विजेंद्र जी से अशोक तिवारी की बातचीत

विजेंद्र जी का व्यक्तित्व बहुआयामी है. मूलतः एक कवि होने के साथ-साथ वे एक बेहतर इंसान हैं, बढ़िया पेंटिंग्स बनाते हैं, गद्य में भी उनका कोई सानी नहीं। ‘कृति ओर’ जैसी पत्रिका के संस्थापक सम्पादक हैं. विजेंद्र जी से नोएडा में उनके घर पर अशोक तिवारी ने हाल ही में एक बातचीत की है जिसमें विजेंद्र जी ने साहित्य, समाज, राजनीति और कविता के विविध पक्षों पर खुल कर बातचीत की है. तो आईये पढ़ते हैं यह बातचीत। 

साहित्य – शिवेतर क्षतये 

लोक क्या है?
जब 1857 का युद्ध लड़ा जा रहा था तो कौन लड़ रहा था? जनता ही लड़ रही थी कि नहीं? तो लड़ने वाली जनता ही तो लोक है। हर जाति का एक सांस्कृतिक रूप होता है और एक संघर्षधर्मी रूप होता है। ये दुर्भाग्य है इस देश का,  इतिहासकारों का,  जो बूर्जुआ मनोवृत्ति के इतिहासकार हैं उनका, कि औपनिवेशिक आधुनिकता की वजह से उन्हें वो पक्ष दिखाई नहीं देता। लोक कहते ही एकदम से गांव, गांव की चित्रकला,  नृत्य, अन्धविश्वास – ये सारी चीज़ें बूर्जुआ ने हमारे दिमाग़ में बिठा रखी हैं। अब लोक का जो मनोरंजक रूप है – गाने,  लोकगीत,  लोकनृत्य वग़ैरा, जो आदिवासी करते हैं लेकिन वे लड़ते भी तो हैं। पूरे स्वतंत्रता संग्राम में सबसे ज़्यादा आदिवासी ही क़ुर्बानियां दे रहे थे। ऐसा कोई प्रांत नहीं था जहां आदिवासी अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़ नहीं रहे हों, लेकिन इतिहास इसको नहीं बताता। जो नई खोजें हुई हैं इतिहास की, आदिवासियों पर जिन्होंने काम किया है- उन्होंने बाकायदा आंकड़े दिए हैं कि इस प्रदेश में इतने आदिवासी मारे गए – और उस प्रदेश में इतने आदिवासी मारे गए।
सम्पन्न लोकतंत्र में हमें लोक को पुनर्परिभाषित करना बहुत ज़रूरी है। एक लोक है, एक प्रभु लोक है। संपन्न वर्गों का लोक है प्रभुलोक। लोक वह जो अपने श्रम पर जीवित है, जो लड़ रहा है – यानी सर्वहारा। मैं लोक को सर्वहारा का पर्याय मानता हूं। और पिछले 20 साल से इस बात पर बार-बार हिट कर रहा हूं। तुम्हें आश्चर्य होगा लेखन सूत्रका जो अंक मेरे ऊपर निकला था, उसमें कुंवरपाल सिंह का मेरे ऊपर एक लेख है – उन्होंने शुरू किया है कि विजेंद्र जी लोक के उस समय से समर्थक रहे हैं जब लोक को गाली समझा जाता था। आज स्थिति है कि लोग फैशन बतौर लोक को इस्तेमाल करने लगे हैं। लेकिन उसके सही रूप को इस्तेमाल नहीं करते हैं। जब आप लोक को सर्वहारा से जोड़ देते हैं तो गांव, शहर का फ़र्क़ कहां रहा? वहां भी एक सर्वहारा है और यहां भी है। पूरे विश्व में है। एक प्रतिरोध की जो शक्ति है, वो पूरे विश्व में है। मतलब लोक वैश्विक है – प्रतिरोध की शक्ति। फिर ये प्रश्न खड़ा कर देते हैं कि साहब लोक पर इतना ज़ोर क्यों? मेरा कहना है कि लोक हमारा अपना शब्द है जो सामान्य आदमी के साथ जुड़ा है। जैसे हम प्रोलेतेरियेत कहते हैं तो आदमी नहीं समझता उसे, या सर्वहारा कहते हैं तो वो नहीं समझता, लेकिन लोक कहते ही समझ जाता है। हमारा दायित्व ये है कि हम उसे पुनर्परिभाषित करें। भरत मुनि ने जब भरत नाट्यम लिखा था तो तीन तरह के लोगों को लोक में लिया था। जो श्रमार्थ हैं यानी श्रम से थके हुए, और शोकार्थ हैं, जीवन में जो शोक उत्पन्न होता है उससे दुखी हैं और दुखार्थ, अभावग्रस्त लोग जो हैं वो दुखी हैं। इन तीन कोटियों में वही वर्ग तो आता है। श्रमार्थ और दुखी वर्ग ही तो आता है। चूंकि भरत नाट्यम के पीछे अवधारणा ये थी कि वेद सबको पढ़ने के लिए स्वीकृत नहीं थे। लोग कहते हैं भरत मुनि सब वर्गों के नीचे वाली जाति के थे।
अब ये सोचने की बात है कि हमने अपनी राजनीतिक व्यवस्था का नाम नृपतंत्र क्यों नहीं रखा, लोक तंत्र ही क्यों रखा। अपनी जीवन पद्धति को ऐसे ही क्यों रखा? हमारे संविधान  का जो आमुख (Preamble) है, उसमें तीन मूल्य दिए हुए हैं – समाजवाद, धर्म निरपेक्षता और लोकतंत्र। मतलब हमारे समाज की पूरी संरचना तीन खंभों पर खड़ी हुई है। भले ही वोपूरी नहीं कर रहे हैं। उसके लिए संघर्ष ज़रूरी है। हमने केवल क्रांति की पहली मंज़िल पार की है यानी राजनीतिक स्वतंत्रता। लेनिन ने कहा है कि क्रांति से पहले संघर्ष करना पड़ता है, क्रांति के दौरान व क्रांति के बाद भी संघर्ष करना पड़ता है। वो संघर्ष जारी है। जैसा भी है लेकिन वो जारी है। तो उस लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्राप्त करने के लिए जो संविधान के आमुख में चीज़ें दी गई हैं, आप जब तक लोक में एकात्म नहीं होंगे, तब तक उन्हें प्राप्त नहीं कर सकते हैं। क्योंकि लड़ने वाली शक्ति तो वही है। सर्वहारा ही तो लड़ता है – यहां के किसान, छोटे किसान, भूमिहीन किसान, खेतिहार किसान, बुनकर, लकड़हारे इत्यादि। दूसरा ये है कि श्रमिकों को यहां के छोटे किसानों से जोड़ना पड़ेगा। भारत की स्थिति ऐसी नहीं है कि आप केवल श्रमिक वर्ग के आधार पर क्रांति कर दें। यह मुमकिन ही नहीं हैं। आज भी अगर ध्यान से देखा जाए तो जन शक्ति का जो स्वरूप है, वो देहातों में दिखाई देता है। आप देखिए, किसान जब आंदोलन करते हैं, पटरियों को घेर लेते हैं, सड़कें रोक लेते हैं …….ये सब तीन दिन से ज़्यादा नहीं चलता और सत्ता उनके सामने झुक जाती है। श्रमिक एक महीने तक हड़ताल करते रहें कोई सुनता ही नहीं हैं। ये शक्ति आज देहातों में, गांवों मे सुरक्षित हैं। उस शक्ति को संगठित करना ज़रूरी है। इस पर लेनिन की एक किताब है Alliance between workers and peasants. 
माओ ने जो बड़ी सेना तैयार की वो किसानों की ही तो थी। हमारे देश की जो भौगोलिक परिस्थितियां हैं, वो चीन से बहुत मिलती-जुलती हैं। किसानों की संख्या वहां भी ज़्यादा थी क्रांति के समय और हमारे यहां भी ज़्यादा है। तो मेरे कहने का मतलब यह है कि लोक को एक नई दृष्टि से देखने की ज़रूरत है आज। और उसके सही रूप को समझने की ज़रूरत है। यानी लोक का जो विलोम, प्रतिलेाम या उससे जो विपरीत है वो क्या होगा – प्रभुलोक ही तो होगा। लोक कहते ही सामान्य पर दृष्टि जाती है। तो सामान्य को खोजो। सामान्य और असामान्य। तो सामान्य ही तो लड़ने वाला और संघर्ष करने वाला वर्ग है जो उत्पीड़ित है, जिसका शोषण हो रहा है। और वो अपनी यथास्थिति से लड़ भी रहा है। ये विपरीत तत्वों की एकरूपता है। यानी सहअस्तित्व भी है और लड़ाई भी है। सहअस्तित्व उसकी मजबूरी है, लेकिन संघर्ष करना उसकी नियति है। तो जैसे तुमने कहा…….लोक नहीं छूटता…तो ये लोक का वह रोमांटिक रूप है जिसको बूर्जुआ हमारे दिमाग़ में बिठाता रहा है। विदेशी लोग भी यहां आते हैं। फ़ोक  डांस और फ़ोक  कल्चर के लिए परेशान रहते हैं। लेकिन कभी वे ये भी सोचते हैं कि ये फ़ोक का जो स्ट्रगल है, जन समूह का जो स्ट्रगल है, वो क्या है? उसके बारे में भी सोचें। तो आप पाएंगे कि हर किसी जाति का एक सांस्कृतिक रूप होता है और एक संघर्ष का भी रूप होता है। ये हमारी संस्कृति है, लेकिन हमारा संघर्ष भी तो है। हमने आज़ादी प्रार्थनाओं से नहीं ली है, संघर्ष से ली है और उसकी एक परंपरा है।
उस परंपरा में वे किसान ही थे, उनके लड़के थे जो बाक़ायदा लड़ रहे थे, सारा जनसमूह, पूरा हिंदुस्तान लड़ रहा था। नेतृत्व भले ही मध्य वर्ग का था लेकिन लड़ने वाला अग्रिम दस्ता हमेशा सर्वहारा ही होता है। वही लड़ता है। तो लोक को इससे जोड़ना चाहिए। इसके लिए उद्भावना के भारतीय चिंतन-सृजन का प्रगतिकामी मानवीय पक्षपर केंद्रित विशंषाक में मेरे एक लेख लोक की अवधारणा: समकालीन काव्य परिदृश्य में’ को पढ़ा जा सकता है। 
मेरी शुरू से यही अवधारणा रही है कि हम लोक को पुनर्परिभाषित करें व उसकी पुनर्व्याख्या करें और इसे इतिहास का जो संघर्षशील वर्ग है, उससे जोड़ें।

तो क्या वे व्यक्ति जो किसी राजनैतिक या सामाजिक संघर्ष का सीधे-सीधे हिस्सा नहीं रहे हैं और अपने जीवन में रोटी-पानी का संघर्ष कर रहे हैं, लोक का हिस्सा होंगे?
देखिए लोक का सीधा -सीधा अर्थ है जनता एवं संघर्ष करते लोग। अब तुम कहोगे बहुत सारे लोग संघर्ष नहीं कर रहे तो जब तक वे संघर्ष नहीं करेंगे तब तक मुक्त भी नहीं होंगे। अच्छा, संघर्ष क्यों नहीं कर रहे? क्योंकि प्रशिक्षित नहीं हैं। वर्किंग क्लास रिवोल्यूशनरी होती है। उसका दायित्व होता है कि जो निष्क्रिय और निकम्मे हैं, उनको सक्रिय करें। ऐसा कौन सा व्यक्ति है जिसकी इच्छा अच्छा जीवन जीने की न हो? लेकिन वो लगता है बिलकुल मुरझाया हुआ सा। कभी अपने कान को उसके सीने पर रख कर देखो, उसमें अंदर ज्वालामुखी धधक रहा है। जो तुम्हें मुरझाए हुए चेहरे दिखाई दे रहे हैं उनके अंदर अग्नि है, लेकिन मजबूर हैं। अब देखिए सारा बंगाल यहां आकर काम कर रहा है। काम करके चले जाते हैं, दुखी हैं। लेकिन इनको टटोलिए आप, इनके अंदर प्रवेश करके देखिए तो! poet is one who looks in to the heart of people also. देखिए किसी यथार्थ के दो पहलू होते हैं एक appearance जिसको हिंदी में कहेंगे छाया प्रतीति और एक होता है essence मतलब सार तत्व। तो हम 90 फ़ीसदी लोग बल्कि 95 फ़ीसदी लोग छाया प्रतीतियों से विमोहित होते हैं। ये बाज़ार क्या है? छाया प्रतीति ही तो है। जिस बाजार को सारे लोग महिमा मंडित कर रहे हैं वो छाया प्रतीति है। इसका सार तत्व क्या है? सार तत्व तो साम्राज्यवाद का जो वित्तीय पूंजी विस्तार हुआ है, वह है – नव उपनिवेशवाद का हमला। 
पिछले दिनों मैंने ज्ञानरंजन का एक छोटा सा साक्षात्कार एक पत्रिका में पढ़ा – मुझे उनका एक वाक्य पढ़ कर बड़ा दुख हुआ। ज्ञानरंजन ने कहा कि ये दुनिया बाजार की उपज है। कितना भ्रामक वाक्य है ये। कहना ये चाहिए कि ये बाज़ार इस दुनिया की उपज है। बाज़ार का मतलब क्या है? देखिए….साम्राज्यवादी देश चिकने चुपड़े शब्द बना कर जैसे मार्केट इकोनमी’, ‘लिबरल इकानोमीआदि को एक्सपोर्ट करते रहे हैं। ये भी ख़ासतौर से उन देशों के लिए जो विकासशील हैं। साम्राज्यवादी देश अपनी वित्तीय पूंजी को मंडियां तलाश करने के लिए चारों ओर परेशान हैं। उसका नाम बाज़ार दे दिया। मार्केट इकोनमीपर कविताएं लिखी जा रही हैं, बाज़ार और भूमंडलीकरण पर कविताएं लिखी जा रही हैं। लेकिन इसके जो कारक हैं उस पर कोई हमला नहीं कर रहा है। बाज़ार का कारक क्या है- साम्राज्यवाद। है कि नहीं? उस पर आक्रमण नहीं करते हैं। बाज़ार पर कविता लिखेंगे जैसे उसका महिमामंडन कर रहे हों। इसलिए मैंने कहा कि Market is the appearance of the reality – ये छाया प्रतीति है। इसका सारतत्व है साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी का विस्तार, जो हमारे देश को एक कॉलोनी बनाए हुए है। स्थिति ये है कि हम ईरान से अपने मैत्री संबंध भी नहीं बना सकते। अभी अमरीका ने धमकी दी है कि प्रतिबंध लगा देंगे। अगर हमने ईरान से ज़्यादा संबंध बढ़ाए या तेल ज़्यादा लिया तो हम प्रतिबंध लगा देंगे। ये एक कॉलोनियल विस्तार है उसका। मतलब कल साम्राज्यवाद का स्वरूप दूसरा था। युद्ध करता था। आज युद्ध नहीं करता है। आज अपनी वित्तीय पूंजी का विस्तार करके हमें ग़ुलाम बना लेता है। वर्ल्ड बैंक, इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड और वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन – इन तीन खंभों से विकासशील देशों को अपना दास बनाता है। तो कारक ये हैं। इन पर हमला नहीं होता। बाज़ार पर बोलेंगे। ज्ञानरंजन जैसा व्यक्ति जो 20-25 साल तक पहलचलाते रहे हैं। हालांकि मैं पहलको बहुत महत्त्वपूर्ण पत्रिका नहीं मानता। क्यों याद कर रहे हैं आप पहल को? कोई ऐसी बात बताइए जिससे पहलको याद किया जाए? जैसे हम सरस्वतीको याद करते हैं या रामविलास शर्मा के समालोचकको याद करते हैं। हमने कृति ओरसे लोक के लिए संघर्ष किया है और आज दुनिया जान गई है। हम से लोग कहते हैं कि ये तो लोक का जाप करते रहते हैं – हमें खुशी होती है। ऐसा पहलने कुछ नहीं किया। पहलआधुनिकतावादी लोगों को इकट्ठा करती रही है। कहने को बीच-बीच में मार्क्सवादियों को भी स्पेस देती है। मतलब वो भ्रम फैलाते हुए हमेशा उसे भव्य रूप में निकालते रहे। एक आंतक था उसे मोटी पत्रिका के रूप में निकाल कर। एक बार मैंने आनंद प्रकाश जी से पूछा तो वे बोले – पहलतो बूर्जुआ मैग्ज़ीन है। बिलकुल सही कहा उन्होंने। उनका सही चेहरा इसमें आ गया है। मैंने इस पर एक बहुत बड़ा नोट अपनी डायरी में लिखा है। ज्ञान जी ने अपने साक्षात्कार में कहा है कि अब हमारे जीवन का अंत हो गया हैया हमने अपने आपको सत्ता को समर्पित कर दिया हैवग़ैरा-वग़ैरा वाक्य दिए हैं उन्होंने। उनको ये नहीं दिखाई दिया कि संघर्ष भी है। इतिहास का ऐसा कोई दौर नहीं रहा जिसमें केवल पराजय ही पराजय हो। संघर्ष बराबर उद्घाटित हुआ है। इतिहास का मतलब ही ये है कि समाज में वर्ग संघर्ष है।
दरअसल इन सारे लोगों ने समर्पण कर दिया हैं। मेरा कहना है कि वे मार्क्सवादी नहीं थे केवल प्रगतिशील लेखक संघजो था उसके सदस्य थे – अंदर वो अराजक थे। आप देखिए कि उनका गहरा संबंध उन लोगों से था जो आधुनिकतावादी हैं, जो कॉलोनियल मॉडर्न (औपनिवेशिक आधुनिक) हैं, जैसे मंगलेश डबराल, असद जैदी, देवीप्रसाद मिश्र वग़ैरा वग़ैरा। अब बताओ तुमसे उन्होंने कभी पूछा रचना के लिए?

 

नहीं, कभी नहीं। मैने एक बार दो-तीन रचनाएं भेजीं। उन्होंने लौट कर पत्र लिखा कि हम आपकी रचनाओं का इस्तेमाल करेंगे, लेकिन अभी नहीं…….पत्र के आख़िर में उन्होंने कहा कि हम लोगों से कह के लिखवाते हैं।
हां कह के कराना, कि किसको उछालना है किसको नहीं – अब देवी प्रसाद मिश्र जैसा व्यक्ति जिसमें कविता बिल्कुल है ही नहीं- उसकी 40-40 पृष्ठों की कविताएं छापीं उन्होंने पहलमें। जिस पर लोगों ने ऐतराज़ किया कि ये तो कविता हैं ही नहीं। ऐसे लोगों को वे लाइमलाइट में लाते थे। मेरा तो उनसे कई बार कटु पत्र व्यवहार भी हुआ था। और हमारे संबंधों में भी खिंचाव आ गया था। क्योंकि जब उनके 60 वर्ष हुए थे तो उन्होंने जनसत्ताको एक इंटरव्यू दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि लफंगे, चरित्रहीन लोग भी उच्च श्रेणी का साहित्य लिख सकते हैं। इस पर मैंने एक पत्र लिखा था उन्हें। पर उसका जवाब नहीं दिया उन्होंने। पत्र मेरी डायरी में छपा है।
  
मार्क्सवाद उन्होंने पढ़ा ही नहीं है। मार्क्सवाद जो गहराई से पढ़ लेगा वो कभी ऐसा नहीं this is the insult of the people. ऐसा कोई महान लेखक नहीं है जो आदमीयत से गिरा हुआ हो और उसका लेखन महान हो। ये हो ही नहीं सकता। बल्कि मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूं अंग्रेज़ी लेखक ऑस्कर वाइल्ड का। ऑस्कर वाइल्ड बड़ा कुकर्मी था। आचरण से भी गिरा हुआ था। तो हुआ ये कि कुकर्मों की वजह से उसको जेल हो गई। वो हमेशा आर्ट-आर्ट चिल्लाता था। ब्यूटी आर्ट, ब्यूटी आर्ट। जब वह जेल में पड़ा हुआ था तो उसने कहा कि Now I change my statement—-virtue is more important, morality is more important than anything else. और ये भी कहा कि मेरा देश मुझे अब बड़ा लेखक नहीं मानेगा और अब मेरे लिए जगह के नाम पर केवल गुफाएं है जहां पर मैं अपना मुंह छिपा के मर सकता हूं। ये पश्चाताप किया था ऑस्कर वाइल्ड ने।
किसी में हिम्मत नहीं थी, सब डरते थे ज्ञानरंजन जी से। उनके पास पुरस्कार भी था और पहलथी। मैं जो बात होती है उसे कहता हूं। मैंने ओरके निकलने पर जब कुंवर पाल सिंह को पहला पत्र लिखा था तब लोक का संदर्भ दिया था। तब वे हँसे थे, मज़ाक उड़ाया था मेरा ….अरे विजेंद्र जी क्या लोक-वोक की बात करते हो, वर्ग चेतना की बात करो। हां, एक सवाल ये खड़ा हो सकता है कि लोक ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है या वर्गचेतना? तो मेरा कहना ये है कि वर्ग चेतना तो हमारी एक दृष्टि है….वो लेाक से ही तो निकलेगी। लोक हम तभी तो कह रह हैं जब हमारे पास वर्ग दृष्टि है। प्रभुलोक और लोक का हमने जो विभाजन किया है, वो वर्ग दृष्टि से ही तो किया है। रिवोल्यूशनरी वर्ग जो है सर्वहारा का – वही सच है। The revolutionary class is the only truth.
अभी साक्षात्कार की एक मोटी किताब शिल्पायनसे आ रही है उसमें ऐसे बहुत सारे प्रश्न किए है लोगों ने मुझ से। 

परंपरा के सवाल पर पिछले दिनों अमर्त्य सेन ने काफ़ी कुछ लिखा है…..
अमर्त्य सेन घपलेबाज आदमी हैं। क्या लिखेंगे वो? अच्छी बात भी कह सकते हैं और भ्रमित करने वाली बात भी लिख सकते हैं। देखिए मैं इस बात में बहुत सख़्त हूं। मैं जानता हूं जिस आदमी को नोबल प्राइज़ मिला हुआ है, जो आदमी रात दिन अमेरिका में रहता है – वो क्या सोचेगा भारत जैसे देश के बारे में? यहां एजूकेशन नहीं है, एजूकेशन होनी चाहिए, भारी भुखमरी है – ये बता रहे हैं आप। लेकिन ये क्यों है, इस पर बात नहीं कर रहे। ये तो आप फ़िनोमिना बता रहे हैं। फ़िनोमिना बताना आईडियोलोजिस्टिक फ़िलोसफ़ी का काम है, रिवोल्यूशनरी फ़िलोसफ़ी का काम नहीं है। मार्क्सवादी फ़िलोसफ़ी का काम है how to change the world. ज़्यादातर फ़िलोसफ़ी तो यही बताती रही है कि संसार ऐसा है, जीवन ये है, दुख ये है, दुख के कारण ये हैं लेकिन उन्होंने ये कभी नहीं बताया कि संसार को बुनियादी तौर पर बदल सकते हैं – ये केवल मार्क्स ने बताया। अमर्त्य सेन बग़ैरा को मैं ज़्यादा तवज्जोह नहीं देता।

मिथकों के जुझारूपन पर विभिन्न पौराणिक एवं मिथकीय संदर्भों को अमर्त्य सेन ने अपनी किताब The argumentative Indian में उठाया है – गीता के विभिन्न संदर्भों को ले कर अपनी बात कही है। इसके पहले अध्याय का पिछले दिनों मैंने हिंदी में अनुवाद किया है।
गीता के ऊपर भी वही अच्छा लिख सकता है जो मार्क्सिस्ट हो। अगर रामविलास शर्मा गीता के ऊपर लिखते तो बेहतरीन लिखते। अमर्त्य सेन गीता पर अच्छा नहीं लिख सकते। हो सकता है वे मार्क्सिस्ट रहे हों किसी समय – मुझे पता नहीं – मैंने थोड़ा बहुत जो पढ़ा है उनके बारे में, मुझे उनका लिखा हुआ और बोला हुआ कभी अपील नहीं करता। उनके लेखन में कुछ न कुछ टैक्टिक्स रहती है। To appease the people. और जो सत्ता है, उसके समांतर बोलते रहेंगे।
यथार्थ को व्यक्त करने वाली जो कविता थी, उसको हमने समकालीन कविता कहना शुरू किया। प्रमाण के लिए प्रो. रेवती रमण जो मुज़फ्फ़रपुर में हिंदी के प्रख्यात समीक्षक हैं, उन्होंने एक किताब लिखी है – ‘कविता में समकाल‘ उसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि समकालीनता में सर्वहारा संस्कृति का प्रस्ताव ज़रूरी है। अब देखिए अगर समकालीन होना है तो हमें उस स्तर तक जाना होगा। नागार्जुन ने कहा है – समकालीन होने के लिए ज़्यादा रचना-रचना नहीं करना चाहिए, कला के बारे में ज़्यादा नहीं सोचना चाहिए। हमें जो जन-शक्ति है, उसके बारे में ज़्यादा सोचना चाहिए। रेवतीरमण ने अपनी स्थापना को प्रमाणित करने के लिए नागार्जुन की ये पंक्तियां भी किताब में उद्धृत की हैं। मुझे इससे बहुत बल मिला। मेरे लिए समकालीन वही है जो इतिहास द्वारा प्रदत्त Social dynamics (सामाजिक गतिकी) को आगे बढाए।

 1921 के आसपास लिखी गई निराला की भिक्षुककविता या बाद में 1942-43 में लिखी कुकुरमुत्तासमकालीन कविता में आएंगी?
बिल्कुल-बिल्कुल, यानी कई बार लोग हमारे युग के नहीं होते पर समकालीन हो जाते हैं। कुछ कवि हमारे समय के न होते हुए भी हमारे समकालीन हो जाते हैं, जैसे मीरा। मीरा अपने समय में सामंतों के ख़िलाफ़ अपने आचरण से लड़ रही थी। वो हमारे ज़्यादा नज़दीक है बनिस्बत गगन गिल या अनामिका जी के। वो ज़्यादा समकालीन हैं क्योंकि वो हमसे जुड़ती है, हमारे संघर्ष से जुड़ती है। कबीर हमारे ज़्यादा समकालीन हैं जब वे आडंबरों और पाखंडों की तीव्र आलोचना करते हैं। आज की कोई कविता नहीं करती। मैं 95 फ़ीसदी कविता की बात कर रहा हूं।

और जब यही कबीर रहस्यवादी हो जाते हैं और कहते हैं कि मैं तो कूता राम कातो वहां पर उनकी समकालीनता ख़त्म होती नज़र आती है।  
देखिए कबीर का सारा कुछ समकालीन नहीं है। मतलब ये समझने की बात है। कबीर में बहुत कुछ ऐसा है जो आज प्रासंगिक नहीं है। उनका जो critical attitude है- कर्मकाडों के प्रति – वो तो हमें समकालीन लगता है, लेकिन जहां वे रहस्यवादी हैं वो हमारे मतलब का नहीं है। इसलिए हमें परंपरा को critically acceptकरना चाहिए। ये ज़रूरी नहीं है कि सारा कुछ जैसा है, ग्राह्य हो। तुलसी में आज बहुत कुछ ऐसा है जो ग्राह्य है। तुलसी कबीर से ज़्यादा ग्राह्य हैं। कारण उसका ये है कि तुलसी सामान्य-जन के लिए लड़ते हैं। राम और रावण का युद्ध आप देखिए। रावण रथी विरथ रघुवीरा।रावण के पास रथ है, सेनाएं हैं, लेकिन राम के पास कुछ भी नहीं है। नंगे पांव हैं और कौन है उनके साथ, उनकी सेना में-वानर हैं, कोल हैं, भील हैं जो सामान्य जन हैं- वो लड़ रहे हैं।
एक विनाशक रूप के विरुद्ध राम लड़ रहे हैं, और ऐसी सेना के साथ लड़ रहे हैं जो सामान्य जन की सेना है। दूसरा, राम कभी लालायित नहीं हैं राज्याभिषेक के लिए। वो दिखाई नहीं देते। वन में भी एक वनवासी की तरह रहते हैं। वहां भी राजदरबार लग सकता था। लेकिन नहीं। केवट से गले मिलते हैं, भीलनी (शबरी) के जूठे बेर खाते हैं। ये एक कवि बोल रहा है। और तुलसीदास ने तो यहां तक दिखाया है कि ये समाज ऐसा है कि किसान को खाने को नहीं है, भूखों मर रहा है। और इतनी ग़रीबी है कि हम अपनी औलाद को भी बेचते हैं। यहां तक गए हैं। अच्छा, तुलसी का ‘लंका कांड’ निकाल दो तो क्या रह जाता है? एक बात और ध्यान रखने की है। कविता का जो प्रयोजन बताया गया है वो आत्म साक्षात्कार नहीं है जैसा कि रूपवादी-कलावादी लोग कहते हैं। मम्मट ने एक श्लोक दिया है। उसमें कहा है- काव्यम् यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये…..(काव्य प्रकाश-मम्मट 2)। काव्य यश के लिए होता है। यह हमारे मतलब का नहीं है। अर्थकृते, धन उपार्जन के लिए होता है। ये भी बहुत महत्व का नहीं है। व्यवहार विदेह, मनुष्य का व्यवहार जानने के लिए होता है। ये तो ठीक है। फिर कहा है शिवेतर क्षतये। जो जनविरोधी है उसके विनाश को भी काव्य होता है। शिव-इतर – शिव का मतलब मंगलकारी। लोक कल्याणकारी अगर है तो कविता वहां शस्त्र का काम करती है। शिवेतर क्षतयेयानी कविता जन विरोधी का क्षरण भी करेगी। ऐसा काव्य प्रयोजन किसी भी काव्य शास्त्री ने नहीं कहा है – पूरे संसार में। थोड़ा बहुत जो पढ़ा है मैंने यूरोप का काव्य शास्त्र, किसी ने भी नहीं कहा। हमारे भारत में भी केवल मम्मट ने कहा है –शिवेतर क्षतयेलोकतंत्र में तो इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। अगर आप जनता के पक्षधर हैं तो आपकी कविता शिवेतर क्षतये ही होगी। और हम सब जनता के पक्षधर तो हैं ही। जो जनवादी है, वो जनता का पक्षधर है। अगर वाल्मीकि का युद्धकांडनिकाल दीजिए तो शिवेतर क्षतये का जो तत्व है वो ख़त्म हो जाता है। इससे पूरी रामायण निष्प्रयोजन हो जाएगी। और इधर तुलसीदास का अगर लंकाकांडनिकाल दें तो रामचरितमानस निष्प्रयोजन हो जाएगी। क्योंकि वही तो सारतत्व है। शिवेतर क्षतयेवहीं तो दिखाई देता है। कविता शिवेतर क्षतये। आज के कवि पर यह सबसे ज़्यादा लागू होता है।
अच्छा अगर हम जनता के पक्षधर हैं, जनविरोधी सत्ता के प्रोटेस्ट में कविता लिख रहें है तो ये हमारा अस्त्र है। जैसे प्रेमचंद ने कहा था कलम का सिपाही’- उसी प्रकार कविता अस्त्र है। शब्द अस्त्र का काम भी करता है। ये भी सच है कि पिछले दिनों औपनिवेशिक आधुनिकतावादी जो हैं उन्होंने कविता को रीढ़हीन बना दिया है।.
कविता में आत्मग्रस्तता फैली हुई है। खूब पढ़ के देख लो कविताएं। एक-दो परसेंट की बात मैं नहीं करता, लड़ते हुए किसानों के चित्र कहां हैं? जो वर्किंग क्लासहै उसका संघर्ष कहीं दिखाई देता है कविता में? जो प्रतिष्ठित कवि हैं, जो अग्रज कवि हैं उनको छोड़ दो – निराला, निराला की जो नए पत्तेवाली कविताएं हैं वो संघर्ष की कविताएं हैं। और नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और केदार बाबू – इनकी अपनी जन संघर्ष की परंपरा है। लेकिन आज की बात बता रहा हूं – ये प्रश्न उठाने लायक है…..क्या ये यथार्थ नहीं है – वर्किंग क्लास’, किसान – इनके संघर्ष – वो दिखाने की चीज़ नहीं है कविता में? और अगर आपकी कविता राजनैतिक नहीं है तो आप लोकतंत्र में अपना दायित्व नहीं निभा रहे हैं। poetry must be political तभी तो वो शिवेतर क्षतयेहोगी। वरना होगी ही नहीं। इधर मेरा एक संग्रह आया है बुझते क़दमों की छाया’, ज़्यादातर राजनीतिक कविताएं हैं उसमें मेरी। 
कहां से छपा है?
जोधपुर से आया है, रमाकांत जी ने ही संपादित किया है। उसमें 1968 से लेकर 2010 तक की कविताएं हैं। तारीख़ भी पड़ी हुई हैं उन पर।

क्या काव्य शास्त्र और कविता को समझने के लिए मम्मट, वाणभट्ट, वाल्मीकि, कालिदास व भवभूति आदि को पढ़ना आज बेहद ज़रूरी है
बिल्कुल। मम्मट हैं, आनंदवर्धनाचार्य हैं -उनको भी पढ़ना चाहिए। आनंदवर्धन मूलतः कवि थे, आचार्य बाद में। आज से 1500 वर्ष पूर्व एक वाक्य कहा है आनंदवर्धनाचार्य ने। अब मैं जो श्लोक तुम्हें बता रहा हूं उस श्लोक की चर्चा संस्कृत के किसी पंडित ने नहीं की। जबकि ये बेहद महत्त्वपूर्ण है। वो कहते हैं-
अपारे काव्य संसारे, कविरे कः प्रजापति।
यथा स्मै रोचते, विश्वं, तथेदम् परिवर्तते।
अर्थात काव्य का जो संसार है वो विपुल है, विराट है। संकेत इसमें ये भी है कि काव्य का जो अनुभव संसार है वो विराट होना चाहिए। ये भी इसकी ध्वनि है। होता है और होना चाहिए। और कवि प्रजापति है यानी स्रष्टा है। 
ये आज से 1500 साल पहले कह रह हैं आनंदवर्धन। उनका जो बलाघात है, वो अनुभव के रूपांतरण पर है। वस्तु के रूपांतरण पर। और मार्क्स की ज्ञानमीमांसा भी यही कहती है कि वस्तु का रूपांतरण होता है। ज्ञान व्यवहार से होता है। देखिए हम वस्तु का अनुभव करते हैं, तो संवेदना पैदा होती है और संवेदना दिशाहीन होती है। निरा अनुभव दिशाहीन होता है। उसका कोई डायरेक्शन नहीं होता। फिर उस संवेदना को हमें पुनर्गठित करना पड़ता है। बुद्धिसंगत बनाना पड़ता है, क्योंकि उसके साथ बहुत सारे अनुभव जब जुड़ने लगते हैं। जैसे कि आयरन अयस्क इस्पात नहीं होता है, लेकिन अयस्क से इस्पात तब बनता है जब उसे हम भट्टियों में पका देते हैं। उसी तरह ये ज्ञान का पहला स्तर है जो दिशाहीन होता है लेकिन जब उस ज्ञान को हम अन्य ज्ञान से समृद्ध करते रहते हैं और उसको बुद्धिसंगत बनाते हैं, यानी उसका पुनर्गठन कर लेते हैं, तब वो अवधारणात्मक बनता है। तब उसमें एक दिशा आती है। ये ज्ञान का दूसरा स्तर है। इस ज्ञान के दूसरे स्तर को फिर हम व्यवहार में लाते हैं – ये तीसरा स्तर है। अगर वो व्यवहार में नहीं आ रहा है तो वो ज्ञान कच्चा है। इस पूरी प्रक्रिया में वस्तु का रूपांतरण होता है। वस्तु में अंतर्वस्तु बन जाती है। और जब अंतर्वस्तु बनती है तो उसमें हमारी जो निजता है, उसके रंग खिलने लगते हैं। मतलब वस्तु को आत्मपरक बनाना पहली मंज़िल होती है। वस्तु तो मूर्त होती है और भाव अमूर्त होता है। तो वस्तु का पहले अमूर्तन करते हैं अर्थात् वस्तु को आत्मपरक बनाते हैं। इसलिए कोई भी कविता आत्मपरक हुए बिना नहीं रह सकती। आत्मपरक का मतलब है कि आपका व्यक्तित्व उसमें शामिल है, घुल-मिल गया है। तो पहली मंज़िल से दूसरी मंज़िल की जो छलांग है वो बहुत महत्त्वपूर्ण है। जो पहली मंज़िल पर कविता लिखते रहते हैं वो दिशाहीन होते हैं। कई बार कहते हैं न, कि कविता दृष्टिहीन हैं, कुछ नहीं हैं इसमें। कविता में कोई दिशा नहीं है। क्यों होता है ऐसा? क्योंकि वो संवेदना की पहली मंज़िल पर ही रहते हैं।
असल में, कविता में हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हैं। वस्तु स्थूल है और सूक्ष्म की ओर यानी हम ज्ञान या भाव की ओर बढ़ते हैं। और जब हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हैं तो वह दूसरा स्तर होता है। उसमें हमारी बहुत सारी चीज़ें मिल जाती हैं। हमारी अवधारणाएं, हमारा ज्ञान और हमारा अनुभव – वो सब भी जुड़ जाता है। अनुभव भी दो तरह का होता है। एक प्रत्यक्ष अनुभव और दूसरा परोक्ष अनुभव। प्रत्यक्ष अनुभव एक चौथाई होता है। तीन-चौथाई परोक्ष अनुभव होता है। यानी अध्ययन कर के, लोगों को सुन कर, इतिहास का ज्ञान, अपने अतीत के साहित्य का ज्ञान – ये भी एक वो अनुभव है जो अत्यंत आवश्यक है। जिसे परोक्ष ज्ञान नहीं है उसका प्रत्यक्ष ज्ञान भी अधूरा है।
कई बार कहते हैं कि अमुक कवि समृद्ध संस्कार का कवि है। क्यों कहते हैं ऐसा? क्यों कि उसका परोक्ष ज्ञान बहुत ज़्यादा है। परोक्ष ज्ञान से अनुभव में समृद्धि आती है। जिसमें परोक्ष ज्ञान नहीं है, वो कविता वैसे ही होगी जैसा अभी आपने उदाहरण दिया – दिशाहीन। 
मेरे अंदर जो नई-नई उद्भावनाएं होती है वो केवल मार्क्सवाद की वजह से होती हैं। मैं आज भी पढ़ता हूं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता अशोक जी कि मैं मार्क्स को नहीं पढ़ता। जितना भी समय मुझे मिलता है मार्क्स को ज़रूर पढ़ता हूं। अब जैसे मैंने अभी सुनाया आनंदवर्धन का श्लोक, निरे लोग पढ़ते होंगे लेकिन किसी को ये नहीं सूझा कि ये सबसे प्रमुख श्लोक है। आज के संदर्भ में जो वस्तु के रूपांतरण का सिद्धांत दे रहा है। मैंने जितने भी काव्यशास्त्र पढ़े, किसी ने भी नहीं कहा ऐसा। यहां तक कि राधवल्लभ त्रिपाठी की संस्कृत की किताब है- भारतीय काव्यशास्त्र की आचार्य परंपराउसमें ये सारे लोग आते हैं। लेकिन आनंदवर्धन को लेते हुए उन्होंने भी इस श्लोक को उद्धृत नहीं किया। क्योंकि, वो दृष्टि नहीं है। मार्क्स जो दृष्टि देता है न, वो अद्भुत है। मतलब मार्क्स की जो मेटाफ़िज़िक्स है, उसको पढ़ने के बाद फिर  कुछ शेष नहीं रहता। और उसे बग़ैर पढ़े गंभीर कविता संभव नहीं है। इसे निरंतर पढ़ने की ज़रूरत है। क्योंकि ये विज्ञान-सम्मत दर्शन है। ये मेरा अपना अनुभव है कि उसमें बड़ी नई उद्भावनाएं हैं। मैंने मार्क्स को पढ़ने के बाद जब अपना साहित्य पढ़ा तो मुझे एकदम से नई-नई चीज़ें क्लिक हुईं। जैसे कि समकालीन सब नहीं होते- ये मुझे वहीं से मिला। या मॉडर्निटी में भी फ़र्क है। हमारी मॉडर्निटी वो नहीं है जिसे आज लोग मानते हैं। हमारी मॉडर्निटी व्यापक रूप से कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के प्रकाशन के साथ शुरू होती है। और वैसे 1857 की जो पहली राज्य क्रांति है, वहां से शुरू होती है। आप देखिए दोनों में ही मिलान है। ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष का दर्शन है और हम भी जनता की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे। मॉडर्न का मतलब नवीनता से भी होता है। ऐसी नवीनता पहले कहां थी? हम तो कॉलोनी थे। हमने कॉलोनी के विरुद्ध जो संघर्ष किया, उससे एक नवीनता पैदा हुई कि हम नया समाज बनाएंगे जो स्वदेशी होगा।
‘कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो’ को मैं इसलिए नवीनता की कसौटी मानता हूं क्योंकि उससे पहले सर्वहाराकेंद्र में नहीं था और इतिहास की द्वंद्वात्मकता भी नहीं थी। इतिहास की द्वंद्वात्मकता का मतलब ये है कि पूरे इतिहास में वर्ग संघर्षरहा है – ये नवीनता है। आज की प्रचलित नवीनता को मैं इसलिए औपनिवेशिक नवीनता कहता हूं। मेरे कुछ मित्रों ने जब कहा कि आप आधुनिकता का विरोध करते हैं, इससे तो हम जनवादियों को सब दकियानूस मानेंगे, तो इस पर मैंने एक लंबा संपादकीय लिखा था। तब से मैंने कहना शुरू किया कि ये आधुनिकता दरअसल औपनिवेशिक है, कॉलोनियल मॉडर्निटी है। And that Modernity is defined by the western thinkers. उनका साम्राज्य था। अब उनकी मॉडर्निटी की अवधारणा तो ये है कि हम उनके मार्केट बने रहें। हम उनके प्रतिबंध मानते रहें। अपनी भाषा को भूल जाएं और उनकी भाषा को पढ़ते रहें। अपनी नियति से जिएं और अपनी नियति से मरें। अभिशप्त हैं हम – ये उनकी मॉडर्निटी है। हमारी मॉडर्निटी ये नहीं है। हमारी मॉडर्निटी स्ट्रगल की है। इसलिए मैंने कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो के प्रकाशन को एक लाइन बनाया था। वहां बहुत सारी चीज़ें नई हैं। इतिहास की द्वंद्वात्मकता बिलकुल नई है। वर्ग संघर्ष एकदम से नया है। और सर्वहारा का केंद्र में आना बिलकुल नया है। कहां था तब सर्वहारा केंद्र में? ये बिलकुल नवीन चीज़ है। प्रेमचंद सर्वहारा को केंद्र में लाते हैं, अज्ञेय नहीं ला पाते। तो अज्ञेय मॉडर्न कहां हुए और अगर मॉडर्न हैं भी तो औपनिवेशिक अस्तित्ववादी/ माडर्न हैं, जिनको हर वक़्त मृत्यु दिखाई देती है या रहस्य दिखाई देता है। कृति ओरके 62वें अंक में अज्ञेय की कविता असाध्य वीणापर मेरा एक लंबा लेख था। असाध्य वीणाकविता को हिंदी की मोनोलिजा कहते हैं। इस लेख पर बहुत से युवा लेखकों ने कहा कि आपने इस पर जिस तरह लिखा है उस तरह हमने सोचा ही नहीं था। 

अपने बुझे स्तंभों की छायासंग्रह के बारे में कुछ कहें।

पिछले चार दशक की कविताओं मे से डॉं. रमाकांत शर्मा ने चयन किया है। यहां ख़ास बात है कि इन कविताओं में से किसी कविता का अन्यंत्र नहीं छपना। अब तक के संकलनों में ऐसा नहीं है। दूसरे, पहले संकलनों में ज़्यादातर कविताएं वे हैं जो पुस्तक छपने के आसपास प्रकाशित हो चुकी थीं। ये कविताएं लगभग चार दशक का लंबा समय पार करती हैं। उस दौर में बहुत बदलाव हुए हैं। फिर भी 1968 से 1980 तक का समय मेरे लिए कई तरह से बहुत अहम रहा है। यही समय है जब मेरी सर्वाधिक लंबी कविताएं – जनशक्ति(1972) तथा कठपफूला बॉस(1977) सामने आईं। इन्हीं दिनों कविता के नए प्रतिमानों की स्थापनाओं से गहरा मतभेद रहा। मेरा विरोध बढ़ा।
श्रमिक संगठनों एवं किसान सभाओं के कार्यकर्ताओं से संपर्क बढ़ा। भरतपुर जनपद के दूर दराज इलाक़ों तथा आसपास घूमने फिरने के अवसर मिले। घना पक्षी विहार को पोर-पोर देख कर प्रकृतिसे गहरा सान्निध्य बना रहा। इस दौर में मार्क्सवादी दर्शन को कविता में ढालने तथा वैचारिक प्रतिबद्धता उजागर होने की परिस्थितियों का तीखा अनुभव भी हुआ। इन सब बातों का असर कहीं न कहीं इन कविताओं में शायद झलके। एक तरह से ये मेरा निर्माण काल है। इतना पीछे लौट कर कविताओं को सामने लाना कवि की सिंहावलोकन शैली का रचनात्मक हिस्सा है। (मतलब शेर जब चलता है तो पीछे मुड़ कर देखता है।) जब इन कविताओं से गुज़रा तो अनुभव हुआ कि वे मेरी स्मृति में भी नहीं हैं। इस तरह इन कविताओं को टाइप करते समय मुझे भी उसी समय में जैसे लौटना पड़ा हो। एक तरह से युवा महसूस करना। जब टाइप किया तो जहां-तहां जोड़ा-घटाया भी है। शिल्प में कुछ बदलाव। फिर भी ऐसा नहीं लगा कि भाषा में भावात्मक लगाव कहीं खंडित हुआ है। मैं एक समय में अनेक भावों को ले कर कविताएं शुरू से ही लिखता रहा हूं। मेरे प्रिय एवं संवेदनशील पाठकों के लिए हो सकता है ये संकलन कुछ भिन्न सा लगे। पर राग, रस, संवेदना और स्थापत्य बहुत कुछ यहां है। हां, यही समय है जब पेशेवर आलोचकों ने मेरी कविता का विरोध करना शुरू किया।

 

आप कवि के साथ-साथ एक अच्छे पेटर भी हैं। अब आप कैसे तय करते हैं कि क्या चीज़ कविता में देनी है और क्या चीज़ पेन्टिंग में देनी है या ऐसा होता है कई बार कि जो चीज़ कविता में नहीं दे पाते वो पेन्टिंग में निकलकर आती है। तो आप इसे कैसे तय करते हैं
बिलकुल सही कहा। मैं कविता में अमूर्त (abstract) नहीं हो पाता हूं। कविता में वस्तु जगत मेरे ऊपर हावी रहता है। लेकिन पेन्टिंग में मुझे आकृतियां बहुत ज़्यादा अच्छी नहीं लगती क्योंकि वो काम तो फ़ोटोग्राफ़ी कर देती है। मुझे वो चित्र अच्छा लगता है जो सोचने को आंदोलित करे। और संरचना (structure)उभरती हुई हों। उसकी संरचना में कुछ ऐसा हो, जिससे ये लगे कि कुछ उभर रहा है। अमूर्तन(abstraction) का मतलब मेरे लिए केवल इतना है कि चित्र आपको थोड़ा विचार करने के लिए आंदोलित करे। अब जैसे मान लीजिए आप चेहरे बना दें, तो फ़ोटोग्राफ़ी भी वही कर देती है। कविता में तो वो सब मैं करता रहता हूं। मैं कविता में अमूर्त नहीं होता परंतु पेन्टिंग मुझे अमूर्त ही अच्छी लगती है। 
     
कविता में अमूर्तन का अर्थ क्या है?
कविता में अमूर्तन का मतलब है कि जैसे वर्ग संघर्ष दिखाई न दे। आप जो लिख रहे हैं उससे समाज में पता ही न लगे कि क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है। ये बात आधी रात के रंगमें आती भी है – मुझे वो चित्र अच्छे लगते हैं जो हमें विचार के लिए आंदोलित करें बल्कि करने के लिए चुनौती बनें।उसमें ये कि रंगों का संयोजन, रंगो के द्वारा आप संरचना उभार दें तो उस दृष्टि से अमूर्तन नहीं है। जैसे कि ये पेन्टिंग है (एक पेन्टिंग दिखाते हुए) इसे देखकर समझ में भले ही कुछ न आए परंतु रंगों का संयोजन और उभरी हुई जो टोन्स हैं कलर्स की, वे आंखों को अच्छे लगते हैं। दूसरा ये है कि दुनिया में ये चीज़ें कहीं न कहीं तो हैं, जैसे कि लेंडस्केप का कोई एक रूप नहीं होता। अब ये लैंडस्केप हमने नहीं देखा हो – ऐसा हो सकता है। तो कला यही नहीं बताती कि ऐसा है, बल्कि ये भी बताती है कि ऐसा हो सकता है। The possibility of being is also important. मुझे लेंडस्केप बहुत अच्छे लगते हैं। मुझे लगता है कि मेरा अभ्यांतर इन लेंडस्केपों में व्यक्त हुआ है। मेरे भाव मूर्त हो रहे हैं चित्रों में, शक्लें भले ही न आएं समझ में, लेकिन भावों की जो आत्मपरकता (subjectivity) है, वो सारी आत्मपरकता उसके कलर्स में, छंद में, उसकी संरचना में मूर्त होते हुए लगते हैं।  

इसमें कहीं आपको पुनरावृत्ति का ख़तरा नजर नहीं आता?
पुनरावृत्ति तो इसिलिए नहीं हो सकती क्योंकि एक पेन्टिंग दूसरी पेन्टिंग जैसी नहीं हो सकती। कभी नहीं हो सकती। आप कोशिश भी करेंगे तब भी नहीं हो सकती। कविता में तो पुनरावृत्ति हो सकती है परंतु अमूर्त पेन्टिंग में नहीं हो सकती। शेड्स अलग होंगे, कलर्स अलग होंगे, टोन्स अलग हो जाएंगे। there will be certain differences. लाइट एंड शेड्स के अंतर तो रहेंगे ही।
अपने लेखन की आलोचना के प्रति एक कवि को कितना सजग होना चाहिए? आज की आलोचना के बारे में कुछ कहें।
आपका ये सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि आलोचना भी कविता की तरह एक अत्यंत गंभीर तथा दायित्वशील कर्म है। इसलिए एक कवि का इसके बारे में सोचना सहज है। और ज़रूरी भी। मेरा अपना सोच है कवि को अपनी आलोचना के बारे में बहुत ही सजग रहने की ज़रूरत है। यदि मेरी आलोचना आस्वादपरक है तो मुझे उसे विसराते रहना चाहिए। उससे विमोहित होने की ज़रूरत नहीं। मुझे स्वयं आत्मलोचन से पता लगाना पड़ेगा कि जो आस्वादपरक बातें मेरी कविता के बारे में कही गई हैं वे कितनी सटीक हैं। कहीं मेरी पीठ अनावश्यक तो नहीं थपथपाई गई। यदि मेरी तीखी आलोचना की गई है तो मुझे उससे घबराने की ज़रूरत नहीं। मुझे उस आलोचना को रचनात्मक चुनौती की तरह स्वीकारना होगा। कवि को अपने रचना-कर्म से यह प्रमाणित करना होगा कि जो आलोचना की गई है वह प्रामाणिक नहीं है। इसलिए कविता और आलोचना के रिश्ते सीधे-सपाट न होकर द्वंद्वमय होते हैं। वे एक-दूसरे को जाने अनजाने असर दे कर भी सापेक्षतः स्वायत्त हैं। यह काम तभी हो सकता है जब कवि आलोचना के बारे में सचेत है। यही नहीं एक कवि को अपने समय की आलोचना से गहरी परिचिति रखकर अपने प्राचीन काव्यशास्त्र का ज्ञान भी ज़रूरी है। हमारे यहां ऐसी बहुत सी बातें हैं जो आज के कवि को उसके कवि कर्म के लिए मुफ़ीद हो सकती है। मैं अपनी बात एक उदाहरण से साफ़ करना चाहूंगा। काव्य मीमांसा में राजशेखर ने समीक्षा को कविता का अंतर्भाष्यकहा है – अंतर्भाष्यं समीक्षा। यानी समीक्षक को कविता में यथार्थ की छाया प्रतीति को भेदकर उसके सार तक जाना ज़रूरी है। मेरा अपना अनुभव है कि अधिसंख्य समीक्षक अपनी सुविधा के लिए कुछ ऐसी पंक्तियां चुन लेते हैं जिनसे वे अपनी बात प्रमाणित कर सकें। इससे कविता के सार तक नहीं पहुंचा जा सकता। कविता के सार तक पहुंचने के लिए आलोचक को बड़ा श्रम करना पड़ता है। वैसा धैर्य, वैसी साधना आज के हिंदी समीक्षकों में विरल है। हमारे यहां आलोचक को कवि का मित्र, स्वामी, मंत्री, शिष्य और गुरु तक कहा है – यानी उसके और कवि के रिश्ते बड़े व्यापक होते हैं। 
“स्वामी, मित्रं च मंत्री च शिष्यश्चाचार्य एव च कविर्भवति भावकः।” इससे हमें आज के कवि और समीक्षक के रिश्तों को पहचानने में सहूलियत होगी। फिर  हम आत्मालोचन भी कर सकते हैं। हमारे यहां दो तरह के कवि माने गए हैं। एक तो प्रतिभाशील और दूसरे प्रतिभाहीन। दोनों की विशेषताएं भी बताई हैं। प्रतिभाशील कवि को परोक्ष भी प्रत्यक्ष होता है। पर प्रतिभाहीन को सार्थक पदार्थ भी परोक्ष होता है।
अप्रतिभस्य पदार्थसार्थः परोक्ष इव
प्रतिभावतः पुनरपश्यतोपि प्रत्यक्ष इव।
इससे हमारे आज के हिंदी समीक्षक तथा कवि बहुत कुछ ग्रहणकर क्रमशः आलोचना तथा कविता को कई प्रकार के विचलनों से बचा सकते हैं।
मेरा विचार है कि आज की हिंदी आलोचना दिन व दिन अपनी साख खोती जा रही है। यह एक चिंता की बात है। मुझे इसका एक ही कारण नज़र आता है। यानी आलोचना को एक अकादमिक पेशा बना देना। इसीलिए आज पेशेवर आलोचकों की स्थिति बड़ी दयनीय है। साधक आलोचक नहीं हैं। कवि हो या आलोचक उसे अपने कर्म की गंभीरता को देखते हुए साधना का मार्ग अपनाना ही होगा। डॉ. रामविलास शर्मा ने आज की आलोचना से बहुत ही दुखी होकर उसे परस्पर लाभ-हानि या लेन-देन की चीज़ बताया है। वह हमारे समय के सर्वोत्तम शिखर साधक आलोचक थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हमें साधक आलोचकों की परंपरा दी है। यहां अपनी बात को साफ़ करने के लिए एक संस्मरण सुनाता हूं। राजस्थान के अलवर नरेश ने शुक्ल जी को अपने यहां हिंदी के संवर्धन तथा विकास के लिए बड़ी कठिनाइयों से बुला लिया। सारी सुख-सुविधाएं और अच्छा वेतन दिया। शुक्ल जी एक सप्ताह रहे। उसके बाद उन्होंने अलवर नरेश को दो पंक्तियों का एक पत्र लिख कर विदा ली। पंक्तियां देखने समझने लायक़ हैं। 
चीथड लपेट चने चाबेंगे निज चौखट चढ़ि
पै चाकरी करेंगे न काऊ चौपट (सामंत) की।
यहां सामंत शब्द मैंने पंक्ति पूरी करने को कहा है। उनका शब्द कुछ और था जिसे कहना मैंने उचित नहीं समझा। तो यह एक अनुकरणीय आदर्श है हमारे सामने – एक साधक आलोचक का। यही बात कवियों पर भी लागू होती है। सोचने की बात है कि रात-दिन तुच्छताओं के पीछे दौड़ने वाले कवि या आलोचक साधक कैसे हो सकते हैं। अनुकरणीय तो क़तई नहीं। यह भी सच है सब शुक्ल या रामविलास शर्मा नहीं हो सकते। पर हम उनके आदर्शों को पाने के लिए प्रयत्न तो कर ही सकते हैं। वैसा भी दिखाई नहीं देता। न साधना है, न उच्च मानवीय आचरण। उदार आर्थिकी तथा बाज़ार की चमक-दमक का इतना असर है कि हमारे लिए कविता या आलोचना जीवन की तरह प्राथमिक कर्म न होकर अकादमिक पेशा बन गए हैं।    
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सम्पर्क :
विजेंद्र जी
सी-130, वैशाली नगर
जयपुर, राजस्थान – 202001
फ़ोन: 9928242515
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अशोक तिवारी
17-डी, डी.डी.ए.फ्लैट्स

मानसरोवर पार्क, शाहदरा
दिल्ली –110032
फ़ोन: 22128079, 9312061821                                                  

लोकधर्मी कवि रेफाएल आल्बेर्ती

विगत जनवरी से हमने ‘लोकधर्मी कवियों की परम्परा’ नामक एक श्रृंखला आरम्भ किया था। इस श्रृंखला में आपने विश्व के ख्यात लोकधर्मी कवियों के बारे में हर महीने सिलसिलेवार पढ़ा। इस श्रृंखला को आप पाठकों का अपार प्यार प्यार प्राप्त हुआ। यह कड़ी समापन कड़ी है जो स्पेन के महान लोकधर्मी कवि रेफाएल अल्बेर्ती पर केंद्रित है। 

हमारे लिए यह पोस्ट इस मामले में भी अहम् है कि यह ‘पहली बार’ ब्लॉग पर प्रस्तुत की जाने वाली तीन सौंवी पोस्ट है। आप रचनाकारों के अमूल्य सहयोग और पाठकों के स्नेह के चलते ही हम इस मुकाम तक पहुँच पाये हैं। आप सबके साथ खुशी के इस क्षण को जीते हुए हमें अपार खुशी हो रही है। इस विशिष्ट अवसर पर आइये पढ़ते हैं विजेंद्र जी का यह आलेख  ‘लोकधर्मी कवि रेफाएल आल्बेर्ती   

विजेंद्र

रेफाएल अल्बेर्ती  स्पेनी भाषा के एक महान कवि थे। वह पाब्लो नेरुदा और लोर्का के बहुत ही आत्मीय मित्र भी थे। आल्बेर्ती जन्मे 16 दिसम्बर 1902 में। मृत्यु हुई 1999 में। ‘1927 की कवि पीढ़ी’ के नाम से विख्यात स्पेनी कवियों में वह अग्रगण्य हैं। उन्हें ‘स्पेनी रजत युग’ का सबसे बड़ा कवि भी माना गया है। उन्होंने 96 वर्ष का सुदीर्घ जीवन जिया। उन्हें अनेक सम्मानों तथा विभूषणों से अलंकृत भी किया गया था। स्पेनी गृह युद्ध के बाद से उन्हें अपने देश से ब्रेख्त, नेरुदा, नाजिम हिकमत तथा महमूद दरवेश आदि कवियों की तरह 40 वर्षों तक निर्वासित होना पड़ा था। यह त्रासदी उन्हें मार्क्सवादी दर्शन को अपनाने की वजह से सहनी पड़ी थी। फ्रांको की मृत्यु के बाद 1927 में वह स्पेन लौट सके। उनकी कविता लोक विरोधी व्यवस्था के प्रतिरोध की कविता है। जैसे लोर्का, नेरुदा , नाजिम,  वोले शयिंका आदि की। हमारे यहाँ जैसे नागार्जुन,  केदार बाबू,  मुक्तिबोध, त्रिलोचन,  कुमारेंद्र, कुमाल विकल,  मानबहादुर सिंह आदि की। पर आल्बेर्ती लोर्का की अपेक्षा अधिक बौद्धिक हैं। उनके ऊपर भी वे ही साहित्यिक प्रभाव लक्षित हैं जो लोर्का की कविता पर देखे जाते हैं। दोनों में गहरा परम्परा बोध भी है। राजनीतिक सहानुभूति भी। आल्बेर्ती की कविता में लोर्का की कविता जैसा तीखा प्रतिरोध नहीं है। स्पेन में बहुत पहले से बड़े बड़े भूस्वामियों तथा रुढ़िवादियों के विरुद्ध प्रतिरोध की परम्परा रही है। जिस तरह लोर्का को अपने देश में ग्राण्डा जनपद प्रिय है, उसी तरह आल्बेर्ती को आन्दालूसिया। स्पेन की कवियों में आल्बेर्ती बहुत ही बौद्धिक तथा चिंतनशील कवियों में से एक निराले ही कवि हैं। लेकिन यह कवि भी लार्का की तरह लोक-प्रगीत परम्परा की कविता लिखने में बहुत सक्षम रहे हैं। वे बहुत सहज हैं। उनकी कविता पर कोई बाहरी चीज़ थोपी हुई नहीं लगती। इस कवि की कविता में प्रमुखतः दो प्रकार के कथ्य देखे जा सकते है। एक तो समुद्र किनारे के बचपन की यादें। दूसरे, उनके स्वरचित मिथक। जैसे 1927 में उनकी एक काव्य पुस्तक आई ‘फरिश्तों के बारे में’। यह कहना कठिन है कि यह फरिश्ते किस प्रतीक या रूपक के लिये चुने गये हैं। पर इतना तो तय है कि ये फरिश्ते किसी धार्मिक भावना को व्यक्त नहीं करते। जैसे रिल्के के यहाँ इनका सम्बंध धार्मिक भावों से होता है। फिर भी इनके प्रयोग से कविता में दृश्य को अदृश्य बनाने की प्रवृत्ति बनी रहती है। अगर देखा जाये तो उनमें कोई जीवन के प्रेरणास्रोत दिखाई नहीं देते। बल्कि वे हमारे मानसिक तथा मनोवैज्ञानिक मनःस्थितियों का संकेत देते हैं। कवि शुरु में अपने आत्मविश्वास तथा उल्लास के बारे में कुछ कहना चाहता है –

स्वर्ग का कौन सा रास्ता है
छाया-प्रतीति
जो तुम कभी अस्तित्व में थी
प्रश्न के बाद खामोशी बनी रही
शहर निरुत्तर रहे
नदियाँ अवाक्
समुद्र निःशब्द
कोई नहीं जानता
मनुष्य गतिहीन खड़ा है
समाधियों के किनारों पर
वह मुझे भी नहीं जानता।

इससे लगता है कि उस कवि को स्वर्ग खत्म हो चुका है जो छायाप्रतीतियों में फँस चुका है। यहाँ हमें आल्बेर्ती की त्रासदी का जैसे कुछ सुराग सा मिलता दिखता है। उसे वे रूपकीय भाषा में कहते हैं। ऐसी अस्पष्टता लोर्का में भी है। नेरुदां में भी। कारण है उस समय के अतियथार्थवादी आन्दोलन का प्रभाव। यह आन्दोलन इतना प्रभावी थी कि नेरुदा जैसे मार्क्सवादी भी इसके प्रभाव से नहीं बच सके। साहित्य में ही नहीं इस का प्रभाव चित्रकला पर भी बहुत अधिक था। जैसे आल्बेर्ती की एक लघु आकार की कविता है, ‘अनिष्ट क्षण’

‘जब गेंहूँ मेरे लिये नक्षत्रों की रहने की जगह था
और देवता तथा तुषार चिंकारा के जमे आँसू
किसी ने मेरे हृदय तथा छाया पर पलस्तर किया था
मुझे धोखा देने के लिये।

इस कवि के प्रतीकों में बच्चों जैसी अबोधता है। कुछ आलोचकों का कहना है कि उनकी कल्पना रूसी कवि पास्तरनक से अधिक मिलती जुलती है।

आल्बेर्ती का जन्म हुआ एक व्यापारी के परिवार में। पिता अंगूरों की शराब का व्यापार करते थे। वह एक व्यापारी होने के नाते ज्यादातर बाहर ही रहते थे। इसीलिये आल्बेर्ती को अपना परिवार एक पतित होता बुर्जुआ परिवार लगने लगा था। उनकी परिपक्व कविता में इस कथ्य के संकेत मिलते हैं। दस साल की उम्र में कवि एक आदर्श विद्यार्थी पहचान लिये गये थे। उन्होंने अपने स्कूल में छात्रों के बीच भेदभाव होते देखा। गरीब बच्चों के प्रति एक अवमानना का भाव था। उनकी उपेक्षा की जाती थी। जबकि सम्पन्न बच्चों के प्रति एकदम दूसरा व्यवहार था। यह उन्हे बहुत बुरा लगता था। उनके मन में इसके प्रति विद्रोह जनमने लगा। अपने जीवनवृत्त में उन्होंने इस वर्ग द्वंद्व के बारे में लिखा भी है। तभी से उन्होंने पढ़ाई से भी जी चुराना शुरू किया। साथ ही स्कूल के अधिकारियों की बातों की भी अवज्ञा करने लगे। फलस्वरूप 1917 में उन्हें अंग्रेजी कवि शैले की तरह स्कूल से निकाल दिया गया। शैले की बगावत ईश्वर और धर्म को ले कर थी। आलबेर्ती ने सामाजिक अन्याय के प्रति बगावत की थी। 1917 में ही उनके पविार को मैड्रिड जाना पड़ा। यही वह समय है जब कवि को चित्र कला में गहरी रुचि जाग्रत हुई। यहाँ भी कवि ने पढ़ाई-लिखाई में कोई दिलचस्पी नही दिखाई। अपना ज्यादा वक्त श्रेष्ठ कलाकृतियों की प्रतिलिपियाँ तैयार करने में लगाया। साथ में मूर्तिकला में भी उनकी दिलचस्पी बढ़ने लगी। 1920 में उनके पिता की मृत्यु ने उन्हें गहरा आघात दिया। वह कविता सृजन के लिये प्रेरित हुये। मैड्रिड में उन्हें क्षयरोग हुआ। अब उन्होंने बड़ी निष्ठा और समर्पण के साथ कविता सृजन शुरू किया। उनकी कवितायें उस समय की प्रमुख पत्रिकाओं में छपने लगी। एक कवि के रूप में उनकी ख्याति भी बढ़ने लगी। 1924 में उन्हें कविता के लिये पुरस्कृत किया गया। अभी तक वह अपनी आजीविका के लिये अपने परिवार पर ही आश्रित थे।
उनके जीवनवृत्त से ज्ञात होता है कि उनकी पत्नी मेरिया तेरेसा ने उनके रचना कर्म में बहुत सहयोग दिया। 1930 में उनके जीवन में बहुत बड़ा वैचारिक परिवर्तन आया। अपनी केन्द्रीय विचारधारा के रूप में उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन को अपना लिया। 1931 में द्वितीय स्पेनी लोकतंत्र में गहरी आस्था व्यक्त करने के हेतु भी उन्होंने मार्क्सवाद को अपनाया। न केवल इतना उन्होंने स्पेन की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता भी ग्रहण की बल्कि अब मार्क्सवादी विचारधारा ही कवि के लिये एक प्रकार से उनका धर्म बन गया था। उनके मित्र उनसे कतराने लगे। पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में अब उन्हें आजीविका के लिये परिवार पर निर्भरता से मुक्ति मिली। उन्होंने उत्तरी योरुप की कई यात्रायें भी की। 1933 में स्पेन में सत्ता परिवर्तन हुआ। कवि ने ‘अक्टूबर’ नामक पत्रिका के माध्यम से सत्ता पर प्रहार किये। अतः उन्हें देश से निर्वासित होना पड़ा। कहा जाता है कि स्पेन के गृहयुद्ध के समय आल्बेर्ती स्पेन में चरम वाम की प्रमुख आवाज़ बन गये थे। जब लोकतंत्र पराजित हो गया तो कवि को अपनी पत्नी के साथ देश छोड़ने को विवश होना पड़ा। स्पेन से कवि पेरिस चले गये। वहाँ दोनों पाब्लो नेरुदा के साथ रहने लगे। यहाँ वे 1940 तक रहे। उन्होंने यहाँ अनुवाद कार्य किया। रेडियो प्रसारण भी। इस तरह अपनी आजीविका चलाते रहे। वहाँ से वे रोम को चले गये। 27 अप्रैलं 1977 को वे स्पेन लौट आये। उसके तत्काल बाद उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी का टिकट दिया गया। वह चुने भी गये। 13 दिसम्बर, 1988 को उनकी पत्नी का निधन हो गया। उनकी  कविताओं में अपने बचपन की स्मृतियाँ अधिक हैं। गृहविरह (Nostalgia) के भी चित्र आते हैं। प्रकृति के भूदृश्य मुखर हैं। जैसे- उनकी एक कविता है, ‘भोर’

हल्के सुर्ख प्रहारों से
मैं तुम्हें देता था नाम
एक भ्रामक स्वप्न
अदेह फरिश्ता
वृक्षों के बीच हुई
वर्षा की भ्रांति
मेरी आत्मा के किनारे
जो दिलातें हैं याद नदियों की
संशय, झिझक और अचलता
जैसे कोई टूटता तारा
रोती हुई भौचक रोशनी
दर्पन अवाक्
नहीं
वर्फ का जल में उपजा भ्रम
यही है तुम्हारा नाम।

वैसे यहाँ तक पहुँते पहुँते उन्होंने अपना मुहावरा खोज लिया था। जब उन्होंने स्पेन के गाँवों और पहाड़ी इलाकों का भ्रमण किया तो उन्हें नये अनुभव हुये। इस समय तक कवि की भेंट स्पेन के दूसरे बड़े कवि लोर्का से हो चुकी थी। लगता है जैसे आल्बेर्ती लोर्का की कविता से होड़ कर रहे हैं। लेकिन लोर्का में जो कुछ त्रासद, अक्रामक, तथा मृत्यु-गर्भित है वैसी गहरी अनुभूतियाँ आल्बेर्ती में शायद नहीं हैं। कई बार उनकी अनुभूति बहुत ही कृत्रिम लगने लगती है। कई बार अतिनाटकीय तथा भावुकता पूर्ण। उनकी कविता में यह स्खलन क्या उनकी राजनीतिक व्यस्तता की वजह से आया होगा। लगता है अब कविता उनको प्राथमिक नहीं रह गई है! कविता जीवन का सम्पूर्ण समर्पण चाहती है। हो सकता है आल्बेर्ती में लोर्का तथा नेरुदा जेसी काव्य प्रतिभा का अभाव रहा हो? कवि का एक और काव्य संग्रह ‘क्ले कैन्टो’ ( 1926-27 ) में छपा। यहाँ उनकी कविता में काफी परिवर्तन दिखाई देता है। अब लगता है वह लोक साहित्य के प्रभाव को छोड़ रहे हैं जो उनकी पहली कविताओं पर खूब दिखाई पड़ता है। उनका ध्यान अलंकरण की ओर अधिक है। कहीं-वे उच्श्रृंखल भी। उन्होंने बहुत ही अनुशासित काव्य रूप सॅानेट भी लिखे हैं। और त्रिक भी। साथ गाथा गीत (Ballads) भी लिखे। जैसे उनका एक प्रसिद्ध गाथा गीत है , ‘हवा का गाथा गीत’

अनन्तता एक नदी हो सकती है
एक विस्मृत घोड़ा
एक खोई हुई पिण्डुक का कूजन
आदमी अपने को
अलगाता है आदमियों से
हवा उसे अब बताती है
दूसरी चीज़ों के बारे में
उसके कानों और आँखों को
खोलती है
दूसरी चीज़ों के बारे में
आज –
मैं ने अपने को अलगाया है
आदमियों से
और मैं अकेला हूँ
इस मोरी में
मैं ने नदी की तरफ
निहारना शुरू किया
और देखा एक अकेला घोड़ा
अकेला ही सुनता रहा
उस खोई हुई
पिण्डुक का कूजन
हवा और करीब आई
जैसे पास से गुजरता
कोई पथिक मुझ से कहे
अनन्तता एक नदी हो सकती है
एक विस्मृत घोड़ा हो सकती है
एक खोई हुई पिण्डुक का कूजन।

यहाँ कवि में एक बेचैनी तो है। दूसरे, समाज से जुड़े रहने का एहसास भी। अकेला मनुष्य ‘किसी मोरी में कैद’ प्राणी जैसा होता है। दूसरे, अनन्तता की अमूर्त बातें हमें सामाजिक सरोकारों से दूर ले जाती हैं। यही वजह है कवि अनन्तता जैसे अमूर्त प्रत्यय को दृश्य वस्तुओं से व्यक्त करता है। ऐसी वस्तुये जो हमारे लिये बहुत ही परिचित हैं। उपयोगी तथा आनंददायक भी। उपर्युक्त कविता में घोड़ा प्रतीक हैं मानवीय ऊर्जा का। शक्ति का। आवेगपूर्ण गति का। जैसे विश्वविख्यात चित्रकार हुसैन के यहाँ भी घोड़े मानवीय ऊर्जा तथा शक्ति के प्रतीक बन कर आते हैं। कविता में परम्परित मूल्यों का स्वीकार है। मिथकों तथा धार्मिक ध्वनियों की अनुगूँज भी। पुरानी अवधारणायें भी व्यक्त होती हैं –

स्वर्ग को कौन सा रास्ता है
परछाई, जो तुम कभी
अस्तित्व में थी
प्रश्न के बाद खामोश बनी रही
शहर निरुत्तर रहे
नदियाँ अवाक्
चोटियाँ बे-अनुगूँज
समुद्र निःशब्द
कोई नहीं जानता
मनुष्य खड़ा है गतिहीन
समाधियों के छोरों पर
मुझे भी कोई नहीं जानता
$$$
यह आदमी मृत है
पर वह यह जानता नहीं
वह किनारों पर
तूफान खड़ा करना चाहता है
बादलों को चुराना
सुनहरे पुच्छल तारों को हड़पना
जो सबसे विरल है – आकाश
उसे खरीदना
यह आदमी मृत है। 

कवि में  चित्रोपम बिंब देने की अद्भुत क्षमता है। उसकी विश्वदृष्टि यद्यपि बहुत संश्लिष्ट नहीं है। फिर भी वे अपनी निजी दुनिया से सामाजिक दुनिया में प्रवेश करते हैं। फरिश्तों के बिंब बहुधा कवि की कविता में आते हैं। यह कवि की मनोरचना तथा उसकी मनोदशा का संकेत हैं। लेकिन उनके सामाजिक प्रसंग भी बराबर बने रहते हैं। सामाजिक भाव साहचर्य पाठक के मन में एक के बाद एक सृजित होते दिखते हैं। उनकी एक कविता है, ‘ लालची फरिश्ता’। उसमें राजनीतिक ध्वनियाँ साफ लक्षित हैं। लगता है कवि स्वयं गहरे अवसाद से गुज़र रहे हैं। यहाँ फरिश्ता पूँजीकेद्रित व्यवस्था का भी प्रतीक बनता है। वह चेतना की दृष्टि से मृत है। पर उसमें चीजों को खरीदने की पिपासा बेहद है। वह समझता है कि धन से सब कुछ खरीदा जा सकता है यहाँ तक कि प्राकृतिक शक्तियाँ भी। उसके लिये हर चीज़ एक पण्य वस्तु है। इसी मनोरचना के कारण मनुष्य संवेदनाहीन बनता है। वह भाव शून्य होकर निष्करुण हो जाता है। इसी समय कवि को किसी बड़े संकट का आभास होता है। एक दुर्निवार संकट। कदाचित् यह गहराया हुआ संकट ही उनके अवसाद का कारक बना हो। लेकिन कवि उस संकट से पलायन नहीं करते। उसकी चुनौती को स्वीकारते हैं। हाँ उन्हें कभी कभी यह आभास जरूर होंता है कि उनके बचपन के प्रेरणा स्रोत सूख रहे हैं। यह भी कि संकट इतना गहरा है कि सारी दुनिया ही विनष्ट हो सकती है। इतना सब होते हुये भी कवि को विश्वास है कि इसके लिये कोई न कोई समाधान -कोई विकल्प – खोजना ही होगा। चंद्रमा और सितारे शत्रुवत प्रतिकूल हो सकते हैं। फिर भी एक मनुष्य होने के नाते इन अमूर्त दैविक विश्वासों को झटक कर तोड़ना ही होगा। तभी सामाजिक प्रसंगों में ही समाधान सामने आयेगा। यह उनकी प्रसिद्ध कविता, ‘विरुद्ध चंद्रमा’ की पंक्तियों से सांकेतिक रूप में ध्वनित हैं –

मुझे निहारिकाओं के
आदिम विश्वासों से बचाओ
उन दर्पणों से
जो अब अपने अर्थ खो चुके हैं
उन हाथों से
जो मुझे यादों की जमुहाइयों में
घसीटते हैं
बचो
ये सब हमें विरुद्ध होती हवा में
दफना रहे हैं
क्योंकि मेरी आत्मा
मानवीय नियमों को
भूल चूकी है

इससे यह भी लक्षित है कि कवि समय की तल्ख भयावहता से सबक सीख चुका है। वर्तमान का ज्वलन्त रूप अतीत के धुँधलके से अधिक महत्वपूर्ण है। कवि में नकार के चिन्ह अब आस्था तथा आशा में बदलने लगे हैं –

लेकिन मैं तुम से कहता हूँ
एक गुलाब
ज्यादा गुलाब है
जब वह कीड़ों का घर हो
बनिस्बत उन दशकों पुरानी 
चन्द्रमा की धुँधलाती वर्फ से 

लगता है कवि ने आत्मंथन तथा जीवनसंघर्ष के बल पर अपने को इस भयावह संकट से उबारा है। मैड्रिड की घेराबंदी के समय कवि ने तात्कालिक घटनाओं पर भी कवितायें लिखी थी। यहाँ कविता में सहजता है। सीधापन है। मुहावरे की सादगी है। अपनी काव्य परम्परा की अनुगूँजें यहाँ सुनी जा सकती हैं। स्पेन की वैध सरकार के पक्ष में किसानों की सेना का गठन किया गया था। उसकी अभिव्यक्ति कविता में देखी जा सकती है

तुम उन्हें
अभियान पर जाते देखो
चकमक पत्थर की तरह
उनके सिर काले हैं
उनके स्वप्नों में आँच है
जैसे फल के भीतर निहित गूदा
उनकी शानदार टोपियों में
भीगे मैंमनों की गंध है

कवि को बराबर लगता रहा कि किसान अपने लक्ष्य के बारे में अनजान हैं। फिर भी उनमें व्यवस्था परिवर्तन के लिये उत्साह है। वे ‘जीवन पाने के लिये, मृत्यु को मार सकते हैं’। कवि को लगता है कि स्पेन में मानवीय विनाश होने के लक्षण दिख रहे हैं। देशवासियों की देहें देश की खाद बन सकती हैं। उसी से नये जीवन का अंकुरण होगा। पर स्पेन में लोकतंत्र पराजित हुआ। अपेक्षित नये जीवन का अंकुरण नहीं हो पाया। बल्कि कवि को ही अपने देश से निर्वासित होना पड़ा।

आल्बेर्ती अपनी बाद की कविता में अपने निर्वासन के बोध की ही कवितायें अधिक रचते रहे। इस कविता का अधिकांश अर्जेन्टीना में लिखा गया। कवि की गहरी त्रासद वेदना है कि वह उसे अपना देश कभी नही मान पाये। जैसे महमूद दरवेश इस्रायल को कभी नहीं भूल पाते। ठीक वैसे ही आल्बेर्ती अपने स्पेन को विस्मृत नहीं कर पाये। बार बार उनका ध्यान अपने युवा काल के स्पेन पर जाता है। अपने प्रिय जनपद आन्दालूसिया की याद उन्हें अंदर ही अंदर उन्मथित करती रहती है। जैसे लोर्का को ग्रेनाडा। लगता है कवि की कोई अति प्रिय चीज़ खो गई हो। यह भाव बहुत गहरा और बेचैन करने वाला है। इससे उनके हृदय में गहरी रिक्तता का भी बोध पैदा हुआ है। यहाँ तक कि आत्म दया जैसी अनुभूति भी। पर मार्क्सवादी विचारधारा से प्रतिबद्ध होने के कारण उनके मन के एक कौने में आस्था तथा दृढ़ता भी बराबर है। अर्जेन्टीना के प्रमुख महानगर को वह एक उजडे़ नगर की तरह देखते हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से एकदम रिक्त और खोखला –

यह अजाना एकांत आकाश
पहाड़ों और वृक्षों से घिरा
यहाँ के घास के मैदान
और जनता
इन्हे पहले कभी नहीं देखा, जाना
जैसे क्रांति की प्रक्रिया
किसी ने उलट दी हो

यह दौर कवि के लिये एकदम भिन्न दौर था। उनका चित्रकला के प्रति अनुराग और गहरा हुआ। यहाँ तक कि अनेक चित्रकारों पर उन्हों कवितायें रचीं। अब जैसे कविता में निजी आत्म विश्वास लौट रहा हो । 1953 में ‘सागर तट’ नामक उनका काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। यह उनका इकलौता कविता संग्रह है जिसे स्पेन में बेचे जाने की छूट मिली थी। इस संग्रह की कविताओं में ऐतिहासिक प्रक्रिया की अनुगूँजें सुनी जा सकती है। यहाँ उनकी कम्युनिस्ट आस्था के चित्र भी व्यक्त हुए हैं। उनमें पुनः जैसे मानवीय आस्था का अंकुरण हो रहा हो। बाद में आल्बेर्ती ने अंग्रेजी के प्रख्यात कवि राबर्ट ब्राउनिंग के नाटकीय एकालापों की तर्ज पर भी कवितायें रची हैं। यहाँ कवि पुनः इतिहास की द्वंद्वमय चेतना को व्यक्त कर रहे हैं। लेकिन उन्होंने अपनी निजता का रंग सूखने नहीं दिया।  लगता है कवि स्वयं में कोई स्थाई अस्मिता की खोज में लगे हुये हैं। अपनी पूरी स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में कवि की सजगता वरेण्य है। इससे लगता है कि कवि को उनकी मार्क्सवादी विचारधारा इधर उधर भटकने से रोक रही है। यह बोध भी कवि को है कि अब वह अपनी अंतिम यात्रा की ओर अग्रसर है। फिर भी जीवन के प्रति उनकी निष्ठा बदस्तूर बनी हुई है। उनकी कविता में सकार की अनुगूँजें भी सुनाई पड़ती है –

ओह यह रात …
अब इसे आगे धकेलने की क्षमता
क्षीण बल है
ये सारे वर्ष भय से भरे रहे हैं
आखिर उन्हें भेद कर ही
निषिद्ध प्रकाश को पकड़ता हूँ
मुझे बोध है
उसका अस्तित्व अभी बचा है
तुम भी जानते हो
इसका अस्तित्व है
इसी लिए हम सब अग्रसर हैं
भले ही हम सब
मृत्यु के गान गा रहे हैं

यह प्रकाश आखिर क्या है? यह है राजनीतिक स्वायत्तता। मनुष्य की उत्पीड़न से मुक्ति। कवि को भरोसा है कि स्पेन की जनता एक दिन जरूर तानाशाही का तख्ता पलट देगी। वहाँ लोकतंत्र स्थापित होगा। लोककल्याणकारी व्यवस्था आयेगी। सांकेतिक ध्वनि यह भी है कि मूलविहीनता और अनिश्चय के बीच ही कवि का पुनर्जन्म होगा। एक ऐसे देश में जो रूहानी तथा जिस्मानी तौर पर निरा अजनबी तथा अपरिचित सा लगने लगा है। जहाँ जैसे निसर्ग के नियमों में भी व्यतिक्रम पैदा हो गया है। अर्जेन्टीना से इटली लौट आने के बावजूद वह एक निर्वासित कवि ही हैं। अपने राजनीतिक विचारों में अति विनम्र। अपनी आकस्मिक कविता में भी बहुत ही सहज सरल।

1930 के आसपास आल्बेर्ती के बारे में एक विवाद उठ खड़ा हुआ था। इस विवाद का प्रमुख कथ्य था कि आल्बेर्ती अब कवि रह भी पायेंगे या नहीं? खासतौर पर उनके अत्यंत प्रिय कवि मित्र लोर्का ने ही यह प्रश्न उठाया था कि आल्बेर्ती अब सारगर्भित तथा उत्कृष्ट कविता नहीं लिख पायेंगे। आखिर क्यों? क्योंकि राजनीतिक गतिविधियों में उनकी सक्रियता बहुत बढ़ चुकी है! पर यह कथन बहुत ही अतिरंजित साबित हुआ। आल्बेर्ती बराबर अर्थवान कवितायें लिखते रहे। राजनीति में तो पाब्लो नेरुदा, ब्रेख्त, नाजिम हिकमत तथा मायकोवस्की आदि भी बहुत डूबे थे। कोई भी जागरूक तथा बड़ा कवि राजनीति से निरपेक्ष तथा कटा नहीं रह सकता। उसे इतिहास में सजग परिवर्तनकारी शक्तियों के पक्ष में खड़ा होना पड़ सकता है। अपने देश की संघर्षशील जनता के साथ होना किसी भी बड़े कवि की नियति है। दरअसल आल्बेर्ती की राजनीतिक कविता के दो स्तर है। एक तो वे राजनीतिक कवितायें जिनमें अपेक्षाकृत भावबोध की संष्लिष्टता कम है पर शिल्पसौष्ठव में कमी नहीं आई है। दूसरी वे कवितायें जहाँ जीवन के विविध अनुभवों की अत्यंत संश्लिष्ट अभिव्यक्ति हुई है। उनकी श्रेष्ठ कविता के प्रेरणा स्रोत उनकी बचपन की घनीभूत स्मृतियाँ हैं। जीवन के विविध अनुभव हैं। इनमें प्रतिक्रियावादी शक्तियों पर तीखे प्रहार भी हैं। कवि ने नाटक भी लिखे हैं। इसके साथ ही कई जिल्दों में अपना जीवनवृत्त भी। अब यह कृति स्पेन में एक क्लैसिक का रूप ले चुकी है। इस कवि की महानता को विश्व ने स्वीकारा है। एक कवि जो जीवन भर अपनी लोकधर्मिता के लिये उत्पीड़न, त्रास तथा निर्वासन झेलता रहा! इस बात से हमें सीखना चाहिये कि बड़ी कविता और महान काव्य व्यक्तित्व को जीवन में कितनी बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है! कविता हमारे सम्पूर्ण  जीवन का समर्पण और त्याग चाहती है। उसे भूषण-विभूषण-पुरस्कार बड़ा नहीं बनाते। उसे बड़ा बनाते हैं उसमें व्यक्त अपने देश, समाज तथा जीवन संघर्ष को अटूट व्यक्त करने की कलापरक क्षमता। हमारे यहाँ जाने कितने कवि ऐसे हैं जो पुरस्कार बटोरने की तिकड़मों में लिप्त होकर अपने कवि व्यक्तित्व तथा आदमियत को गिरवी धरते हैं। पर कविता अकाल पीड़ित डाँगर की तरह दम तोड़ती रहती है। वही कविता जीवित रहती है जिसमे अपने देश की लड़ती हुई जनता की तात्कालिक सामाजिक जीवन की जीवन्त तथा कलापरक छवियाँ सृजित हो सकें। हर समय में ऐसे कवि विरल होते है। पेशेवर कवियों के बीच साधक कवि! राफाएल आलाबेर्ती एक ऐसे ही साधक कवि हैं। वह अन्त तक अपने देश की जनता से जुड़े रहे। उसके संघर्ष में शरीक भी। उसकी मुक्ति के उन्होंने स्वप्न देखे। इसीलिये वह हमें आज अति प्रासंगिक हैं।
इस महान कवि की एक श्रेष्ठ कविता है , ‘पाब्लो नेरुदा हृदय में’ । यह कवित पाब्लो की मृत्यु पर रची गई महान कविता है। यानि एक महान कवि को एक दूसरे महान कवि की दिल दहलाने वाली श्रद्धांजलि। कहते हैं यह कविता हवाना (क्यूबा) से छपने वाली प्रख्यात स्पेनी पत्रिका, ‘ कासा दे लास आमेरिकास’ के आठवें अंक मार्च- अप्रैल 1947 में छपी थी। इस कविता से आल्बेर्ती की क्रांतिकारी चेतना का आभास हमें हो सकता है। उक्त कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं –

सबसे पहले यही घोषणा हुई (मैं ने सुबह सुबह सुनी)
पाब्लो नेरुदा की हत्या हो गई
बहुत दूर से भेजता था खत मुझे
मदद की पुकार, एकाकीपन और व्यथा -पीड़ा
समंदर पार से
ऐसा है कि अपनी जुबान को भूल रहा हूँ
क्षमा करो मेरी भूलों को
मुझे एक शब्द कोश भेज दो
एक दिन एक पाण्डुलिपि, जाड़े की एक शाम
पतझड़ के भटकते अंतिम पत्तों की तरह
मेरे हाथों में आई
नाम था ‘ज़मीन पर घर’
जैसे राख, जैसे भरे-पूरे समंदर
सुस्ती में डूबे, खबरों में

या जैसे सुनाई पड़ती है लम्बे रास्तों से
आड़ी तिरछी टनटनाती घंटियाँ

वह एक प्राणघाती चोट थी
दूर कही धड़कता हूआ दिल
एक चीख, धरती से भी कहीं दूर
आग की गहरी धँसी जड़ों से
फिर अँकुराने के लिये पेड़ की पीड़ा से
झुलसा वह पत्थर बिजली गिरने से
पाब्लो नेरुदा चल बसा
( दूसरी सुबह भी सुना)
कुछ सुधार था, लेकिन बात थी वही
आँसुओं की झड़ी में लौटती हैं यादें
कैसे भूलूँ अपनी छत की वह सुबह

$$$

तुमने तब दिया था हमें सब कुछ
अपने बन्धुत्व का माधुर्य
अपने अनवरत क्षुब्ध गीत
और बदले में हमने दी थी तुम्हें खुशी
और उसके साथ वह हाथ
जिसका इन्तज़ार तुम्हे जाने कब से था
और तुम्हारा असीम एकाकीपन
गहराता चला गया
$$$
स्पेन की समूची गाती -गुनगुनाती आवाज़ चली गई
$$$
एक दिन स्पेन का चेहरा
लेकिन खून से नहाया हुआ
उसके बूढ़े दिल के पार उतर गया एक खंजर
अँधेरे में उठा एक बवन्डर
और न वहाँ समन्दर था, न था द्वार, न प्राचीरें
जो रोक पाती धूप छाँह के थपेडे़

तुम पूछोगे कि उसकी कविता
क्यों नही बताती हमें स्वप्न और पत्तों के बारे में
उसकी जन्म भूमि के ज्वालामुखियों के बारे में

आओ देखो सड़कों पर बहते लहू को
यही कहा था तुमने
अब, जैसे कि कई बार तुमने स्वीकारा भी
कह सकता हूँ कि बदल गई हैं तुम्हारी पुतलियाँ
क्यों कि तुम्हारे दिल में समा गया था स्पेन
और उसी के लिये
उसके छनित प्रकाश के भाववेश में
निकल पड़े तुम फिर से दुनिया में
सड़कों पर बहते लहू में सने
अपने गीतों के साथ
साल – दर – साल गुज़र गये
$$$
 इस बीच , तुम , पाब्लो , अमन के सहोदर
जनता के शुभेच्छु
जंजीरों से मुक्त शब्दों के सहोदर
समन्दर और पर्वतों के पार से
महान नदियों और कमसिन पंखुडियों का पाब्लो
अंतहीन दक्षिणी आसमानों का
उन्मुक्त आवेश और जायज़ सज़ा का हिमायती
उम्मीदों की जुबान सब से ज्यादा जब तुम थे
तुम फहरा रहे थे प्रकाश जब चोटियों पर
अपने देश के लिये
( सुना मैं ने सुबह सुबह)
तुम प्राण छोड़ रहे थे
दर्द में, हत्यारों से घिरे
आओ, देखो अब उसका वह ध्वस्त घर
उसके दरवाज़ों और किरचे किरचे हुये शीशों को
आओ, देखो वहाँ पड़ी उसकी लाश
औधा पड़ा उसका विशाल दिल वहाँ
उसके चकनाचूर मलवे पर
और गली कूँचों में बह रहा लहू ।   (अनु0- प्रभाती नौटियाल)

                 

(विजेन्द्र जी वरिष्ठ कवि और कृति ओर’ पत्रिका के संस्थापक सम्पादक हैं।)
संपर्क-
मोबाईल- 
09928242515

(इस पोस्ट में प्रयुक्त कवि रेफाएल आल्बेर्ती की समस्त तस्वीरें गूगल से साभार ली गयी हैं।)

क्रांतिकारी लोकधर्मी कवि तो हू

      

        (चित्र : तो हू)

विगत जनवरी महीने से हमने एक श्रृंखला ‘लोकधर्मी कवियों की परम्परा’ शुरू की थी। इसे हमारे आग्रह पर लिखा है वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने। श्रृंखला की ग्यारहवीं कड़ी में प्रस्तुत है एक आलेख प्रख्यात वियतनामी कवि तो हू पर।

   
विजेंद्र

तो हू को वियतनाम का क्रांतिकारी कवि माना गया है। वह अपने देश की क्रांतिकारी जनता को समर्पित कवि थे। उन्होंने अपनी एक कविता में कहा है –

हृदय है विभाजित मेरा
तीन तरह से
उसका प्रमुख भाग अर्पित है
मेरे दल को
एक भाग में रमती है कविता
तीजा भाग
दिया है प्रेम को

हृदय का यह विभाजन हमें थोड़ा असमंजस में डालेगा। कदाचित हृदय का विभाजन होता नहीं है। हम विभाजित करके भी उसे विभाजित नही कर पाते। मनुष्य हृदय की यही खूबी उसे बड़ा बनाती है। यहाँ विभाजन एक सांकेतिक रूपक है। यानि जीवन की प्राथमिकतायें हम तय करें या न करें? करें तो कैसे करें? बहुत से कवि हैं जिनकी कोई प्राथमिकता होती ही नहीं! कुछ की प्राथमिकतायें समयानुसार बाजार भाव की तरह बदलती रहती हैं! बहुत ही विरल होते हैं वे कवि जो एक बार अपने जीवन की प्राथमिकताये तय करने के बाद उनहें अंत तक निभाते हैं। वे ही कवि इतिहास में कालांकित भी होते हैं। कवि तो हू की प्राथमिकताओं के क्रम पर ध्यान दें। सर्वप्रथम उनका राजनीतिक दल आता है। संकेत है कवि की दलीय प्रतिबद्धता। जनता से उसका एकात्म होना। उसे ही अपनी कविता का प्रेरणा स्रोत समझना। वहीं से अपने रचना कर्म को बराबर खनिज दल बटोरना। कवि तो हू की प्राथमिकताओं का क्रम बहुत ही तर्क संगत और वैज्ञानिक है। अपने लम्बे रचना कर्म के अनुभव के सहारे मुझे लगने लगा है कि कवि की पहली प्राथमिकता अपने देश की जनता से प्यार करना ही है। तभी हम उससे एकात्म हो सकते हैं। उसको शोषण, दमन तथा उत्पीड़न से मुक्त कराने के लिये हम उसके साथ संघर्ष भी कर सकते हैं। जोखिम उठा सकते हैं। उसके लिये अपेक्षित त्याग भी किया जा सकता है। तो कवि होने का अर्थ है हम अपनी पक्षधरता सुनिश्चित करें। हम कहाँ खड़ें है? हमें किन शक्तियों के साथ रहकर संघर्ष करना है। हमारे लक्ष्य क्या हैं? कविता आखिर हम क्यों लिखें? इससे हम किस तरह का काम लेना चाहते हैं? क्या यह हमारे आत्मरंजन का एक आसान तरीका है? कुछ लोग इससे ‘आत्म साक्षात्कार’ कर अलौकिक आनंद की अनुभूति प्राप्त करते है? मुझे लगा कि प्रारंभ से अंत तक हमारा सृजन एक प्रकार से अपने समाज -अपनी जनता की-प्रत्यक्ष-परोक्ष-सेवा ही है। मुझे यह भी अनुभव हुआ कि कविता बहुत ही अनुत्पादक श्रम है। क्योंकि इससे धन नहीं कमाया जा सकता। जो धन कमाने को काव्य सृजन करते हैं वे कवि नही पेशवर लोग हैं। दूसरे, यह ऐसा श्रम है जिसका पारिश्रमिक मुझे नही मिलता। फिर भी जीवन भर सारे कष्ट उठा के मैं इसे सनिष्ठ करता रहता हूँ। मार्क्स ने कवि कर्म की तुलना ‘मधुमक्खियों के श्रम’ से की है। तो हू ने स्वयं सार्वजनिक रूप से अपने को, ‘एक क्रांतिकारी तथा कवि’ दोनों ही घोषित किया था। यह भी कि उनके लिये कवितायें क्रांति के लिये एक हथियार की तरह हैं। यानि कविता का एक प्रयोजन है ‘शिवेतरक्षतये’ जिसे मैं बराबर अपने गद्य में कहता रहा हूँ।

तो हू का जन्म  4 अक्टूबर , 1920 को प्रसिद्ध नगर हू में हुआ था। उनका परिवार गरीब होते हुये भी काव्य-कला प्रेमी था। उनके पिता स्वयं कवि थे। उनकी माता अपने क्षेत्र में परम्परित गीत गाने वाली प्रसिद्ध गायिका थी। इस प्रकार तो हू बहुत ही सृजनशील पारिवारिक वातावरण में पले-उगे थे। ऐसी रचनाशील विरासत पाना किसी भी कवि को एक नैसर्गिक वरदान ही कहा जायेगा। यही वजह है कि तो हू ने अपने कवि पिता के मार्गदर्शन में 6 वर्ष की आयु से ही कविता लिखना प्रारंभ कर दिया था। उन्होंने अपनी एक टिप्पणी, ‘ कविता के लिये प्रथम शिक्षण‘ में कुछ महत्वपूर्ण बातें कही हैं। उनका मानना है कि कविता के प्रति वह बचपन से ही लालायित थे। शायद जन्मजात प्रवृत्ति उनमें कविता के लिये रही हो। उन्होंने बताया है कि उनके पिता चीनी शैली में चौपदे रचते थे। उन्हें यत्र तत्र बिखरे वियतनामी लोक गीतो को एकत्र करने में गहरी अभिरुचि थी। जब तो हू 6 वर्ष के हुये तभी अपने पिता के सहायक बनें। उनके पिता उन्हें बहुत जल्दी सुबह उठा देते थे। वह अपने पिता के लिये कवितायें तथा लोक गीतों की प्रतिलिपियाँ तैयार करने में लग जाते थे। वियतनामी लाकोक्तियों को एक जगह एकत्र करना। उन्हें सुलेख में उतारना। इसी समय कुछ क्षण बचा कर वह स्वयं भी पढ़ते लिखते थे। उनके पिता वियतनामी लोक साहित्य को एकत्र करने के लिये कृतसंकल्प थे। बल्कि उनके जीवन का यह ध्येय ही बन गया था। शिशु कवि तो हू इस काम में अपने पिता की सहायता करते रहे। दूसरे, स्वयं अपनी कविता के लिये खनिज एकत्र करते थे। अपने कवि कर्म की तैयारी भी। यह अनायास हो रहा था। और सायास भी । उनके पिता का यही जीवन बन गया था। तो हू की माता भी पिता के इस काम में बहुत सहायता करती थी। इस तरह कवि तो हू को कविता का पहला प्रशिक्षण अपने पिता से ही मिला। कहें उनके लिये कवि कर्म सीखने के लिये पहला स्कूल उनका घर ही था। पिता उनके काव्य गुरु बने। तो हू का मन धीरे धीरे लोग गीतों से रचा जाने लगा। वह छंद रचने लगे। गीत उन्हें प्रिय थे। उन्होंने 13 साल की आयु में घर छोड़ दिया था। वह घर परिवार से दूर चले गये थे। क्योकि पिता के न रहने पर उनका भाई उनके पालन पोषण के लिये समर्थ न था। उन्हीं दिनों तो हू की कवितायें फान दाँग लू की पत्रिका में छपी। वह केंद्रीय समिति के सदस्य थे। उन्होंने कवि तो हू को सलाह दी कि वह हमेशा ‘जीवन के नज़दीक’ रहें। दूसरे, ‘श्रमिकों , किसानों तथा काम करने वाले सामान्य जन के बीच उठें बैठें’। उन्हीं से ‘भाषा सीखें’ । इस तरह लिखें कि लोगों की समझ में आ जाये। एक तरह से एक नये कवि के लिये ये कुछ शिक्षाप्रद बातें ली ने उनसे कहीं। तो हू की कवितयें बताती हैं कि उन्होंने इन बातों का अक्षरशः पालन किया है। हमारे लिये भी ये बातें सीखने की हैं।

तो हू क्रांतिकारी कवि होते हुये भी एक प्रगीतक (लिरिक) कवि हैं। उनकी कविता में क्रांतिकारी कवि मायकोवस्की जैसा गर्जन – तर्जन न होकर प्रगीति की हृदय स्पर्शीय अंतर्ध्वनियाँ हैं। प्रगीतिपरक हो कर भी तो हू की कविता में भावबोध गहन है। प्रभाव उदात्त।

तो हू एक देश भक्त जातीय कवि भी हैं। उनकी अधिकांश कवितायें उनके देश के लोगों की गहरी त्रासदी तथा संघर्ष की अर्थध्वनियों से आलोकित हैं। वियतनाम का समूचा इतिहास ही गहरी त्रासदी और कठोर जीवन का इतिहास रहा है। तो हू मानते हैं कि उनके देशवासियों -उनकी जनता – के जीवन में दो बातें प्रमुख हैं। एक तो जानलेवा दुख। दूसरे, कठिनतम जीवन संघर्ष। तो हू मानते हैं कि दो चीजों ने ही उन्हें सुरक्षित रखा है। एक तो जनता के प्रति प्रेम। दूसरा, मानवीय गुणों के प्रति गहरी आसक्ति। वियतनाम की जनता को कभी चैन की साँस लेने का अवकाश नही मिला। वियतनाम का इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस छोटे से देश पर सदा बाहरी आक्रमण होते रहे। कभी पश्चिम से। तो कभी  दक्षिण तथा उत्तर से। इस तरह वियतनाम का पूरा इतिहास कष्ट तथा दुखद संवेदना का इतिहास है। बाहरी आक्रमण इस देश पर जरूर हुये। पर उसके प्रतिरोध में विद्रोह भी होते रहे। साम्राज्यवादियों तथा सामंतों द्वारा दी गई पीड़ाओं के साथ प्रकृति भी कहर ढाती रही। कभी जीवन विनाशक बाढ़। कभी समुद्री तूफान। मोतें -महामारियाँ -ये सब वियतनामी जनता झेलती रही है। इस तरह वियतनामी जनता कठिनाइयों भरी जिंदगी झेलने की अभ्यस्त हो चुकी है। न तो शान्ति न चैन। तो हू मानते हैं कि चार पाँच हज़ार वर्षों के इतिहास में वियतनामी जनता ने कभी आराम और सुकून नहीं जाना। कवि के मन में गहरा क्षोभ है कि उनके देशवासियों को सामंती क्रूरताओं के साथ प्राकृतिक विनाश भी सहने पड़े हैं. इन कष्टों ने ही वियतनामी नागरिकों के मन में जीवन के प्रति गहरी निष्ठा तथा अदम्य जिजीविषा पैदा की है। कवि मानते हैं कि इस जीने और जिजीविषा के लिये आवश्यक है, जीवन में करुणा, प्रेम, परस्पर भाईचारा, सहयोग तथा तुच्छ स्वार्थों का परित्याग। इसीलिये तो हू कहते हैं कि कोई भी साहित्य अपने देश की जनता की गहन आवाज तथा  जीवन्त धड़कने व्यक्त करता है। जो साहित्य ऐसा नही करता वह हमारे हृदय को भी स्पर्श नहीं करता। यही वजह है कि जनविमुख साहित्य न तो लोकधर्मी होता है। न उसमें सहज संप्रेषणीयता होती हैं। तो हू अपनी एक टिप्पणी में अपने देश के बारे में रूसी भैगोलिक स्थिति का बयान करते हुये कहते है – उनका देश (वियतनाम) बहुत छोटा है। इसके सामने पूर्व दिशा में लहराता-गरजता हुआ समुद्र है। पश्चिम में पीछे की तरफ पर्वत श्रृंखलायें है। उन्होंने कहा है कि चीन की तरह ‘लौंग मार्च’ करने में हम असमर्थ हैं। इसी तरह रूस जैसे बड़े देश की तरह हम पीछे हटते-हटते यूराल पर्वत तक नहीं जा सकते। कवि का मानना है कि वियतनाम की भैगोलिक तथा भूदृश्यी स्थिति ने वहाँ की जनता को एकजुट बने रहने की ताकत दी है। हम अपनी धरती किसी के लिये छोड़ नहीं सकते। साथ ही धरती को कस के पकड़ने के साथ साथ हमें हर मुसीबत के लिये अपनी कमर भी कस लेना जरूरी है इसी सब से यहाँ के कवि की मनोरचना रची जाती है। इसी से वहाँ के लोगों की जीवन शैली भी निर्मित होती रही है। तो हू का यकीन है कि बुनियादी परिवर्तन हर देश की अनिवार्य जरूरत है। पर यह परिवर्तन जड़ों से होना चाहिये।  वियतनामियों को जीवित रहने के लिये आत्मनिर्भर होकर जीना ही एक विकल्प है। वियतनाम के हर गाँव में वहाँ के निवासी परस्पर मित्रवत रहते हैं। जैसे कि बाइबिल में कहा है, ’अच्छा पड़ौसी हमारी जरूरत है। यह भी कि हम अपने पड़ोसी को प्यार करें। पड़ोसी के बिना हमारा सामाजिक जीवन असंभव है। अपने सगे संबंधियों से बढकर होता है अच्छा पड़ोसी। वियतनाम में कहावत है कि ‘अपने बगल के पड़ौस़ी के निमित्त अपने भाई को भी त्याग’ सकते हैं। कवि तो हू ने अपनी इस आत्मपरक टिप्पणी में बताया है कि वियतनाम में घर आमने सामने ही निर्मित होते हैं। इसी वजह से एक साथ ही सबके द्वार खुलते हैं। बंद होते हैं। लोकोक्ति है  कि मित्र के लिये द्वार सदा खुले हैं। पर शत्रु के लिये सदा बंद हैं। कवि का संकेत है कि जो शत्रु हम पर आक्रमण करने को तत्पर हैं उनके लिये हमारे घर तथा हृदय के द्वारा सदा बंद हैं। पर अपने दोस्तों के लिये वे सदा खुले हैं। कोई भी सवाल कर सकता है कि आखिर एक कवि ऐसी बातें क्यों कह रहा है? ध्यान रहे तो हू एक कवि की जरूरतों का बखान कर रहे हैं। पता नही क्यों मुझे बराबर लगता रहा है कि कवि को ये सब बातें  जानना बहुत जरूरी है। मेरी  एक कविता है ‘कवि की ज़रूरतें’

एक कवि की जरूरते क्या हैं
अपने देश की जलवायु को जानना एक जरूरत है
अपने इलाके की धरती
गवाक्ष, भूदृश्य, वन घासें
फल फूल
जानना एक ज़रूरत है
यहाँ की वर्षा, ताप, धरती में नमी
कवि को जानना जरूरी है
क्या मैंने कभी सोचा
मेरे जनपद का सबसे सुंदर फूल
कौन सा है
इसके खिलने का समय
उसकी गंध
रंग और पंखड़ियों का
वास्तुशिल्पीय स्थापत्य
मुझे अपनी कविता को
अपने देश की जलवायु से
जोड़ना जरूरी है
अपने देश की पोषाहार व्यवस्था की
तीखी आलोचना
मेरी कविता की जरूरत है  (‘बुझे स्तंभों की छाया‘ , पृ0 53 , ), 1972

अतः कवि तो हू की बात से मैं पूर्णतः सहमत हूँ कि कवि के लिये अपने देश, अपनी जातीयता, संस्कृति, प्रकृति, वनस्पतियाँ,  भूसंरचना, भूगर्भशास्त्र तथा मनुष्यों को परत दर परत जानना बेहद जरूरी है। एक लोकधर्मी कवि इन चीज़ों से परिचित होता ही है। होना चाहिये। जो कवि ऐसा नहीं कर पाते वे अपनी पहचान भी नहीं बना पाते। न उनकी कविता का गहरा असर पाठकों पर होता है। तो हू एक लोकधर्मी क्रांतिकारी कवि होने के नाते ही ये सब बातें अपने पाठकों को बता रहे हैं। साथ ही उन कवियों को भी जो कविता लिखना प्रारंभ कर चुके हैं। कवि को लंबी काव्य यात्रा तय करने के लिये इन बातों से ही ताकत अर्जित करनी पड़ती है।

तो हू लोकधर्मी कवि होने के नाते मार्क्सवाद से भी परिचित हुये। उनके लिये कविता और विचारधारा कोई अलग अलग चीज़ें नहीं हैं। तो हू उस समय के कवि हैं जब फ्रांस में ‘लोकप्रिय मंच’ (popular Front) का समय था। तो हू पार्टी साहित्य की दुकानों पर अक्सर जाते थे। एक दुकान पर वियतनाम तथा फ्रांस के जनवादी तथा साम्यवादी रचनाकारों का साहित्य उपलब्ध था। यह समकालीन पत्रिकाओं का भी केंद्रीय स्थान था। एक दिन तो हू भी उस दुकान में गये। उस समय तक तो हू एक विद्यार्थी थे। साथ ही साम्यवादी युवक संगठन के सदस्य भी। इस दुकान पर ली दुआन देख रेख करते थे। वह कम्युनिस्ट सदस्यों की भूमिगत गतिविधियों को भी देखते थे। तो हू उन्हें एक सामान्य व्यक्ति समझते रहे। यानि एक दुकान चलाने वाला इन्सान। तो हू ने बताया है कि ली बहुधा कोई न कोई्र किताब पढ़ते मिलते थे। तो हू भी वहाँ पुस्तकें पढ़ने आया करते थे। एक दिन तो हू ने ली से कहा कि उनके पास धन नहीं हैं। अतः किताब खरीद नहीं सकते। वह दुकान पर  किताबे पढ़ने के लिये आना चाहते हैं। ली ने उन्हें सहर्ष पढ़ने की अनुमति दे दी। तो हू का कहना है कि यही वह प्रक्रिया थी जिससे उनका परिचय मार्क्सवाद से हुआ। बाद में इसी दुकान में उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन का अध्ययन किया। खासतौर पर ‘कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो’ , अठारहवी ब्रूमेर, होली फैमिली, लेनिनवाद के सिद्धांत, अक्टूबर क्रांति, आदि विषयक पुस्तकें कवि ने पढ़ डाली। यह एक प्रकार से मार्क्सवादी शिक्षा का प्रारंभ ही था। उनकी कविता की तीसरी आँख। एक बड़े कवि को अपनी विश्वदृष्टि (Vision) विकसित करने के लिये इसी तरह संघर्ष करना पड़ता है।

यह कवि का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि 12 वर्ष की अवस्था में तो हू की माता नहीं रहीं। उसके बाद कवि हाईस्कूल की शिक्षा के लिये चले गये। यहाँ आकर उन्होंने दो बातों के बारे में गहन जानकारी हासिल की। एक तो अपने देश के हालात। दूसरे, मार्क्सवादी विचारधारा। हू नगर में ही तो हू 1938 में ‘लोकतांत्रिक युवा संघ’ के नेता बन गये। बाद में उन्हें ‘इन्डोचायनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी’ का सदस्य बना लिया गया। अप्रैल, 1939 में फ्रांस के औपनिवेशिक अधिकारियों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन्हें अदल बदल के कई जेलों में रखा गया। जेल में कठोर यातनाओं के बावजूद तू हो ने अपने क्रांतिकारी विचारों को न तो त्यागा। न उनमें कोई संशोधन किया। औपनिवेशिक अधिकारियों से किसी प्रकार का समझौता भी नहीं किया। ऐसी दृढ़ता ही कवि को ऊँचाइयों तक ले जा सकती है।  1942 में अपने कुछेक साथियों के संग तो हू जेल से फरार हो गये। पर अपनी क्रांतिकारी गतिविधियाँ बराबर जारी रखीं। तीन वर्ष के बाद तो हू 1945 में एक समिति के अध्यक्ष चुने गये। 1947 में उन्हें कला-संस्कृति की गतिविधियों की देख रेख का काम सौंपा गया। यह समय था  1945 का। क्रांति की सफलता के बाद हो ची मिन्ह की जनपक्षधर सरकार बन चुकी थी।

तो हू की कविता का विकास तथा उनकी क्रांतिकारी राजनीतिक भूमिका को अलग करके नहीं देखा जा सकता। नहीं देखना चाहिये। जैसे नेरुदा और माइकोवस्की की कविता तथा राजनीतिक गतिविधियों को। तो हू की कवितायें सबसे पहले ‘लोकतांत्रिक फ्रंट’ द्वारा प्रकाश में लाई गई। उनकी कविता में एक नई ध्वनि व्याप्त थी। एक नया मुहावरा। एकदम नया विज़न। वियतनाम की जनता की धड़कने उसमें अनुगुंजित थी। वियतनामी समकालीन कविता में उनकी कविता की अलग पहचान झलकने लगी। देखते ही देखते वह वियतनामी समकालीन कविता के प्रमुख कवि घोषित किये गये।

तो हू  सच्चे अर्थों में लोकधर्मी कवि हैं। क्योंकि उनकी कविता अपने देश की जनता के लिय समर्पित है। उन्हें जन कवि भी कहा गया है। जैसे हमारे यहाँ नागार्जुन। पर नागार्जुन की कविता में वैसी प्रगीति तथा आत्मपरकता नहीं है जैसी तो हू की कविताओं में। तो हू की कविता जैसे मैंने पहले कहा प्रगीतपरक हैं। उनमें समकालीन यथार्थ के संदर्भ होते हुये भी उनका प्रभाव एक प्रगीत जैसा ही पड़ता है। केदारनाथ अग्रवाल की भी बहुत सारी लघु कवितायें प्रगीतपरक है। नागार्जुन ने लम्बी वर्णन प्रधान कवितायें भी लिखी हैं। प्रगीत में वस्तुजगत की बाह्यता को वर्णन करने का अवकाश तथा स्थान कम होता है। कवि अपने मन की बात ही अधिक कह पाते हैं। उनकी एक कविता है , ‘कोयल जब कूकती है’ –

कूकती है जब कोयल
तब लगता है पकने
गरवा धान
तब बाग की शीतल छाँह में
पेड़ पर लगे फलों में
छलकने लगता है रस
उसी समय
गीत फूटता है
खलियान भर उठता है
गेंहूँ की सुनहरी बालियों से
धूप पकने लगती है
जैसे नीला आकाश
लगता है उठा ऊपर को
जैसे फैलता हो आगे तक
हवा में उड़ती है पतंग ….
यौवन ग्रीष्म का
उमड़ता है मेरे हृदय में
बंदीगृह की दीवार तोड़ने को
व्याकुल हैं मेरे पाँव
कितनी घुटन है आज भी
पर कोयल कूकती है
मुक्त हो कर आकाश में।

यहाँ बंदीगृह की घोर घुटन और यातना के बीच भी कवि प्रगीतमयी प्रकृति के सौंदर्य पर रीझता है। उसे वियतनाम के किसानों के कठिन श्रम से उपजे गेंहू तथा खलियान याद आते हैं। नाइजीरियाई कवि वोले शंयिंका ने भी जेल की दीवारो के भीतर एक कविता लिखी है। नाम है ‘ जीवित समाधि’। इस कविता में कवि बंदीगृह में भोगी गई्र यातना का भयावह वर्णन करते हैं -पर न तो किसान याद आते हैं। न प्रकृति का सौंदर्य।

सोलह डग चौड़ी
तेइस डग लम्बी
कठोर घेराबंदी की है उन्होंने
यह है मानवता और सत्य के विरुद्ध
क्यों कि उनका इरादा है
मुझे मानसकि रूप से नष्ट करना
बल्कि हर तरह से नष्ट करना

पूरी कविता में जेल की यातना का वर्णन है। दोनो कवि ही क्रांतिकारी हैं। पर यह फर्क यहाँ नोट करने का है। नागार्जुन भी प्रकृति को कभी नहीं भूलते । 1975 के आपात काल के समय उन्होंने 1976 में एक कविता लिखी,

‘नंगे तरु हैं, नंगी डालें’
नंगे तरु हैं, नंगी उालें
इन्हें कौन से हाथ सँभालें
खीज भड़कती, घुटती आहें
झेल न पाती इन्हें निगाहें
कैदी की लंगड़ी मनुहारें
कैसे इनकी सनक उतारें
मौसम के जादू मचलेंगे
कब इनमें टूसे निकलेंगे
हरियाली का छाजन होगा
आसमान कब साजन होगा
अब भी तो पतझर थक जाये
इनका नंगापन ढंक जाये
हरियाली इन पर झुक आये
नग्ननृत्य अब भी रुक जाये

इस लिहाज़ से नागार्जुन कवि तो हू के करीब आते हैं। 1976 की ही उनकी और कवितायें है, ‘फिसल रही चाँदनी’ तथा, ‘वसंत की अगवानी’। नागार्जुन बंदीगृह की घुटन को प्रकृति के सान्निध्य से कवि तो हू की तरह विस्मृत करते हैं।

तो हू बाह्य प्रकृति के मनोरम सौंदर्य से अपने को एकात्म कर अपनी यातना को प्राकृतिक औदात्य में बदलते हैं। जबकि वालेशयिंका बंदी गृह तथा तानाशाहों की क्रूरता बताते हैं। तो हू की गीतिपरकता उन्हें ऐसा करने को प्रेरित करती है। उनके संस्कार लोकधर्मी हैं। उन्होंने अपने को प्रकृति के बीच उगता-बढ़ता हुआ पाया है। वोले शयिंका के ऊपर पाश्चात्य साहित्य के गहन अध्ययन का गहरा असर है। वह प्रगीति के कवि नहीं हैं। उन पर पश्चिमी आधुनिकता का गहरा प्रभाव भी है। फिर भी वह अपनी जड़ों को अपने देश नाइजीरिया में बहुत गहरे तक धँसी पाते हैं। उनके लोक में बौद्धिक परिष्कृति अधिक है। तो हू और नागार्जुन लोक के ऊबड़खाबड़ पन को धोते माँजते नहीं।

तो हू ने माताओं पर अनेक कवितायें लिखी हैं। जैसें ‘तौम माता’ ,‘बूढ़ी माँ ’ आदि। कवि ने स्वयं  माना है कि उनकी कविताओं में इतनी सारी मातायें आती हैं? उनका तर्क है क्योंकि जब वह बारह साल के थे तभी उनकी माता उन्हें छोड़ कर चली गई। उनका यह भी कहना है कि कोई भी राष्ट्र माताओं के द्वारा ही हर बार अपने को जीवित करता है। उसे शक्ति देता है। जैसे राष्ट्र के लिये माता एक जीवन्त रूपक के समान है। ‘बूढ़ी माँ’ कविता में कवि ने एक वृद्धा माँ की गहन वेदना व्यक्त की है। उसका बेटा आजादी की लड़ाई में शरीक हाने के लिये सीमांत पर गया है। माँ उसके लौटने की प्रतीक्षा में विकल है। ध्वनि है वह लौटेगा भी या नहीं? उसे नीद नहीं आती। कवि साथ ही उसकी गरीबी में अभावों की त्रासदी भी बताता है। इधर गरीबी की मार। उधर बेटा गया है शत्रुओं से लड़ने। जीवन में पर्याप्त भोजन भी उपलब्ध नहीं है। कैसी क्रूर विडम्बना है! इतनी कठिन स्थिति में भी माता को गर्व है कि उसका बेटा शत्रुओं से लड़ने गया होगा-

बूढ़ी माता
सूखे पत्तों के बिछावन पर
लेटी है
पर नींद नहीं आती…
बिछावन पर लेटी बूढ़ी माता
जागती है।

वह चिंता करती है और बेटे के बारे में सोचती है। बाहर बँसवटों में तेज़ हवा और वारिश का अंधड़ है। जितना माता बेटे के बारे में सोचती है उतनी ही वह शत्रु केा घृणा करती है। यही द्वंद्व कविता में गहरी नाटकीयता पैदा करता है। यहाँ माँ का चरित्र भी गतिमय तथा बहुआयामी बनता है। वह सोचती है-

शत्रुओं से लड़ने को
मेरा पुत्र
आज की रात
निकला होगा
लड़ने के लिये।

वह यह भी विचारती है कि आजादी के लिये लड़ने वाले सभी योद्धा घने वनों में नदी नालों को पार करते होंगे। वर्षा में  सराबोर भीगे। बाद में अपनी गरीबी की स्थिति का बयान करती है-

हम जैसे निर्धनों पर तो
सूखे पत्तों का ही
बिछावन हो सकता है
चावल और चूल्हा भी
वह निकला होगा आज की रात
अपने शत्रुओं से लड़ने के लिये
जिस्म पर उसके
पूरे कपड़े भी तो नहीं हैं
पिछले वर्ष हमने
कंद मूल भात में मिला कर
ही जीवन काटा था
लेकिन कामचलाऊ अच्छा था
सुना है
इस साल फसल अच्छी है
सोच से उसका सीना
दरकता है
कौआ की काँव काँव के साथ
फटने को है पौ

इस तरह तो हू की कविताओं में मानवीय संवेदनाओं के भरपूर चित्र कौंधते रहते हैं। उनकी एक प्रसिद्ध कविता है, ‘कवि गियेन दु के प्रति’। कवि ने गियेन की कविता के असर को बताते हुये कहा है –

ज्यादा हुये दो सौ साल से भी
फिर भी तुम्हारी कविता की ध्वनि से
आह्लादित है लोग
जीवन में हमारे
तुम्हारी कविता की धड़कने
आज भी जीवित है
तुम्हारी कविता की ध्वनि ने
कँपा दिया आसमान को
धरती को
झरनों तथा पर्वतों से
निसृत है असंख्य आवाज़े पतझड़ों की…

फिर कवि स्त्री के जीवन के बारे में भी कहते हैं –

स्त्री का जीवन
भरा है उत्पीड़न से
असंख्य स्त्रियों का जीवन
अभिशप्त है
एक ही तरह से

तो हू को अपने आस पास के भूदृश्य और नैसर्गिक छबियाँ बार बार प्रेरित करती हैं। उनकी एक प्रसिद्ध कविता है ‘पहाड़ तथा जल दूर दूर तक’ –

अंकुरित होते सरपत के पौधे
झाड़ झंखाड़
हरे कल्ले

इसी कविता में वह प्रकृति का प्रचण्ड रूप भी बताते हैं –

रेत का ढूहा
काटता है पथ
पहाड़ भी काटता है पथ
लू की लपटें
करती हैं पीठ पर वार
उड़ती हे धूल
धूल से धुँधलाता है वन
बंद करती पथों को रेत
ढंक लेती है सुरंगों को

….. सहसा कवि को अपना गाँव याद आता है –

याद आती है
उन ग्राम वासियों की
जिन्होंने दिया था संबल
उनसे मिलने की प्रबल इच्छा

….. कवि युद्ध के विनाशक रूप को बताते हुये कहते हैं –

तट आग से हुये हैं भस्म
बम वर्षा ने
लहलहाते सरपतों को
बदल दिया है खुदे हुये गड्ढों में

कवि गाँव वालों को याद करते हुये कहते हैं –

जीवनपर्यन्त
नहीं विस्मृत कर पाऊँगा
तुम्हारा उपकार
तुमने हमें हर कदम
अपनी भुजाओं का
दिया है संबल
…. आज भी याद है मुझे
गाँव का हरेक आदमी
सुनहरी चोटी चमकती है पर्वत की

  तो हू मार्क्सवादी विचारधारा से प्रतिबद्ध होते हुये भी वह कविता में उसे प्रचारित करते नहीं लगते। जैसा मायकोवस्की करते दिखते हैं। वे उन विषयों को चुनते हैं जो उनके हृदय के बहुत करीब हैं। बल्कि कहें जो सामान्य जन के जीवन के भी बहुत करीब हैं। पर उनकी कवितायें उनकी जनता के दुख दर्द को बराबर व्यक्त करती हैं। फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों के क्रूर शासन से उपजी मनोव्यथायें बार बार व्यक्त करते हैं। कहा जाता है कि तो हू वियतनाम के प्रथम क्म्युनिस्ट कवि हैं। उन्होंने एक नई अग्रगामी कलात्मक कविता की स्वस्थ परम्रा को विकसित किया था। वह वियतनामी समकालीन कविता के प्रवर्तक भी कहे गये हैं। तो हू तथा अन्य कवियों की कविताओं का अंतर बहुत साफ है। तो हू की कवितायें प्रगतिशील विचारधारा को बहुत ही कलात्मक ढंग से व्यक्त कर अपनी पहचान बनाती हैं। वहाँ सामान्य जन की कराहटे सुनी जा सकती हैं। जनता के प्रति साम्राज्यवादियों के अन्याय तथा अत्याचार के चित्र अनुपम हैं। तो हू श्रम के सौंदर्य को भी कभी अनदेखा नहीं करते। उनकी एक कविता है, झाड़ू के शब्द’। एक स्त्री सर्दी की ठिठुराती रात में झाड़ू लगा रही है। जैसे वह श्रमी स्त्री फौलाद या काँसे से निर्मित हो। जब सड़क साफ सुथरी हो जाती है तो सुबह को उस पर से फूलों की भरी गाढ़ियाँ गुज़रती हैं। खिले फूलों के रंग और गंध अपनी छटा बिखेरते हैं। लेकिन कवि सावधान करते हैं उन सौंदर्य प्रतीक -रूपक फूलों को कि वे न भूलें उस स्त्री को जिसने रात भर ठिठुर कर साफ की है सड़क अपनी जान लगा कर –

एकदम शीत कटती रात है
अभी अभी जैसे थमी हो
शीत लहर
थेाड़ा रुक कर
देखता हूँ
सूनी सड़क पर
एक स्त्री लोहे
या काँस्य धातु की बन कर
सड़क की धूल बुहारती है
उसी सड़क से सुबह होते ही
गुज़रती हैं रंग बिरंगे
सुगंधित फूलों से लदी गाढ़ियाँ
ओ फूलो
मत भूलो तुम
उस स़्त्री को
जिसने अपना दम लगा कर
किया है सड़क को साफ
शीत और तपिश की रात में
सुबह को
शाम को
हर तरफ
वह स्त्री साफ करती है
सड़क को
कभी न भूलें हम
सौंदर्य रचा गया है
उसी के हाथों से। 

इसी तरह अपनी ‘संध्या’ कविता में कवि बताते हैं श्रम करते वृद्ध आदमी के बारे में –

एक वृद्ध
खिड़की के पास
बुनता है टोकरी
पीठ झुकाये
मुठ्ठी भर चावलों को
उसकी उँगलियाँ काँपती है
जब खीचता है
सुनहले धागे मूँज के
फूटता है शोक गीत
उसके खुश्क होठों से
यही क्रम चलता रहता है
न वह कभी हँसता है
न बोलता
वृद्ध बैठे बैठे
बुनता रहता है टोकरी
भविष्य की उम्मीद में

अपनी एक और कविता ‘पुष्प और खून’ में वह अपने देश  में क्रांति के बाद की सिथति पर बड़ी मार्मिकता से कहते हैं –

लगातार सौ वर्ष की
प्रतीक्षा के बाद
जैसे स्वप्न में
हमने पाया है
हर्षोल्लास का दिन
अग्नि और लोहे से
अधिक मजबूत है हमारा प्यार
मनुष्य का हृदय भी
कभी बनता है
युद्ध क्षेत्र
वर्षा हो या ग्रीष्म
पृथ्वी गोल है
सुंदर भी
एक आदमी का दुख
बनता है
समूची मनुष्य जाति का दुख
ओ वियतनाम
ये पुष्प
ये खून
भविष्य में होंगे ये
और भी गहरे
और खूबसूरत
घावों का भरना
इतना सरल नहीं
तुम्हरा आधा जिस्म
अभी भी
दुखता है पीड़ा से
फिर भी
आगयी हैं हर्षोल्लास की फिज़ा
वसंत आ गया है
पर्वतों और वनों ने
पहने हैं मुक्ति के हरित वस्त्र
ओ में काँग (नदी)
तुम रहो प्रवाहित
अपने तटों को लाँध कर
फिर से मिला है
हमें नया जीवन
खून होता है एकात्म खून में
आने को वह दिन भी है
जब सब होंगे एक
देश होगा एक
सब होंगे एक।

अपनी कविता ‘वसंत का गान’ में तो हू कविता के बारे में कुछ सूत्र देते हैं –

सम्पूर्ण जीवन की पीड़ा
घनीभूत है
कविता की एक पंक्ति में


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हृदय को चाक करती हैं कवितायें


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आज के पहाड़ों …नदियों के गान
हमरे अग्रजों के कंठ से फूटते हैं


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वसंत का यह गान
लिखता हूँ
किसके लिये


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कितने ही शिशु हैं
जिन्हें नहीं मिला
पालने का सुख


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कविता उड़ती है अग्नि के डैनों पर

कवि कहते हैं कि क्या चाहिये हम सबको जीने के लिये –


आज़ादी, सुकून, करुणा
अन्न पेट भरने के लिए

तो हू सदा उनके पक्ष में हैं जिनके जीवन में दुख है। उत्पीड़न है। दासता है। लाचारी है

मेरा दिल साथ है उनके
जो सहते हैं उत्पीड़न

‘कविता का संदर्भ’ कविता में तो हू ने कविता की सीमाओं को तेाड़ कर बताया है कि ’कवि और कम्युनिस्ट’ होना अलग अलग नहीं हैं। क्योंकि जो दल का सचिव है वह भी कविता रचता है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। पर पार्टी सचिव को यदि कवि बने रहना है तो उसे सिर्फ दफ्तर की क्रियाविधि तक ही सीमित नहीं रहना होगा। उसे अपनी इंद्रियाँ चौकन्नी रखनी होंगी। जीवन और प्रकृति के कंप प्रकंप को बड़े ध्यान से पकड़ना होगा। उसे कवि संवेदना को जीवन रस की खुराक देना जरूरी है।  उसका हृदय जनता और प्रकृति के लिये धड़कता रहे। तभी वह रच पायेगा कालांकित कविता –

कम्युनिस्ट दल का सचिव
कवि भी है
दोनो है एक दूसरे के पूरक
नहीं रह सकते एक दूसरे के बिना
सचिव का काम
कागज़ों को
काला पीला करना ही नहीं है
उसे इंद्रिय सजग रहना है
जीवन के हर कंप प्रकंप के प्रति

तो हू की प्रगीतिपरक कविताओं में भले ही बहुत स्पष्ट जीवन संघर्ष न दिखे। पर कविताओं की अंतर्ध्वनियाँ बहुत ही लोकधर्मी तथा रूपकीय हैं। सांकेतिक भी। किसी सामान्य सी बात से कविता प्रारंभ होकर बहुत बड़े फलक को घेर लेती है। अनेक भाव, विचार, संवेदन, संकेत, ध्वनियाँ तथा अर्थबोध परस्पर संग्रथित होकर कविता का वास्तुशिल्पीय संरनात्मक स्थापत्य रचते हैं। तो हू की कविताओं को समझने के लिये हमें अपनी इंद्रियों को भी सावधान रखना होगा। उनकी कविता बौद्धिकता के आतंक से परहेज करती है। वहाँ हमारे मन की परत दर परत खुलती दिखाई देती है। तो हू का चेतन, अवचेतन तथा अचेतन मन तरह तरह की गहराइयों में हमारी यात्रायें कराते हैं। इसीलिये ऊपर से सरल सपाट दिखने वाली ये कवितायें बहुत ही संश्लिष्ट तथा गहन भाव बोध से हमारा परिचय कराती चलती हैं। तो हू की कविता हमें नाजिम तथा वाइ जुई की बार बार याद दिलाती चलती हैं। उनमें क्रांति की गर्जनायें तथा उद्घोष नहीं हैं। जैसा हमें माइकोवस्की या हमारे यहाँ नागार्जुन में मिलता है। उनकी कविता हमे अन्याय, अनाचार, शोषण, उत्पीडन के विरुद्ध लड़ने की ऊर्जा कलात्मक ढंग से प्रदान करती हैं। उनमें जनता के वर्ग-शत्रुओं की पहचान छिपी रहती है। साथ ही आशान्वित भविष्य की पौ फटी दिखाई देती है। उनकी हर काव्य पंक्ति में गहरा आत्मविश्वास तथा जातीयता के प्रति गहन भरोसा व्यक्त होता दिखता है। उनकी एक सुप्रसिद्ध कविता है, ‘ दो बच्चे’। यहाँ कुलीन तथा सामान्य लोगों के बच्चों के वर्गीय फर्क को बड़े तीखे व्यंग्य से व्यक्त किया गया है –

एक बच्चा जीता है जीवन
भरी पूरी
सुख सुविधाओं में 
उसके पास
पश्चिम में बने
बहुत से सुंदर … कीमती खिलौने हैं
दूसरा बच्चा सिर्फ मुँह देखू है
दूर से खिलौनों को
ललक से देखता रहता है

राष्ट्रीय मुक्तिसंग्राम के समय तो हू ने उस सामंती पतनशील सत्ता का विरोध किया था जो फ्रांसिसी साम्राज्यवादियों के समर्थन से कायम थी। जिसकी वजह से वियतनामियों को गरीबी और भूख के दर्दनाक कष्ट उठाने पड़े थे। भारतीय जनता को भी अंग्रजी साम्राज्य ने ऐसे ही उत्पीड़न तथा दमन से घोर यातनायें दी थी। तो हू की बहुत ही प्रसिद्ध कविता है, ‘तब से अब तक’। इसमें कवि ने कम्युनिज्म के प्रति अपनी संचेतना व्यक्त की है। उनका मानना है कि यही वह क्षण है जब, ‘ सत्य का सूर्य उनके हृदय में दमका था’। उनके अनेक समीक्षकों ने इस कविता को अपने देश के लोगों के लिये एक आह्वान कहा है। उन्हें प्रेरित किया गया है कि वे अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करें। इस कविता का दूसरा पक्ष है दमित-पीड़ित लोगों के लिये भारी संबल –

मैं उन हज़ारों परिवारों में से
किसी एक का पुत्र हूँ
उन हज़ारों दुखी उजड़े लोगों का
लघु भ्राता हूँ
हजारों हजार बच्चों का
बड़ा भाई
हम दरबदर है
और लगातार भूख से पीड़ित

इस कविता की ऊचाई और गहराई निहित है उस ध्वनी में जो वियतनामियों में स्वतंत्रता की अदम्य इच्छाशक्ति को व्यक्त करती है –

हम साथ साथ जीते और मरते हैं
हमारा जीवन
एक दूसरे से गुँथा है
कोई शक्ति हमें
अलग नहीं कर सकती
हमारी आत्मा को
बेचा- खरीदा नहीं जा सकता

जब कवि अपनी आत्मा का सौदा करता चलता है अपनी सुखसुविधाओं के लिए तो पह कवि नहीं रहता। एक पेशेवर दुनियादार बनता है। भले ही वह कविता लिखे पर कवि नहीं होता!

फ्रांसिसी उपनिवेशवादियों के विरुद्ध विजय के बाद एक बार फिर तो हू ने वियतनाम के इतिहास में महत्वपूर्ण लेखन किया था। उनकी कविताओं को क्रमशः पढ़ने से पता लगता है कि वह किस तरह प्रारंभ से अंतिम विजय तक फ्रांसिसियों की साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध करते रहे। तो हू की कवितायें बोलती है कि वियतनामी लोग अपने देश की मुक्ति के लिये सब कुछ बलिदान कर देने को तैयार हैं। वे होचि मिन्ह के नेतृत्व में पूरी आस्था व्यक्त करते हैं।

कहना न होगा कि  साम्राज्यवादियों का विरोध भारत की तरह ही वियतनामियों के लिये भी बड़े खतरनाक जोखिमों से भरा हुआ था। जाने कितने लोग इसमें शहीद हुये। कितने बरबाद हुये। कितने बेघर- दरबदर। तो हू की कवितायें बताती हैं इतनी कठिनाइयों के बावजूद वियतनामी जनता उज्ज्वल भविष्य के प्रति आशान्वित है। उसका संघर्ष सतत है।

तो हू की कवितायें क्रांति के औदात्य को ही वयक्त नहीं करती। बल्कि वियतनामी जनता के लिये प्रेरणा स्रोत का काम भी करती हैं कि हमें आगे बढ़ने के लिये सतत संघर्ष करना ही होगा। वही हमारी नियति है

अपने देश की मुक्ति के लिये
ट्रौंगसौन पर्वत श्रृंखला को
पार करते हुये
हमारा हृदय

बड़े गौरव का अनुभव करता है

तो हू मानते हैं कि कविता को असरदार होने के लिये जरूरी है कि कवि को अपनी जनता से बेलाग और अचूक प्यार हो। वह उससे एकात्म अनुभव करे। कविता उसकी सेवा के लिये हो। जब हम कवि रूप में अपनी जाति को समर्पित हैं तब हम अपने ‘स्वत्व’ को भूल कर जनता से अछोर जुड़ते हैं। उस समय क्रांति ही हमारा लक्ष्य होता है। राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण कवि का दायित्व है। यही कसौटी है एक क्रांतिकारी तथा बड़े लोकधर्मी कवि की। आज हिंदी में कितने कवि हैं जो अपने मुक्तिसंग्राम की अधूरी छूटी क्रांति के संकल्पों को पूरा करने के लिये कृतसंकल्प हैं? अधिकांश कविताओं से लगता है कि कवियों को न तो लोक की चिंता है। न अधूरी छूटी क्रांति की। बल्कि महसूस होता है कि हमने उन्हें विस्मृत कर दिया है। ज्यादातर कवितायें बहुत ही निजी संवेदनों के पहले स्तर पर ही रची जा रही हैं। ऐसा क्यों है? क्योंकि कवि लोक विमुख हैं। उनके सरोकार बड़े नहीं हैं। जब कवि के सरोकार ही बड़े नही तो उसकी विश्वदृष्टि (विज़न) बड़ी केसे होगी? कवितों का फलक भी विस्तृत नहीं हो सकता। आलोचकों को इसकी चिंता नही कि वे हसतक्षेप करें? क्योंकि उनके पास भी तो बड़े सरोकार नहीं हैं? हिंदी की अधिकांश आलोचना पेशेवर हो चुकी है। उसका संबंध कैरियर से हो चुका है। लोक से बिना एकात्म हुये हमारे सरोकार बड़े नहीं हो सकते। इसके लिये हमारे पास किसी बड़े समग्र तथा वैज्ञानिक जीवन-दर्शन की आँख होना जरूरी है। कदाचित तो हू जैसे कवि से हम इस दिशा में प्रेरित हो सकें।

तो हू का काव्य निकष भी ध्यान देने योग्य। उनका मानना है कि लोकधर्मी कवि को बहुत खरा, सच्चा तथा ईमानदार होना पहली शर्त है। दूसरे,  उसे अपने संलक्ष्यों के प्रति कृतसंकल्प, अटल तथा दृढ़प्रतिज्ञ होना भी बहुत जरूरी है। जब तक कवि में ये गुण नहीं हैं तब तक उसकी कविता अपेक्षित ऊँचाइयाँ पा सकेगी इस में संदेह है! दूसरे, इन गुणों के चलते ही कविता असरदार तथा विश्वसनीय होगी। वैसे ये गुण कवि को ही नहीं हर प्रकार के लेखक को जरूरी हैं। इन गुणों की शक्ति से ही कवि क्रूरता, पाखण्ड, अन्याय तथा शोषण- उत्पीड़न का अर्थवान प्रतिरोध कर सकता है। तो हू की कवितायें बताती हैं कि उनके जीवन में भी ये गुण आद्यंत विद्यमान रहे थे। इससे यह ध्वनि भी संकेतित है कि बड़ा तथा प्रभावी कवि होना बिना बड़े मानवीय मूल्यें को धारण किये संभव नहीं है। पहले बहुत अच्छा  इन्सान बाद में कवि। तो हू के इन विचारों से मैं प्रेरित हूँ। मैंने योरुप के किसी कवि या समीक्षक को जीवन की नैतिक संस्कृति के बारे में इतने सुलझे और उच्च विचार व्यक्त करते न सुना। न पढ़ा। न जाना। लगता है कि भारत का कोई लोकधर्मी चिंतक-कवि अपनी बात कह रहा है। क्या यह एशिया तथा योरुप की नैतिक संस्कृति का अंतर तो नही है? तो हू मानते हैं कि कविता के लिये कुछ मानदण्ड हैं। उनके अनुसार पहली चीज़ बहुत ही सुलझी तथा स्पष्ट वैज्ञानिक  विचारधारा है। पहले ही बता चुका हूँ कि तो हू आकण्ठ मार्क्सवादी थे – आद्यंत। यदि ऐसा है तो हमारे कथ्य के चयन तथा उसकी कहन में कठिनाई नही होगी। इसी से कवि की विश्वदृष्टि रची जाती है। दूसरे, वह मानते हैं कि उत्कृष्ट कविता में कलात्मक श्रेष्ठता बहुत जरूरी है। आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि तो हू की कवितायें अपने दल को सराहती हैं। जैसे पाब्लो नेरुदा या माइकोवस्की में मिलता है। कईबार नाज़िम में भी। हमारे यहाँ केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन कुछ सीमा तक कविता में यह जोखिम उठाते हैं। हमारी पीढ़ी के महत्वपूर्ण कवि पाश तथा कुमारेंद्र में भी यह प्रवृत्ति मिलती है। मायकोवस्की कईबार प्रचार के स्तर तक भी आ जाते हैं। पर तो हू की कविता  क्रांति का आह्वान करती है -उसे सराहती भी हैं। पर कविता की कलात्मकता में कोई कमी नहीं आती। वह अपने देश को बार बार कविता में लाते हैं। फिर भी कवितायें न तो विरस हैं। न उबाऊ। न उनमें आत्मपरकता के तत्व का निषेध है। उनमें कोई जार्गन भी नहीं है। उनकी कवितायें पढ़ के यह नहीं लगता कि तो हू बहुत बड़े साम्यवादी दल के राजनीतिक  नेता तथा कार्यकर्ता भी हैं। यह उनकी कविताओं की बहुत बड़ी उपलब्धि है। इससे हम सीख सकते हैं।

तो हू ने अपने प्रिय कवियों के बारे में भी कुछ बातें कही हैं। इन बातों में उनकी गहरी आलोचनात्मक दृष्टि तथा कविता की गहरी समझ व्यक्त होते हैं। सर्वप्रथम वह नाम लेते हैं अपने प्रिय कवि नाज़िम हिकमत का। तो हू ने बताया है कि उन्होंने नाज़िम की सर्वप्रथम कविता पढ़ी, ‘बाल कन्या हिरोशिमा की’। 1955 के बाद पढ़ी ‘मछुआरा प्रशांत महासागर का’ । उन्होंने बताया है कि शुरू में हिकमत एक बेनामी कवि की ज़िदगी जीते रहे। तो हू ने नाज़िम को पढ़ा फ्रैंच भाषा में। यह कवि अपने रुचि के कवियों की कवितायें लगातार पढ़ता रहा है। ‘आजादी’ नामक कविता पढ़ी एलुआ कवि की। लुई अरागाँ की एक कविता पढ़ी। बाद में ‘रेल पटरियों के विभंजको को जागने दो’ कविता पढ़ी नेरुदा की। वियतनाम के आजाद होने के बाद ही तो हू इन कवियों को पढ़ पाये थे। उन्हें लगा कि ये लोकधर्मी कवि उनके गहरे मित्र हैं। नाज़िम का तो वह अनुवाद करना चाहते रहे। नाज़िम हिकमत ऐसे कवि हैं जो बिल्कुल सरल-सहज है। उनके दिल में हर किसी को गहरी तड़प है। एक विशेष बात यह कि अपने देश तुर्की से निर्वासित होकर भी नाजिम कभी देश को नहीं भूले। तो हू ने हिकमत की एक कविता भी उद्धृत की है जो उन्होंने जेल में रहकर अपनी पत्नी को लिखी थी –

ओ मेरी प्रिया
मतलब है समाजवाद का
कि असंख्य भुजायें मिलकर
किसी पर्वत को पलट दें
तो भी
प्रत्येक भुजा अपने को
गर्वोन्नत समझे
ओ प्रिया –
यह भी अर्थ है समाजवाद का
हमारा प्यार
हमसे कुछ न चाहे
न धन, न वैभव
बस संतुष्ट रहे
प्यार और भरोसे में।

तो हू ने हिकमत को अपना ‘दोस्त कवि’ माना है। एक सच्चा दोस्त। पाब्लो नेरुदा को वह पृथ्वी के गर्भ में ‘खौलता लावा’ मानते हैं। उनकी कविता एक प्रकार का ‘वाद्यवृन्द’  है। पालॅ एलुआर में पच्चीकारी अधिक है। जबकि लुई अरागाँ भाषा के महान जादूगर शिल्पी हैं। मयाकोवस्की को वह ’योद्धा कवि’ मानते हैं। ब्रेख्त के लिये उन्होंने ‘इस्पात की तीखी धार’ कहा है। कविता में तो हू बहुत  मितभाषी भी हैं। जीवन की सचाई तथा वैचारिक गहराई के साथ। लोर्का को उन्होंने जीवन के महासमर में एक ‘अविजित योद्धा कवि’ कहा है । तो हू मानते हैं कि उन्होंने इन कवियों को बहुत अधिक नहीं पढ़ा है। इन कालजयी कवियों के काव्य द्वार तक ही वे पहुँच पाये हैं। इन टिप्पणियों से साफ झलकता है कि तो हू की कविता के बारे में क्या समझ है। जिन्होंने उपर्युक्त कवियों को ध्यान से पढ़ा होगा वे तो हू की आलोचकीय सटीकता को बेहतर समझेंगे।
तो हू कविता के सुंदर भविष्य के लिये आशान्वित हैं। जबकि पतनशील कवि -समीक्षक ‘कविता का अंत कहने लगे है। उनका मानना है कि कविता यदि मनुष्य जीवन के करीब है तो वह बराबर विकसित होगी। वह कविता को समाजपरक मान  कर भी व्यक्तिपरक मानते हैं। कविता सामाजिक मनुष्य द्वारा रची गई एक  ऐसी रचना है जो समाज के प्रत्येक व्यक्ति को उन्नत बनाती है। इसीलिये वह कवियों के बीच भी कोई सीमा नहीं मानते। यानि जीवन के गहरे भावबोध से जन्मी कविता परस्पर सीमाओं को तोड़ कर दिक्काल का अतिक्रमण करती है। उन्होंने एक महत्वपूर्ण प्रश्न किया है कि हमारे बीच आखिर कवयित्रियाँ इतनी कम संख्या में क्यों हैं?
तो हू कविता में शब्द संकेतों तथा बिंब ध्वनियों पर बहुत ज़ोर देते हैं। उनके अनुसार कई बार कवि भी अपने कथ्य तथा बचन को समझ नहीं पाते। कविता में अनेक बातें स्फटकीय पारदर्शिता की तरह नहीं होती। न कोई बँधे बँधाए गणितीय बीज-सूत्र होते हैं। कुछ द्रव्य सत्य हमें स्वप्न जैसे लगते हैं। तो हू मानते हैं कि एक कवि दूसरे कवि की कविता पढ़ते समय या उसका अनवुाद करते समय बहुत कुछ अपना भी जोड़ देता है। इसी तरह हमारी समझ जनता के बारे में भी बहुत साफ तथा पारदर्शी नहीं होती। उसके मन में चीज़ें बनती बिगड़ती रहती हैं। फिर भी जनता को समझना दुष्कर नहीं होता। बहुत बार कवि किसी बात को जानने के लिये चाह कर भी ठीक से बता नहीं पाता। द्रव्य सत्य को जब हम फिर से रचते हैं -उसे शब्दों में बाँधते हैं -तो लगता है कि जो करना चाहते थे वह नहीं हुआ। शायद इसीलिये हमें हर अगली कविता के लिये बेचैन होना पड़ता है। सोचते हैं कि शायद इस बार बात पूरी हो जाए। यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। एक उत्कृष्ट कविता का निहितार्थ अथवा मर्म हम एक बार में नहीं समझ सकते। जितनी बार उसे समझने की कोशिश करते हैं लगता है फिर कुछ छूट गया। तो हू इसे कविता की पंक्तियों के बीच का रिक्त स्थान कहते हैं। यद्यपि यह रिक्त होता नहीं। जिसको हम रिक्त समझ रहे हैं वहाँ अर्थध्वनियों की बारीक अनुगूँजें तथा काव्य बिंबों की कौंधें छिपी रहती हैं। तो हू का मानना है कि सही कविता इसी आनुमानिक रिक्ति में निवास करती है। शब्दों के बीच की इस तथाकथित रिक्ति को ….इस शून्यता को -यदि एकाग्र होकर समझे तो हमें अनेक अनुध्वनियों की झंकार सुनाई देगी। अतः जिसे हम रिक्ति समझ रहे हैं वहाँ कविता का सार निहित है। जीवन में न प्रकृति में शून्य कहीं नहीं है। इसलिये काव्यार्थ समझने के लिये हमें धैर्य रखना पड़ता है। काव्य मर्म एक सूक्ष्मबोध से ही अनुध्वनित होता है। उसे उसी स्तर तथा सूक्ष्म प्रक्रिया से ही समझा जा सकता है। तो हू का संकेत है कि कविता में उसके सार तत्व तक जाने के लिये हमें उसके शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं रहना चाहिये। शब्द जब रूपकों तथा बिंबों में ढलने लगते हैं तो उनकी अर्थध्वनिया दैनिन्दिन तर्क से नहीं समझी जा सकती। श्रेष्ठ कविता को समझने के लिये हमें काव्य तर्क का ही सहारा लेना होगा। अवधारणात्मक या दार्शनिक तर्क का नहीं। इसी को कवि तो हू शब्दों तथा आत्मा की संश्लिष्टता कहते हैं।

तो हू इतिहास में दो तिथियों को महत्वपूर्ण मानते हैं। 1945 की अगस्त क्रांति। दूसरी 1954 की विजय। 1945  में प्रत्येक वियतनामी नागरिक आज़ाद हुआ। जैसे सदियों के गहन अंधकार के बाद प्रभात। पर 1954 की विजय जैसा वह नहीं था। क्रांति का सबसे बड़ा परिणाम समतामूलक समाज की रचना है।  वियतनामी नागरिक का अगाध आत्म विश्वास जगा है। वियतनाम के लोगों को महसूस हुआ कि उनको कोई परास्त नहीं कर सकता। ऐसा विश्वास उपजा है कवि में लोक से एकात्म होने पर। अपनी मातृभूमि से प्रेम के कारण। अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से। तो हू जीवन का सिद्धान्त बताते हुये कहते हैं कि, ’ जो हर प्रकार का श्रम करता है, वही जीवन की कठोरताओं पर विजय पाता है। वही अपने हर दुश्मन को परास्त करता है। ’ एक कवि का यही दर्शन उसे कविता की ऊचाइयों तक ले जाता है। यही सच्ची लोकधर्मिता है। तो हू के लिये स्वतंत्रता ही सर्वेापरि है। हो ची मिन्ह के अनुसार यही ‘मार्क्सवाद का सार’ है। यही समग्र जीवन का भी निचोड़  है।

आजादी मिलने के बाद तो हू को उनके देश ने बहुत सम्मान दिया। उन्हें कई राजकीय उच्च पदों पर रखा गया। वह पहले वियतनामी कवि -व्यक्ति हैं जिन्हें दक्षिण-पूर्व एशिया पुरस्कार से अलंकृत  किया गया था। 1976 में उन्हें पोलिटब्यूरो का सदस्य नियुक्त किया गया। 1980 में उन्होंने उपप्रधान मंत्री का पद सुशोभित किया। 19 दिसम्बर, 2002 में उनका देहावसान हुआ।

तो हू की कविताओं को बड़े आदर सम्मान से आज वियतनाम की शिक्षण संसथाओं में पढ़ाया जाता है। हमें तू हो से सीखना है कि राजनीति तथा समाज से कविता कभी अलग नहीं है। दूसरे, लेकधर्मिता के बिना कविता बड़ी नहीं हो सकती। उनकी कविता उन कला-रूपवादियों को एक माकूल उत्तर है जो  कविता को समाज तथा राजनीति निरपेक्ष मानकर उसे आदमकद शीशे का प्रतिबिंबन बना देते हैं। एक प्रसिद्ध वियतनामी कवि झोन द्वियू का कथन है कि ‘तो हू ने बड़ी सफलता से राजनीति का कविता में विलय’ किया है। उनकी एक कविता ‘ दो शत्रु ’ की पंक्तियों से अपनी बात खत्म करता हूँ –

लाड़ प्यार
ये दोनों ही बहुत आवश्यक हैं
हम नहीं रह सकते
इन दोनों के बिना
पर
अन्याय – अत्याचार
तथा उपेक्षा- अपमान से
हमें घृणा है
दो शत्रु हैं हमारे
मिथ्या दंभ
दूसरे को आदेश देने के लिये
उसे समझना दास।





 

ईमेल : kritioar@gmail.com 
ब्लॉग : poetvijendra.wordpress.com 
मोबाईल  : 09928242515

(आलेख के अंतर्गत दिए गए लोकधर्मी कवि तो हू के सभी चित्र हमने गूगल के सौजन्य से लिए हैं।)

अश्वेत लोकधर्मी कवि वोले शोयिंका

(चित्र: वोले शोयिंका)

पहली बार पर आप हर महीने की शुरुआत में विजेंद्र जी की लेखमाला ‘लोकधर्मी कवियों की परम्परा’ पढ़ते हैं। आईए इसकी अगली कड़ी में पढ़ते हैं अश्वेत लोकधर्मी कवि वोले शोयिंका पर आलेख। 
                                                                                  
विजेंद्र
              
वोले शोयिंका की एक कविता है जुलियस न्येरेरे के प्रति

पृथ्वी के लिये पसीना

राजस्व नहीं

सत्व है

मिट्टी के श्रम से

यह संपन्न पृथ्वी

माँगती नहीं कोई दान

सत्व है पसीना

पृथ्वी के लिये

बेगार में अर्पित

कोई सौगात नहीं है

किले में बंद देवता के लिये

तुम्हारी अश्वेत पृथ्वी के हाथ

कराते हैं आज़ाद यमदूतों से

उनको जो जन्म से हैं

आदमी की सूरत में कुत्ते जैसे

वे जो

स्वयं को करते है प्रदर्शित

आदमखोर

काल से भी ज्यादा डरावने

सदा ही रक्तपिपासु लुटेरे

पसीना सत्व है

रोटी है सबके लिये

रोटी पृथ्वी की

पृथ्वी द्वारा

पृथ्वी के लिये

पृथ्वी ही समूची जनता है।
इस कविता में कवि की वह केंद्रीय चेतना व्यक्त है जिसके लिये उन्होंने कठोर संघर्ष किया। जोखिम उठाये। यातनायें झेलीं। इसी से समूचा विश्व उन्हें पहचानता है। लोकधर्मी कवि की चिंता है श्रम शक्ति के उस उज्ज्वल सौंदर्य को बताना जो जनता को आदमखोरों से मुक्त कराके शोषितों की भूख मिटाता है। एक समता मूलक समाज को रचता है। वोले शोयिंका उसी मुक्तिकामी संघर्षशील जनता के प्रतिनिधि कवि हैं। इसी अर्थ में वह लोकधर्मी कवि हैं। उनकी कविता को हम विश्व में साम्राज्यवाद तथा नस्लवाद के विरुद्ध अश्वेत प्रतिरोध का क्रांतिकारी गान भी क सकते हैं। वह समूचे अश्वेत जगत की मुक्तिकामी धड़कन है। अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोधी अदम्य आवाज़ भी।
कवि का जन्म 13 जुलाई, 1934 में पश्चिमी नाइजीरिया के योरुवा नामक जनपद में माना गया है। यहाँ की आम बोल चाल की भाषा को भी इसी नाम से जानते हैं। कवि के पिता अध्यापक थे। माता किसी लघु व्यवसाय में लगी थीं। वह स्थानीय महिला राजनीतिक आंदोलनों में भी सक्रिय थीं। यहाँ उस समय ब्रिटिश शासन था। कवि के लिये संपन्न परिवार का वातावरण प्राप्त हुआ था। कहते हैं कि कवि की जन्म स्थली प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत संपन्न और आकर्षक है। इस मनमोहक और सांस्कृतिक फिज़ा का असर कवि पर बराबर रहा है। पर कवि ने वहाँ के तीव्र विरोधाभासों तथा विसंगतियों को भी बड़े गौर से देखा परखा है। यानि टकराव, प्रतिरोध तथा संघर्ष की ध्वनियाँ बचपन से ही कवि के कानों में गूँजती रहीं है। कवि का समय योरुप और अफ्रीका के द्वंद्व का समय है। पुरातन और आधुनिकता के तनाव हैं। प्रकृति पूजा तथ ईसाई धर्म के मध्य टक्कर है। कवि प्रारंभिक तालीम पूरी करने के बाद उच्च शिक्षा हेतु ग्रैमर स्कूलमें पढ़ने चले गये। यहीं से उन्होंने काव्य रचना भी शुरू की। वहाँ की पत्रिकाओं में उनकी कवितायें छपने लगीं। उनकी इन कविताओं पर 18वीं 19वीं सदी की अंग्रेज़ी कविताओं का असर है। पर कवि सजग हैं कि वह अंग्रेजी उपनिवेश के नागरिक है। जैसे भारत भी कभी था। परोक्षतः भारत तो आज भी अमरीका का उपनिवेश जैसा बनता जा रहा है। उनके कुछ समीक्षक उन्हें अंग्रेज़ी उपनिवेशवादका कवि मानते हैं। हो सकता है वह उपनिवेशवाद की ही उपज हों। पर उनकी काव्य चेतना ने कभी अपनी सापेक्ष स्वायत्तता नहीं खोई। हमारे यहाँ भारतेंदु, निराला, तथा प्रेमचंद अंग्रेज़ों के उपनिवेश में रह कर भी उसका प्रतिरोध करने का जोखिम उठा रहे थे। वोले शोयिंका बाद में ब्रिटेन चले गये। लीड्स विश्वविद्यालय में शिक्षा अर्जित की। 1954-57 तक उन्होंने अंग्रेज़ी के माध्यम से विश्व साहित्य का गहन अध्ययन किया। किस तरह अंग्रेज़ी उपननिवेश अश्वेतों को दास बना कर वहाँ के लोगों को सांस्कृतिक, सामाजिक तथा आर्थिक दृष्टि से तवाह कर रहा हैं इसका एहसास कवि को यहाँ होने लगा था। कवि चीनी, भारतीय तथा जापानी साहित्य की उत्कृष्टता, मौलिकता तथा नयेपन ने बहुत प्रभावित थे। कहते हैं कि कालिदास के शाकुतंलम्ने तो उन्हें अभिभूत किया है। गेटे ने भी इस महान कृति को पढ़कर इसे धरती पर स्वर्गकी संज्ञा दी है।
वेाले शोयिंका ने नाटक भी लिखे। उनका मंचन  हुआ। रेडियो से प्रसारण भी। इस लोकधर्मी कवि ने नाइजीरिया के राजनीतिक इतिहास में महत्वपूर्ण रोल अदा किया है। ग्रेट ब्रिटेन के उपनिवेश से अपने देश को मुक्त कराने के लिये उन्होंने जोखिम भरा संघर्ष किया। 1965 में उन्होंने पश्चिमी नाइजीरिया के रेडियो स्टेशन पर कब्जा कर लिया। उसी जगह से उन्होंने पश्चिमी नाइजीरिया के क्षेत्रीय चुनावों को रद्द करने के लिये अपनी माँग का प्रसारण भी किया। 1967 के नाइजीरियाई गृह-युद्ध के समय उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। दो साल तक उन्हें कठोर कारावास में रखा गया।
      शोयिंका बराबर नाइजीरियाई सैनिक तानाशाहों की तीखी आलोचना करते रहे। यही नहीं उन्होंने साम्राज्यवादियों की अन्य राजनीतिक क्रूरताओं की भी तीखी आलोचना की है। ज़िम्बाबे में मुगाबे के शासन की भी। उनके अधिकांश लेखन की बड़ी चिंता है: साम्राज्यवादी क्रूर सत्ता तथा नस्लवाद की अप्रसंगिकता को बता कर उनसे मुक्ति के लिये संघर्ष का आह्वान करना। उससे अपने देश को मुक्त कराना। सेनापति सानी अबाचा (1993-1998) के शासन काल में शोयिंका मोटर साइकिल से नाइजीरिया से बाहर चले गये। अधिकांश समय तो वह संयुक्त अमरीका में कोर्नैल विश्वविद्यालय में प्रोफैसर के पद पर कार्यरत रहे। 1996 में उन्हें कलाओं का प्रोफैसर नियुक्त किया गया। नाइजीरिया के अबाचा शासन ने उनकी अनुपस्थिति में उन्हें मृत्यु-दण्ड की सजा सुनाई। जब 1999 नाइजीरिया में लोकशासन बहाल हो गया तो कवि स्वदेश वापस आ गये। इस दौरान उन्होंने आक्सफोर्ड, हार्वर्ड तथा एल विश्वविद्यालयों में भी अध्यापन किया। 1975 से 1999 तक वह आबाफेमी अवोलोवो विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य के प्रोफैसर रहे। लोकसत्ता स्थापित होनेपर उन्हें सेवामुक्त प्रोफैसर बना दिया गया। 2007 में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में उन्हें प्रोफैसर बनाया गया।

शोंयिका को 1986 में नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। वह इस पुरस्कार को पाने वाले पहले अश्वेत कवि हैं। उनके लेखन को विस्तृत सांस्कृतिक परिदृश्य तथा अस्तित्व के नाटक की ध्वनियों वाला साहित्यकहा गया। उनके साहित्य का यह योरुपीय एकपक्षीय तथा बहुत ही भ्रामक आकलन है। जबकि उनका समूचा साहित्य तथा जीवन अश्वेतों को अंग्रेज़ों के उपनिवेश से मुक्त कराने के अटूट संघर्ष का दर्पण है। उन्होंने अपने नोबल पुरस्कार व्याख्यान में कहा कि अतीत को वर्तमान के लिये संबोधित करना चाहिये। एक प्रकार से पूरे व्याख्यान की ध्वनि मे नेल्सन मण्डेला के लिये ही संबोधन तथा समर्पण था। वह इवादान विश्वविद्यालय में नाटक की धर्मपीठ के प्रमुख बने। यहाँ उनकी राजनीतिक गतिविधियाँ अधिक तीव्र हुई। जनवरी 1966 में सैनिक राज्य परिवर्तन के दौरान वह दक्षिण-पूर्व शहर में सेना के राज्यपाल से मिले। उद्देश्य था कि किसी तरह गृहयुद्ध टाला जा सके। नतीजा यह हुआ कि उन्हें अज्ञात रूप से छिपना पड़ा। गृहयुद्ध के दौरान उन्हें 22 महीने का कारावास  हुआ। इस दौरान कवि को किताबें, कापियाँ, कलम आदि तक की अनुमति नहीं दी गई। फिर भी उन्होंने पर्याप्त संख्या में कवितायें लिखी। नाइजीरिया सरकार की तीखी आलोचन में गद्य भी लिखा। उनके जेल होते हुये भी उनका नाटक (The Lion And The Jewel) 1967, अक्क्रा में मंचित हुआ। नवम्बर, 1967 में उनके दो नाटक (The Trials Of brothers Jero) तथा (The Strong Breed) न्यूआर्क में मंचित हुये। उनका एक कविता संग्रह, (Idanre and Other poems) भी प्रकाशित हुआ। 
 
     अक्टूबर 1969 में गृहयुद्ध की समाप्ति पर सर्वक्षमा की घोषणा हुई। शोयिंका तथा अन्य राजनीतिक बंदियों को मुक्त किया गया। इस मुक्ति के बाद से कुछ समय तक शोयिंका दक्षिण फ्रांस में अपने एक मित्र के फार्म में रहे। उन्होंने कुछ समय तक एकांत भोगा। उन्होंने शीघ्र ही अपना कविता संग्रह (Poems From Prison) लंदन में छपाया। वर्ष के अंत में वह अपने देश में अबादान आ गये। यहाँ उन्होंने (Cathedral Of Drama) में हैडमास्टर का पद सँभाला। इसी के साथ कवि एक पत्रिका Black Orpheus को रचना सहयोग देते रहे। 1970 में उनका एक और नाटक kong’s Harvestमंचित हुआ । उसपर फिल्म भी बनाई गई । जून 1970 में एक और नाटक Madman and Specialists तैयार हुआ। अबादान विश्वविद्यालय की थियेटर आर्ट कम्पनी के कुछ अभिनेताओं के साथ शोयिंका अमरीका गये। उनके नाटकों का वहाँ मंचन हुआ। उन्हें वहाँ पसंद किया गया। 1971 में उनका कविता संग्रह  A Shuttle in the Crypt प्रकाशित हुआ। शोयिंका ने पेरिस की यात्रा की। अपने प्रसिद्ध नाटक Murderous Angels में कोंगो गणराज्य के प्रधानमंत्री किन्शासा के रोल का अभिनय किया। 1971 में ही उनकी महत्वपूर्ण आत्मकथापरक कृति The Man Died प्रकाशित हुई। बाद में नाइजीरिया की राजनीतिक स्थिति को देखते हुये शोयिंका ने अपने कार्य भार से त्याग पत्र दे दिया। स्वेच्छा से निर्वासित हुये। पेरिस में उनके प्रसिद्ध नाटक Dance Of The Forest का सफलतापूर्वक मंचन हुआ। 1972 में लीड्स विश्वविद्यालय ने उन्हें डाक्टर की मानद उपाधि से विभूषित किया। उसी वर्ष उनका एक उपन्यास Season Of Anomy तथा एक नाटक संग्रह Collected Plays आक्सफ़ोर्ड प्रकाशन से छपे। कहते हैं कि 1973 से 1975 तक शोयिंका ने वैज्ञानिक अध्ययन किया। इसी दौरान उन्होंने योरुप के अनेक विश्वविद्यालयों मे व्याख्यान भी दिये। 1975 में शोयिंका ने घाना की राजधानी आक्क्रा में Transion नामक पत्रिका का संपादन किया। अपनी संपादकीय टिप्पणियों में शोयिंका ने नीग्रो लोगो पर अत्याचारों तथा सैनिक शासको की तीखी आलोचना की है।नाइजीरिया में सैनिक शासन की समाप्ति पर शोयिंका अपने देश आ गये। वहाँ उन्होंने साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन केंद्र का भार ग्रहण किया। 1976 में उनका कविता संग्रह Ogun Abibiman छपा। साथ में आलोचनात्मक आलेखों का संग्रह Myth Literature and African World प्रकाशित हुआ। इस बीच उनकी कृतियाँ बराबर आती रहीं। वह इधर उधर व्याख्यान भी देते रहे।
1975 से 1984 तक शेयिंका राजनीतिक गतिविधियों में बहुत सक्रिय रहे। वह सत्ता में व्याप्त भ्रष्टाचार की तीखी आलोचना करते रहे। सैनिक शासन आने पर पुनः कवि की मुश्किलें बढ़ गई। 1984 में नाइजीरिया के न्यायालय ने उनकी पुस्तक The Man Died पर प्रतिबंध लगा दिया। 1988 के बाद से उनकी कवितायें तथा नाटक बराबर छपते रहे। अक्टूबर 1994 में शोयिंका यूनेस्को में Godwill Ambassador नियुक्त हुए। अर्थात अफ्रीकी संस्कृति, मानवाधिकार मीडिया तथा व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा के उन्नयन का भार मिला। 1994 में फिर उन्होंने बहिर्गमन किया। 1996 में उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक The open Sore of a Continent छपी। इसमें नाइजीरिया के राजनीतिक संकट की मार्मिक व्याख्या है। 1997 में सेनपति सैनी अबाचा की सरकार ने शोयिंका पर देशद्रोह का आरोप मढ़ा। जैसा हम जानते हैं उन्होने अपनी कृतियों में सैनिक तानाशाहों की बराबर बड़ी तीखी आलोचना की है। 2007 में शोयिंका ने नाइजीरिया में होने वाले राष्ट्रपति के चुनाव को निरस्त करने की माँग उठाई। शोयिंका ने लोगों की प्रार्थना की स्वायत्तता को उचित ठहराया। पर धार्मिक उन्माद से उत्पन्न हिंसा को ले कर लोगों को चेताया। इस प्रकार शोयिंका का जीवन तथा उनका लेखन दोनों एकात्म हैं। जो जीवन है,  वही लेखन में प्रतिबिंबित है। जो लेखन में व्यक्त है वह उनके जीवन में पल प्रतिपल घटित-उद्घाटित है। ऐसे लेखक विरल हैं। पर महान लेखक का यही रहस्य है। शोयिंका अपने लेखन के लिये हर जोखिम उठाने को तत्पर हैं। वह उन मानवाधिकारों को लड़ रहे हैं जो बहुसंख्यक लोगों को सदियों से नहीं मिले। विश्व में साम्राज्यवाद  किस तरह लोगों का दमन,  शोषण, उत्पीड़न कर उनके देशों को हर दृष्टि से तबाह करता रहा है। यह आज भी सच है। साम्राज्यवाद, नस्लवाद, धार्मिक उन्माद,  र्थिक विषमता,  दलितों-आदिवासियों- स्त्रियों का शोषण आज भी जारी है। अतः शोयिंका की कविता आज के लोकधर्मी कवि को प्रेरणा का प्रमुख स्रोत है।
उनके लोकधर्मी संघर्ष ने उनकी कविता को कुछ खास खूबियाँ प्रदान की हैं। एक तो शोयिंका का  कविता के प्रति समर्पण अप्रतिम है। उन्होंने अपने लेखन को स्वयं की आंतरिक विवशता’ माना है। यानि लिखना उनके जीवन में जैसे प्राण रक्षा के लिये साँस लेना हो। उसके बिना वह रह नहीं सकते। उन्होंने यह भी स्वीकारा है कि यदि लिखने की बाध्यता उन्हें न होती तो वह कलापरक कुछ ही कवितायें लिखकर संतुष्ट हो लेते। या फिर वह छुटभैया किसान होते। इससे समय बचता तो वह पुरानी अफ्रीकी कला मूर्तियों को खोजते। परखते। औपनिवेशिक आधुनिकतावादी लोग चाहे तो ब्रिटेन के हो अथवा योरुप-अमरीका या किसी अन्य देश के -शोयिंका की कविता के गुणग्राही नहीं हो सकते। उन्हें शोयिंका की कविता में अपना अंत दिखाई देता है। भारत में कला-रूपवादी भी उनकी कविता को राजनीतिक कह कर उसकी उपेक्षा करेंगे। इन दिनों में कलावाद-रूपवाद सिर चढ़ के बोल रहा है। यदि कोई सामाजिक यथार्थ को कलात्मक ढंग से भी व्यक्त करे तो भी उसकी कविता को बड़बोलापन या सतही कह कर उसकी अवज्ञा करते हैं।

दूसरी खूबी उनकी कविता की है – समूची अश्वेत जाति को एक जाति -एक राष्ट्र मानने की चिंता। राज्यों के भौगोलिक सीमांत, भिन्न भिन्नभाषायें, धार्मिक आस्थायें तथा रीतिरिवाज़ उनके लिये सिर्फ छाया प्रतीतियाँ भर है। सार तत्व है अश्वेत जाति की मुक्तिकामी संघर्षशील चेतना जो सबको एक सूत्र में बाँधती है । शोयिंका के समूचे लेखन का केंद्र बिंदु यही है। इसीलिये वह सिर्फ नाइजीरियाई  ही कवि न होकर समूची अश्वेत जाति के प्रतिरोधी गया हैं। हम देख चुके हैं निजी रूप से उन्हें कितनी क्रूर यातनायें तथा घोर पीड़ायें उठानी पड़ी हैं। लगता है यही है उनकी कविता का शक्ति स्रोत। पर उनके संदर्भ का फलक इतना बड़ा है -उनकी मूल चिंतायें इतनी विस्तृत तथा व्यापक हैं कि उनकी कविता की अर्थध्वनि सार्वभौमिक तथा कालातीत हो जाती है। उन्होंने जिस सैनिक निरंकुश तानाशाही को झेला है उसे वह असंख्य अफ्रीकियों के त्रासद गान में बदल देते हैं। शोयिंका अपनी आस्थाओं में अविचल हैं। अडिग भी। जैसे नाज़िम हिकमत या वाइजुई। नेरुदा या लोर्का। हमारे यहाँ जैसे डा0 रामविलास शर्मा, चंद्रबली सिंह,  शिवकुमार मिश्र आदि। उन्होंने जेल मे रह कर जो कवितायें लिखी उनमें तानाशाहों के विरुद्ध तीखे व्यंग्य है। कठोर प्रहार हैं। उनमें गहन गुस्सा है। अपनी जाति के लिये तर्कपूर्ण करुणा है। मार्मिक रुदन है। देखने की बात है कि निजी त्रासदी कविता में कैसे पीड़ित विश्व मानव की मार्मिक कहन बनती है। उनकी एक प्रदीर्घ कविता है मेरी धरती के लिये फूल यह कविता दुनिया के शोषित पीड़ित जन को सजग करती हुई उत्पीड़कों को एक चुनौती -एक ललकार है –

हाथ उसके रँगे हैं अपराधों में

नष्ट कर देती है उनकी साँसें

हम सबको

वे जबरन थोपते हैं

हमपर अपने विचारों को

जैसे मृत्यु का दान देते हों 
इस कविता में झलकती है नाइजीरियाई गृहयुद्ध की डरावनी तस्वीर! दहलाने वाली मनुष्य की त्रासदी। शोयिंका को जेल में दी जाने वाली यातनायें। कविता मानवीय त्रास को ही व्यक्त नहीं करती,  वह उस यातना से बाहर आने का रास्ता भी सुझाती है। एक ऐसा विकल्प जो नाइजीरिया को ही नहीं बल्कि उन सभी देशों को जरूरी है जो सैनिक तानाशाहों तथा साम्राज्यवादी उपनिवेश की दासता से मुक्त होना चाहते हैं। समग्र अश्वेत जाति का साम्राज्यवादियों के विरुद्ध संगठित संघर्ष शोयिंका की कविता की आद्यंत लय और राग है।

तो आओ, हम कर लें एका

त्रस्त जनों से

उनके विरुद्ध  

किसी तरह कम नहीं है

मौत के सोदागरों से

वे ही हमारे सोचने की ताकत को

कर देते हैं रेशे रेशे –
इसके लिये हमें उन हैवानों से कानून छीनना पड़ेगा। हमें साहस जुटना होगा। जब हमारे पास संगठित ताकत होगी तो हम क्रूरतम हेरोद (बाइबिल में वर्णित एक क्रूर राजा जिसने ईसा की हत्या कराने का कुचक्र रचा था) को भी परास्त कर सकती है। उन लोगों का तो कहना ही क्या जो कानून के डकैत बने बैठे हैं गद्दियों पर –

लेने के लिये साहस है अगर तुम में

और हड़प सकते हो

तो हड़प लो

न्याय को अपने हाथों में

संगठित ताकत

ऐसी क्रूर तलवार है

जो क्रूरतम हेरोद तक को

झुका सकती है 
शोयिंका कविता को मनोरंजन की चीज़ नहीं मानते। न कला-रूपवादियों की तरह आत्मसाक्षात्कार के लिये कोई जादू टोना। वह एक अस़्त्र है -जनविरोधी तानाशाहों,  दमनकारी उपनिवेशवादियों के विरुद्ध लड़ने का। जैसा कि आचार्य मम्मट ने हमारे यहाँ कविता के अनेक प्रयोजनों में से एक प्रयोजन बताया है, ‘ शिवेतर-क्षतये। यानि जो कुछ भी जनविरोधी है -जो कुछ भी लोक के अहित में है – उसका विनाश कविता से करना चाहिये। यानि एक ऐसी भाषा संवलित कविता जो आदमी के मर्म का भेदन कर उसे सोचने को बाध्य कर सके। जो जन विरोधियों पर लगातार प्रहार करे। उन्होंने अपने गद्य में कहा भी है कि हमारे लिये यह तय करना जरूरी है कि मनुष्यों के आंतरिक संसार में हम एक विस्फोट की तरह उन चीज़ों को तोड़ सके जो लोकविरोधी और अकल्याणकारी है। ध्यान रहे शोयिंका ने अंग्रेज़ी भाषा में कविता रची है। यहाँ सवाल हो सकता है कि एक लोकधर्मी कवि ने ऐसा क्यों किया! वैसे मेरा अपना विचार है कि शोयिंका को अपनी ही किसी भाषा में लिखना ही बेहतर होता। क्योंकि ज्यादतर लोकधर्मी कवियों ने अपनी ही भाषाओं को अपनाया है। पर यहाँ अपवाद स्वरूप कवि के अपने तर्क है जिन्हें हम जाने। यद्यपि उन्होंने अश्वेत अफ्रीकी देशों की सम्पर्क भाषा स्वाहिली का समर्थन किया है। स्थानीय भाषाओं में जो अफ्रीकी कवि कविता लिख रहे थे उसे उन्होंने बुरा तो नहीं माना। पर संप्रेषण की सीमा के कारण उनका पाठक क्षेत्र संकुचित जरूर हो गया है। यह तो सही है कि शोयिंका अंग्रेज़ी में कविता लिखते रहे। पर उन्होंने अपने लेखन की रचनात्मक ऊर्जा के लिये अपनी लोक भाषा योरुवाकी गहरी जड़ों से जीवन रस अर्जित किया है। दूसरे, उनकी अंग्रेजी भाषा में अंग्रेजियतबहुत कम है। ऐसा इसलिये है क्योंकि शोयिंका सदा अपनी जनता के संघर्ष से एकात्म रहे। लोक जीवन तथा लोकसंस्कृति को मन में रचाया पचाया। कवि बहुत शुरू से अफ्रीकी लोक जीवन तथा साहित्य से जुड़े रहे हैं। अपने लोक साहित्य की वाचिक सुदीर्घ तथा समृद्ध परंपरा से वह सुपरिचित थे। अंग्रेज़ी में लिख कर भी शोयिंका ने अपनी भाषा तथा संस्कृति पर गर्व करना कभी नहीं त्यागा। अंग्रेजी में लिख कर भी वह अपने परिवेश के बिंब रचते हैं। अपने यहाँ के प्रचलित मिथकों को नया संदर्भ देकर उन्हें समृद्ध किया हैं। अपने जनपद के मुहावरों को अंग्रज़ी में ढालने का यत्न वे बराबर करते हैं। अपने यहाँ के रीतिरिवाज़ों को तर्कसंगत बनाकर उन्हें आज के परिप्रेक्ष्य में विकसित करते हैं। उत्सवों और कर्मकाण्डों केा प्रतीक रूप देकर कविता मे स्थानगत सौंदर्य को उभारते हैं। बचपन के बारे में अपनी एक पुस्तक में उन्होंने बताया है कि कैसे योरूवा का स्थानीय क्रियाशील जीवन उनके शिशु मन में अंकित हो रहा था। जैसे बाज़ार में औरतें अपने सामान बेचते समय खरीदारों को लुभाने के लिये लोक गीत गाती थीं। कवि ने एक जगह बताया है कि उसका जीवन गायन और अभिनयके बीच रचा गया है। लोक कविता की अनुगूँजों के बीच ही उनका मन विकसित हुआ है। शोयिंका की कविता में व्यंग्य का तीखापन उन्हें लोक के और करीब लाता है। उनकी कविता में शब्दों की सहज सांकेतिकता है। बिंबों और छबियों से कविता समूर्त है। उपमायें और प्रतीक कविता को संश्लिष्ट और गहन भाव संपन्न बनाते हैं। उनकी लोक भाषा में एक पढ़े लिखे किसान की भाषा जैसा बाँकपन है। शत्रु को तराशने वाली तेज़ धार है। गृहयुद्ध के रक्तपात से कवि अंदर तक आहत थे। कैद के समय उन्हें नितांत एकांत जेल में क्रूर यातनाये दी गई। इसका दिल दहलाने वाला खुलासा उनकी आत्म कथा द मैंन डाइडमें सुरक्षित है। मनहूस सैनिक तानाशाहों ने उनके साथ जल्लादों जैसा व्यवहार किया था। इस कृति में ये सारे ब्यौरे और विचार बिखरे पड़े हैं। जैसा कि बताया गया है जेल में उन्हें पढ़ने लिखने की सुविधाओं से वंचित रखा गया था। ऐसे भयावह एकांत तथा तलघर में बंद किसी चिड़िया की तरह कैद कवि के अनुभव बोलते हैं। कहते हैं कि यहाँ उन्होंने –शौच-कागज़ोंपर कवितायें लिखी थी। जीवित समाधितथा ‘मेरी धरती के लिये फूल दो कवितायें किसी तरह जेल से तस्करी करके लाई गई कवितायें है। दुनिया से बिल्कुल कटे हुये कवि को लगा था कि जैसे वह जीवित समाधिहो। इसी कविता की पंक्तियाँ हैं –

सोलह फुट चौड़ी

तेईस फुट लंबी

कर दी है उन्होंने मेरी

कठोर घेराबंदी

आदमियत और सत्य के विरुद्ध

वे ऐसी तरकीब करते हैं समय की

जिस से आदमी का संतुलन

हो जाये खण्ड खण्ड

नष्ट भ्रष्ट कर दने वाले

प्रेम के शत्रु जैसे रुख से

क्या तुम में साहस है

जो निकाल सको

गये वर्ष की हड्डियों को खोद कर

क्या दिखा सकोगे

उधेड़ कर परतें

इस उपज के लिये

दी गई खाद

उस कब्रगाह में

जिंदा गाड़ दो उसको भी

जिससे प्रमुख प्रेत छाया

अनजान लोगों को दिखा सके

नरक के रहस्यों का

पुराना पथ

गोली: शांति की नींद

सो जाता है वह

चिकित्सक आते हैं लेने जायज़ा

कहते हैं खाता पीता है ठीक ठाक

नहीं है उसको परेशानी

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हमें उम्मीद थी

ओ गेलिलियो

समय कुछ न कुछ सिद्ध कर देगा

या फिर प्रतिभा

स्वीकारेगी पराजय

प्रतीक्षा करते करते जल्लादों ने

दे दिया हुक्म

बलि के जानवर को

बदले में पकड़ लाओ

और रिहा कर दो

किसी संत को

इंद्रिय अनुभवी

कैसा समय चुना है

साजिश भरी निगरानी को

एक पल भर को सिंहासनस्थ

सोचा मैंने

वह है प्रसन्न

रुग्ण कविता देवी का

सुनकर विलापी स्वर

संघर्षरत शोयिंका के लिये विश्व के संवेदनशील नागरिको,  लेखकों तथा बुद्धिजीवियों में गहरी सहानुभूति पैदा करने वाले उनके दो कविता संग्रहों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। एक तो इंडारे एण्ड अदर पेाइम्सतथा पोयम्स फ्राम प्रिज़न इन कविताओं मे दुनिया में भौतिक संस्कृति के विकास के अछूते तथा मार्मिक चित्र है। दूसरे, गृहयुद्ध के समय मारे गये अबोध ईबो कबीलेके आदमियों को इन कविताओं में मार्मिक श्रद्धांजलि भी है। इन कविताओं ने योरुप तक को त्रास की गहनता से बेचैन किया है। इसी संदर्भ में विश्व के लेखकों, बुद्धिजीवियों, संवेदनशील नागरिको ने शोंयिका की बिना शर्त रिहाई की माँग की थी। नाइजीरिया में भी जनता ने उनकी रिहाई के लिये  बहुत ज्यादा दबाव बनाया। आखिर वह रिहा हुये।
शोयिंका की कविताओं से लगता है कि वह अफ्रीकी सृजन परंपरा में अनेक विविधतायें तथा विरोधाभास होते हुय भी उसे एक ही मानते हैं। योरुप और अमरीका के बुर्जुआ समीक्षक आज तक अफ्रीकी अश्वेत साहित्य के मूल्यांकन के प्रति दुराग्रही हैं। वे अफ्रीकी सृजन को उपनिवेशवाद तथा नस्लवाद का प्रतिरोधी प्रचार साहित्य मानते हैं। 1962 में शोयिंका ने कम्पाला में हुये अफ्रीकी सम्मेलन में नीग्रो श्रेष्ठताअभियान से अपने को अलग रखा था। यह एक वैज्ञानिक तथा तर्कपूर्ण असहमति थी। यह ऐसा ही अभियान है जैसे भारत में कोई दलित श्रेष्ठताका आंदोलन चला कर भारतीय समाज में जातबिरादरी की और गहरी दरारें पैदा करे। जातिगत,  प्रांतगत,  देशगत श्रेष्ठता का अभियान हमें फासिज़्म की ओर ले जाता है। श्रेष्ठता किसी जातबिरादरी -नस्ल-देश-काल से जुड़ कर अपना मूल्य खोती है। नीग्रो-दलित श्रेष्ठसंज्ञा श्वेत-सवर्णकी श्रेष्ठता की प्रतिक्रिया में जन्मा रूपक है। इससे समाज और अधिक विभाजित हो सकता है। शोयिंका का तर्क है कि किसी वन में रहने वाला शेर यह नहीं कहता है वह शेर है। मेरा विचार है कि हमें श्रेष्ठता मनुष्य की किसी नस्ल या जात-बिरादरी से जोड़ कर नहीं देखनी चाहिये। मेरे विचार से उसे श्रम की श्रेष्ठता तथा भौतिक, सांस्कृतिक उपलब्धियों से जोड कर देखना बेहतर होगा। क्योंकि श्रम ही समग्र समाज के निर्माण का आधार है। उसी से भौतिक उत्पादन का विकास जुड़ा है।
  
कवि शोयिंका में अफ्रीकी जातीय संवेदना उनके समूचे लेखन में परिव्याप्त है। उनकी कविता में व्यापक मानवीय सरोकर बोलते हैं। शोंयिका अपनी जेल की यातना के अनुभवों की ओर बार-बार लौटते हैं। संकेत है कि सैनिक तानाशाह और साम्राज्यवाद मिलकर किसी भी देश की शांतिप्रिय तथा सृजनशील जनता को हर तरह से तबाह करते हैं –

खोजे हैं उन्होंने मृत्यु के

जाने कितने तरीके

झटक के गले में फंदा

कत्ल करना

क्षण क्षण ले जाना मौत के करीब

रक्त रंजित थी लड़कियाँ

असंख्य लाशों से पटी पड़ी

सड़के और गलियाँ

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ठोकरें जूतो की

कुंदे बंदूकों के
कवि जानते हैं कि पूरे विश्व में श्वेत और अश्वेत का संघर्ष एक साम्राज्यवादी व्यूह रचना भी है। जैसे शतरंज के खेल में मौहरे पिटते हैं। बादशाह को बचाने के लिये छोटे मौहरों को दाँव पर लगा दिया जाता है-
शतरंज!

नहीं … ओह -शतरंज की गोटियों में

छिपी है

सत्ता को उखाड़ फेंकने की

छद्म चालें

यह एक व्यूह रचना है

श्वेत अश्वेत का द्वंद्व

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किश्त की चाल चलने वाले

बुरे से भी बुरे हैं

इस खेल में नहीं है

किसी का वर्ग लिहाज

गुलाम और बादशाह के क्रम में

सँवारी गई रचना के लिये

उनकी अधिसंख्य कविताओं में कैद का अकेलापन,  सैनिकों की तानाशाही, स्वयं की यातनायें आदि की अभिव्यक्ति बराबर होती रही है। शोयिंका दमित-शोषितों की मुक्ति, सामाजिक न्याय तथा उपनिवेशवाद के विरोध में अपना जीवन तक दाव पर लगाते रहे हैं। यही वजह है कि उन्होंने नेल्सन मन्डेला को अपना मिथकीय नायकमाना है। क्योंकि दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत नेता मण्डेला ने सामाजिक अन्याय, शोषण, उत्पीड़न, दमन तथा नस्लवाद के विरुद्ध संघर्ष में अपना पूरा जीवनझौंक दिया है। शोंयिका की सुप्रसिद्ध कविता, ‘उसने कहा नहींमण्डेला के प्रति एक अप्रतिम कविता है। यहाँ जेल में घुटते कवि मन की तीखी व्यंग्यमय अभिव्यक्ति है –

उसका सिर कुचलने के लिये

वहाँ को ले जाने के लिये वापस

उफनते ज्वार में

उसकी पूरी नस्ल की

अश्वेत इच्छा शक्ति को

देहों को बेचने खरीने वाली

शताब्दियों की तरफ

बचाव की रणनीतियों से दूर

पर उसने कहा नही

विषैले जल जीवों ने

उसकी आत्मा को डँसा

सफेद ईल मत्स्य ने

उसके हृदय को खोज डाला

परत दर परत

उठा के भुजा अपनी ऊपर

जुटा वह

दिलाने को मुक्ति

एकाकी प्रेतों की धीमी पेरड से

तो भी वे आये

पल पर दिमागी कमज़ेारी के मध्य

विभ्रमित करने वाले

उसने फिर कहा नहीं

$      $      $

नहीं हूँ मैं बंद जेल में

इस चट्टानी द्वीप का

यह चट्टान मैं स्वयं ही हूँ

मैंने किया है कठिन श्रम
एक प्रकार से यह पूरी कविता अश्वेत जाति के महा संघर्ष की त्रासद गाथा है। लोक जीवन की परंपरा के महत्व के साथ शोंयिका पुनरुत्थानवादी नहीं हैं। वह मानते हैं कि वही अतीत सार्थक है जो भविष्य की तर्कसंगत समझ को समृद्ध कर उसे विकसित करता है। संकेत है कि हमें अतीत के प्रति मोहासक्त न होकर आलोचनात्मक दृष्टि अपनानी चाहिये।

इतना संघर्षपूर्ण, जोखिम भरा तथा कठोर जीवन जीने के बाद भी शोयिंका प्रेम तथ प्रकृति के कोमल भावों को तिरस्कृत नहीं करते। बहुत ही तनिक प्रेम सेकविता में वह प्रेम से जीवन की वेदना जीतने की कोशिश करते दिखते हैं –

बहुत ही तनिक प्रेम में

किया है मैंने यत्न

अपनी वेदना को जीतने का

उफनती लहरों को

साफ-सुथरी सीपियों से

पूरित किनारे ने

लहरों को दूर ही

रोक दिया

अपने छोटे मोटे ज्ञान से

मैंने खोजा

रिक्त सुंदर ऋतु को
एक दूसरी कविता है प्यार में घूँघट प्रेयसी के हाथों का आलंगिन मृत्यु तक को समेट लेता हैं। प्रेम की पंखड़ियाँ धूल होती है छूते ही। सपनों के बीच मृत्यु का अवरोध बिखर जाता है
उसके हाथ

आलिंगन में अचक समेट लेते हैं

साम्राज्य मृत्यु का

उसकी केशराशि से

पंखड़ियाँ झरती है प्रेम की

छूते ही जो होती है धूल

सिर्फ सपनों के बीज

तोड़ फोड़ देते हैं

मृत्यु के व्यवधान
इसी तरह भोर कविता में प्रकृति की सुंदर बिंब –छवियाँ पिरोई दिखती है –

ऊपर उठता है हाथ

पृथ्वी को फोड़ कर

अकेला हाथ होता है रोमांचित

फागुनी परस से

ताड़ का एक पेड़

वृक्षों की फुनगियों के आर पार

कोमल पल्लवों का पहरेदार सजग

छेदता है

हवा के लहराते केश

जैसे उसी ने थामें हैं पराग-कण

सबसे ऊँचे शिखर पर

खून के छींटे वायु में

फूलों के गुच्छों की

इकसार मेखला के ऊपर

उसपर करती नटखट चुहल

चुपचाप आता छिपे-छिपे

आसमान को चीर कर

अलग करता

अनछुआ लबादा
 
इसी तरह शोयिंका की एक कविता है, ऋतु’ –
पकना होता है

जब जंग लगती है

मक्का की बालियाँ

कुम्हला के होती हैं पियर छौंही

पराग ध्वनि है

दंपती के चुगने का समय

गौरैयों का समूह

जब करता है नृत्य

कोमल काँस के फूलों पर

और बुनता है

मकई के सौनल रेशों को

रश्मियों की पंखनुमा चीरों में

$             $        $

खड़-खड़ बजते हैं

चुपचाप हुये खेतों में

पत्तियाँ जहाँ मक्का की

बेधती है बाँस की नौंको सी

खेतों से अब

सिलहारे चुनते हैं बिखरी बालियाँ

मकई की भुँट्टियों का

करते हैं इंतजार

पियरछौंही होने का

संध्या के झुटपुटे में

रचने लगते हैं हम

सुदीर्घ परछाइयाँ

लच्छेदार धुँआती लकड़ी को

टाँगते हैं

सूखे छप्पर पै इस कुछ बातें बहुत साफ हैं।
 
लोकधर्मी कवि सिर्फ संघर्ष में ही नहीं जीता। वह प्रेम, प्रकृति तथा अन्य कोमल भावों को भी अपने संघर्ष का एक जरूरी आयाम बना लेता है। यह बात वाइ जुई, नाज़िक हिकमत तथा पाब्लो नेरुदा की कविताओं से भी झलकती है। इसी अर्थ में लोकधर्मी कविता का वृत्त अत्यंत व्यापक तथा समग्र होता है। हिंदी के लोकधर्मी कवि भी इसका अपवाद नहीं हैं।

    शोयिंका इसी अर्थ में सम्पूर्ण लोकधर्मी कवि हैं। उनका अनुभव विविध,  विचित्र और विराट है। कवि की गहरी रुचि भारत के मुक्तिसंग्राम में रही है। हमारे यहाँ के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिदृश्य से वह गहराई तक परिचित हैं। उनकी काव्य संवेदना अपने देश के लोक से जीवन रस-राग अर्जित कर वैश्विक बनती है। नाइजीरिया में अपने जनपद की जड़ें, जमीन तथा जन तो उनके अपने हैं ही। इसके साथ वह मध्यपूर्व के देशों, चीन,  जापान तथा भारत के रचनात्मक स्रोतों से भी गहरे तक जुड़े है। इतनी व्यापक, विराट तथा विविध चित्त भूमि वाला अन्य कवि आज विश्व में दिखाई नहीं पड़ता। दूसरे संदर्भों में पाब्लो नेरुदा ही याद आते हैं। उनकी कविता पर योरुपीय साहित्य का प्रभाव होते हुये भी उनकी निजता अखण्ड और अक्षुण है। उनका मानना है कि जब वैज्ञानिक अंतर्राष्ट्रीय परिवेश से प्रभावित होकर सीखते हैं तो एक कवि को विश्व से कट कर रहने का क्या अभिप्राय हो सकता है। विश्व चेतना को आत्मसात करके ही कवि आज सशक्त प्रतिरोध कर पायेगा। यह इस महान कवि से मुझे सीखनी चाहिये।
 शोयिंका ने कविता,  नाटक,  उपन्यास,  समीक्षा आदि के लिये अपने निजी मुहावरे और सिद्धान्त विकसित किये हैं। उन की कविता में कलावाद-रूपवाद की निजी पीड़ा की कुण्ठा नहीं है। उससे अलग लोक की पीड़ा,  दमन, शोषण, भूख तथा लाखों के कुपोषण की चिंता उन्हें अधिक है। ध्वंस और विकास,  विनाश और निर्माण,  जीवन और मृत्यु के अंतर्विरोधी द्वंद्व से कवि बार बार मुठभेड़ करते हैं। कवि बोरिस पास्तरनाक की तरह ही युद्ध को अप्राकृतिक तथा असहजमानते हैं। युद्ध जन विनाश का ही कारक है कवि के लिये। यही वजह है कि शोयिंका की कविता में रक्तपात, मानव त्रास,  घृणा आदि के चित्र बड़ी मार्मिकता उत्पन्न करते हैं। उनकी कविता आज तो और अधिक प्रासंगिक हो गई। उन्हीं की कविता से बात खत्म होती है –

सूर्य बुलाता है तुम्हें

मिस्र समुद्र के तटों

पूरी दुनिया के गरीब असहाय जनों

एक साथ दहक उठो

पृथ्वी की अघाई कोख से

खींच लो

अपनी पीडा का सत

सम्पर्क- 

मोबाईल- 09928242515

ई-मेल kritioar @gmail.com


ब्लॉग – poetvijendra.wordpress.com

विजेंद्र

 (चित्र: पॉल रॉब्सन)
पॅाल रॉब्सन अमरीकी अश्वेत विश्वविख्यात गायक। पूरे विश्व में अश्वेतों की मुक्ति के लिये संघर्ष करने वाले अद्वितीय योद्धा संगीतकार। ‘हियर आई स्टैण्ड’ उनकी प्रसिद्ध कृति है जिसमें उनके जीवन के अनेक पक्ष तथा अश्वेतों के बारे में विचारधारात्मक  गंभीर विचार विमर्श है। अश्वेतों की मुक्ति के लिये संघर्ष करने वाले वह एक मिथकीय प्रतीक पुरुष भी बन चुके हैं। अश्वेतों का मुक्तिसघर्ष भारत के करोड़ों दलितों-आदिवासियों के संघर्ष से जुड़ा है। यह एक वैश्विक लक्षण है जो विभिन्न रुपों में  अलग अलग देशों में अलग अलग तरह अभिव्यक्त होता रहा है। इस मुक्तिसंग्राम का सम्बंध प्रत्यक्ष- परोक्ष विश्व सर्वहारा के संघर्ष से भी जुड़ा है। भारतीय मुक्तिसंग्राम की अधूरी छूटी क्रांति को अग्रसर करने की प्रेरणा इसमें निहित है। इन्हीं पॉल रॉब्सन पर ‘पॉल रॉब्सन’ शीर्षक से हमारे वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने अभी हाल ही में एक लम्बी कविता लिखी है जो पहली बार के पाठकों के लिए हम विशेष तौर पर प्रस्तुत कर रहे हैं।
                     

पॉल रॉब्सन                       

बीसवीं सदी के
अश्वेत योद्धा गायक
तुझे  करता हूँ याद
इक्कीसवी सदी की उफनती लहरों में
ओ योद्धा गायक
कवियों की तमस भेदक किरण
अश्वेतों के कंठ का मुक्ति राग
पूरी दुनिया में उमड़ते
मुक्ति-संग्राम की लौ
फूटता सुर्ख कल्ला उजास
पृथ्वी के गर्भ में खौलता लावा
कहाँ हो तुम
एक बार फिर आओ दुनिया में
अश्वेत जागते हैं
उन्हें जागने दो
उन्हे शत्रुओं के विरुद्ध खड़ा होने दो
कौन है
तुम्हारा वारिस आज इस दुनिया में
पूछते हैं तुम्हारे गूँजते स्वर
उगते अंतरिक्ष से
अश्वेत आज भी  पीडि़त हैं
तुम्हारे गान की ज्वाला
आज भी डराती है उत्पीड़कों को
जो हैं शत्रु जन के
काव्य के, कला के, शांति के
सौंदर्य और प्रेम के
वे एक दिन होंगे विस्मृत दुनिया से
तुमने झेले हैं श्वेत सत्ता के हमले
उनके कुचक्रों को
खूनी उन्माद के बीच
तोड़ा है तुमने
ललकारा था हर बार
श्वेत दमनकारियों को
शोषकों और नस्लभेदियों को
‘हियर आइ स्टैण्ड’(1) की चुनौतियाँ
सत्ता की चूलें हिलाती  रहीं
तुमने रखा मस्तक ऊँचा अपनी जाति का
श्वेत जालसाज़ों को
किया था बेनकाब 
उनके दुष्चक्रों को करते रहे विफल
कभी नहीं स्वीकारी पराजय
न दिखाय दैन्य न पलायन
हिलाई थी तुमने नीवें
ह्वाइट हाउस की
क्यों साथ दें नीग्रो उनका
जो करते हैं उनसे नफरत
समझते हैं उन्हें दास
पशुओं से बदतर
आँख में
सुअर का बाल
एक दिन उत्पीड़को को जाना होगा
साम्राज्य को त्याग कर
जाना ही होगा
ओ मेरे प्रिय अश्वेत गायक
तुम्हारें स्वरों को दबाया गया
तुम्हारी आवाज़ को रौदा गया
तुम्हें अपनी बात कहने से रोका गया
लोकतंत्र में
तुम्हारे स्वर  कुचलने को
सत्ता के प्रचार तंत्र एक हुये
तुम्हारे विरुद्ध कुचक्र चलते रहे
तुम्हारे नाद  में
अनहद पलता रहा
तुम्हारे गहन स्वरों में
बोलता है अश्वेत जाति का भैरव गान
आरोह अवरोह में अग्निज पताकायें
सुना है मैं ने
भीगे अफ्रीकी वनो को
बूँद बूँद निचुडते,
देखा है खेतों को पकते
मेंह में धान रोपते
किसानों को सिर से पौंछते पसीना
जो बीज बोये थे तुमने
वे अंकुरित हुये हैं
पौधों में खिलने लगे हैं फूल
वृक्षों में आने को हैं फल
विश्व शांति सम्मेलन में कहे गये तुम्हारे शब्द
आज भी बने हैं चुनौती श्वेतों को
जो उठ खड़े होते हैं
कठोर अत्याचार के विरुद्ध
वे अपराधी कैसे हुये
आत्म रक्षा में
आज विश्व की पूरी जनता खड़ी होती है
तुम्हें अश्वेतों को देने होगे
बराबर के अधिकार
करनी होगी उनकी रक्षा
मुक्त करना होगा उन्हें
क्रूर दासता से

ओ रॉब्सन –
तुमने  अमरीकी नस्लवादियों की
उड़ाई थी धज्जियाँ
तुम्हारे साहसी कथन पर
जब्त किया था
तम्हारा पार पत्र
क्यों दबाते हैं
वे हमारे गान को
हमारे स्वर को
हमारे इरादों को
हमारे स्वप्नों को
क्यों, क्यों, क्यों
कुचलते हैं घास के पोयों की तरह
हमें नहीं देखने देते दुनिया
नये उजाले में
नहीं सोचने देते हमें
अपने भविष्य के बारे में
सीमांतों से बाहर नहीं बोने देते बीज
हमें अपनी धरती में
क्यों, आखिर क्यों
उजाड़ते हैं बस्तियाँ उनकी
जो सदियों से हैं तबाह
क्रूर दमन से
दिखते हैं नये ज्योति स्तंभ
अँधेरे में भी
उन्हें अपने साम्राज्य के ढहने का डर है
उनके असर से
एशिया और अफ्रीका के मुक्त होने का भय है
एक खुला विश्व – क्षितिज
दिखता है सुदूर अँधेरे के गर्भ में
पौ फटने को है
क्रूर – दमनकारी समझें 
अश्वेत शक्ति का सूर्येादय
देखो लैटिन अमरीका में
जनता का जागरण
श्वेतों की क्रूर संप्रभुता का
एक दिन अंत होना ही है
ओ रॉब्सन
तुम्हारी अकाट्य दलीलों से
श्वेत भयभीत थे
मुठ्ठी भर धन कुबेर
पूरी दुनिया को दबाते हैं पाँवों तले
पूरा विश्व देखता है भौचक
साम्राज्य का तम्बू हिलता है
उसमें छेद होने लगे हैं
दरारे पड़ने लगी है
पलस्तर झड़ने को हुआ
जुल्म ढहाने वाले
अपने विनाश की ओर बढ़ रहे हैं
ओ रॉब्सन
पूरे विश्व में उठे अश्वेत ज्वार की
तुम हो दहाड़ती पहली लहर
जो टकाराती है
व्हाइट हाउस की दीवारों से
श्वेतों के काँपते हृदय
अश्वेत ज्वार पूरी दुनिया में
उठने को है
वही है सार तुम्हारे गान  का
मुक्ति का मुक्त छंद
संघर्ष की अबाधित लय
तुम्हारे हृदय का एक हिस्सा
नस्ली सोच वाले दैत्य
मगरमच्छी खुले जबडे  हैं
युद्ध में जलते देश
साम्राज्य की नीति का
भयावह चेहरा है
बाज़ार की चमकती चमड़ी
उसका अंगरक्षक
पूरा कैरेबियन नीग्रो जगत
मुक्ति के लिये
पृथ्वी में धधकता मैग्मा 

तुम्हारी अमर कृति, ‘हीयर आइ स्टैण्ड’ को
श्वेतों ने समझा अपनी मौत की घंटी
उस अग्नि को बुझाने के लिये
उनके पास आज भी
दमकलें नहीं हैं शेष
ओ क्रूर रंगवादियो
तुमने गान के विरुद्ध
उकसाई है हिंसा
तुम मेरे सोच का बहिष्कार करो, तो करो
उसे मार नहीं सकते
ऐसा वटवृक्ष
जिसकी जड़ें फैलीं हैं पूरे विश्व में
उसे कोई साम्राज्य
नहीं उखाड़ पायेगा
ओ रॉब्सन ….
तुमने उठी लपटों के बीच
संगीत समारोहों में
लाखों अश्वेतों की धड़कनों को
सुना है, जाना है, गाया है
उनकी अनुगूँज बसी है लहरों में
उन्हें गहरी नींद से जगाया है
उन्हें एक जुट होने को
शक्ति दी है गान की
संगीत समारोहों में
श्वेतों ने हिंसा भड़काई
तुम्हारे विरुद्ध
जब शत्रु के पाँव काँपते हैं
तो वह हिंसा जगाता है
पत्थर फेंके गये तुम्हारे गान पर
गाड़ियों के शीशे तोड़े गये
फिर भी तुम्हारा कण्ठ अक्षत था
तुम जीवंत थे
नस्लवादी  पस्त हिम्मत दिखे
अश्वेत जनता तुम्हारे साथ थी

तुम्हारे स्वरों में
लाखों अश्वेतों की शक्ति का ओज
उमड़ता रहा
तुम हर क्षण चुनौतियाँ देते रहे
तुम्हारे समारोहों में असंख्य लोग
रस लेते रहे
उन्हें सत्ता भद्दी गालियों से
अलंकृत करती रही
मुक्ति के लिये उठा ज्वार
सागर गरजता रहा
उत्ताल तरंगे
हृदयहीन चट्टानों से
टकराती रहीं
बीज फूटते रहे
फलों में रस गाढ़ा होता रहा
बूँदें पत्तियों को भिगोती रहीं
तुम्हारा गान समारोह सफल रहा
यह बोलने की आज़ादी का
जश्न था खौफनाक
रॉब्सन …, ओ विश्व कवियों के जोति पुंज
तुम्हारे गान का समर्थन था
मुक्ति की चेंटी आँच को
कोई बुझा नहीं सका
श्रोताओं को
करना पड़ा सामना हिंसा का
सत्ता अराजक बनी रही
नस्ली उन्माद भड़काती रही
यह क्रूर दमन का
कलंकित  मुख था
साम्राज्यवादी लोकतंत्र का
जन विरोधी छल था
कमज़ोर हृदय अश्वेत
सत्ता का साथ देते रहे
इस उठी आँधी के विरुद्ध
रॉब्सन को मौहरा बनाया गया
तुम्हारा विरेाध ही
सत्ता की रक्षा का विकल्प बना
श्वेत सत्ताधीश
इसे सुखोन्माद कहते रहे
ओ रॉब्सन
अश्वेतों के वन, नदियाँ, झरने, पहाड़,चट्टानें
तुम्हारे स्वरों को साधे हैं
घनघोर वर्षा, झुलसाने वाली तपिश
हड्डियाँ गलाने वाली शीत
इन सबसे कठोर उत्पीड़न
अश्वेतों को सहने पड़े है
ओ रॉब्सन
भारत के अश्वेत
तुम्हारे साथ हैं
मैं भी तो अश्वेत हूँ
दोआबा की मिट्टी से बना
काली नस्ल का धरती पुत्र
तुम एक बार फिर आओ
देखने इस बदलती दुनिया को
तुम्हारी धरती ने
भयावह नरसंहार देखे हैं
उदति नक्षत्र की तरह जोतिमय
युवा कवि क्रिस्टोफर का
अपनी धरती की मुक्ति को 
किया गया  बलिदान
जनता की रगों में
आज भी जिन्दा है
श्वेत सत्ता मुक्तिकामी कवियों –
गायगों, चिंतकों को
नृशंस मारती रही है
तुम्हें याद है
तुम्हारे पिता
श्वेतों के दास थे
तुम्हारे लोगों ने भी
अमरीका को बनाने में
जाने दी हैं
तुमने ललकारा था क्रूर सत्ता को
अपने ही देश में लड़ते रहने को
अपना हिस्सा पाने को
तुम आजीवन अश्वेतों की मुक्ति के लिये
गाते रहे प्रचण्ड राग
समुद्र उफनता रहा
आरोह अवरोहों से
लहरें चट्टानों पर
सिर पटकती रहीं
सूर्य आकाश में दमकता रहा
चंद्र कलायें बदलती रही
ऋतुओं के पंख झरते रहे
इक्कीसवी सदी में
आज मैं तुम्हें बुलाता हूँ
ओ योद्धा गायक
ओ कवियों के जोति पुंज
ओ पॉल रॉब्सन।
                              
जुलाई, 2013,
जयपुर


1- पॅाल रॉब्सन की विश्वविख्यात वैचारिक गद्य कृति।

 

संपर्क –
सी-133 , वैशालीनगर, 
जयपुर (राज) 203021
फोन- 09928242515
                                  

प्रतिबद्ध लोकधर्मी कवि पाब्लो नेरूदा

 

इस वर्ष के जनवरी माह से हमने लोकधर्मी कवियों की परम्परा पर एक श्रृंखला आरम्भ की थी। इसे पहली बार के लिए वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने हमारे आग्रह पर लिखा है। इस श्रृंखला की आठवीं कड़ी में प्रस्तुत है प्रख्यात लोकधर्मी कवि पाब्लो नेरुदा पर आलेख। 
 
विजेंद्र       

नेरूदा की एक कविता है, ‘कविता’। वो बताते हैं कि कवि की नियति है उसे अपने उस जन से जोड़ना जिसे क्रूर सामाजिक व्यवस्था ने आहत किया है। जो विद्रोही है। खौफ की वजह से जो भूमिगत हो कर काम करता है। वे भी जो कठिन श्रम करने के बाद जीवित रहते है -यानि हर हालत में कवि को जुड़ना संघर्षधर्मी, विद्रोही तथा श्रमशील उपेक्षित जन से ही है-

और इसलिये कवि ने अपनी नियति
अपने उस बंधु के साथ जोड़ी
जिसे उन्होंने आहत कर डाला था

कुछ रूपवादी समीक्षक नेरूदा की कविता का मूल स्वर न बता कर उनके उस रूप को बताते हैं जो उन समीक्षकों की दुर्बलताओं को ढक सके। बड़ी चालाकी से वह नेरूदा की जनपक्षधर संघर्षशीलता को दरकिनार करते हैं। वह उसे एक ऐसा आधुनिक कवि मानते हैं जिसमें ‘आसक्ति’ और ‘लगाव’ है। जबकि पश्चिमी औपनिवेशिक आधुनिकता में ‘अलगाव’ तथा ‘एकांत’ है । नेरूदा के संदर्भ में ये दोनो बातें बेमानी है। क्योंकि इनसे कवि की मूल विश्वदृष्टि व्यक्त नहीं होती। यह तभी व्यक्त होती है जब हम समय, समाज तथा व्यवस्था के प्रति अपना दृष्टिकोण साफ करें। ऐंसे समीक्षक इधर उधर से ले कर वे सब बातें कहेंगे जो नेरूदा की कविता में छायाप्रतीति को तो बतायें। पर उसके सारतत्व से परिचित न होने दें। अशोक बाजपेयी यह कभी न कहेंगे कि नेरूदा कविता को एक अस्त्र की तरह काम में लेते हैं। वह सर्वहारा के पक्ष में इस दुनिया को रूपांतरित करने के लिये अपनी कविता के माध्यम से लड़ रहे हैं। यही तो है नेरूदा की कविता का सार तत्व। कुछ मार्क्सवादी कहे जाने वाले समीक्षकों ने भी नेरूदा को ‘राजनीति’ से कहीं अधिक ‘शब्दो में उलझा’ कवि  बताया है। उन्होंने उनकी सुपरिचित कविता, ‘स्मृति लेखा’ से कुछ वाक्यों को दिया है। नेरूदा कहते हैं, ‘आप जो चाहे कह सकते हैं, जी हाँ, लेकिन वह शब्द ही हैं जो गाते हैं, जो ऊपर उड़ान भरते हैं ….जो नीचे उतरते हैं….. मैं उनके सामने नतमस्तक हूँ …..कितनी महान भाषा है मेरे पास…. वह सुंदर बर्बर विजेताओं से हमें विरासत में मिली है…. शब्द उन बर्बरों के बूटों से , घोड़ों के नालों से , टोप से , दाढ़ियों से लोढ़े की तरह लुढ़क पड़े थे… वे सब कुछ लूट ले गये….. सिर्फ शब्द छोड़ गये ..हमारे लिये’। यहाँ शब्दों की बात को सरलीकृत रूप में बता कर डा0 नामवर सिंह ने इसे नेरूदा की ‘शब्दों की भूख’ कहा है। दरअसल लेनिन के अनुसार शब्द भी ‘क्रियायें’ हैं। वे मानवीय संक्रियाओं से जन्म कर नयी संक्रियायें पैदा करते हैं अपने अर्थ संकेत से। नेरूदा शब्दों द्वारा उन संक्रियाओं को ध्वनित करते हैं जो आदमी के जीवन को क्रियाशील तथा आवेगमय बनाते हैं। दूसरे, नेरूदा शब्दों से अपनी विरासत तथा परंपरा की याद दिलाते हैं। यानि भाषा न तो एक दिन में बनती है। न एक व्यक्ति बनाता है। उसका प्रफुस्टन समाज के विभिन्न वर्गों की संक्रियाओं से होता है। संकेत है शब्दों के पीछे मनुष्य की कोमल, कठोर, रूपवान, विरूपवान, सुंदर-असुंदर जीवन की संक्रियाओं का अटूट बल का होना! दरअसल यह ‘शब्दों की भूख’ न हो कर उनके पीछे छिपी असंख्य तथा अनेकरूपा मानवीय सक्रियाओं के सामूहिक बल का संकेत है। यही बल हमारी परंपरा का सार है जिसे पा कर हम अग्रसर होते रहते हैं। ध्यान दें उस पंकित पर कि, ‘ वे सब कुछ लूट ले गये… सिर्फ शब्द छोड़ गये। संकेत है भौतिक संपदा नष्ट होने पर भी कविता नष्ट नहीं होती। यहाँ मैंकाले का एक संस्मरण याद आता है। उससे किसी ने पूछा कि यदि कोई तुमसे ब्रिटिश साम्राज्य छीनते समय किसी एक वस्तु को तुम्हें रखने के लिये कहे तो तुम क्या मागोंगे। मैंकाले ने जवाब दिया कि ‘सिर्फ शेक्सपियर’। शब्द और नेरूदा का सही रिश्ता समझने के लिये उनकी एक और कविता,  ‘शब्द’ पर ध्यान देना जरूरी है। कवि कहते हैं –

शब्द ने
रक्त में जन्म लिया
स्याह तन में बढ़ा, स्पंदित
और होठों तथा मुख से उड़ा –

यह कविता प्रदीर्घ है। इस कविता के घ्वन्यार्थ को समझ कर हम यह नहीं कहेगें कि कवि नेरूदा को ‘शब्दों की भूख थी’। या वे शब्द चातुर्य से कवि केदारनाथ सिंह कुँवरनारायण या विनोदकुमार शुक्ल की तरह अर्थविहीन ‘वाग्मिता’ रचते रहे। बल्कि वे बताना चाहते हैं कि किस तरह मनुष्य के विकास की संघर्षपूर्ण यात्रा कितनी कठोर और चुनौतीपूर्ण रही है। शब्द की यात्रा अजेय मनुष्य की यात्रा का ही पर्याय बनी है। शब्द दूर और निकट की यात्रायें करके विगत पूर्वजों और यायावर जातियों,  देशों, अपने कबीलों से हो कर लौटता रहा है। वह वहाँ भी गया जहाँ मनुष्य ने नई भूमि और जल को एक दूसरे से संसिक्त किया। इससे उसने नये शब्द उपजाये। यही हमारी विरासत बनी –
ताकि वे अपने शब्द पुनः उपजा सकें
और यूँ यही विरासत है – जो हमें विगत मानवों तथा उनके उदय से हमें जोड़ती है।
कवि यहीं नहीं थमते वे ‘प्रथम शब्द’ के कहे जाने से वायुमण्डल के काँपने का संकेत देते है –

अभी तक वायुमण्डल
उस प्रथम शब्द से
जिसे भय और आह के वस्त्र पहना कर
उच्चरित किया गया , काँप रहा था
शब्द ने बड़े मानवीय संघर्ष के बाद ही उपयुक्त अर्थ ग्रहण किये हैं –
कालान्तर में –
शब्द अर्थ से संपृक्त होने लगा
सदा गर्भ धारण किये
मनुष्य के जीवन से जुड़ने लगा
हर चीज़ जन्म ही जन्म और ध्वनि ही ध्वनि
$                     $            $
क्रिया ने सारी शक्ति अर्जित की
और अपनी आकर्षकीय विद्युत से
अस्तित्व को अर्थवत्ता से जोड़ा
मानव का शब्द, शब्दांश
वंशगत पात्र जिसमें रक्त के संप्रेषण संकलित है
मैं शब्द ग्रहण करता और उसका संचार
अपनी इंद्रियों में इस तरह करता रहा
मानो वह मानव रूप के सिवा कुछ भी नहीं है
शब्द का मातृ स्रोत
$     $   $
मेरे गीत को जन्म देते हैं
और दीप्त जीवन है -रक्त है वह
वह रक्त जो अपना तत्व व्यक्त करता है
शब्द काँच का गुण प्रदान करते हैं
रक्त को रक्त का
और स्वयं जीवन को जीवन का  –

अतः नेरूदा शब्द के बारे में शब्दक्रीड़ा के लिये नहीं कहते। वह उसके द्वारा मनुष्य के संघर्ष तथा उसके संघर्षपूर्ण सांस्कृतिक विकास क्रम को कहते हैं। यानि शब्द की यात्रा अजेय मानव की संघर्षपूर्ण यात्रा बनी है। मैंने इस प्रसंग को इस लिये विस्तार दिया जिससे हम किसी कवि की परख सही परिप्रेक्ष्य में कर सकें। हिंदी आलोचना ऐसी विसंगतियों से भरी पड़ी है। कुछ तो अज्ञता और आलस के कारण। कुछ  कवि के सार तत्व को उसकी छाया प्रतीतियों से ढकने के कारण।

     नेरूदा को उनकी किशोर अवस्था में ही कवि की पहचान मिल चुकी थी। उन्होने कविता की अनेक शैलियाँ अपनाई हैं। अतियथार्थवादी कवितायें, ऐतिहासिक महाकाव्यात्मक प्रदीर्घ कवितायें। ऐसी कवितायें भी जो खुल्लमखुल्ला राजनीतिक घोषणापत्र लगती हैं। बेजोड़ गद्य में उन्होंने अपनी आत्म कथा लिखी है। वैषयिकता से परिपूर्ण ‘बीस प्रेम कतिपयें और हताशा का गीत’ (1924) में सामने आया। कहा जाता है कि नेरूदा अक्सर हरी स्याही से लिखते थें। यह उनके लिये उनकी निजी इच्छा तथा आशा का प्रतीक था। नेरूदा को उनके जीवन काल में अनेक राजनयिक पदों पर कार्य करने का अवसर मिला था चीले की कम्युनिस्ट पार्टी के सीनेट सदस्य भी रहे थे। ब्राज़ील के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट नेता कैरोल प्रैस्तिस के सम्मान में नेरूदा ने एक लाख श्रोताओं के सामने काव्य पाठ किया था। 1948 में जब चीले के अध्यक्ष गौन्ज़ाले विदेला ने कम्युनिज्म को अवैध घेाषित किया तब नेरूदा की गिरफ्तारी का वारंट निकाला गया। उस समय नेरूदा के मित्रों ने उन्हें महीनों तक तहखाने में छिपा के रखा। कुछ सालों के बाद नेरूदा छिप कर पहाड़ के दर्रे से निकल कर अर्जिटीना के लिये  चले गये। कुछ साल बाद वह समाजवादी नेता सल्वाडोर एलन्दिे के सहयोगी बने। कहा जाता है कि जब नेरूदा नोबिल सम्मान लेकर चीले लौटे तो एलिन्दे ने उन्हें सत्तर हज़ार श्रोताओं के सामने काव्य पाठ के लिये आमंत्रित किया। औगस्टो के समय चीले मे सहसा शासन बदला। उस समय नेरूदा कैसर से पीड़ित थे। उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। तीन दिन के बाद हृदय गति रुकने से उनका निधन हो गया। कुछ लोग कहते हैं कि उनकी जुन्टा ने हत्या कराई थी। नेरूदा जीवन में एक मिथक की तरह रहे। उनके निधन की अनुगूँजें पूरी दुनिया में गूँजने लगीं। औगस्टो ने नेरूदा की मृत्यु को सार्वजनिक घटना न बनाने का आदेश जारी किया। इसके बावजूद हज़ारों लोगों ने कर्फ्यू  का उल्लंघन कर सड़कों पर जुलूस निकाले ।

नेरूदा का जन्म 12 जुलई , 1904 को चीले प्राल नामक शहर में हुआ था। सैन्ट्यागो से लगभग 350 कि0मी0। उनके पिता रेयअस मोराल्स रेलवे मुलाज़िम थे। जबकि उनकी माता रोज़ा बासोल्टो एक स्कूल अध्यापिका थीं। नेरूदा की माता उन्हें सिर्फ दो महीने का छोड़ कर दुनिया से विदा हुई। नेरूदा तथा उनके पिता जल्दी ही टेमको आ गये। यहाँ आके नेरूदा के पिता ने दूसरा विवाह कर लिया । कहते हैं कि 1914 में नेरूदा ने अपनी प्रथम कविता रची थी। नेरूदा के पिता इस पक्ष में न थे कि नेरूदा कविता लिखें। या साहित्य का अध्ययन करें। 1921 में 16 वर्ष के होन पर नेरूदा सैन्ट्यागो चले गये। यहाँ उन्हों ने फ्रांसीसी भाषा का अध्ययन किया। वह एक शिक्षक होना चाहते थे। पर कुछ ही समय बाद नेरूदा कविता में जुट गये।

1923 में उनका पहला कविता संग्रह ‘Book Of Twilights’ सामने आई। दूसरे साल ‘Twenty Love Poems And a Song Of Despair’ छपा। इस संग्रह की कविताओं में कामोद्दीपक तथा श्रृगांरिक कविताओं का बाहुल्य होने के कारण विवाद खड़ा हो गया। फिर भी दोनों कविता संग्रहों ने नेरूदा की पहचान बनाई। इन कविताओं का अन्य भाषाओं में अनुवाद हुआ। उनकी बिक्री भी खूब हुई। यद्यपि इनके नये संस्करण नहीं छपे। 1926 में अगला कविता संग्रह ‘The Trying Of Infinite Man’ आया । एक उपन्यास भी, ‘The Inhabitant And His Hope’  छपा। 1927 में आर्थिक संकट के कारण नेरूदा ने रंगून में वाणिज्य दूत का काम ले लिया। यह बर्मा के उपनिवेश का एक हिस्सा था। इससे पहले नेरूदा ने उपनिवेश जैसा नाम नहीं सुना था। यहाँ नेरूदा को घोर एकांत तथा अकेलेपन का एहसास हुआ। जावा में उनकी भेंट एक डच महिला से हुई। वह बैंक में काम करती थी। नेरूदा का विवाह उससे हो गया। इस दौर में नेरूदा ने बडी संख्या में कवितायें लिखी। अनेक काव्य रूपों के प्रयोग किये। दो जिल्दों में उन्होंने ‘Recidencia En La Tierra’ की रचना की। इनमें अधिकांश कवितायें अतियथार्थवादी (Surrealistic) हैं। अनकी संप्रेषणीयता भी सहज नहीं है। इन कविताओं में नेस्दा का मूल स्वर व्यक्त नहीं होता। चीले वापस आने के बाद नेरूदा को पहले स्पेन के ब्यूनस एअर्स तथा बाद में बार्सीलौना में राजनयिक पदों पर नियुक्त किया गया। इसके बाद माड्रिड में वाणिज्य दूत के पद पर कार्य किया। यहाँ उनका एक साहित्यिक परिकर बना। कई प्रख्यात लेखकों से मैत्री हुई। इनमें प्रमुख हैं राफेल अल्बर्ती,  फैडिरिको ग्रासिया लोर्का तथा पीरू के कवि सिज़र वैलेजो। 1934 में नेरूदा को पुत्री प्राप्त हुई। उसका नाम रखा गया माल्वा मेरियाना त्रिनिदाद। पर दुर्भाग्य से बहुत कम अवस्था में ही उसकी मृत्यु Hydrocephalus (शिरोजल रोग) से हो गई। इस दौरान जाने क्यों नेरूदा अपनी पत्नी से विमुख होने लगे। यही नहीं बल्कि उनके संबंध एक अर्जनटाइन महिला से शुरू हुये। यह महिला नेरूदा से कम से कम 20 साल बड़ी थी। नाम था डेलिया केरिल। स्पेन में जैसे जैसे गृहयुद्ध बढ़ने लगा नेरूदा प्रथम बार राजनीति के सचेत होते गये। इस गृहयुद्ध के परिणामों ने भी कवि को झकझोरा। धीरे धीरे नेरूदा अपनी आत्मनिष्ठता से मुक्त हुये। अब उनका रुझान जन समूह तथा जनता के संघर्ष की ओर ज्यादा था। इसी वजह से वह एक प्रबल क्म्युनिस्ट बने। महत्वपूर्ण बात है कि फिर वह जीवनपर्यन्त कम्युनिस्ट की तरह ही रहे। न कोई विचलन। न ढुलमुल अवसरवाद। हिंदी के कई तथाकथित पथच्युत मार्क्सवादी नेरूदा की कविता की तो प्रशंसा करते हैं। उनके जीवन के बारे में भी बताते हैं। पर वे उनसे वैचारिक दृढ़ता तथा उनके अविचल मार्क्सवादी बने रहने से कोई नसीहत नहीं लेते। आखिर क्यों?
 कहते हैं कि नेरूदा पर उनके अनेक वामपंथी मित्र कवियों का असर था। पर सबसे अधिक उन्हें प्रेरणा मिली ग्रासिया लार्का की दुखद हत्या से। स्पेन के तानाशाह फ्रेंको का लोर्का की हत्या में परोक्षतः हाथ रहा है। नेरूदा ने अपने लेखन तथा व्याख्यानों से लोकतंत्र का समर्थन किया। तानाशाही का पुरजोर विरोध। 1938 में प्रकाशित उनकी कृति ‘Spain In The Heart’ से यह लक्ष्य किया जा सकता है। परिणामतः वहाँ की तानाशाह राजनीतिक उग्रता ने उन्हें वाणिज्य दूत के पद से हटा दिया। इससे कुछ पहले 1936 में उन्होंने तलाक लिया।  नेरूदा से अलग हो कर उनकी पत्नी पहले मोन्टी कार्लो चली गई। बाद में नीदरलैण्ड्स को चुना। उनके साथ एक बच्ची थी। कहते हैं दोनों फिर कभी नहीं मिले। अपनी पत्नी को त्याग कर नेरूदा डेलिया डेल कैरिल के साथ फ्रांस में रहने लगे। 1938 में नेरूदा को पेरिस में स्पानी प्रवासियों के लिये विशेष वाणिज्य दूत नियुक्त किया गया। यहाँ नेरूदा को ऐसा काम सौंपा गया जिसे उन्होंने अपने ‘जीवन का श्रेष्ठ काम’ बताया है। उन्होंने स्पेन से 2000 चीले प्रवासियों को स्वदेश भेजा। ये लोग बहुत ही गंदे और कुत्सित कैपों में रह रहे थे। नेरूदा पर आरोप लगा कि उन्होंने उन लोगों को वरीयता दी जो कम्युनिस्ट थे। उन लोगों के साथ भेदभाव किया जो लोकतंत्र के लिये लड़े थे। पर ऐसे भी लोग हैं जो इस आरोप को गलत बताते हैं। नेरूदा की दूसरी नियुक्ति प्रमुख वाणिज्य दूत के पद पर मैक्सिको में हुई। वह यहाँ 1940 से 1943 तक कार्यरत रहे। मैक्सिको में उन्होंने डेल केरिल से विधिवत शादी की। उन्हे यह भी सूचना मिली कि उनकी आठ वर्षीय पुत्री मालवा नाज़ियों द्वारा कब्जे में किये गये नीदरलैण्ड्स में नहीं रही है। 1942 के आसपास मैक्सिको में नेरूदा की भेंट वहाँ के प्रख्यात कवि आक्टोविया पाज़ से भी हुई । कहा जाता है कि दोनो में किसी बात पर लात-घूसो तक की नौबत आ गई थी।

       नेरूदा अपनी कवितायें अक्सर हरी स्याही में लिखते रहे । यह उनकी आकांक्षा तथ आशा की प्रतीक रही होगी ।

       1943 में नेरूदा चिली लौट आये। फिर उन्होंने पीरू की यात्रा की। वहाँ उन्होंने माच्चू पीच्चू के शिखर को गहराई से देखा समझा। उसी से प्रेरित होकर उन्होंने पर्याप्त लंबी कविता 1945 ‘माच्चू पीच्चू’ रची है। हिंदी में इस कविता का अनुवाद कमलेश, नीलाभ, प्रभाती नौटियाल तथा चंद्रबली सिंह ने किया है। मेरे विचार से सर्वाधिक प्रमाणित अनुवाद प्रभाती नौटियाल का ही होना चाहिये। क्योंकि यह मूल स्पानी भाषा से किया गया है। प्रभाती नौटियाल को स्पानी भाषा की खासी जानकारी थी। इस कविता में अमरीका की प्राचीन सभ्यता को अनेक पहलुओं से व्याख्यायित करने वाला कथ्य नेरूदा ने चुना है। इसी कथ्य को उन्होंने बाद में (Canto General) में विकसित किया है। कहते हैं कि माच्चु पीच्चू अत्यंत विकसित इंका सभ्यता का महत्वपूर्ण नगर का किला था। सन 1911 से पूर्व इसका किसी को पता ही न था। यहाँ घना जंगल , पहाड़ , पहाड़ों से ढरकती तेज बहाव वाली नदियाँ  हैं। दुर्गम पथ हैं। हमें विस्मित कर देन वाला इसका बारीक स्थापत्य है। चट्टानों को काट कर सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। यहाँ सब कुछ सघन वनों से आच्छादित हो चुका है। नेरूदा ने अपने ‘संस्मरण’ में इसका प्रसंग बताते हुये लिखा है ‘पेरू में ठहर कर मैंने माच्चू पीच्चू के खण्डहरों की यात्रा की। तब कोई राजपथ न था। अतः घोड़ो पर चढ़ कर यात्रा करनी पड़ी। इस कविता को हिंदी में खूब पहचाना गया। मुझे यह कविता अत्यंत दुरूह लगती है। वैसे नेरूदा जनवादी कवि हो कर भी इतने दुरूह क्यों हुये,  मेरी समझ में नहीं आता। उन्हें ब्रेख्त, नाजिम हिकमत तथा माइकोव्स्की की तरह सहज क्यों नहीं होना चाहिये। या हिंदी में नागार्जुन,  केदार बाबू तथा त्रिलोचन की तरह। उनकी कविताओं में ठीक मुक्तिबोध की कविताओं की तरह बड़ी उलझनें हैं। नेरूदा को सहज सरल कवि नहीं कहा जा सकता। बहुत जगह अस्पष्टता है। उनके बिंब कई बार वाग्मिता में बदल जाते हैं। जैसे केदारनाथ सिंह के यहाँ होता है। मुझे  नेरूदा की एक दूसरी लंबी कविता, ‘रेल श्रमिक को जागने दो’ इस कविता से ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है। इस का प्रथम प्रकाशन अक्टूबर, 1950 में हुआ था। हमारे अग्रज कवि केदार बाबू ने इस कविता का अनुवाद करते समय नाम दिया है, ‘रेल भंजकों को जागने दो’। चूँकि अंग्रेजी नाम है ‘Let The Rail Splitter Awake A Splitter’ का शब्दानुवाद किया ‘भंजक’। पर भंजक से अर्थ साफ नहीं होता। नेरूदा का संकेत है कि जो रेल की पटरियों की देख रेख करता है -उन्हें ठौंकता पीटता है उन्हें बिछाता सुधारता है -वह जागे। यानि श्रमशील सर्वहारा के जगाने का आह्वान है इस कविता में। दूसरे , ‘बहुवचन’ न होकर ‘एकवचन’ ही है पर केदार बाबू ने भंजकों कह कर शायद लय पर ध्यान दिया है। यहाँ रेल श्रमिक उस सर्वहारा का प्रतीक है जो क्रूर पूँजीकेंद्रित व्यवस्था के बुनियादी ढाँचे को बदल कर समता मूलक समाज की स्थापना करेगा। अतः आज के संदर्भ में नेरूदा को विश्व कवि के रूप में समझने के लिये हमें इस कविता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये। इस कविता में लगभग 700 पंक्तियाँ हैं। बीसवीं  सदी की सुविख्यात एलियट की कविता ‘द वेस्टलैण्ड’ से यह कविता अधिक लंबी है। उससे अधिक महत्वपूर्ण तथा आज के संदर्भ में प्रासंगिक भी। यह कविता अतुकांत है। अंग्रेजी में इसे कहेंगे ‘ब्लेंक वर्स’। महाकवि मिल्टन और वर्डस्वर्थ आदि ने भी ब्लेंक वर्स में लिखा है। इसमें आंतरिक लय से भाव गुँथे बिंधे रहते हैं। पंक्तियों को दोहरा कर कवि ने लय को साधा है। जहाँ तहाँ तीखे व्यंग्य हैं। आद्यंत बड़ी कोमल प्रगीति भी है। लगता है नेरूदा इस कविता में अपने पूर्ववर्ती कवि वाल्ट ह्विटमैंन की तरफ निहार रहे हैं। कहना न होगा कि वाल्ट ह्विटमैंन की ‘Leaves Of Grass’  की उत्कृष्टतम पक्तियाँ यहाँ देखी जा सकती हैं। ध्यान रहे कि वाल्ट ह्विटमैंन की यह नकल कतई नहीं है. कथ्य के स्वभाव को देखते हुये नेरूदा ने काव्य रूप अपनाया है। कवि अमरीकी साम्राज्यवादियों  के अपराधों की बात कहते हैं –

वे …. तुम्हें खून का प्याला पेश करते हैं
( एक ने एक सौ को मौत के घाट उतार दिया )
मार्शल की सुरापान गोष्ठी
युवकों का खून पसंद करती है –
चीन के किसान, स्पेन के कैदी
खून और पसीना क्यूबा के ईख- खेतों में
चीले की ताम्र खदानों में
स्त्रियों के आँसू

नेरूदा वाल्ट ह्विटमैन की तरह स्टालिनग्राड के स्त्री पुरुष श्रमिको का आह्वान भी करते हैं। वह अमरीकियों को चेताते हैं कि यदि उन्होंने युद्ध थोपा तो दुनिया के लोग उनके विरुद्ध प्रतिरोध के लिये खड़े होंगे। पूरी पृ्थ्वी युयुत्सुओं के विरुद्ध खड़ी होगी –

…. लेकिन इससे आगे
प्रफुल्ल और सुदृढ़
स्पाती, मुस्कराते हुये
जो तैयार है गाने को और युद्ध को
वे तुम्हारे इंतज़ार में हैं
टुण्ड्रा के टायगा के
पुरुष, स्त्रियाँ
वोल्गा के वे योद्धा
जो मृत्यु को भी करते हैं पराजित
स्टालिनग्राड के बच्चे
उक्रेन के भीमकाय लोग
अगर तुमने यह प्राचीर छुआ भी
तुम गिरोगे मुँह के बल
कारखानों में कोयलों की तरह


जल कर राख हो जाओगे -इस तरह की हिला देने वाली चेतनावनी दी है नेरूदा ने अमरीकी साम्राज्य को। नेरूदा को भरोसा है कि विश्व की संघर्षधर्मी जनता साम्राज्यवादियों के कुचक्रों को विफल कर देगी। कवि उत्तरी अमरीकी जनता को अब्राहम लिकन की उस महान परंपरा की याद दिलाते हैं जिसमें दासता के विरुद्ध संघर्ष की ज्वालायें छिपी हैं:

ऐसा कुछ घटित नहीं होने देंगे –
रेल श्रमिक को जागने दो
आबी को उसके कुल्हाड़े के साथ आने दो
किसानों के साथ भोजन करने के लिये
उसे अपनी काठ की तशतरी के साथ आने दो

कविता के अंत में  नेरूदा शांति का यशोगान करते हैं। उस शांति का जिसके लिये विश्व की जनता लड़ रही है। यहाँ उनकी कविता में बाइबिल जैसे सादगी है। पर उसके अर्थ अति दूरगामी हैं। कवि शब्दों की पुनरावृत्ति से गहन भावों की गहराइयाँ मापता लगता है –

फटी पौ के लिये शांति आनी ही है
शांति पुलों को
शांति शराब को
उन छंदों को
जो मेरा पीछा करते हैं
जिनमें धरती और प्रेम के गीत रचे हैं
शांति भोर होते शहर को
जबकि पाव रोटी जागती है
नदियों का स्रोत
शांति मिसीसीपी नदी को
शांति मेरे भाई की कमीज़ को
शांति उन सबको
जो जीवित है
हर देश को
हर समुद्र को।

इस कविता को पढ़ कर मुझे लगा कि आज के संदर्भ में यह एक अत्यंत तात्विक तथा जरूरी कविता है। अमरीकी साम्राज्यवाद अपनी युयुत्सा को वित्तीय पूँजी में छिपाये अधिक आक्रामक हुआ है। अधिक क्रूर। अधिक विनाशक। खासतौर से भारत में उसका कुचक्रीय जाल गले का फंदा बन चुका है हमारे हर लोकधर्मी कवि का यह पवित्र दायित्व है कि अपनी कविता को उसके विरुद्ध खड़ा करे। इस से यह नहीं समझ लेना चाहिये कि नेरूदा सिर्फ राजनीतिक कविता ही लिख रहे थे। उनकी प्रारंभिक कवितओं में प्रकृति, प्रेम तथा कोमल भावों की प्रचुरता है –

तूफानों के साथ भोर जीवित है
उफनती ग्रीष्म में
विदाई के समय
सफेद झक्क हिलते रूमालों की तरह बादल
तेज़ हवा में मँडराते है
हमारे कोमल प्यार पर
हवा के झकोरों के साथ
असंख्य हृदय धड़कते हैं

इन प्रारंभिक कविता में नेरूदा का प्रकृति प्रेम प्रतिभासित है। बिंबों की ताज़गी है। कवि की वाणी भरपूर है। नेरूदा फ्रांस के बाद्लेयर तथा रिम्बो जैसे प्रतीक -कलावादी अभिशप्त कवियों के रिक्थ को तिरस्कृत नहीं करते। पर उनकी नकल भी नहीं करते। न उनकी पतनशील विश्वदृष्टि को अपनाते हैं। जहाँ वे इन कवियों से प्रभावित है वहाँ कविता दुरूह हुई है। उन्होंने लोर्का की तरह चीले की लोकधर्मी कविता के अनुप्राणित करने वाली चेतना को आत्मसात किया था। नेरूदा माइकोवस्की से भी प्रभवित थे। उन्होंने उनकी कविता को अपने ‘समय की सर्वोत्कृष्ट कविता’ कहा है। ऐसा क्या था इस कवि मे जो नेरूदा को आकृष्ट करता रहा। शायद कवि की निजता में महान विचार का घुल मिल जाना। वाल्ट ह्विटमैंन उनके प्रिय कवि थे। उनकी कविता ने नेरूदा को स्वयं को थाहने के लिये प्रेरित किया होगा। ह्विटमैन के लिये उन्होंने एक पंक्ति लिखी है –

मुझे दो अपनी वाणी
अपने हृदय की चिंतायें

एक सवाल सहसा मन में उठ सकता है कि इतना लोकधर्मी तथा संघर्ष प्रिय कवि आखिर उदास तथा विषादग्रस्त कैसे होता गया। जैसा कि कवि ने स्वयं माना है कि उन्होंने ‘मृत्यु के शब्द कोश का अनुशीलन किया है’। जिस कवि ने हर समय जीवन को उत्सव की तरह जिया उसने मृत्यु को अपने सामने क्यों देखा। इसे शायद साहित्यिक विमोहन या काव्य आसक्ति से नहीं समझा जा सकता। क्या यह समय ही ऐसा नहीं था! ब्रेख्त, लोर्का, नाजिम हिकमत के सामने भी मृत्यु बिंब कौंधते हैं। मायकोव्स्की ने आत्महत्या की ही थी। बीसवे दशक के अंतिम तथा तीसरे दशक के शुरू में मृत्यु नेरूदा की कविता में एक ऐसा सत्य है जिसकी अनदेखी शायद ही कोई कवि कर पाये। नेरूदा ने मृत्यु के इस कोलाहल को रूपक दिया है ‘शोक और विलाप का जामुनी लोहा’। जनता के प्रति उनकी दृष्टि ने उन्हें एकाकीपन का एहसास कराया। एक रिक्तता और जीवन की संश्लिष्ट  समझ से यह एकाकीपन गहन हुआ। यही वजह है कि शायद नेरूदा को एक ऐसी भाषा रचने को विवश होना पड़ा जिसे आसानी से नहीं समझा जा सकता। ऐसे भाव साहचर्यों की उपस्थिति जो रहस्यमय लगने की वजह से हमें उलझन में डाल सके। मैंने पहले कहा है कि नेरूदा जनवादी होकर भी मुक्तिबोध की तरह अति कठिन कवि है। इसे उनकी कविता की सीमा कहा जा सकता। और शक्ति भी। एक तरह से उनकी कविता अथाह समुद्र हो जैसे। एमादो अलोनसो जैसे प्रख्यात  समीक्षक ने नेरूदा पर एक पुस्तक लिखी है। नाम है, ‘अथाही कविता की व्याख्या’। फिर भी ऐसे कठिन समय में नेरूदा की कविता लगातार पठनीय बनी रही। प्रसिद्ध फ्रांसिसी कवि लुई अरागाँ ने एक कविता लिखी। शार्षक है, ‘पाब्लो नेरूदा का गीत’। तीसरे दशक के प्रारंभ की स्थिति बताते हुये कहा है –

मुझे अभियान करते सैनिकों के
भारी भारी कदमों पर
भरोसा नहीं हुआ
जब मैंने नेरूदा की कविता के
उफनते ज्वार को सुना 

                                                                               
चीले में रह कर नेरूदा ने एक पुस्तक लिखी। नाम है, ‘स्पेन मेरे हृदय में‘ ।यह पुस्तक दरअसल दर्शकों के लिये न हो कर सैनिकों के लिये अधिक प्रेरक होगी। लोर्का  ने भी नेरूदा को ‘महान कवि’ स्वीकार किया है। एक महान कवि की कविता में जो सादगी तथा संश्लिष्टता होनी चाहिये वह नेरूदा ने स्टालिनग्राड के बारे में जो कवितायें रची है तथा ‘रेल श्रमिक को जागने दो’ कविताओं में अर्जित कर ली है। स्पानी कविताओं में भाव साहचर्यो का बहुत उलझाव है। उन्हें समझना बहुत कठिन है। नेरूदा को आभास था कि योरुप तथा अमरीका का भविष्य और मानवीय सभ्यता की सुरक्षा स्टालिनग्राड पर  निर्भर है। नेरूदा सिर्फ कविता के माध्यम से संघर्ष नहीं करते। वे बोलते भी हैं। व्याख्यान भी देते है। पैम्फ़लेट भी लिखते हैं। हर लोकधर्मी कवि को यह जरूरी है। सिर्फ कविता से ही संघर्ष नहीं किया जा सकता। नेरूदा की बात को अमरीका के लोग ध्यान से सुनते थे। नेरूदा वर्गशत्रुओं के कुचक्रों तथा साजिशों को बेनक़ाब करते रहे। उन्होंने लेखकों का आह्वान किया कि वे जनवादी संस्कृति की रचना करें। तटस्थ या चुप रहने वाले लेखकों को उन्होंने बेनकाब किया। उन्होंने एक जगह कहा है कि जब ‘देखता हूँ अर्जनटीना या क्यूबा के लोग काफ्का, रिल्के या लारेन्स के लिये तड़पते हैं। या जो कला- रूपवादी कविता के लिये परेशान दिखते हैं -मैं क्रोध से भर उठता हूँ …..आज जो कवि या लेखक लड़ नहीं सकता वह कायर है। आज के समय के लिये यह उचित नहीं है कि हम अतीतोन्मुख हो कर स्वप्नो या भूलभुलैयों में खोये रहें। मनुष्य के जीवन और संघर्ष ने हमारे समय में वह वैभव पा लिया है कि हमारी कविता तथा कविता के स्रोत वहीं से उमड़ेंगे। बोल्शविकों की ओर संकेत करते हुये कहा है कि ‘महान कम्युनिस्ट पार्टी ही सर्वहारा की पार्टी’ है। नेरूदा की कविता का विकास बताता है कि कलावादी कवियों तथा उनके बीच खाई बढ़ती ही गई है। वह कवि के सामाजिक तथा राजनीतिक दायित्व को कविता से कभी अलग नहीं करते। वे मानते हैं कि उदात्त भावों के स्रोत उदात्त मानवीय सोच तथा उदात्त संक्रियायें ही है। नेरूदा ने चीले के तमाम कम्युनिस्टों का महिमा गान किया है। कम्युनिस्ट पार्टी को ‘अमर’ कहा है। 1948 में नेरूदा ने ‘Chronicle of 1948’ कविता लिखी। उन्होंने इस वर्ष को एक घृणित वर्ष, अंधे चूहों का वर्ष तथा द्वेष तथा रोष का वर्ष कहा है। यह कविता नेरूदा के सीनेट में दिये व्याख्यान के एक महीने बाद लिखी गई थी। और जब कविता लिखी  उस समय देशद्रोही गोन्ज़ालेज़ विदेला उनके आँखों के सामने खड़ा था। कविता का अंत एक प्रेरक संदेश होता है

मेरी जनता विजयी होगी
दुनिया की जनता विजयी होगी।

    ऐसा लगता है कि यह कविता नेरूदा की महान कविता ‘रेल श्रमिक को जागने दो’ का सफल पूर्वाभ्यास है। क्योंकि इस प्रदीर्घतम कविता में कवि ने अपने समय का समग्र दुखांत नाटक प्रदर्शित किया है। सारे दुख। सारे त्रास। सारी गहन पीड़ायें। ध्यान रहे जब कोई अर्जिनटीना या चिली का कवि अमरीका की बात करता है तो उसके मन में दो अमरीका होते हैं। लैटिन अमरीका या उत्तरी अमरीका। ‘रेल श्रमिक को जागने दो’ में भी दो अमरीका साफ दिखते हैं। एक अमरीका साम्राज्यवादियों का। दूसरा अमरीका जनता का। इसीलिये यह कविता समस्त आधुनिक कविता में अत्यंत मार्मिक तथा अनन्य है। ‘वेस्टलैण्ड’ में एलियट विश्व की त्रासदी का समाधान धर्म के पुनरुत्थान तथा नृपतंत्र की पुनः सथापना में खोजते हैं नेरूदा दमित, शोषित, पीड़ित सर्वहारा की मुक्ति द्वारा प्रतिष्ठित लोकतंत्र में। एलियट को आधुनिक कविता का पिता कहते हैं। नेरूदा भी आधुनिक कवि हैं। दोनों समकालीन भी हैं। वह ऐसी क्या बात है जो दोनो अपनी अपनी कविता में भिन्न दिखाई पड़ते हैं। हमें यह भी तय करना होगा कि दोनों की आधुकिता तथा समकालीनता में से किसे अधिक प्रासंगिक तथा समयोचित मानें।

      1966 में नेरूदा को ‘अंतर्राष्ट्रीय पैन सम्मेलन’ ने न्यआर्क में आमंत्रित किया था। अधिकृत रूप से न्यूआर्क आने की उन पर पाबंदी थी। क्योंकि वह एक कम्युनिस्ट कवि थे। लेकिन सम्मेलन के आयोजक तथा प्रख्यात नाटककार आर्थर मिलर ने उस समय के प्रशासकों को अनुमति देने के लिये विवश किया। नेरूदा ने कविता पाठ ही नहीं किया बल्कि कांग्रेस पुस्तकालय के लिये अपनी कविताओं को रिकोर्ड भी कराया। मिलर ने अपने वक्तवय मे कहा कि नेरूदा को कम्युनिस्ट होना इस बात का संकेत है कि ‘बुर्जुआ समाज ने  उनका निरंतर तिरस्कार किया है। इस सम्मेलन को शीतयुद्ध का अंत भी कहा गया है। नेरूदा न्यूआर्क से लौटते समय पीरू में रुके थे। वहाँ अध्यक्ष फर्नान्डो ने उनका स्वागत किया। वहां उन्होंने  बहुत बड़े जनसमुदाय के सामने काव्य पाठ किया। बोलोविया में चैगुवेरा की मृत्यु के आद नेरूदा ने कई आलेख लिखे। उन्होंने उस ‘महान वीर नायक’ की मृत्यु पर गहरा दुख व्यक्त किया था। 1970 में नेरूदा का नाम चीले के अध्यक्ष पद के लिये प्रस्तावित हुआ। पर सल्वाडोर एलैन्दे के पक्ष में उनहोंने अपना नाम वापस ले लिया। अपनी विजय के बाद उनहोंने नेरूदा को फ्रांस का राजदूत नियुक्त किया। 1970 से 1972 तक यह उनका अंतिम राजनयिक कार्यकाल था। सेहत के गिरने की वजह से वह चीले वापस आ गये। 1971 में उन्हें नोबिल पुरस्कार मिला। वह पहले कम्युनिस्ट कवि थे इस पुरस्कार को पाने वाले। इस पुरस्कार का महत्व यही है कि लोग इसके विजेता को विश्व कवि मानने लगते हैं। यदि रवि बाबू को यह न मिला होता तो वह शायद ही विश्व कवि कहलाते। 1973 में प्रोस्टेट कैंसर से पीड़ित हुये। जनरल औगस्टो ने एलैन्दे सराकार पर तीखे आक्रमण किये। चिली को एक कम्युनिस्ट राज्य देखने की नेरूदा की उम्मीदें बिखर गई। उनके घर की तलाशी ली गई। यह उनकी उपस्थति में ही हुआ। सैनिकों ने चारो तरफ देख कर कहा कि सबसे बड़ा खतरा तुम्हारे लिये ‘तुम्हारी कविता’ ही है। 23 सितंबर, 1973 को नेरूदा की मृत्यु हृदयाघात से सैन्ट्यागों के सान्टा मारिया अस्पताल में हुई। उनकी अंत्येष्टि पुलिस की देख रेख में कराई गई। नेरूदा के घर को  उसी तरह उजाड़ा गया जैसे मिल्टन के घर को सैनिकों ने उजाड़ा था। उनकी पुस्तके जब्त कर ली गई। या उन्हें नष्ट कर दिया गया।

    1974 में उनके मैमौर्यस (संस्मरण) ‘I Confess I Have Lived’ पुस्तक आई। उससे लगता है अंतिम समय तक नेरूदा एक दायित्वशील कवि की तरह जिये। चुनौतियाँ दी। उन्हें स्वीकार भी किया। कठिन से कठिन जोखिम उठाये। 2012 में नेरूदा के अंतिम दिनों के बारे में भी एक पुस्तक आई है। 2011 में चीले के एक न्यायधीश ने उनकी मृत्यु के कारकों की खोज बीन कराने का अभियान चलाया है। उन्हें संदेह है कि नेरूदा की हत्या ज़हर देकर तो नहीं की गई। चीले की कम्युनिस्ट पार्टी ने मेरियो कारोज़ा नामक न्यायाधीश से निवेदन किया है कि उनके शरीर के अवशेषों का उत्खनन कराके जाँच कराई जाये। चीले के न्यायालय नेरूदा की मृत्यु के कारणों की सघन जाँच कर रहे हैं।

      नेरूदा ने कविता के स्वभाव तथा अपनी विश्वदृटि के बारे में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण बाते कहते रहे हैं जिन्हें जान कर हम उनकी कविता को और बेहतर समझ सकते हैं। इन बातों पर हिंदी में चर्चा न के बराबर हुई है। नेरूदा ने बड़ी विनम्रता से कहा है कि वह कविता में कोई ‘समाधान नहीं देते’। यह उनकी कवि सुलभ विनम्रता है। नेरूदा की महत्वपूर्ण कविताओं में विकल्प की ध्वनियाँ बराबर सुनी जा सकती हैं। वही उनके समाधान का भी संकेत है। विश्व की कोई महान कविता ऐसी नहीं जो कलात्मक ढंग से हमें पथ न सुझाये। दूसरे, कविता से उन्होंने एक अप्रतिम प्रतिमान भी रचा है। बिल्कुल नया सौंदर्यशास्त्र निर्मित किया है। कविता के केंद्र में वह सर्वहारा के संघर्ष को लाये हैं । श्रम सौंदर्य को प्रतिष्ठित किया है। उनकी महत्वपूर्ण कवितायें कलावादी कविता के तर्क को ध्वस्त करती हैं। उस विचार को भी निर्मूल करती है कि श्रेष्ठ कविता तथा राजनीतिक विचारधारात्मक कविता में कोई गहरी असंगति है। एक बार अर्जेंटीना के एक पत्र ‘ला होरा’ में नेरूदा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण साक्षात्कार छपा था। जब उनसे पूछा गया कि उनकी गतिविधियों के बुनियादी कारक क्या हैं। उनका जवाब है मानवीय उत्पीड़न और उसके दुख के विरुद्ध संघर्ष। ध्यान रहे यहाँ दुख या उत्पीड़न किसी आध्यात्मिक अर्थ में नहीं है। बल्कि सामाजिक अन्याय से उपजे दुख के अर्थ में है। इसके लिये कुछ मनुष्य ही जिम्मेदार है। …..जो लेखक राजनीति से दूर भागता है वह मिथक है। इसका सृजन और समर्थन पूँजीवादी त़त्र ही करता है। दाँते के समय ऐसे लेखक नहीं थे जो राजनीति से सीधे सीधे जुड़ सकें। उसमें हस्तक्षेप करें। ‘ कला कला के लिये’ सिद्धांत बड़े बड़े उद्योगपतियों द्वारा सींचा और सराहा जाता है।

 उनसे पूछा गया कि  पश्चिम और पूर्व में विभाजित दुनिया के बारे में उनका क्या मत है ….क्या तीसरा युद्ध सन्निकट है! उनका कहना है कि ‘पश्चिमी संस्कृति’ शब्द का प्रचलन हिटलर जल्लाद ने किया था। मेरे लिये भारत तथा पश्चिम दोनों जगह भूख और भुखमरी पीड़ादायक हैं। सोवियत रूस का वैज्ञानिक विकास -वहाँ का शोध कार्य मेरे लिये अधिक फलदायक तथा अग्रगामी लगता है अपेक्षाकृत अमरीका में मुनाफाखोर उत्पादन के। स्टालिनग्राड ने यह साबित किया है कि मानवीय संस्कृति को संघातिक खतरे से बचा लेने का काम सोवियत अस्त्रों , मार्क्सवादी साहित्य तथा वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी ने किया है …..चैकोव्स्की, मार्क्स,  बाख, शेक्सपियर,  पुश्किन तथा पाव्लोव आदि के विचार संपूर्ण मानवता को बड़ा संबल हैं।

     पाब्लों नेरूदा देह से हमारे बीच अब नहीं हैं। पर कवि हमारी साँसो में, रगों में, आँखों की रोशनी में आज भी जीवित हैं। जीवित रहेंगे। उनका जीवन तथा उनकी कविता का महत्व हमारे लिये तभी है जब हम उन से कुछ सीख कर  उसे अपने रचना कर्म तथा जीवन में उतारें।

    कहा जाता हे चीले में नेरूदा के पास तीन मकान थे। उन तीनों के लिये सार्वजनिक रूप से अजायबघर में बदल दिया गया है। नेरूदा की एक कविता है ‘जनतां’। उसकी कुछ पंक्तियों से अपनी बात समाप्त करना चाहूँगा –

उस आदमी की याद है मुझे
उसने न
घोड़े  पर की यात्रा न रथ पर
सिर्फ पैदल
मिटा दी उसने दूरियाँ
जबकि न साथ थी तलवार न कोई और हथियार
सिर्फ कंधे पर जाल थे
कुल्हाड़ी, हथौड़ा या फावड़ा
कभी नहीं लड़ा अपनी प्रजाति में किसी से:
उसका संघर्ष पानी और ज़मीन से था
गेंहूँ से ताकि वह रोटी बने
भीमकाय पेड़ों से ताकि लकड़ी बने
दीवारों से ताकि उसमें दरवाज़े खुलें
मिट्टी गारे से ताकि दीवारे बने
और समुद्र से कि वहाँ से कुछ उपजे
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जहाँ कहीं भी रहा
जो भी चीज़ उसने छुई,फूली फली
उस हठी पत्थर को
उसी के साथियों ने तोड़ा
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रोटी के पिता को भुला दिया गया
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मैं सोचता हूँ कि जिन्होंने इतने सारे काम किये
उन सबका मालिक भी उन्हीं को होना चाहिये
और रोटी पकाते हैं उन्हें वह खानी भी चाहिये

और खदान में काम करने वाले को रोशनी चाहिये
हो बहुत गया अब बेड़ी में बँधे मैले -कुचैले लोगो
बहुत हो गया अब पीले पड़े मृतको
कोई भी न रहे बगैर राज किये
एक भी स्त्री न हो बगैर मुकुट के
प्रत्येक के हाथ के लिये सोने के दस्ताने हों
अँधेरे के सभी लोगों के लिये सूर्य के फल हों।

विजेंद्र जी वरिष्ठ कवि एवं ‘कृति ओर’ पत्रिका के संस्थापक सम्पादक हैं।
 

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विजेन्द्र

प्रख्यात आलोचक शिवकुमार मिश्र जी का २०-२१ जून २०१३ की आधी रात को निधन हो गया। ‘स्मृति शेष’ के अंतर्गत शिवकुमार जी पर वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी का संस्मरण हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।       
 

स्मृति शेष: डा0 शिवकुमार मिश्र

    प्रख्यात लोकधर्मी तथा मार्क्सवादी समीक्षक डा0 शिवकुमार मिश्र अब हमारे बीच सदेह नहीं हैं । पर उनका सृजन हमारे बीच उन्हें कभी विस्मृत न होने देगा। आज के अधिसंख्य पेशेवर आलोचकों के बीच वह एक साधक तथा तपस्वी आलोचक थे। मैंने उन्हें कईबार बहुत करीब से देखा था। उनसे संवाद भी हुआ था। पत्राचार से। फोन से भी। मुझे कभी यह अनुभव नहीं हुआ कि मैं एक बहुत बड़े आलोचक से संवाद कर रहा हूँ। वह स्वभाव से बहुत सरल, सहज तथा आत्मीय भी थे। कुछ लोगों से बात करने में एक दूरी बनी रहती है, पर डा0 मिश्र से जाहे जो संवाद करे उसे लगेगा कि वह अपने ही किसी आत्मीय से बात कर रहा है। न तो उन्हें अपने बड़प्पन का गुमान था। न विद्वान होने का वर्ग दंभ। न तुच्छ साहित्यिक राजनीति में लिप्त होने का काँइयाँपन। उनकी प्राथमिकतायें सुनिश्चित थी। सर्वप्रथम एक बेहतर इन्सान होना। बाद में ईमानदारी से सृजन कर्म में एक साधक की तरह जुटना। वह विचारधारा की दृष्टि से प्रतिबद्ध मार्क्सवादी थे। सोवियत संघ के पतन के बाद अनेक हिंदी के मार्क्सवादी लेखक अपना चेहरा या तो छिपाते से लगे। या उसे बदल दिया। पर डा0 मिश्र अंत तक ठेठ मार्क्सवादी ही रहे। उन्होंने विचारधारा को न तो कभी भुनाया। न उसकी गरिमा को गिरने दिया। मार्क्सवादी सिद्धांत से ही उन्होंने सीखा था कि हम अपनी परंपरा को गहराई से समझें। लोक से जुड़ें। अपनी जातीय जड़ों को पहचानें। उनके मार्क्सवादी चिंतन में लोक प्रमुख है। उन्होंने अपने महान संत कवियों को लोकदृष्टि से ही समझ-परख कर उनका सम्यक् मूल्यांकन किया है। उनके सृजन में भारतीय संदर्भ कभी ओझल नहीं होता। हमें मार्क्स को समझने के लिये अपनी साहित्यिक परम्परा समझना बहुत जरूरी है। वह मार्क्स के उस सिद्धांत के पक्षधर थे कि हमारे साहित्य में पतनशील प्रवृत्तियों की निर्मम आलोचना करना बहुत जरूरी है। यहाँ मुझे एक संस्मरण याद आता है। डा0 मिश्र ‘जलेस’ के कार्यक्रम में जयपुर आये हुये थे। कार्यक्रम की समाप्ति पर हम लोग काफी हाउस में बैठे थे। प्रसंग ‘कृतिओर’ का आ गया। हमने हिंदी के औपनिवेशिक आधुनिकतावादी कुछ कवियों यथा -विजयदेवनारायण साही, श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, केदारनाथसिंह तथा कुँवरनारायण की कविता का पुनर्मूल्यांकन श्रृंखलाबद्ध कराया था। दिल्ली, पटना, मुम्बई, बनारस, इलाहाबाद तथा कोलकाता आदि महानगरों में इस पुनर्मूल्यांकन की तीखी प्रतिक्रिया तथा मौखिक धमकियाँ हम झेल ही रहे थे! हमें एक क्षण को लगा जैसे हमने कोई अपराध किया है। विरोध का केंद्रीय बिंदु था कि ‘कविता के नये प्रतिमान’ यहाँ खारिज किये गये हैं। दूसरे, जिन कवियों को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया था उनका औसतपन सामने आ रहा था। प्रसंगवश डा0 मिश्र ने ‘कृतिओर’ द्वारा सम्पन्न किये गये इस कार्य के लिये महत्वपूर्ण बताते हुये हमें बधाई दी। यह भी कहा कि मौखिक रूप से तो हम सभी इन बातों को आपसी बातचीत में कहते रहते हैं। पर लिखित में आप लोगों ने कर दिखाया इसके लिये पुनः बधाई। डा0 मिश्र ने यह भी कहा कि वैसे यह काम जनवादी समीक्षा को बहुत पहले करना चाहिये था। थोड़ा प्रसंगेतर होकर मैं यह भी बता दूँ कि दूसरे बड़े मार्क्सवादी आलोचक प्रो0 चंद्रबली सिंह ने भी हमारे इस प्रयत्न के लिये बनारस से बधाई संदेश प्रेषित किया था।

बातचीत में मुझे लगा कि डा0 मिश्र समकालीन आलाचेना की स्थिति से बहुत क्षुब्ध हैं। उनकी बातों की ध्वनि थी कि तथा कथित बड़े कहे जाने वाले मार्क्सवादी समीक्षकों का चारित्रिक पतन हुआ है। आलोचना उनके लिये सृजन साधना न होकर अपने हित साधने का एक पेशा बन चुका है। श्रेष्ठ सृजन जीवन में बड़े त्याग और संयम की माँग करता है। ये दोनों बातें आज के प्रमुख कहे जाने वाले समीक्षकों में गायब हैं। आलोचक अपने कैरियर के लिये सुअवसरों की तलाश में भटकते दिखते हैं। जिन बातों से उन्हें दरवार से लाभ मिलने की संभावना लगती है तदनुसार वे अपना रूप धर लेते हैं। यानि हिंदी आलोचना में ‘अवसरवाद का घुन’ उसकी जड़ों को खोखला कर चुका है। क्या यही वजह नहीं कि हम दिल्ली में रह कर दिन में तीन बार अपने विचारों को बदलते रहते हैं। जैसा अवसर वैसी आलोचना! दूरदर्शन हो या लोकार्पण समारोह या किसी बड़े प्रकाशक की पुस्तकें बिकवाने का विज्ञापन। शिखर आलोचक कहे जाने वाले सुजन अपने सृजन को कोई चीज़ त्याग नहीं सके! उन्हें जीवन में सुख विलास चाहिये? ये उपलब्ध कराने पर उनसे जो चाहे जब चाहे कहलवा सकते हैं। पेशेवर लेखक यही करके अपना गुजारा करते हैं। डा0 मिश्र इस भोग-विलासी परम्परा के आलोचक नहीं थे। वह आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डा0 रामविलास शर्मा तथा प्रो0 चंद्रबली सिंह की विरल साधक परम्परा के बड़े तथा साधक आलोचक थे।

डा0 मिश्र को हिंदी की समाकालीन आलोचना अपने समय की ‘सर्जना से सही मायनों और सही आधारों पर मुखातिब’ न हो पाने के कारण उसके साथ, ‘न्याय नहीं कर सकी।’  वह किसी समय की आलोचना को अपने समय के सृजन से संवाद बहुत जरूरी मानते हैं। उन्होंने बड़ी दृढ़ता से कहा है कि, ‘मेरे विचार से समकालीन तमाम पेशेवर आलोचना की सबसे बड़ी कमज़ोरी समकालीन सर्जना के साथ उसका जरूरी और सार्थक संवाद न कर पाना’ ही है। उसमें किसी प्रकार के, ‘रचनात्मक हस्तक्षेप या सिद्धान्तनिष्ठ मुठभेड़ का अभाव है’। किसी भी आलोचना का वैचारिक और सैद्धान्तिक आधार कितना ही तर्कपुष्ट कयों न हो- उसमें ऊर्जा, सप्राणता तथा नवोन्मेष अपने समय के सृजन से संवाद तथा उससे मुठभेड़ से ही पैदा होते है। वह इस क्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा नंददुलारे बाजपेयी की उपस्थिति को सार्थक मानते हैं। डा0 मिश्र व्यावहारिक आलोचना पर अधिक बल देते हैं। उनके अनुसार, ‘सिद्धान्त कथन करना,  सैद्धान्तिक आालोचना लिखना आसान होता है। उसे किताबे पढ़ कर भी लिखा जा सकता हे। किन्तु उन सिद्धान्तों को अपने समय की सर्जना के बरक्स खरा साबित कर पाना ….दुष्कर कार्य है। उन्होंने इसे बहुत भारी विडम्बना कहा है कि,  हिंदी आलोचना का कोई अपना निजी वजूद या अस्मिता कभी उभर ही नहीं सकी। वह या तो संस्कृत काव्यशास्त्र का अनुकरण करती रही …..या फिर पश्चिमी आलोचना का उल्था बनकर झूठा रोब गालिब करती रही।’ उन्होंने यह भी माना है कि अधिकांश आलोचना को कविता की परम्परागत लाठी से हाँका जाता रहा है। फिर पश्चिम से प्राप्त प्रतिमान उसकी अपनी जड़ों, परिवेश तथा स्वभाव की उपेक्षा करते हुये उस पर आरोपित किये जाते रहे। परिणामतः रचना और आलोचना के बीच का अंतराल तो बढ़ा ही, आलोचना की साख भी घटी। उनके अनुसार परम्परागत प्रतिमानों को भी समय के बदले रचना संदर्भों में जाँचने परखने, मूल्यांकन के नये औजार गढ़ने-विकसित –आविष्कृत करने की कोशिश भी बहुत कम हुई। अर्थात् ‘आलोचना संस्कारित’ नहीं की जा सकी। यही वजह है साहित्य की विविध विधाओं के विशेषज्ञ आलोचक, या विविध विधाओं की अपनी आलोचना सामने नहीं आ सकी। अपने असंतोष को व्यक्त करते हुये डा0 मिश्र के अनुसार, आलोचकों का एक ऐसा समुदाय जरूर तेजी से पनपा और विकसित हुआ जिसके झोले में कुछ ऐसे अजीब नुस्खे थे जो हर विधा की मूल्यवत्ता को उजागर कर सके …। कविता के मूल्यांकन के औज़ार स्वच्छंदता से हर विधा के मूल्यांकन में इस्तेमाल हुये हैं। अतः सृजन का अपना वैशिष्ट्य तथा गुण वत्ता तो क्षतिगस्त हुई ही,  आलोचना भी कमजोर हो कर सामने आई। इन बातों से लगता है कि एक इतना बड़ा आलोचक अपनी विधा की सिथति से ही संतुष्ट न था। यदि ध्यान से देखें तो डा0 मिश्र की बातें अत्यंत सारगर्भित तथा प्रेरक हैं। यदि आज के सर्जक तथा साधक समीक्षक इन बातों को समझ कर आलोचना को पेशेवरी संकट से उबारें तो समकालीन आलोचना को एक नया तथा पुख्ता आधार प्राप्त हो सकेगा। हम डा0 मिश्र की बातों को आगे विकसित कर ही उन्हें सही अर्थों में श्रद्धांजलि दे सकते हैं।
                                                                       
(डा0 शिवकुमार मिश्र ने ये विचार प्रख्यात जनवादी समीक्षक डा0 चंद्रभूषण तिवारी की महत्वपूर्ण समीक्षा कृति, ‘आलोचना की धार’ की भूमिका में व्यक्त किये हैं।)

(विजेन्द्र जी वरिष्ठ कवि एवं कृतिओर पत्रिका के संस्थापक संपादक हैं।)

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विश्व के लोकधर्मी कवियों की श्रृंखला 7: शैले

विश्व के लोकधर्मी कवियों की श्रृंखला के क्रम में हम वाल्ट व्हिटमैन, बाई जुई, मायकोवस्की, नाजिम हिकमत, लोर्का एवं बर्टोल्ड ब्रेख्त के बारे में पहले ही पढ़ चुके हैं। इसी क्रम में प्रस्तुत है पी. बी. शैले पर आलेख।

विजेंद्र
लोकधर्मी क्रांतिकारी कवि शैले            

पूरा नाम है पर्सी  बाइशि शैले। अंग्रेजी रोमेंटिक आन्दोलन के अत्यंत प्रमुख प्रगीति कवि। स्वभाव से विद्रोही।  अपने अंग्रेज़ी सामंती –अर्द्ध सामंती समाज में लोकधर्मी क्रांतिकारी कवि शैले। इस संदर्भ में याद आते हैं निराला। वैसे निराला पर शैले का प्रभाव है। उनकी प्रसिद्ध कविता, ‘बादल राग’ शैले की बहुचर्चित प्रसिद्ध कविता ‘दॅ क्लाउड’ के असर में है। भारत में शैले का असर रबि बाबू तथा जीवनानंद दास की कविताओं पर भी है। गाँधी जी शैले की प्रसिद्ध कविता, ‘मास्क ऑफ एनार्की’ से उनकी अहिंसक नीति के वाक्य अक्सर उद्धृत करते थे। गाँधी जी उनकी ‘अहिंसक क्रांति’ तथा जनता में शांति तथा धैर्य रखने की बात को बहुत सराहते भी थे। शैले ने भारत में अंग्रेजों के औपनिवेशिक साम्राज्य का विरोध किया था। उनका मानना था कि औपनिवेशिक साम्राज्यवादी युद्धों से इंग्लैण्ड की शोषित जनता को कोई लाभ नहीं मिलता। अपनी क्रांतिकारी विश्वदृष्टि की वजह से शैले को उनके निजी तथा साहित्यिक जीवन में बहुत उत्पीड़न सहना पड़ा था। उनके जीवन काल में उनकी कविता को प्रकाशन के लिये बड़ी कठिनाइयाँ थीं। उन्हें अपेक्षित कवि सम्मान भी नहीं मिला। न उनका सही मूल्यांकन हुआ। आज भी सारे समीक्षक उनके क्रांतिकारी स्वरूप को सामने लाने से हिचकते हैं! शैले को ठीक तरह समझने के लिये उनका गद्य समझना बहुत जरूरी है। वैसे किसी भी कवि को समझने के लिये उसका गद्य उसकी मनोरचना, विश्वदृष्टि तथा सामाजिक सरोकारों को समझने में बहुत सहायक होतो हैं। यदि निराला, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, केदार बाबू तथा नागार्जुन की कविता को तह तक समझना है तो हमें उनके गद्य से गुज़रना बेहतर होगा। मुक्तिबोध के नेमिचंद को लिखे पत्र उनके व्यक्तित्व तथा उनकी कविताओं के कई अनजाने कमज़ोर गवाक्ष खोलते हैं। कवि कीट्स के पत्र पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं। उनके काव्य सिद्धान्तों के बीज यत्र तत्र पत्रों में ही बिखरे हैं। शैले का गद्य बिना पढ़े उनके क्रांतिकारी कवि व्यक्तित्व तथा कविता की संश्लिष्ट गहनता को नहीं समझा जा सकता।

शैले अपने जीवन के प्रारंभ से ही विद्राही रहे हैं। उन्होंने अपने ऑक्सफोर्ड छात्र जीवन में एक पुस्तिका लिखी, ‘अनीश्वरवाद की आवश्यकता’। उसके फलस्वरूप उन्हें विश्वविद्यालय से निष्कासित किया गया। उन्हें क्रांतिकारी बताया गया। विद्रोही चिंतक भी। इसी समय से उन्हें साहित्य के हाशिये पर ढकेला जाने लगा। प्रतिक्रियावादी- लोकविमुख कुलीन बुर्जुआ बुद्धिजीवियो तथा रूढ़िवादी राजनीतिज्ञों ने उनका सामाजिक बहिष्कार करना शुरू किया। पर प्रगतिशील लोगों ने शैले को समर्थन दिया था। खासतौर पर गौडविन जैसे राजनीतिक चिंतक ने। शैले अपनी अत्यंत प्रतिकूल स्थितियों में भी कविता और गद्य निरंतर लिखते रहे। उन्होंने अपने का्रंतिकारी आदर्श नहीं छोड़े न उनमें कोई बदलाव ही किया। उस समय के अधिकांश प्रकाशकों ने उनकी कृतियाँ प्रकाशित करने से मना कर दिया था। उन्हें भय था कि कहीं उनको विधर्मी तथा देशद्रोही कवि का हमदर्द समझ कर गिरफ्तार न कर लिया जाये। शैले के जीते जी न तो उनकी कविता का सम्यक् मूल्यांकन हो पाया। न उनके राजनीतिक विचारों को सराहा गया। बाद में तीन चार पीढ़ियों तक शैले को महान कवि मान लिया गया। फिर भी उनके क्रांतिकारी विचारों को कोई संबल नहीं मिल पाया। कहा जाता है कि शैले को पाठ्य पुस्तके पढ़ने में ज्यादा रुचि न थी। उनके साथी उन्हें चिढ़ाते थे। क्षुब्ध होकर शैले अपनी किताबे फाड़ डालते थे। अपने कपड़े उतार फेंकते थे। बहुत जोर जोर से चीखते थे। जब तक वह ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय में रहे कुल जमा एक व्याख्यान कक्षा में बैठ कर सुना था। पर वह स्वाध्याय 16 -16 घंटे तक करते थे। प्रारंभ में शैले ने उपन्यास भी लिखे थे। कई-बार विवाह और तलाक भी हुए। वह अपने किसी भी विवाह से प्रसन्न नहीं थे। शैले ने योरुप के कई देशों की यात्रायें बार बार की। 8 जुलाई , 1822 को उनकी मृत्यु हुई। अभी वह सिर्फ 30 वर्ष के होने को ही थे। कहा जाता है कि शैले की मृत्यु समुद्री यात्रा के दौरान एक बड़े तूफान में घिर कर हुई थी। उनकी अंतिम पत्नी मेरी शैली ने 1822 में प्रकाशित कविताओं के पूर्व कथन में शैले की मृत्यु को संदेह से देखा है! उनका मानना है कि जिस नाव में शैले समुद्र में यात्रा कर रहे थे वह समुद्र में उतारने की क्षमता वाली नाव नहीं थी। उसमें कई एक कमियाँ थीं। तूफान इतना भयानक था कि नाव उसे सह नहीं पाई। नाविक भी बहुत अनुभवी न थे। कुछ लोग शैले की मृत्यु को आकस्मिक दुर्घटना नहीं मानते। कुछ लोगों का कहना है कि शैले उन दिनों बहुत अवसाद ग्रस्त थे। हो सकता है उन्होंने आत्महत्या की हो? कुछ कहते हैं कि शैले के क्रांतिकारी राजनीतिक विचारों के कारण उनकी हत्या कराई गई। जो भी हो इतने प्रतिभाशाली क्रांतिकारी कवि का इतनी कम उम्र में संसार से चले जाना अंग्रेज़ी साहित्य की अपूणीर्य क्षति का कारण बना। इंग्लैण्ड की जनवादी संस्कृतिक परम्परा को गहरा आघात।

शैले की लोकधर्मिता आज हमारे लिये अत्यंत प्रासंगिक  है। अब प्रगतिशील लोग उनके महत्व को पहचानने लगे हैं। जरा सोचने की बात है हिंदी में नृपतंत्रवादी तथा पुनरुत्थानवादी अंग्रेजी कवि टी0 एस0 एलियट को तो लोकप्रियता मिली। पर शैले को नहीं! हमारी पाठ्य पुस्तकों में भी शैले की क्रांतिकारी कविताओं को जगह नहीं है?

 क्रांतिकारी चेतना  के अलावा वैसे उनकी कविता  के केंद्रीय कथ्य है- प्रेम, स्वतंत्रता, मानवीय तथा प्राकृतिक सौंदर्य। यह प्रेम निजी होकर उस की सीमाओं को लाँघता है। उसका सामाजिक पहलू बराबर बना रहता है। इस प्रेम का बृहद् रूप है अपने देश की उत्पीड़ित जनता से अटूट प्रेम। इसी प्रेम में निहित है सर्वहारा की शोषण, दमन तथा क्रूर उत्पीड़न से मुक्ति। प्रकृति प्रेम भी उनका रूमानी नहीं है। वर्डस्वर्थ की तरह वह उसे जब तब रहस्यमय भी नहीं बनाते। प्रकृति में वह मनुष्य की तरह ही सतत विकास देखते हैं। शैले के लिये प्रकृति एक प्रकार की ऊष्मा है। उसमें अपार शक्ति तथा क्षमता निहित है। स्वतंत्रता का अर्थ शैले के लिये सदियों पुराने जड़ सामंतवाद का अंत करना है। पूँजी केंद्रित व्यवस्था को ध्वस्त कर एक समता मूलक समाज स्थापित करने का स्वप्न। शैले के ऐसे क्रांतिकारी विचारों को इंग्लैण्ड का बुर्जुआ, सामंती तथा रूढ़िवादी समाज कैसे सह सकता था? देखने की बात है कि शैले मार्क्स से पहले उन बातों को कह पा रहे हैं जिन्हें मार्क्स ने बाद में कहा। क्या इससे नहीं लगता कि जनता के पक्षधर कवि अपने समय से बहुत आगे होते हैं? वे अतीत और वर्तमान का अघ्ययन कर तर्कसंगत भविष्य की कल्पना कर लेते हैं। इसी को राजशेखर ने प्रतिभाशील कवि द्वारा ‘परोक्ष को प्रत्यक्षवत’ समझ लेने की बात कही है। शैले सदा भविष्योन्मुखी कवि हैं। ऐसी ही बातें प्राकृतिक परिवेश को लेकर ऋचायें कहती रही हैं। वहाँ भी मुक्ति पर जोर है। प्रतीक वहाँ भले ही देवताओं के हैं। पर दमनकारी और दमित का संघर्ष वहाँ भी है। ऋचायें एक बेहतर समाज बनाने की ओर बराबर संकेत करती हैं। शैले बराबर स्वप्न देखते हैं। उनकी इस स्वप्नदृष्टि की सांकेतिक गहराई को बिना समझे उनके बुर्जुआ समीक्षक उन्हें ‘स्वप्नदर्शी सुधारक’ भी कहते रहे हैं। मार्क्स को भी बुर्जआ चिंतक यही कहते रहे। यद्यपि हर बड़ा कवि या चिंतक स्वप्नदर्शी होता ही है। पर बुर्जुआ इस स्वप्नदर्शिता को मात्र काल्पनिक स्थिति मानता है जो कभी हासिल नहीं की जा सकती। शैले जिस समतामूलक समाज की बात करते रहे उसे बहुत कुछ समाजवादी देशों ने करके दिखा दिया। वह व्यवस्था अनेक कारणों से टूट बिखर गई। यह अलग बात है। पर उसको हमने लम्बे समय तक एक बेहतर सामाजिक-राजनीतिक विकल्प की तरह देखा समझा है। आज भी हमारे मन में वह विकल्प जीवित है। हम अपने मुक्तिसंग्राम की अधूरी छूटी क्रांति को उसके तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचाने को यत्नशील बने रहेंगे। शैले मुक्तिकामी विचार के लिये जीव जन्तुओ तथा नैसर्गिक उपकरणों से रूपक और प्रतीक चुनते हैं। जैसे ‘छिपकलियों’ तथा ‘साँपों’ को वह ‘बंधनमुक्त लपटें’ कहते हैं। उनके लिए प्रेम एक ऐसी उद्दीप्त आँच है जो ‘मरणधर्मा बादलों’ को छिन्न – भिन्न करती रहती है। शैले के यहाँ अनन्त फूल खिलते हैं। वे खेतों, वनों, उपवनों में सूर्य की रोशनी से निखर उठते हैं। उनकी कविता पढ़ के लगता है कि शैले में जीवन और प्रकृति एक अत्यंत क्षमताशील शक्ति एवं उत्तापमूलक तत्व हो कर हर जगह संक्रियाशील बने रहते हैं। न तो वे कहीं थिर हैं। न जड़। यह सब कवि की सक्रिय द्रव्यता की ओर संकेत करता है। इस की वह प्रक्रिया भी बताते हैं। द्रव्यता वैज्ञानिक सत्य है। जीवन का ताप है। उससे उसमें संक्रियाशीलता उत्पन्न होती है। इससे पृथ्वी जगती है। पृथ्वी के इस जागरण से कवि को प्रेरणा मिलती है। शैले की एक अत्यंत प्रसिद्ध कविता है, ‘जीवन की विजय’। कविता में संकेत है सूर्य अपने वैभव से उल्लसित हो कर अंधकार के छद्मवेशी नक़ाब को छिन्न भिन्न करता है। पृथ्वी जैसे जाग उठती है।

प्रकृति में ‘नाश‘ और ‘निर्माण’ का चक्र कवि को विश्वास दिलाता है कि सुंदर भविष्य जरूर आयेगा। अपनी विश्वप्रसिद्ध कविता ‘पछुआ हवा को संबोधन गीत’ में सार तत्व पंक्ति है-

‘यदि शरद ऋतु आती है
तो वसंत क्यों नहीं आयेगा।

इसी कविता में पछुआ हवा को कवि ‘ध्वंसक’ तथा ‘संरक्षक’ बताते हैं। यह  द्रव्यता की द्वंद्वात्मकता है। दो विरोधी तत्वों की एकरूपता। यह एक वैज्ञानिक अटल सत्य है। यह द्वंद्वमय प्रक्रिया मनुष्य जीवन, समाज तथा प्रकृति में सतत चलती रहती है। यह बात शैले जानते हैं। पहचानते हैं। मानते भी हैं। यह आज विज्ञान भी मानता है। मार्क्स की तत्वमीमांसा का यही सार है जिसे मार्क्स से पहले शैले विज्ञान के माध्यम से पहचान गये थे। शैले की एक अन्य अत्यंत प्रसिद्ध कविता है, ‘ हैलास के प्रति समूह गान’। इस कविता के द्वारा भी शैले प्रकृति में सदा पुनर्नवन होने की बात कहते हैं। संकेत है जिस प्रकार प्रकृति में पुनर्नवन उसके विकास की प्रक्रिया का एक आवश्यक स्तर है। ठीक उसी तरह समाज में पुनर्नवन होता रहता है। यह इतिहास की अनिवार्यता है। कहा है –

 
दुनिया में महान पुनर्नवन का
उदय होने को है
सुंदर समय लौटता  है
पृथ्वी साँप की कैचुल  उतार कर
फिर से नई होती है
उसके शीत -बीज जीर्ण–शीर्ण होते हैं
स्वर्ग विहँसता है
बिखरते स्वप्न अवशेषों  की तरह
आस्था और राष्ट्र  झिलमिलाते हैं।

यहाँ शैले एक दायित्वशील कवि की तरह अपनी सामाजिक निष्ठा तथा राजनीतिक जनपक्षधर चेतना व्यक्त कर रहे हैं। यहाँ न तो निरे काल्पनिक भावोद्गार हैं। न निरी भावुकता। कवि अपनी बात तर्कसंगत ढंग से कह पा रहे हैं। भारतीय मनीषी कवियों की तरह शैले भी ‘असंख्य विश्वों’ की कल्पना करते हैं। हमारे यहाँ जिसे ‘अंतरिक्ष’ कहा गया है। कवि मानते हैं कि इस छोटी सी दुनिया को असंख्य विश्व घेरे हुए हैं। ‘अंतरिक्ष’ जैसा व्यापक, अर्थ-प्रवण तथा समृद्ध शब्द शायद योरुपीय भाषाओं में नहीं है। अतः वे ‘इस्पेस’ या कहें (दिक्) से काम चला लेते हैं। इस दृष्टि से शैले अपने समय के वैज्ञानिकों के साथ हैं। यही वैज्ञानिक दृष्टि आज शैले को अधिक प्रासंगिक बना कर हम से जोड़ती है। इतनी व्यवस्थित वैज्ञानिकता हमारे किसी छायावादी कवि में नहीं है। निराला आत्म संघर्ष करते-करते अंत तक वेदांत की काल्पनिक आदर्शवादिता नहीं छोड़ पाये। उनमें क्रांति विज्ञान की भी समझ नहीं है। न जनता को संगठित करने की कोई प्रविधि। संगठन की बात मुक्तिबोध में भी नहीं है। शैले सदा जनता को संगठित करने की बात कहते हैं। नागार्जुन तथा केदार बाबू जनता की संगठित शक्ति को पहचानते हैं दोनों ही सर्वहारा को क्रांति को अग्रिम दस्ता मानते हैं।

 इसमें संदेह नहीं औद्योगिक क्रांति ने योरुप  की मनोरचना तथा काव्य संवेदना को बहुत प्रभावित किया है। सामंतवाद -अर्द्धसामंतवाद की सदियों पुरानी मज़बूत जंजीरें टूट रही हैं। नये राजनीतिक संघर्ष उभर रहे हैं। इन सबकी चरम परिणति फ्रांस की राज्य क्रांति में लक्ष्य की जा सकती है। इस क्रांति के बाद नये नागरिक अधिकार प्राप्त हुए। राजनीतिक स्वायत्तता मिली। योरुप में अग्रगामी संवेदना पैदा हुई। पुरानी जड़ सामंती संवेदना टूटी। इसका बड़ा सूक्ष्म तथा रचनात्मक प्रभाव था कि सामान्य जन अपने आस पास के परिवेश को ऐंद्रिक सजगता से देखने परखने लगा। हर परिघटना को बड़ी उत्सुकता से समझना शुरू किया। मनुष्य में वैज्ञानिक रुझान विकसित हुए। कुल मिला के एक बौद्धिक जागरण की स्थिति की समझ पैदा हुई। जो संसार अजाना -दृष्टि से दूर था -उसे जानने को बेचैनी पैदा होती गई। यही वजह है शैले की कविता में वैज्ञानिक उत्सुकता है। उनके यहाँ ऊँची उड़ान के बिंब बार बार आते हैं। ये बिंब उनकी शुरू तथा परिपक्व कविताओं में बराबर मिलते हैं। अपनी एक कविता ‘पान’ ( देवता) के लिये प्रार्थन में पंक्तियाँ हैं –

मैंने नृत्य करते नक्षत्रों के लिये गाया
मैंने पृथ्वी के लिये गाया
स्वर्ग और महायुद्धों के लिये भी
प्रेम, मृत्यु और जन्म के लिये
गाता रहा

अपनी दूसरी कविता  ‘हैलास के प्रति समूह गान’ में  कवि कहते हैं –

निर्माण से ध्वंस  तक
नदी में बुलबुले  की तरह
सदा विश्व के ऊपर विश्व
तैरते रहे हैं
कभी झिलमिलाते
कभी फूटते
कभी लुप्त होते रहे  हैं

शैले की कविता इस ध्वंस तथा निर्माण की सतत प्रक्रिया को बराबर व्यक्त करती है। यही वह चक्र है जो विकास की दिशा में गतिशील है। पर सोचने की बात है क्या यह द्वंद्वमय प्रक्रिया मनुष्य मन से निरपेक्ष है? क्या यह मात्र मनुष्य संवेदन पर ही निर्भर है? क्या यह सब अस्तित्वविहीन है? वस्तुनिष्ठ प्रकृति सतत है। अक्षत भी। इस दृष्टि से बादल अपने बिगड़ते बनते सतत अस्तित्व के लिये बहुत ही उचित रूपक और समृद्ध प्रतीक है। शैले यह भी कहते हैं –

मैं पृथ्वी औेर जल की कन्या हूँ
मैं समुद्र तथा तटों के रोंयों से
गुज़रता हूँ
मैं बदल सकता हूँ
मर नही सकता

यहाँ द्रव्यता का संकेत है। द्रव्य कभी  नष्ट नहीं होता। वह सिर्फ अपना रूप बदलता है। इस दृष्टि से यहाँ ‘गीता’ का ‘क्षण भंगुर ’ सिद्धान्त लागू होता है। क्षणभंगुर का अर्थ क्षण में नष्ट न हो कर पलप्रतिपल बदलते रहना भी है। अर्थात् संसार प्रति क्षण परिवर्तित होता रहता है। वह अक्षत है। शैले की कविता ‘पछुआ हवा के लिये संबोधित प्रगीत’  में हवा उस शक्ति का रूपक है जो सृजन और ध्वंस की सतत प्रक्रिया को बताता है। प्रकृति का तत्व होने की वजह से इस में असीम क्षमता है।

ये पत्तियों को उड़ा  ले जाती है। समुद्र में लहरों को उद्वेलित करती है। बादलों को इधर उधर छितराती रहती है। इसी प्रक्रिया से यह एक ऐसी उर्वर भूमि तैयार करती है जहाँ परिवर्तन के ‘पंखधारी बीज’ बोये जा सकें। बाद में ये विविध गंधो, रंगों तथा संक्रियाओं के साथ उगें। हवा शैले को कोई काल्पनिक वस्तु नहीं है। वह उनके लिये वस्तुनिष्ठ सत्य है। इसीलिए वह उसे परिवर्तन के लिये उचित शक्ति मान कर उस पर भरोसा करते हैं। पछुआ हवा अपने द्रव्य सत्य के लिये कवि के संवेदनों पर समाश्रित नहीं है। बल्कि कवि अपनी क्षमता तथा शक्ति के लिये पछुआ का आश्रय लेता है। पत्ती, बादल, लहर और कवि ये सब पछुआ की शक्ति के प्र्रकंप में शिरकत करते हैं। शैले ने पछुआ हवा को ‘सर्जक – संहारक’ के साथ ‘नियंत्रित न होने वाली’ शक्ति भी कहा हैं। संकेत है कि प्रकृति मनुष्य से प्रभावित होकर भी स्वायत्त है। चाहे जितना वैज्ञानिक विकास हुआ हो अभी प्रकृति को मन चाहे ढंग से नियंत्रित करने की क्षमता मनुष्य में नहीं है। प्रकृति के यही मूल गुण है जिन्हें शैले पछुआ हवा में देखते हैं। इसी तरह ऋतुओं का आना-जाना शैले के लिये कोई मिथकीय सत्य नहीं है। जैसे वैदिक ऋषि प्रकृति के हर रूप में देवी-देवताओं की परिकल्पना करते हैं। शैली ऐसा नहीं करते। ऋतुओं का आना जाना कवि के लिये वस्तुनिष्ठ सत्य है। मनुष्य के सुंदर भविष्य की कल्पना शैले इसी वस्तुनष्ठिता के आधार पर करते हैं। उनकी कविता की अर्थध्वनियों से लगता है कि वैज्ञानिक संदृष्टि (विजन) कवि के सौंदर्य प्रेम तथा सामान्य जन  के प्रति सहानुभूति  में भी समाहित है। समुद्र के गहरे तल पर शैले को मँहकदार सुंदर चटक रंग के फूल खिले दिखते हैं। उनकी इतनी मँहक है कि कवि की संवेदना मूर्च्छित होने लगती है ।
शैले की कविता की लोकधर्मिता का एक गुण है उनकी सघन ऐंद्रिकता। वस्तुनिष्ठता। तथा समूर्त बिंब विधान। कई-बार उनकी ऐंद्रिकता ‘ऐंद्रिकता के सम्राट’ कीट्स की ऐंद्रिकता के भी आगे जाती है । शैले के लिये धरती पर द्वीप सागर तथा अन्य सभी चीज़ें क्षुब्ध तथा गतिशील हैं। जैसे इन सभी चीज़ों के आदि स्रोत सूर्य उदित और अस्त होता हैं। कीट्स की ऐंद्रिकता बहुत सीमित है। शैले की ऐंद्रिकता विविध, व्यापक तथा विराट है। वह अमूर्त चीज़ों को भी मूर्त बिंबों में व्यक्त करने के अभ्यासी है। समय के भार का भी उन्हें ऐंद्रिक बोध होता है। ‘पछुआ हवा’ कविता में कहते हैं।

समय के सघन बोझ ने
जकड़ कर
मुझे झुका दिया है ।
लगता है उनकी सभी  इंद्रिया अत्यधिक चौकन्नी  हैं।

दरअसल शैले की कविता की ऐंद्रिकता, उसकी प्रगीति, उसमें निहित संगीत, बिंब विधान, छंद योजना, रूप शिल्प संगठन आदि की चर्चा तो बहुत हुई। पर उनके समीक्षकों ने उनकी महत्वपूर्ण लोकधर्मिता को नहीं समझा। उसे या तो विकृत किया। या उसे छिपाया गया। कवि की पत्नी श्रीमती शैले ने कवि के बारे में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण बाते कहीं है जो शैले के लेाकधर्मी स्वरूप को बताती हैं। ऐसी बातें उनके किसी समीक्षक ने इतनी प्रामाणिकता से नहीं कहीं। उन्होंने बताया है कि जिस ‘अकेलेपन’ को शैले झेलते रहे वह बहुत कम लोगों को पता है। मनुष्य जाति की भौतिक तथा नैतिक उन्नति के लिये शैले के मन में जिंतनी बेचैनी थी कदाचित् बहुत कम लोगों के मन में रही होगी। इस बात को शैले दुनिया की पवित्रतम चीज़ मानते थे। उनका मानना है कि दुखी पीड़ित जनों की मुक्ति तथा उनकी उन्नति के प्रति इतनी बेचैनी बिरले ही किसी में हो। इसी संदर्भ में शैले की लोकधर्मिता को गहराई से समझने के लिये उनके राजनीतिक विचार समझने बहुत जरूरी हैं। जैसा मैंने कहा शैले ने कविता के साथ गद्य बराबर लिखा था।  गद्य में वह अपने सामाजिक तथा राजनीतिक दायित्व के प्रति अति सजग हैं। बहुत स्पष्ट भी। गद्य में व्यक्त उनके विचार एक क्रान्तिकारी कवि के विचार हैं। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘क्वीन मैब’ पर टिप्पणी करते हुये कहा है कि, ‘मनुष्य के श्रम के अतिरिक्त कोई भी धन सच्चा नहीं है’। ध्यान देने की बात है कि यह बात उनहोंने मार्क्स से पहले कही थी। उस समय शैले की उम्र मात्र 18 साल रही होगी। शैले मानते हैं कि गरीब श्रमिक के हिस्से में सिर्फ कठोर श्रम ही आता है। सारी सुख सुविधायें संपन्न वर्ग को ही प्राप्त होती हैं। अतः शैले ने एक ऐसे समाज का स्वप्न देखा था जहाँ श्रम तथा अवकाश सभी के हिस्से में अनुपाततः बराबर बराबर आ सके। शैले के अनुसार शारीरिक श्रम तो श्रमिक ही करता है। अवकाश तथा सुविधायें धनिकों के लिये होती हैं। सारे बुर्जुआ चिंतक इसी को सत्य मान कर जीते हैं। उनके लिये यह व्यवस्था अनिवार्य है। वे समतामूलक समाज के विचार को एक ‘खयाली पुलाव’ मानते है। इसीलिए सर्वहारा की शोषण से मुक्ति बुर्जुआ के लिये एक काल्पनिक आदर्श लगता है। लेकिन क्या समतामूलक समाज की स्थापना संभव नहीं है?  समाजवादी देशों ने इसे किसी हद तक करके दिखा दिया है। लैटिन अमरीकी देशों में यह प्रक्रिया बराबर जारी है। हमारे मुक्तिसंग्राम के संकल्पों में भी समतामूलक सामाज की परिकल्पना निहित है। वह क्रांति अभी अधूरी है। उसके लिये संघर्ष करना होगा।
शैले का राजनीतिक चिंतन अपने समय के अंग्रेजी समाज पर आधृत है। ‘क्वीन मैब’ कविता पर टिप्पणी करते हुए शैले ने कहा है कि जिस समाज में हम रहते हैं उसकी स्थिति सामंती बहशीपन तथा अपूर्ण सभ्यता की है। यहाँ अपूर्ण सभ्यता से शायद कवि का अभिप्राय है  बंज -व्यापार पर आधृत उपभोक्तावादी संस्कृति। शैले कुलीन तंत्र तथा उसपर आधृत संपत्ति का घोर विरोध करते हैं। उनका मानना हैं कि सामंतशाही तथा कुलीन तंत्र के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग को संगठित होना बहुत जरूरी है। इससे लगता है कवि को राजनीतिक-आर्थिकी का संज्ञान है। शैले मानते है कि कुलीन सामंतों का परजीवी समाज प्रगति का सबसे बड़ा शत्रु है। सबको पता हैं कि नृपतंत्र का सीधा जुड़ाव सामंतों से था। इंग्लैण्ड में टौरी चर्च सामंतों का समर्थक था। यही वजह है शैले बराबर चर्च के पादरी समूह का विरोध करते रहे हैं। शैले चाहते थे नृपों, सामंतों, कुलीनों तथा चर्च की सत्ता समाप्त हो। उसके स्थान पर एक लोकतान्त्रिक समतामूलक व्यवस्था कायम हो सके। इसके लिए अहिंसक तरीके से आक्रामक प्रतिरोध जरूरी है। शैले यह जानते थे कि शांतिपूर्ण तरीके से नृप और सामंत अपने अधिकार नहीं छोड़ सकते। पर और कोई विकल्प था ही नहीं। शैले जनता के विद्रोह का समर्थन बराबर करते रहे। उनका दर्शन है कि जनता के अहिंसक विद्रोह की तीव्रता इस बात पर निर्भर है कि उसके विद्रोह के दमन के लिये सत्ता अपनी सेना का उपयोग करती है या नहीं? शैले विश्व के किसी भाग में श्रमिकों के दमन का विरोध करते हैं। बार बार जनता को संघर्ष के लिये प्रेरित भी करते हैं। वह अपने देशवासियों को ग्रीक लोगों के मुक्तिसंग्राम की याद भी दिलाते हैं। वह प्रश्न करते हैं क्या इंग्लैण्डवासी कभी मुक्त हो पायेंगे? कवि मानते हैं कि यह समय उत्पीड़ितों का उत्पीड़कों के विरुद्ध संघर्ष का समय है। दुनिया के क्रूर बहशी नृप सामंत एक जुट हैं। वे हत्यारे है। लुटेरे हैं। वे गिरोहबंद हैं। गलत तरीकों से उन्होंने सत्ता हथिया ली है। स्वयं को सर्वसत्तधारी होने का अधिकारी भी समझते हैं। लेकिन पूरे योरुप में अब नई सजग प्रजाति जन्म चुकी है। क्रूर सत्ताधारी उस में अपने विनाश के बीज का पूर्वानुमान लगा कर भयभीत हैं। यह भी कि रूस, तुर्की तथा इंग्लैण्ड के तानाशाहों का अंत समीप है। अंतर्राष्ट्रीयता में शैले का यकीन था। वह मानते हैं कि तानाशाहों की सशस्त्र एकता संगठित जनता से ही परास्त की जा सकती है। ‘हैलास का सहगान’ 1827 में रचा गया था। तब से लेकर अंत तक शैले के क्रांतिकारी विचारों में कोई बदलाव देखने को नहीं मिलता। बल्कि समय के साथ वह और प्रखर होता गया है। वह बार बार मनुष्य जाति के शत्रु का स्मरण कराते हैं,

 ’ क्या मनुय जाति के ये शत्रु /
अपने शत्रु को भी पहचानते हैं ? 

लोक के प्रति उनकी ऐसी  प्रतिबद्धता थी जो उनके समय के किसी अन्य रोमेंटिक कवि में नहीं मिलती। हमारे यहाँ के किसी छायावादी कवि में भी नहीं। निराला का ‘बादल राग’ शैली की ‘दॅ क्लाउड’ कविता से प्रेरित जरूर है। वह बादल को ‘विप्लव का वीर’ भी कहते हैं। पर उन्हें जनता को संगठित करने के बाद की क्रांति प्रक्रिया की प्रविधि नहीं आती। न वह शैले की तरह बेचैन हो कर गद्य में क्रांति के अपने राजनीतिक विचार व्यक्त करते हैं। शैले तो जर्मनी तक में क्रांति की बात करते हैं, ‘संसार जर्मनी में क्रांति की खबर की प्रतीक्षा कर रहा है। एक सुलझे, संयमित तथा धैर्यशील समाजवादी की तरह शैले अराजक हिंसा तथा अनावश्यक रक्तपात से परहेज़ करते हैं। उनका मानना है कि देश भक्तों को शांति तथा संयम से अत्याचार सहने होगे! वर्ग शत्रु सशस्त्र है। बहुत शक्तिशाली भी। वह जनता का विध्वंस करने के लिये किसी भी सीमा तक जा सकता है। ऐसे में अहिंसक क्रांति ही एक विकल्प बचता है। यह भी तभी संभव है जब जनता जाग्रत हो। उसे संघर्ष के लिये प्रशिक्षित किया जाये। वह अपने कर्तव्य तथा मूल अधिकारों को समझे। सशस़्त्र क्रांति अंतिम विकल्प है। क्रांति के इतने सघन, संतुलित तथा तर्कसंगत विचार कवियों में कहाँ मिलते हैं।

आखिर सर्वहरा के लिये संघर्ष क्यों आवश्यक है? क्योंकि वही समस्त भौतिक सम्पत्ति का अपने  कठिन श्रम से सृजन करता है। शैले शोषक के स्वभाव को भी बेहतर समझते थे। श्रमिक की क्रांतिकारी भूमिका को भी। वही संगठित होकर अपने वर्ग को शोषण उत्पीड़न से मुक्त करा सकता है। कवि ने भौंड़े  निठल्ले तथा आलसी सामंतो -कुलकों का गृणास्पद मज़ाक उड़ाते हुये उन्हें खाने-पीने वाला, सोने – झींकने वाला, झूठ बोलने वाला तथा दबाव में घिघियाने वाला बताया है। यह भी कि वे समकालीन साहित्य को अपनी रुग्ण मनोरचना से विषाक्त करते हैं। उनके इरादे, उम्मीदें तथा सोच बहुत ही तुच्छ होते हैं। हर समय सिर्फ अपने लाभ के बारे में ही सोचना उनका जीवन लक्ष्य होता है। यही वह वर्ग है जिसने श्रमिकों के साथ धोखाधड़ी से अपार धन एकत्र कर लिया है।

ज्यों ज्यों औद्योगिक विकास हुआ श्रमिकों का शोषण बढ़ता गया। वे, उनकी स्त्रियाँ तथा बच्चे तक क्रूर यातना झेलते हैं। कठिन श्रम के बाद भी उन्हें पर्याप्त पौष्टिक भोजन नहीं मिलता। न बेहतर कपड़े। अपनी अति प्रतिकूल स्थितियों के वशीभूत वे अज्ञानी, अपराधी तथा अनैतिक बनने को विवश होते हैं। शैले अपनी कविता तथा गद्य में इन्ही लोगों को आंदोलित करने की सोचते हैं। उत्पीड़ितों के हाथ से सत्ता उनके हाथ में सौंपने की प्रविधि बताते हैं –

गहरी नींद में सोये तुम
शेरों की तरह जाग  उठो
तुम संख्या में अजेय हो
जिन जंजीरों ने
तुम्हें सोते में  जकड़ लिया है
उन्हें ओस की तरह
धरती पर छिन्न भिन्न  कर दो
तुम असंख्य हो
वे बहुत थोड़े हैं
अपने देश के सर्वहारा को सम्बोधित करते हुये शैले कहते हैं –
इंग्लैण्डवासियो –
उन प्रभुओ, सामंतों के लिये
क्यों जोतते हो खेत
जो तुम्हारा दमन  करते हैं
क्यों बुनते हो कपडा उनके लिए
इतने श्रम और चिंता  से
तुम्हारे तानाशाह, प्रजापीड़क
भव्य पोशाकें पहनते  हैं
आखिर क्यों –
अपने जन्म से मौत  तक
उन्हें अन्न उगा  कर देते हो
वस्तुओं का उत्पादन  करके देते हो
अपने प्राण दे कर
उनकी रक्षा करते हो
वे कृतघ्न हैं, निकम्मे हैं, नाकारा हैं
तुम्हार पसीना निकालते  हैं
ओह … नहीं, तुम्हारा खून भी पीते हैं
ये इंग्लैंड की मधुमक्खियाँ
भट्टियों में तपा  कर
क्यों गढ़ती हैं
निरे हथियार, जंजीरें और चाबुक
ये डंकहीन, निठल्ल आलसी
तुम्हारी कठोर कमाई को
चौपट कर देंगे।

मैंने अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन अध्यापन करते-कराते पूरे समय ऐसी पंक्तियाँ शैले के किसी समीक्षक को उद्धृत करते न देखी, न पढ़ी। हमारे अंग्रेजी प्रोफैसरों ने भी कभी उनका उल्लेख नहीं किया। नृपतंत्र के सगे इंग्लैण्ड के सामंत -कुलक -कुलीन बुर्जुआ लोग ऐसी ही कविताओं के लिये अपना शत्रु समझते थे। उनके मन में इस कवि के प्रति अपार घिन थी। पर वहाँ के सामान्य उत्पीड़ित लोग इन कविताओं में अपने जीवन का प्रतिबिंबन देखते थे। शैले को वे अपना कवि मानते थे। शैले की एक प्रसिद्ध कविता है, ‘दॅ मासक ऑफ एनार्की’ (अराजकता का मुखौटा)। यहाँ कवि ने मैंन्चैस्टर में हुये श्रमिकों पर पाशविक नरसंहार को बताया है। यहाँ जाने कितने स्त्री-पुरुष मारे गये। कितने जख्मी हुये। कितने ही 60000 की भीड़ में कुचल गये। ‘दॅ मासक ऑफ एनार्की’ कविता को उस समय प्रकाशित नहीं किया गया। कविता का प्रारंभ एक बहशियाना व्यंग्य से होता है –

मैं हत्यारे से
रास्ते में मिला
वह एक मुखौटा पहने था
ऊपर से बहुत शांत
लेकिन अंदर कलुष भरा  था
खून के प्यासे
सात शिकारी कुत्ते
उसके पीछे थे ….।
अराजकता राजा का मुकुट  पहने हुए कहती है –
मैं ईश्वर हूँ, राजा हूँ, कानून भी
मैं ही हूँ …  

इसी कविता में मैंनचेस्टर नरसंहार के बारे में बताया है –

रक्त घास पर
ओस की तरह बिखरा  हुआ है –

शहीदों को संबोधित  करते हुये शैले श्रमिकों की स्वायत्तता को भौतिक सुखों  के माध्यम से कहते हैं –  जो हज़ारों कुचले गये हैं

तुम उनके लिये (श्रमिकों) वस्त्र हो
अग्नि हो, भोजन हो

शैले इंग्लैण्ड में लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना के लिये बेचैन हैं –

इंग्लैण्ड के किसी हिस्से में
निडर और मुक्त नागरिकों की
ऐसी विधानसभा बनने दो
जहाँ विस्तृत मैदानों जैसा
खुलापन हो

इसी प्रकार अपनी कविता  ‘इंग्लैण्डवासियों के लिये’ में कहते हैं –

ओ इंग्लैडवासियो
क्या तुम्हें अवकाश, आराम, शांति नसीब है
तुम्हारे आश्रय  अन्न
प्यार का सुखद मरहम
कहाँ है
यह कैसी नियति है
तुम अपने कष्ट और त्रास  का
मूल्य दे कर ये सब पाते हो

शैले का मानना है कि सर्वहारा का बलिदान समूचे  राष्ट्र को प्रेरित करेगा।

यहाँ ध्यान देने की बात है कि शैले जहाँ जनता को सम्बोधित करते हैं वहाँ उनकी भाषा, शैली, शब्द विन्यास, शिल्प गठन, संरचना तथा भाव व्यंजना अति सहज -सरल होते हैं। यहाँ कवि का मूल लक्ष्य अपनी जनता को जाग्रत करना है। वह इसी भाषा में संभव है। हमारे जनवदी कवि नागार्जुन, त्रिलोचन तथा केदारबाबू इस बात का ध्यान बराबर रखते हैं। पर मुक्तिबोध सर्वहारा के पक्षधर होकर भी ऐसा नहीं कर पाते। वह दुरूह -अतिदुरूह -तथा फैन्टसी में डूबते उतराते नज़र आते हैं। आज के लोकधर्मी कवि को यह बात सीखने की है। कवि वर्डस्वर्थ ने कविता में जिस सामान्य बोल-चाल की भाषा के प्रयोग का मूलतः प्रस्ताव किया था उसे शैले व्याहारिक बना रहे हैं। कई बार सरल भाषा भी छल करती है। भाषा सरल होती है। पर कहने को कुछ नहीं होता। सम्मान्य कविवर केदारनाथ सिंह तथा विनोदकुमार शुक्ल की भाषा सरल है। उस भाषा में जनता के जीवन के कथ्य न होकर वाग्मिता द्वारा शब्द चमत्कार पैदा किया जाता है। शैले इस पक्ष में भी है कि जनता के लिये सहज-सरल लोकधर्मी साहित्य रचा जाना चाहिए। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता, ‘दॅ नेनसी’ के पूर्व कथन में जनता को आंदोलित करने के लिये सामान्य जन की अति परिचित भाषा का प्रयोग करना ही बेहतर बताया है। इस संदर्भ में वह अपने महान अग्रज कवियों का उल्लेख करते हैं जिन्होंने यह कर दिखाया।
इसी प्रक्रिया से बुर्जुआ -कुलीन -सामंती संस्कृति के समानांतर एक अग्रगामी जनवादी संस्कृति रची जा सकती है।

शैले की क्रांतिकारी  चेतना का प्रमाण है उनका आयरलैण्डवासियों की स्वतंत्रता का प्रबल समर्थन। सच्चा देश भक्त क्रांतिकारी कवि वही है जो अपने देश की जनता के साथ अन्य देशों की उत्पीड़ित जनता को भी प्रतिरोध के लिये संप्रेरित करे। शैले बार बार अपनी जनता को बताते हैं कि साम्राज्यवादी औपनिवेशिक युद्ध शासको का हित साधते हैं। जनता का तो शोषण ही होता है। वह बराबर प्रश्न उठाते हैं कि श्रमिको -किसानों को उनके कठिन श्रम का समुचित पारिश्रमिक क्यो न मिले ? बार-बार वह अपने स्वतंत्रता प्रेम की ओर लौटते हैं। वह जानते हैं कि नृप तथा सामंत अंदर से खोखले हो चुके हैं –


राजकुमारों और महंतों के चेहरे
भक्क पड़ चुके हैं
वह राक्षसी आस्था
जिसके सहारे जनता को
उत्पीड़ित कर
उसका दमन किया गया  था
वह अज्ञ धनुर्धारी  के बाण से
छूटे हुए तीर की तरह
उन्हीं के सीने में  चुभ गया है

वह अपने जन को जाग्रत करते हुये बार बार याद  दिलाते हैं –

तुम बिजाई करते हो
फसल दूसरे काटते  हैं
पूँजी तुम कमाते  हो
दूसरे हड़पते हैं
पोशाके तुम बनाते  हो
दूसरे भव्य दिखते हैं
हथियार तुम ढालते  हो
उनपर दखल औरों का होता है।

शैले का काव्य नाटक ‘दॅ नैनसी’ में वह जनता के उत्पीड़न के विरुद्ध उसका संघर्ष व्यक्त करते हैं। ‘हैलास’ ग्रीक स्वतंत्रता का आख्यान है। एथेन्स ग्रीक सभ्यता का केंद्र रहा है। शैले नये जनवादी मुक्त एथेन्स के जन्म की भी उम्मीद करते हैं –

एक नया एथेन्स जन्मेगा 
वह आगे कहते हैं –
दुनिया अतीत से थक चुकी है
ओह … या तो इसका अंत  हो
या फिर सबकुछ शांत हो जाये।

शैले अपने राजनीतिक विचारों तथा रणनीतियों  से अपनी जाग्रत जनता को बराबर परिचित कराते रहे। अपने श्रमशील किसानों को सम्बोधित करते हुये उन्हें प्रेरित करते हैं

बिजाई करो, बिजाई
पर तानाशाह उसे  न काट पायें
धन कमाओ
पर धोखेबाज़, ढोंगी
उसे तिजूरियों में  न सेंत पायें
भव्य पोशाकें बनाओ
हरामखोर, निकम्मे उसे न पहन पायें
अपनी सुरक्षा के लिये
हथियार भी ढालो
उन्हें चलाना भी सीखो।

ध्यान देने की बात है शैले कवि हैं। राजनीतिक चिंतक बाद में। वह जानते हैं कविता से जनता को उत्प्रेरित तथा आंदोलित करना तथा राजनीतिक व्यूह रचना करना दोनों में फर्क है। फिर भी शैले राजनीतिक कथ्य को व्यक्त करने के लिये सदैव बेचैन दिखते हैं। अंग्रेज़ी में मुझे कोई दूसरा कवि इतना लोकधर्मी तथा सर्वहारा के प्रति समर्पित नहीं दिखता। यही वजह है शैले महान क्रांतिकारी प्रगीति कवि हैं। शैले की सर्वहारा के प्रति इतनी प्रतिबध्दता देखकर इंग्लैण्ड के क्रूर शासकों ने शैले के बच्चों तक को उनसे छीन लिया था। वह स्वेच्छा से उनका लालन पालन तक नहीं कर पाये थे। तानाशाह शासक शैले को उनकी क्रांतिकारी आस्था से डिगाने को ही ऐसा कर रहे थे। इस त्रासदी जनित गहरी वेदना से मर्माहत होकर शैले ने कहा है –

डरो मत –
कि क्रूर अत्याचारी  ही
सदा शासन करेंगे
या ये महँत अपनी पैशाचिक  आस्था को
हम पर थोपते रहेंगे
वे एक उफनती नदी  के
तट पर खड़े हैं
उसकी लहरों पर
उनकी मृत्यु अंकित
हो चुकी है
हजारों अंध घाटियों  की गहराइयाँ
उनमें समा चुकी है
उनके चारों तरफ
उसके उफनते झाग  हैं
उमड़ती लहरें हैं
उनके दण्ड और तलवारें
मैं उसमें तैरते  देखता हूँ ।

शैले की कविता की सत्ता के गुरगों ने घोर  अवज्ञा कराई थी। बुर्जुआ  सत्ता पोषित समीक्षकों  ने उस पर तीखे प्रहार किये थे।  ऐसे पेशेवर समीक्षकों को शैले ने जो पैने उत्तर दिये हैं वे तर्क संगत हैं। पेशेवर समीक्षक चाहे भारत के हों या योरुप के वे लोकधर्मी कविता तथा अग्रगामी कवि का विरोध करते ही आये हैं। सत्ता उन्हें इस काम के लिये प्रत्यक्ष – परोक्ष मेहनताना देती है। फिर भी लोकधर्मी कविता की परम्परा अखण्ड बनी रही। ऐसे पेशेवर समीक्षकों को शैले साहित्य में ‘भाड़े के टट्टू’ मानते हैं। महाकवि मिल्टन ने अपनी जगत प्रसिद्ध कविता ‘ लिसिडस’ में ऐसे समीक्षकों को, ‘अंध मुख’ कह कर उनकी भर्त्सना की है। अपनी प्रसिद्ध कृति ‘ कविता का बचाव’ में शैले ने बताया है कि सही मानवीय सभ्यता के उत्थान के साथ साहित्य का भी उत्थान होता है। उसके पतन के साथ साहित्य का पतन। उनके अनुसार जिस सामाजिक व्यवस्था में कवि जीता है -सृजन करता है -उसका असर उसके सृजन पर जरूर पड़ता है। अर्थात् कविता और कवि समाज -राजनीति निरपेक्ष नही होते।

शैले योरुप के अलावा  एशिया के नवजागरण के प्रति भी सजग हैं। उनका मानना है कि एशिया के बड़े बड़े नृप तंत्र बेहद शक्तिशाली हैं। वे उन भूकंपों से भी धराशायी नहीं हो सकते जिनसे बड़े बड़े पर्वत राख में बदल जाते हैं। शैले सभी क्रांतिकारी चिंतकों को कवि का दर्जा देते हैं।

ध्यान रहे शैले ने सिर्फ राजनीतिक कवितायें ही नहीं लिखी। उन्होंने मनुष्य के कोमल भावों -प्रेम, करुणा, सौंदर्य, प्रकृति के विभिन्न पक्षों को लेकर भी महान कवितायें लिखी है। शैले ने प्रगीति कविता में भी क्रांतिकारी परिवर्तन किये हैं। प्रगीति कविता को जो गांभीर्य, व्यापकता, गहन जीवन मूल्यबोध तथा कलात्मक शिल्प सौष्ठव की अनुलंघ्य ऊँचाइयाँ उन्होंने प्रदान की वे अप्रतिम है। उनकी महान काव्य साधना को उनके विरोधी भी स्वीकार करते हैं। यह सच है कि शैले की क्रांतिधर्मी लोकधर्मिता को बिन जाने-समझे उन्हें समग्रता में नहीं समझा जा सकता। कविता में क्रांति का विज्ञान कह पाना बहुत कठिन है। शैले ने क्रांति विज्ञान तथा उसकी प्रक्रिया को अपनी कविता तथा वैचारिक गद्य में बड़ी कलात्मकता तथा सफलता के साथ कहा है। इंग्लैण्ड जैसे साम्राज्यलोलुप तथा जड़ रूढ़िवादी देश में शैले का अवतरित होना एक ऐसी महान परिघटना है जिसे इतिहास में कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। उनकी अनेक कवितायें क्लैसिक का रूप ले चुकी हैं। खासकर ‘ओज़मैंडियाज़’, ‘ओड टू दॅ वैस्ट विन्ड’, ‘टू दॅ इस्काई लार्क’, ‘ भैन सौफ्ट वुआइसिज़ डाइ’, दॅ क्लाउड’, दॅ मास्क ऑफ एनार्की’, ‘क्वीन मैब’, एलास्टर’, दॅ रिवोल्ट ऑफ इस्लाम’, दॅ ऐडोने’, ‘दॅ ट्राइम्फ ऑफ लाइफ’ आदि।

महान कवि मिल्टन ने भी संसद के पक्ष में नृपतंत्र का भारी विरोध किया था।  पर उनका ध्यान सर्वहारा क्रांति  पर न था। सर्वहारा की इतनी उत्कट पक्षधरता शैले के अतिरिक्त अंग्रेजी के अन्य किसी कवि  में दिखाई नहीं देती।  बाद में यह व्यक्त हुई  नेरूदा, ब्रेख्त, माइकोवस्की तथा वोले शंयिका आदि में। फर्क यह है कि शैले के समय तक किसी देश में सर्वहारा पक्षधर सरकारें नहीं बनी थी। नेरूदा, ब्रेख्त, माइकोवस्की तथा वोले शयिंका आदि सर्वहारा को प्रतिष्ठित होते देख चुके थे। पर निजी तथा सामाजिक जीवन में यातना जनित कठिनायाँ सबको ही उठानी पड़ी थी। सही अर्थों में लोकधर्मी कवि तथा समीक्षक की यही नियति है। बिना इसके न तो कविता बड़ी बनती है । न कवि व्यक्तित्व। न कवि कर्म अनुलंघ्य गरिमा को प्राप्त कर पाता है।
रूढ़िवादी तथा बुर्जुआ  लोग शैले की कड़े शब्दों में निंदा भी करते रहे हैं। क्योंकि शैले सर्वहारा के लिये सामाजिक न्याय दिलाने को अंत तक संघर्षरत रहे। शैले की मृत्यु के बहुत दिनों बाद लोगों ने शैली को समझना शुरू किया। विक्टोरियन कवियों ने शैले को बहुत आदर दिया था। इसी प्रकार प्रि- रेफिलाइट्स ने भी शैले को सराहा। समाजवादी विचाधारा के लोगों को शैले सदा प्रेरणा स्रेात बने रहे। श्रमिक आंदोलन से जुड़े लोगों ने भी शैले को बहुत आदर दिया। जॅार्ज बर्नार्ड शा, मार्क्स, बरट्रेन्ड रसल आदि शैली को बहुत सम्मान देते रहे हैं। मार्क्स तथा एंग्ल्सि ने अपने साहित्यिक पत्रों में शैले का बड़े सम्मान से उल्लेख किया है। उनका मानना है कि बायरन और शैले को लोधर्मी जन पढ़ते -सराहते हैं। कोई भी कुलीन शैले के कविता संग्रह को बिना बे-आबरू हुये अपनी मेज़ पर नहीं रख सकता था। गरीब लोग भाग्यशाली हैं जो शैले के स्वर्गीय साम्राज्य में रह लेते हैं। वह स्वर्गीय साम्राज्य धरती पर अवतरित होने में जाने कितना समय लेगा? पर मैथ्यूआर्नल्ड जैसे समीक्षक शैले को एक ऐसा देवदूत मानते हैं जो शून्य में अपने पंख फड़फडाता है। एलियट ने शैले को नफरत से ‘ब्लैकगार्ड’ तक कहा है। ये वे लेखक है जो लोकधर्मिता को महत्व नहीं देते। न समाज में मूलगामी परविर्तन चाहते हैं। दूसरे, राजनीतिक यथास्थिति के घोर समर्थक भी हैं। शैले की कृतियाँ उनकी मृत्यु के बाद तक अप्रकाशित रहीं। या कहें बहुत कुछ अनजानी भी। उनकी महत्वपूर्ण कृति, ‘ए फिलोफसिकल व्यू ऑफ रिफार्म’ तो 1920 तक पाण्डुलिपि के रूप में ही उपलब्ध थी। वैसे अभी भी शैली के क्रांतिकारी विचारों को न तो इंग्लैण्ड में कोई महत्व देता है। न पूँजी केंद्रित भारतीय विश्वविद्यालयों के अंग्रेजी विभागों में। शैले के बारे में अंग्रेजी समीक्षकों की धिसी पिटी बातें ही रटाते रहते हैं। उनके इस क्रांतिकारी पक्ष को वे ही सराहते हैं जो अपने देश की जनता से एकात्म हो चुके हैं। उनके काव्य संग्रहों में उनकी क्रांतिकारी कविताओं को निर्ममता से फटक दिया जाता है। यह बात शैले के साथ ही नहीं घटी। सब प्रबल लोकधर्मी कवियों को यह जोखिम उठाने को तैयार रहना चाहिये। इधर के एक समीक्षक हैं पॉल फुट । उन्होंने शैले की सुप्रसिद्ध कविता ‘क्वीन मैब’ को संपादित करते हुये कहा है कि इस कविता ने ब्रिटिश क्रांतिकारी परम्परा में प्रमुख भूमिका अदा की है। कुलीन विक्टोरियन शासकों ने शैले की कृतियों को प्रतिबंधित किया था। फिर भी किसी तरह शैले की राजनीतिक कृतियाँ को रिछार्ड कार्ली जैसे प्रकाशकों ने छापने का जोखिम उठाया। उसके लिये उन्हें जेल जाना पड़ा। पर शैले के विचार बहुत बड़े समुदाय के पास पहुँचते रहे। 2007 के मध्य में, ‘पोयटिकल ऐसे ऑन दॅ एक्जिस्टिंग स्टेट ऑफ थिंग्ज़’ की पुनर्खोज तो हुई। पर उसकी उपलब्धता को रोक दिया गया। वह न तो इन्टरनैट पर उपलब्ध है। न अन्य कहीं। उसका अता-पता भी नहीं है। 12 जुलाई 2006 के ‘दॅ टाइम्स लिटरेली स्पलीमैंट’ में उक्त कविता का विश्लेषण छपा है जिसे शैले की ‘काल्पनिक उछल कूद’ बताया गया है। इसका कारण है उनके क्रांतिकारी विचार। हमारे यहाँ भी लोकधर्मी कवियों की कम ज्यादा यही स्थिति रही है। सेठाश्रित पत्रिकाओं के द्वार उनके लिये बंद हैं। प्रकाशन विरल। अन्य पत्रिकयें भी अपने को बचाने के लिये उनसे परहेज करती है। ज्यों ज्यों विश्व में लोकतांत्रि़क तथा सामाजिक न्याय प्रिय सरकारे बनेंगी शैली की कविता का महत्व बढ़ेगा। जनता की पक्षधर सरकारे उनकी कविता से प्रेरणा लेंगी। उनकी कवितायें श्रमिक तथा छोटे किसान सड़कों पर उन्हें गायेंगे। इसीलिए शैली ने अपने देश की जनता को संदेश दिया

ओ इंग्लैण्डवासियो –
तुम इतने कठिन श्रम से करहाते हुए
खेत जोतते हो
वे कौन हैं 
तुम्हारी फसल काट कर ले जाते हैं
तुम कपड़ा बुनते हो
जिसे तुम्हारा शोषक पहनता है
जो दूसरों को सुख  देते हैं
वे अंधड़ बौछारें  सहते हैं
वे देवता है
जो अपना सब कुछ
जन्म से मृत्यु तक
दूसरों को देते रहते हैं। 

ई-मेल- kritioar@gmail.com
मोबाईल-09928242515

(विजेन्द्र जी वरिष्ठ कवि  एवं हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका कृति ओर के संस्थापक सम्पादक हैं।)
 

ब्रेख्त: प्रतिरोध की लोकधर्मी कविता

लोकधर्मी कवियों की परम्परा श्रृंखला के अंतर्गत आप वाल्ट व्हिटमैन, बाई जुई, मायकोव्स्की, नाजिम हिकमत एवं लोर्का पर आलेख पहले ही पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में  प्रस्तुत है प्रख्यात कवि एवं नाटककार बर्टोल्ड ब्रेख्त पर आलेख, जिसे तैयार किया है हमारे वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने.

ब्रेख्त: प्रतिरोध की लोकधर्मी कविता

विजेन्द्र

     ब्रेख्त के बारे में सोचते ही गेटे और रिल्के के नाम सहज ही याद आते हैं। ब्रेख्त सबसे बाद के कवि हैं। सबसे पहले गेटे। उसके बाद रिल्के। तीनों ही जर्मन भाषा के.अपनी अपनी बनक के अनूठे कवि हैं। इन तीनों की कविता हमें एक दूसरे को समझने में मदद करती है। गेटे (1746 – 1832 ) 18 वी सदी में जन्में। 19वी सदी में उनका कवि कर्म चरितार्थ हुआ। गेटे ने दो विश्व युद्धों की विनाशकारी विभीषिका न देखी। न सुनी। न उन्होंने साम्राज्यवाद के जनविरोधी आक्रामक तेवर देखे। अतः उनके सरोकार मनुष्य केंद्रित होते हुये भी हमें मनुष्य के आभ्यांतर जगत द्वंद्व से ही ज्यादा जोड़ते हैं। मसलन मनुष्य की अछोर ज्ञान पिपासा। उसकी अदम्य आकांक्षा। उसके मन में अपूर्णता का बेचैन केरने वाला असंतोष। आत्मा का शैतान के जाल में फँस कर उससे मुक्त होने के अथक प्रयासों में सफल होना। अपने को महापतन से बचाना। यानि उनके सरोकारों का स्वभाव व्यक्ति केंद्राभिमुख (centripetal) अधिक है। रिल्के (1875 – 1926) ने प्रथम विश्व युद्ध की विनाशकारी विभीषिका तो देखी। पर जिन साम्राज्यवादी देशों ने यह विनाशलीला योरुप पर थोपी थी उनकी तरफ उनका ध्यान कतई नहीं गया। दरअसल वह एक ऐसे पतनशील साहित्या आंदोलन से जुड़े रहे जिसने विश्व के बड़े बड़े कवियों को बर्बाद किया है। रिल्के में मृत्यु ही एक ऐसा सर्वोच्च सर्वोच्च भाव है जिसके लिये जीवनपर्यन्त तैयारी करनी पड़ती है। जब प्रथम विश्व युद्ध उन्हें विचलित करने को घटित हुआ उसी समय रिल्के ने अपने ‘शोक गीतो‘ को ‘मनप्रक्षालक’ तथा ‘पुनरुद्धारक’ कहा था। वह इतने विचलित थे कि उन्हें काव्य रचना ही असंभव लगने लगी थी। अतः उन्होंने 1915और 1919 के मध्य लगभग न के बराबर ही लिखा। वह जीवन भर ‘दृश्यमान’ को ‘अदृश्यमान’ में रूपांतरित करने के ही काव्य प्रयत्न कर नवरहस्यवाद का ताना बाना बुनते रहे। ब्रेख्त (1898 – 1956) इन दोनों कवियों से अलग और भिन्न 20 वी सदी के योद्धा कवि हैं। एक ऐसा कवि जो कविता को ‘शिवेतर क्षतये‘ के लक्ष्य से जोड़ कर उसे पूँजीकेंद्रित व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का अस्त्र बनाता है। यानि उनकी कविता नागार्जुन, केदार बाबू,  मुक्तिबोध, कुमारेंद्र, कुमार विकल आदि की कविता की तरह राजनीति में सीधा हस्तक्षेप है।

      ब्रेख्त मूलतः नाटककार हैं। यद्यपि वह कवि भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। जैसे शेक्सपियर जीवन भर काव्य नाटक लिखते रहे। उन्होंने अलग से सानेट भी लिखे। पर हैं वह महान नाटककार ही। ब्रेख्त की कविता बिना उनके नाटकों को समझे उसकी प्रदत्त ऐंतिहासिक अनुगूँजों के साथ नहीं समझी जा सकती। इसी तरह उनकी कविता को पढ़ कर उनके नाटकों के सार तत्व तक पहुँचा जा सकता है। मेरा अपना विचार है उनकी कवितायें तथा नाटक परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। लगता है उनके लिये कविता तथा नाटक दो अलग अलग विधायें होकर भी एक दूसरे की साधती सँभालती हैं। जबकि शेक्सपियर में ऐसा नहीं है। उनके नाटकों की जो संक्रियात्मक बाह्यता है वह उनके आत्मपरक सानेट से भिन्न है। जबकि ब्रेख्त की कविता में नाटकों की संकिय्रात्मक बाह्यता बराबर बनी रहती है। अतः उनका काव्य स्वभाव रिल्के के काव्य स्वभाव से बिल्कुल भिन्न अपकेंद्रीय (Centrifugal) है। ब्रेख्त को कविता लिखना इसलिये जरूरी लगा क्योंकि वह नाटको की अत्यधिक बाह्यता की वजह से अपने गहरे आत्मपरक अनुभवों को उनमें नहीं कह पा रहे थे। पर उनकी कविताओं का कथ्य नाटकों के कथ्य का आत्मपरक विस्तार ही है।

     ब्रेख्त की प्रदत्त ऐतिहासिक सिथतियाँ बहुत ही भयावह हैं। किसी भी लेखक को अत्यधिक चुनोतीपूर्ण। बल्कि जनपक्षधर तथा लोकधर्मी कवि कर्म के लिये जानलेवा जोखिम से भरी हुई। स्पेन मे फासिज़्म की क्रूर तानाशाही पूरी दुनिया के लेखकों के लिये विकल्प की चुनौती खड़ी कर रही थी। लेखक क्या करें! ऐसे समय तटस्थ रहें। या लोकतंत्र के लिये जनता के साथ संघर्ष में शरीक हों। फासिज़्म को स्वीकारें। या उसके विरुद्ध लड़ने को विश्वस्तर पर संगठित हों।योरुप और ब्रिटेन के लेखक स्पेन में घटित इन दुर्भाग्यपूर्ण स्थितियों के लिये बहुत चिंतित थे। ब्रेख्त के नाटकों तथा कविताओं के कथ्य का खनिज इतिहास  प्रदत्त इन्ही परिस्थितियों की देन है ।

       सब जानते हैं ब्रेख्त का जन्म 10 फरवरी 1898 केा जर्मनी के बावेरिया प्रांत में हुआ था। उनके कस्बे का नाम आग्सबुर्ग था। वहीं उनके पिता एक कागज़ के कारखाने में प्रबंधन का काम करते थे। ध्यान देने की बात है कि ब्रेख्त के माता पिता का गहरा संबंध खेतिहर किसान परिवारों से था। पिता और माता दोनों ही धार्मिक थे। ब्रेख्त का लालन पालन मार्टिन लूथर के ढंग से हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके गृह कस्बे आग्सबुर्ग में हुई थी। 1917 में वह म्यूनिख विश्वविद्यालय में अध्ययन हेतु चले गये। यहाँ उन्होंने चिकित्साशास्त्र का अध्ययन चुना। पर उनका मन इस में कम लगा। उसी समय से ब्रेख्त कविता तथा नाटक में दिलचस्पी लेने लगे थे। वहाँ के स्थानीय अखबारों में उनकी रचनायें प्रकाशित होने लगी थी। प्रथम विश्वयुद्ध के समय ही उन्हे सेना में जाने का अवसर मिला। उनको सेना के मैडिकल कोर में काम पर रखा गया। अच्छी बात यह हुई कि उनकी नियुक्ति उन्हीं के कस्बे आग्सबुर्ग में ही हो गई। सेना में रहने की वजह से उनकी काव्य संवेदना पर युद्ध की विनाशकारी विभीषिका का गहरा असर पड़ा है। उनकी कविताओं में बराबर युध्द विरोधी अनुगूँजें तथा शांति के लिये प्रयत्न आद्यंत सुनाई पड़ती हैं-

मुझ नाटककार को
युद्ध ने कर दिया अलग, मेरे दोस्त रंगकर्मी से
वे शहर जिनमें हमने काम किया, अब नहीं हैं कहीं

ब्रेख्त कविता और अपने नाटकों में बराबर युद्ध को मानव विरोधी तथा नरसंहारक बता कर प्रत्यक्ष परोक्ष उसका विरोध करते रहे हैं। उनकी कविता में व्यक्त प्रतिरोध का यह एक प्रमुख पहलू है। या फिर वे शांति की बात को प्रमुखता से उठाते हैं। शांति के लिये बराबर चिंतित रहना भी परोक्षतः युद्ध का विरोध है। कुछ लोग कह सकते हैं यह एक नकारात्मक प्रतिरोध है। ऐसा नहीं है। युद्ध का विरोध दुनिया को अमानवीय ध्वंस से बचाने के लिये जरूरी है। पर ब्रेंख्त के इस विरोध का एक राजनीतिक पहलू भी है। वह जानते हैं साम्राज्यवादी देश दूसरे शांति प्रिय देशों पर युद्ध थोपते हैं। क्योंकि युद्ध से ही उनके देश की आर्थिकी फल फूल रही है। युद्ध होंगे तो आयुधों का बंज व्यापार पनपेगा। अतः युद्ध का सक्रिय विरोध प्रकारांतर से युद्धोन्मादी साम्राज्यवाद का ही विरोध है। साम्राज्यवाद दुनिया में न तो शांति चाहता है। न आर्थिक समता। अतः युद्ध  तथा आर्थिक विषमता का विरोध साम्राज्यवाद तथा पूँजी केद्रित व्यवस्था का ही विरोध है। ब्रेख्त के लिये युद्ध मनुष्य को ही नष्ट नहीं करता बल्कि हमारे संसाधनों को भी ध्वस्त  करता है। इसका गहरा असर गरीब आदमी के जीवन पर पड़ता है । हमारी सभ्यता, संस्कृति, श्रम तथा मानवीय मूल्य भी नष्ट होते हैं। ब्रेंख्त कहते हैं –

जब हमारे शहर बरबारद हुये
बूचड़ों की लड़ाई से नेस्तनाबूद
हमने उन्हें फिर से बनाना शुरू किया
ठण्ड , भूख और कमज़ोरी में

कहना न होगा कि ब्रेख्त का युद्ध विरोध तथा शांति प्रिय होने का प्रभाव उनकी विचारधारा पर भी पड़ा है। ब्रेख्त शुरू में बहुत कुछ अराजक थे। उनके लेखन मे दिशाहीनता भी देखी जा सकती है । वह मनमोजी ढंग से लिखते थे। 1924 में ब्रेख्त बर्लिन आ गये। उस समय जर्मनी राजनीतिक तथा रंगमंचीय गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बना हुआ था। यहाँ आ के वह वामपंथी लेखकों, रंगकर्मियों तथा राजनीतिज्ञों के संपर्क में आते रहे। उनके बीच वे लोकप्रिय हुये। कवि रिल्के से बिल्कुल अलग ब्रेख्त एक प्रतिबद्ध राजनीतिक लेखक हैं। वह अपनी कविताओं में पूँजीकेंद्रित क्रूर होती व्यवस्था का विरोध बराबर करते दिखते हैं। साम्राज्यवाद, फासिज्म तथा पूँजी केंद्रित व्यवस्था को वे ‘काली और विनाशकारी’ शक्तियों की तरह देखते हैं। यही शक्तियाँ युद्ध थोप कर अपने हित साधती है। पर आम आदमी इसके दुष्परिणाम की वजह दुख भोगता है –

युद्ध जो आ रहा है
पहला युद्ध नहीं है
इस से पहले भी युद्ध हुये थे
पिछला युद्ध जब खत्म हुआ
तब कुछ विजेता बने और कुछ विजित
विजितों के बीच आम आदमी भूखों मरा
विजेताओं के बीच भी वह मरा भूखा ही

यानि ब्रेख्त को युद्ध आम आदमी की रोटी का विनाश करने वाला लक्ष्ण है। ये काली ताकते ही मनुष्य का शोषण करती हैं। यातनायें देती हैं। उन्हें कमज़ोर करती है। ब्रेख्त जीवन भर इन काली ताकतों को चुनोतियाँ देते रहे. उनसे अपनी कविता तथा नाटकों में लड़ते रहे। साथ ही इन ताकतों का सिरमौर सर्वहारा की अजेय शक्ति का भी एहसास कराते रहे। एक जनपक्षधर कवि जनविरोधी शक्तियों की आलोचना ही नहीं करता। वह विकल्प भी बताता है। ब्रेख्त या नागार्जुन की कविता संकेत है कि बिना सर्वहारा को संगठित किये हम जनविरोधी व्यवस्था से न तो लड़ सकते हैं। न उसे बदल सकते हैं। ध्यान रहे एक बड़ा कवि अपने समय की छाया प्रतीतियों को व्यक्त कर वह सार तत्व तक जाता है। यानि ब्रेख्त जनविरोधी तथा जनविद्वेषी ताकतों पर प्रहार ही नही करते बल्कि वे उन आधारों तक जाते हैं जो इन ताकतों को खाद पानी देकर पोस रहे हैं । वे निराला की तरह यह भी जानते हैं कि अन्याय की ताकतें बलवान हैं –

‘राम की शक्ति पूजा‘ में कहा ही है ‘अन्याय जिधर, है उधर शक्ति’। पर एक दिन उस अन्याय पोषित शक्ति का अंत जरूर होता है –

साम्राज्यों का पतन होता है
गैंग लीडरान चल रहे हैं अकड़ कर
राजनेताओं की तरह
फौजी वर्दियों के अलावा अब कहीं नहीं दिखेंगे आदमी
अतः भविष्य अब अँधेरे मे है
न्याय की ताकते कमज़ोर है …..

    ब्रेख्त अपनी कविता में अपनी सैद्धातिकी रचते चलते है। वह बिल्कुल साफ हैं। उन्हें क्या कहना है। क्यों कहना है। किसके पक्ष में कहना है। कहाँ किसका विरोध करना है। उन्होंने महाविनाशक दो विश्व युद्ध देखे हैं। उनके कष्ट झेले हैं। फासिज्म से उन्होंने सदा नफरत की है। यही नहीं उसके विरुद्ध अंतिम परिणति तक संघर्ष को अनिवार्य बताया है। इस दृष्टि से ब्रेख्त आज हमारे लिये अत्यधिक प्रासंगिक हैं। अनुकरणीय भी। उन्होंने कुलीन जड़ सौंदर्यशास्त्र को तार तार कर सर्वहारा का लोकधर्मी सौंदर्यशास्त्र रचा है। इस दृष्टि से हिंदी कविता आज बहुत पीछे है। यदि ध्यान से देखें तो आज की कविता में वैसे बड़े सरोकार हैं ही नहीं जिन्हें ब्रेंख्त अंत तक कहते रहे हैं। इसके लिये उन्होंने जोखिम उठाये हैं। बुर्जुआ आलोचक या सिद्धांतकार उनकी उपेक्षा पहले ही करते थे। आज भी करते हैं । क्या वजह है हिंदी के अधिसंख्य कवि रिल्के पर जान न्यौछावर करते हैं। पर ब्रेख्त से दूरी बनाते हैं । हम किस कवि को पसंद करते हैं इस से हमारी साहित्यिक विश्वदृष्टि का भी पता लगता है । एक प्रकार से ब्रेख्त बुर्जुआ यथार्थवाद को पीछे छोड़ सर्वहारा के  सौंदर्यशास्त्र का सृजन करने के लिये कृतसंकल्प हैं। उनकी एक कविता है ‘जर्मनी 1945’

घरों में भीतर प्लेग है
घरों के बाहर ठण्ड से मौत है
तब हमारा ठिकाना कहाँ
सुअरी ने हग डाला है
सुअरी मेरी माँ है
ओ मेरी माँ , ओ मेरी माँ

तुमने यह क्या कर डाला – याद कीजिये  नागार्जुन भी सुअरी को ‘मादरे हिंद’ कह कर कुलीन सौंदर्यबोध को चकनाचूर करते हैं।

 इसी प्रक्रिया से ब्रेख्त भावुकतापूर्ण रूमानियत तथा आत्मनिष्ठ -पतनशील प्रतीकवादियों की सीमाओं को त्याग संघर्षशील लोक से जुड़ते हैं। उनकी कविता की केंद्रीय प्रवृत्ति पूँजीवादी ढाँचे पर तीखे प्रहार करना है। हमारे यहाँ ऐसे प्रहार नागार्जुन, केदार बाबू तथा मुक्तिबोध में देखे जा सकते हैं। क्या हमारी जिज्ञासा यह जानने की न हो कि आज की अधिकांश कविता बहुत ही सीमित सरोकारों की कविता होकर रह गई है। ऐसा क्यों है! क्योंकि बुर्जुआ सत्ता तथा संस्कृति का रंग इतना गाढ़ा है कि उससे उबर पाना आसान नहीं है। हिंदी के प्राध्यापक कवि सत्ता को देख गुन कर ही कोई बात कहते हैं। ब्रेख्त ने कभी चिंता नहीं की होगी कि यदि वह सर्वहारा के पक्षधर कवि होगे तो उन्हें सत्ता द्वारा प्रायोजित पुरस्कारों से हाथ धोना पड़ेगा। लोकतंत्र में लोकधर्मी कविता लिखना वैसा ही कठिन है जैसे छोटे किसानों – श्रमिकों का कोई आंदोलन खड़ा करना। खैर,

     शुरू में ब्रेख्त अपनी काव्यदृष्टि को लेकर बहुत साफ और दिशासूचक नहीं हैं। वहाँ अराजकता भी है। इन कविताओं में प्रकृति, युद्ध, मृत्यु तथा कामेच्छायें प्रबल हैं। जैसे अपनी कविता, ‘जलता हुआ पेड़’ उन्हें  ऐतिहासिक योद्धा की भांति थकाहारा-पराजित सा लगता है। उनके नाटकों तथा कविता के कथ्य खनिज का यदि सूक्ष्म विश्लेषण करें तो लगता है कि ब्रेख्त जीवन में विकृतियाँ, कामोन्माद, हिंसा, युद्ध, लालचपूर्ण स्वार्थपरता, निरंकुश अराजकता आदि को पूँजीकेंद्रित व्यवस्था के ही उत्पाद मानते हैं। उनके नाटकों तथा कविताओं की वास्तुशिल्पीय संरचना में मनुष्य जाति के लिये सकर्मक तथा द्वेषसूचक संकेत बुना रहता है। वह चाहते हैं कि लोक इस बात को समझे कि हमें मार्क्सवाद ही ऐसी समझ देता है जिससे हम सर्वहारा को मुक्त करा के एक नई जनवादी सस्कृति का सृजन कर सकते हैं। वैज्ञानिक समझ -सूझबूझ से  हम कैसे समतामूलक समाज रच सकते हैं! यह तभी संभव है जब लेखक स्वयं उस विचार दर्शन से पूरी तरह  लैस हो। हम स्वयं अपने आचरण को बड़े संयम तथा अनुशासन से जनता के समक्ष प्रस्तुत करें। आत्मरति,  आत्ममुग्धता तथा आत्मनिष्ठता को बड़ी निर्ममता से त्यागें। मसलन वे अपने अत्यंत महत्वपूर्ण नाटक ‘द लाइफ आफ गैलिलियो’ में कुछ बातें बहुत साफ साफ कहते हैं। प्रारंभ से ही उनकी सहानुभूति वाम से थी। सामान्य और अनुदात्त को गौरव देते हैं। कई बार वह विभ्रमित हाकते दिखते हैं। सामाजिक और राजनीतिक मूल्य इतने गिर चुके हैं कि वे इन पर तीखे वयंग्य करते हैं। चर्च और वैज्ञानिक सोच के मध्य गहरे द्वंद्व हैं। कविता तथा नाटकों में वे मानते हैं कि पुराना समय खत्म हो चुका है, यह नया युग है…. बहुत कुछ खोजा जा चुका है, पर अभी खोजने को बहुत शेष है…. नये समय का अरुणोदय हो चुका है… एक महान युग जिस में जीवंत रहना ही हमारे लिये आनंद का विषय है….लोग समझ रहे हैं कि अब सूर्य अपने स्थान पर थिर है। पृथ्वा उसकी परिक्रमा करती है। यह एक तर्कपूर्ण सैद्धान्तिकी है जिसे ब्रेख्त नाटकों तथा कविता दोनों में सिरजते हैं। उनकी एक कविता है ‘‘जनता और रोटी’। यहाँ उन्होंने न्याय को जनता की रोटी कहा है। यानि जिस तरह नयाय की जरूरत दिन प्रति दिन होती है ठीक वैसे ही न्याय की। पर यह न्याय की रोटी जनता के हाथों ही पकनी चाहिये। यह भर पेट हो। दूसरे, पौष्टिक भी हो –

न्याय जनता की रोटी है
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जब रोटी दुर्लभ है तब चारों ओर भूख है
जब बेस्वाद है , तब असंतोष है
खराब न्याय को झुठला दो
भूरा पपड़ाया गंधहीन न्याय
जो देर से मिले, बासी है
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जिस तरह रोटी की जरूरत रोज है
न्याय की जरूरत भी रोज़ है
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लोगों को चाहिये
हर रोज़ पूरी तरह, पौष्टिक, न्याय की रोटी
न्याय की रोटी भी
जनता के हाथों ही पकनी चाहिये
भर पेट, पौष्टिक प्रति दिन

 30 जनवरी 1933 को जब हिटलर ने जर्मनी पर अधिकार जमा लिया तब ब्रेख्त को नया त्रासद संकट पैदा हुआ। यह स्पष्ट था कि अपने मार्क्सवादी विचार लेकर अब ब्रेख्त जर्मनी में नहीं रह सकते। इस बिंदु से ब्रेख्त के जीवन में निर्वासन का नया सिलसिला शुरू हुआ। यहाँ देखना यह है कि कवि ने ऐसे जानलेवा संकट में क्या सोचा! कौन सा विकल्प अपनाया। यदि ब्रेख्त चाहते तो मार्क्सवाद त्याग कर नया चेहरा पहन सकते थे। हिटलर के स्तुति गान रचने में उन्हें क्या कठिनाई हो सकती थी! जैसे हिंदी के अनेक लेखकों ने अपना कैरियर बनाने के लिये ऐसा किया ही है। सोवियत रूस के विघटन के बाद से तो हमने मार्क्स का नाम तक लेना उचित नहीं समझा। अपने कैरियर तथा सुख सुविधा के लिये डा0 नामवर सिंह जैसे समीक्षक ने तो 1968 (कविता के नये प्रतिमान) में ही मार्क्सवाद को विकृत करना शुरू कर दिया था। डा0 रामविलास शर्मा ने इस ‘पथभ्रष्ट विचलन’ की तीखी आलोचना भी की है। ऐसा क्यों होता है! क्या लेखक को ऐसा करने पर सबकुछ खो देना नहीं पड़ता! क्या इतिहास उन्हें क्षमा करता है। क्या वे हमारे आदर के पात्र बने रहते हैं! ऐसा ब्रेख्त ने क्यों नहीं किया। क्योंकि वह नाज़िम हिकमत तथा नेरुदा की तरह सच्चे लोकधर्मी कवि का महता दायित्व निभा रहे थे। शायद इसीलिये ये कवि आज स्मरणीय हैं। अनुकरणीय भी। बहरहाल, ब्रेख्त जर्मनी से निर्वासित होकर पहले डेनमार्क चले गये। 1938 में जर्मनी ने आस्ट्रिया को हड़प लिया। ब्रेख्त को आभास हुआ कि अब विश्वयुद्ध टाला नहीं जा सकता। यह भी लगा कि अब उन्हें वैज्ञानिक सोच को केंद्र में रख कर ही सृजन करना बेहतर होगा। इन दिनो ब्रेख्त की कविताओं का तेवर तीखा और धारदार है –

कितनी हड़बड़ी का आलंगिन है यह
तुम एक स्वादिष्ट दावत में शरीक होने जा रही हो
मेरे पीछे पड़े हैं जल्लाद के आदमी।

उन्हों ने व्यंग्य किया है उन लोगों पर जो शांति और युद्ध के बारे में हल्की फुल्की औपचारिक चर्चायें करके तुष्ट हो लेते है –

वे जो शिखर पर बैठे हैं,  कहते है:
शांति और युद्ध के सार तत्व अलग अलग हैं
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युद्ध उपजता है उनकी शांति से
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उनका युद्ध खत्म  कर डालता है
जो कुछ उनकी शांति ने रख छोड़ा है

उनके समीक्षकों का कहना है कि यह समय उनके ‘उत्कृष्ट सृजन’ का समय है। उनकी कविताओं में एक खास किस्म की गहरी रूपकीय भंगिमा उभरती दिखती है। इस दौर का ‘द लाइफ आफ गैलिलियों’ नाटक ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण सृजन है। एक प्रकार से यह कृति उनकी वैचारिक आस्था का कलापरक घोषणापत्र है। यह कृति बताती है कि अत्यंत प्रतिकूल स्थितियों में भी एक लेखक बिना वैचारिक विचलन के कैसे रास्ता निकालता है। दूसरे, बड़े तर्कपूर्ण ढंग से बताया गया है कि दुस्साहस कवि कर्म को विफल बनाता है। प्रतिबद्ध लेखक को चाहिये कि वह कठिनतम प्रतिकूल स्थितियों में भी अपना काम पूरा करे। दूसरे, विज्ञान का सही उपयोग सामान्य जन के लिये केसे हो। क्योंकि हिंसक और स्वार्थी लोगों ने विज्ञान के लाभ अपने हित के लिये हड़प लिये हैं। कहा है कि तुम्हारे और उनके (सामान्य जन) के बीच की खाई किसी दिन इतनी चौड़ी होगी कि तुम जिन नई उपलब्धियों को उत्सव मनाओगे उसका उत्तर एक भयावह चीख के द्वारा दिया जा सकता है। ब्रेख्त को सारतः समझने के लिये यह कृति बुनियादी है। मेरे विचार से हर उस कवि को यह कृति पढ़नी चाहिये जो कविता को बड़े सरोकारों से जोड़ कर उसकी ऊँचाइयों तक पहुँचाना चाहता है। यह कृति बताती है कि सच्चे जनपक्षधर कवि को बड़े जोखिम उठाना पूर्व शर्त है। अथक संघर्ष ही एक पथ है। जनता की शक्ति पाने के लिये हमें उससे एकात्म होना पड़ेगा। आज के लेखन का सबसे बड़ा रूपक  (Metaphor) सर्वहारा ही है। सबसे बडा मिथक पूँजीवाद का साम्राज्यवाद से नाभिनालबद्ध गठजोड़ है। प्रतिबद्ध लेखक के लिये ब्रेख्त की तरह सर्वहारा का पक्षधर होना आज की अनिवार्यता है। लोकतंत्र की जरूरत भी। तभी हम अपने मुक्तिसंग्राम की अधूरी क्रांति को उसके तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचा पायेंगे।

       द्वितीय विश्व युद्ध का खतरा ब्रेख्त को चेतावनी थी कि डेनमार्क भी उनके लिये कोई महफूज़ स्थान नहीं रह गया है। योरुप में हर तरफ युद्ध के हालात देख सुन कर ब्रेख्त के मन मे भय था –

जनरल तुम्हारा टेंक एक मजबूत वाहन है
वह नष्ट कर डालता है वन को
और रौंद डालता है सैकड़ों आदमियों को
लेकिन उसमें एक खराबी है
इसके लिये एक चालक चाहिये
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उसके लिये एक मिकेनिक चाहिये
जनरल आदमी कितना उपयोगी है….

यहाँ ब्रेख्त युद्ध में मनुष्य के विनाश का संकेत करते हुये वे हुनरमंद आदमी के अपरिहार्य महत्व को बताते हैं। उसके बिना कुछ भी संभव नहीं। न निर्माण। न प्रगति। उसी दौरान फासिस्ट जर्मनी ने समाजवादी देश सोवियत रूस पर आक्रमण कर दिया। 1941 के आस पास ब्रेख्त अमरीका चले आये। वहाँ उन्होंने फिल्म उद्योग के लिये भी काम करने का प्रयत्न किया। पर उनके ज़मीर ने उनका साथ नहीं दिया। अमरीका भी उन्हें रास नही आया। वहाँ से लौट कर वह सबसे पहले स्विट्जरलैण्ड में रहने लगे। पर उनके मन में इस बात की चिंता जरूर थी कि अपनी विचारधारा के प्रसार के लिये वह अपने नाटकों का मंचंन करा सकें। तभी उनके मन में विचार आया कि शायद इस काम के लिये उन्हें आस्ट्रिया अधिक अनुकूल होगा। वहाँ  की भाषा भी उस समय जर्मन थी। वहाँ से उन्हें पूर्वी तथा पश्चिमी जर्मनी में आने जाने की सुविधा रहेगी। 1949 के आस पास वह ज्यूरिख चले आये। वहाँ पहुँचने के बाद उन्होंने आस्ट्रियाई नागरिकता प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की। 1950 में उन्हें वहाँ की इच्छित नागरिकता प्राप्त हो गई।

         सोचने की बात है कि ब्रेख्त ने अपने सृजन के लिये जो विचाधारा चुनी वे उसका निर्वाह हर हालत में करते रहे। कहते हैं कि उन्होंने नाटकों द्वारा अपनी मार्क्सवादी विचारधारा का प्रचार प्रसार करने के लिये ‘एपिक थियेटर’ नाम दिया। हिंदी में उसे (लोक नाटक) की संज्ञा दी गई है। उन्होंने परंपरति अरस्तू आदि के नाट्य सिद्धांतों से भिन्न तथा मौलिक नाट्य सिद्धांत रचे। उनका तर्क है कि जो कुछ मंच पर घटित है उससे दर्शक एकात्म न हों। वे समझे कि जो कुछ दिखाया जा रहा है वह विगत की ही गाथा है। शायद ऐसा ही प्रभाव लोक गीतों को गाये जाने की कला करती है। इसकी अर्थ ध्वनि यह है कि दर्शक को एक तटस्थ भाव से ही नाटक देखना चाहिये। यानि दर्शकों का एक ‘अलगाव भाव’ बना रहे। ब्रेख्त बार बार यह संकेत करते हैं कि नाटक के द्वारा वह कोई यथार्थ विभ्रम के रूप में प्रस्तुत नहीं कर रहे। बल्कि वह नाटक के माध्यम से मनुष्य के स्वभाव को कलात्मक ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि दर्शक एक ऐसा नाटक देख रहे हैं जहाँ मनुष्य अपनी संक्रियाओं से अपने स्वभाव को बताते हैं। इस प्रकार वह कविता तथा नाटक मे अरस्तू के चिर परिचित सिद्धान्तों को ध्वस्त करते हैं। इसीलिये ब्रेख्त के लिये काव्य तथा नाटक सृजन बहुत अलग अलग चीज़ें नहीं लगती। वह थियेटर को उच्चकोटि के बौद्धिक मनोरंजन का मंच मानते हैं। दर्शकों में उन्नत विवेक जाग्रत हो। वे अपने तर्क से चीज़ों को समझें। उन्हें विश्लेषित करें। दर्शकों को किसी भावावेग में बहने की जरूरत नहीं है। उन्हें बराबर यह एहसास रहे कि अभिनेता कुछ खास वर्ग के व्यक्तियों की सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर उनके स्वभाव तथा व्यवहार की संक्रियायें बता रहे है। दर्शक वास्तविक घटनायें न देखकर अभिनेताओं द्वारा कही गई गाथा देख रहे हैं। यही वजह है कि ब्रेख्त के नाटकों को परंपरित ढंग से ठीक उसी तरह मंचित नहीं किया जा सकता जिस तरह हम शेक्सपियर के नाटकों का मंचन करते हैं। एक प्रकार से ब्रेख्त चाहते हैं कि वे अपने दर्शकों को उनकी आंतरिक सीमाओं से बाहर निकाल पायें। उन्हें यह विस्मृत करा दें कि तत्क्षण वे थियेटर में हैं। यदि दर्शक नाटक को देख भावविभोर हुये तो उनकी तर्क शक्ति क्षीण बल होगी। इस दृष्टि से वह एक क्रांतिकारी तथा मौलिक नाटककार हैं। उन्हें यकीन है कि जीवन को आलोचनात्मक तथा विश्लेषणपरक आँख से देखना एक प्रकार से उसे रूपांतरित करने के लिये एक कदम आगे बढ़ना है। आज की कला का यह प्रमुख प्रयोजन भी होना चाहिये। वस्तुजगत की सिर्फ व्याख्या ही नहीं बल्कि उसके रूपांतरण होने की प्रक्रिया पर बलाघात हो। दिलचस्प बात है कि ब्रेख्त के यहाँ न तो कोई महानायक है न कोई खलनायक। जैसे हम शेक्सपियर या गेटे में पाते हैं। उनके यहाँ सामान्य क्रियाशील जीवंत मनुष्य ही है सब।

     ब्रेख्त की कविता इस बात का अच्छा खासा प्रमाण है कि वह राजनीतिक प्रतिबद्धता को सृजन की पहली तथा जरूरी शर्त मानते हैं। उनकी एक कविता है ‘समाधानं उसमें वह जनता और सत्ता के रिश्तों का संकेत करते हैं –

सत्रह जून के विप्लव के बाद
लेखक संघ के मंत्री ने
स्तालिनाली शहर में पर्चे बाँटे
कि जनता सरकार का विश्वास खो चुकी है
और तभी दुबारा पा सकती है यदि दुंगनी मेहनत करे

वह मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की तत्वमीमांसाई बारीकियों को कविता में बड़े संयम तथा रूपकीय अंदाज़ में कहते रहे हैं। सामाजिक अंतर्विरोधो को वह बड़े ही सटीक ढग से प्रस्तुत करते हैं। श्रम का सौदर्य उनकी कविताओं मे बड़ी सांकेतिकता से आता है –

पसीने से सराबोर वह नीचे झुकता है
सूखी लकडियों के लिये
मच्छरदानी को सिर से परे ढकेलता है
लकड़ियों का गट्ठर बहुत मुश्किल से
सँभाल पाता है
घुटनों के बीच
पीठ सीधी करता है बोझ के भार से
और हाथों को उठाता है ऊपर ……

ब्रेख्त ने अधिकांश लघु आकार की ही कवितायें लिखी है। शायद उन्हें नाटकों ने लंबी कवितायें लिखने का अवकाश ही न दिया हो। उनकी कवितायें वास्तुशिल्पीय संरचना की दृष्टि से सुगठित हैं। शब्दों की भारी मितव्ययता है। वह कुलीन काव्य मुहावरे को तोड़ते हैं। तथा कथित काव्यमय सुंदर शब्दों के पीछे नहीं भागते। आखिर कयों! क्योंकि विश्व के कुलीन और बुर्जुआ कवियों की तरह कविता उनके लिये मनोरंजन तथा विलासिता की चीज़ नहीं है। वह हमारे पुराने दकियानूसी संस्कारों को तोड़ने का अस्त्र भी है। मैं पहले ही कह चुका हूँ ब्रेख्त ‘शिवेतर क्षतये’ वाले काव्य प्रयोजन को मानते है। उनकी कविता सामान्य पाठक को उसके सामाजिक दायित्व के प्रति सचेत करती है। उसकी शक्ति का उसे एहसास कराती है। वह रिल्के की कविता की तरह निजी तथा अति गोपनीय चीज नहीं हैं। सर्वहारा के पक्ष में लड़ते रहने के लिये कविता एक ऐसा अस़्त्र है जो वर्गशत्रु पर आक्रमण कर उसे भी सोचने को बाध्य करती है। वह सप्रयोजन ऐसी रचना है जो संघर्षशील मनुष्य की हर कठिनाई में उसके साथ खड़ी होती है। कविता मनुष्य जाति की ऐसी मूल्यवान धरोहर है जो उसे अंदर से परिमार्जित  कर अग्रगामी सामाजिक गतिकी को आगे बढ़ाती है।

     कहना न होगा कि ब्रेख्त को मार्क्सवाद ने ही ऐसी विश्वदृष्टि दी जिससे वह समाज का वैज्ञानिक विश्लेषण कर उसे रूपांतरित तथा सुंदर बनाने के लिये प्रेरणा दे सके। यह तो सभी जानते हैं दुनिया में अधिकांश लोग दुखी है। यह सिर्फ छायाप्रतीति है। सारतत्व तक पहुँचने के लिये हमें यह भी जानना होगा कि उनकेा किसने दुखी बनाया है! फिर उससे मुक्त होने का क्या उपाय हो सकता है। एक बड़ी तथा उत्कृष्ट कृति इन सब सवालों के हल संकेत से सुझाती है। ब्रेष्ट की कविता तथा नाटक दोनो में ऐसे संकेत बड़ी गहराई तथा संश्लिष्टता से निहित हैं। उनकी कृतियों मे उच्च मानवीय मूल्यों से संसक्ति ऐसे नैतिक आदर्श भी हैं जो समाज का उन्नयन कर उसे अग्र गति दे सकें। ब्रेख्त एक राजनीतिक लेखक हैं – इसमे संदेह नहीं। उनकी गहरी रुचि जनता के संघर्ष में है। फिर भी उनकी कविताओं में संश्लिष्ट अर्थध्वनियाँ बराबर मौजूद रहती हैं। उनमें हताशा और नाउम्मीदी के काव्य बिंब बहुत कम हैं। वे श्रमिकों तक ही सीमित नहीं हैं। बल्कि किसान जीवन की मार्मिक छवियाँ भी उकेरते हैं –

जंगल पनपेंगे फिर भी
किसान  पैदा  करेंगे  फिर  भी
मौजूद रहेंगे शहर फिर भी
आदमी लेंगे साँस फिर भी।

अपनी कविता के प्रयोजन के बारे में वे बहत साफ हैं। कविता सप्रयोजन गंभीर कर्म है। वह बुरे आदमियों को खौफ पेदा करे। अच्छे इन्सान उसे पढ़कर प्रसन्न हों जैसे उन्हें कोई निरुपम उपलब्धि हुई है। उनकी एक कविता है ‘ एक चीनी शेर की नक्काशी को देख कर-’

तुम्हारे पंजे देख कर
डरते हैं बुरे आदमी
तुम्हारा सौंदर्य देख कर
खुश होते हैं नेक इन्सान
यही मैं चाहूँगा सुनना
अपनी कविता के बारे में

यहाँ बिंबध्वनि है कि कविता वर्गशत्रु को उसके अंत का संकेत देती है। उसके दुराचार को सबके सामने खोलती है। उसके विनाश के लिये तैयार होती ताकत का उसे एहसास कराती है। श्रेष्ठ कविता में संकेत होते हैं कि थिर कुछ नहीं है। हर चीज़ को रूपांतरित होना ही है। जो सर्वाहारा एक दम शोषित पीड़ित है उसे एक दिन विजयी होना है। एक दिन क्रूर और काली ताकतों को पराजित कर वह मुकुट जरूर पहनेगा। ऐसे विचार व्यक्त करने वाली कविता से बुर्जुआ सत्ता डरती है। जो कविता हल्की फुल्की बातों से उसका मनोरंजन कराये उसको वह संरक्षण देता है। ब्रेख्त की कविता वर्गशत्रु पर प्रत्यक्ष परोक्ष बराबर प्रहार करती है। पर ब्रेख्त ने राजनीतिक कविताओं के अलावा ऐसी कवितायें भी लिखी हैं जिन में व्यक्ति तथासामाजिक जीवन की गुणवत्ता विकसित करने के संकेत है –

हम यह जानते हैं सदा
अधमता से घृणा भी
रूप को विकृत करती है
असत्य  की अवज्ञा से भी
हमारी वाणी कर्कश होने लगती है
ओह…हमने मैत्री के लिये
भूमि तैयार करने की इच्छा की
पर हम परस्पर मित्र न हो सके।
पर तुम धैर्य से सोचो
आदमी आदमी की सहायता के लिये
कहाँ कहाँ तक नहीं पहुँचा है

इस दृष्टि से ब्रेख्त के कथनों में ऋचाओं या बाइबिल की उक्तियों जैसी सहज सरल अभिव्यक्ति है।

      बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया है कि ब्रेख्त प्रकृति की ओर बराबर आकर्षित रहे हैं । यह बात मुझे भी चमत्कृत करती रही है के एक प्रतिबद्ध राजनीतिक कवि प्रकृति के सौंदय्र से बार बार अभिभूत होता हे। पर उनके यहाँ प्रकृति किसी पलायन या प्रतिसंसार रचने के अर्थ में नहीं आती। वह उद्दीपन नहीं है। बल्कि अपने आप में ऐसा सवायत्त आलंबन है जो मनुष्य की संक्रिया को प्रभावित करता है। मनुष्य उसे रूपांतरित करते हुये दिखाई पड़ता है। यानि ब्रेख्त के यहाँ मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते द्वंद्वात्मक हैं। उनकी बहुत ही खूबसूरत कविता है ‘पौधघर’ । यहाँ ‘पेड़ों की सिंचाई’ के साथ ‘थकान से चूर’ होने का एहसास भी है। जहाँ ‘दुर्लभ फूलो के अवशेषों’ के साथ लकड़ियाँ , तिरपाल , तथा ‘टीन की बाड़’ भी है। ‘पीले मुरझाये डण्ठलों’ को थामें हुई रस्सियों की मरोड़ें’ हैं। तिरपाल की छत पर डोलती ‘ मामूली सदाबहार पेड़ों की छाया’ के प्रति ब्रेख्त आकर्षित हैं। ये सदावहारी पेड़ ऐसे हैं जिन्हें न सिंचाई की जस्रत है। न वर्षा की। बाद में ब्रेख्त को अफसोस है कि ‘खूबसूरत नाज़ुक पौधे  अब ज़िंदा’ नहीं हैं । पूरी कविता में प्रत्यक्ष परोक्ष आदमी और प्रकृति की द्वंद्वपरक स्थिति बनी रहती है । ब्रेख्त ‘कोयल का गीत’ सुन कर प्रेरित होते है। जैसे अंग्रेज़ी के विद्रोही कवि शैले अबाबील का गीत सुन कर और कीट्स बुलबुल का। निराला जब अपने को ‘स्नेह निर्झर’ से रिक्त पाते हैं तो उन्हें आम की सूखी डाल दिखाई देती है जहाँ अब ‘ पिक या शिखी ’ बैठने को नहीं आते। ब्रेख्त मानते हैं कि ‘तमाम कोयलों के गीत रहेंग मेरे बाद भी’। ध्वनि है कि आदमी के बाद भी कला जीवित रहती है। जैसे कोयल के गीत। उनकी कविता में झील, नदियों, पहाड़ों, शरद के आने, बाढ़, शामें, तँबई रंग के देवदार, भयंकर तूफान, बियाबान, उमस भरे दिन, चाँदी जैसे चिनार के वृक्ष, झरबेरीयाँ, शार्क मछलियों,  सुअरी, कुहरे से ढके दिन, घाटियों, सफेंद बादल, गुमसुम आकाश, बंजर जमीन, तितलियाँ, आँच की ऊँची लपटें, थरथराती झुलसती पत्तियाँ आदि के चित्र बराबर आते हैं। जैसा मैं ने कहा ब्रेख्त के यहाँ प्रकृति पलायन, रूमानियत या प्रतिसंसार रचने को न आकर आदमी की संक्रियाओं को बताने के लिये आती है। वह मनुष्य संक्रिया की पीठिका भी बनती है। और द्वंद्वमय क्रीड़ा भूमि भी। इस से कविता में इकहरापन नहीं आता।  दूसरे , हम अपने आंतरिक संसार को विस्तृत करते हैं।

    ब्रेख्त सही अर्थों में एक लोकधर्मी कवि हैं । वह मनुष्य के सप्रयोजन संघर्ष को कभी आँख ओट नहीं होने देते वह कहते हैं –

फोलादी कवि जब उन्हें पीटता है
देवियाँ उँचे स्वरों में गाती है
सूजी आँखों से
वे उसका आदर करती है
पूँछ मटकाती हुई कुत्तियों की तरह
उनके नितंब फड़कते हैं पीड़ा से

और जांघें वासना से। यह बात ब्रेख्त ‘कला की इष्टदेवियो’ के बारे में कह रहे हैं। संकेत है कि हमारे पवित्र आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्य बुंरी तरह विकृत हो चुके हैं। विश्वविख्यात चित्रकार एम0एफ0 हुसैन ने भारतीय देवी देवताओं को थेाड़ा विरूप अमूर्तन से जब बताया तो उन्हें यहाँ के कट्टर पंथियों ने देश छोड़ने को विवश किया। जबकि हम खजुराहो के मंदिर पर उकेरी नग्न और अश्लील मूर्तियों को सदियों से देखते सराहते आये हैं। कला सिर्फ ऊपरी सतही यथार्थ को नहीं दिखाती। बल्कि वह छाया प्रतीति को भेद कर आंतरिक विकृतियों के भी दिखाती है। देवी देवताओं में भी मानवीय दुर्बलतायें होती ही है। वे मनुष्य के प्रतिबिंब हैं।

….. आज के स्पाती युग में ‘फौलादी कवि’ कहना कवि  और कविता की परंपरित कोमल धारणा को बुनियादी तौर से बदलने का ही उपक्रम है। यह बात सीखने की है। ब्रेख्त का कथ्य लोक से उत्खनित है । तदनुरूप उनकी भाषा भी लोक से ही अर्जित की गई भाषा है। उनकी भाषा में कुलीनता का बनाव ठनाव न होकर सीधी सहजता है। कुलीन मन को ऊपर से दिखने में वह सपाट और ऊटपटाँग लग सकती। पर उसमें संक्रियात्मक बिंब धर्मिता बराबर बनी रहती हैं। उसकी लय लाकोन्मुख तथा लोकानुगामी है। उसमें बेलबूटों की पच्चीकारी न होकर धमन भट्टियों में पके इस्पात की धारदार खनक है। एक प्रकार से वह रचनाशील भाषा का नमूना है। अर्थात् ऐसी रचनाशील भाषा जहाँ कवि के शब्द पूर्व स्वीकृत या पूर्व परिभाषित अर्थ-ध्वनियों का अनुगमन नहीं करते। बल्कि जहाँ कवि द्वारा सृजित शब्दों का अर्थ ध्वनियाँ अनुगमन करती हैं। ब्रेख्त की भाषा में स्फटिक जैसी बिंबधर्मी पारदर्शिता है। हीरक इनी जैसी तीक्ष्णता। भाषा के बारे में कवि के विचार जानने योग्य है –

और  मैं  हमेशा  सोचता था
एकदम सीधे सादे शब्द ही पर्याप्त होन चाहिये
मैं जब कहूँ कि चीज़ों की असलियत क्या है
प्रत्येक दिल छलनी हो जाना चाहिये
कि धँस जाओंगे मिट्टी में एक दिन
यदि खुद नहीं खड़े हुये तुम
सचमुच तुम देखना एक दिन

      यहाँ शब्द सीधे सादे हैं। पर उनकी ध्वनियाँ , व्यंजना , संकेत अत्यंत दिशा सूचक तथा आक्रामक हैं। ‘कि धंस जाओगे मिट्टी में एक दिन /यदि खुद नहीं खड़े हुये’ वाक्य कविता को सर्वहारा के विश्वव्यापी संक्रिया से जोड़ती है। यानि बुनियादी रूपांतरण के हेतु सामूहिक तथा संगठित जनता के अलावा कोई अन्य विकल्प है ही नहीं। यहाँ शब्द कवि द्वारा विवक्षित बात के नये सृजित अर्थो के पीछे स्वयं दौड़ते नज़र आते हैं। इसी तरह  वह श्रम की रचनाशीलता बताते हैं –

पसीने से सरावोर वह नीचे झुकता है
सूखी लकड़ियों के लिये
$         $       $
लकड़ियों का गठ्ठर बहुत मुशकिल से
सँभाल पाता है घुटनों के बीच
पीठ सीधी करता है बोझ के भार से
और हाथों को उठाता है ऊपर
$         $      $
उठे हैं उसके हाथ

यहाँ भी भाषा सिलपट दिख सकती है। पर संक्रियाओं की वक्रता में श्रम की भिन्न भिन्न बिंबधर्मी छबियाँ संगर्थित हैं। इसीलिये भाषा में अर्थव्यंजकता उसे इकहरा तथा निरर्थ नहीं होने देती। इसीलिये मैंने कहा कि ब्रेख्त की काव्य भाषा सपाट होकर भी बिंबधर्मी तथा रचनाशील है। नेरुदा की भाषा पर कुलीनता का प्रभाव है। ब्रेख्त की भाषा में नाजिम की भाषा जैसी सहजता हैं। दोनो ही लोक से भाषा अर्जित करते हैं। नेरुदा मार्क्सवादी होते हुये भी अधिकांशतः भाषा में कुलीन बने रहते है। हिंदी में जैसे मुक्तिबोध।

       यह सवाल बार बार उठेगा कि आखिर ब्रेख्त को आज पढ़ना समझना क्यों जरूरी है। जिन संकटापन्न तथा त्रासद हालात में ब्रख्त ने अपना कवि कर्म किया आज भी हालात वैसे ही हैं। पूँजीकेंद्रित व्यवस्थायें अपने चरम पर मनुष्य का शोषण कर रही हैं। साम्राज्यवाद नये रूप में पहले से भी अधिक आक्रामक और एकध्रुवीय हुआ है। सर्वहारा के पक्षधर कवि को बड़ी चुनौतियाँ तथा जोखिम आज भी बदस्तूर हैं। ऐसे में ब्रेख्त को पढ़ना हमें अपने सामाजिक दायित्वं के प्रति सजग करेगा। हमें हर प्रतिकूल स्थिति में अपनी वैचारिक आस्था को बनो रखने के लिये प्ररित करेगा। उन्ही की एक कविता से बात खत्म करता हूँ –


जब तुम हमारी दुर्बलतओं  के बारे में बताओंगे
उस अँधेरे समय के विषय में भी
जिसने हमें इस तरह कमज़ोर किया था
ये वह समय था जब हमने जूते कम
देस परदेस अधिक बदले
स्थितियाँ खौफनाक थी
इधर उधर भागना हमारी मजबूरी थी
वर्ग संघर्ष में नधे थे हम
फिर भी हताश थे
क्योंकि अन्याय ही सच था
प्रतिरोध का साहस कम
हमें यह भली भाँति पता था
अराजकता  के प्रति नफरत
दिल को कठोर बना देती है
अन्याय के प्रति आक्रोश
हमें वाणी से मधुर नहीं होने देता
हम करुणा को सेंतना चाहते थे
पर स्वयं सहृदय नहीं हो पाये ……….।

(आलेख में प्रयुक्त सभी चित्र ब्रेख्त के हैं जिन्हें हमने गूगल से साभार लिया है।) 
  (
विजेन्द्र जी हमारे समय के वरिष्ठ कवि, आलोचक एवं चित्रकार हैं। वे कृतिओर पत्रिका के संस्थापक सम्पादक भी हैं।) 

संपर्क-
मोबाईल- 09928242515 
 

लोर्का: जातीय लोकधर्मी कवि

जनवरी 2013 से पहली बार पर हमने ‘विश्व के लोकधर्मी कवियों की श्रृंखला’ आरम्भ की थी। इसे हमारे आग्रह पर वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने ‘पहली बार’ के पाठकों के लिए लिखा है। इस श्रृंखला के अंतर्गत आप वाल्ट व्हिटमैन, बाई जुई, मायकोव्स्की एवं नाजिम हिकमत को पहले ही पढ़ चुके हैं। इस बार प्रस्तुत है विश्वविख्यात कवि लोर्का पर आलेख 

लोर्का: जातीय लोकधर्मी कवि 

विजेन्द्र

      
स्पानी भाषा के विश्व विख्यात जातीय लोकधर्मी कवि फैडिरिगो गार्सिया लोर्का (1899 -1936) की उन्हीं के देश में उनकी निर्मम हत्या की गई। लोर्का, ब्रेख्त, नेरुदा, नाज़िम हिकमत तथा माइकोव्स्की आदि कवियों के कथ्य तथा रूप दोनों में भिन्न कवि हैं। कहना न होगा कि लेार्का की ऐतिहासिक स्थितियाँ ठीक वैसी है जैसी ब्रेख्त या नेरुदा की। 1930 का दशक योरुप या कहें पूरी दुनिया के लिये बड़े भयावह संकट का समय है। तीसरे दशक के प्रारंभ में चारों तरफ एक अराजकता का महाहौल था। विध्वंस की कारुणिक चीखें थी। महाविपत्ति तथा अनर्थ का जयघोष सुनाई पड़ रहा था। डव्ल्यू एच आडिन की एक कविता में तीस के दशक की मनोरचना तथा भावोद्वेग का अच्छा चित्र दिया है –

हम ने सब संभावित तैयारियाँ कर ली थी
संस्थानों की सूचियाँ तैयार थी   
हम अपने  अनुमानों को
बराबर सुधारते थे
अपेक्षा के अनुसार
अधिकतर हम में से आज्ञाकारी थे यद्यपि अंदर अंदर बड़बड़ाहट थी
गंभीर शंकाये किसी में न थी
यदि विजयी नहीं हुये
तो जीना मुमकिन नही था
इसी प्रकार एक दूसरे प्रमुख कवि सिसिल डे लेविस कह रहे थे –
अपने पूर्वजों के प्रति निरादर
वारिसों के प्रति लापरवाह
जो लेते हैं घूँस
वे उसी से होंगे नष्ट
सूखे पटपर में मरेंगे
पागलखानों में उनका होगा अंत
बच्चे अभिशप्त है… अब भी उनका भय..
उनका पागलपन हमें रुग्ण करता है
यह तराशने वाला समय है
अभी बचे तो बचे
अन्यथा कभी नहीं
हम अतीत से कट चुके है …..।

यह बहुत ही रुचिकर है जानना कि आखिर ब्रिटेन में कवि राजनीति से क्यों इतने संबद्ध हुये। उनके बदले हुये सौंदर्यबोध के क्या आधार थे। ‘कला कला के लिये’ कहने वाले रूपवादी कवि अपना प्रभाव खोते जा रहे थे। उनके बारे में कहा गया कि ‘उनकी त्रासिक मृत्यु’ हो चुकी है। या फिर अपने ‘यकीन से त्रासद ढंग से मुकर’ चुके हैं। वाम पंथी रुझान कविता में उभर रहा था। ऐसा लगने लगा था कि ब्रिटेन का पुनर्जन्म अराजकता और विध्वंस के बीच से ही होगा।

तीसरे दशक में कविता के लिये सबसे बड़ा खतरा फासिस्ट राजनीति से था। फासिस्टों की तानाशाही ने बहुत सा साहित्य नष्ट कर दिया था। बहुत से लेखकों को निर्वासित कर दिया गया था या वे न लिखने को विवश थे। ध्यान रहे फासिज़्म का सबसे बड़ा शत्रु कला और साहित्य ही होंता है । सबसे पहले वह प्रबुद्ध तथा अग्रगामी लेखकों तथा बुध्दि जीवियों का ही सफाया करता है। इसी समय जेम्स ज्वाइस का प्रख्यात महाकाव्यीय उपन्यास ‘यूलिसिस‘ प्रतिबंधित हुआ। डी0 एच0 लारेन्स के उपन्यास ‘लेडी चेटर्लीज़ लवर’ पर रोक लगा दी गई। स्पेन में फासिज्म का उभार बढ़ रहा था। बाहर से बुर्जुआ और जनविरोधी ताकते उसे मदद कर रही थीं। लोकतांत्रिक मूल्यों को धूल धूसरित किया जा रहा था। फ्रांस की क्रांति विश्व के सर्वहारा के लिये एक जोतिस्तंभ बनी थी। पर फासिज़्म दुनिया के लिये सबसे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण त्रासदी थी। योरुप के अधिकांश लेखक स्पेन की तरफ से लोकतंत्र के लिये संघर्षरत थे। सच में स्पेन के कवियों को स्पेन के युध्द के निहितार्थ दूसरे विश्वयुध्द से ज्यादा स्पष्ट थे। फासिज़्म के इस दौर में कविता को उस समय आघात पहुँचा जब वह 17वी सदी के बाद से अपने  देश में शिखरोन्मुख थी। नई पढ़ी के अनेक कवि कविता के बेहतर भविष्य का भरोसा दे रहे थे। इन्हीं प्रमुख कवियों में फैदिरिगो गार्सिया लोर्का तथा रेफैल अल्बर्ती आदि थे। इनके अलावा भी कई अच्छे कवि थे जो लोकतंत्र की पराजय के बाद स्पेन छोड़के चले गये थे। फ्रेंको ने जब स्पेन में कदम रखा उस समय वहाँ की संस्कृति बहुत पुष्पित पल्लवित थी। जब उसने अपना शिकंजा कसना शुरू किया तो कुछ बचे कवियों ने चुप्पी साध ली। शेष अमरीका के लिये निर्वासित हुये। कुछ मैक्सिको के लिये चले गये। कुछ अर्जिनटीना तथा ब्रिटेन को। कुछ को मौत के घाट उतार दिया गया। कुछ को कारावास की अंध कोठरियों में डाल दिया गया। ऐसी स्थिति में ही लोर्का की फासिज़्म के उभार के समय हत्या कर दी गई। यह एक राजनीतिक हत्या थी। यद्यपि कुछ लोगों का कहना है कि इस मेधावी कवि को निजी रंजिश की वजह से मार दिया गया। लेकिन यह एक ऐसा त्रासद प्रसंग है जो किसी भी देश के लिये न धुलने वाला कलंक कहा जा सकता है। गृहयुद्ध के समय ऐसी दुखद घटनायें अक्सर घटती हैं। सबसे त्रासद बात है कि कवि लेार्का ही सबसे पहले क्रूर फासीवादी महाविनाश के शिकार बने! यह कुकृत्य प्रतिगामी शक्तियों ने अंजाम दिया था। अतः लोर्का की हत्या एक प्रकार से लोकतांत्रिक मूल्यों के लिये संघर्षरत कवि की शहादत ही कही जायेगी। फासिज़्म के कसाईपन की क्रूरता के इतिहास में कवि लोर्का ज्चलंत प्रतीक बन चुके है। ध्यान देने की बात है कि लोर्का राजनीतिक कवि नहीं हैं। उनकी कवितओं में से उनकी राजनीतिक विचारधारा को अलग फटक लेना बहुज कठिन है। जैसे शेक्सपियर के यहाँ भी उनकी राजनीतिक विचारधारा को अलग करने में कठिनाई होती है। लोर्का स्पेन की सरकार के यहाँ मुलाज़िम थे। नाटकों का मंचन कराते थे। नाटक तैयार कराते थे। उनमें वाम की तरफ झुकाव जरूर था। सामाजिक लोकतांत्रिक दल से जुड़े उनके एक रिश्तेदार ग्रांदा शहर में मेयर थे। इस में संदेह नहीं लोर्का प्रतिरोधी कविता के पहचाने हुये कवि थे। उनका झुकाव लोक तथा लोक संस्कृति की तरफ बहुत ज्यादा था। लोर्का की कविता का मूल स्वर समकालीन समाज के बंजरपन का तीखा विरोध है। यह बंजरपन उन्हे मनुष्य में भी दिखाई पड़ता था। उन्हें अपने जनपद अन्दालूसिया के आदिमपन में बड़ी जीवंतता तथा शक्ति दिखाई पड़ती थी। उनकी कविता की प्रमुख प्रेरणा यही है। वहीं से वह अपनी कविता का खनिज दल चुनते हैं। अपने जनपद के आदिवासी तथा घुमक्कड़ कंजरों( जिप्सियों) में उन्हें जीवन की बड़ी सकारी खूबियाँ दिखाई पड़ती थी। स्पेन में या कहें पूरी दुनिया में आज तक ये लोग उपेक्षित हैं। उन पर दिल दहलाने वाले अत्याचार हो रहे हैं। उनका शोषण हो रहा है। उनके नैसर्गिक संसाधन तथा उनकी पुश्तेनी जमीन हड़पी जा रही है। उनकी अपनी संस्कृति है। साहित्य है। कला है। संगीत है। नृत्य है। इसके साथ ही उनका संघर्ष पूर्ण जीवन भी है। वे अब अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर लड़ रहे हैं। हमारे यहाँ कवियों की दृष्टि उनके सांस्कृतिक तथा मनोरंजक रूप पर तो जब तब रीझती है। पर उनके सतत संघर्ष को आँख ओट किये रहती है। बुर्जुआ इतिहास ने उनके मनोरंजक रूप का तो चित्रोपम वर्णन किया है। पर उन्होंने लोक के संघर्षमय रूप को या तो कूटोक्तियों से ढका है। या फिर उसकी घोर उपेक्षा की है। ठीक यही बात कवियों के बारे में सही है। लोर्का लोक के लिये युद्धरत थे। उनकी कविता में जिप्सी जनजातियों तथा सिविल गार्ड्स के बीच शत्रुता और संघर्ष के बिंब चित्र मिलते हैं। उनकी कविता में लोक में घटित अधम झगड़े टंटे, फटेहाल स्थितियाँ,  घृणित द्वेष तथा नीच प्रवृत्तियों का घना द्वंद्व है। ऐसा वर्ग द्वंद्व आधुनिक कविता के पिता कहे जाने वाले एलियट की कविता में नहीं मिलता। इतनी तरह लोकधर्मिता न तो नेरुदा में हे। न ब्रेख्त में। न नाजिम में। न एलियट के बाद के अंग्रेजी कवि आडिन ,स्पैण्डर ,लुईमैक्नीज तथा सिसिल डे लेविस में। एलियट को हर बुराई की वजह धार्मिक मूल्यों का पतन लगता है। वह यह नहीं बताते कि पूँजीवादी व्यवस्था में धर्म, सौंदर्यबोध और नैतिकता भी अन्य मानवीय मूल्यों की तरह विकृत होकर अपना सार खो देते हैं। आडंबर , चमत्कार तथा अंधविश्वासों पर जोर ज्यादा होता है। लोर्का में बिखरे खून की ध्वनियाँ सुनी जा सकती है- ‘न्यायाधीश सिविल गार्ड के साथ आते हैं/ वह जैतून के बगीचे से होके आते हैं/ रपटीला खून शांत सर्प के गीत में कराहता है/ सिविल गार्ड के सज्जन!….यह वही पुरानी व्यथा कथा है/ रोम के चार जनों की हत्या कर दी गई/ पाँच कार्थेज के लोगों की।’ यहाँ लोर्का मरते आदमी की कराहटें बता रहे हैं। उन्हें बहुधा हम सुन नहीं पाते। धरती वर लाल खून की टपकन को लोर्का सुर्ख रंग से नहीं बताते। बल्कि किसी काल्पनिक शांत संगीत के द्वारा व्यक्त करते हैं। इस प्रकार मौखिक तथा दृश्य ऐंद्रिय संवेदनों से लगता है भाषा एकदम जैसे क्षीण बल हो रही है। यदि लोर्का मरते हुये आदमी के खून को परंपरति ढंग से सुर्ख तथा इसका टपकना सर्प तुल्य बताते तो शायद पाठक पर इतना सटीक प्रभाव नहीं पड़ता। इस तरह की वाग्मिता 17वी सदी की स्पानी तथा अंग्रेज़ी कवियों में मिलती है। पर लोर्का उनके संदर्भ तथा  शैली की मौलिकता से उसे अधिक रुचिकर, असरदार तथा नया बनाते हैं। इस प्रकार बिंबों की इस चमक में फ्रैंच कविता की ऐसी फैशन परस्ती नहीं है जहाँ ऐन्द्रिय संवेदनों में संभ्रम पैदा होता है। लोर्का के जनपद अन्दालूसिया की यह वह लोकधर्मी परंपरा है जिससे कविता का तीखा प्रभाव सीधे मन पर पड़ता है। इसी लोकधर्मी परंपरा को लोर्का बिना अपनी उपेक्षा की चिंता किये आगे विकसित करते गये हैं। हिंदी में लोकधर्मी कवियों की -निराला से ले कर आज तक -ऐसी उपेक्षा का इतिहास मिलता है। पर लेार्का अपनी कविता के लिये आज प्रासंगिक तथा मूल्यवान हैं। उनकी काव्य पंक्तियाँ बता देती है कि वे लोर्का की ही हैं। ऐसी काव्य पहचान तभी होती है जब कवि लोक के अंतरंग में रच बस कर उसे अपनी रगों में बहने देता है। लोर्का कहते हैं –

पूरे अरुणोदय के लिये मुर्गा
अग्निज तूर्यनाद जरूर करेगा
किरमिची रंगों में गाता हुआ 
कोमल शाखों में जैसे अरुणोदय आँच सुलगा रहा हो…..।

अपने जनपद के जिप्सियों के गान, नृत्य, हर्षेाल्लास तथा सिविल गार्डस से उनके सतत संघर्ष  को लोर्का अपनी कविता में जीवंत करते रहे हैं। तीस के दशक में लोर्का ने अमरीका की अनचाही यात्रा की। उन्होंने वहाँ के नीग्रो जाति के शोषित दमित लोगों में वही खूबियाँ देखी जो उन्हें अपने यहाँ के जिप्सियों में दिखती थी। इस यात्रा को कवि का बहुत ही महत्वपूर्ण अनुभव कहा गया है। न्यूयार्क, वर्मान्ट तथा हवाना में उनके रहने से उनकी विश्वदृष्टि ही बदल गई। यह कवि की पहली यात्रा थी। यहाँ उनका सामना धार्मिक तथा जातिगत विविधताओं से हुआ। उन्होंने पहली बार एक लोकतांत्रिक देश को देखा। एक ऐसा कवि जिसके  गहरे सरोकार हो उसे इन बातों को देख कर नये स्वन -नई दुनिया की कल्पना होगी ही। यहाँ आने से लोर्का की स्पानी रंग मंच से मानसिक दूरी बढ़ी। उन्होंने अपने परिवार वालों को लिखा -‘स्पेन में जो कुछ अस्तित्व में दिखाई पड़ता है वह मर चुका है। या तो रंगमंच को बुनियादी तौर पर बदलना चाहिये। नहीं तो यह सदा के लिये नष्ट हो जायेगा। इसका अन्य कोई समाधान नहीं है।

 न्यूआर्क तथा क्यूबा की यात्रा लोर्का ने बहुत ही कठिन समय में की थी। 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने एक मित्र को लिखा था कि वह ‘बहुत ही गहरे संकट से गुज़र’ रहे हैं। इन्ही दिनों ( 1928 ) उन्होंने अपने अनेक पत्रों में ‘संवेग संकट’ की बात भी कही है। प्रेम आदि के बारे में उनका मोह तथा संभ्रम टूटने लगे थे। उनकी विश्व विख्यात कविता, ‘द जिप्सी बैलाड्स’ ने उन्हें राष्ट्रीय ख्याति दी। तभी से उन्हें ‘जिप्सी कवि’ कहने लगे हैं। उनके निजी जीवन के कुछेक अंतर्विरोधों को स्पेन के लोग सह नहीं सके।  न्यूयार्क में आकर उन्होंने जो कवितायें लिखी उनमें सामाजिक अन्याय पर तीखे प्रहार हैं। यही नही उनमें महानगरीय कुलीन सभ्यता की कटु भर्त्सना भी है। अंदरूनी रिक्तता की आलोचना है। बल्कि इन कविताओं मे ‘तत्वमीमांसीय अकेलेपन’ के प्रति एक ‘अंधकार पूर्ण चीख’ भी सुनाई पड़ती है। लोर्का ने अमरीका की आंतरिक रिक्तता पर गहरा प्रहार किया है।

लोर्का अपने आस पास के दुख को गहरी संवेदना से देखते हैं –

‘मृत्यु के साथ जो वेदना जुड़ी है/
उसे हरेक जानता है/ 
पर सच्चा दुख चेतना में नहीं रहता/ 
न हवा में/ 
न हमारे जीवन में/ 
न इन लहराते धुओं के कगारों में/ 
सच्ची वेदना हरेक को जगाती है/ 
यह बहुत नन्ही है / 
असीम जलन / 
अन्य व्यवस्थाओं की अबोध आँखों पर …..। 

लोर्का के लिये बुद्धि से अधिक कलापरक प्रेरणा पर ज्यादा भरोसा है। लोर्का का काव्य बोध बहुत गहरा है। अन्य व्यवस्थाओं में चिड़ियाँ हैं। पेड़ों के तने, जल, रेत, चंद्रमा तथा अन्य ग्रह हैं।  कहा गया है कि अन्य किसी स्पानी कवि ने वस्तुओं की अशुभता तथा बाह्य खूबियों के बारे में अपने पाठकों को इतना सजग नहीं किया जितना लोर्का ने। न्यूआर्क की कविताओं में सामाजिक अन्याय, अज्ञात प्यार,  तथा आस्था के अंत पर अधिक बलाघात है। लोर्का को न्यूआर्क में मनुष्य की मनुष्य के बारे में अज्ञता तथा विमुखता का एहसास होता रहा थां। ‘न्यूयार्क में कवि’ शीर्षक कविताओं में लोर्का पूँजीकेंद्रित समाज की तीखी निंदा करते हैं। उन्होंने सब से पहले अश्वेतों के बारे में कवितायें यहाँ बैठ कर लिखीं। न्यूआर्क में लोर्का ने अश्वेतों के प्रति जब जातिगत भेदभाव देखा तो वह बहुत दुखी हुये। उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि, ‘वह दुनिया बहुत क्रूर और शर्मनाक है जो लोगों को रंग के आधार पर विभाजित करती है। क्योंकि रंग तो प्रभु की कला प्रतिभा का प्रतीक है’। लोर्का दोबारा न्यूआर्क कभी नहीं गये। उनकी काव्य कृति ‘कवि अमरीका में’ (1939 – 1940) अमरीकियों  के बीच पढ़ी ही नहीं गई। कोनार्ड एकिन ने ‘लोर्का को श्रद्धांजलि’ पुस्तक में कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण बाते कहीं हैं। उन्होंने कहा है कि वह (लोर्का) हमें घृणा करता था। उसके घृणा करने के तर्क सही थे।’ लोर्का ने अमरीका वासियो को संबोधित करते हुये एक महत्वपूर्ण व्याख्यान भी दिया था। उसमें उन्होंने कहा है -‘न्यूआर्क में कवि‘ की जगह मुझे कहना चाहिये ‘कवि में न्यूआर्क है। कवि विमल और सादा। एक ऐसा कवि जिसके पास न तो प्रतिभा है। न सृजन शक्ति।……..कविता तभी संभव है जब आँखों को किसी अंधकारमय रेखा के वशीभूत कर दिया जाये। और मौखिक कविता तब तक नहीं रची जा सकती जब तक हमारे कान मित्र तथा आज्ञापरायण न हों। इसी प्रकार शब्द जिस्मानी आकार लेता है।…. मैं यहाँ संघर्ष के लिये उपस्थित हुआ हूँ। सीधा सीधा संघर्ष उस भद्र लोक से जो आत्मतुष्ट हो चुका है। मैं यहाँ कोई व्याख्यान देने नहीं आया। कविता पाठ के लिये आया हूँ -मैं उस विकट राक्षस से अपने को बचाना चाहता हूँ जो मुझे तीनसौ खुले जबड़ों तथा तीन सौ निराश चेहरों से जिंदा खा सकता है। यही है मेरे संघर्ष का अर्थ।

लोर्का का कहना है कि ‘कविता की खूबियों को एक बार में कविता पढ़ के नहीं परखा जा सकता। खासतौर से ऐसी कविता जिसे मैं काव्यतथ्यों की कविता कहता हूँ। अर्थात जो निर्व्याज काव्य तर्क से समझी जा सकती है। उसके संवेगों के रचाव तथा काव्य वास्तुशिल्पीय संरचना को हम बड़े धैर्य से ही परख सकते हैं। कविता की दो खूबियाँ प्रमुख हैं। ईमानदारी तथा सहजता। उसकी ये ऐसी दो खूबियाँ हैं जो बौद्धिकों को प्राप्त करना कठिन है। पर कवियों को आसान। लोर्का ने वालस्ट्रीट को अमरीका का भयावह, निस्तेज, क्रूर हिस्सा बताया है। यहाँ दुनिया से आने वाली स्वर्ण की नदियाँ बहती हैं । इसी के साथ मनुष्य की मृत्यु जुड़ी है। जहाँ मानवीय संवेदनशीलता पूरी तरह गायब है।’ आदमियों के झुण्ड दिखाई देते हैं जो अपने अतीत की तरफ से बेखबर है। पर नारकीय वर्तमान को पूजते हैं। लोर्का वहाँ स्टाक मार्केट की तवाही को बताते हुये कहते है, ‘ यह मेरा सौभाग्य है कि यहाँ स्टाक मार्केट को तवाह होते हुये मैं ने अपनी आँखों से देखा है। जहाँ अरबो -खरबों की रकम डूब गई है। जड़ पूँजी की रेलपेल जो समुद्र में सरक गई है। मैंने इससे पहले कभी इतनी आत्महत्यायें, मिर्गी के दौरे, बेहोश होते आदमियों के समूह नहीं देखे। यहाँ जैसे मैं ने साक्षात मौत का संवेदन अनुभव किया है। मृत्यु  -बिना किसी उम्मीद को सहेजे। मृत्यु जो सिवा सड़ाँध के और कुछ भी नहीं है। पूरा शानदार समारोह भयानक था। जहाँ औदात्य का नितांत अभाव देखा। इतनी अस्पताली गाढ़ियाँ मैं ने कहीं नहीं देखी जो आत्महत्या करने वाले उन शवों को बटोर रही थी जिनकी उँगलियाँ अँगूठियों से भरी थी। ध्यान रहे लोर्का पूँजीवादी व्यवस्था की हृदयहीनता, निस्तेजता, अमानवीयता तथा दर्दनाक भयावहता का रूपकीय बिंब चित्र दे रहे हैं। उन्होंने संवेदनाहीन लोगों के समूह केा ‘भीड़’ की उचित ही संज्ञा दी है। उनका कहना है कि न्यूआर्क ऐसा भी हो सकता है कोई कल्पना नहीं कर सकता सिवा वाल्ट ह्विटमैंन के जिन्होंने इस निरुद्देश्य जनसमूह में ‘अकेलापन’ खोजा था। एलियट ने भी इन बातों को नहीं उठाया जिसने जख्मी चूहों, भीगे टोपों और गँदली नदियों को अपनी कविता में नीबू की तरह निचोड़ कर दिखा दिया। लोर्का ने आगे बताया है कि किस तरह लाखों लोग शराब पीते है। निरर्थक चीखते चिल्लाते हैं। खाँसते-खखारते हैं। भोग विलास के लिये गुलछर्रे उड़ाते हैं। फिर समुद्र तट को अखबार की रद्दी से पाट कर छोड़ कर चले जाते हैं। सडकें टीन की बाल्टियों, सिग्रेट की ठूँठियों, जूतों के फटे टूटे तल्लों से पटी रहती हैं…..उत्सवों से लौटते समय  लोगों की बेतरतीब भीड़ गाती अखजती है। कौनों में या गैरीबाल्डी तथा किसी सैनिक के स्मारक पर पेशाब करती है। एक स्पानी कवि जो अपने जनपद आन्दालूसियान से आया है वह ऐसे हालात में कितना एकाकी महसूस करता होगा!

दूसरी तरफ उन्होंने एक अश्वेत लडकी को साइकिल पर जाते देखा। इससे अधिक मर्मस्पर्शीय कवि के लिये और क्या हो काता है! उसके धुँयेले पाँव।  घुमटीदार बाल, ठण्डे दाँत तथा मरियल मुरझाये गुलाबी होठ …कवि उसके बारे में सोचते हैं कि वह क्यों इस साइकिल पर चढ़ी है! क्या यह उसी की है! या कहीं से चुराई हुई! क्या वह इस भीड़ से होकर सही सलामत गुज़र सकती है! देखते ही देखते उसने सड़क के ढलान से कलामुण्डी खाई! वह गिर गई! उसकी टाँगे और पहिये सब अलग अलग दिखाई दे रहे थे। कवि ने प्रतिरोध किया किस तरह अश्वेत छोटे बच्चों को मशीन से काट दिया जाता है। सबसे त्रासद बात जिस का उन्हों ने प्रतिरोध किया वह है अश्वेत, अश्वेत नहीं बने रहना चाहते। अपने घुँघराले बालों को कटा देते हैं। मुँह पर पाउडर पोत कर भूरे दिखना चाहते हैं। इस तरह लोर्का एक साम्राज्यवादी देश की नाक के नीचे उसकी क्रूरता, खोखलेपन तथा संवेदनहीनता को बेनकाब करते हैं। क्या एक कवि को ऐसा निर्व्याज साहस तथा पवित्र निर्भयता अर्जित नहीं करनी चाहिये! लोर्का अमरीका में उन्ही की अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक अन्यायों की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। यह बात बहुत पहले की है। आज भी हालात वहाँ बहुत अच्छे नहीं हैं। मुझे याद है हमारे यहाँ से जिन हिंदी कवियों ने अमरीका की यात्राये की उन्होंने वहाँ के क्रूर अंतर्विरोधों को न बता कर वहाँ का महिमा गान किया है। ऐसा लगता है जैसे वे स्वर्ग से लौटे हों! बुर्जुआ कवियों की मैं नहीं कहता। उनके पास अमरीका का महिमा गान करने के अलावा कुछ है ही नहीं।

विष्णुचंद्र शर्मा जैसे लेखकों ने अमरीका की यात्रायें रस लेकर की हैं। पर वहाँ की हकीकत को बयान नहीं किया! वहाँ के कथ्य को लेकर कविताये भी यदि लिखी तो उनमें भी वह जनविरोधी यथार्थ न था जिस की तरफ लोर्का ने संकेत दिया है। नामवर सिंह तो यह कहने लगे हैं कि अमरीका को साम्राज्यवादी देश कहना ‘आकाश में घूँसे मारने’ जैसा है। ‘कृतिओर’ के माध्यम से हम इसका प्रतिरोध कर चुके हैं। बहरहाल आजके कवि को लोर्का की अटूट प्रासंगिकता तथा समकालीनता से कुछ तो सीखना चाहिये! आज के चुनौतीपूर्ण तथा जोखिम भरे इस दौर में अधिकांश हिंदी कवितायें ऐसी है जैसे यहाँ सब कुछ ठीक ठाक है। कवि को कविता सिर्फ लुत्फ लेने के लिये ही लिखनी चाहिये। कहना न होगा कि लोर्का के बिंबविधान पर उस समय के अतियथार्थवाद (सररियल्ज्मि) का प्रभाव है। उनकी कविता का बिंबविधान अत्यंत तेज, प्रबल, प्रचण्ड, तीव्र ध्वनियों से आपूर है। उनके रूपक कईबार हमें अपनी आक्रामक ध्वनियों से चकित करते हैं। यह इसलिये था क्योंकि वह लोकधर्मिता को कविता के केंद्र में लाने के लिये काव्य के बुर्जुआ बुनियादी ढाँचे को छिन्न भिन्न करने में लगे थे। हमारे यहाँ जैसे नागार्जुन, केदार बाबू, त्रिलोचन तथा मुक्तिबोध करते हैं। बुर्जुआ काव्य ढाँचे में सर्वहारा के संघर्ष को कहना मुमकिन नही जान पड़ता। उनकी कविता में नाटकीय लय और स्थापत्य वैसे ही विद्यमान हैं जैसे ब्रेख्त की कविता में। लोर्का का काव्य तेवर उत्तेजक तथा यथार्थपरक है। वह स्थानीय मिथकों का प्रयोग करके भी कविता को मिथकीय या रहस्यमय नहीं होने देते। उनकी कविता में जो चरित्र सृजित हैं उनमें कवि के स्वप्न और विचार मुखर होते हैं। पर वे स्वायत्त चरित्र बराबर बने रहते हैं। लोर्का, रिल्के की तरह मृत्यु के रूपक बहुत लाते हैं। पर यहाँ जिजीविषा और प्रखर लगने लगती है। लोर्का के यहाँ मृत्यु न तो हमारी नियति है। न आकांक्षा। वह समय के उस भयावह रूपक को कहती है जिस से मानव सभ्यता का विनाश संभव है। लोर्का ने अमरीकी समाज के संदर्भ में उस देश की नितांत संवेदनहीनता, क्रूरता तथा अमानवीयता को मृत्यु के रूपक से बताया है। रिल्के को मृत्यु जीवन की हताशा का विकल्प है। मृत्यु की ध्वनि ब्रेख्त में भी है। वहाँ वह विश्वयुद्धों के मानवीय महाविनाश का रूपक है। मैं सररियलिज़्म की बात कह रहा था। दरअसल यह बहुत ताकतवर आंदोलन था चित्रकला का। पर इससे थे कवि भी प्रभावित। यहाँ तक कि मार्क्सवादी कवि नेरुदा जैसे महान कवि पर इस आंदोलन की छाया देखी जा सकती है। इसके समर्थकों ने इसे ‘उच्चतर यथार्थ की कला अभिव्यक्ति’ कहा है। इसका रिश्ता हमारे अचेतन में उठने वाले उन भाव साहचर्यो से होता है जिन्हें हम भुला चुके है। पर जो दुस्स्वप्न की तरह हमारा पीछा करते रहते हैं। इनमें मनस्चेतना का कोई व्यवस्थित त़त्र नहीं होता। बल्कि जीवन की गहरी समस्यायें बेतरतीव बिंबों में व्यक्त होती हैं। अतः इस आन्दोलन में राजनीतिक ध्वनि भी झँकृत होती है। पर वाम विचारक इसका विरोध करते रहे हैं। उनके अनुसार इसमे बुर्जुआ समाज की छिपी विकृतियाँ व्यक्त हुई हैं। उस समय के ‘लैफ्ट रिव्यू’ के अनुसार यह आंदोलन क्रांतिकारी न था। क्यों कि इसकी अति आत्मपरकता बहुत ही अनुत्तरदायित्वपूर्ण है। बर्नार्ड शा ने इसे एक ऐसे ‘राक्षस’ की संज्ञा दी है जिसे पहले कभी न देखा। न सुना। दरअसल बुर्जुआ संस्कृति के पुरस्कर्ताओं ने इसे सामाजिक यथार्थ के विरोध में खड़ा करने के लिये कुछ चमत्कारिक शैली में चित्र बनाने शुरू किये थे। लोर्का या नेरुदा ने इस आंदोलन का उपयोग कविता में बड़े आक्रामक तथा उत्तेजक रूपकों के लिये किया है। उनका ध्येय कुलीन जड़ काव्य सौन्दर्य को तोड़ना रहा होगा। जैसे लोर्का की कविता है –

चाँद के हाथी दाँत के है दाँत/
कितना उदास और बूढ़ा दिखता है वह /
जलधाराये सूख गई हैं/ 
खेतों में हरियाली गायब है/ 
पेड़ झड़ चुके हैं/ 
उन पर न पत्ते हैं न घौंसले/ 
झुर्रियों भरी बुढ़िया -मृत्यु के दरख्तों में होकर गुज़र रही है……. 
वह मोम और तूफान के रंग बेच रही है…….।

लोर्का की कविता में परियों की कहानी जैसी सहजता है। यही वजह है कि उसकी कविता अन्य कुलीन कवियों से भिन्न और अलग दिखती है। लोर्का अपने जनपद में ही प्रसन्न रहते थे। उनके लिये वह स्वप्नों का देश जैसे था। उनके पहले काव्य संग्रह (लिब्रो द पोयमास) के बाद की कवितायें ग्रानादा जिप्सियों के गीत तथा नृत्य पर आधृत है। उस पर परंपरित लोकधर्मी कविता का असर साफ दिखाई देता है। उनमें तरह तरह की फैन्टासियाँ हैं। उनका गहरा रिश्ता आदिम समुदायों से है। उसके लिये उन्हें फ्रांसीसी तथा स्पानी उत्कृष्ट समकालीन कवियों की मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। वैसे लोर्का किसी बाध्यता से लोकधर्मी नहीं है। उन्होंने स्पानी 17वी सदी के उत्कृष्ट साहित्य का गहन अध्ययन किया था। उनको आधुनिक फ्रांसिसी कविता का भी अच्छा ज्ञान था। बादलेयर की परंपरा से अच्छी तरह परिचित थे। पर ध्यान देने की बात है कि अपनी परंपरा के प्रति उनका दृष्टिकोण न तो शास्त्रीय था। न प्रोफेसेारियल। दरअसल लोर्का अपने जनपद की एक मिथक से संप्रेरणा लेते रहे। यह एक ऐसी देवी थी जो आधी तो परी थी। पर आधी आकृति उसकी दानव जैसी। इसे स्पानी भाषा में ‘द्विवेन्दे’ कहा गया है। यह एक  प्रतीक भर थी। लोक में जिप्सियों के बीच  इसकी मान्यता  बहुत थी। पर सच में देखा जाये तो लोर्का अपनी कविता के लिये प्रेरणा जिप्सियों के कठोर जीवन तथा उनके सतत संघर्ष से ही ले रहे थे। उनका शोषण, दमन उत्पीड़न उन्हें अंदर से खरोंच रहा था। यदि ऐसा न होता तो वह अमरीका में नीग्रो के लिये प्रतिरोध क्यों करते ! उन्हें लग रहा था कि सर्वहारा का शेाषण वैश्विक है। लोर्का इस मिथकीय देवी से एकात्म थे। कहा जाता है कि जर्मन कला की प्रेरणा काव्यदेवी (Muse) है। इटली के साहित्य की प्रेरणा ‘देवदूत’ हैं। पर स्पानी कला का स्रोत एक मात्र ‘द्विवेन्दे’ ही है। जैसा कि हम जानते हैं कि स्पेन अपने पुराने संगीत तथा कला के लिये प्रसिद्ध है। इस बात की प्रेरणा द्विवेन्दे ही है। लोक मान्यता है कि वह भोर से पहले नीबुओं के पेड़ों में आ कर गाती नाचती है। सवाल हो सकता है कि लोर्का जैसा जनपक्षधर कवि देवी को अपनी कविता की प्रेरणा क्यों मानते हैं। मेरे विचार से जिप्सियों में अंदर तक घुलने मिलने के लिये ही उन्होंने यह बात अपनाई होगी। लोर्का की ‘द्विवेन्दे’ के बारे में अपना निजी काव्य सिद्धांत है। उनके लिये यह ‘स्वतःस्फूर्त संगीत’ का प्रतीक है। लोर्का लोक संगीत को अपनी कविता में ढाल रहे थे। उसमें नाटकीयता लाने के लिये उसे नृत्य भंगिमाओं से जोड़ते हैं। उनकी ऐसी कवितायें खण्डमय हैं। उनकी कविता का मूल कथ्य जिप्सियों का जीवन है। उनका संगीत। उनके नृत्य। उनका अटूट संघर्ष।

लोर्का ने 1924 – 1927 के बीच जो कवितायें लिखी वे अधिकांश गाथा -गीत (Ballads) हैं। यह ऐसी काव्य विधा है जो लोक जीवन को बहुत ही सहजता से कह पाती है। हमारे यहा जैसे आलाह है।  राजस्थानी में ‘ढोला मारू रा दूहा’ है। लोर्का का अत्यंत प्रसिद्ध काव्य संग्रह है ‘द रोमान्सिरो जितानो’ (जिप्सियों की गीत गाथा) यह गीत गाथा के परंपरित छंदों में रची गई रचना है। इनमें अनेक मिथक गुँथे बुने हैं। इन में जिप्सियों की संक्रियायें तथा उनके जीवन संदर्भ बड़ी संश्लिष्टता से पिरोये हुये हैं। कविताओं में पुलिस दमन तथा अत्याचारों के कलात्मक बिंब हैं। नृत्य,  गान तथा देवदूतों की रुचिकर काव्य छवियाँ हैं। इन कविताओं की प्रमुख बात है इनकी सुसंगति, सामंजस्य तथा लय-ध्वनि संगति। लोर्का की कवितायें ऐंद्रियता से समृद्ध हैं। उनमें इंद्रियों की पूरी स्वायत्तता है। कविता पढ़ते समय हमारी सभी इंद्रियाँ आह्वाहित, सक्रिय तथा जाग्रत होती हैं। यहाँ प्रकाश रेशमी न होकर कर्कश है। एक दम खुरदरा और ऊबड़खाबड़। सक्रिय आदमी आक्रामक तथा उत्तेजक दिखते हैं। प्रकृति के भूदृश्यों में मनुष्य की भावनायें इच्छायें तथा आकृतियाँ व्यक्त होती हैं। जिप्सियों में अपने मूल निवास के प्रति गहरा रुझान है। वे उसे अपनी धरोहर समझते हैं। वे जानते हैं यहाँ से ही उनका अस्तित्व बना है। लोर्का की कविता उन सब बातों को बड़े रूपकीय ढंग से व्यक्त करती है जो जिप्सियों के जीवन में प्रमुख है। लेकिन वह उनके जीवन को उन्नत बनाने के लिये भी संकेत करते हैं। लोर्का कविता में जिप्सियों को सिविल गार्ड्स के विरुध्द तलवार भांजते दिखाते हैं। उन्हें अत्याचारों के विरुद्ध प्रतिरोध करते चित्रित करते हैं। उनकी स्त्रियाँ भी क्रोधित तथा खूँखार दिखती हैं। मसलन एक चरित्र है प्रीसिओसा। हवा तप्त तलवार ले कर उसका पीछा करती है। पुलिस को जगाती है। वह एक अंग्रेज अफसर के पास शरण लेती है। अंग्रेज उसे एक गिलास गर्म दूध देता है। और जिन शराब का एक छोटा भरा प्याला भी। पर वह उसे लेने से इनकार करती है। क्योंकि वह जानती है अंग्रेज की नियत ठीक नहीं है। बाहर हवा का तूफान दहाड़ रहा है। उसे उम्मीद है कि जिप्सी आ कर उसे छुडा ले जायेंगे। द्विवेन्दे के राज में घटनाये निरंकुश तथा मनमाने ढंग से घटित होती हैं। इन्हे लोर्का अपने जनपद आन्दालूसिया की जीवन क्रियायें मानते हैं। यहाँ सब एकमेक हैं। हवायें, चंद्रमा, जिप्सी, प्रेमी प्रेमिकायें, साधू सन्यासी, तस्कर -सब उस गान नृत्य में शरीक हैं। सभी रंगबिरंगी तथा तड़क भड़क की पोशाकें पहनते हैं। सब परंपरित ढंग से गाते हैं। नाचते हैं। ये सब बातें लोर्का की कविता में वहाँ की लोक संस्कृति तथा जातीय छबियों का रूप लेती हैं। एक सांग रूपक तथा मिथकीय संरचना कविता में उभरती दिखती है। पर लोर्का अपने संघर्ष तथा प्रतिरोध का तेवर कभी नहीं त्यागते।

लोर्का की लोकधर्मिकता की वजह से ही उनकी कविता को उनके  कुलीन समकालीनों ने तिरस्कृत किया था। उनके विंब स्पर्शग्राह्य तथा चाक्षुष होते हैं। आलोचकों ने उन्हें ‘ऐन्द्रिय अराजकता’ कहा है। जब कि वे ऐंद्रिय संश्लिष्टता से समृद्ध हैं। ये उन अमूर्त बिंबों से अलग और भिन्न हैं जिनकी हिमायत मलार्मे ने की है। लोर्का के बिंबों का प्रभाव अघा देने वाला होता है। एक लड़की के जिस्म का वर्णन वह इस प्रकार करते हैं -यहाँ जो बिंब आये हैं वे लोर्का की बनक की उपज है -न तो कंद गुलाब न शंख की इतनी कोमल त्वचा होती है/ न दर्पण में प्रतिबिंबित चंद्रमा की प्रभा / फिसलती मछलियों की चिकनाहट लिये उसकी जंघायें /ताप और शीत से आपूर। लोर्का की कविता में अति अलंकारिक शैली कभी कभी बोझिल लगने लगती है। उनका बिम्बविधान दीर्घवृत्तीय या कहें न्यून पदीय (Elliptical) हो जाता है। उसमें प्रायोजित तकनीक की झलक दिखने लगती है। यहाँ ऐंद्रियता से अधिक वैषयकता ही है। ऐसे प्रसंगों में भाषा भी कृत्रिम तथा अलंकारिक हो जाती है। ऐसी भाषा का प्रयोग 17वी सदी के कई स्पानी मझोले कवियों ने किया है। फिर  भी लोर्का की कविता में लोकप्रियता के लोकधर्मी तत्व बराबर बने रहते हैं। यही वजह है वह अपनी जनता के बीच आत्मीय कवि तथा परिचित जन नजर आते हैं। उसमें घुले मिले सामान्य व्यक्ति। ध्यान देने की बात है कि उनके प्रगीत गृहयुद्ध के समय सैनिको द्वारा खाइयों में गाये जाते थे। बहुत सारी स्पानी गाथा गीत कविता कुलीन लोगों में भी समादृत हुई है। लोर्का ने बड़ी सहजता से सामान्य मानवीय स्वभाव , विचार तथा उनके क्रियाकलापों को कविता में व्यक्त किया है। यहाँ यौन कथ्य का अतिरेक नहीं है जैसा कुछ लोग मानते हैं। क्रूरता तथा मृत्यु इस कवि को सबसे अधिक विचलित करने वाली घटनायें हैं। इन्ही से लोर्का की कविता में गहरी मार्मिता पैदा हुई है। उनकी एक कवित में मृत्यु के नाटक का बखान इस प्रकार है। एक सिविल गार्ड एक आदिवासी का पीछा करता है। वह खून से तरबतर घर लौटता है। वह अपने घर के बरामदे में चढ़ता है। वह चाहता है घर में ही उसकी मौत हो। उसकी लड़की उसकी प्रतीक्षा करती है। वह रक्तरंजित है। उसकी मृत्यु हो चुकती है। मरते समय वह अपनी लड़की को पानी भरे तालाब के ऊपर झूला झलूते देखता है। उसे लगता है जैसे कोई चाँद का टूकड़ा हो। पूरा वर्णन चित्रोपम है। परियों की कहानियों जैसा प्रभाव पड़ता है। मृत्यु का पीछा करने वाला ऐसा विचार स्पानी मनस्चेतना की प्रमुखता है। नेरुदा में भी मृत्यु के चित्र आते ही हैं। सच में मृत्यु उस समय का एक ऐसा दुस्स्वप्नीय रूपक है जिस से कोई लेखक बच नहीं पाया है। हाँ इतना जरूर है कि मृत्य लोर्का में उनकी गहरी चिंतामय उदासी को व्यक्त करते हुये झंकृत होती है। लगता है कि यह लोर्का की मृत्यु का ही पूर्वबोध-पूर्व सूचना या पूर्वाभास तो नहीं! जैसे एक भयावह नरमेध जिसमें असंख्य स्पानी पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे जल्दी ही नष्ट हो जायेंगे। मृत्यु बोध के बारे में लोर्का का दूसरा महत्वपूर्ण काव्य संग्रह है ‘न्यूआर्क में कवि’। यह संग्रह उन्होंने अमरीकी प्रवास के समय तैयार किया था। जैसा कि पहले बताया गया कि अमरीका के लिये लोर्का बहुत ही बेमन गये थे। एक प्रकार से यह एक तरीका था किसी निजी संकट से बचने का। जैसे कि ब्रेख्त तथा मार्क्स जगह जगह से निवार्सन झेलते रहे। न्यूआर्क में आकर उनको उनकी जनपदीय मिथकीय देवी द्विवेन्दे उन्हे त्याग चुकी थी। यहाँ उन्होंने अतियथार्थवादी चित्रकार सल्वाडोर से प्रेरित होकर कवितायें लिखी। यह एक प्रकार से नया काव्य प्रयोग था। अतियथार्थवाद की तकनीक अपना कर उन्होंने एक नई आक्रामक तथा उत्तेजक काव्य शैली आविष्कृत की। इन कविताओं का बिंबविधान बहुत ही तीखा तथा चुभने वाला है। लगता है लोर्का अमरीकी पूँजीवादी व्यवस्था के बहुत विरुद्ध हैं। उन्हें नीग्रो की दैनीय अवस्था तथा अपने यहाँ के जिप्सियों में बहुत कुछ समानता दिख रही थी। उन्होंने परंपरति छंद का भी त्याग किया। कविता के रूप तथा शिल्प में भी परविर्तन आया। पहले उनका बिंबविधान जो अपने कथ्य के समानुकूल था वह अब ज्यादा हठी, अड़ियल, उत्तेजक तथा ज़िद्दी हो चुका था। लगता है तीखे प्रतिरोध के लिये लोर्का अपने बिंबविधान को ज़्यादा उत्तेजक बना रहे हैं।

     लोर्का के मन में महानगरीय अमरीकियों के लिये एक अजब किस्म की जुगुस्पा का भाव है। एक मानवीय विरक्ति। किसी सीमा तक एक घृणा का भाव। अमरीका में उन्हें केवल नीग्रो ही ऐसे लगे जो सामाजिक यथार्थ के बहुत करीब हैं। कहते हैं कि कवि मायकोव्स्की अमरीकी जीवन शैली तथा वहाँ की जनविरोधी पूँजी केंद्रित व्यवस्था को बहुत ही नफरत करते हैं। पर उन्होंने वहाँ के गगन चुंबी भवनों तथा विशाल जनसमूह को पसंद किया। लोर्का को इस नई व्यवस्था में नारकीय मृत्यु दिखती है। वह इसके भद्देपन तथा अमानवीय स्वभाव से बहुत ही डरे हुये तथा आतंकित लगते हैं। उनका मानना है कि यह सहज मृत्यु नहीं है। बल्कि ‘उन्निद्र पत्थरों के मरु में कैंसर से हुई मौत है’ 

 -तुम्हारी बेवकूफी ,स्टेन्टन/शेरों का पर्वत है/ जिस दिन तुम्हें कैंसर आके झिंझोड़ेगा /वहाँ जहाँ और बहुत से छूत रोगों से मर रहे हैं/ जब उसके झुलसे गुलाब/ प्यासे दर्पण में खिलेंगे………..

       लोर्का 1930 में क्यूबा होते हुये स्पेन लौट आये। अमरीकी यात्रा की सबसे बड़ी खोज वह नीग्रो की कला और जीवन को ही मानते हैं। उनके अनुसार अमरीका में मशीनों तथा स्वचालकों का ही प्रदर्शन ज़्यादा है। अमरीका प्रवास में जो कविता लोर्का ने रची उनमें नीग्रो जीवन शैली, उनकी कला, उनके संघर्ष की जीवंत लय तथा अभिव्यक्ति ही प्रमुख है। इस तरह के प्रयत्न कविता में क्यूबा तथ अमरीकी नीग्रो कवि भी खूब कर रहे थे। यह एक ऐसा लोकधर्मी यथार्थ था जो अमरीकी बुर्जुआ यथार्थ का प्रतिरोध था। जड़ कुलीन सौंदर्यबोध को ढहाने का काव्यमय उपक्रम।

     लोर्का ने अपने जीवन का उत्तरार्द्ध नाटक तथा रंगमंच में लगाया। 1931 में लोकतंत्र की स्थापना
के बाद लेार्का ने चलती फिरती नाटक मंडलियाँ तैयार कराई। उनके द्वारा गाँवों में नाटकों का मंचन हुआ। उस उपक्रम का बहुत स्वागत किया गया। गाँव के लोग जाग्रत हुये। लोर्का स्वयं ने नाटक श्रृंखला तैयार की। यह ऐसा ही प्रयत्न था जैसे कि ब्रेख्त अपने नाटकों से करना चाहते थे। फर्क था कि ब्रेख्त नाटकीय कला तथा अपनी मार्क्सवादी सोच के प्रति अधिक जागरूक रहे। लोर्का में मार्क्सवादी विचार मुखर नहीं हैं। यद्यपि उनकी पक्षधरता लोक तथा सर्वहारा के ही प्रति है। लोर्का में यदि मार्क्सवादी चिंतन की गहनता रही होती तो उनकी कविता का असर और अधिक दिशासूचक तथा असरदार हुआ होता। उसका प्रभाव ज्यादा वैश्विक होता। मुझे बराबर लगता रहा है कि भारत में लार्का को उतनी लोकप्रियता नहीं मिली जितनी ब्रेख्त, नेरुदा, नाजिम हिकमत,  मायकोव्स्की तथा आक्टोविया पाज़ को मिल सकी। पर लोर्का का कविता के लिये समर्पण तथा त्याग किसी अर्थ में उपर्युक्त कवियों के त्याग तथा समर्पण से कम नहीं है। ध्यान रहे लोर्का के नाटक गद्यपरक थे। पर जहाँ तहाँ उनमें कविता की खूबियाँ भी विद्यमान हैं। लगता है नाटकों के माध्यम से लोर्का अपने समृद्ध तथा चमत्कृत करने वाले बिंब विधान से पीछा छुड़ा रहे हैं। ब्रेख्त को ऐसा प्रयत्न इसलिये नहीं करना पड़ा क्योंकि उनकी कविता अलंकारिक बिंबविधान से पहले ही मुक्त है। लोर्का में ऐसा नहीं है। लोर्का प्रयत्नशील है किसी तरह वह यथार्थपरक गद्यमय नाटकों का मंचन करा सकें। जो बात ब्रेख्त में सहज है उसके लिये लेार्का यत्नशील हैं। यह मानना पड़ेगा कि अंत में लोर्का यथार्थपरक नाटको में सफलता पा सके। नाटक लेखन के इस दौर में लोर्का ने कविता बहुत कम लिखी। पर जो भी कवितायें उन्होंने लिखी वे उत्तम तथा उत्कृष्ट हैं। यहाँ उनकी कविताओं में अपने मित्रों के लिये शोकाकुल प्रगीति मुखर है। खासतौर पर बैल से लड़ने वाले अपने मित्र इग्नेशियों के प्रति।

     लोर्का ने एक बार द्विवेन्दे पर व्याख्यान देते हुये कहा था कि स्पेन में ‘मृत्यु ही राष्ट्रीय उत्सव’ है। इसका ज्वलंत उदाहरण है बैलों से मनुष्य का लड़ना। उनका कहना है कि बैल का एक ‘परिक्रमा पथ’ होता है। उसी तरह लड़ने बाले का भी। परिक्रमा पथ और परिक्रमा पथ के मध्य होता है ‘जोखिम बिंदु’। यह बिंदु ही मनुष्य और बैल की लड़ाई में उस खतरनाक खेल का चरमबिंदु होता है। न्यूआर्क प्रवास में जो कवितायें लोर्का ने लिखी उनमें दिशाहीन संत्रास है। आत्मदया का भी भाव ज़्यादा है। दया भाव उनके लिये जिनकी मृत्यु हो चुकी है। संत्रास जिस हालत में मृत्यु हुई है। इस प्रकार लोर्का की कविता में करुणा का भाव पैदा हुआ जो पहले की कविता में नहीं है। यहाँ कवि स्वयं तटस्थ है। यानि कवि कर्म अब ‘तटस्थ संबद्धता’ के बुनियादी नियम से परिचालित है। कहना न होगा कि लोर्का में कई बार भारी मुमूर्षा का भाव भी व्यक्त हुआ है। यही वजह है कि उनके आनन्दपरक गीतों में भी शोक-विषाद का आस्वादपरक लय ध्वनि है। यद्यपि लोर्का ईसाई धर्म में यकीन करते थे। पर मृत्यु उनके लिये जीवन का अंत ही थी। यानि मनुष्य जीवन भर संघर्षरत रहकर भी पराजय देखता है। संदेह नहीं लोर्का की कविता अद्यांत मनुष्य के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ है। यह प्रक्रिया कभी न तो थमी। न लोर्का अपने पथ से विचलत हुये।

     लोर्का ने नेरुदा की तरह अतियथार्थवादी कला आंदोलन के प्रभाव में कवितायें लिखी हैं। पर उनकी कविता में उस आंदोलन की अतियाँ दिखाई नहीं देती। यह इसलिये मुमकिन हुआ क्योंकि लोर्का सदा लोक से जुड़े रहे। जहाँ इस आंदोलन का असर है वहाँ उनकी कविता का बिंब विधान स्वप्नपरक है। कुछ उलझा हुआ भीं। इन कविताओं की तुलना अंग्रेजी के प्रख्यात आधुनिक कवि डलन टामस की कविताओं से की जा सकती है। लोर्का कवि टामस की तरह ही नये बिंब विधान का बड़े कौशल से सृजन कर रहे हैं। उनका यह बिंब विधान धुँधलेपन तथा संघर्ष से प्रभावित हैं। रक्तपात के बिंब ज्यादा हैं। मनुष्य की मृत्यु की चित्र छवियाँ भी।

   लोर्का की योरुप में ख्याति उनकी मृत्यु के क्षणों में प्रसरित हुई। वह उन लोकधर्मी सर्जकों का प्रतीक चिन्ह बन चुके हैं जिन को प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ तथा पतनशील राजनीतिक शक्तियाँ नष्ट करती है। यही वजह है कि लोर्का का बुर्जुआ समाज में आज तक सम्यक मूल्यांकन नहीं हो पाया। यह नियति हर उस समर्पित तथा लोकपक्षधर कवि की है जो अपनी संघर्षशील जनता के पक्ष में संघर्ष करता है। या तो उसे नष्ट कर दिया जाता है या फिर उसे उपेक्षित कर अंधकार में ढकेल दिया जाता है। हमारे यहाँ निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन केदार बाबू,  मुक्तिबोध तथा आज के बहुत से कवि इस नियति को झेलते रहे हैं। बुर्जुआ तथा प्रतिगामी आलोचना ऐसे कवियों को सतही राजनीतिक कवि कहकर उनका असफल तिरस्कार करती रहते हैं। पर एक बहुत बड़ा पक्षधर वर्ग उन्हें अपने चित्त में बसाये रहता है। जब लोकधर्मी लोकतंत्र की स्थापना होती है तब उनका सही मूल्यांकन हो पाता है।  ध्यान रहे सारे विरोध, उपेक्षा तथा अवमानना के बावजूद जनपक्षधर कवि अपने ही बलपर अपना स्थान बना लेते हैं। खैर , लोर्का उस कुंठित तथा प्रतिगामी दृष्टि का शिकार हुये यह इतिहास की क्रूर विडंबना है। पर उनके अभ्युदय को कोई रोक नहीं पाया। ब्रेख्त, नाजिम तथा नेरुदा आदि ने भी बुर्जुआ सत्ता की क्रूरतायें झेली है। पर उन्हें भी कोई प्रतिक्रियावादी ताकत विश्व क्षितिज पर उगने से रोक नहीं पाई। जो ऐसी लोकधर्मी समाजोन्मुख यशस्वी काव्य प्रतिभाओं के लिये कुचक्र रचते हैं उन्हें समय का चक्र कूड़ेदान में फेंक देता है ।…….. लोर्का ने नाटक सृजन में जो सफलता पाई वह अप्रतिम है। पर कविता के क्षेत्र में उनका अवदान कम नहीं है। लोकधर्मी कवि कर्म के लिये कितने जोखिम उठा के रचना कर्म संभव हों पाता है यह हम लोर्का के जीवन तथा कविता से सीख सकते हैं। बड़ी कविता तिकड़मों और छल छदमों से नही सिरजी जाती। वह सृजित होती है लोक के साथे एकात्म होने से।

                                  –0–

                            लोर्का की कवितायें

क्यूबा की लय पर थिरकते अश्वेत

जैसे ही पूर्ण चंद्रोदय हुआ
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
क्यूबा! काले जल के यान में बैठा
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
छतों से ऊपर उझकते वृक्ष गायेंगे
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
जबकि खजूर सफेद सारस होना चाहता है
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
जबकि केले के वृक्ष समुद्र की ततैया
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
रोमियो और जूलियट के गुलाबों को लिये
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
कैसे लगते हैं कागज़ी समुद्र और रजत सिक्के
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
ओह क्यूबा …. ओह सूखे बीजों की लय
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
ओह अग्निमय मध्य भाग
ओह काठ की बूँद
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
वृक्षों के तनों की वीणा
मगरमच्छ
तंबाकू के खिले पौधे
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
मैं ने सदा कहा था
काले जल के यान में सवार हो कर
मैं सैन्ट्यागो जरूर जाऊँगा
अँधेरे मे है मेरा प्रवाल
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
समुद्र रेत में डूबा लगता है
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ
रजत ताप
सड़े फल
मैं सैन्टयागो जरूर जाउँगा
ओह….. ईख की गौजातीय शीतलता
ओह… क्यूबा
ओह …. मेरी दर्द भरी कराहट
यह मिट्टी की वक्रता
मैं सैन्ट्यागो जा रहा हूँ।      
        

        

वाल्ट ह्विट्मैंन के प्रति संबोधन गीत

पूर्वी नदी … ब्रोंक्स के पास
कमर मटका के लड़के गा रहे हैं
पहियों , तेल , चमड़ा
और हथोड़ो के साथ
वे गा रहे हैं
नव्वै हज़ार खनिक चट्टानों से
चाँदी का खनन करते हैं
बच्चे निसैनियों …परिदृश्यों का
रेखांकन करते हैं
उनमें से कोई अच्छी तरह
सो नहीं पाता
कोई भी नदी होना नहीं चाहता
कोई चौड़े पत्ते पसंद नहीं करता
न समुद्र किनारे की
नीली जीभ
पूर्वी नदी के पास …क्वीन्सबौरो
लड़के कारखानों में श्रमरत हैं
सुन्नत के गुलाबों को
यूहीदी देवता के लिये बेचते हैं
पुलो पर
छतों पर
आकाश का मुँह रिक्त है
अमरीकी भैंसों को हवा हाँकती है
उनमें से कोई भी थमा नहीं है
उनमें से कोई बादल होना नहीं चाहता
उनमें से किसी ने पुष्पविहीन घास के
नहीं देखा
न ढपली के पीताभ पहिये को
जैसे ही चंद्रोदय होता है
घिर्रियाँ कातना बुनना
शुरू करती है
सुइयों का किनारा
स्मृति को आ घेरेगा
जो निठल्ल है
उनकी अर्थियाँ उठेंगी
न्युआर्क, .ओह …..  कितना कीचड़ है
न्यूआर्क …. तार ही तार और मृत्यु
तुम्हारे चेहरे पर
कौन से फरिश्ते की कांति है
जिसकी सिद्ध वाणी
गेंहूँ के सत्य को गायेगी
तुम्हारे भयावह स्वप्न में  है
कौन सा नन्हा आहत –
सफेद – लाल – बैंजनी रंग वाला नक्षत्र सा फूल
एक क्षण को भी नहीं –
वाल्ट ह्विटमैंन प्रियदर्शी
वृद्ध पुरुष
तितलियों भरी तुम्हार डाढ़ी को
देखना केसे चूक गया
तुम्हारे खुरदरे खद्दर कंधे
चंद्रमा ने उधेड़ डाले हैं
सूर्यदेव जैसी पवित्र जंघायें नहीं हैं तुम्हारी
राख के स्तम्भ जैसी है
तुम्हारी काव्य वाणी
वृद्ध पुरुष …. कोहरे की तरह सुंदर
तुम्हारी मर्म भेदक कराहट
आहत मादा पक्षी की तरह
जिसकी योनि को सुई से छेदा गया हो
विलासी लम्पटों के शत्रु … तुम
अंगूरी मदिरा के विरोधी
मोटे खुरदरे कपड़े से ढकी देहों के प्रेमी
एक क्षण भी नहीं देख पाया
तुम्हारा पौरुषेय सौंदर्य
कौन हैं वे कोइलों के पहाड़ों में …
सूचनापट …विज्ञापन तख्ते
रेल पथ
नदी होने का देखा जिन्होंने सपना
वह कौन है
जो अनजान तेंदुए की अर्थवान पीड़ा
अंकुरित करेगा तुम्हारे हृदय में
प्रियदर्शी …ओ  वाल्ट ह्विटमैंन- वृद्ध पुरुष
मदिरालयों की ढरकाऊ छतों के नीचे
इकट्ठे हुये लोग
गुच्छ गुच्छ निकलते गंदी मोरियों से
कार चालक के काँपते पैरों के बीच से
नृत्यशाला के फर्श
भीगे हैं ठर्रा शराब से
लकड़ियों का गठ्ठर
वाल्ट ह्विटमैंन तुम ने बराबर उधर संकेत किया है
वह भी कोई है
सह ठीक है
वे तुम्हारी चमकीली डाढ़ी पर
सुस्ताते है
सुनहरे केश वाली स्त्रियाँ उत्तर से
श्याम स्त्रियाँ मरुओं से
चीखों और चेष्टाअें के हुजूम
बिल्लियों तथा साँपों की तरह
लकड़ियों का गठ्ठर, वाल्ट ह्विटमैंन,
लकड़ियों का गठ्ठर
डबडबाई आँखें से उदास
देह है सहने को कोड़ों की मार
जूतों की ठोकरें
चीतों केा पालने वालों के दाँत
वह कोई है
यह ठीक है
कालौंच से दगीली उँगलियाँ
तुम्हारे स्वप्नों के छोरों की तरफ
संकेत करती है
जब कोई दोस्त सेब खाता है
उसे पैट्रौल का स्वाद आता है
सूर्य लड़कों की ठूँठियों में गाता है
जो खेलते हैं
पुलों के नीचे
तुम खरौंची हुई आँखों की तलाश
क्यों नही करते
उस स्याह जलमग्न झाबर की
जहाँ कोई बच्चों को डुबो रहा है
देखो जमी हुई लार को
मेंढक के चिरे पेट की वक्रताओं को
लकड़ी के गठ्ठे रखे गये है
कार में
चबूतरों पर
जबकि चंद्रमा भय की सड़को पर
कोड़ें बरसा रहा है
तुमने नदी की तरह
नंगी देह को तलाशा
बैल और स्वप्न
जो पहियों और सदावहार झाड़ी के साथ होंगे
तुम्हारी गहन व्यथा के स्रोत
मृत्यु की सदावहार झाड़ी के
चिकने पत्ते
सफेद ,सुर्ख गुलाबी फूलों के साथ
कौन कराहता है
छिपी ज्वलनशील अलक्ष्य रेखा में
यह ठीक है
यदि आदमी भविष्य के खूनी वन में
आनंद नहीं ले पाता
आकाश के वे तट
जीवन का निषेध है जहाँ
वे नक्षत्र जिन्हें प्रभात में
हरबार नहीं करनी चाहिये चेष्टा उगने की
गहन पीड़ा , गहन पीड़ा
तप्तः क्षोभ
और स्वप्न
ओ मेरे सखा
यह दुनिया है गहन पीड़ा
गहन पीड़ा
गहन पीड़ा
शहर की घड़ियों के नीचे
हमारे जिस्म सड़ चुके हैं
युद्ध आँसुओं में व्यक्त होते हैं
लाखों भूरे चूहों में
धनिक अपनी पत्नियों को
देते हैं निस्तेज सजीले उपहार
जीवन न तो भव्य है
न प्रिय न पवित्र
यदि चाहे तो
मनुष्य सक्षम है
प्रवाल की धारयिों ….या दिव्य
नग्न जिस्म से
अपनी इच्छा को दिशा देने में
आने वाले क्षण में
प्रेम और समय पत्थर हो जायेंगे
वह हवा भी
जो औंगती है टहनियों में
वृद्ध वाल्ट ह्विटमैंन
इसी से मैं उस लड़के के विरुद्ध
कोई आवाज नहीं उठाता
जो अपने तकिया पर
लड़की का नाम लिखता है
न उसके जो अलमारी की छाया में
दुलहन न की पोशाक पहनता है
न उन नृत्यशालाओं में जाने वाले
एकाकी मनुष्यों के विरुद्ध
जो बड़ी घृणा से
पानी पीते हैं वैश्याओं का
न उन के विरुद्ध
जिनकी आँखों में नई ताजगी है
जो एक दूसरे को चुप चुप प्यार करके
अपने होठों को जलाते है
लेकिन हाँ –
मैं उनके विरुद्ध बोलता हूँ
शहरी लकड़ी के गठ्ठों के विरुद्ध
सजी धजी निष्प्राण देहें
प्रदूषित विचार
कीचड़ की चुड़ैल मातायें
रतजगे शत्रु
उस प्यार के
जो हमें मुकुट पहनाता है आनंद के
मैं सदा ही उनके विरुद्ध हूँ
जो बच्चों को
घृणित मृत्यु की दुखद बूँदे देते हैं
सदा तुम्हारे विरुद्ध हूँ –
ओ  उत्तरी अमरीका की दिखावटी परियो
दुनिया की लकड़ियों के गठ्ठर
पिण्डुकों के हत्यारे
स्त्रियों के दास
वे उनके शयन कक्ष की कुतियाँ
सार्वजनिक चौराहों पर प्रदर्शित करती है स्वयं को
बेहाल – विदग्ध प्रेमिकाओं की तरह
या घात लगाये बैठी विषैले भूदृश्यों के बीच
कोई ठौर ठिकाना नही है
महामृत्यु छलकती है तुम्हारी आँखें से
कीचड़ के किनारे
बादामी फूलों को चुनते हुये
न कोई ठौर , न कोई ठिकाना …सावधान –
चकराये हुये विशुद्ध, क्लैसिकल,  प्रख्यात प्रार्थियों को
तुम्हारे लिये रंगरेलियों के द्वार
बंद करने दो
तुम प्रियदर्शी , वाल्ट ह्विटमैंन
अपनी डाढ़ी को अटल किये
हथेलियों को पसारे सोते रहो
नरम मिट्टी या वर्फ
समानधर्माओं को टेरती है तुम्हारी वाणी
तुम्हारे अशरीरी चिंकारा की रक्षा के लिये
सोते रहो….कुछ नहीं रहा शेष
नृत्यमय दीवारों से
घास के वन काँपते हैं
अमरीका अपने को
मशीनों के विलाप में डुबोता है
मैं चाहता हूँ –
गहन रात से उमड़ी तेज़ हवा
उन शिला लेखों के मेहरावों से
उन फूलों को उड़ा ले जाये
जहाँ तुम चिरनिद्राआ में सोते हो
एक अश्वेत बच्चा
स्वर्ण पिपासु श्वेतों को बताये
अन्न का राज्य आ चुका है।

       –0–

न्यूयार्क

अनन्त संख्याओं के नीचे
बत्तख के खून की एक बूँद
विभाजनों के नीचे
कोमल रक्त की नदी
एक नदी – जो नगरों के शयन कक्षों से
गाती हुई बहती है
न्यूआर्क में धन, सीमेंट या हवा
उसके अरुणोदय को
भद्दा बनाती है
मैं जानता हूँ पहाड़ स्थित है
ज्ञान चक्षु भी
लेकिन मैं यहाँ आसमान देखने नहीं आया
आया हूँ देखने विषादग्रसित जीवन को
वह जीवन –
जो झरनों पर लगी मशीनों को चलाता है
वह आत्मा
जो विषधर की जीभ को देखती है
हर रोज़ न्युआर्क में
वे लाखों बत्तखों को जिब्ह करते हैं
लाखों खस्सी सुअरों को
हज़ारों हजार कबूतरों को
निष्प्राण लोगों के स्वाद के लिये
लाखों गाये
लाखों मैंमने
लाखों मुर्गेा को
जो आकाश की धज्जियाँ उड़ा देता है
ब्लेड को पैनाते समय
सिसकना सुनना भी जरूरी है
अरुणोदय के रोकने से अच्छा है
पागल कुत्तो को मारा जाये
अछोर दूध की गाढ़ियाँ
तुम ही स्वयं में धरती हो
अब मझे क्या करना है
भूदृश्यों को तरतीब दूँ
उन प्रेमियों को जीवंत रखना
जो क्षणों में तस्वीरें लगने लगते हैं
लकड़ी के टुकड़े
मुँह में खून का निवाला
नहीं, नहीं –
मैं इस सबकी निंदा करता हूँ
उस साजिश की भी
जो इन उजाड़ दफ्तरों में
चलती रहती है
जो हमारी किसी गहन पीड़ा को
उजासित नहीं करती
जो वन योजनाओं को मिटाती है
मैं तैयार हूँ
उन भूखी भैराई गायों का
चारा बनने को
वे जो रँभा रँभा कर पेट भरती है
ओह…हडसन नदी
तेल के नशे में डूबी है

     –0–

टहनियों के बीच नृत्य

एक पत्ती गिरी
एक पल में दूसरी गिरी
फिर तीसरी भी
जैसे एक मछली चंद्रमा पर तैरी
पानी कुछ क्षणों को ही सोता है
लेकिन सफेद समुद्र सोता है
अनंत काल तक
वृक्ष की टहनी में 
एक मृत स्त्री
खदान की लड़की उगती रही
देवदारू से उसके फल तक
देवदारू चिड़ियों के गान की तलाश में
चलता ही गया
गाँव के पूरे इलाके में
आहत बुलबुल चीखती रही
उसके साथ मैं भी
क्यों पहली पत्ती गिरी
फिर दूसरी
और फिर तीसरी
एक रबे का सिरा
कागज की वायलन
वर्फ इस दुनिया में
अपनी जगह बना सका
यदि वर्फ महीने भर सोता रहे
टहनियाँ इस दुनिया से लड़ती रहें
एक के बाद एक
दो के बाद दो
तीन के बाद तीन
ओह….अदृश्य मांस का सख्त सफेद द्रव्य
ओह…बिना चींटियों के
अरुणोदय का रसातल
वृक्षों की सरसराहट के साथ
स्त्रियों की सिसकियों के संग
मेंढकों की टर्राहट के बीच
शहद का पीताभ रस
एक परछाई का धड़
दिखाई दिया जयपत्र पहने
हवा के लिये आकाश
दीवार की तरह होगा कठोर
सब झुकी टहनियाँ
नाचती हुई जायेंगी
एक बाद एक
दो के बाद दो
सूर्य के चारों ओर
तीन के बाद मीन
ओह …सफेद द्रव्य के टुकड़ों को सोने दो।

      –0–

मृत्यु

वे कितनी कठोर मेहनत करते हैं
कुत्ता बनने को
घोड़ा कितनी मेहनत करता है
कुत्ता एक अबाबील बनने को
मधुमक्खी झेलती है हर जोखिम
घोड़ा बनने को
और घोड़ा … गुलाब के फूल से झटक कर
तानता है तीखा बाण
एक पीला गुलाब
इसके होठों से उभरता है
और गुलाब….
रोशनी और चीखों के कितने झुण्ड
ईख के गन्ने की गाँठों में
जीवित रहते है
और चीनी
अपने रतजगे में
कितनी तलवारों के स्वप्न देखती है
घुड़सवारों के बिना क्या है चंद्रमा
कैसी नग्नता ….
नित्य लजाता सा जिस्म वे तलाशते हैं
और मैं –
छत के छज्जे से
एक अग्निज फरिश्ते की प्रतीक्षा करता हूँ
लेकिन प्लास्टर का मेहराव
कितना फेला फूटा है
कितना अदृश्य
कितना सूक्ष्म
बिना किसी मेहनत के ही
होता है प्राप्त।

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विजेन्द्र जी वरिष्ठ कवि एवं ‘कृतिओर’ पत्रिका के संस्थापक सम्पादक हैं।

संपर्क-
मोबाईल-
09928242515

विश्व के लोकधर्मी कवियों की परम्परा-4: नाजिम हिकमत

विश्व के लोकधर्मी कवियों की परम्परा पर हमने जनवरी 2013 में एक श्रृंखला आरम्भ की थी। इस क्रम में आप वाल्ट व्हिटमैन, बाई जुई और मायकोवस्की पर आलेख पहले ही पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में प्रस्तुत है वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी का तुर्की के प्रख्यात लोकधर्मी कवि नाजिम हिकमत पर यह आलेख।   

नाजि़म  हिकमत: सहज -सरल लोकधर्मी जातीय कवि   

  1951 के बर्लिन समारोह में नाजि़म ने भारत के बारे कहा है, हिंदुस्तान, बे-जोड़ हिन्दुस्तान को, तुर्की का, बेजोड़ तुर्की का सलाम और उसकी मोहब्बत’। इससे लगता है नाजिम अपने देश की तरह ही उन देशों को सम्मान देते थे जो औपनिवेशिक साम्राज्य से या तो मुक्त हो चुके हैं या उससे मुक्त होने को संघर्षरत हैं। अपने देश तुर्की के बारे में उनकी एक सुविख्यात कविता है, ‘मेरे देश’। इसमें उन्होंने अपने और देश के एकात्म होने के रिश्ते बताये हैं। यह रिश्ते ऐसे हैं कि आदमी और देश को परस्पर एक दूसरे का पूरक बनाते है। कितने रूपों में कितनी तरह से कितनी भंगिमाओं में ये रिश्ते साकार होते हैं नाजि़म इस कविता में बताते हैं –

तुम कोई खेत हो
और मै ट्रेक्टर हूँ –

खेत आधार है पर बिना जुताई गुड़ाई उसमें कोई फसल नहीं लहलहा सकती। देश के लिये खेत की तरह ही कमाना पड़ता है। उसके खरपतवार मारने पड़ते हैं। उसे जहरीली वन घासों से मुक्त कराना जरूरी है। इसके लिये जानलेवा संघर्ष का पथ ही एक विकल्प है। कवि फिर कहते हैं –

तुम मेरी पत्नी हो
मेरे पुत्र की जननी
तुम कोई गीत हो
मैं गिटार हूँ

 इससे लगता है कि नाजिम के लिये देश से अलग उनका कोई सवायत्त अस्तित्व नहीं है। न देश का उनके बिना। ऐसा देश प्रेम सिर्फ लोकधर्मी कवि में ही हो सकता है। क्योंकि सच्चा लोकधर्मी कवि देश को प्यार करके ही अपनी जनता के लिये  जीता मरता है। नाजि़म कहते हैं –

तुम जैसे चीन हो
और मैं माओ की सेना का सिपाही हूँ

यहाँ देश के प्रति अटूट प्रेम तथा जनता के मुक्तिसंग्राम में शिरकत करने की बात बिल्कुल साफ होती है। चीन जैसे महान देश को माओ की लाल सेना ने ही साम्राज्यवादी क्रूर शासन से मुक्त कराके समतामूलक समाज की स्थापना की थी। नाजिम नये -नये सार्थक रूपकों की वर्षा करते रुकते नहीं। कहते हैं –

तुम फिलीपीन की चौदह बरस की कुमारी हो
और मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ
अमरीका के नौ सैनिकों के हाथों से 

संकेत है कि जिस तरह अमरीकी सैनिकों की अनैतिक क्रूरता से मैं उस कुमारी को मुक्त कराता हूँ ठीक उसी तरह अपने देश को क्रूर शासकों से मुक्त कराने के लिये संघर्ष करूँगा। जोखिम उठाऊँगा। कोई भी लोकधर्मी कवि अपने देश की जनता के संघर्ष में शरीक होकर ही जोखिम उठाता है। लोकधर्मी कवि को जनता और देश अलग अलग न होकर परस्पर एक दूसरे का पर्याय होते हैं। इसीलिये नाजि़म कहते हैं –

तुम मेरे सुंदरतम, भव्यतम नगर हो
तुम सहायता की पुकार हो
तुम मेरे देश हो
और तुम्हारी ओर दौड़ते चरण मेरे हैं।

हिंदी में निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार बाबू, मुक्तिबोध तथा उनकी परंपरा के आज तक के सभी कवि अपनी जनता से एकात्म होकर अपने देश से एकात्म होते हैं। जो अपनी जनता को प्यार नहीं करता वह अपने देश को क्या प्यार करेगा! देश प्रेम तथा जनता के प्रति प्रेम एक दूसरे के पर्याय हैं। रूपवादी – कलावादी कवि को जनता के संघर्ष में कोई सौंदर्य नहीं दिखाई देता। उन्हें आदमकद शीशे में सिर्फ अपना ही रूप निहारना अच्छा लगता है। चाहे वे अज्ञेय या कुँवरनारायण हों या फिर  केदार नाथ सिंह अथवा विनोद कुमार शुक्ल। इन कवियों में वह सब गायब है जो हमें मुक्तिसंग्राम के लोकसंघर्ष की याद दिलाता है।

नाजि़म का जन्म हुआ 15 जनवरी,1902 में। औटोमन साम्राज्य के पश्चिमी महानगर में। उनका परिवार खूब ख्याति प्राप्त था। उनके पिता हिकमत वे मोहम्मद निज़ाम पाशा के पुत्र थे। उनकी माँ हनीफ मौहम्मद अली पाशा की पोती थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि नाजि़म पाब्लो नेरूदा की तरह गरीब पिता की संतान न थे। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा अपने यहाँ के विभिन्न स्कूलों मे प्राप्त की थी। उन्हीं दिनो राजनीतिक उथल -पुथल प्रारंभ हो गयी थी। औटोमन सरकार ने प्रथम यु
द्ध में जर्मनी का साथ दिया। कुछ समय के लिये नाजि़म को औटोमन के समुद्री जहाज़ हमीदिया में नाविक का काम सपुर्द किया गया। लेकिन 1919 में वह गंभीर रूप से बीमार हो गये। स्वास्थ्य लाभ न कर पाने की वजह से 1920 में उन्हें इस भार से मुक्त किया गया। 1921 में नाजिम अपने मित्र के साथ तुर्की के स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने के लिये अनातोलिया चले गये। उसके बाद वे अंकारा पहुँचे जहाँ से तुर्की स्वतंत्रता संग्राम को नियंत्रित किया जा रहा था। वहाँ उनका परिचय मुस्तफा कमाल पाशा से कराया गया। पाशा चाहते थे कि नाजि़म और उनके मित्र ऐसी कवितायें लिखें जो तुर्की के स्वयं सेवकों को कुस्तुनतुनिया तथा अन्य स्थानों पर प्रेरित कर सकें। नाजि़म ने जो कविता लिखी उसे लोगों ने बहुत पसंद किया। अतः नाजि़म को बोलू के सुल्तानी कालेज में एक शिक्षक का काम सौंप दिया गया। अब वह सैनिक कार्य से पूरी तरह मुक्त थे। लेकिन नाजि़म तथा उनके दोस्त के कम्युनिस्ट विचार वहाँ के रूढि़ग्रस्त अफसरों को रास नहीं आये अतः दानों ने सोवियत संघ में जाने का इरादा बनाया। वे 1917 की अक्टूबर रूसी क्रांति का प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहते थे। 30 सितम्बर ,1921 को दोनों वहाँ जा पहुँचे। जुलाई , 1922 को दोनों मित्र मास्को पहुँच गये । Communist University of The Toilers में नाजि़म हिकमत ने अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र का अध्ययन प्रारंभ किया। यहाँ कवि माइकोव्स्की के काव्य कौशल तथा शिल्प सौष्ठव से नाजि़म बहुत प्रभावित हुये। यही नहीं लेनिन की मार्क्सवादी विश्वदृष्टि ने भी उन्हें  बहुत प्रेरित किया।

नाजिम ने पहले छंद में कविता रचना शुरू की। इसके बावजूद उनकी कविता का रंग ढंग कुछ ऐसा था कि वे अलग से पहचाने जाने लगे। उन्होंने कविता, काव्य मुहावरा तथा भाषा के बारे में अपनी अलग धारणायें विकसित की है। हिकमत का मानना है कि  वही कला असली है जो जीवन को प्रतिबिंबित करे। उसमें सारे अंतर्द्वंद, संघर्ष, प्रेरणायें, विजय पराजय और जीवन के प्रति प्यार और मानव के व्यक्तित्व के कुल पहलू मिलते हैं। वही असली कला है जो जीवन के बारे में गलत धारणायें न दें’। इसी प्रकार नाजिम काव्य भाषा के बारे में बिल्कुल अलग ढंग से सोचते विचारते हैं। उनका मत है कि, ‘नया कवि कविता, गद्य, और बातचीत के लिये अलग से भाषा का चयन नहीं करता। वह ऐसी सहज सामान्य भाषा में लिखता है जो गढ़ी हुई, झूठी, कृत्रिम नहीं होती। बल्कि सहज स्वाभाविक, जीवंत, सुंदर, सार्थक, गहन रूप से संश्लिष्ट -यानि सरल भाषा होती है। इस भाषा में जीवन के सारे तत्व मौजूद रहते हैं। लिखते समय कवि का उससे भिन्न कोई व्यक्तित्व नहीं रहता। जो बातचीत  करते या लड़ते समय रहता है। कवि कोई महाप्राण व्यक्ति नहीं है जो स्वप्न देखता रहता है या कल्पना की दुनिया में विचरण करे। जैसे बादलों में वह उड़ा जा रहा हो। वह जीवन में रत, जीवन को संगठित करने वाला नागरिक होता है’। इससे लगता है नाजि़म कविता का मुहावरा प्रचलन से एकदम अलग तथा भिन्न रचने को यत्नशील हैं। वे भाषा को संप्रेषण का बुनियादी उपकरण मानते हैं पर साध्य नहीं। जैसा कि रूपवादी – कलावादी कहते हैं कि भाषा समाज-निरपेक्ष है। वह सर्वस्वायत्त है। उन्होंने कविता के नये रूप भी तलाशे हैं। लगता है परंपरित छंद की संकीर्णता उन्हें वैसी ही खटक रही थी जैसे हमारे यहाँ निराला को। इसीलिये उन्होंने छंद को तोड़ कर नया छंद आविष्कृत किया। नाजिम उन सोवियत कवियों से भी प्रभावित थे जो Futurism  (भविष्यवाद) के पक्के पक्षधर थे। जब वह तुर्की वापस आये तो तुर्की में अग्रसर काव्य नायक बने। उन्होंने लगातार नये रूपों में धडाधड़ कवितायें लिखीं। नाजि़म तुर्की की कविता को एक नई दिशा -नया विज़न -दे रहे थे। उन्होंने नाटक भी लिखे। फिल्म के लिये पाण्डुलिपियाँ तैयार कीं। परंपरित छंद की अवरोधक सीमाओं को तोड़कर उन्होंने मुक्त छंद अपनाया। इस छंद को वह तुर्की भाषा में बातचीत के लहज़े तक ले आये हैं। अंग्रेज़ी में जैसे महाकवि वर्डस्वर्थ कविता को आम आदमी की भाषा में लिखने के लिये यत्नशील थे। एक ऐसी सरल सहज पर रागपूर्ण भाषा जो हमारे सामान्य जीवन की संक्रियाओं से प्रस्फुटित होकर ही जीवंत होती है।

      तुर्की तथा गैर तुर्की गंभीर समीक्षकों ने नाजि़म की तुलना विश्व के अन्य महान कवियों जैसे लोर्का, लुई अरागाँ, मायकोव्स्की तथा पाब्लो नेरूदा आदि कवियों से की है। इसमें संदेह नहीं कि नाजि़म उक्त कवियों से प्रेरित तथा प्रभावित थे। फिर भी मूर्तिभंजन शिल्प सौष्ठव तथा अपने काव्य मुहावरे की दृष्टि से वह इन सबसे भिन्न तथा अप्रतिम हैं। उन की कविता प्रगीत की आत्मपरकता तथा
मार्क्सवादी विचारधारा का अत्यंत समूर्त कलात्मक संश्लेषण है। उनकी प्रेम कवितायें भी विचारधारा का संग नहीं त्यागती। उनको उनके समीक्षकों ने ‘रोमेंटिक कम्युनिस्ट’ तथा ‘रोमेंटिक क्रांतिकारी’ कहा है। लगता है उनका निजी प्रेम भी सर्वहारा  तथा  देश के प्रति प्रेम में रूपांतरित होता रहता है -कहते हैं
 

हम एक सेव का आधा हिस्सा है
बाकी का आधा है यह पूरी दुनिया
हम एक सेवे का आधा हिस्सा हैं
बाकी आधा हैं हमारे जन। 

वे अपनी प्रिया को संबोधित करते हुये अपने वर्ग-शत्रुओं के विनाश तथा अपने खूबसूरत देश की आज़ादी की बात करते हैं –

मेरी प्रिया
वे शत्रु हैं आशा के
बहते पानी के
पके फलदार वृक्षों के
अग्रसर फेलते जीवन के
उन्हें मृत्यु चिन्हित कर चुकी है


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अरे हाँ मेरी प्रिया
चारों तरफ आज़ादी जश्न मनायेगी
अपनी श्रेष्ठतम पहरन में
मजूर की झौंपड़ी में
बिल्कुल … इस खूबसूरत देश की आ
जादी –

इसी तरह नाजि़म अपने वर्ग शत्रुओं को अपनी प्रिया तथा सर्वहारा के शत्रु में विभेद नहीं करते –

वे शत्रु हैं हमारे शहर के उस बुनकर के
कारखाने में काम करने वाले कराबुक मिस्त्री के
गरीब किसान के
हाजिते स्त्री के
रोजाना काम पै जाने वाले श्रमिक सुलेमान के
वे मेरे और तुम्हारे भी शत्रु हैं

 
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 ओ प्रिया वे शत्रु हैं हमारे इस देश के -संकेत है सामंतों और साम्राज्यवादी उत्पीड़कों की तरफ। जो जनता को उत्पीडि़त करता है वह नाजि़म का भी वर्गशत्रु है। उसके विरुद्ध कविता को खड़ी करना है। उनके लिये कविता एक अस़्त्र है। वह उससे शिवेतर का क्षरण तथा विनाश चाहते हैं।

ध्यान देने की बात है कि एक लोकधर्मी कवि का प्रेम बिल्कुल निजी तथा आत्मपरक होकर भी वैश्विक सर्वहारा के लिये भी उतना ही गहन बनता है। नाजि़म की बहुत सारी कवितायें  संगीतज्ञों ने गीतों में ढाल ली  हैं। कहते हैं कि उनकी कविताओं का अनुवाद विश्व की बहुत सारी भाषाओं में हो चुका है। यहाँ तक कि ग्रीक भाषा में भी।


    1940 में नाजि़म की कैद ने विश्व के लेखकों को आंदोलित किया। लेखकों तथा कलाकारों की एक समिति गठित हुई। उसमें पाब्लो पिकासो, पाल रौब्सन तथा
ज्याँ पाल सात्र सदस्य थे। इस समिति ने नाजि़म को जेल से रिहा कराने का शक्तिशाली अभियान चलाया। 8 अप्रैल, 1950 को हिकमत ने जेल में भूख हड़ताल की। वह चाहते थे कि सर्वक्षमा का विधान संसद की कार्य सूची में जोड़ा जाये, देश में चुनाव होने से पहले। जेल में ही नाजि़म गंभीर रूप से बीमार हो गये। बाद में उन्होंने भूख हड़ताल खत्म कर दी। डाक्टरों ने उनका इलाज अस्पताल में कराने की सलाह दी। पर संवेदनहीन अधिकारियों ने स्वीकार नहीं किया। बाद में नाजि़म ने फिर भूख हड़ताल शुरू की। उनकी भूख हड़ताल से तुर्की में क्षोभपूर्ण प्रतिक्रिया शुरू हुई। देश में हस्ताक्षर अभियान चलाया गया। नाजि़म के नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ। नाजि़म की माता ने भी भूख हड़ताल शुरू कर दी। तुर्की के अनेक लेखक भी हड़ताल करने लगे। बाद में भूख हड़ताल खत्म हुई। सर्वक्षमा का संशोधित नियम पारित हुआ। नाजि़म को उसके तहत छोड़ा गया। 20 नवम्बर 1950 में नाजि़म को विश्व परिषद शांति पुरस्कार के लिये नामित किया गया। इस पुरस्कार को पाने वाली अन्य विभूतियाँ थी -पाब्लो पिकासो, पाल रौब्सन तथा पाब्लो नेरूदा आदि। बाद मे नाजिम तुर्की से पानी के जहाज द्वारा रोमानिया खिसक गये। वहाँ से सोवियत संघ पहुँचे। जब साइप्रस में आंदेालन खड़ा हुआ तो नाजि़म ने तुर्की के अल्पसंख्यकों से कहा कि वे ग्रीक में ब्रिटिश शासन समाप्त करने के लिये वहाँ की जनता का समर्थन करें। दशकों की यातनाओं के बाद नाजि़म का 3 जून 1963 को हृदयाघात की वजह से मास्को में  निधन हो गया। शासन की क्रूरता के बावजूद नाजि़म को उनके देश की जनता बराबर प्यार, सम्मान तथा आदर देती रही।

नाजि़म को उनके देश के समीक्षकों ने प्रथम तथा अत्यंत महत्वपूर्ण  सच्चे अर्थ में आधुनिक कवि की संज्ञा दी है। हमारे विचार से वह प्रथम लोकधर्मी कवि भी हैं। पूरे विश्व में उन्हें बीसवी सदी के महान कवि का दर्जा दिया है। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पुस्तकों का
पुनर्प्रकाशन प्रारंभ हुआ। 1965 और 1966 के बीच उनकी बीस पुस्तकें प्रकाशित हुईं। कुछ उनमें से पुनः मुद्रित थी। कुछ पहली बार ही छपी थी। उसके बाद लगातार उनकी चयनित कविताओं की आठ जिल्दें सामने आई। उनमें उनके नाटक, उपन्यास, पत्र तथा बच्चों के लिये कहानियाँ  आदि भी थीं। इसके साथ ही उनके काव्य पर गंभीर समीक्षा भी सामने आई। 1965 और 1980 के बीच को छोड़ कर उनकी कृतियों को उन्हीं के देश में आधी सदी के लिये दबा दिया गया। उनकी मृत्यु के बाद से ही उनकी कविताओं के अनुवाद फ्रेंच, जर्मन, रूसी, ग्रीक, पोलिश, स्पानी तथा अमरीकी आदि देशों में होने लगे थे।

वाल्ट ह्विटमैन, शैले, निराला तथा त्रिलोचन की तरह नाजिम ‘मै’ शैली में संवाद करते हैं। पर इस ‘मैं’ शैली में उनके देश का तीव्रतम अंतर्विरोधी यथार्थ तथा बाहरी दुनिया की संपूर्ण हलचलें गुंथी बिंधी रहती हैं। उनका ‘मैं’ वैश्विक सर्वहारा का  आंदोलित हुआ सघर्षपूर्ण पूरा विश्व है। उनकी कविता में आत्मपरकता के साथ जनसंघर्षों की आंदोलित दुनिया भी बोलती है। उनका ‘मैं’ कलावादियों – रूपवादियों का ‘नारसिसिज्म’ या आत्ममुग्धता जैसा नहीं है।  सर्वहारा की गहन पीड़ा घनीभूत होकर उनका ‘मैं’ वजूद में आया है। उनमें अंग्रेजी के
Stream Of Consciousnes जैसी निरी व्यक्तिनिष्ठ आत्म सजगता भी नहीं है। उनकी कविता में एक प्रतिबद्ध कवि की आशाएँ अभिलाषाएँ व्यक्त हैं। बच्चों जैसी उल्लसित स्फूर्ति। उनमें आसमान जैसा खुलापन है। सार्वजनिकता का प्रचुर भ्रातृत्व है। सामूहिकता का प्रतिबद्ध गान है। इन सबमें नाजि़म समाज तथा कला के जड़ ढाँचे और कुलीन सौंदर्यबोध को कठोरता से तोड़ते हैं। उनका व्यक्तित्व नेरूदा और लोर्का या निराला के व्यक्तित्व की तरह महानायक का एहसास कराता है। उनकी शुरू की कविताओं में संघर्षपूर्ण जीवन से एकान्विति का विश्वास है। उनके लिये  कविता एक जीवन की सार्थक घटना ही है। समाज में या साहित्यिक इतिहास में उसका रूप परिवर्तित होता दिखाई पड़ता है। उनकी कविता इस बात की रुचिर साक्षी है कि कवि का व्यवहार तथा आचरण उसकी कविता से अलग नहीं किया जा सकता। उनके समीक्षकों का मानना है कि नाजि़म की विश्वदृष्टि में मार्क्सवाद उनकी काव्य प्रेरणा के केंद्र में है। इसकी वजह से उनकी कविता को एक बिल्कुल अलग तथा अप्रतिम मुहावरा संभव हुआ है। नाजिम अपनी कविता तथा जीवन में जनविरोधी प्रवृत्तियों तथा शक्तियों का भरपूर विरोध करते हैं। उनके काव्य कथ्य में वह लोकधर्मी शक्ति छिपी है, अमरीकी कवि जिसकी कभी कल्पना तक नहीं कर सकते। नाजिम को क्रूर शासकों द्वारा जो यातनायें दी गई हैं वे एक प्रकार से उनकी  उस काव्य साधाना का सम्मान ही है जिनकी प्रेरणा से सेना तक ने सत्ता के विरुद्ध विद्रोह किया। कविता और उनके विचार के लिये उन्हें यातनायें सहनी पड़ी हैं। यह उनके सुदृढ़ विचार की विश्वसनीयता को और अधिक प्रदीप्त करता है। उन्होंने अपनी कविता तथा लोकधर्मी दृष्टि के लिये कभी कोई समझौता नहीं किया। वह अपनी विश्वदृष्टि के प्रति सदा आश्वस्त रहे। अपनी कविता को उन्होंने लोक के लिये पूरी तरह समर्पित किया। सात्र ने उनके बारे में टिप्पणी करते हुये कहा है कि ‘नाजिम हिकमत ने एक ऐसे मनुष्य की कल्पना की थी जिसका सृजन अभी होना है’। न सिर्फ कविता में बल्कि जीवन में वह इस प्रकार के नये मनुष्य की छबियाँ, बिंब तथा संक्रियायें रचते रहे हैं। अर्थात् वह एक नायक इसलिये भी है कि वह अपनी जनता – अपने लोक के लिये – अपनी कविता को समर्पित मानते है। इस धारणा से नाजि़म की कविता ने अपने को तुच्छताओं से अलग रखा है। यह बहुत बड़ी बात है कि एक कवि नायक भी हो और जनता के संघर्ष में शरीक एक योद्धा भी। तुच्छताओं के पीछे भागती आज की दुनिया में नाजिम हमें कविता तथा जीवन को वह सम्मान देते लगते है जिसके वे सदा हकदार रहे हैं। रहेंगे। यह बात उनसे सीखने की है कि तुच्छताओं के पीछे दौड़ कर न तो कविता बड़ी होगी। न कवि व्यक्तित्व। कविता को ऊचाइयों तक ले लजाने के लिये हमें बहुत कुछ छोड़ देना होता है।

नाजि़म की एक कविता है , ‘आत्म कथा’। बड़ी दिलचस्प कविता है। उन्होंने बताया है कि वह कब किन हालात में पैदा हुये। उनकी शिक्षा दीक्षा कैसे हुई। कविता  रचना  कब शुरू की। कहते हैं –
 

मैं पैदा हुआ 1902 में
एक बार भी वापस नहीं लौटा अपनी जन्मस्थली
लौटना मुझे पसंद नहीं –

 वह बताते हैं कि तीन साल का था तब वह अलेप्पो में एक पाशा के नाती थे। उन्नीस साल की उम्र में मास्को कम्युनिस्ट विश्वविद्यालय के विद्यार्थी बने। 49 वें साल में वह फिर मास्को चेका पार्टी के अतिथि के नाते वहाँ थे। बताते हैं –

और मैं कवि हूँ चौदह की आयु से ही
 

कैसी विडम्बनापूर्ण त्रासदी है कि नाजि़म को कैद हुई क्योंकि उनकी कविताओं को सैनिक पढ़ते थे। खासकर ‘शेख बेदरेतिन’ महाकाव्य को। यह 1936 में छपा था। यह एक प्रदीर्घ कविता है। इसमें 15 वी सदी में ओटोमन के विरुद्ध किसानों के विद्रोह को व्यक्त किया है। कवि के जीवन काल  की शायद  उनके देश तुर्की में यह अंतिम कृति है। विश्व कवि नेरुदा ने नाजिम के गिरफ्तार होने के बाद उनके प्रति अमानवीय व्यवहार के बारे में बताया है। नाविकों को भड़काने के अभियोग में उन्हें कठोर तथा नारकीय दण्ड दिया गया। उनके इस अभियोग की सुनवाई जल युद्धपोत पर ही हुई। कहा जाता है कि उन्हें आदेश मिला कि वह युद्धपोत के सेतु पर ही घूमते रहेंगे जब तक वह थक कर रुक जाने को विवश न हो जायें। उसके बाद उन्हें शौचालय के एक ऐसे हिस्से में बंद कर दिया गया जहाँ फर्श पर करीब करीब आधा मीटर मैला जमा हो जाता है। वह बहुत शिथिल होने लगे। उत्पीड़क उन पर निगाह रखे हुये थे। उन्हें नाजि़म को दिये गये नारकीय दण्ड को देखकर आनंद का अनुभव हो रहा था। ऐसी नारकीय स्थिति में नाजि़म ने शुरु में मंद-मंद गाना प्रारंभ किया। उसके बाद उच्च स्वर में गाने लगे। फिर और तीखे स्वर में। यहाँ तक कि वह जितनी जोर से गा सकते थे गाते रहे। उन्हें जितने अपने प्रेम गीत तथा कवितायें याद थी उन्हें जोर से गाया। किसानों की गीत – गाथायें भी गाई। उन्होंने किसानों को लिखे संघर्ष – भजन भी गाये। जो कुछ भी उन्हें याद था उसे गाते रहे। इस प्रकार उन्होंने इस नरक पर विजय पाई। जेल में उन्होंने भविष्यवाद से आंदोलित होकर समसामयिक कथ्यपरक कविताये रचीं। वे सीधे सीधे जनता से संवाद हैं। पर उनकी ध्वनि बहुत अर्थवान तथा गंभीर है।

इन कविताओं को लिफाफे में बंद करके उन्होंने अपने परिवार वालों तथा मित्रों के लिये प्रेषित कर दिया । इरादा था कि इन्हे जनता के बीच वितरित कर दिया जाये। अपनी कैद के समय नाजि़म ने बहुत ही बेहतरीन प्रगीत कवितायें रची हैं। 1941 -1945 के बीच उन्होंने अपना उत्कृष्ट महाकाव्य भी रचा था। उनकी कवितायें मानवीय भूदृश्यों से भरी पड़ी हैं। अपने परिवार के लिये आजीविका हेतु उन्होंने जेल मे बुनने तथा लकड़ी के शिल्प के भी हुनर अर्जित किये। 40 वे दशक के अंतिम दिनों में वह जेल में ही थे। इसी दौरान उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी से तलाक लेकर तीसरी बार विवाह किया। यह बात मुझे सामाजिक नैतिक आचरण की दृष्टि से अजब लगती है कि नेरूदा तथा नाजिम आदि जैसे महान कवि अपनी पत्नियों को क्यों त्यागते रहे! एक कवि का क्या इतना बड़ा हृदय नहीं होना चाहिये कि वह अपनी एक पत्नी के साथ जीवन व्यतीत कर सके! जिस पत्नी को हम त्याग रहे हैं उसके प्रति रची प्रेम कवितायें क्या हमारे प्रेम को छद्म में नहीं बदलती। कितना ही बड़ा कोई कवि है उसका आचरण हमें प्रेरित करता है। नाजिम हो या नरूदा मुझे यह उनकी ऐसी मानवीय दुर्बलता प्रतीत होती है जिसको किसी भी तरह न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। जब हम कविता या देश को इतना बड़ा त्याग कर सकते हैं तो पत्नी के लिये क्यों नहीं! इन महान कवियों के लिये ऐसी क्या विवशता रही होगी कि ये कवि अपनी पत्नियों से तलाक लेते रहे! दूसरे विवाह रचाते रहे। हिंदी में भी ऐसे लेखक हैं जो अपनी पत्नियों का परित्याग कर अन्य से वैवाहिक या अवैध रिश्त बनाते रहे हैं। ऐसे लेखकों के रचना कर्म का हमारे ऊपर अच्छा असर नहीं होता। भारतीय मन इसे नहीं स्वीकारता। यदि स्वीकारता भी है तो अपराध बोध के साथ। खैर …….

1950 में नाजि़म को विश्व शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया। कहा जाता है कि लेखकों के अभियान चलाने पर नाजि़म को जेल से रिहा तो कर दिया गया। पर उन की हत्या के प्रयत्न इस्तम्बूल की सकरी गलियों में बराबर होते रहे।  इसके बाद उन्हें रूसी सीमांत पर सेना की सेवा में लिया गया। एक डाक्टर ने उनसे कहा कि वह इतने कमज़ोर हैं कि यदि वह एक घंटे धूप में खड़े रहें तो उनका काम तमाम हो सकता है। पर फिर भी डाक्टर उन्हें बिल्कुल फिट होने का ही प्रमाण पत्र देगा जिससे उन्हें सेना में काम करने को विवश होना पड़े। यह जान कर नाजि़म बोसफोरस से एक मोटर बोट के द्वारा चुपचाप खिसक लिये। लेकिन जलडमरूमध्य चारो तरफ से संरक्षित था। यह एक तूफानी रात थी। नाजि़म बुल्गेरिया जाना चाहते थे। पर तूफानी समुद्र होने की वजह से यह कठिन था। रूमानिया के एक मालवाहक जहाज़ के उन्होंने चक्कर लगाये। समुद्र में भायानक तूफान बराबर उठ रहा था। नाजिम अपना नाम लेकर खूब चीखे चिल्लाये। जहाज़ वालों ने उन्हें अभिवादन किया। रूमाल हिलाये। पर रुके नहीं। नाजिम उसी भयानक तूफान में उस मालवाहक जहाज़ को घेरे रहे। उसके चक्कर लगाते रहे। दो घंटे बाद जहाज़ उन्होंने रोका। फिर भी उन्होंने नाजि़म को अपने जहाज़ पर बैठाया नहीं। उनकी मोटरबोट घिसटने लगी। उन्होंने सोचा अब सब कुछ खत्म होने को है। आखिर में उन्होंने नाजिम को घसीट कर मालवाहक जहाज़ पर खींच लिया। यद्यपि जहाज़ वाले बुखारेस्ट से आदेश पाने के लिये बराबर फोन पर संपर्क किये हुये थे। नाजिम अशक्त होकर थक चुके थे। एक तरह अधमरे से थे। किसी तरह खिचड़ खिचड़ा कर वह जहाज के अफसर के केबिन में पहुँचे। वहाँ केपटिन के साथ उनके अनेक चित्र लगे थे जिनपर लिखा था, ‘नाजि़म की रक्षा करो’। कैसी क्रूर विडम्बना थी कि वह एक साल से बिल्कुल मुक्त घोषित किये जा चुके थे। किसी तरह वह मास्को पहुँचे। उन्हें लेखकों की कालौनी में घर दिया गया। लेकिन तुर्की सरकार ने उनकी पत्नी तथा उनके बच्चे को उनके पास जाने की अनुमति नहीं दी। 1952 में उन्हें दोबा रा दिल का दौरा पड़ा। फिर भी नाजिम अपने निर्वासित काल में खूब भ्रमण करते रहे। पूर्व योरुप के साथ साथ उन्होंने रोम, पेरिस, हवाना, पीकिंग आदि स्थानों को देखा परखा। पर अमरीकियों ने उन्हें अपने देश आने की अनुमति नहीं दी। 1959 में अपने देश तुर्की की नागरिकता त्याग कर उन्होंने पोलेण्ड की नागरिकता हासिल की। उन्होने तर्क दिया कि यहाँ उन्होंने 17 वी सदी के एक अपने पूर्वज क्रांतिकारी की नीली आँखें और लाल केश उत्तराधिकार में अर्जित कर लिये हैं। 1959 में उन्होंने फिर विवाह किया। उनकी बाद की कविताओं की लय कुछ बेदम है। उनमें युवा जीवन की कविताओं जैसी स्फूर्त जीवंतता नहीं दिखाई पड़ता। इन कविताओं में वर्तनी पर भी ध्यान नहीं दिया गया है। शिल्प सौष्ठव भी शिथिल है। कविताओं में कछ अजब सी उदासी है। नाजिम जिस कविता को जीवन में इतने समर्पित रहे वह उन्हें छोड़ने की भंगिमाओं व्यक्त कर रही है।  एक समर्पित कवि के लिये इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है! अपनी ‘आत्म कथा’, कविता (1961) में ऐसे भावों की ध्वनि सुनी जा सकती है। कवि अपने जीवन का पुनारवलोकन सिंहावलोकन शैली में करते दिखते है – 

कुछ समझते हैं वनस्पतियों के बारे में
मैं समझता हूँ विछोह का दर्द
कुछ को पता है सारे नक्षत्रों के नाम
मैं गाता हूँ अनुपस्थित चीज़ों के बारे में
रातें गुज़ारी है
जेलों में
भव्य होटलों में
मैं समझता हूँ
भूख और भूख हड़ताल का दर्द

 कवि बताते हैं कि उन्होंने दुनिया में सभी तरह के व्यंजन चखे हैं। तीसवें साल में जल्लाद उन्हें फाँसी पर लटकाना चाहते थे। 48 वे साल उन्हें दिया गया शांति पुरस्कार। 52 वे साल में अस्वस्थ होने की वजह से कवि चित्त लेटे रहे -मृत्यु का इंतजार किया।


कवि कहते हैं कि उन्होंने चार्ली चैप्लिन से कभी कोई ईर्ष्या नहीं की। क्योंकि उन्हें वैसी सस्ती लोकप्रियता की जरूरत न थी। कवि यह भी स्वीकार करते कि उन्होंने अपनी पत्नियों के साथ विश्वासघात किया –

मैंने अपनी स्त्रियों के साथ विश्वासघात किया –

 यह उन्होंने स्वीकारा तो है। पर क्या ऐसा करके उन्होंने अपने कवि नैतिक आचरण और कविता को भी क्या कमजोर और छोटा नहीं किया! कवि स्वीकारते हैं कि उन्होंने मदिरा भी पी। पर कभी-कभी। यहाँ गालिब याद आते हैं –

गालिब छुटी शराब, पर अब भी, कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब- ए-माहताब में

 पर नाजिम ने किसी दोस्त की पीठ पीछे चुगली नहीं की। कवि बड़े गर्व से कहते हैं कि उन्होंने रेलों, वायुयानों, कारों से यात्रायें की जबकि अधिकतर लोगों को ऐसे अवसर नहीं मिलते। यह भी बताते हैं कि वह बहुत सारे काफी घरों में बैठे हैं। वहाँ बैठ कर बहसें की हैं। उनकी रचनायें अनूदित हुई चालीस पचास जवानों में। वह साठ साल की उम्र में भी प्रेम करते रहे। उन्होंने गीतिनाट्य देखे। आम आदमी तो उसका नाम तक नहीं जानता। कवि ने बताया है कि उन्हें प्रधानमंत्री बनने की कभी इच्छा नहीं हुई। बाद में कविता का समापन करते हुये कहते हैं कि –

अपने साथियों से
संक्षेप में कहना चाहता हूँ
यदि मैं बर्लिन में गहन दुख से
बेचैन हूँ
इस पर भी मैं कहता हूँ
एक आम आदमी की तरह मैं जिया
कौन जाने
आगे अभी कितना जीना है
हो सकता है
कुछ और घटे मेरे जीवन में।

 ध्यान देने की बात है कि ‘आत्मकथा’ लिखी गई 1961 के आस पास। हृदयाघात से नाजि़म की मृत्यु हुई सोवियत रूस में 1963 में। ‘आत्म कथा’ कविता पढ़ कर लगता है कि अब नाजि़म कविता से उछट रहे हैं। यहाँ सूचनायें और अपने बारे में ब्यौरे अधिक हैं। कविता कम। उनकी मृत्यु वर्ष के आस पास लिखी उनकी एक और कविता है, ‘मैं वृद्ध होने का अभ्यस्त होता जाता हूँ’। यानि एक ऐसा एहसास जो हमे जीवन, प्रकृति तथा कविता से विमुख करने को है। उन्हें जैसे एहसास हो रहा है अपनी मृत्यु का! उन्हें लगता है अब वह ‘अंतहीन बिछोह’ के करीब आ चुके है। कविता में एक अजब किस्म का गहन अवसाद और निराशा सी झलकती है। अब उन्हें समय का उबाऊपन उसके घंटे दर घंटे गुज़रते से महसूस होते है। ऐसे समय उन्हें संसार का स्वाद पौ फटी सुबह की सिगरेट जैसा लगने लगा है। कवि अपने को बिल्कुल अकेला महसूस करता है। वह जानता है कि जो हर समय संक्रियाओं में लगे हैं उन्हें अपने बूढ़े होने का एहसास होता ही नहीं –

दरवाज़े पर अंतिम दस्तक छोड़ता हुआ
अनंत विछोह
समय गुज़रता है
वह गुज़रता जाता है
जिसे मैं समझना चाहता हूँ
आशा का मूल्य दे कर भी
मैं चाहता रहा हूँ
तुम से कहना
पर लगा कुछ कह नहीं पाया
इस दुनिया का स्वाद अब लगता है
पौ फटने पर सिगरेट पीने जैसा
मौत आने से पहले
भेजती आदमी के पास
उसका अकेलापन
मुझे ईर्ष्या है उन कर्मनिष्ठ लोगों से
जो बुढापे का
एहसास ही नहीं करते 

 इन कविताओं में जो गहन अवसाद की गहरी छाया दिखाई देती है वह कवि की आंतरिक पीड़ा को व्यक्त करती है। इन कविताओं की ध्वनि उनकी पहली कविताओं से कतई भिन्न है जहाँ वह संघर्ष और कठिनाइयों का सामना प्रेम प्रगीतों के माध्यम से उल्लास की मनःस्थिति में करते हैं। अपनी एक कविता ‘कैदी के पत्र’ में वह कहते हैं –

मेरी अनन्य प्रिये
तुमने अपने पहले खत में लिखा था
‘अगर वे तुम्हें सूली पर चढ़ा देंगे
अगर मैं तुम्हें खो दूँगी
तो मैं कैसे रहूँगी जीवित
तुम जिंदा रहोगी, रहोगी, रहोगी
मेरी प्रिये- तुम रहोगी जिंदा
मेरी स्मृति हवा में काले धुँये की तरह
मिट जायेगी
तुम जिंदा रहोगी
मेरे हृदय की रुचिरकेशी
मेरी प्रिये
मेरा हृदय कभी नहीं स्वीकारेगा
ऐसी मृत्यु
अभी तो मुकद्दमा शुरू ही हुआ है
उन्हें एक आदमी को मृत्युदण्ड देना है
यह कोई आसान काम नहीं
यह कोई शलजम को उखाड़ना नहीं है
इस बात की चिन्ता त्यागो
यह अभी दूर की बात है –

यहाँ मृत्यु सामने दिखाई दे रही है। पर कवि उसे अपनी प्रबल जिजीविषा से नकारते है। जीने की इतनी अदम्य इच्छा विरल है। नाजि़म को यह दुनिया ही जैसे स्वर्ग है। इस दुनिया में उत्पन्न होना उनके लिये जैसे वरदान हो। इसी दुनिया से ही उन्हें जीवन की हर चीज़ उपलब्ध होती है। वैज्ञानिकों, भूगोलवेत्ताओं, भूगर्भशास्त्रियों तथा खगोल विद्वानों ने इसके रहस्य जान कर इसे सीमित तथा किंचित् काबू में कर लिया हो। पर नाजि़म के लिये यह विशाल, कल्पनातीत जथा आश्चर्यचकित करने वाली है। उनकी कविता है, ‘मैं कितना प्रसन्न हूँ’

मैं कितना खुश हूँ 
दुनिया मैं पैदा हुआ
मुझे उसकी रोशनी से
रोटी से
उसकी मिट्टी से प्यार है
माना कि लोगों ने उसका व्यास नाप डाला
निकटतम इंचों तक
माना कि यह सूरज का खिलौना है
पर मेरे लिये यह विशाल है -कल्पनातीत है!

नाजि़म अकेले होकर भी अपने को अकेला नहीं मानते। यह दुनिया उन्हें एहसास कराती है कि वह अकेले नहीं हैं। वही उनकी शक्ति है। जिन व्यक्तियों को उन्होंने कभी नहीं देखा। न उनसे मिले। फिर भी वह उन्हें अपने से जुड़ा महसूस करते हैं। वे सब जैसे उनके संघर्ष में शरीक हैं। यही नहीं बल्कि नाजि़म साफ करते हैं कि इस वर्ग विभाजित दुनिया में उनके मित्र ही नहीं शत्रु भी है –

हमारे दोस्त और दुश्मन हैं
दोस्त –
जिन्हें मैं ने कभी देखा नहीं
फिर भी हम सब एक साथ
जीने मरने को प्रस्तुत हैं
एक तरह की स्वतंत्रता पर
एक ही तरह की आजीविका पर
एक ही तरह की आशा पर
दुश्मन –
इस विशाल विस्तृत दुनिया में
मेरी ताकत यह है
मैं अकेला नहीं हूँ  ।
 
नाजि़म नेरूदा की तरह श्रम के सौंदर्य का बार बार संकेत देते हैं। मनुष्य के ‘हाथ’ ही हैं जो दुनिया में हर प्रकार का उत्पादन करते हैं। हाथ ही सर्वहारा की वैश्विक शक्ति के प्रतीक हैं। उनमें पत्थरों की कठोरता है। अवसाद में गाये गीतो की उदासी है। भार ढोने वाले पशुओं की तरह वे विशाल हैं। उनमें भूख से मरते बच्चों की क्रुद्ध शक्ले, मधुमक्खियों का श्रम’ दुधाते थनों का गद्दरपन, तथा  पृथ्वी को साधने की शक्ति निहित हैं –

पत्थरों की तरह कठोर हैं तुम्हारे हाथ
जेल में गाये गये गीतों की तरह
विषाद भरे उदास
बोझा ढोने वाले पशुओं की तरह
बड़े और विशाल
भूख से मरते शिशुओं की तरह
क्रुद्ध शक्लों वाले हाथ
तुम्हारे हाथ –
मौहार की तरह श्रमशील
और हुनरमंद
दुधाते थनों की तरह भरा गद्दर
इस पूरे निसर्ग की भांति बलवान
यह धरती गाय के सींग पर नहीं
तुम्हारे बलिष्ठ हाथों पर टिकी है।

नाजि़म का मानना है कि चाहे दुनिया के आविष्कार, छापेखाने, पुस्तकें, दिवारों पर चिपकाये गये विज्ञापन, अखबार, रजतपट पर प्रदर्शित किशोरियों की नंगी टाँगें, प्रार्थानायें, स्वप्न, लोरियाँ, शब्द, चाँदनी, रंग, हमारी बोली वानी, श्रम को हड़पने वाला- ये सब झूठ बोलते हैं -बोलते रहें

अगर तुम्हारे हाथों के श्रम को लूटने वाला है झूठ
अगर हर चीज़ और हर आदमी बोलता हैझूठ
और झूठ नहीं बोलते हैं सिर्फ तुम्हारे हाथ 

आखिर ये सब झूठ क्यों बोलते हैं! क्योंकि वे चाहते हैं कि श्रमशील हाथ अपनी श्रमदृष्टि और बलिष्ठ ऊर्जा खो दें। वे चाहते हैं कि तुम्हारे सचेत हाथ विवेकहीन हो जायें। क्यों कि कहीं ये विद्रोही हाथ उन क्रूर निष्करुण
उत्पीड़को के विरुद्ध खड़े न हो पायें –

तो यह सारा कुछ है इस वजह से
कि  गीली मिट्टी की तरह तुम्हारे जीवंत हाथ
मूर्ख हो जायें चरवाहें के कुत्ते की तरह
इसलिये भी
तुम्हारे हाथ दूर रहें विद्रोही बनने से
इसलिये भी कि समाप्त न हो
धनलोलुप की सत्ता
उसका उत्पीड़न…….

नाजि़म एक सिद्ध कवि हैं। उनका प्रत्यक्ष परोक्ष अनुभव विविध और विशाल है। तुर्की भाषा पर उनका अप्रतिम अधिकार है। सामान्य से सामान्य बात को कविता में कहने की अपूर्व दक्षता तथा शिल्प उनके पास है। वह कलाविहीन कला के अप्रतिम सहज कवि हैं। उनका शिल्प उनकी कविता में से ही जनमता है। वे काव्य रूपों को कथ्य पर कभी आरोपित न कर उसे सहज रूप से कथ्य के विकास के साथ ही विकसित होने देते हैं। बोलचाल की भाषा तथा काव्य में जितना अंतर नाजिम मिटा पाये हैं उतना न तो नेरूदा न लोर्का। ब्रेख्त तथा मायकोव्स्की की भाषा भी बहुत सहज होकर उस लोक की धरती पर नहीं आ पाती जितनी नाजि़म की। मेरे विचार से चीनी कवि वाइ जुई की भाषा नाजिम की भाषा के बहुत करीब से निहारती है। नाजि़म आकार में बहुत छोटे देश तुर्की के होकर भी अपनी दृष्टि पूरी दुनिया के आंदोलित जन पर रखते हैं।-

ओह, मित्रो, मेरे सहचरो
सबसे अधिक एशिया के लोगो
अफ्रीकी लोगो
मध्यपूर्व
निकट पूर्व
प्रशांत द्वीप श्रृंखला के लोगो
मेरे अपने देश के जन
कहूँ तो पूरी मनुष्यता के
सत्तर प्रतिशत से भी अधिक जन

$      $      $

मेरे मित्रो
ओ मेरे सहचरो
योरुप या अमरीका के मेरे सहोदरो
तुम जाग्रत हो
साहसी भी
फिर भी तुम इतनी आसानी से
हाथों की तरह ही
विवेकहीन क्यो बन जाते हो
धोखा खाना ही तुम्हारी नियति है क्या 

नाजि़म की कविताओं मे पूँजीवाद की क्रूरता तथा साम्राज्यवाद की अमानवीयता पर तीखे व्यंग्य हैं। करारे प्रहार भी। वे जानते हैं कि सर्वहारा के पक्ष में बुनियादी बदलाव हुये बिना न तो स्थाई शांति मुमकिन है। और न सुंदर दुनिया का निर्माण। नाजि़म अपने देश -अपनी जनता को कभी नहीं भूलते। उनकी कविता की जातीय पहचान आज के कवियो तथा कविता के लिये विशेष प्रेरणास्रोत है। आज की 80 प्रतिशत हिंदी कविता विजातीय क्यों लगती है! आखिर जातीय कविता की क्या पहचान हो! उसमें हमारे व्यापक लोक की मार्मिक छबियाँ क्यो नहीं व्यक्त हों! यह तभी संभव है जब हम अपनी जनता, अपनी धरती तथा अपनी प्रकृति से प्यार करें। उन सबसे एकात्म हों। सर्वहारा के संघर्ष में शरीक हो सकें। हमें अपने परिवेश  का गहरा अनुभव हो। अपने देश की जनता, जमीन, जड़ों से जुड़ना जातीय होने की पूर्व शर्त है। नाजि़म इन सबको पूरा करते हैं। निराला ने एक जगह कहा है कि, ‘जनता जातीय वेश की हो’। यहाँ वे भारतीय लोगों पर चढ़े पाश्चात्य के गहरे रंग पर टिप्पणी कर रहे हैं। मैं यहाँ कहना चाहूँगा कि ‘हमारी कविता भी जातीय वेश’ की हो। यह बात हम अपने अग्रज महान कवियों निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल आदि से सीख सकते हैं। आज की कविता अपने अधिकांश किंदी कविता से श्रमिक, छोटे किसानों, बनती बिगड़ती प्रकृति तथा परिवेश के चित्र और छबियाँ क्यों गायब हैं! कवि के सरोकार बड़े सामाजिक राजनीतिक सरोकार क्यों नहीं हो पाते! नाजिम के हर शब्द में उनकी जातीयता और बड़े राजनीतिक -सामाजिक सरोकारों के चित्र मुखर होते हैं –

देश -जिसकी शक्ल
घोड़ी के सिर जैसी है
ऐसी घोड़ी जो
पूरी तरह दौड़ कर
सुदूर एशिया से चली आती है
बाद में लगता है
वह भूमध्यसागर में विलीन गई है
यह देश हमारा है रक्ताभ कलाइयाँ है
दांत भिंचे हुये
पैर नंगे
रेशम के कीमती कालीन की तरह
नरक और स्वर्ग जो भी है
यह हमारा अपना है 

नाजि़म चाहे जैसी कवितायें लिखें उनमें जातीयता, अटूट देश प्रेम, उत्पीडि़त जन की मुक्ति के लिये बेचैनी तथा उत्कट अभिलाषा जरूर व्यक्त होते हैं –

वे दरवाज़े बंद हों
जिन पर दूसरों का हक है
समाप्त हो जन को दास बनाने की प्रथा
विनम्र संकेत है यही हमारा
जीते रहे जैसे
जिंदा रहता है एक पेड़
बिना किसी सहारे के
बिल्कुल मुक्त
भाई चारे के सघन वन में
हम जियें
हमारी है यही प्रबल इच्छा
 
नाजि़म समझते हैं उत्पीड़क वर्ग बहुत शक्तिशाली है। निराला ने जैसे कहा है –
 
अन्याय जिधर, है उधर शक्ति।

अन्यायी की क्रूरता पूरी विश्व मानवता को ही अभिशाप है। उत्पीड़क न तो हमें मुक्त होकर बोलने देता है। न रचने देता है। न गाने देता है । पर वह जाग्रत सर्वहारा के अस्तित्व से भयभीत भी रहता हैं। नाजि़म की एक कविता है अश्वेत संगीतज्ञ पाल रोबसन को संबोधित –

वे हमें अपने गीत नहीं गाने देते
पालरोबसन
गायगों के गरुण
ओ अश्वेत नीग्रो संगीतज्ञ
वे यही तो चाहते हैं
हम अपने गीत न गा सकें
वे भयभीत हैं हम से
वे अरुणोदय से डरते हैं
हमें देखने, सुनने, छूने से
डरते हैं……
उन्हें डर है बीज से
पृथ्वी से
पानी से
और वे मित्रों की स्मृति से भी
डरते हैं
ऐसा हाथ
जो कोई कमीशन नहीं चाहता
सूद नहीं माँगता
वे हमारे प्रगीतों से भयभीत है 
केवल इसलिये
कि तुमने आशायें नहीं त्यागी
संसार को
अपने देश को
आदमी को बेहतर बनते देखने की
 
उन्हे उम्मीद है प्रकाश से नहाये दिन देखने की। फिलहाल स्थिति हांलाकि ठीक नहीं है –

सच है हमारी थालियों में अभी
सप्ताह में एक दिन ही गोश्त मिलता है
और हमारे बच्चे काम के बाद
इस तरह लौटते हैं
जैसे पीली पीली ठठरियाँ हों
यह तो सत्य है फिलहाल
पर यकीन करो
बच्चो, हम खूबसूरत दिन जरूर देखेंगे
उन्हें देखेंगे
सूर्य प्रकाश में नहाये दिन
जरूर देखेंगे।

संपर्क
मोबाईल- 09928242515
 


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बाइ जुई: कालजयी लोकधर्मी कवि

विश्व के लोकधर्मी कवियों की श्रृंखला’ की पहली कड़ी में आपने वाल्ट व्हिटमैन के बारे में पढ़ा। इसकी दूसरी कड़ी में आज प्रस्तुत है चीन के मशहूर लोकधर्मी कवि  बाइ जुई के बारे में

विजेन्द्र
 
बाइ जुई : कालजयी लोकधर्मी कवि        

बाइ जुई की एक कविता है, बरखा। कवि कहते हैं –
धरती और लोग-बाग
सूखा में दोनों  ही झेलते हैं दुख
किसान भौचक्का है
खेत वह कैसे करेगा हरा भरा
शेष जन भी सोचते हैं
अपनी प्रिय वस्तुओं के बारे में
मैं चिंतित हूँ
अपने देवदार और बाँस के पौधों के लिये
दोनों दिखते हैं मुरझाये और मरे
हर दिन हूँ बेचैन उनके लिये
कमेरे उनकी पत्तियों और जड़ों को सींचते हैं
फिर पूरब से उठती है घनघोर काली घटा
ताज़गी भरा बरसने लगता है बादल
जैसे कि धुल गये हों धूल सने चेहरे और बाल
पेड़ अपनी हरी कौंपलें लहराते हैं स्वागत में
मैं कहता हूँ लोगों से
कि दस दिन की सिंचाई से
बेहतर है अच्छी घनी बरसात
अब खुद भी जान गया हूँ मैं
जब लोग होते हैं नेक दिल
और अपने चारों तरफ
बोते हैं नेकनियती और भलाई
तो वे अफसर हों चाहे पौध रोपने वाले
या बागवान
सब एक जैसे होते हैं
यहाँ कवि का संकेत है किसान की चिंता, प्रकृति का कृषि पर प्रभाव, कवि का प्रकृति प्रेम, श्रम से वर्गीय दूरियों का मिटना। बाइ जुई की ये चिंतायें उनकी पूरी कविता की केंद्रीय लय है। प्रमुख ध्वनि। बाइ जुई किसान चेतना के अप्रतिम कवि है। श्रम का सौंदर्य तथा औदात्य उनकी कविता की धमनियों में आद्यंत प्रवाहित है। हमारे अन्य लोकधर्मी कवियो -वाल्ट ह्विटमैंन,  ब्रेख्त, लोर्का, पाब्लो नेरूदा, नाज़िम हकिमत, माइकोव्स्की, वोले शोयिंका आदि से वे बहुत पुराने हैं। शैली, शिल्प-सौष्ठव, भाषा, लय, वर्णन तथा सांकेतिकता में अलग तथा भिन्न भी। वह चीनी टेंग राजवंश काल (618-907) के कालजयी कवि माने जाते हैं। एक उत्कृष्टतम तथा प्रभावी कवि। चीन में यह समय साहित्य की महान उपलब्धियों का भी समय है। जैसे हमारे यहाँ भक्ति कालीन लोक जागरणकाल। टेंग राजवंश चीनी कविता का यशस्वी गौरवपूर्ण काल है। बाइ जुई 772 में झिंगझेंग जनपद में पैदा हुये थे। यह जनपद झेंगझाओ के करीब है। इसे आज का आधुनिक हेनान प्रांत कहते हैं। उनका परिवार गरीब था। बारह साल की आयु में राजनीतिक उथल पुथल की वजह से उनका परिवार झेहजियांग प्रांत में आ बसा। उनका परिवार गरीब था पर विद्वान और पढ़ा लिखा जरूर था। वाइ जुई स्वयं भी सराकर में राज्यपाल के पद पर रहे थे। उन्होंने अपने इस पद पर रह कर अपने अनुभवों को कविता में व्यक्त किया है। एक प्रांत के ही नहीं वह तीन भिन्न भिन्न प्रांतों के राज्यपाल रहे थे। उन्होंने अपनी बहुत ही अलग तथा सरल-सहज लोकधर्मी काव्य शैली विकसित की है। बिल्कुल बोल चाल का लहज़ा। जैसे कोई थोड़ा पढ़ा लिखा किसान बोलता हो। उनकी कविता के शब्दार्थ सामान्य पाठक बहुत अच्छी तरह से समझ सकता है। चीन की जनता ने उनकी कविता को बहुत पसंद किया है। उनका देश उसे अपनी बहुत कीमती धरोहर भी मानता है। उनके देश में ही नहीं बल्कि बाहर भी चीनी कविता के पाठक उनकी कविता को बड़े आदर तथा महत्व से सराहते हैं। बाइ जुई की कविता का प्रभाव जापानी साहित्य पर भी बहुत पड़ा है। उन्होंने कवि रूप में अत्यंत ख्याति अर्जित की। साथ ही वह एक सफल राज्यपाल भी रहे हैं। यह बात जरूर है कि उनकी कविता के सामंतवाद विरोधी रुख की वजह से उन्हें बड़ी कठिनाइयाँ उठानी पड़ी थी। पर अंत तक उन्होंने अपना जनपक्ष नहीं बदला। वह किसानों, श्रमिको, गरीबों तथा अभावग्रस्त सामान्य जन के पक्ष में सदा बोलते रहे। लड़ते रहे। यही उनकी कविता की महाशक्ति है जो उन्हें आज बहुत ही प्रासंगिक बनाकर हमसे जोड़ती है। इस प्रक्रिया से हम अपनी प्राचीन काव्य परंपरा का आकलन कर उसकी प्रासगिंकता को रेखांकित कर सकते हैं। वाइ जुई की कविता एक आदर्श प्रतिमान है कि कैसे आखिर कविता अपने समय का अतिक्रम कर कालजयी बनती है। कैसे वह जनता के हृदय में अपनी अमिट जगह बनाती है।

वाइ जुई का प्रारंभिक जीवन एक प्रशासक के रूप में बहुत सफल रहा था। कवि के पिता का निधन हुआ 804 ई० में। कवि ने यान झेंन के विद्वान से प्रगाढ़ मित्रता स्थापित की। जुई हालनिल अकादमी के विद्वान सदस्य भी बनाये गये। 811ई० में उनकी माता का निधन हो गया। चीन की परंपरा के अनुसार उन्होंने तीन वर्ष तक अपने पिता तथा माता की मृत्यु पर शोक मनाया। दोनों बार वह वेइ नदी के किनारे पर ही रहे।
    कवि 814 ई० में सलजा के महल के बहुत ही सामान्य अधिकारी थे। उन्हें यहाँ आधिकारिक रूप से कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। राज दरबार में उनके कई लोग शत्रु बन गये। राजकीय अन्य पदों पर भी लोग उनसे वैर और ईर्ष्या करने लगे थे। असल में उनके लोकधर्मी लेखन ने ही उनके निजी शत्रु बना दिये थे। उन्होंने दो लंबे संस्मरण लिखे। उनका अनुवाद अंग्रेजी में आर्थर वैली ने  युद्ध को बंद करो नाम से किया है। वाइ जुई के विरुद्ध और भी शिकायतें थीं। उनके विरोधी उनके ऊपर तरह-तरह के अभियोग लगा रहे थे। कहा जाता है कि जुई की माता की कुँये में गिरने से मौत हुई थी। वे कुछ फूलों को तन्मयता से निहार रहीं थी। इस प्रसंग में जुई की दो कवितायें हैं- ‘In Praise Of Flowers’ तथा; The new well। इन दोनों कविताओं को जुई के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था। इल्ज़ाम था कि जुई ने अपनी माता के प्रति पूरी निष्ठा और श्रद्धा नहीं रखी। चीन के महान दार्शनिक कन्फ्यूशियस की परंपरा के विरुद्ध है माता की उपेक्षा करना। इस का दुष्परिणाम हुआ जुई का अपने नगर से निर्वासन। यही नहीं उनकेा पदावनत भी किया गया। तीन साल बाद उन्हें चीन के दूरदराज प्रदेश साइचिन में राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया। इस यात्रा के समय जुई को अपने निर्वासित मित्र यान झेन से मिलने की अनुमति मिल गई थी। उनका नया स्थान फूलो और वृक्षों से भरा पूरा था। यह कवि के लिये अधिक प्रसन्नता की बात थी। 818 ई० में उनका निर्वासन समाप्त  कर राजधानी वापस बुला लिया गया। उनको पदोन्नत भी किया गया। 821ई० में चीन में मुजोंग नया सम्राट आया। यह एक विलासी सम्राट था। उसने अपने दायित्वों को भुला कर विलासिता का जीवन जिया। इसी दौरान अस्थाई तौर पर दबे हुये सैनिक राज्यपालों ने टेंग की केंद्रीय सरकार को चुनौतियाँ दीं। दूसरे मुजोंग का प्रशासन भ्रष्टाचार से विघटित हो रहा था। वाइ जुई ने इसके विरोध में कवितायें लिखी। अतः एक बार फिर कवि को राजधानी तथा दरबार से दूर फेंक दिया गया। यह स्थान प्राकृतिक दृष्टि से मनोहारी था। वाइ जुई के मन पसंद। यहाँ का राज्यपाल होने के समय जुई ने अनुभव किया कि आस पास की खेती वाड़ी वैस्ट लेकपर निर्भर है। पर पिछले राज्यपालों की लापरवाही की वजह से पुराना बाँध ढह गया था। झील सूख चुकी थी। स्थानीय किसानों को भयानक सूखा झेलना पड़ता था। जुई ने एक मज़बूत तथा अधिक ऊँचे बाँध बनाने का आदेश दिया। इससे पानी का बहाव रुक सके। एकत्र पानी वहाँ के किसानों के लिये सिंचाई हेतु पर्याप्त हो। आगे आने वाले दिनों मे वहाँ के स्थानीय किसान खुशहाल हो सकें। उन्हें सूखा का कहर न झेलना पड़े। यह स्थान प्राकृतिक दृष्टि से बहुत सुंदर था। खाली समय में जुई ने इस स्थान का एक कवि की तरह आनंद लिया। बाद में जुई के सम्मान में उन्हीं के नाम से यह बाँध जाना गया। अकाल,  सूखा, अफसरों की संवेदनहीनता,  गरीब किसानों के प्रति उनकी बेरहमी के चित्र जुई की कविताओं में बार बार आते हैं। उनकी एक बहुत ही उत्कृष्ट कविता है, ‘तुलिंग का किसान  कवि कहते हैं- 

तुलिंग का एक किसान था
सौ कित्ते जमीन थी उसकी
लेकिन वसंत में पड़ गया सूखा
तीन महीने तक लू चलती रही लगातार
मर गये गेंहूँ के पौदे सूख कर
और उसी बरस क्वार में
समय से पहले ही
गिरने लगा पाला
जनपद के अफसरों को इल्म था इसका
मगर उन्हें फिक्र थी
जल्दी जल्दी लगान वसूलने की
किसान को लगान की खातिर
बेचना पड़ा शहतूत का पेड़
न जाने कहाँ से आयेंगे रोटी कपड़े
अगले साल भी
इस समय भी लगान चुकाने को
उतर गये तन के कपड़े
छिन गया मुँह का कौर
लोगों का माँस नोचते अफसर
भूखे भेड़िये हैं
भले ही उनके वैसे दाँत और पंजे न हों
पर उनका मन भेड़िये का है।
     824 ई० में उनका राज्यपाल का कार्यकाल खत्म हुआ। उनको अब एक उन्नत पद दिया गया। वेतन भी अब अधिक था। सम्मान भी। उन्होंने अपना आवास पूर्वी राजधानी में लिया। एक प्रकार से यह सांस्कृतिक राजधानी समझे जाने वाला स्थान था। यहाँ अन्य राजधानियों की तरह राजनीतिक गहमागहमी कम थी। 

 825 ई० में जुई 53 साल के हुये। उन्हें फिर संपूर्ण राज्यपाल का पद दिया गया। यहाँ यांग्टीसी नदी तथा ताहू झील के किनारे उन्होंने अपना कार्य काल पूरा किया। तरह तरह की दावतें, पिकनिक तथा उत्सव उन्होंने आनंदपूर्वक मनाये। पर दुर्भाग्य से कुछ साल बाद जुई अस्वस्थ हो गये। उन्हें विवश होकर सेवा मुक्त होना पड़ा। 822 – 824 ई० तथा, 825 -827 ई० में जुई राजधानी लौट आये। बाद में उन्होंने राजधानी में कई महत्पूर्ण पदों पर कार्य किया। बाद में हैनान के राज्यपाल हुए। यहाँ उन्हें प्रथम पुत्र की प्राप्ति हुई। पर दूसरे साल उसकी मृत्यु हो गई। 831 ई० में यान शैन की मृत्यु के बाद से जुई नाम मात्र को विभिन पदों पर कार्यरत रहे। सच में तो वह सेवामुक्त हो चुके थे। 839 ई० में उन्हें पक्षाघात हुआ। उनके बाँये पाँव ने काम करना बंद कर दिया। अतः बिस्तर पर कई महीनों तक रहना पड़ा। जब उनकी तबियत कुछ सुधर गई तो उन्होंने अपनी चयनित कविताओं को व्यवस्थित किया। 846 ई० में जुई का निधन हुआ। उन्होंने मृत्यु पश्चात बहुत ही सामान्य ढंग से अपनी अंत्येष्टि करने के लिये संदेश छोड़ा था। यह भी कि मृत्यु के बाद उन्हें कोई उपाधि न दी जाये।
     जैसा कि मैं शुरू में कह चुका हूँ जुई अपनी सादगी, सरलता,  कवि कर्म निष्ठा तथा ईमानदारी के लिये प्रतीक चिन्ह जैसे बन गये थे। वे अपनी बहुत ही बोधगम्य काव्य शैली के लिये विश्व विख्यात हैं। साथ ही उनकी कविताओं में राजनीतिक तथा समाजिक आलोचना भी मुखर है। इस काव्यसुलभ प्रतिरोधी मुखरता के लिये जुई जीवन भर मूल्य चुकाते रहे। उन्होंने कविता के लिये कोई समझौता कभी नहीं किया। आज के लेखक को उनसे सीखना चाहिए कि एक कवि अपने समय को लाँघ कर बहुत समय तक प्रासंगिक तथा प्रेरक कैसे बना रहता है। उन्होंने कविताओं के अलावा लेख तथा पत्र आदि भी लिखे हैं। टाँग वंश के कवियों में जुई बहुसर्जक कवि हैं। कहा गया है कि उन्होंने लगभग 2800 कवितायें रची हैं। उन्होंने उनकी प्रतिलिपि तैयार कर उन्हें वितरित किया था। वे  चाहते थे कि उनकी कवितायें उन लोगों तक जायें जिन्हें वे संबोधित हैं। उनकी कवितायें सर्व बोधगम्य हैं। कहते हैं कि जुई का नौकर यदि उनकी कविता नहीं समझ पाता था तो वह उसे दोबारा लिखते थे। कविता को इस प्रकार ठेठ जनता के बीच ले जाने का कठिन कवि कर्म जुई जीवन भर निभाते रहे। कविता से जनता की सेवा का सही एक ही तरीका है जो हमें जुई से आज भी सीखना चाहिए। जुई की कविताओं तक किसी भी व्यक्ति की पहुँच बहुत ही सरल है। यही वजह है कि वह अपने जीवन काल में ही अत्यंत लोकप्रिय जन कवि माने जाने लगे। न केवल अपने देश चीन में बल्कि जापान आदि अन्य देशों में भी। आज भी उनकी जन कवि की लोकप्रियता बराबर बनी हुई है।

    
 उनकी कई लंबी वर्णनपरक कवितायें बहुत प्रसिद्ध हैं। उनका अनुवाद अभी हिंदी में कदाचित् उपलब्ध नहीं है। जुई की काव्य दृष्टि में सामाजिक दायित्व बोध अत्यंत प्रमुख है। उनकी अनेक कवितायें व्यंग्य प्रधान भी हैं। जैसे उनकी एक कविता है, ‘ एक वृद्ध कठ कोयला विक्रेता। यहाँ उसकी विपन्नता बयान कर कवि उस सामंती व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य करते हैं जो गरीबों के दुख,  दर्द, उत्पीड़न, शोषण को नहीं देखती समझती। कवि ने बताया है-
एक था बूढ़ा कठकोयला विक्रेता
दक्खिनी पहाड़ों में
पेड़ों को काटता जलाता
धुँये और आँच से
उसका चेहरा हुआ था काला
कनपटियो पर थे उसके बाल भूरे
कठोर श्रम से उँगलियाँ हुई थी काली
खाने और कपड़ों भर को भी
नहीं जुटा पाता है रोटी
कोट था उसका बिना मोटे अस्तर का
करता था उम्मीद
जाड़े की ठिठुरन में
कोयला बिकेगा मँहगा
शहर के बाहर था वहाँ
वर्फ का दो फिट ऊँचा तलछट
लीकों में जमी वरफ पर
वह आता है अपनी बैलगाड़ी में
धचकोले खाता
ढोने को ईंधन
बैल हैं उसके मरियल
पूरे दिन रहा है वह भूखा
जैसे ही वह रुका दखिनी द्वार पर
कीचड़ में
जनखों के लिवास में
दो आदमी आये चढ़े उसकी तरफ
अपने उम्दा घोड़ों पर
उसकी बैलगाड़ी और उसे
मोड़ा उत्तर की तरफ
चीख कर हाँके उसके बैल
खूब खूब तेज तेज
पलट दी उसकी बैलगाड़ी
हथिया लिया उसका पूरा ईंधन
साथ में दस फिट लंबी हल्की रेशम भी
उस पर जुर्माने की एवज
कोयलेां की कीमत देने के बजाय
बैलों की गर्दनों पर
फेंक दी लाल पट्टी सी 

 

सरल सहज भाषा और सांकेतिक शैली में कैसा तीखा व्यंग्य सामंती व्यवस्था पर। जुई ने बड़ी दिलचस्प तथा आकर्षक रोमेंटिक कविताएँ भी लिखी हैं। जैसे-
इतनी सुंदर युवती
दो जूड़ों वाला इतना सुंदर
केश विन्यास
ऐसा मोहक सहज सौंदर्य
कभी जाती नहीं
घर के बाहर
रात को दीपक की चमक उजाले में
पुष्प की पँखुरियों पर
ओस बूँद जैसी रुचिर
बाँस पर हिम की उजली परत से
आती है याद उसकी
ऐसी सुंदरी तो
बना दी जाती है नृतकी सम्राट की
यहाँ रोमेंटिक स्वर होने पर भी व्यंग्य है सम्राट पर।
   जुई कविता के प्राचीन रूप यूफ्यू को पसंद करते हैं। 9वी सदी में उनकी कविता की समीक्षा
  को लेकर अनेक विवाद और बहसें वजूद में आई। जवकि अनेक महत्वपूर्ण कवि जुई की कविता का बहुत आदर करते थे। अनेक कवि तथा समीक्षक उनकी कविता का बहुत विरोध में भी थे। कुछेक का कहना है कि जुई की कविता में दबंगपन तो है। पर ऊर्जा उसमें नहीं है। कुछ भद्र जनों ने उनकी कविता को देसी भाषा की अति सामानय तथा गँवारू तथा अशिष्ट कविताकहा है। जैसे हिंदी में कुछ मुम्बइया काट के आधे अधूरे समीक्षक नागार्जुन की कविता को कींच में सनी पुती अशुद्धकविता कहने में नहीं हिचकते। कुछ ने कहा है कि उनकी कविता की वैषयकता ने कुलीन कविता के प्रतिमानों को तोड़ा है। पर दूसरी तरफ उनकी कविता जनता में प्रचारित प्रसारित होकर बहुत आदर पाती रही है। जुई की कविता चीन की जनता के चित्त में अंकित है। इससे बड़ी कोई और उपलब्धि कवि को क्या हो सकती है। हिंदी में नागार्जुन,  त्रिलोचन तथा केदार बाबू की कविता भी जनता के चित्त में अंकित हो रही है। बड़ी और चिरस्थाई कविता का सही लक्षण है। तुलसी, जायसी,  सूर तथा  मीरा भी तो आज हमारे चित्त में अंकित हैं। जुई की कविताओं को चीन की दीवारों पर लगा गया है। चीन में माता पिता उनकी कविताओं को अपने बच्चों को कंठ कराते हैं। जुई की कविता शीत में ठिठुर कर और ग्रीष्म के ताप में तप कर चीनी जनता के रक्त,  मांस,  मज्जा,  तथा हड्डियों का हिस्सा बन चुकी हैं। उन्हें कभी न तो भुलाया जा सकता है। न उनकी अवहेलना की जा सकती है। जुई के शिल्प सौष्ठव तथा कलात्मकता के प्रति लापरवाह होने की भी आलोचना हुई है। उनमें दोहराव भी है। खासतौर पर उनकी  बाद में रची गई कविताओं में। मेरा विचार है जुई अत्यंत शिल्प सजग कवि है। उनका शिल्प उनकी कविता के समग्र स्वभाव से अलग नहीं है। एक शिल्प होता है जिसे हम सजग होकर कविता में रचते हैं। पर सिद्ध कवि शिल्प को अलग से नहीं रचते। बल्कि वह कविता के कथ्य तथा रूप के जैविक हिस्से की तरह उसी से प्रस्फुटित होकर उसी में पल्लवित पुष्पित होता है। जुई एक सिद्ध कवि है। उनका शिल्प उनकी कविता के गर्भ है जन्मा शिल्पविहीन शिल्प है। जैसे हमारी ऋचाओं का शिल्प। या बाइबिल का। कहते हैं कि शेक्सपियर के अंतिम दौर के नाटकों में भी शिल्पविहीन शिल्प है। यानि जब एक सिद्ध कवि अपने शिल्प के बारे में सजग नहीं रहता तब यह स्थिति आती है। जुई अपने शिल्पविहीन शिल्प के जादू से ही अपनी जनता के कंठाभरण बन पाये हैं।

जुई ने कविता के रूप को लेकर जो प्रयोग किये वे भी कम महत्वपूर्ण नहीं। उन्होंने हेन राजवंश की शैली में नयी गीत गाथाओं तथा लोक गीतों को नया रूप दिया है। जुई ने कविता रचने के लिये एक बिल्कुल नया ढाँचा तैयार किया जिसे, कविता रचने के नौ सिद्धांतकी संज्ञा दी गई है। इसे चीनी साहित्य के समीक्षाशास्त्र की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। यहाँ तक कि इसे विद्वान लोग उत्कृष्ट कलाकृति, ग्रंथ रत्न अथवा श्रेष्ठ कृति मानते है। जुई ने विभिन्न काव्य रूपों में भी वरीयता हासिल की है। खासतौर पर प्रदीर्घ तथा वर्णनपरक कविताओं में। इस दृष्टि से उनकी दो कविताओं का उल्लेख अक्सर किया जाता है. एक है,  Song of eternal Sorrow’ । दूसरी है,  ‘Song Of The Pipsa Player’। पहली कविता में यांग -ग्यू -फे के सौंदर्य के उत्कर्ष तथा पतन के कथ्य को लेकर है। दूसरी है नाशपाती की आकृति की चीनी वीणा। कहते हैं कि पहली कविता को सदियों से कला समीक्षक उसे उत्कृष्ट कविता मानने को प्रेरित रहे हैं। हेन राजवंश के अन्य बड़े कवि जैसे हान यू तथा ड्यू फ्यू अपनी मृत्यु के समय तक अपनी कविता के लिये अपेक्षित प्रशंसा नहीं पा सके। जबकि जुई अपने जीवन काल से लेकर आज तक उतने ही लोकप्रिय, प्रासंगिक तथा अहम बने हुए हैं। उनकी काव्य कृतियों की तलाश चीन में ही नहीं बल्कि बाहर के देशों में भी बराबर बनी हुई है। उनकी मृत्यु के बाद उनकी कविता ने चीन के नये कवियों को बहुत प्रभावित किया है। जुई जब अपने रचना शिखर पर थे उस समय उनकी कवितायें चीन की दीवारों की शोभा बढ़ाती थी। कई मंदिरों में उन्हें सजाया गया था। वेदियों तथा समाधि स्थलों पर लगाया गया। पोस्टकार्डो पर उनकी पंक्तियाँ अंकित की गई। अचम्भे की बात है कि जुई की कविता को उच्च वर्ग से लेकर सामन्य जन तक पसंद करता था। सराहता था। यही नहीं किसान तथा युवा चरवाहे भी। स्त्री, वृद्ध, युवक और जो कोई भी जुई की कविता के लिये बेचैन रहते थे। अचंभित करने वाली बात है कि अधिक पैसा पाने के लिये ‘Song of everlasting Sorrow’ को तो वैश्याएँ तक गाती थी। क्योंकि जुई की कविताएँ गाने वाली स्त्रियों से वे अपने को अन्य तथा भिन्न गाने वाली चिड़ियायें समझती थीं। विदेशी प्रधान मंत्री अपने व्यापारियों को निर्देश देते थे कि जुई की प्रत्येक कविता को 100 स्वर्ण मुद्रायें दे कर उनके राज दरबार में ले आयें। विश्व के अन्य किसी कवि की कविताओं की इतनी माँग और लोकप्रियता शायद ही रही हो।

     
अपने जीवन काल में जुई बहुत ही तीखी व्यंग्य कवितायें लिखते रहे। अन्य किसी चीनी कवि ने इतनी व्यंग्य कवितायें नहीं लिखीं। एक उनकी बड़ी प्रसिद्ध और लोकप्रिय कविता है‘फसल की कटनई देखते हुए

मेरी दुनिया बहुत छोटी सी है
मेरे लिये कोई चिंता नहीं है
आराम से दिन कटते हैं
मंद मंद सैर करता
मैं खेतों की तरफ जाता हूँ
देखता हूँ अन्न का बड़ा सा ढेर
आस पास उसके बहुत सी
छोटी छोटी चिड़ियाँ
मारती हैं खोंट अपनी चौंचों से
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जब एक वृद्ध किसान ने
मुझे वहाँ देखा
बेहद प्रसन्न हुआ
मेरे कहे बिना ही
उसने पकाया भोजन
मुझे अभिवादन कर
न्यौता दिया खाने के लिये
खाने में वन से तोड़ा गया साग पात था
घर पर खिची दारू
बड़े आदर से उसने मुझे दिया प्याला
अपने खाली प्याला को रखते हुए
उससे मैंने पूछा उसका बंज व्यापार
उसने बताया
खेतों की बुबाई वह स्वयं करता है
फसल पकने पर
उसकी बीबी और बच्चे सब
उसकी सहायता करते हैं
रात दिन के श्रम से हो जाते हैं
थक कर चूर चूर
फिर भी कहाँ होती है मनचाही
रोटी नसीब
उसकी बातें सुन कर
मेरा सिर हुआ नीचा
कहाँ उगाई मैंने कोई फसल आज तक
पर खाया पिया है खूब अघा कर
नहीं किया कोई श्रम
इन हाथों से
फिर भी ऐश किये हैं जीवन में
जितने कि बुई के राजा के सारस
(कहते हैं कि बुई का राजा सारस पालने में इतना खो जाता था कि उसे दुनिया के दुख दर्द का कोई ज्ञान नहीं रहता था)
बाइ जुई की ये कवितायें आज भी हमारे मन को कितनी अपील करती हैं!

  
वे गरीबों, उत्पीड़ितों, अभावग्रस्त जनों तथा श्रमियों के प्रति कितने संवेदनशील हैं। उनकी तकलीफों को देख कर अपने सुख सुविधा पूर्ण जीवन को धिक्कारते हैं। वह सदा सर्वहारा का पक्ष लेते हैं। साथ ही अपनी विलासिता पर गहरी चोट करते हैं। इस प्रकार उनकी कविता में सामंती समाज की आलोचना के साथ आत्मालोचन भी भरा पड़ा है। यही उनकी कविता की ताकत है। गरीबों के प्रति निरी करुणा दिखा कर कविता में वह ताकत और पैनापन न आता जो अपने और जनता के जीवन के अंतर्विरोध दिखाने में आया है। इससे उनकी सचाई भी झलकती है। उनकी एक कविता है, लामनी होते देख कर

आखिर किसानों को कहाँ है अवकाश
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रात तेज़ हवाएँ चली दक्षिण से
अब पक कर सुनहला हो गया है गेंहूँ
खेत में लाई करते हुए
गठे युवकों को
छाक लाई हैं उनकी पत्नियाँ
बँहगियाँ लटकाये
पीने का पानी है मटकियों में
तेज़ झुलसती धरती की वजह से
श्रमियों के तलवों पर उठते हैं फफोले
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सब को एक बात की ही चिंता है
लामनी समाप्त होन से पहले ही
कही न हो जाये शाम
तभी मैंने देखा
एक गरीब स्त्री को आते
वह बच्चे को अपनी पीठ पर लादे थी
उसके सीधे हाथ में थी
गेंहूँ की कुछ बालियाँ
जो सिला में उसने बीनी थी
उसके बाँयें हाथ में थी छनी-टूटी टुकनिया
कान लगा के सुनी उसकी बातें
सब फसल तो चली जाती है लगान में
खेतों में सिला बीन-बान कर ही
होता है गुज़ारा रोटी का
मैं अपने आप को देखता हूँ
फिर विचार करता हूँ
मुझ में ऐसा क्या खास है कुछ
क्या हक है मेरा
जो दिये जाते हैं मुझे
तीन सौ मन धान
पेट भरने के लिये जरूरत से अधिक
बाकी बचाने के लिये बहुत ज्यादा
सुनता हूँ गरीब स्त्री की बातें
होता हूँ बेचैन
भूल नहीं पाऊँगा ये सब।

इस प्रकार के तीखे आर्थिक अन्तर्विरोध जुई की कविता में बराबर लक्ष्य किये जा सकते हैं। यह आत्मालोचन सिर्फ वाइ जुई का न होकर उस पूरी सामंती व्यवस्था पर प्रहार है जो दूसरों के श्रम पर पल कर गुलछर्रे उड़ाती है। उनकी एक कविता है, लगान वसूलना 

लगान उगाने वाले अफसर
आसामियों के दरवाज़े खटखटाते हैं
तुरंत लगान देने को धमकाते हैं
वे कल तक भी
नहीं कर सकते इंतज़ार
हम खलिहान में
दीपक और मौमबत्ती के उजाले में
श्रम में नधे रहते हैं रात रात भर
चलाते हैं दाँय
फटकते हैं दाने
जब तक वे चमकने न लगे
मोतियों की तरह
फिर तीन तीन सौ पसेरी
लादते हैं हर बैल गाढ़ी में
मुनीमों और मजूरों से
जल्दी जल्दी काम पूरा करने के लिए
मालिक जड़ते हैं उनको कोड़े –
बाद में कवि उस स्थिति से हमें परिचित कराते हैं जब वे स्वयं भी ऐसी सख्ती से पेश आते थे –
कभी मैं भी किया करता थी इसी तरह

पर उस किये पर
अब लज्जित हूँ
अब हृदय उतना पत्थर नहीं रहा
जो वैसी कठोरता दुहराऊँ
उन दिनों मैं एक अफसर था
पदोन्नत हुआ चार बार
अघाता रहा दस साल तक
चावलों से भर कर
$     $      $
उन दिनों में
जितना अन्न जमा किया मैंने
काश! वह सारा लौटा सकता आज।

ऐसे आत्मालोचन और स्वयं को कठघरे में खड़ा करना जुई की अपनी खूबी है। उनकी बेजोड़ शैली। ध्यान रहे उनकी मैं शैली उस सामंती तथा भद्र लोक को संकेत है जिसका वे स्वयं एक हिस्सा थे। जैसे मुक्तिबोध जब मध्यवर्ग की तीखी आलोचना करते हैं तो वे स्वयं को भी उसमें शामिल कर लेते हैं। जुई को अपने वर्ग की चेतना है। अतः वह आत्मालोचन से अपने को सर्वहारा के स्तर तक लाने का प्रयत्न करते हैं। लगता है जैसे वे गरीबों के दुख और अभावों से स्वयं बहुत दुखी है। अपने भद्र लोक की दुनिया में वे स्वयं को विघटित होते देखते हैं।
जुई की महानता इसी में है कि वह ऐसे सम्राटी-सामंती दौर में उस व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं जब कि उसके विरुद्ध कोई मुँह नहीं खोल सकता था। भारत में आज भी सामंतवाद है। उसकी गहरी साँठ गाँठ उत्तरोत्तर विकसित होते पूँजीवाद से है। दुनिया जानती है कि भारतीय लोकतंत्र में श्रमिक, बुनकर,  शिल्पी,  लकड़हारे,  छोटे किसान,  भूमिहीन खेत श्रमिक,  अन्य छोटे कर्मचारी तथा निम्नमध्यवर्ग सभी परेशान हैं। पर हमारी हिंदी कविता के लिये जैसे भारत भूमि पर सब कुछ सामान्य है। क्या हमारे कवि का यह सामाजिक दायित्व नहीं कि वह इन सामाजिक-आर्थिक अंतर्विरोधों को तल्खी के साथ व्यक्त कर स्वयं का आत्मालोचन करे! इसी प्रसंग में इतने प्राचीन कवि वाई जुई आज भी प्रासंगिक हैं। वह हमसे जुड़ते हैं। हमें दृष्टि देते हैं। उनकी कविता हमारे यहाँ की रूपवादी-कलावादी कविता पर तीखा व्यंग्य करती दिखती है। इससे लगता है कि यदि हमारी कविता समाज के तीखे अंतर्विरोधों को आत्मालोचन के साथ कहती है जो दीर्ध आयु भी होती है । उनकी एक कविता है तौज्यो के बौने। बहुत छोटे क़द के लोग। जिन में कुछ को प्रति वर्ष चुन कर गुलाम बनया जाता है। बड़े बड़े अधिकारी उन्हें उपहार की तरह स्वीकार करते हैं। जुई इस पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहते हैं –


बौने क्या कोई जिन्स है
क्या यह नैतिक है
आदमियों को दास बना कर रखना
कितने वृद्ध आँसू बहाते हैं
अपने नातियों को
रोती है कितनी माताएँ अपने शिशुओं को
मार्क्स की तरह,  पर मार्क्स से बहुत पहले जुई गरीबों के दुख तथा संताप की जड़ें अर्थनीति में मानते हैं। हर आदमी को मुद्रा बनाने की अनुमति तो होती नहीं। सम्राटों ने जनता पर करों का बोझ बहुत ज्यादा लाद रखा है। नकद कर बसूलने वाले बड़ी क्रूरता से जनता के प्रति व्यवहार करते हैं। मुद्रा की कमी की वजह से मंदी का दौर शुरू होता है। उससे गरीबी बढ़ती है। गरीबों को न अनाज न कपड़े। सामान्य जन भूखे मरने लगते है। जुई की एक कविता है, मित्र के लिये सलाह

हर आदमी को टकसाल की अनुमति नहीं है
फिर करों का कमर तोड़ बोझ क्यों हो
कर वसूली होती है जेठ और क्वार में
जनता को मजबूर किया जाता है
नकद कर देने के लिये
मुदा्र कम हो जाती है बाजार में
वस्तुओं के भाव गिरने लगते हैं
अतः गरीबी बढ़ती है
साल का अंत होते होते
अन्न और कपड़ों की होती है कमी
आम जनता मरने लगती है
भूख और शीत से।

जुई जीवन और श्रम के महत्व को कभी आँख ओट नहीं होने देते-

लिऔ का रेशम साधारण रेशम नहीं है
हज़ारों बार घुमानी पड़ती है तकली
तब जाकर एक फुट तैयार हो पाता है
जुलाहों के हाथ छिल जाते हैं
करघा चलाते चलाते –
बाद में कवि व्यंग्य की शैली में कहते हैं
अगर नर्तकियों को पता होता यह सब
तो वे जरूर ध्यान रखती
अपने परिधान पहनने का।
इसी तरह लाल कालीन कविता में अफसरों की विलासिता पर व्यंग्य है –

श्वांग्ज्यो के अफसरो
क्या तुम्हें मालूम है
ये सारी दिक्कतें
दस फ़ीट कालीन में भी
हज़ारों छटाँक रेशम लगता है
ज़मीन को हरगिज़ ठिठुरन नहीं लगती होगी
फर्श के ढकने की वजह से
लोगों के जिस्म से कपड़े न चुरायें
बेहतर है –
 
जुई की हर कविता में कोई न कोई ऐसा कथा सूत्र होता है जो हमें अन्त तक बाँधे रखता है। कई बार हम कविता को उसके अन्त तक पढ़ने के लिये इस वजह से उत्सुक होते हैं कि कहीं अन्त की एक पंक्ति ही सारी कविता का अर्थ खोलती है। कविता के मध्य में कवि के आत्म कथ्य भी होते हैं। कई बार जुई कई रूपकों का सहारा लेते हैं। कहीं कहीं लाक्षणिकता का। उनकी शैली अन्योक्तिपरक भर होती है। कहीं दृष्टांतपरक। कहीं प्रतीक कथा से युक्त। यही उनका काव्य कौशल तथा शिल्पविधान है जो उनकी सामान्य से सामान्य कहन को कविता में रूपांतरित करता है। मैंने अनुभव किया कि जुई पुरानेपन तथा वृद्धावस्था को बहुत ज्यादा यशस्वी तथा गौरव योग्य मानते हैं। उनकी अनेक कविताओं में यह बात लक्ष्य की जा सकती है जैसे वृद्ध संगीत वाद्ययंत्रवादक,  पुराना चोगा, शांगयांग महल की बुढ़िया, एक बूढ़ा कठकोयला विक्रेता,  तुलिंग का बूढा किसान, एक बुजुर्ग ने मुझे देखा,  पुराना घर,  ध्यान से इन बूढ़ों की कहानी सुनो, एक पुरानी कब्र,  एक सफेद बालों वाला बूढ़ा आदमी,  एक लंबा राजपथ सदियों पुराना,  पुराने समय में आदि। दूसरे,  बूढ़ों में वे संक्रिया तथा ऊर्जा के उमड़ते स्रोत भी दिखाते हैं। जुई कवि कर्म को दायित्वशील मानकर भी उसे अत्यंत कठिन कर्म मानते हैं – और अच्छी कविता अदमी की जरूरत हैयह बताते है –
…. कवि होना
बहुत ही जहरबुझा कर्म है
चाहों तो मुझे ही देखो
अभी चालीस भी पूरे नहीं किये
सारे बाल हो गये सफेद 

जुई यह भी मानते हैं कि कविता का बुनियादी प्रयोजन उपदेशपरक होना है। ऐसा उपदेश जो कविता में एक कालीन की बुनावट तथा पेंटिक के रंग संयोजन की तरह गुंथा बिंधा हो। वह कविता का एक जैविक अंतरग हिस्सा लगे। कोई थेापी हुई चीज़ नहीं। क्योंकि वह अपने समय के सामंती सम्राट शासकों को बताना चाहते थे कि उनके कारनामें जनता के दुखों के कारक हैं। सत्ता पक्ष कवियों को अपने नियंत्रण में रख उनसे ऐसे काव्य की रचना चाहता था जिनमें उनकी झूठी यशोगाथा हो। जिसे मंदिरों, सार्वजनिक स्थानों तथा सड़कों तथा दीवारों पर लगाया जा सके। जिसे पेशेवर गवैये जनता के सामने गा कर सत्ता के क्रूर काले कारनामों को ढक सकें। जिसे सत्ता की तरफ सें प्रकाशित करा के साम्राज्य के कोने कोने में वितरित किया जा सके। जुई से भी यही अपेक्षा की गई थी। पर जुई ने यह कभी स्वीकार नहीं किया। उन्होंने ऐसी कविताएँ ही रची जिनमें सत्ता की क्रूरताएं अफसरों की अमानवीयता तथा सर्वहारा के दुख दर्द व्यंजित हैं। कहा जाता है कि जुई ने एक किसान बुढ़िया पर एक कविता लिखी थी। उन्होंने उसे बुढ़िया को इसलिये सुनाया गोया कि वह उसे समझ सकती है या नहीं। इसीलिए जुई ने जन कवि होने का गौरव पाया है। चीन में जहाँ जहाँ वाइ जुई रहे वहाँ वहाँ उनकी स्मृति में शिलालेख हैं। उनके बारे में अनेक मिथक हैं। लोक कथाएँ हैं। इसके बावजूद उनका सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्मारक उनकी कविता ही है। जो उनकी स्फटिक जैसी साफ स्वच्छ दृष्टि को बताती है। उनकी सामाजिक चिंताओं से अवगत कराती है। अपनी जनता को वे कितना प्यार करते हैं पूरी कविता में उसकी अनुगूजें व्याप्त हैं। आज इस बात की जरूरत है कि उनकी समग्र कविता हमें हमारी भाषा में उपलब्ध हो सके। उससे हम कविता के लिये त्याग,  तप,  कर्मनिष्ठा तथा जोखिम उठाना सीखें। उन्होंने कहा है एक जगह –

कठिन और शक्तिशाली वस्तुएँ अच्छी लगती हैं मुझे
नरम और गुदगुदी वस्तुओं की अपेक्षा 
  

   

बाइ जुई क्रमशः बुद्ध दर्शन की ओर आकर्षित होते गये। बहुत बाद में वह अपने को सुगंधित पर्वत का संतकहने लगे थे। उन्होंने एक किसान का जीवन अपना कर खेती बाड़ी करना शुरू किया। खेतीबाड़ी के अनुभव ने उन्हें बताया कि दुनिया एक कार्मिक संबंधों का ही प्रतिफल है। कर्म तथा संक्रिया उनके जीवन में सदा ही प्रमुख रहे हैं। यही वजह है कि उन्होंने कभी अवसाद या हताशा का अनुभव नहीं किया। उनके उदास और अवसादग्रस्त न होने का एक प्रमुख कारण है उनका अपनी जनता, जड़ों तथा ज़मीन से गहरा जुड़ाव। उनकी कोई भी कविता ऐसी नहीं है जहाँ सामाजिक चिंताएँ, जीवन के प्रति अनुराग तथा प्रकृति के प्रति उनकी गहरी ललक दिखायी न दे। उन्हीं की एक कविता शीत लहरकी पंक्तियों से बात खत्म करता हूँ –

राजा के शासन काल के आठवीं साल
पाँच दिन रहे भारी बर्फवारी के
बाँस और देवदार तक मर गये
फिर उन लोगों की क्या कहें
जिन्हे कपड़े तक नसीब नहीं
मैंने जायजा़ लिया
तो दस में आठ परिवार थे बेहद गरीब
एक के पास भी देह ढकने को
न था कपड़ा
उत्तर की कटखनी शीत लहर
तलवार की तरह उन्हें छेदती थी
गाँव वाले कूड़ा करकट इकट्ठा कर
अलाव पर तापते
सब बैठते सटे सिकुड़े बटुरे
अलाव के चारों ओर
सब उदास भौचक्के
ऐसी तल्ख़ ठण्ड में
किसान और श्रमी ही दुख उठाते है
मैं अपनी तरफ देखता हूँ-
दरवसज़र बंद होता चाता है चौमुंद
निहारता हूँ अपने लिबासों को
जो बनी हैं नरम रोंयेदार खाल से
दोहरी तिहरी रेशमी रजाइयाँ
चाहे बैठूँ या लेटूँ
हमेशा रहता हूँ बड़े आनंद में
न भूख परेशान करती है न ठण्ड
न जरूरी है मुझे बाहर निकलना
न खेतों में काम करना
इन तमाम पर ध्यान करता हूँ
तो आती है शर्म अपने ऊपर ही
तब अपने आप से ही पूछता हूँ
मैं आदमी हूँ कैसा ।
     –0–

(विजेन्द्र जी हिन्दी के वरिष्ठ कवि एवं ‘कृतिओर’ पत्रिका के संस्थापक सम्पादक हैं।)
(आलेख में प्रयुक्त सभी पेंटिंग्स मशहूर चित्रकार वान गॉग की  हैं, जिसे हमने गूगल से साभार लिया है।)

मोबाईल – 09928242515

विजेंद्र

वागर्थ के दिसंबर अंक में ‘लॉन्ग नाइन्टीज’ जैसे एक नवगढ़ित टर्म पर वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी का यह सुविचारित आलेख हम ‘पहली बार’ पर प्रस्तुत कर रहे हैं। बिना किसी टिप्पणी के सीधे यह लेख आपके लिए विशेष तौर पर प्रस्तुत है।

आज की हिंदी आलोचना  का गिरता स्तर               

मैं कई बार कह चुका हूँ कि खराब आलोचना खराब कविता से ज्यादा खतरनाक है। हानिकारक भी। खराब कविता जब हमारे सामने आती है तो हम उसे छोड़ दूसरी चीज़ पढ़ने लग जाते हैं। कविता का अच्छा बुरा कोई असर हमारे चित्त पर अंकित नहीं होता। यदि होता भी है तो इतना धुँधला कि स्मृति उसे पकड़ नहीं पाती। पर आलोचना में पाठक का पूर्व निर्धारित विश्वास होता है कि जो बात यहाँ कही गई है खूब जाँच- परख कर ही कही गई होगी। क्योंकि आलोचक से अपेक्षा ही यह होती है। यह भी सही है कि किसी समय में बड़े से बड़ा कवि अपने समय की आलोचना से असंतुष्ट रहा है। इस सबके बावजूद ईमानदार आलोचक रहे हैं। हैं। रहेंगे भी। अंग्रेजी के महान क्लैसिकल समीक्षक डा0 जानसन का विचार है – मेरे खयाल से बहुत कुछ सही भी है -कि ‘समीक्षा का बड़ा दावा यह है कि  वह आधुनिको (ध्वनि है नये) लेखकों का छिद्रान्वेषण करती है। प्राचीन प्रतिष्ठित लेखकों की खूबियों का बखान। जो लेखक अभी जीवित हैं उनकी क्षमताओं का आकलन हम उनकी दुर्बलतम कृतियो से करते हैं। जब वे नहीं रहते तो उनकी परख उनके श्रेष्ठतम कृतित्व से होती है। जानसन की इन सब बातों में सत्य की व्यंजना है। इसका साफ अभिप्राय है कि कवि-समीक्षक विवाद भारत में ही नहीं पूरे विश्व के साहित्य में जीवित है। यहाँ अपनी बात साफ कर दूँ कि मैं उन बड़े ईमानदार सच्चरित्र समर्पित समीक्षकों की बात नहीं कर रहा जो हर स्थिति में सच बोल कर जोखिम उठाने को अपना जीवन तक दाँव पर लगा देते हैं। जैसे हर समय में प्रमुख कवि और समीक्षक होते हैं। गौण भी। प्रमुख कवि तथा समीक्षक हर समय में विरल होते हैं। गौण बहुतायत में। ऐसे में आलोचना का दायित्व बहुत बढ़ जाता है कि वह कवि का चयन, काव्य स्थापना और मूल्यांकन में अपने को सही साबित करे। ईमानदार भी।

पिछले दिनों ‘वागर्थ’ का अंक २०९ , दिसम्बर , २०१२ देखने को मिला। अंक की प्रमुख सामग्री है ‘1980 के बाद की कविता’। पूरी बात कहने को आठ सवालों में समेटा गया है। अनेक कवियों ने अपनी अपनी तरह से 80 के बाद की कविता के बारे में विचार रखे हैं। क्या यहाँ यह नहीं पूछा जा सकता कि 80 के बाद की ही कविता क्यों? 70 के बाद की कविता से चर्चा क्यों नहीं? मेरे खयाल से 70 के दशक से ही ‘नई कविता’ को हमने ‘समकालीन कविता कहकर उसे बड़े सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की पहल की थी। बकौल प्रख्यात मार्क्सवादी समीक्षक डा0 आनंद प्रकाश के ‘ सत्तर के दशक की खासियत थी उन सवालों को उठाना जिनका संबंध ‘ विचारों, मूल्यों और आदर्शों के व्यापक चरित्र’ था। यही नहीं बल्कि कविता में ‘ सामाजिकता का महत्व फिर से रेखांकित’ होने लगा था। आनंद प्रकाश का यह भी मानना है कि इस दशक में ‘ हिंदी कविता के पूँजी केंद्रित मूल्यों के समर्थक स्वरों का मनोबल निर्णायक अंदाज में तोड़ा’ गया। वे मानते हैं कि इस दशक में कविता के कथ्य में ही परिवर्तन नहीं हुआ बल्कि ‘फार्म के स्तर पर भी कुछ नई चीज़े उभरने’ लगी थी। जबकि 80 के बाद की कविता में ऐसा कोई विशेष मोड़ नहीं दिखाई देता। बल्कि कविता में जो सामाजिक -राजनीतिक चिंतन और फार्म में नयापन उभरा था उसको कुंद करने की कोशिश है।
  

                                                                                                                    
  80 – 90 के दशक की कविता के बारे में डा० आनंद प्रकाश का बड़ा प्रामाणिक तर्क है कि ‘कविता में यहाँ फिर से शासकीय कला मूल्यों और विचारों की सक्रियता बढ़ी है। आगे वह कहते है कि 80-90 के दशकों की कविता ‘पूरी तरह आत्मकेंद्रित’ है। उसका प्रतिरोधी स्वर मुरझाया हुआ है। यहाँ तक कि इन कवियों को, ‘ न तो अपने समय से खतरा है, न तंत्र से ओैर न सत्तारूढ़ सामाजिक ताकतों से। उनका व्याकरण भी व्यावसायिक है। पुरस्कार, प्रतिष्ठा और महत्व को समर्पित इस काव्य रचना का चरित्र तब अचानक ही स्पष्ट होता है जब हम उसे सत्तर की कविता के साथ रखते हैं। (‘समकालीन कविता: प्रश्न और जिज्ञासायें’, 1911)  मज़े की बात यह कि परिसंवाद में भाग लेने वाले एक कवि ने जोर देकर कहा है कि, ‘1985 के बाद के कवियों ने ऐसा कोई तीर नहीं मारा जिसकी स्तुति की जाये’ ( पृष्ठ 40)। मेरा मानना है कि बिना 70 के दशक की काव्य तथा सामाजिक पीठिका समझे 80 के बाद की कविता को बेहतर नहीं समझा जा सकता। उसी तरह जैसे आदिकाल को बिना समझे हम संत साहित्य के महत्त्व को नहीं समझेंगे। रीतिकाल को बिना समझे क्या हम छायावाद का सही मूल्यांकन करने में कामयाब हो पायेंगे ?

क्या वजह है कि सत्तर  के दशक की अनदेखी सभी बुर्जुआ  तथा ‘तोता रन्टत’ पेशेवर समीक्षकों ने की है ? डा0 आनंद प्रकाश, डा0 रेवतीरमण, डा0 जीवन सिंह, डा0 रमाकांत शर्मा तथा डा0 अमीरचंद वैश्य आदि कुछेक लोकधर्मी समीक्षक हैं जिन्होंने सत्तर के दशक को सप्रमाण बड़े फलक पर समझ कर उसे पुनः व्याख्यायित किया है। ‘कृति ओर’  से जुड़े सजग-सचेत लेखकों तथा पाठकों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे इस सोची समझी साहित्यिक साजिश को समझें कि आखिर वे कौन से कारक हैं जिसके चलते बुर्जुआ तथा ‘तोतारटन्त’ पेशेवर समीक्षकों ने सत्तर के दशक की उपेक्षा इतने लंबे समय तक की है? आज भी कर रहे हैं! क्या वे ऐसा कर भी पायेंगे?

‘वागर्थ’ सेठाश्रित – बुर्जुआ मिजाज़ की पत्रिका है। यह अकारण नहीं है कि उसमें भी कविता पर परिसंवाद सत्तर के दशक को छेक के किया जा रहा है। क्या यह फिर से कविता को समाजनिरपेक्ष बनाने का सोचा समझा उपक्रम तो नही। सेठाश्रित पत्रिकायें सदैव ही कविता को अग्रगामी विचार रहित तथा चिंतन विमुख बनाने को सक्रिय रही हैं। ! मदन कश्यप को यदि छोड़ दें तो अधिकांश कवियों के स्वर कविता में गहन चिंतन तथा विचारधारा से कतराते से लगते हैं। जोर है कवि की ‘पूर्ण स्वायत्तता’ पर। मनमौजी ढंग से अपने मनोरंजन को कविता लिखना। मार्क्स को एक रूढ़ि समझ उससे औपचारिक दूरी बनाना। दूसरे बड़ी चतुराई से लोक की संघर्षधर्मी परंपरा को गड्डमड् करके उसे उत्सवधर्मी बनाने की भी कोशिश की गई है। इससे लगता है कि बुर्ज्रुआ पत्रिकायें बड़ी चतुराई से यह काम कर पा रही हैं। यह खेल इतना पेचीदा है कि हमारा नया लेखक आसानी से समझ नहीं पाता। ये पत्रिकायें कुछ लेखक संपादको के सहयोग से पहले लेखकों को अनेक आकर्षण देती है। जैसे नये लेखकों के कविता संकलन छापना। उन्हें पुरस्कृत करना। फिर धीरे धीरे निस्तेज कर उन्हें अपनी शर्तो पर ले आती हैं। ऐसा काम कुछ बड़े बड़े प्रकाशक भी अपनी संस्थागत पत्रिकाओं से कुछेक लेखकों द्वारा करवाने में लगे हैं। सेठाश्रित बुर्जुआ पत्रिकाओं का संपादक मालिक की राय से चलने को ‘बेचारा’ विवश है। कहने को हम चाहें कितनी ही स्वायत्तता की बड़ी बड़ी बात कहें! पर मालिक को खुश तो रखना ही है। इससे उनके लेखन की धार भी बेहद कुंद और यथास्थिति पोषक होने लगती है। बुर्जुआ पत्रिकाओं के संपादक भारतीय मुक्ति संग्राम की अधूरी छूटी क्रांति को अग्रसर करने में लेखकों को प्रेरित करेंगे यह असंभव है! हिंदी के लेखक की बड़ी भारी मजबूरी है। वह इन भड़कीली पत्रिकाओं में छपने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। यह स्वाभाविक भी है। हर नया लेखक आखिर प्रकाशन क्यों नहीं चाहे? हरेक लेखक इससे बचने का संघर्ष भी नहीं कर सकता। जब उसे ध्यान आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। मैंने अनेक लोकधर्मी -जनपक्षधर कवियों तथा समीक्षकों को राख होते देखा है! क्या करें पूँजी की विश्वमेाहिनी चमक ही ऐसी है। अच्छे-अच्छे सुनाम धन्य मार्क्सवादी भी इस विश्वमेाहिनी विषकन्या से नहीं बच पाये!

80 के बाद की कविता पर चर्चा के लिये उन्हीं को चुना है जो बहुत कुछ संपादक और पत्रिका के मिजाज़ को निभा सकें। ज़्यादातर उन कवियों ने ही परिसंवाद में हिस्सा लिया है जो किसी न किसी तरह सत्तर के दशक को चर्चा से किसी तरह बाहर रख पायें। बेहतर तो यह होता कि इन प्रश्नों के उत्तर प्रौढ़ तथा ईमानदार आलोचकों से पूछे जाते। या ऐसे लोगों से जिनका ताल्लुक इन प्रस्तावित दशकों से प्रत्क्षतः नहीं है। इससे क्या यह ध्वनित नहीं निकलती कि हमें या तो आज के आलोचको पर कोई भरोसा नहीं रह गया है! या आलोचना का स्तर इतना गिर गया है कि हम उससे किसी ईमानदार विश्लेषण -परीक्षण की उम्मीद नहीं कर सकते! अन्यथा ऐसा क्या था कि हम कवियों से ही वे निर्णय लेने को कह रहे हैं जिन्हें वे तटस्थ और निस्पृह होकर नहीं दे सकते! हमारे देहात में एक कहावत है, ‘बेई छिनरा, बेई डोली के नीचे’। मुझे लगा अधिकतर, कुछ अपवाद जरूर हैं,  कवियों को  हिंदी कविता की उत्कृष्ट काव्य परंपरा के विकास की चिंता न होकर अपनी चिंता ज्यादा है। इस पूरे परिसंवाद से हिंदी पाठकों में अनेक विभ्रम और अलगाव की प्रवृत्ति जन्म लेगी। अनेक कवियों ने तर्क से कम अपनी निजी रुचि से काम लिया है। अनेक ने तथ्यों की परवाह न कर मनसुहाती बातें कही है। पत्रिका के संपादक ने स्वयं,  ‘दशकवार विभाजन को गलत’ बताया है। जब बुनियाद ही गलत है तो उस पर खड़ा किया गया स्थापत्य सही कैसे हो सकता है! जब वाद ही गलत है तो सही प्रतिवाद कैसे मुमकिन होगा। कहते हैं कि सही सवालों के गलत जवाब हो सकते हैं। पर गलत सवालों के सही जवाब मुमकिन नही। इससे यह भी ध्वनित है कि नई पीढ़ी में इतना आत्म विश्वास नहीं कि वह अपने मूल्यांकन के लिये संयम और अनुशासित होकर प्रतीक्षा कर सके। कविता का मूल्यांकन पत्रिका के रंगीन पृष्ठों पर छपे चित्रों से नहीं होता। उसके लिये संघर्षपूर्ण लंबी काव्य यात्रा तथा उत्कृष्ट रचना के प्रति समर्पण के साथ धैर्य रखना पड़ता है। कई नये कवियों को मैंने झुँझलाते  सुना है कि ‘उनकी चर्चा ही नहीं’ हो रही’ !  मेरे खयाल से यदि हमारा ध्यान उत्कृष्ट लेखन पर इतनी  व्यग्रता से केंद्रित हो तो लेखन समृद्ध होगा। मेरा अपना लंबा अनुभव है कि उत्कृष्ट, मौलिक तथा जनपक्षधर लेखन का मूल्यांकन देर सबेर जरूर होता है। यह भी कि कुछ लोगों को दबा के या हाशिये पर ढकेलने से उनके ऊर्जस्वी विकास को न तो आलोचक की उपेक्षा रोक सकती है। न बुर्जुआ पत्रिकाओं की बेरुखी।

और यह ‘लोंग नाइन्टीज़’ किस चिड़िया का नाम है। हास्यास्पद, अनर्गल और नकल।

जिन चीज़ों को योरुप  कचरा पात्र में फेंक देता है उसे हम मोती समझ कर चुन लेते हैं। कुछ लोगों ने ऐसी हिंदी लिखी है जिसे समझने को हमें कामिल बुल्के का अंग्रेज़ी-हिंदी कोश देखना पड़ेगा। ऐसे कवि हिंदी कविता को क्या दे पायेंगे जो अपनी भाषा ही ठीक से नहीं लिख पाते! इससे वे हिंदी भाषा की दद्रिता साबित करने के सिवाय और कुछ नहीं कर रहे! क्या इन प्रश्नों में कुछ ऐसे प्रश्न नहीं जोड़े जा सकते थे जिस से कवि कर्म, कविता- कवि की तैयारी, अपनी परंपरा तथा कवि आचरण के बारे में भी हम गंभीर हो सकें। मुझे इस परिसंवाद से यही लगा कि हमें न तो अपनी सुदीर्घ काव्य परम्परा की चिंता है, न बड़े राजनीतिक – सामाजिक सरोकारों की! न अपने अत्यंत समृद्ध काव्य शास्त्र की। सबसे ज्यादा खटकने वाली बात है कि किसी कवि को अपने मुक्तिसंग्राम की अधूरी छूटी क्रांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं है। उन ऐतिहासिक शक्तियों की भी अनदेखी है जो हमारी सामाजिक गतिकी को अग्रसर करने का संघर्ष कर रही हैं । प्रश्नों में ऐसा भी कोई संकेत क्यों न हो जिससे हम कविता को समाजिक रूपांतरण में एक अस्त्र की तरह प्रयुक्त कर सकें। जिन बातों को या तो गलत समझा गया या जो महत्वपूर्ण हैं पर जाने अनजाने छोड़ दिया गया उस पर मैं बाद मे चर्चा करूँगा।

फिर भी कुछ लोगों  ने बहुत अच्छी बाते कही  हैं जिन पर आगे चर्चा की संभावनायें मुखर हैं। मसलन एकांत ने कहा है कि, ‘कला और कविता के संसार में प्रायः घुसपैठियों की भरमार होती है, जो नहीं जानते वे क्या लिख रहे हैं। सम्पादक छाप रहे हैं और आलोचक वाह वाह कर रहे हैं, तो वह कविता है। समकालीन परिदृश्य में कोई निंदक नहीं। कोई अपनी कमी देखना सुनना चाहता भी नहीं। साहित्य का संसार बहुत जोड़ तोड़ का हो गया दिखता है। यह आधा सच है। क्योंकि साहित्य में जोड़ तोड, बदनीयती, समीक्षकों कीं बेईमानी,  साहित्य के सामंतों की घटिया कारगुज़ारी आदि का तीखा विरोध भी हुआ है। हो रहा है। उसकी निंदा भी बराबर हुई है। जहाँ विरोध हो रहा है और जिसमें एकांत सहयोग नहीं कर रहे उसे भी रेखांकित करना चाहिये था! एकांत से मेरा विनम्र प्रश्न हैं कि क्या उन्होंने कभी ऐसी विकृतियों को साहस से बेनकाब किया है ? वह चाहते तो क्यों नहीं कर सकते थे ! क्यों नहीं किया मुझे नहीं मालूम । जिसे वह सच मानते हैं उसे कहने से क्यों कतरा रहे हैं ?  यदि नहीं तो इस तरह की आपत्तियोँ हमे ही कमज़ेार साबित करेंगी! लीलाधर मण्डलोई ने मार्क्सवाद से अनभिज्ञ लेागों को यह कह कर बेहतरीन जवाब दिया है कि, ‘ मार्क्सवादी दर्शन जड़ नहीं है। उसमें सिर्फ समाज ही नही अपितु समूची विश्व दृष्टि के प्रति भी वैचारिरक सरोकार है। मण्डलोई के इस कथन से कदाचित अनामिका जी कुछ सीख पायें! उन्होंने ‘वंचित के स्वाभिमान’ का ‘मार्क्सवाद को घमण्डी शत्रु’ बताया है। अनामिका जी, आपकी सदभावनाओं का आदर करते हुये भी समाज में वर्ग-मित्र हैं, तो वर्ग-शत्रु क्यों नहीं होंगे! जिस ‘वंचित’ की आप बात कर रहीं हैं वही तो मार्क्सवाद की शक्ति है। वही उसका नायक। मार्क्सवाद में ही उसका स्वाभिमान सर्वाधिक सुरक्षित है। आपके सामने दिल्ली दरबार में आये दिन इन्ही वचंकों का क्रूरता से अपमान-दमन होता है। क्या आपकी या आप जैसों की कविता में एक भी पंक्ति इसके प्रतिरोध मे खड़ी होती है! यदि नहीं तो वंचकों की इस दिखावटी हमदर्दी का कोई मूल्य नहीं! आदमकद शीशे के सामने खड़े होकर कविता लिखना बेहद आसान है। पर अन्याय तथा उत्पीड़न के विरुद्ध बोलने को जोखिम उठाना पड़ता है। काश एक भी पंक्ति आपकी कविता मे वचितों के स्वाभिमान की रक्षा के लिये होती। ….दिल्ली दरबार आपको … सबको मुबारिक!

कवि मदन कश्यप ने दशकों में विभाजित करके कविता पर विचार करने पर बड़े सार्थक सवाल खड़े किये है। उनका कहना है, ‘ अगर नामकरण आठवाँ दशक, नौवाँ दशक किया गया हो, तो उन पर बात करते हुये हमे उस काल खण्ड में प्रचलित सभी प्रवृत्तियों की चर्चा करनी होगी।’ और कमोवेश उन्होंने अपने इस कथन का अपने वक्तव्य में निर्वाह भी किया है। एक और महत्वपूर्ण बात उन्होंने कही है कि, इधर के समय में ‘ व्यापक वाम एकता आधार बना और हाशिये के लोगों को वर्गसंघर्ष के दायरे मे लाने की नयी दृष्टि मिली। लोक-संवेदना को वर्ग से अलग और अवैज्ञानिक मानने का वैचारिक हठ कमज़ोर पडा। और किसानों–आदिवासियों के संघर्षों को कविता में फिर से जगह मिली। मदन जी यहाँ सोचना यह होगा कि क्या यह प्रमुख प्रवृत्तियाँ केवल 80 या 90 के बाद उभरे कवियों में ही थी? क्या 70 में प्रतिष्ठित या उस समय उभरे कवि इन प्रवृत्तियों को प्रचुरता से कविता में व्यक्त नहीं कर रहे थे? बल्कि 80 के बाद उभरे तथा ज्यादातर तथाकथित प्रतिष्ठित कवियों में यह उभार फीका ही था। अधिकाश में लोक का मनोरंजक रूप अधिक था। उसका संघर्षधर्मी रूप बहुत कम। जबकि आज जरूरत लोक के उसी संघर्षधर्मी रूप को बहुतायत से दिखाने की है। तभी हम अपने मुक्ति-संग्राम की अधूरी छूटी क्रांति प्रक्रिया को अग्रसर कर पायेंगे। जनशक्ति का ऐसा उभार मुझे उक्त दशकों में उभरे किसी कवि में दिखाई नहीं देता। लोक की छायाप्रतीति की झलक तो मिलेंगी लेकिन सार तत्व नहीं।

विमल कुमार ने अनेक विचारोत्तेजक सवाल उठाये हैं। जैसे ’आलोक धन्वा भी एक संग्रह के कवि’ बन कर रह गये।….मंगलेश डबराल आजकल ‘जनसंस्कृति मंच’ में जरूर हैं, पर उनकी कविता का मिजाज़ वह नहीं है जो गोरख पाण्डे की कविता का है। उनके यहाँ शिल्प सजगता अधिक है। इसलिये कई बार उनमें रूपवादी रुझान भी दिखाई देता। राजेश जोशी में ‘आत्म-संघर्ष नहीं’ है। वह भी अब ‘ चाँद की वर्तनी’ लिखने लगे हैं। आगे उन्होंने कवियों की पुरस्कारों के लिये जोड़ तोड़ करते रहने की ललक पर व्यंग्य किया है। कहा है, ‘दरअसल हिंदी कविता की उड़ान भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से लेकर साहित्य अकादमी पुरस्कार तक की है।’ यह एक ऐसा सत्य है जो कवि के आचरण से जुडा हुआ है। क्या एक कवि को अपने सदाचरण से यह सिद्ध नहीं  करना चाहिये कि पुरस्कार आदि की भव्यता उसके लिये बहुत ही गौण है। प्रमुख है गहरे सामाजिक सरोकार। अपना उत्कृष्ट लेखन। समाज के प्रति उसका गहन दायित्व! पर देखा गया है कि बहुत सारे कवि इतने ‘बेचारे’ हैं कि वे पुरस्कार समितियों में प्रतिष्ठापित सदस्य कवियों-लेखकों की चारणों जैसी प्रशंसा करते नहीं थकते।  उन्हें पता है कौन कौन पुरस्कार दिला सकता है। कौन कौन विदेशी यात्रायें करा सकता है -यदि कोई संपादक है तो वह उन्हें सिर पर बैठायेगा। उनके विरुद्ध सच को भी नहीं छापेगे। उन्हें किसी तरह परामर्श मण्डल में रखेगा। उन्हें जोर जबरदस्ती अपने समय का अत्यधिक महत्वपूर्ण कवि बतायेगा। यानि हर तरह की चाटुकारिता से वह अपने ईमान को गिरवी रखने को तैयार है! इसी संदर्भ में विमल कुमार ने फिर आचरण का बुनियादी सवाल उठाया है कि ‘आठवे दशक के कवि मुक्तिबोध का नाम जरूर लेते हैं, पर मुक्तिबोध की तरह ‘आत्मसंघर्ष’ नहीं करते। अगर आप में कुटिलता, चतुराई है तो आप आत्मसंघर्ष नहीं करगें। यह साहित्यिक बेईमानी भी कविता में दिखाई देती है। आप जैसा भी है कविता लिखें। पर पहले आप ईमानदार तो हों अपने प्रति और शब्दों के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े तो हों।….. इसीलिये ‘विलक्षणतावादी कवितायें अधिक लिखी जा रही हैं। कविता को पहेली बनाने की कोशिश भी कई कवियों ने की है। विमल कुमार का वक्तव्य बहुत कड़वी सचाई को कह रहा है। पर कैसा अंतर्विरोध है कि हिंदी के सबसे अधिक ‘चमत्कारवादी’ कवि केदारनाथ सिंह तथा तर्कहीन बौद्धिक, अमूर्त अध्यात्म-नवरहस्यवादी कवि कुँवरनारायण को वह ‘पूर्ण’ कवि -व्यक्तित्व प्राप्त’ कवि मानते हैं। जैसा मैंने कहा किसी गहरी बैठी मनोग्रंथि की वजह से हम कई बार सच कह कर भी उसे काट देते हैं। हाँ विमल कुमार जी बेईमान और बेशर्म कवि ही नहीं है, अनेक आलोचक भी है।

मैं जनवादी-प्रगतिशील आलोचना की बात कह रहा हूँ। इधर के दिनों में जनवादी आलोचना की दुनिया में दो बड़े हादसे घटित हुये हैं । एक तो बहुत ही दमदार प्रतिभा संपन्न ,निर्भय तथा ईमानदार मार्क्सवादी आलोचक डा0 कर्ण सिंह चौहान का साहित्य क्षितिज से एकाएक लुप्त हो जाना। जब उनकी क्लैसिक कृति ‘आलोचना के मान’ में आई तो हिंदी जगत में एक साहित्यिक भूचाल सा आ गया था। हमने समझा कि हिंदी को अब डा0 रामविलास शर्मा का सही उत्तराधिकारी प्राप्त होने को है। कर्ण सिंह चौहान की अनुपस्थिति से जो रिक्ति पैदा हुआ है उसे हम आज तक नहीं भर पाये। डा0 आनंद प्रकाश ने हमें एक बार फिर प्रामाणिक, ईमानदार तथा वैचारिक दृष्टि से पुष्ट जनवादी समीक्षा का भरोसा दिलाया है। दूसरा बड़ा और त्रासद हादसा है अजय तिवारी का पतन। अंग्रेजी में एक मुहावरा है ’पोयटिक जस्टिस’। शेक्सपियर के दुंखांत नाटकों के संबंध मे यह प्रयुक्त होता है। यानि खलनायक को दण्ड मिलना चाहिये।….वैसे मैं अजय के लेखन से कभी प्रभावित नहीं हुआ। उनमें एक खास किस्म की ‘स्नॅाबरी’ यानि एक ‘वर्गदंभ’ बराबर झलकता है। उनके लेखन से मैंने जाना कि-कई अपने मित्रों से कहा भी -अजय तिवारी एक ईमानदार तथा भरोसे के आलोचक कभी नहीं हो पायेंगे! वह बात अब सच होने को है! इस अंक में उनका आलेख पढ़ कर मुझे बड़ी निराशा हुई। मैं कुछ बातों को यहाँ रखता हूँ। एक तो वह ‘लोक’ के बारे में बिल्कुल उलझे हुये हैं। मुझे संदेह है कि यह उनकी अज्ञता है। या किसी व्यूहरचना के तहत ‘लोक‘ के सही रूप को विकृत करने कराने की बुर्जुआ साजिश। यह कहना कि 80 के बाद ‘कवि लोक संवेदना की तरफ आये’ हैं। यह कथन 80 के बाद की सभी कविता पर लागू नहीं होता। यदि थोड़ी घनी कही लोक की झलक है भी तो वह है उसका ‘उत्सवधर्मी’ रूप। लोक का संघर्षधर्मी और जरूरी रूप प्रमुखतः गायब है। दूसरे अजय लोक को नगर और गाँव में बाँटते हैं। यह गलत है। विवेकहीन भी। उन्होंने इस प्रसंग में केदारनाथ सिंह का उदाहरण दिया है कि वह ‘लोक संवेदना से नगर संवेदना की ओर’ गए हैं। इसका मतलब हुआ कि लोक सिर्फ देहात में है। यही नहीं वह कहते हैं कि ‘नगर जीवन कब से लोक का अंग’ हो गया‘। फिर वह लोक को ‘अमूर्त’ भी कहते हैं। उनके लिये लोक ‘किसान जीवन का आधार’ लिये नहीं है। लेकिन पूरे लेख में यह साफ नही है कि लोक अखिर है क्या ? प्रख्यात मार्क्सवादी समीक्षक चंद्रबली सिंह ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक, ‘लोकदृष्टि और साहित्य’ (1956 ) की भूमिका में एक वाक्य दिया है, ‘साहित्य की महाप्राणता लोक जीवन में है। हिंदी साहित्य का इतिहास इसका अपवाद नहीं।’ इस वाक्य की ध्वनि है कि जीवंत तथा प्राणवंत साहित्य बिना लोक के संभव नहीं है। आचार्य भरत तथा अभिनवगुप्त का भी इधर संकेत है। दूसरे, लोक के अनेक अर्थ हैं। उसका एक अर्थ ‘जन’ यानि सामान्य जनता भी है। जन का उलट होगा प्रभु जन। कुलीन जन। यह भी जाने कि हमने लोकतांत्रिक संविधान की जब संरचना की तो उसके आमुख में तीन जीवन मूल्यों पर जोर था। पहला, समाजवाद, दूसरा, लोकतंत्र, तीसरा, धर्मनिरपेक्षता। यह बात अलग है कि हम मुक्तिसंग्राम के संकल्पों तथा अधूरी छूटी क्रांति को तार्किक परिणति तक नहीं पहुँचा पाये। ध्यान देने की बात है कि लोक को जब हम तंत्र से जोड़ रहे थे उस समय हमारे मन में भारतीय समाज का दलित, शोषित, पीड़ित, उपेक्षित तथा बहुल संघर्षधर्मी जन ही था। क्योंकि हमने बड़े बड़े राजाओं, नबावों तथा सामंतों को समाप्त करने की कोशिश की है। भारतीय दलित तथा शेांषित वर्ग के उन्नयन के लिये संवैधानिक अधिकार दिये हैं। इससे लगता है लोक का एक वर्गीय आधार है जिसमें वे सभी जन आते हैं जो अपने श्रम पर जीवित हैं। जिनका दमन होता है। मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के अर्थ में कहें तो ‘सर्वहारा’। सही अर्थों में आज लोकतांत्रिक कवि वही कहलायेगा जिसका समग्र साहित्य लोक या जनता अथवा सर्वहारा को समर्पित है। तो लोक फिर अमूर्त कैसे ? हाँ बुर्जुआ सोच के लोग उसका अमूर्तन जरूर करते रहे हैं। दूसरे अर्थ में अपने साहित्य को लोक के लिये समर्पित करके ही हम लोकतांत्रिक जनवादी, प्रगतिशील या लोकधर्मी संस्कृति की रचना कर सकते हैं। इस विश्लेषण से यदि हम लोक को सामान्य जन या अतिसामान्य जन से जोड़ते हैं तो लोक को गाँव और नगर में विभाजित करना फिर प्रतिक्रियावादी साजिश नही तो और क्या! संघर्षशील सामान्य जन या सर्वहारा गावँ में भी है। शहर में भी है। देखने को पकी संवेदनशील आँखें चाहिये। आज ऐसा चलन-प्रचलन बहुत सामान्य है कि कुछ तथाकथित पथभ्रष्ट पेशेवर समीक्षक इसी प्रकार विभ्रम फैलाकर कुलीन प्रभु वर्ग की सेवा कर रहे हैं। कोई भी ईमानदार, सच्चिरत्र तथा संजीदा लेखक क्या अजय तिवारी के पतन के बाद उनके बड़े बड़े फतबों पर यकीन करेगा? मुझे संदेह है! जिस आदमी को लोक की अवधारणा ही साफ नहीं वह लोक में प्रगतिशील या प्रतिक्रियावादी तत्व कैसे तलाश करेगा? अजय ने लोक में ‘बड़ी कमज़ोरियों’ की बात भी कही है। यदि मार्क्सवादी पथभ्रष्ट हो सकते हैं वैसे ही लोक में भी बहुत सी मानवीय कमज़ोरियाँ हो सकती हैं। जैसे अंतर्विरोध कुलीन और प्रभु वर्ग में होते हैं वैसे लोक में भी होंगे। पर इससे उसके संघर्षशील स्वभाव पर आँच कहाँ आती है! इससे यह बचकानी अवधारणा निर्मूल होती है कि लोक गाँव और शहर में विभाजित है। जहाँ भी सर्वहारा और श्रमशील सामान्य जन की उपस्थिति है वहाँ लोक होगा। उसका परिवेश भी होगा। उसका संघर्ष भी। उसकी खूबियाँ और कमज़ोरियां भी। अतः लोक एक वैश्विक प्रतिरोधी शक्ति है। वह क्रूर, दमनकारी उत्पीड़क सत्ता के विरुद्ध खड़ी होती। संघर्ष करती है। लोक के बारे में एक बात यहाँ और कहना जरूरी है कि हमारा पूरा मुक्तिसंग्राम लोक ने ही लड़ा है। उस समय कोई प्रांत ऐसा नहीं था जहाँ अंग्रेज़ों के विरुद्ध आदिवासी, श्रमिक, छोटे किसान तथा अति सामान्य जन कुर्बानियाँ न दे रहे हों। मसलन क्रांतिकारी बिरसा मुण्डा (झारखण्ड), वनवासी पुंजा भील(राजस्थान), वीर तिलका माँझी (संथाल क्रांति), वनवासी किसान (केरल क्रांति), वीर भागो जी नायक(नासिक विद्रोह), विप्लवी आदिवासी(जगदलपुर) आदि। लोक का यह संघर्षधर्मी रूप इतिहास में आद्यंत जीवित है। यह संघर्ष अनेक स्तरों पर आज भी जारी है। बल्कि इसमें संगठित सर्वहारा और शामिल हुआ है। अगर यह दुर्धर्ष संघर्ष ही अजय तिवारी के लिये अमूर्त दिखता है तो फिर मूर्त क्या है? हमें इस पर गंभीरता से ध्यान देना होगा कि इतिहास तथा साहित्य में लोक के इस संघर्षधर्मी रूप को हम क्यों आँख ओट किये रहे! और आज फिर वही कोशिश जारी है! किसी भी जाति या राष्ट्र में सांस्कृतिक जीवन के साथ उसका एक संघर्षधर्मी जीवन भी होता है। कवि को दोनों समझने पड़ते हैं। इसी तरह हमें लोक को पुनर्व्याख्यायित कर उसके सही रूप को समझना होगा। लोक को समझ कर ही कवि या समीक्षक की लोक दृष्टि बनेगी मार्क्सवाद में यह लोकदृष्टि व्यापक रूप से अंतर्निहित है। क्योंकि वही एक मात्र सर्वहारा का वैज्ञानिक दर्शन है। अजय तिवारी ने बड़ी चतुराई से मार्क्सवाद के बारे में भ्रम फैलाने के लिये कहा है कि ‘उसका पुराना रूप अधिक काम में नहीं आ रहा’। इस बात से गैरमार्क्सवादियों को मार्क्सवाद के लिये अप्रासंगिक बताने की प्रेरणा मिलेगी। बुर्जुआ प्रसन्न होगा। मार्क्सवाद एक ऐसा वैज्ञानिक दर्शन है जो वस्तु स्थिति की ऐतिहासिक द्वंद्वात्मकता पर आधृत है। इसका अर्थ है कि वह हर स्थिति में अपने को विकसित करता है। जो विकासमान है उसका नया पुराना क्या हो सकता है! वह न तो जड़ है। न रूढ़ि। दूसरे, मार्क्स की तत्व मीमांसा आज भी वैसी ही वैज्ञानिक है। मसलन द्रव्य प्राथमिक है। चेतना उसका विकसित उत्कृष्टतम रूप। विरोधी तत्वों की एक रूपता का अटल सिद्धांत। चेतना की सापेक्ष स्वायत्तता। प्रकृति के नियमों का मनुष्य से स्वायत्त होना। अंतर्विरोधों का विश्वव्यापी  सिद्धांत। इतिहास की द्वंद्वमय विकासोन्मुख प्रक्रिया। तथा यथार्थ की छाया प्रतीति और सार तत्व का नियम आदि ऐसी बातें हैं जिन में आज भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। जिस हाब्सबौम का नाम अजय ने लिया है उनके अनुसार तो ‘21 वी सदी मार्क्स की सदी’ होगी। लगता है लोक को अजय कोई ऐसी हानिकारक परिसीमा या बंदी गृह मानते हैं जिससे निकलना कवि की बड़ी मुक्ति है। जैसे उन्होंने कहा है कि ‘केशव तिवारी अब लोक से बाहर’ आ गये हैं। अतः अब वह ‘औरंगजेब का मंदिर’ देख सकते हैं। क्या लोकधर्मी कवि सिर्फ कुछ सीमित चीज़ें देखने को ही अभिशप्त है? सवाल है कवि किसी वस्तु को किस दृष्टि से देख रहा है। क्या लोकदृष्टि से वस्तुओं को नहीं देखा जा सकता? जैसे यदि मैं खजुराहो या लिंगराज मंदिरों को दूखूँ तो कहूँगा कि सामंतों में कितनी पतनशील यौन विकृतियाँ थी। पर मैं उन हुनरमंद कारीगरों की उत्कृष्ट कला को जरूर सराहूँगा जिन्होंने उन जीवंत मूर्तियों को राजा के आदेश पर तराशा होगा। पर रूपवादी – कलावादी या अजय तिवारी जैसे उन उत्खनित मूर्तियों में आनंद लेंगे! यही अंतर है लोकदृष्टि और बुर्जुआ दृष्टि में। जो बहुत अच्छे युवा कवि अपने अपने जनपदों में लोकधर्मी कविता लिख रहे हैं उन्हें अजय तिवारी जैसे विभ्रमित समीक्षकों से सजग रहने की जरूरत है! यही नहीं उनके आलोख में ऐतिहासिक तथ्यों का भी विरूपण तथा तोड़ मरोड़ है। यह जान बूझ कर फिर अनेक विभ्रम फैलाना उनकी रिवाजी साजिश का ही एक पक्ष है। जैसे उन्होंने नागार्जुन,- केदार बाबू -त्रिलोचन के बाद एकदम ज्ञानेंद्रपति आदि की पीढ़ी का उल्लेख किया है। मेरा कहना है कि नागार्जुन आदि के तत्काल बाद ही क्या ज्ञानेद्रपति आदि की पीढ़ी सहसा वजूद में आ गई? या वह धूमिल, कुमारेंद्र, कुमार विकल, भगवतरावत, चंद्रकांत देवताले, मलय, वेणु गोपाल, ऋतराज, विष्णु चंद्र शर्मा, नरेश सक्सैना तथा हरिशंकर अग्रवाल आदि की पीढ़ी का ही सहज तार्किक विकास है। इन कवियों का काव्य अवदान किसी भी तरह ज्ञानेंद्रपति आदि की पीढ़ी से क्या कम है? कई बार इतिहास में ऐसा होता है कि कुछ कवि होते हैं। कुछ को ठौंक पीट कर बनाया जाता है। कुछ पर कवि होना थोप दिया जाता है। बहुतायत थोपे हुये कवियों की होती है। जिसे एकांत ने ‘घुसपैठिया’ कहा है। खराब पेशेवर आलोचना ऐसे कवियों पर मुलम्मा का झोल चढ़ाती रहती है। ऐसे समीक्षक और कवियों का एक ही हश्र होता है -सहसा चमक कर बुझ कर राख का ढेर। सातवें दशक की कविता को ढक कर आँख ओट करने जैसा ही तो यह आलोचकीय छल है क्या ? मेरे खयाल से नागार्जुन आदि की तत्काल वाद की पीढ़ी को बिना समझे ज्ञानेंद्रपति आदि की पीढ़ी को क्या हम बेहतर समझ सकते हैं! बल्कि इस पीढ़ी का कद अजय के आलेख से और छोटा हुआ है। कवियों को हम परम्परा के समुचित विकास क्रम में ही बेहतर समझ सकते हैं। जिस तरह अजय ने ऐतिहासिक क्रम का विरूपण किया है यह न केवल अनुचित है। बल्कि अनैतिक भी। शायद ज्ञानेंद्रपति की पीढ़ी के कवि भी इस ऐतिाहासिक विरूपण को गलत समझेंगे।

यदि केशव  तिवारी ने अपने को लोक  से बाहर कर लिया है  तो क्या हमें उनकी कविता पर पुनर्विचार करना  पड़ेगा? वैसे मुझे ऐसे प्रतिबद्ध लोकधर्मी कवि के विचलन की संभावना बहुत क्षीण लगती है। कवियों की उठा पटक कर उन्हें विभाजित करना, कुछ को बगल में दबाना कुछ को दुत्कारना अजय की बहुत पुरानी कूट चाल है। उनके ‘स्नोब’ चरित्र का हिस्सा। मुझे अफसोस है डा0 रामविलास शर्मा जैसे मनीषी आलोचक का सान्निध्य पाकर भी उन्होंने कुछ नहीं सीखा! खुदा हाफिज़ ……

अजय तिवारी का आज तक का लेखन ऐसे ही विभ्रमों, तथ्य विरूपणों, अतार्किक असंगतियों, अंतर्विरोधों से भरा पड़ा है। पूरा आलेख ‘तोतारटन्त पेशेवर समीक्षा’ का बेहतर साक्ष्य है। अजय में न तो मौलिकता है। न श्रेष्ठ कविता को गहराई से समझने की क्षमता। उनकी सतही उबाऊ और टीप टाप के लिखी आलोचना से लगता है उन्होंने भारतीय क्लेसिक्स गहराई से नहीं पढ़े। न अपना काव्यशास्त्र। विदेशी क्लैसिक्स की तो कौन कहे! ऐसी ही समीक्षा को शुक्ल जी ने ‘वाग्विलासी समीक्षा’ कहा है। यानि जो समीक्षा में है वह कविता में नहीं होता। जो कविता में है उसे आलोचना नहीं कहती। ऐसी ही खराब आलोचना ने उसे अविश्सनीय और अप्रामाणिक बनाया है। उसका स्तर गिरा है। हम पहले आलेचाक या कवि के जीवन ,नियत तथा आचरण पर भरोसा करते हैं। बाद में उसके रचना कर्म पर। मैं ऐसी समीक्षा को ही खराब समीक्षा कहता आया हूँ जो खराब कविता से अधिक खतरनाक होती है। बहरहाल लोक के नाम पर किसानों पर कविता भर लिख देना काफी नहीं हैं। हमें उनके वर्गीय संघर्ष को भी दिखाना होगा लोक को बताने के लिये यहाँ महान क्रांतिकारी लोकयोद्धा बिरसा मुण्डा की कुछ पंक्तियाँ देता हूँ –

हमारे पुरखों ने चीतों  बाघों से लड़ कर
जमीन बनाई है
इस जमीन को छीनने  वाले
तुम कौन हो
हम तैयार है तीर  और धनुष ले कर
लड़ेगे साहूकारों और अंग्रेज़ों से 
और जमीदारों से। 

निराला तथा केदार  बाबू में लोक सामंतों तथा पूँजीपतियों पर सीधा प्रहार करता है। या फिर नागार्जुन की पंक्तियाँ

खड़ी हो गई चाँप कर कंकालों की हूक
बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक।
तुलसी अपने समय का लोक अपनी तरह से कह रहे  थे –
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,  बलि
जीविका विहीन लोग  सीद्यमान सोच बस……..
आगि बड़वागि तैं बड़ी  है आगि पेट की।

लोक का यह सार रूप  है। इसके बिना बतायें ‘गाँव के माथे पर काँस का फूल’ मात्र ड्राइंग रूम की शोभा भर रहेगा। लोक का संघर्षधर्मी वैश्विक रूप भी है। जैसे अमरीका में वाल्ट ह्विटमैंन, स्पेन में लार्का, चीले में नेरूदा, नाइजीरिया में वाले शोयिंका, रूस में मायकोवस्की, चीन में बाइ जुई तथा तुर्की में नाज़िम हिकमत। तो इससे यह भी धरणा बनी कि लोक भारत तक ही सीमित नहीं है। सवाल हो सकता है कि इन कवियों को मैंने लोकधर्मी क्यों कहा? क्योंकि ये सब शोषित उत्पीड़ित किसानों, श्रमिकों तथा संघर्षशील जनता के लिये अपना जीवन तक दाँव पर लगा रहे हैं। अपने देश की आज़ादी के लिये इन कवियों ने स्वयं बड़ी बड़ी यातनायें सही है। इस दृष्टि से जब लोक पर विचार होगा तो कुछ भिन्न निष्कर्ष सामने आयेंगे। लगेगा कि देसी बोलियों के शब्द, ‘गाँव के माथे पर काँस का फूल’ या भोजपुरी लहज़े में कविता लिखना आदि बातें लोक का मनोरंजक रूप ही है। छायाप्रतीति  है। सार तत्व नहीं। लोकधर्मी कवि वर्ग संघर्ष की व्यापक लोकदृष्टि से प्रेम, सौंदर्य, प्रकृति तथा मनुष्य के अन्य कोमल भावों पर भी बेहतरीन – बेजोड़ कवितायें लिखता है। तभी वह समग्र लोकधर्मी कवि बनता है।

मुझे हिंदी आलोचना का स्तर इसलिये भी गिरा लगता कि वह यह मूल्यांकन नहीं कर पा रही कि हिंदीतर प्रदेशों में जो महत्वपूर्ण हिंदी  कविता रची जा रही है उसका सम्यक् मूल्यांकन हमारे  सामने प्रस्तुत करे। दूसरे, 80 के बाद की कविता 90 तक ही नहीं रुक जाती। उसके बाद भी खासी अच्छी कविता सामने आई है। मैं पहले हिंदीतर (कोच्चीन में एक गाँव) प्रदेशों के हिदी कवियों में अरविंदाक्षन का नाम विशेष महत्व से लेना चाहूँगा। उनके अब तक पाँच कविता संकलन प्रकाशित हो चूके हैं। ’राग लीलावती’( 2004 ) मेरे पास उनका अद्यतन काव्य संग्रह है। वह वैसे मलयालम भाषा के प्रसिद्ध कवि तथा समीक्षक हैं। हिंदी में उनकी कई महत्वपूर्ण आलोचना पुस्तकें भी हैं। जैसा इस कविता के नाम से ध्वनित है अरविंदाक्षन गहरे मानवीय राग के लाकेधर्मी कवि है। काव्य यथार्थ के बारे में वह कहते हैं कि, ’कवचहीन होकर ही मैं यथार्थ को देखता हूँ। कवचधारी यथार्थ के मध्य से कवचहीन होना मेरे लिये प्रीतिप्रद तथ्य है। पर इससे यथार्थ कवचों से मुक्त नहीं होता। तनावग्रस्त होने का कारण यही है। इस अनुभव को मैं शब्दों में ढालने की कोशिश करता हूँ। इन कविताओं को एक कवचहीन व्यक्ति का पागलपन समझिये, बस। अपनी कविता ‘अवतार और यथार्थ’ कृष्ण और पूतना के मिथक को लेकर है। इसमें आज के मनुष्य की हिंसा, पूँजीकेंद्रित–साम्राज्यवादी देशों के विषाक्त आक्रामक तथा रुग्ण सांस्कृतिक प्रभाव तथा मानवीय विनाश की विभीषिका का चित्र दिया है। अंत में उस खतरे को पहचान कर उससे सजग रहने की चेतावनी भी-एक विकल्प का भी संकेत है।

कृष्ण को मारने के लिये
कंस ने अपने भाइयों को भेजा…
पूतनाओं का प्रलोभकारी रूप सब को आकर्षित कर रहा है
हमें बस कंस को पहचानना  है
पूतना को पहचानना है।

अरविंदाक्षन आज की हिंदी  कविता के कवचहीन यथार्थ के महत्वपूर्ण कवि हैं। हिंदी समीक्षा का यह दुर्भाग्य ही है जो ऐसे कवियों का सम्यक मूल्यांकन अभी नहीं हो पाया। वह आज भी सक्रिय हैं। पिछले दिनों कई पत्रिकाओं में मैं ने उनकी अर्थवान कवितायें पढ़ी हैं। जब ‘राग लीलावती’ छपी तब प्रख्यात समीक्षक डा0 जीवन सिंह  ने इस काव्य कृति की समीक्षा ‘कृतिओर’  में लिखी थी। हिंदी के पेशेवर समीक्षकों का उनके समग्र कृतित्व पर अभी उतनी गंभीरता से ध्यान नहीं गया जितना गंभीर उनका कृतित्व है। एकबार उनसे मिला हूँ। बहुत ही आत्मीय और नेक दिल इन्सान हैं। इसीलिये वह  हिंदी के एक महत्वपूर्ण अच्छे कवि हैं। दूसरे कवि हिंदीतर प्रदेश जम्मू के हैं, अग्निशेखर। ‘काल वृक्ष की छाया’ ( 2006 ) में उनका संग्रह आया है। अग्निशेखर की कविताओं में उनके प्रदेश की मार्मिक छवियाँ हमें आकर्षित करती है। आद्यंत मिथकों के माध्यम से उन्होंने कश्मीरी पंडितो की निर्वासन त्रासदी को बड़ी गहरी पीड़ा से व्यक्त किया है। हिंदी के आलोचकों का उधर अभी ध्यान कम गया है।  इसी तरह शेख मोहम्मद कल्याण जम्बू के हैं। उनका कविता संग्रह ‘समय के धागे ’ ( 2003 ) में आया है। अपने समय की विडंबनायें, मनुष्य के सपने तथा सहज प्रकृति के चित्र उनकी कविता को आकर्षक बनाते हैं। राम कुमार कृषक एक प्रौढ़ और गंभीर कवि हैं। उनके अब तक सात कविता संग्रह छप चुके हैं। मेरे पास उनका अद्यतन संग्रह है ‘‘लौट आयेंगी आँखें (2002)। मुझे यह देखकर बेहद प्रसन्नता है कि रामकुमार जी गीत- गज़ल में सिद्ध हो कर बहुत ही मनमोहक मुक्तछंद रचते हैं। कवि विष्णुचंद्र शर्मा ने उन्हे, ‘अपनी आँखों देखी कठोर और क्रूर सचाइयों का धैर्यवान कवि‘ कहा है। रामकुमार जी की कवितायें बहुत सहज, सरल, सुबोध हैं जैसे उनका जीवन हैं। उनकी बनक। कहीं कहीं तीखे व्यंग्य भी हैं। उनकी कविता पढ़कर सहसा नागार्जुन और परसाई जी याद आते हैं।

मेरा सवाल है अभी तक कृषक जी कि कविता का सम्यक मूल्यांकन हिंदी आलोचना क्यों नहीं कर पाई ? अजय के आलेख से पता लगता है कि हमारी दृष्टि मझोले-सझोले बे-सूद तथा अखबारी कवियों पर ही  अटकी रहती है! मेरे विचार से रामकुमार जी की कवितायें कुमार अम्बुज, नीलेश रघुवंशी, नासिर अहमद सिंकदर, हरिओम राजोरिया आदि की कविताओं से किसी अर्थ में कमतर नहीं हैं। बल्कि उनकी कविताओं से बेहतर हैं। अजय ने जिन अति सामान्य कवियों के नाम बार बार दोहराये हैं उनमें न तो कोई बड़ी काव्य संदृष्टि (विज़न) है। न अपनी जातीय समृद्धि के चिन्ह हैं। न जनपदीय स्थानीय रंग है। शब्दों की मितव्ययता भी नहीं है। न काव्य लय। न हिंदी का अपना ठेठ मुहावरा। भाषा एकदम निर्जीव, अनूदित और किताबी। युवा कवि रमेश प्रजापति को भी छेका गया है उनका संग्रह, ‘पूरा हँसता चेहरा’(2006) में आया है। रमेश प्रजापति की कविताओं में जीवन के प्रति गहरी आस्था है। सामान्य मनुष्य की तकलीफों के सांकेतिक बिंब चित्र उनकी कविताओं में हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण कवि हैं अशोक तिवारी। अब तक उनके दो संग्रह (सुनो अदीब,2003; मुमकिन है,2008) आ चुके हैं। अशोक ने एक प्रतिबद्ध जनवादी कवि के रूप में खासी सार्थक पहचान बनाई है। उनकी कविता में लोकधर्मी स्थानीयता का रंग हमें आकर्षित करता है। मूलतः ब्रज प्रदेश के होने की वजह से अशोक की कविता में ब्रज जनपद की बड़ी स्वस्थ अुगूँजें सुनाई पड़ती हैं। विजय सिंह (बंद टाकीज, 2009) एक प्रतिबद्ध, प्रतिभासंपन्न तथा लोकधर्मी अत्यंत संभावनाशील कवि है। उनकी कविता अपने आस पास के अति सामान्य जीवन जगत को स्थानीयता के गाढ़े रंग के साथ व्यक्त करती है। जैसे ‘बंद टाकीज’ उनके घर के सामने जाने कब से बंद पड़ा है। यह एक काव्य प्रतीक भी है। वस्तुगत यथार्थ भी। ऐसे विषय पर दृष्टि जाने का अर्थ है हम अपने परिवेश के प्रति कितने सजग सचेत हैं। विजय सिंह की कविताओं में सामाजिक सरोकार भी गहरे हैं। उनके कवि स्वभाव में निर्भयता तथा साहस अनुस्यूत हैं। वह एक खास बनक के कवि हैं।  महेशचंद्र पुनेठा के (भय अतल में -2010) संग्रह में कठोर पहाड़ी जीवन के सांकेतिक तथा जीवंत चित्र हैं। यह कवि अपने परिवेश को बड़ी सजगता से देखता परखता है। महेश बहुत ही निर्भीक और ईमानदार कवि हैं। उनकी कविता में लोक संधर्ष की बड़ी संश्लिष्ट अभिव्यक्ति संभव हुई है। उनके राजनीतिक सरोकार भी बहुत साफ और दिशा सूचक हैं। सबसे अच्छी बात है वह आलोचनापरक गद्य भी लिखते हैं। गद्य भी उनका बहुत पारदर्शी और सहज है। मुझे महेश से बड़ी उम्मीदें हैं। सुरेश सेन निशांत के (वे लकड़हारे नहीं थे-2010) संग्रह का जब मैं ने फ्लैप लिखा उस समय भी वह मुझे एक अत्यंत संभावनाशील कवि लग रहे थे। निशांत ने अपने आस पास के सामान्य लागों की बड़ी सहज चरित्र सृष्टि की है। वह कविता को कभी उबाऊ या निरा गद्य नहीं होने देते। उनके बिंब सक्रिय लोक जीवन से उद्दीप्त होते हैं। सुशील कुमार (जनपद झूठ नहीं बोलता, 2012) ने इधर अच्छी खासी पहचान बनाई है। उनकी कविता में जनपदीय चेतना मुखर है। क्रियाशील मनुष्य के सहज चित्रों से बातें कही गई हैं। सुशील अपने यहाँ की बोली से अपनी काव्य भाषा को बराबर पुष्ट करते हैं। शंभु बादल ( मौसम को हाँक चलो-2007) , ( सपनों से बनते सपने-2010), लंबी काव्य यात्रा तय कर चुके एक प्रौढ़ कवि हैं। पर अभी समीक्षकों का ध्यान उधर नहीं गया! सूरज प्रकाश राठौर, (काले कोट वाले जंगल में-2011),  अलीक, (कबीर राग, 2001)  तथा (गलियों का गायक, 2009 ) कुमार मुकुल, ( ग्यारह सितंबर और अन्य कवितायें-2006), अनिल गंगल (स्वाद- 2000), ओम भारती (जोखिम से कम नहीं-1999, रजत कृष्ण, (छत्तीस घरों वाला घर, 2011) शैलेंद्र चौहान ( श्वेत पत्र-2002 ), रेखा चमौली, (पेड़ बनी स्त्री, 2012), संदीप अवस्थी, ( वह स्त्री लिख रही है-2011),  आत्मा रंजन, (पगडण्डिया गवाह हैं,  2011), अजय कृष्ण(कैद है एक नन्ही उम्मीद, 2008)  रेवतीरमण शर्मा,( एक दुनिया यह भी है, 2011) कपिलेश भोज,(यह जो वक्त है, 2010), राघवेद्र के दो कविता संग्रह (अँजुरी भर रेत) तथा (एक चिठ्ठी की आस) आ चुके हैं। वह एक प्रतिबद्ध जनवादी कवि के रूप में पहचान बना रहे हैं। कुमार वीरेंद्र भी भविष्णु लोकधर्मी कवि हैं। उनका भी एक संकलन आ चुका है। इधर मैंने उनकी कवितायें नहीं देखी। शकुंत भी दूर दराज इलाके में रहकर बेहतरीन जनवादी कवितायें लिख रहे हैं। उनके कई संकलन आ चुके हैं। शंकरानंद उभरते युवा कवि हैं। उनका एक संग्रह (दूसरे दिन के लिये- २०१२) में आया है। शंकरानंद की कवितायें जनसंघर्ष को व्यक्त कर एक सुंदर भविष्य की ओर संकेत करती हैं।

इन सब कवियो की कविताओं में पर्याप्त वयस्कता और लोकधर्मिता होने के बावजूद अजय तिवारी के आलेख तथा पत्रिका परिसंवाद में कहीं अर्थवान उल्लेख नहीं है। 9वें दशक के बाद उक्त कवियों ने अपनी स्वायत्त पहचान बना कर अपने को अच्छी कविता के बल पर स्थापित किया है। इनको बिना समझे जाने 9वे दशक के बाद की कविता का चित्र न सिर्फ अधूरा रहेगा। बल्कि निहायत कमज़ोर और अप्रमाणिक भी।
कुछ कवियों के संग्रह न आने के बावजूद उनकी कविता ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। बहुत ही दूरदराज के अत्यंत कठिन इलाके में रचनारत अजेय (केलंग) की कविता हमें  आश्वस्त करती है। पिछले दिनों मैंने उनकी कुछ कवितायें ’पहलीबार’ ब्लाग पर पढ़ी। उनकी लोकधर्मिता ने मुझे प्रभावित किया है। अजेय की कविता जीवन के कठिन संधर्ष से उपजी लगती है। उसमें गहरा स्थानीय रंग है। मनुष्य की आंतरिक पीड़ा के सांकेतिक बिम्ब-चित्र बार बार उभरते हैं। बहुत अच्छी बात है कि कहीं पस्तहिम्मती के संकेत नहीं हैं। इसी तरह अच्युतानंद मिश्र का कोई संग्रह अभी नहीं आया है। पर उनकी कवितायें हमें एक भविष्णु कवि का एहसास कराती हैं। अच्युतानंद जनपक्षधर कवि हैं। दूसरे , उनकी कविता में बड़े राजनीतिक सरोकारों के ताने बाने भी गुँथे बिंधे रहते हैं। एक और महत्वपूर्ण युवा कवि है संतोष चतुर्वेदी। उनकी बिल्कुल हाल की कवितायें मैंने ‘स्वाधीनता’ विशेषांक तथा ‘पहली बार’ में पढ़ी हैं। संतोष की कवितायें सामयिक प्रश्नों का सामना 
बे-खौफ करती हैं। उनकी एक कविता ‘मुकम्मिल स्वर’ स्वाधीनता’ २०१२ के शारदीय विशेषांक में छपी है। कविता बाजार के बहाने साम्राज्यवादी बढ़ती पूँजी के कुप्रभावों पर तीखा प्रहार है। चाहे इस पूँजी ने कितना ही हमें अमानवीय तथा संवेदनाहीन बनाया हो, फिर भी कुछ लोग इसके प्रभाव से मुक्त होकर इसके प्रतिरोध के लिये संघर्ष कर रहे हैं। इस कविता ने एक नई उम्मीद तथा विकल्प की ओर संकेत कर हमें पस्तहिम्मत होने से बचया है। उनकी दूसरी कविता ‘मोछू नेटुआ’ एक लंबी कविता है। यह कविता एक ऐसे विरल तथा संघर्षशील लोकधर्मी विषय पर हैं जहाँ प्रायः हम पहुँच ही नहीं पाते। दोनों कवितायें को एक संभावनाशील लोकधर्मी कवि बनाती हैं। सुना है बहुत ही जल्द उनका दूसरा कविता संग्रह भी आने को है। एक अन्य महत्वपूर्ण हमारा कवि अरुणाभ सौरभ भी बराबर छूट रहा है। ‘कृतिओर’ में छपी उनकी कविता को वाचस्पति ने पुरस्कृत कर पुरस्कारों की एक नई स्वस्थ परम्परा प्रारंभ की है। अरुणाभ की कवितायें जीवन और प्रकृति के बहुत करीब हैं। ‘पहलीबार’ ब्लॉग में भी मैंने उनकी अच्छी कवितायें पढ़ी हैं। मुझे अरुणाभ कवि कर्म के प्रति गंभीर दिखते हैं। यह अपने आप में कवि बने रहने के लिये बड़ी खूबी है। मेरे अत्यंत प्रिय और एकदम युवा कवि हैं नित्यांनद गायेन। लोकधर्मिता उनकी कविता का प्राण है। यह कवि साहसी है। निडर और आत्मविश्वासी भी। कहें आजके समझौतापरस्त समय में एक बहादुर बे-खौफ श्रेष्ठ कवि। ये गुण आजके बहुत कम कवियों में लक्ष्य किये जा सकते हैं। उनकी कवितायें आज की क्रुर व्यवस्था तथा सांसकृतिक पाखण्ड पर तीखे प्रहार करती है। इधर मैंने ‘ स्वाधीनता’ शारदीय विशेषांक तथा ‘पहलीबार’ ब्लाग पर उनकी बेहतरीन कवितायें पढ़ी हैं।

मुझे प्रसन्नता  है लोकधर्मी कविता 90 के बाद भी विकसित हो रही है। मैंने यहाँ खासतौर से उन्हीं कवियों की चर्चा की है जिन्हें जानबूझ कर अजय तिवारी तथा परिसंवाद आयोजकों ने विस्मृत किया है। जबकि प्राणहीन तथा बानवटी कवियों का मंत्रोच्चार बराबर किया गया है। उक्त कवियों की कविता हमें 9वे दशक के बाद की कविता का समृद्ध विकास दिखाती है। पर इन कवियों को ऊँचाइयाँ छूने के लिये कठिन संघर्ष भी करना होगा। कविता अत्यंत कठिन कर्म है। वह हमसे त्याग, सदाचरण तथा समर्पण की माँग करती है। इससे साफ है कि कुछ ‘तोतारटन्त पेशेवर तथा वाग्विलासी समीक्षक’ किस तरह अनर्गल को सार्थक तथा सार्थक को अनर्गल बनाने में लगे हैं। मुझे प्रसन्नता इस बात की है कि ‘कृतिओर’ के यशस्वी संपादक डा0 रमाकांत ने कुछ अच्छे लोकधर्मी कवियों पर विस्तार से अपनी पुस्तक, ‘कविता की लोकधर्मिता’ में मूल्यांकन परक आलेख लिखे हैं। क्या हमें हिंदी आलोचना के गिरते स्तर के बारे में चिंता नहीं होनी चाहिये? हम चाहेंगे ‘कृतिओर’ ऐसी विभ्रमकारी, संकीर्ण तथा पूर्वाग्रही प्रवृत्तियों का लगातार विरोध करती रहे। हम यह भी चाहेंगे कि इन सवालों पर हमारे सजग लेखक तथा पाठक गंभीरता से सोचें।                           

(विजेंद्र जी हमारे समय के वरिष्ठ कवि, एवं चिन्तक हैं। साथ ही कृतिओर जैसी महत्त्वपूर्ण पत्रिका के संस्थापक संपादक हैं।आलेख में प्रयुक्त सभी पेंटिंग्स विजेंद्र जी द्वारा बनायी गयी हैं।)

विश्व लोकधर्मी कवियों की श्रृंखला

विश्व लोकधर्मी कवियों की श्रृंखला

‘पहलीबार’ में विश्व के लोकधर्मी कवियों की श्रृखंला पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार दे रहे हैं। इसे हम अपने पाठकों तक पहुँचाने के लिये बहुत दिनों से उत्सुक थे। पर संभव यह अभी हो पा रहा है। विजेंद्र ने हमारे आग्रह पर विश्व के प्रख्यात लोकधर्मी कवियों पर यह श्रृंखला तैयार की है। हमारा विनम्र प्रयास है कि इन विश्व के महान लोकधर्मी कवियों के परिप्रेक्ष्य में हम अपनी लोकधर्मी कविता तथा समाज की बुनावट को समझे- परखें। अपनी कविता से फिर हम विश्व की लोकधर्मी कविता को देखें। इस सहज द्वंद्वमय प्रक्रिया से कदाचित् हम ‘लोक’ की अवधारणा तथा लोकधर्मी कविता के बारे में कुछ सांकेतिक निष्कर्ष निकाल पायें। लोक के बारे में आज भी अनेक विभ्रम हमारे बीच हैं। आचार्य भरत के समय से ‘लोक’ हमारे यहाँ जाना जाता रहा है। फिर भी क्या वजह है कि लोक का सही रूप समझने में हमें विभ्रम परेशान करते हैं। लोक कहते ही हम गाँव की ग्राम्यता या आदिवासियों के नृत्य, गान, कला, रीतिरिवाज, वेशभूषा, तीज-त्यौहार, मेले या उत्सवों की ओर खिचे चले जाते हैं। फिर कहते हैं कि इस ‘रूमानियत’ का आज की वैज्ञानिक संवेदना से क्या रिश्ता! ध्यान दें युक्त बातें लोक का सांस्कृतिक पक्ष ही बताती है। हर जाति के सांस्कृतिक जीवन के साथ उसका संघर्षमूलक जीवन और इतिहास भी होता है। लोक के इस संघर्षमूलक रूप को इतिहास तथा साहित्य दोनों ही दरकिनार करते रहे हैं। ऐसा क्यों हुआ इस पर आगे विचार की जरूरत है। मसलन हमारे मुक्तिसंग्राम के समय भारत के हर प्रांत में आदिवासी साम्राज्यादी क्रूर अँग्रेजों से जमकर मुठभेड़ कर रहे थे। महात्मा गाँधी के साथ भारतीय जनता बलिदान दे रही थी। आदिवासियों में बिरसा मुण्डा, तिलका माँझी, पुंजा भील, केरल में वनवासी किसान, जगदलपुर में विप्लवी आदिवासी आदि। यानि मुक्तिसंग्राम में लोक की निर्णायक भूमिका थी। फिर भी हमने लोक को दरकिनार क्यों किया! यह हमारी बहस का विषय क्यों न हो। दूसरे, लोकतंत्र में हमें लोक की पुनर्व्याख्या करनी चाहिये। आज के वर्ग विभाजित समाज में लोक है। तो प्रभु लोक भी है। सामान्यजन है तो कुलीन जन भी है। ऐसे में कवि को तय करना होगा कि लोकतंत्र में उसकी पक्षधर भूमिका क्या हो! एक प्रकार से आज लोक सर्वहारा का पर्याय बन चुका है। विश्वविख्यात लेखक गोर्की ने कहा था कि लेखक को अपना पक्ष स्पष्ट करना चाहिये कि वह किसके साथ है। इसी बात को मुक्तिबोध ने दोहराया कि हम किसके साथ है यह तय करें। इससे लगता है लोकधर्मी कवि वही है जो जनता- सर्वहारा- के पक्ष में अपनी कविता को खड़ा करता है। इस बात के जीवंत साक्ष्य प्रस्तुत श्रृंखला के कवियों के जीवन तथा उनकी कविता से मिलेंगे। इन कवियों ने कविता को लोक के पक्ष में खड़ा करके न केवल बड़े जोखिम उठाये बल्कि सत्ता द्वारा दी गई क्रूर यातनायें भी सहीं। हिंदी में या अन्य भारतीय भाषाओं में भी ऐसी लोकधर्मी कविता के साक्ष्य विरल हैं। 1857 का स्वाधीनता संग्राम भारतीय क्रांति की पहली अद्वितीय मिसाल है। जैसा कि हम जानते हैं उस क्रांति के संकल्प अभी हम अर्जित कहाँ कर पाये हैं! तो क्रांति की उस अधूरी छूटी प्रक्रिया को अग्रसर करने में आज के कवि की क्या भूमिका हो! हो भी या नहीं! प्रस्तुत कवियों की कविता से यह भी साफ होगा कि लोक किसी गाँव जनपद, क्षेत्र, राज्य या देश से परिसीमित न होकर पूरे विश्व की प्रतिरोधी अभिलक्ष्णा है ।साथ ही लोक का सहज स्वभाव है अपनी मुक्ति के लिये प्रतिरोधपूर्ण संघर्ष करना।  
बहरहाल इस श्रृंखला की पहली कड़ी को हम प्रारंभ करते हैं अमरीकी विश्वविख्यात वाल्ट व्हिटमैन से।

                                                              (वाल्ट व्हिटमैन)

विजेंद्र

लोकधर्मी कवि वाल्ट ह्विटमैंन
                                                      
     वाल्ट् ह्विटमैन मेरे वैसे ही प्रिय कवि हैं जैसे अन्य लेाकधर्मी कवि लोर्का, पाब्लो नेरुदा, नाज़िम हिकमत, ब्रेख्त तथा माइकोवस्की। इनसे भी अधिक प्रिय है. 1500 साल पुराने चीनी कवि वाइ जुई। मैं काशी हिदू विश्वविद्यालय में स्नातक छात्र था। कविता पढ़ाने वाले हमारे प्रो0 साहनी ने एक दिन आधा घंटे तक कक्षा में ह्विटमैंन पर व्याख्यान दिया। मज़े की बात यह कि वह पढ़ा वर्डस्वर्थ रहे थे। इस महान कवि का कोई प्रसंग न था। सहसा बिलेंकवर्सऔर काव्य लय का प्रसंग आया। बात पहुँच गई वाल्ट ह्विटमैंन पर। उन्होंने इस कवि की अमर कृति  Leaves Of Grass पढ़ने का आग्रह भी किया। मुझे याद है उसी दिन शाम को मैंने बाजार से इस पुस्तक का सस्ता संस्करण खरीदा। इधर उधर से पढ़ कर देखा। बहुत कम समझ में आया। एक दिन त्रिलोचन से इस महाकवि के बारे में चर्चा की। उन्हें यह पुस्तक भी दिखाई। उन्होंने छूटते ही कहा कि हर कवि को इस महान कवि के लिये समझ कर पढ़ना चाहिए। जब जीवन मे व्यवस्थित हो गया तो इस काव्य कृति को ध्यान से समझ समझ कर कई बार पढ़ा। इस कवि के बारे में जहाँ जो कुछ मिला उसे देखता रहा। प्रो0 चंद्रबली सिंह से इसके बारे में खूब सुना। श्रेष्ठ कविता के बारे में कहा गया हैं कि पढंने के बाद उसमें बहुत कुछ आगे समझने के लिये छूट जाता है। इसीलिए अंग्रेजी़ के महान विद्रोही कवि शैले ने श्रेष्ठ कविता मे सीमातीत अर्थकी बात कही है। जब भी अवसर मिला वाल्ट ह्विटमैंन को पढ़ता रहा। उसे अपने तथा भारतीय चित्त के बहुत करीब पाया। जब भी मन अवसन्न सा होता है मैं इसे पढ़ता हूँ। जब-जब पढ़ा इस कवि ने मुझे कविता के लिये प्राणों की ऊर्जा अर्जित करने के लिये प्रेरित किया। 1980 में मेरा दूसरा काव्य संग्रह, ‘ये आकृतियाँ तुम्हारी  वाणी से छपा है। उसमें कुछ कवितायें वाल्ट ह्विटमैन से बहुत प्रभावित हैं। यद्यपि मेरे किसी समीक्षक ने इस बात पर आज तक कुछ नहीं कहा। पर ये सत्य है। इन कविताओं का स्थापत्य, सरपट दौडती लय, लंबे लंबे वाक्य तथा लीक से हट कर रूपक उक्त कवि की कविता से प्रेरित हैं। पर यहाँ रूप की प्रेरणा भर है। हर प्रकार से भूमि और बीज मेरे अपने है। Leaves Of Grass’ में एक प्रसिद्ध कविता है ,Songs of Myself। उसकी कुछ पंक्तियाँ हैं-
मेरी जीभ,  मेरे रक्त का हरेक अणु
रचा गया है इस मिट्टी से
इस वायु से
यहाँ पैदा हुआ अपने माता की कोख से
मेरे दादा परदादा
उनके भी माता पिता
इसी मिट्टी से जन्मे है
मैं अब पूरी तरह स्वस्थ
सैंतीस वर्ष का
आशा स्फूर्त कवि हूँ
इसी तरह जीने को अंत तक।
   इन पंक्तियों में तीन बातें हमें सबसे ज्यादा खींचती हैं। एक तो कवि का अपनी धरती से आद्यंत जुड़ाव। दूसरे, जीवन के प्रति गहरी आस्था। तीन, अपनी विरासत से गहरा आत्मिक रिश्ता। इन पंक्तियाँ की ध्वनि-अनुगूँज-आज भी मेरा पीछा करती हैं। कहा जाता है प्रख्यात दार्शनिक एमर्सन ने वाल्ट ह्विटमैंन की कृति ‘Leaves Of Grass’ का स्वागत करते हुये दो बातें कही थीं। एक, यह कृति महान काव्य यात्रा का शुभारंभ है। दो, ऐसे शुभारंभ के पीछे कोई सुदीर्घ पूर्व पीठिका अवश्य रही होगी। कवि की समूची काव्य यात्रा इन बातों को जैसे साबित करती रही है। 

   वाल्ट ह्विटमैन मैंनहट्टन के इलाके वाले गाँव में 31 मार्च, 1819 ई० को जन्मे थे। इस इलाके को वर्तमान न्यूआर्क का वैस्ट हिल इलाका भी कहते हैं। रोज़ी की कठिनाइयों की वजह से कवि के पिता वाल्टर ह्विटमैंन मजूरी पर खाती का काम करते थे। यद्यपि उन्होंने अपने खुद का बंज करने की कोशिश की। पर दुनियादारी की चालाक समझ न होने की वजह से सफल नहीं हुए। सो वह अपने गरीब परिवार के लिये रोज़ी का कोई ठीक-ठाक प्रबंध नहीं कर पाये। अमरीका के एक दूसरे ख्यातनाम लेखक मार्क टुइन के पिता भी इसी तरह जीवन में विफल रहे थे। वाल्ट ह्विटमैंन तथा मार्क टुइन दोनों ने अपने अपने पिताओं की विफलताओं के लिये चालाक, धोखेबाज़ तथा धूर्त धनी व्यापारियों को कारक बताया है। वाल्ट ह्विटमैंन ने सामाजिक सरोकारों की चेतना अपने पिता से अर्जित की है। इसका संकेत वह बाद में अपनी कृति ‘Leaves Of Grass में देते भी है। कवि के पिता के ऊपर अमरीकी मुक्ति संग्राम का बहुत असर था। अमरीका के लोग अंग्रेज़ों के क्रूर शासकों के विरुद्ध संघर्षरत थे। उस समय वाल्ट ह्विटमैंन मात्र 14वर्ष के थे जब अमरीका में अंग्रेज़ों से मुक्ति पाने के लिये संघर्ष चल रहा था। यह भी सत्य है कि कवि के पिता के घर में विद्रोही चेतना का विपुल साहित्य उपलब्ध था। इस सब का प्रभाव शिशु कवि मन को रच रहा था। कवि का प्रथम कविता संग्रह प्रकाशित होने के बाद उनके पिता नहीं रहे। कवि अपनी माता को बेहद चाहते थे। उन्होंने बहुत से पत्र अपनी माता को लिखे हैं। जहाँ-तहाँ कविताओं में भी उल्लेख है। उनकी माँ को एक लड़की का सौंदर्य अभिभूत किये था। वाल्ट ह्विटमैंन ने अपनी माता के उस सौंदर्यबोध को ध्यान में रख एक कविता लिखी है। लड़की उनकी माता के पास कोई काम लेने आई थी। उसके सौंदर्य से वह विमोहित हुई-
जितना डूब कर उसने (माँ ने) देखा उसे
उतना ही गहरा हुआ उसका प्यार उसके (लड़की के) लिये
उससे पहले उसने (माँ ने) कभी नहीं देखा था
इतना अद्भुत सौंदर्य
इतनी पवित्रता
माँ ने उसे चूल्हे के पास
बैंच पर बैठने को कहा
उसके लिये भोजन बनाया
उसके लिये कोई काम देने को न था
पर उसने उसे अपनी चाहत दी
स्मृति भी
*     *     *     *     *        
ओ मेरी माँ
तुम कितनी उदास थी
उसे विदा करते क्षण
माँ पूरे सप्ताह उसे याद करती रही
उसकी प्रतीक्षा भी
अनेक महीनों तक
माँ ने उसे याद किया
बहुत सी शीत ऋतुओं में
बहुत से ग्रीष्म दिनों में।
   मुझे लगता है किसी सुंदर व्यक्ति या वस्तु पर कविता लिखना बहुत सरल है। पर दूसरे के द्वारा सराहे गये सौंदर्य पर कविता लिखना आसान नहीं। ह्विटमैंन उस कठिन तथा विरल काम को कितनी सहजता से कर पाये है! कुछ दिनों तक कवि ने स्कूल में पढ़ाई की। पर खराब आर्थिकी की वजह से एक वकील के यहाँ उन्होंने पत्रक आदि लाने ले जाने का काम किया। बचपन तथा युवा काल में कवि ने जो इलाके घूमे फिरे उनके सुंदर चित्रों का प्रतिबिंबन कविताओं में आ सका है-
बचपन में देखे खिले नीलक पुष्प
हिस्सा बने है मेरे शिशु कवि मन के
इसी तरह घास
सुरंगी प्रभात की भव्यतायें
सफेद और सुर्ख त्रिपतिया
और वनचिड़ी का गान
 *     *     *     *           
चौथे पाँचवें महीने की
उगती फसलों के खेत
मेरे जैविक हिस्से हैं
शीत में अंकुरित होती फसल
हल्के पीत वर्णी अन्न के पौधे
और उद्यान में
खाने योग्य कंद मूल
फलों की प्रतीक्षा में
सेब के दरख्त ढके हुये फूलों से
वनैली रस भरी
सड़क किनारे मामूली खरपत …….
   यद्यपि ह्विटमैंन प्रकृति से बराबर उल्लसित रहे हैं। पर इसे किसी प्रकार कर पलायन नहीं समझना चाहिये। आज की अधिकांश हिंदी कविता प्रकृति विमुख है। इकहरी भी। ऐसा क्यों है? इस पर गौर करने की जरूरत है। क्या प्रकृति के गहन सान्निध्य के बिना बड़ी कविता संभव होगी! ह्विटमैन प्रकृति और मनुष्य की द्वंद्वमयता के कवि हैं। जैसे हमारे यहाँ निराला, नागार्जुन, केदार बाबू तथा त्रिलोचन। जहाँ कवि पैदा हुये वहाँ खुले विस्तृत मैदान थे। फसलों भरे खेत थे। पशुओं के बाड़े थे। गाँव के पास में ही पछाड़ खाता समुद्र था। जिस छोटे से गाँव में कवि पैदा हुए-जहाँ बड़े हुए-वह द्वीप के सर्वोच्च शिखर के बिंदु पर बसा था। वहाँ से उत्तर तथा दक्षिण में समुद्र झलकता रहता था। 20 साल की उम्र में कवि अपने को पेशेवर पत्रकार मानने लगे थे। 40 साल के होते-होते कवि लगभग निष्क्रिय हो गये थे। पर 1847 ई० में पुनः सक्रिय हुए। ध्यान रहे यह समय अमरीका में बड़ी उथल पुथल का था। जब उनका मन गाँव से भर गया तब उन्होंने न्यूयार्क आने का मन बनाया। इस समय अमरीका की घटनायें भूचाल मचाने वाली थी। यही वह समय है जब बाद में छपी कवितायें Leaves Of Grass’ में संकलित हुई। यह किसी से छिपा नहीं कि ह्विटमैंन ने अपने पिता की आर्थिक मदद के लिये एक खाती का पेशा भी अपनाया था। उनके पिता भी यह पेशा कर ही चुके थे। इस तरह कवि ने अपने को सच्चे सर्वहाराके रूप में पेश किया। कवि को न्यूयार्क तथा ब्रुकलिन की सड़कों पर निरुद्देश घूमने की लत थी। इसी तरह वह जनता के करीब रहते थे। उसका संघर्ष, उसके अभाव, उसकी पीड़ाओं को करीब से समझते थे। मार्मिक घटनाओं को अपनी नोटबुक में लिखते थे । वह मुक्तिकामी विचारों के वातावरण में लगातार विचरते रहे। नीग्रो दासता के विरुद्ध कविता को खड़ा किया। प्रतिरोध भरे मुहावरे आविष्कृत किये। आक्रामक शब्दों को सिरजा। एकदम नये लोकधर्मी सौंदयशास्त्र की रचना की। सबसे प्रमुख बात है उनके कोमल हृदय में अपनी संघर्षशील जनता के प्रति अपार नेह। श्रमिकों के प्रति गहरा आत्मीय भाव। उन्हे अपने समय के लोगों के साथ मिल कर गाना तथा उनका संगीत सुनना बेहद पसंद था। उनकी कविताएँ उनके देश में व्याप्त अशिष्टता, भद्दापन, अश्लीलता, गंदगी, अनर्गल जाहिलपन को बार-बार बेखौफ कहती है। उन्होंने अपने एक आलेख में बताया है कि बड़े शहरों में आने जाने वाले युवाओं में हर बीस में से उन्नीस वैश्यालयों से परिचित थे। यह भी कि न्यूयार्क में पेशेवर हत्यारों, चोरों तथा लुटेरों की सड़ाँध थी। उनके मर्म को आघात देने वाली मुनाफाखोरों की पूँजी केद्रित व्यवस्था अमरीका में जड़ें जमा चुकी थी। एक बार ह्विटमैंन ने अपने एक मित्र को बताया कि उन्होंने नाविकों, मछुआरों, माँझियों,  मल्लाहों,  मछुआरिनो तथा बंदरगाह पर माल ढोने वालोंसे कितना कितना सीखा है। उनकी सोच है कि वे सभी कविहैं। परसंप्रेषणीय भाषामें अपने भावोदगार व्यक्तनहीं कर सकते थे। यानि कवि होना कोई ईश्वरीय दिव्य गुण न हो कर सहज साधना सापेक्ष मानवीय गुण है। इससे पता लगता है कवि अपनी भाषा तथा कथ्य का खनिज दल कहाँ से उत्खनित कर रहे थे। अपनी नोटबुक में कवि ने ड्राइवरों, नाविकों, मछुआरों, खेतिहर श्रमियों को उदात्तशब्द से अभिहित किया है। यही वजह है वह धनी पूँजीपतियों तथा खोखले अंहकारी प्रोफैसरों के बीच जाना पसंद नहीं करते। वह कहते हैं कि अपनी पतलून के सिरे मोड़ कर तथा अपनी कमीज़ की बाहों को उलट के वह सर्वहारा के साथ घूमना फिरनापसंद करेंगे। जब तब वह ड्राइवरों को शेक्सपियर के स्वगत जोर जोर से पढ़ कर सुनाते रहते। अपने पचास साल पूरे करते करते कवि ऊपर से भी सर्वहारादिखने लगे थे। ‘Leaves Of the grass’ में संकलित उनकी प्रख्यात कविता Songs of the Road‘ , (1856 ) की कुछ पंक्तियाँ हैं –
 
कब क्या –                               
सहसा मैं अजनबियों के बीच सीखता हूँ
जब मैं ड्राइवर के बगल की सीट पर
बैठता हूँ
कब क्या
जब मछुआरे अपने जाल
किनारे की तरफ खीचते हैं
जब मैं कुछ देर मंद-मंद उनके साथ
चलता हूँ
कुछ देर उनके बीच
ठहरता हूँ
किसी मनुष्य या स्त्री की शुभकामनाएँ
मुझे क्या देती है
मुक्त भाव से उन्हें
मैं क्या दे पाता हूँ।
   ह्विटमैंन को शेक्सपियर, वाल्टर स्कौट,  तथा डिकिन्स बहुत प्रिय थे। लेकिन गृहयृद्ध के बाद से उनकी अभिरुचि विश्व के अन्य साहित्यों में भी बढ़ी। कवि को सर्वहारा के प्रति सहज प्यार के बिना कोई बड़ी कविता संभव नही लगती। वही उनकी कविता का नायक है। लीव्ज़ आफ ग्रासके कवि की रुचि रंगमंच और चित्रकला में भी थी। उनके सौंदर्यबोध के उत्स सर्वहारा के संघर्षशील जीवन से निसृत होते हैं। उनकी कविता में व्याप्त लय से लगता है कवि की संगीत में भी गहरी रुचि रही होगी। जीवन के साठ साल होने के शुरू में अमरीका के दक्षिण प्रांत से युद्ध शुरू हो गया था। गृहयुद्ध  भी निकट ही था। कवि मन में काल्पनिक समाजवाद घुमड़ने लगा था। कवि मानते हैं कि दासता का जो समर्थन करता है वह स्वयं बदजात दास है।

     ह्विटमैंन का नारा था, I do not rank high in market valuation.’ यानि बाज़ार की दृष्टि से कवि का मान ऊँचा नहीं है। आज के हालात में यह कहन कितनी सार्थक है। हिंदी के कुछ कवि सिर्फ बाजार भाव की वजह से ही अपना वर्चस्व बनाये हैं। यहाँ बाज़ार का ध्वनि अर्थ यह भी है कि सत्ता या दरबार के आसपास अपने हित साधने को बेचैन रहना। ऐसा हर समय होता है। निराला की पंक्तियों से यह बात और साफ होगी-
पैसे में दो राष्ट्रीय गीत रच कर उन पर / कुछ लोग बेचते गा गा गर्दभ-मर्दन स्वर
निराला बाजार को दुत्कार रहे थे: कवि ह्विटमैंन की तरह ही। ज्यादातर कवि या समीक्षक अनेक तुच्छ प्रलोभनों के कारण पेशेवर तथा बाजारूबन जाते हैं। विरल होते हैं वे जो काव्य साधना का कठिन पथ अपना के जीते-मरते हैं। धनिकों के बाज़ार में ह्विटमैंन महान लोकधर्मी साधक कवि अपने देश की जनता -वहाँ के शोषित सर्वहारा -के पक्ष में सब कुछ दाव पे लगा कर युद्धरत हैं। इसीलिए वह एक योद्धा कवि हैं। उनकी पुस्तकों की उनके देश में माग नहीं थी। हाँ जब Leaves of Grass पर वैधानिक अभियोग चलने को हुआ तब कुछ लोकनिंदक अशिष्टों ने उसे जिज्ञासावश देखने को खरीदा। कवि सदा गरीबी और अभावों में जी कर ही महाकवि बने हैं। अमरीका और ब्रिटेन के कुछ बुर्जुआ लेखकों ने कवि के विरुद्ध फिज़ा तैयार की थी। इस सबके बावजूद नार्थ अमेरिकन रिव्यूने ‘Leaves Of  Songs को उसकी मौलिकता, ताज़गी, सादगी तथा सत्य कथन के लिये महत्वपूर्ण बताया है। हिंदी में भी जनपक्षधर कवियों को हाशिये पर ढकेला जाता रहा है।
कुछ लोगों को सरलताऔर सहजतातथा सादगीके बारे में भ्रम हो सकता है। इन काव्य गुणों का कविता की गहराई तथा संश्लिष्टता से कोई वैर-भाव नहीं है। कविता में सरलता का अभिप्राय है छायाप्रतीति की पपड़ी को भेद कविता के सार तक आसानी से पहुँच पाना। सहजता का अर्थ है कविता का पाठक से गहरी आत्मीयता का होना। उसे लगे कि कविता उसी को जैसे संबोधित है। कवि उससे संवाद कर रहा है। सादगी कविता में शब्द चमत्कार और वाग्मिता का बिल्कुल उलट है। कविता बिना किसी शब्द चमत्कार के यदि हमें गहन भावबोध तथा गंभीर चिंतन से समृद्ध करे तो वह समर्थ कविता है। सादगी को लेकर नेरुदा की तो एक पूरी कविता ही है यही है सादगी। कहा है,

खामोश है ताकत मुझे बताते है पेड़ 
 और गहराई मुझे बताती है जड़ें 
 और शुद्धता मुझे बताता है आटा 
 किसी पेड़ ने नहीं कहा मुझ से
 मैं ऊँचा हूँ
 किसी जड़ ने नहीं कहा मुझ से
 मैं ही आती हूँ सबसे अधिक गहराई से
 और कभी नहीं कहा रोटी ने
 कुछ भी नहीं है रोटी जैसा।’ 

यहाँ जड़ों से उगे पेड़ का होना महत्वपूर्ण है। कविता में सरलता भी है। सहजता और सादगी भी। चिंतनप्रधान भावों की  संश्लिष्टता इन सबको एकात्म किये है। कुछ कवियों में सहजता, सरलता और सादगी हो कर ऐंद्रियता, भावबोध तथा चिंतन की गहनता नहीं होती। नेरुदा तथा व्हिटमैन की कवितायें इसका प्रीतिकर अपवाद हैं।
प्रख्यात कविता,‘Songs Of Myself’ में देहाकर्षण को ले कर सुदर प्रसंग है। उनमें अश्लीलता न हो कर सहज मानवीय आकर्षण की चित्रोपम संकेत छवियाँ है । यहाँ मुझे महाकवि तुलसी की एक पंक्ति याद आती है-
सबके  हृदय  मदन  अभिलाषा/ लता  निहारि  नबै  तरु साखा।‘
अमरीकी बुर्जुआ समीक्षकों की तरह हिंदी के कुछ लोगों को ह्विटमैंन की कविता भी साधारण सूचना देने वालीगद्य कविता लग सकती है। क्योंकि उसमे आत्मप्रलापी सूक्ष्मतम अमूर्तन तथा शाब्दिक अंतर्मनन के चमत्कार नहीं है। जैसे मैंने हिंदी के किसी कवि की कहीं कविता पढ़ी थी,
 मुझ में जड़ें है /जड़ों से निकली जड़ें/ और उनसे निकली सिर्फ जड़ें ही हैं। 
यहाँ जड़ों को ही अमूर्त कर चमत्कार पैदा किया गया है। जड़ों से जड़ें निकले। यहाँ तक तो चलो ठीक है। पर जड़ोंसे सिर्फ जड़ेंही फूटती रहें तो वृक्ष के विकास का क्या होगा। यदि जड़ेंयहाँ प्रतीक हैं किसी खास अभिलक्षणा का तो संकेत है यथास्थिति का। बीज से जड़ें फूटती है। जब जड़ें फूटती है तो बीज द्विपत्र हो कर धरती और आकाश दोनों को चुनौती देता है। जड़ें ज्यों-ज्यो पौंड़ती है पत्ते आते है। शाखें बनती हैं। तना विकसित होता है। शाखों पर फूल खिलते है। फल आते हैं। यह है प्रकृति और जीवन का द्वंद्वमय विकास क्रम जो जड़ों से जुड़ा हुआ वानस्पतिक रूपक है। जड़ों से जड़ें ही निकलती रहे यह वानस्पतिक तथा जीवन विकास प्रक्रिया के नियम विपरीत काव्य तर्क है। प्रकृति के अटल नियमों का विपर्यय हमें काव्य विवेक और मानवीय तर्क से दूर ले जाता है। यह ठीक नहीं है। पर नयेपन की दौड़ में लोग इससे जरूर रीझेंगे। ऐसी दूर की कौड़ी लाने को ही हम वाग्मिताया शब्द चमत्कारया अंग्रेजी में ूपज कहते हैं। इसका अभिप्राय है शब्द चमत्कार पैदा कर काव्य के ध्वनि-अर्थ का अवमूल्यन करना। एलियट जैसे यथास्थितिवादी कवि ने भी अपनी प्रख्यात काव्य कृति The Weast Landमें जड़ोंका खास प्रसंग उठाया हैं। कविता का भाव है – 
क्रूरतम है अप्रैल का महीना
कैसे तो नीलक पुष्प खिल रहे है
इस पथरीली बंजर भूमि में
ये कौन सी जड़ें है
इतनी गहरी
जिन से शाखाएँ फूटती हैं
 
यहाँ नोट करने की बात है अप्रेल ऋतु का आगमन। उसमें नीलक फूलों का खिलना। जड़ों का गहरा होना। जिनसे शाखाये-प्रशाखाये फूटती हैं। यह विकास प्रक्रिया है। नेरुदा में जड़ें बहुत आती हैं। पर जड़ों से सिर्फ जड़ें ही नहीं फूटती। उनसे चिली के विशाल वृक्ष उगे हैं। उनसे पत्तियाँ पुष्ट हुई हैं। उनसे पुराने जंगलों की वर्षा जुड़ी है। पृथ्वी को अपने पास लाने की चाह छिपी है। उनमें माच्चु पीच्चु के शिखर जीवित है। ह्विटमैंन में मनुष्य और प्रकृति की संक्रियाएँ बीज और जड़ों से ही प्रस्फुटित होती लगती हैं। उनकी जड़ों में विकास क्रम औेर अग्रगामी गति लक्ष्य की जा सकती है। नवीनता यदि हमारे तर्कमय भावबोध को समृद्ध नहीं करती तो वह व्यर्थ है। इसीलिए नेरुदा ने तर्क रिक्त नवीनता का विरोध किया है। ‘Leaves Of Grass के प्रारंभिक संस्करणों का जब बड़ा विरोध हुआ उस समय इमर्सन तथा लिंकन ने कवि को समर्थन दिया था। यद्यपि बाद में बुर्जुआ संस्कृति के दबाव में इमर्सन भी हिवट्मैंन की कविताओं को सूचियों की कविताकहने लगे थे। जैसे हिंदी के कुछ मनचले मुंबइया फैशन के समीक्षक नागार्जुन की कविता को कींच-काँद में सनी सूचनाओं की अशुद्ध कविता’, त्रिलोचन की कविता को मायालोक की कविताकेदार बाबू की कविता को राजनीतिक उत्साह की सपाट कविताजैसे मुहावरों से अलंकृत करते रहे हैं। ह्विटमैंन हमारे इन अग्रज कवियों की तरह ही अपनी लोकधर्मिता तथा परिवेशगत स्थानीयता को बराबर कहते हैं। नेरुदा चिली में अपने स्थान के भूदृश्यों को कभी नहीं भूलते। नाज़िम अपने देश तुर्की के स्थानीय परिवेश को। उसी तरह नागार्जुन अपनी मिथिला को। केदार बुंदेलखण्ड को। त्रिलोचन अवध को। ह्विट्मैंन मे मैंनहट्टन बार बार आता है-
मैंनहट्टन के लोगों के बीच
मैंने देखा तुम्हें
बहुत से श्रमिकों के बीच एक श्रमी
मैंनहट्टन के निवासी
लंबी डगें भरते इल्लिनोइस और इण्डियाना के
घास -मैदानों को
तेज़ तेज़ पार करते
पश्चिम की तरफ उछलते कूदते
बड़ी बड़ी झीलों के किनारे
या पैनसिल्वानिया में
या ओहियो नदी के सहारे
बंदरगाहों पर
*     *    *
मैंने देखा तुम्हारे चलने का ढंग
देखे तुम्हारे मांसपेशियाँ उभरे अवयव
तुम नीले वस़्त्र पहने थे
हाथों में औज़ार थे
    मैं कई बार कह चुका हूँ परिवेशगत स्थानीयता लोकधर्मिता की प्रमुख खूबी है। सामाजिक यथार्थ का एक जरूरी आयाम। यह कवि को सामाजिक यथार्थ के करीब लाती है। विश्व की महान कविता का यह एक ऐसा प्रतिबिंबन है जिसके बिना कविता अपनी बनक रच नहीं पाती। हिंदी में ऐसे अनेक कवि है जिनकी अमूर्त कविता पढ़ कर हम पता नहीं लगा पाते कि वे जीवन भर किस धरती से अंकुरित होते रहे हैं। भवभूति उत्तर रामचरितम्में राम के द्वारा सीता को उन वृक्षों, लताओं, फूलों, भूदृश्यों को बताते हुए दिखाते हैं जो वनयात्रा करते समय उन्होंने देखे थे। यह भी कि भूदृश्य तब से अब तक कितने बदल गये हैं। जहाँ जल था वहाँ अब रेतीले पुलिन हैं। किसी भी कविता में परिवेशगत स्थानीयता उसे प्रीतिकर ही नहीं बनाती। बल्कि उसके आयामों को समृद्ध कर उसे अर्थवान भी बनाती है। भवभूति की पंक्तियाँ है-
इंगुदीपादप:  सोअयं  श्रृंबेरपुरे  पुरा ! निषाद  पतिना  यत्र  स्निग्धेनासीत्समागमा:!!
अर्थात् श्रृंगवेरपुर में यह वही इंगुदी का वृक्ष है जहा पहले स्नेहयुक्त निषादराज से मिलन हुआ था।  वाल्मीकि, व्यास, तथा कालिदास के बारे में यह बताने की जरूरत नहीं कि वे भारत के कवि है। यही कविता का जातीय तथा राष्ट्रीय चरित्र है। ’Leaves Of Grass’ को पढ़ते लगता है कि हम अमरीकी श्रमीजनों, किसानों, मछुआरों तथा वहाँ की सुरम्य तथा ऊबड़-खाबड़ प्रकृति के मध्य घूम फिर रहे हैं। मुझे यह सीखना चाहिए।
     पचास के उत्तरार्द्ध में कवि बड़े आत्मविश्वास के साथ अपनी काव्य प्रतिभा को विकसित करने में लगे हैं। Songs Of Myself’ में एक कविता की पंक्तियाँ हैं –
 
मैं तुम्हारी ही आवाज़ हूँ
मैं तुम्ही से एकात्म रहा हूँ
मुझमें तुम बोलते हो
मैं हरेक जीवंत स्त्री पुरुष का
उत्सव मनाने को ही
स्वयं का उत्सव मनाता हूँ
मेरी वही वाणी मुखर होती है
जो उन में बसी है
वही मेरे मुख से निसृत होती है
   अमरीकी बुर्जुआ समीक्षक इसे कवि का अहम्या आत्म रतिकहने को प्रेरित हुये थे। पर ध्यान रहे युद्ध पूर्व की कविताओं में कवि एक ऐसे नायक को चित्रित कर रहे हैं जो मनुष्य जीवन से  भी ज्यादा विशाल तथा उदात्त है। इससे वह लोकशक्ति की महानताको उसकी समग्रता में बताते हैं। ध्यान रहे निराला अपनी अधिवासकविता में कहते है –
मैंने  मैं  शैली अपनाई
यहाँ निराला का मैं- सामूहिक समाज का मैं है। आत्म रति नहीं। इसीलिए कविता की दूसरी पंक्ति है
देखा  दुखी    एक  निज  भाई
दुख  की छाया पड़ी हृदय में मेरे
झट     उमड़     वेदना   आई
उसके   निकट  गया  मैं   धाय
लगा   उसे  गले   से     हाय
   यदि मैंका अभिप्राय स्वयं निराला की आत्मरति होता तो वह दुखी जन को न तो देखते। न उसे गले लगाते। ह्विटमैंन ने अपने लेखों तथा कविताओं में बराबर संकेत दिये हैं कि उनके प्रगीतों की आत्मपरकताउनकी बनक को ही नहीं कहती। बल्कि वह समाज की सामूहिकता तथा उसके संघर्ष को भी कहती है। वह कवि का अहंकार नहीं है। बल्कि उसका जनसमूह में विसर्जन है। यदि यह उनकी आत्मरति होती तो वह यह न कहते-
मैं शिकारी कुत्तों द्वारा
फफेड़ा हुआ दास हूँ
कुत्तों के काटने पर
दर्द से बेहाल हूँ
नरक और अवसाद
मुझे दबोचे हैं
दण्डित व्यक्ति पर जैसे
बार बार कोड़े पड़ते हैं
मैं बाड़े की शलाकें
कस के पकड़े हूँ
मेरा गाढ़ा खून छितरा गया है
मेरी खाल पर फैलने से
वह पतला हो गया है
मैं पत्थरों और कटीले खरपतो पर
गिर पड़ा हूँ
घुड़सवार ठिठके घोड़ों को
चाबुक से पीटते हैं
उन्हें घसीटते है
मेरे चकराये कानों में
उनके व्यंग्य चुभते हैं
मेरे सिर पर क्रूरता से
डण्डे बरसाते हैं …. 
बाद में कवि कहते हैं –
जख्मी आदमी से
मैं उसका हाल नहीं पूछता
मैं स्वयं जख्मी हो चुका हूँ … इन शब्दों में  कवि की गहन त्रासदी के साथ जनता की त्रासदी भी बोलती है। कवि की महानता इसी में है कि वह जिस पात्र से संवाद करता है वैसा ही वह स्वयं हो जाता है। नीग्रो दास को एक तमाशबीन सहानुभूतिकर्ता के रूप में न देख वह स्वयं नीग्रो दास का रूप ले लेते हैं। जैसे शेक्सपियर अपनी अस्मिता त्याग कर पात्र स्वयं ही बन जाते है। जितने पात्र उतने शेक्सपियर। बर्नार्ड शा ऐसा नहीं कर पाते। इन पंक्तियों में कितना सच है-
जो कोई दूसरे को अपमानित करता है
वह मुझे ही अपमानित करता है
जो कुछ भी किसी के जीवन में घटता है
उसे मैं भी भोगता हूँ -लोक से इतना गहरा तादात्म्य विरल है। यह तभी संभव है जब कवि अपनी समग्र बनक का विजर्सन जनता में कर सके। कवि का नीग्रो दासता के विरुद्ध प्रतिरोध उनकी कविता के स्थापत्य में आद्यंत अनुस्यूत है। उनके काव्य दर्शन का दूसरा पक्ष है मनुष्य मात्र का सहज गुण। Songs Of Myselfकविता में कवि के लिये दूबमनुष्य के सहज स्वभाव का किस तरह प्रतीक बनती है-
एक बच्चा अपने हाथों में दूब भरे
मेरे पास पूछता आया
यह दूब क्या है
बच्चे के लिये क्या कहूँ
दूब बच्चा ही है
इसके अलावा मैं कुछ
नहीं कह सकता
 1860 ई० तक आते आते  नीग्रो दासता के प्रति कवि का स्वर तीव्रतम हुआ है। कहते हैं –
जहां स्वतंत्रता दासता से रक्त नहीं निचोड़ती
वहाँ दासता निचोड़ती है रक्त स्वतंत्रता से
कई अमरीकी कवियों ने वैसे नीग्रो दासता के विरुद्ध प्रतिरोध किया है। पर ह्विटमैंन जैसे तीखे, सशक्त,  दिशासूचक तथा आक्रामक प्रहार किसी अन्य कवि ने नहीं किये। कवि के लिये अमरीका के चोर -उचक्केपन ने, नपुंसकता ने,  बेशर्मी ने जैसे मसल डाला है। व्यंग्य से कवि कहते हैं – 

चेहरों और नियमों को
आमूलचूल बदल डालो
शब्दार्थों तथा प्रतिफलों को
होने दो धड़ल्ले से आपराधिक
 *      *     *    *
नरक की परत को आने दो पास
उस पर चलने को रात से ज्यादा
दिनों को होने दो सघन तम
*     *    *    *
स्वतंत्रता किसी का अधिकार न बने
क्रूरता जितनी हो सके हो
उन्हें होने दो क्रूर
उनको संतोष पाने के लिये
     क्या मैं ह्विटमैंन से यह न सीखूँ कि किसानों, मछुआरों, लकड़हारों,  बुनकरों  और श्रमिकों की संकियाओं, कठिन जीवन,  उनके अभाव तथा उनकी खुशियाँ भी कविता का कथ्य बने! Leaves of Grass में किसानों की जीवन शैली के विषय में अनेक कविताएँ हैं-
ओ किसानों की खुशियों! ….
पौ फटे उनका उठना
और चपलता से काम पर जुटना
शीत ऋतु की फसल बोने को
खेतों को जोत कर कमाना
वसंत में मकई के लिये
खेत तैयार करना
फलों के बगीचों को दुरुस्त करना
वृक्षों को छाँटना – कपटना
ओ तुम मार्गदर्शको
मेरे मार्गदर्शको -कुछ लोग कहेंगे ये मात्र सूचनायें है। इनमें उपदेशपरकता है। विश्व की कविता को जो थोड़ा बहुत मैंने पढ़ा जाना है उस आधार पर मुझे लगा कि हर बड़ी कविता में बहुत सारी सूचनायें होती है। उपदेश भी। सवाल है इन्हें कविता में कैसे ढाला जाये। राम की शक्ति पूजाका आरंभ ही सूचना से होता है। निराला अपने लोगों को जैसे स्वगत के द्वारा सूचित करते हैं
रवि  हुआ  अस्त: ज्योति  के  पत्र  पर  अमर
रह  गया  राम – रावण  का अपराजेय   समर
आज का ……  
या फिर राम सूचित करते हैं अपने साथियों को
अन्याय जिधर, है शक्ति उधर
   किसानों और श्रमिकों के जीवन से जुड़ी कवितांयें कवि ह्विटमैंन के अवसाद और निराशा को तोड़ती भी हैं । अवसाद और निराशा को तोड़ने के लिये कवि हर प्रकार के संघर्ष के लिये आह्वान करता हे –
Songs of The Open Road  कविता में कवि सीधे सीधे युद्ध और विद्रोह के लिये ललकारते है –
मैं तुम्हें युद्ध के लिये बुलाता हूँ
सक्रिय विद्रोह हमें फलीभूत हो
मेरे साथ आओ, आओ
आयुधों से लैस होकर आओ
जो चलेगा मेरे साथ
उसे अपने भोजन में से कुछ बचाना होगा
उसे गरीबी झेलनी होगी
क्रुद्ध शत्रुओं का सामना करना होगा
सब कुछ  त्याग कर अकेला भी
होना होगा–
इसीलिए कवि सर्वहारा के साहस – उसके औदात्य और भव्यता की ओर संकेत करते हैं–
बड़े अवरोधों के विरुद्ध
संघर्ष को उठो
शत्रुओं का सामना
निडरता से करो
पूरी तरह जनता के साथ हो जाओ
संघर्ष , पीड़ा , कारागृह , प्रचलित घृणा
सबका आमना सामना देखो
यहाँ अंग्रेजी के विद्रोही कवि शैले तथा बायरन की कविता याद आती है। शैले की एक कविता है – इंग्लैण्ड की जनता के लिये गीत
इंग्लैण्डवासियो-
उन प्रभुओं, सामंतों के लिये
क्यों जोतते हो खेत
जो तुम्हारा दमन करते है
क्यों बुनते हो कपड़ा उनके लिये
इतने श्रम और सजगता से
तुम्हारे तानाशाह पहनते हैं
भव्य पोशाकें
आखिर क्यों
जन्म से मृत्य तक
उन्हें उगा कर देते हो अन्न
देते हो वस्तुये बना कर
अपनी जान दे कर
उनकी सुरक्षा करते हो
वे एहसान फरामोश…निकम्मे और नाकारा है
तुम्हारा पसीना निकालते है
ओह…नहीं,  तुम्हारा खून भी
पीते हैं
ये इंगलैण्ड की मधुमक्खियाँ
भट्टियों में तपा कर
क्यों ढालती हैं निरे हथियार
जंजीरें और चाबुक
ये डंकहीन निठल्ले आलसी
तुम्हारे कठोर श्रम की कमाई को
चौपट कर देंगे।
 यहाँ शैले,  ह्विटमैंन, नागार्जुन तथा केदार बाबू जैसे परस्पर गले मिल रहे हों । 1860 में उन्होंने कविता लिखी,  तुम्हारे लिये ओ स्वतंत्रता। कहा है कि सारे गीत वह उसीके लिये रच रहे हैं 

तुम्हारे लिये ये गीत रचता हूँ / काँपती आवाज़ में

Leaves of Grass में कवि ने अपने भविष्य का काव्य मंथन किया है। स्वतंत्रता का क्या रूप हो सकता है। एक ऐसा समाज जहाँ मनुष्य मनुष्य में किसी तरह का विभेद न हो। एक शोषण मुक्त समाज।
    ह्विटमैंन ने कभी विवाह नहीं किया। यह भी सही है कि कवि को सुख सुविधाओं का नितांत अभाव रहा था। उनके पत्रों तथा डायरियों से साफ साफ पता नहीं लगता कि वह किस किस को प्यार करते थे। उन्होंने अनेक प्रेम प्रगीत लिखे है। इससे लगता है कि वह किसी न किसी स्त्री को प्यार जरूर करते थे। जैसे आज तक पता नहीं लग पाया कि शेक्सपियर की, Darklady of The Sonnets’ कौन है जिसके लिये 150 प्रेम सानेट संबोधित है। ह्विटमैन कहते है-
इससे पहले कि मैं मरूँ
चुपके से कहूँगा
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
अब हमारा मिलन हो चुका है
हम परस्पर एक दूसरे को
परख चुके है
हम सुरक्षित हैं
शांति के साथ
समुद्र की तरफ लौटते है …मेरी प्रिया
…. यह अबाध समुद्र
हमारा विछोह करेगा ही
   1873ई० के शुरू में ह्विटमैंन को सुबह सुबह लगा कि उनका बाँया हाथ तथा बाँया पाँव उठ नहीं पा रहे हैं। इन्ही त्रासद दिनों में कवि ने अपनी माता को खो दिया। इस पक्षाघात के बाद रोज़ी की दृष्टि से कवि की हालत बहुत दयनीय हो चुकी थी। जिस इमर्सन ने शुरू में कवि को इतना बड़ा समर्थन दिया वह भी अब किनारा कर चुके थे। दो साल तक किसी प्रतिष्ठित पत्रिका में उनकी कविताएँ नही छपीं। अमरीका के बड़े प्रकाशकों ने उनके संग्रहों को बड़ी अपमानजनक टिप्पणियों के साथ वापस कर दिया। उनकी कविता की या तो कटु समीक्षा हुई। या फिर समीक्षकों ने कपटपूर्ण चुप्पी साध ली। कवि की गाँठ – मुठी में कुछ न था जिस से रोज़ी चल सके। 1977 ई० में टामस पेन पर उनके व्याख्यान में दो चार छः लोग ही आये। अमरीकी समाज में घोर उपेक्षा के बावजूद उनका एक आलेख वैस्ट जर्सी प्रैसमें छपा। इसका नोटिस इंग्लैण्ड में भरपूर लिया गया। वहाँ के लोगों ने तय किया कि इस महान अमरीकी अभावग्रस्त कवि के लिये कुछ पैसा एकत्र किया जाये। इस बात ने अमरीका के समाचार पत्रों को कवि पर प्रहार करने का एक और अवसर दे दिया। ब्रिटेन में रौजिटी ने कवि की कविताओं को संपादित किया। उन्हे प्रकाशित करा के फ्रांस, जर्मनी तथा रूस को भिजवाया। कवि को अब अनुभव हुआ कि अमरीका के बाहर लोगों ने उन्हें बडा कवि मान लिया है। 1882ई० में बोस्टन के अटौरनी ने कवि को नोटिस दिया कि Leaves of Grass एक अश्लील तथा अनैतिक काव्य कृति है। इस नोटिस ने अमरीकियों के दिमाग में यह बात और पुख्ता कर दी कि ह्विटमैंन एक अश्लील तथा अनैतिक कवि हैं। पर कवि की कीर्ति दिनों दिन बढ़ती ही गई। कहा जाता है कि उनकी ‘Songs of Myself’ कविता से मार्क्स अपने लेखों में उद्धरण देने लगे थे। यहाँ तक कि लूनाचर्स्की जैसे बड़े मार्क्सवादी आलोचक ने उन पर आलेख भी लिखा था। पाब्लो नेरुदा उन्हें बड़े सम्मान से याद करते हैं। अब कवि की उम्र बहुत हो चुकी थी। 1888 ई० में उनके जीवन के कुछ ही दिन शेष थे। उस समय वह एक बहुत ही दुर्बल किसान की तरह दिखने लगे थे। उसी समय उन्होंने एक लघु कविता लिखी ‘Helcyon Days’। कविता में उन्होंने एक कवि की तरह अपने जीवन के बारे में कहा है। कवि छाया प्रतीतियों को भेद कर सार को कह रहे हैं–
सिर्फ सफल प्रेम से ही नहीं
न धन से, न युवा जीवन में
अर्जित मान सम्मान से
न जय पराजय से
न राजनीति से,
न युद्ध से….(शांति मिलती है)
जैसे-जैसे जीवन ढलता है
क्षुब्ध भावावेग मंद होते है
जैसे सांध्य आकाश को
ढकते हैं
सुंदर, कुहरिल निःशब्द सतरंगे इंद्रधनुष
जैसे विनय या जीवन में भरापन
सुशांति – ये सब
जैसे देह में घुलने लगते है
ताजा …मनमोहक हवा
जैसे पके जीवन की दीप्ति
फलवान टहनियाँ
परिपक्व निरुद्यम
ऐसे में प्रकृति की तरह
प्रचुर शांतिमय क्षण ही
सबसे अधिक उल्लसित
ध्यानमग्न शांतिमय
हर्ष भरे दिन होते हैं।
न जाने क्यों याद आती है निराला की सांध्य काकलीमें संकलित कविता-
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है
आशा का प्रदीप जलता है हृदय कुंज में
युद्धोपरांत के निर्दय वर्ष कवि को बहुत ही त्रासद थे। Leaves of Grass के अभिप्राय को बताते हुये उन्होंने कहा है कि मैं अपनी रुग्णता, गरीबी तथा वृद्धावस्था के बीच इसे (Leaves of Grass)  समाप्त करता हूँ। साथ में यह भी कहा  कि किसी भी सूरत में उन्हों ने क्षण भर को भी अपना लक्ष्यबद्ध कार्य नहीं त्यागा। कई सालों तक कवि ने अर्ध पक्षाघातिक और बेसहारा जीवन जिया। फिर भी वह गद्य तथा कवितायें लिखते रहे।

      
 अंतिम दिनों में ह्विटमैंन ने अपने को समाजवादीबताया है। कवि का एक महत्वपूर्ण आलेख है, ‘अमरीका में आज कविता-शेक्सपियर -भविष्य। उसमें उन्होंने अमरीका की लोकविमुख कविता तथा वहाँ के पतनशील सांस्कृतिक जीवन के प्रति गहरा असंतोष व्यक्त किया है। संकेत है कि अमरीका चाहे जितनी भौतिक उन्नति कर ले, जब तक वह उत्कृष्ट लोकधर्मी कलाकृतियाँ, सामान्य जन के हित तथा उच्च नैतिक मानवमूल्य नहीं सहेजता तब तक यह सारा वैभव निष्प्राण और रिक्त रहेगा। उन्होंने भविष्यवाणी की कि एक दिन अमरीका के लोग जागेंगे। जन समुदाय समझेगा कि उसके सच्चे हित कहाँ है। तब वह उनकी अदम्य माग कर सत्ता को दहला देगा।
     हम जैसे कवियों को कितनी प्रेरक बात है कि ठीक अंतिम समय तक ह्विटमैंन ने अपनी निजी अंतर्मनकी दुनिया में लौटना नही चाहा। कहते हैं कि कवि की बनक तथा आकृति बेहद आकर्षक थी। कई चित्रकार तथा मूर्तिशिल्पी उसे अपनी अपनी कलाओं में उतारने को उत्सुक रहे।
    कवि ने अपना घर पाने का स्वप्न भी देखा था । उन्होंने अंतिम दिनों में काठ का एक छोटा सा घर खरीदा था। कुछ अपने पैसे से। कुछ कर्ज ले कर। घर एक लेखक के घर जैसा न हो कर किसी रिटायर रेल कर्मचारी या किसी नाविक अथवा किसी अकुशल मिस्त्री के घर जैसा लगता था। कहते हैं कि जब तक कवि के पैरों ने साथ दिया तब तक वह घूम फिर लेते थे। वह अंतिम क्षण तक सजग रहे। निडर और निश्चिंत। उनका देहावसान 26 मार्च, 1892 को हुआ। उषा की अरुणिमा खस चुकी थी। मंद मंद बूँदा -बाँदी थी। उनका दाँया हाथ उनके सबसे प्रिय साथी होरेस ट्राबैल के हाथ में था। चिकित्सक आश्चर्यचकित थे कि आखिर कवि इतने दिन जी कैसे लिये। कदाचित महान कवि की अटूट जिजीविषा से ही यह संभव हुआ होगा। उनके निधन के बाद भी अमरीका के बुर्जुआ प्रैस ने उनकी कविता पर बहुत ही भद्दी टिप्पणी की थी। कहा गया कि उनकी कविता में जानी पूछी अभद्रता है। वह अश्लील है। अनैतिक भी। उनकी पूरी कविता में एक पंक्ति भी ऐसी नहीं है जिसे उत्कृष्ट काव्य कहा जा सके। इससे हम जानें कि किसी भी देश की बुर्जुआ सत्ता लोकधर्मी कवि तथा के प्रति कितना क्रूर व्यवहार कर सकती है। ह्विटमैंन एक प्रसिद्ध कविता है कवि। उन्होंने कवि के रूप में कुछ कहना चाहा है। उसकी कुछ पंक्तियों से अपनी बात खत्म करता हूँ – यहाँ ध्वजया पताका कवि के महान ,उत्कृष्ट, संघर्षमय तथा बड़े मानवीय लक्ष्य का प्रतीक है। कवि के लिये 

वही है सर्वस्व –

मेरे अवयव, मेरी रगें फेलती चौड़ाती  है
मेरी कहन
मेरा काव्य कथ्य साफ है
रात के गर्भ से
इतना चौड़ा ध्वज लहराता है
मैं अपने पन पै अटल हूँ
लक्ष्य के लिये अटूट
तुम्हारे (ध्वज) लिये  ही
गाता हूँ
ओ ध्वज –
तुम्हारे वैभव के सामने
धन मिट्टी है
फसल से फटका अन्न
पौष्टिक भोजन
उपभोग्य वस्तुओं से अटे गोदाम
जहाज़ों से उतरता विदेशी माल
ध्वज के सामने सब फींके है
ये जलयान
संकेत के लिये लगाई गई पताका
क्या होगा पाल या भाप से
चलने वाले इन जहाज़ों का
अच्छे से अच्छे जहाज़ कुछ नहीं है
तुमहारे वैभव के सामने
नही भाते मुझे
माल लाते ले जाते जहाज़
न धन  न व्यापार
न अद्यतन मशीने
न गतिमय वाहन
न आय
तुम्हारे सिवा कुछ नहीं भाता मुझे
यहाँ आगे देखता हूँ तुम्हें
सिर्फ तुम्हें …… अपना भविष्य
ओ शौर्यमय जलयान संकेत पताका
तुम ही हो सब कुछ
मेरे लिये
हवा में फड़फड़ाती ध्वज।
                –0–
(नोटः-कविताओं का शब्दानुवाद नहीं किया गया है। वह संभव नहीं लगा। मैंने कवि के भावों को समझ कर ही कुछ खास कविताओं की पंक्तियाँ का भावानुवाद किया है। इसे अनुवाद न कह कर अनुवाकभी कह सकते हैं ।
मेरे प्रिय युवा कवि संतोष ने मेरी वाल्ट ह्विटमैंन की याद मेंकविता जब पढ़ी तो मुझ से इस कवि पर आलेख तैयार करने को भी कहा। मुझे प्रसन्नता है मैं एक ऐसे महान लोकधर्मी कवि पर लिख पाया जिसे मैं हर समय अपनी धरती के करीब पाता हूँ। यह प्रयास बहुत ही प्रारंभिक है। अधूरा भी। इस महान कवि के बारे में आखिर कितना भर एक आलेख में बताया जा सकता है। मेरा यत्न रहा है हम उस महान अमरीकी कवि की संघर्षपूर्ण काव्य यात्रा को जाने जो अपने ही देश के लोगों द्वारा निर्वासित, अपमानित तथा उपेक्षित रह कर भी विश्व-वंद्य कवि बन पाया। बड़े तथा अडिग लक्ष्य को लेकर चलने वाले कवियों को यह सब सामान्य है। मैंने कई बार कहा है कवि कर्म अत्यंत कठिन कर्म है। पर अंतिम साँस तक कवि की तरह जी कर कविता को साधना कठिनतम होता है। वाल्ट ह्विटमैंन ने काव्य रचना ही नही की वह एक सच्चे तथा योद्धा कवि की तरह अंतिम क्षण तक जिये भी।)
                                                    

विजेन्द्र जी वरिष्ठ कवि एवं जानी-मानी लघु पत्रिका ‘कृति ओर’ के संस्थापक सम्पादक हैं। 1956 से हिंदी कविता लेखन में सक्रिय विजेन्द्र जी की अब तक 20 से अधिक पुस्तकें आ चुकी हैं जिनमें कविता के अलावा नाटक एवं डायरी भी शामिल हैं। विजेन्द्र जी द्वारा किया गया नव्यतम प्रयोग ‘आधी रात के रंग’ जिसमें कवि  की पेंटिंग्स और उन पर लिखी गयी कवितायें शामिल हैं, अभी बहुत चर्चा में रही है। कविता लेखन के साथ-साथ आजकल पेंटिंग्स बनाने में भी काफी सक्रिय हैं।

(आलेख में दी गयी सारी पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)  

 मो0- 9928242515
 ई-मेल:  poetvijendra@gmail.com                                              

विजेन्द्र जी का पत्र

मित्रों, वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी ने मेरी एक लम्बी कविता मोछू नेटुआ पर एक लम्बा पत्र भेजा है जिसे मैं बिना किसी भूमिका के पूरी विनम्रता के साथ आप सबके लिए ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसी क्रम में आप विजेन्द्र जी की एक चर्चित कविता ‘मुर्दा सीने वाला’ भी पढेंगे। हमेशा की तरह हमें आप सबकी बहुमूल्य टिप्पणियों का इन्तजार तो रहेगा ही।

विजेंद्र                                                                                         सी – 133 वैशालीनगर

                                                                                                   जयपुर

                                                                                                   14 नवम्बर , 2012

प्रिय संतोष

मुझे खेद है कि मेरा पत्र तुम्हें नहीं मिला। फिर से लिख रहा हूँ। तुम्हारी कविता को बड़े ध्यान से पढ़ा ।

मुझे लगा तुम्हारा कथ्य अछूता है। इधर लोगों का ध्यान जाता ही नहीं। क्यों नहीं जाता यह हमारी चिंता का विषय क्यों न हो! ऐसे चरित्र अत्यंत जीवंत तथा प्राणवान होते हैं। नितांत अभावों और कष्ट में जी कर भी उसे जीते हैं। कठिनाइयों को झेल कर स्वयं कठोर बनते हैं। ऐसे चरित्र हमारी कविता में क्यों न आयें इससे सामाजिक यथार्थ के नये पहलू उजागर होंगे। मोछू नेटुआ एक जीवंत चरित्र है। यही है वह लोक जिसे दिल्ली के लोग अपनी अज्ञता से पिछड़ी संवेदना का वाहक मानते हैं। वे आज भी यह मानने को तैयार नहीं है कि लोक भी कोई महत्वपूर्ण काव्य कथ्य है। या हो सकता है । मध्य वर्ग अपने से बाहर जाने के लिये कतराता रहा है । पिछले दिनों हमारे यहाँ ‘जलेस’ राज्य कार्यकारिणी की बैठक थी। एक उच्च पदाधिकारी पर्यवेक्षक बनकर दिल्ली से आये थे। जब लोक की बात चली तो बोले कि लोक में तो बिड़ला टाटा भी आते हैं। मैं अवाक रहा। हतप्रभ भी। यदि लोक में बिड़ला टाटा आते हैं तो फिर ‘भद्र लोक’ या ‘प्रभु लोक’ में कौन आता है। क्योंकि ‘लोक’ है तो ‘भद्र लोक’ भी है। अंग्रेजी में जिसे ‘एलीट’ कहते हैं। मैं लोक को सामान्य – अतिसामान्य -अर्थ में लेता रहा हूँ। यानि जो भद्र लोक का उलट है। खैर, मोछू जो सदियों से उपेक्षित है। वह कविता में कहता भी है कि भद्र लोक ने हमें अपराधी घोषित किया है। आज यह वर्ग सत्ता का विरोध करता है तो उसे प्रतिबंधित संगठन का आदमी बता कर उसे कारावास में ठेल दिया जाता है। इस बात को मोछू तक चली आ रही है। लोकतंत्र के 65 साल बाद भी वह अछूत और उपेक्षित है। इतिहास में उसे भुलाया है। साहित्य में भी उसे दरकिनार किया। क्योंकि इतिहास लिखवाया भद्र और कुलीन लोगों ने अपनी सुविधा के लिये। साहित्य में भद्र और कुलीन आज भी अपना वर्चस्व बनाये हुये हैं। उन्होंने जो प्रतिमान रचे वे हमारे ऊपर थोपे गये हैं। मोछू नेटुआ के श्रम सौंदर्य को वे नहीं सराह पायेंगे। मार्क्स ने भी सबसे बड़े अपराध को गरीबी से ही जोड़ कर देखा है। मोछू नेटुआ सही कहता है कि –

‘आज के समय में सबसे बड़ा अपराध है  गरीबी’

उसका चरित्र यह भी बताता है कि हमारे समस्त सामाजिक संबंधों का आधार भी आर्थिक है। वे उसी से प्रभावित होते है। नियंत्रित भी। माछू नेटुआ सजग है। उसे उसके हुनर ने ही उसे सचेत बनाया है। वह जानता है कि सुविधाजीवी कुलीन वर्ग बहुत ही परजीवी तथा डरपोक होता है। वह साँप से डरता है। यही वजह है मोछू नेटुआ अपने काम का पारिश्रमिक ठौंक बजा कर तय करता है। अपनी शर्तों पर। यही है श्रम का सिद्धांत जब कोई श्रमिक उसे बाज़ार में बेचता है। वह उसे अपनी शर्तों पर ही बेचता है। खरीदने वाला उसे अपनी शर्तो पर खरीदता है। इसीलिये मोल भाव होकर किसी एक बिंदु पर बात तय होती है। क्योंकि मोछू नेटुआ जानता है कि श्रम खरीदने वाला उसके श्रम के बिना रह नहीं सकता। तुमने उसे सजग दिखा के अपने पक्ष को भी साफ किया है। यानि लेखक उसके साथ है। यह कविता की ध्वनि संकेत की बारीक लय है। उसकी ताकत भी। मोछू नेटुआ राजनेताओं की कुटिलता और उनके छद्म पर तीखे व्यंग्य करता है। ‘जहरीली होती जाती इस दुनिया’ में से‘बेज़हर लोगों को’ वह कैसे सामने लाये। यह आज की राजनीतिक त्रासदी है। हम विकल्पहीन सिथति में अपने पथ को कैसे सुनिश्चित करें। पर नई पीढ़ी सामाजिक विकास पक्रिया में अपने लिये मुख्यधारा खोज लेती है। इसीलिऐ उसके बच्चे अपना पुश्तेनी काम छोड़ कर नया विकल्प चुनते हैं। मोछू नेटुआ जानता है कि साँपों को वैज्ञानिक तकनीकों से पकड़ कर बड़ी बड़ी कंपनियाँ उनके जहर का बंज व्यापार कर रही हैं।वनस्पतियों को उजाड़ा जा रहा है। उसकी श्रमसाध्य आजीविका अब खजरे में है। पूँजीकेंद्रित व्यवस्था उसके अर्जित हुनर का महत्व न समझ कर उसे मरने जीने को छोड़ देती है। अतः कविता अपने अतीत का विकास व्यक्त कर वर्तमान के द्वंद्व से अन्वित होती है। इन अनेक सूत्रों की वजह से कथ्य संलिश्ष्ट और रोचक हुआ है। पूरी कविता आज की कुलीन संवेदना तथा जड़ बुर्जुआ सौंदर्य पर तीखा प्रहार भी है। मैं इस अछूते कथ्य पर रची इस कविता के लिये अपने प्रिय युवा कवि संतोष को हार्दिक बधाई देता हूँ। यह विनम्र निवेदन भी करता हूँ कि इस लोकधर्मी काव्य संवेदना को गंभीरता से उत्तरोत्तर व्यापक और विस्तृत करें। यही नहीं बल्कि ‘अनहद’ तथा ‘पहली बार’ से इसे अपने समय के युवा कवियों के चित्त में बीज की तरह सहजता से बोयें ।यह काम ऐतिहासिक होगा । बाद में लोग सत्य को सराहेंगे ।एक नई फसल नये विज़न के साथ सामने आयेगी ।

एक बात ध्यान देने की है। कविता में चरित्र सृष्टि सबसे कठिन काम है। क्यों कि यहाँ कवि को अपने लिये ‘तटस्थ सम्बद्ध’ बनाना पड़ता है। यही है कविता में ‘तटस्थ सम्बद्धता’ का सिद्धांत। यानि चरित्र या घटना से दूर होकर उससे जुड़ा रहना। और जुड़ कर भी अलग रहना। मार्क्स इसे विपरीत तत्वों की एकरूपता कहते हैं। दूसरे, हमें चाहिये कि चरित्र को उसकी पृष्ठभूमि के अनुसार स्वतः विकसित हेने दें। जो भाषा वह बोलता है वह उसी की लगे। इस कविता में एक जगह पंक्ति है –

‘दरअसल अपने समय की हँस मुख दुनिया का ही
एक उदास चेहरा  हैं हम
अपनी उदासी के लिये हमेशा से अभिशप्त’

यहाँ मुझे कवि संतोष बोलते दिखाई पड़ते है। मोछू नेटुआ नहीं। ‘अभिशप्त’ शब्द अस्तित्ववादी बौद्धिक लोगों का अति व्याख्यायित शब्द है। मोछू नेटुआ का शब्द होगा, ‘सराप’ जो शाप का अपभ्रंश तथा तद्भव है। दरअसल हमें रचनाशील भाषा सिरजने का कठिन प्रयत्न करना होगा। तुम पूछोगे यह क्या है। ध्यान दो कि रचनाशील भाषा वह है जिसके शब्द पूर्व निश्चित अर्थों का अनुधावन नहीं करते। गैररचनाशील भाषा में शब्द पूर्व निर्धारित अर्थों का अनुगमन करते हैं। रचनाशील भाषा में कवि द्वारा रचित अर्थों का शब्द स्वयं अनुधावन करते हैं। इसीलिये कविता में शब्दों के अर्थ वे नहीं होते जो कोश में दिये होते हैं। यहाँ अपनी बात साफ करने के लिये मैं अपनी एक कविता ‘मुर्दा सीने वाला’ को दे रहा हूँ –

मुर्दा सीने वाला

काला स्याह अधेड़ खड़ा
धरे हाथ कमर पर
आँखें लाल चमकीली
अंधकार में तपा हुआ ताँवा जैसे
बड़ी अदा से पान चबाता
देता अपनी महरारू को गाली
खड़ी पास में
जो झाड़ू ले कर
कहता आँखें तरेर कर
नहीं गई यहाँ से
छिनाल …कुत्ती …
रोज मने करती है पीने को
ठर्रा का पउआ
तो कैसे सिऊँगा
मरे मुर्दों को
कहता फिर बुद बुद कर

ससुरी बैठी रहती
सड़क बुहार सफाई कर
दिन भर तू करती क्या है
जरा बता तो
वह नहीं तनिक डर लाती मन में
कहती गर्दन टेढ़ी कर
पी ….
चाहे मर
मेरे जाने
कैसे पाँलू कुनवा
कहता वह .. चुप्प सुअरिया
चुप्प ….जुबान निकाली
तो पेट चाक कर दूँगा
नहीं रहा डर
मुझे मरने से
पिछले बीसों बरसों से
जाने कितने  कितने मुर्दों को
सीं सीं कर
नक्की किया
अभी तक
तू किस खेत की
मूली ठहरी
चक्कू मेरा सगा दोस्त है

मैं और ऊषा
खड़े खड़े एस0एन0 अस्पताल के आगे
वाट जोहते
कब खुले बाज़ार आगरे का
व्यास मार्केट से
लेना है चश्मा

फिर देखा घुन्ना कर उसने
थूका बहुत जोर से थू … थू … थू ..
उस पर …
जा, चली हियाँ से जा
नहीं पार कर दूँगा चक्कू
लगातार बुदबुदा रही है
सूखी पिण्डली चमक रहीं हैं उसकी
चेहरे पर कमज़ोरी की है
सूखी कालिख
जाने कब से झेल रही है
चक्कू की अगिन को
बोली फिर
कड़ा बोल जी भर कर
देख क्या रहा भड़ुए
जो करना है कर
देखूँ कैसा मर्द बना है
मैं मुर्दा थोड़े ही हूँ
जो सीं देगा मुझको

अजब हाल है
रंग गेंहुआ
ढली जवानी
कत्थई किनारेदार
ऊँची ऊँची धोती
फटा सटा सा पहने ब्लाउज़
आँखें गड्ढे में धँसती
बाँहों पर कबरे निशान
जले कटे के
क्या जीवन की इच्छा
बलवती बनी है

ऊषा को नहीं पता
यह गुज़र रहा चुपचाप
ठीक वहीं
कहाँ ध्यान है जाने
देर हो रही
घर जा कर धोना करना है
सोच रही  -मुझे क्या बदलाव यहाँ  आ कर
जो करना वहाँ भरतपुर में
वही यहाँ करना है
सबको जहाँ जरूरत
जिस सुविधा की
वह वह देनी है
सुबह नाश्ता नहीं किया
दिखाई नहीं पड़ा कुछ ऐसा
जो चल सके खड़े खडे
देखे तब भुने चने
लाई का ठेला
आ लगा वहीं पर
मन ही मन बिन कहे बताये
ताड़ लिया मैंने
यह चल सकता है
समय काटने को

नहीं वार्तालाप थमा था उसका
चलता था नाटक
रोष भरा
बार बार तहमद सँभालता
खड़ा हुआ था
अधेड़ काला धुत्त नशे में

मैं डरा- डरा निडर
कनछेर ले रहा भीतर घुस कर
कहता था तरेर भर के
हो असल बाप से अपने
तो चली कहीं जा
चाहे साथ किसी के
मुझे नहीं जरूरत तेरी
रोज़ रोज़ सींता हूँ
तुझ सी जाने कितनी
मरी जहर से
या मरी लुटा कर अपनी इज्जत
थू … थू …
फाँस लगा कर
बडे बड़े भीम दादा डकैत
अबूझ अग्यानी ग्यानी
थू … थू …
जाते सब इसी रास्ते
कर के देख जरा तू
क्या … कोई बिना पिए
पउआ ठर्रा का ….
होंगे साले नब्बाब अपने घर के
…. देखा मेरी ओर घुमा के
अपना विकृत चेहरा
जैसे अब तक सुना किया
मैं उसकी रामकहानी
छिप छिप कर
नहीं दिया भाव मैंने कोई
जैसे और और
वैसे ही मैं राहगीर
इस बड़े शहर में
कहने लगा सुना कर मुझ को
यह पूरा बाज़ार मेरा है
मुर्दा घर मेरा है
चाहे जो हो अपराधी
आएगा अंत
इसी चक्कू के नीचे
नहीं हिलेगा पत्ता बिन मेरे

मुर्दा सींना
नहीं काम गुदड़ी सीने का
इसको कर सकता है
कोई मरद दिलावर
कभी देखता आ कर कोई
क्या हालत है अंदर ….
फिर घूरा उसको
नहीं गई तू डायन हिन सै
मुझे पढ़ाती कथा राम की
समझा उनको
जो दिनों रात जिंदा इनसानों को
बना बना मुर्दा
अस्पताल में भेज रहे हैं
कोई हो चाहे सड़ी लाश
चिथड़े चिथड़े
साफ सिडौल हुलिया
गठी देह हो चाहे
नहीं रहा करता कुछ भी
हो जाता सब चीर चीर
उस टैम आये कोई
कौन कितना बडा मरद है
तू क्या ……
कुत्ती
सुअरिया ब्यांत की
क्या जाने ….
फिर चीर चीर को बैठाना
जोड़ना गाँस गाँस को सीं कर
फिर से सड़े मास की चीरें
कोई आये ….
गर हिम्मत होय किसी में …
चखे मजा इसका भी
फिरते हैं जाने कितने
जूते चटकाते
ऐसा कुछ है
तो हुनर दिखायें
हुआ होगा आजाद मुलक ….
मुर्दों की कमी नहीं है
पिछले चालीस बरस से
देख रहा हूँ
बढ़ा भौत है
लावारिस लाशों का नम्बर
कटे फटे तेज धार से
गुम सुम चोटों से मर कर
लुटी इज्जतें जिनकी
ऐसी निरी औरतें
लेकिन तनखा बित्त बित्त बढ़ती है
जा …. चली जा हियाँ से… जा
मूँह काला कर
चाण्डाल कहीं की …
तु क्या बेचे

अब चुप जा
भौत हाँक ली
डींग सड़क पै
मुझे नहीं डर चक्कू
सूजे का
खाती हूँ झाड़ू का
यह सड़ा शहर है
नहीं अंत कींचड़ का
मुझ पर क्या भभक मारता
उतर ज़ा नीचे अरबी घोड़े से
लगे पता भाव तब
दाल आटे का ।
 –0–

यह कविता मेरे संकलन, ‘घरती कामधेनु से प्यारी’ में संकलित है। मुझे डर था हिंदी के लोगों की प्रतिक्रिया बड़ी खराब होगी। पर सबसे पहले हिंदी के प्रतिष्ठित समीक्षक रेवतीरमण जी ने अपनी समीक्षा कृति, ‘कविता में समकाल’ मेरी कविता पर एक पूरा अध्याय दिया है। उसमें इस कविता पर टिप्पणी करते हुये कहा है, ‘मुर्दा सीने वाला’ तो सर्वहारा कला के इतिहास की बड़ी घटना हे। इसमें नायक नायका का जो संवाद है, वह अपूर्व है। कहना चाहिये, इस कविता की मार्फत, हिंदी की प्रबंध काव्य परंपरा में जो परिशिष्ट में भी उल्लेखनीय नहीं था।, केंद्रीय स्थान पा गया है। ‘मुर्दा सीने वाला’ भी कविता का, उसमें भी प्रबंध कविता का, विषय हो सकता है, विजेंद्र से पहले शायद किसी ने नहीं सोचा।’ इस टिप्पणी को पढ़ कर मुझे थोड़ी तसल्ली हुई। नये और अछूते कथ्य चुनने को साहस करना पड़ेगा। जोखिम भी उठाना पड़ सकता है। कुलीन -भद्र -तथा प्रभु वर्ग ऐसी कविता की उपेक्षा करेगा। अधिकांश कवि इस  जोखिम को नहीं उठा सकते। फिर जब हम चुनौती देते हैं तो हमें उस पर दृढ़ रहने के लिये शकित भी अर्जित करनी होगी। यह शक्ति सर्वहारा के पक्ष में खुल्लम-खुल्ला खड़े होने से ही अर्जित की जा सकती है। तभी हम प्रचलन से अलग और भिन्न अपनी काव्य यात्रा का पथ निर्मित कर पायेंगे। प्रभुवर्ग के समीक्षकों की उपेक्षा से सर्वहारा के समर्थक कवि को कभी भयभीत नहीं होना चाहिये। वर्ग समाज में वर्ग मित्र होते हैं। पर वर्ग शत्रु भी। तो संघर्ष दुर्निवार सत्य है। जिस कवि कोई संघर्ष काव्य यात्रा नहीं वह कभी प्रभावी नहीं हो सकता। खैर, ये सब बातें मैंने ‘मोछू नेटुआ’ को ध्यान में रख कर ही कहीं हैं। ध्यान दो जब वर्ग शत्रु हमारी तारीफ के गीत गाये तो समझो हम पथभ्रष्ट हो चुके हैं। हमारी कविता की तारीफ कौन किसा मकसद से कर रहा है कवि को समझ लेना जरूरी है। मेरा विनम्र सुझाव है कि कविता को अपेक्षित ऊँचाइयों तक ले जाने के लिये एक किसान की तरह ही तैयारी करनी पड़ती है। किसान धूप – ताप,शीत, वर्षा तूफान कुछ नहीं देखता। उसका एक ही लक्ष्य है धरती को कमा के बेहतर फसल लेना। यह काम आकस्मिक नहीं है। बल्कि पूर्णकालिक है। मुझे उम्मीद है तुम मेरी बातों को सही परिप्रेक्ष्य समझोगे। ‘मोछू नेटुआ’ यदि नहीं पढ़ी होती तो कदाचित् तुमसे इतना गहन और विस्तृत संवाद न हो पाता। इस कविता को पढ़ कर मैं तुम्हारे कवि के और करीब आया हों। तुम्हारा संग और प्रगाढ़ हुआ है। कब तक रहेगा यह तो समय ही बता पायेगा।

     नाजि़म लगभग पूरा है। उसे एक दो बार देख कर भेज दूँगा।

     प्रसन्न रहो। मेरा आशीर्वाद तथा ढेर शुभ कामनायें।

                                                              सस्नेह,

                                                              विजेंद्र

विजेंद्र

विजेंद्र जी हमारे समय के न केवल एक बड़े कवि हैं अपितु वे एक बेहतर चित्रकार एवं विचारक भी हैं. हम सब ‘कृति ओर’ में उनके सम्पादकीय आलेख पहले से ही पढ़ते आ रहे हैं जो हमेशा एक नए तरीके से सोचने के लिए हमें बाध्य करते हैं. प्रस्तुत आलेख में मार्क्सवाद की विवेचना करते हुए विजेंद्र जी ने यह साबित किया है कि आज 21 वी सदी में मार्क्सवाद ही एक मात्र ऐसा रास्ता बचा है जो हमें सामंती पूँजीवादी नारकीय जीवन से उबार सकता है। तो आईये पढ़ते हैं विजेंद्र जी का यह चिंतनपरक आलेख  
 
इक्कीसवी सदी और कार्ल मार्क्स
समाजवादी सोवियत संघ के दुर्भाग्यपूर्ण पतन के बाद दो तरह के लोगों को खुशी हुई होगी। एक तो पथभ्रष्ट- मौकापरस्त-मार्क्सवादी-दुनियादार लोग। उन्हें यह कहने का मौका मिला कि वे दूरदृष्टि संपन्न हैं। अतः समाजवादी ढाँचे के खसकने से पहले ही उन्होंने मार्क्सवाद से अपने हाथ धो लिये। हिंदी में सत्तर के आस पास मार्क्सवादी कहे जाने बाले प्रमुख आलोचक नामवर सिंह ने मार्क्सवाद त्याग कर अमरीकी नई समीक्षाका रूपवाद अपना लिया था। यह एक प्रकार से एक तथाकथित मार्क्सवादी द्वारा मार्क्सवाद को विकृत करने का चतुराई भरा तरीका था। मार्क्स ने एक जगह जीवन संघर्षों में अपने साथियों के रंग बदलने के संदर्भ में कहा है कि बहुत से लोग रूप‘ ( भेष) में वाम होकर कथ्य‘ ( मन) में अवसरवादी होते हैं। ऐसे लोग अपनी हवा बनाने के लिये चुप नहीं बैठते। वे चाहते हैं उनकी बात और भी माने। उसे प्रचारित करें। यही हुआ। नामवर सिंह की देखा देखी – उनकी लाभकारी स्थिति से अपना काम बनाने के लिये कई अन्य प्रमुख-अप्रमुख लेखकों ने भी वैसा ही किया। वे आज तक उसी रंग में तर हैं। आये दिन भेस बदलने को दिल्ली सबसे सुरक्षित जगह है। पर यह काम बड़ी चतुराई से किया गया। यानि जरूरत पड़े तो मार्क्सवादी भी बने रहें। पर उदारता में निहित अवसरवाद के जरिये सत्ता से रजत सिक्के तथा पद-प्रतिष्ठान भी पाते रहें। निम्नमध्यवर्गीय चित्त के ऐसे लोग साहित्य तथा राजनीति में एक ऐसी फिज़ा पैदा करते हैं जिससे साहित्य में सर्वहारा की ताकत का सृजनशील चित्रण तथा प्रशिक्षण रुके। साहित्य तथा सर्वहारा वर्ग  चेतन न हो पाये। दूसरे वुर्जुआ वर्ग से जुड़े वे लोग थे जो पूँजीवाद का कोई्र बेहतर विकल्प कभी सोच ही नहीं पाये! इक्कीसवी सदी के पहले दशक के बाद दोनों तरह के लोगों को अपनी गलती का एहसास शायद हाने लगा होगा! पर जिन्होंने मार्क्स को अपने हित साधने के लिये ही अपनाया हो उन्हें एहसास भी क्या होगा!
आज फिर विश्व में मार्क्सवाद के महत्व को स्वीकार करने की जाने अजाने, दिलचस्पी बढ़ रही है। योरुप तथा अमरीका की दमित शोषित जनता ने पूँजीवाद को नकारना शुरू कर दिया है। औकुपाई  द वालस्ट्रीटसे लेकर योरुप में हुये भारी प्रदर्शन पूँजीवाद को नकारने की अलामत है। प्रदर्शन के दौरान पूँजीवाद के विरुद्ध गगनभेदी नारे गूँज रहे थे। जो बुर्जुआ अर्थशास्त्री  (इसमें हमारे प्रधानमंत्री जैसे विद्वान अर्थशास्त्री भी शामिल हैं जो मार्क्स की विचारधारा को सदा घिसीपिटी तथा अप्रासंगिक बताते रहे हैं) पूँजीवाद को ही अंतिम सत्य मान कर जीते हैं वे इस नई अलामत को देख कर भैाचक्के हैं। पूँजीवाद के समर्थन में अब उन्हें कोई नया तर्क नहीं सूझ रहा है। 
 प्रख्यात माकर्सवादी इतिहासकार इरिक होब्सवाम ने अपनी महत्वपूर्ण कृति, हाउ टू चेन्ज द वर्ल्ड (2011) में मार्क्स को आज पुनः इक्कीसवी सदी का अत्यंत महत्वपूर्ण तथा अपरिहार्य आर्थिक चिंतक बताया है। पूरी पुस्तक की टोन तथा लय संकेत देती है कि इक्कीसवी सदी के आर्थिक संकट से उपजी चुनौतीपूर्ण समस्याओं के समाधान सिर्फ मार्क्सवादी दर्शन में ही खेाजे जा सकते है। इसके लिये जरूरी नहीं कि मार्क्सवाद को हम योरुप के समाजवादी देशों तक ही सीमित करके देखें। जैसे आईन्स्टीन तथा शेक्सपीयर किसी एक देश के हो कर भी देश तथा दिक्काल का अतिक्रम करते हैं। ध्यान देने की बात है कि पूँजीवाद आज ठीक उस अलामत से आक्रांत है जिसकी कल्पना मार्क्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र‘ (1847 -48)  में बहुत पहले की थी। कहते हैं यह महान कृति शासक-शोषक वर्ग को पढ़ना अपराध समझी गई थी। जबकि विश्व के श्रमियों के लिये पूँजीवाद की क्रूरता से मुक्त होने के लिये यह एक ज्योतिर्मयम कार्यक्रम था। सबसे ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य है कि इस बार मार्क्स की पुनर्खोज समाजवादी नहीं बल्कि पूँजीवादी लोग कर रहे हैं।
मार्क्स की जिस अमर कृति पूँजी  को कबाड़खाने की वस्तु मान लिया गया था उसको हज़ारों की संख्या में पुनर्प्रकाशित करने की जरूरत पड़ी है। कहा जाता है कि वैटिकन पोप तक ने पूँजी की प्रतियाँ खरीदवा कर उसे पढ़ा है। यानि जो कभी कम्युनिस्ट नहीं रहे वे भी मार्क्स को बड़ी जिज्ञासा से आज पढ़ने के लिये आतुर हुए हैं। दुनिया में लाखों-करोड़ो लोग ऐसे है जो पूँजीवाद से नफरत करते हैं। उससे भिन्न, अलग, नई औेर बेहतर समता मूलक दुनिया देखने को बेचैन हैं। पूँजीवाद के इस गाढ़े -घने अँधेरे में उनके लिये मार्क्स ही एक जोतिस्तंभ हैं। जिन्हें हम आज तक पूँजीवादी अर्थशास्त्र के पथप्रदर्शक समझते थे, वे अब बुझ कर भग्नावशेष हैं। कहा जाता है कि अक्टूबर 2 0 0 8 के लंदन फिनेनशियल टाइम्सने सुर्खियों में बताया है कि पूजीवाद विनष्ट होने की स्थितिमें आ चुका हे। मार्क्स ने एक जगह कहा है कि प्रभुजनों की दुर्बलतायें कोई बुनियादी सामाजिक परिवर्तन नही ला सकती। वह दुर्बलों की शक्ति का ही प्रतिफल होगी। क्या इन स्थितियों में हमें नहीं लगता कि मार्क्स ही हमें रास्ता दिखायेंगे! यहाँ सवाल हो सकता है कि 21वी सदी में मार्क्सवाद का क्या स्वरूप होगा। क्या वह वैसा ही होगा जैसा हम उसे योरुप में देख चुके हैं । या वह बदले हुए रूप में सामने आयेगा। यदि हम मार्क्स के द्वंद्वमयतातथा निषेध का निषेधनियमों से परिचित हैं तो यह सवाल मन में पैदा ही नहीं होना चाहिए। सोवियत रूस में यदि समाजवाद का पतन न हुआ होता तो भी वह आज जैसे का तैसा न होता। क्योंकि उक्त दोनों नियम बताते हैं कि किसी भी हालत में स्थितियाँ सदा एक सी नहीं रही है। न हैं। न आगे रहेंगी। विकास की प्रक्रिया निर्बाध है। वह सतत है।
दूसरे, मार्क्सवादी सिद्धांत में यह भी निहित है कि वह हर देश की समाजैतिहासिक-सांस्कृतिक स्थितियों के अनुसार ही पनपता है। उत्तरी कोरिया में मार्क्सवाद जिस रूप में है वैसा क्यूबा में नहीं है। जैसा उत्तरी वियतनाम में है वैसा चीन में नहीं है। जैसा चीन में है वैसा लैटिन अमरीकी देशों में नहीं है। नेपाल ने अपने लिये जो माडिल चुना है वह इन सबसे अलग है। इससे लगता है मार्क्सवाद कोई बना बनाया स्टील का चौखटा नहीं है जिसे जहाँ चाहो-जैसा चाहो -फिट कर दो। वह हर देश की ऐतिहासिक स्थितियों से कमीकमाई उर्वर भूमि तथा वहाँ की जलवायु के अनुसार ही प्रस्फुटित होता है। अतः न तो वह जड़ है। न रूढ़ि। न किसी देश खास से दूसरे देश को निर्यात करने की पण्य वस्तु। ध्यान रहे 21वी सदी में कोई भी बुनियादी परिवर्तन लोकतांत्रिक ढंग से ही होगा। होना चाहिए भी। आज विश्वमनुष्य की सामान्य चेतना का स्तर विकसित हो चुका है। यह अब कतई जरूरी नही कि एकदलीय प्रणाली ही वजूद में आये। वैसे बहुदलीय प्रणाली का प्रयोग बहुत पहले समाजवादी देश पूर्वी जर्मनी में हो चुका है। हमारे यहाँ बंगाल में वाममोर्चा तथा केरल में एल0 डी0 एफ0 उसके प्रमाण हैं। नेपाल में बहुदलीय वामपंथी सरकार है। ध्यान देने की बात है कि जो माओवादी नेपाल में हिंसा से व्यवस्था परिवर्तन की माग कर रहे थे उन्हें भी अंत में शांति प्रक्रिया द्वारा जनतांत्रिक ढंग से सरकार बनाने को बाध्य होना पड़ा। हमारे यहाँ के माओवादी क्या इस पर गंभीरता से विचार करने को तैयार न होंगे! ध्यान रहे इतिहास द्वारा प्रदत्त स्थितियाँ हमारे हाथ में नहीं होती। अतः बुनियादी तथा बड़े क्रांतिकारी परिवर्तनों के लिये बहुत धैर्यं, साहस तथा अपने लक्ष्य के प्रति अटल विश्वास रखने पड़ते हैं।
       
देखने-परखने से लगता हे कि 20 वी सदी में मार्क्सवाद, मार्क्स की उत्तरवर्ती व्याख्याओं पर टिका है। मसलन संशोधनवाद, साम्राज्यवाद, तथा राष्ट्रवाद जैसे सवाल पहले से खड़े हो चुके थे। इन सब बहसों का असर मार्क्सवाद पर किसी न किसी रूप में दिखाई दे सकता है। विश्व का बहुत बड़ा वर्ग अब यह मानने लगा है कि पूँजीवाद अपनी साख खो चुका है। आगे पीछे पूँजीवाद का पतन सुनिश्चित है। पर यह अपने आप समाप्त नहीं होगा। एक विशेष वर्ग (सर्वहारा) ही इसे दुर्धर्ष संघर्ष से समाप्त करेगा। यह वर्ग (सर्वहारा) पूँजीवाद ने ही पैदा किया हैं। कहा जाता हे कि बुर्जुआ ने अपनी मृत्यु के लिये हथियार ही नहीं गढ़े, बल्कि उस आधुनिक श्रमिक वर्ग (सर्वहारा) को भी गढ़ा जो उन अस़्त्रों का प्रयोग करेगा। इसीलिए संगठित संघर्षशील सर्वहारा और बुर्जुआ के बीच शत्रुवत वर्गसंघर्ष अपरिहार्य हैं। ध्यान रहे सर्वहारा के साथ छुटभैया किसान, छोटे व्यापारी,  हस्तशिल्पी, बुद्धिजीवी तथा निष्क्रिय यथास्थिवादी सर्वहारा भी साथ होंगे। दूसरे, जनवादी मानव मूल्यों को यदि ध्यान में रखें तो समतामूलक समाज पूँजीवादी व्यवस्था से आगे की उन्नत व्यवस्था है। बेहतर भी। लोकतंत्र का सही रूप हमें समतामूलक समाज में ही देखने को मिलता है। पूँजवादी सर्वदेशीय शोषण को विश्व भाईचारा कहना बुर्जुआ की चाल हो सकती है। हमारे यहाँ राज्य सत्ता का रूपभर लोकतांत्रिक है।  इसका कथ्य-शोषण, दमन, कालेधन की एक समानांतर व्यवस्था, खनन -भू -वन माफिया, अपराध, धेाखाधड़ी, घोटालों आदि से निर्मित है। इससे लगता है कि किसी सुंदर रूप में जनविरोधी कथ्य सहेजा जा सकता है। इसका उलट भी संभव है। साहित्य तथा राजनीति में भाषा का छल कोई अनहोनी बात नहीं है। भाषा में जनवादी। कथ्य में जनविरोधी। अनेक कवि बहुत ही सरल भाषा लिख कर अपने को लोक के करीब दिखाना चाहते हैं। पर वे कथ्य में उसके विपरीत होते हैं। रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, कुँवर नारायण, केदारनाथ सिंह या इनकी नकल करने वाले विनोद कुमार शुक्ल आदि भाषा के छल से लोक के करीब होने का छल करते हैं। इनका कथ्य बुर्जुआ है। न यहाँ श्रमिकों-मेहनतकश किसानों- के चित्र हैं। न आज़ादी के बाद उभरी जनशक्ति का कोई प्रेरक रूप। पेशेवर आलोचक उसी बुर्जुआ मन के होने की वजह से ऐसी कविता को सराहते रहे। एक वजह यह भी है कि हमारे अधिकांश पाठक जाने अनजाने बुर्जुआ कथ्य की कविता में ही रस लेने लगे हैं ।
  
कहने की जरूरत नहीं कि पूँजीवाद से समाजवाद उन्नत तथा बेहतर व्यवस्था है। क्योंकि यहाँ बड़े पैमाने पर उत्पादन निजी लाभ को न होकर देश की सामान्य जनता के लिये होता है। मार्क्स ने एक बिंदु पर आकर पूँजीवाद में विकास के अवरुध्द होने की बात कही है। वह आज भी सत्य है। क्योंकि मुनाफा बटोरने के लिये उत्पादन तो बड़े पैमाने पर लगातार बढ़ता जाता है। पर आम आदमी की क्रय क्षमता कम होती जाती है। अतः उत्पाद मालगोदामों में जमा हो कर उत्पादन को अवरुद्ध करता है।
समाजवाद में जोर निजी मुनाफे पर न होकर सामान्य जन के कल्याण पर होता है। अतः उत्पादित वस्तुओं की खपत होती रहती है। मार्क्स का यह कहना आज भी सही है कि पूँजीवाद अपने प्रकृत स्वभाव के कारण सामाजिक उत्पादन के लिये जानबूझ कर अक्षम बन जाता है। इससे लगता हे कि 20वी सदी में मार्क्सवादी वहस तथा उसके मूल्यांकन के केंद्र में समाजवादी व्यवस्था रही है। चूँकि सभी समाजवादी व्यवस्थाओं के पीछे मार्क्स की प्रेरणाएँ थीं। अतः समाजवादी व्यवस्था को मार्क्सवादी व्यवस्थाएँ भी कहने लगे। समाजवादी समाज से ही कम्युनिस्ट व्यवस्था विकसित हो सकती है। यानि समाजवादी व्यवस्था ही कम्युनिस्ट समाज की देहरी है। 
वैसे देखा जाये तो नवउदारवादी आर्थिकी की  आलोचना मूलतः मार्क्सवाद में निहित नहीं है। क्योंकि मार्क्स के समय में यह तथ्य था ही नहीं। पर 1970 के आसपास से मुक्त आर्थिकी द्वारा उपजे आर्थिक संकट से उवरने के लिये उसकी तीखी आलोचना केवल मार्क्सवादी दलों ने ही की है। भारत में वाम दलों के सिवा आज कोई्र अन्य दल उदार आर्थिकी की गहन तथा तीखी आलोचना नहीं कर पा रहा है। वाम दलों ने इस आर्थिकी की आलोचना के लिये प्रेरणा मार्क्स से ही ली है। वे मार्क्सवाद के आधार पर उग्र होते साम्राज्यवाद की भी तीखी आलोचना कर रहे हैं। बुर्जुआ चिंतक, लेखक तथा राजनेता इन सबसे बचते है। क्योंकि यह आर्थिकी बुनियादी तौर पर उस सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध है जो बड़े पैमाने पर उत्पादन करके दे रहा है। मार्क्स जिसे हर क्रांति की प्रथम शक्ति मानते हैं। 
यहाँ सवाल किया जा सकता है आखिर मार्क्स सर्वहारापर ही इतना जोर क्यों देते है। क्योंकि संगठित श्रमिक वर्ग (सर्वहारा) ही शोषकों के विरुद्धसतत संघर्ष कर सकता है। उसकी विजय का अर्थ है पूरे राष्ट्र की शेाषण तथा दमन से मुक्ति। मार्क्स ने ही दिखाया है कि किसी भी जनविरोधी आर्थिकी की कटु से कटु आलोचना करके प्रतिरोध दर्ज कराना किसी भी मार्क्सवादी का नैतिक दायित्व है। मार्क्सवाद ही बताता है कि उदारवादी आर्थिकी अंधाधुंध मुनाफा कमाने के उन्माद में देश की गरीब जनता को नरक में ढकेलती रहती है। ऐसा लगता है कि मनुष्य समाज को हमने संवेदनहीन लाभोन्मादी धनी दैत्यों के हाथों में सौप दिया है। इतनी क्रूरता पहले कभी न थी। अमरीका तक में नहीं। इरिक होब्सवाम के अनुसार तो आजकल मार्केट फण्डामैंट्लिज़्मने प्रकारांतर से आर्थिक सचाईको जैसे धर्मोन्मादी जुनूनमें बदल दिया है। इस तरह आज के हालात में मार्क्स की उपस्थिति कभी आँख से ओट होती नहीं दिखती।
इसके अलावा भी मार्क्स आज अत्यंत प्रासंगिक है। ऐसा समर्थ तथा परिपूर्ण आर्थिक चिंतक और कोई्र दिखाई नहीं देता जो हमें पूँजीवाद के नरक से उबार सकें। दूसरे, मार्क्सवाद में द्वंद्वमय इतिहास तथा उसमें आद्यंत व्याप्त वर्ग संघर्ष का मौलिक विचार आज की बेबाक सचाई है। जैसा तथ्यपरक वैज्ञानिक विश्लेषण मार्क्स कर पाये हैं वैसा आज तक अन्यत्र दुर्लभ है। गहराई से देखा जाये तो सही अर्थों में वह हमारी वैज्ञानिक आधुनिकताके प्रथम पुरुष हैं। पूँजीवाद के विकास तथा विनाश के बारे में उन्होंने जो बहुत पहले कहा था वह आज सही साबित हो रहा है। ऐसा दूरद्रष्टा महा ऋषि अन्यत्र दिखाई्र नहीं देता।
कुछ लोग फिर भी सवाल करेंगे कि 21वी सदी में मार्क्स क्या उस समय प्रासंगिक हो सकते हैं जब योरुप में सारी समाजवादी व्यवसथा ध्वस्त हो चुकी हो। यह बात मैं पहले भी कह चुका हूँ  कि मार्क्स को योरुप की समाजवादी व्यवस्थाओं तक सीमित करके देखना उन्हें खुले मन से न समझने का दुराग्रह होगा। यह तय है एशिया महाद्वीप, अफ्रीका या लैटिन अमरीकी देशों में समाजवाद का रूसी संस्करण मुमकिन नहीं है। मार्क्सवाद यही तो कहता है कि प्रत्येक देश में समाजवाद का रूप अलग और भिन्न होगा। वह उसी देश की सांस्कृतिक विरासत तथा इतिहास की प्रकृति के अनुरूप ही ढलेगा। यह बात किसी सन्दर्भ में पहले भी कही जा चुकी है। प्रमुख सवाल है आज के अमानवीय, क्रूर, संवेदनाहीन, पतनशील तथा विकृत होती संस्कृति, जड़ीभूत सौंदर्यबोध तथा  राजनीतिक-सामाजिक क्षरण को कैसे रोका जाय! अंधाधुंध धन कमाने की जनविरोधी मानवीय आकंक्षायें बेहद बढ़ी हैं। उस अनुपात में उच्च मानवीय नैतिक मूल्यों की तरफ से हम जड़ हुए हैं।  इससे अर्थोन्मादी एक अजब किस्म की पाशविक प्रवृत्ति वजूद में आई है। मार्क्स बता चुके हैं पूँजीव्यवस्था हमें इस कदर हृदयहीनतथा संवेदनाविहीनबनाती है कि हम कोमल मानवीय संबंधों को खो बैठते हैं। कविता, सभी प्रकार की ललित कलायें तथा अन्य मानवीय मूल्य पण्य वस्तुमें बदल जाते है। सृजन की स्वायत्त्ता छीन ली जाती है। इससे आदमी क्रमशः बड़े सामाजिक सरोकारों से विमुख होकर सिर्फ अपनी सुख सुविधाओं के बारे में सोचता है।
भारत में पिछले दो दशको से एक ऐसा नवधनाढ्य वर्ग वजूद में आया है जो किसी बुनियादी सामाजिक परिवर्तन की बात न सोचता है। न सोचने देता है। कहने को अंदर से वह दुखी है। क्योंकि अंतःकरण की रिक्त शून्यता से उसे एक अजब किस्म की बेचैनी बनी रहती है। पर वह यथास्थिति में कोर्इ्र बुनियादी परिवर्तन के पक्ष में नहीं होता। खासतौर से वर्तमान आर्थिक ढाँचे को वह यथावत रखने के पक्ष में होता है। यह वैश्विक तथ्य है। इससे विश्व पूँजीवादी सन्निपात का संकट पैदा हुआ है। सारे देश घबराये हुये हैं। पूँजीवाद उन्हें कोई्र नया पथ आलोकित नहीं करता। मार्क्स ने बार बार पूजीवादी संकट की बात कही है। 1930 के आर्थिक संकट की समृति आज ताज़ा होने लगी है। सामान्य जन के लिये पर्याप्त पौष्टिक आहार नहीं। जरूरी दवायें नहीं। अच्छी शिक्षा नहीं। रोज़गार नहीं। कपड़े-लत्ते नहीं। उचित आवास नहीं। कितने लाख लोग झुग्गियों, फुटपाथों और तिरपालों में जीवन वसर करते हैं।
स्त्रियों के प्रति क्रूरता तथा उनका यौनशोषण बहुत बढ़ा है। लोकतंत्र में यह कितनी शर्मनाक बात है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का सपना स्वराज तथा हर प्रकार से समतामूलक समाज ही निर्मित करना था. धनोन्मादिता के सबब जैवमण्डल को नये खतरे पैदा हुये हैं। पृथ्वी का क्रूर विदोहन कर उसे नष्ट किया जा रहा है। जिस पारिस्थितिकी को हम आज बचाने के लिये चिंतित है उसे मार्क्स ने 19वी सदी में ही चीन्ह लिया था। उनके अनुसार धरती का अंध विदोहन पूँजीवादी व्यवस्था में प्रकृति तथा मनुष्य के बीच और मनुष्य, मनुष्य के बीच भी मैटाबौलिक रिफ्टपैदा करता है। यही रिफ्टशहरों और गाँवों के बीच पैदा होता है। गाँव के लोगों को पिछड़ा समझना। जो साहित्य गाँव के यथार्थ को व्यक्त कता है उसे पिछड़ी संवेदना का साहित्य बताना। गाँव छोड़-छोड कर लोग शहर को भाग रहे हैं। मार्क्स ने यह भी सुझाया है कि बिना इस मैटाबौलिक रिफ्ट  को दूर किये कोई सुंदर समता मूलक समाज की रचना मुमकिन नहीं है। यहाँ मार्क्स ही हमें बताते है कि अंधाधुंध मुनाफा कमाने की धनोन्मादी प्रवृत्ति से पैदा हुई मनुष्य तथा प्रकृति विनाशी होड़ को कैसे सामाजिक हित में मोड़ा जा सकता हे।
कुछ लोग बड़ी जल्दबाजी में कहते हैं कि आखिर कब तक हम मार्क्स को दोहराते रहेंगे। मार्क्स के आगे क्यों नहीं सोचा जाये! उसके लिये उनके तर्क हैं। मसलन मार्क्स ने स्त्री समस्या के बारे में कोई्र विचार नहीं किया। दूसरे, आदिवासियों की समस्याओं को कैसे मार्क्सवाद से सुलझायेंगे। तीसरे भारत में जात बिरादरी इतनी ज्यादा है उसका सामना मार्क्सवाद से कैसे करेंगे। पहले तो यह समझना जरूरी है कि मार्क्सवाद एक नितांत वैज्ञानिक दर्शन है। अतः उसके नियम हर जगह वहाँ की समाजैतिहासिक स्थितियों के अनुसार ही लागू हो सकते हैं। अकेले मार्क्स ने दलित, पीड़ित, शोषित, श्रमशील सर्वहारा की मुक्ति का दर्शन दिया है। क्या हमारे देश की उत्पीड़ित स्त्रियाँ,  दलित तथा आदिवासी इस दायरे में नहीं आते! कोई भी मुक्ति सर्वसमाज की मुक्ति से नालबद्ध है। उत्पीडित तथा शोषितों की बुनियादी मुक्ति में उत्पीड़ित स्त्रियों की मुक्ति भी निहित है। हम माओवादियों की हिंसक रणनीति में यकीन नहीं करते। पर वे आदिवासियों के लिये मार्क्सवाद के नाम से ही लड़ रहे हैं। क्या हमने आज तक उन स्थितियों से निजात पा ली है जिनकी वजह से मार्क्स के दर्शन का जन्म हुआ। यदि नही तो मार्क्स से आगे जाने की इतनी उतावली क्यों! क्या पूँजीवाद से उबरने के लिये हमारे पास मार्क्सवाद से ज़्यादा वैज्ञानिक, व्यापक तथा परिपूर्ण कोई और दर्शन है! एक बार पूँजीवादी व्यवस्था से मुक्ति पा कर देखें तो सही। आज भी भारत में एक खास कौम के लोग हाथ से आदमी का मैला उठाते है। मार्क्स से आगे भागने से पहले क्या हमें इन बातों पर सोचने की जरूरत नहीं है। ऐसा नारकीय काम वे गरीबी की वजह से ही करते हैं। जहाँ तक जात बिरादरी की समस्या का सवाल है वह भारत में सचमुच बहुत पेचीदा है। पर ध्यान इस बात पर दिया जाये कि आज़ादी के बाद ज्यों-ज्यों पूँजीवाद विकसित और क्रूर हुआ है उसी अनुपात में जात बिरादरी का कोढ़ बढ़ा है। अभी सामंती अर्धसामंती अवशेष बचे हैं। वे जातबिरादरी को बल देते है। 
मार्क्स से आगे दौड़ने वाले लेखक सामंती तथा पूँजीवादी व्यवस्था पर सीधा प्रहार क्यों नहीं करते। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह रोग भी इस व्यवस्था पर फल फूल रहे है! अन्यथा पूँजीवाद के सतत विकास के बाद उसे कम होना चाहिये था। हमें उम्मीद रखनी चाहिये कि सामंतवाद तथा पूँजीवाद के पूरी तरह खत्म होने के बाद इन रोगों में भी भारी कमी आयेगी। फिर हमें शायद लगे कि जिन बातों के लिये हमारी शंकायें थी – हम बेचैन थे -वे निर्मूल थी। दूसरे मार्क्स के आगे जाने के लिये जल्दवाज़ी दो बातों की ओर संकेत करती है। या तो हमने मार्क्स को ध्यान से गहराई तक पढ़ा नहीं। दूसरे, जाने-अनजाने हम सामंती तथा पूँजीवादी व्यवस्था से मुक्ति चाहते ही नहीं। कहना न होगा कि मार्क्स अपनी वैज्ञानिक विचाधारा के साथ इतिहास में सर्वहारा के संघर्ष तथा उसकी विजय के लिये सदा पथप्रदर्शक बने रहेंगे। कोई अन्य ऐसी विचारधारा अभी तक वजूद में नहीं आई जो सर्वहारा के हित में इस क्रूर होती दुनिया को बदलने का पथ दिखा सके। मार्क्सवाद ने समाजवाद के स्वप्न को वास्तविकता में बदल कर दिखा दिया। आज सर्वहारा के पक्ष में समग्र अग्रगामी विकास के लिये मार्क्सवाद ही एक वैज्ञानिक विश्वदृष्टि है। 
इस प्रसंग में हमें अपनी 1857 की प्रथम राज्यक्रांति विस्मृत नहीं करनी चाहिए। तर्कपूर्ण ढंग से समतामूलक जनकल्याणकारी व्यवस्था लाने के लिये वह अभी अधूरी है। उसे तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचाने के लिये हमें मार्क्स से ही प्रेरणा लेनी होगी। पूँजीवादी आर्थिक एकाधिकार तथा साम्राज्यवाद के बढ़ते दुष्प्रभावों से लड़ने के लिये हमें मार्क्सवाद ही ताकत देगा।  देता रहा है। हमारा पथ प्रदर्शक भी बनेगा। यही नहीं बल्कि हमारी राष्ट्रीय स्वाधीनता और अंतर्राष्ट्रीय शांतिपूर्ण सदभाव की प्रक्रिया को अग्रसर करने में भी वह मददगार होगा। भारत में ही नहीं -पूरे एशिया महाद्वीप, अफ्रीका तथा लैटिन अमरीकी देशों के मुक्तिसंघर्षो में भी मार्क्सवाद की भूमिका प्रमुख होगी। तेज़ी से विकसित होते विश्व की अत्यंत वक्र तथा संश्लिष्ट बारीकियों को भी हम मार्क्सवाद की तत्वमीमांसा के द्वारा समझ कर भारत का पक्ष मज़बूत कर सकते हैं। आज की विश्वपूँजी व्यवस्था (साम्राज्यों द्वारा समर्थित) में वर्ग संघर्ष का होना ऐतिहासिक लय के अनुसार परीक्षित सत्य है। वह अपरिहार्य है। पिछला लंबा अनुभव हमें बताता है कि सुधारवादी नुस्खे-टोटके- व्यर्थ साबित हुए हैं। 
पिछले दिनों पूरे विश्व के युवाओं द्वारा सुधारवादी आर्थिकीका भारी विरोध हो चुका है। बल्कि कहें सुधारवादी सिद्धात  व्यवहार में आज दिवालियाहो चुका है। यह एक ऐसा मीठा ज़हर है तो मेहनतकश अवाम को अधमरा किये रहता है। यानि न मरने में। न जीने मे। प्रकारांतर से पूँजी तंत्र को मज़बूत करने का यह मनमोहक विषराग है। ऊपर से कल्याणकारी। रूप में सुंदर। कथ्य जनता की अंतड़ियों को गला देने वाला। क्या यह भी आज दोहराने की बात है कि मार्क्स की कही बातें आज भी इतिहास के इस दौर में सच साबित हो रही हैं। कौन नहीं जानता आज साम्राज्यवाद एकध्रुवीय होने की वजह से बहुत आक्रामक हुआ है। भारत जैसा महान देश पुनः अमरीका का उपनिवेश बनता जा रहा है। हमने विश्व में अपना राष्ट्रीय सम्मान खोया है। पूँजी की सांस्कृतिक तथा आर्थिक विकृतियों ने लेाकतंत्र जैसी पवित्र जीवन पद्धति पर कालिख पोती है। अतः आज 21 वी सदी में मार्क्सवाद ही एक रास्ता बचा है जो हमें सामंती पूँजीवादी नारकीय जीवन से उबार सकता है। साम्राज्यवादी दासता से मुक्ति के लिये संघर्ष हेतु क्षमता तथा शक्ति प्रदान कर सकता है। मार्क्स के ही शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति का मुक्त विकास ही सब के मुक्त विकास की पूर्व शर्त है
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विजेंद्र

 
प्रगतिशील जनवादी पुनर्जागरण की आवश्यकता                      
                                                                                     
प्रलेस बना 1936 में । आज़ादी मिली 1947 में । पर निराला 1923 में शोषित -उत्पीड़ित जनता के, ‘दुख के बंधनतोड़ने को स्वतंत्रता का पाठ कर रहे थे –
स्वतंत्रता का पाठ हम करते दुख के बंधन तोड़ें। 
इसी समय उनकी दृष्टि भूख से त्रस्त लोगों को देख उनके कवि मन को पीड़ा दे रही थी –
भूख से सूख ओठ जब जाते
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घूँट आँसुओ का पी कर रह जाते
चाट रहे जूठी पत्तल
वे सभी सड़क पर खड़े हुए
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुये 
-यानि निराला बहुत पहले से गरीबों की पुकार  सुन रहे थे। उन्हे ज्ञान है कि भारतीय मनुष्य की पीड़ा का अंत बिना स्वाधीनतापाये संभव नहीं है। उसके लिये व्यवस्था में परिवर्तन पहली शर्त है -क्योंकि स्वाधीन हो कर ही समग्र जाति निर्भय बन सकती है। जब जाति निर्भय होगी तभी वह अपनी स्वाधीनता के लिये संघर्ष कर सकेगी -कवि के लिये स्वाधीन होना ही निर्भयका र्प्याय है – स्वाधीन का ही/ एक अर्थ नर्भय है। इससे लगता है  निराला भारतीय मुक्तिसंग्राम की चेतना से प्रेरित होकर उन बातों को कह रहे थे जो आगे चल कर प्रलेस के भी संकल्प बनी । सब जानते हैं कि भारतीय प्रगतिशील-जनवादी-लोकधर्मी रचनाशीलता को प्रेरित करने में भारतीय मुक्तिसंग्राम की प्रमुख भूमिका रही है। वह एक तरह से भारतीय पुनर्जागरणभी है।  
1857 की राज्यक्रांति साम्राज्यवाद तथा सामंतवाद विरोधी थी। डा0 रामविलास शर्मा के अनुसार 20 वी सदी की जनवादी क्रांतियों की लंबी अपूर्ण श्रृंखला में प्रथम महत्वपूर्ण क्रांति। मुक्तिसंग्राम का लक्ष्य था जातीय एकतासाम्राज्यवाद-सामंतवाद से मुक्ति तथा नई समतामूलक लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना। यहाँ जोर लोकपर है। वह लोक जो मुक्ति संग्राम के दौर में अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ कर हर तरह की कुर्बानियाँ दे रहा था। श्रमी, किसान, अन्य सामान्य जन तथा आदिवासी आदि संगठित होकर लड़ रहे थे। यह वही लोकहै जिसे आचार्य भरत तीन तरह के लोगों में देखते हैं – श्रमार्तयानि कठोर श्रम से दुखी जन। दुखार्तयानि जीवन में अनेक अभावों से प्रताड़ित जन। शोकार्तयानि प्राकृतिक व्याधियों के आघातों से शेाकग्रस्त जन। आज भी लोक में ऐसे ही जनों का बाहुल्य है। सामान्य तथा अति सामान्य पर जोर होने की वजह से ही हमने लोकतांत्रिक जीवन पद्धति को चुना है। 
कहना न होगा आज लोकसर्वहारा का पर्याय बन गया है। कई बार मुझे अचरज हुआ यह जान कर कि कुछ जनवादी- प्रगतिशील लोकको पलायनवादियों का आरामगाहकह कर उसे पिछड़ी संवेदना का प्रतीक मानते हैं। कुछ पढ़े लिखे निरक्षर पूछते हैं कि, आखिर आज के वैज्ञानिक युग में यह लाकेहै क्या! ऐसा भ्रम इसलिए है क्यों कि बुर्जुआ अपने मनोरंजन के लिये लोक के गान, चित्रकला, उत्सव, अंधविश्वास, वेशभूषा आदि को ही लोक मानता आया है। बड़े पैमाने पर देश विदेश में वही प्रचारित भी किया गया है। पर उसके संघर्ष धर्मी रूप को सामने नहीं लाया गया। लोकतंत्र में जरूरी है हम लोक की पुनर्व्याख्या कर इतिहास में प्रतिबिंबित उसके अटूट द्वंद्व तथां संघर्ष को भी बतायें। कुछ लोग लोक को गाँव और शहर में विभाजित कर नया भ्रम फैलाते हैं। लोक सर्वहारा के अर्थ में गाँव-शहर की सीमा को लाँघ कर वैश्विक प्रतिरोधी तथा अपराजेय शक्ति है।  हर जाति के सांस्कृतिक रूप के समानांतर उसका एक संघर्षधर्मी रूप भी होता है। पर बुर्जुआ अपने हित के लिये उसके मनोरंजक रूप को सामने लाता है। संघर्षधर्मी रूप को नहीं। प्रगतिशीलता या जनवाद बिना लोकके क्रियाहीन और निष्प्राण होंगे। किसानो, श्रमियों तथा आदिवासियों के संघर्ष को बिना समझे क्या हम मुक्तिसंग्राम के सही रूप को समझ सकते हैं। लोक ही प्रगतिशीलता या जनवाद की केंद्रीय शक्ति है। वही उसकी अंतर्वस्तु।
बीसवी सदी के तीसरे-चौथे दशक में मुक्तिसंग्राम की प्रक्रिया के दौरान एक वामपंथी-या कहें लोकधर्मी रुझान उभरा था। इसकी दिशा थी एक लोकधर्मी समाजवादी व्यवस्था कायम करना। निराला 1924 के आस पास भारतीय शोषित किसान को जगा कर बादल को विप्लव का वीर कह रहे थे -यही नही वह लोक को मुकुट पहनाने के लिये भी इच्छुक हैं – विप्लव से छोटे ही शोभा पाते
धनी, वज्र – गर्जन से बादल
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जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर
ऐ विप्लव के वीर
चूस लिया है उसका सार
हाड़ मास ही है आधार – 
इससे यह भी लगता है कि निराला रूस की बोल्शविक क्रांति से भी प्रेरित थे। पर उनका ध्यान, भारतीय परिस्थिति के अनुसार, श्रमियों के साथ किसानों की तरफ भी था। इसे आज के कवि को भी ध्यान में रखने की जरूरत है। बिना किसान और श्रमिकों के एकजुट हुये यहाँ कोई बुनियादी परिवर्तन संभव नहीं होगा। सत्ता को प्रभावति करने में किसानों की ताकत आज भी ज्यादा असरदार है। किसान संगठित हो कर जब आंदोलित होते हैं तो भारतीय जनशक्ति का रूप मुखर होता है। सत्ता उसके सामने झुकती है।
इस वामपंथी रुझान का असर उस समय की रचनाशीलता में भी प्रतिबिंबित है। यह विश्व इतिहास का वह दौर था जब सोवियत सं समाजवादी देश होने के नाते विश्व इतिहास में अपनी पकड़ मज़बूत कर रहा था। तीसरी दुनिया के देश उसे अपने लिये एक माडल की तरह देख रहे थे। एक तरह से पूँजीवाद का एक सही प्रेरक विकल्प हमारे सामने था। इसका प्रभाव विश्व के लेखकों पर पड़ना सहज स्वाभाविक ही था। विश्व के सभी देशभक्त, शांतिप्रिय तथा समता चाहने वाले देश सोवियत सं को अपना आदर्श मानते थे। आज की तरह उस समय भी पूँजीवादी व्यवस्था घोर  संकट का सामना कर रही थी। इसी के परिणामस्वरूप योरुप में फासिज्म का उदय हुआ। विश्व के सभी शांतिप्रिय, लोकतांत्रिक तथा जनवादी लोगों को फासिज्म एक खतरनाक चुनौती था। 
भारत में इस जनविरोधी प्रवृत्ति के प्रतिरोध के लिये प्रगतिशील विचारधारा तथा समाजवादी संकल्प को मूर्त करने हेतु और दृढ़ता प्राप्त हुई। समाज तथा राजनीतिक क्षेत्र की इन गतिविधियों का असर लेखकों पर बराबर पड़ रहा था। साहित्य में इस पूरे परिदृश्य की मार्मिक छबियाँ तथा बिंब उभर रहे थे। पंत जी तक मध्यवर्ग, श्रमजीवी,  किसान,  मार्क्स,  गांधी तथा साम्राज्य जैसे विषयों को कविता में ला रहे थे। नरेद्र शर्मा देवली कैंपमें नज़रबंद किये गये। उनहोंने अंग्रेजी सत्ता को चुनौती देते हुए कहा –
गति को कब तक बांध सकोगे , पूछो पहरेदारों से। 
पंत के साथ केदारनाथ अग्रवाल तथा नरेंद्र शर्मा नये प्रगतिशील पथ पर ग्रसर थे। 1940- 41 के आस पास नेमिचंद्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल तथा मुक्तिबोध आदि कवि मार्क्सवाद की ओर आकर्षित हुए। यद्यपि बाद में पहले दो ने अपना पक्ष बदल कर मार्क्स को त्याग दिया। डा0 रामविलास शर्मा गांधीवादी विचारधारा की कड़ी आलोचना हंसपत्रिका में लिख रहे थे। तार सप्तकके छपने तथा प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन में उनकी भूमिका को बहुत ही ध्वंसकारी  बताया जा रहा था। ध्यान रहे तार सप्तक के पहले और बाद में भी प्रगतिशील कविता में अति सरलीकरण तथा यांत्रिकता की दुर्बलतायें घर कर चुकी थी। रूस की लाल सेनातथा लाल सलामकी बातें ज्यादा थी। कविता कम। केदारनाथ अग्रवाल ने युग की गंगाकी भूमिका में अपने समय को, ‘समाजवाद, यथार्थावाद,  प्रगतिवाद तथा मार्क्सवाद का युगबताया है। त्रिलोचन भी इसी पथ के पथिक थे। एक तरह से देखा जाये तो तार सप्तकसे आज़ादी मिलने तक गिरिजाकुमार माथुर का नाश और निर्माण‘, केदारनाथ अग्रवाल का युग की गंगातथा निराला का नये पत्ते प्रगतिशील काव्य परंपरा की महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। नागार्जुन का लेाकधर्मी स्वर अति मुखर था। शिवमंगल सिंह सुमनके प्रगतिशील स्वर भी गूँज रहे थे।
मुक्तिसंग्राम की प्रारंभिक स्थिति की तरह साहित्य में भी परिवर्तनकामी विचार निजी प्रयत्नो तक ही सीमित नही रहे। विश्व के महान जनवादी लेखक गोंर्की ने विश्व के लेखकों से अपना पक्ष स्पष्ट करने का आग्रह किया। प्रलेस की स्थापना इसी प्रेरणा का सुफल है। इस संगठन को उन सभी राजनीतिक दलों ने समर्थन दिया जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद, भारतीय सामंतवाद-उपनिवेशवाद तथा फासिज़्म का  विरोध कर रहे थे। संकेत था कि लेखकों को भी जन विरोधी ताकतों के विरुद्ध संगठित होकर संघर्ष के लिये आगे जान जरूरी है। यानि साहित्य को जन संघर्ष के लिये एक अस़्त्र की तरह काम में लाने की सूझ-बूझ महसूस की गई। हमारे यहाँ आचार्य मम्मट ने काव्य के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य शिवेतर क्षतयेभी बताया है। अर्थात् जो कुछ भी जनविरोधी है समाज में साहित्य के माध्यम से उसके क्षरण के लिये संघर्ष करना। समर्थन तो प्रलेस का रवि बाबू भी कर रहे थे । उनकी प्रसिद्ध कविता निर्झरेर स्वप्न भंगमें मुक्तिसंग्राम की ध्वनि भी है-
भाँग भाँग भाँग कारा
आघाते आघात कर-
लेकिन प्रेमचंद का समग्र साहित्य ही मुक्तिसंग्राम की मूल चेतना को बहुत बड़े फलक पर प्रतिबिंबित करता है। रंगभूमिमें सूरदास जैसे जीवंत चरित्र के बहाने वह विदेशी कंपनियों की शक्ल में साम्राज्यवाद के बढ़ते आतंक का विरोध करते हैं। उनके यहाँ संगठित किसान, सामंतों तथा अफसरशाही के विरुद्ध खड़े होते हैं। इस जन उभार को दबाने के लिये सामंतो तथा सत्ता की साँठ गाँठ से पुलिस गोलियाँ दागती है। किसान मरते हैं। आज का कोई भी कथाकार साम्राज्यवाद- सामंतवाद -अफसरशाही के विरुद्ध इतना तीखा तथा चुनौती पूर्ण प्रतिरोध क्यों नहीं दिखा पा रहा है। मैं ने हंसमें आज तक ऐसी कोई्र कहानी नहीं पढ़ी जो प्रेमचंद के इस तीखे प्रतिरोध को और तीखा तथा आक्रामक बना कर विकसित कर सके। जबकि स्थितियाँ पहले से कम जन विरोधी नहीं हैं! इसी लिये मुझे लगता है कि आज अखिल भारतीय स्तर पर प्रगतिशील पुनर्जागरणकी बेहद जरूरत है। यही एक तरीका है जिससे आज हम प्रगतिशील-जनवादी-लोकधर्मी विचारधारा की प्रांसगिकता को पुनः स्थापित कर पायेंगे। काश नयापथके इस महत्वपूर्ण उपक्रम को हम उक्त महान कार्य का प्रस्थान बिंदु मान पाते !
कहना न होगा प्रलेस से जुडे लेखकों ने मुक्तिसंग्राम में संघर्षरत अपने तत्काल पूर्व के लेखकों द्वारा बनाई गई संघर्षधर्मी परंपरा को विकसित किया। उसे धारदार बनाया। सही दिशा दी। अग्रगामी साहित्य की प्रक्रिया को सुनिश्चित कर और आगे बढ़ाया। एक प्रकार से उसे पुनःजीवित किया। प्रलेस के गठन से हमें कुछ नये वैचारिक-दार्शनिक आयाम मिले। एक तो हमने यह जाना कि अब तक आविर्भूत समूचे समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष तथा वर्ग द्वंद्व का इतिहास रहा है। अर्थात् शोषक तथा शोषित वर्गशत्रु के रूप में एक दूसरे के साथ सह-अस्तित्व रखते हुये भी परस्पर विरुद्ध तथा संघर्षरत रहे हैं। विपरीत तत्वों की एकरूपता का यह मार्क्सीय सिद्धांत इस तरह आज तक अटल है। इस संघर्ष में या तो समाज का क्रांतिकारी पुनर्गठन होता है। जनांदोलनों की गति तीव्र होती है। या फिर संघर्षरत वर्गों का ध्वंस। दूसरे,  हमें एक ऐसी बिल्कुल नई विश्वदृष्टि प्राप्त हुई जो सर्वहारा की वैश्विक क्रांतिकारी शक्ति को हर स्थिति में अपराजेय मानती है। सामंतवाद,  पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद की अमानवीय क्रूरताओं पर हम सर्वहारा की शक्ति से विजय पा सकते हैं। तीसरे, हमें एक ऐसा द्वंद्वपरक भौतिकवादी दर्शन प्राप्त हुआ जो हमें दुनिया को समझने के साथ-साथ उसे मूलतः बदलने की वैज्ञानिक प्रविधि बताता है। 
प्रलेस से जुड़े लेखकों की यही वैचारिक शक्ति थी – आज भी है -जो उन्हें लोक तथा संघर्षशील जनता के साथ एकात्म करती है। लेखकों की संगठित शक्ति का समाज को भी एहसास हुआ। कदाचित यह पहली बार माना गया कि लेखक बिना जनता के संघर्ष में शिरकत किये न तो बड़ा बन सकता है। न अपना सामाजिक दायित्व निभा सकता है। पूर्ववर्ती लेखक मुक्तिसंग्राम की प्रेरणा से संघर्ष तो कर रहे थे। पर उनकी सही सांस्कृतिक दिशा क्या हो -इसके बारे में वे बहुत साफ न थे। हमारी रचना का केंद्रीय कथ्य क्या हो। जनता के संघर्ष को कलात्मक पूर्णता के साथ कैसे असरदार बनायें। प्रलेस से जुड़े लेखकों का यह एक नैतिक दायित्व माना गया कि उनके सृजन में भारतीय संघर्षशील जनता की धड़कने सुनाई पड़ें। उनका लेखन सिर्फ मुठ्ठी भर लोगों या राजदरबार तक सीमित न होकर जनता तक पहँचे। लेखकों का सृजनविजनअब स्वाधीन भारत में एक समाजवादी समाज की स्थापना का था। साहित्य में यह अभिलक्षणा एकदम नई तथा मौलिक थी। पर जड, रूढ़िवादी तथा प्रतिगामी राजनीति से जुड़े लेखक इस नई प्रगतिशील सृजन विश्वदृष्टि को राजनीतिक प्रचार कह कर इसका विरोध कर रहे थे। तीखे प्रहार भी। उनके अनुसार साहित्य राजनीति निरपेक्ष सृजन है। कला का लक्ष्य सिर्फ कलाही है। औेर कुछ नहीं। ये दोनों परस्पर विरोधी प्रवृत्त्यिाँ साहित्य में आज भी मुखर हैं। उनसे जनवादियों का संघर्ष जारी है। जब प्रगतिशीलों तथा कलावादियों में संघर्ष तीखा तथा तेज़ हुआ तो प्रगतिशील-जनवादी साहित्य के लिये व्यापक समर्थन मिलने लगा। इप्टातथा अन्य भारतीय भाषाओं के अग्रगामी साहित्यिक संगठनों ने प्रगतिशील साहित्य का व्यापक समर्थन किया ।
प्रलेस संगठन बनने के एक दशक बाद 1947 में हमें राजनीतिक आज़ादी मिली। सत्ता हस्तांतरण की इस महान घटना से देश में नई जाग्रति पैदा हुई। पर दुर्भाग्य से मुक्तिसंग्राम प्रक्रिया के दौर में एकत्र हुये लेखक टूट गये। मतभेद गहरे हुए। सत्ता का वर्ग चरित्र तथा आगे की दिशा को ले कर उठे विवादों ने लेखकों को विभाजित कर दिया। मार्क्सवादियों ने अपनी विश्वदृष्टि तथा लक्ष्य साफ किये। गैरमार्क्सवादियों से अपने मतभेदों के पुख्ता कारक भी बताये। पर बात न बनने से प्रलेस विभाजित हुआ। मार्क्सवादियों तथा गैर-मार्क्सवादियों में संघर्ष गहरा तथा तीखा होने लगा। यह संघर्ष लगातार आज तक जारी है। हालांकि उसमें न तो उतना तीखापन है। न उतनी आक्रामकता। बाद में साम्यवादी दल में विभाजन हुआ। प्रलेस के समानांतर जलेस वजूद मे आया। अब यह संघर्ष त्रि-आयामी बना। प्रलेस तथा जलेस सत्ता के वर्ग चरित्र को लेकर संघर्षरत रहे। प्रलेस वर्ग संघर्ष तथा सर्वहारा के वर्चस्व का विचार त्याग कर वर्ग सहयोग तथा बुर्जुआ सत्ता से साँगाँठ की राजनीति में रस लेने लगा। वह आज भी है। इससे प्रलेस से जुड़े लेखकों में उदारता  के नाम पर घोर अवसरवाद पनपना शुरू हो गया। अब इन्हें मार्क्सवाद से पहले मानवतावाद‘, अस्मितातथा लेखक की समाज से निस्संगतायाद आने लगे। मार्क्सवाद तथा अस्तित्ववाद का घालमेल कर नये भ्रम पैदा किये गये। यानि मार्क्सवाद मानवतावाद से जैसे कोई अलग चीज़ हो। इस तर्क ने प्रलेस के लेखकों को वर्गचेतना, सर्वहारा की अजेय शक्ति, समाज में चल रहे वर्ग संघर्ष तथा इतिहास की अटल द्वंद्वमयता के प्रति अन्यमन बनाया। अब मार्क्सवादियों को एक तरफ उदारपंथियों से लड़ना पड़ा। दूसरी तरफ व्यक्तिनिष्ठ-कलावादी तथा रूपवादियों से संघर्ष तीखा हुआ। अज्ञेय 1947 में प्रतीकके माध्यम से प्रगतिशील विरोधी रुख अपना रहे थे। उन्हें वर्गचेतना, सर्वहारा, वर्गसंघर्ष,  समाजवाद तथा सामाजिक यथार्थ की बाते बेतुकी तथा अप्रासंगिक लग रही थीं। उसी समय प्रयोगवादियों ने प्रगतिशीलों पर गहरे प्रहार किये। बल्कि कहें प्रयोगवादका आरंभ ही प्रगतिशीलता के तीखे विरोध से हुआ था। 1952 के आस पास डा0 नामवर सिंह भी प्रयोगवादियों के साहित्य को समाजनिरपेक्ष – मध्यवर्गीय मानसिक बीमारियों का सहानुभूतिपूर्ण औेर मोहक अलंकरणमानते थे । पर 1968 में उनकी यह धारणा बदल गई। 1958 के आसपास श्रीकांत वर्मा प्रगतिशील समीक्षकों को, ‘ मनुष्य की आत्मा को कुचलने वाली सैनिक प्रकृतिसे ग्रस्त बताने लगे थे। पूरा परिमल समूह‘ – धर्मवीर भारती तथा विजयदेवनारायण साही आदि –मार्क्सवादी लेखकों पर चारों तरफ से प्रहार कर रहे थे। इस तीखे वैचारिक संघर्ष के बावजूद प्रगतिशील-जनवादी काव्यधारा तथा मार्क्सवादी समीक्षा बराबर विकसित होते रहे। प्रो0 चंद्रबली सिंह, डा0 रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान तथा प्रकाशचंद्र गुप्त आदि गैरमार्क्सवादियों के तर्कों का विधिवत उत्तर दे रहे थे।
निराला प्रगतिशील-जनवादी चेतना की उर्वरभूमि तोड़ती पत्थर‘, ‘कुकुरमुत्तातथा नये पत्तेमें तैयार कर चुके थे। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, त्रिलोचन तथा शील आदि ने उसे और धारदार तथा लक्ष्यसूचित बनाया। इनमें सबसे प्रतिरोधी तथा आक्रामक स्वर नागार्जुन तथा केदार बाबू का था। 1952 में प्रकाशचंद्र गुप्त की समीक्षा पुस्तक, ‘हिंदी साहित्य: एक दृष्टिछपी थी। इस पुस्तक की दृष्टि पूरी तरह मार्क्सवादी थी। जैसे आलोचना का मार्क्सवादी आधार‘ , ‘प्रगतिशील आलोना के मान‘ , हिंदी आलोचना में प्रगतिवाद‘, ‘मार्क्सवाद और भाषा की समस्या तथा प्रेमचंद की परंपरा आदि ऐसे आलेख है जिन में उस समय के वैचारिक संघर्ष का प्रतिबिंबन साफ झलकता है। यह पुस्तक छपी भले ही 1952 में, पर 1946 में इन आलेखों को लिखना प्रारंभ कर दिया था। इस पुस्तक के परिशिष्ट में तीन महत्वपूर्ण आलेख और है। एक, साहित्य में संयुक्त मोर्चा. दो, साहित्य और राजनीति। तीन, साहित्य और जनता। इन आलेखों को पढ़ कर लगता है कि उन दिनों साहित्यिक संघर्ष कितना तीखा तथा लक्ष्यसूचक था। क्या यह संघर्ष आज भी उतना ही तीखा और लक्ष्यसूचक है! यदि नहीं  तो क्यों? हम उसे और तीखा क्यों नहीं बना पा रहे हैं जबकि स्थितियाँ पहले से भी ज्यादा जनविरोधी तथा आक्रामक हैं। पूँजी का शिकंजा क्रूर हुआ है। साम्राज्यवाद ज्यादा खतरनाक- एकध्रुवीय।
प्रगतिशील-जनवादी संघर्षशील साहित्य की सुदीर्घ परंपरा को 1968 में गहरा आघात पहुँचा। आघात पहँचाया कविता के नये प्रतिमान पुस्तक ने। क्रूर विडंबना यह कि लेखक स्वयं ख्यातिलब्ध प्रगतिशील आलोचक हैं। सबसे पहले डा0 रामविलास शर्मा ने इस पुस्तक को बड़ी गंभीरता से जाँचा परखा। उसे प्रगतिशील कविता के विरोध में खड़ी पुस्तक बताया। उनके आरोप न सिर्फ सही थे बल्कि बड़े गंभीर भी थे। डा0 शर्मा के अनुसार,  नामवर सिंह ने इलियट और सार्त्र को ही नहीं, विस्मार्ट, क्लीन्थ ब्रुक्स, डेनाल्ड डेवी, फ्रैंक कर्मोड,  विलियम एम्पसन, गिलबर्ट राइल, रिचर्ड ब्लैकमर आदि से‘ ‘औपनिवेशिक आधुनिकतातथा रूपवादनिचोड़ कर इस पुस्तक को अमरीकी नई समीक्षा का हिंदी संस्करण बना दिया है। यह वह प्रस्थान बिंदु है जहाँ एक ख्यातिलब्ध मार्क्सवादी कहे जाने वाले लेखक द्वारा जनवादी-प्रगतिशील कविता को अमरीकी नई समीक्षाके भरोसे छोड़ दिया गया। बड़ी चतुराई से प्रगतिशील-जनवादी आन्दोलन को रूपवादी-कलावादी मोड़ देने के प्रस्ताव किये गये। मार्क्सीय शब्दाली जैसे वर्ग चेतना, वर्गसंघर्ष, सर्वहारा, ऐतिहासिक द्वंद्वात्मकता आदि शब्दों को वर्जित समझा गया। मार्क्सीय मुहावरा सापेक्ष सवायत्तताकी जगह अस्तित्ववादी शब्द अस्मितापर जोर दिया गया। 
कविता को सामाजिक संदर्भों से अलगा कर देखने का तर्क सामने आया। मुक्तिबोध को परिशिष्ट में रख अँधेरे मेंकविता को परम अभिव्यक्ति की खोजकहा गया। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन को मुख्य धारा से ढकेल हाशिये से भी बाहर कर दिया गया। इस पुस्तक को कलावादी-रूपवादी तक, प्रमाण स्वरूप, अपने पक्ष में व्याख्यायित करने लगे। भारत भवन समूहलगातार प्रगतिशील-जनवादी कविता को राजनीतिक प्रचार बताने में आगे आया। सहारा लिया गया,‘कविता के नये प्रतिमानका। विजयदेवनारायण साही, रघुवीर सहाय,  श्रीकांत वर्मा,  कुँवरनारायण आदि हाशिये के कवि कविता के नये प्रतिमानमें मुख्यधारा के कवि लगने लगे। प्रगतिशील -जनवादी कविता के विरोध में खड़ी इस पुस्तक का पर्याप्त विरोध क्यों नहीं हुआ? साहित्येतर कारणों से विश्वविद्यालीय पेशेवर समीक्षक समकालीन कविता को परखने के लिये इसे माडल के रूप में प्रस्तुत करते रहे। नतीजा यह हुआ कि कविता के पाठकों में औपनिवेशिक आधुनिकतावादीआस्वाद निर्मित होता गया। उसका असर प्रगतिशीलों-जनवादियों दोनों पर पड़ा है। कविता से लोककी दूरी बनाई गई। श्रमियों तथा किसानों के क्रियाशील बिंब कविता से गायब होने लगे। सिर्फ मध्यवर्गीय जीवन के सीमित चित्रों की कविता में भरमार हुई। किसानों- श्रमियों के कठिन जीवन के चित्र विरल हुये। संघर्षधर्मी लोक,  खेत–खलिहानों, जनपदों तथा प्रकृति के प्रतिबिंबन को पिछड़ी मानसिकता कहा जाने लगा। तब से आज तक यह स्थिति बनी हुई है। उक्त समीक्षा पुस्तक से प्रगतिशील कविता तथा समीक्षा की जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति होना बहुत कठिन है। इसमें संदेह नहीं कि हमारे बड़े प्रगतिशील-जनवादी कवि नागार्जुन आदि की घोर उपेक्षा के बावजूद उनकी लोकधर्मी कविता निरंतर विकसित होती रही। कुमारेंद्र, मानबहादुर सिंह, कुमार विकल,  शलभश्रीराम सिंह, वेणुगोपाल, आदि ने उसे अपने अपने ढंग से विकसित किया। आज के अनेक कवि ज्ञानेंद्रपति, राजेश जोशी,  अरूणकमल आदि ने उसे आगे बढ़ाने के यत्न तो किये हैं। पर उसकी धार कुंद है। गति मंद। न तो पूँजीवाद साम्राज्यवाद के विरुद्ध तीखा प्रतिरोध है। न उनकी कविताओं में संघर्षशील जनता की उभरती जनशक्ति का एहसास। दूरदराज के जनपदों में युवा कवि जनवादी कविता लिख रहे हैं। पर उसे अपेक्षित ऊँचाइयों तक ले जाने के लिये उनके सामने बड़ा संघर्ष तथा चुनौतियाँ शेष है। यह चिंता का विषय है कि ज्यादातर लोगों का रुझान रूपवादकी ओर ही है। कविता में राजनीति से परहेज़ क्रमशः बढ़ रहा है। कई बार लगता है क्या हम फिर नई कविताकी ओर ही तो नहीं लौट रहे हैं! प्रगतिवादी-जनवादी समीक्षा की स्थिति बहुत प्रेरक नहीं है। प्रो0 चंद्रबली सिंह, डा0 रामविलास शर्मा, शिवकुमार मिश्र, चंद्रभूषण तिवारी, कुँवरपाल सिंह, डा0 ओमप्रकाश ग्रेवाल,  डा0 आनंद प्रकाश, मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह आदि ने मार्क्सवादी समीक्षा को आगे बढ़ाया है। इधर मार्क्सवादी दृष्टि से लोकधर्मी समीक्षा को डा0 जीवन सिंह, प्रो0 रेवतीरमण तथा डा0 रमाकांत शर्मा नया रूप देने में संघर्षरत हैं।
यह सब होते हुए भी हमें अपने सृजन कर्म तथा वैचारिक संघर्ष से संतुष्ट होने की जरूरत नही है। स्थिति बहुत प्रेरक भी नहीं है। सुपरिचित मार्क्सवादी समीक्षक डा0 आनंद प्रकाश ने अपनी सद्य प्रकाशित महत्वपूर्ण समीक्षा कृति, ‘समकालीन कविता: प्रश्न और जिज्ञासायेंमें कुछ बहुत ही गंभीर सवाल उठाये हैं। उन बातों पर गौर करें तो पिछले दो तीन दशकों में अधिकांश कविता में‘ ,‘मानवीय सामाजिक जिम्मेदारीतथा जनता के शेाषण के स्वरूप को स्पष्ट दृष्टिकोणसे नहीं समझा जा रहा। बल्कि, ‘ हिंदी की अस्सी फीसदी कविता में बुर्जुआ कविता के रूप’ दिखाई देते हैं। अतः समाजवादी या शोषण विरोधी विजनके बिना सार्थक कविता संभवनहीं है। मुझे डा0 आनंद प्रकाश की चिंतायें बहुत ही प्रासंगिक तथा जरूरी लग रही हैं। उन पर गौर किया जाना चाहिए।
क्या वजह है हमारा वैचारिक संघर्ष अब उतना तीखा नहीं रहा। वह उतना लक्ष्यसूचक भी नहीं है। हमने प्रगतिशील-जनवादी कविता की गौरवशाली परंपरा को विस्मृत किया है। हमारे मन में मुक्तिसंग्राम के जनसंघर्ष की अनुगूँजें नहीं कौंधती। हममें से अनेक स्वपक्षत्याग चुके हैं। अनेक शिखरस्थ लेखक पथभ्रष्ट हुए हैं। उन्हें लेखकीय प्रतिबद्धता, ‘गाय का खूँटालगती है। कुछ ने अपना आचरण खोया है। वे तुच्छताओं के पीछे भाग रहे हैं। हमसे सवाल किया जाता है कि जनवादी क्या ऐसे ही होतेहैं? ऐसे सवालों का जवाब हमें अपने उत्कृष्ट जनवादी लेखन,  मार्क्सीय वैचारिक प्रतिबद्धता तथा जनवादी आचरण से ही देना होगा। क्या आज यह जरूरी नहीं कि हम बड़ी निर्ममता से आत्मालोचन करें। आखिर क्या वजह है कि लेखक पाठक हमारी तरफ आकर्षित नहीं होते। जनपक्षधर पत्रिकायें बाज़ार के प्रभाव में व्यावसायिक हो रही हैं। मार्क्सवादी विचारधारा -उसका सौंदर्यशास्त्र तथा उसकी तत्वमीमांसा के विषय में न कोई चर्चा है, न बहस। न संवाद। ऐसा लगता है जैसे एक बार मार्क्सवाद पढ़ कर हमने अपना दायित्व पूरा कर लिया। या फिर मार्क्सवाद अब अपनी प्रासंगिकता खो चुका है।
मार्क्सवाद की प्रासंगिता के संदर्भ में यहाँ मुझे तीन पुस्तकों की चर्चा करना उचित लग रहा है। एक है, ‘द इथिकल डाइमैन्शन्स आफ मार्क्सिस्ट थाट। यह छपी है 2008 में। इसके लेखक हैं कार्नैल वैस्ट। पुस्तक का मुख्य तर्क है कि ,‘स्वतंत्रता सेनानियों को मार्क्सवादी विचार -परंपरा अपरिहार्य है  ….. हमारे समय की प्रमुख विडम्बना है कि सोवियत संघ के पतन के बाद मार्क्सवाद और अधिक प्रासंगिक हुआ है। दूसरी पुस्तक है हाउ टू चैन्ज द वर्ल्ड: टेल्स आफ मार्क्स एण्ड मार्क्सिज्म।’ पुस्तक छपी है 2011 में। लेखक हैं ख्यातिलब्ध मार्क्सवादी इतिहासकार इरिक हौब्सवाम। पुस्तक की केंद्रीय स्थापना है कि एक बार फिर मार्क्स को गंभीरता से समझने का समय आगया है।‘ यह भी कि ‘21 वी सदी मार्क्स की सदी होगी। तीसरी पुस्तक है, ‘मार्क्सिस ऐकोलोजी। लेखक हैं जान बैलामी फोस्टर। प्रकाशन हुआ है सन 2000 में। पुस्तक में प्रकृति के अंध विदोहन के बारे में मार्क्स की गहरी चिंता व्यक्त की गई है। 
मार्क्स का मानना है कि पूँजीवादी व्यवस्था में प्रकृति तथा मनुष्य के बीच एक ‘ ‘मैटाबोलिक रिफ्टपैदा होता हैं। अतः हम प्रकृति के प्रति क्रूर होते जाते हैं। ये तीनो पुस्तकें इक्कीसवी सदी में मार्क्स की प्रासंगिकता की ओर संकेत करती हैं। मेरा विचार है मार्क्सवाद लगातार पढ़ने-समझने-दुहराने की माँग करता है। हर जनवादी लेखक को उसका अध्ययन एक सतत प्रक्रिया बने। क्रूर होते पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद के इस दौर में मार्क्स की प्रासंगिकता बहुत ज्यादा है। दुनिया भर में पूँजीवाद तथा साम्राज्यवाद की नीतियों का विरोध हो रहा है। लैटिन अमरीका में जनपक्षधर सत्ता वजूद में आ रही हैं। मेरे बिल्कुल पड़ौस नेपाल में जनपक्षधर सरकार वजूद में आई। बुर्जुआ भी आज मार्क्स की पूँजीमें निहित रहस्यों को समझना चाहता है। 
नये प्रगतिशील तथा जनवादी लेखकों से बातचीत करते पता चलता है कि वे मार्क्स के बारे में अनजान हैं। कुछ नये लेखक जोश में आ कर मार्क्स को बिना पढ़े ही मार्क्स से आगेकी बात कह रहे हैं। कैसी बिडम्बना है जिन स्थितियों से संघर्ष करने के लिये मार्क्सवाद पैदा हुआ अभी उनसे निजात कहाँ मिली है। तो मार्क्स से आगे की बात करना क्या हास्स्यास्पद नहीं है। जनपक्षधर पत्रिकाओं का क्या यह दायित्व नहीं कि वे पाठकों को मार्क्सवादी तत्वमीमांसा तथा उसके सौंदर्यशास्त्र के बारे में भी प्रशिक्षित करें। मार्क्सीय चिंतन पर कोई गंभीर लेख, बहस या विमर्श पत्रिकाओं से गायब है। हमारे लेखक संगठन भी मार्क्सवाद को लोकप्रिय बनाने के लिये व्यावहारिक कार्य योजनायें बना सकते हैं। हम प्रतिकूलतम स्थितियों में जी रहे हैं। इतिहास द्वारा प्रदत्त इन स्थितियों में संघर्ष करके उन्हें अपने अनुकूल बनाने के सिवा अन्य कोई्र विकल्प नहीं है। संघर्ष से ही पथ आलोकित होता है। अतः प्रगतिशील-जनवादी महान गौरवशाली संघर्षशील परंपरा को पुनः व्यापक तथा असरदार बनाने के लिये हमें प्रगतिशील पुनर्जागरणकी बेहद जरूरत है। जनता को विजयी नहीं तो अपराजेय तो दिखा सके। जिधर अन्याय है आज शक्ति भी उधर है। हमें अपनी संघर्षशील जनता की अपराजेय शक्ति पर भरोसा करने के लिये उससे एकात्म होना जरूरी है। आज जो विजेता बने हैं वे रक्तपायी हैं –
खुला राज विजयी कहाये हुए हैं

लहू दूसरों का पिये जा रहे हैं.

विजेंद्र

हमारे समय के वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी ने ‘पहली बार’ के लिए अपनी नवीनतम कवितायें भेजीं हैं. इन्हें अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है.  लोक चेतना से जुडी हुई ये कवितायें आम आदमी की चिंता और परेशानियों की तहकीकात करतीं हैं. इसी क्रम में कवि विजेंद्र जी वाल्ट व्हिटमैन को याद करते हैं जिन्हें अमरीकी पूंजीवादी समाज ने प्रायः उपेक्षित किया.
ये एक लोकधर्मी कवि के सरोकार हैं जो उसे दूर-दराज के अपने ही सगोत्रीय जन कवि से जोड़ता है. पहली बार पर प्रस्तुत हैं विजेंद्र जी की कवितायें.  

 
धरती तभी बचेंगी
आदमी का खून कितना गाढ़ा है                   
यहाँ से वहाँ तक कनपटियों से बह कर
गर्दन तक आया है
वह गाढ़ा है – सुर्ख
जैसे खिले गुड़हल का फूल
इसके गिरने से धरती काली होती है
वह बराबर क्यों गिरता है
जहां वह  गिरा है
खार पैदा हुआ है
दोआबा की उर्वरता खत्म हुई है
युद्ध और आयुध मेरे विनाश के लिये है
दुनिया में अमन चाहने वाले
क्यो सबसे अधिक बंज करते हैं आयुधों का
मैं अगर उनके वर्चस्व को न मानूँ
तो वे मुझे तबाह करेंगे
मेरे विरुद्ध भाड़े के लोगों को लड़ायेंगे
ओह…. वे कितने बेचैन  हैं
आदमी को मार कर अमन रचाने को
नदियों को गंदा  ओह …. विषाक्त कर
धरती बचाने को ।
उन किरदारों की जरूरत है
जो आदमी पिलास से
बिजली का तार काटता है
उसके ऊपर लगी रबड़
अपने मज़बूत दाँतों से छुड़ाता है
फ्यूज़ उड़ते ही घुप्प अँधेरा था
रामहेत आया
उसने बारीक तार जोड़ कर
मुझे फिर से साँस लेने को
उजाला दिया
मैं इन्हें  कहाँ कहाँ देखूँ
कविताये मिथक…. दंत कथायें पीछे छूट गई हैं
चुटकुलों से कब तक भूखे आदमी को
बहलाता रहूँगा
पतझर की बादामी झरन के बाद
पियरछौंही वसंत ज़रूर आता है
उसकी पहली फुटन
अपनी खिड़की पे पौंड़ी
मधु….कंचनलता पर ही सुनूँगा
पेचकस से चूड़ियाँ कस
उसने मुझे हिफाज़त दी है
नट बोल्ट कस कर
मेरे इरादे पक्के किये हैं
क्या मेरी अमूर्त कवितायें
पोटुओं पर पड़ी दरारों को भरेंगी
आने दोकविता में उन्हें भी आने दो-
जो तख्तों में चोबे ठौक कर
मुझे सहूलियतें देते हें
लोहे की आरी से गाटर काट कर
हमारी छतें पुख्ता करते हैं
जब चीज़ों की शक्ले बदलती हैं
तो मेरा सोच आगे बढता है
मेरे इरादों में धार आती है
लड़ता है आदमी सतत समर
देखे  हैं  मैं ने मरु के सूखे खेत
भूदृश्यपृथ्वी की आकृतियाँ अनेक अनेक
खैरी धूप में तपता किसान का खुला सीना
ऊँट के गद्देदार पाँव छोड़ते छाप
लहरियोंदार टिब्बो पर
गर्दन उठा टूँगते पल्लव झाड़ियों के
क्या तुमने देखा है
पानी को काटते पृथ्वी तल
धानों को होते जलमग्न
क्या कभी सुनी है हवा और जल की
मिश्रधातुक टक्कर
वर्षा से भी जन्मते हैं नये-भू- आकार
अनंत प्रजातियाँ अनाम वनस्पतियों की
कहाँ देती है दिखाई
चट्टानों को काटती
पानी की तेज़ धार
हवा की पैनी बर्छियाँ
कणों का संगठन कहाँ दिखता है
इन आँखों को
हवा नहीं कर पाती इन्हें पराजित
वह काटती है सतह को
करती है निक्षेपण हर बार
ओह…. यह मरुथल, यह रेत, यह सूखा
कब से नहीं देखी बूँद
दूब तिनकों ने
सूखे अधसूखे मुरझाये पेड़े रूख 
कँटीली बेलड़ियाँ
ओह…. न हो कोई खेत ऐसा
न गिरे जहाँ बूँद पानी की
कैसे लगते हैं भूखे आदमियों के तपते चेहरे
छिपाये धधकता क्रोध आँखों में
रेत ही रेत है देख पाती जहाँ तक आँखें
न वृक्ष,  न घास,  न फूल,  न पत्ती
यह कितना भिन्न है दोआबा से
मेरे धड़कते दिल से
आदमी ही लड़ता है सतत समर
नहीं आती यहाँ नम हवायें
भीगे डेनों को फड़फड़ाती
बनते रहते वृष्टिछाया क्षेत्र
कैसे छिटकूँ यहाँ जल-बीज
हर बार उगेगा बिना पानी ही
ऊँटकटीला , रोहिड़ा , केरी
लगती रहेगी हर बार
धरती की फेरी ।

   

(गंगा नदी)

क्या गंगा भी होगी लुप्त

कहाँ है सरस्वती
गूँजती थी ध्वनियाँ ऋचाओं की
जिसके तटों पर
कहाँ है उसकी हिलोरें अगाध
कहाँ उसका फैला पसरा पाट
दोआबा के सीने की तरह
नहीं दिखाई देती वह कहीं धरती पर
सुनता हूँ उसकी गरजनाये
अपने दरके हृदय में
ओ गंगा …. कौन बचायेगा
उन क्रूर हाथों में फँसीतुझे
सदानीरा ….प्रवाहित होना ही
जीवन है नदी का
मैं जानता हूँ क्रूर और स्वार्थी
करेंगे विषाक्त तुझे  भी विवश
लुप्त होने को यहीं कहीं
तेरी तरंगों से ही
दोआबा हुआ है उर्वर
जीवित हैं तेरी रगों से अनेक
जलधारायें,  नद,  सर छोटी सिरतायें
ओ गंगा मेरी माँ
सागर में मिलने से पहले
तूने दिये जाने कितने पौष्टिक आहार
बालुका कणों से सिक्त तलछट
बाढ़ में उजाड़े हैं गाँव के गाँव भी
बनाया है उन्हें कर्मठ
उगाने को धान, मकई,  बाजरी
कहाँ है वह समय
देखता था जल में
अपनी परछाइयाँ तरल
तू बदलती है अपना पथ हर बार
क्यों उजाड़ती है छुटभैया किसानों को
गंगोत्री से विचलित हो
तू गई है अपनी सुरक्षा को अन्यत्र
मैं ने रोका है तेरी धारा को
बाँधों से कसी हैं तेरी भुजायें
गंदलाते हैं तेरे पवित्र जल को
जहरीले रसायन से
बनती जाती है तू
लावारिस लाशों की वाहिका
मेरे अनाड़ीपन से हुआ है
तेरा पवित्र जल दूषित
कहाँ खेाजूँगा तुझे भविष्य में
तेरा एक एक जलकण
रक्त कोष है मेरा
तू ही नहीं और नदियाँ भी
होती जाती हैं पतनालियाँ
ओ भगीरथ मेरे वैज्ञानिक
तुम बताओ दृष्टिवान अंधों को
चौकन्ने बहरों को
क्यों हैं वे इतने क्रूर
अपनी माँ के प्रति
नष्ट करते हैं उसके जल स्रोतों को
सुखाते हैं हिमालय में वसी झीलों को
नष्ट करते हैं हिम नदों को
कौन कर सकता है
उनकी रक्षा आज
होती है बरबादी पानी की
आधे से ज्यादा देश प्यासा है
टूटते हैं पाइप हर रोज़
लाखों गैलन पानी बिखरता है यूँ ही
महानगरों सिर फोड़ते है प्यासे लोग
पश्चिम की नकल से
सीखा है बनाना बाँधों को
क्यों नहीं सीखा नदियों को
रखना पवित्र अपने ऋषियों से
विलुप्त होती जाती  हैं
अनेक प्रजातियाँ जल जीवों की
औंधाते हैं अपार जल प्रभुजन
कारों को धोने में
लान सींचने में
कुत्तों को नहाने में
खुला छोड़ती हैं पाइप अभिजन स्त्रियाँ
बहता रहता है पानी सड़कों पर
जल नहीं तो नहीं होगा धान
कहाँ से हो पायेगी ईख
ऐसा विकास क्या
मुठ्ठीभर ही पायें अपार सुख सुविधायें
बहुल समाज मरे प्यासा ,भूखा , असहाय
अपौष्टिक आहार से होता रहे लँगड़ा लूला ।
      
                                            19 अगस्त , 012

(वाल्ट व्हिटमैन)

वाल्ट ह्विटमैंन की याद में

  
ओ मेरे प्रिय बुजुर्ग कवि
अमरीका के महान ….महानतम कवि
जब मनाया गया
तुम्हारी अमर कृति दूब के तिनको की
सौवी जयंती का उत्सव
मेरा युवा मन नहीं समझा
तुम्हारे काव्य शिखर
मैं डूबा था कीट्स की बुलबुलमें
शैले की पछुआ में
वर्डस्वर्थ के डैफोडिल्स में
उसकी रीपर में
शेक्सपियर के अथाह स्वगतों में
ओह़़ …… मेरे साहसी कवि
जब मनाई गई तुम्हारी डेढ़सौवी जयंती
मैं लड़ रहा था स्वयं से
अपनी कविता को
अपनी भदेस भाषा को
अपने ऊबड़खाबड़ कथ्य को
तुम्हारी घनी दाढ़ी में दिखा मुझे
अपने जनपद का खादर
चट्टानों में उभरी सिलवटें
सागर का रौरव
पूरे विश्व में
गूँजती रही तुम्हारी कविता की
अमिट छाप,  बजती रहीं लय की घंटियाँ
सरपट भागते वाक्य की आड़ी तिरछी हिलोरों  मे
खनकता रहा धातुक टिकाऊपन
सुनता हूँ आज भी सतत्तरवी साल में
कालपरीक्षित तेरी कविता का गान
तेरी कविता के हृदय में वसी मुक्तिकामी पीड़ा
नक्षत्रों का फूटता प्रकाश
तुम्हारी विस्तृत आत्मा का फैला असीम वृत्त
प्रभु वर्ग के पेशेवर समीक्षक
छिपे-छिपे विहँस कर
करते हैं तुम्हारी निंदा
वे जनता के शत्रु हैं
श्रमिको , छोटे किसानों के शोषक
यथास्थिति के कायल
स्वर्ण मुद्राओं को लालायित
पाने को दरवार से
मुझे कोई आश्चर्य नहीं
निरस्त किया है तुम्हारी कविता को
जनता के शत्रुओं ने
पृथ्वी की तरह विपुल विस्तृत तुम्हारा गान
जहाँ पाई है अमरता मनुष्य ने
तुमने गाये हैं उसी के गान
जो नहीं होगा कभी पराजित अपने शत्रुओं से
नहीं जियेगा कीड़े मकोड़ों सा
कारुणिक नहीं होगा उसका अंत
सहेगा अभी और शत्रु की यातनाये
नहीं हो पायेगा उसके हृदय का दलन
सफेदपोश डरता है
सुर्ख लोहे को देख कर
वह हथैाड़े से पीट कर
उसे ढालता है मनचाही शक्लों में
कितना ही होगा वह दुर्बल
नहीं होगा चेतना शून्य कभी
तपता रहूँ चाहे जितना
कहाँ हो पायेगा भस्म शरीर अभी
नहीं हेाता जीवन नष्ट बज्रप्रहारों से
अर्जित होती है शक्ति अपूर्व
तुम कितने दुखी हो
देख कर मनुष्य की एकता न होने पर
अथाह गहराइयाँ नापी हैं तुमने
मनुष्य हृदय की
विपुलता पृथ्वी की
पवित्रता सौंदर्य की
कितने सरल हैं तुम्हारे शब्द जैसे दूर्वांकुर
बिल्कुल ताज़ा जैसे ओस की बूँदें
छोटे हृदय में नहीं समा पायेगा
तुम्हारी कविता का आलोक वलय
मनुष्य के शत्रु
नहीं कर पायेंगे तुम्हारी कविता का आस्वाद
मैं ने भी सहे हैं आघात दुष्टों के
नहीं कर पाया प्रसन्न उन्हें
जो करते हैं घिन जनता से
अक्षय कोष तुम्हारी कविता का
पत्थर पर खिंची रेखायें
चमकते रहेंगे अमिट आँक
माथे पर काल के
करते रहेंगे प्रेरित करोड़ों करोड़ लोगों को
आगे तक दुनिया में
गुजरने  दो कठोर समय को
वर्तमान के वृक्ष को हिलाते हुये
तुम आज भी मेरे साथ हो
दूब के तिनकोंमें मुखार है
भविष्य अमरीकी कविता का ।
                     21 अगस्त ,2012
          फरीदाबाद
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मोबाईल- 09928242515

विजेंद्र

हिमाचल प्रदेश से देवेन्द्र गुप्ता के सम्पादन में एक पत्रिका छपती है – सेतु। इसका  जुलाई-दिसम्बर 2012 अंक कवि विजेन्द्र पर केन्द्रित है। इस अंक में विजेन्द्र जी की कविता पर मेरा भी एक आलेख है- ‘समय की लहरें हर पल मुझसे टकराती हैं।’ इस लेख पर बिल्कुल अभी अभी कवि विजेन्द्र का एक आत्मीयता पूर्ण पत्र मुझे ई-मेल पर प्राप्त हुआ। चूकि पत्र में कविता के बहाने और उसके उपर विजेन्द्र जी ने बहुत सारगर्भित बातें की हैं अतः इस पत्र को मैं पहली बार के पाठकों के लिए ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हॅू। हर बार की तरह इस बार भी आपकी बेशकीमती प्रतिक्रियाओं की हमें प्रतीक्षा तो रहेगी ही। 

विजेंद्र                                                                                                                     
c/o – R N Mani
B-1, 801 Mahendra Chloris
Near D P School
Faridabad
Hariyana

                                                                                          
प्रिय संतोष ,                                 
तुम्हारे आलेख को ‘सेतु’ में  पढ़कर बहुत अच्छा लगा। कवि का विश्लेषण पेशेवर आलोचकों से भिन्न होता है। तलस्पर्शी भी। तुमने मेरी लोक निष्ठा और राजनीतिक प्रतिबद्धता को बहुत कुछ साफ करने का यत्न किया है। यह मेरे लिये प्रसन्नता की बात है । तुमने कवि रिल्के का एक वाक्य तथा उसका अनुवाद दिया है, ‘यदि कला अंतर्मन में नहीं उपजी तो उसे छोड़ देने के लिये तैयार हो जाओ और इसका आकलन अपने भीतर जाकर स्वयं करो, किसी अन्य की आलोचना से प्रभावित मत हो। और दूसरे को प्रभावित करने के लिये लेखन मत करो’। हमारे भाववादी- कलावादी मन को ऐसी अमूर्त बातें बहुत अच्छी लगती हैं। पर जब हम उनका तर्कपूर्ण विश्लेषण करते हैं तो उनकी विसंगतियाँ और निरर्थकता सामने आती है। किसी भी कला के जीवन स्रोत बाहर होते हैं। अंतर्मन में नहीं। यह कह कर क्या रिल्के शायद कला की स्वतःस्फूर्तता पर जोर दे रहे हैं। कोई भी कला पूरी तरह स्वतःस्फूर्त नहीं होती। बाहरी उत्प्रेरण से ही कवि पहले संवेदना के स्तर पर प्रेरित होता है। यह भी स्वतःस्फूर्तता का स्तर नहीं है। यह संवेदना का प्रथम सोपान है। अनुभव का कच्चा खनिज। इससे प्रेरित होकर यदि कोई लिखता है तो वह प्रतिक्रिया भर होगी। रचना नहीं। संवेदना का प्रथम सोपान कच्चा और दिशाहीन होता है। लगता है हम स्वतः स्फूर्त होकर लिख रहे हैं। पर हम सिर्फ घटना के प्रति प्रतिक्रिया दे रहे होते हैं। इस प्रतिक्रिया के कच्चेपन से बचने के लिये हमें संवेदना के प्रथम सोपान को बुध्दिगत बनाना बहुत जरूरी है। दूसरे शब्दों में कच्चे अनुभव को पूर्ववर्ती अनुवभों से एकात्म कर उसे पुनर्गठित करना पड़ता है। यह संवेदना का दूसरा सोपान है। पहले सोपान से गुणात्मक रूप से भिन्न और उच्च स्तर का । हम स्थूल से सूक्ष्म की और बढ़े हैं। वस्तु से अंतर्वस्तु की ओर। अब पुनर्गठित अनुभव को पुनः व्यवहार में लाने के लिये हमें उपयुकत भाषा की खोज करनी होगी। कवि को देखना पड़ता है कि जिस भाषा में अपनी बात कह रहा है वह जन समूह को मेरी बात संप्रेषित कर पायेगी या नहीं । यदि नहीं तो मुझे अभी और प्रतीक्षा करना होगी। यही नहीं वह उसे अपने चित्त में धारण कर पाने की स्थिति में होगा या नहीं। यह सब बातें कवि के मन में उन्मथित होती रहती हैं। अंतर्मन और वस्तुजगत की टकराहटें हम सुनते हैं।

मुझे लगता है स्वतःस्फूर्तता या रिल्के के शब्दानुसार ‘कला का  अंतर्मन में उपजना’ एक काल्पनिक सोच है।  कलावादी-भाववादी रूमानी गीतकार या छायावादी मिजाज़ के कवि इस तरह की स्वतःस्फूर्तता की बात करते रहते हैं। जब मैंने लिखना प्रारंभ किया तो मैं भी इस शब्द से बहुत आतंकित था। पर बाद में मुझे लगा कि जिसे हम स्वतःस्फूर्तता या ‘कला का अंतर्मन में उपजना’ कहते हैं वह एक काल्पनिक सोच है। कवि कर्म कभी पूर्णतः स्वतःस्फूर्त नहीं होता। न उसके अंतर्मन में कला उपजती है। उसके स्रोत सदा बाहर हैं। कविता श्रेष्ठ श्रम का उत्कृष्ट तथा विरल उत्पादन है । बाहरी वस्तुजगत को ही हम अनुभव के स्तर पर आत्मपरक बनाते हैं। या कहें वह आत्मपरक हो जाता है। अंतर्मन की बात कलावादी -रूपवादी बहुत करते हैं। इससे उनको दो लाभ हैं। एक तो कविता के लिये वे मनमानी छूट लेते हैं – स्वत:स्फूर्तता के नाम पर। दूसरे, भयावह सामाजिक यथार्थ से बच जाते हैं । क्योंकि आप कह ही रहे हैं कि यदि कला अंतर्मन में नहीं उपजी तो कला होगी ही नहीं । अंग्रेजी के ‘ऐस्थीट्स’ भी ऐसी बातें करके कला को अपने ‘ड्राइंगरूम की शोभा’ बनाते रहे हैं। आखिर कौन जाये वन बीहड़ों में ठोकरें खाने को । भयाभय यथार्थ का सामना करने को । अंग्रेजी के महान रोमेंटिक कवि विलियम वर्डस्वर्थ का तो सिध्दांत ही है ,

Poetry is spontaneous overflow of powerful feelings.

पर वर्डस्वर्थ स्वयं इस सिध्दांत का निर्वाह नहीं कर पाये। उनकी प्रदीर्ध तथा चिंतनपरक कवितायें प्रचलित अर्थ में न तो स्वतःस्फूर्त हैं। न सिर्फ अंतर्मन में उपजी है। उन्होंने बड़ी लंबी और कठिन यात्रा तय की है। तो फिर स्वत: स्फूर्तता का आज क्या अभिप्राय हो सकता है। मेरे विचार से इसका अर्थ होगा संवेदना के तीसरे सोपान पर पहुँच कर सहज तथा अर्थवान कविता रचना। इसका दूसरा अर्थ हो सकता है सहजता से अपेक्षाकृत सरल भाषा में अपनी बात कहना। नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार बाबू, मुक्तिबोध की अपेक्षा इस अर्थ में अधिक स्वतःस्फूर्त हैं। केशव की अपेक्षा तुलसी अधिक स्वतः स्फूर्त हैं। ध्यान रहे अंतर्मन सवयं में कोई पूर्णतः सवायत्त तथा निरपेक्ष सत्ता नहीं है। वह बाहरी जगत का प्रतिबिंबन ही तो है। बहुत पहले हमारे यहाँ उपनिषद् में कहा गया है, ‘ सर्वम् जगत प्राणे एजति’ यानि यह समूचा जगत हमारे चित्त में झिलमिलाता रहता है। इससे अंतर्मन की स्थिति और साफ होती है । अंर्तमन बना ही बाहरी वस्तुजगत से है ।

दूसरी बात रिल्के ने कही है , अपनी रचना का, ‘आकलन अपने भीतर स्वयं जा कर करो।’ यह फिर वैसी ही बात है जो ऊपर कही गई। कविता की परख कवि स्वयं नहीं करता। नहीं करनी चाहिये । यदि ऐसा होता तो विश्व में कही भी काव्यशास्त्र का विकास ही नहीं होता।  यह सही है कि हम  किसी अन्य की आलोचना से प्रभावित न हों । इसके लिये कोई जड़ सूत्र नहीं बनाया जा सकता। कवि आलोचना  को प्रभावित करता है। उससे प्रभावित भी होता है। हमारे यहाँ तो आलोचक को स्वामी, मित्र, शिष्य, मंत्री तथा आचार्य तक कहा गया है । यानि कवि और आलोचक के संबंध द्वंद्वपरक होते हैं। वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। वही कविता का मूल्यांकन कर सकता हे। इसीलिये हमारे यहाँ उसे ‘भावक’ कहा गया हे । मैं साधक आलोचकों तथा कवियों की बात कह रहा हूँ। पेशेवर आलोचकों या कवियों की  नहीं। तीसरी बात जो रिल्के ने कही है कि , ‘दूसरों को प्रभावित करने के लिये लेखन मत करो’।  यह भी अपने आप में विसंगत है। अमूर्त भी। शब्द का जन्म ही दूसरे को प्रभावित करने के लिये हुआ है। लेनिन ने शब्द को संक्रिया कहा है। संक्रिया वह जिससे प्रभावित चीज़ प्रतिक्रिया करे। जब हम किसी की बात सुनते हैं। उसका हमारे मन पर प्रभाव होता ही है। भले ही हम उससे सहमत न हों। आखिर कविता का क्या प्रयोजन है यदि वह हमें प्रभावित न करे। हमारे अग्रज आलोचकों ने तो यहाँ तक कहा है कि उत्कृष्ट कविता हमें मानवीय सीमाओं से ऊपर उठाकर हमारे चित्त का प्रक्षालन करती है। भारत में ही नहीं पूरे योरुप में भी कविता का यह प्रयोजन बताया गया है। यही नहीं भारतीय काव्यशास्त्र तो कविता को ‘अस्त्र’ तक कहता है।  आचार्य  मम्मट ने काव्य के अनेक प्रयोजनों में एक प्रयोजन ‘शिवेतर क्षतये’ कहा है। यह सिद्धांत उन्होंने स्वयं नहीं रचा। बल्कि भारतीय महान कविता के प्रयोजनशील स्वभाव को देखकर ही रचा होगा। यदि शब्द में अर्थ है तो वह दूसरे को प्रभावित करेगा ही । कवि चाहता है उसकी बात से पाठक प्रभावित हो। उसका मन बदले। इसी अर्थ में श्रेष्ठ कविता यथास्थिति को भंग कर नई और बेहतर स्थिति पैदा करती है। उसे ऐसा करना भी चाहिये। यहाँ सवाल होगा आखिर रिल्के जैसे ख्यातनाम कवि ऐसी बातें क्यों कह रहे हैं। एक तो रिल्के रूमानी कवि हैं। कविता उनके लिये अत्यंत निजी तथा गोपनीय चीज है। वह नवरहस्यवादी भी है जिनके लिये यह समाज – दुनिया – उतनी महत्वपूर्ण नहीं जितना अपना ‘मन’ और आत्मा। या अपनी संपूर्ण-निरपेक्ष-कवि संलुभ स्वायत्तता। हिंदी में ऐसे कवियों की कमी नहीं जो सिर्फ अपने मन को ही सब कुछ मानते हैं । उन्हें समाज निरपेक्ष साहित्य ही वरेण्य है। रिल्के अत्यंत व्यक्तिनिष्ठ तथा रूपवादी कवि हैं। उन्हें जीवन भर तीन चीजों से ही दिलचस्पी रही है। एक तो सुंदर – रूपवान लड़कियाँ। दूसरे, सुंदर गुलाब के फूल। तीसरे, मृत्यु तथा कीमती शराब। कहा जाता हैं अंतिम दिनों में उन्होंने किसी लड़की से विवाह का प्रस्ताव किया था। पर वह संभव नहीं हो पाया। रिल्के ने खीज कर गुलाब की कँटीली टहनी से अपने हाथ को छील डाला। संक्रमण गहरा होने  से उनकी मृत्यु हो गई। रिल्के का काव्य विजन बहुत सीमित है। वह न तो उनके पूर्व हुये महाकवि गेटे के बड़े विज़न जैसा है। न उनके बाद हुये कवि ब्रेख्त के राजनीतिक विजन जैसा। रिल्के के पतनशील प्रभाव में लिखी गई हिंदी कविता में व्यक्तिनिष्ठता के वे सब तत्व पाये जाते हैं जो रिल्के की कविता में हैं। कवि केदारनाथ सिंह एक उदाहरण हैं।  कवयित्री अनामिका भी लगभग वैसी ही कवितायें लिख रही हैं। आज के अनेक कवि जाने अनजाने उनके प्रभाव को अपनी कविता में सेंत रहे हैं। ऐसी कविता लिखना बहुत सरल है। क्योंकि हम क्रूर होती सत्ता को जनता की तरफ से कोइ्र चुनौती नहीं दे रहे । न समाज में पैदा हुई उस जनशक्ति का एहसास करा रहे हैं जिससे सत्ता काँपती है । एक प्रकार से हम यथास्थिति का पोषण कर अपने चुनौतीपूर्ण समय को स्थगित कर रहे हैं जैसा रिल्के करते हैं। हमें किसी विदेशी कवि का चुनाव बहुत सोच समझ कर करना चाहिये। आखिर रिल्के को बुर्जुआ समाज इतना अधिक प्रचारित क्यों करता रहा। उसने गेटे को या ब्रेख्त को इतना अधिक प्रचारित नहीं किया। पतनशील प्रवृत्ति के कवियों को भारत में बहुत प्रचारित किया जाता है । आज की व्यवस्था यही तो चाहती है। हम पाब्लो नेरुदा, नाज़िम हिकमत, ब्रेख्त, लोर्का, मायोवस्की आदि कवियों की बातों को आगे क्यों नहीं बढ़ा पारहे । जबकि अपने मुक्तिसंग्राम की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिये वे हमारी सामाजिक तथा ऐतिहासिक स्थितियों में आज अधिक प्रासंगिक हैं। इसी तरह चीन के दो हज़ार साल पुराने कवि वाइ जुई की कविता हमें नागार्जुन तथा केदार बाबू की बराबर याद दिलाती हैं। भारत में उन्हें बहुत कम लोग क्यों जानते हैं। ‘मेरी कविता के बहाने’ कुछ बात कहने को रिल्के से बात शुरू करना बहुत ही विरोधाभासी है। क्योंकि रिल्के की बात कहकर तुमने मेरी कविता के बारें में जो कहा है उसे रिल्के का कथन समर्थन नहीं दे पाता। न मेरी कविता उनके कथन को प्रमाणित करती है। तो दोनों तरह से रिल्के का कथन असंगत ही होगा। कई बार ऐसे कथन पाठक के मन में अनेक भ्रम उत्पन्न करते हैं।

    हाँ, संतोष बाबू, अपनी एक बात कहकर पत्र समाप्त करता हूँ। तुमने बड़ी अजब बात कही है, ‘कौन सा विषय कविता के दायरे में हो और किस विषय को किस गद्यात्मक स्वरूप में रख कर ही सही मायनेा में न्याय किया जा सकता है । पहले तो आजके लोकतंत्र में यह कहना ही उचित न होगा कि कविता और गद्य के विषय अलग अलग हों। क्या यह बुर्जुआ रुचि की तानाशाही नहीं है। छायावाद या रीति काल में यह मुमकिन था। कबीर ‘घर की चक्की’ तक को कविता का विषय बनाते हैं ।  निराला ने छायावादी परंपरा को भी तोड़ा। क्या पहले कभी ‘तोड़ती पत्थर’, कुकुरमुत्ता’, ‘महगू महगा रहा’,‘झीगुर डट के बोला’ ‘डिप्टी साहब आये’ आदि जैसे विषयों पर कविता संभव थी। पर महाकवि ने लीक छोड़ कर उसे संभव बनाया। ‘हरिजन गाथा’ या ‘नगई महरा’ आखिर कविता के विषय क्यों हो! यह सवाल क्यों नहीं उठाया जा सकता! केदार बाबू की कविता ‘काटो, काटो, काटो करबी’ पर भी हम प्रश्न चिन्ह लगायेंगे। मैं ने सवयं एक कविता लिखी है , मुर्दा सीने वाला’। आखिर यह भी कोई कविता का विषय है। हिंदी के गंभीर आलोचकों ने उसका स्वागत किया। मुझे आश्चर्य जरूर हुआ।  हमारे यहाँ काव्यशास्त्र की आचार्य परंपरा में ऐसा कोई विभाजन नहीं किया है।

आचार्य आनंदवर्धन ने हमें कविता के विषयों में पूरी छूट दी है । कहा है –

अपारे  काव्य  संसारे  कविरेकः प्रजापति
यथस्मै  रोचते  विश्वं तथेदम  परिवर्तते ।

यहाँ कविता के संसर को अपार कहकर आचार्य हमें काव्य कथ्य की पूरी छूट दे रहे हैं। दूसरे, यह भी कि हम उस कथ्य को अपनी रुचि के अनुसार जैसा चाहे रूपांतरित कर सकते हैं। यहाँ कविता द्वारा वस्तुजगत को रूपांतरित करने पर जोर है। हमने कथ्य की बंदिश आखिर क्यों लगाई! क्योंकि कुछ पेशेवर आलोचक तथा रूमानी तबियत के कुलीन कवि उन विषयों से भागते हैं जो हमारे जड़ सौंदर्य पर चोट करते हैं। आज साहित्य में कुलीनों तथा साहित्य के सामंतों का वर्चस्व है।  आखिर प्रेमचंद ने जिन विषयों को अपने उपन्यासों का कथ्य बनाया क्या उनसे पहले उसे नहीं बनाया जा सकता था। आज हम फिर उससे क्यों दूर भाग रहे हैं। कवि के लिये कविता में उन अछूते विषयों को स्वीकृत करना पड़ता है जिन्हें हम आज तक कविता से बहिष्कृत करते आये हैं। यह काम बड़ा जोखिम उठाये नहीं किया जा सकता। उसके लिये अटूट संघर्ष पहली शर्त है। मेरे विचार से बुर्जुआ संस्कृति ने हमारे मन को इतना गहरे तक रंग दिया है कि हमें लोक के करीब जाने में ही डर लगता है। हमारे सौंदर्यबोध पर प्रभुवर्ग की अभिरुचियाँ हावी हैं। हम आभिजात्य के प्रचलित जड़ सौंदर्य को अभी तोड़ नहीं पा रहे हैं। जनता से एकात्म कहा हो पाये हैं। उसकी स्थितियों के जीवंत चित्र क्यों नहीं आ पा रहे। क्योंकि अधिकांश कवियों को भय है उनकी जनपक्षधर कविताओं को विभिन्न माध्यमों में प्रकाशन के लिये स्थान नहीं मिलेगा। सेठाश्रित रंगीन पत्रिकायें उन्हें नहीं छापेंगी। पेशेवर बुर्जआ समीक्षक उसे कविता नहीं मानेंगे। तुमने अपने आलेख में एक जगह कवि को  ‘जागरूक पहरूआ’ कहा है । यह भी कि वह  खतरनाक शक्तियों की पहचान कर नये जमाने के अनुरूप कविता लिख सकता है और जनता से संधर्ष का आहवान कर सकता है । ये बातें रिल्के के कथन के बिल्कुल प्रतिकूल हैं । खैर, इन में अनेक बातें ऐसी हैं जिन्हें मैं ‘कृतिओर’ के माध्यम से या अपनी डायरियों में कहता आया हूँ। पर तुमसे इन विषयों पर लंबा संवाद नहीं हुआ। अत: तुम्हारी कुछ बातों ने चौंकाया। केशव तिवारी तथा महेश चंद्र पुनैठा के माध्यम से तुम्हारा परिचय मिला था। फोन पर बातें हुई । पर वहाँ बातें साफ नहीं हो पाती । गद्य में किसी कवि की दृष्टि समझ में आती है। मुझे कुछ आपत्तियाँ थी कुछ बातों से मेरी असहमतियाँ हैं – अतः अपने स्वभाव के अनुरूप मैं अपनी बात को कहने से रोक नहीं पाया। ऐसा मैं अपने अधिक आत्मीय जनों के साथ ही करता हूँ। यह जरूरी नहीं मेरी बातों से तुम्हरी सहमति हो ही । मैं चाहूँगा उन बातों पर गंभीरता से सोचो। आगे  चर्चा हो। मैं बाद में भी किसी भी सवाल का जवाब देने को प्रस्तुत रहूँगा। मुझे अपनी गलतियों को सुधारने का अवसर मिलेगा। युवा लोगों से संवाद करने से यही लाभ होता है। कवि को अंत तक सीखने की प्रक्रिया से गुज़रते रहने की जरूरत होती है। मुझे उम्मीद है इसे तुम अन्यथा न लोगे।
कुछ दिनों पहले मैं ने तुम्हारे अनहद पत्रिका-जीमेल पर कुछ कवितायें भी भेजी थीं। दरअसल में ई-मेल प्रक्रिया तथा अटैचफाइल की प्रविधि सीख रहा हू । सोचा उसी क्रम में एक पत्र भी लिख दूँ ।
प्रसन्न होगे।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
-सस्नेह
विजेंद्र