राकेश रंजन की दस कविताएँ


राकेश रंजन
जन्म: 10 दिसंबर, 1973

शिक्षा: काशी हिंदू विश्वविद्यालय से सर्वोच्च अंकों के साथ स्नातकोत्तर (हिंदी)।

वृत्ति: अध्यापन।

प्रकान: कविताएँ हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले (सारांश प्रकाशन, दिल्ली), संधि-वेला (वाणी प्रकाशन, दिल्ली) तथा जनपद: विशिष्ट कवि (प्रकाशन संस्थान, दिल्ली) में संकलित।

दो कविता-संग्रह अभी-अभी जनमा है कवि एवं चाँद में अटकी पतंग तथा एक उपन्यास मल्लू मठफोड़वा प्रकाशन संस्थान, दिल्ली से प्रकाशित।

आलोचनात्मक लेखों की पुस्तक रचना और रचनाकारयंत्रस्थ।

संपादन: कसौटी (विशेष संपादन-सहयोगी के रूप में), स्मृति-ग्रंथ: बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री (सह-संपादक के रूप में), शोध-निकष (सह-संपादक के रूप में) जनपद(हिंदी कविता का अर्धवार्षिक बुलेटिन), कोंपल (बच्चों की रचनाओं का संग्रह) तथा रंगवर्षएवं रंगपर्व (रंगकर्म पर आधारित स्मारिकाएँ)।

सम्मान: 2006 का विद्यापति पुरस्कार (पटना पुस्तक मेला), 2009 का हेमंत स्मृति कविता सम्मान (मुंबई)।

हमारे समय के  कवियों में राकेश रंजन थोड़ी अलग छटा और थोड़े अलग अंदाज वाले कवि हैं. कविता की लय, सुर, ताल को बचाने के लिए सन्नद्ध एक कवि। इस लय सुर-ताल में समय की विडम्बनाओं की लय-सुर ताल भी सुरक्षित रखने के लिए लगातार बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के मन से प्रतिबद्ध इस कवि की बेचैनी तब सहज ही देखी जा सकती है जब वह रंगों को साम्प्रदायिक तौर पर बाँट देने से आहत हो कर पूछ बैठता है ‘तुम्हीं कहो मेरे देश /क्या होऊँ /जो बचा रहूँ शेष?’ दिक्कतों, परेशानियों पराजयों के बाद भी हताश नहीं है हमारा यह प्यारा सा कवि बल्कि वह पूरी तरह सकारात्मक हो कर उम्मीद जताता है ‘तब ये जुगनू/ रास्ता दिखाएँगे।’ तो आज पढ़ते हैं हम इसी कवि की नवीनतम कवितायें।
       

तब तक

भादों की रात में
खोए हैं सारे
चाँद
और तारे
आसिन में
फिर से
वे प्रकट हो जाएँगे
तब तक ये जुगनू
रास्ता दिखाएँगे!
क्या होऊँ
हरा होता हूँ
तो हिंदू मारते हैं
केसरिया होता हूँ तो मुसलमान
हत्यारे और दलाल मारते हैं
सफेद होने पर
तुम्हीं कहो मेरे देश
क्या होऊँ
जो बचा रहूँ शेष?
जिस देश में
जिस माँ ने जन्म दिया
वह चली गई
जिस भाषा को प्यार किया
वह छली गई
जिस भूमि ने पोसा
उसका चाम तक उतारा गया
जिस देश में पैदा हुआ
वह मारा गया …
बैल
उन्हें अपने खेत से
हँका दिया गया
वे कुछ नहीं बोले
उन्हें खलिहान से
हाट तक की बाट से
हटा दिया गया
वे कुछ नहीं बोले
उन्हें ले जाया गया
बूचड़खाने की ओर
फिर भी
वे कुछ नहीं बोले
अगर बोल पाते वे
बैल क्यों कहाते वे?
 ओ मेरी फूल-सनी !
(पत्नी माधुरी के लिए)
आओ, पोंछ दूँ
तुम्हारे धूल-सने होंठ
अपने होंठों से
आओ, सारे काम छोड़कर
बैठो मेरे पास
हाँ-हाँ, इसी तरह
तेल-मसाले
और साबुन-सर्फ की गंध में डूबी सही
हाथ में बुहारनी है तो क्या
उसे लिए ही आओ
बैठो मेरे पास
पोंछ दूँ पसीना तुम्हारे चेहरे का
साफ कर दूँ धूल-सने होंठ
आओ, पहलू में बैठो
क्या हुआ जो धूल-सनी
ओ मेरी
फूल-सनी !
अब कहीं नहीं मेरी जगह
इस पृथ्वी पर
अब कहीं मेरी जगह नहीं
एक पक्षी ने कहा मुझे
अजीब-से समय में
मैं एक फूल में रह सकता था
एक बच्चे की आँख में
पर इतना शोर, इतने जाल, इतने धमाके
अब तुम्हारी भाषा में भी
मुझे कोई शरण नहीं
अबसे कहाँ रहना होगा मुझे मालूम नहीं
कुछ नहीं बनकर शायद कहीं नहीं की डाल पर
भटकना होगा एक मुरदा आकाश में
विलुप्ति के महान एक पिंजर में शायद
मैं एक झील में रह सकता था
एक युवा हृदय में
पंख की नोक जितनी जगह भी बहुत थी मेरे लिए
पर इस पृथ्वी पर
अब कहीं मेरा घोंसला नहीं
एक पक्षी ने कहा मुझे
अजीब-से समय में
दुःस्वप्न में कि व्याधि में पता नहीं
पर अजीब व्यथा से वह कर रहा था विलाप
अजीब खामोशी से झड़-झड़ कर गिर रहे थे
उसके पंख अंधकार में
मैं भी वहीं था, उन्हीं पंखों पर सवार
मेरा भी कौन था मददगार?
पर मैं किससे कहता, कौन सुनता मेरा चीत्कार!
मुझे क्षमा करें
मैं और सुबह आता
पर देर हो गई
मैं चला गया था
शाम के परिंदों के साथ
जंगलों, पहाड़ों के पास
रात-भर रहा सुनता पत्तों पर ओस का टपकना
पेड़ों के साथ
खड़ा रहा निविड़ अंधकार में
तारों की डूबती निगाहें
देखती रहीं मुझे निःशब्द
प्राणों की काँपती पुकारें और विकल पंख-ध्वनियाँ
जगाए रहीं रातभर
निगलती रहीं मुझको भूखी छायाएँ
लौटते समय
मेरे रस्ते में फैला था
बकरी की आँखों-सा पीला सन्नाटा
जले हुए डैने छितराए
सारस-सा गिरा था सवेरा
सवेरे से पहले
फेंक गया था कोई जन्मजात बच्चा
शिशिर के जलाशय में फूल कर
सफेद हुआ था उसका फूल-सा शरीर
उसकी ही बंद मुट्ठियों में मैं फँसा रह गया था कुछ देर, मुझे क्षमा करें
मैं और सुबह आता
पर देर हो गई।
बजरंगी
बचपन की बस्ती में मेरा एक अनोखा संगी था
काला मोटा जबरदस्त हिम्मती नाम बजरंगी था
दरबे-से घर में रहता था बिरादरी का भंगी था
कभी लपटता कभी डपटता कुछ नेही कुछ जंगी था
मैं था उसका हृदय जानता कभी न उससे डरता था
उसके साथ सदा सारी बस्ती में मुक्त बिहरता था
तुंग शृंग पर चढ़ता था खाई में कभी उतरता था
उसकी अगुआई में दिनभर चरम चकल्लस करता था
काला अच्छर भैंस बराबर मेरा गुरु अलबेला था
मैं पंडित-कुल-दीपक उसका परम समर्पित चेला था
उसके साथ बड़ा सुख पाया दुख-दर्दों से खेला था
बीच धार में भेला ठेला गहन सरोवर हेला था
वही आज दुनियादारी की दुश्वारी से ऊब गया
संग छोड़कर जीवन का प्यारा मलंग मनसूब गया
भग्न भीत-सा भहरा कर वह चट्टानी महबूब गया
मुझे तैरना सिखला कर खुद बीच भँवर में डूब गया

बेकस बकरे
तुझ-से कितने जिबह हो गए
ईदों में, बकरीदों में
देव-देवियों के चरणों पर
करुणा की उम्मीदों में
तुझ-से कितने पहुँच-पच गए
महोदरों की आँतों में
कीमा बनकर भुरकुस हो कर
उनके उज्ज्वल दाँतों में
तू भी तो नादान, अरे!
ठीहे से बँधा पुलकता है
महावधिक के महाघोर
छूरे की ओर हुलकता है
रे बेखुद! मुजरिमे-बेखुदी!
तेरी जाँ भी जाएगी
बेकस बकरे! तेरी माँ भी
कब तक खैर मनाएगी?
रंजन बाबू लगे सोचने
घर में मैया पड़ी हँकरती
दरवज्जे पर गाय
उधर गिरे बाबा बथान में
निस्संबल, असहाय
बिना दूध के बेटा बिलखे
बीवी बिन सिंदूर
छोड़ चले सब रंजन बाबू
कविता-मद में चूर
चलते-चलते पहुँचे सरपट
एक मनोहर लोक
गर्जन-तर्जन, अर्जन-सर्जन
जहाँ सभी कुछ थोक
जहाँ न कोई बिल्ली-बाधा
आलोचक-ग्रहदोष
केवल गुंजित कविराटों की
प्रतिभा का जयघोष
वहाँ कहा लोगों ने उनसे
अहा महाशय, धन्य
कविता हित कितना कुछ त्यागा
त्यागी आप अनन्य
यह शुभलोक कविताओं का
अद्भुत अभयारण्य
बे-पगहा, बे-छान विचरिए
इसमें, सदा सुगण्य
रंजन बाबू लगे सोचने
यह सौभाग्य महान
इच्छा-भर फल खाकर प्यारे
छाओ सकल जहान
भला किया जो मैं तज आया
नून-तेल का जुद्ध
घर में रहकर बुद्धू रहता
निकल गया तो बुद्ध!

पता: 
आर. एन. कालेज से पूरब,  
साकेतपुरी, हाजीपुर (वैशाली), पिन: 844101

मो. नं.: 08002577406
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं.)