नरेश कुमार खजुरिया |
जन्म- जम्मू कठुआ के गाँव कटली में 10 जनवरी 1991 को
हिंदी में परास्नातक, सेट परीक्षा उत्तीर्ण, इस समय एम. फिल. कर रहे हैं.
लेखन में कविताओं से शुरुआत
लोक-मंच जम्मू कश्मीर के सक्रिय सदस्य
नरेश कुमार खजुरिया हिन्दी कविता के मानचित्र में बिल्कुल युवा कवि हैं। यह सुखद है कि यह कवि कवित्व की उन संवेदनात्मक भावनाओं से समृद्ध है जो साहित्य के क्षेत्र में दूर और देर की यात्रा के लिए आम तौर पर जरुरी होती है। नरेश खजुरिया इस बात से भलीभांति अवगत है कि ‘आदमी को जहां से सफेद होना चाहिए/ वहाँ पर धूप का कोई असर नहीँ होता।’ अलग बात है कि हम करते हैं इसका ठीक उल्टा। हम अपने मन में तमाम कालिमा भरे हुए अपने को साफ़-सफ्फाक दिखाने की कोशिशों में आजीवन लगे रहते हैं। और इसीलिए असफल रहते हैं कि जहाँ दिखाना चाहिए वहाँ कालिमा मृत्युपर्यन्त बनी रहती है। इस युवा कवि का स्वागत करते हुए आइए पढ़ते हैं इनकी कुछ नयी कविताएँ। नरेश की ये कविताएँ हमें युवा कवि-मित्र कमलजीत चौधरी के सौजन्य से प्राप्त हुईं हैं। इसके लिए हम कमलजीत के प्रति भी आभारी हैं।
नरेश कुमार खजुरिया की कविताएँ
सच
मैंने जब भी बोलना चाहा सच
तुमने मेरे होठों पर उंगली धर दी
पर तुमने ही सिखाया है झूठ बोलना बुरी बात है …
सच मेरा स्वभाव बन गया है
ऐसा सच
जो प्लेटो द्वारा कविता में तीसरी जगह बताया गया
मैं उसी जगह से बोल रहा हूँ सच
तुम मुझे रोक नहीं सकते
कैसे रोकोगे
तुम्हारी अपनी सचाई
जा दुबकी है
कई परतों में
तुम भावशून्य
मुखौटे पहन कर बड़े मंच से बोल रहे हो –
तुम नेता
अभिनेता
धर्मनेता हो
अमन चमन स्वर्ग की बातें करते हो
पर आईने से डरते हो
इसलिए मुझे बार बार
सकुरात चेताते हो!
बची रहेगी मेरी कविता
मैं लिख रहा हूँ
तुम्हारा श्रम।
तुम्हे रोटी के लिए
नमक होते देख
मेरी मुट्ठियां
तन जाती हैं।
तुम्हारे हाथों में
चलती कुदाल देख
कलम तलवार
हो जाना चाहती है
रचना चाहती है
तुम्हारा
एक अपना सौन्दर्यशास्त्र
जो तुम्हारे होठों
पर रख दे विरोध की भाषा।
आँखो में रख दे सुन्दर आशा।
तुम्हारे हाथों में
लोहा काटने की ताकत
बची रहे।
मेरी कविता बची रहेगी।
आँगन में डाली चोग चुगते पंछियों की
चहचहाट बची रहे
दूर सामने बहती नदी में
छलछलाहट बची रहे
हवा में
सरसराहट बची रहे।
बची रहेगी मेरी कविता।
मेरी दोस्त!
तेरे हाथों में गरमाहट
और लबों पे शिकायत
बची रहे
बची रहेगी मेरी कविता।
बड़ी बड़ी बातें
मैं उनकी बडी बडी
बातें सुनता हूँ
और चुप रहता हूँ।
मैं हमेशा
कोशिश में रहता हूँ
अपनी छोटी छोटी बातों
को कर्मक्षेत्र में ले आऊँ
मुझे कभी इस लड़ाई से फुर्सत नहीं मिलती
मैं उनकी बड़ी बड़ी
कविताएँ सुनता हूँ
और चुप रहता हूँ
वो दुनिया को आवरणों
में ढकी कहते हैं
और मैं
उनको नंगा कहता हूँ
वे बुरा मान जाते हैं
किसी को भी
खारिज करना
उनके बाएँ
हाथ का खेल है
वे कुतर्कों का तरकश
लिए चलते हैं
वो
मैं ये…
मैं वो….
का राग गाते फिरते हैं
मुझे हँसी आती
है
जब उनका ‘मैं‘
सिर चढ़ कर बोलता है।
शहतूत की छाँव
में बैठ
शिकवे शिकायतों में
मशगूल हैं
हाथों में हाथ
डाले
उडेल रहे हैं
प्रेम रंग
एक दूसरे पर
और
उनके चेहरे की रंगत देखने
वाली है।
समय
बैसाख की तपती दोपहर का है
और बाहर लू चल रही है। वहाँ पर धूप का कोई असर नहीं होता
धूप से बचने के लिए
बार बार चेहरा ढक
रही थी
मैंने कहा
वहम मत करा करो
कुछ नहीं होता
उसने कहा
नहीं
रंग काला हो जाता है
और चेहरा फिर ढक लिया।
मैँने कहा
आदमी को जहां से सफेद होना चाहिए
वहाँ पर धूप का कोई असर नहीँ होता। सीढ़ियों पर बैठ वह
सहेलियों में
बैठी
वह अब पहले सी नहीं
हँसती
गुमसुम सी
वह उठकर
चुपचाप सीढियों पर बैठ
उँगलियाँ फोन पर घुमाती है
निगाहें कभी फोन पर
कभी रास्ते पर गढ़ाती है।
मैं सामने बेंच पर बैठा
देख रहा हूँ
उसकी आँखों
में
प्रेम नज़र
आता है
सच कहूँ
लड़की
प्रेम में नज़र आती है।
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