शाहनाज़ इमरानी की कहानी ‘लड़ाई जारी है’


शाहनाज इमरानी

 

जन्मस्थान – भोपाल (मध्य प्रदेश)

शिक्षा – पुरातत्व विज्ञान (आर्कियोलॉजी) में स्नातकोत्तर 

सृजन – कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ छपी हैं। 

           पहला कविता संग्रह  “दृश्य के बाहर”

पुरस्कार – लोक चेतना की साहित्यिक पत्रिका “कृति ओर” का प्रथम सम्मान!

संप्रति – भोपाल में अध्यापिका 
हाल ही में पकिस्तान में वहाँ की मशहूर माडल कंदील बलोच की उसके भाई ने गला दबा कर हत्या कर दी। कंदील का अपराध केवल उसका स्त्री होना था। सोशल साईट्स पर उसके द्वारा अपनी अलग-अलग पोज में तस्वीरें लगाना उसके भाई को नागवार लगता था। कंदील की हत्या कर जैसे उसने घर की इज्जत को बचा लिया। एक अरसे से ‘इज्जत’ के नाम पर महिलाओं को चारदीवारी में कैद करने ही नहीं बल्कि पुरुष वर्ग पर अवलम्बित करने की कोशिशें सफलतापूर्वक चल रही हैं। लेकिन महिलाओं के एक वर्ग में स्वतन्त्रता की जो चेतना विकसित हुई है वह दिनों-दिन अपना एक स्थायी रूपाकार लेने लगी हैं। कंदील हो या फिर शाहनाज़ इमरानी  के कहानी की पात्र नसीम बानो, विद्रोह के स्वर उठने लगे हैं जिसे पितृसत्तात्मक समाज बर्दाश्त करने के लिए तैयार आज भी नहीं है। बदलाव प्रकृति का नियम है और स्त्रियों की पूर्ण स्वतन्त्रता के रूप में यह बदलाव अब खुले रूप में नजर आने लगा है। इसी भावभूमि पर आधारित है शाहनाज़ इमरानी की कहानी ‘लड़ाई जारी है।’ शाहनाज़ इमरानी अभी तक कविताएँ लिखती रही हैं। यह कहानी उनके द्वारा लिखी गयी पहली कहानी है। इस नवागत कहानीकार के सुखद रचनात्मक भविष्य की कामना करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी पहली कहानी ‘लड़ाई जारी है।’  

    

लड़ाई जारी है
शाहनाज़ इमरानी   
सूरज डूबने लगा था, आवाज़ें टूट-टूट कर हवा में बिखर रही थीं। दूर तक फैले दरख़्त और परिन्दे धीरे-धीरे अँधेरे में डूब रहे थे। उस घर की तेज़ रौशनी दूसरे घरों से उसे अलग कर रही थी। यह वही घर था जिसमें आज एक मौत हुई थी। बढ़ते अँधेरे के साथ इसमें विलाप भी शामिल हो गया था। मग़रिब की नमाज़ के बाद जब जनाज़ा उठाया जा रहा था, अब आस-पास की लम्बी हरी-हरी घास भी काली दिखने लगी थी।
जनाज़ा नसीम बानो का था। कई साल पहले वो जब गाँव में आई थीं यह जगह दरख्तों के झुंड से घिरी कुछ लोगो का ही बसेरा थी। वक़्त के साथ-साथ यहाँ की आबादी भी बढ़ती गई। ज़मींदारी ख़त्म हुई और बसेरा गाँव में बदल गया। रोने की कई आवाज़ों के बीच चंपिया सुबकने लगी। हज़ार बार का सुनाया हुआ क़िस्सा फिर से सुनाने लगी उस दिन मैँ रोटी ले कर बैठी ही थी कलुआ आया तो मैंने पूछारोटी खा लें? यह सुन कर उसने, थाली पर लात मारी और बोला तेरी माँ की– जब देखो खाती रहती है। तुझे पता है……. कि सारा दिन खेत में काम करने के बाद मजूरी लेते समय कित्ती गाली खाने को मिलती है। लगता है भीख दे रहे हैं। मैं तो गुस्से में सब भूल बैठी। अन्न का अपमान सहन नहीं हुआजैसे चंडी चढ़ गई मुझ पर। हँसिया लेकर कलुआ के पीछे भागी, तो सारे गाँव में कोहराम मच गया। किसी की हिम्मत नहीं थी, जो मुझे पकड़ लेता कलुआ दीदी  के घर में घुस गया। दीदी हमको बचाइ लो आज तो हमको जान से मार देगी चंपिया। जब मैं दीदी के घर में दौड़ती हुई पहुँची तो उन्होंने ने मेरे ऊपर बाल्टी भर पानी डाल दिया। मेरा सारा क्रोध पानी के साथ बह निकला। दीदी ने हाथ से हँसिया ले कर फेंका और सामने बिछे तख्त पर बिठा दिया। कुछ देर बाद मुझे होश आया, खूब रोई, दीदी को सारी बात बताई, दीदी ने हम दोनों को ही समझाया रोटी के लिये ही तो यह सारी मशक़्क़त है। दिन भर की मेहनत के बाद इसको ठुकराना ठीक नहीं। जिस दिन भूखे सोना पड़ता है उस दिन ख़्वाब में भी रोटी देखते हो न, हर रोज़ की हाथापाई और गालीगलौज अच्छी नहीं, इस तरह बात-बात पर गुस्सा करना ठीक नहीं। तुम दोनों पति-पत्नी मोहब्ब्त से रहा करो। उसी दिन से दीदी ने मुझे उनका खाना बनाने और साफ़-सफाई के काम पर रख लिया, और हमारी गृहस्थी को ठेका मिल गया। उसके फुसफुसाने पर दो–चार लोगों और मुखिया ने चंपिया को घूर कर  देखा तो वह साड़ी के पल्ले से मुँह पोछने लगी। मौलवी साहब की बीवी ने ज़ोर से कलमा पढ़ना शुरू कर दिया लाइलाहा इल्ललाहो मोहम्मदुर रसूल उल्लाह। कुछ औरतें उनकी आवाज़ से आवाज़ मिलने की कोशिश करने लगीं, माहौल में अजीब सी सुगबुगाहट फ़ैल गई। इधर स्कूल की चपरासिन ने भी अपनी कहानी चंपिया को सुनानी शुरू कर दी। साड़ी का पल्ला दिखाते हुए बोली – ‘जे धोती न, दीदी ने दी थी, रमज़ान में फिर नई धोती देती, इससे पहले ही चली गई रे। हमरी दीदी हमरे परिवार का पेट तो गाँव के बड़े लोगन के बचे-खूचे खाने से भर जाता है। बारिस में खुद ही बनाते हैं। रूखा-सूखा कभी रोटी सीझती नहीं हैं और कभी दाल कच्ची रह जाती। जब कच्चा भात खाने से पेट में दरद होता तो दीदी के पास आ जाते, कोई न कोई दवाई दे देती थी। हमरी मोड़ी सातवीं कक्षा में आ गयी। दीदी ही लाई। उसके लाने कापी किताब, अब हमरी मोड़ी का क्या हुई गा रे भगवान उसका बापू तो पहले ही बोलता है सादी कर दो।
आँगन में मच्छरों की भिनभिनाहट बढ़ने लगी थी।  दीदी का नाम यूँ तो नसीम बानो था मगर उनके गुज़रे वक़्त के साथ नाम खो गया था। नसीम के पिता अशवाक़ मोहम्म्द खां पेशे से वकील और बहुत अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे और अपनी कुछ इन्हीं खासियतों के लिए जाने जाते थेपुराने रईस लोग यहां पीढ़ियों से जमे थे। मोहल्ले की सबसे शानदार और पुरानी कोठी, जिससे जुड़ा एक बाग भी था जिसकी देखभाली रमज़ान करता और हाट बाज़ार का भी काम करता थावो तीन पीढ़ियों से इस परिवार में था इसके दादा इस परिवार की चाकरी में आए थे। इसके एवज में उन्हें गांव में जमीन का एक टुकड़ा दिया गया था। आम लोग ऊंचे ओहदेदार भी अशवाक़ मोहम्म्द खां का सम्मान करते थे। खान-पान, पहनावे से लेकर बोलने और व्यवहार में, उन पर अंग्रेजियत हावी थी परन्तु निजी जीवन में वो बहुत दखियानूसी थे। तीन बेटियाँ एक बेटा और पत्नी—! सब उनसे ख़ौफ़ज़दा रहते, परिवार के सभी फैसले वो खुद करते थे और किसी में उनके के ख़िलाफ़ जाने या बोलने की हिम्मत नहीं थी। वो सिर्फ लड़के की पढ़ाई के लिये चिंतित रहते थे। लड़कियों के लिए घर में ट्यूटर आते। दीनी तालीम भी दी जाती और हर साल प्राइवेट फ़ार्म भरे जाते परीक्षा के लिए। कई बार अशवाक़ मोहम्म्द खां वो फ़ार्म उठा कर फैंक देते थे, बीवी की बड़ी मिन्नतों के बाद यह काम अंजाम तक पहुँचता। वक़्त गुज़रने के साथ नसीम बानो सभी फ़ार्म ख़ुद भरने लगीं, सिर्फ़ दस्तख़त के लिए पिता के पास फ़ार्म रख कर घंटों दरवाज़े के पीछे खड़ी रहती।
नसीम बानो अशवाक़ मोहम्म्द खां की  पहली औलाद, वो भी लड़की। कई दिन तक अशवाक़ मोहम्म्द खां गुम-सुम रहे थे। पता नहीं नसीम नाम किसने रखा शायद पैदा करने वाली माँ ने हीएक दिन जब शाम को नसीम ज़ोर-ज़ोर से रो रहीं थी अशवाक़ मोहम्म्द खां मोटी सी एक किताब पढ़ने में मसरूफ़ थे। बार-बार उनके रोने की आवाज़ पढ़ने में ख़लल पैदा कर रही थी। वो तेज़ क़दमों से चलते हुए कमरे में आए देखा पलंग पर बच्ची हाथ पैर मार-मार कर रो रही है। वो इतनी ज़ोर से चिल्लाये — चुप हो जा कमबख़्त। के बावर्ची ख़ाने में खाना पकाती पत्नी के हाथ से चमचा छूट गया। वो दौड़ती हुई कमरे की तरफ आयीं। अचानक यूँ चिल्लाने से नसीम अपने छोटे से गद्दे पर ज़ोर से उछल पड़ी और कुछ वक़्त के लिए सन्नाटा छा गया अभी वो कमरे से बाहर जा ही रहे थे कि नसीम ने बुलंद आवाज़ में रोना शुरू कर दिया। इस मामूल से तंग आकर अशवाक़ मोहम्म्द खां ने अपने स्टेडी-रूम को दूसरे कमरे में मुन्तक़िल कर लिया। वक़्त अपनी रफ़्तार से गुज़रता रहा, दो लड़कियों और एक लड़के का इज़ाफ़ा और हो गया था घर में। छोटे-छोटे पैर दिन में सारे घर में दौड़ते और पाँच बजे के बाद अपने कमरे में रात तक फुसफुसाते रहते। एक तोतली सी आवाज़ देर तक गूँजती,यह आवाज़ अशवाक़ मोहम्म्द खां के बेटे की होती जो गोद में बैठ कर दिन भर की जानकारियाँ देता।
अशवाक़ मोहम्म्द खां का मानना था कि लड़कियों को शिक्षा देने का मतलब उनको आज़ादी देना और ख़ानदान वालों के सामने शर्मिन्दा होना है। क्यूँकि पहले ही नसीम बानो की शादी में देर हो गयी थी, वो चाहते थे तीनों लड़कियों की शादी कर दें, फिर अपने बेटे के बारे में तय करेंगे कि उसे किस फील्ड में ले जाना है। जब नसीम बानो ने दसवीं क्लास पास कर ली तो उन पर शादी का दवाब बढ़ गया– उन्होंने अपनी माँ से कहा कि वो अभी शादी करना नहीं चाहतीं, जब उन्होंने आगे पढ़ने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की, तो हवेली के सारे दरो-दीवार कांपने लगे अशवाक़ मोहम्म्द खां के गुस्से से उन्होंने बीवी को ख़ूब खरी-खोटी सुना कर इस अनुचित माँग के लिए दोषी ठहरायाऔर फिर नसीम बानो को कमरे में बंद कर दिया। दो दिन की भूखी नसीम बानो के सर से जब पढ़ाई का भूत नहीं उतरा तो अशवाक़ मोहम्म्द खां को अपनी हार महसूस हुई। वो नसीम बानो को  बालों से पकड़ कर आँगन में लाये और जूते पहने पाँव से लतियाना शुरू कर दिया। वह बुरी तरह चिल्लाती रही और उसकी माँभाईबहने और नौकर-चाकर भी छूप कर देखते रहे पर किसी में हिम्म्त नहीं थी की वो नसीम बानो को बचा लेता। 
रात भर माँ नसीम बानो के ज़ख्मो को सहलाती रही, लेकिन पिता की कठोरता वैसे ही बनी रही। आख़िर अशवाक़ मोहम्म्द खां ने अपने आख़री सुरक्षित अधिकार का प्रयोग करने की ठान ली, पत्नी को तलाक़ देना और दो साल पहले तय की हुई नसीम बानो की शादी को अंजाम तक पहुंचाना। बीते पन्द्रह दिनों में अशवाक़ मोहम्म्द खां ने अपनी बहन को बुला कर शादी की सभी तैयारियां कर लीं। बीवी सारा दिन बावर्चीख़ाने में खाना पकाते हुए गुज़ार देतीं। छोटी बहने नसीम बानो को कुछ न कुछ खिलाने और शादी के ख़्वाब दिखाने में लगी रहतीं। नसीम बानो अपनी बात पर अड़ी हुई थीं कि शहर जा कर उसे आगे पढ़ना है। मामला संगीन हो गया था। मोहल्ले की औरतों और लड़कियों के लिए यह बात समझ से बाहर थी कि एक लड़की शहर जाना चाहती थी वो भी पढ़ाई के लिए।
आस-पास के लोग इस किस्से को दूसरा ही रंग दे रहे थे। सारे ख़ानदान और मिलने वालों को दावत नामे बाँट दिए गए। जब नसीम बानो का उबटन लगने का वक़्त आया तो उसने उबटन लगवाने से साफ़ इंकार कर दिया। माँ ने बुख़ार का बहाना बना कर दूसरे कमरे में लिटा दिया। माँ समझ रही थी बेटी की इच्छा के विरुद्ध हो रहा था उसका निकाह। माँ का चेहरा बुझा हुआ था, बहनें कुछ न कर पाने की विवशता के बीच दबी हुई थीं। माँ जानती थी पति और बेटी को, कि कोई भी पीछे हटने वालों में से नहीं था। यह हादसा ऐसा था सभी की पेशानियों पर बल पड़ गए और हर एक की आँखों में नसीम बानो के प्रति तिरस्कार देखा जा सकता था। क्यूँकि उबटन न लगवाना बहुत बड़ा अपशकुन था। लड़कियां शादी में रगड़-रगड़ कर उबटन लगवातीं हैंगीत गाये जाते, मगर नसीम बानो ने तो पटले से उठ कर सब के दिल में शक पैदा कर दिया था, सभी वजह ढूंढ रहे थे। ख़ानदान की बहुत सी महिलाओं का मानना था– यह कोई इश्क़ मोहब्बत का क़िस्सा है। यह सब सुन कर अशवाक़ मोहम्म्द खां के सर पर खून सवार हो गया था। जब वो अपनी बड़ी बहन के साथ अपने एक मात्र बेटे को भेजने की बात कर रहे थे और पत्नी को तलाक देने की तो उनकी पत्नी ने चाय ले जाते वक़्त दरवाज़े के पीछे छुप कर सुन लिया था। अशवाक़ मोहम्म्द खां ने बहन से कहा हालात साज़गार होते ही वो लड़के को वापिस ले आयेंगे। उनकी बहन ने ज़ारो-क़तार रोते हुए कहा कि वो सब्र से काम लेंगे। पहले ही बहुत बदनामी हो चुकी है, अब और कुछ ऐसा नहीं करेंगे जिससे बात बढ़े। अशवाक़ मोहम्म्द खां ने कहा मैंने खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है। क्या ज़रूरत थी उसे दसवीं तक पढ़ाने की? मगर मजबूरी भी थी लड़के ने कह दिया था लड़की कम से कम दसवीं पास होनी चाहिए। 
यह सारी बातें सुन कर उसी रात नसीम बानो की माँ ने, अपने और नसीम बानो के गहने और कुछ कपड़ों को एक छोटे से संदूक में रख कर रमज़ान के हाथ जोड़ते हुए उनकी बहन के घर ले जाने कि मिन्नत की। चालीस से ज़यादा उम्र के रमज़ान अपने साथ नसीम बानो को ले कर उसकी ख़ाला के घर के लिए सुबह होने से पहले रवाना हो गये, किन्तु नसीम बानो की ख़ाला के घर पहुंचने पर रमज़ान और नसीम बानो को समझ में आया कि यहाँ पढ़ना लिखना तो दूर की बात है, पेट भर खाना मिलना भी मुश्किल है। ख़ाला अपने सात अदद बच्चों और ससुराल वालों में इतनी मसरूफ़ थीं कि उन्हें पता ही नहीं चला कब नसीम और रमज़ान उनकी टूटी फूटी हवेली से उलटे पाँव बाहर निकल गये। 
रमज़ान ने शहर आ कर अपने जीवन का मक़सद नसीम बानो को बना लिया, नसीम बानो भी मेहनत से पढ़ने लगीं। बी.ए. का रिज़ल्ट आने वाला था कि एक दिन  रमज़ान की तबियत बिगड़ने लगी, बीमार रमज़ान की देखभाल के साथ नसीम ने मोहल्ले के छोटे-छोटे बच्चो को ट्यूशन पढ़ना भी जारी रखा। दो महीने में रमज़ान सूख कर काँटा हो गए, उन्होंने अपने गाँव जाने की ख्वाहिश जाहिर की, उनकी ख़्वाहिश के अनुसार नसीम बानो  रमज़ान को उनके गाँव ले गईं। गाँव पहुँचने के सप्ताह बीतते-बीतते रमज़ान दुनियां छोड़ गए, मगर जाते-जाते गाँव के सरपँच और अपने कुछ लोगों को कह गए कि उनके न रहने पर वे नसीम बानो का  ख्याल रखें। नसीम बानो ने आगे की पढ़ाई उसी गाँव में रह कर जारी रखीकुछ ही समय बाद बदलाव की लहर उठनी शुरू हुई और इस गाँव से कुछ ही घंटों की दूरी पर एक स्कूल सरकार की तरफ से खुल गया, इसी स्कूल में नसीम बानो पहले अध्यापिका और फिर प्रधान अध्यापिका तक बन गई थीं। उनका बाक़ी समय भी पढ़ने पढ़ाने और गाँव के लोगों से गाँव सुधारने कि बातें करते गुज़र जाता था। गाँव की औरतें नसीम की हिम्मत और दृढ़ संकल्प से बहुत प्रभावित थीं। उनमे जागृति आ रही थी किन्तु कुछ औरतों के मन में कई तरह के डर और संदेह चक्कर काटते रहते नसीम के अकेले रहने, और उनके परिवार के बारे मेंनतीजे में वो अपनी शंका नसीम से जाहिर करती।                                                                              
एक दिन मसुरियादीन के घर के पिछवाड़े वाले कुएं की जगत पर कुछ औरते जमा थीं, उनके मन में तरह-तरह के सवाल थे, अपने अधिकारों को लेकर खुसुर-फुसुर कर रहीं थी वे, सरपंच की पत्नी ने नसीम के सामने उसके ही जीवन को लेकर कई सवाल उठा दिए! एक तनाव का डेरा तन गया उन सब के सर पर! उन तनावपूर्ण क्षणों में भी नसीम के चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आई! एक व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट उसके चेहरे पर खेलने लगी। उन्होंने कहा तुम एक औरत हो कर भी यह सोचती हो कि मैंने और मेंरी माँ ने ग़लत किया है। अपने अधिकारों के दायरे के बाहर जा कर काम किया है। आख़िर लड़कियां कब तक गाय बनी रहेंगी। यह हक़ किसने दिया जब चाहा, जहाँ चाहा बाँध दिया। इसके ख़िलाफ़ बग़ावत तो करनी ही थी। आवाज़ तो बुलंद करनी थी, अपनी मजबूरी को तोड़ना था मुझे और मैंने किया। सरपँच की पत्नी को समझ में नहीं आया कि जब अच्छा-ख़ासा घर और वर दोनों मिल रहे थे तब शादी नहीं की और अब अकेले रहती हैं। नसीम बानो  बहुत सी लड़कियों की ज़ुबान बनी और बहुत से ख़्वाबों को उड़ना सिखाया। आज वही नसीम बहुत ख़ामोशी से दुनियां से चली गई थीं। सारा गाँव इकट्ठा हो गया था। 
                                           
अंदर के कमरे से बहुत सारी किताबें और एक अदद लकड़ी का बॉक्स बाहर निकाल कर रख दिया गया था। बॉक्स में पुराने खतों और काग़ज़ों के साथ एक बंद लिफ़ाफ़ा और एक पास बुक थी। लिफ़ाफ़ा में रखा पत्र सरपँच जी के नाम थासब तरफ खामोशी छा गई थी। सबने रोना बंद कर दिया था। स्कूल की एक अध्यापिका ने उस ख़त को ज़ोर से पढ़ना शुरू कर दिया। बैंक के रूपये में से चंपिया और स्कूल की चपरासिन की लड़की की पढ़ाई जारी रखने और चंपिया को हर महीने दौ सौ रूपये देनेघर का सभी सामान गाँव में बाँट देने की वसीयत थी। घर को एक स्कूल के रूप में चलाने का काम सरपंच की पत्नी का और बैंक में बक़ाया धन लड़कियों की पढ़ाई पर खर्च करने की वसीयत वकील और अदालत के द्वारा बनाई गयी थी। सभी लोगों ने अवाक् होकर ख़त को सुना। कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। थोड़ी देर बाद बिलख कर रोने की आवाज़ें आने लगीं इस बार आँगनबाड़ी की चपरासिन और चंपिया के साथ-साथ सरपँच की पत्नी के रोने में भी, किसी आत्मीय को खो देने की तकलीफ़ थी।
  
उस समय तो नहीं, लेकिन रात में जब गाँव की औरतें और सरपंच की पत्नी नसीम बानो के कमरे में रखे लकड़ी के बॉक्स के अन्दर के काग़ज़ात देख रही थीं तो उसमें वो ख़त भी मिल गया जो नसीम बानो के मोहल्ले में से किसी ने रमज़ान के पते पर नसीम बानो के लिए लिखा था। बहुत सारी लानतों के बाद लिखा था कि जब रमज़ान अपनी बेटी समान नसीम बानो को लेकर शहर भाग गए तो सुबह होने पर हर तरफ से लोग उन्हें बुरा भला कहने लगे और एक हंगामा खड़ा हो गया। यह सब सुन कर शादी में आए मेहमान अपने-अपने घरों को रवाना हो गए, पूछ-ताछ के डर से नौकर-चाकर भी भाग गएअशवाक़ मोहम्म्द खां की बहन उनके बेटे को ले कर जब जाने लगीं तो नसीम बानो की माँ ने उनके के पैर पकड़ लिए। बहनें हाथ जोड़ कर रोकने लगीं, तो अशवाक़ मोहम्म्द खां अपनी बीवी की चोटी पकड़ कर घसीटते हुए कमरे में ले गए और दोनों बेटियों को ज़ोर का धक्का देकर बहन के जाने का रास्ता साफ़ कर दिया। उनके जाने के बाद घुटी-घुटी रोने की आवाज़ें ख़ाली कमरों में दस्तकें देती रही। सुबह से दोपहर हो गयी, अशवाक़ मोहम्मद खां कमरे से बाहर नहीं निकले और न कोई काम करने वाला ही हवेली में आयानसीम बानो की माँ के साथ उनकी छोटी बहनें जानमाज़ पर बैठी दुआ माँगती रहीं किसके लिए उन्हें ख़ुद भी पता नहीं था। रात का वक़्त था और चारों तरफ अँधेरा छाया हुआ था। अचानक हवेली में आग लग गई, सबने देखा कि हवेली से उठने वाली आग की लपटें आसमान को छू रही थीं। सुबह हवेली का ढाँचा रह गया था और राख़ के साथ बहुत सारे सवाल भी बाक़ी रह गये थे।
संपर्क – 
मोबाइल –9753870386 
ई-मेल : shahnaz.imrani@gmail.com

शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ


शहनाज इमरानी

नाम – शाहनाज़ इमरानी 

जन्म स्थान – भोपाल (मध्य प्रदेश )

शिक्षापुरातत्व विज्ञानं (आर्कियोलोजी) में स्नातकोत्तर 

सृजनकई पत्रिकाओं में कविताएँ छपी हैं। 

           पहला कविता संग्रह  “दृश्य के बाहर

पुरस्कार लोक चेतना की साहित्यिक पत्रिका “कृति ओर” का प्रथम सम्मान !

संप्रतिभोपाल में अध्यापिका 

‘आजादी’ शब्द अपने स्वरुप में भले ही सामान्य सा लगे-दिखे लेकिन इसके मायने अपने आप में बहुत बड़े होते हैं। फ्रांस की क्रान्ति के दौरान पहली बार ‘स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व’ का नारा लगाया गया था जो शीघ्र ही विश्व-व्यापी नारा हो गया था। एक मनुष्य के तौर पर जब भी हम कुछ बेहतर स्थिति में होते हैं, जब दूसरे मनुष्य के बारे में उदारतापूर्वक सोचते हुए बिना किसी भय या संकोच के हम उसे बराबरी के स्तर पर रखते हुए वास्तव में उसके साथ बराबरी का व्यवहार करते हैं तो वह आजादी होती है जो हम आतंरिक तौर पर महसूस करते हैं। मानव के विकास क्रम में कई ऐसी सामाजिक संस्थाएं अस्तित्व में आयीं जिनका उद्देश्य समाज का सुचारू संचालन था। यह अलग बात है कि इन संस्थाओं के भीतर ही इतने अधिक अंतर्विरोध थे कि असमानता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती थी। दुर्भाग्यवश यह आज भी जारी है। जाति, धर्म, वर्ग, लिंग, नस्ल, भाषा आदि कारकों को ले कर आज भी लोगों के साथ असमानताएं बरती जाती हैं। शाहनाज इमरानी ‘आजादी’ नामक अपनी कविता में व्यंग्य करते हुए इसे व्याख्यायित करते हुए लिखती हैं – ‘अब उड़ने की ख़्वाहिश पर/ क़ब्ज़ा है बहेलिया का/ चिड़िया के लिए/ आज़ादी का अर्थ है पिंजरा/ सुरक्षित है पिंजरे में चिड़िया।’ आज शाहनाज इमरानी का जन्मदिन है। उन्हें जन्मदिन की शुभकामनाएँ देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ नयी कविताएँ।   

  शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ

  
1. उदासीनता 
कुछ यूँ लग रहा है
कि थम गयी हो हर चीज़ जैसे
ख़्याल को लग गया हो ज़ंग 
वो बे-तरतीब सी बातें
बीच में खो गयीं कहीं 
जिन पर नहीं लिखा था पूरा पता
बर्फ़ सी जमी उदासीनता 
सब तरफ और होने के 
नाटक में शामिल हूँ —मैं 
खुद से बच कर निकलना चाहती हूँ
पर बच कर निकलने वालों के पास
आती नहीं हैकविता !!
 
2. हम 
कविता में थोड़े से तुम
थोड़ी सी मैं
तुम कुछ मेंरे जैसे
कुछ तुम्हारे जैसी मैं
होना घटना है अगर 
सचमुच हैं “हम”। 
3.  आज़ादी 
बच गई शिकार होने से 
खुश है चिड़िया
अब उड़ने की ख़्वाहिश पर
क़ब्ज़ा है बहेलिया का
चिड़िया के लिए
आज़ादी का अर्थ है पिंजरा 
सुरक्षित है पिंजरे में चिड़िया। 
 
4. विस्मृति का रिसायकल बिन
अपने मायनों के साथ ही
आया उपेक्षा शब्द जीवन मे
सहजे गये अपनेपन से
हाथों ने उलीचा अपना ही दुख
उदासी में सूखते होठों पर
हँसी का लिप गार्ड लगा कर
समझी कि सब कुछ है  ‘सामान्य
यक़ीन था कि शाश्वत है प्रेम
पर उदासीन चीज़ों का क्या?
एक तीसरा ख़ाना  
जब कि सही ग़लत के लिये है
दो ही ख़ाने
कुछ देर में अनुपस्थिति से उपस्थिति की तरफ़
लौटते  हुए मैंने जाना कि
सभी पहाड़ों से लौट कर नहीं आती आवाजें
और नदी पहाड़ों में बहते रहने से
नहीं हो जाती पहाड़ी नदी 
अन्दर आई बाढ़ के उतरने के बाद
आख़िर एक चोर दरवाज़ा
तलाश ही लिया ख़ुद के लिए
अब बची हुई औपचारिकता में
बातों के वही अर्थ हैं
जो होते हैं आमतौर पर। 


5. हादसे के बाद 
कितने लोग मेरी तरह 
 सुबह उठ कर इस डर में
 अख़बार देखते होंगे 
 कहीं कोई बम न फटा हो
 किसी जगह हमला
 तो नहीं कर दिया 
 कहीं आंतकवादियों ने 
हर हादसे के बाद लगता है 
मुझे घूरती हैं मुझे कुछ नज़रें
बातें कुछ सर्द हो जाती हैं। 
6. एक समय था 
एक कहानी थी
एक लड़का था
एक लड़की थी
बारिश थी
पानी में भीगते फूल थे
झील में लहरें थीं
गुमठी पर चाय पीते
दोनों भीगे हुए थे
हवा में गूंजती
दोनों की हँसी थी
बहुत कुछ लौट कर
आता है ज़िन्दगी में
बारिशें, फूल
लहरें और हँसी
नहीं लोटा तो
गुमठी वाली
चाय का वो स्वाद।
7.  प्रतीक्षा 
धीरे-धीरे उगता 
अलसाया सा सूरज 
रौशनी का जाल 
फैंकता ठन्डे हाथों से
साम्राज्य में कोहरे के 
पड़ने लगी दरारें। 
 
8.  बाज़ार
कम उम्र में बड़ी आमदनी 
देता है बी. पी. ओ. का कॉल सेन्टर
घूमता है सब सेंसेक्स, सेक्स
और मल्टीप्लेक्स के आस-पास
समय का सच
तय करते है बाज़ार और विज्ञापन 
पूँजीवाद को बढ़ाता बाज़ार
सिमटी सकुड़ी बन्धुता
सारे सरोकारों दरकिनार
इंसान की जगह लेती मशीने
मौजूद है हर जगह प्रतिस्पर्धा
चेहरे कितने ही बदल गए हों।
9. कमरे की अकेली खिड़की
तुमसे मिल कर लगा
तुम वही हो न
अपने ख़यालों में अक्सर
मिलती रही हूँ तुम से
ख़याल की तरह तुम हो भी
और नहीं भी
तुमसे बातें यूँ की हैं जैसे
सदियों से जानती हूँ तुम्हे
बिछड़ना न हो जैसे कभी तुमसे
शायद तुम्हें पता न हो
इस कमरे की अकेली
खिड़की तुम हो
मेरी हर साँस लेती है
हवाएँ तुम से। 
(यह कविताएँ ‘सदानीरा’ के अंक 11 में छपी हैं।)

10. चले गये पिता के लिए 
 बेपरवाह सी इस दुनिया में 
 मसरूफ़ दिन बीत जाने के बाद
 तुम्हारा याद आना 
 पिता तुम मेरे 
 बहुत अच्छे दोस्त थे 
 हम दोनों 
 तारों को देखा करते 
 आँगन में लेटे हुए 
 बताया था तुम्हीं ने 
 कई रंगों के होते है तारे 
 और तुम भी एक दिन
 बन गए सफ़ेद तारा 
 देखना छोड़ दिया मैंने तारों को 
 पिता होने के रौब और ख़ौफ़ से दूर 
 काँधे पर बैठा कर तुमने दिखाया था 
 आसमान वो आज भी 
 इतना ही बड़ा और खुला है 
 सर्वहारा वर्ग का संघर्ष 
 कस्ता शिकंजा पूँजीपतियों का 
 व्यवस्था के ख़िलाफ़ 
 नारे लगाते और 
 लाल झंडा उठाये लोगों के बीच 
 मुझे नज़र आते हो तुम 
 समुंद्र मंथन से निकले थे 
 चौदह रत्न एक विष और अमृत भी 
 देवताओं ने बाँट लिया था अमृत 
 शिव ने विष को गले में रख लिया 
 जहाँ खड़ा था कभी मनु 
 खड़ा है वहीँ उसका वारिस भी 
 पिता तुम्हारी उत्तराधिकारी 
 मैं ही तो हूँ। 
11. ढोल 

मंदिर में भजन गाती हैं स्त्रियां हर शाम होती है पूजा और धीरे -धीरे बजता  ढोल धार्मिक कार्यक्रम हो विवाह ,या हो कोई त्योहार वो कमज़ोर लड़का अपनी पूरी ताक़त से बजाता है — ढोल उसकी काली रंगत और उसके पहनावे का अक्सर  ही बनता है मज़ाक़ कहते है उसे हीरो ज़रा दम लगा के बजाख़बरों से बाहर के लोगों में शामिल नफ़रत और गुस्से में पीटता है वो ढोल नहीं होते हैं इनके जीवन में बलात्कार, आत्महत्या और क़त्ल या कोई दुर्घटना जो हो सके अखबारों में दर्ज नहीं है इनका जीवन मीडिया के कवरेज के लिए इनके साथ कुछ भी हो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता गंदे लोगों में है इनका शुमार रहती है गाली इनकी ज़ुबान पर पीते हैं शराब ,करते हैं गैंग वार मान लिया गया है इन्हे हिंसक ज़मीन नहीं / पैसा नहीं राजनीतिक विमर्श से कर दिया गया है बाहर ड्रम बीट्स और आर्टिफिशियल वाद्ययंत्रों में भूलते गये हम ढोल फेंके गये सिक्कों को खाली जेबों के हवाले कर चल देता है अँधेरी और बेनाम बस्ती की ओर हमारी मसरूफ़ियत से परे है इसका होना घसीटता चलता है अपने पैरों को गले में लटका रहता ख़ामोश और उदास ढोल।

12. पुरस्कृत होते चित्र

रोटी की ज़रूरत ने
हुनरमंदों के काट दिए हाथ
उनकी आँखों में लिखी मजबूरियाँ
बसी हैं इंसानी बस्तियां
रेल की पटरियों के आस-पास
एन. जी. ओ. के बोर्ड संकेत देते है
मेहरबान अमीरों के पास
इनके लिए है जूठन, उतरन कुछ रूपये
यही पैतृक संपत्ति है
यही छोड़ कर जाना है तुम्हे बच्चों के लिए
तुम्हारे लिए गढ़ी गई हैं कई परिभाषाएं
देख कर ही तय होती है मज़दूरी
वो खुश होते है झुके हुए सरों से 
इनकी व्याख्या करते हैं कैमरे के फ़्लैश
और पुरस्कृत होते हैं चित्र।


13. सरकारी पाठशाला
गाँव में सरकारी पाठशाला खुलने से
गाँव वाले बहुत खुश थे
पाठशाला में बच्चों का नाम दर्ज कराने का
कोई पैसा नहीं लगेगा
किताबें, यूनिफॉर्म, दोपहर का भोजन
सब कुछ मुफ़्त मिलेगा
तीन कमरों की पाठशाला
दो कमरे और एक शौचालय
प्रधान अध्यापिका, अध्यापक और चपरासिन
सरपंच जी ने चौखट पर नारियल फोड़ा
दो अदद लोगों ने मिल कर
राष्ट्रीय गीत को तोड़ा-मरोड़ा
सोमवार से शुरू हुई पाठशाला
पहले हुई सरस्वती वन्दना
भूल गए राष्ट्रीय गान से शुरू करना
अध्यापक जब कक्षा में आये
रजिस्टर में नाम लिखने से पहले
बदबू से बौखलाये
बच्चों से कहा ज़रा दूर जा कर बैठो
मैं जिसको जो काम दे रहा हूँ
उसे ध्यान से है करना
नहीं तो उस दिन भोजन नहीं है करना
रजिस्टर में नाम लिखा और काम बताया
रेखा , सीमा, नज़्मा तुम बड़ी हो
तुम्हे भोजन बनाने में
मदद करना है चम्पा (चपरासिन) की
झाड़ू देना है और बर्तन साफ़ करना है
अहमद, बिरजू गाँव से दूध लाना
कमली, गंगू
पीछे शौचालय है
मल उठान और दूर खेत में डाल कर आना
तुम बच्चों इधर देखो छोटे हो पर
कल से पूरे कपड़े पहन कर आना
सब पढ़ो छोटे “अ” से अनार बड़े “आ” से आम
भोजन बना और पहले सरपंच जी के घर गया
फिर शिक्षकों का पेट बढ़ाया
जो बचा बच्चों के काम आया
दिन गुजरने लगे
रेखा, नज्मा का ब्याह हो गया
अब दूसरी लड़कियाँ झाड़ू लगाती है
अहमद, बिरजू को अब भी
अनार और आम की जुस्तजू है
कमली, गंगू मल ले कर जाते है
खेत से लौट कर भोजन खाते
कभी भूखे ही घर लौट जाते
छोटे बच्चे अब भी नंगे हैं
छुपकर अक्सर बर्तन चाट लेते हैं
कोई देखे तो भाग लेते हैं
चम्पा प्रधान अध्यापिका के यहाँ बेगार करती है
कुछ इस तरह से गाँव की पाठशाला चलती है।
(उपर्युक्त कविताएँ पहल 102 में छपी हैं।)

संपर्क  
ई-मेल – shahnaz.imrani@gmail.com 

मोबाइल – 9753870386 
(इस पोस्ट में शामिल पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.) 
  

अशोक कुमार पाण्डेय के कविता-संग्रह "प्रलय में लय जितना" पर शाहनाज़ इमरानी की समीक्षा


अशोक कुमार पाण्डेय

अशोक कुमार पाण्डेय हमारे समय के एक समर्थ युवा कविहैं अशोक का हाल ही में एक नया कविता संग्रह आया है प्रलय में लय जितना इस संग्रह पर कवयित्री शहनाज इमरानी ने एक समीक्षा लिखी है आइए पढ़ते हैं शहनाज की यह समीक्षा  


दिक़्क़त सिर्फ़ इतनी है कि रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख़्त

शाहनाज़ इमरानी

कवि का संग्रह समय की सोच और चिंता को रेखांकित करने वाली अलग-अलग मुद्राओं की एक लम्बी कविता ही तो होता है, कविता भी एक तरह से ज्ञान है, यह ज़िन्दगी को समझने का एक तरीक़ा है शायद। अशोक कुमार पाण्डेय की कविताओं को पढ़ते हुए ज़ाहिर होता है उनका गहरा सामाजिक बोध, वह अपने आस-पास होने वाली हलचलों से जुड़े हुए हैं। “लगभग अनामंत्रितअशोक कुमार पाण्डेय का पहला कविता संग्रह है। इस संग्रह की कई कवितायें अंग्रेज़ी और कई भारतीय भाषाओं में अनूदित हुई हैं। “प्रलय में लय जितना” अशोक कुमार पाण्डेय का दूसरा कविता संग्रह है।

आज कविता भी पुराने काव्य-युगों से ज़्यादा आज के परिवेश के साथ चल रही है और इस परिवेश में तनाव है, घुटन है।  हम अभिव्यक्ति के लिए छटपटाते हैं और इसी छटपटाहट को अशोक पाण्डेय ने शब्दों के ज़रिये अपने अन्दाज़ में अपनी बात को कविताओं में उतारा है। यह कविताएँ आज कल के ज़ालिमाना हालात पर  हस्तक्षेप करती हैं, एक हौसला है जो लफ़्ज़ों से आग पैदा करता है। अशोक पाण्डेय ने  काल्पनिक दुनियां के बजाय जीवन की असलियत को चुना है, और हर कविता में कुछ नया और अलग है। आज के जीवन में उसके तनावों और दबावों के चलते सारे षड्यंत्र, क़त्ल ओ ख़ूनशोषण और उत्पीड़न, प्रेम और मृत्यु सभी आत्म उत्खनन में आ जाते है और कवि-कर्म की ईमानदार ज़िम्मेदारी के साथ अपने समय की चिंताओं को देखते हुए उनका सामना करने की सलाहियत भी है। 

एक अजब दुनिया थी 
जिसमें हर क़दम पर प्रतियोगिता थी 
बच्चे बचपन से सीख रहे थे इसके गुर 
नौजवान खाने की थाली से सोने के बिस्तर तक कर रहे थे अभ्यास 
बूढ़े अगर समर्पण की मुद्रा में नही थे तो विजय के उल्लास में थे गर्वोन्मत्त 
खेल के लिए खेल नहीं था न हँसी के लिए हँसी 
रोने के लिए रोना नहीं था अब 
किसने सोचा था 
ऐसी रंगमंच होगी धरती एक दिन कि कवि भी करेगा कविता 
प्रतियोगिता में हिस्सेदारी की तरह। 

(हारने के बाद पता चला कि मैं रेस में था, कविता से एक अंश)

अशोक कुमार पाण्डेय की यह कविताएँ इस समय की विडबनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं, जिन्हें हम जान-बूझ कर नज़र अंदाज़ कर देते हैं या खामोश रहते हैं। संग्रह की पहली कविता मैं हर जगह था वैसा ही” हमारे समय की लाचारियों  को बताती हैं और उसी स्थिति में छोड़ देती है। यह कविताएँ हमारे समय के लिए कवि कि सार्थक और प्रतिरोधी आवाज़ हैं। करुणा’, ‘आश्वस्ति’, ‘माफ़ीनामा’, ‘कितना लहू लगता है राजधानी को गर्म रखने मेंइन कविताओं में कवि  अपने तरीके से अँधेरे के खिलाफ लड़ता है, खुले तौर पर कई सवाल खड़े करता है, गुम होती जाती इंसानियत को बयां करती कविताएँ आज के हालात पर प्रहार करती हैं। ये कविताएँ  हमें झंझोड़ देती हैं। यही वजह है कि ख़तरे उठाने को तैयार रचनात्मकता ही वक़्त से आगे निकलती है। गति से भरी यह कविताएँ किसी हादसे के पीछे बोले गये दो चार लफ्ज़ नहीं हैं,यह एक विचारधारा के प्रतिबद्ध कवि की कविताएँ हैं।

एक राष्ट्र भक्त का बयान कविता से 
ये नाक में नलियाँ डाले सरकारी पैसे पर मुस्कुरा रही है जो लड़की 
वह हो ही नहीं सकती इस देश की नागरिक 
बहुत सारे काम है इस सरकार के पास 
यह काम है कि उसके गाँव तक सड़क 
एक प्राइमरी स्कूल है सरकारी 
और हमारे जवान दिन रात लगे रहते है उनकी सुरक्षा में। 
आइए मिल कर लगाते हैं एक बार भारत माता की जयकार 
फिर शेरोँ वाली का पहाड़ा वाली का.जय हनुमान  ….जय श्री राम 

कविताओं के विषय अलग-अलग हैं। इनको हताशा से अलग करने की कोशिश कविता की धार को और तेज़ करती है। यह कविताएँ दिल को छूती हैं। दिमाग़ में उथल-पुथल मचा देती हैं, इन कविताओं में ऐसे बिम्ब हैं जो देर तक यादों में ठहर जाते हैं। “उनकी भाषा का अनिवार्य शब्द”, “निष्पक्ष होना निर्जीव होना है”, “मैं एक सपना देखता हूँ, तुम साथ हो तो ज़िंदा है ख़्वाहिश सफ़र” ऐसी ही कवि कविताएँ हैं। “सब वैसा ही कैसे होगा “कविता का अंश हैं।

तुम कहाँ होगी इस वक़्त?
क्षितिज के उस ओर अपूर्ण स्वप्नों की एक बस्ती है 
जहाँ तारे झिलमिलाते रहते है आठों पहर 
और चन्द्रमा अपनी घायल देह लिए भटकता रहता है 
तुम्हारी तलाश में हज़ारों बरस भटका हूँ वहाँ 
नक्षत्रों के पाँवों से चलता हुआ अनवरत

अशोक पाण्डेय की रचनात्मकता उनके दिल में बैठी हुई है यह ओढ़ी हुई नहीं है, बातें इस वक़्त की, बातें  उस वक़्त की सब मिल कर जुड़ कर जब कविता का रूप लेती है तो जैसे पेंटिंग में एक दृश्य उभर कर आता है, कई पंक्तियाँ फ़ोर्स के साथ आती हैं। यह सिलसिला कहीं सब-कांशस में चलता रहता है। जस्टिफाई एक ही चीज़ करती है कि उसके पीछे जो पीड़ा है जो बैचेन किये हुए है। उसे शब्दों में ढ़ालना मैं फ़िलवक़्त बेचेहरा आवाज़ों के साथ भटक रहा हूँकविता में देखा जा सकता है। हर चीज़ में एक रिदम होती है और यही बात कविता में  भी  है, भावनाओं की एक लय जिनका चित्रण करते है तो लगता है चीज़ें खुद बोल रही है। संग्रह की कविता और मैं तो कविता भी नहीं लिख सकता तुम जैसी” का अंश

एक हारी हुई लड़ाई उखड़ी साँसों तक लड़ने के बाद लौटता हूँ वहाँ जहाँ सांत्वना सिर्फ एक शब्द है 
लौटना मेरे समय का सबसे अभिशप्त शब्द है और सबसे क़ीमती भी 
इस बाज़ार में बस वही बेमोल जो सामान्य है
प्रेम की कोई कीमत नहीं और बलात्कार ऊँची क़ीमत में बेचा जाता है 
हत्या की खबर अख़बार में नहीं शामिल आत्महत्या ब्रेकिंग न्यूज़ है 
अकेला आदमी अकेला रह जाता है उम्र भर 
और भीड़ में शामिल होते जाते हैं लोग।

कविता के बारे में निश्चित रूप से कह पाना मुश्किल है शायद कोई ऐसी कसौटी नहीं है जिस पर जाँच करके कहा जा सके यह सम्पूर्ण है। कविता लिखने वाले का अपना भी दृष्टिकोण होता है। अशोक कुमार पाण्डेय  कविताओं में अलग-अलग शैलियों को अपनाते हैं। 

कवि शब्दों से कविता गढ़ता है शब्द प्रतीक हैं, ध्वनि है अनेक अर्थ छुपाये हुए हैं, शब्द ही मिलते हैं  कवि को विरासत में, शब्दों का एक समूह समय के कवि के साथ चलता है। किसी भी रचना के अन्दर रचनाकार का तजुर्बा शामिल होता है। अशोक कुमार पाण्डेय के मार्क्सवादी विचार उनकी कविताओं में नज़र आते हैं। इसी भूमिका के आधार पर साफ़गोई से कहने के बावजूद  वो मानवीय, और संवेदनशील हैं और उनमें वह क्षमता है जो प्रभाव पैदा करती है।  वो किसी नतीजों पर नहीं जाते बल्कि अपनी चिन्ताओं को पाठकों के ज़हन में डाल कर इसे बहुआयामी बना देते हैं। पाठक इससे  नई  रौशनी और ऊर्जा प्राप्त करता है। जो कुछ उन्होंने पढ़ा या कभी किसी ख़ास घटना को देखा या अनुभव किया उसे छान कर वो अपनी रचना को भाषा और शिल्प में गढ़ कर अनोखा रूप देते हैं। ‘तुम भी कब तक ख़ैर मनाते फैज़ाबाद’, ‘हलफ़नामा‘, ‘कश्मीर-जुलाई के कुछ दृश्यकुछ ऐसी ही कविताएँ हैं। 

तीन साल हो गए साहब 
इन्हें अब भी इंतज़ार है अपने लड़के का 
उस दिन आर्मी आई थी गाँव में 
सोलह लाशें नहीं मिलतीं उनका कोई पता नहीं मिलता कहीं 
(कश्मीर-जुलाई के कुछ दृश्यकविता का एक अंश।) 

अशोक पाण्डेय ख़ुद अर्थशास्त्र के विद्यार्थी रह चुके हैं। बाज़ारवादपूँजीवाद और भोगवादी संस्कृति की दौड़ में अतृप्ति का मनोविज्ञान एक खला (रिक्तता) पैदा कर देता है, और यही खला माज़ी,रीति-रिवाज, कर्मकांड, विश्वास, एथनीसिटी की ओर ले जाकर इंसान को जड़ कर देती है, और धर्म भी बाजार प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है। इस विषमता, असुरक्षा, और हिंसा की वजह से धर्म का व्यापार भी बढ़ता जा रहा है। उन्हीं की कविता एक राष्ट्रभक्त का बयान’,अरण्योदन नहीं चीत्कार’ इस संदर्भ में बेहतरीन कविताएँ हैं।

इतिहास ने तुम पर अत्याचार किया 
भविष्य न्याय करेगा एक दिन 
दिक़्क़त सिर्फ़ इतनी है कि रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख़्त।
कविता न्याय से एक अंश है।

यह कविताएँ ज़िन्दगी की ज़ुबान हैं, उस ज़मीन की ज़ुबान जो आदमी और क़ुदरत दोनों को सँवारने में शामिल है। कविता राजनीतिक स्थिति की हो इंसानी मुश्किलों की मोहब्बत या सामाजिक स्थिति की यह पढ़ने वाले को आख़िर तक बांधे रखती हैं। कविता के सफ़र में कवि को उस वक़्त की बहुत सी चीज़ें मिलती हैं, कुछ उसके साथ लगातार बनी रहती हैं, कविताओं में भी दिखती हैं। इस संग्रह की एक कविता दूसरी कविता से अलग है क्योंकि कवि जोखम उठाना जानता हैकविता या कलाओं के बारे में ये धारणा रही है कि वह बेहतर इंसान बनाने में मददगार होती हैं। यह बात अशोक पाण्डेय पर पूरी उतरती है, बने बनाये पैमानों के हिसाब से नहीं, बल्कि ख़ुद उन मूल्यों के हिसाब से जो उन्होंने अपने तजुर्बों से हासिल किये हैं, इस संग्रह में यह बात और भी गहराई से महसूस होती है, इसमें वक़्त का चेहरा झँकता है। 

शाहनाज़ इमरानी

सम्पर्क

E-mail- shahnaz.imrani@gmail.com

शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ

शाहनाज़ इमरानी

जन्म – भोपाल में 
शिक्षा – पुरातत्व विज्ञान (आर्कियोलॉजी) में स्नातकोत्तर 
संप्रति – भोपाल में अध्यापिका

इस दुनिया में धर्म के नाम पर हुई लड़ाईयों में जितने अधिक लोग मारे गए हैं उतना शायद और वजहों से हुई लड़ाईयों में नहीं मारे गए. हमारे प्रख्यात वैज्ञानिक यशपाल ने हाल ही में कहा है कि इस दुनिया में शायद की कोई पचास वर्ष हो जिसमें कोई लड़ाई न हुई हो. धर्म का उद्भव मानव के शुरूआती दिनों में उसे सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए किया गया होगा. लेकिन जैसे-जैसे मानव विकास क्रम में आगे बढ़ा, जटिलताएँ बढ़ने लगीं और धर्म का स्वरुप विकृत होने लगा. विज्ञान के विकास के साथ-साथ इस धर्म का खोखलापन उजागर होने लगा. लेकिन समाज के ऐसे लोग जो जनता को मूर्ख बना कर अपना हित साधना चाहते थे उन्होंने धर्म को हथियार की तरह उपयोग किया. राजनीति भी ऐसा ही क्षेत्र है जिसमें शासकों ने धर्म का उपयोग जनता को नियंत्रित करने और अपने शासन-सत्ता में बने रहने के लिए किया. लेकिन कविता इस गठजोड़ की वास्तविकता को लगातार उजागर करती रही है. शाहनाज़ इमरानी ऐसी ही युवा कवियित्री हैं जो अपने प्रगतिशील सोच के साथ राजनीति में धर्म के उपयोग को बेनकाब करती हैं. आइए पढ़ते हैं शाहनाज़ की कुछ नयी कविताएँ        

शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ
दरख्त गिर जाने के बाद 
आँगन का दरख्त गिर जाने के बाद 
उजागर हो सकता था 
कौन सा सच 
जड़ों का खोखला होना 
या मिट्टी की कमज़ोर पकड़ 
कुछ दिन सूखे पत्ते खड़खड़ाये 
और फिर मिट्टी का हिस्सा बन गये 
हर दर्द हर दुख को देखने का 
अपना-अपना नज़रिया 
खिड़की दरवाज़ों ने होंठ सी लिए। 
हद 
  
हद का ख़ुद कोई वजूद नहीं होता 
वो तो बनाई जाती है 
जैसे क़िले बनाये जाते थे 
हिफ़ाज़त के लिए 
हम बनाते है हद 
ज़रूरतों के मुताबिक़ 
अपने मतलब के लिए 
दूसरों को छोटा करने के लिए 
 कि हमारा क़द कुछ ऊँचा दिखता रहे 
छिपाने को अपनी कमज़ोरियों के दाग़-धब्बे 
 कभी इसे घटाते हैं कभी बड़ा करते हैं 
 हद बनने के बाद 
 बनती हैं रेखाएं, दायरे 
 और फिर बन जाता है नुक्ता 
 शुरू होता है 
 हद के बाहर ही 
खुला आसमान, बहती हवा 
नीला समन्दर, ज़मीन की ख़ूबसूरती।
  
पुरस्कृत चित्र
बसी हैं इंसानी बस्तियां 
रेल की पटरियों के आस-पास 
एन.जी.ओ. के बोर्ड संकेत देते है 
मेहरबान अमीरों के पास 
इनके लिए है जूठन, उतरन कुछ रूपये 
रोटी की ज़रूरत ने 
हुनरमंदों के काट दिए हाथ 
उनकी आँखों में लिखी मजबूरियाँ 
देख कर ही तय होती है मज़दूरी 
वो खुश होते है झुके हुए सरों से  
यही पैतृक संपत्ति है 
यही छोड़ कर जाना है तुम्हे बच्चों के लिए 
तुम्हारे लिए गढ़ी गई हैं कई परिभाषाएं 
इनकी व्याख्या करते हैं कैमरे के फ़्लैश 
और पुरस्कृत होते हैं चित्र। 
सब कुछ ठीक हो जायेगा 
माँ बहुत याद आती हो तुम 
जानती हूँ माँ कहीं नहीं है 
बस तुम्हें तस्वीरों में देखा है 
मेरी दुनियां में तो सिर्फ में हूँ 
और है वो सारी चीज़ें जो 
एक आम ज़िन्दगी में हुआ करती हैं 
सूरज,तितलियाँ, पतंगें और प्रेम
पड़ोस, आवाज़ें, बच्चे और किताबें 
बूढ़ों और बच्चों के क़िस्से 
हर सुबह ज़िन्दगी में बोया जाने वाला रंग 
शाम तक कुछ फ़ीका हो जाता है 
धूप और फिर ढलती रौशनी के बाद 
यहाँ वहाँ से झाँकता काला रंग 
देखती हूं तस्वीर पिता की 
उसमें भरा हुआ खालीपन 
दरख्त पर लटका एक 
खाली घोंसला 
जिसमे रहने वाले परिंदे  
अनजान दिशाओं की और उड़ गये 
सब कुछ ठीक हो जायेगा 
पिता कहते थे 
वो अपने अल्फ़ाज़ों से 
मेरी उम्मीदें जगाया करते थे 
कच्चे जख़्मों को हँसने की कला
सिखाया करते थे 
रौशनी कुछ और मद्धम हो गई है 
देख रही हूँ बचपन को दौड़ते हुए 
बूढ़ों को आहिस्ता से घर जाते हुए 
जीवन की जिजीविषा लिए 
ज़िन्दगी की मिट्टी के साथ  
कुम्हार के चाक की तरह घूमते हुए लोग 
अपनी-अपनी लड़ाई में जीते हैं 
एक उम्मीद के साथ 
आगे बढ़ते हुए कि एक दिन 
सब कुछ ठीक हो जायेगा। 
कम पड़ने लगीं बारूदें 
अचानक ही बदल जाता दृश्य 
काम पड़ने लगीं बारूदें 
बेशुमार प्रश्न हैं?
गुनाह और कन्फेशन 
रहम और हमदर्दी नहीं 
मूल्य और आदर्श अब कुछ नहीं 
सर्वशक्तिमान ख़ुदाओं की 
घोषणा होती है लाउडस्पीकर्स से
पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है ऐतबार 
प्रार्थना करते हाथों के बीच भी
छुपे हुये हैं हथियार 
कई हत्याओं की मंशा भी 
शताब्दियों से चले आ रहीं है 
ज़ुल्मों की गढ़ी हुई कहानियां 
जो लावा बन कर बहने लगती हैं रगों में 
सदियों से जारी इस खूंरैज़ी खेल में 
गिरती हैं लाशें बिना हिसाब के 
हत्यारे धार्मिक मुखौटों में 
उपदेशकों के चोलों में अपराधी। 
 
सॉरी यार …. 
तुम्हे याद है वो चट्टान 
जिस पर बैठ कर हम चाय पिया करते थे 
तुम्हारे इस सवाल से 
मेंरे पैर काँपने लगे 
जैसे ऊँचाई से गिरने का डर
मेरे वजूद पर हावी हो जाता है 
तुम मुझे भूल गयी न?
एक पल की डबडबायी ख़ामोशी में 
लहरों में देखती हूँ टूटते सूरज को 
कई बार छुपा लेते हैं हम उदासी 
और दर्द को घोल देते हैं दूसरे केमिकल में 
झील अचानक सिकुड़ जाती है 
लड़का दौड़ने लगता है गिलहरी के पीछे 
पकड़ना चाहता है उसे 
समय के रेगिस्तान में खो जाते हैं कई दृश्य 
कुछ चीज़ें एहसास के बाहर ऐसे बदलती हैं 
कि हमें पता ही नहीं चलता 
सारे दवाबों के बीच “मैं” 
उससे पूछती हूँ अब स्टेशन चलें 
नहीं तो तुम्हारी ट्रेन छूट जाएगी। 
संपर्क –  

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं) 

विजेंद्र के संग्रह "आधी रात के रंग" पर शाहनाज़ इमरानी की समीक्षा

कवि  या कलाकार होने की पहली ही शर्त है  अपनी जमीन और अपने लोक से जुड़ाव। विजेन्द्र जी ऐसे कवि हैं जो आज भी अपने जमीन और लोक से पूरी तरह जुड़े हुए हैं। उनकी कविता हो या उनके चित्र इस बात की स्पष्ट रूप से ताकीद करते हैं‘आधी रात के रंग’ उनकी एक अलग तरह की किताब है जिसमें हर पेंटिंग के साथ उसे जुडी हुई एक कविता लिखी गयी है। इस अनूठे प्रयोग का व्यापक स्तर पर स्वागत किया गया। किताब का शीर्षक ही अपने आप में बहुत कुछ बयाँ कर देता है। हमें यहाँ कबीर की याद आ रही है जो कहते हैं – ‘सुखिया सब संसार है खावै और सोवै। दुखिया दास कबीर है जागे और रोवै।’ यहाँ भी आधी रात का वक्त है। एक ऐसा समय जिसमें प्रायः लोग गहरी नींद के आगोश में होते हैं। लेकिन कवि की आँखों में नींद कहाँ, चैन कहाँ। दुःख, उदासी, गरीबी के जीवंत चित्र उसे परेशान किये रहते हैं वह आधी रात के रंग निहारने लगता है जिसमें उसे वे तमाम चेहरे और चित्र दिखाई पड़ते हैं जिसे उसने देखा और महसूस किया होता है। उसका मन भर आता है और कवि तत्क्षण इस आधी रात के रंग को अपनी कविता और पेंटिंग में गहरे तौर पर रेखांकित करता है। यह कवि उस समय भी जागता दिखाई पड़ता है जिस समय अधिकाँश लोग सोये होते हैं। इसलिए तो यह कवि औरों से बिल्कुल अलग रूप-रंग और बनक वाला है, प्रतिबद्धता  ही इस कवि की अपनी थाती है। 

अपनी तरह के अनूठे इस ‘आधी रात के रंग’ संग्रह पर पहली बार के लिए एक आलेख लिख भेजा  है युवा कवियित्री शाहनाज इमरानी ने तो आइए पढ़ते हैं यह आलेख               

आधी रात के रंग” 

शाहनाज़ इमरानी 
आज के वक़्त में एक अलग आवाज़ की रंगत है “आधी रात के रंग” चित्रों पर रची गई कविताएं और कवि के द्वारा इसका अंग्रेजी अनुवाद अपने आप में एक अनोखा संग्रह है। 
विजेंद्र कविताओं, नाटकों, डायरियों, चित्रों के साथ-साथ “कृति ओर” पत्रिका के प्रधान सम्पादक भी हैं। बहुआयामी लेखन के साथ वे नये कवियों और लेखकों को मार्गदर्शन देते रहते हैं। 
लोकधर्मी कविता के धनी विजेंद्र ने “मुक्त छंद” में कविता लिखी। छंद में लय क़ायम रखना आसान काम नहीं है लकिन विजेंद्र इस में कामियाब हैं। 
कविता बदलाव ला सकती है संवेदना, समझ और सहानुभूति में किसी हद तक। कविता उन जगहों पर ले जाती हैं, जहाँ हम पहले कभी नहीं गए होते। विजेंद की कविता का सम्बंध देश की मिट्टी से है उनकी कविताओं में गाँव की धड़कन है किसानों और श्रमिकों की ज़िन्दगी का संघर्ष उनकी कविताओं में नज़र आता है। उनका रहन-सहन, वेषभूषा, उत्सवों, खेती-बाड़ी आदि उनकी कविताओं से जुड़ी है। विजेंद्र का जन्म उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के एक गाँव धरमपुर के एक सामंत परिवार  में हुआ। आम, जामुन, अमरुद, कटहल, नीबू, के बाग़-बगीचे बैलघोड़े और शिकार पिता अपने शौकों में ढालना चाहते थे। शिक्षा की  शुरूआत घर में हुई एक मौलवी सहाब ने उर्दू की तालीम दी। माँ ने पिता से लड़-झगड़ कर अंग्रेजी स्कूल में उझियानी भिजवा दिया। अब विजेंद्र का मन पढ़ने में लगने लगा। आगे कि पढ़ाई के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पहुंचे। कविता की फ़िज़ा में कवि केदारनाथ सिंह जैसे सहपाठी थे और कवि नामवर सिंह ने पढ़ाया साथ ही कवि त्रिलोचन काव्य गुरू थे। कवि त्रिलोचन से उन्होंने बहुत कुछ जाना और सीखा एक ऐसा ज्ञान जो किताबों से नहीं मिल सकता था। 
चीज़ों और इंसानो की दुनियाँ में अकेलापन सब कुछ को नामहीन करते और बहुत कुछ छोड़ देने के बाद कवि विजेंद्र  आज भी कविता को अपने साथ जिन्दा रखे हुए हैं। आज भी उनके मन में एक बैचेनी है कि जितना करना चाहिए था उतना नहीं कर पाया हूँ। विजेंद्र को भव्यता पसंद नहीं है एक बेहतर इंसान जो अपने नैतिक मूल्यों के साथ कविता के रूप में साधना जारी रखे हुए हैं। उनके मिज़ाज के अनुरूप उनकी कविताओं में कोई उत्तेजित अभिवयक्ति नहीं मिलती। विजेंद्र की कविता गरिमापूर्ण है एक तरह कि छांदिकता उनके व्यक्तित्व की गरिमा के सरोकार के अनुकूल ही है। विजेंद्र को अपने कलाकार होने का एहसास है और वो एक ख़ास आवाज़ उनकी कविताओं में मिलती है। 
कवि विजेंद्र की कविताओं का संग्रह “आधी रात के रंग” पढ़ कर और खूबसूरत चित्रों  को देख कर कुछ ऐसा ही एहसास हुआ। अपनी रचनात्मकता दुनियां में कवि ने ज़िन्दगी के रंग, फ़ितरतज्ज़बात, चीज़ों, रिश्तों, लोगों आदि को मिला कर बनाई गई ज़मीन पर चित्र से कविता का चेहरा बनाया हैं। आपा-धापी के इस वक़्त में वक़्त ही कविता है जो इतिहास बोती है और इस समय में जब  इंसान को कई तरह से छला जा रहा है कविता आज भी उनके साथ है। कवि विजेंद ने अपने लम्बे काव्य जीवन में बहुत कुछ लिखा है और खुद को बहुत सी मुश्किलों के बाद भी लगातार कविता से जोड़े रखा है।
 “आधी रात के रंग” (The midnight colors) हिंदी और अंग्रेजी दोनों ज़ुबानों में ऐतिहासिक और अपने आप में एक बेमिसाल पेशकश है। 
विजेंद्र की कविताओं में आम आदमी का अक्स नज़र आता है। हमारे प्राचीन काव्य शास्त्रों मे कहा गया है कि प्रतिभाहीन कवि को सामने वाली चीज़ भी दिखाई नहीं देती और 
प्रतिभाशाली कवि को न दिखने वाली चीज़ भी दिखती है और इस को कवि की तीसरी आँखकहते है। कवि विजेंद्र मामूली से मामूली चीज़ों मे सौंदर्य देखते हैं। विजेंद्र ने प्राकृतिक सौंदर्य और समाज में सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक विषमता के कारण सर्वहारा वर्ग की तकलीफों को ख़ास तौर पर अपनी कविताओं में जगह दी है। कविता में जब जीवन की अभिव्यक्ति होती है तो प्रकृति अपनी जगह बना लेती है प्रकृति और मैंशिखर की ओर, अँधेरे से उजाले में,  अंकुरण कवितायेँ प्रकृति से जोड़ती हैं। विजेंद्र की कविताओं की ख़ास बात इनकी विविधता है इन कवितों में विजेंद्र के जीवन के तजुर्बों को देखा जा सकता है।
विजेंद्र कवि के लिबास में एक चित्रकार हैं जो अपने विचारों, सरोकारों, और चिंताओं का दायरा बड़ा करते हुए कविताएँ लिखता है। चित्रात्मक कविताओं को देखा जाए तो यह बात साफ़ हो जाती है। कवि ने अपनी बात कहने के लिए एक दृश्य बुना है जो उनकी रचनात्मकता का एहम पहलू है। कविता और चित्र कला की खूबी है कि उसके बारे में कोई अंतिम बात कह देना मुश्किल होता है । अच्छी कविता और चित्र कला यदि एक बार में ही समझ ली जाती तो वे “use and throw” जैसी वस्तुएं हो जाती हैं। 
कविता लिखने या चित्र बनाने का कोई तयशुदा वक़्त नहीं होता। जैसे परिंदे और इंसान एक ढर्रे से काम करते हैं। परिंदे सुबह  जागते हैं। शाम को अपने घोंसलों में आ जाते हैं। इंसान भी अपना काम एक ढर्रे पर करता रहता है। इसीलिए उन्होंने कहा है, “मेरे लिए कविता रचने का / कोई खास क्षण नही।” कवि और चित्रकार दौनों ही काल और समाज निरपेक्ष नही होते। अत: कल के अनुसार दौनों को ही अपने उपकरण बदलने होते हैं। कवि अपने कथ्य और मुहावरा बदलता है। काव्य रूपों में परिवर्तन करता हे। छंद में परिवर्तन करता है। चित्रकार अपने चित्रांकन के ढंग और शैली में परिवर्तन करता है। रंग संयोजन, स्ट्रोक्स, बुनावट, अपनी टोन्स में तबदीली करता है। 


पहले चित्र पर “कवि” कविता में कवि और चित्रकार दौनों की रचना प्रक्रिया के संकेत हैं। 
पहली कविता “कवि में कहा है – “समय ही ऐसा है /कि मैं जीवन की लय बदलूँ / छंद और रूपक भी”। कवि हो या चित्रकार दोनों ही अपने समाज से संवाद करते हैं। जब कोई रचना लिखी जाती है रचनकर के सबसे खास और आत्मीय क्षण होते है। दोनों ही अपने मन को पूरी तरह व्यक्त करने के लिए आत्मा की परतें खोलते है। यानि समाज से कुछ छुपाते नही। कविता हो या चित्र दोनों ही एक मुक्त संवाद हैं। कहा है – “एक मुक्त   संवाद/ आत्मीय क्षणों में  कविता ही है/ जहां मैं तुमसे कुछ छिपाऊँ नही। इस कविता में कुछ बातें ऐसी है जिन के ऊपर ध्यान जाना जरूरी है। कवि की मंशा क्या है? वो कविता से क्या कहना चाहता है? कला साधना कैसे होइसी कविता में कहा है – सुंदर चीजों को अमरता प्राप्त हो /यही मेरी  कामना है /मनुष्य अपने उच्च लक्ष्य की और प्रेरित हो। कवि कर्म हर समय त्याग की मांग करता है। बिना उसके हम बड़े लक्ष्य को नही पा सकते। कवि जानता है कि कविता रचना तो आसान हो सकता है। पर उसे जीवित रखना बहुत कठिन है। उसके लिए कवि “जीवन तप” की मांग करता है। आखिर एक कवि को चित्र कला की ओर क्यों आना पड़ा? कवि ने कहा है कि जो कुछ कविता में व्यक्त नही कर पाया उसे रंग, बुनावट, रेखाओं, और दृश्य बिंबों में रचने की कोशिश की है। कवि का संकेत है कि कवि हो या चित्रकार धरती से जुड़ाव पहली शर्त है। वही उसके खनिज दल का स्रोत है। यह वरदान उसे प्रकृति से प्राप्त हुआ है । कवि अपने रचना कर्म से जीवन और प्रकृति का इस प्रकार रूपान्तरण करना चाहता है जिससे वो निराश और थके मांदे लोगो को नई उम्मीद दे सके। वे जीवन को सुंदर और जीने योग्य समझें। अंत में यह भी कहा है कि स्वत: स्फूर्त मन से उमड़े भाव हमारी आत्मा का वैभव व्यक्त करते है – हृदय से उमड़े शब्द/ आत्मा का उजास कहते हैं। “इस कविता और चित्र को बिना समझे हम कवि और चित्रकार के मन को नही समझ पाएंगे।
                                “आधी रात के रंग” में रंगों की खुद मुख्तारी (स्वतंत्रता) है हर चित्र में उनका यह प्राकृतिक गुण है। आज़ाद होकर भी वे एक दूसरे से जुड़े है। यानि एक रंग दूसरे से निरपेक्ष होकर अपना अर्थ और लय खोने लगते है। अत: किसी भी चित्र में रंगों की आज़ादी और उनका एक दूसरे से जुड़ाव ही उन्हें अर्थवान बनाता है। यहाँ रंगो की स्वतन्त्रता को भी कविता इसलिए कहा है क्यों कि रंग बिंबों की तरह ही अनेक भाव मन में जागते है। उनमे संगीत के स्वर तथा उनमे छूपी लय भी सुनाई पढ़ती है। 
रंगों की स्वायत्वता” में भी/ कविता है /रंग उन रूपों कि तरह हैं /जो कैनवस को स्पंदित करते है।”  रंगो का महत्व समझने के लिए यह वैज्ञानिक तथ्य जानना जरूरी है कि आकाश में व्याप्त ईथर के कारण ही रंगों में एक तरह का की कंपकंपी होती है। इसी से उनमे प्रभाव पैदा होता है। यह इतनी बारीक है कि आँखों को दिखाई नही देती। रंगों कि विविधता हमारी आँखों को आज़ाद करती है। यानि हम कोई भी रंग चुन सकते है। कवि कि इच्छा है कि रंगों के माध्यम से वो अपने अन्दर के गान का आरोह-अवरोह सुन सके।-
कैनवास पर  बिखर कर ….  ओ रंगो 
दृश्य – क्षितिज रच कर 
मुझे कविता कि ऐसे संगति  दो 
जहां मै अपनी आत्मा का 
आरोह – अवरोह सुन सके ।    
 “रंगों की  स्वायत्तता “autonomy of colors” कविता से लगता है की कवि चित्रों के रंग जैसे रात में देख रहा हो। उनसे बातें  कर रहा हो। कवि-चित्रकार अकेला है। लगता है यह चित्र ही रात में बनाया गया है –
यह आधी रात है 
मै बिलकुल अकेला हूँ
आधीरात के रंग देखने को
वे मेरे साथ संवाद करते है
चुप चाप। 
आधी रात के रंग” तीसरी कविता है। यह कवि के लिये जैसे खामोश कविता है। यही नही कवि रंगो को इतना आत्मपरक बना चुका है कि वे ज़िंदगी से उत्खनित उसकी आत्मा के बिम्ब दिखाई पड़ते है। इस कविता और चित्र की ख़ास बात है रंगों का मानवीकरण (personification) रंग जैसे उसके लिये किरदार हो गए हैँ। हर रंग की अलग -अलग पहचान है। जैसे सुर्ख रंग की वो चीख सुनता है। भूरे रंग की आहिस्तगी। काले रंग का क्रोध। गुलाबी रंग की खुशी। रंग तो चित्रों में हैं। पर कवि-चित्रकार आधी रात में उन्हें महसूस करता है। सारे रंग मिल कर चित्रकार की ख़ामोशी तोड़ा करते है। यही नही बल्कि वह जैसे रात को संवार रहे हों। पूरी कविता में रात के रंगों का रूपक ही कविता की लय बनता है। चित्र की टोन, उसकी लय, स्ट्रोकस, छाया-प्रकाश तथा रंग संयोजन, रेखाएँ, रंगों की गहराई सभी से आधी रात का अंदाजा  होने लगता है। चित्र में जैसे सन्नाटा भी बुन दिया गया हो। कवि ने कहा भी है –
नीरवता की क्षुब्ध लहरें 
खाली दीवारों से टकराती है 
कवि-चित्रकार को इस लम्हें में साये गहरे और खुरदुरे लगते हैं। लगता है रात के रंग और चित्रों के रंग ज़िन्दगी के आयाम है। यह जड़ नहीं हैं और न ही ठहरे हुए हैं। हमारी तरह ही उनका भी अपना अस्तित्व है । उनकी अपनी बनावट है। यानि यहाँ जीवनचित्र और कविता तीनों के जुड़ाव की आवाज़ है। 
शिखर की ओर” कविता और चित्र आदमी के उस एहसास को बयां करते हैं। जिस से वो अपनी मुश्किल परिस्थितयों में संघर्ष करता है। उन्हें अपने समय के अनुरूप बनाने के लिये अपनी क्षमताओं को काम में लेता है। यह काम जोखिम भरा है। चित्र और कविता की आवाज़ है  कि हर जागे हुए आदमी को अपने लक्ष्य निर्धारित करने होते है। फिर उन्हें पाने को अमल में लाना होता है। यह काम ज़िंदगी में चट्टान पर चढ़ने जैसा ही है। जो सत्ता में एकाधिकारवादी है वो किसी आम आदमी को अपनी बराबरी करने से रोकते है। यहीं से वर्ग संघर्ष का जन्म होता है। आदमी की आदत है आगे बढ़ना। पर कोई भी उपलब्धि बिना संघर्ष के मुमकिन नही है। इस कविता के अर्थ का दूसरा स्तर भी है। जब आदमी अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ता  है तो उसी के दिल में बनी इंसानी हदें उसका विरोध करने लगती है। 
जब भी मै ने देखा
शिखर की ओर
तुमने त्यौरियां बदली 
जब मै चढ़ा
तुम ने चट्टानों के खण्ड
मेरी तरफ धकेले। 
कविता और चित्र यह भी इशारा करते है कि इस संघर्ष में हार भी होती है। कई बार अपनी रणनीति बदलने के लिए पीछे भी हटना पड़ सकता है। पर मक़सद को हासिल करने के लिए संघर्ष जारी रहता है। ऐसे वक़्त में हर पल अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ सकता है। आदमी के पास पक्षियों की तरह डैने नही जो आसमान में उड़ सके। कुछ वक़्त के लिये वो अपनी सृजनशील कल्पना के सहारे इस दुनियाँ से निजात पा भी ले। पर वापसी उसकी इसी सख़्त ज़मीन पर ही होती है –
मेरे पंख कहाँ 
जो आकाश में उड़ूँ 
ऊबड़-खाबड़ 
पृथ्वी पर चल कर ही 
चढ़ूँगा पहाड़ और मंगरियां। 
जो इंसान की कामियाबी में रोड़े अटकाता है उसे कवि- चित्रकार ने दैत्य की संज्ञा दी है। उसका स्वभाव है इंसानी सफ़र के रास्ते में रूकावटें पैदा करना। 
ओ दैत्य
हर बार तू 
मुझे धकेलेगा नीचे। 
पर न तो इन रूकावटों से ज़िन्दगी का संघर्ष रुकता है। और न मक़सद हासिल करने कि कोशिश में कमी आती है। मक़सद हासिल करने की कोशिश। ज़िन्दगी इस संघर्ष का ही दूसरा नाम है –
जीवन ही है सतत चढ़ना
और मेरे जीवन में 
कभी नही हो सकती 
अंतिम चढ़ाई। 
इस तरह कविता और चित्र इंसान के उस बड़े एहसास को व्यक्त करते है जिस से वो अपने मक़्सद हासिल करने के लिए अटूट संघर्ष करता है। इशारा यह भी है कि मक़सद हासिल न हो मगर जिन्दगी में उस पाने के लिए संघर्ष बना रहना चाहिए। 
अगली कविता और चित्र है, “अंधेरे से उजाले में”। चित्र में पुरुष और स्त्री की धुँधली आकृतियाँ दिखती है। यह भी की दोनों अंधेरे में हैं। तैज़ हवा ने उनकी झौंपड़ी अस्त-व्यस्त कर दी है। चित्र से लगता है गरीब लोग है। दोनों सोचते है कि ऐसे अंधेरी तूफानी रात में आखिर कहाँ जा सकते है! उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नही जिस से अपने छप्पर और दरकी दीवारों को दुरुस्त कर सकें। आखिर अब उनके पास ऐसे मुश्किल में विकल्प क्या है। कविता इशारा देती है ऐसे वक्त में हिम्मत से कम लें। सब्र करें । कवि संकेत देता है –
भोर की रश्मियां
अंधेरे के मर्म को
भेद रही है 
घबराओ मत
दृढ़ होकर प्रकाश की तरफ 
बढ़ चलो। 
कवि को उम्मीद है कि वक़्त कभी एक जैसा नही रहता। रात के बाद सुबह तो होगा ही । 
हम भरी मन से 
प्रभात का स्वागत करें 
इस उम्मीद में
कि धूप खिलेगी।
कविता और चित्र तूफानी वातावरण को संकेत से बताते हैं कि कितनी भी कठिन परिस्थिति हो हम साहस न छोड़ें। वक़्त का इंतज़ार करें। अँधेरे से रोशनी की तरफ देखें । हताशा न हों बल्कि उम्मीद का सहारा लें। पूरी कविता चित्र की लय और उसमे व्याप्त अंतर्ध्वनि को व्यक्त करती है । 
मिथक का सच:-
मिथक भी एक सृजन क्रिया है। जो काम हम ज़िन्दगी में नहीं कर पाते उसे मिथक द्वारा पूरा करते है। यह एक प्रकार से अपनी कल्पना का वो रूप है जो कविता में असंभव को संभव बनाता है। इस से यथार्थ को अपने अनुसार बदल लेते हैं। मसलन, जब हनुमान को विशाल पर्वत पर संजीवनी बूटी का कोई अता पता नही लगा तो वो पूरा पहाड़ ही उठा कर ले आए। उन्हें सूर्य निकलने से पहले पहुँचना था। सूर्य जब उदय होने लगा तो सूर्य को मुँह में ही छिपा लिया। यह सब कवि की कल्पना का ही कमाल है। मिथक की रचना के पीछे मनुष्य की अदम्य शक्ति तथा चिरंतन सौंदर्य व्यक्त करने का मनोविज्ञान छुपा है। मिथकीय मनुष्य और स्त्रियाँ बड़े शक्तिशाली और असरदार होते है। पौराणिक गाथाओं में मिथक भरे पड़े है। “रामचरितमानस” का पूरा  काव्य ढांचा मिथक पर ही टिका है। यही वजह है मिथकों के रूप और अर्थ कई जटिल और दोहराये हुए हो जाते है। मिथक हमारे अचेतन में व्याप्त होते है। समाज के दिल में बसे हुए हैं। उन्हें आसानी से भूलाया नही किया जा सकता  –
तुम्हें मै ने ही रचा  है 
वह  सच  जो  आँखों  को 
दिखाई नही देता
जो मेरे ही नही 
मुझ जैसे असंख्य लोगों के मन  में
चित्र की तरह
अंकित  है। 
कवि और चित्रकार भी – मिथक सौंदर्य देखता है –
जब मै तुम्हारे पास आया 
मै ने देखी वहाँ 
चिरंतन सौंदर्य तथा महान क्रियाओं की 
सजीव और जटिल छवियाँ। 
मिथक का अर्थ रूपकीय होता है। यानि जितना ऊपर से दिखता है उस से कहीं अधिक उस के अर्थों में छुपा होता हैं। मिथक कवि चित्रकार को सृजन के लिये प्रेरित भी करते है –
उन्होंने मुझे कविता तथा चित्र के लिए प्रेरित किया
 
जो तुम दिखती हो ऊपर से 
जैसे पृथ्वी का धरातल 
उतना भर सच 
बहुत उथला है 
जब तक  मै 
यह न जानू
कि पृथ्वी के गर्भ में 
पिघली चट्टानें 
और जल प्रवाहित धाराएँ भी है।
यह चित्र मिथक की आंतरिक जटिलता तथा उसमे निहित अर्थ को व्यक्त करता है। हमें मिथक की रूकीय ध्वनि समझने के लिये अपनी कल्पना को भी काम में लेना पड़ता है। दूसरे मिथक बुद्धि के तर्क से नही समझे जा सकते। उसके लिये हमें काव्य तर्क का ही सहारा लेना होगा। मिथक सदियों से मन में छिपे है। ज्यों ज्यों विज्ञान का विकास होगा – मनुष्य के मन में वैज्ञानिक सच जड़ें पकड़ेंगी। मिथक अपना प्रभाव खोते जाएंगे। पर उनका ऐतिहासिक महत्व कभी काम नही होगा। उनसे हम आदमी और उसके वक़्त के बारीक रेशों को समझने में दिलचस्पी लेते रहेंगे।  
यक्ष” भी एक मिथक है। इसे लोक देवता कहा गया है। कवि विजेंद्र ने भरतपुर के एक बहुत छोटे गाँव नोह में यक्ष की एक खंडित मूर्ति देखी। उसे गाँवके एक सिरे पर गंदगी में एक टूटी फूटी मठिया में रखा गया था। उसे सिंदूर से पोत दिया था। गाँव के लोग उस पर दूध चढ़ाते थे। अपनी अच्छी फसल के लिए उस से दुआ मांगते थे। उसे माथा टेकते है। पर उसकी देह पर जमी धूल की परतों की उन्हें चिंता नहीं है। जब नई फसल उठ के आती है तो नया अनाज भी अर्पित करते है। उन्हें विश्वास है की लोक देवता की कृपा से अच्छी फ़सल होगी –
, यक्ष 
ओ लोक देवता 
तुम्हें अलग थलग  गाँव के कींच – कांद  भरे 
उपेक्षित कोने में 
प्रतिष्ठित किया गया है 
भोर में 
वे  तुम्हारे ऊपर दूध चढ़ाते है। 
उन्हें इसकी चिंता नही 
की तुम्हारी हृष्ट पुष्ट देह पर 
धूल की मोटी परत जमी है 
कवि – चित्रकार जब यक्ष के चेहरे पर  क्षति चिन्ह देखता है तो दुखी होता है –
मै ने तुम्हारी देह 
सिंदूर से पुती देखी 
मै भोचक्का रहा
ओह मै दुखी हूँ 
तुम्हारे हँसते चेहरे पर 
क्षति चिन्ह देख कर। 
पूरी कविता यक्ष की खंडित प्रतिमा को बताते हुये चित्र की छबियाँ उकेरती है। गाँव वालों का लोक देवता में यकीन एक प्रकार से अंधविश्वास ही कहा जाएगा। दूसरे वे उस से दुआ तो मांगते है। पर उसकी प्रतिमा पर जमी धूल की चिंता नही करते। कविता और चित्र दोनों में एक व्यंग्य भी है। 
अर्धनारीश्वर” को भारत में शिव और पार्वती की मिथ से जोड़कर देखा जाता है। चित्र में शिव और पार्वती को एकाकार दिखाया गया है। यह संकेत है कि पत्नी पुरुष का जिस तरह अर्ध भाग है ठीक उसी तरह पुरुष स्त्री का। दोनों को समान स्तर पर समझने का संकेत है। दूसरी बात एक के बिना दूसरे का जीवन अधूरा है। शिव को विश्व मूर्ति भी कहते है। शिव ही अकेले देवता है जिन्होंने अपने को स्त्री-पुरुष में विभक्त किया है। इस से स्त्री पुरुष के बीच सहज आकर्षण का संकेत भी है। इस से ही सृजन होता है। अर्धनारीश्वर स्त्री और पुरुष के बीच सनातन प्रेम का भी संकेत देता है। इस कविता में चित्र को भी एक रूपक की तरह ही व्यक्त किया गया है। 
नागफनी” चित्र भी प्रतीक के रूप में है। नागफनी ज़िन्दगी की उस जिन्दा ताक़त का प्रतीक है जो सारी तकलीफ़ों और मुश्किलों को झेल कर अपने को बनाए रखता है। दूसरे, नागफनी कुलीन सौंदर्यबोध को तोड़ता है। नागफनी को गुलाब पसंद करने वाले कुलीन जन पसंद नही करते। यदि करते भी है तो अपनी आधुनिकता दिखाने को। नागफनी कहती है व्यंग्य से –
ओ मेरी करम रेख 
प्रकृति ने मुझे 
कैसा जड़ प्रतीक बना दिया है 
जबकि मै इस पथरीले उजाड़ में
एक जीवंत पौधा हूँ। 
वसंत चित्र और कविता हमें फिर एक अंतर्विरोधी दुनिया में ले जाता है। अक्सर वसंत को हम रूमानी और सौंदर्य भाव से जोड़ कर देखते है। पर वसंत अपने तारीफ़ करने वालों से कहता है –
तुम मुझे  
मेरी  आँखों से भी देखो 
– – –
जैसा तुम सोचते हो 
वैसा सब कुछ पुष्पमय नही है
न दीप्तिमान। 
वसंत कहता है कि उसके चेहरे पर स्याह और डरावने धब्बे है। तेज धूप में उसकी भौंहें जल गई है। त्वचा पर झुर्रियां हैं। वो कहता है कि इन्हें भी देखो। वसंत आगाह भी करता है –
तुम्हारे ड्राइंग रूम में 
फूलदान भरे है
पर मै हृदय से उदास हूँ 
मुझे अपने ही आगे 
काला क्षितिज दिखाई देता है। 
वसंत के पास गाने को कोई रूमानी गीत नही है। उपजाऊ ज़मीन पर गहरे लाल धब्बे दिखाई देते है –
मेरे पास गाने को कोई गीत नही है 
पर अशुभ समय को 
कहने के लिए त्रासदी का सच है। 
पूरी कविता चित्र की खुरदरी लय और आवाज़ को व्यक्त करती है। यहाँ कुलीन सौन्दर्यबोध पर गहरा व्यंग्य है।
गायक” चित्र में सांकेतिक अमूर्तन है। वैसे ही जैसे इस किताब के अन्य चित्रों में। इन चित्रों का अमूर्तन हमे चमत्कृत न कर सोचने को मजबूर करता है। अमूर्तन का अर्थ चित्र काला में शायद है भी यही। आज फोटोग्राफी बहुत  विकसित हो गई है। उसने चित्रकला के सामने नई चुनौती खड़ी की है। अगर कैमरे के चित्रों से हम अपने चित्रों को आगे नही ले जा पाते तो यह चित्रकार की सीमा निर्धारित हो जाती है। चित्र से लगता है कि गायक बूढ़ा है। उसका सितार भी पुराना है। कवि रात में अपने दर्द को झेल रहा है। गायक पूरे जोश में गा रहा है। इस से कवि की नींद टूटती है। उसे गायन राहत नहीं देता। बल्कि उसके अकेलेपन को और बढ़ा देता है। वो गायक को संकेत से बताता है की गायन ऐसा हो की जिस में आम लोगों के दुख और तकलीफों का भी इज़हार हो सकें
तुम वे गीत भी गाओ
जो मनुष्य की यंत्रणा भी बताते है। 
शिल्पी” चित्र  में भी सांकेतिक अमूर्तन है। कवि-चित्रकार अपने शब्द और रंगों को छोड़ कर मूर्ति शिल्पकार का पास आया है। चित्रकार इंसान की जिन नसों, मांसपेशी, वक्रताओं को रंगों और शब्दों में नही दिखा पाया उन्हें मूर्ति शिल्पी ने छेनी और हथोड़ी से व्यक्त कर दिया है। लगता है कवि-चित्रकार विनम्रता वश अपनी कलाओं की हद स्वीकारता है। शिल्पी के कला माध्यम बड़े स्थूल है। कवि और चित्रकार के कला माध्यमों से। फिर भी वो मनवायी सौंदर्य को ऊबड़-खाबड़ पत्थरों में  कुशलता से तराश देता है। यही नही वो गंदी और सकरी गलियों में बैठ कर अपनी कला को अंजाम देता है। कवि-चित्रकार ने उसे कठिन स्थितियों में मूर्तियाँ तराशते देखा है-
वो गली  कितनी गंदी और संकरी है
जहां धूप और वर्षा में 
तुम्हें सुंदर मूर्तियाँ गढ़ते 
मै ने देखा है 
तुम्हारे हर तरफ अंधेरा है 
लेकिन तुम ऊबड़-खाबड़ पत्थरों  में
मानवीय  सौंदर्य तराशने
और उकेरने में लगे हो। 
कवि-चित्रकार शिल्पी को याद दिलाता है कि वो देवी देवताओं की मूर्तियो के साथ उन लोगों की भी मूर्तियाँ तराशे जिन्हें कोई नहीं जानता। जो अपनी पहचान बिना ही इस दुनिया से चले गए । 
चट्टानों में लहरें” कैसा  विरोधाभास है ….चट्टानें और लहरें। यह फिर एक रूपकीयप्रतीक चित्र है। इसे दो स्तरों पर समझ जा सकता है। एक तो वह चट्टानें जो हमें बाहर दिखती हैं। दूसरे हमारे अंदर की चट्टानें जो आँखों से नही दिखती। कविता में कहा भी है –
धरती की सतह पर फैल कर 
ठंडा होता है लावा 
ग्रेनाइट चट्टानें बनती है 
धरती की अतल गहराइयों में 
जैसे वे मेरे अन्दर भी है शांत 
जिस से मेरी धड़कने टकराती है 
उन्हे कोमल और हरा बनाने को। 
समुंदर की लहरों का चट्टानों से बार बार टकरा कर लौटना। यह प्रक्रिया लगातार और अटूट होती है जिस से अहसास होता है की चट्टानों से ही लहरें पैदा हुई है । चित्र और कविता दोनों को इन दोनों स्तरों पर समझना होगा। तभी रूपकीय प्रतीक खुल पाएगा। 
ओह  – चट्टानों 
तुम अपने मर्म तक पिघलो 
जिस से इस विषाक्त दुनिया को 
सहज बनाया जा सके 
ओ चट्टानों, सुनो
उन लहरों को भी सुनो। 
चट्टान पुरुष” यह चित्र भी एक प्रतीक के रूप में है। चट्टान पुरुष उस जनशक्ति का प्रतीक है जो आज अर्द्ध सामंती तथा पूंजीवादी क्रूर व्यवस्था के उत्पीड़न तथा शोषण से दबी पड़ी है। सारी व्यवस्था जैसे एक विशाल चट्टान हो। कवि ने उसे दैत्य भी कहा है। जनता इस राक्षस से सदियों से लड़ती रही है। आज भी लड़ रही है। आज उसकी शक्ति में इज़ाफ़ा हुआ है। वो उसे पछाड़ना चाहती है। चित्र में चट्टान पुरुष को राक्षस के पिछले हिस्से को ऊपर खींचते दिखाया है। कवि कहता है कि इस राक्षस को मारने के बाद ही तुम मुक्त हो जाओगे –
इसे मारने के  बाद 
तुम  अपने समय के 
मुक्त नायक बनोगे। 
कवि तब उसी जनशक्ति से प्रेरित होकर कविता रचेगा। पूरी कविता में चट्टान पुरुष को एक रूपक की तरह चित्रित किया गया है।
इसे मारने के  बाद  
तुम अपने समय  के
मुक्त नायक बनोगे 
कवितायें रचने को
मै तुमसे प्रेरणा  लूँगा 
उठाओ , उठाओ –
इस भरी चट्टान को उठाओ। 
अंकुरण” कविता पर एक चित्र है। अंकुर बीज में छुपी  उस शक्ति का प्रतीक है जो धरती को तोड़ कर गुरुत्वाकर्षण के नियम को भंग करता है। चित्र में बीज के अंकुरित होने से लेकर फल आने तक की प्रक्रिया को बारीकी से दिखाया गया है। बीज के वृक्ष बनने का रिश्ता पृथ्वी की निरंतर गति से भी है। वृक्ष के उगने में ऋतुओं का आना जाना बहुत जरूरी है –
जब तू अपनी धुरी पर घोंटी है
तब बसंत उदित होता है 
प्रतीक्षा करो। 
मै खिलूँगा तुम्हें भविष्य के फल देने के लिए। पूरा चित्र बीज के अंकुरित होने की प्रक्रिया भी बता रहा है। यह भी कि बीज किस तरह हवा और रोशनी पाकर उगता और बड़ा होता है। बीज में दरख़्त होने की ख़्वाहिश छिपी रहती है चित्र में इस तरफ भी इशारा है। किसी भी बड़ी कामियाबी के लिए कोशिश प्रतीक्षा और धीरज की ज़रूरत होती है। 
 
प्रकृति और मै” इस चित्र और कविता में कवि मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों का संकेत देता है। पूँजीवादी व्यवस्था में प्रकृति के साधनों का अधाधूंध इस्तेमाल की वजह से प्रकृति और मनुष्य के बीच एक जैविक खाई Metabolic Rift पैदा हो गई है। हमारी नदियां नालियों में तब्दील होने को है । जंगलों में दरख्तों को काटा जा रहा हैं। पहाड़ डाइनामाइट से उड़ाए जा रहे है । ओज़ोन परत क्षतिग्रस्त हो रही है। इस से बहुत अधिक प्रदूषण पैदा हो रहा है। कवि ने इसे कचरा संस्कृति dustbin culture  का नाम दिया है –
सदानीरा पवित्र नदियों को  
मै ने कीचड़ भरी नालियाँ 
बनाया है। 
– – –
समाज  में 
किस ने मेरे और प्रकृति के बीच
मेटाबोलिक दरार 
बनाई है।  
चित्र रंगों के सम्मिश्रण से प्रदूषण तथा उजड़ती प्रकृति का संकेत देता है। काल्पनिक  भय” चित्र अपनी शैली, रंग संयोजन में सब से अलग है। काल्पनिक भय एक मानसिक स्थिति है। ऐसे अमूर्त विषय को रंग संयोजन, बारीक रेखांकन तथा हिंसक पशु आकृति से व्यक्त किया गया है। लोगों का कहना है कि काल्पनिक भय वास्तविक भय से अधिक खतरनाक होता है। कवि ने काल्पनिक भय का अनुभव करके ही अपनी कल्पना से उसका रूप निश्चित किया है –

लेकिन चित्र में 
तुम्हारा वही रूप दे पाया हूँ 
जिस से मै 
अपने विषम समय में
बहुत परेशान रहा हूँ। 
काल्पनिक भय का रूप किसी ने देखा नहीं। अत: कल्पना ही की जा सकती है। कल्पना से ऐसा चित्र बनाया है जिसे देख कर हिंसक पशु का ध्यान आने लगता है। काल्पनिक भय की खसलत हिंसक और डरावनी ही होती है। 
तुम अंधेरे में” कविता और चित्र दोनों नारी संघर्ष की बात कहते है। स्त्रियों पर आज भी अत्याचार होते हैं। चित्र में स्त्री के कई बिम्ब हैं। यह उसकी विभिन्न जीवन दशाओं का संकेत देते हैं। चित्र में श्वेत -श्याम टोन्स स्त्री की मन: स्थितियाँ का संकेत है। चित्र उसकी नग्नता को भी बताता है। संकेत है कि उसके साथ क्रूरता का व्यवहार हुआ है। चित्र में यह भी संकेत है कि वो अमानवीय सामाजिक नियमों को तोड़ना चाहती है । दिशाहीन होने की वजह से तोड़ नही पाती। चित्र में संकेत है कि वो संघर्षशील हो कर भी विवश है। कविता इन्ही बातों को बिम्बों के माध्यम से कहती है –
अँधेरा सघन है 
और हवा तैज़ 
जबकि तुम –
धारा के विरुद्ध जाना चाहती हो। 
प्रतीक्षा”  चित्र एक ऐसी स्त्री का चित्र है जो बोझ लिए किसी की प्रतीक्षा कर रही है। चित्रकार-कवि उसके सौंदर्य को देखता है। स्त्री उसकी तरफ न देख कर भी आकर्षित होती है

जैसे एक मूक संवाद चल रहा है। कवि-चित्रकार उसके सौंदर्य तथा मन की गहराई नापने की कोशिश करता सा लगता है। स्त्री अकेली है। उसके मन में रूमानियत का कोई भाव है ही नहीं। पर चित्रकार इक तरफा ऐसा सोचता रहता है। कई बार ऐसा होता है कि हम किसी से बहुत प्रभावित होते है। जिस से प्रभावित होते है वो भले ही उस बात को न जाने। उसका वजूद हमारे दिल में उतर  जाता है –

उसका बिना नाम जाने 
मै ने उसे 
अपने चित्त पर उकेर दिया। 
क्रौंच मिथुन” एक मिथकीय चित्र है। कहा जाता है कि जब शिकारी ने क्रौंच के जोड़े में से नर को मार दिया। तो आदि कवि वाल्मीकि ने क्रुद्ध हो कर उसे शाप दिया। क्रौंच मिथुन उस समय रति क्रीडा में मग्न था। चित्र उसी अवस्था का संकेत देता है। यह एक सृजन क्षण भी है। चित्र में अंडे भी दिखाये है। जो नव जीवन का संकेत हैं। चित्र में जो बिखरापन दिखता हैअँग्रेजी में इसे  ecstasy कहते है।
औ क्रौंच-मिथुन 
तुम वाल्मीकि की कविता में 
अमर हो। 
ध्वस्त घर” चित्र में जो बिखराव दिखाई देता है वो एक टूटे फूटे घर का नज़ारा है। अतिक्रमण हटाने के लिए नगर निगम के दस्ते आकर घरों को तोड़ते है । चित्र की रंग योजना तथा लय से लगता है कि घर का मलवा अपनी दर्दनाक कहानी कह रहा है।  जब उसे तोड़ा गया तो मनुष्य असहाय देखते रहे। क्रेन्स अपना काम करती रहीं। मलवे का ढेर एक अजब किस्म की तकलीफ पैदा करता है। यह भी कि टूटा फूटा घर अपनी त्रासदी कह रहा है। रंग संयोजन, लय, टोन्स तथा स्ट्रोक्स से एक रूपकीय ध्वनि पैदा होती है। यही चित्र का सौंदर्य है। कविता इस भाव को बड़ी जीवंतता से व्यक्त करती है। कवि घर का मानवीकरण कर चित्र को और असरदार बना देता है। 
दोबारा लौह हाथ रेंगता आया 
इस बार उसने  मेरी रीढ़ 
और कूल्हों को चटकाया
मै पूरी तरह ध्वस्त था। 
खण्डहर” चित्र सिर्फ एक रंग से ही रचा गया है। काला रंग खण्डहर के बिम्ब रचता है और उसकी मूकता और त्रासद स्मृतियों का संकेत देता है। खण्डहर के जड़ पत्थर चाहते है कि उसे हवा कुछ स्पंदित कर सके। यह चित्र एक उदासी और अवसाद का वातावरण भी पैदा करता है। 
तुम आओ 
इन जड़ पत्थरों में 
स्पन्द देने को, आओ। 
आशा” इस पुस्तक का अंतिम चित्र है। चित्र में अंधेरा है। पर अंधेरे में मानवीय सक्रियता भी प्रतिबिम्बित हैं। सफ़ेद रंग अंधेरे में उस आशा का प्रतीक है जो किसी भी इंसान को जिंदा रखने की बड़ी वजहा है।  पूरे चित्र में रंग संयोजन एक ऐसी लय पैदा करता है जिस से नई उम्मीद पैदा होती है। और उम्मीदें जीवन को नया रंग देती हैं। 
इसी अँधेरे में उगेंगे 
पंखधारी प्रकाश कण 
जो दिखाएंगे मुझे 
मेरा जीवन पथ। 
कोई भी कविता या चित्र को समझने के लिये उसमें उतरना ज़रूरी है। कविता के मर्म को समझना आसान नही होता। कविता लिखने से अधिक मुश्किल है उसके मर्म और निहितार्थ को समझना। अपने चारों तरफ़ के जीवन को समझना और अनुभव से कला भवाना को जगाना। कवि विजेंद्र अपनी कला चेतना को जगा कर जीवन की सच्चाई और सौन्दर्य को अपनी कला में सजीव रुप देते हैँ।
 
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शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ

शहनाज इमरानी कविता की  दुनिया में एक नया नाम है. शहनाज की कवितायें बिम्ब और शिल्प के चौखटे तोड़ते हुए ढेर सारी उम्मीदों के साथ हमारे सामने हैं. देखने वालों को इन कविताओं में एक अनगढ़पन भी दिखेगा लेकिन इस बात से इंकार नहीं कि यह नयी कवियित्री पूरी तरह चौकस है अपने समय, समाज और संवेदनाओं के बीच. शहनाज को पता है कि आज का जीवन कितना दुष्कर है. रिश्वत के बिना कोई काम हो पाना आज लगभग नामुमकिन सा हो गया है. जो खुद बड़े अपराधी हैं, जिन्होंने खुद बड़े डांके डाले हैं, जिन्होंने खुद लाखों-करोड़ों के वारे-न्यारे किये हैं, वही आज हमारी संविधानिक संस्थाओं पर काबिज हैं और बड़ी बेशर्मी के साथ नैतिकता का जाप करते रहते हैं. व्यवस्था को बिगाड़ने का आरोप वे बिना किसी हिचक के उन लोगों पर लगाते हैं जो प्रतिबद्धता के साथ नेपथ्य में रहते हुए अपने काम में जुटे हुए हैं. शहनाज की ही एक कविता की पंक्तियाँ ले कर कहें तो ‘माथे का पसीना पोंछते हुए ही कुछ ठीक करने की कोशिश में आज भी कुछ लोग प्राण-प्रण से जुटे हुए हैं.’  इस नयी कवियित्री का स्वागत करते हुए पढ़ते हैं इनकी कुछ नवीनतम कविताएँ। 

           
दीमक 

फ़ैलती जा रही है दीमक रिश्वत की
स्कूल में एडमिशन के लिए, ट्रेन में रिजर्वेशन के लिए
रेड लाइट पर चालान से बचने के लिए
मुकदमा जीतने और हारने के लिए
नौकरी के लिए, राशनकार्ड, लाइसेंस, पासपोर्ट के लिए,
अस्पताल के लिए, घर के लिए, खाने के लिए, पीने के लिए
सांस लेने के लिए
जुर्म, नाइंसाफ़ी, बेईमानी
अल्फ़ाज़ों ने नए लिबास पहन लिए हैं
महंगाई, ग़रीबी, भूख और बेरोज़गारी से लोग जूझ रहे हैं
हमारे पास ईमानदारी बची नहीं 
और बेईमानी एक राष्ट्रीय मजबूरी बन गई 
सब की अपनी-अपनी ढपली अपना राग
संवेदनशीलता से बचते हुए इंसान के ख़िलाफ़
हर नाइंसाफी को बर्दाश्त करना
कोई तो सीखे क़ैदी ज़हनों में सोच भरना
कोई तो सुलझाए ज़िंदगी का गणित
ज़िंदा आदमी कंकाल की तरह
करते है मेहनत ढ़ोते हैं
ईंटे,  रेत, सीमेंट
बनते जा रहे है कंक्रीट के जंगल
बैगर, ब्याज़ और क़र्ज़ का बोझ
आदमी का खून पी कर
मानते है कामियाबी का उत्सव
नेपथ्य में काम करने वाले अँधेरे में
रंगमंच पर तालियों की गड़गड़ाहट और शोर।

     
                  
 चुनाव

खेतों के साथ चलते हुए
रातो-रात मैदान बन जाते हैं
सड़कें दौड़ने लगती हैं
कुछ जांबाज़ लफ्ज़ छलांग लगाते हैं
और ख़बर के सबसे सियाह पहलू को
नए बने शहर के सामने लाते हैं
जब मानी का सबसे मुश्किल नुकता आता है
लोग फिसल कर जल्लाद के साथ हो लेते हैं 
जो राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानता
वो ही तो नेता बन जाता है
चुनाव जीतना दहशतगर्दी का लाइसेंस मिल जाने जैसा है 
देशवासियों को खाना नसीब नहीं
और वो पार्टी के बाद का खाना ट्रकों में भर कर फेंकते है
बे घर लोग बदन पर चीथड़े
खाली पेट सरकारी अस्पतालों के फर्श पर
बिना दवा इलाज के दम तोड़ते रहते हैं
खून,बलात्कार, हिंसा, अन्याय, अत्याचार, कट्टरवाद
मेरे देश में आज भी राष्ट्र से पहले धर्म आता है !
अणु-परमाणु से चल कर
न्यूट्रोन-प्रोटोन तक पहुंची
इस चरम सभ्यता की जिन्दगी में
प्रजा पीछे छूट गयी और तंत्र बुलेट प्रूफ़ कारों में आगे निकल गया।

गाँव का एक दिन    
                   
परिंदे जाग गये  है
एक दूसरे का अभिवादन
कर रहे हैं शायद
दो चिड़ियाँ आपस में
प्यार करती है
या झगड़ती हैं
चार खम्बे और एक छप्पर
कहने को है एक घर
आँगन के चूल्हे से
उठता कण्डों का धुआँ है
एक बछड़ा उछलता है
एक चितकबरी गाय रँभाती है
एक कुत्ता आँगन में सोता है
एक गहरा कुआँ
जिस से लौटती थीं गूँजती आवाज़ें
समय ने पाट दिया है
कुछ पेड़ों के पत्ते पीले हुए है
सूनी डालियों को छोड़ कर
हवा के रुख़ पर तैरते है
जैसे बिना इरादों के आदमी
कच्चे रास्तों से गुज़र कर
गाँव कि छरहरी पगडण्डी
चौड़ी सड़क से जा मिली है
यहाँ सब कुछ वैसा सुन्दर नहीं है
जो अक्सर टी.वी. के चैनलों पर
दिखाया जाता है
मुख्तलिफ़ दुनियाँ है गाँव कि
अभावों से भरी ज़िन्दगी की साँसे
किसान का पसीना
और गरीबी की मार। 

 अब्बू तुम्हारी याद

तुम्हारी याद
रोज़ तपते दिन का सामना करती है
फिर ढलते शाम के सूरज तक पँहुच जाती है
आज देखो फिर काला अँधेरा पीला चाँद ले आया है
क्यों बेतरतीब सी है यह दुनियॉं
कुछ ठीक करने की कोशिश में तुम
माथे का पसीना पोंछते रहे
तुम्हारी बातों में थी रौशनी
ज़िन्दगी का संघर्ष और बहुत सारा साहस
शुरुआत और अन्जाम के बीच अब भी
भटकती है कहानी
कहीं धुएँ को तरसते हैं चूल्हे तो कहीं
जीवन ने सिर्फ व्यापारी बना दिया है
ज़ुल्म करने वालों और
ज़ुल्म सहने वालों तक एक ही कहानी है
जनसंख्या बड़ती है तो भूख भी बड़ जाती है
रिश्तों का जोड़ टूट गया है
इस दौड़ में अगला क़दम पीछे वाले से छूट गया है
हवा में फैले हैं अन्देशे और हाँपता हुआ डर
दुनियाँ बन गई है एक बारूद की खदान
अब भी जारी है राजनीति के झगड़े कुर्सी की खिंचा तान
सब कुछ ही है वैसा
बदल कर भी कुछ न बदलने जैसा।

पिछली सर्दी में

वो दिन बहुत अच्छे थे
जब अजनबीपन की ये बाढ़
हमारे बीच नहीं उगी थी
इसके लोहे के दाँत
हमारी बातों को नहीं काटते थे
उन दिनों की सर्दी में
मेंरे गर्म कम्बल में तुम्हारे पास
कितने क़िस्से हुआ करते थे
हर लफ्ज़ का मतलब वही नहीं होता
जो किताबे बताती है
लफ्ज़ तो धोखा होते है
कभी कानों का कभी दिल का
और ख़ामोशी की अँधेरी सुरंग में
काँच सा वक़्त टूटने पर
बाक़ी रह जाती हैं आवाज़े
और उनकी गूँज !

मोहल्ले का चौकीदार

अपने हाथ का तकिया बना कर
अक्सर सो जाता है
अपनी छोटी-छोटी आँखे और चपटी सी नाक लिए
सब को हाथ जोड़ कर सर झुकता है
नाम तो बहादुर है पर डर जाता है
खुद को साबित करने के लिये
चौकन्ना हाथ में लिये लाठी
उसे पटकता है ज़मी पर
चिल्लाता है ज़ोर से “जागते रहो “
अपनी चौकन्नी आँखों का
एक जाल सा फैलाता है
फिर भी सड़क का कोई कुत्ता बिना भोंके
निकल ही जाता है
हर महीने लोगों के दरवाज़े खटखटाता है
कुछ दरवाज़े तो पी जाते हैं उसकी रिरियाहट को
कुछ देते है आधा पैसा
कुछ अगले महीने पर टाल देते हैं
मैम साब घर जाना है
माँ बहुत बीमार है
इस बार तो पूरा पैसा दे दो
और मैम साब कुछ सुने बगैर
दरवाज़ा बंद कर के कहती है
छुट्टा नहीं हैं फिर आना।

संपर्क –

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