चित्र : आलोचक मधुरेश |
Category: अमीर चंद वैश्य
प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी से अमीर चंद वैश्य का पत्र -संवाद
तब लोग एक दूसरे को पत्र लिखा करते थे और संवाद कायम करने का यह एक महत्वपूर्ण माध्यम था। तमाम व्यस्तताओं के बावजूद महात्मा गाँधी अपने पास आये हुए हर पत्र को पढ़ते थे और उसका जवाब जरुर देते थे। साहित्य में तो इन पत्रों की एक विशेष महत्ता रही है। केदार नाथ अग्रवाल और राम विलास शर्मा के बीच हुए पत्राचार को अब ‘मित्र-संवाद’ नाम की किताब के रूप में प्रकाशित कराया गया है। इस किताब से हम एक महत्वपूर्ण कवि की निर्माण प्रक्रिया और उसके संघर्षों के बारे में जान सकते हैं। यही नहीं इन पत्रों के जरिये हम उस समय के परिवेश और परिस्थिति का भी सहज ही आंकलन कर सकते हैं। मशहूर कहानीकार भीष्म साहनी की दो नयी पुस्तकें उनका नया उपन्यास ‘कुंतो’ और नया नाटक ‘मुआवजे’ पढ़ कर अमीर चंद वैश्य ने उनको 2 सितम्बर 1993 को एक पत्र लिखा था। भीष्म साहनी ने 15 नवम्बर 1993 को इस पत्र का जवाब दिया था। आज भीष्म साहनी के जन्मदिन के अवसर पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं अमीर जी और भीष्म जी के बीच हुआ वह पत्र संवाद। भीष्म जी के पत्र की मूल प्रति आपके लिए हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। सुविधा के लिए हम इस संवाद को टंकित प्रारूप में भी यहाँ पर दे रहे हैं। पहले भीष्म जी का मूल पत्र
भीष्म साहनी का पत्र
‘प्लाजमा’ कविता पर अमीरचंद वैश्य का आलेख
‘कैसे जान पाऊँगा आत्मा की एन्थ्रोज्योग्राफी
बिना जाने प्लाजमा के अलग-अलग रूप।‘ (वही, पृ०124)
‘कविता का जन्म हुआ उत्पादक क्रिया से
श्रमी ही है पहला कवि।‘ (पृ०127)
लेकिन श्रम करने के बाद भी वह प्यासा है। दुखी है। असहाय है। क्यों। विषमता की लूट के कारण। अतः वाचक ठीक कहता है-
‘लड़ने को आगे का सतत समर
तोड़ना होगा ब्रह्म पाश।‘ (पृ०128)
‘ब्रह्म-पाश’ क्या है। इस का उत्तर भाववादी दर्शन की वह मान्यता है, जो ‘ब्रह्म’ को सत्य मानती है और ‘जगत्’ को मिथ्या। इसी ने साधारण जनों को भाग्यवादी बना कर सामाजिक बदलाव की सोच से दूर रखा है। लेकिन अब यह सत्य उजागर हो गया है कि जगत् मिथ्या नहीं है। मनुष्य स्वयं भाग्य-निर्माता है। विज्ञान के ज्ञान ने समझाया है कि
‘भौतिकी सिरजती है देखी-अनदेखी घटनाओं के
पल-नखत।‘ (पृ०126)
कहता रहा हूँ पृथ्वी को जननी
लेता हूँ साँस नथौरों से
मार्कण्डेय जी के कविता संग्रह ‘यह पृथ्वी तुम्हें देता हूँ’ की समीक्षा
सम्पर्क-
आत्मा रंजन के कविता संग्रह ‘पगडंडियां गवाह हैं’ पर अमीर चन्द्र वैश्य की समीक्षा
बदायूँ में राजेन्द्र यादव : कुछ यादें और बातें
राजेन्द्र यादव का निधन हमारे सामने एक ऐसी रिक्ति छोड़ गया है जिसकी भरपाई मुश्किल है। जिस भी क्षेत्र में राजेन्द्र जी ने अपने हाथ आजमाए वे श्रेष्ठ रहे। कहानी, उपन्यास, संस्मरण की दुनिया हो या फिर हंस का सम्पादन। एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की रही है जो हंस को केवल राजेन्द्र जी कि सम्पादकीय पढ़ने के लिए खरीदते थे। राजेन्द्र जी को पहली बार परिवार कि तरफ से हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हैम प्रस्तुत कर रहे हैं वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द्र वैश्य का एक ताजातरीन संस्मरण। तो आईये पढते हैं यह संस्मरण।
बदायूँ में राजेन्द्र यादव : कुछ यादें और बातें
अमीर चन्द्र वैश्य
कल मैं घर से बाहर था। संध्या काल लगभग ३. ३० बजे घर आया। बेटी गायत्री प्रियदर्शिनी ने मुझे यह दुखद खबर दिया कि राजेन्द्र यादव का निधन हो गया है। झटका लगा, धीरे से। कैसा दुर्योग या संयोग था कि ठीक एक दिन पहले सोमवार २८ अक्टूबर २०१३ को अनहद के सम्पादक संतोष चतुर्वेदी से राजेन्द्र यादव के बारे में फोन पर एक लम्बी बातचीत हुई थी। और २९ अक्टूबर को राजेन्द्र जी के मृत्यु की दुखद खबर मिली।
कल फिर संतोष जी से राजेन्द्र जी के बारे में बातचीत हुई। जिसमें उन्होंने कहा कि तमाम किन्तु परन्तु के बावजूद यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्होंने हंस के माध्यम से अनेक यादगार कहानियां छापकर हिंदी कथा संसार को समृद्ध किया। साथ ही ‘दलित विमर्श’ और ‘नारी विमर्श’ के माध्यम से हिंदी साहित्य को नयी दिशा कि तरफ अग्रसर किया।
और फिर मैंने वरिष्ठ आलोचक मधुरेश जी से इस क्रम में बातचीत किया। उन्होंने रुंधे हुए गले से बताया कि राजेन्द्र यादव मध्यवर्गीय पाखंडों से सदैव ऊपर रहे। उनके निधन का समाचार सुनकर मैं रिक्त हो गया हूँ। राजेन्द्र यादव से अनेक मुद्दों पर उनकी असहमतियां थीं। फिर भी उन्होंने अपनी आलोचना पुस्तक ‘नयी कहानी : पुनर्विचार’ राजेंद्र यादव को ही समर्पित कि थी।
गीतकार और रंगकर्मी सुभाष वशिष्ठ ने बताया कि मैं राजेन्द्र यादव की अंत्येष्ठि में गया हुआ था। मुम्बई से कल ही आया था। हंस के पुनर्प्रकाशन के अवसर पर मैं उनके साथ था। मैं हंस को उनके विचारपूर्ण सम्पादकीय के लिए ही पढता था। अन्य मासिक पत्रिकाओं के सम्पादकीय वैसे विचारोत्तेजक नहीं होते थे जितने हंस के।
सुभाष वशिष्ठ ने मन्नू भंडारी के नाटक महाभोज का मंचन रंगायन नाट्य संस्था के तत्वावधान में १९८३ में किया था। स्थानीय नगरपालिका के मैदान में सेट लगाए गए थे। इस अवसर पर राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी को बदायूँ बुलाया था। अपने आत्मीय सम्बन्धों के बल पर। मन्नू जी का संक्षिप्त भाषण संपन्न हुआ। तत्पश्चात नाटक हुआ। मैदान जनता से पूरी तरह भरा हुआ था।
दूसरे दिन जलेस कि स्थानीय इकाई द्वारा ‘विचार-गोष्ठी’ का आयोजन किया गया था। स्थानीय कुमार तनय वैश्य धर्मशाला में। उसी गोष्ठी में राजेन्द्र यादव को निकट से देखा और सुना था। बैसाखी के सहारे चल कर आये यादव जी ही गोष्ठी के प्रमुख वक्ता थे। गोष्ठी का संचालन मधुरेश जी ने किया था। उस दिन उन्होंने मार्क्सवादी आलोचक राम विलास शर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक ‘परम्परा का मूल्यांकन’ कि चर्चा करते हुए प्रगतिशीलता का महत्त्व बताया था।
उपस्थित श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए राजेन्द्र जी ने बताया था कि आजकल हमारे सामने अनेक राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक समस्याएं हैं, जिसका समाधान केवल मार्क्सवाद द्वारा ही किया जा सकता है। इतिहास के सन्दर्भों का उल्लेख करते हुए यादव जी ने बताया था कि तुलसी ने अपने आराध्य राम को ईश्वर का अवतार क्यों माना था। इसलिए कि उस समय तुलसी के समकालीन बादशाह अकबर को ‘जगदीश्वर’ बता रहे थे। तुलसी ने सोचा होगा कि ऐसा बादशाह ‘जगदीश्वर’ नहीं हो सकता है। अतः उन्होंने अपने राम को ब्रह्म का अवतार माना था। यह उनकी अपनी सूझ थी। उन्होंने इस अवसर पर सम्भवतः मीराँ का भी जिक्र किया था। उनका कहना था कि मीराँ ने स्वयं को कृष्ण को समर्पित कर के अपने बंधन रहित प्रेम का उदात्तीकरण किया था। आज हम सोच सकते हैं कि उनके वक्तव्य में नारी विमर्श का विचार घटित रूप में झलक रहा था। उपस्थित प्रबुद्ध जनों में आचार्य विशुद्धा नन्द मिश्र के प्रश्नों का सटीक उत्तर यादव जी ने दिया था जो मुझे तर्कसंगत लगा था।
मैं भी हंस मंगाया करता था केवल राजेन्द्र जी का सम्पादकीय पढ़ने के लिए। कुछ कहानियाँ भी पढ़ी थी। हंस के कुछ संस्मरण भी अच्छे लगे थे। विशेष कर कान्ति कुमार जैन के। ‘जहाँ लक्ष्मी कैद हैं’ संकलन मंगा कर पढ़ा था। और एक दिन दूरदर्शन के चैनल पर ‘शीर्षक’ कहानी का नाट्य रूपांतर भी देखा था। एक बार रेडियो पर भी उन्हें सुना था। ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ पर राजेंद्र जी अपना आलेख धाराप्रवाह पढ़ रहे थे। मैं अनायास ही सुनता गया।
वह आजीवन मसिजीवी लेखक रहे। अपनी वैचारिक स्वाधीनता की रक्षा के लिए सचेत रहे।
बदायूं के साहित्य प्रेमियों की तरफ से मैं राजेन्द्र जी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
(अमीर चन्द्र वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)
अमीरचंद वैश्य
इस बार समीक्षा के क्रम में हम राहुल राजेश के कविता संग्रह सिर्फ घांस नहीं’ की समीक्षा प्रस्तुत कर रहे हैं। यह समीक्षा हमारे लिए वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य जी ने किया है।
आज मेरे सामने नया काव्य-संकलन है “सिर्फ़ घास नहीं” । इसके रचयिता हैं श्री राहुल राजेश। दुमका (झारखंड) के एक छोटे-से गाँव अगोईयाबाँध में 09 दिसंबर, 1976 को जन्मे राजेश आज के युवा कवि हैं। हिमाचल प्रदेश के संस्कृति विभाग की द्विमासिक पत्रिका ‘विपाशा’ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता-2009 में द्वितीय पुरस्कार अर्जित कर चुके हैं। उनका यह संकलन पढ़ने-समझने से अनायास ज्ञात हो जाता है कि राजेश ने सहज सहृदयता से कवि-कर्म अपनाया है।
राहुल राजेश का यह पहला काव्य-संकलन “सिर्फ़ घास नहीं” साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ने सन् 2013 में प्रकाशित किया है। अपनी नवोदय योजना के तहत। इस संकलन की भूमिका वरिष्ठ कवि-आलोचक श्री नंदकिशोर आचार्य द्वारा लिखी गई है। शीर्षक है- ‘कविता की अपनी प्रक्रिया पर भरोसा’ । प्रश्न उपस्थित होता है कि आजकल उपभोक्ता समय में कोई संवेदनशील व्यक्ति कविता क्यों रचता है? मनोरंजन के लिए? अथवा यश के लिए? या उद्दाम अभिव्यक्ति की स्वभाविक अभिलाषा के लिए? वास्तविकता यह है कि घनघोर विषमता की पीड़ा से अस्त-व्यस्त सामाजिक जीवन इतना दुख-दग्ध हो गया है कि सहृदय कवि उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता है। तभी तो महाकवि निराला ने आजाद भारत के अभावग्रस्त जन-गण-मन की व्यथा गहराई से महसूस करके लिखा था-
“माँ, अपने आलोक निखारो,
नर को नरक-त्रास से बारो।
विपुल दिशावधि शून्य वर्गजन,
व्याधि-शयन जर्जर मानवमन,
ज्ञान-गगन से निर्जर जीवन,
करूणा करो, उतारो, तारो॥”
अर्थात् आज कवि-कर्म के लिए गंभीर मानवीय करुणा के साथ-साथ वर्गीय जीवन-दृष्टि अनिवार्य है। राहुल राजेश भी अपने देश-काल की व्यथा-कथा सुन-समझकर उसे व्यक्त करना चाहते हैं। भूमिका-लेखक ने अंग्रेजी कवि ऑडेन के अभिमत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि कवि ऑडेन के अनुसार, यदि कोई युवा कवि ‘अपने कानों के आस-पास मँडराते हुए शब्दों को सुनना चाहता है तो उसे कविता लिखना जारी रखना चाहिए’। लेखक ने भूमिका में आगे यह भी लिखा है कि “राहुल राजेश की कविताओं में जहाँ समकालीन काव्य-संसार को निर्देशित-नियंत्रित करने की कोशिश करने वाली मतवादिता के आतंक की अनुपस्थिति है, वहीं अधिकांश कविताएँ मनुष्य को मनुष्य के रूप में अनुभव करते रहने पर बराबर आग्रहशील हैं।” (पृ.06)
आचार्य जी के इस कथन का आशय यह है कि कवि-कर्म को किसी भी मतवाद के आतंक से मुक्त रहना चाहिए। परंतु हिंदी कविता की प्रमुख काव्यधारा, जो लोकधर्मी है, आचार्य जी के इस कथन के विरूद्ध है। तुलसी दास का प्रसिद्ध काव्य-सिद्धांत है कि
आधुनिक हिंदी के प्रतिबद्ध कवि नागार्जुन तो स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-
जनकवि नागार्जुन की काव्य-चेतना से प्रभावित होकर अनेक वरिष्ठ एवं कनिष्ठ कवि अपने-अपने कवि-कर्म को जनपक्षधरता से निरंतर जोड़ रहे हैं। हाँ, कुछ रूपवादी कलाधर कवि ऐसा नहीं कर रहे हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि भाव-प्रसार में विचार-प्रवाह शामिल रहता है। श्रेष्ठ कविता के लिए भाव-बोध, विचार-बोध, इंद्रिय-बोध अनिवार्य हैं। कवि की कल्पना-शक्ति इन तीनों का संश्लेषण करती है।
पहले ही कहा जा चुका है कि राहुल राजेश सहृदय कवि हैं। उन्होंने कवि-कर्म को दायित्वपूर्ण ढंग से अपनाया है। अमीर मीनाई का यह शेर प्रत्येक संवेदनशील कवि/शायर पर लागू होता है-
यह शेर कवि राहुल राजेश पर भी लागू होता है। वह ‘अब ग़ैर-ज़रूरी तो नहीं’ कविता में कहते हैं-
यह कवितांश साक्षी है कि राजेश सहज सहृदय कवि हैं और वे परदुख से कातर भी होते हैं।
मानवीय करुणा सेंत-मेंत का सौदा नहीं है। करुणापरायण व्यक्ति दीन-दुखी व्यक्ति के प्रति सेवा-संलग्न होता है। राहुल राजेश ने करुणा से प्रेरित होकर कई कविताएँ रची हैं। हमारे समाज में निरीह स्त्री सर्वाधिक पीड़ित है। होती रहती है। वह गाँव से कस्बे तक, कस्बे से नगर तक और नगर से महानगर तक तिरस्कृत और अपमानित होती रहती है। वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है। वह सामंती उत्पीड़न से प्रताड़ित होती रहती है। पूँजीवादी व्यवस्था ने अपने लाभ के लिए उसे नुमाईश की चीज़ बना दिया है। राहुल राजेश ने ऐसे दुख-दग्ध स्त्री के प्रति कई अच्छी कविताएँ रची हैं। ऐसी ही एक कविता है- ‘मैं एक ऐसी औरत से प्यार करता हूँ’ । इसमें उन्होंने अपनी करुण संवेदना व्यक्त करते हुए कहा है-
संपूर्ण कविता में शीर्षक-पंक्ति कई बार दुहराई गई है, जिससे कवि ने अपने मनोभाव को गंभीर प्रभाव से अन्वित किया है।
मानवीय करुणा से प्रेरित राहुल राजेश ‘वे हाथ’ देखकर कहते हैं-
दरअसल, ‘वे हाथ’ केवल आक्रोश से ही नहीं, करुणा से भी अन्वित थे, जो हिंसा की राख में से आशा-सद्भाव की चिनगारी निकाल लेते थे। आज संपूर्ण विश्व के लिए हिंसा की नहीं, अपितु अहिंसा की परम आवश्यकता है। यही करुणा राजेश को ‘एक परिंदे की लाश’ की ओर भी आकृष्ट करती है-
ऐसी संवेदना कवि ही व्यक्त कर सकता है। आते-जाते राहगीर तो उपेक्षा भाव से अपना-अपना रास्ता नापने लगते हैं। आज करुणापरायण राजकुमार सिद्धार्थ नहीं हैं। हैं तो बहुत कम हैं।
मानवीय करुणा से प्रेरित होकर राहुल राजेश ने ‘बहनें’ कविता में वर्तमान सामाजिक विसंगति की ओर संकेत किया है, निरायास ढंग से-
ऐसा इसलिए है, क्योंकि दहेज का दानव समय से पहले ही उन्हें अकाल-वृद्ध बना देता है।
संकलन की ‘पारपत्र’ कविता इसलिए श्रेष्ठ है कि वह आज के उत्तर-आधुनिक युग की वास्तविकता उजागर कर रही है। विरोधी परिदृश्य का आश्रय लेकर। आजकल की व्यवस्था में उन स्त्रियों को पारपत्र मिलेगा,
और उन्हें भी पारपत्र प्राप्त होगा,
अत: राजेश व्यंग्य के लहजे में आक्रोश व्यक्त करते हुए कहते हैं-
पूरी नब्बे करोड़ जनता!” (पृ.21)
प्रसंगवश, उल्लेखनीय है कि एक बीस-वर्षीय बालक चंद्रबाली ने कभी सब्जी न चख पाने की आत्मग्लानि में आत्महत्या कर ली थी। यह कविता इसलिए श्रेष्ठ है कि राजेश ने वर्तमान समाज की विषम दृश्य प्रस्तुत करके अपनी करुणा निरीह जनों के प्रति व्यक्त की है। आजकल भारतीय बृहत् समाज में ऐसे अनेक दृश्य दिखाई पड़ते हैं। लगभग प्रतिदिन। मुनव्वर राना ने हमारे समाज की यह ज्वलंत हकीकत एक शेर में इस प्रकार व्यक्त की है-
जिंदगी जैसे किसी बेवा की चादर हो गई।”
हमारे तथाकथित उत्तर-आधुनिक युग में संचार-क्रांति ने विश्व को तो ग्राम में बदल दिया। लेकिन क्रूर पूँजी ने अमीरों को और अधिक अमीर बनाया है। गरीबों को और अधिक गरीब। समाज की अधिकतर आबादी भुखमरी और कुपोषण से अत्यधिक पीड़ित है। इसलिए कवि ‘एक निर्वासित प्रश्न’ में श्रमशील जन की ओर से सबसे पूछता है-
सत्य यह है कि पसीना बहाने वाले प्राय: कर्जदार रहते हैं। उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद के ‘गोदान’ का होरी आजीवन कर्ज़ से पीड़ित रहा। अंततोगत्वा उसे मजदूर बनना पड़ा। आज भी कर्ज़ या ऋण किसान-जीवन की प्रमुख समस्या है, जो किसानों को हताशा से भर रही है। इस कविता की प्रश्नात्मक शैली उन शोषक शक्तियों की ओर संकेत कर रही है, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रूप में सुरसा के समान अपना मुख खोलती जा रही हैं।
मानवीय समाज और व्यक्ति दोनों द्वंद्वात्मक हैं। मनुष्य के जीवन-प्रवाह में सुख-दुख, आशा-निराशा, उत्साह-अनुत्साह, हार-जीत, सफलता-असफलता आदि के आवर्त उठते-गिरते रहते हैं। राहुल राजेश का कवि-मानस भी द्वंद्वात्मक है। इस दृष्टि से उनकी कई कविताएँ इस संकलन में हैं। एक कविता है- ‘मैटरनिटी वार्ड’, जिसमें प्रसव की कराह और नवजात शिशुओं की किलकारियों का निरूपण कलात्मक ढंग से किया गया है। देखिए-
यह है जीवन के प्रति आशावादी जीवन-दृष्टि। इस दृष्टि से कवि ने नर और नरेतर जगत् के चयनित प्रसंगों का आत्मीय निरूपण किया है।
समाज की इकाई परिवार है। सहृदय राजेश ने संकलन की पहली ही कविता ‘परिवार’ में अपने परिवार के परिजनों- माँ, पिता, बहन, भाई, दादा, दादी के प्रति सहज आत्मीय अभिव्यक्ति की है। माँ पर एक से अधिक कविताएँ हैं। ‘माँ’ कविता में सक्रिय जीवन रुपायित किया गया है। यथा-
घर लौटकर आना…।” (पृ.24-25)
ध्यातव्य है कि वर्तमान समय के उपभोक्तावादी समाज में वृद्ध माता-पिता को प्राय: विस्मृत कर दिया जाता है, जो समाज के लिए भयंकर त्रासदी से कम नहीं है। लेकिन कवि राजेश का स्वभाव समाज की दूषित प्रवृति के विपरीत है। ‘कोई तो हो’ कविता में वह अकेलेपन की अनेक मर्मस्पर्शी बातें अपने पाठकों से कहते हैं-
कवि की इस व्यथा का कारण है- आजकल बदलते-टूटते आत्मीय संबंध। ऐसा पूँजी के क्रूर व्यवहार के कारण हो रहा है। इस व्यवस्था में अपने-पराये सभी स्वारथ के लिए प्रीति करते हैं। बेमतलब कोई किसी से बात तक नहीं करता है। राजेश ने इसी दूषित प्रवृति पर ‘मतलब बेमतलब’ शीर्षक कविता में मर्मस्पर्शी प्रहार किया है। कविता में छोटे-छोटे कई सामाजिक संदर्भ हैं। यथा-
किसी को बेमतलब टोका नहीं जा सकता (है)।” (पृ.131-132)
कवि की इस मनोव्यथा में आजकल का उपभोक्तावादी स्वार्थ झलक रहा है। और उसका नि:स्वार्थ भी। कौन नहीं जानता है कि वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था अपना मतलब साधने के लिए कोई भी अनाचार-दुराचार-अत्याचार कर सकती है और कर रही है। वर्गीय समाज में कोई भी मतलब, बेमतलब नहीं होता है। सत्ता अपना काम साधने के लिए निम्नवर्ग को नसैनी की तरह इस्तेमाल करती है। हमारा पूँजीवादी लोकतंत्र इसी मतलब पर टिका हुआ है। रहीम तो लिख ही गए हैं-
कवि ने भी ‘मतलब बेमतलब’ कविता के अंत में चालू स्वार्थी व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए ठीक लिखा है-
हम सब बेमतलब हैं!” (पृ. 133)
लेकिन निराशा का यह स्वर स्वार्थी व्यवस्था को नहीं बदल सकता है। इससे तो यथास्थिति जस की तस बनी रहेगी। आज परम अनिवार्य है सामूहिक-संगठित प्रतिरोध, जो तभी संभव है, जब मध्यम-वर्गीय कवि, मुक्तिबोध के समान व्यक्तित्वांतरण करे और निम्नवर्ग के श्रमशील जनों से आत्मीय संबंध जोड़कर जातिवाद एवं संप्रदायवाद का तिरस्कार करे। निम्नवर्ग और मध्यवर्ग दोनों को वर्गीय जीवन-दृष्टि अपनाने के लिए प्रेरित करे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो सत्ता अपना मतलब साधती रहेगी। वोट बटोरने के लिए वह कुछ टुकड़े और सामान बाँटती रहेगी।
अपने देश में आजादी के बाद विवेकहीन विकास तो हुआ, पर विनाश के बीजारोपण के साथ। महंगाई निरंतर बढ़ती जा रही है। भुखमरी, बेरोजगारी, अपराध का राजनीतिकरण, लूट-मार, बलात्कार, भीषण भ्रष्टाचार निरंतर बढ़ते ही जा रहे हैं। कोई भी मंत्री, नेता, उच्च पदाधिकारी से लेकर चपरासी-बाबू तक- कोई भी दूध का धुला नहीं है। साहित्य-संसार के सामंत भी इसके सहचर हो गए हैं। दुष्यंत कुमार ने आपातकाल में जो घोषित किया था, वह आज भी शत-प्रतिशत सच है-
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।”
यदि कवि सच्चरित्र नहीं है तो वह उत्कृष्ट कवि-कर्म का निर्वाह नहीं कर सकता है। अत: काव्य-साधना के लिए श्रेष्ठ कवि को पद-पुरस्कार-प्रतिष्ठा का लोभ त्यागना पड़ता है। डॉ. रामविलास शर्मा का जीवन इस सच्चाई का स्मरणीय प्रमाण है। उन्होंने सम्मान तो स्वीकार किया था, लेकिन धनराशि ठुकरा दी थी। राहुल राजेश ने भी अपनी कविता ‘पिता का वसीयनामा’ में पिता का वसीयतनामा स्वीकारते हुए स्वयं का संस्कार किया है। परंपरा से रागात्मक संबंध जोड़ा है। ‘माटी जैसा होना’ सीखा है। ‘सच की खातिर, हक की खातिर लड़ना’ सीखा है। ‘काशी-काबा दोनों को पूजना’ सीखा है। ‘कुछ माँगना ही हो तो बस थोड़ा-सा आशीर्वाद माँगने’ की बात सोची है। (पृ.65-66)
राहुल राजेश ने अपनी कमजोरियों को भी नहीं छिपाया है। एक कविता का शीर्षक है- ‘स्वीकारता हूँ मैं’ । इस कविता में कवि ने बिना किसी संकोच के अपने प्रेम-संबंध स्वीकारे हैं। अपने मानसिक द्वंद्व का स्पष्ट निरूपण किया है। यथा-
कि बदनीयत होने से अच्छा है बदनसीब होना।”
उनकी और एक स्वीकारोक्ति देखिए-
प्रश्न है कि कवि बुरा बनने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाया? उत्तर है उसका कवि-कर्म, जो जीवन की आलोचना करते समय बुरे को बुरा और अच्छा को अच्छा बताया करता है। असली चेहरे पर मुखौटा लगाकर कवि-कर्म असंभव है। सच्चा कवि डंके की चोट पर घोषणा करता है-
जो दिल खोजा आपना, मुझ-सा बुरा न कोय!”
राहुल राजेश की स्वीकारोक्तियों को पढ़-समझकर यह स्पष्ट हो रहा है कि कवि निर्मलता का वरण करने का प्रयास करता है। संभवत: उसे सारे संसार की चिंता रहती है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि वह पर्यावरण के रक्षार्थ भी चिंतित है। आजकल स्वार्थी विकास ने पर्यावरण का विनाश किया है। उत्तराखंड का जल-प्रलय कांड इसका ताजा प्रमाण है। तभी कवि प्रार्थना के शिल्प में कहता है-
और यह भी कि
यह कवितांश राहुल राजेश के सहृदय कवि-रूप से साक्षात्कार करा रहा है। वह अपने लिए ‘प्रेम करने की जीवन-भर इच्छा’ करता है। साथ ही साथ, प्रकृति जगत् के अन्य प्राणियों के प्रति भी संवेदनशील है। संभवत: इसलिए उसने अभिव्यक्ति के लिए कवि-कर्म चुनकर भविष्य के लिए ‘बची रहें कविताएँ’ की कामना की है, क्योंकि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। आचार्य शुक्ल के अनुसार, कविता मनुष्य को स्वार्थ-संकुचित घेरे से बाहर निकालती है।
‘भाव-भेद रस-भेद अपारा’ के अनुसार, कवि का मानस अनंत भावों से आंदोलित होता है। ऐसे भावों में युवा कवियों के लिए प्रेम अनिवार्य है, क्योंकि प्रेम ऐसा प्रबल मनोभाव है, जो सांप्रदायिकता, अंतरजातीयता, अंतरप्रांतीयता, अंतरराष्ट्रीयता के बंधन टूक-टूककर देता है। प्रेम का उद्दात रूप जीवन का सार तत्व है। एक समय था, जब प्रगतिशील आंदोलन ने प्रेम की प्राय: उपेक्षा की थी। उस समय के महान शायर फैज अहमद फैज़ ने घोषित किया था-
“और भी गम हैं जमाने में मुहब्बत के सिवा/ राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा/ मिरी महबूब, मुझ से पहली सी मुहब्बत न माँग।” लेकिन कालांतर में प्रगतिशील कवियों और शायरों का मूड बदल गया। उन्होंने अपनी-अपनी कविताओं में दांपत्य प्रेम को वरीयता प्रदान की, काल्पनिक प्रेम को नहीं। सुमित्रानंदन पंत की कविता ‘भावी पत्नी के प्रति’ के समान। केदारनाथ अग्रवाल-नार्गाजुन-त्रिलोचन की अनेक कविताएँ दांपत्य प्रेम की साक्षी हैं। इस प्रेम का प्रवाह कर्तव्य की ओर उन्मुख है। यथा- “आए न बहुत दिन बादल/ बरसा न बहुत दिन पानी/ मिलकर वे दोनों प्राणी दे रहे खेतों में पानी।” (त्रिलोचन, ‘धरती’ से उद्धृत) निराला ने भी लिखा था- “तुम्हीं गाती हो अपना गान/ व्यर्थ पाता हूँ मैं सम्मान।” विजेंद्र तो दांपत्य प्रेम के श्रेष्ठ कवि हैं।
विषयांतर हो रहा है। लेकिन अनिवार्य है। आज की युवा कविता का रचना-संसार बहुत व्यापक है। उसमें प्रेम-भाव भी शामिल है। नित्यानंद गायेन के काव्य-संकलन का शीर्षक ही है- ‘अपने हिस्से का प्रेम’ । ऐसा इस व्यवस्था में मुश्किलों को झेलने के बाद ही प्राप्त होता है। जिस दौर में खाप पंचायतें प्रेमी-प्रेमिका को मौत के घाट उतार देती हैं, अथवा प्रेमी ही प्रेमिका का कत्ल कर देता है अथवा वह उस पर तेजाब डाल देता है, उसमें प्रेम कविताएँ लिखना साहस का काम है। राहुल राजेश के इस संकलन में कई प्रेम कविताएँ हैं। देह-गंध से परिपूर्ण। चिंताओं से मुक्त। उत्साह से लबरेज। यथा, ‘आज इस तरह’ कविता की पंक्तियाँ पढ़िए- “आज इस तरह तेरे प्यार में डूबना/ बेहद अच्छा लग रहा है/ खूब झमाझम बारिश में बेलौस/ भींगते बचपन की तरह/ मैं देर तक भींगते रहना चाहता हूँ/ इस प्यार में।” (पृ.110)
कवि के वाक्यों से उल्लास अनायास अभिव्यक्त हो रहा है। उदात्त प्रेम भी सौंदर्य के प्रति अनायास खिंचता चला जाता है। मीर तकी ‘मीर’ फरमाते हैं- “नाजुकी उसके लब की क्या कहिए/ पंखड़ी इक गुलाब सी है/ मीर उन नीम-बाज़ आँखों में/ सारी मस्ती शराब की सी है।” शायद इसीलिए ‘प्रेम में जीवन’ का कवि अथवा प्रेमी कुछ और भी अनुभव करता है- “प्रेम में हम ऐसे समय को/ जी रहे होते हैं जिसकी प्रतीक्षा/ बनी रहती है उम्र-भर/ प्रेम में हम ऐसे प्रेम को/ जी रहे होते हैं/ जो कभी नहीं आता जीवन में!” (पृ.114) कवि की ‘तलाश’ कविता पर अज्ञेय का हल्का-सा प्रभाव लक्षित होता है। यथा: “यहाँ से वहाँ तक/ न जाने कहाँ से कहाँ तक/ ब्रह्मांड की धमनियों में/ रक्त की तरह दौड़ रही/ मेरी आत्मा/ तुम्हारी तलाश में/ प्रिये, तुम कहाँ हो?” (पृ.96) कवि की यह बेचैन तलाश स्वभाविक है, क्योंकि प्रेम सान्निध्य चाहता है। सहचरत्व की अभिलाषा करता है।
राहुल राजेश का यह निजी प्रेम व्यापक होकर प्राकृतिक परिदृश्यों, अपने जनपद दुमका, अनाम घास, चिड़ियों, चुड़िहारिन, पहाड़ पर साँझ, असुंदर में सुंदर, बाँस, बेर, गन्ना, पानी, रात, दोपहर के वक्त, धुंध, मीता आदि से भी रागात्मक संबंध जोड़ता है।
समीक्ष्य संकलन का शीर्षक “सिर्फ़ घास नहीं” कवि की व्यापक जीवन-दृष्टि की ओर संकेत कर रहा है। घास सिर्फ़ घास नहीं होती है। वह चमन की जीनत भी होती है। कहा गया है कि- “इस हिकारत से पायमाल न कर/ घास भी चमन की जीनत है।” इसीलिए राजेश लिखते हैं- “लगभग सफेद-सी इनकी जड़ें/ बित्ते-भर से भी नन्हा इनका क़द/ कहाँ से लाती इतना गाढ़ा हरापन/ किनकी आँखों से चुराया/ यह बाँकपन?/ इनकी नोकों पर टिकी ओस/ बहुत हद तक कर देती/ सूरज को नम!/ इन्हीं की मखमली देह पर/ रात-भर लोटता चाँद/ पशुओं के थन से उमगता यह क्षीर/ कोई विज्ञान नहीं…/ इन घासों का मातृत्व।” (पृ.33) यह कविता कवि के पर्यवेक्षण और सहज संवेदना का श्रीफल है। पका, मीठा और सुगंधित। स्मरणीय बात यह है कि हरी-हरी घास पशुओं का पेट भरती है। पशु किसानों के सगे मित्र होते हैं। घास ही गाय-भैंसों का भी पेट भरती है। उन्हीं से दूध प्राप्त होता है। इस प्रकार तुच्छ घास भी मानव-समाज के लिए परम अनिवार्य है।
राहुल राजेश की कविताओं में श्रम-सम्मान की भी अभिव्यक्ति है। ‘अन्न’ शीर्षक कविता ऐसी ही है। किसान के पसीने की कमाई का नाम है अन्न। लेकिन इस अन्न का पूरा लाभ किसान को प्राप्त नहीं हो पाता है, क्योंकि “अन्न/ खेतों से उठकर आए खलिहान/ खलिहान को लील गईं बोरियाँ/ बोरियाँ पहुँची मंडी/ मंडी में भूख खरीदार/ … किसान की आँखें नम/ एक बार फिर प्रण करता किसान/ नहीं… नहीं… नहीं बेचेंगे तुम्हें/ अबकी बार।” (पृ.57-58) लेकिन क्या यह संभव हो पाएगा? आजकल उत्तर-आधुनिक युग में कृषक वर्ग सबसे अधिक संत्रस्त और चिंताग्रस्त है। किसानों की आत्महत्याओं पर कम ही कविताएँ लिखी गई हैं।
उत्तर-आधुनिक युग में अप्रत्याशित रूप से बहुत बदलाव उपस्थित हो गए हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में। एक जमाना था हमारी बाल्यावस्था में। कन्याएँ और सुहागिनें चूड़ी पहनने घर से बाहर नहीं जाया करती थीं। मुसलिम चुड़िहारिन घर-घर चूड़ियाँ पहनाने के लिए आया करती थीं। उनके या उसके साथ प्राय: उसके घर का कोई मर्द (बेटा) भी होता था। वह गलियों में आवाज़ लगाया करता था- ‘चूऽऽऽड़ी पहनऽऽऽ लोऽऽऽ!’ लेकिन चूड़ियाँ चुड़िहारिन पहनाया करती थी। राहुल राजेश ने ‘चुड़िहारिन’ शीर्षक कविता में ऐसी ही एक चुड़िहारिन को याद करके, उसके स्वभाव और उसकी क्रियाओं का वर्णन करके, सांप्रदायिक सौहार्द और उदात्त जीवन-मूल्यों का समादर किया है, जो आज की आतंकी सांप्रदायिकता के दौर में और भी अनिवार्य है। मेरी नजर में ‘चुड़िहारिन’ इस संकलन की श्रेष्ठ कविता है। कुछ पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं- “माथे पर रंग-बिरंगी चूड़ियों का इंद्रधनुष सजाए/ आवाज़ लगाती आती थी चुड़िहारिन/ दादी, कहती, वह मियाँइन थी/ उसकी खनक भरी आवाज़ से ही गाँव भर की/ औरतों की मचल उठती थीं कलाइयाँ/ … बड़े बुजुर्गों को भी कभी परहेज नहीं रहा उससे/ कि गाँव की मान-मरजादा में ख़लल नहीं थी चुड़िहारिन/ एक अवसर थी रिश्तों की आवाजाही की/ कि उसके आने से ही कभी-कभी टूट पाती थी/ गाँव-भर की सीलन…।” (पृ.43-44) सीलन इमारत के लिए हानिकारक होती है। संबंधों के लिए भी सीलन कम हानिकारक नहीं होती है। सामाजिक जीवन में आत्मीय संबंधों की गरमाहट ज़रूरी है, जिसे चुड़िहारिन बढ़ाया करती थी अपने ढंग से। अपनेपन के भाव से।
राहुल राजेश ने यदि ‘यह हमारा ही समय है’ जैसी कविता में वर्तमान काल के नवपूँजीवाद का घृणित रूप दिखाया है विज्ञापन के माध्यम से, तो दूसरी ओर ‘पहाड़ पर साँझ’ में प्राकृतिक परिवेश के साथ-साथ काम से लौट रही आदिवासी स्त्रियों के समवेत संथाली गीत को ध्यान से सुना है। और उनके हँसने-खिलखिलाने को भी। और ‘बहुत दिनों बाद मेरा शहर’ में अपने गृह-नगर दुमका के बदलते हुए रूप को भी आत्मीय भाव से देखा-परखा है। उसका अतीत भी याद किया है। “कछुआई चाल से विकास के राजमार्ग पर बढ़ता/ महानगरीय अनुकृति में भरसक तब्दील होने की कोशिश करता/ यह शहर अब भी रात-भर सोता है/ बेहद इत्मिनान से आँखें मलता जागता है/ और भर दोपहर किसी पेड़ तले ऊँघता है।” (पृ.134-137) यह अंतिम अंश है इस कविता का, जिसकी अंतिम दो पंक्तियाँ अथवा दो वाक्य दुमका की यथास्थिति की ओर संकेत कर रहे हैं। अंतिम वाक्य तो श्रम से थके हुए श्रमिकों का बिम्ब प्रत्यक्ष कर रहा है। निराला की प्रसिद्ध पंक्तियाँ अनायास याद आ रही हैं-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।“
दोनों में अंतर यह है कि दुमका तो छाया में ऊँघ रहा है, लेकिन वह मजदूर स्त्री धूप में पत्थर तोड़ रही है। किंतु अट्टालिका तरु-मालिका है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि राहुल राजेश ने अपनी कविता को अपने समय के साथ-साथ अपनी लोकधर्मी काव्य-परंपरा से भी जोड़ने का प्रयास किया है। वर्तमान काल की क्रूर व्यवस्था की आलोचना भी की है। लेकिन यथास्थिति तोड़ने के लिए जन-शक्ति का आह्वान नहीं किया है। हाँ, निजी स्तर पर स्वयं को कीचड़ से बचाने का प्रयास अवश्य किया है। इस प्रकार वह अपने समकाल से आँखें चार करने की कोशिश भी करते हैं।
यहाँ यह भी काबिले-गौर है कि राहुल राजेश के इस पहले संकलन की कविताओं की भाषिक संरचना ‘लयात्मक’ है। उसमें गद्यात्मकता विरल है। भाव का सघन प्रभाव प्रेषित करने के लिए कई कविताओं में पद-विशेष की आवृति अनेक बार की गई है। वाक्य-विन्यास में सहज पदावली का संयोजन इस प्रकार किया गया है कि वह अन्य युवा कवियों की वाक्य-रचना से भिन्न है। यह राहुल राजेश की अपनी अलग पहचान है। लेकिन यह पहचान और अधिक अलग तब होती, जब कवि अपनी कविताओं में अपने गाँव, जनपद एवं प्रदेश के सामाजिक जीवन और भाषिक भूगोल का और अधिक समावेश करता। हाँ, कहीं-कहीं सहायक क्रियापद ‘है’ का प्रयोग न करने से कविता में न्यून-पदत्व दोष आ गया है। यथा, ‘परिवार’ शीर्षक कविता में प्रत्येक अंश के अंत में ‘है’ क्रियापद की कमी खटकती है। विशेषणों के चयन में सावधानी बरती गई है। उपमा-रूपक-मानवीकरण सहज भाव से वाक्य-रचना में आए हैं।
कुल मिलाकर, राहुल राजेश का यह पहला काव्य-संकलन न केवल पठनीय है, बल्कि संग्रहणीय भी है। यह संकलन आश्वस्त करता है कि वह “सिर्फ़ घास नहीं” से आगे बढ़कर द्वंद्वात्मक जीवन-दृष्टि से समकालीन सामाजिक गतिकी का प्रभावपूर्ण निरूपण करने के लिए श्रमशील नायकों को उपस्थापित करेंगे। यथास्थित तोड़ने के लिए संभव विकल्प भी प्रस्तुत करेंगे। उम्मीद है, साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित “सिर्फ़ घास नहीं” की मानक वर्तनी का अनुसरण अन्य प्रकाशक भी करेंगे। और संकलन का मूल्य भी कम ही रखेंगे।
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समीक्ष्य कृति: सिर्फ़ घास नहीं/ कवि: राहुल राजेश/ प्रकाशक: साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली/
पृ. सं.:152/ प्रथम संस्करण (पेपरबैक): 2013/ मूल्य: 80 रुपए।
बदायूँ (उत्तर प्रदेश)
मो.: 09897482597, 08533968269.
अमीर चंद वैश्य
करुणामूलक सात्विक क्रोध की कविताएँ
अमीर जी हर महीने एक संग्रह पर पहली बार के लिए विशेष तौर पर समीक्षा लिख रहे हैं। इस कड़ी में आप अशोक कुमार तिवारी, नित्यानन्द गायेन और सौरभ राय पर अमीर जी की समीक्षाएं पहले ही पढ़ चुके हैं। इसी कड़ी में इस बार प्रस्तुत है शंभू यादव के दखल प्रकाशन से अभी हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह ‘एक नया आख्यान’ पर अमीर जी की समीक्षा।
आजकल हिन्दी-काव्य-संसार में कई पीढ़ियों के अनेकों कवि सर्जना-सलग्न हैं। पहली पीढ़ी वरिष्ठ कवियों की है, जो वयोवृद्ध हैं। दूसरी पीढ़ी कनिष्ठ कवियों की हैं, जिन्होंने अपनी-अपनी पहचान अर्जित कर ली है। और तीसरी पीढी उन विपुल कवियों की है, जिनकी अवस्था लगभग बीस-बाईस से चालीस-बयालीस वर्ष की है। इस पीढी के कुछ कवि तो अपनी पहचान बना चुके हैं। यथा- एकांत श्रीवास्तव, अष्टभुजा शुक्ला आदि. और अनेकों युवा कवि अपनी-अपनी पहचान के लिए निरंतर रचनाएं रच रहे हैं. यथा- सुरेश सेन निशांत, केशव तिवारी, संतोष कुमार चतुर्वेदी आदि।
लेकिन कुछ युवा ऐसे भी हैं, जो कविताएँ तो बीसियों सालों से लिख रहे हैं. लेकिन उनके संकलन प्रकाश में नहीं आए हैं। हाँ, ऐसे किसी-किसी कवि का पहला संकलन प्रकाशित भी हो गया हैं। ऐसे एक कवि हैं श्रीयुत शम्भु यादव। 11 मार्च, सन 1965 को बड़कौदा ग्राम में जन्मे शम्भु यादव का पहला संकलन ‘नया एक आख्यान’ सन 2013 में प्रकाश में आया है। हरियाणा राज्य के जिले महेंद्रगढ़ के मूल निवासी शम्भु सम्प्रति दिल्ली-वासी हैं। लगभग 20-22 वर्षों से रचनाएं रच रहे हैं। पत्रिकाओं में प्रकाशित करवा रहे हैं. ब्लॉगस पर भी उनकी कविताएँ देखी-पढ़ी जाती हैं।
तीनों कोटियों के कवियों में अधिकतर कवि ऐसे हैं, जो पद-पुरस्कार और यश के लिए कोरे कागज़ कविताओं से भर रहे हैं। छोटे-से-छोटा और बड़े-से-बड़ा पुरस्कार पाने के लिए नेपथ्य में दुरभिसंधियाँ बनाई जाती हैं। परिणाम में अच्छा सामने आता है। कवि को उसके दूसरे संकलन पर ही साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हो जाता है। वयोवृद्ध लेखक\कवि टापते रह जाते हैं। ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’ काव्य-संकलन मेरी बात की पुष्टि का सबूत है। एक समय था, जब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने आलोचना-कर्म से ‘अध्यात्म’ शब्द के बहिष्कार की बात निर्भीक भाव से कही थी। लेकिन आज का आलोचक ‘अशोक बाजपेयी की कविता के स्वराज्य का आध्यात्मिक पक्ष’ देख-परख रहे हैं। (दे.- जनपथ, जुलाई 2012, प्र. 47-52)
केदार नाथ सिंह जैसे वरिष्ठ कवि सत्ता की सीकरी से कवियों के मधुर सम्बन्ध जोड़ना चाहते हैं। वरिष्ठ कवि विनोद कुमार शुक्ल कविताओं में शाब्दिक क्रीडा और चमत्कार का समावेश अवश्य करते हैं। उनकी कविताओं की तुलना में शम्भु बादल की कविताएँ अधिक लयात्मक और प्रभावपूर्ण प्रतीत होती हैं। कुँवर नारायण ‘हाशिए का गवाह’ में एक मात्र ‘नट’ को पाठक के सामने प्रस्तुत करते हैं।
कुछ कवि ऐसे भी हैं, जिनकी कविताएँ गद्यात्मकता से बोझिल मालूम होती हैं. लम्बे-लम्बे वाक्य कविता को अपठनीय बना देते हैं ऐसे कवियों में कुमार अम्बुज और बद्रीनारायण के नाम अग्रगण्य हैं।
लेकिन कुछ कवि ऐसे भी हैं, जो निराला-केदार नाथ अग्रवाल-नागार्जुन-त्रिलोचन-मुक्तिबोध की संघर्षशील लोकधर्मी कविता-धारा को निरंतर प्रवहित कर रहे हैं ऐसे कवियों की सर्जना की धार व्यवस्थ-विरोधी होती हैं। जनपक्षधर होती है। वरिष्ठ कवि विजेंद्र, ज्ञानेंद्रपति, शम्भु बादल ऐसे ही कवि हैं। ‘कृति ओर’ के माध्यम से लोकधर्मी युवा कवियों को प्रकाश में निरंतर लाया जा रहा है। शम्भु यादव भी ऐसे ही कवि हैं, जो अपने अतीत वर्तमान और भविष्य को वर्गीय दृष्टि से देखते हैं। उनका संकलन ‘नया एक आख्यान’ इस वैशिष्ट्य का प्रमाण है।
उपर्युक्त संकलन की कविताएँ अवधानपूर्वक पढ़ने के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है कि शम्भु यादव का कवि व्यक्तित्व सात्विक क्रोध से सम्पन्न है, जिसके मूल में मानवीय करुणा है। अत: कवि ने अपने सामाजिक-राजनैतिक दुष्ट परिवेश की तीखी आलोचना की है और भविष्य के समाज की सुषमा का सपना भी देखा है।
संकलन की कविताएँ पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार अनायास याद आने लगते हैं –
“रक्त वर्षों से नसों में खौलता है
आप कहाँ हैं क्षणिक उत्तेजना है”
शम्भु यादव के संचित सात्विक क्रोध की झलक अमर्ष के रूप में पहली कविता ‘बिगड़ा आसपास’ में लक्षित हो रही है-
“यह कैसी गाद फ़ैली है
बीहड़ और बदबूदार
जहाँ भी पैर रखो, धंसते हैं
न इसमें पानी की तरलता
ठोसपन के कुछ सबूत भी नहीं
मायूस है संसार
यह कैसी फ़ैली है
बीहड़ और बदबूदार.” (प्र. 09)
हम चाहते हैं कि हमारा पर्यावरण विशुद्ध रहे और साथ ही साथ हमारे मन भी निर्मल रहें। लेकिन क्रूर पूंजीवाद ने अपने लाभ-लोभ के लिए क्षिति-जल-पावक-गगन-समीर को तो प्रदूषित किया ही है, साथ –ही-साथ समाज में चारों ओर बीहड़-बदबूदार गाद फैला दी है। यह गाद है क्या। यह है विश्व व्यापी भ्रष्टाचार; जिससे आम आदमी परम दुखी है। वह स्वतंत्र होने हुए भी परतन्त्र है। उसे अपना प्राप्य करने के लिए भी सफेदपोश नेताओं-दलालों-अधिकारियों और उनके लगुओं-भगुओं को लाचार हो कर रिश्वत देनी पड़ती है। रिश्वत के दुष्ट प्रचलन ने निरन्न-निर्वस्त्र-निरीह जनों को मायूसी से लाचार करती रहती है। दुष्यंत ने भी जन-जन की यह लाचारी व्यंग्य के लहजे में इस प्रकार व्यक्त की है-
इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है
भ्रष्टाचार ही वह ‘कीचड़’ अथवा ’बीहड़ और बदबूदार’ गाद है, जिसके कारण आम आदमी लाचार है। संसार मायूस है। आज व्यवस्था के प्रत्येक बड़े-छोटे कार्यालय में सफेदपोश माननीय महान अधिकारी विराजमान हैं। ऐसे महानों के दान की चर्चा तो घर-घर होती है. लेकिन लूट की दौलत छिपी रहती है। भ्रष्टाचार ही सम्पन्नों को और अधिक सम्पन्न बना रहा है. विपन्नों को और अधिक विपन्न।
शम्भु यादव ने यह ज्वलंत यथार्थ का निरूपण आत्मीयता और व्यंग्यात्मकता से कई कविताओं में किया है। ‘एक आना सुख, पांच आना दुःख’ में शम्भु ने कई वर्गों के सुख-दुःख का वर्णन किया है। कविता के अंत में गरीबों अर्थात किसानों-मजदूरों की लाचारी का आत्मीय वर्णन इस प्रकार किया है-
“थकाता रहा है शरीर को सुबह से शाम (तक)
गरीब मजदूर –किसान
परन्तु उसे मिला ही क्या
एक आना सुख
वो भी काई लगा
बाकी पांच आना दुःख।” (प्र. 28)
लेकिन कंजूसों-अमीरों पर सटीक व्यंग्य भी किया है-
“कंजूस को चवन्नी खोने का दुःख
साहूकार रंग वदले है बार-बार
कभी करता व्यापार
कभी दलाल कभी ठेकेदार
काइयां पाता है सुख ही सुख.”(प्र. 27)
कवि ने सुख-दुःख के और भी कई रूप अंकित किए हैं, जो सामाजिक विषमता से जन्मे हैं। लेकिन वर्तमान पीढी ‘एक आना सुख, पांच आना दुःख’ का पुराना मुहावरा तुरन्त नहीं समझ सकती है।
‘नया ज़माना’ कविता में भी लक्ष्मीपतियों पर व्यंग्य-प्रहार किया गया है। लोक-मान्यता है कि दिवाली के दिन घर के द्वार खुले रखने चाहिए, जिससे लक्ष्मी जी घर में प्रवेश कर सकें। घर को प्रकाशमान रखना चाहिए। लेकिन होता क्या है-
“अब एक ज़माना है
लक्ष्मी कुछ ही घरों में कैद
कंप्यूटराइज्ड तालों में बंद इन घरों के द्वार
बाकि(बाकी ) अधिकतर को भी भ्रम नहीं
लक्ष्मी आ जाएगी उनके घर सेंत-मेंत.” (प्र.36).
वास्तविकता तो यही है कि लक्ष्मी धनकनों के ही घर में प्रवेश करती है। धनवान तो धन से और धन कमाता है। अपनी चालाकी से। हेराफेरी से। टैक्स की चोरी करके। लाचारों का शोषण करके। अधिकतम सूद-दर से।
वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के स्वामी इतने महत्वाकांक्षी हो गए हैं कि वे अब चन्द्र-लोक में ‘प्लाट्स’ बनाने का सपना देखने लगे हैं, जबकि चंद्रमा अंधेरी रात में मार्ग आलोकित करना चाहता है-
“महानगर महत्वोन्माद से पीड़ित है
………. महानगर अटकल लगा रहा
चाँद का किसी तरह प्रत्यक्ष दोहन कर सके
खोजता जीवन के स्रोत चाँद पर
काट रहा है प्लाट्स ….”(प्र. 46)
आजकल दोहन खूब हो रहा है. किनका. प्राकृतिक सम्पदाओं का। खनन माफिया धनबल और बाहुबल से जल, जंगल, जमीन, रेत, कोयला, आदि का निरन्तर दोहन कर रहे हैं. मंत्रियो, नेताओं, बेईमान अधिकारियों को मोटी रकम दे कर। यदि कोई ईमानदार अधिकारी उन के रास्ते का पत्थर बनता है तो उसे किनारे लगवा देते हैं अथवा उनका काम तमाम कर देते हैं।
दुनिया को उम्मीद थी कि बीसवीं सदी में उसकी तस्वीर बदलेगी. लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका। सोवियत संघ का त्रासद विघटन हुआ। समाजवाद पर से लोगों का विश्वास उठ गया। शताव्दी के अंत से पूर्व संचार क्रांति अस्तित्व में आई। एक ध्रुवीय दुनिया होने के कारण अमरीका का वर्चस्व बढ़ने लगा। भूमंडलीकरण-निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों ने भारत जैसे देश में पूंजी की जड़ें और मजबूत कर दीं पूंजीपति ’भाड़ में जाय दुनिया, हम बजाएं हरमुनिया’ को चरितार्थ करते हुए करोडपति से अरबपति बनने लगे. मध्यम वर्ग भी पैसे के पीछे दौड़ने-भागने लगा। ऐसी त्रासद दुनिया के कुछ भीषण वास्तविकताएं शम्भु यादव ने ‘बीसवीं सदी के अंत में अर्थात इस जहन्नुम में’ प्रत्यक्ष की हैं। एक अंश देखिए और कवि का आक्रोश समझिए-
“ ठगी सबसे बड़ा नियम बीसवीं सदी के अंत में
एक छलांग लगाओं पहुँचो पृथ्वी के उस छोर
जो मर्जी तरीका अपनाओ
बस एक ही इच्छा रहनी चाहिए सुप्रीम
जेब भर जाए गिन्नियों से
वापस छलांग, आ जाओ इस छोर
चाहो तो न आओ, वहीँ आनन्द मनाओ.’” (पृ. 43).
कवि का आक्रोश उचित है। 20वीं सदी के अंतिम दशक से आजतक धन की भूख निरंतर बढ़ती रही है। करोड़ों-अरबों के घोटाले उजागर हुए हैं। अमरीका में क्रूर पूंजी के विरुद्ध प्रदर्शन भी हुए हैं। अन्य देश में भी क्रूर व्यवस्था के खिलाफ जनशक्ति का प्रदर्शन हुआ है।
भारत जैसे विकासशील राष्ट्र ने लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा त्याग दी है। अमरीकी साम्राज्य की पूंजी का निवेश किया जा रहा है। भारत के जन-गण स्वयं को परतन्त्र समझ रहे हैं। लेकिन व्यवस्था मुक्ति का ‘दृश्य जारी है’ का अनुसरण कर रही है। अब उसने
‘खुद चित्रकारी छोड़
भाड़े का चित्रकार नियुक्त किया
चित्रकार का काम
चिड़ियों को मुक्त करना हर चित्र में
जारी है बेखटके
मुक्ति का यह दृश्य।” (पृ. 49).
आशय यह है कि अपना शासन चलाए रखने के लिए कोटि-कोटि अकिंचनों की गरीबी दूर करने के लिए व्यवस्था मुक्ति का नाटक करती रहती हैं। जब तक भारत में विदेशी पूंजी आती रहेगा, कुछ पूंजीपति घरानों में लक्ष्मी कैद रहेगी, बेईमान नौकरशाहों का वर्चस्व रहेगा, लोकतंत्र धनतंत्र रहेगा, तब तक भारत क अकिंचन जन मुक्ति का सच्चा बोध समझ ही नहीं पाएँगे।
शम्भु यादव वर्तमान भारत की जन-विरोधी व्यवस्था के दुष्ट चरित्र से भली भांति परिचित हैं और अमरीकी साम्राज्यवाद की कुटिल नीतियों से भी। अत: उन्होंने कई कविताओं में पूंजीवादी लोकतंत्र और अमरीकी युद्धनीति की तीखी आलोचना की है।
‘जय बोलो महात्मा गांधी की’ शीर्षक लम्बी कविता में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल से वर्तमान भारत की विसंगतियों और श्रमशील जानो के अभावों का निरूपण आत्मीय ढंग से करते हुई आज के भारत की वास्तविकता चलचित्र के रूप में प्रत्यक्ष की है। इस कविता में शीर्षक के नीचे भगत सिंह का यह कथन ( ) में उद्धृत किया है- ‘किन्तु उसके बाद जो भी होगा, वह भी लूट और स्वार्थ का राज होगा।’
आठ अंशों में विभक्त यह कविता पढने-समझने के बाद भगतसिंह कथन सत्य लगने लगता हैं। आजादी के बाद से राजनेताओं, पूंजीपतियों, उच्च अधिकारियों आदि ने लूट-मार का जो सिलसिला शुरू किया था, वह आज सर्वाधिक भयंकर और त्रासद रूप में दिखाई पड़ रहा है। प्रेमचंद के प्रतिनिधि चरित्र होरी-धनिया-गोबर आज भी जस के तस हैं। कर्ज के बोझ से झुके हुए दुखी किसान आत्महत्या करने लगे हैं वे अपने अपने शरीर के अंग बेचकर ऋण-मुक्त होना चाहते हैं। अपनी जायज़ मांगों की पूर्ति के लिए वे प्रदर्शन भी करते हैं। कवि ने इस लम्बी कविता में ‘लोक’ की व्यथा और ‘तन्त्र’ की लूट का उल्लेख निर्भीक भाव से किया है। कुछ अंश पढ़िए और कवि का मूल मनोभाव समझिए।
सन 1947 में आज़ादी मिलने के बाद स्वदेश में क्या घटित हुआ, उसे समझिए-
“गाँधी टोपी पहन मंत्री ने ढोल पिटवाया
’अभी से जनता के काम होंगे’
जिलेदार का सैल्यूट खनका
फिरंगी पिंजड़े से आज़ाद चिड़िया हर्षित
मैना ने गाया मधुर गीत
खूंटे बंधी गाय रंभाई
गधा मस्ताया
होरी की आत्मा भी झूम गई
’हाँ, हम सब खुशहाल होंगे’.”(पृ. 84).
लेकिन होरी का सपना साकार नहीं हो सका, क्योंकि
“मंत्री रंगा सियार हुआ
बजवाया जो ढोल
खुल गई उसकी पोल
घूमता देश-विदेश
अपने लिए बनवाया बड़ा बाग़
बाग़ बीच ऊँची अटारी
जहां साथ उसके दमड़ी सेठ
शिकार को आया विदेशी व्यापारी
चारों ओर चौकस पहरेदारी.”(पृ. 85, 86)
विदेशी व्यापारियों की पूंजी आज के भारत में तो और अधिक फल-फूल रही है। यह विदेशी पूंजी अंग्रेजी भाषा उसकी अपसंस्कृति का वर्चस्व बढ़ा रही है। भारतीय जन अपनी-अपनी भाषा और संस्कृति का महत्व भूलते जा रहे हैं। विशेष रूप से हिंदी जाति के लोग. कवि ने निर्भीक ढंग से बेधक भाषा में ‘आवारा पूंजी’ की आलोचना करते हुए नाना प्रकार के अभावों और ज्वलंत प्रश्नों से झुलसते रहनेवाले आज के भारत की चिंताजनक तस्वीर प्रस्तुत की है-
“अनेकों तिमिराच्छादित गड्ढे भारत में
दुर्गन्धित नदी-नाले
स्लम बस्तियां विस्तारित
पानी की चिर तलाश में पनिहारिन
कोसों बालू में जले हैं पैर
…..तपेदिक का झाला पहने फेफड़े
पाताल लोक में धंसी खाप पंचायतें
जनता में समता चाहने वालों के जातिवादी टोटके
भटकन और भटकन
लाल परचम की सलवटों में दबी
जनता की चाहत की उम्मीद
‘हम सब कब खुशहाल होंगे’.(पृ. 93).
मानवीय करुणा से उद्भूत सातिव्क क्रोध से संकलित यह लम्बी कविता कवि को शोषित जनों का पक्षधर सिद्ध करती हैं। सम्पूर्ण प्रबल भावावेग से अन्वित है। अतएव प्रभावपूर्ण है।
शम्भु यादव की यह लम्बी कविता यह सद्भावना व्यक्त करके समाप्त होती है-
“सब को रोटी मिले, मिले रोजगार
भूख से न दुखे जनता की आँतें
शोषण न हो किसी का.”(पृ.94)
यह पढ़ते हुए एक प्रश्न उपस्थित होता है कि यह सद्भावना कैसे पूरी होगी। कवि ने इस कविता में कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं किया है। लेकिन कुछ अन्य कविताओं में व्यवस्था-परिवर्तन की ओर संकेत अवश्य किए गे हैं। ’संहार’ शीर्षक कविता में खून पीनेवाल मच्छर के मृत शरीर के माध्यम से शोषकों के सचेत किया गया है। ऐसा संकेत पर्याप्त नहीं है। एक व्यक्ति का प्रतिरोध अकेले कंठ की पुकार सिद्ध होता है। फिलहाल तो ’निर्दयी तेंदुआ’ निरीह हिरन की जिजीविषा पर’ झपट पड़ता है। बार-बार। ‘नाटक के अंतिम अंश में’ कवि की सामूहिक प्रतिरोध का भी उल्लेख किया है-
“नाटक के इस अंतिम अंश में
मैं विचार रहा हूँ
सहस्र (सहस्रों) आशाओं की ताकत का एक सजीला वार
और
ध्वंस खलनायक की बहरूपिया अदाओ का.”(पृ. 83)
विश्व में अपनी दादागिरी का डंडा चलाने वाले ‘अमरीकी हुक्मरान’ के ‘जंग-अनुराग’ की तीखी आलोचना करते हुई ठीक कहा गया है-
“उनकी मनोभूमि में जंग से भुलोक का राज
जंग ही के बात तो किया जा सकता है दान-दक्षिणा का महाकाज
जंग उनके लिए(है) थकानहरणी स्टिमुलस डोज़”(पृ.81)
प्रसंगवश, शमशेर की प्रसिद्ध लम्बी कविता ‘अमन का राग’ याद आ रही है, जिसमें अन्तरराष्ट्रीय शान्ति के लिए वैश्विक सदभाव और संस्कृति दोनों व्यक्त किए गए हैं। लेकिन साम्राज्यवादी अमरीका कम ताकतवर मुल्कों पर आक्रमण करता रहता है, जिससे उसके स्वार्थ पूरे हो सकें। आज कोई भी समझदार राष्ट्र नहीं चाहता है कि क्यूबा जैसे समाजवादी देश पर अमरीका की गिद्ध दृष्टी पड़े. अत: शम्भु यादव अमरीका की कूटनीति की तीखी आलोचना करते हैं। ‘अंकल सैम का अपनापन’ में वह अमरीका के चालाक और दुष्ट चरित्र का उदघाटन व्यंग्य रूप में करते हैं।
भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आर्थिक निवेश से आर्थिक पराधीनता बढ़ रही है और किसानों को सर्वाधिक नुकसान हो रहा है। संकलन की कविता ‘आंशका’ के माध्यम से विदेशी चूहों की कुतर-कुतर से आर्थिक हानि की आंशका उत्पन्न हो गई है। इसीलिए कवि ने चिंता व्यक्त करते हुए ठीक लिखा है-
“समय के इस गहरे अंधियारे में
चिंता की बात है यह ‘कुतर–कुतर’
घर की बहुमूल्य चीज़ों को
कहीं कर न ले गपक हज़म।”(पृ.37)
संचार क्रांति ने दुनिया इतनी बदल दी है कि आजकल बच्चे अपने परिवेश-पर्यवेक्षण से तो कम सीखते हैं, लेकिन टी.वी. के माध्यम से बहुत अधिक जानते पहचानते हैं। कवि के अनुसार यह ‘बदलाव’ चिंताजनक है, क्योंकि आजकल के अबोध बालक-बालिकाएं टी.वी. सीरियल और विज्ञापनों की गिरफ़्त में आ चुके हैं। अत: उन्हें नहीं ज्ञात हो पाता है कि
“आसपास कौन से पेड़ लगे हैं
किसी पक्षी की आवाज़ सुन
उसे पहचानने की चाह नहीं (है)।”
वर्तमान विषमता के त्रासद दौर में असमानता की खाई इतनी चौड़ी हो गई है कि
“दुल्हन की एक जूती की कीमत इतनी है कि
भारत देश के सौ गरीब
जीवन भर के लिए
अपने खान-पान का जुगाड़ कर लें.”(पृ. 75)
आजकल के पूंजीपतियों और अन्य धन-लोलुपों ने जल-जंगल-जमीन का इतना दोहन किया है कि प्राकृतिक परिवेश मनुष्य के प्रतिकूल हो गया है. उत्तराखण्ड के भयंकर प्रलय काण्ड ने यह वास्तविकता उजागर कर दी है। शम्भु यादव भी प्राक्रतिक परिवेश के चिंतातुर हैं। उनका ‘संकल्प’ है कि चिड़ियों के नीड़ों की रक्षा होती रहे और इसीलिए ‘हरे-भरे दरख्तों को बचाकर रख जाए।’(पृ. 78) और प्रत्येक ‘चिड़िया’ पानी पीने के लिए न तरसे, क्योंकि पूंजी ने ‘पानी’ को बोतलों में कैद कर दिया है। प्यासी चिड़िया अब अस्तित्व से संघर्ष कर रही है। इसीलिए
‘वह नज़र मार रही है
बंद पानी की बोतल के कमजोर हिस्सों पर
वह तलाश में उचित समय की
वह इकट्ठा करना चाहती है बहुत साथी
एक साथ साधा जा सके निशाना.”(पृ. 77).
यह है सामूहिक प्रतिरोध का संकल्प एक छोटी सी चिड़िया के माध्यम से। दुष्यंत कुमार ने भी ऐसा आशय अभिव्यक्त किया है-
परिंदे अब भी पर तोले हुए हैं,
हवा में सनसनी घोले हुए हैं।
भूमंडलीकरण-निजीकरण-उदारीकरण के उत्तर आधुनिक के क्रूर दौर में पूंजी का वर्चस्व और उसकी चमक तो और अधिक चमत्कृत कर रही है। महानगरों में तो सबसे से अधिक. नगरों में कुछ कम। ग्रामों में भी झिलमिला रही है। महानगरों में तो संपन्न जन गगनचुम्बी भवनों के मालों में रहते हैं। शान से। अपने पड़ोसियों से लगभग अपरिचित। ऐसे भव्य भवन कैसे बनते हैं। इस प्रश्न का उत्तर कवि ने ‘यहाँ दसवें माले पर मेरा घर है’ में लिखा है-
यह कोई बस्ती नहीं है
यह कोई मोहल्ला नहीं है
यह मल्टी स्टोरी एयरकंडीशन अपार्टमेंट्स हैं
सुना है पहले इस जमीन बसी
झुग्गियों में रहते थे जो
अब महानगर से बाहर, विस्थापित
और यह भी सुना है पहले जितने बाशिन्दे थे यहाँ
उसका (उनके) चौथाई ही नए बाशिन्दें (हैं).”(पृ.82)
शोषण की बुनियाद पर खडी इस दुखद व्यवस्था में आम आदमी परेशान हैं। संत्रस्त है। उसे आशंका सताती रहती है कि उस के अभावग्रस्त जीवन में कहीं भी कुछ भी दुर्घटित हो सकता है. ऐसी ही वैयक्तिक मनोदशा कवि ने ‘खौफज़दा मैं’ में इस प्रकार की है-
“खौफजदा मैं
आजकल अपने में ही बंद हूँ
टटोल रहा हूँ अपने उन मजबूत शब्दों को, जिसमें
भाई-भतीजावादी तंत्र के खिलाफ़
संघर्ष की बुलंद आवाज़
जीवन की हेठी जहालत में
कम से कम ‘संघर्ष की बुलंद आवाज़’ वाले शब्द तो बच जाएँ।”(पृ.62)
इस छोटी सी कविता के वाचक “मैं” में वैसे ही खौफ़ की झलक है, जिसका विस्तृत वर्णन मुक्तिबोध ने ‘अँधेरे में’ की फैंटेसी में किया हैं।
आचार्य शुक्ल ने अपने निबंध ‘कविता क्या है’ में कविता में ‘चमत्कारवाद’ और माननीयों की अनावश्यक प्रशंसा दोने की निंदा की है। उनके अनुसार मनुष्य ‘लोकबद्ध’ प्राणी है। अत: कविता को भी लोकनिष्ठ होना चाहिए। शम्भु यादव की कविताएँ शुक्ल जी के प्रतिमानों का सम्मान करती हैं। वह ‘कविता में जादू’ का अस्तित्त्व अस्वीकारते हुए ‘चमत्कारवाद’ का निषेध करते हैं। उनकी सजग दृष्टि पसीना बहानेवाले लोगों की जीवंत क्रियाओं पर केन्द्रित होती है। अनायास। अपने स्वाभाविक रूप में। वहीँ से उन्हें प्रतिरोध का बल प्राप्त होता है। ‘कवित में जादू और सजग मैं’ में वह अपनी ठीक जीवन-दृष्टि का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं-
“पढ़ते-सोचते सजग हुआ जब मैं, पाया
गुजर रहा हम एक लुहार बस्ती से
चिलचिलाती धूप
गर्मी का भीषण प्रकोप
तेज साँसों की धौंकनी
भभकी हैं भट्ठी की लपटें
जीवन के काम आने लायक आकर रूप ग्रहण करता सुर्ख लोहा
खिचड़ी ढाढी वाला सचेत बोलता है- ‘घन मार घन’.”(पृ.64)
ऐसी कविताओं का आकर्षक रूप निराला की ‘वह तोड़ती पत्थर’ जैसी प्रसिद्ध कविता के अलावा केदारनाथ अग्रवाल, विजेंद्र जैसे कवियों के काव्य में परिलक्षित होता है। अग्रवाल जी की एक कविता ‘एक हथौड़ा वाला और हुआ’ अनायास याद आ रही है. विजेंद्र की चरित्र प्रधान कविता ‘अल्लादी शिल्पी है’ भी. विजेंद्र तो श्रमशील कृषक और श्रमिक को अपनी कविता का नायक मानते हैं। वह श्रम-सौन्दर्य के समर्थ स्रष्टा हैं। शम्भु यादव भी मानते हैं कि
‘यही रहे गाथा के केन्द्र में भी’.(पृ.65)
‘यही’ अर्थात कारखाने में सक्रिय श्रमिक. क्योकि
“फैक्टरी में
गतिशील गरारी से रगड़ता है जब बर्तन
बिखरता हवा में बदबूदार काला जहर
श्रमिक के फेफड़ों पर ढहता कहर
………याद रखा जाए कि
इतिहास में इसी के हिस्से आया है
सब से ज्यादा विषवमन
यही रहे गाथा के केंद्र में भी।”
समीक्ष्य संकलन में एक श्रेष्ठ कविता है : ‘बीरबानी’, जिसमें कवि ने हरियाणवी गाँव की श्रमशील गृहिणी की दैनिक सक्रियता का वर्णन बांगरू बोली के अनेक शब्दों से अन्वित आधुनिक हिन्दी से समृद्ध किया है। कविता का स्थापत्य कलात्मक है। सम्पूर्ण कविता की भाषिक सरंचना में स्थानीय वोली के अनेक शब्दों- तुड़े, थाण, कूड़ी, चूची, चरड़-चरड़, गोटेवाली लुगड़ी, धणी, छाय, गंठी, लावणी, बांकली, गुड़धाणी, भरौटा, साथ हाथ उन्डें कुएं, हारे, टाबर, मौटियार का सार्थक प्रयोग करके कवि ने अपनी विशेष पहचान प्रत्यक्ष की है। इन शब्दों और पदों की अर्थ सम्पूर्ण कविता अवधान पूर्वक पढने के बाद समझ में आते हैं. इस कविता का अंश पदिये और समझिए-
‘टाबरों को थपेड़
वह काजल लगाती
भीतरवाले कोठे में लेटी है
मौटियार के बगल
चुड़ियों की खन-खन
बस-बस
अब वह सो जाना चाहती है
दो घड़ी के लिए।’(पृ.11)
यह कवितांश वाच्यार्थ से व्यंग्यार्थ भी अभिव्यक्त कर रहा है। दाम्पत्य जीवन का स्वाभाविक अनुराग. ‘टाबरों’ का अर्थ है बच्चों को। ‘मौटियार’ का अर्थ है ‘पति अथवा भरतार।
शम्भु यादव अपने विवेक से पुरातन स्वार्थी मूल्यों का तिरस्कार करते हैं। उन्हें अपने ‘पिता की सीख’ स्वीकार नहीं है कि
‘सच बड़ा पेटखोर ही बेटा!
झूठ के व्यापार में हाथ आजमाना.’(पृ.12)
यह कविता पढ़ते हुए प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘नमक का दरोगा’ याद आने लगती है. ‘पृथ्वी, मेरी माँ और भूकम्प’ के अंत में कवि सोचता है कि
“इस देश में करोड़ों लागों के अनेक विश्वास
और अनेक प्रभुत्वशाली अंधविश्वास
कुछ अनायास बने हैं
कुछ को अपनाया गया है सोच-समझ
कुछ का तो धंधा ही जोर पकड़ें है
अंधविश्वासों के बैनर तले
क्या अंधविश्वास फैलाना हिस्सा है सत्ता की सोच का?”(पृ.15)
शम्भु यादव का प्रश्न तर्कसंगत है। जीवन-जगत के प्रति वैज्ञानिक दृष्टि से देखना-समझना अनिवार्य है। सम्यक ज्ञान की धार से आम लोगों के बंधन कटते हैं।
भारतीय भाववादी दर्शन की यह अवधारणा कि आत्मा अजर-अमर है। मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होता है। व्यक्ति अपने जीवन में पूर्व-जन्मों के शुभ-अशुभ कर्मों का फल भोगता है। यदि कोई गरीब है तो पूर्व जन्म के दुष्कर्मों के कारण। अत: वह भाग्यवादी हो जाता है। सत्ता-व्यवस्था इस अंध-विश्वास का लाभ उठाती रहती है। लेकिन अब विचार बदल गए हैं। अब यह माना जाता है कि गरीबी-अशिक्षा-अस्वास्थ्य शोषक व्यवस्था के कारण हैं। भाग्य के दुष्परिणाम नहीं।
आज़ादी के बाद जो पूँजीवाद लोकतंत्र की व्यवस्था आई, उसने विषमता को बढ़ाया ही है। घटाया नहीं है। इस व्यवस्था के ‘जाल’ में प्रत्येक व्यक्ति लाचार है। इसीलिए शम्भु यादव ने लिखा है-
“अभी मेरे मुक्त होने का
इन्तजार मत करो माँ
अभी तो इनके रंग में रंगा बन्दा मैं
कैंडल लाइट डिनर में सजा
जलता मोम गलता (हूँ).”(पृ.17)
आजकल यह ‘जाल’ ‘देश में आर्थिक सुधार और विश्व बैंक के कर्ज’ के कारण जी का जंजाल बन गया है. ‘कर्ज’ के लिए पांच सितारा होटल में ‘बैठक’ आयोजित की जाती है और अधिकारियों के लिए शानदार कॉन्टिनेंटल भोजन के साथ ‘आयातित विदेशी शराब का प्रबंध भी’ किया जाता है.(पृ.22)
कवि को अपना ‘समय’ ‘क्रिकेट की गेंद सा’ प्रतीत होता है, जिसे मनुष्य निरन्तर खेल रहा है। वह कभी महानायक के रूप में चौके-छक्के लगाता है। और कभी ‘बोल्ड’ हो जाता है। समय का महाचक्कर कब तक चलता रहेगा। शायद निरन्तर. लेकिन प्रश्न यह है कि इस खेल से अर्थात पूंजी के दुष्कृत्यों से आम आदमी को राहत कैसे प्राप्त होगी। संवेदनशील कवि महसूसता है कि ‘दुखिया दास कबीर’ के समान तर्कशील होकर कुछ सोचना होगा। और जोखिम भी मोल लेना होगा। लोकतंत्र में भी माननीयों को अपनी आलोचना अरुचिकर लगती है। तर्कशील कवि को लगता है कि
‘सब तरफ ‘घपला’ शब्द सुनने को आता है
फासिस्ट सोच का कायल उसका पड़ोसी डाक्टर
क्यों हुई उसे इसकी जरुरत!?
संसद की सीढ़ियों पर चढ़ते सांसद की गलीज़ नैतिकता
पिशाचनी-पूंजी के विकराल मुँह में ज़ज्ब इतना बड़ा लोकतंत्र!”(पृ.24)
कवि की यह प्रश्नवाचक मुद्रा उनके बेचैन मन की साक्षी है। कहावत मशहूर है कि सबसे भले हैं वे मूढ़, जिन्है व्यापै न जगत गति. लेकिन संवेदनशील कवि मूढ़ नहीं है, अपितु तर्कशील है. तभी तो वह उस दुखिया दस कबीर को याद करता है, जो गागता है और रोता है. अपने दुःख के लिए नहीं, बल्कि सामूहिक दुःख-निवारण के लिए. कबीर का निर्भीक कथन है-
कबीरा सोई पीर है, जो जानै परपीर।
जो परपीर न जानही, सो काफ़िर बेपीर।।
शम्भु यादव भी ‘परपीर’ आत्मसात करके अपनी संवेदना निरीह जनों के प्रति व्यक्त की है। ‘अभिलाषा’ में सड़क-किनारे चूल्हा जलाने का प्रयास कर रही है। लक्कड़ गीला है. और वह परेशान हो रही है, क्योंकि
‘देखो तो
उगला है धुआं ही धुआं
गूंज रही है फूंकनी की आवाज़
फेफड़ों में धांस.”(पृ.35)
‘एक ताजा वाकया ‘ में दुर्बल कायावाली अनाम स्त्री के परिवार को एक सम्पन्न परिवार ‘हिकारत भरी दृष्टि भी’ नहीं डालता है. लेकिन उसके बाद अचानक घटना घटी-
“और जब वह आदमी
अपनी छोटी सी गाड़ी के पास पहुंचा
एक तेज रफ़्तार बड़ी आगे निकली
उस आदमी को पीछे धकेल
बड़ी गाड़ी का ऊँचा बम्पर
उस आदमी की आँखों में खटक गया.”(पृ.39)
‘एक ताजा वाकया’ से स्पष्ट व्यक्त हो रहा है कि इस विषमतापूर्ण समाज में प्रत्येक ‘बड़ी गाडीवाला’ ‘छोटी गाड़ीवाले’ की उपेक्षा करता है। उसे देखता तक नहीं है. छोटी गाड़ीवाला पैदल चलनेवाला विपन्न परिवारों की उपेक्षा करता है। यह सामजिक व्यवहार वर्गीय दृष्टि से देखा-समझा जा सकता है, जो कवि की जीवन-दृष्टि है। साहिर लुधियानवी ने यही कहा है –
ले दे के अपने पास फकत इक नज़र तो है,
क्यों देखें जिन्दगी को किसी नज़र से हम।
शम्भु यादव भी अपनी निजी विवेक दृष्टि से समाज के निम्न वर्ग, मध्यमवर्ग, उच्चवर्ग को देखते-परखते हैं। अर्थ की प्रधानता से पारिवारिक संबंधों का विश्लेषण करते हैं। मानवीय सभ्यता के इतिहास के साथ-साथ अपने देश की ऐतिहासिक घटनाओं की परख करते हैं। लोलुप राजनैतिक सत्ता और धार्मिक सत्ता के स्वार्थी गठबंधन की आलोचना करते हैं। साम्राज्यवाद का दुष्चक्र भी समझते हैं। फिलिस्तीन की भी चिंता करते हैं।
‘दांव’ शीर्षक कविता में अपनी माँ के देहांत के बाद दोनों भाई मन-ही-मन जो सोचते हैं, वह अर्थ प्रधान युग के अनुरूप है. वे रात में एक-दूसरे के ‘दिल’ की टोह लेते हैं-
“वो भी कम से कम संवाद में
कैसे बाटने हैं खेत
कौन सा कोठा किसका होगा
छप्पर पर होगा किस का अधिकार
घाघ दिमाग में लालची दांव
प्रकट न हो बनाव
दोनों मानते हैं माँ के साथ ही
सिधार गया है गाँव से उनका सम्बन्ध” (पृ.48)
प्रसंगवश यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गाँव से शिक्षित और अर्ध शिक्षित युवकों का सम्बन्ध-विच्छेद अमंगलकारी सिद्ध हो रहा है। गाँव की पिछड़ी दशा में सार्थक सुधार तभी संभव होगा, जब दृष्टि-सम्पन्न शिक्षित युवक निर्भीक भाव से प्रगति के लिए समता-बंधुता-स्वतंत्रता की दिशा की ओर उसे प्रेरित करेंगे। जातिवाद और सम्प्रदायवाद की काट किसानों-मजदूरों की एकजुटता अनिवार्य है। अत: शम्भु यादव जन-गण से अपेक्षा करते हैं कि वह अन्याय का प्रतिरोध करे। लेकिन ऐसा कम हो रहा है, क्योंकि
‘वह अन्याय का प्रतिरोध करने में चूकने लगे हैं
निष्क्रियता का लिबादा पहन बैठ गए हैं
परन्तु हुआ कुछ ऐसा, वो
बच्चियों को गर्भ में ही
मारने के इंतजाम में शामिल हो गए.”(पृ.76)
मानव जीवन की सुरक्षा के लिए पर्यावरण की अनुकूलता अनिवार्य है। मानव मात्र का कर्तव्य है कि वह अपने प्राकृतिक से अनुराग करे। उस की निरन्तर रक्षा करे. शम्भु यादव ने ऐसा ही शुभ संकल्प माँ की ‘बरसी’ में इस प्रकार व्यक्त किया है-
“गूंजती है माँ की आवाज़
जीवनदायक जितनी भी चीज़ें प्रकृति में(हैं)
अदा हो उनका शुक्रिया
घर में बसी तुलसी को सहलाता
आज माँ की बरसी है.”(पृ.79)
संकलन की अंतिम कविता ‘नया एक आख्यान’ में शम्भु यादव ने ‘छायादार विशाल बरगद’ के प्रतीक के माध्यम से मानवीय सभ्यता-संस्कृति के विकास का संक्षिप्त इतिहास संकेतित करके प्रतिरोध-भावना भी व्यक्त की है। ‘बरगद’ समाजवादी व्यवस्था का प्रतीक है। इस प्रतीक का सम्यक प्रयोग ‘अंधेरे में’ भी किया गया है। मानव-सभ्यता के प्रारम्भ में गण-व्यवस्था थी। भारत में भरत गण की प्रधानता थी। इसीलिए हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। ऐसा अभिमत डा. रामविलास शर्मा का है। यह भी माना जाता है कि प्रारम्भ में समतामूलक व्यवस्था थी. सम्पत्ति के कारण समाज समता से विषमता की ओर बढ़ने लगा। शम्भु यादव ने विशाल छायादार बरगद को समतामूलक सामजिक व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत किया है कि
“जहाँ बैठ हुक्का गुड़गुड़ाते बुजुर्ग
राजनैतिक चेतनशीलता जन-जन को समझाते
मानव की कहानी में सौन्दर्य को (?) बढ़ाते।” (पृ.95)
लेकिन कालान्तर में सत्ता ने अपने स्वार्थ के लिए उस विशाल बरगद पर ‘भूतनी का वास’ मान कर भ्रम फैलाने का कूट प्रयास किया. परिणामस्वरूप समाज में सत्ता के लिए ‘सन्धि’ और ‘विग्रह’ प्रारम्भ हो गया। उस बरगद और चबूतरे का अस्तित्व समाप्त हो गया। दोनों जमीन में धंस गए। अर्थात समाज में विषमतामूलक सत्ता का वर्चस्व कायम हो गया। शोषण का ‘दानव’ अपने प्रपंच के लावे से आम आदमी को झुलसाने लगा। वर्तमान काल की पूंजीवादी व्यवस्था भी ऐसी ही है। आज कल दुनिया में मनुज अथवा इंसान का नहीं अपितु दनुज अथवा क्रूर आदमी का वर्चस्व है। लेकिन कवि प्रतिरोध की भाषा में कहता है कि
कुछ उग्र नजरों के कारक रूप
आख्यान की व्याख्या की कलम तोड़ने की फ़िराक में हैं.”(पृ.96)
अर्थात कुछ ज्ञानी जन सभ्यता-संस्कृति की मिथ्या बातें समाप्त करके मानव-इतिहास का प्रगतिशील आख्यान लिखना चाहते हैं। हम जानते हैं कि समाज में पूर्ण समानता संभव नहीं है। तर्क दिया जाता है कि हाथ की अंगुलियाँ भी समान नहीं होती हैं. ठीक है. लेकिन मनुष्य के दोनों हाथों की अंगुलियाँ समुपात रूप में कुछ छोटी-बड़ी होती हैं. उनमें जमीन-आसमान का अन्तर नहीं होता है। वर्तमान समाज में तो जमीन-आसमान का फर्क है, जो सुषमा के लिए बाधक है। यह अन्तर जन-शक्ति ही मिटा सकती है. वह सक्रिय है. इसीलिए साहिर लुधियानवी ने कहा है-
माना कि इस जमीं को न गुलज़ार कर सके ,
कुछ खार कम तो कर गए, गुजरे जिधर से हम।
साराश यह है कि वर्गीय जीवन-दृष्टि से अपने समय, समाज और इतिहास को आलोचनात्मक ढंग से निरख-परख करके शम्भु यादव ने ‘नया एक आख्यान’ संकलन के माध्यम से उपर्युक्त प्रयास किया है। उनकी कविताओं में करुणामूलक सात्विक क्रोध एवं अमर्ष की अभिव्यक्ति व्यंग्य के रूप में हुई है। उनकी भाषिक संरचना में सहज बोधगम्य पदावली के साथ-साथ स्थनीय बोली और अंग्रेजी भाषा के सार्थक शब्दों का प्रयोग हुआ है। हाँ, कहीं-कहीं न्यून पदत्व दोष आ गया है। उस कमी की ओर, संकलन से उद्धृत अंशों में अभीष्ट क्रियापद ( ) में लिखकर किया गया है। दूसरी बात है कि बोल-चाल की हिंदी में ‘हजार’ शब्द ने तत्सम पर्यायवाची ‘सहस्र’ शब्द को प्रचलन से बाहर कर दिया है। शम्भु यादव ने ‘सहस्र का प्रयोग एक-दो बार किया है। बोल-चाल में सैकड़ों-हजारों-लाखों-करोड़ों बोला जाता है। अत: अभीष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए ‘सहस्र’ के स्थान पर ‘हजारों’ पद का प्रयोग ही उचित है। संकलन की कविताओं में उस अमूर्तन का अभाव है, जो आधुनिकतावादी कवियों की रचनाओं में लक्षित होता है। वस्तुत: शम्भु यादव ने अपनी सम्यक जीवन-दृष्टि से कविताएँ रचकर स्वयं को निराला- केदारनाथ अग्रवाल- नागार्जुन- मुक्तिबोध- शील, विजेंद्र आदि लोकधर्मी कवियों की प्रमुख धारा से जोड़ा है। पूरी उम्मीद है कि वह और अधिक श्रेष्ठ कविताएँ रच कर अपने व्यक्तित्व का विकास निरन्तर करते रहेंगे। लेकिन संकलन में कुछ कविताएँ हैं जिनकी सरंचना कलात्मक नहीं है।
(अमीर चन्द्र वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)
संपर्क
मोबाईल- 09897482597
08533968269
अमीर चंद वैश्य
वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य पहली बार के लिए हर महीने एक कविता संग्रह पर समीक्षा लिखेंगे। इस कड़ी की शुरुआत हम पहले ही कर चुके हैं, जिसमें अभी तक आपने सौरव राय और अशोक तिवारी के कविता संग्रहों पर अमीर जी की समीक्षा पढ़ चुके हैं। इसी क्रम में इस महीने के हमारे उल्लेख्य युवा कवि हैं नित्यानन्द गायेन। नित्यानन्द का कल जन्म दिन भी है। नित्यानन्द के जन्म दिन की पूर्व संध्या पर इस समीक्षा को प्रस्तुत करते हुए हम उन्हें ‘पहली बार’ ब्लॉग परिवार की तरफ से जन्म दिन की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं दे रहे हैं।
युवा कवि नित्यानन्द गायेन के हालिया प्रकाशित कविता संग्रह ‘अपने हिस्से का प्रेम’ पर वरिष्ठ आलोचक अमीर चंद वैश्य ने एक समीक्षा लिखी है। प्रस्तुत है यह समीक्षा।
लोकधर्मी कविता के प्रति निष्ठावान
सम्प्रति हिंदी काव्य जगत में कई पीढ़ियो के कवि अपने –अपने रचनाक्रम में संलग्न हैं। अनेक वरिष्ठ कवि तो ऐसे हैं जो अपने पद –प्रतिष्ठा और पुरस्कार की उपलब्धि के लिए नख-दंत विहीन रचनाएँ रच रहे हैं। सत्ता को ऐसी कविताओं से रंच मात्र भी भय महसूस नही होता है। ऐसे कवि संत कवि कुम्मन दास के समान ‘सिकरी’ की आलोचना न करके उससे रागात्मकसंबंध जोड़े रखना श्रेयकर समझते हैं। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने कुम्मनदास के प्रति रचित कविता ‘संत कवि’ में लिखा है –
“जानता हूँ ,समाधि से फुटकर
आता नही कोई उत्तर
फिर भी कविवर जाते –जाते पूछ लूं
यह कैसी अनबन है
कविता और सिकरी के बीच
कि सदियाँ गुजर गईं
और दोनों में आज तक पटी ही नही।”(शुक्रवार वार्षिकी -२०१३)
उद्धृत अंश यह अर्थ भी ध्वनित कर रहा है कि ‘कविता और सिकरी’ में पटने–पटाने का संबंध होना चाहिए।
लेकिन कुछ वरिष्ठ और कनिष्ठ कवियों के साथ –साथ ऐसे युवा कवि भी हैं, जो अपनी रचनाशीलता को लोक से सम्पृक्त करके उसके संघर्षशील रूप को सामने ला रहे हैं।
‘कृति ओर’ के अंक ६७ में वरिष्ठ लोकधर्मी कवि ने ‘पूर्वकथन’ के अंतर्गत प्रकाशित प्रखर आलेख ‘हिंदी आलोचना का गिरता स्तर’ में अनेक युवा कवियों की कृतियों का उल्लेख किया है, जो अपने आसपास के सक्रिय लोक जीवन के विभिन्न रूपों को कविताओं में रच रहे हैं। इन कवियों की कविताएँ राजनीति –निरपेक्ष न होकर वर्गीय दृष्टि से संयुक्त हैं और समय –समाज की प्रखर आलोचना करके अग्रगामी जीवन –मूल्यों की प्रतिष्ठा कर रहे हैं।
ऐसे युवा कवियों में नित्यानंद गायेन (१९८१ ) का नाम उल्लेखनीय है। २००१ से लेखन प्रारंभ किया है। पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। संकल्प प्रकाशन बागबाहरा से उनका एक संकलन ‘अपने हिस्से का प्रेम’ सन २०११ में प्रकाश में आया है। कई साहित्यिक पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। ‘कृति ओर’ के अंक ६७ में अभी उनकी पांच कविताएँ प्रकाशित हुई थीं। संपादक डा. रमाकांत शर्मा ने इस कवि के बारे में ठीक ही लिखा है –“नित्यानंद की कविताओं का आक्रमक राजनैतिक तेवर उन्हें संघर्षशील लोक के साथ खड़ा हुआ दिखता है।” (पृ.३२ )
नित्यानंद की जीवन –दृष्टि वर्ग –चेतना से संयुक्त हैं। अत: उनकी कविताओं में सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों का निरूपण आक्रोशपूर्ण भाषा में हुआ है। ‘आत्मसंघर्ष करता हूँ’ कविता इसका अच्छा सबूत पेश करती है –
“संघर्ष होता है
हर रोज मेरा
खुद से ….दिल भारी पड़ता है
दिमाग पर / खुद से
x x x x x
संभोग के पुजारी
बन बैठे हैं संत
नैतिकता और सदाचार का पाठ पढ़ाते हैं टीवी पर
भोगी का योगी रूप देखकर
खून खौल उठता है मेरा
उसे शांत करने को
संघर्ष करता हूँ
निरंकुश राजनेता
लूटते हैं जनता को
छल –बल और कपट से
उन्हें देख मान में
आग सी जलती है
उस आग को बुझाने के लिए
संघर्ष करता हूँ खुद से”। (अपने हिस्से का प्रेम,पृ .३०, ३१)
इस कविता के मूल में करुणा है, जिससे सात्विक क्रोध की अभिव्यक्ति आक्रोश के रूप में हुई है। यह आत्म–संघर्ष कवि को अपने समस्थ लोक के जीवन से जोड़ता है।
नित्यानंद के कवि –व्यक्तित्व का विकास लोक –दर्शन का परिणाम है। उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी अधिक है। अतएव वह लोक –पर्यवेक्षण से अपने कवि रूप को और अधिक संवेदनशील बनाने का प्रयास निरंतर करता रहता है | ‘सीखना चाहता हूँ मैं’ कविता इस दृष्टि से पठनीय है –
कुमुदनी पर मचलती तितलियों से
सीखना चाहता हूँ
प्रेमी बनना
नन्हे पौधों से सीखना चाहता हूँ
सर झुकाकर नमन करना
सीखना चाहता हूँ मित्रता
पालतू पशुओं से
क्यों कि वे स्वार्थ के लिए कभी धोखा नही देते” (वही ,पृ .०९ )
पूंजीवादी व्यवस्था में प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति दोनों बिकाऊ है। पद –पुरस्कार के लिए व्यक्ति अपना ईमान बेचकर बेईमान होने लगते हैं। साहित्य भी बिकाऊ है और साहित्यकार भी। ऐसे साहित्यकार सत्ता के गीत गाया करते हैं। लेकिन लोकबद्ध सहृदय कवि स्वंय को बेचता नही है। इसीलिए यह कवि कहता है –
“मुझे मालूम है
मेरी सोच से
कोई फर्क नही पड़ता उन्हें
न ही मैं
उनसे कुछ कहना चाहता हूँ
किन्तु ,मैं खुद को
और अपनी भावनाओं को
बेच नही सकता उनकी तरह
बाज़ार में।” (वही,पृ. १४)
नित्यानंद बड़ी सादगी से इस क्रूर पूंजीवादी व्यवस्था की विसंगतियों को दिखाते हुए उनकी मरण की कामना करते हैं। बाजारवाद से नफ़रत करते हैं। उन्हें अच्छी तरह ज्ञात है कि
“साथी अब हाथ नही बढ़ाता
साथी अब हाथ खींचता है पीछे
साथी अब जान चुका है
बाजारवाद ,पूंजीवाद का स्वाद
तभी तो खुद को बेचकर
वह सपने खरीदने लगा है।” (वही,पृ .१३ )
आज़ादी के बाद देश के नव-निर्माण के लिए लिखा गया था –
“साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जायेगा
मिलकर बोझ उठाना।”
लेकिन आजकल इसका उल्टा हो रहा है। संपन्न व्यक्ति स्वंय को बेचकर विपन्नों के श्रम का शोषण कर रहा है।
पूंजीवादी लाभ –लोभ ने क्षिति, जल, पावक. गगन, समीर सभी को विकृत कर दिया है। जल और जंगलों का क्रूर दोहन हो रहा है। जीवन का आधार नदियाँ गंदली हो रही है। पशु-पक्षियों की संख्या भी कम हो रही है। ‘हाथी का चित्र’ में पूंजीवादी क्रूरता की ओर संकेत किया है।
“दो बच्चों ने तीन हाथियों के चित्र बनाएँ।
माँ हाथी और उसके दो बच्चे।
क्यों ? इसलिए जब मेरे बच्चे होंगे
तब हाथी नही होंगे शायद
क्यों कि तब जंगल नही बचेंगे
सिर्फ आदमी ही आदमी होंगे
फिर बनाई उन्होंने
हरी –हरी घास
जिस पर हाथी चल रहे थे।” (वही,पृ १०)
आज यह स्पष्ट हो गया कि परिवेश का अंध विदोहन भयंकर दृश्य उपस्थित कर सकता है। फिलहाल उत्तराखण्ड में जो जल प्रलय अचानक आई कि उसने ऐसी विनाश लीला दिखाई कि आपार जन और धन एवं प्राकृतिक परिवेश को ऐसी गहरी क्षति पहुंचाई जिससे उद्धार होना दुष्कर है। कुदरत की क्रूरता से यदि अब सरकारें न चेतीं तो ऐसा और भयंकर तांडव फिर होगा। जीवन की रक्षा के लिए जल, जंगल, पहाड़, पशु-पक्षी सभी अनिवार्य हैं। उत्तराखण्ड के जल –प्रलय के भयंकर परिदृश्य टी.वी. स्क्रीन पर देखकर दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ अनासाय याद आने लगती हैं –“कैसे मंजर सामने आने लगे हैं /गाते –गाते लोग चिल्लाने लगे हैं। निराला ने भी अपने एक गीत में मानव के निर्जर जीवन के लिए पर्यावरण के सौंदर्य की रक्षा की कामना की है -?
पल्लव में रस, सुरभि सुमन में
फल में दल , कलरव उपवन में
लाओ चारु चयन वितवन में
स्वर्ग धरा के कर तुम धरो।” (नि.र. (२) पृ ३९३ )
धरा के कर में स्वर्ग तभी आएगा जब पर्यावरण अनुकूल और प्रशांत रहेगा। और यह परिस्थिति तभी संभव होगी ,जब इस क्रूर पूंजीवादी व्यवस्था का मूलोच्छेदन होगा। यह दीर्घ परियोजना है। फ़िलहाल तो पूंजी और अंध व्यवस्था को पर्यावरण के प्रति सम्वेदनशील होना ही होगा। जन आन्दोलन दोनों को चेतावनी दे सकते हैं।
नित्यानंद अपनी संवेदनशील वर्गीय दृष्टि से समाज गतिकी देखकर यह मानते हैं कि
‘गरीब इस देश का वीर योद्धा है।’
क्यों कि वह युद्ध करता है
जन्म से लेकर मृत्यु तक
और उसके लड़ने में ही
वीर रस की कविता है।” (वही,पृ-३६ ).
गोदान का नायक किसान होरी आजीवन संघर्ष ही तो करता रहा है। उसकी मृत्यु त्रासदी की सृष्टि करती है। आजकल भी किसान अपने अस्तित्व के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। वर्तमान उदारीकरण के दौर में सर्वाधिक शोषण किसानों का ही हो रहा है। असंख्य किसान लाचार होकर आत्महत्या कर रहे हैं।
इस क्रूर व्यवस्था में गरीब माँ का इलाज़ अस्पताल में संभव नही है। तभी तो ‘उसकी माँ ‘ का गरीब के सामने अपनी माँ को / तडपते देखने के अलावा /दूसरा उपाय नही था। (वही पृ .३८ )
‘आज अपने देश में’ क्या हो रहा है इसके अंतर्विरोध की तस्वीर को नित्यानंद बिना किसी रंग के दिखाते हैं –
“ गली का नल पानी की उम्मीद में
सूखा खड़ा है
और बोतल बंद पानी से
बाजार अटा पड़ा है
स्कूल इस देश की
जैसे शापिंग मॉल में
बदल रहे हैं
और शिक्षक दुकानदार में
और किसान खेतों में मर रहे हैं
और मंत्री जी क्रिकेट खेल रहे हैं।” (वही,पृ-३९,४०)
भूमंडलीकरण-निजीकरण –उदारीकरण के दौर में हमारे देश में उच्च शिक्षा कैरियर –केंद्रित हो गया है। अंग्रेजी के प्रति अनुराग प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है, इसका दुष्परिणाम सामने हैं। लोग अपनी –अपनी भाषा और संस्कृति के साथ –साथ अपनी भाषा के कवियों को भी भूलते जा रहे हैं। नित्यानंद इस प्रवृति की आलोचना करते हैं –
“अमेरिकी कम्पनियों में
जो नौकरी करते हैं
उन्हें फुर्सत कहाँ है
एक विद्रोही की जीवनी पढ़ने की
क्या लेना उन्हें नज़रुल से
निराला से
शरत चन्द्र से
सुभाष से
नागार्जुन से
क्या इन्हें पढ़ने से
मिलेगी उन्हें नौकरियां
वह भी
उतने पैसों की
जितना वह पाता है
आज अमेरिकी कम्पनियों से।” (वही,पृ-४३)
कविता मनुष्य भाव की रक्षा करती है। वह अपने सहृदय पाठक को ‘इंसान’ बनने को प्रेरित करती है। एतएव नित्यानंद स्वंय को लोक-चेतना के कवियों –त्रिलोचन और नागार्जुन से अपना रागात्मक संबंध जोड़ते हैं। आजकल हिंदी संसार सामंत जनपदीय कवियों की उपेक्षा कर रहे हैं। कवि ने इस प्रवित्ति पर खेद व्यक्त करते हुए लिखा है –
मेरी नजरें खो गईं हैं
या कहीं लुप्त करने की किसी साजिश में
उन्हें कैद कर दिया गया है
घुन लगी आलमारियों की किताबों में।” (वही,पृ-५८)
किसी भी नए कवि की अलग पहचान रचनाओं से बनती हैं ,जिसमें उसके अपने जनपदीय लोक-जीवन और उसके परिवेश का निरूपण होता है।
नित्यानंद अपने गांव से लौटकर उसे उसी रागात्मकता से कविता रचते हैं –
“गांव से
अभी –अभी
लौटा हूँ शहर में
याद आ रही है
गांव की शामें
सियार की हुक्का हूँ
टर्र –टर्र करते मेंढक
सुलती के नवजात पिल्ले
कुहासा में भीगी हुई सुबह
घाट की युवतियाँ
सब्जी का मोठ उठाया किसान
धान और पुआल
आंगन में मुर्गियों की हलचल
डाब का पानी
खजूर का गुड़
अमरुद का पेड़
मासी की हाथ की गरम रोटियाँ
माछ –भात।” (लेखक मंच से )
वास्तविकता यह है कि देश –प्रेम की भावना अपनी जन्मभूमि से आत्मीय लगाव से प्रारंभ होती है।
नित्यानंद ने ‘यह वही बाबा नागार्जुन है’ कविता रचकर अपने वयोवृद्ध कवि की रचनाशीलता से प्रेरणा लेकर स्वंय की सर्जना को धारदार बनाया है। वह अपनी कविता ‘बुद्धिजीवी’ में ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवियों की ठीक आलोचना की है। उनकी अवसरवादिता के कारण ऐसे व्यक्ति सच्चे बुद्धिजीवी नहीं होते हैं | ये समाज को भ्रमित करते हैं। कवि ठीक कहता है –
“अपने चरित्र से विपरीत
वे देते हैं सन्देश
समाज को
अपने समय के हिसाब से
बदलते हैं पैंतरा
छिपाते हैं सच को
गुमराह करते हैं सबको।” (वही,पृ ५५ )
वस्तुतः ऐसे लोग ‘पूंजीवादी के ज्वर से ग्रस्त’ होते हैं। अपने समय की शोषक सत्ता के समर्थक ,जिनकी प्रखर आलोचना मुक्तिबोध ‘अंधेरे में’ निर्दंद भाव से की है।
पूंजी के इस ‘बेशर्म दौर’ में अकेला व्यक्ति क्या कर सकता है? यह ज्वलन्त प्रश्न है। वह अन्याय के विरुद्ध चीख सकता है। संवेदनशील कवि व्यक्तिगत स्तर अपना विरोध दर्ज करते हुए कहता है –
“भूख हड़ताल करता हूँ
न्यायालय जाता हूँ
आवेदन करता हूँ
कर्ज के बोझ से आत्महत्या करता हूँ
विस्फोट करता कभी
कभी महंगाई से मरता हूँ
फिर भी चीखता रहता हूँ
मैं और वह दोनों बेशर्म हैं।” (वही,पृ.५७ )
देश की वर्तमान त्रासद परिस्तिथियों पर अमेरिकी प्रभाव भी लक्षित होता है। भारत की नीतियां राष्ट्रपति बराक ओबामा के इंगित पर बनती हैं और लागू होती हैं।
कवि यह भी महसूस करता है कि सच्ची आज़ादी आज तक नही प्राप्त हुई है। वर्ग –विभक्त समाज में क्रूर शासक वर्ग का तंत्र जन-गण को लूटने ,अत्याचार करने, गरीब का लहू पीने के लिए आज़ाद है। देश को बेचने के लिए आज़ाद है। और व्यक्ति के रूप में संतप्त होकर सोचता है –
“मैं
इस देश का
आम नागरिक हूँ
मुझे देखने की
सुनने की
और देख-सुनकर
भूल जाने की आदत है
इस आदत का
मैं क्या करूँ।” (पृ.४८ )
यह आदत खतरनाक है। आज ऐसी जनवादी राजनैतिक पार्टी की आवश्यकता है, जो उत्पादक वर्गों को एकजुट करें। उन्हें वर्ग चेतना से लैस करें। ऐसा करने के लिए घातक साम्प्रदायिक सोच को त्यागना होगा।
इस क्रूर व्यवस्था में छोटी –छोटी अस्मिताओं और आतंकवाद के कारण आम आदमी ‘चिंदी –चिंदी ‘ हो गया है। कवि इस त्रासद दर्द को महसूस भी करता है –
“ सभी घटनाओं में
आम आदमी मरता है
सब्जी बेचता हुआ
सड़क पर चलते हुए
उसके चिथड़े –चिथड़े
उड़ जाते हैं
हवा में फटा मैं
कागज के टुकड़ों की तरह।” (पृ.४९ )
कवि की यह आत्म –भत्सर्ना उसे श्रमशील वर्गों से जोड़कर व्यवस्था के प्रति अपना प्रतिरोध व्यक्त कर रही है | यह उसकी कविताओं का प्रमुख वैशिश्य्य है | एतएव वह ‘दलित जन पर करो करुणा’ से प्रेरित होकर रक्त पीनेवाली व्यवस्था की आलोचना के लिए तत्पर रहता है | ‘मैं वह नही था’ कविता इस वैशिश्य्य का सबूत पेश करती है –
‘मंदिरों में उसका प्रवेश निषिद्ध था
क्यों कि वह दलित था
उसके चेहरे पर बेबसी का निशान था
काल की सर्द रात में
फूटपाथ पर सोते हुए
एक अमीरजादे ने
जिसे कुचल दिया
वह गरीब मैं नही था।” (पृ.४५)
यह आज के गरीब हिंदुस्तान की मारक वास्तविकता है। महानगरों में ऐसी क्रूर दुर्घटनाएँ होती रहती हैं। ऐसी ही एक घटना पर अभिनेता सलमान खान के विरुद्ध गैरइरादतन हत्या का मुकदमा चल रहा है। यह कैसा भारत निर्माण है कि जो भवन के निर्माण के लिए पसीना बहाते हैं . वही फुटपाथ पर सोते हैं। रहने को घर नही ,सारा जहाँ हमारा।
समकालीन हिंदी कविता राजनीति के जन-विरोधी चरित्र की निर्भीक आलोचना के बिना संभव नही है। नित्यानंद अपनी ज्ञानात्मक संवेदना के बल पर वर्तमान क्रूर शासकों के साथ–साथ अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवाद के अग्रगण समर्थक अमेरिका के करतूतों की निंदा “लोकतंत्र के नाम पर’ कविता में करते हुए पूछते हैं –
‘कब बुझेगी यह आग
पूछ रही है बेबस दुनिया
पर तुमने उन्हें सुनकर भी
अनसुना किया |” (पृ.३३)
सम्प्रति भारत में अमेरिकी पूंजी और उसकी अपसंस्कृति का इतना दूषित प्रभाव परिलक्षित हो रहा है कि भारत दो भागों में बंट गया है। एक है गरीब का विराट भारत। दूसरा है अमेरिका भक्त लघु भारत जो धनाढ्य जनों के लिए स्वर्ग जैसा लगता है। यह कम दुर्भाग्य नही है कि भारतीय राजनीति का संचालन अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका करता है। लेकिन समझदार बुद्धिजीवी २१वीं शताब्दी में मार्क्सवाद का अध्ययन करके उसे अपनाने का प्रयास कर रहे हैं। इस दृष्टि से डा. गोपाल प्रधान की पुस्तिका ‘वर्तमान सदी में मार्क्सवाद’ पठनीय है।
इस संकलन की अन्य कविताओं – बकरा , बाजार से लायेंगे सांसे , मेरे शून्य आकाश में , मेरे देश में , शांति पाठ , खाली कैनवास पर , तहकीकात , आदमी जब , बदलाव के इस दौर में एवं पत्रिकाओं में प्रकशित रचनाएँ अपनी जनप्रतिबद्ध दृष्टि से व्यवस्था की तीखी समीक्षा करती हैं ,जिसके मूल में मानवीय करुणा निहित हैं। एक छोटी सी कविता ‘चुप्पी की भी राजनीति होती है’ इस कविता में कवि कहता है –
“अन्याय, फिर अन्याय
उस पर भी ख़ामोशी
चुप्पी की भी राजनीति होती है
समझ रहे हैं हम
जो खामोश रहें इस दौर में
उतर आये अपने बचाव में
मैं तोड़ रहा हूँ
अपनी ख़ामोशी
अब आपकी बारी है।” (कृति ओर , अंक -६७ , पृ.३९)
अन्याय देखकर चुप रहना खतरनाक है। व्यक्ति मनुष्यता के स्तर से गिर जाता है। वस्तुतः अन्याय के विरुद्ध चुप्पी यथा स्तिथि का समर्थन है। ‘वागर्थ’ के अंक २११ में प्रकाशित कविता ‘रेत पर खेलते बच्चे’ –
रेत पर टीले, घरौंदे बनाते हैं,तोड़ते हैं
फिर बनाते हैं
नए सपने बुनते हैं।
लेकिन वे जानते हैं कि सपने रेत पर साकार नही होते | फिर भी वे खुश होते हैं। इस छोटी सी कविता की व्यंजना है कि अपने सपने साकार करने के लिए व्यक्ति को निराश नही होना चाहिए। प्रयास करते रहना चाहिए।
‘अपने हिस्से का प्रेम’ में कुछ प्रेम विषयक कविताएँ भी हैं, जिनमें कवि ने प्रेम की दूरी का वर्णन किया है। इन कविताओं में कवि की निराशा व्यक्त हुई है। आर्थिक विषमता ने प्रेम – संबंधों को छिन्न –भिन्न कर दिया है। वह स्वीकारता है कि –
मैं ‘अभ्यास पुस्तिका हूँ’,
जिसमें प्रेमिका द्वारा बार –बार लिखा और मिटाया गया ,
फिर लिखा गया
फिर मिटाया गया।
लेकिन अब उस अभ्यास पुस्तिका के पन्ने फट गये हैं
और पुस्तिका भी मर गई है
अब तुम्हें एक नई पुस्तिका की जरूरत है। (पृ.६४)
वह स्वंय को रेत की तरह महसूस करता है, कभी खुद को कंकाल समझता है। लेकिन वह आत्मविश्वास भरे मन से कहता है कि
“ भूलने न दूँगा
तुम्हें
अपने –आप
याद आऊंगा
मैं तुम्हें , हर पल
असर मेरा रहेगा
तुम्हारे दिलो-दिमाग पर
सदा, उम्र भर।” (पृ.७३ )
नित्यानंद गायेन की प्रेम कविताओं में ऐसे नवयुवक की मनोदशा व्यक्त हुई है , जो महानगर में अकेला रहते हुए आजीविका के लिए संघर्ष करता है। लेकिन निष्क्रिय नही रहता है। अपनी काव्य –सर्जना से समाज के दलित–शोषित वर्गों से अपना रागात्मक संबंध जोड़ता है। उनकी काव्य-भाषा पारदर्शी है। वे सहज बोधगम्य हैं और पाठक का रागात्मक संबंध जीवन के यथार्थ से जोड़ते हैं।
नित्यानंद गायेन संभावनाओं के सहृदय कवि हैं। उनसे आशा है कि भविष्य में उनके काव्य क्षितिज विस्तृत होगा। अब तक उन्होंने स्वंय को बिकने से बचाया है। भविष्य में भी उनका यही स्वभाव और अधिक सुदृढ़ होगा।
(अमीर चंद वैश्य अमीर चंद वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)
मोब -09897482597
अमीर चन्द वैश्य
युवा कवि अशोक तिवारी के दो संकलन प्रकाशित हुए हैं। उनके दूसरे संकलन ‘मुमकिन है’ की समीक्षा पहली बार के लिए लिखी है वरिष्ठ आलोचक अमीर चन्द वैश्य ने। आप सब के लिए प्रस्तुत है यह समीक्षा।
कलात्मक स्थापत्य की लोकधर्मी कविताएँ
समकालीन हिन्दी कविता के सामने एक प्रश्न उपस्थित रहता है कि वह राजसत्ता का समर्थन करे अथवा जनसत्ता का। यह प्रश्न अतीत में भी कवियों के समक्ष रहा था। भक्ति कवि तो लोकोन्मुखी रहते थे और पद-प्रतिष्ठा-पुरस्कार के अभिलाषी कवि राजाओं के दरबार की शोभा बढ़ाया करते थे। तुलसी और केशव समकालीन थे। लेकिन तुलसी सम्राट अकबर के दरबार से दूर रहे, किन्तु केशवदास “ओरछा नरेश महाराज रामसिंह के भाई इन्द्रजीत की सभा में रहते थे।”
इसी प्रकार कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि कुम्भन दास अकबरी दरबार से दूर रहे। “एक बार अकबर बादशाह के बुलाने पर उन्हें फतेहपुरी सीकरी जाना पड़ा, वहाँ इनका बड़ा सम्मान हुआ। पर इसका इन्हें बराबर खेद ही रहा। (इतिहास, आचार्य शुक्ल, पृ0 172) अपना खेद व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा – “संतन को कहा सीकरी सों काम/आबत जात पनहियाँ टूटीं, बिसरि गयो हरि-नाम/जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम/कुम्भन दास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम। (वही, पृ0 179)
लोकोन्मुखी काव्य-सर्जना के लिए कवि को स्वार्थ त्याग कर अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करना पड़ता है। लेकिन आजकल समकालीन कविता के संसार में ऐसे कवि विरल हैं। अधिकतर कवि पद-प्रतिष्ठा और पुरस्कार के नख-दंत विहीन काव्य रच रहे हैं, जिससे सत्ता को भय नहीं महसूस होता है।
प्रसंगवश आज के विख्यात और अग्रगण्य कवि केदारनाथ सिंह की एक कविता ‘कुम्भनदास दास के प्रति‘ का अन्तिम अंश उल्लेखनीय है –
“जानता हूँ, समाधि से फूटकर
आता नहीं कोई उत्तर
फिर भी कविवर जाते-जाते पूछ लूँ
यह कैसी अनबन है
कविता और सीकरी के बीच
कि सदियाँ गुजर गई
और दोनों में आज तक पटी नहीं।“ (शुक्रवार, वार्षिकी 2013, पृ0 158)
बात सही है। लेकिन इस अंतिम अंश से यह व्यंग्यार्थ भी ध्वनित हो रहा है कि ‘कविता और सीकरी‘ अर्थात् राजसत्ता के केन्द्र से मधुर सम्बन्ध होने चाहिए। वास्तविकता यह है कि ऐसी कविता चिरंजीवी नहीं होती है। आजकल कबीर की खूब चर्चा हो रही है, लेकिन बिहारी को प्रेम के पोखर का कवि समझा जा रहा है।
पंत के तुलना में निराला को प्रेरणा-स्रोत समझा जाता है और अज्ञेय की तुलना में मुक्तिबोध को। ‘कविता के नए प्रतिमान‘ के आधार कवियों श्रीकांत वर्मा आदि से महत्तवपूर्ण कवि नागार्जुन-केदार बाबू-त्रिलोचन-शील-कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह-विजेन्द्र कुमार विकल आदि का काव्य समय सापेक्ष है। ये लोकधर्मी कवि नई पीढ़ी के प्रेरणा स्रोत हैं। लेकिन हिन्दी आलोचना नई पीढ़ी के आलोचक लोकधर्मी कवियों की अनदेखी कर रहे हैं। ‘कृतिओर‘ के अंक 67 में विजेन्द्र ने अपने पूर्व कथन में, ‘हिन्दी आलोचना का गिरता स्तर‘ लिखकर हिन्दी आलोचना के दायित्वहीनता की चर्चा प्रखर ढंग से की है। उन्होंने ‘वागर्थ‘ के अंक उनके 209, दिसम्बर 2012 में आयोजित परिचर्चा के भाग लेने वालों कवियों और आलोचक अजय तिवारी के कथनों का विश्लेषण करके उनकी वास्तविकता उजागर की है।
‘वागर्थ‘ का उपरोक्त अंक देखकर-पढ़कर ऐसा आभास होता है कि जिन कवियों के नाम मुख पृष्ठ पर अंकित हैं, उन्हीं ने सन् 80 के बाद की कविता-धारा को अग्रसर किया है। लेकिन कवि विजेन्द्र ने ऐसे अनेक कवियों के संकलनों का उल्लेख किया है, जो लोकधर्मी कविता का विकास कर रहे हैं। उनका प्रश्न है कि कि केरल के कवि अरविन्दाक्षन्, झारखंड के शम्भु बादल, दिल्ली के राम कुमार कृषक का मूल्यांकन क्यों नहीं किया। यही हिन्दी आलोचना का गिरता स्तर है।
विजेन्द्र ने अपने उपर्युक्त आलेख में कम चर्चित लेकिन महत्वपूर्ण कवि अशोक तिवारी का उल्लेख करते हुए लिखा है – “अशोक ने एक प्रतिबद्ध जनवादी कवि के रूप में खासी सार्थक पहचान बनाई है। उनकी कविता में लोकधर्मी स्थानीयता का रंग हमें आकर्षित करता है। मूलतः ब्रज प्रदेश के होने की वजह से अशोक की कविता में ब्रज जनपद की बड़ी स्वस्थ् अनुगूँजें सुनाई पड़ती हैं।“ (कृतिओर, 67, पृ0 16)
अशोक तिवारी दो संकलन प्रकाश में आये हैं
इस आलेख में उनके दूसरे संकलन ‘मुमकिन है‘ की समीक्षा प्रस्तुत है।‘सुनो अदीब‘ (2003) और मुमकिन है (2008)।
मथुरा जिले के गाँव कराहरी में सन् 1963 में जनमे अशोक तिवारी के दो शौक हैं। नुक्कड़ नाटकों का मंचन एवं अभिनय और काव्य सर्जना। उन्होंने समकालीन हिन्दी कविता में साम्प्रदायिकता विरोधी चेतना विषय पर शोध कार्य भी किया है।
सन् 2009 में प्रकाशित उपर्युक्त संकलन की कविताएँ, नाटकीय एकालाप, सम्बोधन-उद्बोधन और सम्वादों से अन्वित हैं।
आजकल हिन्दी कविता अधिकतर निश्छन्द है। उसने निराला का मुक्त छन्द नहीं अपनाया है। छन्द का आधार लय है लेकिन आजकल के अधिकतर कवियों ने लय की उपेक्षा कर दी है। उनका वाक्य-विन्यास गद्यात्मक है। अतः उसमें भावावेग का अभाव लक्षित होता है। आजकल के कवियों ने न तो मुक्तिबोध से लय का निर्वाह सीखा न ही नार्गाजुन-केदार और त्रिलोचन के लयात्मक मुक्त छंद का अभ्यास किया है।
लेकिन अशोक तिवारी ऐसे कवि हैं, जो भावावेग से प्रेरित होकर कविता में ऐसे वाक्यों की रचना करते हैं, जो लयात्मक होते हैं। पाठक कविता पढ़ते समय भाषाई प्रवाह का अनुभव अनायास करने लगता है।
संकलन की पहली कविता ‘गढ़ी‘ का प्रारम्भिक अंश पठनीय है-
“मेरे गाँव में एक गढ़ी है
सालों से वीरान है, जो पड़ी है
गढ़ी में एक पोखर है
पोखर में कीचड़ है
कीचड़ में मलवा है
मलवे में कूड़ा है
कूड़े में खिलौने हैं
खिलौने में आवाजें हैं
आवाजों में सिसकियाँ हैं
सिसकियों में तरंगें हैं
तरंगों में चुम्बक है
चुम्बक में खिचाव हैं।“ (पृ0 13)
इस कविता का संदर्भ देश विभाजन की त्रासदी है, जो घातक साम्प्रदायिकता का दुष्परिणाम है।
अशोक की जीवन-दृष्टि समाज और विश्व में विषमता देखती है। अतः वह अपने गाँव में, राजधानी दिल्ली में, वैश्विक परिदृश्य में, इतिहास की परिघटनाओं में वर्गीय विषमता की आलोचना करके शोषित और दलित जनों के प्रति हार्दिक संवेदना व्यक्त करते हैं। अपने प्राकृतिक परिवेश के प्रति भी उनका प्रगाढ़ अनुराग व्यक्त हुआ है।
गिद्ध, लिली, एक और शम्बूक, सुनो भई मनु, भगत सिंह, हलफनामा, बुश नहीं होगा खुश, फर्क बाबू साहब, बाबू मोची, दूर देश की एक औरत, उजड़ा हुआ कैम्प, बंधन, नदी, नटी, माँ आ रही है, मिसरानी, अजन्मी वेटी, गाँव की एक औरत, रामजनी चाची, शीशम कविताएँ उपर्युक्त कथन का प्रमाण हैं।
अशोक ने निराला की कविता ‘वह तोड़ती पत्थर‘ से प्रेरणा लेकर श्रमशीला नारी के अनेक चित्र अंकित किए हैं।
प्रायः देखा गया है कि सफाई कर्मचारियों से, जो मानव-मल ढोया करते हैं, लोग बचकर चलते हैं। लेकिन अशोक समाज का यह चलन भूलकर लिखते हैं –
“मेरे मन में
धुला है उसके खिलखिलाते चेहरे का उल्लास
उसकी बातों में
नहीं जानती
रामजनी खुद भी यह
विठाया है उसे
अपनी माँ की चारपाई पर
जाने कितनी बार मैंने
बसाया है कितनी बार उसे अपने मन में
तमाम प्रतिबंधों के बाबजूद।“ (पृ0 162)
इस अनतिदीर्घ कविता में ‘रामजनी चाची‘ का चरित्र सामाजिक अन्तर्विरोधों के साथ रूपायित किया गया है। ‘चाची‘ सम्बोधन कवि की आत्मीयता का परिचायक है। वह अपने कर्म के प्रति निष्ठावान् है। बालकों से स्नेह करती हैं। गाँव के ऊँची जाति के लोग उसे कामुक दृष्टि से देखते हैं। छिपकर। एकान्त में। लेकिन सबके सामने उसे अपशब्द भी कहते हैं। देखिए उसकी ममता-
“खुरदरे हाथों से छूकर
दुलारती नन्हीं जान को
नेह की बारिश से नहलाती बच्चे को वो खूब
भूल जाती जाति का भेद/करती फिर खेद/“ और “डाँट-डपट जब पड़ती मास्टर की/भँगनिया कर होश/न हो मदहोश/कुलच्छन सब कुछ भूली।“ (पृ0168)
अशोक कविता के अन्त में यह विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं कि ‘रामजनी के मन की आँच‘ अभी फैलेगी और मखमली शाखों को अपने आगोश में भर लेगी। यथास्थिति टूटेगी।
समकालीन कविता की एक प्रमुख प्रवृत्ति है चरित्र-सृष्टि। इस दिशा में विजेन्द्र ने महत्त्वपूर्ण कविताओं की रचना की है, जो जीवन के वास्तविक चरित्र का निरूपण करके सामाजिक अन्तर्विरोध की अभिव्यक्ति करते हैं।
अशोक ने भी इस संकल्न की कई कविताओं विशेष पात्रों को उपस्थित करके मानवीय करूणा की अभिव्यक्ति की है। ‘रामजनी चाची‘ के अलावा मिसरानी, दूर देश की एक औरत, भगत सिंह, लिलि, आदि कविताएँ उल्लेखनीय हैं। ‘मिसरानी‘ में ऐसी कर्मठ महिला का चरित्र है, जो कवि के लिए भोजन पकाने का काम करती हैं। अकेली है और साहसी भी। ब्रज भाषा बोलती है। कवि उसके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित होता है कि वह सोचता है-
“बीस साल बाद आज
मुझे लगता है मिसरानी की सूरत
मेरी माँ की सूरत में गड्डमड्ड हो रही है
या कि मेरी माँ मिसरानी की तरह मेरे अन्दर हो गई है जज्ब़
जो रही मेरे साथ एक मिसरानी की तरह नहीं
एक दादी की तरह
नानी की तरह
मेरे साये की तरह मेरे दिल में।“ (पृ0 146)
अपने चरित्र के प्रति कवि की भावात्मक प्रगाढ़ता उस के मानवीय व्यक्तित्व से साक्षात्कार करा रही है।
‘दूर देश की औरत‘ में व्यक्तिवाचक संज्ञा नहीं है, अपितु श्रमशील स्त्रियों का स्वभाव एक सामान्य स्त्री के माध्यम से वर्णित किया है। यह कविता पढ़कर ‘वह तोड़ती पत्थर‘ कविता अनायास याद आती है। इस कविता में श्रमिक नारी अनामिका है। अपने वर्ग का प्रतिनिधि चरित्र। अशोक ने इस कविता में श्रमिक नारी की क्रियाओं और ममता का प्रभावपूर्ण वर्णन किया है-
“ये औरत जो ढोते हुए कहीं गारा
उठाते हुए कहीं कचरा
चिनते हुए ईंटें
लीपते आपका घर और आँगन
बाँधते हुए बन्दनवार
या बनाते हुए आपके लिए नया घर
खटती है सुबह देर से रात तक
पकड़ाकर बच्चों को खाली पड़ी पेप्सी या कोला की बोतले।“
यह कैसी विसंगति है कि मेहनती व्यक्ति को भरा पूरा वेतन नहीं मिलता है। उसकी जीवन-गठरी अभावों से भरी रहती है। अकेली औरत अपने अधिकारों के लिए माँग भी नहीं कर पाती है। लेकिन
“पसीने के नमक का खारापन
देश-काल की सीमाएँ तोड़ता हुआ
होता है एक ही।“ (पृ0 76)
और यह ‘खारापन‘ एक जुट हो जाए तो समाज बदल सकता है।
शहीदे आजम भगत सिंह को कौन नहीं जानता है। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर उनके क्रान्तिकारी विचारों में सामाजिक परिर्वन का अनुसंधान किया गया। लेकिन उनकी विचारधारा को किसी भी राजनैतिक दल ने आत्मसात नहीं किया। अशोक इस विसंगति को ठीक ढंग से समझ कर लिखते हैं –
“कैसा लगता तुम्हें
सुनते जब तुम अपने जन्मदिन
या शहादत के दिन
कुछ लोग गायत्री मंत्र का जाप“ करते हैं
और “तुम्हारे विचारों को छिपाते हुए
तुम्हारी तस्वीर को“ सदा आगे करते रहते हैं।
कुछ लोग तो भगत सिंह को पगड़ी पहनाने का भी हठ करते हैं, जब कि उन्होंने अपने देश के लिए सिख होकर भी केश कटवा दिए थे। उन्होंने स्वयं को नास्तिक घोषित किया था। यदि आज भगत सिंह होते तो क्या करते। अशोक ठीक लिखते हैं –
“अपनी मौत के इतने साल बाद
साम्राज्यवादी पैतरों पर
तुम क्या सोचते भगत सिंह………
और कैसे निबटते संसद के माननीय सदस्यों से
जो देखते हैं राष्ट्रहित
राष्ट्र को बेचने में
आज होते अगर तुम भगत सिंह
तो क्या सोचते फेंकने की एक और अचूक बम
संसद की बेइज्जती और अवमानना पर।“ (पृ0 39)
इस प्रकार अशोक भारतीय स्वाधीनता संग्राम के प्रेरक पृष्ठ पढ़कर वर्तमान की राजनैतिक दुरवस्था पर आक्रोश व्यक्त करते हैं। मुक्ति-संग्राम की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं।
‘हलफनामा‘ कविता का सन्दर्भ भी भारतीय स्वाधीनता-संग्राम है। जलियाँवाला बाग का नरसंहार। इस कविता में रतनदेवी नामिका महिला आक्रोशपूर्ण एवं करूण शैली में नरसंहार का स्मरण करते हुए अपने पति छज्जू भगत की अकाल मृत्यु पर विलाप करती हुई कहती है –
“और मैं दे सकती हूँ हलफनामा भर
हुजूर
की मारा गया मेरा पति जलियाँवाला बाग में
परेशान और बहुत सी जानों के साथ।“ (पृ0 45)
इस अनतिदीर्घ कविता में उपर्युक्त नरसंहार को प्रत्यक्ष कर दिया है। आज की लोक तांत्रिक व्यवस्था में भी नरसंहारों की कमी नहीं हुई है। आए दिन गोलियाँ चलती हैं। निर्दोष और निरपराध मारे जाते हैं। लेकिन जनता प्रतिरोध भी करती है।
अशोक ने एक स्त्री की ओर से हलफनामे का वर्णन करके यह व्यंजित किया है कि आजकल स्त्रियाँ भी जागरूक हो गयी हैं। वे अन्याय, अनाचार तथा नरसंहार का प्रखर विरोध करती हैं। यह कविता भी मुक्ति-संग्राम की प्रक्रिया को अग्रसर करती है।
अशोक समाज में जहाँ भी अन्याय और दुराचार देखते हैं उसका रचनात्मक विरोध निद्र्वन्द्व भाव से करते हैं। ‘अजन्मी बेटी‘, ‘लड़की‘, ‘लिली‘ ऐसी ही कविताएँ हैं। तीनों में नारी के प्रति संवेदना व्यक्त हुई है। ‘अजन्मी बेटी‘ का वक्तव्य मर्मस्पर्शी है। प्रायः देखा गया है कि लोभ के वशीभूत होकर बेटी को गर्भ में ही मार डालते हैं। ऐसी बेटी की ओर से कवि कहता है –
“मौत पर उत्सव मनाए जाने की परम्परा
कौन से मानवीय पक्ष करती है खड़े
यह सवाल मैं पूछूँगी तुमसे बार-बार
क्योंकि मेरे साथ जो हो चुका बुरा
उससे और बुरा क्या होगा“(पृ0 159)
भारतीय समाज की इस ज्वलंत समस्या पर रचित यह कविता पाठक के मानस में करूणा के साथ सात्विक क्रोध की लहरें आन्दोलित करती है।
‘लड़की‘ शीर्षक कविता में सामंती मूल्यों का तिरस्कार किया गया है। समस्या यह है कि लड़की सामंती मूल्यों से इतनी आक्रान्त है कि वह भी पहले-पहल लड़के की ही आकांक्षा करती है। परिणाम यह होगा कि “ठगी जाएगी लड़की ही हर बार।“ (पृ0 154)
‘लिली‘ कविता का सन्र्दभ जर्मन कंसंट्रेशन कैंप में रहने वाली एक यहूदी औरत है। यह मझोली कविता
^My Wounded Heart^ पुस्तक पर आधृत है। इस रचना में लिली नामक यहूदी औरत अपने बच्चों को सम्बोधित करके अपनी दारूण व्यथा-कथा का वर्णन करती है। दुनिया नस्ल-भेद एक भीषण त्रासद समस्या है। इससे विश्व शान्ति को खतरा बना रहता है। लिली जर्मन से शादी करती है। लेकिन वह विश्वासघात करके रीटा से बँध जाता है और जर्मनी के प्रति अपनी वफादारी भी व्यक्त करता है। और लाचार ‘लिली‘ अपने बच्चों से कहती है –
“तुम्हारी लिए एक पूरा पिता तो
मैं नहीं दे पाई मेरे बच्चों
पूरी माँ भी नहीं
काश कर पाती मैं ऐसा
मुझे अफसोस है।“ (पृ0 26)
वर्तमान समाज में ऐसी लिलियों की कमी नहीं है, जो परित्यक्ता का जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हैं। ‘लिली‘ कविता पढ़कर पाठक के मन में हिटलर जैसे लोगों के प्रति तीव्र घृणा भाव उत्पन्न होने लगता है।
अशोक अपनी वर्गीय दृष्टि से श्रमजन्य सौन्दर्य का प्रशंसा मुक्त कण्ठ से करते हैं। ‘गाँव की एक औरत‘ में ऐसे ही सौन्दर्य का निरूपण किया गया है। क्योंकि
“उसके हाथ
बला के खूबसूरत हैं
जो गेहूँ की बालियों में से
मकई के भुट्टों में से
चावल के धानों में से
निकालना जानतें हैं अच्छी तरह।“ (पृ0 155)
कवि ऐसे सौन्दर्य पर स्वयं को न्यौछावर करने की बात कहता है।
इस संकलन में ‘मास्टर जी‘ शीर्षक ऐसी कविता है, जो अशिक्षित बालिका की ओर से संबोधित है। अपने “भाई की पीठ पर“ मास्टर जी के डंडों के निशान देखकर वह न पढ़ने का संकल्प कर लेती है। कवि इस क्रूरता का प्रतिरोध करते हुए कहता है –
“जाने अनजाने आप की क्रूर छवि
लिपट जाएगी।“
और
“जाहिलपन की उपमा
मेरे चारों ओर मास्टर जी
और रह जाउँगी मैं वहीं
जो मैं नहीं चाहती थी रहना।“ (पृ0 161)
ऐसे क्रूर मास्टरों की आजकल कमी नहीं है। न मालूम कितने बालक और बालिकाएँ दोनों इस क्रूरता के शिकार होते हैं।
पूँजीवादी व्यवस्था में मानव-श्रम का दोहन खूब किया जाता है। उसने यही दुराचरण प्राकृतिक परिवेश के प्रति भी किया है। प्राकृतिक संपदा का दोहन और जिन्दा पेड़ों की कटाई से विनाश को निमन्त्रण दिया है। अशोक इस हकीकत से परिचित हैं। ‘शीशम‘ शीर्षक कविता में कवि ने पेड़ के प्रति आत्मीय अनुराग व्यक्त करके उसकी कटाई पर हार्दिक शोक व्यक्त किया है और जिन्दा शीशम से प्रेरणा लेकर वह संकल्प करता है –
“तुम्हारे न रहने के बावजूद मेरे मन का शीशम
हरहराता आज भी
फूटती हैं उसमें नई-नई कोपलें
बार-बार
तुम्हारे शक्त अख्तियार करने के लिए
फलने-फूलने के लिए
खड़ा रहता था जो लाख आंधियों में
निर्भीक और सीना ताने।“ (पृ0 174)
यह है रूपान्तरण। कवि के व्यक्तित्व का, जो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी निर्भीकता से खड़े होने का संकल्प करता है। प्रसंगवश, ‘कैफ‘ भोपाली का शेर अनायास याद आ रहा है-
गुल से लिपटी हुई तितली को गिराकर देखो,
आँधियों! तुमने दरख्तों को गिराया होगा।।
लोकधर्मी कवि तितली के समान गुल से लिपटकर अपनी रक्षा करता है और सामाजिक आँधियों के सामने घुटने नहीं टेकता है। अशोक का कवि व्यक्तित्व ऐसा ही है, जो व्यवस्था के अत्याचार और साम्प्रदायिक वैमनस्य का विरोध निर्भीक भाव से करता है।
राम-कथा के आख्यान ‘शंबूक वध‘ में कवि ने धर्म-ग्रन्थों के कथनों का प्रखर विरोध किया है-
“जानता ये राम भी है
और मानता है कि
धर्मग्रन्थों में जीना
मवेशियों की दुनिया मे रहना है
कोंसों दूर है जो
असल जिन्दगी के सफों से।“ (पृ0 31)
यहाँ अशोक ‘कागद लेखी‘ न देखकर ‘आँखिन देखी‘ पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।
सुनो मनु भाई में प्राचीन वर्ण-व्यवस्था की आलोचना की गयी है। ‘भाईचारे‘ और ‘मानवता‘ को तरजीह देने की बात कही गयी है। दलित कहता है-
“और करना चाहता हूँ मुकाबला
तुमसे और तुम्हारी सोच से
हर कीमत पर मनु भाई।“ (पृ0 35)
सम्प्रति वास्तविकता तो यह है कि वर्ण व्यवस्था तो खंडित हो चुकी है, लेकिन जाति व्यवस्था राजनीति के कारण फल-फूल रही है। वर्गीय चेतना जातियों का खण्डन कर सकती है।
‘बुश नहीं होगा खुश‘ में व्यंग्यात्मक शैली में अमरीकी साम्राज्यवाद का प्रबल विरोध किया गया है। आजकल भारत दो भागों में बँट गया है। एक है विपन्नों और निरीहों का हिन्दुस्तान, जो बहुसंख्यक है, दूसरा है इंडिया, जो अमरीकी रंग में रंगा हुआ है। यह ‘इंडिया‘ अल्पसंख्यक है। कवि अशोक ने अमरीकी साम्राज्यवाद की असलियत बताते हुए ठीक लिखा है-
“स्वागत करो
कालीन विछाओ
आरती गाओ
‘अतिथि देवो भव‘ दोहराओ
क्योंकि
अमरीका भारत आ रहा है।“
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हमारी समृद्धि में चार-चाँद लगाएगा
जनता को लूटने के नए-नए तरीके बताएगा।
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गगग कच्चा माल उठाएगा
बाजार में फिर लाएगा
मूँह मांगा पैसा पाएगा
दलाली तो खाएगा ही खाएगा
भारत को
अमरीका बनाने के सपने दिखाएगा
नहीं होगा जब तक ऐसा
बुश नहीं होगा खुश।“ (पृ0 51)
अब यह वास्तविकता उजारगर हो गयी है। भारत की अर्थव्यवस्था पर अमरीका प्रभुत्व है। इसका प्रतिरोध समाजवादी व्यवस्था के द्वारा किया जा सकता है। और इस का व्यवस्था का निर्माण श्रमशील वर्ग अर्थात् किसान एवं मजदूर ही कर सकते हैं। अशोक को तीसरी दुनिया के देशों-क्यूबा, बेनेजुएला, चिली और बोलीविया के जुझारू सपनों के प्रति और मेहनतकश आदमी के हाथों के निशानों के प्रति पूरी आस्था है।
अशोक शोषित और शोषक का फकऱ् अच्छी तरह मालूम है और मानवीय श्रम पर पूरा भरोसा। तभी तो वह कहते हैं –
“फकऱ् सिर्फ इतना है
उन्हें गुमान है कि
चल रही है दुनिया उन्हीं के कन्धों पर
और चलती रहेगी हमेशा-हमेशा
ऐसे ही
हमारे लिए मगर मेहनत ही है
सब अधिकारों की निर्वाहक
और भरोसा है अपने मजदूर हाथों का
जो दर्ज होते हैं
और होते रहेगें
दुनिया के हर काम मजबूती के साथ।“ (पृ0 61)
यह है विकल्प जो श्रम के प्रति आस्था जगाता है। सभ्यता का सम्पूर्ण चमत्कार मानवीय हाथों के कौशल का परिणाम है।
हिन्दी संसार में कुछ आलोचक ऐसे हैं, जो लोक को अनपढ़ जनों एवं ग्रामों तक सीमित मानते हैं। उनके लिए लोक, लोक गीत, लोक नृत्य, लोक नाट्य, लोक कथा, लोक कला तक सीमित है। उनके लिए लोक मनोरंजक है। वे उसके संघर्षधर्मी रूप को भूल जाते हैं। सन् सत्तावन की क्रान्ति में साधारण जनों ने ही तो सक्रिय भाग लिया था। लोक का अर्थ जन भी होता है, जो गाँव से नगर तथा नगर से महानगर तक परिव्याप्त है। अभिनव गुप्त के अनुसार ‘लोक‘ नाम है जनपदवासी जन का। जन के पद जहाँ-जहाँ जाते हैं, वह जनपद ही तो है। चाहे नगर हो या महानगर।
दिल्ली जैसे महानगर में ऐसे असंख्य श्रमशील लोग मेहनत से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। झुग्गी-झोपडि़यों में रहकर। प्रभुलोक यह झोपडि़याँ बदरंग मालूम होती है। वह अपने स्वार्थ के लिए उजाड़ देते हैं। ‘संवेदनशील‘ कवि अशोक ने ऐसी त्रासद घटना को कविता में रचा है। ‘उजड़ा हुआ कैम्प‘ में वह आक्रोशपूर्ण शैली में कहते हैं-
“उजाड़ दी गयी/शहर के अन्दर
यमुना किनारे की
मामूली लोगों की बस्ती
कर दिया गया घर से वेघर
लाखों सिसकती साँसों को
फेंक दिया गया शहर से बाहर
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धरती नहीं हिली
भूकम्प नहीं आया
उजड़ गई यह बस्ती फिर भी
हजारों लाखों और बस्तियों की तरह
गगग उजड़े हुए अपने घरों को देख रही हैं
मामूली लोगों की बस्ती में रहने वाली चिडि़याँ
बैठी हुई हैं तो बिजली के तारों पर
सिहर जाते हैं
ठंड से उनके पंख
व्याकुल हैं भूख से उनकी आँखें
रोके नहीं रूकती हैं
मन की हिलोंरे
कुचल गई घोंसलों के साथ।“ (पृ0 80)
इस कविता में कवि वर्णन क्षमता और पर्यवेक्षण अनेक आकर्षक बिम्बों की सृष्टि कर रहे हैं। कवि की वर्गीय दृष्टि सत्य का उद्घाटन करते हुए देखती है-
“अनगिनत पेड़ों की जवानियों को
कुचल ही दिया
व्यवस्था के बुलडोजरों ने
पनपने से पहले
मेहनतकश संस्कृति की एक नदी थी
बहती थी जो यमुना के किनारे-किनारे
खत्म कर दी गई।“ (पृ0 81)
सम्पूर्ण कविता में ऐसा आवेग है, जो पाठक के मानस में शोक की लहरें आन्दोलित करता है।
अशोक ने अपनी संवेदनशील जीवन-दृष्टि से फर्क, बाबू साहब, बाबू मोची, गोनड़ बाबा, बंधन, नदी और अचानक, आखिरी शब्द, भूकंप, भूकंप में मारी गई औरत, नटी आदि कविताओं की प्रभावपूर्ण रचना की है।
‘नटी‘ शीर्षक कविता में ऐसी क्रियाशील नटी वर्णन किया गया है, जो अपनी जीविका कमाने के लिए ढोलक की ताल पर करतब दिखाती है। लेकिन वह अपना काम नहीं छोड़ती है। परीक्षाओं से गुजरने पर भी।
कवि कहता है-
“देखो,
उसने फिर से ढोलक की तान पर
कर दिया है शुरू थिरकना
जुटने लगे हैं लोग
करने लगी है पैदा रोमांच एक बार फिर से।“ (पृ0 139)
यहाँ यह ध्यातव्य है कि कितने कवि ऐसे हैं, जो ऐसे सक्रिय उत्साही पात्रों को अपनी कविता के केन्द्र में उपस्थापित करते हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि अशोक ने ऐसे पात्रों को आत्मीयता से रूपायित किया है।
‘नन्हें हाथों में रोशनी‘ ने एक ऐसी निरीह बालक का चरित्र है, जो बरात में ट्यूब लाइट का बोझ उठाता हे। कविता पढ़ते हुए उस बालक के प्रति हार्दिक सहानुभूति जगने लगती है।
कवि की सजग दृष्टि ऐसे स्कूल मास्टरों के आचरण पर टिकती है, जो अज्ञानवश छात्रों का भविष्य बिगाड़ देते हैैैं। उनका कटु व्यवहार होनहार छात्रों को जीवन की सही पटरी से उतार देता है। ‘अंधा कुआँ: एक अहसास‘ ऐसी ही कविता है, जिसमें ‘नीरज वल्द धीरज‘ की व्यथा-कथा वर्णित की गई है। उसे भगोड़ों का सरगना घोषित कर दिया जाता है। और ‘ब्लैकलिस्ट‘ भी। सम्पूर्ण कविता में नीरज का आत्मालाप है। वह अपने आत्मालाप से आजकल की शिक्षा के अनेक दोष उजागर करता है। रेहड़ी लगाने वाला नीरज अन्त में कहता है –
“मैं नहीं चाहता मास्टर जी
कोई और नीरज
अपनी छोटी सी किसी भूल की
इतनी बड़ी सजा पाए
कि लौटना ही मुमकिन न हो
रोशनी की दुनिया में दोबारा।“ (पृ0 130)
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था स्कूली शिक्षा की दयनीय दुरवस्था है। अध्यापक अपने कर्तव्य का निर्वाह करते ही नहीं हैं। बाल मनोविज्ञान अनभिज्ञ मास्टरजी बालकों को डरा-धमकाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करते हैं। परिणाम सामने है। बालक स्कूल ही नहीं जाते हैं। क्या ऐसी शिक्षा से देश का भविष्य उज्ज्वल होगा। गरीब बालकों के लिए अच्छी शिक्षा तो ‘आकाश कुसुम‘ है।
यदि धूमिल ने ‘मोचीराम‘ कविता लिखी थी तो अशोक ने ‘बाबू मोची‘ की रचना सम्बोधनात्मक शैली में की है। इस कविता में कवि ने वर्णित किया है कि जमीन से जुड़े बाबू मोची का ठिया हथिया कर उसे विस्थापित कर दिया जाता है। कवि अपनी संवेदनशीलता से मोची के श्रम की प्रशंसा करके उससे कुछ सीखने का संकल्प करता है-
“तुम्हारा मोचीपन बहुत याद आता है आज बाबू
इसलिए मुझे बताओ कि तुम कहाँ हो
पा सकूँ स्पर्श ताकि तुम्हारे कर्मठ हाथों का
और समाज को गोंठने का मोचीपन
भर सकूँ अपने अन्दर
किस हद तक।“(पृ0 69)
समाज के कर्मठ श्रमिक वर्ग से अपना आत्मीय सम्बन्ध अशोक उसी प्रकार जोड़ते है, जिस प्रकार मुक्तिबोध। मुक्तिबोध का कथन है कि सारी दुनिया साफ करने के मेहतर चाहिए। वह अपनी कविता में मेहतर भाव को व्यक्त भी करते हैं। और अशोक समाज की विकृतियों को ठीक करने के लिए ‘मोचीपन‘ अपनाने का संकल्प है। यह है कवि के व्यक्तित्व का रूपांतरण। श्रमिक वर्ग से एकात्मता, लोकधर्मी कवि ऐसा कर सकता है।
‘बाबू साहब‘ कविता में वर्गीय दृष्टि से सम्पन्न और विपन्न वर्गों के प्रतिनिधि पात्रों का द्वन्द्वात्मक वर्णन किया गया है। दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर है।
“फर्क सिर्फ इतना था कि
आप की आस्तीन नोटों से भरी थी
और मैं सर से पाँव तक कर्ज में।“(पृ0 64)
लेकिन परिस्थिति बदलती है। सम्पन्न व्यक्ति की दुकान एम0सी0डी0 द्वारा सील कर दी जाती है। अब विपन्न सोचता है कि
“मेरे उजड़ने का अब तो
हुआ होगा आपको कुछ अहसास और मलाल ।“(पृ0 65)
अशोक तिवारी की कविताओं का प्रमुख प्रयोजन ‘शिवेतरक्षतये‘ है। अर्थात समाज में जो अमंगलकारी परिस्थितियाँ और क्रूर व्यवस्थाएँ हैं उनके विनाश के लिए कवि काव्य सर्जना करे।
अशोक कट्टर साम्प्रदायिकता को देश की प्रगति में सर्वाधिक बाधक मानते हैं। आतंकवाद को भी। ‘गिद्ध‘ शीर्षक कविता में कट्टर हिन्दुत्व, मुस्लिम कठमुल्लापन की प्रखर आलोचना करते हैं।
“ बहादुरी के सारे किस्से
सुना-सुना कर पैदा कर रहा है
गिद्ध अपना गिद्धीय पौरूष
और बना रहा है फिज़ाओं में बहने वाली हवा को
जहरीली और दमघोंटू
उस के पंखों की फड़फड़ाहट
निरीह के घरों से उजड़ जाने के भय को
आँखों में बसा रही है।“(पृ0 16)
इस कविता में ‘गिद्ध‘ की प्रतीक व्यंजना स्वतः स्पष्ट है। कवि को यह आशंका भी परेशान करती है कि इस भयंकर और भक्षक गिद्ध के विषाणु हमारे ही खून में बिलबिला रहे हैं।
भीषण और त्रासद साम्प्रदायिकता से जनमें भारत के विभाजन का दर्द भी अशोक शिद्दत से महसूस करते हैं। इस दृष्टि से गढ़ी और सरहद कविताएँ उल्लेखनीय हैं। विभाजन की त्रासद स्मृति में मन्टो की कहानी कौंध जाती है-
“मंटो का टोबा टेक सिंह
इकसठ साल बाद भी पड़ा है
वहीं का वहीं
सरहद के दोनों ओर टाँग फैलाए
सरहदों के मिटने के इंतजार में।“(पृ0 20)
लेकिन चतुर सियासत का ऐसा खेला है कि सरहद को मिटाने की बात सोचना ही नहीं है। राजनेताओं की महत्वाकांक्षा कुण्डली मारे नाग के समान फुँकारती रहती है। आग उगलती रहती है। यह सुनिश्चित है कि हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का इतिहास एक है। दोनो की मैत्री भारतीय उपमहाद्वीप में शान्ति का परिवेश निर्मित कर सकती है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए धार्मिक कट्टरपन त्यागना होगा। साम्राज्यवाद का विरोध करना होगा।
बेहतर समाज का स्थापना के लिए अशोक चीटियों के क्रिया कलाप अवधानपूर्वक देखते हैं –
“मेहनत की क्यारी में खिले फूलों की सुगंध
सूँघती हैं चीटियाँ
सीखा नहीं है उन्होंने हताश होना
ठहरना कभी
मुश्किल से मुश्किल समाज में भी
उखड़ती नहीं है उन की साँस
गगग जानती है वो आज़माना
मुट्ठियों की ताकत को एक साथ ।“ (पृ0 47)
शोषक व्यवस्था को उखाड़ने के लिए यह विकल्प अनिवार्य है। ऐसे भीषण शोषक समाज और पूँजी की क्रूरता, भ्रष्टाचार, बलात्कार, दिन-दहाड़े हत्याएँ, अज्ञान, अंधविश्वास आदि को देखकर भी अशोक भविष्य के प्रति एवं मंगलमय समाज की रचना के आशावान् हैं। ‘मुमकिन है‘ शीर्षक कविता इस विश्वास का प्रमाण प्रस्तुत करती है। एक अंश देखिए –
“मुमकिन है एक और दुनिया
जहाँ नहीं समझता हो कोई दूसरों को दूसरा
मुमकिन है एक और दुनिया
जहाँ भूख न देती हो दस्तक
हर तीसरे दरवाजे पर
सिर ढकने की नहीं हो फिक्र
काम करते हाथों को
चिन्ता न सताती हो
खुद को बनाए रखने की
ऊँच-नीच जैसे विशेषणों का
जहाँ नहीं हो कोई महत्त्व।“(पृ0 70)
स्वस्थ-सुन्दर एवं समतामूलक समाज का सपना देखना प्रत्येक लोकधर्मी कवि का अनिवार्य कर्तव्य है।
विनोद कुमार शुक्ल और अशोक दोनों ने ‘शायद‘ शीर्षक कविता रची है। शुक्ल जी की कविता आकार में छोटी है। सन्दर्भ है दंगा। कविता में कुछ सम्भावनाएँ व्यक्त की गई हैं। लेकिन अशोक की कविता कुछ लम्बी है, जो हताशा के मनोदशा प्रेरक आशा की अभिव्यक्ति करती है। ऐसी आशा निराश व्यक्ति को जिजिविषा से भर देती है। एक अंश ध्यातव्य है –
“मरी नहीं हो आशा की कोई किरण
कि नज़र आए
चाकू और त्रिशूलों से अलग
कातिल की आँखों में हरियाली का एक सपना शायद।
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बची हो जैसे
राख के भीतर
अभी भी एक चिनगारी
चिनगारी बची हो
थोड़ी हरारत
पिघल सके जिसकी गर्मी से शायद
मन के अन्दर जमा बर्फ का पहाड़।“(पृ0 176, 177)
शुक्ल जी की ‘शायद‘ से अशोक की ‘शायद‘ अधिक प्रभावपूर्ण है। मन की अनेक दशाओं के निरूपण के कारण।
पिछले दिनों मैंने वरिष्ठ कवि का संकलन ‘हाशिए का गवाह‘ की कविताएँ पढ़ी थीं। पूरे संकलन में मात्र एक कविता ‘नट‘ हाशिए का व्यक्ति है, जब कि अशोक के ‘मुमकिन है‘ में लगभग सभी कविताएँ हाशिए के साधारण जनों को केन्द्र में उपस्थापन का प्रयास करती हैं।
संकलन की कविताओं में भाषाई खिलवाड़ है। विनोद कुमार शुक्ल के शाब्दिक चमत्कार के समान और न अमूर्तन है कुँवर नारायण के समान।
‘बाजारू दोस्त‘ कविता में कवि ने वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था की प्रखर भत्र्सना की है। क्योंकि गगनचुम्बी इमारतों ने लाखों जानदार पेड़ उजाड़ दिए हैं। विराट् रूपवाले मालों ने झर बेरियाँ नष्ट कर दी हैं। वह जमीन हथिया ली है, जिस पर कवि की आँखें ‘एक पूरी मेहनतकश संस्कृति देखती हैं।
लेकिन आशावादी है। वह कहता है कि
“कोई तो है
जो अपने वक्त में रहते हुए
आने वाले कल की बात करता है
जिन्दगी के खूबसूरत तरानों को
गुनगुनाने की बात करता है।“
और
“पहाड़ों को लाँघकर
संजीवनी लाने की बात करता है।
आदमीयत के लिए।“(पृ0 84, 82)
अशोक का सहृदय कवि-मन अपने घर-परिवार, परिजनों, मित्रों और अपने गाँव के प्रति भी अत्यधिक संवेदनशील है। इस दृष्टि से ‘माँ आ रही है‘ कविता पठनीय है। कवि ट्रेन का इंतजार कर रहा है। वह लेट हो रही है, क्योकि उस में बैठी माँ के साथ अपने जन्म-स्थान के वासियों के अच्छे-बुरे हाल-चाल भी रहे हैं। यथा –
“कैसे मर गया कमला हलवाई
चम-चम की चासनी में कड़छुल चलाते-चलाते।“(पृ0 141)
अशोक की कवि-दृष्टि समाज में नारी के बन्धन को देखकर आक्रोशपूर्ण खेद व्यक्त करता है –
“दोयम दर्जे के साथ वह खुश है
कर रही है वह पुष्ट
मर्दों की पुरातन साजिश को
हँस-हँस कर।“(पृ0 95)
यह कविता पढ़ते हुए ‘द सेकेण्ड सेक्स‘ पुस्तक की याद आने लगती है। प्रभा खेतान कृत अनुवाद ‘स्त्री उपेक्षिता‘ भी। नर-नारी अथवा स्त्री-पुरूष की समानता का आदर्श समाजवादी व्यवस्था में ही सम्भव है।
अशोक बहुपठित संवेदनशील कवि हैं। उन्होंने प्रसिद्ध उपन्यास लेखिका श्रीमती नासिरा शर्मा की साहित्य साधना को प्रवहमान नदी की संज्ञा प्रदान की है। मधुरेश के अनुसार “नासिरा शर्मा स्त्री की नियति को एक व्यापक फलक पर परिभाषित करती है।“ अशोक ने उनकी औपनयासिक दृष्टि रखते हुए बिम्बात्मक शैली में लिखा है-
“समय की छाती में घोपने वाले
तेज हथियार का
अपनी मुट्ठी में थाम लेने की हसरत लिए
वो औरत
बह रही है एक नदी की तरह
सरहदों के आर-पार
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जूझती हुई शाल्मली की तरह
जो कभी अपने घर और
कभी घर से बाहर के बीच
तलाशती है अक्षयवट मानवता का।“(पृ0 96)
उल्लेखनीय है कि ‘शाल्मली‘ (1993) और ‘अक्षयवट‘ नासिरा शर्मा के उपन्यास हैं। ‘सात नदियाँ: एक समुंदर‘ (1985) उनका पहला उपन्यास है जो ‘ईरान के आधुनिक इतिहास सबसे तल्ख और खूनी दौर की पृष्ठभूमि में स्त्री के उत्पीड़न के विभिन्न रूपों का आंकलन प्रस्तुत करता है।“(मधुरेश)
गोनड़ बाबा और चाँद तुम सच-सच बतलाना अशोक को उपन्यासकार और कवि नागार्जुन से जोड़ते हैं। यदि पहली कविता वरूण के बेटे से जोड़ती है तो दूसरी कविता कालिदास सच-सच बतलाना रचना से। इस प्रकार अशोक जन प्रतिबद्ध लेखक बाबा नागार्जुन से रागात्मक संबंध जोड़ते हैं।
और अपने गाँव के प्राकृतिक परिवेश के प्रति सघन रागात्मकता चैखट पर कविता में व्यक्त हुई है –
“गाँव की चौखट ने
आवाज दी मुझे
बनी थी जो उस शीशम की
जिसकी छाँव तले
सँवारे थे मैंने
बचपन के अपने दिन।“
और
“दौड़ कर नंगे पाँव पहुँचा में गाँव की सरहदों में
बबूल ने समेट लिए
रास्ते में पड़े अपने काँटे
झाड़ने लगा नीम
अपनी सारी की सारी
कसैली-मीठी निबौरियाँ
थम गया कौवों का शोर
फूलों की ताजगी
भरने लगी नया दम
देखने लगी खेत मी मेढ़ें
उचक-उचक कर
बहने लगी हवा झूम-झूम कर।“(पृ0 179)
अपने गाँव की धरती का कोमल स्पर्श नंगे पाँवों से महसूस किया जा सकता है। कवि की वर्णन शैली में मानवीकरण का क्रियात्मक समावेश स्वतः हो गया है।
अशोक की कविताओं का मूल भाव मानवीय करूणा है। उसी से सात्विक क्रोध, आक्रोश, अमर्ष, व्यंग्य का समावेश हुआ है। वाक्य-रचना में क्रिया पद प्रारम्भ में प्रयुक्त करके काव्य-भाषा में भावावेग का समावेश अनायास किया गया है। अशोक की काव्य-भाषा में समकालीन कवियों-कुमार, अम्बुज, बद्रीनारायण आदि की ठंठी गद्यात्मकता नहीं है। लयात्मकता उसका अनिवार्य वैशिष्ट्य है। अशोक ने तुकान्तों का स्वाभाविक प्रयोग किया है। धूमिल के समान चैकाने वाले तुकान्तों का अभाव है। क्रियापदों से सार्थक और गतिशील बिम्बों की सृष्टि की गई है। काव्य-भाष में कथ्य को प्रभावी बनाने के लिए मानवीकरण उपमा, रूपक स्वतः आये हैं। अधिकतर कविताएँ नाटकीय शैली से युक्त हैं। इससे कविताएँ अनायास सम्पेषणीय होती हैं।
‘मुमकिन है‘ काव्य‘-संकलन का महत्त्व लोकधर्मी कवि विजेन्द्र ने स्वीकार किया है। ज्ञात नहीं कि किस आलोचक ने इस संकलन की वस्तुनिष्ठ समीक्षा लिखी है।
भारतीय लोक जीवन और अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य को रूपायित करने वाली ‘मुमकिन है‘ संकलन अपनी अलग पहचान बनाता है। इस संकलन की एक उपलब्धि यह है कि कवि ने अधिकतर कविताओं में विशेष चरित्र उपस्थापित करके एवं सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति करके अभिनव समाज के लिए विकल्प भी प्रस्तुत किया है। सारांश यह है कि अशोक तिवारी विजेन्द्र की लोकधर्मी कविता-धारा को अग्रसर कर रहे हैं। इस संकलन की लगभग सभी कविताएँ कलात्मक स्थापत्य से अन्वित हैं और पाठक को आश्वस्त करती हैं कि भविष्य में अशोक तिवारी के काव्य-क्षितिज और अधिक विस्तार होगा। लोक का संघर्षशील स्वभाव कलात्मक रूप में प्रत्यक्ष होगा।
(अमीर चन्द वैश्य वरिष्ठ आलोचक हैं।)
सम्पर्क –
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अमीर चंद वैश्य,
एक जिम्मेदार आलोचक का यह दायित्व होता है कि वह नयी से नयी रचना परदृष्टि डाले और उसके महत्त्व को रेखांकित करे. अमीर चन्द्र वैश्य ऐसे ही आलोचक हैं जिनकी नजर नए से नए रचनाकार और उनकी रचनाओं पर रहती है. सौरभ राय ऐसे ही युवा कवि हैं जिनका एक संग्रह आया है ‘अनभ्र रात्रि की अनुपमा.’ इस संग्रह पर पत्र रूप में एक गंभीर टिप्पणी की है अमीर जी ने.