मधुरेश की आलोचना पुस्तक ‘शिनाख़्त’ पर अमीर चंद वैश्य की समीक्षा


चित्र : आलोचक मधुरेश
हिन्दी साहित्य में उपन्यास की आलोचना कुछ गिने चुने आलोचकों द्वारा की गयी है। ऐसे आलोचकों में मधुरेश का नाम अग्रणी है। उपन्यास की आलोचना पर मधुरेश की शिनाख़्त’ नाम से एक किताब आई है। इस किताब की एक पड़ताल की है अमीर चंद वैश्य ने। इस किताब के प्रकाशन (2012) के साथ ही मधुरेश की रचनाधर्मिता के पचास साल भी पूरे हो गए हैं। इस अवसर पर मधुरेश जी को बधाई देते हुए हम उनके दीर्घायु होने की कामना करते हैं। 
  
उपन्यास की विश्वसनीय आलोचना: शिनाख़्त
अमीर चन्द वैश्य
यशपाल-साहित्य के मर्मज्ञ और कथा-साहित्य के गंभीर अध्येता एवं समालोचक मधुरेश अब अखिल भारतीय कीर्ति अर्जित कर चुके हैं। उनका आलोचना-कर्म कथा-साहित्य तक परिसीमित नहीं है। गद्य की सभी विधाओं के क्षेत्र में उन्होंने आलोचनाएँ लिखी हैं। यद्यपि उनकी लेखनी ने काव्य-जगत् से दूरी बनाए रखी है, तथापि वह हिन्दी-अँग्रेजी के काव्य-संसार में रम चुके हैं। उर्दू शायरी से भी परिचित हैं। और संस्कृत काव्य-परंपरा से भी। संस्कृत न जानते हुए।
उपन्यास विधा पर प्रकाशित शिनाख़्त नामक ग्रन्थ उनकी औपन्यासिक आलोचना का उत्तम निदर्शन है। कथा-साहित्य के जागरूक पाठकों के लिए यह ग्रन्थ अनिवार्य सिद्ध होगा। यह गुरूतर है। लगभग 608 पृष्ठों का। मधुरेश की अब तक प्रकाशित सभी पुस्तकों की तुलना में सर्वाधिक भारी और बहुमूल्य।
इस पुस्तक से पूर्व उपन्यास विधा पर केन्द्रित उनकी तीन पुस्तकें प्रकाश में आई थीं। सम्प्रति, हिन्दी उपन्यास का विकास और हिन्दी उपन्यास: सार्थक की पहचान। सम्प्रति सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। शिनाख़्त के बाद उनकी एक और पुस्तक प्रकाश में आई है – समय समाज और उपन्यास। उनकी औपन्यासिक आलोचना का सिलसिला जारी है। निकट भविष्य में ऐतिहासिक उपन्यासों पर पुस्तक आने वाली है।
शिनाख़्त में प्रेमचन्द-पूर्व और प्रेमचन्द-पश्चात् के चुने हुए उपन्यासों की सार्थक समालोचना है। साथ-ही-साथ हिन्दी से इतर अन्य भारतीय भाषाओं के उपन्यासों पर भी विस्तृत आलेख शामिल हैं।
उपर्युक्त परिचय से यह बात स्पष्ट हो रही है कि मधुरेश की औपन्यासिक आलोचना अखिल भारतीय है। अतः कह सकते है कि मधुरेश भारतीय उपन्यास के गंभीर अध्येता और आलोचक हैं। वह आलोच्य उपन्यास को उसके देशकाल के संदर्भों में परखते हैं। उसके प्रमुख चरित्रों का तलस्पर्शी विश्लेषण करते है। और अन्त में निष्कर्षात्मक टिप्पणी। उसकी महत्ता पाठक को समझाते हैं। मधुरेश की आलोचना यह देखती है कि उपन्यास में कौन सा पात्र ऐसा है जो, अपने अधिकारों के लिए शोषित व्यवस्था से संघर्ष कर रहा है। साथ-ही-साथ उनकी आलोचना यह भी देखती है कि लेखक की सामाजिक दृष्टि कैसी है। वह धर्मनिरपेक्ष है। अथवा धर्मसापेक्ष। वह नारी के प्रति संवेदनशील है अथवा रूढ़िवादी। मधुरेश धर्मनिरपेक्षता और नारी के प्रति संवेदनशीलता के समर्थक हैं। वे उसे पुरातन रूढ़ियों से मुक्त देखना चाहते हैं। उनकी आलोचना में तुलनात्मक दृष्टि भी झलकती है। उदाहरण के लिए जब वह वाणभट्ट की आत्मकथा की चर्चा करते है, तब रवीन्द्रनाथ टैगोर की सार्वभौम मानवीय दृष्टि की भी चर्चा करते हैं। और साथ-ही-साथ शरच्चन्द्र के उपन्यास श्रीकान्त’  की आत्मवृतान्त शैली की भी।
शिनाख़्त’  की भूमिका का समापन इस वाक्य से किया गया है – यह सूचना भी शायद अप्रासंगिक न होगी कि यह वर्ष (2012) मेरी आलोचनात्मक सक्रियता के पचास वर्ष पूरे होने का वर्ष भी है।
10:10:12 को लिखित भूमिका में जो सूचना दी गई है, उसका यह अर्थ है कि मधुरेश का आलोचना-कर्म सन् 1962 से उस समय शुरू हुआ, जब लहर’  ने अपने दिसम्बर, 1962 के अंक में उनकी एक आलोचनात्मक टिप्पणी प्रकाशित की। उसका शीर्षक था – यशपाल: सन्तुलनहीन समीक्षा का एक प्रतीक। इसी ओजस्वी टिप्पणी ने उन्हें आलोचक के रूप में पहली बार मान्यता प्रदान की। तब से उन्होंने पीछे मुड़ कर कभी नहीं देखा। निरन्तर दायित्वपूर्ण समीक्षाएँ लिखते रहे। कहानियों की। उपन्यासों की। सारांश यह है कि समकालीन कथा-साहित्य की निरन्तरता के समान्तर उनकी आलोचनात्मक धारा प्रवाहित रही। आज भी वह गतिमती है। इसी का शुभ परिणाम है शिनाख़्त जैसा वृहदकाय ग्रन्थ, जिसे पढ़कर और समझ कर हम हिन्दी उपन्यास के साथ-साथ इतर भारतीय भाषाओं के उपन्यासों से भी सुपरिचित हो सकते हैं। भारत विराट् राष्ट्र है। उसका सम्पूर्ण उत्थान-पतन समझने के लिए भारतीय भाषाओं के उपन्यासों का गंभीर अध्ययन अनिवार्य है। शिनाख़्तऐसा ही अध्ययन है, जो उत्तम उपन्यासों की शिनाख़्त करता है और मधुरेश की दायित्वपूर्ण आलोचना की भी।
मधुरेश की औपन्यासिक आलोचना का आधार कोई उपन्यास होता है। उसका देशकाल होता है। वह उसका गंभीर अध्ययन करते हैं। साथ-ही-साथ सघन पाठ तैयार करते चलते हैं। उपन्यास के प्रमुख पात्रों का विश्लेषण करते हैं। वास्तविकता, सम्भवता विश्वसनीयता के निकष पर उपन्यास की अन्तर्वस्तु और उसके पात्रों को परखते हैं। उनके श्वेत-श्याम पक्षों का उद्घाटन करते हैं। यदि उनमें अतिरंजना है तो उसका समर्थन नहीं करते हैं। वह यह भी देखते हैं कि उपन्यास के पात्र हाड़-माँस के जीवित मनुष्य हैं अथवा नहीं। उनमें प्रतिरोध की कितनी क्षमता है। हम जानते हैं कि देशकाल के विराट् मंच पर जो कुछ अच्छा-बुरा घट रहा है वह हमें प्रभावित करता है। जागरूक लेखक किसका समर्थन करता है। अच्छाई का अथवा बुराई का। जाहिर है कि वह मानव कल्याण के लिए अच्छाई का ही समर्थन करता है। उदाहरण के लिए आजकल हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता और धर्मसापेक्षता में द्वन्द्व चल रहा है। जागरूक लेखक धर्मनिरपेक्षता का समर्थन करेगा। मधुरेश अपनी आलोचना में इन बातों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं। अपनी आलोचना को समावेशी बनाने के लिए तुलानात्मक शैली अपनाते हैं। उपन्यास की संरचना और उसकी भाषागंत विशेषताएँ उजागर करते हैं। यदि भाषा में न्यूनताएँ हैं तो उन्हें भी रेखांकित करते है। उनकी औपन्सायिक आलोचना के शीर्षक इतने सार्थक होते हैं कि उनमें सम्पूर्ण उपन्यास का वैशिष्ट्य संकेतित रहता है।
शिनाख़्त में संकलित सभी आलेख चार भागों में बाँटे गए हैं। कालक्रम के अनुसार।
पहले भाग प्रस्थान’  में हिन्दी उपन्यास: उद्भव और विकास की प्रक्रिया’  का विवेचन तर्कयुक्त ढंग से किया गया है। लेखक ने प्रेमचन्द-पूर्व के हिन्दी उपन्यास की कालावधि सन् 1882 से 1917 तक मानी है। यह सर्वमान्य है। फिर भी लेखक ने लाला श्रीनिवास दास द्वारा रचित उपन्यास परीक्षागुरू’  (1882) से पूर्व प्रकाशित उपन्यासों की भी चर्चा की है। लेखक का अभिमत है कि परीक्षागुरू’  से हिन्दी उपन्यास की शुरूआत सर्वमान्य है। आचार्य रामचन्द शुक्ल ने इसी उपन्यास को पहला उपन्यास माना है।
लेखक ने भारतेन्दु युग के दो प्रमुख उपन्यासकारों देवकीनन्दन खत्री और किशोरीलाल गोस्वामी के औपन्यासिक योगदान पर महत्वपूर्ण आलेख शामिल किए हैं। लेखक की मान्यता है कि यदि हिन्दी में देवकीनन्दन खत्री नहीं होते तो आगे चलकर प्रेमचन्द भी अस्तित्व में नहीं आते। इसका कारण यह है कि खत्री जी ने अपने लोकप्रिय उपन्यासों—चन्द्रकान्ता’ , चन्द्रकान्ता सन्तति आदि के प्रकाशन से हिन्दी पाठकों की अभूतपूर्व वृद्धि की। उन्होंने ऐसी सहज और सरल भाषा का प्रयोग किया कि उनके उपन्यास अपने आप लोकप्रिय हो गए। प्रेमचन्द ने भी अपनी उपन्यास-भाषा को सहज-सरल बनाया है। उनकी भाषी खत्री जी की भाषा के निकट है। लेकिन उसमें में नयापन है।
मधुरेश ने खत्री जी के तिलिस्मी उपन्यासों की आलोचना सामाजिक दृष्टि से की है और साथ-ही-साथ नवजागरण के सन्दर्भ में भी।खत्री जी ने नारी पात्रों के माध्यम से सामन्तवादी प्रवृति की आलोचना की है। अर्थात् एक पुरूष की कई पत्नियाँ हो सकती है। लेेकिन एक स्त्री के कई पति नहीं।  मधुरेश ने उनके विचारों का पुरजोर समर्थन किया है। इन उपन्यासों में चमत्कारपूर्ण वैज्ञानिक बातें है। उनकी भी प्रशंसा की गई है। उनकी वास्तविकता समझाई गई है। वस्तुतः मधुरेश ने देवकीनन्दन खत्री पर एक मोनोग्राफ लिखा था। साहित्य अकादमी, दिल्ली के अनुरोध पर। उसी पुस्तक से आलेख शिनाख़्त’  में संकलित किया गया है। उल्लेखनीय है कि मधुरेश ने खत्री जी के सभी उपन्यासों की समीक्षात्मक चर्चा की है।
अमृतलाल नागर  के बालसखा ज्ञानचन्द्र जैन ने प्रेमचन्द-पूर्व के हिन्दी उपन्यासों की आस्वादपरख समीक्षा की है। उन्होंने किशोरीलाल गोस्वामी की देन’  की चर्चा लगभग पैंतालीस-छियालीस पृष्ठों में की है। यदि मधुरेश को गोस्वामी जी के सभी उपन्यास उपलब्ध होते तो वह उन पर भी एक मोनोग्राफ लिखते। उन्होंने किशोरीलाल गोस्वामी’  (1865-1932) शीर्षक लम्बा आलेख शिनाख़्त’  में संकलित किया है। गोस्वामी जी के ऐतिहासिक उपन्यासों की समीक्षा वस्तुनिष्ठ ढंग से की है। लेकिन उनके कट्टर हिन्दूवादी दृष्टिकोण की अनदेखी नहीं की है। व्यक्ति में गुण-दोष दोनों होते हैं। लेकिन गोस्वामी जी ने दिखाया है कि उनके हिन्दू नारी पात्रों में गुण ही गुण हैं। मुस्लिम नारियों में अवगुण ही अवगुण। यह सन्तुलित जीवन-दृष्टि नहीं है। न हिन्दू दूध के धोए हैं। और न मुसलमान। वास्तविकता यह है कि हिन्दू-मुसलमानों के मेल से, सारे झगड़ों के बावजूद, एक ऐसी समावेशी संस्कृति का विकास हुआ है, जो समाज में घुलमिल गई है। अतः मधुरेश ने गोस्वामी जी के ऐतिहासिक उपन्यास सुल्ताना रजीया बेगम व रंगमहल की आलोचना करते हुए अभिमत व्यक्त किया है कि लेखक ने ’इतिहास से अगंभीर और अराजक सुलूक’  किया है। (पृष्ठ 127-139)
लेकिन मधुरेश ने किशोरीलाल गोस्वामी’  में उनके रचनात्मक योगदान का समग्र उल्लेख आत्मीय ढंग से किया है। उनकी प्रमुख विशेषताएँ रेखांकित की है। और यह अभिमत व्यक्त किया है कि उपन्यास और पाठक के आपसी रिश्ते की गहरी समझ के कारण उनके अधिकतर उपन्यासों में ऐसी पठनीयता है, जिसके कारण उन्हें आज भी पढ़ा जा सकता है। (पृष्ठ 85-89)
इसके अलावा मधुरेश ने भारतेन्दु युग के कुछ चुने हुए उपन्यासों — देवरानी जेठानी की कहानी, भाग्यवती, परीक्षागुरू, सौ अजान एक सुजान, श्यामा स्वप्न, बलवन्त भूमिहार, जुझार तेजा और सौन्दर्योपासक — का सघन पाठ प्रस्तुत करके प्रत्येक का ठीक-ठीक मूल्याकंन किया है। और प्रत्येक लेखक की भाषागत विशेषताएँ भी बताई हैं। गुण और दोष दोनों। मूल्याकंन करते हुए तुलनात्मक शैली का प्रयोग किया गया है।
मधुरेश भारतेन्दु युग के उपन्यासों की आलोचना करते हुए लेखक की वर्गीय दृष्टि पर भी विचार करते हैं। इसका प्रमाण है ठाकुर जगमोहन सिंह के उपन्यास श्यामा स्वप्न’  की आलोचना। इस उपन्यास पर उनकी टिप्पणी उल्लेखनीय है –श्यामा स्वप्न पाठक वर्ग की उपेक्षा का प्रतिनिधि आख्यान है। यह अस्वाभाविक नहीं कि आज भी उसकी चिन्ता उन्हें ही अधिक है, जिन्हें कला और साहित्य में सामाज और सामाजिकों की चिन्ता नहीं है। (पृष्ठ 165) यहाँ इशारा हिन्दी के वर्तमान रूपवादी कवियों और लेखकों की ओर है। विशेष रूप से अशोक वाजपेयी की ओर।
मधुरेश ने अपने आलोचनात्मक लेखों में वर्तमान भारतीय समाज की प्रतिक्रियावादी शक्तियों पर भी तीखा प्रहार किया है। आलोचना लिखते समय वह अपना वर्तमान नहीं भूलते हैं। इसका प्रमाण है भाग्यवती’  उपन्यास पर लिखित आलेख। उसमें भाग्यवती के चरित्र का विश्लेषण करते हुए उन्होंने पाठक को बताया है कि उस युग में विदेशी शिक्षा और चिकित्सा आदि के प्रति सकारत्मक सोच दिखाई पड़ती है। साथ-ही-साथ पाखंड़ी साधु-संतों की आलोचना भी।भाग्यवती में अपनाई गई यह सन्तुलित और संयत दृष्टि आज, कथित रूप से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के हामियों को भी एक चेतावनी की तरह देखी जा सकती है।‘ (पृष्ठ 109)
यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है। वर्तमान के सन्दर्भ में। अब तो राजसत्ता सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के ही हाथों में है। अतः खतरा बढ़ गया है। अतीत से सीखा तो जा सकता है। उसे लौटाया नहीं जा सकता। गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दुबारा।
शिनाख़्त’  के दूसरे भाग विकास’  के अन्तर्गत बहुचर्चित-अल्पचर्चित पन्द्रह उपन्यासों–गोदान, देहाती दुनिया, गदर, दिव्या, मुर्दों का टीला, बड़ी-बड़ी आँखें, कालिदास, रूपाजीवा, विश्वबाहु परशुराम, सेमर के फूल, काला जल, खुदा सही सलामत है, काशी का अस्सी, अधूरी इबारत, मोनालीसा हँस रही थी–की समावेशी आलोचना है। प्रत्येक पर अलग-अलग आलेख है। प्रत्येक आलेख में सघन पाठ और चरित्रों का विश्लेषण है। चरित्रों के औचित्य-अनौचित्य पर विचार है। साथ ही साथ उपन्यास की अन्तर्वस्तु के कलात्मक गठन का संधान है।
इस भाग का शीर्षक विकास’  है। इसका मतलब यह नहीं है कि लेखक ने हिन्दी उपन्यास का क्रमिक विकास प्रस्तुत किया है। इसका आशय यह है कि शामिल उपन्यासों के अध्ययन-आलोचन से हिन्दी उपन्यास के विकास की दिशाएँ प्रत्यक्ष होती हैं।
मधुरेश ने प्रत्येक आलेख में उपन्यास का गंभीर विवेचन किया है। लेकिन कुछ उपन्यास ऐसे है, जिनकी अन्तर्वस्तु में डूबकर आलोचक ने महत्वपूर्ण रत्न खोजे है। इस संदर्भ में डा० भगवतशरण उपाध्याय द्वारा रचित कालिदास’ नामक उपन्यास की आलोचना पठनीय है। आलोचक ने डा० उपाध्याय के शोध-ग्रन्थ इण्डिया इन कालिदास और उनकी अन्य सर्जनात्मक कृतियों का उल्लेख करके अपना सघन पाठ प्रस्तुत किया है। और गंभीरतापूर्वक चरित्रों का विश्लेषण। इससे कवि कालिदास का वैशिष्ट्य उजागर हुआ है। लेकिन उपन्यास में जहाँ कोई विसंगति दिखाई पड़ी है, उसके बारे में लेखक ने निर्भीक टिप्पणी की है। कालिदास सम्बन्धी उसकी (उपन्यास की नारी पात्र विदुषी गणिका की) अनेक मौलिक उद्भावनएँ, विश्व साहित्य का उसका गंभीर अध्ययन उसकी परिस्थितियों से मेल नहीं खाते। (पृष्ठ 281) उपन्यास में गणिका को विदुषी रूप में दिखाने का मुख्य कारण डा० उपाध्याय का विशाल ग्रन्थ विश्व साहित्य है। यह, वर्ल्ड लिटरेचर’  (शिप्ले) से प्रेरित होकर लिखा गया। अपनी आलोचना में मधुरेश ने डा० उपाध्याय की उपन्यास भाषा पर भी ठीक टिप्पणी की है।  उनकी आलोचना की सार्थकता यह है कि पाठक कालिदास पढ़ने के लिए उत्कंठित हो जाता है। वस्तुतः ऐतिहासिक उपन्यास पढ़कर हम युग विशेष के समाज और संस्कृति दोनो से परिचित हो सकते हैं।
मधुरेश ने शानी के प्रसिद्ध उपन्यास काला जल’  की आलोचना भी डूबकर लिखी है। आलोचना का शीर्षक बहुत सार्थक है। निम्न मध्य वर्गीय मुस्लिम समाज का सच’। (पृष्ठ 323) यह आलोचना पढ़कर हम इस वर्ग के मुस्लिम समाज के सच से हम रू-ब-रू हो सकते हैं। यह आलोचना मधुरेश के धर्मनिरपेक्ष स्वाभाव की द्योतक है। लेकिन काशी का अस्सी’  की आलोचना डूबकर नहीं लिखी गई है। मैं समझता हूँ इसका कारण पूर्व निश्चित प्रश्न हैं। युवा आलोचक पल्लव द्वारा पूछे गए। विकास’  भाग में अन्तिम आलेख है-कला की सलीब अर्थात् सलीब पर कला। इस आलेख में हरिपाल त्यागी और अशोक भौमिक के उपन्यासों का पाठ विश्लेषण है, जो चित्रकला के प्रति आलोचक की अभिरूचि का प्रमाण भी है। मधुरेश ने शिवपूजन सहाय के इकलौते उपन्यास देहाती दुनिया की समालोचना विस्तार से करते हुए उसे संस्मरण और स्मृति से तैयार आख्यान बताया है। और ये टिप्पणी की है कि सारी दरिद्रता और अभावों के बीच जीवन के प्रति उसका उछाह-उल्लास ही देहाती दुनियाका मुख्य आर्कषण है। उसकी जीवन्त और मुहावरेदार शैली उस आर्कषण को बढ़ाती है। यही कारण है कि आज अस्सी साल बाद भी एक आर्कषक, पठनीय और उल्लेखनीय उपन्यास की तरह याद किया जा सकता है। (पृष्ठ 223) रवीन्द्र कालिया के उपन्यास ‘खुदा सही सलामत है’ को अराजक बिखराव की सार्थकता बताया गया है। यह तर्कसंगत है। गोदान के पात्रों के चरित्रांकन पर सार्थक टिप्पणी यह है कि उसमें व्यक्ति के लिए किसी प्रकार की कटुता और घृणा की जगह नहीं है। प्रेचन्द व्यक्ति को समूचे व्यवस्था-तंत्र के संदभर्व में रखकर चित्रित करते हैं। (पृष्ठ 212)
शिनाख़्त”  के तीसरे भाग व्याप्ति’  के अतर्गत अन्य भारतीय भाषाओं के चुने हुए उपन्यासों –एक म्यान दो तलवारें, ले० नानक सिंह, पंजाबी, आग का दरिया, ले० कुर्रतुलऐन हैदर, उर्दू, पट्ट महादेवी शान्तला, ले० सी० के० नागराज राव, कन्नड़, पर्व, ले० एस० एल० भैरप्पा, कन्नड़, दो गज जमीन, ले० अब्दुस्समद, उर्दू, ययाति, ले० वि० स० खांडेकर, मराठी, आँगन नदिया, ले० अन्नाराम सुदामा, राजस्थानी, पहाड़ी कन्या, ले० पुट्टप्पा, कन्नड़, दुर्दम्य, ले० गंगाधर गाडगिल, मराठी पानीपत, ले० विश्वास पाटिल, रथचक्र, ले० श्री० न० पेंडसे, मराठी, दीमक, ले० केशुभाई  देसाई, गुजराती, सोनाम, ले० येसे दरसी थोंगछी, असमिया, दासी की दास्तान, ले० विजयदान देथा, राजस्थानी, कई चाँद थे सरे आसमाँ, ले० शम्सुर्ररहमान फारूकी, उर्दू–के सघन पाठों और चरित्र विश्लेषणों के उपरान्त प्रत्येक का वस्तुनिष्ठ मूल्याकंन किया गया है। तटस्थ भाव से। राग-द्वेष से दूर रहकर। इनके अलावा एक आलेख मलयालम भाषा के प्रसिद्ध लेखक एस० के पोट्टेक्काट्ट। कहानीकार और उपन्यासकार रूप पर है। आलोचक ने उनके दोनो रूप सामने रखकर उनके एक उपन्यास कथा एक प्रान्तर की, पर आत्मीय विचार करके मूल्यांकन किया है और कथाकार के रूप में लेखक का महत्व रेखांकित किया है। तीसरे भाग के सभी आलेखों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है -पर्व: गहरे मानवीय आशयों वाला आख्यान शीर्षक आलेख।यह आलेख आलोचक की बहुज्ञता, विश्लेषण क्षमता, आत्मीयता, मूल्य-निर्णय की क्षमता का  उत्तम प्रमाण मिलता है। पर्व महाभारत पर आधारित है। लेकिन भैरप्पा ने कथा की पुनरावृत्ति नहीं की है, अपितु आधुनिक मनोविशलेषणात्मक ढंग से पात्रों का वास्तविक निरूपण किया है, जो अधिक विश्वसनीय लगता है। मूल महाभारत के सारे चमत्कारपूर्ण प्रसंगों की यथार्थमूलक कल्पना की गई है। उदाहरण के लिए महाभारत के युद्ध में कुंती को वृद्धा दिखाया गया है। लेकिन मूल महाभारत में कुंती कन्या रूप में रहती है। आलेख के अन्त में आलोचक ने ठीक लिखा है कि पर्व युद्ध की विड़म्बना का करूण आख्यान है। वैभव और अहंकार की व्यर्थता सिद्ध करके वह एक विशुद्ध मानवीय आख्यान में ढली महागाथा के रूप में हमारे सामने है। (पृष्ठ 421)। पंजाबी भाषा के प्रसिद्ध लेखक है नानक सिंह। प्रेमचन्द से प्रभावित नानक सिंह उनसे 17 वर्ष छोटे थे। मधुरेश ने उनके एक प्रसिद्ध उपन्यास एक म्यान दो तलवारें की आलोचना गंभीरता से की है। पात्रों का सटीक विश्लेषण किया है। यह उपन्यास क्रान्ति-चेतना से सम्बद्ध है। इसमें कुछ पात्र अंग्रेजों के समर्थक है और कुछ अंग्रेजों कट्टर शत्रु। लेखक ने गदर पार्टी और उसके नायक करतार सिंह सराभा को केन्द्र में रखा है। लेकिन यह उपन्यास चरित्र प्रधान उपन्यास नहीं है। उल्लेखनीय है कि सराभा भगत सिंह के प्रिय नायक और प्रेरणा पुरूष थे। उन्होंने 19 वर्ष अल्पआयु में ही अभूतपूर्व बलिदान किया था। मधुरेश ने इस उपन्यास का विश्लेषण करने के बाद सार्थक टिप्पणी इस प्रकार की है – सन् 1857 से शुरू इस क्रान्ति की निरन्तरता पर नानक सिंह सब कहीं अपना ध्यान केन्द्रित रखते हैं। और पुरूष पात्रों की तुलना में नारियों की क्रान्तिकारी भूमिका का उल्लेख विस्तार से करते है। यह 1857 की क्रान्ति का उल्लेखनीय पक्ष है। मधुरेश के अनुसार उमा चक्रवर्ती जैसी  इतिहासविद् इस चेतना को ही नारी मुक्ति आधुनिक आंकाक्षा से जोड़कर देखे जाने पर बल देती है। (पृष्ठ 377)
शिनाख़्त के चौथे भाग उठान’  के अतर्गत छह लम्बे आलेख संकलित हैं– हिन्दी ऐतिहासिक उपन्यास की उपलब्धियाँ, एक उपन्यास वर्ष: 1976 रचनात्मक दबाव और वैचारिक प्रौढ़ता के धरातल, बदीउज़्ज़माँ के उपन्यास, गोपीनाथ महांती और आदिवासी समाज, विशेष संदर्भ परजा, शाताब्दी का पहला दशक और उपन्यास, हिन्दी में उपन्यास की आलोचना। यह सभी आलेख मधुरेश की बहुज्ञता और ज्ञान की अद्यतनता के प्रमाण हैं।
इन उपर्युक्त आलेखों में गोपीनाथ महांती की रचनाशीलता पर लिखित आलेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। गोपीनाथ जी उड़िया के प्रसिद्ध कथाकार हैं। अपने उपन्यासों के लिए पुरस्कृत हो चुके है। उनके उपन्यासों में उड़ीसा का जनजीवन व्यक्त हुआ है। मधुरेश ने उनका सम्पूर्ण कृतित्व पर विचार करते हुए उनके एक उपन्यास परजा पर विस्तार से लिखा है। उनका अभिमत है कि बाहरी व्यक्ति होते हुए भी गोपीनाथ जी ने आदिवासियों के बीच में रहकर उनके समग्र जीवन-प्रवाह का विश्वसनीय गतिशील चित्र अंकित किया है। और मधुरेश ने उसकी विशेषताएँ आत्मीय ढंग से उद्घाटित की हैं। उनके इस उपन्यास को अखिल भारतीय संदर्भों से जोड़ा है।
सारांश यह है कि शिनाख़्त’  में मधुरेश की औपन्यासिक आलोचना भारतेन्दु युग से वर्तमान सदी तक विस्तृत है। यह ग्रन्थ पढ़कर हम भारत के अतीत और वर्तमान को रचनात्मक रूप में समझ सकते है। यह ग्रन्थ मधुरेश की आलोचना की भी शिनाख़्त करता है अर्थात् मधुरेश की आलोचना विश्वसनीय है। अतिरंजना से दूर है। विचार सापेक्ष है। उसमें मार्क्सवादी शब्दावली का प्रयोग न के बराबर है। फिर भी वे अपनी आलोचना दृष्टि से उपन्यास में आगत प्रगतिशील तत्व तलाश लेते है।
मधुरेश की यह मान्यता है कि हिन्दी में समृद्ध उपन्यास आलोचना नहीं है। इसके लिए बड़ी तैयारी की आवश्यकता है जो कम दिखाई पड़ती है। भारतीय भाषाओं के उपन्यासों के अध्ययन और आलोचन से उपन्यास की आलोचना समृद्ध की जा सकती है। प्रसंगवश यहाँ उल्लेखनीय है  कि हिन्दी के नामवर आलोचकों ने ऐसा गुरूतर दायित्व नहीं निभाया है। इस परिप्रेक्ष्य में मधुरेश की औपन्यासिक आलोचना का महत्व उजागर होता है। मधुरेश की भी आँखें पुस्तक पकी हैं। वह डा० नामवर सिंह से कम बड़े आलोचक नहीं हैं। क्योंकि नामवर सिंह अब केवल बोलते हैं। लिखते कुछ भी नहीं। मधुरेश बोलते कम हैं। लिखते ज्यादा हैं। सार्थक लिखते हैं। इसलिए वह बड़े आलोचक हैं।
कुछ वाक्य मधुरेश की भाषा के बारे में। मधुरेश की आलोचनात्मक भाषा सहज बोधगम्य है। उसमें भाषाई चमत्कार नहीं है। लेकिन अँग्रेजी की वाक्य-रचना के प्रभाव के कारण उनकी वाक्य-रचना सदोष हो गई है। अँग्रेजी वाक्य का अनुकरण करते हुए वे लिखते हैं–एक आलोचक के रूप में, एक उपन्यास के रूप में, एक उपन्यासकार के रूप में। इन वाक्यांशों में एक का प्रयोग अनावश्यक है। हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप नहीं है।
इसी प्रकार प्रायः ही का अनेक बार प्रयोग किया गया है। अनावश्यक है। क्रिया पद से पहले प्रायः का प्रयोग ठीक किया गया है। पृष्ठ संख्या 390 पर दम्पती रूप अशुद्ध हैं। शुद्ध हैंदम्पति। पृष्ठ संख्या 179 पर अन्तर्धार्मिक और अन्तर्जातीय रूप अशुद्ध हैं। शुद्ध हैं अन्तरधार्मिक और अन्तरजातीय। पृष्ठ संख्या 87 पर स्त्रियोपयोगी पुस्तकों के सहारे में अशुद्ध रूप  हैं। शुद्ध रूप हैं स्त्री-उपयोगी। 
अन्त में एक बात और। जहाँ लम्बे वाक्य है, वहाँ अर्थ-बोध में बाधा उपस्थित हो जाती है। भाषा का प्रवाह रूक जाता है।
समीक्षित पुस्तक
शिनाख़्त (आलोचना) : लेखक- मधुरेश
प्रथम संस्करण 2013, मूल्य 800 रू०
प्रकाशक, शिल्पायन, दिल्ली
सम्पर्क 
अमीर चंद वैश्य
मोः 09897482597

प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी से अमीर चंद वैश्य का पत्र -संवाद

प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी से अमीर चंद वैश्य का पत्र -संवाद
 तब लोग एक दूसरे को पत्र लिखा करते थे और संवाद कायम करने का यह एक महत्वपूर्ण माध्यम था। तमाम व्यस्तताओं के बावजूद महात्मा गाँधी अपने पास आये हुए हर पत्र को पढ़ते थे और उसका जवाब जरुर देते थे साहित्य में तो इन पत्रों की एक विशेष महत्ता रही है। केदार नाथ अग्रवाल और राम विलास शर्मा के बीच हुए पत्राचार को अब ‘मित्र-संवाद’ नाम की किताब के रूप में प्रकाशित कराया गया है। इस किताब से हम एक महत्वपूर्ण कवि की निर्माण प्रक्रिया और उसके संघर्षों के बारे में जान सकते हैं। यही नहीं इन पत्रों के जरिये हम उस समय के परिवेश और परिस्थिति का भी सहज ही आंकलन कर सकते हैं। मशहूर कहानीकार भीष्म साहनी की दो नयी पुस्तकें उनका नया उपन्यास कुंतो’ और नया नाटक मुआवजे’ पढ़ कर अमीर चंद वैश्य ने उनको 2 सितम्बर 1993 को एक पत्र लिखा था। भीष्म साहनी ने 15 नवम्बर 1993 को इस पत्र का जवाब दिया था। आज भीष्म साहनी के जन्मदिन के अवसर पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं अमीर जी और भीष्म जी के बीच हुआ वह पत्र संवाद। भीष्म जी के पत्र की मूल प्रति आपके लिए हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैंसुविधा के लिए हम इस संवाद को टंकित प्रारूप में भी यहाँ पर दे रहे हैंपहले भीष्म जी का मूल पत्र       


प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी से अमीर चंद वैश्य का पत्र -संवाद

अमीर चंद वैश्य द्वारा भीष्म साहनी को लिखा गया पत्र
चूना मण्डी, बदायूं 243601

2 सितम्बर 1993

श्रद्धेय साहनी जी,

सादर नमन! आशा है कि आप स्वस्थ और सानन्द होंगे, अपने पाठकों से प्राप्त होने वाले पत्रों में से यह पत्र भी शामिल करने की कृपा करेंगे। ऐसा मुझे विश्वास है।

मुझे आपका नया उपन्यास कुंतो’ और नया नाटक मुआवजे’ , जो मुझे मधुरेश जी के सौजन्य से प्राप्त हुए ,पढ़ने का अवसर मिला। मधुरेश जी ने ये दोनों रचनाएं अभी नहीं पढ़ी हैं। पहलेसाक्षात्कार’  में नाटक पढ़ा था, जिसमें आपकी नाट्य प्रतिभा का नया रूप लक्षित हुआ। इस नाटक में आपने बड़े कलात्मक कौशल से वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था पर प्रबल प्रहार करते हुए हास्य की सृष्टि की है, जो वर्तमान सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियां उजागर करती हैं। यह नाटक पढ़ते समय पुलिस कमिश्नर का चरित्र गोगोल के नाटक बड़ा साहब’ का स्मरण कराता है। उल्लेखनीय है कि यह नाटक बदायूं में रंगायन’ ने 2 जून 1993 को मंचित किया था। अपने नाटक में आपने यह सत्य उजागर किया है कि आजकल की भारतीय राजनीति में एक अपराधी है, जो गुंडा है, किस प्रकार नेता बन जाता है। मेरी एक जिज्ञासा है कि क्या ऐसी समाजविरोधी प्रवृतियों के विनाश की अभिव्यक्ति रचनाओं में अनिवार्य नहीं है? समझता हूं कि अनिवार्य है,लेकिन रचनाओं में यह अनिवार्यता कम लक्षित हो रही है।

कुंतो’ की प्रति मुझे विगत बृहस्पतिवार को प्राप्त हुई थी। पूरा उपन्यास सोमवार तक पढ़ पाया। मुझे यह उपन्यास अच्छा लगा। इसीलिए पत्र लिखने का विचार मन में आया। मुझसे पहले मेरी पुत्री ने यह उपन्यास पढ़ा, लेकिन वह इसे पसन्द नहीं कर पाई।

सर्वप्रथम इस उपन्यास की भाषा के सौष्ठव ने मुझे प्रभावित किया। आपने सिद्धहस्त लेखक के समान इस उपन्यास की अन्तर्वस्तु को परिष्कृत, गम्भीर और प्रवाहपूर्ण भाषा में निबद्ध किया है। चमत्कारों से रहित भाषा का सहज प्रवाह कविश्री त्रिलोचन के भाषा वैशिष्ट्य का स्मरण कराता है। पंजाबी जीवन से सम्बद्व कथ्य पंजाबी भाषा के संस्पर्श से जीवंत बन गया है, लेकिन यह संस्पर्श इतना अधिक घुलमिल गया है कि पता ही नहीं चलता। वस्तुतः आपने राष्ट्रभाषा हिन्दी की अभिव्यक्ति क्षमता में संवर्धन किया है। यदि आपकी औपन्यासिक भाषा की तुलना यशपाल की भाषा से की जाए तो आपको अधिक अंक प्राप्त होंगे। यदि अज्ञेय की भाषा से की जाए तो आप की भाषा पर दुर्वोधता का आरोप नहीं लगाया जा सकेगा। (यह बातशेखर को दृष्टिगत रखते हुए लिखी है।)

फिर भी कुछ प्रयोग ऐसे हैं जो खटकते हैं ,क्योंकि वे हिन्दी के मानक रूप के अनुरूप नहीं है। अध्याय 10 का प्रारम्भिक वाक्य सदोष है। अपनी समस्या को लेकर’ अब सिंगापुर वाली प्रेमिका को लेकर’ अंशों में रेखांकित पद समुचित प्रतीत नहीं होते हैं। मैं समझता हूं कि यह वाक्य यदि इस प्रकार लिखा जाए तो अच्छा है।

जयदेव अपनी समस्या लेकर प्रोफेस्साब से उस दिन मिला था,जिस दिन उनके घर में सिंगापुर वाली प्रेमिका के कारण एक काण्ड उठ खड़ा हुआ था।“

आजकल हिन्दी जगत् को लेकर’ दोष से सर्वाधिक प्रभावित है। जिस प्रकार डा0 रामविलास शर्मा की सर्जना का प्रमुख स्रोत 1857 का गदर है, उसी प्रकार आपकी प्रमुख सर्जन -प्रेरणा देश का बॅंटवारा है, इस भीषण त्रासदी ने आपको लेखक बनाया है। यह कहना समीचीन प्रतीत होता है। कुन्तो’ उपन्यास की अंतर्वस्तु य़द्यपि अन्तर्मुखी है,  तथापि आपने उसे स्वाधीनतापूर्व के पंजाब के जीवन-प्रवाह से सम्बद्ध कर उस भीषण त्रासदी की काली छाया का संकेत अवश्य किया है।

ऐसा आभास होता है कि इस उपन्यास की रचना की रचना प्रक्रिया में आपकी निजी स्मृतियां, निजी अनुभव, निजी घटनाएं तथा देखे-समझे अनेक लोगों के चरित्र घुलमिल गए हैं।

मुझे ऐसा लगता है कि आपने इस उपन्यास के प्रमुख चरित्र प्रोफेस्साब के माध्यम से अप्रासंगिक जीवन-मूल्यों की समीक्षा करके नए जीवन-मूल्यों की स्थापना का प्रयास किया है। उपन्यास के अन्त में जयदेव की मां का कथन इस बात का प्रमाण है।वह इस बात पर राजी हो जाती है कि जयदेव सुषमा से विवाह कर ले।

वर्तमान समाज में (हिन्दू समाज में) मौसेरी बहिन से विवाह वर्जित है, लेकिन पहले ऐसा नहीं थां अर्जुन ने अपनी फुफेरी बहिन सुभद्रा से विवाह किया था और श्रीकृष्ण ने इस पुनीत कार्य में सहयोग प्रदान किया था।

आप इस उपन्यास के माध्यम से कहना चाहते हैं कि वर्तमान समाज में जयदेव की मां जैसे लोग परिवर्तन ला सकते हैं, प्रोफेस्साव जैसे लोग नहीं, जो परम्परा का लट्ठ अपने साथ में रखते हैं। वस्तुतः प्रोफेस्साव की आलोचना कलात्मक है।

सुषमा की दृढ़ता प्रंशसनीय है, लेकिन गिरीश के चरित्र का रहस्य खुल नहीं पाया है। अपनी इच्छा से सुषमा को अपनाने वाला गिरीश उससे क्यों खिंच जाता है। यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं हो पाया है। परिवार समाज का आधार है और परिवार का आधार है दाम्पत्य जीवन। यदि यही अस्वस्थ है तो समाज कैसे स्वस्थ हो सकता है। वास्तविकता यह है कि प्रत्येक व्यक्ति शादी के बाद पछतावा करता है। अतः इस उपन्यास में पात्रों के दाम्पत्य जीवन का चित्रण समीचीन है। संयुक्त परिवार व्यवस्था में नारी और पुरूष दोनों पराधीन हैं। लेकिन नारी अधिक पराधीन है उसकी नियति रही है जलकर मरना। यह आपने दिखाने का कलात्मक प्रयास किया हैं।

संभव है कि मेरा अनुमान गलत हो कि इस उपन्यास के जयदेव की परिकल्पना में आपकी निजी जीवन-धारा प्रेरक रही है और जयदेव के चित्रांकन में आपके अग्रज (स्व0) बलराज साहनी का जीवन-प्रवाह प्रेरक रहा हो।

आपने पात्रों के चरित्रांकन में मनोवैज्ञानिक सूझबूझ का कलात्मक समावेश किया है। उपन्यास जैनेन्द्र के विचारपूर्ण उपन्यासों के समान बोझिल कतई नहीं है कि इसे आदि से अंत तक बिना ऊबे पढ़ा न जा सके।

ऐसे सुन्दर उपन्यास के लिए हार्दिक बधाई।

अपना जन समझकर पत्रोत्तर लिखने की कृपा करें। यदि कोई बात अनुचित लगे तो छोटा समझ कर क्षमा कर दें।

विनियावनत

अमीर चन्द वैश्य

भीष्म साहनी का पत्र 

8/30 ईस्ट पटेल नगर,

नई दिल्ली 110008

15-09-1993

मान्य भाई अमीर चन्द जी,

आपका पत्र यथा समय मिल गया था, हार्दिक धन्यवाद। आप कुंतो’ के पहले पाठक हैं,जिन्होंने अपनी प्रतिक्रिया विस्तार से लिख भेजी है। सबसे पहले तो मेरी पत्नी ने पढ़ा (वह तो पांडुलिपि पढ़ती हैं) फिर दो मित्रों ने और अब आपने। इस उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूं। लेखक को तो पाठक चाहिए, यह उसकी बहुत बड़ी दौलत होती हैं।

अध्याय 10 के पहले  वाक्य को मैंने फिर से पढ़ा है। आप की टिप्पणी सही है।को लेकर’ लिखने की आदत शायद उर्दूं से आयी है।

प्रत्येक काल खण्ड के जीवन से एक माहौल बनता है, जिसमें घटनाओं के प्रति हमारी दृष्टि, प्रतिक्रिया, विचार आदि, हमारी परंपरागत मान्यताएं सभी घुलमिल जाती हैं। कहीं-कहीं पर उसी माहौल में जीने वाला कोई व्यक्ति अपनी दृष्टि और संवेदन अनुसार उसका विश्लेषण ही नहीं, उसमें जीवनयापन के लिए सही रास्ता खोजने की चेष्ठा करता रहता है। प्रोफेस्साब ऐसा ही पात्र है, परन्तु वह बदलते परिवेश को पकड़ नहीं पाते, और अपनी सदिच्छाओं के रहते भी ,न चाहते हुए भी, क्लेश का कारण बनते हैं। यों, जीवन को किसी फार्मूले की चौखटे में फिट बैठाने की कोशिश ही निरर्थक होती है।

दूसरी ओर जयदेव की मां, जीवन का विश्लेषण नहीं करती, न ही किसी नपे तुले रास्ते का निर्देश देती है, वह मात्र अपने परिवार की परिस्थतियों के अनुरूप अपनी धारणाओं को ढालती रहती है। उसे अपने बेटे का सुख चाहिए, यदि सुषमा के साथ व्याह कर लेने में उसका हित है तो परंपरागत प्रथाओं और मान्यताओं की भी परवाह नहीं करेगी। मैंने केवल जीवन में से उठाये गये यथार्थ का चित्रण किया है। अपनी ओर से कोई नपा तुला दिशा निर्देश नहीं दिया है।

कुंतो निश्चल लड़की है, जयदेव के प्रेम में डूबी हुई निःस्वार्थ। शायद उसका चरित्र निखर कर नहीं आया, जैसा मैं चाहता था। पर वह केन्द्रीयता ग्रहण नहीं कर पाई, इसका एक कारण यह भी है कि कुंतो की विशेषताओं को हम पत्नी से अपेक्षित परंपरागत मान्यताओं के साथ भी जोड़ते हैं, और कुंतो पत्नी’  की परंपरागत परिकल्पना के अनुरूप बैठती है, इससे वह सामान्य हिन्दू नारी जैसी जान पड़ती है। जबकि सुषमा अपने बन्धन तोड़कर निकल जाने का प्रयास करती है,जो आज की हमारी अवधारणा के अनुरूप है, इसलिए वह अधिक प्रभावित करती है।

आपने मुआवजे’ नाटक भी पढ़ा। यह नाटक यहां और लखनऊ में भी खेला गया है। मंचन का स्वागत हुआ है।

आशा है स्वस्थ प्रसन्न होंगे। मधुरेश जी को सादर प्रणाम कहें।

कुछ वर्ष पहले महत्त्व’:  भीष्म साहनी नाम से एक पुस्तक का प्रकाशन हुआ था। प्रकाशक का पता है: वाणी प्रकाशन ,4697/5, 21-,दरियागंज,नई दिल्ली ,110002

सप्रेम

भीष्म साहनी

सम्पर्क 

अमीर चंद वैश्य 
मोबाईल – 08533968269

‘प्लाजमा’ कविता पर अमीरचंद वैश्य का आलेख


  
विजेन्द्र जी की लोक के प्रति प्रतिबद्धता से हम सब वाकिफ हैं. इसी क्रम में उन्होंने कई लम्बी कविताएँ भी लिखी हैं जिनमें प्लाजमा उल्लेखनीय है. इस लम्बी कविता की पड़ताल की है अमीर चन्द्र वैश्य ने. तो आईये पढ़ते हैं अमीर जी का यह आलेख ‘समर जारी है बदस्तूर’  

समर जारी है बदस्तूर
अमीर चन्द वैश्य

प्लाजमा’  उल्लेखनीय लम्बी कविता है। वरिष्ठ कवि विजेन्द्र की। संवेद’ पत्रिका के अंक (जंनवरी, 2011) में इसका प्रकाशन पहली बार हुआ था। इसका रचना-काल है जनवरी, 2011। इस मास की 15वी तारीख को यह पूरी हुई थी। अतएव कह सकते हैं कि इस कविता की अन्तर्वस्तु विजेन्द्र के मानस में आकार ग्रहण करती रही होगी। पूर्णता से पूर्व। प्रत्येक कृति पहले मानसिक स्तर पर अमूर्त आकार निर्मित करती है। फिर वह सायास अनायास प्रत्यक्ष रूप में सामने आती है। पहले नक्शा बनता है। फिर आलीशान इमारत। ताजमहल’  की भव्य निर्मिति इसका प्रमाण है। गोस्वामी जी ने लिखा है कि रामचरितमानस’  की रचना सर्वप्रथम शंकर जी ने की थी। उसे अपने मानस में धारण कर लिया था। इसीलिए राम-कथा का नाम रामचरितमानस’ प्रसिद्ध हुआ। तुलसी ने रचना का श्रेय शंकर को प्रदान करके अपनी विनम्रता व्यक्त की है। महापुरूष का एक लक्षण है अपर मानप्रद आप अमानी’।

विजेन्द्र भी विनयशील हैं। लेकिन अपनी काव्य मान्यताओं पर तुलसी के समान सुट्टढ़ रहते हैं। तुलसी ने अपने निन्दक आलोचकों की खरी आलोचना की हैं। काक कहहिं कल कण्ठ कठोरा अर्थात् अपने आलोचकों को काक बताया है। स्वयं को कलकण्ठ’। अर्थात् कोकिल। विजेन्द्र ने भी अपने सफेदपोश आलोचकों’ की खिंचाई की है। निर्भीकता से। आधुनिकतावादी कवियों का पुनर्मूल्यांकन करवाया है। शायद यही कारण है कि मैग्मा’ एवं ‘प्लाजमा’ जैसी ताजी टटकी लम्बी कविताओं पर नामवर आलोचकों ने एक भी वाक्य तक न तो बोला है। और न ही लिखा है। हाँ, घटिया लम्बी कविता की प्रशंसा अवश्य की है। यथा-कुँवर नारायण के तथाकथित प्रबन्ध काव्य वाजश्रवा के बहाने’ को प्रकाशन वर्ष की उपलब्धि बताया गया है। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि वह अमूर्तन से ग्रस्त है। उस में सक्रिय लोक के जीवन-व्यापारों का अभाव है।

विजेन्द्र की नई लम्बी कविता प्लाजमा’ अब उनके नवीन काव्य-संकलन बनते मिटते पाँव रेत में’ (सन् 2013) में संकलित है।

प्लाजमा’ शीर्षक पढ़ते ही जिज्ञासा जागती है कि इसका क्या अर्थ है। और कविता से इसका क्या सम्बन्ध है। विजेन्द्र ने अपने पाठक की इस जिज्ञासा का उत्तर कविता से पहले’ शीर्षक के पूर्वकथन में दिया है। यह प्लाजमा’ शब्द मेरे चित्त में बहुत दिनों तक कौंधता रहा है। इसके बारे में जब कुछ जाना तो उत्सुकता जागी। क्या यह भी काव्य-कथ्य हो सकता है।

 प्लाजमा’ के दो रूप हैं। एक तो भौतिकी में, तो दूसरा जैविकी में। दोनों रूपों की द्वन्द्वात्मकता से ही जीवन-जगत् बना है। भौतिकी में उच्च ताप की गैस का नाम प्लाजमा है, जैविकी में प्लाजमा वह तरल द्रव्य है, जिसमें कोशिकाएँ रहती है। इस तरह ‘प्लाजमा’ के भौतिक तथा जैविक के द्वन्द्व (द्वन्द्वात्मक) रिश्तों को बताते हैं। जीवन, प्रकृति तथा संसार के विकास और रूपान्तरण को जानने के लिए दोनों तरह के प्लाजमा को समझना ही बेहतर होगा। द्रव्य का प्लाजमा द्रव्य-जगत् का सार तत्व है। दोनो तरह के प्लाजमा मिल कर मनुष्य तथा संसार के विकास को बताते हैं। सार तत्व को जानने के लिए छाया प्रतीति को जानना जरूरी है। छाया प्रतीति को मूलतः समझने के लिए हमें सार तत्व तक जाना पड़ता है (बनते मिटते पाँव रेत में, पृ० 120,121)

उपर्युक्त लम्बे उदाहरण से स्पष्ट है कि जीवन-जगत् के प्रति विजेन्द्र की समझ भौतिकवादी है, जो विज्ञान सम्मत है। और इतिहास सम्मत भी। वह जीवन-जगत् एवं इतिहास की समीक्षा मार्म्सवादी दृष्टि से करते हैं। प्रत्येक घटना के मूल में द्वन्द्वात्मकता होती है। परस्पर विरोधी तत्व अपनी गतिशीलता के कारण नवीनता उपस्थित करते हैं। भाववादी दार्शनिक भी द्वन्द्व’ का अस्तित्व स्वीकरते हैं। गोस्वामी जी की उक्ति है कि जड़ चेतन गुन दोष मय,बिस्व कीन्ह करतार’। सृष्टि का विकास द्वन्द्वात्मक गति से हुआ है। विकास का मूल कारण एक तत्व है। अर्थात् पदार्थ। जड़ से चेतन अस्तित्व में आया है। असत् से सत्। प्रसादजी ने कामायनी’ के प्रारम्भिक सर्ग चिन्ता’ में कहा है। – नीचे जल था ऊपर हिम था /एक तरल था एक सघन/ एक तत्व की ही प्रधानता/ कहो उसे जड़ या चेतन’।

विजेन्द्र अपनी रचना-प्रक्रिया के अनुसार वस्तु जगत् का सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित करते हैं। इन्द्रियों के घोड़े मुक्त छोड़ कर दृश्य के अदृश्य को भी जानने की चेष्टा करते हैं कि सतह के नीचे क्या छिपा है। छाया प्रतीति से सार तत्व तक यात्रा करते रहते है। अपने ज्ञान को संवेदनाओं में रूपांयित करके उसे आत्मपरक ढंग से आकर्षक बिम्बों एव रूपकों के साँचे में ढालते हैं। प्लाजमा’ रचना भी ऐसी ही है, जो मै के एकालाप के रूप में है। यथा, कविता का प्रारम्भिक अंश पढिए, जो सर्जनशील मनुष्य की सतत सक्रियता से साक्षात्कार कराता है-

धरती की परत-दर-परत पर

लिखा है मेरा जीवन

क्रियाओं का अंश-अंश रोमिल इतिहास है मेरा

खोजे है मैने जीवन स्त्रोत जहाँ-तहाँ

चट्टानों में टीलों में, बीहड़ों में खदानों में

दाखिल हुआ हूँ ज्ञान विज्ञान के

नये रचे द्वारों में

खिला हूँ, पला हूँ उन्हीं के बीच। (वही, पृ० 121)

इसी प्रकार इस प्रदीर्घ कविता की अन्तर्वस्तु क्रमशः अपने प्रयोजन की ओर अग्रसर होती है। अन्ततः अपने चरम बिन्दु पर पहुँचती है। इस कविता के केन्द्र में सक्रिय मनुष्य है, जिसने अपने हाथों और मस्तिष्क का यथासमय प्रयोग करते हुए सभ्यता-संस्कृति की विकास-कथा समय की शिला पर असंख्य रंगो में उत्कीर्णित की है। सम्पूर्ण कविता छह हिस्सों में विभक्त है। छहों हिस्से स्वतंत्र हैं। और परस्पर सम्बद्ध भी हैं। प्रत्येक हिस्से के बाद अन्तराल है, जो पाठक को वर्तमान क्षण से अनायास जोड़ देता है। 

विजेन्द्र की प्रत्येक लम्बी कविता में स्थानीय वैशिष्ट्य के साथ-साथ आत्म-कथात्मक अंश अनायास आते है। दोआबे के मूल निवासी विजेन्द्र मरू भूमि के दहकते पलाश’ रोहिड़ा का उल्लेख करने के बाद खिन्न मन से अपनी दोआबी जन्म-भूमि धरमपुर (जि बदायूँ) को अनायास याद करने लगते हैं-

होता हूँ विचलित।

विमूढ़ कई बार

कहाँ आ गया दोआब से खँदकर यहाँ

नहीं है कोई जोति स्तम्भ

न वृक्ष फलदार

कैसे चल पाऊँगा निर्बाध आगे तक।(वही, पृ०122)

और फिर आगे वाचक अतीत और वर्तमान के वास्तविक चित्र अंकित करने लगता है। अपने ज्ञान को संवेदना में बदलते हुए और संवदेना को ज्ञान में। वर्तमान के विषमता-ग्रस्त समाज का लघु चित्र देखिए-

चाहिए अन्न-जल करोड़ों-करोड़ को

भूखों को आहार, प्यासों को स्वच्छ जल

आकाश तले छत मेघ-धूप से बचने को

सदियों से तरस रहे जो पौष्टिक भोजन को

अच्छी चीजों को

करता उपभोग जिनका रात दिन

बिना किसी लज्जा के, आत्म ग्लानि के

बिना किसी ड़र के आखिर क्यों

बिना पश्चाताप के। (वही, पृ०123 )

उद्धृत अंश में जो आत्मालोचन व्यक्त हुआ है, वह सुविधा-सम्पन्न वर्गो की तीखी आलोचना से सम्बद्ध है। बीज भाव करूणा है, जो पीड़ित मानवता के रक्षण को प्रेरित करती है। स्वयं की आत्म-भर्त्सना है। अवसरवादी और रीढ़-विहीन मध्यम वर्ग एवं शोषक उच्च वर्ग की भी।

फलता फूलता जैवमण्ड़ल चारों ओर देख कर विजेन्द्र पुनः आपबीती कह कर मानवीय स्वभाव की दुर्बलता की ओर इशारा करते हैं-

सहे हैं आघात जीवन में

मिले जो अपनों से

औरों से

अभी तक हरी हैं खरोचें चित्त-भूमि पर।  (वही, पृ०123 )

और फिर अनुभव-प्रसूत ज्ञान को प्रत्यक्षता प्रदानते हैं-

हर दिन होता है सोच अगौंहा

गतिशील वेगवान

गुँथा-बिंधा रंगों में।(वही, पृ०123)

बहुत कुछ जानने के बाद भी ऐसा मालूम होता है कि

फिर भी क्या जान सका

अब तक कण भर संज्ञान मिनख का। (वही, पृ०124)

अतः कवि की जिज्ञासा उचित है कि 

कैसे जान पाऊँगा आत्मा की एन्थ्रोज्योग्राफी
बिना जाने प्लाजमा के अलग-अलग रूप।(वही, पृ०124)

मनुष्य विश्व में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। अपनी सर्जनशीलता के कारण उस ने सामूहिक श्रम से उत्पादन किया है। नाना प्रकार के निर्माण किए हैं। आविष्कार किए हैं। इसीलिए विजेन्द्र कविता को श्रम-सौन्दर्य से जोड़ कर कहते है-  

कविता का जन्म हुआ उत्पादक क्रिया से
श्रमी ही है पहला कवि। (पृ०127)  

लेकिन श्रम करने के बाद भी वह प्यासा है। दुखी है। असहाय है। क्यों। विषमता की लूट के कारण। अतः वाचक ठीक कहता है- 

लड़ने को आगे का सतत समर
तोड़ना होगा ब्रह्म पाश। (पृ०128) 

 ब्रह्म-पाश’ क्या है। इस का उत्तर भाववादी दर्शन की वह मान्यता है, जो ब्रह्म’ को सत्य मानती है और जगत् को मिथ्या। इसी ने साधारण जनों को भाग्यवादी बना कर सामाजिक बदलाव की सोच से दूर रखा है। लेकिन अब यह सत्य उजागर हो गया है कि जगत् मिथ्या नहीं है। मनुष्य स्वयं भाग्य-निर्माता है। विज्ञान के ज्ञान ने समझाया है कि 

भौतिकी सिरजती है देखी-अनदेखी घटनाओं के 
पल-नखत। (पृ०126)

इस कविता के पहले हिस्से में अतीत-वर्तमान, श्रम एवं प्रकृति-सौन्दर्य, बिम्बों-रूपकों अदृश्य दृश्यों की कांत मैत्री है। निर्भीक आदमी की भीतरी दहक है। हाथों के कौशल के अनेक रूप हैं। हाथ ही ने बनाया है मानव को कवि, चित्रकार, गायक, शिल्पी, स्थापत्कार। और नृत्य मंगिमाओं मे झलकता है उल्लास जीवन में। उँगलियों के लयात्मक संचालन से ही नृत्य के भाव-अनुभाव सम्प्रेषित होते हैं।

कविता के दूसरे हिस्से में विजेन्द्र ने प्राकृतिक जगत् के प्रस्फुटन एवं विकास की कथा चित्रात्मक रूपों में वर्णित की है। साथ-ही-साथ प्राणि-जगत् की भी। प्राणियों एंव प्राकृतिक परिवेशों का मनमोहक-आश्चर्यजनक विकास परस्पर जुड़ा है। दूसरे हिस्से के प्रारम्भ में कवि का कहना है कि

क्या यूँ ही उपज आया भूतल से

जैसे उगता है बीज द्विपत्र हो जुती धरती से

सूर्य के उजीते में, हवा में, ताप में, जल की बूँदों में भीग कर

नहीं नहीं, मै नहीं हूँ पृथ्वी का अबोध शिशु मात्र

धूल कणों से उछरा एक कण

पिसी रज काली, चट्टान का खुरदरापन
कहता रहा हूँ पृथ्वी को जननी

खुली है मेरी आँख अन्न से

जल से, हवा से, रबेदार उजीते से
लेता हूँ साँस नथौरों से

सुनता हूँ कानों से

रचा गया है शब्द बड़े ही जतन से

अर्थ के लिए नापी है लम्बी डगर। (पृ०129)

तात्पर्य यह है कि मनुष्य ने अपनी ज्ञानेन्द्रियों से सम्पूर्ण जगत् का ज्ञान प्राप्त किया है। रूप-रंग देखे हैं। वन और वनस्पतियाँ देखी हैं। कोमल-कठोर ध्वनियाँ सुनी है। भोजन के कई स्वाद चखे है। त्वचा से कोमलता और कठोरता का संस्पर्श किया है। और इन्हीं के आधार पर उसने नाना प्रकार की कृतियों की रंगिल सर्जना की है। इसीलिए मानव सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। वह प्रकृति से कृति एवं संस्कृति की ओर अग्रसर हुआ है। जांगलिकता से मागलिकता की ओर। तमस से प्रकाश की ओर। मृत्यु से अमृतत्व की ओर। कर्म करते हुए दीर्घ जीवन की ओर। उस की मनीषा ने कभी विश्राम नहीं किया हैं। 

ऐेसे सर्जनशील और कर्मठ मनुष्य की शक्ति और सहिष्णुता का वर्णन विजेन्द्र ने आत्मीय भाव से किया है-

जो वे समझते हैं

पशु पक्षी डराने का बिजूका नहीं हूँ

खेत में

नहीं हो पाया मुक्त आज तक भीगता रहा हूँ

रात की टपकती बूँदों में

धूप की बर्छियों को सहता हूँ

उभरी पसलियों पर

कहाँ हुआ शिखरस्थ मुकुटधारी

ओ हठी जन

पूर्णता मेरा कोई विकल्प नहीं

कहाँ खोज पाया हूँ आकाशगंगाओं का

ज्वलित छोर। (पृ०129,130)

इस उद्धरण से यह बात स्पष्ट हो रही है कि जब से समाज समता से विषमता की ओर बढ़ा है, तब से श्रमशील जन अनिवार्य आवश्कताओं के अभाव का दंश झेलते रहे हैं। उन्हें राजाओं-महाराजाओं के समान शिखरस्थ मुकुटधारी’ सर्वोच्च सम्मान प्राप्त नहीं हुआ है। लेकिन उस श्रमी मानव की अदम्य सिसृक्षा एवं अन्वेषण-वृत्ति शान्त नहीं हुई हैं। वह नित नवीन आविष्कार करता रहा हैं। अभिनव कृतियों की रचना करता रहा है। लोकतांत्रिक समाज में तो वही नायक’ है। कविता के केन्द्र में भी वही है। राजाओं-महाराजाओं और उच्च वर्ग के आमिजात्य जनों का युग समाप्त हो चुका है। और हो रहा हैं। अब होरी’, ‘धनिया’, ‘गोबर’ का युग है। अतः विजेन्द्र कहते है-

ओह रात के स्याह सघन आकाश में

उजाले की क्षीण रेख

क्यों कौंधती है आँखों में

गड़ती भीतर तक

एक पैनी नौक सुर्ख

खतम हुआ लगता है महान पुरूषों का

उज्ज्वल समय

सामान्य से चुनना है अपना काव्य-नायक।‘  (पृ० 130)

आज का जिज्ञासु और स्रष्टा मनुष्य द्रष्टा रूप में धरती से अन्तरिक्ष तक, इस ग्रह से उस ग्रह तक, सतह से नीचे और ऊपर निरन्तर निरीक्षण-परीक्षण करता रहता है। नवीन ज्ञान के नव्य द्वार खोलता है। अभिनव आविष्कारों से दिन-प्रतिदिन साक्षात्कार करता रहता है। विजेन्द्र ने जिज्ञासु मानव के स्वभाव और उसकी सतत् साधना का आत्मीय वर्णन किया है-

ओ कवि मैं ने कहा था

जब रचा गया सौरमण्डल

मैं वहाँ नहीं था

कैसे पहचानूँ इन कणों में बजती

भिन्न भिन्न ध्वनियाँ अनुररणन

तेज लय तीखी

रोज आता हूँ यहाँ जानने रहस्य

इस मगरमच्छी चट्टान के

सतत् फुदकते तारे के नाभि-बिन्दु। (पृ० 131)

और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नष्ट नहीं होता कुछ भी’। सिर्फ रूप बदलते रहते हैं। पानी जम कर बर्फ में बदल जाता है। लावा ठण्ड़ा होकर स्याह चट्टान बन जाता है। वह सौर जगत् के राजकुमार सूर्य से कहते हैं कि

तेरे तेज घूमते मसकले पै

रख कर के देखूँगा आदमी की जिजीविषा को

उसके कठोर यत्न को

पृथ्वी की धुरी कैसे जान पाऊँगा

वो है तेरी दुहिता बेचैन

बाहर से, भीतर से,नहीं है चैन

एक पल। (पृ० 132)

प्रश्न खड़ा होता है कि सूर्य ही दुहिता’ पृथ्वी बेचैन क्यों है। इसलिए कि वर्तमान क्रूर पूँजीवादी व्यवस्था उसका विदोहन निरन्तर कर रही है। जो सबका पेट भरती है, उसी का पेट चीरा-काटा जा रहा है। कविता में इसका प्रतिरोध अनिवार्य है। भौतिकवादी दर्शन की आँख से देखकर विजेन्द्र स्पष्ट बात कहते है कि

यह अदृश्य अणु जीवित द्रव्य

रूप है काल का, गति का,

जिसे बाँधने को

आज तक रचे शब्द, लय, ध्वनि, छन्द

तुझे दिखाने आऊँगा कभी

कविता का दहकता अन्तःकरण। (पृ० 132,133)

तात्पर्य यह हैं कि सदा जीवित द्रव्य और अदृश्य अणुओं से काल गतिशील है। इसी गतिशीलता को लयात्मक वाक्यों में बाँधने का प्रयत्न कवि करता हैं। प्रकृति-निरीक्षण से कृति की रचना करता है, जिसके केन्द्र में सक्रिय मानव की श्रम-संस्कृति के अनेक रूप अपने सौन्दर्य से पाठक को आकृष्ट करते है। अन्य ललित कलाओं में भी मानवीय सौन्दर्य की आभा लक्षित होती हैं।

प्रसंगवश यहाँ एक नई बात अनिवार्यतः उल्लेखनीय है। अन्तरिक्ष के वैज्ञानिकों ने अनेक प्रयत्नों के बाद सूर्यपृथ्वीमंगलशनि आदि कई ग्रहों की कोमल-कठोर, तीव्र-मन्द भयंकर ध्वनियाँ रिकार्ड की हैं। प्रत्येक ग्रह में हलचल भरी हुई हैं। अतः विजेन्द्र की यह मान्यता ठीक मालूम होती है कि अभी तक मनुष्य ने पूर्ण ज्ञान आत्मसात नहीं किया है। लेकिन उसके प्रत्यन और प्रयोग निरन्तर जारी हैं।

कविता का तीसरा हिस्सा सूर्य-सम्बोधन से प्रारम्भ होता है। वह पृथ्वी का जीवन-स्त्रोत है। विश्व की खुली आँख है। मनुष्य उसी का पुत्र हैं। कविता का वाचक साम्राज्यवादी शक्तियों का प्रतिरोध करते हुए संघर्षशील राष्टृों से ओजपूर्वक स्वर में कहता है-

बोलो अपनी जुबान

देखो मेरी आँखों से

यह समय है महापुनर्जागरण का

कौन से ब्रह्मा ने रचा है

यह विराट् शिरोमणि जीवन

विरल सुन्दर उपहार निसर्ग का।  (पृ० 133, 134)

यहाँ यह बात स्पष्ट हो रही है कि भौतिकवादी दर्शन के अनुसार सृष्टि का विकास आद्य द्रव्य की गतिशीलता के कारण हुआ है। यह किसी ब्रह्मा की रचना नहीं है। अब समय आ गया है कि पिछडे-अगड़े राष्ट्र एकजुट हो कर प्रतिरोध का गगन-भेदी उद्घोष करें।

कवि विचारों को संवेदानात्मक साँचे में ढालकर कथ्य का शनैः-शनैः विस्तार करता है। वह जल-थल-नभ के अनेकानेक चित्र अंकित करते हुए विज्ञान-सम्मत सत्य का उद्घाटन करता है –

एक दिन पृथ्वी ने अलग शुरू की यात्रा

दहकते सूर्य से

द्रव्य ही था प्रथम सत्य चेतन कहाँ था

बनती गई ठोस परतें, परतें, परतें

भाप से जन्मते रहे जल-कण

महाकाल का प्रथम उत्सव था भैरव राग

ताण्डव नृत्य

एक कोषीय जीव में जन्मा मैं

उसी से फूटा है कल्ला सुर्ख

बहुकोषीय जीवन का महाजागरण

चट्टानों की परतों में बचे रहे है निशान

जीवधारियों की हड्डियों के

वनस्पतियों के

बडे़ संघर्ष से मिली है मुझे रीढ़

रगें, मस्तिष्क का लिसलिसा द्रव्य।

यह है मानव के विकास का क्रम, जिसे भौतिकवादी दर्शन की आँख से देखा-समझा जा सकता है। रीढ़ के निर्माण में हाथों का योगदान अविस्मरणीय है। अन्य प्राणियों की तुलना में मानव इसीलिए श्रेष्ठ है कि वह सोच सकता है। अपनी आवश्कताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन के साधनों का निर्माण कर सकता है। उसके पास भाषा का प्रकाश है। वह अपनी कल्पना से अदृश्य को दृश्यता प्रदान कर सकता है। आकाश में पक्षियों को उड़ते हुए देख कर उसने वायुयान की कल्पना को यथार्थ में बदल दिया। अग्नि की खोज उसकी महत्वपूर्ण उपलब्धि है। अग्नि के प्रकट रूप के अभाव में विकास का रथ आगे बढ़ सकता था? इसीलिए कविता का वाचक कहता है कि

पहुँचा अग्नि-भट्टियों के ताप में

खोजने तेज के उद्गार तत्व

रेडियम, थोरियम, यूरोनियम

रेडियो सक्रिय खनिज जहाँ-तहाँ। (पृ० 139)

विजेन्द्र के काव्य-निबद्ध चिन्तन का सार तत्व यह है कि

विपरीत तत्वों की एकरूपता

ही सत्य है, गति है

अन्त ही उसका, मृत्यु है। (पृ० 139)

प्रकृति-जगत् में पंच तत्वों का सन्तुलित मेल निर्माण करता है। उन का भैरव मिश्रण विनाश एवं विध्वंस। उल्कापात होने लगते हैं। शम्पाओं के भीषण निपात भी समुद्र अपनी मर्यादा त्याग कर धरती को जल-मग्न कर देता है। मानव शरीर में पानी की कमी शरीर को रोगग्रस्त कर देती है। शरीर में जल भी है और अग्नि भी। एक का अभाव शरीर को रोगी बना देता है। धरती यदि माँ है तो आकाश पिता। दोनो आपस में सम्बद्ध हैं। धरती पर बरसा पानी भाप बन कर मेघों का रूप धारण कर लेता है। पानी बरसा कर धरती की प्यास बुझाता है। लेकिन अतिवृष्टि धरती पर बाढ़ का भयंकर परिदृश्य उपस्थित कर देती है। सूर्य अपने ताप से हिमालय पर जमी बर्फ को जल में बदल कर उसे नदियों की धाराओं में परिवर्तित कर देता है। सूर्य ही हरी-भरी फसल पर सोने का पानी चढ़ाता है। शरीर में परस्पर विरोधी पंच तत्वों के विघटन से वह मृत घोषित कर दिया जाता है। अतएव विपरीत तत्वों की एकरूपता जीवन है। उनका अभाव मृत्यु। यह वैज्ञानिक सत्य है, जिसकी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति विजेन्द्र ने निपुणता से की है।

चौथे हिस्से का प्रारम्भ प्रश्न से होता है –

कौन थे गोंड, कौन थे भील, कौन हैं आदिवासी

आदिम संतान भारत की

मेरे पूर्वज कठोर बलवान। (पृ० 139) 

उस निषादराज को भी याद किया था, जिसने अथवा उसके पूर्वज ने क्रौंच-वध किया था। लाचार हो कर अपनी आजीविका के लिए। द्रविड़ भारत के मूलजनों को भी याद किया गया है, जिन्हें अनार्य घोषित किया गया था। लेकिन अब यह सत्य उजागर हो गया है कि आर्य-आक्रमण मिथक है। इसलिए मूल निवासियों का पलायन भी मिथ्या है। वस्तुतः यह ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का कपटपूर्ण व्यवहार था, जिसके फलस्वरूप उत्तर भारत और दक्षिण भारत में आज भी मन-मुटाव है।

विजेन्द्र ने अपनी व्यापक मानवीय करूणा से प्रेरित होकर भारत के, विशेषतः छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की दयनीय दशा का प्रत्यक्षीकरण किया हैं। उन्हें इस महादेश की अपराजेय जनशक्ति कहा है। विजेन्द्र लड़ाकू जनशक्ति पर भरोसा करते हुए ठीक कहते हैं – 

‘इस महादेश की अपराजेय जनशक्ति

जिन्दा है इन्हीं से

सिंहभूमि, मयूरभंज, मानभूमि

नदियों से घिरी मझोले कद की पहाड़ियाँ

उनकी लाल आँखें भरी हैं आक्रोश से

कह नहीं पाते जो अपना ताप

बहुत भीतर छिपी है यातना की ज्वाला। (पृ० 143)

सहृदय कवि विजेन्द्र इस ज्वाला को प्रतिरोध में बदलना चाहते हैं। उन्हें खेद है कि

‘सोनभद्र कितना प्यारा नाम है दोआब का

यहाँ के कोल, गोंड, पहरिया

आज भी अछूत हैं

इनका कौन सा वर्ण हो सकता है

कभी नहीं सोचा

श्रमी का क्या सम्प्रदाय, क्या वर्ण क्या कौम। (पृ० 144)

यह उद्धरण कवि की वर्गीय दृष्टि का प्रमाण है। शोषित वर्गो के प्रति उसकी व्यापाक हार्दिक संवेदना उसे अभिजात वर्ग के रस-रंजन-अनुरागी तथाकथित बड़े कवियों से नितान्त भिन्न करती है। वह लोकधर्मी है, जो श्रम का सम्मान करती है। दिल की गहराई से।

शम्भू बादल जैसे समर्थ कवियों ने झारखण्ड़ के श्रमजीवी जनों और उनके परिवेश पर अच्छी कविताएँ रची हैं। अब हाशिये के साधारण जन केन्द्र में आ रहे हैं। समकालीन कविता की यह प्रशंसनीय विशेषता हैं।

पाँचवे हिस्से में विजेन्द्र ने मरू-भूमि के भू-दृश्य अंकित किए हैं। सतत पर्यवेक्षण निरीक्षण के आधार पर। आत्मीय ढंग से। प्यासे थार को निरख कर विजेन्द्र खिन्न मन से कहते हैं कि

‘क्यों होता हूँ रिक्त अन्दर तक

मरूस्थलीय जीवन का पुंज

पत्थरों को फोड़ उपजता ऊँटकटीला

चमकाता पैने दाँत

कब तक खड़ा रहूँगा यहाँ

चूमने नम हवाओं को

किरणों के अन्नवान मुख

खड़े हैं आगे पथ में बालुका स्तूप घने ऊँचे

आगे तक फैली हैं नई मरोड़दार

अरावली की भ्रंश ऋंखलाएँ

क्रूर विदोहन होता है प्रकृति का दिन रात

मेरे साथ अन्धाधुन्ध

आगे बढ़ता मेरा देश

क्या बन पाएगा

सुन्दर स्वस्थ

ऐसे डरावने उजाड़ में। (पृ० 144, 145, 146, 147,)

कविता का यह अंश स्थानीय परिवेश के प्रति विजेन्द्र के गहरे अनुराग एवं उनकी लोक मंगालिक चिन्ता का प्रमाण है।

लोकधर्मी कवि अपने काव्य में स्थानीयता का अथवा जनपदीयता के सम्पूर्ण वैशिष्ट्य के अनेक बिम्ब, वर्णन और पात्रों के चरित्रों का निरूपण अवश्य करता है। कविता का पाँचवाँ हिस्सा विजेन्द्र के लोकधर्मी कवि का प्रमाण है।

कविता का छठा हिस्सा आत्मा’ के अनस्तित्व से प्रारम्भ होता है। विजेन्द्र की भौतिकवादी जीवन-दृष्टि आत्मा’ का अस्तित्व नकारती है –

क्या है आत्मा

सदियों से पड़े हो जिसके पीछे तुम

एक सूक्ष्म अग्निकण का चिन्मय रूप

कहते जिसे अष्टधातु का सारकण

झिलमिलाता है उसमें यह पूरा विश्व-वृक्ष। (पृ० 148)

आत्मा’ की अवधारणा भाववादी दर्शन की मिथ्या देन है। प्राण निकल जाने के बाद शरीर मृत हो जाता है। और चेतन’ तत्व भी लुप्त हो जाता है। आत्मा’ की अवधरणा से पुनर्जन्म का सम्बन्ध जुड़ता है। मनुष्य की गरीबी का कारण पूर्व जन्म के पाप माने जाते है। यह अवधारणा वर्ण
-व्यवस्था एवं उससे जनमी जाति-व्यवस्था को भी उचित ठहराती है। यह कोई ईश्वरीय विधान नहीं है। लोकतन्त्र की व्यवस्था ने इसे अस्वीकार कर दिया हैं। क्या पहले के राजतन्त्र को पुनः उचित ठहरा कर आज लागू किया जा सकता है। नहीं। आजकल तो वंशवाद और परिवारवाद’ की कटुतम आलोचना हो रही है। अतः आत्मा’ को चेतना के रूप में स्वीकारना अधिक तर्कसंगत है। सर्जनशील कवि एंव कलाकार की चेतना के दर्पण में सम्पूर्ण जगत् झिलमिलाता रहा है। वह उसी की कलात्मक पुनः सृष्टि करता है। ललित कलाओं के सौन्दर्य-रूप में।

विजेन्द्र अपनी वैज्ञानिक दृष्टि से इतिहास की समीक्षा करते हुए पुनः कहते हैं। –

ओ मेरी विकासमान चेतना के गति कण

द्रव्य  ही सच है

गति ही जीवन है

आदि अन्त

उस का सार तत्व

यही है मेरी आत्मा की एन्थ्रोज्योग्राफी। अर्थात मानव भूगोल।

विजेन्द्र जितने आत्मचेतस हैं, उतने ही विश्वचेतस। अतः वह अपने युग की सामाजिक गति की एंव आर्थिकी के शोषक रूप की तीखी आलोचना करते हैं। निरीह-निरन्न-निर्वस्त्र लोगों से रागात्मक सम्बन्ध जोड़ते है। और फिर अमरीका के दिलेर लेखक नाम चोमस्की एंव वेनेजुएला के दबंग राष्टृपति हयूगो शावेज से अपना रिश्ता जोड़ते है। साम्राज्यवादी क्रूर शक्तियों की निर्भीक आलोचना करते हैं। उनके चिन्तन के अनुसार अब तमसो मा सद्गमय जैसे उपदेशमूलक वाक्य दुनिया नहीं सुनती है। अब तो विश्व को समझने के लिए वैज्ञानिक चिन्तन आत्सात् करना अनिवार्य है। अतः कवि बेचैन भाव से कहता है-

द्रव्य की चौथी भुजा

यह प्लाजमा, पिघलते ताप से फूटा जो

गैस का अँखुआ

सूर्य की कोख से

अभी अन्त नहीं सूर्य गाथा का

क्या है रिश्ता कविता से

मेरे मन के मन से

रोयों से, पलकों और आँख के कोयों से

ओह, छिपे गहन आँसुओं से

महाप्रयोग बिग बैग से

कैसे जोड़ पाऊँगा इसे रोटी से, भूख से

क्या रूक पाएगी इससे महाविनाश लीला

मनुष्य की, प्रकृति की, सुन्दर सृष्टि की

पूछता हूँ तुमसे

हाँ तुम्ही से। (पृ० 151,152)

कविता का प्रश्नात्मक समापन विजेन्द्र की उदग्र चिन्ता व्यक्त कर रहा है कि सदियों से शोषित मानव और उसके परिवेश का कल्याण एवं रक्षा कैसे होगी। यह बैचेनी कवि को काव्य के महान प्रयोजन शिवेतरक्षतये से जोड़ रही है। अन्त में सम्पूर्ण कविता का भरत वाक्य है –

समर अभी बदस्तूर जारी है

यह रहेगा बहुत आगे तक

पराजय ही विजय की जननी है (पृ० 152)

निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि प्लाजमा’ विज्ञान-बोध से युक्त लम्बी कविता है। इसकी कथन-भंगिमा नाटकीय एकालाप है। अन्तर्वस्तु वस्तुपरक है। और आत्मपरक भी। इसमें लयात्मक वाक्यों का कलात्मक विन्यास है। गतिशील बिम्बों की मालाएँ हैं। आकर्षक रूपक है। यथास्थिति के विरूद्ध प्रतिरोधी स्वर मुखरित है। इतिहास और वर्तमान की कान्त मैत्री है। यह कविता निराला की शक्ति पूजा और मुक्तिबोध की अँधेरे में की तुलना में कुछ अलग है। इसमें ‘शक्ति पूजाजैसा दैवी चमत्कार नहीं है। और न ही अँधेरे में विन्यस्त दुरूह फैन्टेसी। भाषिक संरचना लगभग समास-रहित है। हिन्दी की प्रकृति के अनुसार प्रचलित तत्सम शब्दों के साथ-साथ बोल-चाल के प्रचुर शब्दों का प्रयोग किया गया हैं। इसका मुखर पाठ करते हुए पाठक को कवित्त छन्द की लय का आभास होता रहता हैं। अतः यह कविता मुक्त छन्द में है, जो समकालीन अन्य कविताओं में अलक्षित हैं। इस मुक्त छन्द ने विजेन्द्र को अपने आदर्श कवि निराला के मुक्त छन्द से जोड़ दिया है। निराला का मुक्त छन्द’ कवित्त की लय पर आधारित है। इस कविता ने समकालीन हिन्दी कविता के सामने नवीन काव्य-मार्ग प्रस्तुत किया है। आशा है कि समकालीन कवि स्वयं को विज्ञान-बोध से जोड़कर कविता और अधिक समृद्ध करेंगे।

हाँ, प्रूफ्र की त्रुटियों ने अर्थ-बोध में बाधाएँ उपस्थित कर दी हैं। लेकिन इससे कविता का महत्व कम नहीं होता है।

सम्पर्क

अमीर चन्द वैश्य

चूना मण्डी, बदायूँ

(उत्तर प्रदेश)                       

243601

मोबाईल- 09897482597

मार्कण्डेय जी के कविता संग्रह ‘यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ’ की समीक्षा



मार्कण्डेय न केवल एक कहानीकार थे बल्कि एक सक्षम कवि भी थे. अभी पिछले ही वर्ष मार्कण्डेय जी का एक कविता संकलन यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ आया है. इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है वरिष्ठ आलोचक अमीर चंद वैश्य ने. मार्कण्डेय जी की पुण्यतिथि (18 मार्च) के अवसर पर हम यह विशेष प्रस्तुति आपके लिए प्रकाशित कर रहे हैं. 
   
आजाद कलम की कविताएँ
(सन्दर्भः- यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ’ : मार्कण्डेय)
                                                                                                                                                                अमीर चन्द वैश्य
सन् 2013 में प्रकाशित काव्य-संकलन यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ अभी-अभी पढ़ कर समाप्त किया है। समकालीन हिन्दी कविताओें से इस संकलन की कविताएँ भिन्न हैं। आजकल के युवा कवियों की अधिकतर कविताएँ लय-विहीन होती हैं। उनमें सघन भाव-बोध एवं विचार-बोध का चारू सम्मिलन नहीं होता है। अधिकतर कवि लम्बे-लम्बे गद्यात्मक वाक्यों से अपने पाठकों की संख्या कम कर रहे हैं। किन्तु समीक्ष्य संकलन ऐसे दुर्गुणों से मुक्त है। संकलन के सम्पादक हैं श्रीयुत् दुर्गा प्रसाद सिंह और भूमिका-लेखक हैं डॉ0 राजेन्द्र कुमार। संकलित कविताओं के स्रष्टा हैं प्रख्यात कहानीकार मार्कण्डेय। उन्होंने अपना सम्पूर्ण कर्मठ जीवन लोकमंगलकारी साहित्य-सृष्टि के लिए समर्पित कर दिया था। अपने समय की नई रचनाशीलता को कथा के माध्यम से प्रकाशित किया था। अपने विवेक से युगीन उत्कृष्ट रचनाओं की ओर पाठकों का ध्यान भी आकृष्ट किया था।
                इन पंक्तियों के लेखक ने मार्कण्डेय को पहली बार नए कहानीकार के रूप में ही जाना था। प्रो0 मधुरेश के व्याख्यान से। व्याख्यान में उनकी दो कहानियों-हंसा जाई अकेला’ और गुलरा के बाबा की विशेष चर्चा की गई थी। उनके पहले कहानी-संकलन पान-फूल की समीक्षा विवेक के रंग’ में पढ़ी थी। समीक्षक धर्मवीर भारती ने इस संकलन को रागात्मक यथार्थ’  का उद्घाटन घोषित किया था। कालान्तर में मार्कण्डेय की कहानियाँ भी खरीदी थीं। लेकिन प्रमादवश सभी कहानियाँ नहीं पढ़ सका। हाँ, उनकी कविताएँ सभी पढ़ी हैं। अवधानपूर्वक। उनके कवि रूप से परिचित करवाया कथा’  के मार्कण्डेय स्मृति अंक ने। (मार्च 2011) युवा कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय ने लिखा है कि मार्कण्डेय के अन्दर पसरा हुआ था कविता का एक अनचरा मैदान। वे घनघोर काव्य-प्रेमी थे। (मार्कण्डेय स्मृति अंक, पृ0 203)
                यह भी सुखद संयोग है कि तीनों इलाहाबादी नए कहानीकार मार्कण्डेय, अमरकान्त और शेखर जोशी कविता-प्रेमी हैं। अमरकान्त गोष्ठियों में गज़लें सुनाया करते थे। कालान्तर में कहानियाँ रचने लगे।
                उन्होंने कहानीकार के रूप में अपनी खास पहचान भी बनाई। इसी प्रकार मार्कण्डेय और शेखर जोशी ने भी। लेकिन ये दोनों कविताएँ भी रचते थे। दोनों की कविताएँ पढ़ कर इन की कहानियाँ भी अच्छे ढंग से समझी जा सकती हैं। दोनों साथियों की कविताएँ प्रगतिशील एवं लोकधर्मी काव्य-धारा से अनुप्राणित हैं।
                सहृदय कवि मार्कण्डेय स्वयं को नदी का द्वीप नहीं मानते हैं। वह जन-गण की जीवन-धारा में अवगाहन करके कहते हैं-
मैं उनके लिए लिखूँगा

जो भटक रहे हैं गलियों में

अन्धी-वीरान

रोशनी तलाशते

चीखते-चिल्लाते

उग्रह करो आने दो!!/

वर्ना हम मशाल जलाते हैं। (यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ’  पृ0 21)
                इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि मार्कण्डेय जनपक्षधर कवि और लेखक हैं। समाज के श्रमशील उत्पादक वर्गों के प्रति उनकी संवेदना अकृत्रिम है। यह धरती किसकी है। यह ज्वलंत प्रश्न है। मार्क्सवादी कवि केदारनाथ अग्रवाल घोषणा करते हैं कि यह धरती नहीं राम की, नही कृष्ण की। यह तो उस किसान की है जो इसे जोतता है। इसमें बिजाई करता है, सींचता है। खरपतवार निराता है। धूप में तपता है। जाडे़ में शीत का प्रकोप झेलता है। लेकिन हिम्मत नहीं हारता है। वही अन्नदाता है और अन्न ही ब्रह्म है। नागार्जुन भी ऐसा ही मानते हैं। वह पकी फसल में किसान के पसीने की आभा देखते हैं। मार्कण्डेय भी इसी सुर में सुर मिला कर आत्मीय भाव से कहते हैं-
खड़े क्या हो इस तरह हाथ बाँधे

जाओ, ले जाओं

यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ

सब कुछ है यहाँ

हवा, पानी, मिटटी और आकाश

मृत्यु, जन्म, प्यार और अहंकार

तुम जो चाहोगे

माँगो जो कुछ

तुम्हें वह देगी

अपर्णा है, प्रेयसी पयश्वनी है

भगिनी है

पुत्री मनस्वी है

जाओ, ले जाओं

अपने अंतर का आलोक तुम्हें देता हूँ। (वही, पृ0 3)
                सन् 1987 में रचित इस सम्पूर्ण कविता का संदेश क्या है। प्रश्न ज्वलंत है। भारत में जब तक भूमि का समान वितरण नहीं होगा, तब तक किसानों की दुर्दशा यथावत् रहेगी। आजकल सबसे बड़ा संकट किसानों के सामने है। विकास के नाम पर सरकार उनकी भूमि का अधिग्रहण कर लेती है। उन्हें पूरा मूल्य नहीं दिया जाता है। सरकार अधिक मूल्य पर बेचकर मुनाफा कमाती है। किसान कर्ज में डूब कर आत्महत्या कर लेता है।
                मार्कण्डेय अपने समय और समाज को वर्गीय दृष्टि से देखते और परखते हैं। अतः उनकी कविताओं में शोषक सत्ताधारियों के दुराचरण की तीखी आलोचना है और शोषितों – वंचितों के प्रति हार्दिक सहानुभूति। चले चलो कविता में इतिहास का संदर्भ है। मुहम्मद तुगलक का आदेश कि दिल्ली से दौलताबाद चलो। कवि व्यंग्य के लहजे में कहता हैं –
मुखौटा लगा लो

मिटा लो पहचान और भाषा

बोलो कुछ ऐसा

जो भाए आलीजाह को

प्रश्नों में साजिश की गंध है

ऐसी जो ब्रूटस

की साँस से निकलती थी

संशय के मंत्र का

अनवरत जाप करो

मित्रों की गरदन पर

तेज करो छुरियाँ

कतल करो अपनों का

वे भी इस आदमखोर

संस्कृति की संतति(आत्मज) हैं

वही करो, वही सुनो

कहता जो ढिंढोरची है

शेष सब अर्थहीन मिथ्या है

$$$ चलो, दौलताबाद चलो

चले चलो।‘ (वही, पृ0 8,9)
                इस कविता में इतिहास की घटना को वर्तमान समय के लोकतंत्र से जोड़ा गया है। दौलताबाद’  शासन का केन्द्र है। वहीं से शासन चलाया जाता है। सत्ताधारियों के हित के लिए। उनके हितैषियों के लिए। मिथ्या विज्ञापन प्रसारित किए जाते हैं। जन-गण-मन को भ्रमाने के लिए। चुनाव से पूर्व बड़े-बड़े स्वार्थी नेता मुखौटा लगाकर उपस्थित होते हैं जनसभा में। उनकी पार्टियों के लोग जनता से कहते हैं – चलो, चलो, चलो। देश को बचाने के लिए। हिन्दुत्व को बचाने के लिए। इस्लाम को खतरे से बचाने के लिए और जन-गण प्रायः वैसा ही करते हैं, जैसा उन्हें समझाया जाता है। लेकिन मार्कण्डेय ऐसी कूटनीति की आलोचना करके जन-गण का विवेक जागरित करना चाहते हैं। इसलिए वह कहते हैं लड़ना ही है हासिल जीवन। वह धरती पुत्रों का जगाते हुए कहते हैं कि
उसे (धरती को) दुःख है कि हम सो रहे हैं और वे कर रहे हैं नरसंहार

अपने लोगों का लहू हो रहा है बेकार

सूख रहा माटी में अजन्मा हो कर

धरती की अन्तर प्रतिज्ञा

मैं जानता हूँ

वह माँ है ऐसी जो

………लड़कों को

छाती से लगाती है

स्तन पिलाती है

कहती है जागो

और युद्धरत हो जाओे

लड़ना ही है हासिल जीवन का।‘ (वही, पृ0 10, 11)
                घनघोर विषमताग्रस्त विश्व में वर्ग-संर्घष जारी रहा है। जारी है और भविष्य में भी जारी रहेगा। रोटी-कपड़ा-मकान के लिए वंचितों का संघर्ष बदस्तूर चल रहा है। इतिहास-विधाता का विधान निरन्तर बदलता रहता है। यह बदलाव कभी सकारात्मक होता है। कभी नकारात्मक। वर्तमान समय में दुनिया विश्व के विकसित राष्ट्रों के अधीन हो रही है। ऐसे राष्ट्रों में अमरीकी साम्राज्य अग्रणी है। आज के भारतीय लोकतंत्र में अमरीकी दखल स्पष्टतः दिखाई पड़ रहा है। कांग्रेस और भाजपा दोनों अमरीका परस्त हैं। हिन्दुस्तान का इंडिया खुले आम अमरीका भक्त है। इस भक्ति ने भारत के मध्यम वर्ग एवं उच्च वर्ग को भारतीय भाषाओं और उनकी संस्कृतियों से काट दिया है। यही कारण है कि भारत में सर्वत्र सांस्कृतिक प्रदूषण परिव्याप्त है। नेता भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हुए हैं। अब जन-गण उन पर भरोसा करनें में संकोच करते हैं। जैसे साँपनाथ हैं वैसे ही नागनाथ। मानवीय मूल्यों का इतना ह्रास हो गया है कि ‘चोर’  को साहूकार’  कहा जाता है। बेईमान’  कोईमानदार’। खलनायक’  को महानायक’। खाए-अघाए अभिजन इतने भोगवादी हो गये हैं कि वे लगातार वमन करते रहते हैं। दूसरी ओर कोटि-कोटि निरन्न-निर्वस्त्र जन एकता के अभाव के कारण अभिशप्त जीवन जी रहे हैं। मार्कण्डेय अपने समय-समाज की वास्तविकता अच्छी तरह समझते थे। इसीलिए उनकी कविताओं में शोषक वर्ग की कटु आलोचना है। नेता के नगर आने पर’  वह ठीक कहते हैं- 

उनके आते ही

सारा शहर बस्साने लगता है

नावदानों के फब्बारें हवा में उछल उछल कर

अपने रंग उगलने लगते हैं

दीवारें रंगीन छिपकलियों सी

तखतियों से अट जाती हैं

नारों का झूठ बिलबिलाने लगता है

मैला ढोते गुबरैलों की तरह

चिढ़ाने लगता है मूँह

गृहस्थी का भार ढोते

बेबस लाचार नागरिकों का

एक अनचाहा आतंक रिसने लगता है

धीमे-धीमें जहर की तरह। (वही, पृ0 33)
                इस कविता ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मार्कण्डेय के मानस में घृणा की असंख्य लहरें आन्दोलित हो रही हैं और दूसरी ओर निरीह जनों के प्रति हार्दिक संवेदना। प्रेमचन्द ने बहुत पहले घृणा का सामाजिक महत्व समझाया था। यहाँ मार्कण्डेय प्रेमचन्द के विचार-बोध का अनुसरण कर रहे हैं। विरोधी भावों की अभिव्यक्ति ने कविता को उत्कृष्टता प्रदान की है। मार्कण्डेय अपनी वर्गीय जीवन-दृष्टि से दुनिया को समझते हैं। दुनिया के दुश्मनों-दोस्तों को पहचानते हैं। वह अपने दोस्तों के पक्ष में झंडा उठाते हैं और चोर को चोर कहना’  औचित्यपूर्ण समझते हैं, क्योंकि
श्रेष्ठ जन चोर को चोर

हुंकार कर तब कहते हैं

जब उस चोर का सरदार

देश का अलमबरदार हो

चाहे उसके हाथ में मोटा डण्डा हो

चाहे फाँसी का मोटा फंदा। (वही, पृ0 36)
                यह काव्यांश कवि का सत्साहन और निर्भीकता व्यक्त कर रहा है।

                मार्कण्डेय जीवन के प्रति निराशवादी नहीं अपितु आशावादी हैं। वह अँधेरा भगाने के लिए रोशनी की तलाश में संलग्न रहते हैं। अँधेरे में चीर की तरह दिखाई पड़ने वाली रोशनी को देख कर वह उल्लासपूर्वक कहते हैं –
मिल गया, मैंने कहा

मिल गया रत्न

जो काट देगा, अन्धे पहाड़ को

और मैं उस दरार मैं घुस जाऊँगा

पहले मनाऊँगा

यदि नहीं माना तो

बाँह पकड़कर

खींच लाऊँगा सूरज को। (वही, पृ0 39)
                सूरज’  सामूहिक श्रम के प्रकाश का प्रतीक है। धरती की व्यथा-कथा का समापन -दिव्य शक्ति’  नहीं कर सकती है। उसे तो ‘जनशक्ति’  ही सुख में बदल सकती है।
                समकालीन हिन्दी काव्य संसार में ऐसे अनेक सत्तामुखी कवि हैं, जो अपनी कविता को राजनीति की कीचड से दूर रखना नहीं चाहते हैं। सत्ता एसे कवियों को पुरस्कृत-सम्मानित भी करती हैं। लेकिन मार्कण्डेय न राजनीति-निरपेक्ष लेखक हैं और न ही कवि। उन्हें मालूम है कि जो कवि अपने देश-काल की जन-विरोधी राजनीति की आलोचना करता है, उसे जीवन में भयानक प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है। हिन्दी में महाकवि निराला के अलावा केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध, कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, विजेन्द्र ऐसे ही कवि हैं। विश्व कविता में ऐसे कवियों का अभाव नहीं है। मार्कण्डेय ने यही तथ्य दृष्टिगत रखते हुए सूली पर कवि’  में बेंजामिन का प्रेरक स्मरण किया है-
जब कोई बेंजामिन

जनता का प्रेम गीत गाता है

लोगों को नींद से जगाता है

बताता है प्रेयसी से

धरती की गन्ध

रूप-रंग माटी का

$$$ तब कविता, कविता नहीं रहती

वह फसल बन जाती है

गीत गाये नहीं जाते

लोगों की साँसों में

चुपके से उतर जाते हैं

वे समझ नहीं पाते

घबराते हैं

पसीने-पसीने हो जाते हैं

और चढ़ा देते हैं

कवि को सूली पर।‘ (वही, पृ0 14,15)
                वे’ सर्वनाम पद से आशय है शोषक सत्ताधारी, जो स्वयं को आलोचना से परे मानते हैं। वे तानाशाह होते हैं। परन्तु सच्चा जपनक्षधर कवि उनका प्रतिरोध प्रखर ढंग से करता है।
                अन्यायी और शोषक व्यवस्था का मूलोच्छेदन करने के लिए संघर्ष निस्तर अनिवार्य है। शक्तिशाली एवं साम्राज्यवादी राष्ट्र, यथा-अमरीका, अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए युद्ध का भयंकर उद्घोष कर देता है। ऐसे युद्धों से निरीह मानवता की अपूरणीय क्षति होती है। अतएव मार्कण्डेय युद्ध’ के उज्ज्वल पक्ष का समर्थन करते हैं –
युद्ध सिर्फ लड़ाई नहीं है

क्योंकि युद्ध न्याय के लिए

अस्मिता की रक्षा के लिए

समानता और स्वाधिकार के लिए

शोषकों, जालिमों, हत्यारों के

विरूद्ध

लड़ी जाने वाली लड़ाई का नाम है।

$$$$$$ युद्ध के गीत हैं

मोलाइस, निराला

नजरूल, नेरूदा और नाजिम हिकमत

युद्ध का वैभव हैं

 $$$$ युद्ध का कोई धर्म नहीं होता

जात-पाँत देश भाषा कुछ भी नहीं

युद्ध आग के समान पवित्र है

जो लोहे को सिझाता है, करता है

अपनी ही तरह लाल और गर्म

सिर्फ जय में ही नहीं

पराजय में भी!(वही, पृ0 12,13)
वर्तमान काल में युद्ध विश्व मानवता के लिए घातक अभिशाप माना जाता है। लेकिन शोषितों-वंचितों के अधिकार के लिए युद्ध अभिशाप नहीं अपितु वरदान है। यह कविता वक्तव्य प्रधान है, लेकिन इसकी रचना-प्रक्रिया के मूल में करूणामूलक सात्विक क्रोध है। इसलिए यह उत्कृष्ट कविता है।

मार्कण्डेय की चौकन्नी दृष्टि से हिमालय और घूर’  दोनों को देखते-परखते हैं। दोनों में समानता तलाशते हैं। अपना ध्यान गाँव-गाँव में घुरों पर विशेष रूप से केन्द्रित करते हैं। क्या कारण है कि गाँव आज तक स्वच्छ और सुन्दर क्यों नहीं पाए हैं। वह ठीक चित्र अंकित करते हैं –
घूर तो बेचारा है

पड़ा हुआ, अतिमन्द

बच्चों की छी-छी, पीव, मवाद की पट्टियाँ

राख, कूड़ा, ऊपर से कुत्ते और बिल्लियों के मूत्र से सिंचित

गोबर और गोबर

लेकिन यह भी ठोस

स्थिर और काम्य

रूपाकार में हिमालय जैसा साम्य है

निःसंग, निरावृत्त

टिका है जन मानस में

वैसे ही

जैसे टिका है हिमालय। (वही, पृ0 65)
इन पंक्तियों में भारतीय गाँव का चित्र अंकित किया गया है। यथार्थवादी दृष्टि से। मूत्र से सिंचित’ पदबंध अज्ञेय का स्मरण करा रहा है। ‘मूत्र-सिंचित मृत्तिका के वृत्त में।, खास बात यह है कि मार्कण्डेय ने अपनी अन्तर्दृष्टि से हिमालय और घूर में समानता तलाश की है। उस के बारे में बताया है –
टिका है जन-मानस में

वैसे ही

जैसे टिका है हिमालय।
मार्कण्डेय यह भी जानते हैं कि राजधानीके अनेक स्वनामधन्य एवं तथाकथित बड़े कवियों ने अपनी लेखनी को सत्ता के लिए समर्पित कर दिया है। युवा कवि भी उन्हीं का अनुकरण करते हैं और कर रहे हैं। कविता’  में यही कटु वास्तविकता व्यक्त की गई है। यह रचना संवाद शैली में है। वह अपनी रोजी-रोटी के लिए सत्ता के सामने घुटने टेक कर कहता है –
नौकरी के लिए हुजूर

जैसी भी हो

जहाँ हो, फौरन चला जाऊँगा

हुक्म बाजा लाऊँगा’

फिर कविता का

क्या होगा।‘

उस ने पूछा

कविता का…

कविता का क्या होना है

रहेगी वह

राजी-खुशी रहेगी

गुह-मूत करेगी

दुख दर्द सहेगी

कुछ नहीं कहेगी।(वही, पृ0 66)
                यह है समकालीन कविता का कुरूप, जो राग दरबारी गाया करता है। दिल्ली दरबार को रिझाता है। छुटभैये कवि नामवर जनों की चरण-वन्दना करके एवं पुरस्कार हासिल करके स्वयं को मौलिक कवि समझने लगते हैं। ऐसे कवियों की कविता नखदन्त विहीन हो जाती है। अन्ततोगत्वा ऐसे कवि इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिए जाते हैं। इतिहास साक्षी है पंत जी की तुलना में निराला को क्यों महान कवि माना जाता है। अथवा रघुवीर सहाय और श्रीकान्त वर्मा की तुलना में केदार-नागार्जुन-त्रिलोचन महत्त्वपूर्ण क्यों हैं। इसी प्रकार अज्ञेय की अपेक्षा मुक्तिबोध क्यों महान हैं। आप स्वयं निर्णय कीजिए।
                मार्कण्डेय उन कवियों की आलोचना करते हैं, जो स्वयं देश की राजधानी देहली को पार करके अन्दर जाना चाहते हैं। किसी वरिष्ठ मंत्री’  के समक्ष। वह मंत्री अपनी गोपनीय डायरी में लिखता है –
जब अस्तित्व का बोध खो जाता है

मैं और उसके साथी उसी में जी रहे हैं।

कभी गिरते हुए

कभी चढ़ते हुए

सच तो यह है कि

हम सब कहीं उस एक से अनुभव में हिस्सा बँटा रहे हैं

एक सन्नाहट में जी रहे हैं

वे जो चोटी पर है

वे भी जो चोटी के नीचे खड़े ताकते हैं

चोटी को टुकुर-टुकुर।(वही, पृ0 32)
                आशय यह है कि राजनीति में कुछ भी सुनिश्चित नहीं है। जो चोटी पर खड़े हैं, वे भी आशंकित हैं और जो नीचे खड़े हैं, वे भी उस चोटी के लिए लालायित रहते हैं। ऐसे अनिश्चित माहौल में सत्तामुखी कवि क्या जनपक्षधर हो सकता है। नहीं। श्रीकांत वर्मा का मोहभंग इस का प्रमाण है।
                उपर्युक्त भाव-भूमि पर रचित एक और कविता कवि-सभा’  भी उल्लेखनीय है। इस सभा में नागार्जुन, शमशेर, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय, सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, अरूणकमल, राजेश, मनमोहन, विकल, डबराल, सोमदत्त, देवताले, केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण, अपनी-अपनी भाव-भंगिमा से विराजमान हैं और खड़े हैं। मुक्तिबोध सीमान्त पर खड़े हैं। बाबा अपने ढंग से ढोल की पाल खोल रहे हैं।
तभी सहसा फाड़ कर

आँखों के पर्दे

धूमिल किसी मानव शरीर को

(जिसे कह सकते हैं राजकमल)

कंधे पर उठाए

आ धमका बीच में

कहने लगा-

नामवर स्वायत्ता की

ढोल के पोल में घुस गए हैं

गाहे-बगाहे, तुक-ताल देख कर

दल की चमड़ी, उठाते हैं

अब कविता को एक नए वकील की जरूरत है

पीछे की अदालत में

उस पर मुकदमा है

दावा है उसमें कि

वह व्यवस्था की दलाल वेश्याओं के दरवाजे पर ताक-झाँक करती है

इनाम-इकराम के लिए

अवसर की तलाश में

छिनाल होती जा रही है

हाव-भाव दिखाती है

नखरे पाटती है।(वही, पृ0 29,30)
                नामवरी स्वायत्तता की ऐसी तीखी आलोचना कविता में और अन्य कवि ने की है? शायद नहीं। विगत वर्षों में कई साहित्यकारों ने छिनाल’  विशेषण का प्रयोग अपने अहम् की संतुष्टि के लिए किया था। लेकिन इस प्रयोग से पहले सन् 1987 में, चाटुकारी एवं सत्तामुखी कविता को छिनाल मार्कण्डेय ने ही कहा था। उन का कथन आज भी खरा है, क्योंकि ऐसी छिनाल’  कविता का अभाव नहीं है। आज कविता की आलोचना के लिए लोकधर्मी दृष्टि की आवश्यकता है। स्वायत्तता’  की नहीं। स्वायत्तता’  तो कविता को लोक से अलग करके उसकी निरर्थक आलोचना करती है। ऐसी आलोचना बहुत खतरनाक है, क्योंकि वह कविता के जीवन-स्रोतों की उपेक्षा करती है। मार्कण्डेय ने स्वायत्तता’  का प्रयोग करके नामवरी आलोचना पुस्तक कविता के नए प्रतिमान’  की भी आलोचना की है। उसे नकार दिया है। धूमिल के द्वारा। है न मजे़दार बात।
                संकलन के पहले भाग में सन् 1980 के दशक की कविताएँ संकलित हैं। लगभग बयालीस कविताएँ। अब तक जिन कविताओं की चर्चा-विवेचना की गई है, वे इसी दशक की हैं। दो-तीन कविताएँ ऐसी भी हैं, जिन के अर्थ-बोध के लिए मानसिक व्यायाम करना पड़ता है। यथा-
तुम कुछ वैसी हो कविता। और काल चक्र। प्रूफ की भयंकर भूलों के कारण अर्थ-बोध में बाधाएँ उपस्थित हो जाती हैं।
                बया और कौवा पढ़ कर लघु कहानी का आभास होता है और बया की लाचारी का भी। नया वर्ष, गया वर्ष, मेरे गुलाब, बीते कितने वसन्त, इस देश-काल में, कहाँ गयी धार, घर इस तरह बना, हल्ला उठाओ, काल-बोध, समय, किरण और दृष्टि, बात बस इतनी सी, काल-चक्र, पहला पत्थर शीर्षक कविताएँ भाव एवं विचार वोध से समन्वित हैं। इनमें आत्मीयता भी है और कहीं-कहीं तीखा व्यंग्य भी। अपने समय की राजनीति पर। पेड़ पर घर’  कविता अज्ञेय के उस घर का स्मरण करा रही है, तो पेड़ पर बनवाया गया था। कविता-पाठ के लिए। लेकिन अज्ञेय की अभिलाषा पूरी नहीं हो सकी थी शायद। इस कविता के अन्त में मार्कण्डेय सर्तक भाव से पूछते है-
‘तुम तो महत्तर थे

कवि, शब्द शिल्पी

पेड़ तो बन्धु है धरती के नाते से

फिर उस के कन्धे पर घर क्यों? (वही, पृ0 61)
पिता कविता ज्ञाररंजन की कहानी पिता की याद जगाती है और पिता का हत्यारा’  आत्म-ग्लानि।
उपर्युक्त कालावधि में रचित लघु कविता पहला पत्थर’  मार्कण्डेय के सहृदय कवि की संवेदन शीलता का उत्तम प्रमाण है और नत्थू गवैया और हरिहर नचनियाँ’  आत्मीयता और स्थानीयता का सबूत है।
संकलन के दूसरे भाग में सन् 1952 से 54 के बीच की असंकलित कविताएँ हैं। इक्कीस कविताओं में अन्तर्वस्तु और काव्य-रूप एवं भाषाई रचाव की दृष्टि से प्रशंसनीय विविधता है। गीत भी है और मुक्त छन्द में रचित लयात्मक कविताएँ भी। प्रेम भाव के साथ-साथ मानवीय करूणा भी।
उस दिन जब तुम गई

प्यार की बातें कितनी हुई

 में दाम्पत्य प्रेम की सहज सुन्दर अभिव्यक्ति है। खलिहान’  में किसान की सम्पन्नता और विपन्नता का द्वन्द्व है, जिसके मूल में मानवीय करूणा है और उसकी आत्म-ग्लानि भी। कलम’ शीर्षक गीत में आत्म-समीक्षा के साथ-साथ श्रमशील लोक से जुड़ने का संकल्प है। मैं जो इंसान हूँमैं इंसानी दुनिया बसाने का सुनिश्चय है। ‘कलम का ईमान’  में कवि-लेखक के लोकपरायण होने का उल्लेख है। कवि-लेखक कलम के सिपाही’  हैं। इसलिए कविता के अन्त में कहा गया है
‘यह लड़ेगी

और लड़ती रहेगी

जब तक इस धरती पर

उमड़ता हुआ इंसान

उस का सहारा चाहता है

वह धरती की पुकार है

आसमान की उड़ान नहीं

यह जिन्दगी की पैरोकार है

बेजान की तलवार नहीं। (वही, पृ0 103)
एक होगा सारा संसार में कवि ने अपनी वैश्विक जीवन-दृष्टि से सारे संसार को देखा है। ‘मंजिल’ में गतिशीलता का संदेश है। ‘सजन घर आये’  गीत लोक गीत से अनुप्राणित है। ‘मुझे उबारो’ में खिन्नमना दीन-दलित को करूण पुकार है। कविता वाचक दीनता – भरे सुर में कहता है –
‘मुझे उबारो

मैं कीचड़ के बीच फँसा हूँ

मेरी साँसें

मेरा जीवन

मेरा तन मन

सब भारी है

जैसे काई गन्दा और

घिनौना कीचड़

इन सब की तह तह में

कसकर ठूँस उठा है

मुझे सँभारो

अपनी कोमल गरम गदोरी से

छूलो ये पंकिल बाँहें

शायद पावनता में

कोई छूत हो

जो मेरे जीवन को

प्राण दे सके

जो मेरी पापी काया को

त्राण दे सके।(वही, पृ0 118)
वाचक का यह अनुनय-विनय पाठक के मानस में करूणा जगाता है। यह कविता दलित जीवन’  से साक्षात्कार कराती है। निराला की पंक्तियाँ याद आ रही हैं-
दलित जन पर करो करूणा

दीनता पर उतर आये

प्रभु! तुम्हारी शक्ति अरूणा।
मार्कण्डेय प्रभु से प्रार्थना न करके इतिहास-विधाता के काल-चक्र’  की गति देखते-परखते हैं और दलित जनों को समझाते हैं कि
‘मैं ही बताऊँगा वह सब

जो कहीं नहीं लिखा है

काले अक्षरों की स्याह दरिया में

जो झूठ के सफेद बुलबुले

दिखते हैं, वे बस दिखते हैं

हैं फफोले/जो फूट जाएँगे

$$$$ ज्यादा कुछ ऐसा ही है

जो छाया है संस्कृति रूपी

घटाटोप बादलों की तरह

तुम्हें बहलाने के लिए, लोरियों से लेकर

मृत्युगीतों तक बेपनाह

विस्तार में तुम्हें पहचानना होगा

अपना गीत। (वही, पृ0 79,80)
दलित-शोषित जन भी अपने अनुभवों से जीवन की वास्तविकता स्वयं समझ जाते हैं।
रूसी माँ का शान्ति-सन्देश’  में मार्कण्डेय का अन्तरराष्ट्रीय सद्भाव व्यक्त हुआ है, जो शान्ति के लिए परम अनिवार्य है। रूसी माँ विगत युद्ध की महाअग्नि के होम में समिधा बने अपने बेटों को याद करके कहती है –
जब तुम वापस जाना

भारत की ललनाओं से कहना

मेरा यह सन्देश

धरती की छाती पर धरती के बेटों का

खून न बहने पाये

सारी मानव जाति एक है

युद्ध न होने पाए। (पृ0 93)
संकलन के तीसरे भाग में मार्कण्डेय के पहले काव्य-संकलन सपने तुम्हारे थे’  (सन् 1956) की कविताएँ संकलित हैं। इन का रचना-काल 1952 से 1956 तक है। इन कविताओं में युवा मार्कण्डेय की प्रेमल भावनाएँ व्यक्त हुई हैं। अन्य भाव भी व्यक्त हुए हैं, जो कवि के सर्जनशील व्यक्तित्व को समष्टि से जोड़ते हैं। युवा मार्कण्डेय को महसूस होता है कि
बालू से माटी की छाती

सचमुच बहुत कड़ी है।(पृ0 125)
और ‘जीवन’ धरती माँ का वरदान है। लेकिन अभी सभी पूतों का जीवन
‘दुख से पूर

तमसावृत निशा में

एक धूमित (धूमिल) आग-जिज्ञासा लिये नतशीश है।
लेकिन कवि को आशा है कि
‘व्यवधान टूटेगा, छटेगा मोह

फिर स्रोतस्विनी – सी बह चलेगी

मानवी संसृति

जननि! जीवन जीव का तात्पर्य होगा

अभी तो धूरियों में घूमता रथ-चक्र है।(पृ0 127)

जीवन’  जीव का तात्पर्य हो जाएगा। क्या आशय है इसका। कवि ऐसे समाज का सपना देख रहा है कि भावी समाज ऐसा हो, जहाँ जीव मात्र भय-मुक्त हो। निर्द्वन्द्व हो। स्वतंत्र हो।
यह सपना साकार करने के लिए संघर्ष निरन्तर करना होगा। पथ के रोड़े’ सँवारने होगें, क्योंकि
ये पथ के रोड़़े हैं

इन की बातें बहुत बड़ी हैं

ऊपर से चिकने

पर इन की छाती बहुत कड़ी है

कितनों को मंजिल से रोका

कभी नहीं पछताये

फिर भी अपनी आदत से

अब तक ये बाज न आये

इनकी साँसें तोड़ न देना

ये पत्थर के टुकड़े

इन पर टाँकी मारो

खून पसीना आँसू दे कर

इन्हें सँवारो। (पृ0 133)
यह कविता पढ़कर एक सवाल सामने खड़ा हो रहा है कि रोड़ो को सँवारने की बात क्यों कही गई है। वस्तुतः रोड़े’  पद श्रमशीलजनों का प्रतीक है। महत्वाकांक्षी व्यक्ति को अपने गन्तव्य तक पहुँचाने के लिए पथ के रोड़ो का सामना करना पड़ता है। वह उन्हें हटाना चाहता है। लेकिन वे हठीले होते हैं। सभ्यता-संस्कृति की रचना में श्रमशील जनों की भूमिका सर्वोपरि होती है। अतः उन्हें सँवारना अर्थात् सचेत करना अनिवार्य है। उनकी संगठित शक्ति ही समाज को बदल सकती है। चिकने रोड़े शत्रु पर प्रहार भी कर सकते हैं और परास्त भी। इन्हें सँवारने का काम मध्यम वर्ग कर सकता है। अपने व्यक्तित्व का रूपान्तरण करके।
याद का सरसिज’  उत्कृष्ट प्रेम कविता है,  जो युवा कवि की भावनाओं से साक्षात्कार कराती है। लेकिन याद का सरसिज कभी-कभी नहीं खिलता है। इसलिए कवि कहता है-
अब हवा है सर्द
पानी की सतह
जम कर हुई है वर्फ
ऊसर भूमि पर
जैसे जयी हो चाँदनी की पर्त
सूना है सरोवर
सलिल की कोख है सूनी
याद का सरसिज खिले क्यों
जब तुम्हीं हो
और अपनी याद है।(पृ0 128, 129)
यह है कवि का सात्विक अनुराग, जो अज्ञेय की प्रेम-भावना से अलग है। मार्कण्डेय के प्रेम में उद्दाम मनोकामना की उत्तप्त व्याकुल पुकार नहीं है। तुम कहाँ हो नारि’। अपितु स्वयं को परिष्कारने की अभिलाषा है। उनका प्रेम उन्हें संघर्ष के लिए दृढ़ संकल्पी बनाता है। यथा –
मुझे तुमने सीपियों मे देखा है
सतरंगी लघु किरणों में
$$$ नहीं देखा तुम ने किन्तु
टूटी चट्टानों की
शोख शमित धारों को
$$$ पैना मुझे कर दिया
इसलिए जागृत हूँ
टूटा हूँ
लेकिन समाहत हूँ
आऊँगा
तट का अभिलाषी मुक्त नागरिक हूँ। (पृ0139)
जीवन की उत्ताल तरंगों से संघर्ष करता हुआ मुक्त नागरिक’  प्रेम के तट पर पहुँचना चाहता है। उल्लेखनीय है कि मार्कण्डेय ने स्वाधीन एवं स्वतंत्र जीवन जिया था। अपनी शर्तों पर। उनकी संघर्ष मूलक उदात्त भावना तुम्हारी याद में’ भी व्यक्त हुई है-
वंचना का दुर्ग यह, गतिरोध की दीवार,
प्राण मेरे छीन कर, सकती न मुझको भार।
मैं रहूँगा विश्व के तम में जलन के साथ,
मैं उठूँगा एक दिन विश्वास धर कर माथ।।‘ (पृ0 144)
               
कहने की आवश्यकता नहीं है कि वंचना का दुर्ग’  अज्ञेय का स्मरण करा रहा है। सन् 1950 के दशक में हिन्दी के नए कवि अज्ञेय का अनुसरण कर रहे थे। उस समय प्रयोगवाद की धूम थी। परिमलवादियों का शोर था। प्रगतिशील शक्तियों का प्रतिरोध था। उस समय मार्कण्डेय प्रेमचन्द और निराला की भावधारा एवं विचारधारा में अवगाहन करके उन्हें अग्रसर कर रहे थे। उन्होंने एक कविता चींटी, ततैया और इंसान’  में लघु बोध-कथा का कलात्मक निबन्धन किया है। प्रतिरोध की भावना से प्रेरित होकर। कविता का अन्तिम अंश पढ़िए –
‘क्षुब्ध चींटी
ततैया संतप्त
दोनो कर रही थीं बात’
क्या यह आदमी था?
जो हमारे साथ यों बैठा हुआ चुपचाप, बेबस ऊँघता-सा तप रहा था
और बेअंजाम
अपनी जाति ही की खा रहा था लात
मैं तो काट लेती
मैं तो वीन्ह लेती।  (पृ0 142
)
मौन’  शीर्षक कविता पढ़कर घनानन्द अनायास आते हैं। विरही विचारन की मौन मैं पुकार है।‘ मार्कण्डेय भी कहते हैं – ‘आह! तेरे छोह की/ऐसी कथा है/और मेरे मौन की/तैसी व्यथा है।(पृ0 148)
                संकलन के तीसरे भाग में प्रायः लघु कविताएँ हैं, लेकिन एक अनतिदीर्घ कविता भी है। कल्पना का लिखित यक्ष। कालिदास के मेघदूत’  की स्मारिका। इस में जीवन की व्यथा-कथा अधिक है। समष्टि के जीवन की कथा। यह कविता अभिनव भाव-भंगिमा से प्रारम्भ होती है और जीवन-प्रसंगों की दुखद घटनाओं से परिचित कराती है। पाठकों से अनुरोध है कि वे स्वयं यह कविता पढें।
                सम्पूर्ण संकलन पढ़ने के उपरान्त कुछ निष्कर्ष उल्लेखनीय हैं। सन् 1950 के दशक में अज्ञेय-पंथी अधिक सक्रिय थे। उनकी अधिकतर अबूझ कविताओं की तुलना में मार्कण्डेय की कविताएँ अधिक सम्प्रेषणीय हैं। संकलित कविताओं में कुछ छान्दस हैं। कुछ गीतात्मक हैं। कुछ मुक्त छन्द में हैं। परम्परागत हरिगीतिका छन्द को मुक्त छन्द’  के रूप में अपनाया गया है। मुक्तिबोध के समान। भाषाई रचाव में तत्समता, तद्भवता ओर बोल-चाल की उर्दू शब्दावली का औचित्यपूर्ण सम्मिलन है। भाषिक, संरचना में यदि पंत जी की कोमलकान्त पदावली है तो निराला का ओजगुण भी है और भदेसपन भी। नागार्जुन जैसी सादगी के साथ-साथ व्यंग्य की तीखी धार भी है और त्रिलोचन की स्थनीयता भी। केदारनाथ अग्रवाल के समान श्रमशीलता का समादर है। सारांश यह है कि काव्य-भाषा में लयात्मकता और वक्तव्यता के साथ-साथ अलंकृति का सहज समावेश है। परम्परा से जुड़ाव भी है और समागम की अग्रगामी सोच का समावेश भी।
                यह संकलन पढ़ कर आज के बौने कवि अच्छी कविता रचना सीख सकते हैं। यह भी कि वे कितने गहरे पानी में हैं। स्वतंत्र हैं अथवा परतंत्र? दब्बू हैं अथवा दबंग।
                लेकिन प्रूफ की असंख्य भयंकर भूलों ने कविताओं का भाषाई सौन्दर्य विकृत कर दिया है। इस से गुड़ गोबर हो गया है। यदि सभी भूलों का उल्लेख किया जाए तो एक पृष्ठ तो भर जाएगा। यहाँ केवल एक कविता की भूलों की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है। कविता है कवि सभा’। (पृ0  26 से 30 तक)
ऐसी असंख्य भूलों के लिए सम्पादक और प्रकाशक दोनो जिम्मेदार हैं। इससे हिन्दी का गौरव घटेगा। इस पुस्तक का अगला संस्करण निकालते समय सम्पादक महोदय को इस तरफ सतर्कतापूर्वक ध्यान देना होना। 

सम्पर्क-

मोबाईल-  08533968269      

आत्मा रंजन के कविता संग्रह ‘पगडंडियां गवाह हैं’ पर अमीर चन्द्र वैश्य की समीक्षा

आत्मा रंजन का पहला ही कविता संग्रह ‘पगडंडियां गवाह हैं’ अपनी विविधवर्णी कविताओं की वजह से सशक्त एवं महत्वपूर्ण बन पड़ा है। जनपदीय सुगन्ध के साथ-साथ इन कविताओं में उन लोगों के श्रम का ताप भी स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है जिनके बिना इस दुनिया की कल्पना ही नहीं की जा सकती। वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य ने आत्मा रंजन के इस महत्वपूर्ण संग्रह पर एक विस्तृत आलेख पहली बार के लिए लिख भेजा है। तो आईए पढ़ते हैं यह आलेख ‘कविताएं पगडंडियों पर।’

    

कविताएं पगडंडियों पर

अमीर चंद वैश्य

सानेट-स्रष्टा कवि त्रिलोचन युवा कवियों से संवाद करते हुए समझाया करते थे कि यदि आप कवि के रूप में अपनी अलग पहचान बनाना चाहते हैं तो अपनी जन्म भूमि और जनपद के लोक जीवन और परिवेश का वर्णन चित्रण कीजिए। अनपढ़ लोगों से बोलचाल की भाषा सीखिए और उन स्थानीय शब्दों का समुचित प्रयोग अपनी काव्य भाषा में कीजिए। त्रिलोचन का काव्य इस वैशिष्ट्य से युक्त है। उन्होंने अपनी काव्य भाषा को अवधी के अनेकों शब्दों से समृद्ध किया है। उनका ‘अमोला’ तो अवधी में ही रचा गया है। परम्परागत छंद बरवै का प्रयोग उन्होंने सबसे अधिक किया है। तुलसी और रहीम के बाद। बरवै छंद में उन्होंने अपने जनपदीय जन जीवन को अनेक रूपों में प्रत्यक्ष किया है।

समकालीन हिंदी कविता संसार के जो कवि सर्जना में संलग्न हैं, उनमें अनेक कवि अपने स्थानीय जन जीवन को कविता में रूपायित कर रहे हैं। वरिष्ठ कवियों में विजेंद्र का नाम अग्रगण्य है, जिनके काव्य में बदायूं जनपद के गांव धरमपुर का संपूर्ण परिवेश पात्रों के चरित्र के रूप में भी व्यक्त है। राजस्थान का भरतपुर तो उनके काव्य में सर्वाधिक व्यक्त हुआ है। उसका प्रमाण उनकी चरित्र प्रधान लंबी कविताएं है। ब्रज जनपद और मरू भूमि की बोलचाल की भाषा के अनेकों शब्दों ने उनकी काव्य भाषा को अभिनव भंगिमा प्रदान की है।

और समकालीन कवियों में सुरेश सेन निशांत, केशव तिवारी, महेश पुनेठा, आत्मा रंजन, रेखा चमोली आदि ने भी अपनी-अपनी कविताओं में जनपदीय जनजीवन की सक्रियता का निरूपण किया है।

सुरेश सेन निशांत और आत्मा रंजन हिमाचल प्रदेश के युवा कवि हैं। दोनों ने सहर्ष स्थानीयता का वरण सर्वप्रथम किया है। आत्मा रंजन का काव्य संकलन ‘पगडंडियां गवाह हैं’ मेरे सामने है। इस संकलन की सभी कविताएं निश्छंद में हैं। लेकिन लयात्मक हैं। कवि ने छोटे-छोटे वाक्यों की रचना कर अपने अनुभवों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति की है। संग्रह की अंतिम कविता तुम्हारे खिलाफ मित्र रजनीश शर्मा के लिए संबोधित है –

तुम्हारे खिलाफ

सुन नहीं सकता मैं

एक भी शब्द

सोच भी नहीं सकता

सिर्फ बोल सकता हूं

जी भर कर

तुम्हारे सामने

तुम्हारे खिलाफ। (पृ. 104)

इस कविता में प्रयुक्त वाक्यांश सुन नहीं सकता मैं और सिर्फ बोल सकता हूं आत्मा रंजन का प्रगाढ़ मैत्री भाव व्यक्त कर रहे हैं। अन्य व्यक्ति द्वारा की गई अपने मित्र की कटु आलोचना तो कवि को अत्यंत अप्रिय है। लेकिन वह स्वयं अपने मित्र रजनीश शर्मा के खिलाफ बोलने का साहस रखते हैं। मित्र की भलाई के लिए। उपर्युक्त दोनों वाक्याशों में क्रिया पदों का प्रयोग प्रारंभ में करके उन्हें अभीष्ट प्रभाव से अन्वित किया गया है। यह कविता कवि की निपुणता का अच्छा सबूत है।

एक और छोटी कविता पढ़िए। ध्यानपूर्वक। कविता का शीर्षक है रास्ते। यह कविता स्थानीयता की ओर संकेत कर रही है-

डिगे भी हैं

लड़खड़ाए भी

चोटें भी खाईं कितनी ही

पगडंडियां गवाह हैं

कुदालियों, गैंतियों

खुदाई मशीन ने नहीं

कदमों ने ही बनाए हैं

रास्ते। (पृ. 36)

इस कविता के रास्ते मैदानी नहीं अपितु पहाड़ी हैं रास्तों के निर्माण में नाना प्रकार के उपकरणों और मशीनों का प्रयोग किया जाता है। पहाड़ी रास्तों अथवा सड़कों के निर्माण में उन श्रमिकों का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, जो पगडंडियों पर आया-जाया करते हैं। अपने-अपने निवास स्थान से। कविता में प्रारम्भिक तीन वाक्य क्रियापदों से युक्त हैं। पगडंडी पर बार-बार चल कर निर्माण स्थल तक पहुंचने में कितना पसीना बहाना पड़ता है, इसका अनुमान अनायास लगाया जा सकता है। उपर्युक्त कविता में कवि ने श्रम का महत्व व्यक्त किया है। समकालीन कविता में क्रियाशीलता के वर्णन को वरीयता प्रदान की जा रही है। इसके लिए कर्म सौंदर्य का निरूपण अनिवार्य है। अब तक जो प्रगति हुई है उसे मानवीय श्रम ने पूर्ण किया है। मशीनों को चलाने के लिए किसी विशेषज्ञ की आवश्यकता अनिवार्य है। मशीन सोच विचार नहीं कर सकती है। लेकिन क्रियाशील श्रमी का मन सोच-विचार कर सकता है।

श्रम का और महत्व अभिव्यक्त करने के लिए आत्मा रंजन ने अनेक प्रभावपूर्ण कविताएं लिखी हैं। जनपदीय वैशिष्टय के साथ। संकलन की पहली कविता कंकड छांटती में घरेलू महिला के श्रम पर ध्यान केंद्रित किया गया है-

अति व्यस्त दिन की

सारी भागमभाग को धता बताती

दाल छांटने बैठी है वह

काम से लौटने में विलंब के बावजूद

तमाम व्यस्तताओं को खूंटी पर टांग दिया है उसने। (पृ. 09)

लेकिन पुरूष को यह कार्य अनावश्यक लगता है और जब वह घर में अनुपस्थित रहती है तो-

उसकी अनुपस्थिति दर्ज होती है फिर

दानों के बीचोंबीच

स्वाद की अपूर्णता में खटकती

उसकी अनुपस्थिति

भूख की राहत के बीच

दांतों तले चुभती

कंकड़ की रड़क के साथ….

एक स्त्री का हाथ है यह

जीवन के समूचे स्वाद में से

कंकड़ बीनता हुआ। (पृ. 10)

कविता की अंतिम पंक्तियों में स्त्री का हाथ अनिवार्य सहयोग के रूप बदल जाता है, जो जीवन के  संपूर्ण स्वाद के लिए कंकड़ छांटती रहती है। यहां कंकड़ पद प्रतीक में रूपांतरित होकर जीवन के कष्टों की ओर संकेत कर रहा है। मनुष्य मात्र के जीवन में औरत के प्रेम की आंच से क्या असर पड़ता है, उसे आत्मा रंजन ने औरत की आंच, कविता में निपुणता से वर्णित किया है और बताया है –

जरूरी है आग

और उससे भी जरूरी है आंच

नासमझ हैं, समझ नहीं रहे वे

आग और आंच का फर्क

आग और आंच का उपयोग

पूजने से जड़ हो जाएगी

कैद होने पर तोड़ देगी दम

मनोरंजन मात्र नहीं हो सकती

आग या आंच

खतरनाक है उनकी नासमझी। (पृ. 14)

आशय यह है कि औरत के प्यार की आंच जीवन के लिए अनिवार्य है। उसे पूजना अथवा कैद करना उसकी क्रियाशीलता को समाप्त करना है। कवि ने इस कविता के माध्यम से नारी की स्वतंत्रता का समर्थन किया है। ऐसी स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं है, अपितु कर्मठ आत्मीयता है। उसे नियमों की जंजीर से बांधना नासमझी है।

लेकिन ऐसा सदैव होता नहीं है। लड़की के व्यक्तित्व में किसी भी प्रकार की कभी मनोग्रंथि का कारण बन जाती है। हंसी वह कविता में कवि ने यही वास्तविकता व्यक्त की है। जी खोल कर हंसने वाली वह लड़की अचानक सहम जाती है। क्यों।

इसलिए कि ऐसे हंसना नहीं चाहिए था उसे

वह एक लड़की है

उसके उपर के दांत

बेढ़ब हैं

कुछ बाहर को निकले हुए। (पृ. 16)

लड़की का अचानक यह सोचना कि वह एक लड़की है, समाज की दुष्ट प्रवृति की ओर संकेत कर रहा है, जो लड़की के किसी भी दोष को कुदृष्टि से देखती है। कवि ने कलात्मक ढंग से पुरूष वर्चस्व की आलोचना की है। श्रमशील जनों की यह विशेषता है कि अपनी पृथ्वी के प्रति उनका स्वाभाविक अनुराग होता है। वैदिक साहित्य में कहा गया है कि माता मेरी भूमि है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूं। आत्मा रंजन ने पृथ्वी पर लेटना कविता में ठीक कहा है कि पृथ्वी पर लेटना/पृथ्वी को भेंटना भी है। ऐसी क्रियाशीलता केवल श्रमिकों और कृषकों में लक्षित होती है। अभिजात वर्ग में कभी नहीं दिखाई पड़ती है। हां, मृत्यु के बाद वो सभी माटी में विलीन हो जाते हैं, परंतु जीते हुए वे ही पृथ्वी पर लेटा करते हैं, जो धरती पर श्रम करते हैं।

कवि ने पृथ्वी के प्रति श्रमिकों का ऐसा ही अनुराग व्यक्त किया है –

पूरी मौज में डूबना हो

तो पृथ्वी का ही कोई हिस्सा

बना लेना तकिया

जैसे पत्थर

मुंदी आंखों पर और माथे पर

तीखी धूप के खिलाफ

धर लेना बांहें

समेट लेना सारी चेतना

सिकुड़ी टांग के त्रिभुज पर

ठाठ से टिकी दूसरी टांग

आदिम अनाम लय में हिलता

धूल धूसरित पैर

नहीं समझ सकता कोई योगाचार्य

राहत सुकुन के इस आसन को। (पृ. 13, 20)

यह विश्राम की वह अवस्था है, जो कठिन परिश्रम के बाद अनिवार्य है। कवि की वर्णनात्मकता सहज बिंबों से स्वतः अन्वित हो गई है। उपर्युक्त कवितांश पढ़कर दुष्यंत कुमार का शेर याद आ रहा है-

कहीं पै धूप की चादर बिछा के लेट गए,

कहीं पै शाम सिरहाने लगा के लेट गए।।

रंजन की यह कविता चार भागों में विभक्त है। अतः अन्य कविताओं की तुलना में कुछ लंबी है। कविता के तीसरे भाग में कवि ने मुहावरेदार भाषा में अपनी कथन-भंगिमा को आलोचना के सुर से जोड़ दिया है-

मिट्टी में मिलाने

धूल चटाने जैसी उक्तियां

विजेताओं के दम्भ से निकली

पृथ्वी की अवमानना है

इसी दम्भ ने रची है दरअसल

यह व्याख्या और व्यवस्था

जीत और हार की। (पृ. 21)

यहां कवि ने इतिहास की परिघटनाओं पर आलोचनात्मक टिप्पणी की है। साथ ही साथ आज की साम्राज्यवादी कूटनीति पर भी। कवि ने स्पष्ट शब्दों में यह अभिमत व्यक्त किया है-

कौन हो सकता है मिट्टी का विजेता

रौंदने वाला तो बिलकुल नहीं

जीतने के लिए

गर्भ में उतरना पड़ता है पृथ्वी के

गैंती की नोक, हल की फाल

या जल की बूंद की मानिंद

छेड़ना पड़ता है

पृथ्वी की रगों में जीवन-राग

कि यहां जीतना और जोतना पर्यायवाची हैं

कि जीतने की शर्त

रौंदना नहीं रोपना है

अनन्त-अनन्त संभावनाओं की

अनन्य उर्वरता

बनाए और बचाए रखना। (पृ. 21, 22)

वस्तुतः यह धरती या पृथ्वी कामधेनु है, जिसे आत्मीय भाव से दुह कर मानव अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति करता है और करता रहेगा। लेकिन क्रूर पूँजी ने अपना पेट अधिक से अधिक भरने के लिए इसका दोहन बेरहमी से किया है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है। प्राकृतिक आपदाएं अचानक आती हैं और सर्व विनाश करके चली जाती है। पृथ्वी रूपी कामधेनु का विवेकपूर्ण दोहन पूंजीवादी व्यवस्था में असंभव है। समाजवादी व्यवस्था ही धरती की कामधेनु की रक्षा कर सकती है।

स्थापत्य कला के सौंदर्य संवर्धन में निपुण हाथों का योगदान अविस्मरणीय है। प्रख्यात शायर कैफी आजमी ने मानव को संबोधित करते हुए कहा है –

अपने हाथों को पहचान

क्योंकि मूरख, इनमें हैं भगवान

मुझ पर, तुझ पर, सब ही पर

इन दोनों हाथों का एहसान

अपने हाथों को पहचान

छेनी और हथौड़ी का खेल अगर ये दिखलाएं

उभरे चेहरे पत्थर में, देवी-देवता मुस्काएं

चमकें-दमकें ताजमहल।

आत्मा रंजन ने हाथों का महत्व समझकर पत्थर चिनाई करने वाले, शीर्षक प्रभावपूर्ण कविता रची है जो हिमाचल प्रदेश के स्थानीय वैशिष्ट्य से समन्वित है। पहाड़ी क्षेत्र में इमारतों और सड़कों के निर्माण में पत्थरों का ही प्रयोग किया जाता है। पत्थर काटने-छांटने में प्रवीण हाथ ही यह निर्माण कार्य पूरा करते हैं। कवि ने ऐसे शिल्पियों को निकट से का वर्णन बिम्बात्मक भाषा में किया है –

मिट्टी से सने हैं पत्थर

मिट्टी से सने हैं उसके हाथ

और बीड़ी और जर्दे की गंध से सने

और पसीने की गंध से सने

और पृथ्वी पर फूलते-फलते

जीवन की गंध से सने हैं उसके हाथ

जड़ता में सराबोर भरता जीवन की गंध

पत्थर चिनाई कर रहा है वह। (पृ. 26)

जीवन जल के समान हमेशा गतिशील रहता है। शिल्पी द्वारा निर्मित भवन में जीवन ही निवास करता है। वह आवाजाही के लिए मजबूत डंगा का भी निर्माण करता है। डंगा एक स्थानीय शब्द है, जिसका आशय रास्ते के निर्माण से है। यह कठिन कार्य है। इसे दक्ष श्रमिक ही पूरा कर सकते है। क्योंकि उन्हें तीखी ढलान की/जानलेवा साजिशों के खिलाफ, अपना काम पूरा करना होता है। इस प्रकार निर्मित मजबूत डंगा, सभ्यता-विकास के लिए सुगम मार्ग बना रहता है।

रंग पुताई करने वाले, कविता भी इन पेंटरों के श्रम का सौंदर्य प्रत्यक्ष करती है। कवि ने ऐसे निपुण पेंटरों का आत्मीय वर्णन किया है। उनके रहन सहन का। उनकी निपुणता का, उनके हस्त लाघव का, उनके सावधान हाथों का,

कितना है सधा उनका हाथ

दो रंगों को मिलाती लतर

मजाल है जरा भी भटके सूत से

कैसे भी छिंट जाए उनका जिस्म

उनके कपड़े

सुथरी दीवार पर मगर

कहीं नहीं पड़ता छींटा। (पृ. 30, 31)

और आगे उनके प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए कहता है-

कहां समझ सकता है कोई

खाया-अघाया कला समीक्षक

उनके रंगों का मर्म

कि छत की कठिन उल्टान में

शामिल है उनकी पिराती पीठ का रंग

कि दुर्गम उंचाइयों के कोनों-कगोरों में

पुते हुए हैं उनकी छिपकली या

बंदर मुद्राओं के जोखिम भरे रंग

देखना चाहो तो देख सकते हो

चटकीले रंगों में फूटती ये चमक

एशियन पेंट के किसी महंगे फार्मूले की नहीं

इनके माथे के पसीने पर पड़ती

दोपहर की धूप की है। (पृ. 31)

ऐसे पेंटरों का हुनर महंगी कला दीर्घाओं की चार दीवारी तक सीमित नहीं है। उसने तो सभी की दृश्यावलियों को खूबसूरत बनाया है अपने रंगों से। यह कविता इस वैशिष्ट्य का प्रमाण है कि आत्मा रंजन की स्वाभाविक संवेदना श्रमशील वर्ग के प्रति है। उपर्युक्त अंश के अंतिम वाक्य में कवि ने सहज भाव से आकर्षक बिम्ब सृष्टि की है। श्रम करते हुए माथे पर पसीना झलकना स्वाभाविक है। और उस पसीने पर दोपहर की धूप का पड़ना उसे और अधिक आकर्षक बना रहा है।

श्रमशील वर्ग के इस तरह के पात्रों पर आधारित कविताएं अवश्य लिखी जानी चाहिए। बल्कि श्रमशील वर्ग के प्रतिनिधि सामान्य व्यक्ति को केंद्र में उपस्थित करके उसे विशेष व्यक्तित्व प्रदान किया जा सकता है; उसे स्वयं बोलने का अवसर प्रदान कर कवि सूत्रधार की भूमिका में रहे तो नाटकीयता का समावेश संभव हो पाएगा। इस तरह द्वंद्वात्मक रूप से चरित्र का विकास भी प्रत्यक्ष होगा और सामाजिक विषमता के चरित्र की अभव्यक्ति थी; समकालीन कविता की यह एक खास प्रवृति है जिसका संवर्धन युवा कवि ही कर सकते हैं। हिंदी भाषी राज्यों में ऐसे संघर्षशील व्यक्तियों का अभाव नहीं है। ध्यान रखना चाहिए कि अब प्रबंध काव्यों की रचनाधारा क्षीण हो गई है। अतएव इसे समृद्ध बनाने के लिए चरित्र प्रधान लंबी कविताओं की अनिवार्य आवश्यकता है। ऐसी कविताएं सामयिक परिघटनाओं का आलोचनात्मक रूप प्रस्तुत करके भविष्य के लिए समतामूलक विकल्प भी प्रस्तावित कर सकती है।

सोवियत संघ के विघटन के बाद वर्तमान विश्व एक ध्रुवीय हो गया है। साम्राज्यवादी पूंजीवाद का ध्वजवाहक शक्तिमान अमरीका सर्वत्र अपना प्रमुत्व स्थापित कर रहा है। संचार क्रांति ने संपूर्ण विश्व को ग्राम में बदल दिया है, लेकिन भारत जैसे देश के गांव उपेक्षित होते जा रहे है। उदारीकरण और निजीकरण ने मालदारों को करोड़पति से अरबपति बना दिया है, लेकिन कृषि-कर्म पर निर्भर गांव अभाव ग्रस्त होते जा रहे हैं। विदेशी पूंजी और उसके साथ-साथ आने वाली विदेशी भाषा अंग्रेजी एवं उसकी अपसंस्कृति का दुष्प्रभाव इतना अधिक प्रसारित कर दिया है कि भारत का लगभग प्रत्येक गांव उसके चक्र में फंस गया है। वह अपनी अच्छी परंपराओं का पालन भी धीरे-धीरे भूल रहा है। आत्मारंजन ने एक लोक वृक्ष के बारे में शीर्षक कविता में अपना क्षोभ व्यक्त किया है। यह पहाड़ी पेड़ है, जो बावड़ियों अथवा सार्वजनिक जल स्रोतों के आसपास अधिक पाया जाता है। यह पेड़ मदनू अथवा मजनू कहा जाता है। लोक गायकी में इसका जिक्र भी होता है। लेकिन अब आधुनिक परिदृश्य से यह अदृश्य होता जा रहा है। अपने नाम से यह वृक्ष प्रेम भाव की व्यंजना भी करता है। कवि ने इसकी ओर संकेत भी किया है। कवि को इस बात पर गहरा खेद है कि हिमाचल प्रदेश में आने वाले पर्यटक अब लोक गीतों में इस पेड़ का नाम तक नहीं सुन पाते है। यह है आयातित अपसंस्कृति का दुष्प्रभाव। लेकिन अपनी लोक परंपरा से अभिज्ञ कवि आश्वस्त हैं कि जिसका जिक्र इतिहास में नहीं होता है वह भी समाज के लिए अच्छा हो सकता है। इसीलिए इस लोक वृक्ष को संबोधित करते हुए वह उसके प्रति आत्मीयता व्यक्त करते हैं-

उपेक्षित बावड़ियों के

वीरान किनारों पर

बिलकुल वैसे ही खड़े हो

तुम आज भी

इस बात की गवाही देते

कि जो पूजा नहीं जाता

नहीं होता इतिहास के गौरवमय पन्नों में दर्ज

वह भी अच्छा हो सकता है। (पृ. 39)

सामूहिक श्रम से समवेत गीत-संगीत का सहज संबंध हैं। स्थानीय बोलियों में ऐसे अनेक गीत प्रचलित हैं। कवि की टिप्पणी के अनुसार हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में कृषि के कार्य मिलजुल कर किए जाते रहे हैं। ऐसी प्रथा का नाम बुआरा प्रथा है, जिसमें सामूहिक गुड़ाई लोक वादयों के सुरताल की संगत के साथ संपन्न होती है। यह गायन-शैली जुल्फिया नाम से जानी जाती है। और सामूहिक गुड़ाई के अवसर पर इसे गाया जाता है। लेकिन मदनू लोक वृक्ष के समान लोग इसे भी भूलते जा रहे हैं। यह भी उतर आधुनिकता का ही अभिशाप है। बोलो जुल्फिया रे कविता में कवि बुआरा प्रथा और बोलो जुल्फिया रे का सोल्लास वर्णन करते हैं। अनेक क्रियापदों के प्रयोगों से सामूहिक उल्लास और समवेत  गायन का प्रभाव अनेक बिम्बों के रूप में प्रत्यक्ष कर देते हैं। लेकिन समय के दुष्प्रभाव की अभिव्यक्ति क्षोम और वेदना की भाषा में व्यक्त करते हैं-

कहीं नहीं सुनाई देती

जुल्फिए की हूकती-गूंजती टेर

खेतों में अपने-अपने जूझ रहे सब खामोश पड़ोसी को नीचा दिखाते

खींचतान में लीन

जीवन की आपाधापी में

जाने कहां खो गया

संगीत के उत्सव का संगीत

कैसे ओर किसने किया

श्रम के गौरव को अपदस्थ

क्यों और कैसे हुए पराजित तुम खामोश अपराजेय श्रम की

ओ सरल सुरीली तान

कुछ तो बोलो जुल्फिया रे। (पृ. 42, 43)

आत्मा रंजन की प्रश्नात्मक शैली उनकी स्वाभाविक, संवेदनशीलता व्यक्त करती है। क्यों, कहां, और, कैसे, प्रश्नात्मक पद पाठक को सोच-विचार के लिए प्रेरित करते है। पूँजीवादी लाभ लोभ की दुष्ट कुनीति ने व्यक्ति को समूह से दूर कर दिया है। साथ-साथ चले और साथ-साथ बोलें का विचार आचार से विलग हो गया है। यह कविता जीवन धारा को द्वंद्वात्मक रूप में चित्रित करती है। लोक-जीवन के श्वेत श्याम दोनों पक्ष यहां उपस्थित है। कवि की सहज आत्मीयता जीवन के श्वेत पक्ष के प्रति है। सामूहिक प्रयास से असंभव भी संभव हो जाता है। यही कारण है कि लोकधर्मी कविता का प्रगाढ़ संबंध सक्रिय सामूहिक श्रम से अनायास जुड़ जाता है।

एक बात और। आजकल बढ़ते हुए उपभोक्तावाद, अंग्रेजी-अनुराग, कैरियर-केन्द्रित शिक्षा, विदेश जोने की ललक ने मध्यम वर्ग को अपनी जड़ों से काट दिया है। और निरंतर बढ़ते हुए भ्रष्टाचार एवं वैभव प्रदर्शन ने सादगी को अलविदा कहा दिया है। छल-प्रपंच, मिथ्या प्रचार, लालच ने ईमानदारी को दबा दिया है। संभवतः ऐसा आभास होने लगा है कि हम अपनी उदात मूल्यों वाली संस्कृति विस्मृत करते जा रहे हैं। यदि हिमाचल प्रदेश का पहाड़ी संगीत धीरे-धीरे कम हो रहा है तो इसका प्रमुख कारण आज की सामाजिक गति ही है। ध्यान रखना चाहिए कि प्रत्येक प्रदेश की अपनी स्थानीय कला और संगीत वहां की पहचान होते हैं। इन कलाओं के रक्षक श्रमशील जन ही होते है। हिंदी कविता इनसे अपना संबंध जोड़कर महत्वपूर्ण काम कर रही है।

लोक में परंपरागत प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी दोनों प्रवृतियां विद्यमान रहती है। आज भी धर्म सत्ता के बल ने अनेक अमानुषिक रूढ़ियों को जीवित रखा है। आत्मा रंजन ने ऐसी ही एक प्रथा देव दोष पर मार्मिक व्यंग्य किया है। इस प्रथा के अनुसार पहाड़ी क्षेत्रों में रोग आदि का कारण ग्राम देवता, का नाराज होना माना जाता है। अतः उसे प्रसन्न करने के लिए पशु बलि दी जाती है। इस अकरूण प्रथा की आलोचना करते कवि ने ठीक लिखा है-

अद्वितीय किस्म के आस्थावान

और दुर्लभ किस्म के सुंदर जीवन के बीचों-बीच

साक्षात ईश्वर की उपस्थिति में

अपने समूचे भोलेपन के साथ

उन्होंने उड़ा दी

एक मेमने की गर्दन। (पृ. 40)

ऐसे अंधविश्वास आजकल के भारत में भी प्रचलित हैं। विज्ञान के अभिनव प्रकाश ने यह अंधकार दूर नहीं हुआ है। कारण क्या है। उत्तर वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि का न्यूनतम प्रसार। महाराष्ट्र के डॉ. नरेंद्र दाभोलकर अपनी वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि से अंधविश्वासों के खिलाफ आंदोलन चला रहे थे। वे पूरे देश के अंधविश्वासों से उत्पीड़ित लोगों के प्रति व्याकुल रहते थे। कट्टर हिंदूवादी संगठनों ने उनकी हत्या कर दी अथवा करवा दी। आज देश के लिए बुद्धिजीवियों की नहीं अपितु बुद्धिवादियों की परम आवश्यकता है, जो तर्कों की तलवार से धर्मसत्ता के प्रति अंध श्रद्धा को काट सकें। पाखंडी आसाराम बापू जेल में है, फिर भी उसके अंध समर्थक उसे बचाने का प्रयास कर रहे हैं। इस अभियान में भाजपा भी किसी समर्थक से पीछे नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजसत्ता और धर्मसत्ता का अपवित्र गठबंधन खूब हो रहा है। सभी दक्षिणपंथी दलों के साथ-साथ कांग्रेस व सपा भी इस षड़यंत्र में शामिल हैं। समकालीन हिंदी कविता को इस प्रदूषित प्रवृति का प्रखर प्रतिरोध करना चाहिए; खतरे का सामना तो करना ही पड़ेगा।

आत्मा रंजन की कविताएं – हिमपात, बर्फ पर चलता हुआ आदमी, न हीं सोचता बर्फ पर चलते, माल रोड टहलते हुए, बेखबर है माल, माल एक अजगर, माल पर बच्चे, खेलते हैं बच्चे- पढ़कर और समझकर शिमला का क्रियाशील जीवन, प्राकृतिक परिदृश्य, जीवन की विषमताएं, प्रत्यक्ष होने लगती हैं। ये कविताएं कवि के स्थानीय अनुराग की द्योतक हैं। अघोलिखित अंश पढ़िए और जीवन का अंतर्विरोध समझिए-

बर्फ के आसपास नहीं है जिसका घर

वह अकसर घर को

बहुत पीछे छोड़कर आता है

बेफिक्री ओढ़े मुग्ध और लुब्ध सा

चलता है बर्फ पर

जानलेवा बर्फानी ठंड की

कहर ढाती ताकत की समस्त हेकड़ी

और दम्भ का मजाक उड़ाती है

उसके जेब की गर्मी। (बर्फ पर चलता हुआ आदमी, पृ. 47)

यह कविता वर्गीय जीवन दृष्टि से पर्यवेक्षण करके रची गई है। हिमपात के कारण जमी बर्फ गरीबों के लिए तो जानलेवा है, लेकिन अमीर सैलानियों के लिए वह मौज-मस्ती का स्थान है। इसी प्रकार माल रोड पर टहलते हुए कवि को पता चल जाता है कि

माल की तमीज और तहजीब के साथ

टहल रहे जो शालीन पोशाकों में

गौर से देखना उनके चेहरे

समझ जाओगे फर्क

टहलते हुए आदमी

और काम पर जाते

या लौटते आदमी के बीच। (पृ. 49)

कवि की यह जीवन दृष्टि उसकी सहृदयता की द्योतक है। आत्मा रंजन अपनी इसी जीवन दृष्टि से सपना, हादसे, नहाते बच्चे, जैसे हो हैं बच्चे, भगवान का रूप, उम्र से पहले, नई सदी में टहलते हुए, जो नहीं खेल, इस बाजार समय में, स्मार्ट लोग, दुकानदार, मोहक छलिया अय्यार, तोल-मोल में माहिर, पुराना डिब्बा, कटता हुआ बूढ़ा पेड़, रावण दाह, ऐसे चल रहा है जीवन, चुप्पियों का चीत्कार में जीवन के समकालीन द्वंद्वात्मक यथार्थ की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति करते हैं। प्रमाण के लिए ऐसे चल रहा है जीवन का अधोलिखित अंश पढ़िए-

चल रहा है कुछ इस तरह जीवन

जैसे राजस्व उगाहने की लालसा और

शराबियों के निर्लज्ज अट्टहास के बीच

खामोश दुबकी हुई चेतावनी

कि शराब सेवन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है

व्यवस्था की कालिमा को गाली देते

समूहों में चीख रहे भद्रजन

भारत माता की जय। (पृ. 89)

वर्तमान युग में जीवन इतना अधिक समस्याग्रस्त हो गया है कि कहते तो हैं बड़ी-बड़ी बातें, लेकिन छोटे-छोटे से स्वार्थ के लिए बेईमानी से समझौता कर लेते हैं। जब समाज में चारों ओर भ्रष्टाचार का साम्राज्य है, तब आम आदमी अथवा मध्यम वर्ग का कोई भी व्यक्ति आसानी से भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में फंस जाता है। इसलिए आत्मा रंजन सावधान करते हैं कि किसी पर विश्वास बिना सोचे-विचारे मत करो। स्वयं पर विश्वास करो। क्योंकि तुम स्वयं निर्माता हो। अपने ही नहीं ईश्वर के भी। विश्वास को संबोधित पक्तियों में कवि कहता है –

लोग कहते हैं

सर्वशक्तिमान है ईश्वर

बड़ा सच यह

कि तुमने ही रचा है ईश्वर

और तुम ही हो सारथी जीवन के

रथ भी तुम्हीं

सबसे बड़ी ताकत के जनक

उदास मत हो मेरे दोस्त। (पृ. 96, 97)

मनोबल से संपन्न आत्म-निर्भर कर्मठ व्यक्ति असंभव को संभव एवं असाध्य को साध्य कर सकता है। ऐसा व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में सदैव सावधान रहता है। वह जानता है कि हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखिए। आत्मा रंजन ने भी यही सोचकर बनना नहीं होना कविता में ठीक कहा है-

हर किसी से मुखातिब है

हर कोई

शालीन और मोहक

मुस्कान बिखेरता

पूरा दक्षता, पूरे कौशल के साथ

कुछ ऐसे कि स्वतः ही, उभर रहे शब्द

अभिनय, रणनीति, हथियार..

और उससे आगे-शिकार। (पृ. 98)

विषमतामूलक प्रत्येक शक्तिमान् दुर्बल का शिकार कर रहा है। शराफत का मुखौटा लगाकर। असत्य को सत्य बोल कर।

कवि विकल्प सोच कर यह चिंता भी व्यक्त करता है कि-

जाने कब समझेंगे लोग

कि वास्तव में

फूल को देखने के लिए

पहले होना पड़ता है। (पृ. 98)

आशय यह है कि सामाजिक व्यवहार में व्यक्ति फूल के समान कोमल ओर सहृदय बने। तभी वह दूसरे व्यक्ति का समादर कर सकता है।

आत्मा रंजन अपनी विवेकपूर्ण जीवन दृष्टि से अपने स्थानीय जन जीवन, प्रकृति, समकालीन सामाजिक गतिकी का निरीक्षण परीक्षण करके उसे कलात्मक ढंग से कविता में रचने का सफल प्रयास करते हैं। उनकी कविताओं की भाषाई संरचना में वर्णनात्मकता है। बिंबों की सृष्टि है। ध्वन्यार्थ का समावेश है। बोलचाल की हिंदी पदावली में उर्दू और स्थानीय हिमाचली बोली के शब्दों का सार्थक प्रयोग किया गया है। पगडंडियां गवाह हैं कि भविष्य में आत्मा रंजन का कविता पथ और अधिक नया और लंबा होगा। और अंत में कहना चाहता हूं कि आत्मा रंजन की कविताएं सर्वेश्वर की ‘काठ की घंटियां’ से बेहतर है। समाज को जगाने के लिए काठ की घंटियों ने न तो सन् 1958 में कोई उल्लेखनीय काम किया था और न आज कर सकती है। काठ की घंटियां व्यर्थ हैं। अब तो घड़ियाल की नाद अनिवार्य है। नवजागरण के लिए। समाज को बदलने के लिए।
पुस्तक-पगडंडियां गवाह हैं (कविता संग्रह)

लेखक – आत्मा रंजन

मूल्य – 200 रू.

पृष्ठ-104

प्रकाशक -अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद (उ.प्र.)
संपर्क:

अमीर चंद वैश्य

द्वारा कंप्यूटर क्लीनिक, समीप पंकज मार्किट

चूना मंडी, बदायूं (उ.प्र.)

मोबाईल- 09897482597, 08533968269

 

बदायूँ में राजेन्द्र यादव : कुछ यादें और बातें

राजेन्द्र यादव का निधन हमारे सामने एक ऐसी रिक्ति छोड़ गया है जिसकी भरपाई मुश्किल है। जिस भी क्षेत्र में राजेन्द्र जी ने अपने हाथ आजमाए वे श्रेष्ठ रहे। कहानी, उपन्यास, संस्मरण की दुनिया हो या फिर हंस का सम्पादन। एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की रही है जो हंस को केवल राजेन्द्र जी कि सम्पादकीय पढ़ने के लिए खरीदते थे। राजेन्द्र जी को पहली बार परिवार कि तरफ से हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हैम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द्र वैश्य का एक ताजातरीन संस्मरण। तो आईये पढते हैं यह संस्मरण।

 बदायूँ में राजेन्द्र यादव : कुछ यादें और बातें

अमीर चन्द्र वैश्य

कल मैं घर से बाहर था। संध्या काल लगभग ३. ३० बजे घर आया। बेटी गायत्री प्रियदर्शिनी ने मुझे यह दुखद खबर दिया कि राजेन्द्र यादव का निधन हो गया  है। झटका लगा, धीरे से। कैसा दुर्योग या संयोग था कि ठीक एक दिन पहले सोमवार २८ अक्टूबर २०१३ को अनहद के सम्पादक संतोष चतुर्वेदी से राजेन्द्र यादव के बारे में फोन पर एक लम्बी बातचीत हुई थी। और २९ अक्टूबर को राजेन्द्र जी के मृत्यु की दुखद खबर मिली।

कल फिर संतोष जी से राजेन्द्र जी के बारे में बातचीत हुई। जिसमें उन्होंने कहा कि तमाम किन्तु परन्तु के बावजूद यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्होंने हंस के माध्यम से अनेक यादगार कहानियां छापकर हिंदी कथा संसार को समृद्ध किया। साथ ही ‘दलित विमर्श’ और ‘नारी विमर्श’ के माध्यम से हिंदी साहित्य को नयी दिशा कि तरफ अग्रसर किया।

और फिर मैंने वरिष्ठ आलोचक मधुरेश जी से इस क्रम में बातचीत किया। उन्होंने रुंधे हुए गले से बताया कि राजेन्द्र यादव मध्यवर्गीय पाखंडों से सदैव ऊपर रहे। उनके निधन का समाचार सुनकर मैं रिक्त हो गया हूँ। राजेन्द्र यादव से अनेक मुद्दों पर उनकी असहमतियां थीं। फिर भी उन्होंने अपनी आलोचना पुस्तक ‘नयी कहानी : पुनर्विचार’ राजेंद्र यादव को ही समर्पित कि थी।

गीतकार और रंगकर्मी सुभाष वशिष्ठ ने बताया कि मैं राजेन्द्र यादव की अंत्येष्ठि में गया हुआ था। मुम्बई से कल ही आया था। हंस के पुनर्प्रकाशन के अवसर पर मैं उनके साथ था। मैं हंस को उनके विचारपूर्ण सम्पादकीय के लिए ही पढता था। अन्य मासिक पत्रिकाओं के सम्पादकीय वैसे विचारोत्तेजक नहीं होते थे जितने हंस के।

सुभाष वशिष्ठ ने मन्नू भंडारी के नाटक महाभोज का मंचन रंगायन नाट्य संस्था के तत्वावधान में १९८३ में किया था। स्थानीय नगरपालिका के मैदान में सेट लगाए गए थे। इस अवसर पर राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी को बदायूँ बुलाया था। अपने आत्मीय सम्बन्धों के बल पर। मन्नू जी का संक्षिप्त भाषण संपन्न हुआ। तत्पश्चात नाटक हुआ। मैदान जनता से पूरी तरह भरा हुआ था। 

दूसरे दिन जलेस कि स्थानीय इकाई द्वारा ‘विचार-गोष्ठी’ का आयोजन किया गया था। स्थानीय कुमार तनय वैश्य धर्मशाला में। उसी गोष्ठी में राजेन्द्र यादव को निकट से देखा और सुना था। बैसाखी के सहारे चल कर आये यादव जी ही गोष्ठी के प्रमुख वक्ता थे। गोष्ठी का संचालन मधुरेश जी ने किया था। उस दिन उन्होंने मार्क्सवादी आलोचक राम विलास शर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक ‘परम्परा का मूल्यांकन’ कि चर्चा करते हुए प्रगतिशीलता का महत्त्व बताया था।

उपस्थित श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए राजेन्द्र जी ने बताया था कि आजकल हमारे सामने अनेक राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक समस्याएं हैं, जिसका समाधान केवल मार्क्सवाद द्वारा ही किया जा सकता है। इतिहास के सन्दर्भों का उल्लेख करते हुए यादव जी ने बताया था कि तुलसी ने अपने आराध्य राम को ईश्वर का अवतार क्यों माना था। इसलिए कि उस समय तुलसी के समकालीन बादशाह अकबर को ‘जगदीश्वर’ बता रहे थे। तुलसी ने सोचा होगा कि ऐसा बादशाह ‘जगदीश्वर’ नहीं हो सकता है। अतः उन्होंने अपने राम को ब्रह्म का अवतार माना था। यह उनकी अपनी सूझ थी। उन्होंने इस अवसर पर सम्भवतः मीराँ का भी जिक्र किया था। उनका कहना था कि मीराँ ने स्वयं को कृष्ण को समर्पित कर के अपने बंधन रहित प्रेम का उदात्तीकरण किया था। आज हम सोच सकते हैं कि उनके वक्तव्य में नारी विमर्श का विचार घटित रूप में झलक रहा था। उपस्थित प्रबुद्ध जनों में आचार्य विशुद्धा नन्द मिश्र के प्रश्नों का सटीक उत्तर यादव जी ने दिया था जो मुझे तर्कसंगत लगा था। 

मैं भी हंस मंगाया करता था केवल राजेन्द्र जी का सम्पादकीय पढ़ने के लिए। कुछ कहानियाँ भी पढ़ी थी। हंस के कुछ संस्मरण भी अच्छे लगे थे। विशेष कर कान्ति कुमार जैन के। ‘जहाँ लक्ष्मी कैद हैं’ संकलन मंगा कर पढ़ा था। और एक दिन दूरदर्शन के चैनल पर ‘शीर्षक’ कहानी का नाट्य रूपांतर भी देखा था। एक बार रेडियो पर भी उन्हें सुना था। ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ पर राजेंद्र जी अपना आलेख धाराप्रवाह पढ़ रहे थे। मैं अनायास ही सुनता गया।

वह आजीवन मसिजीवी लेखक रहे। अपनी वैचारिक स्वाधीनता की रक्षा के लिए सचेत रहे।
बदायूं के साहित्य प्रेमियों की तरफ से मैं राजेन्द्र जी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।               

(अमीर चन्द्र वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)                                             

अमीरचंद वैश्य

इस बार समीक्षा के क्रम में हम राहुल राजेश के कविता संग्रह सिर्फ घांस नहीं’ की समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं। यह समीक्षा हमारे लिए वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य जी ने किया है।  

 आज मेरे सामने नया काव्य-संकलन है “सिर्फ़ घास नहीं” । इसके रचयिता हैं श्री राहुल राजेश। दुमका (झारखंड) के एक छोटे-से गाँव अगोईयाबाँध में 09 दिसंबर, 1976 को जन्मे राजेश आज के युवा कवि हैं। हिमाचल प्रदेश के संस्कृति विभाग की द्विमासिक पत्रिका ‘विपाशा’ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता-2009 में द्वितीय पुरस्कार अर्जित कर चुके हैं। उनका यह संकलन पढ़ने-समझने से अनायास ज्ञात हो जाता है कि राजेश ने सहज सहृदयता से कवि-कर्म अपनाया है।

            राहुल राजेश का यह पहला काव्य-संकलन “सिर्फ़ घास नहीं” साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ने सन् 2013 में प्रकाशित किया है। अपनी नवोदय योजना के तहत। इस संकलन की भूमिका वरिष्ठ कवि-आलोचक श्री नंदकिशोर आचार्य द्वारा लिखी गई है। शीर्षक है- ‘कविता की अपनी प्रक्रिया पर भरोसा’ । प्रश्न उपस्थित होता है कि आजकल उपभोक्ता समय में कोई संवेदनशील व्यक्ति कविता क्यों रचता है? मनोरंजन के लिए? अथवा यश के लिए? या उद्दाम अभिव्यक्ति की स्वभाविक अभिलाषा के लिए? वास्तविकता यह है कि घनघोर विषमता की पीड़ा से अस्त-व्यस्त सामाजिक जीवन इतना दुख-दग्ध हो गया है कि सहृदय कवि उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता है। तभी तो महाकवि निराला ने आजाद भारत के अभावग्रस्त जन-गण-मन की व्यथा गहराई से महसूस करके लिखा था-

“माँ, अपने आलोक निखारो,
नर को नरक-त्रास से बारो।
विपुल दिशावधि शून्य वर्गजन,
व्याधि-शयन जर्जर मानवमन,
ज्ञान-गगन से निर्जर जीवन,
करूणा करो, उतारो, तारो॥”

           अर्थात् आज कवि-कर्म के लिए गंभीर मानवीय करुणा के साथ-साथ वर्गीय जीवन-दृष्टि अनिवार्य है। राहुल राजेश भी अपने देश-काल की व्यथा-कथा सुन-समझकर उसे व्यक्त करना चाहते हैं। भूमिका-लेखक ने अंग्रेजी कवि ऑडेन के अभिमत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि कवि ऑडेन के अनुसार, यदि कोई युवा कवि ‘अपने कानों के आस-पास मँडराते हुए शब्दों को सुनना चाहता है तो उसे कविता लिखना जारी रखना चाहिए’। लेखक ने भूमिका में आगे यह भी लिखा है कि “राहुल राजेश की कविताओं में जहाँ समकालीन काव्य-संसार को निर्देशित-नियंत्रित करने की कोशिश करने वाली मतवादिता के आतंक की अनुपस्थिति है, वहीं अधिकांश कविताएँ मनुष्य को मनुष्य के रूप में अनुभव करते रहने पर बराबर आग्रहशील हैं।” (पृ.06)

           आचार्य जी के इस कथन का आशय यह है कि कवि-कर्म को किसी भी मतवाद के आतंक से मुक्त रहना चाहिए। परंतु हिंदी कविता की प्रमुख काव्यधारा, जो लोकधर्मी है, आचार्य जी के इस कथन के विरूद्ध है। तुलसी दास का प्रसिद्ध काव्य-सिद्धांत है कि

“जो बरसै बर बारि विचारू
होहिं कवित मुक्ता-मन चारू।” 

आधुनिक हिंदी के प्रतिबद्ध कवि नागार्जुन तो स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-

“इतर साधारण जनों से अलहदा होकर रहो मत
कलाधर या रचयिता होना नहीं पर्याप्त है
पक्षधर की भूमिका धारण करो
विजयिनी जन-वाहिनी का पक्षधर होना पड़ेगा।” 

जनकवि नागार्जुन की काव्य-चेतना से प्रभावित होकर अनेक वरिष्ठ एवं कनिष्ठ कवि अपने-अपने कवि-कर्म को जनपक्षधरता से निरंतर जोड़ रहे हैं। हाँ, कुछ रूपवादी कलाधर कवि ऐसा नहीं कर रहे हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि भाव-प्रसार में विचार-प्रवाह शामिल रहता है। श्रेष्ठ कविता के लिए भाव-बोध, विचार-बोध, इंद्रिय-बोध अनिवार्य हैं। कवि की कल्पना-शक्ति इन तीनों का संश्लेषण करती है।

        पहले ही कहा जा चुका है कि राहुल राजेश सहृदय कवि हैं। उन्होंने कवि-कर्म को दायित्वपूर्ण ढंग से अपनाया है। अमीर मीनाई का यह शेर प्रत्येक संवेदनशील कवि/शायर पर लागू होता है-

“खंजर चले किसी पे, तड़पते हैं हम अमीर
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।” 

यह शेर कवि राहुल राजेश पर भी लागू होता है। वह ‘अब ग़ैर-ज़रूरी तो नहीं’ कविता में कहते हैं-

“निश्चल हृदय में संचित
थोड़ी-सी प्रेम-राशि
थोड़ा-सा नमक
थोड़ी-सी मिठास
थोड़ा-सा पानी
थोड़ी-सी आग
कभी किसी को आहत न करने की
लघु किंतु स्थायी तृप्ति
किसी की वेदनाओं को सहलाने का
थोड़ा-सा सुख
कुछ न देकर भी
बहुत कुछ दे पाने का
नन्हा-सा विश्वास
आँखों के लिए
थोड़ी-सी घास
उड़ने के लिए थोड़ा-सा आकाश
जीने के लिए
अब ग़ैर-ज़रूरी तो नहीं (है)
इन चीज़ों का/ होना अपने पास?” (पृ.16) 

यह कवितांश साक्षी है कि राजेश सहज सहृदय कवि हैं और वे परदुख से कातर भी होते हैं।

          मानवीय करुणा सेंत-मेंत का सौदा नहीं है। करुणापरायण व्यक्ति दीन-दुखी व्यक्ति के प्रति सेवा-संलग्न होता है। राहुल राजेश ने करुणा से प्रेरित होकर कई कविताएँ रची हैं। हमारे समाज में निरीह स्त्री सर्वाधिक पीड़ित है। होती रहती है। वह गाँव से कस्बे तक, कस्बे से नगर तक और नगर से महानगर तक तिरस्कृत और अपमानित होती रहती है। वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। वह सामंती उत्पीड़न से प्रताड़ित होती रहती है। पूँजीवादी व्यवस्था ने अपने लाभ के लिए उसे नुमाईश की चीज़ बना दिया है। राहुल राजेश ने ऐसे दुख-दग्ध स्त्री के प्रति कई अच्छी कविताएँ रची हैं। ऐसी ही एक कविता है- ‘मैं एक ऐसी औरत से प्यार करता हूँ’ । इसमें उन्होंने अपनी करुण संवेदना व्यक्त करते हुए कहा है-

“मैं एक ऐसी औरत से प्यार करता हूँ
जिसके कदमों में अपनी हँसी उड़ेल आता हूँ
और आँखों में आँसू भर लाता हूँ।” (पृ.148) 

संपूर्ण कविता में शीर्षक-पंक्ति कई बार दुहराई गई है, जिससे कवि ने अपने मनोभाव को गंभीर प्रभाव से अन्वित किया है।

         मानवीय करुणा से प्रेरित राहुल राजेश ‘वे हाथ’ देखकर कहते हैं-

“जिन पत्थरों को हमारे हाथों में होना चाहिए
दे मारने के लिए
हम उन्हें सीने में उठाए फिर रहे हैं
 … राख में से भी ढूँढ़ निकालते थे
जो चिनगारी/ कहाँ गए वे हाथ?” (पृ.118)

 दरअसल, ‘वे हाथ’ केवल आक्रोश से ही नहीं, करुणा से भी अन्वित थे, जो हिंसा की राख में से आशा-सद्भाव की चिनगारी निकाल लेते थे। आज संपूर्ण विश्व के लिए हिंसा की नहीं, अपितु अहिंसा की परम आवश्यकता है। यही करुणा राजेश को ‘एक परिंदे की लाश’ की ओर भी आकृष्ट करती है-

“कोई नहीं पूछ रहा
इस परिंदे का घर कहाँ है
कैसे मरा, गलती किसकी थी
किसी ने भी पुलिस को
इसकी सूचना नहीं दी
इसकी नन्ही चोंच में अब भी
अटके हैं अनाज के दो-चार दाने
नन्हे बच्चों के लिए, जो बड़ी बेसब्री से
कर रहे होंगे इंतजार
उसके लौटने का
 … कोई नहीं कहने जा रहा
 … यह मोटर-कारों की सड़क है
तुम्हारी सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं (है) यहाँ।” (पृ.39-40) 

ऐसी संवेदना कवि ही व्यक्त कर सकता है। आते-जाते राहगीर तो उपेक्षा भाव से अपना-अपना रास्ता नापने लगते हैं। आज करुणापरायण राजकुमार सिद्धार्थ नहीं हैं। हैं तो बहुत कम हैं।

         मानवीय करुणा से प्रेरित होकर राहुल राजेश ने ‘बहनें’ कविता में वर्तमान सामाजिक विसंगति की ओर संकेत किया है, निरायास ढंग से-

“आश्चर्य!
घर में सबसे पहले
जवान होती हैं बहनें
और पिता के बूढ़े होने से पहले ही
बुढ़ाने लगती हैं बहनें!” (पृ.32) 

ऐसा इसलिए है, क्योंकि दहेज का दानव समय से पहले ही उन्हें अकाल-वृद्ध बना देता है।

         संकलन की ‘पारपत्र’ कविता इसलिए श्रेष्ठ है कि वह आज के उत्तर-आधुनिक युग की वास्तविकता उजागर कर रही है। विरोधी परिदृश्य का आश्रय लेकर। आजकल की व्यवस्था में उन स्त्रियों को पारपत्र मिलेगा,

“जो चमचमाते दाँतों और
रेशमी बालों के बूते
करेंगी जनहित के कार्य।”(पृ.19)

और उन्हें भी पारपत्र प्राप्त होगा,

“जिनके पास हो ग्लोबल कॉन्सेप्ट
डॉलरों में पूर्ण-परिवर्तनीय थिंक-टैंक
इलेक्ट्रॉनिक बटनों पर बदहवास नाचती उँगलियाँ
कुल मिलाकर, सेंसेक्स से भी ज्यादा
सेंसिटिव हो जिनका व्यक्तित्व!”(पृ.20) 

अत: राजेश व्यंग्य के लहजे में आक्रोश व्यक्त करते हुए कहते हैं-

“कवियो, सावधान!
आपको नहीं मिल सकता पारपत्र
क्योंकि आपकी संवेदनशीलता विश्व-बाज़ार में
कहीं दर्ज़ नहीं
… आपकी चिंताओं में बेवजह शामिल हैं
कभी सब्जी न चख पाने वाले हजारों चंद्रबाली
केवल एक ही साड़ी में वर्षों गुजारने,
मुश्किल से तन ढँक पाने वाली तेरह करोड़ महिलाएँ
तीन नहीं, चार नहीं,

पूरी नब्बे करोड़ जनता!” (पृ.21)

         प्रसंगवश, उल्लेखनीय है कि एक बीस-वर्षीय बालक चंद्रबाली ने कभी सब्जी न चख पाने की आत्मग्लानि में आत्महत्या कर ली थी। यह कविता इसलिए श्रेष्ठ है कि राजेश ने वर्तमान समाज की विषम दृश्य प्रस्तुत करके अपनी करुणा निरीह जनों के प्रति व्यक्त की है। आजकल भारतीय बृहत् समाज में ऐसे अनेक दृश्य दिखाई पड़ते हैं। लगभग प्रतिदिन। मुनव्वर राना ने हमारे समाज की यह ज्वलंत हकीकत एक शेर में इस प्रकार व्यक्त की है-

“मुफलिसी जिस दिन तू मेरा मुकद्दर हो गई

जिंदगी जैसे किसी बेवा की चादर हो गई।”

            हमारे तथाकथित उत्तर-आधुनिक युग में संचार-क्रांति ने विश्व को तो ग्राम में बदल दिया। लेकिन क्रूर पूँजी ने अमीरों को और अधिक अमीर बनाया है। गरीबों को और अधिक गरीब। समाज की अधिकतर आबादी भुखमरी और कुपोषण से अत्यधिक पीड़ित है। इसलिए कवि ‘एक निर्वासित प्रश्न’ में श्रमशील जन की ओर से सबसे पूछता है-

“धूप से पूछता पसीना
पसीने से नमक
नमक से पूछती भूख
भूख से देह
देह से पूछता बाज़ार
बोलो, तुम किनके कर्जदार?
किनके कर्जदार??” (पृ.34) 

सत्य यह है कि पसीना बहाने वाले प्राय: कर्जदार रहते हैं। उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद के ‘गोदान’ का होरी आजीवन कर्ज़ से पीड़ित रहा। अंततोगत्वा उसे मजदूर बनना पड़ा। आज भी कर्ज़ या ऋण किसान-जीवन की प्रमुख समस्या है, जो किसानों को हताशा से भर रही है। इस कविता की प्रश्नात्मक शैली उन शोषक शक्तियों की ओर संकेत कर रही है, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रूप में सुरसा के समान अपना मुख खोलती जा रही हैं।

 मानवीय समाज और व्यक्ति दोनों द्वंद्वात्मक हैं। मनुष्य के जीवन-प्रवाह में सुख-दुख, आशा-निराशा, उत्साह-अनुत्साह, हार-जीत, सफलता-असफलता आदि के आवर्त उठते-गिरते रहते हैं। राहुल राजेश का कवि-मानस भी द्वंद्वात्मक है। इस दृष्टि से उनकी कई कविताएँ इस संकलन में हैं। एक कविता है- ‘मैटरनिटी वार्ड’,  जिसमें प्रसव की कराह और नवजात शिशुओं की किलकारियों का निरूपण कलात्मक ढंग से किया गया है। देखिए-

 “पूरा अस्पताल एक बार फिर
महक उठेगा अभी-अभी जन्मे
शिशु की खुशबू से
मौत एक बार फिर थर्राएगी जिंदगी से।” (पृ.117) 

यह है जीवन के प्रति आशावादी जीवन-दृष्टि। इस दृष्टि से कवि ने नर और नरेतर जगत् के चयनित प्रसंगों का आत्मीय निरूपण किया है।

          समाज की इकाई परिवार है। सहृदय राजेश ने संकलन की पहली ही कविता ‘परिवार’ में अपने परिवार के परिजनों- माँ, पिता, बहन, भाई, दादा, दादी के प्रति सहज आत्मीय अभिव्यक्ति की है। माँ पर एक से अधिक कविताएँ हैं। ‘माँ’ कविता में सक्रिय जीवन रुपायित किया गया है। यथा-

“माँ है तो
भिनसरवे ही लय में
गुनगुनाने लगता है झाड़ू
हम सबके जगने से पहले ही
आते हैं माँ कहकर
निकल जाते हैं कबूतर
 … माँ है तो
बन जाती है
मेरे और पिता के बीच पुल
बुखार में गरदन का तावीज
पिता के गुस्से पर पानी
माँ है तो देर से लौटकर
नहीं आते पिता…
माँ है तो
कितना अच्छा लगता है
बहुत दिनों बाद बहुत दूर से

घर लौटकर आना…।” (पृ.24-25)

         ध्यातव्य है कि वर्तमान समय के उपभोक्तावादी समाज में वृद्ध माता-पिता को प्राय: विस्मृत कर दिया जाता है, जो समाज के लिए भयंकर त्रासदी से कम नहीं है। लेकिन कवि राजेश का स्वभाव समाज की दूषित प्रवृति के विपरीत है। ‘कोई तो हो’ कविता में वह अकेलेपन की अनेक मर्मस्पर्शी बातें अपने पाठकों से कहते हैं-

“कोई तो हो
जिसे मैं लिखता रहूँ रोज की बातें
 घर की परेशानियाँ, माँ का दुख
अभावों का बोझ, रिश्तों की राजनीति
बापू-ताऊ-दादी-चाची के रोज के झगड़े
घर के घर न रह जाने की बात
एक पूरे चहकते घर के खंडहर में
तब्दील हो जाने की कहानी
और इन सबके बीच खुद के पिस जाने
घुट जाने की व्यथा।” (पृ.41) 

कवि की इस व्यथा का कारण है- आजकल बदलते-टूटते आत्मीय संबंध। ऐसा पूँजी के क्रूर व्यवहार के कारण हो रहा है। इस व्यवस्था में अपने-पराये सभी स्वारथ के लिए प्रीति करते हैं। बेमतलब कोई किसी से बात तक नहीं करता है। राजेश ने इसी दूषित प्रवृति पर ‘मतलब बेमतलब’ शीर्षक कविता में मर्मस्पर्शी प्रहार किया है। कविता में छोटे-छोटे कई सामाजिक संदर्भ हैं। यथा-

“अजीब हाल है
अब बेमतलब कुछ भी नहीं किया जा सकता
बेमतलब मिला नहीं जा सकता
बेमतलब कहीं जाया नहीं जा सकता
अब बेमतलब गपियाया नहीं जा सकता
अब बेमतलब पीछे से आवाज नहीं
दी जा सकती किसी को

किसी को बेमतलब टोका नहीं जा सकता (है)।” (पृ.131-132)

           कवि की इस मनोव्यथा में आजकल का उपभोक्तावादी स्वार्थ झलक रहा है। और उसका नि:स्वार्थ भी। कौन नहीं जानता है कि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था अपना मतलब साधने के लिए कोई भी अनाचार-दुराचार-अत्याचार कर सकती है और कर रही है। वर्गीय समाज में कोई भी मतलब, बेमतलब नहीं होता है। सत्ता अपना काम साधने के लिए निम्नवर्ग को नसैनी की तरह इस्तेमाल करती है। हमारा पूँजीवादी लोकतंत्र इसी मतलब पर टिका हुआ है। रहीम तो लिख ही गए हैं-

“काज परे कछु और, काज सरे कछु और
रहिमन भांवर के परे, नदी सिरावत मौंर॥” 

कवि ने भी ‘मतलब बेमतलब’ कविता के अंत में चालू स्वार्थी व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए ठीक लिखा है-

“उनका मतलब बस इतना ही
हम उनका मतलब न समझ पाएँ
उनके इस मतलब के आगे

हम सब बेमतलब हैं!” (पृ. 133)

           लेकिन निराशा का यह स्वर स्वार्थी व्यवस्था को नहीं बदल सकता है। इससे तो यथास्थिति जस की तस बनी रहेगी। आज परम अनिवार्य है सामूहिक-संगठित प्रतिरोध, जो तभी संभव है, जब मध्यम-वर्गीय कवि, मुक्तिबोध के समान व्यक्तित्वांतरण करे और निम्नवर्ग के श्रमशील जनों से आत्मीय संबंध जोड़कर जातिवाद एवं संप्रदायवाद का तिरस्कार करे। निम्नवर्ग और मध्यवर्ग दोनों को वर्गीय जीवन-दृष्टि अपनाने के लिए प्रेरित करे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो सत्ता अपना मतलब साधती रहेगी। वोट बटोरने के लिए वह कुछ टुकड़े और सामान बाँटती रहेगी।

          अपने देश में आजादी के बाद विवेकहीन विकास तो हुआ, पर विनाश के बीजारोपण के साथ। महंगाई निरंतर बढ़ती जा रही है। भुखमरी, बेरोजगारी, अपराध का राजनीतिकरण, लूट-मार, बलात्कार, भीषण भ्रष्टाचार निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं। कोई भी मंत्री, नेता, उच्च पदाधिकारी से लेकर चपरासी-बाबू तक- कोई भी दूध का धुला नहीं है। साहित्य-संसार के सामंत भी इसके सहचर हो गए हैं। दुष्यंत कुमार ने आपातकाल में जो घोषित किया था, वह आज भी शत-प्रतिशत सच है-

“मत कहो आकाश में कुहरा घना है
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
 … इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है

हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।”

         यदि कवि सच्चरित्र नहीं है तो वह उत्कृष्ट कवि-कर्म का निर्वाह नहीं कर सकता है। अत: काव्य-साधना के लिए श्रेष्ठ कवि को पद-पुरस्कार-प्रतिष्ठा का लोभ त्यागना पड़ता है। डॉ. रामविलास शर्मा का जीवन इस सच्चाई का स्मरणीय प्रमाण है। उन्होंने सम्मान तो स्वीकार किया था, लेकिन धनराशि ठुकरा दी थी। राहुल राजेश ने भी अपनी कविता ‘पिता का वसीयनामा’ में पिता का वसीयतनामा स्वीकारते हुए स्वयं का संस्कार किया है। परंपरा से रागात्मक संबंध जोड़ा है। ‘माटी जैसा होना’ सीखा है। ‘सच की खातिर, हक की खातिर लड़ना’ सीखा है। ‘काशी-काबा दोनों को पूजना’ सीखा है। ‘कुछ माँगना ही हो तो बस थोड़ा-सा आशीर्वाद माँगने’ की बात सोची है। (पृ.65-66)

       राहुल राजेश ने अपनी कमजोरियों को भी नहीं छिपाया है। एक कविता का शीर्षक है- ‘स्वीकारता हूँ मैं’ । इस कविता में कवि ने बिना किसी संकोच के अपने प्रेम-संबंध स्वीकारे हैं। अपने मानसिक द्वंद्व का स्पष्ट निरूपण किया है। यथा-

“ईमानदार बने रहने की जिद
और गरीब रह जाने के भय में
गरीब रह जाने का भय ही रहा हावी
पर हर बार याद आई बुजुर्गों की कही बात

कि बदनीयत होने से अच्छा है बदनसीब होना।”

उनकी और एक स्वीकारोक्ति देखिए- 

“कई-कई बार गिरा ईर्ष्या और क्षोभ के गर्त में
कई-कई बार चाहा
अंदर से बन जाऊँ बहुत बुरा आदमी
और बाहर से दिखूँ बहुत भला आदमी
पर हर बार बचता रहा
बुरा बनने से
कि इस बुरे वक्त में बुरा बनने के
सारे साधन मौजूद होने के बावजूद
बुरा बनने की हिम्मत न जुटा सका
स्वीकारता हूँ मैं! (पृ.62-64) 

प्रश्न है कि कवि बुरा बनने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाया? उत्तर है उसका कवि-कर्म, जो जीवन की आलोचना करते समय बुरे को बुरा और अच्छा को अच्छा बताया करता है। असली चेहरे पर मुखौटा लगाकर कवि-कर्म असंभव है। सच्चा कवि डंके की चोट पर घोषणा करता है-

“बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय

जो दिल खोजा आपना, मुझ-सा बुरा न कोय!”

          राहुल राजेश की स्वीकारोक्तियों को पढ़-समझकर यह स्पष्ट हो रहा है कि कवि निर्मलता का वरण करने का प्रयास करता है। संभवत: उसे सारे संसार की चिंता रहती है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि वह पर्यावरण के रक्षार्थ भी चिंतित है। आजकल स्वार्थी विकास ने पर्यावरण का विनाश किया है। उत्तराखंड का जल-प्रलय कांड इसका ताजा प्रमाण है। तभी कवि प्रार्थना के शिल्प में कहता है-

“बची रहें
घरों में चींटियाँ
रोशनदानों में घोंसले
 …. बचा रहे
पेड़ों की छाल में अर्क
हवा में फूलों को चूमने की बेताबी
बची रहे हममें
प्रेम करने की जीवन-भर इच्छा।” 

और यह भी कि

“बची रहें कविताएँ
पृथ्वी की चाक पर झुकीं
कुम्हार-सी।” (पृ.52-53) 

यह कवितांश राहुल राजेश के सहृदय कवि-रूप से साक्षात्कार करा रहा है। वह अपने लिए ‘प्रेम करने की जीवन-भर इच्छा’ करता है। साथ ही साथ, प्रकृति जगत् के अन्य प्राणियों के प्रति भी संवेदनशील है। संभवत: इसलिए उसने अभिव्यक्ति के लिए कवि-कर्म चुनकर भविष्य के लिए ‘बची रहें कविताएँ’ की कामना की है, क्योंकि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। आचार्य शुक्ल के अनुसार, कविता मनुष्य को स्वार्थ-संकुचित घेरे से बाहर निकालती है।

(चित्र: कवि राहुल राजेश)

 ‘भाव-भेद रस-भेद अपारा’ के अनुसार, कवि का मानस अनंत भावों से आंदोलित होता है। ऐसे भावों में युवा कवियों के लिए प्रेम अनिवार्य है, क्योंकि प्रेम ऐसा प्रबल मनोभाव है, जो सांप्रदायिकता, अंतरजातीयता, अंतरप्रांतीयता, अंतरराष्ट्रीयता के बंधन टूक-टूककर देता है। प्रेम का उद्दात रूप जीवन का सार तत्व है। एक समय था, जब प्रगतिशील आंदोलन ने प्रेम की प्राय: उपेक्षा की थी। उस समय के महान शायर फैज अहमद फैज़ ने घोषित किया था-

“और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा/ राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा/ मिरी महबूब, मुझ से पहली सी मुहब्बत न माँग।” लेकिन कालांतर में प्रगतिशील कवियों और शायरों का मूड बदल गया। उन्होंने अपनी-अपनी कविताओं में दांपत्य प्रेम को वरीयता प्रदान की, काल्पनिक प्रेम को नहीं। सुमित्रानंदन पंत की कविता ‘भावी पत्नी के प्रति’ के समान। केदारनाथ अग्रवाल-नार्गाजुन-त्रिलोचन की अनेक कविताएँ दांपत्य प्रेम की साक्षी हैं। इस प्रेम का प्रवाह कर्तव्य की ओर उन्मुख है। यथा- “आए न बहुत दिन बादल/ बरसा न बहुत दिन पानी/ मिलकर वे दोनों प्राणी दे रहे खेतों में पानी।” (त्रिलोचन, ‘धरती’ से उद्धृत) निराला ने भी लिखा था- “तुम्हीं गाती हो अपना गान/ व्यर्थ पाता हूँ मैं सम्मान।” विजेंद्र तो दांपत्य प्रेम के श्रेष्ठ कवि हैं।

           विषयांतर हो रहा है। लेकिन अनिवार्य है। आज की युवा कविता का रचना-संसार बहुत व्यापक है। उसमें प्रेम-भाव भी शामिल है। नित्यानंद गायेन के काव्य-संकलन का शीर्षक ही है- ‘अपने हिस्से का प्रेम’ । ऐसा इस व्यवस्था में मुश्किलों को झेलने के बाद ही प्राप्त होता है। जिस दौर में खाप पंचायतें प्रेमी-प्रेमिका को मौत के घाट उतार देती हैं, अथवा प्रेमी ही प्रेमिका का कत्ल कर देता है अथवा वह उस पर तेजाब डाल देता है, उसमें प्रेम कविताएँ लिखना साहस का काम है। राहुल राजेश के इस संकलन में कई प्रेम कविताएँ हैं। देह-गंध से परिपूर्ण। चिंताओं से मुक्त। उत्साह से लबरेज। यथा, ‘आज इस तरह’ कविता की पंक्तियाँ पढ़िए- “आज इस तरह तेरे प्यार में डूबना/ बेहद अच्छा लग रहा है/ खूब झमाझम बारिश में बेलौस/ भींगते बचपन की तरह/ मैं देर तक भींगते रहना चाहता हूँ/ इस प्यार में।” (पृ.110)

          कवि के वाक्यों से उल्लास अनायास अभिव्यक्त हो रहा है। उदात्त प्रेम भी सौंदर्य के प्रति अनायास खिंचता चला जाता है। मीर तकी ‘मीर’ फरमाते हैं- “नाजुकी उसके लब की क्या कहिए/ पंखड़ी इक गुलाब सी है/ मीर उन नीम-बाज़ आँखों में/ सारी मस्ती शराब की सी है।” शायद इसीलिए ‘प्रेम में जीवन’ का कवि अथवा प्रेमी कुछ और भी अनुभव करता है- “प्रेम में हम ऐसे समय को/ जी रहे होते हैं जिसकी प्रतीक्षा/ बनी रहती है उम्र-भर/ प्रेम में हम ऐसे प्रेम को/ जी रहे होते हैं/ जो कभी नहीं आता जीवन में!” (पृ.114) कवि की ‘तलाश’ कविता पर अज्ञेय का हल्का-सा प्रभाव लक्षित होता है। यथा: “यहाँ से वहाँ तक/ न जाने कहाँ से कहाँ तक/ ब्रह्मांड की धमनियों में/ रक्त की तरह दौड़ रही/ मेरी आत्मा/ तुम्हारी तलाश में/ प्रिये, तुम कहाँ हो?” (पृ.96) कवि की यह बेचैन तलाश स्वभाविक है, क्योंकि प्रेम सान्निध्य चाहता है। सहचरत्व की अभिलाषा करता है।

        राहुल राजेश का यह निजी प्रेम व्यापक होकर प्राकृतिक परिदृश्यों, अपने जनपद दुमका, अनाम घास, चिड़ियों, चुड़िहारिन, पहाड़ पर साँझ, असुंदर में सुंदर, बाँस, बेर, गन्ना, पानी, रात, दोपहर के वक्त, धुंध, मीता आदि से भी रागात्मक संबंध जोड़ता है।

          समीक्ष्य संकलन का शीर्षक “सिर्फ़ घास नहीं” कवि की व्यापक जीवन-दृष्टि की ओर संकेत कर रहा है। घास सिर्फ़ घास नहीं होती है। वह चमन की जीनत भी होती है। कहा गया है कि- “इस हिकारत से पायमाल न कर/ घास भी चमन की जीनत है।” इसीलिए राजेश लिखते हैं- “लगभग सफेद-सी इनकी जड़ें/ बित्ते-भर से भी नन्हा इनका क़द/ कहाँ से लाती इतना गाढ़ा हरापन/ किनकी आँखों से चुराया/ यह बाँकपन?/ इनकी नोकों पर टिकी ओस/ बहुत हद तक कर देती/ सूरज को नम!/ इन्हीं की मखमली देह पर/ रात-भर लोटता चाँद/ पशुओं के थन से उमगता यह क्षीर/ कोई विज्ञान नहीं…/ इन घासों का मातृत्व।” (पृ.33) यह कविता कवि के पर्यवेक्षण और सहज संवेदना का श्रीफल है। पका, मीठा और सुगंधित। स्मरणीय बात यह है कि हरी-हरी घास पशुओं का पेट भरती है। पशु किसानों के सगे मित्र होते हैं। घास ही गाय-भैंसों का भी पेट भरती है। उन्हीं से दूध प्राप्त होता है। इस प्रकार तुच्छ घास भी मानव-समाज के लिए परम अनिवार्य है।

           राहुल राजेश की कविताओं में श्रम-सम्मान की भी अभिव्यक्ति है। ‘अन्न’ शीर्षक कविता ऐसी ही है। किसान के पसीने की कमाई का नाम है अन्न। लेकिन इस अन्न का पूरा लाभ किसान को प्राप्त नहीं हो पाता है, क्योंकि “अन्न/ खेतों से उठकर आए खलिहान/ खलिहान को लील गईं बोरियाँ/ बोरियाँ पहुँची मंडी/ मंडी में भूख खरीदार/ … किसान की आँखें नम/ एक बार फिर प्रण करता किसान/ नहीं… नहीं… नहीं बेचेंगे तुम्हें/ अबकी बार।” (पृ.57-58) लेकिन क्या यह संभव हो पाएगा? आजकल उत्तर-आधुनिक युग में कृषक वर्ग सबसे अधिक संत्रस्त और चिंताग्रस्त है। किसानों की आत्महत्याओं पर कम ही कविताएँ लिखी गई हैं।

          उत्तर-आधुनिक युग में अप्रत्याशित रूप से बहुत बदलाव उपस्थित हो गए हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में। एक जमाना था हमारी बाल्यावस्था में। कन्याएँ और सुहागिनें चूड़ी पहनने घर से बाहर नहीं जाया करती थीं। मुसलिम चुड़िहारिन घर-घर चूड़ियाँ पहनाने के लिए आया करती थीं। उनके या उसके साथ प्राय: उसके घर का कोई मर्द (बेटा) भी होता था। वह गलियों में आवाज़ लगाया करता था- ‘चूऽऽऽड़ी पहनऽऽऽ लोऽऽऽ!’ लेकिन चूड़ियाँ चुड़िहारिन पहनाया करती थी। राहुल राजेश ने ‘चुड़िहारिन’ शीर्षक कविता में ऐसी ही एक चुड़िहारिन को याद करके, उसके स्वभाव और उसकी क्रियाओं का वर्णन करके, सांप्रदायिक सौहार्द और उदात्त जीवन-मूल्यों का समादर किया है, जो आज की आतंकी सांप्रदायिकता के दौर में और भी अनिवार्य है। मेरी नजर में ‘चुड़िहारिन’ इस संकलन की श्रेष्ठ कविता है। कुछ पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं- “माथे पर रंग-बिरंगी चूड़ियों का इंद्रधनुष सजाए/ आवाज़ लगाती आती थी चुड़िहारिन/ दादी, कहती, वह मियाँइन थी/ उसकी खनक भरी आवाज़ से ही गाँव भर की/ औरतों की मचल उठती थीं कलाइयाँ/ … बड़े बुजुर्गों को भी कभी परहेज नहीं रहा उससे/ कि गाँव की मान-मरजादा में ख़लल नहीं थी चुड़िहारिन/ एक अवसर थी रिश्तों की आवाजाही की/ कि उसके आने से ही कभी-कभी टूट पाती थी/ गाँव-भर की सीलन…।” (पृ.43-44) सीलन इमारत के लिए हानिकारक होती है। संबंधों के लिए भी सीलन कम हानिकारक नहीं होती है। सामाजिक जीवन में आत्मीय संबंधों की गरमाहट ज़रूरी है, जिसे चुड़िहारिन बढ़ाया करती थी अपने ढंग से। अपनेपन के भाव से।

          राहुल राजेश ने यदि ‘यह हमारा ही समय है’ जैसी कविता में वर्तमान काल के नवपूँजीवाद का घृणित रूप दिखाया है विज्ञापन के माध्यम से, तो दूसरी ओर ‘पहाड़ पर साँझ’ में प्राकृतिक परिवेश के साथ-साथ काम से लौट रही आदिवासी स्त्रियों के समवेत संथाली गीत को ध्यान से सुना है। और उनके हँसने-खिलखिलाने को भी। और ‘बहुत दिनों बाद मेरा शहर’  में अपने गृह-नगर दुमका के बदलते हुए रूप को भी आत्मीय भाव से देखा-परखा है। उसका अतीत भी याद किया है। “कछुआई चाल से विकास के राजमार्ग पर बढ़ता/ महानगरीय अनुकृति में भरसक तब्दील होने की कोशिश करता/ यह शहर अब भी रात-भर सोता है/ बेहद इत्मिनान से आँखें मलता जागता है/ और भर दोपहर किसी पेड़ तले ऊँघता है।” (पृ.134-137) यह अंतिम अंश है इस कविता का, जिसकी अंतिम दो पंक्तियाँ अथवा दो वाक्य दुमका की यथास्थिति की ओर संकेत कर रहे हैं। अंतिम वाक्य तो श्रम से थके हुए श्रमिकों का बिम्ब प्रत्यक्ष कर रहा है। निराला की प्रसिद्ध पंक्तियाँ अनायास याद आ रही हैं-

“कोई न छायादार
पेड़ वह, जिसके तले बैठी हुई स्वीकार
श्याम तन, भर बँधा यौवन
नत नयन, प्रिय कर्म-रत मन
गुरु हथौड़ा हाथ
करती बार-बार प्रहार

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

दोनों में अंतर यह है कि दुमका तो छाया में ऊँघ रहा है, लेकिन वह मजदूर स्त्री धूप में पत्थर तोड़ रही है। किंतु अट्टालिका तरु-मालिका है।

          इस प्रकार हम देखते हैं कि राहुल राजेश ने अपनी कविता को अपने समय के साथ-साथ अपनी लोकधर्मी काव्य-परंपरा से भी जोड़ने का प्रयास किया है। वर्तमान काल की क्रूर व्यवस्था की आलोचना भी की है। लेकिन यथास्थिति तोड़ने के लिए जन-शक्ति का आह्वान नहीं किया है। हाँ, निजी स्तर पर स्वयं को कीचड़ से बचाने का प्रयास अवश्य किया है। इस प्रकार वह अपने समकाल से आँखें चार करने की कोशिश भी करते हैं।

           यहाँ यह भी काबिले-गौर है कि राहुल राजेश के इस पहले संकलन की कविताओं की भाषिक संरचना ‘लयात्मक’ है। उसमें गद्यात्मकता विरल है। भाव का सघन प्रभाव प्रेषित करने के लिए कई कविताओं में पद-विशेष की आवृति अनेक बार की गई है। वाक्य-विन्यास में सहज पदावली का संयोजन इस प्रकार किया गया है कि वह अन्य युवा कवियों की वाक्य-रचना से भिन्न है। यह राहुल राजेश की अपनी अलग पहचान है। लेकिन यह पहचान और अधिक अलग तब होती, जब कवि अपनी कविताओं में अपने गाँव, जनपद एवं प्रदेश के सामाजिक जीवन और भाषिक भूगोल का और अधिक समावेश करता।  हाँ, कहीं-कहीं सहायक क्रियापद ‘है’ का प्रयोग न करने से कविता में न्यून-पदत्व दोष आ गया है। यथा, ‘परिवार’ शीर्षक कविता में प्रत्येक अंश के अंत में ‘है’ क्रियापद की कमी खटकती है। विशेषणों के चयन में सावधानी बरती गई है। उपमा-रूपक-मानवीकरण सहज भाव से वाक्य-रचना में आए हैं।

        कुल मिलाकर, राहुल राजेश का यह पहला काव्य-संकलन न केवल पठनीय है, बल्कि संग्रहणीय भी है। यह संकलन आश्वस्त करता है कि वह “सिर्फ़ घास नहीं” से आगे बढ़कर द्वंद्वात्मक जीवन-दृष्टि से समकालीन सामाजिक गतिकी का प्रभावपूर्ण निरूपण करने के लिए श्रमशील नायकों को उपस्थापित करेंगे।  यथास्थित तोड़ने के लिए संभव विकल्प भी प्रस्तुत करेंगे। उम्मीद है, साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित “सिर्फ़ घास नहीं” की मानक वर्तनी का अनुसरण अन्य प्रकाशक भी करेंगे। और संकलन का मूल्य भी कम ही रखेंगे।

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समीक्ष्य कृति: सिर्फ़ घास नहीं/ कवि: राहुल राजेश/ प्रकाशक: साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली/

पृ. सं.:152/ प्रथम संस्करण (पेपरबैक): 2013/ मूल्य: 80 रुपए।

 पता: 
अमीरचंद वैश्य, 
चूना मंडी, 

बदायूँ (उत्तर प्रदेश)
मो.: 09897482597, 08533968269
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अमीर चंद वैश्य

करुणामूलक सात्विक क्रोध की कविताएँ
 
अमीर जी हर महीने एक संग्रह पर पहली बार के लिए विशेष तौर पर समीक्षा लिख रहे हैं। इस कड़ी में आप अशोक कुमार तिवारी, नित्यानन्द गायेन और सौरभ राय पर अमीर जी की समीक्षाएं पहले ही पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में इस बार प्रस्तुत है शंभू यादव के दखल प्रकाशन से अभी हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह ‘एक नया आख्यान’ पर अमीर जी की समीक्षा।

     आजकल हिन्दी-काव्य-संसार में कई पीढ़ियों के अनेकों कवि सर्जना-सलग्न हैं। पहली पीढ़ी वरिष्ठ कवियों की है, जो वयोवृद्ध हैं। दूसरी पीढ़ी कनिष्ठ कवियों की हैं, जिन्होंने अपनी-अपनी पहचान अर्जित कर ली है। और तीसरी पीढी उन विपुल कवियों की है, जिनकी अवस्था लगभग बीस-बाईस से चालीस-बयालीस वर्ष की है। इस पीढी के कुछ कवि तो अपनी पहचान बना चुके हैं। यथा- एकांत श्रीवास्तव, अष्टभुजा शुक्ला आदि. और अनेकों युवा कवि अपनी-अपनी पहचान के लिए निरंतर रचनाएं रच रहे हैं. यथा- सुरेश सेन निशांत, केशव तिवारी, संतोष कुमार चतुर्वेदी आदि।

     लेकिन कुछ युवा ऐसे भी हैं, जो कविताएँ तो बीसियों सालों से लिख रहे हैं. लेकिन उनके संकलन प्रकाश में नहीं आए हैं। हाँ, ऐसे किसी-किसी कवि का पहला संकलन प्रकाशित भी हो गया हैं। ऐसे एक कवि हैं श्रीयुत शम्भु यादव। 11 मार्च, सन 1965 को बड़कौदा ग्राम में जन्मे शम्भु यादव का पहला संकलन ‘नया एक आख्यान’ सन 2013 में प्रकाश में आया है। हरियाणा राज्य के जिले महेंद्रगढ़ के मूल निवासी शम्भु सम्प्रति दिल्ली-वासी हैं। लगभग 20-22 वर्षों से रचनाएं रच रहे हैं। पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा रहे हैं. ब्लॉगस पर भी उनकी कविताएँ देखी-पढ़ी जाती हैं।

    तीनों कोटियों के कवियों में अधिकतर कवि ऐसे हैं, जो पद-पुरस्कार और यश के लिए कोरे कागज़ कविताओं से भर रहे हैं। छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा पुरस्कार पाने के लिए नेपथ्य में दुरभिसंधियाँ बनाई जाती हैं। परिणाम में अच्छा सामने आता है। कवि को उसके दूसरे संकलन पर ही साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हो जाता है। वयोवृद्ध लेखक\कवि टापते रह जाते हैं। ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’ काव्य-संकलन मेरी बात की पुष्टि का सबूत है। एक समय था, जब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने आलोचना-कर्म से ‘अध्यात्म’ शब्द के बहिष्कार की बात निर्भीक भाव से कही थी। लेकिन आज का आलोचक ‘अशोक बाजपेयी की कविता के स्वराज्य का आध्यात्मिक पक्ष’ देख-परख रहे हैं। (दे.- जनपथ, जुलाई 2012, प्र. 47-52)

     केदार नाथ सिंह जैसे वरिष्ठ कवि सत्ता की सीकरी से कवियों के मधुर सम्बन्ध जोड़ना चाहते हैं। वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल कविताओं में शाब्दिक क्रीडा और चमत्कार का समावेश अवश्य करते हैं। उनकी कविताओं की तुलना में शम्भु बादल की कविताएँ अधिक लयात्मक और प्रभावपूर्ण प्रतीत होती हैं। कुँवर नारायण ‘हाशिए का गवाह’ में एक मात्र ‘नट’ को पाठक के सामने प्रस्तुत करते हैं।
कुछ कवि ऐसे भी हैं, जिनकी कविताएँ गद्यात्मकता से बोझिल मालूम होती हैं. लम्बे-लम्बे वाक्य कविता को अपठनीय बना देते हैं ऐसे कवियों में कुमार अम्बुज और बद्रीनारायण के नाम अग्रगण्य हैं।

    लेकिन कुछ कवि ऐसे भी हैं, जो निराला-केदार नाथ अग्रवाल-नागार्जुन-त्रिलोचन-मुक्तिबोध की संघर्षशील लोकधर्मी कविता-धारा को निरंतर प्रवहित कर रहे हैं ऐसे कवियों की सर्जना की धार व्यवस्थ-विरोधी होती हैं। जनपक्षधर होती है। वरिष्ठ कवि विजेंद्र, ज्ञानेंद्रपति, शम्भु बादल ऐसे ही कवि हैं। ‘कृति ओर’ के माध्यम से लोकधर्मी युवा कवियों को प्रकाश में निरंतर लाया जा रहा है। शम्भु यादव भी ऐसे ही कवि हैं, जो अपने अतीत वर्तमान और भविष्य को वर्गीय दृष्टि से देखते हैं। उनका संकलन ‘नया एक आख्यान’ इस वैशिष्ट्य का प्रमाण है।

     उपर्युक्त संकलन की कविताएँ अवधानपूर्वक पढ़ने के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है कि शम्भु यादव का कवि व्यक्तित्व सात्विक क्रोध से सम्पन्न है, जिसके मूल में मानवीय करुणा है। अत: कवि ने अपने सामाजिक-राजनैतिक दुष्ट परिवेश की तीखी आलोचना की है और भविष्य के समाज की सुषमा का सपना भी देखा है।

    संकलन की कविताएँ पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार अनायास याद आने लगते हैं –

“रक्त वर्षों से नसों में खौलता है
आप कहाँ हैं क्षणिक उत्तेजना है”

शम्भु यादव के संचित सात्विक क्रोध की झलक अमर्ष के रूप में पहली कविता ‘बिगड़ा आसपास’ में लक्षित हो रही है-

“यह कैसी गाद फ़ैली है
बीहड़ और बदबूदार
जहाँ भी पैर रखो, धंसते हैं
न इसमें पानी की तरलता
ठोसपन के कुछ सबूत भी नहीं
मायूस है संसार
यह कैसी फ़ैली है
बीहड़ और बदबूदार.” (प्र. 09)

हम चाहते हैं कि हमारा पर्यावरण विशुद्ध रहे और साथ ही साथ हमारे मन भी निर्मल रहें। लेकिन क्रूर पूंजीवाद ने अपने लाभ-लोभ के लिए क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर को तो प्रदूषित किया ही है, साथ –ही-साथ समाज में चारों ओर बीहड़-बदबूदार गाद फैला दी है। यह गाद है क्या। यह है विश्व व्यापी भ्रष्टाचार; जिससे आम आदमी परम दुखी है। वह स्वतंत्र होने हुए भी परतन्त्र है। उसे अपना प्राप्य करने के लिए भी सफेदपोश नेताओं-दलालों-अधिकारियों और उनके लगुओं-भगुओं को लाचार हो कर रिश्वत देनी पड़ती है। रिश्वत के दुष्ट प्रचलन ने निरन्न-निर्वस्त्र-निरीह जनों को मायूसी से लाचार करती रहती है। दुष्यंत ने भी जन-जन की यह लाचारी व्यंग्य के लहजे में इस प्रकार व्यक्त की है-

  इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है,
  हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है
 
भ्रष्टाचार ही वह ‘कीचड़’ अथवा ’बीहड़ और बदबूदार’ गाद है, जिसके कारण आम आदमी लाचार है। संसार मायूस है। आज व्यवस्था के प्रत्येक बड़े-छोटे कार्यालय में सफेदपोश माननीय महान अधिकारी विराजमान हैं। ऐसे महानों के दान की चर्चा तो घर-घर होती है. लेकिन लूट की दौलत छिपी रहती है। भ्रष्टाचार ही सम्पन्नों को और अधिक सम्पन्न बना रहा है. विपन्नों को और अधिक विपन्न।

    शम्भु यादव ने यह ज्वलंत यथार्थ का निरूपण आत्मीयता और व्यंग्यात्मकता से कई कविताओं में किया है। ‘एक आना सुख, पांच आना दुःख’ में शम्भु ने कई वर्गों के सुख-दुःख का वर्णन किया है। कविता के अंत में गरीबों अर्थात किसानों-मजदूरों की लाचारी का आत्मीय वर्णन इस प्रकार किया है-

“थकाता रहा है शरीर को सुबह से शाम (तक)
गरीब मजदूर –किसान
परन्तु उसे मिला ही क्या
एक आना सुख
वो भी काई लगा
बाकी पांच आना दुःख।” (प्र. 28)

लेकिन कंजूसों-अमीरों पर सटीक व्यंग्य भी किया है-

“कंजूस को चवन्नी खोने का दुःख
साहूकार रंग वदले है बार-बार
कभी करता व्यापार
कभी दलाल कभी ठेकेदार
काइयां पाता है सुख ही सुख.”(प्र. 27)

कवि ने सुख-दुःख के और भी कई रूप अंकित किए हैं, जो सामाजिक विषमता से जन्मे हैं। लेकिन वर्तमान पीढी ‘एक आना सुख, पांच आना दुःख’ का पुराना मुहावरा तुरन्त नहीं समझ सकती है।
   
    ‘नया ज़माना’ कविता में भी लक्ष्मीपतियों पर व्यंग्य-प्रहार किया गया है। लोक-मान्यता है कि दिवाली के दिन घर के द्वार खुले रखने चाहिए, जिससे लक्ष्मी जी घर में प्रवेश कर सकें। घर को प्रकाशमान रखना चाहिए। लेकिन होता क्या है-

“अब एक ज़माना है
लक्ष्मी कुछ ही घरों में कैद
कंप्यूटराइज्ड तालों में बंद इन घरों के द्वार
बाकि(बाकी ) अधिकतर को भी भ्रम नहीं
लक्ष्मी आ जाएगी उनके घर सेंत-मेंत.” (प्र.36).

वास्तविकता तो यही है कि लक्ष्मी धनकनों के ही घर में प्रवेश करती है। धनवान तो धन से और धन कमाता है। अपनी चालाकी से। हेराफेरी से। टैक्स की चोरी करके। लाचारों का शोषण करके। अधिकतम सूद-दर से।

    वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के स्वामी इतने महत्वाकांक्षी हो गए हैं कि वे अब चन्द्र-लोक में ‘प्लाट्स’ बनाने का सपना देखने लगे हैं, जबकि चंद्रमा अंधेरी रात में मार्ग आलोकित करना चाहता है-

“महानगर महत्वोन्माद से पीड़ित है
………. महानगर अटकल लगा रहा
चाँद का किसी तरह प्रत्यक्ष दोहन कर सके
खोजता जीवन के स्रोत चाँद पर
काट रहा है प्लाट्स ….”(प्र. 46)

आजकल दोहन खूब हो रहा है. किनका. प्राकृतिक सम्पदाओं का। खनन माफिया धनबल और बाहुबल से जल, जंगल, जमीन, रेत, कोयला, आदि का निरन्तर दोहन कर रहे हैं. मंत्रियो, नेताओं, बेईमान अधिकारियों को मोटी रकम दे कर। यदि कोई ईमानदार अधिकारी उन के रास्ते का पत्थर बनता है तो उसे किनारे लगवा देते हैं अथवा उनका काम तमाम कर देते हैं।

( चित्र-  कवि शंभू यादव )

     दुनिया को उम्मीद थी कि बीसवीं सदी में उसकी तस्वीर बदलेगी. लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका। सोवियत संघ का त्रासद विघटन हुआ। समाजवाद पर से लोगों का विश्वास उठ गया। शताव्दी के अंत से पूर्व संचार क्रांति अस्तित्व में आई। एक ध्रुवीय दुनिया होने के कारण अमरीका का वर्चस्व बढ़ने लगा। भूमंडलीकरण-निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों ने भारत जैसे देश में पूंजी की जड़ें और मजबूत कर दीं पूंजीपति ’भाड़ में जाय दुनिया, हम बजाएं हरमुनिया’ को चरितार्थ करते हुए करोडपति से अरबपति बनने लगे. मध्यम वर्ग भी पैसे के पीछे दौड़ने-भागने लगा। ऐसी त्रासद दुनिया के कुछ भीषण वास्तविकताएं शम्भु यादव ने ‘बीसवीं सदी के अंत में अर्थात इस जहन्नुम में’ प्रत्यक्ष की हैं। एक अंश देखिए और कवि का आक्रोश समझिए-

“ ठगी सबसे बड़ा नियम बीसवीं सदी के अंत में
एक छलांग लगाओं पहुँचो पृथ्वी के उस छोर
जो मर्जी तरीका अपनाओ
बस एक ही इच्छा रहनी चाहिए सुप्रीम
जेब भर जाए गिन्नियों से
वापस छलांग, आ जाओ इस छोर
चाहो तो न आओ, वहीँ आनन्द मनाओ.’” (पृ. 43).

कवि का आक्रोश उचित है। 20वीं सदी के अंतिम दशक से आजतक धन की भूख निरंतर बढ़ती रही है। करोड़ों-अरबों के घोटाले उजागर हुए हैं। अमरीका में क्रूर पूंजी के विरुद्ध प्रदर्शन भी हुए हैं। अन्य देश में भी क्रूर व्यवस्था के खिलाफ जनशक्ति का प्रदर्शन हुआ है।

     भारत जैसे विकासशील राष्ट्र ने लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा त्याग दी है। अमरीकी साम्राज्य की पूंजी का निवेश किया जा रहा है। भारत के जन-गण स्वयं को परतन्त्र समझ रहे हैं। लेकिन व्यवस्था मुक्ति का ‘दृश्य जारी है’ का अनुसरण कर रही है। अब उसने

‘खुद चित्रकारी छोड़
भाड़े का चित्रकार नियुक्त किया
चित्रकार का काम
चिड़ियों को मुक्त करना हर चित्र में
जारी है बेखटके
मुक्ति का यह दृश्य।” (पृ. 49).

     आशय यह है कि अपना शासन चलाए रखने के लिए कोटि-कोटि अकिंचनों की गरीबी दूर करने के लिए व्यवस्था मुक्ति का नाटक करती रहती हैं। जब तक भारत में विदेशी पूंजी आती रहेगा, कुछ पूंजीपति घरानों में लक्ष्मी कैद रहेगी, बेईमान नौकरशाहों का वर्चस्व रहेगा, लोकतंत्र धनतंत्र रहेगा, तब तक भारत क अकिंचन जन मुक्ति का सच्चा बोध समझ ही नहीं पाएँगे।

     शम्भु यादव वर्तमान भारत की जन-विरोधी व्यवस्था के दुष्ट चरित्र से भली भांति परिचित हैं और अमरीकी साम्राज्यवाद की कुटिल नीतियों से भी। अत: उन्होंने कई कविताओं में पूंजीवादी लोकतंत्र और अमरीकी युद्धनीति की तीखी आलोचना की है।
 
     ‘जय बोलो महात्मा गांधी की’ शीर्षक लम्बी कविता में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल से वर्तमान भारत की विसंगतियों और श्रमशील जानो के अभावों का निरूपण आत्मीय ढंग से करते हुई आज के भारत की वास्तविकता चलचित्र के रूप में प्रत्यक्ष की है। इस कविता में शीर्षक के नीचे भगत सिंह का यह कथन ( ) में उद्धृत किया है- ‘किन्तु उसके बाद जो भी होगा, वह भी लूट और स्वार्थ का राज होगा।’

     आठ अंशों में विभक्त यह कविता पढने-समझने के बाद भगतसिंह कथन सत्य लगने लगता हैं। आजादी के बाद से राजनेताओं, पूंजीपतियों, उच्च अधिकारियों आदि ने लूट-मार का जो सिलसिला शुरू किया था, वह आज सर्वाधिक भयंकर और त्रासद रूप में दिखाई पड़ रहा है। प्रेमचंद के प्रतिनिधि चरित्र होरी-धनिया-गोबर आज भी जस के तस हैं। कर्ज के बोझ से झुके हुए दुखी किसान आत्महत्या करने लगे हैं वे अपने अपने शरीर के अंग बेचकर ऋण-मुक्त होना चाहते हैं। अपनी जायज़ मांगों की पूर्ति के लिए वे प्रदर्शन भी करते हैं। कवि ने इस लम्बी कविता में ‘लोक’ की व्यथा और ‘तन्त्र’ की लूट का उल्लेख निर्भीक भाव से किया है। कुछ अंश पढ़िए और कवि का मूल मनोभाव समझिए।
सन 1947 में आज़ादी मिलने के बाद स्वदेश में क्या घटित हुआ, उसे समझिए-

“गाँधी टोपी पहन मंत्री ने ढोल पिटवाया
’अभी से जनता के काम होंगे’
जिलेदार का सैल्यूट खनका
फिरंगी पिंजड़े से आज़ाद चिड़िया हर्षित
मैना ने गाया मधुर गीत
खूंटे बंधी गाय रंभाई
गधा मस्ताया
होरी की आत्मा भी झूम गई
’हाँ, हम सब खुशहाल होंगे’.”(पृ. 84).

लेकिन होरी का सपना साकार नहीं हो सका, क्योंकि

“मंत्री रंगा सियार हुआ
बजवाया जो ढोल
खुल गई उसकी पोल
घूमता देश-विदेश
अपने लिए बनवाया बड़ा बाग़
बाग़ बीच ऊँची अटारी
जहां साथ उसके दमड़ी सेठ
शिकार को आया विदेशी व्यापारी
चारों ओर चौकस पहरेदारी.”(पृ. 85, 86)

विदेशी व्यापारियों की पूंजी आज के भारत में तो और अधिक फल-फूल रही है। यह विदेशी पूंजी अंग्रेजी भाषा उसकी अपसंस्कृति का वर्चस्व बढ़ा रही है। भारतीय जन अपनी-अपनी भाषा और संस्कृति का महत्व भूलते जा रहे हैं। विशेष रूप से हिंदी जाति के लोग. कवि ने निर्भीक ढंग से बेधक भाषा में ‘आवारा पूंजी’ की आलोचना करते हुए नाना प्रकार के अभावों और ज्वलंत प्रश्नों से झुलसते रहनेवाले आज के भारत की चिंताजनक तस्वीर प्रस्तुत की है-

“अनेकों तिमिराच्छादित गड्ढे भारत में
दुर्गन्धित नदी-नाले
स्लम बस्तियां विस्तारित
पानी की चिर तलाश में पनिहारिन
कोसों बालू में जले हैं पैर
 …..तपेदिक का झाला पहने फेफड़े
पाताल लोक में धंसी खाप पंचायतें
जनता में समता चाहने वालों के जातिवादी टोटके
भटकन और भटकन
लाल परचम की सलवटों में दबी
जनता की चाहत की उम्मीद
‘हम सब कब खुशहाल होंगे’.(पृ. 93).

मानवीय करुणा से उद्भूत सातिव्क क्रोध से संकलित यह लम्बी कविता कवि को शोषित जनों का पक्षधर सिद्ध करती हैं। सम्पूर्ण प्रबल भावावेग से अन्वित है। अतएव प्रभावपूर्ण है।

शम्भु यादव की यह लम्बी कविता यह सद्भावना व्यक्त करके समाप्त होती है-

“सब को रोटी मिले, मिले रोजगार
भूख से न दुखे जनता की आँतें
शोषण न हो किसी का.”(पृ.94)

यह पढ़ते हुए एक प्रश्न उपस्थित होता है कि यह सद्भावना कैसे पूरी होगी। कवि ने इस कविता में कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं किया है। लेकिन कुछ अन्य कविताओं में व्यवस्था-परिवर्तन की ओर संकेत अवश्य किए गे हैं। ’संहार’ शीर्षक कविता में खून पीनेवाल मच्छर के मृत शरीर के माध्यम से शोषकों के सचेत किया गया है। ऐसा संकेत पर्याप्त नहीं है। एक व्यक्ति का प्रतिरोध अकेले कंठ की पुकार सिद्ध होता है। फिलहाल तो ’निर्दयी तेंदुआ’ निरीह हिरन की जिजीविषा पर’ झपट पड़ता है। बार-बार। ‘नाटक के अंतिम अंश में’ कवि की सामूहिक प्रतिरोध का भी उल्लेख किया है-

“नाटक के इस अंतिम अंश में
मैं विचार रहा हूँ
सहस्र (सहस्रों) आशाओं की ताकत का एक सजीला वार
और
ध्वंस खलनायक की बहरूपिया अदाओ का.”(पृ. 83)

     विश्व में अपनी दादागिरी का डंडा चलाने वाले ‘अमरीकी हुक्मरान’ के ‘जंग-अनुराग’ की तीखी आलोचना करते हुई ठीक कहा गया है-

“उनकी मनोभूमि में जंग से भुलोक का राज
जंग ही के बात तो किया जा सकता है दान-दक्षिणा का महाकाज
जंग उनके लिए(है) थकानहरणी स्टिमुलस डोज़”(पृ.81)

प्रसंगवश, शमशेर की प्रसिद्ध लम्बी कविता ‘अमन का राग’ याद आ रही है, जिसमें अन्तरराष्ट्रीय शान्ति के लिए वैश्विक सदभाव और संस्कृति दोनों व्यक्त किए गए हैं। लेकिन साम्राज्यवादी अमरीका कम ताकतवर मुल्कों पर आक्रमण करता रहता है, जिससे उसके स्वार्थ पूरे हो सकें। आज कोई भी समझदार राष्ट्र नहीं चाहता है कि क्यूबा जैसे समाजवादी देश पर अमरीका की  गिद्ध दृष्टी पड़े. अत: शम्भु यादव अमरीका की कूटनीति की तीखी आलोचना करते हैं। ‘अंकल सैम का अपनापन’ में वह अमरीका के चालाक और दुष्ट चरित्र का उदघाटन व्यंग्य रूप में करते हैं।

     भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आर्थिक निवेश से आर्थिक पराधीनता बढ़ रही है और किसानों को सर्वाधिक नुकसान हो रहा है। संकलन की कविता ‘आंशका’ के माध्यम से विदेशी चूहों की कुतर-कुतर से आर्थिक हानि की आंशका उत्पन्न हो गई है। इसीलिए कवि ने चिंता व्यक्त करते हुए ठीक लिखा है-

“समय के इस गहरे अंधियारे में
चिंता की बात है यह ‘कुतर–कुतर’
घर की बहुमूल्य चीज़ों को
कहीं कर न ले गपक हज़म।”(पृ.37)

     संचार क्रांति ने दुनिया इतनी बदल दी है कि आजकल बच्चे अपने परिवेश-पर्यवेक्षण से तो कम सीखते हैं, लेकिन टी.वी. के माध्यम से बहुत अधिक जानते पहचानते हैं। कवि के अनुसार यह ‘बदलाव’ चिंताजनक है, क्योंकि आजकल के अबोध बालक-बालिकाएं टी.वी. सीरियल और विज्ञापनों की गिरफ़्त में आ चुके हैं। अत: उन्हें नहीं ज्ञात हो पाता है कि

“आसपास कौन से पेड़ लगे हैं
किसी पक्षी की आवाज़ सुन
उसे पहचानने की चाह नहीं (है)।”

     वर्तमान विषमता के त्रासद दौर में असमानता की खाई इतनी चौड़ी हो गई है कि

“दुल्हन की एक जूती की कीमत इतनी है कि
भारत देश के सौ गरीब
जीवन भर के लिए
अपने खान-पान का जुगाड़ कर लें.”(पृ. 75)

     आजकल के पूंजीपतियों और अन्य धन-लोलुपों ने जल-जंगल-जमीन का इतना दोहन किया है कि प्राकृतिक परिवेश मनुष्य के प्रतिकूल हो गया है. उत्तराखण्ड के भयंकर प्रलय काण्ड ने यह वास्तविकता उजागर कर दी है। शम्भु यादव भी प्राक्रतिक परिवेश के चिंतातुर हैं। उनका ‘संकल्प’ है कि चिड़ियों के नीड़ों की रक्षा होती रहे और इसीलिए ‘हरे-भरे दरख्तों को बचाकर रख जाए।’(पृ. 78) और प्रत्येक ‘चिड़िया’ पानी पीने के लिए न तरसे, क्योंकि पूंजी ने ‘पानी’ को बोतलों में कैद कर दिया है। प्यासी चिड़िया अब अस्तित्व से संघर्ष कर रही है। इसीलिए

‘वह नज़र मार रही है
बंद पानी की बोतल के कमजोर हिस्सों पर
वह तलाश में उचित समय की
वह इकट्ठा करना चाहती है बहुत साथी
एक साथ साधा जा सके निशाना.”(पृ. 77).

यह है सामूहिक प्रतिरोध का संकल्प एक छोटी सी चिड़िया के माध्यम से। दुष्यंत कुमार ने भी ऐसा आशय अभिव्यक्त किया है-

                परिंदे अब भी पर तोले हुए हैं,
                हवा में सनसनी घोले हुए हैं।

भूमंडलीकरण-निजीकरण-उदारीकरण के उत्तर आधुनिक के क्रूर दौर में पूंजी का वर्चस्व और उसकी चमक तो और अधिक चमत्कृत कर रही है। महानगरों में तो सबसे से अधिक. नगरों में कुछ कम। ग्रामों में भी झिलमिला रही है। महानगरों में तो संपन्न जन गगनचुम्बी भवनों के मालों में रहते हैं। शान से। अपने पड़ोसियों से लगभग अपरिचित। ऐसे भव्य भवन कैसे बनते हैं। इस प्रश्न का उत्तर कवि ने ‘यहाँ दसवें माले पर मेरा घर है’ में लिखा है-

यह कोई बस्ती नहीं है
यह कोई मोहल्ला नहीं है
यह मल्टी स्टोरी एयरकंडीशन अपार्टमेंट्स हैं
सुना है पहले इस जमीन बसी
झुग्गियों में रहते थे जो
अब महानगर से बाहर, विस्थापित
और यह भी सुना है पहले जितने बाशिन्दे थे यहाँ
उसका (उनके) चौथाई ही नए बाशिन्दें (हैं).”(पृ.82)

     शोषण की बुनियाद पर खडी इस दुखद व्यवस्था में आम आदमी परेशान हैं। संत्रस्त है। उसे  आशंका सताती रहती है कि उस के अभावग्रस्त जीवन में कहीं भी कुछ भी दुर्घटित हो सकता है. ऐसी ही वैयक्तिक मनोदशा कवि ने ‘खौफज़दा मैं’ में इस प्रकार की है-

“खौफजदा मैं
आजकल अपने में ही बंद हूँ
टटोल रहा हूँ अपने उन मजबूत शब्दों को, जिसमें
भाई-भतीजावादी तंत्र के खिलाफ़
संघर्ष की बुलंद आवाज़
जीवन की हेठी जहालत में
कम से कम ‘संघर्ष की बुलंद आवाज़’ वाले शब्द तो बच जाएँ।”(पृ.62)

इस छोटी सी कविता के वाचक “मैं” में वैसे ही खौफ़ की झलक है, जिसका विस्तृत वर्णन मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ की फैंटेसी में किया हैं।
 
     आचार्य शुक्ल ने अपने निबंध ‘कविता क्या है’ में कविता में ‘चमत्कारवाद’ और माननीयों की अनावश्यक प्रशंसा दोने की निंदा की है। उनके अनुसार मनुष्य ‘लोकबद्ध’ प्राणी है। अत: कविता को भी लोकनिष्ठ होना चाहिए। शम्भु यादव की कविताएँ शुक्ल जी के प्रतिमानों का सम्मान करती हैं। वह ‘कविता में जादू’ का अस्तित्त्व अस्वीकारते हुए ‘चमत्कारवाद’ का निषेध करते हैं। उनकी सजग दृष्टि पसीना बहानेवाले लोगों की जीवंत क्रियाओं पर केन्द्रित होती है। अनायास। अपने स्वाभाविक रूप में। वहीँ से उन्हें प्रतिरोध का बल प्राप्त होता है। ‘कवित में जादू और सजग मैं’ में वह अपनी ठीक जीवन-दृष्टि का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं-

 “पढ़ते-सोचते सजग हुआ जब मैं, पाया
गुजर रहा हम एक लुहार बस्ती से
चिलचिलाती धूप
गर्मी का भीषण प्रकोप
तेज साँसों की धौंकनी
भभकी हैं भट्ठी की लपटें
जीवन के काम आने लायक आकर रूप ग्रहण करता सुर्ख लोहा
खिचड़ी ढाढी वाला सचेत बोलता है- ‘घन मार घन’.”(पृ.64)

   ऐसी कविताओं का आकर्षक रूप निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ जैसी प्रसिद्ध कविता के अलावा केदारनाथ अग्रवाल, विजेंद्र जैसे कवियों के काव्य में परिलक्षित होता है। अग्रवाल जी की एक कविता ‘एक हथौड़ा वाला और हुआ’ अनायास याद आ रही है. विजेंद्र की चरित्र प्रधान कविता ‘अल्लादी शिल्पी है’ भी. विजेंद्र तो श्रमशील कृषक और श्रमिक को अपनी कविता का नायक मानते हैं। वह श्रम-सौन्दर्य के समर्थ स्रष्टा हैं। शम्भु यादव भी मानते हैं कि

‘यही रहे गाथा के केन्द्र में भी’.(पृ.65)

‘यही’ अर्थात कारखाने में सक्रिय श्रमिक. क्योकि

“फैक्टरी में
गतिशील गरारी से रगड़ता है जब बर्तन
बिखरता हवा में बदबूदार काला जहर
श्रमिक के फेफड़ों पर ढहता कहर
………याद रखा जाए कि
इतिहास में इसी के हिस्से आया है
सब से ज्यादा विषवमन
यही रहे गाथा के केंद्र में भी।”

     समीक्ष्य संकलन में एक श्रेष्ठ कविता है : ‘बीरबानी’, जिसमें कवि ने हरियाणवी गाँव की श्रमशील गृहिणी की दैनिक सक्रियता का वर्णन बांगरू बोली के अनेक शब्दों से अन्वित आधुनिक हिन्दी से समृद्ध किया है। कविता का स्थापत्य कलात्मक है। सम्पूर्ण कविता की भाषिक सरंचना में स्थानीय वोली के अनेक शब्दों- तुड़े, थाण, कूड़ी, चूची, चरड़-चरड़, गोटेवाली लुगड़ी, धणी, छाय, गंठी, लावणी, बांकली, गुड़धाणी, भरौटा, साथ हाथ उन्डें कुएं, हारे, टाबर, मौटियार का सार्थक प्रयोग करके कवि ने अपनी विशेष पहचान प्रत्यक्ष की है। इन शब्दों और पदों की अर्थ सम्पूर्ण कविता अवधान पूर्वक पढने के बाद समझ में आते हैं. इस कविता का अंश पदिये और समझिए-

‘टाबरों को थपेड़
वह काजल लगाती
भीतरवाले कोठे में लेटी है
मौटियार के बगल
चुड़ियों की खन-खन
बस-बस
अब वह सो जाना चाहती है
दो घड़ी के लिए।’(पृ.11)

    यह कवितांश वाच्यार्थ से व्यंग्यार्थ भी अभिव्यक्त कर रहा है। दाम्पत्य जीवन का स्वाभाविक अनुराग. ‘टाबरों’ का अर्थ है बच्चों को। ‘मौटियार’ का अर्थ है ‘पति अथवा भरतार। 
    शम्भु यादव अपने विवेक से पुरातन स्वार्थी मूल्यों का तिरस्कार करते हैं। उन्हें अपने ‘पिता की सीख’ स्वीकार नहीं है कि

‘सच बड़ा पेटखोर ही बेटा!
झूठ के व्यापार में हाथ आजमाना.’(पृ.12)

यह कविता पढ़ते हुए प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘नमक का दरोगा’ याद आने लगती है. ‘पृथ्वी, मेरी माँ और भूकम्प’ के अंत में कवि सोचता है कि

“इस देश में करोड़ों लागों के अनेक विश्वास
और अनेक प्रभुत्वशाली अंधविश्वास
कुछ अनायास बने हैं
कुछ को अपनाया गया है सोच-समझ
कुछ का तो धंधा ही जोर पकड़ें है
अंधविश्वासों के बैनर तले
क्या अंधविश्वास फैलाना हिस्सा है सत्ता की सोच का?”(पृ.15)

   शम्भु यादव का प्रश्न तर्कसंगत है। जीवन-जगत के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि से देखना-समझना अनिवार्य है। सम्यक ज्ञान की धार से आम लोगों के बंधन कटते हैं।

   भारतीय भाववादी दर्शन की यह अवधारणा कि आत्मा अजर-अमर है। मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होता है। व्यक्ति अपने जीवन में पूर्व-जन्मों के शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगता है। यदि कोई गरीब है तो पूर्व जन्म के दुष्कर्मों के कारण। अत: वह भाग्यवादी हो जाता है। सत्ता-व्यवस्था इस अंध-विश्वास का लाभ उठाती रहती है। लेकिन अब विचार बदल गए हैं। अब यह माना जाता है कि गरीबी-अशिक्षा-अस्वास्थ्य शोषक व्यवस्था के कारण हैं। भाग्य के दुष्परिणाम नहीं।

    आज़ादी के बाद जो पूँजीवाद लोकतंत्र की व्यवस्था आई, उसने विषमता को बढ़ाया ही है। घटाया नहीं है। इस व्यवस्था के ‘जाल’ में प्रत्येक व्यक्ति लाचार है। इसीलिए शम्भु यादव ने लिखा है-

“अभी मेरे मुक्त होने का
इन्तजार मत करो माँ
अभी तो इनके रंग में रंगा बन्दा मैं
कैंडल लाइट डिनर में सजा
जलता मोम गलता (हूँ).”(पृ.17)

   आजकल यह ‘जाल’ ‘देश में आर्थिक सुधार और विश्व बैंक के कर्ज’ के कारण जी का जंजाल बन गया है. ‘कर्ज’ के लिए पांच सितारा होटल में ‘बैठक’ आयोजित की जाती है और अधिकारियों के लिए शानदार कॉन्टिनेंटल भोजन के  साथ ‘आयातित विदेशी शराब का प्रबंध भी’ किया जाता है.(पृ.22)
   कवि को अपना ‘समय’ ‘क्रिकेट की गेंद सा’ प्रतीत होता है, जिसे मनुष्य निरन्तर खेल रहा है। वह कभी महानायक के रूप में चौके-छक्के लगाता है। और कभी ‘बोल्ड’ हो जाता है। समय का महाचक्कर कब तक चलता रहेगा। शायद निरन्तर. लेकिन प्रश्न यह है कि इस खेल से अर्थात पूंजी के दुष्कृत्यों से आम आदमी को राहत कैसे प्राप्त होगी। संवेदनशील कवि महसूसता है कि ‘दुखिया दास कबीर’ के समान तर्कशील होकर कुछ सोचना होगा। और जोखिम भी मोल लेना होगा। लोकतंत्र में भी माननीयों को अपनी आलोचना अरुचिकर लगती है। तर्कशील कवि को लगता है कि
 
‘सब तरफ ‘घपला’ शब्द सुनने को आता है
फासिस्ट सोच का कायल उसका पड़ोसी डाक्टर
क्यों हुई उसे इसकी जरुरत!?
संसद की सीढ़ियों पर चढ़ते सांसद की गलीज़ नैतिकता
पिशाचनी-पूंजी के विकराल मुँह में ज़ज्ब इतना बड़ा लोकतंत्र!”(पृ.24)

    कवि की यह प्रश्नवाचक मुद्रा उनके बेचैन मन की साक्षी है। कहावत मशहूर है कि सबसे भले हैं वे मूढ़, जिन्है व्यापै न जगत गति. लेकिन संवेदनशील कवि मूढ़ नहीं है, अपितु तर्कशील है. तभी तो वह उस दुखिया दस कबीर को याद करता है, जो गागता है और रोता है. अपने दुःख के लिए नहीं, बल्कि सामूहिक दुःख-निवारण के लिए. कबीर का निर्भीक कथन है-

    कबीरा सोई पीर है, जो जानै परपीर।
    जो परपीर न जानही, सो काफ़िर बेपीर।।

     शम्भु यादव भी ‘परपीर’ आत्मसात करके अपनी संवेदना निरीह जनों के प्रति व्यक्त की है। ‘अभिलाषा’ में सड़क-किनारे चूल्हा जलाने का प्रयास कर रही है। लक्कड़ गीला है. और वह परेशान हो रही है, क्योंकि

‘देखो तो
उगला है धुआं ही धुआं
गूंज रही है फूंकनी की आवाज़
फेफड़ों में धांस.”(पृ.35)

‘एक ताजा वाकया ‘ में दुर्बल कायावाली अनाम स्त्री के परिवार को एक सम्पन्न परिवार ‘हिकारत भरी दृष्टि भी’ नहीं डालता है. लेकिन उसके बाद अचानक घटना घटी-

“और जब वह आदमी
अपनी छोटी सी गाड़ी के पास पहुंचा
एक तेज रफ़्तार बड़ी आगे निकली
उस आदमी को पीछे धकेल
बड़ी गाड़ी का ऊँचा बम्पर
उस आदमी की आँखों में खटक गया.”(पृ.39)

    ‘एक ताजा वाकया’ से स्पष्ट व्यक्त हो रहा है कि इस विषमतापूर्ण समाज में प्रत्येक ‘बड़ी गाडीवाला’ ‘छोटी गाड़ीवाले’ की उपेक्षा करता है। उसे देखता तक नहीं है. छोटी गाड़ीवाला पैदल चलनेवाला विपन्न परिवारों की उपेक्षा करता है। यह सामजिक व्यवहार वर्गीय दृष्टि से देखा-समझा जा सकता है, जो कवि की जीवन-दृष्टि है। साहिर लुधियानवी ने यही कहा है –

       ले दे के अपने पास फकत इक नज़र तो है,
       क्यों देखें जिन्दगी को किसी नज़र से हम।

   शम्भु यादव भी अपनी निजी विवेक दृष्टि से समाज के निम्न वर्ग, मध्यमवर्ग, उच्चवर्ग को देखते-परखते हैं। अर्थ की प्रधानता से पारिवारिक संबंधों का विश्लेषण करते हैं। मानवीय सभ्यता के इतिहास के साथ-साथ अपने देश की ऐतिहासिक घटनाओं की परख करते हैं। लोलुप राजनैतिक सत्ता और धार्मिक सत्ता के स्वार्थी गठबंधन की आलोचना करते हैं। साम्राज्यवाद का दुष्चक्र भी समझते हैं। फिलिस्तीन की भी चिंता करते हैं।

  ‘दांव’ शीर्षक कविता में अपनी माँ के देहांत के बाद दोनों भाई मन-ही-मन जो सोचते हैं, वह अर्थ प्रधान युग के अनुरूप है. वे रात में एक-दूसरे के ‘दिल’ की टोह लेते हैं-

“वो भी कम से कम संवाद में
कैसे बाटने हैं खेत
कौन सा कोठा किसका होगा
छप्पर पर होगा किस का अधिकार
घाघ दिमाग में लालची दांव
प्रकट न हो बनाव
दोनों मानते हैं माँ के साथ ही
सिधार गया है गाँव से उनका सम्बन्ध” (पृ.48)

    प्रसंगवश यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गाँव से शिक्षित और अर्ध शिक्षित युवकों का सम्बन्ध-विच्छेद अमंगलकारी सिद्ध हो रहा है। गाँव की पिछड़ी दशा में सार्थक सुधार तभी संभव होगा, जब दृष्टि-सम्पन्न शिक्षित युवक निर्भीक भाव से प्रगति के लिए समता-बंधुता-स्वतंत्रता की दिशा की ओर उसे प्रेरित करेंगे। जातिवाद और सम्प्रदायवाद की काट किसानों-मजदूरों की एकजुटता अनिवार्य है। अत: शम्भु यादव जन-गण से अपेक्षा करते हैं कि वह अन्याय का प्रतिरोध करे। लेकिन ऐसा कम हो रहा है, क्योंकि

‘वह अन्याय का प्रतिरोध करने में चूकने लगे हैं
निष्क्रियता का लिबादा पहन बैठ  गए हैं
परन्तु हुआ कुछ ऐसा, वो
बच्चियों को गर्भ में ही
मारने के इंतजाम में शामिल हो गए.”(पृ.76)

     मानव जीवन की सुरक्षा के लिए पर्यावरण की अनुकूलता अनिवार्य है। मानव मात्र का कर्तव्य है कि वह अपने प्राकृतिक से अनुराग करे। उस की निरन्तर रक्षा करे. शम्भु यादव ने ऐसा ही शुभ संकल्प माँ की ‘बरसी’ में इस प्रकार व्यक्त किया है-

 “गूंजती है माँ की आवाज़
जीवनदायक जितनी भी चीज़ें प्रकृति में(हैं)
अदा हो उनका शुक्रिया
घर में बसी तुलसी को सहलाता
आज माँ की बरसी है.”(पृ.79)

     संकलन की अंतिम कविता ‘नया एक आख्यान’ में शम्भु यादव ने ‘छायादार विशाल बरगद’ के प्रतीक के माध्यम से मानवीय सभ्यता-संस्कृति के विकास का संक्षिप्त इतिहास संकेतित करके प्रतिरोध-भावना भी व्यक्त की है। ‘बरगद’ समाजवादी व्यवस्था का प्रतीक है। इस प्रतीक का सम्यक प्रयोग ‘अंधेरे में’ भी किया गया है। मानव-सभ्यता के प्रारम्भ में गण-व्यवस्था थी। भारत में भरत गण की प्रधानता थी। इसीलिए हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। ऐसा अभिमत डा. रामविलास शर्मा का है। यह भी माना जाता है कि प्रारम्भ में समतामूलक व्यवस्था थी. सम्पत्ति के कारण समाज समता से विषमता की ओर बढ़ने लगा। शम्भु यादव ने विशाल छायादार बरगद को समतामूलक सामजिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया है कि

“जहाँ बैठ हुक्का गुड़गुड़ाते बुजुर्ग
राजनैतिक चेतनशीलता जन-जन को समझाते
मानव की कहानी में सौन्दर्य को (?) बढ़ाते।” (पृ.95)

लेकिन कालान्तर में सत्ता ने अपने स्वार्थ के लिए उस विशाल बरगद पर ‘भूतनी का वास’ मान कर भ्रम फैलाने का कूट प्रयास किया. परिणामस्वरूप समाज में सत्ता के लिए ‘सन्धि’ और ‘विग्रह’ प्रारम्भ हो गया। उस बरगद और चबूतरे का अस्तित्व समाप्त हो गया। दोनों जमीन में धंस गए। अर्थात समाज में विषमतामूलक सत्ता का वर्चस्व कायम हो गया। शोषण का ‘दानव’ अपने प्रपंच के लावे से आम आदमी को झुलसाने लगा। वर्तमान काल की पूंजीवादी व्यवस्था भी ऐसी ही है। आज कल दुनिया में मनुज अथवा इंसान का नहीं अपितु दनुज अथवा क्रूर आदमी का वर्चस्व है। लेकिन कवि प्रतिरोध की भाषा में कहता है कि

कुछ उग्र नजरों के कारक रूप
आख्यान की व्याख्या की कलम तोड़ने की फ़िराक में हैं.”(पृ.96)

अर्थात कुछ ज्ञानी जन सभ्यता-संस्कृति की मिथ्या बातें समाप्त करके मानव-इतिहास का प्रगतिशील आख्यान लिखना चाहते हैं। हम जानते हैं कि समाज में पूर्ण समानता संभव नहीं है। तर्क दिया जाता है कि हाथ की अंगुलियाँ भी समान नहीं होती हैं. ठीक है. लेकिन मनुष्य के दोनों हाथों की अंगुलियाँ समुपात रूप में कुछ छोटी-बड़ी होती हैं. उनमें जमीन-आसमान का अन्तर नहीं होता है। वर्तमान समाज में तो जमीन-आसमान का फर्क है, जो सुषमा के लिए बाधक है। यह अन्तर जन-शक्ति ही मिटा सकती है. वह सक्रिय है. इसीलिए साहिर लुधियानवी ने कहा है-

         माना कि इस जमीं को न गुलज़ार कर सके ,
         कुछ खार कम तो कर गए, गुजरे जिधर से हम।
 
     साराश यह है कि वर्गीय जीवन-दृष्टि से अपने समय, समाज और इतिहास को आलोचनात्मक ढंग से निरख-परख करके शम्भु यादव ने ‘नया एक आख्यान’ संकलन के माध्यम से उपर्युक्त प्रयास किया है। उनकी कविताओं में करुणामूलक सात्विक क्रोध एवं अमर्ष की अभिव्यक्ति व्यंग्य के रूप में हुई है। उनकी भाषिक संरचना में सहज बोधगम्य पदावली के साथ-साथ स्थनीय बोली और अंग्रेजी भाषा के सार्थक शब्दों का प्रयोग हुआ है। हाँ, कहीं-कहीं न्यून पदत्व दोष आ गया है। उस कमी की ओर, संकलन से उद्धृत अंशों में अभीष्ट क्रियापद ( ) में लिखकर किया गया है। दूसरी बात है कि बोल-चाल की हिंदी में ‘हजार’ शब्द ने तत्सम पर्यायवाची ‘सहस्र’ शब्द को प्रचलन से बाहर कर दिया है। शम्भु यादव ने ‘सहस्र का प्रयोग एक-दो बार किया है। बोल-चाल में सैकड़ों-हजारों-लाखों-करोड़ों बोला जाता है। अत: अभीष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए ‘सहस्र’ के स्थान पर ‘हजारों’ पद का प्रयोग ही उचित है। संकलन की कविताओं में उस अमूर्तन का अभाव है, जो आधुनिकतावादी कवियों की रचनाओं में लक्षित होता है। वस्तुत: शम्भु यादव ने अपनी सम्यक जीवन-दृष्टि से कविताएँ रचकर स्वयं को निराला- केदारनाथ अग्रवाल- नागार्जुन- मुक्तिबोध- शील, विजेंद्र आदि लोकधर्मी कवियों की प्रमुख धारा से जोड़ा है। पूरी उम्मीद है कि वह और अधिक श्रेष्ठ कविताएँ रच कर अपने व्यक्तित्व का विकास निरन्तर करते रहेंगे। लेकिन संकलन में कुछ कविताएँ हैं जिनकी सरंचना कलात्मक नहीं है।

(अमीर चन्द्र वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)

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अमीर चंद वैश्य

वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य पहली बार के लिए हर महीने एक कविता संग्रह पर समीक्षा लिखेंगे।  इस कड़ी की शुरुआत हम पहले ही कर चुके हैं, जिसमें अभी तक आपने सौरव राय और अशोक तिवारी के कविता संग्रहों पर अमीर जी की समीक्षा पढ़ चुके हैं। इसी क्रम में इस महीने के हमारे उल्लेख्य युवा कवि हैं नित्यानन्द गायेन। नित्यानन्द का कल जन्म दिन भी है। नित्यानन्द के जन्म दिन की पूर्व संध्या पर इस समीक्षा को प्रस्तुत करते हुए हम उन्हें ‘पहली बार’ ब्लॉग परिवार की तरफ से जन्म दिन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं दे रहे हैं।       

युवा कवि  नित्यानन्द गायेन के हालिया प्रकाशित कविता संग्रह ‘अपने हिस्से का प्रेम’ पर  वरिष्ठ आलोचक अमीर चंद वैश्य ने एक समीक्षा लिखी  है। प्रस्तुत है यह समीक्षा।  
 
लोकधर्मी कविता के प्रति निष्ठावान

सम्प्रति हिंदी काव्य जगत में कई पीढ़ियो के कवि अपने –अपने रचनाक्रम में संलग्न हैं। अनेक वरिष्ठ कवि तो ऐसे हैं जो अपने पद –प्रतिष्ठा और पुरस्कार की उपलब्धि के लिए नख-दंत विहीन रचनाएँ रच  रहे हैं। सत्ता को ऐसी कविताओं से रंच मात्र भी भय महसूस नही होता है। ऐसे कवि संत कवि कुम्मन दास के समान ‘सिकरी’ की आलोचना न करके उससे रागात्मकसंबंध जोड़े रखना श्रेयकर समझते हैं। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने कुम्मनदास के प्रति रचित कविता ‘संत कवि’ में लिखा है –

“जानता हूँ ,समाधि से फुटकर
आता नही कोई उत्तर 
फिर भी कविवर जाते –जाते पूछ लूं 
यह कैसी अनबन है 
कविता और सिकरी के बीच 
कि सदियाँ गुजर गईं 
और दोनों में आज तक पटी ही नही।”(शुक्रवार वार्षिकी -२०१३)

उद्धृत अंश यह अर्थ भी ध्वनित कर रहा है कि ‘कविता और सिकरी’ में पटने–पटाने का संबंध होना चाहिए।
लेकिन कुछ वरिष्ठ और कनिष्ठ कवियों के साथ –साथ ऐसे युवा कवि भी हैं, जो अपनी रचनाशीलता को लोक से सम्पृक्त करके उसके संघर्षशील रूप को सामने ला रहे हैं।

‘कृति ओर’ के अंक ६७ में वरिष्ठ लोकधर्मी कवि ने ‘पूर्वकथन’ के अंतर्गत प्रकाशित प्रखर आलेख ‘हिंदी आलोचना का गिरता स्तर’ में अनेक युवा कवियों की कृतियों का उल्लेख किया है, जो अपने आसपास के सक्रिय लोक जीवन के विभिन्न रूपों को कविताओं में रच रहे हैं। इन कवियों की कविताएँ राजनीति –निरपेक्ष न होकर वर्गीय दृष्टि से संयुक्त हैं और समय –समाज की प्रखर आलोचना करके अग्रगामी जीवन –मूल्यों की प्रतिष्ठा कर रहे हैं।

ऐसे युवा कवियों में नित्यानंद गायेन (१९८१ ) का नाम उल्लेखनीय है। २००१ से लेखन प्रारंभ किया है। पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। संकल्प प्रकाशन बागबाहरा से उनका एक संकलन ‘अपने हिस्से का प्रेम’ सन २०११ में प्रकाश में आया है। कई साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। ‘कृति ओर’ के अंक ६७ में अभी उनकी पांच कविताएँ प्रकाशित हुई थीं। संपादक डा. रमाकांत शर्मा ने इस कवि के बारे में ठीक ही लिखा है –“नित्यानंद की कविताओं का आक्रमक राजनैतिक तेवर उन्हें संघर्षशील लोक के साथ खड़ा हुआ दिखता है।” (पृ.३२ )

नित्यानंद की जीवन –दृष्टि वर्ग –चेतना से संयुक्त हैं। अत: उनकी कविताओं में सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों का निरूपण आक्रोशपूर्ण भाषा में हुआ है। ‘आत्मसंघर्ष करता हूँ’ कविता इसका अच्छा सबूत पेश करती है –

“संघर्ष होता है
हर रोज मेरा 
खुद से ….दिल भारी पड़ता है 
दिमाग पर / खुद से 
x    x     x      x     x
संभोग के पुजारी 
बन बैठे हैं संत
नैतिकता और सदाचार का पाठ पढ़ाते हैं टीवी पर 
भोगी का योगी रूप देखकर 
खून खौल उठता है मेरा 
उसे शांत करने को 
संघर्ष करता हूँ 
निरंकुश राजनेता 
लूटते हैं जनता को 
छल –बल और कपट से 
उन्हें देख मान में 
आग सी जलती है 
उस आग को बुझाने के लिए 
संघर्ष करता हूँ खुद से”। (अपने हिस्से का प्रेम,पृ .३०, ३१)

इस कविता के मूल में करुणा है, जिससे सात्विक क्रोध की अभिव्यक्ति आक्रोश के रूप में हुई है। यह आत्म–संघर्ष कवि को अपने समस्थ लोक के जीवन से जोड़ता है।

नित्यानंद के कवि –व्यक्तित्व का विकास लोक –दर्शन का परिणाम है। उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी अधिक है। अतएव वह लोक –पर्यवेक्षण से अपने कवि रूप को और अधिक संवेदनशील बनाने का प्रयास निरंतर करता रहता है | ‘सीखना चाहता हूँ मैं’ कविता इस दृष्टि से पठनीय है –

कुमुदनी पर मचलती तितलियों से
सीखना चाहता हूँ 
प्रेमी बनना 
नन्हे पौधों से सीखना चाहता हूँ 
सर झुकाकर नमन करना 
सीखना चाहता हूँ मित्रता
पालतू पशुओं से 
क्यों कि वे स्वार्थ के लिए कभी धोखा नही देते” (वही ,पृ .०९ )

पूंजीवादी व्यवस्था में प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति दोनों बिकाऊ है। पद –पुरस्कार के लिए व्यक्ति अपना ईमान बेचकर बेईमान होने लगते हैं। साहित्य भी बिकाऊ है और साहित्यकार भी। ऐसे साहित्यकार सत्ता के गीत गाया करते हैं। लेकिन लोकबद्ध सहृदय कवि स्वंय को बेचता नही है। इसीलिए यह कवि कहता है –

“मुझे मालूम है 
मेरी सोच से 
कोई फर्क नही पड़ता उन्हें 
न ही मैं 
उनसे कुछ कहना चाहता हूँ 
किन्तु ,मैं खुद को 
और अपनी भावनाओं को 
बेच नही सकता उनकी तरह 
बाज़ार में।” (वही,पृ. १४)

नित्यानंद बड़ी सादगी से इस क्रूर पूंजीवादी व्यवस्था की विसंगतियों को दिखाते हुए उनकी मरण की कामना करते हैं। बाजारवाद से नफ़रत करते हैं। उन्हें अच्छी तरह ज्ञात है कि

 “साथी अब हाथ नही बढ़ाता 
साथी अब हाथ खींचता है पीछे 
साथी अब जान चुका है 
बाजारवाद ,पूंजीवाद का स्वाद 
तभी तो खुद को बेचकर 
वह सपने खरीदने लगा है।” (वही,पृ .१३ ) 

आज़ादी के बाद देश के नव-निर्माण के लिए लिखा गया था –

“साथी हाथ बढ़ाना 
एक अकेला थक जायेगा 
मिलकर बोझ उठाना।” 

लेकिन आजकल इसका उल्टा हो रहा है। संपन्न व्यक्ति स्वंय को बेचकर विपन्नों के श्रम का शोषण कर रहा है।
पूंजीवादी लाभ –लोभ ने क्षिति, जल, पावक. गगन, समीर सभी को विकृत कर दिया है। जल और जंगलों का क्रूर दोहन हो रहा है। जीवन का आधार नदियाँ गंदली हो रही है। पशु-पक्षियों की संख्या भी कम हो रही है। ‘हाथी का चित्र’ में पूंजीवादी क्रूरता की ओर संकेत किया है।

“दो बच्चों ने तीन हाथियों के चित्र बनाएँ।
 माँ हाथी और उसके दो बच्चे।
 क्यों ? इसलिए जब मेरे बच्चे होंगे
 तब हाथी नही होंगे शायद
क्यों कि तब जंगल नही बचेंगे 
सिर्फ आदमी ही आदमी होंगे 
फिर बनाई उन्होंने 
हरी –हरी घास 
जिस पर हाथी चल रहे थे।” (वही,पृ १०)

आज यह स्पष्ट हो गया कि परिवेश का अंध विदोहन भयंकर दृश्य उपस्थित कर सकता है। फिलहाल उत्तराखण्ड में जो जल प्रलय अचानक आई कि उसने ऐसी विनाश लीला दिखाई कि आपार जन और धन एवं प्राकृतिक परिवेश को ऐसी गहरी क्षति पहुंचाई जिससे उद्धार होना दुष्कर है। कुदरत की क्रूरता से यदि अब सरकारें न चेतीं तो ऐसा और भयंकर तांडव फिर होगा। जीवन की रक्षा के लिए जल, जंगल, पहाड़, पशु-पक्षी सभी अनिवार्य हैं। उत्तराखण्ड के जल –प्रलय के भयंकर परिदृश्य टी.वी. स्क्रीन पर देखकर दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ अनासाय याद आने लगती हैं –“कैसे मंजर सामने आने लगे हैं /गाते –गाते लोग चिल्लाने लगे हैं। निराला ने भी अपने एक गीत में मानव के निर्जर जीवन के लिए पर्यावरण के सौंदर्य की रक्षा की कामना की है -?

पल्लव में रस, सुरभि सुमन में 
फल में दल , कलरव उपवन में
 लाओ चारु चयन वितवन में 
स्वर्ग धरा के कर तुम धरो।” (नि.र. (२) पृ ३९३ )

धरा के कर में स्वर्ग तभी आएगा जब पर्यावरण अनुकूल और प्रशांत रहेगा। और यह परिस्थिति तभी संभव होगी ,जब इस क्रूर पूंजीवादी व्यवस्था का मूलोच्छेदन होगा। यह दीर्घ परियोजना है। फ़िलहाल तो पूंजी और अंध व्यवस्था को पर्यावरण के प्रति सम्वेदनशील होना ही होगा। जन आन्दोलन दोनों को चेतावनी दे सकते हैं।
नित्यानंद अपनी संवेदनशील वर्गीय दृष्टि से समाज गतिकी देखकर यह मानते हैं कि

‘गरीब इस देश का वीर योद्धा है।’ 
क्यों कि  वह युद्ध करता है 
जन्म से लेकर मृत्यु तक 
और उसके लड़ने में ही 
वीर रस की कविता है।” (वही,पृ-३६ ).

गोदान का नायक किसान होरी आजीवन संघर्ष ही तो करता रहा है। उसकी मृत्यु त्रासदी की सृष्टि करती है। आजकल भी किसान अपने अस्तित्व के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। वर्तमान उदारीकरण के दौर में सर्वाधिक शोषण किसानों का ही हो रहा है। असंख्य किसान लाचार होकर आत्महत्या कर रहे हैं।
इस क्रूर व्यवस्था में गरीब माँ का इलाज़ अस्पताल में संभव नही है। तभी तो ‘उसकी माँ ‘ का गरीब के सामने अपनी माँ को / तडपते देखने के अलावा /दूसरा उपाय नही था। (वही पृ .३८ )

‘आज अपने देश में’  क्या हो रहा है  इसके अंतर्विरोध की तस्वीर को नित्यानंद बिना किसी रंग के दिखाते हैं –

“ गली का नल पानी की उम्मीद में 
सूखा खड़ा  है 
और बोतल बंद पानी से 
बाजार अटा पड़ा है 
स्कूल इस देश की 
जैसे शापिंग मॉल में 
बदल रहे हैं 
और शिक्षक दुकानदार में 
और किसान खेतों में मर रहे हैं 
और मंत्री जी क्रिकेट खेल रहे हैं।” (वही,पृ-३९,४०)

भूमंडलीकरण-निजीकरण –उदारीकरण के दौर में हमारे देश में उच्च शिक्षा कैरियर –केंद्रित हो गया है। अंग्रेजी के प्रति अनुराग प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है, इसका दुष्परिणाम सामने हैं। लोग अपनी –अपनी भाषा और संस्कृति के साथ –साथ अपनी भाषा के कवियों को भी भूलते जा रहे हैं। नित्यानंद इस प्रवृति की आलोचना करते हैं –

“अमेरिकी कम्पनियों में
जो नौकरी करते हैं 
उन्हें फुर्सत  कहाँ है 
एक विद्रोही की जीवनी पढ़ने की 
क्या लेना उन्हें नज़रुल से 
निराला से 
शरत चन्द्र से 
सुभाष से 
नागार्जुन से 
क्या इन्हें  पढ़ने से 
मिलेगी उन्हें नौकरियां 
वह भी 
उतने पैसों की 
जितना वह पाता है 
आज अमेरिकी कम्पनियों से।” (वही,पृ-४३)

कविता मनुष्य भाव की रक्षा करती है। वह अपने सहृदय पाठक को ‘इंसान’ बनने को प्रेरित करती है। एतएव नित्यानंद स्वंय को लोक-चेतना के कवियों –त्रिलोचन और नागार्जुन से अपना रागात्मक संबंध जोड़ते हैं। आजकल हिंदी संसार  सामंत जनपदीय कवियों की उपेक्षा कर रहे हैं। कवि ने इस प्रवित्ति पर खेद व्यक्त करते हुए लिखा है –

मेरी नजरें खो गईं हैं 
या कहीं लुप्त करने की किसी साजिश में 
उन्हें कैद कर दिया गया है 
घुन लगी आलमारियों की किताबों में।” (वही,पृ-५८)

किसी भी नए कवि की अलग पहचान रचनाओं से बनती हैं ,जिसमें उसके अपने जनपदीय लोक-जीवन और उसके परिवेश का निरूपण होता है।

नित्यानंद अपने गांव से लौटकर उसे उसी रागात्मकता से कविता रचते हैं –

“गांव से
अभी –अभी 
लौटा हूँ शहर में 
याद आ रही है 
गांव की शामें 
सियार की हुक्का हूँ 
टर्र –टर्र करते मेंढक 
सुलती के नवजात पिल्ले
कुहासा में भीगी हुई सुबह 
घाट की युवतियाँ 
सब्जी का मोठ उठाया किसान 
धान और पुआल 
आंगन में मुर्गियों की हलचल 
डाब का पानी 
खजूर का गुड़
अमरुद का पेड़ 
मासी की हाथ की गरम रोटियाँ 
माछ –भात।” (लेखक मंच से ) 

वास्तविकता यह है कि देश –प्रेम की भावना अपनी जन्मभूमि से आत्मीय लगाव से प्रारंभ होती है।

नित्यानंद ने ‘यह वही बाबा नागार्जुन है’ कविता रचकर अपने वयोवृद्ध कवि की रचनाशीलता से प्रेरणा लेकर स्वंय की सर्जना को धारदार बनाया है। वह अपनी कविता ‘बुद्धिजीवी’ में ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवियों की ठीक आलोचना की है। उनकी अवसरवादिता के कारण ऐसे व्यक्ति सच्चे बुद्धिजीवी नहीं होते हैं | ये समाज को भ्रमित करते हैं। कवि ठीक कहता है –

“अपने चरित्र से विपरीत 
वे देते हैं सन्देश 
समाज को 
अपने समय के हिसाब से
बदलते हैं पैंतरा 
छिपाते हैं सच को 
गुमराह करते हैं सबको।” (वही,पृ ५५ ) 

वस्तुतः ऐसे लोग ‘पूंजीवादी के ज्वर से ग्रस्त’ होते हैं। अपने समय की शोषक सत्ता के समर्थक ,जिनकी प्रखर आलोचना मुक्तिबोध ‘अंधेरे में’ निर्दंद भाव से की है।

पूंजी के इस ‘बेशर्म दौर’ में अकेला व्यक्ति क्या कर सकता है? यह ज्वलन्त प्रश्न है। वह अन्याय के विरुद्ध चीख सकता है। संवेदनशील कवि व्यक्तिगत स्तर अपना विरोध दर्ज करते हुए कहता है –

“भूख हड़ताल करता हूँ 
न्यायालय जाता हूँ
आवेदन करता हूँ 
कर्ज के बोझ से आत्महत्या करता हूँ 
विस्फोट करता कभी 
कभी महंगाई से मरता हूँ 
फिर भी चीखता रहता हूँ
मैं और वह दोनों बेशर्म हैं।” (वही,पृ.५७ )

देश की वर्तमान त्रासद परिस्तिथियों पर अमेरिकी प्रभाव भी लक्षित होता है। भारत की नीतियां राष्ट्रपति बराक ओबामा के इंगित पर बनती हैं और लागू होती हैं।

कवि यह भी महसूस करता है कि सच्ची आज़ादी आज तक नही प्राप्त हुई है। वर्ग –विभक्त समाज में क्रूर शासक वर्ग का तंत्र जन-गण को लूटने ,अत्याचार करने, गरीब का लहू पीने के लिए आज़ाद है। देश को बेचने के लिए आज़ाद है। और व्यक्ति के रूप में संतप्त होकर सोचता है –

“मैं 
इस देश का 
आम नागरिक हूँ 
मुझे देखने की 
सुनने की 
और देख-सुनकर 
भूल जाने की आदत है 
इस आदत का 
मैं क्या करूँ।” (पृ.४८ ) 

यह आदत खतरनाक है। आज ऐसी जनवादी राजनैतिक पार्टी की आवश्यकता है, जो उत्पादक वर्गों को एकजुट करें। उन्हें वर्ग चेतना से लैस करें। ऐसा करने के लिए घातक साम्प्रदायिक  सोच को त्यागना होगा।

इस क्रूर व्यवस्था में छोटी –छोटी अस्मिताओं और आतंकवाद के कारण आम आदमी ‘चिंदी –चिंदी ‘ हो गया है। कवि इस त्रासद दर्द को महसूस भी करता है –

“ सभी घटनाओं में 
आम आदमी मरता है 
 सब्जी बेचता हुआ 
 सड़क पर चलते हुए 
उसके चिथड़े –चिथड़े 
उड़ जाते हैं 
हवा में फटा मैं 
कागज के टुकड़ों की तरह।” (पृ.४९ )

कवि की यह आत्म –भत्सर्ना उसे श्रमशील वर्गों से जोड़कर व्यवस्था के प्रति अपना प्रतिरोध व्यक्त कर रही है | यह उसकी कविताओं का प्रमुख वैशिश्य्य है | एतएव वह ‘दलित जन पर करो करुणा’ से प्रेरित होकर रक्त पीनेवाली व्यवस्था की आलोचना के लिए तत्पर रहता है | ‘मैं वह नही था’ कविता इस वैशिश्य्य का सबूत पेश करती है –

‘मंदिरों में उसका प्रवेश निषिद्ध था 
क्यों कि वह दलित था 
उसके चेहरे पर बेबसी का निशान था
काल की सर्द रात में
फूटपाथ पर सोते हुए 
एक अमीरजादे ने 
जिसे कुचल दिया 
वह गरीब मैं नही था।” (पृ.४५)

यह आज के गरीब हिंदुस्तान की मारक वास्तविकता है। महानगरों में ऐसी क्रूर दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। ऐसी ही एक घटना पर अभिनेता सलमान खान के विरुद्ध गैरइरादतन हत्या का मुकदमा चल रहा है। यह कैसा भारत निर्माण है कि जो भवन के निर्माण के लिए पसीना बहाते हैं . वही फुटपाथ पर सोते हैं। रहने को घर नही ,सारा जहाँ हमारा।

समकालीन हिंदी कविता राजनीति के जन-विरोधी चरित्र की निर्भीक आलोचना के बिना संभव नही है। नित्यानंद अपनी ज्ञानात्मक संवेदना के बल पर वर्तमान क्रूर शासकों के साथ–साथ अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद के अग्रगण समर्थक अमेरिका के करतूतों की निंदा “लोकतंत्र के नाम पर’ कविता में करते हुए पूछते हैं –

‘कब बुझेगी यह आग 
पूछ रही है बेबस दुनिया
पर तुमने उन्हें सुनकर भी 
अनसुना किया |” (पृ.३३)

सम्प्रति भारत में अमेरिकी पूंजी और उसकी अपसंस्कृति का इतना दूषित प्रभाव परिलक्षित हो रहा है कि भारत दो भागों में बंट गया है। एक है गरीब का विराट भारत। दूसरा है अमेरिका भक्त लघु भारत  जो धनाढ्य जनों के लिए स्वर्ग जैसा लगता है। यह कम दुर्भाग्य नही है कि भारतीय राजनीति का संचालन अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका करता है। लेकिन समझदार बुद्धिजीवी २१वीं शताब्दी में मार्क्सवाद का अध्ययन करके उसे अपनाने का प्रयास कर रहे हैं। इस दृष्टि से डा. गोपाल प्रधान की पुस्तिका ‘वर्तमान सदी में मार्क्सवाद’ पठनीय है।
इस संकलन की अन्य कविताओं – बकरा , बाजार से लायेंगे सांसे , मेरे शून्य आकाश में , मेरे देश में , शांति पाठ , खाली कैनवास पर , तहकीकात , आदमी जब , बदलाव के इस दौर में एवं  पत्रिकाओं में प्रकशित रचनाएँ अपनी जनप्रतिबद्ध दृष्टि से व्यवस्था की तीखी समीक्षा करती हैं ,जिसके मूल में मानवीय करुणा निहित हैं। एक छोटी सी कविता ‘चुप्पी की भी राजनीति होती है’ इस कविता में कवि कहता है –

“अन्याय, फिर अन्याय
उस पर भी ख़ामोशी
चुप्पी की भी राजनीति होती है 
समझ रहे हैं हम 
 जो खामोश रहें इस दौर में 
 उतर आये अपने बचाव में 
 मैं तोड़ रहा हूँ 
 अपनी ख़ामोशी 
 अब आपकी बारी है।” (कृति ओर , अंक -६७ , पृ.३९)

अन्याय देखकर चुप रहना खतरनाक है। व्यक्ति मनुष्यता के स्तर से गिर जाता है। वस्तुतः अन्याय के विरुद्ध चुप्पी यथा स्तिथि का समर्थन है। ‘वागर्थ’ के अंक २११ में प्रकाशित कविता ‘रेत पर खेलते बच्चे’ –

रेत पर टीले, घरौंदे बनाते हैं,तोड़ते हैं 
फिर बनाते हैं 
नए सपने बुनते हैं।

लेकिन वे जानते हैं कि सपने रेत पर साकार नही होते | फिर भी वे खुश होते हैं। इस छोटी सी कविता की व्यंजना है कि अपने सपने साकार करने के लिए व्यक्ति को निराश नही होना चाहिए। प्रयास करते रहना चाहिए।

‘अपने हिस्से का प्रेम’ में कुछ प्रेम विषयक कविताएँ भी हैं, जिनमें कवि ने प्रेम की दूरी का वर्णन किया है। इन कविताओं में कवि की निराशा व्यक्त हुई है। आर्थिक विषमता ने प्रेम – संबंधों को छिन्न –भिन्न कर दिया है। वह स्वीकारता है कि –

मैं ‘अभ्यास पुस्तिका हूँ’, 
जिसमें प्रेमिका द्वारा बार –बार लिखा और मिटाया गया , 
फिर लिखा गया 
फिर मिटाया गया।
लेकिन अब उस अभ्यास पुस्तिका के पन्ने फट गये हैं 
और पुस्तिका भी मर गई है 
अब तुम्हें एक नई पुस्तिका की जरूरत है। (पृ.६४)

वह स्वंय को रेत की तरह महसूस करता है, कभी खुद को कंकाल समझता है। लेकिन वह आत्मविश्वास भरे मन से कहता है कि

“ भूलने न दूँगा 
तुम्हें 
अपने –आप 
याद आऊंगा
मैं तुम्हें , हर पल 
असर मेरा रहेगा 
तुम्हारे दिलो-दिमाग पर 
 सदा, उम्र भर।” (पृ.७३ )

नित्यानंद गायेन की प्रेम कविताओं में ऐसे नवयुवक की मनोदशा व्यक्त हुई है , जो महानगर में अकेला रहते हुए आजीविका के लिए संघर्ष करता है। लेकिन निष्क्रिय नही रहता है। अपनी काव्य –सर्जना से समाज के दलित–शोषित वर्गों से अपना रागात्मक संबंध जोड़ता है। उनकी काव्य-भाषा पारदर्शी है। वे सहज बोधगम्य हैं और पाठक का रागात्मक संबंध जीवन के यथार्थ से जोड़ते हैं।

नित्यानंद गायेन संभावनाओं के सहृदय कवि हैं। उनसे आशा है कि भविष्य में उनके काव्य क्षितिज विस्तृत होगा। अब तक उन्होंने स्वंय को बिकने से बचाया है। भविष्य में भी उनका यही स्वभाव और अधिक सुदृढ़ होगा।

(अमीर चंद वैश्य अमीर चंद वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।) 

मोब -09897482597

अमीर चन्द वैश्य


युवा कवि अशोक तिवारी के दो संकलन प्रकाशित हुए हैं। उनके दूसरे संकलन ‘मुमकिन है’ की समीक्षा पहली बार के  लिए लिखी है वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य ने। आप सब के लिए प्रस्तुत है यह समीक्षा।

कलात्मक स्थापत्य की लोकधर्मी कविताएँ

समकालीन हिन्दी कविता के सामने एक प्रश्न उपस्थित रहता है कि वह राजसत्ता का समर्थन करे अथवा जनसत्ता का। यह प्रश्न अतीत में भी कवियों के समक्ष रहा था। भक्ति कवि तो लोकोन्मुखी रहते थे और पद-प्रतिष्ठा-पुरस्कार के अभिलाषी कवि राजाओं के दरबार की शोभा बढ़ाया करते थे। तुलसी और केशव समकालीन थे। लेकिन तुलसी सम्राट अकबर के दरबार से दूर रहे, किन्तु केशवदास “ओरछा नरेश महाराज रामसिंह के भाई इन्द्रजीत की सभा में रहते थे।”

इसी प्रकार कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि कुम्भन दास अकबरी दरबार से दूर रहे। “एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर उन्हें फतेहपुरी सीकरी जाना पड़ा, वहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा। (इतिहास, आचार्य शुक्ल, पृ0 172) अपना खेद व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा – “संतन को कहा सीकरी सों काम/आबत जात पनहियाँ टूटीं, बिसरि गयो हरि-नाम/जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम/कुम्भन दास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम। (वही, पृ0 179)

    लोकोन्मुखी काव्य-सर्जना के लिए कवि को स्वार्थ त्याग कर अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करना पड़ता है। लेकिन आजकल समकालीन कविता के संसार में ऐसे कवि विरल हैं। अधिकतर कवि पद-प्रतिष्ठा और पुरस्कार के नख-दंत विहीन काव्य रच रहे हैं, जिससे सत्ता को भय नहीं महसूस होता है।

    प्रसंगवश आज के विख्यात और अग्रगण्य कवि केदारनाथ सिंह की एक कविता ‘कुम्भनदास दास के प्रति‘ का अन्तिम अंश उल्लेखनीय है –

“जानता हूँ, समाधि से फूटकर
आता नहीं कोई उत्तर
फिर भी कविवर जाते-जाते पूछ लूँ
यह कैसी अनबन है
कविता और सीकरी के बीच
कि सदियाँ गुजर गई
और दोनों में आज तक पटी नहीं।“ (शुक्रवार, वार्षिकी 2013, पृ0 158)

    बात सही है। लेकिन इस अंतिम अंश से यह व्यंग्यार्थ भी ध्वनित हो रहा है कि ‘कविता और सीकरी‘ अर्थात् राजसत्ता के केन्द्र से मधुर सम्बन्ध होने चाहिए। वास्तविकता यह है कि ऐसी कविता चिरंजीवी नहीं होती है। आजकल कबीर की खूब चर्चा हो रही है, लेकिन बिहारी को प्रेम के पोखर का कवि समझा जा रहा है।

    पंत के तुलना में निराला को प्रेरणा-स्रोत समझा जाता है और अज्ञेय की तुलना में मुक्तिबोध को। ‘कविता के नए प्रतिमान‘ के आधार कवियों श्रीकांत वर्मा आदि से महत्तवपूर्ण कवि नागार्जुन-केदार बाबू-त्रिलोचन-शील-कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह-विजेन्द्र कुमार विकल आदि का काव्य समय सापेक्ष है। ये लोकधर्मी कवि नई पीढ़ी के प्रेरणा स्रोत हैं। लेकिन हिन्दी आलोचना नई पीढ़ी के आलोचक लोकधर्मी कवियों की अनदेखी कर रहे हैं। ‘कृतिओर‘ के अंक 67 में विजेन्द्र ने अपने पूर्व कथन में, ‘हिन्दी आलोचना का गिरता स्तर‘ लिखकर हिन्दी आलोचना के दायित्वहीनता की चर्चा प्रखर ढंग से की है। उन्होंने ‘वागर्थ‘ के अंक उनके 209, दिसम्बर 2012 में आयोजित परिचर्चा के भाग लेने वालों कवियों और आलोचक अजय तिवारी के कथनों का विश्लेषण करके उनकी वास्तविकता उजागर की है।

    ‘वागर्थ‘ का उपरोक्त अंक देखकर-पढ़कर ऐसा आभास होता है कि जिन कवियों के नाम मुख पृष्ठ पर अंकित हैं, उन्हीं ने सन् 80 के बाद की कविता-धारा को अग्रसर किया है। लेकिन कवि विजेन्द्र ने ऐसे अनेक कवियों के संकलनों का उल्लेख किया है, जो लोकधर्मी कविता का विकास कर रहे हैं। उनका प्रश्न है कि कि केरल के कवि अरविन्दाक्षन्, झारखंड के शम्भु बादल, दिल्ली के राम कुमार कृषक का मूल्यांकन क्यों नहीं किया। यही हिन्दी आलोचना का गिरता स्तर है।

    विजेन्द्र ने अपने उपर्युक्त आलेख में कम चर्चित लेकिन महत्वपूर्ण कवि अशोक तिवारी का उल्लेख करते हुए लिखा है – “अशोक ने एक प्रतिबद्ध जनवादी कवि के रूप में खासी सार्थक पहचान बनाई है। उनकी कविता में लोकधर्मी स्थानीयता का रंग हमें आकर्षित करता है। मूलतः ब्रज प्रदेश के होने की वजह से अशोक की कविता में ब्रज जनपद की बड़ी स्वस्थ् अनुगूँजें सुनाई पड़ती हैं।“ (कृतिओर, 67, पृ0 16)

    अशोक तिवारी दो संकलन प्रकाश में आये हैं
    इस आलेख में उनके दूसरे संकलन ‘मुमकिन है‘  की समीक्षा प्रस्तुत है।‘सुनो अदीब‘ (2003) और मुमकिन है (2008)।

    मथुरा जिले के गाँव कराहरी में सन् 1963 में जनमे अशोक तिवारी के दो शौक हैं। नुक्कड़ नाटकों का मंचन एवं अभिनय और काव्य सर्जना। उन्होंने समकालीन हिन्दी कविता में साम्प्रदायिकता विरोधी चेतना विषय पर शोध कार्य भी किया है।
    सन् 2009 में प्रकाशित उपर्युक्त संकलन की कविताएँ, नाटकीय एकालाप, सम्बोधन-उद्बोधन और सम्वादों से अन्वित हैं।

    आजकल हिन्दी कविता अधिकतर निश्छन्द है। उसने निराला का मुक्त छन्द नहीं अपनाया है। छन्द का आधार लय है लेकिन आजकल के अधिकतर कवियों ने लय की उपेक्षा कर दी है। उनका वाक्य-विन्यास गद्यात्मक है। अतः उसमें भावावेग का अभाव लक्षित होता है। आजकल के कवियों ने न तो मुक्तिबोध से लय का निर्वाह सीखा न ही नार्गाजुन-केदार और त्रिलोचन के लयात्मक मुक्त छंद का अभ्यास किया है।
    लेकिन अशोक तिवारी ऐसे कवि हैं, जो भावावेग से प्रेरित होकर कविता में ऐसे वाक्यों की रचना करते हैं, जो लयात्मक होते हैं। पाठक कविता पढ़ते समय भाषाई प्रवाह का अनुभव अनायास करने लगता है।

    संकलन की पहली कविता ‘गढ़ी‘ का प्रारम्भिक अंश पठनीय है-

“मेरे गाँव में एक गढ़ी है
सालों से वीरान है, जो पड़ी है
गढ़ी में एक पोखर है
पोखर में कीचड़ है
कीचड़ में मलवा है
मलवे में कूड़ा है
कूड़े में खिलौने हैं
खिलौने में आवाजें हैं
आवाजों में सिसकियाँ हैं
सिसकियों में तरंगें हैं
तरंगों में चुम्बक है
चुम्बक में खिचाव हैं।“ (पृ0 13)

    इस कविता का संदर्भ देश विभाजन की त्रासदी है, जो घातक साम्प्रदायिकता का दुष्परिणाम है।
    अशोक की जीवन-दृष्टि समाज और विश्व में विषमता देखती है। अतः वह अपने गाँव में, राजधानी दिल्ली में, वैश्विक परिदृश्य में, इतिहास की परिघटनाओं में वर्गीय विषमता की आलोचना करके शोषित और दलित जनों के प्रति हार्दिक संवेदना व्यक्त करते हैं। अपने प्राकृतिक परिवेश के प्रति भी उनका प्रगाढ़ अनुराग व्यक्त हुआ है।

    गिद्ध, लिली, एक और शम्बूक, सुनो भई मनु, भगत सिंह, हलफनामा, बुश नहीं होगा खुश, फर्क बाबू साहब, बाबू मोची, दूर देश की एक औरत, उजड़ा हुआ कैम्प, बंधन, नदी, नटी, माँ आ रही है, मिसरानी, अजन्मी वेटी, गाँव की एक औरत, रामजनी चाची, शीशम कविताएँ उपर्युक्त कथन का प्रमाण हैं।
    अशोक ने निराला की कविता ‘वह तोड़ती पत्थर‘ से प्रेरणा लेकर श्रमशीला नारी के अनेक चित्र अंकित किए हैं।   
    प्रायः देखा गया है कि सफाई कर्मचारियों से, जो मानव-मल ढोया करते हैं, लोग बचकर चलते हैं। लेकिन अशोक समाज का यह चलन भूलकर लिखते हैं –
“मेरे मन में
धुला है उसके खिलखिलाते चेहरे का उल्लास
उसकी बातों में
नहीं जानती
रामजनी खुद भी यह
विठाया है उसे
अपनी माँ की चारपाई पर
जाने कितनी बार मैंने
बसाया है कितनी बार उसे अपने मन में
तमाम प्रतिबंधों के बाबजूद।“ (पृ0 162)

    इस अनतिदीर्घ कविता में ‘रामजनी चाची‘ का चरित्र सामाजिक अन्तर्विरोधों के साथ रूपायित किया गया है। ‘चाची‘ सम्बोधन कवि की आत्मीयता का परिचायक है। वह अपने कर्म के प्रति निष्ठावान् है। बालकों से स्नेह करती हैं। गाँव के ऊँची जाति के लोग उसे कामुक दृष्टि से देखते हैं। छिपकर। एकान्त में। लेकिन सबके सामने उसे अपशब्द भी कहते हैं। देखिए उसकी ममता-

“खुरदरे हाथों से छूकर
दुलारती नन्हीं जान को
नेह की बारिश से नहलाती बच्चे को वो खूब
भूल जाती जाति का भेद/करती फिर खेद/“ और “डाँट-डपट जब पड़ती मास्टर की/भँगनिया कर होश/न हो मदहोश/कुलच्छन सब कुछ भूली।“ (पृ0168)

    अशोक कविता के अन्त में यह विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं कि ‘रामजनी के मन की आँच‘ अभी फैलेगी और मखमली शाखों को अपने आगोश में भर लेगी। यथास्थिति टूटेगी।
    समकालीन कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति है चरित्र-सृष्टि। इस दिशा में विजेन्द्र ने महत्त्वपूर्ण कविताओं की रचना की है, जो जीवन के वास्तविक चरित्र का निरूपण करके सामाजिक अन्तर्विरोध की अभिव्यक्ति करते हैं।

    अशोक ने भी इस संकल्न की कई कविताओं विशेष पात्रों को उपस्थित करके मानवीय करूणा की अभिव्यक्ति की है। ‘रामजनी चाची‘ के अलावा मिसरानी, दूर देश की एक औरत, भगत सिंह, लिलि, आदि कविताएँ उल्लेखनीय हैं। ‘मिसरानी‘ में ऐसी कर्मठ महिला का चरित्र है, जो कवि के लिए भोजन पकाने का काम करती हैं। अकेली है और साहसी भी। ब्रज भाषा बोलती है। कवि उसके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित होता है कि वह सोचता है-
“बीस साल बाद आज
मुझे लगता है मिसरानी की सूरत
मेरी माँ की सूरत में गड्डमड्ड हो रही है
या कि मेरी माँ मिसरानी की तरह मेरे अन्दर हो गई है जज्ब़
जो रही मेरे साथ एक मिसरानी की तरह नहीं
एक दादी की तरह
नानी की तरह
मेरे साये की तरह मेरे दिल में।“ (पृ0 146)

    अपने चरित्र के प्रति कवि की भावात्मक प्रगाढ़ता उस के मानवीय व्यक्तित्व से साक्षात्कार करा रही है।
    ‘दूर देश की औरत‘ में व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं है, अपितु श्रमशील स्त्रियों का स्वभाव एक सामान्य स्त्री के माध्यम से वर्णित किया है। यह कविता पढ़कर ‘वह तोड़ती पत्थर‘ कविता अनायास याद आती है। इस कविता में श्रमिक नारी अनामिका है। अपने वर्ग का प्रतिनिधि चरित्र। अशोक ने इस कविता में श्रमिक नारी की क्रियाओं और ममता का प्रभावपूर्ण वर्णन किया है-

“ये औरत जो ढोते हुए कहीं गारा
उठाते हुए कहीं कचरा
चिनते हुए ईंटें
लीपते आपका घर और आँगन
बाँधते हुए बन्दनवार
या बनाते हुए आपके लिए नया घर
खटती है सुबह देर से रात तक
पकड़ाकर बच्चों को खाली पड़ी पेप्सी या कोला की बोतले।“

    यह कैसी विसंगति है कि मेहनती व्यक्ति को भरा पूरा वेतन नहीं मिलता है। उसकी जीवन-गठरी अभावों से भरी रहती है। अकेली औरत अपने अधिकारों के लिए माँग भी नहीं कर पाती है। लेकिन

“पसीने के नमक का खारापन
देश-काल की सीमाएँ तोड़ता हुआ
होता है एक ही।“ (पृ0 76) 

और यह ‘खारापन‘ एक जुट हो जाए तो समाज बदल सकता है।

    शहीदे आजम भगत सिंह को कौन नहीं जानता है। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर उनके क्रान्तिकारी विचारों में सामाजिक परिर्वन का अनुसंधान किया गया। लेकिन उनकी विचारधारा को किसी भी राजनैतिक दल ने आत्मसात नहीं किया। अशोक इस विसंगति को ठीक ढंग से समझ कर लिखते हैं –

 
“कैसा लगता तुम्हें
सुनते जब तुम अपने जन्मदिन
या शहादत के दिन
कुछ लोग गायत्री मंत्र का जाप“ करते हैं 
और “तुम्हारे विचारों को छिपाते हुए
तुम्हारी तस्वीर को“ सदा आगे करते रहते हैं।

कुछ लोग तो भगत सिंह को पगड़ी पहनाने का भी हठ करते हैं, जब कि उन्होंने अपने देश के लिए सिख होकर भी केश कटवा दिए थे। उन्होंने स्वयं को नास्तिक घोषित किया था। यदि आज भगत सिंह होते तो क्या करते। अशोक ठीक लिखते हैं –

“अपनी मौत के इतने साल बाद
साम्राज्यवादी पैतरों पर
तुम क्या सोचते भगत सिंह……… 
और कैसे निबटते संसद के माननीय सदस्यों से
जो देखते हैं राष्ट्रहित
राष्ट्र को बेचने में
आज होते अगर तुम भगत सिंह
तो क्या सोचते फेंकने की एक और अचूक बम
संसद की बेइज्जती और अवमानना पर।“ (पृ0 39)

    इस प्रकार अशोक भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रेरक पृष्ठ पढ़कर वर्तमान की राजनैतिक दुरवस्था पर आक्रोश व्यक्त करते हैं। मुक्ति-संग्राम की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं।

    ‘हलफनामा‘ कविता का सन्दर्भ भी भारतीय स्वाधीनता-संग्राम है। जलियाँवाला बाग का नरसंहार। इस कविता में रतनदेवी नामिका महिला आक्रोशपूर्ण एवं करूण शैली में नरसंहार का स्मरण करते हुए अपने पति छज्जू भगत की अकाल मृत्यु पर विलाप करती हुई कहती है –
“और मैं दे सकती हूँ हलफनामा भर
हुजूर
की मारा गया मेरा पति जलियाँवाला बाग में
परेशान और बहुत सी जानों के साथ।“ (पृ0 45)

    इस अनतिदीर्घ कविता में उपर्युक्त नरसंहार को प्रत्यक्ष कर दिया है। आज की लोक तांत्रिक व्यवस्था में भी नरसंहारों की कमी नहीं हुई है। आए दिन गोलियाँ चलती हैं। निर्दोष और निरपराध मारे जाते हैं। लेकिन जनता प्रतिरोध भी करती है।
    अशोक ने एक स्त्री की ओर से हलफनामे का वर्णन करके यह व्यंजित किया है कि आजकल स्त्रियाँ भी जागरूक हो गयी हैं। वे अन्याय, अनाचार तथा नरसंहार का प्रखर विरोध करती हैं। यह कविता भी मुक्ति-संग्राम की प्रक्रिया को अग्रसर करती है।

    अशोक समाज में जहाँ भी अन्याय और दुराचार देखते हैं उसका रचनात्मक विरोध निद्र्वन्द्व भाव से करते हैं। ‘अजन्मी बेटी‘, ‘लड़की‘, ‘लिली‘ ऐसी ही कविताएँ हैं। तीनों में नारी के प्रति संवेदना व्यक्त हुई है। ‘अजन्मी बेटी‘ का वक्तव्य मर्मस्पर्शी है। प्रायः देखा गया है कि लोभ के वशीभूत होकर बेटी को गर्भ में ही मार डालते हैं। ऐसी बेटी की ओर से कवि कहता है –

 “मौत पर उत्सव मनाए जाने की परम्परा
कौन से मानवीय पक्ष करती है खड़े
यह सवाल मैं पूछूँगी तुमसे बार-बार
क्योंकि मेरे साथ जो हो चुका बुरा
उससे और बुरा क्या होगा“(पृ0 159)

    भारतीय समाज की इस ज्वलंत समस्या पर रचित यह कविता पाठक के मानस में करूणा के साथ सात्विक क्रोध की लहरें आन्दोलित करती है।

    ‘लड़की‘ शीर्षक कविता में सामंती मूल्यों का तिरस्कार किया गया है। समस्या यह है कि लड़की सामंती मूल्यों से इतनी आक्रान्त है कि वह भी पहले-पहल लड़के की ही आकांक्षा करती है। परिणाम यह होगा कि “ठगी जाएगी लड़की ही हर बार।“ (पृ0 154)

    ‘लिली‘ कविता का सन्र्दभ जर्मन कंसंट्रेशन कैंप में रहने वाली एक यहूदी औरत है। यह मझोली कविता
^My Wounded Heart^ पुस्तक पर आधृत है। इस रचना में लिली नामक यहूदी औरत अपने बच्चों को सम्बोधित करके अपनी दारूण व्यथा-कथा का वर्णन करती है। दुनिया नस्ल-भेद एक भीषण त्रासद समस्या है। इससे विश्व शान्ति को खतरा बना रहता है। लिली जर्मन से शादी करती है। लेकिन वह विश्वासघात करके रीटा से बँध जाता है और जर्मनी के प्रति अपनी वफादारी भी व्यक्त करता है। और लाचार ‘लिली‘ अपने बच्चों से कहती है –

“तुम्हारी लिए एक पूरा पिता तो
मैं नहीं दे पाई मेरे बच्चों
पूरी माँ भी नहीं
काश कर पाती मैं ऐसा
मुझे अफसोस है।“ (पृ0 26)

    वर्तमान समाज में ऐसी लिलियों की कमी नहीं है, जो परित्यक्ता का जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हैं। ‘लिली‘ कविता पढ़कर पाठक के मन में हिटलर जैसे लोगों के प्रति तीव्र घृणा भाव उत्पन्न होने लगता है।

    अशोक अपनी वर्गीय दृष्टि से श्रमजन्य सौन्दर्य का प्रशंसा मुक्त कण्ठ से करते हैं। ‘गाँव की एक औरत‘ में ऐसे ही सौन्दर्य का निरूपण किया गया है। क्योंकि

“उसके हाथ
बला के खूबसूरत हैं
जो गेहूँ की बालियों में से
मकई के भुट्टों में से
चावल के धानों में से
निकालना जानतें हैं अच्छी तरह।“ (पृ0 155) 

कवि ऐसे सौन्दर्य पर स्वयं को न्यौछावर करने की बात कहता है।

    इस संकलन में ‘मास्टर जी‘ शीर्षक ऐसी कविता है, जो अशिक्षित बालिका की ओर से संबोधित है। अपने “भाई की पीठ पर“ मास्टर जी के डंडों के निशान देखकर वह न पढ़ने का संकल्प कर लेती है। कवि इस क्रूरता का प्रतिरोध करते हुए कहता है –

“जाने अनजाने आप की क्रूर छवि
लिपट जाएगी।“ 

और 

“जाहिलपन की उपमा
मेरे चारों ओर मास्टर जी
और रह जाउँगी मैं वहीं
जो मैं नहीं चाहती थी रहना।“ (पृ0 161)

    ऐसे क्रूर मास्टरों की आजकल कमी नहीं है। न मालूम कितने बालक और बालिकाएँ दोनों इस क्रूरता के शिकार होते हैं।

    पूँजीवादी व्यवस्था में मानव-श्रम का दोहन खूब किया जाता है। उसने यही दुराचरण प्राकृतिक परिवेश के प्रति भी किया है। प्राकृतिक संपदा का दोहन और जिन्दा पेड़ों की कटाई से विनाश को निमन्त्रण दिया है। अशोक इस हकीकत से परिचित हैं। ‘शीशम‘ शीर्षक कविता में कवि ने पेड़ के प्रति आत्मीय अनुराग व्यक्त करके उसकी कटाई पर हार्दिक शोक व्यक्त किया है और जिन्दा शीशम से प्रेरणा लेकर वह संकल्प करता है –

“तुम्हारे न रहने के बावजूद मेरे मन का शीशम
हरहराता आज भी
फूटती हैं उसमें नई-नई कोपलें
बार-बार
तुम्हारे शक्त अख्तियार करने के लिए
फलने-फूलने के लिए
खड़ा रहता था जो लाख आंधियों में
निर्भीक और सीना ताने।“ (पृ0 174)

    यह है रूपान्तरण। कवि के व्यक्तित्व का, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निर्भीकता से खड़े होने का संकल्प करता है। प्रसंगवश, ‘कैफ‘ भोपाली का शेर अनायास याद आ रहा है-

    गुल से लिपटी हुई तितली को गिराकर देखो,
    आँधियों! तुमने दरख्तों को गिराया होगा।।

लोकधर्मी कवि तितली के समान गुल से लिपटकर अपनी रक्षा करता है और सामाजिक आँधियों के सामने घुटने नहीं टेकता है। अशोक का कवि व्यक्तित्व ऐसा ही है, जो व्यवस्था के अत्याचार और साम्प्रदायिक वैमनस्य का विरोध निर्भीक भाव से करता है।
    राम-कथा के आख्यान ‘शंबूक वध‘ में कवि ने धर्म-ग्रन्थों के कथनों का प्रखर विरोध किया है-

“जानता ये राम भी है
और मानता है कि
धर्मग्रन्थों में जीना
मवेशियों की दुनिया मे रहना है
कोंसों दूर है जो
असल जिन्दगी के सफों से।“ (पृ0 31)

    यहाँ अशोक ‘कागद लेखी‘ न देखकर ‘आँखिन देखी‘ पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।
    सुनो मनु भाई में प्राचीन वर्ण-व्यवस्था की आलोचना की गयी है। ‘भाईचारे‘ और ‘मानवता‘ को तरजीह देने की बात कही गयी है। दलित कहता है-

“और करना चाहता हूँ मुकाबला
तुमसे और तुम्हारी सोच से
हर कीमत पर मनु भाई।“ (पृ0 35)

    सम्प्रति वास्तविकता तो यह है कि वर्ण व्यवस्था तो खंडित हो चुकी है, लेकिन जाति व्यवस्था राजनीति के कारण फल-फूल रही है। वर्गीय चेतना जातियों का खण्डन कर सकती है।

    ‘बुश नहीं होगा खुश‘ में व्यंग्यात्मक शैली में अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रबल विरोध किया गया है। आजकल भारत दो भागों में बँट गया है। एक है विपन्नों और निरीहों का हिन्दुस्तान, जो बहुसंख्यक है, दूसरा है इंडिया, जो अमरीकी रंग में रंगा हुआ है। यह ‘इंडिया‘ अल्पसंख्यक है। कवि अशोक ने अमरीकी साम्राज्यवाद की असलियत बताते हुए ठीक लिखा है-  

“स्वागत करो
कालीन विछाओ
आरती गाओ
‘अतिथि देवो भव‘ दोहराओ
क्योंकि
अमरीका भारत आ रहा है।“
 #     #     #     #     #     #
हमारी समृद्धि में चार-चाँद लगाएगा
जनता को लूटने के नए-नए तरीके बताएगा।
#     #     #     #     #     #
गगग कच्चा माल उठाएगा
बाजार में फिर लाएगा
मूँह मांगा पैसा पाएगा
दलाली तो खाएगा ही खाएगा
भारत को
अमरीका बनाने के सपने दिखाएगा
नहीं होगा जब तक ऐसा
बुश नहीं होगा खुश।“ (पृ0 51)

    अब यह वास्तविकता उजारगर हो गयी है। भारत की अर्थव्यवस्था पर अमरीका प्रभुत्व है। इसका प्रतिरोध समाजवादी व्यवस्था के द्वारा किया जा सकता है। और इस का व्यवस्था का निर्माण श्रमशील वर्ग अर्थात् किसान एवं मजदूर ही कर सकते हैं। अशोक को तीसरी दुनिया के देशों-क्यूबा, बेनेजुएला, चिली और बोलीविया के जुझारू सपनों के प्रति और मेहनतकश आदमी के हाथों के निशानों के प्रति पूरी आस्था है।

    अशोक शोषित और शोषक का फकऱ् अच्छी तरह मालूम है और मानवीय श्रम पर पूरा भरोसा। तभी तो वह कहते हैं – 

“फकऱ् सिर्फ इतना है
उन्हें गुमान है कि
चल रही है दुनिया उन्हीं के कन्धों पर
और चलती रहेगी हमेशा-हमेशा
ऐसे ही
हमारे लिए मगर मेहनत ही है
सब अधिकारों की निर्वाहक
और भरोसा है अपने मजदूर हाथों का
जो दर्ज होते हैं
और होते रहेगें
दुनिया के हर काम मजबूती के साथ।“ (पृ0 61)

    यह है विकल्प जो श्रम के प्रति आस्था जगाता है। सभ्यता का सम्पूर्ण चमत्कार मानवीय हाथों के कौशल का परिणाम है।

    हिन्दी संसार में कुछ आलोचक ऐसे हैं, जो लोक को अनपढ़ जनों एवं ग्रामों तक सीमित मानते हैं। उनके लिए लोक, लोक गीत, लोक नृत्य, लोक नाट्य, लोक कथा, लोक कला तक सीमित है। उनके लिए लोक मनोरंजक है। वे उसके संघर्षधर्मी रूप को भूल जाते हैं। सन् सत्तावन की क्रान्ति में साधारण जनों ने ही तो सक्रिय भाग लिया था। लोक का अर्थ जन भी होता है, जो गाँव से नगर तथा नगर से महानगर तक परिव्याप्त है। अभिनव गुप्त के अनुसार ‘लोक‘ नाम है जनपदवासी जन का। जन के पद जहाँ-जहाँ जाते हैं, वह जनपद ही तो है। चाहे नगर हो या महानगर।

    दिल्ली जैसे महानगर में ऐसे असंख्य श्रमशील लोग मेहनत से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। झुग्गी-झोपडि़यों में रहकर। प्रभुलोक यह झोपडि़याँ बदरंग मालूम होती है। वह अपने स्वार्थ के लिए उजाड़ देते हैं। ‘संवेदनशील‘ कवि अशोक ने ऐसी त्रासद घटना को कविता में रचा है। ‘उजड़ा हुआ कैम्प‘ में वह आक्रोशपूर्ण शैली में कहते हैं-

“उजाड़ दी गयी/शहर के अन्दर
यमुना किनारे की
मामूली लोगों की बस्ती
कर दिया गया घर से वेघर
लाखों सिसकती साँसों को
फेंक दिया गया शहर से बाहर
     #     #     #     #     #
धरती नहीं हिली
भूकम्प नहीं आया
उजड़ गई यह बस्ती फिर भी
हजारों लाखों और बस्तियों की तरह
गगग उजड़े हुए अपने घरों को देख रही हैं
मामूली लोगों की बस्ती में रहने वाली चिडि़याँ
बैठी हुई हैं तो बिजली के तारों पर
सिहर जाते हैं
ठंड से उनके पंख
व्याकुल हैं भूख से उनकी आँखें
रोके नहीं रूकती हैं
मन की हिलोंरे
कुचल गई घोंसलों के साथ।“ (पृ0 80)

    इस कविता में कवि वर्णन क्षमता और पर्यवेक्षण अनेक आकर्षक बिम्बों की सृष्टि कर रहे हैं। कवि की वर्गीय दृष्टि सत्य का उद्घाटन करते हुए देखती है- 

“अनगिनत पेड़ों की जवानियों को
कुचल ही दिया
व्यवस्था के बुलडोजरों ने
पनपने से पहले
मेहनतकश संस्कृति की एक नदी थी
बहती थी जो यमुना के किनारे-किनारे
खत्म कर दी गई।“ (पृ0 81)

    सम्पूर्ण कविता में ऐसा आवेग है, जो पाठक के मानस में शोक की लहरें आन्दोलित करता है।
    अशोक ने अपनी संवेदनशील जीवन-दृष्टि से फर्क, बाबू साहब, बाबू मोची, गोनड़ बाबा, बंधन, नदी और अचानक, आखिरी शब्द, भूकंप, भूकंप में मारी गई औरत, नटी आदि कविताओं की प्रभावपूर्ण रचना की है।
    ‘नटी‘ शीर्षक कविता में ऐसी क्रियाशील नटी वर्णन किया गया है, जो अपनी जीविका कमाने के लिए ढोलक की ताल पर करतब दिखाती है। लेकिन वह अपना काम नहीं छोड़ती है। परीक्षाओं से गुजरने पर भी।
कवि कहता है-

“देखो,
उसने फिर से ढोलक की तान पर
कर दिया है शुरू थिरकना
जुटने लगे हैं लोग
करने लगी है पैदा रोमांच एक बार फिर से।“ (पृ0 139)

यहाँ यह ध्यातव्य है कि कितने कवि ऐसे हैं, जो ऐसे सक्रिय उत्साही पात्रों को अपनी कविता के केन्द्र में उपस्थापित करते हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि अशोक ने ऐसे पात्रों को आत्मीयता से रूपायित किया है।
    ‘नन्हें हाथों में रोशनी‘ ने एक ऐसी निरीह बालक का चरित्र है, जो बरात में ट्यूब लाइट का बोझ उठाता हे। कविता पढ़ते हुए उस बालक के प्रति हार्दिक सहानुभूति जगने लगती है।

कवि की सजग दृष्टि ऐसे स्कूल मास्टरों के आचरण पर टिकती है, जो अज्ञानवश छात्रों का भविष्य बिगाड़ देते हैैैं। उनका कटु व्यवहार होनहार छात्रों को जीवन की सही पटरी से उतार देता है। ‘अंधा कुआँ: एक अहसास‘ ऐसी ही कविता है, जिसमें ‘नीरज वल्द धीरज‘ की व्यथा-कथा वर्णित की गई है। उसे भगोड़ों का सरगना घोषित कर दिया जाता है। और ‘ब्लैकलिस्ट‘ भी। सम्पूर्ण कविता में नीरज का आत्मालाप है। वह अपने आत्मालाप से आजकल की शिक्षा के अनेक दोष उजागर करता है। रेहड़ी लगाने वाला नीरज अन्त में कहता है –

“मैं नहीं चाहता मास्टर जी
कोई और नीरज
अपनी छोटी सी किसी भूल की
इतनी बड़ी सजा पाए
कि लौटना ही मुमकिन न हो
रोशनी की दुनिया में दोबारा।“ (पृ0 130)

    हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था स्कूली शिक्षा की दयनीय दुरवस्था है। अध्यापक अपने कर्तव्य का निर्वाह करते ही नहीं हैं। बाल मनोविज्ञान अनभिज्ञ मास्टरजी बालकों को डरा-धमकाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करते हैं। परिणाम सामने है। बालक स्कूल ही नहीं जाते हैं। क्या ऐसी शिक्षा से देश का भविष्य उज्ज्वल होगा। गरीब बालकों के लिए अच्छी शिक्षा तो ‘आकाश कुसुम‘ है।

    यदि धूमिल ने ‘मोचीराम‘ कविता लिखी थी तो अशोक ने ‘बाबू मोची‘ की रचना सम्बोधनात्मक शैली में की है। इस कविता में कवि ने वर्णित किया है कि जमीन से जुड़े बाबू मोची का ठिया हथिया कर उसे विस्थापित कर दिया जाता है। कवि अपनी संवेदनशीलता से मोची के श्रम की प्रशंसा करके उससे कुछ सीखने का संकल्प करता है-

“तुम्हारा मोचीपन बहुत याद आता है आज बाबू
इसलिए मुझे बताओ कि तुम कहाँ हो
पा सकूँ स्पर्श ताकि तुम्हारे कर्मठ हाथों का
और समाज को गोंठने का मोचीपन
भर सकूँ अपने अन्दर
किस हद तक।“(पृ0 69)

समाज के कर्मठ श्रमिक वर्ग से अपना आत्मीय सम्बन्ध अशोक उसी प्रकार जोड़ते है, जिस प्रकार मुक्तिबोध। मुक्तिबोध का कथन है कि सारी दुनिया साफ करने के मेहतर चाहिए। वह अपनी कविता में मेहतर भाव को व्यक्त भी करते हैं। और अशोक समाज की विकृतियों को ठीक करने के लिए ‘मोचीपन‘ अपनाने का संकल्प है। यह है कवि के व्यक्तित्व का रूपांतरण। श्रमिक वर्ग से एकात्मता, लोकधर्मी कवि ऐसा कर सकता है।
‘बाबू साहब‘ कविता में वर्गीय दृष्टि से सम्पन्न और विपन्न वर्गों के प्रतिनिधि पात्रों का द्वन्द्वात्मक वर्णन किया गया है। दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर है।

“फर्क सिर्फ इतना था कि
आप की आस्तीन नोटों से भरी थी
और मैं सर से पाँव तक कर्ज में।“(पृ0 64)

लेकिन परिस्थिति बदलती है। सम्पन्न व्यक्ति की दुकान एम0सी0डी0 द्वारा सील कर दी जाती है। अब विपन्न सोचता है कि

“मेरे उजड़ने का अब तो
हुआ होगा आपको कुछ अहसास और मलाल ।“(पृ0 65)

अशोक तिवारी की कविताओं का प्रमुख प्रयोजन ‘शिवेतरक्षतये‘ है। अर्थात समाज में जो अमंगलकारी परिस्थितियाँ और क्रूर व्यवस्थाएँ हैं उनके विनाश के लिए कवि काव्य सर्जना करे।
अशोक कट्टर साम्प्रदायिकता को देश की प्रगति में सर्वाधिक बाधक मानते हैं। आतंकवाद को भी। ‘गिद्ध‘ शीर्षक कविता में कट्टर हिन्दुत्व, मुस्लिम कठमुल्लापन की प्रखर आलोचना करते हैं।

“ बहादुरी के सारे किस्से
सुना-सुना कर पैदा कर रहा है
गिद्ध अपना गिद्धीय पौरूष
और बना रहा है फिज़ाओं में बहने वाली हवा को
जहरीली और दमघोंटू
उस के पंखों की फड़फड़ाहट
निरीह के घरों से उजड़ जाने के भय को
आँखों में बसा रही है।“(पृ0 16)

    इस कविता में ‘गिद्ध‘ की प्रतीक व्यंजना स्वतः स्पष्ट है। कवि को यह आशंका भी परेशान करती है कि इस भयंकर और भक्षक गिद्ध के विषाणु हमारे ही खून में बिलबिला रहे हैं।

    भीषण और त्रासद साम्प्रदायिकता से जनमें भारत के विभाजन का दर्द भी अशोक शिद्दत से महसूस करते हैं। इस दृष्टि से गढ़ी और सरहद कविताएँ उल्लेखनीय हैं। विभाजन की त्रासद स्मृति में मन्टो की कहानी कौंध जाती है-

“मंटो का टोबा टेक सिंह
इकसठ साल बाद भी पड़ा है
वहीं का वहीं
सरहद के दोनों ओर टाँग फैलाए
सरहदों के मिटने के इंतजार में।“(पृ0 20)

लेकिन चतुर सियासत का ऐसा खेला है कि सरहद को मिटाने की बात सोचना ही नहीं है। राजनेताओं की महत्वाकांक्षा कुण्डली मारे नाग के समान फुँकारती रहती है। आग उगलती रहती है। यह सुनिश्चित है कि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का इतिहास एक है। दोनो की मैत्री भारतीय उपमहाद्वीप में शान्ति का परिवेश निर्मित कर सकती है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए धार्मिक कट्टरपन त्यागना होगा। साम्राज्यवाद का विरोध करना होगा।

बेहतर समाज का स्थापना के लिए अशोक चीटियों के क्रिया कलाप अवधानपूर्वक देखते हैं –

“मेहनत की क्यारी में खिले फूलों की सुगंध
सूँघती हैं चीटियाँ
सीखा नहीं है उन्होंने हताश होना
ठहरना कभी
मुश्किल से मुश्किल समाज में भी
उखड़ती नहीं है उन की साँस
गगग जानती है वो आज़माना
मुट्ठियों की ताकत को एक साथ ।“ (पृ0 47)

शोषक व्यवस्था को उखाड़ने के लिए यह विकल्प अनिवार्य है। ऐसे भीषण शोषक समाज और पूँजी की क्रूरता, भ्रष्टाचार, बलात्कार, दिन-दहाड़े हत्याएँ, अज्ञान, अंधविश्वास आदि को देखकर भी अशोक भविष्य के प्रति एवं मंगलमय समाज की रचना के आशावान् हैं। ‘मुमकिन है‘ शीर्षक कविता इस विश्वास का प्रमाण प्रस्तुत करती है। एक अंश देखिए – 

“मुमकिन है एक और दुनिया
जहाँ नहीं समझता हो कोई दूसरों को दूसरा
मुमकिन है एक और दुनिया
जहाँ भूख न देती हो दस्तक
हर तीसरे दरवाजे पर
सिर ढकने की नहीं हो फिक्र
काम करते हाथों को
चिन्ता न सताती हो
खुद को बनाए रखने की
ऊँच-नीच जैसे विशेषणों का
जहाँ नहीं हो कोई महत्त्व।“(पृ0 70)

स्वस्थ-सुन्दर एवं समतामूलक समाज का सपना देखना प्रत्येक लोकधर्मी कवि का अनिवार्य कर्तव्य है।
विनोद कुमार शुक्ल और अशोक दोनों ने ‘शायद‘ शीर्षक कविता रची है। शुक्ल जी की कविता आकार में छोटी है। सन्दर्भ है दंगा। कविता में कुछ सम्भावनाएँ व्यक्त की गई हैं। लेकिन अशोक की कविता कुछ लम्बी है, जो हताशा के मनोदशा प्रेरक आशा की अभिव्यक्ति करती है। ऐसी आशा निराश व्यक्ति को जिजिविषा से भर देती है। एक अंश ध्यातव्य है – 

“मरी नहीं हो आशा की कोई किरण
कि नज़र आए
चाकू और त्रिशूलों से अलग
कातिल की आँखों में हरियाली का एक सपना शायद।
     #     #     #     #     #     
बची हो जैसे
राख के भीतर
अभी भी एक चिनगारी
चिनगारी बची हो
थोड़ी हरारत
पिघल सके जिसकी गर्मी से शायद
मन के अन्दर जमा बर्फ का पहाड़।“(पृ0 176, 177)

    शुक्ल जी की ‘शायद‘ से अशोक की ‘शायद‘ अधिक प्रभावपूर्ण है। मन की अनेक दशाओं के निरूपण के कारण।

    पिछले दिनों मैंने वरिष्ठ कवि का संकलन ‘हाशिए का गवाह‘ की कविताएँ पढ़ी थीं। पूरे संकलन में मात्र एक कविता ‘नट‘ हाशिए का व्यक्ति है, जब कि अशोक के ‘मुमकिन है‘ में लगभग सभी कविताएँ हाशिए के साधारण जनों को केन्द्र में उपस्थापन का प्रयास करती हैं।

    संकलन की कविताओं में भाषाई खिलवाड़ है। विनोद कुमार शुक्ल के शाब्दिक चमत्कार के समान और न अमूर्तन है कुँवर नारायण के समान।

    ‘बाजारू दोस्त‘ कविता में कवि ने वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था की प्रखर भत्र्सना की है। क्योंकि गगनचुम्बी इमारतों ने लाखों जानदार पेड़ उजाड़ दिए हैं। विराट् रूपवाले मालों ने झर बेरियाँ नष्ट कर दी हैं। वह जमीन हथिया ली है, जिस पर कवि की आँखें ‘एक पूरी मेहनतकश संस्कृति देखती हैं।

    लेकिन आशावादी है। वह कहता है कि

“कोई तो है
जो अपने वक्त में रहते हुए
आने वाले कल की बात करता है
जिन्दगी के खूबसूरत तरानों को
गुनगुनाने की बात करता है।“ 

और

“पहाड़ों को लाँघकर
संजीवनी लाने की बात करता है। 
आदमीयत के लिए।“(पृ0 84, 82)

    अशोक का सहृदय कवि-मन अपने घर-परिवार, परिजनों, मित्रों और अपने गाँव के प्रति भी अत्यधिक संवेदनशील है। इस दृष्टि से ‘माँ आ रही है‘ कविता पठनीय है। कवि ट्रेन का इंतजार कर रहा है। वह लेट हो रही है, क्योकि उस में बैठी माँ के साथ अपने जन्म-स्थान के वासियों के अच्छे-बुरे हाल-चाल भी रहे हैं। यथा –

“कैसे मर गया कमला हलवाई
चम-चम की चासनी में कड़छुल चलाते-चलाते।“(पृ0 141)

    अशोक की कवि-दृष्टि समाज में नारी के बन्धन को देखकर आक्रोशपूर्ण खेद व्यक्त करता है – 

“दोयम दर्जे के साथ वह खुश है
कर रही है वह पुष्ट
मर्दों की पुरातन साजिश को
हँस-हँस कर।“(पृ0 95)

    यह कविता पढ़ते हुए ‘द सेकेण्ड सेक्स‘ पुस्तक की याद आने लगती है। प्रभा खेतान कृत अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता‘ भी। नर-नारी अथवा स्त्री-पुरूष की समानता का आदर्श समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है।

    अशोक बहुपठित संवेदनशील कवि हैं। उन्होंने प्रसिद्ध उपन्यास लेखिका श्रीमती नासिरा शर्मा की साहित्य साधना को प्रवहमान नदी की संज्ञा प्रदान की है। मधुरेश के अनुसार “नासिरा शर्मा स्त्री की नियति को एक व्यापक फलक पर परिभाषित करती है।“ अशोक ने उनकी औपनयासिक दृष्टि रखते हुए बिम्बात्मक शैली में लिखा है-

“समय की छाती में घोपने वाले
तेज हथियार का
अपनी मुट्ठी में थाम लेने की हसरत लिए
वो औरत
बह रही है एक नदी की तरह
सरहदों के आर-पार
     #     #     #     #     #
जूझती हुई शाल्मली की तरह
जो कभी अपने घर और
कभी घर से बाहर के बीच
तलाशती है अक्षयवट मानवता का।“(पृ0 96)

उल्लेखनीय है कि ‘शाल्मली‘ (1993) और ‘अक्षयवट‘ नासिरा शर्मा के उपन्यास हैं। ‘सात नदियाँ: एक समुंदर‘ (1985) उनका पहला उपन्यास है जो ‘ईरान के आधुनिक इतिहास सबसे तल्ख और खूनी दौर की पृष्ठभूमि में स्त्री के उत्पीड़न के विभिन्न रूपों का आंकलन प्रस्तुत करता है।“(मधुरेश)

    गोनड़ बाबा और चाँद तुम सच-सच बतलाना अशोक को उपन्यासकार और कवि नागार्जुन से जोड़ते हैं। यदि पहली कविता वरूण के बेटे से जोड़ती है तो दूसरी कविता कालिदास सच-सच बतलाना रचना से। इस प्रकार अशोक जन प्रतिबद्ध लेखक बाबा नागार्जुन से रागात्मक संबंध जोड़ते हैं।

    और अपने गाँव के प्राकृतिक परिवेश के प्रति सघन रागात्मकता चैखट पर कविता में व्यक्त हुई है –

“गाँव की चौखट ने
आवाज दी मुझे
बनी थी जो उस शीशम की
जिसकी छाँव तले
सँवारे थे मैंने
बचपन के अपने दिन।“ 

और

“दौड़ कर नंगे पाँव पहुँचा में गाँव की सरहदों में
बबूल ने समेट लिए
रास्ते में पड़े अपने काँटे
झाड़ने लगा नीम
अपनी सारी की सारी
कसैली-मीठी निबौरियाँ
थम गया कौवों का शोर
फूलों की ताजगी
भरने लगी नया दम
देखने लगी खेत मी मेढ़ें
उचक-उचक कर
बहने लगी हवा झूम-झूम कर।“(पृ0 179)

    अपने गाँव की धरती का कोमल स्पर्श नंगे पाँवों से महसूस किया जा सकता है। कवि की वर्णन शैली में मानवीकरण का क्रियात्मक समावेश स्वतः हो गया है।

अशोक की कविताओं का मूल भाव मानवीय करूणा है। उसी से सात्विक क्रोध, आक्रोश, अमर्ष, व्यंग्य का समावेश हुआ है। वाक्य-रचना में क्रिया पद प्रारम्भ में प्रयुक्त करके काव्य-भाषा में भावावेग का समावेश अनायास किया गया है। अशोक की काव्य-भाषा में समकालीन कवियों-कुमार, अम्बुज, बद्रीनारायण आदि की ठंठी गद्यात्मकता नहीं है। लयात्मकता उसका अनिवार्य वैशिष्ट्य है। अशोक ने तुकान्तों का स्वाभाविक प्रयोग किया है। धूमिल के समान चैकाने वाले तुकान्तों का अभाव है। क्रियापदों से सार्थक और गतिशील बिम्बों की सृष्टि की गई है। काव्य-भाष में कथ्य को प्रभावी बनाने के लिए मानवीकरण उपमा, रूपक  स्वतः आये हैं। अधिकतर कविताएँ नाटकीय शैली से युक्त हैं। इससे कविताएँ अनायास सम्पेषणीय होती हैं।

    ‘मुमकिन है‘ काव्य‘-संकलन का महत्त्व लोकधर्मी कवि विजेन्द्र ने स्वीकार किया है। ज्ञात नहीं कि किस आलोचक ने इस संकलन की वस्तुनिष्ठ समीक्षा लिखी है।

    भारतीय लोक जीवन और अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य को रूपायित करने वाली ‘मुमकिन है‘ संकलन अपनी अलग पहचान बनाता है। इस संकलन की एक उपलब्धि यह है कि कवि ने अधिकतर कविताओं में विशेष चरित्र उपस्थापित करके एवं सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति करके अभिनव समाज के लिए विकल्प भी प्रस्तुत किया है। सारांश यह है कि अशोक तिवारी विजेन्द्र की लोकधर्मी कविता-धारा को अग्रसर कर रहे हैं। इस संकलन की लगभग सभी कविताएँ कलात्मक स्थापत्य से अन्वित हैं और पाठक को आश्वस्त करती हैं कि भविष्य में अशोक तिवारी के काव्य-क्षितिज और अधिक विस्तार होगा। लोक का संघर्षशील स्वभाव कलात्मक रूप में प्रत्यक्ष होगा।

(अमीर चन्द वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)
 

सम्पर्क –
मोबाईल-09897482597   

अमीर चंद वैश्य,

एक जिम्मेदार आलोचक का यह दायित्व होता है कि वह नयी से नयी रचना परदृष्टि डाले और उसके महत्त्व को रेखांकित करे. अमीर चन्द्र वैश्य ऐसे ही आलोचक हैं जिनकी नजर नए से नए रचनाकार और उनकी रचनाओं पर रहती है. सौरभ राय ऐसे ही युवा कवि हैं जिनका एक संग्रह आया है ‘अनभ्र रात्रि की अनुपमा.’ इस संग्रह पर पत्र रूप में एक गंभीर टिप्पणी की है अमीर जी ने.


12. 04. 2013

प्रिय भाई सौरभ,

सादर नमस्कार। आप के 25. 03. 13 के आत्मीय पत्र के साथ आप के तीनों काव्य संकलन मेरे हाथ में आए। मन में प्रसन्नता। इस त्वरित औदार्य के लिए धन्यवाद व्यक्त करता हूँ।
जीवन में कभी कभी अजीब संयोग उपस्थित होते हैं। मार्च में वागर्थका अंक देख रहा था। पहले कवितायेँ ही पढ़ता हूँ। अचानक पढ़ने लगा आप की कविताएँ। प्रत्येक कविता कम-से-कम दो बार पढ़ता हूँ। आप की कविताएँ पढ़कर अनायास आप का मो.नं. अंकित करके लाल चिन्ह दबा दिया। थोड़े से अन्तराल बाद मेरा फ़ोन ध्वनित होने लगा। हरा चिन्ह दबाया। सुना कि आप बोल रहे हैं। इस अप्रत्याशित संवाद ने हम दोनों के बीच सम्बन्ध-सूत्र जोड़ दिया। आप ने वचन का निर्वाह किया। और अपने तीनो संकलन आप ने तत्काल प्रेषित कर दिए और मुझे साहित्यिक दयित्व से बाँध दिया।
जिस दिन पैकिट प्राप्त हुआ, उसी दिन को आपको प्राप्ति की सूचना बता दी और पहला संकलन अनभ्र रात्रि की अनुपमाकी कविताएँ पढ़ने-समझने लगा। लगभग सभी कविताएँ पढ़ लीं। दो दिनों की अवधि में।
अभिव्यक्ति व्यक्ति का स्वाभाविक गुण है। सभी में होता है। लेकिन सर्जनशील कवि में सर्वाधिक होता है। सच्चा कवि अपनी काव्य-सृष्टि में स्वयं को अनायास व्यक्त कर देता है। आपका कवि व्यक्तित्व अंतर्मुखी कम बहिर्मुखी अधिक है। तभी तो अपने पहले संकलन में अपने परिजनों, गुरुजनों और अन्तरंग मित्रों के प्रति आभार व्यक्त किया है। “सुनीता का, एक अच्छी दोस्त और मेरी शुरुआती कविताओं की प्रेरणा स्रोत” यह वाक्य स्मरणीय सूत्र है। क्या सुनीता अनभ्र रात्रि की अनुपमाहै, जो यही कहती थी 
“तुम अच्छे हो सौरभ 
कुछ ज़्यादा ही अच्छे 
और थोड़े से पागल भी (पृ. 163)
कुछ ज़्यादा ही अच्छेऔर थोड़े से पागलपन ने आप को सहृदय कवि के रूप में अंतरित किया है।
समकालीन हिंदी कविता के संसार में कई पीढ़ियों के कवि सक्रिय हैं। कुछ तो राजधानी दिल्ली के हैं, जो स्वयं को बड़ा मानते हैं । जन-गण-मन से दूर रहकर सत्ता पक्ष से अपने आत्मीय सम्बन्ध जोड़े रहते हैं। केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी ऐसे ही कवि हैं, जो साहित्य के सामंत हैं। नामवर सिंह जिस की प्रशंसा कर दें, वह तत्काल बड़ा कवि हो जाता है। ऐसे कवि जोड़-तोड़ करके पुरस्कार प्राप्त करने में अपना सौभाग्य समझते हैं। ऐसे कवि स्वयं को वामपंथी घोषित करते हैं, लेकिन आचरण की सभ्यता उन्हें इस का विलोम सिद्ध करती है। ऐसे कवि जोड़-तोड़ अथवा जुगाड़ से दूसरे संकलन पर ही साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त कर लेते हैं । अनेक पुरस्कार हैं आजकल कवियों और लेखकों के लिए। लेकिन वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जैसे कवि संख्या में बहुत कम हैं, जो अपनी सर्जनशीलता को लोक के लिए समर्पित कर के कविता से अपने जीवन को सार्थक कर रहे हैं। मुझे आप के काव्य व्यक्तित्व में विजेन्द्र जी की झलक दृष्टिगोचर होती है। विजेन्द्र जी पांच दशकों से काव्य-सर्जन में संलग्न हैं लोक चेतनासे प्रेरित कृति ऒरपत्रिका के प्रधान संपादक हैं । उन के लिए लोकमनोरंजन का साधन न होकर लोकतंत्रका वहलोकहै, जो जिजीविषा से प्रेरित होकर श्रम-सौंदर्य को सर्वोपरि जीवन-मूल्य मानता है।
आप की कविताओं में मुझे ऐसी ही झलक दिखाई पड़ती है। आप का पहला संकलन पढने के बाद मुझे आभास होने लगा कि प्रेम के साथ-साथ आप की कविताओं का मूल भाव करुणाहै, जो आपकी ज्ञानात्मक संवेदना को श्रमशील लोकसे जोड़ती है औरभद्रलोककी बेलाग आलोचना करती है। अपनी बात के समर्थन में ख़ुशीशीर्षक कविता की ऒर संकेत है। इस कविता में सामाजिक-राजनैतिक वास्तविकता के प्रति खिन्नता-प्रसन्नता व्यक्त करते हुए मैं ख़ुश हूँवाकया की आवृति से सात्विक अभर्ष की अभिव्यक्ति की गयी है। सम्पूर्ण कविता में वर्तमान विषम समाज के अनेक रूप उजागर किये गए हैं। मैं ख़ुश हूँकहकर आप ने तीखा प्रतिरोध दर्ज किया है। एक उद्धरण इस प्रकार है – 
“एक पिता अपने बच्चे की लाश धरे सोच रहा है 
वोट देने दो कोस जाने पड़ते हैं 
चिकित्सा को बाईस कोस क्यों
मैं तो ख़ुश हूँ ” (पृ. 42)  
यह मैंक्रूर पूंजीवादी व्यवस्था का अदना सा व्यक्ति है अथवा प्रशासक है अथवा जनप्रतिनिधि है, जो स्वार्थमें ही मस्तहै। परार्थ से उसे कोई सरोकार नहीं है। अभीअभी का समाचार है कि महाराष्ट्र के कई क्षेत्र सूखे से संत्रस्त हैं। पानी के लिए तरस रहे हैं। दूसरी ऒर मंत्री के लिए हेलिपैडतैयार करने के वास्ते हज़ारों लीटर पानी बहाया जाता है। फिल्म की शूटिंग के लिए पर्याप्त पानी की व्यवस्था की जाती है। शाहरुख़ खान ख़ुश हो जाते हैं।
इसी कविता में आपने एक और अविस्मरणीय बात कही है- 
“एक कवि आज अपनी ही कविता को
पढ़कर, न समझकर 
ख़ुश है 
मैं भी ख़ुश हूँ।”(पृ. 44 )  
समकालीन अधिकांश हिंदी कविता लगभग अपठनीय हैं। उस में लयात्मकता का अभाव है, जब किलयकविता की संरचना के लिए अनिवार्य है। मुक्त छंद का अर्थ छंद के बंधनों से मुक्ति है, न कि लय का परित्याग। निराला ने कवित्त आदि अनेक परंपरागत छंदों को मुक्त छंद में ढाला है। जागो फिर एक बारशीर्षक कवित्त की लय पर आधारित है। तुलसी के प्रिय छंद हरिगीतिकाछंद का मुक्त रूप में प्रयोग कई आधुनिक कवियों ने किया है। दिनकर ने। अज्ञेय ने। मुक्तिबोध ने। गुप्तजी ने इसे परंपरागत रूप में प्रयक्त किया है। उन की भारत-भारतीऔर उन का खंड काव्य जयद्रथवधहरिगीतिका छंद में रचे गए हैं।
मुझे आपकी कविताओं में लय का तो आभास होता है, परंपरागत छंद के मुक्त रूप का नहीं। लेकिन आप वाक्यों की रचना इस प्रकार करते हैं कि कविता पढ़ते हुए लय का आभास होने लगता है । एक उद्धरण प्रस्तुत है – 
“नोट मेरी प्रेरणा का स्रोत है 
वोट मेरी शक्ति का 
और 
आप जैसे लोग 
मेरी दिलेरी का 
मैं परिणाम से ज्यादा 
परिमाण पर यकीन करता हूँ।” (पृ. 142) 
यह क़ानून : एक साक्षात्कार कविता का एक अंश है। पूरी कविता लयात्मक है। पठनीय है। यथार्थ से साक्षात्कार भी कराती है। उद्धृत अंश में परिणामएवं परिमाणपद स्वार्थी नेता के चाल-चलन और चेहरे से अवगत करा रहे हैं।
इस क्रूर पूंजीवाद व्यवस्था में आदमी‘ ‘इंसानबन जाए, यह असम्भव है । तभी तो ग़ालिब ने कहा है – 
बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना 
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना। 
लगभग यही भाव या विचार आपने दिल-दरवाज़ामें व्यक्त किया है – 
“मेरा दरवाज़ा मुझे 
देखता है । 
एकाकी जिया 
और पैसा कमाया 
पैसों का घर बनाया 
और बनाया 
ये अभेद्य दरवाज़ा 
जिस की चौखट लांघ 
घर में न कोई आया है 
न ही किसी के आने की संभावना है।” (पृ. 135)  
यह है अलगाव की दुर्भावना, जो निम्नवर्ग से तो घृणा करता है, लेकिन उच्च वर्ग की ऒर ताकता रहता है ।

लेकिन आप अपने वर्ग की सीमाएं लांघकर चक्की के चारों तरफदेखकर कहते हैं – 
“मैं गया एक झोपड़ी में 
चावल पिसाने 
एक लड़की देखी  
सुन्दर पर काली 
संदल तप्त बदन 
पीतल की तराश 
 झोपड़ी के अँधेरे में चमकती 
जैसे गर्म सोने को आंच से निकाला हो 
 चेहरे पर सच्चाई 
माथे पर मेहनत का पसीना 
जो उस जिस्म पर नहीं ठहरता 
फिसलता चला जाता 
फ़र्श पर गिरने तक।” (पृ. 122)  
यह कविता पढ़ कर निराला की कालजयी कृति वह तोड़ती पत्त्थरयाद आने लगती है।

श्रम के प्रति सम्मान और समादर की भावना आज की लोकधर्मी कविता की प्रमुख विशेषता है। सत्ता – व्यवस्था से अन्तरंग सम्बन्ध जोड़ कवियों के काव्य संसार में इस वैशिष्ट्य का अभाव है। यदि किसी कवि में है तो वह सघन होकर विरल है।

आप के पहले काव्य-संकलन में यह वैशिष्ट्य लसित होता है। इस सन्दर्भ में दधिचीकविता उल्लेखनीय है, जिस में पौराणिक नाम दधिचीको श्रमशील किसान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस कविता में श्रमशील वर्ग और प्रभुवर्ग को द्वंद्वात्मक रूप में व्यक्त करके वर्तमान समाज की क्रूर विषमता उद्घाटित की गयी है – 
“देवता बैठे हैं 
पी रहे हैं 
सुरा 
नृत्य देखते 
नर्तकी का 
+++ 
किसान है 
दधिची 
देवों को अपनी हड्डी देकर 
रेंग रहा है चुपचाप 
देवता बैठे हैं 
पी रहे हैं 
सुरा 
नृत्य देखते 
प्रगति का।” (पृ. 117)

पौराणिक ऋषि दधिची के अस्थि-दान को, आधुनिक सन्दर्भ में, आपने प्रयुक्त किया है। शायद पहली बार। यह कविता पढ़कर निराला की प्रसिद्द कविता बादल रागश्रंखला की छठी कविता का अंश याद आ रहा है – 
“जीर्ण बहु, हे शीर्ण शरीर 
तुझे बुलाता कृषक अधीर 
विप्लव के वीर! 
चूस लिया है उसका सार 
हाड-मांस ही है आधार 
ऐ जीवन के पारावार।” (निराला रचनावली. 1, पृ. 124) 
सन 1924 में रचित यह कविता बता रही है, कि उस समय अर्थात स्वाधीनता-संघर्ष के दौर में सर्वाधिक शोषण किसानों का हो रहा था। तभी तो निराला ने बादल के क्रांतिकारी रूप का स्मरण किया था। आज भी, उदारीकरण के दौर में, कृषक वर्ग सब से अधिक पीड़ित-शोषित है। वह आत्महत्या करने लगा है। लेकिन वर्तमान व्यवस्था के प्रभु-वर्ग के देवता मस्त हैं।

आपने भी क्रांति कन्यारचकर निराला की परंपरा से स्वयं को जोड़ा है, लेकिन आलोचनात्मक ढंग से। ऐसा आभास होता है कि क्रांति कन्यासे आप पूर्णतः आश्वस्त नहीं हैं। लेकिन सवाल यह है कि भारत जैसे देश में विषमता कैसे दूर हो। जवाब है- किसानों के साथ मज़दूरों का सुदृढ़ संगठन  और मध्य वर्ग का रूपांतरण। भारत में जब तक भूमि-सुधार नहीं होंगे, तब तक कोई बुनियादी परिवर्तन संभव नहीं हो सकेगा। और ऐसे परिवर्तन के लिए आवश्यकता है क्रांतिकारी राजनैतिक दल की। दुर्भाग्य से भारतीय वामपंथी दल एकजुट नहीं हैं। वे हिंदी भाषी प्रदेशों में क्यों असफल रहे हैं? भारत में ऐसे कितने मुख्य मंत्री हैं, जिनके पास त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार के समान निजी संपत्ति नहीं है। वर्तमान परिवेश को देखकर आप का मानस निराशा से भर गया है। तभी तो आपने लिखा है –
“लिंकन 
गोली खाकर 
गिरता रहा 
सीढ़ियों से लगातार 
मार्क्स 
समाजवाद की किताब 
बेच रहा है 
 +++ 
लेनिन की मूर्ति
मूर्त चौकस है 
चौक पर 
जहाँ से हर रास्ता 
पूँजीवाद को जाता है 
जोन ऑफ़ आर्क की तलवार 
अजायबघर में सजी है 
मार्टिन लूथर किंग का शरीर 
कब्र में 
गोरा पड़ गया 
घर में बच्चा 
क्रान्ति बोल 
दूध पीने से अड़ गया।” (पृ. 153)

आपकी यह अस्थायी निराशा स्वाभाविक है। संचार क्रांति ने पूंजीवाद को नयी जीवन शक्ति प्रदान की है। सम्प्रति निजीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने अमीरों को समृद्ध किया है, लेकिन गरीबों को बेमौत मार डाला है। 
हर नफस उम्रे गुज़रता है मैयत फ़ानी 
ज़िन्दगी नाम है मर-मर के जिए जाने का। 
मनुष्य की जिजीविषा अदम्य है। उसने यथास्थिति का प्रतिरोध हमेशा किया है। इतिहास का अंत नहीं हुआ है। वह और आगे बढ़ेगा। यथास्थिति का विकल्प सामने आएगा। मुझे विश्वास है कि अपनी अन्य कविताओं में आपने सार्थक विकल्प प्रस्तुत किया है। किया होगा। तानाशाही कोशीर्षक कविता इसका प्रमाण है। आप तानाशाहों को चेतावनी देते हुए कहते हैं –
“रक्त में मथनी डाल कर 
होगा मंथन विचारों का 
आसमान से गिरेगा ताबूत 
धरती फटेगी ख़ुद-ब-ख़ुद 
और आंधी उड़ा ले आएगी मिट्टी 
तुम्हारा देश धम्म से गिरेगा 
और कुचल देगा तुम्हे।” (पृ. 152)
आपने प्रतिरोध भावना विदर्भकविता में किसानों की आत्म-हत्या के सन्दर्भ में भी की है – 
“शव के बदले चुकालो कर्ज़ा 
बो दो शव को खेत में 
अथवा बेच दो 
कपास बतलाकर 
यही तो करता आया है तुम्हारा सम्राट 
न-न जलाओ नहीं 
कहीं आत्माराम की दुम 
बजरंगबली की पूँछ बनकर 
जलाकर ख़ाक न कर दे 
विदर्भ के सम्राट को ।” (पृ. 156)  
यह आत्मीय विकल्प पाठक को आश्वस्त करेगा कि यथास्थिति कर प्रहार होगा। अनिवार्यतः होगा।
विदर्भके समान अवध‘, ‘झारखण्ड‘, ‘तक्षिला‘ (तक्षशिला), ‘द्वारकाऔर कोसलको केंद्र में उपस्थापित करके उनसे सम्बद्ध बातें भी कविता निबद्ध किया गया है। इससे आपकी कविताओं में व्यापकता का समावेश हुआ है। द्वारकाके माध्यम से सामाजिक-धार्मिक-राजनैतिक विसंगतियों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति की गयी है – 
“पोरबंदर के महात्मा 
मदिरा त्याग कर गए 
हूच के मज़दूर 
दारू पीकर मर गए 
द्वारकाधीश 
लड़ रहा है महाभारत 
हस्तिनापुर जाकर 
राम खुश है 
रहीम को जला कर 
आदमी कहता है – छोड़ दो हमें 
पंडित कहता है – फोड़ दो बमें 
दहशत है या की वहशत
आदमी नहीं बताएगा 
मरने का खतरा है।” (पृ. 160)
आम आदमी के प्रति आप की यह संवेदना सहृदयता का प्रमाण है। क्रूर व्यवस्था ने आम आदमी का जीना हराम कर दिया है। अब भारत के मानचित्र में कोसलका नाम अंकित नहीं है। आपने ठीक लिखा है – 
“नक़्शे में
कोसल का पता बताने वाले 
भूखे पेट सो गए हैं 
चाँद अमीरों के बीच 
करोड़ों गरीब  
खो गए हैं ” (पृ. 162)
करोड़ों गरीबों के प्रति आपकी स्वाभाविक संवेदना आप के बहिर्मुखी व्यक्तित्व का प्रमाण है। और कवि जनोचित सहृदयता का भी। यही सहृदयता प्रेम विषयक कविताओं में व्यक्त हुई है अनामिकाकविता इसका अच्छा सबूत है, जो सहृदय भाई के निश्चल प्रेम की अभिव्यक्ति है-
“असंख्य दुःख सहे होंगे तुमने 
उनका मुझे आभास है 
आवर्जिन न करना कभी 
जब तलक यह भाई तुम्हारे पास है।” (पृ. 137)
प्रेम शब्द में ढाई अक्षर हैं, जिनके आभाव में जीवन अधूरा रहता है। यह संसार ढाई अक्षरों का ही विस्तार है। आपने ऐसे प्रेम का महत्व समझा है और उसे निर्द्वन्द भाव से कविताओं में व्यक्त किया है। तेरी कविता इस का प्रभावपूर्ण उदहारण है, जिस में कहा गया है – 
“देखना चाहता हूँ तेरी आँखों से 
वो छोटे बड़े सपने जो तू संजोती है 
महसूस करना चाहता हूँ वो सब 
और रोना चाहता हूँ तेरे साथ 
जब तू दुनिया के लिए रोती है 
+++ 
जो अनकही कविता तेरे नयनों में बस्ती है 
 दिख पड़ती है मुझे 
जब तू हंसती है।” (पृ. 86)
मानवीय प्रेम प्राकृतिक परिवेश के मध्य परिपक्व होता है। जीवन के समान प्रकृति के रूप भी अनेक होते हैं। रात-दिन, धूप-छांव, धरती-आकाश, सूखा-बाढ़, वन-उपवन, पेड़-पहाड़, आंधी-तूफ़ान आदि। ये सभी रूप मनुष्य के सुख दुःख के साथी होते हैं। आपने पेड़शीर्षक कविता में पेड़ का मनमोहक बिम्ब रूपायित किया है। पेड़ स्वयं कहता है – 
“चाहता हूँ 
धूप खिले 
फिर से कोई मुसाफिर 
मेरी पनाह में रोटी अचार खाए 
लकड़ियाँ काटे 
घर बनाये 
कट कर किसी का घर बन जाना 
अत्यंत सुखद होता है ।” (पृ. 55)
पेड़ का यह परोपकारी रूप आप के संवेदनशील कवि का एक और अच्छा प्रमाण है।
‘2471185शीर्षक कविता वर्तमान समय की संचार क्रान्ति से उनमें प्रेम भाव के आदान-प्रदान का अभिनव रूप है । फोन-संवाद के माध्यम से सामजिक विसंगति की कलात्मक अभिव्यक्ति की गयी है – 
is it 2471185? 
ख़ुशी क्या तुम मुझे सुन सकती हो?
चुप क्यों हो
मत रो! 
कुछ तो बोलो!” (पृ. 49)  
सम्पूर्ण कविता इकतरफा कथन है। संवाद नहीं है। ख़ुशी की चुप्पी और उसका रोना उसकी विवशता व्यक्त कर रहे हैं। कविता की कथन-भंगिमा में बाँकपन है, लेकिन दुर्बोधता नहीं है।
प्रेम के संवर्धन में आँखों का विशेष महत्व होता है। आँखें चार होती है और प्रेमास्पद आँखों में बस जाता है। रहीम ने लिखा है कि जब प्रियतम की छवि नयनों में बस जाती है, तब उनमें पर छवि नहीं समाती है। सरायको मरा देखकर पथिक स्वयं लौट जाता है। आपनेपरदेशीर्षक कविता में आँखों का कलात्मक समावेश किया है – 
“और अंगड़ाई ले कर खुलती हैं 
तुम्हारी आँखें 
इस खुलती खिड़की के 
उस पार की धूप में 
परदे की आड़ में दिख जाता है 
खेलता बचपन 
शर्माता यौवन 
एक सम्पूर्ण जीवन! 
इस खुलती खिड़की पर से 
लहराते परदे को 
आज आहिस्ता से मैंने हटाया 
आज फिर से तेरा नाम कागज़ पर लिख कर 
मुस्कुराकर मैंने मिटाया ।”(पृ. 47)
यह कवितांश पर्याप्त व्यंजक है, जो प्रेमी मन का अन्तः द्वंद्व व्यक्त कर रहा है। प्रेमी प्रसन्न भी है और अवसन्न भी। कागज़ पर प्रेमिका का नाम लिखकर उसे मुस्कुराकर मिटाना सामजिक रूढ़ियों की ऒर संकेत कर रहा है। प्रेम कभी-कभी एकपक्षीय भी होता है। इस कविता में ऐसा ही प्रेम व्यक्त किया गया है ।
प्रेम की प्रवृत्ति रंजन के प्रति होती है, और करुणा की रक्षण के प्रति। करुणा से प्रेरित होकर आपने कई कवितायेँ लिखी हैं। किसानों के प्रति आप की सच्ची हमदर्दी है। धार्मिक पाखंडों के प्रति व्यंग्य है। तर्क के आधार पर परंपरागत रूढ़ियों पर प्रहार किया गया है। बेटियों के प्रति संरक्षण भाव है। शोकगीतकविता में आपने आक्रोशपूर्ण शैली में अनेक कुरीतियों पर प्रहार किया है – 
“ज्यों ही सूखता है पक्षियों का गला 
काट दो उसको 
भर जाने दो खून से 
लबालब। 
निकाल दो भ्रूण को 
हर माँ की कोख से 
उजाड़ दो सार संसार 
काट डालो पेड़ पर पेड़ 
कर दो धरती को 
नंगा। 
मुचड़ दो फूलों को 
बच्चे के हाथ से छीनकर 
पकड़ा दो बन्दूक 
खोद दो गड्ढे 
जगहों पर 
रोप दो उनमें बारूद।” (पृ. 108) 
इस कवितांश में वर्णित मानव-विरोधी क्रियाओं के प्रति प्रखर भर्त्सना व्यक्त की गयी है ।
आपने तर्क अर्थात काव्य-तर्क के आधार पर परंपरागत मान्यताओं की तीखी आलोचना की है। और माध्यम वर्ग की भी। इसीलिए आप की कविताओं में आत्म्व्यंग भी है। यथा आप कहते हैं – 
“हर गली नुक्कड़ से गुज़रा 
अन्याय देखा और गुंडों को नमस्कार किया 
बोलने का मन बनाकर 
घर में ठिठका सा 
बुदबुदाया और सो गया 
उठ कर मैंने फिल्म देखी 
गाना गाया 
ज़िन्दगी में बड़ा मज़ा आया।” (पृ. 27)
आप ने क्रमशःशीर्षक कविता में घटना प्रसंग का वर्णन करके आज के उस सामाजिक उत्पीड़न की कलात्मक अभिव्यक्ति की है, जो सबल द्वारा निर्बल पर किया जाता है। कविता के पूर्वार्ध में ज़ुल्मी ठेकेदार अपने एक मज़दूर को नेतागिरीकरने पर पीटकर अधमरा कर देता है। उत्पीड़ित मज़दूर खून को घूँट जाता है, थूकता नहीं है। थूकता तो मालिक गुस्सा करते।कविता के दूसरे भाग में वह मज़दूर घर पहुंच कर अपनी बीवी को पीट देता है – 
“बीवी रो रही थी – 
“काहे मरते हो 
कमजोर को काहे सताते हो” 
“बहस करती है 
आँख दिखाती है” 
वो मारता जा रहा था।” (पृ. 17)  
यह है क्रोध का स्थानांतरण । यह एक ऐसा मनोभाव है, जो प्रायः अपने से कमज़ोर के प्रति व्यक्त किया जाता है । संवादों के समावेश से कविता प्रभाव से अन्वित हो गयी है।
इस भिन्न व्यंग्यात्मक शैली में रचित राष्ट्रगानभी प्रभावान्वित है। करुणा व्यंग्य करने के लिए विवश करती है। और घृणास्पद यथार्थ से साक्षात्कार कराने लगती है –
“जहाँ प्यार करने के लिए 
दिल होने से ज़्यादा गुंडा होना ज़रूरी है 
जहाँ सत्यशब्द का इस्तेमाल 
केवल अर्थी ले जाने पर किया जाता है 
 +++
जहाँ लड़की के जन्म पर शोकगीत गाया जाता है 
फिर उसकी मौत पर गरीबों में कचौड़ी खिलाई जाती है  
+++  
घिन्न होती है सोचते हुए कि 
छुटपन में मैंने कभी गाया था  
सारे जहाँ से अच्छा…” (पृ. 18-19)
हमारे सामाजिक जीवन में रामायणके आदर्श पात्र हमेशा अदृश्य रहते हैं, लेकिन महाभारतके पात्रों से हम प्रतिदिन साक्षात्कार करते हैं। आत्मदाहशीर्षक कविता में महाभारत के प्रमुख पात्रों -कर्ण, युधिष्ठिर, भीष्म पितामह के साथ-साथ सम्पूर्ण महाभारत को तार्किक दृष्टि से स्मृत किया गया है। 
“पुण्य और पाप हैं आज घुलमिलकर एक 
क्या अद्भुत समन्वय है दोनों तटों में 
कौरव करें तो पाप
तुम  तो पुण्य?” 
आत्मरक्षा में हैं खग भी चोंच मारते 
फिर हमीं क्यों हैं दोषी इस समाज के।” 
“पर अन्याय जब अभिशाप बन अपनों को दंशे 
तो इस महाभारत को कौन टाल सकता था?” (पृ. 53, 54
यह कविता पढ़ कर और समझ कर हमारा यह दयित्व बनता है कि अन्यायको अभिशापबनने से रोकें। अलगाव त्याग कर समदृष्टि से समाज के अन्य वर्गों को अपना बनाएं। इस के लिए सामूहिक प्रयास अनिवार्य है। लेकिन खेदजनक बात यह है कि क्रूर पूंजी ने समाज को जातियों, धर्मों, सम्प्रदायों, अगड़ों, पिछड़ों, अल्प-संख्यक और बहु-संख्यकों में बाँट दिया है। लोग अपनी-अपनी पहचान के लिए लड़ रहे हैं। कमज़ोर ताक़तवर से डरते हैं। तभी तो आपने लिखा है 
“मेरे घर के आसपास 
लोग हैं 
जो घर से बाहर नहीं निकलते 
जीने के जोखिम को उठाने से 
दूर 
बहुत दूर 
कमरे में बंद 
वो करते हैं बातें 
खेल-फैशन-राजनीति की।” (पृ. 149)
राजनीति पर मात्र बातें करना पर्याप्त नहीं है। आज जनवादी राजनीति की आवश्यकता है। लेकिन कैरियर-केन्द्रित युवा वर्ग ऐसी सक्रिय राजनीति से दूर रहना ही श्रेयस्कर समझता है।
आप जैसे लोकोन्मुखी सहृदय युवा कितने हैं। बहुत कम, जो जान जोखिम में डाल कर सच कहने और लिखने का साहस कर रहे हैं। अनभ्र रात्रि की अनुपमासंकलन के पांच संस्करण प्रकाश में आ चुके हैं। पांचवा संस्करण 23 मार्च, 2013 को प्रकाशित हुआ है। इस से स्पष्ट हो रहा है कि आप की कवितायेँ असंख्य पाठकों तक पहुंची हैं। फिर भी, मुझे लगता है, कि हिंदी का संसार आप के कवि रूप से पूर्णतया सुपरिचित नहीं है।
इस संकलन की लयात्मक भाषा प्रवाहपूर्ण और प्रभावपूर्ण है। यत्र-तत्र कुछ व्याकरणिक त्रुटियाँ लक्षित होती हैं । विशेष रूप से लिंग सम्बन्धी भूलें। सभी कवितायेँ प्रभावपूर्ण नहीं हैं। मैं आप वोशीर्षक कविता अर्थ-बोध की दृष्टि से कमज़ोर है। समझने के लिए बार-बार प्रयास करना पड़ता है।
जो कुछ इस पत्र में लिखा है, वह आधा-अधूरा है। अभी आप के दो और संकलन नहीं पढ़ेंहैं। उन्हें पढ़ने के बाद ही मेरी बात पूरी होगी। फिलहाल इतना ही।
शुभाकांक्षी आपका,
अमीर चंद वैश्य

शुभाकांक्षी आपका,
अमीर चंद वैश्य
Mob-09897482597

चूना मंडी, बदायूँ, उ. प्र.

243601
12. 04. 2013