भरत प्रसाद की लम्बी कविता

भरत प्रसाद

कट्टरतावाद आज अपने नए रंग-रूप में हमारे सामने है उसकी चाहतें आज भी अपना वर्चस्व कायम करने की ही हैंइराक हो या फिर अफगानिस्तान, कोई भी देश या समाज उसकी हवस का शिकार बन सकता है। इस पूरी प्रक्रिया में न केवल वह देश बर्बाद होता है बल्कि वहाँ का जनजीवन बुरी तरह प्रभावित होता है। धर्म के नाम पर ये कट्टरवादी तत्व जो फरेब रचते हैं वह लोगों को मायावी सपने दिखाता है। ऐसे सपने जो अन्ततः विनाशक साबित होते हैं खतरनाक सपनों के इन मायावी शिल्पकारों की पड़ताल करते हुए युवा कवि भरत प्रसाद ने एक लम्बी कविता ‘बन्धक देश’ लिखी है जो आप सबके लिए प्रस्तुत है।  
      
भरत प्रसाद की लम्बी कविता
बंधक देश
(अपने ही देश में दर -बदर हुई ईराक की जनता को समर्पित)

तौल दिया है खुद को

गिरवी रख दिया है, उसने शरीर को  

बेंच डाली है आत्मा, मजहब के हाथों

तौल दिया है खुद को, खुदा के आगे
जी कर भी वह अपने लिए नहीं जीता
मर कर भी कभी अपने लिए नहीं मरता
सिर ले लेता है, खुदा के नाम पर
सिर दे भी देता है, खुदा के नाम पर
आत्मा क्या है- सैलाब है,
मचलते उन्माद का,
मस्तक क्या है – मोर्चा है
उजाले के खिलाफ युद्ध का।
अन्धा अनुगामी वह ख़ूनी खयालातों का
भीषण गुलाम है, अपने जज्बातों का

खतरनाक सपनों का मायावी शिल्पकार
दहशत का पुतला है, अमन का सौदागर,
इंसानियत की खुशबू को
रत्ती भर जाना नहीं,
अपनत्व की महक को
ठीक से पहचाना नहीं

आकाश को देखा अन्धकार की तरह
धरती को जाना युद्धभूमि की तरह
खाली – खाली खोखला
भटक रहा दिशाशून्य
जलता और जलाता हुआ
अपनी ही ज्वाला में
यहाँ, वहां, जहाँ -तहां
न जाने कहाँ कहाँ?
नाच रहा, भाग रहा अपनी ही सनक में।
कुचल कर मार ही डाला
सीधे -सच्चे एहसास
चुन -चुन कर रौंद डाला
जीती -जागती वेदना
नहीं बची एक भी पावन अनुभूति
भाप बन कर उड़ ही गया इंसानी स्वभाव
ह्रदय की तरह, हृदय धड़कता ही नहीं
मचलने की तरह, दिल मचलता ही नहीं
आँखें अब किसी के लिए नहीं रोतीं
इच्छाओं में नाचती है सर्वनाश की भूख
सपनों में जलती हैं, अनगिनत चिंताएँ  
बेदर्द इतना कि मुर्दा भी फेल है
भूल चुका है वह, आंसुओं की भाषा
भूल गया है, गूंगे की पुकार
खो दिया है उसने, विलाप सुन कर सिहर जाना
खो चुका वह, आदमी के काम आना
रत्ती भर शेष नहीं, पश्चात्ताप का भाव
रेशा – रेशा उड़ चुका है, निर्माण का स्वभाव
अंधी है बेतरह, भीतर वाली आँख
मानस में घहराती केवल सियाह रात।
धंसा और धंसता हुआ
खून भरे दल-दल में
फंसता और फंसाता हुआ
भीषण मायाजाल में
जहरीले खेलों का अव्वल ख़िलाड़ी है।
आग, आग, आग
केवल आग का पुतला वह
खो चुका यकीन है
अपने ही लोगों से
अंग-अंग दहक़ रही
प्रतिशोध की चिंगारी
एक – एक कदम इसके बम से भी घातक हैं
एक – एक सोच इसकी
भूकंप से विनाशक है।
इसमें अब शेष कहाँ?
विचारों की सुगंध
रत्ती भर बाकी कहाँ?
दिल का अस्तित्व
उजाले से मानो सौ जनम की दुश्मनी हो।
फोड़ डालीं आँखें ही, अपने विवेक की
भीतर ही रौंद डाला, अपना ईमान
खा ही डाला आखिरकार 
इंसान होने का अर्थ।
तनी हुई नजरें, बन्दूक से भी घातक हैं
कारनामों का मायाजाल, अमावस्या से भयावह है
कौन सी प्रजाति पैदा हो चुकी है पृथ्वी पर
जिसका दुस्साहस,
सारी दुनिया पर भारी है।

हत्यारे सपनों का कुशल शिल्पकार है

हिंसा के उत्सव, पागल नृत्यकार वह
हत्यारे सपनों का कुशल शिल्पकार है
पल -पल वह गढ़ता है, ख़ूनी ख्यालात
मस्तक में नाच रहे बारूदी जज्बात
सीमा से बाहर है, इसे समझ पाना
बुद्धि से परे है, इसे बूझ जाना
पृथ्वी पर श्मशानी तांडव का सूत्रधार
एक सनक एक जिद्द, ह्रदय पर सवार है
इसीलिए बार-बार
कर रहा प्रहार है
पलट देगा प्रगति
और उलट देगा संस्कृति
सभ्यता की धारा को मोड़ देगा पीछे
हजारों साल पीछे, हमें खींच कर ले जाएगा
खड़े-खड़े प्रलय भरी आँखों के बूते वह
झुक कर दो हाथों पर
चलना सिखाएगा।
उछल रही मचल रही
मन में आशंका क्यों?
चारों ओर गूंज रही, अमानव की आहट
जिसकी पदचाप में मृत्यु का तनाव है
जिसके अंदाज में, मिटाने का भाव है।
सावधान विश्व!
यह मानव की नस्ल नहीं
इसकी करतूत तो दानव से बढ़ कर है
क्रूर कारनामों का ऐसा है सूत्रधार
जिसकी मिसालें इतिहास पर भारी हैं
उन्मादी सांचे में,
ढला हुआ बुरी तरह
मजहब की म्यान में सोती तलवार है
सहना आघात इसका
छटपटा कर मर जाना
और क्या विकल्प है, जनता के सामने?
और अभी कितने बरस
और अभी कितनी बार
मासूम चेहरों की होलिका जलेगी?
सत्ता और शासन के ख़ूनी शतरंज में
कितनी और माओं की
अस्मत लुटेगी?
प्रश्न – प्रश्न और प्रश्न
दहक रहे चारों ओर
कौन है सिद्धार्थ, जो इस आग को बुझाएगा?
दिशा – दिशा नाचती
इस विप्लव की आंधी में
कहाँ है वह रास्ता?
जो हार चुके आदमी को
उसके घर तक ले जाएगा –
देखो अपने चारों ओर
नजरें घुमाओ जरा
पड़ चुका अकाल है, सीधे साफ़ उत्तर का।

 

देश की हरियाली को लकवा मार गया है

समूचे आकाश को खा गयी है धूल
अन्धकार निगल गया है दिशाओं को
क्षितिज का कोना-कोना
काली धुंध के चंगुल में फंसा हुआ
आतंक की माया इस कदर
कि देश की हरियाली को लकवा मार गया है।
विकलांग होने लगे हैं, धरती के बीज
बंजर हो चली है, मिट्टी की कोख
इतनी उदास सुबहें कभी नहीं रहीं
हवाओं की आत्मा से, रहस्यमय आह झरती है
इस देश में आते ही
सूरज भटक जाता है
कहीं किसी कोने से कांपते हुए उठता है
न जाने किस ओर औंधे मुंह गिरता है
यहाँ पानी से गायब होने लगा है पानीपन
वे खोने लगे हैं, प्यास बुझाने का स्वभाव
यहाँ खून के आगे, उनका स्तर भी कम होने लगा है
फिजाओं में सनसनी का पहरा है
वर्षों -बरस की तरह बीतते हैं दिन
काट खाती है बर्फीली शांति
मौत कदम -कदम पर नृत्य करती है
गर्दनें उड़ा कर यहाँ पेट भरने वालों ने
भूख की परिभाषा ही बदल दी है
बावजूद इसके, बेमौत मरने वाली जनता को
अन्न की ही भूख लगती है
जीने की चाहत यदि रत्ती भर बाकी है
तो चुपचाप गुलाम बन जाओ
न पूछना कोई सवाल, न टालना इनका हुक्म
खैर मनाओ कि जानवर नहीं ठहरे
वरना धड़ अलग करने से पहले
यहाँ पूछा भी नहीं जाता
कि तुम्हें खुदा मंजूर है या ….?
यहाँ हथियारों के अतिरिक्त
किसी का शासन नहीं चलता
बंदूकों के अलावा
किसी की आवाज नहीं उठती
गोला – बारूद के सिवा
किसी का सिक्का नहीं चलता
इस देश में,
पक्षियों ने उड़ना बंद कर दिया है
उनके सांस लेने लायक अब आकाश ही कहाँ बचा?
क्षण-क्षण पास आती हुई
मौत के भय से भूख तो गायब है
मगर दम पर दम
अन्न – अन्न पुकारती
बच्चों की आँखों का क्या करें?
भूख से बिलबिला कर
पानी-पानी मांगते उनके विलाप का क्या करें?
रोम-रोम से उठती
भूख-प्यास की आग ने
इनकी मासूमियत को अँधा कर दिया है
पशु -पंछी की तरह कहीं भी
पानी पीने का दृश्य चारों ओर
बूचड़खाने में तब्दील हो चुका है
पूरा देश
आत्मा चीत्कार उठती है, इसकी सीमाओं में
समुद्र की तरह मथती है
माटी के प्रति दीवानगी को
मारना ही होगा,
दबाना ही होगा, वतन के प्रति धधकती आग
नस-नस में निरंतर
यह जो स्वदेश बहता है
त्यागना ही होगा अपना स्वभाव
रोम-रोम में मचलते
सारी माताओं का ऋण, मिल कर भी
मातृभूमि की बराबरी नहीं कर सकते
अपनी धरती से जुदा होने की हूक
हड्डियों में खून जमा देती है
चाहत कुछ इस कदर
कि अपने आकाश से
आँखें मिलाने की हिम्मत ही नहीं बची
बिछुड़ने से पहले
नदियों, तालाबों, दरख्तों, पगडंडियों से
और भी न जाने किस-किस से
बच्चों की तरह लिपट कर
रोने को जी…..।
लो! छोड़ती हूँ अपना वतन
भागती हूँ अपनी जमीन से
नहीं मांगूगी अपने लिए दया
प्राण की भीख मांगने के लिए
झुके मेरी गर्दन, तो काट लेना उसे
बस, बक्स दो फसलों की हरियाली
दाग़ मत लगाना देश के दामन में
उसके अस्तित्व पर आघात मत करना
जरा भी कहीं भी, किसी कोने से
यदि रत्ती भर आदमी हो, तो
जरा सोचना,
अपने अंधेपन के अंजाम के बारे में।
तुम्हारी गोली से मरने वालों की आँखों में
कभी देखा है अपना चेहरा?
कभी पढ़ी है खून में डूबे हुए
आंसुओं की नफरत?
कभी सुना है मृत्यु के पहले
दहकते हुए दिल का धिक्कार?
कभी जाना है- गोली खा कर शरीर का छटपटाना?
यदि नहीं,
तो मुझे तुम्हारे जिन्दा होने पर संदेह है।
कभी आईने में देखना अपना चेहरा
आँखों में आँखें डाल कर
पूछना अपने आपसे,
मासूम बच्चों को जिन्दा गाड़ देने वालों को
क्या कहा जाता है?
गुलाम बन कर पैदा हुई औरत को
गुलाम बनाने वाला
इतिहास में क्या स्थान पाता है?
पशुओं की तरह कतार में खड़े करके
अनगिनत सैनिकों को भून देने वाला
आदमी कैसे हो सकता है?
धर्म के नाम पर
ग़ैर मजहब के बन्दों से
सियासत का खेल खेलने वालों के लिए
सटीक शब्द ही नहीं बना
नस-नस के भीतर से आज न जाने क्यों
धर्म के खिलाफ बगावत उठने लगी है।
नफरत, नफरत, नफरत
मगर पास आओ, मेरे पास आओ
जी भर कर पहचान तो लूं -वतन के हत्यारों को
मिलाओ मुझसे निगाहें
ताकि बता सकूँ औरत होने का अर्थ
उतर सकूँ अपने अंदाज में, तुम्हारे भीतर
धंस जाऊं, समा जाऊं, फ़ैल जाऊं
तुम्हारी हड्डी-दर-हड्डी में
तुम्हारे खिलाफ कैसे मैं क्या करूँ?
कि लाखों घावों से मुक्त हो कर
उठ खड़ा हो मेरा देश।
सत्ता की सनक में
बच्चों-बूढ़ों को लूट- मार कर
जूतों का गुलाम बनाया
हम चुप रहीं
हमारे ही साथ, हजारों विधवाओं को
अपनी हवश का शिकार बनाया
हम चुप रहीं
दासों की तरह जंजीरों में बांध कर
हमारी मां-बहनों को
भरे बाजार बेंच डाला
फिर भी हम चुप रहीं
मगर सावधान!
बेटिओं की आबरू को लूट कर
नृत्य करने वाले
हमारे मरते दम तक
अपने-अपने प्राण बचाने के लिए
अपने खुदा से दुआ करना।
हटाओ, हटाओ ये पर्दा
बोझ बन चुका है मेरे चेहरे पर
दम घुटता है इसके भीतर
यह सैकड़ों गुना दुखदायी है
जेलखाने से,
तुम्हारी खींच दी गयी सीमाओं में
छटपटा कर मर जाना हमें बर्दाश्त नहीं
टूक-टूक कर देना है
तुम्हारी बनायी हुई हदें
हम औरतें अमन की बेटियां हैं
हथियारों की टंकार से घृणा है हमें
खोना नहीं चाहतीं धैर्य का स्वभाव
ताकत के नशे में पागल हो कर
हमारा कभी इम्तहान मत लेने
औरत तभी तक औरत है
जब तक वह सीमायें नहीं तोड़ती
वरना वह तो बाढ़ की लहर है
सुलगती हुई मशाल
हथियार की धार में छिपी हुई चिंगारी
प्रेम की तरंग में सोयी हुई बिजली
मानव-सृष्टि की प्रस्तावना
औरत तो अपने आप में
मनुष्यता के शिखर की
गुमशुदा नींव है
सांस-दर-सांस
लड़ाई से नफरत करते हुए भी
लड़ेंगे हम
उठाएंगे हथियार,
ठीक तुम्हारी तरह
अपनी कठोरता के आगे
इस्पात को भी फेल कर देंगी
कद-काठी से औरत होकर भी
तुम्हारे सर्वव्यापी भय के सामने
हम घुटनों के बल झुकेंगी नहीं
तनी हुई रीढ़ के बल खड़ी होंगी।
सूफियों, दरवेशों की धरती
थर्राने लगती है आजकल
नदियों की शरीर से खून बहता है
रात के सन्नाटे में
सांय-सांय सिसकती हैं दिशाएं
पठार, पहाड़, मैदान
अपनों को खो-खो कर
मातम मनाते हैं।
पराये देश के पत्रकारों,बुद्धिजीवियों का
क्या था इस देश से रिश्ता?
जिसने गूंगी जनता की छटपटाती
आत्मा को बुलंद करने के लिए
अपनी साँसें ही कुर्बान कर दीं
खुद से पूछना कभी
अपने देश का कौन होता है?
वह जो उसके आंसुओं को जीता है,
या फिर वह
जो उसका खून पीता है?
न्याय की चाहत में
गिरे हुए खून की एक-एक बूँद अमर है
वह उगा देती है, भविष्य के रक्तबीज
खड़ा कर देती है
प्रतिरोध के लिए झूमती हुई फसलें
देश के लिए
देश की मिट्टी में मिला हुआ लहू
यूँ व्यर्थ नहीं जाता।

भविष्य का प्रातःकाल………  
                                                               
हम तो क्या, हमारा बच्चा-बच्चा
हमारी आने वाली पीढ़ियाँ
नस्लें-दर-नस्लें
दीवार बन कर खड़ी होंगी
तुम्हारी हुकूमत के खिलाफ-
अमन की हिफाजत में।
तुम्हारे वश का नहीं होगा
मशालों का रुख मोड़ पाना
निगाहें थक जायेंगी
चट्टानों की गिनती करते-करते
आज अन्धकार की बेला है
चला लो मनमाना क़ानून
लगा लो बाजी,
भविष्य का प्रातःकाल हमारा होगा।
जमींदोज होगी इसी मिट्टी में
तुम्हारी भी पहचान
मिट ही जाएगा एक दिन
तुम्हारा वजूद
विलुप्त होता है – कभी न कभी
आकाश छूता ज्वार
याद रखना
तुम्हारी संतानों की नजरें
तुम्हारा नाम लेते ही
शर्म से झुक जाएँगी
तुम्हें भी पता है कि
बार-बार चुभते हुए कांटे का हश्र
क्या होता है?
घात लगा कर काटने वाले सांप के साथ
कैसा व्यवहार होता है?
रोड़ा बन कर अड़ा हुआ पत्थर
कहाँ फेंका जाता है?
और आँख में पड़ा हुआ कीड़ा……..
याद रखना, एक न एक दिन
मेरे देश के चमन में
आजादी की फसल लहलहाएगी
जंगल की तरह उठ खड़े होंगे
उम्मीदों के दरख़्त
मेरी धरती की छाती
बेदाग होकर रहेगी
किसी भी दूधिया आँखों में
दहशत का नामोनिशान नहीं होगा
धरती को चूम लेने के लिए
झुके ही रहेंगे नौजवानों के मस्तक
खुली रहेंगी बाहें
सरहदों को गले लगाने के लिए।
आज मेरे देश की गुलामी
रगों में बहता हुआ शीशा है
वज्र बन कर टूटा हुआ दुर्भाग्य
कलेजे के आर-पार कोई तीर
मेरा देश
मेरे ज़िगर का टुकड़ा है
और मैं उसकी धूल
मेरे जीवन से कई गुना बढ़ कर है मेरा देश
वह तो मेरी आत्मा की खुशबू है
सपने में भी
इस देश को गुलाम बनाने की सोचना
अपने ही हाथों अपनी जड़ खोदना है।

(दिसंबर – २०१४)

सम्पर्क-
मोबाईल- 09863076138
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

भरत प्रसाद की कविताएँ

भरत प्रसाद

‘आदमी होने के तमाम ऋण होने’ को बिरले ही पहचान पाते हैं भरत प्रसाद ऐसे संवेदनशील युवा कवि हैं जिन्होंने अपने इस दायित्व को पहचाना है शायद यही वह भाव है जिससे यह कवि साहसपूर्ण ढंग से यह कह पाया है कि ‘उठ गया है यकीन, अपने ही फैसलों से/ नफ़रत हो उठती है- अपने रेडीमेड मकसद से‘ आज जब लोग अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए तमाम दाँव-पेंच करने से नहीं चूकते तब कवि को सहसा अपने ही रेडीमेड मकसदों पर सन्देह हो आता है आत्मश्लाघा वाले दौर में हम सबके लिए यह एक आश्वस्ति की तरह है ऐसे ही आश्वस्ति वाले कवि भरत प्रसाद की कविताएँ प्रस्तुत है आप सब के लिए        

भरत प्रसाद की कविताएँ 

मैं कृतज्ञ हूँ

मैं कृतज्ञ हूँ उन शब्दों का
जिसने मुझको गढ़ा- तराशा,
तोड़ा-मोड़ा, जिंदा रक्खा,
मैं कृतज्ञ हूँ उस माटी का
जिसने मुझको सांसें सौंपी
पाला-पोसा, बड़ा कर दिया
मैं कृतज्ञ हूँ उन फसलों का
जिनकी ममता, जीवन बन कर
मेरी रग में दौड़ रही है।

धूप-छाँव, सन्ध्या-प्रभात का
सर्दी, गर्मी, वर्षा ऋतु का
मद्धिम, तेज हवाओं का भी
अंग-अंग पर कितना ऋण है?
तन में घुस कर, घुल कर, मिल कर
मन में कितना राग भर गयीं?

जाने कितने पीपल, बरगद?
जाने कितने जन्तु, जानवर?
जाने कितने पतझड़ मौसम?
जाने कितनी शुष्क झाडि़याँ?
शिल्पकार हैं इस शरीर की।

आँखों के आँसू पर मेरे
जीवित गुमनामों का ऋण है,
चेहरे की जुबान पर मेरी
गूंगी आत्माओं का भार?
आभारी है दिल की धड़कन
आज उमड़ता ऋण का ज्वार।

जड़-चेतन का, वन-पर्वत का
समतल-उबड़-खाबड़, बंजर
घाटी, मरूथल, बियावान का
रोम-रोम से कर्जदार हूँ
साँस-साँस से मैं कृतज्ञ हूँ,
मैं कृतज्ञ हूँ –
मैं कृतज्ञ हूँ।

और उम्र चाहिए

नहीं है संतोष, अपने जीने के अंदाज से
नहीं है सुकून, अपनी शरीर की चाल से
उठ गया है यकीन, अपने ही फैसलों से
नफरत ही उठती है- अपने रेडीमेड मकसद से
अपने विश्वास से
बगावत करने का जी करता है।
अंग-अंग विद्रोह करते हैं
मन की गुलामी से
पक चुकी है आत्मा
बुद्धि की मनमानी से
बढ़ई की तरह
खुद को गढ़ने का जी क्यों करता है ?
अनसुना ही करता रहा
गुलाम कदमों का विलाप
पीछा छुड़ा कर भागता रहा
अपनी ही दृष्टि से
जीवन भर भुलाता रहा
अन्तर्मन के सवाल
सीमाओं से आजाद होने को
तड़प उठता है हृदय।
बीत रही उम्र
ज्यों हार रहा हूँ युद्ध
बीत रहा है जीवन
ज्यों भागता है कायर।
पृथ्वी को अपने भार से
मुक्त करने के पहले,
उतार देना चाहता हूँ
आदमी होने के तमाम ऋण
इस जहाँ के पागलपन में
बहा देना चाहता हूँ
रोवां-रोवां से जीवन भर के आँसू
फिर हमें कहाँ मिलेगी?
इतनी बेजोड़ पृथ्वी
चाहिए ही चाहिए,
हमें और उम्र चाहिए
ताकि मैं
जी भर कर पछता सकूँ
खुद को दण्डित कर सकूँ
धिक्कार सकूँ
बदबू की तरह बस्साते
अपने जहरीले कर्मों पर
हिक्क भर थूक सकूँ।

              

इस प्रभात में

जीवन में पहले दिन की तरह आता है
प्रातः काल
देखो, तो किसकी मुस्कान पा कर
जी उठता है दिक्-दिगन्त?
इस सुबह के लिए ही
धरती के नाचने का रहस्य
अब समझ में आया
कूट-कूट कर भरा है इस रोशनी में प्राण
इसके अणु-अणु में भरा हुआ है अमृत रस
पृथ्वी तो क्या ? समूचे ब्रह्माण्ड में
असम्भव है जीवन इसके बिना।

प्रकाश के महामौन में छिपी है
धरती के हरेपन की गाथा
समाया हुआ है इसमें
समुद्रों, नदियों की मानवता का इतिहास
मानव-सृष्टि अपनी प्रत्येक सांस के लिए
इस प्रकाश की ऋणी है।
धीरे-धीरे बीज, कैसे बन गये वृक्ष?
चुप्पी साधे फूल, कैसे बन गये फल?
अरे, अरे! पृथ्वी के दूधिया दाने
अन्न में कैसे तब्दील हो गये?
आइए, पूछते हैं रोशनी से इसका रहस्य
कण-कण में संजीवनी की तरह उपस्थित
इस सृष्टिकर्ता का जादू
बार-बार क्यों बजता है?

आँखें ही नहीं,
बुद्धि, विवेक और आत्मा भी अंधी हो जाती है
रोशनी के बग़ैर
रूह की खुराक है यह
जान में जान फूंकने वाली उर्जा
चेतना की जननी,
तन-मन को समर्पित यह रोशनी
ईश्वर से कई गुना ईश्वर है।
ब्रह्माण्ड के कोने-कोने को
जीत लेने वाली यह रोशनी
मनुष्य के हाथों रोज-रोज मर रही है
खत्म हो रहा है इसमें जीवन बोने का जादू
हमारा अंधकार पराजित करने लगा है इसे
सचमुच पीला पड़ने लगा है इसका शरीर
सुन सको तो ग़ौर से सुनो
रोशनी भीतर से टूट रही है,
खो रही है ममता
सिर्फ एक पृथ्वी के आगे
घुटने टेकते हुए
मानो दसों दिशाओं में चीख रही है।
 

                          
आओ! मुझमें साकार हो जाओ

तुम्हारे माथे का पसीना
हमारे हृदय में खून की तरह चूता है
तुम्हारी मात खाई हुई आंखें
ललकारती हैं हमें,
काठ हो चुके चेहरे का मौन
हमें अपराधी घोषित कर चुका है,
मस्तक पर जमी ही रहती थी,
पराजय-दर-पराजय
लहूलुहान ही रहता था
घाव खाया हुआ हृदय-
हमारी माँ जैसी माओं वाला माईपन
तुम्हारी माँ भी था
वैसी ही सिधाई
बछड़े के लिए हूबहू गाय जैसी डंकार
सन्तान के ऊपर
अग-जग को न्यौछावर करने वाली
वैसी ही अहक,
भाई !
किस कलेजे से सहते थे ?
बंधुआ कहलाने का दर्द
किस हिम्मत से पीते थे ?
अछूत कहलाने का अपमान
वह कौन सी बेवशी थी ?
जिसने तुमसे तुम्हारी जुबान ही छीन ली
अपनी कद-काठी से
आजीवन दुश्मन की तरह पेश आने वाले
तुम किस मिट्टी के बने थे- सुक्खू?
घर-गृहस्थी के हर मोर्चे पर
एक योद्धा से बढ़ कर लड़े
रोजी-रोटी की महामाया में
खुद को नचा मारा,
तुम्हारी अकाल मौत से
खुद के खूनी होने की आहट
क्यों सुनाई देती है ?
आओ ! अपनी मौत के बाद
मुझमें साकार हो जाओ,
जी उठो मेरे आत्मधिक्कार में
उठ बैठो मेरे वजूद में
पुकारो मेरी बहरी हो चुकी आत्मा को
चूर-चूर कर डालो मेरा पत्थरपन
आओ जिलाओ मुझे
आओ……….।



मैं हार-हार जाता हूँ
झटक कर फेंकना चाहता हूँ
पल-पल दबोचते हुए हजारों भय
इन्कार करना चाहता हूँ
जोर-जुगाड़ से मिला हुआ, एक-एक मुकाम,
लो, वापस लौटाता हूँ
बे-सिर पैर की तारीफें
जो मुझसे स्वार्थ साधने के एवज में मिलीं
सीखना ही है मुझे, पानी पीने के लिए-
कुआं खोदने की कारीगरी।
बेखौफ हो कर धरती पर नाचते
 मज़हबी जुनून को देख कर
सिर फोड़ लेने का मन करता है,
दिल करता है, शूल बन कर धंस जाऊँ,
दहशतगर्दीं के सीने में,
हर कट्टरता को सरेआम
नंगा कर देने का जी करता है।
अंधकार के खिलाफ जि़द में,
मुझे कोई हिला कर तो देखे,
नहीं झुक सकता,
मायावी चेहरों के खिलाफ
मेरा तना हुआ माथा
अब नहीं बुझने वाली
खूनी भेदभाव के विरूद्ध
उठी हुई चिंगारी
अपने भीतर के इंकार को मार डालना ही
असली मृत्यु है।

मगर, अवाक् रह जाता हूँ
मौत से पहले
बेख़ौफ हो कर चमकती
बेकसूर आदमी की आँखें देख कर,
टूट कर बिखर जाता हूँ
लाखों टूटते हुए कदम देख कर
लरज जाता हूँ
अंग-अंग से बहने को बेताब
अपने ही आँसुओं की सिहरन से,
सह नहीं पाता
दंगे में परिवार खो चुके
एक भी लावारिश बच्चे का विलाप
मुझे तोड़ देने के लिए
भय से गूंगा हो चुका एक चेहरा ही काफी है,
मुझे पता है
मैं अपनी मौत से नहीं मरूँगा
कभी मरती हुई नदियाँ,
कभी मरते हुए जंगल
कभी गुलाम-दर-गुलाम होती हुई पृथ्वी
कभी पसीने से तरबतर चेहरे पर
मुरझाई हुई मानवता,
इस पर भी लम्बी उम्र जीने का कायरपन
मुझे बार-बार मारेगा।

कहाँ हैं आँखें ?

आँखें ?
कहाँ हैं आँखें ?
असलियत इनसे दिखाई देती है क्या ?
मन के अंधेपन की गुलाम हैं ये
खुदगर्जी की पर्तों से ढंकी हुईं
आवारा इच्छाओं की दासियां
कौन कहता है- आँखें देखती हैं ?
कौन कहता है- आँखें हमें अंधा नहीं करतीं?
हमारी आँखें, क्या अंधे की आँखें देख पायीं?
क्या देख लिया हमारे भीतर का नाटक?
क्या समझ लिया जीवन में रात-दिन का खेल?
आँसुओं के बहाने किसी के खून रोने का रहस्य
ये आँखें क्या जाने?
सही वक्त पर
ये कितना कायर हो जाती हैं?
जानने लगा हूँ
सर्वनाश से भरी हुई इनकी अदा
पहचानने लगा हूँ-
छिपाने की तमाम कोशिशों के बावजूद
पकड़ में आ ही जाती है इनकी चाल
फुफकार से भरी हुई आँखों की शालीनता
कितनी भयानक होती है?
आकाश को भूख की तरह
पुकारने वाली आँखें कहाँ गयीं?
कहाँ गयीं वे आँखें,
जो मिट्टी की पुकार सुन कर पागल हो जाती थीं
कण-कण में प्राण खोजने वाली निगाहें
कहाँ खो गयीं ?
धरती खाली हो रही है
दिवानी आँखों से;
निकाल लो अपनी आँखों से
सिर्फ अपना ही अपनापन
देखो तो, वक्त से पहले
कितना बूढ़ी हो चली हैं आँखें?
रात-दिन के पीछे, मौत की आहटें
चुपचाप सह लेने वाली निगाहों को
अभी, इसी वक्त बदल डालो।


सम्पर्क- 

मोबाईल- 09863076138

भरत प्रसाद की सुरेश सेन निशान्त से बातचीत

सुरेश सेन निशान्त

कविता के क्षेत्र में आज अनेक महत्वपूर्ण कवि सक्रिय हैं। सुरेश सेन निशांत ऐसे ही कवि हैं जो सुदूर हिमाचल के पर्वतीय अंचल में रहते हुए भी लगातार सृजनरत हैं। उनकी कविताएँ चोंचलेबाजी से दूर उस सामान्य जन की कविताएँ हैं जो लगातार हाशिये पर रहा है। निशान्त में उस हाशिये को जानने की एक ललक दिखाई पड़ती है। जो उनकी कविताओं में स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ती है। ‘वे जो लकडहारे नहीं हैं’ नामक उनका कविता संग्रह काफी चर्चित रहा है। ऐसी ही जमीन के कवि सुरेश सेन निशान्त से एक बातचीत की है युवा कवि-आलोचक भरत प्रसाद ने। आइए रु-ब-रु होते हैं हम इस बातचीत से।   
भरत प्रसाद की सुरेश सेन निशान्त से बातचीत
भरत प्रसाद :- हिन्दी कविता की मौजूदा गति, प्रगति और संभावना को आप किस रूप में देखते हैं? हताशाजनक, उत्साहवर्धक या आश्चर्यपूर्ण उम्मीद से भरी हुई।
सुरेश सेन निशान्त :- जहां तक कविता की वर्तमान अवस्था की बात है मैं उससे पूरी तरह आशान्वित हूँ। यह ठीक है कि कविता को एक वर्ग द्वारा दुरूह यानि गद्यनुमा बनाने के प्रयत्न हो रहे हैं और उसे ही कविता मानने व मनवाने की कवायद भी चल रही है। कुछ आलोचकों द्वारा उसे प्रशंसित व पुरस्कृत भी किया जा रहा है, पर इसके बीच भी कुछ लोगों द्वारा अच्छी कविता लिखी जा रही है …. पढ़ी जा रही है और सुनी जा रही है …. ऐसे कवि अभी भी हैं जो अपने श्रम और रियाज से ऐसी कविता रच रहे हैं जिसमें वे कविता की आंतरिक लय का क्षरण नहीं होने दे रहे हैं …. इसे चाहें तो त्रिलोचन, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल जी की कविताओं में देख सकते हैं। उसके बाद अगली पीढ़ी के कवियों में विजेन्द्र, भगवत रावत और केदारनाथ सिंह में यह लय देखी जा सकती है। थोड़ा आगे चलने पर राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा हैं। कुछ और आगे बढ़ें तो एकान्त श्रीवास्तव, मदन कश्यप, कुमार अम्बुज, अरूण कमल हैं जो हमारे लिए आदरणीय और अनुकरणीय हैं, जिन्होंने कविता को अपनी शर्तों पर जिया और जन तक पहुंचाया है। इनकी कविताओं का पाठ लोगों को कविता की दुनिया में रूकने के लिए मजबूर करता है … मैंने अनेक बार इन कवियों की कविताओं का पाठ लोगों के बीच किया है, खासकर ग्रामीण जनों के बीच। उन लोगों ने इनकी कविताओं को समझा और सराहा है। अच्छी कविता के प्रति उनकी ललक देखते ही बनती है। मैंने अपनी कविता की किताब वे जो लकड़हारे नहीं हैं”  की लगभग 200 प्रतियां खुद जन के बीच जा कर बेची हैं …. अगर वे कविता के पाठक न होते तो वे मेरी किताब क्यों कर खरीदते? एक और बात हम कवियों को भी ये सोचना होगा कि हमें अपनी रचना को लोगों तक कैसे पहुंचाना है और इसके बारे में गम्भीरता से सोचना होगा ….. अगर पाठक कविता के पास नहीं पहुंच पा रहे हैं तो कविता को जन के पास पहुंचने की तरकीबें और रास्ते ढूंढने होंगे। ये रास्ते किसी दिल्ली, भोपाल या पटना जैसे बड़े शहरों से नहीं निकलेंगे बल्कि हमें अपने जनपद में ही ढूंढने होंगे।
                   मैं अपने जनपद में पहल, वसुधा, कथादेश, बया, कृतिओर, जनपथ, नया पथ, आकण्ठ, पक्षधर, समयान्तर, वर्तमान साहित्य जैसी अनेकी पत्रिकाओं का वितरण करता हूँ, जागरूक पाठकों के पास बार-बार जाता हूँ, उन्हें पढ़ने के लिए उकसाता हूँ। मैंने देखा है कि लोग अच्छी रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं, अच्छी पत्रिका खरीद कर पढ़ते हैं। शिमला में यही काम एस.आर. हरनोट जी कर रहे हैं। ये मैंने उन्हीं से सीखा है कि हमें अपने जनपद में पाठकों को ढूंढना होगा, पढ़ने-पढ़ाने का एक नया माहौल बनाना होगा, तभी हमारे लिखने का कुछ फायदा है।
 भरत प्रसाद :- अपनी रचना-यात्रा में वे कौन से मूल कारण रहे, जिसने आपको कविता के लिए उकसाया, प्रेरित किया या मजबूर किया। सृजन का निर्णय आपके स्वभाव के कारण है या योजना के तहत लिया गया फैसला?
 
सुरेश सेन निशान्त :- जब मैं आठवीं में पढ़ता था तब पहली कविता लिखी …. अपना एक दोस्त था शंकर उसे शर्माते हुए दिखाई …. उसने कहा यार इसे छपने के लिए भेजो और उसी ने जनप्रदीप” नामक दैनिक अखबार में छपने के लिए भेज दी और वह छप गई …. कक्षा के विद्यार्थियों ने वह कविता हिन्दी की प्राध्यापिका को दिखाई, भले ही वह कविता अच्छी नहीं रही हो पर उन्होंने मेरे कवि होने पर बहुत खुशी जताई। दसवीं के बाद डिप्लोमा करते हुए गजलें लिखने लगा …. गजलें इधर-उधर छपने भी लगीं। मुझे स्थानीय कवि सम्मेलनों में बुलाने भी लगे। मैं सोचता था बस इतनी भर ही है यह साहित्य की दुनिया …. उन्हीं दिनों 1990-1991 की बात है मुझे एक कवि सम्मेलन में किसी ने पहल”  पढ़ने के लिए दी। पहल”  को पढ़ना, उसके बीच से गुजरना एक अद्वितीय अनुभव था …. मैं आज की कविता की बनक और उसका असर देखकर हैरान रह गया। मैं पहल”  के माध्यम से ही केदार नाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन जी के पास पहुंचा। उन्हीं दिनों मुझे केदार नाथ अग्रवाल जी का कविता संग्रह फूल नहीं रंग बोलते हैं”  हाथ लगा ….. उसकी भूमिका पढ़ कर मैं अभीभूत हो गया। मेरी बहुत सी शंकाओं का समाधान उस किताब की भूमिका ने कर दिया। मैंने लगभग पचास बार उस भूमिका को पढ़ा होगा …. जैसे उस भूमिका ने मुझे निराशा के गहन अन्धेरे से निकाल कर नईं रोशनी में बिठा दिया हो। भूमिका कुछ इस प्रकार थी बहुत पहले जो मैं लिखना चाहता था वह नहीं लिख पाता था, कठिनाई होती थी। कविता नहीं बन पाती थी। कभी एक पंक्ति ही बन पाती थी। कभी अधूरी ही पड़ी रह जाती थी। तब मैं अपने में कवित्व की कमी समझता था। खीझ कर रह जाता था। औरों को धड़ल्ले से लिखते देख कर अपने उपर क्षुब्ध होता था। मौलिकता की कमी महसूसता था। तब मैं यह नहीं जानता था कि कविता भीतर बनी-बनाई नहीं रहती। मैं समझता था कि वह कवि के हृदय में-मस्तिष्क में सहज-संवरे रूप में पहले से रखी रहती है। प्रतिभावान कवि उसे भीतर से बाहर ले आता है। कितना गलत था मेरा विचार, कितनी गलत थी मेरी मौलिकता की धारणा। “ कई सालों तक उनकी भूमिका की ये पंक्तियां मैंने अपनी पढ़ने की मेज के शीशे के नीचे रखे रखी। इन पंक्तियों के पीछे छुपी सृजन की तपिश मुझे आज भी हौंसला देती रहती है।
पहल” में छपी  समीक्षाओं के माध्यम से मैंने जाना कि मुझे कौन सी किताबें पढ़नी चाहिए। मैंने राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, विजेन्द्र, आलोक धन्वा, कुमार अम्बुज और एकान्त श्रीवास्तव को पढ़ा। कविता की तमीज सीखने की कोशिश की ….. इन्हीं लोगों की कविताओं ने कविता की दहलीज पर जैसे मेरा स्वागत किया ….. मेरे अन्दर बैठे कवि को पोसा उसका हौंसला बढ़ाया। पहल”, कृति ओर”, आकण्ठ”,  साक्षात्कार”  (सोमदत्त जी के सम्पादन में निकलने वाली),  दस्तावेज”,  वसुधा, कथादेश”,  वागर्थ”  जैसी पत्रिकाओं ने मेरे कवि संस्कारों को ठीक ढंग से पोषित किया और एक माँ की तरह मार्गदर्शन भी किया …. जहां तक कविता में उतरने की बात है वह हर कवि के स्वभाव, उसके व्यक्तित्व की कैमिस्ट्री में घुला हुआ होता है। कवि चाहे छोटा हो या बड़ा …. अच्छा हो या बुरा मेरे ख्याल में किसी योजना के तहत वह इस रास्ते पर नहीं आता .. कविता के प्रति एक अन्जान आकर्षण उसे इस दुनिया में ले आता है। यह परिस्थितियों पर और उसकी मानसिकता पर निर्भर करता है कि वह अपने आस-पास की दुनिया से किस तरह प्रभावित होता है वह कैसे लोगों से मिलकर अड्डेबाजी करता है, किन कवियों को पढ़ते हुए अपने संस्कार विकसित करता है … वह लम्बे रियाज के लिए अपने को तैयार करता है या कोई शॉर्टकट अपनाते हुए एक ही सांस में इंग्लिश चैनल पार कर जाना चाहता है। 
भरत प्रसाद :- अपने समकालीन कई महत्वपूर्ण बहुचर्चित और तथाकथित अनेक बड़े नाम हैं। जैसे केदारनाथ सिंह, विजेन्द्र, विष्णु खरे, भगवत रावत, उदय प्रकाश, आलोक धन्वा, ज्ञानेन्द्रपति इत्यादि। अपने प्रखर पाठक और जिम्मेदार कवि को कसौटी पर ही नहीं, अपने निरपेक्ष इन्सान की कसौटी पर इन वरिष्ठ कवियों के योगदान, महत्व और सच्चाई का मूल्यांकन कैसे करेंगे
 
सुरेश सेन निशान्त :- ये तीन-चार नहीं और भी कई बड़े नाम हैं, जिन्होंने इस काव्य की परम्परा को आगे बढ़ाया है और अपनी तरह से एक नए व अनूठे ढंग से समृद्ध भी किया है। जहाँ तक विष्णु खरे जी की बात है, वे बड़े और अच्छे आलोचक हैं, पर वे कवि के रूप में मुझे उतना प्रभावित नहीं करते हैं। पर जहां तक केदार नाथ सिंह, विजेन्द्र जी व भगवत रावत जी की बात है ये तीनों अलग-अलग तरह से मुझे प्रभावित करते हैं। भले ही केदार नाथ सिंह जी आकर्षित बिम्बों के साथ ग्राम्य जीवन का पॉजिटीव पक्ष ही दिखाते हों। भले ही उसमें कलाकारिता ज्यादा हो, पर इसके बावजूद वे जीवन के कवि हैं, उसकी जीत के कवि हैं। उनकी कविता में छुपी गेयता पाठकों को दूर और देर तक छूती है।
विजेन्द्र जी हमें त्रिलोचन जी की परम्परा के कवि लगते हैं, उनके व्यवहार की सादगी नए कवियों के प्रति उनका प्रेम उनकी रचनाशीलता पर उनकी पैनी नजर उन्हें नए कवियों के बीच लोकप्रिय बनाती है। विजेन्द्र जी जितने अच्छे कवि हैं उतने ही अच्छे और बड़े सम्पादक भी। कविता के सम्बन्धित उनके सुलझे सम्पादकीय लोक कविता के प्रति हमारी सोच को परिष्कृत करते हैं और लोक के नए सौंदर्य शास्त्र को हमारे सामने खोलते हैं। 
जहां तक भगत रावत जी की बात है …. वे मुझे बच्चों जैसी इनोसैंस से भरे हुए कवि लगते है …. अपने जीवन और समझ के बहुत पास, सरलता को साधते हुए …. जीवन को सजाने की उष्मा से भरे हुए …. हर नया कवि जो कविता में सरलता को साधना चाहता है, उसके लिए भगवत रावत जी को पढ़ना बहुत जरूरी है। भगवत जी हमारे समय के बहुत ही महत्वपूर्ण कवि हैं और हम नए कवियों के लिए तो बहुत जरूरी कवि भी।
उदय प्रकाश जी के मैंने लगभग सभी संग्रह पढ़े हैं। वे कवि के रूप में प्रभावित भी करते हैं। पर इधर उनकी जीवन शैली और फेसबुक पर झलकता उनका अहंकार (समयान्तर जनवरी में छपी कविता कृष्ण पल्लवी से उनकी बातचीत) तथा एक हिन्दुत्ववादी मंच पर पुरस्कार लेने के लिए उनका पहुंचना ….. हमारे मन में बनी उनकी गरिमामय छवि को तोड़ता है। जहां तक आलोक धन्वा जी की बात है उनकी कविताएं हमारे लिए जन गीतों की तरह हैं। जो अकेले में लोक गीतों की तरह गुनगुनाई जा सकती हैं। ज्ञानेन्द्र पति जी कविता में डूबी हुई शख्सियत हैं, उनके गद्य और पद्य में एक लय है, शिल्प की एक साधना है, किसानी मिट्टी की गंध है, उनसे हमें यह बात सीखनी होगी कि आज भी कविता के लिए अपने को कोई इतना डिवोट कर सकता है।
भरत प्रसाद :- हिमाचल प्रदेश आपका गृह-प्रदेश है। जिसने आपको बनाया, गढ़ा और विकसित किया है। अपने निर्माण में इस प्रदेश के योदान को आप किस तरह (सकारात्मक और नकारात्मक) देखते हैं?
सुरेश सेन निशांत :- हिमाचल प्रदेश एक पहाड़ी प्रदेश है। यहां जीना एक कठिन दुर्गम साधना की तरह है …. भले ही बाहर से आए पर्यटकों को यहां के पहाड़ और पेड़ थोड़ा-बहुत लुभाते होंगे। पर यह उन लोगों के लिए मुफीद जगह नहीं है जो शांति से जीना चाहते हैं। यहां वन हैं जिनका वन माफिया ने जी भर कर दोहन किया है ….. यहां पहाड़ हैं, जिन्हें यहां के नेताओं के स्टोन क्रशर व पूंजीपतियों की सीमेन्ट फैक्ट्रियाँ जी भर कर उनकी देह को खाए जा रही हैं, मगर उनकी भूख है कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही। हम हिमाचल को तीन भागों में बांट सकते हैं। अपर हिमाचल है जो ठण्डा है, जहां सेब है, टूरिस्ट हैं और सेब से होने वाली अच्छी आय है। यहां प्रदेश की बहुत ही कम जनसंख्या रहती है, जिसके कई कारण हैं जिनकी डिटेल्ज में मैं यहां नहीं जाना चाहता। यहां मध्य हिमाचल है ….. जहां कोई कैश क्रॉप नहीं, जहां जमीन बंजर है, पहाड़ तपे हुए रेगिस्तानों की तरह हो गए हैं ….. साल में एक फसल ही ढंग की होती है और रोजगार के नाम पर अधिकतर लोग यहां से बाहर जा कर मजदूरी, कुलीगिरी या सीमेंट फैक्ट्रिरियों में काम करते हैं। पानी के स्रोत आए दिन होने वाले विस्फोटों के कारण सूखते जा रहे हैं। यहां औरतों का जीवन बहुत ही कठिन है। वह घास और पानी के सफर के बीच ही बीत जाता है। लोअर हिमाचल है, यह पंजाब के निकट है … कह सकते हैं कि बाऊंड्री लाईन है पंजाब की …. बस थोड़ी सी खुशहाली दिखती है तो बस यहीं। हिमाचल की अपनी कोई भाषा नहीं। अपर हिमाचली में भोटी या तिब्बती का प्रभाव है, मध्य हिमाचल में डोगरी का, लोअर हिमाचल में पंजाबी का। यहां के साहित्य संस्कारों में इन सभी का थोड़ा-बहुत समावेश है …. ज्यादातर प्रभाव हिन्दी की पत्रिकाओं का है जिन्होंने यहां के साहित्य के संस्कारों को पोषित किया है।
                   मैं यहां मध्य हिमाचल में पैदा हुआ हूँ। यहां हिमाचल की अधिकतर जनसंख्या बसी है। यहां वनों का विनाश और पहाड़ों का क्षरण हर कहीं देखा जा सकता है। मैंने साहित्य का ककहरा यहीं विनाश के कारण क्षरण हुई इस मिट्टी में सीखा है। यहां केशव, श्रीनिवास श्रीकांत, सुन्दर लोहिया, एस.आर. हरनोट, मधुकर भारती ये सभी ऐसे शख्स हैं जिन्होंने अपनी मेहनत और स्नेह से यहां के साहित्यिक वातावरण को पोसा है। यहां युवाओं में आत्मारंजन, मुरारी शर्मा, कृ.च. महादेविया, गणेश गनी जैसे सहृदयता से भरे मित्र हैं। आत्मारंजन जितना अच्छा कवि है उतना ही अच्छा इन्सान है। अपनी निराशा के क्षणों में मैंने उसे हमेशा एक सम्बल की तरह पाया है। अगर वह यहां नहीं होता तो शायद यहां का वातावरण कभी का मेरे अन्दर बैठे कवि को खत्म कर चुका होता। यहां जहां जीवन के साकारात्मक और अच्छे पक्ष हैं, वहीं नकारात्मक और निराशा भरे पक्ष भी हैं, जो गहन दुख की ओर धकेल देते हैं। सरकारी स्तर पर एक वर्ग विशेष की ओर से घोर उपेक्षा ही मिली है, इसका कोई कारण तो जरूर ही रहा होगा, शायद मेरा कम पढ़ा होना, मेरी पारिवारिक गवईं पृष्ठभूमि, शायद मेरी कविताओं में दुखों के दाग कुछ ज्यादा ही दिखते हों, अनुभवों की उतनी कलात्मक बारीकियां न हों। सरकारी पत्रिका के एक पूर्व सम्पादक महोदय ने तो अपने कार्यकाल में यहां की कविता में समाई प्रगतिशील विचारों की खुशबू को खत्म कर देने का एक अभियान सा चलाए रखा। जरा से लालच के कारण यहां के कुछ घोषित मठाधीश उन्हें सहयोग भी देते रहे, प्रगतिशील कविता के विरूद्ध उनका यह सहयोग बहुत पीड़ा देता रहा है। ये मठाधीश यहां भी उतना ही कुरूप चेहरा लिए हुए हैं …. हत्यारे यहां भी उतनी ही कुशलता से वार करते हैं …. ऐसे दोस्त यहां भी हैं जो मुस्कुराते हुए पीठ पर छुरा घोंपते हैं और पूछते हैं कि कहीं दर्द तो नहीं हो रहा दोस्त। 
                   मेरी कविता की किताब वे जो लकड़कारे नहीं हैं”  के विमोचन के अवसर पर मेरे सभी दोस्त आए थे सिवाय अजेय के। मैंने जब इस बाबत अजेय से पूछा तो उसने कहा कि अगर मैं इसमें शामिल होता हूँ तो वामपंथी इसका फायदा उठा लेंगे (मेरी किताब के इस विमोचन को हिमाचल प्रदेश की जनवादी इकाई ने आयोजित किया था और जहां चंचल चौहान जी मुख्य अतिथि थे)। मैं अजेय की बात सुनकर कुछ आहत हुआ, पर सोचते हुए कुछ संतोष भी हुआ था कि चलो जो वामपंथ विरोध अजेय की बातों में झलकता है, वह उसे जीवन में भी बहुत गम्भीरता से उतार रहा है। पर जब दिल्ली में उसकी किताब का विमोचन हुआ तो पता चला कि वहां मंगलेश डबराल जी के साथ चंचल चौहान भी मुख्य अतिथि थे तो मैं काफी हैरान हुआ। 
 
भरत प्रसाद :- समकालीन रचनाशीलता को मायावी बाजारवाद ने कितने भीतर तक दुष्प्रभावित किया है – यह किसी से छिपा रहस्य नहीं है। मौलिक रचना की संभावना मानो समाप्त प्रायः हो चली है। इस बाजारवाद के दुष्प्रभाव और उससे न सिर्फ बचने, बल्कि उसके सामने साहसपूर्वक खड़े हो कर साहित्य का गौरव लौटाने का कोई रास्ता है आपकी नजर में।
सुरेश सेन निशांत :- बाजारवाद का असर ग्लोबल हैं इसे दिल्ली, कलकत्ता और बम्बई में ही नहीं हमारे कस्बे में भी देखा जा सकता है, कस्बे क्या हमारे छोटे से गांव में भी देखा जा सकता है। जिस तेजी और कुशलता के साथ दबे पांव यह हमारे साहित्य में घुस रहा है, इससे बचने के उपाय भी हमें ही खोजने होंगे। इसकी धूल बहुत ही खतरनाक है ये जहां जिस चीज पर गिरती है उसे लोहे पर लगी जंग की तरह खा जाती है।
                   इतना भर तो हम सभी जानते हैं कि बाजारवाद के संस्कार कला को कमोडिटी में बदल देते हैं। इस संस्कार से भरे हुए लोग जब कविता में उतरते हैं तो वे कविता से भी वह सब कुछ चाहते हैं, जो कविता के पास है ही नहीं ….. वे कविता की दुनिया में भी हिमेश रेशमियां की तरह दो-चार अधकचरे गीतों के बाद मशहूर हो जाना चाहते हैं। वे कविता लिखते ही इसलिए हैं कि इसके बदले में उन्हें कुछ ऐसा हासिल हो जो उन्हें एक सैलिब्रिटी में बदल दे। उनकी महफिलों में दुखों के विरूद्ध संघर्ष नहीं ….. कविता नहीं, महज कविता का शोर होता है …… उस शोर में कविता से मिलने वाले यश की बातें होती हैं। अपने उपर लिखी हुई प्रशंसा से भरी हुई आलोचना की बातें होती हैं, पुरस्कार होते हैं, यात्राएं होती हैं, सम्मेलन होते हैं, बस एक चीज नहीं होती वह है जन तक पहुंचने की सोच और लगन, पर इसके बीच भी कुछ हैं जो गांव और कस्बों में काम कर रहे हैं। हमारे यहां कृष्ण चन्द्र महादेविया है, वह जहां भी जाता है …. वह अपने ही दम पर दूर-दराज के गांवों में लोक नाटकों के मंचन और कवि सम्मेलनों का आयोजन शुरू कर देता है …. साहित्य के प्रति गांव के लोगों को जोड़ना उस जैसा समर्पित कार्यकर्ता भाव ही हमें इस बाजारवादी मानसिकता के समक्ष खड़ा कर सकता है। 
                   मैंने कृ.च. महादेविया की संगत में जाना है कि लोगों में अभी भी अच्छी कविताओं के प्रति बहुत ललक है। वे अभी-भी अरूण कमल की अपनी केवल धार”  कविता बार-बार सुनना चाहते हैं। वे अभी भी आलोक धन्वा की गोली दागो पोस्टर”  और मदन कश्यप की छोटे-छोटे ईश्वर” जैसी कविताएं सुनकर जोश से भर जाते हैं …. उन्हें अभी भी राजेश जोशी, एकान्त श्रीवास्तव की कविताएं बहुत ही आत्मीय लगती हैं ….. बस जरूरत है उनके पास पहुंचने के लिए बाजारवादी अवरोधों को लांघने की।
भरत प्रसाद :- मौजूदा युवा पीढ़ी में कई दर्जन युवा कवि अतिशय सक्रिय हैं। प्रकाशित होने, छपने और चर्चा कमाने के रूप में भी। बावजूद इसके पाठकों की रूचि, पसंद और सजग विवेक की कसौटी पर कुछ ही युवा कवि खरे उतरेंगे। ऐसे वे कौन हैं जो न सिर्फ आपको बांधते, छूते और लम्बे समय तक सोचने को विवश करते हैं। क्या इन्हें भविष्य की ऊँची, स्थायी और श्रेष्ठ उम्मीद के रूप में देखा जा सकता है?  
सुरेश सेन निशान्त :- मायकोवस्की ने ज्यादा कवि होने की हिमायत की है। ये कवि ही कविता के प्रति माहौल बनाते हैं ….. सभी अपने-अपने ढंग से सक्रिय भी रहते हैं। जिसमें सच्चे कलाकर की तरह रियाज करने की क्षमता होगी वह लम्बे समय तक टीका रहेगा …. वरना बहुत से लोग तेजी से दौड़ कर थक हाफ कर किनारे बैठ जाते हैं। हर दौर में ऐसा ही होता रहा है, इतनी ही भीड़ रही है और रहेगी भी। वही टिकेगा जो समय की छननी से छनकर आगे आएगा, वही बचेगा भी।
                   बहुत पहले मुझे एक पंजाबी लेखिका दिलीप कौर टिबाणा का साक्षात्कार पढ़ने को मिला। उसमें उन्होंने बहुत सुन्दर बात कही है कि किसी भी लेखक के मरने के सौ साल बाद उसकी किताब बात करती है …. तब न तो लेखक की चर्चित होने के लिए उसकी तिकड़में होती हैं, न दोस्तों की सिफारिशें, न टांग घसीटने वाले दुश्मनों के षड़यन्त्र, बस होती है तो उसकी किताब, उसका सृजन।
                   जहां तक पसंद-नापसंद की बात है, हरेक की अपनी कैमिस्ट्री है जो उसकी पसंद को निर्धारित करती है। मुझे आत्मारंजन की कंकड़ बिनती औरतें”,नहाते बच्चे”, आपकी रैड लाईट एरिया”, केशव तिवारी की काहे का मैं”, अनिल कारमेले की लोहे की धमक”,  हरिओम राजौरिया की भाभी”, कमलेश्वर साहु की फलों का स्वाद”  जैसी कविताएं बहुत पसंद हैं जिनमें शब्दों की कलाकारिता भर नहीं है अपितु जीवन का ताप है। यह ताप इन कविताओं को बार-बार पढ़ने पर मजबूर करता है और इन्हें देर तक लोगों के मनों में जिन्दा भी रखेगा। युवाओं में और भी मेरे मनपसंद कवि हैं जिनकी कविताएं मैं ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ता हूँ। जैसे नीलकमल, संतोष चतुर्वेदी, प्रदीप जिलवाने, अरूण शीतांस, शंकरानन्द, संतोष तिवारी, उमाशंकर चौधरी, संजीव बक्शी, विजय सिंह, राज्यवर्धन, बसन्त शकरगाये, अरूणाभ सौरभ, शिरोमणि महतो, निशान्त, बृजराज कुमार सिंह, देवान्शु पाल, निर्मला तोदी, रंजना जायसवाल इन सभी नए कवियों के सृजन में जीवन के पास पहुंचने की, उसे सजाने की एक सच्ची ललक मिलती है …. जो कविता के प्रति एक नईं उम्मीद बंधाती है। कभी निर्मला पुतुल और शिरीष मौर्य की कविताएं भी ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ता था, उनकी शुरूआती कविताओं ने काफी प्रभावित किया था। खासकर शिरीष की हल”  और हाट”  कविताएं भूलती ही नहीं।

भरत प्रसाद :- प्रत्येक कवि अपनी कमियों का सटीक पारखी होता है और होना भी चाहिए। निःसंदेह आप स्वयं अपनी कमजोरियाँ बखूबी समझते और उससे मुक्ति पाने की कोशिश करते होंगे। आपकी वे कमजोरियाँ क्या हैं?
सुरेश सेन निशान्त :- मैं दसवीं तक पढ़ा हूँ ….. अध्ययन की कमी तो है ही। यह कमी शायद मेरे सृजन में भी झलकती है और आत्मविश्वास में भी। मैं नामचीन लोगों से मिलते हुए सकुचाता हूँ, फोन पर भी बात नहीं कर पाता, फेसबुक और ब्लॉग पर लोगों की आत्मश्लाघा और दम्भ देख उससे दूर चला आया। अपने बारे में मुझे कोई भ्रम नहीं है ….. न ही कोई ऐसी परफेक्ट होने की ग्रन्थि मैंने पाल रखी है। इधर एक सम्पादक महोदय का फोन आया था कि मेरी कविताओं में मात्राओं की गलतियां बहुत होती हैं …. एक दोस्त ने सुझाया कि न ज्यादा लिखूं न ज्यादा छपूं और छपूं भी तो बड़ी पत्रिकाओं में। पर विजेन्द्र जी से जब मैंने इस बाबत डिस्कशन की तो उन्होंने कहा कि अब नहीं लिखोगे-छपोगे तो कब लिखोगे-छपोगे? उन पत्रिकाओं को चुनो और उनमें छपो जिनमें छपी रचनाएं तुम्हें संघर्षों के लिए तैयार करती हैं। कोई भी पत्रिका छोटी या बड़ी नहीं होती हाँ अच्छी और बुरी जरूर होती है ….. हाँ एक कवि के लिए कुछ अर्से बाद अपने ही फॉरमेट को तोड़ना जरूरी होता है, नहीं तो वह दोहराव का शिकार हो जाता है ….. फॉरमेट तोड़ने के लिए अध्ययन और रियाज के साथ-साथ जन संघर्षों और आंदोलनों पर पैनी नजर रखते हुए उनसे गहरा जुड़ाव बहुत जरूरी है। मेरी कई कविताओं में अनावश्यक विस्तार मिलेगा, उन्हें ऐडिट करना जरूरी था ….. अपनी कमजोरियों पर विजय पाने के लिए मैं खूब संघर्ष कर रहा हूँ, देखें कितना और कहां तक सफल हो पाता हूँ? मैंने कहीं पढ़ा था कि बिस्मिल्लाह खाँ शहनाई पर उन्नीस-उन्नीस घण्टे रियाज करते थे। काश उस तरह का डिवोशन मुझे में भी आ पाता। 

भरत प्रसाद :- सृजन की श्रेष्ठता का भ्रम फैलाने में पुरस्कारों ने और कुछ इलीट क्लास टाईप”  पत्रिकाओं ने निर्णायक भूमिका अदा की है। अपने शब्दों में कहूँ तो आज बंडल है पुरस्कारों का निर्णायक मंडल। जेनुइन का पुरस्कृत होना एक आश्चर्य बनता जा रहा है। पुरस्कारों के इस तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र-साम्राज्य पर आप क्या सोचते हैं
सुरेश सेन निशान्त :- समाज में जब चारों ओर मूल्यों का क्षरण दिख रहा हो तो साहित्य भी कहां बचेगा? साहित्य में भी तो आदमी उसी समाज से आएगा। अपनी-अपनी मानसिकता और अपने ऐजेण्डे को लेकर। सवाल यह है कि मूल्यों के क्षरण उससे मिलने वाली सुविधाओं की जो चमक है वह उस चमक से अपने आपको किस तरह बचाता है? एलीट वर्ग बहुत ही चालाक है, उसका ऐजेण्डा हिडन होता है। वह क्रान्ति की बात करते हुए क्रान्ति को तोड़ने का प्रयास करता है। वह त्याग की बात करते हुए आपसे आपकी कीमत पूछता है और कहता है कि वह आपकी कीमत नहीं लगा रहा है, न आपको खरीद रहा है, अपितु वह आपको अपनी तरफ से पुरस्कार दे रहा है। भाई कुछ पुरस्कार जैन्युन भी हैं। देने वाले की मन्शा ठीक भी है। पर अधिकतर आपका मोल लगाते हैं, आपको खरीदते हैं …. गुलाम बनाकर रखने के लिए आपको साधते हैं।
भरत प्रसाद :- समय के सच के आगे रचना की ताकत हमेशा कमजोर पड़ती है। आज की तारीख में तो और भी ज्यादा आपके पास ऐसी कोई युक्ति, विचार या उपाय हैं जो रचना की ताकत को समय के यथार्थ से इक्कीस साबित कर सकें
सुरेश सेन निशान्त :- कभी-कभी समय के सच के आगे रचना की ताकत ज्यादा जान पड़ती है। यह तब घटित होता है जब लेखक के भीतर और बाहर का संघर्ष एक हो जाता है। रचना में जीवन और जीवन में रचना को डूबा देता है तभी जाकर गोदान, अंधेरे में, उसने कहा था, राम की शक्ति पूजा, परती परिकथा जैसी रचनाएं हमारे पास होती हैं। प्रफुल्ल कोलाख्यान ने अपने आलेख में कहीं कहा है कि तिहासिक क्रिया में समय लगता है, यह चटपट नहीं होता। यह सत्य है कि चटपटिया समय में एतिहासिक प्रक्रिया को सम्पन्न होते देखने का धैर्य नहीं होता। जिस लेखक या कवि के पास असीम धैर्य होगा वही कालजयी रचना रच सकेगा।
भरत प्रसाद :- कबीर, निराला, प्रेमचन्द, टैगोर, शरत, नागार्जुन यहाँ तक कि रेणु बाबू नजीर बन गए हैं। प्रेमचन्द के बाद, नये प्रेमचन्द को कौन कहे किसी आधे-अधूरे प्रेमचन्द या शेष रामविलास शर्मा की संभावना नहीं दिखाई देती। इस दुर्दशा के कारणों की पड़ताल। 
सुरेश सेन निशान्त :- इस चीज की पड़ताल हमें अपने समय के भीतर ही करनी होगी। जितनी फैसिलिटी … जितना आराम … जितनी सुविधाएं हमारे समय में हैं उसके पासंग भर सुविधाएं भी निराला और मुक्तिबोध के हिस्से में नहीं आई। हमें इस प्रश्न के उत्तर का सिरा यहीं से ढूंढना होगा ….. एक कवि हुए हैं मिक्लोश रादोनित जिनकी मृत्यु नाजियों के यातना शिविर में युवा अवस्था में ही हो गई थी। यातना शिविर में उनकी व उनके साथियों की हत्या कर दी गई थी। बाद में जब एक सामुहिक कब्र को खोला गया तो उनकी पत्नी ने उनके शव की पहचान की। उनकी जेब से कीचड़ से सनी एक छोटी सी डायरी मिली जिनमें उनके अंतिम दिनों की कविताएं थी। ये कविताएं कविता के प्रति उनके गहरे विश्वास को दर्शाती हैं। उन दारूण परिस्थितियों के विरूद्ध लड़ाई का एक जज्बा, कविता पर उनका अथक विश्वास बताता है …. जो उनमें मृत्यु की भयंकर पीड़ा के समक्ष भी एक उम्मीद की लौ उनमें जला रहा था। कबीर, निराला, प्रेमचन्द ये सभी इस जीवन में दमन चक्र के विरूद्ध तन कर खड़ा होने वाले रचनाकार हैं। ये बड़े रचनाकार महज इसलिए बड़े रचनाकार नहीं हैं कि उन्होंने उस दुख को भोगा है। ये बड़े इसलिए हैं कि उन्होंने उन दुखों पर लड़ते हुए विजय पाई और आने वाली पीढ़ी को लड़ने का नया रास्ता सुझाया। इनके जीवन में इनकी रचनाओं ने हमें और ज्यादा मानवीय बनाया है। झूठी सुविधाओं, झूठे यश, झूठी प्रशंसा के पीछे भागने वालों की भीड़ से कभी कबीर, निराला या नागार्जुन नहीं निकलेंगे, न निकल सकते हैं।
भरत प्रसाद :- नामवर सिंह श्रेष्ठ आलोचक सिद्ध हुए। मगर अब वे अपर्याप्त हो चले हैं – नयी सदी की पीढ़ी के लिए। वैसे भी युवा रचनाशीलता से न्याय करने के बजाय उन्होंने जिस-तिस की निर्ब्याज-भावेण प्रशंसा करके हकीकतों को उलझाया ही है। उनकी भूमिका को आप किस रूप में साहसपूर्वक देख पाते हैं। 
सुरेश सेन निशान्त :- भरत भाई मैं आपको इस प्रश्न पर कुछ नहीं कहना चाहता, बस पाश”  की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहता हूँ –
                   बेईज्जती वक्त की हमारे ही वक्तों में होनी थी
                   हिटलर की बेटी ने जिन्दगी के खेतों की माँ बन कर
                   खुद हिटलर का डरना
                   हमारे ही माथों में गाड़ना था।
                   यह शर्मनाक हादसा हमारे साथ ही होना था
                   कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने
                   बन जाता था सिंहासन के पायदान।
                   मार्क्स का शेर जैसा सिर
                   दिल्ली की भूल-भुलैया में मिमियाता फिरता
                   हमीं ने देखना था
                   मेरे यारो, ये कुफ्ऱ हमारे ही वक्तों में होना था।
                   मेरे यारो, ये कुफ्ऱ हमारे ही वक्तों में होना था।
भरत प्रसाद- अपनी रचनाशीलता के लिये आपने क्या मानक बनाया है? क्या साहित्य को चिरस्थाई सृजन देने का संकल्प है या फिर निरन्तर सक्रिय ही रहना चाहते हैं। दीर्घजीवी रचना देने हेतु कितने प्रकार की तैयारियां होनी चाहिये। ये तैयरियां क्या लगती है कि आप कर ले जायेंगे। यदि आप को आपका ही साहसिक आलोचक बना दिया जाये तो अपनी दो टूक, तटस्थ और निर्मम आलोचना किस तरह करेंगे?
सुरेश सेन निशान्त.:- मैंने जितना भर भी सीखा है…..अपनी परंपरा से सीखा है और लगातार सीखने की कोशिश कर रहा हूं। मैंने पहले भी कहा है कि मेरा एैकेडमिक अध्ययन बहुत ही कम है जो भी सीखा है वह दोस्तों की संगत में सीखा है अपने और उनके अनुभवों से सीखा है। मेरी माँ एक कहावत अक्सर सुनाया करती थी…. कि पत्थरा तू किहां गोल हुआ? अर्थात ओ पत्थर तू किस तरह इतना सुन्दर गोल हुआ?  तो पत्थर कहता है बजी…बजी.. यानी टकरा टकरा कर….ठोकरें खा खा कर। पहाड़ों में नदियों के पत्थर आप को गोल मिलेंगे…उनकी गोलाई तराशी हुई बहुत ही कलात्मकता से भरी हुई होती है।उस गोलाई में उस तराशपन में उनका टकरा-टकरा कर गोल होने का अनुभव है….मैं अपने को उस तरह से नदियों का पत्थर ही मानता हूं…नदियों के पत्थर की तरह जो भी सीखा है टकरा टकरा कर ठोकरे खा कर। यहां कस्बे में साहित्य का कोई माहौल नहीं रहा कभी जो भी सीखा है दूर दराज के दोस्तों की संगत व पत्रिकाओं से।
जहां तक चिरस्थाई रचने की बात है… …औरों से अलग दिखने की बात है….एैसी मन्शा रही नहीं मेरी कभी…मुझे लगता है यह एक ग्रन्थी है…यह एक एलीट किस्म का संस्कार है। मैं साधारण के बीच साधारण सी बात कहना चाहता हूं। सरलता को जीते हुये सरल से ढंग से। हां जो मुझे करना है…उसके बारे में सोचना होगा कि किस ढंग से करना है…इसके लिये कौन से रास्ते अपनाने होंगे…किन कवियों की संगत करते हुये मुझे अपना विकास करना होगा…यह एक लम्बा सिलसिला है  लिखने के रास्ते कठिन तो हैं ये उस वक्त और भी कठिन हो जाते हैं जब आपको अपने आसपास का माहौल नैगेटिव मिलता है।
जहां तक दीर्घजीवी रचना की बात है……इसके लिये रियाज के साथ साथ वह जीने के तरीके पर भी निर्भर करती है…हम नकारात्मक शक्तियों के साथ किस तरह संघर्ष करते हुये आगे बढ़ते हैं। आपने ही कहीं कहा है जो मुझे भूलता ही नहीं……हताशा, निराशा, नाउम्मीदी की धुन्ध छंटे ना छंटे आज के कवियों को फर्क नहीं पड़ता। जीते जी उसने अमरता का स्वाद चख लिया है, अपनी जय जयकारा का अमृत कानों से पी लिया है फिर किस बात की चिन्ता? कविता का सेंसेक्स लगातार गिर रहा है और गजब कवि बेफिक्र की खुमारी में झुमते हुये गाते चले जा रहा है….बड़ी रचना के लिये मित्र आपके ही आलेख की पक्तियां दुहराना चाहता हूं…..बड़ी रचना चाहत, महत्वाकांक्षा या अभ्यास से नहीं बल्कि अपने भीतर रौशन आत्मा की सिद्धि से संभव होती है। देखते हैं उसके लिये कितनी भर तैयारी कर पाते हैं हम सब?
  
भरत प्रसाद- क्या मौजूदा हिन्दी कविता समकालीन विश्व कविता का महत्वपूर्ण अध्याय नजर आती हैं? विश्व साहित्य के वे कवि जो आप के गुरू, शिक्षक या मशाल की भूमिका निभायें हो? समकालीन कविता का ऐसा कोई स्तम्भ जिसे समकालीन विश्व कविता के समक्ष दृड़तापूर्वक रखा जा सके?
सुरेश सेन निशान्त – विश्व कविता भी विभिन्न देशों से उपजी कविता का ही समुच्य है। हमारे यहां भी कविता का माहौल विभिन्न प्रदेशों की अनेक क्षेत्रीय भाषाओं मे रची जा रही कविता से ही बनता है पंजाबी, मैथिली, बांग्ला, मराठी तेलगु आदि भाषाओं से। यहां हर भाषा में महान कवि हुये हैं और वर्तमान में भी बहुत से अच्छे कवि कार्य कर रहे हैं।हिन्दी की जड़ें इन सभी प्रदेशों में बहुत गहरे तक धंसी हैं…और हर जगह से खाद पानी ले कर अपना महान विकास कर रही है। मैं जितना प्रभावित नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा से हूं …. जितनी ताकत मुझे महमूद दरवेश की कवितायें देती है उतनी ही ताकत मुझे पाश, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, मदन कश्यप और एकान्त श्रीवास्तव की कवितायें भी देती हैं …. इसमें मै निराला, केदारनाथ अग्रवाल, बाबा नागार्जुन और त्रिलोचन जी का भी नाम जोड़ देना चाहता हूं …कबीर और तुलसी तो हमारे मानक हैं ही।
(जनपथ से साभार)
भरत प्रसाद
सम्पर्क
भरत प्रसाद-
सुरेश सेन निशान्त-  
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)

भरत प्रसाद का आलेख ‘कविता के देश का नवजागरण’


हिन्दी कविता में इस समय एक साथ अनेक युवा कवि बेहतर काम कर रहे हैं। अछूते विषयों को अपनी कविता का विषय बनाने के साथ-साथ वे अपने नए बिम्ब भी गढ़ रहे हैं आज जरुरत है इन नए कवियों पर बेबाकी से बात करने की, जिससे कि हम हिन्दी कविता के वर्तमान परिदृश्य को वैश्विक विरादरी के समक्ष दमखम के साथ प्रस्तुत कर सकेंइन युवा कवियों पर एक आलेख लिखा है हिन्दी के ही युवा कवि और आलोचक भरत प्रसाद ने। तो आइए पढ़ते हैं भरत प्रसाद का यह आलेख      
कविता के देश का नवजागरण
भरत प्रसाद
                पूरे 12 बारह साल की हो चुकी है आज की सदी। नया रंग, नया रूप, नयी चाल, नयी माया, नया जाल………। बीती शताब्दी मानो सचमुच बीत ही चुकी हो। मनुष्य और मानवता के संकट की शुरूआत जिस 20 वीं शताब्दी में हुई – वह मौजूदा सदी में बेलगाम होने के लिए मचल रही है। यह सदी विकृत करेगी मनुष्य की परिभाषा, खण्डित करेगी इंसान का व्यक्तित्व, रहस्यमय और जटिल बनाएगी मनुष्य की संरचना। आन्तरिक या आत्मिक विकास जहाँ मनुष्य को गैर जटिल और गाँठविहीन बनाता है, वहीं भौतिक या लौकिक विकास उसे जटिल जालों का रहस्यमय पुतला बना देता है। खांटी भौतिक विकास वर्तमान मनुष्य की आत्मघाती नियति बन चुकी है। अपनी मनुष्यता की अनिवार्यतः हत्या करवाने वाला यह मार्ग विकल्पहीन हो चुका है, जिससे होकर लगभग प्रत्येक मनुष्य को गुजरना है और आखिरकार खुद को मिटाना ही है।
                बाजारवाद, भूमण्डलीकरण, उत्तरआधुनिकता जैसे चमत्कारिक शब्दों का जन्म यद्यपि 20 वीं सदी में हुआ, किन्तु इनका उभार और विकास मौजूदा शताब्दी की सर्वव्यापी घटना बनने जा रहा है। असम्भव नहीं कि 21वीं सदी में पृथ्वी के ईश्वर यही तीनों प्रकोप माने जाएँ। जीवनमूल्य, अन्तःप्रवृत्ति, मानस, बौद्धिकता, अन्तर्दृष्टि हमारा ऐसा कौन सा आन्तरिक या बाह्य पक्ष है, जिसको बाजारवाद ने स्थायी रूप से प्रभावित न किया हो। प्रकृति का चरित्र अपरिवर्तनीय है, समुद्र, पर्वत, नदी, आकाश एकनिष्ठ और अनथक भाव से अपनी भूमिका अनन्तकाल से निभाए जा रहे हैं, किन्तु चन्द हजार वर्षों का यह होमोसेपियन अपना रंग, ढंग, आचरण, संकल्प, कर्तव्य लगातार बदल रहा है, जैसे-जैसे उसके कदम उन्नति की सीढ़ियाँ पार कर रहे हैं, वैसे-वैसे वह मुखौटे पर मुखौटा चढ़ाए जा रहा है। ये मुखौटे बनावटी होने के बावजूद प्राकृतिक चेहरे की जगह लेते जा रहे हैं और मनुष्य का स्वाभाविक, शारीरिक चेहरा न जाने कब का गायब हो चुका है? आज का आदमी बुद्धिमान है, शक्तिमान है, विज्ञानी है, सजग है, माहिर, पारंगत और परम सफल है किन्तु अपना मूल चेहरा खो बैठा है, जिस चेहरे के बल पर वह अपने जीवन में या मृत्यु के बाद भी स्थायी, मजबूत और श्रेष्ठ व्यक्तित्व का दर्जा हासिल करता है। बाजार की आत्मा है- पूँजी, इच्छा है पूँजी, कल्पना है पूँजी, दृष्टि है पूँजी। बाजारवाद समस्त भूमण्डल को पूँजी की निगाहों से घूर रहा है। वैसे पूँजी की यह तानाशाही अवस्था मनुष्य की खुदा बनने पर आमादा है, किन्तु विश्व में इस तानाशाही को कुछ प्रतिशत पूँजी सेवकों की सोच ने ही जन्म दिया है। मनुष्य के किसी भी प्रकार की कला, रचनात्मकता अथवा नैसर्गिक कौशल पर किया गया अभी तक सबसे भयानक और अचूक हमला है। सर्जक सामंतवाद से नहीं टूटा, तानाशाही से नहीं टूटा, साम्राज्यवाद के सामने नहीं झुका और साम्प्रदायिकता के समक्ष घुटने नहीं टेका किन्तु-किन्तु यह बाजारवाद सर्जक को बेतरह झुका चुका है। नतमस्तक हैं लेखक, कवि, आलोचक इस बाजारवाद के आगे। घुटने पेट में धँस गये हैं इस दानवाकार पूँजीपुत्र के आगे। पूँजीवाद अपने विकास की दशा में अनेक विकृतियेां का जन्मदाता होने के बावजूद हद दर्जे का अमानवीय नहीं बना था; किन्तु यह बाजारवाद? कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। इस बाजारवादी युगका कवि न भूतो न भविष्यतिके दर्जे का महत्वाकांक्षी है। अपने सिर्फ अपने व्यक्तित्व की सनक के आगे, साहित्य के व्यक्तित्व की चिन्ता गायब हो चुकी है। सर्जक के लिए सृजन अथवा साहित्य अब साधना नहीं साधन है, अभ्यास नहीं, फैशन है, नैसर्गिक स्वभाव नहीं, बनावटी कवायद है। कविता का माथा बुलंद करने की दीवानगी अब एक भी कवि की उदात्त सनक नहीं रही। बाजारजीवी कवि के लिए कविता फुटबाल है, रंगीन चश्मा है, वैशाखी है, ढोल है और प्रसिद्धि पाने का सर्टीफिकेट। पूँजीपरस्त की तर्ज पर कहें तो आज का सर्जक बाजारपरस्त हो चुका है। प्रायोजित समीक्षा, प्रायोजित समर्थन, प्रायोजित आत्मप्रचार, सुनियोजित स्थापना, आज के कवि और लेखक की प्रवृत्ति बन चुके हैं। सपने में पुरस्कार, प्रशंसा और जय जयकार की बारिश होना उसकी नींद की सामान्य घटना हैं। साहित्य मानो उसके लिए स्थायी नौकरी हासिल करने की प्रतियोगिता हो, जिसमें कैरियर बनाने के लिए वह कमर कसे हुए है। इस नौकरी को पक्का करने के लिए वह आत्मा का, विवेक का, विचारों का, भावना का, प्रतिबद्धता और पक्षधरता का सौदा करने के लिए, अपने आपको बेच देने के लिए सौ से कई गुना प्रतिशत तैयार बैठा, नहीं-नहीं तनकर खड़ा है। यह अपराजेय बाजारवाद लेखक की नैसर्गिक कल्पनाशीलता को नष्ट कर रहा है, अनुभूति की ताकत को जला-सुखा रहा है, बर्बाद कर रहा है हमारा मानवीय विवेक, खोखला किए जा रहा है हृदय की संरचना को, भीतर-भीतर चाल रहा है मौलिक भावनाओ की शक्ति को। यह बाजारवाद हमारे कद को स्थायी रूप से बौना कर चुका है, बुद्धिमान जानवर के रूप में तब्दील कर चुका है। आज हमारी आकांक्षा पर, सपनों पर, साहस पर, प्रवृत्तियों पर बाजार का एकछत्र साम्राज्य है। अब यह मजबूरी या आवश्यकता से चार कदम आगे नियति बनने की ओर अग्रसर है। बाजार के इस ईश्वरनुमा घटाटोप को निर्णाायक चुनौती देने वाली आज एक भी विचारधारा नहीं बची, न गाँधीवाद, न बौद्ध दर्शन और न ही मार्क्सवाद। कवि, लेखक बाजारवाद के खिलाफ ताबड़तोड़ लिख रहे हैं, किन्तु वे खुद उसके मायामोह में गिरफ्तार हैं। अपने बारे में लिखवाने का जुगाड़ आज कौन नहीं कर रहा? अपना नाम डलवाने के लिए आज कौन सम्बन्ध नहीं भिड़ा रहा? चर्चा में रात-दिन छाए रहने का तिकड़म कौन नहीं कर रहा? साहित्यकार के व्यक्तित्व में आयी इस भयावह विकृति के लिए सिर्फ उसी का माथा फोड़ने से कुछ हासिल नहीं होगा। लताड़िए उसे-वह अपना प्रमोशन करेगा, व्यंग-बाण चलाइए उस पर -स्थापित होने के लिए अतिरिक्त उपाय ढूँढ़ेगा, खारिज कीजिए उसे -वह अपनी जुगाड़ू चाल चलेगा। आज का साहित्यकार मान बैठा है कि जो सिर्फ लिखकर स्थापित हाने की खुशफहमी में जीया वह मर जाएगा, जो खांटी साधू-संत की तरह कलम के बूते मैदान जीतने का सपना पाला, वह मृत्युपर्यन्त हाशिए पर पड़ा रोता रहेगा। इस समय जो झाड़-झंखाड़नुमा प्रतिभा का है -वो, और जो मशालधर्मी प्रतिभा का है, वो भी इस बाजार के मायाजाल में फंसाधंसा हुआ है। कवि को अपनी कलम से ज्यादे अपने तन्त्र पर भरोसा है, अपने परिश्रम से ज्यादे अपने जोड़-घटाना पर विश्वास है, अपने रचनात्मक संकल्प से ज्यादा प्रसिद्धि के प्रायोजित विकल्पों पर आस्था है। जो बाजारवाद के विरूद्ध है, वो भी बाजारपरस्त है, जो बाजारतन्त्र के खिलाफ कलम घिस रहा है, वो भी तुरत-फुरत फायदे को लूटने के लिए अभिशप्त है।
                ज्ञान, कला, तथ्य, सूचना के असीम स्रोतों और सम्भावनाओं से सम्पन्न है युवा सर्जक। बेवसाइट्स, ब्लॉग, फेसबुक अध्ययन, ज्ञान के अत्याधुनिक स्रोत बन चुके हैं। इसके अतिरिक्त छोटे-मझोले-बड़े सैकड़ों प्रकाशकों के द्वारा प्रकाशित साहित्य, विचारधारा, समाजविज्ञान, इतिहास, मनोविज्ञान इत्यादि की उच्च स्तरीय पुस्तकें अभूतपूर्व ढंग से रचनाकार को सुलभ हैं। साहित्येतर विषयों के ज्ञान का ऐसा अधिकारी व्यक्तित्व साहित्यकार शायद ही पहले कभी रहा हो। मिल्टन, शेक्सपीयर, वर्ड्सवर्थ और ईसापूर्वकालीन होमर तक की अमर कृतियाँ हिन्दी में सुलभ हैं। राष्ट्रीय क्या अन्तर्राष्ट्रीय दोनों स्तर के समाजशास्त्रियों की किताबें हिन्दी का रूप धारण कर सामने प्रस्तुत हैं। इस पर भी बात नहीं बनी तो कम्प्यूटर स्क्रीन पर माउस का तीर दौड़ा दीजिए, दुनिया की किसी भी भाषा के मार्गदर्शक साहित्यकार, दार्शनिक, इतिहासकार को अपने ज्ञानकोश में कैद कर लीजिए। रचनात्मक कला की बारीकियाँ बताने वाली पुस्तकें आज के पहले कहाँ इतनी रही हैं? एक तरह से कहा जाय तो कला, ज्ञान-विज्ञान और साहित्य के प्रकाशन का अभूतपूर्व युग है यह। बावजूद इसके कहना जरूरी है कि तथ्य, और सूचनाएँ हमें विद्वान और ज्ञानी तो बना देती हैं, किन्तु अनुभूति की गहराइयों तक उतार नहीं पातीं। ज्ञानपूर्ण अध्ययन का पुतला लेखक पढ़-पढ़कर विद्वान तो बन जाता है किन्तु वेदना व भावना की कसौटी पर दोयम दर्जे का ही रह जाता है। कुछ मौलिक दिशाएँ खोज पाने, कुछ अद्वितीय रास्ते तलाश पाने और कुछ अभूतपूर्व चिंतन कर पाने लायक वह नहीं रह जाता। वह तमाम माध्यमों से प्राप्त ज्ञान का रंग-बिरंगा नजारा अपनी पुस्तकों में पेश तो कर सकता है, किन्तु अपने उद्दाम और सूक्ष्म स्तरीय रचनाशीलता का विश्वास नहीं जगा पाता। इसीलिए आज के दिनांक, माह और वर्ष में ज्ञान-सम्पन्न साहित्यकार एक से बढ़ कर एक हैं, किन्तु असाधारण संवेदना सम्पन्न सर्जक खेाजने पर बड़ी मुश्किल से कहीं मिलेगा।
(चित्र: हरीश चन्द्र पाण्डेय)

                मौजूदा शताब्दी के अभ्युदय के ठीक पूर्व साहित्यिक परिदृश्य में स्थापित होने वाले कवियों में कात्यायनी, हरिश्चन्द्र पाण्डेय, मदन कश्यप, देवी प्रसाद मिश्र, अष्टभुजा, एकांत श्रीवास्तव, बोधिसत्व, बद्रीनारायण, हरीश चन्द्र पाण्डे का नाम सर्वप्रमुख है। इन कवियों के बाद कविता के मैदान में जगह बनाने में कामयाब हुए प्रताप राव कदम, आशुतोष दूबे, संजय कुदन, सुन्दर चन्द ठाकुर, अग्निशेखर, पवन करण, श्रीप्रकाश शुक्ल, संजय कुंदन, पंकज चतुर्वेदी, मोहन डहरिया, प्रेमरंजन अनिमेष जैसे कवि। 2004-05 के आसपास अचानक ही ऐसी नयी तरंगों का सैलाब नजर आता है, जिसने वर्तमान कविता की परिधि को अपनी गति, उछाल और हलचल से भर दिया। अलग-अलग भाव, भंगिमा, लम्बाई और गहराई के साथ बहने, मचलने वाली ये सृजन की लहरें न जाने क्यों एक पुख्ता यकीन, समर्थ भविष्य और फलक के कीमती विस्तार का विश्वास पैदा करती हैं। सुरेश सेन निशांत, रंजना जायसवाल, केशव तिवारी, महेश चन्द्र पुनेठा, बसंत त्रिपाठी, निर्मला पुतुल, अरुणदेव, राकेश रंजन, अंशु मालवीय, उमाशंकर चौधरी, हरे प्रकाश उपाध्याय, कुमार अनुपम, आत्मारंजन, प्रज्ञा रावत, संतोष चतुर्वेदी, निशांत, ज्योति चावला, नील कमल, अशोक सिंह, सुशील कुमार, शैलेय, रामजी तिवारी, शहंशाह आलम, रजतकृष्ण, शंकरानन्द, नरेश मेहन, मनोहर बाथम, पंकज पराशर अपनी निरन्तर सक्रियता और  उपस्थिति से साहित्यिक समाज को आकर्षित करने का आत्मसंघर्ष करते नजर आते हैं। एक साथ कई दिशाओं की ओर चल-निकल-मचल पड़े इन कवियों का अंदाजे-बयाँ अलग-अलग, विषयों का चुनाव जुदा-जुदा, काबिलियत भिन्न-भिन्न और अभिव्यक्ति की जमीन अपनी-अपनी, किन्तु सब मिलकर जिस उम्मीद को पुख्ता और पुख्ता…… बना रहे हैं -वह निश्चय ही कविता के देश का पुनर्जागरण करने वाला है। इन्हीं कवियों के ठीक समानान्तर उभरे हैं – वीरेन्द्र सारंग, कमलेश्वर साहू, रविकांत, मनोज कुमार झा, प्रदीप जिलवाने, राज्यवर्धन, लीना मलहोत्रा राव, रेखा चमोली, विमलेश त्रिपाठी, मिथिलेश कुमार राय, संतोष अलेक्स, नीलोत्पल, सौमित्र, शिरीष कुमार मौर्य, बुद्धिलाल पाल, अच्युतानन्द मिश्र, आशीष त्रिपाठी जैसे युवा कवियों का नाम युवा उम्मीद के तौर पर लिया जा सकता है।
(चित्र: पवन करण)

                 कविता के वर्तमान परिदृश्य में अपनी उपस्थिति से ध्यान खींचने वाले कवि पवन करण मूलतः अत्याधुनिक मनोवृत्तियों के कुशल व्याख्याकार हैं। इस तरह मैंऔर स्त्री मेरे भीतरसे होते हुए कोट के बाजू पर बटनतक की सृजन यात्रा उनके कवि-व्यक्तित्व के उतार-चढ़ाव का ग्राफ भी प्रस्तुत करती है। इस तरह मैंमें न सिर्फ जीवन से अभिन्न विषयों को अनुराग, कृतज्ञता और उछाह के साथ चित्रबद्ध किया गया है, बल्कि उनके मूल्य को जीवनमय भाषा में सम्मानित किया गया है। स्त्री मेरे भीतरपुरुष कवि की आत्मा में चहलकदमी करती स्त्री के वजूद का प्रकाशन ही नहीं, बल्कि स्त्री के भीतर अपना व्यक्तित्वांतरण किए हुए दुस्साहसिक कवि का अन्तर्नाद है। पवन करण प्रायः ऐसे विषयों को उठाते हैं, जो हमारी, आपकी नजरों से गिर चुके हैं, जिस पर मुँह खोलना हम अपमानजनक समझते हैं, जिसके पक्ष में खड़ा होना मानो अक्षम्य अपराधी घोषित होना है। उपेक्षित, अवैध और घृणा की हद तक त्याग दिए गए विषयों के पक्ष में खड़े होने के एकल दुस्साहस ने ही पवन करण को अपनी पीढ़ी में अलग महत्व का कवि बनाया है। 
(चित्र: सुरेश सेन निशान्त)
     

वे लकड़हारे नहीं हैंसे अपनी अनिवार्य उपस्थिति दर्ज कराने वाले सुरेश सेन निशांत सतह पर फैले अस्त-व्यस्त-पस्त आम जीवन के गायक हैं। उपेक्षित बचपन, दमित स्त्री, हार-हारकर जीते मनुष्य के प्रति अकथ भावुकता से परिपूर्ण निशांत का हृदय उनकी कीमत पर बोलते हुए कभी नहीं अघाता। सौम्य, शान्त किन्तु सुदृढ़ और गहरा आक्रोश सुरेशसेन के कवि की मूल ताकत है। कहन की शैली में सहज होकर भी अर्थों के स्तर पर इतने आसान नहीं हैं सुरेश सेन। विषय की वास्तविकता को पाठक के हृदय में स्थापित कर डालने के मौन संकल्प के चलते ही उन्होंने सहज अभिव्यक्ति का रास्ता चुना। यही सहजता कई बार सीधे-सादे अर्थों की सरलता में तब्दील हो जाती है, जिसमें नये-नये भावों और विचारों के प्रकाशन की जगह कहे-सुने गए अर्थों का दुहराव सा नजर आता है, किन्तु अपने एक-एक विषय के प्रति अटूट आत्मीयता से भरे सुरेश सेन निशांत प्रगाढ़ भावनात्मकता की ताजगी कविता में भरते ही रहते हैं।

(चित्र: केशव तिवारी)

इस मिट्टी से बना’ (2005 ई.) और आसान नहीं विदा कहना’ (2010 ई.) काव्य संग्रहों के सर्जक केशव तिवारी मौजूदा सृजन परिदृश्य में अपनी पहचान रखते हैं। घर-गृहस्थी के जंजाल और जीवन की भागाभागी में पीछे छूट चुके गाँव, जवार, अंचल, पुरवा की याद केशव तिवारी को चैन से रहने नहीं देती। इनका जनपद कोई लिखा-लिखाया, पढ़ा-पढ़ाया गयाकिताबी कथाओं जैसा जनपद नहीं, बल्कि बचपन से लेकर आज तक स्मृतियेां के पोर-पोर में रचा-बसा, जीता-जागता, बतियाता हुआ जनपद है। वे जनपद को सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखते, बल्कि अपने अन्तर्वाह्य व्यक्तित्व पर चढ़े हुए उसके अथाह ऋण को थोड़ा-बहुत उतार लेने के लिए जनपद को सुमिरते हैं। बात करेंगे गम की, रात काटेंगे रम कीका मुहावरा इन दिनों साहित्य जगत में सबके सिर चढ़कर बोल रहा है। केशव तिवारी की शब्द-सत्ता में बृहत्तर जनजीवन की उपस्थिति चटक, सप्राण और गतिमान है, किन्तु समकालीन भारत के अन्य दर सत्य, अप्रत्याशित घटनाएँ, व्यक्ति-मन का अबूझ स्तर उनकी सृजन-यात्रा का अनिवार्य हिस्सा बहुत कम बन पाते हैं। सामयिक मुद्दों के स्तर-स्तर में घुस कर उसमें छिपे एक-एक रहस्य को खोलना और राजनीतिक, सांस्कृतिक मोर्चे पर एक मंत्र-सिद्ध साधक की तरह विषय को साधना केशव तिवारी के लिए चुनौती की तरह है।

(चित्र: महेश चन्द्र पुनेठा)
   
उत्तरांचल के जनजीवन और मानवतापूर्ण प्रकृति के पक्ष में अपनी चिन्ता और बेचैनी का राग छेड़ने वाले महेश चन्द पुनेठा मौजूदा परिदृश्य के परिचित स्वर हैं। 2009 में प्रकाशित भय अतल मेंसंग्रह ने पाठक-मानस को आकर्षित करने में सफलता हासिल की है। उपेक्षित व्यक्ति, वर्ग, समाज, अंचल के प्रति अनुराग से भरे पुनेठा गुमनाम जनजीवन की आत्मा के गायक नजर आते हैं। बदरंग और बेखास दिखते जीवन की कठिन जटिलताओं में उतर कर उसे सरलतापूर्ण भंगिमा में पेश कर देना पुनेठा की कविताई का रहस्य है। अडिग रहना, सच जीवित रहने की सम्भावना बरकरार रखना है। अविचल रहना जिंदा रहना है। अनम्य बनना, ईमानदारी को जीना है। अस्तित्व और सुंदरताशीर्षक कविता इसी मूल्य को वाणी देती है। पुनेठा जी की कविता में जीते-हारते-मरते-गलते जनजीवन के प्रामाणिक चित्र हैं, किन्तु उन बोलते-बतियाते चित्रों में उम्दा दर्शन कैसे पैदा किया जाय, यह कला सीखना कवि के लिए अभी शेष है। किसी भी कवि को यदि काल के मृत्युदायी चक्रवात में विलीन हो जाने से अपनी कविता को बचाना है तो उसमें मर्मपूर्ण जीवनदर्शन की आग जलानी ही पड़ेगी।
युवा कविता की ताकत और…………..
सृजन की बारीकियों का जानकार होना और राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय काव्य-परम्परा के शिखरों से परिचित होना, इस पीढ़ी की ताकत कही जा सकती है। उनकी शक्ति इसमें भी है कि वे कविता में विषयों की सम्भावनाओं का अभूतपूर्व विस्तार कर रहे हैं। स्थूल, दृश्यमान और प्रत्यक्ष दिखते विषयों के आकर्षण से कई कदम आगे बढ़ चुका है आज का कवि। अब उसकी पहुँच सूक्ष्म, अदृश्य और प्रत्यक्ष सत्यों तक है। वह ध्वनि का, तत्व का, मर्म का शब्दकार बनता नजर आता है। चित्त को, बुद्धि और मानस को उचित और अनुचित ढंग से प्रभावित करने वाले मायावी बाजारवाद को समझने में कामयाब दिखती है यह पीढ़ी। इन सबसे अलग और उल्लेखनीय यह भी कि उसे सिमटती जा रही सृजन-सत्ता की पीड़ा है, पलायन कर चुके मर्मी पाठकों को पुनर्जीवित करने की चिन्ता है, और कविता का गौरव लौटाने का सपना उसकी आँखों में अंगड़ाई लेने लगा है। समाजविज्ञान, मनोविज्ञान, इतिहास, राजनीतिशास्त्र के ज्ञान में दक्ष यह युवा वर्ग उसे साहित्यिक परिधि में लाने की कला सीख रहा है। साहित्येतर विषयों को रचनात्मक दृष्टि से मूल्यवान बनाने की दक्षता इसपीढ़ी की उपलब्धि मानी जा सकती है। इतना ही नहीं, बिना किसी घोषणा के गाँव की ओर, जिला-जवार- जनपद की ओर खेत-पगडंडी, धूप-छाँव की ओर ललक के साथ लौटने का विवेक भी युवा पीढ़ी की मूल्यवान ताकत है।
इन जरूरी और कीमती क्षमताओं से सम्पन्न रहने के बावजूद युवा पीढ़ी के भीतर विषय से एकाकार होने की दक्षता खत्म होती जा रही है। विषय से एकाकार होना, विषय के सम्पूर्ण सत्य को आत्मसात कर लेना है, खुद के व्यक्तित्व का उस विषय में रूपान्तरण कर लेना है, और अंग-अंग में उस विषय का वजूद धड़कने लगना है। एक मात्र मनुष्य ही वह चमत्कार है, जो सृष्टि की किसी भी दृश्य-अदृश्य, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सत्ता में अपना व्यक्तित्वांतरण कर सकता है, अनुभूति और पारदर्शी कल्पना के बूते विषय के स्तर-स्तर का साक्षात्कार कर सकता है और शताब्दियों से अज्ञात, अपरिचित सत्यों का उद्घाटन कर सकता है। घटना, दृश्य, तथ्य और मनुष्य के बारे में इतिहास, समाजशास्त्र, विज्ञान की ताकत जहाँ समाप्त होती है, साहित्य और दर्शन की क्षमता वहाँ से आरम्भ होती है। भक्तिकालीन कवि विषय को रचते नहीं थे, बल्कि खुद विषय बन उठते थे और फिर खुद को ही अभिव्यक्त करते थे। मीरा मीरा कहाँ रह गयीं? कबीर ब्रह्ममय हो चले और गुरुनानक? समूचा भक्तिकाल व्यक्तित्व और विषय की एकता का अप्रतिम उदाहरण है। आज का युवा कवि दर्शक, विश्लेषक, चित्रकार और गवाह है। वह विषय के सत्यों को सुमिरता नहीं, आह्वान नहीं करता, अन्तरतम से पुकारता नहीं और न ही उसका सत् निचोड़ डालने की जिद विकसित कर पाता है। बहुतेरे युवा कवियों की लाइलाज कठिनाई यह है कि वे विषय के स्थूल, प्रत्यक्ष और जाने-पहचाने यथार्थ में उलझे रह जाते हैं। वे ऊपरी सत्य की तरंगों में तैरते रह जाते हैं, भीतर गोता नहीं लगा पाते। आकाश को पुकारो, आकाश उतर आयेगा हृदय में, दिशाओं को पुकारो दिशाएँ चल पड़ेंगी आपकी ओर, पृथ्वी को पुकारो, वह उठ आएगी आपकी आत्मा में! दिल से, दीवानगी से, चरम ईमानदारी से बार-बार पुकार कर देखो तो।
युवा कवि समुदाय की दूसरी बीमारी विषयों की महत्ता के प्रति समुचित, सम्पूर्ण न्याय न कर पाना है। उसे वह मजबूत भाषा, सटीक शैली और सूक्ष्म व्यंजनात्मकता न दे पाना, जिसका वह विषय हक रखता है। सौ तरह के विषयों को उठा लेने मात्र से वे उठ नहीं जाते, पूरे नहीं हो जाते, सृजित नहीं हो जाते। कैसा आश्चर्य है – हूबहू एक ही घटना, व्यक्तित्व, वस्तु पर जाने-अनजाने पचास कवियों द्वारा लिखा-रचा जाता है, और वे घटनाएँ व्यक्तित्व और वस्तुएँ अपने रहस्यों के प्रकाशन में बाकी रह जाती हैं। करोड़ों वर्षों से दृश्यमान सृष्टि और लाखों वर्षों से विकसित हो रहे मस्तिष्क और मन के सत् को सृजन में निचोड़ लेने का दावा महज एक कल्पना ही हो सकती है। जब एक हरी दूब, एक पीली पत्ती, एक सूखा दरख्त, एक शुष्क चेहरा सैकड़ों तरह की कविताएँ पाने की सम्भावनाएँ रखते हैं, तो फिर एक रंग में फैले आकाश, एक ढंग से फैली पृथ्वी, एक रस में बहती हवा और असीमित भंगिमाओं में फैली हुई सृष्टि की तो बात ही अलग है। लगभग हर विषय अपनी मुकम्मल अभिव्यक्ति के लिए मौलिक भाषा, अभिनव शिल्प और सशक्त कल्पनाशील दृष्टि की मांग करता है। विषय की सत्ता पर कवि की पकड़  असाधारण हो जाय, इसके लिए चाहिए अथक साहस, जिद्दी किस्म का सृजन कौशल, दृश्य को विचार में, मर्म में, दर्शन में तब्दील करने का चट्टानी संकल्प। जिस तरह चित्र मात्र चित्र, दृश्य, केवल दृश्य और स्थूल सिर्फ स्थूल नहीं है -उसी तरह पुरुष केवल पुरुष, स्त्री केवल स्त्री और जड़-सृष्टि मात्र जड़ सत्ता ही नहीं है। बताइए, वह कौन सा दृश्य, अदृश्य, स्थूल-सूक्ष्म, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सत्ता है, जिसे दर्शन या मौलिक विचारों से श्रृंगारित नहीं किया जा सकता। हर विषय की अपनी एक जुबान होती है, वह आपसे लगातार बोल रहा है, बहुत कुछ कह रहा है सुनिए उसे। चेतावनी दे रहा है -समझिए उसे, आपके द्वारा थोप दिए गए शब्द जड़तासे मुक्ति पाना चाह रहा है, अपनी सामंतवादी दृष्टि से आजाद करिए उसे।
पहली बार’ (काव्य संग्रह –2009)  के बहाने बार-बार युवा परिदृश्य में दखल देने वाले संतोष कुमार चतुर्वेदी नयी सदी की कविता के पहचाने हुए स्वर हैं। इतिहास, आलोचना, कविता और सम्पादन में एक साथ सक्रिय संतोष कुमार अपनी गंभीर प्रतिबद्धता का विश्वास पैदा करते हैं। वे अपनी शिक्षित बुद्धि को मथने वाले विषयों का चुनाव हिम्मत के साथ करते हैं। एक साथ जनजीवन की दर्द भरी संघर्ष यात्रा और रहस्यमय अर्थ वाले कठिन, असाध्य विषयों को साधना किसी भी युवा कवि के लिए रिस्कलेने जैसा है। मगर संतोष अपनी अर्थ-अन्वेषक दृष्टि के बल पर इस रिस्क को अपने अनुकूल आसान बना लेते हैं। अर्थ में ध्वनि के लिए, दूरगामी व्यंजना के लिए कविता में अवकाश छोड़ना शर्त की तरह है। संतोष यह अवकाश सफलतापूर्वक पैदा करते हैं, किन्तु थोड़े-मोड़े शब्दों में नहीं, बल्कि हिक्क भर बातें कह करके। अर्थासिक्त और मंत्रबद्ध शब्दों में कविता को तराश लेना किसी शिखर सिद्धि से कम नहीं है। जी भर विस्तार करने का द्वारा ही अपनी रचनात्मक सोच का उद्घाटन करने वाले संतोष को अपनी गद्यमय संवाद शैली पर पुनर्विचार करना चाहिए। पेशे नजर हैं – ‘सच्चाई’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ – 
सच बोलना अब बिल्कुल मना है
जो बोलेगा वह ठिठुरेगा
सड़क के किनारे पागलों की तरह
लोग चिढ़ाएंगे उसे
फेकेंगे पत्थर।’ (पहली बार -पृष्ठ संख्या –17)
(चित्र: दिनकर कुमार)
  

पूर्वोत्तर भारत के समकालीन शब्दकारों में दिनकर कुमार का नाम प्राथमिक तौर पर उल्लेखनीय है। क्षुधा मेरी जननीऔर लोग मेरे लोगजैसे जमीनधर्मी संकलनों के द्वारा अपनी हस्तक्षेपकारी उपस्थिति दर्ज कराने वाले दिनकर कुमार भावप्रवण सहजता का दामन कभी नहीं छोड़ते। दिनकर के लिए कविता शब्दों का खेल नहीं, अर्थों का घुमाव-फिराव नहीं- बल्कि अन्तर्वेदना को प्रतिरोध की धार देने का विकल्प है। उनकी लगभग सभी कविताएँ संकल्प, बेवशी, जिद्द, और बेहतर भविष्य की छटपटाहट लिए हुए हैं। एक बोड़ो कवयित्री के गाँव में, भय के फ्लाईओवर के नीचे, मुस्कुराओ, क्षुधा मेरी जननी, एक किराएदार का एकालाप जैसी दर्जनों कविताएँ क्रूर समय के समक्ष मूक, पीड़ित, पराजित जनता का बयान दर्ज कराती हैं। विषय के गूढ़ मर्म को बातचीत या वर्णन के अंदाज में पेश करना आम पाठकों के लिए जहाँ उत्तम सिद्ध होता है, वहीं साहित्य-मर्मियों के लिए कलाविहीन, साधारण और काफी हद तक अनाकर्षक भी। इसीलिए कलात्मक सहजता का बेजोड़ सन्तुलन कालजयी कविता के लिए अनिवार्य घोषित किया गया है। जन्मभूमिकविता में छलक-छलक उठा है सुदूर पीछे जा चुका अलबेला बचपन। मरना पड़ता हैकविता में जीने की अपमानजनक शर्त का खुलासा किया गया है। दरिद्रता का उपनिवेशकविता विलक्षण वेदना के साथ आम भारतीय की दुखभरी और शाश्वत बदहाली का सन्ना देने वाला चित्र प्रस्तुत करती है। देखिए चन्द पंक्तियों की छटपटाहट – 

दरिद्रता के उपनिवेश में चलती-फिरती छायाएँ हैं
छायाओं के सहारे चलती-फिरती छायाएँ हैं
छायाओं के आँसू – पोंछती हुई छायाएँ हैं। 
छायाओं को ढांढस बंधाती हुई छायाएँ हैं। (क्षुधा मेरी जननी, पृ. सं.-33)
(चित्र: निशान्त)
एक सुपरिचित युवा कवि का नाम निशांतहैउत्तर प्रदेश का बस्ती जिला स्थायी पता है। अष्टभुजा शुक्ल का जनपद, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की जमीन। तो उल्लेखनीय यह है कि जवान होते हुए लड़के का कबूलनामाऔर जी हाँ लिख रहा हूँ’ ………. काव्य संग्रह निशांत के हैं। अक्सर लम्बी कविताओं में अपनी प्रतिभा को सन्तुष्ट करने वाले निशांत युवा मन की विविध दशाओं, संघर्ष, विवशता, गुमनामी, प्रेमपीड़ा के प्रतिबद्ध गायक हैं। पाँच प्रदीर्घ कविताओं का संकलन जी हाँ लिख रहा हूँनिशांत में सृजन की लम्बी साँस खींचने के धैर्य का परिचायक है। निरपेक्ष और यथार्थपरक आत्मालोचन, आत्मान्वेषण की दृष्टि से महत्वपूर्ण कविता कबूलनामानिशांत की वर्तमान रचनात्मकता का पुख्ता उदाहरण है। अपनी दुर्बलताओं, वासनाओं, दोहरेपन, चालाकी, नफरत और स्वार्थी इच्छा की स्वीकारोक्ति कठिन साहस है। किन्तु कबूलनामामें निशांत ने यह साहस खुलकर दिखाया है। जिस तरह सभी विषय सृजन की कसौटी पर खरे उतरने योग्य नहीं होते, उसी तरह क्षण-क्षण चित्त में उठते-गिरते, बोलते-विलुप्त होते अनवरत भाव भी। मर्मी और तत्वपूर्ण भावों का बारीकी से चुनाव करने की परिपक्व दृष्टि विकसित करना निशांत के लिए अभी बाकी है।
कभी महाकाव्य को सृजन का मानदण्ड माना जाता था, विलुप्त हो गया वह। प्रसाद, निराला, पंत, मुक्तिबोध और अज्ञेय जैसे शिल्पी कवियों ने लम्बी कविताओं की राह दिखाई और इस ढर्रे की मानक कविताएँ सम्भव कीं। आज की युवा पीढ़ी लम्बी कविताएँ रचने के मोह में कैद है और अनेक युवा कवि स्मरणीय लम्बी कविताएँ खड़ा करने की भरपूर कवायद कर रहे हैं, मगर अफसोस। दूसरी राम की शक्तिपूजाया अंधेरे मेंनिकलना तो बहुत दूर पटकथा’ (धूमिल) के आसपास भी वे कविताएँ नहीं ठहर पा रहीं। दस्तावेजी लम्बी कविता की लकीर खींच देने वाला फिलहाल एक भी युवा कवि नजर नहीं आता। कहना जरूरी है कि राम की शक्तिपूजा’, ‘अंधेरे मेंऔर पटकथाके शिल्पकार भी युवा ही थे।
दरअसल बड़ी कविता सिर्फ प्रतिभा, कलात्मक दक्षता और निरन्तर शब्दाभ्यास से नहीं, बल्कि तपे और तराशे हुए व्यक्तित्व, अंग-अंग में कसी हुई इंसानी भावाकुलता, अपराजेय अन्तर्दृष्टि और मानव-मूल्यों को जीने की दीवानगी से सम्भव होती है। उर्जस्वित व्यक्तित्व को पाए बगैर कलम के मैदान में उतरना, अनाड़ी सैनिक की तरह कच्चे हाथों से तलवार भांजने जैसा है। युवा कवियों के शब्दकोश से व्यक्तित्वशब्द बेतरह नदारत हो चला है। यहाँ तक कि अनाम रहने के दिनों में जो ताजातरीन जेनुइन भावुकता और ईमानदारी बची हुई थी, वह भी उसकीप्रसिद्धि और प्रतिष्ठा की भेंट चढ़ जाती है। साहित्य में अपना कद पा लेते ही, व्यक्तित्व में बौनों को भी पीछे छोड़ देना आज के क्या युवा, क्या बुर्जुग लगभग सभी साहित्यकारों की नियति बन चुकी है। रचनाकार के व्यक्तित्व का अर्थ है – अनोखे एहसासों का टटकापन, मौलिक अर्थों, तथ्यों और विचारों की निरन्तर खोज करते रहने की उत्कट दीवानगी, और अपनी कलम को अपने व्यक्तित्व से आगे न निकलने देने का अखण्ड संकल्प।
कवि या सर्जक के द्वारा आत्मसात किया गया ज्ञान ही उसकी रचनात्मकता की मूल ताकत बनता है। वह कलात्मक प्रतिभा लगभग अंधी और विकलांग है, जिसमें विविध ज्ञान का बल नहीं भरा है। यह ज्ञान समाज, इतिहास, राजनीति, धर्म, दर्शन, मानव विज्ञान, मनोविज्ञान, व्याकरण, इत्यादि किसी भी क्षेत्र से सम्बन्धित हो सकता है। साहित्य में सृजन की मौलिकता और जादुई कलात्मकता बद्धमूल है। कलम तो वही है जो इतिहास, समाज, मनोविज्ञान, दर्शन के सत्य को चित्ताकर्षक अन्दाज-ए-बयाँ में प्रकाशित कर दे। तात्विक ज्ञान को कलात्मकता की धार देकर साहित्य में प्रकाशित कर दे। तात्विक ज्ञान को कलात्मक की धार दे देना साहित्य कहलाता है। जीवन का ऐसा कोई भी पक्ष नहीं, जिसे साहित्य में अभिव्यक्त न किया जा सके। प्रकृति, जड़-चेतन सृष्टि और अमूर्त यथार्थ के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। आज के युवा कवि के सामने न सिर्फ योग्य व्यक्तित्व के गठन की चुनौती है, बल्कि समय के दृश्य-अदृश्य यथार्थ को, सूक्ष्म-स्थूल ज्ञान को, आत्मसात करने की भी चुनौती है। युवा कवि का अपनी परम्परा के श्रेष्ठ से सुपरिचित होना, उसके मौलिक कर्तव्य के अन्तर्गत है ही, विविध ज्ञान के हर रंग का ग्राही होना भी जरूरी शर्त की तरह है। ज्ञान देता है -तर्क की समझ, ज्ञान देता है – गहरा आत्मविश्वास, ज्ञान देता है – उचित संदेह करने का साहस। यह ज्ञान पहले तथ्य, फिर चिंतन, फिर संस्कार और अन्ततः स्वभाव का रूप धारण करता है। इस प्रकार सृजन के श्रेष्ठ और ज्ञान के विस्तार से सम्पन्न युवा सर्जक अपने आप कलम का सिपाहीबन उठता है। यथार्थ के स्थूल और दृश्य सत्य को जान लेना, जितना ही आसान है, उसके अदृश्य, सूक्ष्म और अभौतिक सत्य को, आन्तरिक मर्म को छू लेना, समझ जाना, आत्मसात करना उतना ही कठिन। युवा पीढ़ी अभी फिलहाल यथार्थ के बाह्य रूप को जानने तक ही सीमित है। विषय के बाह्य सत्य से अन्तःमर्म तक की यात्रा कवि के साधारण से असाधारण बनने की चरम यात्रा है।
(चित्र: ज्योति चावला)

युवा कवियित्री ज्योति चावला समकालीन कहानी में भी दखल रखती हैं। माँ का जवान चेहराजो कि ज्योति का पहला काव्य-संकलन है -निश्चय ही एक संवेदनशील सृजनस्वर का मजबूत प्रमाण देता है। जीवन के छोटे-छोटे संघर्ष, आत्मपीड़ा, दुश्वारियाँ, अनगढ़ आत्मीयता, सम्बन्धों की अवर्णनीय अभिन्नता और आसपास के समाज में पसरे  यथार्थ का विश्वसनीय आइना हैं ये कविताएँ। ज्योति बिल्कुल सहज-स्वाभाविक अंदाज में विकसित करती हैं कविताएँ और उसे अभिव्यक्ति का चरम रूप देते-देते किसी न किसी मर्मस्पर्शी भाव से प्रज्ज्वलित कर देती हैं। वे कहानीकार हैं तो स्वाभाविक है -कविताओं में भी जाने-अनजाने कहानी की दखल रहे। यह कुछ अनुचित भी नहीं, किन्तु कथात्मकता की अति कविता में मूल्यवान गैप के रेामांच को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। ज्योति चावला ने अपनी कविताओं में अपने कहानीकार कोसजगतापूर्वक सन्तुलित किया है, किन्तु सभी कविताओं में यह प्रयास नहीं सध पाया है; इसीलिए कुछ कविताएँ अतिरिक्त ग़द्यात्मकता का तनाव पैदा करती हैं। दयाराम, अधूरा अक्स, सच, एक सवाल, सुईधागा, पुराने घर का वह पुराना कमरा, माँ का जवान चेहरा ऐसी अनेकअर्थी कविताएँ बार-बार ज्योति चावला के भावी समर्थ कवयित्री का विश्वास जगाती हैं। कुछ पंक्तियाँ – 

सोचती हूँ कि काश होता एक ऐसा ही
सुई और धागा मेरे पास भी
होता ऐसा ही कौशल साध लेने का
तो सिल देती दो टूक हुए हृदय को। (सुई-धागा ; पृ. सं. 26, माँ का जवान चेहरा)
धूमिल की पटकथाया भगवत रावत की कविता- कहते हैं कि दिल्ली की है आबोहवा कुछ औरजैसी कविताओं को समकालीन कविता की उपलब्धि के तौर पर रेखांकित किया जा सकता है। विजेन्द्र, नरेश सक्सेना, मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, राजेश जोशी, ज्ञानेन्द्रपति, अरुणकमल, कात्यायनी जैसे वर्तमानदर्शी कवियों ने अपनी-अपनी क्षमतानुसार हिन्दी कविता को ताकत दी है। कुँवर नारायण और केदारनाथ सिंह की भूमिका को भी बेहतर योगदान के रूप में रेखांकित किया जाना चाहिए। किन्तु एक सवाल, एक आश्चर्य, एक पहेली, बार-बार मन में सिर उठाती है कि समूचे 40 वर्ष की समकालीन कविता एक मुक्तिबोध, एक नागार्जुन या एक सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला क्यों नहीं पैदा कर सकी? ‘सरोज स्मृति’, ‘राम की शक्तिपूजाऔर अंधेरे मेंकी गौरव-यात्रा जहाँ की तहाँ क्यों ठहरी हुई है? समकालीन कविता ने अपनी धरती, अपना आकाश, अपनी दिशाएँ तो बना ली, किन्तु रात को दिन में तब्दील करने वाला आफताब किधर है? प्रसिद्धि, स्थापना, पुरस्कार की सत्ता जैसे-जैसे विकसित हुई है, वैसे-वैसे कविता ने अपनी शिखरत्व की संभावना को खोया। सृजन के बृहत्तर सरोकारों से लगभग कटा हुआ समकालीन कवि बड़ी तैयारी की काबिलियत खो चुका है। सम्पूर्ण मानव जीवन के लिए समर्पित होने से पलायन करने वाला समकालीन कवि अपने प्रतिभा के विकास को कौन कहे, जितना वह है -उसे भी ढंग से नहीं बचा रहा। इस दौर में अधिकांश कवियों की जद्दोजेहद अपने नाम का सिक्का चल जाने तक है -दृश्य में कुछ उजास आए, न आए, हताशा, निराशा, नाउम्मीदी की धुंध छँटे, न छँटे आज के कवि को फर्क नहीं पड़ता। जीते जी उसने अमरता का स्वाद चख लिया, अपनी जय-जयकार का अमृत कानों से पी लिया, फिर किस बात की चिन्ता? कविता का सेंसेक्स लगातार गिर रहा है और हमारे कवि गजब की बेफिक्री में झूमते-गाते चले जा रहे हैं।
समय की प्रतिनिधि रचना सर्वगुण ग्राही व्यक्तित्व की मांग करती है। ऐसा व्यक्तित्व जो दूसरों की क्षमता, प्रतिभा और कला को सीखने में सिद्धि हासिल किए हुए हैं। रचनात्मक क्षमता का धनी व्यक्तित्व दूसरे सर्जक की प्रतिभा से यदि सीखता है तो हूबहू प्रभाव ग्रहण करने के अर्थ में नहीं, बल्कि उस प्रतिभा के मर्म को रीक्रिएटया ट्रांसक्रिएट करने के अर्थ में। निराला, मुक्तिबोध या नागार्जुन को पढ़ कर यदि हम उन्हीं की नकल करने पर उतर आए तो उनकी रचनाशीलता से क्या सीखा, खाक? निराला से सीखने का अर्थ है -उनकी संकल्पमय मेधा का आह्वान करना है, अपने भीतर उदार खुद्दारी का निरालापन लाना है। मुक्तिबोध से सीखने का अर्थ ईमानदारी के साथ परमभक्त की तरह पेश आना है, और अपनी एक-एक कविता को  घातक समय सेलोहा लेने के लिए हथियार की तरह चमकाना है। 
अपनी एक भी कविता को यूँ ही खर्च नहीं कर देना है, जो पाठक की चेतना में बिना कोई हलचल पैदा किए समाप्त हो जाए। ठीक इसी तरह नागार्जुन। सीखिए इनसे दुस्साहस, कबीरी फक्कड़ता, उपेक्षितों के साथ जीने-मरने की आश्चर्यजनक दीवानगी और सीमाओं को चुनौती देने का अखण्ड विवेक। बड़ी रचना का सम्बन्ध पेजों की संख्या, मौलिक शैली, भारी-भरकम भाषा या विषय की नवीनता से बिल्कुल ही नहीं है। बल्कि वह तो सर्जक के आत्मदर्शी संकल्प, ऊँची अभिव्यक्ति की जिद, विषय के स्तर-स्तर में घुसपैठ लगाने की हुनर और मर्म के अनुकूल समर्थ भाषा साधने की क्षमता पर निर्भर है। बड़ी रचना सौ-सौ पेज खर्च कर डालने के बावजूद सम्भव नहीं, यदि सर्जक में अभिनव व्यंजना की झंकार भरने की जिद नहीं है तो। शब्द लिखे, तो मानो हृदय के टुकड़े पिरो रहा है। वाक्य रचे तो मानो अपनी धमनियाँ बिछा रहा है। अर्थ को कुछ इस तरह मथे मानो भावों को चिंतन की आँच में खौला-खौला कर पका रहा है। इसमें क्या दो मत कि बड़ी रचना चाहत, महत्वाकांक्षा या अभ्यास से नहीं, बल्कि अपने भीतर रौशन आत्मा की सिद्धि से सम्भव होती है।

सम्पर्क-
भरत प्रसाद

एसोसिएट प्रोफेसर

हिन्दी विभाग, नेहू, शिलांग
मोबाईल- 09863076138
  

भरत प्रसाद के काव्य संग्रह ‘एक पेड़ की आत्म कथा की समीक्षा : नित्यानन्द गायेन

कवि एवं आलोचक भरत प्रसाद का एक कविता संग्रह ‘एक पेड़ की आत्मकथा’ नाम से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की समीक्षा की है युवा कवि नित्यानन्द गायेन ने। आईए पढ़ते हैं यह समीक्षा-
   
‘पेड़ के बहाने, मनुष्य की आत्मकथा’

पिछले दिनों कवि भरत प्रसाद जी का काव्य संग्रह ‘एक पेड़ की आत्मकथा’ पढ़ने का सुअवसर मिला। संग्रह की भूमिका वरिष्ठ कवि भगवत रावत ने लिखी है। कवि के बारे में उन्होंने लिखा है –“सन २००० के बाद, यानी इक्कीसवीं सदी के साथ जो युवा कवि हिंदी में सामने आ रहें हैं , भरत प्रसाद उन सबमें कई अर्थों में अलग और विशिष्ट हैं। सबसे पहले तो यही कि वे गैर राजनीतिक ढुलमुल दृष्टि वाले नहीं बल्कि एक बेहद सशक्त राजनीतिक दृष्टि संपन्न ऐसे कवि हैं जिसका पक्ष –विपक्ष बिलकुल स्पष्ट है। समाज को देखने –समझने की उनकी गहरी संवेदनशीलता पूरी तरह सतर्क और ज्ञानात्मक है।”
रावत जी ने इस कवि के बारे में यहाँ जो कुछ लिखा है उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं हैं। यह बात हम भरत प्रसाद की कविताओं से गुजर कर आसानी से समझ सकते हैं। उदाहरणस्वरुप इन पंक्तियों को देखिये :

“वह कलम किस काम की
जो दूसरों के भावों को
सार्थक शब्द न दे सके ,
जो असफल हो जाय
जीवन से हार खाए हुए को
थोड़ी सी उम्मीद देने में ,..”

‘कलम’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ हमें कवि के पक्ष को समझने में सहायता करती हैं। संग्रह का शीर्षक ‘एक पेड़ की आत्मकथा’ मतलब जीवन संघर्ष की कहानी। जिस तरह एक वृक्ष अपने जीवन काल में तमाम आंधी–तूफान बाढ़ –सूखा सब कुछ झेलते हुए अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है ठीक वैसा जैसा नागार्जुन का ‘बाबा बटेसरनाथ’ की कहानी है। पेड़ की आत्मकथा उन सब की आत्मकथा है जो आज भी पीड़ित और शोषित है। यह आत्मकथा हर संघर्षरत व्यक्ति की आत्मकथा है।

इस संग्रह की पहली कविता है – ‘प्रकृति की ओर’ छोटी सी कविता किन्तु गहरी।

“सुना है –
ममता के स्वभाववश
माता की छाती से
झर –झर दूध छलकता है
मैं तो अल्हड़ बचपन से
झुकी हुई सावंली घटनाओं में
धारासार दूध बरसता हुआ
देखता चला आ रहा हूँ |”

कवि भावविभोर हो कर खुद को प्रकृति से जोड़ता है और उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है। 
अपनी मातृभूमि के प्रति हमारा प्रेम ही हमें अपनी जड़ों से जोड़कर रखती है। प्रत्येक नागरिक को अपने देश की धरती के प्रति ऋणी होना चाहिए। जो अपनी धरती से खुद को अलग कर लेने का प्रयास करता है और विश्व पूरे विश्व को समझने का प्रयास करता है वह सही नही हों सकता क्यों कि अपनी जड़ों से अलग कर हम दुनिया को कभी समझ ही नही सकते। क्यों कि मनुष्य पहले अपने परिवार फिर गांव –समाज से होकर ही बाकी दुनिया तक पहुँचता है। द्विविजेंद्र लाला राय ने –“लिखा धोनो –धान्यो पुष्पे भोरा आमादेर एई बोसुन्धोरा ..।” ठीक इसी तरह कवि भरत प्रसाद ने अपनी मातृभूमि को याद किया है –

“ओ मेरी विशाल और
महान मातृभूमि
मैं आज
तुम्हारी ममतामयी धूल और मिटटी को
साष्टांग प्रणाम करता हूँ
सदा हरी –भरी तुम्हारी गोद
प्रसन्न फूलों से पूर्ण
तुम्हारे पानी , फल और अन्न
हमें बहुत शक्ति देते हैं ” (वही,पृ.-२४ )
 

बहुत सही लिखा है कवि ने यहाँ हमारी धरती ही हमें शक्ति प्रदान करती हैं , अपनी धरती से बेदखल मनुष्य बहुत कमजोर हों जाता है। जिस तरह वृक्ष कभी धरती से अलग होकर जीवित नही रह सकता ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी धरती से अलग होकर बहुत कमजोर हो जाता है।

‘वह पुराना आदमी’ कविता में कवि ने आधुनिक मानवीय स्वाभाव पर कटाक्ष करते हुए उसे यहाँ बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है

–“उस रात के जब डूबने तक
हर कोई बस सो रहा था –
वह पुराना आदमी कब से
अचानक टूट करके –
बालकों सा रो रहा था
….
सुबह हुई सभी उठे
गए वहाँ खास लोग
रेडीमेड शब्दों में
करुणा की बारिश कर
खुद को कुछ कामों में व्यस्त कह ,
वापस घर –आकर
तीन –पांच धंधों में
जबरदस्त मस्त रहे”

यहाँ कवि ने मनुष्य के बदले हुए स्वाभाव को उजागर किया है। आज सहानुभूति के शब्द भी रेडीमेड हैं। ये शब्द दिल ने नही निकलते हैं। आज हमें अपने साथी मनुष्यों के प्रति /उसकी पीड़ा के प्रति कोई सहानुभूति नही रहीं, हमें मतलब है तो केवल अपने काम से।

(कवि: भरत प्रसाद)

जनकवि बाबा नागार्जुन के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए कवि भरत प्रसाद ने कविता लिखी है –“बाबा नागार्जुन” –

‘बदलती हुई शताब्दी के,
ठीक –ठीक पहले ही
ढेरों जनता की
एक कलम टूट गयी’

एकदम सटीक बात लिखी हैं कवि ने हमारे /जनता के प्रिय कवि नागार्जुन के लिए। नागार्जुन वे कलम थे जो लाखों जनों का प्रतिनिधित्व करते थे | आज बाबा जैसे कवि को खोज पाना दुर्लभ हों गया है।

“पक्की निगाह से
परख लिया राजनीति
देख लिया सत्ता के
शक्तिमान साजिश को,
सधे चोर संसद के
बहुत अच्छे भाषण में
कुर्सी की बदबू थी;
वादे थे बड़े –बड़े
खाली और खतरनाक
हरे –भरे घावों से
भरी हुई जनता पर
महजब का नमक डाल
जन सेवा करते थे।” (वही, पृ .३०)

भरत जी ने अपनी उच्च शिक्षा दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से प्राप्त किया है। जे.एन. यू. आज भी पूरे देश मेंकम्युनिस्ट विचारधारा का गढ़ माना जाता है। कौन भूल सकता है गोरख पाण्डेय को?  यहीं से देश को कई बड़े वामपंथी नेता मिले। इसी तरह एक छात्र नेता हुए थे कामरेड चन्द्रशेखर। अपने साथियों के अलावे जेएनयू में सभी छात्रों में खासे लोकप्रिय थे। वे अपने मित्रों के प्रिय चंदू थे। थे तो वे एक छात्र नेता पर केन्द्रीय सत्ता को भी भय लगता था इनसे। और सत्ता को जिससे भय लगता है वह उसे अपने मार्ग से हटा देता है। यही हुआ था चंदू के साथ भी। जेएनयू छात्र संघ के भूतपूर्व अध्यक्ष की बिहार के सिवान जिले में एक रैली को संबोधित करते वक्त सिवान का गुंडा और लालू यादव का खास शाह्बुददीन के इशारे पर उनकी हत्या कर दी गई थी। जिसके बाद सरकार को जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा और कोई महीनों तक छात्रों ने दिल्ली में सरकार के विरोध में आन्दोलन किया , जेल भरे गए ….देश के इस वीर सपूत के शहादत ने आज़ादी के दशकों बाद भगत सिंह की याद ताज़ा कर दिया था। अपने इस साथी को याद करते हुए कवि ने एक कविता लिखी हैं – ‘तुम रहोगे चंद्रशेखर’ यह सही भी है ऐसे लोग कभी मरते नही, वे सदा जीवित रहतें हैं हमारे भीतर, हमारी स्मृतियों में।

“चंद्रशेखर –तुम जा नही सकते
क्यों कि तुम –तुम नही ‘सब’ बन गये हों।
सपने जो बनाये , क्या मिट गये सभी ?
नही चंदू नहीं
वो तो आत्मा में बस गये हैं
।” (वही, पृ .४१)

बिलकुल ऐसे साथी कभी मरते नही , वे सदा जीवित रहते हैं हमारे भीतर अपने विचारों से। और एक सच्चे साथी का यह फ़र्ज है कि हम उनकी विचारधारा को आगे तक ले जाएँ। यही काम भरत जी यहाँ करते हुए दीखते हैं। यही इस कवि की प्रतिबद्धता का प्रमाण भी है। इसके लिए मैं कवि के प्रति अपना आदर प्रकट करता हूँ। उन्हें लाल सलाम देता हूँ।

इस संग्रह की एक और बेहतरीन कविता है –‘बामियान के बुद्ध’ कुछ समय पहले तालिबान आतंकवादियों ने अफगानिस्तान के बामियान की बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़ –फोड़ दिया था।| विश्व समुदाय ने इस घटना की कड़ी निंदा की थी। बुद्ध जिन्होंने सदियों पहले विश्व शांति के लिए अपना सब कुछ त्याग कर वनवास अपना लिया था और अंगुलीमल जैसे क्रूर हत्यारा उनके प्रभाव में आकर एक महान संत बन गये थे। इस बुद्ध के विचारों के प्रभाव से सम्राट अशोक का ह्रदय परिवर्तन हुआ था। आज भय से उनकी प्रतिमाओं को खंडित करने में लगे हैं। इससे बुद्ध और भी प्रासंगिक हों जाते हैं कि केवल उनकी मूर्तियों की मौजूदगी से आतंकी खौफ़ में हैं । कवि ने इन अबूझ दहशतगर्दों के लिए लिखा है –

“वह मूर्ति नहीं, वह धर्म नही
वह अमर रहेगा, राज करेगा दिल में
जब तक मानव में
यह ह्रदय रहेगा।
अपनी सोचो, कहाँ खड़े हों?
नई शती या मध्यकाल में,
विश्व बढ़ रहा है आगे –आगे
तुम हो वैसे पीछे जाते
महजब की बंजर धरती पर,
कट्टरता के अंधकार में
जानबूझ कर ठोकर खाते ….(वही, पृ .४३)

‘पेड़ की आत्मकथा’ इस संग्रह में दरअसल मनुष्य की आत्मकथा निहित हैं। इस संग्रह में कवि ने आज के समय की विसंगतियों का चित्र उकेरा है। कवि भरत प्रसाद के इस संग्रह में डाकू से सांसद बनी फूलन देवी पर भी एक कविता हैं। जो हमारी राजनीतिक व्यवस्था और सामाजिक ढांचे पर एक सवाल खड़ा करती है। प्रकृति पर भी कुछ बेहतरीन रचनाएँ हैं जो महान कवि विललियम वोर्सवर्थ की याद ताज़ा कर देती हैं। कुछ कवितायेँ जो लंबी हैं उन्हें कम शब्दों में भी लिखी जा सकती थीं पर शायद कवि के पास शब्द और अनुभव अधिक रहें हों। इस संग्रह में ४९ कवितायेँ हैं कुल मिलाकर यह एक बेहतरीन संग्रह है इन कविताओं को पढ़कर पाठक न केवल कवि के मनोभावों को समझ पाएंगे बल्कि वे अपने समाज और उसकी विसंगतियों से भी रु –ब रु होंगे। किन्तु संग्रह का मूल्य कुछ अधिक ही गया रखा है। आम पाठक इसे खरीदने में हिचकिचाएंगे।

पुस्तक –एक पेड़ की आत्मकथा
लेखक –भरत प्रसाद
प्रकाशक –अनामिका प्रकाशन,

५२, तुलारामबाग ,इलाहाबाद
मूल्य -२७५/-रु

समीक्षक – नित्यानन्द गायेन
हैदराबाद , मो -०९०३०८९५११६

भरत प्रसाद


नरेश सक्सेना हमारे समय के अत्यन्त महत्वपूर्ण कवियों में शुमार किये जाते है। मात्र दो संग्रहों के बल पर नरेश जी ने जो ख्याति अर्जित की है वह उल्लेखनीय है। नरेश जी के कवि कर्म पर एक आलोचनात्मक पड़ताल की है युवा कवि – आलोचक भारत प्रसाद ने। 
 

वैज्ञानिक भावुकता के शिल्पकार

विषयों की अपार विविधता के लिए समकालीन हिन्दी कविता अपना खास महत्व रखती है। बगावती तेवर के मूर्तिमान व्यक्तित्व धूमिल और कुमार विकल से गुजर कर कात्यायनी, एकांत श्रीवास्तव, पवन करण, सुरेशसेन निशांत, रंजना जायसवाल, केशव तिवारी, महेशचन्द्र पुनेठा, संतोष चतुर्वेदी, अनुज लुगून जैसे नवीनतम कवियों तक पहुँचती इस काव्य-धारा में हजारों बहुरुपिया, बहुरंगी, बहुढंगी, बहुअर्थी विषयों का सैलाब उमड़ता नजर आता है। समय के प्रत्यक्ष दिखते चरित्र की असलियत को न सिर्फ भाँप लेना, बल्कि अभिनव अभिव्यक्ति के शिल्प में ढाल देना समकालीन कविता की उपलब्धि कही जा सकती है! कमाल यह भी कि शिल्प और शैली के दुस्साहसिक प्रयोग का सिलसिला कुछ इस कदर चल निकला है कि अब कविता का कोई सर्वमान्य शिल्प ही नहीं रह गया है। आम पाठकों को लगातार, लगातार लगातार….. खोया, खोया और सिर्फ खोया है समकालीन कविता ने। कारण इसके अनेक हैं, किन्तु उसकी एक अनिवार्य वजह फैशनधर्मी शिल्प की अति है। आम पाठक का मानस अभी ऐसे अजनवी, अद्भुत और चैंका देने वाले शिल्प का अभ्यस्त नहीं हुआ है, और न ही अपनी रूचि के दायरे में ऐसे प्रयोगधर्मी शिल्प को स्वीकार कर पा रहा है। आम प्रबुद्ध मानस की परवाह किये बगैर मनमौजी तरीके से कहानीमय कविता गढ़ते चले जाना उसकी अलोकप्रियता का मूल कारण है।

समुद्र पर हो रही बारिश’ और ‘सुनो चारूशीला’ काव्य संग्रह के स्थापत्यकार नरेश सक्सेना जी अनुभूति और अन्तःदृष्टि का ऐसा अभिनव सन्तुलन बिठाते हैं कि कविता दार्शनिक सहजता की ऊँचाई पर चमकने लगती है किन्तु इन सभी क्षमताओं में सबसे खास है, उनकी भाव प्रवण वैज्ञानिक-दृष्टि, जो कि अखण्ड प्राणधारा की तरह कविताओं की शरीर में बही है। समकालीन कविता के इतिहास में सक्सेना जी अकेले ऐसे कवि हैं, जिन्होंने वैज्ञानिकता को कविता के केन्द्र में ला खड़ा किया है और उसके प्रति समसामयिक युवा कवियों को प्रभावित एवं प्रेरित किया है। ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ और ‘सुनो चारूशीला’ की अधिकाशं कविताएँ उनकी इसी वैज्ञानिक-दृष्टि के आलोक में बहती नजर आती हैं।

समुद्र पर हो रही बारिश’ वर्ष 2001 में प्रकाशित हो कर हिन्दी जगत के सामने आयी, जिसने सर्वत्र व्यापक सार्थकता का एहसास दिलाया। बेहतर होगा कि संग्रह पर प्रशंसा भरी उक्तियों से बचते हुए छानबीन करें कि उसमें आखिर है क्या ? उसके अर्थों का परिमाप क्या हे ? हमें स्थायी तौर पर जीत लेने की उसमें कितनी सम्भावना छिपी हुई है ?

संग्रह की पहली कविता है – ‘हिस्सा’। सर्वप्रथम उसकी कुछ पंक्तियों का साक्षात्कार करें –

बह रहे पसीने में जो पानी है वह सूख जाएगा
लेकिन उसमें कुछ नमक भी है
जो बच रहगा

टपक रहे खून में जो पानी है वह सूख जाएगा
लेकिन उसमें कुछ लोहा भी है
जो बच रहेगा।

यह सच है कि सक्सेना जी सदैव विज्ञान को डोर थामें रहते हैं, वे एक भक्त की तरह विज्ञान से प्रेम करते हैं। उनकी कविता में शायद ही ऐसे प्रसंग आएँ, जो वैज्ञानिक भावना से मुक्त होकर लिखे गये हों, लेकिन वे इस वैज्ञानिक एवं तर्कनिष्ठ दृष्टि को अपने संवेदना पर ज्यादा हावी नहीं होने देते। कांटे की तौल वाली विज्ञान-बुद्धि शुष्क, औपचारिक और प्राणहीन साहित्य को जन्म देती है वह आतंकित करने वाला विचार दे सकती है, स्तम्भित कर देने वाला उक्ति-चमत्कार प्रकट कर सकती है, परन्तु हृदय को पानी-पानी कर देने वाली मार्मिकता पैदा नहीं कर सकती।

कवि ने भौतिक पदार्थों की निर्माण-प्रक्रिया को समझने में बुद्धि के साथ कल्पना शक्ति का भी भरपूर प्रयोग किया है। इस क्रम में उन्हें इसका पूरा ख्याल है कि उसे अनुभूति-प्रवण और भावनात्मक रूप देना है इस उद्देश्य के प्रति सजगता के चलते वे बीच-बीच में ऐसी मौलिक सच्चाइयाँ प्रकाशित करने में कामयाब हो जाते हैं, जो बेहद महत्वपूर्ण होते हुए भी अज्ञात और अपरिचित हैं। हमारे मनो-मस्तिष्क को बहुत दूर तक तरंगित कर देने वाली कवि की दृष्टि बहुत कल्पनाशील है। अर्थों को बड़ा फलक प्रदान करने की क्षमता मुक्तिबोध में विस्फोटक थी। वे रहते-रहते चिंगारी की तरह ऐसा असीम अर्थ-विस्फोट कर देते थे, कि उनकी पिछली सारी अमूर्तता, उलझाऊपन और जटिलता की दिक्कत समाप्त हो जाती थी। सक्सेना जी की कविताओं में असीम अर्थों का वैसा बलखाता आवेग तो नहीं है मगर एक संकल्पी आकुलता जरूर है। इस आकुलता को वे बड़े धैर्य और आत्मविश्वास के साथ प्रकट करते हैं। लगभग यह घोषणा करते हुए कि देखा सको तो देखो, मेरे पास दृश्य के उस पार देखने वाली अन्तर्दृष्टि है, जिसमें कोई चतुराई, कलाकारी या रहस्यमयता नहीं।

समकालीन कविता के बहुतेरे कवियों के विपरीत सक्सेना जी अपने विचारों में बेहद स्पष्ट हैं वे बहुत सफाई और साहस के साथ अपने विचारों का दावा प्रस्तुत करते हैं, जिसमें एक विनम्र निर्भीकता है, और है – परिपक्व चिंतन का आत्मविश्वास। स्तरीय कविता के लिए सिर्फ विचारों की स्पष्टता पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसमें रूचि की भूख शान्त करने और मन को दूर तक खींच ले जाने की क्षमता भी होनी चाहिएं। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि सक्सेना जी की कविताएँ इन दोनों शर्तों पर लगभग खरी उतरने वाली कविताएँ हैं। उनके शब्द गेहूँ के ताजा-ताजा दाने की तरह हैं – पुष्ट, चमकदार, साफ और भूख शान्त करने में समर्थ। वे दिखने में जरूर छोटे-छोटे हैं, परन्तु उनमें कवि की पदार्थ-भेदी दृष्टि कस-कसकर भरी हुई है। वे यूँ ही किसी शब्द को इस्तेमाल नहीं करते। बहुत जाँच-परख, परीक्षण और शोध के बाद ही किसी शब्द की अपनी अभिव्यक्ति का हकदार बनाते हैं। इसलिए कविता लिखना उनकी आदत नहीं, बल्कि अन्तःप्रेरित विवेक है, एक नैतिक दबाव है- जिसके चलते वे  कविता लिखने को तत्पर  होते  हैं । उनके  लिए यह  नितान्त व्यक्तिगत जिम्मेदारी है, आत्मनिष्ठ प्रतिबद्धता है। वे हमारा हाथ पकड़कर स्नेहपूर्वक खींचते हुए वहाँ ले जा कर खड़ा कर देते हैं – जहाँ अदृश्य स्तर पर विचार जन्म ले रहे हैं, अर्थ विकसित हो रहे हैं और व्यापक दर्शन निर्मित हो रहा है।

सक्सेना जी की कविताओं का महत्व रेखांकित करते हुए सियाराम शर्मा लिखते हैं – ‘‘नरेश सक्सेना में बहुत ही कम शब्दों में दृश्यों को रचने की अद्भुत क्षमता है। ऐसे दृश्यों के बारे में कवि अपनी ओर से कुछ भी नहीं कहता। दृश्य खुद ही बोलते और अपना अर्थ खोलते हैं।’’

इस वक्तव्य से साफ है कि सक्सेना जी की एक खासियत दृश्य-कविता रचना है, लेकिन वे कविता को मात्र दृश्य बनाकर ही नहीं छोड़ देते बल्कि उसमें अकाट्य विचारों की झंकार भी पैदा करते हैं। इससे एक ओर जहाँ रूचि में तीव्रता आती है – वहीं दूसरी ओर बुद्धि का स्तर भी उन्नत होता है। शुरू से अन्त तक ऐसी एक भी कविता नजर नहीं आएगी, जो पाठक के भीतर कोई नया भाव, नया सत्य, नया तथ्य जोड़े बिना रह जाय। यह काम कवि ने बड़ी सफलता के साथ किया है। फूलों का रोना, कुत्तों का हँसना, अच्छे बच्चों का जि़द न करना इत्यादि पद सीधे-सीधे, बेधड़क स्मृति की गहराई में प्रवेश कर जाते हैं। बड़े कवि अपनी कविताओं के द्वारा जीवन-सत्य का मुहावरा रचते हैं – ये मुहावरे कई बार एक वाक्य में होते हैं – दो वाक्यों में होते हैं या एक-दो शब्दों में। ये मुहावरे जो कि हमें बेहद आकर्षक और स्मरणीय लगते हैं – जुबान पर अनायास ही बैठ जाते हैं और प्रसंगों के अनुसार कई सारे अर्थ देते रहते हैं। कई बार ऐसा होता है कि वह कवि अपनी लम्बी-चैड़ी कविताओं के बल पर नहीं – इन बहुअर्थी मुहावरों के बल पर पाठकों के हृदय में अमिट हो जाता है।

सक्सेना जी में भावना का व्यापक और विविध स्तर तो है ही उनमें अर्थों की चमक पैदा करने की ताजा क्षमता भी है। प्रायः वे एक खोजी बंजारा की तरह हथियार लेकर घूमते रहते हैं, टोह लेते रहते हैं – निगाह जमाए रहते हैं और जैसे ही उन्हें कोई काम की चीज, मूल्यवान वस्तु नजर आयी – तपाक से उसकी खुदाई शुरू कर देते हैं। वे एकनिष्ठ भाव से अपने काम में डूबकर अर्थों की तहों का पता लगाते रहते हैं। इस काम में उनकी अन्तश्चेतना को अग्रसर करने का काम उनकी तीक्ष्ण कल्पना करती है – इसी कल्पना के माध्यम से वे विषय के आदि-अंत तक पहुँच जाने की दृढ़ महत्वाकांक्षा रखते हैं। वैसे प्राकृतिक रूप से विषय कुछ चीज ही ऐसी है – जिसके अर्थों का कोई ओर-छोर नहीं। एक ही युग में उसके सम्पूर्ण अर्थों को निकाल बाहर करना असम्भव है।

एक साथ कई सारे अर्थों के अमिट प्रभाव पैदा करने के कारण ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’ संग्रह की प्रतिनिधि कविता ‘उसे ले गये’ है। अन्य कविताओं की तरह यह कविता भी आकार-प्रकार में छोटी और भाषा में मितव्ययिता बरतती हुई कविता है। इस कविता पर विस्तारपूर्वक कुछ लिखा जाय, इसके पहले उसकी कुछ पंक्तियों का उल्लेख आवश्यक है –

देखो कैसे कटी उसकी छाल
उसकी छाल में धंसी कुल्हाड़ी की धार
मेरे गीतों में धंसी, मनौती में धंसी
मेरे घावों में धंसी
कुल्हाड़ी की धार।

इस कविता में कवि ने हृदयस्पर्शी भावातिरेक की क्षमता दिखाई है। नीम का पेड़ वैसे तो एक मामूली, बेखास सी वस्तु है। ऐसा भी नहीं कि वह कोई दुर्लभ चीज हो। मध्य भारत से लेकर उत्तरी भारत के सम्पूर्ण मैदानी इलाकों में यह हर कहीं, हर तरफ पाया जा सकता है। उत्तरी भारत की ग्रामीण संस्कृति में नीम को बहुत शुभ माना गया है। घर के आस-पास, सामने, पिछवाड़े या आँगन में नीम का एक पेड़ जरूर होना चाहिए। उसकी उपस्थिति मात्र से वातावरण शुद्ध रहता है, रोग-बीमारी फटकने नहीं पाती यह पेड़ कवि के लिए भी मात्र पेड़ नहीं है – उसके लिए वह जीवित संस्कार है। वह जैसे सिर से लेकर पाँव तक, अंग-प्रत्यंग में अपनी शाखाओं, डालियों एवं पत्तियों के साथ फैला हुआ है और कवि के भीतर फलता-फूलता, महकता रहता है। शरीर का जैसे मामूली सा अंग कट जाने, या छिल जाने से असह्य पीड़ा होती है – वैसे ही मनो-मस्तिष्क से लेकर नस-नस में फैले इस वृक्ष का जरा भी नुकसान होने पर कवि को मर्मांतक पीड़ा होती है, और हो भी क्यों न ? उस वृक्ष ने क्या कुछ नहीं दिया है। झूला का अवर्णनीय आनन्द, मादक छाया, जलावन लकड़ी, औषधीय छाल-पत्तियाँ, सब कुछ। मात्र इसी कविता के दम पर सक्सेना जी ने सिद्ध कर दिया है कि विज्ञान की डोर पकड़ कर कविताएँ लिखने के बावजूद उनके पास अत्यन्त भावप्रवण कविताओं की फसल देने वाला हृदय मौजूद है।

‘सुनो चारूशीला’ की पहली कविता ‘रंग’ है। इसमें साम्प्रदायिक मानसिकता की खिल्ली उड़ायी गयी है, जो कि प्रकृति को भी नहीं बख्शती और उसका साम्प्रदायीकरण कर ही डालती है। कवि का प्रतिरोध साफ है कि अपनी जहरीली दृष्टि से प्रकृति को दूषित कर डालने से बाज आओ। ठीक दूसरी कविता है ‘मछलियाँ’।  इस कविता का मकसद इस वाक्य से समझा जाय – ‘जिसे हम बना नहीं सकते, उसे बर्बाद करने का हमारा क्या हक ?’ मछली  हाँ, मछली। लाखों वर्षों से प्राणदान के लिए तरसती एक असहाय जीव। हम मछली मार कर खा तो डालते हैं, किन्तु उसे पैदा कभी नहीं कर सकते। ठीक इसी तरह हम पानी को जहरीला तो कर सकते हैं, किन्तु उसे ज्यों का त्यों शुद्ध नहीं कर सकते। फिर प्रकृति की अनमोल धरोहरों को विकृत करने का हमें क्या हक ? मुहावरा वही पुनर्जीवित हो उठता है – जिसे हम बना नहीं सकते, उसे खत्म कर देने का हमें क्या हक ? अपनी एक कविता ‘दाग़ धब्बे’ में कवि ने अतिशय प्रतीकधर्मी कल्पनाशीलता का कौशल दिखाया है। जहाँ कर्म है, गति है, श्रम है और कदम-दर-कदम जीवन्तता चमक रही है – वहाँ तो दाग धब्बे पड़ेंगे ही। संघर्ष की निशानी है – ये। साफ-सुथरी जगह पर दाग-धब्बे सबसे पहले अपना निशान छोड़ते हैं। संकेत यह भी कि यदि प्रयास मचल रहा है, परिवर्तन कसमसा रहा है, बेहतरी की कोशिश चल रही है तो कुछ न कुछ भूल-चूक होगी ही। प्यार करो इस भूल-चुक से, क्योंकि यही सफलताएँ और सिद्धियाँ हासिल करने की सीढ़ी बनती हैं। जिसे अपने गिरने की ग्लानि नहीं होती, वह उठने का आत्मगौरव क्या समझेगा ? प्रकृति में, जीवन में, घटना और गतिविधि में तत्व, रहस्य और दर्शन की खोज करना कुछ नयी बात नहीं, किन्तु अदृश्य में, अमूर्त  सत्ता में, अप्रत्यक्ष अस्तित्व में छिपे दर्शन का पता लगाना विरले सत्यान्वेषी सृजनधर्मियों के वश की बात है, क्योंकि इसमें अचूक कल्पनाशीलता के साथ-साथ अभिव्यक्ति की सधी हुई कला की जरूरत पड़ती है। कहना जरूरी है कि सक्सेना जी को ये दोनों क्षमताएँ स्वाभाविक रूप से हासिल हैं। प्रकृति, सृष्टि और ब्रह्माण्ड में पराजय, मृत्यु और विनाश का तांडव क्षण-प्रतिक्षण कहीं न कहीं जारी है। आश्चर्य यह कि हमें चतुर्दिक मची हुई मृत्यु-लीला का एहसास तक नहीं होता। कवि का प्रश्न है कि कानों में बहता हुआ सन्नाटा कहीं विनाश के बाद की भयानक नीरवता तो नहीं ? सक्सेना जी सन्नाटे के भीतर छिपे मृत्यु के अन्तर्नाद को जिद्दी सजगता के साथ सुनना चाहते हैं – वो भी अन्तश्चेतना के कानों से। दो-चार तत्वपूर्ण पंक्तियाँ –

टूटते तारों की आवाजें सुनाई नहीं देतीं
वे इतनी दूर होते हैं
कि उनकी आवाजें कहीं
राह में भटक कर रह जाती हैं
हम तक पहुँच ही नहीं पातीं। (पृ. सं. – 18)

सृजन की वैज्ञानिक दृष्टि:

वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करने में विज्ञान की भूमिका अवश्य होती है, किन्तु अकेले विज्ञान वैज्ञानिक दृष्टि का विकास नहीं कर सकता। यहाँ तक कि विज्ञान के बग़ैर भी वैज्ञानिक अन्तर्दृष्टि प्रस्फुटित हो सकी है और होती है। कहना पड़ेगा कि विज्ञान से वैज्ञानिक दृष्टि का अनिवार्य संबंध नहीं है। फिर सवाल यह हे कि वैज्ञानिक दृष्टि का निर्माण करने वाले मूलतत्व क्या हैं ? दरअसल ये तत्व हैं – यथार्थ के प्रति उत्कट प्रेम, निरपेक्ष तर्क की क्षमता, तथ्य और सत्य के स्तरों में डूबने का साहस, प्रमाणों की रोशनी में निष्कर्ष तक पहुँचाने का हौसला और जादुई, चमत्कारिक परिणामों के प्रति घोर शत्रुता का भाव। यह वैज्ञानिक दृष्टि न सिर्फ दृश्य, यथार्थ, भौतिकता के प्रति प्रेम, बल्कि अनुभूति, भावना, चेतना और एहसासों की क्षमता में विश्वास करने का भी नाम है। वैज्ञानिक दृष्टि की कसौटी दृश्य और स्थूल जगत नहीं, बल्कि सूक्ष्म और अदृश्य अन्तः जगत है। वह अन्तःजगत चाहे मनुष्य का हो, प्रकृति का हो, समाज और संस्कृति का हो, पशु-पक्षी या प्राणी समूह का हो या फिर किसी भी ब्रह्माण्डीय अस्तित्व का। विज्ञान की पहुँच भले ही सार्वभौम न हो सके, किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि सार्वभौम बन सकती है। यदि इस दृष्टि की पहुँच पर यकीन करें तो परमात्मा, ब्रह्म, जीव, माया, देवी, देवता, जादू, चमत्कार सबकी असलियत का तार-तार विश्लेषण कर सकती है और इनकी सदियों पुरानी सत्ता
को बेनकाब कर सकती है।

सृजन के क्षेत्र में  वैज्ञानिक  दृष्टि अनिवार्य शर्त की तरह है । सर्जक में यह अनमोल क्षमता निर्जीव या सजीव के आचरण, स्वभाव, व्यवहार पर लगातार-लगातार चिंतन-मनन और मंथन करने से आती  है, प्रत्यक्ष दिखते हुए सत्य का भावप्रवण मूल्यांकन करने से विकसित होती है, और अपनी चेतना की दिशाओं को सूक्ष्म-स्थूल, दृश्य-अदृश्य सत्ता में सफलतापूर्वक विस्तृत करने से पैदा होती है। सृजन की वैज्ञानिक दृष्टि कलाकार की सिर्फ तर्कक्षमता का परिणाम नहीं, बल्कि अनुभूतियों का अधिकारी होने का भी परिणाम है। जब महत् सत्य और परम तथ्य का विश्लेषण करने से तर्क चुकने लगता है, असफल होने लगता है, तब अभिनव अनुभूतियों की रश्मियाँ सर्जक को सत्य तक पहुँचने में कामयाब करती हैं। वस्तु, घटना, व्यक्ति या सत्ता के रहस्यों से पर्दा उठाने में यही वैज्ञानिक दृष्टि ही कामयाब होती है। यही दृष्टि संसार से सचेत प्रेम का पाठ भी सिखाती है और मनुष्य में कसी-ठसी हुई अन्धी श्रद्धा, सड़े विश्वास और मृत विचारों की जमकर धुलाई एवं सफाई करती है। वैज्ञानिक दृष्टि के लिए सर्जक का माक्र्सवादी होना जरूरी नहीं, हाँ उसका सत्य भक्त होना, यथार्थवादी और अनुभूति-साधक होना अनिवार्य है। वैज्ञानिक दृष्टि सर्जक का स्वाभाविक गुण नहीं है, इसे साहसिक प्रयास के साथ अर्जित करना होता है। इतना ही नहीं, अपने भीतर इस दुर्लभ शक्ति को निरन्तर बनाये रखने के लिए चित्त को, चेतना को, हृदय और मस्तिष्क को असाधारण सजगतापूर्वक तैयार रखना होता है।

सक्सेना जी प्रकृति और सृष्टि के वैज्ञानिक शिल्पकार तो हैं ही, साथ ही विज्ञान जहाँ चूकने लगता है – वे उससे एक कदम आगे आत्मानुभूति की आभा में सृष्टि के अदृश्य सत्य को छूने की भी साधना करते हैं। वे मात्र वैज्ञानिक सर्जनात्मकता के कलाकार नहीं, बल्कि स्वयंभू अन्तश्चेतना के भी शिल्पी हैं। प्रमाण हैं – पंक्तियाँ –

जगहें खत्म हो जाती हैं
जब हमारी वहाँ जाने की इच्छाएँ
खत्म हो जाती हैं।    (अजीब बात: पृ. सं. – 19)

‘गिरना’ शीर्षक कविता सक्सेना जी का असली परिचय बताने वाली कविताओं में से एक है। चिंतन की अन्तर्मुखी दिशा में चलते-चलते यह कविता खुलकर बहिर्मुखी हो जाती है। सोच से ओज की यह यात्रा अर्थपूर्ण हैं मनुष्य हर तरह से, अनुकूल या प्रतिकूल दशा में गिर रहा है, पतित हो रहा है, अपने पतन को चूमने को अभिशप्त है। यह कविता मनुष्य के पतन के खिलाफ उसके गिरने का मूल्य निश्चित करती है। जब गिरना ही है तो ऐसा क्यों न गिरो कि तुम्हारे गिरने से किसी का जीवन बच जाय, किसी में प्राण लौट आयें, कहीं नवजीवन की धारा फूट जाय, कहीं परिवर्तन की क्रांति अंकुरित होने लगे। यह कविता मनुष्य के गिरने का संस्कार तय करती है और उसका गौरवपूर्ण सलीका सिखाती है।

जहाँ विज्ञान के नियम, तर्क, सिद्धांत और सूत्र समाप्त होने लगते हैं, वहाँ से आत्मा के विज्ञान की यात्रा आरम्भ होती है, जिसे प्रदीप्त अन्तःप्रज्ञा की यात्रा कहा जाता है। इस यात्रा का सिद्धांत कार्य-कारण के तर्क से परे, परम अनुभूति का सिद्धांत है, विज्ञान के उस पार मनोजगत का शास्त्र है  और नियमों की हदें  तोड़ता हुआ चेतना के  नियम का आकाश है ।

सक्सेना जी की कुछ कविताएँ ऐसी ही सूक्ष्म, अदृश्य, मनःआकाश की यात्रा पर चल निकले तीर नजर आती हैं। साधक-भावना की ऐसी अदृश्य यात्रा का परिणाम हैं ये पंक्तियाँ –

जिसके पास चली गयी मेरी जमीन
उसी के पास अब मेरी
बारिश भी चली गयी (इस बारिश में: पृ. सं. – 25)

अक्सर, नहीं-नहीं हमेशा मनुष्य के प्रेतमुक्ति की बात उठती है, मगर ‘प्रेत मुक्ति’ कविता में प्रेत को मनुष्य से मुक्त होने की चेतावनी दी गयी है। अर्थ क्या निकला ? आज का मानव अपनी सोच, कर्म-कुकर्म, चाल-कुचाल, ताल-तिकड़म, नीचता, भ्रष्टता में प्रेत से कई गुना भयानक है। पतन की पराकाष्ठा इस कदर कि पिस्सु, गोंजर, बिच्छू, धुन, मच्छर और गोबड़ौरा (गोबर का सुपुत्र) सबको अपने आचरण-व्यवहार से पीछे छोड़ चुका है। जरा मिलान कीजिए इन पंक्तियों को, अपने आसपास या दूर के अनेक मुखौटों वाले बेमिसाल व्यक्तित्वों से-

सच्चाई यह है कि अक्सर
बिलों, नाबदानों और सीवरों में घुसे
मुझे मनुष्य दिखाई देते हैं
और जहाँ औरों को दिखते हैं मनुष्य
मुझे दिखते हैं चूहे, तिलचट्टे और सुअर। (प्रेत मुक्ति: पृ. सं. – 27)

‘प्रेत-मुक्ति’ के ही समानान्तर चीटियाँ’ कविता सक्सेना जी की पारगामी दृष्टि की मिसाल पेश करती है। छोटी, बेखास, नन्हीं जान सी दिखती चीटियों को मामूली, अबला समझना भूल है। ठीक चीटियों की तरह साधारण, सीधा सा दिखता मनुष्य क्या आज विश्वास के काबिल रह गया है ? वाह रे उसकी मुस्कान, वाह रे उसकी आत्मीयता। और तो छोडि़ए, उसके टपकते आँसुओं से भी घातक मक्कारी की दुर्गन्ध उड़ती है। आग, उर्जा, रोशनी सृष्टि के सर्वव्यापी तत्व हैं। रहस्य मात्र इतना कि वह कहीं प्रकट हो जाती है और कहीं तो चुपचाप छिपी रहती है। जब बुद्ध ने मनुष्य के लिए कहा – ‘अप्प दीपो भव’ तो उसका कुछ तो कारण रहा होगा ? उन्होंने दूरदर्शी विवेक के बल पर बूझ लिया कि मनुष्य धधकने के लिए तैयार पड़ी हुई मशाल का प्रतिरूप है। सक्सेना जी ने प्रस्तुत कविता के बहाने जिस तरह पानी में छिपी रोशनी के जादू को उजागर किया है, उसी तरह उन्होंने आपके, हमारे अन्तस्थल में स्थित दीपक के रहस्य को प्रकट किया है। कविता है – ‘मुझे मेरे भीतर छुपी रोशनी दिखाओ’।

दूसरों के लिए काम आए आपके व्यक्तित्व और गुणों की उपयोगिता से ही आपके असली सौन्दर्य का निर्धारण होता है, न कि, आपकी उस चमक-दमक से जो कि किसी के दुखदर्द में, हारे-गाढ़े रŸाी भर भी काम नहीं आ सकता। हाथों में परहित नहीं, पाँवों में दिशा नहीं, आँखों में सृष्टि नहीं, दिल में धरती नहीं – क्या होगा ऐसे मनुष्य का ? जिस निगाह से अथाह कृतज्ञतावश सृष्टि के प्रति अनुराग न छलक पड़े, वह सौ गुना मरी हुई निगाह नहीं तो और क्या है ? हमने पेड़, नदियाँ, वन, प्रान्तर, खेत आदि को न जाने कैसी निगाहों से देखा वे पल-प्रतिपल मर रही हैं। हमारे वजूद को जन्म देने वाली और सांसारिक अमरत्व की ओर प्रेरित करने वाली प्रकृति को यदि ऐसी ही घनघोर अन्धी निगाहों से देखते रहे तो एक न एक दिन इनका बेतरह मिट जाना तय है। बदल डालो ऐसी जहरीली दृष्टि को, इसके पहले कि वह तुम्हें ही मिटा डाले। ‘देखना जो ऐसा ही रहा’ शीर्षक कविता अनिवार्यतः अपनी घातक निगाहों के प्रति ऐसे ही आत्म धिक्कार का भाव पैदा करती है।

सक्सेना जी निस्संदेह वैज्ञानिक भावुकता के प्रतिबद्ध शिल्पकार हैं, उनकी भावुकता बेहद मंजी हुई, संतुलित, व्यवस्थित और तथ्यदर्शी है। वे अपनी संवेदनशीलता का बेजा इस्तेमाल नहीं करते, बिना किसी मतलब के छितराते, छींटते नहीं चलते, बल्कि वैज्ञानिक अन्तर्दृष्टि से उस भावुकता को मांजते हैं, काटते-छांटते हैं, परिष्कृत और परिपक्व करते हैं, उसमें दर्शन की सुगन्ध मिलाते हैं, तब जाकर सन्तुष्ट होते हैं। चिर-परिचित विषयों, घटनाओं, स्थितियों, दृश्यों और चरित्रों को विलक्षण संवेदनशीलता और अलहदा कल्पनाशीलता के साथ देखने की दुर्लभ क्षमता ही सक्सेना जी को अपने समकालीनों में अन्यतम सर्जक का व्यक्तित्व प्रदान करती है।


संपर्क-

भरत प्रसाद
एसोसिएट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
नेहू, शिलांग, मेघालय
मो. 9863076138
E-mail: deshdhar@gmail.com>

भरत प्रसाद

भरत प्रसाद ने आलोचना के साथ-साथ कविताएँ और कुछ कहानियां भी लिखीं हैं. ‘का गुरू’ भरत की एक नवीनतम व्यंग्परक कहानी है जिसमें उन्होंने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त दुराचारों को अपनी कहानी का विषय बनाया है. भरत खुद भी पूर्वोत्तर विश्वविद्यालय शिलांग में हिन्दी के एक प्रोफ़ेसर हैं और वे इस बुद्धिजीवी समुदाय में व्याप्त अनाचारों दुराचारों से भलीभांति अवगत हैं. किस तरह ये प्रोफ़ेसर शोध कराने के नाम पर अपनी शोध छात्राओं का शोषण करते हैं इसकी एक बानगी इस कहानी में प्रस्तुत है.

का गुरू !

आपने, उसने, हम सब ने गुरू की एक से बढ़कर एक परिभाषाएँ पढ़ी, सुनी और कंठस्थ की होंगी। मसलन गुरूर् ब्रह्मा गुरूर् विष्णु, गुरूर् देवो…………। या फिर ‘गुरू, गोविन्द दोऊ ख़ड़े……….। जरा ठहरिए एक सेकेण्ड तो……… भक्त सूरदास ने भी गुरुजी पर रमकर गाया है – ‘श्री बल्लभ नख-चन्द्र छटा बिनु, सब जग माहीं अंधेरो।’ मगर वे तो हुई पुरानी बातें, गयी-बीती कहावतें। अब कहाँ ऐसे शिष्य, और कहाँ ऐसे………..? आजकल गुरु लोग बनिया हो गये हैं – रुपया गिनते हैं। दुकानदारी चमका लिए हैं – बुद्धि बेंचते हैं। चारण बन गये हैं – साकार ईश्वरों की जयघोष करते हैं । निन्नानबे नहीं, सौ प्रतिशत यकीन कीजिए मियाँ ! गुरू खिलाड़ी है, गुरू इश्कावतार है, गुरू गोटीबाज है, गुरू कामदास जी है, गुरू चामदास जी है, गुरू जामदास जी है, गुरू चाटुकार है, गुरू बुहुरुपिया है, गुरू मालामाल है, गुरू बवाल है, गुरू घंटाल है। आजकल कबीर बाबा होते तो जरुर अपनी गुरु-भक्ति पर पुनर्विचार करते और अपनी बानी में बौखला कर जरूर कहते कुछ इस तरह – ‘गुरू, कामदेव दोऊ खड़े, को सेवक को स्वामी। गुरुवा का बलिहारी जाऊँ, कामदेव बस नामी।’ संस्कृत तो आजकल मरणासन्न भाषाओं में शुमार है, वरना गुरु-महिमा का बखान यह भाषा भी कुछ कम नहीं करती। नमूना पेश-ए-खिदमत है – ‘गुरूर् गड्ढा, गुरूर् खाई, गुरूर् कुँआ महेश्वरः, गुरूर् साक्षात् अंधकारम्, अंधकाराय नमोनमः।’ भक्तवर सूरदास भी अपना क्रोध निकालने में कहाँ पीछे रहते, ब्रज की बोली में दो चार विस्फोटक पंक्तियाँ गाते ही। मगर जाने भी दीजिए। अब गुरु- महिमा का बखान खड़ी बोली में जरा इत्मीनान से, दम ले लेकर, विस्तापरपूर्वक क्यों न किया जाय ?

‘रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवियों की प्रौढ़ा नायिकाओं का तुलनात्मक अनुशीलन’:

भारतवर्ष के एक प्रदेश की राजधानी का विश्वविद्यालय, जिसमें साठ वर्षीय युवा प्रोफेसर नायक निहायत सम्मानित और इज्जतदार शिक्षक हैं। बाबू वैसे तो हिन्दी विभाग के बादशाह हैं- मगर उनका सिक्का (अर्थात् रूतबा) पूरी यूनिवर्सिटी में चलता है। संक्षेप में उनका भौगोलिक परिचय भी बूझ लीजिए। कद मुकम्मल 6 फीट, रंग अरहर की साबूत दाल जैसा, वजन अनुमानतः 75 किलो, सिर पर आधे चन्द्रमा की स्थायी उपस्थिति, टार्च के बल्ब की तरह अपनी जगह अथक नाचती हुई घुची-घुची आँखें, सिर के निचले किनारे-किनारे उगे हुए बाल अमावस्या की रात से भी ज्यादा घने और काले।

नायक बाबू देश के न जाने कितने नामी-गिरामी विश्वविद्यालयों में ‘इक्जामिनर- हैं, एक्सपर्ट हैं, कमेटियों के मेम्बर हैं। पेपर सेटिंग के लिए अब प्रोफेसर साहब को फुर्सत नहीं, सो, पल्ला झाड़ लिया इस शुष्क परिश्रम से। बस चलता तो अपने भी विश्वविद्यालय की पेपर- सेटिंग से मुक्ति ले लेते। मगर इसका मतलब यह भी न लगा – लीजिएगा कि कापियाँ भी नहीं जाँचते। जाँचते हैं। जी-जान से जाँचते हैं, थोक के थोक जाँचते हैं, मशीन की तरह जाँचते हैं, मगर बांच कर नहीं। एकहिं- साधे सब सधे……….’ कबीर के इस दोहे के चौथाई वाक्य को नायक बाबू ने अपने जीवन का मूलमंत्र बना रखा है ; मंत्र तो और भी महान कवियों का बनाया है – मसलन तुलसीदास का, बिहारी का, रहीम का – मगर न जाने क्यों वे कबीर के दोहों के अतिरिक्तवत् आशिक हैं। कभी प्रहसन, कभी चुटकुला, कभी बुझा-बुझौवल और कभी संकेत समझाने के अर्थ में कबीर-तुलसी के दोहों का दनादन इस्तेमाल करते हैं। वे ऐसा कोई काम नहीं उठाते, जो सिर्फ एक मकसद के लिए हो। प्रोफेसर साहब बहुउद्देशीय सोच के स्वामी हैं। एक काम से एक ही मकसद सधे- उसमें कुछ मजा नहीं, कुछ रस नहीं, कोई एडवेंचर नहीं। अपने विभाग या विश्वविद्यालय के अन्य प्रोफेसर जो सामान्य तौर पर करते हैं, उसमें नायक बाबू को यकीन नहीं – मसलन टाइम-टेबिल के अनुसार निर्धारित कक्षाएँ लेना, कोर्स के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करना, अपना कोर्स एक बार तरोताजा कर फिर विद्यार्थियों को पढ़ाना इत्यादि-इत्यादि। आपके तन, मन, बुद्धि आत्मा, भावना, एहसास और भी न जाने शरीर के किस-किस जगह चंचला देवी पल्थी मारकर बैठी हुई हैं। कुछ यूँ समझिए कि आप अस्थिर चित्त के महावतार हैं। क्लास ले रहे हैं – तो मन फलाँ यूनिवर्सिटी की कापी न आने पर बावला है। छात्र कोई कठिन सवाल पूछ बैठे हैं तो चित्त अन्दर-अन्दर मारे क्रोध के उछलने लग रहा है। प्रिय छात्राएँ कुछ जानना चाह रही हैं तो निगाहें उनकी रेशमी बालों की चमक पर फिसल-फिसल जाती हैं। पत्नी-बच्चों के बीच बैठे हैं, तो अंग्रेजी डिपार्टमेन्ट में नवनियुक्त, अविवाहिता, सहायक प्रोफेसरा नयनतारा के साथ इण्टरवल में स्पेशल चाय की याद बेचैन किए हुए हैं। अब यह खुलासा करने या अनुमान लगाने की जरूरत नहीं कि चंचल चित्तधारी प्रोफेसर साहब सोते वक्त किस-किस के सपने देखते होंगे ? वैसे उनके बारे में एक अनुमान अक्सर लगाया जाता है कि नायक बाबू वह सपना देखते ही नहीं, जिसे वे पूरा न कर सकें। और यदि वे सपना देख लिए, तो उस सपने की औकात ही क्या, जो उनकी मुट्ठी में कैद न हो। होशोहवाश में, जानबूझ कर, खुली-जगी आँखों से देखे गये मनपसन्द सपने को पूरा करके ही दम लेते हैं नायक बाबू। उनके सपने भी अनोखे रंग वाले होते हैं – मसलन नैन-नक्श और मुस्कान में मोनालिसा को भी नाचीज साबित कर देने वाली नवागंतुक छात्राओं के बीच कैंटीन में पसरकर चाय-पकौड़ी काटना। पत्नी के न रहने पर छुट्टी के दिन किसी छात्रा को सुमधुर आदेश के साथ बुलाना और किचन में उसके साथ चाय उबालते हुए नाजुक-नाजुक गप्प लड़ाना। छात्रों से दरोगा टाइप दूरी बनाने में उन्हें कोई हिचक या शर्म नहीं महसूस होती थी, मगर छात्राओं से ? यहाँ ‘दूरी’ शब्द से ही मर्मान्तक पीड़ा होती थी। यहाँ वे साम्यवादी मुद्रा धारण कर लेते थे। सीने में सहृदयता की बाढ़ उमड़ने लगती थी। जी उछलने लगता कि छात्राओं को अपना प्रशंसक बनाने के लिए क्या से क्या न कर डालूँ ? उन्हें खिलाने-पिलाने, का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते थे। मार्के का रहस्य यह भी बूझ लीजिए कि ऐसी अदाओं, कलाओं और छलाओं के विशेषज्ञ प्रो. नायक विश्वविद्यालय में अकेले ही नहीं थे। विश्वविद्यालय के अन्य विभागों मसलन – राजनीति विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, दर्शनशास्त्र, अंग्रेजी साहित्य, जीव विज्ञान यहाँ तक कि गणित जैसे घनघोर शुष्क विभाग में भी ऐसे रसाचार्य सशरीर जीवित थे। और अपने-अपने अभियानों को सिद्धि की अवस्था तक पहुँचाने में सन्नद्ध थे। विश्वविद्यालय के कुछ विभागों का तो बाकायदा इतिहास ही था – रसानन्द को व्यावहारिक जीवन में उतारना। राजनीति विज्ञान विभाग पढ़ाई के लिए कम, लडा़ई-भिडा़ई के लिए अधिक विख्यात (?) था। भला दर्शनशास्त्र विभाग इस मामले में क्यों पीछे रहे ? इस विभाग के कुछ सिद्धयोगी आचार्य रस की अलौकिक अनुभूतियों का प्राणायाम सिखाते थे। ऐसी साधना में असफलता का सवाल ही नहीं। चूँकि इस प्राणायाम का शुभारंभ ‘स्पर्शमुद्रा’ से होता था, इसीलिए इसे स्पर्शयोग भी कहा जाता था। प्रो. नायक इस योग के दुर्लभ साधक थे। उनके बारे में तो यहाँ तक प्रचलित था कि स्पर्शयोग के वे साक्षात् अवतार थे। जितनी बारीकियाँ, जितने चमत्कार, जितने जादुई रहस्य इस योग में हो सकते हैं, वह सब साध चुके थे – प्रो. नायक। ‘न भूतो, न भविष्यति’ की हैसियत प्राप्त कर चुके थे – स्पर्शयोग में।

प्रो. नायक मात्र छात्राओं को ही मोक्ष का लाभ देने योग्य क्यों पाते थे, वे खुला भेद था। मोक्ष-प्राप्ति की इस यात्रा में कौन सी छात्रा सर्वाधिक उपयुक्त है – इसका चुनाव नायक महाशय खुद करते थे। भला किस छात्रा की हिम्मत थी कि ईश्वर की तरह पहुँच रखने वाले गुरुवर के प्रस्ताव को इंकार कर सके ? जिस तरह किसी भी साधना के कुछ चरण होते हैं – वैसे ही इस ‘स्पर्शयोग’ के भी चार चरण थे। पहले चरण में कोई भी शिष्या – विशुद्ध छात्रा, दूसरे चरण- प्रिय भक्त, तीसरे चरण में नायिका और चौथे चरण में ? तीसरे चरण से स्पर्शयोग की शुरुआत होती थी, जिसकी चरम परिणति चौथे चरण में होती थी। छात्रा से नायिका बन उठना इस योग का निर्णायक मोड़ मानते थे – योगी नायक। फिर तो आगे की सिद्धि में इतनी कठिनाइयाँ नहीं थी, क्योंकि अब तक छात्रा की आमूल-चूल कण्डीशनिंग हो चुकी होती थी। नायक बाबू के निर्देशन में रिसर्च करने वाले विद्यार्थियों की संख्या कुछ ज्यादा न थी, मगर उनके अण्डर में जितने भी स्कालर थे, लगभग सभी झुकते-झुकते अपनी रीढ़ की हड्डी खो चुके थे, चुप रहते-रहते गूंगे हो गये थे और जी हाँ कहते-कहते बिन पेंदी का लोटा हो चुके थे। इसमें क्या शक, कि नायक महोदय हिन्दी साहित्य के ही प्रोफेसर थे, मगर अपने प्रत्येक शोध छात्र को वे आला दर्जे का विषय सौंपते थे। चार नमूना तो देख लीजिए – ‘ब्रजभूषण बिहारी के काव्य में रस-तत्व की मीमांसा’, ‘देवदत्त के उपन्यासों में चित्रित शहरी नारी का मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन’, ‘कवयित्री चित्रांगदा के प्रेमपरक गीतों में विरह की महानता’, ‘रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध कवियों की प्रौढ़ा नायिकाओं का तुलनात्मक अनुशीलन’। शोधरत छात्रों, छात्राओं और खुद नायक बाबू को भी बखूबी पता था कि ब्रजभूषण, देवदत्त या चित्रांगदा साहित्य के किस खेत की मूली हैं ? मगर शोधार्थियों को इससे क्या वास्ता कि उन्हें किस विषय पर शोध करना है? उन्हें बस डिग्री से मतलब था। टॉपिक अल्लम-गल्लम कुछ भी हाथ में थमा दो।

शोध करने वाली अपनी प्रिय छात्राओं के बीच से ही एक शिष्या देखते ही देखते प्रो. नायक की नायिका बन उठी। 24-25 के आसपास की उम्र, कद 5 फीट 6 इंच, रंग सांवला, विश्वास न कर पाने की हद तक सुन्दर और आकर्षक। तन-मन-धन से लट्टू मियाँ बन उठे प्रो. नायक। विश्वविद्यालय में छुट्टियों के दिन अपनी पत्नी को खेती-बारी की जिम्मेदारियाँ याद दिलाकर गाँव भेज देते थे। बेटा-बेटी सयाने हो चुके थे। 22 साल का बड़ा लड़का एम. बी. ए. प्रथम वर्ष में था और बीस साल की बेटी बी. एस. सी. कम्पलीट कर मेडिकल की तैयारी कर रही थी। पिछले पाँच वर्षों से मियाँ-बीबी दोनों बच्चों के बगैर अकेले रह रहे थे। आजकल बच्चों की अच्छी पढ़ाई-लिखाई अपने पास रख कर कहाँ हो पाती है ? इसीलिए प्रोफेसर साब ने जिम्मेदार पिता का प्रमाण देते हुए भेज दिया दोनों बच्चों को दूसरे शहर में। विश्वविद्यालय की ओर से न जाने कितनी बार कैम्पस में आवास का प्रस्ताव भी मिला, मगर प्रो. नायक को विश्वविद्यालय परिसर में रहने से चिढ़ थी। गाँव के संस्कारों में पली-बढ़ी सरला-सज्जना पत्नी को आर्थिक लाभ का पुलाव खिला कर सरकारी आवास से घृणा करने के लिए पटा लेते थे। प्रो. नायक को यह शहर खुला अभ्यारण्य नजर आता था, जिसमें वे चौड़े से बांहें फरकाए घूम सकते थे, हिक्क भर चर सकते थे, खुशफैल मुद्रा में डँकार ले सकते थे और रात घिरने की हसरत भरी प्रतीक्षा कर सकते थे। जबकि कैम्पस सीमित दायरे में घिरा हुआ जेलखाना था। जहाँ आदमी तो छोड़िए, हवाओं को भी एक-दूसरे की खबर लगती रहती थी। साँस बाहर निकली नहीं कि सभी को पता चल गया – फलाँ महाशय की साँस फूलने की हकीकत क्या है ?

जून माह की अगिया-बैताल गर्मी ; घर, बाहर सर्वत्र तपिश की ताण्डव लीला चरम पर। भेज दिया नायक बाबू ने पत्नी को गाँव, दो-चार दिन नहीं, पूरे दो महीने के लिए। मैडम के कलेजे में शंका की तरंगें तो मचलती थीं, मगर किसी पुख्ता प्रमाण के अभाव में टूटकर बिखर जाती थीं। वैसे भी परले दर्जे की चालाकियाँ, अपने बेपर्द होने का प्रमाण बड़ी मुश्किल से छोड़ती हैं। फिर भी शंका तो शंका, प्रमाण न भी मिले, तो भी बुलबुले की तरह मन की गहराइयों में उठती ही रहती है ; और अपने होने का औचित्य हर पल ढूंढ़ा करती है। धर्म पत्नी गाँव की ओर प्रवास कीं, इधर नवोदिता नायिका ने यहाँ अपना विश्रामधाम बना लिया। प्रो. नायक की सुबह नायिका की सुमधुर चाय से होती थी और शाम उसी के हाथों कॉफी पीने के बाद ही ढलती थी। किचन में भोजन पकाने की किच-किच से नायक को एलर्जी थी। 1 लाख की पगार आखिर किस दिन के लिए ? ऐसे ही गाढ़े दिनों के लिए न ! शाम घिरने के घण्टा भर बाद नायक अपनी नायिका के साथ कलरफुल शीशे वाली कार में बैठ कर शहर निकल जाते और दरबान युक्त, प्रदूषण मुक्त, नीले प्रकाश वाले अलकापुरीनुमा होटल में एक हजारी भोजन का लुत्फ उठा कर सौंफ चबाते हुए नायिका संग वापस आ जाते। आगे की हिन्दी-कथा – ‘केशव कहीं न जाइ का कहिए। समझ-बुझकर चुप्पऽ रहिए।’ नायक, नायिका हैं और नायिका, नायक । नायक का होना नायिका पर निर्भर है और नायिका का होना, अनिवार्यतः नायक पर। साँसों की भाषा परखने वाला कोई विज्ञानी होता तो पक्का नायक-नायिका की साँसों में एक दूसरे का नाम ‘राम-राम’ की तरह सुन लेता। न जाने क्यों, इस क्षण कवि पंत की ये पंक्तियाँ दिल में मचलने लगी हैं- ‘सैकत शय्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विरल, लेटी है शांत, क्लान्त, निश्चल।’

ग्रीष्मावकाश किसी न किसी दिन बीतना ही था, सो बीत गया, मगर प्रो. नायक मन ही मन जून माह को गालियाँ दे रहे थे – साला चैनखोर ! इतना जल्दी बीता क्यों ? और महीने बीतते हैं, तो पता चलता है कि बीत रहे हैं, मगर यह ? लगता है – कल आया था और आज चल दिया। काश ! यह साला जून साल भर आता-जाता रहता । अब तो दो-चार दिन में पत्नी भी गाँव से वापस आ जाएगी। फिर तो यह निछद्दम परमानन्द कान्टीन्यू कहाँ नसीब ? ‘स्पर्शयोग’ को पटरी पर लाने में ही 15-20 दिन खर्च हो जाते हैं। कोई पत्नी को समझाता क्यों नहीं, कि छुट्टी बीतते ही तत्काल घर से नहीं चल दिया जाता। बैर, प्रेम, खांसी, खुशी छिपाए नहीं छुपते। यह निहायत पुरानी कहावत बन चुकी है, एकदम घिसी-पिटी जंक खायी हुई, लगभग बेस्वाद। अब छुपाए और क्या-क्या नहीं छुप सकते, तनिक माथा दौड़ाइए, सोच भिड़ाइए। चलिए, लीजिए नमूना। काम, क्रोध, दारू औीर ‘हवा’ को भी छिपाना मुश्किल है। इसी तरह चिन्ता, ईर्ष्या, चतुराई और चुगुलखोरी को भी बूझ लीजिए। दबती तो भूख-प्यास भी नहीं है। चाहे पेट की हो या? ये तो ऐसी अन्दरूनी बला हैं कि छिपाने पर और भड़क उठती हैं, दबाने पर और बवाली। प्रो. नायक जो अपनी स्पर्श-विद्या को छिपाने के लिए उपाए-दर-उपाय, जुगाड़-दर-जुगाड़, तिकड़म-दर-तिकड़म भिड़ाते रहते थे, कामयाब नहीं हुआ। विश्वविद्यालय की हवाओं में प्रो. नायक की बहादुरी की सुगन्ध फैल गयी। शुरुआत हुई छात्राओं के बीच से, मुद्दा उबलना शुरू हुआ छात्रों के बीच और बिना बादल के घुमड़ने-गरजने लगा कैम्पस के सैकड़ों प्रोफेसरों और शिक्षकों के मध्य में। सिर्फ मृतक व्यक्ति ही इस धराधाम पर शत्रुहीन हो सकता है जिन्दा इन्सान, कत्तई नहीं। ऐसे कई शिक्षक प्रो. नायक को बेपनाह ईर्ष्या की निगाहों से देखते थे जो स्पर्शयोग की साधना में बारम्बार फेल्योर हुए या फिर उस महान सफलता के योग्य खुद को नहीं निर्मित कर पाए। आए दिन उन्हें दिन-रात मलाल रहता कि नयकवा सशरीर जन्नत की सैर कैसे कर सकता है ? ऐसा कौन सा मायावी जादू है उसकी वाणी में जो एक से बढ़ कर एक नायिकाओं की लाइन लगा लेता है। प्रो. नायक की असाधारण उन्नति से जलने-गलने-बुझने वाले प्रोफेसर ऐसे ही नाजुक मौके की तलाश में थे, जब नायक के खिलाफ प्रशासन के मुखिया अर्थात् वाइस चांसलर के कान भरे जा सकें। इधर अपनी अंगुलियों को पैर बना कर नायिका के अंग रूपी सीढ़ियों पर दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ने में दत्तचित्त रहने वाले नायक बाबू अपने खिलाफ उठ रही इस आँधी से बेखबर थे। एक दिन नायक की नायिका को वी. सी. ऑफिस से आदेश मिला कि वाइस चांसलर के दरबार में तुरन्त हाजिर हो। नायिका ने भाँप लिया कि आज उसे क्या ‘खुशखबरी’ मिलने वाली है। पहुँची वी. सी. के समक्ष, हकबकाते हुए बैठ गयी कुर्सी पर। वी. सी. महोदय ने पारदर्शी ग्लास का स्वच्छ शीतल जल पिलाते हुए प्रो. नायक से उसके रिश्तों पर सवाल-दर-सवाल किए। शुरुआती हिचकिचाहट और शर्म के बाद नायिका ने स्वीकार कर लिया प्रो. नायक से प्रगाढ़-अन्तरंग सम्बन्धों को। अन्तिम बार वी. सी. महोदय ने अचूक तीर चलाया – ‘अच्छा, ये बताओ प्रो. नायक का तुम से रिश्ता केवल जिस्मानी है या फिर सच्चे प्रेम का ?’ नायिका ने इस प्रश्न का उत्तर कुछ दिया ही नहीं – सिर्फ सिर झुका लिया और रोते हुए हाथ जोड़ कर बोली – ‘मुझे बचा लीजिए सर !’

‘रावण-महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार’……………….

विश्वविद्यालय प्रशासन ने कोर कमेटी की आपात् बैठक बुलाई, जिसमें वे सारे छिपे दुश्मन खुलकर शामिल हुए, जो आधा दर्जन सालों से प्रो. नायक की परमानन्दी प्रोग्रेस से जलते-भुनते थे। उठे सवाल, छिड़ी बहस, गरमाया माहौल। आखिरकार एक स्वर में प्रस्ताव पारित हुआ कि प्रो. नायक जैसे शिक्षक विश्वविद्यालय के स्वस्थ वातावरण के लिए विषधर जीव हैं, जिनके मौजूद रहते छात्राओं के कैरियर और चरित्र की सुरक्षा नहीं हो सकती। अतः प्रो. नायक को अनिश्चितकाल के लिए सस्पेंड किया जाय। कमेटी यह भी निर्णय लेती है कि प्रो. नायक प्रशासन की अनुमति लिए बगैर शहर छोड़कर कहीं भी यात्रा नहीं करेंगे। तीन दिन के भीतर प्रो. नायक को सस्पेंसन ऑर्डर थमा दिया गया। नायक बाबू को ‘स्पर्शयोग’ से सीधे ‘विश्राम योग’ की अवस्था में पहुँच जाने की ऐसी आशंका न थी। बेचारे ‘मोक्ष-पत्र’ लिए-लिए अपनी कुर्सी में घण्टों धंसे रहे। इस बीच न जाने कितने असंख्य, अपार, क्षणिक मगर तीव्र विचारों का भूचाल उठता, गिरता, शांत होता रहा। -वी. सी. साब को कैसे खबर लग गयी ? किस हरामी-कुकर्मी ने मेरे खिलाफ जहर उगला ? सब मेरे दुश्मनों की जालसाजी है। साले मुझे सुखी देख कर खड़े-खड़े जल रहे हैं। क्या मैं ही अकेला अपराधी हूँ। यहाँ तो इस फील्ड में हमसे भी बढ़ कर जहरीले नाग हैं,सूटेड-बूटेड, टाई तथा डाई वाले, इज्जतदार। कोई आकर मुझसे पूछे तो क्यों न उगल दूँ नाम उन दर्जनों दैत्यों का ? लगता है मेरी पत्नी ने मेरे खिलाफ रिर्पोट लिखायी है। नहीं, मैं भी कैसा सनक रहा हूँ ? वह क्यों बगावत करेगी? कुछ भी हो, है तो मेरी वाइफ ही। वह भी गाँव की सीधी-सादी, भुग्गा। मुझे अब भी पक्का यकीन है कि मेरे कारनामों से वह बेखबर है। वैसे भी, मेरे खिलाफ जाने के पहले मुझसे पूछती, मुझसे लड़ती, झगड़ती, मुझे दो-चार पत्नियोचित गालियाँ भी देती। हो सकता था – वह पत्नियोचित थप्पड़ भी लगा देती। मैं खुशी-खुशी खा लेता गालियाँ, सह लेता थप्पड़। घर की बेइज्जती, घर में ही रह जाती। मगर अब तो शहर भर में, पूरे जिले में, प्रदेश भर में, यहाँ तक कि सारे देश में खबर उड़ जाएगी कि एक बुड्ढे गुरु ने अपने बेटी समान शिष्या से नाजायज सम्बन्ध बनाया। अर, रे, रे, रे………. कहीं यह मेरी शिष्या की कारस्तानी तो नहीं ? पिछले एक हफ्ते से मिलने को कौन कहे, वह दर्शन तक नहीं दे रही। रहस्य अब समझ में आया। इसके पहले और भी कई आईं, मगर प्रेम करके धोखा किसी शिष्या ने नहीं दिया, यही स्वर्ग से स्पेशल उतर कर आयी थीं। घबराओ मत मुन्नी ! मार दिया न आँखों में तीर। तुम्हें तो कोर्ट में घसीटूँगा। अपनी अम्मा का दूध याद दिला दूँगा।’

कुलपति महोदय ने अपने पद-प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए एक और कदम उठा लिया- -नायक-नायिका लीला- की पूरी छानबीन के लिए पाँच सदस्यीय इन्क्वायरी कमेटी अर्थात् ‘जाँच समिति’ गठित कर दी। समिति में दो प्रभावशाली प्रोफेसर ऐसे थे, जिन्होंने आज के पाँच साल पहले स्पर्श योग-साधना में मुँह की खाई थी। इसीलिए एकांत में मुट्ठी भींच कर कसम खाये थे कि प्रेमयोग के गुर न सिखाने वाले प्रो. नायक को एक दिन सबक सिखा के रहेंगे। चूँकि यह यौन शोषण का मुद्दा था, इसीलिए जाँच समिति में एक बेदाग, सुपवित्र, निर्मल, सद्चरित्रा प्रो. वन्दना जी को चुना गया, जिनके बारे में अफवाहें इतनी घोर श्रृंगारिक थीं कि कम से कम एक प्रेम-ग्रंथ लिखा जा सकता था, लेकिन उनके खिलाफ खुलने वाली आज तक कोई जुबान ही नहीं बनी।

अपनी ‘सफलता’ का प्रमाण पत्र लेकर प्रो. नायक क्वार्टर के बरामदे में मरी पड़ी कुर्सी पर मरे हुए की तरह पसर गये। सिर्फ चाहत ही नहीं, हार्दिक उम्मीद भी थी कि बीवी एक कप गरमागरम चाय जरूर बना के देगी, फिर उठूँगा, अन्दर चल कर बताऊँगा, समझाऊँगा कि यह सब दुश्मनों की जालसाजी है। मगर ये क्या ? न चाय आयी, न दरवाजा खुला। आधे घण्टे तक चाय की प्रतीक्षा दिल आधा-आधा कर डालने के लिए काफी थी। बैठे-बैठे खुद ही लगाई आवाज। ‘मंगला’ ! ………… कोई उत्तर नहीं। ‘देवी जी’ ! ………… भीतर से कोई आवाज ही नहीं। नायक बाबू खुद ही दरवाजा खोलने को मजबूर हुए। पाँवों को दिया कमरे में। मंगला सिर झुकाए टपाटप आँसू बहा रही थी और हिचकियाँ ले-लेकर रो रही थीं। प्रो. नायक बूझ गये सारा रहस्य। आखिर आग यहाँ तक पहुँच गयी। थोड़ा भोले-भाले अंदाज में हथेलियाँ लहरा कर पूछा – ‘क्या हुआ ? क्यों रो रही हो ?’ मंगला जी के लिए यह प्रश्न न जाने कितना निरर्थक था, जिसका उत्तर देना तो दूर, उसे रत्ती भर भी सुनने का धैर्य वे खो चुकी थीं। आज एक सुशिक्षित पति को अपनी अर्द्धशिक्षिता पत्नी मंगला, अमंगला देवी नजर आ रही थी। अचानक उनकी निगाह पत्नी के बगल में पड़ी कुछ सनसनीखेज वस्तुओं पर गयी। आँखें चौंधिया देने वाले थे – वे सामान। ऊँची हिल वाली ब्रांडेड सैंडिल, ब्रांडेड परफ्यूम, नहीं-नहीं, परफ्यूम्स, आइलाइनर। ये दुखदायी सामान ही मंगला देवी के उत्तर थे। उठीं तैश खा कर और छाप दिया पति-परमेश्वर के गाल पर एक स्पष्ट थप्पड़। नायक बाबू कुछ संभल पाते कि तब तक उसी पिराते गाल पर एक और सन्नाटेदार……………। यह तो ठीक वैसे ही रसीद हुआ जैसी उन्होंने कल्पना की थी। ऐसा चमत्कार कैसे हो गया ? कल्पना और हकीकत में जरा भी अन्तर नहीं ? थप्पड़ों की संख्या भी उतनी ही, जितनी कल्पना में सोचा था, न एक कम, न एक ज्यादा ? मगर नहीं, कल्पना और हकीकत में कहीं न कहीं अन्तर तो आ ही जाता है। पत्नी ने थप्पड़ मारने के बाद ही गाली दी, जबकि कल्पना में पत्नी ने थप्पड़ देने के पहले गाली दी थी। ये गालियाँ उतनी पचनीय नहीं थीं, जितनी कल्पना में नायक ने सोचा था। सबसे आश्चर्यजनक अन्तर यह दिखा कि कंठ भर लताड़ने, धिक्कारने, गरियाने के बावजूद एक कप गरम चाय जरूर बना कर दिया धर्मपत्नी ने। यह मैटर कल्पना में तो सूझा ही नहीं था। आज मंगला जी ने सिद्ध कर दिया कि पत्नी ही असल पत्नी होती है, उसकी जगह कोई नहीं ले सकता। इस ‘स्पर्श लीला’ में घटित एक-एक काण्ड की मार्मिक जानकारी हासिल करने के लिए गठित की गयी कमेटी के समक्ष लगभग हर हफ्ते नायक-नायिका को हाजिर होना था। दोनों ‘वीरों’ के आने का दिन अलग, समय अलग, सवाल अलग। कमेटी के सवाल कोई चलताऊँ टाइप नहीं, खुफिया विभाग के जैसे या फिर वैसे – जैसे यौन शोशण के केस में वकील अपराधी खोद-खोद कर उगलवाते हैं – ‘तो नायक जी, आप कितने सालों से इस धन्धे में लिप्त हैं ?’ ‘अगर आप बुरा न मानें तो क्या आपकी पूर्व प्रेमिकाओं के नाम जान सकता हूँ ?’ ‘शिष्या के साथ ठहरने के लिए क्या आपने कभी होटल भी बुक करवाए ?’ ‘आप पर यह भी आरोप है कि सम्बन्ध कायम करने के लिए आपने अपने पद, अधिकार और पहुँच का दुरूपयोग भी किया, जैसे- नेट की डिग्री दिला देना, टॉप करा देना, दूसरे कॉलेजों-सकूलों में नौकरी दिला देने के वादे करना ?’ ये सवाल मिसाइलनुमा थे, कटार थे, तलवार थे, बम थे या बारूद, प्रो. नायक किंकर्तव्यविमूढ़ता के मारे तय नहीं कर पा रहे थे। कमेटी के प्रेम-प्रश्नों का उत्तर प्रो. नायक ने प्रश्न पूछ कर ही दिया। जैसे – ‘आपको कैसे मालूम ?’ ‘किसने बताया आपको ?’ ‘यह आप कैसे कह सकते हैं ?’ ‘यह सूचना आपको कैसे मिली ?’ कमेटी भीतर ही भीतर खुश थी कि नायक महाशय में अपने प्रश्न पूछने के अंदाज में ही सारे प्रश्नों का उत्तर दे डाला, अतः डरा-धमका कर पूछने की जरूरत नहीं पड़ी। उधर हिन्दी विभाग के उबलते छात्रों का एक वर्ग इस मौके की तलाश में था कि गुरू जी को इस बहादुरी का पुरस्कार समारोहपूर्वक दिया जाय। ऐसी वीरता तो इतिहास में कोई-कोई ही दुहरा पाता है। अतः एक दिन इन्क्वायरी कमेटी के सवालों को राणासांगा की तरह शरीर पर झेल कर प्रो. नायक जैसे ही बाहर निकले,एक साथ तीन-चार शिष्यों ने मित्रवत् अंदाज में खैर-खबर ली – ‘का गुरू ! हालचाल ठीक बा ?’ प्रो. नायक अभी कुछ उत्तर देते कि तीन शोध छात्र आगे बढ़ आए और मुँह, बाल, गर्दन को रंगारंग बना डाला। वज्र काला, आबनूस भी फेल कर जाय। प्रो. नायक की भयातुर आँखों की चमक ही उनके पास इंसानी सिर का अनुमान देती थीं, वरना तो हू-ब-हू वही दृश्य कि – ‘रावण महिमा श्यामा विभावरी अन्धकार।’ इस रंगारंग सम्मान समारोह के उपरान्त प्रो. नायक को पदक स्वरूप एक माला पहनाई गयी। जिसमें नामी-गिरामी कम्पनियों के ‘चरण-सेवक’ झूल रहे थे। कौन वर्णन करने में समर्थ है – नायक बाबू की इस अनुपम सौंदर्य छटा का ? अभूतपूर्व सम्मान के ये दोनों शिष्टाचार सम्पन्न कर लेने के बाद छात्रों ने गुरू जी के सम्मान में नारे लगाए – ‘प्रोफेसर नायक ! मुर्दाबाद !’ ‘मुर्दाबाद, मुर्दाबाद !’ प्रो. नायक, शर्म करो। हम तुम्हारी जागीर नहीं।’ ‘जब तक सूरज-चाँद रहेंगे, नायक सर बदनाम रहेंगे।’ घण्टे भर बाद यह समारोह सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ और सारे छात्र हँसते-खिल्ली उड़ाते हुए अपने-अपने छात्रावास की ओर चले। इस समारोह में मात्र वे ही छात्राएँ और छात्र नहीं शामिल हुए जिन्हें रीतिकालीन कवियों की प्रौढ़ा नायिकाओं के तुलनात्मक अध्ययन पर अभी थीसिस जमा करनी थी, अथवा ‘ब्रजभूषण बिहारी के काव्य में रसतत्व’ की मीमांसा’ पर शोध-प्रबंध प्रस्तुत करना था।

संपर्क-  

भरत प्रसाद
सहायक प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय
शिलांग – 793022
मोबाईल- 09863076138

भरत प्रसाद

शेक्सपियर

चित्र- शेक्सपियर, (गूगल से साभार)  

काल और प्रेम

(अनुवाद – नगेन्द्र)

वज्र धातु हो या प्रस्तर हो या दुर्दम सागर, .
ये हैं नतसिर सभी सामने क्रूर काल के .
तो कैसे वह रूप सहेगा उस प्रहार को ?
जिसका लघु अस्तित्व फूल सा मृदु -कोमल है.
मधु-वासंती वात आह,
कैसे झेलेगी ? बर्फीली ऋतुवों के ध्वंसक आघातों को?
जब अभेद्य चट्टान वज्रद्दृढ लौह द्वार ये.
होते विवश विलीन काल के खर प्रवाह में ?
कैसे रक्षित रह पायेगा बंद काल की मंजूषा में.
यह अमूल्य वरदान प्रकृति का दिव्य रत्न यह ?
उसके बढ़ते कदम कौन कब रोक सकेगा
– मधुर रूप का नाश क्रूर उसके हाथों से ?
केवल एक उपाय,
अमिट लिपि में अंकित वह,
 मेरे निश्छल अमर प्रेम का मोहक जादू. 

(सौजन्य – विश्व काव्य चयनिका, संपादन- नगेन्द्र, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली) 

गोएथे

चित्र- गोएथे, (गूगल से साभार)

पता नहीं प्यार तुम्हें है या नहीं

पता नहीं प्यार मुझे है या नहीं,
देख लूँ पर तुम्हारा चेहरा कहीं,
आँखों में     झाँकूँ एक बार भरपूर,
हो जाय इस दिल का सारा दुःख दूर,
कैसा यह सुख,
जाने ईश्वर वही;
पता नहीं प्यार मुझे है या नहीं

(सौजन्य- पुस्तक: पता है तुम्हें उस देश का, संपादन- उज्ज्वल भट्टाचार्य,  वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली.)

(चयन एवं प्रस्तुति – भरत प्रसाद)

भरत प्रसाद

भरत प्रसाद का जन्म उत्तर प्रदेश के संत कबीरनगर जिले के हरपुर नामक गाँव में २५ जनवरी १९७० को हुआ. इन्होने १९९४ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी ए किया. फिर जे एन यू से हिंदी साहित्य में एम ए किया. जे एन यू से ही ‘भूरी भूरी खाक धूल (काव्य संग्रह) में मुक्तिबोध की युग चेतना’ विषय पर इन्होने १९९८ में एम फिल. और २०११ में ‘समकालीन हिंदी कविता में अभिव्यक्त समाज और संस्कृति’ पर अपनी पी एच-डी पूरी किया.




पुस्तकें-


१-‘और फिर एक दिन’ (कहानी संग्रह), २००४
२-‘देशी पहाड़ परदेशी लोग’ (लेख संग्रह) २००७
३-‘एक पेड़ की आत्मकथा’ (काव्य संग्रह) २००९
४-‘सृजन की २१वी सदी’ (लेख संग्रह) २०११
दो वर्षों तक अनियतकालिक साहित्यिक पत्रिका ‘साहित्य वार्ता ‘ का संपादन किया. परिकथा में तानाबाना कलम का नियमित रूप से लेखन.

भरत प्रसाद हमारे समय के ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने प्रायः हर विधा में खुद को आजमाया है. ‘पान सुपारी’ भरत की नवीनतम लम्बी कविता है जिसमें एक समय और एक स्थान का जीवन है. समय है २१वी सदी और स्थान है-पूर्वोत्तर. इस कविता में भरत ने पूर्वोत्तर के पहाड़ी क्षेत्र के जीवन की पड़ताल की है. तमाम विडंबनाओं के बावजूद जहा आँखों में उड़ान की नयी कल्पना, सीने में चिंगारी और दिशाओं को छू लेने की प्यास है. इन लोगो में एक भोलापन है, जो इनकी विशिष्टता है. काईयापन की जगह दिल की सच्चाई. बेबाकी से वार करने की सच्चाई. मोम से भी मुलायम जिगर वाले लोग जिनकी जिद के सामने चट्टान भी हल्की दिखाई पड़ती है. सही मायने में कहें तो धरती से प्यार करना तो ऐसे लोगो से ही सीखा जा सकता है.



भरत के कवि मन को बुद्धि से काठ हो जाना कत्तई गंवारा नहीं. यहाँ हमें कबीर का ज्ञान याद आता है- अंतस का ज्ञान. जिसके होने मात्र से सभी अन्धकार दूर हो जाते हैं. इस कविता में भरत ने कुछ बेहतरीन बिम्बों का प्रयोग किया है जो कविता में अपनी छटा बिखेरते नजर आते हैं. मसलन- ‘स्त्री जब रोती है, तब आंसू नहीं, हजारों दर्द झरते हैं.’ और ‘एक औरत को जानने से पहले, बूंद-बूंद रोती किसी नदी को छू लेना.’

संपर्क – सहायक प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय , शिलांग ७९३०२२, मेघालय


फ़ोन – ०३६४- २७२६५२०
मोबाईल– ०९८६३०७६१३८

पान सुपारी

(भारत के उत्तर पूर्व की अकथ स्मृति में)

प्रकृति: जब थका हुआ सूरज चमकता है.

हरे -नीले पहाड़ यहाँ मुंह-मुंह बोलते हैं
दिशा-दिशा में धंसी हुई पगडंडियाँ
पाठ सिखाती हैं पैरों को,
धिक्कारती हैं हमें अकेले खड़ी चट्टानें
अंजान वादियों में यहाँ
निरंतर सन्नाटे झरते हैं
सुबह शाम कुछ यूँ होती है
जैसे कोई नयी पंखुरी खिले
और शीघ्र बंद हो जाये शर्मा कर

धूप क्या है, धारा है
झरती है आकाश से रूक-रूक कर
प्रातःकालीन चोटियों की कच्ची मुस्कान
निःशब्द कर देती है ह्रदय
सपने जैसा सच
कल्पना जैसी हकीकत
और आश्चर्य जैसा यथार्थ
यहाँ चारों ओर नृत्य करता है
हार जाती है बुद्धि
नतमस्तक हो उठता है ह्रदय
जब हजारों फूट नीची घाटियों में
आसमानी बदल उतरते हैं
जब ठीक बारिस के पहले
आकाश में गुमशुदा पहाड़ियों पर
चमकती घटायें घिरती हैं,
जब पश्चिमी आकाश के बदली क्षितिज पर
थका हुआ सूरज चमकता है.

बादल तो बादल –
यहाँ आकाश भी आकाश कहाँ रहता है?
चाँद की दौड़ फकत इस चोटी से उस चोटी
आकाश का मुखिया ठीक सिर पर चमकता है
हरियाली तो मानो यहीं के लिए बनी हो
पक्षियों को अपना बनाने के लिए
पालने की जरूरत नहीं,
घाटियाँ छोड़ कर उन्हें उड़ना ही नहीं आता,
वादियों से मोह के मारे
हवाएं यहाँ दिशाएँ ही खो बैठती हैं
सारी चाल उल्टी पड़ जाती है,
अलमस्त बहना तो बहुत दूर
हर वक्त पैदल चलने लगती है
जर्रे-जर्रे की थाह लेती हुई
नाचता है जंगल
जब अकेला पा कर उसे छेडती है

बादल हैं कि भटकते मुसाफिर
थक कर पल भर के लिए कहीं भी पसर जाते हैं
चोटियों पर चौड़े से सो जाना
जैसे इनका जन्मसिद्ध अधिकार हो
जमीन आसमान में, घाटियों गुफाओं में
जानी-अनजानी, ज्ञात और अज्ञात
अनगिनत दिशाओं में,
ओस के उमड़ते हुए समुद्र को क्या कहा जाय?
बारिस के बाद, आकाश से झहरती
अदृश्य बूंदों की झंकार को क्या नाम दें?
मन शब्द ले कर भागता है पीछे-पीछे
मगर ये शब्दों के चंगुल में कब फंसने वाले.

पुरुष: निगाहें माद्दा रखती हैं – मुश्किल तौलने का.

कभी पहाड़ को गौर से पढ़ा है?
कभी बूढ़े दरख़्त को, जी भर सहलाया है?
गले लगाया है कभी चट्टान को?
पैरों से नहीं अपने दोनों हाथों से
कभी छुआ है कच्चे रास्तों को?
यदि हाँ, तो समझो जान लिया
यहाँ चलते फिरते साढ़े तीन फूट के आश्चर्य को

परिश्रम लहू बन कर दौड़ता फिरता है इनकी धमनियों में
मस्तक ने संघर्ष के आगे झुकना नहीं सीखा
निगाहें माद्दा रखती हैं – मुश्किलें तौलने का
हाथ सिर्फ काम की भाषा समझते हैं
इनकी भुजाओं में असंभव का भी विकल्प है
कठिनाइयों के सामने घुटने टेकने का मुहावरा
इनके पैरों के साथ लागू नहीं होता
सुबह से रात तक
बिजली दौडती है शरीर में
संकल्प इनकी जुबान से नहीं
अंग-अंग से फूटत़ा है

आसान यहाँ कुछ भी नहीं,
न अन्न, न जल, न धरती, न आकाश
न सुख, न दुःख, न रोना, न हँसना
आसान अगर है,
तो चुपचाप बड़ा होना और चुपचाप बुजुर्ग हो जाना
जल्दी-जल्दी जीना और    जल्दी- जल्दी मर जाना
जज्बा नाचत़ा है हर क्षण इनकी पुतलियों में
मेहनत का कोई भी पैमाना
इनके ऊपर लागू नहीं होता.
पीठ है कि पुरानी ढाल
सह जाती है भयानक मार
सीना है या चौड़ी  दीवार
जिस पर चौतरफा प्रहार का
जल्दी असर ही नहीं पड़ता

इनके कद को इनके शरीर से मत मापना
इनकी असलियत, इनको देख कर मत भापना
शत प्रतिशत उल्टे हैं ये
अपनी कद काठी से.
वैसे जहर से भी घातक जहर
दौड़ता है इनकी शिराओं में
दारू से इश्क करना
इनकी साँसों में शामिल है
अक्सर इन्हें पानी की नहीं,
दारू की प्यास लगती है

खून बहता है गलियों में
बरसाती नाले की तरह
सूअर और मुर्गा ही नहीं
पशुओं की भी गर्दनें ऐसे कटती हैं
कि बूचड़खाना फेल है;
बकरा, बकरी बैल तो क्या?
यहाँ सांप, गोजर बिच्छू भी रोते हैं अपने नाम पर.
बावजूद इसके,
छतनार मगर बौना सा पेड़
पहाड़ियों में खोया हुआ कीमती पत्थर,
गुमनामी की धारा में डूबी हुई सभ्यता
अन्धकार में डूबी हुई कल की सुबह
इन्हें तयपूर्वक कह सकते हैं.

स्त्री: बूंद-बूंद रोती हुई नदी

फसलों में देखते ही बनता है
जिसकी मेहनत का रंग
जिसके बूते धड़कता है -बस्तियों का ह्रदय
जिसके दम पर घूमता है परिवार का पहिया
जिसकी हूनर का बखान, जुबान से कैसे किया जाय
लडखडा जाती है जीभ
जिसकी कीमत बताने में,
थक जाती है बुद्धि जिसका अर्थ समझाने में,
जिसे आंका ही नहीं जा सकता
केवल औरत की सीमा में.
जिसे देखना ही है- तो किसी नीव को देखिये
जिसे परखना ही है -तो माटी को परखिये
जानिए न! जड़ों को, एक औरत को जानने से पहले,
बूंद-बूंद रोती किसी नदी को छू लेना ,
यकीनन,
एक औरत को जी लेना है

कठिनाईयां छाया की तरह चलती हैं- जिसके पीछे-पीछे
दुश्वारियों से मानो जन्म-जन्मान्तर का रिश्ता हो,
मुश्किलों के खिलाफ दुस्साहस टपकता है इनकी निगाहों से
धैर्य खोने की फुर्सत इन्हें जीवन भर नहीं मिलती
हताशा इनके जज्बे से टकरा कर
अपना मतलब ही खो बैठती है
अपने औरत होने की टीस भी
घुल मिल गयी है इनकी खुशियों में;
पराजय परिणाम नहीं,
स्वाभाविक चुनौती है इनके लिए
जय-पराजय, मान-अपमान से आँख-मिचौली का खेल
जीवन भर कभी समाप्त ही नहीं होता
ढलान हो या घाटियाँ, बियावान हो या पहाड़ियां,
मुक्त नहीं है- इनके बित्ता भर के पैरों से-
सब जगह चूता है इनके माथे का पसीना,
चट्टान को भी मिटटी बना देना
इस औरत के वश में है
अंधविश्वास पर सिर्फ अंधे की तरह नहीं,
माशूका की तरह यकीं करती है,
जान से भी बढ़ कर है- ईश्वर की गुलामी करना
मर चुकी है आत्मा, जादू टोने के      नशे से
सड़ चुका है मस्तिष्क
मुर्दा देवताओं की भीड़ से
कौन इन्हें बताये कि तुम सदियों से
अंधी बहरी बेजान  मूर्तियों में तब्दील हो रही हो
जिस्म के सौदागर घुमते हैं यहाँ भी
आदमी की भाषा में भूंकते हैं पढ़े-लिखे

औरत को देखते जानवर हो जाते हैं,
सडकों चौराहों पर, गली-गली, घर-घर में
नकाबपोश सज्जन ये
शिकार सूंघते फिरते हैं,
बिकता है बचपन यहाँ, मनमाने दामों पर
औरत से खेलने का प्रेम भी एक ढाल है
किसने देखा है उसके रिसते हुए घाव ?
कौन जीता है उसे, अपने वजूद की तरह
किसने परखा है खुद को, औरत की आँखों से?
स्त्री जब रोती है, तब आंसू नहीं,
हजारों दर्द झरते हैं
जब चुप रहती है-  तब पराजय,
दीवारों  से टकरा टकरा कर
मर जाने वाले अनमोल पंक्षी का नाम ही
स्त्री है.

मानस: ऋतुओं ने विकसित किया है ह्रदय

धरती से प्यार करना, यहाँ आकर सीखिए
स्वदेश का जूनून इनके सीने में ढूंढिए,
पहचानिए इनके खून में मात्री भूमि का रंग
माटी का नाम लेते ही खिल उठती हैं आँखें
पहाड़ों ने तराशा है इनका जीवन

चट्टानों ने गढ़ा है इनका व्यक्तित्व
ऋतूओ ने विकसित किया है ह्रदय
धरती ने सौपा है स्वभाव
घाटियों ने पाठ सिखाया है जीने का
उबड़- खाबड़ प्रकृति से मानों
खून जैसा रिश्ता हो.

फिर भी कहना जरूरी है कि
जकड़ी हुई बेड़ियाँ उतनी बुरी नहीं होती,
भयानक जेलखाना, उतना भयानक नहीं होता,
अँधा कहलाना भी नहीं है उतना अपमानजनक
जितना कि बुद्धि से काठ हो जाना,
अज्ञानता भर जाना अस्थियों में
अंग-प्रत्यंग से अंधकार में डूब जाना,
सर से पाँव तक पुजारी हो जाना नियति का ;

एक और एक मिलकर होंगे हमारे लिए ग्यारह
इनके लिए सिर्फ दो हैं….. सिर्फ दो,
मुखौटों में जीना, इनके स्वभाव के खिलाफ है
ये वार करते हैं जरूर, मगर आमने -सामने से
हमारी तरह पीठ पीछे से नहीं,
दोमुंहेपन से सीधे छतीस का आंकड़ा है
मौकापरस्ती शायद स्वप्न में भी असंभव हो
अवसरवादी शब्द किसी और पर लागू कर लीजिये
फिट नहीं बैठता इन पर चतुराई का मुहावरा
ज़माने का रंग इन पर मुश्किल से चढ़ता है
अपना खांटी रंग बड़ा मुश्किल से उतरता है
मूर्ति को ढाल लेना, इनसे कहीं ज्यादा आसान है
चट्टान हल्की है इनकी जिद के सामने
बर्फ इनकी अपेक्षा शायद जल्दी पिघल जाय
जिगर कि बात उठते ही
पत्थर भी मुलायम दिखने लगता है

जल रही है सीने में दबी हुई चिंगारी
मचल रही है आँखों में उड़ने की कल्पना
दिशाएं छू लेने की प्यास अभी बाकी है
बाकी है निगाहों में, ख़्वाब देखने का पागलपन
दुर्गम पहाड़ों में कैद सिर्फ जीवन है
आत्मा यहाँ दिन रात
अथक नृत्य करती है.
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