिर्फ होस्ट या संयोजक कहना काफ़ी नहीं। भट्ट जी ने अपना पूरा घर हमारे आतिथ्य के लिए खोल दिया और नहाने के गरम पानी से लेकर चाय तक हर छोटी चीज़ का पूरा ख़याल रखा। वही महेश जी यह भूल बैठे कि वह ख़ुद भी एक रचनाकार हैं और इस शिविर में आयोजित विभिन्न सत्रों में उनको भी अपनी रचनात्मकता और बौद्धिकता का प्रदर्शन करना चाहिए। हर क्षण वह कभी हम सबों के लिए चाय, तो कभी भोजन,कभी सोने की तो कभी किसी और व्यवस्था के लिए भागते नज़र आए,वह भी चेहरे पर बिना किसी शिकन के। शिविर की दूसरी रात पानी की सप्लाई बाधित हो गयी थी। उस रात पुनेठा और भट्ट जी रात के बारह बजे तक और तड़के सुबह पाँच बजे से इसी प्रयास में लगे रहे कि हमें कोई समस्या नहीं हो। इतना समर्पण, इतनी लगन और ऐसा आतिथ्य, जब भी याद आता है मन नतमस्तक हो उठता है। इन व्यक्तित्वों की सहृदयता ने सिखाया कि सिर्फ कागजों के पन्नों पर जीवन को उकेरना ही पर्याप्त नहीं बल्कि अपने मैं’, अपने स्व को सामूहिक हितों के लिए समर्पित करने वाला ही सही अर्थों में रचनाकार होता है और अपने घेरे से परे हट कर लोकधर्मी साहित्य रच सकता है। जीवन यहाँ कागजों से उठ कर व्यवहार में उतरा दिखा।

हम शिविर आरंभ होने के एक दिन बाद पहुंचे थे इसलिए पिथौरागढ़ के बाखली होटल में आयोजित कुँवर रवीन्द्र की चित्र प्रदर्शनी और परिचर्चा में भाग नहीं ले सके। 
दूसरे दिन ‘दीवार’ पत्रिका से जुड़े बच्चों से बातचीत और पत्रिका के अवलोकन से दिन की शुरुआत हुई। महेश पुनेठा जी के सरंक्षण में देवलथल के बच्चों द्वारा आरंभ किया गया यह सृजनात्मक प्रयास अब एक व्यापक अभियान का रूप ले चुका है और देश भर के कई स्कूलों सहित अब विदेशों में अपनाया जा रहा। बच्चों में मौलिक और रचनात्मक चिंतन विकसित करने का यह अभियान न सिर्फ उन्हें साहित्य से जोड़ रहा बल्कि उनकी शैक्षणिक प्रदर्शन को भी बहुत सुधार रहा। 
अगले दो दिनों में आयोजित कविता, कहानी, आलोचना के विभिन्न सत्र बहुत ही जीवंत रहे। संतुलित और निरपेक्ष परिचर्चा के द्वारा हम सब एक दूसरे के लेखन कर्म को समझ सके और वैचारिक रूप से काफी समृद्ध हुए। लोक के बहाने उन सभी पहलुओं पर चर्चा हुई जो हमारे लेखन, हमारे विचारों के दायरे में होने चाहिए लेकिन साहित्य में जाने-अंजाने उसकी अनदेखी हो रही। सुप्रसिद्ध वरिष्ठ आलोचक डॉ जीवन सिंह द्वारा कही गयी कुछ बातें साथ चली आई जो हमारी लेखनी को हमेशा सकारात्मक गति देती रहेंगी। उन्होने कहा कि लोक का आडंबर नहीं रचना है, सिर्फ कहने और लिखने के लिए लोक नहीं। लोक को जीना होगा। उसका हिस्सा बन कर ही उसकी लय को कविता में उतारा जा सकता है। वह लोक नहीं जो मनोरंजन करता है,बल्कि लोक के संघर्षों, उसकी व्यथा को कागज पर उतारना एक लेखक का दायित्व भी है, और चुनौती भी। अपने मध्यवर्गीय आडंबर, सुविधाभोगी मन और स्वहित के दायरे से निकलकर ही लोक को समझा जा सकता है। 
रश्मि भारद्वाज

सम्पर्क –

ई-मेल : mail.rashmi11@gmail.com

(इस पोस्ट की समस्त तस्वीरें रश्मि के सौजन्य से प्राप्त हुई हैं.)

उमाशंकर सिंह परमार का आलेख ‘“बुझे चिराग जलाओ, बहुत अँधेरा है”

महेश चन्द्र पुनेठा

युवा कवियों में महेश चन्द्र पुनेठा अपनी अलग तरह के कहन और व्यंजना के लिए जाने जाते हैं वे कुछ उन दुर्लभ कवियों में से हैं जिनके व्यवहार और सिद्धान्त में आपको कोई फांक नहीं दिखायी पड़ेगी उनकी कविताएँ पढ़ते हुए हम यह बराबर महसूस भी करते हैं महेश की कविताओं पर एक सारगर्भित आलेख लिखा है युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने हम हर महीने उमाशंकर का कवियों पर लिखा गया आलेख पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उसी कड़ी में प्रस्तुत है यह आलेख
       
“बुझे चिराग जलाओ, बहुत अँधेरा है”
उमाशंकर सिंह परमार
महेश चन्द्र पुनेठा हमारे समय के उन चंद कवियों में है जिनका स्थाई पता उनके लेखन में मौजूद रहता है एक बेहतरीन लोकधर्मी कविता की तरह उनकी कविता कवि की जमीन से ही अपनी उर्जा पानी उपार्जित करती है किसी एक कविता को पढ़ कर पाठक आसानी से अंदाज़ा लगा सकता है की कवि का जीवन अनुभूतियों की ऊबड़ खाबड़ भौगोलिक भूमि से जुडा है जिसमे उनकी कविता और उनकी भाषाई खनिजता दोनों सन्निहित हैं पहाड़ उनकी कविता की जान है पहाड़ी जमीन के उतार चढ़ाव उनकी कविता के सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक आयाम तय करते है लोकधर्मी दृष्टि और कठिन जीवन की जिजीविषा ने उनकी कविता को समाज और परिवेश के अन्दर घटित होने वाले बदलावों से पूर्ण संसक्त कर दिया है बदलावों से मौलिक आसक्ति उनको आधुनिक यातनाओं का सीधा सपाट भोक्ता बना कर पेश कर रही है एक ऐसा भोक्ता जो समय के घेरे में कैद होकर पूँजी द्वारा सुनिश्चित की गयी नियति में छटपटा रहा है उनकी कविताओं में बेचैनी है, अनास्था है, मूल्यों और विचारों के प्रति प्रतिबद्धता है आम लोकमानस की चेतन वेदना है महेश की जमीन खूबसूरत, बर्फीले, रंगीन पहाड़ों की जमीन नहीं है उनकी जमीन घोर नवउदारवादी नीतियों से उत्पन्न , वर्चस्ववादी निजी पूँजी के व्यापक हस्तक्षेप की भूमि है एक जमीन है जिसे पूँजी ग्रसित लोकतंत्र ने सामान्य मनुष्यता से खारिज कर जटिलतम बना दिया है जिस जमीन की देह में केवल समय के खंजरों से उकेरे गए दर्दनाक घाव हैं अपने पहले कविता संग्रह “भय अतल में” में महेश ने जिस भय को अतल में बताया है वह भय अब समय के साथ यात्रा करता हुआ सतह तक आ गया है भय के प्रति कवि जरा भी लापरवाह नही है वह भय के पूरे अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझता है और अपनी जनमुखी प्रतिबद्धता के साथ उत्पादक पूँजी के आक्रांतकारी साम्राज्य को भोगते हुए प्रतिरोध का मुकम्मल स्वर रचता है
  महेश उन कवियों में से हैं जो लिखते कम है उनके पहले और दूसरे संग्रह के बीच लगभग पांच वर्षों का अंतराल है पहला कविता संग्रह ‘भय अतल में’ २०१० में प्रकाशित हुआ था तो दूसरा कविता संग्रह २०१५ में साहित्य भण्डार प्रकाशन इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ सन २०१० में जब उनका पहला संग्रह प्रकाशित हुआ तो उस समय उन्होंने भूमंडलीकरण के उस स्वरूप को नही देखा था जो आज है उस समय विश्व पूँजी अपना अस्तित्व कायम कर रही थी उसके पास जनता के प्रतिरोध को शांत करने के लिए लुभावने वादे थे स्वप्नों की चमकीली दुकाने थीं अचानक कोई भी आदमी पूँजी के इस छल पर फ़िदा हो जाय सत्ता और सत्ता सामंतों द्वारा आम जनमानस को समझाया गया कि हिन्दुस्तानी आवाम का सच्चा हित विदेशी पूँजी के निवेश पर है यहाँ तक की इसे नीतिगत मामला बना दिया गया अलग मंत्रालय गठित कर दिया गया हिन्दुस्तानी लोकतंत्र ने वैश्विक पूँजी के समक्ष घुटने टेकते हुए अपने अस्तित्व को समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया कवि इन स्थितियों से अपरिचित नहीं था वह हिन्दुस्तान का भविष्य पढ़ रहा था इसलिए उसका भय उस समय अतल में था आज विश्व पूँजी अपने पूरे वर्चस्व के साथ हिंदुस्तान का चरित्र बन चुका है अधिकारों के साथ-साथ हमारे लोकतंत्र को भी लील चुकी है इंसान को इंसानियत से पृथक कर चुकी है जनता पूँजी के कुचक्र में बुरी तरह जकड़ चुकी है औपनवेशिक संस्थाएं आज फिर जीवित हो कर अपना अस्तित्व पा चुकी है स्वतंत्रता और गुलामी के बीच अंतर बहुत क्षीण है ऐसे भयावह परिवेश से मुक्त होने की कामना करता कवि व्यवस्था के प्रति अनास्था और समय के प्रति बेचैनी का स्वर लेकर आता है सन २०१५ में आया उनका संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में स्वतंत्रता की बेचैनी है झटपटाहट है यहाँ पर कवि अपने वजूद को समय की संगतियों, असंगतियों, को सौंपता हुआ अपनी जमीनी अपेक्षाओं को सीधे-सीधे व्यक्त करता है व्यक्ति और समाज के संशयग्रस्त संबंधों में उत्पन्न दलदल को ख़त्म कर के कवि नए बदलाव करना चाहता है महेश की जिस कविता का सफ़र लोकवेदना से आरम्भ हुआ था अब वह लोकयुद्ध तक पहुँच गया है इस युद्ध में पक्ष है जनता प्रतिपक्ष है पूँजी हथियार है कविता, और योद्धा है कविता इसलिए महेश चन्द्र पुनेठा कविता को अपने अस्तित्व से पृथक कर के नहीं देखते उनकी कविता उनका अस्तित्व है उनकी प्रतिबद्धता है
 
 अपने कविता संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में महेश कविता पर बहुत जरूरी बातें कहते हैं वो कविता को कवि की प्रतिबद्धता से जोड़कर देखने के आदी है जब समय खतरनाक हो तो कोई भी जनपक्षीय कवि कविता से जीवन को अलग नहीं कर सकता है ऐसे में कविता समय के विरुद्ध हथियार  की तरह प्रयुक्त होती है महेश का युद्ध पूँजी के विरुद्ध आम जनता का लोकयुद्ध है स्वाभाविक है कविता उनके लिए जीवन और मरण का विषय होगी कवि स्वयं को खत्म कर देगा पर मुक्ति की आशा से लबरेज जुझारू कविता को खत्म नहीं होने देगा कविता के प्रति कवि का इतना सघन लगाव हिंदी में बहुत कम मिलता है महेश ने कहा है –
मैं न लिख पाऊं एक अच्छी कविता 

दुनियां एक इंच इधर से उधर नहीं होगी

गर मैं न जी पाऊं कविता

दुनिया में अँधेरा कुछ और बढ़ जाएगा

इसलिए मेरी पहली कोशिश है

कि मरने ना पाए मेरे भीतर की कविता (पृष्ठ ७)
कविता उनके लिए बदलाव का सन्देश है व्यक्तित्व की पहचान है अगर कविता जनजागरण नहीं कर सकी तो संसार में अंधेरापन और बढ़ जाएगा इसलिए कवि अपने अन्दर की कविता को मरने नहीं देना चाहता है कविता के प्रति महेश की यह दृष्टि संघर्ष की दृष्टि है इस संघर्ष दृष्टि के विपरीत दृष्टि “कलादृष्टि“ होती है कुछ लोग अब भी “कला के लिए कला” के सिद्धांत का अनुसरण करते हैं उनके लिए कविता जीवन संदर्भों से पृथक हो कर धनिक सामंतों के मनोरंजन हेतु प्रयुक्त होती है विश्व पूँजी ने केवल सामाजिक बदलाव ही नहीं किये बल्कि सांस्कृतिक, साहित्यिक बदलावों की भूमिका भी तैयार की है साम्यवादी सौन्दर्यशास्त्र के विरुद्ध गढा गया रूसी रूपवाद आज विश्वपूँजी के कंधे पर सवार हो कर “उत्तर आधुनिकतावाद” के रूप में कलावाद का नया बुर्जुवा तर्क ले कर उपस्थित है साहित्य को जीवन से पृथक करने की इस पूंजीवादी कुचाल को महेश बखूबी समझते है इसलिए उन्होंने अपने संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह में” कलावाद की तीव्र भर्त्सना की है कलावाद कविता से जीवन को पृथक करने की बुर्जुवा नीति है कवि समझता है यदि कला जीवन से अलग राह अपनाएगी कवि द्वारा देखा जा रहा व्यापक बदलावों का स्वप्न खंडित हो जायेगा इसलिए कवि कलावादियों को समय संदर्भों में जोड़ कर परखता है और उनके रचनात्मक अंतर्विरोधों को उजागर करता है। 
“जिस वक्त में

कुचले जा रहे हैं फूल

मसली जा रही हैं कलियाँ

उजाड़े जा रहे वन कानन

वे विमर्श कर रहे हैं

फूलों के रंग रूप पर“ (पृष्ठ ९)
जब फूल कुचले जा रहें है, कलियाँ मसली जा रही है जब फूलों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा हो उस समय फूलों के रंग रूप यौवन पर अपनी अतृप्त प्यास बुझाना महफ़िलों में वाहवाही करना किसी कवि की पहचान नहीं है बल्कि फूलों के अस्तित्व को खत्म करने वाले समूहों में सम्मिलित व्यक्ति की पहचान है कलावाद के विरोध द्वारा महेश अपनी प्रतिबद्धता बिलकुल स्पष्ट कर देते हैं उनकी आस्था जन के प्रति है उनकी कविता जन के प्रति है ऐसे छद्म लेखकों और जनविरोधी पत्रकारों को महेश ने देखा परखा है उन्हें अपने समय की पूरी पहचान है आज जिस तरह से जनता के आक्रोश को अपराध कह कर दबा दिया जाता है वह किसी से छुपा नहीं है सत्ता और पूँजी अपने इर्द गिर्द लेखकों और बुद्धिजीवियों की लम्बी फौज तैयार कर चुकी है जो कविता में शोषण का विरोध करते खुद को जनपक्षीय कहलाना पसंद करते हैं यदि मामला पूँजी और सत्ता की मुखालफत का हुआ तो उनका चरित्र खुल कर सामने आ जाता है वही लोग सबसे पहले जन अधिकारों की मांग को अपराध साबित करने में लग जाते हैं महेश की यह कविता पूँजी के सांस्कृतिक चरित्र का मूल्यांकन करती है
“परन्तु जब अपने हक हकूक के लिए  

या शोषण उत्पीडन के खिलाफ  

जनता होगी संघर्षरत

तब वे सबसे आगे होंगे

उन्हें बर्बर जंगली और असभ्य साबित करने में“ (पृष्ठ ३२)
समाज के सांस्कृतिक ठेकेदारों का चरित्र आज हम सभी देख रहे हैं सरकारें उनका उपयोग जिस तरह से अपने हित में कर रही हैं, जिस तरह से जनांदोलनो को दबाने और बर्बाद करने में उनका उपयोग हो रहा है हम सभी देख रहे हैं अस्तु महेश द्वारा पूँजी के इस सांस्कृतिक अपहरण का विरोध वाजिब और सामयिक है
 

 
 महेश की पक्षधरता किसी स्वप्न की युटोपिआई कल्पना नहीं है वह समय के कटु अनुभवों द्वारा पुष्ट की गयी है ‘पंछी बनती मुक्ति की चाह’ की कविताओं का मूल प्रतिपाद्य समय है महेश आर्थिक उदारीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली समस्त विसंगतियों के सजीव भोक्ता है पूँजी ने व्यक्ति को नियति का गुलाम बनाया है व्यक्ति के अवचेतन में स्थापित मूलभूत मानवीय गुणों को विनष्ट किया है इससे व्यक्ति अपने को सताया हुआ मसहूस कर रहा है अपने द्वारा स्थापित संबंधों की व्यर्थता का उसे अहसास होने लगा है वह समझ चुका है कि व्यक्ति के निजी संबंधों की कोई अहमियत नहीं है संसार की भाग दौड़ में केवल पूँजी द्वारा स्थापित सम्बन्ध ही टिक सकते हैं यह असंगति और टूटन, अलगाव, पूँजी की अनिवार्य दशाएं हैं मनुष्य को इस अवस्था में लाने का श्रेय जनतंत्र का है ऐसे जनतंत्र का  जिसमें हम पूँजी की बराबर सहभागिता देख रहे हैं जनतंत्र में जो अराज़कता पैदा हुई है वह विश्व पूँजी की देन है इस अराज़क सामंती जनतंत्र में व्यक्ति लाखों अपमान सह कर भी रह रहा है इसमें रहते हुए वह कभी अपने को इंसान समझेगा इसमें शक है महेश आवारा पूँजी के इस घातक खेल में रचे बसे समय को विवेचित करने से नही चूकते तमाम पीडाओं, असम्वेदनाओं, कटुताओं, को भोगते हुए भी उनकी विवेचना विशाल मानव समुदाय के पक्ष में होती है साठ के दशक का सामाजिक व्यर्थता बोध आज लोकतान्त्रिक व्यर्थताबोध में बदल चुका है लोकतंत्र बाज़ार का छल बन कर जनतांत्रिक अधिकारों को भी बाज़ार की दृष्टि देख रहा है उनकी कविता “वे आ रहे है सपने बोने” में लोकतान्त्रिक छल का बाजारवादी हथकंडा देखिए  – 
“वे जो तुम्हारी आँखों में

सपने बोने की बात कर रहे हैं

तुम समझ सकते हो

वो तुम्हारी आँखों को क्या समझ रहे हैं

वे जानते हैं अच्छी तरह

जैसा बोया जाएगा बीज

वैसी ही लहलहाएगी फसल

वे यह भी जानते हैं

सबसे फायदेमंद कौन सी फसल है उनके लिए” (पृष्ठ २९)
इस आवारा पूँजी का प्रभाव केवल हमारे परिवेश पर ही नहीं पड़ा है बल्कि हमारे चरित्र को भी बदल दिया गया है महेश व्यक्ति के चरित्र पर  पूँजी के अधिपत्य पर चिंतित हैं पतन पर पर घोर निराशा है विश्व पूँजी के इस प्रभाव को कई कवियों ने रेखांकित किया है संतोष चतुर्वेदी और शम्भू यादव की कविताओ में मानवीय मूल्यों पर पड़े पूँजी के इस प्रभाव का प्रतिरोध देखा जा सकता है| वर्ष २०१४ में कथाकार राजकुमार राकेश का कहानी संग्रह “एडवांस स्टडी” प्रकाशित हुआ इस संग्रह की एक कहानी है “सपने पूँजी और समाजवाद” इस कहानी में राकेश जी ने पूँजी द्वारा पारिवारिक और वैयक्तिक संबंधों में घोर गिरावट को दर्ज किया है महेश की कविता “क्या हुआ तुम्हें” का मूल विषय यही वैयक्तिक मूल्यों की गिरावट है बाज़ार के गणित ने आदमी के चरित्र का गणित बिगाड़ दिया है इस चीज का संकेत महेश की कई कविताओं में मिलता है एक उदाहरण देखिए –
“तुम तो ऐसे नही थे नत्थू

क्या हुआ तुम्हें

बाज़ार का गणित तो

जानते ही नहीं थे तुम

न किसी की जेब में हाथ डालते हुए

न गर्दन दबोचते“ (पृष्ठ ३६)
नत्थू एक सामान्य आदमी का प्रतीक है जो सीधा और भोला था बाज़ार की नीतियाँ और मुनाफाखोरी ने उसको बेरहम कर दिया है उसे भी अब किसी की गर्दन दबोचते और हत्या करते कोई संकोच नही होता है इस कविता का मूल तर्क है कि बाज़ार में टिके रहने के लिए हमें निर्दय होना पड़ेगा यह समय और तंत्र इंसान को निर्दय बनाना चाहता है और बना चुका है समय की भयावह असंगतियों का सुस्पष्ट विवेचन करते समय बहुत से कवि आक्रोश के शिकार हो जाते हैं पर महेश की खासियत यही है कि वो असंगतियों पर भी चोट करते समय गंभीर ही रहते हैं  जैसे उन्होंने बड़े ही सधे अंदाज़ में पूँजी द्वारा रचित जातीयता और साम्प्रदायिकता का सच विवेचित किया है एक कवि/ लेखक / कलाकार की काव्यकृति को फिरकापरस्त ताकतें खारिज करके सत्ता की भावना के अनुरूप साम्प्रदायिक करार देती हैं  इस साज़िश की महेश को पहचान है उन्होंने एम एफ हुसैन के ऊपर कट्टरपंथियों के हमले देखे हैं पूँजी अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए साम्प्रदायिकता का फासीवादी विचार प्रचारित करती है जिसमें प्रतिरोध से युक्त हर अभिव्यक्ति को जातीय रंग में रंग कर देखा जाता है –
“उन्हें क्या करना तुम्हारे रंगों रेखाओं चित्रों से

उनके तो अपने रंग

अपनी रेखा

अपने चित्र हैं

उन्हें कोई लेना देना नही चित्रकार एम एफ हुसैन से

उनके मतलब का तो बस मकबूल फ़िदा हुसैन है (पृष्ठ ३८)
उन्हें चित्रकार से कोई वास्ता नहीं है उनका वास्ता तो चित्रकार के हिन्दू या मुसलमान होने से है क्योंकि हिन्दू या मुसलमान होने पर ही सांप्रदायिक दंगों का व्यूह रचा जा सकता है जिसके सहारे पूंजी सता पर काबिज़ हो सकती है
सबसे बड़ी बात यह है कि महेश की कविता दिल्ली में बैठे कवियों की नारेबाजी, बड़बोलेपन, शोर और उत्तेजना के अतिरेक से कोसों दूर है सीमित दायरे उसे पसन्द नहीं हैं चाहे वे कथ्य के हों या अभिव्यक्ति के सूक्ष्म से सूक्ष्म निजी से निजी अनुभव और ठेठ पहाड़ी स्थानीयता की महक से भरे अनुभव भी उनकी कविता का अभिकथन हैं और विशाल से विशाल तथा व्यापक से व्यापक वैश्विक अनुभव उनकी कविता का परिदृश्य है उनकी दृष्टि भी एकांगी या एकदिशागामी नहीं है बल्कि वह सच्चे मायने में जनपक्षधर है और संतुलित भी। प्रेम हो या राजनीति, ठेठ आदिवासी और ग्रामीण जीवन हो या कस्बाई और महानगरीय, रसोई हो या पांचसितारा होटल, सम्पन्न हो या दलित आक्रामक हो या ठग कोई भी उसके अनुभव के दायरे से बचा नहीं है। आतंकवाद ऒर सम्प्रदायवाद तक अपने सबसे घिनॊने रूप के साथ अत्यंत प्रामाणिक अनूभूतियों ऒर अनुभवों के साथ महेश की कविता में मौजूद हैं इसके लिए उसके पास अपनी तरह के अभिव्यक्तिपरक औजार भी हैं। लोक अर्थात् लोकजीवन, लोकभाषा, लोकचेतना मिथक आदि से ताकत लेने में उनकी कोई सानी नहीं है। वह प्रहार करती है लेकिन सार्थक एवं सकारात्मक। सृजनात्मक स्वप्नों की संरचना में महेश की कविता समाज में व्यापक बदलावों की जोरदार वकालत करती है बदलाव में उनका और उनकी कविता का अटूट विश्वास है उनका कहना है की सुन्दर हिन्दुस्तान का सपना हर हिन्दुस्तानी देखता है वो सपना मेरी भी आँखें देखती है वह सपना मेरी आँखों में कभी मर नहीं  सकता। 
 

“कभी नहीं मर सकता

मेरी आँखों में

सुन्दर  दुनिया का सपना“ (पृष्ठ २०)
इस सपने को देखने का उन्हें हक है क्योंकि उनको विश्वास है पूँजीवाद लाख कोशिश कर ले हमारे अन्दर की वर्गीय चेतना को नष्ट नहीं कर सकता जब तक हम अपने वजूद के प्रति चिंतित है अपनी जमीन के प्रति हम संवेदनशील है तब तक हम पूँजी के खतरनाक इरादों का प्रतिरोध करेंगे अभी भी हम डरे नहीं हैं क्योंकि हम सब में परिवर्तन की चेतना हिलोरें ले रही हैं। 
 

“पर इतने वर्षों बाद भी

बचा हुआ है इसमें

बहुत कुछ

बहुत कुछ

बहुत कुछ ऐसा

खोना नहीं चाहते हम

जिसे कभी” ( पृष्ठ १६)  
स्वप्न आम आदमी की ऊर्जा का स्रोत हैस्वप्न जिन्दगी की जिजीविषा हैसंघर्षों के प्राण हैंजिस दिन स्वप्नों की मौत होगी आम आदमी की भी मौत होगी स्वप्न ही आदमी को हथियार देते हैं स्वप्न ही खतरों से लड़ने का जज्बा देते हैं इसलिए पंजाबी कवि पाश ने कहा है कि
“बहुत बुरा होता है सपनो का मर जाना” 
बदलाव की प्रबल आकांक्षा रखने वाला कवि कभी भी अपने सपनो को मरने नहीं देगा वह छद्म कवियों की तरह प्रकृति से मस्ती और यौवन नही खोजेगा वह आनंद और भोग की चरम वासनाओं में नहीं डूबेगा वह प्रकृति में भी क्रांति देखेगा वह चेतन और अचेतन में बदलाव का सूत्र तलाशेगा महेश का लोक क्रांतिधर्मी लोक है वह लोक की आस्था लेकर सामन्ती सौन्दर्य दृष्टि से संसार को नहीं देखते बल्कि अपनी वर्गीय दृष्टि से संसार को देखते है देखिये नदी की सुन्दरता की बजाय कवि उसमे क्या देख रहा है। 
 
“नदी के पास

नहीं है कोई कलम

नहीं कोई तूलिका

न ही हथौड़ा छीनी

फिर भी लिखती है

नयी इबारत

सीखना चाहता हूँ मैं भी नदी से

यह नायाब हुनर” (पृष्ठ १७)
इसी कविता को कहते हैं लोकधर्मी कविता इस दृष्टि को कहते हैं – लोकधर्मी सौन्दर्य दृष्टि
आवारा पूँजी ने सत्ता के साथ मिल कर एक नया मध्यम वर्ग तैयार कर लिया है एक ऐसा वर्ग जो महानगरों में रहता है और शहरी मध्यमवर्गीय चिंतन को ही कविता की मूल मनोभूमि समझता है इस वर्ग ने पूँजी के साथ मिल कर “कविता” को लोक से काटने का काम किया है समकालीन कविता में बहुत कम ऐसे कवि हैं जिन्होंने कविता को दूर दराज़ के अंचलों की तरफ मोड़ा है वास्तव में असली हिन्दुस्तान गाँव और कस्बों में, पहाड़ों और जंगलों में बसता है जहां का जीवन और परिवेश दोनों कठिन है आज जबकि पूँजीवाद ने सब कुछ बदल दिया है तो पहाड़ों, जंगलों, गावों में भी इन खतरनाक बदलावों को देखा जा सकता है महेश की कवितायें इसलिए आत्मीयतापूर्ण हैं कि उन्होंने अपनी जमीन और अपनी भाषा अपने परिवेश को ही हिन्दुस्तान समझा है अपनी कविता का कहन तलाशने के लिए वो नागर्जुन, केदार, त्रिलोचन, विजेन्द्र, मानबहादुर सिंह की परम्परा का अनुसरण करते हैं कविता के बिम्ब पहाड़ों की वनस्पति से, पहाड़ों की गंध से, अपनी बेचैनी और ग्रामीण बोध से ही अपना राष्ट्रीय बोध तलाशते हैं पहाड़ों की जमीन में ही खड़ी हो कर उनकी कविता अपने समय का ताना बाना बुनती है यही वह भूमि है जिसने कवि को अडिग रह कर लड़ने की सलाह दी है अपनी जमीन से जुडाव, अपनी जड़ों को पहचानना महेश के काव्यानुभव की पहली शर्त है देखिये पहाड़ों की टूटन को कवि ने किस कलात्मक अंदाज़ से पूंजीवादी लूट से जोड़ा है
“मुझे कूटा – मुझे लूटा

मुझे छेड़ा – मुझे उघेडा

मुझे काटा मुझे पीटा

मुझे तोड़ा मुझे फोड़ा

क्या क्या न किया जा रहा मेरे साथ ( पृष्ठ ७९) 
महेश केवल पहाड़ो टूटन से ही दुखी नही है उनका असली दुःख व्यापक जनसमुदाय के पक्ष में है पहाड़ों की अकूत सम्पत्ति की लूटन से वो दुखी हैं उन्होंने पिथौरागढ़ के उन कई स्थलों का उल्लेख किया है जहां पूँजी ने अपने पैर पसार कर मौलिकता को खंडित करने का दुस्साहस किया है मुनस्यारी के रास्ते में मिलने वाले विर्थी जलप्रपात का उल्लेख देखिये और पहाड़ों की लूट का नतीजा भी देखिये जिसके कारण एक पूरा गावं जमीदोज हो गया था। 
 
“बार-बार बिरथी फाल की और देख रहा है

उसकी आँखों में एक भय तैर रहा है

उसे ला झेकला की काली रात

याद आ रही है

उस रात भी ऐसा ही उफान था

ऐसी ही फुंकार

जब जमीदोज हो गया था पूरा गाँव” ( पृष्ठ ८७)
महेश जब लोक की गहराइयों में उतरते हैं तो उनकी कविता उन्ही की जमीन से चरित्र गढ़ लेती है ये चरित्र कल्पनाजन्य नहीं होते अपितु उन्ही के आस पास विद्यमान सजीव व्यक्ति होते हैं उनकी कई कविताओं में चरित्रों का समावेश है यह लोकधर्मी कवि की सबसे बड़ी पहचान है यदि कवि अपनी कविता में सजीव चरित्र नही समाविष्ट कर पाया तो कविता नकली प्रतीत होती हैनागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, विजेन्द्र , केशव, जितने भी लोकधर्मी कवि हैं सबकी कविताएँ चरित्र का सृज़न करती हैं“चरित्र”  गढ़न के मायने में महेश किसी से कम नही हैंउनके चरित्र लोकजीवन के मूर्त भोक्ता है कवि की जमीनी आसक्ति और उनकी दृष्टि के निर्धारक हैं इस संदर्भ में उनकी किसी एक कविता का उदाहरण देना उचित नहीं रहेगा क्योंकि “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में अनेक चरित्र हैं उनकी कविता “माँ का अंतर्द्वंद” इस मायने में सबसे अलग है माँ एक ऐसा चरित्र है जहाँ भावुकता, भी अपना केंद्र स्थापित करती है इस कविता के द्वारा कवि ने पहाड़ी जीवन की कठिन जिजीविषा और जीवन संतुलन का खाका खीचा हैमाँ के माध्यम से कवि अपने पूंजीवादी साम्राज्यवादी वर्चस्ववाद पर तीखे प्रहार करता है  सम्पूर्ण रीतियों और पहाड़ी कुरीतियों की अप्रासंगिकता पर सवाल खड़ा करता है माँ के बाद उनकी कविता का दूसरा चरित्र जो वर्गीय वर्चस्ववाद की कथनीय भंगिमा से लैस है वह “सरुली” है सरुली मेहनतश स्त्री है पुरुष के सामन्ती संस्कारों और समाज के पूंजीवादी वर्चस्ववाद ने उसको शोषण की नियति से बांध कर रख दिया है जिसके जीवन का आरम्भ मेहनत है और अंत भी मेहनत हैआधुनिक स्त्री विमर्श की तरह महेश का स्त्री चरित्र देह मुक्ति की घिसी पिटी लकीरों से आबद्ध नहीं है उसके  सामने सबसे बड़ा संकट सामंती वर्चस्ववाद है जिसके वगैर टूटे मुक्ति की कोई आशा नही की जा सकती मेहनतकश स्त्री के कव्य बिम्ब आज की कविता से गायब होते जा रहे हैं महेश की कविता में स्त्री के इन चरित्रों से उनकी लोकदृष्टि और आधुनिक दृष्टि के संतुलित सामंजस्य को देखा जा सकता है महेश की दो कवितायें उनके दो सांस्कृतिक मित्रों को समर्पित है एक कविता उनके कवि मित्र केशव तिवारी को (खुरदरापन) और दूसरी उनके चित्रकार मित्र रोहित जोशी के लिए समर्पित है (हवा)| दोनों कविताओं में कवि ने अपनी जमीनी भंगिमाओ को पूरे विस्तार के साथ समेटा हैकेशव और रोहित के बाद तीसरा चरित्र जो उनकी कविता में उपस्थित है वह है “शेर सिंह पांगती” जिसका उल्लेख उन्होंने अपनी कविता “ट्राइवेल हेरिटेज म्यूजियम” में किया हैशेर सिंह पहाड़ी मज़बूत इरादों के प्रतीक हैं जिन्होंने अपने निजी संघर्षों से म्युज़ियम की स्थापना किया है इस कविता में महेश ने शेर सिंह पांगती का जिस तरह से चारित्रिक विस्तार किया है वह उनके ठोस जमीनी अनुभव और पाठकीय संवेदना को झकझोर देने वाली रचनाधर्मिता का उदाहरण है
महेश अपनी कविताओं में भौगोलिक और सामाजिक परमपराओं का विशद विवेचन करते हैं उनकी अपनी पहाड़ी लोक रीतियाँ उनकी कविता में समां गयी है उन्होंने पहाड़ी जीवन के हर पहलू को जिया है बोली व्यवहार, स्वभाव का सम्पूर्ण परिवेश देखा हैस्वाभाविक है उनकी कविता मे उनका लोक प्रसुप्त होकर नहीं आएगा बल्कि जाग्रत होकर आएगापहाड़ी जीवन का ऐसा कोई कोना नही है जिसको महेश ने न देखा हो उत्पादन, धर्म, विश्वास, त्यौहार, साधन, विधि, जंत्र, मंत्र, विलास, चिकित्सा, औषधि, कला, कौशल, खेती, भेंडें, सब को देखते सुनते और अपनी कविता में उतारते चलते हैं “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में पहाड़ी जीवन अपने पूर्ण उपांगों के साथ सज़ीव हो उठा है “खतडवा संक्रांति” कविता में इस पहाड़ी लोक त्यौहार का जैसा वर्णन उन्होंने किया है उससे पहाड़ी आस्थाओं का बिम्ब सजीव हो जाता है  यह पहाड़ों का एक पशु त्यौहार है कवि ने अपनी कविता भूमि को स्पष्ट करने में कोई कसर नही उठा रखी हैउनकी कविताओं को पढ़ कर अनजाना सा पाठक भी उनकी जमीन का अनुमान कर सकता है यह उनकी बड़ी सफलता है
 
भाषा अकेले कवि का उत्पाद नहीं होती उसके परिवेश और परिवेश में रहने वाले वर्गीय समूहों का सामूहिक उत्पाद होती हैकवि की भाषा बहुत कुछ उसकी भौगोलिक अवस्थिति व जीवन संदर्भों से निर्मित होती है जब व्यक्ति किसी पर आक्रोशित होता है तो वह अपनी उस भाषा में आक्रोश व्यक्त करता है जिसे वो दैनिक व्यवहार में प्रयोग करता है यदि छोटे-छोटे जीवन अनुभवों में भी भाषा अभिजात्य रहे तो कवि कवि की कविता और उसकी सच्चाई संदेह के घेरे में आ जाती है भाषा कवि की मनोस्थिति के अनुसार अपना नियत सम्बन्ध खोज लेती हैकहा जाता है कि काव्य भाषा सामान्य भाषा के भीतर की भाषा की भाषा है लेकिन हम कहेंगे की काव्य भाषा कवि के भीतर की भाषा है जिस भाषा में वो अपने परिवेश को जीता है जिस भाषा में वो अपने अनुभव उपार्जित करता है उसी भाषा को व्यक्त करने में ही कवि सफलता निहित है भाषा भी विषय की तरह यथार्थ होना चाहिए उपरी परतों पर थोपी हुई नहीं होनी चाहिए महेश की काव्य भाषा इस मायने में एक प्रतिमान बन कर उपस्थित होती हैउनकी भाषा का कारखाना वही है जहाँ से उनके अनुभव जन्म लेते है उनकी भाषा में लोक सौन्दर्य देखते ही बनता है “लोक” की पीड़ा, उसकी हार, उसकी टूटन, उसका व्यवहार उन्ही की भाषा में देख कर कविता स्वयम लोक गान बन जाती हैजैसे विजेन्द्र की कविताओं में उनका राजस्थान झलकता है मान बहादुर सिंह की कविता में उनका अवध प्रकट हो जाता है उसी तरह महेश की कविताओं में उनके पहाड़ प्रकट हो जाते जाते हैं उनके इस देशीपन को उनकी बेचैनी से जोड कर देखे जाने की जरुरत हैमहेश की कविता तभी अपना सार्थक अर्थ देगी जब हम उनके पहाड़ को समझेंगे उनकी भाषा में डूबेंगे धौल, टुटका, ठैरा, रौखड, बौज्यू, टैम, ओखल, गोंठ, नौले, सोन, असौज, गाडू, लवार, भेकुने, जीबू, भौत, जैसे शब्द अपनी पूर्ण अर्थवत्ता को साथ लिए उनके संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” में विराजमान हैंमहेश की इस भाषा ने उनके चरित्रों को एक नई पहचान दी है महेश ने भाषा के उन सभी अभिजात्य संकेतों को नकार दिया है जिनसे अनुभूतियाँ धूमिल हो सकती है उन्होंने अपने समय और लोकानुभव के अनुरूप एक ऐसी भाषा की तलाश की है जिसके फ्रेम में पूँजी द्वारा त्रसित इंसान का चित्र उकेरा जा सकता है उन्होंने भाषा और व्यक्ति के बीच दीवार का काम नही किया कविता के बीच में आये देशज शब्द आज के पूंजीवादी सामंती आतंक को अभिव्यंजित कर देती है भाषा का इतना सुनहला प्रयोग एक प्रतिबद्ध लोकधर्मी कवि ही कर सकता हैमहेश की भाषा द्वारा निर्मित अर्थ संकेत और शिल्प छवियाँ भी उनकी जमीनी जरूरतों और सरोकारों की व्यंजना करती हैंअमूमन प्रतीक और बिम्ब अर्थ की सूक्ष्म सांकेतिकता की व्यंजन करते है लेकिन उनका अधिकाधिक प्रयोग कविता को पोस्टर की तरह ग्राफिक बना देता है लेकिन महेश के बिम्ब और प्रतीक उनकी भाषा की तह से उत्पन्न है वहां यह दोष छू तक नहीं गया है बिम्बों का संवेदी प्रयोग उनकी कविता और उनकी भाषा को संदर्भ भाषा के रूप में रूप में स्थापित कर देता है और बिम्बों में आयी लोक छवि उनकी कविता के वितान को व्यापकता और विविधता से भर देती है देखिए एक उदाहरण
 

“सहस्रबाहु की तरह भुजाएं फैलाए

आसमान से सर लड़ाए

खड़ा हुआ पेड़”

गाये सभी ने गुण

पत्ती फूल फल और तने के

पर जड़ें याद नही आई किसी को” (पृष्ठ २८)
अर्थात पेड़ की डाली और शाखा पत्ती की चर्चा सभी करते है पर जिन जड़ों में वो टिका है उनकी चर्चा कोई नहीं करना चाहता यह एक अर्थ संकेत है जिसके मायने है कि हम पूँजी द्वारा तय किये गए उपरी आवरण को ही देख पाते है और जिन स्तंभों में मनुष्य का वजूद टिका है उन जड़ों की और कोई नहीं देखना चाहता है
 
महेश की भाषा का संघटन कविता के परम्परागत तत्वों से भी हुआ है ऐसे तत्वों में प्रतीक विधान मुख्य है प्रतीक मानव स्वभाव का एक विशिष्ट अंग है काव्य या कला में नए अर्थों की उद्भावना या अर्थ की गहराई को आम पाठक तक प्रेषित करने के लिए कवि प्रतीकों का प्रयोग करता हैमहेश में प्रतीक अपने अर्थ को बदल कर आज के पूंजीवादी परिवेश का अर्थ पा रहे हैं ध्यान से देखने पर उनके प्रतीक अन्योक्ति विधान जैसे प्रतीत होते हैं बिम्ब की सफलता उसक चित्र विधान में निहित होती है पर प्रतीक की सफलता उसके द्वारा निर्मित अर्थ संकेतों से तय होती है महेश के प्रतीक हर तरह के हैं मिथकों से लेकर इतिहास तक, शहर से ले कर निर्ज़न पहाड़ों तक उनके प्रतीक खोजे जा सकते हैं पर उनकी सार्थकता उनकी प्रतिबद्धता, और उनकी कविता के सामयिक संदर्भों को देख कर ही तय की जा सकती है जैसे एक कविता है “शैतान” यहाँ शैतान पूंजीवादी वर्चस्ववाद का प्रतीक बन कर उपस्थित है औपनवेशिक काल में पूँजीवाद साम्राज्यवादियों के रूप में उपस्थित था तो आज वह बाजारवाद के रूप में  उपस्थित हैदोनों का चेहरा और चरित्र एक है
“लेकिन शैतान फिर से लौट आया है। 
 

रूप बदल कर

राजधानी तक हैं लम्बे हाथ

चेहरे से नही लगता है वह

बिलकुल भी शैतान सा

आवाज़ किसी देवदूत सी” (पृष्ठ ९१)
इस प्रतीक को कोई अलग अर्थ देना असंभव है महेश की कविता की यही खासियत है कि जिस प्रतीक में उन्होंने जिस अर्थ संधान कर दिया है उससे इतर अर्थ की कल्पना नही की जा सकती है उनकी काव्य भाषा की तीसरी सबसे बड़ी विशेषता है उनकी कविता में आये अप्रस्तुत –विधानअप्रस्तुत विधान के अंतर्गत उपमा पर आधारित अलंकारों का समावेश होता है उनके अप्रस्तुत विधान की सबसे बड़ी विशिष्टता है कि उपमान लोक से लिए गए हैंजिसके कारण कविता में एक खास किस्म के संदर्भ उपस्थित हो गए हैं जो कवि की मूल अंतर्वस्तु से एकदम हिलमिल जाते हैं और दूसरी विशेषता है की जिस लिंग का प्रस्तुत है उसी लिंग का अप्रस्तुत भी है अर्थात अप्रस्तुत विधान में महेश ने लिंग साम्य का खूबसूरत प्रयोग किया हैउपमादि अलंकारों में लिंग साम्य का प्रयोग बहुत कम कवियों ने किया है उपमा के सबसे बड़े कवि कालिदास माने जाते हैं क्योंकि उन्होंने उपमेय के लिंगानुसार ही उपमान का लिंग रखा हैयही विशेषता महेश की कविता में मिलती है उनके अप्रस्तुत विधान ही उन्हें अपने समकालीनों से पृथक कर देता है एक बानगी देखिये – 

“खुशबू फ़ैल जाती है चारों ओर

रात की रानी सी”
अर्थात खुशबू में रात रानी की संभावना दोनों में अद्भुत लिंग साम्य है महेश का कविता संग्रह “पंछी बनती मुक्ति की चाह” अपने प्रतिपाद्य और काव्य कला दोनों की दृष्टि से अनूठा है लोक की गहन भाषाई मुद्रा से लैस उनकी कविता अपने समय का सच्चा इतिहास लिख रही है
विचारणीय बिन्दु यह है कि महेश पुनेठा ने जिस कलात्मक उत्कृष्टता के साथ अपनी कथ्यात्मक प्रभावपूर्णता का निर्वहन किया है वह आज की कविता में दुर्लभ है उनका मानव पूँजीवादी बाजारवादी परिवेश से टूट रहा है और लोकतंत्र मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में खिलौना बन चुका है उनका मानव उस लोकतन्त्र का वाशिन्दा है जहाँ मुठ्ठी भर लोग लोकतान्त्रिक तानाशाही से आम आदमी को मौत के मुँह में ढकेल रहे हैं। जहाँ अपने हक और अधिकारों की मांग करना सत्ता के खिफाफ भयानक अपराध है जहाँ बाज़ार से लूट कर अपनी जान खपा देना ही देशभक्ति है सामाजिक परिवर्तनों का सूत्रधार मानव अपनी  वर्गीय समझ और चेतना नष्ट कर चुका है वह अलगाव का शिकार है। उसका अलगाव अपने आप से है अपने परिवार से है अपने सरोकार से है उसकी सोच पर खतरनाक पहरे है वह मानव अपनी मनुष्यता खो चुका है। महेश उस मानव को परिवर्तन और बदलाव की सीख देते हैं उससे अंधेरों में उजालों की उम्मीद करते हैं महेश की कविता के संदर्भ में मुझे फ़िराक गोरखपुरी साहब के ये अलफ़ाज़ याद आ रहे हैं

“गुजश्ता अहद की, यादों को फिर करो ताज़ा

बुझे चिराग जलाओ, बहुत अँधेरा है”
(रस्साकसी से साभार) 
   
सम्पर्क-
मोबाईल- 09838610776 
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.) 
                                                       

महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएँ

महेश चन्द्र पुनेठा



कविता लिखने के क्रम में हर कवि के मन में यह सवाल जरुर उठता है कि वह कविता क्यों लिख रहा है? कविता के इस अभिप्राय को ले कर तमाम कवियों ने कविताएँ लिखी हैं। और यह सिलसिला आज भी जारी है। युवा कवि महेश पुनेठा भी इस सवाल से टकराते हैं। महेश अपनी कविताओं में कल्पना की उड़ान तो भरते हैं लेकिन वे अपनी जमीन को नहीं भूलते। कविता में भी वे जमीन की बातें ही करते हैं। कविता लिखने के सवाल को ले कर भी वे भ्रम में नहीं हैं। उन्हें पता है कि अगर उन्होंने कविता नहीं भी लिखी तो ‘दुनिया एक इंच इधर से उधर नहीं होगी’ लेकिन कविता लिखना उनके लिए इसलिए अहम् है कि यह जो दुनियावी अँधेरा बढ़ता जा रहा है उसे कम करने की कोशिश में वे अपने ‘भीतर की कविता’ को बचाना चाहते हैं। कवियों के लिए जरुरी है कि यह भीतर की कविता ही उनके अंदर बची रहे जो लगातार छिजती चली जा रही है कि मरने न पाए मेरे भीतर की कविता। एक जगह अपने अर्थ को और स्पष्ट करते हुए महेश लिखते हैं – ‘मैं रचता हॅू/ एक कविता/ ठंड को खत्म करने को।‘ लेकिन इसके साथ वे श्रम की अर्थवत्ता को भी विनम्रता से स्वीकार करते हैं। इसीलिए तो वे साहस के साथ कहते हैं – ‘कमतर ठहराता है जो/ तुम्हारे काम को/ जरूर कोई षड़यंत्र करता है/ ठंड को बचाने के पक्ष में।‘ हाल ही में इलाहाबाद के साहित्य भण्डार से महेश पुनेठा का एक कविता संकलन आया है ‘पंछी बनती मुक्ति की राह’। ये कविताएँ इसी संकलन से ली गयी हैं। आइए आज पढ़ते हैं कुछ इसी तरह की मानवता की तासीर वाली महेश पुनेठा की कविताएँ।
  
महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएँ 
पहली कोशिश
मैं न लिख पाऊँ एक अच्छी कविता
दुनिया एक इंच इधर से उधर नहीं होगी
गर मैं न जी पाऊँ कविता
दुनिया में अंधेरा कुछ और बढ़ जाएगा
इसलिए मेरी पहली कोशिश है
कि मरने न पाए मेरे भीतर की कविता।
कलावादी
जिस वक्त में
कुचले जा रहे हैं फूल
मसली जा रहीं हैं कलियाँ
उजाड़े जा रहे वन-कानन
वे विमर्श कर रहें हैं
फूलों के रंग-रूप पर।
फुंसी
जिसे उभरते देख
मसल कर
खत्म कर देना चाहते हो तुम
लेकिन
वह और अधिक विषा जाती है
तुम्हारी गलती 
छोटी सी फुंसी को
दर्दनाक फोड़े में बदल देती है। 
                        
तुम से अच्छे
इतना दमन/शोषण
अन्याय-अत्याचार
फिर भी ये चुप्पी।
तुम से अच्छे तो
सूखे पत्ते हैं।
जीवन व्यर्थ गँवाया
भूखे का भोजन
प्यासे का पानी
ठिठुरते की आग
तपते को हवा
बेघर का घर
जरूरतमंद का धन
लुटे-पिटे का ढॉढस
बिछुड़ते का राग
फगुवे का फाग
गर इतना भी बन न पाया
हाय! जीवन यॅू ही व्यर्थ गँवाया।
प्रतीक्षा
निराशा की बात नहीं कोई
जड़ नहीं
मृत नहीं
ठूँठ नहीं ये
जाड़ों के पत्रविहीन वृक्ष से हैं ये
बसंती हवा की प्रतीक्षा भर है इन्हें
फिर देखो
किस उत्साह से लद-फद जाते हैं ये
देखते ही देखते बदल जाएगा जंगल सारा।
तुम्हारी शिकायत
जब नहीं करते हो तुम
कोई शिकायत मुझसे
बहुत दिनों तक
मन बेचैन हो जाता है मेरा
लगने लगता है डर
टटोलने लगता हॅू खुद को 
कि कहॉ गलती हो गई मुझसे।
दुःख की तासीर
पिछले दो-तीन दिन से
बेटा नहीं कर रहा सीधे मुँह बात
मुझे बहुत याद आ रहे हैं
अपने माता-पिता
और उनका दुःख
देखो ना! कितने साल लग गए मुझे
उस दुःख की तासीर समझने में। 
किताबों के बीच पड़ा फूल
सूख चुकी हो भले
इसके भीतर की नमी
कड़कड़ी हो चुकी हों
इसकी पत्तियाँ
उड़ चुकी हो भले
इसमें बसी खुशबू
फीका पड़ चुका हो भले
इसका रंग
पर इतने वर्षों बाद अभी भी
बचा हुआ है इसमें
बहुत कुछ
बहुत कुछ
बहुत कुछ ऐसा
खोना नहीं चाहते हम
जिसे कभी। 

सीखना चाहता हूँ
नदी के पास
नहीं है कोई कलम
न ही कोई तूलिका
न ही हथौड़ा छीनी
फिर भी लिखती है
नई इबारत
बनाती है
नए-नए चित्र
गड़ती है
नई-नई आकृतियाँ
कठोर शिलाखंडों पर
हर लेती है उनका बेडौलपन
सीखना चाहता हूँ मैं भी नदी से
यह नायाब हुनर।
षड़यंत्र
तुम बुनती हो
एक स्वेटर
किसी को ठंड से बचाने को
और
मैं रचता हॅू
एक कविता
ठंड को खत्म करने को।
गर्म रखना चाहती हो तुम
और
गर्म करना चाहता हूँ मैं भी।
कमतर ठहरता है जो
तुम्हारे काम को
जरूर कोई षड़यंत्र करता है
ठंड को बचाने के पक्ष में।
मुक्तिदाता सा गौरव
बंधनों पर कभी
एक भी शब्द नहीं फूटा मुँह से जिनके
वे बहुत चौकन्ने हो गए
         चिता पर रखने से पहले
         रह न जाय उसके शरीर में कोई बंधन
         चूड़ी….चरेऊ…..पाजेब…….
         
         मुर्दे को सभी बंधनों से मुक्त कर
         मुक्तिदाता सा गौरव
         झलक आया उनके चेहरों पर।
बाजार-समय
बहुत सारी हैं चमकीली चीजें
इस बाजार-समय में
खींचती हैं जो अपनी ओर
पूरी ताकत से
मगर
बहुत कम  हैं
जो बॉधती हों कुछ देर भी।
फिर भी
चमक से चौंधिया कर
फँस ही जाता है गिरफ्त में इनके
बच-बच कर निकलने वाला भी ।
पसंद करने लगता है
उन्हीं को
करता था जिनको कभी नापसंद।

कभी नहीं मर सकता
उनके
दृढ़ इरादे
और कठिन परिश्रम
कठोर से कठोर काँठे को भी
बदल देते हैं
सुन्दर स्थापत्य में
रौखड़ में भी
लहलहा देते हैं हरियाली।
फिर ये तो जीती -जागती
दुनिया है दोस्तो!
इसलिए
कभी भी नहीं मर सकता
मेरी आँखों में
सुंदर दुनिया का सपना।

उन्हें चिंता है
उन्हें चिंता है कि खत्म होती जा रही हैं लोक बोली-लोक संस्कृति
चलाया है उन्होंने अभियान उसे बचाने का
आयोजित की जा रही हैं गोष्ठियाँ-सेमीनार
निकाली जा रही हैं पत्र-पत्रिकाएं
रचा जा रहा है लोक बोली में साहित्य
प्रोत्साहित किया जा रहा है अपनी बोली में बातचीत के लिए
ढूँढे जा रहे हैं पुराने से पुराने शब्द-
देशी व्यंजनों/ अनाजों/ औजारों/ बर्तनों/ आभूषणों/ वस्त्रों आदि से जुड़े
शामिल किया जा रहा है शब्दकोशों में उन्हें
जब तक शब्द शामिल हो रहे शब्द कोशों में
चीजें गायब हो जा रही हैं जीवन से
उन्हें चिंता है कि खत्म होते जा रहे हैं लोक बोलियाँ।
बदलाव के दुश्मन
नहीं हैं दुल्हन के आँखों में आसूँ
इससे अच्छी बात क्या हो सकती है
आखिर खुशी  के क्षणों में क्यों बहें आँसू?
लोगों को यह अटपटा लग रहा है
उठाने लगे हैं प्रश्न जमाने पर-
कैसा बेशर्म जमाना आ गया है
अब दुल्हनें रोती भी नहीं हैं
ये बे-हयापन नहीं तो और क्या है
कोई लोक-लाज भी नहीं रह गई अब…….
आखिर क्यों देखना चाहते हैं ये दुल्हन को रोते हुए?
कौन हैं ये लोग
क्या है इनकी परेशानी
किसी भी बदलाव से
पेट में मरोड़ क्यों उठने लगती है इनके?

 
दुपहिया चलाती युवतियाँ
मुख्य सड़क पर निकलता हूँ जब
चलता हूँ बचते-बचाते हुए
वहाँ निकलते हैं
दो पहिया वाहनों में सवार
हवा से बातें करते हुए
नए जमाने के नए युवक-युवतियाँ
डर लगता है उनकी गति को देख कर
गति में किसी तरह कम नहीं युवतियाँ भी
सर्रर्….रर्….र… से युवकों को काट
निकल जाती हैं आगे दुपहरिया को लहराती हुई
भय न जाने कहाँ फुर्र हो गया उनका
जैसे भय भी भयभीत हो गया हो उनकी गति से
भय को छोड़ कर ही आगे निकल पाई हैं वे
बहुत अच्छा लगता है उन्हें देखना
सिर ऊँचा
कंधे चौड़े
नजरें चौकन्नी
समय की गति से कदम-कदम मिलाकर भागते।
खड़ी चट्टान पर घसियारिनों को देख कर
एक-दो ने अंतरिक्ष में
कर ली हो चहलकदमी
दो-चार ने एवरेस्ट में
फहरा दिया हो अपना परचम
कुछ राजनीति के बीहड़ को लाँघ कर
खड़ी हो गई हों उस पार
कुछ और इसी तरह किसी अन्य वर्जित प्रदेश में
कर गई हों प्रवेश
दृष्टांत के रूप में
उद्धरित किए जाने लगे उनके नाम
मील के पत्थर ही हैं वो 
इधर तो बहुत सारी
टँकी हुई-सी हैं अभी भी
सदियों से इसी तरह
ओस की बूँद सी
अब गिरी कि तब गिरी।
कैसे करूँ संतोष
नहीं मिल जाता जब तक इन्हें
जीवन का कोई मैदान
बेखौफ हो कर खड़ी हो सकें जहाँ ये। 
कन्या पूजन
अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट
आने के बाद से
घर का माहौल ही बदला-बदला है
सास-ससुर के व्यवहार में
आ गई है थोड़ी नरमी
पति के मन में अतिरिक्त प्रेम
प्रसवा भी खुश है
अब के औजारों से बच गई
उसकी कोख
और भी कारण हैं उसकी खुशी के
आज रामनवमी है
नवदुर्गा के व्रतों का समापन है
कन्या पूजन है घर में आज
धोए जाएंगे नौ कन्याओं के चरण
पिया जाएगा चरणामृत
चढ़ाए जाएंगे फूल
उतारी जाएगी आरती
खिलाए जाएंगे सुस्वादिष्ट व्यंजन
मुहल्ले भर में ढूँढी गई कन्याएँ
इग्यारह से कम की
बड़ी मुश्किल से
गिनती पूरी हो पाई नौ की
कन्या पूजन चल रहा है इस समय…..।
एक नई दुनिया के निर्माण की तैयारी
मेरा तेरह वर्षीय बेटा
गूँथ रहा है आटा
पहली-पहली बार
पानी उड़ेल समेट रहा है आटे को
पर नन्हीं हथेलियों में
नहीं अटा पा रहा है आटा 
कोशिश में है कि समेट लूं एक बार में सारा
गीला हो आया है आटा
चिपका जा रहा है अंगुलियों के बीच भी
वह छुड़ा रहा है उसे
फिर से एक लगाने की कोशिश 
अब पराद में चिपके आटे को छुड़ा रहा है
फिर पानी आवश्यकतानुसार
अब भींच ली हैं मुट्ठियाँ उसने
नन्हीं-नन्हीं मुट्ठियों के नीचे तैयार हो रहा है आटा
इस तरह उसका
समेटना
अलगाना
भींचना
बहुत मनमोहक लग रहा है
मेरे भीतर पकने लगा है एक सपना 
जैसे रोटी नहीं
एक नई दुनिया के निर्माण की तैयारी कर रहा हो वह।
सम्पर्क-
मोबाईल – 09411707470

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

निर्मला तोंदी के कविता संग्रह ‘अच्छा लगता है’ पर महेश चन्द्र पुनेठा की समीक्षा


 निर्मला तोंदी इधर की उन चुनिन्दा कवियित्रियों में से हैं जिन्होंने आज की कविता की दुनिया में अपनी एक सुपरिचित पहचान बना ली है. हाल ही में निर्मला का एक नया कविता संग्रह आया है- अच्छा लगता है’. इस संग्रह की एक पड़ताल की है युवा कवि-आलोचक महेश पुनेठा ने. तो आइए पढ़ते हैं निर्मला तोंदी के कविता संग्रह पर महेश चन्द्र पुनेठा की यह समीक्षा
मैंने एक कविता लिखी सिर्फ अपने लिए
महेश चंद्र पुनेठा 
       निर्मला तोदी कविता को लेकर न कोई बड़ी-बड़ी बात कहती हैं और न ही अपनी कविता के कविता होने को ले कर कोई दावा करती हैं। अपनी कविता को लेकर उनका स्पष्ट कहना है- 
हाँ! अगर कविता है
तो कविता है
नहीं तो डायरी का एक पन्ना है। 
यह बेबाक स्वीकारोक्ति इस बात का संकेत है कि उनके लिए कविता कलात्मक अनुशासन की अपेक्षा जीवन की अभिव्यक्ति है। वह खुद को व्यक्त करने के लिए कविता को माध्यम बनाती हैं। एक स्त्री के लिए अपने घर-बाहर के कामों के साथ पढ़ने-लिखने के लिए समय निकाल लेना मुझे हमेशा बहुत प्रभावित करता रहा है। उसके विचार आले में चाभियों के गुच्छे के नीचे दबे रहते हैं। उसकी यादेंस्टोर रूम के संदूक में धरी रहती हैं। उसके अनुभव बरनियों के तेल-मसाले में डूबे’ रहते हैं। उसके शब्द ‘सोफा पर कुशनों के साथ बिखरे रहते हैं। वह मानती है- ‘सबसे पहले वह एक गृहणी है। बावजूद इसके वह अपने अनुभवों, विचारों, स्मृतियो, शब्दों को कविता-कहानी के रूप में सजा लेती है, यह किसी उपलब्धि से कम नहीं है।

       अच्छा लगता है’ कवयित्री निर्मला तोदी का पहला संग्रह है। इसमें स्त्री जीवन की विडम्बनानियतिउसकी विवशता, मन की उलझन, डर, कसमसाहट और मुक्ति की तड़प, स्वतंत्रता की चाहत को गहराई से महसूस किया जा सकता है। यह देखा जा सकता है कि एक स्त्री के मन का संसार कितना बड़ा होता है। आसमान से भी अधिक फैला, असंख्य तारों और आकाशीय पिंडों की तरह जिसमें अनेकानेक स्मृतियाँ, सपने और कल्पनाएँ टिमटिमाती रहती हैं, जो वास्तविक संसार में अधूरा रह जाता है उसे वह अपने सृजन में पाना चाहती है। इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि स्त्री मन का संसार कविताओं में ही अधिक खुलता है। यहाँ ज्वालामुखी भी है और कोलाहल भी। वह वे सब कह डालना चाहती है जो सामान्यतः नहीं कह पाती है। जब कभी कहने, बोलने और करने का मन नहीं करता तब कविता ही उसका साथ देती है। शरीर थक जाय मन नहीं थकता। इस अनथके मन की ही दास्ताँ हैं निर्मला की ये कवितायेँ, जिनमें एक खोज जारी है कभी खुद की, कभी राहों की, कभी सपनों की और कभी स्मृतियों की। ढूँढना’ उनकी कविताओं का बीज शब्द है। वह उस विराट को ढूँढती हैं खुद को जिसका हिस्सा मानती हैं। दूर खिले चम्पा के फूलों में उसको महसूस करती हैं। उस विराट के सामने खुद को संकीर्ण, संकुचित मानती हैं जो उसके दिए आनंद को भी नहीं समेट पाई। इस तरह आध्यात्मिकता के स्वर भी कविता में देखे जा सकते हैं। शायद यह स्त्री मन का डर हो कोई जो उन्हें इस ओर ले जाता है।

       ये कवितायेँ स्त्री की नियति को बताती हैं एक स्त्री की नियति को अच्छी तरह उभारती हैं-
सूर्य के चारों तरफ चक्कर काटती है
अपनी धुरी पर घूमती है निरंतर
अँधेरे उजाले समेटे
बस 
उसे 
हिलना मना है। (पृथ्वी को हिलना मना है) 
कैसी विडंबना है- 
उसके पास है-
एक तरल मन
फिर भी
जीती है
शुष्क जीवन।
स्त्री सब जानती है लेकिन-
उसके पास है –
अतिरिक्त विवेक
जो उसे समझा देता है
सब कुछ जानते समझते हुए भी
उसे चुप रहना है। 
इस तरह निर्मला स्त्री की नियति और विडंबना को तो सामने लाती हैं लेकिन उसके लिए जिम्मेदार कारकों की ओर संकेत कम ही करती हैं। उड़ना तो चाहती हैं लेकिन पितृसत्ता द्वारा गढ़े पिजड़े को तोड़ना भूल जाती हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि पितृसत्ता के खिलाफ असंतोष तो इन कविताओं में दिखाई देता है लेकिन विद्रोह नहीं। पितृसत्ता के समक्ष समर्पण या उससे समझौता अधिक है- हर एक लहर में तुमको पाती हूँ/ इसलिए यहीं डूब जाना चाहती हूँ…..सिर्फ तुम्हारे पीछे रह कर/समर्पिता बनाना चाहती हूँ। भीतर दबे ज्वालामुखी के फूटने से डरती हैं।उसके फूटने से यह डर कैसा? उसे तो फूटना ही चाहिए। पुरुष सत्ता ने अहिल्या के साथ जो छल-छद्म-अन्याय किया उसके विरुद्ध अहिल्या का आक्रोश फूटना कहाँ गलत है? लेकिन निर्मला उसको दबा कर किसी मार्गदर्शक के इंतजार की बात कहती हैं- 
करूँ इंतजार 
एक मार्गदर्शक का
जो मेरे घावों पर 
लगा मरहम
दिखा दे कोई राह नयी
मैं अहिल्या 
हिलूँगी नहीं। 
जबकि उन्हें अच्छी तरह पता है वह मार्गदर्शक सपने दिखाने के एवज में भी शर्तें रखता है- 
शर्त है लेकिन 
कल्पना में
कोई नाम न हो
संबंध न हो
कोई पल न हो
काल न हो
कोई तर्क न हो
सवाल न हो
कोई चाह न हो
फरियाद न हो
कहीं कोई भ्रम-जाल न हो 
 उनकी स्त्री आखिर इन शर्तों को मानने से इंकार क्यों नहीं करती है?  दूसरे पर ही क्यों निर्भर रहती है सुनहरे सपनों के लिए? कहीं न कहीं स्त्री का यह स्वभाव उसके मानसिक और शारीरिक शोषण का कारक बनता है। उसे कमजोर बनाता है। उन्हें स्त्री के पंख न होने का अहसास है जिसके चलते स्त्री अपने मन के अनुसार नहीं उड़ सकती है। उड़ना चाहती है लेकिन डरती है। जबकि उसका भी एक चिड़िया की तरह-पत्तों की खड़खड़ाहट/ हवा की सरसराहट/ अपने भाई-बंधु की आवाज/सुनने का जी करता है। लेकिन वह स्वतंत्र नहीं है। वह जिस स्त्री की बात करती हैं वह अपने दिमाग पर ताला लगाए हुए है। केवल दिल का दरवाजा खुला है।यही दरवाजा तो है जिससे वह बाहर की खुली हवा में जाती है और अपने लिए जीवनदायिनी ऑक्सीजन ले आती है। यह दरवाजा भी बंद हो जाए तो क्या हो? अच्छी बात यह है कि निर्मला को यह पता है कि केवल पंख पा लेने से ही कुछ नहीं होने वाला उसे पहले अपना गढ़ा पिंजरा तोड़ना होगा’ पर यह समझना होगा, वह समर्पण से नहीं प्रतिरोध से ही संभव होगा। वह सूरज की रोशनी का इंतजार न कर यदि रात का इंतजार करती रहेगी तो यह कैसे संभव होगाहाँ, यह दृढ़ता विश्वास जगाती है- 
इन्हें वापस नहीं लौटाऊँगी  
पुकारता रहे कोई भी
मैं न पीछे पलट पाऊँगी। 
अच्छी बात यह है कि उन्हें दुनिया की हकीकत का अहसास है- दुनिया जो सुन्दर है
लेकिन मेरे लिए थोड़ी खुरदुरी 
मंद हवाओं के झोंकों के साथ
तेज हवाएं 
झेलनी है मुझे
सीख रही हूँ अभी 
मखमली घास तो है लेकिन 
कड़ी धूप में तपती धरती भी है
मैं इस पर भी चलना सीख जाउंगी कभी। 
यही विश्वास है जो हर स्त्री को जीने और लड़ने का हौसला देता है। आशा करते हैं कि उनका यह स्वर- 
वह मुझ पर 
अपना हक जतलाते हैं
यही हक तो मैं चाहती हूँ
उन से  
आगे और मजबूत होगा.

        उनके यहाँ प्रेम तो है लेकिन टकराहटों से मुक्त प्रेम है निर्मला देखती हैं कि-सब तरफ प्रेम लहलहा के बरस रहा है और वह इस प्रेम में भीग रही हैं। ऐसा केवल तभी संभव होता है जब कोई प्रेम में हो। वही एक नाम’ सारे चर-अचर में देख सकता है। हवा की तरंगों में, फूलों की पंखुड़ियों में, नदियों-समंदरों की हिलोरों में, कोयल के गीतों में,बादलों में, पेड़ की हर पत्ती में, सूरज की लाली और चाँदनी में अर्थात पूरी ब्रह्मांड में दिखाई देने लगता है। प्रेम में डूबा पात्र दुनिया की हर चीज प्रेम ही प्रेम देखता-महसूसता है। काश! यह दुनिया इतनी ही सुंदर होती, जब कि वास्तविकता यह है कि हमारे चारों टकराहटें ही टकराहटें भरी हुई हैं। इस संग्रह में प्रेम पर बहुत सारी कविताएं हैं, जिनमें प्रेम कहीं लौकिक तो कहीं आलौकिक रूप ग्रहण करता है। इसे अलगाना आसान नहीं है।

      हर स्त्री के भीतर एक और स्त्री रहती है जो बहुत कुछ ऐसा करना चाहती है जो सामाजिक वर्जनाओं के चलते वह कभी कर नहीं पाती है। वह अपने मन की आवाज पर जीना चाहती है। बहती नदी में उतर कर देर तक नहाना चाहती है। समुद्र के किनारे रेत में लेटना चाहती है। घने जंगलों, ऊँचे पहाड़ों में भटकना चाहती है। बारिश में रेशा-रेशा भीगना चाहती है। अपने मनपसंद व्यक्ति से खूब प्यार करना चाहती है लेकिन वह ऐसा कहाँ कर पाती है। उसे तो वही सब करना पड़ता है जो समाज ने उसके लिए तय किया है। स्त्री मन की इसी छटपटाहट और विवशता को निर्मला अपनी कविता में व्यक्त करती हैं-
एक स्त्री मेरे भीतर
और भी है
चाहती है कुछ करना
कर नहीं पाती। 
स्त्री मन की वेदना की गहराई इस कविता में समझी जा सकती है- 
रात रोती रही चादरों में
दिन सुलगती रही धूप में
शाम आई तो ये सोचूँ
रात आएगी फिर
उन्हीं चादरों में।(शाम)….. 
फिर वही दुबक कर सोना
अपने खोल के भीतर
जैसे कछुआ सोता है   
उसकी नियति बन चुकी है।

     पत्थर हो चुके समय में निर्मला उन स्मृतियों को अपनी कविताओं में गूँथ लेती हैं जहाँ उन्हें लगता है कि कोई तो है इस दुनिया में जो दूसरे की भावनाओं की कद्र करता है- 
और इस तरह उस दिन एक पल में
जुड़ गया हमारा मन
हमारी भावनाएं हमारी यादें
उस नौजवान पायलट से सदा के लिए
जिसके पास ढेर सारी कद्र थी
हमारी भावनाओं की
जिसे उसने दूर खड़े एक पल में महसूसा था।
  इन कविताओं में बहुत सारी ऐसी स्मृतियां बसी हैं जिनसे निर्मला अपने सुनसान को भरती हैं। साथ ही स्त्री मन की वे कोमल स्मृतियां हैं जिन्हें हर औरत सजो कर रखती है। इन स्मृतियों के बीच स्त्री मन के सूनेपन की प्रतीक हैं सूनी दीवारें जो-चहक उठती हैं/ किसी के आने की आहट सुनकर। निर्मला माँ की चाहत’ को व्यक्त करती हैं-मेरी बेटी को मुझसे बेहतर जीवन’ मिले। यह हर माँ की चाहत है पर यह कैसे संभव होगा इस पर वह कुछ नहीं कहती हैं। इस रूप में कविताओं में भावुकता अधिक है।

    

      ये कविताएं औरत की ताकत को भी बताती हैं।उसकी दृष्टि,उसकी छठी इंद्रिय, उसके अतिरिक्त विवेक, उसके सूँघने, सुनने, स्वाद लेने, स्पर्श की अतिरिक्त शक्ति को बहुत सुन्दर तरीके से व्यंजित करती हैं। संग्रह की अनेक कविताएं प्रकृति से संवाद करती हुई हैं जिनमें स्त्री मन की अनेक बातें फूटती हैं। चाँद, तारे, सूरज, पृथ्वी, पेड़, घोंसले, नदी, समुद्र, चट्टान, धूप, बारिश उनकी कविताओं में प्रतीक बन कर आए हैं।

      इस संग्रह में शुरू से अंत तक स्त्री ही स्त्री बसी हुई है। 
जिनमें-एक जगह
बसी हैं गुदगुदाती मीठी यादें
दूसरी तरफवोहैं
जिनके छूते ही झट से
आँखें नम हो जाती हैं। 
उनका खजाना बहुत विशाल है। इस खजाने की छोटी कविताएं अधिक प्रभावशाली हैं। अतिरिक्त, कुछ छोटी-छोटी बातें, वहश्रृंखला की कविताएं तीर की तरह हैं जो सीधे मर्म पर चोट करती हैं। बहुत कम शब्दों में बहुत गहरी बातें कह देती हैं। ये कविताएं उनकी कवि प्रतिभा का प्रमाण हैं। कुछ कविताएं सीधी-सपाट भी हैं जो अंत तक आते-आते बिखर जाती हैं। लेकिन यह सभी के साथ होता है शायद ही कोई संग्रह ऐसा हो जिसकी सारी कविताएं अच्छी हों। उनका पहला ही संग्रह हैं और उसमें जितनी भी अच्छी कविताएं हैं वे भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं।

अच्छा लगता है (कविता संग्रह)

निर्मला तोदी 
प्रकाशक – नई किताब, दिल्ली 110032

मूल्य-एक सौ पिचानब्बे रुपए।
समीक्षक-
महेश पुनेठा 
मोबाईल – 09411707470

महेश चन्द्र पुनेठा के संग्रह ‘भय अतल में’ पर विजय गौड़ की समीक्षा

महेश चन्द्र पुनेठा का पहला कविता संग्रह ‘भय अतल में’ काफी चर्चित रहा था. इस संग्रह की कविताओं की ख़ास बात यह थी कि महेश ने अत्यंत सामान्य लगने वाली घटनाओं और व्यक्तित्वों को अपनी कविता का विषय बनाया। पहाड़ के साथ-साथ उनका एक शिक्षक और आम आदमी का वह संवेदनशील सा मन भी इन कविताओं में साफ़ तौर पर दिखायी पड़ता है, जो अन्यत्र प्रायः नहीं दिखायी पड़ता। इस संग्रह पर हमारे कवि-कहानीकार साथी विजय गौड़ ने पहली बार के लिए एक समीक्षा लिख भेजी है. तो आईए पड़ते हैं यह समीक्षा। 

मध दा ने कर दी है दिन की शुरूआत

विजय गौड़

गांव और शहर दो ऐसे भूगोल हैं जो मनुष्य निर्मित हैं। उनकी निर्मिति को मैदान, पहाड़ और समुद्र किनारों की भौगोलिक भिन्नता की तरह नहीं देखा जा सकता। भिन्नता की ये दूसरी स्थितियां प्रकृतिजनक हैं। हालांकि बहुधा देखते हैं कि गांव के जनसमाज के सवाल पर हो रही बातों को भी वैसे ही मान लिया जाता है जैसे किसी खास प्राकृतिक भूगोल पर केन्द्रित बातें। साहित्य में ऐसी सभी रचनाओं को आंचलिक मान लेने का चलन आम है। यही वजह है कि पलायन की कितनी ही कथाओं को ‘कथा में गांव’ या ‘कथा में पहाड़’ जैसे शीर्षकों के दायरे में समेटने की कोशिश जब तक होती रहती है। पलायन की समस्या सिर्फ भौगोलिक दूरियों के दायरे में विस्तार लेते समाज का मसला नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा, बदलते श्रम संबंध और अतिरिक्त पर नियंत्रण की होड़ में विकसित होती बाजार व्यवस्था के नतीजे के तौर पर है। यदि विकास की कोई प्रक्रिया वास्तविक जनतांत्रिक व्यवस्था के विस्तार में आकार लेते कायदे कानूनों के तय मानदण्ड के भीतर जारी रही होती तो शहर और गांव के भेद को न तो चिह्नित करना संभव होता और न ही उनके बीच कोई बहुत स्पष्ट सीमा रेखा जैसी खिंची हुई होती। गांव में शहर और शहर में गांव जैसे दृश्य देखने को न मिलते। यदि चरणबद्ध प्रक्रिया जैसा कुछ दिखता भी तो दोनों निर्मितियों के बीच की संज्ञा ‘कस्बा’ वहां हमेशा मौजूद रहता। गांव से शहर और शहर से गांव तक हवाई यात्रा क्षेत्र जैसा न बनता। आदिवासी और जंगल समाज की स्थितियां भी विकास की एक अवस्था में पहुंची होती। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।  


महेश की कविताऐं ऐसे ही एक भूगोल को पाया जा सकता है तथाकथित विकास के नाम पर जहां विनाश की कथाओं के दिल दहलाने वाले हादसे अक्सर खबरों का हिससा होते सुने जा सकते है। ऐसे भूगोल विशेष का समाज, उसके अन्तर्विरोध और प्राकृतिक भिन्नता में विस्तार लेती प्रकृति से सीधा साक्षात्कार महेश की कविताओं के ऐसे विषय हैं जिन्हें व्यापक दायरे में लिखी जा हिन्दी कविता के बीच अलग से पहचानना मुश्किल नहीं। ‘‘भय अतल में’’ उनकी कविताओं के ऐसी ही पुस्तक है जिसमें पहाड़ी पक्षी सिंटोले की आवाज के साथ, घसियारनों के दुख-दर्द को समेटते हुए दुल्हन की डोली की कथाऐं, लच्छू ड्राइवर की गमक में सभ्य होने की कितनी ही तस्वीरें हैं जिनसे महेश के भूगोल को पहचाना जा सकता है। पहाड़ी हिमालय क्षेत्र के जन समाज की संभावनाओं भरी तस्वीर और उन्हें ध्वस्त करने के चालक षडयंत्रों वाली सम्पूर्ण देश-समाज में विस्तार लेती स्थितियों का बयान करती ये कविताऐं मनुष्यता का पक्ष चुनते हुए अपने पाठक संवाद करती हुई हैं। मसलन,

भूल जाता हूं मैं
यह सारी बातें
अवतरित हो जाता है दुखहरन मास्टर भीतर तक

खड़ा होता हूं जब
पांच अलग-अलग कक्षाओं के
सत्तर-अस्सी बच्चों के सामने।

यहां भय है तो संभावनाओं के खो जाने का है। जिज्ञासाओं के दुबक जाने का है। निराशा और पस्ती के पसर जाने का है। और इसीलिए इस भय से मुक्ति को तलाशने के लिए अतल हो जा रहे तल को खोजने की कोशिश है। उसे ढूंढ निकालने की स्वाभाविक छटपटाहट है। अपने आस-पास की बहुत जानी-पहचानी स्थितियों से टकराना है। पेशे से अध्यापक महेश की चिन्ताओं में इसीलिए वह बुनियादी शिक्षा जो आदर्श नागरिक तैयार करने वाली पाठशालाओं में जारी है, निशाने में होती है। एक दृष्टि संपन्न शिक्षक के भी अप्रत्याशित व्यवहार को निर्धारित करने वाले शिक्षा तंत्र का मकड़ जाल यहां तार-तार होता हुआ है। प्राइमरी शिक्षा को आवश्यक मानने वाले तंत्र का झूठ यहां स्पष्ट दिखने लगता है जब कविता उस दृश्य-चित्र को अपने पाठक के सामने रखती है कि कक्षाओं के दर्जे का मायने क्या जब एक ही पाठ वह भी एक ही अंदाज में सबको पढ़ने को मजबूर होना पढ़े। यानी कुछ के लिए उस एक पाठ का लगातार दोहराया जाना निराशाजनक होकर सामने आये तो दूसरों के लिए उसका नया लेकिन अबूझपन कक्षा से छलांग लगा कर कूदने की दुस्साहसिक घटना तक पहुंचने को मजबूर करे। प्रकृति की सुुरम्यता का वर्णन भर नहीं बल्कि प्राकृतिक वातावरण की विशेष स्थितियों के बीच दैनिक जीवन की हलचलों को काव्य विशेष बनाती महेश की कविता में बहुत से चरित्र उभरते हैं, पाठक के भीतर जो हमेशा के लिए उसकी स्मृतियों का हिस्सा हो जाते हैं। सुमित्रानंदन पंत के बरक्स गोपीदास गायक जैसे पात्रों के जिक्र से भरी महेश की कविता का पक्ष एक छोटे से भू-भाग के वंचित, शोषित जन समाज का पक्ष है। स्वंय को हीन मान लेने वाली नैतिक शिक्षाओं वाले पाठों ने जातिवादी विभेद भरे जिस समाज को रचा है, महेश उसके हर छलावे को बहुत साफ देख पाते हैं और उसे साफ-साफ रख देने की हर संभव कोशिश करते हैं। कहीं-कहीं उनकी कविताओं को शिल्प के लिहाज से कच्चेपन के साथ देखा जा सकता है लेकिन दृष्टि की मौलिकता में वे अनूठी है।   

हो गई है दिन की शुरूआत
बाजार सजने लगी है
सामने मध दा ने भी खड़ा कर दिया है
अपना साग-पात का ठेला
तरतीब से सजाए
ताजी-ताजी सब्जियां
…….. 
……… 


बस के चलने से पहले तक
चख लेना चाहता हूं इसे जी भरकर
क्या पता अगली बार
दिखाई दे या नहीं फिर यहां
छोटी होती हुई इस दुनिया में

                                                             (कवि : महेश पुनेठा)

शराब ने उत्तराखण्ड के पहाड़ों पर इतना नशा बिखेरा है कि गैर-जिम्मेदार किस्म की मनोवृत्ति वाले पुरूष समाज से हमेशा प्रताडि़त और हर जगह खटती पहाड़ी स्त्री की तकलीफ को और ज्यादा बढ़ाया है। परिवार, बच्चों का भविष्य और अपने समाज की खुशहाली का प्रश्न पहाड़ी स्त्री की चिन्ताओं में हमेशा घर किये रहा है। सेवा-निवृत फौजी को आबंटित होने वाली शराब के नशे की व्याप्तियां सस्ती शराब के लिए गांव भर में ऐसी शराब भट्टियों के रूप में पैदा हुईं हैं कि भोजन के लिए पैदा होने वाले अनाज तक को नशा पैदा करने वाली खदबदा में स्वाहा कर दिया जाने से अनाज के अभाव में भूखे रह जाने को मजबूर हो जाते गांवों की त्रासदियां न सिर्फ उत्तराखण्ड बल्कि हिमालयी क्षेत्र के दूसरे भू-भागों में भी बहुत आम है। ऐसी विकट स्थितियों के विरोध में ‘‘नशा नहीं रोजगार दो’’ – शराबबंदी आंदोलन की आवाज उठाती पहाड़ी स्त्रियों में जीवन को बचा ले जाने की अकुलाहट जैसे कितने ही विषय हैं जो हिन्दी कविता में अछूते रहे और उन्हीं आवाजों को महेश की कविताओं सुना-पढ़ा जा सकता है।

हम फालतू नहीं हैं
न ही हैं हम ऐसी-वैसी औरतें
हम मजबूर औरते हैं जो
लाख कोशिशों के बावजूद
नहीं ला सकी हैं पटरी में
अपने शराबी पतियों को।

महेश की कविताऐं उस पहाड़ की कविताएँ हैं, जिसकी आबो-हवा बेशक स्थानीय जन के जीवन में दुश्वारियां भरने वाली हो लेकिन सैलानियों के मनोभावों को सरस बना देती है। जहां तरह-तरह की बे-जरूरत उत्पादों की जरूरत पैदा करवाता बहुराष्ट्रीय पूंजी का चमकदार बाजार कचरे से पूरे भू-भाग को पाट देने की स्थितियां पैदा कर रहा है। ऐसा कचरा जो भौगोलिक संरचना को ही बदल देने पर ही अमादा है और प्राकृतिक आपदाओं के संकटों से हर वक्त पहाड़ों को ही नहीं, जब-तब स्थानीय जीवन को भी कंपाता रहता है। ऐसे गैर-जरूरी, गैर-सामाजिक, गैर-प्राकृतिक वातावरण को निर्मित करते बाजार के विरुद्ध ही उन पहाड़ी ढलानों को अपनी कविता में पिरोते हुए महेश की कविताएँ प्रतिरोध की नागरिक चेतना होना चाहती हैं। साग-पात का ठेला लेकर जाता ‘मध दा’ और उसके जैसे दूसरे कितने ही स्थानीय उद्यमियों द्धारा सजने वाले बाजार के साथ पहाड़ के उस सौन्दर्य को पाठक से शेयर करती हैं जो स्थानीय जन के भीतर भी उत्साह का संचरण कर सकती है।

सामने मध-दा ने भी खड़ा कर लिया है
अपना साग-पात का ठेला
बाजार सजने लगा है।

महेश की कविताओं की विशेषता है कि वे अपने उपजने की पृष्ठभूमि का वर्णन करते हुए स्वंय भी तटस्थ होने का खेल रचती है और उन दर्शकीय चिन्ताओं का हिस्सा होना चाहती जिसके लिए सौन्दर्य के मान दण्ड चम-चमाती दुनिया के रूप में ही मौजूद रहते हैं,

बस के चलने से पहले तक
देख लेना चाहता हूं इसे जी भर कर
क्या पता अगली बार
दिखाई दे या नहीं फिर यहां
छोटी होती हुई इस दुनिया में।

तमाम तरह से जनता के पक्ष को प्रस्तुत करती इन कविताओं पर यदि कोई एक सवाल पूछा जा सकता है तो यही कि सांस्कृतिक होने की ‘गैर-सरकारी संस्थाओं वाली’ मानसिकता, यूं जिसके आधार पर ही सरकारी नीतियां भी फलीभूत होती हैं, जिसने सारे उत्तराखण्ड को और उत्तराखण्ड के बौद्धिक समाज को अपनी चपेट में लिया हुआ है, उससे महेश भी पूरी तरह मुक्त नहीं। यानी एक गैर-जनपदीय मानसिकता जो सिर्फ दया, करुणा के भावों के साथ सांस्कृतिक झूठ के प्रदर्शन में अपने असलियत के प्रविरोध की किसी भी आशंका को जड़ से मिटा देने वाली चालाकियों में संलग्न है। पोशाक, भोजन और गीत एवं नृत्यों के प्रदर्शनीय संरक्षण वाली स्थितियों में जो खुद को स्थानिकता के पक्ष में बनाये रखना चाहती है। देख सकते हैं तमाम पिछड़ी आर्थिक स्थितियों वाले वे भूगोल जहां संसाधनों की भरमार है और जिन पर कब्जे की लगातार कार्रवाइयां जारी है, ऐसे सांस्कृतिक परिदृश्यों को खड़ा करती वैश्विक पूंजी ने संभावनाशील स्थानिक ऊर्जा को ही अपनी चपेट में लिया है। महेश की कविताएँ भी ऐसी चालाकियों को पकड़ने में चूक जा रही हैं,

खाना चाहता हूं
फाफर की बनी रोटी
आलू-राजमा का साग
छौंक हो जिसमें
सेंकुवा-गंगरैण की।

यहां यह स्पष्ट करना जरूरी लग रहा है कि विशेष प्राकृतिक उत्पादों की इच्छाओं वाली सांस्कृतिक पहचान का तब तक कोई मायने नहीं जब तक इसे किन्हीं इतर कारणों से विशिष्ट मानने वाले मंसूबों को भी ध्वस्त न किया जाये। महेश की इन चिन्ताओं के मायने कि जैव-विधिता वाले प्राकृतिक उत्पाद बचे रहें, तभी ज्यादा सार्थक हो सकते हैं जब ऐसी ही चालाक भाषा में पांव पसारती वैश्विक पूंजी का भी पर्दाफाश होता हुआ हो, वरना दो भिन्न उद्देश्यों वाली लेकिन सिर्फ कुछ तात्कालिक गतिविधियों की समानता वाली स्थिति में स्पष्ट फर्क करना संभव नहीं।

 

 
सम्पर्क-         
फ्लैट संख्याः 91, 12वां तल, 

टाइप- III, केन्द्रीय सरकारी आवास परिसर, 
ग्राहम रोड़, टालिगंज, कोलकाता-700040 

मो.: 09474095290   

युवा कवि केशव तिवारी से महेश चन्द्र पुनेठा की बातचीत

लोक और जनपदीय कविता के प्रमुख हस्ताक्षर केशव तिवारी से अभी हाल ही के दिनों में एक बातचीत की युवा कवि महेश चन्द्र पुनेठा ने। इस बातचीत के प्रसंग में कई महत्वपूर्ण बातें उभर कर सामने आयीं हैं। इन्हें जानने के लिए आइये पढ़ते हैं यह बातचीत।

युवा कवि केशव तिवारी मेरे उन गिने-चुने मित्रों में से हैं जिनसे लगभग हर रोज ही दूरभाष से बात हो जाती है। यह सिलसिला लगभग पिछले छः-सात सालों से जारी है। अब तो यह स्थिति है कि जिस दिन उनका फोन नहीं आता है, मन आशंकाग्रस्त होने लगता है। इस दौरान मुझे उनकी कविता की रचना-प्रक्रिया को जानने-समझने का मौका तो मिला ही साथ ही उनके कवि और कवि मन को बारीकी से पढ़ने का अवसर भी मिला। मैंने उनको दूसरों की छोटी-छोटी खुशियों में खुश होते हुए और दुःखों में गहरे अवसाद में जाते हुए तथा एक अच्छी कविता पढ़ने पर भावविभोर और खराब कविता पर खिन्न होते हुए देखा है। यह कहते हुए मुझे कोई संकोच नहीं है कि वे कविता लिखते ही नहीं जीते भी हैं। मुझे उनका जीवन के हर पक्ष और अपने से जुड़े लोगों के बारे में स्पष्ट और बेवाक राय रखना बहुत पसंद है।

केशव तिवारी युवा कवियों में मेरे सबसे अधिक प्रिय कवि हैं। उनके यहाँ मुझे वह सब कुछ मिलता है जो मेरे दृष्टि से एक अच्छी कविता के लिए जरूरी है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए पता चलता है कि कविता की तमाम शर्तों को पूरा करते हुए भी कैसे कविता सहज संप्रेषणीय हो सकती है। कैसे नारा हुए बिना कविता विचार की वाहक बन सकती है । कैसे स्थानीय हो कर भी कविता वैश्विक अपील करती है। लोकधर्मी होते हुए भी कविता को कैसे भावुकता से बचाया जा सकता है और कैसे अपने जन-जनपद और प्रकृति से जुड़े रहकर पूरे धरती से प्यार किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तमाम भय और प्रलोभनों के बीच खुद को एक प्रतिबद्ध कवि के रूप में कैसे खड़ा रखा जा सकता है। यह कहते हुए मुझे कोई झिझक नहीं है कि कविता के नाम पर अबूझ कविता लिखने वाले हमारे समय के ’कठिन कविता के प्रेतों’ और लोक के नाम पर कोरी-लिजलिजी भावुकता की कविता लिखने वालों को उनसे सीखना चाहिए। केशव तिवारी में मुझे त्रिलोचन जैसी सरलता केदार बाबू  जैसी कलात्मकता और नागार्जुन जैसी प्रखरता दिखाई देती है। उनकी कविता का सहज,भावपूर्ण एवं विविध आयामी स्वरूप मध्यवर्गीय रचना भूमि का अतिक्रमण करता है। वे अपनी देशज जमीन पर खड़े मनुष्यता की खोज में संलग्न रहते हैं। उनकी कविताएं यथार्थ का चित्रण ही  नहीं करती बल्कि उसको बदलने के लिए रास्ता भी सुझाती हैं। लोकधर्मी कविता  की अपील कितनी व्यापक होती है  इनकी कविताओं में देखा जा सकता है।

  हाशिए में पड़े लोगों के दुःख-दर्दों के प्रति केशव तिवारी के भीतर जो बेचैनी और तड़फ दिखाई देती है वह आज विरल है। बद-से-बदतर हालातों में भी काठ-पाथर न होना ही उनकी ताकत है। एक इंसान के रूप में उनकी सबसे बड़ी खासियत है कि जिसके साथ खड़े हुए फिर उसके लिए जमाने से लड़े इसी के चलते वे बहुत सारे लोगों के आँखों में खटकते और सीने में गड़ते रहे हैं। पर उनको इसकी परवाह नहीं। वे ’दिल्ली’ के दर्प को कभी नहीं कबूलते है। वे प्रेम करना जानते हैं तो घृणा करना भी। वे उन तमाम ताकतों से घृणा करते हैं जो मानवता के खिलाफ हैं। वे इस धरती पर सिर्फ प्रेम करने के लिए आए हैं। उनकी प्रेम की उदात्तता ही कही जाएगी कि प्रेम करने के लिए आने के बावजूद भी घृणा करने को मजबूर हैं उन लोगों से जो प्रेम के खिलाफ षड्यंत्र करते हैं। ऐसा वही कर सकता है जो मानवता से सच्चा प्रेम करता हो। केशव की कविताओं में आम आदमी का दुःख रह-रहकर फूट पड़ता हैं। वे आम आदमी से इतने एकात्म हैं कि उनकी फटी हथेलियों और सख्त चेहरों से झरते हुए नमक तक को भी देख लेते हैं। खुरदुरी हथेलियों में उन्हें जीवन का सच्चा सौंदर्य दिखाई देता है। वे खुरदुरी हथेलियों वालों को भी उसके सौंदर्य का अहसास कराते हैं।

   उनके लिए ’नामालूम और छोटे’ की अहमियत किसी ज्ञात और बड़े से कम नहीं। इनके हिस्से में किसी तरह की कोई कटौती उन्हें स्वीकार नहीं है। ’अपने कोने के एक हिस्से में बहुत उजला और बाकी के हिस्सों में बहुत धुँधला’ उन्हें मान्य नहीं। ’कुछ हो ना हो’ सभी के लिए ’एक घर तो होना ही चाहिए’। उन्हें एक अफगानी, एक कश्मीरी,एक पहाड़ी या राजस्थानी का दुःख भी उतना ही सालता है जितना किसी बाँदावासी का। वह इस धरती की सुंदरता अपने समय को ललकारते लोगों में देखते हैं। उनका अपनी जमीन से ’आशिक और मासूक का रिश्ता’ है। इसी के चलते तो उनके लिए ’आसान नहीं विदा कहना’।  इससे पता चलता है कि वे अपनी जमीन से कितना प्रेम करते हैं। लोगों की खुशी में ही कवि की खुशी और उनकी बेचैनी में कवि की बेचैनी है।

  यह कवि ’दलिद्र ’ को भी जानता है और दलिद्र के कारणों को भी। और यह भी जानता है कि जिस दिन श्रम करने वाले लोग भी उन कारणों को जान जाएंगे उस दिन उलके ’जीने की सूरत भी बदल जाएगी’। वे भली-भाँति जानते हैं कि ’ दुःखों की नदी स्मृतियों की नाव के सहारे पार ’ नहीं की जा सकती है। एक कवि का यह जानना उसकी वैज्ञानिक दृष्टि का द्योतक है। यही है जो उसे कोरी भावुकता से बचा ले जाता है। 

  कवि ऐसी कविता लिखना चाहता है जो कठिन दिनों में भरोसेमंद मित्र की तरह साथ बनी रहे। वे उस आदमी की तलाश करते हैं जिससे मिल धीरज धरे मन, जो रोशनी का अहसास लिए हो  जिस पर भरोसा किया जा सके तथा खुद जिसका विश्वास बना जाय। उनकी कविता में यह बात हमें मिलती भी है। उनकी कविता हारे-गाढ़े हमारे साथ बनी रहती है। वे कोलाहल भरी भीड़ में खुद को भी खोजते हैं- अपनी खनकदार आवाज और मन-पसंद रंग को तथा सूखती संवेदना में खोई हुई सौंदर्य दृष्टि को। उनकी दृष्टि में यह खोज किसी संघर्ष से कम नहीं है। यह वास्तविकता भी है।

  केशव अतीत के अजायबघर को वर्तमान की छत पर खड़े होकर देखने वाले कवि हैं। अतीत के मोह में खो जाने वाले नहीं। उन पर ’नास्टेल्जिक’ होने का आरोप मुझे हास्यास्पद प्रतीत होता है। नई सुबह के आगमन के  प्रति वे आश्वस्त हैं। उनको गहरा अहसास है कि -आज नहीं तो कल-कटेगी ही दुःख भरी रातें, हटाए ही जाएंगे पहाड़।

   हमारे समय में बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव को लेकर केशव परेशान रहते हैं। जो उनकी कविताओं में अनेक स्थानों पर व्यक्त हुआ है। बाजार का दबाब वे अपने गर्दन और जेब दोनों में महसूस करते हैं।  प्रेम का वस्तु में तब्दील होते जाना उनको बहुत कचोटता है। इस बाजारवादी समय में प्रेम दिल के नहीं जेब के हवाले हो गया है। जो खरीदा-बेचा जा रहा है। केशव प्रेम को व्यापार बनाए जाने के विरोध में हैं। वे बाजार का नहीं बाजारवाद का विरोध करते हैं। वे कहते हैं ’तब भी था बाजार’ पर ऐसा नहीं,जो मनुष्य को लूटने के लिए हो। जिसमें बाजार में खड़ा हर आदमी हानि-लाभ का हिसाब लगाने में ही जुटा रहता हो । मनुष्य अपनी जरूरत के लिए बाजार में जाता था न कि बाजार जरूरत पैदा कर आदमी के घर में घुसता था। दूसरे शब्दों में, बाजार आदमी के लिए था न कि आदमी बाजार के लिए। जरूरतें कृत्रिम नहीं थी। वस्तु बेची जाती थी मूल्य नहीं। चकाचौंध पैदा कर ग्राहक को भरमाया नहीं जाता था। उसकी आँखों में झूठे सपने नहीं बोये जाते थे। केशव बाजार के इस चरित्र को पूरी काव्यात्मकता के साथ अपनी कविता में उद्घाटित करते हैं। उनके कहन का अपना निराला अंदाज है । जैसे उन्हें यदि बाजारवाद के खिलाफ कुछ कहना है तो भारी-भरकम शब्दों की बमबारी नहीं करते बल्कि ’गहरू गड़रिया’ जैसे पात्रों को उसके बरक्स खड़ा कर देते हैं। अतंर्विरोध खुद-ब-खुद सामने आ जाते हैं।

  बाजारवादी समय में लोक के व्यवहार में आ रहे बदलाव पर भी उनकी पैनी नजर रहती है। लोक को झूठ-मूठ का महिमामंडित करना उन्हें नहीं भाता है। जहाँ भी लोक के भीतर कोई छल-छद्म-धूर्ततता या ईष्र्या-घृणा-बैर या फिर अंधविश्वास-रूढि़वादिता  जैसी कमजोरियाँ नजर आती है उन्हें भी रेखांकित करने से नहीं चूकते हैं। ये सब रेखांकित करने के पीछे उनका उद्देश्य लोक को उसकी कमजोरी का अहसास करा उससे बाहर निकलने के लिए प्रेरित करना रहता है। ताकि वह अपने मुक्ति-संघर्ष को मजबूती से आगे बढ़ा सके। यह लोक को देखने की उनकी द्वंद्वात्मक दृष्टि है।

  केशव की कविताओं में अपने नीड़ से बहुत दूर चले आने की पीड़ा भी व्यक्त हुई है। इस बात की कसक भी है कि जिस नृशंस दुनिया के खिलाफ कभी खड़े हुए थे वह दुनिया आज भी उतनी ही नृशंस है। बहुत अधिक बदलाव नहीं आया उसमें।

कवि केशव तिवारी की विशिष्टता है कि वे अपनी कायरता तक को नहीं छुपाना चाहते हैं। उनके भीतर सच सुनने का साहस  है। कवि को कैरियर की खोह में फँसकर तरह-तरह के समझौते करने और घिसट-घिसट कर निभाने का अफसोस है। कवि अपने पुरखों, अपनी जमीन, अपने जन  के प्रति कृतज्ञता से भरा है। इसलिए कहा जा सकता है इस कवि की काव्ययात्रा बहुत लंबी और कालजयी होगी।

वैसे तो केशव जी से जीवन-समाज और साहित्य पर रोज कुछ न कुछ बातें होती रहती है पर यहाँ ’जनपथ ’ के बहाने कुछ विधिवत और विस्तार से बातचीत हुई। प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत –

प्र01. केशव जी, सर्वप्रथम अपने जीवन और लेखन के बारे में कुछ बताइये आपके लेखन की शुरूआत किस विधा से हुई?

उ0.  महेश जी मेरा जन्म प्रतापगढ (अवध) के एक गांव जोखू के पुरवा मातुल में हुआ। और उसके निकट ही 15 किमी0 पर मेरे पिता का गांव है मेरा बचपन दोनो ही जगहो पर बीता मेरा अपनी नानी से अदभुत  लगाव था। वो एक ऐसी महिला थी कोई गरीब गुरबा सीधा उनके पास मदद को आ सकता था। और वो उसकी हर संभव मदद करती। मै ज्यादातर घर में कार्यरत मजदूरो के साथ ही घूमता उनके कंधे पर सवार खेत खलिहान जाता और मेढ पर बैठ उनको काम करते देखता। चैता, कजरी, विरहा, फगुवा, आल्हा, का संस्कार मुझे इन्ही से मिला। लिखना पढना बहुत बार हिंदी की शौकिया गजल से हुआ। मै हिंदी का आदमी तो था नही वाणिज्य से स्नातक और व्यसायिक प्रबंधन की पढाई की थी। प्रशासनिक सेवाओं में इम्तिहान मे हिंदी साहित्य लिया फिर इधर ही आ गया शुरूआती दौर में बांदा के श्री कृष्ण मुरारी पहारिया जिनसे मेरी कुछ मुद्दो को लेकर गहरी असहमति थी। पर वे एक बहुत समर्थ माक्र्सवादी आलोचक और गीतकार रहे पहल पत्रिका में भी उनके लेख मैने पढे थे। उन्होने मुझे वास्तव मे मांजा बाद में केदार नाथ अग्रवाल के संपर्क में आया। निरंतर उनके संपर्क में 20 वर्ष रहा । डा0 जीवन सिंह का मेरे ऊपर गहरा असर पड़ा उनकी पुस्तक ’कविता और कवि कर्म’ मेरी सबसे प्रिय किताबों में एक है। बचपन में अवधी के कवि जुमई खां आजाद उनकी प्रसिद्ध कविता ’कथरी तो गुहाई गुन ऊ जाने जे करै गुजारा कथरी मां’ अभी तक याद है। अवधी के ही अद्या प्रसाद उन्मत्त और बुंदेली के महाकवि ईश्वरी का मुझ पर गहरा प्रभाव रहा। बाद में डा0 राम विलास शर्मा, डा0 शिव कुमार मिश्र, डा0 विष्णु चन्द्र शर्मा, विजेन्द्र और सुधीर विद्यार्थी जी के लेखन कर्म से बहुत प्रभावित हुआ। त्रिलोचन, केदार, नागार्जुन, मुक्तिबोध, मानबहादुर सिंह,विजेन्द्र, कुमार विकल, ज्ञानेन्द्रपति, अरूण कमल, राजेश जोशी की कविता से भी गहरा जुडा़व रहा है। अजय तिवारी की किताब ’समकालीन कविता और कुलीनतावाद’ ने भी मुझे चीजों को समझने की एक दृष्टि दी। विदेशी कवियों में सेन्डोर पिटोफी (हंगरी) मेरा दागिस्तान (रसूलहमजातो) मारीना स्वेतायोवा और चेयनेसिविकसी का ’व्हाट इस टू बी डन’, क्रिस्टोफर काडवेल की ’विभ्रम और यर्थाथ’ और मारिस कार्नफोर्थ की किताब जो मुझे केदार नाथ अग्रवाल से मिली ने मेरे कवि को एक मजबूत आधार दिया। हाल में विजय कुमार की किताब ’खिड़की के पास कवि’ में यहूदा यामीखाई, महमूद दरवेस, यानिद रिदकोष की कविताओं से भी गंभीरता से जुड़ने का अवसर मिला। शैली मेरा सर्वकालिक प्रिय विदेशी कवि है।

प्र02- युवा कविता में आपको लोकधर्मी काव्य परंपरा का एक सशक्त वाहक माना जाता है। आपकी कविताओें में लोक ही टकहराहटे पूरे टंकार के साथ आती है। उसका गहरा प्रतिरोध दिखायी देता है पर इधर लोक को लेकर तमाम भ्रम फैलाये जा रहे हैं। लोकधर्मी कविता को जीवन के  संघर्षो से भागे लोगो की शरण स्थली कहा जा रहा है। कुछ कवि आलोचक लोक को बडे संकुचित अर्थ मरण में लेते है। उनके लिये लोक का मतलब दूरस्थ गांवो में रहने वालो के मेले खेले नाच गान तीज त्योहार वनस्पति बोली बानी मात्र रह गया है। इन सब को रचना में ले आना उन्हे लोकधर्मी होना है। लोक के नाम पर वे उसकी कमजोरियां अंधविश्वासों को भी महामंडित करने लग जाते है। इस प्रवृत्ति पर आपका क्या कहना है?

उ0-  देखिये इस पर काफी बात हो चुकी है । मैं भी अपना मत कई बार रख चुका हूं। प्रथम तो इस शरणस्थली शब्द से ही मैं कोई सहमति नही रखता। मेरा कहना है जब हम किसानी संस्कार से आयेगे तो वहां का मेला ठेला भी आयेगा, लोक गीत भी आयेंगे, उल्लास और शोक सब आयेगे। बिना पूरे जीवन की कविता कैसे होगी। और एक सच्चा लोकधर्मी कवि लोक में फैली तमाम गलत बातों का पहला विरोधी होगा। ये आम आदमी का जीवन संघर्ष, उसके दुख, उसकी पीड़ा, ये सब लोक के साथ नत्थी है। इसके बिना लोक की कविता पर बात नहीं हो सकती। जो लोक के 1857 से 1942 तक के संघर्ष के इतिहास से आंख मूंद लेते हैं, वही ये सब कहते है। लोक संघर्ष की जमीन है। शरणस्थली नहीं।

प्र03-  क्या आपको नहीं लगता है कि आज की आलोचना कुछ शहरों और महानगरों के मध्य वर्गीय मानसिकता वाले कवि लेखकों तक केन्द्रित हो कर रह गयी है। लोक और जनपदों की घोर उपेक्षा हो रही है। जब कि साहित्य की पूरी परंपरा में केन्द्र में हमेशा लोक ही रहा है। उसके पीछे आप क्या कारण मानते है?

उ0 – यह सब एक सधा और खास मानसिकता के तहत किया जा रहा प्रयास है। इसका एक ही जवाब है जब तक लोक अपने भीतर से आलोचक नहीं पैदा करेगा, ये सब होता रहेगा। इन आलोचकों के सहारे लोक की सही व्याख्या नहीं हो सकती है। अच्छा ये है कि नये आलोचकों की एक पीढ़ी आ चुकी है और यह काम आगे बढ़ा है।

प्र04-  ऐसी स्थिति में आप को कविता के लोकधर्मी प्रतिमानों को स्थापित करने की आवश्यकता नहीं महसूस होती है।

उ0-  देखिये ये काम तो आलोचना को करना है प्रतिमान तो आलोचक ही तय करेगा फिर बात वहीं उसकी नियत और ईमानदारी पर आकर टिक गयी। देखने में ये भी आया है कि इन्ही प्रतिमानों को गढने में वरिष्ठ आलोचकों ने क्या खेल खेला है।

प्र05-  हिंदी साहित्य में आज वरिष्ठ पीढ़ी के बहुत कम रचनाकार ऐसे होंगे जो मौजूदा आलोचना की स्थिति से संतुष्ट हों, जिससे भी पूछो वह आलोचना कर्म पर पक्षपात का आरोप लगाता है। आप इस स्थिति के लिये आलोचकों को जिम्मेदार मानते है। या यह रचनाकारों का स्वयं को जरूरत से ज्यादा आंकना है। या फिर वास्तव में हिंदी आलोचना गुटबंदी, चकबंदी, हदबंदी और व्यक्तिगत आग्रहो, पूर्वाग्रहों से ग्रस्त है?
 
उ0-  मेरा मानना है कि हिंदी आलोचना ने केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन के बाद एक बंदरकूद लगाते हुये बीच के कुछ महत्वपूर्ण रचनाकारों को छूते सीधे 80 की कविता में आकर दम साधा।  जिससे बहुत से महत्वपूर्ण कवि बिना पर्याप्त चर्चा के ही रह गये आज का रचनाकार तुरंत प्रसिद्धि चाहता है। उपेक्षा जो पहली शर्त है उसको एक क्षण भी झेलने को बर्दाश्त नहीं। वह केवल श्रीमुखों से अपना नाम सुनकर संतुष्ट है। और वो भी नाम गिनाकर जिम्मेदारी निभा रहे है। दोनो प्रसन्न है रचनाकार का आलोचना का मुखापेक्षी होना ही सब गुण गोबर किये हुये है। और एक खराब कविता एक खराब आलोचना को ही जन्म देगी। धैर्य रखिये सब छट रहा है और छट जायेगा। ऐसे लोग पहचान भी लिये गये है।

प्र0 6-  कुछ रचनाकार ’अनुभूतियों के प्रति ईमानदारी’ के नाम पर साहित्य में मध्यवर्गीय व्यक्ति मानस के अकेलेपन, छटपटाहट, ऊब, उदासी, विक्षोभ तथा अनास्था को ही आर्कषक शैली में प्रस्तुत करते है। यह बात सही है लेकिन ऐसा करने वाले रचनाकारों का कहना रहता है कि जब आज के दौर का सामाजिक यर्थाथ यही है समाज मे चारो ओर यही व्याप्त है तो फिर इससे परहेज क्यों। साहित्यकार तो वही दिखाता है जो समाज मे घटित हो रहा है। इसमें गलत ही क्या है फिर सच्चे आधुनिक बोध और श्रेष्ठ कला के नाम पर बडे-बडे आलोचक भी ऐसी कृतियों और रचनाकरों को श्रेष्ठ घोषित कर रहे है इस पर आपकी टिप्पणी क्या है?

उ0 – संवेदना हर तरफ से आयेगी, लोक से भी मध्य वर्ग से भी। बस प्रश्न यह है कुछ संवेदना का जनता के एक बडे़ हिस्से से क्या सरोकार है। आप उदासी ऊब को गाते बजाते है या उसके प्रतिरोध में खडे होते है ये आपका निर्णय है। क्या जिंदगी के तजुर्बे असली है या ओढे हुये अगर कविता में प्रतिरोध का स्वर नहीं है तो आप जो चाहे लिखे स्वतन्त्र हैं। उसे कविता माने या और कुछ, जन के किसी काम की नहीं।

प्र07-    केशव जी क्या आपको नही लगता कि साहित्य के नाम पर मध्य वर्गीय संत्रास, कुंठा, निराशा, एकाकीपन और ऊब को प्रस्तुत करने के लिये रचनाकारों की अपेक्षा महानगरीय और सेठाश्रयी पत्र पत्रिकाओं के संपादक तथा आधुनिकतावादी आलोचक अधिक जिम्मेदार है। जो ऐसी रचनाओं को प्रकाशित एवं प्रोत्साहित करते है।

उ0-  महेश जी आपने जो कहा वह भी जीवन सच है। पर बात यह है कि आप उसमें ही फंसकर अगर रस लेने लगते है तो फिर बात बिगडती है उसके लिये आप मुक्तबोधीय रास्ता नहीं अपनाते तब प्रश्न खडा होगा और सेठाश्रयी पत्रिकाओं और उसके हजार पन्द्रह सौ शब्दों वाले आलोचकों का एक अच्छा खासा वर्ग है। उनकी महिमा अनंत है।

प्र0 8-  प्रगतिशील आलोचना पर आरोप है कि श्रेष्ठ सृजनात्मक प्रतिभा तथा महत्तर कृंतित्व के वावजूद नागार्जुन ,त्रिलोचन, तथा केदार और मुक्तिबोध अपनी पूरी अहमियत के साथ नहीं पहचाने गये जब कि उनकी तुलना मे कमजोर और हल्की प्रतिभा के प्रतिगामी दृष्टि वाले रचनाकार एक संगठित आलोचनात्मक प्रयास के तहत श्रेष्ठ और प्रथम श्रेणी के सृजकों के रूप में प्रकाशित विज्ञापित प्रतिष्ठित हुये और आज भी उसी प्रचार के तहत कमोवेश अपनी पताका फहराते हुये देखे जा सकते है उसके पीछे आप क्या कारण  देखते हैं?

उ0 – इस तरह की आलोचना की पोल खुल चुकी है। केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन लौट-लौट इनके सर पर सवार हो जाते हैं। ये कवि जन स्वीकृति पा चुके है। इन्हे ये क्या डिगा पायेंगे। देखिये इसको बांदा या पिथौरागढ से नही समझा जा सकता है साहित्य के केन्द्रो में कितने वीभत्स ढंग से ये हो रहा है। आप अंदाजा नहीं लगा सकते । नकली कविता चेलों की पाठ्यक्रमों तक पहुंचायी जा रही  है। पुरस्कार दिलाया जा रहा है। मै कहता हूं जनपदों से आ रही रचनाशीलता को इनको ललकारना होगा। इन मठों को जबानी नहीं चढ के ढहाना होगा। तब ही कुछ हो पायेगा वरना ये आपको भी जूठन दिखाकर शांत कर देंगे। इन केन्द्रों में इनकी परिधि के बाहर पनप रही सच्ची कविता को भी इन्होंने दरकिनार कर रखा है।

प्र. 9- कुछ रचनाकारो का मानना है कि साहित्य सृजन जैसे एकांत कर्म के लिये किसी मंच किसी समूह किसी वैचारिक प्रतिबद्धता की कोई जरूरत नहीं है इससे रचनाकार की मौलिकता प्रभावित होती है?

उ0  – गलत अवधारणा असली कविता जीवन रण से निकल कर ही आती है और आयेगी विचार उसकी पृष्ठभूमि में रहेगा ही इस दुनिया के बदलने का कोई तो वैचारिक आधार होगा।

प्र.10- हमारे समय के महत्वपूर्ण लोकोन्मुखी कवि विजेन्द्र अक्सर कहा करते हैं कि आचरण और सृजन में द्वैत्य लेखक और सृजन दोनों को अविश्वसनीय और कमजोर बनाता है जब कि कुछ लोगों का कहना है कि आचरण और लेखन दो अलग अलग चीजें हैं। लेखक का आचरण नहीं उसका लेखन देखना चाहिये। वे ऐसे बहुत से नाम गिनाते हैं जिनका आचरण खराब हो जाने के बावजूद उनका लेखन उम्दा दर्जे का रहा। आप आचरण और साहित्य के बीच क्या कोई सीधा सम्बंध देखते है?

उ0  – देखिये मेरा मानना है कि क्रियेटिव राइटिंग और इंटेलीजेंस से की गयी राइटिंग का फर्क है। आचरणहीन इंटेलीजेंस से लिख सकता है पर क्रियेट नहीं कर सकता। मै विजेन्द्र जी से शत प्रतिशत सहमत हूं। छोटा मनुष्य कभी भी बड़ा कार्य नही कर सकता है। हां वह केवल उसका भ्रम फैला सकता है। जन में आज भी एक मापदंड है वो पहले आपको एक अच्छा मनुष्य मानेगा फिर वह आपका झंडा-डंडा साहित्य देखेगा। लोग गलत व्याख्या कर सार्टकट ढूंढ ही लेते है।

प्र011- एक रचनाकार को परंपरा के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखना चाहिये ? एक रचनाकार के लिये अपनी परंपरा या क्लैसिक्स की जानकारी क्यों आवश्यक है? क्या आपको नहीं लगता कि परंपरा या क्लैसिक्स हमारी मौलिकता या नवीनता को प्रभावित करते हैं?

उ0-  परंपरा कोई जड़ वस्तु नहीं है। किसी देश का क्लासिक उसकी संभ्यता के विकास का इतिहास होता है। जिसको समझे बगैर उसकी आत्मा को नहीं पहचाना जा सकता है। न ही महत्वपूर्ण कविता हो सकती है। अपनी जमीन और परंपरा से कट कर कोई बताये कोई महान रचना हुयी हो। परंपरा की अपनी जकड़नें भी है उसको त्यागना होगा। परंपरा को लेकर भावुक नहीं द्वंदात्मक होना पडेगा।

प्र012-    आज कवितायें खूब लिखी जा रही है, हर दूसरा लिखने वाला कवि है लेकिन अधिकांश कविताएं भावगत, शिल्पगत, एकरसता की शिकार हैं। यदि कविता से उसके रचनाकार का नाम हटा दिया जाये तो यह बता पाना मुश्किल होगा कि ये कवितायें एक ही व्यक्ति के द्वारा लिखी गयी है या अलग अलग के द्वारा। इसके पीछे क्या कारण देखते है?

उ0-  इसके पीछे मूल कारण जीवनानुभवों की कमी है। इस वजह से कविता ’काकवाद’ का शिकार हुयी है। यह सब बडे-बडे कवि भी कर रहे है। 80 के बाद लोक के नाम पर तमाम कमजोर कवितायें भी खूब लिखी गयी, उन्हे खूब प्रचारित भी किया गया पर इसके वरक्स केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन की परंपरा भी लगातार सक्रिय रही। वह आवाज भले ही इस घटाटोप में कुछ दब गयी हो पर रूकी नहीं। यही हमारी सबसे बडी ताकत है।

प्र013-  लोगों का मानना है कि छंदहीनता के चलते कविता खराब गद्य लगने लगी है। आज गद्य और कविता में कोई अंतर ही नहीं रह गया है। छंद के बंधनों से मुक्त होने के बाद से कविता गद्य के एक दम नजदीक चली गयी है। कभी-कभी कविता के वाह्य स्वरूप को देखकर कहना कठिन हो जाता है कि यह कविता है या कोई गद्यांश उसमें गद्यात्यमकता और सपाटबयानी का आग्रह बढ़ा है। सम्प्रेक्षण क्षमता का ह्रास हुआ है। फलस्वरूप उसकी पाठक संख्या घटी है यह कहा जाता है कि छंद के बंधन से मुक्त होना इसका प्रमुख कारण है। क्या आपको भी लगता है कि आज कविता को छंद की ओर लौटना चाहिये?

उ0-  मै कविता की लय को ही सबसे बडी ताकत मानता हूं। छंद के संस्कार ही लय को बचायंेगे। छंद न जानना मै अपनी कमी के रूप में स्वीकारता हूं।इसके प्रति मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। रस का भी नकार नयी कविता में हुआ है। रस अगर उस तरह नहीं आ सकता तो उसकी पूर्ति भाव पक्ष से करना पडे़गा।

प्र014- हिंदी के अनेक कवि और पाठक अपनी बातचीत के दौरान बताते हैं कि अक्सर हिंदी कविताओं को पढते हुये उनका मन उदास हो आता है। एक हीनता बोध उन्हें घेर लेता है। ऐसे क्षण कभी-कभी ही आते हैं जबकि कविताओं को पढ़ते हुये गहरा पाठकीय संतोष होता है। क्या कभी आपके साथ भी ऐसा होता है या हुआ?

उ0 – दूसरो की कमी से मैं क्यों हीनताबोध में आऊँ, मैं ऐसों को पढ़ता ही नहीं। जो मूल्यवान है उसे सिरहाने रखता हूं। नये, पुराने, क्लैसिक्स, देशी, विदेशी का कोई भेद कविता में नही रखता।

प्र015- आज एक ओर कविता इतनी सरल-सपाट हो गयी उसे किस कोण से कविता कहा जाये समझ में नही आता दूसरी ओर सांकेतिक व्यंजना और अर्थ की ध्वनियात्मकता के नाम पर कविता इतनी दुर्बोध और अगम हो गयी है कि सामान्य पाठक तो छोडिये दूसरे कवि आलोचक और प्रबुद्ध पाठकों की भी समझ में नही आ रही है। इस स्थिति के लिये कवि जिम्मेदार नही है क्या? आपके विचार से अच्छी कविता कैसी होनी चाहिये ?

उ0 – अच्छा प्रश्न है देखिये कविता तो कविताई के शर्त पर ही होगी लेकिन कवि से हर वक्त यह मांग कि वह इतना सरल लिखे की पाठक को समझ आये शायद उसके लिये ज्यादती होगी। पाठक जो कविता को  सुनना-समझना चाहता है उसे उसके लिये अपने को भी कुछ तैयार करना पडे़गा। जैसा कि ज्ञान की दूसरी श्रेणियों के लिये करता है। हां, जानबूझकर जटिल ज्ञान झाड़ने वालों को यह पता होना चाहिये कि उन्हें उनके खास लोग भी नहीं पढ़ते हैं। अगर पाठक को यह पता लग जाये कि जटिलता के पीछे खोजने पर कुछ मिलेगा तो वह यह भी करता है। इसका उदाहरण मुक्तिबोध की कविता है।

प्र016- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते है कविता में अर्थग्रहण नहीं बिम्ब ग्रहण  होता है।इस दृष्टि से आज की कविता के बारे में क्या कहेंगे जिसमें कि बिम्ब लगभग गायब होते जा रहे है?

उ0 –  शुक्ल जी से सहमत हूं जो कवि कविता में बड़ा बिम्ब नहीं रच सकता वह बडी कविता नहीं कर सकता और हां चमत्कार के लिये बिम्बों के पक्ष में मै नही हूं।

प्र017- आज की अधिकांश रचनायें जनता के दुख-दर्द जीवन के उतार चढाव, शोषण उत्पीड़न का तो गहराई से चित्रण कर रही है किंतु उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं बता रही है । क्या आपको नहीं लगता कि एक जनवादी रचनाकार के लिये केवल जनता के जीवन और संघर्षो का चित्रण करना ही पर्याप्त है या जीवन संघर्ष से मुक्ति का रास्ता भी सुझाना जरूरी है?

उ0 – देखिये महेश जी कविता की एक अपनी सीमा है और जो प्रश्न ही खड़ा कर सकती है। रास्ता तो पाठक को ही बनाना होगा अपने विवेक से, हां अगर कवि के दिमाग में मुक्ति का कोई रास्ता है तो वह किसी खंड काव्य या महाकाव्य में ही संभव है। और कविता से वही बदलेगा जो बदल सकता है और जो बदलना चाहता है। पत्थर तो नहीं ही बदल सकता है। एक कविता आपको थोडा और आदमी और अपने आसपास के प्रति ज्यादा संवेदनशील बनाती है। इसके बाद फिर राजनीति पक्षधरता ही आपके चरित्र का निर्धारण करती है कि आपकी रूचि जनता की राजनीति में है या पार्टियों की राजनीति में। मुझे लगता है कि एक कवि की वही राजनीति होनी चाहिये जो जनता की राजनीति।

प्र018- पिछले दिनों ’तद्भव’ में प्रकाशित दो बूढ़े साहित्यकारों नामवर सिंह और राजेन्द्र यादव ने आपसी बातचीत में स्वीकारा कि अब भविष्य का सपना या विकल्प जैसी कोई चीज नहीं रह गयी है। दूसरे शब्दों में कहे तो दुनिया विकल्पहीन हो गयी है। क्या आपको भी ऐसा महसूस होता है?

उ0  -इन दोनो महानुभावों  जिनका आपने नाम लिया है ये अपना काम कर चुके है। मै यह भी जानता हूं कि ये इसे स्वीकारेंगे भी नहीं। चर्चा में रहने के लिये कुछ न कुछ  कहते रहेंगे। ये सब चलता है। गंभीरता से लेने वाली बात नहीं नये लोग जो इनके नाम से आतंकित हैं जरूर भ्रमित होते है।

प्र. 19- हिंदी कविता के परिदृश्य को आप किस रूप में देखते है? इससे अपनी पूर्ववर्ती कविता से कथ्य और शिल्प के स्तर पर किसी तरह के परिवर्तन दृष्टिगोचर होते है?

उ0 – समकालीन कविता ने विकास किया अपनी नई जमीन तोड़ी कथ्य और शिल्प के स्तर पर साहसिक प्रयोग किया है। आज का कवि उतनी बंदिशें नहीं स्वीकार करता है जो जरूरी भी है। नई बात कहने के लिये हिंदी की युवा कविता विश्व की किसी भी भाषा की युवा कविता के सामने रखी जा सकती है। संवेदना, शिल्प, विचार किसी स्तर पर, मेरा पक्का मानना है।

प्र020- कुछ कवि कविता में जरूरत से ज्यादा कला लाने का प्रयास कर रहे है उनका जोर कथ्य की अपेक्षा शिल्प पर है जिससे कविता अमूर्त का ठसपन और दुर्बोधता की शिकार होती जा रही है। अपने समय के समाज और उसमें संघर्षशील मनुष्य के यर्थाथ की कलात्मक अभिव्यक्ति करने वाली कविता एक अच्छी कविता मानी जाती है पर क्या कलात्मक कविता का मतलब ऐसी कविता लिखना है जो समझ में न आये जैसा आज की कलात्मकता के नाम पर यही देखने में आ रहा है इसको आप कविता के भविष्य की दृष्टि से किस प्रकार देखते है।

उ0- कला पक्ष कविता का अनिवार्य अंग है। कला को विचार का संवाहक होना पडे़गा कला में चमत्कार पैदा करने वाले मध्यकाल के बिहारी से सीख ले सकते हैं।  बिहारी के यहां तो कुछ मिल भी सकता है पर इनके यहां तो कुछ भी नहीं।

प्र021-  आर्थिक उदारीकरण के साथ साथ किस तरह मानवीय मूल्यों का ह्रास हुआ है।  उपभोक्तावाद  हावी होता जा रहा  है। मनुष्य पर वस्तु का वर्चस्व स्थापित हो  चुका है। धन की प्राप्ति ही जीवन का परम लक्ष्य बन गया है।  जीवन का कोई क्षेत्र भी बाजारवाद से अछूता नहीं रहा है। ऐसे मे साहित्य की क्या भूमिका देखते है ,क्या लेखन द्वारा समाज का बदलाव संभव  है?

उ0 – नहीं, लेखन द्वारा समाज नहीं बदला जा सकता है। यह काम राजनीति का है लेखक तमाम राजनैतिक आंदोलनों को आगे बढ़ा सकता है। उनके आधार को पुख्ता कर सकता है। बस  इतना ही  उसका रोल है। समाज तो राजनीति से ही  बदलेगा।  मनुष्य पर हर समय इस तरह के  दबाव रहे है। अब दबाव का स्वरूप बदल गया है। दुश्मन एक दोस्त की तरह उसके कंधे पर हाथ रख उसे अपने घेरे में ले रहा है। और उसे ये तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि यह दोस्त है या दुश्मन यही पर साहित्य की भूमिका सबसे बड़ी होती है कि वह असली शत्रुओं की पहचान कराये और अपने पाठकों को सतर्क करे। हां यह काम समकालीन कविता और कहानी में लगातार हो भी रहा है।

प्र023- आप को केदार बाबू के नजदीक रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ उनके व्यक्तित्व और कृतित्व ने आपको  किस तरह से प्रभावित किया?

उ0  -केदार जी से मैंने मार्क्सवाद की दीक्षा ग्रहण  की और विचार और कविता के अन्र्तसम्बंधो को जाना बाकी साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में संस्मरण में काफी विस्तार से कहा है जो हेतु भरद्वाज  की पत्रिका अक्सर में छपा है और रामजी ने अपने ब्लाग ’सिताबदियारा’ में भी दिया था।

प्र0 24 -केशव जी अंत में कुछ  ऐसी रचनाओं के नाम जानना चाहूंगा जिन्होने आपको बहुत विचलित एवं उद्वेलित किया हो और लम्बे  समय तक आपके मन मस्तिष्क में गूंजती रही है।

उ0-    हां, सरोज स्मृति और मायी का गाया जाने वाला एक लोकगीत जो सीता वनवास के बाद लक्ष्मण से स्त्रियां प्रश्न करती है ‘पग पग घुंईया भारी लखन कहां छोड आयो जनक दुलारी’ ये कविता और ये लोकगीत मुझे जब भी याद आते है मै असहज हो  उठता हूं।

संपर्क-
महेश चंद्र पुनेठा
रा0इ0का0 देवलथल, पिथौरागढ़
उत्तराखंड।
मोबाईल – 9411707470
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।) 

युवा कविता पर वरिष्ठ आलोचक डॉ0 जीवन सिंह से बातचीत

(फोटो: जीवन सिंह)

आरा से निकलने वाली पत्रिका ‘जनपथ’ का अभी-अभी कविता विशेषांक आया है। इस विशेषांक में युवा कवि महेश चन्द्र पुनेठा ने वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह का एक साक्षात्कार लिया है। इस साक्षात्कार को हम ज्यों का त्यों आप सब के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।  


1-महेश चंद्र पुनेठाः हिंदी युवा कविता के परिदृश्य को आप किस रूप में देखते हैं? इसमें आपको अपनी पूर्ववर्ती कविता से कथ्य और शिल्प के स्तर पर  किस तरह के परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं?
1-जीवन सिंह: आज युवा कवियों द्वारा लिखी जा रही हिंदी कविता का परिदृश्य हर समय की तरह मिला-जुला है जैसे पूरे समाज का है। समाज की प्रवृतियाँ आज की युवा कविता में भी दिखाई देती हैं। कविता का सारा व्यापार कवि के जीवनानुभवों से चलता है। जीवनानुभव जितने व्यापक और बुनियादी होंगे, कविता की कला भी उतनी ही व्यापक और असरदार होगी। इस समय की कविता पर मध्यवर्गीय जीवनानुभवों का वर्चस्व बना हुआ है। उसमें आज के विवेक और आधुनिक बोध की धार तो है किन्तु वह अयस्क-परिमाण बहुत कम है जो जिन्दगी की खदानों से सीधे आता है। अरुण कमल की कविता की एक पंक्ति लगभग सूक्ति की तरह उधृत की जाती है – सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार। आज स्थिति यह है कि धार ज्यादा है और लोहा बहुत कम रह गया है। इसका कारण है मध्यवर्ग और निम्नवर्गीय मेहनतकश के जीवन में दूरी का बढ़ते चले जाना। कुछ लोकधर्मी युवा कवि अवश्य हैं जो इस दूरी को कम करने की कोशिशें लगातार कर रहे हैं इसलिए उनकी कविता में धार और लोहे का आनुपातिक संतुलन ज्यादा नजर आता है।
2- महेश चंद्र पुनेठाः हिंदी में लोकधर्मी कविता की परंपरा बहुत समृद्ध रही है। इस परंपरा को समृद्ध करने में निराला,  नागार्जुन,  केदार,  त्रिलोचन, कुमारेंद्र पारसनाथ, मानबहादुर सिंह, विजेंद्र, ज्ञानेंद्रपति जैसे कवियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। युवा पीढ़ी में इस परंपरा का विकास आप कहाँ तक पाते हैं?
२-जीवन सिंहः लोकधर्मी कविता को यद्यपि एक आंचलिक काव्यधारा के रूप में देखा गया तथापि जीवन के बुनियादी सरोकार हमें इसी काव्यधारा में नजर आते हैं। यह मध्यवर्गीय भावबोध से सम्बद्ध कवियों की काव्यधारा के सामानांतर एक अतिमहत्त्वपूर्ण और बुनियादी काव्यधारा है। आधुनिक युग में जिसके प्रवर्तन का श्रेय निराला को जाता है। आपने जिन कवियों का नाम लिया है वे इस धारा का विकास करने वाले प्रतिनिधि कवियों में आते हैं। मुक्तिबोध यद्यपि इस धारा से कुछ अलग से दिखाई देते हैं और उनकी मनोरचना मध्यवर्गीय कविता के ज्यादा समीप नजर आती है किन्तु जब मुक्तिबोध नयी कविता की दो धाराओं का उल्लेख करते हैं तो वे भी बुनियादी तजुर्बों को कविता में लाने और रचने की दृष्टि से इसी काव्य-परंपरा में आते हैं। वे कविता में कवि-व्यक्तित्व के हामी होने के बावजूद व्यक्तिवाद के विरुद्ध काव्य-सृजन करते हैं। यह भी जनधर्मी काव्य-परंपरा का एक रूप है। कविता में जिनका बल जनवादी जीवन-मूल्यों का सृजन करने पर रहता है और जहाँ जन-चरित्र तथा जन-परिवेश अपनी समग्रता में आता है, वह सब लोक-धर्मी काव्य-धारा का ही अंग माना जाना चाहिए। कुमार विकल, शील आदि कवियों की कविता भी इसी कोटि में आती है। लोकधर्मी काव्य-धारा की यह विशेषता रही है कि वह उस शक्ति का निरंतर अहसास कराती है जो मानवीय मूल्यों की दृष्टि से हर युग की सृजनात्मकता का अभिप्रेत रही है। युवा पीढी में अनेक कवि हैं जो इस काव्य-धारा का विकास कर रहे हैं। एक जमाने में अरुण कमल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश, मदन कश्यप अपनी जन-संस्कृति-परकता की वजह से इस धारा का विकास करने वाले कवियों में चर्चित हुए। इनके बाद की पीढी में एकांत  का नाम बहुत तेजी से उभरा और नए युवा कवियों में केशव तिवारी, सुरेश सेन निशांत,  महेश चंद्र पुनेठा, अजेय, नीलेश रघुवंशी, जितेंद्र श्रीवास्तव,  नीलकमल, राकेश रंजन, सुशील कुमार, राघवेंद्र, विजय गौड़, रमेश प्रजापति, मनोज कुमार झा, शैलेय, अशोक कुमार सिंह,  हरेप्रकाश उपाध्याय, कुमार अनुपम, शंकरानंद, संतोष कुमार चतुर्वेदी, कुमार वीरेन्द्र, निर्मला पुतुल, रजत कृष्ण, विमलेश त्रिपाठी, भरत प्रसाद, अनुज लुगुन, आत्मा रंजन, आदि कवियों की कविताओं से मैं परिचित हूँ। इस सूची में इनके अलावा और नाम भी हो सकते हैं क्योंकि दूर जनपदों में ऐसी कविता खूब लिखी जा रही है। हमारे यहाँ राजस्थान में ही विनोद पदरज यद्यपि छपने-छपाने में बहुत संकोच बरतते हैं लेकिन जितना और जो उन्होंने लिखा है वह इसी धारा को पुष्ट करने वाला है।
3- महेश चंद्र पुनेठाः हर काल में कविता के क्षेत्र में एक से अधिक धाराएं सक्रिय रही हैं जो अलग-अलग वर्गों और प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इधर की युवा कविता में आपको कितनी धाराएं दिखाई देती हैं? सबसे सशक्त धारा कौनसी है?
3-जीवन सिंहः निस्संदेह, हर युग में वर्गीय अनुभवों की सीमाओं में कविता की जाती रही है। कबीर ने जब अपने वर्ग-अनुभवों के आधार पर कविता की तो तत्कालीन उच्च-वर्ग ने उसे उसी रूप में शायद ही समझा। उसके सामाजिक-सांस्कृतिक अभिप्रायों की वास्तविकता का उदघाटन आधुनिक युग में आ कर हुआ, जब वर्गीय समझ सामने आई। मीरा ने अपने जीवनानुभवों के आधार पर भक्ति-कविता को एक नया मोड़ दिया। आज का दलित कवि अपने अनुभवों से काव्य परिदृश्य में हस्तक्षेप कर रहा है। आज का युवा कवि भी अपने वर्गीय अनुभवों की कविता लिख पा रहा है, जिन कवियों के पास लोक-जीवन के अनुभव नहीं हैं, वे लोक-जीवन से सम्बद्ध कविता को आंचलिकता के खाते में डाल देते हैं। नई कविता में मुक्तिबोध और अज्ञेय की जो दो काव्य धाराएं अलग-अलग नजर आती हैं  उसका कारण वर्गीय दृष्टि है। मुक्तिबोध बेहद वर्ग-सचेत कवि हैं, निम्न मेहनतकश वर्ग की पक्षधरता के साथ वर्गांतरण की प्रक्रिया को वे कविता की अंतर्वस्तु बनाते हैं। ऐसा आज तक कोई दूसरा कवि नहीं कर पाया है। इसलिए भी उनकी कविता में दुर्बोधता दिखाई देती है। आज के युवा कवियों में ये तीनों धाराएं दिखाई पड़ती हैं। एक अज्ञेय प्रवर्तित मध्यवर्ग की व्यक्तिवादी धार, दूसरी मध्यवर्गीय जीवनानुभवों तक सीमित जनवादी धारा और तीसरी निम्नवर्गीय लोक-धर्मी काव्य धारा। मेरा मन इनमें तीसरी धारा के साथ रमता है और मैं इसको सबसे महत्त्वपूर्ण मानता हूँ।
4- महेश चंद्र पुनेठाः कहा जा रहा है कि युवा कविता में विचारधारा का प्रभाव कम होता जा रहा है।  यह माना जा रहा है कि किसी आंदोलन या विचारधारा से प्रभावित कविता श्रेष्ठ नहीं होती है। नितांत निजी अनुभवों को ही रचना का आधार बनाया जा रहा है। इस प्रवृत्ति के पीछे आप क्या कारण पाते हैं?
4-जीवन सिंहः  विचारधारा का कोई न कोई रूप हर समय की कविता में रहा है । यह अलग बात है कि उसका सम्बन्ध किसी भाव-वादी विचारधारा से हो। विचारधारा के बिना तो शायद ही कुछ लिखा-कहा जा सके। जो लोग स्वयं को विचारधारा से अलग रखने की बात करते हैं , उनकी भी अपनी छिपी हुई विचारधारा अपना काम करती रहती है। वे तो वैज्ञानिक-द्वद्वात्मक भौतिकवादी विचारधारा को रोकने के लिए इस तरह की दुहाई देते रहते हैं, जिससे शोषक अमीर वर्ग की विचारधारा अबाध गति से फूलती-फलती रहे और शोषित मेहनतकश वर्ग की विचारधारा अवरुद्ध रहे। आवारा पूंजी का निर्बाध खेल चलता रहे। जिन अनुभवों को निजी अनुभव कहा जाता है, उनमें समाज के अनुभवों और परंपरा से चली आती मान्यताओं की गहरी मिलावट रहती है। समाज-निरपेक्ष निजी अनुभवों की बात करना वैसे ही है, जैसे सरोवर में स्नान करते हुए स्वयं को आर्द्रता-निरपेक्ष बतलाना। यह अलग बात है कि समाज में प्रचलित अनेक रूढ़िबद्ध विचारों और मान्यताओं के हम विरोधी हों। रचना का आधार तो कैसे भी बनाया जा सकता है, प्रश्न यह है कि उस रचना के जीवन-घनत्त्व का स्तर क्या है? इस प्रवृति के पीछे कवि का मध्यवर्गीय अवसरवाद है और यह आजकल बड़े-बड़े नामधारियों में देखने को मिल रहा है। कोई-कोई साबुत बचा कीला-मानी पास। यह सच्चे कवियों का परीक्षा-काल चल रहा है।
5- महेश चंद्र पुनेठाः  आप कविता में जनपदीयता के समर्थक हैं। आपका मानना है कि लोकल हुए बिना कोई कविता ग्लोबल नहीं हो सकती। इस दृष्टि से युवा कविता की क्या स्थिति है?
5-जीवन सिंहः हाँ, मैं जनपदीय आधार के बिना, फिलहाल की स्थितियों में, रचना को असंभव तो नहीं मानता  किन्तु बुनियादी जीवनानुभवों तक के संश्लिष्ट और व्यापक यथार्थ की रचना करने के लिए जनपदीयता को उसका बुनियादी आधार मानता हूँ। दुनिया की बात तो  मैं नहीं जानता किन्तु अपने देश की काव्य-परम्परा में कविता की महान रेखा जनपदीय आधारों पर ही खींची जा सकी है। भक्ति-काव्य की महान काव्य-परम्परा का मुख्य स्रोत जनपदों से ही प्रवाहित हुआ है। जो महा-जाति(नेशन),अपने जनपदीय आधारों पर टिकी हो वहां तो यह बहुत जरूरी हो जाता है। हिन्दी एक महाजाति है, जिसके अनेक जनपदीय जीवनाधार आज भी प्रभावी स्थिति में हैं। आज भी हमारे यहाँ किसान-जीवन से उपजी वास्तविकताओं का गहरा असर हमारे मन पर रहता है। हमारे जीवन-संचालन में उसकी प्रत्यक्ष और परोक्ष भूमिका आज भी कम नहीं है। ब्रज, अवधी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, मैथिली, भोजपुरी, पहाडी, राजस्थानी आदि जनपदीय संस्कृति के बिना महान हिन्दी-संस्कृति का भवन बनाना शायद ही संभव हो पाए। रही वैश्विक और राष्ट्रीय होने की बात,ऐसा यदि जनपदीय आधार पर होगा तो वह इन्द्रियबोध, भाव और विचारधारा के उन महत्त्वपूर्ण स्तंभों पर टिका होगा, जो हर युग की कविता को महाप्राण बनाते हैं। जहाँ तक इस कसौटी पर आज के युवा कवियों द्वारा लिखी जा रही कविया का सवाल है तो इतना ही कहा जा सकता है कि ज्यादातर कवि जनपदों के प्रति रागात्मक स्थितियों में हैं, उनका विचारधारात्मक आधार बहुत सुदृढ़ नहीं हो पाया है, लेकिन संभावनाएं यहीं हैं। इसमें कुछ युवा अभी अधकचरी स्थिति में भी हो सकते हैं। आकर्षण और प्रलोभन यहाँ बिलकुल नहीं हैं क्योंकि यह खाला का घर नहीं है।
6- महेश चंद्र पुनेठाः  जनपदीयता के साथ भावुकता या रोमानीपन का भी खतरा बहुत अधिक रहता है। युवा कविता में यह खतरा कितना झलकता है?
6-जीवन सिंहः  निस्संदेह, लेकिन द्वंद्वात्मक भौतिकवादी विचारधारा का सुदृढ़ आधार हो तो यह खतरा कम होता जाता है। खतरे कहाँ नहीं होते, नीयत में खोट नहीं है तो सभी खतरों से निजात पाई जा सकती है अनुभवों की परिपक्वता और दृष्टिगत प्रौढ़ता आने पर यह खतरा लगभग मिट जाता है। युवा कवियों में ऐसी संभावनाएं खूब दिखाई दे रही हैं। अपने मोर्चे पर डटे रहेंगे तो फतेह के बिंदु तक भी पहुँच जायेंगे। यहाँ विचलन का खतरा, भावुकता से भी ज्यादा रहता है। कबीर के शब्दों में कहूं तो यह सिलहली गैल वाला रास्ता है। जहां न यश है, न कोई पुरस्कार है, वर्चस्ववादियों की प्रताड़ना और उपेक्षा सो अलग।
7- महेश चंद्र पुनेठाः नब्बे के बाद राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में अनेक परिवर्तन आए हैं। दुनिया बहुत अधिक बदल गई है। न केवल विचार के स्तर पर बल्कि टेक्नोलाजी के स्तर पर भी। यह बदलाव युवा कविता में कितने वस्तुनिष्ठ और वास्तविक रूप में अभिव्यक्त हुए हैं?
7-जीवन सिंहः  कविता की प्रकृति इतिहास की तरह नहीं होती कि वह हर बात को हूबहू दर्ज करती चले। उसका काम है हर बदलती परिस्थिति में मनुष्य- भाव की तलाश करना, उसे रचना और उसकी रक्षा करना। उसका रिश्ता मनुष्य-भाव से है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि नब्बे के बाद राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य बहुत तेजी से बदला है और उसमें आवारा पूंजी का वर्चस्व लगभग पूरे विश्व पर कायम हुआ है तथा श्रम-शक्ति की दुनिया को भग्नाशा की स्थितियों से गुजरना पड़ रहा है। टैक्नोलोजी ने दुनिया को एक दूसरे के बहुत पास कर दिया है किन्तु मानवता के स्तर पर कोई क्रांतिकारी परिवर्तन हो गया है, ऐसा नहीं लगता। क्रांति तो तब होती जब श्रम के पक्ष में कुछ महत्त्वपूर्ण घटित हो गया होता। जो कुछ घटित हुआ है, वह सब पूंजी की आवारा आवाजाही के पक्ष में हुआ है और जिसने विखंडन, अलगाव एवं अजनबीपन पैदा करके मनुष्य-भाव को क्षत-विक्षत किया है। इससे वर्ग-वैषम्य की खाई और चौड़ी हो गयी है। एक तरफ अरबों-खरबों के मालिक हैं तो दूसरी तरफ अस्सी प्रतिशत जनता को जीवन-निर्वाह करने के लाले पड़े हैं। इससे युवा कवियों में यथार्थ और वस्तुसंगत विचारधारा के प्रति रुझान में कमजोरी आई है, और अवसरवाद की प्रवृति बढी है। बहुत कम लोग हैं जो इन स्थितियों में विचलित नहीं हुए हैं। कवियों की संख्या में इजाफा हुआ है पर गुणात्मकता के लिहाज से अभी और इंतजार करने की स्थिति है।
8- महेश चंद्र पुनेठाः अपनी परंपरा को लेकर दो तरह के दृष्टिकोण नई पीढ़ी में दिखाई देते हैं- सर्वस्वीकारवादी और सर्वनिषेधवादी। आप युवा कविता का अपनी परंपरा से कैसा संबंध पाते हैं?
8-जीवन सिंहः  दोनों स्थितियां ही अतिवादी हैं। परम्परा के प्रति निषेध और स्वीकार का रिश्ता ही द्वंद्वात्मक संतुलन पैदा करता है। महाकवि कालिदास बहुत पहले कह गए हैं कि न तो पुराना सब कुछ श्रेष्ठ है और न सम्पूर्ण अभिनव ही वन्दनीय है। पुराने में भी श्रम से रचित मानव -सौन्दर्य है और नए में भी ।दोनों की सीमायें भी हैं। आधुनिकतावादी कवि परम्परा के प्रति निषेधवादी रहता है, जो या तो परम्परा से अनभिज्ञ होते हैं या आधुनिकता के मिथ्या-दंभ में ऐसा करते हैं। लोक-धर्मी काव्य-परम्परा के कवियों में परम्परा और नवीनता के प्रति संतुलन देखने को मिलता है।
9- महेश चंद्र पुनेठाः सत्ता के अमानवीय और क्रूर मुखौटे को पहचानने और उसको उघाड़ने तथा जनता के आक्रोश और असंतोष को पकड़कर उसे एक सही दिशा देने में कविता की भी अपनी एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वह जनता को क्रांतिकारी चेतना से लैस करती है। क्या आपको लगता है कि आज की अधिसंख्यक युवा कविता में अपनी सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक परिस्थितियों की द्वंद्वात्मक समझ, उसके बदलाव को लेकर कोई विश्वदृष्टि, जनता के भीतर सुलग रहे विद्रोह को देखने की क्षमता और सच को कहने का साहस है?
9-जीवन सिंहः आवारा पूंजी ने आज जिस तरह अपनी साम्राज्यवादी सत्ता को फैलाया है और इसे वैश्वीकरण तथा नव-उदारीकरण का एक नया एवं मानवीय चेहरा देने की कोशिश की है, उसका जितनी तार्किक रचनात्मकता के साथ प्रतिवाद किया जाना चाहिए था, वह बहुत कम हो पाया है। बड़े संपादकों ने खंड-विमर्शों में सारी सचाई को सीमित करके वर्ग-चेतना से सम्बंधित वर्ग-विमर्श को किनारे करने का काम किया है। स्त्री और दलित विमर्श भी आज की जरूरत है किन्तु वर्ग-चेतना और वर्ग-विमर्श की कीमत पर नहीं। जब कि सारी साहित्य चेतना इन्ही दो खंड विमर्शों में सिकुड़ कर रह गयी है। अब कुछ लोग इनकी तुक में तुक मिलाकर आदिवासी और अल्पसंख्यक विमर्शों की तान भी छेड़ने में लगे हैं। जबकि इन सभी की जड़ में वर्ग-विषमता रही है। इससे सत्ता और व्यवस्था पर शायद ही कोई आंच आती हो। क्रांतिकारी चेतना तो फिलहाल की स्थितियों में दूर की कौड़ी लाना जैसा लगता है। अभी तो बुर्जुआ जनवादी चेतना के लिए लड़ना प्राथमिकता में लगता है, जिससे राजनीति में व्याप्त सामंती और व्यक्तिवादी प्रवृतियों का खात्मा किया जा सके।
10- महेश चंद्र पुनेठाः युवा कविता का मुख्य स्वर क्या है ? उसमें जन-जीवन से जुड़ने की कितनी ललक एवं आकांक्षा दिखाई देती है?
10-जीवन सिंहः फिलहाल कोई मुख्य स्वर जैसी बात नजर नहीं आती। जो कुछ है वह मिलाजुला है। वर्चस्व स्त्री एवं दलित स्वरों का कहा जा सकता है। हाँ, लोक-स्वर भी आजकल सिर चढ़कर बोलता दिखाई दे रहा है। जन- जीवन से जुड़ा हुआ स्वर आज यदि किसी धारा में देखा जा सकता है तो वह इसी लोक-स्वर वाली कविता में सबसे ज्यादा हैं। यों तो, मध्यवर्गीय कविता की वैचारिकता में भी इस स्वर को सुना जा सकता है ।मध्यवर्ग में बढ़ते हुए उपभोक्तावाद ने उसे जन-जीवन से काटने का काम किया है।

11- महेश चंद्र पुनेठाः कुछ युवा कवि कविता में जरूरत से ज्यादा कला लाने का प्रयास कर रहे हैं। उनका जोर कथ्य की अपेक्षा शिल्प पर है जिससे कविता अमूर्ततता, ठसपन और दुर्बोधता की शिकार होती जा रही है। इसको आप कविता के भविष्य की दृष्टि से किस तरह देखते हैं?
11-जीवन सिंहः कलावादी काव्य-धारा कमोवेश हर समय में रहती आई है। उसके सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक आधार समाज के भीतर ही होते हैं। जो वर्ग मेहनतकश वर्ग से स्वयं को ऊपर मानते हैं वे कलावाद का औचित्य निरूपण करते हुए उसका एक सौन्दर्य-शास्त्र भी निर्मित कर लेते हैं। लेकिन यह भी सच है कि, जैसा कि रघुवीर सहाय ने अपनी एक कविता में कहा है कि जहां कला ज्यादा होगी, वहाँ कविता बहुत कम होगी। जीवनानुभवों के अभाव में ऐसा होता है। अपने वर्गीय जीवन की सीमाओं को इसीलिये कवि को निरंतर विस्तृत और व्यापक करते रहना पड़ता है। उन रचनाकारों का लिखना धीरे-धीरे बंद हो जाता है जिनकी अनुभव-पूंजी में बढ़ोतरी नहीं होती। ऐसे कवियों में कला-प्रयोगों की प्रवृति बढ़ जाती है। ऐसा वे कवि ज्यादा करते हैं जो मध्यवर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर पाते। मुक्तिबोध की कविता इसीलिये वर्गांतरण की जटिल प्रक्रिया को रचती हुई विस्तृत होती चली जाती है। ऐसी कविता का भविष्य कलावाद के अंतर्गत ही होगा, जैसे आज रीति-कविता का है।
12- महेश चंद्र पुनेठाः  नक्सलवाड़ी आंदोलन ने एक समय पूरी भारतीय कविता को गहराई तक प्रभावित किया। यह आंदोलन आज भी जारी है। युवा कविता में आपको इसका कितना प्रभाव दिखाई देता है?
12-जीवन सिंहः आज मध्य-वर्ग उपभोक्तावाद में इतना उलझ गया है कि वह जनवादी तौर -तरीकों और जीवन-मूल्यों तक के प्रति उदासीन होता जा रहा है। उसका एक बड़ा हिस्सा सत्ता-राजनीति के सुखों को पाने के लिए लालायित रहता है। फिर आज का नक्सल- आन्दोलन भी वह नहीं है जो विगत शताब्दी के सातवें दशक में था।
13- महेश चंद्र पुनेठाः अशोक वाजपेयी का कहना है कि आज के युवा कवि साठ-सत्तर के दशकों के युवा कवियों की तरह न तो विश्व कविता के बारे में जिज्ञासु हैं और न ही मनचाहे हिस्सों का अनुवाद करते हैं। यह बात कितनी सही है?
13-जीवन सिंहः जब साहित्य-मात्र ही हाशिये पर धकेला जा रहा हो तब इसके कारण हमको उपभोक्तावादी तंत्र में खोजने चाहिए। अब अपने देशी साहित्य में ही जब व्यक्ति क्षीण-रूचि हो रहा है तो इस सब का असर अन्य स्थितियों पर भी होगा। इसके बावजूद चयनित और चर्चित विश्व साहित्य के संपर्क में अल्पसंख्यक युवा आज भी रहता है।
14- महेश चंद्र पुनेठाः हिंदी युवा कविता में निर्मला पुतुल, अनुज लुगुन के रूप में आदिवासी स्वर का प्रतिनिधित्व दिखाई देता है। इन कवियों को आप अन्य हिंदी युवा कवियों से किस रूप में भिन्न पाते हैं? काव्यात्मक दृष्टि से इनकी कविताओं के बारे में क्या कहेंगे?
14-जीवन सिंहः ये आज के लोक-स्वर के महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय युवा रचनाकारों में आते हैं। इन्होने अपने जीवनानुभवों के आधार पर कविता की अपनी एक नई जमीन तोडी एवं बनाई है। इस जीवन की विशेषता है कि श्रम से जुडा होने से इसकी प्रकृति में ही काव्यत्व अन्तर्निहित है-राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है की तरह। निर्मला जी ने मूलत संताली में लिखा और उनका हिन्दी में अनुवाद अशोक सिंह ने किया। जहां तक मुझे याद है कि निर्मला पुतुल की कवितायेँ २१वी सदी के लगते ही आने लग गयी थीं। नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द और अपने घर की तलाश मेंशीर्षकों से आए दो काव्य-संग्रहों में पुतुल की कविताओं में अंतर्वस्तु की जो तेजस्विता एवं मौलिकता नजर आती है वह आज की कविता को एक नया आयाम देती है। यहाँ एक आदिवासी स्त्री का स्वर तो है ही साथ ही आदिवासी जीवन-मूल्यों और संघर्षों का एक सजीव काव्यात्मक इतिहास भी है। इन कविताओं से गुजरते हुए लगता है कि हम अपनी बेचैनी के ताप के साथ एक गहरी नदी में अवगाहन कर रहे हैं। शिल्प भी इनका अपना है, आदिवासी अंतर्वस्तु की तरह आदिवासी शिल्प, अपनी सहजता में मुखरित। यह कविता हमको अपने अंधरे के खिलाफ उठने की सीख देती है। अन्धेरा बाहर इसलिए अपनी बेटी मुर्मू से ही नहीं है वरन वह हमारे भीतर भी है। इसलिए कवयित्री अपनी बेटी मुर्मू को संबोधित करते हुए कहती है कि –

उठो, कि तुम जहां हो वहाँ से उठो
जैसे तूफान से बवंडर उठता है
उठती है जैसे राख में दबी चिंगारी
जब निर्मला पुतुल का पहला काव्य- संग्रह प्रकाशित हुआ था, उसी समय मैंने उसकी समीक्षा की थी। इस कविता से विश्वास हुआ कि हिन्दी कविता का भविष्य इन हाथों में सुरक्षित है। अनुज लुगुन की दिशा भी यही है। अभी उनकी ज्यादा कवितायेँ नहीं पढ़ पाया हूँ।
15- महेश चंद्र पुनेठाः इधर युवा कविता में स्त्री स्वर तेजी से उभरा है। आज पहले से अधिक महिलाएं कविता के रूप में अपने को अभिव्यक्त कर रही हैं। उनकी कविताओं में स्त्री वर्जनाओं, पुरुष वर्चस्व और सामंती मर्यादाओं को लेकर तीखी एवं साहसपूर्ण अभिव्यक्ति देखने में आ रही है। इसको आप किस रूप में देखते हैं?
15-जीवन सिंहः स्त्री स्वर सभी विधाओं में तेजी से उभरा है जो रचनात्मकता के लिए एक स्वस्थ संकेत है। पितृसत्तात्मक स्थितियों से पैदा हुई विषमता को मिटाने के लिए यह बहुत जरूरी है , लेकिन इसके साथ वर्ग चेतना भी उतनी ही जरूरी है निम्नवर्गीय स्त्री पितृ-सत्ता और वर्ग-विषमता के दो पाटों में पिसती है। ऐसा उच्चवर्गीय स्त्री के साथ नहीं है। वह केवल पितृ-सत्ता के उत्पीडन को झेलती है। वर्ग-विषमता में वह पुरुष का सहयोग करती है। निर्मला पुतुल की कविताओं में इस दृष्टि से समग्रता आती है।

16- महेश चंद्र पुनेठाः  युवा कविता में स्त्री स्वर की तरह क्या दलित ,अल्न्पसंख्यक स्वर की भी अपनी अलग उपस्थिति दिखाई देती है?
16-जीवन सिंहः दलित स्वर तो है, अल्पसंख्यक जैसी कोई राजनीतिक श्रेणी अभी साहित्य में नजर नहीं आती। वैसे विखंडन की हवा चल रही है, इसमें जो हो जाय सो कम है। इतना विश्रंखलित और विखंडित समय अभी तक नहीं आया था,  इसलिए चीजें समग्रता में चर्चित एवं विश्लेषित हुआ करती थी।
17- महेश चंद्र पुनेठाः कुछ वरिष्ठ कवि-आलोचकों द्वारा युवा कविता पर यह आरोप लगाया जाता है कि वह बाहर में इतना उलझ गई है कि उसे अंदर की आवाज सुनाई नहीं पड़ती है। क्या आप भी इससे सहमत है?
17-जीवन सिंहः सच तो यह है कि अपने भीतर वह इतनी उलझ गयी है कि उसे बाहर की बड़ी दुनिया बहुत कम नजर आती है। कवि बाहर के बिना अंदर के जिस अपने यथार्थ का निर्माण करता है वह उसका जीवन से कटा हुआ मनोगत यथार्थ होता है। इसलिए मुक्तिबोध ने अन्दर-बाहर की द्वंद्वात्मक एकता पर विशेष बल दिया है। यदि उसका केवल अंदर ही आता है तो वह विखंडित है, यही बात बाहर के साथ भी है।
18- महेश चंद्र पुनेठाः आज युवा कविता में मध्यवर्गीय और महानगरीय भावबोध की ऐसी कविताओं का बोलबाला अधिक दिखाई देता है जो संघर्ष के मूल प्रश्नों और दमनकारी व्यवस्था की आलोचना करने से बचती हैं तथा प्रतीकात्मक रूप से सामान्य जनों से सहानुभूति रखती है। जिसे व्यवस्था की साजिश नहीं दिखाई देती है। आपके विचार में इसके लिए कौनसे कारक जिम्मेदार हैं?
18-जीवन सिंहः इसका मुख्य कारक है कवि में आत्मविस्तार और आत्मसंघर्ष की निरंतर कमी आते जाना। लक्ष्य का सीमित होना और उसे तुरंत पा लेने की लालसा। यश और कैरियर की सीमाओं से आगे न निकल पाना। आवारा पूंजी के दर्शन की गिरफ्त में जाने-अनजाने रहना। अपनी मध्यवर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण न कर पाना। संघर्ष के मूल प्रश्न ही नहीं होते बल्कि उनसे जुडा आचरण प्रश्नों से कम महत्त्व नहीं रखता।
19- महेश चंद्र पुनेठाः युवा कवियों में अपनी आलोचना सुनने का धैर्य चुकता ही जा रहा है। कवि अपनी प्रशंसा सुनने को बेताब है। जल्दी से जल्दी प्रसिद्धि पा लेना चाहता है। येनकेन प्रकारेण पुरस्कृत और सम्मानित हो जाना चाहता है। यह प्रवृत्ति आज के कवि में क्यों हावी होती जा रही है?
19-जीवन सिंहः मध्य वर्ग का निम्न मेहनतकश वर्ग की जिन्दगी के अनुभवों से लगातार कटते और दूर होते जाना और अपने ही एक मिथ्या क्रांतिकारी संसार में हवाई किले बनाना। यह मध्यवर्गीय बीमारी है। इससे मुक्ति तभी सम्भव है जब उसके जीवन के सैद्धांतिक-विचारधारात्मक सरोकार ही नहीं वरन व्यावहारिक जीवन में भी वह निम्न-मेहनतकश वर्ग से स्वयं को सम्बद्ध रखे। इससे उसके जीवनानुभव भी समृद्ध होंगे और उसका व्यक्तित्त्व-निखार भी होगा। फिर उसकी कला का तेज ही कुछ अलग तरह का होगा। उसमें धैर्य भी आ जायगा और प्रसिद्धी, पुरस्कार एवं सम्मान पाने की लालसा भी कम हो जायेगी। इसका उदाहरण हमें निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और केदार नाथ अग्रवाल के जीवन व्यवहार में मिलता है। इनके जीवन व्यवहार से हम आज भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। ये कवि ही नहीं थे वरन इन्होने एक समृद्ध कवि जीवन भी जिया था। इसीसे इनकी कविता में महत्ता और उदात्तता का प्रस्फुटन हुआ।
20- महेश चंद्र पुनेठाः वरिष्ठ कवि राजेश जोशी युवा कविता में सामाजिक सरोकारों की कमी देखते हैं। युवा कवियों की राजनीतिक दृष्टि साफ नहीं है। एक खास तरह का एरोगेन्स है। क्या आप भी कुछ ऐसा महसूस करते हैं?
20-जीवन सिंहः राजेश जोशी के सोच से मेरी सहमति है यद्यपि यह बात मध्यवर्ग तक सीमित रहने वाले कवियों के लिए ही ज्यादा सही है।

21- महेश चंद्र पुनेठाः  आज दूरस्थ जनपदों में अनेक युवा कवि बहुत महत्वपूर्ण कविता लिख रहे हैं पर उन्हें लगातार उपेक्षा झेलनी पड़ रही है। उनकी रचनाशीलता का कहीं कोई संज्ञान नहीं लिया जा रहा है। अधिकांश संपादकों और आलोचकों की नजर महानगरों और साहित्य के केंद्रों से बाहर नहीं जाती है। क्या आपको भी ऐसा लगता है? ऐसे में उन्हें क्या करना चाहिए?
21-जीवन सिंहः उपेक्षा की शिकायत दूरस्थ जनपदों में रहने वाले और लोक-स्वर की कविता लिखने वाले कवियों को नहीं करनी चाहिए क्योंकि जिनसे वे अपेक्षा लगाये हुए हैं, जानना चाहिए कि उनके प्रतिमानों पर उनकी कविता खरी साबित नहीं होती। यदि वे उपेक्षा बर्दाश्त नहीं कर सकते तो फिर उनको मध्यवर्गीय चरित्र वाली कविता लिखनी चाहिए। एक जमाने में निराला की लोक-सरोकारों वाली कविता को किसने मान्यता दी थी?  और नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन आदि की कम उपेक्षा नहीं हुई थी?  आप यदि वर्चस्वी धारा से अलग चलने की कोशिश करेंगे तो इस परिणाम को भोगने के लिए तैयार रहने की आदत डालनी होगी और अपने अनुसार चलने का अपना रास्ता अलग से बनाना होगा। यही तो संघर्ष है ।

(महेश पुनेठा युवा कवि एवं आलोचक हैं। पिथौरा गढ़ में रहते हुए शिक्षण कार्य से जुड़े हैं। इनका एक कविता संग्रह ‘भय अतल में’ आ चुका है जिसे पाठकों का अपार स्नेह मिला है।) 
मोबाईल –   09411707470

ई-मेल: punetha.mahesh@gmail.com

(जीवन सिंह वरिष्ठ आलोचक हैं।)
संपर्क-
मोबाईल – 09785010072 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

महेश चंद्र पुनेठा


हिन्दी दिवस के अवसर पर हमारे कवि मित्र महेश चन्द्र पुनेठा ने यह विचारपूर्ण आलेख पहली बार के लिए लिखा है. महेश जी एक बेहतर शिक्षक भी हैं और शिक्षा के वास्तविक सरोकारों के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के लिए ‘शैक्षिक दखल’ नाम से एक गंभीर और सुरुचिपूर्ण पत्रिका भी निकालते हैं.  महेश ने अपने इस आलेख में तर्कपूर्ण ढंग से यह बताया है कि शिक्षा का माध्यम तो परिवेश की भाषा ही होनी चाहिए. बिना इसके विद्यार्थी कुछ भी बेहतर तरीके से जान-समझ नहीं सकते. आज अंग्रेजियत का ज़माना जरूर है लेकिन इस अंग्रेजी को भी बच्चे तभी सीख सकेंगे जबकि उन्हें उनकी भाषा के माध्यम से इसे सिखाने की कोशिश की जाय. तकनीकी कारणों से कल हम यह आलेख पोस्ट कर पाने में सफल नहीं हुए. फिर भी यह ऐसा मुद्दा है जिस पर किसी भी समय विचार किया जा सकता है. तो आईये पढ़ते हैं महेश का यह जरूरी आलेख.  

       

शिक्षण का माध्यम परिवेश की भाषा ही होनी चाहिए

बाजारवाद के दबाब में आज अंग्रेजी को शिक्षण का माध्यम बनाने की एक हवा सी चल पड़ी है। कभी हिंदी का झंडा मजबूती से थामे रखने वाली शैक्षणिक संस्थाएं भी एक-एक कर इस हवा में बहती जा रही हैं। निजी विद्यालय तो बाजार की दौड़ में अपने आप को बनाए रखने के लिए अंग्रेजी माध्यम को अपनाने को मजबूर हैं ही लेकिन अब सरकारी स्कूल भी प्रयोग के नाम पर इस दिशा में आगे बढ़ चले हैं। अखबारों में आए दिनों इस आशय की खबरें पढ़ने को मिल रही हैं। शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारियों और शिक्षकों को लगता है कि सरकारी विद्यालयों की घटती छात्र संख्या का एक बड़ा कारण इनका अंग्रेजी माध्यम का न होना है। यदि यहाँ अंग्रेजी माध्यम शुरू किया जाय तो घटती छात्र संख्या को रोका जा सकता है। हो सकता है एक हद तक उनका यह अनुमान सही भी सिद्ध हो। अंग्रेजी के प्रति अतिशय मोहग्रस्त मध्यवर्ग इस कदम से कुछ आकर्षित हो कर इन विद्यालयों की ओर लौट आए। पर बड़ा सवाल यह नहीं है कि विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हो बल्कि उससे बड़ा सवाल है कि इससे बच्चों की सीखने की गति पर क्या प्रभाव पड़ेगा? बच्चे विषयवस्तु को कितना समझ पाएंगे? अपने स्कूली जीवन को उसके बाहर के जीवन से कितना जोड़ पाएंगे? यदि ऐसा नहीं कर पाएंगे तो  क्या वह ज्ञान निर्माण की दिशा में आगे बढ़ पाएंगे? या फिर उनका मस्तिष्क सूचनाओं और जानकारियों का बैंक मात्र बन कर रह जाएगा? इन गम्भीर और जरूरी सवालों पर कहीं कोई विचार-विमर्श नहीं दिखाई देता है। सभी बाजार द्वारा प्रायोजित अंधी दौड़ में दौड़ते जा रहे हैं।अंग्रेजी का भूत इस कदर हावी हो गया है कि सीखने-सीखाने के बुनियादी सिद्धांतों को ही भूल गए हैं।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में सरकारी स्कूलों में जाने वाले अधिकांश बच्चे ऐसे परिवेश से आते हैं जहाँ अंग्रेजी उनके लिए पूरी तरह एक विदेशी भाषा है। जिनकी अभिव्यक्ति का माध्यम स्थानीय बोली/भाषा है। संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाएं भी उनके लिए दूसरी भाषा है। जब बोली से दूसरी भाषा तक आना भी उनके लिए बहुत कठिन होता है। दूसरी भाषा में पढ़ा-लिखा भी वे बहुत कठिनाई से समझ पाते हैं (जबकि वह भाषा कहीं न कहीं उनके परिवेश में मौजूद होती है।) ऐेसे बच्चे जब अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाए जाएंगे, तब वह विद्यालय में अपने आपको कितना सहज महसूस करेंगे, उनका कक्षा में कितना मन लगेगा और विषयवस्तु को कितना समझ पाएंगे?  ये विचारणीय प्रश्न हैं। कहीं भाषा का यह वैरियर उन्हें स्कूल से ही दूर न कर दे। जिन बच्चों के लिए अपनी ही परिवेश की भाषा में विषयवस्तु को समझना कठिन होता है तो समझा जा सकता है कि यदि एक विदेशी भाषा को शिक्षण का माध्यम बनाया जाएगा तो उनकी समझ में कितना आएगा। कैसे वह प्राप्त जानकारी के आधार पर ज्ञान का निर्माण कर पाएंगे तथा नया रच पाएंगे? परिवेश से दूर की भाषा में बच्चा जानकारियों, तथ्यों, सूचनाओं को केवल रट सकता है और रटने से ज्ञान निर्माण संभव नहीं है और न ही रचनात्मकता। आज अंग्रेजी माध्यम से पढ़े बहुत सारे बच्चों को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। 

अंग्रेजी माध्यम से शिक्षण करने पर यह हो सकता है कि तोते की तरह बच्चे अंग्रेजी में कुछ अवश्य बोलने लग जाएंगे पर वह उसे अपनी अभिव्यक्ति का सहज माध्यम नहीं बना पाएंगे। ऐसा होने पर उनकी चिंतन प्रक्रिया बाधित होगी। यह प्रमाणित तथ्य है कि मनुष्य हमेशा उसी भाषा में चिंतन करता है जो शिशु विकास की प्रारम्भिक अवस्था में सार्वधिक सुनता है। जिसको उसके परिवार और पास-पड़ोस में बोला जाता है। जिसे उसने अपने बड़ों से अनौपचारिक तौर से सीखा है। अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम होने पर ऐसे बच्चे जो फर्स्ट जनरेशन लर्नर हैं, सीधे शिक्षा की धारा से बाहर हो जाएंगे। वे साक्षर हो सकते हैं शिक्षित नहीं। उन्हें वस्तुओं के अंग्रेजी में लिखे विज्ञापन पढ़ने भले आ जाएं लेकिन उनकी सही पहचान नहीं होगी। कुछ बच्चों को अवश्य इसका लाभ हो सकता है लेकिन बड़ी संख्या इसका खामियाजा भुगतेगी। उनके लिए पढ़ाई पहाड़ बन जाएगी। उन्हें कुछ भी समझ नहीं आएगा। पढ़ाई-लिखाई ऊब पैदा करेगी। ऐसे में सोचा जा सकता है कि सीखने की प्रक्रिया और गति कितनी आगे बढ़ पाएगी। यह हो सकता है कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया जाय तो बच्चा एक लंबे अंतराल बाद अंग्रेजी भाषा तो सीख जाएगा परंतु विषयवस्तु पर उसकी पकड़ उतनी गहरी नहीं हो पाएगी जितनी अपने परिवेश की भाषा के माध्यम से पढ़ने में। जो समय तथा श्रम बच्चे को विषयवस्तु की गहराई में उतरने में लगना चाहिए वह भाषा सीखने में लग जाएगा। 

     आपने अनुभव किया होगा कि जब आप कभी-कभार पढ़ाते हुए बच्चों की बोली में उनसे बतियाने लगते हो या उनके घर-गाँव में बोले जाने वाले शब्दों का उच्चारण करते हो तो बच्चों के चेहरे एक अजीब सी आभा से चमक उठते हैं। उनके होंठों में मुस्कान बिखर जाती है। ऐसा लगता है जैसे वे हमारे एकदम करीब आ गए हैं। कक्षा में चुप्पा-चुप्पा रहने वाले बच्चे भी अपनी चुप्पी तोड़ बतियाने लगते हैं। उन्हें शिक्षक अपने ही बीच का लगने लगता है। विषयवस्तु को वे बहुत जल्दी भी समझ जाते हैं। इससे पता चलता है कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में भाषा की क्या भूमिका है? पर आज अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का आलम यह है कि वहाँ बच्चों के लिए अपनी परिवेश या मातृभाषा में बात करना तक प्रतिबंधित है। ऐसा करने पर उन्हें  दंडित किया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि जब बच्चे के पास अपनी आवश्यकताओं या भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए अंग्रेजी शब्द नहीं होते हैं तो वह चुप-चुप रहने लगता है। या बहुत कम शब्दों में अपनी बात कहता है। उसकी अभिव्यक्ति क्षमता बाधित होने लगती है। किसी भी भाषा का समुचित विकास नहीं हो पाता है। भाषा के विकास के लिए यह जरूरी माना जाता है कि बच्चे को सुनने-बोलने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए। जैसा कि हम मातृभाषा सीखने के संदर्भ में भी देखते हैं कि परिवार में बच्चे को भाषा सुनने और बोलने के पर्याप्त अवसर दिये जाते हैं। उससे अधिक से अधिक बात की जाती है। उसे कुछ न कुछ (टूटा-फूटा या आधा-अधूरा ही सही) बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस तरह वह धीरे-धीरे भाषा सहजता से सीख लेता है। जब बच्चे को उसकी परिवेश की भाषा में बोलने से रोका जाता है तो इससे कहीं न कहीं उसकी चिंतन प्रक्रिया बाधित होती है जिसके बिना भाषा का विकास संभव नहीं है। ऐसे बच्चे अपने भावी जीवन में दब्बू और संकोची होते हैं। इसलिए जरूरी है कि शिक्षण का माघ्यम बच्चे की परिवेश की ही भाषा होनी चाहिए। कम से कम प्रारम्भिक शिक्षा तो उसके परिवेश की भाषा में ही होनी चाहिए। ऐसा कहने के पीछे यहाँ कोई राजनीतिक या सांस्कृतिक कारण नहीं है बल्कि विशुद्ध शैक्षिक कारण है। यह आजमाया हुआ सत्य है कि बच्चे की सीखने की गति अपने परिवेश की भाषा में ही सबसे अधिक होती है क्योंकि ऐसे में बच्चे का पूरा ध्यान विषयवस्तु पर होता है। उसे भाषा से नहीं जूझना पड़ता है। बच्चा सुनने और बोलने की भाषायी दक्षता अपने परिवेश से ग्रहण कर चुका होता है। यह भाषा किताबी ज्ञान को वास्तविक जीवन से जोड़ने में भी मददगार होती है। यदि किताबों की भाषा वह नहीं है जो बच्चे के घर व पास-पड़ोस में बोली जाती है तो बच्चे के स्कूली जीवन और बाहरी जीवन के बीच एक रिक्तता बनी रहेगी। बच्चा अपने आसपास के अनुभवों को अपनी कक्षा-कक्ष तक नहीं ले जा पाएगा। न किताबी ज्ञान से उसका संबंध जोड़ पाएगा। उसे हमेशा यह लगता रहेगा कि स्कूली जीवन और घरेलू जीवन एक दूसरे से अलग हैं। जबकि शिक्षा को जीवन से जोड़ने और रूचिकर बनाने के लिए जरूरी है कि इस अंतराल को समाप्त किया जाय। परिवेश से दूर की भाषा शिक्षण का माध्यम होने पर उसका प्रभाव बच्चे के बौद्धिक व संज्ञानात्मक विकास पर पड़ता है। इसको नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। यह माना जाता है कि बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में सबसे अधिक सहायता परिवेशीय भाषा से ही मिलती है। उसमें सोचने और महसूस करने की क्षमता का विकास जल्दी होता है। चिंतनात्मक और सृजनात्मक योग्यता अधिक विकसित होती है। बच्चे का भाषा पर अधिक अधिकार होता है। भाषा पर अधिकार होने का सीधा मतलब है ज्ञान के अन्य अनुशासनों में आसानी से प्रवेश कर पाना। पढ़ने में अधिक आनंद आना। सामान्यतः यह देखने में आता है जिस बच्चे का भाषा पर अधिकार होता है वह अन्य विषयों को भी जल्दी सीख-समझ जाता है। उसके लिए अवधारणाओं को समझना सरल होता है। फलस्वरूप उसके सीखने की गति अच्छी होती है। इतना ही नहीं ऐसा बच्चा अन्य भाषाओं को भी सरलता से सीख पाता है। गैर-परिवेशीय भाषाओं में इसके विपरीत होता है। परिवेश की भाषा के पक्ष में एक सकारात्मक पहलू यह है कि जब बच्चा स्कूल जाना प्रारम्भ करता है उस समय उसके पास अपने आसपास के वातावरण तथा प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन से अपने लिए जरूरी शब्दों का एक छोटा-मोटा भंडार होता है जिनका वह आवश्यकतानुसार प्रयोग करता है। स्कूल उसके इन शब्दों को आधार बना कर उसके शब्द भंडार में उत्तरोत्तर वृद्धि करता है। बच्चों में संवेगों, मानवीय मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण व चारित्रिक गुणों का विकास भी परिवेशीय भाषा में बातचीत से अधिक संभव है।

  अंग्रेजी को शिक्षण का माध्यम बनाने से अधिक आवश्यक यह है कि अंग्रेजी भाषा के शिक्षण को बेहतर और वैज्ञानिक बनाया जाय। समय चक्र में उसे अधिक समय दिया जाय। अंग्रेजी को परिवेशीय भाषा में न पढ़ाकर अंग्रेजी कक्षा का वातावरण ऐसा बनाया जाय जिससे बच्चा आसानी से उस भाषा को सीख सके। दूसरी या तीसरी भाषा सीखने का जो खौफ बच्चे के भीतर होता है वह समाप्त हो सके। इसके लिए हमारे पास अंग्रेजी सीखने का एक मॉडल होना चाहिए। उसे यांत्रिक तरीके से नहीं सिखाया जाना चाहिए। यह कैसी बिडंबना है कि तथाकथित अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों में अंग्रेजी भी हिंदी माध्यम से पढ़ायी जाती है। हिंदी माध्यम के स्कूलों की बात ही क्या कहें। अंग्रेजी में प्रवीणता हासिल करने के लिए शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी करना कतई जरूरी नहीं है।  

  अंत में एक बात और, आज अंग्रेजी को सफलता की भाषा माना जाता है। समाज के हर तबके के मन में यह बात गहरे तक पैठी है। बाजार द्वारा इस भ्रम को हवा देने का काम किया जा रहा है। अंग्रेजी माध्यम शिक्षा का व्यापार करने का बहाना बन गई है। पर ऐसा नहीं है, सफलता के सूत्र भाषा में नहीं बौद्धिक क्षमता में छुपे होते हैं और यह किसी भाषा की मुहताज नहीं होती है। आज यह भी सुनने में आता है कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़े युवाओं के पास रोजगार के अवसर अधिक हैं। यह आंशिक रूप से सत्य हो सकता है पर जब सभी बच्चे अंग्रेजी माध्यम से पढ़ कर निकलने लगेंगे तब भी क्या यही स्थिति होगी?

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महेश चंद्र पुनेठा

लॉन्ग नाईन्टीज और कविता के सन्दर्भ में चल रही बहस के क्रम में अभी तक आप पढ़ चुके हैं विजेन्द्र, अमीर चन्द्र वैश्य और आग्नेय के आलेख। इसी कड़ी में प्रस्तुत है इस बार युवा कवि और आलोचक महेश चन्द्र पुनेठा का आलेख-
 

सीमित जीवनानुभव के कवि-आलोचकों द्वारा फैलाया गया भ्रम
                          

  
 काव्य में लोकधर्मी परंपरा बहुत पुरानी है।हिंदी काव्य की मूलधारा लोकधर्मी ही रही है। लोकधर्मी कविता कहने से हमारा आशय उस कविता से है जिसमें जीवन रस हो, जीवन के संबंधों का प्रवाह हो तथा हृदय के सच्चे भाव हों। इसमें जो मनुष्य आए वह अपने बल पर खड़ा हो तथा उन उपेक्षितों और परित्यक्तों की बात करती हो, जिनका स्वभाव बड़ी-बड़ी हाँकना नहीं ,सीधी-सरल मगर सच्ची बात करना होता है।जो सौंदर्य का त्याग भी नहीं करती है और लोक या जन से दूर भी नहीं होती है। वह सर्वहारा के आंतरिक गुण और क्षमताओं को दिखाकर उसकी क्षमताओं का अहसास कराती है। सामान्य जन की उत्कंठा, आकांक्षा और पीड़ाओं को गहराई एवं प्रभुविष्णुता से रचती है। जीवन की विविधतापूर्ण समृद्धि प्रकृति का क्रियाशील वैभव और मनुष्य सृजित संसार के बहुमुखी आयामों को विविधिता से चित्रित करती है। पर कुछ कवि-आलोचकों का मानना है कि लोकधर्मी कहने से काव्य की अधिक विस्तृत पढ़त और बढ़त  रूक जाती है। उन्हें किसी कवि को लोकधर्मी कहना उसे एक निश्चित दायरे में कैद कर देना सा लगता है। जैसे कि लोक कोई बाड़ा हो। वे लोक को जीवन संघर्ष से पलायन किए कवियों की शरणगाह मानते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि सबसे अधिक संघर्ष लोक जीवन में ही हैं।वास्तव में देखा जाय तो लोक नहीं अभिजात्य शरणगाह है। यदि कोई कवि लोकजीवन को अपनी कविता में व्यक्त करता है तो वह जीवन की कठिन परिस्थितियों से जूझता-टकराता है। शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ बोलने के खतरे उठाता है।

 दरअसल लोकधर्मी कविता के प्रति यह दृष्टिकोण लोक को गाँव का पर्याय मानने से पैदा हुआ है। यह समझ में नहीं आता है कि लोक को गाँव का पर्याय क्यों मान लिया गया? मुझे अभी तक किसी शब्दकोश में लोक का यह अर्थ नहीं मिला और न ही हिंदी कविता और उसकी आलोचना में जहाँ भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है उससे यह अर्थ निसृत होता है। कबीर से लेकर केशव तिवारी तक अनेकानेक कवि-आलोचकों ने इस शब्द का प्रयोग किया है जो एक व्यापक जगत का बोध कराता है। यदि लोक को गाँव मान लिया जाय तब तो लोकतंत्र का अर्थ गाँवतंत्र हो जाएगा। लोकतंत्र को जब हम गाँवतंत्र नहीं मानते तब लोकधर्मी कविता को गाँव की कविता कहना कितना उचित है? लोककल्याणकारी राज्य की बात हमारे संविधान में कही गई तब क्या उसका आशय गाँव के कल्याण से लगाया जाय? आचार्य रामचंद्र शुक्ल का लोकहृदय, लोकमंगल,लोकरंजन, लोकधर्म, लोकजागरण आदि शब्दों में आया लोक क्या गाँव के अर्थ को लिए हुए है? तब ’लोक की कविता’ को गाँव की कविता क्यों मान लिया जाता है? यह बात गले नहीं उतरती है। लोकसंस्कृति, लोकगीत, लोकसाहित्य आदि पदों की बात करें तो यहाँ भी ’लोक’ शब्द से गाँव नहीं बल्कि  ’समूह’ का अर्थ व्यंजित होता है। आचार्य शुक्ल के चर्चित निबंध  ‘कविता क्या है?’ की कुछ पंक्तियाँ देखिए- ‘कविता मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भाव-भूमि पर ले जाती है, जहाँ जगत की नाना गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है। इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता। वह अपनी सत्ता को लोक-सत्ता में लीन किए रहता है।’ यहाँ भी ’लोक’ शब्द जन-समूह के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। मीरा जब ’लोकलाज तज दीनी’ की बात कहती है तब भी  लोक गाँव का अर्थ नहीं देता है और न ही मुक्तिबोध की इस काव्य-पंक्ति में- ‘लोकहित पिता को घर से निकाल दिया’, फिर लोक बराबर गाँव का भ्रम क्यों फैलाया जाता है? इसको समझने की आवश्यकता है। जबकि ’लोक’ शब्द व्यापक अर्थ को समेटे हुए है। यह उस दुनिया का पर्याय है जो श्रमशीलों से जुड़ी है। अभिजनो से भिन्न है। सामूहिकता, सादगी, स्पष्टता, परस्परिकता, निःश्चलता, बेवाकी, प्रकृति से निकटता  उसकी विशेषता है। गाँव या शहर जैसा भेद इसमें नहीं आता है। जो पेड़,फूल-पत्ती, नदी, पहाड़, पशु-पक्षी और गाँव या अंचल को ही लोक मानते हैं, वे लोक की अवधारणा को सीमित करते हैं। लोक व्यापक जन-जीवन का प्रतीक है जो बंधा नहीं है और नितांत निजी, संकुचित और अस्थाई लक्ष्य से नहीं जुड़ा है। प्रतिरोध और संघर्ष इसका प्रमुख गुण है।

लोक सिर्फ गाँव के लोकगीतों-नृत्यों या कलाओं में ही नहीं है। आदिवासी, किसान, श्रमिक अर्थात अपने श्रम से आजीविका चलाने वाले सभी जन ’लोक’ के अंतर्गत आते हैं जो अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि वे गाँव में रह रहे हैं या शहर में। नगर में रह रहे हैं या महानगर में। वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह के शब्दों में कहें तो, ‘किसी समाज में सर्वाधिक क्रियाशील शक्ति के रूप में लोक होता है। जीवन की सारी उत्पादकता उसी के कंधों पर टिकी होती है। ज्ञान-विज्ञान में दीक्षित लोग उसी लोक-श्रम की शक्ति के बल पर अपनी इच्छा को क्रिया के रूप में परिणित करते हैं।’ लोक को मनोरंजन का साधन मान कर उसके संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता है। न ही उसको बैठक के कमरों में सजावट की वस्तु माना जा सकता है। लोक शास्त्र का उल्टा है। शास्त्र रूढिबद्धता होता है जबकि लोक में खुलापन जो जीवनानुभवों पर निर्भर होता है। आचार्य भरत ने ’भरत नाट्यम’ में ’दुःख से दुःखी, श्रम से थके  तथा शोक से दबे’ लोगों को लोक कहा है। क्या ऐसे लोग केवल गाँवों तक ही सीमित हैं? ये तो पूरे विश्व में फैले हैं जो शोषण-उत्पीड़न में पिसे हैं और उसके खिलाफ लड़ भी रहे हैं। लोक स्थानसूचक नहीं बल्कि स्थितिसूचक है। उन लोगों का सूचक है जो श्रमरत हैं, कठिन जीवन संघर्ष कर रहे हैं। जो शोषित-दमित पर लोकतंत्र का आधार हैं। वरिष्ठ कवि-आलोचक विजेन्द्र लोक को सबसे सही रूप में परिभाषित करते हैं, ‘ लोक वह जो इस समाज के निर्माण में लगा हुआ है। किसान या श्रमिक लोक पुरुष हैं। यही सभ्यता के निर्माता हैं। उनका जीवन अभिजात्य के विरूद्ध व्यंग्य और विडंबना है। लोक भद्रता का उलट है।……लोक सर्वहारा का पर्याय है। अतः लोक की सीमा गाँव या जनपद तक नहीं है। वह समूचे विश्व की उभरती ताकत है। ज्यों-ज्यों पूँजी केन्द्रित व्यवस्था साम्राज्यवाद से गठजोड़ कर उसका दमन करेगी त्यों-त्यों उसकी शक्ति बढ़ेगी। वह प्रतिरोध करेगा। संघर्ष कर वह दमन और शोषण से मुक्त होना चाहेगा।’ लोक के इसी स्वरूप को पूरी ईमानदारी और समग्रता से व्यक्त करने वाला कवि ही लोकधर्मी कवि है जिसके लिए जीवन ही सतत् समर, प्रकृति  प्रेरणा और संघर्षशील सर्वहारा ,बल है।वह स्वार्थबद्ध नहीं होता है। वह कविता कुछ पाने के लिए नहीं लिखता। पद-प्रतिष्ठा या पुरस्कार पाना उसका यथेष्ट नहीं होता है। लोक की तरह खरापन उसका स्वभाव होता है। बाहरी टीम-टाम और आडंबर-पाखंड से दूर रहता है। इसलिए लोक को जाने समझे और व्यक्त किए बिना हम एक अच्छे कवि नहीं हो सकते हैं। लोकतंत्र में हमें लोक को नई आँख से देखना ही होगा।

’लोकजीवन’ से आशय उस जीवन से है जो शहरी उच्च मध्यवर्गीय जीवनानुभवों से बाहर पड़ता है। नागार्जुन, केदार,त्रिलोचन सहित अधिकांश लोकधर्मी कवियों ने अपनी कविताओं में इस जीवन को ही स्थान दिया है। लोकधर्मी होने का मतलब लोकजीवन की चिंताओं के प्रति तादात्म्यता है। आत्मबद्धता से बाहर निकलकर जगतबद्ध होना है।जो कवि अपने तक ही सीमित हैं और अपने मन की उमड़न-घुमड़न को ही कविता में व्यक्त करते हैं , वे लोकधर्मी नहीं कहे जा सकते हैं। इस तरह की कविता की लोक या जनसामान्य  के लिए कोई प्रासंगिकता नहीं है। समय और समाज की टकराहट में यदि स्थितियों का विश्लेषण नहीं किया जाता है तो वह एकांगी और आत्मनिष्ठ  है। जीवन चिंता और जीवन सौंदर्य की अभिव्यक्ति ही कविता को बड़ा बनाती है। अपने समय के जीवन के प्रति अत्यंत सीमित-सिकुड़ी-सिमटी समझ से बड़ी कविता नहीं लिखी जा सकती है। ऐसी कविता विसंगति-विडंबना तक ही सीमित रह जाएगी उसमें जीवन की व्यापकता नहीं आ सकती है। वह तो लोक से जुड़कर ही आ सकती है। जिसे कबीर लोकानुभव कहते हैं। यह तभी संभव है जब लोकजीवन और प्रकृति के व्यापक फलक से हमारी निकटता हो। लोक की बात करना जीवन को व्यापकता और गहराई में देखना है। अतः लोक से बाहर निकलने का मतलब तो एक संकीर्ण व सीमित दुनिया में जाना है जो शास्त्र तक सीमित है। जब कोई कवि लोक की व्यापक दुनिया से निकलकर सीमित दुनिया में जाएगा तो स्वाभाविक है फिर वह कविता में क्रीड़ा-कौतुक और अर्थ चमत्कार ही पैदा करेगा। एक बड़ी कविता लोेक से जुड़कर ही लिखी जा सकती है। विश्वसाहित्य को उठा लीजिए, आप पाएंगे कि हर बड़ी रचना लोक से आबद्ध हो तथा सामंती-पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध करके ही बड़ी हुई है।

यह सही है कि लोकधर्मिता के नाम पर बहुत सारी कविताओं में पुरास्मृति के बिंब घटित होते दिखाए जा रहे हैं वास्तव में जो नष्ट हो रहा है उसके प्रमाण कविता में नहीं दिखाई दे रहे हैं। लोकधर्मी कहलाने वाले  कुछ कवियों के यहाँ लोक तो खूब लदा रहता है पर उसे व्यक्त करने की सही राजनीति और विचारधारा से उसकी निकटता नहीं दिखाई देती है। लिजलिजी भावुकता के दर्शन होते हैं। पेड़,फूल-पत्ती, नदी, पहाड़, पशु-पक्षी और गाँव या अंचल के जन-जीवन का चित्रण ही  लोकधर्मिता मान ली जाती है। लोक में व्याप्त अंधविश्वासों-रूढ़ियों का महिमामंडन भी किया जाता है। कविता में केवल गाँव-जवार या खाँटी देशजता का चित्रण ही होता है। द्वंद्वात्मकता का अभाव दिखता है। आधुनिकता और उस पर आसन्न सामाजिक-राजनैतिक संकटों की कसौटी पर लोक को नहीं कसा जाता।मैं सुबोध शुक्ला की इस बात से सहमत हूँ कि  ” लोक का सरलीकरण संभव नहीं है। कविता में लोक का इस्तेमाल किसी चकमक पत्थर की तरह अथवा कढ़ाई के धागे की तरह करने वाले ही उसका सार्वधिक नुकसान कर रहे हैं। ’ यह भी  बिल्कुल सही है कि एक खास लोकेल के चमत्कारी दृश्यों को रूमानी तरीके से और लद्धड़ भाषा में प्रस्तुत करना लोकधर्मिता नहीं है जो इसे लोकधर्मिता मानता है वह लोक की आधी-अधूरी, सतही और भ्रमित समझ रखता है।ऐसे ही कवि-आलोचक लोक में फँसते हैं रमते नहीं। परंतु ये सब कवियों की सीमाएं हैं लोक की अवधारणा की नहीं। जो कवि लोक को ऐतिहासिक द्वंद्वात्मकता की कसौटी में कसता है। उसके यहाँ प्रकृति और जीवन के कुछ दृश्यमात्र ही नजर नहीं आते हैं बल्कि लोक का पूरा संघर्ष ,संघर्ष के कारण और उनसे मुक्ति के उपाय भी अभिव्यक्त होते हैं। सामाजिक-राजनैतिक अंतर्विरोध उजागर होते हैं।शोषित-उत्पीड़ित ही नहीं शोषक-उत्पीड़क भी साफ-साफ नजर आते हैं। जीवन ,प्रकृति और समाज की विविधता पूरी समग्रता के साथ दिखती है।

  यदि लोकधर्मी कविता में गाँव का जन-जीवन और उसके चित्र अधिक आते हैं तो उसके पीछे ठोस कारण हैं क्योंकि लोक या सर्वहारा वर्ग का बड़ा हिस्सा अभी भी गाँवों में रहते हुए अभावों की जिंदगी जीने को विवश है या किसी नगर या महानगर में रहते हुए भी गाँव उनकी चिंताओं में बना हुआ है।ऐसे में यदि गाँव की, कविता में अधिक बात की जाती है तो यह गलत क्या है ? हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि गाँव जैसे भी हों भले-बुरे पर आज भी विकास और सुख-सुविधाओं की दृष्टि से  शहरों से बहुत पीछे हैं। अभावों और उपेक्षाओं के शिकार हैं। आज भी उनके विकास की लड़ाई लड़ने की जरूरत है। इस लिहाज से उनका कविता के केंद्र में होना स्वाभाविक ही है।कविता में हाशिए की आवाज का अभिव्यक्त होना गतल कहाँ है?यह सही है गाँव आज बदल गए हैं। गाँवों में अब वह बात नहीं रही जो आज से दो-चार दशक पहले थी। तब क्या उन बदलावों को कविता में दर्ज नहीं होना चाहिए ? उनकी कमजोरियाँ , बदलाव ,अंतर्विरोध ,विकृतियाँ आदि सभी बातें कविता में दर्ज होनी चाहिए। किसी कवि का इस लोक से बाहर निकलना खुशी की बात कैस मानी जा सकती है? या इस लोक को नजदीकी से देखना और कविता में अभिव्यक्त करना वहाँ ’फँसना’ कैसे माना जा सकता है?’फँसना’ शब्द तो मजबूरी का परिचायक है। एक मध्यवर्गीय जीवन जीने वाले कवि-आलोचकों को ही लोक में जाना ’फँसने’ की तरह लग सकता है। वही लोक से जितनी जल्दी हो सके बाहर भाग निकलने की कोशिश करता है। उसके भी ठोस कारण हैं। दरअसल हमारे मध्यवर्गीय कवि-आलोचक जिस तरह का आरामतबलब जीवन जीते हुए शब्दों में खुद को जनपक्षधर दिखान चाहते हैं लेकिन लोक जीवन के दुर्धर्ष कष्ट और संघर्ष उनसे प्रश्न पूछते हुए लगते हैं इसलिए अपनी सुविधा के लिए जल्दी से जल्दी खुद तो दूर चले ही जाना चाहते हैं दूसरों को भी वैसा ही करने को प्रेरित करते हैं।

 कभी कविता में कुलीनतावाद का विरोध करने वाला आलोचक आज जब ’लोक से बाहर निकलने’ को किसी कवि के विकास के रूप देखता है तो यह उसका विचलन नहीं तो और क्या है? क्या यह गाँव या जनपद के प्रति हिकारत का भाव नहीं है? ऐसे कवि-आलोचकों के प्रति कवि मित्र केशव तिवारी यह बात मुझे अच्छी लगती है कि ’’अपनी जरूरत का अन्न, फल-फूल,साग-सब्जी ,दूध-दही आदि हम लोक से लेते हैं। हमारे फार्म हाउसों , कल-कारखानों, घरों में काम करने वाले लोग लोक से आते हैं। अपनी हर जरूरत के लिए हम लोक की ओर देखते हैं जिसमें किसी को कोई हिचक नहीं होती है। कोई किसी तरह का परहेज नहीं करता है पर वहाँ से आने वाली संवेदना से हमें दिक्कत क्यों होने लगती है? लोक की संवेदना पिछड़ी क्यों प्रतीत होने लगती है?’’  कुछ आलोचक इधर की लोकधर्मी कविताओं पर यह आरोप भी लगाते हैं कि ये कविताएं अक्सर ग्रामीण लोक के लालित्य का ही बखान करती हैं। लोक में व्याप्त सामंती आचरणों और उसकी बढ़ती विद्रूपता को नहीं देख पाती हैं।इनमें विविधता और वैचारिकी का अभाव हैं। ये व्यापक लोक से अपना संबंध नहीं जोड़ पाती हैं। इसमें  गाँवों के जीवन की परंपरागत लय,सादगी,सरलता,निष्कपटता, आत्मनिर्भरता, उच्च जीवन मूल्यों से जुड़ाव, भाईचारे, स्नेह, आपसी सौहार्द तथा सामूहिक सहअस्तित्व की स्थितियों पर मंडराता संकट, मूल्यविहीन राजनीति, स्वार्थ, तिकड़मबाजी, क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं, स्पर्धा, जातिवाद, संगठित अपराध से ग्रस्त ग्रामीण समाज, वैश्वीकरण के लोकजीवन पर प्रभाव, किसानों की आत्महत्या, परम्परागत काम-धंधों में आए परिवर्तन आदि नहीं दिखाई देते है। यह आरोप कुछ हद तक सही हो सकता है पर पूरी तरह नहीं। इधर लिखी जा रही लोकधर्मी कविताओं में ऐसी कविताओं की पर्याप्त संख्या मिल जाएगी जिनमें उपरोक्त बातों का गहरा एवं व्यापक चित्रण मिलता है। जिनका यहाँ विस्तार के भय से उल्लेख संभव नहीं हो पा रहा है।

कोई दूर-दराज जनपदों में रचनारत कवियों की कविताओं को पढ़ने की जुर्रत तो करे। जो आलोचक-समीक्षक कवियों से तो व्यापक लोक से संबंध जोड़ने की अपेक्षा करते हैं उन्हें पहले कविता के व्यापक लोक से संबंध जोड़ना चाहिए। जिन स्वनामधन्य आलोचकों की नजर साहित्य के बड़े केंद्रों और सत्ताश्रयी-रंगीन-चमकीले कागजों में निकलने वाली पत्रिकाओं से बाहर नहीं जाती है, जो अपने आग्रहों-पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं हो पाते, वे भला  ये सब कहाँ से देख पाएंगे? फलस्वरुप अपनी नजर की सीमा को कविता की सीमा बना देते हैं। इसके लिए तो शिवकुमार मिश्र, विजेन्द्र,विष्णु चंद्र शर्मा, आनंद प्रकाश ,जीवन सिंह ,रमाकांत शर्मा, रेवतीरमण, सियारामशर्मा, कर्मेन्दु शिशिर, ए0अरिविंदाक्षन, सूरज पालीवाल, अमीरचंद वैश्य, रामकुमार कृषक, ज्ञानेन्द्रपति ,मदन कश्यप, नूर मुहम्मद नूर , एकांत श्रीवास्तव, कपिलेश भोज, रश्मि रेखा, भरत प्रसाद, बलभद्र, जितेन्द्र श्रीवास्तव, रमेश प्रजापति, सत्येंद्र पांडे, नीलकमल, अच्युतानंद मिश्र, सुबोध शुक्ला सरीखे लोकोन्मुखी आलोचक-संपादकों जैसी दृष्टि की आवश्यकता होती है। दरअसल दिक्कत यह है कि मध्यवर्गीय कवि-आलोचकों के पास सीमित जीवनानुभव होने के कारण लोक की व्यापकता और गहराई में वे उतर नहीं पाते हैं। लोक के कठिन और दुर्गम जीवन से जुड़ना उनके वश में होता नहीं है ऐसे में लोक को नकार और उसको सीमित दिखाकर ,वे अपने कद और अनुभव को बड़ा दिखाने की जोड़-जुगत करते हैं। उसी जोड़-जुगत में ’लोक’ की लाइन को मिटा कर वे अपनी लाइन को बड़ा करने की नाकाम कोशिश करते हैं।लोक के नाम पर फैलाए जा रहे तमाम भ्रमों को इसी कड़ी में देखा जाना चाहिए।

 

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महेश चन्द्र पुनेठा हिन्दी के महत्वपूर्ण युवा कवि  एवं आलोचक हैं। इनका एक काव्य संग्रह भय अतल’ में काफी चर्चा में रहा है।
इस आलेख में प्रयुक्त की गयी सभी पेंटिंग्स मशहूर कलाकार वान गॉग की है। जिसे हमने गूगल से साभार लिया है।

संपर्कः 

जोशी भवन, निकट लीड बैंक 
पिथौरागढ़ 262501 (उत्तराखंड)
मो- 09411707470

महेश चन्द्र पुनेठा

पहली बार हमने एक नयी श्रृंखला प्रारम्भ की है जिसके अंतर्गत एक कवि की कवितायें दूसरे कवि की टिप्पणी के साथ प्रस्तुत की जा रही हैं. इसी क्रम में प्रस्तुत हैं महेश चन्द्र  पुनेठा की कवितायें शैलेय की टिप्पणी के साथ.

महेश चन्द्र पुनेठा लोक के बहुत गहरे कवि हैं। गौरतलब है कि उनके यहां लोक किसी सामान्य उद्वरण सामान्य मुहावरे की तरह नहीं बल्कि वह अपनी गहन संवेदना से सम्पृक्त व्यापक सरोकारों के आख्यान की तरह खुलता चला जाता है। पहाड़ के कवि होने के नाते यह बहुत सहज स्वाभाविक है कि अनगिनत घाटियों सी गहरी-गहरी पीड़ाएं और हरी-भरी अगाध ऊंचाइयों का उद्दाम आवेग उनकी कविताओं का प्राथमिक विषय है। यहां यह महत्वपूर्ण है कि पुनेठा सुमित्रानंदन पन्त की तरह महज प्रकृति के सुकुमार कवि बन कर ठहर नहीं जाते । वे पहाड़ के कठोर जन-जीवन में भीतर तक पै करते हैं और वहां की विषम जमीनी सच्चाइयों को रचना के धरातल र ला कर पाठक से रूबरू कराते हैं।
 

यह सुखद आश्वस्ति है कि पुनेठा ने अपने पहले कविता संग्रह भय अतल में की हदों को तोड़ते हुए अपनी कविता में व्यंजनाओं की नई जमीन स्थापित की है। जहां भौगोलिक परिवेश के साथ -साथ सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक संघर्षशीलता भी बराबर दर्ज है। इसलिए उनकी कविताओं में लोक भाषा -बोली के शब्दों की बहुतायत के साथ-साथ लोकोक्तियों मुहावरों और किंवदंतियों का सजीव चित्रण मिलता है। लोकोन्मुखता मिलती है। उनके यहां पहाड़ के अतीव सौंदर्य के साथ ही वहां की अदम्य संघर्षशीलता की भी स्थापना है। इसीलिए उनकी प्रेम कविताएं भी पर्याप्त भिन्न छटाएं लिए हुए है। जीवन के प्रति गहन सम्पृक्ति के इस कवि को पढ़ना सचमुच पहाड़ से होते हुए पहाड़ी ही हो जाना है। कविता की कुछ ऊंचाई चढ़ लेना है।
-शैलेय
  
अकाल मृत्यु एक शिल्प की
 

गया था गॉव जब इस बार
पता चला 
नहीं रहा उमेद राम 
ऑखों में 
घूमने लगा उसका रूप 
उकड़ू बैठा 
एक हाथ में बसूला दूसरे में छीनी 
एक डेढ़ बेत का निंगाल 
धीरे धीरे प्रहार करता जिसमें 
फिर मुंह से लगा स्वर जॉचता 
एक छोटी सी चोट मारता और 
दत्तचित्त 
मीठे मीठे और मीठे सुर भरने में 
भर देना चाहता हो जैसे 
संसार भर का मोद 
अपने दुख दर्दों को भुला कर 
एक छोटी सी मुरली में। 
याद आने लगा 
उसका बेजोड़ हुनर 
सुर संधान कर देता जो 
निंगाल की एक निर्जीव पतली डंडी में गूंजती थी जो मेले मेले में 
मोष्टामानू से चौपखिया तक 
देवीधूरा से जौलजीवी तक 
नहीं छूटता था कोई भी कौतिक 
दिख नहीं जाता जहॉ वह 
बेचते हुए मुरली 
मेले से 
आठ दस रोज पहले से 
फुरसत नहीं होती थी उसे 
खाना खाने तक की भी 
रात दिन लगा रहता 
मुरली तैयार करने में

लोग बताते हैं
मृत्यु से बहुत पहले 
छोड़ दिया था उसने मुरली बनाना 
पकड़ ली थी हल की मूंठ  
हल वाला बन गया था पंडितों का 
करता भी क्या 
बहुत कम हो चली थी भीड़ भाड़ 
मेलों में 
हो चले शराबियों जुआरियों के अड्डे 
बहुत कम हो गयी थी 
बच्चों की रूचि मुरली में 
जापानी या चीनी 
फैंसी खिलौनों ने ले ली जगह उसकी ।

फिर भी 
फुरसत में होता जब कभी वह 
बना लेता एक दो मुरली 
बीते दिनों को याद करते हुए 
मृत्यु के बाद 
न जाने कहॉ फेंक दी लड़कों ने 
बॅट गये बसुला और छीनी 
लड़कों के बीच 
उसकी संपत्ति की तरह । 
एक उम्र खाये शिल्पी के साथ 
अकाल मृत्यु हो गयी एक शिल्प की ।

पहाड़ टूटना

नहीं….नहीं ….
मुझे इल्जाम न दो
मैं कहाँ टूटता हूँ आदमी पर
आदमी टूट रहा है मुझ पर ।

मेरे बाल
मेरी खाल
मेरी हड्डी
मेरी मज्जा
मेरी पेशियाँ
मेरी आँतें
क्या छोड़ा है उसने साबूत मेरा

मुझे कूटा   मुझे लूटा
मुझे छेड़ा   मुझे उधेड़ा
मुझे काटा  मुझे पीटा
मुझे तोड़ा  मुझे फोड़ा
मुझे सुखाया  मुझे डुबाया
क्या क्या न किया जा रहा मुझसे

मेरा रोना
मेरा कराहना
मेरा तड़फना
मेरा कलपना
मेरा चीखना
नहीं दिखाई देता कभी उसे

मैं कहाँ किसी पर टूटता हूँ

मैं तो खड़ा रहना चाहता हूँ अडिग
मैं जानता हूँ
उसी में मेरी आन है बान है शान है

मैं तो चुपचाप देखता रहता हूँ
जब तक रह पाता हूँ
खड़ा रहता हूँ
खोद दी जाती हैं जड़ें मेरी तो
टूटना मेरी नियति है।

मुझे नहीं मालूम
कौन मेरे नीचे आ कर दब गए
किसके उजड़ गए परिवार

किसकी करनी ,किसकी भरनी ।

दुःख अवश्य होता है कि
जिनको खेलाया-कुदाया अपनी गोद में
उनकी ही कब्र बन बैठा

मुझे मालूम है इनकी कोई लड़ाई नहीं मुझसे
न कोई प्रतिस्पर्धा
मुझसे अलग कहाँ हैं ये
इनकी जरूरतों को पहचानता हूँ मैं
ये भी जानते हैं मेरी आदतों को
मैंने जो दिया इन्हें
सहर्ष स्वीकारा इन्होंने
इनका खोदना गोड़ना , चलना-फिरना
हमेशा से प्रीतिकर ही लगता रहा है मुझे
इनकी कुदाल-कस्सी-फावड़ा
गैंठी-बेल्चा-संबल
मुझे गुदगुदाते हैं बहुत
इनके बिना तो मैं भी रहता हूँ
उदास-उदास सा
सदियों से साथ रहा है इनका और मेरा

पर जिसकी इच्छाएं नहीं होती तृप्त
भूख नहीं होती शांत
क्या-क्या न! बना डाला है उन्होंने
मुझे तोड़ने-फोड़ने-छेदने-काटने के लिए
जैसे यु़द्ध करने उतरे हों मुझसे
मुझे नहीं पता
उनके  अस्त्र-शस्त्र-विस्फोटकों के नाम
ये फनाकार-सूँड़ाकार-पंजाकार
राक्षसी मिथक को मात देने वाले
कितने विशालकाय
कितने मारक हैं ।
मुझे जीतने आये हैं वे
या
खुद को हारने
मैं कह नहीं सकता
मैं तो कह सकता हूँ सिर्फ इतना
मैं कहाँ टूटता हूँ आदमी पर………।

उन्हें चिंता है

उन्हें चिंता है कि खत्म होती जा रही हैं लोकबोली-लोकसंस्कृति

चलाया है उन्होंने अभियान उसे बचाने का
आयोजित किए जा रहे हैं गोष्ठियाँ-सेमीनार
निकाली जा रही हैं पत्र-पत्रिकाएं
रचा जा रहा है लोकबोली में साहित्य
प्रोत्साहित किया जा रहा है अपनी बोली में बातचीत के लिए
देशी व्यंजनों/अनाजों/औजारों/बर्तनों/आभूषणों/वस्त्रों आदि से जुड़े
शामिल किया जा रहा है शब्दकोशों में उन्हें

जब तक शब्द शामिल हो रहे शब्दकोशों में
चीजें गायब हो जा रही हैं जीवन से
उन्हें चिंता है कि खत्म होती जा रहीं हैं लोक बोलियाँ ।

पहाड़ की खेती और माँ

लगी हूँ दिन.रात
लगी हूँ वर्षों से
जैसे गाड़.गधेरों में बहता पानी
जैसे इन पहाड़ियों और घाटियों के बीच चलती हवा
नहीं मिला पीठ सीधी करने का वक्त भी

बहुत हो गया अब
सिर भी पैरों को मिलने आया

होश भी नहीं संभाला था ठीक से
उससे भी पुराना है इस मिट्टी से नाता
अपने से अधिक इस मिट्टी को जानती हूँ
इसके रूप.रंग.गंध को
इसकी खुशी और उसके रुदन को
इसकी जरूरत को

रौखड़ भी कमता किया
दलदल में भी डूबी रही
चिलकोई घाम में तपी
चौमासी झड़ में भीगी
ओस.तुस्यार की नहीं की परवाह कभी
रक्त.हड्डी.मांस गलाया सभी
खाए.अधखाए घूमती रही जातरे की हथिनी सी
पानी कहाँ
आँसू.खून.पसीने से सींची
पूरा परिवार जुता रहा अपनी.अपनी तरह से
बच्चे नहीं कर पाए ठीक से पढ़ाई
बुति के दिनों तो कम ही हो पाता स्कूल जाना उनका
चाहे.अनचाहे
खेती.बाड़ी के काम ही उनके खेल बन गए
खीजते रहते थे बच्चे खूब
फिर भी लगे रहते मेरे साथ सभी

पर फसल
कभी अकाल ने सुखाई
कभी ओलों ने मारी
कभी जंगली जानवरों ने खाई
बीज भी मुश्किल से रख पाई
सब ठीक.ठाक भी रहा तो
आधे साल भी परिवार का पेट नहीं भर पाई

अब तो और भी खराब हाल हैं
बढ़ गया है जंगली जानवरों का आतंक
गुन.बानर तो भीतर तक ही घुस आते हैं
बीज उजड़ चुका है अपना
ब्लाक के भरोसे रहना ठैरा
बिन यूरिया के कुछ होता नहीं
हल.बैल अपने हाथ हुए नहीं

कभी सोचती हूँ बहुत हो गया अब
चली जाऊँ बड़े के साथ शहर
बहुत कहता है.माँ आ जा यहाँ
रूखी.सूखी जैसी भी है साथ मिल कर खाएंगे
दुःख.बीमार देखभाल  दवा.दारू भी हो जाएगी
खूब कर दिया है जिंदगी भर
अब थोड़ा आराम कर

फिर हूक.सी उठती है इक
क्या कहेगी यह मिट्टी
हारे.गाड़े काम सराया जिसने
कैसे छोड़ चली जाऊँगी उसे
बचपन से अब तक जिसके साथ रही
मेरे आँसू.खून.पसीने की गंध बसी
कैसे रहूँगी इस सबके बिना शहर

पुरखों की जमीन
बंजर अच्छी नहीं दिखती
हरे.भरे खेतों के बीच बंजर जमीन
मजाक उड़ाएंगे
भाई.बिरादरी के लोग भी

नहीं.नहीं
जमीन का बंजर रहना अपशगुन माना जाता है

और कुछ न सही
मन तो लगा रहता है इसके साथ
इधर.उधर चलना.फिरना हो जाता है
वहाँ तो अभी से घोलि जाऊँगी
क्या जिंदगी है पिजड़े में बंद पंछी की
पंख भी पूरे फड़फड़ा नहीं पाता ।

नहीं.नहीं मैं यहीं ठीक हूँ

दुःख की तासीर

पिछले दो-तीन दिन से
बेटा नहीं कर रहा सीधी मुँह बात

मुझे बहुत याद आ रहे हैं
अपने माता-पिता
और उनका दुःख

देखो ना! कितने साल लग गए मुझे
उस दुःख की तासीर समझने में।

भावी कर्णधार

उतरवाए जा रहे हैं जूते-मौजे
उलटवाई जा रही हैं खल्दियॉ-आस्तीनें
पेंट की कमर और मुहरियॉ
छात्राओं के अंतःवस्त्रों तक की
की जा रही है जॉच
हथेलियों ,बॉहों और पिंडलियों में
खोजा जा रहा है कि
कहीं लिखा न गया हो कोई
शब्द या वाक्य
कड़ी जॉच से गुजरने के बाद ही
प्रवेश दिया जा रहा है
परीक्षा कक्ष में

कक्ष निरीक्षकों की नजरें
टिकी हैं उन पर
जैसे एल.ओ.सी .पर
सैनिकों की नजरें दुश्मन पर ।

औचक
टूट पड़ते हैं उड़न दस्ते
एक बार फिर दोहराई जाती है
सघन जॉच की वही प्रक्रिया

बावजूद इसके
सेंध लगा ही लेते हैं वे
कक्ष निरीक्षकों की नजरों पर

एक्स-रे की तरह हो गई हैं उनकी आँखें
कान अतिरिक्त चौकन्ने
पिन गिरने की आवाज को भी सुन लेते हैं अभी वे
और देख लेते हैं धुँधले से धुँधले अक्षरों को भी
एक-एक शब्द और वाक्य की तलाश में
भटक रहे हैं उनके आँख-कान
जैसे बेघर घर की तलाश में ।

येन-केन प्रकारेण जोड़-जुगत कर
भर लेना चाहते हैं वे उत्तर पुस्तिकाएं

उनके मन में नहीं है कोई अपराध बोध

बल्कि इसको  अपने अक्लमंद होने के
प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करते हैं व
सूख कर काठ हो गई है इनकी आत्माएँ
भावी कर्णधार हैं ये देश के।

प्रेम

1

उम्र ठहर जाएगी
त्वचा बनी रहेगी मुलायम
और इच्छाएं जवान
भर्राएगी नहीं आवाज
ऑखें खोएंगी नहीं अपनी चमक
धड़कनें अपनी होते हुए भी
नहीं रहेंगी अपनी
दुख-तकलीफों से घिरे हुए भी
दुखी न होंगे
निर्जन में भी
कभी न होंगे अकेले

गर यू ही चलती रही
दिल से दिल की जुगलबंदी ।

2

प्रवाह है जब तक
नदी नदी है ।
गति है जब तक
हवा हवा है ।
मुक्त है जब तक
प्रेम प्रेम है ।
बॅधते ही
नदी नदी नहीं
हवा हवा नहीं
और प्रेम प्रेम नहीं
उतरन मात्र रह जाते हैं इनकी ।

3

लगातार जारी है कोशिश
सदियों से, कल्पों से
तथाकथित नैतिकताओं के मंत्रों से
सुखाने की उसे
लगातार जारी है कोशिश
जाति ,धर्म और उम्र के बंधनों में
जकड़ने की उसे
लगातार जारी है कोशिश
सूली में चढ़ा कर
सर कलम कर
सरेआम नंगा घुमा कर
उसके पात्रों को
डराने -धमकाने की
पर प्रेम है कि
कठोर से कठोर दमन शिला के
नीचे से भी
प्रस्फुटित हो ही  पड़ता है
हरी-उचयभरी दूब की तरह

शैलेय हिन्दी के जाने-माने कवि हैं. इनके कविता संग्रह ‘या’ और ‘तो’ चर्चित रहे हैं. 
आजकल कुछ कहानियां और एक उपन्यास लिखने में व्यस्त हैं.
सम्प्रति इन दिनों उत्तराखंड के रुद्रपुर के एस बी एस कालेज में हिन्दी के प्राध्यापक हैं.   

महेश चन्द्र पुनेठा

अटूट और असंदिग्ध जनपक्षधरता के कवि: विजेंद्र
कोई अगर मुझसे कविवर विजेंद्र की एक और सबसे बड़ी विशेषता के बारे में पूछे तो मेरा एक वाक्य में उत्तर होगा- विजेंद्र अटूट और असंदिग्ध जनपक्षधरता के कवि हैं। उनकी जनपक्षधरता का परिचय इस बात से ही चल जाता है कि जब अज्ञेय की जन्म शताब्दी वर्ष में तमाम प्रगतिशील वामपंथी अज्ञेय की कला से मुग्ध होकर उनकी प्रशंसा में कसीदे पढ़ रहे थे विजेंद्र ने ’असाध्य वीणा’ पर साहस और विवेक से लिखते हुए अज्ञेय की लोक से दूरी और जनविमुखता को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि क्यों यह कविता एक बड़ी व अर्थवान कविता नहीं कही जा सकती है? विजेंद्र इस आलेख में कहते हैं –  ‘जब कवि जनता से-अपने लोक से-एकात्म होता है-उसके संघर्ष में शरीक होता है तभी वह शिवेतरक्षतये की बात सोच सकता है। आध्यात्म और रहस्योन्मुखता से वह जनता के संघर्ष में न तो शरीक हो सकता है। न वह शिवेतरक्षतये की बात सोच सकता है।’ कविता का सबसे बड़ा प्रयोजन यही है। यही उसकी सार्थकता है। विजेंद्र मानते हैं कि यह कविता शिवेतरक्षतये की कसौटी में खरी नहीं उतरती है। वे अपने इस आलेख में इस कविता के संदर्भ में मुख्य रूप से चार बातों को रेखांकित करते हैं- पहली बात, इस कविता में अपने देश के तत्काल अतीत की ऐतिहासिक द्वंद्वमयता से कवि की संवेदना का सरासर विच्छेद है। दूसरी बात ,कविता का कथ्य समकालीनता की गतिकी के अनुरूप नहीं है। यह कविता उस पतनशील कला की प्रतीक है जो जन तथा लोक से दूर रह कर निरर्थक और निष्प्राण होती है। तीसरी बात है काव्य प्रयोजन की दिशाहीनता। सारा जोर आत्मशोधन पर है। पूरी कविता आत्मसाक्षात्कार की ध्वनि है। चौथी बात है समग्र कविता का जीवन-निषेधी प्रभाव। कविता हमें किसी जीवंत दिशा की ओर प्रेरित नहीं करती। वे आगे लिखते हैं-‘असाध्य वीण’ की पूरी फिजा सामंती है। वहाँ दरबार उपस्थित है। राजा को असाध्य वीणा से उपजे सिर्फ ‘स्वर गान’ की चिंता है। स्वयं को खोजने की बेचैनी है। पर अपने समाज के दुःखी जनों की कोई चिंता नहीं है।.पूरी कविता में मनुष्य की लोकधर्मी क्रियाओं का अभाव है।….’  असाध्य वीणा’ ,’प्यौर पोइट्री’-पतनशील रूपवादी कला का प्रतीक है जिसका गहरा संबंध अपने देश की जनता से न होकर राज दरबार से अधिक है। वह राजा के विलास का माध्यम है। लोकतंत्र में वह आज अपनी प्रासंगिकता लगभग खो चुकी है। उनका काव्य नायक जन जीवन से कटा हुआ है जैसे वह स्वयं। इसमें अपने समय के अंतर्विरोध नहीं उभरते। लगता है सब ठीक-ठाक है। बस कवि को एक ही चिंता है कि राजा की आसाध्य वीणा साध्य हो जाए।. उसमें भारत की संघर्षशील जनता की कोई छवि नहीं उभरती।’  इस तरह हम पाते हैं कि इस पूरे आलेख में जन की चिंता ही केन्द्र में है। किसी कविता का ऐसा विश्लेषण एक जनपक्षधर और प्रतिबद्ध कवि ही कर सकता है। वही कविता को इस दृष्टि से देखने में सक्षम हो सकता है। मात्र इसी आलेख से भी हम विजेंद्र के जीवन और कविता के दर्शन को समझ सकते हैं। उनके राजनैतिक और सामाजिक सरोकारों और प्रतिबद्धताओं को जान सकते हैं। वे उक्त आलेख के अंत में कविता और कवि- कर्म को लेकर बहुत महत्वपूर्ण और सारवान बात कहते हैं–  ‘लोक से एकात्म होकर उसके संघर्ष को कविता में दिखाना। सर्वहारा के बीच से संघर्षशील नायक चुनकर क्रूर होती जाती सत्ता का प्रतिरोध करना। इसी प्रक्रिया में हम शिवेतर-क्षतेय के सिद्धांत को कविता में चरितार्थ कर पाएंगे।’ यहाँ यह बात केवल कहने के लिए नहीं कहीं गई हैं बल्कि वे जीवन-भर अपनी कविता में इसी सार को चरितार्थ करने की कोशिश करते रहे हैं। उनके इंद्रियबोध ,विचारबोध और भावबोध के केंद्र में जन या लोक रहा है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संसार को ‘अनंत रूपात्मक’ कहा है अर्थात यह संसार अनंत रूपों वाला है। इस अनंत रूपों वाले संसार को उसके सारे रूप-रंगों में अनुभव करने मनुष्य की ज्ञानेंद्रियाँ उसकी मददगार होती हैं। इनके जरिए शब्द, रूप ,रस गंघ और स्पर्श के संवेदन मनुष्य को मिलते हैं। यही मनुष्य का इंद्रियबोध कहलाता है। एक जनपक्षधर कवि का इंद्रियबोध बहुत मजबूत होता है क्योंकि वह दृष्टा मात्र नहीं होता है बल्कि भोक्ता भी होता है। दूर बैठ कर नहीं बल्कि बीच जा कर देखता है। आज की कविता में इंद्रियबोध की लगातार उपेक्षा हो रही है उसको बीते जमाने की बात कहा जा रहा है पर कविवर विजेन्द्र इसके खिलाफ रहे हैं और इंद्रियबोध की बात बार-बार उठाते हैं। उनका स्वंय का इंद्रियबोध भी बहुत गहरा है फलस्वरूप वे जीवन और प्रकृति की वैविध्यमयी सुरंगी क्रियाशीलता को रचनात्मक भाषा में व्यक्त करने तथा आज की सारी जटिलताओं के बीच जिंदा आदमी की पहचान कराने में सफल होते हैं। यह जिंदा आदमी हमारे मूल्यबोध और सौंदर्य चेतना में गुणात्मक परिवर्तन करता है। उनकी कविता अपने भू-भाग की सांस्कृतिक और जातीय परंपराओं और संस्कारों के अनुरूप अपनी अनुभूति और प्रभाव में एक वैशिष्ट्य लिए हुए है। वे अपने आसपास की संवेगपूर्ण भाषा ,मानवीय व्यवहार और प्रकृति से बहुत तन्मयता और सार्थकता से जुड़ते हैं। जीवंत आदमी और उसके परिवेश को व्यक्त करने के लिए समाज के अंदर तक जा-जा कर उसे समझने का प्रयास करते हैं। वहाँ की नंगी सच्चाई को देखते-परखते हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में जिन भी चरित्रों और दृश्यों को दिखाया है, उन्हें बंद कमरों में बैठ किताबों में पढ़ या दूसरों से सुन कर नहीं उतारा है बल्कि उनके बीच जाकर उन्हें अपनी पाँचों ज्ञानेंद्रियों से टटोला है और भाव के अयस्क को विवेक की धमन भट्टी में तपाया है फिर सुंदर आकृतियों में ढाला है। अपनी मिट्टी का रंग, उसकी गमक, उसके नदी, पहाड़, गाँव-शहर, पेड़-पौधे, फल-फूल,  पशु-पक्षी,  ऋतुएं, फसलें,  उनका स्वाद, अपने जन की वेश-भूषा ,उनके रीति-रिवाज,  पुराकथाएं सब उनकी इंद्रियानुभवों का हिस्सा बन कर उनकी कविताओं में मूर्त हुई हैं जो उनकी कविताओं को एक विशिष्ट जातीय पहचान प्रदान करती है। जीव-जंतु और वनस्पतियाँ अपने रंग-रूप व नामों के साथ आईं हैं। इस रूप में वे भारत की उस साहित्यिक परम्परा जो वाल्मीकि ,कालिदास से लेकर नागार्जुन , केदार ,त्रिलोचन आदि तक फैली है, से जुड़ते हैं। वे अपनी धरती से ही कथ्य ,रूपक ,शब्द और उसकी क्रियाएं चुनते हैं। अपने नायकों को ढूँढते हैं। उन सबको अपने चित्त का हिस्सा बनाते हैं-

‘मेरा घर, मेरा गाँव,  मेरी नदियाँ/ मिश्र धातुओं की तरह खनकती देसी क्रियाएं/ जिंदा आदमी और ताजा निसर्ग/ वे सब मेरे चित्त का/ हिस्सा बन चुके हैं।’

 वे उस सबको अपने चित्त में रचते है जिसे वह जगत और प्रकृति में देखते हैं । इसके लिए वे ’उनके बीच/ उनके साथ/उनके निकट’ जाते हैं। कविता के प्रतिमानों को बदलते हैं। ’कविता के नए प्रतिमानों’ की जगह लोकधर्मी प्रतिमानों को स्थापित करते हैं। वे बीहड़,  खुरदुरेपन,  उजाड़ और उबड़खाबड़ में सौंदर्य की खोज करते हैं। काले,  मटमैले,  धूसर में भी उनको सौंदर्य दिखाई देता है। ये रंग जो जीवन में उपेक्षित हैं उनके यहाँ पूरी सज-धज के साथ जीवन-सत् लिए हुए आते हैं-

काली स्याह आँखों वाली /वह श्यामा/ मुझे बहुत अच्छी लगती है/ जब वह तगारी ले जाती है/ जब वह जीने से/ सुर्ख भीगी ईंट ले जाती है।…..सुंदर हैं वे कालौंच सने हाथ/ कठोर हथेलियाँ / काले नाखून/ अंधेरे को भेदती उत्सुक आँखें/ होती है नई सृष्टि / हर क्षण/ हर पल।

 इन पंक्तियों में काला रंग श्रम के साथ एक नई चमक को प्राप्त करता है। ऐसी चमक जिसमें सौंदर्य के पुराने मानक धराशायी हो जाते हैं। कृत्रिम सौंदर्य के विपरीत धरती और श्रम के सौंदर्य को महिमामंडित करते हैं। इसी के चलते उनकी कविताएं अपने परिवेश के प्रति हमारा दृष्टिकोण बदल देती हैं। हम समाज ,समय ,प्रकृति के प्रति बिल्कुल नए ढंग से सोचने लगते हैं। हमारा सौंदर्य बोध बदल जाता है। कविता को संकुचित दुनिया से बाहर निकालते हैं और कविता के प्रतिमानों को बदलने का संकल्प लेते हैं-  मुझे कविता और जीवन के प्रतिमान/बदलने ही होंगे/मुझे अपना सौंदर्यशास्त्र/फिर गढ़ना होगा।


विजेंद्र की कविताओं में देखने-सुनने की क्रियाएं बहुत अधिक आती हैं। कवि सब कुछ देखता-सुनता है और उसी गहराई से पाठक को दिखा-सुना देता है। इनकी कविताएं क्रियाशील जन का पूरा चित्र उकेर देती हैं। पाठक इन कविताओं को पढ़ते-पढ़ते देखने सा लग जाता है। कवि उन आवाजों को सुनता है जो पूरी धरती को अपने में समेटना चाहती हैं, जो समुद्र की तरह विशाल और मरुस्थल की तरह उत्तप्त ,पठारों की तरह कठोर ,पतझर की तरह सूखी ,वर्षा की तरह गीली ,बाँक की तरह पैनी, फूलों की तरह नरम हैं। इन आवाजों में मौजूद हैं- जब एक आदमी दूसरों के लिए फसल काट कर अपना जिस्म सुखाता है ,जब रात के चिल्ला जाड़े में खादर का किसान खेत में पानी में काटता है तथा जब माँ बच्चों को दूध पिलाती है। ये आवाजें दुःख और उदासी से मुर्झाए चेहरों की तरह शांत ,डूबते सूरज की तरह लाल ,उगते दिन की तरह खुशनुमा हैं ये सामूहिक आवाजें/आंदोलित किसानों की हैं/ये आवाजें /कारखानों के प्रदर्शनकारी श्रमिकों की हैं। इन आवाजों को वे सदियों से सुनते आ रहे हैं। इन्हें उनके पूर्वजों ने भी सुना और उनके वंशजों ने भी। इस तरह उनकी कविताओं में तीनों कालों की आवाज विस्तार पाती है। वे इतिहास में घटित सारी आवाजों को सुनना चाहते हैं। वे अतीत की चीखती झंकारें सुनते हैं जिससे जीवन का कल्पतरू फूला-फला है। इन आवाजों को सुन कर कवि के मन में एक विश्वास प्रस्फुटित होता है और कवि आह्वान करता है

…..ओ कवि ओ अंगिरा / तुम सुनो वे आवाजें/ जो सहसा पृथ्वी के गर्भ से उठती हैं/ आदमी ही बदलेगा अपनी नियति/ यह दुनिया/ रचेगा नया सौंदर्य/ अपूर्व स्थापत्य/ यह विश्वास मुझे उसी ने दिया है/ यह उस आदमी का उठा हाथ है/ जो खड़ा है धारा के विरुद्ध।

यही विश्वास कवि को सृजन के लिए प्रेरित करता रहा है। कवि सिर्फ बाहरी आवाजों को ही नहीं सुनता है बल्कि- पिघला मैग्मा अंदर-अंदर खौलता है/ उसकी दहक सुनता हूँ/धरती से उठी आवाजों में। यह प्रकारांतर से मनुष्य की भीतर की आवाज है। एक साथ कवि दो आवाजों को सुनता है। बाहर-भीतर दोनों में उसकी बराबर आवाजाही है। उनकी कविताओं में जितना बाहर प्रतिबिंबित होता है उतना ही भीतर उद्घाटित । आत्ममंथन और आत्मालोचना लगातार चलती रहती है। कवि उन आवाजों को सुनने का आग्रह करता है जो अपनी पीड़ाएं कहते-कहते चुप हो गई हैं- जिसे क्रूर दानव हर समय दबाने को/ एक ध्रुवीय मुखौटे बदल रहा है। वास्तव में देखा जाय तो इन्हीं को कविता की सबसे अधिक जरूरत है। दृश्यों और आवाजों से भरी कविताओं में हम पाते हैं कि विजेंद्र केवल सतह पर देखने वाले कवि नहीं है ,उनकी दृष्टि सतह से नीचे बहुत भीतर तक जाती है जहाँ से वे जीवन का सारतत्व ढूँढ कर लाते हैं। इसको वह एक कवि दायित्व भी मानते हैं। जो खुली आँखों से नहीं दिखता है उसको दिखाने की कोशिश करते हैं- 

मुझे हर बार इन्हें खँगालने को/सतह से नीचे जाना होगा धैर्य से/…..मेरे जिस्म में जाल की तरह फैली नसें/धरती के अतल में उतरने को कहती हैं/…..सुनता हूँ सतह के नीचे/टकराहटें कण-प्रतिकण/संरचना. स्थापत्य भीतर के।देखिए ना! एक कवि की पिपासा , इसके बावजूद भी उनको लगता है-जो सोचता हूँ कह नहीं पाता। यही बेकली है जो कविता को सार्थकता प्रदान करती है। इस न कह पाने के पीछे कभी-कभी भाषा भी अवरोधक बन जाती है-ओह.. क्या कहूँ उनसे/नहीं समझ पाता उनकी भाषा जब/कैसे पहुँच पाऊँगा उनकी/धड़कनों तक /नहीं जान पाऊँगा उनका दुःख/उनका विषाद कहाँ गया…….

इसलिए विजेंद्र क्रियाशील मनुष्य के जीवंत व्यवहार से भाषा सीखने की कोशिश करते हैं। इस प्रयास में जन से जुड़ने की उनकी छटपटाहट दिखती है। दो-आब के होते हुए भी राजस्थानी के शब्द उनकी कविताओं में जिस प्रमाणिकता के साथ आते हैं वह इस बात का प्रमाण है। प्राणवान क्रियाओं से जुडे़ होने के कारण उनकी भाषा में व्यंग्य ,विडंबना और आक्रमण करने की क्षमता है तथा भाषा एंद्रिक और बिंबात्मक हुई है। साथ ही उसमें बहुत विविधता दिखाई देती हैं। कहीं आम बोलचाल की तद्भव प्रधान भाषा है जिनमें लोकबोलियों के शब्दों को भरपूर स्थान मिला है तो कहीं संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्द। आवश्यकतानुसार जिस जीवन को व्यक्त करना है उसी की तरह की भाषा। उनकी मान्यता है -..असरदार भाषा हलक से नहीं/बड़े इरादों वाले दिल से निकलती है/…..भाषा की दरिद्रता शब्दों से नहीं/विश्वास की कमी से/पहचानी जाएगी। यह भाषा की ही ताकत है कि उनकी कविता छुअन से समझने और गंध से पहचानने की क्षमता रखती है।

एक जनपक्षधर कवि की खासियत होती है कि वह एक कवि कहलाने से पहले एक अच्छा इंसान कहलाना अधिक पसंद करता है। उसकी दृष्टि में सृजक होने से पहले एक अच्छा इंसान होना जरूरी है। कविवर विजेंद्र भी कविता लिखने से ज्यादा जरूरी जीवन में कवि बने रहने की सक्रिय बेचैनी और सतत तैयारी को मानते हैं। तभी एक अर्थवान कविता जन्म लेती है। इसके लिए एक बहुत बड़े मानवीय संकल्प की जरूरत होती है। ‘अगर मन में कुटिलता उत्पन्न हो जाए तो कविता कर्म संभव नहीं।’  वे कवि से केवल यह अपेक्षा नहीं करते कि वह जैसा-तैसा लिखे बल्कि यह भी कि वह अपने जीवन में अच्छा इंसान बन कर रहे। उनका यह तर्क मुझे बहुत सटीक लगता है – ‘यदि हम स्वयं आचरण से गिरे हैं तो हमारे शब्दों की पवित्रता पर कौन भरोसा करेगा । हम एक सुंदर और बेहतर समाज बनाने के लिए यत्नशील हैं तो पहले स्वयं तो आचरण से अनुकरणशील बने।’ यह केवल कोरा उपदेश नहीं है वे खुद भी जीवन भर यह जतन करते आए हैं। उनकी इस मान्यता के चलते ही मैं पहले-पहल उनकी ओर आकर्षित हुआ। सबसे अधिक इसी बात ने मुझे प्रभावित किया।

उनके लिए कविता आत्माभिव्यक्ति मात्र नहीं है । वे आत्मा में ही सब कुछ नहीं ढूँढते हैं। उनकी दृष्टि भौतिक संसार में दूर-दूर तक जाती है। वे प्रकृति और मानवीय क्रियाओं को बारीकी से देखते हैं। विशाल सृष्टि के विविध रूप उनकी नजर में हैं। उनके लिए कविता का उद्देश्य मनुष्य की आत्मा का शिल्प रचना होता है। यह तभी संभव है जब हम अपना व्यवहार और इरादे बदलेंगे। इस संबंध में उनकी समझ बिल्कुल साफ है-  ‘किसी भी कविता की परिणति क्या होगी यह इस बात पर निर्भर करती है कि हमने कितनी गहराई से जीवन के द्वंद्व और इतिहास की गति को समझा है। हमने जो समाधान सुझाए हैं वे कितने विवेक सम्भव हैं। किस सीमा तक समकालीनता का आक्रमण कर सार्वकालिकता से जुड़े हैं।’ उनके लिए कविता की सफलता और सार्थकता तभी है जब वह जीवन ,प्रकृति और संसार के भौतिक क्रियाशील स्वरूप से मार्मिक परिचय करा उनके आंतरिक सौंदर्य तथा सारवान अर्थवत्ता से भी बहुत-बहुत गहराई से परिचय कराए। न केवल इतना बल्कि इस सबके बीच मनुष्य की संघर्षधर्मिता,  अजेयता तथा अपरिमित शक्ति का जानदार एहसास बराबर कराती रहे। उनके लिए सच्चा कवि वही है जो उन सारी विसंगतियों से एक योद्धा की तरह जूझता है। उनसे संघर्ष करता है । वह असंगत व्यवस्था को बदलना चाहता है। जो संघर्ष से जी चुराता है वह कवि नहीं कायर है। कवि कर्म ‘सूरमा’ का ही कर्म है। जो त्याग , संघर्ष और जोखिम उठा सकता है। यह कर्म सुविधाजीवी और उन मौकापरस्त लोगों का नहीं है जो हवा का रूख पहचान कर अपने शब्द उचारते हैं। वे बाबा नागार्जुन की इन काव्य पंक्तियों के नजदीक हैं-  इधर साधारण जनों से अलहदा होकर रहो मत/ कलाधर या रचियता होना नहीं पर्याप्त है/ पक्षधर की भूमिका धारण करो /विजयिनी जन-वाहिनी का पक्षधर होना पड़ेगा। पक्षधर की भूमिका में होना उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। वे घर में बैठ कर लिखने वाले नहीं बल्कि अपने पूरे अंचल में घूम-घूम कर अनुभव ग्रहण करते हैं। उनकी कविताओं में मजदूर-किसानों के वैसे ही चित्र मिलते हैं जैसे नागार्जुन के यहाँ। विचार और भावना दोनों स्तर पर उन्हें निराला बहुत उद्वेलित करते हैं। उनके यहाँ हाशिए में पड़े लोगों का जीवन संघर्ष जिस जीवंतता के साथ आता है वह मनुष्यता के प्रति हमारे विश्वास को दृढ़ करता है। विजेंद्र समाजिक सरोकारों से लैस एक संपूर्ण जीवन के जीवंत कवि हैं जो सचेत और संवेदनशील हैं। वैज्ञानिक दृष्टि वाले सच्चे इंसान हैं। उनकी कविता के स्रोत भीतर की अपेक्षा बाहर अधिक हैं। जनवादी कवि की यह खासियत होती है। बाहर का परिवेश और घटनाएं उन्हें बहुत आकर्षित और बेचैन करती हैं। वे व्यक्ति और समाज दोनों की गरिमा के समर्थक हैं। उनकी राय में -सामूहिकता के सघन पेड़ पर ही/निजता के गंधवान फूल खिलते हैं/असंख्य साँसों की नमी में ही/प्राणों की ऊर्जा /उदित है। उनका संकल्प है-. आए जितना चाहे आतप आए/ इसमें भी खेल अजब जीवन का /हम सब मिलकर खेलेंगे। ये सामूहिकता उन्हें जनता से जोड़ती है।

आज मध्यवर्गीय और नागरबोध वाले कवियों की कविताओं से प्रकृति विलुप्त होती जा रही है जिससे कविता न केवल निर्जीव हो रही है बल्कि क्रियाशील परिवेश से भी हमें काट रही है, जो इकरसता और ठसपन का कारण बन रही है। लेकिन विजेन्द्र की कविता में प्रकृति से कभी विछोह नहीं दिखाई देता है यह उनकी निजता और जीवंतता का प्रतीक है। उनके यहाँ निसर्ग और जीवन एक दूसरे के पर्याय बन कर आए हैं। वे प्रकृति को मनुष्य के जीवन के साथ देखते हैं। उनके लिए प्रकृति मनुष्य से बाहर और अलग तथा उसे दूर से सहलाने,  दुलारने वाली वस्तु नहीं है। अपने अंचल का मानवीय और भौतिक भूगोल कभी उनकी आँख से ओझल नहीं होता है जो उनकी कविता को समृद्ध और लोकोन्मुखी बनाता है। उनकी स्पष्ट मान्यता है ,  ‘जो अपने क्षेत्र, अपने गाँव, अपने नगर ,अपने कस्बे और पूरे देश की प्राकृतिक गरिमा को नहीं जान सकते। वे कविता को यथार्थ से कैसे जोड़ सकते हैं। वह यथार्थ अधूरा है जो अपने परिवेश को सूक्ष्मता से व्यक्त नहीं करता।’ उनकी कविताओं में अपने अंचल का भूगोल ही नहीं बल्कि इतिहास और संस्कृति की द्वंद्वात्मकता और उसके संक्रमण का बोध भी होता है। फल-फूल के वृक्षों के इतने सारे नाम आते हैं कि एक किसान उतने नामों से परिचित नहीं होगा। इससे पता चलता है कि कितना प्रेम करते हैं विजेंद्र अपनी जमीन तथा उसकी प्रकृति से। उन्हें ‘धरती कामधेनु से ज्यादा प्यारी’ है। उसको बचाए रखना चाहते हैं। उन्होंने प्रकृति से सीखा है-अपने रंग को कभी-फीका न होने दूँ/और तेज हवाओं के बदलते रूखों से/अपनी जड़ों को न छोडूँ। इसी का प्रभाव है उनकी कविता गहरा यथार्थ व्यक्त कर हमें जीवन का उल्लास देती है तथा जीवन से अनुराग पैदा करती है। कवि दुनिया-प्रकृति की विविधता को समाप्त कर एकरसता स्थापित नहीं करना चाहता है। सबकी अलग-अलग पहचान को महत्व देता है। उसको बनाए रखना चाहता है। दुनिया की सुंदरता उसकी विविधता में ही है। वे इस बात को सिद्दत से महसूस करते हैं। कवि इस विविधता भरी दुनिया में रच-बस जाना चाहता है। किसी दूसरे लोक में स्वर्ग की कल्पना नहीं करता है। धरती से प्रेम करने वाला कवि ही इस तरह की बात कह सकता है। विविधता और सूक्ष्मता का सम्मान करता है। हर कण को महत्व देता है। उसे अपने जीवन का रचक बनाता है। सबके साथ जीवन-धारा में साथ-साथ तैरना चाहता है। विविधतापूर्ण दुनिया के पक्ष में होना अंततः आम जन के पक्ष में होना ही है। विविधता लोक की विशेषता है। विजेंद्र की चाह है कि-

धरती पर रहूँ/उसी में रच-बस /कंचन मणि पा लूँ। वे नहीं चाहते कि-एक नहीं /हरपल ,हर प्रवाह में/ हर तिनके की/ पहचान अलग है/ नहीं चाहता सागर बन कर/उ न्हें अपनी ही/ आकृति में ढालूँ।……….जब तक जीवन है /कहूँगा धरती सुन्दर है। धरती अन्न से भरी है और तीनों लोक से न्यारी है।

विजेन्द्र की जनक्षधरता का एक और प्रमाण उनकी कविता का केंद्र तथा उनमें निहित चिंताएं है। उनकी कविता के केंद्र में वे लोग हैं जिनके अत्यधिक श्रम से कंघे पिराते हैं ,पेट दूखता है। जिन्होंने धूप में तन सुखाया है। आँत-ताँत की है जो -साँझ तक खाल सुखा-सुखा हँसियाँ चलाते हैं- दमन से आतंकित दलित/ आदिवासियों के जागते समूह/ जिनकी पीठ पर पड़ते हैं अभावों के कोड़े/…..रौंदे गए इंसान बेआवाज/ भभकती लौ को पचाते हुए चारों तरफ। जिनमें लड़ने का अकूत बल है तथा अपने बल पर भरोसा है। जिन्होंने हिम्मत कभी नहीं हारी है। जो विपदाओं का सामना करते हैं। पर विडंबना है कि जिनकी -किसी चीज में हिस्सेदारी नहीं। जिनका कोई मालिकाना हक नहीं है। ये सिर्फ दूसरों को फसलें बोते काटते हैं। अथक काम करते हुए भी कर्महीन कहलाते हैं। कवि को दुःख है

-जो करता है कठोर श्रम/ पाता है/ कुल पैदावार का/एक चुटकी भर/..जो रोज मेहनत करके खाता है/उसे रोज मुँह की खानी पड़ती है/….हजारों लोग अधपेट सोते हैं/जिन खेतों को /वे बच्चों की तरह पालते हैं/उनकी भरी पूरी उपज/उन्हें नहीं मिलती। कैसी त्रासदी है-जो सुंदर चीज बनाते हैं /उन्हें हर शाम/अगले दिन की चिंता है।

कवि उनकी दुर्दशा को देख बहुत बेचैन होता है। उसके अंदर एक भभूका उठता है। वे उन सभी के दर्द से कराहते हैं- मर रहे हैं जो भूख से/ प्यास से/ बिना दवा दारू के/ कुपोषण से जन्मते हैं रोग बच्चों में। कवि कोने में छिपे बैठे भयभीत मनुष्यों और भूख व अभावों से मरते आदमी की जीती जागती कराहटों को सुनता है। जिनको कोई नहीं सुनता है। कवि देखाना चाहता है उनके हुनरमंद हाथ –जिन्होंने काटी ये बारीक जालियाँ /संगमरमर में/बनाए फूल पत्ते/लाल पत्थर में/देखने दो वे अभाव भी/जिनके दाग आज भी अंकित हैं/यहाँ की दीवारों पर। उनकी कविताएं वहाँ जाती हैं-  छिपी हैं जहाँ चुप्पियाँ दासों की/दबे कुचले किसानों की/कराहटें बे-आवाज सताई गई स्त्रियों की/अन्न को तरसते बच्चों की। कवि ने इनके भीतर गहन दुःख को तो देखा ही साथ ही उनके सहने की अनुपम ताकत को भी देखा है जिसने कवि को अंदर से बड़ा और निर्भय बनाया है।

ऐसा नहीं कि विजेंद्र को जन के दुःख-दर्द और पीड़ाएं ही दिखाई देती हों और वे उस पर असहाय से अश्रुधारा बहाते रहते हों उन्हें अपनी मुक्ति के लिए लड़ते हुए लड़ाके भी दिखाई देते हैं। उनकी राय रही है कि हम अपने समय की गतिकी को अग्रसर करने के लिए सामाजिक सरोकारों को इस तरह व्यक्त करें कि अग्रगामी ऐतिहासिक शक्तियों को बल मिल सके। जन शक्ति का जो उभार लोक लहर के रूप में दिखाई दे रहा है वह भी हमारी कविता का कथ्य बने। वे अपनी कविताओं में यह काम सिद्दत से करते हैं। वे मुक्ति के लिए मनुष्येतर शक्ति में नहीं बल्कि मनुष्य के संगठन पर विश्वास करते हैं जो एकजुट हैं/ वे आज के अचूक अस्त्र हैं/……आदमी बाहर आना चाहता है/ ये हाथ विरोध में उठना चाहते हैं। उनकी कविताओं में संगठित हुए उठे हाथों की चमक दिखाई देती है। कच्ची मिट्टी के वह इलाके दिखाई देते है जो चौकन्ने हुए जिनकी रौ से काँपती है सत्ता। कवि उनके भीतर का समर चुपचाप देखता है। (यह चुपचाप देखना उनकी सीमा भी कही जा सकती है) वह उस आदमी को देखना चाहता है जो बदलता आया है इन्हें। उन भुजाओं को जो उठी हैं क्रूर शासकों के विरूद्ध। वह जानता है-

 उठते जनसमूह को /डिब्बे में बंद नहीं किया जा सकता/उठती हुई जनशक्ति रूक नहीं सकती है।…..वे भूख और पीड़ा की बेड़ियाँ तोड़ने को /अंदर से आक्रामक हैं /इनका समाधान गोली नही/ लकड़हारे को मुकुट पहनाने से होगा।

यह अंतिम पंक्ति बहुत महत्वपूर्ण है-कवि शोषण-उत्पीड़नकारी सत्ता का समाधान श्रमिक वर्ग द्वारा सत्ता पर अधिकार करने में देखता है। यह कवि की जनशक्ति पर अटूट आस्था को बताता है। इस जनशक्ति को पहचाने पर कवि का बल रहता है इसलिए वे खुद से प्रश्न करते हैं…. एक साहसी आदमी के इरादों को/ क्या मेरी कविता की लय पहचानती है/ खनिज खोदने वालों के हाथों की लचक/ मेरी भी ताकत है/ वह मेरे देश की उम्मीद है। यहाँ केदारनाथ अग्रवाल याद आते हैं जो अपनी कविता के बल को जनता से प्राप्त मानते हैं। उसी परम्परा को विजेंद्र भी आगे बढ़ाते हैं। वे यह भी जानते हैं मुक्ति आसान नहीं होती है। उसके लिए एक कठिन संघर्षमय वैज्ञानिक राह से गुजरना जरूरी होता है-  युद्ध एक डरावना बीहड़ है/लेकिन /मुक्ति के लिए /उसे पार करना होगा। यहाँ ध्यान देने की बात है कवि ’युद्ध करने की’ नहीं उसको ’पार करने की’ बात करता है। यही वह बिंदु है जहाँ साम्राज्यवादी या आतंकवादी युद्ध और जनयु़द्ध में अंतर होता है। यु़द्ध करने और उसको पार करने में अंतर है। इसका आशय है कि यहाँ यु़द्ध थोपा गया है। यहाँ कृषक-मजदूर आक्रमक नहीं प्रतिरोधक के रूप में इस युद्ध में शामिल हैं। कवि दमित-शोषित-उत्पीड़ित जन का आह्वान करता है-

तुम्हें कठोर जीवन/जीते-जीते/वह सहज लगने लगा है/उठो और जागो/मनुष्य जीवन सिर्फ दासता के लिए नहीं/प्यार में करूणा ही नहीं/प्रतिरोध भी है…./तुम कहो/वे बातें/जिससे औरों को भी/मुक्त होने का/साहस मिले।

कवि इन संघर्षशील शक्तियों का साथ देने की अपील अपनी कविता में करता है- 

आ तू आ/  इनका संग-साथ दे/ ओ कवि! इन्हें रचना में संगठित होता दिखा/इन्हें कंधों से टटोल/ जो ये उठें/ और हँसिया हाथ में लेकर/अन्याय का प्रतिकार करें।…… नहीं कवि नहीं/ तू उसे अपने छंदों में ढाल/ लय में पिरो/ उसे करोड़ो की तेजस वाणी बना/ ये मेरा प्रचुर जीवन आवेगमय/मेरी अबाध धड़कनें/ मुक्त हो जीने को/ एक सुंदर जीवन/ लड़ रहे हैं जो स्याह सदियों से।

कवि इनके भीतर छिपे बल,  स्वाभिमान,  ऋतु ज्ञान,  बड़ी लालसाओं,  जीने की प्रबल इच्छाओं,  उनके भीतर दहकती आँच को पहचानता है। उन्हे अपनी कविताओं में ला कर सम्मान प्रदान करता है- उन्हें वंश भास्कर में स्थान नहीं मिला/यह छंद चारणों का है/ओ कवि/तू इस नियति को बदल/अपने रूपक,छंद लय और उपमान बदल/यह छंद सूर्य ,चंद्र ,तारागण और नक्षत्रों का है/तू धरती का छंद रच। उनकी कविता के सच्चे स्रोत वही लोग हैं जिन्होंने घोर अभावों में पराजय नहीं मानी- इसके बिना विराट सूना है/यह उसकी जान है/उसकी उष्मा है। कवि इन योद्धाओं से माँगता है……अपनी मुक्ति के लिए लड़ते देश वासियो/मुझे भी अपनी धड़कनें दो/जिससे मैं अपने देश को प्यार कर सकूँ। वे प्यार करना चाहते हैं जन-जन को बावजूद इसके जरूरी मानते हैं घृणा करना उनसे जो आदमी को पशु से बदतर समझते हैं और संुदर दुनिया को नष्ट करने में जुटे हैं तथा जिनके दाँतों में माँस चिपका है।

एक जनपक्षधर कवि के मन में श्रम और श्रमशीलों के प्रति कितना सम्मान होता है इन पंक्तियों में महसूस किया जा सकता है-  

चट्टान तोड़ते हाथ/पोखरें पाटने वाले हाथ/बंजर को उर्वर बनाने वाले हाथ/मैं तुम्हें/सूरज की शक्ल में/नमन करता हूँ।

एक जनपक्षीय रचनाकार ही यह कह सकता है-.फसल उगाने वालों की मेहनत में/जीवन का गौरव छिपा है। अन्यथा आज तो लोग बैठे-ठाले जीवन बिताने में जीवन का गौरव देखते हैं। धन-दौलत के ढेर में कुंडली मारे बैठे व्यक्तियों के जीवन को ही सबसे सफल जीवन और उन्हीं को अपना नायक मानते हैं। शारीरिक श्रम से जी चुराने और उसे हीन समझने वाले लोगों से भरे इस समय में विजेंद्र जैसे लोग विरले ही मिलते हैं जो कहते हों-  श्रम से ही समय में/धार आती है। जो कृषक को अपने युग का नायक तथा श्रमिक को जननायक मानते हों। जो छोटे-बड़े काम करने वाले लोगों जैसे नूर मियां, साबिर,  लादू,  अल्लादी लोहार,  नत्थी- रोशनी माली,   दादी मंगला, रिक्शे-तांगे वाले,  रामसिंह होटिल वाला,  श्याम अकेला साइकिल वाला, राधामोहन नाई, सुरेश गटर साफ करने वाला,   बकरी चराने,  कपास बीनने, पत्थर उठाने, कूड़ा बीनने ,ख्ंाडा देने , तगारी उठाने ,झाड़ बुहारने, विधवा रामदेई घूँघट वाली आदि से मिलकर एक बड़ा संसार रचते हैं। इस संसार में न जाति-धर्म का भेद है और न लिंग-भाषा-क्षेत्र का। इस संसार के चरित्रों की विशेषता है कि वे कभी याचना नहीं करते किसी से कुछ माँगते नहीं हैं। उनके भीतर स्वाभिमान है। उनको अपने श्रम पर विश्वास है। पग-पग पर ठोकर खा कर जीवन के अभाव झेलते हैं। फिर भी उनके जीवन में अजब-गजब चमक बनी रहती है। वे धूप-ताप में निर्भय चलते हैं-

 श्रमोत्कंठित आँखें देखी हैं/धूप में पड़ते कारे/नहीं दीनता ,ना लाचारी/नहीं थक कर हारे।

ये अपने वर्ग के प्रति सचेत और विरोधियों के प्रति असंतुष्ट और वक्र रहते हैं। यहाँ एक बड़ी बात है कवि इन साधारण जनों को देखता ही नहीं है बल्कि उनसे बतियाता भी है। उनके हाल-चाल पूछता है। इसी का परिणाम है कि उनके पात्र भी उनसे भली-भाँति परिचित हैं। इससे कवि की आत्मीयता का पता चलता है। यह दोहरी पहचान दूर से देखने से संभव नहीं है। उसके लिए पास जाना पड़ता है उन्हें देखना-सुनना-जानना-समझना पड़ता है। उनका विश्वास जीतना पड़ता है। विजेंद्र उनकी अंग-भंगिमाओं ,आँखों के संकेतों तक को पढ़ते हैं। उनके मनोभावों को तह तक पहचानते हैं भले बोली को पूरी तरह से न समझें। उनके दिल में उतरने की पूरी कोशिश करते हैं। इसी के चलते कहानी की भाँति उनकी पूरी जीवनचर्या तथा पात्रों की आशा-आकांक्षा-स्वप्नों को अपनी कविताओं में चित्रित कर पाते हैं। इसीलिए कविता के साथ-साथ कथा का आनंद मिलता है। विजेंद्र की कविताओं की यह विशेषता मुझे बहुत प्रीतिकर लगती है। बहुत कम कवियों में यह कौशल दिखाई देता है। उनकी कविता अपने पात्रों की पीड़ा को ‘हृदय के गहनतम त्रास से’ व्यक्त करती है जो सीधे मर्म पर असर करती है। पाठक तिलमिला और छटपटाकर रह जाता है। उसकी बेचैनी बढ़ जाती है। निःशब्दता की स्थिति पैदा हो जाती हैकहाँ तक रोएँ/ गत है यही / वहाँ के जन की। दूरस्थ जनपदों की उपेक्षा से उद्ववेलित हो कवि प्रश्न करता है- क्या वह नहीं जनपद मेरे देश का/ क्या वहाँ के जन में/ धड़कता दिल नहीं। इसी तरह की बात उनके अकाल के चित्रण में दिखाई देती है- देखते-देखते भूस्वामी हुए कंगाल/ छोटे किसानों ने खो दिए पशु ,बालक और घरबार/ जो भूख में/ खोद कर खाते जड़ें/ पत्ते /पेड़ की छालें। अपने आसपास की दुनिया के लोगों के दुख-दर्द में उनकी कविता शरीक होती है। इन कविताओं में यथार्थ की गहरी समझ तथा वर्ग विभक्त समाज की अमानवीय एवं अन्यायपूर्ण स्थितियों की तीव्र आलोचना मिलती है।

विजेंद्र सबसे अधिक अपनी लोक से एकात्मकता के लिए जाने जाते हैं। लोक से एकात्म होने का मतलब है जन से एकात्म होना। उनका ’लोक’ सर्वहारा का पर्याय है। वे तमाम उपेक्षाओं को झेलने के बावजूद भी अपने मार्ग में अडिग हैं। आधुनिकतावादियों को उनका लोक के प्रति प्रेम बिल्कुल नहीं भाता है। वे उनकी लोक संपृक्ति को ’यात्रिक और ठस ’ मानते हैं। पर उन्होंने ऐसी आलोचनाओं की कभी परवाह नहीं की। वे सत्य विरोधी व्यवस्था के प्रखर आलोचक हैं। उनका लोक अंगे्रजी ’फोक’ का पर्याय नहीं है। जो उनकी लोक की कविता को पिछड़ेपन की कविता मानते हैं ,उन्हें ‘ बिरसा मुंडा’ कविता पढ़नी चाहिए। इससे पता चलता है कि लोक का आधुनिकता बोध और संघर्षशील स्वरूप क्या होता है। उनका लोक अपने अधिकार-चेतना से लैस यह हुंकार करता हुआ लोक है-

ये वन हमारे हैं/ताल ,पोखर ,नदियाँ हमारे हैं/वनस्पतियाँ ,रूख-रूखड़ियाँ ,वन घासें/सब खनिज दल/फूल-फल हमारे हैं/हमारे/सहस्रफण ,सहस्र भुजाएं,सहस्र आँखें/….हमारी असंख्य अबूझ इच्छाएं/मजबूत हड्डियाँ/….ये कंदराएं हमारी हैं/हम अपनी धरती क्यों देंगे/ उसे कराया है हमने मुक्त/जहरीले हिंसक पशुओं से /हमने बनाएं हैं पथ दुर्गम स्थलों में/….हमने सहे हैं अपमान के कोड़े सदियों तक/खुली देह पर चोटों के गहरे निशान जिंदा हैं/…विवश हैं जानवरों की तरह रहने को/असहाय मरने को/कीड़े-मकोड़े पशु-पक्षी खाने को/पेड़ों की छाल खाकर जीने को/जिंदा हैं/लूटते हैं आकर हमें व्यापारी ठेकेदार/बड़े-बड़े अफसर/बिना अपराध पकड़ ले जाती है पुलिस/हमको चाहे जब/बच्चे हमारे मरते हैं भूख से/रोग से /कुपोषण से/खदेड़ा जाता है हमें बार-बार/ जानवरों की तरह अपनी ही धरती से।

इस कविता में जाग्रत लोक के दर्शन होते हैं। यही लोक है जो पूँजीवादी लोकतंत्र के सामने सच्चे लोकतंत्र के स्थापना की चुनौती प्रस्तुत कर रहा है। उसकी सीमाओं और विसंगतियों पर सोचने को विवश कर रहा है। यही है विजेंद्र की वास्तविक जनशक्ति जिससे कवि ताकत ग्रहण करता है और दरबार से दूर रहकर कविता रचता है-  मैं हूँ जनतंत्र का कवि/ दूर हूँ दरबार से/ लिखता हूँ मुक्त छंद लयवान/ चरित्र सृष्टि को/ लोक क्रियाओं में बाँध कर/ कर रहा प्रवाह प्राणों का निर्बाध। उनकी कविता उस आदमी को खोज है-जिसने पहले-पहल पैदा की आँच/रचे कंदराओं पर सुंदर सुडौल चित्र…… जिन्होंने रचा है अपनी आत्मा का शिल्प हर जगह/तराश कर पत्थरों को इकसार /रचे हैं सुन्दर मेहराब भावों के।

साथ ही खोज है

-लुप्त हुई नदियों के उद्गम/सूखे झरनों के चट्टानी स्रोत/क्षय होते मनुष्यों की पीड़ाएं/ विवश/ सूखी झरबेरियाँ /और पंखधारी टीलों में छिपी/मरू जीवन की कठोरता /लड़ते आदमी का समर/….अतृप्त प्यार की खरोचें/…..प्यासे मन का आरोह-अवरोह/ बेचैन आदमी का टूटा अलाप। ….उसी वाणी को /जो पके-निखिल को /कहे हर दम।

कविवर विजेंद्र की जनपक्षधर छवि को धूमिल करने की नीयत से समय-समय पर कुछ लोगों द्वारा उनको कलावादी रुझान का कवि साबित करने की कोशिश की जाती रही है। पर मुझे नहीं लगता है कि यह बात उन पर सही बैठती है। उन्होंने हमेशा कला की अपेक्षा जीवन को अधिक महत्व दिया है। प्रस्तुत पंक्तियाँ इस बात का प्रमाण हैं- वस्तु से ही सबल होता आधार/रूप का/जो संभालता रहता उसे हरदम। कला के चमत्कार के बारे में उनकी स्पष्ट मान्यता है-  जानता हूँ नहीं दे पाएगा यह कुछ भी/मुझे और मेरे जन को/करता रहेगा चमत्कृत अपनी कला से। उनका तो हमेशा यह प्रयास रहा है कि ऐसे सहज-सरल-लयवान कविताएं लिखूँ जिसमें अन्न उगाते किसान की अक्षत क्रियाएं ,श्रमिक के माथे से छलकता पसीना और लड़ती जनता के चित्र हों।…..गरीबों की टूटी कमर/धनिकों को लूट का मौका/कविता में यदि कहा/यह मैंने/अभिजन कहेंगे/प्रचार है धज का। पर इसका मतलब यह भी नहीं कि उन्होंने कहीं भी कवितापन के नष्ट होने के साथ समझौता किया। वे संतुलन बना कर चलते हैं। वस्तु एवं रूप के बीच द्वंद्वात्मक संबंध रखते हैं। इस संदर्भ में वरिष्ठ आलोचक डॉ जीवन सिंह का यह कथन सही है कि विजेंद्र की कविता अपने रूपाकार में विशिष्ट होकर भी रूप छल करने वाली कविता नहीं है। वह अपने समय का रूपांकन पूरी सजगता और सहजता के समीप पहुँच कर करती है। उसमें उस मनुष्य की पक्षधरता है ,जो अपने समय की रचना अपनी सक्रियता और श्रम के बल पर करता है। वह मनुष्य केवल भौतिक उत्पादक क्रियाशीलता से ही संबद्ध नहीं है बल्कि वह जीवन मूल्यों का नियंता एवं सृजक भी है। जिस कवि के लिए मूर्त को अमूर्त और धुँधला होने से बचाना ही शब्द साधना है, क्या वह कलावादी हो सकता है? उनकी स्पष्ट मान्यता है -कला या कविता से स्वस्थ आत्मशोधन या आत्मसाक्षात्कार तभी होता है जब वह सामाजिक जीवन की भट्टी में पक कर सामने आती है। विजेन्द्र कविता के भीतर कविता और कवि-कर्म की बहुत बातें करते हैं। उससे भी पता चलता है कि उनकी पक्षधरता क्या है? साथ ही पता चलता है कि वे अपने कवि-दायित्व और कविता के प्रयोजन के प्रति कितने सचेत हैं। उनकी संबद्धता जीवन के प्रति उतनी ही गहरी है जितनी कविता के प्रति। उनके लिए जीवन और कविता एक दूसरे के पर्याय हैं। उनकी कविताएं कविता के सौंदर्यशास्त्र के बारे में भी बहुत कुछ कहते हुए चलती हैं जो जीवन में भी उतनी ही लागू होती हैं जितनी कविता में। वे कविता के बहाने जीवन के प्रश्नों को उठाते हैं। कवि और कविता को लक्ष्य करते हैं । उसको आलोचना से परे नहीं मानते। कवि को उसके नागरिक और सामाजिक दायित्वों का अहसास कराते हैं-

 कवि केवल पिद्दी विदूषक नहीं होता/जो दरबार को रिझाता रहे/और न कविता मिनी स्कर्ट।…..कविता एक चट्टानी संरचना है/जनशक्ति उसका खनिज दल/ये शब्द फास्फेटिक रबे/और यह शब्द-बद्ध पंक्तियाँ खनिजों की नसें।….मुझे अपना कथ्य बदलना है/मुझे आदमी के भीतर झाँकना होगा।……कविता रमकते खून से उगी है/….कविता की लय और गति में /मेरी साँसें भी हैं/……कविताएं /आदमी के बड़े इरादे से जन्म ले रही हैं। ….रचना सत्यकण की रंगाकुल आकृति है/रोंयेदार।

उन्हें लगता है कि एक रचनाकार को हर बार ज्यादा-से-ज्यादा बाहर देखकर-सुन कर अपने अंदर भी झाँकते रहना चाहिए। जितनी बड़ी मेरी बाहरी दुनिया होगी उतना ही बड़ा मेरा काव्य मन। तेज-तेज शब्दों और आक्रामक भाषा में लिखी कविताओं में उनका विश्वास नहीं है यदि उसके पीछे जनता की शक्ति जो न हो-  उस आक्रमकता में क्या दम है/ जिसके पीछे असंख्य लोगों का भुजबल नहीं/ नई शक्ति का उदय / धीमे-धीमे अन्न की तरह /पकता है/ दमन के विरूद्ध विदूषक नहीं/ कवि बोलता है। उनका कहना है-….ज्ञान संवेदना से चलकर/बुद्धिगत संवेदना तक का/बीहड़ तय करो/तब कविता का सही पथ/दिखेगा/यह पुनर्गठन से ही /संभव है/कतर व्योंत से नहीं। उनकी राय में कवि आत्मा का शिल्पी ,भाषा का रचियता और तीसरी आँख है जो धरती में छिपे खनिजों का खोज लेता है। वह मनीषी और प्रजापति है जो भाव अयस्क को विवेक की धमन भट्टी में पका कर कुंदन बनाता है। अतः कवि के पास दाने को भूसे से अलगाने का विवेक तथा रंगों की चारुता परखने की आँख होनी चाहिए। उनकी दृष्टि में कवि कर्म निभाना बहुत कठिन है। उसके लिए जीवन का हामी होना जरूरी है। उस आदमी का अनुरागी होना पड़ता है जो अंधकार के विरूद्ध लड़ाई लड़ते हुए धरती पर नए रूप गढ़ रहा है। कवि को हर समय सुख-दुःख की भट्टी में पकना पड़ता है। किसी के सामने झुकना नहीं होता है। अपना सिर ऊँचा रखकर ही वह औरों का मान ऊँचा रख सकता है। उसका स्वप्न होता है कि बने विश्व सुंदर निश्छल। वे लेखन को मनुष्य से जुड़ने का माध्यम मानते हैं। इससे मनुष्य की गरिमा की रक्षा की जा सकती है। इसीलिए शब्द को उन्होंने अपना हमराही बनाया- अर्थवान शब्द आदमी की गरिमा को/कभी गिरने नहीं देते/मैंने शब्द ही चुना है/जो मनुष्य से कभी अलग न हो पाऊँ/इस कठिन दौर में। कवि अपनी सबसे बड़ी पराजय और आत्मा का क्षरण मानता है अगर वह भाषा को दरबारी गलियारों से मुक्त न करा पाए और तेज-तर्रार जुबान बोल कर भी उसकी रीढ़ झुकी रहे। जनता से जुड़ाव रखने वाला कवि ही इस तरह के बोल बोल सकता है कोई कलावादी नहीं।

एक जनपक्षधर कवि केवल दूसरों पर ही उंगुली नहीं उठाता बल्कि खुद को भी कटघरे पर खड़ा करता है। अपनी निर्मम आलोचना करने से भी नहीं चूकता है। जन के साथ अपने को पूरी तरह विलीन करने वाला व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है। इसके लिए अहं तिरोहण करना पड़ता है। आज तो लोग छोटी-छोटी उपलब्धियों को पा जमीन पर नहीं टिकते। कौन कह सकता है इतनी बेबाकी से-

 कितना डरपोक हूँ…..कायर/वे सवाल कविता में पूछता हूँ/जो हल मुझे करने हैं/….देख रहा जो कुछ भी/होता आँखों के आगे/कहने से डरता/ मन के किसी अलख कोने में/उसे छिपाता।……… उबड़-खाबड़ इस धरती के नीचे/मूल्यवान खनिज हैं/ सतत उमड़ते स्रोत हैं/उनकी रक्षा /क्या मैं /इन रक्त सने अपराधी हाथों से/कर पाऊँगा?….शर्म आती है मुझे/सिर उठाए नहीं बनता/ निर्लज्जता पर अपनी।

विजेंद्र अपनी ही बनाई गई राह पर चलते हुए समय की पैनी धार से मुटभेड़ करने वाले कवि हैं। इनकी कविताओं में कठिन जीवन संघर्ष है पर निराशा या उदासी नहीं। वे सुन्दर प्रभात के लिए जीने वाले कवि हैं। उजाला,  उगान,  उषा,  धूप,  पकना,  खिलना,  वसंत, आगमन, अंकुरण,  उर्वर भूमि उनके प्रिय शब्द हैं जो उनके भीतर छुपी आशा को परिलक्षित करते हैं । वे कहते हैं- समय को पहचानो/निराश होने की जरूरत नहीं।.उनका विश्वास है…..थिर कुछ नहीं-पतझर के बाद/बसंत जरूर आएगा। उनकी राय में यह आहत ,उदास होने का समय नहीं बल्कि त्रासद गइराइयों में उतरने का समय है। गहन अंधेरे के बावजूद उस उजाले के गीत गाने का समय है जो हमसे दूर है अभी। उन्हें उन लोगों से बदलाव की कोई उम्मीद नहीं जो- बराबर हताशा को/माथे पर धरे/घूमते हैं। उनकी उम्मीद तो उस आदमी से है जो अपनी शक्ति से अंत तक लड़ेगा। इसी के चलते उनकी जीवन और सृजन की शाश्वतता पर गहरी आस्था है- जब तक सूर्योदय और सूर्यास्त है/मनुष्य रचेगा। विवक्षा मनुष्य का स्वभाव है। सिसृक्षा उसकी नियति। सारी कठिनाइयों के होते वह कहेगा। वह सिरजेगा। जीवन की सृजन क्रियाएं कभी रूकती नहीं। उनके आँखों में तो हमेशा नई दुनिया के सपने झिलमिलाते रहते हैं-….मैं न रहूँ /मेरे सपने जीवित हैं/वे उगेंगे/जैसे अंकुरित धान/भविष्य के सपनों से मैं उल्लसित हूँ/ यह सच है/आज की चिंताएं हमें खाती हैं/फिर भी सपने अच्छे लगते हैं। जन-जीवन से रागात्मक संबंध रखने वाले कवि के भीतर ही ऐसा विश्वास विकसित होता है। वही गहन अंधेरे के बावजूद भी उजास के लहकते दिन के खिलने की कल्पना कर सकता है। मनुष्य की क्रियाशीलता उसे सदा स्पंदित करते रहती है।

भले ही विजेंद्र जी के तमाम समवयस्क जो कभी उनके साथ भरोसे से चले थे उन्होंने अपने रास्ते बदल दिए हों। पद-प्रतिष्ठा के मोह में फँस और जोड़-तोड़ में लग गए हों। सत्ता से नजदीकियाँ गाँठ ली हों। पर विजेंद्र अपनी जमीन पर डटे हैं। पूरी दृढ़ता और संकल्प के साथ अपनी प्रतिबद्धता को बदले बिना। आज भी उनके भीतर वही आग महसूस की जा सकती है जो युवावस्था के दिनों रही होगी। मार्क्सवाद में आज भी उनकी आस्था नहीं डिगी है। वे मानते हैं कि मार्क्सवाद ही प्रकृति ,संसार और जीवन की जटिलताओं को बहुत हद तक सुलझा सकता है। जनशक्ति पर उनका विश्वास पहले से कहीं अधिक दृढ़ हुआ है। उन्होंने कविता को अपनी जिंदगी की साथिन बनाया और आज तक उसका साथ नहीं छोड़ा। नहीं आया उन्हें ’सिंहासनों को ढोक’ देना। उन्होंने हमेशा पतनशील और जनविरोधी जीवन मूल्यों के प्रतिरोध के लिए जोखिम उठाया। ऐसा वे उन तमाम खतरों से पूरी तरह वाकिफ रह कर ही कर पाए जो हमारी रचनाशीलता को खत्म करने की पूरी साजिश कर रही हैं-

सहस्र भुजाएं खुली हैं दानव की / हड़पने को मेरी मौलिकता/खुला है रक्त पिपासु जबड़ा विश्व बाजार का।..जब तक /जनता जागती नहीं/वह मुझे दास बनाए रहेगा/विश्व बाजार में /नींद की गोलियों का सौदा बढ़ा है/……जूतों के मोटे तले/और फास्ट फूडने/मुझे कमजोर बनाया है। …….वह मेरे मन पर /काबिज होना चाहता है/…..वह स्वर्णमुद्राओं से/मेरा जमीर खरीदता है।

पर कवि तो जनपद के उस वृक्ष की तरह है जो ग्रीष्म की तेज तापयुक्त पैनी किरणों के चलते भी नहीं सूखता क्योंकि उसकी जड़ें अपनी जमीन में गहरी तक पौड़ी हुई हैं। ‘जनपद का वृक्ष’ कविता उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर सटीक बैठती है। उनका रूपक लगती है। उसके कुछ अंशों को यहाँ उद्धरित करने का मोह नहीं छोड़ पा रहा हूँ। जैसे इस कविता में ’वृक्ष’ कवि का प्रतीक है ’भास्कर’ प्रभुसत्ता का , ’जनपद’ आम-आदमी का और ’ग्रीष्म ताप-तेज चलती किरणें पैनी’ दमन-उत्पीड़न-शोषण का। उनका संकल्प इसमें पूरी तरह से अभिव्यक्त होता है-

नहीं सुखा पाओगे मुझको/ ओ सप्त अश्वधारी भगवान भास्कर/ सजल स्रोत जीवन से/ गुंथी हुई है/ धरती में/जड़ मेरी /झेल चुका हूँ/ घोर अकाल/ वर्षा का अभाव/ पूरे जनपद पर मेरे/ ग्रीष्म ताप /तेज जलाती किरणें पैनी/ तुमने जाना अपने को/रश्मिरथी सम्राट /प्रभुसत्ता का /संकेतों पर चलने वाले/ धनपतियों के रक्षक/ नहीं सुखा पाओगे मुझको/……पेट भर/ लेकिन यशकामी हो/ नहीं सामना कर पाओगे/ प्रस्फुटित वृक्ष का/ जो धरती से अंकुरित हुआ/फूटा,  जागा, उमड़ा , लहराया/पूरे नभ में/ पाल लिए हैं / तुमने कितने स्वान, श्रृंगाल/गाने वाले कुलीनचारण/ मेरी अपनी सत्ता / क्या है/ कहते हैं जनपद के सारे तृण/ पूत सगा धरती का।

 विजेंद्र धरती के सगे पूत हैं। उनकी मजबूत जड़े धरती में गुँथी हैं जो उन्हें मर्म तक साधे हुए हैं। उनकी त्वचा का रेशा‘-रेशा पृथ्वी से ही रस लेता है। वे जानते हैं-.

….. निरभ्र आकाश में/उड़ान पर /हम सदा रह नहीं सकते/आना तो पृथ्वी पर ही है। उनकी चाह है- मैं चाहता हूँ/बहुत जिऊँ /बहुत-बहुत जिऊँ-/आदमी जीने से कभी न ऊबे/ कभी उससे विमुख न हो/हम सब उसे सुन्दर /और सुंदर बनाने को /नए खनिज ढूंढें ।………..जिंदा रहा हूँ/कविता और प्यार के बल पर /मोक्ष नहीं / मोक्ष धाम नहीं /चाहा है अविरल/रचना कार्य।

हमारी भी हार्दिक अभिलाषा है कि यह कवि दीर्घजीवी होए और हम सभी को अपनी कविता से जीवंत बनाए रखे। इस जनपक्षधर कवि का यह सपना ही हम सबका सपना है

–     खड़ा हो सके/ मनुष्य रचा स्थापत्य नया,  शिवकाल/  सुन्दर पथ/ खुला नभ/ नयी धरती और क्षितिज नया।

(महेश चंद्र पुनेठा एक जाने माने युवा कवि एवं आलोचक हैं.
इनका एक संकलन भय अतल में’ बहुत चर्चित रहा है.)

(आलेख में दी गयीं सारी पेंटिंग्स स्वयं कवि विजेंद्र जी की हैं.

सभी चित्र: साभार विजेंद्र जी)

संपर्क –

महेश चंद्र पुनेठा
जोशी भवन, निकट लीड बैंक
पिथौरागढ़ 262530
उत्तराखंड

मोबाइल – 9411707470।



E-mail: punetha.mahesh@gmail.com

महेश चन्द्र पुनेठा

  
महेश का जन्म 10 मार्च 1971 को उत्तराखंड  के पिथौडागढ  जिले  के लम्पाटा नामक गाँव में हुआ. 
राजनीति शास्त्र में परास्नातक  करने के पश्चात  इनका  राजकीय इंटर कालेज में  प्रवक्ता पद(एल टी ग्रेड) पर चयन हो गया.अभी हाल ही में इनका पहला कविता संग्रह ‘भय अतल में’ प्रकाशित हुआ है जो काफी चर्चा में रहा है. संपर्क- जोशी भवन, निकट लीड बैंक,  पिथौडागढ, उत्तराखंड.  
 मोबाइल- 09411707470.  
युवा कवियों में महेश अपने कथ्य और शिल्पगत प्रयोग के लिए जाने जाते हैं. महेश जीवन में घटने वाला   कोई दृष्टान्त बिलकुल अपने आस-पास से  उठाते हैं और बिलकुल सहज-सरल भाषा में उसे कविता में ढाल देते हैं. यह कवि  मित्र से अगर अपनी  शिकायत नहीं सुनता तो बेचैन हो जाता है कि  उससे कहाँ-कौन-सी  गलती हो गयी. दरअसल यह लोक का अपना चलन है जो महेश में लगातार प्रवहित होता रहता है. वह लोक जो अपनी ही  लय और गति से आगे बढ़ता है. 
प्रस्तुत हैं महेश की बिलकुल ताजी कविताए जिसमे उनकी बानगी दिखाई पड़ेगी. ‘पहली बार’ पर आगे भी आप उनकी कविताये पढ़ते रहेंगे.  
पार्क
बच्चे निकल आये हैं
घरों से उछलते-कूदते
चीखते-चिल्लाते
तरह-तरह की आवाजें निकालते
शुरू हो गए हैं खेल उनके 
देखते-देखते पार्क बदल-सा गया 
मेरे  गाँव के विशाल टुनी के पेड़ में  
हर  शाम भर जाता     है जो
पक्षियों की चीं-चीं  चूँ-चूँ से
बोलने लगता है अलग-अलग स्वरों में
मुझे याद आने लगा
टुनी का झूमना-मचलना-खिलखिलाना-गाना-नाचना 
पर क्या हो गया यह 
देखते- देखते
कहाँ उड़ गए सारे बच्चे 
बिजली आ गयी…..ई…..ई…. के सामूहिक स्वर के साथ 
बहुत देर तक गूंजते रहे ये स्वर 
उड़ते पदचापों के स्वर के साथ 
पार्क उदास आँखों से टुकुर-टुकुर देखता रह गया 
वहां बैठे वृध    युगलों को 
जाड़ो के  नासपाती पेड़-सा 
हिमालय का एक दृश्य
सूर्योदय की
ललाई किरणों में नहाई पर्वत  चोटियाँ
लग  रही  हैं ऐसी  
जैसे  पहली बार छूआ हो 
किसी प्रेमी ने 
अपनी कमसिन प्रेमिका को 
अँगुलियों के पोरों से 
और उसके गालों में छा गयी हो लाली!  
बाजार-समय  
बहुत सारी हैं चमकीली चीजें
इस बाजार समय  में  
खींचती  हैं जो अपनी ओर
पूरी ताकत से
मगर कितनी हैं 
जो बांधती हों कुछ  देर भी.  
तुम्हारी शिकायत
जब  नहीं करते  हो तुम 
कोई शिकायत मुझसे
मन  बेचैन हो जाता है मेरा 
लगने लगता  है डर 
टटोलने  लगता हूँ खुद को
कि कहाँ गलती हो गयी मुझसे
प्रतीक्षा
जड़  नहीं
मृत नहीं
ठूंठ नहीं ये
निराशा की कोई बात नहीं
जड़ों के पत्रविहीन वृक्ष हैं ये
वसन्ती हवा की प्रतीक्षा भर  है इन्हें
फिर देखो
किस उत्साह से लद-फद जाते हैं ये
देखते ही देखते
बदल जाएगा जंगल सारा
किताबों के बीच पडा  फूल
सूख चुकी हो भले  
इसके भीतर की नमी 
कड़कड़ी  हो चुकी हों  
इसकी पत्तियां 
उड़   चुकी हो भले  
इसमें बसी खुशबू  
फीका  पड  चुका  हो 
भले  इसका रंग 
पर  इतने   वर्षों   बाद अभी भी
बचा हुआ है इसमें
बहुत कुछ
बहुत कुछ ऐसा    
  
खोना नहीं चाहते हम जिसे कभी