शाहनाज इमरानी |
समकालीन सृजन का समवेत स्वर
शाहनाज इमरानी |
शहनाज इमरानी |
शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ
अशोक कुमार पाण्डेय |
अशोक कुमार पाण्डेय हमारे समय के एक समर्थ युवा कविहैं। अशोक का हाल ही में एक नया कविता संग्रह आया है ‘प्रलय में लय जितना‘। इस संग्रह पर कवयित्री शहनाज इमरानी ने एक समीक्षा लिखी है। आइए पढ़ते हैं शहनाज की यह समीक्षा।
दिक़्क़त सिर्फ़ इतनी है कि रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख़्त
शाहनाज़ इमरानी
कवि का संग्रह समय की सोच और चिंता को रेखांकित करने वाली अलग-अलग मुद्राओं की एक लम्बी कविता ही तो होता है, कविता भी एक तरह से ज्ञान है, यह ज़िन्दगी को समझने का एक तरीक़ा है शायद। अशोक कुमार पाण्डेय की कविताओं को पढ़ते हुए ज़ाहिर होता है उनका गहरा सामाजिक बोध, वह अपने आस-पास होने वाली हलचलों से जुड़े हुए हैं। “लगभग अनामंत्रित” अशोक कुमार पाण्डेय का पहला कविता संग्रह है। इस संग्रह की कई कवितायें अंग्रेज़ी और कई भारतीय भाषाओं में अनूदित हुई हैं। “प्रलय में लय जितना” अशोक कुमार पाण्डेय का दूसरा कविता संग्रह है।
आज कविता भी पुराने काव्य-युगों से ज़्यादा आज के परिवेश के साथ चल रही है और इस परिवेश में तनाव है, घुटन है। हम अभिव्यक्ति के लिए छटपटाते हैं और इसी छटपटाहट को अशोक पाण्डेय ने शब्दों के ज़रिये अपने अन्दाज़ में अपनी बात को कविताओं में उतारा है। यह कविताएँ आज कल के ज़ालिमाना हालात पर हस्तक्षेप करती हैं, एक हौसला है जो लफ़्ज़ों से आग पैदा करता है। अशोक पाण्डेय ने काल्पनिक दुनियां के बजाय जीवन की असलियत को चुना है, और हर कविता में कुछ नया और अलग है। आज के जीवन में उसके तनावों और दबावों के चलते सारे षड्यंत्र, क़त्ल ओ ख़ून, शोषण और उत्पीड़न, प्रेम और मृत्यु सभी आत्म उत्खनन में आ जाते है और कवि-कर्म की ईमानदार ज़िम्मेदारी के साथ अपने समय की चिंताओं को देखते हुए उनका सामना करने की सलाहियत भी है।
एक अजब दुनिया थी
जिसमें हर क़दम पर प्रतियोगिता थी
बच्चे बचपन से सीख रहे थे इसके गुर
नौजवान खाने की थाली से सोने के बिस्तर तक कर रहे थे अभ्यास
बूढ़े अगर समर्पण की मुद्रा में नही थे तो विजय के उल्लास में थे गर्वोन्मत्त
खेल के लिए खेल नहीं था न हँसी के लिए हँसी
रोने के लिए रोना नहीं था अब
किसने सोचा था
ऐसी रंगमंच होगी धरती एक दिन कि कवि भी करेगा कविता
प्रतियोगिता में हिस्सेदारी की तरह।
(हारने के बाद पता चला कि मैं रेस में था, कविता से एक अंश)
अशोक कुमार पाण्डेय की यह कविताएँ इस समय की विडबनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं, जिन्हें हम जान-बूझ कर नज़र अंदाज़ कर देते हैं या खामोश रहते हैं। संग्रह की पहली कविता “मैं हर जगह था वैसा ही” हमारे समय की लाचारियों को बताती हैं और उसी स्थिति में छोड़ देती है। यह कविताएँ हमारे समय के लिए कवि कि सार्थक और प्रतिरोधी आवाज़ हैं। ‘करुणा’, ‘आश्वस्ति’, ‘माफ़ीनामा’, ‘कितना लहू लगता है राजधानी को गर्म रखने में’ इन कविताओं में कवि अपने तरीके से अँधेरे के खिलाफ लड़ता है, खुले तौर पर कई सवाल खड़े करता है, गुम होती जाती इंसानियत को बयां करती कविताएँ आज के हालात पर प्रहार करती हैं। ये कविताएँ हमें झंझोड़ देती हैं। यही वजह है कि ख़तरे उठाने को तैयार रचनात्मकता ही वक़्त से आगे निकलती है। गति से भरी यह कविताएँ किसी हादसे के पीछे बोले गये दो चार लफ्ज़ नहीं हैं,यह एक विचारधारा के प्रतिबद्ध कवि की कविताएँ हैं।
एक राष्ट्र भक्त का बयान कविता से
ये नाक में नलियाँ डाले सरकारी पैसे पर मुस्कुरा रही है जो लड़की
वह हो ही नहीं सकती इस देश की नागरिक
बहुत सारे काम है इस सरकार के पास
यह काम है कि उसके गाँव तक सड़क
एक प्राइमरी स्कूल है सरकारी
और हमारे जवान दिन रात लगे रहते है उनकी सुरक्षा में।
आइए मिल कर लगाते हैं एक बार भारत माता की जयकार
फिर शेरोँ वाली का पहाड़ा वाली का.… जय हनुमान ….जय श्री राम
कविताओं के विषय अलग-अलग हैं। इनको हताशा से अलग करने की कोशिश कविता की धार को और तेज़ करती है। यह कविताएँ दिल को छूती हैं। दिमाग़ में उथल-पुथल मचा देती हैं, इन कविताओं में ऐसे बिम्ब हैं जो देर तक यादों में ठहर जाते हैं। “उनकी भाषा का अनिवार्य शब्द”, “निष्पक्ष होना निर्जीव होना है”, “मैं एक सपना देखता हूँ‘, “तुम साथ हो तो ज़िंदा है ख़्वाहिश सफ़र” ऐसी ही कवि कविताएँ हैं। “सब वैसा ही कैसे होगा “कविता का अंश हैं।
तुम कहाँ होगी इस वक़्त?
क्षितिज के उस ओर अपूर्ण स्वप्नों की एक बस्ती है
जहाँ तारे झिलमिलाते रहते है आठों पहर
और चन्द्रमा अपनी घायल देह लिए भटकता रहता है
तुम्हारी तलाश में हज़ारों बरस भटका हूँ वहाँ
नक्षत्रों के पाँवों से चलता हुआ अनवरत
अशोक पाण्डेय की रचनात्मकता उनके दिल में बैठी हुई है यह ओढ़ी हुई नहीं है, बातें इस वक़्त की, बातें उस वक़्त की सब मिल कर जुड़ कर जब कविता का रूप लेती है तो जैसे पेंटिंग में एक दृश्य उभर कर आता है, कई पंक्तियाँ फ़ोर्स के साथ आती हैं। यह सिलसिला कहीं सब-कांशस में चलता रहता है। जस्टिफाई एक ही चीज़ करती है कि उसके पीछे जो पीड़ा है जो बैचेन किये हुए है। उसे शब्दों में ढ़ालना ‘मैं फ़िलवक़्त बेचेहरा आवाज़ों के साथ भटक रहा हूँ‘ कविता में देखा जा सकता है। हर चीज़ में एक रिदम होती है और यही बात कविता में भी है, भावनाओं की एक लय जिनका चित्रण करते है तो लगता है चीज़ें खुद बोल रही है। संग्रह की कविता “और मैं तो कविता भी नहीं लिख सकता तुम जैसी” का अंश –
एक हारी हुई लड़ाई उखड़ी साँसों तक लड़ने के बाद लौटता हूँ वहाँ जहाँ सांत्वना सिर्फ एक शब्द है
लौटना मेरे समय का सबसे अभिशप्त शब्द है और सबसे क़ीमती भी
इस बाज़ार में बस वही बेमोल जो सामान्य है
प्रेम की कोई कीमत नहीं और बलात्कार ऊँची क़ीमत में बेचा जाता है
हत्या की खबर अख़बार में नहीं शामिल आत्महत्या ब्रेकिंग न्यूज़ है
अकेला आदमी अकेला रह जाता है उम्र भर
और भीड़ में शामिल होते जाते हैं लोग।
कविता के बारे में निश्चित रूप से कह पाना मुश्किल है शायद कोई ऐसी कसौटी नहीं है जिस पर जाँच करके कहा जा सके यह सम्पूर्ण है। कविता लिखने वाले का अपना भी दृष्टिकोण होता है। अशोक कुमार पाण्डेय कविताओं में अलग-अलग शैलियों को अपनाते हैं।
कवि शब्दों से कविता गढ़ता है शब्द प्रतीक हैं, ध्वनि है अनेक अर्थ छुपाये हुए हैं, शब्द ही मिलते हैं कवि को विरासत में, शब्दों का एक समूह समय के कवि के साथ चलता है। किसी भी रचना के अन्दर रचनाकार का तजुर्बा शामिल होता है। अशोक कुमार पाण्डेय के मार्क्सवादी विचार उनकी कविताओं में नज़र आते हैं। इसी भूमिका के आधार पर साफ़गोई से कहने के बावजूद वो मानवीय, और संवेदनशील हैं और उनमें वह क्षमता है जो प्रभाव पैदा करती है। वो किसी नतीजों पर नहीं जाते बल्कि अपनी चिन्ताओं को पाठकों के ज़हन में डाल कर इसे बहुआयामी बना देते हैं। पाठक इससे नई रौशनी और ऊर्जा प्राप्त करता है। जो कुछ उन्होंने पढ़ा या कभी किसी ख़ास घटना को देखा या अनुभव किया उसे छान कर वो अपनी रचना को भाषा और शिल्प में गढ़ कर अनोखा रूप देते हैं। ‘तुम भी कब तक ख़ैर मनाते फैज़ाबाद’, ‘हलफ़नामा‘, ‘कश्मीर-जुलाई के कुछ दृश्य‘ कुछ ऐसी ही कविताएँ हैं।
तीन साल हो गए साहब
इन्हें अब भी इंतज़ार है अपने लड़के का
उस दिन आर्मी आई थी गाँव में
सोलह लाशें नहीं मिलतीं उनका कोई पता नहीं मिलता कहीं
(कश्मीर-जुलाई के कुछ दृश्य‘ कविता का एक अंश।)
अशोक पाण्डेय ख़ुद अर्थशास्त्र के विद्यार्थी रह चुके हैं। बाज़ारवाद, पूँजीवाद और भोगवादी संस्कृति की दौड़ में अतृप्ति का मनोविज्ञान एक खला (रिक्तता) पैदा कर देता है, और यही खला माज़ी,रीति-रिवाज, कर्मकांड, विश्वास, एथनीसिटी की ओर ले जाकर इंसान को जड़ कर देती है, और धर्म भी बाजार प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है। इस विषमता, असुरक्षा, और हिंसा की वजह से धर्म का व्यापार भी बढ़ता जा रहा है। उन्हीं की कविता ‘एक राष्ट्रभक्त का बयान’, ‘अरण्योदन नहीं चीत्कार’ इस संदर्भ में बेहतरीन कविताएँ हैं।
इतिहास ने तुम पर अत्याचार किया
भविष्य न्याय करेगा एक दिन
दिक़्क़त सिर्फ़ इतनी है कि रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख़्त।
कविता न्याय से एक अंश है।
यह कविताएँ ज़िन्दगी की ज़ुबान हैं, उस ज़मीन की ज़ुबान जो आदमी और क़ुदरत दोनों को सँवारने में शामिल है। कविता राजनीतिक स्थिति की हो इंसानी मुश्किलों की मोहब्बत या सामाजिक स्थिति की यह पढ़ने वाले को आख़िर तक बांधे रखती हैं। कविता के सफ़र में कवि को उस वक़्त की बहुत सी चीज़ें मिलती हैं, कुछ उसके साथ लगातार बनी रहती हैं, कविताओं में भी दिखती हैं। इस संग्रह की एक कविता दूसरी कविता से अलग है क्योंकि कवि जोखम उठाना जानता है, कविता या कलाओं के बारे में ये धारणा रही है कि वह बेहतर इंसान बनाने में मददगार होती हैं। यह बात अशोक पाण्डेय पर पूरी उतरती है, बने बनाये पैमानों के हिसाब से नहीं, बल्कि ख़ुद उन मूल्यों के हिसाब से जो उन्होंने अपने तजुर्बों से हासिल किये हैं, इस संग्रह में यह बात और भी गहराई से महसूस होती है, इसमें वक़्त का चेहरा झँकता है।
शाहनाज़ इमरानी |
इस दुनिया में धर्म के नाम पर हुई लड़ाईयों में जितने अधिक लोग मारे गए हैं उतना शायद और वजहों से हुई लड़ाईयों में नहीं मारे गए. हमारे प्रख्यात वैज्ञानिक यशपाल ने हाल ही में कहा है कि इस दुनिया में शायद की कोई पचास वर्ष हो जिसमें कोई लड़ाई न हुई हो. धर्म का उद्भव मानव के शुरूआती दिनों में उसे सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए किया गया होगा. लेकिन जैसे-जैसे मानव विकास क्रम में आगे बढ़ा, जटिलताएँ बढ़ने लगीं और धर्म का स्वरुप विकृत होने लगा. विज्ञान के विकास के साथ-साथ इस धर्म का खोखलापन उजागर होने लगा. लेकिन समाज के ऐसे लोग जो जनता को मूर्ख बना कर अपना हित साधना चाहते थे उन्होंने धर्म को हथियार की तरह उपयोग किया. राजनीति भी ऐसा ही क्षेत्र है जिसमें शासकों ने धर्म का उपयोग जनता को नियंत्रित करने और अपने शासन-सत्ता में बने रहने के लिए किया. लेकिन कविता इस गठजोड़ की वास्तविकता को लगातार उजागर करती रही है. शाहनाज़ इमरानी ऐसी ही युवा कवियित्री हैं जो अपने प्रगतिशील सोच के साथ राजनीति में धर्म के उपयोग को बेनकाब करती हैं. आइए पढ़ते हैं शाहनाज़ की कुछ नयी कविताएँ
अपनी तरह के अनूठे इस ‘आधी रात के रंग’ संग्रह पर पहली बार के लिए एक आलेख लिख भेजा है युवा कवियित्री शाहनाज इमरानी ने। तो आइए पढ़ते हैं यह आलेख।
“आधी रात के रंग”
जैसे एक मूक संवाद चल रहा है। कवि-चित्रकार उसके सौंदर्य तथा मन की गहराई नापने की कोशिश करता सा लगता है। स्त्री अकेली है। उसके मन में रूमानियत का कोई भाव है ही नहीं। पर चित्रकार इक तरफा ऐसा सोचता रहता है। कई बार ऐसा होता है कि हम किसी से बहुत प्रभावित होते है। जिस से प्रभावित होते है वो भले ही उस बात को न जाने। उसका वजूद हमारे दिल में उतर जाता है –
शहनाज इमरानी कविता की दुनिया में एक नया नाम है. शहनाज की कवितायें बिम्ब और शिल्प के चौखटे तोड़ते हुए ढेर सारी उम्मीदों के साथ हमारे सामने हैं. देखने वालों को इन कविताओं में एक अनगढ़पन भी दिखेगा लेकिन इस बात से इंकार नहीं कि यह नयी कवियित्री पूरी तरह चौकस है अपने समय, समाज और संवेदनाओं के बीच. शहनाज को पता है कि आज का जीवन कितना दुष्कर है. रिश्वत के बिना कोई काम हो पाना आज लगभग नामुमकिन सा हो गया है. जो खुद बड़े अपराधी हैं, जिन्होंने खुद बड़े डांके डाले हैं, जिन्होंने खुद लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे किये हैं, वही आज हमारी संविधानिक संस्थाओं पर काबिज हैं और बड़ी बेशर्मी के साथ नैतिकता का जाप करते रहते हैं. व्यवस्था को बिगाड़ने का आरोप वे बिना किसी हिचक के उन लोगों पर लगाते हैं जो प्रतिबद्धता के साथ नेपथ्य में रहते हुए अपने काम में जुटे हुए हैं. शहनाज की ही एक कविता की पंक्तियाँ ले कर कहें तो ‘माथे का पसीना पोंछते हुए ही कुछ ठीक करने की कोशिश में आज भी कुछ लोग प्राण-प्रण से जुटे हुए हैं.’ इस नयी कवियित्री का स्वागत करते हुए पढ़ते हैं इनकी कुछ नवीनतम कविताएँ।
दीमक
फ़ैलती जा रही है दीमक रिश्वत की
स्कूल में एडमिशन के लिए, ट्रेन में रिजर्वेशन के लिए
रेड लाइट पर चालान से बचने के लिए
मुकदमा जीतने और हारने के लिए
नौकरी के लिए, राशनकार्ड, लाइसेंस, पासपोर्ट के लिए,
अस्पताल के लिए, घर के लिए, खाने के लिए, पीने के लिए
सांस लेने के लिए
जुर्म, नाइंसाफ़ी, बेईमानी
अल्फ़ाज़ों ने नए लिबास पहन लिए हैं
महंगाई, ग़रीबी, भूख और बेरोज़गारी से लोग जूझ रहे हैं
हमारे पास ईमानदारी बची नहीं
और बेईमानी एक राष्ट्रीय मजबूरी बन गई
सब की अपनी-अपनी ढपली अपना राग
संवेदनशीलता से बचते हुए इंसान के ख़िलाफ़
हर नाइंसाफी को बर्दाश्त करना
कोई तो सीखे क़ैदी ज़हनों में सोच भरना
कोई तो सुलझाए ज़िंदगी का गणित
ज़िंदा आदमी कंकाल की तरह
करते है मेहनत ढ़ोते हैं
ईंटे, रेत, सीमेंट
बनते जा रहे है कंक्रीट के जंगल
बैगर, ब्याज़ और क़र्ज़ का बोझ
आदमी का खून पी कर
मानते है कामियाबी का उत्सव
नेपथ्य में काम करने वाले अँधेरे में
रंगमंच पर तालियों की गड़गड़ाहट और शोर।
चुनाव
खेतों के साथ चलते हुए
रातो-रात मैदान बन जाते हैं
सड़कें दौड़ने लगती हैं
कुछ जांबाज़ लफ्ज़ छलांग लगाते हैं
और ख़बर के सबसे सियाह पहलू को
नए बने शहर के सामने लाते हैं
जब मानी का सबसे मुश्किल नुकता आता है
लोग फिसल कर जल्लाद के साथ हो लेते हैं
जो राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानता
वो ही तो नेता बन जाता है
चुनाव जीतना दहशतगर्दी का लाइसेंस मिल जाने जैसा है
देशवासियों को खाना नसीब नहीं
और वो पार्टी के बाद का खाना ट्रकों में भर कर फेंकते है
बे घर लोग बदन पर चीथड़े
खाली पेट सरकारी अस्पतालों के फर्श पर
बिना दवा इलाज के दम तोड़ते रहते हैं
खून,बलात्कार, हिंसा, अन्याय, अत्याचार, कट्टरवाद
मेरे देश में आज भी राष्ट्र से पहले धर्म आता है !
अणु-परमाणु से चल कर
न्यूट्रोन-प्रोटोन तक पहुंची
इस चरम सभ्यता की जिन्दगी में
प्रजा पीछे छूट गयी और तंत्र बुलेट प्रूफ़ कारों में आगे निकल गया।
गाँव का एक दिन
परिंदे जाग गये है
एक दूसरे का अभिवादन
कर रहे हैं शायद
दो चिड़ियाँ आपस में
प्यार करती है
या झगड़ती हैं
चार खम्बे और एक छप्पर
कहने को है एक घर
आँगन के चूल्हे से
उठता कण्डों का धुआँ है
एक बछड़ा उछलता है
एक चितकबरी गाय रँभाती है
एक कुत्ता आँगन में सोता है
एक गहरा कुआँ
जिस से लौटती थीं गूँजती आवाज़ें
समय ने पाट दिया है
कुछ पेड़ों के पत्ते पीले हुए है
सूनी डालियों को छोड़ कर
हवा के रुख़ पर तैरते है
जैसे बिना इरादों के आदमी
कच्चे रास्तों से गुज़र कर
गाँव कि छरहरी पगडण्डी
चौड़ी सड़क से जा मिली है
यहाँ सब कुछ वैसा सुन्दर नहीं है
जो अक्सर टी.वी. के चैनलों पर
दिखाया जाता है
मुख्तलिफ़ दुनियाँ है गाँव कि
अभावों से भरी ज़िन्दगी की साँसे
किसान का पसीना
और गरीबी की मार।
अब्बू तुम्हारी याद
तुम्हारी याद
रोज़ तपते दिन का सामना करती है
फिर ढलते शाम के सूरज तक पँहुच जाती है
आज देखो फिर काला अँधेरा पीला चाँद ले आया है
क्यों बेतरतीब सी है यह दुनियॉं
कुछ ठीक करने की कोशिश में तुम
माथे का पसीना पोंछते रहे
तुम्हारी बातों में थी रौशनी
ज़िन्दगी का संघर्ष और बहुत सारा साहस
शुरुआत और अन्जाम के बीच अब भी
भटकती है कहानी
कहीं धुएँ को तरसते हैं चूल्हे तो कहीं
जीवन ने सिर्फ व्यापारी बना दिया है
ज़ुल्म करने वालों और
ज़ुल्म सहने वालों तक एक ही कहानी है
जनसंख्या बड़ती है तो भूख भी बड़ जाती है
रिश्तों का जोड़ टूट गया है
इस दौड़ में अगला क़दम पीछे वाले से छूट गया है
हवा में फैले हैं अन्देशे और हाँपता हुआ डर
दुनियाँ बन गई है एक बारूद की खदान
अब भी जारी है राजनीति के झगड़े कुर्सी की खिंचा तान
सब कुछ ही है वैसा
बदल कर भी कुछ न बदलने जैसा।
पिछली सर्दी में
वो दिन बहुत अच्छे थे
जब अजनबीपन की ये बाढ़
हमारे बीच नहीं उगी थी
इसके लोहे के दाँत
हमारी बातों को नहीं काटते थे
उन दिनों की सर्दी में
मेंरे गर्म कम्बल में तुम्हारे पास
कितने क़िस्से हुआ करते थे
हर लफ्ज़ का मतलब वही नहीं होता
जो किताबे बताती है
लफ्ज़ तो धोखा होते है
कभी कानों का कभी दिल का
और ख़ामोशी की अँधेरी सुरंग में
काँच सा वक़्त टूटने पर
बाक़ी रह जाती हैं आवाज़े
और उनकी गूँज !
मोहल्ले का चौकीदार
अपने हाथ का तकिया बना कर
अक्सर सो जाता है
अपनी छोटी-छोटी आँखे और चपटी सी नाक लिए
सब को हाथ जोड़ कर सर झुकता है
नाम तो बहादुर है पर डर जाता है
खुद को साबित करने के लिये
चौकन्ना हाथ में लिये लाठी
उसे पटकता है ज़मी पर
चिल्लाता है ज़ोर से “जागते रहो “
अपनी चौकन्नी आँखों का
एक जाल सा फैलाता है
फिर भी सड़क का कोई कुत्ता बिना भोंके
निकल ही जाता है
हर महीने लोगों के दरवाज़े खटखटाता है
कुछ दरवाज़े तो पी जाते हैं उसकी रिरियाहट को
कुछ देते है आधा पैसा
कुछ अगले महीने पर टाल देते हैं
मैम साब घर जाना है
माँ बहुत बीमार है
इस बार तो पूरा पैसा दे दो
और मैम साब कुछ सुने बगैर
दरवाज़ा बंद कर के कहती है
छुट्टा नहीं हैं फिर आना।
संपर्क –
ई मेल : shahnaz.imrani@gmail.com