राज्यवर्द्धन |
परिचय
जन्म– 30.6.1960,जमालपुर(बिहार)
प्रकाशित रचनाएं
*धर्मयुग, वामा, नवभारतटाइम्स, हिन्दुस्तान, जनसत्ता, दैनिकजागरण, प्रभातखबर, प्रभातवार्ता, राजस्थान पत्रिका, इंडियाटुडे, आउटलुक, परिकथा, वागर्थ, स्वाधीनता आदि पत्र–पत्रिकाओं में फीचर्स, लेख, अग्रलेख, रिपोतार्ज एवं समीक्षाएं प्रकाशित।
* हंस, वर्तमान साहित्य, वागर्थ, दस्तावेज,वसुधा,कृति ओर, प्रतिश्रुति, अक्षर पर्व, परिकथा, जनपथ, नई धारा, संवेद, हरिगंधा, समकालीन अभिव्यक्ति, अंतिम जन, जनसत्ता, दैनिक जागरण, प्रभात खबर, प्रभात वार्ता, छपते–छपते (वार्षिकांक), शुक्रवार (वार्षिकांक) आदि पत्र–पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।
* सम्पादन-1. ‘विचार’ के सम्पादक मंडल में (अनियतकालीन पत्रिका, जमालपुर से प्रकाशित, फिलहाल बंद) 2.स्वर–एकादश (समकालीन ग्यारह चर्चित कवियों के कविताओं का संग्रह) का संपादन, बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित
* स्तम्भ लेखन– 1.जनसत्ता(कोलकाता संस्करण) में1995 से2010 तक चित्रकला पर स्तंभ लेखन,
*नवभारत टाईम्स (पटना संस्करण) में कई वर्षों तक सांस्कृतिक संवाददाता
*पुरस्कार – जनकवि रामदेव भावुक स्मृति सम्मान 2010 (मुंगेर, बिहार) एवं कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
आत्मकथ्य
भूमंडलीकरण के बाद ‘बाजार’ ने जिस तरह से हमारे घर-परिवार और समाज का ताना-बाना बिखेर दिया है वह अत्यंत चिंताजनक है। आजादी के समय और आजादी के बाद जनता ने जिन मूल्यों व समाज के निर्माण के लिए संघर्ष किया आज ‘सत्ता’ द्वारा उन्हीं मूल्यों को त्याग दिया गया है, देशी-विदेशी पूंजी द्वारा आज आदमी के विरुद्ध जो कुचक्र चलाया जा रहा है वह ईस्ट इंडिया कंपनी और औपनेवेशिक शासन के कुचक्र से भी ज्यादा शातिर व घातक है। ऐसी स्थिति में कविता की जिम्मेदारी बढ़ गयी है। अब फिर एक बार आर-पार की लड़ाई का समय आ गया है। कविता को पुन: एक नयी भाषा व शिल्प की तलाश करनी चाहिए। पत्र–पत्रिकाओं, संपादकों व आलोचकों को ध्यान में रख कर लिखी जा रही ‘डिजाइनर कविता’ से समाज का भला नहीं होगा। 21वीं सदी 20वीं सदी से ज्यादा जटिल है। कवि और कविता दोनों सामने चुनौती है। लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति में आश्वस्त करने वाली बात वह है कि कविता आज भी बाजार का प्रतिपक्ष है।
राज सत्ता ने आम आदमी को हमेशा से एक सपना दिखाने का काम किया है – आम आदमी की बेहतरी का सपना। लेकिन दुखद यह कि यह सपना केवल सपना ही बन कर रह गया। सामन्तवाद, राजतंत्रवाद के रास्ते आज जब हम पूँजीवाद के समय में पहुँच गए हैं, परिस्थितियां कमोबेस ज्यों की त्यों है। आम आदमी अब भी उस अधूरे सपने को पूरे होते देखने की आस लगाए हुए है। एक अंतहीन प्रतीक्षा है उसकी। जैसे अनन्त काल तक की। कवि राज्यवर्द्धन सत्ता के इस सच को महसूस कर रहे हैं और उसे अपनी कविताओं में व्यक्त कर रहे हैं। पहली बार पर आज प्रस्तुत है कवि राज्यवर्द्धन की कविताएँ।
कबीर अब रात में नहीं रोता….
रचा जा रहा है–
अधूरा सच
फैलाया जा रहा है –
स्वप्निल आकाश में
झुरमुट शाम के वक्त
सुबह की लालिमा होने का भ्रम
कि सूरज तो बस अब उगने ही बाला है
छोडो अब
कौन जाए अलख जगाने
सुख–
अंधकार फैलाने में है
मिट जाता है जहाँ
सत्य असत्य
रूप अरूप का विभेद
‘विवेक‘ भी अब
जागृत नहीं होता
रहता है –
जानबूझ कर मौन
कबीर
अब रात में दुःखी नहीं होता
दुनिया के बारे में सोच कर
सोता रहता है
रात के अंधकार में
अलसाया
सूरज उगने की प्रतीक्षा में !!
5.30 केलोकल मेंसंसद केअधिनायक
तिल न धरने की जगह को
चरितार्थ करते हुए
ठुंसे हुए हैं– लोग
शाम की 5.30 की लोकल में
महानगर से सटे हर स्टेशन पर
बढ़ती जाती है भीड़
कंपार्टमेंट में
उतरने वालों से ज्यादा है
चढ़ने वाले
समुद्र का ढेव
ज्यों उतावला हो
लौट चला नदियों में
फलियोंकीतरह
लटकेहैंलोग
दरवाजेपरट्रेनके
खचाखचभीड़में
जयशंकरप्रसादकाछोटाजादूगर
आजभीदिखानाहै–जादू
माँकीइलाजकेलिए
छोटेभाईबहनोंकापेटभरनेकेलिए
आलपीन, सूई, रूमाल
लच्छा, फुदना, जेबर, गहना
खाने–पीनेकीचीजोंसेले कर
बच्चोंकेखिलाना
यहाँतककि
सपनेतककोबेचते
हॉकरोंकाहैअटूटसिलसिला
खरीदनेवालेसेज्यादाहैं–
बेचनेवाले
इतनीबड़ीपृथ्वीपर
इससेबेहतरऔरकोईठौरनहीं
डिब्बेमेंव्याप्तहै
डूयूडरेंटकेबजाए
महकतापसीना
ट्रेनसेउतरतेसमय
पुरूषरचितचक्रव्यूहसे
निकलनेकेप्रयासमें
घर्षितहोतीस्त्रियां
उत्तेजितनहींहोती
बल्कि नाकाम कोशिशकरतीहैं–
बनानेकासुरक्षाकवच
हथेलियोंसेस्तनकेऊपर
औरनिकलआतीहैं
तोड़ करचक्रव्यूह
भारतकेभाग्यविधाता
तुमक्योंभूलजातेहो
किकुम्हारकीचाकके
मिट्टीकेलौंदेनहींहैं
येचेहराविहीनआकृतियां
वरन्
संसदकेअधिनायकभीहैं!
बच गया लोकतंत्र
किताब के कुछ अंश पर
एतराज जताया
नैतिककतावादियों ने
उनसे सहमत हो कर
‘उन्होंने’
किताब से कुछ पन्नों को
निकाल देने का आदेश दिया
निकाल दिए गए
किताब से कुछ पन्ने
कट्टरपंथी मुल्लाओं
और पंडितों ने भी
किताब पर कुछ आरोप लगाए
‘उन्होंने’
फिर किताब से कुछ पन्ने
निकाल देने का हुक्म दिया।
हटा दिए गए किताब से
और कुछ पन्ने
क्षत-विक्षत हो गई
किताब
लेकिन बच गया
‘उनका’
— छद्म धर्म निरपेक्षता
— वोट बैंक और
— लोकतंत्र!
कवि हूँ इस धरा का
इच्छा नहीं है
क्षितिज के पार
जाने की
कवि हूँ
इस धरा का
मुहब्बत है उन लोगों से
जिन्हें प्रकृति भी
मदद नहीं करती
कमजोर समझ कर
बनना चाहता हूँ
उन लोगों की आवाज
प्रतिरोध के धीमे स्वर को
करना चाहता हूँ विस्तारित
क्षितिज के पार की दुनिया की चिंता
छोड़ दी है —
तथाकथित सर्वशक्तिमान के लिए
अध्यात्मिक-पुरूषों के लिए
परा-वैज्ञानिकों के लिए
खगोल-शास्त्रों के जानकार के लिए
इस बात का अफसोस नहीं कि
मेरी कविता में
क्षितिज के बाहर की दुनिया के लिए
कोई जगह नहीं
प्रार्थना के शब्द नहीं
दुआ में उठे हाथ नहीं
बनाना चाहता हूँ —
कविता को लेजर बीम
और सहायक
उन शक्तियों का
जो लगे हैं —
पृथ्वी को
और भी बेहतर बनाने के संघर्ष में।
छठ मइया तुम्हें सलामत रखे
एक दीप
हर दीपावली में
तुम्हारे नाम का
आज भी जला आती हूँ –
छत पर
रास्ता दिखाने
तुम्हारे हृदय तरंगों को
पता नहीं कब आ जाये
भूले भटके
आज भी तो हिचकी आई थी
खाते खाते
कहा माँ ने
कि कोई याद कर रहा होगा शायद
जानती हूँ –
तुम्हें छोड़ कर
इस धरा पर
कौन करेगा याद
हो सके तो आना
छठ पर्व में
सभी प्रवासी तो लौटते हैं –
अपने अपने घर
प्रतीक्षा करूंगी
गांगा के कष्टहरणी घाट पर
जहाँ पहली बार तुम्हें देखते हुए
दिया था अरघ/सूरज को
शायद नहीं
दिया था अपने प्रेम को
और कबूला था – एक ‘सूप’ तुम्हारे नाम का
लेकिन सभी कबूलती
स्वीकार तो नहीं होती
…… शायद कुछ खोट रह गयी होगी
मेरे नसीब में बदा था
प्रतीक्षा करना
राधा की तरह
जर जर हो रहा है तन
लेकिन मन तो
आज भी अटका पड़ा है
उसी घाट पर
जहाँ हुई थी तुमसे
पहली मुलाकात
यदि तुम नहीं आओगे
तो इस साल भी
दे दूंगी अरघ
तुम्हारे नाम का
और करुंगी दुआ कि
तुम जहाँ भी रहो
छठ मइया तुम्हें सलामत रखे!
साजिश
दिल्ली के लाल किले में
‘मुगलों के उत्थान-पतन की कहानी’ का
‘लाइट-साउंड’ कार्यक्रम देखते हुए
लगी थी प्यास
आज से पच्चीस साल पहले।
पिया था- मिनरल वाटर
पहली बार
आठ रुपये खर्च कर
अकचकाया था-दाम सुन कर
हँसा था –
हाथ में बोतल ले कर
कि चोंचले हैं अमीरों के
हिन्दुस्तान में यह सब नहीं चलेगा।
आज
मिनरल वाटर की बोतल लिये
करता हूँ सफर
अपरिहार्य रूप से
पता नहीं कहाँ व कब लगे प्यास?
मिनरल वाटर की बोतल भी शायद
हँसती हो
अमीरों के चोंचलों में जो
शामिल हो गया हूँ!
सुना है –
हर हाथ में बोतल की घोषणा की
साजिश में
रख दी गयी हैं नदियाँ गिरवी
अब नहीं मिलता है –
खेतों को पानी
और न ही मिलता है –
हाथों को काम!
संपर्क-
एकता हाईट्स, ब्लाँक-2/11ई,
56-राजा एस. सी. मल्लिक रोड,
कोलकाता-700032
पश्चिम बंगाल
ई-मेल : rajyabardhan123@gmail.com
मोबाईल – 09002025465
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की है.)