चैतन्य नागर का आलेख ‘सन्नाटा है, तनहाई है, कुछ बात करो’

चैतन्य नागर

सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य अपने भयावह एकाकीपन की तरफ भी बढ़ा है। ऐसा एकाकीपन जो अवसाद में डाल दे लोगों से आज हम अक्सर यह सुनते हैं कि हमारे पास सब कुछ है लेकिन समय नहीं। मनुष्य के आगे बढ़ने और सर्वशक्तिमान होने के पीछे जो महत्वपूर्ण कारक रहा है उसमें उसकी सामूहिकता भी रही है। अलग बात है कि रचनात्मकता के लिए एकाकीपन जरुरी होता है। प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनि चिन्तन के लिए दुर्गम पर्वतों की गुफाओं और कंदराओं को चुना करते थे। अपने चिन्तन के लिए वे प्रायः घने जंगलों (अरण्यों) में चले जाते थे। इसी क्रम में ‘आरण्यक ग्रंथों’ की रचनाएँ की गयीं। लेकिन आज का एकाकीपन ऐसा है जिसमें अपनों के लिए भी किसी के पास समय नहीं है। इस एकाकीपन पर एक चिंतनपरक और महत्वपूर्ण आलेख लिखा है कवि चैतन्य नागर ने। तो आइए पहली बार पर आज पढ़ते हैं चैतन्य नागर का आलेख ‘सन्नाटा है, तनहाई है, कुछ बात करो’।           
सन्नाटा है, तन्हाई हैकुछ बात करो! *

चैतन्य नागर
हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी
 फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी। 
पिछले हफ्ते किसी समाचार पत्र में एक खबर पढ़ते-पढ़ते आज के आदमी और उसकी तन्हाई का बयान करती निदा फाजली की ग़ज़ल कानों में गूंजने लगी। 1990 के दशक तक जब हम यह सुनते थे कि पश्चिम में बेटे और माँ-बाप को एक दूसरे से मिलने से पहले अपॉइंटमेंट लेनी पड़ती है, तो आश्चर्य होता था और अजीब भी लगता था। अब हमारे देश में भी ऐसे ही हालात पैदा हो रहे हैं। अकेलेपन का दर्द बड़े-बुजुर्गों को भी है, युवाओं को भी। मिड लाइफ क्राइसिस (अधेड़ उम्र से जुडी भावनात्मक दिक्कतें) तो बड़ी ही सामान्य बात है और मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि यदि सही समय पर व्यक्त न हों  तो पैंतालीस-पचास के आस-पास किशोरावस्था की दबी हुई कामनाएं फिर से जागने लगती हैं और यह भी संभव है कि बढती उम्र में वे बिलकुल ही अलग और विकृत रूप से व्यक्त होने लगें।

सार्त्र जैसे अस्तित्ववादी दार्शनिक मानते हैं कि एकाकीपन ही मानव जीवन का सार है। हर इंसान अकेला दुनिया में आता है, अपने अकेलेपन के साथ अपनी जीवन यात्रा को पूरा करता है और आखिरकार अकेला ही दुनिया से विदा हो जाता है। संसार में उसे फेंक दिया गया है, और उसे अपने फेंक दिए जाने (थ्रोननेस) के साथ जीना ही है। इसी अकेलेपन और शून्य के बीच वह जीवन का अर्थ ढूंढता है। सार्त्र के अनुसार अर्थ की खोज अपने आप में ही एक विरोधाभास है। अस्तित्ववादी विचारक कामू के उपन्यास द मिथ ऑफ़ सिसीफस में देवताओं ने सिसिफस को पहाड़ की चोटी पर एक चट्टान को ले जाने की सज़ा दी थी। जब भी उस चट्टान को वह शिखर पर ले जाता, तब वह अपने ही वज़न से नीचे लुढ़क जाती। देवताओं ने सोचा होगा कि व्‍यर्थ और निष्‍फल परिश्रम से बढ़ कर कोई सज़ा नहीं हो सकती। आम आदमी का जीवन ऐसा ही है। अपने अकेलेपन का बोझ लादे वह जीवन की ट्रेडमिल पर हाँफते हुए दौड़ता है; रुकता है, फिर शुरू हो जाता है। शबो-रोज़ इसी तमाशे को वह जीता चला जाता है।
         

पर मामला ज्यादा गंभीर है। जितना हम समझते हैं, अकेलापन उससे कहीं ज्यादा गहरा है। अब तो यह एक महामारी की तरह है। पढाई-लिखाई का तनाव, नौकरी की तलाश, साथ ही भावनात्मक क्लेशों का चौतरफा हमला, विवाह या नौकरी के बाद अक्सर परिवार का टूट जाना, नौकरी में आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा और फिर चीज़ें बटोरने की होड़ में शामिल होना—ये सभी मिल कर जीवन को बड़ा तनावपूर्ण बना दे रहे हैं। ज़िन्दगी के किसी भी क्षेत्र में जो हैऔर हमारे हिसाब से जो होना चाहिए’—इनके बीच की खाई भी तनाव का बड़ा कारण है। लगातार बढ़ते तनाव का कारण और परिणाम दोनों ही है आपसी संबंधों में आत्मीयता का ख़त्म होना। सम्बन्ध समय, अवधान और स्नेहपूर्ण ऊर्जा की मांग करते हैं। संबंधों में आत्मीयता धीरे-धीरे गहराती है। समय तो अब किसी के पास है ही नहीं, और अवधान का दायरा और विस्तार दोनों सिकुड़ता जा रहा है। रिश्ते बनाना और उन्हें कायम रखना ही एक चुनौती बन गया है। सोशल मीडिया पर गुमनाम रहते हुए, अपरिचित लोगों के साथ जिस आभासी आत्मीयता का अनुभव होता है, उसके झूठे स्वाद ने ही वास्तविक, गहरी, गुनगुनी आत्मीयता की जगह ले ली है।

Loneliness by Hans Thoma (National Museum in Warsaw).
ढलती उम्र का अकेलापन


ढलती उम्र, थकती काया और दिन-ब-दिन कम होती मनो दैहिक क्षमताओं के बीच बुजुर्गों का सबसे बड़ा रोग असुरक्षा के अलावा अकेलेपन की भावना है। उनकी देखभाल के लिए कोई सेवक रख देने से या उन्हें ओल्ड एज होम भेजने से उनकी परिचर्या तो हो जाती है, लेकिन भावनात्मक रूप से उन्हें वैसा संतोष नहीं मिल पाता जो सिर्फ अपने परिजनों के बीच में रह कर मिलता है। शहरी जीवन की आपाधापी तथा परिवारों के बिखराव ने समाज में कई समस्याओं को बढ़ा दिया है। एक तो परिवार के ज्यादातर सदस्यों के पास अपने बुजुर्गों के साथ बिताने के लिए समय ही नहीं है, वहीं कुछ बुजुर्गों का खुद का नजरिया भी उनकी परेशानी का कारण बन जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार जरूरत इस बात की है कि परिवारों में इस बुजुर्ग पीढ़ी को संसाधन के रूप में माना जाए, लेकिन कुछ परिवारों में उन्हें बोझ के रूप में लिया जाता है। वृद्धावस्था में देह के थक जाने के कारण हृदय संबंधी रोग, रक्तचाप, मधुमेह, जोड़ों के दर्द जैसी आम समस्याएँ तो होती हैं, लेकिन इससे बड़ी समस्या होती है भावनात्मक असुरक्षा की। भावनात्मक असुरक्षा के कारण ही बड़े बुजुर्गों में तनाव, चिड़चिड़ाहट, उदासी, बेचैनी जैसी समस्याएँ होती हैं। पश्चिमी समाज की तरह हमारे देश में भी बुजुर्ग पीढ़ी में अकेलेपन की भावना तेजी से बढ़ रही है। अपनी पीड़ा से उबरने के लिए बुजुर्गों को यह गौर करना चाहिए कि उनकी समस्या में उनका अपना क्या योगदान है। आर्थिक-सामाजिक दबावों के कारण अक्सर बच्चे बड़े हो कर दूसरे शहर या विदेश चले जाते हैं। ऐसे में खासकर भारतीय बच्चों के मन में भयंकर द्वंद्व होता है और वे अपने माँ बाप को साथ ले जाने और उन्हें घर पर छोड़ देने की दुविधा में जकड़ जाते हैं। ऐसे में बुजुर्गों को उनके साथ सहयोग करना चाहिए, न कि उनकी दुविधा को और अधिक बढ़ाना चाहिए। बच्चों को भी अपने अभिभावकों, माता-पिता के प्रति इस्तेमालवादी रुख न अपना कर उन्हें अपने साथी-सहयोगी और ऐसे सह-यात्रियों की तरह देखना चाहिए जिन्होंने उनकी परवरिश में अपने जीवन के कई बरस खपाए हैं और उनकी उपलब्धियों में उनका सकारात्मक योगदान रहा है। इस तरह की सोच आपसी स्नेह बढ़ाएगी और अकेलेपन एवं उससे जन्म लेने वाले अवसाद को काफी हद तक कम करेगी। 
Loneliness Paintings Abstract Canvas Zoltan Pal
    
 
अकेलेपन का साथी, अवसाद

अकेलेपन और अवसाद यानी डिप्रेशन के बीच एक गहरा सम्बन्ध है जिसे समझने की जरुरत है। गौरतलब है कि एक देश जिसकी गहरी जड़ें आध्यात्मिकता में रहीं हैं, उसके धर्म और आध्यात्मिक ज्ञान उसे नैराश्य और अवसाद का सामना करने में मदद नहीं कर पाए हैं! पर इसके बारे में शुरू से ही एक सजगता रही है ऐसा प्रतीत होता है। गीता को विश्व की महानतम आध्यात्मिक पुस्तकों में गिना जाता है, और उसकी शुरुआत ही होती है विषाद से। विषाद का अर्थ ही है गहरा दुःख और इसके निहितार्थ अवसाद के बहुत ही निकट है। इसका सीधा सम्बन्ध अकेलेपन के साथ है। गीता के पहले अध्याय में ही जब अर्जुन कौरव सेना में अपने रिश्ते-नातेदारों को देखता है तो उसकी जो मनोदैहिक स्थिति होती है, वह अवसाद के लक्षण ही दर्शाती है। अवसाद के इन क्षणों में वह अपने साथी-संगियों, नाते-रिश्तेदारों और यहाँ तक कि अपने प्रिय सखा कृष्ण की उपस्थिति में भी पूरी तरह अकेला महसूस करता है। यह उसके लिए गहरे भय का क्षण भी होता है और उसके व्यवहार में उस व्यक्ति के ऐसे सभी लक्षण दिखाई पड़ते हैं जो लम्बे समय से निपट अकेलेपन का शिकार रहा हो। कृष्ण से वह कहंता है कि उसके अंग शिथिल होते जा रहे हैं, और गांडीव उसके हाथ से छूटा जा रहा है, उसका शरीर काँप रहा है और कंठ सूख रहा है। बाद में मित्र और सारथी कृष्ण के साथ एक लम्बे संवाद के बाद वह इस पीड़ादायक उहापोह से बाहर आता है। एक तरह से देखा जाय तो इसमें यह संकेत मिलता है कि अकेलेपन से पीड़ित कोई व्यक्ति जब अपने भावों को किसी मित्र के सामने व्यक्त कर पाए, तो वह अपनी दुखदायी स्थिति से बाहर हो सकता है। यही काम आज के समय में पेशेवर मनोचिकित्सक और मनोविश्लेषक करते हैं। परिवार के सदस्य और मित्र ऐसी परिस्थितियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।  
         

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अकेलेपन से जन्मे अवसाद से ग्रस्त लोगों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है, यानी ३६ फीसदी!! जब कोई देश या समाज अभूतपूर्व सामाजिक और आर्थिक बदलावों के दौर से गुज़रता है, तो बने बनाये तौर तरीकों, जीवन शैली का टूटना कईयों को अकेलेपन और अवसाद की ओर ले जाता है। कभी वे इन बदलावों को संकट के रूप में देख कर इनके बारे में तरह तरह की कल्पनाएँ करते हैं, और कभी ये बदलाव उनके लिए वास्तविक संकट बन कर आ जाते हैं। इस अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में एक और और बात सामने आयी है और वह यह कि स्त्रियों के अवसाद में जाने की सम्भावना पुरुषों की तुलना में दुगुनी होती है। आम तौर पर कम विकसित देशों में अवसाद कम होता है, पर भारत की ओर देखें तो यह एक अपवाद है। भारत में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में हाल ही में बताया गया कि देश में कुल 13545 लोगों ने ख़ुदकुशी की। इसका अर्थ है कि हमारे देश में हर रोज़ 371 लोग आत्महत्या करते हैं। आत्महत्या, अकेलेपन और अवसाद के गहरे आपसी सम्बन्ध हैं और  इस विषय में विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं।

Painting Loneliness – Artist Maria Gruza
 
किराये पर दोस्त  


जिस खबर का शुरू में ज़िक्र किया है वह कुछ वेबसाइट्स से जुड़ी है जिनमे से एक का नाम है रेंटअफ्रेंड.कॉम। बड़े शहरों में किसी भी अकेले युवक और युवती, या बुजुर्ग को दिन भर की थकान, चिक चिक के बाद किसी के साथ शाम को बैठ कर कॉफ़ी पीने और अपने सुख-दुःख शेयर करने का दिल कर सकता है। ऐसे में इस वेबसाइट के जरिये आप किरायेपर किसी दोस्त को बुला सकते हैं। उसके साथ आप किसी रेस्त्रां में या पार्क में समय बिता सकते हैं। यह सम्बन्ध कुछ घंटो के लिए ही होगा, और सिर्फ भावनात्मक शेयरिंग तक ही सीमित रहेगा। यदि यह स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ता है, तो यह दोनों पक्षों की सहमति पर निर्भर करेगा। आप साथ बैठ कर सिर्फ चाय-कॉफ़ी पीना चाहते हैं तो आपको इसका करीब पांच से छह सौ रूपये किराया देना होगा और यदि डिनर पर, माँ-बाप, घर वालों के साथ जाना हो तो इसकी कीमत 1000 रुपये तक हो सकती है। रेंटअलोकलफ्रेंड.कॉम और फाइंडफ्रेंड्स.कॉम भी ऐसे ही पोर्टल्स हैं जो आपको अपने ही शहर या इलाके के दोस्तों से मिलवाने का वादा करते हैं। कुछ पोर्टल्स ऐसे भी हैं जो पांच सौ या एक हज़ार रुपये सदस्यता शुल्क भी लेते हैं। कई लोगों को यह चौंका देने वाला अजीबोगरीब तरीका लग सकता है, पर जरुरी नहीं कि इसमें हमेशा कोई अप्रिय घटना होने की ही सम्भावना हो। कुछ वेबसाइट्स स्पष्ट रूप से यह कहती हैं कि वे सिर्फ और सिर्फ प्लेटोनिक संबंधों को, सिर्फ दोस्ती को बढ़ावा देने के लिए बनायी गयी हैं। रेंटअफ्रेंड.कॉम पर इस महीने के पहले हफ्ते में छह लाख इक्कीस हज़ार पांच सौ पचासी दोस्त किराये पर उपलब्ध थे। फेसबुक पर भी ऐसे कई पेजेस हैं जो इस तरह के दोस्ताना रिश्तों को शुरू करने में मदद करते हैं। मित्र बनने या होने से ज्यादा जरुरी हो गया है मित्र खोजना और पाना। कहते हैं मित्र पाने का सबसे आसान तरीका है कि आप खुद मित्र बन जाइए। पर इस तरह की बातों को अब ज्ञान बघारना कहा जाता है। मित्र बनाने की होड़ सी लगी हुई है। फेसबुक पर आप पांच हजारिया हो जाएँ तो आपकी गर्दन सारस की तरह अकड़ जाती है। पर यह सिर्फ एक आवरण है जिसके पीछे बैठा व्यक्ति अपने अकेलेपन के साथ घुटता हुआ भी देखा जा सकता है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अकेलापन एक मूलभूत भावना है और जो क्रोध, उदासी, अवसाद, व्यर्थता के भाव, खालीपन और निराशा को जन्म देती है। अकेले लोग अक्सर सोचते हैं कि उन्हें कोई पसंद नहीं करता, वे खुद के बारे में लगातार चिंतित रहते हैं और दूसरों के प्रति उनकी समानुभूति कम होती जाती है। वे परित्यक्त महसूस करते हैं और इसलिए खुद को लोगों से दूर ही रखते हैं। इस तरह की सभी आदतें और आचरण अकेलेपन के लिए और अधिक खाद-पानी का काम करते हैं। जो अकेले होते हैं वे यह भी सोचते हैं कि दुनिया में उनके अलावा और सभी राजी-ख़ुशी हैं। अकेलापन एक भाव दशा है और इसके असर में ऐसा लगता है जैसे कोई दुनिया से बिलकुल अलग थलग पड़ गया हो; भीतर से एकदम खाली हो गया हो, खोखला हो गया हो। यह भाव इतना गहरा हो जाता है कि एक ऐसी भी स्थिति आती है जिसमे इंसान किसी के साथ सम्बन्ध बना ही नहीं पाता। बस वह जीवन की सतह पर चलते फिरते समय बिताता है। भीतर से एक विचित्र सा उचाटपन उसकी रूह को कुतरता रहता है। अकेलापन समस्या तभी बनता है जब किसी को अकेले होने में भय महसूस होने लगे। ऐसे में हमेशा लोगों से घिरे रहने की आदत पड़ जाती है और जैसे ही लोग इधर उधर हो जाते हैं,  अकेलापन अपने भय के साथ फिर उन्हें लीलने लगता है। यह भय इस हद तक बढ़ जाता है कि एक फोबिया (असामान्य भय) की शक्ल भी ले सकता है जिसे मोनोफोबिया कहते हैं। यह स्थिति भयावह होती है और बहुत अधिक कष्ट भी देती है। इस भय की वजह से साँसे फूलने लगती हैं, तेज़ी से चलने लगती हैं, दिल की धड़कन असामान्य हो जाती है, देह से लगातार पसीना निकलता है और डर से जैसे दम घुटने लगता है। ग़ालिब की एक मशहूर नज़्म उनकी तन्हाई और उससे उपजी उदासी का बखूबी बयान करती है, जिसमे वह लिखते हैं: 

रहिये अब ऐसी जगह चल कर जहाँ अपना कोई न हो,
हमसुखन कोई न हो, हमजुबां कोई न हो।
नज़्म के आखिर में वह अकेलेपन के करीब-करीब आखिरी दौर में पहुँच जाते हैं और कहते हैं:
पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार,
और गर मर जाइए तो नौहा ख्वाँ कोई न हो…। 
ये शेर इंसान के मन में अकेले और उचाट होने की चरम स्थिति को दर्शाते हैं जहाँ वह किसी को देखना तक नहीं चाहता; यह भी नहीं चाहता कि उसे भी कोई  देखे। अगिनत अपेक्षाएं और सपने टूटने के बाद और कईयों के व्यवहार से निराश होकर ही किसी की ऐसी दशा होती है। अपने इर्द गिर्द हम देखें तो ग़ालिब की इस दशा को जीने वाले अलग अलग उम्र के कई लोग हमे दिखाई देगें। हम कभी कभी खुद भी ऐसी मनोदशा से गुज़रते हैं, भले ही उसे इतने मर्मस्पर्शी तरीके से व्यक्त न कर पायें। एक सूनापन है जो हर तरह के संग-साथ, मित्रता, प्रतिष्ठा और समृद्धि के बाद भी हमारा साथ नहीं छोड़ता। अपनी पेंटिंग्स में सूरजमुखी के फूलों की रोशनी ढूँढने वाला विन्सेंट वैन गो एक दिन खुद को सीने में गोली मार कर ख़ुदकुशी कर देता है; और हाल ही में जब हॉलीवुड के मशहूर कमीडियन रोबिन विलियम्स ने जब आत्महत्या की तो दुनिया चौंक गयी यह जान कर कि सबको हंसाने वाले की रूह कितनी ज़ख्मी रही होगी।   
Loneliness Painting by Lanre Buraimoh
  
अकेलापन और सृजनशीलता


हालाँकि अकेलेपन के एक सृजनात्मक पहलू पर भी कवियों और दार्शनिकों ने रोशनी डाली है पर अकेलेपन को सृजनात्मकता के स्त्रोत के रूप में बदल देना गहरी समझ की मांग करता है। जे कृष्णमूर्ति ने लोनलीनेस, एकाकीपन या  निर्जनता और अलोननेस या अकेलेपन में साफ़ साफ़ फर्क किया है। वह कहते हैं कि एकाकीपन आपको अलग थलग करता है, जबकि अलोन का अर्थ है ऑल वन’, अर्थात जो अकेला होता है, वह पूरी सृष्टि के साथ होता है। उसे किसी व्यक्ति विशेष के साथ की आवश्यकता नहीं पड़ती। गौरतलब है कि लेखकों, चिंतकों और कलाकारों का अकेलापन मानसिक ज्यादा और भौतिक कम होता है, तभी तो सार्त्र ने अपना ज़्यादातर काम फ्रांस के कैफ़े और रेस्टोरेंट में ही बैठ कर किया। कलाकार के भीतर एक ख़ास किस्म की क्षमता होती है कि वह भीड़ में भी खुद को अकेला कर लेता है। अंग्रेजी कवि विलियम वर्ड्सवर्थ अक्सर पर्वतों और वादियों के ऊपर से तैरते बादल की तरह अकेला हो जाता है और उन क्षणों को अपनी रचनाशीलता के लिए संजो कर रखता है। काफ्का कहता है कि लिखना बिलकुल तनहा हो जाना है, अपने अंतर्मन की ठंडी गहराइयों में डूबते जाना है। अमेरिकी चिंतक-लेखक हेनरी डेविड थोरू का कहना है कि उन्हें अकेलेपन से बेहतर साथी कभी मिला ही नहीं। पर एकाकीपन की मजबूत दीवार तोड़ कर अकेलेपन की सृजनात्मकता की ओर बढ़ना सबके वश की बात नहीं।  
Abstract Art Loneliness! by rudolf brink
 
मौत के बाद भी तनहा


पिछले दिनों एक और खबर पढ़ी जो यहाँ की संस्कृति के सन्दर्भ में चौंका देने वाली है। हैदराबाद से आकर कोलकाता में बसी एक महिला ने एक ऐसी एजेंसी बनायी है जो लोगों के अंतिम संस्कार की पूरी व्यवस्था करती है। शव की देखभाल, उसे सुरक्षित रखने से ले कर शव वाहक गाडी और पंडित-पुरोहितों का इन्तेजाम तक यह एजेंसी करती है। अलग-अलग संप्रदाय के लोगों के लिए तरह तरह के पैकेजेस हैं। एजेंसी की सेवाएं ऑन लाइन भी बुक करवाई जा सकती हैं। वह श्राद्ध वगैरह का भी प्रबंध कर देती हैं और जरुरत पड़े तो शव को दूसरे देश भी भेजने की व्यवस्था करवा देती हैं। देश से बाहर रहने वाले लोगों के किसी रिश्तेदार की भारत में मौत हो जाए तो ऐसे में यह एजेंसी बहुत मददगार साबित होती है। लम्बे समय तक बाहर रहने वालों का भारत में अपने नाते रिश्तेदारों के साथ संपर्क टूट जाता है और ऐसे में हर छोटी-बड़ी चीज़ों का बंदोबस्त करना उनके वश की बात नहीं रह जाती। अंत्येष्टि फ्यूनरल सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड नाम की एजेंसी उनकी सहायता करती है। भविष्य में कभी ऐसा भी हो सकता है कि किसी रिश्तेदार की मौत पर लोग बाहर से ही फ़ोन कर दें और इस तरह की एजेंसियां देश में ही अंतिम संस्कार से जुड़े सभी कर्मकांड निपटा कर करके उन्हें बस सूचना दे दें। इस अनूठी एजेंसी के काम को सफलता मिल रही है और सामाजिक-आर्थिक कारणों से हो रहे बदलाव जल्दी ही कई और लोगों को इस तरह का व्यापारशुरू करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। अभी तो हमे इन ख़बरों को पढ़ कर थोडा अजीब लग सकता है, पर धीरे धीरे अन्य बातों की साथ इनकी भी आदत पड़ जानी है। हो सकता है मानवीय संबंधों की देख-रेख का समूचा काम विशेषज्ञ और पेशेवर एजेंसियां ही संभाल लें। हो सकता है अकेलापन और उससे जुड़ा अवसाद भी साथ ही बढ़ता चला जाए।  
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*गुलज़ार की एक नज़्म से
सम्पर्क – 

ई-मेल : chaitanyanagar@gmail.com

चैतन्य नागर का लेख ‘मौत के बाद का कारोबार’।


 

चैतन्य

इस सृष्टि में जहाँ भी जीवन है वहाँ मौत है। प्राचीन काल से ही मनुष्य अपने मृतकों की अंत्येष्टि के लिए तरह-तरह के तौर तरीके अपनाता रहा है। किसी को अपने सम्बन्धी के शव की अंत्येष्टि के लिए ‘दो गज जमीन’ चाहिए तो किसी को ‘पाँच मन लकड़ी।’ हिन्दू परम्परा में तो यह अन्येष्टि संस्कार भी एक सम्पूर्ण कारोबार की तरह से ही है। अंत्येष्टि के लिए लकड़ी के इंतजाम से ले कर क्रिया कर्म कराने वाले पण्डित की दान-दक्षिणा और फिर उसके बाद तेरह या सोलह दिनों तक चलने वाला लम्बा और दुखद उद्यम। फिर सामूहिक मृत्यु-भोज। जागरूकता बढ़ने के बाद इधर लोगों में देह-दान की परम्परा भी चल निकली है। ‘देह-दान’ के अन्तर्गत दान किए गए मृतक का शव चिकित्सा-महाविद्यालयों के शोधार्थी चिकित्सकों के प्रयोग के काम आता है। कवि चैतन्य नागर ने इस मौत के कारोबार पर एक दिलचस्प आलेख लिखा है। तो आइए आज पढ़ते हैं चैतन्य नागर का लेख ‘मौत के बाद का कारोबार’।
             
मौत के बाद का कारोबार 
चैतन्य नागर 
मौत के ज़िक्र से ही रीढ़ में दहशत रेंगती है। इसके बारे में किसी तरह की चर्चा को भी अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से बहुत दूर रखने की व्यवस्था कर रखी है। हाल ही में ‘डिस्कवरी’ पर एक कार्यक्रम आ रहा था पारसी समुदाय के बारे में। उनके यहाँ शव को ‘टावर ऑफ़ पीस’ पर रखने का रिवाज़ है। उनका धर्म कहता है कि मृत देह को अकेले में छोड़ दिया जाना चाहिए जहाँ गिद्ध और कौवे उसे खा लें। गिद्ध और कौवों को सृष्टि ने इसीलिए बनाया है। ‘डिस्कवरी’ का यह कार्यक्रम इसी रिवाज़ के बारे में और गिद्धों के गायब होने पर पारसी समुदाय की चिंताओं से सम्बंधित था। एक शव खुले में पडा था और उसके परिजन सूनी आँखों से आसमान की ओर ताक रहे थेपरिंदों के इंतज़ार में। तिब्बत में भी शव को परिंदों को खिला देने का रिवाज़ रहा है पर वहां की प्रथा और विचित्र है। वहां शव के छोटे-छोटे टुकड़े किए जाते हैं और फिर चील, गिद्ध और कौवों को खिला दिया जाता है। 
                                          
आप ज़रा सोचें तो यह एक बड़ी समस्या है। धर्म के सामने और समाज के सामने भी। जीते जी तो हम धरती का शोषण करते ही हैंमरने के बाद भी किसी न किसी तरह धरती के लिए संकट बन जाते हैं! कितने लोग हैंकितने जीव धरती पर! कहाँ जाएंगे हम सभी मौत के मुंह में समा कर! क्या होगा हमारी मृत देहों का! कहाँ से आएगी इतनी ज़मीनइतनी लकड़ियाँकौन से परिंदे आयेंगे शवभोज के लिए! आम तौर पर शव या तो जलाया जाता हैया ज़मींदोज़ किया जाता है। हर मृत व्यक्ति के साथ या तो लकड़ियाँ जलती हैंया थोड़ी जमीन कुर्बान होती है। पर्यावरण भी थोडा मरता हैऔर ज़मीन के अभाव से पहले से ही त्रस्त धरती के वाशिंदे खुद बेघर रह कर अपने हिस्से की ज़मीन मौत के हवाले करते हैं। यही रिवाज़ हैयही संस्कारयही धर्म। पशुओं के अंतिम संस्कार का भी बड़ा प्रश्न हैखासकर शहरों में। अपने पालतू जानवरों को भी लोग कहाँ ले जाएँ उनके मरने के बादयह एक बड़ा सवाल बना रहता है उनके सामने।  
इतिहासकार गोपाल कृष्ण गाँधी ने महात्मा गाँधी की शव यात्रा के बारे में लिखा है कि यह एक विडम्बना थी कि गाँधी जी के शव को तोप ढोने वाले वाहन में रखा गया था। जीवन भर अहिंसा की पूजा करने वाले गाँधी जी के शव को एक विध्वंसक शस्त्र ढोने वाले वाहन में रखा गया था! गाँधी जी के सचिव प्यारे लाल ने लिखा है कि गाँधी जी अपने शव को रसायन में लपेट कर सुरक्षित रखने के विरोधी थे और उन्होंने सख्त हिदायत दी थी कि जहाँ उनकी मृत्यु होवहीँ उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाना चाहिए। पर प्यारे लाल के दस्तावेजों में यह उल्लेख भी मिलता है कि उनके दाह संस्कार में “पंद्रह मन चन्दन की लकड़ियाँचार मन घीदो मन धूपएक मन नारियल के छिलके और पंद्रह सेर कपूर का उपयोग हुआ। जो इंसान एक फ़कीर की तरह रहाऔर अपना जीवन बस थोड़े से सामान के साथ बितायाउसके दाह संस्कार में इतना कुछ खर्च किया गया! यदि गाँधी पहले ही इस बारे में स्पष्टता से निर्देश देते तो शायद यह सब थोड़े संयम के साथ होताजैसा वे शायद खुद भी चाहते। इस मामले में दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति बड़े स्पष्ट थे। उनके साथ तो समस्या यह भी थी कि उनका कोई परिवार नहीं थाकोई नाते-रिश्तेदार नहीं थेन ही वह धार्मिक थेन हिन्दू रिवाजों को मानते थेन ही किसी और। कृष्णमूर्ति से उनके निकट सहयोगियों ने स्पष्ट तौर पर पूछा था कि उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए । उन्होंने बड़े विस्तार से बताया था कि शव को स्नान करवाने के बाद एक साफ़ कपडे में लपेटा जाएजो महंगा न हो और फिर जितनी जल्दी हो सकेउसका दाह संस्कार कर दिया जाए। शव को कम से कम लोग देखेंकोई कर्मकांड न होऔर उसे बस लकड़ी का एक कुंदा भर समझा जाए। लोगों ने अस्थियों के बारे में पुछा तो उन्होंने कहा कि आप जो चाहे करेंबस उसके ऊपर कोई स्मारकमंदिर वगैरह बिलकुल भी न बनाया जाए। सुकरात से भी उनके मित्रों ने पूछा था उनके शव के साथ क्या किया जाना चाहिए। सुकरात ने कहा: “पहले मुझे पकड़ तो लेनाऔर सुनिश्चित कर लेना कि जिसे पकड़ा है वह मैं ही हूँफिर जो चाहे कर लेना!” एंड्रू रोबिनसन ने सत्यजित रे की जीवनी ‘द इनर ऑय” में एक दिलचस्प बात लिखी है। कविगुरु रविन्द्रनाथ टैगोर की मृत्यु के बाद सत्यजित रे टैगोर के घर पहुँच गए थे और वहां नन्द लाल बोस को सफ़ेद फूलों से गुरुदेव के शव को सजाते हुए देखा। यहाँ तक तो ठीक थापर जब शव-यात्रा शुरू हुईतो जिसके लिए मुमकिन हुआ उन लोगों ने कविगुरु की दाढ़ी का कम से कम एक बाल नोचने की कोशिश कीअपनी स्मृति के लिए!  

इस देश में आम तौर पर शव के अंतिम क्रियाकर्म दो तरीके से किए जाते हैं। एक तो जला कर और दूसरा दफ़न कर। जलाने में लकड़ी का उपयोग कुछ लोगों को आपत्तिजनक लगता है। उनका कहना है कि मृत देह से ज्यादा कीमती है वृक्ष और उसकी लकड़ियाँ। जितनी लकड़ियाँ किसी मृत देह को जलाने के काम आती हैंउनसे किसी गरीब घर का ईंधन निकल आएगा। बिजली से चलने वाले शवदाह गृह में अभी भी परंपरागत हिन्दू जाना नहीं चाहते। जब तक शव पूरी तरह भस्म न हो जाएपरिवार के लोग वहीँ आस पास रहना चाहते हैं और उनकी भावनाओं को समझा भी जा सकता है। फिर प्रश्न उठता है अस्थियों का और उनके विसर्जन के लिए आस पास किसी नदी की उपस्थिति का। पर्यावरण की फिक्र करने वालों के लिए नदियों का प्रदूषण एक बड़ा प्रश्न है। हिन्दू रीतियों में साधु-सन्यासियोंछोटे बच्चों और विधवाओं के शव को अग्नि के सुपुर्द करने का रिवाज़ नहीं। उन्हें जल समाधि दी जाती है। सही तकनीक न अपनाई जाए तो शव सतह पर आ जाता है और यह दृश्य काशी की गंगा में या और किसी नदी में भी अक्सर देखा जाता है। पशु पक्षी शव का बहुत ही बुरा हाल करते हैं और यह सब कुछ एक निराधार धार्मिक परंपरा के नाम पर किया जाता है। काशी में तो महाश्मशान हैमणिकर्णिका घाट पर। मणिकर्णिका पर लगातार धुंआ और राख उडती दिखाई देती है। और घाट की सीढ़ियों से लगे हुए मकान हैं लोगों। लोग कैसे रहते हैं वहां जहाँ हर पल हवाओं में मौत की गंध तैरती रहती होमौत का स्वाद रोटी के हर कौर से लिपटा होविलाप करते लोगों का रुदन दिन रात सुनाई पड़े जहाँताज्जुब होता है देख कर।  

ज़मीन के अभावतरह तरह के प्रदूषण और शव की दुर्दशा को देखते हुए बेहतर होगा कि सही सोच वाले लोग जीते जी अपने सगे-सम्बन्धियों को निर्देश दे दें कि उनके शव के साथ क्या किया जाए। मौत के बाद चलने वाला कारोबार धरती काकीमती संसाधनों का और परिजनों के धन और ऊर्जा का कम से कम नुकसान करें तो बेहतर होगा। समस्या यह है कि मृत्यु को इतना बड़ा एक टैबू या वर्जित विषय माना गया है कि हम कभी घर परिवार में इस बारे में बात ही नहीं करते। परिणामस्वरूप इस मामले में सदियों से चली आ रही परम्पराएँ ही अपना काम करती हैंऔर नये सिरे से सोचने की संभावना बहुत कम रह जाती है। इसमें समाज के राजनैतिक और धार्मिक नेताओं की भी बड़ी भूमिका है। वे मरने के बाद भी वी. आई. पी. बने रहना चाहते हैं। हजारों लोगों की मौजूदगीसैकड़ों गाड़ियां और लाव लश्कर न हो तो जैसे वे मरने को तैयार ही नहीं होंगे! देर सवेर इन सभी बातों के बारे में सोचना होगा। जीते जी लोगों का जीना मुश्किल करने वाला इंसान मृत्यु के बाद भी कैसे परिजनों काधरतीजलवायुअग्नि और आकाश के लिए भी त्रास का कारण बनता है,यह काबिले गौर है। ज़िन्दगी तो लड़खड़ा कर थम जाती हैपर मौत का कारोबार ऐसे नहीं थमता। बेतहाशा चलता है मौत का तमाशा। 
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चैतन्य नागर का आलेख ‘…बुरा न मिलिया कोय’


चैतन्य नागर

पिछले दिनों सहिष्णुता-असहिष्णुता के सवाल पर काफी बातें-बहसें होतीं रहीं। इस मुद्दे पर सबका अपना-अपना पक्ष थायुवा विचारक चैतन्य नागर ने इस सहिष्णुता-असहिष्णुता के मुद्दे पर एक गंभीर एवं चिंतनपरक आलेख लिखा है इसके माध्यम से उन्होंने इसे एक नए दृष्टिकोण से  सोचने का प्रयास किया है तो आइए पढ़ते हैं चैतन्य नागर का यह आलेख ‘बुरा न मिलिया कोय’      
…बुरा न मिलिया कोय

चैतन्य नागर  
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का यह वक्तव्य कि गन्दगी हमारी सड़कों और गलियों में नहीं हमारे दिलो-दिमाग में है, वास्तव में असहिष्णुता और हिंसा के मनोवैज्ञानिक धरातल को खंगालने का प्रयास है। किसी समस्या के वाह्य कारणों को ढूँढने में हताश हुए मन की यह एक स्वाभाविक गति है कि वह अंतर्मुखी होता है और समस्या की आन्तरिकता की पड़ताल करने का प्रयास करता है। राष्ट्रपति के कथन और इस तरह की सोच की जड़ें प्राच्य संस्कृति में बहुत गहराई तक जमी हुई हैं। जापान में विकसित हुए ज़ेन बौद्ध धर्म में एक वृद्ध भिक्खु अपने अनुभव सुनाते हुए कहता है कि युवावस्था में जब वह बड़ा उत्साही था, तब उसने दुनिया को बदलने की सोची थी, पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, वह अपने देश, राज्य, शहर, मोहल्ले और आखिर में इर्द गिर्द के माहौल को ही बदलने की फ़िक्र करने लगा। जब उसे यह महसूस हुआ कि वह दुनिया में कुछ बदल ही नहीं सकता तब उसने खुद को बदलने की सोची और कहा कि यदि यही समझ मुझे युवावस्था में आ जाती तो मेरे भीतर होने वाले बदलाव के कारण मेरे मोहल्ले, शहर, राज्य, देश और दुनिया में बदलाव आसान हो जाता। राष्ट्रपति ने महात्मा गांधी के दर्शन की प्रासंगिकता पर भी जोर दिया जो अक्सर कहा करते थे कि जैसा परिवर्तन आप समाज में देखना चाहते हैं, उसका उदाहरण आप स्वयं में बनें। ब्रिटेन के फेबियन समाजवाद के प्रमुख सदस्य और नोबेल विजेता नाटककार बर्नर्ड शॉ ने भी अपने लम्बे अनुभव के बाद यही कहा था कि अच्छे कानून लोगों को अच्छा नहीं बनाते, बल्कि अच्छे लोग ही अच्छे कानून ला सकते हैं। भारत में समाजवादी आन्दोलन के पुरोधा अच्युत पटवर्धन तो 1950 में ही सामूहिक आन्दोलन के जरिये सामाजिक बदलाव की धारणा से ऐसे विमुख और उदासीन हुए कि उन्होंने इस विषय में लोगों के पत्रों का जवाब देना भी बंद कर दिया, दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति के सानिध्य में उनके फाउंडेशन के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया और लगातार प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर मन मस्तिष्क में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता पर जोर देते रहे।

असहिष्णुता और हिंसा के विशाल वृक्ष को देख कर अचंभित होने और हाय-हाय करने से बेहतर है इनके बीजों की प्रकृति को समझा जाए। इसके लिए अपने अंतरतम में, आपसी रिश्तों में व्यक्त होती असहिष्णुता और हिंसा की अभिव्यक्तियों पर गौर करना चाहिए। सूक्ष्म और स्थूल दोनों तरह की अभिव्यक्तियों पर। हिंसा और असहिष्णुता की सार्वजानिक अभिव्यक्ति तो बहुत बाद में होती है; इससे बहुत पहले वे मन की कई तहों में अपनी जगह बना चुकी होती हैं। हो सके तो अपने रोज़मर्रा के जीवन में हमे इनकी विषाक्तता को व्यक्त होते देखना चाहिए। देखना चाहिए कि जब हमारे परिवार मेंया मित्र-परिचितों के बीच कोई ऐसी बात कहता हैया ऐसा कुछ करता है जो हमारे मतों के बिलकुल विपरीत होता हैतो हमारी क्या प्रतिक्रिया होती हैजब ज्यादा ‘मजबूत’ कोई व्यक्ति हमसे असहमत होता हैतब हम क्या करते हैंक्या हम क्रोध करते हैंअसहमति को दबाने को कोशिश करते हैंबौखला जाते हैंऔर यदि वह बहुत ही ‘कमज़ोर’ हैमेरा कर्मचारी हैबच्चा हैछात्र है या जीवन-साथीजिस पर हम आदतन हावी रहते आये हैंतो हम उनकी बातें सुनने से भी इनकार नहीं कर देतेअसहिष्णुता के बीज इन करीबी और दूर के संबंधों में ही दिखते हैं समाज आखिर आपके और मेरे बीच के संबंधों का संजाल ही तो है मैं खुद का सात अरब लोगों के साथ गुणा कर दूँतो यही दुनिया तो बनेगी हमारी धरती पर सात अरब ‘मैं’ हैं जो फर्क हैंवे अलग अलग सांस्कृतिक-सामाजिक प्रभावों की वजह से हैं अपने मतों के साथ तादात्म्य, ‘सत्य-सिर्फ-मेरे-ही-पास-है’, यह भाव इतना कैसे मजबूत हो गया हैइस दुर्भाग्यपूर्ण आदत पर प्रश्न उठाने चाहिए मतों और विचारधारा के नाम पर होने वाली हिंसा सूक्ष्म भी हैऔर कई गुना ज्यादा नृशंस भी यह सवाल पूछना जरुरी है कि हमे मत ज्यादा प्रिय हैचाहे वह कितना उदार’ और ‘सर्वसमावेशी’, क्यों न होक्या वह उस इंसानियत से भी ज्यादा कीमती है जिसकी रक्षा के नाम पर हम उसे अपनाते हैं?
सहिष्णुता में एक तरह का अहंकार का भाव है। इसमें यह निहित है कि मैं जो हूँ वह बना रहूँगाहिन्दूमुस्लिमब्राह्मण वगैरहपर मैं इतना उदारहूँ कि मैं तुम्हे दूसरों को बर्दाश्त कर लूँगा। सहिष्णुता का प्रश्न अपने पूर्वग्रहों के साथ हमारे लगाव के साथ भी जुड़ा हुआ है। इसका यह भी अर्थ है कि मुझे आपकी त्वचा का रंगआपके धार्मिकसामाजिक रीति रिवाज़ और आपके व्यक्तिगत तौर तरीके पसंद तो नहींपर चूंकि आपके साथ रहना मेरी मजबूरी है इसलिए मैं आपको बर्दाश्त करूँगा। अक्सर मैं स्वयं के पूर्वाग्रहों पर विचार नहीं करता। 

यह भी बहुत जरुरी है कि जो लोग आज असहिष्णुता के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं वे साथ ही साथ सहिष्णुताउदारता और सर्वसमावेशिता की वैकल्पिक संस्कृति का आधार भी ढूंढें। बात सिर्फ सहिष्णुता की नहींसमानता और सम्मान की भी होनी चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि राष्ट्रपति का वक्तव्य हमारी वास्तविक सामाजिक दुनिया ही नहीं बल्कि हमारी आभासी दुनिया के चरित्र को भी दिखाता है, जहाँ बाहर से साफ़ सुथरी, चमकती हुई एक वॉल दिखती है और इनबॉक्स कई तरह का मैल दिखाई पड़ता है।    
सहिष्णुता और असहिष्णुता पर बात करते समय हमे प्राथमिक शिक्षा पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए। विशेष तौर पर इतिहास जैसे विषय पढ़ाते समय एक ख़ास किस्म की जागरूकता की जरुरत है। साथ ही धार्मिक समुदायों द्वारा चलाये जाने वाले स्कूलों में नैतिक शिक्षा की पुस्तकों में क्या पढाया जाता हैउस पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। यदि सरकार ईमानदार है तो उसे प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर गंभीर काम करना चाहिए। पूर्वग्रह वहीँ से निर्मित होते हैं और आगे चलकर असहिष्णुता का बवंडर खड़ा कर देते हैं। इसके लिए शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए भी विशेष तरह के कार्यक्रम चलाये जाने चाहिए। व्यक्तिगत परिवर्तन के जरिये सामजिक परिवर्तन का रास्ता लोगों को धीमा और तुरंत परिणाम न देने वाला लग सकता है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि संगठनात्मक, संस्थानगत और सामूहिक एक्शन के जरिये परिवर्तन की बात ही नहीं होनी चाहिए। अभी तो वाह्य परिवर्तन की सीमित प्रकृति को समझने की और परिवर्तन के आतंरिक आयामों के प्रति आँखें खुली रखने की आवश्यकता है। 
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं) 

चैतन्य नागर का आलेख ‘दुःख का डी एन ए’


चैतन्य नागर
दुःख मानव जीवन एक ऐसा सत्य है जिस पर समय-समय पर अनेक महान विभूतियों ने चिन्तन-मनन किया है। इस क्रम में बुद्ध का चार आर्य सत्य काफी ख्यात हैइस क्रम में दुःख पर विपुल मात्रा में लेखन किया गया है। चित्र हों या मूर्ति-कला; कहानी हो या कविता सबमें दुःख मानव जीवन की भाँती ही पर्याप्त मात्रा में व्याप्त है। कवि निराला अपनी एक कविता में कहते हैं – ‘दुःख ही जीवन की कथा रही।’ कवि चैतन्य नागर ने भी दुःख की इस कथा को अपनी तरह से समझने की कोशिश किया है तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं चैतन्य नागर का यह सुचिन्तित आलेख ‘दुःख का डी. एन. ए.’      
दुःख का डी. एन. ए.

चैतन्य नागर

ईसाइयत मानती है कि ईश्वर का एक ही पुत्र हुआ जो पाप से मुक्त थापर दुःख से मुक्त तो कभी कोई नहीं हुआ। इस बात को इसके धार्मिक अर्थ से अलग करके देखा जाए तो भी इसमें एक गहरी सच्चाई है। दुःख तो हर इंसान की शिराओं में बहता हैरग-रेशे में सुलगता रहता हैपर इसकी आँखों में झाँकने से भी डर लगता है। जितना मुमकिन हो सके इससे दूर भागने में ही कल्याण हैऐसा ही हमने सीखा हैयही हम दूसरों को सिखाते हैं। पर दुःख को समझना है, तो उसे सहेज कर रखना पड़ेगा. दुष्यंत कुमार ने इसे बखूबी व्यक्त किया है:

दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें,
सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया।

हमेशा रहने वाले इस दुःख को अपनी मेज पर रखें और जरा मिल-जुल कर निहारें कि क्या है इसमें ऐसा कि दिल में तो आता हैसमझ में नहीं आता। दुःख बस व्यक्तिगत नहीं। पेशावर से पैरिस तककश्मीर से कैलिफ़ॉर्निया तकपरिंदों का दुःख और पेड़ों कानदियों का और बर्फ से ढंके ग्लेशियर्स काकई तरह केकई स्तररंगरूप और महक वाले दुःख को हमने देखा है। कोई सम्बन्ध है हमारे खुद के दिल में रिसते दुःखऔर दुनिया में धधक रहे दुःख के बीच?  दर्द तो दैहिक है, और इसकी दवा है पर दुःख का निवारण संभवतः किसी गहरी प्रज्ञा की मांग करता है। ग्रीक पौराणिक पात्र प्रोटियस की तरह यह इधर डूबता है तो उधर उबरता है। लगातार जीवन के दरवाजे पर इसकी दस्तक सुनी जा सकती है। आम तौर पर तो मन इससे भाग लेने में ही अपनी भलाई समझता है। इसके विराट ढांचे के भीतर प्रवेश करने का साहस विरलों में ही होता है। गौर से देखें, किसी का पता-ठिकाना भर जान लेना,  दूर से ही उसकी आवाज़ पहचान लेनाउसकी एक-एक आदत से वाकिफ होना ही उसे जानना नहीं। अपने रंग-ढंगचेहरे-मोहरेबातों-आदतों के अलावा एक इंसान और भी बहुत कुछ होता है। ऐसे ही ‘दुःख को जानना’ और ‘दुःख के बारे में जानना’ एक ही बात नहीं।

जो सोचता है कि दुःख के बारे में चर्चा एक निराशावादीसिनिकल और रुग्ण मनोदशा की ओर इशारा करती है उसे बस एक बार रोज़ की ख़बरें गौर से देखने-पढ़ने की जरूरत है। अख़बारों में तो जैसे बस तारीखजगहें और पात्र बदलते हैंख़बरें वही की वही होती हैं। इस देश में हर बीस मिनट में एक स्त्री के साथ बलात्कार होता हैदुनिया में करोड़ों की संख्या में लोग भूख से मरते हैं और न जाने कितने लोग बेघर-बेरोजगार हैं। जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की 250 प्रजातियाँ रोज़ धरती से गायब हो रही हैं। जिस धर्म का आविष्कार हमने अपने सुख और शांति के लिए कियावह हमारा सबसे बड़ा शत्रु बना हुआ है। इसीलिए बुद्ध ने तो किसी रहस्यवादीआत्मविषयक प्रश्नों का उत्तर देने से ही इनकार कर दिया और बार-बार यह स्पष्ट किया कि उनका सरोकार सिर्फ मानव के दुःख और उसके निरोध से ही है। यहाँ तक कि सम्बोधि का अर्थ भी उन्होंने ‘दुःख-ध्वंस’ ही बताया। बुद्ध ने दुःख की संरचना को बड़ी बारीकी के साथ जांचा-परखा था। उन्होंने दुःख को सिर्फ देह या मन को होने वाली तकलीफों और असुविधाओं तक सीमित नहीं रखा और इसकी कई स्थूल और सूक्ष्म अभिव्यक्तियों का उल्लेख किया—-परिवर्तन के कारण होने वाला दुःखवस्तुओं और स्थितियों के परिवर्तनशील होने का दुःखपरिवर्तन का दुःखपरिवर्तन के कारण होने वाले तनाव का दुःखबदलती वाह्य परिस्थितयों का दुःखअनित्य का दुःखपरिवर्तनशील वस्तुओं के साथ लगाव का दुःख। इसके अलावा उन्होंने जन्मजरा और मृत्यु के दुःख की भी बार-बार बात की।

हमारा व्यक्तिगत जीवन हो सकता है बड़ा सुरक्षित होहमारे पास मजबूत घर होअच्छी नौकरियाँ हों और हमारे कारोबार फायदे में चल रहे होंसंबंधों में सुरक्षा का एहसास होपर क्या हम चारों ओर जलती हुई आग से बेपरवाह अपने ‘सुख’ से संतुष्ट रह सकते हैंसिर्फ भयंकर रूप से आत्मकेंद्रित और स्वार्थी व्यक्ति ही अपने सीमित सुख के छोटे से द्वीप पर चैन से रह सकता है। आप जितने अधिक संवेदनशील होंगेंदुःख की कील आपके कलेजे में उतनी ही अधिक चुभेगी।

सौ में से निन्यानबे मामलों में अपने दुःख का कारण हम खुद ही होते हैं। फिर से स्पष्ट करूँ कि यहाँ चर्चा सिर्फ उस दुःख की हो रही है जिसका एक प्रबल मनोवैज्ञानिक अवयव होता है। देह को होने वाली पीड़ा की नहीं। बगैर हमारी चेतन और अचेतन सहमति और सहयोग के हमें कोई दुखी नहीं कर सकता. कर सकता है क्यादुःख प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है उन रिश्तों के साथ जिन्हें हम बनाते-तोड़ते हैं। लोगों के साथचीज़ों के साथविचारों के साथ। कई तरह के संबंधों के संजाल के बीच सबसे महत्वपूर्ण होता है अपना सम्बन्धखुद के साथ। हम अपने विचारोंअपनी भावनाओं के साथ क्या करते हैंहम खुद के साथ खुश हैंया फिर अकेले होते ही परेशान हो कर किसी न किसी चीज़गैजेटकिताब या यार-दोस्त की खोज में लग जाते हैं? जो खुद के साथ ही खुश नहींखुद से ही उकता गया हैवह चाहे किसी के साथ भी रह लेदेर-सवेर उसे भी दुखी कर डालेगा। एक बात औरसुख की छाछ को पहले से ही फूँक-फूँक कर पिया जाए तो दुःख का उबलता दूध कलेजे को थोड़ा कम ही जलाएगा।

दुःख के बारे में दो बड़े लोकप्रिय मिथक हैं: एक तो यह कि समय बड़े से बड़े दुःख का इलाज है। होता वास्तव में यह है कि दुःख देने वाली घटना और उसकी स्मृति पर कई नए विचारों और स्मृतियों की परतें चढ़ जाती हैं पर उसके भीतर दुःख ठीक अपनी जगह पर ही बैठा रहता है। समय बीतने के साथ वह हमारे अवचेतन का हिस्सा बन जाता है और उसके बाद वहां से कई अप्रत्याशितविचित्र और कभी कभी विकृत अभिव्यक्तियों के रूप में बाहर आता है। दूसरा झूठ यह है कि दुःख बांटने से कम होता है। ऐसा होता नहीं. दो-चारया दस-बीस दुखी लोग मिल कर किसी एक को सुखी नहीं बना सकते। दुःख सिर्फ छितरा जाता है। इधर-उधर फैल जाता है। बांटने पर उसके कम होने का बस भ्रम होता है। दुःख बांटने की आदत जारी रही तो आगे चलकर आत्मदया का भाव भी इससे ही उपजता है। दुःख सिर्फ इसके कारण की समझ और उसके अंत से ही समाप्त हो सकता है।

दुःख का हर अनुभव या तो हमें कोमल और समझदार बनाता हैया फिर नए पूर्वग्रहों के लिएनई कड़वाहट के लिए जगह बना देता है। पहली बात बहुत दुर्लभ हैऔर बहुत अधिक समझ और धैर्य की मांग करती हैदूसरी बात बड़ी सामान्य है। दुःख के अनुभव के बाद कठोरसीमित हो जानासिकुड़ कर अपनी खोल में बंद हो जानाये सामान्य बातें हैं। कोई कवि या शायर दुःख को लेकर रूमानी हो जाएउसका महिमामंडन करने लगेया फिर उसे नियति भी मान लेऐसा कुछ कहे कि “मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यूँ”, तो उसे संदेह के साथ देखना ही ठीक है। दुःख में ऐसा कुछ भी नहीं जो खूबसूरत हो। तनावईर्ष्याडाहक्रोधकलहलोभअनावश्यक महत्वाकांक्षा की शक्ल में यह मन को लगातार कुतरता रहता है। मस्तिष्क की कोशिकाओं को तो यह भौतिक रूप से नष्ट ही कर डालता है। इसमें एक बात ध्यान देने लायक है कि दुःख की भर्त्सना दुःख से मुक्त नहीं करतीठीक वैसे हीजैसे इसका महिमामंडन मुक्त नहीं करता। अब चुनौती है इसकी निंदा और स्तुति के बीच का कोई रास्ता ढूँढने की। यह कहाँ और कैसे मिलेयह है एक बुनियादी सवाल।

दुःख से मुक्ति को कई लोग निपट व्यक्तिगत मामला मानते हैं। व्यक्तिगत तौर पर दुःख से मुक्त होने क्या कोई अर्थ है भीजब आपके इर्द गिर्द दुनिया में आग लगी होजैसा कि बुद्ध ने ‘आदित्त्परियाय सुत्त’ में कहाजे कृष्णमूर्ति इसका जवाब इस तरह देते हैं: “जब आप खुद के दुःख को ख़त्म करने का प्रयास करते हैंतो वास्तव में समूची दुनिया का दुःख समाप्त करने का प्रयास कर रहे होते हैंऔर जब आप अपने खुद के दुःख पर काम नहीं करतेतो आप समूची दुनिया का दुःख बढ़ा रहे होते हैंक्योंकि वस्तुत आप ही यह विश्व हैं।” पर हकीकत तो यह भी है कि बुद्ध उन जैसे कुछ और आए और चले गएपर दुनिया पहले की तरह ही धधक रही हैकई अर्थ में तो पहले से कई गुना बदतर हो चुकी है। तो कुछ गिने चुने लोग अगर इस दुःख के दरिया को पार कर भी लेंतो क्या मानव जाति की पीर का पर्वत थोड़ा भी पिघलता हैइसी प्रश्न के साथ थोड़ा ठहरते हैं।
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग मोसेस स्टेल की है जिसे हमने गूगल से साभार लिया है.)

चैतन्य नागर की कविताएँ

 

चैतन्य की कवितायें हमारे अंदर वह बेचैनी पैदा करतीं हैं जो अब आम तौर पर समाप्त होती जा रही है। बढ़ते भौतिकतावाद के साथ हमारी संवेदनशीलता लगातार क्षरित होती जा रही है। पहले हम समझ जाते थे बकौल कवि  ‘क्यों, किसके लिए रो रही है /किस बीते कल के लिए /किस दुखती रग को’ लेकिन अब हालात ये हैं कि ‘अब बस रोना समझ आता है।’ बाकी कुछ भी समझ नहीं आ रहा। मनुष्यता को बचाये रखने के लिए जरुरी है कि ‘अपना शिला-पन छोड़ कर /नदी-पन को जी लिया जाय।’ आईये पढ़ते हैं चैतन्य की कुछ इसी तरह की आस्वाद वाली कविताओं को।

     
बताना मुश्किल है 

पहले फूट-फूट रोती थी 
पूरी देह भर, सांस सांस रोती थी 
अब बस सिसकती है 
चुपचाप 
चादर की आड़ी-तिरछी सलवटें भिगोती है

अब तो सुबह ही कोई जानेगा 

रात रोई होगी 

पहले ख़बर लग जाती थी 

क्यों, किसके लिए रो रही है 
किस बीते कल के लिए 
किस दुखती रग को 
अब बस रोना समझ आता है 
चुपचाप चीखता हुआ, 
जगलों के भोले-भाले सन्नाटे से बेपरवाह

बताना मुश्किल है 

दुःख के ज़्यादा करीब 
पहले थी, या अब 


शुभ है नींद का न आना  

रात में सन्नाटे में किसी जिद्दी बच्चे की तरह 
जब दूर भाग रही हो नींद 
किसी का न होना चुभा जा रहा हो पीठ में 
बढ़िया संयोग बनता है 
अपने अन्दर-बाहर कैद 
नयी-पुरानी वेदनाओं को छेड़ने का

सोने की कोशिश में उभरती आती हैं 

भीतर अटके अनदेखे दुःख की शिराएँ 
अन्दर कोनो में टंगी सलवटें निकल कर 
फैलने लगती हैं चादर पर 


अच्छा शकुन होता है 

काली रातों में 
उखड़ी हुई नींद का 
बड़बड़ाता-भुनभुनाता अकेलापन 
बंधुओं-से लगते हैं 
झाड़ियों में विलाप करते सियार 
और फिर मौन में चले जाते हैं

बुद्ध-महाकश्यप संवाद जैसे मौन में
शुभ है नागफनियों के बिस्तर पर 

फटी आँखों के साथ पड़े रहना 
पहाड़-सी रातें खर्च कर जाना 
मानो भोर जैसा कुछ हो ही न


बीती रात का तूफ़ान 

कल रात तूफ़ान में गिरे हैं कुछ पेड़ 
बूढ़े-बीमार भी, हरे-भरे भी 
सुबह के सूरज ने जैसे नज़र ही नहीं डाली उनपर 
नदी भी बहती रही चुप-चाप अपने ही राग में


पर सूरज भी थोड़ा-सा मर गया है 

पेड़ों के साथ हल्की सी रुआंसी हुई है नदी भी


सूरज तो रोज़ मरेगा पेड़ों के साथ-साथ 

पेड़ ख़त्म होकर भी रोज़ ही देंगे नदी को नयी उर्जा


थोड़े दिन की बात है…

जल्दी ही फिर बादल बनेगी नदी 
फिर बरसायेगी नए पेड़, नए जंगल
 

एक दूसरे में घुला मिला जा रहा है जैसे सब 
कुछ सूरज बहा जा रहा है, बरस रहे हैं जंगल 
नदी उग रही है धरती के सबसे पुराने इस शहर के आकाश में 
नदी आज फिर उग रही है पूरब में


शिलाओं को क्या खबर ? 

1. 

पत्थरों को क्या मालूम 
कि कैसे लहरें तोड़े जा रही हैं उन्हें?


उनके शुष्क ठंडेपन को 

पिघलाए जा रही हैं 
नन्हे शिशुओं-सी लहरें


पत्थरों को अभी खबर नहीं लग पा रही 

कि अपने जिद्दी, जमे हुए रक्त के बावजूद 
 वे नदी बनते जा रहे हैं 

2. 

बह जाने दो लहरों के साथ उन्हें 
चलते रहने दो उनका पुराना कारोबार 


बेहतर है 

टूट कर पिघल जाना … 
कहीं खो ही जाना


ठीक ही है 

अपना शिला-पन छोड़ कर 
नदी-पन को जी लेना 


जहाँ ठहर लिए बरसों 

वहीँ मर जाने से बेहतर है 
चलें किसी और तट

अपना कोई मगहर ढूंढ लें



बड़ा अँधेरा है 

बड़े पेड़ को काटता है 
छोटा आदमी
 
जब चलती है कुल्हाड़ी 

तो याद करती है उसका जिस्म, 
उसके रग-रेशे बने थे एक दिन इसी पेड़ की एक शाखा से 
और आज उसे काटने की साजिश में 
वह भी कैसे शामिल हो ली है


आदमी को याद नहीं आता कुछ भी 

आँखों में बैठी धामिन देखने नहीं देती 
कानो में भरा मवाद सुनने से रोकता है

नहीं देख पाता कि कैसे कटा जा रहा है 

पेड़ के साथ-साथ 
वह खुद भी


बड़े-से पेड़ से तो बहुत-ही अधिक बड़ा है 

छोटे आदमी का अँधेरा

सीख गया बन्दर
 

कल जब मगरमच्छ ने बन्दर से माँगा जामुन 
तो बन्दर बोला 
जामुन कैसा? 
पहले ला पैसा 
मैं नहीं अपने पुरखों जैसा

अब तो मैंने यह पेड़ खरीद ही लिया है 

और अपने मीठे दिल को भी 
बदले में गिरवी रख दिया है

मेरी नेट सैवी बीवी ने पढ़ डाले हैं 

तुम्हारी-मेरी कथाओं के सारे नए-पुराने संस्करण 
जान गयी है कि 
हम होते ही हैं सरल 
और तुम्हारे बेरहम खून में सदियों से बहता रहा है गरल 

सुनकर मगरमच्छ ने ली एक गहरी सांस 

लगाई एक लम्बी डुबकी

किसी बचे-खुचे जामुन की तलाश में? 

पैसे की आस में? 
या उस हवा से बचने के लिए 
जो जंगल की पगडंडियों पर चल कर 
आ चुकी थी उसकी पुरानी नदी के पास में?

बन्दर तो अब चंगा था 

और मगरमच्छ 
ओफ़… कहाँ छुपे! 
अब तो सबके सामने 
पूरा का पूरा नंगा था !

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चैतन्य नागर

आम तौर पर जहां लोग देश और दुनिया के तमाम राजनीतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत संकटों का कारण और समाधान बाहरी तरीकों और माध्यमों में ढूंढते हैं, वहीं चैतन्य इनकी मनौवैज्ञानिक जड़ों और उपचारों की पड़ताल में लगे रहते हैं। उनका मानना है कि सार्वजनिक बदलाव की कोई भी कोशिश तभी कामयाब होगी जबकि वह बदलाव व्यक्ति के स्तर पर हो, और व्यक्ति में परिवर्तन के लिए बीजों का रोपण प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ही किया जाए। वह मौजूदा शिक्षा प्रणाली को आज की अधिकतर समस्याओं का जनक मानते हैं। चैतन्य हिंदी और अंग्रेजी दोनों में लिखते हैं। कविता उन्हें भाती है और जीवन के मूल प्रश्नों पर जगह-जगह होने वाली रिट्रीट, गैदरिंग में कोऑर्डिनेटर, वक्ता की हैसियत से भाग लेते हैं । पत्रकार, शिक्षक, प्रकाशक रह चुकने के बाद आजकल चैतन्य नागर कृष्णमूर्ति फाउंडेशन इंडिया, राजघाट, वाराणसी के स्टडी सेंटर के ज्वाइंट हेड हैं। वह जे. कृष्णमूर्ति प्रज्ञा परिषद के सदस्य, अनुवाद और प्रकाशन प्रकोष्ठ के प्रभारी, और ‘स्वयं से संवाद’ न्यूजलेटर के संपादक भी हैं ।

 प्रेम एक अनुभूत सत्य होता है। प्रेम पर बेहतर कविता तभी लिखी जा सकती है जब उसके अनुभूति की नदी हमारे अन्तःस्थल में प्रवहित एवं प्रसरित हो। हमारे इस बार के कवि चैतन्य नागर ने प्रेम में पगी कुछ ऐसी ही कवितायें लिखीं हैं जिसे पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। 

1. 
अपनी तपती हथेलियों को रख दो
मेरे हाथों में
और देखो इस ऊँचे पर्वत-से बरगद को

इसपर बैठे छोटे छोटे कई परिंदों को

ये परिंदे नहीं
बरगद हैं
कई बरगद
छोटे छोटे
एक बड़े परिंदे की पांखों पर उगे हुए

बस देखो इन्हें
और पिघल जाने दो
अपनी हथेलियों को
मेरे हाथों में

2.

भागती दौड़ती
पसीने बहाती यह देह
बाज़ार हाट घूमती
किसी न किसी के साथ बझी हुई
बस दिखती है बाहर से उलझी हुई, फँसी हुई

भीतर से हूँ हमेशा की तरह खाली
हर पल
एक एक रक्त कणिका
हर एक रोयाँ
बूँद बूँद खाली हूँ
सांस सांस खाली

3. 

ये हैं मेरे प्रेम गीत
तुम्हारी खिली हुई देह के लिए लिखे मेरे प्रेम गीत
इन्हें संभाल कर रख लेना
अपनी ठोस देह की दराजों में
अपनी गुनगुनी त्वचा की तहों में
अपने दौड़ते-भागते गर्म रक्त की शिराओं में
बहने देना इन्हें
तुम्हारे चमकते माथे पर
सजाने के लिए लिखे हैं ये गीत
इन्हें लगा लेना उबटन की तरह
अपने चमकते धूप-से जिस्म पर

इन्हें वहां मत रखना
अपने अतृप्त, बे-रीढ़ मन के भुरभुरे कोनो में
समय की अगली बारिश में घुल जाने के लिए

4.

नगरकोट की कुरकुरी सर्दी
सुबह-सुबह
तुम्हारे कांपती देह की आड़
 में उगता सूरज

तुम्हारी ठिठुरती उंगलियाँ
मेरी हथेलियों में
गुनगुना रही हैं

एक सूरज खिल रहा है
तुम्हारी आँखों में
एक सुबह जन्म ले रही है
तुम्हारी शिराओं में कहीं

अचंभित हूँ
उगते सूरज
रंग बदलती घाटियों
और तुम्हारी खिलती मुस्कान के बीच के
अबूझ सम्बन्ध को देख कर

5. 

जंगलों के पास चुपचाप बहती नदी
कुछ कहती है
अपनी नीरवता में ही
कोई गीत बुनती है

नीम की पत्तियों पर
ठहरा हुआ अँधेरा
बिलकुल करीब जाने पर ही सुनाई देता है
अपनी कांपती उँगलियों से
उसकी जड़ों को कभी भी
छू लेगी नदी

कैसे मचल उठती थी तुम इस नदी से मिलकर
रातों को जाग कर बेचैन होती थी
सुनकर इसका संगीत
पूछती है नदी अब तक तुम्हारे बारे में
कैसी नींद में सो गयी वह
किन मेलों में खो गयी
कब सूख गया उसकी आँखों का पानी
मेरी तरह बहती, उस सुलगती-सी लड़की की आँखों का पानी

 
6. 

तुमने मुझे गर्म चाय दी
मैंने पी ली
तुमने तह की हुई शर्ट दी
मैंने उसे पहन लिया
तुमने अखबार दिया
मैंने पढ़ लिया मैंने कहा “मैं जा रहा हूँ”
तुम नम आँखों के साथ चुपचाप बैठी रही
प्रेम इतना सरल, उदास कितना निःशब्द होता

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